राष्ट्रीय गीत के लेखक कौन थे? - raashtreey geet ke lekhak kaun the?

पूरे गाने की धीमी धुन और इसके राग अलहैया बिलावल का श्रेय रवींद्रनाथ को ही दिया गया है। रवींद्रनाथ के भतीजे के बेटे, दीनेंद्रनाथ टैगोर, जो खुद एक महान संगीतकार थे, ने शायद धुन बनाने में मदद की होगी।

गाने की एक और सुरीली धुन, जर्मनी में हैम्बर्ग रेडियो सिम्फनी ऑर्केस्ट्रा ने 1942 में बजाई थी।

देश को राष्ट्रीय गीत देने वाले शख्स का नाम था 'बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय'. उनका जन्म 27 जून सन् 1838 को उत्तरी चौबीस परगना के कन्थलपाड़ा में एक परंपरागत और समृद्ध बंगाली परिवार में हुआ था.

- बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय बंगला के प्रख्यात उपन्यासकार, कवि, गद्यकार और पत्रकार थे. भारत के राष्ट्रीय गीत 'वन्दे मातरम्' उनकी ही रचना है, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के काल में क्रान्तिकारियों का प्रेरणास्रोत बन गया था. रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पूर्ववर्ती बांग्ला साहित्यकारों में उनका अन्यतम स्थान है.

सिर पर हैट, चेहरे पर बाल, जानिये क्या था माइकल जैक्सन के इस स्टाइल का राज

- बंकिमचंद्र की शिक्षा हुगली कॉलेज और प्रेसीडेंसी कॉलेज, कोलकाता में हुई. साल 1857 में उन्होंने बीए पास किया और 1869 में कानून की डिग्री हासिल की. प्रेसीडेंसी कॉलेज से बी.ए. की उपाधि लेने वाले ये पहले भारतीय थे. इसके बाद उन्होंने सरकारी नौकरी की और 1891 में सरकारी सेवा से रिटायर हुए. उनका निधन अप्रैल 1894 में हुआ. शिक्षा समाप्ति के तुरंत बाद डिप्टी मजिस्ट्रेट पद पर इनकी नियुक्ति हो गई. कुछ काल तक बंगाल सरकार के सचिव पद पर भी रहे. रायबहादुर और सी. आई. ई. की उपाधियां पाईं.

कैसे की राष्ट्रीय गीत की रचना

बंकिमचंद्र ने जब इस गीत की रचना की तब भारत पर ब्रिटिश शासकों का दबदबा था. ब्रिटेन का एक गीत था 'गॉड! सेव द क्वीन'. भारत के हर समारोह में इस गीत को अनिवार्य कर दिया गया. बंकिमचंद्र तब सरकारी नौकरी में थे. अंग्रेजों के बर्ताव से बंकिम को बहुत बुरा लगा और उन्होंने साल 1876 में एक गीत की रचना की और उसका शीर्षक दिया 'वन्दे मातरम्'.

शुरुआत में इसके केवल दो ही पद रचे गये थे जो संस्कृत में थे. इन दोनों पदों में केवल मातृभूमि की वन्दना थी. आगे का हिस्सा बांग्ला में लिखा गया, जो मां दुर्गा की स्तुति है.

30 के हुए मेसी, जानें स्टार फुटबॉलर का 'सचिन कनेक्शन'

राष्ट्रीय गीत के रूप में मिली पहचान

स्वाधीनता संग्राम में इस गीत की निर्णायक भागीदारी के बावजूद जब राष्ट्रगान के चयन की बात आई तो वन्दे मातरम् के स्थान पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखे व गाये गये गीत जन गण मन को वरीयता दी गई. इसकी वजह यही थी कि कुछ मुसलमानों को 'वन्दे मातरम्' गाने पर आपत्ति थी, क्योंकि इस गीत में देवी दुर्गा को राष्ट्र के रूप में देखा गया है. इसके अलावा उनका यह भी मानना था कि यह गीत जिस आनन्द मठ उपन्यास से लिया गया है वह मुसलमानों के खिलाफ लिखा गया है.

इन आपत्तियों के मद्देनजर साल 1937 में कांग्रेस ने इस विवाद पर गहरा चिन्तन किया. जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित समिति, जिसमें मौलाना अब्दुल कलाम आजाद भी शामिल थे, ने पाया कि इस गीत के शुरुआती दो पद तो मातृभूमि की प्रशंसा में कहे गए हैं, लेकिन बाद के पदों में हिन्दू देवी-देवताओं का जिक्र होने लगता है. इसलिये यह निर्णय लिया गया कि इस गीत के शुरुआती दो पदों को ही राष्ट्र-गीत के रूप में प्रयुक्त किया गया. इस तरह गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर के जन-गण-मन अधिनायक जय हे को यथावत राष्ट्रगान ही रहने दिया गया और मोहम्मद इकबाल के कौमी तराने सारे जहां से अच्छा के साथ बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा रचित प्रारम्भिक दो पदों का गीत वन्दे मातरम् राष्ट्रगीत स्वीकृत हुआ.

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा में 24 जनवरी 1950 में 'वन्दे मातरम्' को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने सम्बन्धी वक्तव्य पढ़ा, जिसे स्वीकार कर लिया गया.

ISRO ने लॉन्च किया PSLV-C38, एक साथ भेजे 14 देशों के 31 सैटेलाइट

डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद का संविधान सभा को दिया गया वक्तव्य इस प्रकार है:

'शब्दों व संगीत की वह रचना जिसे जन गण मन से सम्बोधित किया जाता है, भारत का राष्ट्रगान है; बदलाव के ऐसे विषय, अवसर आने पर सरकार अधिकृत करे और वन्दे मातरम् गान, जिसने कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है; को जन गण मन के समकक्ष सम्मान व पद मिले. मैं आशा करता हूं कि यह सदस्यों को सन्तुष्ट करेगा.'

अमिताभ बच्चन (जन्म-11 अक्टूबर, 1942) भारतीय फिल्म जगत बॉलीवुड के अभिनेता और प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार हरिवंश राय बच्चन के सुपुत्र हैं[12]। 1970 के दशक के दौरान उन्होंने बड़ी लोकप्रियता प्राप्त की[13] और तब से भारतीय सिनेमा के इतिहास में प्रमुख व्यक्तित्व बन गए[14]। अमिताभ ने अपने करियर में अनेक पुरस्कार जीते हैं, जिनमें दादासाहेब फाल्के पुरस्कार, तीन राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार और बारह फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार सम्मिलित हैं। उनके नाम सर्वाधिक सर्वश्रेष्ठ अभिनेता फ़िल्मफेयर अवार्ड का रिकार्ड है। अभिनय के अलावा बच्चन ने पार्श्वगायक, फ़िल्म निर्माता, टीवी प्रस्तोता और भारतीय संसद के एक निर्वाचित सदस्य के रूप में 1984 से 1987 तक भूमिका निभाई है। भारतीय टीवी का लोकप्रिय शो "कौन बनेगा करोड़पति" में कई वर्षों से मेजबान की भूमिका भी ये निभाते आए हैं। इस शो में उनके द्वारा किया गया 'देवियों और सज्जनों' संबोधन बहुचर्चित रहा।

अमिताभ बच्चन का विवाह अभिनेत्री जया भादुड़ी से हुआ और इनकी दो संतानें हैं, श्वेता नंदा और अभिषेक बच्चन। अभिषेक बच्चन सुप्रसिद्ध अभिनेता हैं, जिनका विवाह पूर्व विश्वसुन्दरी और अभिनेत्री ऐश्वर्या राय से हुआ है।

बच्चन पोलियो उन्मूलन अभियान के बाद अब तंबाकू निषेध परियोजना पर काम करेंगे। अमिताभ बच्चन को अप्रैल 2005 में एचआईवी/एड्स और पोलियो उन्मूलन अभियान के लिए यूनिसेफ के द्वारा सद्भावना राजदूत नियुक्त किया गया था।[15]

इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, कायस्थ परिवार में जन्मे अमिताभ बच्चन के पिता, डॉ॰ हरिवंश राय बच्चन प्रसिद्ध हिन्दी कवि थे, जबकि उनकी माँ तेजी बच्चन अविभाजित भारत के कराची शहर से सम्बन्ध रखती थीं जो कि अब पाकिस्तान में है।[16] आरंभ में अमित जी का नाम इंकलाब रखा गया था जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रयोग किए गए प्रेरक वाक्यांश 'इंकलाब जिंदाबाद' से लिया गया था। लेकिन बाद में प्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत ने इनका नाम 'अमिताभ' रखा। 'अमिताभ' का अर्थ है, "शाश्वत प्रकाश"। यद्यपि इनका उपनाम श्रीवास्तव था व वह कायस्थ जाति से सम्बन्ध रखते हैं फिर भी इनके पिता ने इस उपनाम को अपने कृतियों को प्रकाशित करने वाले बच्चन नाम से उद्धृत किया। यह उनका उपनाम ही है जिसके साथ उन्होंने फ़िल्मों में एवं सभी सार्वजनिक प्रयोजनों के लिए उपयोग किया। अब यह उनके परिवार के समस्त सदस्यों का उपनाम बन गया है।

अमिताभ, हरिवंश राय बच्चन के दो बेटों में सबसे बड़े हैं। उनके दूसरे बेटे का नाम अजिताभ है। इनकी माता तेजी बच्चन की थिएटर में गहरी रुचि थी और उन्हें फ़िल्म में रोल की पेशकश भी की गई थी किंतु इन्होंने गृहणी बनना ही पसंद किया। अमिताभ के करियर के चुनाव में इनकी माता का भी कुछ योगदान था क्योंकि वे हमेशा इस बात पर भी जोर देती थी कि उन्हें सेंटर स्टेज को अपना करियर बनाना चाहिए।[17] बच्चन के पिता का देहांत २००३ में हो गया था जबकि उनकी माता की मृत्यु २१ दिसंबर २००७ को हुई थीं।[18]

बच्चन ने दो बार एम. ए. की उपाधि ग्रहण की है। मास्टर ऑफ आर्ट्स (स्नातकोत्तर) इन्होंने इलाहाबाद के ज्ञान प्रबोधिनी और बॉयज़ हाई स्कूल (बीएचएस) तथा उसके बाद नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में पढ़ाई की जहाँ कला संकाय में प्रवेश दिलाया गया। अमिताभ बाद में अध्ययन करने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज चले गए जहां इन्होंने विज्ञान स्नातक की उपाधि प्राप्त की। अपनी आयु के २० के दशक में बच्चन ने अभिनय में अपना कैरियर आजमाने के लिए कोलकता की एक शिपिंग फर्म बर्ड एंड कंपनी में किराया ब्रोकर की नौकरी छोड़ दी।

३ जून, १९७३ को इन्होंने बंगाली संस्कार के अनुसार अभिनेत्री जया भादुड़ी से विवाह कर लिया। इस दंपती को दो बच्चों: बेटी श्वेता और पुत्र अभिषेक पैदा हुए।

आरंभिक कार्य 1969 -1972[संपादित करें]

अमिताभ ने फ़िल्मों में अपने कैरियर की शुरूआत ख्वाज़ा अहमद अब्बास के निर्देशन में बनी फिल्म सात हिन्दुस्तानी के सात कलाकारों में एक कलाकार के रूप में की,[19] उत्पल दत्त, मधु और जलाल आगा जैसे कलाकारों के साथ अभिनय कर के। फ़िल्म ने वित्तीय सफ़लता प्राप्त नहीं की पर बच्चन ने अपनी पहली फ़िल्म के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार में सर्वश्रेष्ठ नवागंतुक का पुरूस्कार जीता।[20]इस सफल व्यावसायिक और समीक्षित फ़िल्म के बाद उनकी एक और आनंद (१९७१) नामक फ़िल्म आई जिसमें उन्होंने उस समय के लोकप्रिय कलाकार राजेश खन्ना के साथ काम किया। डॉ॰ भास्कर बनर्जी की भूमिका करने वाले बच्चन ने कैंसर के एक रोगी का उपचार किया जिसमें उनके पास जीवन के प्रति वेबकूफी और देश की वास्तविकता के प्रति उसके दृष्टिकोण के कारण उसे अपने प्रदर्शन के लिए सर्वश्रेष्ठ सहायक कलाकार का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। इसके बाद अमिताभ ने (१९७१) में बनी परवाना में एक मायूस प्रेमी की भूमिका निभाई जिसमें इसके साथी कलाकारों में नवीन निश्चल, योगिता बाली और ओम प्रकाश थे और इन्हें खलनायक के रूप में फ़िल्माना अपने आप में बहुत कम देखने को मिलने जैसी भूमिका थी। इसके बाद उनकी कई फ़िल्में आई जो बॉक्स ऑफिस पर उतनी सफल नहीं हो पाई जिनमें रेशमा और शेरा भी शामिल थी और उन दिनों इन्होंने गुड्डी फ़िल्म में मेहमान कलाकार की भूमिका निभाई थी। इनके साथ इनकी पत्नी जया भादुड़ी के साथ धर्मेन्द्र भी थे। अपनी जबरदस्त आवाज के लिए जाने जाने वाले अमिताभ बच्चन ने अपने कैरियर के प्रारंभ में ही उन्होंने बावर्ची फ़िल्म के कुछ भाग का बाद में वर्णन किया। १९७२ में निर्देशित एस. रामनाथन द्वारा निर्देशित कॉमेडी फ़िल्म बॉम्बे टू गोवा में भूमिका निभाई। इन्होंने अरुणा ईरानी, महमूद, अनवर अली और नासिर हुसैन जैसे कलाकारों के साथ कार्य किया है। अपने संघर्ष के दिनों में वे ७ (सात) वर्ष की लंबी अवधि तक अभिनेता, निर्देशक एवं हास्य अभिनय के बादशाह महमूद साहब के घर में रूके रहे।[तथ्य वांछित]

स्टारडम की ओर उत्थान 1973 -1983[संपादित करें]

१९७३ में जब प्रकाश मेहरा ने इन्हें अपनी फ़िल्म ज़ंजीर (१९७३) में इंस्पेक्टर विजय खन्ना की भूमिका के रूप में अवसर दिया तो यहीं से इनके कैरियर में प्रगति का नया मोड़ आया[21]। यह फ़िल्म इससे पूर्व के रोमांस भरे सार के प्रति कटाक्ष था जिसने अमिताभ बच्चन को एक नई भूमिका एंग्री यंगमैन में देखा जो बॉलीवुड के एक्शन हीरो बन गए थे, यही वह प्रतिष्‍ठा थी जिसे बाद में इन्हें अपनी फ़िल्मों में हासिल करते हुए उसका अनुसरण करना था। बॉक्स ऑफिस पर सफलता पाने वाले एक जबरदस्त अभिनेता के रूप में यह उनकी पहली फ़िल्म थी, जिसने उन्हें सर्वश्रेष्‍ठ पुरूष कलाकार फ़िल्मफेयर पुरस्कार के लिए मनोनीत करवाया। १९७३ ही वह साल था जब इन्होंने ३ जून को जया से विवाह किया और इसी समय ये दोनों न केवल जंजीर में बल्कि एक साथ कई फ़िल्मों में दिखाई दिए जैसे अभिमान जो इनकी शादी के केवल एक मास बाद ही रिलीज हो गई थी। बाद में हृषिकेश मुखर्जी के निदेर्शन तथा बीरेश चटर्जी द्वारा लिखित नमक हराम फ़िल्म में विक्रम की भूमिका मिली जिसमें दोस्ती के सार को प्रदर्शित किया गया था। राजेश खन्ना और रेखा के विपरीत इनकी सहायक भूमिका में इन्हें बेहद सराहा गया और इन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक कलाकार का फ़िल्मफेयर पुरस्कार दिया गया।

१९७४ की सबसे बड़ी फ़िल्म रोटी कपड़ा और मकान में सहायक कलाकार की भूमिका करने के बाद बच्चन ने बहुत सी फ़िल्मों में कई बार मेहमान कलाकार की भूमिका निभाई जैसे कुँवारा बाप और दोस्त। मनोज कुमार द्वारा निदेशित और लिखित फ़िल्म जिसमें दमन और वित्तीय एवं भावनात्मक संघर्षों के समक्ष भी ईमानदारी का चित्रण किया गया था, वास्तव में आलोचकों एवं व्यापार की दृष्टि से एक सफल फ़िल्म थी और इसमें सह कलाकार की भूमिका में अमिताभ के साथी के रूप में मनोज कुमार स्वयं और शशि कपूर एवं जीनत अमान थीं। बच्चन ने ६ दिसंबर १९७४ की बॉलीवुड की फ़िल्में|१९७४ को रिलीज मजबूर फ़िल्म में अग्रणी भूमिका निभाई यह फ़िल्म हालीवुड फ़िल्म जिगजेग की नकल कर बनाई थी जिसमें जॉर्ज कैनेडी अभिनेता थे, किंतु बॉक्स ऑफिस[22] पर यह कुछ खास नहीं कर सकी और १९७५ में इन्होंने हास्य फ़िल्म चुपके चुपके, से लेकर अपराध पर बनी फ़िल्म फ़रार और रोमांस फ़िल्म मिली में अपने अभिनय के जौहर दिखाए। तथापि, १९७५ का वर्ष ऐसा वर्ष था जिसमें इन्होंने दो फ़िल्मों में भूमिकाएं की और जिन्हें हिंदी सिनेमा जगत में बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इन्होंने यश चोपड़ा द्वारा निर्देशित फ़िल्म दीवार में मुख्‍य कलाकार की भूमिका की जिसमें इनके साथ शशि कपूर, निरूपा रॉय और नीतू सिंह थीं और इस फ़िल्म ने इन्हें सर्वश्रेष्‍ठ अभिनेता का फ़िल्मफेयर पुरस्कार दिलवाया। १९७५ में यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर हिट रहकर चौथे[23] स्थान पर रही और इंडियाटाइम्स की मूवियों में बॉलीवुड की हर हाल में देखने योग्य शीर्ष २५ फिल्मों[24] में भी नाम आया। १५ अगस्त, १९७५ को रिलीज शोले है और भारत में किसी भी समय की सबसे ज्यादा आय अर्जित करने वाली फिल्‍म बन गई है जिसने २,३६,४५,००,००० रू० कमाए जो मुद्रास्फीति[25] को समायोजित करने के बाद ६० मिलियन अमरीकी डालर के बराबर हैं। बच्चन ने इंडस्ट्री के कुछ शीर्ष के कलाकारों जैसे धर्मेन्‍द्र, हेमा मालिनी, संजीव कुमार, जया बच्चन और अमज़द ख़ान के साथ जयदेव की भूमिका अदा की थी। १९९९ में बीबीसी इंडिया ने इस फ़िल्म को शताब्दी की फ़िल्म का नाम दिया और दीवार की तरह इसे इंडियाटाइम्‍ज़ मूवियों में बालीवुड की शीर्ष २५ फिल्‍मों में[26] शामिल किया। उसी साल ५० वें वार्षिक फिल्म फेयर पुरस्कार के निर्णायकों ने एक विशेष पुरस्कार दिया जिसका नाम ५० सालों की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म फिल्मफेयर पुरूस्कार था। बॉक्स ऑफिस पर शोले जैसी फ़िल्मों की जबरदस्त सफलता के बाद बच्चन ने अब तक अपनी स्थिति को मजबूत कर लिया था और १९७६ से १९८४ तक उन्हें अनेक सर्वश्रेष्ठ कलाकार वाले फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार और अन्य पुरस्कार एवं ख्याति मिली। हालांकि शोले जैसी फ़िल्मों ने बालीवुड में उसके लिए पहले से ही महान एक्शन नायक का दर्जा पक्का कर दिया था, फिर भी बच्चन ने बताया कि वे दूसरी भूमिकाओं में भी स्वयं को ढाल लेते हैं और रोमांस फ़िल्मों में भी अग्रणी भूमिका कर लेते हैं जैसे कभी कभी (१९७६) और कामेडी फ़िल्मों जैसे अमर अकबर एन्थनी (१९७७) और इससे पहले भी चुपके चुपके (१९७५) में काम कर चुके हैं। १९७६ में इन्हें यश चोपड़ा ने अपनी दूसरी फ़िल्म कभी कभी में साइन कर लिया यह और एक रोमांस की फ़िल्म थी, जिसमें बच्चन ने एक अमित मल्‍होत्रा के नाम वाले युवा कवि की भूमिका निभाई थी जिसे राखी गुलजार द्वारा निभाई गई पूजा नामक एक युवा लड़की से प्रेम हो जाता है। इस बातचीत के भावनात्मक जोश और कोमलता के विषय अमिताभ की कुछ पहले की एक्शन फ़िल्मों तथा जिन्हें वे बाद में करने वाले थे की तुलना में प्रत्यक्ष कटाक्ष किया। इस फिल्‍म ने इन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफेयर पुरस्कार के लिए नामित किया और बॉक्स ऑफिस पर यह एक सफल फ़िल्म थी। १९७७ में इन्होंने अमर अकबर एन्थनी में अपने प्रदर्शन के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफेयर पुरस्कार जीता। इस फ़िल्म में इन्होंने विनोद खन्ना और ऋषि कपूर के साथ एनथॉनी गॉन्सॉलनेज़ के नाम से तीसरी अग्रणी भूमिका की थी। १९७८ संभवत: इनके जीवन का सर्वाधिक प्रशंसनीय वर्ष रहा और भारत में उस समय की सबसे अधिक आय अर्जित करने वाली चार फ़िल्मों में इन्होंने स्टार कलाकार की भूमिका निभाई।[27] इन्‍होंने एक बार फिर कस्मे वादे जैसी फ़िल्मों में अमित और शंकर तथा डॉन में अंडरवर्ल्ड गैंग और उसके हमशक्ल विजय के रूप में दोहरी भूमिका निभाई.इनके अभिनय ने इन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फ़िल्मफेयर पुरस्कार दिलवाए और इनके आलोचकों ने त्रिशूल और मुकद्दर का सिकन्दर जैसी फ़िल्मों में इनके अभिनय की प्रशंसा की तथा इन दोनों फ़िल्मों के लिए इन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला। इस पड़ाव पर इस अप्रत्याशित दौड़ और सफलता के नाते इनके कैरियर में इन्हें फ्रेन्‍काइज ट्रूफोट[28] नामक निर्देशक द्वारा वन मेन इंडस्ट्री का नाम दिया।

१९७९ में पहली बार अमिताभ को मि० नटवरलाल नामक फ़िल्म के लिए अपनी सहयोगी कलाकार रेखा के साथ काम करते हुए गीत गाने के लिए अपनी आवाज का उपयोग करना पड़ा। फ़िल्म में उनके प्रदर्शन के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार पुरुष पार्श्‍वगायक का सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार मिला। १९७९ में इन्हें काला पत्थर (१९७९) में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया गया और इसके बाद १९८० में राजखोसला द्वारा निर्देशित फ़िल्म दोस्ताना में दोबारा नामित किया गया जिसमें इनके सह कलाकार शत्रुघन सिन्हा और जीनत अमान थीं। दोस्ताना वर्ष १९८० की शीर्ष फ़िल्म साबित हुई।[29] १९८१ में इन्होंने यश चोपड़ा की नाटकीयता फ़िल्म सिलसिला में काम किया, जिसमें इनकी सह कलाकार के रूप में इनकी पत्नी जया और अफ़वाहों में इनकी प्रेमिका रेखा थीं। इस युग की दूसरी फ़िल्मों में राम बलराम (१९८०), शान (१९८०), लावारिस (१९८१) और शक्ति (१९८२) जैसी फिल्‍में शामिल थीं, जिन्‍होंने दिलीप कुमार जैसे अभिनेता से इनकी तुलना की जाने लगी थी।[30]

1982 के दौरान कुली की शूटिंग के दौरान चोट[संपादित करें]

१९८२ में कुली फ़िल्म में बच्चन ने अपने सह कलाकार पुनीत इस्सर के साथ एक फाइट की शूटिंग के दौरान अपनी आंतों को लगभग घायल कर लिया था।[31] बच्चन ने इस फ़िल्म में स्टंट अपनी मर्जी से करने की छूट ले ली थी जिसके एक सीन में इन्हें मेज पर गिरना था और उसके बाद जमीन पर गिरना था। हालांकि जैसे ही ये मेज की ओर कूदे तब मेज का कोना इनके पेट से टकराया जिससे इनके आंतों को चोट पहुंची और इनके शरीर से काफी खून बह निकला था। इन्हें जहाज से फोरन स्पलेनक्टोमी के उपचार हेतु अस्पताल ले जाया गया और वहां ये कई महीनों तक अस्पताल में भर्ती रहे और कई बार मौत के मुंह में जाते जाते बचे। यह अफ़वाह भी फैल भी गई थी, कि वे एक दुर्घटना में मर गए हैं और संपूर्ण देश में इनके चाहने वालों की भारी भीड इनकी रक्षा के लिए दुआएं करने में जुट गयी थी। इस दुर्घटना की खबर दूर दूर तक फैल गई और यूके के अखबारों की सुर्खियों में छपने लगी जिसके बारे में कभी किसने सुना भी नहीं होगा। बहुत से भारतीयों ने मंदिरों में पूजा अर्चनाएं की और इन्हें बचाने के लिए अपने अंग अर्पण किए और बाद में जहां इनका उपचार किया जा रहा था उस अस्पताल के बाहर इनके चाहने वालों की मीलों लंबी कतारें दिखाई देती थी। तिसपर भी इन्होंने ठीक होने में कई महीने ले लिए और उस साल के अंत में एक लंबे अरसे के बाद पुन: काम करना आरंभ किया। यह फ़िल्म १९८३ में रिलीज हुई और आंशिक तौर पर बच्चन की दुर्घटना के असीम प्रचार के कारण बॉक्स ऑफिस पर सफल रही।[33]

निर्देशक मनमोहन देसाई ने कुली फ़िल्म में बच्चन की दुर्घटना के बाद फ़िल्म के कहानी का अंत बदल दिया था। इस फ़िल्म में बच्चन के चरित्र को वास्तव में मृत्यु प्राप्त होनी थी लेकिन बाद में स्क्रिप्‍ट में परिवर्तन करने के बाद उसे अंत में जीवित दिखाया गया। देसाई ने इनके बारे में कहा था कि ऐसे आदमी के लिए यह कहना बिल्‍कुल अनुपयुक्त होगा कि जो असली जीवन में मौत से लड़कर जीता हो उसे परदे पर मौत अपना ग्रास बना ले। इस रिलीज फ़िल्म में पहले सीन के अंत को जटिल मोड़ पर रोक दिया गया था और उसके नीचे एक केप्‍शन प्रकट होने लगा जिसमें अभिनेता के घायल होने की बात लिखी गई थी और इसमें दुर्घटना के प्रचार को सुनिश्चित किया गया था।

बाद में ये मियासथीनिया ग्रेविस में उलझ गए जो या कुली में दुर्घटना के चलते या तो भारीमात्रा में दवाई लेने से हुआ या इन्हें जो बाहर से अतिरिक्त रक्त दिया गया था इसके कारण हुआ। उनकी बीमारी ने उन्हें मानसिक और शारीरिक दोनों रूप से कमजोर महसूस करने पर मजबूर कर दिया और उन्होंने फ़िल्मों में काम करने से सदा के लिए छुट्टी लेने और राजनीति में शामिल होने का निर्णन किया। यही वह समय था जब उनके मन में फ़िल्म कैरियर के संबंध में निराशावादी विचारधारा का जन्म हुआ और प्रत्येक शुक्रवार को रिलीज होने वाली नई फ़िल्म के प्रत्युत्तर के बारे में चिंतित रहते थे। प्रत्येक रिलीज से पहले वह नकारात्मक रवैये में जवाब देते थे कि यह फिल्म तो फ्लाप होगी।.[34]

१९८४ में अमिताभ ने अभिनय से कुछ समय के लिए विश्राम ले लिया और अपने पुराने मित्र राजीव गांधी की सपोर्ट में राजनीति में कूद पड़े।[35] उन्होंने इलाहाबाद लोक सभा सीट से उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा को इन्होंने आम चुनाव के इतिहास में (६८.२ %) के मार्जिन से विजय दर्ज करते हुए चुनाव में हराया था।[36] हालांकि इनका राजनीतिक कैरियर कुछ अवधि के लिए ही था, जिसके तीन साल बाद इन्होंने अपनी राजनीतिक अवधि को पूरा किए बिना त्याग दिया। इस त्यागपत्र के पीछे इनके भाई का बोफोर्स विवाद में अखबार में नाम आना था, जिसके लिए इन्हें अदालत में जाना पड़ा।[37] इस मामले में बच्चन को दोषी नहीं पाया गया।

उनके पुराने मित्र अमरसिंह ने इनकी कंपनी एबीसीएल के फेल हो जाने के कारण आर्थिक संकट के समय इनकी मदद कीं। इसके बाद बच्चन ने अमरसिंह की राजनीतिक पाटी समाजवादी पार्टी को सहयोग देना शुरू कर दिया। जया बच्चन ने समाजवादी पार्टी ज्वाइन कर ली और राज्यसभा की सदस्या बन गई।[38] बच्चन ने समाजवादी पार्टी के लिए अपना समर्थन देना जारी रखा जिसमें राजनीतिक अभियान अर्थात प्रचार प्रसार करना शामिल था। इनकी इन गतिविधियों ने एक बार फिर मुसीबत में डाल दिया और इन्हें झूठे दावों के सिलसिलों में कि वे एक किसान हैं के संबंध में कानूनी कागजात जमा करने के लिए अदालत जाना पड़ा I[39]

बहुत कम लोग ऐसे हैं जो ये जानते हैं कि स्‍वयंभू प्रैस ने अमिताभ बच्‍चन पर प्रतिबंध लगा दिया था। स्टारडस्ट और कुछ अन्य पत्रिकाओं ने मिलकर एक संघ बनाया, जिसमें अमिताभ के शीर्ष पर रहते समय १५ वर्ष के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया। इन्होंने अपने प्रकाशनों में अमिताभ के बारे में कुछ भी न छापने का निर्णय लिया। १९८९ के अंत तक बच्चन ने उनके सेटों पर प्रेस के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा रखा था। लेकिन, वे किसी विशेष पत्रिका के खिलाफ़ नहीं थे।[40] ऐसा कहा गया है कि बच्चन ने कुछ पत्रिकाओं को प्रतिबंधित कर रखा था क्योंकि उनके बारे में इनमें जो कुछ प्रकाशित होता रहता था उसे वे पसंद नहीं करते थे और इसी के चलते एक बार उन्हें इसका अनुपालन करने के लिए अपने विशेषाधिकार का भी प्रयोग करना पड़ा।

मंदी के कारण और सेवानिवृत्ति : 1988 -1992[संपादित करें]

१९८८ में बच्चन फ़िल्मों में तीन साल की छोटी सी राजनीतिक अवधि के बाद वापस लौट आए और शहंशाह में शीर्षक भूमिका की जो बच्चन की वापसी के चलते बॉक्स आफिस पर सफल रही।[41] इस वापसी वाली फिल्म के बाद इनकी स्टार पावर क्षीण होती चली गई क्योंकि इनकी आने वाली सभी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर असफल होती रहीं। १९९१ की हिट फिल्म हम से ऐसा लगा कि यह वर्तमान प्रवृति को बदल देगी किंतु इनकी बॉक्स आफिस पर लगातार असफलता के चलते सफलता का यह क्रम कुछ पल का ही था। उल्लेखनीय है कि हिट की कमी के बावजूद यह वह समय था जब अमिताभ बच्चन ने १९९० की फिल्‍म अग्निपथ में माफिया डॉन की यादगार भूमिका के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार, जीते। ऐसा लगता था कि अब ये वर्ष इनके अंतिम वर्ष होंगे क्योंकि अब इन्हें केवल कुछ समय के लिए ही परदे पर देखा जा सकेगा I१९९२ में ख़ुदागवाह के रिलीज होने के बाद बच्चन ने अगले पांच वर्षों के लिए अपने आधे रिटायरमेंट की ओर चले गए। १९९४ में इनके देर से रिलीज होने वाली कुछ फिल्मों में से एक फिल्म इन्सान्यित रिलीज तो हुई लेकिन बॉक्स ऑफिस पर असफल रही।[42]

निर्माता और अभिनय की वापसी 1996 -1999[संपादित करें]

अस्थायी सेवानिवृत्ति की अवधि के दौरान बच्चन निर्माता बने और अमिताभ बच्चन कारपोरेशन लिमिटेड की स्थापना की। ए;बी;सी;एल;) १९९६ में वर्ष २००० तक १० बिलियन रूपए (लगभग २५० मिलियन अमरीकी डॉलर) वाली मनोरंजन की एक प्रमुख कंपनी बनने का सपना देखा। एबीसीएल की रणनीति में भारत के मनोरंजन उद्योग के सभी वर्गों के लिए उत्पाद एवं सेवाएं प्रचलित करना था। इसके ऑपरेशन में मुख्य धारा की व्यावसायिक फ़िल्म उत्पादन और वितरण, ऑडियो और वीडियो कैसेट डिस्क, उत्पादन और विपणन के टेलीविजन सॉफ्टवेयर, हस्ती और इवेन्ट प्रबंधन शामिल था। १९९६ में कंपनी के आरंभ होने के तुरंत बाद कंपनी द्वारा उत्पादित पहली फिल्म तेरे मेरे सपने थी जो बॉक्स ऑफिस पर विफल रही लेकिन अरशद वारसी दक्षिण और फिल्मों के सुपर स्टार सिमरन जैसे अभिनेताओं के करियर के लिए द्वार खोल दिए। एबीसीएल ने कुछ फिल्में बनाई लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म कमाल नहीं दिखा सकी।

१९९७ में, एबीसीएल द्वारा निर्मित मृत्युदाता, फिल्म से बच्चन ने अपने अभिनय में वापसी का प्रयास किया। यद्यपि मृत्युदाता ने बच्चन की पूर्व एक्शन हीरो वाली छवि को वापस लाने की कोशिश की लेकिन एबीसीएल के उपक्रम, वाली फिल्म थी और विफलता दोनों के आर्थिक रूप से गंभीर है। एबीसीएल १९९७ में बंगलौर में आयोजित १९९६ की मिस वर्ल्ड सौंदर्य प्रतियोगिता, का प्रमुख प्रायोजक था और इसके खराब प्रबंधन के कारण इसे करोड़ों रूपए का नुकसान उठाना पड़ा था। इस घटनाक्रम और एबीसीएल के चारों ओर कानूनी लड़ाइयों और इस कार्यक्रम के विभिन्न गठबंधनों के परिणामस्वरूप यह तथ्य प्रकट हुआ कि एबीसीएल ने अपने अधिकांश उच्च स्तरीय प्रबंधकों को जरूरत से ज्यादा भुगतान किया है जिसके कारण वर्ष १९९७ में वह वित्तीय और क्रियाशील दोनों तरीके से ध्वस्त हो गई। कंपनी प्रशासन के हाथों में चली गई और बाद में इसे भारतीय उद्योग मंडल द्वारा असफल करार दे दिया गया। अप्रेल १९९९ में मुबंई उच्च न्यायालय ने बच्चन को अपने मुंबई वाले बंगला प्रतीक्षा और दो फ्लैटों को बेचने पर तब तक रोक लगा दी जब तक कैनरा बैंक की राशि के लौटाए जाने वाले मुकदमे का फैसला न हो जाए। बच्चन ने हालांकि दलील दी कि उन्होंने अपना बंग्ला सहारा इंडिया फाइनेंस के पास अपनी कंपनी के लिए कोष बढाने के लिए गिरवी रख दिया है।[43]

बाद में बच्चन ने अपने अभिनय के कैरियर को संवारने का प्रयास किया जिसमें उसे बड़े मियाँ छोटे मियाँ (१९९८)[44] से औसत सफलता मिली और सूर्यावंशम (१९९९)[45], से सकारात्मक समीक्षा प्राप्त हुई लेकिन तथापि मान लिया गया कि बच्चन की महिमा के दिन अब समाप्त हुए चूंकि उनके बाकी सभी फिल्में जैसे लाल बादशाह (१९९९) और हिंदुस्तान की कसम (१९९९) बॉक्स ऑफिस पर विफल रही हैं।

'कौन बनेगा करोड़पति-५' के प्रेस सम्मेलन के समय अमिताभ बच्चन

वर्ष २००० में, अमिताभ बच्चन ने ब्रिटिश टेलीविजन शो के खेल, हू वाण्टस टु बी ए मिलियनेयर को भारत में अनुकूलन हेतु कदम बढाया। शीर्ष‍क कौन बनेगा करोड़पति, जैसा कि यह अधिकांशत: अन्य देशों में चला था, कार्यक्रम को तत्काल और गहरी सफलता मिली जिसमें बच्चन के करिश्मे का भी छोटे रूप में योगदान था। यह माना जाता है कि बच्चन ने इस कार्यक्रम के संचालन के लिए साप्ताहिक प्रकरण के लिए अत्यधिक २५ लाख रुपए (२,५ लाख रुपए भारतीय, अमेरिकी डॉलर लगभग ६००००) लिए थे, जिसके कारण बच्चन और उनके परिवार को नैतिक और आर्थिक दोनों रूप से बल मिला। इससे पहले एबीसीएल के बुरी तरह असफल हो जाने से अमिताभ को गहरे झटके लगे थे। नवंबर २००० में केनरा बैंक ने भी इनके खिलाफ अपने मुकदमे को वापस ले लिया। बच्चन ने केबीसी का आयोजन नवंबर २००५ तक किया और इसकी सफलता ने फिल्म की लोकप्रियता के प्रति इनके द्वार फिर से खोल दिए।।

सत्ता में वापस लौटे: 2000 - वर्तमान[संपादित करें]

मोहब्बतें (२०००) फ़िल्म में स्क्रीन के सामने शाहरुख खान के साथ सह कलाकार के रूप में वापस लौट आए।

प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने हिंदी फ़िल्म ब्लैक में अमिताभ के अभिनय के लिए वर्ष २००५ का सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म अभिनेता का फ़िल्मफेयर पुरस्कार दिया।

सन् २००० में अमिताभ बच्चन जब आदित्य चोपड़ा, द्वारा निर्देशित यश चोपड़ा' की बॉक्स ऑफिस पर सुपर हिट फ़िल्म मोहब्बतें में भारत की वर्तमान घड़कन शाहरुख खान.के चरित्र में एक कठोर की भूमिका की तब इन्हें अपना खोया हुआ सम्मान पुन: प्राप्त हुआ। दर्शक ने बच्चन के काम की सराहना की है, क्योंकि उन्होंने एक ऐसे चरित्र की भूमिका निभाई, जिसकी उम्र उनकी स्वयं की उम्र जितनी थी और अपने पूर्व के एंग्री यंगमैन वाली छवि (जो अब नहीं है) के युवा व्यक्ति से मिलती जुलती भूमिका थी। इनकी अन्य सफल फ़िल्मों में बच्चन के साथ एक बड़े परिवार के पितृपुरुष के रूप में प्रदर्शित होने में एक रिश्ता:द बॉन्ड ओफ लव (२००१), कभी ख़ुशी कभी ग़म (२००१) और बागबान (२००३) हैं। एक अभिनेता के रूप में इन्होंने अपनी प्रोफाइल के साथ मेल खाने वाले चरित्रों की भूमिकाएं करनी जारी रखीं तथा अक्स (२००१), आंखें (२००२), खाकी (२००४), देव (२००४) और ब्लैक (२००५) जैसी फ़िल्मों के लिए इन्हें अपने आलोचकों की प्रशंसा भी प्राप्त हुई। इस पुनरुत्थान का लाभ उठाकर, अमिताभ ने बहुत से टेलीविज़न और बिलबोर्ड विज्ञापनों में उपस्थिति देकर विभिन्न किस्मों के उत्पाद एवं सेवाओं के प्रचार के लिए कार्य करना आरंभ कर दिया। २००५ और २००६ में उन्होंने अपने बेटे अभिषेक के साथ बंटी और बबली (२००५), द गॉडफ़ादर श्रद्धांजलि सरकार (२००५), और कभी अलविदा ना कहना (२००६) जैसी हिट फ़िल्मों में स्टार कलाकार की भूमिका की। ये सभी फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर अत्यधिक सफल रहीं।[46][47] २००६ और २००७ के शुरू में रिलीज उनकी फ़िल्मों में बाबुल (२००६), और[48]एकलव्य , निशब्द|निःशब्द (२००७) बॉक्स ऑफिस पर असफल रहीं किंतु इनमें से प्रत्येक में अपने प्रदर्शन के लिए आलोचकों[49] से सराहना मिली। इन्होंने चंद्रशेखर नागाथाहल्ली द्वारा निर्देशित कन्नड फ़िल्म अमृतधारा में मेहमान कलाकार की भूमिका की है।

मई २००७ में, इनकी दो फ़िल्मों में से एक चीनी कम और बहु अभिनीत शूटआउट एट लोखंडवाला रिलीज हुईशूटआउट एट लोखंडवाला बॉक्स ऑफिस पर बहुत अच्छी रही और भारत[50] में इसे हिट घोषित किया गया और चीनी कम ने धीमी गति से आरंभ होते हुए कुल मिलाकर औसत हिट का दर्जा पाया।[51]

अगस्त २००७ में, (१९७५) की सबसे बड़ी हिट फ़िल्म शोले की रीमेक बनाई गई और उसे राम गोपाल वर्मा की आग शीर्षक से जारी किया गया। इसमें इन्होंने बब्बन सिंह (मूल गब्बर सिंह के नाम से खलनायक की भूमिका अदा की जिसे स्वर्गीय अभिनेता अमजद ख़ान द्वारा १९७५ में मूल रूप से निभाया था। यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर बेहद नाकाम रही और आलोचना करने वालो ने भी इसकी कठोर निंदा की।[50]

उनकी पहली अंग्रेजी भाषा की फ़िल्म रितुपर्णा घोष द लास्ट ईयर का वर्ष २००७ में टोरंटो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में ९ सितंबर, २००७ को प्रीमियर लांच किया गया। इन्हें अपने आलोचकों से सकारात्मक समीक्षाएं मिली हैं जिन्होंने स्वागत के रूप में ब्लेक.[52] में अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के बाद से अब तक सराहना की है।

बच्चन शांताराम नामक शीर्षक वाली एवं मीरा नायर द्वारा निर्देशित फ़िल्म में सहायक कलाकार की भूमिका करने जा रहे हैं जिसके सितारे हॉलीवुड अभिनेता जॉनी डेप हैं। इस फ़िल्म का फ़िल्मांकन फरवरी २००८ में शुरू होना था, लेकिन लेखक की हड़ताल की वजह से, इस फ़िल्म को सितम्बर २००८ में फ़िल्मांकन हेतु टाल दिया गया।[53]

९ मई २००८, भूतनाथ (फिल्म) फ़िल्म में इन्होंने भूत के रूप में शीर्षक भूमिका की जिसे रिलीज किया गया। जून २००८ में रिलीज हुई उनकी नवीनतम फ़िल्म सरकार राज जो उनकी वर्ष २००५ में बनी फ़िल्म सरकार का परिणाम है।

नवंबर 2005 में, अमिताभ बच्चन को एक बार फिर लीलावती अस्पताल की आईसीयू में विपटीशोथ के छोटी आँत [54] की सर्जरी लिए भर्ती किया गया। उनके पेट में दर्द की शिकायत के कुछ दिन बाद ही ऐसा हुआ। इस अवधि के दौरान और ठीक होने के बाद उसकी ज्यादातर परियोजनाओं को रोक दिया गया जिसमें कौन बनेगा करोड़पति का संचालन करने की प्रक्रिया भी शामिल थी। भारत भी मानो मूक बना हुआ यथावत जैसा दिखाई देने लगा था और इनके चाहने वालों एवं प्रार्थनाओं के बाद देखने के लिए एक के बाद एक, हस्ती देखने के लिए आती थीं। इस घटना के समाचार संतृप्त कवरेज भर अखबारों और टीवी समाचार चैनल में फैल गए। अमिताभ मार्च २००६ में काम करने के लिए वापस लौट आए।[55]

बच्चन अपनी जबरदस्त आवाज़ के लिए जाने जाते हैं। वे बहुत से कार्यक्रमों में एक वक्ता, पार्श्वगायक और प्रस्तोता रह चुके हैं। बच्चन की आवाज से प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक सत्यजीत रे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने शतरंज के खिलाड़ी में इनकी आवाज़ का उपयोग कमेंटरी के लिए करने का निर्णय ले लिया क्योंकि उन्हें इनके लिए कोई उपयुक्त भूमिका नहीं मिला था।[56] फ़िल्म उद्योग में प्रवेश करने से पहले, बच्चन ने ऑल इंडिया रेडियो में समाचार उद्घोषक, नामक पद हेतु नौकरी के लिए आवेदन किया जिसके लिए इन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया था।

के लिए भागदौड़ उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव, २००७, अमिताभ बच्चन ने एक फ़िल्म बनाई जिसमें मुलायम सिंह सरकार के गुणगाणों का बखान किया गया था। उसका समाजवादी पार्टी मार्ग था और मायावती सत्ता में आई। २ जून, २००७, फैजाबाद अदालत ने इन्हें आदेश दिया कि इन्होंने भूमिहीन दलित किसानों के लिए विशेष रूप से आरक्षित भूमि को अवैध रूप से अधिग्रहीत किया है।[57] जालसाजी से संबंधित आरोंपों के लिए इनकी जांच की जा सकती है। जैसा कि उन्होंने दावा किया कि उन्हें कथित तौर पर एक किसान माना जाए[58] यदि वह कहीं भी कृषिभूमि के स्वामी के लिए उत्तीर्ण नहीं कर पाते हैं तब इन्हें 20 एकड़ फार्महाउस की भूमि को खोना पड़ सकता है जो उन्होंने मावल पुणे.[57] के निकट खरीदी थी। १९ जुलाई २००७ के बाद घेटाला खुलने के बाद बच्चन ने बाराबंकी उत्तर प्रदेश और पुणे में अधिग्रहण की गई भूमि को छोड़ दिया। उन्होंने महाराष्ट्र, के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख को उनके तथा उनके पुत्र अभिषेक बच्चन द्वारा पुणे[59] में अवैध रूप से अधिग्रहण भूमि को दान करने के लिए पत्र लिखा। हालाँकि, लखनऊ की अदालत ने भूमि दान पर रोक लगा दी और कहा कि इस भूमि को पूर्व स्थिति में ही रहने दिया जाए।

१२ अक्टूबर २००७ को, बच्चने ने बाराबंकी जिले[60] के दौलतपुर गांव की इस भूमि के दावे को छोड़ दिया। ११ दिसम्बर २००७ को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनव खंडपीठ ने बाराबंकी जिले में इन्हें अवैध रूप से जमीन आंवटित करने के मामले में हरी झंडी दे दी। बच्चन को हरी झंडी देते हुए लखनऊ की एकल खंडपीठ के न्यायधीश ने कहा कि ऐसे कोई सबूत नहीं मिले हैं जिनसे प्रमाणित हो कि अभिनेता ने राजस्व अभिलेखों[61][62] में स्वयं के द्वारा कोई हेराफेरी अथवा फेरबदल किया हो।

बाराबंकी मामले में अपने पक्ष में सकारात्मक फैसला सुनने के बाद बच्चन ने महाराष्ट्र सरकार को सूचित किया कि पुणे जिले[63] की मारवल तहसील में वे अपनी जमीन का आत्मसमर्पण करने के लिए तैयार नहीं हैं।

जनवरी 2008 में राजनीतिक रैलियों पर, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे ने अमिताभ बच्चन को अपना निशाना बनाते हुए कहा कि ये अभिनेता महाराष्ट्र की तुलना में अपनी मातृभूमि के प्रति अधिक रूचि रखते हैं। उन्होंने अपनी बहू अभीनेत्री एश्वर्या राय बच्चन के नाम पर लड़कियों का एक विद्यालय महाराष्‍ट्र[64] के बजाय उत्तर प्रदेश के बाराबंकी में उद्घाटन के लिए अपनी नामंजूरी दी.मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, अमिताभ के लिए राज की आलोचना, जिसकी वह प्रशंसा करते हैं, अमिताभ के पुत्र अभिषेक का ऐश्वर्या के साथ हुए विवाह में आमंत्रित न किए जाने के कारण उत्पन्न हुई जबकि उनसे अलग रह रहे चाचा बाल और चचेरे भाई उद्धव को आमंत्रित किया गया था।[65][66]

राज के आरोपों के जवाब में, अभिनेता की पत्नी जया बच्चन जो सपा सांसद हैं ने कहा कि वे (बच्चन परिवार) मुंबई में एक स्कूल खोलने की इच्छा रखते हैं बशर्ते एमएनएस के नेता उन्हें इसका निर्माण करने के लिए भूमि दान करें.उन्होंने मीडिया से कहा, " मैंने सुना है कि राज ठाकरे के पास महाराष्ट्र में मुंबई में कोहिनूर मिल की बड़ी संपत्ति है। यदि वे भूमि दान देना चाहते हैं तब हम यहां ऐश्वर्या राय के नाम पर एक स्कूल चला चकते हैं।[67] इसके आवजूद अमिताभ ने इस मुद्दे पर कुछ भी कहने से इंकार कर दिया।

बाल ठाकरे ने आरोपों का खंडन करते हुए कहा कि अमिताभ बच्चन एक खुले दिमाग वाला व्यक्ति है और महाराष्ट्र के लिए उनके मन में विशेष प्रेम है जिन्हें कई अवसरों पर देखा जा चुका है।इस अभिनेता ने अक्सर कहा है कि महाराष्ट्र और खासतौर पर मुंबई ने उन्हें महान प्रसिद्धि और स्नेह दिया है। .उन्होंने यह भी कहा है कि वे आज जो कुछ भी हैं इसका श्रेय जनता द्वारा दिए गए प्रेम को जाता है। मुंबई के लोगों ने हमेशा उन्हें एक कलाकार के रूप में स्वीकार किया है। उनके खिलाफ़ इस प्रकार के संकीर्ण आरोप लगाना नितांत मूर्खता होगी। दुनिया भर में सुपर स्टार अमिताभ है। दुनिया भर के लोग उनका सम्मान करते हैं। इसे कोई भी नहीं भुला सकता है। अमिताभ को इन घटिया आरोपों की उपेक्षा करनी चाहिए और अपने अभिनय पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।"[68] कुछ रिपोर्टों के अनुसार अमिताभ की राज के द्वारा की गई गणना के अनुसार जिनकी उन्हें तारीफ करते हुए बताया जाता है, को बड़ी निराश हुई जब उन्हें अमिताभ के बेटे अभिषेक की ऐश्वर्या के साथ विवाह में आमंत्रित नहीं किया गया जबकि उनके रंजिशजदा चाचा बाल और चचेरे भाई उद्धव[65][66] को आमंत्रित किया गया था।

मार्च २३, २००८ को राज की टिप्पणियों के लगभग डेढ महीने बाद अमिताभ ने एक स्थानीय अखबार को साक्षात्कार देते हुए कह ही दिया कि, अकस्मात लगाए गए आरोप अकस्मात ही लगते हैं और उन्हें ऐसे किसी विशेष ध्यान की जरूरत नहीं है जो आप मुझसे अपेक्षा रखते हैं।[69] इसके बाद २८ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय भारतीय फ़िल्म अकादमी के एक सम्मेलन में जब उनसे पूछा गया कि प्रवास विरोधी मुद्दे पर उनकी क्या राय है तब अमिताभ ने कहा कि यह देश में किसी भी स्थान पर रहने का एक मौलिक अधिकार है और संविधान ऐसा करने की अनुमति देता है।[70] उन्होंने यह भी कहा था कि वे राज की टिप्पणियों से प्रभावित नहीं है।[71] पनामा पेपर्स के बाद पैराडाइज़ पेपर्स में भी अमिताभ बच्चन का नाम, KBC-1 के बाद विदेशी कंपनी में लगाया था पैसा

राष्ट्रीय गीत का लेखक कौन है?

- बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय बंगला के प्रख्यात उपन्यासकार, कवि, गद्यकार और पत्रकार थे. भारत के राष्ट्रीय गीत 'वन्दे मातरम्' उनकी ही रचना है, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के काल में क्रान्तिकारियों का प्रेरणास्रोत बन गया था. रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पूर्ववर्ती बांग्ला साहित्यकारों में उनका अन्यतम स्थान है.

राष्ट्रीय गीत के प्रथम गायक कौन थे?

सन् १८९६ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने यह गीत गाया। पाँच साल बाद यानी सन् १९०१ में कलकत्ता में हुए एक अन्य अधिवेशन में श्री चरणदास ने यह गीत पुनः गाया। सन् १९०५ के बनारस अधिवेशन में इस गीत को सरलादेवी चौधरानी ने स्वर दिया।

राष्ट्रीय गान की रचना कब हुई?

राष्ट्रगान लिखने वाले देश के नोबल पुरस्कार प्राप्त राष्ट्रकवि गुरुदेव रविन्द्रनाथ टैगोर थे। उन्होंने वर्ष 1911 में ही इस गीत की रचना की थी। उन्होंने पहले राष्ट्रगान को बंगाली में लिखा था। बाद में आबिद अली ने इसका हिंदी और उर्दू में रूपांतरण किया था।

राष्ट्रीय गीत कौन गया है?

जन गण मन भारत का राष्ट्रगान है जो मूल रूप से गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा बंगाली में लिखा गया है। भारत का राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम है।