भक्ति योग से आप क्या समझते हैं? - bhakti yog se aap kya samajhate hain?

भक्ति योग का संक्षिप्त परिचय - भक्ति का मार्ग। A brief introduction to Bhakti Yoga - The path of devotion

भक्ति योग के सन्दर्भ में, आदर्श योगी (जो भगवान के साथ पूर्णतयः एकरूप है) कोण है ? इस अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान श्री कृष्ण, भगवद गीता में कहते हैं।

श्रीभगवानुवाच
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥१२- २॥

“जो व्यक्ति अपना मन सिर्फ मुझमें लगाता है और मैं ही उनके विचारों में रहता हूँ, जो मुझे प्रेम और समर्पण के साथ भजते हैं, और मुझ पर पूर्ण विश्वास रखते हैं, वो उत्तम श्रेणी के होते हैं। ” यही भक्ति योग का सार है

भक्ति योग क्या है ?। What is Bhakti Yoga?

भक्ति व योग संस्कृत के शब्द हैं ; योग का अर्थ है जुड़ना अथवा मिलन; और भक्ति का अर्थ है दिव्य प्रेम, ब्रह्म के साथ प्रेम, परम सत्ता से प्रेम।

भक्ति वह नहीं जो हम करते हैं या जो हमारे पास है  - अपितु वह जो हम हैं। और इसी की चेतना, इसी का ज्ञान ही भक्ति योग है। परम चेतना का अनुभव और उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं - मैं सबसे अलग हूँ - इस बात का विच्छेद, इसको भूल जाना ; संसार, जगत द्वारा दी हुई सभी पहचान का विस्मरण, उस परम चेतना, अंतहीन सर्वयापी प्रेम से मिलन, साक्षात्कार, प्रति क्षण अनुभव ही वास्तव में भक्ति योग है।  

भक्ति योग परमात्मा के साथ एकरूपता की जीवंत अनुभूति है।

भक्ति योग के सिद्धांत और उनका परिचय। Philosophy and a brief introduction to Bhakti Yoga

भक्ति की परिभाषा देना सरल कार्य नहीं है; इसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। हम हर श्वास के साथ भक्ति में लीन हो सकते हैं। यह वो दिव्य प्रेम है जो हमें निखारता है,  उल्लास जगाता है, बदलाव लाता है  और हर पल हमारे अस्तित्व की गहराइयों को छूता  है।

भक्ति, इस दिव्य प्रेम को प्राप्त करने की बजाय उन बंधनों से मुक्त होना है जो हमने इसके विरुद्ध खड़े कर रखे हैं, समझ रखे हैं। यह हमारे भीतर अनंत के द्वार खोलती है। यह हमारे आत्मन का वह दिव्य प्रकाश है जो हमारे नेत्रों से दिव्य प्रेम के रूप में अभिव्यक्त होता है। भक्ति एक अनुभव है, ज्ञान है कि सब कुछ परमात्मा, ईश्वर का प्रतिबिम्ब ही है।  

भक्ति योग का इतिहास। History of Bhakti Yoga

भक्ति, जो कि अनंत से मिलन भी समझा जाता है, मानव सभ्यता जितनी ही पुरानी है। श्वेताश्वर उपनिषद में औपचारिक रूप से इसे अनंत, असीम ईश्वर के प्रति प्रेम कि अभिव्यक्ति के रूप में दर्शाया गया। काफी समय के पश्चात्, श्रीमद भगवद्-गीता में इसे मुक्ति अथवा अंतिम सत्य के अनुभव करने का मार्ग बताया गया। इसके साथ ही नारद भक्ति सूत्र में इसे भगवतम के रूप में बताया गया है।

भक्ति के विभिन्न भाव,रस। Flavors of Bhakti

हरिदास साहित्य में भक्ति के रूपों को इसतरह समझाया है। - इसे पंचविधा भाव भी कहते है।

  • शांतभाव - जब भक्त आनंदमय, शांत, प्रसन्नचित्त होता है और गान अथवा नृत्य द्वारा अपने को अभिव्यक्त न करना।
  • दास्यभाव - हनुमान जी कि भाँति परमात्मा की सेवा करना।
  • वात्सल्यभाव - मैया यशोदा की तरह ईश्वर को शिशु रूप में पालना।  
  • सखाभाव - अर्जुन, उद्धव कि भाँति ईश्वर को मित्र के रूप में देखना।
  • माधुर्य अथवा कान्तभाव - यह भक्ति का सर्वश्रेष्ठ भाव है - जहां भक्त ईश्वर को अपने प्रियतम के रूप में देखते हैं और उनसे प्रेम करते हैं - राधा, मीरा, बृज की गोपियों ने इसी प्रकार का प्रेम, भक्ति करी।

नवविधा भक्ति। Navavidha bhakti

श्रीमद भागवत में भक्ति का ९ रूपों में वर्णन किया गया है।   (श्रीमद भागवत - ७.५.२३)

  • श्रवणं - भगवन के नाम और महिमा सुनना।
  • कीर्तनं - भगवान के स्तुतियों का गायन।
  • स्मरणं - भगवान को याद करना।
  • पाद सेवनं - भगवान के कमल रूपी पैरों की सेवा करना।
  • अर्चनं - भगवान की पूजा करना।
  • वन्दनं - भगवान की प्राथना करना
  • दास्यं - भगवान स्वामी मानना और उनकी सेवा दास भाव से करना।
  • सख्यं - मित्र भाव से भगवान की सेवा करना।
  • आत्म निवेदनं - भगवान को पूरा समर्पित होना।

भक्ति - समर्पण, श्रद्धा का पथ। Bhakti – Path of devotion

एक भक्त ही भय व चिंता से सम्पूर्ण मुक्ति महसूस कर सकता है। एक भक्त ही भौतिक जगत के दुःखों व मुश्किलों से परे जा सकता है।

एक सच्चे भक्त की अपनी कोई व्यक्तिगत इच्छा नहीं होती है, मोक्ष प्राप्त करने की भी नहीं। एक भक्त के हृदय में भक्ति की ज्योत उसपर गुरु कृपा से, सत्संग व अन्य भक्तों की संगति के कारण और भक्तों और साधकों की बातें, किस्से श्रवण करने से सदैव प्रज्वलित रहती है।

"जब नदिया का सागर से मिलन होता है, तब नदी को यह पता चलता है की वो चिरकाल से सागर ही थी ! इसी प्रकार जिस क्षण एक भक्त श्रद्धा भाव से ईश्वर के प्रति समर्पित हो जाता है, वोह तत्क्षण ईश्वर हो जाता है। "

~ श्री श्री रवि शंकर

भक्ति योग से आप क्या समझते हैं? - bhakti yog se aap kya samajhate hain?

क्ति- योग की अवधारणा को अच्छी तरह से समझने के लिए सर्वप्रथम हमें भक्ति और योग के वास्तविक अर्थ को समझना चाहिए। वृहत हिंदी कोश के अनुसार भक्ति का अर्थ है सेवा, आराधना, इष्ट या पूज्य व्यक्ति के प्रति अनुराग, ईश्वर के प्रति समर्पण, श्रद्धा, विभाग आदि है। योग के तीन मुख्य अर्थ माने गए हैं- जुड़ना, समाधि, संयम। वस्तुत: योग समाधि के अर्थ में ही लिया जाना चाहिए। अपने स्वरुप में स्थित हो जाना ही समाधि है। संक्षेप में अपने आप में स्थित हो जाना ही योग या समाधि है। इस प्रकार भक्ति -योग का अर्थ है इष्ट की सेवा, अनुराग, श्रद्धा या समर्पण द्वारा अपने स्वरूप में स्थित होना। भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में मोक्ष को परम पुरुषार्थ कहा गया है। मोक्ष है मोह का क्षय। मोह या आसक्ति ही हमारे दु:ख का सबसे बड़ा कारण है। आसक्ति का कारण अविद्या है। अविद्या ही मनुष्य के दुखों की जननी है। योग मनुष्य की अविद्या को दूर करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। इसीलिए भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में योग को शीर्ष स्थान प्राप्त है। सभी भारतीय दर्शन (चार्वाक को छोड़कर) योग को अपने यहां प्रमुख स्थान देते हैं। योग की मुख्यतया तीन विधाएँ हैं- ज्ञान योग, कर्म योग तथा भक्ति योग। चिंतन, मनन और अध्यवसाय द्वारा अपने स्वरूप में स्थित होना ही ज्ञान योग है।

इस संसार में सबसे अधिक जो खून खराबा हुआ है, उसमें अंध श्रद्धा की सबसे अधिक भूमिका रही है। इस संसार
में लोग धर्म- मजहब और संप्रदाय में बंट कर अपने अपने ही इष्ट को समस्त संसार का रचयिता, पालनहार और
ब्रम्हांडनायक मानते हैं। जबकि यह धारणा ही घोर असत्य है।

अपने निहित स्वार्थों को त्यागकर सर्वभूत के कल्याण हेतु निष्काम कर्म कर अपने स्वरूप में स्थित होने के मार्ग को कर्म योग कहते हैं। इष्ट की सेवा, उसके प्रति समर्पण, अनुराग, श्रद्धा द्वारा अपने स्वरूप में स्थित होना ही भक्ति योग है। आइए अब हम भक्ति- योग के स्वरूप को अच्छी तरह से समझने का प्रयास करें। भक्ति का पहला अर्थ सेवा है। सबसे पहला प्रश्न उठता है की हम किसकी सेवा करें? इस सम्बन्ध में अनेको मत हैं। यदि विवेकपूर्वक देखा जाये तो सेवा जानदार की ही की जानी चाहिए। प्राणिमात्र को ही अपना इष्ट मानना और उनमें अपनापन देखकर उनकी सेवा का प्रयास करना ही वास्तविक भक्ति है। पत्थर आदि जड़ मूर्तियों की सेवा करना अविवेक है। इसके उत्तर में लोग यही तर्क देते हैं कि सब कुछ हमारी भावना पर निर्भर करता है। मानों तो देव नहीं तो पत्थर। इसका सरल उत्तर यही है की हमारे मानने मात्र से कुछ नहीं होता। हम चाहे जितनी भावना कर लें, बैल दूध नहीं दे सकता। यह असत्य भावना कभी फलीभूत नहीं हो सकती। आखिर हम सही भावना कर जो जैसा है, उसे वैसा क्यों नही मानते हैं। पत्थर में गलत भावना करने से अच्छा हमें सभी प्राणी जो सजीव हैं, उनकी सेवा की भावना करनी चाहिए।

भक्ति का एक अर्थ सत्य के प्रति अनुराग भी होता है। सत्य क्या है ? सरल उत्तर यही है कि जो अनादि, अनंत, शाश्वत, नित्य तथा अपरिणामी हो, वह सत्य है। जो निरंतर परिवर्तनशील है, वह तो माया है। कबीर कहते हैं कि संतो आवै जाये सो माया अर्थात जो निरंतर परिवर्तनशील है, वह माया है। माया ही तो दु:ख का कारण है। मनुष्य इसी माया में तो उलझा है।

प्राणी, गुरु, श्रेष्ठ जन, महापुरुष की सेवा करने से ही मन की शांति और प्रसन्नता मिल सकती है। प्राणि- सेवा विहीन सेवा निरर्थक ही नहीं, अनर्थ उत्पन्न करने वाली है। भक्ति का दूसरा अर्थ है इष्ट या पूज्य व्यक्ति के प्रति अनुराग। आध्यात्मिक जिज्ञासु के लिए इष्ट या पूज्य वही हो सकता है, जिसका जीवन निर्मल हो और जो स्वयं अपने सत्य स्वरूप में स्थित हो। क्योंकि उसी के उत्तम आदर्श से ही भक्त अपने स्वरूप में स्थित या स्वरूपस्थ हो सकता है। हर एक जिज्ञासु के इष्ट अलग-अलग हो सकते हैं। कोई राम को, कोई कृष्ण, शिव, मुहम्मद, ईशा, कबीर, नानक को अपना इष्ट मानता है। जिनका शरीर छूट गया है, उन्हें भक्ति का आलम्बन बनाने में एक परेशानी होती है कि उनसे जिज्ञासु की जिज्ञासा का समाधान नहीं हो पाता। इसलिए जीवित पूज्य संत तथा सद्गुरु ही श्रेष्ठ हैं। किन्तु सद्गुरु वह हैं, जिनका आचरण शुद्ध हो। समाज में गुरु नामधारी ठग भी बहुत हैं, जो खुद तो बुराइयों में आकंठ डूबे रहते हैं और दूसरों को रिद्धि – सिद्धि , पुत्र, धन, निरोगता, धन- धान्य, मोक्ष आदि देने का झूठा प्रलोभन देते हैं। सांसारिक लोग अपनी इच्छाओं के दास होते हैं। धूर्त गुरु उनकी इस कमजोरी को जानते हैं और उन्हें सांसारिक चीजों का प्रलोभन देकर अपने जाल में फंसाते हैं। इसलिए ऐसे धूर्त गुरुओं से सावधान रहना चाहिए अन्यथा अंधे अँधा पेलिया दोनों कूप पराय वाली कहावत चरित्रार्थ होती है। वैसे आरम्भिक साधना में किसी सद्गुरु की आवश्यकता होती है। इसे अपरा भक्ति कहते हैं। यह भक्ति तम और रज के मलों को धुलने के लिए अनिवार्य होती है। यह भक्ति सांसारिक परदे के भीतर होती है। किन्तु, जिनके ये मल पहले ही धुल चुके हैं, उन्हें अगली सीढ़ी परा- भक्ति के साधना की आवश्यकता होती है। यह श्रेष्ठतम भक्ति है। स्वामी शंकराचार्य परा-भक्ति को इस तरह से परिभाषित करते हैं‘स्व- स्वरूपानुसन्धानं भक्तिरित्यभिधीयते’ अर्थात अपने स्वरूप का अनुसन्धान- स्मरण और स्थिति ही भक्ति है। अंतिम लक्ष्य तो अपने स्वरूप में स्थित होना है जो, अपने स्वरूप की भक्ति से ही मिलती है। साधना की प्रारंभिक स्थिति में बाह्य गुरु या इष्ट की आवश्यकता होती है।

अंतिम गुरु तो हमारी अपनी आतंरिक आत्मा ही है। एक स्थिति के बाद वही हमारा मार्गदर्शन करती है। भक्ति का एक अर्थ सत्य के प्रति अनुराग भी होता है। सत्य क्या है ? सरल उत्तर यही है कि जो अनादि, अनंत, शाश्वत, नित्य तथा अपरिणामी हो, वह सत्य है। जो निरंतर परिवर्तनशील है, वह तो माया है। कबीर कहते हैं कि संतो आवै जाये सो माया अर्थात जो निरंतर परिवर्तनशील है, वह माया है। माया ही तो दु:ख का कारण है। मनुष्य इसी माया में तो उलझा है। बाह्य सांसारिक प्राणी-पदार्थ अनित्य तथा परिवर्तनशील हैं, इसलिए वे सत्य नहीं हैं। हमारी अपनी आत्मा जो कभी हमसे अलग नहीं होती, वही सत्य है, शेष सब माया है। इसलिए, अपने स्वरूप की भक्ति ही वास्तविक भक्ति है और वही हमें सत्य तक पहुंचाती है। मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर, गुरूद्वारे, राम, कृष्ण, शिव, मुहम्मद, नानक, कबीर या किसी गुरु की भक्ति प्रारंभिक साधकों को थोड़ा शांति अवश्य देती है और साधना के एक स्तर पर पहुंचाती है। पूर्ण और असीम शांति के लिए तो अंतत: अपने स्वरुप में ही स्थित होना पड़ता है। भक्ति का एक अर्थ श्रद्धा भी है। यहाँ पर भी यही प्रश्न उठता है कि किसके प्रति श्रद्धा करने से हम मोक्ष प्राप्त करते हैं। श्रद्धा दो पदों का मेल है- श्रत्+ धा, श्रत का अर्थ सत्य और धा का अर्थ धारण करना है। इस प्रकार सत्य का धारण ही श्रद्धा है। स्वाभाविक है की किस पर श्रद्धा की जाये, इसे जानने के पहले सत्य को जानने की भूमिका होती है। पूर्ण सत्य हमारा अपना स्वरूप है, वही हमारा परम प्राप्तव्य है। इसलिए स्वरूप के प्रति श्रद्धावान होना ही सम्पूर्ण दुखों से निवृत्त होने का एकमात्र उपाय है।

अपने से बाहर किसी भी चीज में श्रद्धा करने से केवल दु:ख ही मिलता है। यही अंधश्रद्धा है। अंधश्रद्धा से अच्छी अश्रद्धा है। अश्रद्धा अपना ही अहित करती है किन्तु अंधश्रद्धा तो बहुतों का अहित करती है। संभवत: इस संसार में सबसे अधिक जो खून खराबा हुआ है, उसमें अंध श्रद्धा की सबसे अधिक भूमिका रही है। इस संसार में लोग धर्म- मजहब और संप्रदाय में बंट कर अपने अपने ही इष्ट को समस्त संसार का रचयिता, पालनहार और ब्रम्हांडनायक मानते हैं। जबकि यह धारणा ही घोर असत्य है। पूर्ण सत्य तो आत्मस्वरूप ही है। बाकी सब कुछ क्षणिक और परिवर्तनशील है। इस प्रकार, हम इस निश्चित निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि भक्ति योग में भक्ति का आलम्बन हमारी अपनी आत्मा ही होनी चाहिए। यदि हम इसे सगुण और निर्गुण में बांटें तो कह सकते हैं कि ज्ञान, वैराग्य, क्षमा, शील से युक्त गुरु ही सगुण ईश्वर या भगवान हैं और उनके प्रति अनुराग, श्रद्धा, समर्पण सगुण भक्ति है। किन्तु यह प्रारंभिक भक्ति है। अंतिम भक्ति है तीनों गुणों से परे अपना शुद्ध चेतन स्वरुप-यही निर्गुण भगवान या ईश्वर है। इस प्रकार समस्त दृश्य विषयों से लौटकर स्वरूप में अवस्थित हो जाना ही निर्गुण भक्ति और भक्ति योग है।

आचार्य कौशल कुमार

भक्ति योग का क्या अर्थ है?

हिन्दू धर्म में भक्ति योग से आशय अपने इष्ट देवता में अनुराग रख कर आन्तरिक विकास करने से है। भजन कीर्तन व सत्संग करना। इसे 'भक्ति मार्ग' भी कहते हैं। यह उन तीन मार्गों में से एक है, जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है।

भक्ति योग क्या है इसके प्रकारों को लिखिए?

भक्ति योग के प्रकार.
श्रवण भक्ति - परमपिता परमेश्वर, अपने आराध्य ईष्ट के दिव्य गुणों व लीला आदि के विषय में सुनना श्रवण भक्ति कहलाती है।.
कीर्तन भक्ति - कीर्तन से आप भली भॉति परीचित होंगे। ... .
स्मरण भक्ति - सर्वत्र भगवान का स्मरण करना। ... .
पादसेवन भक्ति- भगवान के चरणों की सेवा करना पाद सेवन भक्ति कहलाती है।.

भक्ति योग कैसे करते हैं?

यह दो प्रकार से किया जाता है। प्रथम भगवान के प्रतिमा के चरणों की सेवा करना द्वितीय मन में भगवान के नाम रूप का चिन्तन करते हुए उनके श्री चरणों में समर्पण भाव से सेवा करना। इसमें भक्त पैरों को धोकर सजाकर मन में उनके प्रति श्रद्धाभाव रखकर साधना करता है।

भक्ति योग के प्रवर्तक कौन हैं?

चैतन्‍य महाप्रभु सोलहवीं शताब्‍दी के दौरान बंगाल में हुए। भगवान के प्रति प्रेम भाव रखने के प्रबल समर्थक, भक्ति योग के प्रवर्तक, चैतन्‍य ने ईश्‍वर की आराधना श्रीकृष्‍ण के रूप में की। श्री रामानुजाचार्य, भारतीय दर्शनशास्‍त्री थे। उन्‍हें सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण वैष्‍णव संत के रूप में मान्‍यता दी गई है।