मुग़ल बादशाहों (या फ़ार्सी में: पादिशाहान् हेन्दोस्तान्, پادشاهان هندوستان) भारतीय उपमहाद्वीप पर मुग़ल साम्राज्य का निर्माण और शासन किया, जो मुख्य रूप से भारत, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश के आधुनिक देशों के अनुरूप था। मुग़लों ने 1526 से भारत के कुछ हिस्सों पर शासन करना शुरू किया और 1700 तक अधिकांश उपमहाद्वीप पर शासन किया। उसके बाद उनके राज-शक्ति में तेज़ी से गिरावट आई, लेकिन 1850 के दशक तक मुख्य रूप से वे एक शासित-प्रदेश थे। मुग़ल मध्य एशिया के तुर्की-मंगोल मूल के तैमूरी वंश की एक शाखा थे। उनके संस्थापक बाबर, फ़र्ग़ना घाटी (आधुनिक उज़्बेकिस्तान में) से एक तैमूरवंशी राजकुमार थे। वे तैमूर के प्रत्यक्ष वंशज थे (जिसे आमतौर पर पश्चिमी देशों में टॅमेरलैन के नाम से जाना जाता था) और इसके के साथ एक चंगेज़ी राजकुमारी से शादी के पश्चात चंगेज़ ख़ान से भी संबंद्धित थे। Show बाद के कई मुगल बादशाहों के पास शादी के गठबंधन के माध्यम से महत्वपूर्ण भारतीय राजपूत और फारसी वंश थे, क्योंकि राजपूत और फारसी राजकुमारियों के लिए सम्राट पैदा हुए थे। उदाहरण के लिए, अकबर आधा फ़ारसी था (उसकी माँ फ़ारसी मूल की थी), जहाँगीर आधा राजपूत और क्वार्टर-फ़ारसी था, और शाहजहाँ तीन-चौथाई राजपूत था। औरंगज़ेब के शासनकाल के दौरान, दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में 25% से अधिक वैश्विक जीडीपी के लायक साम्राज्य, भारतीय उपमहाद्वीप के लगभग सभी को नियंत्रित करता था, पूर्व में चटगाँव से लेकर पश्चिम में काबुल और बलूचिस्तान तक, उत्तर में कश्मीर। दक्षिण में कावेरी नदी बेसिन। मुगल वंश की वंशावली। चार्ट में प्रत्येक सम्राट की केवल प्रमुख संतानें ही प्रदान की जाती हैं। उस समय इसकी जनसंख्या का अनुमान 110 से 150 मिलियन (दुनिया की आबादी का एक चौथाई) के बीच है, जो 4 मिलियन वर्ग किलोमीटर (1.2 मिलियन वर्ग मील) से अधिक के क्षेत्र में है। 18 वीं शताब्दी के दौरान मुगल शक्ति तेजी से घटती गई और अंतिम सम्राट, बहादुर शाह द्वितीय को 1857 में ब्रिटिश राज की स्थापना के साथ हटा दिया गया। बहादुर शाह प्रथम बहादुर शाह प्रथम का जन्म 14 अक्तूबर, सन् 1643 ई. में बुरहानपुर, भारत में हुआ था। बहादुर शाह प्रथम दिल्ली का सातवाँ मुग़ल बादशाह (1707-1712 ई.) था। 'शहज़ादा मुअज्ज़म' कहलाने वाले बहादुरशाह, बादशाह औरंगज़ेब का दूसरा पुत्र था। अपने पिता के भाई और प्रतिद्वंद्वी शाहशुजा के साथ बड़े भाई के मिल जाने के बाद शहज़ादा मुअज्ज़म ही औरंगज़ेब के संभावी उत्तराधिकारी बना। बहादुर शाह प्रथम को 'शाहआलम प्रथम' या 'आलमशाह प्रथम' के नाम से भी जाना जाता है। बहादुर शाह प्रथम को सन् 1663 ई. में दक्षिण के दक्कन पठार क्षेत्र और मध्य भारतमें पिता का प्रतिनिधि बनाकर भेजा गया। सन1683-1684 ई. में उन्होंने दक्षिण बंबई (वर्तमान मुंबई) गोवा के पुर्तग़ाली इलाक़ों में मराठों के ख़िलाफ़ सेना का नेतृत्व किया, लेकिन पुर्तग़ालियों की सहायता न मिलने की स्थिति में उन्हें पीछे हटना पड़ा। आठ वर्ष तक तंग किए जाने के बाद उन्हें उनके पिता ने 1699 में क़ाबुल (वर्तमान अफ़ग़ानिस्तान) का सूबेदार नियुक्त किया। औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद उसके 63 वर्षीय पुत्र 'मुअज्ज़म' (शाहआलम प्रथम) ने लाहौर के उत्तर में स्थित 'शाहदौला' नामक पुल पर मई, 1707 में 'बहादुर शाह' के नाम से अपने को सम्राट घोषित किया। बूँदी के 'बुधसिंह हाड़ा' तथा 'अम्बर' के विजय कछवाहा को उसने पहले से ही अपने ओर आकर्षित कर लिया था। उनके माध्यम से उसे बड़ी संख्या में राजपूतों का समर्थन प्राप्त हो गया। उत्तराधिकार को लेकर बहादुरशाह प्रथम एवं आजमशाह में सामूगढ़ के समीप 'जाजऊ' नामक स्थान पर 12 जून, 1707 को युद्ध हुआ, जिसमें आजमशाह तथा उसके दो बेटे 'बीदर बख़्त' तथा 'वलाजाह' मारे गये। बहादुरशाह प्रथम को अपने छोटे भाई 'कामबख़्श' से भी मुग़ल सिंहासन के लिए लड़ाई लड़नी पड़ी। कामबख़्श ने 13 जनवरी, 1709 को हैदराबाद के नजदीक बहादुशाह प्रथम के विरुद्ध युद्ध किया। युद्ध में पराजित होने के उपरान्त कामबख़्श की मृत्यु हो गई। सबसे वृद्ध मुग़ल शासक[संपादित करें]अपनी विजय के बाद बहादुर शाह प्रथम ने अपने समर्थकों को नई पदवियाँ तथा ऊचें दर्जे प्रदान किए। मुनीम ख़ाँ को वज़ीर नियुक्त किया गया। औरंगज़ेब के वज़ीर, असद ख़ाँ को 'वकील-ए-मुतलक़' का पद दिया था, तथा उसके बेटे ज़ुल्फ़िक़ार ख़ाँ को मीर बख़्शी बनाया गया। बहादुरशाह प्रथम गद्दी पर बैठने वाला सबसे वृद्ध मुग़ल शासक था। जब वह गद्दी पर बैठा, तो उस समय उसकी उम्र 63 वर्ष थी। वह अत्यन्त उदार, आलसी तथा उदासीन व्यक्ति था। इतिहासकार ख़फ़ी ख़ाँ ने कहा है कि, बादशाह राजकीय कार्यों में इतना अधिक लापरवाह था, कि लोग उसे "शाहे बेख़बर" कहने लगे थे। बहादुर शाह प्रथम के शासन काल में दरबार में षड्यन्त्र बढ़ने लगा। बहादु शाह प्रथम शिया था, और उस कारण दरबार में दो दल विकसित हो गए थे-(1.) ईरानी दल (2.) तुरानी दल। ईरानी दल 'शिया मत' को मानने वाले थे, जिसमें असद ख़ाँ तथा उसके बेटे जुल्फिकार ख़ाँ जैसे सरदार थे। तुरानी दल 'सुन्नी मत' के समर्थक थे, जिसमें 'चिनकिलिच ख़ाँ तथा फ़िरोज़ ग़ाज़ीउद्दीन जंग जैसे लोग थे। राजपूतों से सन्धि[संपादित करें]बहादुर शाह प्रथम ने उत्तराधिकार के युद्ध के समाप्त होने के बाद सर्वप्रथम राजपूताना की ओर रुख़ किया। उसने मारवाड़ के राजा अजीत सिंह को पराजित कर, उसे 3500 का मनसब एवं महाराज की उपाधि प्रदान की, परन्तु बहादुर शाह प्रथम के दक्षिण जाने पर अजीत सिंह, दुर्गादास एवं जयसिंह कछवाहा ने मेवाड़ के महाराज अमरजीत सिंह के नेतृत्व में अपने को स्वतंत्र घोषित कर लिया और राजपूताना संघ का गठन किया। बहादुर शाह प्रथम ने इन राजाओं से संघर्ष करने से बेहतर सन्धि करना उचित समझा और उसने इन शासकों को मान्यता दे दी। 8 जून 1707 ई. आगरा के पास जांजू के पास लड़ाई लड़ी गई, जिसमें बहादुरशाह की जीत हुई। इस लड़ाई में गुरु गोविन्द सिंह की हमदर्दी अपने पुराने मित्र बहादुरशाह के साथ थी। कहा जाता है कि गुरु जी ने अपने सैनिकों द्वारा जांजू की लड़ाई में बहादुरशाह का साथ दिया, उनकी मदद की। इससे बादशाह बहादुरशाह की जीत हुई। बादशाह ने गुरु गोविन्द सिंह जी को आगरा बुलाया। उसने एक बड़ी क़ीमती सिरोपायो (सम्मान के वस्त्र) एक धुकधुकी (गर्दन का गहना) जिसकी क़ीमत 60 हज़ार रुपये थी, गुरुजी को भेंट की। मुग़लों के साथ एक युग पुराने मतभेद समाप्त होने की सम्भावना थी। गुरु साहब की तरफ से 2 अक्टूबर 1707 ई. और धौलपुर की संगत तरफ लिखे हुक्मनामा के कुछ शब्दों से लगता है कि गुरुजी की बादशाह बहादुरशाह के साथ मित्रतापूर्वक बातचीत हो सकती थी। जिसके खत्म होने से गुरु जी आनंदपुर साहिब वापस आ जांएगे, जहाँ उनको आस थी कि खालसा लौट के इकट्ठा हो सकेगा। पर हालात के चक्कर में उनको दक्षिण दिशा में पहुँचा दिया जहाँ अभी बातचीत ही चल रही थी। बादशाह बहादुरशाह कछवाहा राजपूतों के विरुद्ध कार्यवाही करने कूच किया था कि उसके भाई कामबख़्श ने बग़ावत कर दी। बग़ावत दबाने के लिए बादशाह दक्षिण की तरफ़ चला और विनती करके गुरु जी को भी साथ ले गया।[1] नांदेड़ में 1708 ई. में गुरु गोविन्द सिंह की हत्या के बाद सिक्खों ने बन्दा सिंह के नेतृत्व में मुग़लों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। उसने मुसलमानों के विरुद्ध लड़ने के लिए पंजाब के विभिन्न हिस्सों में सिक्खों को इकट्ठा किया तथा कैथल, समाना, शाहबाद, अम्बाला, क्यूरी तथा सधौरा पर क़ब्ज़ा कर लिया। उसकी सबसे बड़ी विजय सरहिन्द के गर्वनर वजीर ख़ाँ के विरुद्ध थी, जिसे उसने हराकर मार डाला। उसके बारे में कहा जाता है कि, उसको गुरु गोबिंद सिंह जी का आशीर्वाद प्राप्त था। उसने स्वयं को 'सच्चा बादशाह' घोषित किया, अपने टकसाल चलायीं और एक स्वतंत्र सिक्ख राज्य की स्थापना का प्रयत्न किया। बन्दा ने सरहिन्द, सोनीपत, सधौरा, एवं उत्तर प्रदेश के कई स्थानों पर लुटेरों के साथ खूब लूटपाट की। बहादुर शाह प्रथम ने सिख नेता बन्दा को दण्ड देने के लिए 26 जून, 1710 को सधौरा में घेरा डाला। यहाँ से बन्दा लोहागढ़ के क़िले में आ गया। बहादुरशाह ने लोहगढ़ को घेरकर सिखों से कड़ा संघर्ष किया। 1711 ई.में मुग़लों ने पुनः सरहिन्द पर अधिकर कर लिया। लोहगढ़ का क़िला गुरु गोविन्द सिंह ने अम्बाला के उत्तर-पूर्व में हिमालय की तराई में बनाया था। बहादुर शाह प्रथम ने बुन्देला सरदार 'छत्रसाल' से मेल-मिलाप कर लिया। छत्रसाल एक निष्ठावान सामन्त बना रहा। बादशाह ने जाट सरदार चूड़ामन से भी दोस्ती कर ली। चूड़ामन ने बन्दा बहादुर के ख़िलाफ़ अभियान में बादशाह का साथ दिया। मराठों के प्रति नीति[संपादित करें]बहादुर शाह प्रथम को 'शाहे बेख़बर' कहा जाता था। राजपूतों की भांति मराठों के प्रति भी बहादुर शाह प्रथम की नीति अस्थिर रही। बहादुर शाह प्रथम की क़ैद से मुक्त शाहू ने आरंभ में तो मुग़ल आधिपत्य स्वीकार कर लिया, परन्तु जब बहादुर शाह प्रथम ने उसके 'चौथ' और 'सरदेशमुखी' वसूल करने के अधिकार को स्पष्टतया स्वीकार नहीं किया, तब उसके सरदारों ने मुग़ल सीमाओं पर आक्रमण करके मुग़लों के अधीन शासकों द्वारा मुग़ल सीमाओं पर भी आक्रमण करने की ग़लत परंपरा की नींव डाली। इस प्रकार मुग़लों की समस्या को बहादुर शाह प्रथम ने और गम्भीर बना दिया। बहादुर शाह प्रथम ने मीरबख़्शी के पद पर आसीन ज़ुल्फ़िक़ार ख़ाँ को दक्कन की सूबेदारी प्रदान कर एक ही अमीर को एक साथ दो महत्त्वपूर्ण पद प्रदान करने की भूल की। उसके समय में ही वज़ीर के पद के सम्मान में वृद्धि हुई, जिसके कारण वज़ीर का पद प्राप्त करने की प्रतिस्पर्द्धा बढ़ी। उपनाम[संपादित करें]बहादुर शाह प्रथम के विषय में प्रसिद्ध लेखक 'सर सिडनी ओवन' ने लिखा है कि, "यह अन्तिम मुग़ल सम्राट था, जिसके विषय में कुछ अच्छे शब्द कहे जा सकते हैं। इसके पश्चात् मुग़ल साम्राज्य का तीव्रगामी और पूर्ण पतन मुग़ल सम्राटों की राजनीतिक तुच्छता और शक्तिहीनता का द्योतक था।" सर सिडनी ओवन का कथन काफ़ी हद तक सही जान पड़ता है, क्योंकि वे मुग़ल शासक जो अपने ऐशो-आराम में ही डूबे रहते थे, जिन्हें शासन व साम्राज्य की कोई चिंता ही नहीं थी, उनको प्रजा ने निम्न नामों से पुकारना प्रारम्भ कर दिया था-
बहादुर शाह प्रथम के दरबार में 1711 में एक डच प्रतिनिधि शिष्टमण्डल 'जेसुआ केटेलार' के नेतृत्व में गया। इस शिष्टमण्डल का दरबार में स्वागत किया गया। इस स्वागत में एक पुर्तग़ाली स्त्री 'जुलियानी' की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। उसकी इस भूमिका के लिए उसे 'बीबी फिदवा' की उपाधि दी गयी। 27 फ़रवरी, 1712 को बहादुर शाह प्रथम की मृत्यु हो गयी। मृत्यु के पश्चात् उसके चारों पुत्रों, जहाँदारशाह, अजीमुश्शान, रफ़ीउश्शान और जहानशाह में उत्तराधिकार का युद्ध आरंभ हो गया। फलतः बहादुरशाह का शव 10 सप्ताह तक दफनाया नहीं जा सका। सबसे पहले बादशाह कौन था?Solution : जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर मध्य एशिया का एक विजेता था। वह 152 भारत का प्रथम मुगल सम्राट बना। पानीपत के प्रथम युद्ध (1526) में इब्रा लोदी को हराकर उसने भारत में मुगल वंश/शासन की नींव रखी।
सबसे पहले मुगल कौन थे?वे कोई और नहीं भारत में मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर थे. ज़हीरुद्दीन मोहम्मद बाबर 14 फ़रवरी 1483 को अन्दिजान में पैदा हुए थे, जो फ़िलहाल उज़्बेकिस्तान का हिस्सा है.
भारत का प्रथम बादशाह कौन था?जहीरुद्दीन बाबर भारत का प्रथम मुगल बादशाह था । बाबर ने 1526 ई. में पानीपत के मैदान में इब्राहीम लोदी को हराकर मुगल साम्राज्य की नींव डाली ।
हिंदुस्तान में सबसे पहले मुगल कौन आया था?बाबर भारत का पहला मुगल शासक था।
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