अधिकतम सामाजिक कल्याण का सिद्धांत क्या है? - adhikatam saamaajik kalyaan ka siddhaant kya hai?

विषयसूची

  • 1 अधिकतम सामाजिक कल्याण से आप क्या समझते हैं पूर्ण प्रतियोगिता में अधिकतम सामाजिक कल्याण को समझाइए?
  • 2 पीकू ने कल्याण को कितने भागों में बांटा है?
  • 3 प्रो पीगू द्वारा प्रतिपादित कल्याणवादी अर्थशास्त्र से आप क्या समझते है?
  • 4 पीगू के कल्याणकारी अर्थशास्त्र का क्या अर्थ है?
  • 5 * आधुनिक अर्थशास्त्र को कितने भागों में बांटा गया है?* 1⃣ सकारात्मक 2⃣ आदर्शक 3⃣ उपरोक्त दोनों 4⃣ इनमें से कोई नहीं?
  • 6 कल्याणवादी क्या है?

अधिकतम सामाजिक कल्याण से आप क्या समझते हैं पूर्ण प्रतियोगिता में अधिकतम सामाजिक कल्याण को समझाइए?

इसे सुनेंरोकेंपरेटो ने सामाजिक कल्याण को अधिकतम करने का एक जांच सिद्धांत प्रस्तुत किया जिसे कुछ अन्य नामों से भी जाना जाता है। उपयोगिता एक क्रम वाचक तत्व है तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए कर्मवाचक उपयोगिता फलन दिया हुआ होता है। उत्पादक या फॉर्म का उत्पादन फलन एक निश्चित अवधि के अंतर्गत दिया हुआ है।

पीकू ने कल्याण को कितने भागों में बांटा है?

इसे सुनेंरोकेंवास्तव में, यह मानदंड किसी भी परिवर्तन के प्रभावों को दो भागों में विभाजित करता है: (1) दक्षता लाभ / हानि; (2) आय वितरण के परिणाम।

प्रो पीगू द्वारा प्रतिपादित कल्याणवादी अर्थशास्त्र से आप क्या समझते है?

इसे सुनेंरोकेंप्रो. पिगु ने कल्याण शब्द को लोकप्रिय बनाया और इसका एक ठोस अर्थ दिया। कल्याण अर्थशास्त्र सामाजिक कल्याण को बढ़ावा देने के लिए वस्तुओं और संसाधनों के आवंटन को संदर्भित करता है। यह लोगों की भलाई के लिए संसाधनों के आर्थिक रूप से कुशल वितरण से संबंधित है।

कल्याणकारी अर्थशास्त्र के जनक कौन हैं?

इसे सुनेंरोकेंअमर्त्य सेन अर्थशास्त्र के लिये 1998 का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहले एशियाई हैं।

पैरेटो अनुकूलतम क्या है?

इसे सुनेंरोकेंपरैटो की सामान्य (अथवा सामाजिक) अनुकूलतम वह स्थिति है जिसके अन्तर्गत साधनों (inputs) अथवा उत्पादन (outputs) पुनराबंटन (re-allocation) द्वारा बिना कम से कम एक व्यक्ति को हीनतर (worse off) किए हुए किसी अन्य व्यक्ति को श्रेष्ठतर (better off) करना सम्भव नहीं होता है।

पीगू के कल्याणकारी अर्थशास्त्र का क्या अर्थ है?

इसे सुनेंरोकेंपीगू के कथनानुसार, “अर्थशास्त्र में आर्थिक कल्याण, सामाजिक कल्याण के उस भाग से है जिसे प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः मुद्रा के मापदण्ड से सम्बन्धित किया जा सकता है।” उन्होने इस बात पर बल दिया कि अर्थशास्त्र में आर्थिक हित का अध्ययन किया जाता है ।

* आधुनिक अर्थशास्त्र को कितने भागों में बांटा गया है?* 1⃣ सकारात्मक 2⃣ आदर्शक 3⃣ उपरोक्त दोनों 4⃣ इनमें से कोई नहीं?

इसे सुनेंरोकेंअर्थशास्त्र की विषय सामग्री के सम्बन्ध में आर्थिक क्रियाओं का वर्णन भी जरूरी है। पूर्व में उत्पादन, उपभोग, विनिमय तथा वितरण – अर्थशास्त्र के ये चार प्रधान अंग (या, आर्थिक क्रियायें) माने जाते थे। आधुनिक अर्थशास्त्र में इन क्रियाओं को पांच भागों में बांटा जा सकता है।

कल्याणवादी क्या है?

इसे सुनेंरोकेंअर्थशास्त्र के क्षेत्र को सीमित करना – प्रो. रॉबिन्स के अनुसार, अर्थशास्त्र की कल्याणवादी परिभाषा अत्यंत संकुचित है क्योंकि इसमें केवल भौतिक वस्तुओं का ही समावेश है और अभौतिक वस्तुओं की उपेक्षा कर दी गई है। अतः यह परिभाषा बहुत ही असन्तोषजनक है।

Contents

  • 1 Principle of Maximum Social Advantage Bcom Public Finance notes
      • 1.0.1 अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त (Principle of Maximum Social Advantage)
    • 1.1 अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त
      • 1.1.1 Follow me at social plate Form
      • 1.1.2 Related

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प्रश्न 4. अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

अथवा अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। इस सिद्धान्त का महत्त्व भी बताइये।

अथवा अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त को समझाइये। यह सिद्धान्त वर्तमान | समय में भारतीय सार्वजनिक व्यय के निर्धारण में किस प्रकार लागू किया जाता है?

अथवा अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त को समझाइये। राज्य की वित्तीय क्रियाओं के लिए इसका क्या महत्त्व है?

उत्तर-व्यक्तियों की भॉति सरकार भी सार्वजनिक आय तथा व्यय में ऐसा सामंजस्य करना चाहती है ताकि अधिकतम सामाजिक कल्याण हो सके। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ऐसे सिद्धान्त को अपनाना आवश्यक हो जाता है जो सार्वजनिक आय एवं सार्वजनिक व्य के बीच उचित समायोजन कर सके। ‘अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त लोक वित्त की क्रियाओं के सम्बन्ध में सरकार के लिए मार्ग निर्देशक की भूमिका का निर्वाह करता है। इस सिद्धान्त को राजस्व का सिद्धान्त’ भी कहा जाता है।

अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त

(Principle of Maximum Social Advantage) इस सिद्धान्त का प्रतिपादन डॉ० डाल्टन द्वारा किया गया है। डाल्टन के अनुसार, ‘राजस्व की सर्वोत्तम प्रणाली यह है जिसमें राज्य अपने कार्यों द्वारा अधिकतम सामाजिक लाभ की प्राप्ति करता है।” | सिद्धान्त की व्याख्या-यह सिद्धान्त इस बात पर जोर देता है कि सरकार द्वारा राजस्व की व्यवस्था इस प्रकार से की जानी चाहिए कि अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त हो । सके, परन्तु प्रश्न यह है कि अधिकतम सामाजिक लाभ कैसे प्राप्त किया जाये अर्थात् । अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त करने के लिए लोक-वित्त की कार्यप्रणाली का स्वरूप क्या। रखा जाये? डाल्टन ने इसकी विवेचना निम्न दो पक्षों के आधार पर की है| आय पक्ष-हम जानते हैं कि सरकार, अपनी आय करों के रूप में प्राप्त करती है। और कर लगाने से समाज पर जो भार पड़ता है उसके फलस्वरूप समाज को ‘अनुपयोगिता प्राप्त होती है। इतना ही नहीं, कर की प्रत्येक अगली इकाई समाज के ऊपर पहले की अपेक्षा अधिक भार डालती है क्योंकि जैसे-जैसे लोगों के पास मुद्रा कम होती। जाती है वैसे-वैसे शेष मुद्रा की उपयोगिता उनके लिये बढ़ती जाती है। कर के रूप में जनता को जो त्याग करना पड़ता है उसे अर्थशास्त्र में सीमान्त सामाजिक त्याग’ (Marginal Social Sacrifice) कहते हैं।

व्यय पक्ष-जब सरकार प्राप्त की गई आय को व्यय करती है तो उससे समाज को ”उपयोगिता” मिलती है लेकिन व्यय की प्रत्येक अगली इकाई, समाज को कम उपयोगिता देती है क्योंकि उपयोगिता ह्रास नियम लागू होने लगता है। सरकारी व्यय से समाज को जा। सन्तुष्टि प्राप्त होती है उसे अर्थशास्त्र में ”सीमान्त सामाजिक सन्तुष्टि’ (Marginal Social | Satisfaction) कहते हैं।

सन्तुलन बिन्दु-डाल्टन के अनुसार अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त करने के लिए। यह आवश्यक है कि ”राजकीय व्यय प्रत्येक दशा में उस सीमा तक बढ़ते रहने चाहिये। जब तक कि उस व्यय से उत्पन्न होने वाला संतोष, राज्य द्वारा लगाये गये करों से उत्पन्न । होने वाले असंतोष (त्याग ) के बराबर न हो जाये। वास्तव में, यह सीमा ही राजकीय आय एवं व्यय में वृद्धि करने की एक आदर्श सीमा है।” सरल शब्दों में, सामाजिक ली। उस बिन्दु पर अधिकम होता है जहाँ करों से उत्पन्न सीमान्त सामाजिक त्याग सार्वजनिक व्यय से उत्पन्न सीमान्त सामाजिक संतोष ठीक एक-दूसरे के बराबर हो जा

| उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण-अधिकतम सामाजिक लाभ सिद्धान्त को निम्नाला | सारणी द्वारा समझाया जा सकता है

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उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि कर देने से होने वाली उपयोगिता तथा लोक व्यय से मिलने वाली उपयोगिता दोनों चौथी इकाई पर एक समान है, अत: अधिकतम सामाजिक लाभ प्राप्त करने हेतु चौथी इकाई के बाद न तो कर लगाना चाहिए और न व्यय करना चाहिए।

चित्र द्वारा स्पष्टीकरण-प्रस्तुत चित्र में Ox रेखा पर कर एवं व्यय की इकाई तथा OY रेखा पर त्याग एवं सन्तुष्टि की इकाइयाँ दिखाई गई हैं। UU रेखा उपयोगिता रेखा है जो सार्वजनिक व्यय से प्राप्त सीमान्त उपयोगिता को दर्शाती है। यह रेखा बताती है कि सार्वजनिक व्यय बढ़ने पर सीमान्त उपयोगिता की मात्रा कम हो जाती है। Ss रेखा त्याग रेखा है जो कर से उत्पन्न त्याग को बताती है। यह रेखा बताती है कि कर वृद्धि से क्रमश: त्याग बढ़ता है। E बिन्दु पर ये दोनों रेखायें मिलती हैं। यही आदर्श बिन्दु है जहाँ पर सीमान्त त्याग तथा सीमान्त सन्तुष्टि बराबर हैं। यहीं सामाजिक लाभ अधिकतम होगा।

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 सामाजिक व्यय का विभिन्न प्रयोगों में विभाजन एवं करों का विभिन्न स्रोतों में वितरण–अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धान्त केवल यही नहीं बताता है कि सार्वजनिक आय तथा सार्वजनिक व्यय में किस सीमा तक वृद्धि करनी चाहिए वरन् यह भी स्पष्ट करता है कि सार्वजनिक आय तथा सार्वजनिक व्यय का विभिन्न मदों में किस प्रकार विभाजन करना। चाहिए। इस सिद्धान्त के अनुसार सरकार को विभिन्न उपयोगों पर इस प्रकार व्यय करना चाहिए कि प्रत्येक से प्राप्त सीमान्त उपयोगिता बराबर या लगभग बराबर हो। यदि मुद्रा का उपयोग इस प्रकार से किया जा रहा है कि एक उपयोग से सीमान्त उपयोगिता दूसरे उपयोग की तुलना में कम है तो कुल सामाजिक उपयोगिता (लाभ) अधिकतम नहीं होगी और सरकार को एक उपयोग से व्यय कम करके दूसरे उपयोग के व्यय में वृद्धि करने में लाभ होगा। इसी प्रकार सरकार को कर का भार विभिन्न वर्गों पर इस प्रकार डालना चाहिए।  सभी वर्गों को समान या लगभग समान सीमान्त त्याग करना पड़े। चूंकि निर्धन वर्ग की में धनी वर्ग के लिए मुद्रा की उपयोगिता कम होती है, इसलिये सीमान्त सामाजिक त्याग को न्यूनतम या सभी वर्गों के लिये बराबर करने के लिए निर्धन वर्ग की अपेक्षा धनी वर्ग अधिक ऊँची दर से प्रगतिशील कर लगाये जाने चाहिएँ।।

अत: करों का भार विभिन्न स्रोतों में इस प्रकार विभाजित किया जाये कि प्रत्येक स्रोत का सीमान्त त्याग समान हो जाये ताकि समाज द्वारा किये जाने वाले कुल त्याग को मात्रा न्यूनतम हो सके। यदि एक स्रोत का सीमान्त त्याग दूसरे स्रोत के सीमान्त त्याग से अधिक है। तो अधिकतम सामाजिक लाभ की दृष्टि से यह उचित होगा कि पहले स्रोत पर कर कम किया। जाये और दूसरे स्रोत पर कर बढ़ा दिया जाये।

संक्षेप में, अधिकतम सामाजिक लाभ सिद्धान्त की क्रियाशीलता तीन मान्यताओं पर आधारित है-

(अ) सार्वजनिक व्यय से प्राप्त सीमान्त उपयोगिता तथा करों के भार से उत्पन्न सीमान्त त्याग बराबर होना चाहिए,

(ब) विभिन्न साधनों पर लगाये गये करों के भार से उत्पन्न त्याग बराबर होना चाहिये तथा

(स) विभिन्न उपयोगों पर सार्वजनिक व्यय से प्राप्त सीमान्त उपयोगिता बराबर होनी चाहिए।

सिद्धान्त की विशेषताएँ

(1) यह सिद्धान्त बताता है कि राजस्व का प्रमुख उद्देश्य जन-कल्याण है।

(2) यह सिद्धान्त सार्वजनिक आय तथा व्यय की अनुकूलतम सीमा का निर्धारण करता है।

(3) सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक कल्याण उस बिन्दु पर अधिकतम होता है जहाँ लोक आय से होने वाली सीमान्त अनुपयोगिता (त्याग) लोक व्यय से प्राप्त सीमान्त उपयोगिता (लाभ) के बराबर होती है।

सिद्धान्त की व्यावहारिक कठिनाइयाँ या आलोचनाएँ

सैद्धान्तिक दृष्टि से यह सिद्धान्त काफी सरल, उचित और न्यायपूर्ण प्रतीत होता है, लेकिन व्यावहारिक दृष्टिकोण से इस सिद्धान्त के क्रियान्वयन में निम्न कठिनाइयों का सामना। करना पड़ता है|

(1) उपयोगिता और अनुपयोगिता के माप की कठिनाई-  अधिकतम सामाजिक लाभ का बिन्दु वह है, जहाँ करों द्वारा होने वाली सामाजिक सीमान्त अनुपयोगिता तथा सार्वजनिक व्यय से होने वाली सीमान्त उपयोगिता समान होती है, लेकिन व्यवहार में ऐसी उपयोगिता और अनुपयोगिता को मापना कठिन होता है।

(2) आय और व्यय का सम्बन्ध-  सरकारी वित्त-व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उसमें प्रायः व्यय की राशि पहले निर्धारित की जाती है और फिर आय के साधन जुटाये जाते हैं। किन्तु यदि आवश्यक मात्रा में कर प्राप्त न हों तो या तो आनुपातिक प से व्यय में कटौती कर दी जाती है अथवा घाटे की वित्त-व्यवस्था को अपनाया जाता है।। | कभी-कभी ऋण लेकर भी कमी की पूर्ति कर ली जाती है। इन दोनों ही स्थितियों (मुद्रा फीति तथा ऋण) में कर भार या उपयोगिताओं का पता लगाना कठिन है।

(3) वर्तमान त्याग और भावी उपयोगिता की समस्या-   अनेक सार्वजनिक व्यय भविष्य अथवा दीर्घकालीन दृष्टिकोण से किये जाते हैं। यह बात विकास वित्त पर विशेष रूप से लागू होती है। ऐसी स्थिति में जनता पर कर-भार तत्काल पड़ता है। अतः भविष्यकालीन लाभ (जो विकास योजनाओं के पूरा होने पर प्राप्त होंगे) तथा करों के रूप में वर्तमान त्याग के बीच तुलना करना सम्भव नहीं हो पाता और फलस्वरूप अधिकतम सामाजिक लाभ की धारणा काल्पनिक प्रतीत होने लगती है।

(4) राजस्व क्रियाओं पर गैर-  आर्थिक घटकों का प्रभाव-यदि हम यह भी मान लें। कि उपयोगिता और त्याग का माप और उनकी तुलना सम्भव है तो भी इस सिद्धान्त के व्यावहारिक प्रयोग में कठिनाइयाँ आती हैं, क्योंकि राजस्व की क्रियायें अनेक गैर-आर्थिक, व्यक्तिगत और राजनैतिक घटकों से प्रभावित होती हैं।

निष्कर्ष (Conclusion)–  इस सिद्धान्त को उपर्युक्त व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण ही डाल्टन ने लिखा है, “यह सिद्धान्त सरल है, स्पष्ट और शोधपूर्ण है, लेकिन इसको व्यवहार में प्रयोग करना उतना ही कठिन है।” (The principle is obvious, simple and far reaching though its practical application is often very difficult).


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अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धांत क्या है?

सरकार की राजकोशीय व बजटीय गतिविधियां संपूर्ण अर्थव्यवस्था को बहुत प्रभावित करती है। इसलिए सार्वजनिक वित्त लगाते समय सार्वजनिक वित्त के कार्यों के लिए कुछ ऐसे कारक स्थापित किए जाए जिससे अधिकतम सामाजिक कल्याण प्राप्त किया जा सके। इसी कारण इस सिद्धांत को अधिकतम सामाजिक लाभ का सिद्धांत कहा जाता है।

प्र 1 अधिकतम सामाजिक लाभ सिद्धांत से आप क्या समझते हैं?

डॉल्टन ने अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। इस सम्बन्ध में डॉल्टन का विचार है कि राजस्व की सर्वोत्तम प्रणाली वह है, जिससे राज्य अपने कार्यों के द्वारा अधिकतम सामाजिक लाभ की प्राप्ति करता है। यदि सरकार इस सिद्धांत के अनुसार आय प्राप्त कर व्यय करती है, तो उससे अधिकतम कल्याण संभव होगा।

अधिकतम सामाजिक लाभ के सिद्धांत पर चर्चा करें स्पष्ट करें कि इसे कैसे प्राप्त किया जा सकता है?

इसलिए आदर्श वित्तीय स्थिति उस बिंदु पर पहुंचती है जहां एक समुदाय के कर का सामाजिक त्याग तथा सार्वजनिक व्यय से प्राप्त होने वाला सामाजिक लाभ एक दूसरे को परस्पर काटते हैं । प्रयोगों के लिए इस प्रकार वितरित किया जाना चाहिए ताकि प्रत्येक व्यय से प्राप्त होने वाला लाभ बराबर हो ।

सार्वजनिक व्यय का मुख्य सिद्धांत क्या है?

इस सिद्धान्त की मान्यता यह है कि (i) उत्पादन में वृद्धि होनी चाहिए। (ii) उत्पादित वस्तुओं का वितरण उचित ढंग से होना चाहिये, (iii) आर्थिक विषमता और बेरोजगारी दूर होनी चाहिये, (iv) समाज को अधिकतम लाभ व सुविधा प्राप्त होनी चाहिये, (v) आन्तरिक शान्ति व व्यवस्था होनी।