लैंगिक समानता लैंगिक समानता क्या है? आखिर क्यों यह किसी भी समाज और राष्ट्र के लिए एक आवश्यक तत्त्व बन गया है? क्या बदलते समाज में यह प्रासंगिक है? लैंगिक समानता का अर्थ यह नहीं की
समाज का प्रत्येक व्यक्ति एक लिंग का हो अपितु लैंगिक समानता का सीधा सा अर्थ समाज में महिला तथा पुरुष के समान अधिकार, दायित्व तथा रोजगार के अवसरों के परिप्रेक्ष्य में है। जिस प्रकार तराजू में दोनों तरफ बराबर भार रखने पर वह संतुलित होता है ठीक उसी तरह किसी भी समाज व राष्ट्र में संतुलन बनाने के लिए जरूरी है की वहाँ पुरुषों तथा स्त्रियों के मध्य लैंगिक समानता स्थापित की जानी चाहिए। आज आधुनिकता की जीवन शैली को अपनाने के बावजूद भारतीय समाज लैंगिक समानता के मामले में इतना पिछड़ा हुआ है। सही मायनों में देखा जाए तो लैंगिक समानता का न होना ही समाज मे असंतुलन और अपराध को जन्म देता है। यह बहुत जरूरी है कि हर क्षेत्र में चाहे वह शिक्षा हो, राजनीति हो, रोजगार हो, अवसर या अधिकार हो हर छेत्र में लैंगिक समानता को ध्यान में रखा जाना चाहिए। जिस तरह एक सिक्के के दोनों पहलुओं की समानता है ठीक उसी तरह समाज के दोनों पहलुओं स्त्री तथा पुरूष के मध्य भी लैंगिक समानता होनी चाहिए। सरकार द्वारा लैंगिक समानता के स्तर को ऊंचा उठाने हेतु कई योजनाएं लागू की जा रही हैं किंतु फिर भी भारत इस मामले में पिछड़ा हुआ है। अब आवश्यकता है समाज के बुनियादी ढांचे को बदलकर दकियानूसी सोच को ख़त्म करने की। लैंगिक समानता के लिए समाज से न केवल स्त्रियों को बल्कि शिक्षित वर्ग को भी जनजागरण का कार्य करना होगा ताकि अपराधों में रोकथाम के साथ ही महिलाओं के आधिकारिक व कार्यस्थल में हो रहे शोषण का खात्मा किया जा सके। लैंगिक समानता की राह में अवरोधक:- पितृसत्तात्मक समाज:- पितृसत्तात्मक समाज ही लैंगिक समानता में सबसे बड़ा अवरोधक है। आज भी भारतीय समाज अपनी सदियों पुरानी अवधारणा को अपना रहा है, जिसके चलते आज समाज की मानसिकता केवल इस बात मात्र तक सीमित हो चुकी है कि हमारा समाज पितृसत्तात्मक हो अर्थात पुरुषों की प्रधानता। यदि लैंगिक समानता के स्तर को उठाना है तो यह अत्यंत आवश्यक है कि समाज की इस मानसिकता में परिवर्तन लाया जाए तथा समाज न केवल पितृसत्तात्मक अपितु मातृसत्तात्मक भी बनाया जाए। सामाजिक परंपरा एवम कुरीतियां:- यह किसी से छुपा नहीं है कि आज भी समाज के अधिकतर हिस्सों में अपनी पुरानी परंपराओं जो सदियों से चली आ रही हैं एवं कुरीतियों जो प्रायः अंधविश्वास व वहम पर आधारित होती हैं को स्वीकृति दी जा रही है। लैंगिक समानता के मुख्य कारक:- शैक्षणिक स्तर:- एक विकसित राष्ट्र का सबसे महत्वपूर्ण अंग वहाँ की साक्षर जनता होती है। आज आधुनिक युग में व्यक्ति की साक्षरता ही उसकी पहचान बनती है जो व्यक्ति साक्षर है वही एक उज्ज्वल भविष्य के स्वप्न को हकीकत में जी सकता है। यदि समाज में लैंगिक समानता को बनाए रखना है तो सबसे महत्वपूर्ण कदम के रूप में हमे स्त्री तथा पुरूष के शैक्षणिक स्तर को समान करना होगा। स्त्री शिक्षा पर अधिक जोर देना होगा ताकि वह भी पुरुष की बराबरी कर सके। इस छेत्र में सरकार द्वारा भी अनेको कदम उठाए जा रहे हैं। उदाहरणार्थ- "बेटी-बचाओ, बेटी-पढ़ाओ" सरकार का एक सफल कार्यक्रम है। रोजगार के समान अवसर:- यह जरूरी है कि रोजगार के अवसर लिंग के आधार पर न निर्धारित हों, अपितु इन्हें कार्य कौशल के आधार पर निर्धारित किया जाना चाहिए। ऐसा करने से महिलाओं का न केवल जीवन स्तर ऊंचा होगा बल्कि साथ ही साथ वे राष्ट निर्माण में पुरुषों के समान ही अपनी भूमिका निभा सकेंगी, फलस्वरूप लैंगिक समानता स्वतः ही समाज में कामयाबी से पाँव जमा लेगी। डब्ल्यूइएफ की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक भारत लैंगिक समानता के छेत्र में विश्व में 108वें स्थान पर है, रिपोर्ट के आधार पर यह बात सामने आती है कि पिछले वर्ष के मुताबिक भारत लैंगिक भेदभाव को 67% तक कम करने में सफल रहा है। इस तरह यदि स्त्री-पुरूष को साथ लेकर चल जाए तो न केवल लैंगिक समानता के मामले में राष्ट्र प्रथम स्थान पर होगा साथ ही राष्ट्र प्रगति भी करेगा और विकासशील से विकसित की श्रेणी में गिना जाएगा। इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट
सावित्री बाई फुले किसने कहा साहब की भारतीय नारी कमज़ोर है? कमज़ोर तो है, मगर महिला नहीं हमारे समाज की मानसिकता। मानसिकता ही तो है जो समाज में कुरीतियों का कारक और सदाचार के भाव दोनों ही उत्पन्न कर सकती है। न नारी आज कमज़ोर है न 150 वर्ष पूर्व थी, न वह आज मजबूर है न 150 वर्ष पूर्व मजबूर थी, बस अगर वह थी तो सिर्फ चुप। नारी शिक्षा की चमक उत्पन्न करने वाली भी एक नारी ही थी जिसने अपने जीवन को लक्ष्य व उद्देश्य के भावों के साथ जीने का निर्णय लिया था। समाज सुधार करते हुए सामने आई तमाम चुनौतियों को जिसने दरकिनार कर दिया, हाँ वही थी महिलाओं के जीवन को सरल सुगम बनाने की उत्तरदायी "सावित्रीबाई"। भारतीय समाज के प्रथम कन्या विद्यालय की संस्थापक तथा प्रथम महिला शिक्षक सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ। महिलाओं की स्वतंत्रता तथा अधिकारों की अहमियत को सावित्रीबाई ने 150 वर्ष पूर्व ही भांप लिया था इसलिए ही उन्होंने अपने उद्देश्यमयी जीवन में विधवा विवाह, छुआछूत, महिला मुक्ति तथा दलित महिलाओं को शिक्षित बनाने जैसे लक्ष्यों को पूर्ण किया। महिलाओं को समाज का कोई भय नहीं होन नारी सशक्तिकरण।
नारी सशक्तिकरण क्या है? नारी सशक्तिकरण से आशय महिलाओं में उस क्षमता व योग्यता की मौजूदगी से है जिससे वे अपने जीवन से जुड़े सभी नीजि निर्णयों को स्वंय बिना किसी पारिवारिक दबाव के ले सकती हो। भारत में नारी सशक्तिकरण की आवश्यकता:- भारत, यह वही देश है जो सम्पूर्ण विश्व में अपनी विभिन्न संस्कृतियों के लिए तथा विभिन्नता में एकता के रूप में चिन्हित किया जाता है। मुख्यतः भारत में महिला सशक्तिकरण की आवश्यकता इस लिए पड़ी क्योंकि प्राचीन भारत में महिलाओं के साथ सती प्रथा, दहेज प्रथा, यौन हिंसा, घरेलू हिंसा, गर्भ में बच्चियों की हत्या, पर्दा प्रथा आदि प्रताड़ित करने वाली कुरीतियों में बढ़ोतरी होती रही थी। बदलते समय के साथ यह जरूरी हो गया कि इन कुरीतियों को खत्म करके महिला सशक्तिकरण के माध्यम से महिलाओं के जीवन स्तर में सुधार किया जा सके। लैंगिक असमानता भारत जैसे पुरूष प्रधान देश में एक मुख्य सामाजिक मुद्दा है, जिसके कारण महिलाएं पुरुषों के प्रभुत्व में पिछड़ती जा रही है। महिलाओं को पुरुषों जे बराबर लाने के लिए नारी सशक्तिकरण में तेजी लाने की जरूरत है। महिलाओं और पुरुषों के ब लैंगिक समानता क्या है उत्तर?उदाहरण के तौर पर : महिला सहकारी समितियां द्वारा मैक्रो योजनाओं का निर्माण कर गाँव में बेहतर पोषण व्यवस्था कार्यान्वित करना चाहिए. शिक्षा: पाठ्यक्रम में अधिक से अधिक लिंग समानता संबंधित बातें सिखाना चाहिए जिससे कि लड़कियां और लड़के को लैंगिक समानता व संवेदनशीलता के बारे में जानकारी होनी चाहिए.
लैंगिक समानता के महत्व क्या है?लैंगिक समानता का उद्देश्य पुरुषों और महिलाओं के बीच सभी सीमाओं और मतभेदों को दूर करना है। यह पुरुष और महिला के बीच किसी भी प्रकार के भेदभाव को समाप्त करता है। लिंग समानता पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए समान अधिकार और अवसर सुनिश्चित करती है, चाहे वह घर पर हो या शैक्षणिक संस्थानों में या कार्यस्थलों पर।
जेंडर से आप क्या समझते हैं?उनके गुण, व्यवहार के तरीके, भूमिकाएँ, जिम्मेदारियाँ, अधिकार और उम्मीदें भी अलग-अलग होती हैं । सेक्स की पहचान जन्म से जैविकीय रूप में मिलती है परंतु औरतों तथा मर्दों की जेंडर पहचान सामाजिक और मनोवैज्ञानिक रूप से मिलती है अर्थात् ऐतिहासिक व सांस्कृतिक रूप से तय की जाती है ।
लिंग समानता से आप क्या समझते है समाज में लिंग समानता को बढ़ावा देने के लिए विद्यालय क्या भूमिका निभाता है?जेंडर समानता स्थापित करने की दृष्टि से विद्यालय की भूमिका अतिमहत्त्वपूर्ण है। सहशिक्षा वाले विद्यालयों में शिक्षकों तथा अन्य शालेय स्टाफ द्वारा बालक– बालिकाओं की गतिविधियों पर नजर रखी जाती है तथा ऐसे प्रयास किये जाते हैं कि बालक बालिकाओं के साथ समानता के व्यवहार करने हेतु प्रेरित हों ।
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