स्वतंत्रता दिवस को अंग्रेजी में क्या कहा जाता है? - svatantrata divas ko angrejee mein kya kaha jaata hai?

15 अगस्त के कार्यक्रम में बाहर से किसी मुख्य अतिथि को बुलाने की परंपरा नहीं है, जबकि 26 जनवरी समारोह में किसी न किसी राष्ट्र के राष्ट्राध्यक्ष को बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित किया जाता है। इसमें देश के मित्रवत राष्ट्रों के राष्ट्रपति या अन्य किसी खास मेहमान को बुलाया जाता है। दूसरे राष्ट्रों के अलावा कई अन्य खास मेहमान भी बुलाए जाते हैं। 

मैं हिंदी हूं. आज के दौर में बाजार में बैठी वह भाषा, जिसकी अस्मत खतरे में है. सुनने में अजीब लगेगा कि 'हिंदी दिवस' पर यह क्या उलटबांसी हुई भला. पर भैये ये तो बताओ- 'हिंदी' का, किसी भाषा का, बोली का, मेरा कोई एक 'दिवस' भर कैसे हो सकता है? कई लोगों को इस पर ऐतराज भी हो सकता है? किसी ने इस पर कहा भी, कि फिर तो 'स्वतंत्रता दिवस', 'गणतंत्र दिवस' भी न मनाएं. अरे यह भी कोई बात हुई? मैं पूछूं कि क्या मैं 14 सितंबर, 1949 को आपकी संविधान सभा में पैदा हुई थी, जो उसकी याद में यह दिन मना रहे?
क्या मैं उस एक दिन के याद की मुहताज हो गई हूं, जब संविधान सभा ने हिंदी को एक आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाया? अगर यह सच है तो फिर आप मुझे कैसे बचाओगे? अगर किसी उत्सव विशेष, किसी दिन, सप्ताह, पखवारा विशेष से किसी भाषा विशेष को बचाने का अभियान चलाया जाए, तो समझिए उस भाषा के दिन या तो लद गए हैं, या उसके नाम पर दुकानें खुल गई हैं. और मैं इससे बचना चाहती हूं. मुझे जानो, मानो, अपनाओ तो उस बोली की तरह, उस भाषा की तरह, जिससे सीखा था ककहरा...वह कहते भी हैं न 'मातृभाषा'!
कहने के लिए आंकड़ों में तो मैं वैसे ही तेजी से परवान चढ़ रही. मंदारिन, स्पेनिश और अंग्रेजी के बाद वैसे ही मैं दुनिया में चौथी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा हूं, पर बुरा मत मानिएगा हुजूर, आपके कागजों पर अब भी मेरी वकत किसी दिन, किसी सप्ताह, किसी पखवारे भर की मुहताज है. वरना आज मेरे इस दिन विशेष पर इतनी बड़ी सरकारी, गैर सरकारी नौटंकी क्यों होती?
मैं इस दौर में जितनी बेबस, लाचार और लुट-पिट रही, उतनी अब से पहले कभी नहीं थी. मेरी आज की हकीकत यह है कि मैं अपने ही रखवालों, पहरुओं और सहोदरों के बीच चौसर के खेल में हारी हुई पांचाली सदृश हूं, या कि उस द्रोपदी की तरह जो भरी सभा में चीरहरण से बचने के लिए गुहार लगा रही है सखा कृष्ण का...पर गिरधर नटवर नागर हैं कि द्वापर की तरह आने का नाम ही नहीं ले रहे, आखिर कलियुग जो ठहरा! सच्ची कहूं तो आज मेरी हालत 'अबरा क मेहर गांव भर की सलहज' की तरह हो गई है, जिसे हर कोई छेड़ रहा, जिससे हर कोई खेल रहा, हंसी-ठिठोली कर रहा, और तुर्रा यह कि ऐसा करने का वह अधिकारी है, क्योंकि उसका मुझसे नाता है.
कोई मेरी लिपी 'देवनागरी' में पलीता लगा रहा, और उसे 'रोमन' में बदल मेरी लोकप्रियता का दंभ भर रहा, तो किसी को उर्दू-फारसी से मेरी पुरानी संगति अब भा नहीं रहीं. बोलियों से मेरी गलबहियां को, आखरों, शब्दों से मेरे प्रेम को अब बदनीयती मान लिया गया है. कथित शुद्धतावादी और अनपढ़ या कुपढ़ लंपटों के बीच की खींचातानी से हर दिन मेरा अंतर तक छिलता है. कुछ के लिए मैं उस 'कुलटा', 'कुलक्षणी' की तरह हूं, जो सदा हर किसी को अपनाने के लिए आतुर है. आलम यह है कि भाषा की शुद्धता के नाम पर, या मुझे परिमार्जित करने के नाम पर, मुझसे ही 'बलात्कार' तो कभी 'छलात्कार' का खेल धड़ल्ले से हो रहा.
मैं यह सब जानती, समझती हूं, पर इसे रोक नहीं पाती. दुख तो यह है कि मुझे यही नहीं पता चल रहा कि यह सब 'विज्ञता' के चलते हो रहा या 'अज्ञता' के चलते, यह किसी रणनीति के तहत है, या फिर सायास, या अनायास? यह युगों के बदलाव की देन है, आधुनिकता की, तकनीक के प्रभाव की, मूर्खता की या फिर 'कुटिलता' की? हकीकत जो भी हो मैं अपने चहेतों के बीच चूकती जा रही हूं. एक विकलांगता की ओर उन्मुख, शनैः, शनैः मरती हुई सी...
अरे, यहां उलझ गए न मेरे 'विज्ञता' और 'अज्ञता' जैसे शब्दों के बीच? मेरे इतने छोटे, सहज शब्दों के अर्थ तक से तो आप अनजाने हैं, अजाने हैं. पर दावा है मेरी सेवा का, मेरे संग-साथ का, मुझे बढ़ावा देने का... खा रहे होंगे मेरे नाम की, लेकिन मुझे लिखने, बोलने, बरतने, सहेजने में आपको शर्म आती है! कभी किसी सोशल मीडिया पर देखी है मेरी वर्तनी? मुझे कैसे लिखा जाता है? कैसे बोला जाता है? कितना काटा-छांटा जाता है? ऊपर से तुर्रा यह कि मैं विशुद्ध वैज्ञानिक भाषा हूं. अरे? यह कैसा विज्ञान है, जिसमें सहज संवाद और संचार के चक्कर में कोई मेरी गरदन मरोड़ रहा तो कोई टांग तोड़ रहा.
अरे छोड़ो भी! मैं कितनी आसानी से 'नहीं' से 'नि' हो जाती हूं, 'रहा' से 'रा' और 'क्या कर रहे हो' से 'केकेआरएच' हो जाती हूं, और कोई उफ तक नहीं करता. मुंबइया फिल्मों के टपोरी टाइप गीतकार जब भाषा को सहेजने का दंभ भरने लगेंगे, तो इससे इतर मेरा और हश्र भी क्या होगा?
'चंदन सा बदन, चंचल चितवन...' से 'मैं तो रस्ते से जा रहा था, भेलपुड़ी खा रहा था' तक का मेरा विकास इतना सराहनीय हुआ है कि राजधानी की पंचतारा संस्कृति और कथित अभिजात्य वर्ग के बीच तो दूर- मध्यवर्गीय नव धनाड्यों के नव अर्धशिक्षित, अंग्रेजीदा लोगों के बीच मेरे चहेते बड़े हिकारत से 'एचएमटी' कहलाने लगे हैं. अरे 'एचएमटी' का फुल फार्म नहीं जानते आप? इसका मतलब यहां 'हिंदी मीडियम टाइप' है... अब आप समांतरकोश और शब्दकोश न पलटने लगिएगा, या कि गरियाने ही न लगिएगा कि क्या बकवास लगा रखी है, अनाप-शनाप बक रही है. होने को तो यह भी हो सकता है कि शायद आप बुरा ही मान गए हों या कि मेरी उपेक्षा करके आगे ही बढ़ गए हों...वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में? अरे हां 'चिल...' करने चले गए हों. करिए-करिए, पर मेरी यह गुहार सुनिए जरूर.
आखिर आज 'हिंदी दिवस' है. मेरा दिन, 'कथित' तौर पर ही सही, मेरे उत्सव, मेरी पहचान, मेरे मान-सम्मान का दिन... और इस दिन मेरा इतना हक तो बनता है. एक बात बताइए? भारत अपनी स्वतंत्रता के 75 साल का जलसा मना चुका है. सरकार 'अमृत महोत्सव' मनाकर अघा चुकी, हिंदी पखवारा आ चुका, देश भर में मेरे मान-सम्मान के लिए कार्यक्रमों की, जलसों की, वार्ताओं और चर्चाओं की, शपथों की रस्म अदायगी जारी है, तो फिर मैं अब भी 'राजभाषा' और 'राष्ट्रभाषा' के बीच हिचकोले क्यों खा रही हूं? अरे मैं तो भूल ही गई थी कि मुझसे कभी तालमेल न जोड़ने वाले भी आज एक-दूसरे को 'हिंदी दिवस' की बधाई दे रहे हैं, शुभकामना संदेश भेज रहे हैं, मेरी समृद्धि की कामना के साथ, बड़े-बड़े दावों के बीच मेरी सेवा का दंभ भर रहे हैं. इन सबके बीच होड़ सी लगी है बधाइयां लेने और देने की. आयोजनों की झड़ी के बीच मैं इस एक पखवारे में कैद भाषा जो हूं! क्या राजा, क्या रंक, क्या मेरे अपने, क्या गैर? रस्मो-रवायतों से इतर वक्त मिले तो सोचिएगा, मेरा कितना नुकसान कौन कर रहा? शुद्धतावादी, अंग्रेजीदा, बाजारवादी, मेरे अपने सहोदर या हिंदुस्तानी, खड़ी बोली, अवधी, ब्रज, मैथिली, भोजपुरी, हरियाणवी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, मागधी के बीच मुझे बांट कर अपनी-अपनी दुकान चलाने वाले?
देखिए मेरी बातों का बुरा न मानिएगा! मैं भी क्या करूं? मुझ पर जो बीत रही, उसमें कराह तो निकलेगी ही. पीड़ा में हूं, दर्द में हूं, तन-मन-आत्म से घायल हूं, तो अगर आयं-बायं, अल्ल-बल्ल-सल्ल बोल दूं तो माफ करिएगा. और अगर माफ न कर सकिएगा, तो 'ट्रोल' कर दीजिएगा. अब बचा भी क्या है मुझमें जो रोक सके आपको. अब तो हर अंगुली की एक थिरकन से मेरे वजूद पर बन आती है, और मैं कतरा-कतरा कटने लगती हूं, कटती जाती हूं. वह क्या कहते हैं, डिजीटल मीडिया, इंटरनेट के युग में मैं भी 'ऑनलाइन' हो गई हूं. और इस ऑनलाइन युग में किसको, किसकी पड़ी है? अब तो जब मेरी अग्रजा ही लक्ष्मी के रूप में बची नहीं, जब उनके 'श्री' का ही मान नहीं, तो सरस्वती को कौन पूछे. अब तो नंबरों में, बिटक्वाइन में, प्लास्टिक में, डिजीटल में उन्हीं की गिनती हो गई है, तो मुझसे किसको लाभ.
ना-ना, मुझे आंकड़े न दिखाइए, न ही यह बताइए कि इतने देशों में, इतने लोगों के बीच मैं पहुंच चुकी हूं, कि लिखी और बोली जाती हूं, कि दुनिया की इस नंबर की भाषा बन चुकी हूं, कि हमारे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दिनरात हिंदी की सेवा में एक किए हुए हैं? कि अब तो सरकारी फाइलों पर टीप देवनागरी में होती है? कि इस साल तो मुझमें लिखी कृति 'रेत समाधि' के अंग्रेजी अनुवाद 'टूम ऑफ सैंड' को अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिल चुका है और उसकी लेखिका गीतांजलि श्री अनुवादक डेजी रॉकवेल के साथ दुनिया भर में अपना परचम फहरा चुकी हैं...यह सब मैं भी जानती, पहचानती और मानती हूं, पर जब कभी मेरे ही हृदय प्रदेश में लाखोंलाख लड़के माध्यमिक स्तर पर साल-साल भर मुझे रटने के बाद भी अनुत्तीर्ण, अरे वही 'फेल' हो जाते हैं तो बहुत कुछ दरकता है... अरे मैं कहीं और की नहीं, हिंदी पट्टी में, उस उत्तर प्रदेश में अपनी इस दशा की व्यथा रो रही हूं, जहां तुलसी, सूर, कबीर, भारतेंदु, प्रेमचंद, प्रसाद, निराला...किन-किन के कितने महावीर, महादेवी और नामवर के नाम गिनाऊं?
पर अतीत के उल्लेख से भला आज बदल सकता है क्या? स्मार्टफोन की टच स्क्रीन पर अंगुलियों की फिसलन भर से मेरा वजूद छीलने वालों को मेरी क्या पड़ी? वह भी तब जब लिपी से पहले ही बेदखल हो चुकी हूं मैं. आज मैं ज्ञान, विज्ञान, चिंतन, विचार के लिए तरसती हुई एक भाषा हूं. जिसका चीरहरण हो रहा है. मेरी लिपि खो रही है. ऐसे में मेरी हिंदी की बिंदी की पड़ी ही किसे है? पर हमेशा से मेरी दशा ऐसी ही नहीं थी. एक दौर था, एक जमाना था. तब मैं जनमानस के बीच इस कदर फैली थी कि हर कोई मेरी बाहें थामने, मेरी राहें रोकने को आतुर था. अरे राहें रोकने से ये न समझिएगा, कि कोई छेड़खानी कर रहा था. वह तो जनम-जनम की बात है, कशिश, दीवानगी की बात है, मेरे आशिकों की लगन की बात है, उस नाता की बात है, जो उनका मुझसे था.
मेरे चाहने वालों में तब क्या अरबी, क्या उर्दू, क्या अंग्रेजी, क्या फारसी, क्या तुर्की, क्या जर्मन, क्या फ्रांसीसी, सबके विद्वान और चाहने वाले शामिल थे! मैंने भी इन सबसे कितना कुछ लिया, कितना कुछ लुटाया, कितनों से कितना कुछ समेटा, और कितनों को कितना कुछ दिया, उसका हिसाब भला आज कौन करे? पर मैं जानती हूं तब मुझमें थी 'अनंतता', मेरे दीवानों में थी 'पाकीज़गी', मेरे छात्रों में था 'संस्कार', मेरे अध्यापकों में थी 'प्रज्ञा', मेरे चहेते शासकों में थी 'दृष्टि', और मेरे दुश्मनों में भी थी एक 'नैतिकता', मुझसे आदर पाने का एक भाव! पर ये तो अतीत की बातें हैं.
'विद्या ददाति विनयम' और 'असतो मा सद्गमय' की जगह मीडिया में भी मेरा वजूद खतरे में है. फिल्मों में तो मैं कटी ही. सभ्यता, संस्कृति, समाज, शिक्षा हर जगह मुझसे दुराचार जारी है. मैं शायद कोठे पर बैठी या कहूं कि जबरन कोठे पर बैठा दी गई उस स्त्री की तरह हूं, जिससे कोई उसकी इच्छा नहीं पूछता. चंद पैसे फेंकता है, अपनी हवस मिटाता है और चलता बनता है. 'पैसा' ही अगर सब कुछ हो, सबमें उसी की हवस और वासना हो, तो मनुष्य इससे इतर समाज बनाएगा भी क्या? इससे इतर इस समाज की गति भी क्या होगी?
अगर वाकई आप आंकड़ों से इतर मुझसे प्यार करते हैं, तो मेरी पूर्वजाओं 'ब्राह्मी', 'पाली', 'प्राकृत', 'संस्कृत', 'अवधी', 'मगधी', 'ब्रज'... बहुतेरे, घनेरे नाम हैं के हश्र से सीखिए. इस्तेमाल करने के बाद मुझे दुत्कारिए नहीं. न तो मुझसे प्यार का नाटक कर मुझे शुद्धता का कैदी बनाइए, न ही अल्पज्ञता में, मूढ़ता में मेरी टांगे तोड़िए. मैं नुक़्ता की नुक़्ताचीनी और हलंत, पूर्णविराम, अर्धविराम, चंद्रबिंदु के घेरे से भी मुक्त हो सहज प्रवाह में बहना चाहती हूं. जब 'नई वाली हिंदी' के मेरे लिक्खाड़ लाडले मुझे गंगा करार देते हैं, तब मैं हुलसती हूं कि वे समझते क्यों नहीं कि गंगा भी गोमुख से गंगासागर तक मैली हो जाती है. इसलिए अगर वाकई मुझे भूलना, भुलाना नहीं चाहते तो जानिए कि भाषाएं और बोलियां बचती हैं सहेजने से, अपनाने से, बरतने से, मानने से, मनाने से. मत खेलिए मेरी लिपि से, मत खेलिए मेरे अर्थों से! भागिए नहीं मुझसे, जोड़िए मुझे अपने मान से, स्वाभिमान से!
अपनाइए और गर्व से कहिए कि मैं हिंदी हूं!
मुझे अपनी भाषा और अपने आप पर गर्व है!
हर दिन हिंदी!

स्वतंत्रता दिवस को अंग्रेजी में क्या कहा जाता है? - svatantrata divas ko angrejee mein kya kaha jaata hai?

स्वतंत्रता दिवस का अंग्रेजी नाम क्या है?

भारत का स्वतंत्रता दिवस (अंग्रेज़ी: Independence Day of India, हिंदी:इंडिपेंडेंस डे ऑफ़ इंडिया,संस्कृतम्:"स्वातन्त्र्यदिनोत्सवः") हर वर्ष १५ अगस्त को मनाया जाता है।

15 अगस्त को क्या कहा जाता है?

हम भारतीय हर साल 15 अगस्त को देश में स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है। हर भारतीय के लिए यह गर्व का दिन और बहुत खास होता है। 15 अगस्त 1947 में भारत को अंग्रजों की परतंत्रता के बाद स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी।

स्वतंत्रता दिवस कब से शुरू हुआ?

देश ने 15 अगस्त 1947 को पहला स्वतंत्रता दिवस मनाया, यानी 15 अगस्त 1948 को जब आजादी का एक साल पूरा हुआ, तब देश ने दूसरा स्वतंत्रता दिवस मनाया। इसी तरह से 1956 में 10वां, 1966 में 20वां, 1996 में 50वां, 2016 में 70वां और 2021 में 75वां स्वतंत्रता दिवस मनाया।

75 वे स्वतंत्रता दिवस कब है?

15 अगस्त 2022 यानी आज भारत को मिले आजादी का 75 साल पूरा हो चुके हैं। बता दें कि 'आजादी के अमृत महोत्सव' को भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 12 मार्च 2021 को शुरू किया था।