आधुनिक बिहार के निर्माण में किस की भूमिका महत्वपूर्ण थी - aadhunik bihaar ke nirmaan mein kis kee bhoomika mahatvapoorn thee

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बिहार की प्रशासनिक पहचान का विलोप 1765 में हो गया जब ईस्ट इंडिया कम्पनी को दीवानी मिली. उसके बाद यह महज एक भौगोलिक इकाई बन गया. अगले सौ सवा सौ सालों में बिहारी एक सांस्कृतिक पहचान के रूप में तो रही लेकिन इसकी प्रांतीय या प्रशासनिक पहचान मिट सी गई. 1890 के दशक में ऐसा समय आया जब सच्चिदानंद सिन्हा जैसे बिहारी नौजवान के लिए यह दु:ख का विषय हो गया कि उसके बिहारी क्षेत्र की पहचान मिट चुकी थी और बिहार का पुलिस का नौजवान बिहार के स्टेशन में ‘बंगाल पुलिस’ का बैज लगाकर ड्यूटी देता था. सांस्कृतिक इतिहास का यह एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है कि कैसे औपनिवेशिक युग में एक प्राचीन काल से आ रही पहचान क्रमश: मिटने लगी क्योंकि इस पहचान को बनाए रखने के लिए प्रशासनिक प्रयत्न नहीं हुए. 1911 में बिहार और उडीसा के बंगाल से अलग होने के सौ बरस होने वाले हैं. आज भी इतिहास के इस मोड का बिहार की ओर से विवेचन का अभाव है. इस तरह के निर्णय लेने के पीछे का इतिहास बहुधा एक रेखीय नहीं होता. क्या कारण था कि बिहार को बंगाल से अलग लेने का निर्णय ब्रिटिश सरकार ने लिया इस प्रश्न का एक उत्तर यह दिया जाता है कि ब्रिटिश सरकार बंगाल के टुकडे करके उभरते हुए राष्ट्रवाद को कमजोर करना चाहती थी. पहले उसने बंग-विभाजन के द्वारा ऐसा करने की कोशिश की और फिर बाद में बंगाल से बिहार और उडीसा को अलग कर दिया. बंग विभाजन के विरोध का जो इतिहास उपलब्ध है उसमें बिहार में इसके प्रति उदासीनता को लक्षित किया जाना चाहिए. साथ ही यह भी देखा जा सकता है कि बिहार का बंगाल से अलग किए जाने का कोई बडा विरोध बंगाल में नहीं हुआ. यह लगभग स्वाभाविक सा ही माना गया. बिहार को पृथक राज्य बनाने के लिए हुए आन्दोलन के पीछे सच्चिदानंद सिन्हा एवं महेश नाराय़ण समेत अन्य आधुनिक बुद्धिजीवियों के नेतृत्व को केन्द्र में रखकर चर्चा होती है जिन्होंने 1894 में बिहार टाइम्स नामक पत्र के माध्यम से बिहार के बुद्धिजीवियों के बीच इस संबंध में जागरूकता फैलाने का काम किया. इसमें संदेह नहीं कि इन लोगों ने इस विषय पर एक बौद्धिक आन्दोलन तेज किया और इस प्रक्रिया को स्वीकृत करने में सरकार के लिए सुविधाजनक स्थिति पैदा की, लेकिन यह आन्दोलन , कम से कम विचार के रूप में, 1870 के दशक से उपस्थित था. “बिहार बिहारियों के लिए” का विचार सर्वप्रथम मुंगेर के एक उर्दू अखबार मुर्घ -इ- सुलेमान ने पेश किया था.एक अन्य पत्र कासिद ने भी इसी तरह के वक्तव्य प्रकाशित किए. इसी दशक में बिहार के प्रथम हिन्दी पत्र- बिहार बन्धु (संपादक -केशवराम भट्ट ) ने भी इस तरह के विचार को आगे बढाया. तब से लेकर 1994 तक विविध रूपों में यह विचार व्यक्त होता रहा जिसका ही एक प्रतिफलन बिहार का बंगाली विरोधी आन्दोलन था जो बिहार के प्रशासन और शिक्षा के क्षेत्र में बंगालियों के वर्चस्व के विरोध के रूप में उभरा. एल. एस. एस ओ मैली से लेकर वी सी पी चौधरी तक विद्वानों ने बिहार के बंगाल के अंग के रूप में रहने के कारण बढे पिछडेपन की चर्चा की है. इस चर्चा का एक सुंदर समाहार गिरीश मिश्र और व्रजकुमार पाण्डेय ने प्रस्तुत किया है. इन चर्चाओं में यह कहा गया है कि अंग्रेज़ बिहार के प्रति लापरवाह थे और लगातार बिहार उद्योग धंधे से लेकर शिक्षा, व्यवसाय और सामाजिक क्षेत्र में लगातार पिछडता रहा. चूँकि बिहार में बर्दमान के राजा या कासिमबाजार के जमींदार की तरह के बडे जमींदार नहीं थे यहाँ के एलिट भी उपेक्षित ही रहे. दरभंगा महाराज को छोडकर बिहार के किसी बडे जमींदार को अंग्रेज महत्त्व नहीं देते थे. जिस क्षेत्र में विदेशियों के साथ व्यापार का इतना महत्त्वपूर्ण सम्पर्क था उसका बंगाल के अंग के रूप में रहकर जो हाल हो गया था उससे यह निष्कर्ष निकालना स्वाभाविक था कि बिहार को बंगाल के भीतर रहकर प्रगति के लिए सोचना संभव नहीं।

On 10 November 1871 Dr. Sachidanand Sinha Born, who was Founder of Modern #Bihar & the First President of the Indian Constituent Assembly. pic.twitter.com/jx2lgueMa2

— BiharJournal (@BiharJournal) November 9, 2017

बिहार बंगाल प्रेसिडेंसी से कैसे अलग राज्य बना, इस प्रश्न के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समझने के लिए 1870 के दशक में जाना आवश्यक है. यही वह समय था जब पहली बार बिहार के पढे-लिखे लोगों के बीच यह भावना आयी कि स्कूल से लेकर अदालत और किसी भी सरकारी दफ्तरों की नौकरियों में बंगालियों का वर्चस्व अनैतिक है. बिहार के प्रथम समाचार पत्र बिहार बन्धु में इस आशय के पत्र और लेख प्रकाशित हुए जिसमें यहाँ तक कहा गया कि बंगाली ठीक उसी तरह बिहारियों की नौकरियाँ खा रहे हैं जैसे कीडे खेत में घुसकर फसल नष्ट करते हैं! सरकारी मत भी यही था कि बंगाली बिहारियों की नौकरियों पर बेहतर अंग्रेज़ी ज्ञान के कारण कब्ज़ा जमाए हुए हैं. 1872 में , बिहार के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर जॉर्जे कैम्पबेल ने लिखा था कि चूंकि बिहार का शासन बंगाल से बंगाली अधिकारियों द्वारा नियंत्रित किया जाता है, इसलिए हर मामले में अंग्रेजी में पारंगत बंगालियों की तुलना में बिहारियों के लिए असुविधाजनक स्थिति बनी रहती है. सरकारी द्स्तावेज़ों और अंग्रेज़ों द्वारा लिखित समाचार पत्रों के लेखों में भी यही भाव ध्वनित होता है. यह बात खास तौर पर कही जाती थी कि शिक्षित बंगाली रेल की पटरियों के साथ साथ पंजाब तक नौकरियाँ पाते गये. खासतौर से कलकत्ता से इसी दशक में प्रकाशित सम्पादकीय इस मामले में द्रष्टव्य है. इसमें जो कुछ कहा गया है वह आँकडों के आधार पर कहा गया है. इस पत्र ने लिखा कि बिहार के लगभग सभी सरकारी नौकरियाँ बंगाली के हाथों में है. बडी नौकरियाँ तो हैं ही छोटी नौकरियों पर भी बंगाली ही हैं. जिलेवार विश्लेषण करके पत्र ने लिखा कि भागलपुर, दरभंगा, गया, मुजफ्फरपुर, सारन, शाहाबाद और चम्पारन जिलों के कुल 25 डिप्टी मजिस्ट्रेटों और कलक्टरों में से 20 बंगाली हैं. कमिश्नर के दो सहायक भी बंगाली हैं. पटना के 7 मुंसिफों ( भारतीय जजों) में से 6 बंगाली हैं. यही स्थिति सारन की है जहां 3 में से 2 बंगाली हैं. छोटे सरकारी नौकरियों में भी यही स्थिति है. मजिस्ट्रेट , कलक्टर, न्यायिक दफ्तरों में 90 प्रतिशत क्लर्क बंगाली हैं. यह स्थिति सिर्फ जिले के मुख्यालय में ही नहीं थी, सब-डिवीजन स्तर पर भी यही स्थिति है. म्यूनिसिपैलिटी और ट्रेजेरी दफ्तरों में बंगाली छाए हुए हैं।

30 अक्तुबर ?

Tribute to the Great Personality of India; The Founder of Modern Bihar; #SirAliImam on his Death Anniversary. @IndiaHistorypic pic.twitter.com/Uo8YzX9Qre

— BiharJournal (@BiharJournal) October 29, 2017

इस प्रकार के आँकडे देने के बाद पत्र ने अन्य प्रकार की नौकरियों का हवाला दिया है. पत्र के अनुसार दस में से नौ डॉक्टर और सहायक सर्जन बंगाली हैं. पटना में आठ गज़ेटेड मेडिकल अफसर बंगाली हैं. सभी भारतीय इंजीनियर के रूप में कार्यरत बंगाली थे. एकाउंटेंट, ओवरसियर एवं क्लर्कों में से 75 प्रतिशत बंगाली ही थे. संपादकीय का सबसे दिलचस्प हिस्सा वह है जिसमें यह उल्लेख किया गया है कि जिस दफ्तर में बिहारी शिक्षित व्यक्ति कार्यरत है उसको पग पग पर बंगाली क्लर्कों से जूझना पडता था और उनकी मामूली भूलों को भी सीनियर अधिकारियों के पास शिकायत के रूप में दर्ज कर दिया जाता था. सम्पादकीय का निष्कर्ष है कि बिहार की नौकरियों को बंगाली आकांक्षाओं की सेवा में लगा दिया गया है।

22 December ?

Remembering #MaulanaMazharulHaq on his 151th Birth Anniversary who was Great Freedom Fighter of India, One of the Founder of #BPCC, #PatnaUniversity, Sadaqat Ashram & Bihar Vidha Peeth.

He is One who established #Bihar as a separate state in 1912. pic.twitter.com/evYhNQsjmz

— BiharJournal (@BiharJournal) December 21, 2017

बंगालियों के बिहार में आने के पहले नौकरियों में कुलीन मुसलमानों और कायस्थों का कब्ज़ा था. स्वाभाविक था कि बंगालियों के खिलाफ सबसे मुखर मुसलमान और कायस्थ ही थे. यहीं से ‘बिहार बिहारियों के लिए’ का नारा उठा. पहले कुलीन मुसलमानों ने इसे मुद्दा बनाया और बाद में कायस्थों ने।

अंग्रेज़ी शिक्षा के क्षेत्र में बिहार ने बहुत कम तरक्की की थी. सबकुछ कलकत्ता से ही तय होता था इसलिए बिहार में कॉलेज भी कम ही खोले गये. यह बहुत प्रचारित नहीं है कि जब कॉलेज खोलने का निर्णय किया गया तो ब्रिटिश कम्पनी सरकार ने तय किया था कि बंगाल प्रेसिडेंसी में दो कॉलेज खोले जाएं- एक अंग्रेजी शिक्षा के लिए कलकत्ता में और एक संस्कृत शिक्षा के लिए तिरहुत अंचल में (क्योंकि पारम्परिक संस्कृत शिक्षा केन्द्र के रूप में तिरहुत प्रसिद्ध था). यह बंगाल के प्रसिद्ध भारतियों को पसंद नहीं आया और प्रयत्न करके संस्कृत कॉलेज भी कलकत्ता में ही खोला गया. बिहार में बडे कॉलेज के रूप में पटना कॉलेज था जिसकी स्थापना 1862-63 में की गयी थी. इस कॉलेज में बंगाली वर्चस्व इतना अधिक था कि 1872 में जॉर्ज कैम्पबेल ने यह निर्णय लिया कि इसे बंद कर दिया जाए . वे इस बात से क्षुब्ध थे कि 16 मार्च 1872 को कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में उपस्थित ‘बिहार’ के सभी छात्र बंगाली थे! यह सरकारी रिपोर्ट में उद्धृत किया गया है कि “हम बिहार में कॉलेज सिर्फ प्रवासी बंगाली की शिक्षा के लिए खुला नहीं रखना चाहते”. इस निर्णय का विरोध बिहार के बडे लोगों ने किया. इन लोगों का कथन था कि इस कॉलेज को बन्द न किया जाए क्योंकि बिहार में यह एकमात्र शिक्षा केन्द्र था जहाँ बिहार के छात्र डिग्री की पढाई कर सकते थे. इन लोगों ने बिहारियों के शैक्षणिक उत्थान के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की सुविधा मिले तो यहाँ के लोग भी आगे बढ सकते हैं।

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बिहार की सरकारी नौकरियों में बंगाली वर्चस्व पर कई सरकारी रिपोर्टों में उल्लेख मिलता है. अंतत: सरकारी आदेश दिए गए कि जहाँ रिक्त स्थान हैं उनमें उन बिहारियों को ही नौकरी पर रखा जाए जिन्हें शिक्षा का सुयोग मिला है. आदेश में कई जगहों पर यह स्पष्ट कहा जाता था कि इसे बंगालियों को नहीं दिया जाए. इसी तरह के कुछ आदेश उत्तर पश्चिम प्रांत में भी दिए गये थे. इस तरह के सरकारी विज्ञापन भी समाचार पत्रों में छपा करते थे जिसमें स्पष्ट लिखा होता था- “बंगाली बाबुओं को आवेदन न करें”. बिहार में भी 1870 और 1880 के दशक में कई सरकारी आदेश दिए गये थे जिसमें यह कहा गया था कि बिहारियों को ही इन नौकरियों में नियुक्त किया जाए।

बिहार के कई समाचार पत्रों में इस आशय के कई लेख और पत्र प्रकाशित होते रहे जिसमें यह कहा जाता था कि बिहार की प्रगति में बडी बाधा बंगालियों का वर्चस्व है. नौकरियों में तो बंगाली अपने अंग्रेज़ी ज्ञान के कारण बाजी मार ही लेते थे बहुत सारी जमींदारियां भी बंगालियों के हाथों में थी।

इसमें संदेह नहीं कि बंगालियों के प्रति सरकारी विद्वेष के पीछे सिर्फ स्थानीय लोगों के प्रति उनका लगाव नहीं था. विभिन्न कारणों से बंगाल में चल रही गतिविधियों से जुडने के कारण बिहार में भी बंगाली समाज सामाजिक और राजनैतिक रूप से सजग था. उनके प्रभाव से शांत समझा जाने वाला प्रदेश बिहार भी अंग्रेज़ विरोधी राष्ट्रवादी आन्दोलन से जुडने लगा था. कई इतिहासकारों का मत है कि बंगालियों के प्रति बिहारियों के मन में विद्वेष को बढाने में सरकार की एक चाल थी. वे नहीं चाहते थे कि राष्ट्रीय और क्रांतिकारी विचारों का जोर बिहार में बढे।

इसमें संदेह नहीं कि बिहार में बंगाली नवजागरण का प्रभाव पडा था और बिहार के बंगाली राजनैतिक और बौद्धिक क्षेत्र में आगे बढे हुए थे. शैक्षणिक, स्वास्थ्य, सार्वजनिक संगठन तथा समाज सुधार के क्षेत्र में बंगाली समाज बिहार में बहुत सक्रिय था. यह नहीं भूला जा सकता कि भूदेव मुखर्जी जैसे बंगाली बुद्धिजीवी-अधिकारी के कारण ही हिन्दी को बिहार में प्रशासन और शिक्षा के माध्यम के रूप में स्वीकृति मिल सकी. बिहार में प्रेस के क्षेत्र में क्रांतिकारी भूमिका प्रदान करने वाले दो महापुरूषों- केशवराम भट्ट और रामदीन सिंह के साथ बंग-संसर्ग के कैसे अलग किया जा सकता है?

इन सबके बावजूद यह मानना ही पडेगा कि बिहार के बहुत सारे शिक्षित लोगों को यह लगता था कि बंगाल के साथ होने के कारण और प्रशासन का कलकत्ता से नियंत्रण होने के कारण बिहारियों के प्रति सरकार पूरी तरह से न्याय नहीं कर पाती।

बंगाल से बिहार के अलग होने की प्रशासनिक भूमिका के दशकों पहले से बिहार के शिक्षितों के बीच बंगाली वर्चस्व के विरूद्ध भाव सक्रिय थे. इस भाव का एक प्रकाश हम अल- पंच में 1889 में प्रकाशित नज़्म में पाते हैं जिसका शीर्षक था- ‘सावधान ! ये बंगाली है”. इस भाव की ही एक और प्रस्तुति 1880 में ‘बिहार के एक शुभ-चिंतक’ का पत्र है जिसमें बंगालियों की तुलना दीमकों से की गई है जो बिहार की फसल (नौकरियों) को ‘खा रहे हैं’. बुद्धिजीवियों के बीच बंगाली वर्चस्व के प्रति इस भाव के कारण ही इस बात के लिए समर्थन पैदा होने लगा कि बंगाल के साथ रहकर बिहारियों की स्वार्थ -रक्षा संभव नहीं।

1890 के दशक में बिहार की पत्र पत्रिकाओं में (खासकर बिहार टाइम्स में ) इस आशय के लेख नियमित रूप से छपने लगे जिसमें बिहार की दयनीय स्थिति के प्रति सचेतनता और परिस्थिति के प्रति आक्रोश व्यक्त किया गया था. बिहार टाइम्स ने लिखा कि बिहार की आबादी 2 करोड 90 लाख है और जो पूरे बंगाल का एक तिहाई राजस्व देते हैं उसके प्रति यह व्यवहार अनुचित है. इस पत्र ने विभिन्न क्षेत्रों में बिहारियों के प्रतिनिधित्व को लेकर जो तथ्य सामने रखे उसे ध्यान में रखने पर बंगाल में बिहार की उपेक्षा की सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता. कुछ प्रमुख बातें है- बंगाल प्रांतीय शिक्षा सेवा में 103 अधिकारियों में से बिहारी सिर्फ 3 थे, मेडिकल एवं इंजीनियरिंग शिक्षा की छात्रवृत्ति सिर्फ बंगाली ही पाते थे, कॉलेज शिक्षा के लिए आवंटित 3.9 लाख में से 33 हजार रू ही बिहार के हिस्से आता था, बंगाल प्रांत के 39 कॉलेज (जिनमें 11 सरकारी कॉलेज थे) में बिहार में सिर्फ 1 था, कलकारखाने के नाम पर जमालपुर रेलवे वर्कशॉप था (जहाँ नौकरियों में बंगालियों का वर्चस्व था) , 1906 तक बिहार में एक भी इंजीनियर नहीं था और मेडिकल डॉक्टरों की संख्या 5 थी।

ऐसे हालात में बिहारी प्रबुद्धों द्वारा बिहार को पृथक राज्य बनाए जाने का समर्थन दिया जाने लगा और स्वदेशी आन्दोलन के उपरांत हालात ऐसे हो गये कि कांग्रेस ने 1908 के अपने प्रांतीय अधिवेशन में बिहार को अलग प्रांत बनाए जाने का समर्थन किया गया. कुछ प्रमुख मुस्लिम नेतागण भी सामने आये जिन्होंने हिन्दू मुसलमान के मुद्दे को पृथक राज्य बनने में बाधा नहीं बनने दिया. इन दोनों बातों से अंग्रेज शासन के लिए बिहार को अलग राज्य का दर्जा दिए जाने का मार्ग सुगम हो गया. अंतत: वह घडी आयी और 12 दिसंबर 1911 को बिहार को अलग राज्य का दर्जा मिल गया. बिहार की पहचान उसे 145 बर्ष बाद उसे प्राप्त हुई।

आधुनिक बिहार का निर्माण कब हुआ?

आधुनिक बिहार का इतिहास: अलग प्रान्त में सृजन $ बिहार प्रादेशिक सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन पटना में 1908 ई. सम्पन्न हुआ। इस अधिवेशन में मोहम्मद फखरूद्दीन ने बिहार को बंगाल से पृथक कर एक नए प्रांत के रूप में संगठित करने का प्रस्ताव रखा, जिसे सर्वसम्मति से मान लिया गया।

बिहार का निर्माण कैसे होता है?

22 मार्च 1912 को बिहार को बंगाल प्रेसिडेंसी से अलग कर राज्य बनाया गया था। इसलिए राज्य सरकार प्रत्येक वर्ष 22 मार्च को बिहार दिवस मनाती है। आज बिहार को अलग राज्य बने 105 साल पूरे हो चुके हैं।

बिहार का महत्वपूर्ण क्या है?

बिहार भारत के उत्तर-पूर्वी भाग में स्थित एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक राज्य है और इसकी राजधानी पटना है। यह जनसंख्या की दृष्टि से भारत का तीसरा सबसे बड़ा प्रदेश है जबकि क्षेत्रफल की दृष्टि से बारहवां(12) है। १५ नवम्बर, सन् २००० ई॰ को बिहार के दक्षिणी हिस्से को अलग कर एक नया राज्य झारखण्ड बनाया गया।

बिहार का पूरा नाम क्या था?

बिहार का पुराना नाम विहार और मगध के रूप में जाना जाता था लेकिन पटना का पुराना नाम कभी पाटलिग्राम, पाटलिपुत्र, पालिबोथरा, पालिनफ, और अजीमाबाद रहा है।