रामायण और महाभारत कितना पुराना है? - raamaayan aur mahaabhaarat kitana puraana hai?

महाभारत और रामायण हिंदुओं के दो महाकाव्य हैं। कुछ लोग इन्हें इतिहास मानते हैं। परंतु इतिहास के लिए घटनाओं और पात्रों का समय से सुसंगत होना अनिवार्य है। यदि पुराना है तो उसके कुछ पुरातात्विक साक्ष्य होने चाहिए, जैसे सिंधु घाटी की सभ्यता के हैं। महावीर, बुद्ध और सम्राट अशोक आदि के हैं। ऐसे कोई प्रामाणिक साक्ष्य इन महाकाव्यों से संबंधित घटनाओं के नहीं मिलते। कुछ शहरों और नदियों के नाम जरूर मेल खाते हैं। किंतु नगर की मौजूदगी, उसमें व्यक्ति विशेष के प्रवास को तब तक प्रमाणित नहीं करती जब तक कोई दूसरा साक्ष्य न हो। उनके अलावा विभिन्न देवताओं के जगह-जगह फैले कुछ मंदिर आदि है। उनमें से अनेक 1000-1200 वर्ष पुराने और अपनी स्थापत्य कला में बेजोड़ हैं। ये धर्मस्थल श्रद्धालुओं की आस्था का प्रतीक हैं। इसलिए जब भी महाकाव्यों में वर्णित घटनाओं की ऐतिहासिकता को चुनौती दी जाती है, प्रमाण के अभाव में “भक्तगण” आस्था के खोल में समा जाते हैं। उसमें दूसरों का प्रवेश निषिद्ध होता है। वे खुद उससे बाहर झांकने की कोशिश भी नहीं करते।

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उनके लिए यदि आस्था कहती है—”राम थे, तो थे! सूर्यग्रहण का कारण उसपर केतु द्वारा उत्पन्न किया गया संकट है, तो यही सच है! यदि ग्रंथों में लिखा है कि बाल हनुमान ने खेल-खेल में सूरज को निगल लिया था, तो संदेह की गुंजाइश कहां बचती है! आस्था को सर्वोपरि मानने वालों का खुद आस्थावान होना आवश्यक नहीं है। आस्था सिर्फ उनकी लोकलुभावन राजनीति का हिस्सा होती है। आस्थावादी कहता है, जो कहा गया है, उसपर विश्वास करो। धर्मग्रंथों पर संदेह करना पाप है। आस्था जितनी ज्यादा संदेह-मुक्त हो, उतनी ही पवित्र मानी जाती है। जबकि ज्ञान की खोज बगैर संदेहाकुलता के संभव ही नहीं है। कह सकते हैं कि आस्था मानवीय विवेक की ऐसी घेराबंदी है, जिसका दूसरा छोर अंधविश्वास से जुड़ा होता है। अंधविश्वास भी ऐसा कि ज्ञान कब अज्ञान में ढल जाता है, व्यक्ति को पता ही नहीं चल पाता। जिन धर्मग्रंथों के आधार पर आस्था का समर्थन किया जाता है, उनमें परस्पर विरोधी सूचनाओं की भरमार है। उदाहरण के लिए ऋग्वेद के कुछ मंत्रों (1/139/11, 8/28/1) में देवताओं की संख्या 33 बताई गई है, जबकि दूसरे मंत्र (3/9/9, 1/52/6) के जरिये 3339 देवताओं का आह्वान किया गया है।

हिंदू धर्म अतीतोन्मुखी धर्म है। हिंदुओं के लिए पुरातन ही महानतम है। उनके अनुसार सतयुग की अवधि 17,28,000 वर्ष, त्रेता की 12,96,000 तथा द्वापर की 8,64,000 वर्ष थी। जबकि कलियुग मात्र 4,32,000 वर्ष का होगा। युगावधि की तरह मनुष्य की आयु और लंबाई भी घटती जाती हैं। तदनुसार सतयुग में मनुष्य की आयु 1,00,000 वर्ष, लंबाई 21 हाथ (32 फुट), त्रेता में 10,000 वर्ष, लंबाई 14 हाथ (21 फुट), द्वापर में 1000 वर्ष, लंबाई 7 हाथ (11 फुट) तथा कलियुग में मात्र 100 लंबाई 4 हाथ( लगभग 6 फुट) होती है( चारों युगों की अवधि बराबर क्यों नहीं है? युग बदलने के साथ ही मनुष्य की लंबाई और वयस में इतना अंतर अचानक कैसे आ जाता है? क्या दो युगों के बीच कोई शून्यकाल भी होता है? क्या युग का बदलना वर्ष या शताब्दी बदलने जैसा है—जैसे प्रश्नों से वे कन्नी काट जाते हैं। चारों युगों में सतयुग को सर्वोत्तम बताया गया है। महाभारत (149.11-25) में हनुमान भीम को बताते हैं— “सतयुग में प्रत्येक मनुष्य पुरुषार्थ सिद्धि कर कृतकृत्य होता था, इसलिए वह कृतयुग कहलाया। उसमें धर्म अपनी संपूर्ण अवस्था में था … किसी को कुछ करना नहीं पड़ता था। इच्छामात्र से जरूरत की वस्तुएं प्राप्त हो जाती थीं.” रामायण के अनुसार हनुमान का जन्म त्रेता में हुआ था। सतयुग की जानकारी का उनका स्रोत क्या था, इस बारे में वे कुछ नहीं बताते।

गीता के अनुसार, पृथ्वी पर जब-जब पाप बढ़ते हैं, धर्म संकट में पड़ जाता है, तब-तब अवतार होते हैं। श्रद्धा के अतिरेक में हम इसपर विश्वास भी कर लेते हैं। यह ख्याल तक नहीं आता कि यदि सतयुग में धर्म चरमोत्कर्ष पर था तो सर्वाधिक अवतार उसी युग में क्यों हुए? स्मरणीय है विष्णु के कुल दस अवतारों में से चार— “मत्स्य, कूर्म, वाराह और नरसिंह, सतयुग के खाते में जाते हैं।” त्रेता के हिस्से में तीन— “वामन, परशुराम और राम तो द्वापर में केवल कृष्ण हैं।” बुद्ध को सनातन धर्म के खांचे में फिट करने के लिए “कलियुग” में उन्हें भी अवतार का दर्जा दिया गया है। दसवें और आखिरी अवतार के रूप में “कल्कि” की पूर्वकल्पना की गई है। सवाल बस इतना है कि यदि सतयुग में धर्म अपने चरमोत्कर्ष पर था, सभी कुछ ठीक-ठाक था तो उस युग में विष्णु को सर्वाधिक चार-चार अवतार क्यों लेने पड़े थे?

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अपने गुरू वशिष्ठ के कहने पर ध्यान में लीन शंबूक का सिर कलम करता राम

शंकाएं बस यहीं तक सीमित नहीं हैं। त्रेता और द्वापर में अवतार उस समय होते हैं, जब वे अवसान के निकट थे। राम के सरयू में जलसमाधि लेते ही त्रेता भी “जलसमाधि” ले लेता है। इसी तरह कृष्ण की मृत्यु के साथ द्वारिका समुद्र में समा जाती है, द्वापर उड़नछू हो जाता है। अवतार पुरुष की मृत्यु के तुरंत बाद युग-समापन का क्या औचित्य है? क्या किसी राजा का युद्ध जीतकर राजगद्दी पर विराजमान हो जाना सत्ता-परिवर्तन का अभीष्ट हो सकता है? गौरतलब है कि विष्णु के ये दो अवतार ऐसे हैं जिन्हें “धर्म की स्थापना” के नाम पर लाखों-करोड़ों को अपने प्राणों की आहूति देनी पड़ी थी। बावजूद इसके जो व्यवस्था उन कथित अवतार पुरुषों ने गढ़ी, वह लंबे समय तक क्यों नहीं टिक पाई थी? क्या उनका कार्य नाटक में यवनिका (पर्दा) गिराने वाले पात्र जितना सीमित था? क्यों हर अवतार अपने युग का उच्छिष्ट साफ करने के लिए जन्मता है? समाज को सुधारने की जिम्मेदारी वह क्यों नहीं उठाता? जिस धर्मराज्य की स्थापना के लिए वह लाखों योद्धाओं की बलि चढ़ाता है, वह कैसा होता है? अंत तक वह मिथ ही क्यों बना रहता है? यदि हर युग की अवधि सीमित है? यदि तथाकथित धर्म-राज्य की स्थापना के साथ ही युग का पराभव होना पूर्व-निर्धारित है तो ऐसे धर्मराज्य का औचित्य ही क्या है? यदि धर्म-राज्य का लाभ जनसाधारण को नहीं मिल पाता तो उसकी स्थापना किसके लिए की जाती है? जैसे अनगिनत प्रश्न इस व्यवस्था को लेकर हो सकते हैं? लेकिन हमेशा वे प्रश्न ही रह जाते हैं। आस्था और धर्म अपने नाम पर फैलाये गए डर से, हर जिज्ञासु के मुंह पर ताला डालने का काम करते हैं।

मानवीय विवेक के सापेक्ष आस्था को अतिरेकी महत्व देना अनायास है? क्या यह किसी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है? क्या यह भी अनायास है कि रामायण के नायक राम और दशरथ के बाकी तीनों पुत्र तथा महाभारत के नायक पांडुपुत्रों में से एक भी अपने पिता की औरस संतान नहीं हैं। सभी नियोग जनित हैं। क्या ये कथाएं इसलिए गढ़ी गईं कि कोख किसी की भी हो, वीर्य ब्राह्मण का होगा तभी सर्वतेजोमय संतान जन्म ले सकती है? अथवा अश्वमेध आदि यज्ञों की आड़ में जो वासना का वीभत्स खेल खेला जाता था, उसको वैध बनाने के लिए ये मिथ गढ़े गए थे? ध्यातव्य है कि दोनों महाकाव्यों के महानायकों, जिन्हें बाद में ईश्वर मान लिया जाता है—की मृत्यु भी सामान्य नहीं थी। राम सीता को वनवास देने के बाद आत्मग्लानि से भर जाते हैं। वही उनको सरयू में जलसमाधि लेने को विवश करती है। महाभारत की जंग जीत लेने के बाद पांडव भी सुखी नहीं रह पाते। आत्मशांति की तलाश उन्हें हिमालय की ओर ले जाती हैं। वहां द्रौपदी के साथ उसके पांचों पति भी, एक-एक कर मृत्यु को प्राप्त होते हैं।

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महाभारत के कृष्ण उस तथाकथित “धर्मयुद्ध” के महानायक हैं। 18 अक्षौहिणी सेनाओं; यानी मनुष्यों और जानवरों को मिलाकर दो करोड़ से ज्यादा प्राणियों की आहूति देने के पश्चात युधिष्ठिर का राज्यारोहण संभव हो पाता है। इसी के साथ धर्म के राज्य की घोषणा कर दी जाती है। लेकिन सब कुछ शांत नहीं हो जाता। थोड़े ही समय के बाद द्वारिका में यादव अंतर्कलह के शिकार हो जाते हैं। उस अंतर्कलह को रोकने के लिए कृष्ण की बुद्धि काम नहीं आ पाती। धरती पर धर्मराज्य की स्थापना का दावा करने वाले कृष्ण अपने ही बंधु-बांधवों को आपस में लड़-लड़कर देखने को विवश हैं। पूरी धरती पर धर्म की स्थापना का दावा करने वाले अवतार-पुरुष कृष्ण अपने ही परिजनों को क्यों नहीं संभाल पाए? महाभारत का यह अंत क्या स्वाभाविक है? क्या गांधारी का शाप और यादव कुल का आपस में लड़-झगड़कर मर जाना, नियतिबद्ध घटना थी? अथवा ऋग्वैदिक कृष्ण के तेज को, उनकी गौरवशाली स्मृतियों को धुंधला करने के लिए जानबूझकर रचा गया षड्यंत्र था?

राजनीतिक और सामाजिक विमर्श के हिसाब से देखा जाए तो महाभारत रामायण से कहीं आगे की रचना है। रामायण का कथानक एकदिशीय है और महाभारत का बहुआयामी। रामायण मुख्यत: पारिवारिक संबंधों की गाथा है, जबकि महाभारत में संबंधों का दायरा बढ़कर सामाजिक-राजनीतिक हो जाता है। बावजूद इसके प्रतिष्ठा रामायण की कहीं ज्यादा है। उसे पांचवा वेद माना जाता है। वे लोग जिनके कानों में वेदमंत्र पड़ते ही पिघला हुआ शीशा भर देने की बात कही गई थी, उन्हें भी रामायण को पढ़ने और घर में रखने की छूट थी। दूसरी ओर महाभारत को घर लाना निषिद्ध माना गया। कहा गया कि उसे घर में जगह देने से आपस में द्वैष पनपता है। अंतर्कलह बढ़ने से परिवार में फूट पड़ जाती है। क्या इस मान्यता को महज जनसाधारण का अंधविश्वास कहकर टाला जा सकता है?

रामायण में विचारधाराओं का कोई टकराव नहीं है। वहां ब्राह्मण के मुंह से निकले शब्द ही शास्त्र हैं। राम वही करते हैं, जो गुरु कहते हैं। गुरु कहते हैं बाण चलाओ, तो राम, रावण की वनरक्षक और अधेड़ उम्र की स्त्री ताड़का पर शर-संधान करने में देर नहीं करते। ब्राह्मण कहता है कि शंबूक के वेदपाठन से धरती पर पाप बढ़ रहा है, इसे मार डालो तो बिना किसी शंका के राम उसका सिर धड़ से अलग कर देते हैं। रामकथा के अनुसार, ब्रह्म-कथन से विचलन का एकमात्र दंड है— “मौत। समन्वय, सहिष्णुता अथवा भिन्न वैचारिकी से समझौते के लिए उसमें कोई गुंजाइश नहीं है।” राम ब्राह्मण द्वारा गढ़ी मर्यादा का पालन आंख मूंदकर, निःशंक भाव से करते हैं, इसलिए तुलसी ने उन्हें “मर्यादा पुरुषोत्तम” कहा है। रावण उनकी बनाई व्यवस्था का पालन नहीं करता। उल्टे मखौल उड़ाता है—”इसलिए उसे राक्षस कहा गया है।” मगर युद्ध में राम द्वारा रावण का वध होते ही रामायणकार को सहसा याद आ जाता है कि रावण ब्राह्मण है। रावण भले मरे, किंतु ब्राह्मणत्व सुरक्षित रहना चाहिए। इसके लिए चलते-चलते एक प्रसंग गढ़ा जाता है। विभीषण राम को मरणासन्न रावण से राजनीति का ज्ञान लेने की सलाह देता है। राम उस समय विजय के मद में हैं। वे खुद न जाकर लक्ष्मण को रावण के पास भेजते हैं। लक्ष्मण रावण के सिरहाने खड़े होकर राजनीतिक ज्ञान की प्रार्थना करते हैं। रावण आंखें मूंदे पड़ा रहता है। लक्ष्मण वापस लौट जाते हैं। तब राम स्वयं उपस्थित होकर रावण के पैरों की ओर खड़े होकर राजनीति का पाठ पढ़ाने का आग्रह करते हैं। रावण तैयार हो जाता है। “राम भले ही अवतार सही। मगर पृथ्वी का सर्वेसर्वा तो ब्राह्मण है।” पाठकों को यह एहसास कराने के साथ ही रामायणकार का उद्देश्य पूरा हो जाता है। यहां इस बात पर कोई विमर्श नहीं होता कि रावण का राजनीतिक दर्शन क्या था? लंका की समृद्धि में उस दर्शन का कितना योगदान था? अथवा “रामराज्य” के निर्माण में रावण के दिए राजनीतिक ज्ञान की क्या भूमिका थी? आस्था यह सवाल उठाने की इजाजत नहीं देती। “खट्टर काका” में हरिमोहन झा इसे बड़े ही रोचक ढंग से दिया है। उपन्यास के अनुसार मिथिला के नैयायिक (न्यायशास्त्र के जन्मदाता गौतम) ने राम से उनके वनवास के बारे में सवाल कर दिया—

“वनवास” का क्या अर्थ? “सर्व वनेषु वासः” (सभी वनों में वास) अथवा “कस्मिंश्चिद् वने वासः (किसी एक वन में वास)।” यदि पहला अर्थ लो तो सो उन्होंने किया ही नहीं। संभव भी नहीं था। और, यदि दूसरा अर्थ लो, तो फिर अयोध्या के निकट ही किसी वन में रह जाते। चित्रकूट में ही चौदह वर्ष बिता देते। तो भी पिता की आज्ञा का पालन हो जाता। फिर, हजारों मील दूर भटकने की क्या जरूरत थी!  वह भी सुकुमारी सीता को साथ लेकर….राम कुछ उत्तर नहीं दे सके। खीझकर कह दिया—

“यः पठैत गौतमी विद्यां शृगालीयोनिमाप्नुयात”(जो भी गौतम की विद्या, उनके तर्कशास्त्र को पढ़े सो गीदड़ होकर जन्म ले)।

आखिर राम ब्राह्मणों से इतना भयभीत क्यों थे? इसके लिए उनके पूर्वजों की कथा का स्मरण करना पड़ेगा। राम के पूर्वज थे पृथु। वेन[1] की संतान। वेन को धरती का पहला निर्वाचित राजा कहा जाता है। वेन को जगत कल्याण के लिए राजा नियुक्त किया गया था। इसलिए उसकी निष्ठाएं अपनी जनता के प्रति थीं। एक बार राज्य में अकाल पड़ा। उस समय वेन ने सिर्फ ब्राह्मणों का हित साधने के बजाय, अपनी जनता को वरीयता दी। इसपर ब्राह्मण नाराज हो गए। अकाल के लिए वेन को दोषी ठहराकर वे जनता को भड़काने लगे। अशिक्षित भूख से अकुलाई जनता का विवेक तो पहले ही समाप्त हो चुका था। ब्राह्मणों के इशारे पर वह अपने ही राजा पर झपट पड़ी। वेन के बाद उसके पुत्र पृथु को राजा नियुक्त करने से पहले ब्राह्मणों ने कहा—

“वेननंदन! जिस कार्य में नियमपूर्वक धर्म की सिद्धि हो, उसे निर्भय होकर करो। लोक में जो कोई भी मनुष्य धर्म से विचलित हो उसे सनातन धर्म पर दृष्टि रखते हुए अपने बाहुबल से परास्त करके दंड दो। यह प्रतीज्ञा करो कि मैं मन, वाणी और कर्म द्वारा भूतलवासी ब्रह्म के आदेश का निरंतर पालन करूंगा….कभी स्वच्छंद नहीं होऊंगा। ब्राह्मण मेरे लिए सदैव अदंडनीय होंगे तथा मैं संपूर्ण जगत को वर्णसंकरता और धर्मसंकरता से बचाऊंगा।”[2]

पिता की हत्या से डरे पृथु ने, ऋषिगणों के आदेशानुसार प्रतिज्ञा ली— “नरश्रेष्ठ महात्माओं! महाभाग ब्राह्मण मेरे लिए सदैव वंदनीय होंगे।”[3] पृथु द्वारा ब्राह्मणों के आगे समर्पित करते ही धर्मसत्ता और राजसत्ता का ऐसा गठजोड़ बना जो पीढ़ियों तक चलता रहा। ब्राह्मणों ने जो दंड उनके पूर्वज वेन को दिया था, उसकी स्मृतियां राम के मन में अवश्य ही रही होंगी। इसलिए वे ब्राह्मणों के आदर्श आज्ञाकारी बने रहने को ही श्रेय मानते हैं।

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महाभारत और रामायण दोनों में जातियां हैं। वर्ण-व्यवस्था का महिमामंडन है। रामराज्य में शूद्रों के जीवन, उनके सुख-दुख का वर्णन नहीं है। शूद्र केवल सीता पर लांछन लगाने के लिए उपस्थित होता है। उसकी भूमिका कथानक को विस्तार देने के लिए है। पूरी रामायण में राम के देवत्व को लेकर कोई चुनौती नहीं है। यहां तक कि राम के साथ वैर-भाव रखने वाले रावण और कुंभकरण जैसे महान योद्धा भी उनके देवत्व को चुनौती नहीं देते। वे केवल इसलिए राम के विरुद्ध युद्धरत हैं ताकि उनके हाथों से मृत्यु का वरण कर, अपने पुराने शापों से मुक्ति पा सकें। कृष्ण की एक विशेषता उनका सखा-भाव है। इसमें अर्जुन और सुदामा ही नहीं, ब्रज के सभी गोप-गोपियां सम्मिलित हैं। दूसरी ओर राम इतने “बड़े” हैं कि उनके साथ मैत्री-भाव संभव ही नहीं है। हनुमान, सुग्रीव आदि को वे मित्र कहें तो इसे उनकी उदारता बताया जाता है। यदि हनुमान, सुग्रीव आदि खुद को राम का मित्र समझने लगें तो यह उनकी धृष्टता होगी। वह एक तरह से राजा को सर्वाधिकार संपन्न, यहां तक कि निरंकुश बना देने का षड्यंत्र था। ऐसी निरंकुशता जो सिवाय ब्राह्मण के किसी पर भी बरस सकती थी। यहां तक कि रावण भी इसका अपवाद नहीं है। इसलिए कि उसके पूर्व जन्म की कथाएं गढ़कर और मृत्योपरांत स्वर्ग भेजकर, रामकथा लेखक उसकी भरपाई कर देता है। शूद्र मनीषी शंबूक का क्या हुआ, जिन्हें राम ने अपने हाथों से मौत के घाट उतारा था। अगर राम के हाथों से मरने पर स्वर्ग प्राप्ति होती है तो शंबूक को भी स्वर्ग मिलना चाहिए था। लेकिन राक्षस होने के बावजूद ब्राह्मण कुलोत्पन्न रावण को जो सुविधा प्राप्त है, वह शंबूक को नहीं मिल पाती। इसलिए उनके पूर्वजन्म और मृत्यु के बाद को लेकर रामायण में कोई अंतर्कथा नहीं है।

राम की अपेक्षा कृष्ण का चरित्र बहुआयामी है। उन्हें 16 कलाओं से संपन्न माना गया है। वे प्रबुद्ध हैं, कूटनीतिज्ञ हैं। अर्जुन को असमंजस में देखकर गीता का उपदेश देते हैं। इसलिए अपने समय के खास बौद्धिकों की श्रेणी में भी आते हैं। इसके उलट राम बौद्धिक जीव नहीं हैं। वे हर जगह ऐसा व्यवहार करते हैं, जैसे उनका विवेक किसी ने हर लिया हो। राम का चरित्र ब्राह्मणवादी आकांक्षाओं के अनुरूप गढ़ा गया है। वे ब्राह्मणत्व के आगे न केवल स्वयं नतमस्तक हैं, अपितु जो भी उसके आड़े आता है, उसे बड़े से बड़ा दंड देने को सदैव तत्पर रहते हैं। बदले में ब्राह्मण उन्हें भगवान घोषित करते रहते हैं। कह सकते हैं कि राम की भगवत्ता उपहार में प्राप्त भगवत्ता है। जबकि कृष्ण ने अपनी भगवत्ता अपने बौद्धिक पराक्रम, संगठन-सामर्थ्य और यदुओं की संगठित राज्यशक्ति के बल पर स्वयं हासिल की थी। राजनीति के ज्ञान के लिए वे अपने परमशत्रु रावण के पास अवश्य जाते हैं, परंतु रावण से कुछ सीख पाए, इसमें संदेह है। रावण के राज्य में स्त्रियों का सम्मान था। वे राजकीय सेवा में थीं। अवसर पड़ने पर मंदोदरी रावण को सलाह देती है। उसे बुरा कर्म करने से बरजती है। यह सुविधा रघुकुल की स्त्रियों को प्राप्त नहीं थी। वे घर की शोभा मात्र थीं। केवल रनिवासों में आंसू बहाना जानती थीं। इतनी कोमलांगी कि रावण की दृष्टि पड़ते ही सीता का शील आहत हो जाता है, जिसके लिए उसे अग्नि-परीक्षा से गुजरना पड़ा था।

दूसरी ओर कृष्ण का आदि विवरण ऋग्वेद में मौजूद है। वहां वे अनार्य यदु कबीले के महापराक्रमी योद्धा हैं। इंद्र का प्रभुत्व उन्हें स्वीकार्य नहीं है। ऋग्वेद में उन्हें “वृत्र, नमुचि, शंबर, शुष्ण, पणि आदि इंद्र के सात शत्रुओं में से एक माना गया है” (ऋ. 8/96/16)। “द्रुतगामी कृष्ण अंशुमति (दृषद्वती) नदी तटवर्ती गूढ़ स्थान और विस्तृत प्रदेश में विचरण और सूर्य के समान अवस्थान करता है….इंद्र ने अपनी बुद्धि से उस दीप्तिमान, द्रुतगामी और घोर नाद करने वाले कृष्ण को खोजा तथा लोकहित में, बृहस्पति की सहायता से, कृष्ण और उसकी सेना का नाश किया। (ऋ. 8/96/14-15)[4] आर्यों के लिए इंद्र इसलिए भी पूज्य है क्योंकि उसने केवल कृष्ण और उसकी सेनाओं को ही नहीं, उसकी गर्भवती स्त्रियों को भी नहीं छोड़ा—” जिस इंद्र ने ऋजिश्वा राजा के साथ कृष्ण नामक असुर की गर्भवती स्त्रियों को निहत किया था, हम उन्हीं शक्तिशाली इंद्र के निमित्त अन्न के साथ हवि एवं स्तुति अर्पित करें” (ऋ. 1/101/1)

ऋग्वेद में इंद्र के हाथों कृष्ण का वध दिखाया गया है। लेकिन संभावना यही है कि कृष्ण अपने यदु कबीले के साथ बच निकले थे। कदाचित इन्हीं स्मृतियों को भिन्न कथानक के माध्यम से महाभारत में सहेजा गया है, जिससे कृष्ण के नाम के साथ “रणछोड़” की उपाधि जुड़ जाती है। “रणछोड़” होना कृष्ण के चरित्र का नकारात्मक लक्षण नहीं है। इसके माध्यम से वे दर्शाते हैं कि बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए छोटे लक्ष्यों का बलिदान करना ही बुद्धिमानी है। ऋग्वैदिक रणछोड़ कृष्ण के नेतृत्व में; अथवा उनकी प्रेरणा से, कालांतर में गंगा-यमुना के घने, उपजाऊ और तराई क्षेत्र में महान सभ्यता विकसित हुई, जिसे भारतीय इतिहास में गंगा-जमुनी सभ्यता कहा जाता है। कुछ ही शताब्दियों में, संगठित गणशक्ति के बल पर उनकी गिनती भारत के महाशक्तिशाली राज्यों में होने लगी। इतनी कि आर्यों के लिए उनकी उपेक्षा संभव ही नहीं थी। संस्कृतियों के सम्मिलन के दौर में, आर्यों को यदुनायक कृष्ण को भगवान के रूप में स्वीकारना ही पड़ा। क्या उन्होंने सचमुच कृष्ण के चरित्र के उदात्त पक्षों को ज्यों की त्यों स्वीकार लिया था? उत्तर है, नहीं.

महाभारत में कृष्ण का चरित्र उनके ऋग्वैदिक चरित्र से भिन्न है। गीता में वे वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करते हैं। अवतार घोषित करने की यह अनिवार्य शर्त थी। दरअसल ब्राह्मणों ने कृष्ण को अवतार तो माना, मगर उनके चरित्र-हनन में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसके लिए ब्रह्मवैवर्त्त पुराण को देखा जा सकता है। जिसमें कृष्ण को स्त्री-लोलुप और लंपट व्यक्ति के रूप में किया है, जो अनेक स्त्रियों के साथ संसर्ग करता है। बाद की रचनाओं में “गीत गोविंद” भी है। यहां कुछ लोग कह सकते हैं कि कृष्ण योगेश्वर हैं। गोपियों के साथ उनका व्यवहार समर्पण की पराकाष्ठा है। सवाल यह है क्या यही छूट वे राम के चरित्र-चित्रण में ले सकते थे? ब्राह्मण लेखकों की चालाकी का यहीं अंत नहीं होता। उन्होंने कृष्ण को तो ईश्वर का दर्जा तो दिया, लेकिन यादव कृष्ण का वंशज होने का दावा न कर सकें, इसके लिए महाभारत में एक आख्यान जोड़ा गया। उसके अनुसार सारे यादव मूर्खों की तरह ही आपस में लड़-झगड़कर मर जाते हैं।

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यदुओं के प्रति ब्राह्मण लेखकों की ईर्ष्या रामायण में भी नजर आती हैं। याद करें, वह प्रसंग जब राम लंका पर चढ़ाई करते समय समुद्र से रास्ता मांगते हैं। समुद्र द्वारा निवेदन को अनसुना करने पर वे कुपित होकर बाण-संधान कर लेते हैं। घबराया हुआ समुद्र तत्क्षण हाजिर होकर क्षमा-याचना करते हुए अपनी मजबूरी बताता है। इसपर राम तने हुए बाण को तूणीर में वापस लेने से इन्कार करते हुए कहते हैं—”हे समुद्र! मेरा बाण अमोघ है। मैं इसे वापस नहीं ले सकता।” उस समय समुद्र के मुंह से कहलवाया गया है—”उत्तर दिशा में द्रुमकुल्य नामक एक विख्यात देश है। वहां आभीर (अहीर) आदि जातियों के बहुत-से मनुष्य निवास करते हैं। उनके रूप और कर्म बड़े ही भयानक हैं। वे सबके सब पापी और लुटेरे हैं। वे लोग मेरा जल पीते हैं। उन पापाचारियों का स्पर्श मुझे प्राप्त होता रहता है, इस पाप को मैं सह नहीं सकता। अपने इस उत्तम बाण को वहीं सफल कीजिए।” समुद्र के कहने पर राम उस अत्यंत प्रज्जवलित बाण को बताई हुई दिशा में छोड़ देते हैं। यदुओं के प्रति इस ईर्ष्या का कारण क्या केवल उनकी जाति अथवा ऋग्वेद-कालीन वैर-भाव की स्मृतियां थीं? क्या इसके कुछ और कारण भी खोजे जा सकते हैं?

गौतम बुद्ध से पहले भारत में 16 महाजनपद अस्तित्व में थे, जहां गणतांत्रिक पद्धति से शासन चलता था। उन महाजनपदों में से एक वृष्णि संघ का केंद्र मथुरा था, जिसके मुखिया शूरसेन थे। बुद्धकाल में तत्कालीन भारत के सबसे बड़े और शक्तिशाली लिच्छिवी गणतंत्र की राजधानी वैशाली थी। मगध सम्राट अजातशत्रु की निगाह वैशाली की समृद्धि पर थी। वह उसपर अधिकार करना चाहता था। सलाह के लिए वह बुद्ध के पास पहुंचा। तब बुद्ध ने उससे कहा था कि जब तक लिच्छिवीगण अपने फैसले मिल-जुलकर करते हैं, उनके बीच कोई मतांतर नहीं है, तब तक उन्हें पराजित कर पाना असंभव है। अजातशत्रु लौट जाता है। बाद में वह अपने मंत्री वस्सकार को वैशाली भेजता है। जो छद्मरूप में वहां रहकर लिच्छिवियों में फूट डालने का काम करता है। उसके बाद अजातशत्रु की विजय संभव हो पाती है। महाभारत में यदुओं (वृष्णि) को आपस में लड़ते-झगड़ते दिखाकर, महाभारत के लेखक का उद्देश्य गणतांत्रिक प्रणाली की निरर्थकता को भी सिद्ध करना था। क्योंकि बिना उसके “धर्मराज्य” के मिथ की स्थापना संभव ही नहीं थी। गौरतलब है कि महाभारत का मूल कथानक भले ही ईसा से कुछ शताब्दी पुराना हो, लेकिन उसमें लगातार संशोधन होता रहा। रामायण और महाभारत को उनका वर्तमान स्वरूप गुप्तकाल में, या कदाचित उसके भी बाद प्राप्त हुआ है।

ब्राह्मणों के छल का शिकार केवल कृष्ण हुए हों, यह बात नहीं है। स्वयं महादेव भी उनके ऐसे ही षड्यंत्र का शिकार हैं। शिव अनार्यों के देवता हैं। सिंधु सभ्यता के उत्खनन से प्राप्त मूर्तियां बताती हैं कि वे सिंधुवासियों के भी आराध्य रहे होंगे। वहां वे पाशुपत हैं। कबीलों के सर्वमान्य मुखिया हैं। आर्यों और अनार्यों के बीच समन्वय की प्रक्रिया के फलस्वरूप शिव को त्रिदेवों में स्थान मिला। सिंधु सभ्यता की आपेक्षिक प्राचीनता का सम्मान करते हुए उन्हें आदिदेव भी माना गया। सवाल हैं कि समन्वयीकरण के दौरान शिव तथा उनके अनुयायियों को क्या वही मान-सम्मान प्राप्त हुआ, जिसके वे वास्तविक अधिकारी थे? उन्हें महाविनाश का देवता ही क्यों स्वीकारा गया? शिव-वाद्य डमरू तथा उनके तांडव के क्या और भी निहितार्थ हो सकते हैं? “भोला” कहकर शिव का उपहास उड़ाना क्या उनकी देवताओं और असुरों के प्रति समदृष्टि, उनके न्याय-भाव की उपेक्षा करना नहीं है?

गौरतलब है कि सिंधु सभ्यता का क्षेत्रफल करीब नौ लाख वर्ग किलोमीटर तक विस्तृत था। शिव उन सभी के आराध्य थे। जबकि ब्रह्मा और विष्णु आक्रामक कबीलों के रूप में आए आर्यों की मानस कल्पना थे। समन्वयीकरण की आवश्यकता के चलते आर्य लेखकों ने उन्हें त्रिदेवों में स्थान दिया, मगर बड़ी चतुराई से उन्हें भंगैड़ी, नशाखोर और यायावर सिद्ध कर दिया। शिव की उदारता को भी, यह कहकर कि वे असुरों को भी वैसे ही वरदान लुटाते हैं, जैसे देवताओं को—नकारात्मक रूप में देखा गया। यही नहीं उनके समर्थक कबीलों को भूत, प्रेत, कापालिक आदि कहकर अपमानित किया जाता है। नशाखोर और यायावर होने के कारण के शिव शासन करने के अयोग्य हैं। इसलिए उन्हें हमेशा के लिए कैलाश पर ठहराकर अवतारों के माध्यम से राज्य करने की जिम्मेदारी विष्णु को सौंप दी गई। लेकिन लोकशक्ति तो हर युग में सर्वोपरि रही है। वह भड़क जाए तो बड़ी से बड़ी सत्ताएं डोल जाती हैं। त्रिदेवों में यह शक्ति न तो ब्रह्मा के पास थी, न विष्णु के पास। शिव के पीछे खड़ी लोकशक्ति का भय ही था जिससे ब्राह्मण उन्हें विनाश के देवता का दर्जा देते हैं। डमरू कबीलों को युद्ध या जनसभा के लिए एकजुट करने का वाद्य रहा होगा; और तांडव लोकशक्ति को युद्ध के लिए जाग्रत करने की शैली। शिव की तीसरी आंख के माध्यम से सृष्टि के जन्म और विनाश के मिथ गढ़े जाते रहे।

संदर्भ :

[1] पृथु की कथा : ठाकुर प्रसाद सिंह

[2] महाभारत, शांतिपर्व, 59/103-108, गीता प्रेस

[3] महाभारत, शांतिपर्व, 59/109, गीता प्रेस

[4] हिंदी ऋग्वेद, रामगोविंद त्रिवेदी, 1954, इंडियन प्रेस लिमिटेड, प्रयाग, पृष्ठ -1057

(संपादन : नवल/गोल्डी)


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रामायण और महाभारत कितने साल पुरानी है?

आर्यभट्ट के अनुसार महाभारत काल का युद्ध 3137 ईसा पूर्व में हुआ था, अर्थात 5155 वर्ष पूर्व हुआ था। नए शोधानुसार रामायण काल को लगभग 7323 ईसा पूर्व अर्थात आज से लगभग 9341 वर्ष पूर्व का बताया गया है, जबकि भगवान श्रीराम का जन्म 5114 ईसा पूर्व चैत्र मास की नवमी को हुआ था।

पहले क्या हुआ रामायण या महाभारत?

भगवान श्री राम का अवतार त्रेता युग में हुआ था और भगवान श्रीकृष्ण का अवतार द्वापर युग में हुआ था , बाल्मिक रामायण की रचना बाल्मिक जी ने त्रेता युग में किया था और श्री वेदव्यास जी ने महाभारत की रचना द्वापर युग में किया था । दोनों महाकाव्यों की तुलना करते हैं, तो हम अनुमान कर सकते हैं कि रामायण महाभारत से पहले लिखा गया।

रामायण कितने वर्ष पहले?

आधुनिक विद्वान इसका रचनाकाल 7 वीं से 4 वीं शताब्दी ईसा पूर्व मानते हैं। कुछ विद्वान तो इसे तीसरी शताब्दी ई तक की रचना मानते हैं। कुछ भारतीय कहते हैं कि यह ६०० ईपू से पहले लिखा गया।

महाभारत कितने वर्ष पहले हुई थी?

विश्व विख्यात भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ आर्यभट के अनुसार महाभारत युद्ध १८ फ़रवरी ३१०२ ईसा पूर्व में हुआ था।