मन बुद्धि एवं अहंकार क्या है? - man buddhi evan ahankaar kya hai?

प्रश्न - *मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार और इंद्रियों को सरल शब्दों में समझा दीजिये*

उत्तर - आत्मीय बहन,
*इंद्रिय* के द्वारा हमें बाहरी विषयों - रूप, रस, गंध, स्पर्श एवं शब्द - का तथा आभ्यंतर -आंतरिक विषयों - सु:ख दु:ख आदि-का ज्ञान प्राप्त होता है। इद्रियों के अभाव में हम विषयों का ज्ञान किसी प्रकार प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए तर्कभाषा के अनुसार *इंद्रिय वह प्रमेय है जो शरीर से संयुक्त, अतींद्रिय (इंद्रियों से ग्रहीत न होनेवाला) तथा ज्ञान का करण हो (शरीरसंयुक्तं ज्ञानं करणमतींद्रियम्)*।
न्याय के अनुसार इंद्रियाँ दो प्रकार की होती हैं ।
(1) *अंतरिंद्रिय(अंतःकरण)* -   मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त-इनकी संज्ञा अंत:करण है।

अंत:करण की चारों इंद्रियों की कल्पना भर हम कर सकते हैं, उन्हें देख नहीं सकते, लेकिन बहि:करण की इंद्रियों को हम देख सकते हैं।अंत:करण की इंद्रियों में मन सोचता-विचारता है और बुद्धि उसका निर्णय करती है। कहते हैं, 'जैसा मन में आता है, करता है। मन संशयात्मक ही रहता है, पर बुद्धि उस संशय को दूर कर देती है। चित्त अनुभव करता व समझता है और भावनात्मक रूप से जिससे जुड़ जाता है उसे कभी नहीं भूलता। अहंकार को लोग साधारण रूप से अभिमान समझते हैं, पर शास्त्र उसको स्वार्थपरक इंद्रिय कहता है। अहंकार अर्थात स्वयं को किसी पहचान से जोड़ लेना।

2 - *बहि:करण की इंद्रियों के दो भाग हैं- ज्ञानेंद्रिय व कर्मेंद्रिय*।
 नेत्र, कान, जीभ, नाक और त्वचा ज्ञानेन्द्रिय हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि आंख से रंग और रूप, कानों से शब्द, नाक से सुगंध-दुर्गंध, जीभ से स्वाद-रस और त्वचा से गर्म व ठंडे का ज्ञान होता है। वाणी, हाथ, पैर, जननेंद्रिय और गुदा-यह पांच कर्मेन्द्रियां हैं। इनके गुण अशिक्षित व्यक्ति भी समझता है, इसलिए यहां पर इसकी चर्चा ठीक नहीं।

*जो इन इंद्रियों को अपने वश में रखता है, वही जितेंद्रिय कहलाता है।* जितेंद्रिय होना साधना व अभ्यास से संभव होता है। हमें इंद्रिय-निग्रही होना चाहिए। जो मनुष्य इंद्रिय-निग्रह कर लेता है वह कभी पराजित नहीं हो सकता, क्योंकि वह मानव जीवन को दुर्बल करने वाली इंद्रियों के फेर में नहीं पड़ सकता। मनुष्य के लिए इंद्रिय-निग्रह ही मुख्य धर्म है।इंद्रियां बड़ी प्रबल होती हैं और वे मनुष्य को अंधा कर देती हैं। इसीलिए मनुस्मृति में कहा गया है कि मनुष्य को युवा मां, बहिन, बेटी और लड़की से एकांत में बातचीत नहीं करनी चाहिए। मानव हृदय बड़ा दुर्बल होता है। यह बृहस्पति, विश्वमित्र व पराशर जैसे ऋषि-मुनियों के आख्यानों से स्पष्ट है। सदाचार की जड़ से मनुष्य सदाचारी रह सकता है। सच्चरित्रता और नैतिकता को ही मानव धर्म कहा गया है। जो लोग मानते हैं कि परमात्मा सभी में व्याप्त है, सभी एक हैं, उन्हें अनुभव करना चाहिए कि हम यदि अन्य लोगों का कोई उपकार करते तो प्रकारांतर से वह अपना ही उपकार है, क्योंकि जो वे हैं, वही हम हैं। इस प्रकार जब सब परमात्मा के अंश व रूप हैं, तो हम यदि सबका हितचिंतन व सबकी सहायता करते हैं, तो यह परमात्मा का ही पूजन और उसी की आराधना है।

बुद्धि एक धारदार चाकू की तरह है, इससे फ़ल व सब्जी काटना है या किसी की गर्दन काटकर लूटना है, यह मनुष्य की प्रकृति तय करती है। यह मनुष्य की प्रकृति उसके पूर्वजन्म के संचित सँस्कार व वर्तमान जन्म के प्राप्त संस्कारों से बनता है।

जब बुद्धि सही दिशा में सृजन के लिए प्रयुक्त होती है, तब इसे सद्बुद्धि कहते हैं। जब यह विध्वंस व गलत कार्य के लिए प्रयोग होती है तब इसे दुर्बुद्धि कहते हैं।

निरन्तर स्वाध्याय व सत्संग से बुद्धि के अगले चरण समझ का जन्म होता है, समझ का अगला चरण परिवक्वता से विवेक का जन्म होता है। विवेक से मनुष्य को भले(सत) और बुरे(असत) ज्ञान होता है। इससे विवेकदृष्टि विकसित होती है। बुद्धिकुशलता चरम पर पहुंचती है।

बुद्धि जब निरन्तर उपासना साधना से परिष्कृत होती है और सद्भावना का इसमें समावेश होता है तब इसे ऋतम्भरा प्रज्ञा कहते है, इससे अंतर्दृष्टि विकसित होती है। जिस हंस बुद्धि भी कहते हैं जो सत व असत में अंतर करने में सक्षम होती है जैसे नीर(जल) व क्षीर(दूध) को हंस अलग करने में सक्षम होता है। दूरदर्शिता व समग्र चिंतन विकसित होता है।

🙏🏻श्वेता चक्रवर्ती
डिवाइन इंडिया यूथ असोसिएशन

मन बुद्धि एवं अहंकार क्या है? - man buddhi evan ahankaar kya hai?
इस ब्लॉग में सद्‌गुरु हमें मन के उस आयाम के बारे में बता रहे हैं जिसे अहंकार कहते हैं। वे बताते है कि अहंकार कैसे पैदा होता है, और अहंकार के कारण कैसे हमारी बुद्धि हमें ही दुःख देने लगती है।

अहंकार ईगो नहीं, स्वयं धारण की हुई पहचान है

मन के दूसरे आयाम को अहंकार कहा जाता है। इसका अर्थ उस पहचान से है, जो आपने धारण कर रखी है। आमतौर पर अंग्रेजी भाषा में लोग अहंकार को ‘ईगो’ समझ लेते हैं। यह ईगो नहीं है, यह आपकी पहचान है। आपकी बुद्धि हमेशा आपकी पहचान की गुलाम होती है। आप जिस चीज के साथ भी अपनी पहचान बना लेते हैं, यह उसी के इर्द-गिर्द काम करती है। लोग अपनी पहचान ऐसी चीजों के साथ स्थापित कर लेते हैं, जिन्हें उन्होंने कभी देखा भी नहीं है, और उनके भाव इन्हीं चीज़ों से जुड़ जाते हैं। यही चीजें उनके जीवन की दिशा तय करती हैं।

अहंकार की रक्षा बुद्धि किस तरह करती है? कुछ उदाहरण..

उदाहरण के लिए हम सभी किसी न किसी देश से जुड़े हैं। सौ साल पहले एक ऐसा वक्त भी था, जब बहुत सारे लोग ऐसे थे जो किसी भी देश से ताल्लुक नहीं रखते थे,

अगर आप किसी चीज के साथ भावनात्मक रूप से पहचान बनाते हैं तो या तो यह आपको बना देती है या तोड़ देती है। यह आपको जबर्दस्त शक्ति देती है, लेकिन जरा सी भी गड़बड़ हुई और सब खत्म।

लेकिन आज हर किसी का एक देश है और यहां तक कि हर किसी का एक फुटबॉल क्लब भी है। क्योंकि दोनों के ही झंडे और चिह्न होते हैं। तो राष्ट्रीयता एक नया विचार है। बस डेढ़-दो सौ साल से ही राष्ट्रीयता का इतना जबर्दस्त भाव हमारे यहां आया है। हमने अपनी नस्ली, जातीय और दूसरी तरह की पहचानों को राष्ट्रीय पहचान की ओर सरका दिया है। जैसे ही आपके मन में आता है कि मैं इस देश का हूं तो उस देश का झंडा, राष्ट्रीय चिह्न, राष्ट्र गान आपके भीतर एक भाव जगाते हैं। इसमें कोई दिखावा नहीं होता, यह सब वास्तविक होता है। यह वास्तविक है, क्योंकि लोग इसके लिए जान देने को भी तैयार हैं, लेकिन ये सब बस एक पहचान ही तो है। आप इसे कभी भी बदल सकते हैं। आप किसी दूसरे देश में जाकर बस सकते हैं और फिर वह आपका बन सकता है। जिस पल आप अपनी पहचान किसी चीज के साथ स्थापित कर लेते हैं, आपकी बुद्धि पूरी तरह से और हमेशा इस पहचान की रक्षा करती है और इसी के इर्द-गिर्द काम करती है।

अहंकार के रूप और उससे जुड़ी मुश्किलें

अहंकार को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। एक पहचान आपकी बुद्धि से आती है और एक आपकी भावनाओं से जुड़ी होती है - ये दो तरह की पहचान होती है। आपकी पहचान जिन भी चीजों के साथ है, उनमें से कुछ बौद्धिक रूप से महत्वपूर्ण हैं, कुछ भावनात्मक रूप से।

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आपको अपनी पहचान एक ढीले कपड़े की तरह रखनी चाहिए। ताकि जब आप इसे उतारना चाहें, आप इसे आसानी से उतार सकें।

अगर आपने बौद्धिक रूप से किसी चीज के साथ पहचान स्थापित की हुई है, तो आप अपने चारों ओर मुश्किलों का एक भयंकर जाल महसूस करेंगे और उसमें फंसे रहेंगे। अगर आपने भावनाओं के आधार पर पहचान स्थापित की हुई है तो आपकी पहचान एक मकसद का, एक जुड़ाव का अनुभव कराएगी। लेकिन जैसे ही आपकी भावनात्मक पहचान के साथ समस्या आ जाती है आपका मरने का मन करने लगता है। हमेशा ऐसा ही होता है, क्योंकि आपको लगने लगता है कि अब दुनिया में कुछ नहीं बचा। हो सकता है, कुछ समय बाद आप इस भाव से उबर जाएं, लेकिन उस पल तो आपको यही महसूस होगा कि आपकी दुनिया खत्म हो गई।

तर्क सीधी रेखा में होते हैं। इसलिए इनसे जाल बनाने के लिए आपको कई-कई रेखाएं बनानी होंगी, जिसमें आप फंस सकें। लेकिन भाव आपस में ऐसे उलझे होते हैं कि जब भी उन्हें खतरा महसूस होता है, तो ऐसा लगता है जैसे यह दुनिया का अंत है। अगर आप किसी चीज के साथ भावनात्मक रूप से पहचान बनाते हैं तो या तो यह आपको बना देती है या तोड़ देती है। यह आपको जबर्दस्त शक्ति देती है, लेकिन जरा सी भी गड़बड़ हुई और सब खत्म।

तो पहचान ढीली ही रखनी चाहिए। जब हम किसी खास मकसद के लिए कुछ कर रहे हैं, तो हमें पहचान की जरूरत होती है। हम उसके साथ ऐसे चलते हैं जैसे हमारा जीवन उसी पर निर्भर है, लेकिन हमारे भीतर इतनी हिम्मत होनी चाहिए कि हम इसे हटाकर एक तरफ रख सकें। योग में कहा जाता है, आपको अपनी पहचान एक ढीले कपड़े की तरह रखनी चाहिए। ताकि जब आप इसे उतारना चाहें, आप इसे आसानी से उतार सकें। अगर आप यह नहीं जानते कि अपनी पहचान को कैसे उतारें, तो धीरे-धीरे आपकी बुद्धि आपकी सुरक्षा के लिए काम करना शुरू कर देगी और आत्मरक्षा की दीवारें बनाने लगेगी।

अहंकार का उचित उपियोग क्या है? और इसमें उलझने से कैसे बचें

अगर आप अपनी रक्षा के लिए अपने आसपास एक दीवार बना लेते हैं, तो कुछ समय बाद यही दीवार आपको कैद कर लेती है। पहचान को जागरूकता के साथ धारण करना, उसका होकर न रह जाना,

बुद्धि का सबसे अच्छा उपयोग तभी हो सकता है, जब आप अपनी पहचान को अपने से थोड़ा सा दूर रखकर धारण करें - जब तक आप चाहें इसके साथ खेलें और जब नहीं खेलना हो तो इसे दूर रख सकें।

बल्कि उस पहचान के साथ खेलना, अगर कोई ऐसा करता है तो बुद्धि उसके खिलाफ काम नहीं करेगी। लेकिन आप तो अपनी पहचान में फंस गए हैं। आप उसे लेकर नहीं चल रहे हैं, बल्कि वह आपको चला रही है, आप उसमें फंस गए हैं। एक बार अगर आप इसमें फंस गए तो आपकी बुद्धि आपके खिलाफ काम करना शुरू कर देगी। ऐसा लगता है जैसे हर चीज आपको परेशान कर रही है। जीवन में ऐसा कभी नहीं हुआ है कि किसी ने बाहर से आपको कोई चीज चुभाई हो। बाहर से आपको शारीरिक रूप से कितना कष्ट पहुंचाया गया है? मुश्किल से एकाध बार या बिल्कुल भी नहीं। आप खुद ही अपने को दुखाते हैं, आपकी पहचान आपसे चिपक गई है।

बुद्धि का सबसे अच्छा उपयोग तभी हो सकता है, जब आप अपनी पहचान को अपने से थोड़ा सा दूर रखकर धारण करें - जब तक आप चाहें इसके साथ खेलें और जब नहीं खेलना हो तो इसे दूर रख सकें। जब आपके पास इतनी आजादी होगी, तो आप देखेंगे कि आपकी बुद्धि आपके लिए परेशानी का कारण नहीं बनेगी।

मन बुद्धि और अहंकार क्या है?

कहते हैं, 'जैसा मन में आता है, करता है। Ó मन संशयात्मक ही रहता है, पर बुद्धि उस संशय को दूर कर देती है। चित्त अनुभव करता व समझता है। अहंकार को लोग साधारण रूप से अभिमान समझते हैं, पर शास्त्र उसको स्वार्थपरक इंद्रिय कहता है।

मन बुद्धि चित्त अहंकार में क्या अंतर है?

जब संकल्प-विकल्प होते है, सोचा-विचारी होती है, तब उस चेतन वृति को मन कहते हैं। जब कई यादों के संग्रह के रूप में देखा जाता है तो उसे चित्त कहते है। जब “मैं” भाव के रूप में इसका उपयोग होता तब इसका नाम अहंकार पड़ जाता है।

मन बुद्धि का मतलब क्या होता है?

बुद्धि (Intelligence) वह मानसिक शक्ति है जो वस्तुओं एवं तथ्यों को समझने, उनमें आपसी सम्बन्ध खोजने तथा तर्कपूर्ण ज्ञान प्राप्त करने में सहायक होती है। यह 'भावना' और अन्तःप्रज्ञा (Intuition/इंट्युसन) से अलग है। बुद्धि ही मनुष्य को नवीन परिस्थितियों को ठीक से समझने और उसके साथ अनुकूलित (adapt) होने में सहायता करती है।

मन और बुद्धि में क्या अंतर है?

मन से हम सोचते है और सोचने के बाद वह विचार या सकल्प बुद्धि में जाता है और बुद्धि तर्क विर्तक करके उस संकल्प का निणर्य करती है । फिर हम उस निर्णय को कर्म में लाते है।