रहीम के दोहे सुंदर हैं, कवित्वपूर्ण हैं, गहन हैं और भक्ति-रस से परिपूर्ण हैं। रहीम का एक-एक शब्द प्रेम के रस से सराबोर है। कह सकते हैं कि रहीम के दोहे ब्रज की सुवास से परिपूर्ण हैं। जो रहीम दास को पढ़ता है, वह पढ़ता ही चला जाता है – ऐसा शब्द और भाव माधुर्य है उनके काव्य में। हम सब ही स्कूल में रहीम के दोहे पढ़ और याद कर चुके हैं। ये दोहे न सिर्फ़ काव्य में रचे-बसे हैं, बल्कि जीवन जीने की कला भी सिखाते हैं। पढ़ें रहीम के दोहे- Show
ध्यान और वन्दनाजेहि ‘रहीम’ मन आपनो कीन्हो
चारु चकोर। जिस किसी ने अपने मन को सुन्दर चकोर बना लिया, वह नित्य निरन्तर, रात और दिन, श्री कृष्ण रूपी चन्द्र की ओर टकटकी लगाकर देखता रहता है। ह्यसन्दर्भ-चन्द्र का उदय रात को होता है, पर यहाँ वासर अर्थात दिन भी आया है, अत: वासर का आशय है नित्य निरन्तर से। हू ‘रहिमन’ कोऊ का करै, ज्वारी, चोर, लबार। जिसकी लाज रखनेवाले माखन के चाखनहार अर्थात रसास्वादन लेनेवाले स्वयं श्रीकृष्ण हैं, उसका कौन क्या बिगाड सकता है? न तो कोई जुआरी उसे हरा सकता है, न कोई चोर उसकी किसी वस्तु को चुरा सकता है और न कोई लफंगा उसके साथ असभ्यता का व्यवहार कर सकता है। ह्यसन्दर्भ-जुआरी का आशय है यहां शकुनि से, जिसने युधिष्ठर को धूर्ततापूर्वक जुए में बुरी तरह हरा दिया था। ब्रह्मा द्वारा जब ग्वाल-बालों की गाए चुरा ली गयीं, तब श्रीकृष्णजी ने उनकी रक्षा की थी। इसी प्रकार दुष्ट दुःशासन द्वारा साडी खींचने पर आर्त द्रौपदी की लाज श्रीकृष्ण ने बचाई थी। ह अनन्यता‘रहिमन’ गली है सांकरी, दूजो नहि ठहराहि। अमरबेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि। जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह। धनि ‘रहीम’ गति मीन की, जल बिछुरत जिय जाय । प्रीतम छबि नैनन बसी, पर-छबि कहां समाय। जिन आँखों में प्रियतम की सुन्दर छबि बस गयी, वहां किसी दूसरी छबि को कैसे ठौर मिल सकता है? प्रेम‘रहिमन’ पैडा प्रेम
को, निपट सिलसिली गैल। प्रेम की गली में कितनी ज्यादा फिसलन हैॐ चींटी के भी पैर फिसल जाते हैं इस पर । और, हम लोगों को तो देखो, जो बैल लादकर चलने की सोचते हैॐ ह्यदुनिया भर का अहंकार सिर पर लाद कर कोई कैसे प्रेम के विकट मार्ग पर चल सकता है? वह तो फिसलेगा ही।ह ‘रहिमन’ धागा प्रेम को, मत तोडो चटकाय । ‘रहिमन’ प्रीति सराहिये, मिले होत रंग दून । कहा करौ वैकुण्ठ लै, कल्पवृच्छ की छांह। जे सुलगे ते बुझ गए, बुझे ते सुलगे नाहि । टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ
बार । यह न ‘रहीम’ सराहिये, देन-लेन की प्रीति । ‘रहिमन’
मैन-तुरंग चढि, चलिबो पावक माहि । वहै प्रीत नहि रीति वह, नहीं पाछिलो हेत । राम-नामगहि सरनागति राम की, भवसागर की नाव। मुनि-नारी पाषान ही, कपि, पशु, गुह मातंग। राम नाम जान्यो नहीं, भई पूजा में हानि। राम-नाम जान्यो नहीं, जान्यो सदा उपाधि । मित्र – रहीम के दोहेमथत-मथत माखन रहे, दही मही बिलगाय । जिहि ‘रहीम’ तन मन लियो, कियो हिए बिच भौन । जे गरीब सों हित करें, धनि ‘रहीम’ ते लोग। उपालम्भजो ‘रहीम’ करबौ हुतो, ब्रज को इहै हवाल । हरि रहीम’ ऐसी करी, ज्यों कमान सर पूर। ‘रहिमन’ कीन्ही प्रीति , साहब को भावै नहीं। कितना बड़ा आश्चर्य हैॐबिन्दु में सिन्धु समान, को अचरज कासों कहैं। ‘रहिमन’ बात अगम्य की, कहनि-सुननि की नाहि । चेतावनीसदा नगारा कूच का, बाजत आठौ जाम । सौदा करौ सो कहि चलो, ‘रहिमन’ याही घाट । दुनिया की इस हाट में जो भी कुछ सौदा करना है, वह कर लो, गफलत से काम नहीं बनेगा। रास्ता वह बडा ही लम्बा है, जिस पर तुम्हे चलना होगा। इस हाट से जाने के बाद न तो कुछ खरीद सकोगे, और न कुछ बेच सकोगे। ‘रहिमन’ कठिन चितान तै, चिता को चित चैत । कागज को सो
पूतरा, सहजहि में घुल जाय। तै ‘रहीम’ अब कौन है, एतो खेंचत बाय। ‘रहिमन’ ठठरि धूरि की, रही पवन ते
पूरि । लोक-नीति‘रहिमन’ वहां न जाइये, जहां कपट को हेत। सब
कोऊ सबसों करें, राम जुहार सलाम । खीरा को सिर काटिकै, मलियत लौन लगाय। जो ‘रहीम’ ओछो बढे, तो अति
ही इतराय । ‘रहिमन’ नीचन संग बसि, लगत कलंक न काहि । कौन
बडाई जलधि मिलि, गंग नाम भो धीम । खरच बदयो उद्यम घट्यो, नृपति निठुर मन कीन । जैसी जाकी बुद्धि है, तैसी कहै बनाय । जिहि अंचल दीपक दुरयो, हन्यो सो ताही गात । ‘रहिमन’ अँसुवा नयन ढरि, जिय दुख प्रकट करेइ। ‘रहिमन’ अब वे बिरछ कह, जिनकी छाँह गंभीर । ‘रहिमन’ जिव्हा बावरी, कहिगी सरग पताल।। ‘रहिमन’ तब लगि ठहरिए, दान, मान, सनमान । ‘रहिमन’ खोटी आदि को, सो परिनाम लखाय । जिसका आदि बुरा, उसका अन्त भी बुरा। दीपक आदि में अन्धकार का भक्षण करता है, तो अन्त में वमन भी वह कालिख का ही करता जैसा आरम्भ, वैसा ही परिणाम । रहिमन’ रहिबो वह भलो, जौ लौ सील समुच । धन थोरो, इज्जत बडी, कहि,रहीम’ का बात। धनि रहीम’ जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय । अनुचित बचत न मानिए, जदपि गुरायसु गाढि। अब,रहीम मुसकिल पडी, गाढे दोऊ काम। आदर घटै नरेस ढिग बसे रहै कछु नाहीं
। आप न काहू काम के, डार पात फल फूल । एकै साधे सब सधै, सब साधे
सब जाय । अन्तर दावा लगि रहै, धुआं न प्रगटै सोय। कदली, सीप, भुजंग मुख, स्वाति एक गुन तीन । कमला थिर न रहिम’ कहि, यह जानत सब कोय ॐ करत निपुनई गुन बिना, ‘रहिमन’ निपुन हजूर । बिना ही निपुणता और बिना ही किसी गुण के जो व्यक्ति बुद्धिमानों के आगे डींग मारता फिरता है। वह मानो वृक्ष पर चढकर घोषणा करता है निरी अपनी मूर्खता की। कहि ‘रहिम’ संपति सगे, बनत बहुत बहु रीति । कहु ‘रहीम’ कैसे निभै, बेर केर को संग। कहु रहीम’ कैतिक रही, कैतिक गई बिहाय। काह कामरी पामडी, जाड गए से काज । कैसे निबहै निबल जन, करि सबलन सों बैर । कोउ.रहीम’
जहि काहुके, द्वार गए पछीताय । खैर , खुन, खाँसी, खुशी, बैर, प्रीति, मद-पान । गरज आपनी आप सों , रहिमन’ कही न जाय। छिमा बडेन को चाहिए , छोटन को उतपात । जब लगि वित्त न आपुने , तब लगि मित्र न होय । जेरहीम’ बिधि बड किए, को कहि दूषन काढि । विधाता ने जिसे बडाई देकर बडा बना दिया, उसमें दोष कोई निकाल नहीं सकता । चन्द्रमा सभी नक्षत्रों से अधिक प्रकाश देता है, भले ही वह दुबला और कूबडा हो। जैसी परै सो सहि रहे , कहि.रहीम’ यह देह । जो घर ही में गुसि रहे, कदली सुपत सुडील । जो बडेन को लघु कहै, नहि,रहीम’ घटि जाहि । जो रहीम’ गति दीप की, कुल कपूत गति सोय। जो रहीम’ मन हाथ है, तो तन कहुँ किन जाहि। जो विषया संतन तजी, मूढ ताहि लपटात। संतजन जिन विषय-वासनाओं का त्याग कर देते हैं, उन्हीं को पाने के लिए मूढ जन लालायित रहते हैं । जासे वमन किया हुआ अन कुत्ता बडे स्वाद से खाताहै । तबही लौ जीवो भलो, दीबो होय न
धीम। तरुवर फल नहि खात है, सरवर पियहि न पान । थोथे बादर क्वार के, ज्यों रहीम’
घहरात । थोरी किए बडेन की, बडी बडाई होय । दीन सबन को लखत है, दीनहि लखे न कोय । दोनों रहिमन’ एक से, जो लों बोलत नाहि । धूर धरत नित सीस पै, कहु रहीम’ केहि काज। नाद रीझि तन देत मृग, नर धन हेत समेत । निज कर क्रिया रहीम’ कहि, सिधि भावी के हाथ। पनगबेलि पतिव्रता , रिति सम सुनो सुजान । पावस
देखि रहीम’ मन, कोइल साधे मौन। बड माया को दोष यह , जो कबहूं घटि जाय। बड़े दीन को दुःख सुने, लेत दया उर आनि। बडे बडाई ना करें , बडो न बोले बोल । बिगरी बात बनै नहीं, लाख करौ किन कोय। भजौ तो काको मैं भजौ, तजौ तो काको आन। भार झोंकि के भार में, ‘रहिमन’ उतरे पार। भावी काहू ना दही, भावी-दह भगवान् । भूप गनत लघु गुनिन को, गुनी गनत लघु भूप। माँगे घटत, रहीम’ पद , किती करो बढि काम । माँगे मुकरि न को गयो , केहि न त्यागियो साथ । मूढमंडली में सुजन , ठहरत नहीं बिसेखि । यद्यपि अवनि अनेक हैं , कूपवंत सरि
ताल । यह रहीम’ निज संग लै, जनमत जगत न कोय । यह रहीम’ माने नहीं , दिल से नवा न होय । यों रहीम’ सुख दुख सहत , बड़े लोग सह सांति । रन, बन व्याधि, विपत्ति में, रहिमन’ मरे न रोय। रहिमन’ आटा के लगे, बाजत है दिन-राति। रहिमन’ ओछे नरन सों, बैर भलो ना प्रीति। ‘रहिमन’ कहत सु पेट सों, क्यों न भयो तू पीठ। रहिमन’ कुटिल कुठार ज्यों, करि डारत द्वै टूक । ‘रहिमन’ चुप वै बैठिए, देखि दिनन को फेर । ‘रहिमन’ छोटे नरन सों, होत बडो नहि काम । ‘रहिमन’ जग जीवन बडे काहु न देखे नैन । रहिमन’ जो तुम कहत हो, संगति ही गुन होय । तुम जो यह कहते हो कि सत्संग से सदगुण प्राप्त होते हैं । तो ईख के खेत में ईख के साथ-साथ उगने वाले रसभरा नामक पौधे से रस क्यों नहीं निकलता ? रहिमन’ जो रहिबो चहै, कहै वाहि के दाव । ‘रहिमन’ तीन प्रकार ते, हित अनहित पहिचानि । ‘रहिमन’ दानि दरिद्रतर , तऊ जाँचिबे जोग । रहिमन’ देखि बढेन को , लघु न दीजिए डारि । ‘रहिमन’ निज मन की बिथा, मनही राखो गोय । ‘रहिमन’ निज सम्पति बिना, कोउ न विपति-सहाय । ‘रहिमन’ पानी राखिए, बिनु पानी सब सून । रहिमन’ प्रीति न कीजिए , जस खीरा ने कीन । ‘रहिमन’ बहु भेषज करत , व्याधि न छाँडत साथ । कितने ही इलाज किये, कितनी ही दवाइयाँ लीं, फिर भी रोग ने पिड नहीं छोडा । पक्षी और हिरण आदि पशु जंगल में सदा नीरोग रहते हैं भगवान् के भरोसे, क्योंकि वह अनाथों का नाथ है । ‘रहिमन’ भेषज के किए, काल जीति जो जात । रहिमन’ मनहि लगाईके, देखि लेहु किन कोय । ‘रहिमन’ मारग प्रेम को, मत मतिहीन मझाव । रहिमन’ यह तन सूप है, लीजे जगत पछोर । ‘रहिमन’ राज सराहिए, ससि सम सुखद जो होय। रहिमन’ रिस को छाँडि के, करौ गरीबी भेस । रहिमन’ लाख भली
करो, अगुनी न जाय । ‘रहिमन’ विद्या, बुद्धि नहि, नहीं धरम, जस, दान । ‘रहिमन’ विपदाहू भली, जो थोरे दिन होय । रहिमन’ वे नर मर
चुके, जे कहुँ माँगन जाहि । ‘रहिमन’ सुधि सबसे भली, लगै जो बारंबार । राम न जाते हरिन संग, सीय न रावन-साथ । रूप कथा, पद, चारुपट, कंचन, दोहा, लाल । बरु रहीम’ कानन भलो, वास करिय फल भोग । वे.रहीम’ नर धन्य हैं , पर उपकारी अंग । सबै कहा3 लसकरी, सब लसकर कहं जाय । समय दशा कुल देखि के, सबै करत सनमान । समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जात । समय-लाभ सम लाभ नहि
, समय-चूक सम चूक । सर सूखे पंछी उडे, और सरन समाहि । स्वासह तुरिय जो उच्चरे, तिय है निहचल चित्त । साधु सराहै साधुता, जती जोगिता जान । संतत संपति जान के , सब को सब कछु देत । संपति भरम गँवाइके , हाथ रहत कछु नाहि । ससि संकोच, साहस, सलिल, मान, सनेह,रहीम’ । सीत हरत, तम हरत नित, भुवन भरत नहि चूक । हित रहीम’ इतऊ करै, जाकी जहाँ बसात । होय न जाकी छाँह ढिग, फल रहीम’ अति दूर । ओछे को सतसंग, रहिमन’ तजहु अंगार ज्यों । रहीमन’ कीन्हीं प्रीति, साहब को पावै नहीं । रहिमन’ मोहि न सुहाय, अमी पआवै मान बनु । निज बीती – रहीम के दोहेचित्रकूट में रमि रहे, ‘रहिमन’
अवध-नरेस । ए रहीम, दर-दर फिरहि, माँगि मधुकरी खाहि । देनहार कोउ और है , भेजत सो दिन रैन । कौन अपने फल नहीं खाता है?वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते हैं और सरोवर (तालाब) भी अपना पानी स्वयं नहीं पीती है।
तरुवर फल नहिं खात है सरवर पियत न पान इस काव्य पंक्ति के द्वारा रहीम क्या संदेश देना चाहते हैं * परोपकार दान दोनों?तरुवर फल नहिं खात हैं, सरवर पियहिं न पान। कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥ रहीम कहते हैं कि परोपकारी लोग परहित के लिए ही संपत्ति को संचित करते हैं। जैसे वृक्ष फलों का भक्षण नहीं करते हैं और ना ही सरोवर जल पीते हैं बल्कि इनकी सृजित संपत्ति दूसरों के काम ही आती है।
तरुवर फल नहिं खात किसकी पंक्तियां हैं?रहीम के दोहे का अर्थ:
रहीम कहते हैं, हमें पेड़ व सरोवर से शिक्षा लेनी चाहिए। पेड़ अपने फल स्वयं नहीं खाता और न ही सरोवर अपना पानी स्वयं पीता है।
कहि रहीम परकाज हित संपत्ति संचहि सुजान इस पंक्ति में संचहि का क्या अर्थ है?कहि रहीम परकाज हित, संपति-संचहि सुजान॥ अर्थ - वे कहते हैं कि जिस प्रकार वृक्ष स्वयं फल नहीं खाते हैं, सरोवर स्वयं पानी नहीं पीते ठीक उसी प्रकार सज्जन व्यक्ति धन का संचय खुद के लिए न करके परोपकार के लिए करते हैं।
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