मूक सिनेमा से क्या तात्पर्य है? - mook sinema se kya taatpary hai?

‘जब सिनेमा ने बोलना सीखा’ अध्याय के लेखक ‘प्रदीप तिवारी जी’ हैं। प्रदीप तिवारी जी ने इस अध्याय में  सिनेमा जगत में आए परिवर्तन को उज्जागर करने की कोशिश की है। आरम्भ में मूक फिल्में यानी आवाज रहित फिल्में बनती थी। उनमें किसी तरह की आवाज का प्रयोग नहीं होता था। इसके कुछ समय के बाद सिनेमा जगत में एक बहुत बड़ा परिवर्तन आया और सवाक्‌ फिल्मों का आरम्भ शुरू हुआ। इस अध्याय को निबंध के रूप में लिखा गया है जैसा कि इस अध्याय के नाम ‘जब सिनेमा ने बोलना सीखा’ के अर्थ से ही स्पष्ट होता है कि इस अध्याय में उस समय का वर्णन है जब सिनेमा में आवाज को शामिल किया गया। प्रदीप तिवारी के निबंध ‘जब सिनेमा ने बोलना सीखा’ में भारतीय सिनेमा के इतिहास के एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव को उजागर किया गया है। यह निबंध बिना आवाज़ के सिनेमा के आवाज़ के साथ सिनेमा में विकसित होने की कहानी बयान करता है। ऐसी फ़िल्में जिसमें आवाज भी थी, वे शिक्षा की दृष्टि की ओर से भी अर्थवान सबित हुई क्योंकि अब लोग एक और सुन सकते थे और फिल्म के मुख्य भाग में दी गई सीख को समझ कर अपने जीवन में उतार भी सकते थे।
 
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जब सिनेमा ने बोलना सीखा की पाठ व्याख्या 

‘वे सभी सजीव हैं, साँस ले रहे हैं, शत-प्रतिशत बोल रहे हैं, अठहत्तर मुर्दा इंसान ज़िंदा हो गए, उनको बोलते, बातें करते देखो।’ देश की पहली सवाक् फिल्म ‘आलम आरा’ के पोस्टरों पर विज्ञापन की ये पंक्तियाँ लिखी हुई थीं।

सजीव – ज़िंदा

इंसान – मानव

सवाक् – बोलती

लेखक यहाँ पर देश की पहली बोलने वाली फिल्म का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जब देश की पहली बोलने वाली फिल्म ‘आलम आरा’ प्रदर्शित होने वाली थी तो शहर भर में उसके पोस्टरों में कुछ इस तरह की पंक्तियाँ लिखी हुई थी कि – ‘वे सभी जिन्दा हैं, साँस ले रहे हैं, शत-प्रतिशत बोल रहे हैं, अठहत्तर मुर्दा मानव ज़िंदा हो गए, उनको बोलते, बातें करते देखो।’ इन पंक्तियों का अर्थ था कि फिल्म में जितने भी पात्र हैं वह सब जीवित नजर आ रहे हैं, सभी उनको बोलते, बातें करते देख सकते हैं, इस तरह का विज्ञापन तैयार करके लोगों को फिल्म को देखने के लिए आकर्षित किया गया था और यह ‘आलम आरा’ फिल्म का सबसे पहला पोस्टर था।

14 मार्च 1931 की वह ऐतिहासिक तारीख भारतीय सिनेमा में बड़े बदलाव का दिन था। इसी दिन पहली बार भारत के सिनेमा ने बोलना सीखा था। हालाँकि वह दौर ऐसा था जब मूक सिनेमा लोकप्रियता के शिखर पर था।

लोकप्रियता – प्रसिद्धि

शिखर – उच्च स्थान

14 मार्च 1931 यह भारतीय सिनेमा के लिए एक ऐतिहासिक तारीख बन गई, इस तारीख में भारतीय सिनेमा जगत में एक बहुत बड़ा बदलाव आया। इसी दिन पहली बार भारत के सिनेमा में बोलने वाली फिल्म का प्रदर्शन हुआ था। परन्तु यह, वह समय था जब लोगों के द्वारा मूक सिनेमा को बहुत अधिक पसंद किया जाता था। मूक सिनेमा की भी अपनी एक प्रसिद्धि थी, उसका अपना एक अलग स्थान था।

‘पहली बोलती फिल्म जिस साल प्रदर्शित हुई, उसी साल कई मूक फिल्में भी विभिन्न भाषाओं में बनीं। मगर बोलती फिल्मों का नया दौर शुरू हो गया था।

फिल्में – बिना आवाज़ की फिल्म

दौर – समय

जिस साल पहली बोलती फिल्म को पर्दे पर उतारा गया था उसी साल कई मूक फिल्में भी विभिन्न भाषाओं में बनीं हुई थी। लेखक के कहने का अभिप्राय है कि ऐसा नहीं है कि एक दम से मूक फिल्में बनना बंद हो चुकी थी, सवाक् फिल्म के आ जाने पर भी कई अलग-अगल भाषाओं में अभी-भी मूक फिल्में बन रही थी। परन्तु अब बोलती फिल्मों का नया समाय शुरू हो गया था। अब एक नई तकनीकी आ गई थी, जिसकर कारण फिल्म निर्माता आवाज को फिल्मों में शामिल कर सकते थे।

पहली बोलती फिल्म आलम आरा बनाने वाले फिल्मकार थे अर्देशिर एम. ईरानी। अर्देशिर ने 1929 में हॉलीवुड की एक बोलती फिल्म ‘शो बोट’ देखी और उनके मन में बोलती फिल्म बनाने की इच्छा जगी।

भारतीय सिनेमा की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ बनाने वाले फिल्मकार  ‘अर्देशिर एम. ईरानी’ थे। अर्देशिर ने 1929 में हॉलीवुड की एक बोलती फिल्म ‘शो बोट’ देखी थी जिससे उन्हें इस तरह की फिल्म बनाने की प्रेरणा मिली और उनके मन में भी भारतीय सिनेमा में बोलती फिल्म बनाने की इच्छा जागी।

पारसी रंगमंच के एक लोकप्रिय नाटक को आधार बनाकर उन्होंने अपनी फिल्म की पटकथा बनाई। इस नाटक के कई गाने ज्यों के त्यों फिल्म में ले लिए गए। एक इटंरव्यू में अर्देशिर ने उस वक्त कहा था ‘हमारे पास कोई संवाद लेखक नहीं था, गीतकार नहीं था, संगीतकार नहीं था।’

इटंरव्यू – साक्षात्कार

अर्देशिर जी ने जब देखा पारसी के रंगमंच नाटकों को लोगों द्वारा बहुत ही पसंद किया जाता है, तो उन्हें ख्याल आया कि किसी पारसी रंगमंच नाटक की कहानी पर आधारित फिल्म बनाई जाए। अर्देशिर जी ने फैसला किया की इस नाटक के जो गाने थे, वह भी लोगों में बहुत प्रसिद्ध थे, इसलिए उन्होंने वे गाने भी ज्यों के त्यों फिल्म में शामिल कर दिए। एक साक्षात्कार में अर्देशिर ने कहा था कि ‘उस समय डायलॉग राईटर नहीं होते थे। ऐसी सुविधा उपल्ब्ध नहीं थी, गीतकार नहीं था, कोई खासतौर पर लिखने वाला नहीं था, और संगीतकार भी नहीं था।’ जब अर्देशिर जी फिल्म बनाने लगे तो उन्हें यह कमियाँ महसूस हुई। जिनके बाद जरूरत महसूस की गई कि फिल्म को अच्छी तरफ से बनाने के लिए एक खासतौर से संवाद लेखक होना चाहिए, गीतकार भी होना चाहिए जोकि अच्छे से गीत लिखे, जो लोगों में मशहूर हो। संगीतकार उस गीत को अच्छा संगीत दे। 

इन सबकी शुरुआत होनी थी। अर्देशिर ने फिल्म के गानों के लिए स्वयं की धुनें चुनीं। फिल्म के संगीत में महज तीन वाद्य, तबला, हारमोनियम और वायलिन का इस्तेमाल किया गया। आलम आरा में संगीतकार या गीतकार में स्वतंत्र रूप से किसी का नाम नहीं डाला गया। 

लेखक कहता है कि पहले मूक फिल्में बनती थी, जिसमें किसी तरह के गीत-संगीत या संवाद नहीं होते थे लेकिन अब सवाक् फिल्में बनाने लगी थी तो इसलिए गीतकार और संगीतकार की जरूरत महसूस हुई। आलम आरा फिल्म के गानों के संगीत के लिए अर्देशिर जी ने स्वयं के संगीत को चुना। फिल्म के संगीत में महज तीन वाद्य यंत्र प्रयोग किए गए थे – तबला, हारमोनियम और वायलिन। आलम आरा फिल्म में अर्देशिर जी ने खासतौर पर किसी को भी संगीतकार या गीतकार की उपाधि नहीं दी थी क्योंकि सभी ने अपना-अपना योगदान दिया था। जिसे संगीत की थोड़ी जानकारी थी, उसने संगीत बनाने में सहयोग दिया और जिसे गीत लिखने का शौक था, उसने गीतों को लिखने में अपना योगदान दिया। इसीलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि किसी खास व्यक्ति ने संगीत दिया या गीत लिखे। सभी का मिला-जुला सहयोग था।

इस फिल्म में पहले पार्श्वगायक बने डब्लू. एम. खान। पहला गाना था ‘दे दे खदु के नाम पर प्यारे अगर देने की ताकत है’। आलम आरा का संगीत उस समय डिस्क फॉर्म में रिकार्ड नहीं किया जा सका, फिल्म की शूटिंग शुरू हुई तो साउंड के कारण ही इसकी शूटिंग रात में करनी पड़ती थी।

पार्श्वगायक – जो पर्दे के पीछे से अपनी आवाज़/गीत गाए

साउंड – आवाज़

आलम आरा फिल्म में पहले गायक जिन्होंने पर्दे के पीछे से अपनी आवाज़ में गीत गाए वो बने डब्लू. एम. खान। डब्लू. खान द्वारा गाया गया पहला गाना था ‘दे दे खदु के नाम पर प्यारे अगर देने की ताकत है’। आलम आरा का संगीत उस समय डिस्क फॉर्म में रिकार्ड नहीं किया गया था या नहीं किया जा सका था, क्योंकि उस समय ऐसे संसाधान नहीं थे जैसे आज कल मौजूद हैं। जब फिल्म की शूटिंग शुरू हुई तो आवाज़ के कारण ही इसकी शूटिंग रात में करनी पड़ती थी। ऐसा इसलिए करना पड़ा था क्योंकि दिन में बहुत शोर-शराबा होता था और यह पहली सवाक् फिल्म थी इसलिए यह रात का समय चुना गया। उस सयम पूरा प्रकाश  अर्टीफिशल लाईट द्वारा लगा कर पूरा दिन जैसा महौल कायम किया जाता था।

मूक युग की अधिकतर फिल्मों को दिन के प्रकाश में शूट कर लिया जाता था, मगर आलम आरा की शूटिंग रात में होने के कारण इसमें कृत्रिम प्रकाश व्यवस्था करनी पड़ी। यहीं से प्रकाश प्रणाली बनी जो आगे फिल्म निर्माण का जरूरी हिस्सा बनी।

कृत्रिम – बनावटी

मूक युग की अधिकतर फिल्मों को दिन के प्रकाश में शूट कर लिया जाता था, क्योंकि मूक फिल्मों को बनाने के लिए कोई ऐसी खास जरूरत महसूस नहीं होती थी। मगर आलम आरा एक सवाक् फिल्म थी और शूटिंग रात में होने के कारण इसमें कृत्रिम अर्थात् बनावटी प्रकाश व्यवस्था करनी पड़ी। क्योंकि उन्हें दिन जैसा आभास करवाना था। यहीं से प्रकाश प्रणाली बनी अर्थात् फिल्मों में प्रकाश प्रणाली का इस्तेमाल आरम्भ हुआ। जो आगे फिल्म के निर्माण का जरूरी हिस्सा बनी। क्योंकि अब दिन और रात दोनों समय फिल्में बनाई जा सकती थी।

‘आलम आरा’ ने भविष्य के कई स्टार और तकनीशियन तो दिए ही, अर्देशिर की कंपनी तक ने भारतीय सिनेमा के लिए डेढ़ सौ से अधिक मूक और लगभग सौ सवाक् फिल्में बनाईं। 

लेखक कहता है कि ‘आलम आरा’ फिल्म ने भविश्य को कई स्टार और तकनीशियन तो दिए ही। साथ-ही-साथ यह वो फिल्म थी जिसमें एक इतिहास रचा और एक नए निर्माण की शुरूआत हुई। अर्देशिर की कंपनी ने ही भारतीय सिनेमा के लिए डेढ़ सौ से अधिक मूक और लगभग सौ सवाक् फिल्में बनाईं। यह उनका भारतीय सिनेमा के लिए बहुत बड़ा योगदान था। 

आलम आरा फिल्म ‘अरेबियन नाइट्स’ जैसी फैंटेसी थी। फिल्म ने हिंदी-उर्दू के मेलवाली ‘हिंदुस्तानी’ भाषा को लोकप्रिय बनाया। इसमें गीत, संगीत तथा नृत्य के अनोखे संयोजन थे। फिल्म की नायिका जुबैदा थीं। नायक थे विट्ठल। वे उस दौर के सर्वाधिक पारिश्रमिक पाने वाले स्टार थे।

फैंटेसी – आकर्षक

पारिश्रमिक – मेहनताना

लेखक बताते हैं कि आलम आरा फिल्म ‘अरेबियन नाइट्स’ जैसी ही आकर्षक थी। जिस तरह लोग अरेबियन नाइट्स’ क्र आधार पर होने वाले कार्यक्रमों की ओर आकर्षित होते थे। उसी तरह जब आलम आरा फिल्म प्रदर्शित हुई तो लोगों में उसका आकर्षण भी ‘अरेबियन नाइट्स’ की तरह ही था। इस फिल्म ने हिंदी-उर्दू के मेलजोल से बनी हिन्दुस्तानी भाषा को लोगों के मध्य अत्यधिक लोकप्रिय बना दिया। इस फिल्म में आम बोलचाल की भाषा द्वारा हमारे भारत के संस्कृति और गीतों को सुन्दर तरीके से संगीत दिया गया और नृत्य के अभिनय के अनोखे संयोजन देखने को मिले। फिल्म की नायिका जुबैदा थीं और नायक थे विट्ठल। वे उस समय के सबसे ज्यादा वेतन पाने वाले स्टार थे अर्थात् उन्हें सबसे ज्यादा वेतन मिलता था।

उनके चयन को लेकर भी एक किस्सा काफी चर्चित है। विट्ठल को उर्दू बोलने में मुश्किलें आती थीं। पहले उनका बतौर नायक चयन किया गया मगर इसी कमी के कारण उन्हें हटाकर उनकी जगह मेहबूब को नायक बना दिया गया।

चर्चित – मशहूर

लेखक कहते है कि जब विट्ठल को फिल्म के नायक के रूप में चुना गया तो उनके बारे में एक कहानी बहुत ही मसहूर है कि विट्ठल को उर्दू बोलने में मुश्किलें आती थीं। पहले तो उनका बतौर नायक चयन किया गया मगर उर्दू न बोल पाने के कारण उन्हें फिल्म में नायक की भूमिका से हटाकर उनकी जगह मेहबूब को नायक बना दिया गया। मेहबूब भी एक बहुत ही प्रसिद्ध और बेहतरीन कलाकार रहे हैं।

विट्ठल नाराज़ हो गए और अपना हक पाने के लिए उन्होंने मुकदमा कर दिया। उस दौर में उनका मुकदमा मोहम्मद अली जिन्ना ने लड़ा जो तब के मशहूर वकील हुआ करते थे। विट्ठल मुकदमा जीते और भारत की पहली बोलती फिल्म के नायक बनें। 

लेखक कहते हैं कि जब विट्ठल की जगह मेहबूब को नायक बना दिया गया तो विट्ठल नाराज़ हो गए और अपना हक पाने के लिए उन्होंने मुकदमा कर दिया। वह इस बात को लेकर अदालत में पहुँच गए कि पहले उनका चयन किया गया था और अब उनके स्थान पर किसी और को रख लिया गया है। उस समय में उनका मुकदमा मोहम्मद अली जिन्ना ने लड़ा। जोकि बहुत ही मशहूर वकील थे। विट्ठल मुकदमा जीते और भारत की पहली बोलती फिल्म के नायक बनें। 

उनकी कामयाबी आगे भी ज़ारी रही। मराठी और हिंदी फिल्मों में वे लंबे समय तक नायक और स्टंटमैन के रूप में सक्रिय रहे। इसके अलावा ‘आलम आरा’ में सोहराब मोदी, पृथ्वीराज कपूर, याकूब और जगदीश सेठी जैसे अभिनेता भी मौजूद रहे आगे चलकर जो फिल्मोद्योग के प्रमुख स्तंभ बने।

स्टंटमैन – करतब करने वाला

अभिनेता – कलाकार

लेखक कहते हैं कि विट्ठल के काम को लोगों ने बहुत पसंद किया और आगे आने वाली फिल्मों में भी विट्ठल ने अपना योगदान दिया। हिंदी सिनेमा में वे लंबे समय तक नायक और करतब करने वाले नायक के रूप में मौजूद रहे। इसके अलावा ‘आलम आरा’ में सोहराब मोदी, पृथ्वीराज कपूर, याकूब और जगदीश सेठी जैसे बेहतरीन कलाकार भी मौजूद रहे जो आगे चलकर फिल्मोद्योग के प्रमुख स्तंभ बने और इनकी पीढ़ी-दर-पीढ़ी आज भी हम उनके बेहतरीन योगदान को याद करते हैं।

 यह फिल्म 14 मार्च 1931 को मुंबई के ‘मैजेस्टिक’ सिनेमा में प्रदर्शित हुई। फिल्म 8 सप्ताह तक ‘हाउसफुल’ चली और भीड़ इतनी उमड़ती थी कि पुलिस के लिए नियंत्रण करना मुश्किल हो जाया करता था। 

फिल्म आलम आरा 14 मार्च 1931 को मुंबई के ‘मैजेस्टिक’ सिनेमा में प्रदर्शित हुई। फिल्म 8 सप्ताह तक ‘हाउसफुल’ रही। लोगों ने उसे बहुत पंसद किया। पूरे सिनेमा हाल में बैठने की जगह नहीं थी। भीड़ इतनी ज्यादा हो जाती थी कि पुलिस के लिए भीड़ को नियंत्रण करना मुश्किल हो जाया करता था। इस फिल्म को इतना पसंद किया गया की इसे देखने की लिए सिनेमा हॉलों में लोगों की भीड़ जम जाती थी।

समीक्षकों ने इसे ‘भड़कीली फैंटेसी’ फिल्म करार दिया था मगर दर्शकों के लिए यह फिल्म एक अनोखा अनुभव थी। यह फिल्म 10 हजार फुट लंबी थी और इसे चार महीनों की कड़ी मेहनत से तैयार किया गया था।

समीक्षकों – जांच करने वाले

फिल्म की जांच करने वाले लोगों ने इस फिल्म की जांच-पड़ताल की और उन्होंने इस फिल्म को ‘भड़कीली फैंटेसी’ फिल्म करार दे दिया, क्योंकि इस फिल्म में पहली बार भड़कीली भाषा और पोशाक का इस्तेमाल किया गया था। मगर दर्शकों के लिए यह फिल्म एक अनोखा अनुभव थी, उनके लिए यह एक नई तरीके की फिल्म थी। पहले मूक फिल्में बनती थी, उनमें किसी तरह के गीत-संगीत और संवाद नहीं होते थे और यह एक नया परिवर्तन था जो लोगों को पंसद आया। जब यह फिल्म बनकर तैयार हुई तो उसकी रील 10 हजार फुट लंबी थी और इस फिल्म को बनाने में चार महीनों का कठिन परिश्रम करना पड़ा था तब जाकर यह फिल्म तैयार हुई थी।
 

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सवाक् फिल्मों के लिए पौराणिक कथाओं, पारसी रंगमंच के नाटकों, अरबी प्रेम-कथाओं को विषय के रूप में चुना गया। इनके अलावा कई सामाजिक विषयों वाली फिल्में भी बनीं। ऐसी ही एक फिल्म थी ‘खुदा की शान।’ इसमें एक किरदार महात्मा गांधी जैसा था। इसके कारण सवाक् सिनेमा को ब्रिटिश प्रशंसकों की तीखी नज़र का सामना करना पड़ा।

किरदार – चरित्र

लेखक कहते हैं कि जब बोलती फ़िल्में बनाने लगी तो पुराने समय की कहानियों जैसे महाभारत, रामयण, हरिचंद्र की कथा इन पर फ़िल्में बनाई गई। पारसी धर्म के लोग जो स्टेज़ पर नाचते-खेलते थे, उनकी कहानियों पर आधारित फिल्में बनी। अरब देश में जो नायक-नायिकाऐं थी, प्रेमी और प्रेमिकाओं की मशहूर कहानियाँ थी, उनको भी फिल्म का विषय चुना गया। इनके अलावा समाज में जो मुददे थे, जिन्हें उठा कर समाज में सुधार लाया जा सकता था। इस तरह के विषयों को भी चुना गया और उनपर भी फिल्में बनाई गई। ऐसी ही एक फिल्म थी ‘खुदा की शान।’ यह वह समय था जब हमारे देश पर ब्रिटिश सरकार का प्रशासनथा और उनकी नजर हमारे द्वारा बनाई गई फिल्मों पर थी कि कहीं किसी तरह से कोई भी फिल्म उनके खिलाफ तो नहीं इसलिए उनकी नजर इस फिल्म पर पड़ी। इस फिल्म में जो मुख्य पात्र था, वो महात्मा गांधी की जैसा प्रतीत हो रहा था। ब्रिटिश सरकार को आभास हो रहा था कि कहीं इस फिल्म में उनके खिलाफ तो कोई संदेश नहीं दिया जा रहा। इसलिए इस फिल्म के निर्माण पर ब्रिटिश सरकार अपनी नज़र बनाए हुए थी।

सवाक् सिनेमा के नए दौर की शुरुआत कराने वाले निर्माता-निर्देशक अर्देशिर इतने विनम्र थे कि जब 1956 में ‘आलम आरा’ के प्रदर्शन के पच्चीस वर्ष पूरे होने पर उन्हें सम्मानित किया गया और उन्हें ‘भारतीय सवाक् फिल्मों का पिता’ कहा गया तो उन्हानें उस मौके पर कहा था। ‘मुझे इतना बडा़ खिताब देने की जरूरत नहीं है। मैनें तो देश के लिए अपने हिस्से का जरूरी योगदान दिया है।’’

खिताब – उपाधि

लेखक कहते हैं कि सवाक् सिनेमा के नए दौर की शुरुआत करने वाले निर्माता-निर्देशक अर्देशिर इतने विनम्र थे कि जब 1956 में ‘आलम आरा’ के प्रदर्शन के पच्चीस वर्ष पूरे हुए (यह फिल्म 1931 में बनकर तैयार हुई थी तो 1931 से लेकर 1956 तक पूरे 25 वर्ष हो गए थे) तो इस ख़ुशीमें उन्हें सम्मानित किया गया और उन्हें सवाक् फिल्मों का पिता कहा गया। तो इस मौके पर उन्होंने कहा कि उन्हें इतनी बड़ी उपाधि देने की जरूरत नहीं है क्योंकि वह बहुत ही बड़े विर्नम स्वभाव के थे और वह मानते थे कि उन्होंने कोई बड़ा काम नहीं किया है। यह तो उनका उनके देश के लिए बहुत छोटा सा योगदान है। 

जब पहली बार सिनेमा ने बोलना सीख लिया, सिनेमा में काम करने के लिए पढ़े-लिखे अभिनेता-अभिनेत्रियों की जरूरत भी शुरू हुई क्योंकि अब संवाद भी बोलने थे, सिर्फ अभिनय से काम नहीं चलने वाला था।

लेखक कहते हैं कि जब पहली बार सिनेमा में आवाज को स्थान दिया गया, तो सिनेमा में काम करने के लिए पढ़े-लिखे अभिनेता-अभिनेत्रियों की जरूरत को भी महसूस किया जाने लगा क्योंकि अब केवल अभिनय से काम नहीं चलने वाला था, क्योंकि अब संवाद लिखे जाने लगे थे और अभिनेता-अभिनेत्रियों वो संवाद पढ़कर याद कर बोलने पढ़ते थे, इसलिए कहा गया है कि पढ़े-लिखे लोगों की आवश्यकता महसूस होने लगी थी।

मूक फिल्मों के दौर में तो पहलवान जैसे शरीर वाले स्टंट करनेवाले और उछल-कूद करनेवाले अभिनेताओं से काम चल जाया करता था। अब उन्हें संवाद बोलना था और गायन की प्रतिभा की कद्र भी होने लगी थी।

लेखक कहते हैं कि मूक फिल्मों के समय में तो पहलवान जैसे शरीर वाले, करतब करने वाले और उछल-कूद करने वाले अभिनेताओं से काम चल जाया करता था क्योंकि उसमें किसी तरह के संवाद या गीत गाने की आवश्यकता नहीं थी। परन्तु जब सवाक् फिल्में बनाने लगी तो उसमें गीत-संगीत और संवाद को जगह दी गई थी और अभिनेता-अभिनेत्रियों को संवाद बोलने थे यानी की एक प्रभावशाली संवाद बोलना जिसको सुनकर दर्शक आकर्षित हों और उन पर बेतरीन असर छोड़ कर जाए और इनमें शामिल किये गए गीत-संगीत को भी कद्र की दृष्टि से देखा जाने लगा था। 

इसलिए ‘आलम आरा’ के बाद आरंभिक ‘सवाक्’ दौर की फिल्मों में कई ‘गायक-अभिनेता’ बडे़ पर्दे पर नजर आने लगे। हिन्दी-उर्दू भाषाओं का महत्त्व बढा़। सिनेमा में देह और तकनीक की भाषा की जगह जन प्रचलित बोलचाल की भाषाओं का दाखिला हुआ।

देह – शरीर

प्रचलित – लोगों की भाषा              

लेखक कहता है कि जब सवाक् फिल्मों में संवाद, गीत-संगीत को महत्त्व दिया जाने लगा तो ‘आलम आरा’ के बाद आरंभिक ‘सवाक्’ दौर की फिल्मों में कई गायक-अभिनेता बड़े पर्दे पर नजर आने लगे अर्थात् वो अभिनेता जो गीत भी गा सकते थे, वह भी सिनेमा पर्दे पर नजर आने लगे। भारत में हिन्दी और उर्दू के तालमेल वाली हिन्दुस्तानी भाषा का प्रयोग बढ़ा। सिनेमा के शरीर और तकनीक की भाषा की जगह लोगों की भाषा फिल्मों में आम-बोलचाल की भाषाओं का प्रवेश हुआ। क्योंकि यह लोगों को अधिक पंसद आती थी, लोग इससे फिल्म के साथ जुड़ाव महसूस करते थे।

सिनेमा ज़्यादा देसी हुआ। एक तरह की नयी आज़ादी थी जिससे आगे चलकर हमारे दैनिक और सार्वजनिक जीवन का प्रतिबिंब फिल्मों में बेहतर होकर उभरने लगा।

प्रतिबिंब – परछाई

लेखक कहते हैं कि सिनेमा में जब से आम बोल-चाल की भाषा का प्रयोग होने लगा तब से सिनेमा ज़्यादा आम जग से जुड़ गया। यह एक तरह की नयी आज़ादी थी, जिससे आगे चलकर आम लोगों की जीवन की परछाई फिल्मों में दिखाई देने लगी। लोगों को ऐसा लगता जैसे की उन्हीं की कहानी प्रदर्शित हो रही हो। वह अपनी ही जीवन से जुड़ी कहानी देख रहे हों।

अभिनेताओं-अभिनेत्रियों की लोकप्रियता का असर उस दौर के दर्शकों पर भी खूब पड़ रहा था। ‘माधुरी’ नाम की फिल्म में नायिका सुलोचना की हेयर स्टाइल उस दौर में औरतों में लोकप्रिय थी।

लेखक कहते हैं कि उस समय जो भी अभिनेता और अभिनेत्री फिल्म में अभिनय कर रहे थे, वे जैसा पहनवा पहन रहे थे और जिस तरह के फैशन का इस्तेमाल किया जा रहा था, उसका असर लोगों पर पड़ रहा था। ‘माधुरी’ नाम की फिल्म में नायिका सुलोचना की हेयर स्टाइल उस दौर में औरतों में लोकप्रिय थी। सभी औरतें उसके जैसा ही हेयर-स्टाइल बनाने लगी थी।

औरतें अपनी केशसज्जा उसी तरह कर रही थीं। अर्देशिर इर्रानी की फिल्मों में भारतीय के अलावा इर्रानी कलाकारों ने भी अभिनय किया था। स्वयं ‘आलम आरा’ भारत के अलावा श्रीलंका, बर्मा और पश्चिम एशिया में पसंद की गई।

केशसज्जा – बाल बनाना

लेखक कहते हैं कि औरतें अपने बालों को उसी तरह बनाने लगी थी जिस तरह अभिनेत्रियाँ फिल्म में बनाया करती थी। अर्देशिर इर्रानी की फिल्मों में भारतीय कलाकारों को ही नहीं इर्रानी अर्थात् दूसरे देश के कलाकार भी अभिनय कर रहे थे। आलम आरा भी वह फिल्म थी जो सिर्फ भारत में ही नहीं सराही गई बल्कि उसे दूसरे देशों में भी उतना ही पसंद किया गया जैसे कि श्रीलंका, बर्मा और पश्चिम एशिया।

भारतीय सिनेमा के जनक फाल्के को ‘सवाक्’ सिनेमा के जनक अर्देशिर इर्रानी की उपलब्धि को अपनाना ही था, क्योंकि वहाँ से सिनेमा का एक नया युग शुरू हो गया था।

लेखक कहते हैं कि जब भारतीय सिनेमा की शुरूआत हुई, तब प्रथम फिल्म बनाने वाले फाल्के को फिल्म जगत का जनक कहा जाता है, जिनसे फिल्मों का आरम्भ हुआ। अब जब सवाक् फिल्में बनाने लगी थी और उसके जनक यानी की उसके पिता अर्देशिर इर्रानी की जो उपल्बधि दी गई थी वह उन्हें स्वीकार करनी  ही थी क्योंकि वहाँ से सिनेमा का एक नया युग शुरू हो गया था। अब सवाक् फिल्में बनाने लगी थी। एक बड़ा परिवर्तन हिन्दी सिनेमा जगत में देखने को मिला था।
 
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जब सिनेमा ने बोलना सीखा पाठ सार

‘आलम आरा’ पहली सवाक फिल्म है। ये फिल्म 14 मार्च 1931 को बनी। इसके निर्देशक अर्देशिर एम ईरानी थे। इसके नायक बिट्ठल तथा नायिका जुबैदा थी। अर्देशिर को इस फिल्म को बनाने के बाद ‘भारतीय सवाक्‌ फिल्म का पिता’ कहा गया। इस फिल्म का पहला गाना “दे दे खुदा के नाम” था। ये फिल्म 8 सप्ताह तक हाउस फुल चली थी।

इस फिल्म में सिर्फ तीन वाद्य यंत्र प्रयोग किये गए थे। आलम आरा फिल्म फैंटेसी फिल्म थी। फिल्म ने हिंदी-उर्दू के तालमेल वाली हिंदुस्तानी भाषा को लोकप्रिय बनाया। इसी फिल्म के उपरान्त ही फिल्मों में कई ‘गायक – अभिनेता’ बड़े परदे पर नज़र आने लगे। आलम आरा भारत के अलावा श्रीलंका, बर्मा और पश्चिम एशिया में पसंद की गई। इसी सिनेमा से सिनेमा का एक नया युग शुरू हो गया था।
 
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जब सिनेमा ने बोलना सीखा प्रश्न-अभ्यास (महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर )

प्रश्न-1 जब पहली बोलती फिल्म प्रदर्शित हुई तो उसके पोस्टरों पर कौन-से वाक्य छापे गए? उस फिल्म में कितने चेहरे थे? स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- देश की पहली बोलती फिल्म के विज्ञापन के लिए छापे गए वाक्य इस प्रकार थे- ‘वे सभी सजीव हैं, साँस ले रहे हैं, शत-प्रतिशत बोल रहे हैं, अठहत्तर मुर्दा इंसान ज़िंदा हो गए, उनको बोलते, बातें करते देखो।’

पाठ के आधार पर आलम आरा में कुल मिलाकर 78 चेहरे थे। परन्तु इसमें कुछ मुख्य कलाकार नायिका जुबैदा नायक विट्ठल सोहरा मोदी, पृथ्वीराज कपूर, याकूब और जगदीश सेठी जैसे लोग भी मौजूद थे।

प्रश्न-2 पहला बोलता सिनेमा बनाने के लिए फिल्मकार अर्देशिर एम ईरानी को प्रेरणा कहाँ से मिली? उन्होंने आलम आरा फिल्म के लिए आधार कहाँ से लिया विचार व्यक्त कीजिए।

उत्तर- फिल्मकार अर्देशिर एम ईरानी ने 1929 में हॉलीवुड की एक बोलती फिल्म ‘शो बोट’ देखी और तभी उनके मन में बोलती फिल्म बनाने की इच्छा जगी। उन्होंने पारसी रंगमंच के एक लोकप्रिय नाटक को फिल्म ‘आलम आरा’ के लिए आधार बनाकर अपनी फिल्म की पटकथा बनाई।

प्रश्न-3 विट्ठल का चयन आलम आरा फिल्म के नायक के रूप हुआ लेकिन उन्हें हटाया क्यों गया? विट्ठल ने पुनः नायक होने के लिए क्या किया? विचार प्रकट कीजिए।

उत्तर- उर्दू ठीक से न बोलने के कारण विट्ठल को फ़िल्म आलम आरा के नायक के पद से हटा दिया गया। पुनः अपना हक पाने के लिए उन्होंने मुकदमा कर दिया। विट्ठल मुकदमा जीत गए और भारत की पहली बोलती फिल्म के नायक बनें।

प्रश्न-4 पहली सवाक्‌ फिल्म के निर्माता-निदेशक अर्देशिर को जब सम्मानित किया गया तब सम्मानकर्ताओं ने उनके लिए क्या कहा था? अर्देशिर ने क्या कहा? और इस प्रसंग में लेखक ने क्या टिप्पणी की है? लिखिए।

उत्तर- पहली सवाक्‌ फिल्म के निर्माता-निर्देशक अर्देशिर को प्रदर्शन के पच्चीस वर्ष पूरे होने पर सम्मानित किया गया और उन्हें “भारतीय सवाक्‌ फिल्मों का पिता” कहा गया तो उन्होंने उस मौके पर कहा था- “मुझे इतना बड़ा खिताब देने की जरूरत नहीं है। मैंने तो देश के लिए अपने हिस्से का जरूरी योगदान दिया है।” वे विनम्र स्वभाव के व्यक्ति थे। उनसे एक नया युग शुरू हो गया।

मूक सिनेमा से क्या तात्पर्य है class 8?

मित्र मूक सिनेमा का अर्थ है संवाद हीन चलचित्र। मूक सिनेमा में केवल अंगों का प्रयोग किया जाता है और संवाद नहीं बोले जाते हैं। मूक सिनेमा की लोकप्रियता धीरे-धीरे कम होती जा रही थी क्योंकि लोगों को पात्रों के केवल क्रियाकलाप ही नजर आते थे। संवाद की कमी नजर आती थी।

मूक सिनेमा से आप क्या समझते हैं?

उत्तर मूक सिनेमा' वे फ़िल्मे होती थीं जिनमें कलाकार अभिनय करते थे। उनकी उछल-कूद, स्टंट आदि हम देखते थे किंतु उनकी हँसी एवं संवाद नहीं सुन पाते थे। इसे ही मूक सिनेमा कहते हैं। लोगों की सवाक् सिनेमा में रुचि बढ़ी और इसकी लोकप्रियता में कमी आती गई।

मूक सिनेमा में क्या नहीं होता है?

मूक सिनेमा में संवाद नहीं होते, उसमें दैहिक अभिनय की प्रधानता होती है। पर, जब सिनेमा बोलने लगा, उसमें अनेक परिवर्तन हुए। उन परिवर्तनों को अभिनेता, दर्शक और कुछ तकनीकी दृष्टि से पाठ का आधार लेकर खोजें, साथ ही अपनी कल्पना का भी सहयोग लें।

मूक फिल्मों में कैसे अभिनेता का चयन किया जाता था?

मूक फिल्मों में कैसे अभिनेता का चयन होता था? एक दम मंजीदा बहुत अधिक पढ़े-लिखे पहलवान जैसे शरीर वाले, करतब दिखाने वाले और उछल-कूद करने वाले।