प्रकार्यवाद के आधारों का वर्णन कीजिए - prakaaryavaad ke aadhaaron ka varnan keejie

           ऊपर की समस्त चर्चाओं के आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि मर्टन का योगदान यह है कि इन्होंने प्रकार्यवाद को न केवल मानवशास्त्र से समाजशास्त्र के क्षेत्र में लाया बल्कि उसकी जीवन्तता भी प्रदान की । यद्यपि मर्टन की आलोचनाएँ की गयी हैं बल्कि यह सत्य है कि 20वीं सदी के पूर्वाद्ध में प्रकार्यवाद समाजशास्त्रीय जगत में एक सबल विचारधारा रही है ।

Functionalism can be said to be the most important aspect in Merton’s ideology, which Merton tried to free sociological analysis from the influence of anthropology by giving a new form. Before Merton, many scholars had tried to explain society on the basis of functional analysis, but mentioning its shortcomings, Merton wrote that functionalist analysis as a modern method of sociological analysis has a promising basis. But it is the least organized. The way the functional was used in the anthropological context, as a result of this method expanded, but it could not fulfill the goal of real explanation of society. In this questionable analysis, Merton actually pointed out from a triangular angle that ” Functionalist analysis really depends on the relationship between husband and data. The weakest of these. Out of the three scholars who have so far, the side of the method has been the weakest. Most of whom did scholars on its theoretical side only in the context of data, there are very few functionalist scholars who presented functionalist analysis analysis.

There are very few such scholars who have explained functionalism up to the relation of functionalism i.e. theory, method and data. Most of them did this. More emphasis is given while some scholars have discussed the method of data. Through this statement, Merton aimed to clarify that sociological thought has not yet matured in the field of functional analysis. Merton not only tried to remove this defect of functionalism, but he also tried to make it more useful and practical by incorporating many new concepts in functionalism. Functionalism presented by Mutton can be understood with the help of three main aspects, meaning of function, D form of functional analysis and assumptions of functionalism.

 

 

प्रकार्य का अर्थ

 ( Meaning of Function )

 

 मटन का कथन है कि समाजशास्त्र में प्रकार्यवादी उपागम के प्रारम्भिक समय से ही इसमें उपयुक्त शब्द को लेकर एक भ्रमपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो गयी थी । विभिन्न विद्वानों ने जिन विभिन्न अर्थों में प्रकार्य शब्द का उपयोग किया , उससे इस दशा को समझा जा सकता है ।

( 1 ) प्रकार्य का एक अभिप्राय समारोह तथा उत्सव के रूप में ( Function as a Festive Occasion ) देखने को मिलती है । सामान्य वार्तालाप में जब कोई व्यक्ति यह कहता है कि ‘ उसे किसी विशेष फंक्शन में सम्मि लित होना है ‘ तो यहां पर अंग्रेजी के शब्द ‘ फंक्शन ‘ का तात्पर्य समारोह से होता है । ( 2 ) मर्टन का कथन है कि फंक्शन अथवा प्रकार्य शब्द का उपयोग व्यवसाय के लिए भी किया जाता है । उदाहरण के लिए , मैक्स वेबर तथा ब्लण्ट ( Blunt ) ने फंक्शन शब्द का उपयोग व्यवसाय के लिए किया है । सामान्यतः अर्थशास्त्री जब किसी समूह का प्रकार्यात्मक विश्लेषण करते हैं , तब वे व्यवसाय को ही आधार मानते हैं । ( 3 ) राजनीतिशास्त्र में फंक्शन अथवा प्रकार्य का अभिप्राय उस व्यक्ति की गतिविधि से होता है जो किसी विशेष पद पर आसीन होता है । इसी अवधारणा के फलस्वरूप राजनीतिशास्त्र में फन्क्शनरी ( Functionary ) तथा अधिकारी ( Official ) शब्द की व्युत्पत्ति हुई है । ( 4 ) गणितशास्त्र में प्रकार्य अथवा फन्क्शन शब्द का उपयोग एक चर ( Variable ) का दूसरे चर से सम्बन्ध स्पष्ट करने के लिए किया जाता है । जब हम यह कहते हैं कि किसी समाज की जन्मदर उसकी आर्थिक दशाओं का प्रकार्य है , तब हम जन्मदर और आर्थिक दशाओं के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए फन्क्शन शब्द का उपयोग करते हैं । ( 5 ) फन्क्शन – का अन्तिम अभिप्राय एक कार्य प्रणाली ( Procedure ) से होता है । यह अवधारणा मयतः जीवविज्ञान से आरम्भ हुई जिसमें प्रकार्य का अभिप्राय एक ऐसी दशा क लिए किया जाता है जिसमें कोई सावयवी प्रक्रिया शरीर की प्रणाली को बनाए रखन में अपना योगदान करती है । मर्टन के अनुसार यही वह अवधारणा है जो समाज मास्त्र और मानवशास्त्र में प्रकार्य के वास्तविक अभिप्राय का बोध कराता है । हॉन स्पष्ट किया कि समाजशास्त्र में प्रकार्य को किसी तत्त्व की उस कार्यप्रणाला के रूप में स्वीकार किया जा सकता है जिसके द्वारा वह तत्त्व सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में सहायक होता है । मर्टन के शब्दों में , ” प्रकार्य वे देखे जा सकन बाले परिणाम है जो सामाजिक व्यवस्था के अनकलन अथवा सामंजस्य को सम्भव बनाते हैं । ” अपने प्रकार्यात्मक विश्लेषण में मर्टन ने प्रकार्य शब्द के अनेक अर्थ स्पष्ट करने के साथ ही उन अनेक शब्दों का भी उल्लेख किया जो प्रकार्य से मिलते – जुलते अर्थ को स्पष्ट करते हैं । उदाहरण के लिए उपयोग ( Use ) , उपयोगिता ( Utility ) , उद्देश्य ( Purpose ) , प्रेरणा ( Motive ) , प्रयोजन ( Intention ) , लक्ष्य ( Aim ) तथा परिणाम ( Consequence ) आदि इसी प्रकार के शब्द हैं । यह सच है कि इन सभी शब्दों के अर्थ एक – दूसरे से अलग हैं लेकिन यदि इनका प्रयोग अनुशासित ढंग से न किया जाय तो किसी भी प्रकार्यात्मक विश्लेषण में यह एक भ्रमपूर्ण दशा उत्पन्न कर सकते हैं । उदाहरण के लिए यदि हम यह कहें कि ‘ दण्ड का उद्देश्य अपराधों का रोकना है ‘ तो यहाँ पर दण्ड के उद्देश्य और दण्ड के प्रकार्य में भेद करना कठिन हो सकता है । इस आधार पर मर्टन ने स्पष्ट किया कि प्रकार्यात्मक विश्लेषण के लिए यह आवश्यक है कि जो शब्द जाकार्य के समान अर्थ वाले हैं , उनका उपयोग करते समय बहुत सावधानी रखी जाय ।

 

 

 

 MUST READ THIS

 

 

 MUST READ THIS

 

 

प्रकार्यात्मक विश्लेषण का प्रारूप

 ( A Paradigm for Functional Analysis )

 

मर्टन का कथन है कि प्रकार्यात्मक विश्लेषण की आवश्यकता पर अनेक समाज वैज्ञानिकों ने जोर दिया है लेकिन इन सभी की विवेचना में कोई न कोई कमी अवश्य देखने को मिलती है । इस दशा में प्रकार्यात्मक विश्लेषण को तभी व्यव स्थित बनाया जा सकता है जब इसके एक सुनिश्चित प्रारूप का निर्माण कर लिया जाय । प्रकार्यात्मक विश्लेषण का एक निश्चित प्रारूप होना इसलिए भी आवश्यक है जिससे एक निश्चित मानदण्ड के आधार पर सामाजिक तथ्यों का अध्ययन वैज्ञानिक ढग से किया जा सके । इस दृष्टिकोण से मर्टन ने प्रकार्यात्मक विश्लेषण का एक प्रारूप प्रस्तुत किया जिससे कुछ निश्चित अवधारणाओं के सन्दर्भ में प्रकार्यात्मक विश्लेषण सम्बन्धी कठिनाइओं को दूर किया जा सके । मटन द्वारा प्रस्तुत इस प्रारूप में जिन अवधारणाओं तथा विशेषताओं का समावेश है , उन्हें निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है :

 

 ( 1 ) विषय ( The Item ) – सामाजिक तथ्यों का क्षेत्र बहुत व्यापक है । प्रकार्यात्मक विश्लेषण के लिए हम जिन सामाजिक तथ्यों का अध्ययन के लिए उप ‘ योग करते हैं , मर्टन के अनुसार उन्हें ‘ विषय ‘ कहा जाना चाहिए । इस प्रकार प्रकार्या त्मक विश्लेषण के लिए जो विषय अधिक महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं , उन्हें मर्टन ने सामाजिक भूमिका , संस्थागत प्रतिमान , सामाजिक प्रक्रिया , सांस्कृतिक प्रतिमान , संवेग ( Emotions ) , व्यवहार के सामाजिक मानदण्ड , ( Norms ) , समूह संगठन ( Group Organization ) , सामाजिक संरचना तथा सामाजिक नियन्त्रण कहा । मर्टन का विचार है कि किसी भी प्रकार्यात्मक विश्लेषण के लिए इन सभी विषयों से सम्बन्धित तथ्यों का अध्ययन करना आवश्यक है ।

 

 ( 2 ) विषयगत प्रेरणाएँ ( Subjective Dispositions ) – कुछ दशाओं में प्रकार्यात्मक विश्लेषण के लिए व्यक्ति की प्रेरणाओं का अध्ययन किया जाता है । इसके लिए यह आवश्यक है कि पहले ही यह जान लिया जाय कि किस तरह की प्रेरणाओं के अध्ययन के लिए हमें किस तरह के तथ्यों अथवा आँकड़ों ( data ) को एकत्रित करना जरूरी है । इसके साथ ही यह जानना भी आवश्यक है कि उन तथ्यों की प्रकृति दूसरे तथ्यों से किस तरह भिन्न है और उनका उपयोग किस प्रकार किया जा सकता है । इसका तात्पर्य है कि जो तथ्य एक विशेष प्रेरणा और उद्देश्य ( Motive and Purpose ) के रूप में समाज में एक विशेष भूमिका निभाते हैं , प्रकार्यात्मक विश्लेषण के लिए उनका चयन कर लेना जरूरी है ।

 

 ( 3 ) उद्देश्यगत परिणाम ( Objective Conseqences ) – मर्टन का कथन है कि किसी विषय के प्रकार्यात्मक विश्लेषण में हमें मुख्यत : दो समस्याओं का सामना करना पड़ता है : पहली यह कि सामाजिक तथ्यों के योगदान को उस सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था के अन्तर्गत किस तरह ज्ञात किया जाय जिसमें उस तथ्य के प्रकार्य निहित हैं तथा दूसरी यह कि किसी तथ्य को विषयगत प्रेरणा को उसके उद्देश्यपूर्ण परिणामों से पृथक् करके किस तरह समझा जाय ? पहली दशा को स्पष्ट करते हुए मर्टन ने कहा कि सामाजिक प्रक्रियाओं के परिणाम गुणात्मक होते हैं । इन परिणामों का जब सम्पूर्ण रूप हमारे सामने आता है , तभी यह समझा जा सकता है कि किसी प्रक्रिया के परिणाम प्रकार्य के रूप में सामने आए हैं अथवा अकार्य ( Dys function ) के रूप में । इसी के सन्दर्भ में मर्टन ने प्रकार्य की अवधारणा को अकार्य की अवधारणा से पृथक् करके स्पष्ट किया । आपके अनुसार ” प्रकार्य वे देखे जा सकने वाले परिणाम हैं जो सामाजिक व्यवस्था में अनुकूलन अथवा सामंजस्य को सम्भव बनाते हैं । ” दूसरी ओर “ अकार्य वे स्पष्ट परिणाम हैं जो सामाजिक व्यवस्था में अनुकूलन अथवा सामंजस्य को कम करते हैं । ”  दूसरी समस्या को स्पष्ट करते हुए मर्टन ने बतलाया कि किसी प्रक्रिया के प्रकार्य भी प्रत्येक दशा में समान नहीं होते । यह प्रत्यक्ष भी हो सकते हैं और निहित भी । मर्टन के शब्दों में ” प्रत्यक्ष अथवा घोषित प्रकार्य ( Manifest Functions ) वे वैषयिक परिणाम है जो सामाजिक व्यवस्था में अनुकूलन का गुण उत्पन्न करते हैं तथा जो इस व्यवस्था में भाग लेने वाले व्यक्तियों द्वारा इच्छित और मान्य होते हैं । ”  इसके विपरीत , ” निहित प्रकार्य ( Latent Functions ) वे हैं जो न तो इच्छित होते हैं और न ही सामान्य लोगों के द्वारा उन्हें पहचाना जाता है । इस तरह मर्टन ने प्रकार्य , अकार्य , प्रत्यक्ष प्रकार्य तथा निहित प्रकार्य की अवधारणाओं को प्रस्तुत करके प्रकार्यात्मक विश्लेषण में आने वाली समस्याओं का निदान प्रस्तुत किया । उन्होंने बतलाया कि किसी भी प्रकार्यात्मक विश्लेषण के अन्तर्गत यह जान लेना आवश्यक है कि जिन विषयों अथवा प्रक्रियाओं का हम अध्ययन कर रहे हैं उनके कौन – से परिणाम प्रकार्य हैं और कौन – से परिणाम अकार्य के रूप में स्पष्ट हैं । इसी तरह यह जानना भी आवश्यक है कि जब कोई प्रक्रिया प्रत्यक्ष प्रकार्य की जगह निहित प्रकार्यों को स्पष्ट करने लगती है , तब सामाजिक व्यवस्था पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है ।

 

 ( 4 ) प्रकार्य से सम्बन्धित इकाई ( Unit Subserved by the Fanc tion ) – मर्टन का कथन है कि जिस विषय ‘ का हम प्रकार्य के आधार पर विश्लेषण करते हैं , वह विषय या इकाई यदि किसी व्यक्ति अथवा उप – समूह के लिए कोई प्रकार्य करती है तो यह भी सम्भव है कि वह किसी दूसरे व्यक्ति या समूह के लिए | अकार्य करे । उदाहरण के लिए यदि सरकार द्वारा निजी क्षेत्र को दिया जाने वाला समर्थन कुछ पूंजीपतियों के लिए प्रकार्यात्मक हो सकता है तो वही समर्थन निर्धन समहों के लिए अकार्यात्मक हो सकता है । इसके साथ ही अध्ययनकर्ता को यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि किसी इकाई के जो प्रकार्य उसके सामने आते हैं , वे किस प्रकार के हैं । मर्टन के अनुसार यह प्रकार्य मनोवैज्ञानिक प्रकार्य , समूह – प्रकार्य , सामाजिक प्रकार्य तथा सांस्कृतिक प्रकार्य के रूप में व्यक्त हो सकते हैं । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि किसी भी विषय के उन प्रभावों का अध्ययन अवश्य किया जाना चाहिए जो व्यक्ति की सामाजिक स्थिति , उप – समूह , वृहत् सामाजिक व्यवस्था और सांस्कृतिक व्यवस्था पर स्पष्ट होते हैं ।

 

 ( 5 ) प्रकार्यात्मक आवश्यकताएँ ( Functional Requirements ) – यह एक विवादपूर्ण प्रश्न है कि किसी समाज अथवा समूह की प्रकार्यात्मक आवश्यकताएँ क्या हो सकती हैं । इस सम्बन्ध में मैलीनॉस्की तथा ब्राउन ने जहाँ प्राणीशास्त्रीय

आवश्यकताओं को सामाजिक आवश्यकता के रूप में स्वीकार किया था , वहीं मर्टन ने यह स्पष्ट किया कि प्रकार्यात्मक आवश्यकताओं का विश्लेषण उनकी परिस्थिति के सन्दर्भ में ही किया जाना चाहिए । इसका तात्पर्य है कि किसी विशेष इकाई द्वारा किया जाने वाला कार्य केवल तभी प्रकार्य हो सकता है जब समूह की एक विशेष परिस्थिति के सन्दर्भ में वह एक इच्छित और उपयोगी प्रभाव को स्पष्ट करता हो ।

 

 ( 6 ) क्रियाविधि की अवधारणा ( Concept of Mechanism ) – मटन ने बतलाया कि समाजशास्त्र में प्रकार्यात्मक विश्लेषण शरीर – विज्ञान और मनोविज्ञान में किए जाने वाले उस अध्ययन के समान है जिसमें शरीर अथवा मस्तिष्क के प्रकार्यों की प्रणाली अथवा क्रिया – विधि के स्पष्ट स्वरूपों की चर्चा की जाती है । इसका तात्पर्य है कि प्रकार्यवादी विश्लेषण में भूमिका विभेद ( Role – segmentation ) , संस्थागत मांगों की उत्पत्ति ( insulation of Institutional Derands ) , मूल्यों की संस्त रित व्यवस्था ( Hterarchie Ordering of Values ) , श्रम का सामाजिक विभाजन ( Social Divisoin of Labour ) तथा रीतिगत विधान ( Ritual Inactment ) आदि वे प्रणालियाँ अथवा क्रिया – विधियाँ हैं जिनकी सहायता से इस विश्लेषण को अधिक व्यवस्थित बनाया जा सकता है । इससे स्पष्ट होता है कि विभिन्न तत्त्वों अथवा इकाइयों के प्रकार्यों को समझना ही काफी नहीं होता बल्कि उस क्रिया – विधि को समझना भी आवश्यक होता है जिसके द्वारा कुछ इकाइयाँ विशेष प्रकार्य करती हैं ।

 

 ( 7 ) प्रकार्यात्मक विकल्प ( Functional Alternatives ) – प्रकार्यात्मक विश्लेषण करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि कोई एक इकाई जो प्रकार्य करती है , किसी दूसरी या वैकल्पिक इकाई के द्वारा भी लगभग उसी तरह के कार्य किए जा सकते हैं । इन्हें हम ‘ प्रकार्यात्मक विकल्प ‘ कहते हैं । प्रकार्यात्मक विश्लेषण में इन विकल्पों का अध्ययन करना इसलिए आवश्यक है कि पुरक या वैकल्पिक तत्त्वों के द्वारा जो प्रकार्य सम्भव होते हैं , उनके परिणाम कुछ भिन्न प्रकृति के हो सकते हैं । इस प्रकार किसी भी अध्ययनकर्ता को इन विकल्पों से उत्पन्न होने वाले प्रकार्यों की विभिन्नता को ध्यान में रखकर ही कोई विश्लेषण करना चाहिए ।

 

 ( 8 ) संरचनात्मक सन्दर्भ ( Structural Context ) – मर्टन ने स्पष्ट किया कि वैकल्पिक प्रकार्यों के फलस्वरूप सामाजिक संरचना में जो विभिन्नता पैदा होती है , वह असीमित नहीं होती । इस सम्बन्ध में उन्होंने लिखा कि ” सामाजिक संरचना के तत्त्वों की पारस्परिक निर्भरता प्रकार्यात्मक विकल्पों द्वारा उत्पन्न किए जाने वाले परिवर्तन की सम्भावना को कम कर देती है । ” मर्टन से पहले अनेक विद्वान यह मानते थे कि सामाजिक संरचना के तत्त्व प्रकार्यात्मक विकल्पों द्वारा उपन्न किए जाने ले परिवर्तन को रोकने में अधिक प्रभावी नहीं होते । इसके विपरीत , मटन तलाया कि सामाजिक संरचना के सभी तत्त्व इस तरह एक – दूसरे से सम्बद्ध होत है कि यदि एक इकाई के प्रकार्य किसी दूसरी इकाई द्वारा किए जाने लगते हतब सामाजिक संरचना स्वयं ही उन पर नियन्त्रण लगाने लगती है । इसका तात्पर्य ह सामाजिक संरचना में किसी इकाई के प्रकार्य का विश्लेषण एक विशेष सत्र के सन्दर्भ में ही किया जाना चाहिए ।

 

( 9 ) गत्यात्मकता तथा परिवर्तन ( Dynamics and Change ) – प्रकार्य वादी विश्लेषण के प्रारूप को स्पष्ट करते हुए मर्टन ने बतलाया कि बहुत – से विद्वान यह मानते आए हैं कि सामाजिक संरचना की प्रक्रति स्थिर अथवा जड़ होती है तथा सामाजिक संरचना में सामान्यतः किसी तरह का परिवर्तन नहीं होता । ऐसी धारणा बहुत भ्रान्तिपूर्ण है । वास्तव में प्रकार्यवादी विश्लेषण किसी भी सामाजिक संरचना को स्थिर अथवा जड़ मानकर नहीं चलता । ऐसे विचार मानवशास्त्रियों द्वारा आदिम और सरल समाजों के अध्ययन के लिए विकसित किए गये थे , जिन्हें समाज शास्त्र में भी प्रकार्यवादी विश्लेषण के लिए प्रयुक्त किया जाता रहा । मर्टन के अनुसार , सामाजिक संरचना की कोई इकाई अनिवार्य रूप से प्रकार्य ही नहीं करती । बल्कि उसके प्रभाव अकार्य के रूप में भी हो सकते हैं । ऐसे सभी अकार्य सामाजिक संरचना में तनाव और दबाव की दशाएँ उत्पन्न करते हैं । इस दष्टिकोण से प्रकार्या त्मक विश्लेषण के लिए यह ज्ञात करना जरूरी है कि सामाजिक संरचना में विभिन्न इकाइयों के अकार्यों से जब तनाव और दबाव की दशाएं पैदा होती हैं तो परिवर्तन की कौन – सी प्रक्रियाएँ उत्पन्न होती हैं । इसका तात्पर्य है कि प्रकार्यात्मक – विश्लेषण के द्वारा परिवर्तन की प्रकृति और दिशा का अध्ययन करना भी आवश्यक है ।

 

( 10 ) वैधता की समस्या ( Problem of Validation ) – – – मर्टन के अनुसार , प्रकार्यात्मक विश्लेषण की एक मुख्य समस्या यह है कि समाजशास्त्रीय अध्ययनों में इस उपागम को वैध माना जा सकता है या नहीं ? इस समस्या का समाधान करते हए उन्होंने बतलाया कि ” प्रकार्यात्मक विश्लेषण से हमारा तात्पर्य केवल एक ऐसी पद्धति से है जिसके द्वारा समाजशास्त्रीय तथ्यों की व्याख्या की जाती है । यह उपागम तथ्यों का संकलन करने के क्षेत्र में कोई भूमिका नहीं निभाता । ” इसमा तात्पर्य है । कि प्रकारात्मक विश्लेषण यह नहीं कहता कि हम किसी विशेष अवधारणा से प्रभावित होकर तथ्यों का संकलन करें । प्रकार्यात्मक विश्लेषण केवल इस बात में विश्वास करता है कि प्राप्त तथ्यों का विश्लेषण कार्यात्मक विश्लेषण के प्रारूप में दी गयी सावधानियों तथा नियमों के अनुसार ही किया जाय ।

 

उपर्यत विवेचना से स्पष्ट होता है कि मर्टन ने जो प्रकार्यात्मक प्रारूप प्रस्तुत किया , उसमें प्रकार्यात्मक विश्लेषण से सम्बन्धित अनेक समस्याओं तथा अवधारणाओं का समावेश है । इन्हीं अवधारणाओं के आधार पर समाजशास्त्र के अध्येता सामाजिक आंकड़ों का प्रकार्यात्मक विश्लेषण वैज्ञानिक ढंग से कर सकते हैं । इस प्रारूप में मर्टन ने जिस तरह समस्याओं का निदान खोजने का प्रयत्न किया तथा प्रकार्यात्मक विश्लेषण सम्बन्धी पहले की गलतियों को दूर किया , उसी के आधार पर मर्टन को ‘ आधुनिक प्रकार्यवाद का नेता ‘ माना जाता है ।

 

 MUST READ THIS

 

 

 MUST READ THIS

 

प्रकार्यवाद की मान्यताएं

( Assumptions of Functionalism )

 

 

 मर्टन से पूर्व मानवशास्त्रियों द्वारा प्रकार्यवाद को जिस रूप में विकसित किया गया था वह अनेक मान्यताओं पर आधारित था । यह मान्यताएं मुख्य रूप से तीन थीं : ( 1 ) एक सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाली सभी इकाइयाँ सामाजिक व्यवस्था के अन्तर्गत कुछ प्रकार्य अवश्य करती हैं , ( 2 ) सामाजिक इकाइयों के यह प्रकार्य ही . एक सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था के अस्तित्व को बनाए रखते हैं , तथा ( 3 ) प्रकार्य , प्रत्येक तत्त्व अथवा इकाई के अपरिहार्य परिणाम हैं । अपने अध्ययन के आधार पर मर्टन ने बतलाया कि मानवशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत यह मान्य ताएँ न केवल बहुत विवादपूर्ण हैं बल्कि प्रकार्यात्मक अध्ययन में अनुपयोगी भी प्रमा णित हो चुकी हैं । इस आधार पर मर्टन ने इन मान्यताओं की आलोचनात्मक विवेचना करते हुए अपने द्वारा प्रस्तुत प्रकार्यात्मक विश्लेषण के प्रारूप को ही अधिक उपयुक्त माना । इस सम्बन्ध में मटन के विचारों को निम्नांकित रूप से समझा जा सकता है :

 

 

( 1 ) समाज की प्रकार्यात्मक एकता को मान्यता ( Postulate of the Functional Unity of Society ) – मर्टन से पहले रेडक्लिफ ब्राउन तथा मैली नॉस्की ( Malinowski ) ने इस मान्यता को विशेष महत्त्व दिया था कि एक सामा जिक संरचना का निर्माण करने वाली सभी इकाइयां सामाजिक व्यवस्था के लिए कुछ न कुछ प्रकार्य अवश्य करती हैं । रेडक्लिफ ब्राउन ने लिखा कि ” किसी विशिष्ट सामाजिक प्रचलन अथवा व्यवहार का प्रकार्य सम्पूर्ण सामाजिक जीवन तथा सामा जिक व्यवस्था के लिए उसका वह योगदान है जिससे वह व्यवस्था क्रियाशील बनती है । इससे स्पष्ट होता है कि प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था में एक निश्चित प्रकार की एकता पायी जाती है तथा यह एकता सामाजिक संरचना का निर्माण करने वाली इकाइयों के प्रकार्य से ही सम्भव होती है । इस सम्बन्ध में मर्टन ने लिखा कि मानव शास्त्रियों ने इस मान्यता के आधार पर सामाज की जिस प्रकार्यात्मक एकता का उल्लेख किया , उसकी वास्तविकता को परीक्षण के द्वारा ज्ञात करना जरूरी है ।

यह सच है कि प्रत्येक समाज में कुछ एकता अवश्य विद्यमान होती है लेकिन वामन समाजों में एकीकरण का यह स्तर अलग – अलग हो सकता है । इसका तात्पर्य है कि समाज में जो ‘ प्रचलन ‘ या ‘ व्यवहार ‘ प्रकार्यात्मक होते हैं , दूसरे समाज अथवा समूह में वे अकार्यात्मक भी हो सकते हैं । इस दष्टिकोण से यह आवश्यक है कि प्रकाया त्मक विश्लेषण करते समय विभिन्न इकाइयों के प्रकार्यों की विशेषताओं को अवश्य समझा जाय । इसी की सहायता से यह समझा जा सकता है कि किसी विशेष समाज में सामाजिक एकीकरण उत्पन्न करने में विभिन्न इकाइयों के प्रकार्य कैसा और कितना योगदान करते हैं ।

 

 ( 2 ) सार्वभौमिक प्रकार्यवाद की मान्यता ( Postulate of Universal Functionalism ) . – – प्रकार्यवाद की एक परम्परागत मान्यता यह भी थी कि विभिन्न इकाइयों के प्रकार्य ही किसी सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था के अस्तित्व को बनाए रखते हैं । इसे स्पष्ट करते हुए मैलोनास्की ने लिखा था ” प्रत्येक प्रकार की सभ्यता , रीति – रिवाज , भौतिक तत्त्व , विचार और विश्वास आदि कुछ सामाजिक प्रकार्यों को पूरा करते हैं । ” इसी मान्यता के आधार पर क्लूखॉन ( Kluckhohn ) ने भी यह कहा कि “ कोई भी संस्कृति तब तक अपने अस्तित्व की रक्षा नहीं कर सकती जब तक कि वह कुछ ऐसे प्रकार्य न करे जिनमें समायोजन अथवा अनुकूलन का गुण निहित हो । ” 10 इस मान्यता को मर्टन ने अस्वीकार करते हुए यह कहा कि यह आवश्यक नहीं है कि संस्कृति के स्थापित तत्त्व के रूप में प्रत्येक परम्परा समाज को बनाए रखने में अवश्य ही सहयोगी हो । दूसरे शब्दों में , यह कहा जा सकता है कि जो परम्पराएँ अनेक पीढ़ियों तक समाज को स्थायित्व प्रदान करती रहती हैं वे कभी कभी या किसी विशेष अवधि में या तो अनुपयोगी सिद्ध होने लगती हैं अथवा समाज में परिवर्तन की दशा उत्पन्न कर देती हैं ( उदाहरण के लिए भारत में जाति – प्रथा के परम्परागत प्रकार्य वर्तमान समय में उसके अकार्य बन गये हैं तथा यह प्रथा सामाजिक व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करने की जगह उसमें परिवर्तन उत्पन्न करने लगी है ) । इस प्रकार मर्टन यह स्वीकार नहीं करते कि किसी भी इकाई के प्रकार्यों की प्रकृति सार्वभौमिक होती है । उनका कथन है कि संस्कृति या सामाजिक संरचना का कोई तत्त्व प्रकार्यात्मक भी हो सकता है लेकिन यह मान लेना उचित नहीं है कि ऐसा प्रत्येक तत्त्व कोई न कोई प्रकार्य अवश्य करेगा ।

 

( 3 ) अपरिहार्यता की मान्यता ( Postulate of Indispensability ) – मर्टन के अनुसार मानवशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत प्रकार्यवाद की यह मान्यता भी उचित नहीं है कि ‘ प्रकार्य प्रत्येक सांस्कृतिक तत्त्व अथवा इकाई के अपरिहार्य परिणाम हैं । ” वह मैलीनॉस्की के इस कथन से सहमत नहीं हैं कि ‘ प्रत्येक प्रकार की सभ्यता , रीति रिवाज , भौतिक तत्त्व , विचार और विश्वास आदि कुछ सामाजिक प्रकार्यों को पूरा करते है । ” मर्टन का कथन है कि इस वाक्यांश से यह पता नहीं चल पाता कि इसके द्वारा में लीनॉस्की प्रकार्य की अपरिहार्यता को स्पष्ट करना चाहते हैं अथवा जनका तात्पर्य सांस्कृतिक तत्त्वों की अपरिहार्यता से है । वास्तविकता यह है कि प्रकार्य की अपरिहार्यता की मान्यता को दो परस्पर सम्बन्धित दशाओं के आधार पर ही समझा जा सकता है । पहली यह कि कुछ प्रकार्य इसलिए अपरिहार्य होते हैं कि यदि वे अपना कार्य न करें तो समाज अपने अस्तित्व को बनाकर नहीं रख सकता ।

इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक समाज में कुछ प्रकार्य वे होते हैं जो समाज का निर्माण करने वाली पूर्व परिस्थितियों को उत्पन्न करते हैं । इन्हें मर्टन ने समाज की ‘ प्रकार्यात्मक पूर्व – आवश्यकताएँ ‘ ( Functional Prerequisites ) कहा और इन्हीं के आधार पर उन्होंने ‘ प्रकार्यात्मक पूर्व – आवश्यकताओं की अवधारणा को प्रस्तुत किया । दूसरी दशा की चर्चा करते हुए मर्टन ने बतलाया कि प्रत्येक समाज के कुछ निश्चित सामाजिक तथा सांस्कृतिक स्वरूप होते हैं जो इन प्रकार्यों को पूरा करने में सहयोग देते हैं । इस मान्यता को सरल रूप से प्रस्तुत करते हए मर्टन ने कहा कि जिस प्रकार समान प्रकृति के तत्त्वों के एक – दूसरे से भिन्न प्रकृति वाले अनेक प्रकार्य होते हैं , उसी प्रकार एक ही तरह का प्रकार्य अनेक इकाइयों से भी सम्बन्धित हो सकता है ।

इसका तात्पर्य है कि मर्टन ने प्रकार्य की अपरिहार्ययता को इस के संशो धित रूप में प्रकार्यात्मक विकल्प ( Functional Alternatives ) के रूप में प्रस्तुत किया । पूर्ण विवेचन से स्पष्ट होता है कि मर्टन का प्रकार्यवाद मानव शास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत पहले के प्रकार्यवाद से काफी भिन्न है । मर्टन ने जहाँ एक ओर यह स्वीकार किया कि सामाजिक संरचना के विभिन्न तत्वों की क्रमबद्धता उसके प्रकार्यों के कारण ही राम्भव होती है , वहीं दूसरी ओर उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि संस्कृति का कोई भी तत्त्व सदैव प्रकार्यवाद नहीं होता बल्कि वह कभी – कभी अकार्यात्मक भी हो सकता है ।

दूसरी बात यह है कि किसी विशेष अवधि या परि स्थिति में संस्कृति का कोई तत्त्व प्रकार्य करेगा अथवा अकार्य , यह इस बात पर निर्भर है कि उस तत्त्व को संस्कृति किस रूप में प्रभावित कर रही है । विभिन्न तत्वों के प्रकार्यात्मक विश्लेषण के लिए यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि किसी विशेष तत्त्व के प्रकार्य प्रत्यक्ष हैं अथवा निहित ( Latent ) । ऐसा करने से ही प्रकार्य की वास्तविक प्रकृति तथा उनके सामाजिक प्रभावों को समझा जा सकता है । प्रकार्या त्मक विश्लेषण में मर्टन ने अनेक ऐसी स्थितियों की भी चर्चा की जिसमें किसी सामाजिक इकाई के कार्य से न तो सामाजिक व्यवस्था में अनुकूलन बढ़ता है और न ही उससे कोई विघटनकारी दशा उत्पन्न होती है । ऐसे कार्य को मर्टन ने नकार्य ( Non – function ) का नाम दिया । इस तरह मर्टन ने प्रकार्यवाद को सामाजिक शों के विश्लेषण की एक पद्धति के रूप में ही स्वीकार किया है । उन्होंने इस पद्धति की सीमाओं और इसे उपयोग में लाने की सावधानियों का उल्लेख करते हुए यह बतलाया कि प्रकार्यवाद का सम्बन्ध किसी आदर्श दशा को शात करने से न होकर एक प्रत्यक्षवादी शान से है ।

 

 

प्रकार्यवादी सिद्धांत

 

सर्वप्रथम ‘FUNCTION’ शब्द की चर्चा हरबर्ट स्पेन्सर की रचनाओं में आई लेकिन FUNCTION शब्द की वैज्ञानिक अवधारणा के रूप में प्रयोग करने का श्रेय फ्रेंच विचारक इमाइल दुर्शीम ने अपनी पुस्तक The rules of sociological Method (1895) में की है।  उनके अनुसार टाइप्य किसी व्यवस्था की किसी भी इकाई का वह योगदान जो व्यवस्था की आवश्यकता पूर्ति में सहायता प्रदान करता है उसे ‘प्रकार्य’ कहते हैं।]  में हे प्रकार्य को दो भागों में बाँटा है-

 

          1.धनात्मक प्रकार्य (Positive function)

          2.ऋणात्मक प्रकार्य (Negative Function) 

 

       धर्म को जहाँ में उसने कई धनात्मक प्रकार्यो – अनुशासन, संगठन आदि की चर्चा की वहीं आत्महत्या के ऋणात्मक प्रकारों की चर्चा की है।  इमाईल दुर्थीम के बाद प्रकार्य शब्द पर विशद विश्लेषण हमें रेडक्लिफ ब्रान और मौलिनोस्की की रचनाओं में मिलता है।  रेडक्लिफ ब्र ने ने टाइप्य शब्द को दो भागों में बाँटा है-

 

                     1.यूनोमिया (Eunomia) 

                     2.डिस्नोमिया (Dysnomia) 

 

     यूनोमिया से इनका तात्पर्य इकाई का इंतजाम स्वाभाव प्रभाव से है और डिसनोमिया से तात्पर्य हानिकारक प्रभाव से है। 

 

 

बी0 मौलिनोस्किनी ने अपनी पुस्तक A Scientific Study of Culture and Argonoutes of the Western Pacific में प्रकार्यावाद का विशद विश्लेषण किया।  ब्रून और मौलिनोस्किी दोनों विद्वानों ने टाइप्यवाद के तीन मौलिक मान्यताओं की चर्चा की है- 

 

                     1.यूनिवर्सल टाइपिज्म (Universal Functionalism)

                     2.प्रकार्यात्मकता (Functional Unity) और

                     3.प्रकार्यात्मक अपरिहार्यता (Functional Indespensability) 

 

      सार्वभौमिक प्रकारवाद की मान्यता के अनुसार सामाजिक व्यवस्था की प्रत्येक इकाई।  किसी-न-किसी प्रकार्य में योगदान देता है।  अतः कोई भी इकाई ऐसी नहीं है जो कुछ-न-कुछ सहयोगात्मक न हो।  इसलिए सम्पूर्ण इकाईयाँ प्रकार्यात्मक होते हैं।  इस सिद्धांत को सार्वभौमिक प्रकार्यावाद कहते हैं।

                                प्रकार्यात्मक एकता से तात्पर्य यह है कि जब व्यवस्था की सारी ईकाइयाँ प्रकायात्मक हा हैं तो इन सभी इकाइयों में एकता स्थापित होती है । इस तरह प्रत्येक इकाई सहयोगात्मक की होती है । अतः सभी इकाई अपना-अपना प्रकार्य करते हुए प्रकार्यात्मक एकता बनाए रखता है l प्रकार्यात्मक अपरिहार्यता से तात्पर्य यह है कि जब सारी इकाईयाँ प्रकार्य करता ह साथ ही प्रकार्यात्मक एकता स्थापित किये होती है तो उसमें से कोई भी इकाई की व्यवस्था स हटाया नहीं जा सकता है । अतः प्रत्येक इकाई का अपना महत्त्व है इसलिए किसी भी इकाइका व्यवस्था से निष्कासित नहीं किया जा सकता है ।

                          आधुनिक समाजशास्त्रीय जगत में प्रकार्यवाद का व्यापक विश्लेषण अमेरिकी समाजशास्त्री आर० के मर्टन ने किया । इन्होंने अपनी पुस्तक The Social Theory and Social Structure में न केवल प्रकार्यवाद को समाजशास्त्रीय जगत में वापस लाया बल्कि इसकी पुनव्याख्या का ।

                  प्रकार्यवादी सिद्धांत के प्रमुख समर्थक टॉलगट पारसन्स हैं इन्होंनी अपनी पुस्तक The Structure of Social Action ( 1837 ) तथा The Social System ( 1851 ) में प्रकार्यवाद का स्थापित करने का प्रयास किया है । इनके अनुसार , किसी भी सामजिक व्यवस्था का तीन पूर्व आवश्यकताएँ (Pre-requisties) होती है ।

 

 

                 1.जैविकीय पूर्व आवश्यकताएँ (Biological Pre-requisites)

                     2.सांस्कृतिक पूर्व आवश्यकताएँ (Cultural Pre-requisites) एवं,

                     3.प्रकार्यात्मक पूर्व आवश्यकताएँ (Functional Pre-requisites) 

 

 

पारसन्स ने इन तीन पूर्व आवश्यकताओं में सबसे अधिक बल प्रकार्यात्मक पूर्व आवश्यकता पर दी है और बतलाया है कि किसी भी समाज व्यवस्था की चार प्रकार्यात्मक पूर्व आवश्यकताएँ होती हैं जिनकी पूर्ति उस व्यवस्था की चार उप-व्यवस्थाएँ करती हैं । ये चार पूर्व आवश्यकताएँ  हैं-

1.प्रतिमान निरूपण एवं तनाव की मुक्ति (Latency)

2.लक्ष्य की प्राप्ति (Goal Attainment)

3.अनुकूलन (Adaptation) एवं

4.एकीकरण (Integration)

 

 इसे संक्षेप में AGIL भी कहा जाता है । साथ ही चार पूर्व उप-व्यवस्थाएँ भी हैं-

 

            1.मूल्य व्यवस्था (Value System)

            2.राजनीतिक व्यवस्था (Political System)

            3.आर्थिक व्यवस्था (Economic System) एवं

            4.सामाजिक व्यवस्था (Social System) 

 

 

मूल्य – व्यवस्था जहाँ Latency की आवश्यकता की पूर्ति करती है वहीं राजनीतिक व्यवस्था लक्ष्य – प्राप्ति से संबंधित आवश्यकताओं की पूर्ति करती है ; अर्थव्यवस्था का संबंध अनुकूलन से तथा एकीकरण का संबंध सामाजिक व्यवस्था से है । इस तरह पारसन्स का कहना है कि यह चारों उप – व्यवस्थाएँ क्रमशः चार तरह की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । इसे संक्षेप में इस रह देख सकते है-

                     Sub – System                         Pre – requisites 

                          Value                                    Latency 

                         Political                                  Goal

                        Economic                             Adaptation

                         Social                                  Integration

 इसके अलावा पारसन्स ने पाँच जोड़े Pattern Variables की चर्चा की है । इसमें उन्होंने यह बतलाया है कि यदि कोई कर्ता किसी भी क्रिया को करना चाहता है तो उसके समक्ष दो विकल्प होते हैं जिसमें से वह किसी एक को चनता है तथा सामाजिक क्रिया करता है । यह पाँच जोड़ Pattern Variable निम्नलिखित है । 

 

 

                           1.अनुशासन मुक्ति बनाम अनुशासन बद्धता 

                           2.स्वहित बनाम परहित

                           3.विशिष्टवाद बनाम सार्वभीमिक 

                           4.अंश बनाम सम्पूर्ण एवं 

                            5.प्रदत्त बनाम अर्जित

 

 अतः स्पष्ट है कि पारसंस ने सामाजिक परिवर्तन को समझने के लिए बारीक विश्लेषण किया है । 

 

 MUST READ THIS

 

 

 MUST READ THIS

 

आर० के० मर्टन :

 

 

अमेरिकी समाजशास्त्री राबर्ट किंग्सले मर्टन ने समाजशास्त्रीय जगत में प्रकार्यवादी विश्लेषण पर काफी बल दिया है अतः उन्हें प्रकार्यवाद के समर्थकों में से एक माना जाता है । मर्टन न केवल पारसन्स के समकालीन हैं बल्कि उनके शिष्य भी रह चुके हैं , फलस्वरूप मर्टन पर पारसन्स का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है । टॉलकट पारसन्स के अलावे मैक्स – वेवर तथा डव्ल्य० आई० थामस ( W.I.Thomas) का प्रभाव भी मर्टन पर पड़ा है । मर्टन ने मैक्स वेवर के सामाजिक क्रिया के ‘ Frame Work ‘ को स्वीकार करते हुए उनके विश्लेषण की तकनीकी को भी स्वीकार किया है । इसी तरह ने डब्ल्यू० आई० थामस के सामाजिक घटनाओं के विश्लेषण में सामाजिक परिस्थिति की महत्ता को भी स्वीकार किया है । यद्यपि मर्टन सर सामाजिक क्रिया के सिद्धांत तथा सामाजिक व्यवहारवाद ( Social Behaviour ) का काफी प्रभाव पड़ा है , लेकिन सामाजिक घटनाओं के विश्लेषण में मर्टन का दृष्टिकोण बिल्कुल अलग है । मर्टन की अध्ययन – पद्धति को पैराडाइम ( Paradiom ) कहते हैं जिसके आधार पर उन्होंने प्रकार्यवाद के विश्लेषण को प्रस्तुत किया है । 

         प्रकार्यवादी विश्लेषण कोई नई घटना नहीं है बल्कि इस तरह के विचार हमें पूर्व के समाजशास्त्रियों एवं सामाजिक की रचनाओं में देखने को मिलता है । लेकिन समाजशास्त्रीय जगत में इस विचारधारा को पुनः लाने और इसे स्थापित कर सवल आधार देने का श्रेय मर्टन को ही जाता है । मर्टन ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि प्रकार्यवाद के संबंध में हमें लिखित सामग्री बहुत मिलती है । साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि प्रकार्यात्मक विश्लेषण (Functional analysis) पद्धति , सिद्धांत एवं तथ्य तीनों पर आधारित है (Method Principles & Facts) जिसमें सबसे कमजोर पथ पद्धति का ही है l

      मर्टन ने प्रकार्य (Function) शब्द को न केवल समाजशास्त्र में लाया बल्कि इसकी पुनः व्याख्या की और इसके अलावे अन्य अवधारणाओं जैसे – प्रकार्य तथा अनेक प्रकारों प्रकट (Manifest) एवं अप्रकट (Latew) आदि की चर्चा की । मर्टन से पहले दर्शीम (Durkheim) रेडक्लीफ ब्राउन (R. Brown) , मौलिनोवस्की (Malinowski) आदि विद्वान प्रकार्यवाद की चर्चा कर चुके थे । ब्राउन एवं मैलिनोवस्की ने प्रकार्यवाद की तीन मान्यताओं की चर्चा की थी । पहली , समाज का हर तत्व निश्चित रूप से बने रहने में योगदान देता है यदि ऐसा नहीं करे तो वह अस्तित्वहीन हो जाएगा । दूसरी , सभी तत्वों के बीच प्रकार्यात्मक एकता पायी जाती है एवं तीसरी . किसी भी तत्व को अलग नहीं किया जा सकता है । मर्टन ने इन तीनों ही मान्यताओं का खण्डन किया।

                   रेडक्लिफ ब्राऊन एंड मौलिनोवस्की द्वारा प्रतिपादित प्रकार्यावाद की पहली मान्यता का खण्डन करते हुए मर्टन ने लिखा है कि मानवशास्त्रियों ने इस मान्यता के आधार पर समाज का जिस प्रकार व्यावहारिकता का उल्लेख किया है, उसकी वास्तविकता परीक्षण या द्वारा ज्ञात करना आवश्यक हैं।  यह सच है कि प्रत्येक समाज में कुछ एकता अवश्य विद्यमान होती है लोकना समाजा म एकाकरण का यह स्तर अलग – अलग हो सकता है।  इसकी तात्पर्य यह है कि समाज में जो ‘प्रचलन’ व्यवहार प्रकार कार्यात्मक होते हैं, दूसरे समाज या समूह में अकार्यवादी भा हा सकते हैं।  इस दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि प्रकार्यात्मक विश्लेषण करते समय विभिन्न इकाइयों के प्रकारों की विशेषताओं को निश्चित रूप से समझा जाए।  इसी की सहायता से यह समझा जा सकता है कि किसी विशेष समाज में सामाजिक एकीकरण उत्पन्न करने में विभिन्न इकाईया के प्रकार्य कैसे और कितना योगदान करते हैं। 

               ब्राउन एवं मौलिनोवस्की की दूसरी मान्यता का खण्डन करते हुए मर्टन ने कहा कि यह आवश्यक नहीं है कि संस्कृति के स्थापित तत्व के रूप में प्रत्येक परम्परा समाज को बनाए रखने में निश्चित ही सहयोगी हो।  दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जो परम्पराएँ कई पीढ़ियों तक समाज को सुरक्षित प्रदान करती रहती है वे कभी – कभी या किसी विशेष अवधि में या तो अनुपयोगी सिद्ध होने लगती है या समाज में परिवर्तन की दशा उत्पन्न कर देती है।  उदाहरणार्थ, भारत में जाति प्रथा के परम्परागत प्रकार्य वर्तमान समय में उसके अकार्य बन गए हैं और यह प्रथा सामाजिक व्यवस्था को पशु प्रदान करने की जगह उसमे परिवर्तन उत्पन्न करने लगी है।  इस प्रकार मर्टन यह स्वीकार नहीं करता है कि किसी भी इकाई के प्रकार्यो की प्रकृति सार्वभौमिक होती है।  उनका कथन है कि संस्कृति या सामाजिक संरचना का कोई तत्व प्रकार कार्यात्मक भी हो सकता है, लेकिन यह मान लेना उचित नहीं है कि ऐसा प्रत्येक तत्व कोई न कोई प्रकार्य अवश्य होगा।

               ब्राऊन एवं मौलिनोवस्की की तीसरी मान्यता को भी अस्वीकार करते हुए मर्टन ने कहा है कि ऐसा नहीं है कि ‘प्रत्येक प्रकार की सभ्यता’ रीति – रिवाज, भौतिक तत्व, विचार और विश्वास आदि कुछ सामाजिक प्रकारों को पूरा करते हैं।  मर्टन का कथन है कि इस वाक्यांश से यह पता नहीं चल रहा है कि इसके द्वारा मैलिनोवस्की टाइप्य की अपरिहार्यता को स्पष्ट करना चाहते हैं या उनका तात्पर्य सांस्कृतिक तत्वों की अपरिहार्य से है।  वास्तविकता यह है कि टाइप्य की अपरिहार्य की मान्यता को दो परस्पर संबंधित दशाओं के आधार पर ही समझा जा सकता है।  पहला यह की कुछ प्रकार्य इसलिए अपरिहार्य होते हैं कि यदि वे अपना कार्य के द्वारा न तो समाज के अस्तित्व को बनाकर रख सकते हैं।  इसकी तात्पर्य यह है कि प्रत्येक समाज में कुछ प्रकार्य वे होते हैं जो समाज का निर्माण करने वाली पूर्व परिस्थितियों को उत्पन्न करते हैं।  उन्हें मर्टन ने समाज की “टाइपस्टिक पूर्व संस्थानों” (कार्यात्मक पूर्व – आवश्यकताएं) कहा और उसी के आधार पर उन्होंने ‘टाइपस्टिक पूर्व’ आवश्यकताओं के संदर्भ को प्रस्तुत किया।  दसरी दशा की चर्चा करते हुए मर्टन ने बतलाया कि प्रत्येक समाज के कुछ निश्चित सामाजिक और सांस्कृतिक स्वरूप होते हैं जो इन टाइपो को पूरा करने में सहयोग देते हैं।  इस मान्यता को सरल रूप से प्रस्तुत करते हुए मटेन ने कहा कि जिस प्रकार समान प्रकृति के तत्वों के एक दसरे से भिन्न प्रकृति वाले कई प्रकार्य होते हैं, उसी प्रकार एक ही तरह का प्रकार्य कई इकाइयों से भी संबंधित हो सकता है।  इसकी तात्पर्य है कि मर्टन ने टाइप्य की अपरिहार्यता का इसका संबोधित रूप में “प्रकार्यात्मक विकल्प (Functional-alternatives) के रूप में प्रस्तुत किया।

                                  मर्टन का कहना है कि प्रकार्य शब्द की व्याख्या के क्रम में अनेक विद्वान इसे अब तक अनेक रूप में व्यवहार कर चुके हैं । अतः एक शब्द प्रकार्य के लिए विविध अवधारणाओं की एक समस्या खड़ी हो गयी है । प्रकार्य शब्द का प्रयोग उपयोगिता , उद्देश्य , परिणाम , लक्ष्य आदि – आदि के रूप में अब तक किए गए हैं । इनका यह भी कहना है कि प्रकार्य की अवधारणा वैषयिक ( Objective ) एवं अवलोकनीय है । प्रकार्य की परिभाषा देते हुए इन्होंने लिखा है कि किसी भी इकाई अथवा तत्व की वह गतिशीलता जो इस व्यवस्था को बने रहने में मदद दे या दूसरी व्यवस्थाओं के साथ अनुकूलन में मदद दे तो उसे प्रकार्य कहते हैं । मर्टन का कहना है कि हर इकाई न तो हमेशा प्रकायामक होती है और न ही सार्वभौमिक । यहीं उन्होंने दुर्थीम , ब्राउन एवं मैलिनोवस्की के विचारों की आलोचना की है । इसका कहना है कि हर व्यवस्था में कुछ ऐसी इकाइयाँ होती हैं जो व्यवस्था की आवश्यकता की पूर्ति में बाधा डालने की चेष्टा करती है या बाधा डालती है या फिर व्यवस्था के संतुलन को कमजोर करती है । अतः ऐसी क्रियाशीलता प्रकार्य न कहलाकर अकार्य कहलाती है । इस तरह यह मर्टन ने अकार्य शब्द की चर्चा की है । इनका यह भी कहना है कि एक ही तत्व व्यवस्था के लिए एक समय में प्रकार्यात्मक हो सकता है दूसरे समय में अकार्यात्मक भी । साथ ही , जो एक समूह के लिए प्रकार्यात्मक है वह दूसरे के लिए अकायामक हो सकता है अतः फिर ब्राउन एवं मैलिनीवस्की के खिलाफ इनका कहना है कि हर तत्व का समाज में बना रहना आवश्यक नहीं है , जो तत्व अकार्यात्मक हो चुके हैं उन्हें हटाया जा सकता है । इस आधार पर इन्होंने तत्वों की अपृथकता भी मान्यता को भी अस्वीकार कर दिया है ।

               स्पष्टतः मर्टन के अनुसार समाज के हर तत्व के दोनों ही पक्ष होते हैं । किसी भी तत्व की वह क्रियाशीलता जो व्यवस्था को धनात्मक योगदान करती है वह प्रकार्य कहलाता है जो ऋणात्मक योगदान करती है वह अकार्य कहलाता है । उदाहरणार्थ यदि धर्म किसी भी समाज में लोगों को एकता के सूत्र में बाँधता है , जिससे समाज का संगठन मजबूत होता है तो यह धर्म का प्रकार्य है । लेकिन यदि धर्म आपस में ईर्ष्या , द्वेष और वैमनस्य को फैलाता है जिसके फलस्वरूप धार्मिक दंगे होते हैं तो यह धर्म का अकार्य है । इस तरह प्रकार्य और अकार्य को अनेकों उदाहरण द्वारा समझाया जा सकता है । उदाहरणस्वरूप , किसी भी संगठन द्वारा यदि अपने कर्मचारियों को कालबद्ध पदोन्नति देने की व्यवस्था है और यदि इससे कर्मचारियों की कार्य – कुशलता बढ़ती है , उनके बीच की आपसी प्रतिद्वन्द्विता घटती है तो यह इसका प्रकार्य है । लेकिन कालबद्ध प्रोन्नति के परिणामस्वरूप कर्मचारियों में शिथिलता आती है और यह उनकी कार्य – कुशलता को घटाती है तो यह इसका अकार्य है । 

       प्रकार्य , अकार्य के अलावे मर्टन ने नकार्य [Non-Function] का भी उल्लेख किया है । इनके अनुसार हर व्यवस्था में कुछ ऐसे तत्व होते हैं जो न तो व्यवस्था को तोड़ने की चेष्टा करते हैं और न ही इसके संगठन को मजबूत रखते हैं । ऐसे तत्वों को ही मर्टन ने नकार्य कहा है , जैसे – पर्दा – प्रथा । मध्यकाल में चाहे प्रदा – प्रथा के जो भी प्रकार्य रहे हों लेकिन आज के इस औद्योगिक समाज में इसकी कोई प्रकार्यात्मक महत्ता नहीं है । फिर भी यह निम्न मध्यम वर्गीय कुछ मुस्लिम परिवारों में प्रचलन में है जिसका कोई अकार्यात्मक पक्ष भी नहीं है । इस तरह नकार्य वह है जिसका व्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । 

          अकार्य की चर्चा को आगे बढ़ाते हुए मर्टन का कहना है कि जब समाज में इसकी मात्रा काफी बढ़ जाती है और सामाजिक नियंत्रण के अधिकरण इन्हें रोकने में असमर्थ हो जाते हैं तो समाज में परिवर्तन अवश्यम्भावी हो जाती है । इस तरह मर्टन के अनुसार अकार्यात्मक विधि बढ़ने से ही व्यवस्था में परिवर्तन आता है ।

          अपने विश्लेषण के क्रम में मर्टन ने प्रकार्य एवं अकार्य को पनः दो भागों में बाँटा है – प्रकट एवं अप्रकट । मर्टन ने दोनों शब्दों को फ्रायड के स्वप्न के सिद्धांत से लिया है । इनके अनुसार । प्रकट प्रकार्य , उस प्रकार्य को कहते हैं जो समाज के सदस्यों द्वारा इच्छित एवं स्पष्ट रूप स प्रमाणित होता है । दूसरी तरफ अप्रकट प्रकार्य उसे कहते हैं जो न तो इच्छित होता है और न हा स्पष्ट रूप से प्रमाणित । इनके अनसार अप्रकट संबोधन से समाजशास्त्रियों को एक नवीन दृष्टि प्रदान होती है जिससे वह अनुसंधान कार्य में और प्रवीण हो जाता है । अतः मर्टन के अनुसार समाजशास्त्रियों का काम समाज के बाकी छिपे रहस्यों का पता लगाना है ।

प्रकट एव अप्रकट का कई उदाहरणों से समझा जा सकता है । मर्टन ने होपी जनजाति का उदाहरण दिया है । इनका कहना है कि इस जनजाति के लोग वर्षा लाने के लिए एक साथ इकट्ठा होकर कुछ सासारिक अनुष्ठान करते हैं । इस अनुष्ठान से वर्षा तो नहीं होती पर होपी जनजाति के विखड़े सदस्य एक जगह जमा होकर सामूहिक रूप से कार्य करते हैं , उनकी एकजुटता मजबूत होती है । यह मामूली उपलब्धि नहीं है । यही इस अनुष्ठान का अप्रकट प्रकार्य है । इसी तरह निकटाभिगमन निषेध आज दुनियाँ के सभी समाजों में मान्य है । इसका प्रकट प्रकार्य यह है कि इससे परिवार में यौन संबंध के लिए ईर्ष्या एवं झगड़े नहीं होते । अतः परिवार संगठित रहता है पर इसका अप्रकट प्रकार्य यह है कि निकट रक्त संबंधियों के बीच यौन संबंध निषेध से बच्चे बदसूरत एवं अपंग नहीं होते । 

 

                थर्सटीन बेवलीन ने बताया कि कीमती चीजों को खरीदना विलासी वर्ग में काफी प्रचलित है । कीमती चीजों के खरीदने का प्रकट प्रकार्य यह है कि यह हमारी जरूरतों की पूर्ति करता है , पर इसका अप्रकट प्रकार्य यह है कि यह खरीदने वाले की उच्च आर्थिक हैसियत का सूचक वन जाता है। 

               इसी तरह अकार्य के भी प्रकट एवं अप्रकट स्वरूप को समझा जा सकता है , जैसे – किसी कारखाने में कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी तो इसका प्रकट अकार्य यह है कि इससे उत्पादन ठप पड़ जाता है , पर यदि हड़तालियों ने आमरण अनशन कर दिया और उसमें से कोई एक कर्मचारी मर गया तथा कर्मचारियों ने कारखाने में तोड़ – फोड़ कर दी तो यह अप्रकट अकार्य है , क्योंकि इसकी आशा किसी ने नहीं की थी ।

                   उपर्युक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि मर्टन ने प्रकार्यात्मक विश्लेषण की एक विस्तृत रूप – रेखा प्रस्तुत की है । लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से मर्टन संहित प्रकार्यावाद की भी तीखी आलोचना की गयी है और यह सिद्धान्त लोकप्रियता की दृष्टि से कमजोर साबित हुआ है । इसका प्रमुख कारण यह है कि इन वर्षों में समाजशास्त्र के क्षेत्र में अनेक उपयोगी पद्धतियों का विकास हुआ है – जैसे विनिमय – सिद्धान्त , लोकविधि विज्ञान आदि । इसके अतिरिक्त प्रकार्यवादी विश्लेषण अनेक ऐसी मान्यताओं को लेकर चलता है जिसकी व्यवस्था की जाँच आवश्यक है क्योंकि उन्हें किसी भी रूप में स्वयंसिद्ध नहीं माना जा सकता । पर्शियस कोहन (Percys Cohen) ने प्रकार्यवाद से संबंधित समस्त आलोचनाओ को तीन भागों में बाँटा है-

 

                    1.तार्किक

        2.मौलिक एवं वैचारिकीय

         3.तार्किक

 

आलोचनाओं में कोहेन के अनुसार प्रकार्यवाद उद्देश्यपरक व्याख्या को बढ़ावा देता है । यह ऐसी उपकल्पनाओं का सुझाव देता है जो जाँच के योग्य नहीं है साथ ही , यह ऐसे वैज्ञानिक स्तर की जाँच करता है जो समाजशास्त्र में विद्यमान नहीं है । 

                   मौलिक आलोचनाओं में कोहेन का कहना है कि प्रकार्यवाद सामाजिक जीवन में आदर्शात्मक तत्वों पर आवश्यकता से अधिक बल देते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि सामाजिक स्थायित्व की कीमत पर सामाजिक संघर्ष के महत्त्व को कम कर देता है । प्रकार्यवाद में सामाजिक व्यवस्था के सामंजस्यपूर्ण प्रकृति पर इतना जोर दिया गया है कि यह सामाजिक  परिवर्तन के महत्त्व को समझाने में असफल रहता है । वैचारकीय आलोचनाओं में कोहेन के अनुसार प्रकार्यवाद रूढ़िवादी पूर्वाग्रहों को बढ़ावा देता है । इसके पीछे तर्क यह है कि प्रकार्यवाद सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न भागों के बीच सामंजस्य – पूर्ण संबंधों पर बल देकर यह सिद्ध करने की कोशिश करता है कि सभी व्यवस्थाएँ विश्व की सबसे अच्छी सम्भावित विशेषताओं में से है । 

          मर्टन की आलोचना करते हुए कहा गया है कि वे यह निश्चय नहीं कर पाए हैं कि उनके सिद्धांत में अध्ययन पद्धति की क्या भूमिका होगी । साथ ही , मर्टन के प्रकार्य और अकार्य की अवधारणाएँ काफी अस्पष्ट हैं क्योंकि इनके अनुसार कोई भी परिणाम किसी के लिए प्रकार्यात्मक हो सकते हैं तो दूसरे के लिए अकार्यात्मक । ऐसी स्थिति में प्रकार्य एवं अकार्य के बीच स्पष्ट विभाजन रेखा नहीं खींची जा सकती है । मर्टन का कहना है कि समाज में जब अकार्य की मात्रा बढ़ती है तो परिवर्तन होता है । लेकिन , आलोचकों का कहना है कि अकार्य ही मात्रा बढ़ने से समाज में परिवर्तन नहीं होगा बल्कि समाज का विघटन होगा ।

           On the basis of all the above discussions, it can be concluded that Merton’s contribution is that he not only brought functionalism from anthropology to the field of sociology but also gave its vitality. Although Merton has been criticized, it is true that functionalism has been a strong ideology in the sociological world in the first half of the 20th century.

प्रकार्यवाद क्या है प्रमुख विशेषताएं बताएं?

प्रकार्यवाद का अर्थ है कि सामाजिक प्रणालियां मानव शरीर की जैविक प्रणाली के समान हैं। इन प्रणालियों में सामाजिक प्रक्रियाएं तथा संस्थाएं वही काम करती हैं तथा सामाजिक प्रणालियों को जीवित रखने के उद्देश्य को लेकर उसी प्रकार चलती हैं, जिस प्रकार मानव, शरीर में प्रकार्यात्मक प्रक्रियाएं काम करती हैं।

प्रकार्यवाद का जनक कौन है?

विलियम जेम्स (1842-1910) द्वारा प्रकार्यवाद की स्थापना अमेरिका के हारवर्ड विश्वविद्यालय में की गयी थी।

प्रकार्यवादी सिद्धांत किसका है?

समाजशास्त्र में प्रकार्यवादी सिद्धान्त के जनक इमाइल दुर्खिम को माना जाता है जिन्होंने यह बताया था कि समाज में एकता बनाए रखने के लिए धर्म, नैतिक आधार प्रदान करता है। धर्म के आधार पर समाज के नैतिक मूल्य, समाज के एकाकी स्वरूप को पुष्ट करते हैं।

प्रकार्यवाद क्या है इस संबंध में ब्राउन के विचार स्पष्ट कीजिए?

रैडक्लिफ ब्राउन का प्रकार्यवाद : - ब्राउन का मत है कि मानव समाज के अस्तित्व के लिए कुछ आवश्यक दशाएं हैं जिस प्रकार से जीवों अथवा सावयव को जीवित रखने के लिए कुछ आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति जरूरी है । उन्होंने बताया कि शरीर की एक संरचना होती है जो अंगों के निश्चित सम्बन्धों से बनती है ।