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हिन्दी -12 अन्तरा - काव्य खण्ड ; जय शंकर प्रसाद देवसेना का गीत आह वेदना .......................................................... लाज गंवाई। मूल भाव:- ‘देवसेना की गीत’ प्रसाद के ‘स्कंदगुप्त’ नाटक से लिया गया है। मालवा के
राजा बंध्ुवर्मा की बहन देवसेना स्कंदगुप्त के प्रेम निराश होकर जीवन भर भ्रम में जीती रही तथा विषम परिस्थितियों में संघर्ष करती रही। इस गीत के माध्यम से वह अपने अनुभवो ं में अर्जित वेदनामय क्षणों को याद कर जीवन के भावी सुख, आशा और अभिलाषा से विदा ले रही है। व्याख्या बिन्दु:- देवसेना मालवा के राजा बंध्ुवर्मा की बहन है। बंध्ुवर्मा की वीरगति के उपरांत देवसेना राष्ट्रसेवा का व्रत लेती है। वह यौवनकाल में स्कंदगुप्त को पाने की चाह रखती थी, किंतु स्कंदगुप्त मालवा के ध्नकुबेर की कन्या
विजया की और आकर्षित थे। देवसेना जीवन में नितांत अकेली हो जाती है और गाना गाकर भीख माँगती है। जीवन के अंतिम पड़ाव पर भी देवसेना को वेदना ही मिली। स्कंदगुप्त को पाने में असपफल होने के कारण निराशा भरा जीवन व्यतीत किया। यौवन क्रियाकलापों को वह भ्रमवश किए गए कर्म मानती है, इसलिए उसकी आँखो से निरंतर आँसुओं की धरा बह रही है। यौवनकाल में स्कंदगुप्त को न पाकर, अपने प्रेम को वह भूल चुकी है। स्कंदगुप्त के प्रणयनिवेदन से वह स्वप्न देखने लगती है। उसे लगता है कि परिश्रम से उत्पन्न थकान के कारण
जैसे कोई यात्राी सघन वन के वृक्षों की छाया मंे नींद से भरा हुआ स्वप्न देख रहा हो और कोई उसके कान में अधर््रात्रि में गाए जाने वाला विहाग राग सुना रहा हो। स्कंदगुप्त के प्रणय-निवेदन से उसे लगता है कि उसने अपने समस्त श्रमपफल को खो दिया है। उसकी प्रेमरूपी पूँजी कहीं खो गई है। वह स्कंद गुप्त के निवेदन को ठुकरा देती है। वह जानती है कि अच्छे भविष्य की कल्पना व्यर्थ है, पिफर भी उसके हृदय मंे मध्ुर कल्पनाएँ जन्म लेती है। वह भावी सुख की आशा करती है, इसलिए अपनी आशा का बावली कहती है। वह
अपनी दुर्बलताओं को जानती है और यह भी कि उसकी हार निश्चित है, पिफर भी वह प्रलय से मुकाबला करती है। विषम परिस्थितियों से संघर्ष करती है और पराजय स्वीकार नहीं करती। अंत में देवसेना संसार को संबोध्ति करती हुई कहती है कि तुम अपनी ध्रोहर ;प्रेमद्ध वापस ले लो, वह इसे संभाल नहीं पायेगी। उसका जीवन करूणा और वेदना से भर गया है। वह मन ही मन लज्जित है। शिल्प सौन्दर्य:- खड़ी बोली तत्सम शब्दावली, अनुप्रास अंलकार, उपमा ;आँसू सेद्ध, रूपक अंलकार37 हिन्दी -ग्प्प् - ;जीवन-रथद्ध,
पुनरूक्ति प्रकाश - ;छलछल, हा-हाद्ध, मानवीकरण - ‘ प्रलय चल रहा अपने पथ पर विरोधभास - हारी होड़। मुक्त छंद। अभ्यास कार्य ;कद्ध प्रश्न - ‘मैने निज दुर्बल ............... होड़ लगाई’ इन पंक्तियों मंे ‘दुर्बल पद बल’ और ‘हारी होड़’ में निहित व्यंजना स्पष्ट कीजिए। - कवि ने आशा को बावली क्यों कहा है? - मैने भ्रमवश जीवन-संचित, मध्ुकरियांे की भीख लुटाई पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए। - देवसेना की हार या निराशा के क्या कारण थे? ;खद्ध व्याख्या श्रमित स्वप्न
.................................................... सकल कमाई । ;गद्ध काव्य सौन्दर्य अद्ध चढ़कर मेरे ........................ हारी-होड़ लगाई। बद्ध लौटा लो ........................ लाज गंवाई। ; कार्नेलिया का गीत अरूण यह .......................................... रजनी भर तारा। मूल भाव - ‘कार्ने लिया का गीत’ जयशंकर प्रसाद के नाटक ‘चन्द्रगुप्त’ से लिया गया है। सिकन्दर के सेनापति
सेल्यूकस की बेटी कार्ने लिया इस गीत के माध्यम से भारत देश की गौरव गाथा, प्राकृतिक सौन्दर्य और संस्कृति का गुणगान कर रही है। व्याख्या बिन्दु - सिंध्ु नदी के तट पर बैठी कार्ने लिया कहती है कि भारत देश मिठास एवं लालिमा अर्थात् उत्साह से परिपूर्ण है। इस देश में सूर्योदय का दृश्य अत्यंत आकर्षक एवं मनोहारी है। यहाँ पहु ँच कर अनजान क्षितिज को भी सहारा मिल जाता है। अर्थात दूर अनजान देशों से आये यात्रियों को भी भारत आश्रय देता है। सूर्योदय के समय तालाबों में कमल के पफूल खिलकर अपनी आभा
बिखेर देते है ं तो सूर्य की किरणें उन पर नृत्य करती सी प्रतीत होती है। यहाँ का जीवन सुन्दर, सरल एवं मनोहारी दिखाई देता है। भारत की हरियाली से युक्त भूमि पर सूर्य की लालिमा ऐसी लगती है जैसे सर्वत्रा मांगलिक कुमकुम बिखरा हुआ हो। प्रातःकाल मलय पर्वत की शीतल, मंद, सुगंध्ति पवन का सहारा लेकर इंद्रध्नुष के समान सु ंदर पंखो को पफैला कर पक्षी भी जिस ओर मुँह करके उड़ते दिखाई देते है ं, वही उनके घोसलें है ं अर्थात् वे भारत को ही अपना घर मानते है, यहाँ उन्हे ं शांति मिलती है। जैसे बादल
गर्मी से मुरझाऐ ं पेड़-पौधे पर अपने जल की वर्षा कर जीवनदान देते है ं, उसी तरह यहाँ के लोग अपनी आँखो से करूणा रूपी जल बहाकर निराश और उदास लोगो के मन में नव आशा का संचार कर जीवन की प्रेरणा देता है। विशाल समुद्र की लहरें भी भारत के किनारों से टकरा शांत हो38 हिन्दी -ग्प्प् जाती है, उन्हे ं भी यहाँ विश्राम मिलता है। रात भर जागते हुए तारे प्रातःकाल होने पर उन्हे ं भी मस्ती से ऊँघते दिखाई देते है अर्थात् छिपने की तैयारी करते है ं तब ऊषा रूपी नायिका सूर्य रूपी सुनहरें कलश में
सुख रूपी जल लेकर आती है और भारत-भूमि पर लुढ़का देती है अर्थात् प्रातःकाल होने पर भारतवासी सुखी, समृ( एवं खुशहाल दिखाई देते है। शिल्प-सौंदर्य - भाषा खड़ी बोली, तत्सम् शब्दावली, अलंकार-अनुप्रास, मानवीकरण ;तरूशिखा उषा, तारेद्ध उपमा ;लघु सुरध्नु सेद्ध, रूपक ;हेम-कुंभद्ध, दृश्य-विम्ब, गेयता तथा संगीतात्मकता, प्रकृति-चित्राण अभ्यास-कार्य ;कद्ध प्रश्न 1.कार्नेलिया का गीत में भारत वर्ष की क्या-क्या विशेषताएँ बताई गई है ं? 2. ‘उड़ते खग’ और ‘बरसाती आँखो के बादल’ में क्या
अर्थ व्यंजित होता है? 3. ‘जहां पहु ँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा’ पंक्ति का आशय स्पष्ट करो। ;खद्ध व्याख्या - अरूण यह मध्ुमय ........................ रजनी भर तारा । ;गद्ध काव्य-सौन्दर्य - हेम कुंभ ले उषा ............... रजनी भर तारा।39 हिन्दी -ग्प्प् सूर्यकांत त्रिपाठी निराला गीत गाने दो मुझे गीत
गाने दो ........................ पिफर सीचंने को। मूल भाव - इस कविता में कवि ऐसे समय की ओर संकेत कर रहा है जब हर ओर निराशा ही निराशा ही निराशा व्याप्त है। वह निराशा में आशा का संचार करना चाहता है। व्याख्या बिन्दु:- कवि कहता है कि जीवन में निरंतर बढ़ती हुई पीड़ा अथवा दुःख को कम करने के लिए, उसे भुलाने के लिए उसे गीत गाने दो। गीत हृदय की अनुभूतियाँ है। ये वेदना की तीव्रता को भुला सकते हैं, दुःखों को कम कर सकते है। जीवन-मार्ग पर चलते हुए हर कदम पर चोट खाते-खाते और संघर्ष
करते-करते होश वालों के भी होश छूट गए है। अर्थात् अब जीना आसान नहीं रह गया है। जीने के लिए जो भी था, मूल्यवान था, उसे छल-कपट से उन मालिकों ने रात के अंध्कार मंे ं ;संकट के समयद्ध लूट लिया, जिन पर भरोसा था। अब पीड़ा सहते सहते कंठ रूकने लगा है, ऐसा लगता है कि सामने काल आ रहा है। अब जीना कठिन हो गया है। लोग कुछ कह नहीं पा रहे है ं। इस निराशा भरे वातावरण में कवि गीत गाना चाहता है ताकि व्यथा को रोका जा सके। कवि कहता है कि संसार हार मानकर स्वार्थ और अविश्वास के जहर से भर गया है। संसार से
सहानुभूति, करूणा, उदारता, सहयोग, भाईचारा, आदि भावनाएँ लुप्त हो चुकी है ं। अब लोग आपस मे ं एक दूसरे को अपरिचित निगाहों से देख रहे है ं। मानवता हाहाकार कर रही है ं। लोगों में जीने की इच्छा मर चुकी है। संसार मंे एकता, समता, सहानुभूति तथा प्रेम की लौ बुझ गई है। कवि मानवता की बुझती लौ को पिफर से जलाने के लिए स्वयं जलना चाहता है। वह ऐसे गीत गाना चाहता है जो संसार में पफैली निराशा में आशा का संचार कर सके। शिल्प सौन्दर्य:- खड़ी बोली, अनुप्रास अलंकार ;गीत-गाने, ठग-ठाकुर, लोग
लोगोंद्ध, मुहावरों का प्रयोग ;होश छूटना, जहर से भरनाद्ध, लयात्मकता तथा संगीतात्मकता, प्रतीकात्मकाता, लाक्षणिकता, मुक्त छंद, ठग-ठाकुर शोषक का प्रतीक है। अभ्यास कार्य प्रश्न:- ;1द्ध ‘सूर्यकांत त्रिपाठी निराला’ गीत क्यांे गाना चाहते है? ;2द्ध ठग-ठाकुरों से कवि का संकेत किसकी ओर है? ;3द्ध ठग-ठाकुरों ने किससे क्या लूट लिया है? ;4द्ध ‘जल उठो पिफर सीचनें को’ इस पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए। ;5द्ध ‘गीत गाने दो मुझे’ कविता दुख और निराशा से लड़ने की शक्ति देती है -स्पष्ट
कीजिए। ;खद्ध व्याख्या - चोट खाकर ................. पिफर सींचने को ;गद्ध काव्य-सौन्दर्य- भर गया है ................ पिफर सींचने को।40 हिन्दी -ग्प्प् ; सरोज-स्मृति देखा विवाह .......................................................... तेरा तर्पण। मूल भाव:- ‘सरोज स्मृति’ कविता कवि निराला की दिवंगत पुत्राी पर कंेद्रित है। इस कविता के माध्यम से निराला का जीवन-संघर्ष
एक भाग्यहीन पिता का संघर्ष, समाज से उसके संबंध् तथा पुत्राी के प्रति बहुत कुछ न कर पाने का अकर्मण्यता बोध् भी प्रकट हुआ है। कवि अपनी स्वर्गीया पुत्राी सरोज को संबोध्ति करते हुए कहता है कि तेरा विवाह सभी प्रकार की रूढि़यो ं से मुक्त सर्वथा नवीन पद्ध्ति से हुआ था। विवाह के समय कवि माता-पिता दोनों के कर्तव्य निभा रहा था। कवि कहता है कि पवित्रा कलश के जल से तेरा स्नान कराया गया तब तू मुझे मंद मुस्कुराहट के साथ देख रही थी। ऐसा लगता था कि तेरे होंठों में बिजली की चमक पफंसी हो।
तुम्हारे हृदय में पति की सु ंदर छवि थी। यह बात तुम्हारे श्रंृगार में मुखरित हो रही थी। विवाह के समय तेरा विश्वास तेरे उच्छ्वासे ं के साथ-साथ अंग-अंग में झलक रहा था अर्थात् तू अपने विवाह के समय पूर्ण आश्वस्त तथा प्रसन्न दिखाई दे रही थी। लज्जा व संकोच से झुकी हुई तेरी आँखों मंे एक नया प्रकाश उभर आया था, तेरे होंठों पर स्वाभाविक कंपन था। उस समय मेरे वसंत की प्रथम गीति का प्यास उस मूर्ति में साकार हो उठी थी। कवि कहता है मैंने अपनी कविताओं में सौदर्य के जिस निराकार भाव को अभिव्यक्त
किया था, वह तुम्हारे रूप-सौन्दर्य में साकार हो उठा था। कविताओं में वही रस की धरा बनकर प्रवाहित होता रहता था। श्रंृगार के जिस गीत को मैनें अपनी स्वर्गीय पत्नी के साथ मिलकर गाया था, वह आज भी मेरे प्राणों में अनुरागपूर्ण उत्साह का संचार कर रहा है। ऐसा लगता है कवि की पत्नी का आलौकिक सौन्दर्य आकाश से उतरकर पुत्राी सरोज के रूप में पृथ्वी पर आ गया हो। तेरा रूप सौन्दर्य कामदेव की पत्नी रति के समान अवर्णनीय था। तेरा विवाह संपन्न हो गया। इस विवाह में कोई आत्मीय जन नहीं थे, न ही उन्हे ं कोई
निमंत्राण भेजा गया था। विवाह अत्यंत सादगी के साथ सम्पन्न हुआ। विवाह मंे रात्रि जागरण नहीं हुआ न ही विवाह गीत गाए गये, न कोई चहल-पहल हुई। सर्वत्रा एक मौन संगीत समाया हुआ था जो तुम्हारे नव जीवन में उतर आया था। कवि कहता है कि माँ के अभाव में मैंने तुझे वे सभी शिक्षाएँ दी जो माताएँ अपनी पुत्राी को देती है। मैनें ही तेरी पुष्प सेज को भी तैयार की। उस समय कवि को कण्व )षि की पालित पुत्राी शकुन्तला की याद आ गई वह भी माँ विहीन थी। किंतु उस घटना तथा यहाँ की स्थिति में अन्तर है। नानी की
स्नेहमयी गोद में आ गई अर्थात तू नानी के पास आ गई। मामा-मामी का भरपूर स्नेह मिला। उन्होनें तुझ पर स्नेह की वर्षा उसी प्रकार की जिस प्रकार बादल ध्रती पर जल बरसाते है ं। वे सदा तेरे रक्षक और हित चिंतक बने रहे। वे सदा तेरे कामों में लगे रहे। तेरी माँ उस कुल की लता थी, जहाँ तू कली के रूप में खिली तथा पफली-पूफली तथा तेरा पालन-पोषण हुआ। अंत समय तू उसी गोद अर्थात् नानी की गोद में आ गई थी और तूने सदा-सदा के लिए मृत्यु का वरण कर अपनी आँखे मूंद ली थी। कवि कहता है कि मैं तो सदैव से
भाग्यहीन था। तू ही मेरा एकमात्रा सहारा थी। युग के बाद जब तू मुझसे बिछुड़ गई तो दुःख मेरे जीवन की कथा बन गयी। मेरे जीवन में सदैव दुःख ही भरा रहा कभी सुख देखने को नहीं मिला। जीवन में मिले दुःखों और अभावो ं के कारण कवि अपनी पुत्राी के प्रति कत्र्तव्यों का पालन नहीं कर पाया। वह पश्चाताप करते हुए कहता है कि मेरे कवि कर्म पर वज्रपात41 हिन्दी -ग्प्प् हो जाए तब भी मेरा सिर श्र(ा से झुका रहेगा। अपने कत्र्तव्य का पालन करते हुए मेरे समस्त सत्कार्य शीतकाल में पाला पड़ने से कमल की
तरह नष्ट हो जाएं तब भी कोई चिंता नहीं है। मैे ं अपने विगत जीवन के सभी कार्यो का पफल तुझे अर्पित कर तेरा तर्पण कर रहा हू ँ अर्थात् तेरा श्रा( कर रहा हू ँ। तेरे प्रति यही मेरी श्र(ांजलि है। शिल्प-सौन्दर्य - भाषा-खड़ी बोली, संस्कृतनिष्ठ शब्दावली, अलंकार-अनुप्रास ;नतनयनों, रागरंग, रतिरूप, सदा समस्तद्ध, पुनरूक्ति प्रकाश ;अंग-अंग, थर-थर-थरद्ध मानवीकरण ;मूर्ति-ध्ीतिद्ध उत्प्रेक्षा एवं उदाहरण ;भरे जलद..... अपारद्ध उपमा ;शीत के से शतदलद्ध रूपक ;आकाश .... महीद्ध अभ्यास
कार्य प्रश्न 1:- ‘मेरे बसंत की प्रथम गीति’, के द्वारा कवि क्या कहना चाहता है? 2. आकाश बदलकर बना मही मंे ‘आकाश’ और ‘मही’ शब्द किसकी और संकेत करते है? 3. ‘वह लता वहीं की जहाँ कली तू खिली, स्नेह से हिली, पली’, पंक्ति के द्वारा किस प्रसंग को उद्घाटित किया गया है? 4. शकुन्तला के प्रसंग के माध्यम से कवि निराला क्या संकेत करना चाहते है ं? 5. कवि निराला की श्रृंगारिक कल्पना किस रूप मंे साकार हुई है ं? सरोज स्मृति
कविता के आधर पर स्पष्ट कीजिए। 6. कवि निराला की सरोज-स्मृति कविता आम आदमी के जीवन संघर्षो से किस प्रकार मेल खाती है? ;खद्ध व्याख्या - मुझ भाग्यहीन ...................... तेरा तर्पण। ;गद्ध काव्य सौन्दर्य - माँ की कुल ............................ अन्य कला।42 हिन्दी -ग्प्प् सच्चिदानंद हीरानंद वातस्यायन ‘अज्ञेय’ यह दीप अकेला यह दीप ....................................... पंक्ति को दे दो। मूल भाव - ‘यह दीप अकेला’ कविता में दीप के माध्यम से कवि व्यक्तिगत सत्ता को सामाजिक सत्ता से जोड़ने की बात कर रहा है। मनुष्य में अतुलनीय सहनशीलता और संघर्ष की क्षमता है। समाज में उसके विलय से समाज और राष्ट्र मजबूत होगा। व्याख्या बिन्दु - दीप अकेला होने के बावजूद प्रेम से भरा व गर्व से परिपूर्ण होने के कारण अपनों से अलग है। वह मदमाता है क्योंकि वह
सर्वगुण सम्पन्न है यदि उसे पंक्ति में सम्मिलित कर लिया जाए तो उस दीप की शक्ति, महत्ता तथा सार्थकता बढ़ जाएगी। दीप व्यक्ति का प्रतीक है, कवि उसे पंक्ति मंे लाकर मुख्यधरा से जोड़ना चाह रहा है। दीप के लिए पनडुब्बा, समिध, मध्ु, गोरस, अंकुर, स्वयंभू, ब्रह्म, अयुत विश्वास तथा अमृत-पूतपय आदि उपमानों का प्रयोग किया गया है। ये सभी उपमान एक स्नेह भरे दीप के लिए पूर्णतया उपयुक्त है। पनडुब्बा के रूप मंे वह सच्चे मोतियों का लाने वाला है अर्थात् खतरों से खेलने वाला है, तो समिध ;यज्ञ की लकड़ीद्ध
बन कर संघर्षशील तथा दृढ़निश्चयी है। मध्ु एवं गोरस के रूप में माध्ुर्य एवं पवित्रा अमृतमय दुग्ध् के समान सुख देने वाला स्नेहशील, परोपकारी है। वह अंकुर की तरह स्वयं पैदा होकर विशाल सूर्य को निडरता से ताकता है, वह उत्साही है यह स्वयं ब्रहमा का रूप में अर्थात दीप ;मनुष्यद्ध स्वयं तक ही सीमित नही है। उसे सांसारिक गतिविध्यिों में शामिल करके सर्वजन हिताय प्रयोग मंे लाया जाए तो सम्पूर्ण मानवता लाभान्वित हो सकेगी। ‘यह अद्वित्तीय यह मेरा, यह मैं स्वयं विसर्जित’ पंक्ति के द्वारा कवि दीप को
‘स्व’ का भाव प्रदान करता हुआ कहता है कि व्यक्ति अपनी अलग पहचान बनाते हुए समाज हित में समर्पित हो जाए तो अत्याध्कि श्रेयस्कर होगा। व्यक्तिगत सत्ता का यदि सामाजिक व राष्ट्रीय सत्ता में विलय हो जाए तो समाज, राष्ट्र एवं व्यक्ति सभी का उत्थान होगा। दीप प्रकाश का, ज्ञान का तथा सभ्यता का प्रतीक है। कविता मंे इसे सामाजिक इकाई अर्थात व्यक्ति के रूप में चित्रित किया गया है। जब कहीं समाज में निंदा, अपमान, घृणा तथा अनादर एवं उपेक्षा का अंध्कार पफैलता है, तो दीप उसे प्रकाशमान कर अनुकूल
वातावरण प्रदान करता है। व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थितियों में भी करूणामय होकर, द्रवित होकर, जागरूकता का परिचय देता हुआ, अनुराग से देखता हुआ, सभी को गले लगाने वाली ऊँची उठी भुजाओं वाला बनकर आत्मीयता का परिचय देता है। वह सदैव जागृत तथा श्रद्ध से युक्त रहता है। अंध्ेरे मंे प्रकाश की किरण बनकर निंदा, अपमान, घृणा और अवज्ञा को दूर करता है, तथा अनुकूल वातावरण तैयार करता है। शिल्प सौन्दर्य - भाषा-खड़ी बोली, तत्सम शब्दावली, अनुप्रास
अलंकार, रूपक ;पनडुब्बा, समिध, गोरस, अंकुरद्ध लक्षणा और व्यंजना शब्द शक्ति, माध्ुर्य एवं ओज गुण, प्रतीकात्मकता-दीप प्रतीक है व्यक्ति का, प्रगीत शैली, छंद मुक्त। अभ्यास कार्य ;1द्ध दीप अकेला के प्रतीकार्थ को स्पष्ट करते हुए बताइए कि उसे कवि ने स्नेह भरा, गर्वभरा एवं43 हिन्दी -ग्प्प् मदमाता क्यों कहा है? ;2द्ध ‘यह अद्वितीय - यह मेरा - यह मैं स्वयं विसर्जित’’ पंक्ति के आधर पर व्यष्टि के समष्टि में विसर्जन की उपयोगिता बताइए। ;3द्ध यह दीप अकेला
कविता का मूल भाव लिखिए। ;खद्ध व्याख्या ;1द्ध यह वह विश्वास ........................ पंक्ति को दे दो। ;2द्ध यह मध्ु है ................................... पंक्ति को दे दो। ;गद्ध काव्य-सौदंर्य - यह प्रकृत, स्वयंभू ............... पंक्ति को दे दो। ;खद्ध मैनें देखा, एक बू ँद मैंने देखा ................................................ नश्वरता के दाग से। मूलभाव:- कवि ने इस कविता के माध्यम से जीवन में क्षण के महत्व को तथा क्षणभंगुरता को प्रतिष्ठापित किया है। बूँद जब तक समुद्र
में रहती है उसका कोई अस्तित्व नहंी होता किंतु जब वह अलग होती है तो सूर्य के स्पर्श से रंगकर सार्थक हो जाती है। व्याख्या बिंदु:- कवि कहता है एक बूँद का सागर से अलग होने का अर्थ है कि अब उसका अस्तित्व समाप्त होने वाला है, वह शीघ्र नष्ट होने वाली है। बूँद सागर से अलग होकर स्वयं नष्ट हो जाती है, सागर नष्ट नहीं होता। समुद्र;सागरद्ध से कवि का आशय ब्रहम से है जहाँ से बूँद रूपी जीव क्षणभर अर्थात् कुछ समय के लिए अलग होता है और कुछ रंगीन पल व्यतीत कर नश्वरता को प्राप्त होता है अर्थात्
मुक्ति को प्राप्त होता है। सागर की एक बूँद लहरों के टकराने से ऊपर उछल कर अलग हो गई। सूर्य की लालिमा में रंगकर बूँद को पुनः सागर में समाना निरर्थक प्रतीत नहीं होता क्यांेकि उस एक क्षण वह अस्त होते हुए सूर्य की आग से रंग कर समाप्त हो गई, लेकिन बूँद ने क्षणभर के लिए अपनी स्वछंदता का आनंद लिया। उसने अपनी नश्वरता के दाग से मुक्ति पा ली। उसी प्रकार अपने क्षणभंगुर जीवन को परम्ब्रहम के प्रकाश से आलोकित कर मनुष्य को नश्वरता अर्थात् मृत्यु के भय से मुक्ति अनुभव करनी चाहिए। शिल्प
सौन्दर्य:- भाषा - खड़ी बोली, तत्सम शब्दावली, अनुप्रास अलंकार, बिम्बात्मकता, प्रतीकात्मकता ;बूँद व्यक्ति का, सागर परम् ब्रहम काद्ध दार्शनिक तत्व की अभिव्यक्ति, मुक्त छंद। अभ्यास कार्य ;कद्ध प्रश्न 1. ‘रंग गई क्षण भर ढलते सूरज की आग से’ पंक्ति के आधर पर बूँद के क्षण भर रंगने की सार्थकता बताइए। 2. क्षण के महत्व को उजागर करते हुए कवित का मूल भाव लिखिए। 3. मैनें देखा एक बूँद कविता में कवि ने सत्यता के दर्शन कैसे किए है? ;खद्ध व्याख्या:- मैने देखा ....................
नश्वरता के दाग से।44 हिन्दी -ग्प्प् केदारनाथ सिंह बनारस इस शहर में ........................................... बिल्कुल बेखबर। मूलभाव:- केदारनाथ सिंह की कविता ‘बनारस’ मे ं प्राचीनता, आध्यात्मिकता एवं भव्यता के साथ-साथ आध्ुनिकता का अपूर्व समन्वय है। कविता बसंत आने पर धर्मिक, सांस्कृतिक वैभव, आयोजनों एवं मिथकीय आस्थाओं का परंपराबोध् कराती है। व्याख्या बिन्दु- बनारस एक
बहुत प्राचीन शहर है। पौराणिक ग्रंथों एवं दंतकथाओं मे बनारस को काशी नाम से संबोध्ति किया जाता है। कवि कहता है कि बनारस में बसंत का आगमन अचानक होता है। बसंत के आगमन पर लहरतारा या मडुवाडीह मोहल्लों में ध्ूल का एक बवंडर उठता है, जिससे इस महान एवं पुराने बनारस शहर की जीभ किरकिराने लगती है। बसंत का प्रभाव दशाश्वमेध् घाट के पत्थरों पर भी दिखाई देने लगता है। बसंत के आगमन और लोगों के स्नान ध्यान, पूजा-अर्चना से घाट का अंतिम पत्थर भी अपनी कठोरता छोड़ कर नरम हो जाता है। सीढि़यों पर
बैठे बंदरों की आँखो में नमी तथा भिखारियों निराश आँखो में उत्साह एवं उनके खाली कटोरों में सिक्कों की चमक दिखाई देने लगती है। घाट पर आये श्र(ालु भिखारियों के खाली कटोरों को दानस्वरूप कुछ न कुछ देकर भर देते है। इस तरह इन कटोरों में बसंत उतरता है। इस शहर के साथ एक मिथकीय आस्था जुड़ी हुई है कि एवं गंगा का सानिध्य पाकर मानव को जीवन मृत्यु के चक्र से छुटकारा मिल जाता है, अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। इसलिए प्रतिदिन असंख्य शवो ं को अपने कंधे ं पर लादकर लोग बनारस की तंग गलियों
से गंगा के किनारे दाह-संस्कार के लिए ले जाते है। बनारस तीव्र गति वाला शहर नही है ं, यहाँ सभी कुछ ध्ीमी गति से संपन्न होता है। यहाँ के निवासियों के स्वभाव में भागमभाग नही है। ध्ीरे-ध्ीरे कार्य करने की विशेषता ने सारे समाज को एकता के सूत्रा में मजबूती से बाँध् रखा है। घाट पर बँध्ी नाव और तुलसीदास की चरण-पादुकाओं के द्वारा यह स्पष्ट किया गया है। यहाँ जो परंपराएं, आस्थाएं विश्वास, भक्ति और श्र(ा है उनमें सैकड़ो वर्षो से कुछ भी परिवर्तन नही हुआ है। परंपरागत जीवन वैसा ही चल रहा है,
जैसे चलता आया है। बनारस एक अद्भुत शहर है। इस की रिक्तता और पूर्णता दर्शाने के लिए कवि कहता है कि यह आध पफूल में, आध शव में आध नींद में आध शंख में है। आध होना और आध न होना इस शहर का रहस्य45 हिन्दी -ग्प्प् है। राख, रोशनी, आग, पानी, ध्ुएँ, खुशबू और आदमी के उठे हाथों के स्तंभो के द्वारा कवि कहना चाहता है कि यह शहर आस्था के स्तंभो तथा काशी गंगा के सानिध्य में मोक्ष की अवधरणा पर खड़ा है। सैकड़ो वर्षो से यहाँ के निवासी एक पैर पर खड़ े होकर साध्ना करते हुए अज्ञात सूर्य को
अध्र्य देते आ रहे है, अर्थात् यहाँ के लोग सदा से ध्र्म-कर्म में लगे हुए है। इसी से सांस्कृतिक विरासत बनी हुई है। शिल्प सौन्दर्य :- भाषा - खड़ीबोली, अलंकार - अनुप्रास, पुनरूक्ति प्रकाश ;रोज-रोज, ध्ीरे-ध्ीरे, ऊँचे-ऊँचेद्धमानवीकरण ;बनारस काद्ध, बिम्बों का प्रयोग, लाक्षणिकता, छंद मुक्त। अभ्यास कार्य प्रश्न 1ः- बनारस शहर के लिए जो मानवीय क्रियाएँ इस कविता में आई है ं उनका व्यंग्यार्थ स्पष्ट कीजिए? 2. बनारस में बसंत का
आगमन कैसे होता है और उसका क्या प्रभाव इस शहर पर पड़ता है? 3. खाली कटोरों में बसंत का उतरना से क्या आशय है? 4. बनारस कविता के आधर पर सि( कीजिए कि आस्था, श्र(ा, विरक्ति, विश्वास, आश्चर्य और भक्ति का मिलाजुला रूप बनारस है। ;खद्ध व्याख्या - जो है वह खड़ा है ............................ हाथों के स्तंभ। 2. अद्भुत है ................. आध नही है। 3. शताब्दियों से .................... बिल्कुल बेखबर। ;खद्ध दिशा हिमालय किध्र
.......................... किध्र है। मूलभाव- केदारनाथ सिंह द्वारा रचित यह कविता बाल मनोविज्ञान पर आधरित है। बच्चे का भी अपना यथार्थ होता है। व्याख्या बिन्दु - कवि स्कूल के बाहर पतंग उड़ाते हुए बच्चे से पूछता है कि हिमालय किध्र है। पतंग उड़ाने मंे मस्त बच्चे से यह प्रश्न पूछना असामयिक है, पिफर भी बालक स्वाभाविक रूप से उत्तर देता है कि जिध्र उसकी पतंग भागी जा रही है। लेखक ने पहली बार जाना कि हिमालय किध्र है अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति का अपना यथार्थ होता है। बच्चे भी यथार्थ को
अपने ढंग से देखते है, उस बच्चे का यथार्थ पतंग की दिशा में है। कवि बच्चे के बाल सुलभ ज्ञान पर मुग्ध् हो उठता है। कवि चाहता है कि हम बच्चों से कुछ न कुछ सीख सकते है। शिल्प सौन्दर्य - भाषा-खड़ी बोली, पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार ;उधर-उधरद्ध, प्रश्न अलंकार ;हिमालय किध्र है?द्ध संवादात्मक शैली, छंद मुक्त।46 हिन्दी -ग्प्प् अभ्यास कार्य प्रश्न 1:- दिशा कविता के आधर पर बताइये कि बच्चे का उधर-उध्र कहना क्या प्रकट करता है? 2. दिशा कविता के आधर पर स्पष्ट कीजिए कि प्रत्येक
व्यक्ति का अपना यथार्थ होता है। 3. बालक पतंग की ओर हिमालय की दिशा क्यों बताता है? बाल मनोविज्ञान के आधर पर लिखिए। 4. व्याख्या - हिमालय किध्र है? ........................ किध्र है।47 हिन्दी -ग्प्प् विष्णु खरे एक कम 1947 के बाद ........................................ रह सकते हो। मूलभाव:- इस कविता में कवि विष्णु खरे ने स्वतंत्राता की बाद की भारतीय जीवन शैली पर प्रकाश डाला है। स्वतंत्राता के बाद लोगों ने राष्ट्रीय भावना तथा सामाजिकता को छोड़कर
भ्रष्ट तरीके अपनाएं और अमीर हो गए, किंतु रह गए ईमानदार लोग जो चाय, रोटी और पैसो के लिए दूसरों के सामने हाथ पफैलाने को मजबूर है ं। व्याख्या बिन्दु:- उनका मानना है कि हमारे सेनानियो ं ने आजादी से पूर्व एक सच्चे, सुखी तथा शांतिप्रिय समाज की कल्पना की और इस हेतु आत्म बलिदान भी किया था। किंतु स्वतंत्राता प्राप्ति के बाद क्या उनका स्वप्न साकार हो सका? अमीर बनने की होड़ में लोगों ने अपने स्वाभिमान, आत्मा की आवाज, अपने सम्मान तथा मानवीय मूल्यों ;आपसी विश्वास, भाईचारा, सामूहिकता तथा
समन्वय की भावनाद्ध के स्थान पर धेखाध्ड़ी, आपसी खींचतान तथा परस्पर वैमनस्य की भावना को अपना लिया है। लोग अशोभनीय तरीको का सहारा लेकर मालामाल, आत्मनिर्भर तथा गतिशील हो गए है यह सभ्य समाज को मान्य नही है। लोग निर्लज्ज और पतित हो गए है। इस कविता में कवि बेईमानो ं के बीच जी रहे एक ईमानदार व्यक्ति ;कोढ़ी, कंगाल, भिखारी के माध्यम सेद्ध के प्रति सहानुभूति प्रकट कर रहा है। वह स्वयं को तथा भिखारी को ईमानदार के रूप में प्रस्तुत करके कुछ न कर पाने की स्थितियों में ऐसे लोगों के जीवन संघर्ष
कम से कम एक व्यवधन को कम करने का प्रयास कर रहा है तथा भ्रष्टाचारियों को बेपर्दा करके एक सभ्य, शिष्ट, ईमानदार तथा प्रगतिशील समाज का निर्माण करने की प्रेरणा दे रहा है। शिल्प सौन्दर्य - भाषा खड़ीबोली, तत्सम शब्दावली अंलकार - अनुप्रास ;कंगाल, कोढ़ी, नंगा, निर्लज्ज निरांकाक्षी, हर होड़द्ध संदेह अलंकार, मुहावरे का प्रयोग ;हाथ पफैलानाद्ध लाक्षणिक, विशेषणों का प्रयोग, प्रतीकात्मकता, छंद मुक्त। अभ्यास कार्य ;कद्ध प्रश्न 1. 1947 के बाद भारतीय समाज में क्या परिवर्तन आया? 2.
हाथ पफैलाने वाले व्यक्ति को कवि ने ईमानदार क्यों कहा है? स्पष्ट कीजिए।48 हिन्दी -ग्प्प् 3. ‘मैं तुम्हारा विरोध्ी प्रतिद्वंदी या हिस्सेदार नहीं’ से कवि विष्णु खरे का क्या अभिप्राय है? 4. एक कम कविता के माध्यम से कवि ने स्वतंत्राता के बाद के भारतीय समाज की जीवन शैली को किस रूप में रेखांकित किया है? लिखिए। 5. बदलते परिवेश में ईमानदार व्यक्ति की छवि ध्ूमिल होती जा रही है। - क्या आप सहमत है? ;खद्ध व्याख्या - 1947 के बाद से .......................... मामूली
धेखेबाज ;गद्ध काव्य-सौन्दर्य - ;1द्ध कि अब जब ...................... बच्चा खड़ा है। ;2द्ध मैं तुम्हारा विरोध्ी ............................. रह सकते हो। सत्य जब हम सत्य .............................. इंद्रप्रस्थ लौटते हुए। मूलभाव:- ‘सत्य’ कविता में कवि ने पौराणिक संदर्भो एवं पात्रों के द्वारा जीवन मंे सत्य के महत्व को स्पष्ट करना चाहा है। कवि कहना चाहता है कि हम जैसे समाज में जीवन यापन कर रहे है, उसमें सत्य की पहचान करने में तथा उसे पाने में कितने असमर्थ सि( हो रहे है ं, यह
बताना उतना ही कठिन है, जितना सत्य को पकड़ पाना। व्याख्या बिन्दु:- कवि कहता है कि सत्य केवल पुकारने से प्राप्त नहीं हो सकता, इसे प्राप्त करने के लिए कठोर तप और साध्ना करनी पड़ती है, उसके प्रति निष्ठावान होना पड़ता है। उसे अनुभव करना व पहचानना पड़ता है। कविता मंे विदुर सत्य का प्रतीक है ं और युध्ष्ठििर सत्य के प्रति निष्ठावान व्यक्ति का। सत्य को पाने के लिए ही युध्ष्ठििर विदुर को पुकार रहे थे। महाभारत का यह प्रसंग बताता है कि सत्य कटु और नग्न होता है उसका सामना होने पर मन विचलित
होने लगता है। सत्य के प्रति मन में निष्ठा होनी चाहिए तभी सत्य का साक्षात्कार होने पर उसका आलोक, उसकी शक्ति हमारी आत्मा में समाहित हो सकेगी। कवि कहता है कि सत्य कभी दिखाता है और कभी ओझल जाता है। सत्य का रूप वस्तु-स्थिति, घटनाओं और पात्रों के अनुसार बदलता रहता है। जो एक व्यक्ति के लिए सत्य है, आवश्यक नहीं कि दूसरे व्यक्ति के लिए भी वह सत्य ही हो। इसीलिए सत्य की पहचान और उसकी पकड़ अत्यंत कठिन होती है। युध्ष्ठििर सत्य के प्रति दृढ़ संकल्पी थे, इसी कारण वे सत्य को प्राप्त कर
सके। सत्य और संकल्प का संबंध् आवश्यक है। दृढ़ संकल्प शक्ति से ही सत्य को आत्मा की शक्ति के रूप में पहचाना जा सकता है। संकल्प के अभाव में सत्य को नहीं पाया जा सकता। शिल्प सौन्दर्य:- भाषा-खड़बोली, अंलकार-अनुप्रास ;हटता जाता, देखती दृष्टि, प्रकाश-पु ंजद्ध, पुनरूक्ति ्रप्रकाश ;बार-बार, ध्ीरे-ध्ीरे, कभी-कभीद्ध, मानवीकरण ;सत्य शायद जानना चाहता हैद्ध, उदाहरण ;युध्ष्ठििर जैसा, प्रकाश जैसाद्ध, रूपक ;प्रकाश-पुंजद्ध, विरोधभास ;न पहचानने में पहचानते हुएद्ध, छंद मुक्त।49 हिन्दी
-ग्प्प् अभ्यास कार्य ;कद्ध प्रश्न 1:- सत्य हमसे परे क्यों और किस प्रकार हटता चला जाता है? 2. सत्य का दिखना और ओझल होने से कवि का क्या तात्पर्य है? 3. सत्य और संकल्प के परस्पर संबंध् पर अपने विचार व्यक्त कीजिए। 4. सत्य बोलना, सत्य सुनना, सत्य को सहन करना और सत्य का पालन करना आज के बदलते परिवेश में अत्यंत मुश्किल क्यों है? ;खद्ध व्याख्या ;1द्ध जब हम सत्य को .......................... वे नहीं ठिठकते। ;2द्ध हम कह नहीं सकते .......................... इंद्रप्रस्थ लौटते
हुए। ;गद्ध काव्य-सौन्दर्य ;1द्ध हम कह नहीं सकते ...................... उसी को छुअन है।50 हिन्दी -ग्प्प् रघुवीर सहाय वसंत आया जैसे बहन ‘दा’........................................ बसंत आया। मूलभाव:- ‘वसंत आया’ कविता में कवि ने आज के मनुष्य की आध्ुनिक जीवन-शैली पर व्यंग्य किया है। मनुष्य का प्रकृति से रिश्ता टूट गया है। वसंत )तु का आना अब अनुभव करने के बजाय कैलेंडर से जाना जाता है। व्याख्या बिंदु:- वसंत के आगमन के विषय में कवि कहता है कि सुबह की सैर करते समय
किसी बंगले के आगे लगे अशोक वृक्ष पर कोई चिडि़या छोटी बहन की तरह चहचहाएं तथा सड़क के किनारे पेड़ांे से गिरे पीले-सूखे पत्ते पैरों के नीचे चरमराएं तथा खिली हुई हवा पिफरकी की तरह झूमती हुई, गरम पानी में नहाई हुई सी आये तो समझ लेना चाहिए कि वसंत आ गया है। कैलेंडर की तिथि देखकर तथा दफ्रतर में छुट्टी होने के कारण वसंत पंचमी आने का प्रमाण मिल जाता है। इस कविता में कवि की चिंता है कि मनुष्य आध्ुनिकता एवं अतिव्यस्तता के कारण प्रकृति और मौसम मंे आने वाले परिवर्तनों से अनभिज्ञ हो गया है।
प्रकृति के सौंदर्य, हरियाली, पुष्प, कोयल, भौरें, रंग, रस, गंध्, आम के बौर तथा ढाक के दहकते वनों आदि से कटता जा रहा है। शिल्प-सौन्दर्य:- भाषा - खड़ीबोली, देशज ;तद्भवद्ध शब्दों और क्रियाओं का प्रयोग, अनुप्रास अलंकार ;पियराये पत्ते, हुई हवा.............द्ध, पुनरूक्ति प्रकाश ;बड़े-बड़े, चलते-चलतेद्ध, उपमा ;गरम पानी से नहाई, पिफरकी-सीद्ध मानवीकरण, ;खिली हुई हवाद्ध, बिबों का प्रयोग, प्रकृति चित्राण, छंद मुक्त। अभ्यास कार्य प्रश्न:- 1. ‘वसंत आया’ कविता मंे कवि की चिंता क्या
है? 2. रघुवीर सहाय ने वसंत आया कविता के माध्यम से मनुष्य की किस जीवन शैली को व्यंग्य का निशाना बनाया है और क्यों? 3. प्रकृति मनुष्य की सहचरी है, इस विषय पर अपने विचार व्यक्त कीजिए? ;खद्ध व्याख्या - और यह कैलेंडर ................. वसंत आया। ;गद्ध काव्य-सौन्दर्य - ऐसे किसी बंगले ................. चली गई।51 हिन्दी -ग्प्प् तोड़ो तोड़ो तोड़ो तोड़ो ................................ गोड़ो गोड़ो गोड़ो। मूल भाव - ‘तोड़ो’ उद्बोध्न कविता है ं। इसमें कवि सृजन हेतु भूमि को
तैयार करने के लिए चट्टाने, ऊसर और बंजर को तोड़ने का आह्वान करता है। मन के भीतर की ऊब भी सृजन में बाध्क है ं कवि उसे भी दूर करने की बात करता है। व्याख्या बिंदु - चरती, परती, ध्रती को ऊर्वरा ऊबरा बनाने के लिए पत्थर, चट्टानों, बंजर-ऊसर को तोड़ना पड़ता है। इसी प्रकार मन मे व्यापत ऊब और खीज को तोड़ना पड़ता है। ध्रती मंे पत्थर और चट्टान तथा मन के भीतर की ऊब और उदासी सृजन में बाध्क है। ध्रती को खेती योग्य बनाने के लिए खोदने-पाटने, गुड़ाई-बुवाई करने की आवश्यकता है। इसी तरह मन में
व्याप्त खीज को बाहर निकालने पर सृजन होगा। मन की ऊब और खीज रचनात्मकता में बाध्क है। इस कविता के माध्यम से कवि विध्वंस के लिए नहीं सृजन के लिए प्रेरित कर रहा है। वह मानव-मन की खीज और ऊब को उसके मन से निकाल कर नए सृजन के लिए तैयार करना चाहता है। शिल्प सौन्दर्य - भाषा-खड़ीबोली, अलंकार - पुनरूक्ति प्रकाश ;तोड़ो-तोड़ो, आध्े-आध्े, गोड़ो-गोड़ोद्ध, रूपक ;मन के मैदानों मेंद्ध, प्रतीको और बिबों का प्रयोग, छंद मुक्त। अभ्यास कार्य ;कद्ध प्रश्न 1 - तोड़ो कविता में ‘पत्थर’ और
चट्टान किसके प्रतीक है? 2. कवि को ध्रती और मन की भूमि मंे क्या-क्या समानताएँ दिखाई पड़ती है? 3. कविता का प्रारंभ तोड़ो तोड़ो तोड़ो से हुआ है और अंत गोड़ो गोड़ो से विचार कीजिए कवि ने ऐसा क्यों किया? 4. ‘तोड़ो’ कविता के माध्यम से कवि क्या संदेश देना चाहता है? ;खद्ध व्याख्या - तोड़ो तोड़ो तोड़ो ........................ आध्े आध्े गाने। ;गद्ध काव्य सौन्दर्य - ये ऊसर बंजर ................ गोड़ो गोड़ो गोड़ो।52 हिन्दी -ग्प्प् प्राचीन कवि तुलसीदास भरत-राम का
प्रेम ;1द्ध पुलकि सरीर .................... पिआसे नैन ।। व्याख्या बिंदु:- प्रस्तुत छंद कवि तुलसीदास कृत रामचरितमानस के अयोध्या कांड का अंश है। राम वन गमन के उपरान्त भरत के मनोभाव का वर्णन है। अपने प्रभु श्री राम के विषय में बोलते समय उनका शरीर पुलक से भर जाता है और नेत्रा अश्रु पूरित हो उठते है। वह श्री राम के स्वभाव की चर्चा करते हुए कहते है कि उनका हृदय कोमल और निर्मल है। उनके व्यक्तित्व की विशेषताएं बताते है ं कि वे अपराध्ी पर भी क्रोध् नहीं करते, खेल में स्वयं हार कर मुझे
जिताते है। ऐसा करना मेरे प्रति उनके प्रेम और अनुराग का परिचायक है। बचपन से ही उन्होनें मेरा साथ दिया है। भरत कहते है कि मेरे नेत्रा सदा श्री राम के दर्शन के लिए लालायित रहते है। 2द्ध विध् िन सकेउ .............. मुनि रघुराउ।। व्याख्या बिन्दु: भरत भाव विभोर हो कर कहते है कि संभवतः ईश्वर के लिए मेरे प्रति श्रीराम का प्रेम असहनीय था, इसी कारण उन्हो ंने माता के दुव्र्यवहार को बहाना बना हम दोनों को अलग कर दिया। माता की कुबु(ि के कारण ही राम वन गए। भरत कहते है ं कि माता के प्रति अभद्र
विचार और अपशब्द सर्वथा अनुचित है। अपने चरित्रा का सही आकलन स्वयं कठिन है। चरित्रा की पवित्राता का निर्णय अन्य ही करते है। माता को अध्म और स्वयं को उत्तम मानना अनुचित है। जिस प्रकार कोदो की बाली से उत्तम धन उत्पन्न नहीं हो सकता और घोंघा श्रेष्ठ मोती केा जन्म नही दे सकता, उसी प्रकार दुराचारी माता के गर्भ से चरित्रावान सदाचारी पुत्रा का जन्म संभव नहीं है। श्री राम और मेरे अलगाव का कारण मेरे पूर्व जन्म के पाप कर्म है ं। माता के साथ बुरा व्यवहार और अपशब्दों का प्रयोग कर मैनंे उन्हे
ें दुखी और पीडि़त किया है। मेरे उ(ार का एक मात्रा साध्न मेरे गुरू और श्रीराम है। मेरे वचनों की सत्यता और पवित्राता से मुनि विशिष्ठ और श्री राम परिचित है। 3द्ध भूपति मरन .......................... सहावइ काहि।। व्याख्या बिन्दु:- राम के वन गमन के पश्चात् सब दुखी है। भरत माताओं और अयोध्या वासियों के दुख का मूल कारण स्वयं को मानते है ं। राजा दशरथ ने राम वियोग में प्राण त्याग दिए। राजा की53 हिन्दी -ग्प्प् मृत्यु और माता की कुबु(ि का साक्षी समस्त संसार है। राम के वनवास के
कारण अयोध्या के नागरिक विरह अग्नि में जल रहे है। मेरे कारण ही श्री राम, लक्ष्मण और सीता मुनि का वेष धरण कर वन को चले गए, वे बिना पादुका पैदल चले गए। भगवान् शंकर इस बात के साक्षी है कि मैं सब के दुख का कारण होने पर भी जीवित हू ँ। निषाद राज की भक्ति और श्र(ा को जानकर भी मेरा कठोर हृदय नहीं पिघला। श्री राम के प्रताप से मार्ग में आने वाले सर्प और बिच्छु भी अपना विष त्याग देते है। ऐसे दयालु, श्री राम लक्ष्मण और सीता के साथ शत्राुता का व्यवहार किया उस कैकेयी के पुत्रा भरत को ईश्वर
अवश्य दंड देगा। शिल्प सौन्दर्य:- भाषा-अवध्ी, चैपाई दोहा छंद, भक्ति भावना, नीरज नयन ;रूपक, अनुप्रासद्ध अनुप्रास अलंकार:- खेल खुनिस, स्नेह संकोच, मातुभंदि, साध्ु सुचि ;अनुप्रासद्ध मुकता ....................... काली ;दृष्टांत अलंकारद्ध अभ्यास कार्य ;कद्ध प्रश्न 1:- ‘मैं जानऊँ निज नाथ सुभाऊ’ में राम के चरित्रा की किन किन विशेषताओं का उल्लेख है? 2. राम के प्रति अपने श्र(ा भाव तथा अनन्य भक्ति को भरत ने किस प्रकार व्यक्त किया है? 3. ‘महीं सकल अनरथ कर मूूला’ पंक्ति के
आधर पर भरत की मनोदशा स्पष्ट कीजिए। 4. सब के दुख का कारण भरत किसे मानते है और क्यों? खद्ध व्याख्या पुलकि समीर ............. पिआसे नैन।। गद्ध काव्य सौन्दर्य 1द्ध पफरह कि कोदव बालि सुसाली मुकता प्रसव कि संबुक काली।। 2द्ध पुलकि समीर सभा भए ठाढ़े। नीरत नयन नेह जल बाढ़े।।54 हिन्दी -ग्प्प् पद 1द्ध जननी निरखति ........................ प्रीति सिखी सी।। व्याख्या बिंदु:- प्रस्तुत पद तुलसीदास कृत गीतावली से है। राम वन गमन के पश्चात् माता
कौशल्या की विरह वेदना का मार्मिक चित्राण किया गया है। राम के शैशव काल की जूतियाँ, ध्नुष बाण आदि को देखकर माता कौशल्या का दुःख बढ़ जाता है। वह उन्हे ं के बार बार अपने हृदय से लगाती है। उनके कक्ष मंे जाकर वह यह कहकर जगाने लगती है कि अनुज और सखा तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे है ं उठों और अपने भाइयों, मित्रों के साथ मिलकर अपनी रूचि का भोजन ग्रहण करो। राम को कमरे मंे न देख अचानक राम वन गमन प्रसंग के स्मरण से वह दुःख वेदना के कारण, स्तब्ध् और चित्रावत् हो जाती है। माता कौशल्या की दशा
नृत्य मे ं मग्न उस मोरनी की भांति हैं जो नृत्य के अंत में अपने पैरों को देखकर रोने लगती है। भाव यह है कि माँ कौशल्या की विरह वेदना का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता है। 2. राधैे एक ................... बड़ो अंदेसो।। व्याख्या बिंदु:- प्रस्तुत पद में अश्व के बहाने माता कौशल्या की वेदना का मार्मिक मित्राण है। किस प्रकार अश्वों को देखने के बहाने अयोध्या लौटने को कहती है ं। वास्तव में माता राम को देखने मिलने की आकांक्षी है। राम के प्रिय अश्वों की दुःखी अस्वस्थ अवस्था उनकी
चिंता का कारण है। माता कौशल्या कहती है ं जिन अश्वों की देखभाल तुम स्वयं अपने कर-कमलों से करते थे तुम्हारे स्पर्श के अभाव में उनकी दशा हिमपात हुए कमल के समान है। माता कौशल्या पथिक से अनुरोध् करती है ं कि वन में यदि राम से भेंट हो तो उन्हे ं अश्वों की दशा से अवगत करा देना। शिल्प सौन्दर्य:- भाषा ब्रज, अलंकार-अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश ;बार-बारद्ध उपमा ;चित्रा लिखी सी, सिखी सीद्ध, रूपक ;कर-पंकजद्ध, उत्प्रेक्षा ;तदापि......हिम मारेद्ध अभ्यास कार्य कद्ध 1. राम वन गमन
के उपरान्त राम के शैशव काल की वस्तुओ ं को देखकर माता कौशल्या की मनोदशा का वर्णन कीजिए। 2. ‘रहि चकि चित्रालिखी सी’ पंक्ति में माता की करुण दशा की अभिव्यक्ति है। स्पष्ट कीजिए। खद्ध व्याख्या- 1. जननी निरखति ......... सिखी सी।। गद्ध काव्य सौन्दर्य- 1. कबहुं समुझि ......... प्रीति सिखी सी।। 2. राघौ एक ......... बार-बार चुचकारी।55 हिन्दी -ग्प्प् जायसी बारहमासा 1. अगहन मास ........... ध्ुआं, हम लाग।। व्याख्या
बिंदु:- प्रस्तुत छंद सूपफी कवि जायसीकृत प्रबंध्काव्य ‘पद्मावत’ के बारह मासा का अंश है। इसमें नागमति की विरह वेदना का मार्मिक चित्राण है। अगहन महीने की विशेषताएँ बताते हुए नागमति पर उसके प्रभाव की अभिव्यक्ति है। शीत)तु के इस माह की रात लम्बी और दिन छोटा होता है। प्रियतम के वियोग में नागमति को दिन भी रात की ही भांति दुखदायी प्रतीत होती है। विरह वेदना असहनीय है। उसका शरीर विरह अग्नि में जलकर भस्म हो रहा है। नागमति का रूप, रंग, यौवन और सौन्दर्य प्रिय के साथ चला गया। शीत से बचने
के लिए जगह-जगह जलाई गई आग नायिका के शरीर को और मन को दग्ध् कर रही है। नागमति की इस अवस्था से, उसकी वेदना से, रत्नसेन ;नागमति का पतिद्ध अनभिज्ञ है। विरह अग्नि का ध्ुआँ लगने के कारण उसका शरीर काला पड़ गया है। वह भँवरे और काग से अपने प्रिय तक उसका संदेश पहु ँचाने का अनुरोध् करती है कि नायिका विरह में जल गई है और उसके ध्ुँए से वे काले पड़ गए है ं। 2. पूस जाड़....... समेटहु पंख। व्याख्या बिन्दु- पूस मास की शीत में विरह के कारण नागमति की मरणासन्न अवस्था की अभिव्यंजना है। शीत
का प्रभाव बढ़ गया है, सूर्य के ताप में भी कमी प्रतीत होती है। इस समय शीत और पति वियोग के कारण नागमति का हृदय कांप रहा है। बिस्तर भी हिमालय समान ठंडा/बपर्फीला हो गया है। भयंकर सर्दी से बचने का एक मात्रा उपाय प्रिय से मिलन है। नागमति का कहना कि चकवा और चककी केवल रात को वियोग में रहते है, प्रातः उनका पुनः मिलन हो जाता है। मेरा और प्रिय का मिलन नहीं होता। इस अवस्था में जीवित रहना कठिन है। विरह रूपी बाज, मुझ निरीह पर झपटने के लिए तत्पर है। शरीर का सारा रक्त अश्रु बन बह गया है। नागमति
पति से मरणासन्न विरही पक्षी के ;अपनेद्ध पंखों को समेटने का आग्रह करती है। प्रिय मिलन की उत्कट इच्छा की अभिव्यक्ति है। 3. लागेउ माँह................ उड़ावा झोल।। व्याख्या बिन्दु - माघ महीने में नागमति की विरह अवस्था, उसके दुख, वियोग की अभिव्यक्ति है। माघ महीने की भयंकर सर्दी ;पाला पड़ने वालीद्ध का चित्राण किया गया है। अत्याध्कि शीत से बचने का एक मात्रा उपाय प्रिय मिलन है, जो कि सूर्य के ताप के समान है। जिस प्रकार माघ महीने में पूफलों में रस भरना आरंभ होता है, उसी प्रकार
मेरा हृदय भी भावनाओं से ओत-प्रोत है। नागमति प्रियतम से भ्रमर रूप में आकर मिलने का आग्रह करती है। शीत के कारण नेत्रों से बहते अश्रु ओले के समान प्रतीत होते है ं। हवा चलने से गीले वस्त्रा बाण की भांति चुभ रहे है ं। पति वियोग में नागमति न तो किसी प्रकार का श्रंृ ंगार करती है और न ही आभूषण धरण करती है। विरह वेदना के कारण शरीर दुर्बल, तिनके की भांति हल्का हो गया है। जिसे विरहाग्नि जलाकर राख की भाँति उड़ाना चाहती है।56 हिन्दी -ग्प्प् 4. पफागुन पवन ......... ध्रै ं जहँ
पाउ।। व्याख्या बिंदु- पफागुन मास में नागमति के विरह की चरम सीमा की अभिव्यक्ति है। प्रिय मिलन की उत्कट इच्छा एवं उनके प्रति अनन्य प्रेम की अभिव्यंजना है। मिलन के इस मौसम में विरह असहनीय है। नागमति का शरीर पत्तों के समान पीला पड़ गया है। पौध्े नवीन पत्तों और कोंपलों से भर रहे है ं। लोग परस्पर पफाग खेल रहे ं है ं, गायन और नृत्य में मग्न है ं। सभी का हृदय उल्लास से भरा हुआ है। नागमति को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि होली उसी के हृदय में जल रही है। उसका शरीर जल कर राख हो गया है। उसे इस
बात का कोई दुःख नहीं है। वह पवन से अनुरोध् करती है कि मेरे शरीर की राख को उड़ा कर प्रिय के मार्ग में बिछा दे, राख पर चलने से मुझे चरण स्पर्श का अनुभव होगा। शिल्प सौन्दर्य- भाषा अवध्ी, चैपाई दोहा छन्द, सूपफी काव्य की मसनवी शैली, विप्रलंभ श्रृंगार रस ;वियोग श्रृंगारद्ध अलंकार-अनुप्रास, उत्पे ्रक्षा ;जरै विरह बाती, जानहू ं सेज हिमवचल बूढ़ीद्ध उपमा ;तन जस मोरा, क्रेन नीरूद्ध रूपक ;बिरह सैचान, विरह पवनद्ध, विरोधभास ;सियरि अग्निद्ध नागमति के विरह का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन। विशेष-
बारह मासा में रत्नसेन और नागमति के लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम ;आत्मा-परात्मा के मिलनद्ध की अभिव्यंजना है। अभ्यास कार्य ;कद्ध प्रश्न 1. अगहन मास में नागमति की विरह दशा का वर्णन कीजिए। 2. नागमति किसको और क्यों अपना संदेशवाहक बनाती है? 3. माघ महीने में विरह असहनीय क्यों है तथा नागमति की अवस्था कैसे हो गई है? 4. पफागुन मास में नागमति किससे और क्या अनुरोध् करती है? इस अनुरोध् से उसकी किस भावना का परिचय मिलता है? 5. चकवा और चकवी के
उदाहरण से नागमति की किस व्यथा की अभिव्यक्ति हुई है? 6. वृक्षों से पत्तियाँ तथा वनों से ढाखे किस माह में गिरते है ं इससे विरहिणी का क्या संबंध् है? खद्ध काव्य सौन्दर्य 1. सियरि अग्नि .................... ध्ुआँ हम लाग।। 2. बिरह सैचान ................ नहीं छाँड़ा।। 3. रकत ढरा ..................... समेटु ं पंख।।57 हिन्दी -ग्प्प् 4. पिय सौ ं ....................... ध्ुआँ हम लाग।। 5. 5. यह तन जारौ
ं..................... ध्रै ं जहँ पाउ।। 6. तुम्ह बिन्दु ...................... उड़ावा झोल।।58 हिन्दी -ग्प्प् विद्यापति पद 1. के पतिआ ................ कातिक मास।। व्याख्या बिन्दु - प्रस्तुत पद मंे सावन मास में नायिका की विरह वेदना का चित्राण है। कृष्ण गोकुल त्याग मथुरा चले गए है ं। विरहिणी राध अपनी सखी से पूछती है कि क्या कोई ऐसा नहीं है जो पिया तक मेरा संदेश ले जाए। श्री कृष्ण जाते समय मेरा हृदय अपने साथ ले गए है ं। नायिका का हृदय वियोग के असह्य
दुःख को सहन नहीं कर पा रहा है। नायिका को लगता है कि उसके दारूण दुःख पर जगत विश्वास नहीं करेगा। ऐसे में कवि विद्यापति राध को ध्ैर्य और आशा धरण करने के लिए कहते है ं। और उसे विश्वास दिलाते है ं कि कार्तिक मास में उनका मिलन अवश्य संभव होगा। 2. सखि हे.......... मीलल एक। व्याख्या बिन्दु - नायिका कहती है ं कि प्रेम के अनुभव और आनन्द के प्रतिक्षण नूतन स्वरूप वर्णनातीत है। आजीवन कृष्ण दर्शन पर भी नेत्रा अतृप्त है ं। उनकी मध्ुर वाणी, को सुनने के लिए कान सदा उत्सुक रहते है ं।
वाणी/वचनों और प्रेम की चिर नवीनता के कारण अनुभव सम्पूर्ण नहीं है। मिलन की तीव्र इच्छा सदा बनी रहती है। प्रेम का वास्तविक स्वरूप जानना कठिन है। विद्यापति कहते हैं कि लाखों व्यक्तियों में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसका प्रेमानुभव सम्पूर्ण है, अर्थात वह तृप्त है। प्रेम में पूर्ण संतोष असंभव है क्योंकि प्रेमानुभूति नित्य नवीन होती है। 3. कुसुमित कानन ......................... लखिमादेइ-रमान।। व्याख्या बिन्दु- सखी राध की विरह वेदना का वर्णन उनके प्रियतम कृष्ण के सामने कर रही
है। कमल मुखी सुन्दरी राध खिले पूफलों को देखकर आँखे मूँद लेती है तथा कोयल की मध्ुर आवाज को सुनकर कान ढक लेती है। मिलन के प्रतीक दृश्य राध के लिए कष्टदायी है। राध का शरीर कृष्ण वियोग में अत्यंत दुर्बल और शक्तिहीन हो गया है। अश्रु पूरित नेत्रा प्रतिपल कृष्ण की प्रतीक्षा करते है ं। विरह में राध का शरीर कृष्ण पक्ष की चैदस के चांद के समान क्षीण हो गया है। विद्यापति कहते है ं राजा शिवसिंह विरह के प्रभाव से परिचित है ं, इसी कारण लाखीमा देवी के साथ रमण करते है ं। शिल्प
सौन्दर्य भाषा मैथिली, वियोग श्रृंगार रस, माध्ुर्य गुण।,अलंकार - अनुप्रास, यमक ;हरि-हरद्ध, रूपक ;कमल मुखीद्ध, उपमा ;चैदसि चांद समानद्ध परिकर ;गुन सु ंदरिद्ध, विरोधभास ;लाख...... गेलद्ध राध के विरह का, उसकी मनोदशा का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन। अभ्यास कार्य59 हिन्दी -ग्प्प् कद्ध 1. राध के दुःख का कारण क्या है? 2. कोयल और भ्रमर के कलरव का नायिका पर क्या प्रभाव पड़ता है? 3. राध के प्राण तृप्त न होने का क्या कारण है? खद्ध
व्याख्या- 1. जनम अवध् ि............. परस न गेल।। 2. कुसुमित कानन .............. झांपइ कान।। गद्ध काव्य सौन्दर्य- 1. मोर मन ............. अपजस लेल।। 2. तोहर बिरह ............... चैदसि चांद समान।। 3. कुसुमित कानन ................ झांपइ कान।। 4. सेह पिरिति अनुराग ............. नूतन होय60 हिन्दी -ग्प्प् केशवदास रामचंद्रिका ;कद्ध दंडक बानी जगरानी .................. तदपि नई नई। व्याख्या बिन्दु - प्रस्तुत
पंक्तियों में केशवदास ने माँ सरस्वती की उदारता और वैभव का गुणगान किया है। देवी सरस्वती की उदारता अपरंपार है उसे शब्दों में बांध् कर सीमित नहीं किया जा सकता। वह सदैव नयापन लिए हुए है। अतः न तो कोई उसका गुणगान कर सका है, न कर सकता है और न कोई कर सकेगा। यह करने में देवता, सि(, )षिराज, अनुभवी, तपस्वी भी हार चुके हैं। चार मुख वाले ब्रह्मा जी, पांच मुख वाले शिवजी तथा षट्मुख कार्तिकेय ;पति, पुत्रा तथा नातीद्धहैं। वे भी उनकी महिमा का वर्णन नहीं कर पाये क्योंकि माँ सरस्वती की उदारता हर
क्षण हर पल नए-नए रूपों में परिवर्तित होती है। उनकी उदारता अपरिमित है इसलिए उसका वर्णन असंभव है। ख. लक्ष्मण-उर्मिला सब जाति पफटी ............ जटी पंचवटी। व्याख्या बिन्दु- इस छंद में कवि ने पंचवटी के माहात्मय का सु ंदर वर्णन किया है। लक्ष्मण और उर्मिला के संवाद द्वारा पंचवटी के सात्विक वातावरण का चित्राण करते हुए कवि कहता है कि यहाँ आने पर दुःखों का निवारण होता है। कपटी और ध्ूर्त व्यक्ति निष्कपट और सदाचारी बन जाते है ं, पापियों के पाप नष्ट हो जाते है ं। ज्ञान की प्राप्ति होती
है। प्राकृतिक सौन्दर्य से सुख की प्राप्ति तथा मोक्ष का आनंद उत्पन्न होता है। कवि कहता है कि पंचवटी शिव की जटाओं के समान कल्याणकारी है। गद्ध अंगद सिंध्ु तर यो ................ लंका जराई-जरी। व्याख्या बिन्दु- इन पंक्तियों में मंदोदरी ;रावण की पत्नीद्ध द्वारा श्री रामचंद्र के बल, महिमा एवं प्रताप का वर्णन किया गया है। मंदोदरी अपने पति रावण से सीता जी को श्री राम के पास वापस भेजने का अनुरोध् करती है किंतु रावण हठी होने के कारण सीता जी को श्रीराम के पास वापस भेजने को तैयार नहीं
था। अतः मंदोदरी रावण को उलाहना देकर उसे श्रीराम के बल एवं प्रताप का आभास करा रही है। वह कहती है कि उनके वानर अर्थात् हनुमान ने समुद्र लांघ लिया, लक्ष्मण द्वारा सीता की रक्षा के लिए खींची गई रेखा को रावण नहीं लांघ सका, रावण हनुमान को बाँध् नहीं सका, श्री राम की सेना ने समुद्र बाँध् कर पुल बना लिया। तुमने ;रावण नेद्ध हनुमान की पूँछ को जलाना चाहा वह तो संभव न हो सका पर लंका जल गई। मंदोदरी के कहने का तात्पर्य यह है कि रावण, श्रीराम के समाने तुम्हारा बल और प्रताप बहुत कम है अतः तुम
सीता को वापस भेज दो।61 हिन्दी -ग्प्प् शिल्प सौन्दर्य- भाषा- ब्रजभाषा, तत्सम् शब्दावली, अलंकार-अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश, अतिशयोक्ति, यमक ;ध्ूजटी जटीद्ध रूपक- ;दुख की दुपटी, अघऔघ की बेरीद्ध, सवैया छंद। अभ्यास कार्य प्रश्न कद्ध 1. माँ सरस्वती की उदारता किसी से भी क्यों नहीं बखानी गई? 2. चारमुख, पांच मुख और षटमुख किन्हे ं कहा गया है? और उनका देवी सरस्वती से क्या संबंध् है? 3. कविता में पंचवटी के किन गुणों का उल्लेख किया गया है? 4.
‘तेलनि तूलनि पूंछि जरी न जरी, जरी लंक जराई-जरी’ के साथ कौन सी घटना जुड़ी है? खद्ध व्याख्या- बानी जगरानी ................ तदपि नई नई।। गद्ध काव्य सौन्दर्य- 1. सब जाति .................... छूटी चटी। 2. अघऔघ की बेरी .............. जटी पंचवटी।। 3. तेलनि तूलनि ................... लंक-जराई-जरी।62 हिन्दी -ग्प्प् घनानंद ;कद्ध कवित्त बहुत दिनान ...................... सुजान को।। व्याख्या बिन्दु - इस कवित्त में कवि अपनी
प्रेयसी सुजान से मिलने की अभिलाषा प्रकट कर रहा है। बहुत दिन तक प्रेयसी के आने की प्रतीक्षा करते-करते तथा उस छबीले मनभावन के शीघ्र आने की सूचना जैसी झूठी बातों पर विश्वास करने से कवि उदास हो गया है। कवि के ‘चाहत चलन ये संदेसों ले सुजन को’ कहने से तात्पर्य यह है कि सुजान के दर्शन की अभिलाषा में कवि के प्राण अध्रो ं तक आकर अटक गए है ं क्योंकि यह सुजान के आगमन की सूचना लेने के पश्चात ही प्रस्थान करना चाहते है। आनाकानी आरसी ...................... कान खोलि है। व्याख्या बिंदु-
प्रस्तुत कवित्त में कवि नायिका से कहता है कि तुम कब तक मिलने में आनाकानी करती रहोगी। मुझमें और तुममें एक प्रकार की होड़-सी चल रही है। कवि मौन होकर यह देखना चाहता है कि सुजान कब तक कवि को प्रति उत्तर न देने के प्रण का पालन कर सकती है। कवि को पूर्ण विश्वास है कि उसके हृदय की ‘कूक भरी मूकता’ नायिका को बोलने के लिए बाध्य कर देगी। कवि मुहावरेदार भाषा में प्रेयसी की निष्ठुरता पर व्यंग्य करता है कि वह कब तक कानो ं में रुई डालकर बैठी रहेगी, कभी तो उसकी पुकार उसके कानो ं तक पहु
ँचेगी। शिल्प-सौंदर्य- भाषा- ब्रजभाषा, अनुप्रास अलंकार, पुनरुक्ति प्रकाश, श्लेष ;सुजान और घनआनंदद्ध, मुहावरों का प्रयोग ;कूक भरी मूकताद्ध, ;पैज पड़ी, रुई दिए रहोगैद्ध, वियोग श्रृंगार रस, कवित्त छंद। ;खद्ध सवैया तब तौ छवि .................... बीच पहार परे। व्याख्या बिंदु - प्रस्तुत सवैये में कवि ने विरह और मिलन की अवस्थाओं की तुलना की है। कवि कहता है कि संयोग के समय में तो हम तुम्हे ं देखकर जीवित रहते थे, अब वियोग में अत्यंत व्याकुल रहते है ं। कवि कहता है कि संयोग की अवस्था
में जो नेत्रा पहले तो प्रेयसी सुजान के सौन्दर्य-रस का पान करके जिया करते थे, वही वियोग की अवस्था में सोच-सोच कर जले जा रहे है, अर्थात् संयोगकाल में नेत्रा तथा हृदय अति प्रसन्न रहते थे और अब वियोग के समय वे दुःख के कारण जले जा रहे है ं। सुजान के बिना सुख के सभी साजो-सामान व्यर्थ लग रहे है ं। जहाँ संयोग की अवस्था में हार भी पहाड़ के समान मिलन में बाध्क लगता था वहीं वियोगावस्था में प्रेम के मध्य पहाड़ ;अनेक व्यवधन, बाधएँद्ध आ गए है ं। पूरन प्रेम को ........................ बांचि न
देख्यौ। व्याख्या बिंदु- प्रस्तुत सवैये में कवि ने अपनी प्रेयसी सुजान को पत्रा लिखकर उसके प्रति प्रेम का63 हिन्दी -ग्प्प् प्रकटीकरण किया है। उस पत्रा में कवि ने प्रेयसी के चरित्रा के सुन्दर स्वरूप का विशेष रूप से चित्राण किया था। कवि ने हृदय रूपी प्रेम पत्रा पर किसी अन्य कथा का उल्लेख तक न किया। ऐसे हृदय रूपी पत्रा को जब अपनी प्रेयसी सुजान को सप्रेम भेंट किया तो प्रेयसी सुजान ने उसे पढ़कर भी नहीं देखा और अनजान की तरह टुकड़े-टुकड़े कर दिया। शिल्प-सौन्दर्य- भाषा-
ब्रजभाषा, अलंकार-अनुप्रास, यमक ;तोष- आनंद, संतोषद्ध, श्लेष ;घन आनंद व सुजानद्ध, रूपक ;हियो हितपत्राद्ध, वियोग श्रृंगार रस, मुहावरों का प्रयोग, सवैया छंद। अभ्यास कार्य ;कद्ध प्रश्न 1. घनानंद ने ‘‘चाहत चलन से संदेसो लै सुजान को’’ क्यों कहा है? 2. कवि मौन होकर प्रेमिका के कौन से प्रण पालन को देखना चाहता है? 3. पठित सवैये के आधर पर बताइये प्राण पहले कैसे पल रहे थे और अब क्यों दुखी है ं? 4. कवि घनानंद ने किस प्रकार की पुकार से ‘कान खोलिहै ं’ की बात
की है? ;खद्ध व्याख्या- 1. बहुत दिनान को .................. लै सुजान को।। 2. पूरन प्रेम को .................... बांचि न देख्यौ। 3. आनाकानी आरसी .............. कान खोलिहै ं।। ;गद्ध काव्य-सौन्दर्य- 1. अध्र लगे है ं आनि ..................... लै सुजान को। 2. रुई दिए रहोगे ................. कान खोलिहै ं। 3. जब तौ छवि ................... महादुःख दोष भरे। 4. तब हार पहार ........................ पहार परे। 5. सो घनआनंद
...................... बांचि न देख्यौ।
7 हिन्दी -ग्प्प् गद्य-खण्ड प्र ेमघन की छाया -स्मृति रामचन्द्र शुक्ल पाठ परिचय - ‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का एक संस्मरणात्मक निबन्ध् है। प्रस्तुत निबन्ध् में शुक्ल जी ने हिन्दी भाषा एवं साहित्य के प्रति अपने प्रारंभिक रूझानो ं का वर्णन किया है। परिवार के साहित्यिक परिवेश, मित्रा-मंडली के प्रभाव एवं प्रेमघन के सम्पर्क में आने से वे किस प्रकार साहित्य-रचना और प्रवृत्त हुए, उन्हो ंनंे इसका भी वर्णन
किया है। स्मरणीय बिन्दु ु लेखक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के पिता पफारसी के अच्छे ज्ञाता थे। वे पुरानी हिन्दी कविता के प्रेमी थे। पफारसी कवियो ं की उक्तियों को हिन्दी कवियो ं की उक्तियों के साथ मिलाने में उन्हे ं बड़ा आनन्द आता था। वे प्रायः रात को घर के सब लोगों को एकत्रा करने रामचरितमानस और रामचन्द्रिका पढ़कर सुनाया करते थे। भारतेंदु जी के नाटक उन्हे ं बहुत प्रिय थे। लेखक ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ नाटक के नायक राजा हरिश्चन्द्र तथा लेखक भारतेंदु हरिश्चन्द्र को एक ही समझता था।
पफलस्वरूप भारंतेदु जी के प्रति लेखक के बालमन में एक अपूर्व मध्ुर भावना जागृत हो गई थी। ु जब आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आठ वर्ष के थे, तब उनके पिता का तबादला राठ तहसील से मिर्जापुर हो गया। उन्हें पता चला कि भारते ंदु मंडल के प्रसि( कवि उपाध्याय बदरीनारायण चैध्री ‘प्र ेमघन’ पास ही कहीं रहते है ं। शुक्ल जी के मन में उनके दर्शन की अभिलाषा उत्पन्न हुई। साथी बालकों की मंडली के साथ वह डेढ़ मील का सपफर तय करके चैध्री साहब के मकान में सामने पहु ँचे। ऊपर का बरामदा सघन लताओं
के जाल से ढका हुआ था, बीच-बीच में खम्भे और खाली जगह थी। कापफी इंतजार के बाद उन्हे ं चैध्री साहब की एक झलक दिखाई दी। उनके बाल बिखरे हुए थे तथा एक हाथ खम्भे पर था। कुछ ही देर में यह छवि आँखों से ओझल हो गई। यही थी ‘प्रेमघन’ की पहली झलक। ु समय के साथ-साथ हिन्दी के नूतन साहित्य की ओर लेखक का रूझान बढ़ता गया। उनके घर में जीवन भारत प्रेस की पुस्तकें आती थी। वे पं॰ केदारनाथ जी पाठक के पुस्तकालय से लाकर पुस्तकें पढ़ा करते थे। शुक्ल जी एक बार किसी बारात में शामिल होने काशी गए
थे। वहाँ घूमते हुए उन्होनें पं. केदारनाथ जी को एक घर से निकलते देखा। यह पता चलने पर कि8 हिन्दी -ग्प्प् वह मकान भारतेंदु जी का है, शुक्ल जी बड़े प्रेम, कुतूहल एवं भावनाओं में लीन होकर उस मकान को देखने लगे। पाठक जी लेखक की यह श्र(ा और प्रेम देखकर बहुत प्रसन्न हुए तथा दूर तक उनके साथ बातचीत करते हुए गए। यहीं से पाठक जी और शुक्ल जी मंे गहरी मित्राता हो गई। इस प्रकार भारतेंदु जी के मकान के नीचे पं. केदारनाथ जी का लेखक के भावुक हृदय से परिचय हुआ जो बाद में गहरी दोस्ती में
बदल गया। ु 16 वर्ष की उम्र तक लेखक की समवयस्क हिन्दी-प्रेमियों की एक मंडली बन गई थी, जिनमें प्रमुख थे - श्रीयुत् काशीप्रसाद जी जायसवाल, बा॰ भगवानदास जी हालना, पं॰ बदरीनारायण गौंड़, पं॰ उमाशंकर द्विवेदी। ु लेखक जिस स्थान पर रहता था, वहाँ अध्कितर वकील, मुख्तारों तथा कचहरी के अपफसरो ं और अमलों की बस्ती थी। लेखक की मित्रा मंडली की बातचीत प्रायः लिखने-पढ़ने की हिंदी में हुआ करती थी जिसमें निस्संदेह इत्यादि शब्द आया करते थे। बस्ती के उर्दूभाषी लोगों को उनकी बोली अनोखी
लगती थी। उन्होनें इस मंडली का नाम ‘ निस्संदेह’ रख दिया था। ु चैध्री साहब भारतेंदु मंडल के प्रसि( कवि थे। वे पुराने एवं प्रतिष्ठित कवियो ं में से थे। उनके रहन सहन और व्यवहार से उनकी रईसी प्रकट होती थी। उनके संवाद सुनने लायक होते थे। उनकी बातचीत का अंदाज निराला था। उनको सुनने की जिज्ञासा हमेशा लेखक के मन में बनी रहती थी। वे विलक्षण प्रतिभा के ध्नी थे। वरिष्ठ एवं अनुभवी होने के कारण लेखक तथा उसके मित्रा चैध्री साहब को एक पुरानी चीज समझा करते थे परन्तु चैघरी साहब के
प्रति प्रेम एवं आदर का भाव सदैव बना रहता था तथा उन्हे ं सुनने की इच्छा निरंतर बनी रहती थी। अतः इस पुरातत्व की दृष्टि से प्रेम और कुतुहल का एक अद्भुत मिश्रण रहता था। ु बदरीनारायण चैध्री ‘प्रेमघन’ एक हिन्दुस्तानी रईस थे। बसंत-पंचमी, होली आदि त्योहारो ं पर उनके यहाँ उत्सव हुआ करते थे। उनकी बातों में विलक्षण वक्रता थी। उनकी बातचीत का ढंग निराला था। वे बहुत विनोदप्रिय एवं हाजिर जवाब भी थे। अभ्यास कार्य 1:- लेखक ने अपने पिता जी की किन-किन विशेषताओं का उल्लेख किया है? 2:-
उपाध्याय बदरीनारायण चैध्री ‘प्रेमघन’ की पहली झलक लेखक ने किस प्रकार देखी? 3:- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का हिन्दी साहित्य के प्रति झुकाव किस तरह बढ़ता गया? 4:- लेखक की मित्रा मंडली का नाम निस्संदेह किसने तथा क्यों रखा? 5:- लेखक के समव्यस्क हिंदी प्रेमियों की मंडली में कौन-2 से लेखक थे? 6:- ‘प्रेमघन की छाया-स्मृति’ के आधर पर चैध्री साहब के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालिए। 7:- ‘भारतेन्दु जी के मकान के नीचे का यह हृदय-परिचय बहुत शीघ्र गहरी मैत्राी में परिणत हो गया।’ - आशय स्पष्ट
कीजिए। 8:- ‘इस पुरातत्व की दृष्टि में प्रेम और कुतूहल का अद्भुत मिश्रण रहता था।’ इस कथन से लेखक का क्या अभिप्राय है? सप्रसंग व्याख्या ;कद्ध मेरे पिताजी ............. बदरीनारायण चैध्री। ;खद्ध भारतेन्दु मंडल .... पहली झाँकी थी।9 हिन्दी -ग्प्प् सुमिरिनी के मनके -पं. चंद्रध्र शर्मा गुलेरी ;कद्ध बालक बच गया पाठ परिचय सुमिरिनी के मनके शीर्षक के अंतर्गत गुलेरी जी द्वारा रचित तीन लघु निबंध् संकलित है ं - ‘बालक बच गया,’ ‘घड़ी के पुर्जे’ और
‘ढेले चुन लो’। ‘बालक बच गया’ में लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि बच्चों को उनकी आयु के अनुसार शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि उनका स्वाभाविक विकास हो सके। ‘घड़ी के पुर्जे’ में लेखक ने घड़ी के दृष्टांत के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि ध्र्म के रहस्यों की जानकारी रखना प्रत्येक व्यक्ति का अध्किार है। ध्र्मोपदेशकों द्वारा इस कार्य में बाध डालने को लेखक ने बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। ‘ढेले चुन लो’ में लेखक ने समाज में प्रचलित अंध् विश्वासो ं पर कड़ा प्रहार किया है तथा उन्हे ं छोड़
देने का आग्रह किया है। स्मरणीय बिन्दु ु लेखक एक पाठशाला के वार्षिकोत्सव पर आमंत्रित थे। प्रधन अध्यापक का आठ वर्षीय पुत्रा भी वहाँ था। उसकी आँखे सपफेद थी, मुँह पीला था तथा दृष्टि भूमि से उठती नहीं थी। ु बालक से प्रश्न पूछे जा रहे थे तथा वह उन प्रश्नो ं के रटे-रटाये उत्तर दे रहा था। सभा ‘वाह-वाह’ करके उसके उत्तर सुन रही थी। वह ध्र्म के दस लक्षण, नौ रसों के उदाहरण, चंद्रग्रहण का वैज्ञानिक समाधन, इंग्लैंड के राजा आठवे ं हेनरी की पत्नियों के नाम तथा पेशवाओं के
शासनकाल के विषय में बता गया। ु पूछे जाने पर बालक ने बताया कि वह जन्म भर लोकसेवा करना चाहता है। उसके पिता अपने पुत्रा के प्रदर्शन से बेहद प्रसन्न थे। ु एक वृ( महाशय ने बालक से इनाम माँगने के लिए कहा। बालक के मुख पर भावो ं में परिवर्तन हो रहे थे। उसकी आँखों से स्पष्ट था कि उसके हृदय में बनावटी और स्वाभाविक भावो ं के बीच संघर्ष चल रहा है।10 हिन्दी -ग्प्प् ु बालक कोे निर्णय लेने में कठिनाई हो रही थी। लेखक चिंतित था कि पता नहीं बालक अब कौन-सा रटा
रटाया उत्तर दे। बालक ने ध्ीरे से लड्डू माँगा। बालक के उत्तर से उसके पिता और अध्यापक निराश हो गए। लेखक ने चैन की साँस ली। जब तक बालक ने पुरस्कार नहीं माँगा था, तब तक लेखक की साँस घुट रही थी। पिता और अध्यापक ने बालक की भावनाओं को कुचलने में कोई कसर नही छोड़ी थी। किन्तु बालक द्वारा लड्डू माँगे जाने से लेखक को लगा कि बालक बच गया, उसका बचपन बच गया क्योंकि लड्डू की माँगं उसके बालमन की स्वाभाविक माँग है। उसका बालमन, उसकी बाल-भावनाएँ अभी भी जीवित है ं। लेखक को बालक की माँग जीवित वृक्ष
के हरे पत्तों की मध्ुर आवाज लगी जिसमें जीवन संगीत है, सूखी लकड़ी से बनी अलमारी की खड़खड़ाहट नहीं जो सिरदर्द देती है। अभ्यास कार्य 1:- बालक से कौन - 2 से प्रश्न पूछे गए? 2:- ‘‘मै यावज्जन्म लोकसेवा करूँगा।’’ किसने कहा तथा क्यों कहा? 3:- बालक द्वारा इनाम में लड्डू माँगने पर लेखक ने सुख की साँस क्यांे भरी? 4:- ‘‘बालक बच गया। उसके बचने की आशा है क्योंकि वह लड्डू की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मध्ुर मर्मर था, मरे काठ की अलमारी की सिर दुखाने वाली खड़खड़ाहट नहीं।’’ कथन के
आधर पर बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए? ;खद्ध घड़ी के पुर्जे ध्र्मोपदेशक उपदेश देते समय कहते है ं कि ध्र्म की बातों को गहराई से जानने की इच्छा हर व्यक्ति को नहीं करनी चाहिए। जो कुछ उपदेशक बताते है ं उसे चुपचाप स्वीकार कर लेना चाहिए। इस मत के समर्थन मंे वे घड़ी का दृष्टांत देते है ं। उनका कहना है कि यदि आपको समय जानना हो तो जिसे घड़ी देखनी आती हो, उससे समय जानकर अपना काम चला लेना चाहिए। यदि आप इतने से संतुष्ट नहीं होते तो स्वयं घड़ी देखना सीख सकते हैं।
किंतु मन में यह इच्छा नहीं करनी चाहिए कि घड़ी को खोलकर, इसके पुर्जे गिनकर, उन पुर्जो को यथा स्थान लगाकर घड़ी को बंद कर दे। यह काम साधरण व्यक्ति का नहीं, विशेषज्ञ का है। इसी प्रकार ध्र्म के रहस्यों का जानना भी केवल ध्र्माचार्यो का काम है। लेखक कहता है कि घड़ी खोलकर ठीक करना कोई कठिन काम नहीं है। साधरण लोगों में से ही बहुत से लोग घड़ी को खोलकर ठीक करना सीखते भी है और दूसरों को सिखातें भी है। इसी प्रकार ध्र्माचार्यो को चाहिए कि वह आम आदमी को भी ध्र्म के रहस्यों की जानकारी
दे। ध्र्म का ज्ञान प्राप्त कर लेने पर व्यक्ति को कोई ध्र्म के विषय में मूर्ख नहीं बना सकेगा। तुम अनाड़ी के हाथ में घड़ी मत दो, परन्तु जो घड़ीसाजी की परीक्षा उत्तीर्ण करके आया है उसे तो घडी देख लेने दो। लेखक ध्र्माचार्यो से यह भी कहता है कि यदि वे लोगों को ध्र्म के बारे में शिक्षित करते है तो इससे यह भी पता चलता है कि स्वयं ध्र्माचार्यों को ध्र्म की कितनी जानकारी है। लेखक, स्वयं को ध्र्म का ठेकेदार समझने वाले ध्र्माचार्यों पर व्यंग्य करते हुए कहता है कि ये लोग
दूसरों को ध्र्म के रहस्य जानने से रोकते है क्योंकि स्वयं उन्हे ं ही ध्र्म की पूरी जानकारी नही है। ये ध्र्माचार्य उस व्यक्ति11 हिन्दी -ग्प्प् की तरह है जो परदादा की घड़ी जेब में डाले पिफरता है, वह बंद हो गई है, न तो उसे चाबी देना आता है, न पुर्जे सुधरना तब भी दूसरों को घड़ी को हाथ नहीं लगाने देता, क्योंकि इससे उसकी अपनी सच्चाई सामने आ जाने का डर है। अभ्यास कार्य 1:- ‘‘ध्र्म का रहस्य जानना वेदशास्त्राज्ञ ध्र्माचार्यो का ही काम है।’’ इस कथन से आप कहाँ तक सहमत
है? 2:- ध्र्म का रहस्य जानने के लिए लेखक ने ‘घड़ी के पुर्जे’ का दृष्टांत क्यांे दिया है? 3:- ‘‘अनाड़ी के हाथ मे ं चाहे घड़ी मत दो पर जो घड़ीसाजी का इम्तहान पास कर आया है, उसे तो देखने दो।’’ - आशय स्पष्ट कीजिए। 4:- लेखक ने ऐसा क्यों कहा है कि - ‘‘हमें तो धेखा होता है कि परदादा की घड़ी जेब में डाले पिफरते हो, वह बंद हो गई है तुम्हे ं न चाबी देना आता है न पुर्जे सुधरना, तो भी दूसरों को हाथ नहीं लगाने देते।’’ 5:- ‘जहाँ ध्र्म पर कुछ मुट्ठी भर लोगों का एकाध्किार ध्र्म को संकुचित
अर्थ प्रदान करता है वहीं ध्र्म का आम आदमी से संबंध् उसके विकास एवं विस्तार का द्योतक है।’ तर्क सहित व्याख्या कीजिए। ;गद्ध ढेले चुन लो ु शेक्सपियर के प्रसि( नाटक ‘मर्चे ंट आॅपफ वेनिस’ मे ं पोर्शिया अपने वर को बड़ी सु ंदर विध् ि से चुनती है। बबुआ हरिश्चन्द्र के नाटक ‘दुर्लभ बंध्ु’ में पुरश्री, पेटियों के द्वारा वर का चुनाव करती है। ु इसी प्रकार वैदिककाल में जीवन-साथी का चुनाव करने के लिए हिन्दुओ ं में मिट्टी के ढेलों की लाटरी चलती थी। इस लाटरी में विवाह का
इच्छुक युवक कन्या के पिता के घर जाता था और उसे गाय भेंट करने के बाद कन्या के सामने कुछ मिट्टी के ढेले रखकर, उनमें से एक ढेला चुनने को कहता था। इन ढेलों को कहाँ से लिया गया था, यह केवल युवक जानता था, कन्या नहीं। यदि कन्या युवक की इच्छानुसार ढेले चुन लेती तो युवक उसे अपना जीवनसाथी बना लेता था। ु ढेलों के चुनाव के विषय में यह माना जाता था कि यदि कन्या वेदी का ढेला उठा ले तो संतान ‘वैदिक पंडित’, यदि गोबर चुना तो’ ‘पशुओं का ध्नी’, ख्ेाती की मिट्टी छू ली तो
‘जमीदांर पुत्रा’ होगी। मसान की मट्टी को हाथ लगाना बड़ा अशुभ माना जाता था। परन्तु ऐसा नहीं था कि मसान की मिट्टी छूने वाली कन्या का कभी विवाह नहीं होगा। यदि वही कन्या किसी अन्य युवक के सामने कोई अन्य ढेला उठा ले, तो उसका विवाह हो जाता था। ु ढेलों के आधर पर जीवनसाथी का चयन आज के लोगों को कोरा अंध्विश्वास प्रतीत हो सकता12 हिन्दी -ग्प्प् है, परन्तु लेखक का मत है कि आज भी लोग ज्योतिष गणना, कुंडली तथा गुणों के मिलान के आधर पर विवाह तय करते है। लेखक के अनुसार यदि
मिट्टी के ढेलों द्वारा जीवनसाथी का चयन अनुचित है तो ग्रहों-नक्षत्रों की चाल के आधर पर जीवनसाथी चुनना तो और भी अनुचित है। ु लेखक का मानना है कि जो हमारे पास आज है उसी पर निर्भर होना अच्छा है बजाए उस चीज के जिसकी हमें भविष्य में मिलने की उम्मीद है। भविष्य अनिश्चित है। पता नहीं वह वस्तु हमें मिले या ना मिले। इसलिए भविष्य की अपेक्षा वर्तमान पर विश्वास करना उचित होगा। ठीक इसी प्रकार लेखक जीवन साथी के चुनाव के लिए मिट्टी के ढेलों केा ग्रह नक्षत्रों की काल्पनिक चाल की गणना से
अध्कि विश्वसनीय मानता है क्योंकि ये ढेले वर द्वारा स्वयं चुने तथा एकत्रा किए गए है। अभ्यास कार्य 1:- वैदिककाल में हिंदुओ ं में जीवनसाथी के चुनाव के संबंध् में क्या प्रथा प्रचलित थी? 2:- ‘‘अपनी आँखों से जगह देखकर, अपने हाथों से चुने हुए मिट्टी के डगलों पर भरोसा करना क्यों बुरा है और लाखों करोड़ांे कोस दूर बैठे बड़े-बड़े मिट्टी और आग के ढेलों, मंगल, शनिचर और बृहस्पति की कल्पित चाल के कल्पित हिसाब का भरोसा करना क्यों अच्छा है?’’ से लेखक का क्या अभिप्राय है? 3:- जीवनसाथी का
चुनाव मिट्टी के ढेलों पर छोड़ने से कौन-कौन से पफल प्राप्त होती है? 4:- ‘‘आज का कबूतर अच्छा है कल के मोर से, आज का पैसा अच्छा है कल की मोहर से। आँखो देखा ढेला अच्छा ही होना चाहिए लाखों कोस के तेजपिंड से।’’ - इस कथन से लेखक का क्या अभिप्राय है?13 हिन्दी -ग्प्प् कच्चा चिट्ठा - ब्रजमोहन व्यास पाठ-परिचय - प्रस्तुत पाठ लेखक ब्रजमोहन व्यास की आत्मकथा ‘मेरा कच्चा चिट्ठा’ का एक अंश है। व्यास जी की सबसे बड़ी देन इलाहाबाद का विशाल और प्रसिद्ध् संग्रहालय है। इस पाठ
में उन्होने इस संग्रहालय के लिए बिना किसी विशेष व्यय के, अपने श्रम एवं बौ(िक कौशल का प्रयोग करते हुए सामग्री एकत्रा करने का विवरण प्रस्तुत किया है। स्मरणीय बिन्दु ु सन् 1936 के लगभग लेखक कौशाम्बी गया था। वहाँ से काम समाप्त कर वह पसोवा चला गया। पसोवा एक प्रसि( जैन तीर्थ है। प्राचीन काल से वहाँ हर वर्ष जैनों का मेला लगता है। कहते है इसी स्थान पर एक छोटी सी पहाड़ी की गुपफा में बुद्ध्देव व्यायाम करते थे। यह भी कहा जाता है कि इसी के पास सम्राट अशोक ने एक स्तूप बनवाया था
जिसमें बुद्ध् के थोड़ े से केश और नखखंड रखे गए थे। अब यहाँ स्तूप और व्यायामशाला के चिह्न नहीं है, परन्तु पहाड़ी अवश्य है। ु लेखक संग्रहालय के लिए पुरातत्व महत्व की सामग्री की खोज में लगा रहता था। लेखक कहता है कि वह कहीं भी जाता है तो छूँछे ;खालीद्ध हाथ नहीं लौटता है। पसोवा में उसे कापफी अच्छी मिट्टी की मूर्तियाँ, सिक्के और मनके प्राप्त हुए। लेखक इस सामग्री को लेकर कौशाम्बी लौट रहा था तो रास्ते में लगभग 20 सेर वजन की शिव की एक चतुर्मुखी मूर्ति पेड़ के नीचे रखी दिखाई दी।
लेखक का मन उसे उठाने के लिए ललचाने लगा। लेखक अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए बताता है जैसे किसी बिल्ली ने चांद्रायण का उपवास रखा हो और उसके सामने स्वयं एक चूहा आ जाए तो ऐसी स्थिति में बिल्ली को चूहा खाने के कत्र्तव्य का पालन करना ही पड़ेगा। बिल्ली का कत्र्तव्य है, चूहे को अपना भोजन बनाना। चूहे को सामने देखकर तो वह अपना व्रत तोड़ने को विवश होगी ही, इसमें बिल्ली का क्या दोष है? इसी प्रकार लेखक ने भी अपना कत्र्तव्यपालन करते हुए मूर्ति को उठाकर इक्के पर रख लिया और लाकर नगरपालिका के
संग्रहालय में रखवा दिया। ु कुछ समय बाद गां ँववालों को पता चला कि चतुर्मुख शिव की मूर्ति अपने स्थान से गायब है। उनका शक सीध लेखक पर गया क्योंकि लेखक मूर्तियाँ उठाने के लिए पूरे क्षेत्रा में प्रख्यात था। लेखक एक कहावत का हवाला देते हुए कहता है कि जब अपना सोना ही खोटा हो तो परखने वाले का क्या दोष? कौशाम्बी मंडल से कोई भी मूर्ति गायब होने पर लोगों े का शक सीध लेखक पर जाता था और 95 प्रतिशत मामलों में उनका संदेह सही भी निकलता था।14 हिन्दी -ग्प्प् ु सारे
गाँववाले एकत्रा होेकर लेखक के पास पहु ँच गए। उन्होनें मूर्ति लौटाने की प्रार्थना की। उनकी ममता और श्र(ा देखकर लेखक ने भगवान शंकर की मूर्ति उन्हे ं लौटा दी। ु एक बार लेखक को कौशाम्बी में एक खेत की मेड़ पर बोध्सित्व की आठ पफुट लम्बी मूर्ति जिसका सिर नही था दिखाई पड़ी। ु वह मूर्ति मथुरा के लाल पत्थर की बनी हुई थी। लेखक जब पाँच-छह लोगों के साथ मूर्ति उठाने लगा तो एक बुढि़या ने उन्हे ं रोक दिया। लेखक बुढि़या को दो रूपये देकर मूर्ति को संग्रहालय में ले आया। ु एक
बार एक प्रफांसीसी व्यक्ति संग्रहालय देखने आया। बातों ही बातों में पता चला कि वह पुरातत्व वस्तुओ ं का व्यापारी है। इसी संदर्भ में लेखक कहता है कि कौवा और कोयल दोनों का रंग-रूप एक जैसा होता है। परन्तु बोली से दोनों का अंतर स्पष्ट होता है ं। इसी प्रकार जब प्रफांसीसी व्यक्ति संग्रहालय में प्रदर्शित वस्तुओ ं का मूल्य आँकने लगा तो पता लगा कि वह एक दर्शक नहीं व्यापारी है। प्रफांसीसी डीलर ने लेखक से कहा उसका संग्रह बहुत कीमती है, यदि उसकी कीमत रूपयों में बता दी जाए तो लेखक का ईमान डगमगा
सकता है। लेखक ने उत्तर दिया कि ईमान जैसी कोई वस्तु उसके पास है ही नहीं तो उसके डिगने का सवाल ही नहीं उठता। यदि होता तो इतना बड़ा संग्रह बिना पैसा-कौड़ी के हो ही नहीं सकता। इस प्रकार लेखक अपने हल्के-पफुल्के अंदाज मे ं उस डीलर को यह संकेत दे दिया कि - पहला, उसका संग्रह बिकाऊ नही है। दूसरा, इस संग्रह के लिए उसे कई बार बेईमानी का सहारा भी लेना पड़ा, लेकिन इसमें उसका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं था। ु प्रफांसीसी डीलर ने बोध्सित्व की मूर्ति का मूल्य दस हजार लगाया। लेखक ने मूर्ति
देने से इंकार कर दिया। यह मूर्ति बोध्सित्व की अब तक की सबसे प्राचीन मूर्तियों में से थी। इस मूर्ति के पदस्थल पर यह उत्कीर्ण था कि कुषाण सम्राट कनिष्क के राज्यकाल के दूसरे वर्ष स्थापित की गई थी। इसके बाद लेखक उत्साहपूर्वक मूर्तियों की तलाश में और अध्कि तेजी से जुट गया। ु सन् 1938 के लगभग श्री मजूमदार की देखरेख में पुरातत्व विभाग कौशाम्बी में खुदाई कर रहा था। गाँव हजियापुर में खुदाई के दौरान भद्रमथ का एक भारी शिलालेख मिला। श्री मजूमदार उसे उठवा ले जाना चाहते थे। गाँव के
जमींदार गुलजार मियाँ उस शिलालेख को संग्रहालय के लिए व्यास जी को देना चाहते थे। परंतु अन्ततः दिल्ली से दीक्षित साहब के हस्तक्षेप के बाद गुलज़ार मियाँ को वह शिलालेख मजूमदार जी को ही सौंपना पड़ा। ु लेखक ने सोचा जिस गाँव में भद्रमथ शिलालेख हो सकता है वहाँ और भी शिलालेख होंगंे, इसलिए वह हजियापुर गाँव पहु ँचा। वहाँ गुलजार मियाँ के घर के सामने एक कुँआ था। उस पर अठपहल पत्थर की बँडेर थी जिस पर एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक ब्राह्मी अक्षरों मे ं लेख था। गुलजार मियाँ ने तुरन्त
लेखक को वह बँडेर सौंप दी। इस प्रकार भद्रमथ के शिलालेख की क्षतिपूर्ति हो गई।15 हिन्दी -ग्प्प् ु अपने आध्किारिक दौरों के दौरान भी लेखक संग्रहालय के लिए ऐतिहासिक महत्व की वस्तुओ ं के संग्रह में लगा रहता था। सामग्री की अध्किता के कारण संग्रहालय के लिए नए भवन का निर्माण किया गया। ु लेखक कच्चे चिट्ठे के समापन से पहले अपने सहयोगियों का आभार प्रकट करता है, जिनके नाम इस प्रकार है - राय बहादुर कामता प्रसाद कक्कड़ ;तत्कालीन चेयरमैनद्ध हिज हाइनेस श्री महेन्द्र
सिंहजू देव नागौद नरेश, उनके दीवान लाल भार्गवेन्द्र सिंह तथा लेखक का अर्दली जगदेव। लेखक स्वयं को निमित मात्रा मानता है तथा संग्रहालय का कार्यभार सुयोग्य संरक्षक डाॅ॰ सतीशचन्द्र काला के हाथों सौपकर सन्यास ले लेता है। अभ्यास प्रश्न 1:- लेखक पसोवा क्यों जाना चाहता था? पसोवा की प्रसि(ि का क्या कारण था? 2:- ‘मैं कहीं जाता हू ँ तो ‘छूँछे’ हाथ नही लौटता।’ लेखक ने ऐसा क्यों कहा है? 3:- ‘‘चांद्रायण व्रत करती हुई बिल्ली के सामने एक चूहा स्वयं आ जाए तो बेचारी को अपना कत्र्तव्य पालन
करना ही पड़ता है।’’ यह वाक्य किस संदर्भ में कहा गया है ं और क्यों? 4:- ‘‘अपना सोना खोटा तो परखवैया का कौन दोस?’’ से लेखक का क्या तात्पर्य है? 5:- लेखक द्वारा प्रयाग संग्रहालय हेतु बोध्सित्व की मूर्ति प्राप्त करने की घटना का वर्णन कीजिए? 6:- ‘‘ईमान! ऐसी कोई चीज मेरे पास हई नहीं तो उसके डिगने का कोई सवाल नहीं उठता। यदि होता तो इतना बड़ा संग्रह बिना पैसा-कौड़ी के हो ही नही सकता।’’ - यह किसने कहा और क्यों कहा? प्रश्न 8:- प्रफांसीसी डीलर बोध्सित्व की मूर्ति के लिए दस हजार रूपये देने
को क्यों तैयार था? प्रश्न 9:- भद्रमथ शिलालेख की क्षतिपूर्ति किस प्रकार हुई? स्पष्ट कीजिए। सप्रसंग व्याख्या ;कद्ध मै कहीं जाता हू ँ .......................... मूर्तियों के साथ रख दिया। ;खद्ध उसके थोड़ े ही दिन बाद ............................. काम कर रहा था। ;गद्ध कौवा भी काला ................. हो ही नहीं सकता।16 हिन्दी -ग्प्प् संवदिया पफणीश्वरनाथ ‘रेणु’ कहानी परिचय:- प्रस्तुत कहानी ‘संवदिया’ पफणीश्वरनाथ ‘रेणु’ द्वारा रचित है। इस कहानी में मानवीय
संवेदना की गहन अभिव्यक्ति हुई है। ‘रेणु’ ने विपन्न, बेसहारा, सहनशील बड़ी बहुरिया की असहाय स्थिति, उसकी कोमल भावनाओं, मानसिक यातना तथा पीड़ा का मार्मिक चित्राण किया है। स्मरणीय बिन्दु - ु हरगोबिन एक संवदिया है। संवदिया अर्थात् संदेशवाहक। बड़ी हवेली से बड़ी बहुरिया का बुलावा आने पर हरगोबिन को आश्चर्य हुआ कि आज जबकि संदेश भेजने के लिए गाँव-गाँव मे ं डाकघर खुल गए है ं, बड़ी बहुरिया ने उसे क्यों बुलवाया है? पिफर हरगोबिन ने अंदाजा लगाया कि अवश्य ही कोई गुप्त संदेश ले जाना
है। ु बड़ी हवेली पहु ँचने पर हरगोबिन अतीत की यादों में खो गया पहले बड़ी हवेली में नौकर नौकरानियों की भीड़ लगी रहती थी। आज बड़ी बहुरिया सूपा में अनाज पफटक रही है। समय कितना बदल गया है। ु बड़े भैया की मृत्यु के बाद तीनों भाई परस्पर लड़ने लगे। बड़ी बहू के जेवर-कपड़े तक भाइयों ने आपस में बाँट लिये। लोगों ने जमीन पर कब्जा कर लिया। तीनों भाई गाँव छोड़कर शहर में जा बसे। गाँव में केवल बड़ी बहुरिया रह गई। ु अब बड़ी बहुरिया की आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो गई थी कि वह
उधर लेकर अपना खर्च चला रही थी। गाँव की मोदिआइन अपना उधर वसूल करने के लिए बैठी थी और बड़ी बहुरिया को कड़वी बातें सुनाती जा रही थी। बड़ी बहुरिया उसका उधर चुकाने की स्थिति में नही थी। ु मोदिआइन के जाने के बाद बड़ी बहुरिया ने हरगोबिन को बताया कि वह अपनी माँ के पास संवाद भेजना चाहती है। संवाद कहने से पूर्व ही बड़ी बहुरिया रोने लगी। हरगोबिन ने पहली बार बड़ी बहुरिया को इस प्रकार रोते देखा था। उसकी भी आँखे छलछला आई। बड़ी बहुरिया ने पिफर दिल को कड़ा करके कहा- ‘माँ से
कहना, मैं भाई-भाभियों की नौकरी करके पेट17 हिन्दी -ग्प्प् पालूँगी, बच्चों की जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहू ँगी। लेकिन अब यहाँ नही रह सकूँगी।’ यदि माँ मुझे यहाँ से नही ले जाएगी तो मै आत्महत्या कर लूँगी। बथुआ-साग खाकर कब तक जीऊँ? किसलिए जीऊँ? किसके लिए जीऊँ? ु हरगोबिन बड़ी बहुरिया के प्रति उसके देवर-देवरानियों के व्यवहार को जानता था। उसका रोम-रोम कलपने लगा। बड़ी बहुरिया की दुर्दशा देखकर उसका मन बहुत दुःखी हुआ। बड़ी बहुरिया हरगोबिन के जाने के राहखर्च के लिए
मात्रा पाँच रूपये जुटा पाई थी। हरगोबिन ने यह कहकर राहखर्च लेने से इंकार कर दिया कि राहखर्च का इंतजाम वह स्वयं कर लेगा। ु संवदिया अर्थात् संदेशवाहक का कार्य प्रत्येक व्यक्ति नहीं कर सकता। यह प्रतिभा जन्मजात होती है। संवदिया को संवाद का प्रत्येक शब्द याद रखना होता है। उसी सुर और स्वर में तथा ठीक उसी ढंग से संवाद सुनाना आसान काम नही है। परन्तु संवादिया के विषय में गाँववालो की धरणा सही नहीं थी। उनके अनुसार निठल्ला, पेटू और कामचोर व्यक्ति ही संवदिया का काम करता है। ऐसा व्यक्ति
जिसके ऊपर कोई पारिवारिक जिम्मेवारी न हो। गाँववालों के अनुसार संवादिया औरतों की मीठी-मीठी बातों में आ जाता है तथा बिना मजदूरी लिए कही भी संवाद पहु ँचाने को तैयार हो जाता है। ु पति की मृत्यु के बाद बड़ी बहुरिया हो गई थी। वह अभाव-ग्रस्त एवं कष्टमय जीवन व्यतीत कर रही थी। हरगोबिन के मन में काँटे की चुभन का अनुभव हो रहा था क्योंकि उसे बड़ी बहुरिया के संवाद का प्रत्येक शब्द उसे याद आ रहा था। उसके संवाद में उसके हृदय की वेदना, उसकी बेबसी, उसका दुःख झलक रहा था। हरगोबिन उसकी पीड़ा
को अपने भीतर महसूस कर रहा था। मन की इस चुभन से छुटकारा पाने के लिए उसने अपने सहयात्राी से बातचीत करने का उपाय सोचा। ु लोग संवदिया की बहुत खातिरदारी करते थे, उसे बहुत सम्मान देते थे क्योंकि वह लम्बी यात्रा करके उनके प्रियजनों का संदेश उन तक लाता था। उसे अच्छी तरह भोजन कराया जाता था। भरपेट भोजन करने के बाद संवदिया यात्रा की थकान उतारने के लिए गहरी नींद सोता था। परन्तु बड़ी बहुरिया के मायके पहु ँचने पर जब हरगोबिन के सामने कई प्रकार के व्यंजनों से भरी थाली आई, तो उससे खाना
खाया नहीं गया। उसे रह-रहकर बड़ी बहुरिया का ध्यान आ रहा था कि वह बथुआ साग उबालकर खा रही होगी। बूढ़ी माँ ने बहुत आग्रह किया पर हरगोबिन से ज्यादा खाया ही नहीं गया। हरगोबिन बड़ी बहुरिया का सही संदेश बूढ़ी माँ को नहीं सुना पाया था, इसी चिंता में रातभर उसे नींद नही आ रही थी। उसके मन में विचारों का संघर्ष चल रहा था। ु हरगोबिन के मन में बड़ी बहुरिया और अपने गाँव के प्रति बहुत सम्मान था। वह बड़ी बहुरिया को गाँव की लक्ष्मी मानता था। वह सोच रहा था कि यदि गाँव की लक्ष्मी ही गाँव
छोड़कर मायके चली जाएगी तो गाँव में क्या रह जाएगा? वह किस मुँह से यह संदेश दे कि बड़ी बहुरिया उसके गाँव में बथुआ साग खाकर गुजारा कर रही है, वह कष्ट में है इसलिए उसे अपने पास18 हिन्दी -ग्प्प् बुला लो। यह संवाद सुनकर लोग उसके गाँव के नाम पर थूकेंगे। अपने गाँव की बदनामी के भय से हरगोबिन बड़ी बहुरिया का संदेश नहीं सुना सका। ु जलालगढ़ पहु ँचकर हरगोबिन ने बड़ी बहुरिया के पैर पकड़कर, संवाद न सुना पाने के कारण मापफी माँगी। उसने कहा कि वह बड़ी बहुरिया के बेटे के
समान है। बड़ी बहुरिया उसकी माँ के समान है, पूरे गाँव की माँ के समान है। वह उससे आग्रह करता है कि वह गाँव छोड़कर न जाए तथा साथ ही संकल्प लेता है कि वह अब निठल्ला नहंीं बैठा रहेगा। उसे कोई कष्ट नहीं होेने देगा तथा उसके सब काम करेगा। बड़ी बहुरिया स्वयं अपने मायके संदेश भेजने के बाद से ही पछता रही थी। अभ्यास कार्य 1 :- एक अच्छे संवदिया की क्या विशेषताएँ है? गाँववालों के मन में संवदिया की
क्या अवधरणा है? 2:- बड़ी बहुरिया अपने मायके क्या संदेश भेजना चाहती थी? 3:- बड़ी हवेली से बुलावा आने पर हरगोबिन ने क्या सोचा? 4:- बड़ी हवेली पहु ँचकर हरगोबिन किन यादों में खो गया? 5:- गाड़ी पर सवार होने के बाद संवादिया के मन में काँटे की चुभन का अनुभव क्यों हो रहा था? उससे छुटकारा पाने का उसने क्या उपाय सोचा? 6:- बड़ी बहुरिया के द्वारा अपनी माँ को भेजा गया संदेश, हरगोबिन क्यों नही सुना सका? 7:- ‘‘संवदिया डटकर खाता है और अपफर कर सोता है।’’ -से क्या तात्पर्य है? 8:-
जलालगढ़ पहु ँचने के बाद हरगोबिन ने बड़ी बहुरिया से मापफी क्यों माँगी तथा उसके सामने क्या संकल्प लिया? सप्रसंग व्याख्या:- ;कद्ध आदमी भगवान ..................... ले जा रहा है वह। ;खद्ध संवदिया डटकर .......................... एक कोने में पड़ी रहेगी।19 हिन्दी -ग्प्प् गांध्ी, नेहरू और यास्सेर अरापफात - भीष्म साहनी पाठ परिचय भीष्म साहनी द्वारा रचित संस्मरण ‘गांध्ी, नेहरू और यास्सेर अराप़फात’ उनकी आत्मकथा ‘आज के अतीत’ का एक अंश है। सेवाग्राम मे ं
गांध्ी जी, काश्मीर में जवाहरलाल नेहरू तथा पिफलिस्तीन मे ं यास्सेर अराप़फात के साथ बिताए समय का सरस एवं प्रभावी वर्णन किया है तथा देशभक्ति तथा अंतर्राष्ट्रीय मैत्राी जैसे मुद्दे भी पाठक के समक्ष रखे है। ;कद्ध गांध्ी जी स्मरणीय बिंदु ु लेखक सन् 1938 में सेवाग्राम गया था। लेखक के भाई बलराज साहनी सेवाग्राम में रहते थे। लेखक उनके पास रहने कुछ दिन के लिए गया था। भाई बलराज ने उसे बताया कि गांध्ी जी प्रातः भ्रमण के लिए प्रतिदिन उसके क्वार्टर के सामने से जाते है। लेखक गांध्ी जी
के साक्षात् दर्शन हेतु बेहद उत्साहित था। ु अगले दिन सुबह की सैर के दौरान वह गांध्ी जी से मिला। गांध्ी जी को पहली बार देखकर वह रोमांचित हो उठा। गांध्ी जी के साथ चलने का उसका पहला अनुभव बहुत अच्छा रहा। इस महान व्यक्ति को देखकर लेखक प्रसन्न हो उठा। उसने गांध्ी जी को चित्रों में जिस रूप में देखा था, वास्तविक रूप में भी वे बिल्कुल वैसे ही थे। उन्होनंे बड़े प्रेम से लेखक से बात की। वे बहुत ध्ीमी आवाज में बोलते थे तथा हमेशा हँसकर बात करते थे। ु लेखक लगभग तीन सप्ताह तक
सेवाग्राम रहा। यहाँ उसे अनेक जाने माने व्यक्तित्व देखने को मिले। इनमें से प्रमुख थे - पृथ्वी सिंह आजाद, मीरा बेन, खान अब्दुल गफ्रपफार खान तथा राजेन्द्र बाबू। ु आश्रम के बाहर सड़क के किनारे एक खोखे में एक पंद्रह वर्षीय बालक जोर-जोर से हाथ-पैर पटक रहा था तथा चिल्ला-चिल्लाकर बापू को पुकार रहा था। बापू आए और बालक का पफूला हुआ पेट देखकर उसकी परेशानी समझ गए। उन्होनें े उसे उल्टी कराई और जब तक वह उल्टी करता रहा, वह उसकी पीठ पर प्यार से हाथ रखे झुके रहे। इसके बाद उन्होनें उसे
खोखे में लेटने को कहा। ;खद्ध नेहरू जी स्मरणीय बिंदु ु नेहरू जी कश्मीर यात्रा पर आए थे। यहाँ उनका भव्य स्वागत हुआ शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में झेलम नदी में, शहर के एक सिरे में दूसरे सिरे तक, नावों में उनकी शोभायात्रा निकाली गई।20 हिन्दी -ग्प्प् ु लेखक पंडित जी की देखभाल में अपने पफुपफेरे भाई का सहायक था। नेहरू जी का कमरा ऊपर वाली मंजिल पर था। लेखक नीचे आकर समाचार पत्रा देखने लगा। उसने निर्णय किया कि जब तक नेहरू जी स्वयं समाचार पत्रा नहीं माँगेगे
वह समाचार पत्रा पढ़ता ही रहेगा। नेहरू जी कुछ देर चुपचाप खड़ े रहे पिफर ध्ीरे से बोले - ‘‘आपने देख लिया हो तो क्या मै भी एक नजर देख सकता हू ँ।’’ यह सुनकर लेखक शर्मिन्दा हो गया और उसने तुरन्त वह अखबार नेहरू जी के हाथ में दे दिया। ;गद्ध यास्सेर अराप़फात ु उन दिनों लेखक अप्रफो-एशियाई लेखक संघ में कार्यकारी महामंत्राी के पद पर कार्यरत था। टयूनीसिया की राजधनी ट्यूनिस में लेखक संघ के सम्मेलन में भाग लेने गया हुआ था। टयूनिस में उन दिनों यास्सेर अराप़फात के नेतृत्व में
पिफलिस्तीन अस्थायी सरकार काम कर रही थी। लेखक संघ की गतिविध्यिों में भी पिफलिस्तीनी लेखकों, बु(िजीवियो ं तथा अस्थायी सरकार का बड़ा योगदान था। ु ट्यूनिस में लोट्स पत्रिका का संपादकीय कार्यालय था। एक दिन लोटस के तत्कालीन संपादक लेखक के पास आए और उसे सपत्नी सदरमुकाम में आमंत्रित किया। ु जब लेखक अपनी पत्नी के साथ वहाँ पहु ँचा तो यास्सेर अरा़पफात अपने एक-दो साथियों के साथ बाहर आए और उन्हे ं आदर सहित अंदर ले गए। बातचीत के दौरान यास्सेर अराप़फात से पिफलिस्तीन के प्रति
साम्राज्यवादी शक्तियों के अन्यायपूर्ण रवैये, भारतीय नेताओं द्वारा की गई उसकी निंदा, पिफलिस्तीनी आंदोलन के प्रति भारत की सहानुभूति एवं समर्थन आदि विषयों पर चर्चा हुई। ु बातचीत के दौरान गांध्ी जी का जिक्र आने पर अरापफ़ात बोले - ‘वे आपके ही नहीं हमारे भी नेता है। उतने ही आदरणीय जितने आपके लिए है।’ अरापफ़ात भारतीय नेताओं के निकट सम्पर्क में रहे थे। गांध्ी जी की प्रसि(ि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर थी। उनके सत्य, अंहिसा तथा सत्याग्रह आन्दोलनों तथा उनकी सपफलता के कारण उन्हे ं पूरे
विश्व में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। यास्सेर अराप़फात भी अहिंसक आन्दोलन के द्वारा पिफलिस्तीनियों को उनकी मातृभूमि दिलाना चाहते थे। भारतीयों नेताओं का समर्थन एवं सहानुभूति उन्हे ं प्राप्त थी। इसलिए भारतीय नेताओं विशेषकर गांध्ी जी के प्रति उनके मन में आदर होना स्वाभाविक था। ु यास्सेर अराप़फात ने लेखक का बड़ा अतिथि सत्कार किया। वे लेखक को स्वयं पफल छील-छीलकर खिला रहे थे। वे उनके लिए शहद की चाय भी बना रहे थे तथा साथ ही शहद की उपयोगिता के विषय में भी बता रहे
थे। ु भोजन के समय लेखक जब हाथ धेने गया तो उसे उस समय बड़ी झेंप महसूस हुई जब उन्हो ंने देखा कि अराप़फात गुसलखाने के बाहर तौलिया लिए हुए खड़ े थे। अरापफात का आतिथ्य प्रेम सचमुच हृदय को छू लेने वाला था।21 हिन्दी -ग्प्प् अभ्यास कार्य 1:- लेखक सेवाग्राम कब और क्यों गया था? 2:- गांध्ी जी के साथ प्रातः भ्रमण का लेखक का अनुभव कैसा रहा? 3:- लेखक ने सेवाग्राम में किन-किन लोगों के आने का जिक्र किया है? 4:- रोगी बालक के प्रति गांध्ी जी का व्यवहार किस प्रकार
था? 5:- काश्मीर में नेहरू जी का स्वागत किस प्रकार किया गया? 6:- अखबार वाली घटना से नेहरू जी के व्यक्तित्व की कौन सी विशेषता प्रकट होती है? 7:- अराप़फात के आतिथ्य प्रेम की किन्हीं दो घटनाओं का वर्णन कीजिए? 8:- ‘‘वे आपके ही नहीं हमारे भी नेता है। उतने ही आदरणीय जितने आपके लिए।’’ इस कथन से अराप़फात का क्या तात्पर्य है?22 हिन्दी -ग्प्प् लघुकथाएँ - असगर वजाहत ;कद्ध शेर कथा-परिचय ‘शेर’ असगर वजाहत की प्रतीकात्मक और व्यंग्यात्मक लघुकथा है। शेर व्यवस्था का
प्रतीक है। जंगल के जानवर सामान्य जनता के प्रतीक है। शेर के पेट में जंगल के सभी जानवर किसी न किसी लालच में समाते जा रहे है। व्यवस्था भी किसी न किसी प्रकार सभी को अपने जाल में पफँसा लेती है। स्मरणीय बिन्दु ु आदमी सत्ता के जाल से बचने के लिए जंगल में जाता है किंतु वहाँ भी सत्ता का प्रतीक शेर विद्यमान है। सभी जानवर किसी न किसी प्रलोभन के कारण शेर के मुख में समाते जा रहे है। ु गध्े को यह प्रलोभन दिया गया है कि शेर के मुँह में घास का मैदान है, लोमड़ी को यह बताया गया
है कि वहाँ रोजगार का दफ्ऱतर है तथा कुत्तों से यह कहा गया है कि शेर के मुँह में प्रवेश करना ही निर्वाण का एकमात्रा मार्ग है। ु लेखक सच्चाई का पता लगाने के लिए शेर के कार्यालय जाता है। जिस प्रकार सत्ता के पक्षध्र सत्ता का गुणगान करते है उसी प्रकार कार्यालय के कर्मचारी शेर की तरप़फदारी करते है ं। लेखक उनसे शेर के मुँह में रोजगार के दफ्ऱतर होने की असलियत पूछने तथा उसका सबूत माँगने पर वे कहते है कि - ‘मानव जीवन में प्रमाण से अध्कि विश्वास महत्वपूर्ण है।’
लेखक कहता है कि जितने भी ठग और मक्कार लोग होते है वे अपनी बात का कोई प्रमाण नहीं दे सकते क्योंकि वे झूठे होते है। इसलिए वे लोगों े से बिना सबूत दिए, केवल ऐसे ही विश्वास करने का आग्रह करते है। जब लोग इन पर विश्वास करने लगते है तो वे उनके विश्वास का अनुचित लाभ उठाते है ं। शेर के आपि़फस के कर्मचारी भी यही कर रहे है ं। ु शेर का मुँह तथा रोजगार के दफ्ऱतर के बीच यह अन्तर है कि शेर का मुँह तो मात्रा एक छलावा है। रोजगार का दफ्ऱतर रोजगार प्राप्ति का एक माध्यम है। शेर के मुँह में
जाने से लोगोे ं को धेखा मिलता है जबकि रोजगार दफ्ऱतर के माध्यम से लोगों को रोजगार मिलता है। ;खद्ध पहचान कथा परिचय पहचान के माध्यम से लेखक बताना चाहता है कि राजा को अंध्ी, बहरी और गूँगी प्रजा पसंद होती है जो बिना कुछ देखे, सुने और बोले राजा के आदेशों का पालन करती रहे। स्मरणीय बिंदु ु राजा देश शान्ति, उत्पादन और तरक्की का हवाला देते हुए आँखे, कान और मुँह बंद करने के आदेश देता है। परन्तु वास्तव में उसका उद्देश्य था कि लोग राजा के निरंकुश एवं स्वार्थपूर्ण23
हिन्दी -ग्प्प् कार्यो को न देख सकें। वे किसी की बाते सुनकर सत्ता का विरोध् न कर सके तथा राजा के विरू( आवाज न उठाएँ। ु यदि जनता राज्य की स्थिति को अनदेखा करती है, उसकी ओर ध्यान नहीं देती तो शासक वर्ग निरंकुश हो जाता है। शासक की व्यक्तिगत उन्नति तो खूब होती है परन्तु राज्य की प्रगति रूक जाती है। यदि राज्य की जनता, राज्य की स्थिति के प्रति सचेत नही रहती है तो शासक वर्ग राज्य के संसाध्नों का प्रयोग अपने व्यक्तिगत हित के लिए करता है तथा राज्य की स्थिति में सुधर और
विकास में उसकी कोई रूचि नही होती है। ु खैराती, रामू और छिद्दू जागरूक एवं सचेत जनता के प्रतीक है। राजा के आदेश पर आँखे बंद करके वे भी सामान्य जनता के समान हो गए। कुछ समय बाद राज्य की प्रगति देखने की इच्छा से उन्होनें जब आँखे खोली तो उन्हे ं सर्वत्रा सत्ता की शक्ति ही दिखाई दी। उन्हे ं सामने केवल राजा ही दिखाई दिया, प्रजा वहाँ नही थी। चारो और सत्ता का ही प्रभुत्व था, जनता का कोई अस्तित्व नहीं था। सत्ता इतनी शक्तिशाली हो चुकी थी कि बदलाव की कोई गुंजाइश नही थी। ;गद्ध चार
हाथ कथा-परिचय ु ‘चार हाथ’ पूंजीपतियों द्वारा मजदूरों के शोषण से उजागर करती है। पूंजीपति अपने लाभ में वृ(ि के नए-नए तरीके अपनाते है। वह अपने लाभ के लिए मजदूरों का शोषण करता है और कई बार उनके स्वाभिमान को भी ठेस पहु ँचाता है। मजदूर अपनी निधर््नता और मजबूरी के कारण विरोध् की स्थिति में नहीं होते है। मजदूर विवशता के कारण आध्ी मज़दूरी में भी काम करने को राजी हो जाते है। स्मरणीय बिन्दु ु एक मिल मालिक ने अपना मुनाप़फा बढ़ाने के लिए, मिल के मजदूरों को चार हाथ लगाने
की योजना बनाई। इस काम में वैज्ञानिकों का शोध् असपफल होने पर उसने यह कार्य स्वयं करने का निश्चय किया। ु मिल मालिक ने कटे हुए हाथ मजदूरों के पिफट करने चाहे पर वह असपफल रहा। पिफर उसने लकड़ी तथा उसके बाद लोहे के हाथ पिफट करने चाहे, परन्तु इस प्रयास में बहुत से मजदूर मर गए। ु चार हाथ न लग पाने की स्थिति में मिल मालिक की समझ में यह बात आयी कि मजदूरों का वेतन आध कर दो और दुगने मजदूर काम पर रख लो तो मुनापफा वैसे ही दुगुना हो जाएगा। यह कार्य भी मजदूरों के चार हाथ लगाने
जैसा ही होगा। ;घद्ध साझा कथा-परिचय उद्योगों पर कब्जा जमाने के बाद पूँजीपतियों की नजर किसानों की जमीन और उत्पाद पर जमी है। गाँव का प्रभुत्वशाली वर्ग भी पूँजीपत्तियों का सहयोग करता है। वह किसान को साझा खेती करने का झाँसा देता है और उसकी सारी पफसल हड़प लेता है।24 हिन्दी -ग्प्प् स्मरणीय बिन्दु ु ‘हाथी’ जो कि पूँजीपति वर्ग का प्रतीक है, उसने किसान के समक्ष साझे की खेती का प्रस्ताव रखा। किसान ने इंकार कर दिया क्योंकि साझे की खेती के विषय में उसके कटु अनुभव
थे। साझे की खेती से उसका भरण-पोषण नहीं होता है, अकेले खेती करने में उसको डर लगता है इसलिए अब वह खेती करना नहीं चाहता है। ु हाथी अपनी बातों में पफँसाकर उसे खेती के लिए राजी कर लिया तथा पफसल के बँटवारे के समय किसान की सारी पफसल हड़प ली। अभ्यास कार्य 1:- ‘शेर’ कहानी में ‘शेर’ तथा ‘जंगल के जानवर’ किस-2 के प्रतीक है? 2:- लोमड़ी स्वेच्छा से शेर के मुँह में क्यों जा रही थी? 3:- शेर के मुँह तथा रोजगार के दफ्ऱतर के बीच क्या अंतर है? 4:- ‘प्रमाण से अध्कि महत्वपूर्ण है
विश्वास।’ - कहानी के आधर पर स्पष्ट कीजिए? 5:- राजा ने कौन-2 से हुक्म निकाले? ऐसे हुक्म निकालने के क्या कारण थे? 6:- यदि जनता राज्य की स्थिति की ओर से आँखे बंद कर ले तो उसका राज्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा? 7:- खैराती, रामू और छिद्दू ने जब आँखे खोली तो उन्हे ं सामने राजा ही क्यों दिखाई दिया? 8:- मुनाप़फा बढ़ाने के लिए मिल मालिक ने क्या उपाय सोचा? 9:- हाथी तथा किसान के बीच पफसल का बँटवारा किस प्रकार हुआ? 10:- किसान साझे की खेती क्यों नही करना चाहता था?25 हिन्दी
-ग्प्प् जहाँ कोई वापसी नहीं - निर्मल वर्मा पाठ परिचय ‘जहां कोई वापसी नहीं ‘यात्रा वृतांत निर्मल वर्मा द्वारा रचित ‘ध्ंुध् में उठती ध्ुन’ संग्रह से लिया गया है। लेखक का मत है कि अंधध्ुंध् विकास तथा पर्यावरण संबंध्ी सुरक्षा के बीच संतुलन होना चाहिए अन्यथा विकास हमेशा विस्थापन तथा पर्यावरण सम्बन्ध्ी समस्याओं को जन्म देता रहेगा। औद्योगिक विकास के इस दौर में प्राकृतिक सौन्दर्य नष्ट होता को जन्म देता रहेगा। औद्योगिक विकास के इस दौर में प्राकृतिक सौन्दर्य नष्ट होता रहेगा तथा
मनुष्य अपनी संस्कृति तथा परिवेश से विस्थापित होकर जीने को मजबूर होगा। स्मरणीय बिंदु ु लेखक सन् 1983 में दिल्ली की ‘लोकायन’ संस्था की ओर से सिंगरौली के नवा गाँव गए थे जहाँ लगभग अठारह छोटे-छोटे गाँव थे। यही एक गाँव या ‘अमझर’। जहाँ आम झरते थे ;अत्याध्कि पैदावरद्ध पर जब से अमरौली प्रोजेक्ट के अन्तर्गत यह घोषणा हुई कि कई गाँव उजाड़ दिए जाऐगें तब से न जाने क्यों आम के पेड़ सूखने लगे। लेखक को लगा कि उसे आज विस्थापन के विरोध् में प्रकृति का ;पेड़ो काद्ध सामूहिक मूक सत्याग्रह
देखने का अनुभव हुआ। लेखक को लगा सत्य ही है कि आदमी उजड़ेगा तो पेड़ जीवित रहकर क्या करेगा? लेखक ने टिहरी गढ़वाल में पेड़ांे की रक्षा के लिए मनुष्य का सत्याग्रह तो सुना था पर व्यक्ति के लिए पेड़ों के सत्याग्रह को पहली बार महसूस किया था। ु लेखक के लिए यह भी अनूठा अनुभव किया था कि स्वच्छ, पवित्रा और प्राकृतिक खुले वातावरण में जिन्दगी बिताने वाले लोग किस प्रकार विस्थापन के पश्चात् अनाथ, अपने मूल आधर से कटे होने के अहसास के साथ दम घुटती, भयावह बस्ती में रहने
के लिए मजबूर हो जाते हं ै। ु लेखक ने उन्हे ं आध्ुनिक भारत का नया शरणार्थी माना है जिन्हे ं औद्योगिक विकास के नाम पर हमेशा-हमेशा के लिए उनके मूल स्थान से हटा दिया गया। प्राकृतिक आपदा के कारण जिन लोगोे ं को अपना घर छोड़ना पड़ता है वे कुछ अरसे बाद आप़फत टलते ही दोबारा अपने जाने-पहचाने परिवेश में लौट भी आते है ं, किंतु इतिहास जब विकास और प्रगति के नाम पर लोगों केा विस्थापित करता है, तो वे पिफर अपने घर वापस नही लौट सकते। औद्योगीकरण की26
हिन्दी -ग्प्प् आँध्ीं में सिपर्फ मनुष्य ही नहीं उखड़ता बल्कि उसका परिवेश और आवास स्थल हमेशा के लिए समाप्त हो जाते है। सिंगरौली की उर्वरा भूमि और समृ( जंगलों को देखकर लेखक को अहसास होता है कि विकास के नाम पर किस प्रकार एक भरे पूरे ग्रामीण अंचल को कितनी नासमझी और निर्दयता से उजाड़ा जा सकता है। ु कभी-कभी इलाके की संपदा ही उसका अभिशाप बन जाती है। अपनी अपार खनिज संपदा के अभिशाप के कारण ‘बैकु ंठ और कालापानी’ के नाम से सुशोभित सिंगरौली गाँव औद्योगीकरण की भेंट चढ़
गया। ु लेखक को लगता था कि औद्योगीकरण का चक्का, जो स्वतंत्राता के बाद चलाया गया, उसे रोका जा सकता था, उसके विकल्प तलाशे जा सकते थे, पश्चिम जिस विकल्प को खो चुका था भारत में े उसकी संभावनाएँ खुली थी पर पश्चिमी देशों का अंध अनुकरण करने के कारण सारी संभावनाएँ हाथ से निकल गई। ु भारत की सांस्कृतिक विरासत यूरोप की तरह म्यूजियम्स और संग्रहालयों में जमा नहीं थी अपितु आदमी और प्राकृतिक के अटूट रिश्तों में जीवित थी जो उसे पूरे परिवेश के साथ जोड़ती थी। ु यूरोप और भारत
की पर्यावरण संबंध्ी चिंताएँ बिल्कुल भिन्न है। यूरोप में पर्यावरण का प्रश्न मनुष्य और भूगोल के बीच संतुलन बनाए रखने का है, भारत में यही प्रश्न मनुष्य और उसकी संस्कृति के बीच पारंपरिक संबंध् बनाए रखने का हो जाता है। ु लेखक के अनुसार स्वतंत्रा भारत की सबसे बड़ी ट्रैजेडी यह है कि शासक वर्ग ने औद्योगीकरण की योजनाएँ बनाते समय पश्चिमी देशों को अपना आदर्श माना, प्रकृति मनुष्य और संस्कृति के बीच एक नाजुक संतुलन किस प्रकार बचाया जा सकता है इसे सर्वथा भूल गए। हम भारतीय मर्यादाओं को
आधर बनाकर भी भारतीय औद्योगिक विकास का स्वरूप निर्धरित कर सकते थे तथा विस्थापन और पर्यावरण संबंध्ति समस्याओं से बच सकते थे। अभ्यास कार्य 1:- अमझर से आप क्या समझते है? अमझर गाँव में सूनापन क्यों है? 2:- आध्ुनिक भारत के ‘नए शरणार्थी’ किन्हे ं कहा गया है? 3:- प्रकृति के कारण विस्थापन और औद्योगीकरण के कारण विस्थापन में क्या अंतर है? 4:- लेखक के अनुसार स्वातंत्रयोत्तर भारत की सबसे बड़ी ‘टेªजेडी’ क्या है? 5:- औद्योगीकरण ने पर्यावरण का संकट पैदा कर दिया है, क्यों और कैसे? सप्रसंग
व्याख्या ;1द्ध इन्हीं गाँवांे में एक .................... सिंगरौली में हुआ। ;2द्ध ये लोग आध्ुनिक .......................... नष्ट हो जाते है ं। ;3द्ध शायद पैंतीस वर्ष ...................... मौजूद रहता था। ;4द्ध यूरोप में पर्यावरण ........................ ऐसा नहीं जान पड़ता।27 हिन्दी -ग्प्प् यथास्मै रोचते विश्वम् - रामविलास शर्मा पाठ परिचय लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति से की है। उसने कवि को प्रजापति के समान सृष्टा सिद्ध् किया है। लेखक ने प्रजापति
का दर्जा देते हुए कवि को उसके कार्यो के प्रति सचेत किया है। साहित्य समाज का दर्पण मात्रा नही है। कवि का कार्य समाज के यथार्थ जीवन को मात्रा प्रतिबिंबित करना नही है। कवि अपनी रूचि के अनुसार अपनी रचनाओं में संसार की रचना करता है। प्रजापति द्वारा निर्मित सृष्टि से असंतुष्ट होकर कवि नए समाज का निर्माण करता है। यह कवि का जन्म सिद्ध् अध्किार है। स्मरणीय बिन्दु ु कवि की सृष्टि निराधर नही होती। वह अपने सारे रंग आकार और रेखाएँ चारो ं और बिखरे यथार्थ जीवन से ही ग्रहण करता
है। अपनी साहित्य रचना के लिए सामग्री कवि अपने चारो ं और के परिवेश से ही ग्रहण करता है। उज्ज्वल चरित्रा को उज्ज्वल और अध्कि प्रभावशाली दिखाने के लिए लेखक यथार्थ जीवन से दुश्चरित्रा भी चुनता है। रावण के होने से ही राम की महत्ता है। कवि सद्गुण सम्पन्न पात्रों साथ दुर्गणयुक्त पात्रों का भी वर्णन करता है। ु बाल्मीकि ने दुर्लभ गुणों से युक्त राम के चरित्रा का वर्णन किया था। दुर्लभ गुणों को एक ही पात्रा में दिखाने के पीछे कवि का एक ही उद्देश्य होता है- समाज के सम्मुख एक
आदर्श प्रस्तुत करना, जिससे ं लोग प्रेरणा ले सकें। ु प्रजापति रूपी कवि यथार्थवादी होता है। वह समाज में लोगों के सुख-दुख, आशा-निराशा दोनों पक्षों को सुनता है, उसे महसूस करता है तथा उसे अपने साहित्य मंे अंकित भी करता है। उसकी रचनाओं में वर्तमान समाज का ठोस आधर होता है परन्तु उसका ध्यान भविष्य के नव-निर्माण पर लगा होता है। साहित्य थके हुए व्यक्ति के लिए विश्रांति का माध्यम ही नहीं है बल्कि उसे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित भी करता है। ु यदि ब्रह्मा द्वारा बनाए गए समाज में
मानव सम्बन्ध् कवि की रूचि एवं आदर्शो के अनुरूप28 हिन्दी -ग्प्प् होते तो उसे अपनी रचनाओं में एक नया संसार रचने की आवश्यकता ही नहीं होती। कवि के असंतोष की जड़ ये मानव संबंध् ही है। साहित्य की रचना का मूल ये मानव संबंध् ही है। कवि के मन-मस्तिष्क में मानव संबंधे की भावना इतनी प्रबल होती है कि वह अपनी रचनाओं मंे ईश्वर को भी मानवीय रूप में चित्रित करता है। ु ऐसे समय मंे जब अध्किांश लोगों का जीवन समाज की रूढि़यो ं के बंध्न में जकड़ा हुआ हो, वे इन बंध्नों से दुखी हो
तथा मुक्ति के प्रयास कर रहे हो तब कवि का प्रजापति रूप मुखरित हो उठता है। कवि मानव रूपी पक्षी की अशांत आवाज़ को स्वर देता है। वह स्वतंत्राता के गीत गाकर जनता मंे शासक वर्ग के प्रति आक्रोश भरता है। वह स्वतन्त्राता के लिए प्रेरित कर उस पक्षी के परों में नई शक्ति भर देता है। इसे भय से मुक्त होने तथा स्वतंत्राता के लिए प्रयास करने की प्रेरणा देता है। ु यह जीवन संघर्ष का मैदान है। इसमें व्यक्ति को निरन्तर संघर्षशील रहना पड़ता है। जिस प्रकार महाभारत के यु( में कृष्ण ने पा×चजन्य
नामक शंख बजाकर अर्जु न को यु( के लिए प्रेरित किया था, उसी प्रकार साहित्यकार लोगों को कर्मक्षेत्रा मंे संघर्ष के लिए प्रेरित करता है। वह लोगों में उदासीनता नहीं, उत्साह का स्वर बुलंद करता है। वह इस बात से बिल्कुल सहमत नहीं कि मनुष्य अत्याचार सहते हुए, कष्ट सहते हुए, भाग्य के भरोसे रहे। साहित्य तो ऐसी प्रेरणा देने वालो की निंदा करता है, उन्हे ं हतोत्साहित करता है। ु आज भी मानवीय-संबंधें की दृष्टि से भारत पराध्ीन है। भारतीय जनमानस स्वतंत्रा होने के लिए व्याकुल है इसके लिए वह
सतत् प्रयास कर रहा है। ध्क्किार है उन साहित्यकारों को जो उन्हे ं रूढि़यो ं से मुक्त नहीं करता। वे साहित्य मंे तो मानवमुक्ति के गीत गाते है किन्तु व्यवहार में भारतीय जनता को गुलामी का पाठ पढ़ाते है। ऐसे साहित्यकारों को ध्क्किार है जो भारतभूमि से उत्पन्न होकर भी उसका अहित कर रहे है। ु भारतीय लोगों को गुलामी का पाठ पढ़ाने वाले ये साहित्यकार दूरदर्शी नहीं है ं। जिन साहित्यकारों को भारतभूमि से प्यार है, वे साहित्य के युग परिवर्तन की भूमिका से अवगत हैं, वे साहित्य के माध्यम से
जनता का सही दिशा में मार्गदर्शन करते है ं। अभ्यास कार्य 1.:- लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति से क्यों की है? 2.:- ‘साहित्य समाज का दर्पण है।’ इस प्रचलित धरणा के विरोध् में लेखक ने क्या तर्क दिए है। 3.:- दुर्लभ गुणों केा एक ही पात्रा में दिखाने के पीछे कवि का क्या उद्देश्य है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए? 4.:- ‘साहित्य थके हुए मनुष्य के लिए विश्रांति ही नही है वह उसे आगे बढ़ने के लिए उत्साहित भी करता है।’ स्पष्ट कीजिए।29 हिन्दी -ग्प्प् 5.:- ‘मानव संबंधें से परे
साहित्य नहीं है।’ - कथन की समीक्षा कीजिए। 6.:- पंद्रहवी-सोलहवीं सदी में हिंदी साहित्य ने मानव जीवन के विकास मंे क्या भूमिका निभाई? 7.:- साहित्य के ‘पा×चजन्य’ से लेखक का क्या तात्पर्य है? साहित्य का पा×चजन्य मनुष्य को क्या प्रेरणा देता है? 8.:- साहित्यकार के लिए सृष्टा और दृष्टा होना अत्यन्त अनिवार्य है। क्यों और कैसे? 9.:- ‘कवि-पुरोहित’ के रूप में साहित्यकार की भूमिका स्पष्ट कीजिए। सप्रसंग व्याख्या 1. कवि की यह सृष्टि निराधर ............................ होने का अवसर ही न
आए। 2. साहित्य का पांचजन्य समर भूमि ................................. जैसे सूर्य के सामने अंध्कार। 3. अभी भी मानव-संबंधें ............................... पराध्ीनता और पराभव का पाठ पढ़ाते है।30 हिन्दी -ग्प्प् दूसरा देवदास - ममता कालिया पाठ-परिचय ‘दूसरा देवदास’ कहानी ममता कालिया द्वारा रचित युवामन की संवेदना, भावना, विचारगत उथल-पुथल को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करती है। यह कहानी युवा हृदय में पहली आकस्मिक मुलाकात की हलचल, कल्पना और
रूमानियत का उदाहरण है। इस कहानी में लेखिका ने स्पष्ट किया है कि प्रेम के लिए किसी निश्चित व्यक्ति, समय और स्थिति का होना आवश्यक नहीं है। वह कभी भी, कहीं भी, किसी भी समय हो सकता है। लेखिका ने प्रेम को पवित्रा और स्थायी स्वरूप का चित्राण किया है। स्मरणीय बिन्दु ु संध्या के समय हर की पौड़ी पर होने वाली गंगाजी की आरती का दृश्य अत्यंत मनोहरी होता है। हर की पौड़ी पर भक्तों की भीड़ जमा होती है। पफूलों के दोने इस समय एक रूपये के बदले दो रूपये के हो जाते है। भक्तों को इससे कोई
शिकायत नहीं होती। आरती के समय सहस्र दीप जल उठते है। पंडित अपने आसान से उठ खड़ े हो जाते है और हाथ में अंगोछा लपेट कर पांच मंजिली नीलाजंलि को पकड़ते है और आरती शुरू होती है। घंटे-घडि़याल बजते है। लोग अपनी मनौतियों के दिये लिए हुए पफूलों की छोटी-छोटी किश्तियाँ गंगा की लहरों पर तैराते है। गंगा पुत्रा दोने में रखा पैसा मुँह से उठा लेता है। ु गंगापुत्रा उन गोताखोरों को कहते हैं जो गंगा घाट पर हर समय तैनात रहते है। यदि कोई गंगा में डूबने लगता है तो ये उसे बचा लेते है। इनकी
जीविका का साध्न लोगों द्वारा अर्पित किया जाने वाला पैसा है। लोग पफूल के दोने में पैसे भी रखते है। लोग मनौतियों के साथ अपना दोना गंगा की लहरों पर तैरा देता है। तब गंगापुत्रा दोने में से पैसे उठाकर अपने मुँह में रख लेता है। उनका पूरा जीवन गंगा घाट पर ही बीत जाता है। गंगा मैया ही उनका जीवन और आजीविका है। वह बीस-बीस चक्कर लगाकर मुँह भर रेजगारी बटोरता है और बीवी या बहन रेजगारी बेचकर नोट कमाती है। ु संभव यहाँ अपनी नानी के पास आया था। उसने इसी साल एम. ए. पूरा किया था तथा
सिविल सर्विसेज प्रतियोगिताओं में बैठने वाला था। माता-पिता की आज्ञानुसार वह हरिद्वार गंगा के दर्शन31 हिन्दी -ग्प्प् करने आया था ताकि बेखटके सिविल सेवा में चुन लिया जाए। बहुत देर तक स्नान करने के बाद वह पानी से बाहर आया और पंडे ने उसके माथे पर चंदन तिलक लगाया। जब पुजारी उसकी कलाई-पर कलावा बाँध् रहा था तो उसी क्षण एक और दुबली नाजुक सी कलाई पुजारी की तरपफ बढ़ आई। पुजारी ने उस पर कलावा बाँध् दिया। उस हाथ ने थाली में सवा पाँच रूपए रखे। यह एक लड़की का हाथ था। लड़की को
देखकर संभव उसकी और आकर्षित हो गया। जब लड़की ने यह कहा कि अब तो आरती हो चुकी। अब हम कल आरती की बेला आएँगे। तब पुजारी ने लड़की के ‘हम’ को युगल अर्थ में लेकर आर्शीवाद दिया कि सुखी रहो, पूफलों-पफलों, जब भी आओ, साथ ही आना, गंगा मैया मनोरथ पूरे करें।’ यह सुनकर लड़की और लड़के को अटपटा लगा। लड़की छिटककर दूर खड़ी हो गई। इसका कारण यह था कि लड़की और लड़का एक दूसरे से अनजान थे और पुजारी ने गलत समझ लिया था कि ये दोनों पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका है ं। पुजारी की इस गलतपफहमी के कारण ही वे
दोनों एक दूसरे से छिटककर दूर खड़ े हो गए। ु उस अनजान लड़की के साथ छोटी सी मुलाकात ने संभव के मन का चैन छीन लिया। वह खाना-पीना तक भूल गया। संभव उन गलियों की ओर चल दिया जिध्र वह लड़की गई थी। संभव उसे अपने मन की बात बता देना चाहता था। उसे रात को ठीक से नींद तक नहीं आई। उसकी आँखो में उस लड़की की छवि बसी हुई थी। वह उन प्रश्नों के बारे मंे सोच रहा था जिन्हे ं वह उसके मिलने पर करने वाला था। संभव के जीवन में आने वाली यह पहली लड़की थी। ु संभव ने जब मंसा देवी के मंदिर
में प्रवेश किया था तब सभी लोग अपनी-अपनी मनोकामना पूरी करने हेतु लाल-पीला धगा लेकर गिठान बाँध् रहे थे। संभव ने भी धगा लेकर गिठान बाँध्ी थी और उसे बाँध्ते समय पारो के विषय में सोचा था कि कितना अच्छा हो कि उसका मेल पारो से हो जाए। अभी कुछ क्षण ही बीते थे कि उसकी भेंट पारों से हो गई। उसने जैसा चाहा था वैसा ही हुआ। ु पारो के मन की दशा बड़ी विचित्रा हो रही थी। वह सोच रही थी कि यह कैसा संयोग है, इतनी भीड़ होने पर भी जिससे मुलाकात हुई थी, उससे आज भी मुलाकात हो गई। पारों
का संभव से इस प्रकार मिलना उसके अंदर गुदगुदी सी पैदा कर रहा था। पारो को लगता है कि यह मनोकामना की गाँठ भी कितनी अनूठी है, कितनी आश्चर्यजनक है! अभी बाँधे अभी पफल की प्राप्ति कर लो। वह पफूली न समाती थी। वह स्वयं को भाग्यशाली समझ रही थी क्योंकि देवी माँ ने उसकी मनोकामना इतनी जल्दी पूरी कर दी थी। ु संभव मन मे पारो से मिलन की मनोकामना पाले हुए था। उसे इस मिलन की आशा तो थी, पर उसकी मनोकामना इतनी जल्दी पूरी होगी, यह निश्चित नहीं था। जब उसने अचानक प्रकट हुई पारोे को देखा तो
उसने यही सोचा - ‘हे ईश्वर! मैंने कब सोचा था कि मनोकामनाा का मौन उद्गार इतनी शीघ्र शुभ परिणाम दिखाएगा। यह शुभ परिणाम बहुत ही शीघ्र दिखाई दे भी गया। पारो से उसकी भेंट किसी चमत्कार से कम नहीं थी। उसे उम्मीद से बढ़कर मनोकामना32 हिन्दी -ग्प्प् का पफल जब प्राप्त हुआ। ु ‘दूसरा देवदास’ शीर्षक पात्रा पर आधरित है। देवदास प्रेम-कहानी का प्रमुख अर्थात् नायक है। यद्यपि इस कहानी मंे उसका नाम संभव है, पर पारों नाम दोनों में है। वैसे यहाँ देवदास शब्द को प्रतीकात्मक रूप में
लिया। प्रायः देवदास उसे कहा जाता है जो अपनी प्रेमिका को पागलपन की हद तक प्यार करता है। संभव भी पारों को पाने के लिए हर संभव प्रयास करता है। अतः इस कहानी का शीर्षक दूसरा देवदास ठीक ही है ं। यह सार्थक है। अभ्यास कार्य 1:- पाठ के आधर पर हर की पौड़ी पर होने वाली गंगा जी की आरती या भावपूर्ण वर्णन अपने शब्दों में कीजिए? 2:- ‘गंगा पुत्रा के लिए गंगा मैया ही जीविका और जीवन है।’ इस कथन के आधर पर गंगा पुत्रों के जीवन परिवेश की चर्चा कीजिए? 3:- पुजारी ने लड़की के ‘हम’ को युगल अर्थ
में लेकर क्या आर्शीवाद दिया और पुजारी द्वारा आर्शीवाद देने के बाद लड़के और लड़की को अटपटा क्यों लगा? 4:- उस छोटी-सी मुलाकात ने संभव के मन में जो उथल-पुथल उत्पन्न कर दी, उसका सूक्ष्म विवेचन कीजिए? 5:- ‘पारो बुआ, पारो बुआ इनका नाम है ..... उसे भी मनोकामना का पीला लाल धगा और उसमें पड़ी गिठान का मधुर स्मरण हो आया’, कथन के आधर पर कहानी के संकेतपूर्ण आशय पर टिप्पणी लिखिए? 6:- मनोकामना की गाँठ भी अद्भुत अनूठी है, इध्र बाँधे उध्र लग जाती है:- कथन के आधर पर पारो की मनोदशा का वर्णन
कीजिए। 7:- दूसरा देवदास कहानी के शीर्षक की सार्थकता स्पष्ट कीजिए? 8:- ‘‘हे ईश्वर! उसने कब सोचा था कि मनोकामना का मौन उद्गार इतनी शीघ्र शुभ परिणाम दिखाएगा।’’ स्पष्ट कीजिए? सप्रसंग व्याख्या 1. आरती से पहले स्नान!.................... गोध्ूलि बेला है। 2. अभी तक उसके जीवन .................. पुजारी के देवालय पर सीध्ी आँख पड़े ं। 3. रोपवे के नाम में कोई ध्र्माडंबर ................. सभी काम बड़ी तत्परता से हो रहे थे।33 हिन्दी -ग्प्प् कुटज - हजारी
प्रसाद द्विवेदी पाठ-परिचय कुटज हिमालय पर्वत की ऊँचाई पर सूखी शिलाओं के बीच उगने वाला एक जंगली पफूल है, इसी पफूल की प्रकृति पर यह निबंध् कुटज लिखा गया है। कुटज में न विशेष सौंदर्य है, न सुगंध् पिफर भी लेखक ने उसमें मानव के लिए एक संदेश पाया है। कुटज में अपराजेय जीवन शक्ति है, स्वावलंबन है, आत्मविश्वास है और विषम परिस्थितियों में भी शान के साथ जीने की क्षमता। वह समान भाव से सभी परिस्थितियों को स्वीकारता है। स्मरणीय बिन्दु ु पर्वत शोभा निकेतन माने गए है। हिमालय को
‘पृथ्वी का मानदंड’ कहा जाता है। इसे शिवालिक श्रंृखला भी कहते है। ‘शिवालिक’ का अर्थ है शिव के जटाजूट का निचला हिस्सा । यहाँ खड़े पेड़-पौधें की जड़ ें कापफी गहरी, पैठी रहती है। ये भी पाषाण की छाती पफाड़कर न जाने किस अतल गह्वर से अपना भोग्य खींच लाते है। ु शिवालिक की सूखी नीरस पहाडि़यो ं पर वृक्ष अलमस्त है ं, किसी का नाम, कुल और शील का नहीं पता। ये अनादिकाल से है। इन्हीं में से एक छोटा सा बहुत ही ठिगना पेड़ है कुटज का। अजीब सी अदा है, मुस्कराता सा जान पड़ता है। लेखक को उसका
नाम याद नहीं आता उसे लगता था कि नाम में क्या रखा है। नाम की जरूरत हो तो सौ दिए जा सकते है ं। पर मन नहीं मानता। नाम इसलिए बड़ा नही है कि वह नाम है। वह इसलिए बड़ा होता है कि उसे सामाजिक स्वीकृति मिली होती है। नाम उस पद को कहते है जिस पर समाज की मुहर लगी होती है। ु कुटज को गाढ़े का साथी कहा गया है क्योंकि कुटज कठिनाई के समय में काम आया। कालिदास जब रामगिरि पहु ँचे तब उन्होनें इसी कुटज का अध्र्य देकर मेघ की अभ्यर्थना की थी। उस समय उन्हे ं कोई और पफूल नहीं मिला। तब कुटज ने
उनके संतृप्त चित्त को सहारा दिया था। ु कुटज का क्या अर्थ है? कुटज अर्थात् जो कुट से पैदा हुआ हो। ‘कुट’ घड़ े को भी कहते है, और घर को भी कहते है। ‘कुट’ अर्थात् घड़े से उत्पन्न होने के कारण अगस्त्य मुनि भी34 हिन्दी -ग्प्प् ‘कुटज’ कहे जाते है। एक जरा गलत ढंग की दासी ‘कुटनी’ कही जाती है। संस्कृत में उसे ‘कुट्टनी’ कह दिया जाता है। ु कुटज का पौध लहराता रहता है। वह नाम और रूप दोनों से अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा करता है। वह ध्ध्कती लू में भी हरा-भरा बना
रहता है। वह कठोर पत्थर के बीच रूके अज्ञात जलस्रोत से बरबस रस खींचकर सरस बना रहता है। वह सूने गिरि कांतार मे ं भी मस्त बना रहता है। वह कठोर पाषाण को भेदकर पाताल की छाती चीरकर अपना भोग्य संग्रह करता है। वह उल्लास में झूमता है। यही उसकी जीवनी शक्ति है। पत्थरों और चट्टानों के बीच उगते हुए अपने जीवन को किसी उद्देश्य के लिए न्यौछावर करने वाला कुटज का यह पौध दुनिया को संदेश देता है कि यदि जीना चाहते हो तो कठिनाइयों से मत घबराओं और संघर्ष करते रहो। विषम परिस्थितियों में जीना सीखो।
आत्मसम्मान के साथ जियो, शान के साथ जिओ। जहाँ से भी संभव हो अपना भोग्य प्राप्त करो। ु कुटज के जीवन से हमें यह सीख मिलती है कि हर हाल में जिओ और मस्ती के साथ जिओ। अपना आत्मसम्मान बनाए रखो। परोपकार के लिए जिओ। किसी की चापलूसी मत करो। मन पर नियंत्राण रखो। हमें जीवन में किसी भी कीमत पर हार नहीं माननी चाहिए। कुटज स्वार्थ के दायरे से बिल्कुल बाहर है। हमें भी स्वार्थी नही होना चाहिए। ु लेखक ने एक स्थान पर प्रश्न किया है कि कुटज क्या केवल जी रहा है? यह प्रश्न उठाकर लेखक
ने मानवीय कमजोरियों पर टिप्पणी की है मानव जरा भी मुसीबत आने पर दूसरों के द्वार पर भीख माँगने चला जाता है। कुटज का पौंध दूसरों का द्वार भीख माँगने नहीं जाता। वह बड़ी शान से अपने स्थान पर खड़ा रहता है। सामान्य मानव शक्तिशाली के सामने घुटने टेक देता है। उसमें आत्म विश्वास की कमी है। आज का मानव परमार्थ से दूर हटता चला जा रहा है। ु लेखक का कहना है कि स्वार्थ से बढ़कर जिजीविषा से भी प्रचंड शक्ति अवश्य है और वह शक्ति है ‘आत्मा’। आत्मा परमात्मा का अंश है और वह सभी में व्याप्त है।
व्यक्ति की आत्मा केवल उसी तक सीमित नही है, वह व्यापक है। याज्ञवल्कय आत्मनः का अर्थ कुछ और बड़ा करना चाहते थे व्यक्ति को तब तक पूर्ण सुख का आनन्द नही मिलता जब तक मनुष्य में, अपने में सब और सब में आप - इस प्रकार समष्टि बु(ि नही आती। अपने आपको दलित द्राक्षा की भांति निचोड़कर जब तक सर्व के लिए न्यौछावर नहंी कर दिया जाता तब तक ‘स्वार्थ’ खंड-सत्य है। वह मोह को बढ़ावा देता है। ऐसा व्यक्ति दयनीय कृपण बन जाता है। वह तो स्वार्थ भी नही समझ पाता, परमार्थ तो दूर की बात है। ु ‘कुटज’
पाठ में बताया गया है कि दुख और सुख तो मन के विकल्प है। वास्तव में सुखी व्यक्ति वह है, जिसका मन वश मंे है और दुखी वह है जिसका मन परवश है। यहाँ परवश होने का अर्थ है -दूसरों की खुशामद करना, दाँत निपोरना, चाटुकारिता करना, जी हजूरी करना। इसीलिए सुख और दुख की चिंता किए बिना हमें जीवन जीने की कोशिश करनी चाहिए।35 हिन्दी -ग्प्प् अभ्यास कार्य 1.:- कुटज को गाढे़ का साथी क्यों कहा जाता है? 2.:- ‘नाम’ क्यों बड़ा है? लेखक के विचार अपने शब्दों में लिखिए? 3.:- ‘कुट’ ‘कुटज’ और
‘कुटनी’ शब्दों का विश्लेषण कर उनमें आपसी संबंध् स्थापित कीजिए। 4.:- कुटज किस प्रकार अपनी अपराजेय जीवनी-शक्ति की घोषणा करता है? 5.:- ‘कुटज’ हम सभी को क्या उपदेश देता है? टिप्पणी कीजिए। 6.:- कुटज के जीवन से हमें क्या सीख मिलती है? 7.:- कुटज क्या केवल जी रहा है - लेखक ने यह प्रश्न उठाकर किन मानवीय कमजोरियों पर टिप्पणी की है? 8.:- लेखक क्यांे मानता है कि स्वार्थ से भी बढ़कर जिजीविषा से भी प्रचंड कोई न कोई शक्ति अवश्य है? उदाहरण सहित उत्तर दीजिए। 9.:- ‘कुटज’ पाठ के आधर पर
सि( कीजिए कि दुख और सुख तो मन के विकल्प है। 10.:- पाठ के आधर पर कुटज की विशेषताएँ बताइए। सप्रसंग व्याख्या कीजिए क. कभी कभी जो लोेग ऊपर से ....... अपना भोग्य खींच लाते है। ख. जीना भी एक कला है ............... परमार्थ नहीं है - है केवल प्रचंड स्वार्थ ग. दुख और सुख तो मन के विकल्प ................. उसे वश मे ं कर सका हू ँ।
64 हिन्दी -ग्प्प् पूरक पुस्तक - अंतराल सूरदास की झोपड़ी -प्र ेमचन्द स्मरणीय बिन्दु सूरदास की झोपड़ी ‘प्रेमचन्द के उपन्यास’
रंगभूमि’ का एक अंश है। ‘सूरदास’ इस का मुख्य पात्रा है। वह अंध है तथा भिक्षा माँग कर अपना निर्वाह करता है। उसके साथ एक बालक मिठुआ भी रहता है। उसे गांव के जगध्र और भैरों अपमानित करते रहते है।? भैरों की पत्नी का नाम सुभागी है। भैरों उसे मारता-पीटता है। वह ताड़ी पीता है और नशे में चूर होकर सुभागी को पीटकर अपना पुरुषार्थ दिखाता है। उसकी मारपीट से तंग आकर सुभागी सूरदास की झोपड़ी में शरण ले लेती है। भैरों उसे मारने सूरदास की झोपड़ी में घुस आता है किंतु सूरदास के हस्तक्षेप के कारण उसे मार
नहीं पाता। इस घटना को लेकर पूरे मोहल्ले में सूरदास की बदनामी होती है। जगध्र और भैरों सूरदास के चरित्रा पर उंगली उठाते है ं। इस घटनाचक्र से सूरदास पूफट-पूफटकर रोता है। जगध्र भैरों को उकसाना है क्योंकि वह सूरदास से ईष्र्या करता है। सूरदास और सुभागी के संबंधें को लेकर पूरे मोहल्ले में हुई बदनामी से भैरों स्वयं को अपमानित अनुभव करता है और बदला लेने का निश्चय करता है। एक दिन वह सूरदास के रुपयों की थैली उठा लाता है तथा रात को झोपड़ी में आग लगा देता है। सूरदास की झोपड़ी में आग लगने पर
जगध्र उससे पूछता है- ‘‘सूरे, क्या आज चूल्हा ठंडा नहीं किया था?’’ इस पर सूरदास व्यंग्य में उत्तर देता है- चूल्हा ठंडा किया होता, तो दुश्मनों का कलेजा कैसे ठंडा होता?’’ सूरदास की मनःस्थिति अत्यंत निराशाजनक थी। उसे उसकी जीवन भर की पूंजी के जल जाने का गम था। इससे उसकी सारी योजनाओं पर पानी पिफर गया था। अब उसे अपनी सारी मनोकामनाएं बिखरती नजर आ रही थी। वह बहुत दुःखी था, विस्मित था तथा निराशा, ग्लानि चिंता और क्षोभ के सागर में गोता लगा रहा था। इसके बावजूद उसे मन में किसी से बदला लेने
की भावना न थी। सूरदास की झोपड़ी पूफस की बनी हुई थी। इस झोपड़ी के साथ गहरा लगाव था। झोपड़ी के साथ ओर सूरदास की अभिलाषाओं का अंत हो गया था। सूरदास संचित ध्न से पितरों का पिडंदान करना चाहता था, मिठुआ का ब्याह और गाँव के लिए एक कुआं बनवाना चाहता था। उसकी झोंपड़ी65 हिन्दी -ग्प्प् में आग लग जाने से अब उसकी यह जमा पूँजी भी नष्ट हो गई। झोंपड़ी के जल जाने के बाद जो राख शेष बची थी। वह देखने में पूफस की राख थी, पर वास्तव में वह इन अभिलाषाओं की राख थी जो इसके साथ दपफन हो गई
थी। सूरदास जगध्र से अपनी आर्थिक हानि को गुप्त रखना चाहता था क्योंकि एक अंध्े भिखारी के लिए गरीबी इतनी लज्जा की बात नहीं, जितना ध्न का होना। इसलिए रुपयों की थैली को अपना मानने से इंकार कर देता है। भैरों द्वारा रुपये चुराए जाने पर सूरदास सोच रहा था- रुपये मैंने ही तो कमाए थे, क्या पिफर नहीं कमा सकता? यही न होगा, जो काम इस साल होता, वह कुछ दिनों के बाद होगा, वे मेरे रुपये थे ही नहीं. शायद पिछले जन्म से मैंने भैरों के रुपये चुराए होंगे। यह उसी का दंड मिला है। यही सोचकर सूरदास
अत्यंत दुःखी था। तभी उसे घीसू द्वारा मिठुआ को यह कहते सुनाई पड़ा- ‘खेल में रोते हो।’ यह चेतावनी सुनते ही सूरदास को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसका हाथ पकड़कर किनारे पर खड़ा कर दिया हो। उसे लगा कि यह जीवन भी तो एक खेल है और मैं इस खेल में रो रहा हू ं। सच्चे खिलाड़ी कभी नहीं रोते, बाजी हारते है ं, चोट खाते है, ध्क्के सहते है, पर मैदान में डटे रहते है ं। खेल में रोना कैसा? खेल हंसने व दिल बहलाने के लिए है, रोने के लिए नहीं। वह उठ खड़ा हुआ विजय-गर्व की तरंगब के साथ झोपड़ी की राख के ढेर को
दोनों हाथों से उड़ाने लगा। अब उसकी मनोदशा उस खिलाड़ी के समान हो गई जो एक बार हारने के बाद पुनः पूरे उत्साह से खेल को जीतने के लिए कमर कस लेता है। मिठुआ सूरदास से पूछता है कि क्या हम बार-बार झोपड़ी बनाते रहे ंगे तब सूरदास ‘हाँ’ में उत्तर देता है। अंत में मिठुआ पूछता है- और जो कोई सौ लाख बार ;आगद्ध लगा दे? तब सूरदास सरलता से उत्तर देता है- ‘‘हम भी सौ लाख बार बनाएंगे।’’ इस कथन के आधर पर हम कह सकते है ं कि सूरदास में निर्णय लेने की क्षमता है, हार न मानने की प्रवृत्ति है, कर्मशील
है, मन में प्रतिशोध् लेने की भावना नहीं है, ग्रामीण जीवन एवं संघर्ष का प्रतीक, सहृदय एवं परोपकारी, दायित्व का पालनकर्ता है। लघूत्तरात्मक प्रश्न 1. चूल्हा ठंडा किया होता, तो दुश्मनों का कलेजा कैसे ठंडा होता? इस कथन के आधर पर सूरदास की मनःस्थिति का वर्णन कीजिए। 2. जगध्र के मन में किस तरह ईष्र्या का भाव जगा और क्यों? 3. सूरदास जगध्र से अपनी आर्थिक हानि को गुप्त क्यों रखना चाहता था? 4. भैरों द्वारा रुपये चुराए जाने पर सूरदास क्या सोचता
है? 5. भैरों ने सूरदास की झोपड़ी क्यों जलाई?66 हिन्दी -ग्प्प् 6. सूरदास ने रुपयों किन-किन कामों के लिए जमा किए थे? उच्चस्तरीय विचारणीय प्रश्न 1. सूरदास की झोपड़ी से लगने वाली आग की तुलना किससे की गई है, और क्यों? 2. सूरदास की झोपड़ी में आग किसने लगाई यह जानने के लिए जगध्र क्यों बेचैन था? 3. सच्चे खिलाडि़यो ं के विषय में लेखक के क्या विचार है? 4. सुभागी रात भर कहां छिपी रही थी? उसे क्या दुःख था? निबंधत्मक प्रश्न 1.
‘‘यह पूफस की राख न थी, उसकी अभिलाषाओं की राख थी।’’ संदर्भ सहित विवेचना कीजिए। 2. ‘सूरदास उठ खड़ा हुआ और विजय-गर्व की तरंग में राख के ढेर को दोनों हाथों से उड़ाने लगा’ इस कथन के संदर्भ में सूरदास की मनोदशा का वर्णन कीजिए। 3. ‘तो हम सौ लाख बार बनाएंगे।’ इस कथन के संदर्भ में सूरदास के चरित्रा की विवेचना कीजिए। उच्चस्तरीय विचारणीय प्रश्न 1. झोपड़ी की राख ठंडी होने पर सूरदास ने राख में क्या टटोला। उसका किसी से प्रतिशोध् न लेना क्या इंगित करता है? पाठ के आधर पर
समझाइए। 2. जगध्र द्वारा पैसे लौटाने की बात करने पर भैरों ने क्या-क्या तर्क दिए। सूरदास के विषय में उनकी क्या विचारधरा थी? 3. ‘अब चाहे वह मुझे मारे या निकाले पर रहू ँगी उसी के घर’-कथन के संदर्भ में सुभागी के चरित्रा की विवेचना कीजिए।67 हिन्दी -ग्प्प् आरोहण - संजीव स्मरणीय बिन्दु ‘आरोहण’ संजीव की एक ऐसी कहानी है जो पहाड़ी क्षेत्रों के मेहनतकश लोगो ं की जिंदगी को रेखांकित करती है। आरोहण कहानी में लेखक ने पर्वतारोहण की जरूरत और वर्तमान समय में उसकी
उपयोगिता को रेखांकित किया है। पर्वतीय प्रदेश के रहने वालों के जीवन-संघर्ष तथा प्राकृतिक परिवेश से उनके संबंधे ं को चित्रित किया है। उसने दर्शाया है कि किस तरह पर्वतीय प्रदेशो ं में प्राकृतिक आपदा, भूस्खलन, पत्थरों के खिसकने से वहाँ का पूरा जीवन एवं समाज नष्ट हो जाता है। ‘आरोहण’ पहाड़ी लोगों की जीवनचर्या का भाग है, किन्तु आश्चर्य तब होता है जब उन्हे ं यह पता चलता है कि यही आरोहण उनकी आजीविका का प्रबंध् भी कर सकता है। इस कहानी में इस बात का भी वर्णन है कि मैदानी भागों की
तुलना मे ं पर्वतीय प्रदेशों की जिंदगी कितनी कठिन, जटिल, दुखद और संघर्षमय होती है। प्रायः लोग रोजगार की तलाश में अपना घर छोड़कर बाहर जाते ही रहते है ं और रोजगार पाकर समय-समय पर अपने घर लौटते रहते है ं। तब उनके मन में हर्ष और गर्व का भाव होता है। पर रूपसिंह जब ग्यारह वर्ष पश्चात् अपने घर लौटता है तब उस पर एक अजीब किस्म की लाज, अपनत्व और झिझक की भावना होने लगती है। वह मसूरी के पर्वतारोहण संस्थान में चार हजार रुपये महीने की अच्छी नौकरी पा गया था। जब वह गाँव लौटता है तब उसके साथ उसके
गाॅड पफादर कपूर साहब का बेटा शेखर कपूर भी है। वे दोनों देवकुंड के स्टाॅप पर उतरते है और रूपसिंह के गाँव माही जाने की योजना बनाते है। घर लौटते हुए रूपसिंह को लाज आ रही है क्योंकि वह घर से सामान्य परिस्थितियों में नहीं गया था, बल्कि बड़े भाई भूपदादा को ध्क्का मारकर घर से भाग गया थां अपनत्व की भावना इसलिए क्योंकि गाँव में उसका अपना परिवार रहता है। शेखर के सामने झिझक इसलिए हो रही थी क्योंकि गाँव में अभी तक पक्की सड़क नहीं बन पाई थी। ग्यारह साल पूर्व जब गाँव में भू-स्खलन
हुआ तथा भूपसिंह के माँ, बाबा, खेत, घर सब मलवे में दब गए। किसी तरह भूपदादा बच गया। कोई सहारा न होने के कारण ध्ीरे-ध्ीरे मलवा हटाया और थोड़ी बहुत खेती शुरू की। शैला और भूप दोनों ने मिलकर मेहनत की। दोनों के संयुक्त प्रयासों से खेती बढ़ती चली गई। बपर्फ जमी न रहे, इसके लिए उन्हो ंने खेतों को ढलवां बनाया। हिमांग पर्वत पर चढ़कर उन्हो ंने झरना देखा, जो सूपिन नदी में गिर रहा था। इसे मोड़ देने से उनकी पानी की समस्या68 हिन्दी -ग्प्प् हल हो सकती थी। किन्तु बीच में पहाड़ था। पिफर
उन दोनों ने पहाड़ को काटकर बड़ी मेनहत से झरने को खेतों की तरपफ मोड़ने में सपफल हुए। उन्हो ंने अपनी मेहनत से नयी जिंदगी की कहानी लिख डाली। सैलानी शेखर और रूपसिंह घोड़ े पर चलते हुए उस लड़के के रोजगार के बारे में सोच रहे थे जिसने उनको घोड़ े पर सवार कर रखा था और स्वयं पैदल चल रहा था। घोड़ े वाला लड़का केवल 9-10 वर्ष का था। उसका नाम महीप था। वह अपन पिता भूपसिंह से नाराज होकर और अलग रहकर घोड़ े की आय से जीवन-यापन कर रहा था। इतनी कच्ची उम्र, उस पर घोड़े वाल ध्ंध और ये
खतरनाक रास्ते। हम जवान होकर भी घोड़ े पर जा रहे है ं और यह पंद्रह किलोमीटर पैदल। यह एक प्रकार से बाल मजदूरी है। पेट के लिए इसे क्या-क्या नहीं करना पड़ता। पता नहीं यह बपर्फ के दौरान क्या करता होगा? हम भी बाल मजदूरों के बारे में सोचते है ं। कोई भी बालक मजदूरी करता हुआ हमें अच्छा नहीं लगता। बच्चों की यह उम्र तो पढ़ने-लिखने और खेलने की होती है। ये ही बच्चे कल के नागरिक है देश का भविष्य है ं। इसके पश्चात दोनों के बीच चढ़ाई की बातें होने लगी। पर्वतारोहण का प्रसंग छिड़ जाने के
बाद रूपसिंह ने पत्थर की जाति का वर्णन किया। पत्थर की जाति से आशय यह है कि पत्थर किस प्रकार का है। पत्थर की जाति से ही उसकी मजबूती का पता चलता है। तभी उसमें चढ़ाई के लिए रस्सी को पंफसाया जाता है। तभी सपोर्ट बनती है। पहाड़ो ं के विभिन्न प्रकार है ं- इग्नियस, मेटामारपिफक, सिलिका, ग्रेनाइट, सै ंडस्टोन। थोड़ी देर बार उन्हे ं पर्वतारोहण के अध्याय को बंद करके घोड़ े पर बैठना पड़ा क्योंकि महीप हीरू-वीरू पर बैठने की जल्दबाजी कर रहा था। तभी रूपसिंह को शैला की याद आ गई। शैला इतनी सु ंदर
थी कि उसकी गुलामी बजा लाने में वह खुद को ध्न्य मानता, जबकि वो खुद बैठकर स्वेटर बुना करती। रूपसिंह उसकी भेंड़े ं हाँका करता, उसके लिए बुरुस के पूफल तोड़ लाता, जो उसे बेहद पसंद थे, सेब या आडू कहीं मिल गए तो सबसे पहले उसे लाकर देता। बदले में वह देवता का प्रसाद या मक्की की रोटी देती। जो स्वेटर बुना जा रहा था। वह भूप दादा के लिए था। आखिर तक उसे खुश रखने की तमाम कोशिशें बेकार चली जाती। इस ‘लव स्टोरी’ में वह तो राम-सीता के बीच लक्ष्मण की ही भूमिका निभा रहा था। जिस दिन भूप दादा नहीं आते
थे उस दिन शैला को खुश रखने की तमाम कोशिशें बेकार चली जाती। रूपसिंह ने मसूरी के पर्वतारोहण संस्थान में पहाड़ो ं पर चढ़ना भली प्रकार सीखा था। पर वहाँ वह आध्ुनिक उपकरणों की सहायता से पहाड़ो ं पर चढ़ता था। यहां सिर्पफ पेड़-पत्थरों के नाम-मात्रा सपोर्ट से शरीर का संतुलन बनाए रखना उसे कठिन प्रतीत हो रहा था। इसके अलावा यहां के पहाड़ और वहां के पहाड़ में अंतर भी था। यहां के पहाड़ की चढ़ाई खड़ी थी। यही कारण था रूपसिंह थोड़ी ही देर में हांपफ गया था। इसक विपरीत रूप का बड़ा भाई भूपसिंह न
जाने बनमानुष थे या रोबोट। वे चढ़ाई चढ़ते समय जिस ध्ैर्य, आत्मविश्वास, ताकत और कुशलता से मांसपेशियों और अंगों का उपयोग कर रहे थे, वह रूपसिंह और शेखर के लिए हैरत की चीज थी। वे खुद तो उफपर चढ़ ही रहे थे साथ ही अपने मपफलर के सहारे रूप को भी खींचे लिए जा रहे थे। उनहे ं उफपर पहु ंचने69 हिन्दी -ग्प्प् में घंटे भर का समय लगा। वहां रूप को छोड़कर पिफर नीचे उतरे और उसी प्रकार शेखर को उफपर लेकर आए। उनके इस साहस और आत्मविश्वास को देखकर रूपसिंह उनके सामने बौना पड़ गया था। भूपदादा
स्नेहशील, ध्ैर्यशाली, परिश्रमी था। जब रूप सिंह ने बूढ़े तिरलोक सिंह को यह बताया कि पर्वतारोहण संस्थान पहाड़ पर चढ़ने की नौकरी के लिए उसे चार हजार रुपये प्रति मास तनख्वाह देती है तब बूढ़े तिरलोक सिंह को पहाड़ पर चढ़ना जैसी नौकरी की बात सुनकर अजीब लगा क्योंकि पर्वतीय प्रदेशों में पहाड़ पर चढ़ना आम बात है। पहाड़ी लोग प्रतिदिन न जाने कितनी बार पहाड़ो ं पर चढ़ते और उतरते हैं उसे लगता है कि इस काम के लिए नौकरी पर रखना और चार हजार रुपये खर्च करना सरकार की मूर्खता है। इस कहानी को पढ़कर
हमारे मन में पहाड़ो ं पर स्त्राी की दयनीय स्थिति की छवि बनती है। वह बहुत परिश्रमी एवं कामकाजी होती है। शैला विवाह से पूर्व भेंडे़ चराती थी तथा खेती का काम करती थी। उसे भूपदादा के साथ मिलकर पहाड़ो ं की तथा खेती का काम करती थी। उसने भूपदादा के साथ मिलकर पहाड़ो ं को काटकर झरने का रूख मोड़ा। खेतीबाड़ी का विस्तार किया। पहाड़ी स्त्राी कम पढ़ी-लिखी, सीध्ी सरल किन्तु स्वाभिमानी होती है। वह छल-कपट से दूर रहती है। पहाड़ी स्त्रिायां भावुक होती है ं जैसे शैला ने की थी। पहाड़ो ं में जीवन
अत्यंत कठिन होता है। यहाँ के निवासियों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जैसे-पानी की समस्या, ईंध्न की कमी, शिक्षा के लिए उचित साध्नों की कमी, रोजगार के साध्नों में कमी, स्वास्थ्य सेवाओं में कमी, बिजली की पर्याप्त सुविध नहीं। इन समस्याओं को दूर करके उनके जीवन स्तर को सुधरा जा सकता है। लघूत्तरात्मक प्रश्न 1. पत्थर की जाति से लेखक का क्या आशय है? उसके विभिन्न प्रकारों के बारे में लिखिए। 2. बूढ़े तिरलोक सिंह को पहाड़ पर चढ़ना जैसी नौकरी की बात सुनकर अजीब क्यों
लगा? 3. रूपसिंह पहाड़ पर चढ़ना सीखने के बावजूद भूपसिंह के सामने बौना क्यों पड़ गया था? उच्चस्तरीय विचारणीय प्रश्न 1. रूपसिंह घर लौटते हुए किस मनः स्थिति में था और क्यों? 2. ‘राम और सीता की जोड़ी में मैं सिर्पफ लक्ष्मण था।’ इस कथन के पीछे रूपसिंह की कौन-सी पीड़ा छिपी थी? 3. ‘आरोहण’ कहानी का उद्देश्य बताइए।70 हिन्दी -ग्प्प् 4. पर्वतारोहण पर्वतीय प्रदेश के लोगों की आजीविका का साध्न है। ‘आरोहण’ पाठ के आधर पर स्पष्ट कीजिए। 5.
रूप ने भूपदादा को पहाड़ से क्यों ध्केला था? निबंधत्मक प्रश्न 1. पहाड़ो ं की चढ़ाई में भूपदादा का कोई जवाब नहीं। उनके चरित्रा की विशेषताएं बताइए। 2. यूं तो प्रायः लोग घर छोड़कर कहीं नहीं जाते है ं, परदेश जाते है ं। किन्तु लौटते समय रूपसिंह को एक अजीब किस्म की लाज, अपनत्व और झिझक क्यों घेरने लगी? 3. शैला और भूप ने मिलकर किस तरह पहाड़ पर अपनी मेहनत से नई जिंदगी की कहानी लिखी? 4. सैलानी ;शेखर और रूपसिंहद्ध घोड़ े पर चलते हुए उस लड़के के रोजगार के बारे में
सोच रहे थे जिसने उनको घोड़ े पर सवार कर रखा था और स्वयं पैदल चल रहा था? क्या आप भी बाल मजदूरों के बारे में सोचते है ं? 5. इस कहानी को पढ़कर आपके मन में पहाड़ो ं पर स्त्राी की स्थिति की क्या छवि बनती है? उस पर अपने विचार व्यक्त कीजिए। उच्चस्तरीय विचारणीय प्रश्न 1. ‘पहाड़ो ं पर जन जीवन अत्यंत कठिन होता है ं’’ पाठ के आधर पर अपने विचार व्यक्त कीजिए। 2. पर्वतीय प्रदेशों में भूस्खलन व पहाड़ो ं का खिसकना लोगों के जीवन को नष्ट कर देता है। ‘‘आरोहण’ कहानी के आधर
पर विवेचना कीजिए। 3. पारिवारिक परिस्थितियों ने महीप को समय से पहले ही व्यस्क बना दिया था। इस विषय पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।71 हिन्दी -ग्प्प् बिस्कोहर की माटी -विश्वनाथ त्रिपाठी स्मरणीय बिन्दु प्रस्तुत पाठ लेखक द्वारा लिखित उनकी आत्मकथा ‘नंगातलाई का गाँव’ का एक अंश से लिया गया है। लेखक ने अपनी आयु के कई पड़ाव पार करने के पश्चात अपने जीवन में माँ, गाँव और आसपास के प्राकृतिक परिवेश का वर्णन करते हुए ग्रामीण जीवन शैली, लोक कथाओं, लोक मान्यताओं को पाठकों
तक पहु ँचाने की कोशिश की है। कोइयाँ एक प्रकार का जलपुष्प है। इसे कुमुद और कोकाबेली भी कहते है ं। यह पानी में उगता है। शरद)तु में जहाँ-जहाँ भी पानी होता है, कोइयाँ पूफल वहाँ उग जाता है। यह पूफल बिसनाथ के गाँव में बहुत होता है। शरद की चाँदनी में सरोवरों में चाँदनी का प्रतिबिंब और खिली हुई कोइयाँ की पत्तियाँ एक हो जाती है। इसकी गंध् अत्यंत मादक होती है। यह मुख्यतः शरद )तु में होता है। लेखक पहले यह सोचा करता था कि कोइयाँ उनके यहाँ होती है। यह भ्रम तब टूटा जब एक बार वैष्णों देवी के
दर्शन के लिए जाते समय पंजाब में रेलवे लाइन के दोनों ओर इसे खिले हुए देखा। शरद में ही हरसिंगार का पूफल लगता है। गाँव के बच्चे ज्ञात-अज्ञात वनस्पतियों को छूते पहचानते थे। लेखक के अनुसार बच्चे का माँ से संबंध् बिलकुल अलग होता है। बच्चा जन्म लेते ही अपने भोजन के रूप में माँ का दूध् ही ग्रहण करता है। इसी दूध् से उसका पोषण और विकास होता है। नवजात शिशु के लिए माँ का दूध् अमृत के समान है। बच्चे का माँ का दूध् पीना सिर्पफ दूध् पीना ही नहीं, माँ से बच्चे के सारे संबंधें का जीवन चरित्रा होता
है। इसी दूध् का बच्चे के व्यक्तित्व पर, बच्चे के संस्कारों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। बच्चा सुबकता है, रोता है, माँ को मारता है, माँ भी कभी-कभी मारती है, बच्चा माँ से चिपटा रहता है, माँ चिपटाए रहती है। माँ के पेट से रस, गंध्, स्पर्श भोगता है, अपनी जगह ढूँढ़ता है। बच्चे के जब दाँत निकलते हैं तब हर चीज को दाँत से काटते है ं, यही टीसना है। चाँदनी रात में खटिया पर बैठी माँ जब बच्चे को दूध् पिलाती है तब बच्चा दूध् ही नहीं, चाँदनी को भी पीता है। उसे चांदनी माँ जैसी ही पुलक-स्नेह ममता देती
है। माँ के अंग से लिपटकर बच्चे का दूध् पीना, जड़ के चेतन होने यानी मानव जन्म लेने की सार्थकता है। बिसनाथ अभी दूध् पीता बच्चा था कि उसका छोटा भाई आ गया। उसका दूध् कट गया। तब माँ के दूध् पर छोटे भाई का कब्जा हो गया। बिसनाथ को पड़ोस की कसेरिन दाई ने पाला-पोसा72 हिन्दी -ग्प्प् था। वे तीन बरस तक कसेरिन दाई के साथ लेटे चाँद को देखते रहे अर्थात् माँ के स्थान पर उसे कसेरिन दाई के सम्पर्क में रहना पड़ा। यह एक प्रकार से बिसनाथ पर अत्याचार था। लेखक ने दिलशाद गार्डन के डियर
पार्क में बत्तखों को देखा था। बत्तख जब अंडा देने को होती है तब पानी को छोड़कर जमीन पर आ जाती है। इसके लिए एक सुरक्षित बाड़ा था। उसने यह भी देखा कि एक बत्तख कई अंडो ं को से रही है। वह अपने पंख पैफलाकर उन्हे ं दुनिया की नजरों से बचाकर रखती है। यही स्थिति माँ की भी होती है। माँ भी बच्चों का पालन-पोषण करती है उसे दुनिया की नजरों से बचाकर रखती है। बत्तख अंडो ं को अपनी चोंच से बड़ी सतर्कता, कोमलता से अपने डैनों के अंदर छुपा लेती है। इसी प्रकार माँ भी बच्चे को अपने अंग में छुपा लेती है।
बत्तख की निगाह कौवे की ताक पर भी रहती है। बत्तख माँ और मानव-शिशु माँ की ममता अपने बच्चों पर होती है। यही दोनों में समानता है। चिलचिलाती गर्मियों में लेखक सब को सोता पाकर भरी दोपहर में चुपचाप घर से बाहर निकल जाता। कभी लू भी लग जाती थी जिसके लिए माँ धेती या कमीज से गांठ लगाकर प्याज बांध् देती थी। लू लगने पर कच्चे आम का पन्ना पिया जाता, आम को भूनकर या उबाल कर गुड़ या चीनत में उसका शरबत पीना, देह में लेपना, नहाना किया जाता था। कच्चे आम को भूनकर या उबाल कर उससे सिर धेया
जाता। बिस्कोहर में बरसात अचानक नहीं आती। पहले बादल घिरते है ं, पिफर उनमें गड़गड़ाहट होती है। पिफर पूरा आकाश बादलों से ऐसे घिर जाता है कि दिन में ही अंध्ेरा हो जाता है। तबला, मृदंग और सितार का अनूठा संगीत मिश्रित होता है। बरसात कई दिन तक होने के कारण दीवार गिर गई, घर ध्ंस गया। बरसात आती है तब सभी पशु-पक्षी पुलकित हो उठते है ं। पहली वर्षा में नहाने पर दाद-खाज, पफोड़ा-पुंफसी ठीक हो जाते है। बरसात में तरह-तरह के कीड़े निकल आते है ं। कभी-कभी उमस के कारण मछलियाँ मरने लगती है
ं। घास पात से भरे मैदानों, तालाब के आसपास नाना प्रकार के साँप मिलते है ं। साँप से डर लगता है। डोंड़हा और मजगिदवा विषहीन होते है ं। डोंड़हा को मारा नहीं जाता। उसे सांपों में वामन जाति का मानते हैं। धमिन भी विषहीन है। सबसे खतरनाक गोंहुअन है जिसे पेंफटाश कहते हैं। ‘घेर कड़ाइच’, ‘भटिहा’ खतरनाक साँप होते है ं। लेखक को प्रकृति से बहुत प्रेम है। इस पाठ में अनेक प्रकार के पूफलों की जानकारी दी गई है। ‘पूफल केवल गंध् ही नहीं देते दवा भी करते हैं। गाँव में अब भी अनेक रोगों का इलाज
पूफलों के द्वारा किया जाता है। गाँव में पूफलों की गंध् से साँप, महामारी, देवी, चुड़ैल आदि का संबंध् जोड़ा जाता है। गुड़हल का पूफल देवी का पूफल माना जाता है। नीम के पत्ते और पूफल चेचक में रोगी के पास रखे जाते है ं। बेर के पूफल सू ंघने से बर्रे , ततैया का डंक झड़ जाता है। आम के पूफल भी अनेक रोगों में दवा का काम करते है ं। लेखक के गाँव के पूरब टोले के पोखर में कमल खिलते है ं। हिंदुओ ं के यहाँ भोजन कमल-पत्रा पर परोसा जाता है। कमल-पत्रा को ‘पुरइन’ भी कहते है ं। कमल की नाल को ‘भसीण’
कहते है ं।73 हिन्दी -ग्प्प् कमल-ककड़ी को सामान्यतः अभी भी गाँव में नहीं खाया जाता। कमल का बीज गट्टा अवश्य खाया जाता है। लेखक अपने एक रिश्तेदार के घर बढ़नी गया था। उसने अपनी उम्र में कापफी बड़ी औरत को देखा। बेशक दस वर्ष का था। वह औरत अत्यंत रूपवती थी। उस औरत के सौंदर्य का आकर्षक इस प्रकार हावी हुआ कि उसे समस्त प्रकृति में वही औरत नजर आने लगी। वह जूही की लता बन गई, चाँदनी के रूप में लगी, जिससे पूफलों की खुशबू आ रही थी, तब प्रकृति सजीव नारी बन गई थी और बिसनाथ उसमें
आकाश, चाँदनी, सुगंध् सब कुछ देख रहे थे। प्रकृति उनके हृदय में बसी थी। लेखक के पास अप्राप्ति की अनेक ऐसी स्मृतियाँ है ं। लेकिन जिस औरत को देखकर वह समस्त प्रकृति के सौंदर्य को भूल गया था उससे अपनी भावनाओं का इजहार न कर सका। वह सपफेद रंग की साड़ी पहने रहती है। घने काले केश संवारे हैं। उसकी आँखों में पता नहीं कैसी आर्द्र व्यथा है। वह सिर्पफ इंतजार करती है। संगीत, नृत्य, मूर्ति, कविता, स्थापत्य, चित्रा की गरज हर कला रूप के अस्वाद में वह मौजूद है। लेखक के लिए हर दुःख-सुख से जोड़ने की
सेतु है। इस स्मृति के साथ मृत्यु का बोध् सजीव तौर पर जुड़ा हुआ है। आज माताएँ अपने नवजात शिशओं को अपना दूध् नहीं पिलाना चाहतीं। इसके पीछे उनकी यह सोच है कि दूध् पिलाने से शरीरिक बनावट पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा जो नौकरी करती है ं, वे अपने बच्चों को आया के सहारे छोड़ कर चली जाती है ं। जिससे बच्चे माँ के दूध् से वंचित हो जाते है ं। इस प्रवृत्ति का माँ और शिशु पर बुरा प्रभाव पड़ता है। दोनों भावनात्मक रूप से नहीं जुड़ पाते है ं। दूध् पिलाना स्नेह का परिचायक है। माँ का दूध् बच्चे के लिए
पूर्ण भोजन है। ;लघूत्तरात्मक प्रश्नद्ध 1. कोइयाँ किसे कहते है ं? उसकी विशेषताएं बताइए। 2. विश्वनाथ पर क्या अत्याचार हो गया? 3. गर्मी और लू से बचने के उपायों का विवरण दीजिए। क्या आप भी उन उपायों से परिचित है ं? 4. लेखक बिसनाथ ने किन आधरों पर अपनी माँ की तुलना बत्तख से की है? 5. बिस्कोहर में हुई बरसात को जो वर्णन बिसनाथ ने किया है उसे अपने शब्दों में लिखिए। 6. ऐसी कौन-सी स्मृति है जिसके साथ लेखक को मृत्यु का बोध् अजीब तौर से जुड़ा
मिलता है? उच्चस्तरीय विचारणीय प्रश्न 1. बिस्कोहर गाँव में साँपों की प्रजातियाँ कौन-सी थी? उनके विषय में सोचकर लेखक को कैसा लगता था?74 हिन्दी -ग्प्प् 2. ‘बच्चा दूध् ही नहीं चाँदनी भी पी रहा है, चाँदनी भी माँ जैसी ही पुलक-स्नेह-ममता दे रही है।’ आशय स्पष्ट कीजिए। 3. कमल का प्रयोग किस-किस रूप में किया जाता है? 4. करेसिन कौन थी? उसके साथ छत पर लेटकर तीन वर्ष के बिसनाथ को कैसा अनुभव होता था? निबन्धत्मक प्रश्न 1. ‘बच्चे का माँ
का दूध् पीना सिर्पफ दूध् पीना नहीं, माँ से बच्चे के सारे संबंधें का जीवन-चरित्रा होता है’। टिप्पणी कीजिए। 2. ‘पूफल केवल गंध् ही नहीं देते दवा भी करते है ं।’ कैसे? 3. ‘प्रकृति सजीव नारी बन गई’ इस कथन के संदर्भ में लेखक की प्रकृति, नारी और सौंदर्य संबंध्ी मान्यताएँ स्पष्ट कीजिए। उच्चस्तरीय विचारणीय प्रश्न 1. वर्तमान समय समाज में माताएँ नवजात शिशु को दूध् नहीं पिलाना चाहती। बच्चे के लिए माँ का दूध् क्यों आवश्यक है? पाठ के आधर पर स्पष्ट कीजिए। 2.
लेखक ने प्राकृतिक सौन्दर्य और प्राकृतिक आपदाओं का साथ-साथ वर्णन किया है। इस विरोधभास से लेखक का क्या उद्देश्य है? 3. गाँव शहर की तरह सुविधयुक्त नहीं होते बल्कि प्रकृति पर अध्कि निर्भर रहते है ं। पाठ के आधर पर ग्रामीण जीवन-शैली का वर्णन कीजिए।75 हिन्दी -ग्प्प् अपना मालवा: खाउफ उजाड़ू सभ्यता मे ं -प्रभाष जोशी स्मरणीय बिन्दु यह पाठ जनसत्ता के 1 अक्टूबर 2006 के ‘कागद कारे’ स्तंभ से लिया गया है। इस पाठ में लेखक ने
मालवा प्रदेश की मिट्टी, वर्षा, नदियों की स्थिति, उद्गम एवं विस्तार तथा वहाँ के जनजीवन एवं संस्कृति को चित्रित किया है। जो मालवा अपनी सुख समृ(ि और सम्पन्नता के लिए प्रसि( था, वही अब खाउफ-उजाडू सभ्यता में पंफसकर उलझ गया है। यह सभ्यता यूरोप और अमेरिका देन है ं इस पाठ में पर्यावरण के प्रति लोगों को सचेत किया है। मालवा में जब सब जगह बरसात की झड़ी लगी रहती है तब के जन-जीवन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है। लोगों को आवागमन में परेशानी होती है। अब ध्रती ज्यादा पानी को सोख नहीं पाती है।
बारिश के कारण गेहूँ ओर चने की पफसल को बहुत पफायदा होता है। सोयाबीन की पफसल गल जाती है। कई नदियों में बाढ़ आ जाती है और उसका पानी शहरों में लोगों के घरों, दुकानो ं आदि में घुस जाता है। ज्यादा बरसात से लोग उकता जाते है ं। मालवा में पहले कापफी पानी गिरता था, पर अब वहां वैसा पानी नहीं गिरता। इसका एक कारण यह हो सकता है कि प्रकृति से बहुत छेड़छाड़ की जा रही है। उद्योगों से निकलने वाली गैसों ने पृथ्वी के तापमान को तीन डिग्री सेल्सियत बढ़ा दियाहै। इससे मौसम में कापफी परिवर्तन आ गया है।
वायु प्रदूषण भी तेजी से पैफलता जा रहा है। कारखानों ने पर्यावरण को बहुत अध्कि प्रदूषित कर दिया है। इससे वर्षा पर भी बुरा प्रभाव पड़ा है। पश्चिमी शिक्षा के कारण, अति आत्मविश्वास के कारण, अज्ञानता, भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की उपेक्षा के कारण आज के इंजीनियर यह समझते है ं कि वे पानी का बेहतर प्रबंध् करना जानते है ं और उनकी तुलना में पहले के लोग कुछ नहीं जानते थे। पर वे भ्रम के शिकार है ं। वे तो समझते है ं कि ज्ञान तो पश्चिम के रिनेसां के बाद ही आया। उन्हे ं भारतीय इतिहास की
जानकारी नहीं है। मालवा में विक्रमादित्य, भोज और मुंज, रिनेसां से बहुत पहले हो गए है ं। उन्हे ं पानी की समस्या का हल करना आता था। ये राजा जानते थे कि इस पठार पर पानी को रोकना होगा। इसके लिए इन सबने तालाब76 हिन्दी -ग्प्प् बनवाए, बड़ी-बड़ी बावडि़यां बनवाई ताकि बरसात का पानी रुका रहे और ध्रती के गर्भ के पानी को जीवंत रखा जा सके। हमारे आज के नियोजकों तथा इंजीनियरो ं ने तालाबों का महत्व नहीं समझा और उन्हे ं गाद से भर जाने दिया और जमीन के पानी को पाताल से भी निकाल लिया। इससे
नदी-नाले सूख गए। पग-पग पर नीर वाला मालवा सूख गया। नवरात्रि की पहली सुबह में मालवा में घट स्थापना की तैयारी है। गोबर से घर आंगन लीपने और मानाजी के ओटले को रंगोली से सजाने की सुबह है। यह समय नहाने-धेने और सजकर त्योहार मनाने मे ं लगने का है, किन्तु आसमान में गड़गड़ाहट हो रही थी। पूरे रास्ते भर छोटे स्टेशनों पर महिलाओं की भीड़ थी। लेखक को लग रहा था कि इस बार मानसून जाते हुए भी बरसने की धैंस दे रहा है। लेखक ने ओंकारेश्वर में देखा कि नर्मदा पर सीमेंट कंक्रीट का विशाल राक्षसी बांध्
बनाया जा रहा है। बांध् बनाऐ जाने से उसके बहते वेग में व्यवधन उत्पन्न किया जा रहा था। नदी वेग से बहुत सुन्दर लगती है। नर्मदा के किनारे पर टूटे पत्थर उसके बहाव को रोकने की कोशिश का वर्णन कर रहे थे। ज्योतिर्लिंग का वह तीर्थ धम वह नहीं लग रहा था जो कहा जाता है। बांध् के निर्माण में लगी हुई बड़ी-बड़ी मशीनें और गुर्राते हुए ट्रक नदी के किनारे खड़े हुए थे। यही कारण है कि नर्मदा बांध् बनने से चिढ़ी हुई थी और तिनतिन-पिफनपिफन करती बह रही थी। वर्तमान युग औद्योगिक विकास का युग है। सभ्यता
तेजी से विकसित होती जा रही है। नदियों की पवित्राता गंदे नाले में बदल रही है। मनुष्य की बढ़ती जरूरतें व जनसंख्या ने कूड़ा-करकट नदियों में प्रवाहित करने के बहाने ढूंढ़ लिए है ं। उद्योग-ध्ंधें का मलवा भी नदियों के प्रवाहित कर दिया जाता है। वर्तमान में कई गंदे नाले नदियों से जाकर मिल जाते है ं और जल-प्रदूषण का कारण बनते है ं। हिंदू-सभ्यता का विकास नदियों की पावन धरणा से जुड़ा है। जितनी भी पूजा-सामग्री होती है, वह नदियों में प्रवाहित कर दी जाती है। इस प्रकार ये नदियाँ सड़ े नालों में
बदल जाती है। शिप्रा, चंबल, नर्मदा, चोरल आदि नदियों के यही हाल है। विकास की सभ्यता नेे इन नदियों को गंदे पानी के नाले में बदल दिया है। इसके अन्य कारण महत्वाकांक्षाओं का बढ़ना, धर्मिक, आस्थाएं, बढ़ती जनसंख्या आदि है ं। आज जिसे पश्चिमी प्रभाव में आकर हम विकास की औद्योगिक सभ्यता कह रहे है वह वास्तव में उजाड़ की अपसभ्यता है। विकास की इस अंध्ी दौड़ ने हमारी पूरी जीवन-प(ति को तहस-नहस करके रख दिया है। इसके बीज, यूरोप तथा अमेरिका में है ं। वे खाउफ-उजाडू सभ्यता में विश्वास करते है ं।
वहां कोई जीवन-मूल्य नहीं है। आध्ुनिक औद्योगिक विकास ने हमें अपनें जन-जीवन से अलग कर दिया है। सही मायने में हम उजड़ रहे है ं। हमारे नदी-नाले सूख गए है ं, पर्यावरण प्रदूषित हो गया है। जिसके कारण विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता बनकर रह गई है। इस विकास ने ध्रती के तापमान को तीन डिग्री सेल्सियस बढ़ा दिया है। वातावरण को गरम करने वाली ये गैसे सबसे ज्यादा यूरोप और अमेरिका से निकली है ं। अमेरिका अपनी खाउफ-उज़ाडू जीवन-प(ति पर कोई समझौता नहीं करेगा।77 हिन्दी
-ग्प्प् ‘नयी दुनिया’ समाचारपत्रा की लाइब्रेरी से कमलेश जैन और अशोक जोशी ने ध्रती के वातावरण को गरम करने वाली इस खाउफ-उजाडू सभ्यता की जो कतरने निकाली है ं उनसे यह पता चलता है कि मालवा की ध्रती गंभीर क्यों नहीं है और क्यों यहां डग-डग रोटी और पग-पग नीर नहीं है। क्यों हमारे समुद्रों का पानी गरम हो रहा है? क्यों हमारी ध्रती के ध्ु्रवो ं पर जमी बपर्फ पिघल रही है? क्यों हमारे मौसमों का चक्र बिगड़ रहा है? क्यों लद्दाख में बपर्फ की जगह पानी गिरा? क्यों बाड़मेर के गांव डूब गए। क्यों
अमेरिका में अध्कि गर्मी पड़ रही है? इसका कारण है गैसों द्वारा तापमान का बढ़ना। लेखक की पर्यावरण संबंध्ी चिंता सिर्पफ मालवा तक न रहकर सार्वभौमिक हो गई है। अमेरिका की खाउफ-उजाडू जीवन प(ति ने दुनिया को इतना प्रभावित किया है कि हम अपनी जीवन-प(ति, संस्कृति, सभ्यता तथा अपनी ध्रती को उजाड़ने में लगे हुए। आध्ुनिक औद्योगिक विकास ने हमें अपनी जड़-जमीन से अलग कर दिया है। पर्यावरण को विनाश से बचाने के लिए पर्यावरण के प्रति लोगों को सचेत किया जा सकता है। ;1द्ध घर का कूड़ा-करकट इध्र-उध्हर न
पेंफके ं। ;2द्ध पैफक्ट्रियों का मलवा तथा ध्ुआं व शोर से बचकर रहा जाए। वृक्षों का रोपण किया जाए। आवश्यकताओं को सीमित किया जाए। यूरोपीय-सभ्यता का अनुकरण न किया जाए। ‘मुड़ों प्रकृति की ओर, बढ़ो मनुष्यता की ओर’ इस विषय में चेतना जागृत की जाए। ‘‘मालवा ध्रती गहन गंभीर, डग-डग रोटी, पग-पग नीर’’ पंक्ति में लेखक ने प्राचीन मालवा की उस स्थिति की चर्चा की है जो सुखी व समृ(िशाली थी मिट्टी, वर्षा, नदियाँ सभी सुख का आधर थे। मालवा अपनी सुख-समृ(ि एवं सम्पन्नता के लिए विख्यात था। प्राचनी मालवा
की ध्रती गंभीरता से प्राकृतिक सुषमा को उकेरती थी। कदम-कदम पर जीवन हरियाली का प्रतीक था। इतना पानी था जो मालवा की सुख-समृ(ि का आधर था। लघूत्तरात्मक प्रश्न 1. मालवा में जब बरसात की झड़ी लगी रहती है, तब मालवा के जनजीवन पर इसका क्या असर पड़ता है? 2. अब मालवा में वैसा पानी नहीं गिरता जैसा गिरा करता था। उसके क्या कारण है ं? 3. ‘मालवा में विक्रमादित्य, भोज और मुंज, रिनसों के बहुत पहले हो गए।’ पानी के रखरखाव के लिए उन्हो ंने क्या प्रबंध् किए? 4. ‘अपना
मालवा’ पाठ के आधर पर नर्मदा के विभिन्न रूपों का वर्णन कीजिए। 5. ‘नयी दुनिया’ की लाइब्रेरी से किस तथ्य का पता चलता है? 6. ‘अमेरिका की घोषणा है कि वह अपनी खाउफ-उजाड़ ू जीवन प(ति पर कोई समझौता नहीं करेगा।’ इस घोषणा पर अपनी टिप्पणी दीजिए। 7. नवरात्रा की पहली सुबह को लेखक ने किस प्रकार व्यक्त किया है?78 हिन्दी -ग्प्प् उच्चस्तरीय विचारणीय प्रश्न 1. लेखक ने शिप्रा नदी को कालिदास की शिप्रा क्यों कहा है। उसकी क्या विशेषता है? 2. बचपन
में पितृपक्ष और नवरात्रा पर लेखक ने पानी को किस रूप में देखा था? निबंधत्मक प्रश्न 1. हमारी आज की सभ्यता इन नदियों को अपने गंदे पानी को नाले बना रही है।’ क्यों और कैसे? 2. हमारे आज के इंजीनियर ऐसा क्यों समझते है ं कि वे पानी का प्रबंध् जानते है ं और पहले जमाने के लोग कुछ नहीं जानते थे? 3. लेखक को क्यों लगता है कि ‘हम जिसे विकास की औद्योगिक सभ्यता कहते हैं वह उजाड़ की अपसभ्यता है?’ आप क्या मानते है ं? 4. ध्रती का वातावरण गरम क्यो ं हो रहा है?
इसमें यूरोप और अमेरिका की क्या भूमिका है? टिप्पणी कीजिए। उच्चस्तरीय विचारणीय प्रश्न 1. ‘अपना मालवा’ पाठ का उद्देश्य स्पष्ट करें। 2. लेखक की पर्यावरण सं ंबंध्ी चिंता सिर्पफ मालवा तक सीमित न होकर सार्वभौमिक हो गई है- स्पष्ट कीजिए। 3. आध्ुनिक औद्योगिक विकास हमें अपनी जड़-जमीन से अलग कर रहा है। पर्यावरण को विनाश से बचाने के लिए आपके विचार से क्या-क्या प्रयास किए जा सकते है ं? 4. ‘मालवा’ ध्रती गहन गंभीर उग-डग रोटी पग-पग नीर’ मालवा के विषय में यह कहावत
क्यों कही गई है?
रस के प्रकार
रस के प्रकार
भरतनाट्यम् में शृंगार की अभिव्यक्ति रस नौ हैं - क्रमांक रस का प्रकार स्थायी भाव
1. शृंगार रस रति
2. हास्य रस हास
3. करुण रस शोक
4. रौद्र रस क्रोध
5. वीर रस उत्साह
6. भयानक रस भय
7. वीभत्स रस घृणा, जुगुप्सा
8. अद्भुत रस आश्चर्य
9. शांत रस निर्वेद
वात्सल्य रस को दसवाँ एवं भक्ति को ग्यारहवाँ रस भी माना गया है। वत्सल तथा भक्ति इनके स्थायी भाव हैं। पारिभाषिक
शब्दावली नाट्यशास्त्र में भरत मुनि ने रस की व्याख्या करते हुये कहा है - विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्ररस निष्पत्ति:। अर्थात
विभाव, अनुभाव,
व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। सुप्रसिद्ध
साहित्य दर्पण में कहा गया है हृदय का स्थायी भाव, जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव का संयोग प्राप्त कर लेता है तो रस रूप में निष्पन्न हो जाता है। रीतिकाल के प्रमुख कवि देव ने रस की परिभाषा इन शब्दों में की है : जो विभाव अनुभाव अरू, विभचारिणु करि होई। थिति की पूरन वासना, सुकवि कहत रस होई॥ इस प्रकार रस के चार अंग हैं
स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव। स्थायी भाव सहृदय के अंत:करण में जो मनोविकार वासना या संस्कार रूप में सदा विद्यमान रहते हैं तथा जिन्हें कोई भी विरोधी या अविरोधी दबा नहीं सकता, उन्हें स्थायी भाव कहते हैं। ये मानव मन में बीज रूप में, चिरकाल तक अचंचल होकर निवास करते हैं। ये संस्कार या भावना के द्योतक हैं। ये सभी मनुष्यों में उसी प्रकार छिपे रहते हैं जैसे मिट्टी में गंध अविच्छिन्न रूप में समाई रहती है। ये इतने समर्थ होते हैं कि
अन्य भावों को अपने में विलीन कर लेते हैं। इनकी संख्या 11 है - रति, हास, शोक, उत्साह, क्रोध, भय, जुगुप्सा, विस्मय, निर्वेद, वात्सल्य और ईश्वर विषयक प्रेम। विभाव विभाव का अर्थ है कारण। ये स्थायी भावों का विभावन करते हैं, उन्हें आस्वाद योग्य बनाते हैं। ये रस की उत्पत्ति में आधारभूत माने जाते हैं। विभाव के दो भेद हैं: आलंबन विभाव भावों का उद्गम जिस मुख्य भाव या वस्तु के कारण हो वह काव्य का आलंबन कहा जाता है। आलंबन के अंतर्गत
आते हैं विषय और आश्रय। विषय जिस पात्र के प्रति किसी पात्र के भाव जागृत होते हैं वह विषय है। साहित्य शास्त्र में इस विषय को आलंबन विभाव अथवा 'आलंबन' कहते हैं। आश्रय जिस पात्र में भाव जागृत होते हैं वह आश्रय कहलाता है। उद्दीपन विभाव स्थायी भाव को जाग्रत रखने में सहायक कारण उद्दीपन विभाव कहलाते हैं। उदाहरण स्वरूप (१) वीर रस के स्थायी भाव उत्साह के लिए सामने खड़ा हुआ शत्रु
आलंबन विभाव है। शत्रु के साथ सेना, युद्ध के बाजे और शत्रु की दर्पोक्तियां, गर्जना-तर्जना, शस्त्र संचालन आदि उद्दीपन विभाव हैं। उद्दीपन विभाव के दो प्रकार माने गये हैं: आलंबन-गत (विषयगत) अर्थात् आलंबन की उक्तियां और चेष्ठाएं बाह्य (बर्हिगत) अर्थात् वातावरण से संबंधित वस्तुएं। प्राकृतिक दृश्यों की गणना भी इन्हीं के अंर्तगत होती हैं। अनुभाव रति, हास, शोक आदि स्थायी भावों
को प्रकाशित या व्यक्त करने वाली आश्रय की चेष्टाएं अनुभाव कहलाती हैं। ये चेष्टाएं भाव-जागृति के उपरांत आश्रय में उत्पन्न होती हैं इसलिए इन्हें अनुभाव कहते हैं, अर्थात जो भावों का अनुगमन करे वह अनुभाव कहलाता है। अनुभाव के दो भेद हैं - इच्छित और अनिच्छित। आलंबन एवं उद्दीपन के माध्यम से अपने-अपने कारणों द्वारा उत्पन्न, भावों को बाहर प्रकाशित करने वाली सामान्य लोक में जो कार्य चेष्टाएं होती हैं, वे ही काव्य नाटक आदि में निबद्ध अनुभाव कहलाती हैं। उदाहरण स्वरूप विरह-व्याकुल नायक द्वारा
सिसकियां भरना, मिलन के भावों में अश्रु, स्वेद, रोमांच, अनुराग सहित देखना, क्रोध जागृत होने पर शस्त्र संचालन, कठोर वाणी, आंखों का लाल हो जाना आदि अनुभाव कहे जाएंगे। साधारण अनुभाव : अर्थात (इच्छित अभिनय) के चार भेद हैं। 1.आंगिक 2.वाचिक 3. आहार्य 4. सात्विक। आश्रय की शरीर संबंधी चेष्टाएं आंगिक या कायिक अनुभाव है। रति भाव के जाग्रत होने पर भू-विक्षेप, कटाक्ष आदि प्रयत्न पूर्वक किये गये वाग्व्यापार वाचिक अनुभाव हैं। आरोपित या कृत्रिम वेष-रचना आहार्य अनुभाव है। परंतु, स्थायी भाव के जाग्रत होने
पर स्वाभाविक, अकृत्रिम, अयत्नज, अंगविकार को सात्विक अनुभाव कहते हैं। इसके लिए आश्रय को कोई बाह्य चेष्टा नहीं करनी पड़ती। इसलिए ये अयत्नज कहे जाते हैं। ये स्वत: प्रादुर्भूत होते हैं और इन्हें रोका नहीं जा सकता। सात्विक अनुभाव : अर्थात (अनिच्छित) आठ भेद हैं - स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, वेपथु (कम्प), वैवर्ण्य, अश्रु और प्रलय। संचारी या व्यभिचारी भाव जो भाव केवल थोड़ी देर के लिए स्थायी भाव को पुष्ट करने के निमित्त सहायक रूप में आते हैं और तुरंत लुप्त
हो जाते हैं, वे संचारी भाव हैं। संचारी शब्द का अर्थ है, साथ-साथ चलना अर्थात संचरणशील होना, संचारी भाव स्थायी भाव के साथ संचरित होते हैं, इनमें इतना सार्मथ्य होता है कि ये प्रत्येक स्थायी भाव के साथ उसके अनुकूल बनकर चल सकते हैं। इसलिए इन्हें व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है। संचारी या व्यभिचारी भावों की संख्या ३३ मानी गयी है - निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दीनता, चिंता, मोह, स्मृति, धृति, व्रीड़ा, चापल्य, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व, विषाद, औत्सुक्य,
निद्रा, अपस्मार (मिर्गी), स्वप्न, प्रबोध, अमर्ष (असहनशीलता), अवहित्था (भाव का छिपाना), उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास और वितर्क। परिचय भरतमुनि (2-3 शती ई.) ने काव्य के आवश्यक तत्व के रूप में रस की प्रतिष्ठा करते हुए शृंगार, हास्य, रौद्र, करुण, वीर, अद्भुत, बीभत्स तथा भयानक नाम से उसके आठ भेदों का स्पष्ट उल्लेख किया है तथा कतिपय पंक्तियों के
आधार पर विद्वानों की कल्पना है कि उन्होंने शांत नामक नवें रस को भी स्वीकृति दी है। इन्हीं नौ रसों की संज्ञा है नवरस। विभावानुभाव-संचारीभाव के संयोग से इन रसों की निष्पत्ति होती है। प्रत्येक रस का स्थायीभाव अलग-अलग निश्चित है। उसी की विभावादि संयोग से परिपूर्ण होनेवाली निर्विघ्न-प्रतीति-ग्राह्य अवस्था रस कहलाती है। शृंगार का स्थायी रति, हास्य का हास, रौद्र का क्रोध, करुण का शोक, वीर का उत्साह, अद्भुत का विस्मय, बीभत्स का जुगुप्सा, भयानक का भय तथा शांत का स्थायी शम या निर्वेद कहलाता है। भरत ने आठ
रसों के देवता क्रमश: विष्णु, प्रमथ, रुद्र, यमराज, इंद्र, ब्रह्मा, महाकाल तथा कालदेव को माना है। शांत रस के देवता नारायण और उसका वर्ण कुंदेटु बताया जाता है। प्रथम आठ रसों के क्रमश: श्याम, सित, रक्त, कपोत, गौर, पीत, नील तथा कृष्ण वर्ण माने गए हैं। रस की उत्पत्ति भरत ने प्रथम आठ रसों में शृंगार, रौद्र, वीर तथा वीभत्स को प्रधान मानकर क्रमश: हास्य, करुण, अद्भुत तथा भयानक रस की उत्पत्ति मानी है।
शृंगार की अनुकृति से हास्य, रौद्र तथा वीर कर्म के परिणामस्वरूप करुण तथा अद्भुत एवं वीभत्स दर्शन से भयानक उत्पन्न होता है। अनुकृति का अर्थ, अभिनवगुप्त (11वीं शती) के शब्दों में आभास है, अत: किसी भी रस का आभास हास्य का उत्पादक हो सकता है। विकृत वेशालंकारादि भी हास्योत्पादक होते हैं। रौद्र का कार्य विनाश होता है, अत: उससे करुण की तथा वीरकर्म का कर्ता
प्राय: अशक्य कार्यों को भी करते देखा जाता है, अत: उससे अद्भुत की उत्पत्ति स्वाभाविक लगती है। इसी प्रकार बीभत्सदर्शन से भयानक की उत्पत्ति भी संभव है। अकेले स्मशानादि का दर्शन भयोत्पादक होता है। तथापि यह उत्पत्ति सिद्धांत आत्यंतिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि परपक्ष का रौद्र या वीर रस स्वपक्ष के लिए भयानक की सृष्टि भी कर सकता है और बीभत्सदर्शन से शांत की उत्पत्ति भी संभव है। रौद्र से भयानक, शृंगार से अद्भुत और वीर तथा भयानक से करुण की उत्पत्ति भी संभव है। वस्तुत: भरत का अभिमत स्पष्ट नहीं है। उनके
पश्चात् धनंजय (10वीं शती) ने चित्त की विकास, विस्तार, विक्षोभ तथा विक्षेप नामक चार अवस्थाएँ मानकर शृंगार तथा हास्य को विकास, वीर तथा अद्भुत को विस्तार, बीभत्स तथा भयानक को विक्षोभ और रौद्र तथा करुण को विक्षेपावस्था से संबंधित माना है। किंतु जो विद्वान् केवल द्रुति, विस्तार तथा विकास नामक तीन ही अवस्थाएँ मानते हैं उनका इस वर्गीकरण से समाधान न होगा। इसी
प्रकार यदि शृंगार में चित्त की द्रवित स्थिति, हास्य तथा अद्भुत में उसका विस्तार, वीर तथा रौद्र में उसकी दीप्ति तथा बीभत्स और भयानक में उसका संकोच मान लें तो भी भरत का क्रम ठीक नहीं बैठता। एक स्थिति के साथ दूसरी स्थिति की उपस्थिति भी असंभव नहीं है। अद्भुत और वीर में विस्तार के साथ दीप्ति तथा करुण में द्रुति और संकोच दोनों हैं। फिर भी भरतकृत संबंध स्थापन से इतना संकेत अवश्य मिलता है कि कथित रसों में परस्पर उपकारकर्ता विद्यमान है और वे एक दूसरे के मित्र तथा सहचारी हैं। रसों का परस्पर
विरोध मित्रता के समान ही इन रसों की प्रयोगस्थिति के अनुसार इनके विरोध की कल्पना भी की गई है। किस रसविशेष के साथ किन अन्य रसों का तुरंत वर्णन आस्वाद में बाधक होगा, यह विरोधभावना इसी विचार पर आधारित है। करुण, बीभत्स, रौद्र, वीर और भयानक से शृंगार का; भयानक और करुण से हास्य का; हास्य और शृंगार से करुण का; हास्य, शृंगार और भयानक से रौद्र का; शृंगार, वीर, रौद्र, हास्य और शात से भयानक का; भयानक और शांत से वीर का; वीर, शृंगार, रौद्र, हास्य और भयानक से शांत का विरोध माना जाता है। यह विरोध
आश्रय ऐक्य, आलंबन ऐक्य अथवा नैरंतर्य के कारण उपस्थित होता है। प्रबंध काव्य में ही इस विरोध की संभावना रहती है। मुक्तक में प्रसंग की छंद के साथ ही समाप्ति हो जाने से इसका भय नहीं रहता है। लेखक को विरोधी रसों का आश्रय तथा आलंबनों को पृथक-पृथक रखकर अथवा दो विरोधी रसों के बीच दोनों के मित्र रस को उपस्थित करके या प्रधान रस की अपेक्षा अंगरस का संचारीवत् उपस्थित करके इस विरोध से उत्पन्न आस्वाद-व्याघात को उपस्थित होने से बचा लेना चाहिए। रस की
आस्वादनीयता रस की आस्वादनीयता का विचार करते हुए उसे ब्रह्मानंद सहोदर, स्वप्रकाशानंद, विलक्षण आदि बताया जाता है और इस आधार पर सभी रसों को आनंदात्मक माना गया है। भट्टनायक (10वीं शती ई.) ने सत्वोद्रैक के कारण ममत्व-परत्व-हीन दशा,
अभिनवगुप्त (11वीं शती ई.) ने निर्विघ्न प्रतीति तथा आनंदवर्धन (9 श. उत्तर) ने करुण में माधुर्य तथा आर्द्रता की अवस्थित बताते हुए शृंगार, विप्रलंभ तथा करुण को उत्तरोत्तर
प्रकर्षमय बताकर सभी रसों की आनंदस्वरूपता की ओर ही संकेत किया है। किंतु अनुकूलवेदनीयता तथा प्रतिकूलवेदनीयता के आधार पर भावों का विवेचन करके रुद्रभट्ट (9 से 11वीं शती ई. बीच) रामचंद्र गुणचंद्र (12वीं श.ई.), हरिपाल, तथा धनंजय ने और हिंदी में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रसों का सुखात्मक तथा दु:खात्मक अनुभूतिवाला माना है।
अभिनवगुप्त ने इन सबसे पहले ही "अभिनवभारती" में "सुखदु:खस्वभावों रस:" सिद्धात को प्रस्तुत कर दिया था। सुखात्मक रसों में शृंगार, वीर, हास्य, अद्भुत तथा शांत की और दु:खात्मक में करुण, रौद्र, बीभत्स तथा भयानक की गणना की गई। "पानकरस" का उदाहरण देकर जैसे यह सिद्ध किया गया कि गुड़ मिरिच आदि को मिश्रित करके बनाए जानेवाले पानक रस में अलग-अलग वस्तुओं का खट्टा मीठापन न मालूम होकर एक विचित्र प्रकार का आस्वाद मिलता है, उसी प्रकार यह भी कहा गया कि उस वैचित्र्य में भी आनुपातिक ढंग से कभी खट्टा, कभी तिक्त और
इसी प्रकार अन्य प्रकार का स्वाद आ ही जाता है। मधुसूदन सरस्वती का कथन है कि रज अथवा तम की अपेक्षा सत्व को प्रधान मान लेने पर भी यह तो मानना ही चाहिए कि अंशत: उनका भी आस्वाद बना रहता है। आचार्य शुक्ल का मत है कि हमें अनुभूति तो वर्णित भाव की ही होती है और भाव सुखात्मक दु:खात्मक आदि प्रकार के हैं, अतएव रस भी दोनों
प्रकार का होगा। दूसरी ओर रसों को आनंदात्मक मानने के पक्षपाती सहृदयों को ही इसका प्रमण मानते हैं और तर्क का सहारा लेते हैं कि दु:खदायी वस्तु भी यदि अपनी प्रिय है तो सुखदायी ही प्रतीत होती है। जैसे, रतिकेलि के समय स्त्री का नखक्षतादि से यों तो शरीर पीड़ा ही अनुभव होती है, किंतु उस समय वह उसे सुख ही मानती है। भोज (11वीं शती ई.) तथा विश्वनाथ (14वीं शती ई.) की इस धारणा के अतिरिक्त स्वयं मधुसूदन सरस्वती रसों को लौकिक भावों की अनुभूति से भिन्न और विलक्षण मानकर इनकी आनंदात्मकता का समर्थन करते है और
अभिनवगुप्त वीतविघ्नप्रतीत वताकर इस धारणा को स्पष्ट करते हैं कि उसी भाव का अनुभव भी यदि बिना विचलित हुए और किसी बाहरी अथवा अंतरोद्भूत अंतराय के बिना किया जाता है तो वह सह्य होने के कारण आनंदात्मक ही कहलाता है। यदि दु:खात्मक ही मानें तो फिर शृंगार के विप्रलंभ भेद को भी दु:खात्मक ही मानें तो फिर शृंगार के विप्रलंभ भेद को भी दु:खात्मक ही क्यों न माना जाए? इस प्रकार के अनेक तर्क देकर रसों की आनंदरूपता सिद्ध की जाती है। अंग्रेजी में ट्रैजेडी से मिलनेवाले आनंद का भी अनेक प्रकार से समाधान किया गया है और
मराठी लेखकों ने भी रसों की आनंदरूपता के संबंध में पर्याप्त भिन्न धारणाएँ प्रस्तुत की हैं। रसों का राजा कौन है? प्राय: रसों के विभिन्न नामों की औपाधिक या औपचारिक सत्ता मानकर पारमार्थिक रूप में रस को एक ही मानने की धारणा प्रचलित रही है। भारत ने "न हि रसादृते कश्चिदप्यर्थ : प्रवर्तत" पंक्ति में "रस" शब्द का एक वचन में प्रयोग किया है और अभिनवगुप्त ने उपरिलिखित धारणा व्यक्त की है।
भोज ने शृंगार को ही एकमात्र रस मानकर उसकी सर्वथैव भिन्न व्याख्या की है, विश्वनाथ की अनुसार नारायण पंडित चमत्कारकारी अद्भुत को ही एकमात्र रस मानते हैं, क्योंकि चमत्कार ही रसरूप होता है।
भवभूति (8वीं शती ई.) ने करुण को ही एकमात्र रस मानकर उसी से सबकी उत्पत्ति बताई है और भरत के "स्वं स्वं निमित्तमासाद्य शांताद्भाव: प्रवर्तते, पुनर्निमित्तापाये च शांत एवोपलीयते" - (नाट्यशास्त्र 6/108) वक्तव्य के आधार पर शांत को ही एकमात्र रस माना जा सकता है। इसी प्रकार उत्साह तथा विस्मय की सर्वरससंचारी स्थिति के आधार पर उन्हें भी अन्य सब रसों के मूल में माना जा सकता है। रस आस्वाद और
आनंद के रूप में एक अखंड अनुभूति मात्र हैं, यह एक पक्ष है और एक ही रस से अन्य रसों का उद्भव हुआ है यह दूसरा पक्ष है। रसाप्राधान्य के विचार में रसराजता की समस्या उत्पन्न की है। भरत समस्त शुचि, उज्वल, मेध्य और दलनीय को शृंगार मानते हैं, "अग्निपुराण" (11वीं शती) शृंगार को ही एकमात्र रस बताकर अन्य सबको उसी के भेद मानता है,
भोज शृंगार को ही मूल और एकमात्र रस मानते हैं, परंतु उपलब्ध लिखित प्रमाण के आधार पर "रसराज" शब्द का प्रयोग "उज्ज्वलनीलमणि" में भक्तिरस के लिए ही दिखाई देता है। हिंदी में केशवदास (16वीं शती ई.) शृंगार को रसनायक और देव कवि (18वीं शती ई.) सब रसों का मूल
मानते हैं। "रसराज" संज्ञा का शृंगार के लिए प्रयोग मतिराम (18वीं शती ई.) द्वारा ही किया गया मिलता है। दूसरी ओर बनारसीदास (17वीं शती ई.)
"समयसार" नाटक में "नवमों सांत रसनि को नायक" की घोषणा करते हैं। रसराजता की स्वीकृति व्यापकता, उत्कट आस्वाद्यता, अन्य रसों को अंतर्भूत करने की क्षमता सभी संचारियों तथा सात्विकों को अंत:सात् करने की शक्ति सर्वप्राणिसुलभत्व तथा शीघ्रग्राह्यता आदि पर निर्भर है। ये सभी बातें जितनी अधिक और प्रबल शृंगार में पाई जाती हैं, उतनी अन्य रसों में नहीं। अत: रसराज वही कहलाता है। शृंगार
रस विचारको ने रौद्र तथा करुण को छोड़कर शेष रसों का भी वर्णन किया है। इनमें सबसे विस्तृत वर्णन शृंगार का ही ठहरता है। शृंगार मुख्यत: संयोग तथा विप्रलंभ या वियोग के नाम से दो भागों में विभाजित किया जाता है, किंतु धनंजय आदि कुछ विद्वान् विप्रलंभ के पूर्वानुराग भेद को संयोग-विप्रलंभ-विरहित पूर्वावस्था मानकर अयोग की संज्ञा देते हैं तथा शेष विप्रयोग तथा संभोग नाम से दो भेद और करते हैं। संयोग की अनेक परिस्थितियों के आधार पर उसे अगणेय मानकर उसे केवल आश्रय भेद से नायकारब्ध, नायिकारब्ध अथवा
उभयारब्ध, प्रकाशन के विचार से प्रच्छन्न तथा प्रकाश या स्पष्ट और गुप्त तथा प्रकाशनप्रकार के विचार से संक्षिप्त, संकीर्ण, संपन्नतर तथा समृद्धिमान नामक भेद किए जाते हैं तथा विप्रलंभ के पूर्वानुराग या अभिलाषहेतुक, मान या ईश्र्याहेतुक, प्रवास, विरह तथा करुण प्रिलंभ नामक भेद किए गए हैं। "काव्यप्रकाश" का विरहहेतुक नया है और शापहेतुक भेद प्रवास
के ही अंतर्गत गृहीत हो सकता है, "साहित्यदर्पण" में करुण विप्रलंभ की कल्पना की गई है। पूर्वानुराग कारण की दृष्टि से गुणश्रवण, प्रत्यक्षदर्शन, चित्रदर्शन, स्वप्न तथा इंद्रजाल-दर्शन-जन्य एवं राग स्थिरता और चमक के आधार पर नीली, कुसुंभ तथा मंजिष्ठा नामक भेदों में बाँटा जाता है। "अलंकारकौस्तुभ" में शीघ्र नष्ट होनेवाले तथा शोभित न
होनेवाले राग को "हारिद्र" नाम से चौथा बताया है, जिसे उनका टीकाकार "श्यामाराग" भी कहता है। पूर्वानुराग का दश कामदशाएँ - अभिलाष, चिंता, अनुस्मृति, गुणकीर्तन, उद्वेग, विलाप, व्याधि, जड़ता तथा मरण (या अप्रदश्र्य होने के कारण उसके स्थान पर मूच्र्छा) - मानी गई हैं, जिनके स्थान पर कहीं अपने तथा कहीं दूसरे के मत के रूप में विष्णुधर्मोत्तरपुराण, दशरूपक की अवलोक टीका, साहित्यदर्पण, प्रतापरुद्रीय तथा सरस्वतीकंठाभरण तथा काव्यदर्पण में किंचित् परिवर्तन के साथ चक्षुप्रीति, मन:संग, स्मरण, निद्राभंग, तनुता,
व्यावृत्ति, लज्जानाश, उन्माद, मूच्र्छा तथा मरण का उल्लेख किया गया है। शारदातनय (13वीं शती) ने इच्छा तथा उत्कंठा को जोड़कर तथा विद्यानाथ (14वीं शती पूर्वार्ध) ने स्मरण के स्थान पर संकल्प लाकर और प्रलाप तथा संज्वर को बढ़ाकर इनकी संख्या 12 मानी है। यह युक्तियुक्त नहीं है और इनका अंतर्भाव हो सकता है। मान-विप्रलंभ प्रणय तथा ईष्र्या के विचार से दो प्रकार का तथा मान की स्थिरता तथा अपराध की गंभीरता के विचार से लघु, मध्यम तथा गुरु नाम से तीन प्रकार का, प्रवासविप्रलंभ कार्यज, शापज, सँभ्रमज नाम से तीन
प्रकार का और कार्यज के यस्यत्प्रवास या भविष्यत् गच्छत्प्रवास या वर्तमान तथा गतप्रवास या भविष्यत् गच्छत्प्रवास या वर्तमान तथा गतप्रवास या भूतप्रवास, शापज के ताद्रूप्य तथा वैरूप्य, तथा संभ्रमज के उत्पात, वात, दिव्य, मानुष तथा परचक्रादि भेद के कारण कई प्रकार का होता है। विरह गुरुजनादि की समीपता के कारण पास रहकर भी नायिका तथा नायक के संयोग के होने का तथा करुण विप्रलंभ मृत्यु के अनंतर भी पुनर्जीवन द्वारा मिलन की आशा बनी रहनेवाले वियोग को कहते हैं। शृंगार रस के अंतर्गत नायिकालंकार, ऋतु तथा प्रकृति का
भी वर्णन किया जाता है। एक उदाहरण है- राम को रूप निहारति जानकी कंगन के नग की परछाही। याते सबे सुख भूलि गइ कर तेकि रही पल तारति नाही।। हास्य रस हास्यरस के विभावभेद से आत्मस्थ तथा परस्थ एवं हास्य के विकासविचार से स्मित, हसित, विहसित, उपहसित, अपहसित तथा अतिहसित भेद करके उनके भी उत्तम, मध्यम तथा अधम प्रकृति भेद से तीन भेद करते हुए उनके अंतर्गत पूर्वोक्त क्रमश: दो-दो भेदों को रखा गया है। हिंदी में केशवदास तथा एकाध अन्य लेखक ने केवल मंदहास, कलहास, अतिहास तथा परिहास नामक चार
ही भेद किए हैं। अंग्रेजी के आधार पर हास्य के अन्य अनेक नाम भी प्रचलित हो गए हैं। वीर रस के केवल युद्धवीर, धर्मवीर, दयावीर तथा दानवीर भेद स्वीकार किए जाते हैं। उत्साह को आधार मानकर पंडितराज (17वीं शती मध्य) आदि ने अन्य अनेक भेद भी किए हैं। अद्भुत रस के भरत दिव्य तथा आनंदज और वैष्णव आचार्य दृष्ट, श्रुत, संकीर्तित तथा अनुमित नामक भेद करते हैं। बीभत्स भरत तथा धनंजय के अनुसार शुद्ध, क्षोभन तथा उद्वेगी नाम से तीन प्रकार का होता है और भयानक कारणभेद से व्याजजन्य या भ्रमजनित, अपराधजन्य या काल्पनिक तथा
वित्रासितक या वास्तविक नाम से तीन प्रकार का और स्वनिष्ठ परनिष्ठ भेद से दो प्रकार का माना जाता है। शांत का कोई भेद नहीं है। केवल रुद्रभट्ट ने अवश्य वैराग्य, दोषनिग्रह, संतोष तथा तत्वसाक्षात्कार नाम से इसके चार भेद दिए हैं जो साधन मात्र के नाम है और इनकी संख्या बढ़ाई भी जा सकती है। शान्त रस शांत रस का उल्लेख यहाँ कुछ दृष्टियों से और आवश्यक है। इसके स्थायीभाव के संबंध में ऐकमत्य नहीं है। कोई शम को और कोई निर्वेद को स्थायी मानता है।
रुद्रट (9 ई.) ने "सम्यक् ज्ञान" को, आनंदवर्धन ने "तृष्णाक्षयसुख" को, तथा अन्यों ने "सर्वचित्तवृत्तिप्रशम", निर्विशेषचित्तवृत्ति, "घृति" या "उत्साह" को स्थायीभाव माना। अभिनवगुप्त ने "तत्वज्ञान" को स्थायी माना है। शांत रस का नाट्य में प्रयोग करने के संबंध में भी वैमत्य है। विरोधी पक्ष इसे विक्रियाहीन तथा प्रदर्शन में कठिन मानकर विरोध करता है तो समर्थक दल का कथन है कि चेष्टाओं का उपराम
प्रदर्शित करना शांत रस का उद्देश्य नहीं है, वह तो पर्यंतभूमि है। अतएव पात्र की स्वभावगत शांति एवं लौकिक दु:ख सुख के प्रति विराग के प्रदर्शन से ही काम चल सकता है। नट भी इन बातों को और इनकी प्राप्ति के लिए किए गए प्रयत्नों को दिखा सकता है और इस दशा में संचारियों के ग्रहण करने में भी बाधा नहीं होगी। सर्वेंद्रिय उपराम न होने पर संचारी आदि हो ही सकते हैं। इसी प्रकार यदि शांत शम अवस्थावाला है तो रौद्र, भयानक तथा वीभत्स आदि कुछ रस भी ऐसे हैं जिनके स्थायीभाव प्रबुद्ध अवस्था में प्रबलता दिखाकर शीघ्र ही
शांत होने लगते हैं। अतएव जैसे उनका प्रदर्शन प्रभावपूर्ण रूप में किया जाता है, वैसे ही इसका भी हो सकता है। जैसे मरण जैसी दशाओं का प्रदर्शन अन्य स्थानों पर निषिद्ध है वैसे ही उपराम की पराकाष्ठा के प्रदर्शन से यहाँ भी बचा जा सकता है। रसों का अन्तर्भाव आदि स्थायीभावों के किसी विशेष लक्षण अथवा रसों के किसी भाव की समानता के आधार पर प्राय: रसों का एक दूसरे में अंतर्भाव करने, किसी स्थायीभाव का तिरस्कार करके नवीन स्थायी मानने की प्रवृत्ति भी यदा-कदा दिखाई पड़ी है। यथा, शांत रस और
दयावीर तथा वीभत्स में से दयावीर का शांत में अंतर्भाव तथा बीभत्स स्थायी जुगुप्सा को शांत का स्थायी माना गया है। "नागानंद" नाटक को कोई शांत का और कोई दयावीर रस का नाटक मानता है। किंतु यदि शांत के तत्वज्ञानमूलक विराम और दयावीर के करुणाजनित उत्साह पर ध्यान दिया जाए तो दोनों में भिन्नता दिखाई देगी। इसी प्रकार जुगुप्सा में जो विकर्षण है वह शांत
में नहीं रहता। शांत राग-द्वेष दोनों से परे समावस्था और तत्वज्ञानसंमिलित रस है जिसमें जुगुप्सा संचारी मात्र बन सकती है। ठीक ऐसे जैसे करुण में भी सहानुभूति का संचार रहता है और दयावीर में भी, किंतु करुण में शोक की स्थिति है और दयावीर में सहानुभूतिप्रेरित आत्मशक्तिसंभूत आनंदरूप उत्साह की। अथवा, जैसे रौद्र और युद्धवीर दोनों का आलंबन शत्रु है, अत: दोनों में क्रोध की मात्रा रहती है, परंतु रौद्र में रहनेवाली प्रमोदप्रतिकूल तीक्ष्णता और अविवेक और युद्धवीर में उत्सह की उत्फुल्लता और विवेक रहता है। क्रोध
में शत्रुविनाश में प्रतिशोध की भावना रहती है और वीर में धैर्य और उदारता। अतएव इनका परस्पर अंतर्भाव संभव नहीं। इसी प्रकार "अंमर्ष" को वीर का स्थायी मानना भी उचित नहीं, क्योंकि अमर्ष निंदा, अपमान या आक्षेपादि के कारण चित्त के अभिनिवेश या स्वाभिमानावबोध के रूप में प्रकट होता है, किंतु वीररस के दयावीर, दानवीर, तथा धर्मवीर नामक भेदों में इस प्रकार की भावना नहीं रहती।
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छन्द ,चौपाई,कवित्त ,दोहा ,सवैया,बिम्ब -विधान
छन्द छंद शब्द 'चद्' धातु से बना है जिसका अर्थ है 'आह्लादित करना', 'खुश करना'। यह आह्लाद वर्ण या मात्रा की नियमित संख्या के विन्याय से उत्पन्न होता है। इस प्रकार, छंद की परिभाषा होगी 'वर्णों या मात्राओं के नियमित संख्या के विन्यास से यदि आह्लाद पैदा हो, तो उसे छंद कहते हैं'। छंद का सर्वप्रथम
उल्लेख 'ऋग्वेद' में मिलता है। जिस प्रकार गद्य का नियामक व्याकरण है, उसी प्रकार पद्य का छंद शास्त्र है। छंद के अंग छंद के अंग निम्नलिखित
हैं?
चरण/ पद/ पाद
वर्ण और मात्रा
संख्या और क्रम
गण
गति
यति/ विराम
तुक
1.चरण/ पद/ पाद
छंद के प्रायः 4 भाग होते हैं। इनमें से प्रत्येक को 'चरण' कहते हैं। दूसरे शब्दों में छंद के चतुर्थांश (चतुर्थ भाग) को चरण कहते हैं।
कुछ छंदों में चरण तो चार होते हैं लेकिन वे लिखे दो ही पंक्तियों में जाते हैं, जैसे- दोहा, सोरठ आदि। ऐसे छंद की प्रत्येक पंक्ति को 'दल' कहते हैं।
हिन्दी में कुछ छंद छः- छः पंक्तियों (दलों) में लिखे जाते हैं, ऐसे छंद दो छंद के योग से बनते हैं, जैसे- कुण्डलिया (दोहा + रोला), छप्पय (रोला + उल्लाला) आदि।
चरण 2 प्रकार के होते हैं- सम चरण और विषम चरण। प्रथम व तृतीय चरण को विषम चरण तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण को सम चरण कहते हैं।
2.वर्ण और
मात्रा वर्ण/ अक्षर
एक स्वर वाली ध्वनि को वर्ण कहते हैं, चाहे वह स्वर ह्रस्व हो या दीर्घ।
जिस ध्वनि में स्वर नहीं हो (जैसे हलन्त शब्द राजन् का 'न्', संयुक्ताक्षर का पहला अक्षर - कृष्ण का 'ष्') उसे वर्ण नहीं माना जाता।
वर्ण
को ही अक्षर कहते हैं।
वर्ण 2 प्रकार के होते हैं-
ह्रस्व स्वर वाले वर्ण (ह्रस्व वर्ण): अ, इ, उ, ऋ, क, कि, कु, कृ
दीर्घ स्वर वाले वर्ण (दीर्घ वर्ण): आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, का, की, कू, के, कै, को, कौ
मात्रा
किसी वर्ण या ध्वनि के उच्चारण-काल को मात्रा कहते हैं।
ह्रस्व वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे एक मात्रा तथा दीर्घ वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है उसे दो मात्रा माना जाता है।
इस प्रकार मात्रा दो
प्रकार के होते हैं-
ह्रस्व- अ, इ, उ, ऋ
दीर्घ- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ
वर्ण और मात्रा की गणना
वर्ण की गणना
ह्रस्व स्वर वाले वर्ण (ह्रस्व वर्ण)- अ, इ, उ, ऋ, क, कि, कु, कृ
दीर्घ स्वर वाले वर्ण (दीर्घ वर्ण)- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, का, की, कू, के, कै, को, कौ
मात्रा की गणना
ह्रस्व स्वर- एकमात्रिक- अ, इ, उ, ऋ
दीर्घ वर्ण- द्विमात्रिक- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ
वर्णों में मात्राओं की गिनती में स्थूल भेद यही है कि वर्ण 'स्वर अक्षर' को और मात्रा 'सिर्फ़ स्वर' को कहते हैं।
लघु व गुरु वर्ण
छंदशास्त्री ह्रस्व स्वर तथा ह्रस्व स्वर वाले व्यंजन वर्ण को लघु कहते हैं। लघु के लिए प्रयुक्त चिह्न- एक पाई रेखा।
इसी प्रकार, दीर्घ स्वर तथा दीर्घ
स्वर वाले व्यंजन वर्ण को गुरु कहते हैं। गुरु के लिए प्रयुक्त चिह्न- एक वर्तुल रेखा- ऽ
आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ का, की, कू, के, कै, को, कौ इं, विं, तः, धः (अनुस्वार व विसर्ग वाले वर्ण) (इंदु) (बिंदु) (अतः) (अधः) अग्र का अ, वक्र का व
(संयुक्ताक्षर का पूर्ववर्ती वर्ण) राजन् का ज (हलन् वर्ण के पहले का वर्ण) 3.संख्या और क्रम
वर्णों और मात्राओं की गणना को संख्या कहते हैं।
लघु-गुरु के स्थान निर्धारण को क्रम कहते हैं।
वर्णिक छंदों के सभी चरणों में संख्या (वर्णों की) और क्रम (लघु-गुरु का) दोनों समान होते हैं।
जबकि मात्रिक छंदों के सभी चरणों में संख्या (मात्राओं की) तो समान होती है लेकिन क्रम (लघु-गुरु का) समान नहीं होते हैं। 4.गण (केवल वर्णिक छंदों के मामले
में लागू)
गण का अर्थ है 'समूह'।
यह समूह तीन वर्णों का होता है। गण में 3 ही वर्ण होते हैं, न अधिक न कम।
अतः गण की परिभाषा होगी 'लघु-गुरु के नियत क्रम से 3 वर्णों के समूह को गण कहा जाता है'।
गणों की संख्या 8 है- यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण, सगण
गणों को याद रखने के लिए सूत्र-
यमाताराजभानसलगा इसमें पहले आठ वर्ण गणों के सूचक हैं और अन्तिम दो वर्ण लघु (ल) व गुरु (ग) के।
सूत्र से गण प्राप्त
करने का तरीका-
बोधक वर्ण से आरंभ कर आगे के दो वर्णों को ले लें। गण अपने-आप निकल आएगा। उदाहरण- यगण किसे कहते हैं यमाता | ऽ ऽ अतः यगण का रूप हुआ-आदि लघु (| ऽ ऽ) 5.गति
छंद के पढ़ने के प्रवाह या लय को गति कहते हैं।
गति का महत्त्व वर्णिक छंदों की अपेक्षा मात्रिक छंदों में अधिक है। बात यह है कि वर्णिक छंदों में तो लघु-गुरु का स्थान निश्चित रहता है किन्तु मात्रिक छंदों में लघु-गुरु का स्थान निश्चित नहीं रहता, पूरे चरण की मात्राओं का निर्देश
नहीं रहता है।
मात्राओं की संख्या ठीक रहने पर भी चरण की गति (प्रवाह) में बाधा पड़ सकती है।
जैसे-
'दिवस का अवसान था समीप' में गति नहीं है जबकि 'दिवस का अवसान समीप था' में गति है।
चौपाई, अरिल्ल व पद्धरि - इन तीनों छंदों के प्रत्येक चरण में 16 मात्राएँ होती हैं पर गति भेद से ये छंद परस्पर भिन्न हो जाते हैं।
अतएव, मात्रिक छंदों के निर्दोष प्रयोग के लिए गति का परिज्ञान अत्यन्त आवश्यक है।
गति का परिज्ञान भाषा की प्रकृति, नाद के परिज्ञान एवं
अभ्यास पर निर्भर करता है।
6.यति/ विरोम
छंद में नियमित वर्ण या मात्रा पर साँस लेने के लिए रूकना पड़ता है, इसी रूकने के स्थान को यति या विरोम कहते हैं।
छोटे छंदों में साधारणतः यति चरण के अन्त में होती है; पर बड़े छंदों में एक ही चरण में एक से अधिक यति या विराम होते हैं।
यति का निर्देश प्रायः छंद के लक्षण (परिभाषा) में ही कर दिया जाता है। जैसे मालिनी छंद में पहली यति 8 वर्णों के बाद तथा दूसरी यति 7 वर्णों के बाद पड़ती है।
7.तुक
छंद के चरणान्त की अक्षर-मैत्री (समान स्वर-व्यंजन की स्थापना) को तुक कहते हैं।
जिस छंद के अंत में तुक हो उसे तुकान्त छंद और जिसके अन्त में तुक न हो उसे अतुकान्त छंद कहते हैं। अतुकान्त छंद को अंग्रेज़ी में ब्लैंक वर्स कहते हैं।
वर्णिक छंद (या वृत) - जिस छंद के सभी चरणों में वर्णों की संख्या समान हो।
मात्रिक छंद (या जाति) - जिस छंद के सभी चरणों में मात्राओं की संख्या समान हो।
मुक्त छंद - जिस
छंद में वर्णिक या मात्रिक प्रतिबंध न हो।
वर्णिक छंद
वर्णिक छंद के सभी चरणों में वर्णों की संख्या समान रहती है और लघु-गुरु का क्रम समान रहता है।
जिस विषय छंद में वर्णित या मात्रिक प्रतिबंध न हो, न प्रत्येक चरण में वर्णों की संख्या और क्रम समान हो और मात्राओं की कोई निश्चित व्यवस्था हो तथा जिसमें नाद और ताल के
आधार पर पंक्तियों में लय लाकर उन्हें गतिशील करने का आग्रह हो, वह मुक्त छंद है।
उदाहरण : निराला की कविता 'जूही की कली' इत्यादि।
चौपाई चौपाई मात्रिक सम
छन्द का भेद है। प्राकृत तथा अपभ्रंश के 16 मात्रा के वर्णनात्मक छन्दों के आधार पर विकसित
हिन्दी का सर्वप्रिय और अपना छन्द है। 'प्राकृतपैंकलम्' का चउपइया 15 मात्राओं का भिन्न छन्द है। इसका विकास पादाकुलक के चौकलों के नियम के शिथिल होने से सम्भव जान पड़ता है। भानु ने चौपाई के 16 मात्रा के चरणों में न तो चौकलों का कोई क्रम माना है और न ही लघु-गुरु का। उन्होंने सम के पीछे सम और विषम के पीछे विषम कल के प्रयोग को अच्छा माना है तथा अन्त में जगण (।ऽ।) और तगण
(ऽऽ।) को वर्जित माना है।[1]
सम-सम का प्रयोग-
"गुरु-पद-रज-मृदु-मं-जुल-अं-जन"।
विषम-विषम, सम-सम का प्रयोग-
"नित्य-भजिय-तजि-मन-कुटि-ला-ई"।
विषम-विषम सम, विषम-विषम सम का प्रयोग-
"कहहु-राम-की-कथा-सुहा-ई।"
दो विषम सम के समान प्रयुक्त-
"बंदौं-राम-नाम-रघु-बरको।"[2] तुलसी ने इन नियमों का 'रामचरितमानस' में बहुत अच्छा निर्वाह किया है और उनके छन्द प्रवाह का सौन्दर्य भी यही है। चन्द, जायसी,
सुन्दर, सूर, नन्ददास तथा जोधराज आदि ने इन नियमों में शिथिलता दिखलाई है। कभी-कभी 15 मात्रा के चरणों का प्रयोग मिलता है और कभी लघुगुरु (।ऽ) से अन्त
किया गया है। यद्यपि 15 मात्रा का 'चौपई छन्द' अलग है, परन्तु उसके अन्त में ग ल (ऽ।) आवश्यक है। चरण के अन्त में ल ग (।ऽ) का प्रयोग इस छन्द में स्वतंत्रता से मिलता है। जायसी में ऐसे अनेक छन्द हैं तथा नन्ददास ने अपनी तीनों मंजरियों में ऐसे बहुत प्रयोग किये हैं- "चले-चले तुम जैयो तहाँ। बैठे हों साँवरे
जहाँ।"[3]। इनको चौपाई ही माना जायेगा, यद्यपि 15 मात्रा के चरण हैं। सुन्दर में 15 मात्रा के ल ग (।ऽ) तथा ग ग (ऽऽ) दोनों प्रकार के अन्त पाये जाते हैं, जो चौपई के ग ल (ऽ।) से भिन्न हैं- "ये चौपाई त्रयोदस कही। आतम साक्षी जानौ सही।" [4] वस्तुत: अनेक कवियों में
चौपाई तथा चौपई छन्द के प्रयोग में भ्रम की स्थिति पायी जाती है। विशेषता हिन्दी में यह छन्द चन्द्र के काव्य से ही
मिलता है। यह सामान्यत: वर्णनात्मक है, जिसमें किसी भी प्रकार की स्थिति आ जाती है। सभी रसों का निर्वाह इसमें हो जाता है। कथा-काव्यों में इस छन्द की लोकप्रियता का मुख्य कारण यही है। वीरकाव्य के कवियों में केशव, जटमल, गोरेलाल,
सूदन, गुलाब तथा जोधराज आदि ने चौपाई का प्रयोग प्रसंगानुकूल किया है, पर प्रेमाख्यानक कवियों में कुतुबन, जायसी,
उसमान, नूरमुहम्मद आदि सभी ने इस छन्द को दोहा के साथ अपनाया है। सूर ने 'सूरसागर' के कथात्मक अंशों को जोड़ने के लिए इस छन्द का आश्रय लिया है।
नन्ददास ने मंजरियों में प्रयोग किया है। कथा-काव्य के लिए इस छन्द की उपयुक्तता के कारण कृष्ण-कथा भी इस शैली में कई कवियों ने लिखी है। आधुनिक काल में द्वारकाप्रसाद मिश्र ने 'कृष्णायन' में इसका प्रयोग किया है।
लाल कवि का 'छत्र-प्रकाश' इसी शैली में है। सन्त कवियों में सुन्दरदास ने भी ग्रन्थों की रचना दोहा-चौपाई-शैली में की
है।[5] दोहा दोहा मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। 'दोहा' या 'दूहा' की उत्पत्ति कतिपय लेखकों ने
संस्कृत के दोधक से मानी है। 'प्राकृतपैगलम्' के टीकाकारों ने इसका मूल 'द्विपदा' शब्द को बताया है। यह उत्तरकालीन अपभ्रंश का प्रमुख
छन्द है। उत्पत्ति दोहा वह पहला छन्द है, जिसमें तुक मिलाने का प्रयत्न हुआ। प्राचीन अपभ्रंश में इस छन्द का प्रयोग कम मिलता है, तथापि सिद्ध कवि सरहपा[1] ने इसका सबसे पहले प्रयोग किया। एक मतानुसार 'विक्रमोर्वशीय' में इसका सबसे प्राचीन रूप उपलब्ध है। फिर भी पाँचवीं या छठी शताब्दी के पश्चात दोहा काफ़ी प्रयोग में आता रहा। हाल की सतसई से भी इसका सूत्र जोड़ा जाता है। यह तर्क प्रबल रूप से प्रस्तुत किया जाता है कि कदाचित यह लोक-प्रचलित
छन्द रहा होगा। दोहा दो पंक्तियों का छन्द है। 'बड़ो दूहो', 'तूँवेरी दूहो' तथा 'अनमेल दूहो', तीन प्रकार राजस्थानी में और मिलते हैं। प्राचीन दोहा के पहले और तीसरे चरण में 13-13 मात्राएँ तथा दूसरे और चौथे में 11-11
मात्राएँ होती हैं। 'बड़ो दूहो' में 1 और 4 चरण 11-11 मात्राओं के तथा 2 और 3 चरण 13-13 मात्राओं के होते हैं। 'तूँवेरी दूहो' में मात्राओं का यह क्रम उलटा है। पहले और चौथे चरण की तुक मिलने से 'मध्यमेल दूहो' बनते हैं। दोहा लोकसाहित्य का सबसे सरलतम छन्द है, जिसे साहित्य में यश प्राप्त हो सका। समानार्थक दोहा और साखी समानार्थक हैं। सम्भवत:
बौद्ध सिद्धों को इस शब्द ज्ञान था। साखि करब जालन्धर पाएँ पंक्ति में जालन्धर पाद को साक्षी करने का उल्लेख आया है। गोरखपन्थियों से प्रभावित होकर यह शब्द कबीरपन्थियों की रचनाओं में आया और बाद के साहित्य में दूहे का अर्थ भी 'साखी' ग्रहण किया
गया। रचना 'प्राकृतपैगलम्'[2] के अनुसार इस छन्द के प्रथम तथा तृतीय पाद में 13-13 मात्राएँ और दूसरे तथा चौथे में 11-11 मात्राएँ होती हैं। यति पदान्त में होती है; विषम चरणों के आदि में जगण नहीं होना चाहिए। अन्त में लघु होता है। तुक प्राय: सम पादों की मिलती है। मात्रिक गणों का क्रम इस प्रकार रहता है- 6+4+3, 6+4+1. साहित्य में
स्थान प्राकृत साहित्य में जो स्थान गाथा का है, प्रयोग की दृष्टि से अपभ्रंश में वही स्थान दोहा छन्द का है। अपभ्रंश में मुक्तक पद्यों के रूप में अनेक दोहे मिलते हैं। प्राकृत में जिस
प्रकार 'गाथासप्तसती' तथा 'बज्जालग्ग' जैसे गाथाबद्ध संग्रह मिलते हैं, उसी प्रकार अपभ्रंश में और हिन्दी में दोहे के संग्रह मिलते हैं। उपदेश, मुक्तक पद्यों के रूप में तो दोहे का प्रयोग मुनि योगेन्द्र, रामसिंह, देवसेन तथा बौद्ध सिद्धों ने किया है।
हेमचन्द्र तथा अन्य 'अलंकार शास्त्र', व्याकरण ग्रन्थ लेखकों ने अनेक दोहे अपनी कृतियों में उद्धृत किये हैं। स्वयंभू के
'पउमचरिउ' में भी दोहे का प्रयोग मिलता है। यह छन्द हिन्दी को अपभ्रंश से मिला है। सभी अपभ्रंश छन्द शास्त्र विषयक कृतियों में दोहे तथा उसके भेदों का विवेचन
मिलता है। भेद- 'प्राकृतपैगलम्' आदि छन्द ग्रन्थों में दोहे के भ्रमर, भ्रामरादि 23 भेदों की चर्चा की गई है। वर्णों के लघु आदि भेद के अनुसार भी दोहे की जाति की चर्चा की गयी है, जैसे-
यदि दोहे में 12 लघु वर्ण हों तो वह विप्र होता है।
हेमचन्द्र तथा कुछ अन्य छन्दशास्त्री दोहे के प्रति दल में मात्राओं की संख्या 14+12 मानते हैं। 'दोहा' की व्युत्पत्ति 'द्विपथा'
से मानते हैं। *जर्मन विद्वान याकोबी और अल्सर्डार्फ़ ने अपभ्रंश दोहों का बड़े विस्तार से विवेचन किया है।
दोहा छंद का प्रयोग
हिन्दी में यह प्राय: सभी प्रमुख कवियों के द्वारा प्रयुक्त हुआ है। पद शैली के कवि सूर,
मीरां आदि ने अपने पदों में इसका प्रयोग किया है। सतसई साहित्य में 'दोहा छन्द' ही प्रयुक्त हुआ है। दोहा 'मुक्तक काव्य' का प्रधान छन्द है। इसमें संक्षिप्त और तीखी भावव्यंजना, प्रभावशाली लघु चित्रों को प्रस्तुत करने की अपूर्व क्षमता है।
सतसई के अतिरिक्त दोहे का दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रयोग भक्तियुग की प्रबन्ध काव्यशैली में हुआ है, जिसमें
तुलसीदास का 'रामचरितमानस' और जायसी का
'पद्मावत' प्रमुख है। चौपाई के प्रबन्धात्मक प्रवाह में दोहा गम्भीर गति प्रदान करता है और कथाक्रम में समुचित सन्तुलन भी लाता है।
दोहे का तीसरा प्रयोग रीतिग्रन्थ में लक्षण-निरूपण और उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए किया गया है। अपने संक्षेप के कारण ही दोहा छन्द
लक्षण प्रस्तुत करने के लिए प्रयुक्त हुआ है।
कबीर की साखियाँ दोहे के ही रूप हैं, यद्यपि छन्द शास्त्र के ज्ञान के अभाव में इनमें दोहों का विकृत और अव्यवस्थित रूप है। इनमें भी दोहे की सामान्य विशेषताएँ विद्यमान हैं। जायसी का 'भारतीय छन्द शास्त्र' से सीमित परिचय है और ऐसा जान पड़ता है,
इन्होंने अपने दोहे को सन्तों की साखियों के माध्यम से ग्रहण किया है, अत: उनके इस छन्द के प्रयोग में भी अस्थिरता है। जायसी के दोहों में प्राय: विषम पद 12 ही मात्रा का है और सम 11 मात्रा का रूपवन्त मनि माथे, चन्द्र घटि वह बाढ़ि। मेदनि दरस लुभानी, असतुति बिनठै ठाढ़ि।[3] जायसी के कुछ दोहों में तो विषम पदों
में 16 मात्राएँ तक हैं। तुलसीदास ने एक विषम पद में 12 मात्राओं का प्रयोग नवीनता लाने के रूप में किया है - भोजन करत चपल चित, इस उत अवसर पाइ।[4]
कवित्त
एक प्रकार का छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में 16, 15 के विराम से 31 वर्ण होते हैं। प्रत्येक चरण के अन्त में 'गुरू' वर्ण होना चाहिये। छन्द की गति को ठीक रखने के लिये 8, 8, 8 और
7 वर्णों पर 'यति' रहना आवश्यक है।[1] जैसे- उदाहरण- आते जो यहाँ हैं बज्र भूमि की छटा को देख, नेक न अघाते होते मोद-मद माते हैं। जिस ओर जाते उस ओर मन भाये दृश्य, लोचन लुभाते और चित्त को चुराते हैं।। पल भर अपने को वे भूल जाते सदा, सुखद अतीत–सुधा–सिंधु में समाते हैं।। जान पड़ता हैं उन्हें आज भी कन्हैया यहाँ, मैंया मैंया–टेरते हैं गैंया को चराते
हैं।। सोरठा मात्रिक छंद है और यह 'दोहा' का ठीक उल्टा होता है। इसके विषम चरणों (प्रथम और तृतीय) में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) में 13-13 मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है। उदाहरण जो सुमिरत सिधि होय, गननायक
करिबर बदन।
करहु अनुग्रह सोय, बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥
रहिमन हमें न सुहाय, अमिय पियावत मान विनु। जो विष देय पिलाय, मान सहित मरिबो भलो।।
बिम्ब विधान बिम्ब विधान हिन्दी साहित्य में
कविता की एक शैली है। स्वान्त्र्योत्तर हिन्दी कविता में जैसे विषय बदले, वस्तु बदली और
कवि की जीवन-दृष्टि बदली वैसे ही शिल्प के क्षेत्र में रूप-विधान के नये आयाम भी विकसित हुए। कविता की समीक्षा के मानदण्डों में एक बारगी युगान्तर आया और नये ढंग पर कविता की इमारत खड़ी की गई। कवि की अनुभूतियाँ नये अप्रस्तुतों और प्रतीकों को खोजते-खोजते बिम्ब के नये धरातलों को उद्घाटित करने में समर्थ हुई। कविता की जीवन्तता में प्राणशक्ति के रूप में बिम्ब ने अपना स्थान और महत्व पाया। बिम्बवादी
आन्दोलन प्रतीक और अप्रस्तुत तो प्रारम्भ से ही कविता की समीक्षा के प्रतिमानों के रूप में स्वीकृत थे, अब बिम्ब भी कविता के मूल्यांकन की कसौटी के रूप में स्वीकारा जाने लगा। यों तो बिम्बों के निर्माण और चयन की प्रक्रिया संस्कृत साहित्य में ही प्रचलित थी, किन्तु तत्कालीन कवियों और समीक्षकों
ने, बल्कि आजादी से पहले तक हिन्दी के समीक्षकों ने भी बिम्ब को काव्य का प्राणतत्व नहीं माना था। आजादी के बाद कई नये संदर्भ, कई नये शैल्पिक प्रतिमान सामने आये। इसका कारण पाश्चात्य साहित्य का प्रभाव तो था ही, विदेशों में चल रहा बिम्बवादी आन्दोलन भी था। छायावादियों ने भी अप्रत्यक्षतः शिल्प के अंग के रूप में ‘चित्रत्व’ को स्वीकार कर लिया था।
सुमित्रानन्दन पन्त ने जब काव्य-भाषा के विवेचन के दौरान चित्रभाषा के प्रयोग की बात कही थी तो प्रकारानतर से बिम्ब को ही काव्य-शिल्प के अंग और आलोचना के प्रतिमान के रूप में स्वीकार किया था।
आचार्य शुक्ल भी बिम्ब को स्वीकृति दे चुके थे। उन्होंने ‘चिन्तामणि’ के एक निबन्ध में लिखा था, “काव्य का काम है कल्पना में बिम्ब या मूर्तभावना उपस्थित करना”: स्पष्ट शब्दों में काव्य
कल्पना-चित्र नहीं है, वरन् अनुभूतियों का मूर्तिकरण है। बिम्ब काव्य-भाषा की तीसरी आँख है, जो मात्र गोचर ही नहीं, किसी अगोचर तत्चेतसा स्मरति नूनमबोधपूर्व (कालिदास-पहले से जो अवबोधन हो उसकी स्मृति)-रूप से, एक ओर कवियित्री और दूसरी ओर भावयित्री भाषा के लिए उपलब्ध करती है। बिम्ब शब्द का अर्थ छाया, प्रतिच्छाया, अनुकृति या शब्दों के द्वारा भावांकन है। बिम्ब अंग्रेज़ी के इमेज शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। सी.डी. लेविस के अनुसार- “The poetic image is more or less a sensuous
picture in words, to some degree metaphorical, with an undernote and some human emotion, in its context but also charged with releasing into the reader a special poetic emotion or passion.” अर्थात् काव्यात्मक बिम्ब एक संवेदनात्मक चित्र है जो एक सीमा तक अलंकृत-रूपतामक भावात्मक और आवेगात्मक होता है। लीविस ने बिम्ब को भावगर्भित चित्र ही माना है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, “बिम्ब किसी अमूर्त विचार अथवा भावना की पुनर्निर्मिति। एज़रा पाउण्ड के अनुसार, “बिम्ब वह है जो किसी बौद्धिक तथा
भावात्मक संश्लेष को समय के किसी एक बिन्दु पर संभव करता है।” हिन्दी की नयी कविता-धारा के कवि पश्चिम के काव्य और काव्यान्दोलनों से परिचित थे। ‘तार सप्तक’ में प्रभाकर माचवे ने अपनी कविता को ‘इम्प्रेशनिस्ट’ अथवा बिम्बवादी घोषित किया। फिर भी तीसरी सप्तक के कवि
केदारनाथ सिंह से पहले बिम्ब-विधान को किसी ने अपने वक्तव्य में प्रमुखता नहीं दी थी। केदारनाथ सिंह ने घोषित किया कि “कविता में मैं सबसे अधिक ध्यान देता हूँ बिम्ब-विधान पर।” एक आधुनिक कवि की श्रेष्ठता की परीक्षा की कसौटी जहाँ
अज्ञेय ‘शब्दों का आविष्कार’ को मानते हैं, वहीं केदारनाथ सिंह ‘बिम्बों की आविष्कृति’ को। अपनी
पुस्तक ‘आधुनिक हिन्दी में बिम्ब विधान का विकास’ में उन्होंने बिम्ब के प्रतिमान पर छायावाद से लेकर प्रयोगवाद तक के साहित्य की परीक्षा की है। शमशेर की कृतियों में बिम्ब अधिक सजीव और ऐन्द्रिय हैं। उनके समकालीन रचनाकार बच्चन, अज्ञेय, अंचल, दिनकर, नरेन्द्र शर्मा की कृतियाँ अपनी बिम्बात्मक गुणात्मकता के कारण ही मूल्यवान
हैं।[1]
मुक्त छंद मुक्त छंद का प्रयोग हिन्दी काव्यक्षेत्र में एक विद्रोह का प्रतीक रहा है। इसे 'स्वच्छंद छंद' भी कहा गया है। अतुकांत कविता उतनी विद्रोहात्मक
सिद्ध नहीं हुई, जितना मुक्त छंद, क्योंकि अतुकांत के पक्ष में संस्कृत का विपुल काव्य साहित्य उद्धृत किया जा सकता था, परंतु 'मुक्त छंद' छंद:शास्त्र के अनेक परम्परागत सर्वस्वीकृत नियमों का उल्लंघन करता हुआ दिखाई दिया। चरणों की अनियमित, असमान स्वच्छंद गति और भावानुकूल यतिविधान, यही मुक्त छंद की मुख्य विशेषताएँ हैं, जिन्हें प्राचीन शास्त्रीय दृष्टि से विहित नहीं माना गया और
मुक्त छंद का प्रयोग करने वाले कवियों पर नाना प्रकार के व्यंग्य विद्रूप होते रहे।[1] हिन्दी काव्य में स्थापना मुक्त छंद की स्वच्छंद प्रवृत्ति का परिहास करते हुए इसे रबड़ छंद, केंचुआ, कंगारू छंद इत्यादि अनेक नाम दिये गये, फिर भी
छंद-स्वातंत्र्यभावना के युगानुरूप होने के कारण इसकी सत्ता उन्मूलित नहीं की जा सकी। अंग्रेज़ी[2] और
बांग्ला साहित्य में विकसित उन्मुक्त छंद-प्रणाली ने हिन्दी मुक्त छंद की उद्भावना और स्थिति में पर्याप्त प्रेरणा एवं सहयोग दिया।
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' और
सुमित्रानन्दन पंत को मुक्त छंद को हिन्दी काव्य में संस्थापित करने का श्रेय है। जयशंकर प्रसाद ने भी कुछ
कविताएँ मुक्त छंद में रचीं, जैसे- 'पेशोला की प्रतिध्वनि', परंतु व्यापक रूप से वे मुक्त छंद को स्वीकार न कर सके। निराला ने अपने
'परिमल' की भूमिका में इसका परिचय निम्नलिखित रूप में दिया है- "मुक्त छंद तो वह है, जो
छंद की भूमि में रहकर भी मुक्त है। इस पुस्तक के तीसरे खण्ड में जितनी कविताएँ हैं, सब इसी प्रकार की हैं। इनमें कोई नियम नहीं। केवल प्रवाह कवित्त छंद का सा जान पड़ता है। कहीं-कहीं आठ अक्षर आप-ही-आप आ जाते हैं। मुक्त छंद का समर्थक उसका प्रवाह ही है। वही उसे छंद सिद्ध करता है और उसका नियमराहित्य उसकी
'मुक्ति"।[1] पंत तथा निराला का मतभेद सुमित्रानंदन पंत की सुप्रसिद्ध पंक्तियाँ स्वयं छंदोबद्ध होते हुए भी मुक्त छंद का
उन्मुक्त उद्घोष करती हैं- "खुल गये छंद के बन्ध, प्रासके रजत पाश। अब गीत मुक्त औ, युगवाणी बहती अयास"।[3] पंत ने मुक्त छंद का आधार मात्रिक संगीत को भी माना, परंतु
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का आग्रह रहा कि मुक्त छंद केवल वर्णिक अथवा अक्षर-छंद पर ही आधारित होना चाहिये, क्योंकि उसकी प्रकृति स्त्री-प्रकृति न होकर पुरुष-प्रकृति है। दोनों में इस सम्बन्ध में पर्याप्त वाद-विवाद
भी चला, जिसका परिचय निराला की 'पंत और पल्लव' नामक रचना से मिलता है। कुछ अंश द्रष्टव्य है- "पंत जी की कविताओं में स्वच्छंद छंद की एक लड़ी भी नहीं, परंतु वे कहते हैं, 'पल्लव' में मेरी अधिकांश रचनाएँ इसी
छंद में हैं, जिनमें 'उच्छास', 'आँसू' तथा 'परिवर्तन' विशेष बड़ी हैं। यदि गीति काव्य और स्वच्छंद छंद का भेद, दोनों की विशेषताएँ पंत जी को मालूम होतीं तो वे ऐसा न लिखते।... पंत जी ने जो लिखा है कि स्वच्छंद ह्रस्व-दीर्घ मात्रिक संगीत पर चल सकता है, यह एक बहुत बड़ा भ्रम है। स्वच्छंद छंद में 'आर्ट ऑफ़ म्यूजिक' नहीं मिल सकता, वहाँ है 'आर्ट ऑफ़ रीडिंग', वह स्वर प्रधान नहीं, व्यंजन प्रधान है। वह कविता की स्त्री-सुकुमारता नहीं, कवित्व का पुरुष-गर्व है'[4] सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की उपर्युक्त स्थापनाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि वे
हिन्दी में मुक्त छंद के सबसे अधिक ओजस्वी प्रवक्ता रहे हैं और इस सम्बन्ध में उनकी धारणाएँ स्वतंत्र महत्त्व रखती हैं। निराला के व्यक्तित्व में मुक्त छंद ने अपनी सार्थकता उपलब्ध की, इसमें सन्देह नहीं। उनकी 'जागरण' शीर्षक कविता में मुक्त छंद की व्याख्या मुक्त छंद में ही की गयी है- "अलंकार लेश-रहित, श्लेषहीन। शून्य विशेषणों से- "नग्न नीलिमा-सी व्यक्त। भाषा सुरक्षित वह वेदों में आज भी।
मुक्त छंद, सहज प्रकाश वह मन का। निज भावों का अकृत्रिम चित्र"।[5] महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अतुकान्त
कविता का तो पक्ष लिया, परंतु मुक्त छंद का समर्थन वे न कर सके और 'आजकल की कविता' नामक एक निबन्ध में उन्होंने मुक्त छंद के प्रयोक्ता कवियों को अहंवादी घोषित किया। उनका विरोध भी मुक्त छंद की प्रगति को कुण्ठित न कर सका। छायावादोत्तर काल में हिन्दी कविता की एक प्रमुख धारा ने मुक्त छंद को अपनाया और अब अधिकांश प्रयोग मुक्त छंद में ही हो रहे हैं, जिनसे उसके स्वरूप वैविध्य और सामर्थ्य में विकास परिलक्षित होने लगा है। पश्चिमी बीज का पूर्वी अंकुर मुक्त छंद के लिए कहा गया है कि "यह पश्चिमी बीज का पूर्वी अंकुर
है"।[6] इस कथन में बहुत-कुछ सत्य है, क्योंकि पश्चिमी मुक्त छंद की कविताओं ने आधुनिक भारतीय कविता के रूप विधान को अवश्य प्रभावित किया है। अमेरिकी कवि वाल्ट ह्विटमैन (1819-1892) ने अपने
कविता संग्रह 'घास की पत्तियाँ' में, जिसे वह जीवनभर परिवर्धित करता रहा, मुक्त छंद का आग्रहपूर्वक व्यवहार किया है। उस काल में अंग्रेज़ी के प्रचलित छंद विधान के विरुद्ध उसका मुक्त छंद एक क्रांतिकारी तत्त्व के रूप में सामने आया। मुक्त छंद की
पंक्तियाँ घास की पत्तियों की तरह असमान होते हुए भी सहज सौन्दर्य से युक्त होती हैं, कदाचित् इसी सादृश्य से ह्विटमैन ने अपने संग्रह का उक्त नामकरण किया होगा, ऐसी कल्पना की जाती है। 'द म्यूजिक ऑफ़ पोइट्री' शीर्षक निबन्ध में टी. एस. ईलियट ने लिखा है कि "मुक्त छंद के नाम से बहुत-सा अपरिपक्व गद्य भी लिखा गया है, जो अनपेक्षित है। मुक्त छंद का स्वागत उस काव्य रूप को पुनरुज्जीवित करने या
नये रूप को विकसित करने की दृष्टि से ही आविर्भूत हुआ। ब्राह्या एकता के विरुद्ध कविता की आंतरिक एकता पर मुक्त छंद बल देता है, जो प्रत्येक काव्य-रचना के लिए सत्य है। कविता अपने 'रूप' से पूर्व ही जन्म ले चुकती हैं, इस अर्थ में कि 'रूप' कुछ कहने से ही उत्पन्न होता
है"।[1]
सवैया वर्णिक वृत्तों में 22 से 26 अक्षर के चरण वाले जाति छन्दों को सामूहिक रूप से
हिन्दी में सवैया कहने की परम्परा है। इस प्रकार सामान्य जाति-वृत्तों से बड़े और वर्णिक दण्डकों से छोटे छन्द को सवैया समझा जा सकता है। कवित्त -
घनाक्षरी के समान ही हिन्दी रीतिकाल में विभिन्न प्रकार के सवैया प्रचलित रहे हैं। संस्कृत में ये समस्त भेद वृत्तात्मक हैं। परन्तु कुछ विद्वान हिन्दी के सवैया को मुक्तक वर्णक के रूप में समझते हैं।
जानकीनाथ सिंह
ने अपने खोज-निबन्ध 'द कण्ट्रीब्यूशन ऑफ़ हिन्दी पोयट्स टु प्राज़ोडी' के चौथे प्रकरण में इस विषय पर विस्तार से विचार किया है और उनका मत है कि कवियों ने सवैया को वर्णिक सम-वृत्त रूप में लिया है। उसमें लय के साथ गुरु मात्रा का जो लघु उच्चारण किया जाता है, वह हिन्दी की सामान्य प्रवृत्ति है। इसके ह्रस्व ऍ और के उच्चारण के लिए लिपि चिह्न का अभाव भी है।[1] परन्तु हिन्दी में मात्रिक
छन्दों के व्यापक प्रयोग के बीच प्रयुक्त इस वर्णिक छन्द पर उनका प्रभाव अवश्य पड़ा है। जिस प्रकार कवित्त एक विशेष लय पर चलता है, उसी प्रकार सवैया भी लयमूलक ही है।
रीति काल में रीतिकाल की मुक्तक शैली में कवित्त और सवैया का महत्त्वपूर्ण योग है। वैसे
भक्तिकाल में ही इन दोनों छन्दों की प्रतिष्ठा हो चुकी थी और तुलसी जैसे प्रमुख कवि ने अपनी
'कवितावली' की रचना इन्हीं दो छन्दों में प्रधानत: की है। भगणात्मक, जगणात्मक तथा सगणात्मक सवैये की लय क्षिप्र गति से चलती है और यगण, तगण तथा रगणात्मक सवैये की लय मन्द गति होती है। इनकी लय के साथ वस्तु स्थिति तथा भावस्थिति के चित्र बहुत सफलतापूर्वक अंकित होते हैं। यह छन्द मुक्तक प्रकृति के बहुत अनुकूल है। यह छन्द शृंगार रस तथा भक्ति भावना की अभिव्यक्ति के लिए बहुत
उत्कृष्ट रूप में प्रयुक्त हुआ है। रीतिकालीन कवियों ने शृंगार रस के विभिन्न अंगों, विभाव, अनुभाव, आलम्बन, उद्दीपन, संचारी, नायक-नायिका भेद आदि के लिए इनका चित्रात्मक तथा भावात्मक प्रयोग किया है। रसखान, घनानन्द,
आलम जैसे प्रेमी-भक्त कवियों ने भक्ति-भावना के उद्वेग तथा आवेग की सफल अभिव्यक्ति सवैया में की है। भूषण ने वीर रस के लिए इस छन्द का प्रयोग किया है। पर वीर रस इसकी प्रकृति के बहुत अनुकूल नहीं है। आधुनिक
कवियों में हरिश्चन्द्र, लक्ष्मण सिंह, नाथूराम शंकर आदि ने इनका सुन्दर प्रयोग किया है। जगदीश गुप्त ने इस छन्द में आधुनिक लक्षणा शक्ति का समावेश किया है। उपजाति सवैया- इसका प्रचलन रहा है। सम्भवत: उपजाति सवैया तुलसी की प्रतिभा का परिणाम है। सर्वप्रथम तुलसी ने
'कवितावली' में इसका प्रयोग किया है। उपजाति का अर्थ है जिसमें दो भिन्न सवैया एक साथ प्रयुक्त हुए हों। केशवदास ने भी इस दिशा में प्रयोग किये हैं। मत्तगयन्द-सुन्दरी- ये दोनों सवैया कई प्रकार के एक साथ प्रयुक्त हुए हैं।
तुलसी ने इसका सबसे अधिक प्रयोग किया है। केशव तथा रसखान ने उनका अनुसरण किया है।
प्रथम पद मत्तगयन्द का (7 भ+ग ग) - "या लटुकी अरु कामरिया पर राज
तिहूँ पुरको तजि डारौ"।
तीसरा पद सुन्दरी (8 स+ग) - "रसखानि कबों इन आँखिनते, ब्रजके बन बाग़ तड़ाग निहारौ"।[2]
मदिरा-दुर्मिल- तुलसी ने एक पद मदिरा का रखकर शेष दुर्मिल के पद रखे हैं।
केशव ने भी इसका अनुसरण किया है।
पहला मदिरा का पद (7 भ+ग) - "ठाढ़े हैं नौ द्रम डार गहे, धनु काँधे धरे कर सायक लै"।
दूसरा दुर्मिल का पद (8 स) - "बिकटी भृकुटी बड़री अँखियाँ, अनमोल कपोलन की छवि है"।[3]
इनके अतिरिक्त मत्तगयन्द-वाम और वाम-सुन्दरी के
विभिन्न उपजाति तुलसी की 'कवितावली' में तथा केशव की
'रसिकप्रिया' में मिलते हैं। वस्तुत: इस प्रकार के प्रयोग कवियों ने भाव-चित्रणों में अधिक सौन्दर्य तथा चमत्कार उत्पन्न करने की दृष्टि से किया है।[4]
प्रकार सवैया को निम्न प्रकार से वर्गीकृत
किया जाता है-
मदिरा सवैया
मत्तगयन्द सवैया
सुमुखि सवैया
दुर्मिल सवैया
किरीट सवैया
गंगोदक सवैया
मुक्तहरा सवैया
वाम सवैया
अरसात सवैया
सुन्दरी सवैया
अरविन्द सवैया
मानिनी सवैया
महाभुजंगप्रयात सवैया
सुखी सवैया
Tablet Ready
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