सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' वस्तुतः एक कवि थे. हालांकि कवि हृदय लेखक इस लेखक ने गद्य भी भरपूर रचा. आज उनकी जयंती है. 'कितनी नावों में कितनी बार' नामक काव्य संग्रह के लिए साल 1978 में उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. इससे पहले साल 1964 में वह 'आँगन के पार द्वार' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजे जा चुके थे. उनके अन्य कविता संग्रहों में 'हरी घास पर क्षण भर', 'बावरा अहेरी', 'इन्द्र-धनु रौंदे हुए' काफी चर्चित रहे. अज्ञेय की जयंती पर साहित्य आजतक के पाठकों के लिए उनकी एक कविताः नदी के द्वीप हम नदी के द्वीप हैं. हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए. वह हमें आकार देती है. हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकतकूल- सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं. माँ है वह, इसी से हम बने हैं. किंतु हम हैं द्वीप. हम धारा नहीं हैं. स्थिर समर्पण है हमारा. हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के किंतु हम बहते नहीं हैं. क्योंकि बहना रेत होना है. हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं. पैर उखड़ेंगे. प्लवन होगा. ढहेंगे. सहेंगे. बह जाएँगे. और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते? रेत बनकर हम सलिल को तनिक गँदला ही करेंगे. अनुपयोगी ही बनाएँगे. द्वीप हैं हम. यह नहीं है शाप. यह अपनी नियति है. हम नदी के पुत्र हैं. बैठे नदी के क्रोड़ में. वह बृहत् भूखंड से हमको मिलाती है. और यह भूखंड अपना पितर है. नदी, तुम बहती चलो. भूखंड से जो दाय हमको मिला है. मिलता रहा है, माँजती, संस्कार देती चलो : यदि ऐसा कभी हो तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के किसी स्वैराचार से अतिचार- तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा, कीर्तिनाशा, घोर कालप्रवाहिनी बन जाए तो हमें स्वीकार है वह भी. उसी में रेत होकर फिर छनेंगे हम. जमेंगे हम. कहीं फिर पैर टेकेंगे. कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार. मात: उसे फिर संस्कार तुम देना. - सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' नदी के द्वीपरोचक तथ्य'नदी के द्वीप' शीर्षक से अज्ञेय ने एक उपन्यास भी लिखा है। हम नदी के द्वीप हैं। हम नहीं कहते कि हम को छोड़ कर स्रोतस्विनी बह जाए। वह हमें आकार देती है। हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत कूल, सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं। माँ है वह। है, इसी से हम बने हैं। किंतु हम हैं द्वीप। हम धारा नहीं हैं। स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के किंतु हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है। हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं। पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा। ढहेंगे। सहेंगे। बह जाएँगे। और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी या धार बन सकते? रेत बन कर हम सलिल को तनिक गँदला ही करेंगे। अनुपयोगी ही बनाएँगे। द्वीप हैं हम। यह नहीं है शाप। यह अपनी नियति है। हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी के क्रोड़ में। वह बृहद् भूखंड से हमको मिलती है। और वह भूखंड अपना पितर है। नदी, तुम बहती चलो। भूखंड से जो दाय हमको मिला है, मिलता रहा है, माँजती, संस्कार देती चलो : यदि ऐसा कभी हो तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के किसी स्वैराचार से—अतिचार से— तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे, यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाश कीर्तिनाशा घोर काल-प्रवाहिनी बन जाए तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर फिर छिनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे। कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार। मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना। स्रोत :
Additional information availableClick on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher. Don’t remind me again OKAY rare Unpublished contentThis ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left. Don’t remind me again OKAY |