तिवारी कितने प्रकार के होते हैं - tivaaree kitane prakaar ke hote hain

प्राचीन काल में हर जाति, समाज आदि का व्यक्ति ब्राह्मण बनने के लिए उत्सक रहता था। ब्राह्मण होने का अधिकार सभी को आज भी है। चाहे वह किसी भी जाति, प्रांत या संप्रदाय से हो वह गायत्री दीक्षा लेकर ब्रह्माण बन सकता है, लेकिन ब्राह्मण होने के लिए कुछ नियमों का पालन करना होता है। हम उस ब्राह्मण समाज की बात नहीं कर रहे हैं जिनमें से अधिकतर ने अपने ब्राह्मण कर्म छोड़कर अन्य कर्मों को अपना लिया है। हालांकि अब वे ब्राह्मण नहीं रहे लेकिन कहलाते अभी भी ब्राह्मण ही है। >

स्मृति-पुराणों में ब्राह्मण के 8 भेदों का वर्णन मिलता है:- मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि। 8 प्रकार के ब्राह्मण श्रुति में पहले बताए गए हैं। इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है।> उपनाम में छुपा है पूरा इतिहास

1. मात्र : ऐसे ब्राह्मण जो जाति से ब्राह्मण हैं लेकिन वे कर्म से ब्राह्मण नहीं हैं उन्हें मात्र कहा गया है। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं कहलाता। बहुत से ब्राह्मण ब्राह्मणोचित उपनयन संस्कार और वैदिक कर्मों से दूर हैं, तो वैसे मात्र हैं। उनमें से कुछ तो यह भी नहीं हैं। वे बस शूद्र हैं। वे तरह तरह के देवी-देवताओं की पूजा करते हैं और रा‍त्रि के क्रियाकांड में लिप्त रहते हैं। वे सभी राक्षस धर्मी भी हो सकते हैं।

2. ब्राह्मण : ईश्वरवादी, वेदपाठी, ब्रह्मगामी, सरल, एकांतप्रिय, सत्यवादी और बुद्धि से जो दृढ़ हैं, वे ब्राह्मण कहे गए हैं। तरह-तरह की पूजा-पाठ आदि पुराणिकों के कर्म को छोड़कर जो वेदसम्मत आचरण करता है वह ब्राह्मण कहा गया है।

3. श्रोत्रिय : स्मृति अनुसार जो कोई भी मनुष्य वेद की किसी एक शाखा को कल्प और छहों अंगों सहित पढ़कर ब्राह्मणोचित 6 कर्मों में सलंग्न रहता है, वह ‘श्रोत्रिय’ कहलाता है।

4. अनुचान : कोई भी व्यक्ति वेदों और वेदांगों का तत्वज्ञ, पापरहित, शुद्ध चित्त, श्रेष्ठ, श्रोत्रिय विद्यार्थियों को पढ़ाने वाला और विद्वान है, वह ‘अनुचान’ माना गया है।

5. भ्रूण : अनुचान के समस्त गुणों से युक्त होकर केवल यज्ञ और स्वाध्याय में ही संलग्न रहता है, ऐसे इंद्रिय संयम व्यक्ति को भ्रूण कहा गया है।

6. ऋषिकल्प : जो कोई भी व्यक्ति सभी वेदों, स्मृतियों और लौकिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर मन और इंद्रियों को वश में करके आश्रम में सदा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए निवास करता है उसे ऋषिकल्प कहा जाता है।

7. ऋषि : ऐसे व्यक्ति तो सम्यक आहार, विहार आदि करते हुए ब्रह्मचारी रहकर संशय और संदेह से परे हैं और जिसके श्राप और अनुग्रह फलित होने लगे हैं उस सत्यप्रतिज्ञ और समर्थ व्यक्ति को ऋषि कहा गया है।

8. मुनि : जो व्यक्ति निवृत्ति मार्ग में स्थित, संपूर्ण तत्वों का ज्ञाता, ध्याननिष्ठ, जितेन्द्रिय तथा सिद्ध है ऐसे ब्राह्मण को ‘मुनि’ कहते हैं।

उपरोक्त में से अधिकतर 'मात्र'नामक ब्राह्मणों की संख्‍या ही अधिक है।

सबसे पहले ब्राह्मण शब्द का प्रयोग अथर्वेद के उच्चारण कर्ता ऋषियों के लिए किया गया था। फिर प्रत्येक वेद को समझने के लिए ग्रन्थ लिखे गए उन्हें भी ब्रह्मण साहित्य कहा गया। ब्राह्मण का तब किसी जाति या समाज से नहीं था। 

समाज बनने के बाद अब देखा जाए तो भारत में सबसे ज्यादा विभाजन या वर्गीकरण ब्राह्मणों में ही है जैसे:- सरयूपारीण, कान्यकुब्ज , जिझौतिया, मैथिल, मराठी, बंगाली, भार्गव, कश्मीरी, सनाढ्य, गौड़, महा-बामन और भी बहुत कुछ। इसी प्रकार ब्राह्मणों में सबसे ज्यादा उपनाम (सरनेम या टाईटल ) भी प्रचलित है। कैसे हुई इन उपनामों की उत्पत्ति जानते हैं उनमें से कुछ के बारे में।

*एक वेद को पढ़ने  वाले ब्रह्मण को पाठक कहा गया। 

*दो वेद पढ़ने वाले को द्विवेदी कहा गया, जो कालांतर में दुबे हो गया। 

*तीन वेद को पढ़ने वाले को त्रिवेदी कहा गया जिसे त्रिपाठी भी कहने लगे, जो कालांतर में तिवारी हो गया।

*चार वेदों को पढ़ने वाले चतुर्वेदी कहलाए, जो कालांतर में चौबे हो गए। 

*शुक्ल यजुर्वेद को पढ़ने वाले शुक्ल या शुक्ला कहलाए।  

*चारो वेदों, पुराणों और उपनिषदों के ज्ञाता को पंडित कहा गया, जो आगे चलकर पाण्डेय, पांडे, पंडिया, पाध्याय हो गए। ये पाध्याय कालांतर में उपाध्याय हुआ।

*शास्त्र धारण करने वाले या शास्त्रार्थ करने वाले शास्त्री की उपाधि से विभूषित हुए।

*इनके अलावा प्रसिद्द ऋषियों के वंशजो ने अपने  ऋषिकुल या गोत्र के नाम को ही उपनाम की तरह अपना लिया, जैसे :- भगवन परसुराम भी भृगु कुल के थे। भृगु कुल के वंशज भार्गव कहलाए, इसी तरह गौतम, अग्निहोत्री, गर्ग, भरद्वाज आदि।

*बहुत से ब्राह्मणों को अनेक शासकों ने भी कई  तरह की उपाधियां दी, जिसे बाद में उनके वंशजों ने उपनाम की तरह उपयोग किया। इस तरह से ब्राह्मणों के उपनाम प्रचलन में आए। जैसे, राव, रावल, महारावल, कानूनगो, मांडलिक, जमींदार, चौधरी, पटवारी, देशमुख, चीटनीस, प्रधान, 

*बनर्जी, मुखर्जी, जोशीजी, शर्माजी, भट्टजी, विश्वकर्माजी, मैथलीजी, झा, धर, श्रीनिवास, मिश्रा, मेंदोला, आपटे आदि हजारों सरनेम है जिनका अपना अलग इतिहास है।

शाण्डिल्य शांडिल्य एक सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण गोत्र है, ये वेदों में श्रेष्ठ, तथा ऊँचकुलिन घराने के ब्राह्मण हैं। यह गोत्र ब्राह्मणों के तीन मुख्य ऊँचे गोत्रो में से एक है।

महाभारत अनुशासन पर्व के अनुसार युधिष्ठिर की सभा में विद्यमान ऋषियों में शाण्डिल्य का नाम भी है। ब्राह्मणों से ही इस संसार का अस्तित्व है अतः इस संसार के प्रारंभ सतयुग से ही शांडिल्य ऋषि और अन्य ब्राह्मणों का अस्तित्व कायम है, अतः मान्यता यह भी है के सबसे पहले सतयुग में वेद-शास्त्र तथा शस्त्रों की शिक्षा भी ऋषि शांडिल्य तथा गार्गस्य ऋषि के आश्रम में ही प्रारंभ हुई। शांडिल्य ऋषि त्रेतायुग में राजा दिलीप के राजपुरोहित बताए गए है, वहीं द्वापर में वे राजा नंद के पुजारी हैं, एक समय में वे राजा त्रिशुंक के पुजारी थे तो दूसरे समय में वे महाभारत के नायक भीष्म पितामह तथा अपने ब्राह्मण भ्राता श्री परशुराम के साथ वार्तालाप करते हुए दिखाए गए हैंं। कलयुग के प्रारंभ में वे जन्मेजय के पुत्र शतानीक के पुत्रेष्ठित यज्ञ को पूर्ण करते दिखाई देते हैं। इसके साथ ही वस्तुतः शांडिल्य एक ऐतिहासिक ब्राह्मण ऋषि हैं लेकिन कालांतर में उनके नाम से उपाधियां शुरू हुई है जैसे वशिष्ठ, विशवामित्र और व्यास नाम से उपाधियां होती हैं।

शांडिल्य गोत्र(गौड़,तिवारी,त्रिपाठी,शर्मा,मिश्रा,गोस्वामी वंश) शांडिल्य ऋषि के बारह पुत्र बताए जाते हैं जो इन बारह गांवों से प्रभुत्व रखते हैं। पिंडी, सोहगोरा, संरयाँ, श्रीजन, धतूरा, बगराइच, बलूआ, हलदी, झूडीयाँ, उनवलियाँ, लोनापार, कटियारी, लोनापार में लोनाखार, कानापार, छपरा भी समाहित है।

इन्हीं बारह गांव से आज चारो तरफ इनका विकास हुआ है, ये सरयूपारीण ब्राह्मण हैं। इनका गोत्र श्रीमुख शांडिल्य त्रि प्रवर है,श्री मुख शांडिल्य में घरानों का प्रचलन है जिसमें राम घराना, कृष्ण घराना, नाथ अतः विष्णु घराना, मणि घराना है, इन चारो का उदय सोहगोरा गोरखपुर से है जहाँ आज भी इन चारो का अस्तित्व कायम है। इस गोत्र के लोग श्रावस्ती के बारांवा हरगुन मे भी निवास करते हैं जो शर्मा होते हैं ये लोग डलिया के भूनियार है

शाण्डिल्य नामक आचार्य अन्य शास्त्रों में भी स्मृत हुए हैं। हेमाद्रि के लक्षणप्रकाश में शाण्डिल्य को आयुर्वेदाचार्य कहा गया है। विभिन्न व्याख्यान ग्रंथों से पता चलता है कि इनके नाम से एक गृह्यसूत्र एवं एक स्मृतिग्रंथ भी था।

सन्दर्भ[संपादित करें]

तिवारी गोत्र कितने प्रकार के होते हैं?

(१) शीशवाँ (२) चौरीहाँ (३) चनरवटा (४) जोजिया (५) ढकरा (६) क़जरवटा भार्गव गोत्र (तिवारी या त्रिपाठी वंश): भार्गव ऋषि के चार पुत्र बताये जाते हैं जिसमें चार गांवों का उल्लेख मिलता है| (१) सिंघनजोड़ी (२) सोताचक (३) चेतियाँ (४) मदनपुर।

तिवारी कौन से ब्राह्मण है?

कनौजियों के अलावा सरयूपारीण ब्राह्मणों में भी तिवारी होते हैं तथा गौड़ ब्राह्मणों में भी। भूमिहार ब्राह्मण भी तिवारी सरनेम लगाते हैं।

सबसे बड़ा ब्राह्मण कौन होता है?

शाण्डिल्य शांडिल्य एक सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण गोत्र है, ये वेदों में श्रेष्ठ, तथा ऊँचकुलिन घराने के ब्राह्मण हैं। यह गोत्र ब्राह्मणों के तीन मुख्य ऊँचे गोत्रो में से एक है। महाभारत अनुशासन पर्व के अनुसार युधिष्ठिर की सभा में विद्यमान ऋषियों में शाण्डिल्य का नाम भी है।

तिवारी और त्रिवेदी में क्या अंतर है?

तिवारी को सामान्यतः त्रिपाठी का ही तद्भव रूप माना जाता है किन्तु मेरे मत से तिवारी का उद्भव त्रिवारिन् के रूप में हुआ है। वारि शब्द जल के अर्थ में प्रयुक्त है किन्तु यह वाणी, वाक् अथवा सरस्वती का भी समानार्थक शब्द है। अतः त्रिवारिन् वह है जो तीन वेदों का वाचन करे।