स्वतंत्रता पूर्व अंग्रेजों द्वारा भारत के व्यवस्थित वि-औद्योगीकरण के दोहरे ध्येय क्या थे - svatantrata poorv angrejon dvaara bhaarat ke vyavasthit vi-audyogeekaran ke dohare dhyey kya the

विऔद्योगीकरण (Deindustrialization) का अर्थ है - किसी देश या क्षेत्र में औद्योगिक क्रियाकलापों का क्रमशः कम होना तथा उससे सम्बन्धित सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन। यह औद्योगीकरण की उलटी प्रक्रिया है। विऔद्योगीकरण में विशेषतः भारी उद्योगों या निर्माण उद्योगों (manufacturing industry) में कमी आती है।

विऔद्योगीकरण बाजार पर आधारित अर्थव्यवस्था की एक विशेष प्रक्रिया है। इसमें उत्पादन क्रमशः गिरता है, आर्थिक संकट को जन्म देता है और अन्ततः एक बिलकुल नयी अर्थव्यवस्था जन्म लेती है।

विऔद्योगीकरण के बारे में निम्नलिखित बातें कही जा सकतीं है-

  • दृढ औद्योगिक रोजगार का पतन एवं श्रम के लचीलापन में वृद्धि
  • अर्थव्यवस्था के तृतीयक क्षेत्र (सेवाएँ) के साथ-साथ सूचना अर्थव्यवस्था में वृद्धि ; भारी उद्योग या तो घटते हैं या स्थिर रहते हैं या अन्यत्र चले जाते हैं।
  • आय तथा जीवन-स्तर में सुधार
  • विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार तथा उत्पादन दोनों में लगातार कमी

ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भारत का वि-औद्योगीकरण[संपादित करें]

ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारत के हस्तशिल्प उद्योगों का पतन सामने आया जिसके परिणामस्वरूप कृषि पर जनसंख्या का बोझ बढ़ाता गया। ब्रिटिश शासन के अंतर्गत विऔद्योगीकरण को प्रेरित करने वाले निम्नलिखित घटक माने जाते हैं:

  • (१) प्लासी और बक्सर के युद्ध के बाद ब्रिटिश कंपनी द्वारा गुमाश्तों के माध्यम से बंगाल के हस्तशिल्पियों पर नियंत्रण स्थापित करना अर्थात उत्पादन प्रक्रिया में उनके द्वारा हस्तक्षेप।
  • (२) १८१३ ई. के चार्टर के द्वारा भारत का रास्ता ब्रिटिश वस्तुओ के लिए खोल देना,
  • (३) ब्रिटेन में भारतीय वस्तुओ पर अत्यधिक प्रतिबंध लगाये गये, अर्थात भारतीय वस्तुओं के लिए ब्रिटेन का द्वार बंद करना,
  • (४) रेलवे के माध्यम से भारत के दूरस्थ क्षेत्रों का भेदन किया गया। दूसरे शब्दों में, एक ओर जहाँ दूरवर्ती क्षेत्रों में भी ब्रिटिश फैक्ट्री उत्पादों को पहुँचाया गया, वहीं दूसरी ओर कच्चे माल को बंदरगाहों तक लाया गया।
  • (५) भारतीय राज्य भारतीय हस्तशिल्प उद्योगों के बड़े संरक्षक रहे थे, लेकिन ब्रिटिश साम्राज्यवादी प्रसार के कारण ये राजा लुप्त हो गए। इसके साथ ही भारतीय हस्तशिल्प उद्योगों ने अपना देशी बाजार खो दिया।
  • (६) हस्तशिल्प उद्योगों के लुप्तप्राय होने के लिए ब्रिटिश सामाजिक व शैक्षणिक नीति को भी जिम्मेदार ठहराया जाता है। इसने एक ऐसे वर्ग को जन्म दिया जिसका रुझान और दृष्टिकोण भारतीय नहीं, ब्रिटिश था। अतः अंग्रेजी शिक्षाप्राप्त इन भारतीयों ने ब्रिटिश वस्तुओं को ही संरक्षण प्रदान किया।

18वीं सदी में भारत में दो प्रकार के हस्तशिल्प उद्योग आस्तित्व में थे- ग्रामीण उद्योग और नगरीय हस्तशिल्प। भारत में ग्रामीण हस्तशिल्प उद्योग यजमानी व्यवस्था के अंतर्गत संगठित था। नगरीय हस्तशिल्प उद्योग अपेक्षाकृत अत्यधिक विकसित थे। इतना ही नहीं, पश्चिमी देशो में इन उत्पादों की अच्छी-खासी माँग थी। ब्रिटिश आर्थिक नीति ने दोनों प्रकार के उधोगों को प्रभावित किया। नगरीय हस्तशिल्प उद्योगों में सूती वस्त्र उद्योग अत्यधिक विकसित था। कृषि के बाद इसी क्षेत्र का स्थान था, किन्तु ब्रिटिश माल की प्रतिस्पर्धा तथा भेदभावपूर्ण ब्रिटिश नीति के कारण सूती वस्त्र उद्योग का पतन हो गया।

अंग्रेजो के आने से पूर्व बंगाल में जूट के वस्त्र की बुनाई भी होती थी। लेकिन 1835 ई. के बाद बंगाल में जूट हस्तशिल्प की भी धक्का लगा। ब्रिटिश राज की स्थापना से पूर्व भारत में कागज उद्योग का भी प्रचलन था, किन्तु 19 वीं सदी के उत्तरार्ध में चार्ल्स वुड की घोषणा से स्थिति में नाटकीय परिवर्तन आया। इस घोषणा के तहत स्पष्ट रूप से यह आदेश जारी किया गया था कि भारत में सभी प्रकार के सरकारी कामकाज के लिए कागज की खरीद ब्रिटेन से ही होगी। ऐसी स्थिति में भारत में कागज उद्योग को धक्का लगाना स्वाभाविक ही था। प्राचीन काल से ही भारत बेहतर किस्म के लोहे और इस्पात के उत्पादन के लिए भी प्रसिद्ध था, किन्तु ब्रिटेन से लौहे उपकरणों के आयात के कारण यह उद्योग भी प्रभावित हुए बिना न रह सका।

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • भारत का आर्थिक इतिहास
  • धन-निष्कासन सिद्धान्त
  • औद्योगीकरण
  • औद्योगिक क्रांति
  • कपड़ों का व्यापार कैसे शुरू करें

Rajasthan Board RBSE Solutions for Class 11 Economics Chapter 1 स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था Textbook Exercise Questions and Answers.

RBSE Class 11 Economics Solutions Chapter 1 स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था

RBSE Class 11 Economics स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्था InText Questions and Answers

पृष्ठ - 9.

प्रश्न 1. 
ब्रिटिश काल की उन वस्तुओं की सूची तैयार करें, जिनका भारत से निर्यात और आयात होता था?
उत्तर:
ब्रिटिश काल में भारत के निर्यात-ब्रिटिश शासकों की नीतियों के कारण ब्रिटिश काल में भारत कच्चे माल का निर्यातक बन गया। ब्रिटिश काल में भारत के मुख्य निर्यात कच्चे उत्पाद जैसे रेशम, कपास, ऊन, चीनी, नील, पटसन, हल्की मशीनें आदि थे। ब्रिटिश काल में भारत के आयात-ब्रिटिश काल में भारत के मुख्य आयात ब्रिटेन में बनी अन्तिम उपभोक्ता वस्तुएँ थीं, जैसे रेशमी वस्त्र, ऊनी वस्त्र, सूती वस्त्र आदि।

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पष्ठ-11

प्रश्न 2. 
स्वतन्त्रता के समय भारत की जनसंख्या के व्यावसायिक विभाजन का पाई चार्ट बनाइए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता के समय देश की लगभग 75 प्रतिशत जनसंख्या कृषि क्षेत्रक, 10 प्रतिशत जनसंख्या विनिर्माण क्षेत्रक तथा लगभग 15 प्रतिशत जनसंख्या सेवा क्षेत्रक में लगी थी। स्वतन्त्रता के समय भारत की जनसंख्या के व्यावसायिक विभाजन का पाई चार्ट निम्न प्रकार है।

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RBSE Class 11 Economics स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारतीय अर्थव्यवस्थाक Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1, 
भारत में औपनिवेशिक शासन की आर्थिक नीतियों का केन्द्र -बिन्दु क्या था? उन नीतियों के क्या प्रभाव हुए?
उत्तर:
भारत के औपनिवेशिक शासन द्वारा अपनायी गई आर्थिक नीतियों का मुख्य उद्देश्य भारत का आर्थिक विकास करना नहीं था वरन् इन नीतियों द्वारा वे अपने मूल देश ब्रिटेन के आर्थिक हितों का संरक्षण एवं संवर्द्धन करना चाहते थे। ब्रिटिश शासकों की इन नीतियों के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था का मूल स्वरूप बदल गया। भारत इन नीतियों के कारण कच्चे माल का निर्यातक एवं तैयार माल का आयातक बन गया। भारत के परम्परागत उद्योग - धन्धों का पतन हो गया।

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प्रश्न 2. 
औपनिवेशिक काल में भारत की राष्ट्रीय आय का आकलन करने वाले प्रमुख अर्थशास्त्रियों के नाम बताइए।
उत्तर:
औपनिवेशिक काल में भारत की राष्ट्रीय आय का आकलन करने वाले प्रमुख अर्थशास्त्री दादाभाई नौरोजी, विलियम डिग्बी, फिंडले शिराज, डॉ. बी.के.आर.वी. राव तथा आर.सी. देसाई थे।

प्रश्न 3. 
औपनिवेशिक शासन काल में कृषि की गतिहीनता के मुख्य कारण क्या थे?
उत्तर:
औपनिवेशिक काल में कृषि क्षेत्र की गतिहीनता का मुख्य कारण औपनिवेशिक शासकों द्वारा लागू की गई भू-व्यवस्था प्रणालियाँ थीं। वर्तमान का समस्त पूर्वी भारत जो औपनिवेशिक काल में बंगाल प्रेसीडेन्सी कहलाता था, में जमींदारी प्रथा लागू की गई जिसके तहत कृषकों का समस्त लाभ जमींदारों द्वारा हड़प लिया जाता था। ये जमींदार केवल ब्रिटिश शासकों के प्रति वफादार थे।

उन्होंने ऊँचा लगान लेने के बावजूद कृषि क्षेत्र एवं कृषकों के विकास हेतु कुछ भी नहीं किया। जमींदार कृषकों से अधिक से अधिक लगान लेने का प्रयास करते थे। जमींदारों के इस व्यवहार हेतु ब्रिटिश शासकों की  राजस्व व्यवस्था की यह शर्त जिम्मेदार थी कि पूर्व-निर्धारित तिथि एवं राजस्व की राशि समय पर जमा न करवाने पर ब्रिटिश शासन द्वारा जमींदारों के अधिकार छीन लिए जाते थे

अतः वे कृषकों का अधिक से अधिक शोषण करते थे औपनिवेशिक काल में कृषि की गतिहीनता हेतु अन्य भ अनेक कारण जिम्मेदार थे जैसे प्रौद्योगिकी का निम्न स्तर सिंचाई सुविधाओं का अभाव, उर्वरकों का बहुत कम प्रयोग करना आदि। इन सभी कारणों के फलस्वरूप औपनिवेशिक काल में भारतीय कृषि की उत्पादकता अत्यन्त कम थी जिसके कारण कृषकों की दुर्दशा और अधिक बढ़ गई थी

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प्रश्न 4. 
स्वतन्त्रता के समय देश में कार्य कर रहे कुछ आधुनिक उद्योगों के नाम बताइए।
उत्तर:
भारत में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से ही आधुनिक उद्योगों की स्थापना होने लग गई थी। प्रारम्भ में आधुनिक उद्योगों के रूप में सूती वस्त्र उद्योग एवं पटसन उद्योगों की स्थापना हुई। सूती वस्त्र उद्योग की स्थापना मुख्य रूप से भारतीय उद्यमियों द्वारा देश के पश्चिमी क्षेत्रों में की गई थी। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में आधुनिक उद्योग के रूप में लोहा एवं इस्पात उद्योग का विकास प्रारम्भ हुआ। स्वतन्त्रता के समय कार्य कर रहे प्रमुख आधुनिक उद्योग सूती वस्त्र उद्योग, पटसन उद्योग, लोहा और इस्पात उद्योग, सीमेन्ट उद्योग, कागज उद्योग इत्यादि थे।

प्रश्न 5. 
स्वतन्त्रता पूर्व अंग्रेजों द्वारा भारत के व्यवस्थित वि-औद्योगीकरण के दोहरे ध्येय क्या थे?
उत्तर:
स्वतन्त्रता पूर्व अंग्रेजों द्वारा भारत के व्यवस्थित वि-औद्योगीकरण के पीछे अंग्रेजों का दोहरा उद्देश्य था। पहला तो वे इंग्लैण्ड में विकसित हो रहे आधुनिक उद्योगों के लिए भारत को कच्चे माल का निर्यातक बनाना चाहते थे। दूसरा वे वहाँ के उद्योगों के उत्पादों के लिए भारत को एक विशाल बाजार बनाना चाहते थे।

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प्रश्न 6. 
अंग्रेजी शासन के दौरान भारत के परम्परागत हस्तकला उद्योग का विनाश हुआ। क्या आप इस विचार से सहमत हैं? अपने उत्तर के पक्ष में कारण बताइए।
उत्तर:
हम इस विचार से पूर्णतः सहमत हैं कि अंग्रेजी शासन के दौरान भारत के परम्परागत हस्तकला उद्योगों का विनाश हुआ। इसका मुख्य कारण यह था कि भारत में हस्तकला उद्योग प्राचीन परम्परागत तकनीकों पर आधारित था जिसके कारण इन उत्पादों की लागत अधिक आती थी तथा दिखने में ये अधिक आकर्षक नहीं लगते थे। इसके विपरीत ब्रिटेन से आने वाला उत्पाद मशीनों द्वारा निर्मित होता था जिस कारण वह अधिक आकर्षक एवं सस्ता होता था जिस कारण देश के अधिकांश लोग ब्रिटिश उत्पादों की ओर आकर्षित होने लगे। साथ ही इन उद्योगों को राज परिवारों का संरक्षण मिलना भी कम हो गया जिससे इन उद्योगों का धीरे-धीरे पतन हो गया। अतः अंग्रेजी शासन काल के दौरान भारत के परम्परागत हस्तकला उद्योग का विनाश हुआ।

प्रश्न 7. 
भारत में आधारिक संरचना विकास की नीतियों से अंग्रेज अपने क्या उद्देश्य पूरा करना चाहते थे?
उत्तर:
भारत में औपनिवेशिक काल में रेलों, पत्तनों, जल परिवहन व डाक-तार आदि का विकास हुआ। किन्तु इस आधारिक संरचना विकास के पीछे अंग्रेजों का उद्देश्य देश का विकास एवं जन-कल्याण करना नहीं था अपितु अंग्रेज अपने स्वयं के कई उद्देश्य पूरा करना चाहते थे। अंग्रेजों ने अपने शासन काल में देश में आन्तरिक व्यापार की वृद्धि एवं विकास हेतु सड़कों का निर्माण किया ताकि कच्चे माल को आसानी से रेलवे स्टेशनों तक पहुँचाया जा सके तथा सेना के आवागमन में भी सुविधा हो सके।

अंग्रेजों ने 1850 में भारत में रेलों का विकास प्रारम्भ किया। रेल मार्गों के विकास के पीछे अंग्रेजों का मुख्य उद्देश्य भारत के सभी भागों से कच्चा माल एकत्रित कर ब्रिटेन पहुंचाना तथा ब्रिटेन के निर्मित माल को देश के सभी भागों में पहुँचाना था। औपनिवेशिक व्यवस्था के अन्तर्गत आन्तरिक व्यापार तथा समुद्री जल-मार्गों का विकास किया किन्तु इसके पीछे भी अधिक आर्थिक लाभ कमाने का स्वार्थ था। अत: अंग्रेजों ने भारत आधारिक संरचना का विकास स्वयं के हितों को पूरा करने के लिए किया।

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प्रश्न 8. 
ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा अपनाई गई औद्योगिक नीतियों की कमियों की आलोचनात्मक विवेचना करें।
उत्तर:
ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा अपनाई गई औद्योगिक नीतियों से देश में किसी सुदृढ़ औद्योगिक आधार का विकास नहीं हो पाया। अंग्रेजों की औद्योगिक नीतियों के फलस्वरूप देश के परम्परागत उद्योगों तथा शिल्पकलाओं का पतन हो गया तथा उनका स्थान लेने वाले किसी आधुनिक उद्योग की रचना भी नहीं हो पाई। भारत इन दोषपूर्ण नीतियों के कारण कच्चे माल का निर्यातक एवं निर्मित माल का आयातक बनकर रह गया। अतः भारत पर ब्रिटिश शासन की औद्योगिक नीतियों का विपरीत प्रभाव पड़ा।

प्रश्न 9. 
औपनिवेशिक काल में भारतीय सम्पत्ति के निष्कासन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
औपनिवेशिक काल में भारतीय सम्पत्ति के निष्कासन से हमारा तात्पर्य अंग्रेजों द्वारा कई तरीकों से भारतीय सम्पत्ति को अपने देश में ले जाने से है। अंग्रेजों ने अपनी नीतियों के द्वारा भारत को कच्चे माल का निर्यातक बना दिया, वे भारत से सस्ते मूल्यों पर कच्चा माल खरीद

क्षेत्रक

1980 - 91

1991 - 92

1992 - 93

1994 - 95

1995 - 96

1996 - 97

1998 - 99

कृषि

3.6

3.3

2.3

3.2

1.5

4.2

-0.2

उद्योग

7.1

6.5

9.4

7.4

3.6

5.0

5.9

सेवाएँ

6.7

8.2

7.8

8.2

8.1

7.8

10.3

कुल योग

5.6

6.4

7.8

8.2

5.6

6.6

7.2

(स्रोत : आर्थिक सर्वेक्षण विभिन्न वर्षों के लिए वित्त: उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि विगत तीन दशकों में भारत में कृषि क्षेत्रक की संवृद्धि दर लगभग स्थिर ही रही है। वर्ष 1980 से 1991 के मध्य कृषि क्षेत्रक की संवृद्धि दर 3.6 प्रतिशत थी वह वर्ष 1992 से 2001 के मध्य घटकर 3.3 प्रतिशत के स्तर पर आ गई तथा दसवीं पंचवर्षीय योजना में यह घटकर 2.3 प्रतिशत के स्तर पर ही रह गई तथा ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007 - 12) में कृषि क्षेत्रक की वृद्धि दर 3.2 प्रतिशत रही। 2014 - 15 में यह वृद्धि दर ऋणात्मक -0.2 प्रतिशत रही।

भारत में विगत दशकों में उद्योग क्षेत्र की संवृद्धि दर में उच्चावचन रहा है। देश में 1980-91 के मध्य उद्योग क्षेत्र की संवृद्धि दर 7.1 प्रतिशत थी वह 1992 - 2001 में यह संवृद्धि दर घटकर 6.5 प्रतिशत रह गई तथा दसवीं योजना में यह बढ़कर 94 प्रतिशत हो गई, किन्तु ग्यारहवीं योजना (2007- 2012) में यह 74 प्रतिशत रही। वर्ष 2014 - 15 में यह वृद्धि दर 5.9 प्रतिशत रही। सेवा क्षेत्र में विगत वर्षों में निरन्तर वृद्धि हो रही है। वर्ष 1980 से 1991 के मध्य सेवा क्षेत्र की संवृद्धि दर 6.7 प्रतिशत रही।

यह वर्ष 1992 से 2001 के मध्य बढ़कर 8.2 प्रतिशत हो गई तथा दसवीं योजना में यह घटकर 7.8 प्रतिशत ही रह गई जो ग्यारहवीं योजना में 8.2 प्रतिशत हो गई तथा वर्ष 2014 - 15 में यह वृद्धि दर 10.3 प्रतिशत रही। भारत में विगत दशकों में सकल घरेलू उत्पाद की संवृद्धि दरों में भी वृद्धि हुई है। वर्ष 1980 से 1991 के मध्य भारत में सकल घरेलू उत्पाद की संवृद्धि दर 5.6 प्रतिशत थी वह वर्ष 1992 से 2001 के मध्य बढ़कर 6.4 प्रतिशत हो गई तथा दसवीं पंचवर्षीय योजना में सकल घरेलू उत्पाद की संवृद्धि दर बढ़कर 7.8 प्रतिशत हो गई जो ग्यारहवीं योजना अवधि (2007 - 2012) में 8.2 प्रतिशत रही तथा वर्ष 2014 - 15 में यह वृद्धि दर 7.2 प्रतिशत रही।

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प्रश्न 10. 
विश्व व्यापार संगठन (WTO) पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए।
उत्तर:
विश्व व्यापार प्रशासक के रूप में वर्ष 1948 में 23 देशों ने मिलकर व्यापार और सीमा शुल्क महासंधि (GATT) की स्थापना की। इस सन्धि का मुख्य ध्येय सभी| देशों को विश्व व्यापार में समान अवसर सुलभ कराना था।  किन्तु समय के साथ - साथ विश्व की अर्थव्यवस्थाओं की स्थिति बदल गई तथा व्यापार और सीमा शुल्क महासंधि (GATT) का औचित्य धीरे - धीरे कम होता चला गया। अतः वर्ष 1995 में व्यापार और सीमा शुल्क महासंधि के स्थान पर विश्व व्यापार संगठन (WTO) की स्थापना की गई। विश्व व्यापार संगठन (WTO) का मुख्य ध्येय ऐसी नियम आधारित व्यवस्था की स्थापना है, जिसमें कोई देश मनमाने ढंग से व्यापार के मार्ग में बाधाएँ खड़ी न कर पाए।
 

साथ ही इसका ध्येय सेवाओं के सृजन और व्यापार को प्रोत्साहन देना है, ताकि विश्व के संसाधनों का इष्टतम स्तर पर प्रयोग हो और पर्यावरण का भी संरक्षण हो सके। विश्व व्यापार संगठन की संधियों में द्विपक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार को बढ़ाने हेतु इसमें वस्तुओं के साथसाथ सेवाओं के विनिमय को भी स्थान दिया गया है। ऐसा सभी सदस्य देशों के प्रशुल्क और अप्रशुल्क अवरोधकों को हटाकर तथा अपने बाजारों को सदस्य देशों के लिए खोलकर किया गया है। विश्व व्यापार संगठन के एक महत्त्वपूर्ण सदस्य के रूप में भारत विकासशील विश्व के हितों का संरक्षण करते हुए न्यायपूर्ण  विश्वस्तरीय व्यापार व्यवस्था के नियमों तथा सुरक्षात्मक  व्यवस्थाओं की रचना में सक्रिय भागीदार रहा है।

भारत ने व्यापार के उदारीकरण की अपनी प्रतिबद्धता को बनाए रखा है। इसके लिए भारत ने आयात पर से अपने परिमाणात्मक प्रतिबन्ध हट लिए हैं तथा प्रशुल्क की दरों को भी कम कर दिया है। कर इंग्लैण्ड भेजते थे तथा वहाँ के निर्मित माल को ऊँचे मूल्यों पर भारत को बेचते थे, जिससे प्राप्त लाभ को ब्रिटेन भेज देते थे। इसके अतिरिक्त अंग्रेजों ने अपने कर्मचारियों के वेतन, ऋण के ब्याज, युद्ध का खर्चा आदि के रूप में भी भारतीय धन को इंग्लैण्ड भेजा। इसे ही भारतीय सम्पत्ति का निष्कासन कहा गया।

प्रश्न 10. 
जनांकिकीय संक्रमण के प्रथम से द्वितीय सोपान की ओर संक्रमण का विभाजन वर्ष कौनसा माना| जाता है?
उत्तर:
जनांकिकीय संक्रमण के प्रथम से द्वितीय सोपान की ओर संक्रमण का विभाजन वर्ष 1921 माना जाता है।

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प्रश्न 11. 
औपनिवेशिक काल में भारत की जनांकिकीय स्थिति का एक संख्यात्मक चित्रण प्रस्तुत करें।
उत्तर:
भारत में सर्वप्रथम वर्ष 1881 में जनसंख्या की गणना की गई तथा इसके पश्चात् प्रत्येक दस वर्षों से जनसंख्या की गणना की जाने लगी। वर्ष 1901 में भारत की जनसंख्या 23.8 करोड़ थी जो वर्ष 1911 में बढ़कर 25.2 करोड़ हो गई, किन्तु वर्ष 1921 में इसमें कुछ कमी आई तथा यह घटकर 25.1 करोड़ हो गई। वर्ष 1921 के पश्चात् देश की जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि हुई है। 1931 में यह 27.9 करोड़ एवं 1941 में 31.9 करोड़ हो गई। औपनिवेशिक काल में भारत में साक्षरता दर मात्र 16 प्रतिशत थी तथा महिला साक्षरता दर मात्र 7 प्रतिशत ही थी। उस समय देश में शिशु मृत्यु-दर अत्यन्त उच्च 218 प्रति हजार थी तथा जीवन प्रत्याशा दर भी अत्यन्त कम 32 वर्ष ही थी। अतः औपनिवेशिक काल में| देश की जनांकिकीय परिस्थितियाँ अत्यन्त बदतर थीं।

प्रश्न 12. 
स्वतन्त्रता पूर्व भारत की जनसंख्या की व्यावसायिक संरचना की प्रमुख विशेषताएँ समझाइए।
उत्तर:
स्वतन्त्रता पूर्व भारत की अधिकांश जनसंख्या कृषि क्षेत्र में लगी हुई थी। उस समय देश की लगभग 70 - 75 प्रतिशत जनसंख्या कृषि एवं सम्बद्ध क्रियाओं में लगी हुई थी। विनिर्माण क्षेत्र में लगभग 10 प्रतिशत जनसंख्या तथा सेवा क्षेत्र में लगभग 15 से 20 प्रतिशत जनसंख्या लगी हुई थी। इसके अतिरिक्त उस समय विभिन्न क्षेत्रों में जनसंख्या की व्यावसायिक संरचना के आधार पर काफी विषमता थी। उस समय मद्रास प्रेसीडेन्सी (वर्तमान के तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक तथा केरल), मुम्बई तथा बंगाल में लोगों की कृषि क्षेत्र पर निर्भरता कम हुई तथा विनिर्माण एवं सेवा क्षेत्र पर निर्भरता में वृद्धि हुई किन्तु दूसरी ओर राजस्थान, पंजाब व उड़ीसा में औपनिवेशिक काल में कृषि पर निर्भरता में वृद्धि हुई। 

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प्रश्न 13. 
स्वतन्त्रता के समय भारत के समक्ष उपस्थित प्रमुख आर्थिक चुनौतियों को रेखांकित करें।
उत्तर:
स्वतन्त्रता के समय भारत के समक्ष उपस्थित प्रमुख आर्थिक चुनौतियाँ निम्न प्रकार हैंं।

  1. जनसंख्या की समस्या - स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था के सम्मुख सबसे बड़ी चुनौती निरन्तर बढ़ती हुई जनसंख्या थी।
  2. राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय की निम्न वृद्धि दर - औपनिवेशिक शोषण के फलस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था में राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि दर अत्यन्त कम थी। 
  3. कृषि क्षेत्र पर अत्यधिक निर्भरता - स्वतन्त्रता के समय भारत की लगभग 70 से 75 प्रतिशत जनसंख्या कृषि क्षेत्र पर निर्भर थी तथा कृषि अत्यन्त पिछड़ी हुई अवस्था में थी जो आर्थिक विकास के मार्ग में एक बड़ी चुनौती थी। 
  4.  औद्योगिक क्षेत्र का पिछड़ापन - अंग्रेजों की 'शोषण एवं आर्थिक निष्कासन की नीति के फलस्वरूप देश का औद्योगिक क्षेत्र अत्यन्त पिछड़ गया था तथा लघु, कुटीर एवं परम्परागत उद्योग लगभग नष्ट हो गए थे।
  5. निर्धनता - स्वतन्त्रता के समय भारतीय अर्थव्यवस्था की एक बड़ी चुनौती निर्धनता थी, जिसके परिणामस्वरूप देश में अधिकांश लोग अपनी दैनिक आवश्यकता भी पूरी नहीं कर पाते थे। .
  6. आधारभूत संरचना का अपर्याप्त विकासस्वतन्त्रता के समय देश में आधारभूत संरचना की अत्यन्त कमी थी विशेष रूप से सड़कों का नितान्त अभाव था।

प्रश्न 14. 
भारत में प्रथम सरकारी जनगणना किस वर्ष हुई थी?
उत्तर:
भारत में प्रथम सरकारी जनगणना वर्ष 1881 में हुई थी।

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प्रश्न 15. 
स्वतन्त्रता के समय भारत के विदेशी व्यापार के परिमाण और दिशा की जानकारी दें।
उत्तर:
औपनिवेशिक सरकार की नीतियों के फलस्वरूप देश के विदेशी व्यापार के परिमाण एवं दिशा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। स्वतन्त्रता के समय भारत कच्चे माल, जैसेरेशम, कपास, ऊन, चीनी, नील, पटसन आदि का निर्यातक बन गया था तथा ब्रिटेन में निर्मित सूती, रेशमी एवं ऊनी वस्त्र भारत के प्रमुख आयात थे। स्वतन्त्रता के समय व्यापार शेष भारत के पक्ष में था क्योंकि भारत के निर्यात अधिक एवं आयात कम थे। औपनिवेशिक काल में भारत का लगभग आधे से भी अधिक व्यापार केवल इंग्लैण्ड के साथ होता था तथा शेष कुछ व्यापार अंग्रेजों द्वारा चीन, श्रीलंका एवं इराक के साथ होने दिया जाता था किन्तु भारत के आयात-निर्यात व्यापार पर इंग्लैण्ड का ही एकाधिकार था। वैसे तो स्वतन्त्रता के समय भारत का व्यापार शेष भारत के पक्ष में था किन्तु आर्थिक निष्कासन के रूप में भारी मात्रा में सम्पत्ति अंग्रेजों द्वारा अपने देश भेजी जाती थी।

प्रश्न 16. 
क्या अंग्रेजों ने भारत में कुछ सकारात्मक योगदान भी दिया था? विवेचना करें।
उत्तर:
अंग्रेजों ने भारत में कुछ सकारात्मक योगदान भी दिया जिन्हें निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट किया जा सकता है।

  1. कृषि का व्यवसायीकरण: वैसे तो अंग्रेजों ने कृषकों का शोषण किया किन्तु देश के कुछ भागों में कृषि के व्यवसायीकरण को भी बढ़ावा दिया जिसके फलस्वरूप नकदी फसलों की उत्पादकता में वृद्धि हुई।
  2. आधुनिक उद्योगों की स्थापना: उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में कुछ आधुनिक उद्योगों की स्थापना हुई। विशेष रूप से पटसन उद्योग की स्थापना का श्रेय विदेशियों को दिया जा सकता है। साथ ही दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात् देश में कुछ चीनी, सीमेन्ट, कागज आदि उद्योगों का भी विकास हुआ।
  3. विदेशी व्यापार को बढ़ावा: अंग्रेजों ने अपने शासन काल में भारत के विदेशी व्यापार को भी बढ़ाने का प्रयास किया। विदेशी शासन के अन्तर्गत भारतीय आयातनिर्यात की सबसे बड़ी विशेषता निर्यात अधिशेष था।
  4. आधारभूत संरचना का विकास: औपनिवेशिक काल में देश में आधारभूत संरचना का भी विकास हुआ। विशेष रूप से देश में रेल परिवहन, जल परिवहन, पत्तनों तथा संचार व्यवस्था का विकास हुआ जिसका देश के व्यापार तथा परिवहन पर अनुकूल प्रभाव पड़ा। साथ ही साथ परिवहन का विकास होने से कृषि का व्यवसायीकरण भी बढ़ा।

स्वतंत्रता पूर्व भारत के व्यवस्थित वि औद्योगिकीकरण के पीछे अंग्रेजों के दोहरे ध्येय क्या थे?

भारत के व्यवस्थित वि-औद्योगीकरण का दोहरा ध्येय इस प्रकार था भारत को इंग्लैंड में विकसित हो रहे आधुनिक उद्योगों के लिए कच्चे माल का निर्यातक बनाना। उन उद्योगों के उत्पादन के लिए भारत को एक विशाल बाजार बनाना।

पूर्व स्वतंत्र भारत में अंग्रेजों द्वारा प्रभावित व्यवस्थित विऔद्योगीकरण के पीछे दो गुना मकसद क्या था?

Expert-verified answer पहला उद्देश्य यह था कि भारत को ब्रिटेन में विकसित हो रहे हैं आधुनिक उद्योगों के लिए महत्वपूर्ण कच्चे माल के एक मात्र निर्यातक के रूप में बनाना चाहते थे । दूसरा उद्देश्य यह था कि, उन उद्योगों के तैयार उत्पादों के लिए भारत को एक विशाल बाजार में बदलना ताकि उनका निरंतर विस्तार हो सके।