दादी मां मुंह लटका कर क्यों बैठी थी? - daadee maan munh lataka kar kyon baithee thee?

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कहानी:मेहनत करके अपना घर चलाने वाली एक साधारण स्त्री के जीवन संघर्ष की कहानी है 'घर वापसी'

निशा चड्ढाएक वर्ष पहले

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दादी मां मुंह लटका कर क्यों बैठी थी? - daadee maan munh lataka kar kyon baithee thee?

  • निम्नवर्ग के जीवन-संघर्षों का चित्र खींचती यह कहानी मेहनत करके अपना घर चलाने वाली एक साधारण स्त्री के जीवन की कथा बांचती है।
  • उसके सामने एक दोराहा है, जिसमें से एक रास्ते का चयन उसे ख़ुद ही करना है।
  • एक तरफ़ नए जीवन के सपने और वादे हैं तो दूसरी तरफ़ एक मां के रूप में उसकी ज़िम्मेदारियां।
  • वो कौन-सा रास्ता चुनती है और क्यों? यह जानने के लिए पढ़ें यह मार्मिक कहानी।

‘रोज़ की चिक-चिक अब मुझसे न सही जाए,’ केसर तमतमाकर बोली। ‘अरी! बावली हुई जा रही है क्या?’ अम्मा ने भी तेवर दिखाते हुए जवाब दिया। ‘क्यों माधो के पीछे पड़ी रहे, काम पर जाता तो है ना, अब किसी दिन काम न मिले तो क्या करे बेचारा?’ ‘क्या करूं ऐसे काम का जो कमाता है शराब में फूंक देवे।’ ‘ठीक है, तू जाके अपना काम देख, मैं चूल्हा-चौका संभाल लूंगी,’ अम्मा थोड़ा नर्म पड़ गई थीं। केसर ने चूल्हे से उबलती चाय उतारी और रात की बासी रोटी पर गुड़ की डली रखकर अम्मा के आगे सरका दी। ‘ऐ भानू तू भी कुछ खा ले, स्कूल में क्या पढ़ेगा जब पेट में गुड़-गुड़ होता रहेगा।’ भानू दौड़कर आया और दादी के पास बैठकर रोटी खाने लगा। ‘अच्छा अम्मा, मैं जा रही हूं, तरकारी काट के रख दी है। आटा भी गूंध दिया है, रोटी बना लीजो। छोटे का ध्यान रखियो,’ केसर ने भानू की बांह पकड़ी और घर की दहलीज़ पार करके तेज़-तेज़ क़दमों से चलने लगी। ‘आज फिर देर हो जाएगी, मालिक ग़ुस्सा होगा। भानू, जल्दी-जल्दी पैर उठा, स्कूल का भी टैम हो गया है।’ भानू को स्कूल के गेट पर छोड़कर केसर आगे बढ़ी। सामने से उसी की फ़ैक्टरी में काम करने वाली औरतों का झुंड आ रहा था, केसर भी उनमें शामिल हो गई। सारी टोली बतियाते हुए चली जा रही थी। कुछ घर के ताने-उलाहनों में लगी थीं। कुछ हंसी-मखौल में। रुकमा के मज़ाक़ पर तो केसर भी खिलखिला के हंस पड़ी। …

दीनानाथ कपड़ा फ़ैक्टरी। इसी में केसर काम करती है। अलग-अलग तरह के कपड़ों को तह करके पैकेट में रखना होता है। काम ज़्यादा मेहनत का नहीं है और मिलना-जुलना भी हो जाता है, पैसा भी ठीक मिल जाता है। केसर का गु़स्सा ठंडा हो चुका था। वो मन ही मन सोचने लगी, इस बार पगार मिलेगी तो क्या-क्या ख़रीदारी करेगी, कितना बचा लेगी, वग़ैरह वग़ैरह। वो सोचने लगी, इस बार अम्मा के लिए भी धोती ले लूंगी। वैसे तो बेमतलब के बुड़-बुड़ करती रहती है, फिर भी घर संभाल लेती है, छोटे का ध्यान रखती है। तभी तो यहां आ पाती हूं, इतना हक़ तो अम्मा का भी बनता है।

दादी मां मुंह लटका कर क्यों बैठी थी? - daadee maan munh lataka kar kyon baithee thee?

‘अरी केसर, रोटी खाने की छुट्टी हो गई है, घंटी की आवाज़ न सुनाई दी तुझे?’ कल्याणी उलाहना-सा देते हुए बोली। केसर जोड़-घटाव में इतनी मगन थी कि टाइम का पता ही न चला। उसने डब्बा उठाया और कल्याणी के साथ-साथ चलने लगी। फ़ैक्टरी में दो बड़े-बड़े कमरे बने थे। एक में औरतें काम करती थीं, दूसरे में मर्द। दोपहर एक से दो बजे तक की छुट्टी मिलती थी, खाना खाने और सुस्ताने के लिए। फ़ैक्टरी के बाहर ही एक पार्क बना हुआ था उसी में बैठकर सब खाते, सुस्ताते और आपबीती सुनाते, कुछ गाना भी गाते। किशना मर्दों की टोली का लीडर था। उम्र में तो ज़्यादा बड़ा न था पर बातों में वो सबको जीत लेता था। गाना भी अच्छा गाता था। कभी-कभार केसर से भी बातचीत हो जाती थी। वो थी भी सांवली-सलोनी। केसर सोचती एक जगह ही काम करते हैं, कभी-कभी हंसी-मज़ाक़ कर लेता है, इतना तो चलता है। अगले दिन जल्दी-जल्दी घरेलू काम निबटाकर केसर काम पर जाने को तैयार हुई। भानू को लेकर घर से निकली। अभी कुछ क़दम ही चली थी कि साइकल की घंटी सुनकर एक किनारे हो गई। पीछे देखा- अरे! ये तो फ़ैक्टरी वाला किशना है, वो भी साइकल से उतर गया। ‘अच्छा तो तू यहां रहती है, इधर से रास्ता छोटा पड़ता है इसलिए आ गया हूं,’ किशना ने सफ़ाई-सी देते हुए कहा। केसर ने कोई जवाब न दिया। चुपचाप चलती रही। किशना बहुत ही शरीफ़ाना लहजे़ में बोला- ‘केसर, पीछे साइकल पर बैठ जा, बिटवा आगे डंडे पर बैठ जावेगा’। इससे पहले कि केसर कुछ कहती, भानू साइकल पर बैठने के लिए मचलने लगा। किशना ने बच्चे को उठाकर बिठा लिया अब केसर को भी मजबूरी में बैठना पड़ा। धीरे-धीरे ये रोज़ का ही सिलसिला बन गया। अब केसर और किशना की बातचीत हास-परिहास से उठकर घर-गृहस्थी की बातों तक पहुंच गई थी। केसर, माधो की बुरी आदतों के क़िस्से भी सुनाने लगी थी, किशना हमदर्दी दिखाता तो उसे अच्छा लगता था। … आज केसर बहुत ख़ुश है। छह सौ रुपए जो उसकी मुट्ठी में हैं, ख़रीदारी की सूची तो उसने पहले ही बना ली थी। जिस दिन पगार मिलती, औरतें बाज़ार ज़रूर जाती थीं। कोई घर के लिए सौदा-सुलुफ लेती थी तो कोई बच्चों के लिए। किसी को अपनी बुज़ुुर्ग मां के लिए कुछ लेना होता। केसर भी रुकमा और कल्याणी के साथ ख़रीदारी करने बाज़ार पहुंची। छोटे के लिए स्वेटर, भानू के लिए जूते लेकर अम्मा के लिए धोती भी ख़रीद ली। बार-बार नोट मसल के देखती कि कितने बचे हैं। रुकमा ने पति के लिए कुर्ता ख़रीदा तो केसर ने भी माधो के लिए एक कुर्ता छांटकर ले लिया। सोचने लगी जैसा भी है, है तो पति ही। ख़रीदारी के बाद सब अपने-अपने घर की ओर चल दीं। केसर भी दौड़ती हुई चल रही थी। आज ख़ासी देर हो गई, अंधेरा भी छा गया था। घर के दरवाज़े से ही उसे माधो के चीख़ने-चिल्लाने की आवाज़ सुनाई दी। केसर की सारी ख़ुशी काफ़ूर हो गई। अंदर जा के देखा, अम्मा एक तरफ़ कोने में मुंह लटका के बैठी थीं, बच्चे भी सहमे-से खड़े थे, चूल्हा भी ठंडा पड़ा था। इससे पहले कि केसर कुछ कहती, माधो ने उसे ज़ोर से लात मारी और गरजा- ‘कहां से गुलछर्रे उड़ा के आ रही है इतनी देर से? काम का तो बहाना है, यारों के साथ मौज-मस्ती करने जाती है!’ इससे आगे सुनना केसर की बर्दाश्त से बाहर हो गया था। थैला वहीं पटककर, कानों पर हाथ रखकर बैठ गई। माधो ग़ुस्से से उठा और उसे धक्का देकर घर से बाहर कर दिया। बेचारी अपनी सफ़ाई में कुछ कह भी न सकी। वहीं दरवाज़े के बाहर घुटनों में सर छुपाए बैठ गई। न जाने कब झपकी लग गई। अचानक कंधे पर किसी का स्पर्श पाकर घबराई-सी आंख खोलकर देखा तो अम्मा खड़ी थीं। मिन्नत करके उसे अंदर ले गईं। केसर का मन भर आया। …

दादी मां मुंह लटका कर क्यों बैठी थी? - daadee maan munh lataka kar kyon baithee thee?

माधो तो सुबह-सुबह ही उठकर कहीं चला गया था। अम्मा ने केसर को प्यार से समझाकर काम पर भेज दिया। आज फिर रास्ते में किशना मिल गया। केसर बिना ना-नुकर किए साइकल पर बैठ गई। आज वो बहुत परेशान थी, सोच रही थी अपनी सारी कड़वाहट कहीं जाकर उड़ेल दे। उसे देखकर किशना कुछ-कुछ तो समझ गया था। रास्ते में एक ढाबे पर उसने साइकिल रोकी, केसर भी चुपचाप साइकल से उतरकर ढाबे की बेंच पर बैठ गई। किशना ने बातों में उलझाकर उससे सारी असलियत उगलवा ली। हमदर्दी दिखाते हुए बोला, ‘तू क्यों उस निकम्मे के साथ ज़िंदगी बर्बाद कर रही है? मेरे साथ गांव चल, अपने खेत-खलिहान हैं, आराम से रहेंगे।’ केसर चुपचाप सुनती रही और मन ही मन सोचने लगी कि बस अब और नहीं सहेगी। बच्चों को दादी संभाल लेगी। उसके परेशान दिलो-दिमाग़ ने फ़ैसला तो ले लिया पर मुंह से कुछ नहीं बोली। छुट्टी के बाद रोज़ की तरह घर की ओर चल दी। ये क्या, आज तो माधो रास्ते में ही मिल गया। नशे में चूर, ग़ुस्से से उसे घसीटता हुआ घर में लाया। आज तो अम्मा की हिम्मत भी जवाब दे गई थी। बच्चे भी भूखे-प्यासे सो गए थे। माधो ने लात-घूंसों से केसर की पिटाई की फिर दरवाज़ा खोल के बाहर निकल गया। केसर भी निढाल होकर एक तरफ़ गिर गई, शरीर में इतना भी दम न बचा था कि उठकर दो घूंट पानी पी ले। रातभर दर्द से कराहती रही। अभी अंधेरा सिमटा भी नहीं था कि बिजली की तरह केसर के दिमाग़ में विचार कौंधा। वो उठकर बैठ गई। कुछ सोचकर कपड़ों की गठरी बनाई, कुछ जमा रुपए लिए और चुपचाप दबे पांव, अम्मा और बच्चों को सोता छोड़कर घर से बाहर आ गई। अभी अंधेरा था। सड़क पर अकेले जाना उसे ठीक न लगा। किसी ने देख लिया, कुछ पूछ लिया तो क्या कहेगी। दिमाग़ भी सुन्न पड़ा था। कुछ सोच के उसने जंगल के रास्ते क़दम बढ़ाए। धीरे-धीरे अंधेरा सिमटने लगा था। जंगल पार करके सड़क पर आई तो सामने से किशना आता दिखा। फिर सोचा शायद उससे ग़लती हुई है, सुबह-सुबह वो यहां कैसे? सोच ही रही थी कि किशना सामने आकर खड़ा हो गया। बोला, ‘मैं सुबह कुछ घरों में दूध देने भी जाता हूं। कुछ रकम मिल जाती है, गुज़ारा अच्छे-से हो जाता है। फ़ैक्टरी तो नौ बजे खुलती है, मैं आठ बजे तक निबटा लेता हूं। पर इतनी सुबह तू यहां कैसे?’ केसर फूट-फूटकर रोने लगी और कल का क़िस्सा बताने लगी। किशना समझाते हुए बोला, ‘तुझे अभी भी उसी नरक में रहना है?’ केसर ने अपना फ़ैसला सुना दिया, किशना ने प्यार से उसे समझाते हुए कहा, ‘घबराने की बात नहीं है, मैं तेरा पूरा साथ दूंगा। अभी फ़ैक्टरी चलते हैं। रोज़ की तरह काम करेंगे, किसी को शक न हो। छुट्टी के बाद तू सेवा-सदन के पीछे वाले जंगल में मेरी बाट तकना, मैं भी घर से कुछ कपड़े और सामान लेकर जल्दी ही वहां आ जाऊंगा। डरना मत, वहीं रुके रहना।’ काम ख़त्म करके किशना जल्दी-जल्दी साइकल के पैडल मारता हुआ अपनी कोठरी पर पहुंचा। अकेला रहता था, कोई पूछने वाला था नहींं। फुर्ती से कपड़े और सामान समेटा, साइकल भी किराए की थी, वो भी दुकान पर दे आया। लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ सेवा-सदन की ओर बढ़ने लगा। उधर केसर भी एक बड़े-से पत्थर पर अपनी गठरी समेटे बैठी थी। अंधेरा होने लगा था। केसर थोड़ा डरने लगी थी। एक बार तो सोचा वो कुछ ग़लत तो नहीं कर रही? पर अपनी दुर्दशा याद करके उसने मन पक्का किया और जम के बैठ गई। थोड़ी देर में किशना भी आ गया। इससे पहले कि केसर तक पहुंचता, वो चीख़ मार के पीछे हट गया। ‘क्या हुआ?’ केसर ने पूछा। ‘अरी बावली, देखा नहीं? जिस पत्थर पर बैठी है, उसी के पीछे कितनी बड़ी नागिन है। वो तो अपने अंडों पर बैठी थी, इसलिए डसा नहीं, वरना तेरा काम तो यहीं तमाम हो गया था।’ अचानक केसर के दिमाग़ में बिजली-सी कौंधी- एक नागिन मुझे डसने के लिए सिर्फ़ इसलिए आगे नहीं बढ़ी क्योंकि वो अपने बच्चों की देखभाल में लगी थी। और मैं? एक औरत, एक मां... लानत है मुझ पर जो अपने बच्चों को छोड़कर जा रही थी। उसने तुरंत किशना से अपना हाथ छुड़ाया। माधो से निटपना उसे सीखना होगा। उसमें बच्चों का क्या दोष? वो आज ही माधो को घर से जाने को कह देगी। जिसे ना उसकी चिंता ना बच्चों-अम्मा की, उसका घर में कोई काम नहींं। मन को दृढ़ करके केसर घर की ओर लगभग भागने ही लगी थी।

दादी मुँह लटकाए क्यों बैठी थी?

Answer. Answer: अब तक चिडीया घर नहीं आई इसलिए दादी मां मुंबई लटका के बैठी थी!

दादी माँ ने कौनसी चीज संभाल कर रखी थी?

समानता का बोध कराने के लिए सा, सी, से का प्रयोग किया जाता है। ऐसे पाँच और शब्द लिखिए और उनका वाक्य में प्रयोग कीजिए | 2. कहानी में 'छू- छूकर ज्वर का अनुमान करतीं, पूछ पूछकर घरवालों को परेशान कर देतीं'–जैसे वाक्य आए हैं।

दादी माँ को कौन सी बीमारी थी?

दादी माँ को गाँवों में प्रयोग की जाने वाली दवाओं के कई नुसखे याद थे। वह हाथ, माथा, पेट छूकर, भूत, मलेरिया, सरसाम, निमोनिया तक का अनुमान लगा लेती थी। वे लौंग, गुड़-मिश्रित जलधार, गुग्गल और धूप से इलाज करती थी। महामारी तथा विशूचिका फैलने पर वह सफ़ाई का ध्यान रखती थी

दादी मां धन्नो को क्यों डांटती जा रही थी?

उत्तर- धन्नो ने दादी मां से ऋण लिया हुआ था . दादी कठोर बनकर धन्नो से पैसे माँग कर धन्नो को एहसास दिलाना चाहती थी कि उसके ऋण का ब्याज बढ़ता जा रहा है. प्रश्न - रामी की चाची धन्नो को दादी ने उरिण क्यों किया ? उत्तर- दादी ने अपने परोपकारी स्वभाव के कारण धन्नो को उरिण कर दिया .