प्रथम विश्व युद्ध का राष्ट्रीय आंदोलनों पर क्या प्रभाव पड़ा? - pratham vishv yuddh ka raashtreey aandolanon par kya prabhaav pada?

विषयसूची

  • 1 प्रथम विश्व युद्ध का अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ा?
  • 2 भारत में प्रथम विश्व युद्ध कब हुआ?
  • 3 प्रथम विश्व युद्ध का राष्ट्रीय आंदोलनों पर क्या प्रभाव पड़ा लिखिए?
  • 4 पहला विश्व युद्ध का कारण क्या था?

प्रथम विश्व युद्ध का अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ा?

इसे सुनेंरोकेंयुद्ध के दौरान कारखानों और मजदूरों की संख्या में तीव्रता से बढ़ोतरी हुई. में कपड़ा-मिलों की संख्या 272 और उनमें काम करने वाले मजदूरों की संख्या 2,53,786 थी, किन्तु 1923 ई. तक उनकी संख्या क्रमशः 333 और 3,47,380 हो गयी.

प्रथम विश्व युद्ध के भारत पर कौन से आर्थिक असर पड़े?

इसे सुनेंरोकें(1) इस युद्ध की वजह से ब्रिटिश सरकार के रक्षा व्यय में भरी इज़ाफा हुआ था। इस खर्च को निकालने के लिए सरकार ने निजी आय और व्यावसायिक मुनाफे पर कर बढ़ा दिया था । (2) सैनिक व्यय में इज़ाफे तथा युद्धक सामग्री की आपूर्ति की वजह से ज़रूरी चीज़ों की कीमतों में भारी उछाल आया और आम लोगों की ज़िन्दगी मुश्किल होती गई।

प्रथम विश्वयुद्ध का पश्चिम एशिया के इतिहास पर क्या असर पड़ा?

इसे सुनेंरोकेंऑस्ट्रिया, जर्मनी, फ्राँस और रूस की सीमाएँ बदल गईं। बाल्टिक साम्राज्य, रूसी साम्राज्य से स्वतंत्र कर दिये गए। एशियाई और अफ्रीकी उपनिवेशों पर मित्र राष्ट्रों का अधिकार होने से वहाँ भी परिस्थिति बदली। इसी प्रकार जापान को भी अनेक नए क्षेत्र प्राप्त हुए।

भारत में प्रथम विश्व युद्ध कब हुआ?

इसे सुनेंरोकेंप्रथम विश्व युद्ध (WWI या WW1 के संक्षिप्त रूप में जाना जाता है) यूरोप में होने वाला यह एक वैश्विक युद्ध था जो 28 जुलाई 1914 से 11 नवंबर 1918 तक चला था।

प्रथम विश्व युद्ध के उतरदायी कारण क्या थे?

इसे सुनेंरोकेंप्रथम विश्व युद्ध के कारण एवं परिणाम : प्रथम विश्व युद्ध 28 जुलाई, 1914 से 11 नवंबर 1918 तक चलने वाला विश्वव्यापी युद्ध था। इस युद्ध को ‘ग्लोबल वॉर व ग्रेट वॉर’ भी कहा जाता है। प्रथम विश्व युद्ध में लगभग सभी राष्ट्रों में देशभक्ति की भावना उत्पन्न हुई और उन्होंने अपने राष्ट्र के विस्तार के लिए इस युद्ध में भाग लिया।

3 प्रथम विश्व युद्ध के कारण क्या थे?

इसे सुनेंरोकेंप्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत का प्रमुख कारण अधिकांशतः ऑस्ट्रिया हंगरी के उत्तराधिकारी आर्कड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड की हत्या को भी बताया जाता है। रूस, जर्मनी, इटली आदि देशों के इस युद्ध में शामिल होने के कई स्वार्थपरक और अन्य कारण थे। जिसमें एक देश के साथ दूसरे देश की संधियां शामिल थी।

इसे सुनेंरोकेंAnswer: युद्ध का एक और परिणाम मुद्रास्फीति के रूप में सामने आया। वर्ष 1914 के बाद छह वर्षों में औद्योगिक कीमतें लगभग दोगुनी हो गईं और बढ़ती कीमतों में तेज़ी ने भारतीय उद्योगों को लाभ पहुँचाया। कृषि की कीमतें औद्योगिक कीमतों की तुलना में धीमी गति से बढीं।

प्रथम विश्व युद्ध का राष्ट्रीय आंदोलनों पर क्या प्रभाव पड़ा लिखिए?

इसे सुनेंरोकेंAnswer. Answer: परिणामस्वरूप भारतीयों में ब्रिटिश हुकूमत के प्रति असंतोष का भाव जागा इससे राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ तथा जल्द ही असहयोग आंदोलन की शुरुआत हुई। इस युद्ध के बाद यूएसएसआर के गठन के साथ ही भारत में भी साम्यवाद का प्रसार (सीपीआई के गठन) हुआ और परिणामतः स्वतंत्रता संग्राम पर समाजवादी प्रभाव देखने को मिला।

प्रथम विश्व युद्ध के क्या कारण थे संक्षेप में लिखें?

इसे सुनेंरोकेंबोस्निया और हर्जेगोविना में रहने वाले स्लाविक लोग ऑस्ट्रिया-हंगरी का हिस्सा नहीं बना रहना चाहते थे, बल्कि वे सर्बिया में शामिल होना चाहते थे और बहुत हद तक उनकी इसी इच्छा के परिणामस्वरूप प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत हुई। इस तरह राष्ट्रवाद युद्ध का कारण बना।

प्रथम विश्व युद्ध के क्या कारण हैं?

इसे सुनेंरोकेंप्रथम विश्व युद्ध के कारण (Causes of World War I) – 28 जून 1914 को, बोस्निया के सर्ब यूगोस्लाव राष्ट्रवादी गैवरिलो प्रिंसिप ने साराजेवो में ऑस्ट्रो-हंगेरियन वारिस आर्चड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड की हत्या कर दी। जिसके बाद ऑस्ट्रिया-हंगरी ने सर्बिया पर युद्ध की घोषणा की।

पहला विश्व युद्ध का कारण क्या था?

प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) प्रारंभ के समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस उदारवादी दल के नेतृत्व में थी। इस विश्वयुद्ध में ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, अमेरिका, इटली तथा जापान एक ओर तथा जर्मनी, आस्ट्रेलिया, हंगरी एवं तुर्की दूसरी ओर थे। यह काल मुख्यतया राष्ट्रवाद का परिपक्वता काल था। प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन की भागेदारी के प्रति राष्ट्रवादियों का प्रत्युत्तर निम्न तीन चरणों में विभक्त था-

  1. उदारवादियों ने इस युद्ध में ब्रिटेन का समर्थन ताज के प्रति निष्ठा का कार्य समझा तथा उसे पूर्ण समर्थन दिया।
  2. उग्रवादियों, (जिनमें तिलक भी सम्मिलित थे) ने भी युद्ध में ब्रिटेन का समर्थन किया क्योंकि उन्हें आशा थी कि युद्ध के पश्चात ब्रिटेन भारत में स्वशासन के संबंध में ठोस कदम उठायेगा।
  3. जबकि क्रांतिकारियों का मानना था कि यह युद्ध ब्रिटेन के विरुद्ध आतंकतवादी गतिविधियों को संचालित करने का अच्छा अवसर है तथा उन्हें इस सुअवसर का लाभ उठाकर साम्राज्यवादी सत्ता को उखाड़ फेंकना चाहिए।

किंतु विश्व युद्ध में ब्रिटेन का समर्थन कर रहे भारतीय शीघ्र ही निराश हो गये क्योंकि उन्होंने देखा कि ब्रिटेन युद्ध में अपने उपनिवेशों एवं हितों की रक्षा करने में लगा हुआ है।

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान क्रांतिकारी गतिविधियां

प्रथम विश्व युद्ध ने में अपार उत्साह का संचार किया। इस दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका में गदर पार्टी तथा यूरोप में बर्लिन कमेटी ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध क्रांतिकारी गतिविधियां संचालित की। इनके साथ ही भारतीय सैनिकों द्वारा भी कुछ छिटपुट स्थानों जैसे- सिंगापुर इत्यादि में क्रांतिकारी आतंकवादी कार्यवाइयां संपन्न की गयीं। भारत में इस अवसर को क्रांतिकारी आतंकवादियों ने एक ईश्वरीय उपहार मानकर देश को उपनिवेशी शासन से मुक्त कराने की योजना बनायी तथा ब्रिटेन के शत्रुओं-जर्मनी तथा तुर्की से आर्थिक तथा सैन्य सहायता प्राप्त करने का प्रयास किया।

गदर आंदोलन

गदर आंदोलन, गदर दल द्वारा चलाया गया, जिसका गठन 1 नवंबर 1913 को संयुक्त राज्य अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को नगर में लाला हरदयाल द्वारा किया गया था। रामचंद्र, बरकतउल्ला तथा कुछ अन्य क्रांतिकारियों ने भी इसमें सहयोग किया था। सैन फ्रांसिस्को में गदर दल का मुख्यालय तथा अमेरिका के कई शहरों में इसकी शाखायें खोली गयीं। यह एक क्रांतिकारी संस्था थी, जिसने 1857 के विद्रोह की स्मृति में गदर नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया। गदर दल के कार्यकर्ताओं में मुख्यतया पंजाब के किसान एवं भूतपूर्व सैनिक थे, जो रोजगार की तलाश में कनाडा एवं अमेरिका के विभिन्न भागों में बसे हुये थे। अमेरिका एवं कनाडा के विभिन्न शहरों के अतिरिक्त पश्चिमी तट में भी उनकी संख्या काफी अधिक थी। गदर दल की स्थापना के पूर्व ही यहां ब्रिटेन विरोधी क्रांतिकारी गतिविधियां प्रारम्भ हो चुकी थीं। इसमें रामदास पुरी, जी.दी. कुमार, तारकनाथ दास एवं सोहन सिंह भखना की मुख्य भूमिका थी।

1911 में लाला हरदयाल के पहुंचने पर इनमें और तेजी आ गयी। इन सभी के प्रयत्नों से 1913 में गदर दल की स्थापना की गयी। इससे पूर्व क्रांतिकारी गतिविधियों के संचालन हेतु बैंकूवर (कनाडा) में स्वदेशी सेवक गृह एवं सिएटल में यूनाइटेड इंडिया हाउस की स्थापना की जा चुकी थी। इन दोनों संस्थाओं का उद्देश्य भी क्रांतिकारी आतंकवाद की सहायता से भारत को विदेशी दासता में मुक्त करना था। विदेशों से ब्रिटेन विरोधी आतंकवादी गतिविधियों के संचालन में गदर दल की मुख्य भूमिका थी। इस साम्राज्यवाद विरोधी साहित्य का प्रकाशन, विदेशों में नियुक्त भारतीय सैनिकों के मध्य कार्य करना ब्रिटिश उपनिवेशों में विद्रोह प्रारम्भ करना था। गदर दल की गतिविधियों में लाला हरदयाल की भूमिका सबसे प्रमुख थी। इसके अतिरिक्त रामचन्द्र, भगवान सिंह, करतार सिंह सराबा, बरकतउल्ला तथा भाई परमानन्द भी गदर दल के प्रमुख सदस्यों में से थे। इन सभी ने भारत में स्वतंत्रता की स्थापना को अपना मुख्य लक्ष्य घोषित किया। 1913 में गदर दल की स्थापना के पश्चात् जैसे ही इसकी गतिविधियां प्रारम्भ हुयी, दो अन्य घटनाओं ने इसमें उत्प्रेरक की भूमिका निभायी। ये घटनायें र्थी-कामागाटा मारु प्रकरण एवं प्रथम विश्वयुद्ध का प्रारम्भ होना।

कामागाटा मारु प्रकरण

इस घटना का राष्ट्रीय आंदोलन की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि इस काण्ड ने पंजाब में एक विस्फोटक स्थिति उत्पन्न कर दी थी। पंजाब के एक क्रांतिकारी बाबा गुरदित्ता सिंह ने एक जापानी जलपोत ‘कामाकाटा मारु’ को भाड़े पर लेकर 351 पंजाबी सिक्खों तथा 21 मुसलमानों को सिंगापुर से बैंकूवर ले जाने का प्रयत्न किया। इसका उद्देश्य था कि ये लोग वहां जाकर स्वतंत्र व सुखमय जीवन व्यतीत करें तथा बाद में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लें। किन्तु कनाडा सरकार ने इन यात्रियों को बंदरगाह में उतरने की अनुमति नहीं दी और मजबूरन यह जहाज 27 सितम्बर 1914 को पुनः कलकत्ता बंदरगाह लौट आया। इस जहाज के यात्रियों का विश्वास था कि ब्रिटिश सरकार के दबाव के कारण ही कनाडा की सरकार ने उन्हें वापस लौटाया है। कलकत्ता पहुंचते ही बाबा गुरदित्ता सिंह को गिरफ्तार करने का प्रयास किया गया किन्तु वे बच निकले। शेष यात्रियों को जबरन पंजाब जाने वाली ट्रेन में बैठाने का प्रयास किया गया किन्तु यात्रियों ने ट्रेन में बैठने से इन्कार कर दिया। फलतः पुलिस एवं यात्रियों के बीच हुयी मुठभेड़ में 22 लोग मारे गये। शेष यात्रियों को विशेष रेलगाड़ी द्वारा पंजाब पहुंचा दिया गया। बाद में इनमें से अधिकांश ने अनेक स्थानों पर डाके डाले।

कामागाटा मारु घटना एवं प्रथम विश्वयुद्ध के प्रारम्भ होने से गदर दल के नेता अत्यधिक उत्तेजित हो गये तथा उन्होंने भारत में शासन कर रहे अंग्रेजों पर हिंसक आक्रमण करने की योजना बनायी। उन्होंने विदेशों में रह रहे क्रांतिकारी आतंकवादियों से भारत जाकर ब्रिटिश सरकार से लोहा लेने का आहान किया। इन क्रांतिकारियों ने धन एकत्रित करने हेतु अनेक स्थानों पर राजनैतिक डकैतियां डालीं। जनवरी-फरवरी 1915 में पंजाब में हुयी राजनैतिक डकैतियों के महत्वपूर्ण प्रभाव हुये। इन डकैतियों की वास्तविक मंशा कुछ भिन्न नजर आयी। पांच में से तीन घटनाओं में छापामारों ने अपना प्रमुख निशाना जमींदारों को बनाया तथा उनके ऋण संबंधी कागजातों को विनष्ट कर दिया। इस प्रकार इन घटनाओं ने पंजाब में स्थिति अत्यन्त विस्फोटक एवं तनावपूर्ण बना दी। 21 फरवरी 1915 को गदर दल के कार्यकर्ताओं ने फिरोजपुर, लाहौर एवं रावलपिंदी में सशस्त्र विद्रोह की योजना बनायी। विदेशों में रहने वाले हजारों भारतीय भारत जाने के लिये इकट्टे हुये। विभिन्न स्रोतों से धन इकट्ठा किया गया। कई भारतीय सैनिकों की रेजीमेंटों को विद्रोह करने के लिये तैयार भी कर लिया गया। किन्तु दुर्भाग्यवश ब्रिटिश अधिकारियों को इस विद्रोह की जानकारी मिल गयी तथा सरकार ने भारत रक्षा अधिनियम 1915 के द्वारा तुरन्त कार्यवाई की। संदिग्ध सैनिक रेजीडेंटों को भंग कर दिया गया। विद्रोहियों में से 45 पर मुकदमा चलाकर उन्हें फांसी की सजा सुनायी गयी। रासबिहारी बोस जापान भाग गये (जहां से अंबानी मुखर्जी के साथ वे क्रांतिकारी गतिविधियां चलाते रहे तथा कई बार उन्होंने भारत में हथियार भेजने का प्रयास किया) तथा सचिन सान्याल को देश से निर्वासित कर दिया गया।

ब्रिटिश सरकार ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान हो रही आतंकवादी गतिविधियों को कुचलने के लिये उसी प्रकार के दमन का सहारा लिया जैसा कि उसने 1857 के विद्रोह के समय लिया था। सरकार पहले ही क्रांतिकारियों एवं राष्ट्रवादियों को कुचलने के लिये अनेक कानून बना चुकी थी। भिन्न-भिन्न अधिनियमों को मिलाकर 1915 में भारत रक्षा अधिनियम बनाया गया। किन्तु इस अधिनियम का सबसे मुख्य उद्देश्य गदर आंदोलन को कुचलना था। इस अधिनियम द्वारा सरकार ने व्यापक पैमाने पर गिरफ्तारियां कीं, विशेष रूप से गठित अदालतों ने सैकड़ों लोगों को फांसी गयीं। पंजाब जो कि गदर आंदोलन का गढ़ समझा जाता था, यहां अनेक लोगों का दमन किया गया। सरकार ने अपने कुचक्र में बंगाली उग्रवादियों को भी कड़ी सजायें दीं।

गदर आंदोलन का मूल्यांकन

गदर आंदोलन को अपने उद्देश्यों के कार्यान्वयन हेतु हथियार, धन, प्रशिक्षण एवं समयानुकूल योग्य नेतृत्व की आवश्यकता थी किन्तु, दुर्भाग्यवश इनमें से सभी आवश्यकतायें पूर्ण न हो सकीं। गदर दल के समर्थकों को आभास नहीं था कि प्रथम विश्वयुद्ध इतनी शीघ्र प्रारम्भ हो जायेगा। प्रथम विश्वयुद्ध प्रारम्भ होते ही गदर आंदोलनकारियों ने अपनी शक्ति और संगठन का आकलन किये बिना ब्रिटिश शासन के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह प्रारम्भ कर दिया। गदर आंदोलन का अभियान मुख्यतया कुद्ध एवं असंतुष्ट अप्रवासी भारतीयों पर निर्भर था, जो श्वेत वर्गीय-ब्रिटिश शासन से पीड़ित थे। किन्तु आंदोलनकारियों ने भारतीय जनमानस में अपनी पैठ जमाने का कोई विशेष प्रयास नहीं किया। वे भारतीय समुदाय को उचित समय पर संगठित भी नहीं कर सके। आंदोलनकारी विशालकाय ब्रिटिश शासन की वास्तविक शक्ति का आकलन नहीं लगा सके तथा इस मिथ्या अवधारणा को पाले रहे कि भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध पूर्ण माहौल तैयार हो चूका है तथा इसमें केवल चिंगारी लगाने की आवश्यक्ता है। आंदोलनकारियों में निरंतरता प्रदान करने वाले तथा विभिन्न पहलुओं में साम्य स्थापित करने वाले नेतृत्व का अभाव रहा। यद्यपि इन्होंने भारतीयों को सशस्त्र राष्ट्रवाद की शिक्षा तो दी, किन्तु उसका समयानुकूल प्रयोग नहीं सिखा सके। लाला हरदयाल विभिन्न विचारधाराओं के अच्छे सम्मिश्रक एवं प्रचारक थे, किन्तु उनमें कुशल नेतृत्व एवं सांगठनिक सामर्थ्य का अभाव था। उनके असमय अमेरिका छोड़ने से आंदोलन पर अत्यन्त बुरा प्रभाव पड़ा तथा वह नेतृत्वविहीन हो गया और उसका संगठन भी बिखर गया।

यद्यपि ग़दर आन्दोलन अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में असफल रहा, किन्तु उसकी महत्ता इस बात में है कि इसने क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों को धर्मनिरपेक्षता की प्रेरणा दी। इस दल के समर्थकों में विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयायी थे तथा सभी ने कंधे से कंधा मिलाकर ब्रिटिश साम्राज्य से लोहा लिया। हालांकि उचित आंकलन, दूरगामी रणनीति, सुदृढ़ संगठन एवं कुशल नेतृत्व के अभाव के कारण यह विफल हो गया किन्तु कई स्थानों पर इसने अंग्रेजी शासन की चूलें हिला दी।

यूरोप में क्रांतिकारी गतिविधियां

वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, भूपेन्द्रनाथ दत्त, लाला हरदयाल एवं अन्य लोगों ने 1915 में जर्मन विदेश मंत्रालय के सहयोग से जिम्मेरमैन योजना (Zimmerman plan) के तहत बर्लिन कमेटी फॉर इंडियन इंडिपेंडेंस की स्थापना की। इन क्रांतिकारियों का उद्देश्य विदेशों में रह रहे भारतीयों को भारत जाकर क्रांतिकारी गतिविधियों को संचालित करने हेतु प्रेरित करना, हथियारों की आपूर्ति सुनिश्चित करना तथा किसी भी तरह भारत को उपनिवेशी शासन से मुक्ति दिलाना था।

यूरोप स्थित भारतीय क्रांतिकारी आतंकवादियों ने विश्व के विभिन्न भागों यथा- बगदाद, ईरान, तुर्की एवं काबुल में अनेक क्रांतिकारियों को भारतीय सेनाओं एवं भारतीय युद्ध बंदियों के मध्य कार्य करने के लिये भेजा। इनका कार्य भारतीय सैनिकों एवं विश्व के विभिन्न भागों में रह रहे भारतीयों के मन में ब्रिटिश विरोधी भावनायें जागृत करना था। इसी प्रकार का एक शिष्टमंडल राजा महेन्द्र प्रताप सिंह, बरकतउल्ला एवं ओबैदुल्ला सिंधी के नेतृत्व में काबुल गया, जहां उसने युवराज अमानुल्ला के सहयोग से अस्थायी भारतीय शासन की स्थापना करने का प्रयास किया।

सिंगापुर में विद्रोह

इस दौर में विदेशों में होने वाली क्रांतिकारी घटनाओं में सिंगापुर में हुये विद्रोह का एक महत्वपूर्ण स्थान है। सिंगापुर में 15 फरवरी 1915 को पंजाबी मुसलमानों की पांचवीं लाइट इन्फैन्ट्री तथा 36वीं सिख बटालियन के सैनिकों ने जमादार चिश्ती खान, जमादार अब्दुल गनी एवं सूबेदार दाउद खान के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। सरकार ने बड़ी बेरहमी से इस विद्रोह को कुचल दिया। घटना से सम्बद्ध 37 नेताओं को फांसी तथा 41 को आजीवन कारावास का कठोर दण्ड दिया गया।

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान भारत में होने वाली क्रांतिकारी घटनायें

इस काल में भारत में होने वाली विभिन्न क्रांतिकारी गतिविधियों के केंद्र मुख्यतः पंजाब एवं बंगाल रहे। बंगाल में होने वाली विभिन्न घटनाओं में रासबिहारी बोस एवं सचिन सान्याल की मुख्य भूमिका रही। इन दोनों क्रांतिकारियों ने पंजाब लौटे गदर दल के नेताओं के सहयोग से अनेक क्रांतिकारी कार्य किये। अगस्त 1914 में बंगाल के क्रांतिकारियों ने कलकत्ता के रोड्डा फर्म (Rodda Firm) के कर्मचारियों की सहानुभूति से इसे लूट लिया तथा 50 माउजर पिस्तौलें एवं लगभग 46 हजार राउंड गोलियां लेकर भाग निकले। बंगाल के एक अन्य प्रमुख क्रांतिकारी नेता जतिन मुखर्जी थे जिनके नेतृत्व में बंगाल के क्रांतिकारी आतंकवादियों ने विभिन्न स्थानों पर आतंकवादी कार्य किये। इनमें रेलवे पटरियों को उखाड़ना, फोर्ट विलियम किले का घेराव तथा जर्मन हथियारों को वितरित करना इत्यादि सम्मिलित थे। किन्तु कमजोर संगठन एवं संयोजन के अभाव में क्रांतिकारियों के अधिकांश प्रयास विफल हो गये। सितम्बर 1915 में उड़ीसा तट पर स्थित बालासोर नामक स्थान पर बाधा (जतिन मुखर्जी) पुलिस के साथ लड़ते हुये शहीदों की तरह मारे गये।

प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् इस क्रांतिकारी गतिविधियों में कुछ समय के लिये थोड़ा विराम आया, जब सरकार ने भारत रक्षा अधिनियम 1915 के तहत पकड़ गये राजनीतिक बंदियों को छोड़ दिया। साथ ही माउंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार 1919 लागू करने से अनुरंजक वातावरण बन गया। इसके अतिरिक्त इसी समय भारतीय राजनीति में गांधीजी एक प्रमुख राष्ट्रीय नेता के रूप में आगे आये। उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिये अहिंसा का सिद्धांत रखा। इन सभी कारणों से देश में क्रांतिकारी गतिविधियों में धीमापन आ गया।

प्रथम विश्व युद्ध का राष्ट्रीय आंदोलनों पर क्या प्रभाव पड़ा लिखिए?

Answer: परिणामस्वरूप भारतीयों में ब्रिटिश हुकूमत के प्रति असंतोष का भाव जागा इससे राष्ट्रीय चेतना का उदय हुआ तथा जल्द ही असहयोग आंदोलन की शुरुआत हुई। इस युद्ध के बाद यूएसएसआर के गठन के साथ ही भारत में भी साम्यवाद का प्रसार (सीपीआई के गठन) हुआ और परिणामतः स्वतंत्रता संग्राम पर समाजवादी प्रभाव देखने को मिला।

प्रथम विश्व युद्ध का भारत के राजनीतिक आंदोलन पर क्या प्रभाव पड़ा?

राजनीतिक प्रभाव उल्लेखनीय है कि युद्ध के बाद पंजाब में राष्ट्रवाद का बड़े पैमाने पर प्रसार हेतु सैनिकों का एक बड़ा भाग सक्रिय हो गया। जब 1919 का मोंटग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार 'गृह शासन की अपेक्षाओं को पूरा करने में असफल रहा तो भारत में राष्ट्रवाद और सामूहिक नागरिक अवज्ञा का उदय हुआ।

प्रथम विश्व युद्ध ने राष्ट्रीय आंदोलन के विकास में कैसे मदद की?

पहले विश्व युद्ध ने भारत में राष्ट्रीय आंदोलन के विकास में किस प्रकार योगदान दिया। (i) सबसे पहली बात यह है कि विश्वयुद्ध ने एक नई आर्थिक और राजनीतिक स्थिति उत्पन्न कर दी थी। इसके कारण रक्षा व्यय में काफी वृद्धि हुई। इस व्यय की भरपाई करने के लिए युद्ध के नाम पर ऋण लिए गए और करों में वृद्धि की गई।

प्रथम विश्व युद्ध ने भारत में राष्ट्रीय आंदोलन के विकास में कैसे मदद की meaning in Hindi?

1918 तक कुल मिलाकर लगभग 1.3 मिलियन लोगों ने स्वेच्छा से सेवा के लिए योगदान दिया था। युद्ध के दौरान एक मिलियन भारतीय जवानों ने विदेशों में अपनी सेवाएं दी जिनमें से 62,000 से अधिक मारे गए और 67,000 अन्य घायल हो गए थे। कुल मिलाकर 74,187 भारतीय सैनिक प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मारे गए थे।