किसी भी देश का संविधान उसकी राजनीतिक व्यवस्था का बुनियादी सांचा-ढांचा निर्धारित करता है, जिसके अंतर्गत उसकी जनता शासित होती है। यह राज्य की विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे प्रमुख अंगों की स्थापना करता है, उसकी शक्तियों की व्याख्या करता है, उनके दायित्वों का सीमांकन करता है और उनके पारस्परिक तथा जनता के साथ संबंधों का विनियमन करता है। इस प्रकार किसी देश के संविधान को उसकी ऐसी 'आधार' विधि (कानून) कहा जा सकता है, जो उसकी राजव्यवस्था के मूल सिद्धातों को निर्धारित करती है। वस्तुतः प्रत्येक संविधान उसके संस्थापकों एवं निर्माताओं के आदर्शों, सपनों तथा मूल्यों का दर्पण होता है। वह जनता की विशिष्ट सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक प्रकृति, आस्था एवं आकांक्षाओं पर आधारित होता है। Show
भारत में नये गणराज्य के संविधान का शुभारंभ 26 जनवरी, 1950 को हुआ और भारत अपने लंबे इतिहास में प्रथम बार एक आधुनिक संस्थागत ढांचे के साथ पूर्ण संसदीय लोकतंत्र बना। 26 नवम्बर, 1949 को भारतीय संविधान सभा द्वारा निर्मित ‘भारत का संविधान’ के पूर्व ब्रिटिश संसद द्वारा कई ऐसे अधिनियम/चार्टर पारित किये गये थे, जिन्हें भारतीय संविधान का आधार कहा जा सकता है। रेग्युलेटिंग एक्ट, 1773[संपादित करें]बंगाल का शासन गवर्नर जनरल तथा चार सदस्यीय परिषद् में निहित किया गया। इस परिषद में निर्णय बहुमत द्वारा लिए जाने की भी व्यवस्था की गयी। इस अधिनियम द्वारा प्रशासक मंडल में वारेन हेस्टिंग्स को गवर्नर जनरल के रूप में तथा क्लैवरिंग, मॉनसन, बरवैल तथा फिलिप फ्रांसिस को परिषद् के सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया। इन सभी का कार्यकाल पांच वर्ष का था तथा निदेशक बोर्ड की सिफारिश पर केवल ब्रिटिश सम्राट द्वारा ही इन्हें हटाया जा सकता था।
इस प्रकार 1773 के एक्ट के द्वारा भारत में कंपनी के कार्यों में ब्रिटिश संसद का हस्तक्षेप व नियंत्रण प्रारंभ हुआ तथा कम्पनी के शासन के लिए पहली बार एक लिखित संविधान प्रस्तुत किया गया। 1781 का संशोधित अधिनियम[संपादित करें]इस अधिनियम के द्वारा कलकत्ता की सरकार को बंगाल, बिहार और उड़ीसा के लिए भी विधि बनाने का अधिकार प्रदान किया गया।
पिट्स इंडिया अधिनियम 1784[संपादित करें]इस अधिनियम को कम्पनी पर अधिकारिक नियंत्रण स्थापित करने तथा भारत में कम्पनी की गिरती साख को बचाने के उद्देश्य से पारित किया गया।
1786 का अधिनियम[संपादित करें]इस अधिनियम के द्वारा गवर्नर जनरल को विशेष परिस्थितियों में अपनी परिषद के निर्णयों को रद्द करने तथा अपने निर्णय लागू करने का अधिकार दिया गया। गवर्नर जनरल को मुख्य सेनापति की शक्तियां भी मिल गयीं।
(१) कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया। (२) भारत में केंद्रीयकरण का प्रारंभ हुआ। केंद्रीय विधान मंडल की नींव पड़ी। (३) विधि आयोग की स्थापना की गई जिसका प्रथम अध्यक्ष लॉर्ड मैकाले को बनाया गया। (४) दास प्रथा को प्रतिबंधित किया गया। 1793 का राजपत्र[संपादित करें]कम्पनी के कार्यों एवं संगठन में सुधार के लिए यह चार्टर पारित किया गया। इस चार्टर की प्रमुख विशेषता यह थी कि इसमें पूर्व के अधिनियमों के सभी महत्वपूर्ण प्रावधानों को शामिल किया गया था। इस अधिनियम की प्रमुख विशेषताएं निम्न थींः
1813 का राजपत्र[संपादित करें]कम्पनी के एकाधिकार को समाप्त करने, ईसाई मिशनरियों द्वारा भारत में धार्मिक सुविधाओं की मांग, लॉर्ड वेलेजली की भारत में आक्रामक नीति तथा कम्पनी की शोचनीय आर्थिक स्थिति के कारण 1813 का चार्टर अधिनियम ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किया गया। इसे प्रमुख प्रावधान निम्न थेः
1833 का राजपत्र[संपादित करें]1813 के अधिनियम के बाद भारत में कम्पनी के साम्राज्य में काफी वृद्धि हुई तथा महाराष्ट्र, मध्य भारत, पंजाब, सिन्ध, ग्वालियर, इंदौर आदि पर अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इसी प्रभुत्व को स्थायित्व प्रदान करने के लिए 1833 का चार्टर अधिनियम पारित किया गया। इसके निम्न मुख्य प्रावधान थे :
इस अधिनियम द्वारा भारत में केन्द्रीकरण का प्रारंभ किया गया, जिसका सबसे प्रबल प्रमाण विधियों को संहिताबद्ध करने के लिए एक आयोग का गठन था। इस आयोग का प्रथम अध्यक्ष लॉर्ड मैकाले नियुक्त किया गया। 1853 का राजपत्र[संपादित करें]1853 का राजपत्र भारतीय शासन (ब्रिटिश कालीन) के इतिहास में अंतिम चार्टर एक्ट था। यह अधिनियम मुख्यतः भारतीयों की ओर से कम्पनी के शासन की समाप्ति की मांग तथा तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी की रिपोर्ट पर आधारित था। इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्न थींः
क्राउन के शासन काल में संवैधानिक विकास 1858 का अधिनियम[संपादित करें]1853 की चार्टर में कम्पनी को शासन के लिए चूंकि किसी निश्चित अवधि के लिए प्राधिकृत नहीं किया गया था, इसलिए किसी भी समय सत्ता का हस्तांतरण ब्रिटिश क्राउन को संसद के द्वारा हस्तांतरित किया जा सकता था। 1857 के गदर ने शासन की असंतोषजनक नीतियां उजागर कर दी थी, जिससे संसद को कम्पनी को पदच्युत करने का बहाना मिल गया। साम्राज्य की सुरक्षा के लिए ब्रिटिश संसद ने कई अधिनियम पारित किये जो भारतीय प्रशासन का आधार बने। 1858 के अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्न थेः
1 नवम्बर, 1858 को ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने भारत के संबंध में एक महत्वपूर्ण नीतिगत घोषणा की। इस घोषणा की महत्वपूर्ण बातें निम्न थींः
भारतीय परिषद अधिनियम 1861[संपादित करें]1861 का भारतीय परिषद अधिनियम भारत के संवैधानिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण और युगांतकारी घटना है। यह दो मुख्य कारणों से महत्वपूर्ण है। एक तो यह कि इसने गवर्नर जनरल को अपनी विस्तारित परिषद में भारतीय जनता के प्रतिनिधियों को नामजद करके उन्हें विधायी कार्य से संबद्ध करने का अधिकार दिया। दूसरा यह कि इसने गवर्नर जनरल की परिषद की विधायी शक्तियों का विकेन्द्रीकरण कर दिया अर्थात बम्बई और मद्रास की सरकारों को भी विधायी शक्ति प्रदान की गयी। इस अधिनियम की अन्य महत्वपूर्ण बातें निम्न थींः
शाही उपाधि अधिनियम, 1876[संपादित करें]इस अधिनियम के अंतर्गत निम्न कार्य किये गयेः
भारतीय परिषद अधिनियम 1892[संपादित करें]1861 के अंतर्गत गैर-सरकारी सदस्य या तो बड़े जमींदार होते थे या अवकाश प्राप्त अधिकारी या भारत के राज परिवारों के सदस्य। प्रतिनिधित्व की आम आकांक्षा की पुष्टि इससे नहीं हुई। इसी बीच भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा अधिक प्रतिनिधित्व की मांग की जाती रही। यूरोपीय व्यापारियों की ओर से भी भारत सरकार को इंग्लैंड में स्थित इंडिया आफिस से अधिक स्वतंत्रता की मांग की जाती रही। सर जॉर्ज चिजनी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनी जिसके सुझावों का समावेश 1892 के अधिनियम में किया गया। इस अधिनियम की प्रमुख बातें निम्न थीः
यद्यपि इस अधिनियम द्वारा विधायिका के सदस्य के सीमित निर्वाचन की शुरूआत हुई, फिर भी इस अधिनियम में अनेक खामियां थी जिनके कारण भारतीय राष्ट्रवादियों ने इस अधिनियम की बार-बार आलोचना की। यह माना गया कि स्थानीय निकायों का चुनाव मंडल बनाना एक प्रकार से इनके द्वारा मनोनीत करना ही है। विधान मंडलों की शक्तियां भी काफी सीमित थीं। सदस्य अनुपूरक प्रश्न नहीं पूछ सकते थे। किसी प्रश्न का उत्तर देने से इंकार किया जा सकता था। इसके अलावा वर्गों का प्रतिनिधित्व भी पक्षपातपूर्ण था। भारतीय परिषद अधिनियम, 1909[संपादित करें]1892 का अधिनियम राष्ट्रवादियों को संतुष्ट नहीं कर सका था, साथ ही राष्ट्रीय आंदोलन पर उग्रवादी नेताओं का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। सेक्रेटरी ऑफ स्टेट लॉर्ड मार्ले तथा भारत में वायसराय लॉर्ड मिन्टो दोनों ही सहमत थे कि कुछ सुधारों की आवश्यकता है। सर अरुण्डेल कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर फरवरी 1909 ई. में नया अधिनियम पारित किया गया जिसे भारतीय परिषद् अधिनियम 1909 और ‘मार्ले-मिन्टो सुधार’ के नाम से जाना गया। इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्न थेः
इस अधिनियम की सबसे बड़ी त्रुटि यह थी कि पृथक अथवा साम्प्रदायिक आधार पर निर्वाचन की पद्धति लागू की गयी। इसके अलावा जो चुनाव पद्धति अपनायी गयी, वह इतनी अस्पष्ट थी कि जन प्रतिनिधित्व प्रणाली एक प्रकार की बहुत-सी छननियों में से छानने की प्रक्रिया बन गयी। संसदीय प्रणाली तो दे दी गयी, परंतु उत्तरदायित्व नहीं दिया गया। भारतीय परिषद अधिनियम, 1919[संपादित करें]20 अगस्त, 1917 को तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया, मॉटेग्यु ने हाउस ऑफ कॉमंस में एक ऐतिहासिक वक्तव्य दिया, जिसमें ब्रिटेन के इरादे का बयान किया गयाः शासन की सभी शाखाओं में भारतीयों को शामिल करना और स्वायत्तशासी संस्थाओं का क्रमिक विकास, जिससे ब्रिटिश भारत के अभिन्न अंग के रूप में उत्तरदायी सरकार की उत्तरोत्तर उपलब्धि हो सके।इसी घोषणा को कार्यान्वित करने के लिए ‘मोंटफोर्ड रिपोर्ट-1918’ प्रकाशित की गयी, जो 1919 के अधिनियम का आधार बना। इस एक्ट द्वारा तत्कालीन भारतीय संवैधानिक प्रणाली में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये गयेः
1919 के अधिनियम में अनेक खामियां थीं। इसने जिम्मेदार सरकार की मांग को पूरा नहीं किया। इसके अलावा प्रांतीय विधान मंडल गवर्नर जनरल की स्वीकृति के बगैर अनेक विषयों में विधेयक पर बहस नहीं कर सकते थे। सिद्धान्त रूप में केन्द्रीय विधान मंडल सम्पूर्ण क्षेत्र में कानून बनाने के लिए सर्वोच्च तथा सक्षम बना रहा। केन्द्र तथा प्रांतों के बीच शक्तियों के बंटवारे के बावजूद ब्रिटिश भारत का संविधान एकात्मक राज्य का संविधान ही बना रहा। प्रांतों में द्वैध शासन पूरी तरह विफल रहा। गवर्नर का पूर्ण वर्चस्व कायम रहा। वित्तीय शक्ति के अभाव में मंत्री अपनी नीतियों को प्रभावी रूप से कार्यान्वित नहीं कर सकते थे। इसके अलावा मंत्री विधान मंडल के प्रति सामूहिक रूप से जिम्मेदार नहीं थे। वस्तुतः मंत्रियों को दो मालिकों को खुश रखना पड़ता था- एक तो विधान परिषद को और दूसरा गवर्नर जनरल को। ektsZ साइमन कमीशन 1927[संपादित करें]1919 के अधिनियम की धारा 84 के अनुसार सर जॉन साइमन की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया। इस आयोग में एक भी भारतीय सदस्य नहीं था अतः भारतीयों द्वारा इसका विरोध किया गया। आयोग की रिपोर्ट जून 1930 में प्रकाशित हुई। साइमन कमीशन द्वारा डोमिनियन दर्जे की मांग को ठुकरा दिये जाने के बाद कांग्रेस ने 1929 के लाहौर अधिवेशन में ‘पूर्ण स्वराज्य’ का प्रस्ताव पारित किया गया। नेहरू रिपोर्ट[संपादित करें]कांग्रेस पार्टी ने सेक्रेटरी ऑफ स्टेट, लॉर्ड वर्कनहेड की इस चुनौती को स्वीकार किया कि एक ऐसे संविधान की रचना की जाये, जो भारत के हर दल को स्वीकार हो। इसके लिए 28 फरवरी, 1928 ई. को दिल्ली में एक सर्वदलीय सम्मेलन बुलाया गया। संविधान का प्रारूप बनाने के लिए पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में नौ सदस्यों की एक समिति बनायी गयी। इस समिति द्वारा प्रस्तुत प्रारूप को ही नेहरू रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है। नेहरू रिपोर्ट लखनऊ के सर्वदलीय सम्मेलन में स्वीकार की गयी, लेकिन दिसम्बर 1928 ई.में कलकत्ता के सर्वदलीय सम्मेलन में इस पर गंभीर आपत्ति उठायी गयी। नेहरू रिपार्ट के ‘साम्प्रदायिक समझौता’ में सभी समुदायों के संयुक्त निर्वाचक समूह का प्रस्ताव था। इस प्रस्ताव पर सबसे बड़ी आपत्ति मुहम्मद अली जिन्ना ने की। गोलमेज सम्मेलन, 1930-1932[संपादित करें]साइमन आयोग की रिपोर्ट के प्रकाशित होने के पहले ही लॉर्ड इर्विन ने घोषणा की थी कि रिपोर्ट को गोलमेज सम्मेलन में विचार के लिए रखा जायेगा। पहला सम्मेलन 12 नवम्बर, 1930 को हुआ। यह सम्मेलन किसी निश्चित सहमति पर नहीं पहुंच सका। पहले सम्मेलन में कांग्रेस ने भाग नहीं लिया था। फरवरी 1931 के ‘गांधी-इर्विन समझौते’ के फलस्वरूप दूसरे गोलमेज सम्मेलन में कांग्रेस की तरफ से गांधीजी ने सम्मेलन में भाग लिया। श्रीमती सरोजिनी नायडू और पंडित मदन मोहन मालवीय ने ब्रिटिश सरकार के मनोनीत सदस्य के रूप में भाग लिया। दूसरे समुदायों के प्रतिनिधियों को भी आमंत्रित किया गया। इस सम्मेलन के बाद ही ‘साम्प्रदायिक अधिनिर्णय’ (communal award) और पूना समझौता का आविर्भाव हुआ, जिनके द्वारा धार्मिक समूहों और हिन्दुओं के विभिन्न वर्ण समूहों को विशेष प्रतिनिधित्व दिया गया। कांग्रेस और अन्य राष्ट्रीय समूहों ने इन प्रावधानों का जमकर विरोध किया। तीसरा और अंतिम गोलमेज सम्मेलन नवम्बर 1932 ई. में हुआ। एक श्वेतपत्र जारी किया गया, जिस पर ब्रिटेन की संसद की संयुक्त प्रवर समिति ने विचार किया। इसके सुझावों के आधार पर भारत सरकार अधिनियम 1935 बनाया गया। भारत सरकार अधिनियम 1935[संपादित करें]1935 के भारत सरकार अधिनियम में 321 अनुच्छेद तथा 10 अनुसूचियां थीं। इस अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्न थेः
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947[संपादित करें]माउन्टबेटेन योजना के आधार पर ब्रिटिश संसद द्वारा पारित भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के प्रमुख प्रावधान निम्न थेः
इस प्रकार भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के अनुसार 14-15 अगस्त, 1947 को भारत तथा पाकिस्तान नामक दो स्वतंत्र राष्ट्रों का गठन कर दिया गया। इस प्रकार भारतीय संविधान की बहुत-सी संस्थाओं का विकास संवैधानिक विकास के लम्बे समय में हुआ, जिसकी चर्चा ऊपर की गयी है। इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है संघीय व्यवस्था। यह कांग्रेस और मुस्लिम लीग द्वारा 1916 ई. के लखनऊ समझौते में स्वीकार की गयी थी। साइमन कमीशन ने भी संघीय व्यवस्था पर बल दिया और 1935 ई. के अधिनिमय ने संघीय व्यवस्था की स्थापना की, जिसमें प्रांतों के अधिकार ब्रिटेन के क्राउन द्वारा प्राप्त हुए थे। जब भारत स्वतंत्र हुआ तब तक राष्ट्रीय आन्दोलन के नेता संघीय व्यवस्था के लिए वचनबद्ध हो चुके थे। संसदीय व्यवस्था, जो कार्यपालिका और विधायिका के संबंधों को परिभाषित करती है, भारत में अपरिचित नहीं थी। इस तरह भारतीय संविधान, संविधान निर्माताओं की बुद्धिमानी और सूक्ष्म दृष्टि और कालक्रम में विकसित संस्थाओं और कार्यविधियों का एक अपूर्व सम्मिश्रण है। इन्हें भी देखें[संपादित करें]
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
भारतीय संविधान सभा द्वारा ब्रिटिश संविधान से कौन कौन से प्रावधान लिए गए?26 नवम्बर, 1949 को भारतीय संविधान सभा द्वारा निर्मित 'भारत का संविधान' के पूर्व ब्रिटिश संसद द्वारा कई ऐसे अधिनियम/चार्टर पारित किये गये थे, जिन्हें भारतीय संविधान का आधार कहा जा सकता है।. 1781 का संशोधित अधिनियम ... . 1786 का अधिनियम ... . 1793 का राजपत्र ... . 1813 का राजपत्र ... . 1833 का राजपत्र ... . 1853 का राजपत्र ... . 1858 का अधिनियम. भारतीय संविधान में फ्रांस के संविधान से कौन सा प्रावधान लिया गया है?(4) धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना-
पंचम गणतन्त्र के संविधान के अनुच्छेद 2 में फ्रांस को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है। भारत की तरह फ्रांस में भी कोई भी धर्म अपनाने की पूर्ण स्वतन्त्रता है और किसी भी धर्म को राज्य धर्म घोषित नहीं किया गया है।
भारतीय संविधान में रूस के संविधान से क्या लिया गया है?सोवियत संघ (Soviet Union)
भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्यों के प्रावधान, मूल कर्तव्यों और प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का आदर्श तत्कालीन सोवियत संघ यानी रूस के संविधान से लिए गए हैं।
भारत में संवैधानिक विकास क्या है?जिन कानून और नियमों को ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में शासन व्यवस्था संचालित करने के लिए बनाया गया जो आगे चलकर भारतीय परिपेक्ष संविधान निर्माण के काम आए, संवैधानिक विकास कहलाता है।
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