पर्यावरणीय समस्या जनसंख्या वृद्धि से कैसे संबंधित है? - paryaavaraneey samasya janasankhya vrddhi se kaise sambandhit hai?

  • जनसंख्या का पर्यावरण पर प्रभाव
  • जनसंख्या एवं पर्यावरण में सम्बन्ध

जनसंख्या का पर्यावरण पर प्रभाव

बढ़ती हुई जनसंख्या का प्रभाव पर्यावरण अवनयन के रूप में दृष्टिगोचर होने लगा है। जनसंख्या की वृद्धि के कारण जल, वायु, ध्वनि एवं भूमि जैसे भौतिक तत्वों की गुणवत्ता में कमी आई है। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण एवं मृदा (Soil) प्रदूषण के कारण एक-तिहाई जनसंख्या विभिन्न बीमारियों एवं मानसिक तनाव से ग्रस्त है जिसका प्रभाव जनसंख्या की कार्यक्षमता पर पड़ता है। जनसंख्या वृद्धि का प्रभाव कुपोषण, भीड़-भाड़, बेरोजगारी, गंदी बस्तियों के विकास आदि के रूप में भी हुआ।

जनसंख्या एवं असन्तुलित पर्यावरण– आज जनसंख्या वृद्धि एवं असन्तुलित पर्यावरण का विश्वव्यापी प्रभाव पड़ता है। परिणामस्वरूप पृथ्वी बचाओ और प्रकृति को जीवित रखो तथा जनसंख्या वृद्धि को सीमित रखो आदि अनेक प्रकार के सम्मेलनों के आयोजन किये जाते हैं। प्रकृति ने मानव प्रजाति के लिए ढेर सारे आहार निःशुल्क प्रदान किये हैं, किन्तु मनुष्य ने अपने हित के साथ विकास के लिए सुख एवं विलासितापूर्ण जीवनयापन को प्रकृति का विदोहन करना सरल कर दिया है। इसी प्रकार मनुष्य, पशु-पक्षी तथा वनस्पतियों के अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो गया है।

पर्यावरणीय समस्या जनसंख्या वृद्धि से कैसे संबंधित है? - paryaavaraneey samasya janasankhya vrddhi se kaise sambandhit hai?

वर्तमान में जहाँ जनसंख्या वृद्धि आर्थिक विकास के पथ पर अग्रसर होने हेतु प्रयत्नशील है वहाँ सन्तुलित पर्यावरण की वृद्धि भी उत्तरदायी है। पर्यावरण असन्तुलन की दशा निर्मित करने में सहायक है। वैज्ञानिक उन्नति के कारण महामारियों पर विजय प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की है, किन्तु बढ़ती जनसंख्या के कारण विश्व में संसाधनों का अभाव सा होने लगा है। आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रकृति का अधिकाधिक दोहन होने लगा है। समाज में भौतिकवादी मान्यताओं का ऐसा विस्तार हुआ है कि प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर रहने वाले मानव ने अपनी इस निर्भरता को प्रकृति के प्रति निर्ममता और शोषण में परिवर्तित कर दिया है। आज विकास की अवधारणा में रोचकता के प्रवेश के कारण ही मानव प्राणियों एवं विश्व से सम्बन्ध समाप्त हो गये। प्रकृति हमारे लिए आज शोषण की वस्तु बन गई है।

भारत में बढ़ती जनसंख्या एवं पर्यावरण असन्तुलन– भारत में बढ़ती जनसंख्या बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी की ही वृद्धि नहीं कर रही है अपितु वह प्रकृति पर भी अपना दुष्प्रभाव डाल रही है। बढ़ती जनसंख्या पर्यावरण सन्तुलन का प्रमुख कारण है। जनसंख्या वृद्धि का पर्यावरण पर बहुआयामी असर होता है। विश्व की सम्पूर्ण क्रियाएँ मनुष्य के लिए होती हैं। इस प्रकार जन्म के साथ ही मनुष्य को खाद्यान्न आपूर्ति हेतु खेतों में उचित ढंग से खाद व कीटनाशकों का उपयोग किया जाता है जो एक साथ जल व वायु प्रदूषित करने के साथ खाद्यान्नों, फलों-सब्जियों के माध्यम से मानव-जीवन में जहर घोलते हैं। साथ ही कृषि के लिए उपयोगी कीड़ों-मकोड़ों को भी मार देते हैं। इसके अलावा जनसंख्या वृद्धि का प्रभाव कृषि-योग्य भूमि को कम करने पर भी पड़ रहा है। वस्तुतः बढ़ती जनसंख्या पर्यावरण को बिगाड़ने, असन्तुलन करने में अहम् भूमिका का निर्वाह कर रही है। बढ़ती जनसंख्या के कारण प्राकृतिक सम्पदाओं का न केवल ह्रास हुआ है अपितु निर्मम और अवैज्ञानिक दोहन से पर्यावरण की क्षति हुई है।

जनसंख्या एवं पर्यावरण में सम्बन्ध

आज बढ़ती हुई जनसंख्या को गम्भीरता से लिया जा रहा है क्योंकि इसका प्रभाव प्रकृति पर पड़ रहा है और अपना सन्तुलन खोती जा रही है, परिणामस्वरूप असन्तुलित प्रकृति का ताण्डव हमारे जैवमण्डल पर खुला दिखाई देता है। पर्यावरण असन्तुलन के सम्बन्ध में माल्थस ने सैकड़ों वर्ष पूर्व में ही कह दिया था और कहा था कि यदि आत्म संयम और कृत्रिम साधनों से जनसंख्या को नियंत्रित नहीं किया गया तो, प्रकृति अपने क्रूर हाथों से इसे नियन्त्रित करने की ओर अग्रसर होगी।

हमारे चारों ओर के वातावरण को देखा जाए तो प्रकृति ने अपना क्रोध प्रकट करना प्रारम्भ कर दिया है। सबसे बड़ा संकट ग्रीन हाउस (Green house) प्रभाव से उत्पन्न हुआ है जिसके प्रभाव से वातावरण के प्रदूषण के साथ ही पृथ्वी के ताप में वृद्धि होने और समुद्र के स्तर के ऊपर उठने की भयानक स्थिति पैदा हो रही है। ग्रीन हाउस प्रभाव वायुमण्डल में कार्बन डाइ-ऑक्साइड, मीथेन, क्लोरो-फ्लोरो कार्बन आदि गैसों की मात्रा बढ़ जाने से उत्पन्न होता है। ये गैस पृथ्वी द्वारा अवशोषित सूर्य ऊष्मा को पुनः भूसतह को वापस कर देती है जिससे पृथ्वी के निचले वायुमण्डल में अतिरिक्त ऊष्मा के जमाव के कारण पृथ्वी के तापक्रम में वृद्धि हो जाती है। तापक्रम बढ़ने के कारण आर्कटिक समुद्र और अंटार्कटिका महाद्वीप के विशाल हिमखण्डों के पिघलने के कारण समुद्र के जल स्तर में वृद्धि हो रही है। फलस्वरूप समुद्र तटों से घिरे कई देशों के अस्तित्व को संकट उत्पन्न हो गया है। भारत के समुद्रतटीय क्षेत्रों के सम्बन्ध में भी ऐसी ही आशंका उत्पन्न होने लगी है। बढ़ती जनसंख्या पर्यावरण को निम्न प्रकार से प्रभावित करती है-

1. उद्योगों की बढ़ती संख्या, 2. वनों की अत्यधिक कटाई, 3. वाहनों का बढ़ता हुआ प्रयोग।

इस प्रकार उद्योग, वन एवं वाहनों के कारण हमारा पर्यावरण प्रभावित हो रहा है। जब तक जनसंख्या पर नियन्त्रण नहीं लगाया जाता, तब तक पर्यावरण में सुधार करना कठिन है क्योंकि जनसंख्या एवं पर्यावरण में सीधा सम्बन्ध है। जनसंख्या बढ़ने से पर्यावरण असन्तुलित हो जाता है। वस्तुतः भावी पीढ़ियों को स्वस्थ पर्यावरण में नीचे के लिए सक्रिय कदम उठाने की आवश्यकता है तथा पर्यावरण का सन्तुलन बिगड़े नहीं और मानव-जीवन सभी प्रकार के प्रदूषणों से अप्रभावित रहे, ऐसे कदम उठाने की आवश्यकता है।

पर्यावरण समस्या जनसंख्या वृद्धि से कैसे संबंधित है?

वायुमण्डल में ग्रीन हाउस गैसों की वृद्धि का कारण बढ़ती हुई जनसंख्या की निरंतर बढ़ रही आवश्यकताओं से जुड़ा हुआ है। जब एक देश की जनसंख्या बढ़ती है तो वहाँ की आवश्यकताओं के अनुरूप उद्योगों की संख्या बढ़ जाती है। आवास समस्या के निराकरण के रूप में शहरों का फैलाव बढ़ जाता है जिससे वनों की अंधाधुंध कटाई होती है।

जनसंख्या वृद्धि का पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है?

जनसंख्या वृद्धि से पर्यावरणीय प्रभाव भोजन-कपड़ा-मकान जैसी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति में कमी। प्राकृतिक संसाधन जैसे वायु, जल, वनस्पति की सीमित उपलब्धता। वनों का विनाश, प्राण वायु (ऑक्सीजन) की कमी एवं कार्बन डाइऑक्साइड की अधिकता। अनियंत्रित भीड़ आदि।।

जनसंख्या और पर्यावरण में क्या संबंध है?

पर्यावरण एवं जनसंख्या मनुष्य ही प्राकृतिक पर्यावरण को संवारता भी है और नष्ट भी करता है और स्वयं उससे प्रभावित भी होता है। इसलिए मनुष्य और पर्यावरण का घनिष्ट सम्बन्ध है। जनसंख्या वृद्धि किसी देश के लिए लाभदायक है अथवा हानिकारक यह उस देश के प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता पर निर्भर करती है।