महात्मा गांधी को ऐसा क्यों लगता था कि राष्ट्रीय भाषा हिंदी होनी चाहिए कोई तीन कारण लिखिए? - mahaatma gaandhee ko aisa kyon lagata tha ki raashtreey bhaasha hindee honee chaahie koee teen kaaran likhie?

महात्मा गाँधी को ऐसा क्यों लगता था कि हिंदुस्तानी राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए?


राष्ट्रीय कोंग्रस ने तीस के दशक में यह स्वीकार कर लिया था कि हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा मिलना चाहिए। गाँधीजी जी भी हिंदुस्तानी को राष्ट्र कि भाषा बनाने के पक्ष में थे। महात्मा गाँधी का मानना था कि हरेक को एक ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जिसे लोग आसानी से समझ सकें। उनका मानना था कि हिंदुस्तानी भाषा में हिंदी के साथ-साथ उर्दू भी शामिल है और ये दो भाषाएँ मिलकर हिंदुस्तानी भाषा बनी है तथा यह हिंदू और मुसलमान दोनों के द्वारा प्रयोग में लाई जाती है।
दोनों को बोलने वालों की संख्या अन्य सभी भाषाओं की तुलना में बहुत अधिक है। महात्मा गाँधी को लगता था कि यह बहुसांस्कृतिक भाषा विविध समुदायों के बीच संचार की आदर्श भाषा हो सकती है: वह हिंदुओं और मुसलमानों को, उत्तर और दक्षिण के लोगों को एकजुट कर सकती है। इसलिए उन्हें हिंदुस्तानी भाषा में राष्ट्रिय भाषा होने के सभी गुण दिखाई देते थे।


वे कौन सी ऐतिहासिक ताकतें थीं जिन्होंने संविधान का स्वरूप तय किया?


अनेक ऐतहासिक ताकतों ने भारतीय संविधान के स्वरूप निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसका विवरण निम्नलिखित प्रकार से हैं:

  1. ब्रिटिश राज: भारत के संविधान पर औपनिवेशिक शासन के दौरान पास किए गए अधिनियम का व्यापक प्रभाव देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए भारतीय संविधान में स्थापित शासन व्यवस्था पर 1935 के भारत सरकार अधिनियम का प्रभाव है।
  2. भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन: संविधान में जिस प्रजातांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष व समाजवादी सिद्धांतों को अपनाया गया उस पर राष्ट्रीय आंदोलन की गहरी छाप है। राष्ट्रीय आंदोलन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कांग्रेस में विभिन्न विचारधाराओं से संबंधित लोग सदस्य थे। उनका प्रभाव संविधान पर देखा जा सकता है।
  3. संविधान सभा का गठन कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार अक्टूबर 1946 ई० को किया गया था। इसके सदस्यों का चुनाव 1946 ई० के प्रान्तीय चुनावों के आधार पर किया गया था। संविधान सभा में ब्रिटिश भारतीय प्रान्तों द्वारा भेजे गए सदस्यों के साथ-साथ रियासतों के प्रतिनिधियों को भी सम्मिलित किया गया था। मुस्लिम लीग ने संविधान सभा की प्रारम्भिक बैठकों में ( अर्थात् 15 अगस्त, 1947 ई० से पहले ) भाग नहीं लिया। इस प्रकार संविधान सभा पर विशेष रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्यों का प्रभाव था। इसके 82 प्रतिशत सदस्य कांग्रेस के भी सदस्य थे।
  4. जनमत का प्रभाव: संविधान का स्वरूप निर्धारित करने में जनमत का भी महत्त्वपूर्ण स्थान था। उल्लेखनीय है कि संविधान सभा में होने वाली चर्चाओं पर जनमत का भी पर्याप्त प्रभाव होता था। जनसामान्य के सुझावों को भी आमंत्रित किया जाता था, जिसके परिणामस्वरूप सामूहिक सहभागिता का भाव उत्पन्न होता था। जनमत के महत्व पर प्रकाश डालते हुए जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, "सरकारें कागजों से नहीं बनती। सरकार जनता की इच्छा की अभिव्यक्ति होती है। हम यहाँ इसलिए जुटे हैं, क्योंकि हमारे पास जनता की ताकत है और हम उतनी दूर तक ही जाएँगे, जितनी दूर तक लोग हमें ले जाना चाहेंगे, फिर चाहे वे किसी भी समूह अथवा पार्टी से संबंधित क्यों न हों। इसलिए हमें भारतीय जनता की आकांक्षाओं एवं भावनाओं को हमेशा अपने जेहन में रखना चाहिए और उन्हें पूरा करने का प्रयास करना चाहिए।"
  5. प्रमुख सदस्यों का प्रभाव: भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा विधि-विशेषज्ञों को संविधान सभा में स्थान दिए जाने पर विशेष ध्यान दिया गया था। सुप्रसिद्ध विधिवेत्ता एवं अर्थशास्त्री बी०आर० अम्बेडकर संविधान सभा के सर्वाधिक प्रभावशाली सदस्यों में से एक थे। उन्होंने संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में सराहनीय कार्य किया। गुजरात के वकील के०के०एम० तथा मद्रास के वकील अल्लादि कृष्ण स्वामी अय्यर बी०आर० अम्बेडकर के प्रमुख सहयोगी थे। इन दोनों के द्वारा संविधान के प्रारूप पर महत्त्वपूर्ण सुझाव प्रस्तुत किए गए।


उद्देश्य प्रस्ताव में किन आदर्शो पर ज़ोर दिया गया था?


13 दिसंबर 1946 को जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा के सामने ''उद्देश्य प्रस्ताव'' पेश किया। इस उद्देश्य प्रस्ताव में निम्नलिखित बातों पर बल दिया गया था:

  1. इसमें यह घोषणा की गई कि भारत एक स्वतंत्र प्रभुसत्ता संपन्न गणराज्य होगा।
  2. भारत राज्यों का एक संघ होगा, जिसमें ब्रिटेन के अधीन रहे भारतीय क्षेत्र, भारतीय राज्य तथा भारत संघ में सम्मिलित होने की इच्छा रखने वाले अन्य राज्य सम्मिलित होंगे।
  3. प्रस्ताव में यह कहा गया कि भारत के समस्त लोगों के लिए सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक प्रतिष्ठा, अवसर तथा न्याय की समानता प्राप्त होंगी। सभी को धर्म, विचार अभिव्यक्ति, उपासना, व्यवसाय आदि की मौलिक स्वतंत्रता होगी।
  4. समस्त अल्पसंख्यकों, पिछड़े व जनजातीय क्षेत्रों एवं दमित व अन्य पिछड़े वर्गो के लिए पर्याप्त रक्षात्मक प्रावधान किए जाएँगे।
  5. भारतीय गणतंत्र के प्रदेश तथा उसकी अखंडता और इसके प्रभुसत्ता संबंधी सभी अधिकारों को सभ्य राष्ट्रों के नियमों तथा न्याय के अनुसार बनाए रखा जाएगा।


प्रांतों के लिए ज़्यादा शक्तियों के पक्ष में क्या तर्क दिए गए?


संविधान सभा में केंद्र व प्रांतों के अधिकारों के प्रश्न पर काफ़ी बहस हुई। कुछ सदस्य केंद्र को शक्तिशाली बनाने के पक्ष में थे, तो कुछ सदस्यों ने राज्यों के अधिक अधिकारों की शक्तिशाली पैरवी की। प्रांतो के अधिकारों का सबसे शक्तिशाली समर्थन मद्रास के. सन्तनम ने किया।

  1. सन्तनम ने कहा कि तमाम शक्तियां केंद्र को सौंप देने से वह मजबूत हो जाएगा यह हमारी गलतफहमी है। अधिक जिम्मेदारियों के होने पर केंद्र प्रभावी ढंग से काम नहीं कर पाएगा। उसके कुछ दायित्व को राज्यों को सौंप देने से केंद्र अधिक मजबूत हो सकता है।
  2. सन्तनम ने तर्क दिया कि शक्तियों का मौजूदा वितरण राज्यों को पंगु बना देगा। राजकोषीय प्रावधान राज्यों को खोखला कर देंगे और यदि पैसा नहीं होगा तो राज्य अपनी विकास योजनाएँ कैसे चलाएगा। उड़ीसा के एक सदस्य ने भी राज्यों के अधिकारों की वकालत की तथा उन्होंने यहाँ तक चेतावनी दे डाली के संविधान में शक्तियों के अति केंद्रीयकरण के कारण "केंद्र बिखर जाएगा"।
  3. सन्तनम ने कहा कि यदि पर्याप्त जाँच -पड़ताल किए बिना शक्तियों का प्रस्तावित वितरण लागू किया गया तो हमारा भविष्य अंधकार में पड़ जाएगा। ऐसी स्थिति में कुछ ही सालों में सारे प्रांत "केंद्र के विरुद्ध" उठ खड़े होंगे।


विभिन्न समूह 'अल्पसंख्यक' शब्द को किस तरह परिभाषित कर रहे थे?


संविधान सभा में विभिन्न समूह 'अल्पसंख्यक' शब्द को अलग-अलग प्रकार से परिभाषित कर रहे थे:

  1. संविधान सभा के मद्रास के बी. पोकर बहादुर ने मुस्लिम समुदाय को अल्पसंख्यक बताया तथा अल्पसंख्यकों के लिए पृथक् निर्वाचन प्रणाली को जारी रखने की माँग रखी। उन्होंने जोर दिया कि इस राजनीतिक प्रणाली में अल्पसंख्यकों को पूर्ण प्रतिनिधित्व दिया जाए।
  2. किसान आंदोलन के नेता और समाजवादी विचारों के समर्थक एनजी रंगा ने देश की दबी-कुचली और उत्पीड़ित जनता को 'अल्पसंख्यक' बताया जिन्हे सामान्य नागरिक के अधिकारों का लाभ भी नहीं मिल पा रहा था। उनका सन्देश विशेष रूप से आदिवासियों की ओर था। उन्हें सुरक्षा का आश्वासन मिलना चाहिए।
  3. आदिवासी समूह के प्रतिनिधि सदस्य जयपाल सिंह ने आदिवासियों को अल्पसंख्यक बताया। उन्होंने कहा कि यदि भारतीय जनता में ऐसा कोई समूह हैं जिसके साथ सही बर्ताव नहीं किया गया है, तो वह मेरा ही समूह है। उन्होंने पिछले 6,000 वर्षों से अपमानित किया जा रहा है, उपेक्षित किया जा रहा है।
  4. दलित समूहों के नेताओं ने दलितों को वास्तविक रूप से अल्पसंख्यक बताया। खाण्डेलकर ने कहा था: हमें हजारों साल तक दबाया गया है।... दबाया गया... इस हद तक दबाया कि हमारेदिमाग, हमारी देह काम नहीं करती और अब हमारा हृदय भी भावशून्य हो चुका है।


महात्मा गांधी को क्यों लगता था कि हिंदुस्तानी राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए?

महात्मा गाँधी को लगता था कि यह बहुसांस्कृतिक भाषा विविध समुदायों के बीच संचार की आदर्श भाषा हो सकती है: वह हिंदुओं और मुसलमानों को, उत्तर और दक्षिण के लोगों को एकजुट कर सकती है। इसलिए उन्हें हिंदुस्तानी भाषा में राष्ट्रिय भाषा होने के सभी गुण दिखाई देते थे।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने राजभाषा से संबंधित लक्षण बताए थे उनमें से गलत क्या है?

आइए जानते हैं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हिन्दी के प्रति विचार... राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है। हृदय की कोई भाषा नहीं है, हृदय-हृदय से बातचीत करता है और हिन्दी हृदय की भाषा है। हिंदुस्तान के लिए देवनागरी लिपि का ही व्यवहार होना चाहिए, रोमन लिपि का व्यवहार यहां हो ही नहीं सकता।

महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता क्यों कहा जाता है?

4 जून 1944 को सुभाष चन्द्र बोस ने सिंगापुर रेडियो से एक संदेश प्रसारित करते हुए महात्मा गांधी को 'देश का पिता' कहकर संबोधित किया था इसके बाद 6 जुलाई 1944 को सुभाष चन्द्र बोस ने एक बार फिर रेडियो सिंगापुर से एक संदेश प्रसारित कर गांधी जी को राष्ट्रपिता कहकर संबोधित किया। बाद में भारत सरकार ने भी इस नाम को मान्यता दे दी।

महात्मा गांधी की लोकप्रियता के क्या कारण थे?

रेडियो जॉकी गौरव कुमार कहते हैं, "गांधी जी के दर्शन में हर समस्या का आसान उपाय सुझाने की क्षमता है. यही वजह है कि वह बेहद प्रेक्टिकल और रेलेवेंट है." स्टूडेंटस की शेल्फ में इंजीनियरिंग और मेडिकल की मोटी तगड़ी किताबों के बीच बापू की जीवनी सत्य के साथ प्रयोग का मिलना अब कोई हैरानी की बात नहीं है.