प्राचीन भारत के न्याय का आधार क्या था समझाइए - praacheen bhaarat ke nyaay ka aadhaar kya tha samajhaie

उत्तर - आज की संगठित व्यवस्था का आधार कानून है और कानून का उद्देश्य न्याय की स्थापना है। न्याय के बिना कानून की कल्पना नहीं की जा सकती। लॉर्ड ब्राइस के अनुसार, “यदि राज्य में न्याय का दीपक बुझ जाए तो अँधेरा कितना घना होगा, इसकी कल्पना नहीं कर सकते।

न्याय का अर्थ एवं परिभाषाएँ  

'न्याय' शब्द का अंग्रेजी अनुवाद है Justice' 'Justice' शब्द लैटिन भाषा के Jus' से बना है, जिसका अर्थ है-'बाँधना' या 'जोड़ना' । इस प्रकार न्याय का व्यवस्था से स्वाभाविक सम्बन्ध है । अत: हम कह सकते हैं कि न्याय उस व्यवस्था का नाम है जो व्यक्तियों,समुदायों तथा समूहों को एक सूत्र में बाँधती है। किसी व्यवस्था को बनाए रखना ही न्याय है,क्योंकि कोई भी व्यवस्था किन्हीं तत्त्वों को एक-दूसरे के साथ जोड़ने के बाद ही बनती अथवा पनपती है।

·         मेरियम के अनुसार, "न्याय उन मान्यताओं तथा प्रक्रियाओं का योग है जिनके माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति को वे सभी अधिकार तथा सुविधाएँ प्राप्त होती हैं जिन्हें समाज उचित मानता है।"

·    मिल के अनुसार, "न्याय उन नैतिक नियमों का नाम है जो मानव-कल्याण की धारणाओं से सम्बन्धित है तथा इसलिए जीवन के पथ-प्रदर्शन के लिए किसी भी नियम से अधिक महत्त्वपूर्ण है।"

·         रफल के शब्दों में, "न्याय उस व्यवस्था का नाम है जिसके द्वारा व्यक्तिगत अधिकार की रक्षा होती है और समाज की मर्यादा भी बनी रहती है।"

प्राचीन भारत के न्याय का आधार क्या था समझाइए - praacheen bhaarat ke nyaay ka aadhaar kya tha samajhaie



·         बेन तथा पीटर्स के अनुसार, "न्याय का अर्थ यह है कि जब तक भेदभाव किए जाने का कोई उचित कारण न हो,तब तक सभी व्यक्तियों से एक जैसा व्यवहार किया जाये ।

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि न्याय का सिद्धान्त अपने स्वरूप में | समाज के अन्तर्गत होता है। हम न्याय की संकल्पना को समाज से बाहर, उससे अलग तथा उससे दूर सोच भी नहीं सकते । न्याय के अर्थ को सत्य, नैतिकता तथा शोषण विहीनता की स्थिति में ही पाया जा सकता है । इसके अर्थ का एक पहलू लोगों | के बीच व्यवस्था की स्थापना पर जोर देता है, तो दूसरा पहलू अधिकारों व कर्तव्यों को बनाने का यत्न करता है । निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि न्याय के अर्थ में दायित्व, सुविधाएँ, अधिकार, व्यवस्था, नैतिकता, न्याय की भावना, सत्य, उचित व्यवहार आदि तत्त्व समाहित होते हैं।

·         न्याय की धारणा के विभिन्न रूप (आयाम)

न्याय की धारणा के विभिन्न रूपों (आयामों) का उल्लेख निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है

(1) नैतिक न्याय - 

परम्परागत रूप में न्याय की धारणा को नैतिक रूप में ही अपनाया जाता रहा है । नैतिक न्याय इस धारणा पर आधारित है कि विश्व में कुछ सर्वव्यापक, अपरिवर्तनीय तथा अन्तिम प्राकृतिक नियम हैं, जो कि व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों को ठीक प्रकार से संचालित करते हैं। इन प्राकृतिक नियमों और | प्राकृतिक अधिकारों पर आधारित जीवन व्यतीत करना ही नैतिक न्याय है। जब हमारा आचरण इन नियमों के अनुसार होता है,तब वह नैतिक न्याय की अवस्था होती है। जब हमारा आचरण इसके विपरीत होता है, तब वह नैतिक न्याय के विरुद्ध होता है।

(2) कानूनी न्याय - 

राज्य के उद्देश्य में न्याय को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया और कानूनी भाषा में समस्त कानूनी व्यवस्था को न्याय व्यवस्था कहा जाता है । कानूनी न्याय में वे सभी नियम और कानूनी व्यवहार सम्मिलित हैं जिनका अनुसरण किया जाना चाहिए ।

·         इस प्रकार कानूनी न्याय की धारणा दो अर्थों में प्रयोग की जाती है-

(i) कानून का निर्माण अर्थात् सरकार द्वारा बनाए गए कानून न्यायोचित होने चाहिए।

(ii) कानून को लागू करना अर्थात् बनाए गए कानूनों को न्यायोचित ढंग से लागू किया जाना चाहिए। कानूनों को न्यायोचित ढंग से लागू करने का आशय यह है कि जिन व्यक्तियों ने कानून का उल्लंघन किया है, उन्हें दण्डित करने में किसी भी प्रकार का पक्षपात नहीं किया जाना चाहिए।


(3) राजनीतिक न्याय - 

राज व्यवस्था का प्रभाव समाज के सभी व्यक्तियों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में पड़ता ही है । अतः सभी व्यक्तियों को ऐसे अवसर प्राप्त होने चाहिए कि वे लगभग समान रूप से राज व्यवस्था को प्रभावित कर सकें और राजनीतिक शक्तियों का प्रयोग इस ढंग से किया जाना चाहिए कि सभी व्यक्तियों को लाभ प्राप्त हो । यही राजनीतिक न्याय है और इसकी प्राप्ति स्वाभाविक रूप से एक प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत ही की जा सकती है। 'प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के साथ-साथ राजनीतिक न्याय की प्राप्ति के कुछ अन्य साधन हैंवयस्क मताधिकार; सभी व्यक्तियों के लिए विचार, भाषण,सम्मेलन और संगठन आदि की नागरिक स्वतन्त्रताएँ; प्रेस की स्वतन्त्रता; न्यायपालिका की स्वतन्त्रता; बिना किसी भेदभाव के सभी व्यक्तियों को सार्वजनिक पद प्राप्त होना आदि । राजनीतिक न्याय की धारणा में यह बात निहित है कि राजनीति में कोई कुलीन वर्ग अथवा विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग नहीं होगा।

(4) सामाजिक न्याय -

सामाजिक न्याय का आशय यह है कि नागरिक-नागरिक के बीच में सामाजिक स्थिति के आधार पर किसी प्रकार का भेद न माना जाए और प्रत्येक व्यक्ति को आत्म-विकास के पूर्ण अवसर प्राप्त हों। सामाजिक न्याय की धारणा में यह बात निहित है कि अच्छे जीवन के लिए व्यक्ति को आवश्यक परिस्थितियाँ प्राप्त होनी चाहिए और इस सन्दर्भ में समाज की राजनीतिक सत्ता से यह आशा की जाती है कि वह अपने विधायी तथा प्रशासनिक कार्यक्रमों द्वारा एक ऐसे समाज की स्थापना करेगा जो समानता पर आधारित हो । वर्तमान समय में सामाजिक न्याय का विचार बहुत अधिक लोकप्रिय है।

(5) आर्थिक न्याय - 

आर्थिक न्याय सामाजिक न्याय का एक अंग है। कुछ लोग आर्थिक न्याय का तात्पर्य पूर्ण आर्थिक समानता से लेते हैं। किन्तु वास्तव में इस प्रकार की स्थिति व्यवहार के अन्तर्गत किसी भी रूप में सम्भव नहीं है। आर्थिक न्याय का तात्पर्य यह है कि सम्पत्ति सम्बन्धी भेद इतना अधिक नहीं होना चाहिए कि धन-सम्पदा के आधार पर व्यक्ति-व्यक्ति के बीच विभेद की कोई दीवार खडी हो  जाए और कुछ धनी व्यक्तियों द्वारा अन्य व्यक्तियों के श्रम का शोषण किया जाए या उसके जीवन पर अनुचित अधिकार स्थापित कर लिया जाए। उसमें यह बात भी निहित है कि पहले समाज में सभी व्यक्तियों की अनिवार्य आवश्यकताएं पूरी होनी चाहिए, उसके बाद ही किन्हीं व्यक्तियों द्वारा आरामदायक आवश्यकताओं या विलासिता की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सकता है । आर्थिक न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए व्यक्तिगत सम्पत्ति के अधिकार को सीमित किया जाना आवश्यक है।


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प्राचीन भारत की न्याय का आधार क्या था?

प्राचीन भारत के हिन्दू शासन-काल में न्याय तथा दण्ड-व्यवस्था का पूर्ण उत्तरदायित्व शासक पर होता था। उस समय यह धारणा थी कि राजा ईश्वर का ही अंश (Divine Right of King) है तथा राजा द्वारा दिया गया न्याय ईश्वरीय ईच्छा के अनुसार होने से उसके आदेशों का अनुपालन करना चाहिये।

न्याय के प्रमुख आधार क्या है?

नैतिकता, औचित्य, विधि (कानून), प्राकृतिक विधि, धर्म या समता के आधार पर 'ठीक' होने की स्थिति को न्याय (justice) कहते हैं।

न्याय कितने प्रकार के होते हैं समझाइए?

न्याय दो प्रकार के होते हैं - लौकिकन्याय तथा शास्त्रीयन्याय।

न्याय का क्या अर्थ है समझाइए?

मिल के अनुसार, "न्याय उन नैतिक नियमों का नाम है जो मानव-कल्याण की धारणाओं से सम्बन्धित है तथा इसलिए जीवन के पथ-प्रदर्शन के लिए किसी भी नियम से अधिक महत्त्वपूर्ण है।" रफल के शब्दों में, "न्याय उस व्यवस्था का नाम है जिसके द्वारा व्यक्तिगत अधिकार की रक्षा होती है और समाज की मर्यादा भी बनी रहती है।"