अलाउद्दीन ने उसे दीपालपुर का सूबेदार एवं मुबारकशाह ने उत्तर-पश्चिम सीमाप्रांत का प्रमुख गवर्नर बनाया। मंगोलों पर नियंत्रण करने से उसकी प्रतिष्ठा बढ़ गई। खुसरो (खुसरवशाह) इस बीच में मुबारकशाह की हत्या कर स्वयं गद्दी पर बैठ चुका था। परंतु खुसरवशाह अमीरों का समर्थन प्राप्त नहीं कर सका। Show गाजी मलिक एवं उसके पुत्र जूना खां ने इस परिस्थिति का लाभ उठाकर गद्दी हथियाने की योजना बनाई। इन दोनों ने सीमांत प्रदेश, मालवा, उच्छ तथा सिविस्तान के शासकों तथा खोखरों के सहयोग से दिल्ली पर आक्रमण करने की योजना बनाई, परंतु कुछ तुर्क सरदारों के विरोध के कारण उन्हें यह योजना स्थगित कर देनी पड़ी। खुसरवशाह को खतरे का आभास हो गया अतः उसने सेना की एक टुकड़ी गाजी मलिक के विरूद्ध भेजी। इसे विफल होकर वापस आना पड़ा। खुसरो दूसरी सेना के साथ दीपालपुर की तरफ बढ़ा। गाजी मलिक भी दिल्ली पर आक्रमण करने आ रहा था। इंद्रप्रस्थ के निकट गाजी मलिक से युद्ध करता हुआ खुसरवशाह मारा गया। विजयी गाजी ने दिल्ली में प्रवेश कर सितंबर 1320 ई. में सल्तनत पर अधिकार कर लिया और गयासुद्दीन तुगलक शाह गाजी की उपाधि धारण की। गयासुद्दीन का उत्कर्ष (His Rise)गाजी तुगलक एक साधारण परिवार का पुरुष था। उसकी माता पंजाब की एक जाट महिला थी और उसका पिता बलबन का तुर्की दास था। अपने ऐसे जन्म के कारण “गाजी मलिक के चरित्र में इन दो जातियों के मुख्य गुणों-हिन्दुओं की विनम्रता व कोमलता तथा तुर्कों का पुरुषार्थ व उत्साह का मिश्रण हुआ।" यद्यपि उसने अपना जीवन एक साधारण सैनिक की भाँति शुरू किया, तथापि वह अपनी योग्यता व कठिन परिश्रम के कारण प्रसिद्ध हो गया। अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में वह अभियानों का अध्यक्ष (Warden of Marches) तथा दीपालपुर का राज्यपाल नियुक्त किया गया। 29 अवसरों पर उसने मंगोलों के विरुद्ध संग्राम किया, उन्हें भारत से बाहर खदेड़ दिया और इसलिए मलिक-उल-गाजी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अलाउद्दीन की मृत्यु के समय गाजी मलिक राज्य के अधिक शाक्तिशाली कुलीन व्यक्तियों में से एक था। मुबारक शाह के शासन काल में भी उसकी शक्ति पहले जैसी रही। यद्यपि खुसरो शाह ने उसे अनुरंजित करने का प्रयत्न किया, परन्तु गाजी मलिक पर उसका कोई प्रभाव न पड़ा। अपने पुत्र जूना खाँ की सहायता से उसने खुसरो शाह पर आक्रमण करके उसे पराजित किया और उसका वध कर दिया। यह कहा जाता है कि दिल्ली में विजेता के रूप में प्रवेश करने के बाद गाजी मलिक ने यह पूछताछ करवाई कि अलाउद्दीन खिलजी का ऐसा कोई उत्तराधिकारी है जिसे वह दिल्ली की गद्दी पर बिठा सके। यह कहना कठिन है कि यह पूछताछ कहाँ तक सत्य थी और कहाँ तक यह आडम्बर था। फिर भी, गयासुद्दीन तुगलक 8 सितम्बर, 1320 ई. को गद्दी पर बैठा। दिल्ली का वह प्रथम सुल्तान था जिसने 'गाजी या काफिरों का घातक' की उपाधि ग्रहण की। गृह नीति (Domestic Policies) गयासुद्दीन तुगलक का शासन-काल दो भागों में बाँटा जा सकता है-गृह-नीति व विदेश नीति। जहाँ तक गृह नीति का सम्बन्ध है, उसका प्रथम कार्य कुलीन जनों व अधिकारियों का विश्वास प्राप्त करना तथा साम्राज्य में व्यवस्था स्थापित करना था। यह सच है कि उसने खुसरो शाह के सहायकों का निर्दयता के साथ निष्कासन करा दिया परन्तु अन्य कुलीन जनों व अधिकारियों के साथ कुछ दयापूर्ण व्यवहार किया। उसने उन सबको उनकी भूमियाँ वापस कर दी जिन्हें अलाउद्दीन खिलजी ने छीन लिया था। उसने अभियाचनाओं व जागीरों के विषय में एक गोपनीय जाँच की आज्ञा दी और राज्य के अधीन सब गैर-कानूनी अनुदानों को जब्त कर लिया। उसने उस कोष की क्षतिपूर्ति करने की चेष्टा भी की जिसे खुसरो शाह ने अपव्यय के साथ बिगाड़ा था या जो उसके पतन के बाद अशान्ति के समय लूट लिया गया था। इस कार्य में वह बहुत अधिक सफल भी हुआ। बहुत से शेखों ने वह धन उसे लौटा दिया जो उन्होंने खुसरो शाह से बहुत बड़ी मात्रा में प्राप्त किया था। परन्तु शेख निजामुद्दीन औलिया ने, जिसने पाँच लाख टंके प्राप्त किए थे, इस आधार पर धन लौटाने से इंकार कर दिया कि उसने वह सब धन दान कर दिया है। गाजी मलिक को यह बात रुचिकर प्रतीत न हुई, परन्तु वह शेख को उसकी लोकप्रियता के कारण कोई दण्ड न दे सका। उसने शेख की इस आधार पर निन्दा करने का प्रयत्न किया कि वह “प्रफुल्लतापूर्ण रागों व दरवेशों के नृत्यों में तल्लीन रहता है और इस ढंग की भक्ति को संस्थापित धर्म के कट्टर सुन्नी लोग गैर-कानूनी समझते थे।" परन्तु उसे अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त न हो सकी क्योंकि 53 धर्म-विद्वान जिनसे उसने परामर्श किया, शेख के कार्य में कोई दोष नहीं पा सके। भ्रष्टाचार एवं गबन रोकने के लिए गाजी मलिक ने अपने अधिकारियों को अच्छा वेतन दिया और केवल उनकी पदोन्नति स्वीकार की जिन्होंने अपनी निष्ठा और योग्यता का प्रमाण दिया। पुरस्कारों का वितरण करते समय उसने श्रेणी, योग्यता व सेवा के काल पर विचार किया। उसने समस्त ईर्ष्यास्पद ख्यातियों को हटा दिया। गाजी मलिक एक दृढ़ निर्णय का शासक था। वह एक साधु एवं बुद्धिमान शासक था जो राज्य के महत्त्वपूर्ण विषयों पर अपने परामर्शदाताओं की सदा सलाह लेता था। जहाँ तक उसकी आर्थिक नीति का सम्बन्ध है, उसने भूमिकर एकत्र करने के लिए बोली दिलवानी (System of farming of taxes) बन्द कर दी। मालगुजारी की बोली देने वालों को दीवान-ए-विजारत तक सिफारिश पहुँचाने तक की अनुमति नहीं दी गई। मालगुजारी इकट्ठा करने वालों के अत्याचारों को रोका गया। अमीर और मलिक अपने प्रांतों की मालगुजारी का 1/15 से अधिक भाग नहीं ले सकते थे। कारकुनों व मुतसरीफों को 5 से 10 प्रति हजार से अधिक लेने की अनुमति नहीं दी गई। यह आज्ञा दी गई कि दीवान-ए-विजारत किसी इकता (Iqta) की मालगुजारी एक वर्ष में 1/10 या 1/11 से अधिक न बढ़ाये। यदि कोई वृद्धि आवश्यक हो तो वह कई वर्षों में की जाए। बरनी (Barani) हमें यह बताता है कि “खिराज एकदम नहीं वरन् बहुत से वर्षों में बढ़ना चाहिए था, क्योंकि ऐसा न करने से देश को हानि होती है व उन्नति का मार्ग रुक जाता है।" एक अन्य आज्ञा इस प्रकार थी-"जागीरदारों व हाकिमों को इस विषय में सावधान रहने के आदेश थे कि वे खिराजों को इस प्रकार एकत्रित करें, जिससे खुत (Khuts) व मुकद्दम लोग राजकीय ऋणों के अतिरिक्त जनता पर अधिक भार न डाल सकें। अकाल के समय करों में भारी रकमों की छूट दी जाती थी और भूमिकर न देने वालों के साथ बड़ी उदारता से व्यवहार किया जाता था। धन के लिए किसी मनुष्य को कैद में नहीं रखा जाता था और राज्य द्वारा प्रत्येक ऐसी सुविधा प्रदान की जाती थी जो लोगों को बिना किसी असुविधा या आपत्ति के अपने उत्तरदायित्वों का पालन करने के योग्य बना सके।" भूमि को नापने की प्रथा बंद कर दी गई क्योंकि इसका पालन संतोषजनक नहीं था और यह आदेश दिया गया कि भूमिकर उगाहने वाले स्वयं कर निर्धारित करें। गाजी मलिक ने कृषि के अधीन अधिक भूमि को लाने के भी उपाय किए। उसका विचार यह था कि भूमिकर बढ़ाने का सबसे अच्छा मार्ग “कृषि का प्रसार है, माँग की वृद्धि नहीं।" उसकी नीति का फल यह हुआ कि बहुत-सी बेकार भूमि में भी कृषि होने लगी। खेतों की सिंचाई के लिए नहरें भी खोदी गईं। उद्यान भी लगाए गए। कृषकों को लुटेरों से बचाने के लिए दुर्गों का निर्माण भी किया गया। बारानी के विवरण से पता चलता है कि समस्त वर्गों के साथ एक-सा व्यवहार नहीं किया जाता था। यह भी पता लगता है कि कुछ श्रेणी के लोगों पर “इसलिए कर लगाया जाता था कि वे अधिक धन के कारण अभिमान से अंधे न बन जायें और असन्तुष्ट या उपद्रवी न हो जायें; और दूसरी ओर कहीं इतने निर्धन भी न हो जायें कि निर्धनता के कारण अपना व्यवसाय तक न चला सकें।" गाजी मलिक ने राज्य के सारे विभागों की ओर ध्यान दिया। “न्यायिक व पुलिस विभाग इतने कुशल थे कि भेड़िया बकरी के बच्चे को पकड़ने का साहस नहीं कर सकता था और शेर व हिरन एक ही घाट पर पानी पीते थे।" अलाउद्दीन द्वारा चलाई गई चेहरा व दाग व्यवस्था जारी रखी गई। एक बहुत कुशल डाक व्यवस्था का प्रतिपादन भी किया गया। डाक हरकारों व घुड़सवारों द्वारा ले जाई जाती थी जिन्हें मील के 2/3 भागों तथा 6 या 8 मील की दूरी पर सारे राज्य में यथाक्रम रखा जाता था। समाचार एक दिन में सौ मील की गति से चलते थे। गाजी मलिक ने निर्धनों की सहायता व्यवस्था भी की। उसने धार्मिक संस्थाओं तथा साहित्यकारों को संरक्षण दिया। अमीर खुसरो उसका राजकवि था और उसे राज्य से 1000 टंके प्रतिमास पेंशन मिलती थी। गाजी मलिक ने “अपने दरबार को ऐसा कठोर व शानदार बना दिया जितना कि वह शायद बलबन के सिवा अन्य किसी समय में नहीं रहा।" उसने उदारता व बुद्धिमता दिखाई। कोई आश्चर्य नहीं कि अमीर खुसरो ने उसकी प्रशंसा इन शब्दों में की है-"उसने कभी कोई ऐसा काम नहीं किया जो बुद्धिमता से युक्त नहीं हो। उसके विषय में यह कहा जा सकता है कि वह राजमुकुट के नीचे शतशः आचार्यों की योग्यता के समान मस्तिष्क रखता था।" विदेश नीति (Foreign Policy) विदेश नीति में गाजी मलिक महान विजेता (annexationist) था। वह उन सब राज्यों को अपने आधिपत्य में रखने पर दृढ़ था, जिन्होंने दिल्ली सल्तनत की शक्ति की अवहेलना की थी।
गयासुद्दीन की मृत्यु (Death of Ghias-Ud-Din)जब गाजी मलिक बंगाल में था, उसे अपने पुत्र जूना खाँ के कृत्यों के विषय में समाचार मिला। अपने लिए एक शक्तिशाली दल बनाने के विचार से जूना खाँ अपने अनुचरों की संख्या बढ़ा रहा था। वह शेख निजामुद्दीन औलिया, जिसके साथ उसके पिता के सम्बन्ध अच्छे न थे, का चेला बन गया। कहा जाता है कि शेख ने एक भविष्यवाणी की थी कि राजकुमार जूना खाँ बहुत शीघ्र दिल्ली का सुल्तान होगा। अन्य ज्योतिषियों ने भी बताया था कि गाजी मलिक दिल्ली नहीं पहुँचेगा। गाजी मलिक शीघ्रता के साथ बंगाल से दिल्ली लौटने के लिए चला। राजकुमार जूना खाँ ने अफगानपुर, दिल्ली से लगभग 6 मील की दूरी पर एक गाँव में एक लकड़ी का भवन अपने पिता का स्वागत करने के लिए बनवाया। भवन इस ढंग का बनाया गया कि वह एक विशेष स्थान पर हाथियों के स्पर्श के साथ गिर पड़े। गाजी मलिक का पंडाल के नीचे स्वागत किया गया। भोजन के बाद जूना खाँ ने अपने पिता गाजी मलिक से बंगाल से लाए गए हाथी देखने की प्रार्थना की। गाजी मलिक के स्वीकार करने पर उसके सामने हाथियों का प्रदर्शन किया गया। ज्योंही हाथी भवन के उस भाग के सम्पर्क में आए, जो गिर जाने के उद्देश्य से बनाया गया था, सारा पंडाल गिर पड़ा। गाजी मलिक अपने दूसरे पुत्र राजकुमार महमूद खाँ के साथ कुचला गया। गाजी मलिक महमूद खाँ के शरीर की ओर झुका हुआ देखा गया। ऐसा प्रतीत होता था कि वह उसकी रक्षा करना चाहता था। यह कहा जाता है कि जूना खाँ ने जानबूझकर गिरे हुए भाग को हटाने में देरी करवाई। गाजी मलिक की मृत्यु की घटना के सम्बन्ध में विभिन्न मत है। बरनी केवल यह बताता है कि आकाश से एक मुसीबत की बिजली सुल्तान पर गिरी और वह पाँच या छः साथियों के साथ ढेर के नीचे कुचला गया। इलियट (Elliot) के अनुवाद से यह ज्ञात होता है कि बिजली छत पर गिरी और सारा भवन झटके के साथ भूमि पर गिर पड़ा। इब्नबतूता जो 1333 ई. में भारतवर्ष आया निश्चय ही हमें बताता है कि राजकुमार जूना खाँ अपने पिता की मृत्यु का कारण था। उसके ज्ञान का स्रोत शेख रुक्नुद्दीन मुल्तानी था जो उस समय सम्राट के साथ उपस्थित था। वह हमें यह भी बताता है कि राजकुमार जूना खाँ ने जान बूझकर उन कारीगरों को बुलाने में देरी की जिन्होंने औजारों की मदद से सुल्तान का शरीर बाहर निकाला। इब्नबतूता हमें यह भी बताता है कि भवन का निर्माण अहमद अयाज ने करवाया जिसे सुल्तान बनने पर जूना खाँ ने मुख्यमंत्री बनाया था। परिस्थितियों के प्रमाण भी इब्नबतूता के पक्ष में हैं। उसका अपना कोई स्वार्थ प्रतीत नहीं होता। निजामुद्दीन अहमद हमें यह बताता है कि शीघ्रता से भवन का निर्माण यह संशय उत्पन्न करता है कि राजकुमार जूना खाँ ही अपने पिता की मृत्यु के लिए उत्तरदायी है। गाजी मलिक की मृत्यु उस षड्यंत्र के कारण हुई जिसके रचयिता निजामुद्दीन औलिया तथा राजकुमार जूना खाँ थे। इसामी (Isami), एक समकालीन लेखक, निजामुद्दीन अहमद का समर्थन करता है। अबुल फजल व बदायूनी भी जूना खाँ के षड्यंत्र पर संशय करते हैं। डॉ. ईश्वरी प्रसाद का यह विचार है कि यह सोचने के प्रबल कारण हैं कि सुल्तान की मृत्यु उस षड्यंत्र के कारण हुई जिसमें जूना खाँ ने भाग लिया और यह किसी आकस्मिक घटना का फल नहीं था। सर वुल्जले हेग का भी यही विचार है कि सुल्तान की मृत्यु एक षड्यंत्र का परिणाम थी जिसे जूना खाँ ने चतुराई के साथ रचा था। परन्तु डॉ. मेहंदी हुसेन का यह मत है कि भवन स्वयं ही गिर पड़ा। इसमें राजकुमार जूना खाँ का कदापि कोई हाथ नहीं था। परन्तु सर्वमान्य मत यही है कि राजकुमार जूना खाँ ही अपने पिता की मृत्यु के लिए उत्तरदायी था। मूल्यांकन (Estimate) गाजी मलिक एक अनुभवी सैनिक व योग्य सेनापति था। वह अपने योग्यता व कठोर परिश्रम के ही कारण इतने ऊँचे स्थान पर पहुँच सका। उसने अपने राज्य में सुव्यवस्था स्थापित की और ऐसे विभिन्न कार्य किए जिनका उद्देश्य जनता के सुख और समृद्धि को बढ़ाना था। उसके शासनकाल में लोगों को आर्थिक समृद्धि प्राप्त हुई। न्याय देने के लिए वह दिन में दो बार दरबार करता था। अपने दरबारियों, मित्रों व सहयोगियों के प्रति वह उदार था। परन्तु हिन्दुओं के प्रति वह कठोर था। अपने आक्रमणों के समय वह मन्दिरों का विध्वंस करने तथा मूर्तियों को तोड़ने में लग जाता था। वह एक कठोर सुन्नी मुसलमान था। वह ज्ञान का प्रेमी भी था और उसके दरबार में विद्वान व कवि थे। उसने अपनी राजधानी तुगलकाबाद में किले के रूप में एक रोचक स्मारक छोड़ा जिसे उसने अपने लिए उस स्थान से लगभग 10 मील दूर दक्षिण की ओर बनवाया, जो शाहजहाँ ने अपनी राजधानी के लिए चुना था। उसने अपने सिंहासन पर आरूढ़ होने के तुरन्त पश्चात् इस नगर की नींव डाली और तेलिंगाना पर अपनी विजय का समाचार पाने से पहले ही उसने इसे पूरा भी करा दिया। इब्नबतूता हमें बताता है कि “यहाँ पर तुगलकों के कोष व महल थे और वह विशाल महल जिसे उसने चमकती हुई ईंटों से बनवाया, जब सूरज निकलता था तो ऐसे चमकता था कि कोई भी उसकी ओर आँखें खोलकर नहीं देख सकता था। वहाँ उसने महान कोष एकत्र किया और यह बताया गया था कि वहाँ पर उसने एक जलाशय भी बनवाया जिसमें उसने पिघला हुआ सोना डाला जिससे वह एक ठोस ढेर-सा बन गया। उसका पुत्र मुहम्मद शाह जब सुल्तान बना तब उसे यह सब प्राप्त हुआ। लाल पत्थर व सफेद संगमरमर का बना हुआ उसका मकबरा, जो पुल से जुड़ा हुआ है और दुर्ग की विशाल दीवारें अब भी शेष हैं। गाजी मलिक ने ऐसी कठोर नीति का अनुसरण किया जो तुलनात्मक रूप में बहुत कुछ बलबन के समान है। उसने अपने आपको विलास से वंचित रखा। उसने अपने को “सुन्दर बिना दाढ़ी वाले किशोरों" के उस व्यभिचार से बचाया जो उस समय अधिक प्रचलित था। उसने सार्वजनिक जीवन तथा राजकीय कार्यों में बलबन व औरंगजेब जैसे अत्याचार, आडम्बर व वैभव को अलग रखा। “अपने छोटे से शासनकाल में उसने उस अपमान के धब्बे को मिटाने की बहुत चेष्टा की जो दिल्ली के साम्राज्य पर पड़ा हुआ था, उसने बिगड़े हुए शासन-प्रबंध को पुनर्गठित करने का बहुत प्रयास किया। उसने राजस्व की उस शक्ति और मर्यादा को पुनः स्थापित करने का बहुत परिश्रम किया जो खुसरो शाह के शासनकाल में लगभग समाप्त हो चुकी थी।" कभी-कभी गाजी मलिक की तुलना जलालुद्दीन फिरोज खिलजी से भी की जाती है। सर वुल्जले हेग के अनुसार, “दोनों वृद्ध योद्ध थे जिन्हें इस्लाम का राज्य प्रतिष्ठापित करने का काम सौंपा गया था। इस्लाम को उन वंशों के अन्त होने से स्वयं मिटने का भय था। इस धर्म ने उनकी लम्बे समय से सेवा की थी। परन्तु यहाँ उन सुल्तानों की सारी समानता का अन्त हो जाता है। फिरोज जब गद्दी पर बैठा तब उसकी सब शक्तियाँ क्षीण हो रही थीं। उसके शासन काल के बाद उसके वंश के इतिहास का अन्त हो जाता, यदि उसके अत्याचारी परन्तु उत्साही भतीजे ने उसका राज्य बलपूर्वक न छीन लिया होता। इसके विपरीत, तुगलक सुल्तान वृद्ध होते हुए भी अपने मस्तिष्क के पूर्ण विकास में था और उसके लघु शासन काल में फिरोज की भाँति कोई भी घृणास्पद बुराई दृष्टिगोचर नहीं होती। वह इस योग्य था कि अलाउद्दीन के बहुत से कल्याणकारी नियमों को लागू कर सके और ऐसे भी नियम बना सके जो ऐसे राज्य में व्यवस्था स्थापित कर दें जो इस्लाम के प्रभाव से लगभग निकल चुका हो। वह तारीखे-फिरोजशाही (Tarikh-i-Firoz Shahi), फिरोज शाह तुगलक का एक जीवन विवरण फतूहात-ए-फिरोजशाही (Fatuhat-i-Firoz Shahi), ऐन उल-मुल्क मुल्तानी (Ain-ul-Mulk Multani) का मुन्शते मैहरू (Munshat-i-Mahru), अमीर खुसरो का तुगलक नामा (Tughluq Nama) और याहिया-बिन-अहमद सरहिन्दी (Yahia-bin-Ahmad Sarhindi) का तारीखे-मुबारक शाही (Tarikh-i-Mubarak Shahi)। गयासुद्दीन तुगलक के बारे में प्रमुख तथ्य
मुहम्मद-बिन-तुगलक (1325-1351 ई.)गयासुद्दीन तुगलक की मृत्यु के बाद जौना खाँ 1325 ई. में मुहम्मद बिन तुगलक के नाम से सुल्तान बना। उसके शासनकाल के विषय में जानकारी के दो महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं: जिआउद्दीन बरनी की तारीख-ए-फिरोज़शाही तथा इब्नबतूता का यात्रा वृत्तांत 'रेहला'। इब्नबतूता ने मुहम्मद तुगलक के काल में ही सन् 1333 ई. में भारत की यात्रा की थी। वह अफ्रीका के मोरक्को का निवासी था। सुल्तान ने उसे दिल्ली का काजी नियुक्त किया था तथा 1342 ई. में उसे अपना राजदूत बनाकर चीन भेजा था। मुहम्मद बिन तुगलक एक महत्त्वाकांक्षी एवं दूरदर्शी शासक था, उसने जहाँ एक ओर साम्राज्य विस्तार की नीति को जारी रखा, वहीं दूसरी ओर कई नवीन प्रयोग भी करता रहा। मुहम्मद तुगलक की गृह नीति एवं विभिन्न योजनाएँ गयासुद्दीन तुगलक की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र जूना खाँ मुहम्मद बिन तुगलक के नाम से 1325 ई. में सिंहासन पर बैठा। मुहम्मद तुगलक एक कठोर परिश्रमी एवं नवीन अन्वेषण करने वाला महत्त्वाकांक्षी सुल्तान था। उसे नवीन प्रयोग करने एवं नई-नई योजनाएँ बनाने का शौक था। परन्तु दुर्भाग्य से उसे अपनी विभिन्न योजनाओं में असफलता का मुँह देखना पड़ा। प्रमुख विद्रोह (Major revolt)
मुहम्मद बिन तुगलक का व्यक्तित्वमुहम्मद तुगलक के व्यक्तित्व के विषय में विद्वानों में मतभेद है- समकालीन विद्वान एवं लेखक इसामी के अनुसार वह एक निरंकुश एवं विधर्मी शासक था। बरनी के अनुसार उसमें विपरीत तत्त्वों का मिश्रण था तथा उसने सुल्तान को दुष्ट एवं दयालु कहा। एलफिन्स्टन का कहना था कि उसमें पागलपन के कुछ अंश थे। परंतु इब्नबतूता उसकी प्रशंसा करते हुए कहता है कि उसने उच्च शिक्षा प्राप्त की, उसे अरबी, फारसी, गणित, नक्षत्र-विज्ञान, भौतिक, तर्क एवं चिकित्सा शास्त्र का भी अच्छा ज्ञान था। उसने अपनी गृह-नीति के अन्तर्गत निम्नलिखित योजनाएँ शुरू की- मुहम्मद तुगलक की गृह नीति एवं विभिन्न योजनाएँ दोआब में कर वृद्धि (1326-27 ई.) कृषि-सुधार की योजना राजधानी परिवर्तन (1326-27 ई.) सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन (1329-30 ई.) खुरासान विजय की योजना कराचिल पर आक्रमण (1337-38 ई.) 1. दोआब में कर वृद्धि (1326-27 ई.) मुहम्मद तुगलक ने सर्वप्रथम दोआब में कर-वृद्धि करने का निश्चय किया। दोआब में कर-वृद्धि के निम्नलिखित कारण थे-
जहाँ तक दोआब में कर-वृद्धि की मात्रा का प्रश्न है, इस पर विद्वानों में तीव्र मतभेद है। बरनी के अनुसार दोआब में दस से बीस गुना करों में वृद्धि की गई। बदायूँनी के अनुसार कर में दोगुनी वृद्धि की गई। डॉ. आर.पी. त्रिपाठी का मत है कि यह कर-वृद्धि सम्भवतः पाँच से दस प्रतिशत तक की गई। डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव का कथन है कि “संभवतः सुल्तान का उद्देश्य पाँच से दस प्रतिशत तक आय में वृद्धि करना था और इसके लिए वह भूमि-कर नहीं, बल्कि मकानों, चरागाहों आदि अन्य कर बढ़ाना चाहता था।" मुहम्मद तुगलक ने इन बढ़े हुए करों को कठोरतापूर्वक वसूल करने के आदेश दे दिये। परन्तु दुर्भाग्यवश इसी समय दोआब में भीषण अकाल पड़ गया जिससे किसानों की दशा दयनीय हो गई। परन्तु अकाल के बावजूद राजस्व कर्मचारियों ने कर वसूल करने का कार्य जारी रखा और लोगों पर अत्याचार किये। इससे किसानों में असन्तोष उत्पन्न हुआ तथा वे अत्याचारों से बचने के लिए अपने खेत व गाँव छोड़कर जंगलों में भाग गये। इससे क्रुद्ध होकर सुल्तान ने विद्रोहियों को कठोर दण्ड दिये जब सुल्तान को दोआब के अकाल तथा जनता की दयनीय दशा के बारे में जानकारी प्राप्त हुई, तो उसने किसानों को हल, बीज, पशु आदि खरीदने के लिए ऋण दिया तथा सिंचाई के लिए कुँए और तालाब खुदवाये परन्तु इनसे कोई विशेष लाभ नहीं हुआ, क्योंकि ये सहायता कार्य बहुत देर से शुरू किये गये थे। इस प्रकार दोआब में कर-वृद्धि की योजना असफल हो गई। इसके फलस्वरूप हजारों किसान उजड़ गए। सुल्तान को इससे बहुत आर्थिक हानि उठानी पड़ी और इससे सुल्तान की बहुत बदनामी हुई। दोआब में कर-वृद्धि की योजना की समीक्षा- दोआब में जो कर-वृद्धि की गई थी, वह अधिक नहीं थी परन्तु दुर्भाग्य से यह कर-वृद्धि ऐसे समय पर की गई, जब दोआब में भीषण अकाल फैला था। यदि सुल्तान अकाल प्रारम्भ होते ही बढ़े हुए करों की वसूली के कार्य को स्थगित कर देता और पीड़ित लोगों की सहायता के लिए तुरन्त आवश्यक कदम उठाता, तो जनता को इतने अधिक कष्टों का सामना नहीं करना पड़ता। परिस्थितियाँ तथा सुल्तान दोनों ही इस योजना की असफलता के लिए उत्तरदायी थे। 2. कृषि-सुधार की योजना मुहम्मद तुगलक ने कृषि-सुधार की एक नवीन योजना बनाई। उसने कृषि-विभाग (दीवान-ए-कोही) की स्थापना की तथा कृषि-मंत्री (अमीर-ए-कोही) की नियुक्ति की। अमीर-ए-कोही के अधीन 100 शिकदार नियुक्त किये गए। कृषि-योग्य भूमि का विस्तार करना इस विभाग का प्रमुख उद्देश्य था। इस कार्य के लिए पहले 60 वर्गमील का भू-क्षेत्र चुना गया और उसको उपजाऊ बना कर उसमें बारी-बारी से विभिन्न फसलें बोई गई। इस योजना के अन्तर्गत सरकार ने दो वर्ष में 70 लाख टंके खर्च किये। परन्तु सुल्तान की कृषि-सुधार की यह योजना विफल हो गई। इस योजना की असफलता के निम्नलिखित कारण थे-
3. राजधानी परिवर्तन (1326-27 ई.) मुहम्मद तुगलक की एक अन्य महत्त्वपूर्ण योजना राजधानी परिवर्तन की थी। उसने दिल्ली के स्थान पर देवगिरी (दौलताबाद) को राजधानी बनाने का निश्चय किया। राजधानी परिवर्तन के कारण दिल्ली के स्थान पर देवगिरी को राजधानी बनाने के निम्नलिखित कारण थे-
राजधानी परिवर्तन के परिणाम राजधानी परिवर्तन के निम्नलिखित परिणाम हुए-
यद्यपि राजधानी परिवर्तन की योजना विवेकपूर्ण तथा महत्त्वपूर्ण थी, परन्तु सुल्तान अपनी अदूरदर्शिता के कारण इसे सफलतापूर्वक लागू नहीं कर सका। यदि वह प्रारम्भ में केवल प्रमुख कार्यालयों तथा दरबारियों को दौलताबाद ले जाता तथा धीरे-धीरे अन्य लोगों को वहां बसाने का प्रयास करता, तो यह योजना असफल नहीं होती। इसके अतिरिक्त दौलताबाद को राजधानी बनाना भी उपयुक्त नहीं था। इस योजना में सुल्तान को अपनी प्रजा का सहयोग प्राप्त नहीं हुआ। 4. सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन (1329-30 ई.) सुल्तान ने सोने और चाँदी के सिक्कों के स्थान पर ताँबे और पीतल के सिक्के प्रचलित किये। सांकेतिक मुद्रा प्रचलन के निम्नलिखित कारण थे-
उपर्युक्त कारणों से प्रेरित होकर मुहम्मद तुगलक ने तांबे तथा पीतल के सिक्कों को कानूनी घोषित कर दिया और मूल्य की दृष्टि से उन्हें सोने-चाँदी के सिक्कों के समान माना गया। सुल्तान ने तांबे और पीतल के सिक्कों का सोने-चाँदी के सिक्कों के समान सभी व्यवहारों में प्रयोग करने के आदेश दिए। परन्तु सुल्तान ने सरकारी टकसाल पर राज्य का एकाधिकार स्थापित रखने के लिए प्रभावशाली कदम नहीं उठाये। अतः लोगों ने घरों में बड़ी संख्या में ताँबे के जाली सिक्के बना लिए। बरनी का कहना है कि "हिन्द का घर टकसाल बन गया और विविध प्रान्तों के हिन्दुओं ने लाखों, करोडों तांबे के सिक्के बना लिए।" परन्तु अनुमान है कि मुसलमानों ने भी जाली सिक्कों के निर्माण में हिस्सा लिया था। लोगों ने सोने-चाँदी के सिक्कों को छिपाकर घरों में रख लिया तथा राज-करों का भुगतान ताँबे के सिक्कों में करने लगे। विदेशी व्यापारी देश में भारतीय वस्तुएँ खरीदते समय ताँबे के सिक्कों का प्रयोग करते थे परन्तु अपना माल बेचते समय सोने-चाँदी के सिक्कों की माँग करते थे। इससे व्यापार चौपट हो गया और देश में अशान्ति एवं अव्यवस्था फैल गई। अन्त में विवश होकर सुल्तान ने अपनी सांकेतिक मुद्रा की योजना को त्याग दिया। उसने आदेश दिया कि लोग तांबे और पीतल के सिक्के राजकोष में जमा करा दें तथा वहाँ से ताँबे के सिक्कों के बदले में सोने-चाँदी के सिक्के ले जायें। इसके परिणामस्वरूप राजकोष रिक्त हो गया। सांकेतिक मुद्रा की योजना की असफलता के कारण सुल्तान की सांकेतिक मुद्रा की योजना की असफलता के निम्नलिखित कारण थे-
यद्यपि सांकेतिक मुद्रा के प्रचलन की योजना साहसपूर्ण और महत्त्वपूर्ण थी, परन्तु वह अपनी अदूरदर्शिता के कारण इस योजना को सफलतापूर्वक लागू नहीं कर सका। सुल्तान की यह गलती थी कि उसने सरकारी टकसाल पर राज्य का एकाधिकार स्थापित नहीं किया, जिससे लागों ने अपने घरों में ताँबे के जाली सिक्के बनाना शुरू कर दिया। इसके अतिरिक्त यह योजना समय से बहुत आगे थी। अतः जनता इस योजना के महत्त्व को समझ नहीं सकी और इस योजना को सफल बनाने में कोई सहयोग नहीं दे सकी। 5. खुरासान विजय की योजना खुरासान के कुछ असन्तुष्ट अमीरों ने मुहम्मद तुगलक के दरबार में शरण प्राप्त की थी। परन्तु इन अमीरों ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए सुल्तान को खुरासान पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। इस समय मंगोल-शासक तरमाशीरी भी खुरासान पर आक्रमण करने की योजना बना रहा था तथा उसे मिस्र के शासक ने सहयोग देने का आश्वासन दिया था। अतः मुहम्मद तुगलक ने खुरासन पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया। उसने खुरासान की विजय के लिए 3,70,000 सैनिकों की एक विशाल सेना तैयार की और उसे एक वर्ष का अग्रिम वेतन भी दिया परन्तु इस योजना को लागू नहीं किया जा सका। इस योजना के कारण सुल्तान को काफी आर्थिक हानि उठानी पड़ी और सुल्तान की काफी बदनामी हुई। इस योजना के परित्याग का एक कारण यह था कि सुल्तान ने यह अनुभव किया कि खुरासन तथा भारत के बीच स्थित बर्फ से ढके हुए विशाल पर्वतों को पार करना तथा मार्ग के प्रदेशों की शत्रुतापूर्ण जनता से टक्कर लेकर खुरासान पर विजय प्राप्त करना अत्यन्त कठिन कार्य था। दूसरा कारण यह था कि मध्य एशिया की राजनीतिक स्थिति भी काफी बदल चुकी थी। मंगोल नेता अपदस्थ हो चुका था तथा मिस्र के शासक ने खुरासान के शासक से मित्रता कर ली थी। अतः सुल्तान ने खुरासन पर विजय प्राप्त करने की योजना का परित्याग कर दिया। 6. कराचिल पर आक्रमण (1337-38 ई.) कराचिल का हिन्दू राज्य हिमालय की तराई में स्थित आधुनिक कुमायूँ जिले में था। इब्नबतूता का कथन है कि मुहम्मद तुगलक के शासन-काल में चीन के शासकों ने हिमालय की तराई में स्थित हिन्दू-राज्यों की सीमाओं का अतिक्रमण किया था। इससे मुहम्मद तुगलक चिन्तित हुआ। अतः उसने कराचिल पर आक्रमण करने का निश्चय कर लिया ताकि वह अपने साम्राज्य की उत्तरी सीमाओं को सुरक्षित कर सके। वह हिमालय की तराई में स्थित हिन्दू-राज्यों पर अपना अधिकार स्थापित कर अपनी स्थिति को सुदृढ़ करना चाहता था। हाजी-उद-बीर का कथन है कि मुहम्मद तुगलक ने कराचिल की सुन्दर स्त्रियों को प्राप्त करने के उद्देश्य से कराचिल पर आक्रमण किया था, परन्तु मुहम्मद तुगलक के उच्च नैतिक चरित्र को देखते हुए हाजी-उद-बीर के कथन को स्वीकार नहीं किया जा सकता। मुहम्मद तुगलक ने कराचिल पर आक्रमण करने के लिए खुसरो मलिक के नेतृत्व में एक लाख सैनिकों की विशाल सेना भेजी। खुसरो मलिक ने जिद्दा को जीत लिया। सुल्तान ने खुसरो मलिक को आदेश दिया था कि वह जिदा से आगे न बढ़े, परन्तु सुल्तान की आज्ञा का उल्लंघन करते हुए खुसरो मलिक ने तिब्बत की ओर जाना जारी रखा। शीघ्र ही वर्षा ऋतु प्रारम्भ हो गई तथा सेना दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र में फंस गई। इस प्रकार पर्वतीय मार्ग की भीषण कठिनाइयों, वर्षा-ऋतु के आगमन, खाद्य पदार्थों की कमी, पहाड़ी लोगों के आक्रमण आदि के कारण मुस्लिम सेना को अनुसार केवल तीन सैनिक ही बचकर दिल्ली लौट सके। दिल्ली की सेना के भीषण विनाश के लिए खुसरो मलिक उत्तरदायी था और इसके लिए सुल्तान को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इस सैनिक अभियान के कारण मुहम्मद तुगलक की बहुत बड़ी सेना नष्ट हो गई और जनता में उसके विरूद्ध तीव्र असन्तोष उत्पन्न हुआ। फिर भी सुल्तान अपना राजनीतिक उद्देश्य प्राप्त करने में सफल हुआ। यद्यपि पर्वतीय राजा ने सुल्तान को कर देना स्वीकार कर लिया। मुहम्मद तुगलक की योजनाओं की असफलता के कारण मुहम्मद तुगलक की योजनाओं की असफलता के निम्नलिखित कारण थे
मुहम्मद तुगलक के कार्यों का मूल्यांकन दिल्ली के मध्यकालीन सुल्तानों में मुहम्मद-बिन-तुगलक का विशिष्ट स्थान है। वह एक महत्त्वाकांक्षी और आदर्शवादी शासक था। उसे 'असफलताओं का बादशाह' भी कहा जाता है। अनेक व्यक्तिगत एवं चारित्रिक गुणों के बावजूद वह दिल्ली सल्तनत का सबसे विवादास्पद सुल्तान था। अनेक विद्वानों ने उसे 'अंतर्विरोधों का विस्मयकारी मिश्रण', पागल या विक्षिप्त, रक्त पिपासु, 'आदर्शवादी और स्वप्निल', अधर्मी और अविश्वासी, 'परोपकारी एवं उदार', शासक माना है। निष्पक्ष रूप से यह कहा जा सकता है कि व्यक्तिगत रूप से सुल्तान में अनेक गुण थे। वह विद्याप्रेमी एवं कर्मठ व्यक्ति था। उसमें सैनिक एवं प्रशासनिक क्षमता भी थी। उसने धर्म और राजनीति को अलग करने का प्रयास किया एवं हिन्दू-मुसलमानों को समान दृष्टिकोण से देखा। वह सदैव जनता के हित की कामना करता था, इसलिए उसने नई-नई योजनाएं बनाई । यद्यपि उसकी योजनाएं विफल हो गई, तथापि इससे उन योजनाओं का महत्त्व कम नहीं हो जाता। उसकी सबसे बड़ी कमजोरी यही थी कि वह किसी भी कार्य को धैर्य के साथ नहीं करता था। उसकी असफलता के लिए बहुत सीमा तक उसका उतावलापन भी जिम्मेदार माना जा सकता है। उसे योग्य व्यक्तियों का साथ नहीं मिला । भाग्य ने भी उसे धोखा दिया। परिणामस्वरूप उसके राज्यकाल में ही साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया आरंभ हो गई। दिल्ली सल्तनत के विघटन के लिए बहुत हद तक मुहम्मद-बिन-तुगलक की नीतियां एवं उसके कार्य उत्तरदायी थे, परंतु उसे पागल, विक्षिप्त या आदर्शवादी शासक कहना उचित नहीं होगा। वस्तुतः उसके चरित्र में विरोधी गुणों का सम्मिश्रण था, जिससे वह असफल शासक सिद्ध हुआ। मुहम्मद-बिन-तुगलक का राजत्व सिद्धांत मुहम्मद-बिन-तुगलक का राजत्व सिद्धांत दैवीय सिद्धांत पर आधारित था। उसका विश्वास था सुल्तान बनना ईश्वर की इच्छा है, इसलिए सुल्तान की आज्ञा ईश्वरीय आज्ञा है। अतः उसका पालन करना चाहिए। इस प्रकार उसका राजत्व सिद्धांत बलबन के राजत्व सिद्धांत के समान दिखाई पड़ता है। शासन में सुल्तान के ऊपर कोई नहीं है। मंत्री, अधिकारी, उसके अनुगामी और कर्मचारी मात्र थे। उनमें से कोई शासन सत्ता में भाग लेने वाला नहीं बन सकता था। उसका विश्वास संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न सुल्तान में था। इस दृष्टि से वह अलाउद्दीन खिलजी की भांति दिखाई पड़ता है। वह जाति, जन्म और वंश के आधार पर अपनी प्रजा में विभेद करना नहीं चाहता था बल्कि राजकीय सेवाओं का आधार योग्यता को मानता था न कि कुलीनता को। उसने राजनीति को धर्म से अलग रखने का प्रयास किया और उलेमाओं को भी सामान्य प्रजा का अंग माना। मुहम्मद बिन तुगलक ने अपने राजत्व सिद्धांत में बुद्धिवाद को आधार बनाया, जिसके तहत् उलेमाओं के कट्टरवादी दृष्टिकोण एवं सूफियों के विरक्तिवादी दृष्टिकोण से असहमति व्यक्त की। शासन में गैर तुर्कों के अतिरिक्त भारतीय मुसलमानों और हिन्दुओं को भी शामिल किया। इस तरह उसका राजत्व धर्मनिरपेक्ष स्वरूप से युक्त था। उसका राजनीतिक उद्देश्य विस्तारवादी था। अतः यह भारत में भूमि का एक भी ऐसा कतरा छोड़ने को तैयार नहीं था जो उसके नियंत्रण और आधिपत्य में न हो। फिरोज तुगलकफिरोज तुगलक का जन्म 1309 ई. में हुआ था। वह सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक के छोटे भाई रज्जब का पुत्र था। उसकी माता हिसार जिले में स्थित अबोहर के भट्टी राजपूत राजा रणमल की पुत्री थी। यह विवाह बलपूर्वक हुआ था। फिरोज को मुहम्मद तुगलक ने 'अमीर-ए-हाजिब' के महत्त्वपूर्ण पद पर नियुक्त किया था। उसकी मृत्यु के बाद 1351 में फिरोज तुगलक उलेमा तथा अमीरों के आग्रह तथा सहयोग से सिंहासनारूढ़ हुआ। अगस्त, 1351 में उसने दिल्ली में प्रवेश किया और सिंहासन पर बैठा। फिरोज तुगलक की शासन नीति तथा प्रशासनिक सुधार फिरोजशाह तुगलक ने एक सच्चे इस्लामी शासक के आदर्श तक पहुँचने का प्रयत्न किया। उसने उलेमाओं की सलाह से इस्लाम के सिद्धान्तों के अनुसार शासन कार्यों का संचालन किया। उसने जो भी सुधार किये, उनमें उसने यह ध्यान रखा कि उन सुधारों से उसकी मुस्लिम प्रजा ही लाभान्वित हो सके। शासन के प्रत्येक कार्य में उसने शरियत का अनुसरण करने का प्रयत्न किया। फिरोज तुगलक की शासन नीति तथा प्रशासनिक सुधार
1. राजस्व व्यवस्था फिरोज तुगलक ने राजस्व व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण सुधार किये। उसने भूमि-कर की व्यवस्था ठीक करने और राज्य की अनुमानित आय का विवरण तैयार करने के लिए हिसामुद्दीन को नियुक्त किया। हिसामुद्दीन ने राज्य की वार्षिक आय 6 करोड़ 85 लाख टंका निश्चित की। फिरोज तुगलक के सम्पूर्ण शासनकाल में भूमि-कर से मिलने वाली आय में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं करना पड़ा। डॉ. ए.एल. श्रीवास्तव का कथन है कि "फिरोज तुगलक ने भूमि की नाप के आधार पर राजस्व निर्धारित करने की वैज्ञानिक प्रणाली त्याग दी। इस आधारभूत दोष के बावजूद लगभग स्थायी रूप से भूमि-कर निश्चित करना फिरोज की एक महान् सफलता थी और उसके लिए उसे श्रेय मिलना चाहिए।" इसके अतिरिक्त सुल्तान ने राजस्व अधिकारियों और कर्मचारियों का वेतन बढ़ा दिए। जिन किसानों को तकाबी के रूप में ऋण दिए। गए थे, वे ऋण माफ कर दिए गए। सूबेदारों से वार्षिक भेंट लेने की प्रथा समाप्त कर दी गई, क्योंकि उसका भार किसानों पर पड़ता था। 2. अनावश्यक करों को समाप्त करना फिरोज तुगलक ने अनेक कष्टदायक एवं अनावश्यक करों को समाप्त कर दिया। उसने उन सभी करों को समाप्त कर दिया जो कि धार्मिक कानूनों के अनुसार नहीं थे। 'फुतुहात-ए-फिरोजशाही' के अनुसार सुल्तान ने 24 करों को समाप्त कर दिया, जिनमें मकान-कर और चारगाह-कर भी सम्मिलित थे। सुल्तान ने जनता पर उन्हीं करों को लगाया जिनका वर्णन कुरान में मिलता है। व्यापारिक करों में भी कमी कर दी गई। सुल्तान ने कुरान के अनुसार चार कर लगाए
3. जागीर प्रथा का विस्तार फिरोज तुगलक ने जागीर प्रथा का विस्तार किया। उसने अधिकारियों को बड़े पैमाने पर वेतन के बदले जागीरें प्रदान कर दीं। यहाँ तक कि सैनिक अधिकारियों के साथ-साथ सैनिकों को भी वेतन के बदले जागीरें दे दी गईं। अफीफ के अनुसार कुछ अधिकारियों ने अपनी जागीरें साहूकारों को बेच दी। इससे जनता को काफी कष्ट उठाना पड़ता था क्योंकि साहूकार किसानों से इच्छानुसार भूमिकर वसूल करते थे। 4. सिंचाई व्यवस्था फिरोज ने कृषि की उन्नति के लिए सिंचाई की व्यवस्था की और पाँच बड़ी-बड़ी नहरें बनवाई। इनमें सबसे बड़ी नहर 150 मील लम्बी थी, जो यमुना नदी से निकल कर हिसार फिरोजा तक जाती थी। एक नहर सतलज नदी से निकलकर घग्घर तक जाती थी। तीसरी नहर माण्डवी तथा सिरमौर की पहाड़ियों से प्रारम्भ होकर हांसी तक जाती थी। चौथी नहर घग्घर से फिरोजाबाद तक जाती थी तथा पाँचवीं नहर यमुना से निकल कर फिरोजाबाद तक जाती थी। इन नहरों के निर्माण से कृषि की उपज में बहुत वृद्धि हुई तथा उससे राज्य की आय भी बढ़ी। नहरों के अतिरिक्त नदियों पर बांध बनाकर सिंचाई की व्यवस्था की गई। अनेक तालाब भी खुदवाये गये। सुल्तान ने सिंचाई तथा यात्रियों की सुविध के लिए कुँए भी खुदवाये। 5. उद्यान फिरोज तुगलक ने दिल्ली के आस-पास 1200 बाग लगवाए। इन बागों में इतने फल पैदा होते थे कि इनसे सुल्तान को 1,80,000 टंका की वार्षिक आय होती थी। 6. उद्योग फिरोज तुगलक ने 36 कारखाने स्थापित किये जिनमें विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का निर्माण होता था। इन कारखानों में राजमहलों तथा राजकीय उपभोग में आने वाली वस्तुओं का निर्माण होता था। अधिकांश सामान सरकारी उपभोग में आता था, परन्तु जो अतिरिक्त सामान बचता था, उसे बेच दिया जाता था। इससे भी सरकार को कुछ आय होती थी। 7. सेना का प्रबन्ध फिरोज की सैनिक व्यवस्था प्रशंसनीय नहीं थी। उसने जागीरदारी प्रथा को इसका आधार बनाया। उसने अधिकारियों तथा सैनिकों को वेतन के स्थान पर जागीरें देना आरम्भ कर दिया। सुल्तान ने सैनिक सेवा भी वंशानुगत कर दी। बूढ़े सैनिक अपने स्थान पर अपने पुत्र, दामाद या दास को भेज सकते थे। उसके पुत्र, दामाद अथवा गुलाम को सेना में भर्ती कर लिया जाता था। इस प्रकार सैनिक सेवा वंशानुगत कर दी गई। सुल्तान के पास केवल 80 अथवा 90 हजार घुड़सवारों की स्थायी सेना थी, शेष सेना अमीरों अथवा सूबेदारों द्वारा संगठित की जाती थी। सैनिकों का हुलिया नोट करने तथा घोड़ों को दागने की प्रथा त्याग दी गई। सैन्य-व्यवस्था में भ्रष्टाचार, घूसखोरी तथा बेईमानी का बोलबाला था। सुल्तान स्वयं रिश्वतखोरी को प्रोत्साहन देता था। सुल्तान ने 1363 ई. के बाद सैनिक अभियान बन्द कर दिये जिससे सैनिक आलसी तथा आराम-तलब हो गए। इस प्रकार फिरोज तुगलक के शासनकाल में सैन्य-व्यवस्था शिथिल, भ्रष्ट एवं दोषपूर्ण हो गई थी। 8. न्याय व्यवस्था फिरोज की न्याय-व्यवस्था मुहम्मद तुगलक के समय की न्याय-व्यवस्था के समान कठोर न थी। फिरोज ने अंग-भंग का दण्ड बन्द कर दिया। प्राणदण्ड भी बन्द कर दिया गया। न्याय शरियत के अनुसार किया जाता था। कानून की व्यवस्था मुफ्ती करते थे। राजधानी का काजी सबसे बड़ा काजी होता था। न्याय में पक्षपात का बोलबाला था। अतः फिरोज के समय की न्याय व्यवस्था दोषरहित न थी। 9. परोपकार के कार्य फिरोज तुगलक एक उदार एवं दयालु शासक था। उसने अपनी प्रजा की भलाई के लिए अनेक कार्य किये-
इस प्रकार फिरोज का शासन-काल अपनी उदारता के कारण इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। 10. दास प्रथा फिरोज के शासन काल में 1 लाख 80 हजार गुलाम थे। इन दासों की देखभाल करने के लिए एक पृथक् विभाग की स्थापना की गई, जिसे 'दीवान-ए-बन्दगान' कहते थे। लगभग 40 हजार दास शाही महलों में सुल्तान तथा उसके परिवार की सेवा में नियुक्त थे। शेष गुलामों को विभिन्न प्रान्तों में गवर्नरों के पास नियुक्ति के लिए भेज दिया गया। 12 हजार दास विभिन्न दस्तकारियों में प्रशिक्षित किए गए जिससे शाही व्यय में अनावश्यक वृद्धि हुई तथा कालान्तर में इन दासों ने राजनीति में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। 11. शिक्षा तथा साहित्य फिरोज को शिक्षा तथा साहित्य से विशेष प्रेम था। उसने शिक्षा-प्रसार के लिए मदरसे तथा मकतब खुलवाये। उनमें योग्य शिक्षकों की नियुक्तियाँ की गई। विद्यार्थियों को छात्र-वृत्ति देने की भी व्यवस्था की गई। मदरसों में इस्लामी कानून/धर्मशास्त्रों तथा हदीस की शिक्षा दी जाती थी। सबसे बड़ा मदरसा दिल्ली में स्थापित था, जो 'मदरसा-ए-फिरोजशाही' कहलाता था। शिक्षा के अतिरिक्त उसके शासन-काल में साहित्य की भी आश्चर्यजनक उन्नति हुई। बरनी ने 'तारीखे फिरोजशाही' इसी समय लिखी थी। स्वयं फिरोजशाह ने अपनी आत्मकथा 'फुतुहात-ए-फिरोजशाही' लिखी थी। इसके अतिरिक्त अन्य साहित्यकारों ने भी रचनायें कीं। शम्से सिराज अफीफ ने 'तारीख-ए-फिरोजशाही' नामक ग्रन्थ की रचना की । संस्कत पस्तकों का अनवाद भी फिरोज के शासन काल में किया गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि शिक्षा तथा साहित्य के क्षेत्र में फिरोज के समय काफी उन्नति हुई। 12. सार्वजनिक निर्माण कार्य फिरोज ने निर्माण कार्य में भी खास दिलचस्पी दिखाई। उसने कुछ नगरों को बसाया। इनमें फिरोजाबाद, हिसार, फतेहाबाद, फिरोजपुर तथा जौनपुर के नाम बहुत प्रसिद्ध हैं। उसने अशोक की दो लाटों को टोपरा तथा मेरठ से मंगवा कर दिल्ली में खड़ा करवाया। उसने अन्य अनेक कार्य किए जो कि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। बरनी के कथानुसार 50 बांध, 40 मस्जिद, 30 शिक्षालय, 20 महल, 100 सराय, 30 झील, 100 औषधालय, 100 कब्रगाह, 5 मकबरे, 5 बावड़ी, 10 स्नानागार, 10 स्तम्भ, 40 कुँए तथा 150 पुल बनवाए थे। इसके अतिरिक्त उसने 1200 बाग लगवाए थे तथा 30 बागों का जीर्णोद्धार भी करवाया था। इस प्रकार फिरोज ने जनकल्याण की भावना को सामने रखकर शासन किया। 13. मौद्रिक सुधार फिरोजशाह ने मौद्रिक सुधार भी किए। उसने नवीन सिक्कों का प्रचलन किया और मुद्रा अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित किया। उसने शषगनी नामक सिक्का चलाया जो 6 जीतल के बराबर था। उसने 1/2 एवं 1/4 जीतल के अद्धा एवं बिख चलाये। फिरोजशाह तुगलक के कार्य
फिरोजशाह तुगलक के लोक-कल्याणकारी कार्य विभाग कार्य दीवान-ए-बन्दगान गुलाम व दासों की भर्ती एवं देखभाल। दीवान-ए-खैरात यह दान विभाग था। इसमें अनाथों, विधवाओं और गरीबों का पोषण एवं देखभाल करने की व्यवस्था थी। दारूल शफा यह नि:शुल्क चिकित्सालय था जहाँ रोगियों का नि:शुल्क इलाज होता था। दीवान-ए-इस्तिहाक यह पेंशन विभाग था जहाँ निर्धनों एवं वृद्धों को पेंशन दी जाती थी। रोज़गार दफ्तर यह विभाग बेरोज़गार लोगों को रोजगार दिलवाने का कार्य करता था। लोक निर्माण विभाग यह सभी सुल्तानों के मकबरों तथा कुतुबमीनार की मरम्मत कराने का कार्य करता था। इस प्रकार फिरोजशाह तुगलक के कार्यों ने उसे एक लोक-कल्याणकारी शासक के रूप में स्थापित किया। कुछ इतिहासकार उसे सल्तनत काल का अकबर भी कहते हैं, परंतु उसके लगभग सारे कार्य धर्म से प्रेरित थे उसके सारे लाभ केवल मुस्लिमों तक ही सीमित थे जिससे सामाजिक असंतोष की भावना उत्पन्न हुई। वहीं दूसरी ओर उसकी प्रशासनिक नीतियों ने राज्य के सैन्य आधार को कमजोर कर दिया, उसकी तुष्टीकरण की नीतियों से विद्रोह कम हो गए परंतु प्रशासन में उलेमाओं तथा अयोग्य लोगों का वर्चस्व बढ़ता गया जिसने साम्राज्य का पतन अवश्यंभावी बना दिया। सितम्बर 1388 ई. में फिरोजशाह तुगलक की मृत्यु हो गई, उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र फतेह खाँ के पुत्र तुगलकशाह को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। फिरोजशाह तुगलक के उत्तराधिकारीफिरोजशाह तुगलक की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी दिल्ली सल्तनत पर ज़्यादा दिन तक शासन नहीं कर पाए, क्योंकि उसके उत्तराधिकारी अयोग्य साबित हुए। अमीरों एवं दासों के द्वारा सत्ता के लिये किये जाने वाले षड्यंत्र, उत्तराधिकार से संबंधित संघर्ष एवं वित्तीय संकट ने राज्य को कमज़ोर कर दिया। फिरोजशाह तुगलक के उत्तराधिकारियों में तुगलक शाह द्वितीय (1388-89 ई), अबूबक्र शाह (1389-90 ई.), मुहम्मदशाह (1390-94 ई.) और महमूदशाह (1394-1412 ई.) सम्मिलित थे। लेकिन न सुल्तान मुहम्मद और न ही उसका उत्तराधिकारी नासिरुद्दीन महमूद, महत्त्वाकांक्षी अमीरों और स्वतंत्र राजाओं पर नियंत्रण स्थापित कर पाए। दिल्ली के सुल्तान की सत्ता वस्तुत: दिल्ली के आसपास [शाहजहाँ की हुकूमत दिल्ली से लेकर पालम (दिल्ली के पास) तक] के कुछ क्षेत्रों तक सिमटकर रह गई। महमूदशाह के शासनकाल में 1398-99 ई. में समरकंद के शासक तैमूर ने दिल्ली पर आक्रमण करके तुगलक साम्राज्य को तहस-नहस कर दिया। तैमूर के आक्रमण के समय महमूदशाह दिल्ली छोड़कर भाग गया। 1405 ई. में तैमूर की मृत्यु के बाद वह दिल्ली लौटा जहाँ पर उसने 1412 ई. तक शासन किया। महमूदशाह के शासनकाल में निम्न स्वतंत्र राज्यों की स्थापना हुई। वर्ष क्षेत्र वंश संस्थापक 1398 जौनपुर शर्की वंश मलिक उस शर्क 1401 गुजरात मुजफ्फरशाही वंश जफर खाँ या ख्वाजा जहाँ 1406 मालवा हुसंगाशाही वंश दिलावर खाँ फिरोज शाह की धार्मिक नीति फिरोजशाह तुगलक के समय में राज्य की धार्मिक नीति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। 1374-75 ई. में वह बहराईच के सालार मसूद गाजी की मजार पर प्रार्थना करने गया। इसके बाद उसकी नीति में परिवर्तन आया और वह संप्रदायवादी और प्रतिक्रियावादी बन गया। मुहम्मद बिन तुगलक ने धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना पर बल दिया था, परंतु उलेमा के प्रभाव में आकर फिरोजशाह ने धर्म तंत्र की स्थापना का प्रयास किया। वह अपने आपको सिर्फ कट्टर सुन्नी मुसलमानों का ही शासक मानता था। वह इस्लाम के नियमों का कड़ाई से पालन करता था और सादा एवं संयत जीवन व्यतीत करता था। गैर-सुन्नियों, शियाओं, सूफियों, महदवियों, मुजाहिदों एवं हिन्दुओं के प्रति उसने कठोर एवं अनुदार नीति अपनाई। उसकी धार्मिक असहिष्णुता की नीति के शिकार मुसलमान एवं हिन्दू दोनों ही बने। शियाओं पर अनेक अत्याचार किए गए। उनकी धार्मिक प्रथाएं बन्द करवा दी गई तथा उनकी पस्तकें जला दी गई। सफियों पर भी अत्याचार किए गए। सल्तान ने महदवी नेता रूकनुद्दीन की हत्या करवा दी। मुस्लिम स्त्रियों पर पर्दा कड़ाई से थोपा गया। उन्हें मजारों एवं दरगाहों पर भी जाने की अनुमति नहीं दी गई। हिन्दुओं के साथ उसने और अधिक अनुदार व्यवहार किया। उन्हें इस्लाम धर्म स्वीकार करने को बाध्य किया गया। हिन्दुओं के अनेक मंदिर नष्ट कर दिए गए, मंदिरों की मरम्मत पर पाबंधी लगा दी गई। हिन्दुओं के मेले, त्यौहारों पर भी रोक लगा दी गई। सुल्तान ने धार्मिक भावना से प्रेरित होकर अपने महल के सभी भित्ति-चित्र नष्ट करवा दिए, सोने-चाँदी के बर्तन गलवा दिए तथा रेशमी और जरी के वस्त्रों के उपयोग पर रोक लगा दी। शरीयत के नियमों के अनुसार सैनिकों को लूट के 1/5 भाग के स्थान पर 4/5 भाग देने का आदेश दिया गया। फिरोजशाह ने अनेक चुंगी कर समाप्त कर दिए। अपनी आत्मकथा में सुल्तान स्वयं कहता है कि उसने मालवा, सालेहपुर और गोहाना के नए हिन्दू मंदिरों को नष्ट किया। सुल्तान की धार्मिक असहिष्णुता की नीति से उलेमा संतुष्ट हुए, परंतु राज्य पर सुल्तान की धार्मिक नीतियों का विनाशकारी प्रभाव पड़ा। तैमूर का आक्रमणतुगलककालीन मंगोल-आक्रमणों में सबसे अधिक प्रमुख है महमूदशाह के समय में मंगोल-नेता तैमूर का आक्रमण। उस समय दिल्ली की स्थिति अत्यंत डावाँडोल थी। दरबार षडयंत्रों एवं कुचक्रों का अखाड़ा बना हुआ था। सुल्तान की शक्ति और प्रतिष्ठा बिल्कुल नष्ट हो चुकी थी, राज्य सिमटकर अत्यंत संकुचित हो गया था। इस स्थिति का लाभ उठाकर तैमूर 1398-99 ई. में भारत पर आक्रमण किया। तैमूर एक महान विजेता एवं योद्धा था। अपनी सैनिक प्रतिभा के बल पर वह समरकंद का शासक बन बैठा। शीघ्र ही उसने संपूर्ण मध्य एशिया में अपनी सत्ता स्थापित कर ली। अब वह भारत-विजय की योजना बनाने लगा। तैमूर की आत्मकथा मलफुसात-ए-तैमूरी से ज्ञात होता है कि तैमूर के भारत पर आक्रमण करने का मुख्य उद्देश्य 'काफिरों' का उन्मूलन करना एवं मूर्ति-पूजा को समाप्त करना तथा 'गाजी' एवं 'मुजाहिद' का पद प्राप्त करना था। इसके अतिरिक्त तैमूर भारत पर विजय प्राप्त कर अपनी सैनिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति भी करना चाहता था। इसके अतिरिक्त, भारत को लूटकर वह धन-संपदा भी प्राप्त करना चाहता था। भारत की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति ने उसे आक्रमण करने को प्रेरित किया। 1398 ई. में तैमूर भारत-विजय के अभियान पर निकल पड़ा। संपूर्ण सेना तेजी से दिल्ली की तरफ बढ़ी। मार्ग में पड़ने वाले राज्यों, नगरों, कस्बों, बस्तियों, यथा-तुलुबा, पाकपट्टन, दीपालपुर, भटनौर, सिरसुनिया, कैथल, फतेहाबाद और पानीपत को रौंदती, बस्तियों को लूटती, जलाती तथा निर्दोषों की हत्या करती हुई आंधी की तरह तैमूरी सेना दिल्ली के निकट आकर ठहर गई। जब खतरा सिर पर मँडराने लगा, तब महमूदशाह अपने वजीर मल्लू खाँ के साथ तैमूर का मुकाबला करने को बढ़ा। 17 दिसंबर, 1398 ई. को दिल्ली को निकट हुए युद्ध में तैमूर ने महमूद को बुरी तरह पराजित कर दिया। महमूदशाह और मल्लू खाँ दिल्ली को भाग्य-भरोसे छोड़कर भाग खड़े हुए। सुल्तान के पलायन के पश्चात पूरी दिल्ली पर तैमूर का अधिकार हो गया। उसने बड़ी शान से नगर में प्रवेश किया। उसके आतंकों से परिचित दिल्लीवासी अपनी सुरक्षा के लिए भयभीत हो उठे। दिल्ली के प्रमुख निवासियों ने तैमूर से मुलाकात कर उसे धन भेंट किया एवं नगरवासियों को कष्ट नहीं देने तथा निर्दोषों पर अत्याचार नहीं करने का अनुरोध किया। परंतु व्यापारियों से हुए संघर्ष में जब कुछ तैमूरी सैनिक मारे गए, तब क्रोधवेश में आकर उसने 'कत्लेआम' का हुक्म दे दिया। तीन दिनों तक नगरवासियों पर अमानुषिक अत्याचार होते रहे। गैर-मुस्लिमों को धर्म-परिवर्तन के लिये बाध्य किया गया। करीब पंद्रह दिनों तक दिल्ली पर अधिकार जमाए रखने के पश्चात तैमूर लाहौर वापस आया। खिज्र खाँ को लाहौर, मुल्तान और दीपालपुर का सूबेदार नियुक्त कर 1399 ई. में तैमूर वापस समरकंद चला गया।
तैमूर के आक्रमण का प्रभाव तैमूर के भारत आक्रमण के परिणाम विनाशकारी सिद्ध हुए। इसने तुगलकों के शासन की इतिश्री कर दी। समूचे राज्य में अव्यवस्था एवं अराजकता की स्थिति व्याप्त हो गई। दिल्ली एवं अन्य जिस मार्ग से तैमूर आया और लौटा, उस मार्ग में पड़ने वाले निवासियों को भीषण कष्ट उठाने पड़े। फसलें चौपट हो गई, नगर एवं ग्राम उजड़ गए, हजारों निर्दोष मारे गए एवं गुलाम बनाए गए। सबसे अधिक दुर्दशा दिल्ली की हुई। इतिहासकार बदायूंनी लिखता है: “जो लोग बच गये थे, वे अकाल और महामारी के कारण मर गए। दो महीने तक तो दिल्ली में किसी पक्षी ने भी पर नहीं मारा।" दिल्ली सल्तनत की शक्ति और प्रतिष्ठा एवं दिल्ली का वैभव समाप्त हो गया। पूरी दिल्ली उजाड़ और वीरान हो गई। तुगलक वंश ने कब से कब तक शासन किया?तुग़लक़ वंश (फ़ारसी: سلسلہ تغلق) दिल्ली सल्तनत का एक राजवंश था जिसने सन् 1320 से लेकर सन् 1414 तक दिल्ली की सत्ता पर राज किया। ग़यासुद्दीन ने एक नये वंश अर्थात तुग़लक़ वंश की स्थापना की सिंचाई के लिए नहर का प्रथम निर्माण गयासुद्दीन तुगलक के द्वारा किया गया था, जिसने 1412 तक राज किया।
तुगलक वंश का आखिरी शासक कौन थे?नासिर-उद-दीन महमूद शाह तुगलक को नसीरुद्दीन मोहम्मद शाह के नाम से भी जाना जाता है, जो तुगलक वंश का अंतिम सुल्तान था।
तुगलक वंश का प्रथम राजा कौन है?गयासुद्दीन तुग़लक़ दिल्ली सल्तनत में तुग़लक़ वंश का शासक था। ग़ाज़ी मलिक या तुग़लक़ ग़ाज़ी, ग़यासुद्दीन तुग़लक़ (1320-1325 ई॰) के नाम से 8 सितम्बर 1320 को दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। इसे भारत मे तुग़लक़ वंश का संस्थापक भी माना जाता है।
तुगलक वंश के शासक कौन थे?तुगलक वंश का अंतिम शासक नासिरुद्दीन महमूद तुगलक था । इसका शासन दिल्ली से पालम तक ही रह गया था । तैमूरलंग ने सुल्तान नासिरूद्दीन महमूद तुगलक के समय 1398 ईसवी में दिल्ली पर आक्रमण किया ।
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