प्रेमचंद ने किसान को साहित्य का विषय बनाया। उनके कथा-साहित्य में किसान-जीवन के विभिन्न पक्षों का चित्रण हुआ है। भारत का सबसे बड़ा वर्ग किसान रहा है। किसान भारत की कृषि-संस्कृति का मूलाधार है। किसान के बिना भारतीय संस्कृति का कोई भी विश्लेषण अधूरा होगा। यह बात बार-बार दुहराई गई है कि भारत एक कृषि-प्रधान देश है। प्रेमचंद ने इस कृषि-व्यवस्था के कर्ता-धर्ता किसान को अपने उपन्यासों और कहानियों का मुख्य विषय बनाया। उनके पहले तथा उनके बाद किसी भी
रचनाकार ने इतने विस्तार से किसान को आधार बनाकर हिंदी में साहित्य-सृजन नहीं किया। डा. रामविलास शर्मा ने प्रेमचंद की रचनाधर्मिता के इस पक्ष को रेखांकित किया है, ‘‘हिंदी में किसानों की समस्याओं पर ज़्यादा उपन्यास लिखे ही नहीं गए, जो लिखे भी गये हैं, उनमें प्रेमचंद की सूझबूझ का अभाव है।’’[1] किसान-जीवन के साथ तालमेल बनाते हुए प्रेमचंद ने जो रचा वह हिंदी के लिए एकदम नया था, ‘‘उन्होंने उस धड़कन को सुना जो
करोड़ों किसानों के दिल में हो रही थी। उन्होंने उस अछूते यथार्थ को अपना कथा-विषय बनाया, जिसे भरपूर निगाह देखने का हियाव ही बड़ों-बड़ों को न हुआ था।’’[2] किसान के जीवन को ‘भरपूर निगाह’ से देखने तथा लिखने के कारण ही, ‘‘ ‘प्रेमाश्रम’ किसान-जीवन का महाकाव्य है। उसमें उस जीवन का एक पहलू नहीं दिखाया गया, वह एक विशाल नदी की तरह है जिसमें मूल धारा के साथ आसपास के नालों का पानी, जड़ से उखड़े हुए पुराने खोखले पेड़ और खेतों
का घासपात भी बहता हुआ दिखाई देता है।’’[3] प्रेमचंद के योगदान की घोषणा करती यह पंक्ति ध्यान देने योग्य है’’,‘प्रेमाश्रम’ और ‘कर्मभूमि’ के साथ ‘गोदान’ हिंदुस्तानी किसानों के जीवन की बृहतत्रयी समाप्त करता है।’’[4] प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों के बारे में यह बात सर्वमान्य है कि उनमें सर्वाधिक प्रमुखता से
किसान-जीवन को ही विषय बनाया गया है। हिंदी आलोचना में यह बात अच्छी तरह पहचानी गयी है कि प्रेमचंद ने किसानों के शोषण-उत्पीड़न को न केवल चित्रित किया है, बल्कि इनके विरोध की चेतना को भी पकड़ा है। किसानों के विद्रोही तेवर की चर्चा रामविलासजी ने अनेक बार की है। किसानों के शोषकों की पहचान सामंतों, पुरोहितों एवं महाजनों के रूप में की गयी है। प्रेमचंद किसान की समस्या के व्यवस्थागत कारणों की तलाश करते हैं। रामविलासजी बहुत बारीकी के साथ अर्थव्यवस्था, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, सामंतवाद-पुरोहितवाद आदि
व्यवस्थागत पक्षों को ध्यान में रखकर प्रेमचंद के साहित्य को समझने-समझाने का प्रयास करते हैं। प्रेमचंद के किसानों की पहचान मार्क्सवादी शब्दावली में बताई गई है कि वे सीमांत किसान हैं। ऐसा किसान जिसके पास कम ज़मीन है। वह परिवार की मदद से खेती करता है। पाँच बीघे के आसपास की खेती का वह मालिक भी होता है और श्रम करने वाला किसान भी। उसकी हैसियत इतनी नहीं होती कि अपनी खेती के लिए मजदूर रख सके। जीवन की कठिन परिस्थितियों में प्रायः उसे कर्ज़ लेना पड़ता है। गाँव की महाजनी पद्धति से उसे कर्ज़ मिलता है,
जिसके सूद की दर जानलेवा होती है। ‘सवा सेर गेहूँ’ में प्रेमचंद ने कर्ज़ की इस पद्धति के भयानक रूप को कहानी में ढाला है। प्रेमचंद का यही किसान भारत को कृषि प्रधान देश बनाता है। आज़ादी के पहले भारत की अर्थव्यवस्था, समाजव्यवस्था और धर्मव्यवस्था को बनाने में गाँवों की भूमिका आज की अपेक्षा ज़्यादा बड़ी थी। इन गाँवों में रहनेवाली शत प्रतिशत आबादी कृषि-व्यवस्था पर आश्रित थी। गाँव की इस आबादी के बारे में ये नहीं कहा जा सकता कि ये सभी किसान थे। प्रेमचंद के सभी ग्रामीण पात्र किसान नहीं हैं। यद्यपि सभी
ग्रामीण आश्रित थे कृषि-व्यवस्था पर ही, पर सबको किसान नहीं कहा जा सकता। ग्रामीण आबादी की पहचान वर्गों में बाँटकर की जा सकती है। ऐसा एक वर्गीकरण आचार्य रामचंद्र शुक्ल के द्वारा किया हुआ भी मिलता है। कृषि और व्यापार से जुड़े वर्गों के अंतर पर विचार करते हुए वे लिखते हैं, ‘‘भूमि ही यहाँ सरकारी आय का प्रधान उद्गम बना दी गई है। व्यापार श्रेणियों को यह सुभीता विदेशी व्यापार को फलता-फूलता रखने के लिए दिया गया था, जिससे उनकी दशा उन्नत होती आयी और भूमि से संबंध रखने वाले सब वर्गों की- क्या जमींदार, क्या
किसान, क्या मजदूर- गिरती गयी।’’[5] आचार्य शुक्ल ने गाँव में रहनेवालों को ‘भूमि से संबंध रखनेवाले’ वर्गों के रूप में यहाँ पेश किया तथा बताया कि ‘किसान’ के अलावा ‘जमींदार’ और ‘मजदूर’ भी गाँवों के निवासी हैं। प्रेमचंद के साहित्य में ये तीनों वर्ग मौजूद हैं, परंतु उनका लक्ष्य है किसान। यही किसान भारत को कृषि-प्रधान देश बनता है। भारत को कृषि-प्रधान देश बनाने में जमीदारों की भूमिका सकारात्मक नहीं मानी जा
सकती। वे ज़मीन के बड़े हिस्से के मालिक थे, परंतु खेती का काम स्वयं नहीं करते थे। हल चलाना, बीज बोना, फसल काटना आदि जितने भी कृषि-कार्य हैं, उन्हें सम्पन्न कराने के लिए जमीदार वर्ग मजदूर रखता था। खेतिहर मजदूर की स्थिति थी कि वे प्रायः भूमिहीन थे या उनके पास नाम मात्र की ज़मीन थी। उनके मकान भी अक्सर ऐसी जमीन पर बने होते थे, जिनके स्वामित्व की स्थिति इन मजदूरों के पक्ष में नहीं होती थी। इस तरह कृषि-कार्य के प्रति जमींदार तथा मजदूर वर्ग की स्थिति विडंबनात्मक थी। जमींदार वर्ग के पास ज़मीन थी, परंतु वह
खेती का काम स्वयं नहीं करता था। मजदूर वर्ग खेती के तमाम काम करता था, परंतु वह जमीन का मालिक नहीं होता था। इन दोनों वर्गों को किसान नहीं कहा जा सकता है। कृषि-व्यवस्था का अंग होने के बावजूद ये दोनों वर्ग किसान नहीं थे। संस्कृति पर बात करने के लिए समाज पर बात करना जरूरी है। संस्कृति को बनाने में सामाजिक बनावट की अहम भूमिका होती है। भारत की संस्कृति का मुख्य पक्ष कृषि संस्कृति है जिसे बनाने में किसान-समाज की भूमिका है। प्रेमचंद के किसान-साहित्य में भारतीय संस्कृति की तलाश की जानी चाहिए। प्रेमचंद के किसान की संस्कृति को भारतीय संस्कृति माना जाना चाहिए। हिन्दी आलोचना में किसान के सामाजिक आधार की खोज प्रायः नहीं की गई है, जबकि प्रेमचंद इस पक्ष को लेकर सदैव सावधान दिखते हैं। उनका प्रत्येक किसान.पात्र अपनी जाति के नाम के साथ चित्रित है। प्रेमचंद अच्छी तरह जानते थे कि किसान की एक अनिवार्य पहचान उसकी जाति होती है। ग्रामीण समाज की बनावट का मुख्य आधार जातियाँ हैं। प्रेमचंद किसान की कथा जब भी उठाते हैं, उसकी जाति का जिक्र किसी न किसी रूप में ज़रूर करते हैं। उदाहरणस्वरूप कुछ पात्रों को रखा जा सकता है- कहानी – पात्र
‘पूस की रात’ कहानी में हल्कू की जाति का उल्लेख प्रेमचंद ने नहीं किया है। इस कहानी के विवरण बताते हैं कि वह कम जमीन वाला किसान है तथा कभी-कभी मजदूरी भी कर लिया करता है। वह न तो ऊँची जाति का है और न ही दलित जाति का। प्रेमचंद दलित जाति के किसी भी पात्र को अपनी कथा में रखते हैं तो अस्पृश्यता के भेदभाव को ज़रूर उठाते हैं। ‘पूस की रात’ का हल्कू निश्चित रूप से किसी पिछड़ी जाति का व्यक्ति है। ‘गोदान’ के होरी महतो से लेकर ‘पूस की रात’ के हल्कू तक- जहाँ भी किसान है, वह पिछड़ी जाति का व्यक्ति है। प्रेमचंद ने किसान को लेकर जितनी कहानियाँ लिखी हैं, उनमें किसान के रूप में पिछड़ी जाति के ही पात्र हैं। उपन्यासों में यह स्थिति और भी व्यापक रूप से मौजूद है। कहानी में संभावना रही है कि किसान की जाति के बारे में ज़्यादा कुछ न कहा जा सका हो, परंतु उपन्यासों में तो प्रेमचंद जातियों का स्पष्ट विवरण और संबंध प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने जहाँ भी किसान-जीवन को विषय बनाया है, वहाँ के पात्र पिछड़ी जातियों से चुना है। उनकी स्पष्ट दृष्टि दिखायी पड़ती है कि किसान का अर्थ है पिछड़ी जातियाँ। उन्होंने ऊँची जातियों तथा दलित जातियों से किसान पात्र नहीं लिए हैं। गाँव को आधार बनाकर उन्होंने अनेक कहानियाँ लिखी हैं, परंतु सबका संबध किसान-जीवन से नहीं है। ‘कफन’ गाँव की ही कहानी है, परंतु उसका विषय किसान नहीं है। इस कहानी में मजदूर और ज़मींदार हैं। घीसू.माधव मजदूर हैं और ‘ज़मींदार साहब’ उस गाँव में मालिक की हैसियत रखते हैं। ‘बड़े घर की बेटी’ कहानी गाँव की है, परंतु इसमें भी किसानी की कोई समस्या नहीं है। इसके पात्र ऊँची जाति के हैं। प्रेमचंद किसान की समस्या के एक.एक विवरण को सर्वाधिक सफलता के साथ ‘गोदान’ में प्रस्तुत करते हैं। किसानी करने की कौन-कौन-सी कठिनाइयाँ हो सकती हैं, तत्कालीन देशकाल परिस्थिति के अनुसार, होरी के जीवन में हम देख सकते हैं। ‘गोदान’ के सभी ग्रामीण पात्र कृषि-व्यवस्था के अंग हैं, परंतु किसानी करने और किसान की संस्कृति को जीने की इच्छाशक्ति जिस तरह होरी में दिखायी गयी है, वैसी दातादीन या झींगुरी सिंह में नहीं दिखायी गयी है। ऊँची जातियों के ग्रामीणों के लिए कृषि आय का जरिया थी। वे इस पेशे को स्वयं नहीं जीते थे। अपने शरीर तथा अपनी आत्मा को साथ लेकर जिस तरह होरी कृषि-संस्कृति से जुड़ा था, वैसा जुड़ाव ऊँची जातियों के ग्रामीणों में प्रेमचंद नहीं दिखाते हैं। ‘प्रेमचंद और उनका युग’ के ‘चौथे संस्करण की भूमिका’ 1987 में लिखी गयी, जिसमें रामविलासजी ने 1952 के प्रथम संस्करण की अपनी एक प्रमुख मान्यता को संशोधित किया कि ‘गोदान’ में ऋण की समस्या के अलावा कुछ और बातें भी हैं, ‘‘ऐसे लोग यह समझ बैठे हैं कि गोदान में ऋण-समस्या के अलावा और कोई समस्या नहीं है। इस उपन्यास में प्रेमचंद ने पारिवारिक संबंधों पर बहुत गहराई से विचार किया है और सामाजिक मान-मार्यादा के नए मानदंड प्रस्तु किए हैं। धनिया, और उसके नेतृत्व में होरी, ने गर्भवती विधवा झुनिया को आश्रय देकर गाँव के मुखिया-महाजनों के विरोध का जिस दृढ़ता से सामना किया है, उसकी मिसाल प्रेमचंद-साहित्य में अन्यत्र नहीं है।’’[6] ‘ऋण-समस्या के अलावा’ कहते हुए रामविलासजी का पुराना दावा बरकरार है कि ‘‘गोदान की मूल समस्या ऋण की समस्या है।’’[7] मतलब यह हुआ कि रामविलासजी के अनुसार किसान की मूल समस्या ऋण की समस्या है। यह समस्या दातादीन या झींगुरी सिंह के पास नहीं है। यह समस्या घीसू-माधव के पास भी नहीं है। ऐसी कोई समस्या ‘सद्गति’ कहानी के दुखिया के पास भी नहीं है। यह समस्या होरी, हल्कू, शंकर आदि किसानों के पास है। दरअसल रामविलासजी एक महत्त्वपूर्ण बात की तरफ हमारा ध्यान ले जाते हैं कि किसान कर्ज़दार हैं और कर्ज़ की पद्धति महाजनों के पक्ष में है। इसलिए किसान तबाह और बर्बाद हो रहे हैं। रामविलासजी के इस विश्लेषण से सामान्यतः सहमत होना पड़ता है और ‘महाजनी सभ्यता’ लेख में प्रेमचंद के विचार इसका समर्थन भी करते हैं। रामविलासजी 1953 से शुरू करके 1987 में, लगभग तीन दशकों के बाद महसूस करते हैं कि गोदान में ‘पारिवारिक संबंधों’ और ‘सामाजिक मान-मर्यादा’ के लिए ‘नए मानदंड’ मिलते हैं। किसान की आर्थिक स्थिति से चलकर रामविलासजी उसकी सांस्कृतिक स्थिति तक पहुँचते हैं। इस बात को थोड़ा और खुलकर कहने की ज़रूरत है। ‘गोदान’ हो या ‘कर्मभूमि’ या ‘प्रेमाश्रम’ या प्रेमचंद की कहानियाँ- प्रेमचंद किसान के बारे में एक जबरदस्त सांस्कृतिक दृष्टि रखते हैं। यह सांस्कृतिक दृष्टि उनके रचना-कर्म में जीवनपर्यंत बनी रही। ऐसा नहीं है कि ‘प्रेमाश्रम’ और ‘गोदान’ में उनकी किसान-संबंधी सांस्कृतिक दृष्टि अलग-अलग है। प्रेमचंद किसान को अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। वे उसके प्रति सहानुभूति भी रखते हैं, पर दया-दृष्टि रखने के बजाय सम्मान-दृष्टि रखते हैं। हिंदी आलोचना इस दृष्टि को अब तक पकड़ नहीं पाई है। यहाँ मुख्य स्वर यही है कि प्रेमचंद ने किसानों के दर्द, आक्रोश और विद्रोह को पकड़ा। प्रेमचंद का यह क्रांतिकारी पक्ष है। परंतु प्रेमचंद के साहित्य की व्याख्या यहीं समाप्त नहीं हो जाती। प्रेमचंद ने किसान की संस्कृति को बहुआयामिता के साथ चित्रित किया है। किसान की संस्कृति को हिंदी आलोचना में रेखांकित किए जाने की ज़रूरत है। किसान का साहित्य रचने का मतलब केवल यह नहीं होता कि उसके उत्पीड़ित जीवन को लक्ष्य बनाया जाए। इसी तरह किसान पर विचार करने का मतलब केवल यह नहीं होना चाहिए कि आलोचक उसकी आर्थिक बदहाली का रोना रोता रहे या शोषण के खिलाफ किसान के तेवर की तलाश करता रहे। हिंदी आलोचना में किसान के बारे में इसी तरह की बातें प्रमुखता से उठायी गयी हैं। स्वयं रामविलासजी ‘गोदान’ या ‘कर्मभूमि’ या ‘प्रेमाश्रम’ पर विचार करते हैं तो किसान जीवन के प्रति व्यवस्थागत शोषण को उजागर करना अपना लक्ष्य रखते हैं। नमूने के तौर पर ‘प्रेमचंद और उनका युग’ के ‘गोदान’ शीर्षक अध्याय से कुछ अंश रखे जा सकते हैं, जिनसे हिंदी आलोचना के मुख्य फोकस-बिंदुओं का विहंगावलोकन किया जा सकता है- ‘‘किसानों के जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर वह उपन्यास लिख चुके थे- ‘प्रेमाश्रम’ में बेदखली और इज़ाफ़ा लगान पर, ‘कर्मभूमि’ में बढ़ते हुए आर्थिक संकट और किसानों की लगानबंदी की लड़ाई पर’’[8] ‘‘इसके साथ ही मुनाफे की दुनिया और मेहनत की दुनिया के बीच की खाई उन्हें और गहरी होती दिखाई दे रही थी। उन्होंने ‘प्रेमाश्रम’, ‘कर्मभूमि’ वगैरह में दो संस्कृतियों का भेद बहुत साफ-साफ जाहिर किया था। ‘गोदान’ में भी वह भेद उन्होंने प्रकट किया है, पहले से भी ज़्यादा कौशल से।’’[9] यहाँ रामविलासजी ‘दो संस्कृतियों’ की पहचान करते हैं, जिनमें एक ‘मेहनत की दुनिया’ की संस्कृति है। स्पष्ट है कि रामविलासजी यहाँ किसानों की बात कर रहे हैं, क्योंकि संदर्भ ‘प्रेमाश्रम’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ से लिया जा रहा है। यह किसान-संस्कृति है, परंतु रामविलासजी इस संस्कृति को मार्क्सवादी आलोचना की भाषा में ‘मेहनत की दुनिया’ की संस्कृति बताकर अपना विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। इस पद्धति में यह संभव भी नहीं था कि किसान की संस्कृति की अलग से पहचान करके बात की जाए। शोषितों की जमात में किसान के साथ मजदूर भी शामिल थे जिन्हें मिलाकर ‘मेहनत की दुनिया’ बनती है। मार्क्सवाद इसी संदर्भ पर विचार करता है। रामविलासजी के पास भी यही आधार है। परंतु प्रेमचंद के पास किसान की संस्कृति का अर्थ केवल ‘मेहनत की दुनिया’ नहीं है। उनके लिए किसान का अर्थ केवल ‘शोषित’ नहीं है। किसान अपनी संपूर्ण संस्कृति के साथ प्रेमचंद के कथा-साहित्य में मौजूद है। वह अपने दुःख -सुख, रीति-रिवाज़, जाति-बिरादरी, पारिवारिक संबंध, सामाजिक समझ, इच्छाशक्ति, रूढ़ि-परंपरा, मनुष्यता, जिजिविषा, बुद्धि.विवेक, धार्मिकता, आध्यात्मिकता और प्रगतिशील मूल्यों के साथ हमारे सामने आता है। प्रेमचंद के किसान पर इस दृष्टि के विचार करेंगे तो उनके साहित्य की महत्ता के नए पक्ष खुलेंगे। प्रेमचंद पर विचार-विमर्श में ‘साखी’ (अंक: 18-19, 2009 में प्रकाशित) का विशेषांक ‘गोदान को फिर से पढ़ते हुए’ उल्लेखनीय बना रहा है। इसमें तीस से अधिक लेख हैं। परंतु किसान जीवन को समझने की कोई नई दृष्टि इसमें नहीं मिलती। इसमें तमाम नए आलोचना-सिद्धांतों की कसौटी पर ‘गोदान’ को कसा गया है। दलित-विमर्श, स्त्री-विमर्श, विखंडनवाद, उत्तर-आधुनिकता, विचारधाराओं का अंत आदि अनेक दृष्टियों से ‘गोदान’ पर यहाँ विचार किया गया है। परंतु यह सहज प्रश्न है कि ‘गोदान’ की रचना प्रेमचंद ने किसान के लिए की थी इसलिए ‘गोदान को फिर से पढ़ते हुए’ भी हम इस उपन्यास से ‘किसान’ को बेदखल नहीं कर सकते। ‘गोदान को फिर से पढ़ते हुए’ का अर्थ होना चाहिए ‘किसान को फिर से पढ़ते हुए’। पर लगता नहीं है कि इस बड़े प्रयास के बावजूद किसान के बारे में कोई नई महत्त्वपूर्ण बात कही जा सकी हो। प्रेमचंद का किसान अपने सम्मान के प्रति सजग है। वह चाहता है कि परिश्रम करते हुए अपनी ‘मरजाद’ बनाए रखी जाए। वह बिना परिश्रम के मरजाद पाना भी नहीं चाहता। मरजाद के नाम पर वह किसी अन्याय का साथ भी देना नहीं चाहता। वह ऐसा नहीं करता कि कुल की मर्यादा के नाम पर अपने परिवार के सदस्य की हत्या कर दे। होरी अपने पुत्र गोबर के प्रेम का सम्मान करते हुए गर्भवती झुनिया को अपने घर ले आता है। झुनिया विधवा भी है, गोबर की अविवाहित गर्भवती प्रेमिका भी है। होरी झुनिया का तिरस्कार नहीं करता। उसे अपने परिवार का सदस्य घोषित करने का साहस करता है। होरी का यह कदम किसान-संस्कृति का एक चमकदार पक्ष है। आज के ‘आनर किलिंग’ के जो मामले ग्रामीण समाज में दिखाई पड़ रहे हैं, उनका संबंध किसान-संस्कृति से नहीं है। कृषि को महज आय का जरिया बनाने वाले भू-स्वामियों की ये करतूतें हैं। प्रेमचंद जिस किसान की पहचान लेकर आए थे, वे मेहनतकश खेतिहर सहृदय किसान थे। ‘गोदान’ तथा अन्य रचनाओं में प्रेमचंद यही दिखाते हैं कि किसान अपने सम्मान के लिए चिंतित है। वह गाय पालना चाहता है तो सम्मान के लिए, वह कर्ज़ लेता है, तो अपने सम्मान की रक्षा के लिए। वह अपने जीवन में जो भी जोखिम उठाता है, उन सबका मकसद यही है कि ‘मरज़ाद’ बनी रहे। ध्यान दिया जाना चाहिए कि दातादीन सिलिया का सम्मान नहीं करता। सिलिया उसके पुत्र मातादीन के साथ प्रेम-संबंध रखती है, मगर दातादीन का व्यवहार मौकापरस्त और घृणास्पद है। वह अपने पुत्र के नाजायज संबंध का कभी विरोध नहीं करता और सिलिया के प्रति न्यायोचित व्यवहार भी नहीं रखता। दातादीन का व्यवहार ‘आनर किलिंग’ की पूर्व परंपरा है और होरी का व्यवहार भारतीय संस्कृति की मानवीय कसौटी। भारतीय संस्कृति को बनाने में होरी की मनुष्यता और साहस का योगदान है, जबकि दातादीन की धूर्तता भारतीय समाज का कलुषित पक्ष है। निगाह बदल कर देखिए तो पाइएगा कि होरी का हर कदम अपनी मरजाद की चिंता से युक्त है तथा यह चिंता मनुष्यता के पक्ष में है। वह भले कर्जदार है, वह भले ही बेटी की शादी में समझौता करता है; परंतु ध्यान दीजिए कि ईमानदारी और शराफत की उसकी चेतना कभी मरने नहीं पाती। वह हमेशा चाहता है कि परिश्रम करके कर्जमुक्त हो जाए तथा शांतिपूर्वक जीवन जिए। वह कभी नहीं चाहता कि किसी दूसरे का हक मार ले। दातादीन की चेतना हमेशा नकारात्मक दिखाई पड़ती है। होरी किसान.संस्कृति का प्रतीक है और दातादीन ग्रामीण समाज का पिछड़ापन। पे्रमचंद गाँव की कथा में एक अद्भुत दृष्टि रखते हैं कि गैर-किसान पात्र वहाँ प्रायः नकारात्मक छवि लिए हुए हैं। ‘गोदान में दातादीन, झींगुरी सिंह आदि जितने भी गैर-किसान ग्रामीण पात्र हैं, उनके प्रति प्रेमचंद के मन में सम्मान का भाव नहीं है। किसान-संस्कृति को भारतीय संस्कृति बनाने में पिछड़ी जाति के किसानों की भूमिका को प्रेमचंद बखूबी पहचानते हैं। साथ ही वे उन ग्रामीण तत्त्वों को भी चिह्नित करते जाते हैं, जिनके कारण भारतीय समाज में कुछ बुराइयाँ जन्म लेती रही हैं। यह बात विडंबनात्मक लग सकती है कि किसान की कहानी लिखते हुए प्रेमचंद गाँव की ऊँची जातियों के पात्रों को सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत पिछड़ा हुआ सिद्ध करते हैं। ब्राह्मण और ठाकुर पात्रों पर आप ध्यान दें तो यही निष्कर्ष निकाल पाएँगे कि इनकी भूमिका किसान संस्कृति को दूषित करने की रही है। किसान, कृषि-व्यवस्था, कृषि-संस्कृति या खेती-बारी से जुड़े प्रसंगों में ऊँची जातियों के पात्रों की कोई ऐसी बड़ी भूमिका प्रेमचंद ने नहीं दिखाई जो सकारात्मक हो। कृषि-संस्कृति को दूषित करने और किसान-जीवन को शोषित करने में ऊँची जातियों की भूमिका को प्रेमचंद ने बार-बार प्रस्तुत किया है। प्रेमचंद की रचनाओं पर उपर्युक्त दृष्टि से विवरण सहित काम करने की जरूरत है। किसान से जुड़ी उनकी रचनाओं की छानबीन करके उदाहरण सहित यह बात समझी-समझाई जा सकती है कि प्रेमचंद किसान के प्रति एक जबरदस्त सांस्कृतिक दृष्टि रखते हैं। उनकी कहानियों को चुनकर विश्लेषित किया जा सकता है कि किसान-संस्कृति से निर्मित भारतीय संस्कृति को गौरवशाली बनाने में पिछड़ी जातियों की बहुत बड़ी भूमिका है। इस बात को असंदिग्ध रूप से हजारो-लाखों बार कहा गया है कि भारतीय संस्कृति वस्तुतः कृषि-संस्कृति है, तब यह बात प्रेमचंद के हवाले से स्वीकार करनी होगी कि कृषि-संस्कृति को बनाने में, पिछड़ी जातियों की भूमिका सबसे बड़ी है। नमूने के तौर पर ‘अलग्योझा’ (माधुरी, अक्टूबर 1929) कहानी का विश्लेषण पूरी विनम्रता के साथ रखा जा रहा है। डा. रामविलास शर्मा इस कहानी पर यों टिप्पणी करते हैं, ‘‘ ‘अलग्योझा’ कहानी में घर का बँटवारा होने से कितना नुकसान होता है, इसका परिचय दिया गया है। प्रेमचंद संयुक्त परिवार के हामी थे, लेकिन आर्थिक कठिनाइयों से संयुक्त परिवार टूट रहा था। समझौतों से थोड़े ही दिनों तक गाड़ी चल सकती थी।’’[10] इसी क्रम में रामविलासजी कुछ अन्य कहानियों का जिक्र करते हुए प्रेमचंद से अपनी असहमति दर्ज़ करते हैं, ‘‘अक्सर वह (प्रेमचंद) दिखलाते हैं कि हृदय की भावनाएँ बदलने से परिवार की समस्या हल हो गई।’’[11] रामविलासजी की स्पष्ट राय है कि प्रेमचंद ‘परिवार की समस्या’ का जो हल बताते हैं वह ठीक नहीं है क्योंकि परिवार आर्थिक कारणों से परेशान है और प्रेमचंद भावनात्मक समाधान दिखलाकर सच्चाई से भटक रहे हैं, ‘‘पारिवारिक झगड़ों का मूल कारण है आर्थिक- ज़मीन की कमी, लगान का बढ़ना, कर्ज़ का बोझ, स्त्रियों को काम न मिलना, मर्दों की बेकारी, एक का कमाना और दस को खिलाना- और जब तक लोगों की ये आर्थिक कठिनाइयाँ दूर नहीं होतीं तब तक उनका पारिवारिक जीवन भी सुखी नहीं हो सकता।’’[12] रामविलासजी किसान के परिवार को आय-व्यय के हिसाब से सुखी-दुखी होना निर्धारित कर रहे हैं। मगर प्रेमचंद की कहानियाँ आय-व्यय तक ही सीमित नहीं हैं। पारिवारिक जीवन के सुखी होने का आधार प्रेमचंद केवल आर्थिक परिस्थिति को नहीं बनाते। इन कहानियों में किसानों के प्रति जो सांस्कृतिक दृष्टि मौजूद है, रामविलासजी ने उस पर विचार नहीं किया है। ‘अलग्योझा’ कहानी में भोला महतो ‘पहली स्त्री के मर जाने के बाद’ पन्ना से शादी कर लेता है और दस वर्ष के रग्घू के जीवन की कठिनाइयाँ शुरू होती हैं। विवाह के आठ वर्षों के बाद पन्ना विधवा हो जाती है और अपने चार बच्चों सहित अपने सौतेल बेटे रग्घू की आश्रित हो जाती है। पन्ना की उम्मीद के विपरीत रग्घू पूरे परिवार की देखभाल मनोयोग के साथ करता है और पन्ना निश्चिंत हो जाती है। एक नया मोड़ तब आता है जब रग्धू की पत्नी मुलिया के दबाव से गृहस्थी का अलग्योझा हो जाता है। अंत में रग्घू की मृत्यु हो जाती है और केदार मुलिया की गृहस्थी को सँभालता है तथा परिवार की सहमति से अपनी विधवा सौतेली बाल-बच्चेदार भाभी से शादी करता है। यह कहानी अलग्योझा पर समाप्त नहीं होती। समाप्त होती है परिवार को संयुक्त रूप से बचाए रखने पर। प्रेमचंद ने किसान परिवार की टूटन को जिस तरह चित्रित किया है, उससे ज़्यादा बारीकी से परिवार को एक बनाए रखने के प्रयासों को पहचाना है। इस कहानी में रामविलासजी की ‘आर्थिक कठिनाइयाँ’ वाला पक्ष एक बार भी महत्त्वपूर्ण नहीं बन पाया है। रही बात परिवार के टूटने की, तो यह स्थिति ‘बड़े घर की बेटी’ में भी उत्पन्न होती है और वहाँ भी कोई आर्थिक कठिनाई वजह नहीं है। प्रेमचंद किसान की जिजिविषा को जिस तरह चित्रित करते हैं, उस पर बार-बार ध्यान चला जाता है। रग्घू सौतली माँ से प्रताड़ित होने के बावजूद पिता की मृत्यु के बाद पूरी गृहस्थी को सँभालता है। पन्ना के बच्चों को अपने बच्चों की तरह पालता है। पन्ना एक बार कहती भी है रग्धू केवल बड़ा भाई नहीं, बल्कि बाप है। परिवार के सदस्यों के प्रति करुणा, जिम्मेदारी और अपनापन के भाव को प्रेमचंद ने इस कहानी में रखा है। परिवार के लिए त्याग करना और निरंतर मरजाद की चिंता करना किसान की प्रवृत्ति दिखाई गयी है। रग्घू व्यक्तिगत सुख-सुविधा की परवाह किए बगैर परिवार के लिए परिश्रम करता है ताकि उसके स्वर्गीय पिता की मर्यादा बची रहे। केदार मुलिया से विवाह करके सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है। पन्ना के द्वारा विवाह के लिए केदार और मुलिया से आग्रह करना, उसके व्यक्तित्व का बड़प्पन है। किसान परिवार की संस्कृति को प्रेमचंद ने जिस तरह से व्यक्त किया है, वह भारतीय संस्कृति के ऊँचे आदर्शों की आधार भूमि है। अटूट परिश्रम, व्यक्तिगत सुख.सुविधा की परवाह न करना, त्यागपूर्ण जीवन व्यतीत करना, छोटे भाई-बहनों को अपने बाल-बच्चों की तरह मानना, परिवार की एकता बनाए रखने का हरदम प्रयास करना, अपने सीमित संसाधनों में अत्यधिक श्रम करके संतोषपूर्वक जीने का अभ्यास बनाना आदि- पक्षों को हम सांस्कृतिक पहचान के रूप में चिह्नित कर सकते हैं। इन्हीं गुणों से संस्कृति की महानता बढ़ती है। त्याग, प्रेम, संतोष, दया, करुणा, बड़प्पन जैसे मानवीय गुणों से भारतीय संस्कृति बनी है। ये सारे गुण प्रेमचंद के इन किसानों में मिलते हैं। इसके विपरीत गैर-किसान ग्रामीण पात्रों (जैसे- दातादीन, झींगुरी) में लोभ, छल, कपट, धोखा, क्रूरता, नीचता जैसे अमानवीय दुर्गुणों को प्रेमचंद ने अनेक रचनाओं में दिखाया है। भारतीय संस्कृति को इन दुर्गुणों ने नुकसान पहुँचाया है। ‘स्त्रियों को काम न मिलना, मर्दों की बेकारी’ का प्रश्न रामविलासजी ने उपर्युक्त उद्धरण में उठाया है। परंतु किसान परिवार की स्त्रियाँ खूब काम करती हैं, पन्ना खेत में काम करने जाती है और मर्दों को खेती के काम से फुर्सत कहाँ मिलती थी! गैर-किसान ग्रामीण परिवार की ‘स्त्रियों’ और ‘मर्दों’ के सामने बेकारी की समस्या ज़रूर थी क्योंकि वे लोग किसानी का काम स्वयं नहीं करते थे। ‘बड़े घर की बेटी’ का लालबिहारी चिड़िया मार कर लाया था, किसानी का कोई काम करके नहीं आया था। प्रेमचंद के किसान को सांस्कृतिक दृष्टि से विश्लेषित करने की बहुत ज़रूरत है क्योंकि यही किसान भारत की संस्कृति का संवाहक और मूलाधार है। इसी रास्ते, भारतीय संस्कृति की निर्मित में पिछड़ी जातियों के विराट योगदान का भी परिचय मिल जाता है। भारत की आधी आबादी से भी ज़्यादा संख्या में मौजूद पिछड़ी जातियों के सांस्कृतिक योगदान को स्वीकार करना आवश्यक बन गया है। इस देश का कोई भी बड़ा काम इस आबादी के सहयोग के बिना संपन्न नहीं हुआ होगा- ऐसा कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी। संदर्भ [1] प्रेमचंद और उनका युग, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1993, पृ. 44 [2] वही, पृ. 45 [3] वही, पृ. 45 [4] वही, पृ. 96 [5] हिंदी साहित्य का इतिहास,आचार्य रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, सं. 2047 वि., पृ. 292 [6] प्रेमचंद और उनका युग, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1993, पृ. 5-6 [7] वही, पृ. 96 [8] वही, पृ. 96 [9] वही, पृ. 97 [10] वही, पृ. 116 [11] वही, पृ. 116 [12] वही, पृ. 116 बहुजन साहित्य से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए फॉरवर्ड प्रेस की किताब बहुजन साहित्य की प्रस्तावना, देखें। यह हिंदी के अतरिक्त अंग्रेजी में भी उपलब्ध है। प्रकाशक, द मार्जिनलाइज्ड, दिल्ली, फ़ोन : +919968527911 ऑनलाइन आर्डर करने के लिए यहाँ जाएँ: अमेजन, और फ्लिपकार्ट। इस किताब के अंग्रेजी संस्करण भी Amazonऔर Flipkartपर उपलब्ध हैं। प्रेमचंद के अनुसार साहित्य का उद्देश्य क्या है?साहित्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन करना नहीं है बल्कि वर्तमान समय में साहित्य का उद्देश्य जीवन की समस्याओं पर भी विचार करना और उनका समाधान भी करना है। प्रेमचंद ने कहा है कि 'साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है'।
प्रेमचंद के अनुसार साहित्य का क्या महत्व है?साहित्य का उद्देश्य पुस्तक में प्रेमचंद ने साहित्य और अन्य आनुषंगिक विधाओं से जुड़े मुद्दों पर अपनी स्पष्ट बातें कही हैं. उन्होंने मानव मन और समाज के बहुत सी प्रवृत्तियों पर कहानी व उपन्यास लिखे कि उनके आधार पर उस वक्त के समाज की अधिरचना और मनुष्य की मनोरचना को केवल उनकी कहानियों व उपन्यासों से समझा जा सकता है.
साहित्य सृजन का उद्देश्य क्या है *?साहित्यिक सृजन का उद्देश्य सामाजिक परिवर्तन है। अध्यक्षता करते डॉ. भारत यायावर ने कहा कि चौबे बन गए दूबे कहानी में कई कमियां है, बावजूद इसके कहानी को मजबूती के साथ रखा गया है। युवा कवि अमित मिश्रा वियोगी ने कहा कि डॉ.
प्रेमचंद साहित्य को क्या मानते थे?प्रेमचंद का विपुल साहित्य इस बात का प्रमाण है कि केवल भाषा के स्तर पर उन्होंने उर्दू और हिंदी में कोई पूर्वाग्रह नहीं किया, जो हम आज के दौर में देखते हैं, बल्कि अपनी रचनाओं में मुस्लिम समुदाय और पात्रों के माध्यम से उनके संसार, उनके स्वप्नों, उनके दुखों को आवाज़ दी.
|