जब सिनेमा ने बोलना सीखा पाठ के आधार पर बताइये कि नायक के रूप में सबसे पहले किसका चयन हुआ था *? - jab sinema ne bolana seekha paath ke aadhaar par bataiye ki naayak ke roop mein sabase pahale kisaka chayan hua tha *?

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रस-रजलाकर 





हरिशडूर शर्मा 


प्रकाशक 
रामनारायण लाल 
पब्लिशर ओर बुकसेलर 

इलाहाबाद 


प्रथम संस्करण ] १६४५ [ मूल्श ५) 


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स्वर्गीय मद्दाकवि पं० नाथूराम श्र शर्म्मा 


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िबा्ाशाढाब्ात्राहाबब्ा्ाह्गणब्ाद्ाढाबाबादाकात्र्मद्गणतााहाताह 





#॥82)| 


पूज्य पित॒देव 
महाकवि " श्र ! 
कते 


विमुुक्त आत्मा को 
दरिशकुर 


भूमिका 

पं० दरिशद्भर शर्मा के इस ग्रन्थ की भूमिका लिखने का निमंत्रण 
में अपना सोभाग्य ओर प्रतिष्ठा सममता हूँ। किन्तु इस निमंत्रण 
ने मुके असमंजस में डाल दिया है। इस पुस्तक के अनुरूप भूमिका 
लिखने की योग्यता कहाँ से लाऊँ १ 

भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी कनिष्ठिक्रा पर गोवद्धन उठा लिया । 
साथ के ग्वाल-बालों ने भगवान्‌ की सहायता करने की इच्छा और 
अपने उद्योग की सफलता में पूर्ण विश्वास करके अपनी-अपनी 
लाठियों का सहारा भी लगा दिया ओर इस आ।नन्‍्द्‌-दायक भ्रम में 
मम्न रहे कि वे भगवान्‌ के भार को बंटा रहे हैँ । इस भूमिका को 
लिखकर में भी उन भरमे हुए ग्वालों का अनुकरण कर रहा हूँ। 
मेरी भूमिका इस ग्रन्ध-गोवद्धन के लिए ग्वालों की लाठियों के 
समान ही है । भ्ंथ का भार तो शमोजी ही उठाए हुए हैं । 

ऐसी पुस्तक की भूमिका लिखने में मु्े स्वभावत:ः संकोच द्वोता 
है। भूमिका की आवश्यकता पुस्तक-प्रणेता का परिचय कराने और 
उसके लेखक के अधिकारी होने की साक्षो देने के लिए होती है । 
हिंदी संसार को पं० हरिशक्लर शमी का परिचय देना मेरे लिए 
अक्षम्य ध्रृष्टता होगी । ये साहित्य-सेवा तथा साहित्यिक जीवन दोनों 
में ही मुझसे कहीं श्रेष्ठ हैँ। दिंदी-संसार उनसे उस समय पूर्ण 
परिचित था जब में विश्वविद्यालय की परीक्षाओं से सिर मार रहा 
था। ओर रही उनके अधिकारी लेखक होने को बात--उसके लिए 
ओर कुछ नहीं तो यद्द पुस्तक ही 'स्वतः प्रमाण है । 


[ २ | 

यह ग्रन्थ वास्तव में हिंदी रसों ओर नायिका-भेदों का विश्वकोष 
है। उनसे सम्बन्धित सभी बातें इस पुस्तक में संग्रहीत हैं । किन्तु 
यह केवल संग्रह मात्र नहीं हे। इसमें गम्भीर विवेचना, स्पष्ट 
विश्लेषण ओर युक्ति-युक्त समन्वय भी है। भिन्न-भिन्न आचार्यों 
के मतों को देकर ही विद्वान लेखक ने संतोष नहीं कर लिया, 
प्रत्युत बुद्धिसंगत तकों से उनका कड़ा परीक्षण करके ही उन्हें भाद्य 
या अग्राह्य किया है। प्रत्येक विषय पर भिन्न-भिन्न आचार्यों का मत 
संग्रह करना ही बड़े अन्वेषण, परिश्रम ओर अध्यवसाय का काम 
है। किन्तु जब दम देखते हैं कि उन मतों को किस निर्भीकता और 
विद्वत्ता से जाँचा गया हे, तब हम लेखक की भूरि-भूरि प्रशंसा 
किए विना नहीं रह सकते । 

शास्त्रीय मतों का संग्रह, उनका विवेचन और उनको रखने की 
शैली तो हमें मुग्ध कर ही लेती है, किन्तु जब हम उन असंख्य 
समीचीन उदाहरण्ों को पढ़ते हैं जो उन्होंने प्राचान और अवाचीन 
हिन्दी काव्यों से दिये हैं, तो हम शमोजी की विद्वत्ता ही नहीं किन्तु 
उनके हिंदी साहित्य के विस्तृत ज्ञान को देखकर आश्चय-चकित रह 
जाते हैं । उनसे हमें उनकी सहृदयता और सुरुचि का भी पूर्ण 
परिचय हो जाता है । 

हिंदी साहित्य में इस विषय की एक सस्टेंडड--सव्वेमान्य-- 
पुस्तक की बड़ी आवश्यकता थी। मुमे यह कहने में तनिक भी 
संकोच नहीं हे कि इस अंथ ने उस अभाव की पूर्ति कर दी है। 
काव्य-शास्त्र सम्बन्धी बातों को जानने के लिए अब जिज्ञासुओं को 
भटकना न पड़ेगा। रस, नायिका-भेद और नख-शिख सम्बन्धी बातों 
के ज्षिए विद्वानों और विद्यार्थियों को यही एक पुस्तक पयोप्त होगी। 


[ है |] 

इस पुस्तक की एक और विशेषता यह है कि लेखक का दृष्टि- 
कोण विशाल ओर उदार है। वह किसी “वाद” से “'बद्ध” न होने के 
कारण भिन्न-भिन्न मर्तों को स्वतंत्रतापृषक देखता है। वह दूसरों 
में अपना ही मत नहीं देखना चाहता, किन्तु यह जानने का उद्योग 
करता है कि आचार्या का मत वास्तव में क्या था। साथ ही जहाँ 
उसका मतभेद भी हे, वहाँ उसकी समालोचना सहानुभूति-पूर्ण और 
उदार होती है, जिससे उसके निष्पक्ष होने का पृरा विश्वास हो 
जाता है । 

हिन्दी संसार--माठ-भाषा-भक्त लोगों का दरिद्र-समुदाय--इस 
समय शर्माजी की इस कृति का आंशिक भी मूल्य या पारिश्रमिक 
नहीं चुका सकता। किन्तु जिस साहित्य का आरम्भ “स्वान्त: सुखाय”? 
के मूल मंत्र से हुआ था, उसका विकास भी उसी मंत्र की शक्ति से 
होता रहा है | हिंदी साहित्य इन्हीं साहित्य-सेवियों से पोषित रहा 
है, ओर उनकी तपस्या ही सब प्रकार से उपेज्षिता हिंदी को पल्लवित 
ओर कुसुमित किए हुए है। इस तपःपूत साहित्य में यह गंथ-- 
जिसकी श्रेणी का ग्रंथ दो-चार पीढ़ियों में कहीं एक बार तैयार द्ोता 
हे-स्थायी स्थान पाएगा। 


पं० हरिशद्भुरजी शर्मा रसवादी हैं। वे पाश्चात्य साहित्य से 
इतने प्रभावित नहीं हुए कि 'रस” को भूल जाये या उसके महत्त्व को 
भुला दें । हमारे आचार्या ने काव्य का इतना सूक्ष्म अध्ययन और 
विश्लेषण किया है कि उसे पढ़कर आश्चये-चकित रह जाना पड़ता 
है। पाश्चात्य देशों में विद्वानों ने इस ओर अपेक्षाकृत बहुत कम 
ध्यान दिया । अतएवं वहाँ इस विषय पर समीचीन विचार ही नहीं 
हुआ । जो लोग पाश्चात्य साहित्य को आदशे मानते और वहाँ की 


[ ४ ] 

साहित्यिक “मान्यताओं” को वेदवाक्य सममते हैं; उन्हें इस विषय 
का महत्व समकने ओर स्वीकार करने में मानसिक कठिनाई द्वोती 
है। शरमोजी ने जिस योग्यता और विद्वत्ता से रसों का सांगोपांग 
शास्त्रीय तथा वैज्ञानिक विवेचन किया है, उसे पढ़कर, आशा है कि 
हमारे वे मित्र भो जो पाश्चात्य विचारों से प्रभावित हैं, रस-सिद्धान्त 
को समझ सकेंगे । रस के सिद्धान्त का ग्रतिपादन और श्रृद्धार रस 
का विश्लेषण इस पुरतक के विशेष पठनीय भाग हैं। लेखक ने 
केवल प्राचीन आचाये। का सहारा नहीं लिया, प्रत्युत उसने अकाटय 
प्रमाणों से रस के सिद्धान्त का निरूण और प्रतिपादन किया है । 
इसे पढ़ने के बाद साधारण व्यक्ति को भी रस का सिद्धान्त हस्ता- 
मलक हो सकेगा । 

आशा हे, हिन्दी संसार में इस अमूल्य पुस्तक का समुचित 
आदर होगा, ओर इसके द्वारा हमारे साहित्य-शासत्र के एक महत्त्वपूर्ण 
अंग का ज्ञान साढदित्य-प्रिय जनता को सुगमता से हो सकेगा । इस 
विषय के उच्च विद्यार्थियों के लिए तो यह पुस्तक वरदान के समान 
प्रमाणित होगी। पं० दरिशक्लुरजो शर्मा ने _इस पुस्तक का निर्माण 
कर हिंदी की अमूल्य ओर चिरस्थायी सेवा की है । 


( एभ० ए० लन्दन ); 
इन्सपेक्टर आव स्कल्स; 


श्रीनारायण चतुर्वे 
आगरा | जे दी 
भूतपूब शिक्षा-प्रधार आफ़िवर, यू० पी० 


रामनवमी, २००२ वि० 


दो शब्द 

श्री पं० हरिशक्लुर श्मों कृत इस वृहत्‌ रस-प्रन्थ को देखने का 
श्रवसर मुझे प्राप्त हुआ । देखकर बड़ी प्रसन्नता हुईं | हिन्दी साहित्य 
में रस निरूपण-परक अनेक रचनाएँ हो चुकी हैं, परन्तु यह ग्रन्थ 
अपने ढंग का निराला है | इसके पढ़ने से ग्रन्थकार के विशिष्ट 
स्वाध्याय और रस-सम्बन्धी व्यापक ज्ञान का अनायास ही परिचय 
प्राप्त हो जाता है। संस्कृत के आचाये ने रस को 'अनिवचनीय!' 
कहा है, परन्तु शमोजी ने अपने अनुभव के बल पर इस “अनिवेच- 
नीयता!” की जो निवेचन-विधि अपनायी है, वह मुक्त कण्ठ से सराहना 
करने योग्य है। शमाजी की प्राजल लेखन-शैली के पुण्य-प्रवाह में 
डूबता-उतराता हुआ पाठक बड़ी सरलता से, दुरूह रस-रहस्य को 
समभने में समथ हो सकता है । 

इस ग्रन्थ में रसराज--शवृ गार को ही प्रधानता दी गई है, इस 
विषय में शर्मांजी राजाजी के पक्के अनुयायी प्रतीत होते हैं। 
( 'राज़ा तु हंगारमेवैके रसमाह'---सरस्वती कण्ठाभरण । वयंतु 
श्षगारमेव रसनाद्रसमामनाम: इत्यादि )-परन्तु साथ द्वी इससे 
अन्य रसों की महत्ता कम नहीं होने पाई। इस अन्ध में नायिका-भेद 
का विस्तृत वणन है, परन्तु उसने श्लीलता की सीमा का कहीं भी 
उल्लंघन नहीं किया । जो विषय सभ्य-समाज ने इतना उपेक्षणीय 
सममभ लिया था, उसे शर्माजी ने जिस मनोहारिणी पद्धति से उपन्यस्त 
किया है, उसे देखकर यदि “नायिका भेद' का जीणोद्धार कद्दा जाय 
तो अतिशयोक्ति न होगी। 


[ $ | 

पुस्तक की लेखन-शैली ने मुझे; बहुत प्रभावित किया। विशेष कर 
इसलिए कि उसमें रस-सिद्धान्तों को शाब्दिक जगड़वाल में न डाल 
कर, बड़ी सरलता और सुन्दरता से सममभाया गया है। ग्रन्थ के 
विचार बड़े साफ़ ओर सुलमे हुए हैं। प्रायः ऐसी पुस्तकों में भावों 
के स्पष्टीकरण की अपेत्षा शब्दाडम्बर ही अधिक होता है, परन्तु 
इस ग्रन्थ में यह बात नहीं है। इसमें बड़ी सरलता, साधुता और 
सुस्पष्टता का आश्रय लिया गया हे। पुस्तक के प्रारम्भ में ग्रन्थकार 
ने रस-सम्बन्ध में जो युक्तियुक्त और प्रमाणपूर्वेक मत प्रद्शन किया 
है, वह बड़ा ही सुन्दर है। जिस करुण रस के देखने से सामाजिक 
के हृदय को वेदना दोती है, उसे बार बार वह क्यों देखता हे, इस 
तथा ऐसे ही अन्य प्रश्नों के समाधान शम्माजी ने बड़ी ही खूबी 
ओर विद्वत्ता से किये हैं । 


प्रत्येक रस के प्रारम्भ में लेखक ने जो मनन्‍्तव्य प्रकट किये हैं, 
वे प्रशंशनीय एवम माननीय हैं। उदाहरण भी बड़े सुन्दर और 
काव्यमय दिये गये हैं। न मालूम इनकी खोज में शमाजी को कितने 
अन्थों के पन्ने उलटने पड़े होंगे। मेरी राय में जहाँ यह नवरसों के 
निरूपण का गअन्थ है, वहाँ उसे ब्रज॒भाषा-काव्य-साहित्य का भाण्डार 
भी कहा जाय तो अनुचित न होगा। क्योंकि इसमें अधिकतर 
उदाहरण त्रजभाषा के प्रसिद्ध कवियों के ही हैं। अनावश्यक और 
अप्रासद्धिक बातों को इस ग्रन्थ में स्थान नहीं दिया गया। जो विवरण 
या वर्णन हैं वे अत्यन्त संज्षिप्त ओर सारयुक्त हँँ। यह इस ग्रन्थ की 
बहुत बड़ी विशेषता है । 

एक बात और--इस ग्रन्थ के निर्माण में संस्कृत के प्रायः सभी 
ग्रामाणिक साहित्य-अन्थों का किसी न किसी अंश में आश्रय लिया 


[ ७ ] 

गया है, ओर विविध आचाये' के मत-भेद को बड़ी उत्तमता से 
प्रदर्शित किया है। साथ ही शमोजी ने अपना स्पष्ट मत प्रकाशित 
करने में भी संकोच नहीं किया। गअन्थ में स्थान-स्थान पर लेखक की 
निष्पक्षता, <दारता और आचार्यों के प्रति प्रतिष्ठा-भावना के भली- 
भाँति दशेन होते हैं । इस युग में जबकि प्राचीनता के विरुद्ध एक 
युद्ध-सा छिड़ा दिखाई देता हे, ऐसी युक्तियुक्त, प्रमाणपूर्ण प्राचीनता- 
पोषक पुस्तक की रचना, सचमुच बड़े सोभाग्य की बात है। मुझे 
विश्वास है कि हिन्दी साहित्य-समाज में श्री हरिशद्भुर शमों के इस 
ग्रन्थ-रत्न का यथेष्ट आदर होगा और वह एक बहुमूल्य कृति समभी 
जायगी। 

उन्‍मीलत्‌ू कमनीयकोमलपदन्यासा: सहासा: स्फुर- 

च्छज्ञारादिरस श्रपंचितसुधामाधुयधुयो:. परम्‌ । 

श्रीमद्धि: हरिशद्डूरविरचिता: भावोज्ज्वला: सूक्तय- 

श्चेत:कस्य न मज्जयन्ति सहसा ब्रद्मप्रमोदाणेवे | 


हरिदत्त शर्मा ( एम० ए०, शास्त्री ) 
[ न्‍्याय--वैशेषिक - सांख्य--योग -- वेद--काठ्य -- व्याकरण और 
तके-तीथे ; वेदान्ताचाये ; व्याकरणाचाये ; 

साहित्याचाये ; आयुर्वेदाचाय ; इत्यादि ] 


निवेदन 


'रस-रत्लाकर' नामक मेरी यह तुच्छ कृति हिन्दी जगत के सामने 
है। इसमें जो कुछ है, वह प्राचीन और नवीन आचार्यों का ही है । 
मेरा कुछ नहीं । सारी सामग्री को यथास्थान रखने में जो परिश्रम 
हुआ है, कठिनता से वही मेरा कहा जा सकता है । निःसन्देह ऐसी 
पुस्तकें लिखना विद्वानों का काम हे, परन्तु 'क़लम का मजदूर” होने 
के कारण में भी उसे करने लगा। मज़दूर को तो काम चाहिए-- 
चाहे वह इंटें उठाना हो; चाहे ग्रन्थों को सँभाल-सँभाल कर अल- 
मारियों में लगाना । इस प्रकार के काम हाथ में लेना मेरा दुस्साहस 
मात्र ही हो सकता है। परन्तु अब इसके लिये क्या कहूँ; अनधिकार 
चेष्टा का छुद्र परिणाम आपके सामने हे । 

इस पुस्तक के लिखने में मुझ से अनेक भूलें हुई होंगी, जिनके 
लिए मैं अल्पज्ञ होने के कारण कझ्षन्तव्य हूँ। यहाँ में यह निवेदन 
अवश्य कर देना चाहता हूँ कि पुस्तक-प्रणयन में प्रमाद से काम 
नहीं लिया गया, इसलिए उसमें जो भूलें हैँ, वे मेरे परिश्रम की नहीं, 
अयोग्यता या अज्ञान की ही हैं। जिन ग्रन्थों या महानुभावों से इस 
पुस्तक की रचना में मेंने कुछ भी सहायता प्राप्त की है, उनके लिए 
मैं हृदय से अत्यन्त आभारी ओर कऋृतज्ञ हूँ। मेरा क्या है, इसमें 
जो कुछ है, वह दूसरों का ही है । में तो 'ठुक-पिटकर' योंही 'पुस्तक- 
अणेता? बन गया हूँ। अस्तु । 


[ ६ ] 

आगरे के सुप्रसिद्ध साहित्य-सेवी विद्वद्दर श्री पं० केदारनाथ 
भट्ट, एम० ए० का में अत्यन्त कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने इस पुस्तक के लिखने 
में अपना विद्वत्तापूण परामशे प्रदान किया। सुहृद्दर पं० यज्ञवृत्त 
शमा उपाध्याय तो प्रारम्भ से अन्त तक--लगातार कई मास- मेरे 
इस दुष्कर कार्य-साधन में सच्चे साथी और सबल सहायक की तरह 
सतत संलग्न रहे, शअ्रत: इनके प्रति अपनी कृतश्ञता के भाव प्रकट न 
करना अन्याय दोगा । 

सुप्रसिद्ध साहित्य-वेत्ता, कवि और काव्य-ममेज्ञ विद्वददर 
श्री पं० श्रीनारायण चतुर्वेदी, एम० ए० ( लन्‍्दन ); और आचाय॑-प्रवर 
श्री पं० हरिद्त्त शमी शास्त्री एम० ए०, सप्ततीथ का में बड़ा आभारी 
हूँ, जिन्होंने अनेक कार्या में व्यस्त रहते हुए भी, मेरी प्रार्थना पर, 
इस पुस्तक के फर्मो' को पढ़ने का कष्ट उठाया और "भूमिका? तथा 
'दो शब्द लिख देने की कृपा की । 

अन्त में में श्री ला० वेशीमाधव अग्रवाल ( मालिक फ़र्म राम- 
नारायण लाल, पुस्तक-प्रकाशक और विक्रता) को धन्यवाद देता 
हूँ, जिन्होंने काराज़ की इस महंगाई में, इतनी बड़ी पोथी को प्रकाशित 
करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया। सच तो यह है कि यह 
कार्य लालाजी के आग्रह ओर अनुग्रह से ही सम्भव और सम्पन्न 
हो सका है । 

पुस्तक श्रयाग में मुद्रित हुई और में आगरे में रहता हूँ। प्रूफ 
मेरे पास आते रहे । ऐसी दशा में मुद्रण सम्बन्धी अशुद्धियों का 
रह जाना स्वाभाविक द्वी है । फिर लगभग दो सौ प्रृष्ठों के प्रफ़- 
संशोधन की व्यवस्था तो प्रयाग में ही हुई , अतः मुझे उनको देखने 
का अवसर नहीं मिज्ञा। आशा है, सहृदय पाठक छापे की और 


[ १० ] 

मेरी भूलों का संशोधन करते हुए, इस पुस्तक को पढ़ेंगे। काग़ज़- 
कंट्रोल सम्बन्धी कानूनी कठिनाइयों के कारण पुस्तक के नये प्रकरण 
नये पष्ठों से प्रारम्भ नहीं किये जा सके, इससे प्रतिपाद्य विषय का 
उचित वर्गीकरण नहीं हे! पाया | यह मजबूरी थी । अस्तु । 

इस पुस्तक में यदि कोई गुण दे तो उसका श्रेय विद्वान्‌ आचार्यों 
को है; और दूषण का भागी में हूँ। मेरी विनम्र बिनती है कि 
जिन शन्दों ओर जिस भावना के साथ में अपनी इस तुच्छ रचना 
को पाठकों की सेवा में रख रहा हूँ, उसी दृष्टिकोण से वह देखी 
ओर अपनायी जाय। यदि इस पुस्तक से साहित्य की अखुमात्र 
भी सेवा हो सकी तो में अपने परिश्रम को साथक और सफल 
सममूँगा । 


अआागरा 
अक्षय तृतीया हरिशक्षर शर्मा 
२००६२ 


विषय-सूची 


काव्य की मद्दत्ता १ भावोदय श्ष् 
रस क्‍या है श्८ भावसन्धि भ्द्‌ 
हलक की लोकोत्तरता रै४ भाव शवलता भ््ज 
रसों की उत्पत्ति ८ 
रस विरोध और मैत्री ४५ हर बह रीतियाँ न 
रस ओर संचारी भाव ४६ खत, ई र रीतिया ६२ 
रसें के सूच्म भेद ४७ रस और सज्जलीत ६५ 
भाव तथा रसाभासादि ४६ श्रद्शञार की रसराजता. ६८ 
भावशान्ति ४५ भक्ति रस ८ 
विभाव 
१--आलम्बन 
नायक-- <६ मानी ध्प 
नायक के भेद ओ्रोषित ६६ 
पति 2 नायक के स्वभाषान्नुसार 
भेद झभोर गुण 
पति के भेद धीरोदात्त . १०१ 
अनुकुल ८६ धीरोद्धत १०१ 
दक्षिण ६० धीर ललित १०१ 
झट ६२ धीर प्रशान्त १०१ 
राठ ९२ नायकों के सात्विक गुण 
अनभिश् ६३ शोभा १०२ 
उपपति ९४ विलास १०२ 
उपपत्ति के भेद्‌ माधुये १०२ 
वचनचतुर ६५ गाम्भीये श्व्र 
क्रियाचतुर ६६ थैये या स्थैये १०२ 


बेशिक ध्प् रेज १०९ 


[ २ ] 


ललित १०२ 
ओदाये ५ १०३ 
नायिका वर्णन-- १०४ 
नाथिका-मेद 
धर्मानुसार 
स्वकीया १०६ 
स्वकोया के भेः 
ध्यायु के ध्यनुसार 
मुग्धा १०८ 
मुग्धा के भेद 
अज्ञात योवना १११ 
ज्ञात योवना ११३ 
झातयोघना के भेद 
नवोढ़ा ११४ 
विश्रब्ध नवोढा ११५ 
प्रध्या ११७ 
मध्या के भेद 
मध्या धीरा ११६ 
मध्या, धीराधीरा १२० 
मध्या अधीरा १२२ 
प्रौद्ा या प्गटभा १२३ 
प्रोढ़ा के भेद्‌ 
रति प्रीता १२४५ 
आनन्द सम्मोहिता १२६ 
प्रौद्ा धीरा १२७ 
प्रौद्दा धीराधीरा श्श्८ 
भ्रौढ़ा अधीरा १२६ 


मध्या ओर प्रोढ़ा के 


ध्यन्य भेद 
अन्य सुरत दुःखिता १३१९ 
गरविता १३३ 
गधिता के भेद 
रूप गर्विता १३३ 
प्रेम गविता १३७४ 
मानवती १३४ 
स्वक्रीया के विशेष भेद 
ब्येष्ठा और कनिष्ठा. १३६ 
स्मरान्धा १३७ 
गाढ तारुण्या १३७ 
समस्त रति केविदा १३७ 
भावोशन्नता १३७ 
द्रत्नीढ़ा १३७ 
आक्रान्त नायका २१३७ 
परकीया १३७ 
परकीया के भेद 
ऊढा १३९ 
अनूठा १७०० 
ध्यनूढा के मेद 
उद्‌ बुद्धा १७४२ 
उद्वोधिता १७२ 
परकीोया के भ्न्य छूट्ट भेद 
सुरत गुप्ता १४३ 
सुरत गुप्ता के भेद्‌ 


भूत सुरत संगोपना १४३ 


[ के ] 


वतेमान सुरत संगोपना १४४ 
भविष्य सुरत संगोपना १४६ 


विदग्धा १४७ 
विदग्धा के भेद 
वचन विदग्धा १४७ 
क्रिया विदग्धा १४६ 
छक्षिता १५० 
लक्तिता के भेद्‌ 
हेतु लक्षिता १४१ 
सुरत लक्षिता १५१ 
कुलटा १५१ 
अनुशयाना १५२ 
घनुशयाना के भेद 
संकेत विधटना या 
प्रथमानुशयाना १४३ 
भावी संकेतनष्टा या 
द्वितीयानुशयाना १४५४ 
रमणगमना या 
तृतीयानुशयाना १५४ 
मुदिता १५६ 
सामान्या अथवा 
गणिका १५७ 
नायिका के भेद्‌ प्ररृत्यनु सार 
वत्तमा १५६ 
सध्यमा १६० 
अधमा १६२ 
नायिका के भेद्‌ 
आति के धतुसार 
पद्मिनी १६३ 


चित्रिणी १६३ 
शंखिनी १६७ 
हस्थिनी १६४ 
परिस्थिति के विचार से 


नाथिकाशों के दस भेद 
प्रोषिपपतिका १६५ 
मुस्धा प्रोषिपपतिका_ १६४ 
मध्या प्रोषिपतिका १६६ 
प्रौद्ा प्रेषिपतिका._ १६७ 
परकीया प्रोषितपतिका १६६ 


खण्दिता १७० 
मुग्धा खगण्डिता १७० 
मध्या खण्डिता १७१ 
प्रीद्दा खस्डिता १७३ 
परकीया खण्डिता १७४ 
कलहान्तरिता १७५ 


मुग्धा कलहान्तरिता १७४ 
मध्या कलहान्तरिता १७७ 
प्रीढ़ा कलहान्तरिता. १७८ 
परकीया कलहटद्दान्तरिता १७६ 


विप्रलतव्धा १८० 
मुग्धा विप्रलब्धा १८० 
मध्या विप्रलब्धा १्८२ 


प्रौढ़ा विप्रलब्धा श्पर 
परकीया विप्रलब्धा_ १८४ 
उत्कण्ठिता १८५ 
मुग्धा उत्कण्ठिता १८ 
मध्या उत्कणरिठता १८2 


[ ७ | 


प्रौद्दा उत्करिठता १८६ 
परकीया उत्कण्ठिता १८७ 
वासऋ सज्ना १८८ 
आधा वासक सञ्ञा १८८ 
सध्या वासकसज्ा १८९ 

दा वासक सज्या १६१ 
परकीया वासक सज्जा १६१ 
स्वाधीन पतिका १९२ 
मुग्या स्वाघोन पतिका १६३ 
मध्या स्वधीन पतिका १६४ 
प्रौद़्ा स्वाधीन पतिका १६५ 
परकीया स्वाधीन पतिका “६६ 


अभधिसारिका १९६ 
 मुग्धा अभिसारिका १६६ 
सध्या अभिसारिका १६७ 
ग्रोढ्ा अभिसारिका (६८ 
परकीया अभिसारिका १६६ 
छ्रभिसारिका के झअन्य भेर 


शुक्ताभिसारिका २०० 
कष्णाभिसारिका २०१ 
दिवाभिसारिका २०२ 


प्रवत्स्यत्पतिका २०४ 
मुग्धा प्रवत्ययतपतिका २०४ 
मध्या प्रवत्सयत्यतिका २०६ 
प्रौद़ा प्रवत्य्यत्यतिका २०६ 
परकी या प्रवत्य्यत्पतिका २०८ 
आगत पतिका २०९ 
मुग्धा आगत पतिका २०६ 


सध्या आगत पतिका 
प्रौदा आगत पतिका 


२१० 


११९ 


परकीया आगत पतिका २१३ 
नायिकाशों के सात्यिक 


प्रतनदुगर 
अद्भःन 
भाव 
हदाव 
ह्देला 
अयत्न न 
शोभा 
कान्ति 
दीप्ति 
माधुये 
प्रगल्भता 
ओदाये 
घेय॑ 
स्वाभाविक 
लीला 
विलास 
विच्छित्ति 
विव्वोक 
किलकिचित 
विश्रम 
ललित 
मोद्टायित 
कुटूमित 
विहत 


२२१४ 
२१६ 


२१७ 


ब्श्८ 
२१६ 
२२० 
२२१ 
२२१ 
83828 
२२३ 


सद्‌ 
तपन 
मौग्ध्य 
विक्षेप 
कुतुददल 


सरखा 
सभा के भेद 
पीठ मदे 
विट 
चेट या चेटक 
विदूषक 
सखी 
सरवी के भेद्‌ 
द्वितकारिणी 
व्यंग्य विदग्धा 
अन्तरंगिणी 
बहिरंगिणी 
मसखो के कारये 
मण्डन 
शिक्षा 
उपालम्भ 
परिद्यास 
द्तो 
दूती के भेद 
चत्तमा 


[ ४ ) 


२७४० हसित २७७ 
२४१ चकित २७५ 
हि केलि २४६ 
२४३... भोधक २४९ 
२-उद्दीपन 
२४८ मध्यमा २६२ 
अधमा २६३ 
२४६ दुतो के कम 
२४० विनय २६३ 
२४१ स्तुति २६४७ 
२०२ निन्दा २६४ 
शक किक 
सचघट्टुन २६६ 
विरह-निवेदन २६७ 
सा संघट्टन ध्योर घिरह्ट-निवेदन के 
२४५४ नह 
दा उत्तमा संघट्टन र्द्८ 
प्र उत्तमा विरह निवेदन २६६ 
मध्यमा संघट्टन २६६ 
२५६ मध्यमा विरह निवेदन २६६ 
हर अधमा संघटून २७० 
हे झधमा विरह निवेदन २७० 
४८. स्वयं दूती २७० 
२६० स्थयं दूृती संघटन.. २७१ 
स्वयं दूती विरह- 
२६१ निवेदन २७२ 


फऋतुग्रों के भेद 
वसन्‍त »र होज्ी 
वसन्‍त वर्णन 
प्रीष्म ऋतु वर्णन 
पावस वर्णन 
चषोन्तगेत दिंडोल्ा 


शरद्‌ 


हेमन्त 
शिशिर 


शीतल 


धनुभावष के भेद 
सात्विक अनु भाव 
स्तम्भ 


रवेद 


रोमाग्व 
स्व॒रभंग 


कम्प 
बैवण्ये 


अश्र 
कि 


अलय 
जम्भा 
८ 


[ $॥ ] 
२७३ 


२७४ 
२७७ 
र्पछ 
र्पद 
२६७४ 
श्ध्प 


३०६ 
३१० 
३१० 
३११ 
३१२ 
३१२ 
३१४ 


३०२ 
३०२ 
३०८ 


३०८ 
अनुभाव 


३२२ 
३२३ 
३२७४ 
३२६ 
३२७ 
३२६ 
३२६ 
३३१ 
३३६ 
३३७ 


कायिफ अनुभाव श२३८ 
मानसिक अनुभाव ३३९ 


सन्द्‌ 

सुगन्धित 

तप्त 

तीत्र 

दुगन्धित 
वन 
उपवन 
चन्द्र 
चाँदनी 
पृष्प 
पराग 


आहाये अनुभाव 


२१५ 
३१८ 
३१९ 
३२० 
३२१ 
३४० 


संचागी या व्यभियारी भाष 


परिभाषा 
निर्वेद 
ग्लानि 
शंका 
असूया 
मद 


३४७१ 
३४७४ 
१४६ 
३४७६ 
३४१ 
३५०४७ 
३४७ 
३४६ 
३६२ 
३६६ 
३६८ 


३७० 


अपस्मार 
स्वप्न या सुप्ति 
विवोध 
अमषे 

अब दहित्था 
उम्मता 
मति 
व्याधि 
उन्माद 
सरण 
त्रास 
वितक 
छल 





स्थायी भाव-- 
स्थायी भाष के भेद 
र्ति 
रति के भेद 


लच्तम रति 


[ ७3 ] 


शै७रे 
शै७६ 
इेप 
शे८० 
शे८र 
इप८ा५ 
इणप 
३६१ 
३६४७ 
३६६ 
श्ध्ष 
१९०० 
४०३ 
४०२ 
९०७ 
४९२० 
४१२ 
ेश्प 
४२२ 
छर 
ष्रप८ 
४२० 
४२३२४ 


3३४ 


४७२८ 


४४१ 


मध्यम रति ७५०२ 
अधम रति ४७३ 

हास ७७५ 

हास के भेद 

स्मित छ४७ 
हसित छ्ष्प 
विहसित ४७८ 
उपहसित ७७६ 
अपहसित ४७६ 
अति दृसित ४४० 
शोक ४५० 
क्राध ७५२ 
उत्साह ७५३ 
भय ७५५ 


जुगुप्सा ( ग्लानि ) ४५६ 
आश्चय ( विस्मय ) ७४५८ 
निवेंद या शम ४६० 


रस ( वणन ) 
रस ४६२ 
श्यूद्धार ४६३ 
शडगर के भेद 
संयोग  गार ४६४ 
वियोग ह गार ४६६ 
चियेाग श्टड्भार के भेद 
पूवोनुराग ४६७ 
वशंन के भेद्‌ 
प्रत्यक्ष दशेन ४७० 
चित्र दशेन ४०१ 


[ ८ |] 


स्वप्न दशेन ४जर करुणात्मक वियोग ४८७ 
श्रवण दरशेंन ४५२ धघियेग ज्नित:दस द्शाएं ४८७ 
पूर्वाचुराग के भेद अभिलाषा ४८८ 
नीली राग ४७४ चिन्ता प्प8 
कुसुम्भ राग ४७४ स्मरण ९9६० 
मज्िष्ठा राग ४७४ गुण-कथन ४६१ 
मान ४७४ उद्वेग 9६२ 
मान के भेद प्रलाप ४६३ 
प्रणयमान ४७४ उन्माद ४६४ 
देष्यामान ४७५ व्याधि ४६६ 
ईैष्या मान के भेद जड़ता ४६७ 
लघु मान ४७६ मरण १६ ३० 
मध्यम मान ४७८ मूर्ला ५६६ 
उुरु मान 8४७६ हास्य रस ४९९ 
मान भंग करने के उपाय ४८० द्ास्य ५०६ 
साम ४८० हास्य के भेद ५०६ 
भेद ४८१. करुण रस ५२७ 
दान ४८१ रोद्र रस ५३७ 
नति ४८१ बीररस ५३८ 
उपेक्षा ४८२ घोर रस के भेद 
रसान्तर ४८२ युद्धवीर भ््ध्र 
प्रवास ५9८३ दानवीर श्ध्र 
प्रवास के भेद दयावीर रे 
कार्यवश ४८३ धमंबीर ४५३ 
शापबश ४८७ भेवानक रस 5६५ 
भूत प्रवास ध्प५ अद्भुत रस ५८५ 
भविष्य प्रवास भ८४ शान्त रस ५९६ 
बतेमान प्रवास ४८६ वात्सब्य रस ६०७ 


[ ५ )ै 


नख-सिख वणन-- ६१४ 


पग-तल वर्णन 
पग-वर्णन 
पद-लालिमा 
एड़ी 

पदांगुलति 
पद-नख्र 

गुल्फ 

पिडुरी 

जंघा ( जानु ) 
नितम्ब 

कटि 

नाभि 

उदर 

त्रिवली वर्णन 
रोम-राजि 
क्‌च 
कंचुकी-युत कुच 
कर-तल 
अंगुलि वणन 
कर-नख 

पीठ 

ग्रीवा 

चिद्ुक 

चिबुक का तिल 
अधर 


६१७ 
ध्श्८ 
६२० 
६२१ 
६२२ 
६२३ 
६२४ 
६२४ 
६२६ 
ध्न्फ८ 
६६६ 
६३२ 
६३३ 
६३४ 
६३६ 
६३७५ 
६४० 
६-०० 
६४३ 
६५४४४ 
६४५ 
६४६ 
६४७ 
६८ 
६४० 


दशन 

बाणी 

मुख-राग 
मुसकान 

कपोल 

फपोलों की गाढ़ 
फपोल-तिल 
श्रवण 

नासिका 
नासिका-वेध 
नासिका-भूषण 
लोचन 

भ्कुटी 

भाल 
मुख-मण्डल 
फेश 

अलक 

पाटी 

माँग वण्ेन 

चवेणी वर्णन 
अड्भ-वास वर्णन 
आंग-दीप्ति वणेन 
गति-बणु न 
सवोद्ध वएन 
सुकुमारता वर्णन 
सोलद्द ज्जार वर्णन 


६४% 
६४६ 


६३४७ 
ह्श्ष्र 
६६० 
६६१ 
६६३ 
६६४ 
६६६ 
६६७ 
६्ध्८ 
६५६ 


६3 ७ 


धरे 
घध्पड 
ध्प्प 
६प्य् 
६६१ 
६६३ 
६६४ 
६६६ 
ध्ध्प 


७०३ 


भाग्म्‌ 
काव्य की महत्ता 
“धबिमनीपीः परिभू: स्वयंभूः/ 


म्न्दर शब्द-प्रयाग मनाहर भाव रसीले. 
दूपण-हीन प्रशस्त पद्म भूषण भड़कीले, 
प्रिय प्रसादता पाय मम-महिमा दरसावे. 
रासकों पर श्रानन्द-मुधा-सीकर बरसावे. 
जिनके द्वारा इस भांति की परम शुद्ध कविता कढ़े. 
उन कवराजों का लोक में सुयश सदा 'शड्भूर! बढ़े। 
-- मद्राकवि शकर 


परमात्मा कवि है. उसका काव्य वेद है, जो न कभी नष्ट होता है, 
झौर न जोीण द्वोता है । सदा एक रस बना रहता है । छुन्द वेद का 
एक अंग हैं | वेद म॑ अलंकारों और भव्य भावों की भरमार है। वेदिक 
मन्त्रों का विशुद्ध गान, स्वर्गीय सुख ओर श्रलौकिक सुषमा का स्तोत 
प्रवाहित कर्ता रहता है | सामगान का आनन्द बड़ा ही दिव्य और 
भव्य है। सच्चिदानन्द प्रभु ने सृष्टि के आदि मं, अ्रपने शान के साथ-साथ, 
मनुष्य को काब्यामृत भी प्रदान किया। उसको कविता-कला का उपदेश 
दिया । ईश्वरीय ज्ञान गेट में स्थल-स्थल पर काव्यमय चमत्कार दिखाई 


( २ ) 


देता है | सेकड़ं। मन्त्रों में अलंकारों का प्रयोग किया गया है, और सारे 
बेद में रसों की सुरम्य सरिता बहाई गई है। 

ऋषि-मुनियों की अधिकांश रचनाएँ काव्यमयी हैं।वे हमारे लिए 
उन अ्लोकिक काव्य-पग्रन्थों को छोड़ गए. हैं, जिनकी समता संसार का 
कोई ग्रन्थ नहीं कर सकता । उन महापुरुषों ने ते धर, समाज, ज्येतिष, 
गणित, वेद्यक, शिल्प आदि विपयों तक को अपने अद्भत काव्य-प्रभाव 
से अलोकिक और अमर बना दिया हे। हमारे जगत्‌प्रसिद्ध मद्गाकाब्यों 
के कारण भारत-भारती की गुण-गरिमा का जो प्रसार ओर विस्तार 
हुआ है, वह किससे छिपा है| वाल्मीकि, व्यास, कालिदास आदि महा- 
कवि आज संसार में नहीं हैं, परन्तु उनकी अजरा-अमरा कोति दिगदिगन्त 
ब्यापिनी हो रदह्दी है। कवि-कुल-गुर गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित- 
मानस द्वारा परम पावन भगवान्‌ राम के उच्च आदश के घर-घर की 
वस्तु बना दिया | दुलसीदासजी ने अपनी कविता-कला के प्रभाव 
से जाति को जगाया, और कोटि-कोटि जनता का चरित्र-सुधार 
किया । इसी प्रकार सूर, केशव, विह्दारी, देव, पद्माकर, मतिराम, भूषण 
आदि महाकवियों ने भी अपनी-अपनी काव्य-साधना द्वारा सरस्वती की 
आराधना की | 


जिस काव्य की इतनी महिमा है, वास्तव म॑ वह क्‍या हैं विषय 
पर यहाँ विचार करना कुछ अनुचित न होगा | संसार में शब्द के रूप 
में जो कुछ सुनाई पड़ता हे, वह दो भागों में विभक्त किया जा सकता है । 
अर्थात्‌ ध्वनि और वर्णा | अ्व्यक्त शब्द को ध्वनि और व्यक्त को वर्ण 
संशा दी गई है। कुत्ता, बिल्‍ली, तोता, मैना, कोश्रा, कबूतर श्रादि जो कुछ 
बोलते हैं, वह ध्वनि है। मुरली, वीणा, सितार, मृदंग श्रादि से जो मनो 
मोहक शब्द निकलता है, वह भी ध्वनि है | परन्तु मनुष्य के मंह से जो 
साथंक शब्द निकलते हैं, उन्हें वर्ण माना गया है | ध्वनि और वण दोनों 
के सुनने में आनन्द आता हे। मधुर वीणा-वाद्य या बाँसुरी की सुरीली 
तान मनुष्य तो मनुष्य, पशु-पक्तियों तक को मोहित कर लेती है | जिस 


( $॥ ) 


समय कोई वश्यवाक्‌ कवि वर्णात्मक काव्य-रचना करता है, उस समय 
उसके श्रानन्द का ठिकाना नहीं रहता । 


भिन्न-भिन्न श्राचार्यों ने काब्य के भिन्न-भिन्न लक्षण किये हैं। मम्मटा- 
चाय के मत में शब्दों और श्रर्थों का निर्देषि एवं गुणयुक्त होना 
( उसमे अलंकार हों चाहे न हों ) काव्य हे*्।| भोजदेव की सम्मति में 
निदेष, गुण और श्रलकार युक्त रसात्मक वाक्य काव्य हैरे | पणिडितराज 
जयदेव कहते हैं कि निर्देष लक्षणवती रीति एवं गुण, श्रलंकार समन्वित 
सरस वाक्य ही काव्य हेरे | काव्यालकार में निरदेष, गुण एवं अलंकार 
सहित शब्दार्थों को काव्य माना गया हे» । वाग्भट्वाचाय काव्य उसे 
मानते हैं, जिसके शब्द और श्रथं सरल हों. ओर जो गुण, श्रलंकार ए. 
रीति युक्त तथा सरस हो₹ | परिडतराज जगन्नाथ ने रमणीयाथ प्रतिपादक 
शब्द को काव्य माना हे* | साहित्यदपण के कर्ता कविराज विश्वनाथ 
की सम्मति म॑ रसात्मक वाक्य ही काव्य है" | 

काव्य की उत्कृष्टता उसके अ्रथंगोरव पर निभर है । यह श्रथ 
तीन प्रकार का माना गया है, १--वाच्याथं, २ लक्ष्याथ और 
३- ब्यंग्याथ । 


--' तद॒दोषो शब्दार्थों सयुणावनल्लरूकृतो पुनः क्वापि ” 
-- ' निर्देषि गुणवरकाव्यमल्नड्डारेरलस्कृतम्‌ । 
रसास्मकं क विःकुवन कीति प्रीति च विन्दृति ॥।”” 
३---' निशा पा बच्चणवतोी सरोति गुण मृषिता | 
साब्नक्वारसानेकवृत्तिवाक काव्यनाम भाक |”! 
४--'' अदेषौ सगुणौं साह्नक्ारों शब्दार्थों काब्यम ।”' 
३-- “ साधु शब्द[थ सन्दभ गुणालडझ्लार भुषितम | 
स्फुट रीति रसोापेत काब्यं कुर्वोत कीतये ॥”! 
<६---' रमणीयाथ प्रतिपदकःशब्दःकास्यम ।”? 
७--  रसात्मके याकय काव्यस ।”! 


( ४ ) 


घाज्याय - जेसे--मोहन कहने से जिस व्यक्ति विशेष का बोध हेता' 
है, वह मेहन शब्द का वाच्याथ है ओर मोहन शब्द उस व्यक्ति विशेष 
का वाचक | यह शब्द-व्यापार अभिषधा वृत्त कहाता है | 


सद्यार्थ--जब वाच्याथ वक्ता के अमिलपित भ्रथ से नहीं मिलता, 
तब उससे उसे मिलाने के लिए जो शब्द का निक्रटवर्ती अथथ कल्पित किया 
जाता है, उसे लक्ष्याथ कद्दत हैं |वह शब्द उसका लक्षक कहाता है, 
ओर इस शब्द-व्यापार को लक्षणा ब्ृत्ति कद्दते हैं। जमे--यह सड़क तो 
दिन-रात चलती है । इसमें वक्ता का प्रयोजन वाक्य के वाच्याथ, सड़क 
के चलने से न द्वाकर, उसके ननकटवर्ती ग्रथ सड़क पर चलने वाले 
व्यक्तियाँ-सवारयों आद से है| वाक्य का वाच्पाथ तो बिलकुल निष्प्र 
योजन है. क्योंकि सड़क कभी नहीं चला करती | सड़क पर ग्रादमी दिन- 
रात चलते हैं, यह लक्ष्याथ ही यहाँ इृष्ट है । 

व्यंध्ध।थ--शब्द या शब्दसमूह के वाच्याथ श्रोर लक्ष्याथ दोनों से 
भिन्न प्रतीत होने वाले श्रथ को ब्यंग्याथ, तथा उस शब्द या शब्दसमुदद 
के व्यज्ञक कहते हैं, ओर इस शब्द-व्यापार का नाम व्यज्जना वृत्त हे । 
जैसे - कोई कह्टे " उसके चंद्र पर तो बारह बज रहे हैं ” यहाँ वाच्याथ 
श्रौर लक्ष्याथ दोनों ही से मिन्न यह अर्थ निकलता ६ कि उसके चहरें 
पर उदासी छाई हुई हे । उक्त वाक्य मे बारह बज रहे हैं।यह शब्द-समृह 
व्यज्ञक ओर उदासी छाना इसका व्यंग्याथ हे। 

उत्तम काव्य वह माना गया है, जिसमें व्यंग्याथ की प्रधानता हो | 
मध्यम काव्य में व्यंग्यार्थ गौण रूप से रहता है। जिस काव्य में शब्द 
और श्रथं ( वाच्याथ ) का ही चमत्कार होता है, व्यंग्याथ का नहीं, उसे 
कनिष्ठ या चित्र काव्य कहते हैं । 

उपयंक्त लक्षणों में काव्य की रसात्मकता अथवा रमणीयाथ प्रति- 
पादकता प्राय; सभी आचाया' ने स्वीकार की है | कोई काव्य कितना 
ही निर्देषि ओर अ्रलंकारपू्ण क्‍यों न हो, परन्तु याद उसमें लोकोक्षर 


( ४ ) 


प्ानन्द.दायिनी रसात्मकता नहीं है. तो वह काव्य की कोटि में नहीं 
झा सकता | वस्तुत: रसात्मक काब्य रचने वाले कवि बड़ी कठिनता से 
उत्पन्न होते हैं । किसी ने ठीक कहा हे--'कवबि पेदा होते हैं, बनाए नहीं 
बाते ।? जो लोग अपनी प्रव॒त्ति के प्रतकल परिश्रमपृबंक कविता करने 
लगते हैं, वे कवि नहीं पद्मकार हैं। कविता और पद्म-रचना में बड़ा 
झनन्‍तर हे | कव का कतच्य महान होता है, उसकी ज़िम्मेदारी की हृद 
नह | जिन पंक्तियों में सहृदय-समाज के द्वदय को फड़का देने की शक्ति 
नहीं, जिन/ चमत्कार श्रोर कवित्व का अ्रभाव हो वे कदापि कविता 
नहीं कही जा सकतीं। किसी ने ठीक कहा है-- 


क्रिकवेस्तन काच्येन, 

कि काण्डेन धनुध्मतः:, 
परस्य दहृदये लग्न, 

न ध्णयत यच्छुर: । 


इसी बात को किसी ने निम्नलिखित शब्दों में कहा है-- 


जाके लागत तुग्त द्वी सिर ना इले सुजत्रान। 
ना वह गीत न कवितरस ना वह तान न बान || 


निस्सन्देह धनु्धर का वह वाण और कत्रि की वह कविता ही क्‍या, 
जो दूमरे के हृदय में लगकर उसका सिर न हिलादे | जिस कविता में 
अपने अ्रद्धुत चमत्कार द्वारा प्रवीण पाठकों के सिर हिला देने की क्षमता 
न हो. वह कविता नहीं कही जा सकती | कवि किसी घटना को जिस 
हृष्टि से देखता है, साधारण लोग उसे उस दृष्टि से नहीं देखते। कवि 
की डबल ड्यूटी है-- घटना को उसके वास्तविक रूप में देखकर, द्वदय 
द्वारा उसका अनुभव करना, ओर फिर जैसा स्वयं श्रनुभव किया है, 
वेसा ही उसे दूसरों को भी अपनी प्रतिभा द्वारा अनुभव कराना। सत्काव्य 
के सम्बन्ध में किसी ने क्‍या ही ठीक कद्दा है-- 


( ६ ) 
प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम । 
यत्तय्रसिद्धावयवा तिरिक्त विभाति लावश्यमिवाड्नानाम ॥| 


अर्थात्‌ महाकवियों की वाणी में अभिधीयमान वाच्याथ से अतिरिक्त 
( प्रतीयमान अ्रथ ? एक ऐसी चमत्कृत वस्तु है, जो कुछ इस प्रकार 
चमकती है, जिस प्रकार अड़्ना के अद्भ म॑ दस्तपादादि प्रतिद्ध श्रवयवों 
के अतिरिक्त लावश्य की आ्राभा दिखाई देती है । 


- ढाकुर कवि ने भी कविता की बड़ी सुन्दर व्याख्या की है। देखिये--- 


मोतिन केसी मनोहर माल गुद्दे तुक अ्रच्छुर रीमि रिभावे | 
प्रेम को पन्‍थ कथा दरिनाम की उक्ति अनूठी बनाइ सुनावे । 
“ ठाकुर ” सो कवि भावै हमें जोइ भारी सभा में बड़प्पन पावे । 
पण्डित और प्रवीनन हूँ को जो चित्त हरै सो कवित्त कहावे ॥ 


वास्तव में कवित्त वही है, जो पणिडतों श्रौर प्रवी्णों का चित्त चुरा 
सकता हैं। किसी बात को साधारण ढंग से तो साधारण लोग भी कह 
सकते हैं, तुकयुक्त भाषा में भी वह कह्दी जा सकती है, परन्तु उसे अलो- 
किक रीति से वर्णन करने का विचित्र कोशल कवि में ही होता है | 'श्याम- 
गोर किमि कहों बखानी, गिरा अनयन नयन बिनु बानी” चोपाई में 
जो चमत्कार है, वह “ शअ्रकथनीय हे सुन्दरताई, ताही सों से कही न 
जाई ? में कहाँ ? इसी प्रकार "गिरा अलिनि मुख-पंकज रोकी, प्रगट. 
न लाज निशा अ्रवलोकी ” को देखिये। साधारणु-सी बात को कवि- 
प्रतिभा ने केता चमत्कृत बना दिया | लण्जा के कारण बोल न सकने 
के भाव को कवि ने जिस खूबी के साथ वर्णन किया दे, वह्दी कवित्व हे । 
जिस कवि का मस्तिष्क-मन्दर नवनवोन्मेष शालिनी प्रतिभा प्रभा से प्रदीक्त 
नहीं हुआ, वह किसी वस्तु या घटना का काव्यमय वणन कर ही नहीं 
सकता । 

तपस्विनी सीता श्रशोकवाढठिका में बैठी हैं, महावीर हनुमान राम- 
नामाष्लित श्रंगूठी लेकर वहाँ पहुँचते श्र इच्च पर से उसे नीचे गिरा 


( ७ ) 


देते हैं । सीताजी अंगूठी को उठाकर श्राश्रय से बार बार निरखती-परखती 
ओर मद्दाकवि केशव के शब्दों में उससे पूछ॒ती हैं-- 


श्री पुर में बन म॑ंहि में. तें पुनि करी अ्नीति। 

है मुदरी अब तियन की को करिहे परतीति ॥ 
अरी श्रंगूढी, श्री ( राजलक्ष्मी ) ने तो राम का साथ श्रयोध्या में ही 
छोड़ दिया; बन में में उनका साथ छोड़ कर यहाँ चली आई ! श्रत्र व्‌ भी 
उनके पास नहीं रही ! में त्‌ श्रोर राजलद्मी तीनों ही ख्तरियाँ हैं, तीनों ही 
ने राम के श्रापत्ति पड़ने पर दग्ा दी, तृ ही बता अ्रब स्त्रियों का विश्वास 
कीन करेगा ! उनकी “परतीति” केसे होगी ' कैसा सुन्दर भाव हे। कितना 

निराला ढंग है | बात में से बात पैदा करना इसे ही कह्दते हैं । 


महाकवि केशव अपना काव्य-कोशल यहीं समाप्त नहीं कर देते, वे 
हनुमानजी के मं से सीताजी के प्रश्न का उत्तर भी बड़ी खूबी से दिलवाते 
हैं। सुनिये-- 
कह्दि पूछुति तुम मुद्रिके, मौन ह्ोति यहि नाम | 
ककन की पदई दई तुम बिनया कह राम ॥ 
सीते, तुम बार-बार मुद्रिके कह कर उसे क्‍यों सम्बोधन कर रही 
हो, इस का नाम अब अंगूठी नहीं रहा, इसीलिये वह इस नाम से नहीं 
बोलती । तुम्हारे बिना राम ने इसे कंकण की पदवी दे दी है। शअ्रर्थात्‌ 
वे वियाग-जन्य वेदना के कारण इतने दुबल हो गए हैं, कि किसी समय 
जो चीज़ उनकी उँगलियों म॑ पहनी जाती थी, वह अ्रब पहुँचे में श्रा 
जाती है | इसलिए इस श्रेंगूटी के अब कंकण कहे. अंगूठी कह कर 
उससे कुछु न पूछो । इस नाम से वह न बोलेगी। श्रह्मा ! केसी सुन्दर 
उक्ति है। वियोग-जनित दुब्ंलता का. इस प्रकार अलोकिकता पूवक, 
दिग्दशन कराना महाकवि केशव का ही काम हे। वास्तव में कविता 
यही है । जिसकी प्रतिभा-पहाड़ी से इस प्रकार के भव्य भावों की भागीरथी 
प्रवाहित होती हे, वही मद्दाकवि है | 


( ८ ) 


'ग्रमी हलाइल मद-भरे स्वेत स्थाम रतनार। 
जियत-मरत भुकि-भुकि परत जिहि चितवत इकबआार ॥! 


जिस महाकवि के विशाल मस्तिष्क से यह प्रसिद्ध दोहा निकला हैं, 
उसकी कीर्ति-कल्लोलिनी की विमल धारा को श्रक्षुणण रखने के लिए 
ओर किस साधन की आवश्यकता है ! ये दो पंक्तियाँ ही उसके जीवन 
की विभूति कही जा सकती हैं। वृथापुष्ट पोथों से भी जो बात सम्भव 
नहीं, वह दोहे की इन दो लकीरों ने करके दिखा दी | महाकवि विहारी के 
दोहों के लिये तो प्रसिद्ध ही है-- 


सतसेया को दोहरा नाविक को-सो तीर । 
देखत में छोटो लगे घाव करे गम्भीर ॥ 


सतसई के एक-एक दोहे पर विद्वानों ने प्रष्ठ के पृष्ठ रैंग डाले, फिर 
भी सह्ृदबय-समाज की उत्सुकता का अन्त न हुआ । वह उसके अभिनव 
चमत्कार की चसक के लिए बराबर लालायित बना रहा। सचमुच 
विहारी ने सतसई लिखकर गागर म॑ सागर भरने की कहावत चरिताथ 
की है। दो पंक्तियां में इतना व्यापक ओर गम्भीर भाव लाना बहुत 
ही कठिन काम है | 

भक्त-शिरोमणि घुरदास की भक्ति-भागीरथी मं मजन कर न जाने 
कितने मनुष्य तर गए। कविवर कवीर ने न मालूम कितनों के ज्ञान- 
दान दिया | महाकवि भूषण की वीर वाणी ने शिवराज म॑ विद्य॒च्छुक्ति का 
संचार कर ग्राश्वय जनक काय कर दिखाया। कहाँ तक कहैं. कवियों 
ने श्रपनी कलित कल्पना द्वारा संसार के वह श्रानन्द प्रदान किया है, 
जिसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। कुछ अन्य कवियों को 
यूक्तियाँ भी सुन लीजिय-- 

प्रात:काल पी फटठते ही प्राणनाथ परदेश के पधारंगे, यह जान कर 
विरह-व्यथिता पत्नी व्याकुल हा रही हे--घबरा रही है। उसकी इस 
आकुलता के कविवर रसनिधि कैसे करुण शब्दों में व्यक्त करते हैं-. 


( ६ ) 


आ्राजु सखी हाँ सुनति हों वा फाटत पिय गैौन । 
पौ में हो में हाड़ है पहले फाटत कान ॥ 


अरी सखी. मेंने सुना है कि कल पौ फटते-फटते प्राणशनाथ परदेश 
चले जायेगे | मुझे उनके प्रस्थान की सूचना से बड़ी वेदना दो रही है । 
अब देखना है, पहले पी फटती है या मेरा हृदय विदीण हेता है। 


आगे चल कर रसनिधि के शब्दों म॑ वही स्त्री फिर कहती है --- 


'जिहि बाम्हन पिय-गमन के रूगुन दिया ठटद्दराय । 
सजनी ताहि बुलाइदे प्रान-दान ले जाय ॥ 


पति को प्रस्थान का मुह्त्त बताकर बाम्हन! ने बड़ा बुरा काम किया 
है। उसभओे कदाचित्‌ मेरा ध्यान नहीं रहा, मेरी वियेग-व्यथा के वह 
बिलकुल भूल गया । ग़ेर, उस भले आदमी ने जो कुछ किया, ठीक ही 
किया । सखी, उस बाम्हन से जाकर कहना ता सही कि मुद्दत्त बताने को 
दक्षिणा में एक स्त्री तुमकेा अपने प्राण दान देना चाहती है, जाओ 
लेआ्राओरो । 


्र 4 “कं 


भर 


महाकवि शड्भूर की शक्ति भी सुनिय | देखिये उनकी रूप-गविता 
नायिका क्‍या कहती है -- 
गरानन की झोर चले आबत चकेर मोर, 
दोर-दोर बार-बार बेनी रूथकत हैं । 
ब्रेठ बैठ 'शड्डरर उराजन पे राजहंस, 
हारन के तार तार तार पटकत हैं॥ 
भूम कूम चखन के चूम चूम चज्चरीक, 
लटकी लटन में लिपट लटकत हैं । 
आज इन बैरिन सें बन में बचावे कोन, 
अबला अ्रकेली में श्रनेक अटकत है।॥ 


( १० ) 


सखी क्या बताऊँ. श्राज वेरियों ने मेरे ऊपर बुरी तरह चढ़ाई करदी 
है। चकार मेरे मुह की श्रोर दौड़े चले आ रहे हैं। मोर वेणी के 
पकड़-पकड़ कर बार-बार कटकते हैं चंचरीक मेरी श्रांखों पर मंडला रहे 
हैं | हंसों ने उराजों पर बैठकर मोतियों की माला ताड़नी शुरू कर दी हे । 
हा भगवान्‌, इतने प्रबल वैरियों से में ग्रकेली अबला केसे प्राण बचाऊँ-- 
किस प्रकार आत्मरत्षा करूँ. कुछ समझ में नहीं श्राता | 
छुन्द के शब्दों से इतनो ही बात समझ में आती है, परन्तु ज़रा और 
ध्यान दिया जाय और इन शब्दों मं कविता की आत्मा खाोजी जाय, ता वह 
भी अपने श्रकृत्रिम रूप में विद्यमान है। उपयक्त छुन्द में नायिका के 
अंगों के उपमानों की ओर संकेत किया गया है। इससे उसके सोन्दय का 
अनुमान किया जा सकता है। सुन्दरता-बणुन का क्‍या ही विचित्र प्रकार 
हे। छुन्द के यथार्थ का समझ कर सह्ृदय पाठक की तबीश्र॒त कड़के 
बिना न रहेगी, ओर उसके मुह से अनायास. ही वाह निकल पड़ेगी । 
श्भरजी के निम्न लिखित दोहे भी केसे सुन्दर ई-- 
मारे ब्िरद्द बसन्‍्त के बिरही परे अ्रचेत। 
मृतक जानि “शब्डूर तिन्‍्हें ग्रपम पावक देत ॥ 


>< ८ 
मुदे न राखत दीठि ज्यों खुले न राखत लाज | 
पलक कपाट दुहन के छिन-छिन साधथत काज ॥| 
कह ८ >< | 
एक श्र तेरो बदन चन्द्र दूसरी ओर । 
जात न कितहूँ बीच में नाचत फिरत चकोार ॥ 
>< >९ >< >< 
बाल युवा औ” वृद्ध का सुधा सुरा विष देन। 
काढ़े कंचन कलश कुच रूप सिन्धु मथि मैन ॥ 
>< 2 >< >< 


( रह ) 


सचमुच न ऐसा केई शब्द है, न ऐसा अ्रथ॑ है, न ऐसा के।ई न्याय 
है ओर न ऐसी केाई कला हे, जे काव्य का श्रज्ध न हा । इसीलिए कवि 
पर बहुत भारी भार है। इस सारे भार के उसे अपनी लेखनी की नेक 
पर उढाना पढ़ता है | जे इतनी क्षमता रखता है. वही सच्चा कवि है । 
नस शब्दों न तद्वाच्यं नस न्‍यायोा न सा कला। 
जायते यन्‍न काव्याड्ुमहे भारों महाकवे: 
कविता रमप्रधान हाती हे। रस-चमत्कार ही उसकी सबसे बड़ी 
विशेषता हैं। शब्दाडम्बर युक्त सालड्डार पंक्तियाँ नीरस द्वाने पर उस 
शव के समान है, जिसके बहुमूल्य वस्थाभूषणों से तो अलंकृत क्रिया 
गया है, परन्तु यह किसी ने नहीं देखा कि वह ( शब्दों की ) लाश है-- 
उसमें जीवन का ज्याति नहीं जगमगा रही | 


कभी-कभी कव्रिता को भाधा पर बड़ी बहस छिड़ जाती है। केई 
खड़ी बेली पर अपना सवस्व्र निछावर करता है. और के।ई ब्रजभाषा के 
चार चरणारविन्द का चंचरोक बना हुआ है। परन्तु हम ता समभते हैं, 
भाषा पर विवाद करने की केाई आवश्यकता नहीं हे, रस पर ध्यान देना 
चाहिये। किसी भाषा में भी व्यक्त क्‍यों न हुए हों. चमत्कृत भाव अपने 
आप चमकने लगते हूँ | भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने ठीक ही कहा है - 


जामें रस' कछु होत है ताहि पढ़त सब कोय । 
भाव अनूठा चाहिये भाषा काई होय ॥ 


भाषा पर किसी जाति विशेष का अधिकार नहीं होता । जिस प्रकार 
हिन्दू शायरों ने उद्‌ -फ़ारसी में बढ़िया शायरी की है, उसी प्रकार 
मुसलमान कवियों ने हिन्दी-साहित्य-भाणडार को अपनी अद्भुत कविता- 
कला से अ्र॒लंकृत किया है। कविवर रसखान मुसलमान थे. परन्तु वे 
ब्रजभाषा और ब्ज॑चन्द्र पर श्रसीम अनुराग रखते थे । शञ्राज उनकी 
सरस कविता को पढ़कर सह्ृदय समुदाय अपने को कृताथ समभता हे । 
रसखान के कुछ सवेये तो प्रायः सबही काव्य प्रेमियों की जिह्मा पर दृत्य 


( श#२ ) 


करते रहते हैं । कविवर रहीम के दोहे किस समभदार पाठक को अपनी 
ओर ग्राकृष्ट नहीं कर लेते। ये देहे ग्राज घर-घर में लोकोक्तियों का 
रूप धारण कर चुके हैं | मियाँ नज़ीर ने भी स्वाभाविक सरल कविता से 
अपनी लेखनी के पवित्र किया है । पूराने युग को जाने दीजिये, 
आधुनिक काल में भी मीर. मूनिस, अजमेरी, ज़हरबुश अ्रखझ़्तरहुसेन 
आ्रादि मुसलमान सज्जनों ने हिन्दी माता की अ्रमूल्य सेवा की है । 
अभिप्राय यह कि साहित्य-सेवा में हिन्दू-मुसलमान का प्रश्न नहीं उठ्ता। 
सच्चा काव्य सम्प्रदायवाद स परे है | कवि की विमल वाणी विश्व की 
विभूति होती है | आ्रावश्यकता कवि होने की है ।कवि वही होता है, 
जिस पर परमात्मा अनुग्रह करता है, और जो कविता के संस्कार लेकर 
धरा-घाम पर अ्रवतीर्ण होता है । 


ग्रनुप्रास युक्त पंक्तियों का ही नाम काव्य नहीं हे. रसात्मक गद्य की 
गणना भी काब्य में की गई है | काव्य ओर संगीत का घनिष्ठ सम्बन्ध 
होने के कारण ही सानुपास काव्य की स॒ष्टि रची गई। वतुकहीन काव्य 
गानात्मक न होने के कारण राग-रागिनियों स विराग कर बेठता हे. 
ग्रतएव उसके लिए सानुप्रास भाषा की ही आवश्यकता है। साहित्य 
श्रोर सगीत का बढ़ा सुन्दर समन्वय दे | दोनों के एकन्न होने पर सोने 
में सुगन्ध की लोकोक्ति चरिताथ हो जाती है | 'साहित्य सगीत कलाविहीन' 
लोगों को भतृहरिजी ने 'पुच्छु विपाण ह्वीन साक्षात्‌ पशु” बतलाया है । 
ग्राचायों ने काव्य के दो भेद किये हैं-- दृश्य काव्य ओर श्रव्य 
काव्य । नाटकों की गणना दृश्य काव्यों में हे, और रामायण महाभारत 
आदि श्रव्य काव्यों के अन्तगंत समझे जाते हैं। साहित्य-शास्र सम्बन्धी 
ग्रन्थों मं सबसे पहला ग्रन्थ भरत मुनि का नाटयशास्त्र भाना जाता है । 
अन्य रीति-ग्रन्थों की सृष्टि इसी शासत्र के आधार पर रक्नी. गई है । 


जिस प्रकार सुन्दर आभूषणों से किसी स्वभाव-सिद्ध सुन्दरी की कान्ति 
बढ़ने में सहायता मिलती है, उसी प्रकार श्रलंकारों कौ श्राभा से कविता- 


( ९३, ) 


कामिनी का कलित कलेबर जगमगा उठता है। कविता सच्चे हृदय का 
अकृत्रिम उदगार है। वह कानों के परदों के। पार करती हुई, सदहृदय 
श्रोता के अ्रन्तस्तल तक पहुँचती है । रसिक-समाज को मुट्ठी में कर 
लेना वश्यवाक कवि के बाएँ हाथ का खेल है | कविता के लिए छुन्दोशान 
होना भी ग्रावश्यक हे, परन्तु जेसा कि ऊपर कहां गया छुन्द की विशुद्धता 
दी कविता की कमोटी नहीं हे। छुन्द.शास्र तो नाप तोल का विषय है। 
उसमें तो वे लोग भी अ्रभिज्ञता प्राप्त कर सकते हैं, जिनमें कवित्व शक्ति 
उचित मात्रा में नहीं पाई जाती | 
आ्राज कल कवियों की भरमार है | कवि द्वोने के लिए जिन गुणों 

की श्रावश्यकता है. उनके विना हीं कवि बनजाना सचमुच बढ़े आश्रय 
की बात है। बहुत-सी पद्म रचना करने या मोटे पोथे लिखने से ही 
कोई कवि नहीं हो सकता | कविता के लिए तबीअ्रत पर जब्न करने की 
ज़रूरत नहीं है । हृदय के उदगार अपने आप निकला करते हैं। तबीअ्र॒त 
तो हाजिर नहीं, मगर शायरी का शौक़ सवार हे. ऐसी हालत में क्या ख़ाक 
शेर कहे जायेंगे | किसी ने खूब कहा हे-- 

गौहरे मज़मूं निकलते हैं मगर बेआबदार, 

जबकि दरिया ए-तबीग्रत जोश पर होता नहीं । 

कविता के लिए दरिया-ए-तबीअ्रत को खुद ब खुद जोश पर आने 

की ज़रूरत है| ढठोक-पीट कर वेद्यराज बनने से काम नहीं चलता | श्राज 
कल कुछ लोग कविता को व्यापार की वत्तु समझने लगे हैं। दाम दे-दे 
कर वे इस देवी को खुश करना चाहते हैं | कवितादेवी को द्र॒व्य-दासी 
होने से बचाना चाहिये | इससे उसका श्रपमान होता हे। कविता द्वारा 
कवि को अ्रनायास ही घन-प्राप्ति हो जाय तो दो जाय, परन्तु वह इस 
विचार से न लिखी जानी चाहिये । इस दृष्टि से वह लिखी भी नहीं जा 
सकती | महाकाव अकबर ने बिलकुल ठीक कहा है-- 

उश्शाक को भी माले तिजारत समभ लिया, 

इस कृदर का मुलाहिज़ा लिललाह कीजिये । 


(५ र४ ) 


भरते हैं मेरी आह को फ़ोनोगिराफ़ में, 
कहते हैं फ़ीस लीजिये और ञआह कीजिये | 


सचमुच श्राह फ़ीस लेकर नहीं निकला करती, दिल में चुभन या 
टीस होने पर ही वह निकलती है, और अपने आ्राप निकलती है | 

कविता करने की तरह कविता समभना भी बड़ा कठिन काम है। 
इसके लिए भी सहृदयता की आवश्यकता है। पढ़ने या सुनने वाला 
: साहबे दिल ? हं!'ना चाहिये | सद्ददयता नष्ट होने पर कविता का नामो- 
निशान भी बाक़ी नहीं रह सकता । सद्ृददयता ही है, जो कविता को 
जीवित रख रही है | कवि के दृदय की बात को सहृदय ही समझ सकता 
है, चाहे वह कविता की एक पंक्ति भी न लिख सकता हो | चन्द्रमा को 
देख कर जैसा आनन्द चकोर को होता है, वेसा और किसी को नहीं । 


को जाने कबि के बिना कविता को श्ानन्द | 
सुख चकोर को-से| भला किन पाये लखि चन्द || 


हृदयद्दीन श्रोता को - चाहे बह कितना ही विद्वान क्यों न हो-- 
उत्कृष्ट से उत्कृष्ट काव्य सुनाइय, परन्तु उसे कुछु भी आनन्द प्राप्त न 
होगा । ऐसे व्यक्ति को कविता देवी के दशन कराना मैंस के आगे बीन 
बजाने के समान दहै। किसी कवि ने इस प्रकार के शुष्क श्रोताओं से तंग 
आकर ही आनन्द-कन्द सच्चिदानन्द से प्रार्थना की है-- 
इतर कमफलानि यशथेच्छुया, 
विलिखितानि सखे चतुरानन ! 
अरसिकेषु कवित्व निवेदनम्‌, 
शिरसि मालिख, मालिख, मालिख। 


है विधाता ! भले ही तू मुझे नरक में डाल दे, सख्त से सख्त सज़ा 
दे दे, भयंकर से भयंकर दुःखों की अ्रम्मि में तपा ले, चाहे जैसे कष्ठों का 
केन्द्र बना, परन्तु यह दण्ड मत दे कि मेरी कविता हृदयहीन अरसिकों 
के आगे पढ़ी जाय । कोई उपाय नहीं जो अरसिकों को कविता का सौंदर्य 


( १५४ ) 


समभाया जा सके, या उन्हें काव्य का लोकोत्तरानन्द अनुभव कराया जा 
सके | ऐसे ही द्वदयदह्दीन लोगों के लिए शइ्ूूरजी ने कहा है -- 


भरिवा है समुद्र को शम्बुक मं छिति को छिंगुनी पर धघारिवा है, 
बँधिवा हे मृणाल सों मत्त करी जुद्दी फूल सों शैल विदारिवो है । 


गनिवोा है सितारेन को कवि 'शह्ूर! रेनु ते तेल निकारिवोा है. 
कविता समुकाइवे मूढन को सविता गहि भृमि पै डारिवो हे । 


कहने का अ्रभिप्राय यह है कि प्रथम ता संसार में मनुष्य-जन्म पाना 
ही कठिन हे; मनुष्य-जन्म मिल भी गया ता विद्या मुश्किल से हासिल 
होती है, विद्वान भी हो गए ता कविता की श्रोर प्रवृत्ति नहीं होती | 
कविता भी आगई ता कविता की जान - कविल्वशक्ति प्राप्त नहीं होती । 
जिस प्रकार कवि होना कठिन है. उसी प्रकार काव्य-ममज्ञ होने के लिए 
भी परमात्मा के ग्रनुग्रह की ग्रावश्यकता है। कवि को लेखनी में बढ़ी 
शक्ति होती है। उसके कुलम की नेक बड़ी-बढ़ी क्रान्तियाँ कराने में 
समथ हुई है, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक श्रादि सभी क्षेत्रों में वह 
समान रूप से चलती है | इसीलिए कवि का इतना ऊँचा पद माना गया 
है। उसे कवीश्वर और कविराज की उपाधि दी गई है । 


जिसकी उपासना परमात्मा तक ने को हो, जिसको सत्ता-महत्ता से 
सृष्टि का प्रत्येक परमाणु ओोत-प्रोत हो, जिसकी अभ्रपूव श्राभा प्रकृति के 
वन, उपवन, पुष्प, लता-पताओं से प्रस्फुटित हो रही हो, जिसकी वेदी 
पर श्रादि कवि वाल्मीकि ने श्रद्धाज्ञलि अवित की हो. कालिदास ने मेट 
चढाई हो, तुलसीदास ने प्रेम-प्रसून समर्पित किये हों. उस कवितादेवी 
का पक्का पुजारी बनने के लिए कितनी साधना की श्रावश्यकता है, यह 
बात थोड़ा विचार करने पर ही बड़ी ग्रासानी से समक में आ जाती है। 
कविता के लिए निश्चिन्त होने की बड़ी ग्रावश्यकता है। जिस देश में 
खान-पान और रहन-सहन तक की ययेाचित व्यवस्था न हो, उसमें कवि- 


( १६ ) 


जनेचित प्रतिभा का विकास कठिनता से ही हे सकता है।फिर भी इस 
दरिद्र देश में कवियों का प्रादुर्भाव द्ोता ही रद्दा है । 

पहले ही कद्दा जा चुका हे कि जे कविता केवल घन या यशकप्राप्ति 
के उद्देश्य से की जाती है, वह वास्तविक गुण से हीन हो जाती है, उसमें 
कवि-प्रतिभा का यथेचित विकात और रसका पूण परिपाक नहीं हो 
पाता | तबीअ्रत पर बड़ा दबाब-सा पड़ा रहता हे, एक लिप्सा-सी बनी 
रहती है, जे। कवि के प्रकृत वस्तु की ओर न ले जाकर किसी कृत्रिम 
माग की ओर ढकेलती है। शुद्ध भावना से की गई कविता में दी कवि 
का वास्‍्तविक स्वरूप दिखाई देता है। अक्षर-अ्रक्तर से दृदयोद्गार फूट 
निकलता है। ऐसे प्रतिभाशाली कवि की कीति पताका फहराए बिना 
नहीं रहती । इतिहास साक्षी है कि प्राज्जल काव्य-रचना के कारण कवि 
लेग घन और मान से बराबर सत्कृत किये जाते रहे हैं । 

ग्राथिक दृष्टि से भी कवि देश का बड़ा उपकार करते हैं। तुलसीदास 
के ही देखिये, उनके रामचरित-मानस के अरब तक सेकड़ों संस्करण 
निकल चुके, जिनके कारण प्रकाशकों के करोड़ों रुपये की प्राप्ति हुई, 
कथावाचकों ने लाखों रुपये कमाए | यही बात मद्दाभारत, वाल्मोकि 
रामायण, श्रीमद्भागवत श्रादि के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। 
अ्भिप्राय यह कि सच्चे कवि राष्ट्र की महान्‌ सेवा करते हैं। जनता 
में जीवन-ज्योेति जगाना, लाक-रझ्नन करना, शिक्षा-सुधा पिलाना, 
सादाचारिक आदर्शों' की ओर ले जाते हुए, युग का प्रतिनिधि बनना और 
फिर देश की कोश-बृद्धि के लिए एक विभूति छोड़ जाना कोई साधारण 
बात नहीं है । कवि स्वयं बहुत दिनों तक जीवित रहता है; और अपने 
चरितनायक को भी चिरायु करता है | जिस देश म॑ जितने ही सत्कवि 
जन्म लेते हैँ, वह देश उतना ही गौरवशाली समभा जाता हे | 

सत्कवियों ने विषादयुक्त जीवनों के हृषपूर्ण बनाने और पीड़ित- 
प्रताड़ितों के सांत्वना देने में कमाल कर दिखाया है। आधि-व्याधियों 
से तप्त मनुष्यों के। काव्यमय उपदेश कितना सहारा देता हे । वस्तुतः 


( ?७ ) 


काव्य वह विभूति है. जिसके द्वारा मनुष्य इहलेक और परले।क दोनों 
के सुधार कर अनुपम आनन्द का अधिकारी बन सकता है। जो काव्य 
सुख-दुःख. दष-विषाद, लाभ-हानि, जीवन-मृत्यु प्रत्येक अवस्था में सद्ददयों 
के हृदय का हार बन कर उनके अमरत्त्व की प्राप्ति कराने में सहायक 
द्वाता है, उसे ब्रह्मानन्द का सहादर कहना उचित ही हे। किसी ने 
ठीक कहा है कि सत्कवि के लिए साम्राज्य भी तुच्छु हे। जिस देश का 
काव्य-साहित्य जितना ही कम होता है, उसकी सभ्यता और संस्कृति भी 
उतनी ही न्यून समझी जाती है। किसी जाति की गारव-गरिमा का 
अनुमान करने के लिए उसके वाडमय--विशेष कर--काव्य-साहित्य की 
शोर दृष्टिपात करना चाहिये | उसी से उसकी महद्दत्ता और श्रेष्ठता का 
असली तअनन्‍न्दाज़ लग सवेगा | 


हिं० न०--२ 


रस क्या हे ! 


संसार रंगभूमि हे। इसमें विविध जीवधारी, श्रभिनेताशञ्रों के रूप में, 
ग्रपने जीवन-नाटक का अभिनय किया करते हैं। स्वयं परमात्मा सब 
से बड़ा सूत्रघार हे, जो रात-दिन प्रकृति-नटी के नचाता रहता हे । जगत्‌ 
में सब लेग सुख चाहते हं--शारीरिक और मानसिक | इसी उद्योग 
में वे सदेव संलग्न मी दिखाई देते हैं। संसार में तरह-तरह के सुख हें, 
और नहीं तो, उन चह्षण्क सुखों के कारण ही, थोड़ी देर के लिये, 
जीवन में सरसता आ जाती हे। जिस ब्रह्मानन्द की खोज में येगी लाग 
लगे रहते हैं, उसकी तो बात ही निराली हे। शक्षणिक सुख के लिये 
ही सही, . संसार में नाटक, सिनेमा आदि की कल्पना की गई, काव्य, 
नाटक और उपन्यास लिखे गए। उनमें प्रायः वे दृश्य अ्रंकित किये 
गए जो हृदय के आनन्द देने वाल्ले हैं। यें तो संसार में न जाने कितनी 
घटनाएँ घटती रहती हैं, परन्तु अलोकिक घटनाओं के मनुष्य बारबार 
देखना और सुनना चाहता है। सत्यव्रती इरिश्चन्द्र की पवित्र कथा, 
भगवान्‌ रामचन्द्र का आदश चरित्र, भक्त प्रहलाद की चारु चर्चा और 
महाभारत के अनेक दृश्य इसीलिए नाटकों तथा चित्रपटों द्वारा बार-बार 
दशकों के सामने श्राते दें । वस्तुतः इस प्रकार के दृश्यों के देखकर दशकों 
के अलेकिक आनन्द प्राप्त दाता हे। वे संसार कौ चिन्ताश्रों से मुक्त 
हाकर, कुछ काल के लिए, आनन्द-विभोर हा जाते हैं। नाटकीय दृश्य 
ही क्‍यों, उन कलित कथाओं का काब्यमय वरणान भी सहृदय पाठकों के 
हुंदयों के आनन्द से भर देता हे। इसीलिए काव्य के दो भेद किये 
गए हें-“दश्य और भव्य । शकुन्तला नाटक आदि दृश्य कान्यें में हें, 
और महाभारत रामायण श्ञादि भन्य काव्यों में, क्योंकि इनके सुनने- 
समभने में ही अलोकिक आनन्द प्राप्त देता हे। दश्य या भव्य काब्य 


( १६ ) 


के देखने, पढ़ने या सुनने में तन्मयताजनित जो अलोकिक आनन्द प्राप्त 
होता हे, वही रस है | इसी रस की चर्चा और व्याख्या रस सम्बन्धी ग्रन्थों 
में की गई हे । 

सब जीवधारियों में एक ही आत्मा काम कर रही है, इसीलिए एक 
का सुख-दुःख दूसरे का अनुभव दाता रहता है। परमात्मा ने पशु-पक्षियों 
का बुद्धि नहीं दी, यह साधन मनुष्य के ही प्रदान किया है, अ्रतएव 
वह प्रत्येक बात को बड़ी समझदारी ओर छान-बीन के साथ सोचा- 
विचारा करता हे । उसमें सहानुभूति ओर संवेदनशीलता अत्यधिढ 
होती दे। पशु-पद्धी सहज बुद्धि से प्रेरित होकर ही सारे काम करते 
हैं। उनमें प्रश्ञा का अभाव है, अतएव सब जीबों में मनुष्य की हौ 
प्रधानता हे । मनुष्यों में भी कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिनके हृदय 
पर किसी घटना या किसी के सुख-दुःख का कुछ भी असर नहीं होता । 
उन्हें न संगीत प्रभावित करता है, न साहित्य। वे किसी को सुखी 
देखकर न सुखी होते हें, ओर न दुखी देखकर दुखी | ऐसे साहित्य-संगीत- 
कला-शूल्य दवृदयहदीन व्यक्तियों को ही भगवान भतृ हरि ने बिना सींग-पूँछ 
का पशु कद्दा हे--साहित्य संगीत कला बिहीनः, साहात्‌ पशुः पुच्छु विषाण 
हीनः । इत्यादि 

कविता में रसकी ही प्रधानता हे | रखके बिना कविता कविता नहीं 
मानी जाती | भगर कविता में रस नहीं, तो वह शब्दों की लाश या 
तुकों के लोथड़े के अतिरिक्त और कुछु नहीं हे | रस-स्वरूप के सम्बन्ध 
में विद्वानों की विविध कल्पनाएं हैं | कुछ आचायों की सम्मति में अलंकृत 
पंक्तियों का नाम ही रस हे ! कुछ लोग छुन्द की छुबीली छाया में घूमते- 
फिरते सुन्दर शब्द-समूह के ही रस-सज्ञा देते हैं। उनकी सम्मति में छुन्द- 
कौशल दिखलाना द्दौ कविता की नान है । परन्तु अलंकारों और छुन्दादि 
को काब्य कौ आत्मा समझना उसी प्रकार हे, निस प्रकार कोई व्यक्ति 
मृतक को साबुन से न्हिला-घुलाकर उस पर अद्भराग लेपन कर दे, और 
उसे सुन्दर वज्ञाभूषशों से सना दे; ओर फिर गय॑ पूवक कद्दे--देखिए, कैसा 


( २० ) 


सुन्दर ब्यक्ति हे। कुछ आ्राचायों की सम्मति में रीति-ग्रन्थों में व्ित 
काव्य के गुण ही काव्य की आत्मा हैं। अर्थात्‌ यदि किसी कविता में 
झोज, प्रसाद, श्लेष, समता, समाधि, माधुयं, सौकुमायं, उद्रारता ओर 
अथ-व्यक्ति इन नौ में से एक या अनेक गुण आ जायें, तो उसे ही 
कविता की आत्मा समझ लेना चाहिये। परन्तु ये गुण तो कविता के 
बाह्य शरीर से सम्बन्ध रखते हैं | आत्मा से उनका कोई सरोकार नहीं । 
यदि हम किसी कविता का अर्थ आ्रासानी से समर लेते हैं, तो बड़ी अच्छी 
बात हे, परन्तु यद्द कहना कठिन है कि इस गुण के कारण वह रचना 
काव्यमयी हो गई या उसमें लोकोत्तरानन्द आगया। यही बात उपयेक्त 
अन्य गुणों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती हे। फलत; रीति सम्बन्धी 
गुणों के कारण कविता सरस नहीं हो सकती | 

कुछ आचाय ध्वनि को काव्य की श्रात्मा मानते हैं । उनका कहना 
है कि कविता में वाच्याथ से भिन्न जो व्यंग्याथ है, वही ध्वनि है, उसी को 
कविता की जान समभना चाहिये। जिस प्रकार सुन्दर अंग-प्रत्यंग युक्त 
अलंकृत युवती के शरीर में लावश्य अ्रपनी छुटा दिखाता रहता हे, उसी 
प्रकार रससिद्ध कवियों की कृति में ध्वनि या व्यंग्य की आभा चमकती 
रहती है। यह शभ्राभा न कोमलकान्त पदावली से प्रस्फुटित होती हे, और 
न छुन्दों या अलछ्लारों की सृष्टि से। वह तो भव्य भावों से अपने आप 
छिटकने लगती है | इन आचायों की सम्मति में ब्यंग्यात्मक लावण्य का 
नाम ही आत्मा हे। 

कुछ आचायों ने वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा माना है। वक्रोक्ति 
एक अ्रलझ्वार हे, जिसमें वक्ता के आशय के विरुद्ध किसी ओर ही भ्रभिप्राय 
की कल्पना कर ली जाती है। जेसे आगरे में काई व्यक्ति साधारण 
रूप से भी कहे कि “ में सेंठ की मंडी जाना चाहता हूँ,” तो भोता लेाग 
कडने लगेंगे-- हाँ हाँ, अवश्य जाइये, अवश्य जाइये, आप सेंठ की 
मंडी जाने याग्य द्वी हें ।” वास्तविक बात यद्द हे कि आगरे का मानसिक 
ऋत्पताल ( पागलख़ाना ) सोंठ की मंडी में हे, अतएव यहाँ सोंठ की 





( २१ ) 


मंडी जाना, पागलख़ाना-प्रवेश के अर्थ में एक मुद्दाविरा-सा बन गया 
है | इसी प्रकार महाकवि बिहारी ने एक स्थान पर लिखा है -- 


“« को घटि ये वृषभागनुना वे हलधर के वीर !* 


अरे साहब, इनमें किसी से घटिया कोन हे ! राधाजी वृषभ -- श्रनु जा 
अर्थात्‌ बेल की छोटी बहन हैं, ते कृष्णणी हलघर € बैल ) के वीर 
( भाई ' हैं| केसा सुन्दर सुयोग हे, एक बैल की बहन है, तो दूसरे बैल के 
भाई। परन्तु वास्तव में बात यह है कि राधाजी वृषभानु+जा अर्थात्‌ 
वृषभानु की पुत्री हैं, और श्रीकृष्ण हलघर ( बलराम ) के भाई हैं। 
प्रकृताथ यही हे, परन्तु शब्द-केशल द्वारा कवि ने साधारण-सी 
बात में एक श्रदूभुत सौन्दरय भर दिया है, यही वक्रोक्ति अलंकार हे । 
पहले ही कहां गया है कि अ्रलझ्भारों से कविता में कुछ सौन्दर्य ताोआा 
जाता है, परन्तु उसमें जान नहीं पड़ती। उपयुक्त उदाहरण में शब्दों 
की कलाबाज़ी तो दिखाई देती है, परन्तु भाव में कोई विशेष चमत्कार 
नहीं दीख पड़ता। इसलिए कहना पड़ता दे कि वक्रोक्ति कविता की 
श्रात्मा नहीं हे । 


साहित्य दपंणकार ने 'रसात्मक वाक्य” के ही काव्य माना है। जिस 
काव्य में रस अथवा चमत्कार है, उसे ही उन्होंने काव्य-संज्ञा दी हे। 
रस क्‍या है. इसकी विविध आचार्यों ने विविध प्रकार से व्याख्या की है । 
परन्तु वास्तव में रस का श्रथं हे--" रस्यते ग्रास्वा्यतेडसो रस: ” 
अथात्‌ जो चखा जाय यानी जिसका आस्वादन-चव्बंण किया जाय वही 
रस हे । किसी वस्तु को स्वाद से खाने का मतलब यही है कि उसके 
खाते समय श्रानन्द प्राप्त हद्वा। जिस चीज़ के खाने में आनन्द आाता है, 
उसे ही स्वाद के साथ खाना कहते हैं। नीम के रसया गिलाय के 
काढ़े के काई भी स्वाद के साथ नहीं पीता। ते रस का अर्थ यह हुआ 
कि जिसके तनन्‍्मयी भाव के अनन्तर आस्वादन से भाननद प्राप्त देता है, 


वही रस है | 


( रेर ) 


परिडतराज विश्वनाथ ने रस की व्याख्या इस प्रकार की है-- 


विभावेनानुभावेन व्यक्त: संचारिणा तथा। 
रसतामेति रत्यादि स्थायिभावः सचेतसाम्‌ ॥ 
--साहित्यदपंण 
अर्थात्‌ सहृदयों के द्वदयों में स्थित वासना रूप रति आदि स्थायी 
भाव ही विभाव-श्रनुभाव ओर संचारी भावों के द्वारा श्रभिव्यक्त देकर, 
रस-रूप को प्राप्त द्वाते हैं। काव्यादि के सुनने ग्रथवा नाटकादि के देखने 
से आलम्बन, उद्दीपन विभावों, श्रृवित्षेप कठाक्षादि अनुभावों औ्रौर निवेंद- 
लानि ञ्रादि संचारी भावों के द्वारा अभिव्यक्त हाकर सदहृदय जनों 
के हृदयों में स्थित वासना स्वरूप रति, हास, शेाक आदि स्थायीभाव, 
अड्भार, हास्य, करण आदि रसों के स्वरूप में परिणत देते हैं। रस- 
निरूपण के सम्बन्ध में आ्राचार्यों ने बड़े-बड़े शाख्रा्थ किए हैं। उस 
विस्तृत विचार का जे परिणाम है, वही ऊपर दिया गया दहै। वस्तुतः 
रस का स्वरूप अलोकिक ओझर अ्रनिवंचनीय है। केवल सहृदय जन ही 
उसका अनुभव या आरास्वादन कर सकते हें | 


काव्य में मुख्यतः नव रस माने गए. हैं, श्रर्थात्‌ श्ज्ञार, हास्य, 
करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अदभुत और शान्त। इन रों में 
श्ज्भार रस की ही प्रधानता है। इसी से उसे रसराज भी कद्दते हैं। कुछ 
आचायों ने शज्ञार रस ही सब रसों का मूल माना है। साहित्य-दर्पणकार 
के पितामह नारायण तकवागीश ने अदभुत रस के ही रस की श्रात्मा 
माना है, अ्रन्यों के नहीं। उनकी सम्मति में चमत्कार या विस्मय ही 
रस का प्राण है। इसी प्रकार उत्तर रामचरितकार करुण रस के ही सब 
कुछ मानते हैं। वे कहते हैं कि करुण से पैदा हुए अन्य रस भिन्न 
दिखाई देते हुए. भी भिन्न नहीं हैं। नाट्य शास््क्‍कार भरतमुनि ने »ज्ञार 
शझ्रादि आठ ही रस माने हैं, नवाँ शान्तरस नहीं माना। काव्य-प्रकाशकार 
नव रसों के मानते हैं । 


( २३ ) 


कुछ लोग भक्ति और वात्सल्य के भी रस मानते हैं, कुछ ञ्राचार्यों 
का कहना दे कि भक्ति और वात्सल्य शशज्ञार के ही भेद हैं। वात्सल्य के 
रस मानने वालों में साहित्यदपंणकार मुख्य हैं । भअ्रभिप्राय यह कि 
वात्सल्य और श्ज्ञार में अमेद एवं भेद दोनों के ही मानने वाले 
हैं। इन दोनों में भेद मानने वाले अनुभव पर बल देते हुए मानते 
हैं कि सत्री-पुर्ष विषयक रति और वात्सल्य में तत्वतः भेद हे। क्योंकि 
दोनों की प्रेरक वासनाएँ एक दूसरे से नितान्त भिन्न हैं | फ्रायड 
श्रौर उनके अनुयायी विरोधी मत के पोषक हैं । उनके मतानुसार 
उक्त दोनों भावों की प्रेर््ूद वासनाओं में काई अन्तर नहीं हे । जो वासना 
स््री-पुरुष विषयक रति मं काम करती है, वही संतति-स्नेह में भी। 
पिता और माता अ्रपनी सन्‍्तान से इस कारण स्नेह करते हैं कि वे 
उसमें एक दुसरे के अंश का अ्रनुभव कर, उसकी ओर आकर्षित होते हैं। 
यदि यह कद्दा जाय कि हम दूसरों के बालकों से भी स्नेह करते हैं, ते 
यह उत्तर दिया जायगा किन कोई पुरुष पूर्रीत्या पुरुष है. और न 
केाई स्त्री पूणरीत्या सत्नी। दोनों में दोनों के अ्रंश विद्यमान रहते हैं । 
फलतः यदि हम किसी बालक की श्नोर आाकर्षित होते हैं, तो उसके 
पुरष भाव की ओर नहीं, वरन स्ली भाव को ओर | और इस प्रकार 
बात्सल्य र्री-पुरुष विधयक रति से भिन्न कुछ नहीं हे । 

शज्ञार रस की मुख्यता स्पष्ट हे, क्‍येंकि सृष्टि-रचना का मूलाधार 
बही हे। भरतमुनि ने ता रति शोर काम के श्ृज्जार के माता-पिता 
का रूप दिया हे। 'शज्जार बहुत व्यापक हे, वह मनुष्य तक ही सीमित 
नहीं, पशु पत्तियों श्रोर वनस्पतियों तक पर इसका प्रभाव है । 

प्रत्येक रस का एक स्थायी भाव माना गया है, अ्रथांत्‌ 'ज्ञार का रति, 
हास्य का हास, करुण का शेक, रोद्र का क्रोध, वीर का उत्साह, भयानक 
का भय, बीभत्स का जुगुप्सा, अ्रदूभुत का आश्चय और शान्‍्त का निर्वेद । 
ये स्थायी भाव, जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से परिपुष्ट देते हैं, 
तभी रसों की प्रासि होती हे | अ्रनुभाव-विभावादि की ब्याख्या उनके वर्णन 


( रे४ ) 


में की जायगी | स्थायी भाव आदि से अ्रन्त तक रहता और यही रस-रूप 
को प्राप्त होता है| विभावादि जब प्रथक-प्रथक प्रतीत होते हैं, तब 
उनकी 'द्वेतु ” रुंज्ञा होती हे । जहाँ भावना के बल और ब्यञ्जना की 
महिमा से आस्वाद्यमान सब सम्मिलित विभावादिक सद्ददयों के द्वदयों 
में प्रषानक रस की भाँति अखण्ड एक रस के रूप म॑ परिणत हो जाते 
हैं वहीं रस की अ्रनुभूति होती दे । जैसे किसी प्रपानक रस में खाँड़, मिच, 
ज़ीरा, हींग श्रादि के सम्मेलन से एक अपूव--उन सबके प्रथक्‌ प्रथक्‌ 
स्वाद से विलक्षण - श्रास्वाद उत्पन्न होता है, उसी प्रकार विभावादि के 
सम्मेलन से एक अपूव रसास्वाद पैदा होता हे, जो विभावादि के 
पृथक्‌-प्ृथक आस्वाद से विलक्षण होता है । 

साहित्य-दर्पणकार का उपयुक्त प्रपानक सम्ब॑न्धी इश्टान्त कैसा सुन्दर 
है । हम अपने साधारण जीवन में भी देखते हें कि नमक-मि्च, मसाला, 
घी और . ज़मीकृन्द के अलग-श्रलग चखने पर कुछ भी मज़ा नहीं आ्राता, 
परन्तु जब इन सबका उचित मात्रा में संयोग हो जाता है, तो शाक के 
रूप में एक ऐसा स्वादिष्ठ पदाथ बन जाता है, कि जिसे खाते-खाते 
तबीयत नहीं भरती, लोग उँगली चाटते रह जाते हैं। मसाले, घी और 
ज़मीकृन्द तीनों के योग से ही यह रस आस्वादन योग्य बना | यही 
बात काव्य-रस के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। अर्थात्‌ विभावादि 
के योग से ही स्थायी भाव रसत्व को प्राप्त होता हे । स्थायी भाव द्वदय 
में उसी प्रकार वासना रूप से रहते हैं, जिस प्रकार पृथिवी में गन्ध रहती 
है। ज़रा पानी पड़ते ही जिस तरह ज़भीन से खुशबू त्राने लगती है, 
उसी तरह विभावादि के कारण स्थायी भाव उद्बुद्ध दो जाता है | स्थायी 
भाव सदा स्थायी ही नहीं रहते, कभी-कभी वे संचारी का रूप भी धारण 
कर लेते हैं । अधिक विभावादि से उत्पन्न हुए रति आदि, स्थायी भाव 
होते हैं, श्रोर थोड़े विभादिकों से प्रयूत वे व्यभिचारी कहलाते हैं | स्थायी 
भाव संचारी के रूप में प्रकट होने पर रसत्व को प्राप्त नहों होते। नाटकों 
के देखने या काब्यों के पढ़ने-सुनने से दर्शकों या पाठकों के द्वृदयों में 


(६ २५ ) 


जो भाव स्थायी रूप से जाग्रत होता है, वह्दी आगे चल कर रस बन 
जाता है। परन्तु सब्र दशकों और पाठकों की रुचि एक-सी नहीं होती, 
इसीलिये एक के द्वदय में जो भाव स्थायी रूप से जाग्रत होता है, दूसरे 
के हृदय में वही अस्थायी बन जाता हे। परिणाम यह होता है कि 
एकही दृश्य को देखने से सभी को समान थ्आानन्द नहीं प्राप्त होता । 


अभी कहा जा चुका है कि स्थायी भाव के साथ विभावादि का योग 
होने से ही रसोत्पत्ति होती है परन्तु कभी-कभी विभाव अनुभावादि 
तीनों में से एक के होने पर भी, रसत्व की प्राप्ति होती है । इसका समाधान 
साहित्यदपणकार ने यह किया है कि : विभावादिकों में से दो अथवा 
एक के उपनिबद्ध होने पर, जहाँ प्रकरणादि के कारण दूसरे का भूट 
से ग्राक्तेप हो जाता हे. वहाँ कुछु दोष नहीं होता ।' श्राक्षेप का श्र्थ है-- 
व्यज्ञनीय रस के अनुकूल शेष : अन्य ) दो भात्रों का भी बोध करा देना । 
इन पंक्तियों का अ्रभिप्राय यह दे कि जब विभावादिकों में से, एक या 
दो के होने पर ही, रसत्व की प्राप्ति हो जाती है, तो प्रकरणानुसार शेष 
दे या एक का अ्रनुमान भी कर लिया जाता है । 


कविरत्ञ स्वर्गीय सत्यनारायण के 'मालती-माधघव” से इस विषय 
का एक उदाहरण दिया जाता है। देखिए--. 


मिसिली मुरकाई मसमुनालिनीसी दुबराइ गई जिह देह अ्रमोल । 
जब संग सद्देली सत्रे ब्रिनवें कछु बेमन काज करे तब डोल ॥ 
हिय सोच तऊ अ्रकलंक मयंक की सोभा लजावनहार सुलोल । 
नव कुंजर दन्‍्त कटे की श्रनन्त घर छुवि सुन्दर जाके कपोल ॥ 


उपयुक्त सवैया संध््कृत ' मालती-माधव ! के एक श्लोक का अनुवाद 
है। माधव मकरन्द से मालती की दशा का वर्णन कर रहा है। वह कहता 
है कि, मालती का शरीर मसली-मुरकभाई कमल-नाल के समान हो गया 
है। किसी काम में उसकी ज़रा भी प्रवृत्ति नहीं रही | दाथी दाँत के नये 
कटे टुकड़े के समान उसके स्वेत कपोल निष्कलंक चन्द्रमा की शोभा 


( २६ ) 


धारण करने लगे हैं। श्रर्थात्‌ उनमें लालिमा का लेश भी शेष नहीं रहा | 
इस सवैया में मालती के श्रनुभावों का ही वणन है, और उन्हीं के द्वारा 
विभावादिकों का आ्राक्षेप होकर, विप्रलम्म &'गार का आआआस्वादन होने 
लगता है| 

उपयक्त उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो गई कि प्रत्येक अवस्था 
में विभाव, अ्नुभाव और संचारी भाव तीनों ही मिल कर स्थायीभाव 
को रसत्व तक पहुँचाते हें। उनमें से एक या दो कुछ नहीं कर सकते । 
क्योंकि निस प्रकार एक ही अनुभाव ओझोर संचारी भाव कई रसों का होता 
है, उसी प्रकार एक विभाव भी कई रसों का विभाव बन जायगा । ऐसी 
अब्यवस्थित दशा में तो किसी रस का स्वरूप ही निश्चित न हो 
सकेगा । 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम” कहने वाले साहित्यदपंणकार कविराज 
विश्वनाथ का भी यही मत है, जो परम माननीय हे। श्र्थात्‌ विभावादि 
द्वारा स्थायी भावों के पुष्ट होने से ही रस बनता हे। अ्रकेला स्थायी भाव 
कुछु नहीं कर सकता | 

जिस समय किसी नाटक या काब्य में करुणाजनक दृश्य या वर्णन 
आता हे, उस समय सहृृदय दशकों और पाठकों के द्वृदय द्रवीभूत होकर 
आँखों के रास्ते बहने लगते हैं। कभी-कभी तो ह्लकियाँ भी बँघ जाती 
है। हास्य रस का प्रसज्ञ आने पर सब हँसते और वीर रस का वर्णान 
होने पर उत्साह से भर जाते हैं। अ्रभिप्राय यदद कि नाटक या काव्य 
में जो रस आता हे, वही सद्ददय-समाज को प्रभावित करता हे, उस समय 
उसके आनन्द की सीमा नहीं रहतो। यहाँ प्रश्न उठ सकता हे कि करुण 
रस में केता आनन्द ! जिस रस का स्थायी भाव शोक हो, उसमें सुख 
की कल्पना क्‍यों ? इसका सीधा उत्तर यह हे कि राम-वनवासादि जो 
लोक में जनता के दुःख के कारण होते हैं. वे ही काव्य में वर्णित होने 
पर ग्रलोकिक विभावन-व्यापार द्वारा सामाजिक जनों के मन में सुख 
उत्पन्न करते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि लोकिक शोक दइर्षादि कारयों 
से लौकिक शोक हर्षादि ही उत्पन्न होते हैं, और काब्य में सब विभावादिकों 


( २७ ) 


से सुख ही पैदा होता है । रसानन्द के सम्बन्ध में, हमारी समझ से, एक 
यह बिचार-धारा भी हो सकती हे कि मान लीजिए. महारान रामचन्द्र 
सानुज और सपक्ीक बन जा रहे हैं। उनको राजकीय वेश-भुषा विद्वीन, 
बल्कलादि धारण किये वन-वन भटकते देख घोर दुःख द्दोता हे । साथ 
ही उनके पितु-अआशा-पालन रूप उद्देश्य की पविन्नता का स्मरण कर 
परम प्रसन्नता द्ोती है | राम-सीता ओर लक्ष्मण अपने सुकाय॑-कलाप द्वारा 
संसार के सामने एक ऊँचा ग्रादर्श उपस्थित कर रहे हैं, जिसके अ्नु- 
करण की अभिलाषा मात्र भी परम प्रसन्नतादायिनी है। यही बात 
सत्यत्रती हरिश्रन्द्र, भक्त-प्रवर प्रलाद झ्रादि के चार चरित्रों में दिखाई 
देती हे । 

नाटक देखने तथा काब्यों के पढ़ने से दर्शकों और पाठकों को जिस 
अ्रलोकिक ग्राननद की उपलब्धि होती है. वही रस कहाता है । सांसारिक 
पदार्थों के देखने या उनकी प्राप्ति-श्रप्राप्ति के कारण मन में जो 
सुख-दुःखादि विकार उत्पन्न होते हैं, उन विकारों की उत्पादिका सामग्री 
दी साहित्य-शासत्र भ॑ रस-सामग्री कहलाती है। जेसे किसी झादमी के गाली 
देने पर, हमारे मन में सहसा जो क्रोध उत्पन्न होता है, वही मनोविकार 
है। इस मनोविकार के कारण हमारी श्राँखें लाल हो जातीं और भोढ 
फड़कने लगते हैं | कभी-कभी गाली देने वाले को पीठने के लिए भी 
तबीयत चाहती है। यहाँ गाली हमारे क्रोध का कारण हुई. ओर ओोठ 
फड़कना श्रादि काय | यदि उस गाली देने वाले ने कभी पहले भी हमें 
गाली दी, या कोई हानि पहुँचाई हे, तो उस समय उसका भी स्मरण 
हो आने से हमारा क्रोध और भी बढ़ जाता है। यदि किसी घटना या 
हश्य से उत्पन्न इसी प्रकार के मनोविकार का वर्णन कोई सत्कवि अपने 
काव्य में करता है, तो उसे पढ़कर सद्दृदय पाठक के हृदय में भी वैसे 
ही मनोविकार जाग्रत होते हैं। उस समय उस काव्य के पढ़ने में जो 
आनन्द अनुभव होता है, यही रस कहाता है। गाली सुनने के कारण 
हमारे हृदय में जो कोध जाग्रत हुग्रा, साहित्य की परिभाषा में वह स्थायी 


( र८ ) 


भाव, गाली और गाली देने वाला विभाव, ओठ फड़कना श्रादि अ्रनुभाव, 
ओर पुरानी बातों को स्मरण कर अधिक क्रद्ध होना संचारी भाव कह्ाता 
है। यही सब रस-सामग्री हे। इन्हीं सबके संयोग से रस की उत्पत्ति 
होती है । 

जिस समय रंगमंच पर कोई नाटक होता हे, उस समय कुशल 
अभिनेता और अभिनेत्रियों के अभिनय देखकर कभी दशकों के द्वृदय 
आनन्द से उमड़ते, कभी उनके नेत्रों से आँसू बहते, कभी वे घृणा के 
कारण थू-थू करते, कभी क्रोध से काँपते, कभी उत्साह से उछुलते, कभी 
भय से भीत होते और कभी आश्रय से हक्‍के-बक्के रह जाते हैं। 
कभी-कभी ऐसा भी प्रतीत होता है, मानों संसार में कुछ दे ही नहीं, जीवन 
नश्वर हे, दुनिया एक सराय हे, जहाँ से जल्द ही कूच कर जाना हे । 
सामाजिकों के मन में, इस प्रकार के भावों की तन्मयता पूवक उत्पत्ति 
होना ही रसात्मकता द्दे। इसी रसात्मकता में सहृदय सामाजिक आनन्द- 
लाभ करते हैं| काव्य में भी जब इसी प्रकार की रसात्मकता द्वोती है, तो 
वहाँ भी पाठक के हृदय में नाटकों के से भाव जाग्रत होने लगते हैं, और 
लगभग वेसा ही आनन्द अ्रनुभव होता हे । यह काव्य की रसात्मकता है । 
जिस काव्य में सहृदय-समाज को मन्जत्रमुग्ध कर देने की शक्ति है, वही 
उत्तम काव्य है । 

रसों का विशेष सम्बन्ध मानसिक क्रिया से हे। सुख, दुःख, प्रेम, 
हष, भय, शोक, मोह, क्रोध हत्यादि वृत्तियाँ मन की ही उपज हैं। इन 
बृत्तियों का मन, शरीर एवं इन्द्रियों पर जो प्रभाव पड़ता है, उसी के 
आधार पर रसों की उत्पत्ति होती हे | 

रसात्मक काब्यों में श्रलंकारों की अनावश्यक और अ्रप्रासंगिक ढुँस- 
ठाँस न होनी चाहिये | स्वाभाविक रीति से सहसा जो अलड्ार त्रा जाय 
वही ठीक है | रूपकादि भी रस-काव्य के लिए. गौण होने चाहिये । 

रसोत्पत्ति में विभावन, अनुभावन और सश्जारण तीन काय होते 
हैं। रव्यादि को विशेष रूप से ग्रास्वादन योग्य बनाना विभावन कहाता 


( २६ ) 


है। आस्वादन योग्य बने हुए रत्यादि को रसत्व प्राप्त कराना अनुभावन 
कहलाता है| और रसरूप प्राप्त होने पर सम्यक्‌ रीति से उसका संचार 
करना संचारण कदलाता है। रस की उत्पत्ति व्यज्जना द्वारा होती है, 
क्योंकि लक्षणा और अभिधा द्वारा रसानन्द प्राप्त नहीं होता । 

नाटक या काव्य में वह कौन-सी शक्ति है, जो लेगों पर इस प्रकार 
प्रभाव डालती हे ! व्याख्याता की वाणी में वह कोन-सा जादू है. जिसके 
कारण वह श्रोताओं को मुट्टी में कर लेता हे ! उन्हें रलाना, हँसाना, 
भयभीत एवं गआश्चर्यान्वित कर देना उसके बाएं हाथ का खेल बन 
जाता है ! इसका उत्तर यह है कि जब श्रव्य या दृश्य काव्य, सद्ददयों 
के द्वदयों में स्थित वासना-रूप स्थायी भावों को जगा कर, उन्हें विभाव- 
अनुभाव और संचारी भावों द्वारा पुष्ट करते हुए, रसत्व तक पहुँचाते हैं, 
तभी यह आनन्द प्राप्त द्ोता है। राम को वन जाते देख कर दशकों के 
द्वदय में शोक उत्पन्न हुआ, उनको वल्कल वस्त्र धारण करते देख शोक 
की मात्रा और भी बढ़ी, कण्ठावरोध हुआ, श्राँखों से श्रॉसू बह निकले 
ग्रौर जब तक वह दृश्य सामने रहा, बराबर मोह, विषाद, चिन्ता 
झादि के भाव बने रहे | यही करुणरस है गया। क्योंकि राम-वन- 
गमन आलम्बन, वल्कल वस्नरादि उद्यौपन, अ्रश्रपात और गद्गद्‌ स्वर 
अनुभाव तथा मोह, विषाद, चिन्ता इत्यादि संचारी भाव एक स्थान 
पर आ मिले । यही सब स्थायी भाव के रसत्व तक पहुँचाने के लिए 
ग्रावश्यक भी थे | 

उपयुक्त कसौटी पर श्राप किसी भी रस को कस लीजिये, सब ही में 
ये बातें परिलकद्धित होंगी | स्थायी भाव के श्राधार पर ही रस की सृष्टि 
रची जाती हे। कभी-कभी मल-मृन्नादि से भी बीभत्स रस की कल्पना 
नहीं होती। जैसे किसी का पिता रोग-शैया पर पड़ा है, उसे बुरी तरह 
दस्त हो रहे हैं, बार-बार कपड़े बदलने पड़ते हैं, चारों ओर मक्खियाँ 
भिनझ रही हैं | पास ही 'बेड-पेन' या मलभाण्ड रक्‍्खा हें, परन्तु 
पुत्नादि परिचारकों को उन सबसे ज़रा भी जुगुप्सा नहीं होती, उनके 


(५ रेै० ) 


दुदय में उस समय विषादपूर्ण परिस्थिति के अतिरिक्त और कुछ नहों 
है। रोगी की परिचर्या करना ही उनका कतव्य है, ऐसी अवस्था में 
परिचारकों का स्थायी भाव जुगुप्सा न होकर शोक होगा; जो विभावादिक 
से परिपुष्ट होकर करूणरस में परिणत हो जायगा । अभिप्राय यह 
कि जिस इश्य के देख कर द्वदय में जो स्थायी भाव जाग्रत होता है, 
उसी की अन्य भावों की सहायत। से रस संज्ञा होती है। यह एक लौकिक 
दृष्टान्त है। इसी प्रकार अलोकिक रस के सम्बन्ध में भी समझना 
चाहिए. | 

नाटक या सिनेमा किसी वास्तविक बटना की नकल होते हैं, अ्रथवा 
उनमें ऐसी कल्पित घटनाएँ अ्रभिनीत की जाती हैं, जो वास्तविकता का रूप 
धारण कर चुकों या कर सकती हें। काब्यों में इसी प्रकार के दृश्यों, 
कथानकों अ्रथवा भावों का चमत्कारपूर्य वर्णन होता दे। किसी सुन्दरी 
के देख कर किस सांसारिक के द्वदय में लौकिक रति उत्पन्न नहीं होती । 
शोकपूर्णय परिस्थिति में कौन आठ-भ्राठ आँसू नहीं राता। अपमान या 
इष्ट-हानि देख कर किसे क्रोध नहीं आता ! उत्साह-भावना जाग्रत होने 
पर वीररस की उत्पत्ति हुए बिना नहीं रहती। हास्यपूर्ण परिस्थिति के 
कारण सभी हँस पड़ते हैं, ग्राश्यय की बातें किसे चकित नहीं करतीं । 
भयंकर बातों से भयभीत होना सभी के लिए समान है। घिनोनी बातें 
सुन यां घिनोने इश्य देख कर ग्लानि हुए बिना नहीं रहती । श्रभिप्राय 
यह कि रात-दिन के जीवन में भी हमारे ऊपर विबिध घटनाओं का 
प्रभाव पड़ता रहता हे, और हम उनके द्वारा उत्पन्न रसों का ग्रास्वादन 
करने में सदेव अ्रग्ररर रहते हैं । 

काव्यों ओर नाटकों में रत्यादि स्थायी भावों का जे वर्णन आता 
है, उसका किसी सांसारिक व्यक्ति विशेष से सम्बन्ध नहीं होता, और 
न लौकिक नायक-नायिकाओं से द्दी। वे रत्यादि भाव ते एक सामान्य 
स्थायी भाव के रूप में मनुष्य के निमित्त मात्र से सब के आनन्द का 
कारण होते हैं। 


( रे१ ) 


रति गश्रादि स्थायी भावों के सम्बन्ध में यह पूछा जा सकता हे, कि 
अब वे स्थायी हैं, तो अ्रपना स्थान छोड़ कर श्रन्य रसों के व्यभिचारी 
क्यों बन जाते हैं । अथवा अन्य व्यभिचारी भाव स्थायी क्‍यों नहीं बन 
सकते । भरतमुनि ने इसका बड़ा सुन्दर उत्तर दिया हे । वे कहते हैं कि 
जिस प्रकार सभी मनुष्य राजा न बनकर विशिष्ट और समथ व्यक्ति 
ही राजा बनते हैं, उसी प्रकार सब भाव स्थायी भाव नहीं हे! सकते | जिस 
तरह सब व्यक्ति राजा न बनकर शासन करने की योग्यता रखने 
वाला विशिष्ट व्यक्ति ही राजा बनता हे, उसी प्रकार रसत्व प्राप्त करने 
की विशेष सामथ्य रखने के कारण, रति श्रादि ही स्थायी कहलाते हैं। 
जिस प्रकार कोई राजा, अपने प्रतिनिधि के शासन-का्य सौंप कर अन्यत्र 
चल्ले जाने के कारण, पद-अ्रष्ट नहीं समझा जाता, उसी ब्कार स्थायी 
भाव संचारी बन जाने पर भी अपने स्थायित्व से वश्चित नहीं देते । 

रसों के ग्रास्वादन से आनन्द-प्राप्ति की चर्चा ऊपर की जा चुकी है । 
यह भी बताया जा चुका है कि करुण रस में किस प्रकार आनन्द-प्राप्ति 
हैती हे | श्टगार रस के आनन्द से केाई इन्कार नहीं कर सकता, 
रोद्र रस का आनन्द देखिए--धनुषभंग के समय जब परशुरामजी और 
लक््मणजी के बीच गर्वोक्तियों का आरादान-प्रदान हुआ, उस समय किस 
सामाजिक का द्वदय आनन्द से न भर गया द्वोगा । “ कन्दुक इव बक्षाणढ 
उठाऊँ? की गवेंक्ति ने कितने हताश दृदयों में आशा का संचार नहीं 
कर दिया, कितने भग्न द्वदयों का नहीं जोड़ दिया । लक्ष्मण के फड़कते 
हुए ओढों से निकले हुए शब्दों ने जनक-परिवार के श्रपार आनन्द प्रदान 
किया | यह रौद्ररस को महिमा है। युद्ध में वेरियों का संहार किसे 
आनन्दित नहीं करता | फिर शज्रुश्रों के झभिर को धारा बहना, घायलों का 
बुरी तरह छुटपटाना, कौशों और गिद्धों का लाशों के नोंच-नोंच कर 
खाना श्रादि काय बीभत्स देते हुए भी शन्नु की हानि के कारण आनन्द- 
बढ़धक हैं। एक और वैरी की दुदंशा दाने के कारण आनन्द मनाया जा 
रहा हे, दूसरी ओर इस बात की खुशी हे कि कतंव्य-पालन करते हुए इतने 


( रेर ) 


योद्धाश्रों ने वीरगति प्राप्त की ! प्राण दे दिये परन्तु पीठ न दिखाई !! 
निदान यह बीभत्स व्यापार भी आनन्ददायक ही है | एक शोर विजय 
की भावना हैं, और दूसरी ओर कतंव्य-पालन की वेदी पर अपिंत हो 
चुकने की प्रसन्नता । 

काव्यों और नाठकों में ही रस हाता दवा, सो बात नहीं है। जब 
कायल बोलती है, तो उसकी वाणी में भी रस प्रतीत होता है। पपीहा 
की पीउ-पीउ में भी सरस मादकता हे। सितार-सारंगी, वीणा श्रादि 
बाद्यों की घ्वनि में केसा माधुय है ! स्वादिष्ठ व्यञ्ञनों में भी रस होता है। 
षट्रस भोजन प्रसिद्ध ही है। सुगन्ध भी मस्त कर देती है, परन्तु सब से 
अधिक मादकता सौन्दय में हे, चाहे वह रूप का सोन्दय दे, चाहे वाणी 
का ; चाहे भाव का हे, चाहे ध्वनि का। वाद्यों की अ्रथहीन ध्वनि के 
साथ जब साथक वर्णों ( काव्य ) का सम्बन्ध दवा जाता है, तो वह केसी 
मेोहक बन जाती है। साहित्य ओर सजल्जीत के सम्मेलन से स्वर्गीय 
आनन्द आने लगता है। यदि वह काव्य-धारा वास्तविक काव्य-धारा 
हुईं, तव तो बात ही क्‍या है। वाद्य-ध्वनि केवल कानों में घुस कर 
थाड़ी देर के लिए मन को प्रसन्न कर सकती है, उसका देर तक असर 
नहीं रहता । परन्तु रसात्मक पंक्तियाँ इत्तन्त्री के स्पश करती हुई, अ्रपना 
स्थायी प्रभाव छेड़ जाती हैं। वास्तव में रसात्मकता इतनी विलक्षण 
हवती है, कि वह सहद्दृदयों पर जादू का काम करती है और उन्हें मन्त्र-मुग्ध 
कर देती है| इस रसात्मकता का नाम ही काव्य है, और संसार में ऐसे 
काव्य का ही मान है | 

एक बात और, काव्य, नाटक या संगीत का प्रभाव सद्ृदयता की 
मात्रा के अनुसार ही पड़ता दे। बहुत-से शुष्क ब्यक्ति ऐसे दाते हैं, 
नलिनके दृदय की मरुभूमि में किसी रस की धारा नहीं बह सकती। कुछ 
हृदय ऐसे देते हैं, जिन पर रसों का पूरा प्रभाव तो नहीं पड़ता, परन्तु 
किसी अ्रेंश में पड़ता अवश्य हे। ओर कुछ भावुक द्वदय ऐसे हैं, जो 
रसों से श्राज्ञावित दा जाते हैं। उन्हें उस समय रसमय तक्लीनता के 


$ रैई ) 


अतिरिक्त ओर कुछ सूकता ही नहीं। रात-दिन के जीवन में ही देख 
लीजिये, एक वे कठोर द्वदय हैं, जो किसी की करुण दशा देखकर हँसते 
हैं, और एक वे हैंजो फूटफूट कर रोने लगते हैं। सहृदयता और 
दृदयहीनता दोनों प्रकार के नमूने लेक में मौजूद हें । 

काव्यों की अ्रपेज्ञा नाटकों में रसों का प्रभाव अधिक पड़ता है। 
इसका कारण यद्द हे कि भाव-प्रदशन का अभिनय में जितना अवसर हे. 
उतना काव्य में नहीं । काव्य के श्रथ आदि सेाचने-समभने पर रस 
की प्रभावशालिता सिद्ध हाती है. परन्तु नाटक में सब्र बाते अज्गजचेष्टादि 
द्वारा ज्यों की त्यां सामने ग्रा जाती हैं। काव्य को समभने के लिए 
ममश हेने की श्रावश्यकता है, परन्तु नाटक देखने के लिए उतनी 
मार्मिकता अ्रपेज्षित नहीं। यही कारण है कि नाटक या सिनेमा से साधा- 
रण जनता अ्रधिक प्रभावित होती है । उसे श्रभिनय में जितनी सरसता 
दिखाई देती है, उतनी काव्य-पाठ में नहीं । कहते हैं, रसों की सृष्टि सबसे 
पहले नायकों के कारण ही हुई, और नाटयशास्त्रकार भरतमुनि ने सब 
प्रथम इस विषय का वर्णन किया। रस की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुछ 
लोगों का कहना है कि वह नाटक के पात्रों की अक्भ-चेशओ्रों, भावभज्ियों 
और वेश-भूषाओं से हाती है । कुछ लेग कहते हैं, कि अभिनेताओं की 
हृदयस्थ भावना ही रस की उत्पादिका है, परन्तु ये दोनों बातें नहीं हैं। 
अभिनेता गण हरिश्चन्द्र, भव, प्रहलाद, राम, सीता, युघधिष्ठटिर, भीम, 
श्रजुन आदि के हृदय कहाँ से ला सकते हैं। वस्दुतः रस ते उन 
सामाजिकों के हृदयों में ही उत्पन्न हेता है, जो इन दृश्यों के देखकर 
तल्लीनता पूर्वक प्रभावित द्वेते हैं। जब्र विभाव, श्रनुभाव और सज्चारी 
भाव स्थायी भाव से मिलते हैं, तव दशक के ह्वदय में रस की अनुभूति 
दहवाती है | 

वाल्मीकि रामायण संसार का आ्रादि काब्य कहा जाता हे। इसकी 
उत्पत्ति का मुख्य कारण रस ही हे। महामुनि वाल्मीकि निषाद द्वारा 
काम-मोहित क्रोज्च पक्षी का वध देखकर श्रत्यन्त दुखी हुए, उनका 

हि० न०---३ 


( हैंड ) 


शोक करुण रस में बदल गया, ओर सहसा उनके मेंद से निम्नलिखित 
श्लोक निकल पड़ा--- 
“मा निषाद प्रतिष्ठा त्वमगमः शाश्वती समा; । 
यतक्रोज्च मिथुनादेक मवधी; काममोहितम्‌ ॥ ” 


अरे दुष्ट निषाद ! तू चिरकाल तक प्रतिष्ठा ( मोक्ष ) लाभ न कर 
सकेगा, क्योंकि तेने कामोन्मत्त क्रोज्च पत्ती के जोड़े में से, एक का बंध 
कर डाला !' यदि यह करुण दृश्य, भगवान्‌ वाल्मीकि के सामने उपस्थित 
न हुआ होता, तो संसार में राम-गुण-गान करने वाले, रामायण काव्य 
की सृष्टि ही न रची जाती। करुण रस के प्रभाव ने ही वाल्मोकिजी से 
यह महान्‌ काय कराया । 


रस की छोकोत्तरता 


जिस काव्यानन्द की इतनी महिमा गाई गई है. वह क्‍या है ! आनन्द 
मन का एक व्यापार है, जो मनुष्य की आकृति और भाव-भजक्लि से जाना 
जाता है | हृदय का सुख या दुःख मुख-मणडल पर प्रतिविम्बित हुए. बिना 
नहीं रहता | हर्ष के समय शरीर में एक अद्भुत काय-शक्ति उत्पन्न हो 
जाती हे । मज्जातन्तुश्रों द्वारा, मानसिक आनन्द का, सारे शरीर पर प्रभाव 
पड़ता है | जब कोई सुन्दर दृश्य देखता अथवा श्रवणु-सुखद संगीत 
सुनता है, तब उसके हृदय की अवस्था ऐसी द्वो जाती है, कि उसे और 
किसी बात की सुधनबुध ही नहीं रहती | उस समय की तल्लीनता में एक 
अद्भुत आनंद अनुभव द्वोने लगता हे । सांसारिक विषयों के आनन्द 
क्णिक होते हैं, परन्तु जब जिज्ञासु परमात्मनिष्ठ हो, उसी में तल्लीन 
हो जाता हे, तो परमानन्द की प्राप्ति होती हे । काव्यों और नाटकों से 
प्राप्त होने वाला आनन्द चिरस्थायी नहीं होता। परन्तु यदि परमात्म- 
दशन के विचार से ब्ह्मशान सम्बन्धी वेदादि ( काव्यों ) का सम्यक 
रसास्वादन किया जाय, तो वह परमानन्द की प्राप्ति में सहायक होता है । 
परमात्मा कवि है, उसका काव्य वेद है। कहा भी है-...'पश्य देवस्य 


५ रेरे ) 


काव्यमू न ममार न जीयति?--ऋ । श्रर्थात्‌ परमात्मा के काव्य को 
देख, जो जीण॑-शीण या नष्ट नहीं होता । 


काव्य-चर्चा में, लोकोत्तरानन्द का उल्लेख अनेक बार श्राता है। 
लोकोत्तरानन्द की प्राप्ति ही काव्य का चरम ध्येय हे। यह लोकोत्तरानन्द 
क्या है, इसके समभने के लिए हमें व्यष्टिगत ओर समष्टिगत श्रानन्द की 
विवेचना करनी होगी | एक वह आनन्द हे, जिसका अ्रनुभव किसी व्यक्ति 
विशेष को ही होता है। यदि कोई विद्यार्थी परीक्षा में अच्छे नम्बरों से 
पास होता है अ्रथवा किसी व्यक्ति को कहीं से धनराशि मिल जाती है तो 
उसे व्यष्टिगत प्रसन्नता होती है, समष्टिगत नहीं | ठीक भी है, अगर बम्बई 
के किसी ब्यक्ति को प्रचुर धन प्रासम हो जाय तो उससे अन्य लोगों को 
प्रसनन्‍्ता क्‍यों हो ? क्योंकि वह व्यक्तिगत स्वार्थ है । परन्तु जब 
किसी रंगमंच पर हम. रामलीला का अभिनय देखते हैं तो राम की 
विजय और सफलता के कारण सभी दशकों के हृदय में समान रूप से 
ग्रानन्द का सागर उमड़ने लगता है। यही समष्टिगत आनन्द लोकोत्तरा- 
नन्‍द कहाता है। लोकोत्तरानन्द में वेयक्तिक स्वार्थ की भावना नहीं 
रहती । वह सबके लिये समान होता हे । 


साहित्यदपणकार लोकोत्तरानन्द की विवेचना करते हुए लिखते 
हैं, कि अ्रखणड, स्वप्रकाश, चिन्मय, ज्ञानान्तर के संस्पश से रहित 
ब्रह्मास्वाद के समान 'साधारणी कृति” व्यापार से उत्पन्न, सहृदय सामाजिक 
हृदय संवेय जो “चमत्कार प्राण” आनन्द दे, वही लोकोत्तर रस का स्वरूप 
है, जो कि रज और तम से रहित सत्वोद्रेक वाले मन से ही उत्पन्न 
दोता हे । 


काव्यानन्द ब्रह्मानन्द का सहोदर माना गया हे । क्यों ? इसका उत्तर 
'काब्य-प्रकाश” में बड़ी सुन्दरता पूवंक दिया है। श्रर्थात्‌ जिस प्रकार 
ब्रह्मास्वाद यानी मुक्ति-दशा में ब्रह्म ही प्रकाशित रहता है, श्रन्य भावों का 
तिरोभाव हो जाता है, इसी प्रकार जिस समय विभावादि, स्थायी भावों के 


( हऐ६ ) 


साथ मिल कर रस रूप में परिणत हो जाते हैं, उस समय भी केवल रस 
विकसित रहता हे, ओर सब उसी में लीन हो जाते हैं। श्रन्तःकरण में 
रजोगुग और तमोगुण को दबाकर, सत्वगुण का सुन्दर-स्वच्छु प्रकाश 
होने से, रस का सच्तात्कार होता हे । अखण्ड, श्रद्वितीय, स्वयं प्रकाश- 
स्वरूप. आनन्दमय और चिन्मय, चमत्कारमय यह रस का स्वरूप 
( लक्षण ) हे । इसका साक्षात्कार होते समय, दूसरे विषय का स्पर्श तक 
नहीं होता। रसास्वाद के समय विषयान्तर का शान पास तक नहीं 
फटकने पाता, अतएव यह ब्रह्मास्वाद ( समाधि ) के समान होता है। 
यही व दशित साहित्यदपंणकार के मत का आशय है। 

रस के ब्रह्मानन्द-सहोदर ओर लोकोत्तर होने में यह भी कारण हे कि 
यह लौकिक घटादि कार्यों के ज्ञान से विलक्षण होता है। लोकिक शान 
या तो ज्ञाप्य होगा या काय, नित्य होगा या भविष्यत्‌ , बतमान होगा या 
मूत, सविकल्पक होगा या निविकल्पक, परोक्ष होगा या प्रत्यक्ष | पर रस 
इनमें से किसी भी कोटि में नहीं आता। शाप्य तो वह इसलिये नहीं 
क्योंकि ज्ञाप्प घटादि कभी विद्यमान होते हुए. भी ज्ञात नहीं होते । 
रस विद्यमान होता हुआ ज्ञात न हो, ऐसा कभी नहीं होता। काय 
इसलिए नद्दीं, कि यदि रस विभावादि कारणों से उत्पन्न होता है. ऐसा 
माना जावे, तो रस के प्रतीतिकाल में विभावादिकों की प्रतीति नहीं 
होनी चाहिए। क्योंकि कारण शान और काय-ज्ञान दोनों साथ नहीं हो 
सकते, तथा विभावादि के समूद्दालम्बनात्मक ज्ञान को ही रस कद्दा गया 
है। नित्य इसलिए नहीं कि यह विभावादि ज्ञान से पहले नहीं रहता | 
अनित्य भी इसलिए, नहीं क्योंकि यह अ्निवंचनीय है | साज्ञात्‌ आनन्दमय 
प्रकाश रूप होने से भविष्यत्‌ या भूत भी नहीं | कार्य या शञाप्य के विलक्षण 
होने के कारण वतंमान भी नहीं | रसानुभवकाल में विभावादि का परामशं 
होता है, अ्रतः निविकल्पात्मक नहीं । इसका शब्दों द्वारा निरूपण नहीं 
कर सकते, इसलिए सविकल्पात्मक नहीं | साक्षात्‌कार ( अनुभूति स्वरूप ) 
होने से परोक्ष नहीं, और शब्दजन्य होने के कारण प्रत्यक्ष भी नहीं। 


( 3३७ ) 
इन्हीं कारणों से प्राचीन रसशाज्राचार्यों ने रस को अलोकिक, लोकोत्तर 
श्र ब्रह्मानन्द-सद्दोदर कहा हे । 


इस रस का आस्वादन सब लोग नहीं कर सकते । वे बड़भागी ही कर 
पाते हैं, जिनमें पूवजन्मकृत पुएय के वासनामय संध्कार होते हैं। काव्य- 
प्रकाश और साहित्यदपंण की, उपयुक्त पक्तियों से स्पष्ट हें कि जिस 
प्रकार भावों : विषयों ) का तिरोभाव होने से मुक्तदशा मं ब्रह्म मात्र 
प्रकाशित रहता हे, उसी प्रकार स्थायी भाव के रसत्व प्राप्त करने पर, 
रस ही रस दिखाई देता हे, विभावादिकों का सवथा तिरोभाव हो जाता 
है | जिस काव्य मं ब्रह्म-प्राप्ति की तरह भावों का तिरोभाव करने की 
क्षमता विद्यमान है, वही काव्य ब्रह्मानन्द-सहोदर, कहलाने का अधिकारी 
है।यह बात पहले ही बताई जा चुकी हे कि, काव्यानन्द-प्राप्ति मनुष्य 
की वासना, भाव पग्रहण-शक्ति और सहृदयता पर निभर है। जिसमें ये 
शक्तियाँ जितनी दही अधिक होंगी, उतना ही वह काव्यानन्द का अधिकारी 
बन सकेगा | 


रसों की उत्पत्ति 


काव्य में मुख्यतया नो रस माने गये हें--श्रर्थात्‌ » गार, हास्य, 
करुण, रोद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत ओर शान्त । अब प्रश्न यह है 
कि रस का विचार पहले पहल कब मनुष्य के मम्तिष्क में आया। इसका 
ढीक-ठीक पता लगाना तो कठिन है, परन्तु नादयशासत्र से इतना अवश्य 
जाना जाता हे कि, सव प्रथम द्वहिण ( ब्रह्मा ) ने, रस का रूप संसार के 
सामने रक्खा । भरत मुनि के मन्तव्यानुसार, श्रुद्धार, रोद्. बीर ओर बीभत्स 
इन चार ही रसों की पहले पहल उत्पत्ति हुईं। फिर श्रज्ञार से हास्य, 
रोद से करुण, वीर से अद्भुत और बीमत्स से भयानक रस पैदा हुए । 
अग्निषुराग में भी यही मत प्रदर्शित किया गया है । अर्थात्‌ ब्रह्मा के 
अहंकार से ममता की उत्पत्ति हुई | ममता से रत और रति से श्ज्ञार 
का जन्म हुआ । प्रीतिमूलक होने से शज्ञार आ्रानन्दमय हे। आनन्द में 
बाधा पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है, वही रोद्र रस है। क्रोध आ्राने पर, 
विरोध का परिद्दार करते हुए, प्रतिकूल परिस्थिति का सामना करने को 
सोत्साइ सन्‍नद्ध होना ही वीर रस हैे। इस उत्साहपूर्ण साम्मुख्य में, 
किसी प्रकार वैरी-विरोधियों से घृणा हो जाने के कारण ममता का संकुचित 
या संकी्ं हो जाना ही बीभत्स रस का उत्पादक हे | 


ऊपर यह दिखाया गया है कि पहले पहल “£गार, रौद्र, वीर और 
वीभत्स इन चार रसों की ही उत्पत्ति हुईं, शेष पाँच रसों को जन्म देने 
वाले ये ही चार रस हैं। इन चार रसों से और रस किस प्रकार निकले 
इसे भी सुन लीजिये। श£गार की नकृल करने से हास्यरस पैदा हुआ । 
किसी का अनुकरण करने से हँसी आनी स्वाभाविक दी हे । राजा-रानी, 
साधु-सन्‍्त, कुत्ता-बिल्ली, तोता-मैना इत्यादि किसी की भी नकृल क्‍यों न 
की जाय, लोगों को हँदी आये बिना न रहेगी। प्रेमियों के हास-विलास, 


( रे६ ) 


ब्यवहार श्रथवा रति-गोपनादि कार्यों में तो द्वास्य की कलक रहती द्वी हे । 
कुछ लोगों ने अद्भुत रस भी हास्य का जनक माना है, क्योंकि कभी-कभी 
श्राश्वय॑ंजनक बातों से भी हँसी का फ़ब्वारा छूट निकलता हे । 

अग्निपुराण के मत में रोद्र से करुण रस की उत्पत्ति हुई, क्योंकि 
क्रोध में आ्ाकर ऊटपटाँग बकना, गालियाँ देना, ममवेधिनी बातें कहना, 
शेख्ी मारना आदि ऐसे काय हैं, जो लोगों के ममंस्थल में घाव कर उन्हें 
व्याकुल कर देते हैं, जिससे वे करुणा के पान्न बन जाते हैं| कुछ आचार्यों 
ने करुण रस को श्ज्ञार से उत्पन्न हुआ माना है. वे कहते हैं कि करुण 
रस का स्थायीमाव शोक है, श्रोर शोक प्यारी वस्तु के लिए ही किया 
जाता है| वीर रस से अद्धत रस की उत्पत्ति मानी गई है। ठीक भी हे, 
युद्ध में योद्धा श्रों द्वारा जेसे-जैसे अश्चयजनक काय होते हैं, उनके कारण 
दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है । भारतीय महाभारत का अवलोकन 
कीजिये, चाहे यूरोपीय महायुद्धों का वर्णन पढ़िये, सबंत्र ही आपको वीरों के 
ऐसे ग्राश्वयजनक काय-कलाप दिखाई देंगे, जिनमे बुद्धि चकराने लगेगी। 
यही अ्रद्भधुत रस है | बीमत्स को भयानक रस का जनक माना गया हे। 
श्मशान भूमि या युद्ध-्षेत्र दोनों की ही बीभत्सता देखकर, भय की उत्पत्ति 
होती है| जहाँ लोथों पर लोथ पड़ी हों, रुधिर धाराएँ बह रही हों. हड्डियों 
के ढेर लगे हों, चील-कोए ओर गिद्ध आँखें निकाल-निकाल कर खा रहे 
हों, श्र॒गाल अतड़ियाँ खींच रहे हों, कुत्ते चर्बी चाटने में निमग्न हों । 
कहीं धड़ पड़े हों, ओर कट्ीं मुएड लुढ़क रहे द्वों. कहीं चिताएँ जल रही हों, 
और कहीं मांस, भेद की दुगनन्‍्ध से नाक सड़ी जाती हो ऐसे दुद्द श्य को 
देख कर किसे भय न लगेगा | 

इन आठ रसों के अनन्तर, आ्राचार्यों ने नव शान्त रस का आविष्कार 
किया । महाभारत श्रादि ग्रन्थ शान्त रस प्रधान हैं। शान्त रस का 
स्थायी भाव निर्वेद है। संसार की अनित्यता देखकर विषयों से विरक्ति 
हो जाने पर ही निवेद की उत्पत्ति होती हे । रस गंगाधरकार ने उच्च 
कोटि के निवंद को ही शान्तरस का स्थायी भाव माना हे। साधारण 


( ४० ) 


गहकलहादि से उत्पन्न निवेंद को वे संचारी कहते हैं। किसी किसी ने 
“शुम?! को शान्त रस का स्थायी माना है। 


उपयुक्त धारणा के विरुद्ध किसी-किसी ने भयानक से रौद्र रस की 
उत्पत्ति मानी है, क्योंकि यदि किसी को डराया घमकाया जाय तो वह 
क्रद्ध हो जाता है | इसी प्रकार रोद्र की तरह शान्त रस भी करुण रस का 
उत्पादक बताया है। क्योंकि सांसारिक विषय-वासनाओ्रों से विरक्त व्यक्ति 
जब एकान्त में परमात्म चिन्तन करता हुआ, अपने कृत कर्मो' पर दृष्टि- 
पात करता है, तो उसे बड़ा विषाद होता है, उस समय वह साश्रुनयन 
होकर, गद्गद्‌ वाणी द्वारा भगवान से क्षमा याचना करता है। 


कुछ भ्राचार्यो' ने उपयक्त नव रसों के अतिरिक्त और भी कई रस माने 
हैं। जिनमें लोल्य, कापण्य, सख्य, उद्धत, दान्त, वात्सल्य ( प्रेय; ।, भक्ति 
आदि मुख्य हैं। जिस रस का स्थायीभाव स्नेह हो वह “प्रेयः माना गया है, 
धघैयं स्थायीभाव वाला दान्त, गव॑ स्थाबीभाव वाला उद्धत, श्रभिलाष 
स्थायीभाव वाला लोल्य, श्रद्धा स्थायीभाव वाला भक्ति और जिसका स्थायी 
स्पृह्दा हे, वह कापण्यरस कहां गया है । कुछ विद्वानों की सम्मति में स्नेह, 
भक्ति ओर वात्सल्य रति के द्टी रूप हैं। श्रर्थांत्‌ जत्र बराबर वालों में रति 
या प्रीति होती है, तो उसका नाम स्नेह, छोटों के साथ प्रीति का नाम 
वात्सल्य और बड़ों के साथ जो प्रेम हो उसे भक्ति कहते हैं । 


यों तो वत्तमान युग में समाज-युधार, स्वदेश-भक्ति, मातृ-भाषा प्रेम 
ग्रादि विषयों पर जो भावमयी कविताएं की जा रही हैं, वे भो किसी 
न किसी रस में अ्रवश्य ही स्थान पाने की अ्रधिकारिणी हैं, चाहे वह 
भक्ति रस हो, अथवा दूसरा। बहुत-सी ऐसी कविताएँ भी द्दो सकती हैं, 
जो किसी भी वर्णित रस के अन्तगत न होकर, अपनी स्वतन्त्र सत्ता 
रखतो हैं। ऐसी कविताओं के लिये नये रसों की सृष्टि रचनी पड़ेगी । 
परन्तु हमारी समझ में यदि इस प्रकार रसों की कल्पना की जायगी 
तो रसों की संख्या का निर्दारण करना ही श्रसम्भव हो जायगा | 


( ४१ ) 


महाकवि देव ने रसों के सम्बन्ध में एक नया विचार प्रस्तुत किया हे । 
वे कहते हैँ कि जिस रस के ज्ञान कराने में, नेत्नादि इन्द्रियाँ सहायक 
होती हैं, वद लोकिक रस है. ओर जिस रस का बोध कराने में उपयुक्त 
इन्द्रियाँ कुछ सहायता नहीं देतीं, श्रोर जो केवल श्रात्म एवम्‌ मन के 
संयोग से ही जाना जाता है, उसे अलोकिक रस कहते हैं। देवजी ने 
लोकिक के नो और ग्रलौकिक के तीन भेद किये हैं। लौकिक नो रसों से 
उनका शअ्रभिप्राय प्रसिद्ध नव रसों से है। श्रोर अलोकिक तीन रस ये ह-- 
स्वाप्नरिक, मानोरथिक तथा औपनायिक | स्वाप्नरिक रस से देवजी का 
अभिप्राय स्वप्न में प्राप्त आनन्द से जान पड़ता है। मानोरथिक रस में 
मनोराज्य की कल्पना की गई प्रतीत होती है. और ओऔपनायिक से प्रयोजन 
हास- विलास एवं रास द्वारा उपनीत ग्रानन्द प्राप्त करना भासित होता है । 
परन्तु देवजी के उपयक्त अलौकिक रसों का साहित्य जगत्‌ में उल्लेख 
या प्रचार नहीं हे। होता भी केसे, क्योंकि उनके पूर्वोक्त दो भेद, शज्जञार 
रस के 'स्वप्न-दशंन” और वियोग की दस दशाओं में वणिणत श्रभिलाषा 
के ही रूप हैं। तीसरा भेद हास्य रस के अ्रन्तगंत त्रा जाता हे | 


कुछ लोगों ने बात, पित्त ओर कफ के अ्रनुसार भी रसों का विभाजन 
किया हे, कुछ ने उन्हें सत्व, रज, तम, के अनुसार ठहराया है, ओर कुछ 
विद्वानों ने ब्राक्मणादि चतुबंण के गुण-कर्मानुसार उनका वर्गीकरण किया 
है। सबने अपनी-अ्रपनी धारणाओं की पुष्टि में युक्तियाँ भी दी हैं. परन्तु ये 
युक्तियाँ साहित्यिक विचार-परम्परा पर अपना प्रभाव श्रट्धित करने के लिए 
पयाप्त नहीं कही जा सकतीं। सम्भव हे, रसों को ऐसा रूप देने वालों का 
इरादा उन्हें धार्मिक धारा से सम्बद्ध करना हो । 


इस विषय में कुछु विद्वानों ने इस प्रकार भी विचार किया है कि 
जीवन सुख-दुःखमय है। सुख पहुँचाने वाली चीज़ों से मनुष्य प्रेम करता 
है, श्रोर दुःख देने वालियों से घुणा | इस प्रेम और घृणा को राग-द्वेष 
के नाम से भी पुकार सकते हैं। मानव-जीवन के सारे भावों की जननी 


( ४२ ) 


राग-द्वेषात्मक यही दो वृत्तियाँ हैं | जहाँ प्रेम-वृत्ति का सम्बन्ध समान व्यक्ति 
के साथ होता हे, वहाँ उसे मेत्री भाव कद्दते हैं। जब यह बृत्ति बड़ों के 
साथ सम्बन्धित होती हे, तब वह भक्ति या प्रतिष्ठा में परिणत हो जाती है, 
झोर छोटों के साथ वात्सल्य या दयालुता का रूप धारण कर लेती है । 
दूसरी श्रोर द्वेष-वृत्ति को लीजिए, जब इसका सम्बन्ध बराबर वालों से 
होता हे, तो चिड़्चिड़ापन, उग्रता, क्रोध, श्रभद्रता त्रादि की स॒श्ि होती 
है। बड़ों के साथ इसके सम्बन्धित होने से कायरता श्रोर ईर्ष्यालुता का 
जन्म होता हे, और अगर द्वेष के पान्न असम तथा छोटे लोग हुए, तो 
वहाँ क्रोध ओर उग्रता का ठिकाना नहीं रहता । यदह्दी बात और विस्तार 
से कद्दनी हो, तो निम्न प्रकार कही जा सकती है। जिन भावों का प्रेम से 
जन्म होता है, पहले उन्हें देखिये । बराबर वालों के साथ प्रेम होने पर 
नीचे लिखे भाव पेदा होते हैं--- 


सरलता, सदाचरण, सुशीलता, विवेचकता, मृदुता, सद्वृदयता, मित्रता, 
सहकारिता, मिलनसारी इत्यादि । 

बड़ों के प्रति प्रेम होने पर--- 

संकोच, आज्ञाकारिता, विनम्रता, शान्ति, भक्ति, गम्मीरता, निष्कपटता, 
ग्रकिंचनता इत्यादि | 

छोटों के साथ प्रेम होने पर -- 

दयालुता, सद्धावना, कोमलता, भद्रता, उदारता, शुभचिन्तना, 
सराहना, मृदुभाषण श्रादि | 

अब घुणा से उत्पन्न होने वाले भावों पर विचार कीजिए । 

बराबर बालों के साथ द्वेष होने पर निम्न लिखित भावों का जन्म 
होता है- 

अभद्रता, अशिष्टता, चिड़चिड्रापन उदण्डता, क्रोध, दमन दृत्यादि | 

बड़ों के साथ द्वंष दोने पर-.. 

सन्देह, भय, कायरता, ईदष्यालुता, द्वेष इत्यादि । 

छोटों के साथ--- 


( ४३ ) 


दम्भ, दौरात्म्य, घमण्ड, आ्रात्मश्लाधा, उग्रता, अविनय, घुणा, 
उद्दण्डता, अ्रत्याचारिता, स्वार्थान्धता, दूसरों को तुच्छु समभना इत्यादि | 


ऊपर के विवेचन से यह बात स्पष्ट प्रतीत होगी, कि प्रेम और घुणा 
से ही प्रायः मुख्य-मुझ्य .भावों की उत्पत्ति होती हे। अन्यभाव बहुधा 
इन्हीं भावों से निकले हैं । फिर चाद्दे वे भाव प्रेम-प्रसूत या घृणा-जनित 
भावों के प्रथक.प्रथक्‌ सम्मिश्रण हैं, श्रथवा दोनों के मिलकर | उदाहरणाथ 
वीरता को ही लीजिए इसकी उत्पत्ति दया और दमन के भावों से है । 
अथात्‌ निबलों पर दया कर के उनकी सहायता करना और भअत्याचारियों से 
घृणा कर उन्हें दबाना। साहसशीलता, शक्तिमत्ता, दृढ़ता, धीरता आदि 
वीरता के ही भेद हैं। विश्वास की भावना क्या है ? दूसरे के काय-कलाप 
ओर विचारों के साथ प्रम करना | 


इसी प्रकार विश्वासघात, जलन, कटुता, छुल, कपट, चिन्ता, असन्‍्तोष 
कुढन, अधमता, मलिन-मनोवृत्ति, असावधानता, मिथ्यात्व, दिखावट, ध्रृष्टता, 
चालाकी, उत्सुकता, लोलुपता, लज्जा, शेखी, आत्मश्लाघा, आशावादिता, 
पवित्नता, न्यायप्रियता, दातृत्व-भावना, क्षमाशीलता, सन्तोष, दयाद्वता, पर 
दुःख कातरता प्रसन्नता, सहनशीलता, विश्वासपात्रता आदि जितने भी भाव 
हैं, वे सब उपयुक्त घृणा ओर प्रेम दो बृत्तियों से ही सिद्ध किये जा सकते हैं। 
कविता के नौ रसों में मी इन वृत्तियाँ का पूरा प्रभाव हे, बल्कि कहना 
चाहिए कि ये रस भी प्रेम और घृणा से ही उद्भूत हुए हैं । 


ग्राचार्यों ने रसों के भिन्न-भिन्न देवता भी माने हैं. यथा शज्ञार के 
देवता श्रीकृष्ण; हास्य के प्रमथ ( शिवगण ); करुण के वरुण; रौद्व के 
रुद्र; वीर के इन्द्र ; भयानक के काल ; बीभत्स के महाकाल ; श्रद्भुत के 
ब्रह्मा और शान्त रस के विष्णु भगवान । श्रीकृष्ण रस-रंग के प्रेमी थे, ओर 
व्रज-बालाशों के साथ रास-लीला किया करते थे. श्रतएव वे श्व॒ज्भञार रस 
के देवता हुए। विष्णु भगवान्‌ द्वारा नारदजी का वानर रूप किये जाने 
पर शिवजी के गण प्रमथ ने उनकी हंसी उड़ाई थी, अ्तएव वे हास्य रस 


( ४४ ) 


के देवता माने गए । करुणा से मनुष्य का द्वुदय द्रबित हो जाता है; जल 
भी द्रव पदाथ है. श्रतएब जल के देवता वरुण ही करुण रस के देवता 
निश्चित किये गए। शिवजी ने क्रोध से रुद्र-रूप धारण कर कामदेव को 
भस्म किया था, इसीलिए, उनका नाम “रुद्र! भो है। रोद्र रस का स्थायी- 
भाव क्रोध होने के कारण, क्रोध की साक्धात मूर्ति रुद्र को उसका देबता 
बनाना उचित ही है । देवेन्द्र देत्यों के साथ युद्ध करने + अ्भ्यस्त हैं, 
अतएव वे वीर रस के अ्रधिष्ठाता हुए। मृत्यु-देवता यमराज के भय से 
कोन थर-थर नहीं कॉपता, अ्रतएव इनको भयानक रस का अध्यक्ष बनाया 
गया । महाकाल को विविध बीभत्स दृश्यों का उत्पादक होने के कारण 
बीभत्स रस का देवता माना गया। विश्व की विचित्रताश्रों का विधाता 
ब्रह्मा ही है. इसलिए. वह अद्भुतरस का देवता हुआ। अब रह गया 
शान्त रस, सो इसके अधिष्ठाता स्वयं विष्णु भगवान्‌ हैं| विष्णु की शान्ति 
संसार-प्रसिद्ध है, लोक को स्थित रखने वाले वही हैं . भ्गु की लात खा 
कर भी बराबर शान्त बने रहना उन्हीं का काम था। उपयंक्त रसों के 
देवता पौराणिक परम्परा के अनुसार माने गए हैं। प्रत्येक रस का देवता, 
उसके अनुरूप ही निश्चित किया जाना, कम बुद्धिमत्ता की बात नहीं है | 
ऐसा होने से रसों की विशेषता बहुत कुछ बढ़ गई है । 


रस-विरोध और मैत्री 


जिस प्रकार पशु-पक्तियों और मनुष्यों में परस्पर विरोध पाया जाता है. 
उसी प्रकार रसों में भी विरोध होता है । करुण, बीमत्स, रोद्र, वीर और 
भयानक के साथ शज्भार रस का विरोध है। इसी भाँति भयानक और 
करुण से हास्य का; हास्य औ्रोर श्क्लार से करुण का; हास्य, 'ज्भार और 
भयानक से रोद्र का ; श्रज्भार, वीर, रौद्र, हास्य और शान्त से भयानक 
रस का ; भयानक और शान्‍्त से वीर रस का; वीर, श्वज्ञार, रौद्र. 
हास्य ओर भयानक से शान्त रस का; एवम्‌ श्ृद्भार रस के साथ बीभत्स 
रस का विरोध माना गया है। कद्दते हैं कि शान्त रस के विरोधी, शशज्ञार, 
हास्य और रोद्र हैं, परन्तु इन तीनों का विरोधी शान्त रस नहीं । हास्य रौद्र 
का विरोधी है. लेकिन रोद्र हास्य का विरोधी नहीं है। इसी प्रकार वीर 
रस शज्जार का विरोधी दे, परन्तु श्रज्ञार वीर का विरोधी नहीं है।इस विषय 
में पणश्डतराज जगन्नाथ और कविराज विश्वनाथ के मतों में सामञ्जस्य 
नहीं हे। अस्तु : रस-विरोध का अश्रथ यह है कि विरोधो रसों का साथ- 
साथ वर्णन न किया जाय । इससे रसास्वादन का आनन्द और उददंश्य 
नष्ट हो जाता है। साधारण जीवन में भी हम देखते हैं, कि यदि कहीं 
हास्य-विनोद हो रहा हो, तो वहाँ शोक ओर भय की चर्चा सारा मज़ा 
मिद्दी मे मिला देती है । अथवा जहाँ शोक छाया हो, वहाँ हँसी-मज़ाक, 
आमोद-प्रमोद या सजावट-बनावट को बाते अ्रच्छी नहीं लगतीं। इसी 
प्रकार अ्रन्य रसों के सप्जन्ध में समझना चाहिये। जिस प्रकार रसों का 
परस्पर विरोध है, उसी भाँति उनमें मित्रता भी है। श्रर्थात्‌ शरज्ञार की 
हास्य से ; करुण की रोद्र से; वीर की अद्भुत से औ्रोर बीभत्स की 
भयानक से मित्रता मानी गई हे। रसों की इस मैत्री का यह भी कारण 
प्रतीत होता है, कि उनकी एक दूसरे से उत्पत्ति हुई है। यानी हास्य, 


( ड४डंवे ) 


रोद्,, अद्भुत ओर भयानक क्रमशः “ज्ञलार, करुण, वीर और बीभत्स से 
निकले हैं | 

प्रयत्न करने पर भी जब परस्पर विरोधी दो रस एक स्थान पर आा 
जायें तो काव्य-प्रकाश के मतानुसार उनका परिहार इस प्रकार करना 
चाहिये कि यदि दो विरोधी रसों का समान आलम्बन हो तो उन दोनों में 
भेद--अन्तर कर दिया जाय । श्रथांत्‌ उन दोनों के बीच में ऐसे रस की 
स्थापना की जाय जो दोनों का विरोधी न हो । जब विरोधी रस का श्राधार 
स्मरण हो, या जब दो विरोधी रसों में साम्य स्थापित कर दिया जाय 
तो विरोध का परिहार हो जाता है। जब दो विरोधी रस किसी श्रन्य रस 
के अज्ञाड्ि भाव से अज्ञ बन गए हों, तब भी विरोध का परिद्दार हो 
जाता है। रस गंगाधरकार के मत में जहाँ एक से विशेषणों के प्रभाव 
से दो विरुद्ध भाव अ्रभिव्यक्त हो जाते हैं, वहों भी उनका विरोध निदृत्त 
हो जाता है | 


रस ओर सश्वारी भाव 


सञ्ञारी या व्यभिचारी भावों में से कोन-कोन तश्जारी किस-किस रस में 
होते हैं. यह बात नीचे लिखे विवरण से श्रच्छी तरह जानी जा सकेगी । 


श्रक्धार रस में--आलस्य, उग्रता और जुगुप्सा ये तीन संचारी सम्भोग 
श्रज्धार में वजित हैं । 

विप्रलम्म शज्ञार में---आलस्य, ग्लानि, निवंद, श्रम, शंका, निद्रा, 
श्रौत्सुक्य, अपस्मार, सुप्ति, विबोध, उनन्‍्माद, जड़ता और श्रसूया ये 
संचारी होते हैं । 


हास्य रस में--अवहित्य, आलस्य, सुप्ति, निद्रा, विबोध, श्रम, 
चपलता. ग्लानि, शंका, श्रसूया आ्रादि संचारी होते हैं । 

करुण रस में--मोह, निवेद, देन्य, जड़ता, विधाद, भ्रम, अपस्मार, 
उन्माद, व्याधि, श्रालस्य, स्मृति, स्तम्भ, स्वर-भेद और अ्रश्रु संचारी 


होते हैं । 


( ४७ ) 


रौद्र रस में--उत्साह, स्मृति, स्वेद, आ्रवेग, अ्रमषं, उग्रता और 
रोमाश्व संचारी होते हैं । 

वीर रस में---उत्साह, घृति, मति, गवं, श्रावेग, अमर, उग्रता और 
रोमाश्न संचारी होते हैं । 

भयानक रस में--स्तम्भ, स्वेद, स्वरभंग, रोमाश्, वैवण्य, शंका, मोह, 
आवेग, देन्य, चपलता, त्रास, अ्रपस्मार, प्रलय और मू््छा संचारी 
होते हैं । 

बीभत्स रस में --श्रपस्मार, मोह, आवेग और वैवर्य संचारी होते हैं । 

अद्भुत रस में--स्तम्म, स्वेद, स्वर्भंग, अश्र, रोमाश्च, विभ्रम और 
विस्मय संचारी होते हैं । 

शान्त रस में - धृति, मति, दप श्रोर स्मृति संचारी होते हैं । 

वात्सल्य रस में-- हष, गव॑, शंका आदि संचारी होते हैं । 

कहीं-कहीं स्थायीमाव भी संचारी बन जाते हैं। जेसे 'ज्ञार में हास, 
शान्त, करुण | हास्य में रति और करुण | करुण में भय तथा शोक | 
वीर रस में क्रोध. भयानक में जुगुप्सा तथा सम्पूण रसों में उत्साह तथा 
विस्मय संचारी बन जाते हैं । 


रसों के सूक्ष्म भेद 


रसों के सम्बन्ध में उनके सूदम भेदों की ओर संकेत कर देना भी 
आवश्यक हे। यथा--करुण और रौद्र दोनों में ही इृष्ट-हानि होती हे । 
परन्तु शोकजनक इृष्ट-हानि पर मनुष्य का काबू नहीं चलता, इसलिए उसमें 
कुछ न कर सकने के कारण करुणा, दीनता, निराशा, ग्लानि आदि को ही 
प्रधानता रद्दती है और रोद्र में क्रोध श्राता हे, क्योंकि इसमें अ्रनिष्ट करने 
वाले पर वश चलने श्रौ*. उससे बदला ले सकने की सम्भावना रहती 
है। इस श्रवस्था में श्राशा, गव श्रोर रोष विशेष रूप से परिलक्षित होते 
हैं, बीर श्रोर रौद्र रस में यह अन्तर है कि वीर रस में क्रियात्मकता का 
आधिक्य द्ोता है, और रोद्र रस गव॑-गौरव वर्णन तथा रोष-प्रदशन तक 


( इडैंपएा ) 


ही सीमित रहता है | वीर में उदारता, धीरतादि की विशेषता होती है और 
रौद्र में चीखने-चिल्लाने तथा डींग मारने की | पहला भविष्य से सम्बन्धित 
हैं श्रेर दूसरा वतमान से। भय ओर क्रोध में शक्तियाँ विकसित हो जाती 
है, ओर बीमत्स में संकुचित | कहीं-कहीं पान्न-मेद से बीभत्स भयानक रस 
का रूप धारण कर लेता है। जेसे श्मशान का दृश्य कमज़ोर तबियत 
वालों को तो भयानक बन कर डरा देता है, परन्तु जिनका दिल मज़बूत है. 
उन्हें उससे ग्लानि या घृणा मात्र होती है । 


भाव तथा रसाभासादि 


भाव, रसाभास, भावाभास, भाव-शान्ति, भावोदय, भाव-सन्धि और 
भाव-शबलता ये सब आस्वादित होने के कारण रस कहते हैं। साहित्य- 
दपणकार कहते हैं कि, प्रधानता से प्रतीयमान निर्वेदादि सद्चारी भावों तथा 
देवता, गुरु आदि के विषय में अनुराग , एवं सामग्री के अभाव से रस-रूप को 
श्रप्राप्॒ उद्बुद्ध मात्र रति, हास आदि स्थायियों की *भाव” संशा है। श्रर्थात्‌ 
देवता, गुरु, मुनि, राजा, पुत्र आदि जहाँ रति के आलम्बन होते हैं, वहाँ 
रति 'भाव? कहलाती हे। श्रोर जहाँ रति आदि नवों स्थायीभाव उद्‌बुद्ध- 
मात्र हों, अर्थात्‌ वे विभाव, अनुभावादि से परिपुष्ट न हुए हों, वहाँ उनको भी 
भाव कहते हैं । निवंदादि सश्जारी जहाँ प्रधानता से प्रतीयमान ( ब्यज्जित ) 
होते हैं, वहाँ वे भी भाव कहाते हैं। जिस छुन्द या काव्य में, सश्जारी भाव 
की प्रधानता होती है, वह भाव-प्रधान कद्दा जाता है। काव्य में रस की 
प्रधानता होती है, रस की मौजूदगी में, सशञ्चारी भाव का प्रधान होना 
उसी प्रकार है, जिस प्रकार मन्त्री के विवाद में राजा के होते हुए भी, 
मन्त्री की ही मुख्यता का माना जाना । अ्रथवा यों समक्तिये कि 'प्रपानक! 
तैयार होने पर, उसमें मिच आ्रादि किसी पदार्थ की तेज़ी हो जाना । साहित्य- 
दपणकार ने इस प्रसंग में पावती के विवाह का उदाहरण दिया हे । 
अर्थात्‌ “ शिवजी के साथ अ्रपने विवाह की चर्चा सुन कर, पिता के पास 
बैठी हुई पावती नीची गदंन किये, लीला कमल की पंखड़ियाँ गिनने 
लगीं ।?”' यहाँ अवहित्था संचारी की प्रधानता है । 


नमन अजजजनी क७.. .७+-०+-००-- के +-अकलकनजा अर. 3>2कआ. 33 नकीिन फाकक कक अमननन 3 छा. अनजान “7 “ह+ 72७ -+७क-- ५०५०-२3. कप पा +३33२७३७कक बनते -+ कक ०.>-+००-+ ५७ २०क-.६_६९+3 व ३.->स-+-.क ७ ५३७-.?घ भा»... ९००७० ३....ल्‍8- ०. भकमा 2०५०५ परनक, 
+. वमयक 


कछोक  १--एवं बादिनि देवया पाश्वें पितुरधोमुली । 
सीला-कमल-पत्राणि गणवामास पायती ॥ 
दिल न०-- ४ 


( ४० ) 


देबता विषयक रति का उदाहरण देखिए---“चाहे में स्वगं में रहूँ, चादे 
प्रथिवी पर, और चाहे नरक में मेरा निवास हो, परन्तु दे नरकान्तक 
मुकुन्द, मरते समय भी में तुम्हारे चरणारविन्द का स्मरण करता रहूँ।”' 
यहाँ भक्त की मुकुन्द के सम्बन्ध में रति है । इसी प्रकार गुरु, राजा, पुत्र, 
ऋषि, मुनि श्रादि के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिये । 


उद्बुद्ध मात्र स्थायीभाव का उदाहरण देखिए-- "हिमालय में वसन्‍्त 
पुष्पालंक्ृता पावती को देख कर, शिवजी का जैय कुछ विचलित हो गया ; 
झोर वे पावती के चद्रानन पर अपनी भाव-भरी दृष्टि डालने लगे |”? 
यहाँ पावती के रूप-लावण्य को देखकर शिवजी के द्वदय में रति उद्बुद्ध 
मात्र हुई हे, श्रतएव वह भाव है । 

रस ओर भाव श्रनुचित रूप से प्रयुक्त या अ्योग्य रीति से वर्णित 
हुए हों, तो वे क्रश: रसाभास और भावाभास कहलाते हैं। श्रनोचित्य 
से अभिप्राय देश-काल आदि के विरुद्ध वणंन करने से है। श्रनुचिताथ 
भी अनोचित्य में ही गिना जाता है। रसगंगाधर कार परण्डितराज जगन्नाथ 
का कहना दे कि जो बातें अनुचित हैं, उनका वर्णन रस-भज्ञ का कारण 
है, श्रतः उसे तो सवथा न आने देना चाहिए। रस-भज्जञ किसे कहते 
हैं, उसे भी समझ लीजिए । जिस तरह शबंत श्रादि किसी वस्तु में कोई 
कड़ी वध्तु गिरजाने के कारण, बह खटकने लगती है, उसी प्रकार रस के 


,५3७५+०2ा3> भजन स्‍कनाननआभन--+ 3.74. ८3 कान ननमनम पकनाक नमन ॑क>पन ५. 


१--दिवि वा भुविया ममास्तु वासो 
नरके वा नरकान्तक ! प्रकामम । 
झवधी रित शारदार विन्दो 
चरणों ते मरणे5पि चिस्तयामि ॥ 
२--इरस्तु किब्विप्परिक्सत घेय- 
श्रस्द्वोद्यारग्म इवाग्वुराशिः । 
उमा मुखे विम्वफद्चाधरोई , 
व्यापासर्यामास विद्योचनानि ॥ 


( ५१ ) 


अनुभव में खटकने को रस-भंग कहते हैं। श्रनुचित दोने का अथ यह हे 
कि, जिन-ज्ञिन जाति, देश, काल, वर्ण, आश्रम, अवस्था, स्थिति, व्यवहार 
आदि सांसारिक पदार्थों के विषय में, जोजो लोक और शास्त्र से सिद्ध 
एवम्‌ उचित द्रव्य गुण अथवा क्रिया आदि हैं, उनसे भिन्न होना । जाति 
ग्रादि के सम्बन्ध में जो अनुचित बाते हैं, श्रब उनके कुछ उदाहरण 
सुनिये.- जाति के विरुद्ध--जैसे बैल तथा गाय श्रादि को तेज़ी और बल 
के काय्य एवं सिंह आदि का सीघापन आदि। देश के विरुद्ध---जैसे 
स्वर्ग में बुढ़ापा. रोग श्रादि और प्रथ्वी में अ्रमृत-पान आंदि। काल 
के विरुद्ध--ठंड के दिनों में जल-विद्वारादि और गर्मो के दिनों में अग्नि- 
सेवन आदि | वर्ण के विरुद्ध-जैसे ब्राभझण का शिकार खेलना, क्षत्रिय 
का दान लेना ओर शूद्र का वेद पढना आदि | आश्रम के विरुद्ध --जेसे 
ब्रद्मचारी और संन्‍्यासी का पान चबाना और स्त्री ग्रहण करना | अ्रवस्था 
के विरुद्ध--जैमे बालक ओर बूढ़े का स्लरी-सेवन और युवा का वैराग्य । 
स्थिति के विरुद्ध--जेसे दरिद्रों का भाग्यवानों जैसा आचरण ओर 
भाग्यवानों का दरिद्रों जेसा आचरण | 

रस गंगाधर कार के बताये उपयुक्त अनौचित्यों के अतिरिक्त साहित्य- 
दपण कार ने भी कुछ अनोचित्य गिनाये हैं। शअ्रर्थात्‌ नायक के अतिरिक्त 
किसी अ्रन्य पुरुष में, यदि नायिका का अनुराग वर्णित हो तो वहाँ अ्रनोचित्य 
जानना । एवम्‌ गुरुपकी आदि में, श्रथवा श्रनेक पुरुषों में यदि वा दोनों 
में से किसी एक में द्वी ( दोनों में नहीं ) किम्बा प्रतिनायक श्रथवा 
नायक के शत्रु में, या नीच पात्र में. किसी नायिका रति वन अ्रथवा 
पशु-पक्ती विषयक रति की चर्चा द्वो तो, वहाँ शज्बार रस में श्रनोचित्य के 
कारण, »ज्जाराभास अ्रथवा रसाभास समझना चाहिए।। इसी प्रकार यदि 
गुरु आ्रादि पर क्रोध हो तो, रौद्र रस में अनौचित्य द्वोता हे, एवम्‌ नीच 
व्यक्तियों में शम स्थित द्ोने पर शान्त मे, गुर आदि आलम्बन हों तो हास्य 
में, ब्राह्मण-बध आदि कुकर्मा में उत्साह होने पर अ्रथवा नीच पान्रस्थ 
उत्साह होने पर वीर रस में, ओर उत्तम पात्रगत होने पर भयानक रस 


५ ४२५ ) 


में भ्रनोचित्य होता है। विरक्त में शोक होना करुण में, यज्ञ-पशु में ग्लानि 
होना बीभत्स में और ऐन्द्रजालिक कार्यों में विस्मय द्ोना अद्भुत में रसा- 
भास द्वोता है। 

अनौचित्य जनित रस-भद्जञ या रसाभास के जो कारण ऊपर बताये 
गये हैं, उनके अतिरिक्त और भी अनेक कारण हो सकते हैं। देश, 
काल, पात्र, आचार, विचार और सामाजिक स्थिति के आधार पर ही इस 
प्रकार के कारणों की कल्पना की जाती है। साधारण अवस्था में जो 
अनौचित्य होता है, कविता में भी प्रायः वही माना जाता है। कुछ विद्वानों 
की राय में यदि किसी रस में कुछ दोष आ जाय तो वहाँ रस नहीं रहता; 
क्योंकि दोष ओर रस एक साथ नहीं रह सकते | इस विचार के विरुद्ध 
कुछ विद्वान यह भी कहते हैं कि रस में कुछ दोष आ जाने से, रस नष्ट 
नहीं दो जाता, प्रत्युत वह बराबर बना रहता है | हाँ, उसे उस समय दोष- 
युक्त होने से रसाभास कह सकते हैं। ठीक भी दे, यदि हलवे की कड़ादह्दी 
में त्रिफले का कुछ अ्रंश पड़ जाय, अथवा घड़े-भर रस में रक्ती-भर कुटकी 
ढाल दी जाय तो यह नहीं कहा जा सकता कि हलवा हलवा नहीं रहा, 
या शबत से शबंतपन नष्ट हो गया। सुधार भावना से अनौचित्य का 
आाविभाव रसाभास का कारण नहीं माना गया | जैसे यदि कोई किसी 
साधु-सन्‍्त या गुरु-परिडित के सदोष होने पर, सुधार-भावना से उनकी हंसी 
करे, या उन पर व्यंग्य-वाण छोड़े तो यह अ्रनौचित्य रसाभास का कारण 
नहीं होता । 

कहीं-कहीं श्रनौचित्य से भी रस की पुष्टि मानी गयी हे, और उतने 
अनोचित्य का वर्णन निषिद्ध नहीं दे; क्योंकि जो अनुचितता रस की 
बिरोधिनी दो, वही निषेध्य द्वोती हे। उदाइरणाथ हनुमन्नाटक का नीचे 
लिखा 'छोक देखिये ; 


ग्रह्मक्षप्ययनस्य नेष समयस्तूष्णी बह स्थीयताम्‌, 
स्वल्पं जल्प बृहस्पते ! नडमते, नेषा सभा वज़िणः | 


( भरे ) 


वीणां संहर नारद ! स्तुति-कथालापैरलं तुम्बुरों !, 
सीता रक्षक भन्न भग्न द्वदयः स्वस्थोी न लक्केश्वरः॥ 

अर्थात्‌ हे ब्रह्माजी, यह वेद-पाठ का समय नहीं है। चुप होकर 
बाहर बैठो | हे वृहस्पते, जो कुछ कइना है, थोड़े में कहो । मूर्ख, यह 
इन्द्र की सभा नहीं है कि धंटों बक-बक करते रहो । नारदजी, अपनी 
वीणा समेट लो | दे तुम्बुरो, इस समय खुशामद की बाते न करो, क्योंकि 
सीता की विरूनियों के भालों से लंकेश्वर रावण का दृदय घायल हो गया 
है, वह स्वस्थ नहीं हैं । 


इस >छोक में ब्रह्मादिकों के तिरस्कार के लिए बोले गए द्वारपाल के 
वचनों की * अनुचितता ” दोष नहीं है । क्योंकि उनसे रावण के परमैश्वय 
की पुष्टि होती है, ओर इससे वीररस का श्राक्षेप होता है । 


आचाय केशव ने पाँच प्रकार क॑ रस-दोष माने हें--.अ्र्थात्‌ प्रत्यनीक, 
नीरस, विरस, दुस्सन्धान और “पात्र! दोष | जहाँ श्टगार, बीभत्स, 
भयानक, वीर. रोद् और करूण में से एक ही छुन्द में, दो अथवा अ्रधिक 
का संयोग हो जाता है, तो उसे प्रत्यनीक दोष कहते हैं | जहाँ नयिका ओर 
नायक में वाचनिक प्रेम तो हो, परन्तु दृुदय में वे कपट-भाव ही बनाये 
रहें तो वहाँ नीरस दोष होता है। जहाँ शोक में भोग का वर्णन किया जाय, 
वहाँ विरस दोष समभना चाहिये। नायक नायिका में जहाँ एक अनुकूल 
हो और दूसरा प्रतिकूल तो वहाँ दुस्सन्धान दोष होता दे । प्रश्न के विदुद्ध 
उत्तर देना अथवा किसी बात को बिना विचारे वर्णन कर ढालना पात्र 
दोष माना गया है। परन्तु केशवजी के उक्त रस-दोष-वर्णन का आधार हमें 
प्राचीन रस-प्रन्थों में नहीं मिला। यद्यपि परम्परया प्रत्येक घटना रस की 
पोषक, नाशक या विशेषक होती है, और इसी रूप में उसका रस से 
सम्बन्ध भी स्थापित किया जा सकता है, तो भी उक्त पाँच दोषों में से 
अन्तिम दो दोषों का रस के साथ उनके स्वकथित लक्षण के श्रनुसार, 
सम्बन्ध जोड़ना एक द्वाविड़ प्राणायाम है। यह विषय विद्वानों के विचारने 


( ४४ ) 


योग्य है । अस्तु, बिचार पूवंक देखने से इन रस-दोषों का भी अन्‍्तर्भाव 
प्राचीन आचार्यों द्वारा प्रतिपदित रसाभासादि रस-दोषों में हो जाता है । 


उपयक्त विषय को अच्छी तरद्द समभाने के लिए, यहाँ रसाभास और 
भावाभास के कुछ उदाहरण दे देना भी आवश्यक है | श्रगार रसाभास 
के उदाहरण देखिये-- 


दे दथधि, दीनों उधार हो 'केशव! दान कहा, अरु मोल ले खेहें। 
दीने बिना जु गई हो गई न गई न गई घर ही फिरि जेहें ॥ 
गोहिित बैर. कियो कब हो हितु, वारु किये वरु नीकी हू. रेहें। 
बैस के गोरस बेचहुगी, श्रद्ो बेच्यो न बेच्यो तो ढार न दहें ॥ 


उक्त उदाहरण में नायक तो प्रत्येक बात बड़े प्रेम से पूछुता है, 
परन्तु नायिका के उत्तर में कठोरता आ जाती है । इससे एक नायक, में 
अनुकूलता और दूसरे (नायिका) में प्रतिकूलता दिखाई देती है। ओर 
देखिये-. 


लाल भाल जाबक लखत बरी विरह के कार । 
भरी शोक लपटति गरे बिहँसति भूषण भार ॥ 


यहाँ शोक में रति का वर्णन किया गया है, अ्रतएव यह दोप है। 
नीचे लिखी चोपाई भी देखने लायक हैं-- 


नदी उमड़ि अम्बुधि कहूँ धाई, संगम करहिं तलाब तलाई | 
पशु-पत्ती नभ-जल-थल-चारी, भए कामवश समय बिसारी ॥ 
देव दनुज नर किन्नर व्याला, प्रेत पिशाच भूत वैताला। 
इनकी दशा न कहहूँ बानी, सदा काम के चेरे जानी॥ 
सिंद्ध विरक्त महामुनि योगी, तेडपि काम वश भए वियोगी | 


उपयंक्त चौपाइयों में, नदी, तालाब, समुद्र, पशु-पक्ती, भूत-पिशाच 
आर मुनियों की रति का वर्णन होने से श्'गार रसाभास है ! 


( ५५ ) 


करुणरसाभास के उदाहरण देखिये--.- 


तात बात में सकल सम्हारी, भदद मन्थरा सहाय बिचारी | 
कछुक काज विधि बीच ब्रिगारा, भूषपति सुरपति-पुर प्गुधारा॥ 


केकेयी भरत के ननसाल से आने पर उनऊे आगे बनावटी शब्दों 
में अपना शोक प्रकट कर रही हे। अयथाथ होने से यह करुण रसा- 
भास है । 

इसी प्रकार अन्य रसों के सम्बन्ध मं भी समझना चाहिए। भावाभास 


के उदाहरण भी ऊपर वर्णित गश्रनीचित्यों के श्राघार पर खोजे जा 
सकते हैं । 
भाषशान्ति 
एक भाव की विद्यमानता में, किसी दुसरे विरोधी भाव के उदय 
हो जाने पर, पहले भाव की चमत्कारपू्ण समाप्ति या शान्ति को. भाव- 
शान्ति कहते हैं। जेसे कोई नायक अपनी रूठी हुई स्री से कहता हे-- 
'सुमुखि ! क्रोध छोड़, में हाह्दा खाता हूँ, श्रनुनय-विनय करता हूँ । ऐसा 
गुस्सा तो तुके कभी नहीं श्राया ।!" पति की विनम्न विनती सुन पत्नी आँसू 
बहाने लगी, पर बोली कुछ नहीं । यहाँ आँसू बहने के कारण नायिका के 
द्वदय में वत्तमान ईर्ष्याभाव की शान्ति वर्णित है, अतः यह भाव शान्ति 
हुई । 
रामायण में भावशान्ति का केसा सुन्दर उदाहरण है, देखिए-- 
प्रभ-विलाप सुनि कान विकल भए वानर-निकर | 
ग्राह गएउ इनुमान जिमि करुना में वीर रस ॥ 


१--सुतनु जदहिहि कोपं पश्य पादानत माँ । 
न खलु तव कदाचित्‌ कोप एवं विधो5भूत्‌ | 
हति निगदृ्ति नाथे तलियंगामीज़िताक्ष्या, 
नयन अल्लमनक्प मुक्तमुक्त न किग्नित्‌ ॥ 


( ४६ ) 


लक्ष्मणजी के शक्ति लगने पर, संजीवनी बूणी लाने के लिए गए 
हुए हनुमान के आने में बिलम्ब देखकर, भ्रीरामचन्द्रजी तथा अन्य 
लोग विलाप कर रहे थे, इतने दी में वे श्रा गछ, मानो करुणा में वीर 
रस का उदय हो गया । 

भावोदय 

जहाँ किसी भाव की शान्ति के पश्चात्‌, दुसरा चमत्कृत भाव उदय 
हो, वहाँ भावोदय होता है। भाव और भावोदय में इतना ही अन्तर 
माना गया हे, कि जहाँ शान्त होने वाला भाव, अधिक चमत्कृत होता 
है, वहाँ भावशान्ति होती हे, श्रौर जहाँ उदय होने वाला भाव विशेष 
चमत्कारपूण होता है, वहाँ भावोदय होता है। जैसे--“पहले तो मानिनी 
नायिका अ्रनुनय-विनय करते हुए नायक का तिरस्कार करती रही, परन्तु 
जब वह निराश झोर रुष्ट होकर वापस जाने लगा, तो नायिका द्वुदय पर 
हाथ रख कर, गहरी साँस लेती तथा आ्राँसू बहाती हुईं सखियों की ओर 
देखने लगी | *? यहाँ पहले ईष्यांभाव की शान्ति होने पर, नायिका के 
हृंदय में जो विधाद उदय हुआ वह अधिक प्रबल है, श्रतः इसे भावोदय 
कहेंगे । 

भावसन्धि 

जहाँ समान और प्रबल चमत्कृत दो भाव एक ही साथ उपस्थित हों, 
वहाँ मावसन्धि होती हे | इसमें एक भाव एक ओर को आदकृष्ट करता हे, 
श्रौर दूसरा दूसरी ओर को | जैसे कामिनी के कलित कलेवर को देखकर 

किसी नायक का एक साथ इृष-विषादयुक्त हो जाना' । हष सुन्दरी के 

१-- चरण पतन प्रत्यास्यानाअसादई पराकुख, 

निभ्ठुत कितवाचारेत्युक्वा रुषा परुषी छूते। 

त्रजति रमणे निश्वस्योच्चे: स्तनश्थित हस्तया, 

नयन-सब्िलष्छुश्ा दृष्टि:सखीषु निवेशिता ॥ 
२-- नयन युगासेचनक॑मानस बृश्यापि दुष्प्राप्यम्‌ । 

झूपमिदं मद्शिक््या मद्यति द्वदयं दुनोति च मे |। 


( २७ ) 


सॉदय-दशन का और विषाद उसकी दुलंभता का। यही भाव-सन्धि है। 
इस प्रसंग में कविवर विहारी लाल के निम्नलिखित दोहे पढ़ने योग्य हें--- 
नई लगन कुल की सकुच विकल भई अकुलाय । 
दुहँ श्रोर एऐची फिरति फिरकी लौं दिन जाय ॥ 
>< >< >< 
छुटे न लाज न लालचो प्यो लखि नेहर गेह । 
सटपटात लोचन खरे भरे सकेाच सनेह ॥ 
उपयुक्त दोहों में प्रेम और लज्जा दोनों की प्रबलता का वर्णन 
है, यही भावसन्धि है । 
भावसन्धि के उदाहरण में तुलसीदासजी की निम्नलिखित चौपाई 
भी बड़ी सुन्दर हे-- 
नीके निरखि नयन भरि सोभा। 
पितु प्रन सुमिरि बहुरि मन छोभा || 
सीताजी को रामचन्द्र की सुन्दरता देखकर एक ओर हृथ हो रहा हे, 
और दूसरी ओर पिता की कठिन प्रतिज्ञा , धनुष भग सम्बन्धिनी ) स्मरण 
कर ज्ञोभ सता रहा है। 


भावशव लता 
लगातार कई भावों का एक ही स्थान पर समान रूप से प्रतीत होना 
भावशवलता कहलावा है | साहित्य दपंण का उदाहरण देखिए-- 
काकाय, शशलक्ष्मणः: क्चकुत्नं, भूयोउपि दृश्येत सा, 
दोषाणां प्रशमाय नः श्रुतमद्दों, कोपेडपि कान्तं मुखम्‌। 
कि वच््यन्त्यपकल्मषा: कृतधियः, स्वप्नेडपि सा दुलभा, 
चेतः स्वास्थ्यमुपेह्कशि, कः खत्तु युवा धन्यो5घरः पास्यति | 
विरहोत्कण्ठत राजा पुरूरवा उवशी के स्वर्ग चले जाने पर कद्दता 
हे--कहाँ मेरा निर्मल चन्द्रवंश श्रोर कहाँ यह निषिद्ध श्राचरण ! क्‍या 


( धश्८ ) 


कभी फिर भी वह दीख पड़ेगी ? श्रोह् ! यह क्या ! मेंने तो कामादि दोष 
दबाने वाले शास्त्र पढ़े हैं। श्रोहो, क्रोध में भी अति कमनीय उसका मुख ! 
भला मेरे इस आचरण को देखकर विवेचक विद्वान्‌ क्‍या कहेंगे ! हा, वह 
तो अ्रब स्वप्न में भी दुलंभ है | अरे मन ! धीरज धर, न जाने कौन बड़- 
भागी उसका अधरामृत पान करेगा |” इस शोक में वितक, उत्कर्ठा, 
मति, स्मृति, शड़ा, देन्य, पेय, चिन्ता आदि अनेक संचारी भावों का 
सम्मिश्रण है, अतएव इसे भावशवलता कहगे | 


जब उपयुक्त भाव और रस परस्पर मिला दिये जाते है, तब उन्हें 
'रस-संकर? कहते हैं। सामान्यतः इसके तीन भेद माने गए हैं। श्रर्थात्‌ 
जन्य-जनक भाव, अजद्भाज्ि भाव औ्रोर स्वतन्त्रता। जब एक रस से 
दूसरा रस उत्पन्न होता हे, तब उसे जन्यजनक भाव रस-संकर कहते हैं । 
इसके विषय में साधारण नियम यह है कि रोद्र से करुण, बीभत्स से 
भयानंक और श्ड्भार से हास्य रस उत्पन्न होते हैं। परन्तु अनेक स्थानों 
पर इस नियम के विपरीत भी जन्यजनक भाव देखने में श्राता है, 
जैसा कि निम्नलिखित उदाहरण में वीर रस से भयानक की उत्पत्ति 
हुई हे। देखिये-- 


कत्ता की कराकनि चकत्ता को कटठक काटि , 

कोन्द्ी सिवराज वीर अकदह कहानियाँ | 
भूषन भनत तिहूँ लोक में तिद्दारी धाक, 

दिल्‍ली ओर बिलाहत सकल बिललानियाँ ॥ 
आगरे अगारन हो नाँधती कगारन छवै, 

बाँधती न बारन मुखन कुम्हिलानियाँ। 
कीबी कहें कहा ग्रो गरीबी गहे भागी जाहिं , 

बीबी गहें सूथनी सु नीवी गहें रानियाँ। 


जहाँ एक रस प्रधान ओर दूसरा उसके श्राश्रित रहता है, वहाँ वह 
श्रद्धाज्ि भाव रस-संकर कहाता है | 


५ +६ ) 


जहाँ एक ही पद्य में अनेक स्वतन्त्र रस पाए जाये वहाँ 'स्वतन्त्रता? 
रस-संकर माना जाता है । जैसे-- 
महिपरत उठि भट लरत मरत न करत माया अ्रति घनी । 
सुर डरत चौदह सहस निसिचर एक श्री रघुकुल मनी । 
सुर-म॒ुनि समय अवलोकि मायानाथ श्रति कोतुक करे। 
देखत परस्पर राम करि संग्राम रिपुदल लरि मरे ॥ 
उक्त पद्म में अद्भत, वीर और भयानक रस स्वतन्त्रता पूवक विद्य- 
मान है | इसलिए, यहाँ स्वतन्त्रता रस-संकर है । 


अन्य रस-दाष 
रस का श्रास्वादन व्यज्ञना द्वारा होता है, अतएव उसका या स्थायी 
और व्यभिचारी भावों का किसी रचना में स्पष्ट शब्द द्वारा कथन रसदोष 
है। प्रायः कविजन अपनी कविता में, व्यज्ञना से काम न लेकर श्ज्ञार 
रस में 'श्रज्भार', हास्य में 'हास!, करुण में 'शोक” बीभत्स में 'घुणा' वीर 
में “उत्साह! रोद्र में 'रोप” या क्रोध! आदि शब्द लिखकर बात को स्पष्ट 
कर देते हैं, जो दोप है। जेसे- 
८ >< >< >< 
एक दिन 'हास? द्वित आयो प्रभु पास तन -- 
राखे न पुराने बास कोऊ एक थल है। 
+८ )< >< >< 
उपयक्त हास्य रस सम्बन्धी कवित्त के चरण में 'हास” शब्द स्पष्ट 
लिखा गया है, श्रतएव यद्द दोष है| श्रोर देखिये-- 
>< < >< )< 
'वीर रस? रहे राज वेरी गण गाजि गाजि, 
समर में आए रण साजि बेसुमार हैं। 


इस चरण में 'वीर रस” शब्द का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। 
भर भी -- 
>८ >< >< ओर 


( ६० ) 


जीत्यौ रति रन मथ्यौं मनमथ हू को मन, 
केसौराय कोन हू पै 'रोष” उर आन्‍्यो है। 
यहाँ 'रोष' शब्द स्पष्ट हो गया है । 


उपयंक्त उदाहरणों से श्रच्छी तरह समझ में श्रा गया होगा कि किसी 
काव्य में किस प्रकार रसों के नाम आने से रस-दोष श्राजाता है। इसी 
भाँति स्थायी और व्यभिचारी भावों का स्पष्ट नामोल्लेख होने से भी रस 
नष्ट हो जाता है, श्रतः रचना में इस प्रकार रसादि का स्पष्ट नामोल्लेख 
करने से कवि का फूहड्पन प्रकट होता है । 

जिध रचना में विभाव, श्रनुभाव श्रादि कठिनाई से जाने जा सके, 
उसमें भी रस-दोष माना गया दैे। जेसे कोई वियोगिनी की दशा का 
वर्णन इस तरह करे, जिसमें यही न जाना जा सके कि वह वियोगिनी 
का वर्णन है, या राजयक्ष्मा के किश्री रोगी का। इसलिए विभावानु- 
भावादि का वर्णन इस दंग से किया जाना चाहिए. कि समभकनेे में 
कठिनता न हो । 

एक स्थान में परस्पर विरोधी रसों श्रौर उनके विभाव, अ्नुभाव तथा 
सच्चारी भावों का वर्णन करना भी रस-दोष है | जेसे-- 

“यौवन के सुरसाल योग में काल रोग है अ्रति बलवान”' 


यहाँ वियोग शटज्ञार का वर्णन करते हुए, यौवन के सम्बन्ध में काल 
रोग का उल्लेख किया गया हे। काल रोग-'शज्जार के विरोधी शान्त रख 
का उद्दौपन है, अ्रतः ”टज्जार के वर्णन में, उसके विरोधी तथा शान्त के 
अंगभूत काल रोग का बर्णुन करना रस-दोष हुआ | 

विरोधी रसों या उनके भरज्ञ भूत विभावादिकों का, एक दी स्थान में, 
देश-मेद, समय-भेद, रस-संकर, स्मृतसिम्य ओर अज्ञाज्ञि भाव द्वारा 
बर्णन किया जाय, तो वहाँ रस दोष नहीं माना जाता | जैसे-- 


५ लै कृपान कर में शिवा गरज्यौ सिंह समान | 
पीढि फेरि रन ते तत्रै बैरिन कियो पयान ॥”! 


( ६१ ) 


इस दोहे में शिवा के कृपाण लेकर सिंह-समान गरजने ( बीर रस ) 
औ्ौर भयभीत द्दोकर शत्रुओ्ों के रणभूमि से भागने ( भयानक ) का एक 
ही जगह वर्णन हे। उक्त दोनों रस परस्पर विरोधी हैं, ग्रतः यहाँ रस दोष 
होना चाहिये था। परन्तु चूंकि कवि ने दोनों रसों के देश ( आलम्बन ) 
भिन्न-भिन्न कर दिये हैं, अर्थात्‌ वीर रस का ग्रालम्बन शिवा और भयानक 
का वेरी बना दिया, श्रतः दोष-परिदार हो गया। इसी प्रकार समय-भेद 
रस-संकर आदि के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिये। 


गुण, वृत्ति ओर रीतियाँ 
गुण 

रसात्मक काव्य के तीन गुण माने गए हैं --माधुयं, ओज और प्रसाद । 
ये गुण रस के अविचल धम होने से उसके उत्कष के कारण हैं। 

भातुय--जित रस के आस्वादन से द्वदय द्ववीभूत होकर आनन्द 
अ्रनुभव करता है, उसे माधुय कह्दते हैं। इस गुण के द्वारा सम्भोग 
श्र्भार, करुण, विप्रलम्म »ज्ञार ओर शान्त रस उत्तरोत्तर अधिकाधिक 
परिषुष्ट द्वोते हैं । 

माधुय के व्यज्जक ड, ज, न. म वाले वर्गों के वण द्वोते हैं, जैसे-- 
छू, डर, श्र, नद, म्म | हस्व र और ण भी इसमें प्रयुक्त होते हैं, पर ट, 5, 
ड, ढ का बिलकुल प्रयोग नहीं होता। समास इसमें नहीं होता ; यदि 
कहीं होता भी है, तो बहुत थोड़ा और छोटे-छोटे पदों का | 

शाज--अ्रन्तःकरण को उद्दीप करने वाला गुण ओज कहता हे। 
इसके द्वारा वीर, बीमत्स और रोद्र रस को अधिक पुष्टि मिलती है । 

ओ्ोज में वर्ग के अन्तिम वर्णों का योग उसी व के पहले और तीसरे 
अक्षरों से होता हे। ट, ठ, ड, ढ के साथ आगे या पीछे र का संयोग 
रहता हे । तालव्य श ओर मूघन्य ष अधिक प्रयोग में लाए जाते हैं, 
तथा समस्त पद अधिक व्यवदहृदत होते हैं । 


प्रसाद--काव्य के सुनते ही जो श्रथं द्वदय में प्रविष्ट होकर लोकोत्तरा- 
नन्‍्द प्रदान करता है, उसे प्रसाद कह्दते हैं। यह गुण सब रसों के समान 
रूप से पुष्ट करता हे । 

प्रसाद में वर्णों का कोई नियम नहीं | संस्कृत कवियों में यह गुण 
कालिदास की कविता में अधिक पाया जाता है। किन्हीं श्राचारयों' ने 'छेष, 


( ढछेरे ) 


समाधि, औदाय, प्रसाद, श्रथव्यक्ति, कान्ति इत्यादि गुण भी माने हैं, 
परन्तु ये सब उपयक्त तीन गुणों में ही श्रन्तहिंत हो जाते हैं | 

भरत मुनि ने उपयक्त गुणों के अ्रतिरिक्त समता. सुकुमारता श्रादि 
आ्रोर भी गुख माने हैं । 


ठ्त्ति 


इसके अतिरिक्त रसों के सम्बन्ध में वृत्ति की भी मान्यता है। यह 
वृत्ति तीन प्रकार की है। १--मधुरा. २-परुषा और ३--प्रौढ़ा । 
इन तीनों वृत्तयों से क्रमशः माधुय, ओज और प्रसाद गुण व्यक्लित 
हंते हैं । 

मगग--जिस रचना में अ्रनुनासिक वर्णा' की प्रचुरता होती है 
ट, ठ, ड, द॒ को छोड़कर क से म पयन्त शेष स्पश संजशञक वर्ण, य, र, ल, व 
अर्थात्‌ अ्रन्तस्थ संज्ञक वण, द्वित्व लकार ; ह्न) और हस्व रेफ आदि 
अधिक व्यवद्दत होते हैं, वह मधुरावृत्ति कहती है | इसी का नाम कोशिकी 
वृत्ति भी है । 

परपा--जिस रचना में संयुक्त, रेफयुक्त एवं विसग॑ सहित वर्णो 
औ्रोर श, प. ट. ठ, ड, ढ आदि का प्रयोग अधिक हुआ हो--संयुक्त वर्णों 
में भी वर्गों के तीमरे ( ग, ज, ड, द, ब ) ओर चोथे ( घ, रू, ढ, ध, भ ) 
वर्णों के परस्पर संयुक्त रूपों तथा उस वर्ण का उसी के साथ संयुक्त रूपों 
का अ्रधिक उपयोग हुआ हो, उसे परषा या आरभटी बृत्ति कहते हैं । 

प्रोढ्ा--जिस रचना में उपयक्त दोनों बृत्तियों का सम्मिश्रण हो, वह 
प्रोढ़ा या सात्बती बृत्ति कह्दाती हे । 


रीति 


गुर्णों को व्यक्त करने वाली रसानुरूप पद-रचना रीति कहलाती हे। 
रीति के भी तीन भेद हैं। १--वैदर्भी, २--गौड़ी भोर ३--पश्चाली | ये 
तीन रीतियाँ ही क्रमशः माधुय, श्रोज और प्रसाद गुण की व्यक्षिका हैं। 


५ ६४ ) 

वेदरभी--जिस रचना में समस्त पद बहुत ह्वी श्रल्प मात्रा में प्रयुक्त 
हुए हों, उसे वेदर्भी रीति कहदे हैं। 

गोड़ी--जिस कविता में चार से श्रधिक पदों के समास ब्यवद्दत हुए 
हों, वह गौड़ी रीति कहती है | 

पाऊवाल्ली--जिस रचना में चार से कम पदों के समास पाए जायें, 
बह पाशञ्चाली रीति कहलाती है । 

साहित्यदपणकार ने लाटी नाम की एक चौथी रीति भी मानी है, 
जिसका लक्षण नीचे लिखे प्रकार किया हे । 

त्ञाटी--जिस कविता में पाग्जाली और वेदर्भी दोनों के मिश्रित लक्षण 
पाए जायें, उसे लाटी रीति कहते हैं । 

उपयक्त गुण, वृत्ति और रीति रस की परिपक्षता या पुष्टि में सहायक 
होते हैं, इसलिए उत्कृष्ट काव्य में उनका होना बहुत आवश्यक है । 


रस श्र संगीत 


साहित्य का संगीत के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध दे। दोनों सद्यृदयता 
सापेक्ष हैं, अर्थात्‌ विना सद्ददयता के न साहित्य की श्रोर रुचि होती हे, 
और न संगीत की ओर | विद्वानों ने व्याकरण, न्याय, मीमांसा, कलादि 
सद्दित भाव को साहित्य कह्दा हे | साहित्य क्‍या हे ? इसके उत्तर में एक 
प्रसिद्ध विद्वान का कथन है, कि परस्पर एक दूसरे की सहायता चाहने वाले, 
तुल्य-रूप पदार्थों का एक साथ किसी एक काय-साधन में लगना ही साहित्य 
कहाता हे | साहित्य का त्षेत्र बड़ा व्यापक होने से काथ्य भी उसका एक 
अंग हे। काव्य गानात्मक होता है। उसमें ऐसे छुन्दों और पदों की 
खष्टि की जाती हे, जो संगीत के साथ मिलकर, एक और एक ग्यारह की 
लोकेक्ति चरिताथ करते हुए, द्वत्तनत्री को भंकृत कर देते हैं। जिस 
समय हम किसी सत्‌ कविता को सुनते या पढ़ते हैं, उस समय इमारा 
हृदय आनन्द से भर जाता है । उसी प्रकार श्रवण सुखद संगीत की सुमधुर 
ध्वनि कान में पड़ने से प्रसन्नता का पारावार नहीं रहता । जहाँ साहित्य और 
संगीत दोनों मिलकर, स्वर्गीय श्रानन्द प्रदान करते हों, बहाँ की तो बात ही 
क्या हे । यद्यपि साहित्य श्रौर संगीत प्रथक-प्रथक भी सच्चे आनन्द के सश 
हैं, तथापि दोनों का संयोग सोने में सुगन्ध पैदा कर देता है। मद्दाराज 
भतृ हरिजी ने तो साहित्य-संगीत कला-विहीन मनुष्य को 'पुच्छु-विषाण हीन! 
पशु कहकर पुकारा है। वास्तव में जिस मनुष्य में संवेदना-शील दृदय 
नहीं हे, वह 'पुच्छु-विषाण हीन' पशु ही नहीं- पशु से भी गया-बीता हे । 
हरिण, सप श्रादि का तो सगीत पर मुग्ध हो जाना प्रसिद्ध ही दे, परन्तु 
हृदयहवीन पुरुष पर उनका (साहित्य-संगीत का) कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता | 


संसार संगीत से श्रोत-प्रोत है । कोयल की कुहू-कुद्द, कबूतर की गुटरंगूँ, 
नदियों का कल-कल नाद, वायु का सन-सन शब्द और वृक्षों का 
मस्ती से कूमना, शुष्क बाँस से बनी बॉसुरी की सुरीली तान, श्रौर 


कुधातु के बाजों से निकलती हुई स्वर लह्दरी संगीत नहीं तो क्‍या है। 
हि० न०---४ 





( ६६ ) 


कुछ लोग साहित्य और संगीत को एक दूसरे के श्राश्रयीभूत न मान कर, 
उनमें भिन्नता सिद्ध करना चाहते हैं। कुछ लोगों की सम्मति में संगीत 
अ्द्धार का अनुभाव मात्र हे । परन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है। संगीत का 
सम्बन्ध तो प्रायः सभी रसों के साथ है । नाटदय-शाखत्र के परमाचाय्य मरत- 
मुनि के अनुसार, हास्य ओर श्वज्ञार के गायनों में, पद्चम श्रौर मध्यम 
स्वर प्रधान होते हैं। वीर, रोद्र ओर अ्रद्धुत में पडज तथा ऋषभ स्वर 
मुख्य माने गए हैं। इसी भाँति करण और शान्‍्त रस में गान्धार 
एवं निषाद स्वर, और बीमत्स तथा भयानक रस में थैवत स्वर 
प्रधानतया प्रयुक्त होते हैं । रसों के स्थायो भाव संगीत के रवरों में पाये 
जाते हैं। रसानुकूल विभाव, अनुभाव, सात्तिक श्रौर संचारी भाव भी संगीत 
के स्वरों में मोजूद हैं । प्राचीन संगीताचार्यों ने उपयंक्त रसों की भाँति ही 
धड़ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, प्मम, पेवत और निषाद इन सातों स्वरों 
के भी क्रमशः श्रनुष्ठुप, गायत्री, त्रिष्टुप, बृहती, पंक्ति, उल्मिक और 
जगती ये सात छुन्द भी निश्चित कर दिये हैं। ये सब वेदिक छुन्द हैं । 
इन्हीं के आधार पर अन्य छुन्दों की भी रचना हुई है, जो सम्बन्धित रस 
के साथ उपयुक्त संगीत-स्वरों में गाए. जा सकते हें । 

संगीत की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा जाता हैे,# कि पवन से नाद, नाद 
से स्वर, ओर स्वर से राग पैदा होता है। जोहो, संगीत की बड़ी महद्दिमा है । 
लोक-साहित्य ही क्‍यों, ईश्वरीय शानगेद भी संगीत पर ही श्राश्रित है । 
सामगान को महिमा किसने नहीं सुनी । यजुवेद में संगीत के तीन-चार 
सस्‍्त्ररों का गायन हे, परन्तु सामवेद म॑ सातों स्वर काम में लाए गए हैं। 
हिन्दी में सम्भवतः सब-प्रथम महाकवि सूरदास ने रागात्मक पदों की रचना 
कर, साहित्य को संगीत के साथ सम्बन्धित किया | मीराबाई के गीत भी 
स्वर-लद्दरी के साथ गाये गए । देववाणी के गानात्मक काश्यों में जय देव- 
जी का गीतगोविन्द प्रसिद्ध है । 


# पथनाजायते नादो नादुत: स्वर सम्भव; | 
स्वरात्संभ्ायते राग: स रागो जन रन: ॥ 


( ६७ ) 


इस काव्य में संगीत और साहित्य का अ्रद्धुत समन्वय, पाठकों को, 
अनायास ही देखने को मिल सकता हे | इस काव्य के सम्बन्ध में यह 
किंवदन्ती प्रसिद्ध हे, कि जब जयदेवजी की धमयत्ी युवावस्था में दी, 
भीषण रोग के कारण, मृतप्राय हो गई थी, तब उन्होंने उसके सामने 
ही गीतगोविन्द की रचना प्रारम्भ कर दी। कहा जाता है कि उनके इस 
अद्भुत संगीत का उसके पाश्चनमौतिक शरीर पर ऐसा विलक्षण प्रभाव पड़ा 
कि वह असाध्य रोग से मुक्त होकर पुनः स्वस्थ हो गई । राग-रागिनियों के 
प्रभाव से बुके हुए दीपक जल उठने, घनघटाएँ उमड़-घुमढ़ कर मेह बरसने 
लगने, और पशु-पत्षियों के मुग्ध हों जाने की बात तो लोक में प्रसिद्ध ही 
है। कहते हैं, कि संगीत सुनकर गाएँ दूध अधिक देने लगती हैं | संगोत 
के कारण कितने ही उन्निद्र रोग के रोगी मां श्रच्छे होते सुने गए हैं। 
युद्ध-भूमि में आल्हा के कड़के और मारू बाजा सुनकर वीरों के भुजदए्ड 
फड़कने लगते हैं । जिस समय किसी रस के अ्रनुरूप गान-वाय होता है, उस 
समय एक श्रद्धुत 'समाँ! बँघ जाता हे | सद्गृदय श्रोता तन्‍्मय हो जाते हैं । 
संगीत ही क्‍यों, भावपू्ण चित्रों और मूर्तियों को देखकर भी रसों की 
अ्रभिव्यक्ति होती है । कविता, संगीत, चित्र, मूति श्रादि की गणना ललिव- 
कलाओं म॑ है | इन सब्र ही के द्वारा भावों का प्रदशन होता हे | शब्द, 
ध्वनि, भाव-भंगी, तूलिका, रेखा आदि भावों की प्रदर्शिका हैं, श्रोर ये 
भाव ही श्रन्त में रसों के उत्पादक सिद्ध होते हैं। श्रभिप्राय यह कि साहित्य, 
संगीत, चित्र आ्रादि सब ही के साथ रसों का घनिष्ठ समबन्ध है । 

दुर्भाग्यवश संगीत-शाखत्र उपेक्षित अ्रवस्था में पड़ा था । परन्तु कुछ 
संगीत-विशारदों के उद्योग द्वारा, अ्रब उसका उद्धार-काय प्रारम्भ हो 
गया है, और स्थान-स्थान पर संगीत-विद्यालय खुलने लगे हैं। गानात्मक 
साहित्य की भी श्रच्छी उन्नति हो रही है| इस बात की बड़ी श्रावश्यकता 
है कि सुमधुर और निर्दाप संगीत के साथ, सरस और शुद्ध कविता मिलकर, 
सहृदय-समाज को लोकोत्तरानन्द प्रदान करती रहे । 





श्ृंगार की रसराजता 


साहित्य में शज्ञार रस का महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि वह जीवन से 
घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है । शज्जार प्रेम का प्रेरक हे. विना प्रेम के संसार 
का निर्वाह हो ही नहीं सकता। मनुष्य ही नहीं, परमात्मा भी श्रज्जार-प्रिय 
है। उसने प्रकृति-परी को जो सोन्दय प्रदान किया है, उससे उसकी श्वज्जार- 
प्रियता सिद्ध होने में किसी प्रकार का सन्देह नहीं रह जाता | जो श्वज्ञार 
सष्टिकर्ता परमात्मा तक को पसन्द हो, उसका खणडन करना साधारण 
काम नहीं है | स्वभाव से ही मनुष्य सौंदर्य का उपासक या श्रज्जञार 
का प्रेमी होता है | वसन्‍्त ऋतु में वनस्पति-जगत्‌ के शशज्ञार या सॉदिय 
को निहार कर द्वृदय हर्ष से भर जाता है । बृक्ष-लताओं को नाना प्रकार 
के पुष्पों से सुस॒जित देखकर, प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता । तरु-वन्लरी 
ही नहीं; मनुष्य और पशु-पक्षी आदि प्राणियों के शरीर भी समय 
पाकर शरज्भार के श्रागार बन जाते हैं। मनुष्यों में भी स्त्रियाँ तो श्रृज्ञार 
आर सौन्दय का केन्द्र ही होती हैं । यौवन वसन्‍्त श्राने पर उनमें एक प्रकार 
का श्रद्धत श्राकषंण श्रा जाता है । उस समय उनका सौन्दय्य अथवा प्राकृतिक 
श्रद्धार कविता का विघषय बनकर कवि-कल्पना का प्रेरक बन जाता है 
ख्रियो के स्वाभाविक सोन्दय को वसद्राभूषण से सुसज्जित कर देने पर, 
श्रद्भार की मात्रा ओर भी बढ़ जाती हे। पुरुष और स्त्री में सत्रीकी 
सुन्दरता तथा कोमलता अधिक श्राकृषंक मानी गई है | इसीलिए कवियों ने 
उसकी प्रशंसा में काव्य के काव्य रन डाले हैं ! कच, कुच, कपोल, श्राँख, 
नाक, कान, मुंह, श्रोठ, चित्रुक, भुजा, जंघा, नितम्ब इत्यादि अ्रंगों का 
वर्णन करने में कमाल कर दिया है; हिन्दी ही क्‍यों, कदाचित्‌ ही किसी 
भाषा का काव्यन्साहित्य शृज्धार रस से शून्य रहा हो | साधारण जनता के 
गीतों में भी. वह यथेष्ट मात्रा में पाया जाता है। दर्शक के हृदय पर सौन्दर्य 


( ६६ ) 


का ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वह उस पर अपनी श्रमिट छाप छोड़ जाता 
है। जेसा जिसकी समझ में आया, सब ही ने गद्य, पद्य, चम्पू ्रादि में 
सोन्दय का वर्णन किया है। परन्तु कवि-द्वदय की कल्पना कुछ और 
ही द्ोती हे। वह सोन्दर्य में भी एक श्रलौकिक सौन्दय उत्पन्न कर 
देती हे । 

प्रायः देखा जाता है कि प्राचीन समय में कविता के दो ही विषय थे-- 
भक्ति ओर श्ज्ञार | इनमें भी श्रक्वार सम्बन्धी काव्यों को अधिक महत्त्व 
दिया जाता था, श्रतएव कवि-कल्पना इसी औओ.ओर कुकी रहती थी । परन्तु 
पीछे ज्यों-ज्यों विशञान का प्रकाश फैलता गया, और देव-दुर्विपाक से लोगों 
को उदर-पू्ति की चिन्ता सताने लगी, त्यों-त्यों शज्ञार की चर्चा में कमी 
हुई । कवियों ने श्रपनी कविता का प्रवाह बदला, ओर “इज्जार का स्थान 
ग्रन्य विषयों ने लिया ' श्राजकल »रज्ञार की कविता आवश्यक नहीं समझी 
जाती क्योंकि उसके अधिक प्रचार से लाभ की श्रपेत्ञा हानि ही की विशेष 
सम्भावना है| 

शआज्ञार रस के स्वरूप के सम्बन्ध में नाट्यशास्त्रकार भरतमुनि का 
मत है. क 'संतार में जे। कुछ पवित्र' उत्तम, उज्ज्वल और दशंनीय है, 
वही ”रज्ञार रस है।' साहित्य-दपंणकार का कहना है कि काम के 
उद्भद (अंकुरित ) दाने को शज्ञ कहते दे | उसकी उत्पत्ति का कारण, 
अधिकांश उत्तम प्रकृति से युक्त रस श्ज्ञार कहलाता है।इस लक्षण 
में भी उत्तम प्रकृति! विशेष ध्यान देने योग्य हे | श्रभिप्राय यह कि भरत 
मुनि की भाँति कविराज विश्वनाथ भी शज्ञार रस को उत्तमता से प्रथक 
नहीं मानते | दोनों का मत-साम्य स्पष्ट हे, जहाँ उत्तमता है, वह्ों पविन्नता, 
उज्ज्वलता आदि का द्वाना भी स्वाभाविक है । स््री-पुरुष, पशु-पक्ती, लता- 
वृक्ष, पत्र-पुष्प, पुर-प्राधाद, वन-उपवन, नदी-नद, भरना-भील, स्तोत- 
सरोवर, गिरि-शिखर, श्राकाश-नक्षत्र. यूय-चन्द्र सभी 'ज्ञार रस के श्राधार 
हैं, सब में शज्ञार की श्रदूभुत छुटा दिखाई देती है । श्रॉल से सुन्दर वस्तुओं 
को देखकर, कान से श्रवण-सुखद मधुर ध्वनि सुनकर, नासिका से मस्त 


( ४७० ) 


कर देने वाली सुगन्ध सूघकर, दृदय में श्रानन्द की घारा उमड़ने लगती 
हे। चमत्कृत काव्य के भव्य भाव का द्वृदयज्ञम कर, सहृदय श्रोता का 
मन आनन्दित हा जाता हैं; सुन्दर प्रासाद की रुचिर रचना के अवलोकन 
कर प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहता । वन-उपवनों की प्राकृतिक छुटा 
निहार कर, मन-मयूर नाचने लगता है। वस्तुतः श्रज्ञार रस की बड़ी 
महिमा हे । 

प्रेम और विलासिता में बड़ा अन्तर है| प्रेम ईश्वर हे, उसका स्थान 
हृदय की विशुद्धता में है, परन्तु विलासिता इन्द्रिय-लेलुपता जन्य काम- 
वासना की तृप्ति मात्र है | प्रेम से शज्ञार की उत्पत्ति मानी गई है, ओर 
विलासिता काम्ुकता-शान्ति का कारण समझी जाती है। श्वज्ञार की 
विशुद्ध प्रेम-वृत्ति, परमात्मा की ओर प्रवृत्त द्वाकर, भक्तिभाव से राधा- 
कृष्ण का गुण गान करती है । इसके अतिरिक्त और भी जहाँ-जहाँ 
उज्ज्वलता, शुद्धता, उत्तमता और दशनीयता है. वहाँ-वहाँ उसका प्रभाव 
दिखाई देता है | इसके विरुद्ध, दूसरी ओर विलासिता-पूर्ण भावना है, 
जा इन्द्रिय-लोलुपता की शोर श्रग्रसर देकर, नर-नारियों के अ्रंग-प्रत्यंगों 
की सुन्दरता का वर्णन करती रहती है, शटज्ञार की इस दूसरी मनोवृत्ति 
के दुरुषयेग ने ही काव्य-साहित्य की श्रोर उँगली उठवाने में सहायता 
दी है। अ्रस्तु 

शज्ञार रस का स्थायी भाव रति है। साधारणतः रति का अ्रथ है -- 
प्रीति, प्रेम, अनुराग आदि । साहित्य-दपणकार की व्याख्या के श्रनुसार, 
४ प्रिय वस्तु में मन के प्रेम-पृूवक उन्मुख देने का नाम रति है |? " सुधा- 
सागर ! ने स्री-पुरुष के काम-वासना-मय द्वुदय की परस्पर रमणेच्छा को 
रति कद्दा है । रति ही कामदेव की र्री हे। श्रंकुरित काम ही अपनी 
प्रिया रति से मिलकर सृष्टि की उत्पत्ति करता है । 

कुछ विद्वानों की सम्मति में, मनुष्यों और पशु-पत्तियों की रति में 
बड़ा श्रन्तर हे | वे कद्दते हें कि मनुष्य जिस साहित्यिक रति की अनुभूति 
करते हैं, पशु-पक्तियों के उसका श्रनुभव नहीं द्वाता। पशु-पक्षियों में तो 


( ७१ ) 


केवल सहज प्रजनन-शक्ति ( [07५ )]282 [3 0६ 80९९९४ ) होती है, 
जिससे प्रेरित होकर वे सृष्टि-उत्पत्ति सम्बन्धी कार्य करते रहते हैं। 
साहित्यिक रति से उनका केाई सम्बन्ध नहीं | निस्सन्देह विद्वानों की यद्द 
सम्मति भी विचारणीय है। श्रस्तु 


यदि श्रज्ञार रस न हो, तो संसार संसार न रहे, और सबंत्र घोर शुष्कता 
का आधिपत्य स्थापित है। जाय । स्त्री.पुरुष या नर-मादा के हृदय में, 
प्रेम पैदा कर रमण की इच्छा उत्पन्न कराने वाला श्ज्भार ही है । इसीलिए, 
इसके इतना ऊँचा पद दिया गया है। श्रज्ञार को रसराज उपाधि से 
अलंकत करने का एक यह भी कारण है, कि उसमें उग्रता, मरण, 
अालस्य और जुगुप्सा के छोड़ कर. प्रायः शेष सब सश्नारी भाव, विभावों 
ओर श्रनुभावों सहित आ जाते हैं। कहीं-कहीं तो »इज्जार में उपयंक्त 
चार सशञ्जारी भी सम्मिलित कर लिए गए हैं, अ्र्थांत्‌ कितने ही कवियों ने, 
किसी न किसी रूप में इनका भी वणुन किया है । 

जैसा कि ऊपर कहा गया. श्वज्ञार विश्व में व्याप्त है। प्राणियों के 
जीवन से तो इसका श्रति घनिष्ठ सम्बन्ध है लता-पुष्पों पर भी इसका 
प्रभाव हे।ता है| »ज्ञार रस की इतनी व्यापकता के कारण ही रसों में 
उसका सर्वोच्च स्थान माना गया हे | यौवन की मादकता या जवानी की 
मदहोशी श्रज्जञार रस की सूचिका हे | कुछ श्ाचार्यो' ने शअज्जार रस 
की अपेक्षा द्वास्य, अद्भुत, करुण आदि के मुख्य माना है, परन्तु यह 
मत युक्ति-युक्त और समीचीन न होने के कारण ग्राह्म नहीं हे सकता, 
क्योंकि करण रस का स्थायी भाव शोक हे, शोक की उत्पत्ति ममता के 
कारण द्वोती है. ममता ही »ज्ञा' रस की विभूति है, श्रतणव अज्जार की 
ही मुख्यता होनी चाहिये। रहा हास्य रस सो यह तो श्रज्जाररस से 
निकला ही है। फिर उसका आधार मनुष्यों के अ्रतिरिक्त श्रन्य प्राणी 
नहीं हैं, श्रतएव इसकी अश्रप्रधानता भी स्पष्ट है, अद्भुत रस भी मानव- 
क्षेत्र के अतिरिक्त और कहीं नहीं पाया जाता, ऐसी दशा में यह भी 
प्रधानता का श्र/धकारी नहीं । परन्तु #ज्ञार की व्यापकता श्रसीम शोर 


( ७२ ) 


श्रनन्त हे। जे रस, सुष्टि में इस प्रकार श्रोत-प्रोत है, उसे प्रधानता न देना 
कैसे उचित कद्दा जा सकता है। 

श्ज्ञार रस की प्रधानता के सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है, कि 
सारे रस श्ज्ञार रस से उत्पन्न द्वाकर, श्रज्ञार में ही विलीन दे जाते हैं। 
बात ढोक-सी भी मालूम देती है, क्‍योंकि इस धारणा की पुष्टि में भी 
उदाहरण पाए जाते हैं। यथा-रामचन्द्रजी का विवाह-प्रसंग ही ले 
लीनिए | पुष्पवाटिका में सीता और राम के द्वदयों में परस्पर दर्शन के 
कारण प्रेम ( शज्ञार ) श्रंकुरित हेता है। दोनों के विवाह की चर्चा 
सुन, सारे समाज में हष ( हास्य ) छा जाता हे, परन्तु स्वयंवर के समय 
धनुष-भंग दाता न देख, समस्त सामाजिक शोक | करुण ) से द्रवीभूत देने 
लगते हैं | उस समय राजा जनक की निराशापूर्ण एवं अ्रनुचित बातें 
सुनकर, लद्टमण के क्रोध ( रोद ) हो आता है | श्रीरामचन्द्र उन्हें शान्त 
( शान्‍्त ; करते हैं । थाड़ी देर बाद ही धनुष-भंग देने के कारण एक ओर 
उपस्थित राजे मह्ाराजे भयभीत ( भयानक ) होते हैं, और दूसरी ओर 
रामचन्द्रजो की ऐसी अद्धत ( अद्भुत , क्षमता देख सबको श्राश्रय 
होता है। कुछ अभिमानी राजाओं के द्वदयों में श्रपनी श्रसमथंता के 
कारण ग्लानि ( बीभत्स ) की उत्पत्ति ह्वाती है | इतने ही में परशुराम 
अर जाते हैं, और उनमें तथा लक्ष्मणजी में करारी भड़प देती हे । 
फिर राम और सीता का विवाह हो जाता है। उपयक्त उदाहरण से ज्ञात 
डहैगा कि अकेले शज्ञार रस के कारण करुण, बीभत्स, भयानक, श्रद्धत 
ग्रादि अनेक रस उत्पन्न होकर, अन्त में वे श्ज्ञार में ही विलीन होगए । 

श्रृक्धार रस का स्थायी भाव प्रेम मनुष्यों के ह्दयों में बचपन से ही 
श्रंकुरित देतता, ओर अ्रन्त तक रहता है। परन्तु श्रन्य स्थायी भावों के 
सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता। बालक में पहले पहल श्रपने माता- 
पिता और भाई बहनों के लिए प्रेम उमड़ता है | बढ़ा द्ोने पर वही प्रेम 
पति-पत्ी-रूप दो प्राणियों के द्वदय-बन्धन में बदल जाता है। सन्तान 
होने पर वात्सल्य में भी प्रेम के ही दशन द्वोते हैं। इृद्धावस्था में ममता 


( ७र३े ) 


भी प्रेम की ही प्रतिनिधि है । मरते समय करुणापूर्ण द्ृदय के उद्गार या 
करुण चेष्टाएं भी प्रेम की ही प्रतीक हैं । जे। प्रेम जन्म से लेकर मृत्यु- 
पयन्त हमारा साथी रहता हो, उसकी प्रधानता स्वीकार न करना कितनी 
भूल है । 

श्रज्ञार रस की रसराजता के विषय में ' सरस्वतीकणठाभरण ” के 
रचयिता महाराज भोज हमारे पक्त के प्रबल पोषक हैं। वे रस-विचार 
प्रकरण में लिखते हैं- 

“"वयंतु 
'अज्ञारमेव रसनाद्‌ रसमामनाम: ।? 


ग्रथात्‌ यद्यपि अन्य आचार्यों ने श्रनेकों रस स्वीकार किये हैं, पर 
इमारी समकक में एक मात्र »ज्वार ही रस है, ओर तो सब नाम के ही रस 
हैँ | इस प्रकार उन्होंने श्ज्ञार की प्रधानता स्पष्ट उद्धोषित की है | इसी 
बात को उद्भुत करते हुए राजा रुय्यक ने लिखा है-- 


' राजातु शड्डारमवेक रसमाह ' इत्यादि | 


ग्रभिप्राय यह कि रुय्यक के मत में श्ज्ञार रस की ही सब सरसों में 
श्रेष्ठता मानी गई है । 


जिस प्रकार गन्दे पानी से गगाजल दूपित दे जाता है, उसी प्रकार 
इन्द्रिय-विलास-जन्य लोलुपता, विशुद्ध प्रेम-पीभरूष को श्रपवित्र कर देती 
है। दुर्भाग्यवश कभी कभी यह दूपित प्रेम भो काव्य का रूप घारण कर, 
सह्ृददय-समाज के सामने आता रहता है, जिसे वद्द निन्दनीय समझता 
है | संयाग-जन्य प्रेम की अ्रपेज्ञा वियेग-जनित प्रेम में श्रघिक विशुद्धता 
मानी गई है। भक्त कवियों ने अ्रपने काव्यों में पविश्न प्रम सम्बन्धी शड्भार 
का ही वर्णन किया है | जिस समय पविन्न प्रेम-पूरित काव्य-ध्वनि हमारे 
कण कुदरों म॑ देकर मन-मानस तक पहुँचती है, उस समय उसमें 
अलोकिक श्रानन्द की उत्ताल तरंगें उठने लगती हैं। 


( ७४ ) 


संस्कृत तथा हिन्दी-साहित्य पर. शटज्ञार रस का पर्याप्त प्रभाव है। 
नाटक, इतिहास, पुराणादि सब में ही शरज्ञार की प्रधानता पाई जाती 
है। जब रस-साहित्य का विषय मानव-द्वदय, बाह्य जगत्‌, प्रकृति श्रादि है, 
तब वह श्वज्भार रस से शून्य दे ही केसे सकता हे । संस्कृत ओ्रोर हिन्दी 
ही क्‍यों, जिन भाषाओं के साहित्य में भी पवित्रता, उज्ज्वलता, दर्शनीयता 
आदि गुण मिलते हैं, उनमें शटज्ञार रस का स्पष्ट विकास दिखाई देता है । 
साहित्य पर युग की छाप रहती हे | जेसा युग, वेसा साहित्य | मुसलमान- 
शासकों की विलासिता के कारण, हिन्दी-साहित्य के लिए भी ऐसा समय 
ग्राया, जब कवियों ने नायक-नायिकाओं के श्रज्ञों का वर्णशन करना ही 
अपना कत्तंव्य समक लिया | अ्रभिप्राय यह कि जिस युग में, जिस रस 
की आवश्यकता होती है, उसमें वही परिपक्क होकर प्रादुभत होता रहता 
है । किसी युग में »ज्ञार रस की प्रधानता रही, किसी में श्ज्ञार-समन्त्रिता 
भक्ति के मुख्यता दी गई, और किसी में वीर, करुण आदि के । वक्तमान 
युग शशज्ञार रस की प्रधानता का युग नहीं है, इसमें वीर, करुणादि रसों 
को ही मुख्यता प्राप्त हे । 

निस्संदेह व्रजभाषा में श्ज्ञार रस की कविताएँ इतनी श्रधिक हैं. कि 
अब उसमें इस रस पर लिखने की श्रावश्यकता नहीं रही। वब्रजभापा में 
श्रद्भार सम्बन्धिनी कविताएँ क्‍यों अधिक हैं. इसका कारण सुनिए--ह तिहास 
में एक समय ऐसा आया, कि भगवद्धक्तों की शज्ञारमयी उपासना का 
प्रतिविम्ब व्जभाषा पर भी पड़ा, कवि लोग श्रीकृष्ण की श्ृज्जार-लीलाओं 
का वन बड़ी तनन्‍्मयता से करने लगे | इस भक्ति-भावना पर श्रीमद्धागवत 
का बड़ा प्रभाव था । उस समय की कविताओं में श्रधिकतर कृष्णु-लीला 
सम्बन्धी विशुद्ध प्रेम का ह्दी वणन है | निश्चय ही उस समय »ः गार-रस 
की सरिता ने भक्ति-भागीरथी से मिलकर, संगम का एक श्रपूव॑ दृश्य 
उपस्थित कर दिया था | विद्वानों का विचार है कि यदि इश्वर-भक्ति- 
जनित विरक्तिमय जीवन की शुष्कता दूर करने के लिए, उसमें राधा- 
कृष्ण की ”४ंज्भारमयी आराधना का मेल न मिलाया जाता, तो जाति का 


( ७४ ) 


बड़ा श्रह्चित होता । अ्रसंखय नरन्‍-नारी विरक्ति के कारण पघर-बार छोड़ 
अकमण्य बन जाते । वे लोक-साधन से दूर रह कर विराग के राग गाते 
दिखाई देते , शरंगारमयी भक्ति ने उस शुष्कवाद के रोका, और विरक्ति- 
युक्त उपासना का मह अनुराग-जनित भक्ति की ओर किया | 
जैसा कि ऊपर कहा गया, श्राधुनिक युग में हिन्दी कविता का प्रवाह 
बदला है, श्रोर उसमें अनेक सामयिक एवं उपयेगी विषयों का प्रवेश 
हाने लगा दे | परन्तु 'रञजनी? सजनी” के गीत उसमें श्रव भी गाए जाते 
हैं। 'कंकण' 'किंकिणी” तथा 'नृपुरों' की मधुर ध्वनि श्राज़ भी सुनाई 
पढ़ती है । आश्रय तो यह है कि आजकल के जो कवि ब्रजभाषा के 
शरंगार से चिढ़कर उसे हेच और हेय समभते हैं, वे भी श्रपनी कविता 
के उस से अ्रक्कता नहीं रख पाते ! नाटकों शोर सिनेमाओ्रों में जाकर 
श्रभिनेत्रियों के रूप-लावए्य ओर हाब-भाव के देखने में तो श्रशिष्टता नहीं 
समझी जाती, परन्तु उनका काव्यमय वणन सारे अनथें का कारण बन 
जाता है। कमरों में सुन्दरियों के चित्र टॉंगने से तो सदाचार-सदन पर 
प्रहार नहीं हेतता, परन्तु महाकवि पद्मांकर का 'रंगार सम्बन्धी केई काव्य- 
मय छुन्द या विद्दारी का चमत्कृत दोहा, नेतिकता के गढ़ पर ग़ज़ब का 
गोला गिरा देता है ! अरे साहब ! सोन्दय्य किसे श्रच्छा नहीं लगता, 
खूबधूरत चीज़ें किसे पसन्द नहीं श्रातीं | स्वय॑ विश्वकर्मा भगवान्‌ ने प्रेम 
और सौन्दय की बड़े रच-पच कर रचना की है। श्रगर उनमें केाई दोष 
हता तो वे पैदा ही क्‍यों किये जाते | जब सौन्दर्य और प्रेम इतने 
व्यापक और मोहक हैं, तब उनका कवित्वमय वर्णन विघातक केसे हे। 
सकता है। आवश्यकता होने न होने का दूसरा श्रश्न है। ज़रूरत न 
होने पर तो मोहनभोग और कलाकन्द भी उपेक्षा की वस्तु बन जाते हैं। 
परन्तु यह केाई नहीं कह सकता कि मोहनभोग या कलाकन्द बुरी चीज़ 
हैं। वे बुरी उस समय होंगी, जब उन पर मिट्टी आ पड़ेगी, अथवा उनसे 
अन्य किसी दू परत पदार्थ का मेल हे। जायगा। यही बात रूंगार के 
सम्बन्ध में भी है। उत्कृष्ट ंगार का कोई विरोध नहीं कर सकता | 


( ७६ ) 


गन्दा या अश्लील *रंगार तो श्गार ही नहीं, वह तो *रंगाराभास है, क्योंकि 
उसमें पवित्रता, श्रेष्ठता, उज्ज्वलता और दशनीयता का अभाव है। 
भला ठिकाना दे कि जिस विशुद्ध प्रेम श्रोर सौन्दय की निन्‍्दा कभी दे 
ही नहीं सकती, उसका सरस वर्णन आक्षेप योग्य समझा जाता है। हम 
स्वयं श्रशिष्टता श्रोर अश्लीलता के समथंक नहीं हैं | ये दोष जिस रचना 
में भी होंगे, वढ्ी निन्दनीय कही जायगी। भअस्तु 

श्रज्भार दो तरह का माना गया है, संयोगात्मक ओर वियोगात्मक । 
वियोगावस्था में प्रिय वस्तु के न मिलने से बड़ा दुःख द्वोता है, परन्तु 
उसके गुणों का ध्यान या स्मरण एक श्रद्धत आनन्द प्रदान करता रहता 
है। “शज्ञार रस नायिकाश्रों के ही अंग प्रत्यंगों ग्रथवा हाव-भावों का वणुन 
करने म॑ प्रयुक्त नहीं हुआ, प्रत्युत उसमें कबीर, सूर, तुलसी श्रादि महा 
कवियों ने विरक्ति से भरे हुए, ब्रह्मशान सम्बन्धी गम्भीर भाव भी प्रदर्शित 
किये हैं । कहीं मृत्यु को दुलद्विन माना हे, श्र कहीं प्रियतम । कहीं-कहीं 
शव की अ्ररथी ( काठी ) को दुलहदेन की डोली से उपमा दी गई है, 
कफ़न को गोौने की साड़ी बताया गया है । *रज्ञार-पूण भाषा में इस प्रकार 
के वेराग्य सम्बन्धी वणन बढ़े ही प्रभावशाली सिद्ध द्वोते हैं। "आई 
गवनवा की सारी, उमर्रि अब्रही मोरी बारी” “'साँची मान सहेली परसों 
पीतम लेवे श्रावेगी'!', “सजले साज सजीले सजनी ! मान विसार मना ले 
बर को”, इत्यादि गीत श्शज्ञार रस की भाधषा में लिखे गए हैं. परन्तु 
उनका वास्तविक भाव समभकने पर, द्वदय में निवेद जाग्रत होने लगता 
है। मृत्यु ही नहीं. इश्वर का वणुन भी श्ज्ञारी भाषा में किया गया है । 
यथा---“'कौन उपाय करूं पिय प्यारों साथ रहे पर हाथ न आवे”, “आज़ 
अली बिछुरों पिय पायो मिट गए, सकल कलेस री”, इत्यादि सैकड़ों ऐसे 
पद्म मिलेंगे, जो शरज्ञार रस में ड्रबे हुए हैं, परन्तु उनका प्रकृताथ हमारे 
हृदय को एक विरागमयी गम्भीर भावना की ओर आकृष्ट करता रहता है । 
जो लोग शरज्ञार रस को स्त्री-पुरुषों की काम-कला मात्र का विषय समभककर 
उसे निरथंक बताया करते हैं, उन्हें “रज्ञाराी भाषा के इन गम्भीर भाव- 


५ ७७ ) 


भरे पद्मों को पढ़कर सोचना चाहिये. कि श्रज्धार के संसग से इन विरक्त 
भावनाश्रों का प्रभाव कितना अ्रधिक बढ़ जाता है। 

इतना ही नहीं, कुछ लोग नायिकाओ्रं के नाम से बुरी तरह चिढते 
हैं। मानो नायिका शब्द इतना बुरा है कि उसका उल्लेख मात्र भी पाप 
का भागी बना देगा | जो वीतराग जन स्त्रियों के सहज सम्पक से सवंथा 
अलग रह कर, अलोकिक रूप से जीवन व्यतीत कर रहे हैं, उनकी तो 
बात ही निराली है ; न उन्हें नायिकाश्रों से मतलब; न उनके भेदों और 
वर्णनों से सरोकार | परन्तु जो लोग द्वदय में तो नायिकाश्ों के लिए 
ग्रसीम श्रनुराग रखते हैं, परन्तु उनके सरस ओर शिष्ट वर्णन से बिदक 
जाते हैं, वे दम्म के अवतार द्वेने के श्रतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकते । 
भरतमुनि श्राज नहीं हुए । उनके नाट्यशासत्र को बने सहसों वष बीत 
गए, परन्तु नायिकाओं का वर्णन उस प्रसिद्ध ग्रन्थ में भी किया गया है | 
साहित्यदपंण श्रादि ग्रन्थों में भी इस विषय का पर्याप्त विवेचन है। 
संस्कृत कार्यों में नायिका-वर्णंन से सग के संग भरे पड़े हैं। हिन्दी वालों 
ने भी इस रस की सुरम्य सरिता बहाने में कमी नहीं की। मतलब यह 
कि श्रज्ञार रस और नायिकाओं का वर्णन कोई नयी चीज़ नहीं है, और 
ने वह घृणास्पद ही कहा जा सकता है । अतियोग मिथ्या योग या दुरुप- 
योग तो किसी चीज़ का भी ठीक नहीं हे।ता । 

नायिकाभेद क्‍या है ? इस प्रश्न का उत्तर यही हो सकता है कि प्रकृति, 
अ्रवम्था और स्थिति के अनुमार स्त्रियों का वणन ही नायिका-भेद कहाता 
है | प्रम की किस अवस्था में, किन स्त्रियों की केसी दशा हो जाती है, विरह 
ग॑ वे क्या सोचती हैं. मिलन उनकी मानसिक अवस्था पर क्‍या प्रभाव 
डालता है, नायक के श्राने की प्रसन्नता या प्रतीक्षा में उनके मन पर केसा 
असर पड़ता है, प्रेम की प्रतिकूलता में वे किस तरह व्याकुल हो जाती हैं, 
काम-वासना के जाग्रत होने पर उसके साथ लजा और संकोच का किस 
प्रकार इन्द्र होता हे। ऐसी अवस्था में धीरता श्रोर सहन-शीलता किस 
प्रकार सहायक द्वोती हैं, सपत्नी के प्रति ईर्याभाव उठने पर मन की क्या 


( ७८ ) 


दशा हो जाती हे, प्रेम-प्राप्ति के लिए मानसिक भावों का किस तरह विकास 
होता रहता है, इत्यादि बातों का अति सूक्ष्म वर्णन नायिका-मेद में विशेष 
रूप से किया जाता है | स्नियों के इस सूक्मम मानसिक विश्लेषण को ग्राज 
कोई कितना द्वी निशपयोगी क्‍यों न समझे, परन्तु कलाकारों की विशद 
विवेचना की प्रशंसा तो करनी ही पड़ेगी । 

इसके अतिरिक्त नायिका-भेद में आपको श्रादश पत्नी और श्रादर्श 
पति का वर्णन मिलेगा । पतिप्राणा स्त्री के द्वदय में अपने प्राणनाथ के 
लिए. केसे-केसे भव्य भावों का संचार होता रहता है, ओर भायांनुरक्त पति 
अपनी प्राणाधिका पत्नी के प्रति केसी कलित कल्पनाश्रों से झ्ोत प्रोत 
दिखाई देता है ? ग्रहस्थ को स्वगघाम बनाने वाली स्वकीया कौन है, और 
वह नरक-निदर्शन किन क्रूर स्वभावाओ्ों के कारण बन जाता है, इत्यादि 
बातों से परिचित होने के लिए नायिका-भेद से बहुत सहायता मिलती दे । 
नायिका-भेद की उत्कृष्ट कविताश्रों को निष्पक्ष होकर पढ़िए, तो आपको 
उनमें प्रेममय त्याग और स्नेह-युक्त ग्रादर्श के दशन होंगे । आप अ्रच्छी 
तरह जान सकेंगे कि खस्त्रियाँ प्रीति के प्रबल प्रसंग म॑ पड़कर, अपने शरीर 
तक की परवा नहीं करतीं। श्रपने प्राण प्यारे के वियोग में कश्चन-सी 
काया को घुला देना उनके लिए एक साधारण बात है। भस्तु 

स्वकीया, परकीया और गणिका तीनों को नायिका नाम से पुकारा गया 
है | स्वकीया का श्रादश सद्ण्हस्थ का उच्च और अनुकरणीय आदश है । 
परकीया बड़ी कठिनाइयों ओर विध्न-बाधाश्रों के पश्चात्‌ श्रभीष्ट प्रेम प्राप्त 
करने में समर्थ द्वोती है । उसे इसके लिए श्रनेक छुल-छिंद्र भी करने पड़ते 
हैं । तरह-तरह की उक्तियाँ ओर युक्तियाँ काम में लानी पड़ती हैं | जिस 
प्रकार संसार में विष और विषधर का भी कुछु न कुछ उपयोग है, उसी 
प्रकार गणिकाओं की भी उपयोगिता मानी जा सकती है। वेश्याएँ नवयुवकों 
को बहका-फुसलाकर किस प्रकार उन्हें अपने माया-जाल में फाँसतीं श्रोर धन- 
इरण करने के लिये किस तरह धृत्तता रचा करती हैं, इत्यादि बातें गणि- 
काश्रों के प्रपंच-बणन से ही जानी जा सकती हैं | »'गार रस के अ्रन्तगंत 


( ७६ ) 


नायिका भेद के वर्णन का मुख्य उद्देश्य स्वक्रीया की आदशब रक्षा है। 
स्वकीया का प्रेम-घन लूटने के लिए, जिन पोच प्रपश्चों का प्रयोग किया जा 
सकता है, उन्हीं का रहस्योद्घाटन परकीया और गगणिका के वर्णन में किया 
जाता है। अ्गरेज़ी. अरबी, फ़ारसी आदि किसी भी भाषा के काव्य-साहित्य 
में देखिए, जहाँ प्रेम का वर्णन है, वहाँ स्त्रियों की मनोगत भावनाएँ भी 
दरसाई गई हैं । भले ही इन कविताओं में स्वकीया, परकीया ओर धीरा- 
अधीरादिका नामोन्नलेख न द्वो, परन्तु नायिका-मेद के श्ञाता उन वर्णनों को 
सुन-समझ कर बड़ी आसानी से जान सकेंगे कि वह किस नायिका की 
उक्ति है, ओर वह कौन-सी विरह-दशा है। हम तो समभते हैं, प्राचीन 
साहित्य-शास्तरियों ने नायिका-भेद के मिस, काम-कला-जन्य मनोविकारों 
का बड़ा सुन्दर वणन किया है। इस वर्णन को यदि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से 
देखा जाय तब भी वह ठीक ही उतरेगा। फिर से मान लिया जाय कि 
श्र गार व्यथ की वस्तु है, अ्रथवा नायिका-भेद में कोई श्रच्छी बात है ही 
नहीं | 

काव्य-कला की दृष्टि से नाथिका-भेद सम्बन्धिनी कविताएँ श्रति उत्कृष्ट 
समझी जा सकती हैं, क्‍योंकि उनमें मनोभावों की बड़ी सुन्दर ओर 
स्वाभाविक व्याण्या की गई है। रमणीयता और रसात्मकता स्पष्ट दिखाई 
देती है। द्वदृगत भाव बड़ी खूबी से चुने हुए शब्दों में व्यक्त किये गए. 
हैँ । वास्तव में ये कविताएँ साथक संगीत हैं। ”४ंगार रस-पूर्ण कविताओं के 
चमत्कृत भावों को देखकर, मन-मानस में आनन्द की द्विलोरं उठने लगती 
हैं कला को कला की दृष्टि से देखने पर ही उसकी उत्कृष्टता और महत्ता 
प्रकट होती है, नायिका-भेद को नायिका-भेद की दृष्टि से देखिए, और 
विचारिए कि उसमें जिन भावों की अभिव्यक्ति हुई है, उनमें काव्य-कला 
के विचार से किसी प्रकार की त्रुटि तो नहीं है, सदोषता तो नहीं दिखाई 
देती | इस दृष्टि से नायिका-भेद सम्बन्धिनी कविताएँ बड़ी आक के औोर 
इुृंदय को स्पश करने वाली प्रतीत होगीं। उनमें मस्तिष्क और द्वृदय 
दोनों की वृद्रम भावनाश्रों के दशन होंगे । प्रतिभाशाली कवियों की ललित 


( ८० ) 


लेखनी से निकली हुई, मोहक मधुरिमा, पाठक पर अ्रपना श्रमिट प्रभाव 
अंकित किये विना नहीं रहती | आवश्यकता केवल सहृदयता या संवेदन- 
शीलता की है | 

उपयक्त पंक्तियों में संज्षित रूप से यह दिखाने की चेष्टा की गई है, 
कि श्टंगार रस का जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध है, उसके विना संसार में 
नीरसता और शुष्कता का आधिपत्य स्थापित हो जायगा, और खष्टिसंचालन 
सम्बन्धी कार्यों में बड़ी बाधा पड़ेगी । ऐसी दशा में शंगार रस को निरथक 
और निष्प्रयोजन केसे माना जाय | हाँ, यदि संसार से प्रेम और सौन्दय 
ही नष्ट कर दिये जाय, तो श्रृंगार-रस की भी अन्त्येष्टि क्रिया की जा 
सकती हे ! 

इस बात को हम फिर बड़े ज़ोर से कहना चाहते हैं कि हिन्दी में श्रज्भार 
रस की बहुलता है, अतएवं अब उसके वर्णन की आवश्यकता नहीं । 
अश्लीलता पूर्ण गन्दी गढ़न्त को श्टगार-रस कहना, » गार शब्द का 
दुरुपयोग करना है। विवाहित ज््री-पुरुषों को दाम्पत्य प्रेम के लिए, जिन 
अनुभवों ओर विचारों की आ्रावश्यकता है, उनका थोड़ा-बहुत मसाला 
नायिका-भेद में मिल जाता है। अ्रतएव किसी न किसी रूप मं, »& गार 
के इस विभाग की भी कुछ न कुछ उपयोगिता है । जो हो, वत्तमान युग 
श्रज्भार के गीत गाने का नहीं है | इसमें तो वे ही कविताएँ होनी चाहिये, 
वे ही ग्रन्थ लिखे जाने चाहिएँ, जिनसे देश और जाति का उद्धार हो, 
जनता स्फूर्ति प्राप्त कर सके, और लोग अपने को ऊचा उठाकर दूसरों 
को उन्नत बना सकने में समथ हों । 


भक्ति रस 


वैष्णव लोग भक्ति को भी रस मानते हैं। उनका कहना है कि जिस 
परमात्मा का नाम रस हो, उसकी भक्ति को रस में न गिनना ठीक नहीं 
है। भगवान्‌ जिसके आलम्बन हैं, रोमाश्, श्रश्न-पातादि जिसके श्रनुभाव 
हैं, भागवतादि पुराण-अवण के समय भगवद्भक्त भक्ति रस के उद्देक से 
जिसका अनुभव करते हैं. वही भगवद्‌-अनुराग स्थायी भाव है। वे कहते 
हैं कि परम प्रभु परमात्मा से सम्बन्ध रखने वाला जो भक्ति रस इस प्रकार 
विभावादिकों से पुष्ट दो रद्दा हो, उसे रस स्वीकार न करना कदापि उचित 
नहीं हो सकता। 

भक्ति रस का आस्वादन करके, न जाने श्रब तक कितने भक्त अपने 
जीवन को अश्रमर बना गए । जिन व्यक्तियों ने भक्ति रस को भले प्रकार 
चख लिया. उन्हें फिर संसार में किसी प्रकार का ग्राकषषण न रहा । 
मौराबाई की महिमा को कौन नहीं जानता ? भक्त प्रहलाद की गुण-गरिमा 
किससे छिपी हुई है ! एक दो नहीं; सेंकड़ों भगवद्भक्तों से संसार का 
इतिहास भरा पड़ा हे । ईश्वर-भक्ति में तल्‍लीन द्ोकर श्रलोकिक आनन्द 
प्रात करना क्या कोई साधारण बात है। परन्तु आश्चय है कि इस रस 
की बहुत कम प्रथक सत्ता स्वीकार की गयी है। श्रगर भक्ति में अद्भुत 
तलल्‍लीनता न होती तो श्राज भक्तों के नाम भी सुनाई न पड़ते । श्ट गार 
और भक्ति रस में बहुत भेद है। जिस प्रकार वात्सल्य में श्रलौकिक आनन्द 
होता है, उसी प्रकार भक्ति में भी। जो भक्ति रस परमात्मा तक पहुँचाने 
वाला हो, उसकी इस प्रकार उपेक्षा केसे की जा सकती है। वेद और 
शास्त्र, काव्य ओर इतिहास, सभी भगवद्भक्ति से भरे पड़े हैं। संसार के 
सभी मद्दान्‌ पुरुष भगवान्‌ के अनन्य भक्त रहकर श्रपना उदाच आदश्शं 
छोड़ गये हैं | भक्ति के कई भेद किये जा सकते हें--गुरुभक्ति, पितृभक्ति, 
मातृभक्ति, राजभक्ति, स्वदेशभक्ति इत्यादि। 

हि० न०--६ 


( पर ) 


भक्ति का अतियोग धर्मान्धता अ्रथवा श्रन्ध श्रद्धा की ओर ले जाता 
है, ओर इसका द्वीन योग अश्रद्धा, नास्तिकता और शुष्कता का उत्पादक 
हे। सन्ध्या, स्तुति, प्राथंना, उपासना प्राणायाम, योगाम्यास, नम्नता, 
कृतशता, दया, परोपकार, क्षमा, आत्मनिष्ठा, सत्यप्रेम आस्तिकता आदि 
की जननी भक्ति ही है । संसार में ऐसा कोई भी देश नहीं, जहाँ भक्ति की 
मान्यता न रही दवा । जहाँ जाइए, वहाँ किसी न किसी रूप में लोग पर- 
मात्मा के प्रति श्रद्धाज्ञलि अपिंत करते दिखाई दंगे। मस्तिष्क-शास्रियों 
का कहना है कि हष, विधाद, करुणा, शौयं, घृणा, क्रोध, प्रेम आदि की 
तरह भक्ति -भाव के लिए भी मस्तिष्क में परथक्‌ स्थान है । इसलिए भक्ति: 
भावना का प्रकाशन किसी अन्‍य वृत्ति द्वारा नहीं हे सकता । भक्ति-वृत्ति 
का विकास करने के लिए, अभ्यास ओर शिक्षा की आ्रावश्यकता है । प्रसिद्ध 
मस्तिष्कशास्री डाक्टर, गाल और डा० जाज कोौम्ब का यह भी कद्दना 
हे कि जो लोग परमात्मा के सच्चे भक्त होते हैं, उनके मस्तिष्क में भक्ति 
का स्थान अपेक्षाकृत बड़ा देता हे, ऐसे लोगों की रुचि ईश्वर-भक्ति 
परोपकार, दया आदि धमभावों में ही अधिक होती है। तक््ववेत्ता और 
कवियों के मस्तिष्क में भी यह स्थान कुछ बड़ा द्वाता है। इसी मत के 
समरथंक “ ह्यमैन साइंस एण्ड फ्रेनोलोजी ” नामक ग्रन्थ के रचयिता 
डाक्टर ओ० एस» फ़ाउलर हैं | अ्रभिप्राय यह कि जब प्रसिद्ध मस्तिष्क- 
शात्नियों को अ्न्वेषणा के श्राधार पर, मस्तिष्क में भक्ति का स्थान 
उयक्‌ है, तो उतका प्रभाव भी प्रथक्‌ ही मानना पड़ेगा । 





विभाव 


जिसके आश्रय से रस प्रकट हो, उसे विभाव कहते हैं। नाट'थ- 
शासत्रकार ने विभाव का लक्षण " विभाव्यन्ते अनेन वागड्भ सत्वामिनया 
इति विभावः ? किया है। अर्थात्‌ जिसके द्वारा वाचिकामिनय, आंगिका- 
भिनय और सात्विकाभिनय प्रकट किये जायें, उसे विभाव कहते हैं। 
रसतरंगिणीकार के मत से, जो विशेषतया रस को उत्पन्न करे उसकी 
विभाव संज्ञा हे। 


विभाव दो प्रकार का होता है, अर्थात्‌ १--आलम्बन और 
२--उद्दौपन 


आलम्बन विभाव 


जिसका आ्रालम्न श्रथांत्‌ ग्राश्रमय लेकर रस उत्पन्न हो, उसे आलम्बन 
विभाव कहते हैं, जेसे नायक-नायिका । नीचे नायक आलम्बन के उदाइरण 
दिये जाते हैं-- 

जाई भली में चली सखियान में पाई गोबिन्द के रूप की कोँकौ | 

त्यों 'पदमाकर? हारि दियो ग़ह-काज कहा अ्ररू लाज कहाँ की ॥ 

है नखते सिखलों मृदु माधुरी बाँकीय भौहें बिलोकनि बाँकी | 

श्राजु की या छुत्रि देखि भट्ट श्रव देखिबे को न रह्यो कछु बाकी ॥ 

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सोने-सो रंग भयो तो कहा श्रर जो विधिना कटि छीन सवारी । 

दारयों-से दन्त भए तो कहा जु कद्दा भयो लाँबी लटें सटकारी ॥ 

रूप की रासि भई तो कहद्दा नहीं प्रेम की रासि दिये अ्वधारी । 

नेन बड़े जो भए तो कहा, पर आ्राखिर गोरस बेचनहारी॥ 


( ८६ ) 


नायक 
साहित्यदपण-कार ने नायक का लक्षण निम्न प्रकार किया है-- 
त्यागी, कृती, कुलीनः सुश्रीको रूपयोवनोत्साही। 
दक्षोउनुरक्त लोकस्तेजो वेैदग्ध्य शीलवान्नेता | 
अर्थात्‌ दाता ( त्यागी ), कृतश, परिडत, कुलीन, लक्ष्मीवान, 
नायिकाओं के श्रनुराग का पात्र, रूप-पोवन ओर उत्साह से युक्त, तेनस्वी, 
चतुर एवं सुशील पुरुष को नायक कहते हैं। हिन्दी साहित्यकारों ने नायक 
की व्याख्या इस भाँति की हे-- 


सुन्दर गुन-मन्दिर युवा युवति बिलोंक जाहि। 
कविता, राग रसज्ञ जो नायक कहिये ताहि ॥ 


उंदाहरण देखिए-.. 


बारों कम्बु कण्ठ पै, कपोलनि कमल-दल, 

बिम्बाफल बिद्रुम अ्रधर अझरुनाई पै। 
भोंइनि कमान, बान तिरछी निरीछुनि पै, 

बारों पंचच्रान मान तन तरनाई पै। 
बारिहों त्रिबेनी चिन्ह चरन-मयूष लखि, 

चिन्तामनि स्तेनी नख नूतन लुनाई पै। 
* ढाकुर ? के ईस तेरे सीस बकसीस करि, 

बारों मेस्मन्दर अमन्द गरुवाई पै। 


और भी देखिए--- 


मंजु मोर मुकुट निपट घघरारी लटें, 

भूलि-फूलि कुगडल कपोलन पै भलकें। 
बारिज बदन रस रूप को सदन लच्छ, 

दमके रदन  भरि-भरि छुबि छलके। 





५ ८७ ) 


कानन छुवत कोये नेन मैन कोटि मोदे, 
सोभा सर लखि-लखि मानो मीन ललकें | 
देखिबे को स्याम “सोम ” देतो दहग रोम-रोम, 
सो न कीनों बिधि श्रो अ्बधि कीनीं पलकें । 
इसमें नायक का सोन्दय वर्शित है। कवि सोम कहते हैं कि ऐसी रूप- 
माधुरी के दशनों से तो तभी तृप्ति होती, जब विधि रोम-रोम में आँखें 
बना देता, परन्तु उसने तो इन दो श्आाँखों पर भी पलकों के परदे लगा 
दिये हैं ! 
नायक के वर्णन में नीचे लिखा कवित्त भी पढने लायक है-- 
चन्द्र नस चन्द्रका चकोर पद कंजन पे. 
मेरो मन मंजुल मिलिन्द ललकन पै। 
बसी त्यों बिसाल लाल अ्रधर अ्मोलन पे. 
बारों कुरबिन्द दन्‍त कुन्द कलिकन पै। 
छुबि पे छुपाकर प्रभाकर प्रताप ही पै, 
बार कोटि काम कमनीय भलकन पे। 
पन्नगी कुमार ओ कदम्बिनी देवार बारों, 
बाँकुरे बिहारी की अ्रमोल अ्रलकन पे। 
नायक के वन में पद्माकरजी की भी कल्पना देख लीजिए-- 
जगत बसीकरन दहीहइरन गोपषिन के, 
तरुन तिलोक में न ऐसी सुन्दराई है। 
कहे ' पदमाकर ! कलानि को कदम्ब अव- 
लम्बन सिंगार के सुजान सुखदाई हे। 
रसिक - सिराोमनि सुराग-रतनाकर ले, 
सीलगुनश्रागर उजागर बढ़ाई है। 
ढठौर ठकुराई का जु ठाकुर ठसकदार, 
नन्‍्द के कन्हाई से सुनन्द के कन्हाई है । 


(६ पलट ) 


नायक के भेद 
धर्मानुसार नायक के तीन भेद हैं, श्र्थात्‌ १-पति, २-उपपति और 


३-वेशिक | अवस्थानुसार मानी और प्रोषित ये दो भेद औ्रोर भी माने 
गए हैं । 


पति 


विधिवत्‌ विवाह करके, शास्त्र तथा कुल-मर्यादा का पालन करने 
वाले पुरुष की पति संज्ञा है । उदाहरण देखिए-. 
हेर फेर करि के तिरीछे मंजु मोरे नेन, 
मीन मृग कंजन की माधुरी धरत है। 
“ सेवक ? भनत प्रत्यों पूरन प्रस्वेद अंग, 
रोमनि कदम्ब की कला को, निदरत है। 
-बचन अलेखे तन कम्पयुत देखे और, 
गौर कर पेखे पग और ही घरत है। 
चाँवर डुलाव रति पाँवर पिरीते जहाँ, 
साँवर सलोनी संग भांवर भरत है। 
अथ स्पष्ट ही है । एक उदाहरण और लीजिए-- 
बोॉँधे मंजु मोर सीस कंचन घटित सिर, 
पेच कलेंगी की छुब्रि पुंजन उन्‍्यो हे री । 
जामा जेबदार श्री कुसुम्मी कटि फटा पट, 
बाजूबन्द जड़ित उमैड़ सों तन्‍यो हैरी। 
€ दामोदर * सुकवि अनंगधर रूप मानो, 
अंग-अंग सोभा को तरंग उफनयी हे री । 
नवल बनी को अबनी को प्रान प्यारो नीको, 
नवलकिसोर नीको बनरा बन्यो हेरी। 


उक्त पद्म में भी वर की विवाह कालीन वेश-भूषा का बणन हे । 


( ८६ ) 


पति के भेद 
पति के चार भेद हैं, १-अ्रनुकूल, २-दक्षिण, ३-धृष्ट और ४-शठ । 
कुछ लोग उपयुक्त चारों मेदों के अतिरिक्त अनभिज्ञ संशक एक भेद 
ओर भी मानते हैं। 


जो नायक श्रपनी विवाहिता स्त्री में पूर्ण प्रेम रखता हुआ, दूसरी स्री 
का विचार भी नहीं करता. उसे अनुकूल पति कहते हैं। जैसे--. 
ग्रीसम निदाघ समे बैठे अनुराग भरे, 
बाग में बहति बहतोौल है रहट की। 
लददलद्दी माधवी लतान सों लपट रही, 
हीतल सों सीतल सुहाई छाँह बट की | 
प्यारी के बदन स्वेद-सीकर निद्दारि लाल, 
प्यारो प्यार करत बयारि पीत पठ की | 
पत्र बीच हेके कढे रवि की मरीचि तहाँ. 
लटकि छुबीलो छोँद्द छावत मुकट की | 
अनुकूल नायक अपनी प्रियतमा से कितना प्रेम करता है, इसका 
ग्राभास ऊपर के पद्म से भली भाँति मिल जाता है | एक उदाहरण श्रौर 
भी देखिए-- 
नारि पराई तें बोलिबो को कहे, क्यों हूँ न काहू कों भूलि हू देरे । 
मेरा लखे मन वेई ओऔ में हूँ, लिया उनको लिखि चित्र हियेरे ॥ 
बाँघधि सके उनको मन को बँध्यो रैन-दिना रहे मेरेई नेरे। 
लेस नहीं उनमें अश्रपराध को मान की होंस रही मन मेरे ॥ 
यहाँ नायक श्रपनी पत्नी के इतना अनुकूल है कि वह भूल कर भी 
कभी कोई गलती नहीं द्वेने देता। नायिका को मान करने के लिए कोई 
बहाना ही नहीं मिलता | उसकी रूठने की ' होंस ' मन की मन में ही 
रही जाती है। 


(६ ६० ) 
नीचे लिखा दादा भी श्रनुकूल पति का श्रच्छा उदाहरण है-- 


सपने हू मनभावतो करत नहीं श्रपराध । 
मेरे मन ही में रही सखी मान की साथ ॥ 


दक्षिण 
अनेक पत्नियों में समान अ्रनुराग रखने वाला नायक दक्षिण कहाता 
है। ऐसे नायक के सब नायिकाएँ अपना प्यारा समझती हैं, और 
कभी उससे मान नहीं करतीं। उदाहरण देखिए--- 


भूषन के भार ते सेभारत बनें न शअ्रंग, 
मन्द-मन्द चाल ते गयन्द वे लजाती हैं। 
जोरि-जोरि जोरी दिलि-मिलि के निकुज माँहि, 
ग्राबति चली यों सत्र ग्रापुस मं भाती हैं। 
ठाढ़ो कमलापति छुबीलो छैल देखे तिन्‍हें, 
तिरछ्ली चितोनि ही ते लखि मुसकाती हैं । 
मैन मदमाती इते बारबार आप लें, 
नेन-तरवार-वार करि-करि जाती हैं। 


नायक अपनी सभी पत्नियों में समान अनुराग रखता है, श्सका परिचय 
नायिकाओं के परस्पर जोड़ी बनाकर आने और साथ-साथ छुबौले छेल 
के संग रंगरेलियाँ करने से मिल जाता है | यदि उसका प्रेम एक से 
अधिक ओर दूसरी से कम होता, तो उनमें परस्पर इतना सौहाद भाव 
न दिखाई देता, बल्कि उस अ्रवस्था में तो वे एक दूसरी को ईर्ष्या की दृष्टि 
से देखती । 


इसके उदाहरण में कवि ललछिरामजी का देहा श्रोर देखिए-- 


दक्षिण नायक एक तुम मनमोहन ब्रजचन्द | 
फुलए, ब्रज -बनितान के दृग इन्दीवर वृन्द ॥ 


जो नायक बार-बार अपराध करके भी निःशंक रहे, और अनेक 
भिड़कियोँ खाने पर भी लज्जित न है।, किन्तु नम्न ओर निश्चल बना 
रहे, कूठ बोलने में जो तनक भी संकोच न करता हो, वह धृष्ट कहाता 
है। यथा-- 
बरजी न मानत हौ बार-बार बरणजों मैं, 
कोन काम मेरे इत भोन में न आइये । 
लाज के न लेस, जग हाँसी के न डर मन, 
हंतत हंसते ग्रान बात ना बनाइये। 
कवि ' मतिराम ? नित उठि के कलंक करो, 
नित-नित सॉंहँ करो अंग बिसराइये | 
ताके पग लागो निसि जागि जाके उर लागे, 
मेरे पग लागि-लागि ञ्रागि न लगाइये | 


कविवर मतिरामजी का उपयुक्त कवित्त धृष्ट नायक का कैसा सजीव 
उदाहरण है। नायिका उसे बार-बार समभ्काती है. डाटती-फटकारती 
भी हे, परन्तु वह अपनी कुटेव नहीं छोड़ता, उलटा निलंज्जता पूर्वक 
हंसता हे । 


और भी देखिए, नीचे लिखे सवैया में नायिका अपने धृष्ट नायक के 
सम्बन्ध में क्या कद्दती हे-- 

द्वारत दूरि करो बहुबारनि हारनि बाँधि मृनालनि मारो। 

छाँडुत ना अपनो अपराध असाधघ सुभाइ अगाध निहारो॥ 

बैरिनि मेरी हँस सिगरगी जब पाँय परै सु टरे नहिं टारो। 

ऐसे अनीठि सों ईंठि कहे यह ढीठ बसीठन हीं को बिगारो ॥ 

ठिठाई की हृद हो गई ! मारने-पीटने पर भी नायक शअ्रपराध करना 
नहीं छोड़ता । बार-बार पाँवों में पड़ता और ' हाहा ? खाता रहता है। 


( ६२ ) 


यदपि न बैन उचारियतु गहि निबारियतु बाँद । 
तदपि गरेई परतु है. गजब गुनाही नाह॥ 


यहाँ हाथ पकड़ कर धक्का देने पर भी धृष्ट नायक गले ही पड़ता 
जाता है । 


दाय कहा गारी गनत कमल-पात सम लात। 
लिन-छिन करत गुनाह श्ररु छिन-लिन हा-हां खात ॥ 


जब नायक पाद-प्रहार को पुष्प-वर्षा समझता है, तब गाली-गलौज 
की तो बात ही क्‍या, वह ते। उसके लिये आशीर्वाद-रूप हें | 


शठ 


जो नायक किसी गअन्य स्त्री में अनुरक्त होकर, प्रकृत नायिका का 
छुल-पूवक भुलावे में डाल, अपना श्रपराध छिपाए. रहता, तथा अपनी 
कार्य-सिद्धि के लिए मीठी-मीढठी बातें बनाता, और नायिका के प्रति 
अनुकूलता-सी दिखाता है, उसे शठ कहते हैं। यथा -: 


हों तो निरदोसी दोस काहे के लगावे मोहि, 

जैसी ताहि भावे मे पे सपथ कराय ले। 
त्रिवली-अतिवेनी नाभि-सर में सँचाय देखु, 

सींक़ों तो निहाल मान कीन्हों ई घटाय ले । 
कंचुकी-कुटी में देय तपसी विराजमान, 

ताके सीस छुवाय चार साह निपटाय ले। 
केप करि पावक कपोल गाल लाल-लाल, 

लाख-लाख वार मो पै जीमन चटाय लै। 


उपयक्त पद्य में शठ की शठता का केसा सुन्दर चित्र खींचा गया 
हैं। वह नायिका द्वारा डाँटेफटकारे ओर मारे-पीटे जाने पर भी, उसके 
इस व्यवहार का हंसी में ही टालता जाता है । 


( ६३ ) 


शठ के उदाहरण म॑ मतिरामजी का भी नीचे लिखा पद्म पढने 
लायक हे--- 

मोते तो कछू न अपराध परयो प्रान प्यारी, 

,. मान करि रही यों ही कदहि के अरसते। 
लोचन चकेार मेरे सीतल ही हात हेरे. 

अरुन कपोल मुख-चन्द के दरस ते। 
कहे 'मतिराम' उठि लागि उर मेरे कित- 

करति कठोर मन गअ्रंस॒ुआ बरसते। 
कोपते कट्‌क बाल बालति है तऊ मोकोा, 

मीठे द्वेत अधर सुधा-रस परसते। 


यहाँ शठ नायक के नायिका के कटु और कठोर बोल भी सुधा सने-से 
प्रतीत द्वाते हैं । वद्द अपने को निरपराध बताता और चापलूसी से नायिका 
को प्रसन्न करने का प्रयक्ष करता है । ऐसे ही एक नायक का वणन तोष- 
जी ने भी किया है, देखिए--- 


पाप पुराक्ृत को प्रगठयों बिलुर॒यो तेहि राति भई सुख घात है। 
जीवन मेरो अ्रधीन है तेरे ही जीवन मीन की कोन-सी बात है ॥ 
'तोष! हिये गर मैन-विथा हरु, नातो पिया पल में पछितात हे । 
जो तुम ठानती मान अयानि तो प्रान पयान किये श्रब जात है ॥ 


अनभिज्ञ 


जिस नायक को अ्रसमथंता के कारण श्वज्ञार की सरस क्रियाओं का 
वास्तविक ज्ञान न हो, उसे श्रनभिश कहते हैं। यथा-- 


नैनन ही सेन करे बीरी मुख देन करे, 

लैन करे चुम्बन पसारि प्रेम पाता है। 
कहे 'पदमाकर” त्यों चातुरी चरित्र करे, 

चित्त करे सोहं जो विचित्र रति-राता हे । 


( ६४ ) 


हाव करे भाव करे विविध विभाव करे, 

बूके प्यो नएते पे अबूकन को श्राता है। 
ऐसी परबीनि को कियो जो यह पुरुष तो, 

बीस बिसे जानी महा मूरख बिधाता है । 


इससे भी अधिक विधाता की मूखता का प्रबल प्रमाण ओर क्‍या हो 
सकता है, जिसने ऐसी सकल कला प्रवीणा नायिका को मोधू के पल्ले 
बाँध दिया ! 


करि उपाय हारी जु में सनमुख सैन बताइ। 
समुझत प्यो न इतेहु पै कहा कीजिये हाइ ॥ 


उक्त दोहद्दा भी किसी ऐसी ही नायिका को उक्ति हे। “कहा कीजिये 
हाइ! में बेचारी की कितनी मनोव्यथा भरी हुई हे। 


उपपति 


पर-स्री पर अ्रनुरक्त रइने वाले को उपपति कहते हैं। वह जहाँ भी 
सोन्दय-सुधा देखता दे, वद्दीं उसे पान करने को लालायित हो उठता है। 
मधुमत्त मधुप की भाँति कली-कली का रस चाखना, इसे बहुत पसन्द 
हे। उदादरण देखिए-- 


मत्त गज गामिनी-सी भामिनी सुजामिनी में, 

दामिनी-सी दमकि कढ़ी या गेल आय के | 
बंक करि भेहें सौहें जोरि कै रसीले नैन, 

* रसिक विहारी ? मीठे बचन सुनाय के। 
मेरी मन लेगई सु नेगई बिरह-बीज, 

कैगई जु टोना म्रुरि मन्द मुसकाय के। 
हाय वा कसाइन के नेक न कसक हिय, 

चली गई घायल के पायल बजाय के। 


( ६४ ) 


पायल की कनकार कान में पड़ते ही, नायक का मन नायिका की 
ओर आकृष्ट हो गया है| श्राकृष्ट ही नहीं हो गया, बल्कि नायिका के 
पायलों की ध्वनि ने उसका हृदय बुरी तरह ' घायल ? कर डाला है ! 

कविवर पद्माकर ने उपपति का उदाहरण इस प्रकार दिया दै-- 


आखिर जाये अरद्दीर के हौ जिय जानत नेक ना मेरे सुभाय हो। 

दे दधि दान जु पै सुरकों 'पदमाकर? “ट कहा अरुझाय हो ॥। 

जो रस चाहत हो तुम सॉवरे सो रस गोरस रोके नपाइ हो। 

पैहो कबै जब गोधन गाय हो, वेनु बजाइ हो, मोहि रिकाइ हो ॥ 

नायक ( कृष्ण , दधि बेचने के लिए जाती हुईं गोपी से गोरस के 
साथ-साथ कुछ और भो पाने के लिए उलभ रहे हैं। परन्तु गोपी भी 
बड़ी चंट है, विना नचाये तथा बिना गोधन गवाए, वह कृष्ण से बात भी 
नहीं करना चाहती । 

नीचे लिखा दोहा भी उपपति का अच्छा उदाहरण दे-- 

भैन जोरि मुख मोरि हँसि नेसुक नेह जनाय । 
आगि लेन आई हिये मेरे गई लगाय ॥ 

अर्थात्‌ श्रांखे नचाती और मन्द-मन्द मुस्कराती हुईं नायिका आग 
लेने कया आई, वह तो मेरे द्ृदय में उलटी ञ्राग लगा गई। अर्थात्‌ 
प्रेमार्िन प्रज्वलित कर गई ! 

उपपति हे भेद 
उपपति के दो भेद हैं | १-वचन-चतुर ओर २-क्रिया-चतुर। 
वचन-चतुर 

जो उपपति वाक चातुरी से श्रपना काय सिद्ध करता है, उसे वचन- 

चतुर कहते हैं। उदाधरण देखिए--- 
दूसरे की बात सुनिपतत न ऐसी जहाँ, 
कोकिल कपोतन की धुनि सरसाति है। 


( ६६ ) 


छाइ रदे जहाँ द्रम-बेलिन सों मिलि “मति- 
राम ' श्रलि कूलनि श्रंध्यारी अधिकाति हे । 
नखत-से फूलि रहे फूलन के पुंज घन- 
कुंजन में होति तहाँ दिन हू में राति है। 
ता बन की बाट कोऊ संग न सहेली कहि, 
कैसे तू अ्रकेली दधि बेचन को जाति है । 
यहाँ नायक श्रकेली जाती हुई गोपी के, उसके माग में पड़ने वाली 
कंज की सघनता ओर जन-शून्यता का केसी चतुराई से स्मरण दिलाता 
है। बातों ही बातों में, वह द्रम-लताश्रों के परस्पर मिलने, मधुकर-पंज 
के गंजारने और कोकिल के कूकने आ्रादि की बात कह्ट कर यह भी व्यक्त 
कर देता हे, कि श्राज कल मतवाला बना देने वाली मधुऋतु भी अ्रपने 
पूरा यौवन पर है। 


' एक उदाहरण और भी देखिए, पद्माकरजी कहते हें-- 
दाऊ न नन्द बबा न जसोमति न्यौते गए कहूँ ले सँग भारी । 
हों हूँ इके ' पदमाकर ” पौरि में सूनी परी बखरी निसि कारी ॥ 
देखे न क्‍यों कढ़ि तेरे सुखेत पै धाय गई छुटि गाय हमारी । 
ग्वाल सों बोलि गुपाल कट्यों सुगुवालिनि पे मनो मोहिनी ढारी ॥ 
यहाँ भी गोपाल केसी वाक-चातुरी से गोपी के स्वयं श्रपने घर में 
अकेले होने की बात बता रहे हैं । 
क्रिया-चतुर 
छुल छिद्र द्वारा अपना मतलब निकालने वाला क्रिया चतुर कहाता 
है। यथा-- 
उत सों सखान सजि आए नन्दलाल हइते, 
राधिका रसाल आ॥ाई बृन्द में सहेली के। 
खेले फाग श्रति अनुराग सों उमंग भरे, 
गाव मन भाव तहाँ बचन श्रमेली के । 


( ६७ ) 


मारी पिचकारी मंजु मुख पै बिहारी ताके, 
दावन बचाई के श्रबीर भेला भेली के । 
जो लों निज नेननि सों रंग के निवारै प्यारी, 
तो लों छैल छ॒वे भजे कपोल अलबेली के । 

यहाँ छैल कैसी चतुराई से अ्रलबेली के कपोल छू कर भाग गए ! 
वह जान भी न सकी कि ऐसा करने वाला कौन था ! बेचारी शअ्राँखे 
मीड़ती ही रद्द गई ! 

क्रियाचतुर नायक के उदाहरण में पद्माकरजी का पद्म भी पढ़ 
लीजिए... 

आई सुन्योति बुलाइ भली दिन चारि के जाहि गोपाल ही भावे । 

त्यों ' पदमाकर ' काहु कह्मौ के चलो बलि बेगिद्दी सासु बुलावै ॥ 

से सुनि रोकि सके क्‍यों तहाँ गुरु लोगन में यह ब्यौंत बनावै । 

पाहुनी चाहे चल्‍यो जबहीं तबहों हरि सामुहें छींकत आवे || 

यहाँ नायक घर आई हुई पाहुनी से सबके आगे, स्पष्ट तो कह नहीं 
सकता कि श्रपने घर मत जाओ, यहीं रहो; पर वह अपनी चतुराई से 
उसका जाना स्थगित कर देता है| अर्थात्‌ जब वह चलने लगती है, तभी 
सामने छींक कर श्रपशकुन कर देता हे । 

क्रियाचतुर का एक उदाहरण और भी देखिए--- 

नेंदलाल गयो तितद्दी चलि के जित खेलति बाल सखीगन में । 

तहँ ग्रापही मेँदि सलोनी के लोचन चार मिहीचनि खेलन में ॥ 

दुरिबे के गई सिगरी सखियाँ “मतिराम ! कहे इतने छन में । 

मुसिकाय के राधिके कण्ठ लगाय छिप्यो कहूँ जाय निरंजन में ॥ 

यहाँ भी हज़रत नायक अपनी क्रियाचातुरी से मनमानी करके निकजों 
में जा छिपे। श्रांवमिचौनी के कारण उन्हें मोक़ा भी अच्छा मिल 
गया । 

हि मेँ ७--- ७ 


( ६८ ) 
बेशिक 


जो नायक वेश्यानुरागी निःशंक ओर निलज होता है, उसे वेशिक 
कहते हैं। यथा-- 


नित बारबधून के बार हजारन बार अबार सबार ठने। 
सब छोड़ि अचार विचार दयो उपचार लचार न होत भने ॥ 
हग आनन-चन्द्र-चकार किये नैँदराम रहे रस ही में सने। 
तन ते मनते धन ते धनपै तनहेूँ मनहूँ घनहूँ न गनै॥ 


और देखिए गोविन्द कवि इस प्रसंग में क्या कहते हैं-- 


दिल जान हमारी निछावर है यहि प्रीति में कौन इमान गने | 
न रही कुलकानि न धर्म रह्यौ नर रूप की कीच में श्राय सने ॥ 
कवि ' गोविंद ? श्रोठ ते श्रोठ मिलै तबहीं रति-रंग श्रमंग जने । 
छबि देखत हाल बिहाल भए मन देत बने घन देत बने ॥ 


इस सम्बन्ध में कविवर मतिराम का दोहा भी क्या ख़्ब है। देखिए-.. 


लोचन पानिग पढ़ि सजी लटबंसी परबीन । 
मो मन बारबिलासिनी फाँसि लियो मनु मीन ॥ 


पानी 


प्रियतमा द्वारा किये गये अ्रपमान से श्रप्रसन्न होकर मान करने वाला 
पुरुष मानी कहाता है। नीचे के पद्य में देखिए नायिका मानी की केसी 
खुशामद कर रही हे-- 
बात हीं बात दे पीठि पिया पटिया लगि मान जनावन लाग्यो। 
ज्यों-ज्यों करे मनुद्वारि तिया रुख “ तोष ? सु त्यों-त्यों रखावन लाग्यो ॥ 
चूक परी सो परी बकसो यह प्रान है रावरे पॉयन लाग्यो। 
लीजिए. मोहि उठाय हिये बिच भावन ! जोर जड़ावन लाग्यो॥ 


( ६६ ) 

इस सम्बन्ध में पद्माकरजी का उदाहरण भी पढ़ लीजिए--- 

बाल बिद्दाल परी कब की दबकी यह प्रीति की रीति निहारो। 

त्यों ' पदमाकर ” है न तुम्हें सुधि कीन्हों जो बैरी बसन्‍्त बगारो ॥ 

तातें मिलो मनभावती सों बलि हाँते ह-हा बच मान हमारो। 

कोकिल की कल बानी सुने पुनि मान रहेगो न मान तिहारो ॥ 

उक्त पद्म में नायिका की सखी मानी नाथक से कह रही हे-बेचारी 
का तुम्हारे विना बुरा द्वाल है। में तुम्हारी हा-हा खाती हूँ, मान जाश्रो, 
श्रच्छा है, चले चलो, तुम्हारी भी बात रही जाती हे | श्रगर नहीं मानते 
तो याद रकक्‍खो, वसन्‍्त ऋतु आरा रही हैे। जब शीतल मन्द मलय समीर 
बहेगा, कोकिल कूकंगे, ओर भ्रमर गुज्ञार करेंगे, तब तुम्हारा सब मान 
मिट्टी में मिल जायगा, और तुम अपने श्राप उसकी हा-हा खाते फिरोगे। 


प्रीषित 
प्रवास में प्रियतमा-विरह-विकल पुरुष को प्रोषित कद्दते हैं। यथा--- 


लोकन संवारों तो संवारों ना बिगारो कछु, 

लोकन सेवारि नर-नारि ना सवारतो। 
कीन्हों नर-नारी तो ना प्रेम को प्रचार देतो, 

प्रेम को प्रचारो तो ना मैन को प्रचारतो। 
मेन को प्रचारो तो प्रचारो ना संयोग देतो, 

कीन्हों जो संयोग तो वियोग ना विचारतो | 
“'जन्दराम” कीन्दोों जो वियोग बिधना तो भूलि, 

बोरे बन बागन बसन्‍्त ना बगारतों। 

और देखिए--- 

परी तेरे सुमुख-सुधाधघधर की दुति जापे, 

ललित कियो री बचनामृत अ्रगाधा सों। 
“ सेबक ' त्याँ तेरेई उरोज-सुधा-कुम्मनि को, 

परसि प्रसेद पूरि-पूरि मन साधा सों। 


( १०० ) 


एरे मन्द पौन गौन करि जैये बेगि उते, 
ऐसे ही सुनेयेगो सँदेस मेरो राधा सों। 
तेरी गुह्दी उर जो न होती बनमाल तो, 
बचावतो को मोहि बिरहानल की बाधा सों | 


यहाँ विरह-बिधुर प्रोषित, नायिका के द्वाथ की गुंथी माला के सहारे 
ही श्रपने प्रवास के दिन पूरे कर रहा है । 


अब भ्रीकृष्णजी की प्रोषित अ्रवस्था का वणन कविवर रक्षाकर के 
शब्दों में सुनिए -- 
बिरह-बिथा की कथा अ्रकथ शअ्रथाह महा, 
कहत बने न जो प्रबीन सुकवीन सों। 
कहे 'रतनाकर” ब॒कावन लगे जो कान्ह, 
ऊधौ को कहन देत ब्रज जुबतीन सों। 
गहवरि श्रायो गरो भभरि अ्रचानक त्यों, 
प्रेम परयो चपल चुचाइ पुतरीन साँ। 
नेक कही बैननि अनेक कही नेननि सों. 
रही सही सोऊ कहि दीनी हिचकीन सों। 
विरह-व्यथा के कारण बेचारों से बात भी कहते नहीं बनती । गला 
भर आया और हिलकियाँ बंध गई । 


नायिकाश्रों की भाँति नायकों के भी सैकड़ों भेद दो सकते हैं। परन्तु 
विस्तार-भय के कारण रीति-प्रन्थों में उनका संक्षिप्त रूप से ही वर्णन किया 
गया है । 


स्वभावानुसार भेद शोर गुण 
भेद 


स्वभावानुसार नायक के चार भेद माने गए हैं। १--धीरोदात्त, 
२--धीरोद्धत, ३--धीर ललित श्रोर ४--धीर प्रशान्त । 
धीरोदात्त 
जो नायक श्रात्मश्लाघा दोष से मुक्त, क्षमायुक्त, अ्रति गम्मीर स्वमाव 
वाला, हर्ष शोकादि में समान भाव प्रकट करने वाला, हृढव्रती, विनयी, 
स्वाभिमानी और उदारदह्ददय हो वह धीरोदात कहाता है । 
धीरोद्धत 
मायावी, प्रचश्ड, चपल, घमणडो, दुर्दान्त और श्रात्मए्लाघी नायक 
धीरोद्धत कहाता है। 
धीर ललित 
निश्चिन्त, अति कोमल स्वभाव, विनोदप्रिय और सदा नृत्य-गीतादि 
कलाशओों में निरत रहने वाले नायक के घधीर ललित कहते हैं । 
धीर प्रशान्त 
दातृत्व, कृतशता ञ्रादि नायक के सामान्य गुणों में से श्रघिकांश गुण- 
युक्त विद्वान ब्राह्मणादि को धीरप्रशान्त नायक कहते हैं | 
गुण 
नायकों के शोभा, बिलास, माघधुय, गाम्मीय, पेय, तेज, ललित और 


ओऔदाय ये आठ सात्विक गुण माने गये हैं। जिनकी व्याख्या इस 
प्रकार हे: -- 


( १०३ ) 


शोभा 


शरता, चातुय, सत्य, अ्रसीम उत्साह और श्रनुराग से युक्त तथा 
नीच से घृणा और उच्च में स्पर्धा उतन्न करने वाले श्रन्तःकरण के धम के 
शोभा कहते हैं । 
विलास 


नायक के धीर दृष्टि से देखने, सिंह के समान गम्मीर गति से चलने 
एवं मन्द मुस्कराहट के साथ बातचीत करने आदि चेश्श्रों व क्रियाओं 
को विलास कहते हैं | 
माधुय 
व्याकुलतापूण परिस्थिति उत्पन्न होने पर भी मन में घबराहट के भाव 
न आने देना माधुय कहाता है । 


गाम्भी य 
भय, शोक, क्रोध, ह् आदि के द्वाने पर भी मन का निर्विकार रहना 
ग़ाम्भीय कहाता हे । 
पैय या स्थैय 


भयड्डर विष्न उपस्थित होने पर भी दृढ़तापूवंक काय में संलभ रहने 
को पैय या स्थेय कहते हें । 


तेज 
अन्य द्वारा किये गये श्रात्षेप ओर अपमान झादि को जीते जी सहन 
न करना तेज कहाता दे । 


ललित 


बेल-चाल, वेश-भूषा और »ज्ञार की चेष्टाओ्ों में स्वाभाविक माधुय 
को ललित कहते हैं । 


( १०३ ) 


ओऔदाय 


प्रिय भाषण पूर्वक दान देना और शन्नु मित्र को एक दृष्टि से देखना 
औदाय कह्ाता हे । 


नोट--ऊपर नायक के भेदों और गुणों के लक्षण मात्र लिख दिये 
गए हैं, उनके उदाहरण देने की आ्रावश्यकता नहीं समझी गई | आशा है, 
पाठकों को लक्षण पढ़कर ही नायक के स्वरूप का ज्ञान हो जायगा | इस 
सम्बन्ध में एक बात और हे, श्रर्थात्‌ उपयंक्त भेदों का वर्णन साहित्य- 
दपंण आदि संस्कृत के ग्रन्थों में तो मिलता है, परन्तु हिन्दी के आ्ाचार्यों 
ने उनका उल्लेख बहुत ही कम किया है । 


नायिका-वर्ण न 


जिहि बनिता की सुघरता लखि मुद लद्दत सुजान। 
ताहि कद्दत हैं नायिका काबिद कलानिधान ॥ 


जिस स््री को देखकर, द्वदय में रसीले भावों की उत्पत्ति होती है, उसे 
नायिका कहते हैं| सादित्यकारों ने नायिका के निम्नलिखित लक्षण माने 
हैं । श्रर्थात्‌ योवन, रूप, गुण, शील, प्रेम, कुल, भूषण, दातृत्व, कृतशता 
पारिडत्य, उत्साह, तेज, चातुय आदि । इनमें सबसे अधिक और शीघ्र 
प्रभाव डालने वाले यौवन ओर रूप हैं| “ रूप-योवन-सम्पन्ना ' नायिका ही 
नायक के द्ृदय पर अधिकार करने में समथ द्वाती हे, अन्य गुणों का 
परिचय तो उसे पीछे प्राप्त होता है। इन गुणों से जितना द्वी श्रधिक परिचय 
होता जाता हे, प्रेम में उतना द्वदी स्थायित्व आने लगता है। रूप की 
परिभाषा करना बड़ा कठिन है । इसका नियंय तो नायक के दृष्टिकोण 
पर ही निर्भर है। नायक-नायिका के हार्दिक मिलन से श्रकृत्रिम और 
स्थायी प्रेम उत्पन्न होना स्वाभाविक हे | फिर दोनों सुख-दुःख, लाभ-हानि 
सम्पत्ति-विपकत्ति, सब में समान रूप से भागीदार हो जाते हैं। भेद-भाव 
खेकर एकरूपता का उदय होता है। दोनों मिलकर समान भाव से 
कुल-मयांदा का पालन करते हैं । 


महाकवि केशवदास ने नायिका का उदाहरण इस प्रकार दिया हे--- 


ग्रहनि में कीन्हों गेह सुरनि दे देखी देह, 

हर सों कियौ सनेह्द जाग्यो जुग चारयो है। 
तरनि में तप्यी तप जलधि में जप्यौ जप, 

'केसौदास? बपु मात-मास प्रति गारयो हे। 


(५ १०४ ) 


उरुगन-ईंस द्विज-ईस ग्रोसपीस भयौ, 
जद॒पि जगत-ईस सुधा सों सुधारयौ है। 
सुनि नेंदनन्द प्यारी, तेरे मुख-चन्द सम, 
चन्द पै न आ्रायौ कोटि छुन्द करि हारयौ है । 
उपयक्त पद्म में नायिका के रूप का वर्णन दे। कविवर मतिराम 
नायिका का कैसा सुन्दर वर्णन करते हैं, उसे भी देखिए--- 


कुन्दन को रंग फीको लगे कलके अ्रति अंगन चारु गुराई । 

अभाँखिन में श्रलसानि चितौनि में मंजु बिलासन की सरसाई ॥ 

को बिन मोल बिकात नहीं 'मतिराम' लह्टे मुसकानि मिठाई। 

ज्यों ज्यों निद्दारिये नेरे द नैननि त्यों त्योँ खरी निखरै-सी निकाई ॥ 

नायिका के सु-वर्ण को देख कर स्वर्ण का भी रंग फीका जान पड़ता 
है। श्रलससाई आँखे ओर चश्बल चितवन देखकर कोन ऐसा है, जो 
विना मोल उसके हाथ न बिक जाय । जैसे-जैसे ध्यान पूवक देखिये, तैसे- 
तैसे उसकी सुन्दरता बढती द्वी जाती है । 

पद्माकरजी ने स्नान करती हुई नायिका का केसा सुन्दर शब्द-चित्र 
खींचा है। देखिए -- 

जाहिरे जागति सी जमुना जब बूड़े बहे उमहे वह बेनी। 

त्यों 'पदमाकर' हीर के हारन गंग तरंगन को सुख देनी ॥ 

पायन के रंग सों रंगी जाति-सी भाँति ही भाँति सरस्वती सेनी। 

पैरे जहाँर जहाँ वह बाल तहाँ तहाँ ताल में होत त्रिबेनी ॥ 

वह सुन्दरी तालाब में तेरती हुई, जहाँ चली जाती है, वहीं त्रिवेणी 
का दृश्य दिखाई देने लगता है | तेरते में लद्दराती हुई लम्बी वेणी 
यमुना की श्याम धारा-सी प्रतीत द्ोती हे, द्वीरक द्वार की शुभ्र छुटा गंगा 
की श्रमल घवल धारा जान पड़ती है, और पेरों की अरुणिमा से रंजित 
जल-धघारा सरस्वती का प्रवाह-सी दिखाई देती है | इस प्रकार तीनों के 
मेल से ताल में त्रिवेशी-सी बन जाती है । 


( १०६ ) 


नायिका-भेद 


धम, आयु, प्रकृति, जाति और भवस्था अ्रर्थात्‌ परिस्थिति इन पाँच 
कारणों से नायिकाओं के श्रनेक भेद माने गए. हैं, जिनका विस्द॒त 
विवरण श्रागे दिया जाता है । 

१--धमं-भेद से--स्वकीया, परकीया और सामान्या । 

२--श्रायु-विचार से- मुग्धा, मध्या और प्रौढ़ा | 

३--प्रकृत्यनुसार---उत्तमा, मध्यमा और अधमा | 

४--जाति-भेद से--पद्मिनी, चित्रणी, शंखिनी ओर हस्थिनी । 

५--परिस्थिति अनुसार--- खण्डिता, कलहान्तरिता, विप्रलब्धा, उत्क- 
शिठता, वासकसज्जा, स्वाधीनपतिका, श्रभिसा रिका, प्रवत्स्यत्पतिका, प्रोषित . 
पतिका श्रोर आगतपतिका । 


धर्मानुसार नायिका भेद 


धम के विचार से नायिका तीन प्रकार की मानी गई है -- १--स्वकीया 
श्रथात्‌ अपनी स्री, २--परकीया अर्थात्‌ श्रन्य की स्त्री, और ३--सामान्या 
अर्थात्‌ सवसाधारण की स्त्री वेश्या आदि । 


स्॒कीया 
स्वकीया वह पतिप्राण स्री हे, जिसने लज्जा को ही अ्रपना आभूषण 
बना रक्‍्खा है, ओर जो विनय, सरलता, वाक्पट्ठता आदि गुणों से युक्त 
होकर घर-गहस्थ के कामों में लगी रहती है। जिसे स्वप्न में भी पर* 
पुरुष की इच्छा नहीं होती, तथा पति के प्रति श्रविनय और अवज्ञा के 
भाव जिसके हृदय में कभी उत्पन्न ही नहीं होते । 'विनयानंवादि युक्ता 
गह-कमपरा पतिव्रता स्वीया ।” 


मतिरामजी ने स्वकीया का लक्षण इस प्रकार किया हे । 


जानति सौति शअ्रनीति है, जानति सखी सुनीति। 
गुरुजन जानति लाज है, प्रीवम जानति प्रीति ॥ 


( १०७ ) 


स्वकीया के लक्षण में निम्नलिखित दोहा भी पढ़ने योग्य है - 
स्‍्वीया अ्ररु पतित्रता में हे यह भेद विचार । 
वह सनेह यह भगति सों सेवति है भरतार | 
अभिप्राय यह कि वस्तुत: उत्तमा स्वकीया ही पतित्रता होती है। 
सुन्दर कवि कृत स्वकीया का निम्नलिखित उदाहरण देखिए... 
देखति नेन की कोरन लों श्रधरान ही में मुसिक्यानि को थानों। 
बोलति बोल सो कण्ठ ही में चलते पग पै न कहूँ अहठानो ॥ 
सुन्दर रोस नहीं सपने अरु जो भयो तो मन ही में बिलानों । 
में बसुधाउइब सुधाई सबत्रे पर याकी सुधाई सुधाई है मानो ॥ 
इस सम्बन्ध में मतिरामजी का सवैया भी पढिए-- 


संचि विरंचि निकाई मनोदर लाजनि मुरतिवन्त बनाई। 
तापर तोपर भाग बड़े 'मतिराम” लसे पति प्रीति सुद्दाई | 
तेरे सुशील सुभाव भट्ट. कुल-नारिन को कुल कानि सिखाई । 
ते ही जने पति देवत के गुन गोरि सब्र गुन गोरि पढ़ाई ॥ 
उपयुक्त दोनों सवैयों में स्वकीया अर्थात्‌ आदर्श ग्रहलक्ष्मी का स्वभाव 
और चरितन्न वर्णन किया गया है । 
स्वकीया के सम्बन्ध में गोविन्द कवि का नीचे लिखा कवित्त केसा 
सुन्दर हे-- 
सासु और ससुर की सेवा में सदा ही प्रीति, 
ऐसी बधू दोनों कुल तारि है पै तारि है। 
लाज-भरे नेन जुग सील के जहाज मानो, 
पति के करोर पाप जारि है पे जारि है। 
'गोबिंद' गुनन-भरी नेकहू गुमान नाहिं, 
दारिद-ओ दुःख-दल टारि है पे टारि है। 
जैसे सब बारिनु में गंगाजू को बारि नीको, 
तैसेहे स्वकीया सब नारिनु में नारि है। 


( एन्‍८ ) 
आयु के अनुसार नायिका-भेद 


आयु के विचार से स्वकीया नायिका के तीन मेद किये गए हैं, भर्थात्‌ 
१--मुर्धा, २--मध्या और ३--प्रौढ़ा । इस प्रकार भेद करने का श्रभिप्राय 
यह है, कि ज्यों-ज्यों आयु बढ़ती जाती है, त्यो-त्यों लजा की मात्रा कम 
और काम की मात्रा अधिक द्वोती जाती है । 


मुग्धा 


मुग्धा वह नायिका है, जिसमें नव योवन का विकास अ्रथवा काम- 
कलाओं का विलास पहले-ही-पहल प्रादुभत हुआ हो । जिसके द्वृदय में 
लज्जालुता के कारण रति में मिकक और संकोच की मात्रा अधिक 
पाई जाती हो, एवं जिसका मान अधिक समय तक स्थिर न रह सके । 


साधारणुत: मुग्धा की चाल धीमी पड़ जाती है, और अपने कमरे से 
बाहर निकलना उसे अच्छा नहीं लगता | कभी वह मन्द मन्द मुस्कराती 
है, और कभी उसके मुख-मएणडल पर लजा एवं संकोच के भाव दिखाई 
देने लगते हैं। कभी-कभी कुछ गम्भीर वक्रोक्तियाँ उसके मुँद से निकल 
जाती हैं। वह हर वक्त प्रिययम की चर्चा करना और सुनना ही 
अपना ध्येय बना लेती हे | नवयोवन-विकास के समय मुग्घा के स्वभाव 
में ही परिवत्तन नहीं होता, बल्कि उसका शरीर भी बदला हुआ दिखाई 
देता है| श्रर्थात्‌ उसका बाल्यकालीन कटि-प्रदेश तो पतला होने लगता 
है, परन्तु नितम्बों में स्थूलता ञ्रा जाती हे । उदर क्ञीण होकर उरोज 
उभरने लगते हैं। चितवन में चाश्बल्य श्रोर बाँकपन तथा चेहरे पर 
यौवन की उमंगों के प्रत्यन्ष दशन होते हैं। उदर पर, नाभि से निकली 
हुई रोम-राजि यौवन के आगमन की प्रतीक-सी जान पड़ती है । मुग्धा 
अपने प्रियतम से मिलने के लिए, सवंदा समुत्सुक रहती हुई भी, भूठी 
मिभक के कारण अ्रनिच्छा-सी प्रकट करती रद्दती हे । 


( १०६ ) 


न हत् श्े जा] ध गम कि देखि 
साहित्यदपंण में मुग्धा का लक्षण इस प्रकार किया गया है, देखिए --- 


मध्यस्यप्रथिमानमेति जघनं, वक्षोजयोमन्दता | 
दुरं यात्युदरश्सन, रोमलतिका, नेत्राजवं घावति ॥ 
कन्दप परिवीक्ष्य नूतनमनोराज्यभिपिक्त च्षणात्‌ | 
अज्ञानीव परस्परं विदघते निलंण्ठनं सुश्रुवः ॥ 


संक्षेप में मुग्धा का लक्षण इस प्रकार समभिए--- 
भलकति आवे तखनई नई जास अंग-श्रंग । 
तासों म॒ग्घा कहत हैं जे प्रबीन रस रंग || 


मुग्धा के उदाहरण में बालम कवि क्‍या कहते हैं, देखिए--. 


सूगन की मीनन की चजञ्चलाई चखन में. 

मोतिन की हीरन की जोति है रदन में। 
ग्रोठन में आई है मिठाई सब सिमिटि के. 

दाख में न ऊख में न स्वाद सरदन में। 
महाकवि "बालम * के खुले हैं बिसाल भाल. 

रातों दिन राजति मसाल-सी सदन में। 
बिधना गुलाब केसो अरक उतारि मानो, 

चनन्‍द की निकाई राखी प्यारी के बदन में । 


2५ >< ५ 


इसी सम्बन्ध में प्माकरजी की भो सूक्ति सुनिए--- 


ये अलि या बलि के अ्रधरानि में श्रानि चढ़ी कछु माधुरई-सी । 
ज्यों ' पदमाकर ”? माधुरी त्योँ कुच दोउन की बढ़ती उनई-सी ॥ 
ज्याँ कुच त्योंही नितम्ब चढ़े कछु ज्यौंदी नितम्ब त्यों चातुरई-सी । 
जानि न ऐसी चढ़ाचढ़ि में किद्दि थों कटि बीचई लूदि लई-सी ।॥। 


+ ५ ४५ २५ 


( ११० ) 
कवि गंग की कल्पना का भी चमत्कार देखिए--- 


जल में दुरी हैं जैसे कमल की कलिका दे, 
उरजन ऐसे दीनी सदझचि दिखाई-सी। 
“गंग ?! .कवि साँक-सी सुहाई तझनाई आई, 
लरिकाई मध्य कछु में न लखि पाई-सी। 
स्यामा को सलोनों गात ता में दिन द्वेक माँफ, 
फिरी - सी चद्दतति मनमथ की दुढ़ाई-सी | 
सीसी में सलिल जैसे सुमन पराग तैसे, 
सिसुता में भकलमले जोवन की राई-सी। 


>< ८ >< 
दास कवि क्या कहते हैं, उनकी उक्ति भी सुन लीजिए -- 


अ्ानन में मुसकानि सुहावनी बंकुरता श्रैँखियान छुई है। 
बैन खुले मुकुले उरजात जकी तियकी गति ठौन ठई हे ॥। 
'दास? प्रभा उछरै सब अंग सुरंग सुवासता केलिमई है । 
चन्द्र मुली-तन पाय नवीनोी भई तटझनाई अनन्‍्द मई हे ॥। 
>< >< >< 
इस विषय में मतिरामजी ने भी ख़ूब ऊँची उड़ान भरी है, यथा--- 


नेंक मन्द मधुर कपोल मुसिक्यान लगी, 

नेक मन्‍न्द गमन गयन्दन की चाल भौ। 
रंचक न ऊँचो लगो अश्लन उरोजन ते, 

अंकुरनि बंक दीठि नेंक सो बिसाल भौ। 
“ मतिराम ” सुकवि रसीले कल्लु बैन भये, 

बदन सिंगाररस बेलि आलबाल भौ। 
बालतन योवन-रसाल उलहत . सब, 

सोतिन के साल भौ निद्दाल नंदलाल भौ। 


( १११ ) 


उपयक्त सभी पद्मों में नायिका की वय-सन्धि-जन्य उस अवस्था का 
वन है, जिसमें लजालुता का प्राधान्य रहता है | इस सम्बन्ध में महाकवि 
विहदारी का निम्नलिखित दोहा बड़ा सुन्दर है -- 


लिखन व्रेठि जाकी छुब्री गहि-गहि गरब गरूर । 
भए. न केदे जगत के चतुर चितेरे कूर॥ 


९ मुग्धा के भेद 


मुग्धा नायिका के भी दो भेद किये गए हैं, १-- अशात योवना श्रोर 
२--शात यौवना । 


अज्ञात योवना 


जो नायिका मुग्धावस्था प्राप्त होने पर भी, श्रपने भोलेपन के कारण, 
यह नहीं जान पाती कि वह युवती द्वो गई, या जो अपने जीवन में एक 
विचिन्न प्रकार के परिवत्तन के होते हुए भी उसका कारण नहीं समझ 
सकती, उसे अज्ञात योवना कहते हैं | 

उदाहरण देखिए--- 


कारे चीकने हो कह्ु काहे केस आपु ही।तें, 

बढि-बढि बिथुरि छुवालों लागे छुलकन। 
बार-बार बदन बिलोकन लगी हैं सोति, 

औरे तौर सोरम समूह लागे हइलकन। 
कौन धों. बलाय बसी अ्रंग में हमारे हमें, 

देखिबे को कान्द॑' हनुमान ” लागे ललकन | 
जंचघध लागी सटन घटन लागी लंक ओऔौ, 

बढ़न लागीं श्रॉँख री नितम्ब लागे दलकन। 

»< > >< 


( ११२ ) 


दूसरा उदाहरणु-... 
कोकिल कूक सुने उमेंगे मन और सुभाउ भयो अब ही को । 
फूले लता-द्रम-कंज सुहात लगे अलि-गंजन भावतों जी को ॥ 
कारन कोन भयो सजनी यह खेल लगै गुड़ियान को फीको 
कादे तें साँवरों अंग छुबीलो लगे दिन द्वैक ते नेननि नीको ॥। 
>< >< ५८ 
अशातयोवना के उदाइरण में मतिराम का यह सवेया भी/पढने 
लायक़ हे-- 
खेलन चोरमिहीचनी ञ्राजु गई हुती पाछिले द्यौस की नाइ । 
अली कहा कहों एक भई “मतिराम ? नई यह बात तहांइ ।। 
एकद्दटि भोन दुरे इक संग द्वी श्रंग सों श्रंग छुवायो कन्द्वाई | 
कम्प छुटयो घन स्वेद बदयी तन रोम उठ यो ऑग्वियाँ भरि आईं ॥ 
ह >< >< >< 
आर भी देखिए--- 
लाल तिद्दारे संग में खेले खेल बलाइ। 
मेंदत मेरे नेन हो करन कपूर लगाइ।। 


अगधघर परसि मीठी भई दई हाथ ते डारि। 
लावति दतुश्रनि ऊख की नौखी खिजमतगारि ॥ 
उक्त देहे में नायिका के मधुर ओठों से लगकर दातुन मीठी हो जाने 
का वर्णान हे | श्रे नौकराइन, तू ऊख की दातुन उठा लाई, कद्दीं ऊख 
की दातुन भी की जाती है ! 
अशातयौवना के उदाहरण में निम्नलिखित पंक्तियाँ कितनी 
मांमक हैं - 
कौन रोग दुहूँ छुतियन उकस्यो आय । 
दुखि-दुखि उठत करेजवा लगि जनु जाय ॥ 


उपयंक्त बरवै में पहले पहल यौवन अ्रंकुरित होने का वर्णन हे । 


(६ (११३ ) 


ज्ञात यौवना 
जिस नायिका को अपने अंकुरित योवन का शान हो जाता है, और 
जो अपने जीवन में एक नये प्रकार की कभलक अनुभव करने लगती हे, 
उसे ज्ञात यौवना सज्ञा दी गई है । 
ज्ञात यौवना कभी सकुचाती हुईं-सी, इधर-उधर देखती है. कभी 
चब्चलता पूवंक चलती और कभी द्वाथ उठाती है । वह हर वक्त अथ्ृंगार 
की चेष्टा करती रहती है। उसे अपने अंगों का उभार देखकर बढ़ा 
श्रानन्द भाता है, परन्तु वह इस भाव को साखयों से छिपाए रखने को 
चेष्टा करती है | यथा-- 
चाव सों चटक रचि-रचि के रुचिर चोर, 
रुचि सों पहिरि के विनोद बरसति जाति। 
कृसि-फ््ति कंचुक्ी विमल बेंगला में बैढि, 
सौतिन के सकल सुहाग करषति जाति। 
निरखि-निरसखि कर पायन की लागी “हनु- 
मान! तरुनाई की निक्राई परखति जाति। 
बेरि-बेरि मुकुर बिलोकते धरति फेर, 
अँनर उधारि देरि-हेरि हरषति जाति। 
बड़े चाव से शजझ्आजार करती हुई नायिका बार-बार शीशे में अपना रूप 
निहारती और अ्ँचर उधघार-उघार कर झपने विकसित यौवन को देख 
प्रसन्न होती हे | 
नीचे लिखा कवित्त भी ज्ञात योवना का सुन्दर उदाहरण है-.. 
बिसरन लागो बालपन को श्रयानप 
सस्वीन सों सयानप की बरतयाँ गढ़े लगी । 
हग लागे तिरछे चलन पग मन्द लागे, 
उर में कछुक उकसनि-सी बढ़े लगी। 
अंगन में श्राई तसनाई यों भलकि, 


लरिकाई अ्रब देह ते इरै-हरै कढे लगी। 
हि० न०---८ 


( ११४ ) 


होन लागी कटि अब छुटि' की छुलासी- 
द्वेज चन्द की कला सी तन दीपति बढ़े लगी। 
नायिका के शरीर से जैप्ते-जैसे धीरे-धीरे बचपन के चिन्ह दुर होते जाते 
हैं, तैसे तैपे उसके लड़कपन की भोली बातें भी कम होती जात हैं। उसकी 
आँखों में चंचलता ओर शरीर में यौवन की दीघ्ि स्पष्ट दिखाई देने 
लगी है । 
ज्ञात यौवना के उदाहरण में विद्ारी के निम्न लिखित देहे भी बड़े 
सुन्दर हईं-. 
इते उते सकुचति चिते चलत इडुलावति बाँद। 
दीठि बचाई सखिन की छुनुक निहारति छाँह॥ 
>< >< 
करि चन्दन की खोरि दे बन्दन बेंदी भाल। 
दरप भरी दिन हक ते दरपन देखति बाल ॥ 


ज्ञात यौवना के भेद 
ज्ञात योवना नायिका के दो भेद किये गए हैं, १--नवोढ़ा और 
२--विभब्ध नवोढ़ा । 
नवोदा 
अत्यन्त भय और लज्जा के कारण जो नव विवाहिता नायिका रति से 
दुर रइना चाहती हे, उसे नवोढ़ा कहते हैं। यथा -- 
लावति न अंजन मंगावति न मृगमद, 
कालिंदी के कूल न तमाल तरे जाति है। 
देरति घनन वन गहन बनक बैनी, 
बाँधेई रह्ति नीली सारी न सुहाति हैं । 
'गोकुल' तिहारी यह पाती बाँचि है गो कोन, 
याहू में तो कारे अनरान ही की पाँति है। 


अंक मम>७रमक. .काय>-नकीनीनज+पानी जे. लन्‍डीय विज लिन पीनाए. 5 पक ऑजीजज जिया 7+कन7+5+ "ा> स---रह टन रनकलनक>न-+पककन«»- जन कर । अमन :-असहानकाकफन-पल-पकन»५फ-मरयकनभार- ०ीणपनननन.. अ०-भम मरा -अमधपकासोडूकि 


१---बविजल्षी | 


( ११४ ) 


जा दिन तें मिले बाग में री गूजरी सों कान, 
ता दिन ते कारो रंग देरे अनखाति हे । 


नायिका लज्जा ओर भय के कारण कृष्ण से ही दूर नहीं रहती बल्कि 
बह प्रत्येक काली वस्तु को देखकर बिदकती है | यहाँ तक कि काली स्याही 
से लिखा पत्र भी नहीं पढ़ती । 
नवोढ़ा के उदाहरण में मतिरामजी का निम्न लेखित सवैया भी पढ़ 
लीजिए 
साथ सखी के नई दुलदह्दी को भयरा इरि को हिये हेरि हिमंचल । 
ग्राय गए मतिराम' तहाँ घर जामें इकन्त अ्रनन्द सो चंचल । 
देखत हो नंदलाल कों बाल के पूरि रहे श्रसुश्नान हगंचल । 
बात कही न गई सु रही गदट द्वाथ दुहूं सों सहेलां को श्रंचल | 
दुलहिन सखी के साथ बैठी थी, इतने ही में वहाँ ननन्‍्दलाल श्रा 
गए. | उन्हें देखते ही उसका द्ृदय एक दम ब्रेठ सा गया, मेंह बन्द 
हो गया आँखों में आँपू कलक आए और वह दोनों हाथों से सहेली 
का आँचल पक्रड़े रह गयी | बिहारीलालजी की उक्ति भी सुन लीजिए -- 
ज्यों ज्यों पसे लाल तन स्यॉ-त्यों राखे गोइ । 
नवल बधू डरि लाज तें इन्द्रबधूसी दोइ॥ 
नवोढ़ा पत्नी पति को देखते ही संकोच से सिकुड्ड-बटुर कर इन्द्र -बधू 
की भाँति बेठ जाती है । 


विश्वब्ध नवोढा 
जिस नायिका को अपने पति पर कुछ विश्वात्त तथा प्रेम और रति 
में अ्रनुराग होने लगता है, उसे विश्रब्ध नवोढ़ा कहते हैं । 
विवाह होकर नई पत्नी जब घर में श्राती है. तब उस पर संकोच 
और भय का प्रभाव होता है कभो-क्रभी तो संकोच से उसके मेँह पर 
लालिमा भलकने लगती है । प्रेम जनित लज्जा से मुख पर लालिमा शा 
जाना स्वाभाविक-सा है । परन्तु ज्यों-ज्यों मय भौर लज्जा की मात्रा 


( ११६ ) 


होती जाती हे, त्यों दी त्यों उसमें प्रेम-भाव और रति-अनुराग बढ़ता जाता 
है, वह नवोढा से विश्रब्ध नवोढ़ा बनती दिखाई देती है। मनोवेज्ञनिक 
विकास का केसा सुन्दर विश्लेषण है । 
उदाहरण देखिए--- 
जाहि न चाह कहूँ रति की सु कछू पति को पतियान लगी है। 
श्यों 'पदमाकर? आनन में झचि कानन भोंद कमान लगी है ; 
देति पिया न छुवे छ तयाँ बतयान में तो मुसकक्‍्यान लगी हे। 
पीतमे पान खवाइबे को परियंक के पास लों जान लगी है। 
नायिका पान देने के मिस पति के समीप जाने लगी है। अ्रव उसे 
उतनी मिभक नहीं रही | 
धिभब्ध नवोढ़ा का नीचे लिखा उदाहरण भी पढ़ने योग्य है -- 
रैन में जगाई केलि करन न पाई इमि, 
ललन सताई परियंक अंक महियों। 
ससकि असकि कहरति ही बितीती निसा, 
मसकि 'प्रवीन बैनी' कीनी चित्त चहियाँ। 
भोर भए भौन के सकोन लग गई सोय, 
सखिन जगाइबे को आनि गद्दी बहियाँ। 
चौंकि परी चकि परी औचक उचकि परी, 
बक परी जकि परी सक परी नहियाँ। 
रात-भर की जागी हुई नायिका सबेरे घर के किसी कोने में सो गई | 
इसी बीच में सख्रयाँ वहाँ जा पहुँची और हाथ पकढ़ कर उसे जगाने 
लगीं | हाथ छुते ही वद्द एक दम चौक पड़ी ओर सकपका कर “नहीं नहीं!” 
कहने लगी । 
इन भेदों के अतिरिक्त साहित्य-दपंणकार ने मुग्धा के पाँच भेद और 
किये हैं । अर्थात्‌ १--प्रथमावती्ं यौवना, २-प्रथमावतोण मदन 
विकारा, ३--रतिवामा (जिसे रति में सिकक हो), ४--मानमृदु (अचिर 
स्थायी मानवती ) ओर ५--समघिक लणज्जावती । 


( ११७ ) 


प्रथभावतीण यौवन-मदन विकारा रतौवामा | 
कृथिता मृदुश्य माने समधिक लज्जावती मुग्घा | 
--साहित्य-दपंण 
स्वकीया के अन्तगंत मध्या नायिका-व्ण न 
जिस नायिका के द्वदय में लज्जा ओर कामेब्छा दोनों समान रूप से 
मरी रहती हें उसे मध्या कहते हैं| 
मध्या नायिह्ना में मुग्धा की तरह लज्जा को प्रचबलता नहीं होती, जो 
वह प्रेम को प्रकट ही न द्वोने दे | वद अगयने पति के निकट आने पर 
शर्म से हृधघर-उधघर छिपने की केशिश नहीं करतो, प्रत्युत उसके पास ही 
बैठ जाती हे | उस समय वह भिक के कारण रसोज़ो बातों में झानन्द 
लेने में श्राना कानी नहीं करती | एक और प्रेम का प्रभाव उसे पति के 
पास से उठने नहीं देता. दूधरी ओर लज्जालुता स्पष्ट रूप से दृदगत 
भावों के प्रकट नहीं है।ने देतो। प्रेम और लज्जा दोनों का पलढड़ा समान 
बना रद्दता हे. न पहला कम और न दूमरा ज़्यादा। यह अश्रवष्था बहुत 
यूच्म ग्रोर गअचिर स्थायिनी होती है | 


कविवर तोषनिधि ने मध्या नायिका का केसा सुन्दर उदाहरण दिया 
है | देखिए-- 


लाज बिलोकन देत नहीं रतिराज बिनोइन ही को दई मति । 

लाज कहै मिलिये न कहूँ रतिराज कद्दे हित सों मिलिये पति। 

लाजहु को रतिराजहु की कहे तोष! कद्नू कह्दि जाति नहीं गति । 

लाल तिहारिये सोंह करों बद बाल भई हे दुराज को रैयति | 

दे लाल, तुम्दारी सोगन्‍्ध खाकर कहती हूं. झआाजऊकल वह बाला 
लाज और रतिराज दो राजाओं की रिश्राया बनी हुई है। कामरेव तो 
उसे तुमसे मिलने को प्रेरंत करता है, परन्तु लाज की श्राज्ञा होती हे कि 
हरगिज नहीं उनके पास भी न ऊऋाँक्री । यहाँ नायिका पर लाज और 
कामेच्छा दोनों का समान प्रभाव है, श्रतः यह मध्या नायिका हुई । 


( श्श्द ) 


ओर भी देखिए. कविवर व्रजचन्दजी क्‍या कहते हैं-- 
ललना लजीली उर काम हू तें कीली नीली--. 
सारी में लसे ज्यों घटा कारी बीच दामिनी । 
कहें ' ब्रजचन्द ? हुती संग में सद्देलिन के, 
हेरति इँसति बतराति हंसगामिनी | 
तौलों तहाँ गेह में सुनाह आये नेह भरो, 
बैठि गयो ताकों लख बैठि गई भामिनी | 
कनन्‍्त हेरे सामुहँ तो श्रन्त हेरे चन्द्रमुखी, 
अन्त हेरे कन्‍त तब कन्‍्त देरे कामिनी । 
यहाँ, भी लाज और रतिराज दोनों का कामिनी पर समान प्रभाव है । 
वह नायक को देखना तो चाहती हे, और देखती भी है, परन्तु ज्योंही 
नायक उसकी श्रोर देखने लगता है, त्योंही वह दूसरी ओर देखने लग 
जाती है। यही भाव नीचे लिखे दोहे में केसी सुन्दरता से व्यक्त किया 
गया हे-- क्‍ 
देखत बनें न देखिबो, अनदेखे श्रकुलाहिं। 
इन दुखिया अ्खियान को सुख सिरज्यौ ही नाहिं ॥। 
आँखें प्रियतम को बिना देखे अकुला उठती हैं श्रोर देखने का 
अवसर मिलता हे, तो इनसे भले प्रकार देखा भी नहीं जाता | उस समय 
वे लज्जा से नीचे भुक जाती हैं । 


मध्या के भेद 
साहित्य-दर्प्णकार ने मध्या के पाँच भेद माने हैं। अ्रर्थात्‌ विचित्र 
सुरता, प्ररूढ़ स्मश, प्ररूढ़ योवना, ईषत्प्रगल्भवचना और मध्यम ब्रीड़िता । 
परन्तु हिन्दी साहित्य ग्रन्थों में इनका उल्लेख नहीं किया गया। हिन्दी 
वालों ने मध्या के घीरा, धीराधीरा और अधीरा ये तीन भेद माने हैं। ये 
धीरादि भेद प्रौढ़ा नायका में भी द्वोते हैं, जिनका उल्लेख प्रौढ़ा के साथ 
किया जायगा। 


( ११६ ) 


प्रध्या धीरा 


पति के परकीया के पास जाने पर उसके काम-केलि-सूचक चिन्‍्हों 
के देखकर जो नायिका ब्यंग्य द्वारा रोष प्रकट कग्ती हुई भी पति के « 
प्रति आदर-भाव नहीं त्यागती. वह मध्या घीरा कहाती है।यह नायिका 
नायक को उसकी अनुचित चेष्टा! के लिये रिड्कती तो है. परन्तु बात-चीत 
में निरादर के भाव नहीं आने देती। वह अपने पति से जान बूक कर 
पूछुती है, '' किये प्राशनाथ, श्राप रात कहाँ रहे । ऐसा क्या काम लग 
गया, जो घर की सुध-बरुध ही भूल गए !!” इस प्रकार की मीठी चुटकियों 
द्वारा एक प्रकार से वह पति के। लज्जित कर देती है | 
मतिरामजी ने मध्या धीरा का कैसा सुन्दर उदाहरण दिया है, 
देखिए -- 
तुम कहा करे कहूँ कामदे श्रटक्षि परे, 
तुम्हें कौन दोस सो तो आपनो ही भाग हे । 
आए. मेरे भोन बड़े भोर उठि प्यार ही में, 
अति हर बरिन बनाय बाँधी पाग है। 
मेरे ही बियेग रहे जागत सकल रात, 
गात अलसात मेरो परम युद्दांग हे | 
मन हू की जानी प्रान प्यारे ' मतिराम ? इन 
नैनन ही माहिं पाशध्यतु अनुराग है। 


प्राशनाथ, रात ऐसे क्रिस काम में फेस गए थे ज़ो तमाम रात वहाँ 
बिता दी | और अ्रव इतने सबेरे ऐसी घबराइट में उठे चले आए हो कि 
पगड़ी भी ढंग से नहीं बाँंधी | इस श्रलसाए गात से मालूम होता दे कि 
मेरे वियाोग में श्रापके रातभर नींद नहीं आई ! झ्रापके द्वदय में मेरे 
प्रति जो शब्रपार ग्रनुराग का सागर लहदरा रह्दा है, वह श्राँखों के रास्ते 
उमड़ा पड़ता है ! मेरा बड़ा सोभाग्य हे जो आप मुभसे इतना हित 
करते हैं ! इस पद्म में नायिका ने नायक की केसी मीठी चुटकियाँ ली हैं । 


( १२० ) 


नीचे लिखा अन्योक्तिपृर्ण पद्म भी मध्या घीरा का उत्कृष्ट उदा- 
इरण हे- 
मिलि मिलि बृन्दन गुलाब अरबिन्दन के, 
कुन्दन कुमोदन के मोद अनुकृले हो। 
कहूँ अनुकूले कहूँ डोले हौ सुपास बस, 
कहूँ रस लोभ के सुभाय लगि भूले हो । 
सौरभ सुजाति अधघराति मालतीन मिलि, 
सरस सुहाग श्रनुराग अंग पूले दो। 
कैसे वह सेबन सुगन्ध तजि मालती को, 
कोन बन बेलिन भेैंवर श्राजु भूले हो । 
यहाँ नायक को भोरा मान कर उसे कैसे व्यंग्य-वा्णों से बींघा गया 
हे। ओर भी देखिए-- 
आवत जात के भौन के भीतर नींद भर्‌यो रम्यौ वालम बाल सों। 
मान को ढान कियो न सयान सो जानि लयो गुर ज्ञानन चाल सों । 
अंजन लीक लगी अधघरान में, पीक कपोलन जाबक भाल सों। 
आब गुलाब ले सीरो करयौ मुखलाल के पड़ी सफेद रुमालसों 
नायक के अ्रधर' में श्रजन लीक, कपोलों म॑ं पान की पीऋ और मस्तक 
में जाबक लगा देख, नायिका सारा रहस्य ताड़ गई ! परन्तु उसने मान 
नहीं किया बल्कि वह सफ़द रूमाल से उसका मेंह पोछने और गुलाव- 
जल छिंड्क कर उसे शीतलता पहुँचाने लगी । 
प्रध्या धीराधीरा 
पति में परस्नी के साथ की गई काम केलि के चिन्ह देख रो-रोकर 
व्यंग्य-वचनों द्वागा कोप प्रकाशित करने वाली नायिका मध्या धीराधीरा 
कहलाती है | नायक रूठी हुई नायिका ( धीराधीरा ) के मनाता है-- 
उसके निद्दोरे कर्ता है ; परन्तु वह रोती ही जाती है और बार-बार 
ब्यंग्य-वाण छोड़ती हुईं कहती हे--“ में रोती हूँ तो रोने दो। मेरे रोने 


( १२११ ) 


से तुम्हें क्‍या ! में तुम्हारी कोई लगती थोड़े दी हूँ. जो तुम्हें मेरा कुछ 
रयाल होगा |” इस ना-का के कथन में कुछ प्रकट और कुछ गुप्त रोष 
होता है | उदाहरण में मतिरामजी का सवैया दिया जाता है-- 
आजु कहा तजि बेठी हो भूषन ऐसे ही अंग कछु अरसीले । 
बोलति ब्रोल रुखाई लिये “ मतिराम ? सुने ते सनेह-रसीले । 
क्यों न कहौ देख प्रान प्रिया असुआन रहे भरि नेन लज॑ले। 
कौन तिन्‍्हें दुख है जिनके तुमसे मनभावन छैल छुब्ीले । 
यहाँ रूठी हुई नायिका से नायक पूछता हे--'' कहो. क्‍या मामला 
है, झ्राज श्राँखों में ये आँसू केसे हैं। बातें भी कुछ रूखी सूखी करती हो | 
वश्ता भूषण भी सब अस्त-व्यस्त दिखाई देते हैं। ख़ेर तो है? काई 
तकलीफ़ द्वो तो बताओ ! ” ज्ञायक की उक्त सब बातों का नायिका 
अपने एक ही व्यंग्य में उत्तर दे उप निरुत्तर कर देती है। वह कद्दती 
हे-' श्राप भी क्‍या तहकी बाते करते हैं। भला जिमके आप जैसे छुग्रोले 
छैन मनभावन हों, उसे भी कोई तकलीफ़ द्वो सकती है !” 
हल प्रसंग म॑ महाकात्रि द्माकर का भी निम्नलिखित कवित्त पढ़ने लायक 
है |. देखिए -- 
ए. बलि, कहाँ हो किन ! का कहत कन्त ! श्री, 
रोस तज, रोस के कियोौ में का अ्रचाहे को ! 
कहे ' पदमाकर ' यहै तो दुख दूरि करो, 
दोस न कु दे तुम्हें नेद्द निग्वादे को। 
तौपै इत रोत्ति कहा हो) कहाँ कोन शआ्ागे ! 
मेरेईजु आगे किये आँसुन उमाहे केा। 
के हों म॑ तिद्दारी ह वू तो मेरी प्रान प्यारी, 
श्रजू दोती जो पियारी तब रोती कद्दो कादे को ! 
अथ स्पष्ट है। इसी आशय का निम्नलिखित श्लोझ भो प्रतिद्ध है। 
सम्मव है, इसो का भाव लेकर पद्माकरजो ने उक्त कवित्त रचा हो । 


( श२२ ) 


वाले ! नाथ | विमुश्च मानिनि रुषं, रोषान्मया कि कृतम्‌ ? 
खेदो5स्मासु. नमे एपराध्यति मवान सर्वैष्पराधा माये। 
तत्कि रोदिषि गद्गदेन वचसा * कस्याग्रतों रुचते ! 
एतन्मम्‌ | काउह तवा सम ! दयिता ! नास्मीत्यतो रुय्यते । 


पह्माकरजी का एक उदाहरण ओर भी देखिए-. 


कीजियत प्यार श्राज तेरे पर तेरी सोँह, 
तन मन घाम तोपै दीजियत बार-बार । 

कहे ' पदमाकर ” सुदेख मृगनेनी हग, 
अ्रँसू भरि आए बिन गुन के निद्दारि हार । 

नेनन ते आँसू ढरिं परे ते कपोलन, क-- 
पोलन ते गिरे ते उरोजन पे बार-बार। 

. बढ़े-बड़े मोती मीन देत रजनीसे, रज-- 
नीस मनों देत संभु सीस पर दार-ढार | 


/ 


मध्या अधीरा 


मध्या अ्रघीरा नायिका नायक में अन्य रति सूचक चिन्ह देखकर 
उससे एक दम रुष्ट हो जाती है, और उसे कटु भाषण पूवक बड़े श्रनादर 
से, भाँति भाँत की भिड़कियाँ देने लगती हे। यथा--'जाओ, जाशरो ! 
जिस कुलटा से लगन लगी है, उसी के प्रप्तन्न करो | मेरे आगे इस प्रकार 
की मुद्रा बनाने और धूत्तता दिखाने की आ्रावश्यकता नहीं ! जब तुम्हारे 
दृदय में मुझ जैसी के लिए केई स्थान ही नहीं है, तब मेरे पैरों पर गिरने 
का नाटक दिखाने से क्‍या लाभ ! इत्यादि-- 

देखिये, कविवर मतिराम ने मध्या श्रधीरा का कैसा सुन्दर उदाहरण 
दिया है | 

कोऊ नहीं बरजै “ मतिराम * रहो तितही जितही मनभायो । 

कादे को संहिं हजार करो तुमतो कबहूँ अपराध न ठायौ। 


( १२३ ) 


सोवन दीजै, न दीजे हमें दुख यों ही कह्दा रसबाद बढ़ायौ। 
मान रहो ही नहीं मनमोहन मानिनी होय सो माने मनायौ । 


रूठी हुई श्रधीरा नायक के मनाने और सौगन्ध खाने पर कहती है--- 
“४ तुम्हें रोकता कोन है, जहाँ तुम्हारा मन भावे वहाँ खुशी से जाओरो ! 
तुम्हारा दोष कोन बताता हे. तुम तो व्यथ ही बार-बार शपथ खाते हो। 
अच्छा, अ्रत्र व्ययं विवाद न बढ़ाओ,. मुझे सोने दो। मोहन ! यहाँ मान 
तो है ही नहीं, यदि मानिनी होती, तो मनाएं से मान जाती ।” दूसरा 
अथ यह कि तुम्हारे हृदय में मेरा कुछ मान ( ग्रादर ) तो रहा ही नहीं 
है। यह तो तुम्हारा दिखावटी नाटक है। यदि हृदय में आदर होता तो 
में मनाने से मान भी जाती। 

एक उदाहरण और भी पढ़ लीजिए -- 


सांची कहों जाकी मानत सौंहजू कौन के नेह रहे सरसे हौ। 

रैनि जगीं अ्खियाँ तरजीं बिरुभी श्रेंग-अंगन सों परसे हौ | 

जैहो जहाँ मिलि आए तहाँ हमकों इन बातन सों पर से हौ। 

चन्द हंके कितहूं स'से हमकों रवि हेररिके दरसे हौ। 

'नायिका कहती है, चन्द्र बन कर तो किसी और जगह रस बरसाते रहे. 
अब सूय बनकर यहाँ दिखाई दिये हो। भाव यह कि चन्द्र राश्रि में दिखाई 
देता है, इसलिए चन्द्र बन कर यानी रात्रि में तो कहीं अन्यत्र रहे, और 
सूय दिन में उदय होता है--इसलिए सूर्य बन कर अ्रर्थात्‌ दिन में मेरे 
पास आए द्वो । दूसरा भाव यह भी कि चन्द्रमा शीतकर होने से प्रायः 
आल्हाद जनक होता है, ओर सूय प्रखर रश्मि होने से उत्ताप द्वारा 
प्राय: कष्ट ही देता है। इसी प्रकार आ्रानन्‍्द देने तो दूसरी जगह गए 
ग्रोर जलाने के लिए श्रम यहाँ आए हो । 


स्वकीयान्तगत प्रोढ़ा या प्रगट्भा 
किंनित्‌ लाज युक्त और सम्पूण काम कला सम्पन्न नायिका प्रौढ़ा 
कहाती है | प्रौढ़ा भय, संकाच और लजा के त्याग कर, काम-फेलियों 


( १२४ ) 


में काल बिताना ही श्रपना ध्येय बना लेतो है। उसके तन, मन और 
वचन में सदेव मदन को दुन्दुभि बजती रहती है | रातों रति में रत रहने 
पर भी, प्रौढ़ा की कामबासना तृप्त नहीं होती । 
कविवर कालिदास ने प्रौढ़ा का उदाहरण इस प्रकार दिया है-- 
प्रथम समागम के ओसर नबेली बाल, 
सकल कलानि करे प्यारे को रिकरायेा हे । 
देखि चतुशई मन सेच भये पीतम के, 
लख के चरित्न मन सम्भ्रम मलायो है । 
'कालिदास' ताही समे निपट प्रत्रीन तिया, 
काजर ले भीति ही पे चित्रक बनायो है । 
ब्यात लिखी सिंदनी निकट गजराज लिख्यौ, 
गर्भ ते निकरति छीन। मध्तक पे आयो हे। 


प्रथम समागम काल द्वी में नायिका की केलि-कुशलता देख, नायक 
के जो सम्भ्रम हुआ, उसे नायिका ने चित्र बनाकर तुरन्त दूर कर दिया | 
चित्र का माव था कि जित प्रकार सिंह का बालक गभ दही से हाथी पर 
आक्रमण करने का भाव लेकर और उसका प्रकार सीखकर उत्पन्न होता 
है, उसी प्रकार स्त्रियों मं भी केलि-कुशलता स्वाभाविक ही होती है। इसमें 
नायिका का प्रोढत्व पूर्णतया प्रकट होता है | 

कविवर मतराम ने “रसराज ” म॑ प्रोढा का जो उदाहरण दिया हे, 
उसे भी देखिए-- 


प्रान प्रिया मनभावन संग अनंग तरंगनि रंग पसारे। 
सारी निता 'मतिराम' मनोहर केलि के पुंज हजार उघारे | 
होत प्रभात चल्यी चह्टे प्रेतम संदरि के हिय में दुख भारे | 
चन्द्रतो आनन दीपसी दीपति स्याम सरोज से नेन निहारे । 


सारी रात रति में रत रहकर भी, प्रात.काल प्रियतम के शैया से 
उढ जाने के लिए उद्यत देख नायिका को श्रत्यन्त दुश्ख हुश्रा, 


( १२४५ ) 


ग्रोर वह चन्द्र-समान मुख-मण््डल, दीप-शिखा जैसी देह-दीघमति ओर 
नील कमल-से नेन्रों के देखने लगी इससे नायिका का यह भाव थर 
कि जब चन्द्रमा, दीपक और कुमुदिनी मौजूद हैं, तो निश्चय ही अभी शरक्रि 
है. फिर नायक उठ कर क्यो जाना चाहता है । 
प्रोद्ा के भेद 

प्रीढ़ा के धीरा आदि तीन भेद तो पहले ही बताए जा चुके हें। 
उनके अतिरिक्त हिन्दी रीति-ग्रन्थों में रति-प्रीता और आनन्द-सम्मोद्विता 
दो मेद और भी माने गये हैं । इनके लक्षण और उदाहरण यहाँ दिये 
जाते हैं -- 


रति-प्रीता 


जो नायिका रति में अत्यन्त निरत रहती है, उसे रति-प्रीता कहते 
हैं। रतिप्रीता नायक के बाहुपाश से एक क्षण के लिए भी अलग दोना 
नहीं पसन्द करती | प्रातःकाल होने पर भी वह विविध बहाने बनाकर 
पति के यही भुलावा देना चाहती है कि श्रभी काफ़ी रात बाक़ी हैं, तुम 
असी से उठने की क्‍यों निन्‍ता करते हो । 


कविवर कालिदास का नीचे लिखा पद्य रति-प्रीता का सुन्दर उदादरख 
है, देखिए 
रति-रन बिसे जे रहे हैं पति सनमुख 
तिनहें बकसीस बकसी है मैं विहँसि के। 
करन को कंकन उरोजन कें चन्द्रहार, 
कटि को सुकिंकिनी रही हे कटि लसि के। 
'कालिदास” शथ्रानन को आदर सों दौन्हों पान, 
नैनन को कज्जल रहौ है नेन बस के। 
एरी बीर, बार ये रहे हैं पीठि पाछे याते, 
बार-बार वौधति हों वार बार कसि के। 


( १२६ ) 


उक्त पद्म में नायिका का सखी से बातचीत करते हुए भी प्रणय- 
प्रसंग की ही चर्चा करना वर्शित हे | इससे उसका रति में श्रत्यन्त निरत 
दोना व्यक्त होता हे, श्रतः वह रति-प्रीता हुईं । इस प्रसंग में प्रवीणजी 
का भी यह पद्य पढ़ने लायक़ है-- 
कूर कुरकुट कोटि कोठरी निबारि राखों 
चुनि दे चिरैयन कों मुँदि राखों जलियो । 
सारंग में सारंग मिलाऊें हो 'प्रवीन' राव, 
सारंग दे सारग की जोत करों थलियो । 
तारा-पति तुम सों कहदति, कर जोरि-जोरि, 
भोर मति करियो सरोज मुद कलियो | 
मोहि मिलयो इन्द्रतीत धीरज नरेन्द्रराज, 
ु ए. हो चन्द. आ्राजु नेक मन्द गति चलियो। 
यहाँ भी नायिका कुक्कुटों ओर चिड़ियों को इसलिए मेँद रखना 
चाहती है कि वे प्रभात होने की सूचना न दे सके। वह चद्द्र देव से भी 
यही प्राथना करती है कि प्रथम तो तुम श्राज सबेरा करना ही मत 
और यदि इतना न कर सके तो आज अ्रपनी चाल तो अवश्य ही बहुत 
घीमी रखना, जिससे रात्रि श्रघिक देर तक रहे | 


आनन्द-सम्मोहिता 

रति के सुख्र से पैदा हुए अ्राननद में निमग्न रहने वाली नाग्रिका 
को आनन्द-सम्मोहिता कहते हैं । यह रति के ग्रानन्द में इतनी विभोर 
हो जाती है कि इसे अपने तन बदन की भी सुध नहीं रहती । सम्भोग की 
अवस्था में सारा श्ंगार जिस प्रकार गअ्रस्त-व्यस्त हो गया, उसी प्रकार 
दिखाई दे रहा है, परन्तु वह आ्राँख मेँदे सुरत-सुख की स्मृति में तल्लीन 
है। देखिए--- 

कुन्दन की छुरी आबनूस की छुरी सों मिली, 
सौन जुही माल किर्धों कुबलय हार सौं। 


( १२७ ) 


केधों चन्द्र-चन्द्रिका कलंक सो कलित भई, 
केघों रति ललत बलत भई मार सों। 
'कालिदास” मेघ माहि दामिनी मिली हे केधों, 
श्नल की ज्वाल मिलो कैषों धूम घार सो । 
केलि समे कामिनी कन्हैया सों लपटि रही, 
केघों लपटानी है जुन्हैया श्रन्धकार सों। 
भाव स्पष्ट हे । कृष्ण के साथ रति-निरत नायिका की केसी सुन्दर 
जत्प्रेच्वाएँ हैं । है 
प्राह्ाा ( प्रगटथा ) धीरा 
जो नायिका पति में पर रत्री रति सूचक चिन्ह देख, रति-क्रिया में मान 
सहित उदासीन रहे. परन्तु पति के प्रति ग्रादर-भाव ज्यों का त्यों बनाए 
रखे उसे प्रौढ़ा घीरा या प्रगल्भा धीरा कहते हैं। यह नायिका प्रियतम की 
इच्छा पूरी न कर बात के बड़ी चतुराई से उड़ा देती है । 
उदाहरण देखिए -- 
जगर-मगर दुति दुनी केलि मन्दिर में, 
बगर-बगर धूप अश्रगर बगारयो तू। 
कहे 'पदमाकर' त्यों चन्द ते चटकदार, 
चुम्बन में चारु मुख्य चन्द अनुमारयो तू । 
नैनन में बेनन में सखी और सेनन में, 
जहाँ देखो तहाँ प्रेम पूरन पसारयों तू। 
छिपत छिपाए तऊ छुल न छुब्रीली अ्रब, 
उर लागवे की बार हार न उतारयौ तू । 
नायिका ने केलि मन्दिर की सजावट भी खूब को है। वह बात-चीत 
में मी पूर्ण प्रेम प्रदर्शित कर रही है, परन्तु दृ्‌दय से लगने के समय गले 
का हार नहीं उतारती | इसी में उदामीनता दिखाती हुई श्रालिगन किया 
को टाल रही है | यही उसका घीरत्व है। कविवर मतराम ने भी प्रोढ़ा 
घीरा का सुन्दर उदाहरण दिया हैं, उसे भी देख लीजिए -- 


( श्शद ) 


वैसे ही चितै के मेरे चित्त को चुरावति हौ, 

बोलति हो वेसेई मधुर मृदुबानी सों। 
कवि * मतिराम ”' अंक भरत मयक मुखी, 

वैसे ही रहति गदि भुज लंतकानि सों । 
चूमति कपोल पान करति अधर रस, 

वैसे ही निहारी रीति सकल कलानि सों | 
कहा चतुराई ठानियत प्रान प्यारी तेरो, 

मान जानियत रूखी मुग्न मुसक्यानि सो । 


यहाँ भी नायिका की सब क्रियाएं पूव जैसी ही हैं । वह मधुर भाषण, 
चुम्बन अलिंगन आदि सब कुछ करती है, परन्तु उसको मुम्कराहट में 
वह सरसता नहीं | यूखी हंसी स्पष्ट जता रही है, कि वह नायक से कुछ 
खिंची हुई हे । 


प्रोढ़ा ( प्रगल्था ) धीराधीरा 
प्रगल्मा धीराधीरा व्यंग्य-वचनों द्वारा नायक की मानपूर्ण चुटकियाँ 
जैेने तथा उसके प्रति तनन ताइन द्वारा काप प्रकट करने में, तनक भी 
संकोच नहीं करती । कभी-कभी तो वद्द नायक से यहद्दाँ तक कह डालती 
है--“ अहा हा | केसे सुन्दर मालूम देते हो। उसके नखकतों ने तो 
आज आपकी शोभा श्रोर भी बढ़ा दी हे ! क्‍या कहने हैं !!” 


पद्माकरजी ने प्रोढ़ा धीराधीरा का उदाहरण इस प्रकार दिया है-- 


छुवि अ्रलकन भरी पीक पलकन त्वयों ही, 

सम-जल-कन अलकन अ्रधिकाने चवे। 
कहे 'पदमाकर? सुजान रूपखानि तिया, 

ताकि-ताकि रही ताहि आ्रापुद्दी श्रजाने हे । 
फ्रसत गात मनभावन को भावती की 

गई' चढ़ि भेहें रही ऐसे उपमाने छवे। 


( १२६ ) 


मानो अरविन्दन पै चन्द्र कों चढ़ाय दीन्हों, 
मान कमनैत बिन रोदा की कमाने ढ्े । 


नायक के शरीर में रति-चिन्ह देग्व कर पहले तो नायिका अनजान- 
सी देखती रही. परन्तु ज्यों ही प्रिय ने उसका शरीर छुआ, त्यों ही भावती 
की भहिं चढ़ गई' । 

इस प्रसंग में कविवर मतिराम का नीचे लिखा सर्वया भी पढ़ने लायक 
है। देखिये --- 

पीतम आए प्रभात प्रिया ठिंग रात रमें रति-चिन्ह लिये द्वी। 

त्रैठि रही पलेंगा पर सुन्दरि नेन नवायके धीर घरे ही। 

बाँह गहै 'मतिराम' कहै न रही रिंस मानिनि के इठ के ही। 

बोली न बोल कछू सतराय पे भहिें चढ़ाय तकी तिरहैद्दी। 

रति-चिन्हों से यक्त प्रियतम के प्रभात-समय अपने पास गआ ने पर, 
प्रिया निगाह नीची किये चुपचाप पलंग पर बैठी रही। अ्रन्त में प्रियतम 
ने उसका हाथ पकड़ा, तब भी वह बोली नहीं, केवल भौहिं चढ़ा कर टेढी 
निगाह से देखती रही । 

इसी के उदाहरण म॑ नीचे लिखा दोहा भी केसा सुन्दर है-- 


ग्रवत उठि आदर किये बोले बोल रसाल | 
बाँदह गदत नंदलाल के भये बाल दग लाल | 


प्राद्दा ( प्रगसभा ) अधीरा 

प्रगल्मा अधीरा नायिका पति में परखस्री के साथ की गई रति के 
निन्‍्हों को देखकर उसे मान से डाटती, ढडपटती और कभा-कभी उस 
पर प्रहार भी कर बेठती है। हाथ कूटक तथा धक्का देकर वह नायक 
से कहती दे-'' ख़बरदार मेरा हाथ छुआ तो ! में तुम्हारी कौन हूं! 
जो लगती हो, उसी के पास जाओ, और उसी के साथ रंग-रेलियों 
करा । 
हि० न०--६ 


( १२३० ) 
उदादरण में पद्माकरजी का नीचे लिखा कवित्त देखिये- 


रोस करि पकरि परौसते लियाई घररै, 

पीकों प्रानप्यारी भुज लतनि भरे भरै । 
कहे 'पदमाकर' ये ऐसो दोस कीनों फिरि, 

सखिन समीप यों सुनावति खरै खरे | 
प्यौछुल छिपावै बात हंसि बहरावै, तिय 

गदगद कश्ठ हग आँसुन भरे भरे। 
ऐसी धन धन्य धनी धन्य हैं सु ऐसो जाहि, 

फूल की छुरी सों खरी इनति हरे हरे। 


नायिका नायक को पड़ोस में से 'रँंगे द्ा्थों! पकड़ लाई है. और सब 
सखियों के सामने उसे अनेक खरी-खोटी सुना रही है। प्रिय श्रपना दोष 
छिपाना श्रोर हँसी में बात टालना चाहता है, परन्तु नायिका उसे कछ्ध 
छोड़ने वाली है | वह फूल की छड़ी से धीरे-धीरे उसकी ताडइ़ना भी करती 
जाती है । 


इसी भाव का मतिरामजी का पद्म भी पढ़ लीनिये-- 


जाके अंग-अंग को निकाई निरखत आली, 

बारने अ्रनंग की निकाई कीजियतु है। 
कहे मतिराम” जाकी चाह ब्रज नारिन को, 

देह असुगञ्रान के प्रवाह भीजियतु है। 
जाके ब्रिन देखे न परत कल तुम हू का, 

जाके बेन सुनत सुधा-सी पीजियतु है। 
ऐसे सुकुमार पिय नन्‍द के कुमार केों यों, 

फूलन की मालन की मार दीजियतु है। 


यहाँ ननन्‍दलाल पर भी फूल-मालाओं की मार पड़ रही ह। ठीक है, 
दबी बिल्ली चँहों से कान कटाती है। 


( १३१ ) 


मध्या ओर प्रोढ़ा के अन्य भेद 
सस्‍्वभावानुसार मध्या और प्रौढ़ा के अन्य सुरत दुःखिता, गर्विता और 
मानवती ये तीन भेद और भी द्वोते हैं । 
अन्य सुरत दुःखिता 
किसी दूसरी स्त्री के शरीर पर प्रिय सम्भोग-चिन्ह देखकर दुखी होने 
वाली नायिका शञ्रन्य सुरत दुःखिता कहाती है । 
ग्रन्य सुरत दुःखता और खणिडता में अन्तर यह हे कि पहली किसी 
स्त्री के शरीर पर स्वपति के साथ की गई काम-केलि के चिन्द्र देखकर 
अत्यन्त दुखी होती है, और दूसरी श्रपने पति के शरीर पर पर-स््री-सम्भोग- 
जनित चिन्ह देखकर मान करती हे । 
अन्य सुरत दुःखिता का उदाहरण कमला-पति ने इस प्रकार दिया है--- 
गुन एक अपूरन तो में लख्यो सुती सीखिवे को अभिलाप करों। 
'कमलापत' तोसी द्वतू है तुद्दी, लखि के सब भाँति अनन्द भरों। 
यहि देत कहो यह बात बलाय ल्यों दूजो उपाय न चित्त घरों। 
चित और को द्वाथ में लीवो बताय दे पाहुनी पायन तेरे परों । 


यहाँ नायिका पाहुनी के शरीर में रति-चिन्द्र देखकर दुखी होती हुई, 
व्यंग्य-वचनों द्वारा उसे उपालम्भ दे रही हे-- दे पाहुनी, पराया चित्त केसे 
चुराया जाता है, इसकी विधि कृपा कर मुमे भी बता दे । में तेरे पैरों 
पड़ती दे |”! 
इस प्रसंग में पद्माकरजी का उदाहरण भी देखिये-- 
धोय गई केसरि कपोल कुच गोलन की, 
पीक लीक अधर शअ्रमोलन लगाई है । 
कहे 'पदमाकर' त्यों नेन हूँ निरंजन भे, 
तज तन कम्प देह पुलकनि छाई हे। 
बाद मति ठाने भूठ वादिनि भई री अरब, 
दुतपनो छोड़ि धृतपन में सुदाई हे। 


( १३२ ) 


आई तोहि पीर न पराई महा पापिनि तू. 
पापी लों गई न कहूँ वापी न्हाइ आई दे । 
प्रियतम को बुलाने के लिए भेजी गई दूती जब लौटकर श्राई तो, 
नायिका ने उसकी दशा देखकर समभ लिया कि यह तो स्वयं ही गड़बड़ 
कर आई है | नायका ने जब उससे पूछा कि 'तरे कपोलों और कुचों पर 
से केसर कैसे छूट गई ओर आँखों का काजल कहाँ उड़ गया” तो बह 
कहने लगी--में बावड़ी में स्नान कर आई हूँ | इस पर नायिका कुपित होकर 
कहती है--पापिन, क्‍यों कूठ बोलती है !' त्‌ बावड़ी नहां आई है | उस 
पापी तक नहीं गई ? अन्य सुरत दुःखिता का कितना स्पष्ट उदाहरण दे । 
इसी भाव का एक संघ्कृत श्लोक भी है। सम्भव है, घप्माकरजी ने 
उसी के आधार पर उपयक्त कवित्त लिखा हो । वह छोक इस प्रकार हे -- 
निःशेष च्युत चन्दनं स्तनतर्ट निमृष्ट रागोडचरः । 
नेत्रे दूर्मनक्षने पुलकिता तन्‍्बी तवेयं तनु ॥ 
मिथ्यावादिनि दूति बाँधवजनस्थयाज्ञात पीडागमे । 
वापी स्‍नातुमितों गतासि न पुनस्तस्याधमस्यान्तिकम ॥ 
इस प्रसंग में नीचे लिखा पद्म भी कितना उत्कृष्ट दै-- 
चाख्यौं के पियूख अमिलाख्यो के अ्नन्द उर 
भाख्यो ना बनत ईस! और जो कपट में। 
घरत कहूँ को पॉँय परत कहूँ को जाय, 
करति कला त्‌ भाय जेसी नाहि नट में । 
जान ना दुराव तू अ्जान ना दुराव भले, 
मेरे जान आई आज कारे के रपट मं। 
कालिंदी के तीर तू अ्रकेली तजी भीर वीर, 
लेन गई नीर भरि लाई नेह घट में। 
अरी, तू कितना ही क्‍यों न छिपा; परन्तु तेरी ये लटपटी चाल और 
अटपटी बातें साफ़ जाहिर कर रही हैं कि तू आज काले (कृष्श) के 


( (९३३ ) 


ऋषई में आ गई ! तू गई तो थी भीड़ मे बचकर. श्रकेली जमना तट से 
पानी भरने, परन्तु भर लाई तू घट द्वदय पे प्रम | वह क्‍या कर डाला ! 
छिपाती क्यों है, साफ़-साफ़ बता कि क्‍या माजरा है ! 
गविता 
जो नायिका अपने रूप या प्रिय के प्रेम का गव करती तथा उसे बक्रो- 
क्तियों द्वारा प्रकट करती रहती है, उसे गविता या बक्रोक्ति-गरविता 
कहते हें । 
इस गविता या बक्रोक्तिगर्विता के दो भेद हैं। १---रूप-गविता श्रोर 
२-- प्रेम-गविता । कुछ लोगों ने गविंता का 'गुण-गविता! भेद भी 
माना है । 
रूप-गविता 
जो नायिका अपने रूप का गव करती है, उसे रूप-गर्विता कहते हैं । 
इस मम्बन्ध में महाकाव शइझ्गर का उत्कृष्ट उदादरण देखिए--- 
आ्नन की श्रोर चले आवत चकोर मोर-- 
दौरि-.दौरि बारबार ब्रैैनी भटकत हैं | 
भूमि-फूमि चखन को चूमि-चुमि चशद्वरीक, 
लटकी लटन में लिपटि लटकत हैं। 
वरेठि-बैठि 'शइ्डर' उरोजन पै. राजहंस, 
मोतिन के तार तोरि-तोरि पटकत हें। 
ग्राज इन ब्रेरिन सों वन में बचावे कोन, 
ग्रबला अकेली में अनेक अ्रटकत हैं । 


रूप गरविता नायिका ने अपना सौन्दय केसे सुन्दर ढंग से बयान 
किया है । वह यद्द नहीं कहती कि प्रेरा मूँँह चन्द्रमा जैसा हे, मेरी लट 
नागिन सरीखी है, मेरी श्रॉल कमल के समान हैं, बल्कि इन्हीं बातों को वह 
बड़े दी सुन्दर ढंग से व्यक्त करती दहै। वह कहती हदै-न जाने चकोर 
क्यों मेरे मुँह की ओर दोड़-दोड़ कर आते हैं, इन मोरों के भी क्‍या हो 


( १३१४ ) 


गया है, जो मेरी लटकी हुईं लटों को पकड़ कर भटकते हैं। ये भोरे 
भी बार-बार मेरी आँखों के पास आ-आकर न जाने क्‍यों मडराते हैं।” 
अभिप्राय यह कि चकोर चन्द्रमा को बहुत चाहते हैं। नायिका के मुख 
की ओर उनके उड़-उड़ कर आने का मतलब यह कि उसके मँँह को 
देखकर उन्हें चन्द्रमा का भ्रम हो जाता है। इसी प्रकार श्रमरों को उसकी 
आँखों से कमल का और वेणी से मोरों को सप का भ्रम होता है। कवि 
की क्या ही अनोखी सूक है। नायिका ने केसी वक्रोक्तियों द्वारा अपने 
रूप की प्रशंसा की हे । 
नीचे लिखा कवित्त भी रूप-गविंता का बड़ा सुन्दर उदाहरण हे-- 
नंक जो इसो तो लाल माल ह्वोत हीरन की, 
नंक जो मुरों तो मेरी नील मनि भलकी | 
अंजुरी भरी है मुख धोइवेकों भारी लेके, 
सखिन निहारी दुति राती होति जल की | 
जो में रचों चीर तो कुचील जुरे जोबन न, 
देखिवे को आँखें गुनधरहू की ललकी। 
गगन कढ़ों तो भोर भीरन श्रघेरो दोत, 
पाय जो धरों तो महि होत मखमल की। 
उपयुक्त छुन्द में भी रूप-गविता नायिका ने अपना सौन्दय बड़े ही 
सुन्दर ढंग से वर्णन किया है । 
प्रेम-गर्तिता 
पति-प्रेम पर इतराने वाली नायिका को प्रेम-गविता कहते हैं। 
उदाहरण देखिये-- 
आँखिन में पुतरी हो रहें हियरा में दरा हे सबै रस लूटें। 
अंगन संग बरस ग्रेगराग हो जीवते जीवन मूरिन टूर्टे। 
'देवजू! प्यारे के न्यारे सबै गुन सो मन मानिक ते नहिं छूटे । 
और तियान तें तौ बतियाँ करें मो छतियाँ ते छिनौ जब छूटे । 


( १३२५ ) 


यहाँ नायिका को अपने पति प्रेम का इतना विश्वास और गव है कि 
वह हृढ़ता पूवक कह सकती है-“ और तियान तें तौ बतियाँ कर मो 
छ॒तियाँ ते छिनो जब छूट ।” दूसरी स्त्रियों से तो वह तब ही न बातें करेंगे, 
जब मुझ से अलग होंगे । वह तो मुभसे क्षण-भर के लिए भी अलग नहीं 
होते | प्रेम-गविता का कितना सुस्पष्ट ओर सुन्दर उदाहरण है। नायिका 
ने वक्रोक्ति द्वारा किस प्रकार अपने प्रति पति-प्रेम की प्रगाढता प्रदर्शित 
की हे। 

पानवती 

पति के अपराध स अप्रसन्न होकर मान करने वाली नायिका को 
मानवती कहद्त॑ हैं । 

मानवती के उदाहरण में नीचे लिखा सवैया देखिये- 


ये घन घोर उठे चह्ुँ ओर इन्हें लख का करिहदे रिस हे तू । 

सोति पै जाय हे जो 'कमलापति” पाइहे छाँद्द छिनेकन छवे तू । 

जानि लई अब ही सिगरी कलपेदहदे सु हाथ के हीर को ख्वे तू । 

पाँय परे हू न मानती री अ्रब जाजनि ऐसी मिजाजिनि है तू । 

किसी मानिनी नायिका के प्रति सखी की उक्ति है। सखी कद्दती है-- 
अरी बरावली इन उमड़-घुमड़ कर घिर आने वाली, घन-घटाश्रों को 
तो देख । क्या इन्हें देखती हुई भी तू मान-मुद्रा नहीं तोढ़ेगी । याद रख, 
अभी तो कुछ नहीं बिगड़ा, परन्तु यदि वह भी अरकड़ गए और सौत के 
पास चले गए तो फिर तुके उनकी परछाई भी देखने को न मिलेगी । 
अब तो तू जान बूक कर अपने हाथ के हीरा को खोए दे रही है, पीछे 
पछुतायगी | चल. रहने दे ! प्रिय के पेरों पड़ने पर भी नहीं मानती ! ऐसा 
भी क्‍या रूँठना । 


इसी सम्बन्ध मे नीचे लिखा सबेया भी कितना सुन्दर है -- 
मानी न मानवती भयो भोर सु सोच ते सोय गए मनभावन। 
तेहते साखु कही दुलही भई बार कुमार को जाव जगावन। 


( १३६ ) 


मान को रोस जगैवे की लाज लगी पगनूपुर पाटी बजावन । 
सो छुवि हेरि हिराय रहे हरि कौन को रूसिवों काको मनावन । 


रात को बहुत रात तक मनभावन ने मानिनी को मनाया, पर वह 
न मानी | प्रात:काल होने पर नायक को नींद आ्रा गई वह सो गया । उसे 
सोता देख मानवती की सास ने उसे ही नायक को जगाने भेजा । श्ब बह 
मान के कारण पति को बोलकर जगा भी नहीं सकती, उधर सास की 
आज्ञा भी केसे टाली जाय । अ्रन्त में पैर के बिछुए पलँग की पाटी से 
खटखटा कर बजाने लगी। नायिका की उस चतुराई को देखकर हरि 
(नायक) भी 'हिराय' रहे ! फिर भला किसका रूठना और केसा मनाना । 


सस्‍्वकीया के विशेष भेद 


ज्येछा और कनिए। 


यदि किसी नायक के कई ख््रियोँ हों, तो उसकी सबसे अ्रधिक प्यारी 
स्त्री ज्येशा और शेष कनिष्ठा कद्दाती है। कविवर मतिराम ने अपने नीचे 
लिखे कबित्त में ज्येष्ठा और कनिष्ठा का केसा मुन्दर वर्णन किया हे । 
देखिये -- 


ब्रैढठीं एक सेज पै सलौनी मृग-नेनी दोऊ, 
आनि तहाँ पीतम सुधा-समूह बरसे। 
कवि मतिराम! ढिंग त्रैद्यों मनभावन के, 
दुहूँ के हिये में अरविन्द मोद सरसे। 
आरसी दे एक सों कह्यो यों निज मुख लखो. 
श्रविन्द वारिज विलास कर दरसे 
दरप सों भरी जीलों दरपन देखे तौलों, 
प्यारे ध्रान प्यारी के उरोज हरि परसे। 


भाव स्पष्ट है। नायक श्रपनी चतुराई से कनिष्ठा को दपण देखने में 
लगाकर ज्येष्टा का आरलिंगन करता है । 


( १३७ ) 


इसी के उदाहरण म॑ नीचे लिग्वा दोहा कितना उत्कृष्ट हे-- 
तीज परब सौतिन सजे भूषन बसन सरीर । 
सब्र मरगजे मुंह करी बहे मरगजी चौर ॥ 

तीज के त्यौहार पर सभी सपत्नियों ने वस्नालझारों से अपने-अपने 
शुरीर अलंकृत किये। परन्तु उस मरगजे ( मसले हुए ) बस्त्रों वाली ने 
सबके मुख मरगजे ( मर्दित )--से कर दिये । 

साहित्य-दपणकार ने प्रौढ़ा नायिका के छुद भेद और भी माने हैं, 
जिनके नाम ये हैं... 

१--स्मरान्घा, २ -गाढतारण्या, ३--समस्त रति-काविदा, 
४ -भावोन्नता, ५-- दरखखीड़ा और ६--आक्रान्त नायिका । हिन्दी रीति- 
ग्रन्थकारों ने प्राय: इन भेदां का उल्लेख नहीं किया, इसलिए दम भी यहाँ 
इनके लक्षण मात्र लिख देना ही पर्याप्त समझते हैं । 

स्मरान्धा -काम-कला म॑ अ्न्धी होकर सुध-त्रुध विसार देने वाली 
नायिका स्मरान्धा कहाती दे । 

गाढ़ तारण्या--सविशेष ताझ्णय युक्त नायिका गाढ तारुण्या 
कहाती है । 

समस्त रति-केा विदा -- समस्त काम-कलाग्रों --रति के आसनादिकों --- 
के जानने वाली नायिका के समस्त रति-काविदा कहते हैं | 

भावोन्नता--श्रू-कटा हा दि संकेतों द्वारा रति विषयक मनोभाव प्रकट 
करने वाली भावोन्नता कहलाती है । 


दरखीड़ा--जिसे काम-क्रीड़ाश्रों में नाम मात्र को लज्जा रह गई हो । 
ग्राक्रान्त नायिका--सुरत के पश्चात्‌ बिगड़े हुए श्यज्जारादि संवारने के 
बहाने से नायक को पुनः रति-क्रोड़ा में प्रवृत्त कर मुग्ध होने वाली । 
परकीया नायिका 
जो री छिप कर पर-पुरुष से प्रेम करती है, उसे परकीया कहते हैं। 


( १६८ ) 


उदाहरण में कविवर गोविन्दजी का एक पद्म उद्धृत किया जाता है। 
देखिए. 
दिन अ्ररु रेनि ग़हइ-काज बिसराय गये, 
मूरत रसाल मरे मन में अश्ररति हे। 
जबहीं जसोदा सुत गेया लेके बन जाय, 
मन्द मुसक्यानि मोकों नाहिं बिसरति है । 
गोबिन्द' गोपालजू की मूरति अ्रनोखी देखि, 
ज्ञान अरु प्यान बुद्धि सबही जरति है । 
मेंने समुझाया मन केटि करि बार-बार, 
उन्हें बिन देखे मोहि कल ना परति है । 
गौएँ ले जाते हुए. गोपाल की मो'हनी मूर्ति देखकर, नायिका घर के 
सब काम-काज भूल गई ! उसकी सारी सूक-समक भी बिसर गई ' मोहन 
पर मुग्ध हुए. मन को करोड़ों बार मना किया पर वह मदन गोपाल की 
मधुर मुसकान पर ऐसा मस्त है कि बिना उनके उसे कल ही नहीं 
पढ़ती । 
देखिये ग्वाल कवि ने परकीया का वणन केसी सुन्दरता से किया है-- 
गोपी गति लोपी की सुनी में बात केयन पै, 
मोकों तो कुजातिनी कमीन कहि बोली वे । 
आपने न औगुन गनत परपति पगी. 
ऐसी बेसरम कर मोही सों ठठोली वे। 
ग्वाल कवि छिपि-छिपि के श्रंधियारी रातिन में, 
सोये पति लाग के कियार बन्द खोलों वे। 
वनन में बागन में जमुना किनारन में 
खेतन खदान में खराब होत डोली वे । 
परकीया के सम्बन्ध में आनन्दघनजी का उदाहरण भी देखिए-..- 
क्यों हँसि देरि हरयो हियरा श्ररु क्यों हित के चित चाह बढ़ाई | 
कादे को बोले सुधा-सने बैनन नेननि में न सलाका चढ़ाई। 


( १३६ ) 


सो सुधि मो हिय ते 'घनञ्रानंद' सालति क्‍यों हूँ कढ़े न कढ़ाई । 

मीत सुजान अ्नीनि की पाटी इते पै न जानिये कोने पढाई। 

क्यों तो उसने मुस्कराते हुए मेरी ओर देखकर मेरा मन मोद्द लिया, 
और न जाने क्यों प्रेम-पूर्ण व्यवहार करके अनुराग बढ़ाया। उसकी वाणी 
भी केसी मधुर थी | बोलते समय कानों में सुधा-बिम्दु से पड़ते थे। 
उसकी इन सब बातों की मुझे रह-रह कर याद ञ्राती है। बहुतेरा भुलाना 
चाहता हूँ, परन्तु वे भूलती ही नहीं । 

परकीया के भेद 


परकीया नायिका के दो भेद हैं। १---ऊढा परकीया और २--अनूढा 
परकीया । इन्हीं के विवाहिता और अ्रविवाहिता भी कहते हैं । 
जञ्ठा 
जो विवाहिता स्त्री अपने पति से प्रेम न कर, गुप्तरूप से परपुरुष 
के प्रेम-पाश में फैंसी रहती है, वद ऊठा परकीया कहाती है। उदाहरण 
देखिए -- 
घूखी-सी खमी-सी भ्रमी व्याकुल-सी बैठी कहूँ, 
नजरि लगी है तन तोरि-तोरि नाख्यो में। 
'बैनी कवि? भोर ही ते भोरी भई डोलति हों. 
राज करो जाय यह काज अभिलाख्यो में। 
ललके हमारो जीय बोलेना बिलोके क्‍यों हूं, 
मुख श्राँखें मूँदि रही यातें दीन भाख्यौ में । 
पत्रकें उघारों केसे कठि जाय श्रोंखिन तें, 
सोर ना करोरी चितचोर मूँदि राख्यो में । 


चित्त-चोर की छुवि नायिका की श्राँखों में बस गई है। कहीं आँख 
खोलने से वह छुवि निकल न जाय, हसलिए वह उन्हें खोलना नहीं 
चाहतीं। सखी समभती हैं, न जाने इसे क्‍या हो गया है, जो न बोलती है 


( १४० ) 


औ्रोर न श्राँखें खोलती है। वह सबेरे से ही घबराई हुई-सी भागी फिरती 
है। नज़र लग जाने का सन्देह कर उसने टोना टन-मन भी बहुत किये 
हैं। पर यहाँ तो ऐसी नज़र लगी है, जो साधारण भाड़-फूं क से दूर नहीं 
हो सकती, उसका प्रतीकार तो स्वयं वह नर ही है | 


कविवर पद्माकरजी ने ऊढ़ा का उदाहरण यों दिया है--- 

गोकुल के कुल को तजि के भजि के बन-बीथिन में बढ़ि जैये । 
त्यों * पदमाकर ? कुंज कछार बिहार पहारन में चढ़े जैये। 
है नंदनन्द गोविन्द जहाँ तद्ाँ नन्‍द के मन्दिर में मढ़ि जेये। 
यों चित चाइत एरी भट्टू मनमोहने लेके कहूँ कढ़ि जैये। 


यहाँ नायिका चाहती हे कि सब घरबार ओर पुर-परिवार परित्याग 
कर मनमोहन को साथ ले, किसी निविड़ वन, कुझ्स, कछार या गिरिगुहा 
में जा बेठ । 
इस प्रसंग में मतिरामजी का भी यह उदाहरण देखने लायक़ हे-- 
क्यों इन आँखिन सों निरसंक हे मोहन को तन पानिप पीजै । 
नेंकु निहारे कलंक लगे यहि गाँव बसे कहो कैसे के जीजै । 
होत रहे मन यों 'मतिराम” कहूँ बन जाय बड़ो तप कीजे | 
हे बनमाल हिये लगिये अ्ररु हो मुरली अधरा रस पीजै। 


8 


इस गाँव भें जब किसी की ओर तनक देखने मात्र से कलंक लगता 
हे, तब भला निर्वाद्द कैसे हो सकेगा । यहाँ भला निःशंक होकर मनमोहन 
की रूप-सुधा का पान केसे किया जा सकेगा ? अब तो इसका एक ही 
उपाय है, वह यद्द कि कहीं वन में जाकर कठिन तपस्या की जाय जिससे 
अगले जन्म में हम वनमाल या मुरली बन सके । बस तभी नि्भयता पूर्वक 
मोहन के हृदय का श्रालिगन या अधरामृत का पान किया जा सकेगा । 

अनूढा 

जो अ्रपनी कोमारावस्था में ही गुप्त रू से किसी पुरुष के प्रेम-पाश 

में फँस जाती है, उसे अ्नूढा ( परकीया ) कहते हैं। उदाहरण देखिए--- 


( श्र ) 


प्रीति पतिब्रत सों बल बैर कद्दटी क्रेदि भाँति भट्ट भ्रम भागै। 
काज सरै तो लजाति हों लाजन लाज सरै तो बिदा हित माँगे । 
हे रही साँप-छुद्ूृदर की गति काम अकाम हिये अनुरागै। 
ऐसो उपाय बताय सखी हरि अ्रंक लगे पे कलंक न लागे। 


नायिका ( श्रनूढ़ा ) बड़े असमंजस में पड़ी हे. प्रीति निब्राहती है. तो 
पतिब्रत' नष्ट होता हे. ओर पतत्रतः रक्‍्खा जाय तो प्रीति हाथ से जाती 
है। लाज रखे तो कान नहीं सरता और काज पूरा किया जाय तो लाज 
बदा होती हे। साँव-छुछू दर की-सी गति हो रही है। ऐसी विषम परि- 
स्थिति में वह सखी से पंछुती हे--हे सखी, अब त्‌ ही केई ऐसा उपाय 
बता जो मोहन से मिलना भी हो जाय और कलंक भी न लगे | 


इस प्रसंग में पद्माकरजी ने नीचे लिखा उदाहरण दिया है-- 

जाव नहीं कुल गोकुल में अरु दूनी दुहूँ दिसि दीपति जागै। 

त्यों पदमाकर' जोई सुने जहाँ सो तहाँ आनंद में अनुरागे। 

ए. दई ऐसो कछू करि ब्यौंत जु देखें श्रदेखन के हग दागै। 

जामें निसंक हे मोहन को भरिये निज अंक कलंक न लागै। 

यहाँ भी देव से ऐसा केई उपाय सुझा देने की प्राथना की गई हे, 
जिसमे मोहन को गले भी लगाया जा सके और लोकापवाद भी न हों; 
श्रोर भी देखिए--.- 

गोप सुता कहै गोरि गुर्साईनि पाय परों बिनती सुनि लीजे। 

दीन दयानिधि दासी के ऊपर नेसुक चित्त दया रस भीजे। 

देहिं जो ब्याहि उछाह सों मोहने मात-पिता हू के सो मन कीजे | 

सुन्दर साँवरों नन्दकुमार बसे उर जो बर सो बर दीजे। 

यहाँ कुमारी ( अनूढा ) गोपबाला पावंतीजी से प्राथना कर रही 
है. दे देवी. मेरे माता-पिता को ऐसी बुद्धि दो, जिससे वे मोहन के साथ 
मेरा विवाह कर दं, क्योंकि वही मेरे द्वदय में बसा हुआ हे । 


( १४२ ) 


भेद 


उपयुक्त ऊढ़ा ओर अनूढा दोनों प्रकार की नायिकाओ्रों के उदूबुद्धा 
ओर उद्बोधिता ये दो-दो भेद हें । 


उद्बुद्धा 
जो स्वयं अपनी इच्छा से प्रेरित द्ोकर उपपति से प्रेम करती है, वह 
उदबुद्धा कह्दाती है । 


यथा--- 


बिलखि बिसूरे छुन मौन हे छुली-सी बलि, 
चोंकत चहूँधा देरि ऐसी चोप चटकी | 
काल्हि ही तें कलप समान पल बीत्यो रहि, 
बान-सी हिये म॑ तान बाँसुरी की खटकी । 
कवि 'ललछिराम' कल कनक लता लॉ लकि, 
लोटति अटारी पे नवेली बड्ढ लटकी । 
ऋँमभरी सों श्रोचक निह्दारी फहरानि आजु, 
रसिक सिरोमनि, तिहारे पीत पटकी। 
यहाँ नायिका भरोखे में हेकर मोहन का पीत पथ देख उन पर मुग्ध 


हो गई है । उसी समय से उसकी जो दशा हो रही है, उसका वर्णन उक्त 
पद्म में किया गया है । 


उदबोधिता 
जो स्त्री उपपति द्वारा प्रेरित होकर प्रेम में प्रवृत्त होती हे, वह उद्‌- 
बोधिता कहाती है। उद्बोधिता का उदाइरण नीचे दिया जाता है -- 
पहले हम जाइ दयो कर में तिय खेलति ही घर में फरजी | 
बुधिवन्त एकन्त पढ़ो तबहीं रतिकन्त के बानन ले लरजी | 
बरजी हमें औरे सुनाइबे कों कहि 'तोष' लख्यों सिगरी मरजी । 
गरजी द्वे दियो उन पान हमें पढ़ि साँवरे रावरे की श्ररजी । 


( १४३ ) 


यहाँ नायक पत्र द्वारा नायिक्रा से प्रेम प्रदान करने की प्राथना करता 
है। उसी पत्र को लेजाने वाली दूती नायक से कह रही हे, नायिका ने 
आपका पत्र पढ़ लिया था, मुकमे कद्दीं किसी से उसकी चर्चा न करने के 
लिए. भी कह दिया हे । 


परकीया के अन्य छह भेद 
परकीया नायिका के सुरत गुसता, विदग्धा, लक्षिता, कुलठा, अनु- 
शयाना और मुदिता ये छुद्द भेद और भी हें। 
सुरत गुप्ता 
पर पुरुष के साथ की गई रति के चिन्हों को छिपाने वाली परकीया 
सुरत गुप्ता कह्यती हे । यथा--- 
भलो नहीं यह केवराो सजनी गेह अराम । 
बसन फटे कंटक लगे निसिदिन आठो याम | ( मतिराम ) 
यहाँ नायिका प्रेमी के साथ की गई रंग-रेलियों में फठे वस्त्रों के, घर 
में लगे केवड़े के मत्ये मढ़ती हुईं रत की बात छिपाती है। वह 
कहती है--'' सखी, यद्द केवड़े का बृक्ष तो बढ़ा ही दुश्खदायी है। जब 
उसके पास द्वोकर निकलो, तभी उलभकर कपड़े फटते हैं, ओर काँटे 
तो चोबीसों घंटे लगा करते हैं। देखो न मेरे वस्त्रों का कया हाल द्वोगया ! 
काँटं के लगने से शरीर में जगह-जगह ज्ञत हो गए हैं। 


सुरत गुप्ता के भेद 
सुरतगुप्ता तीन प्रकार की होती हे । १--भूत सुरत संगोपना, 
२-- वतंमान सुरत संगोपना और ३--भविष्यत्‌ सुरत संगोपना । 
भूत सुरत संगापना 
जो श्रपनी चतुराई से पिछुनी रति के छिपाती हे, उसे भूत सुरत 
'गोपना कहते है। उदाहरण में नीचे लिखा पथ्य देखिए-- 
मोतिन की माल तोरि चीर सब चीर डारयो, 
फेर नहीं जेहोँ आली दुरबिकरारे हैं। 


(| १४४ ; 


« देवकी नंदन ' कह्टे धोखे नाग छोनन के. 
अलके प्रयून तेऊ नोंचि निरवारे हैं। 
जान मुख चन्दकला चॉच दीनी अधरन, 
तीनों ये निकुंजन में एके तार तारे हैं। 
जेर-ठोर डोलत मराल मतवारे तैसें, 
मोर मतवारे त्यों चकोर मतवारे हैं। 
यहाँ नायिका रति-ब्रिया में टूटे मोतियों के हार. बिथुरी अनकों और 
अघर पर हुए दंश-चिन्हों को वन में मत्त द्वोकर घूमने वाले मराल, मोर 
और चकोरों के मत्ये मढ़ कर भूत सुरत के छिपाती है । 
कवि लछिरामजी का भी उदाहरण देखिए, कैसा सुन्दर है. -- 
आ्रोघट श्रकेली नीर तीर जमुना के भरे, 
जोलों कटी कहर कराल मग हाली तें। 
कवि 'लछिराम' तोलों तीखन फनाली फन्द, 
बार-पार फैली फूल फुफकरार लाली तें । 
गिरि गई गागरि बिगरि गई बेदी सिर 
फिरि गई पूतरी प्रकास पर माली तें। 
बूफि बनमाली सों लुटाव मुकताली, बड़े 
भागन बची में भाजि विष्रधर काली ते । 
यहाँ भी नायिका गागर फूट जाने, बेदी बिगड़ जाने तथा अन्य वेश- 
भूषा श्रस्त-व्यस्त हो जाने का कारण, विषधर काली की फुसकार से 
भीत होकर, भागना बताती हे, ओर बनमाली के गवाद्द के रूप में पेश 
करती हे | 
इस प्रसंग में रहीम कवि का यह बरवे भी कितना उत्कृष्ट है-- 
अबनहिं तोहि पढ़ावों सुगना सार। 
परिगो दाग अ्रधरवा चॉंचि तुचार ॥ 
यहाँ नायिका केलि-क्रिया में हुए अ्रधर-च्षत के “ सुगना ” के ज़िम्मे 
ढाल कर सुरत-संगोपन करती है | 


( १४५४ ) 


वतमान सुरत संगोपना 
वतंमान रति के भी अ्रपनी वाक्‍्चातुरी और प्रत्युत्पन्न मति द्वारा 
छिपाने वाली नायिका सुरतसंगोपना क्रह्यती है। जेसे नीचे लिखे पद में 
रतिक्रियानितत नायिका सखियों द्वारा देखी जाने पर, चिल्लाने लगती 


हे--“दोड़ो-दौड़ो मेंने दही का चुगने वाला आज बिलकुल मौके पर पकड़ 
लिया हैं !”? 


छूटि जाय गैया के बिलैया चाटि चाटि जाय, 

कौन दुख दैया देया सोच उर धारयो में । 
हों ही जमवेया श्रो धरैया निज सैया तरे, 

कहो जो कहैया दास होयगो विचारयो में । 
'ग्वाल! कवि द्ोले के श्रवेया निरदेया यही, 

झ्राज या समैया श्रोट पैया गई पारयौ में । 
भैया को बुलाओ या कन्हैया के करेगो दाल, 

दधि का चुरैया मैया पकरि पछारयो में। 


श्रौर भी देखिये, यद्द दूसरी नायिका अपनी वतमान रति के किस 
युक्ति से छिपाती है--- 
आ्रान तें न श्राया यही गाँवरे के जाये माई- 
बापुरे जियाया प्याय दूध बारे बारे का । 
« रसखान * सो तो पहचानियो न मानत है, 
लोचन लजेया ओर नचेया द्वारे द्वारे केा। 
बबा की सों सोचु कछू मद॒की उतारे को न, 
गोरस के ढारे के न चीर चीरडारे का। 
यहे दुख भारी गह्टे डगर हमारी माँम, 
नगर हमारे ग्वार बगर हमारे केा। 


अब कविवर पद्माकर का भी एक पद्य पढ़ लीजिए. | इस पतद्च में 
हि सें० ० रै७ 


( ९४६ ) 


नायिका कृष्ण का होली खेलने में रपट कर श्रपने ऊपर गिरना बताकर 
असली बात छिपाती है । 
ऊधम ऐसो मच्यौ ब्रज में सबै रंग-तरंग उमंगनि सीचें। 
त्यों 'पदमाकर” छुजनि छातनि छवे छिति छाजती केसरि कीचें । 
दे पिचकी भजी भीजी तहाँ परे पीछे गुपाल गुलाल उलीचें । 
एक द्वी संग इहाँ रपटे सखी, वे भए. ऊपर हों भई नीचें। 
इसी प्रसंग में नीचे लिखा दोहा भी कितना सुन्दर है-.. 
चढ़त घाट रपद्यो सुपग भरी आनि इन अंक | 
ताहि कहा तुम तकि रहीं यामें कोन कलंक ॥ 
भविष्य सुरत संगोपना 
भविष्य के प्रेम-रहस्य के प्रकट न होने देने वाली भविष्य सुग्त 
संगापना कहाती है, यथा-- 
ग्रीपम में वापी-कृप सरवर सूखे सब, 
जल नदी भफिरना तें ञ्रावतु नगर में । 
जहाँ जात-श्रावव लगत काँट भारन के 
हों न जेंहों हों ही पानी पौवति हों घर में ! 
अति दूरि ही तें भरी गागरि ले आवति हों, 
छुटत पसीना काँपे अंग थर-थर में। 


कद्ति हों पुनि सासु ननद भके न मोपै, 
जाऊँगी तो आऊंँगी में भरि दुपहर में। 


उक्त पद्म भें नायिका पानी भरने के बहाने प्रिय से मिलकर लौटना 
चाहती है। विलम्ब से लौटने के कारण कोई उस पर सन्देह न करे. 
इसलिए वह पहले से द्वी उसकी पेशबन्दी करती हैं--" में साफ़-साफ 
बताए, देती हूँ कि तुम काई पीछे नाराज़ न होना । मुझे! इतनी दुर पानी 
लेने मेजोगी तो में दोपहर तक लोट कर श्रारँगी ।” 


( १४७ ) 


इसी भाव को पद्माकरजी ने अपने एक कवित्त में इस प्रकार चित्रित 
किया है। 
ञ्राजु तें न जेहाँ दधि बेचन दुद्दाई खाडें, 
मैया की कन्हैया उते ठाढेो ही रहत है। 
कहे 'पदमाकर' त्यों सॉकरी गली है श्रति, 
इत उत भाजिवे के दाँव न लहत है। 
दोरि दघिदान काज ऐसो अमनेक तहाँ, 
गली बनमाली झ्राय बहियाँ गहत है। 
भादों सुदी चोथ के लख्यो री मृग अंक यातें, 
भूठ हू कलंक मोहि लागिबो चद्ठत है। 


भेया की सोगन्द खाती हूँ, ञ्राज से में तो उधर दही बेचने जाऊँगी 
नहीं | भला केाई बात है जा वनमाली, उस सकरी गली में घेर कर, दही 
के लिये इमसे छीना-भपटी करते हैं। मेने तो इस बार भादों सुदी 
चोथ का चन्द्रमा देख लिया है, सो मुमे; तो वेसे ही हर वक्त डर लगा 
रहता है कि कद्टीं कोर कलंक सिर न लग जाय । 


विदग्धा 
चातुय थ्रोर कौशल द्वारा छिपकर पर-पुरुष के साथ रति करने वाली 


नायिका विदग्घा कद्दाती है। यह दो प्रकार की मानी गई है। १--वचन- 
विदग्धघा और २--क्रिया-विदग्धा । 
वचन-विदग्धा 

वाक्चातरी से स्वकाय साधने वाली वचन-विदग्धा कहाती है। 
वचन-विदग्धा औ्रौर स्वयं दूतिका दोनों ही बाते बनाकर नायक को प्रेम-पाश 
में फांसती हैं । भेद केवल इतना है कि वचन-विदग्धा जाने-पहचाने व्यक्ति 
से अपनी इच्छा प्रकट करती है, श्रोर स्वयंदूतिका श्रपरिचित पुरुष के 
समभा-बुकाकर राज़ी करती है | उदाहरण देखिए--- 


( १४८ ) 


तोरत फूल कलीन नवीन गिरयो मंदरी के कहूँ नग मेरो। 
संग की हारीं हेराय गोपाल गई अरसाय उराम अधेरो। 
साँसति सासु की जाय सकों न अह्दो छिन एंक न गेयन फेरो । 
कुंजबिह्वारी तिहारा थली यह जात उतारी दया करि देरो। 
यहाँ नायिका कैसी चतुराई से, अपने अकेले रह जाने की बात बता 
कर, नग ढूँढने के बहाने अँघेरे कुंज में, गोपाल के बुलाती है । 
कवि कालिदास का भी नीचे लिखा पद्म पढिये, इसमें नायिका लट में 
उलभी हुई बेसर सुलभाने के बहाने से ही, नन्दलाल का आकृषट 
करती दे-- 
चूमों कर-कंज मंजु अमल श्रनूप तेरे, 
रूप के निधान कान्ह मोतन निहारि दे । 
कहे “कालिदास” हँसि हेरि मेरे पाप्त हरि, 
माथे धरि मुकुद लकुट कर डारि दे | 
कंवर कन्हैया मुख चन्द की जुन्हैया चारु 
लोचन चकोरन की प्यास निरवारि 
मेरे कर मेंहदी लगी हे प्यारे नन्दलाल, 
लट उरभी है नेक बेसर सुधारि दे। 
आऔर भी देखिए, नीचे लिखे सवैया में नायिका पति के परदेश चले 
जाने के कारण किस प्रकार घर में अपना अकेला होना प्रकट करती है. 


जब लों घर के घनी आग घरे तब लॉ तो कहूँ चित देवी करोौ। 
«८ पदमाकर ? ये बछुरा श्रपने बछुरान के संग चरैबो करौ। 
अरु औरन के घरसों हम ते तुम दूनी दुद्दावनी लैबो करो | 
नित साँक सवेरे हमारी हृदय इरि गैयाँ भला दुहिजैबों करो। 


इसी प्रकार नीचे लिखे पद्म में भी नायिका घर का सूनापन बताकर, 
अधिक रात में गाय दुह्ने के बहाने आने के लिये कृष्ण से संकेत 
करती दै-- 


( १४६ ) 


धाय रिसाइ गई घर आपने तीरथ नहाने गए पितु भैया। 
स्थामे सुनाय कहे के दुहैगों लगे निसि आधिक में यह गेया। 
दासियौ रूसि गई कितहूँ सजनी यह कौन सुनें दुखदेया। 
दे पट पौढ़ि रहोंगी भट्ट परियंक पे मेरीऊ जाने बलैया। 
नीचे लिखे दोहे भी वचन-विदग्धा के सुन्दर उदाहरण हैं--- 
कनकलता श्रीफल फरी रही बिजन बन पफूल। 
ताहि तजत क्यों बाबरे श्ररे मधुप मति भूल ॥ 
् >< >< 
घाम घरीक निब्रारिये कलित ललित ग्लि पुनञ्ञ। 
जमुना तीर तमाल-तझ् मिलति मालती कुज्ञ ॥ 


क्रिया-विदग्धा 

क्रिया-चातुरी द्वारा काय साधने वाली क्रिया-विदग्धा कहातो है। 
यथा नीचे लिखे पद्म में नायिका गुबजनों के समीप प्रकट रूप से लालन 
की रूप-सुधा का पान न कर 'माल के लाल” में प्रतिवम्बित उनके चित्र 
को देखती है । 

त्रैठी तिया गुद लोगन में रति ते अ्रति सुन्दर-रूप बिसेखी। 

आये। तहाँ 'मतिराम' सो जामें मनोभव ते बढ़ि कान्ति उरेखी। 

लोचन रूप पियाई नहें श्र«/ लाजन जाति नहीं छुबि पेखी। 

नेन नबाय रही हिय माल में लाल की मूरति लाल में देखी। 

श्रोर देखिए--- 

दोऊ श्रटान चढ़े 'पदमाकर” देखि दुहूँ के दुओ छुबि छाई। 

त्यों ब्रजबाले गुपाल तहाँ बनमाल तमालहिं' की दरसाई। 

चन्द्रमुखी चतुराई करी तब ऐसी कछू अपने मनभाई। 

अंचल खेंचि उराजन तें न॑ंदलाल कों मालती' माल दिखाई । 

१--तमाञ्व से अधेरो रात का संकेत किया | २--मात्नतौ-माल् से 
चादनी शाति का अभिप्राय सूचित किया | 


(५ १२० ) 


यहाँ भी ब्रजबाल और गोपाल स्पष्ट रूप से अपने मन की बात न कह 
कर, उसे संकेतों द्वारा प्रकट करते हैं । 


लक्षिता 


जिस परकीया का प्रेम-प्रसंग लक्षणों द्वारा लक्षित हो जाय, उसे 
लक्षिता कहते हैं | उदाइरण देखिये--- 
सीस सारी सकुरति अलक मुकर रहीं, 
भलक कपोलन श्रनूप छुबि छाई है। 
बदन बदलि गये खोर सिर चन्दन की, 
श्रंजन की रेख देख ब्रिथुर सुहाई है। 
'देव” जो सुहाग भाग अनुराग उमगत, 
कंचुकी दुदर केसे दुरत दुराई है। 
करि रतिरंग मनमोहन सों साघधे राघे, 
आजु मधुबन ते बिहान द्ोत आई है । 


सिकुड़ी हुईं सारी, बिथुरी अ्लक, मीड़ी हुई कंचुकी आदि चिन्हों 
तथा उसके रात-भर मधुवन में रह कर वहाँ से प्रात: समय झाने आदि 
लक्षणों से राधिका का मोहन के साथ रति-रंग करना लक्षित होगया; श्रतः 
वह लक्षिता हुई । 

इस विषय में मतिरामजी का उदाहरण भी पढने लायक हैे। 
देखिए-- 

आई दो पायें दिवाय महावर कुंजन ते करि के सुख सैनी। 

साँवरे आजु संवारों है श्रंजन नेननिी को लखि लाज तरैनी | 

बात के बूकतत ही ' मतिराम ? कद्दा करिये वह भौंह तनेनी। 

मूदि न राखति प्रीति श्रली यह गूंदी गुपाल के हाथ की ब्रैनी । 


बहन, तुम बात पूछने पर भले ही भहिं चढाओ्रो, परन्तु यह जो कुंज 
में से पैरों में महावर और श्राँखों में श्रंजज लगाकर आई हो, इनसे श्राग़िर 


( १४१ ) 


रहस्य प्रकट हो ही जाता है. और यह गेपपाल के द्वाथ की गुही बैनी तो 
तुम्हारे प्रेम-प्रसंग को बिलकुल ही स्पष्ट किये दे रही है । 
अन्त में कविवर पद्माकरजी का भी एक पद्य पढ़ लोीजिए-.- 
ब्रजमंडली देखि सत्रे 'पदमाकर! हे रही यों चुपचापरी है। 
मनमोहन की बहियाँ में छुटी उपटी यह बैनी दिखापरी है। 
मकराकृति कुएडल की भलके इतहू भुज-मुल पै छापरी हे। 
इनकी उनसों जुलगीं श्रैंखियाँ कहिये तो हमें कछू का परी है। 


मकराकृति कुए्डल की छाप नायिका के भुज-मूल में कलकती देख 
कर ज्ञात होगया कि इसकी मोहन से आँखें लग गई हैं ! 


छेक्षिता के भेद 


कुलु लोगों ने लक्षिता के दो भेद किये हैं, १- देतु लक्षिता और 
२--सुरत लक्षिता । 

हेतु लक्षिता में परकीया का उपपति के साथ प्रेम ही लक्षित होता हे, 
परन्तु सुरत लक्षिता में काम-केलि के चिन्हों की भी स्पष्ट प्रतीति होती है, 
जिनके द्वारा लाख छिपाने पर भी सारा भेद खुल जाता है। उदाहरण 
देखिए-- 

तू इत जोबन रूप भरी उतहू मन लाल के लालचहा हे | 

तेऊँ कछू बिनती-सी करी, उनहू बड़ी बेर लों खाई ह-हा है। 

देखि दुहूँ के दुद्ें पर प्यार भये जिय में सुख मोहि महां है । 

प्रीति बढ़े दिन द्दी दिन दुनी दुरावती काहे के होत कहा है। 

यहाँ एक दुसरे की विनती करना श्रादि प्रेम का हेतु मात्र लक्षित 
होता है, श्रतः यह हेतु लक्षिता का उदाहरण हुआ्रा। सुरतलक्षिता के 
उदाहरण में पूर्वेन्निखित लक्षिता के सभी उदाहरण दिये जा सकते हैं। 


कुलटा 
जो बहुत से नायकों से सुरत करके भी असन्तुष्ट रहती है, वह कुलठा 


( १४२ ) 


कहाती है | इसी केा व्यभिचारिणी भी कहते हैं । कुलटग और वेश्या 
दोनों ही बहुत से नायकों के चाहती हैं, भेद केवल इतना है कि कुलटा 
का लक्ष्य अपनी कामवासना की तृप्ति पर होता है, ओर वेश्या का घन 
प्राप्ति पर । 

नीचे तीन पद्म उदधृत किये जाते हैं।ये तीनों ही कुलटा के स्पष्ट 
उदाहरण हैं। व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं । 

पहले पद्माकरजी का पद्म पढ़िए--- 

यों अलबेली श्रकेली कहूँ सुकुमार सिंगारन के चली के चली। 

त्यों 'पदमाकर' एकन के उर में रस बीजनि ब्वे चली ब्वै चली । 

एकन सों बतराइ कछू छिन एकन को मन ले चली ले चली। 

. एकन कों तकि घृंघट में मुख मोरे कनेखिन दे चली दे चली । 
देखिये, मतिरामजी क्‍या कहते ईं--- 


अंजन दे निकसी मति नेननि मंजन के अ्रति अंग संबारै। 
रूप गुमान भरी मग में पगही के अँगूठा श्रनौट सुधारै। 
यौवन के मद सों * मतिराम ? भई मतवारिन लोग निहारै। 
जात चली यहि भाँति गली ब्रिथुरी अलक अँचरा न संभारे | 
और भी देखिए-- 


गेल में छैलन आवत जानि के काँकि भरोखन रीक रिभरावे। 
चंचल अ्रंचल डारे रहे अऑगिराय अनूप सरूप दिखावे। 
मोहति है मुरिके मुसकान में कोयल ज्यों कल बैन सुनावे। 
लाइ टिको ललचाय चिते अ्टकी नट की गति मैन चलावे। 


अनुशयाना 


जो परकीया संकेत-स्थान नष्ट होने के कारण दुखी होती है, वह 
अनुशयाना कहाती है । यह अ्रनुशयाना तीन प्रकार की मानी गईं 
है। १--संकेतविघटइना, २--भावी संकेतन'ष्ट श्रोर ३--रमणगमना । 


( १४३ ) 


इन्हीं के क्रमश: प्रथमानुशयाना, द्वितीयानुशयाना और तृतीयानुशयाना 
भी कहते हैं । 


सं+त-विधट्टना या प्रथमानुशयाना 
जो वतमान संकेत-स्थान के नष्ट हो जाने से दुःखित होती है, उसे 
संकेत-विघट्टना या प्रथमानुशयाना कहतें हैं। यथा नीचे लिखे पद्म में 
नायिका अपने वतंमान संकेत-स्थान बन बाग्ों का काटकर वहाँ पर तालाब 
बन जाने से दुखी होती है । देखिए-- 


लेत सुख बिसराय सब्रै पथ-पन्थि जहाँ सुनिके सुख पावें। 
भाँति अनेक बिहंगम सुन्दर फूले फले तर ते मन भावें। 
कोऊ सुने न कहे इनसों कहिके हित बेन नहीं समुझावें। 
कैसे हैं या पुर के जन ये बन बागन त्यागि तड़ाग बनावेँ। 
एक उदाहरण श्रोर भी देखिए-- 
मानती री मालिनि कहे ते क्‍यों न मेरी बात, 
काहे ते लतानन की लोंद भकमेरतीं | 
कहें ' सिरताज ' फुलवारी की बहार देखि 
करि अनुराग अ्नमोले सुख रोरतीं। 
फ्लेरी गुलाब गुलदावदी गहबदार, 
बेला श्रो चमेलिन की बेलिन बिथोरतीं । 
कारन कहा है इन मालिन के बाग बीच, 
नाइक प्रसून ये अनारन के तोरतीं। 


यहाँ मालिनों द्वारा बाग़ की लताएँ ककभोरे ओर अन्यान्य वृक्षों 
के फूल तोड़े जाने से नायिका दुखी होती है । क्योंकि लताओं के मक- 
भोरने से पत्त भड़कर उनकी सघनता नष्ट हो जाती है, जिससे फिर वे 
संकेत-स्थान की श्रोट का काम नहीं दे सकतीं । 

इस विषय में पद्माकरजी का भी नीचे लिखा दोहा पढ़ने लायक 
हैं 


( १४४ ) 


सौति सयेग न रोग कछु नहिं वियोग बलवन्त। 
ननेंद दूबरी होति क्‍यों लागत ललित बसनन्‍्त | 


यहाँ भी ननद के दुबली होने का कारण वसन्त द्वारा पतभड़ होकर 
संकेत-स्थान नष्ट हो जाना ही है । 


भावी संक्रेतनष्ठा या द्वितीयानुशयाना 


जो भावी संकेत-स्थान नष्ट होने की आशंका से दुःखित रहती है, 
उसे भावी संकेतनध्य या द्वितीयानुशयाना कहते हैं। यथा -- 

बेलिन सों लप्टाय रही है तमालन को अ्रवली अ्रति कारी । 

केकिल केकी कपोतन के कुल केलि करें श्रति आनंद वारी। 

सोच करे जनि दोहु सुखी * मतिराम ” प्रवीन सब नरनारी। 

मंजुल बंजुल कुंजन के घन-पुंज सखी ससुरारि तिहारी । 

ससुराल में केई संकेत-स्थान होगा या नहीं, इस प्रकार सोच करने 
वाली नायिका से उसकी सखी कह रही हे। चिन्ता मत करो, तुम्हारी 
ससुराल में बड़े-बड़े सघन लता-कंज हैं| और देखिए--- 

छाय रही बहु फूलन की रज माना मनेाज बितान तने हैं। 

सीरे समीर सुधा हू ते सोगुने डोलत मन्द सुगंध सने हैं। 

गुंजत पुंज हैं भोरन के तहाँ द्ोत कपोत के घोस घने हैं। 

सोच कहद्दा जु न ज्वार जमी ये तमाल के कुंज तो बेई बने हैं । 

यहाँ भी खेत में ज्वार न उगने के कारण चिन्ता करती हुई 
नायिका से उसकी सखी कहती है---“'ज्वार नहीं जमी तो न सही, तमाल के 
कुंज तो कहीं नहीं चले गए ।” निम्नलिखित दोहे का भी यह्दी भाव हे-- 

केलि करें मधु मत्त जहँ घन मधुपन के पुझ्ञ। 
सोचु न कर तुव सासुरे सखी सघन बन-पुश्न ॥ 

उपयंक्त सभी उदाहरणों में भविष्य के लिये संकेत-स्थान की चिन्ता 

करती हुई नायिकाश्रों का वर्णन है। 


( १५४ ) 


रमणगमना या तृतीयानुशया ना 


जो परकीया प्रियतम के संकेत-स्थान पर पहुँच जाने का प्रमाण पा या 
अनुमान कर, स्वयं वहाँ न पहुँच सकने के कारण दुखी होती है, उसे रमण 
गमना या तृतीयानुशयाना कहते हैँ । कविवर मतिरामजी ने रमण गमना 
का उदाहरण हस प्रकार दिया है -- 


साँफ के समे में * मतिराम ' काम बस बंधी. 

बंसीबयट तट में बजाई जाइ बाँसुरी। 
सुमिरि सहेट वृषभानु की कुमरि उर, 

दुख अधिकानों भये सुख को बिनासु री। 
सर सौ समीर लाग्यो सूल सी सह्ेलीं सब, 

विष सी बिनोदु लाग्यों बन सो निवासुरी | 
ताप चढ़ि आई तन पीरी बढि आई मुख 


बा 


ग्रँखिन में ऊपर उमड़ि आए ग्रॉसुरी | 


नायिका बंशीबट में बंशी बजती सुन समझ गई कि मोहन तो 'सहेट” 
में पहुँच गए, परन्तु वह स्वयं नहीं पहुँच सकी, इसलिए उसे ञ्रत्यन्त दुःख 
हुआ । 
एक उदाहरण शोर देखिए--- 
लपटे सुगन्धन की श्रार्वे गंध बन्धन में, 
श्रमत मदन्ध भोर सरस विराव के। 
परत पराग पंज साँवरे बदन पर, 
मंजु छबि छेलने छुबीले भूरि भाव के | 
समय की चूक हूक सालति प्रबीनन कों, 
मौसर न आाब्रे बेन ओसर जवाब के। 
चखन चुबन लाग्यो प्यारी के गुलाब नीर, 
देखि बलवीर सीस सुमन गुलाब के। 


( १५४६ ) 


नायक के वस्त्रों से वन-पुष्पों की गन्ध आती है, अंगों में पराग लगा 
है, जिसके कारण मधुमत्त भोरे मधुर गंजार करते हुए उसके आस-पास 
मंडरा रहे हैं । शिर पर उसने गुलाब का फूल भी धारण कर रखा हे। 
इन सब चिन्हों के देख नायिका ने जान लिया कि वह संकेत-स्थान में 
होकर आया है। इससे नायिका को बहुत दुःख हुआ, और उसकी श्राँखों 
में शॉसू छुल-छला आए । 

नीचे लिखा दोहा भी रमणगमना का सुन्दर उदाइरण हे-- 

छुरो सपललव लाल कर लखि तमाल की हाल | 
कुम्दिलानी उर साल धघरि फूल माल-सी बाल ॥ 
मुदिता 

जो नायिका मनचाही साज-सज्जा और गति-विधि देखकर, श्रपनी 
अभिलाषा-पूर्ति के विचार से मन ही मन मुदित होती है, वह मुदिता 
कहाती है | यथा--- 

मोहन सों कछु द्योसनि ते ' मतिराम ' बढ्यो अनुराग सुदाया। 

बैठी हुती तिय मायके में ससुरारिक काहू संदेस सुनाया। 

नाह के ब्याह की चार सुनी हिय माहि उछाह छुबीली के छाये | 

पौढ़ि रही पट ओोढि अ्रदा दुख को मिसुके सुख बाल छिपाये | 

नायिका ने पीहर में यह समाचार सुना कि ससुराल में किसी का 
विवाह है. तो उसकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा क्योंकि श्रब उसे शीघ्र 
ही ससुराल जाने श्रोर प्रिय से मिलने का अवसर मिलेगा । 

जा संग नेह निरन्तर हो अ्रति हास बिलासन मोद बढाये। 

खेलत खेल 'गुलाब' कहे नित ही चित चाह किये मनभायो | 

सास रिसाति रही तदहूँ कबहूँ सपनेहु न काप जनायोा। 

सो ननदी ससुरारि सिघारत कारन कौन बधधू सुख पाया। 


जिस ननदी से इतना प्रेम था, उसके ससुराल चले जाने पर नायिका 
के बिछोह-जन्य दुःख होना चाहिए, पर वह उलटी प्रसन्न हो रही 


( १४७ ) 


है। इसका कारण यह है कि ननद के न रहने से प्रिय-मिलन में सुविधा 
होगी । 
बिछुरत रावत दुहुन के सखि यह रूप लखैन। 
दुख असुञ्रा पिय नेन हैं सुख अँसुआ्आा तिय नेन ।। * मतिराम ? 
उपयुक्त दोहे में बिछुड़ते समय * पिय ” की आँखों से दुःख के आँधू 
झोर * तिय ? की आँखें से सुल्र के आँसू निकलने का वर्णन है। पति- 
पत्नी से बिछुड़ने के कारण दुखी हे, ओर पत्नी इसलिए, प्रसन्न हे कि अब 
उसे उपपति से मिलने का श्रवसर मिलेगा । 
मुदिता का एक उदाहरण और भी देगिए-- 
माहके के विरह मयंक मुखी दुखी देखि, 
भेद ताके सासुरे की मालिनि बताये है। 
मोपै ठकुराइनि हुकुम करिबोई करो, 
खिजमत करिवो हमारे बॉट श्राये है। 
भोन में तिहारे बाग ताकों हों ह्दी सेवती दों, 
तामें तहखानो सूनो श्रति ही सुद्दाया हे | 
ताकी कोठरीन की अँष्यारी भारी सुनि के सु 
दुलही दुलारी के मह्य री मोद छाये है। 
जब दुलददो ने ससुराल की मालिन के मुँह यह सुना कि वहाँ जो 
मकान उसके रहने को मिलेगा, उसमें एक बाग़ है. और बाग के बोच 
एक सुन्दर तहख़ाना है, तथा उस बाग़ की देख-माल भी उसी मालिन 
के मुपुद है, तो यह जानकर वह ( दुलद्िन ) श्रत्यन्त प्रसन्न हुई । 
सामान्या अथवा गणिका 
गणिका या सामान्या वह स्त्री हे, जिसके जीवन का मुख्य लक्ष्य 
अपना रूप ओर यौवन बेचकर धनसंग्रहद करना होता है। ये गणिकाएँ 
न जाने कितने प्रेमियों को शअ्रपने प्रपंच-पाश में फेसाती रहती हैं। 
उदाहरण देखिए-- 


( शृष्८ ) 


नाचति है गावति है रीकति रिक्रावति है, 
लीवेही की घात बात सुनति न विय की। 
तनकों सिंगारे नेन कज्जल सुधारै अति- 
बार-बार वारै प्रान ऐसी रीति तिय की | 
'गंधर ” सुकवि देतु धन ही के बारबधू 
झ्रोर न विचारे कछू यहे बात जिय की । 
लाल चाहे जिय सों के बाल मेरे ह्िय लागे, 
बाल चाहे हिय सों के माल लीजे पिय की | 
यहाँ लाल ( नायक ) तो इस चेष्टा में है कि बाल ( नायिका ) मेरे 
हृदय से लगे, परन्तु नायिका इस प्रयत्ञ में है, कि जेंसे बने वैसे नायक 
के गले में पड़ी हुई मणि-माला कटकनी चाहिये। 
इसी भाव का एक उदाहरण श्रोर देखिए | इस पद्म में भी नायिका 
नायक से.रक़म वसूल करने का प्रयंच रचती हुईं कहती दे--''मेरे शिर पर 
जो मोतियों की कालर लटक रही है, इसके बीच-बीच में लाल-मगणि 
और द्वोते, तो वह बड़ी श्रच्छी लगती ।” पद्म पढिए-- 
दिंग आय के बैठि सिंगार सजे नख ते सिख ला मुकतालरियों । 
मुसिक्याय के नेन नचाय के गाय किये बस बैन गुलाबरियाँ। 
दरसावति लाल को बाल नई सु सजे सिर मूषण भालरियाँ। 
छुबि होती भमली गज मोती के बीच जो द्वोतों बड़ी-बड़ी लालरियोँ । 
इस विप्रय में नीचे लिखा दोहा भी पढ़िए-- 
तन सुबरन-सुबरन बसन सुबरन उकति उछाह | «७» 
धनि सुबरन में हे रद्दी सुबरन ही की चाह ॥ 
कुछ लोगों ने गणिका दो प्रकार की मानी दे, १--जननी-अ्रधीना 
झोर २--स्वतन्त्रा | किन्हीं किन्दीं ने * नियमा ? नाम से इसका तीसरा 
मेद भी किया हे । 
जननिश्रधीना गणिका उसे कद्दते हैं, जो माता के श्रधीन रह कर 
अपना व्यापार करती है। स्वतन्त्रा से मतलब उस गणिका से है, जो 


( १४६ ) 


स्वतन्त्र रह कर श्रपना पेशा करे। श्रीर नियमा उस गणिका के कहते हैं, 
जो धन के लिए किसी के घर में बैठ गई द्वो | 


प्रकृति के अनुसार नायिका-भेद 


प्रकृति अनुसार नायिका तीन प्रकार की होती हे। १--उत्तमा, 
२--मध्यमा और ३--अधमा । 


उत्तमा 


जो धम-भावना-युक्त उदार स्त्री पति द्वारा श्रपना अह्दित किये 
जाने पर भी, उसका हित नहीं त्यागती और उसके दोषों के देख कर भी 
रोप नहीं करती, बल्कि उन दोषों के छिपाती है, तथा सदैव पति की 
सेवा में संलम् रहती है, उसे उत्तमा कहते हैं। उदाहरण देखिए- 
पाती लिखी सुमुखि सुजान पिय गोविन्द कों. 
श्रीयुत सलोने स्यथाम सुखनि सने रहो। 
कहे  पद्माकर ' तिहारी क्षेम छिन-छिन, 
चाहियतु प्यारे मन मुदित घने रहो। 
ब्रिनती इती है के हमेश हूँ उह्ें ते निज- 
पायन की पूरी परिचारिका गने रहो। 
याही में मगन मनमोहन हमारो मन, 
लगन लगाय मन मगन बने रहो। 
यहाँ उत्तमा नायिका पत्र द्वारा पति देव से निवेदन करती हे कि 
आप मुझे छोड़ कर वहाँ चले गए है. मुझे इसमें भी सन्‍्तोष है। में 
तो आपकी प्रसन्नता में प्रसन्न हूँ । परन्तु इतनी प्राथना अ्रवश्य है कि वहाँ 
रह कर भी आराप मुझे अपने चरणों की पूरी सेविका ही समभते रहें । 
एक उदाहरण ओर भी देखिए--- 
नेनन को तरसेये कहाँ लॉ कहाँ लों हिये बिरहागि में तेये। 
एक घड़ी न कहूँ कलपेये कहाँ लगि प्रानन कों कलपये । 


( १६० ) 


आवे यही श्रव जी में विचार सखी चलु सौति हु के घर जेंये। 

मान घटे तो कह्दा घटि है जु पै प्रान पियारे कों देखन पेये। 

यहाँ नायिका पति के दशनाथ्थ सपकत्नी के भी घर जाने के लिए तेयार 
है। वह कहती हे--'सोत के घर जाने रे मेरा मान घटेगा, सो भले ही 
घट जाय, पर प्राणप्रिय के दशन तो हो ही जायँंगे।"” उत्तमा नायिका 
की केसी भद्र भावना है| वह सौत के घर चले जाने पर न तो पति से 
अप्रसन्न होती है, और न सोत से डाह करती है। उसे तो केवल पति के 
दशन दइष्ट हैं, जिन्हें वह अ्रपमानित होकर भी प्राप्त करना चाहती हे । 


नीचे लिखा दोहा भी उत्तमा नायिका का कैसा उत्तम उदाहरण है, 
नायिका पतिदेव से कहती है-- 


जाको जावक सिर घरयो प्यारे सहित सनेह । 
हमको अञ्जन उचित है तिन चरनन की खेह ।। 
प्राणनाथ, जिसके पेरों में लगा हुथ्रा जावक ( महावर । आप 
अपने मस्तक में लगाते हैं, मुझे तो उसके चरणों की धूलि आँखों मे 
आऑजनी चाहिये | क्‍यों, हे न ठीक ? 
मध्यपमा 
जो स्नेहशीला किन्तु शंकिता ज्ली प्रियएम के दोष देखकर कुछु कोप 
करती हुई उसे व्यंग्येक्तियाँ सुनाती और दुखी द्वोती है, तथा प्रिय के 
साथ व्यवह्ार-नीति बतती है, उसे मध्यमा कहते हैं । 
नाठयशासत्रकार के मत से मध्यमा का लक्षण इस प्रकार है । जो 
परपुरुष की कामना करे, अथवा परपुरुष मुझे चाहे ऐसी इच्छा रखे, 
कामकला में कुशल हो, अ्रचिर क्रोध करे, एवं क्षण में प्रसन्न हो जाय, 
ऐसी स््री मध्यमा कहाती है । 
पद्माकरजी ने मध्यमा का उदाहरण इस प्रकार दिया है--- 
मन्द मन्द उर पै आनन्द ही के श्रॉसुन की, 
बरसे सु बुन्दं मुकुतान ही के दाने सी। 


( १६१ ) 


कहे “ पदमाकर ? प्रप॑ची पंचबान के सु 
कानन के मान पै परी त्यों घोर घानें सी । 
ताजी त्रिवलीन में त्रिराजी छुबि छाजी सबे, 
राजी रोमराजी करि अमित उठाने सी। 
मौंहे देखि पीकों बिहँसोंहे भए दोऊ दृग, 
सोहें सुनि भौहें गई उतरि कमाने सी। 
नायिका कुपित होकर, पति से न बोलने का विचार कर, भौंहें चढाए 
ब्रेठी थी, परन्तु ज्योंदी प्रिय समीप आया, त्योंह्ी उसकी श्राँखों में बरचस 
प्रसन्नता कलकने लगी, और पति के शपथ खाने पर तो उसका कोए 
काफूर ही हां गया ! इस प्रसंग में मतिरामजी का नीचे लिखा पत्र 
भी देखने लायक है-- 
ग्रायो प्रानपति राति अनते बिताइ बेठी 
भोंदनि चढ़ाइ रेंगी सुन्दरि सुहाग की। 
बात न बनाइ परयो प्यारी के पगनि आइ, 
छुल सों लिपाइ छेल छुबि रति-दाग की | 
छूटि गये। मान लगी आपह्दी संबारन को. 
खिरकी सुकवि * मतिराम ' पिय पाग की | 
रिस् ही के श्राँतू भए श्रानंद के आँखिन में, 
रोप की ललाई सो ललाई अनुराग की। 
प्राययपति के कहीं दूसरी जगह रात बिताकर आने पर, नायिका के 
नेत्र रोष से लाल हो गए, और उनमें श्राँध्‌ उमड़ श्राए | पर जैसे ही 
नायक नायिका के बातों में बहलाकर उसके पैरों में गिरने लगा, तेसे ही 
मानिनी की आँखों में मरे दुःख के आँसू आनन्द के आँसू बन गए, और 
कोप की लालिमा अनुराग की अ्ररुणिमा में बदल गई । वह अपने हाथों 
से पति की बिखरी हुई पगड़ी के पेच संभालने लगी । यहाँ प्रिय के 
अपराध करने पर नायिका का क्रद्ध होना ओर उसके पैरों पड़ने पर प्रसन्न 
हो जाना यही व्यवद्दार-नीति हुई । 
हिल न०--११ 


( १६२१ ) 


इस प्रसंग में नीचे लिखा दोहा भी देखने योग्य है--- 
रक्यो मान मन को मनहिं सुनत कान के बैन । 
बरजि बरजि हारी तऊ रुके न गरजी नेन॥ 
पति के शब्द सुनते ही नायिका का मान मन का मन ही में रह गया | 
उसने अपनी आँखों को बहुतेरा रोकना चाहा, पर मला वे क्‍यों रुकने 
लगी थीं । वे तो दशनों की गरज़ मन्द थीं। 
अधपा 
जो स्त्री अपने प्रियतम के प्रेम-पू्ण व्यवहार के बदले में भी उसका 
अहित तथा श्रपमान करती है, वह अधमा कद्दाती है । 
नाटय-शास्त्रकार ने अरकारण क्रोध करने वाली, दुष्ट प्रकृति, कटु- 
भाषिणी, गुरुमानवती, पति से विरुद्धाचरण करने वाली स्त्री के अ्रधमा 
कद्दा है । उदाहरण देखिये-- 
दबक्यो रहे नाह गुनाह बिना गुन गावै सदा मुख आाखर में। 
अति सज्जन साधु महा मनको जु बिना अपराध धरे भर में। 
सपनेदू न आन तिया सुमिरे तबहूँ नहिं सेज में नीकी रमें। 
तरपै नित बिज्जुलि-सी पिय पै झरपे कमनाय सचत्रै घर में । 


अधमा नायिका के डर के मारे नायक बिना अपराध किये भी छिपा 
रहता हे। वह बेचारा इतना सीधा-सादा हे कि दर समय पत्नी केही 
गुण गाया करता है, कभी स्वप्न में भी परस्त्री का ध्यान नहीं करता, 
तो भी नायिका उस पर भल्‍लाती-मुभलाती ही रहती है । बेचारे को कभी 
प्रेम-दृष्टि से देखती तक नहीं । 
कविवर लछिरामजी अ्धमा के सम्बन्ध में क्या कहते हैं, देखिये--- 
बसन संवारे ते कमकि भहराति ठाढ़ी, 
बाढ़ी रोष सरि मन बोरते रहति हैं। 
सौरभ सुधारे ते अ्रकेली हे उचकि जाति, 
भूषण हबेली तें बिथोरते रहति है। 


( १६३ ) 


कवि 'लछिराम” ऐसी बाम में न देखी बाम, 

घीरज तिरीछे नेन तोरते रहति है। 
ज्यों-ज्यों करजोरि के निद्दोरत किसोर त्यों-त्यों, 

मोरि मुख भोदिनि मरोरते रहति है। 


बेचारा पति नायिका के वस्त्र सभालता है, तो वह उस पर भुभलाती 
हे । आभूषण संभाल कर रखता है, तो उन्हें इधर-उधर बखेर देती है। 
ऐसी उलटे स्वभाव की स्त्री है, कि खुशामद करने पर भी उसका मंह 
सीधा नहीं होता, जब देखो तब टेढ़ी निगाह से ही पति के प्राण सुखाती 
रहती हे । 


जाति के अनुसार नायिका-भेद 
जाति के अनुसार नायिका के चार भेद माने गये हैं। १--१द्मिनी, 
२-चिशत्रिणी, ३--शंखिनी और ४-- हस्थिनी । 
पश्मिनी 


जो स्त्री अत्यन्त सुन्दरी, सुकुमारी श्र श्रल्प रोमवती हो, जिसके 
शरीर में पद्म-पुष्प की-सी गन्ध ञ्राती हो, तथा संगीत से जिसे अधिक 
अनुराग हो, उसे पद्मनी कहते हैं । 


उदाहरण देखिये-- 
तन सुबास दहग सलज्ञ सुभ-मन सुचिकरम पुनीत । 
इन सुबरन बरनी लई जगत निकाई जीत ॥ 


चित्रिणी 
नाचने-गाने एवं इंसी-मज़ाक मे रुचि रखने वाली, शीलवती, अल्प 
खज्जा युक्त विचित्र प्रकृति स्त्री को चित्रिणी कहते हें | इसका मुख मणढल 
चित्र के समान, शरीर मक्योला, नाक तिल के फूल जेसी भौर नेत्र नील 
कमल-सदृश होते हैं 


( १६४ ) 


उदाहरण --- 
मित्र नाहि चितवत कहीं चित्र रही चितलाय | 
पत्नी हेरति है काऊ पत्री सनमुख पाय ॥। 
शंखिनी 
जिस स्त्री करा शरीर कृश, स्वभाव निलेज्ज, घमणठी और क्रोधघी 
होता है, उसे शंखिनी कद्दते हैं । इसका कए्ठ शंख के समान तीन रेखा 
युक्त होता है। निम्नलिखित दोदे से शंखिनी का लक्षण और भी सुस्पष्ट 
हो जाता दे-- 
देह छीन, मोटी नसे, कुच लघु निलज-निसंक । 
कोपवती नख दन्‍न्त रुचि शंखिनि पीके अंक ।|। 
उदाहरण देखिये-- 
सनख हिये लखि लाल के यह मन होत संदेह | 
नखन खोदि चाहति किये लालन के हिय गेह॥ 
प्रिय के हृदय पर नखक्षुत देखकर ऐसा सन्देह होता है, मानो नायिका 
नखों से खोदकर नायक के द्वृदय में घर करना चाहती है। 


हस्तिनी 


जो स्त्री स्थूल, अधिक रोमों वाली, क्रोधिन, उम्र स्वभावा श्रौर हाथी 
के समान भूम-भूम कर चलने वाली होती है, उसे दस्थिनी कहते हैं, जेसा 
कि निम्नलिखित दोददे में भी बताया गया है-... 
थूल अंग लोमन छायो गोरी भूरे केस । 
गजगोनी दुरगंधिनी भनी दस्तिनी भेस '। 
इस्थिनी का उदाहरण देखिए-- 
रेंगनि मोटी गोरठी जोबन मद एंड्राति । 
सखिन संग गजगामिनी चली ठवनि सों जाति ॥ 


कुछ साहित्यकारों ने वर्णानुसार नायिका के निम्नलिखित भेद और 


( १६५ ) 


भी किये हैं | १+--दिव्य अर्थात्‌ देवतिय । २--श्रदिव्य यानी नरतिय । 
३--दिव्यादिव्य श्रर्थात्‌ संसार में जन्मी हुई देवतिय । 
नायिकाओं के अन्य दश भेद 

अवस्था ( परिस्थिति ) के विचार से नायिक्राश्रों के दश भेद 
किये गये हैं, जो इस प्रकार हैं। १--प्रापितपतिका, २--खरिडता, 
३--कलहान्तरिता, ४--विप्रलब्धा, ४--उत्कण्ठिता, ६--वासकसज्जा, 
3-स्वाधीनपतिका, ८-अभिसारिका, ६-प्रवत्स्यत्ततिका और 
१५०-- आगतपतिका | 


साहित्य-दपंणकार ने अवस्था के विचार से केवल आठ ही भेद 
माने हैं । उन्होंने प्रवत्स्यत्वततिका और शआगतपतिका इन दो नायिकाश्रों 
का उल्लेख नहीं किया। नाटय शाख्त्रकार मरत मुनि भी साहित्य-दपंणकार 
की भाँति आ्राठ ही भेद मानते हैं । 

उपयुक्त भेद स्वकीया १--सुस्धा, २-मध्या, ३--प्रौढ़ा परकौया 
और सामान्या नायिकाश्रों में होते हैं । 

प्रापितपतिका 

जो नायिका पति के परदेश चले जाने के कारण, विरह-व्यथित दह्वो, 
केश-प्रसाघनादि शंगार न करती हो, वह प्रोषितपतिकरा कहाती है। यह 
पाँच प्रकार की द्ोती है--मुग्धा प्रोषितपतिका, मध्या प्रोषितपतिका, प्रौढा 
प्रोषितपतिक्रा, परकीया प्रोपितपतिका और सामान्‍्या प्रोषितपतिका । 


मुग्धा प्राॉपितपतिका 
इस नायिका में मुग्धा ओर प्रोषितपतिका दोनों के लक्षण मिलते हैं । 
पद्माकरजी का उदाहरण देखिए, 
माँगि सिख नो दिन की न्योते गे गोविन्द तिय, 
सौ दिन समान छिन जान अ्रकुलाबे है । 
कहे 'पदमाकर! छुपा कर छुपाकर तें, 
बदन छुपाकर मलीन मुरभावे हे। 


( १६६ ) 


बूकत जू कोऊ के कह्दा री भयो तोंहिं तब -- 
ओर ही की और कछू बेदना बतावे हे । 
श्रॉसू सके मोचि न सकोच बस आलिन में 


उलही विरह-बेलि दुलद्दी दुरावे है | 
>< ८ ८ 


नायिका श्रपनी विरह-जन्य वेदना को छिपाती रहती है, उसका 
शरीर सूख कर कॉटा-सा बनता जाता हे। वह सखियों पर अपना यह 
रहस्य प्रकट नहीं करना चाहती, इसी लिए. बड़ी मुश्किल से उनके आगे 
अपने आँसू रोक पाती है । 
देखिये, द्विजदेव की नायिका किस प्रकार मनोज के हवाले पढ़ी 
हुई हे-- 
पति प्रीत के भारन जाती उने मति ख्बे दुख भारन साले परी। 
मुख बात तें होतो मलीन सदा सोई मूरति पौन के पाले परी। 
'द्विजदेव अद्दो करतार ! कछू करतूति न रावरी आले परी। 
वह नाहक गोरी गुलाब कली-सी मनोज के हाय हवाले परी। 
देखते हो, विरह-ताप से उस नायिका की क्‍या दशा हो रही है ! 
कामदेव के काबू में पड़ कर वह गुलाब कली-सी कमनीय कान्‍्ता किस तरह 
भस्म हुई जाती दे ! हवा दुर्दव ! तेरी विचित्र गति जानी नहीं जाती ! 
>८ ८ >< अर 
इसी प्रसंग में नीचे लिखा दोहा देखिये--- 
वे ही कदम कलिन्दजा वे ही केतिक कुंज । 
सखि, लखिए घनस्थाम बिन सब में पावक-पंज ॥| 
मध्या प्रोपितपतिका 
इस नायिका में मध्या और प्रोषितपतिका दोनों के लक्षणों का 
मिश्रण होता दे | उदाहरण देखिए-.- 
चन्द कौ उदोत होत नेन चन्द कान्त कन्त-- 
छायो परदेस देह दाहनि दहतु दे । 


( १६७ ) 


उसीर गुलाब नीर करपूर परसत 
बिरहा अ्रनल ज्वाल जालनि जगतु है। 
लाजनि ते कलछ्ु न जनावै काहू सखिन सों, 
उर को उदारि श्रनुरागि उमगतु है। 
कद्दा कह्दों मेरी वीर उठि हे अ्रधिक पीर, 
सुरभिन्समीर सीरो तीर सो छगतु है। 
क्‍या किया जाय, विरहताप के मारे नाक में दम है! सारे शीतल 
उपचार व्यथ सिद्ध हो रहे हैं, सुगंधित समीर जिससे शान्ति मिलनी 
चाहिए, शरीर में तीर के समान लग रहा है | 
पह्माकरजी ने मध्यवा प्रोपितपतिका का उदाहरण इस प्रकार दिया है -- 
ऊबत हौ ड्रबत हो, डगत हो. डोलत हो, 
बोलत न काहे प्रीति रीति न रिते चले । 
कहे 'पदमाकर' त्यों उससि उसासनि सों 
आँसू हे अपार आय आँखिन इते चले | 
ग्रोधि ही के श्रागम लों रहते, बनें ता रहो, 
बीच ही क्‍यों ब्रेरी बद बेदना ब्रिते चले । 
एरे मेरे प्रान प्रानप्यारे की चलाचल में, 
तब तो चले न, श्रब चाहत किते चले । 
जब प्राणनाथ परदेश गये तब तो मेरे प्राण निकले नहीं, परन्तु अ्रव 
उनके पीछे उन्होंने चलने की ठानी है । श्ररे भमलेमानसो, उनके आने तक 
तो ठहरो, उनकी अवधि तो पूरी हो जाने दो ! 
प्रीद्ा पोषितपतिका 
नीचे लिखे कवित्त में गुलाब कविजी ने प्रौढ़ा प्रोषितपतिका का 
कैसा विचित्र चित्र खींचा हे, देखिए-..- 
छै है बकमए्डली उमंडि नभ-मण्डल में 
जुगुनू घुमंडि ब्रज नारिन जरेहें री। 


( शृ६८ ) 


दादुर मयूर झोने भींगुर मचेहें सोर, 
दोरि दोरि दामिनी दिसा न दुख देह री। 
सुकबि “गुलाब? हे हैं किरचि करेजनि की, 
चोकि चौक चोपन सों चातक निचेहेंरी। 
हंसन सों हंस उड़ि जेहें ऋतु पावस में, 
ऐ हैं घनस्याम घनस्याम जो न ऐस्‍ ह हैंरी। 
अरी सखी. वषा ऋठु में श्याम घन तो उमड़-घुमड़ कर शआबव ही गे, 
पर यदि घनश्याम ( कृष्ण ) न आए तो सच समभना, ज्ज-नारियों 
के हंस ( प्राण ) हंसों की भाँति उड़ जायगे। जिस समय पावस की काली 
रात में जुगुनू चमकेंगे, मोर मटक-मटक कर नाचेंगे, फींगुर मिंगारंगे, 
और पापी पपीहा पीउ-पीउ पुकारेंगे, भला उस समय विरहिणी व्रज-बालाश्रों 
के दृदय टुकड़े-टुकढ़े हुए विना रह सकेंगे ? 
नींछे लिखा कवित्त प्रोपितपतिका का कितना उत्कृष्ट उदाहरण है-- 
कंचन में श्रॉँच गई चूनि चिनगारी भई. 
भूषन भए. हैं सब दूषन उतारि ले | 
बालम बिदेस ऐसे बेस मं न लागि आगि, 
बरि बरि हियो उठो बिरह वयारि ले। 
एरी परघर कित माँगन को जेहे आजु, 
आँगन में चन्दा ते अंगार चारि झारिल 
साँक भए भ्ोन समवाती क्‍यों न देति श्राली ' 
छाती ते छुवाय दीया-बाती क्यों न बारि ले | 
कोई प्रोषितपतिका अश्रपनी सखी से कद्दती हे - सखी, मेरे शरीर के 
ताप से सोने के आभूषण इतने गरम हो गए हैं कि उनम॑ लगी हुईं 
चुज्ली ( नग ) चिनगारी बन गई हैं। अरी तू आग लेने के लिए पराए 
घर क्यों जाती दे, चन्द्रमा में, से चार अँगारे क्‍यों नहीं कार लेती | वह 
भी तो आज ख़ूब दहक रहा हे । ओर चन्द्रमा में से भी श्रेंगारे कार 


( १६६ ) 


कर क्या करना है, दीपक ही तो जलाना है ? सो वह तो मेरी छाती से 
छुवाने पर ह्टी जल उठेगा ! 


परकीया प्राषितपतिका 


इसके लक्षण नाम से ही स्पष्ट हें। उदाहरण में मतिरामजी का 
नीचे लिखा सवेया देखिए-- 


दाँ मिलि मोहन सों 'मतिराम!” सुकेलि करी श्रति आनंद भारी। 
तेई लता-्रुम देखत दुःख भये असुवा श्रेंखियान ते जारी। 
आवति हों यमुना-तट को नहिं जानि परे बिछुरे गिरधारी। 
जानति हों सखि श्रावन चाहत कुंजन ते कढ़ि कृजबिहारी । 
अभिसार-स्थान देग्व कर नायिका को केलि की स्मृति हो आई, 
ओर उसकी श्राँखों से आँसू गिरने लगे | वहाँ उसे ऐसा अनुभव होने 


लगा, मानो श्रभी इधर-उधर के किसी कुज मेंसे निकल कर कंजविद्वारी 
आते हैं। 
इस प्रसंग में कविवर घनानन्दजी का उदादरण भी देखने योग्य है-- 
एरे वीर पौन तेरों चहुँ ओर गौन यासों, 
तेरे सम कौन मेरे बैन सुन कान दे। 
जगत के प्रान बढ़े छीटे को समान घन-- 
श्रानंद निधान सुखदान दुखियान दें। 
रूप उजियारे गुनबारे वे सुजान प्यारे 
अब हो अ्मोही बैटे पीढि कै श्रयान दे । 
बिरह-ब्रिथा की मूरि श्राखिन में राखों पूरि, 
हा-हा तिन पायन की धूरि नेक शआरान दे । 


अरे पावन पवन, ओर नहीं तो प्राणप्यारे के पैरों की धूलि ही 


उड़ाकर मेरी आँखों मं डाल दे। इसी से मुझे बड़ा सन्‍्तोष मिलेगा | इस 
धूल को ही में विरह-व्यथा की श्रोषधि समभुंगी। 


( १७० )ै 


मतिरामजी का नीचे लिखा दोहा भी कितना उत्कृष्ट है, देखिए--- 
लाज छुटी गेहो छुटयो, मुख सों छुटयौ सनेह । 
सखि, कहियो व निद्ठर सों रही छुटिवे देह ॥ 
है सखी, उस निटठुर नायक से नेह जोड़ कर लाज से हाथ धोए, घर- 
बार छोड़ा, अब उसके परदेश चले जाने से प्रेम भी छूट गया ! श्रब तो 
बस देह छूटनी ही श्रोर शेष रह गई है । 


खण्डिता 

जो नायिका अ्रन्य नारी संभोग-जनित रति-चिन्हों युक्त पति को प्रात: 
समय घर आया देखकर उससे कुपित होती है, उसे खण्डिता कहते हैं । 

नादय शासत्रकार खशिडिता की परिभाषा इस भाँति करते हँं--जो 
नायिका वस्त्रालंकारों से सुसज्जित होकर पति के आगमन को प्रतीक्षा 
में बेठी हो, परन्तु पति अन्य स्री पर आसक्त होने के कारण, उसके पास 
न ग्रावे, उस समय दुखी होने वाली नायिका खण्डिता कह्दाती है। 

खण्डिता भी मुग्धा, प्रोढ़्ा आदि भेदों से पाँच प्रकार की होती हे । 
इन सब में अपने-अपने लक्षणों के साथ खण्डिता के लक्षण मिश्रित 
रहते हैं। नीचे पाँचों प्रकार की खण्डिताओ्ों के उदाहरण दिये 
जाते हें... 


मुग्धा खण्डिता 
बाल सखिन की सीखते मान न जानति ठानि। 
पिय बिन झागम भोन में वेठी भोहें तानि॥ 


मतिरामजी कह्दते हैं कि बेचारी मुग्धा खण्डिता स्वयं तो मान करना 
जानती ह्टदी नहीं, सखियों के सिखाने पर भी उसे मान करना नहीं आ्राता । 
जब सखियाँ उसे बहुत सिखाती-पढ़ाती हैं, तो वह पति की अनुपश्थिति में 
ही--शून्य घर में भोहें चढ़ा कर ब्रैठ जाती हैं । 

मुग्धा खणिडिता के उदाहरण में पाकरजी के नीचे लिखे पद्म पढने 
योग्य हैं-. 


( १७१ ) 


खाये पान-बीरी-सी बिलोचन बिराज आज, 
अंजन अ्जाये अ्रधराधघधर अमीके हैं। 
कहे * पदमाकर ? गुनाकर गोविन्द देखो 
आरसी ले श्रमल कपोल किन पीके हैं। 
ऐसो अबलोकिबेई लायक मुखारबिन्द, 
जाहि लखि चन्द्र ग्ररबिन्द होत फीके हैं । 
प्रेम रस पागि जागि श्राये अनुराग माते, 
ग्रव हम जानी के हमारे भाग नीके हें। 
श्राप प्रेम-रस म॑ं पग और रात-भर जग कर अब सुबह यहाँ आए हैं। 
बड़ी खुशी की बात है ! पधारिए, अच्छा हे, आपने आकर मेरे सौभाग्य- 
सूय को चमका दिया !' 
और देखिए-- 
मंदिगो मयंक परियंक पे परी है कहा 
आजुकी घरी को यह आनंद निहारे किन । 
कहे 'पदमाकर? त्यों रंग में रंगीलेई-- 
छुबीले छेल ऊपर फबीले चौर दारै किन | 
एड्टो सुखदान प्रान प्यारे को बखान करो 
प्यारी पलकनि तें पगनु धूरि भारे किन । 
मंगलामु । के बंगला ते प्रात आए रंग -- 
लालन को देखि मंगलारती उतारे किन । 
अ्ररी बावली, तू श्रभी पलेंग पर ही पड़ी है। उठ, देख चन्द्र छिप 
गया, सबेरा होगया, इधर मंगलामुखी के बंगले से लालन भी श्रागए, 
इनकी छुबीली रंगत तो देख ले। खेर, ला भठपट आरती का सामान ला, 
इनकी आ्रारती तो उतार ले । 


मध्या खण्डिता 
मध्या खण्डिता के सम्बन्ध में मतिरामजी का उदाहरण देखिए -- 
जावक लिलार श्रोठ श्रंजन की लीक सोदे, 
पैयन अलीक लोक लीक न बिसारिये । 


( १७२ ) 


कवि “ मतिराम ” छाती नखक्षत जगमगे, 

डगमगे पग सूधे मंग में न धारिये। 
कस के उघारत हो पलक पलक यातें, 

पलका में पोढ़ि सम राति को निबारिये। 
अटपटे बैन कछु बात न कहत बने, 

लटपटे पेच सिर पाग के सुधारिये। 


जाइये वह पलंग पड़ा हे, उस पर सोकर थकावट दूर कर लीजिए ! 
उल्टी-सुल्टी पगड़ी को तो सभालिए, आम्विर यह आपकी हालत क्या हो 
रही हे ! 
कवि गोकुलजी का भी नीचे लिखा कवित्त मध्या खण्टिता का सुन्दर 
उदाहरण हे-- 
ग्राए. उठि प्रात अंगिरात है जम्हात जात, 
पंकज से नींद भरे लोचन भूपकि रहे। 
मरगजे बागे, लागो अंजन अधर भाल--- 
जावक, सुमन-हार हियरे चपकि रहे। 
'गोकुल” सनेह-भरे हिये तेह तपनि के, 
ग्राखर फुलिंग ऐसे ग्रोब्न लपकि रहे । 
देखि छुत्रि बोलते न लाज भरी घृषट में, 
बड़ी-बड़ी श्राँखिन ते अँसुञ्रा टपकि रहे | 
अन्यत्र केलि कर के आये हुए नायक की दशा देखकर नायिका बड़ी 
दुःखित होती हे, ओर उसकी आँखों से श्रॉसू टपक पड़ते हैं । 
कोऊ करे कितेक हु तजों न टेक गोपाल । 
निसि औरन के पग परी दिन ओरनि के लाल |--“मतिराम' 
है नन्‍्दलाल, ठुमसे चाहे कोई कितना द्वी क्‍यों न कहे, पर तुम 
अपनी आदत नहीं छोड़ते | रात में तो ग्रैरों के पैरों में जाकर पड़ते हो, 
श्रीर दिन में ओरों के । 


( शरै७करे ) 


ग्रब प्माकरजी का भी एक उदाहरण देख लीजिए--- 


झ्याल मन भाए कहूँ करिके गोपाल घरै, 
आए. अ्रति श्रालस भरेई ब्रढ़े तरके | 
कहे 'पदमाकर! निहारि गज-गामिनी के, 
गज मुकुतान के हिये १ हार दरके। 
एते पै न आनन हे निकरे बधू के बेन. 
अधर उराहने सुन-दीबे काज फरके | 
कंघन तें कंचुकी भुजान तें सु-बाजूबन्द, 
पाचन ते कंकन हरेई हरे सरके | 
जब रात-भर मनमानी मौज मार के अलसाए हुए मोहन बड़े सबेरे 
घर आ्राए, तो उन्हें देखकर नायिका मन में अत्यन्त दुखी हुई, परन्तु 
उसके मुँह से उलाइना देने के लिए एक शब्द भी न निकला ! केवल ओढ 
हिल कर रह गए | 


प्रोंद्ा खण्डिता 


नीचे प्रोढ्ा खण्डिता का एक सुन्दर उदाहरण दिया जाता है| 
देखिए--. ह 
कानन ते भोर भए. आए हो सुजान कान्ह, 
झानन की आभा आनि भाँति पेखियतु हैं | 
बिन गुन माल उर उघरी गुपाल लाल, 
लाल लाल ञँख कोन लेखे लेखियतु है। 
सुन्दर अधघर पर पीक की लसति लीक, 
बीच कारे काजर की रेस् रेखियतु है। 
एते पर कहत कि देखे तब कहो ये जू , 
आगि लगी कोऊ का दिया ले देखियतु है । 


सारे चिन्हों से तो प्रतीत होता है कि तुम केलि कर के आए हो, छिर 
भी कहते हो कि देख लो तब कहना ! स्पष्ट तो देख रही हूँ, ओर केले 


( १७४ ) 


देखा जाता है। क्‍या कहीं आग लगने पर उसे दीपक लेकर देखा 
करते हैं । 
कविवर वैनी प्रवीननी का नीचे लिखा सवैया भी प्रौढा खण्डिता 
का सुन्दर उदाहरण है-- 
भोर ही न्योति गईं ती तुम्हें वह गोकुल गाँव की ग्वालिनि गोरी । 
आधिक राति लो 'बैनी प्रवीन” कहा ढिंग राखि करी वरजोरी | 
आवे हँसी इमें देखत लालन ! भाल में दीनी महावर घोरी। 
एते बड़े त्रज-मण्डल में न मिली कहूँ माँगे हू रंचक रोरी। 


अन्य री के साथ केलि कर आए हुए नायक के माथे पर महावर 
का दाग्र देखकर नायिका व्यंग्य से कहती है, इतने बड़े त्जमणडल में 
क्या तुम्हें कहीं ज़रा-सी भी रोरी नहीं मिली, जो उस निगोड़ी ने महावर 
से तिलक किया हे !! 
परकोीया खण्डिता 
परकीया खण्डिता के उदाहरण में नीचे लिखा बनी प्रवीनजी का 
कवित्त देखने लायक हे-- 
कह्दा कह्दों प्यारे कछू कहिबे की बात नाहिं, 
बातन बनाइ मन धीर लाइयनु है। 
आठट्टू पहर हरि ह॒उहरि हिये में हम, 
रावरे < प्रवीन बैनी ” गुन गाइयतु हे। 
थाह जो नदी है तामें नाव को उपाव कहाँ, 
अथादह नदी में पेरि पार पाइ्यतु है। 
आपनी हमारी यह समुक न देखे बूमि, 
जहाँ रैनि चाहे तहाँ भोर आइयतु है । 
वाह, में तो हर वक्त तुम्हारी प्रशंसा के ही गीत गाती रहती हूँ, तुम्द्दारी 
ही रटना लगाये रहती हूँ, श्रोर तुम्दारा यह हाल कि जहाँ रात को आना 
चाहिए वहाँ तुम सुबद आते हो !! 


( १७४ ) 


द्विजदेवजी ने परकीया खण्डिता का निम्नलिखित उदाइरण दिया है-- 
बाँके संक हीने राते कंज छुबि छीने माते, 
भुकि-भुकि भूमि-भूमि काहू को कछ्ू गनेन । 
'द्विजदेव” की सों ऐसी बनक बनाइ बहु-- 
भाँतिन बगारे चित चाह न चहूँधा चेन । 
पेखि पेर जात जौ पै गात न उछाह भरे, 
बार-बार ताते तुम्हें बूकती कछूक बैन । 
एड्टो व्रजराज ! मेरे प्रेम धन लूटिबे को, 
बीरा खाइ श्राए किते श्रापके श्रनांखे नेन । 
कहो व्रजराज, मरे प्रेम-धथन को लूटने के लिए आपकी श्रोंखों ने 
कहाँ वीरा खाया हे ! श्र्थात्‌ वह किसके साथ रास-रंग करते हुए रात-भर 
जागने के कारण लाल हो रही हैं ! 
कलहान्तरिता 
जो स्त्री प्रिय का अपमान करके पीछे पछुताती है, उसे कलह्ान्तरिता 
कहते हैं । 
नाटय शास्त्रकार ने--जिसका प्रियतम ईर्ष्या ग्रथवा कलइ के कारण 
उसके पास न आता हों, ऐसी क्रोधावेश के कारण सन्‍्तप्त रहने वाली स्त्री 
को कलह्ाान्तरिता कह्दा है | 
यह भी मुग्धा, मध्या, प्रौढ़ा, परकीया ओर सामान्या भेद से पाँच 
प्रकार की हे | 
मुग्धा कलहान्तरिता 
जिस्म मुग्धा और कलह्ान्तरिता दोनों के लक्षण पाए जायें वह मुग्घा 
कलह्ान्तरिता होती हे | उदाहरण देखिए. 
वा दिन वा मँडवा के तरे जेहि के संग भाँवरि आ्रानि सो खेली । 
श्राय अचानक दी अँखिमीचनो तादि रच्यो लिए साथ सद्देली । 


( १७६ ) 


मेरे दी संग छिप्यो चाहे कुंज रिसाय के में भई तासों अ्रकेली । 
आयो यही पछितायो अली गयो आजु को खेलिवौ कुंज चमेली | 
उस रोज़ मंडप के नीचे जिसके साथ भावर फिरी थीं, वही नायक 
आज आँखमिचोनी खेलते समय मेरे साथ ही छिपना चाहता था, पर 
में नाराज़ होकर उससे अ्रलग द्वो गयी । परन्तु हाय, मेरे ऐसा करने से 
ख्राज उसके साथ चमेली कृजों में खेलना दी गया ! 
नीचे लिखा सवेया भी मुग्धा कलह्ाान्तरिता का सुन्दर उदाहरण है --- 
लखि लाल लजाय रही ललना कहि सुन्दर न्रेठि अलीगन में | 
हरि हारे बुलाय न बोली जबे, तब तेऊ गए. उठि के बन में। 
करते इतनी तो करी पहले पुनि केसी तची है तिया तन में । 
कहिके न सके सखिहू सों कछू पछुताति महा मन ही मन में । 
पइले तो ललना लाल को देखते ही लज्जित होगई ओर सखियों में 
ना नैठी | जब दरि के बार-बार बुलाने पर भी न आई तो वह भी उठकर 
बन की ओर चले गए । भोली बाला करते तो यह कर बैठी, परन्तु पीछे 
मन दी मन पछताती है। अ्रपनी मुग्धघता के कारण बेचारी मन की व्यथा 
सख्तियों से भी नहीं कह सकती | 
इसी प्रसंग में देव कवि का नीचे लिखा पद्म भी पढ़ने लायक़ है-- 
सखी के सेकोचे गुरु सोच मृगलोचनि-- 
रिसानी पिय सों जु उन नेकु हँसि छुबो गात। 
*देव? वे सुमाय मुसुक्याय उठि गए, इहिं--.- 
सिसकि-सिसकि निसि खोय रोय पायो प्रात । 
कोन जाने बीर, बिन बिरही बिरह बिथा, 
हाय-हाय करि पछिताति न कछु सुदात । 
बड़े-बड़े नेननि ते आँसू भरि-भरि ढ़रि, 
गोरो-गोरो मुख आज श्ओोरो-सो बिलानों जात । 
पहदक्के तो नायक के ज़रा शरीर छु लेने पर नायिका आगबबूला 
हो गयी, ओर अब पछुताकर रोती दै। मारे दुःख के बेचारी नेत्रों से 


( १७७ ) 


अविरल अशभ्रुधारा बहा रही है | उसकी आँखों से लगातार आँधू बहते 

देख ऐसा प्रतीत होता है, मानो उसका गोरा मुख-मश्ढठल एक बढ़ा-सा 

ओला है, जो पिघल-पिघल कर आँसुओ्रों के रूप में बहा जाता है। 
मद्दाकवि मतिराम का दोहा भी देखिए -- 


आई गोने काल्दहि ही सीखे कहा सयान । 
अबह्ीं ते रूमन लगी श्रबहीं ते पछितान ॥ 


मध्या कलहान्तरिता 


इसमें मधष्या ओर कलहान्तरिता दोनों के चिन्ह रद्दते हैं। देखिए, 
कवि रघुनाथ इसका केसा सुन्दर उदाहरण देते हं- 


सुरति के चिन्ह भावते के भाल-उर लखे, 

कोप भरे जोबन के ओप भरे तन में। 
केलि के महल सों बहानो करि बैठी आय, 

एहो ' रघुनाथ ” हे उदास गुरुजन में। 
कहा कहों भट्ट उठी इतने में घन-घटा, 

बकन की पाँति सो दिखाई दीन्ही घन में। 
तब तो श्रयान बस कीन्हे मान गुन गोरि, 

अब सुखदानि पछितान लागी मन में। 


पहले तो अपने यौवन और सौन्दय के अ्रभिमान में, नायक से उदासीन 
होकर, केलि-भवन छोड़कर चली आई--मान कर बैठी, परन्तु श्रव जब 
काली-काली घन-घटाएँ उमड़-घुमड़ कर घहराने लगीं और उनमें श्वेत 
बलाकाओं की पाँति उड़ने लगीं, तब प्रिय का वियोग श्रखरने लगा । पहले 
तो अशानवश मान किया, परन्तु अब वह मान मिट्टी में मिल गया ! औ्रौर 
नायिका मनही मन पछुताने लगी । 

कवि मतिरामजी का निम्न लिखित खवेया भी मध्या कलहान्तरिता 
का उत्कृष्ट उदादरण हे-- 
हि० न०--११ 


( १७८ ) 


पॉयन श्राय परे तो परे रहे, केती करी मनुहारि सुद्देली । 
मान्यो मनायो न में 'मतिराम” गुमान में ऐसी भई अलबेली | 
प्यारो गये दुख मानि कहो श्रब कैसे रहाँ इृद्दि राति अ्रकेली । 
आपु ते ल्याउ मनाइ कन्हाई कों मेरो न लीजिये नाम सहेली । 


नायक ने मेरे पेरों में पड़ कर मुके मनाना चाहा, बड़ी मिन्नत- 
खुशामद की; परन्तु मेंने उस समय अपना मान नहीं छोड़ा | श्रव वह रूठ 
कर कहीं चला गया, श्री सखी ! तू ही उसे बुला ला, देख मेरा नाम न 
लेना, नहीं तो वह दरगिज़ न आवेगा | 


प्रोद्ा कलहान्तरिता 
हनुमान कवि ने प्रोढ़ा कलद्दान्तरिता का उदाहरण यों दिया है-- 
. बैठी रति-मन्दिर में सुभग बनाए बेस, 
जाके रूप आगे रति-रूप हू निदरिगों। 
त्ये। तहाँ लाल तासों बोली नाँहिं बाल, 
नेक ऐसो कछू अकस अखारो आनि अरिगो | 
एते मॉक रूसि “हनुमान” मनभावन गो, 
लागी पछितान प्रेम-पंज यों पसरिं गो । 
कानन ते पैठि हिय बसो हो जु मान सोई -- 
हाय इन श्राखिन ते श्रॉयू हे निकरिगो। 


नायिका सब तैयारी किये रति-मन्दिर में ब्रैठी थी, परन्तु जब नायक 
वहाँ आया, तो बाला उससे बोली नहीं । यह देख नायक भी रूठ कर चला 
गया | अरब तो नायिका पछुताने लगी, और जो मान कानों के रास्ते 
कर हृदय में घुस बेठा था, वद्दी अब आँखों के रास्ते श्राँस्‌ बनकर 
(नकल पड़ा, श्रर्थात्‌ नायिका रोने लगी ! 


देव कवि का नीचे लिखा सवैया प्रोढ़ा कलद्वान्तरिता का उत्डृष्ट 
उदाइरण दे | देखिए-- 


( १७६ ) 


वैरिनि जीमहिं काटि करों मन द्रोह्ठी को मीजिकै मौन धरोंगी । 

जाने को देव” कहा भयो मोहिं लरी कहें लोक में लाज मरौंगी | 

प्रानपती सुख सवस वे उन सों गुन रूप को गय॑ करोौंगी ! 

अंजुलि जोरि निहोरि गरे परिहों हरि प्यारे के पायें परौंगी। 

अब अपनी ज़वान पर काबू रखेंगी, श्रौर उनसे कभी ऐसी-वैसी 
बात न कहूँगी। में उन्हें हाथ जोड़ कर--निद्दोरे करके जैसे भी बनेगा 
मनाऊँगी । भला में अपने स्व॑स्व से रूप-यौवन का गव करूँगी ! नहीं, 
कभी नहीं । 


इसी प्रसंग म॑ निम्न लिखित बरवे भी देखने लायक है ' 
रसना, मति इन नयना निज गुन लीन । 
कर ! ते पिय मिभकारे अ्रजुगुति कीन | 
प्रौढ़्ा कलहान्तरिता पश्चात्ताप करती हुई कहती है--अरे, इस 
' रसना * ने प्रियवम से कठोर शब्द कहे तो अपने अनुरूप ही काये 
किया, क्‍योंकि इसका नाम दी “ रस ना ” हे। इससे तो सरस व्यवहार 
की आशा ही व्यथ है। ऐसे ही “मति ” (बुद्धि पक्त में नहीं) और 
' नय-ना ? (नेन्नों ) ने जो उनके साथ रूखा व्यवहार किया, उन्होंने 
मी श्रपने गुणों के अनुरूप ही किया परन्तु दे ' कर ? ( हाथ ) तूने प्रिय 
को भिड़का यह बहुत बुरा किया ! तेरा तो नाम कर है। तुमे तो उनका 
ख्रादर करना चाहिए था । 
परकीया कलूहान्तरिता 
इसका लक्षण भी इसके नाम के अनुरूप ही समकझना चाहिए । देव 
कवि ने नीचे लिखा सवेया इसके उदाहरण में दिया है-..- 
प्रेम-समुद्र पश्यो गद्दिरि अभिमान के फेन रहो गहिरे मन। 
कोप-तरंगन ते बहिरे अकुलाय पुकारत क्‍यों बहिरे मन। 
'देवजू! लाज-जहाज तें कूदि भज्यो मुख मुँदि श्रर्जो रद्दि रे मन । 
जोरत तोरत प्रीति तुद्दी अब तेरी अनीति तुदही सहि रे मन। 


( रैं८० ) 


नायिका पश्चात्ताप पूवक कहती हे---अ्ररे मन, कभी तू प्रीति जोड़ता 
है, और कभी तोड़ता है । अरब इस जोड़-तोड़ की नीति का दुःखद परिणाम 
भी तुददी भोग, धबराता क्‍यों दे ! 

इस प्रसंग में महाकवि प्माकरजी का नीचे लिखा सवेया भी पढने 
लायक है-- 

कासे कहा में कह्ों दुख यों मुख सूखतई है पियूख पिये तें। 

त्यौं * पद्माकर ? या उपह्ास को त्रास मिटै न उसास लिये तें। 

ब्यापे बिया यह जानि परी मनमोहन मीत सों मान किये तें । 

भूलि हू चूक परे जो कहूँ तिहि चूक की हूक न जाति हिये ते । 

मनमोदन से मेंने मान करके जो भयंकर भूल की है, उसके दुःख को 
में ही जानती हूँ। सच है, कभी-कभी भूल से भी जो ग़लती हो जाती है, तो 
उसकी कसक दिल में बराबर बनी रहती है । 


विप्रलब्धा 
जो ज्री अपने प्रियतम के संकेत-स्थान में न पाकर दुखी होती है, 
उसे विप्रलब्धा कहते हैं | इसके भी मुग्धा श्रादि पाँच उपभेद हैं। 


मुग्धा विपलब्धा 
जिसमे म॒ग्धा और विप्रलब्धा दोनों के लक्षण हों, वह मुग्धा विप्रलब्धा 
होती हे । कविवर मतिराम ने इतका उदाहरण नीचे लिखे प्रकार दिया हे- 


आलिन के सुख मानिवे को पिय प्यारे की प्रीति गई चलि बागे | 
छाय रहो हियरो दुख सों जब देख्यो न हाँ नंदलाल पभागे। 
काहू सों बोल कछू न कह्दे ' मतिराम ' न चित्त कहूँ श्रनुरागे । 
खेल सद्देलिन में पर खेल नवेली कों खेलनि जेल सी लागे। 
यहाँ नायिका को संकेत-स्थान पर प्रियवम के न मिलने के कारश 


भोर उपताप हो रहा है, उसका किसी काम में मन नहीं लगता । उसे तो 
खेल भी जेल जेसा प्रतीत द्वोता है । 


( रौरैध१ ) 


इसी प्रसंग में नीचे लिखा कवित्त भी केसा सुन्दर है -- 


केलि के बगीचा तें अकेली अकुलाय आई, 
नागरि नबेली बेली देखत हृहर परी । 
कुंज के अवास तहाँ गंजरत भौर-पुज्ज, 
सीतल समीर सीरे नीर की नहर परी। 
देव तिहिं काल गँदि ल्याई माल मालिनि यों, 
देखत बिरह-बिख-व्याल की लहर परी | 
लोह भरी छुरी सी छुबीली छिति माौँहि फूल-- 
छुरी सी लुब॒त फूल छुरी सी छुद्दर परी । 
नायिका प्रथम तो संकेत-स्थान में प्रिय को न पाकर वहाँ से वेसे 
ही अकुलाई हुई लोटी थी, उसी समय मालिन द्वार बनाकर ले आई। 
बस फिर क्या था, माला को देखकर तो नायिका के शरीर में सप॑-विष 
की-सी लद्दर दोड़ गई और वह क्षोभ में भरी हुई, छुड्ी को भाँति भूमि 
पर गिर पड़ी ! 
इस सम्बन्ध में निम्न लिखित पद्म भी पढने योग्य हैं -- 
लख्यो न कन्‍त सहेट म॑ लख्यो नखत को राय । 
नवल बाल को कमल सो गयो बदन कुम्हिलाय ॥। 
(्‌ 2५ हि 
ल्याई' लिवाय सर्खीं सब साथ की सोंहन खाय के सुन्दरि को है 
कंंज के भीतर सूनो चिते करि ब्रैठि रही है नवाय के भहे। 
लाल भई दुति कोयन की चमके पुतरी अ्रति दीठि लजोंहँ । 
लोहित कंजन मध्य मनो रस चाखत लोल मघुब्रत सोहें। 
इस सवैये में भी सहेट म॑ नायक के न मिलने के कारण उत्तन्न हुए 
दुःख का वशन हे। उस समय लज्जा और निराशा के कारण हुई लाल 
कोयों में काली पुतलियाँ इस प्रकार चल रही हैं, मानो लाल कमलों में 
घुस कर भोरे मकरनद-पान कर रहे हों। केसी सुन्दर सूक है ! 


( एऐ८२ ) 


मध्या विप्ररुष्धा 
निम्नलिखित कवित्तों में अभिसार-स्थान में प्रियतम के न मिलने 
के कारण मध्या विप्रलब्धा नायिका की सखेद अ्रवस्था का वर्णन दै-- 


ग्राई काम-कामिनी-सी कन्त पै एकन्त तहाँ, 

ताहि न बिलोक्यों अ्रति ब्याकुल हे गोन की | 
ता समै तिया को तन ताप तेज ताती हुवे, 

हाती' सब सीतलता सरिता के पौन की। 
स्वास के समीरन उसास भौोर भीर नहीं 

तीर रह्दे ठाठी मति धीर ऐसी कौन की। 
डरपि-डरपि चलीं साथ की सहेलीं सब 

भरपि-फरप गई बेली रंगभौन की। 

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रति को तमासों सुनो सोये गुरुजनन जब, 

कीन्हें अभिसार तब साधि के रमल सो। 
* रघुनाथ ' मन में मनोरथ की सिद्धि जानि, 

नूपुर बजन लागे पाईं में दमल सो। 
केलि के महल बीच प्यारे सों न भेंट भई, 

ऐसी दशा भई मानों खायो है श्रमल सो । 
भोर के समे को ऐसो प्यारी को बदन रो, 

एरी भट्ट फेरि भयो साँक के कमल सो। 


प्रोढ़ा विप्रलब्धा 
इसके उदाहरण में कविवर मतिराम का नीचे लिखा कविकत्त पढ़िए-- 


सकल सिंगार साजि संग ले सहेलिन को 
सुन्दरि मिलन चली अआनेद के कन्द को। 





वि वननतक- "रे किलकनकलस्मनन. अप सब >> किन ्ंआित: जल-लसननसील वन “>नथलअम्मक परवान + मा +ना-कंमकमन-ल-कक पका, अल हल न. तन अचनन-नममकलनन«लनधक9 कम नम तक >> बकीअडरफसे। 


१०--मध्ठ हो गईं । 


( रैपरे ) 


कवि ' मतिराम ' बाल करति मनोरथनि, 
देख्यो परयंक पे न प्यारे नंदनन्द को। 
नेह ते लगी है देह दाइन दहत गेह, 
बाग के बिलोक द्रुम बेलिन के बृन्द को। 
चन्द को हँसत तब आयो मुख चन्द अब-- 
चन्द लाग्यो हँसन तिया के मुख चन्द को । 
संकेत-स्थान में प्रियतम को न पाकर नायिका का चेहरा फीका पढ़ 
गया, उसे घोर निराशा हुई ! संकेत-स्थान में श्राते समय तो उसने अपने 
चन्द्रानन से चन्द्रमा को फीका कर दिया था, क्योंकि वह प्रपुल्ल-बदन थी, 
परन्तु वहाँ से लौटते समय चन्द्रमा ने उसके मुख-मण्डल की हँसी उड़ाई | 
अर्थात्‌ निराशा-जन्य दुःख के कारण नायिका का मेंह और शरौर कुम्हला 
गया--उदास और फीका पड़ गया ! 
कविवर ग्रैनी प्रवीनजी प्रौढा विप्रलब्धा का उदाहरण इस प्रकार 
देते हैं-- 
उरज उतंग अमभिलाषी सेत कंचुकी हे. 
राखी ना कछूक चित चोप रंग रेजे में । 
मोतिन की माल मलमल बारी सारी सजे, 
भलमल जोति होति चाँदनी श्रमेजे में । 
बिहस बदन बिमलासी सो श्रटापै गई, 
देखे ना 'प्रबीन बैनी' पिय सुख सेजे मं । 
गरद' भई है वह दरद बतावे कोन, 
सारद मयंक मारी करद करेजे में। 
उस दिन उस चाँदनी रात में प्रियतम को पयइू पर न पाकर नायिका 
शिथिल हो गयी। अब उसकी विरद-व्यथा का कोन वर्णन करे। ऐसा 
प्रतीत हुआ, मानो शरद चन्द्रमा ने उसके कलेजे में अपनी किरणों की 
कटारी मारी। 
१-- शिथिक्ष | 


अमकमा०... "०4 वकाक 3... >जक- रे वजन नभ- केननान अष्क- 


( १८४ ) 


परकीया विप्रलछूब्धा 
रघुनाथ कवि ने परकीया विप्रलब्धा का उदाहरण इस प्रकार दिया हे- 
भादव की राति अँधियारी घेरे घन घटा, 
बरसे म्रुसलधार मोद मरै मन में। 
ऐसी समे भीजत कवर कान्ह जू के लीन्हे, 
केवरि नवेली गई पागी प्रेम पन में | 
जीन थल मिलन बतायो तहाँ पाये नाहिं, 
'रघुनाथ” मदन सताये ताही छुन में । 
जेई बूंद नीर की सुखद लागे धीर छूटे, 
तेई बँँदं तीरसी तिया के लागीं तन में । 
भादों की अँघेरी रात में, भीगती हुई नायिका संकेत-स्थान पर पहुँची, 
परन्तु वहाँ प्रियतम न पाया तो वह विरह-विकल हो उठी। आते समय 
वर्षा की जो बूँदं उसके शरीर को आ्रानन्ददायिनी प्रतीत होती थीं वे ही 
अब उसके शरीर में तीर के समान लग रही थीं । 
इस प्रसंग में कवीन्द्र कवि का नीचे लिखा कवित्त भी देखने योग्य हैे- 
कैसी ही लगन जामें लगन लगाई तुम, 
प्रेम की पगनि के परेखे हिये कसके | 
केतिको छुपाय के उपाय उपजाय प्यारे, 
तुम ते मिलाय के बढ़ाये चोप चसके ! 
भनत “कविन्द” केलि-कज में जुलाय कर, 
बसे कित जाय दुख दे हमें श्रवस के । 
पगनि में छाले परे नाधिवे को नाले परे, 
तऊ लाल लाले परे रावरे दरस के। 
वाह ! ऐसी घोर वर्षा में हमें तो संकेत-स्थान में बुला लिया, परन्तु 
कन्हैयाजी स्वयम्‌ ग़ायत्र हो गये ! नदी-नाले लॉँघकर ज्यों-त्यों इम यहाँ 
पहुँच पायीं, चलते-चलते पाँवों में छाले पड़ गये, परन्तु तो भी लाल के 
दशनों के लाले ही पड़े हुए हैं ! 


( १८४ ) 


उतल्कण्ठिता 
जो नायिका संकेत-स्थान में पहुँच नायक को न पाकर उसके आने 
की प्रतीक्षा करती हुई चिन्तित होती हे, उसे उत्करिठता या विरहोत्करिठता 
कद्दते हैं | इसके भी मुग्धा श्रादि पांच उपमेद हैं । 
मुग्धा उत्कण्ठिता 
मुग्धा उत्कर्ठिता के उदाहरण में नीचे लिखा सवैया देखने 
योग्य है- 
ज्यों-ज्यों चलें सजनी अपने घर त्यों-त्यों मनों सुख-सिन्धु में पैठे । 
ज्यों-ज्यों वितीतति है रजनी उठि त्यो-त्यों उनीदे से अंगनि एंठे । 
ग्रावव बात न कोऊ हिये चित केसे तजै कुल कानि अकेठे। 
ज्यों-ज्यों सुने मग पायन की धुनि सेज पे त्यो-त्यों लली उठि बैठे । 
मुग्धा उत्करठता नायिका की उश्कण्ठा कितनी बढ़ी हुई है। ज्यों 
ही वह किसी के पावों को आहट सुनती है, त्यों ही पलंग पर उठकर बैठ 
जाती है कि शायद प्रियतम आए हों । 
मतिरामजी का नीचे लिखा स्वेया भी मुग्षधा उत्कण्ठिता का 
उत्कृष्ट उदाहरण है-- 
ब्रीति गई जुग जाम निशा 'मतिराम” मिटी तम की सरसाई। 
जानति हों कहुँ और तिया सों रहे रस में रमि के रसराई । 
सोचति मेज परी यों नवैली सहेली सों जात न बात सुनाई। 
चन्द चढ्यो उदयाचल पै मुखचन्द पे आनि चढ़ी पियराई। 
नायिका के दुःख का ठिकाना नहीं है, ज्यों-ज्यों रात बीतती जाती 
हे, औ्रोर चन्द्रमा ऊँचा चढ़ता जाता है, त्यों ही त्यों निराशा के कारण 
चन्द्रमुखी का मुख फीका पड़ता जाता दे । 
मध्या उत्कंठिता 


मध्या उत्कग्ठिता के उदाहरण में मतिरामजी का निम्नलिखित 
सवैया देखिये-. 


( ौैषद ) 


बारहिं बार विलोकति द्वारहिं चौंकि परै तिन के खरके हूँ । 
सेज परी 'मतिराम' विसूरति आई अरहों श्रवही लखि में हूँ। 
संग सीन के खेलत हीं श्रज हूं रजनी पति के श्रथये हूँ। 
लालन बेगि न जाहु घरै फिरि बाल न मानिद्दै पाँय परे हूँ। 
नायक से सखी कहती दे--नायिका तुम्हारी प्रतीक्षा बड़ी उत्सुकता के 
साथ कर रही है | जल्दी घर जाश्रो, अगर वह रूठ गयी तो फिर पॉँव 
पढ़ने पर भी न मानेगी । 
इसी के उदाहरण में प्माकरजी का भी सवेया पढ़िये--- 
आये न कनन्‍्त कहाँ धों रहे भयो भोर चहे निसि जाति सिरानी । 
त्योँ 'पदमाकर' बूक्ो चहे पर बूक्ति सके न सँकोच की सानी । 
धारि सके न उतारि सके सु निद्दारि सिंगार हिये हृहरानी। 
सूल से फूल लगे फर पै तिय फूल छुरी सी परी मुरभरानी । 


पति की प्रतीका में रात्रि समाप्त दोने पर आरा गयी, नायिका बड़े 
असमंजस में पड़ी हे कि क्‍या करे, *रगार को धारे रहे अ्रथवा उतार 
दे । इस समय उसके शरीर में फूल शूल की तरह चुभ रहे हैं। 
कविवर बिहारी का नीचे लिखा दोहा भी मध्या उत्करिठता का 
उत्तम उदाहरण हे-- 
नभ लाली चाली निसा चटठकाली घुनि कीन | 
रति पाली श्राली श्रनत ग्राएं वनमाली न॥ 


प्रोद्दा उत्कण्ठिता 
प्रौढ़ा उर्त्कश्ठिता का उदादरण वेनी प्रवीनजी ने इस प्रकार 
दिया है-- 
कान्द रूपवती में रमे हैं लोभी लालची हे, 
ललकत डोले बोले तजत सुभाए ना। 
काहू संग सखिन के रंग मढ़ि रहे के धों, 
कै धों उर उड़ि के अनंग-बान लाए ना । 


( (१८७ ) 


कौन असमंजस "प्रवीन बैनी” यातें और, 
भोर होत ञ्राली | नभ लाली तें बताए ना । 
ग्रथवत' इन्दु अरबिन्दबन  बिकसत, 
गूंजत मिलिन्द हैं गोबिन्द गेह आए ना। 
चन्द्रमा अस्त हो गया, पौ फटगयी, कमल विकसित हो गये, भोरे 
गुंजारने लगे परन्तु गोविन्द अब तक घर नहीं श्राये, न जाने सारी रात 
कहाँ बिता दी ! 
और भी देखिए -- 
लखु चॉदनी चाद मलीन भई गन तारन के पियरान लगे। 
चिरियाँ चहूँ श्रोर कर चरचा चकई चकवा नियरान लगे। 
सिगरी निसि मैन मरोरनि में ये सिंगार कछू जियरान लगे। 
मनमोहन तो दहियरा न लगे नथ के मुकता सियरान लगे। 


उपयुक्त सवेया में भी 'उत्कण्ठा' में रात बीत कर प्रातःकाल हो 
जाने का वर्णन है | 


परकीया उत्कण्ठिता 
परकीया उत्कण्ठिता के उदाहरण में कवि लीलाघरजी ने निम्न- 
लिखित कवित्त लिखा दे-- 


डर भो नगर के धों काहू सों भगर के धों, 

बीच ही बगर श्रान बंधू बिरमायो है। 
'लीलाधर! गेल में कि भूल्यों तम रैल में-.. 

कि धों सुकाह खेल में सखान अ्रुभायो है । 
दूती दी सों दोष भौ कि मोही सों सरोष भौ, 

कि कलह परोस भो सुघर हरि धायो हे। 
केलि की न चाह घों. हिये न के उछाइह धों, 

सु कौन हेतु नाइ धो सद्देट नौँहि आयो है। 

१--अस्त होते हैं 


3०... अक 


( श्पण ) 


नाना प्रकार की अशह्लाएं करके नायिका पूछुती है कि क्‍या कारणश 
इुआ जो नायक 'सहेट? में नहीं श्राया । 
मतिरामजी का नीचे लिखा पद्म भी परकीया उत्कश्ठिता का सुन्दर 
उदाहरण हे-- 
जमुना के तीर भये सीतल समीर जहाँ 
मधुकर, मधुर करत मन्द सोर हैं। 
कवि “मतिराम' तहाँ छुबरि सों छुबीली बेठि, 
अ्ंगन तें फेलत सुगन्ध के भककोर हैं। 
पीतम बिहारी के निहारिबे को बाट ऐसी, 
चहूँ श्रोर दीरघ दृगनि करि दौर हैं। 
एक श्रोर मीन मानो एक श्रोर कंज-पृंज, 
एक ओर खंजन चकोर एक ओर हैं। 
नायिका चारों श्रोर चक्तित होकर देख रही है। कभी उसकी आँख 
मछुली-सी द्वो जाती हैं, कभी कमल-सी “कभी खंजन-सी”ः और कभी 
जकोर-सी | यहाँ पर मछली श्रादि की उपमाश्रों द्वारा नायिका के द्वदय में 
उसश्न्न होने वाले, उत्सुकता, हप, रोष आदि भावों की ओर संकेत दे | 


वासक सज्जा 
सुसज्जित भवन में, सखियों द्वारा सजकर, संभोग-सामग्री सह्दित 
समागम के लिए समुद्यत होने वाली नायिका वासकसज्जा कहाती है। 
इसके भी पाँच उपमभेद हैं । 
मुग्धा वासकसज्जा 
जिसमें मुग्धा ओर वासकसबजा दोनों के चिन्ह परिलक्षित हों उसे 
मुग्धा वासकसज्जा कहे हैं। उदाहरण देखिए--.. 


कुटयों डर भावती को जानि परी एरी भट्ट, 
देखु चोराचोरी श्राज्ञु लागी है टहल में। 


( १८६९ ) 


मायके की सखी सों मैंगाय फूल मालती के, 
चादर सों ढाँके छाय तोसक-पहल में। 
'रघुनाथ” भावते के पानदान भरि बीरी, 
भरी घरी पोथी कोऊ कथा की रहल में | 
झतर गुलाब को छिरकि हेत सोरभ के, 
चइल पहल कीन्हे रति के महल में। 
नायक से मिलने के लिए. महल में खूब चहलपदल हो रही है। 
बड़े-बड़े सामान जुटाये जा रहे हैं, परन्तु सब गुप्त रू से--छिपे-छिपे । 
अगर मुग्धा ही तो ठद्दरी ! 
और भी देखिए... 
फूल सी आप ही आपने हाथन फूल के गूँथति हार नबीने। 
आप ही आपने हाथ दुकूल कियो चह्दे केसरि के रंग भीने | 
मेद कहै न सखीनहू सों, हरखे हिय में पिय आयबो कीने । 
प्यारी कछू मिसि के मग देखति द्वार की देदरी में ढंग दीने। 
नायिका चुपचाप अपने हाथ से ही श्रपना ”रंगार कर रही है । 
सखियों को भी भेद नहीं बताती। तरह-तरह के बद्दाने बना कर बार-बार 
देदली की और देखती दे । 
निम्नलिखित दोहा भी मुग्धा वासकसज्जा का सुन्दर उदाहरण हे--. 
साजि सेज भूषन बसन सब की नजर बचाइ । 
रही पोढि मिस नींद के, हग दुबार सों लाइ ॥ 
पध्या वासकसज्ना 
जिसमें मध्या और वासकसज्जा दोनों के लक्षश मिले वह मध्या 
वांसकसञ्जा कहाती है। उदाहरण देखिए- 
फटकि सिलानि सों सुधारयों सुधा-मन्दिर, 
उदधि दधि केसो अ्धिकाई उमगे अमन्‍्द । 


(५ १६० ) 


बाहर तें भीतर लॉ भाँतिन दिखैये ' देव * 
दूध केसो फेनु फेल्यो श्रॉगन फरस बन्द | 
तारा सी तरनि तामें ठाढ़ी भिलिमिलि होति, 
मोतिन की ज्योति मिल्‍यो मल्लिका के मकरन्द | 
आरतसी से श्रम्बर में आरभा सी उज्यारी लागे, 
प्यारी राधिका को प्रतिब्रिम्ब सो लगत चन्द | 
उक्त पद्म में मध्या वासकसज्जा के सौन्दय का वशन किया गया 
है | नायिका की सजावट बड़ी सुहावनी हुई हे, उसका श्रड्ार अभूतपूव 
है। उस समय चन्द्रमा उसके मुख-मण्डल का प्रतिविम्ब्र ( परछाई )-सा 
प्रतीत होता है । 
इस प्रसंग में कवि रघुनाथजी का भी नीचे लिखा कवित्त बड़ा 
सुन्दर है-- 
मनिमय भूषन पह्िरि नख-सिख प्यारी, 
त्रैठी पीठि पीछे आसरो के परियंक को । 
कहै 'रघुनाथ' पिय प्यारे की बिलोके गेल, 
ही में कछू कछू ऐल सौतिन के संक के । 
जानिबे को निसि दिसि ऊरध कों देख्यो ज्यों ही, 
त्योंही फेल्यी श्रानन-प्रकास ऐसे अंक की | 
भौर लौं उड़त एक रहिगो कलंक बाकी, 
छुपि गये। ब्योम बीच मंडल मयंक को | 
नायिका रात में श्रज्लार किये बैठी रही, परन्तु नायक के दशनन 
हुए । अन्त में उसने शासमान की ओर मुंह उठाकर यह जानना चाहा 
कि कितनी रात और शेष है, तो देखती क्या है कि चन्द्रमा तो ब्योम- 
मणढल में विलीन हो गया दे, परन्तु उसका कलहु-रूप ( काला धब्बा ) 
भोंरा गुंजारता फिरता दे। भोरे का गुंजारना प्रात:काल होने का स्पष्ट 
प्रमाण दे | कवि ने केसी सुन्दरता ओर विलकुणता से रात का समासत 
होना ब्यक्त किया है । 


( श६१ ) 


प्रोह्ा वासकसज्जा 
जो प्रौढ़ा नायिका नायक से मिलने के लिए साजसज्जा सजाती है, उसे 
प्रोढ़ा वासकसज्जा कहते हैं। उदाहरण मे मतिरामजी का सवैया देखिए--- 
बारनि धूपि अँगारन धूप के धूम अंध्यारी पसारी महा दे। 
आनन चन्द समान उग्यो मृदु मंद हंसी जनु जोन्ह छुटा है । 
फेलि रही 'मतिराम” जहाँ तहाँ दीपति दीपन को परभा है | 
लाल तिद्दारे मिलाप को बाल सु ञ्राजु करी दिन ही में निसा हे। 
यहाँ नायिका ने धुश्राँ के घटाटोप से दिन में ही रात का दृश्य 
उपस्थित कर दिया, नायिका का मुख इस अलौकिक रात का चन्द्रमा 
झ्ोर उसकी मुस्कराहट चाँदनी दे । दीप्ति रूपी दीपक भी जहाँ-तदाँ भिल- 
मिला रहे हैं । 
नीचे लिखा दोहा भी प्रौढ़ा वासकसज्जा का सुन्दर उदाहरण दहै-- 
सब सिंगार सुन्दरि सजे त्रेठी सेज ब्िछाय । 
भये द्रोपदी को बसन बासर नाहिं बिलाय ॥ 
भाव स्पष्ट ही है। सुन्दरी सब्र ”ंगार सजाकर तैयार ब्रेठी है, परन्तु 
दिन द्रोपदी का चीर बन गया हे, वह समाप्त ही नहीं होता । 
परकोया वासकसज्जा 
कवि लद्िरामजी ने परकीया वासकसज्जा का उदाहरण इस प्रकार 
दिया हैे--- 
खेल मिस मोहिनी सहेलिन सों दुरि द्यौस, 
श्राई कुंज-बन परिहरि के नगर को। 
* लद्धिराम ' सौरभित सकल सिंगार सजे, 
सुमन सवारयों छेल आनंद बगर* को | 
मंजुल मजेजदार* बंजुल भरोखनि ते, 
भारै भूमि गंजरत भोर की रगर को। 


जनन+ लनज --+33०9-००३--..+०२००वका४७०७. 3. /क+अ»क,..2ाकमाक 3. 3७६७७. ८3०० ८कनप5-१०क- 8-० + “4 ७0० 4०५ 33७० >-2».+ मक भव जलअाक- -ना+--+पाओआक७ २७००७». ध2०भ- पक +म७७ ५५ भादााइुडभ काका. स्‍आाक्राम+न्‍यहकााका०-- करना पया-+ न -०४७-५++-५३क+ सकी -२३->- २38 पा्काकक.. "कमर बाकब-3२०»वकाक2 मय, 


१--- फैलाना । २--मणजेदार । 


( रैह२ ) 


मेलि बेलि गंजन में मालती निकु जन में. 
नौल तरु-पंंजन में परखे डगर को। 


नवेली नायिका सुसज्जित होकर घर से 'कुंज-वन! में थ्रा गयी हे, और 
वहाँ नवल तरु-पंजों में बैठ नायक की प्रतीक्षा कर रही है । 
नीचे लिखा कवित्त भी परकीया वासक सज्जा का केसा सुन्दर उदा- 
हरण हे-. 
पायन पलोटि पोटि साँक तें सुआई सास, 
कहत कहानी देवरानी नींद घिरकी। 
ननद पठाई राति जागिबे परोसिनि के, 
मूदि के किवार वैनी गँदि राखी सिर की। 
सारी-सुक-पींजरा पे पंवई गिलाफ डारि, 
भीतर धघरावति हिये में प्रीति थिरकी। 
चन्द सो वदन ढाँकि फाँकति भरोखा बत्रैठि, 
मंद करि दीपक कमन्द डारि खिरकी। 


परकीया वासक सब्जानायिका ने सास को तो पेर दबा-दबा कर 
शाम से दी सुला दिया, छोटी देवरानी कहानी सुनते-सुनते सो गई। 
बाकी रही ननद, सो उसे पड़ौसिन के घर रतजगे में भेज दिया। 
तोता और मैना के पिंजड़ों पर गिलाफ़ डाल-डाल कर उन्हें भीतर 
टैंगवा दिया । इस प्रकार सब और से निश्चिन्त हो, सब शज्ार सजा, 
दीप-ज्योति धीमी कर, खिड़की में कमन्द लटका कर भरोखे में बैठी 
प्रतीक्षा करने लगी । 


स्वाधीनपतिका 


जिसके रति-गुणों से वशीभूत द्वोकर प्रियतम उसका संग नहीं छोड़ता, 
वह विचित्र विलासयुक्त नायिका स्वाधीनपतिका कह्याती है। इसके मी 
पाँच उपमेद हैं। 


( शह३ ) 


मुग्धा स्वाधी नपतिका 
जो मुग्धा अपने पति को वश में कर ले उसे मुग्घा स्वाधीनपतिका 
कहते हैं | उदाहरण में मतिरामजी का सवैया पढ़िए--- 
आपने हाथ सों देत महावर आापहि बार सिंगार तनी के । 
आपन ही पहिरावत आनि के हार संवारि के मौलसिरी के। 
हों सखि लाजन जात मरी 'मतिराम? स्वभाव कट्दा कहाँ पीके । 
लोग मिले घर घेर करें अबही तें ये चेरे भये दुलही के । 
मेरा प्रियतम अपने हाथ से ही मेरा सारा ”टंगार करता है, कया कहूँ, 
मैं तो मारे शर्म के मरी जाती हूँ । यह सब देखकर लोग ठीक ही कहते हैं 
कि ये तो अभी से श्रपनी स्त्री के गुलाम बन गये । 
इस प्ररुंग में नीचे लिखा कवित्त भी क्‍या ही सुन्दर है, देखिए... 
केलि-कोठरी तें कढे बाहिर घरीक हू न, 
छोड़ि खेल संग के सखान को दियो है री । 
गेह के उचित जन हास-परिहास कर, 
तऊ चिकत्त में न नेंकु सकुच छियो हे री । 
परिपूर जोबन न भलक सरीर आई, 
उर अबही तें यहि भावहि लियो है री। 
जादिन ते आई गौनिहाई बाल तादिन तें, 
साँवरे सलोने पर >ोना सौ कियो है री। 
झलबेली बाला ने गौने को श्राते ही लाल पर जादू-सा कर दिया हे, 
जिससे वह घड़ी-भर के लिये भी घर से बाहर नहीं निकलता। उसने 
सखाओं के साथ खेलना भी छोड़ दिया। संगी-साथी मज़ाक बनाते हैं, 
पर उसे ज़रा भी संकोच नहीं होता । 


>< >< 
श्स मा में नीचे लिखे दोहे भी पढने लायक़ हैं -. 
तुबय भ्रयानपन लखि भट्ू लटू भये नेंदलाल । 
जब सयानपन पेलि हैं तब्ों कहा इवाल ॥ 
हि० न०--१ ३ 


( १६४ ) 


नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं बिकास यहि काल | 
अली कली ही सों बिंध्यो ग्रागे कबन हवाल ॥ 


मध्या स्वाधीनपतिका 
जिस मध्या में स्वाधीनपतिका के गुण विद्यमान हों वह मध्या स्वाधीन- 


पतिका कहाती हे । 
नीचे दिया गया मतिरामजी का कवित्त स्वाधीनपतिका का सुन्दर उदा- 


इरण हे-- क्‍ 
जगमगे जोबन अश्रनूषप तेरो रूप चाहि, 
रति ऐसी रंभा-सी रमासी बिसराइये | 
देखिबे को प्रान प्यारी पास खरो प्रान प्यारो, 
घुंघथ उठाइ नेक बदन दिखाइये। 
तेरे अंग-अंग में मिठाई श्रौ लुनाई भरी, 
'मसतिराम!ः सुकवि प्रगट यह पाइये। 
नायक के नेनन में नाइये सुधासी सब, 
सौतिन के लोचन न लोन सो लगाइये। 


उक्त पद्म में नायिका के रूप-लावश्य का वन है। सखी कहती हे 
कि अरी नायिका तू सोतों की श्राँखों में तो अपने लावए्य का लवण बुरक 
दे, और प्रियतम को रूप-सुधा का पान करा दे | 
कविवर दिनेशजी का भी नीचे लिखा सवेया पढ़ने लायक है-- 
तेरिये कीरति कान सुने अर तेरोई रूप सदा हग देखें। 
तेरियै बात कह्दै रसना अरू भूलि हूँ और की श्रोर न पेखें । 
तू जिय में हिय में पिय के पिय तो बिन जात घरी जुग लेख । 
जानि 'दिनेस' किये बस तें कि भये हरि आपुद्दी हाथ की रेखें । 
नायक को तेरे सिवा न तो किसी की बात अश्रच्छी लगती हे, और 
न सूरत । वह हर वक्त तेरी ही चर्चा किया करता हे. मालूम नहीं उन्हें तैने 


( १६४ ) 


बस पें कर लिया है, श्रथवा स्वयम्‌ ही उसने तेरी ऐसी श्रधीनता स्वीकार 
कर ली हे | 
ु प्रोढ़ा स्‍्वाधीनपतिका 
प्रोढ़ा स्वाधीनपतिका में प्रौढ़्ा भौर स्वाधीनपतिका दोनों के गुल 
पाए जाते हैं । 
नीचे उदाहरण मं कविवर सेनापति का कविकत्त दिया जाता है। 
देखिए... 
फूलन सों बाल की बनाय गुही बेनी लाल, 
भाल दीनी बेदी मृग-मद की असित है । 
अंग-अंग भूषन बनाए ब्रजभूषन जू, 
बीरी निज कर सों खबाई करि हित है। 
हे कै रस बस जब देवे को महावर को, 
'सेनापति” स्याम गद्यौ चरन ललित है । 
चूमि कर प्यारे को लगाइ रही श्राँखिन सों, 
एड्रो प्रानप्यारे यह शग्रति अनुचित है। 
नायक नायिका पर इतना अ्रनुरक्त हे कि वह उसका »& गार तक 
अपने हाथों से करता है| सारा <ंगार कर चुकने पर जब नायक नायिका 
के पावों में महावर देने लगा, तब नायिका ने उसके हाथ चूमते हुए 
कहा--प्राणनाथ, यह श्राप क्या करते हैं, ऐसा करना तो शअत्यन्त अनुचित 
है। भला आप मेरे पाँव लुएगे ? 
और भी उदाहरण देखिए -- 
बारिद बार सही “रघुनाथ” कहै जनु चारु किये हग मोर हें । 
इछुन कंज सही सुथरे, जिन लोचन भौंर किये बरजोर हैं। 
बोलनि जो सो सही मुकता जिन आँखिन को किये हंस किशोर है। 
प्यारी को श्रानन इन्दु सही जिहिं कीम्दे गुविम्द के नेन चकोर हैं । 
उक्त सवैया में मी नायक को नायिका में अ्नन्य झनुरक्ति का बशन 
किया गया है । नायिका के बाल क्या हैं, काते बादल हैं, खिन्हें देखने 


( रै६६ ) 


के लिए नायक की श्राखं मदमत्त मयर की भाँति नाच उठती हैं। इसी 
प्रकार उसके कमल समान लोचनों पर नायक के नेत्र मधुलुब्ध मधुपों की 
भाँति मेंडराया करते हैं । नायिका जब बोलती है तो मानों उसके मुख से 
मोती भरते हैं, जिन्हें नायक की आँखें इंस बन कर चुगा करती हैं । 
नायिका का मुखमंडल तो पूर्ण चन्द्रविम्ब समान है ही. जिसे नायक के 
नयन-चकोर निनिमेष होकर देखते रहना चाहते हैं । 
परकीया स्वाधीनपतिका 

परकीया स्वाधीनपतिका के उदाहरण में कमलापति कवि का नीचे 
लिखा सवैया पढ़िए-- 

चढि ऊँची अ्रटा पर बाँसुरी ले ग्ब नाम हमारो बजाइये ना । 

सुनि चौचँंददाई चबाव करें यह बात कर्बों बिसराइये ना । 

'कमलापति' साँची कहों इतनी सुनि कोह कछू मन लाइये ना । 

'बिनती परि पाँय तिद्दारी करों कुल कानि इमारी गँवाइये ना । 

)< 4 >< ८ 
निम्नलिखित सवेया भी परकीया स्वाधीनपतिका का सुन्दर उदाहरण है- 

हाँ हू समे लखि के उत श्राय क्यों करिद्दों सब रावरे जी को | 

बारही बार न ऐये इते यह मेरो कछू है परोस न नीको । 

चाह भरे पैंसि चन्दन लावत हार बनावत मौलसिरी को | 

कोऊ कहूँ यह जानि जो जाय तो होय लला मोहिं लील को टीको । 

अभिसारिका 

जो स्त्री काम के वशीभूत हो, लज्जा त्याग कर, संकेत-स्थान पर नायक 
को बुलाती श्रथवा स्वयं वहाँ जाती हे, उसे श्रभिसारिका कह्ते हैं । 

इसके भी मुग्धा श्रादि पाँच उपमेद हें । 

मुग्धा अभिसारिका 
. जो मुस्धा अभिसरण करती है, उसे मुग्धा अभ्रभिसारिका कहते हें। 

उदाहरण देखिए-..- 


( १६७ ) 


दाबि दाबि दन्‍्तन अधर छुतवन्त करे, 
ग्रापने ही पायन को आ्राइट सुनत सोन । 
“दिजदेव” लेति भरि गातन प्रसेद अलि, 
पात हू की खरक जु द्वोती कहूँ काहू भोन । 
कंटकित होती अभ्रति उससि उसासनि तें, 
सहज सुबासन सरीर मंजु लागे पौन। 
पंथ ही में कन्‍्त के जौ होत यद्द हाल तो पे, 
लाल की मिलनि हे हे बाल की दसा धो कोन । 
उक्त-पय में श्रभिसरण को जाती हुई मुग्धा का केशा सुन्दर चित्र 
खींचा गया है । जब श्रभिसार को जाते हुए मार्ग ही में उसकी यह दशा 
दे तब लाल से मिलकर तो न जाने क्‍या हालत हो जायगी । 


मध्या अभिसारिका 
कविवर द्विजदेवजी ने मध्या अभिसारिका का उदाहरण हस प्रकार 


दिया है-- 
पायलन डारै कटि किंकिनी उतारै कहूँ, 


हाथनिते भारि भीर टारत मिलिन्द की । 
भूषन चमक तें चमकि लगे पायन में 
'द्विजदेव” श्राँखिन बचाय अ्लिबृन्द की | 
भौन तें दमकि दामिनी लो दुरै दूजे भोन, 
त्यांगि गरबीली गति गौरव गयन्द की। 
या बिधि तें जाति चली साँवरी उमाहें सखी, 
झाजु भई चाहें भाग उदित गोबिन्द की | 
गज की-सी धीमी-घीमी चाल छोड़कर, नायिका चपला की तरह चंच- 
लता पूयंक अपने घर से निकल कर दूसरे घर में छिप गयी ।...आज 
गोविन्द के भाग उदय होना चाहते हैं । 
इस प्रसंग में दत्त कवि का नीचे लिखा कवित्त भी क्‍या ही सुन्दर है, 
देखिए... 


( रैक ) 


सस्िन समाज तें उठाय अरबिन्द- नैनी, 

“दक्त कवि! कद्दे जाव बीती जानि रतियाँ। 
भूखन बनाय पहराय जरतारी सारी, 

हीरन किनारी दे सँबारी हंस-गतियाँ। 
किंकिनी की नीकी जोति कलर-मलर होति, 

लाज ते नबेली के कढे न मुख बतियों । 
नूपुरन दाबि-दाबि भूपए घरति पग, 

दनन्‍त दाबि अश्रधर हथेरी दाबि छुतियाँ। 

'अ्रब जाओ, रात काफ़ी चली गई' सखी द्वारा यह कहे जाने पर अभि- 
सारिका वस्तालड्वारों से सुसज्जित हों चल देती हे। उस समय लजा के 
कारण उसके मुंह से बात तक नहीं निकलती । चलने में कहीं नुपुर बजने 
न लगें इसलिए वह दबे पाँव जा रही है, फिर भी यदि कभी कोई भूषण 
बज उठता है, तो वह अपने श्रोढों को दाँतों से भोर छाती को दोनों हाथों 
से दबा लेती है । 

प्रोदा अभिसारिका 
कवि भुवनेशजी ने इसका उदाहरण इस प्रकार दिया हे-- 
अधघखुले नेन कंज खंजन अचेन करें, 
सैन करें छुन्दन छुरा को छोर छुरकत | 
कवि “'भुवनेस' छबि केस की कहाँ लॉ कहे, 
माखि-माखि मोरि मन मारें मनि मरकत | 
ग्रोजित' मनोज श्रोज उरज सरोज सोहें, 
पग॒ मग परत मजीठ-माठ दरकत। 
मुख मंजु चनन्‍्द भास९ उदित ग्रमन्द द्वास, 


जाति नेंदनन्द पास बम्द-बन्द फरकत | 
भाव स्पष्ट हैं | 
>< 4 र< )<्‌ 





जया &&-- - हरन+---साएमफा्कीकाली. 


३--बदवान | २-- प्रकाश | 


( १६६ ) 


पद्माकरजी का नीचे लिखा सवेया भी प्रौढ़ा श्रभिसारिका का उत्कृष्ट 
उदाहरण हे-- 

कोन दे तृ कित जाति चली बलि बीती निसा अधराति प्रमानै । 

हों ' पदमाकर ? भावतो हों निज भावते पै अ्रबही मुद्दि जाने। 

तू अलबेली श्रकेली डरे किन ? क्‍यों डरों मेरी सहाय के लाने। 

हे सखि संग मनोभव सं। भट कान ला बान सरासन ताने। 

अरी सखी, व्‌ इस ग्राधी रात में ग्रकेली कहाँ जा रही हे ! में अपने 
मनभावन से मिलने जा रही हूँ । तू चिन्ता मत कर में अ्रकेली नहीं हूँ, मेरे 
साथ कामदेव रूपी योद्धा हे, जिसने कान तक शरासन तान रक्‍खा है | 


परकीया अभिसारिका 
नीचे लिखा कवित्त परकीया शग्रभिसारिका का कैसा उत्कृष्ट उदा- 
हरण हे- 
सोये लोग घर के बगर के किवार खोलि, 
जानी मन माँहि निज गई जुग जामिनी | 
चुप चाप चोरा चोरी चौंकत चक्कित चली, 
प्रीतम के पास चित चाह भरी भाभिनी | 
पहुँची संकेत के निकेत संभु सोभा देत, 
ऐसी बन-बीथिन बिराज रही कामिनी | 
चामीकर चोर जान्यो चंपलता भोंर जान्यो, 
चन्द्रमा चकोर जान्यो मोर जान्यो दामिनी | 
रात्रि में चुपचाप श्रकेली जाती हुई अ्रभिसारिका को चोरों ने (उसकी 
कान्ति के कारण) स्वण समझा, भौरों ने देह-दीसि के कारण चंपल्षता 
जाना, चकोरों ने चन्द्रमा और मोरों ने दामिनी समझा । 


अभिसारिका के अन्य भेद 
उपयक्त पाँच उपभेदों से अतिरिक समय के बिचार से अभिसरिदा 


( २७७ ) 


के-.शुक्रामिता रिका, कृष्णाभिसारिका ओर दिवाभिसारिका ये तीन भेद 
और किये गए हैं। 
शुक्रकाभिसारिका 
चाँदनी रात में चाँदनी रात के अनुरूप श्वेत वस्य घारण कर अ्रभि- 
सार को जाने वाली श्रथवा नायक के संकेत-स्थान में बुलाने वाली 
शुक्रा मिसारिका कहाती हे | यथा-- 
झंगन में चन्दन चढ़ाय घनसार सेत, 
सारी ज्ञीर फेन ऐसी आ्राभा उफनाति है। 
राजतरु चिर सुचि मोतिन के शआभरन, 
कुसुम कलित केस सोभा सरसाति है। 
कवि “मतिराम” प्रान प्यारे को मिलन चली, 
| करि के मनोरथनि म्ृदु मुसिकाति है। 
देति न लखाई निसि चन्द की उज्यारी मुख-- 
चन्द की उज्यारी तन छाहाँ छिपिजाति है । 
८ >< > 
दूसरा उदाहरण देखिये-- 
कनक बरन बाल नगन जटित माल, 
मोतिन की माल उर सोहे भली मांतिदहे। 
चन्दन चढाये चार चन्दमुखी चाँदनी-सी, 
निकसि अबास तें सिघारी मुसकाति हे। 
चूनरी विचित्र स्याम सजि के “ मुमारखजू ?, 
ढाँपि नव सिख लौं श्रधिक सकुचाति है । 
चन्द्र में लपेटि कै समेटि के नक्षत्र मानो, 
द्यौस को प्रनाम किये राति चली जाति है। 
अब बिहारीलालजी का भी नीचे लिखा दोहा देखिये --. 
जुवति जोन्ह में मिलि गई नेंकु न परति लखाय | 
सौघे के डोरन लगी अली चली संग बाय ।। 





( २०१ ) 


शुक्रवसना नायिका चाँदनी में इतनी मिल गई है कि पहणानी मी 
नहीं जाती । केवल उसके शरीर की सुगन्ध से जाना जाता है कि वह जा 
रही है । 


कृष्णाभिसारिका 
जो नायिका श्रंघेरी रात में ( श्रँघेरे के अनुरूप ) काले या नीते वच्च 


धारण कर अ्रभिसार को जाती अथवा नायक को संकेत-स्थान पर बुलाती 
है, उसे कृष्णा भिसारिका कहते हैं| यथा -- 


कारो नभ कारी निसि कारिये डरारी घटा, 
भकूकन बहत पौन आनंद को कन्द' री। 
'द्विजदेव” साँवरी सलौनी सजी स्याम जू पै, 
कीन्दों अ्रभिसार लखि पावस अ्नन्द री। 
नागरी गुनागरी सु केसे ढरै रेनि उर, 
जाके संग सोहें ये सहायक शग्रमन्द री। 
बाहन" मनोरथ उमाहे संगवारी सखी, 
मेन मद सुभट मसाश् मुख चन्द री। 
जिस कृष्णाभिसारिका नायिका के साथ मनोरथ की सवारी, कामदेव 
संरक्षक और मुखचन्द्र रूपी मशाल मौजूद है, उसे कारी अरधियारी में 
किसका इर है। 


शंकरजी का भी नीचे लिखा कवित्त कृष्णाभिसारिका का केता सुन्दर 
उदाहरण हे -- 
साजि के सिंगार शंकरारि बस नारि कर 
आरती को थार ले तयार भई जान कोा। 
रैनि श्रेंघियारी बरसत बहु बारी नारी, 
पकरे किवारी ठाड़ी साोचति बिथान को। 


+ ++>- ७ 3र-जरक अक---3-क-नन»-+ननज 


१- मृुक्ष । २ - सबारो | 


( ६३०२ ) 


मावस की राति कारी पावस की घात भारी, 
ना बस की बात द्वारी केसे मिलूँ कान को । 
बोली बदरान सों बुक न बीजुरी की श्रागि, 
बीजरी न मारे बजमारे बदरान को। 
शंकरारि ( कामदेव ) के वशीभूत हुईं नायिका, श्टज्ञार सजाकर हाथ 
में आरती की थाली ले, अभिषार के लिए जाने के तैयार हुई । परल्तु 
अंधेरी रात और पानी बरसता देख द्वार के किवाड़ू पकड़े खड़ी रह गई | 
बह मन ही मन मावस की अँघेरी रात और उस पर वर्षा की धात को 
सोचती हुईं कद्दती हे--ऐसे में में किस प्रकार कृष्ण से जाकर मिलू । 
इन बजमारे बादलों पर बिजली भी तो नहीं गिरती जो ये इस प्रकार बेमौक़ 


बरस रहे हैं | 
दिवाभिसारिका 


जो नायिका दिन में , दिन के अनुरूप वस्त्र पहनकर, श्रभिसरण करती 
या नायक के संकेत-स्थल पर बुलाती है, उसे दिवाभिसारिका कहते हैं। 


यथा--- 
चबडकर ' -मएडल प्रचएड नभ मण्डल तें, 


घुमड़ी परत अली अलिगन लहरी। 
केहरि कुरंग इक संग बर बैर तजि, 
काहिल कलित परे सोहे तरू छुहरी । 
ऊरध उसासन ते सूखत अधर एरी, 
हेरि-.हेरि छुतियाँ हमारी जाति हृहरी। 
गाढ़ी प्रीति कोन की हिये में ग्राइ बाढ़ी जाइ, 
ठाढ़ी सिर लेति ऐसी जेठ की दुपहरी। 
शझ्रोर भी देखिए--- 
सारी जरतारीकी कलक मलकत तैसी, 
केसरि को अंगराग कीम्हों सब तन में | 


अकणलनक जाफकिणा पनिकक "० पाक लक 


_असकन्‍्>+मनसामकीनन नारे >०न पा ल्‍लसस-नन 7 


$-खूपय। 


( २०३ ) 


तीखन तरनि की किरनि हूँ तें दूनी दुति. 
जगत जवाहिर जटित आमरन में। 
कवि 'मतिराम' झ्राभा अंगन शअ्रगार केसी, 
धूम केसी घार छवि छाजति कचन में । 
ग्रीपम दुपहरी में पिय को मिलन जाति, 
जानी जाति नारि न दबारी जाति बन में। 
नायिका ने जैसी जरी की साड़ी पहनी हुई है, वेसा ही केसर का अज्भ 
राग भी लगा लिया है | सुनददरी आभूषणों की ्वति सूय की किरणों से 
दुगनी दिखाई देती है | नायिका के प्रत्येक अंग से श्रग्नि कीसी आभा 
भलक रही है, जिसम॑ उसके केश-पाश धूम-घार-से प्रतीत होते हैं। इस 
प्रकार वेश-भूषा से सजकर, ग्रीष्म की दुपददरी में शग्रभिसार को जाती हुई 
नायिका, ऐसी जान पड़ती है मानो वन में दवाग्नि चली जा रही हो । 
अभिसार के स्थान--सा हित्य-दपंणकार ने श्रभिसार के निम्नलिखित 
स्थान बताए हँं--खेत, बगीचा, टूटा देवालय, दूती-णह, बन, शुन्यस्थान, 
श्मशान, नदी श्रादि का तट अ्रथवा अन्धकारावृत कोई भी जगह । 
इसी प्रत्तंग में कविवर विश्वनाथजी ने भिन्न-भिन्न प्रकार की नायिकाओं 
के ग्रभिसार करने का ढंग भी बताया है । वह इस प्रकार--- 
यदि कोई कुलोन कामिनी अभिसरण करेगी, तो वह अपने शरीर 
को भले प्रकार वस्नों से ढक कर धुंघट काढ़ लेगी, श्रौर लजाती हुई दबे 
पैरों चलेगी, जिससे आभूषणों का शब्द न होने पावे | 
यदि वेश्या अभिप्तरण करेगी, तो वह वद्चालझ्डारों से भ्रच्छे प्रकार 
सुसज्जित हो, आ्रभूषणों को भनकारती और श्रानन्द से पुस्कराती हुई 
आयगी । 
यदि कोई दासी अभिसरण करेगी, तो मारे प्रसन्नता के उसके दोनों 
नेत्र विकसित हो रहे होंगे, तथा नशे के कारण वह अ्रटपटी बातें करती एव 
त्रटपटी चाल चलती हुई आयगी | 


( २०४ ) 


प्रवत्स्यत्पतिका 


जो नायिका अपने प्रिययम के परदेश जाने का समाचार सुनकर 
व्याकुल हो उठती है, उसे प्रवत्स्यत्पतिका कहते हैं | इसके भी मुग्धघादि 
पाँच भेद माने गए हें । 
मुग्धा प्रवत्स्यत्पतिका 
जउदादरण में कविवर मतिरामजी का नीचे लिखा पद्य पढिए--- 
जा दिन तें चलिवे की चरचा चलाई तुम, 
ता दिन ते बाके पियराई तन छाई है । 
कहे * मतिराम ' छोड़े भूषन बसन पान, 
सखिन सों खेलनि हँसनि बिसराई हे। 
आई श्रुतु सुरभि सुहाई प्रीति वाके चित, 
ऐसे में चलो तो लाल रावरी बड़ाई हे । 
सोवति न रैनि-दिन रोवति रहति बाल, 
बूक ते कहति सुधि मायके की आराई हे । 
नायक के परदेश जाने की चर्चा सुनते ही नायिका ने रोना शुरू कर 
दिया, वह साफ़-साफ़ नहीं कहती कि में प्राणनाथ के परदेश जाने के 
कारण रोती हूँ, बल्कि इस भाव को छिपाकर यह बहाना बनाती है कि 
मुझे तो अपने मा-बाप, भाई-बहन की याद आ रही हैं, इसीलिए मेरी 
आँखों से श्रोंयू बद रहे हैं । 
और भी देखिए, प्रवत्स्यत्यतिका के उदाहरण में निम्नलिखित दोहे 
कितने सुन्दर हैं--- 
बोलत बोल न बलि बिकल थरथरात सब गात। 
नव जोबन के आगमन सुनि प्रिय-गमन प्रभात ॥ 
मुग्धा नायिका प्रातः प्रिय-गमन की चर्चा सुन कुछ भी नहीं बोलती, 
केवल विकल होकर कॉपती है । 
>< >< >< >< 


५ (९०+४ ) 


श्राज सखी हों सुनति हों, पौ फाटे पिय गौन। 
पौ में क्षौ में होड़ है, पहले फाटे कोन॥ 
देखूँ पहले पौ फटती है, या मेरा द्दय विदीण होता है। देखिये-- 
इसी प्रसंग का दुसरा दोहा 
सजन सकारे जायेंगे, नेन मरंगे रोय । 
विधना ऐसी रैन कर, भोर कभू ना द्वोय ॥ 
सुना है, कि सबेरे प्राण-पति परदेश चले जायंगे, हे विधाता | ऐसी 
“ रैन ' कर दे कि भोर कभी नहो। यानी रात ही बनी रहे, जिससे 
प्राशपति परदेश न जा सके । 


नीचे लिखा ग्वाल कवि का कवित्त मुग्धा प्रवत्स्यतृपतिका का केसा 
श्रनूठा उदाहरण दे | देखिए.--- 
ससिमुखी सूक गई तब ते बिकल भई, 
बालम बिदेसहु को चलिबो जबे कयो । 
दूध दही श्रीफल रुपैया घरि थारी माँहि, 
माता सुत-भाल जबै रोरी को टीको दयो। 
ताँदुर बिसरि गये, बधू सों कह्यो ले श्राउ--- 
तब तें पसीना छुटयो मन, तन कों तयो । 
ताँदुर ले आई तिया आँगन में ठाढी रही, 
करके पसारिवे में भात हाथ में भयो। 
पति के विदेश जाने की तैयारी देख नायिका संभावित विरह-ताप से 
जलने लगी । उसके शरीर से पसीना छूट निकला। माता ने पुत्र के 
मस्तक पर विदाई का तिलक लगाया, तो देखा कि थाली में चावल ही न 
थे। बहू से चावल लाने को कहा गया। वह मुट्ठी में चावल लेकर आई, 
परन्तु सास के पास पहुँचते-पहुँचते हाथ फे पसीना और विरह-ताप की 
गर्मी से मिल कर चावलों का भात होगया। विरह-जन्य ताप का कितना 
अत्युक्ति-पूर्ण वर्णन है । 


( २०६ ) 


पध्या प्रवत्स्यत्पतिका 
गंग कवि ने मध्या प्रवत्स्यत्पतिका का केसा सुन्दर उदाहरण दिया है- 
बैठि हे सखिन संग पिय को गमन सुन्यौ, 
सुख के समूह में वियोग आ्रगि भरकी। 
'गंग? कहे शत्रिविध सुगंध ले बह्मौँ समीर, 
लागत ही ताके तन भई त्रिथा ज्वर की। 
प्यारी को परसि पोन गये। मानसर ये सु-- 
लागत ही औरे गति भई मानसर की। 
जलचर जरे ओर सेवार जरि छार भई, 
जल जरि गयौ पंक सूख्यों भूमि दरकी। 
इस नायिका ने तो अपनी विरद्याम्मि से जल, थल, प्रथ्वी-पवन सबही 
को भस्मसात्‌ करने की ढठान ली । जीव-जन्तुश्रां का ख़ातमा ही कर दिया ! 
इस प्रसंग में दास कवि का नीचे लिखा सवैया भी पढ़ने लायक है-- 
बात चली यह है जब तें तब ते चले काम के तीर हजारन। 
नींद श्रो भूख चली तन ते अँसुआ चले नेनन ते सजि घारन । 
“दास? चली कर ते बलया' रसना* चली लंक ते लागी ग्रबार न | 
प्रान के नाथ चले अनतें' तनतें नहिं प्रान चले केहि कारन | 
_ नायिका कहती है, प्राणनाथ तो परदेश को जाने लगे, परन्तु मेरे 
ध्राण शरीर से क्‍यों प्रयाण नहीं करते | 
प्रोढ़ा प्रवत्स्यत्पतिका 
उदाहरण में मतिरामजी का कवित्त देखिए---- 
मलय समीर लागे चलन सुगंध सीर, 
पथिकन कोन्हें परदेसनि तें आवबने । 
'मतिराम” सुकवि समुहन कुसुम फूले, 
कोकिल मधुप लागे बोलन सुहावने । 


..._ ३--कंकश या चूड़ी | २--कौंधनी | ३--अस्यश्र--विदेश | 


जब अफिल्कल+- सम 


( २०७ ) 


आये दे बसन्‍्त भये पल्‍लवित जलजात, 
तुम लागे चलिबे की चरचा चलावने । 
रावरी तिया को तझ्वर सरबरन के, 
किसलै कमल हे हैं बारक बिछावने । 
कैसी सुन्दर सुखद वसन्तश्री दिखायी दे रही है, ऐसे आनन्दमय 
समय में जो लोग परदेश में थे, वे भी अपने घर वापस श्रा रहे हैं, परन्तु 
मेरे प्राशनाथ | तुमने बाहर जाने की तेयारी कर दी |! है कि नहीं श्रन्घेर 
की बात ! 
इस प्रठंग में देव कवि का भी नीचे लिखा कवित्त पढने योग्य है--- 
नील पट तन पे घटान सी घुमाइ राखों 
दन्त की चमक सों छुटासी बिचरति हों । 
हीरनि की किरने लगाइ राखों जुगुनू सी, 
कोकिला पपीह्ा पिकबानी सों ढरति हों । 
कीच अ्रंसुवान की मचाऊँ कवि 'देव' कहे, 
पिया को विदेस हीं सिधारिवों हरति होँ। 
इन्द्र केसो धनु साजि बेसर कसति श्राज, 
रहुरे बसन्‍्त तोदि पावस करति हाँ। 
ठहर वसन्‍्त, ठहर ! तुझे श्रभी वसन्‍्त से पावस बनाती हूँ । इस 
श्रदूभुत पावस में मेरे शरीर की नीली साड़ी घन-घटा का रूप धारण करेगी, 
दाँतों की दमक ब्रिजली की तरह चमकेगी, द्दीरों की किरण जुगनू की-सी 
जगमगाहट पैदा कर देंगी, और मेरा मृदुभाषण पपीहा की बोली का काम 
करेगा | श्रॉसुओ्ों की वर्षा से सवन्र कीच ही कीच हो जायगी। फिर 
देखना है, प्राणनाथ कैसे परदेश जाते हैं ! भला पावस में भी कोई घर से 
बाहर जाया करता हे | 
श्रोर भी देखिए--- 
साने के परागन सों रागन रचत भौर, 
हे गए हैं बोरे आम बागन भुके परें। 


( रेण्द ) 


प्रटभ पलासन हुतासन सो सुलगत, 

बन ओर मन देत अ्रंग अंग पै जरें। 
कहे कवि 'सिव” अ्रब॒ आयो ऋतुराज ब्रज, 

ऐसे में वियोग बातें कोऊ हियरे घरें। 
देखो नए. पक्षव पवन लागे डोलें मानो, 

चलत विदेसन विदेसिन मना करें। 


प्राणनाथ, देखते नहीं हो, केसी सुन्दर वसन्त-श्री छायी हुई दे । ऐसे 
में कोन परदेस जाता है । तरु, गुल्म, लताओं के ये नये-नये पत्ते इधर- 
उधर हिल-हिल कर मना कर रहे हैं कि ऐसे सुखमूल समय में किसी को 
घर छोड़ कर न जाना चाहिये ! 


परकीया प्रवस्यत्पतिका 


मतिरामजी ने परकीया प्रवत्स्यत्यतिका का केसा सुन्दर उदाहरश 
दिया है । देखिये-- 


मोहन लला को सुन्यों चलन बिदेस भयो, 
बाल मोहदनी को चित्त निपट उचाट में। 
परी तालाबेली तन मन में छुबीली राखे, 
छिति पर छिनक छिनक पाँव खाट में। 
पीतम नयन  कुबलयन कों चन्द घरी, 
एक में चलेगो 'मतिराम' जिहि बाट में। 
नागरि नवेज्ञी रूप आगरि श्रकेली रोती 
गागरि लै ठाढ़ी मई बाट द्वी के घाट में । 


जब परकीया को अपने प्रिय के परदेश जाने का समाचार मिला, 
तो वह हक्‍की-बक्की रह गयी | उस समय उसे और तो कुछ यूभा नहीं, 
रास्ते में रीता घड़ा लेकर झा खड़ी हुई, जिससे शकुन बिगड़ जाय और 
प्यारा विदेश जाने का विचार त्याग दे । 


( २०९६ ) 


यहाँ पद्माकरजी का निम्नलिखित सवेया भी देखने योग्य है--- 

जो उर भार नहीं भकरसी मृदु मालती माल बहे मग नाखे। 

नेहबती जुबती 'पदमाकर” पानी न पान कछु अ्रभिलाखे। 

ऊाँकि भरोखे रही कब की दबकी वह बाल मने मन भाखे। 

कोऊ न ऐसो हिवू हमरो जु परौसिनि के पिय कों गहि राखे। 

क्या करे बेचारी, विवश होकर छिपी-छिपी इधर-उधर भरोखों में 
झाँखती फिरती है, खान-पान त्याग दिया है, उसकी यही एकान्त 
अभिलाषा है कि कोई ऐसा हो जो इस “ परोसिन के पिय” श्रथ्थांत्‌ मेरे 
प्यारे को परदेश जाने से रोक दे | 


आगतपतिका' 
जिस नायिका का हृदय प्रियतम के प्रवास से लौटने पर आनन्द से 


भर जाता है, वह आगतपतिका कहाती है। इसके भी मुग्धा श्रादि पाँच 
मेद किये गए हैं । 


मुग्धा आगतपतिका 

वादि* ही चन्दन चारू धिसे घनसार घनो घेंसि पक बनावत | 

वादि उसीर समीर चहद्दे दिन-रैनि पुरैनि" के पात बिछावत। 

आपु ही ताप मिटी '(द्विज देव” सुदाघ निदाघ की कोन कद्दावत । 

बावरी तू नहिं. जानति आज मयंक लजावत मोहन आवत । 

श्री सखी, व्यथ ही तू ये घिसापिसी कर रही है! अब चन्दन 
और कपूर की क्या ज़रूरत है, ख़त और कुमुदिनी के पत्तों को क्‍या 
करेगी | श्रव तो अपने आप सब ताप मिट जायगा, शायद तुमे मालूम 
नहीं कि आज प्राणनाथ घर भा रहे हैं । 

नीचे लिखा सवबैया भी मुग्धा आगतपतिका का केसा सुन्दर 
उदाहरण दे-- 

१--किसोी-किसी मे झ्रागतपतिका को आगसिष्यतपतिका नाम से 

लिखा है। २--ध्यरथ । ६--कुसुदिनी । 
हि० न०-- १४ 


( २१० ) 


कानि करे गुरु लोगन की न सखीन की सीखन ही मन लावति । 

एंड भरी श्रेंगगाति खरी कत घूंघट में नए नेन चलावति। 

मज्नन के, हग अज्जन आ्ॉजति अ्रंग श्रन॑ग उमंग बढ़ावति । 

कोन सुभावरी तेरी पर॒यौं खिन श्राँगन में खिन पौरि में श्रावति । 

पति के आने पर मुग्धा नायिका ऐसी श्रानन्द-विहल दो गई हे कि 
उसे गुरुजनों का भी संकोच नहीं रहा | वद चाहे जहाँ खड़ी अ्रंगढ़ाइयाँ 
लेने लगती है। कभी स्नान करके नेन्रों को अ्रश्ननादि से अ्लंकृत करती हे, 
कभी आँगन में श्राती है और कभी दोड़ कर पौरी में जाती है । 


मध्या आगतपतिका 
उदाहरण में मतिरामजी का सवैया पढ़िए--- 


चन्द्रमुखी सजनीन के संग हुती पति अ्ंगनि में मनु फेरत। 

ताहि समे पिय प्यारे की आगम प्यारी सखी कट्यौ द्वारते टेरत । 

आय गए. ' मतिराम * जबत्रे तब देखत नेन अ्रनंद भये रत । 

भौन के भीतर भाजि गई हँसि के दृस्वे हरि को फिर हेरत | 

पति के आ्राने का शुभ संवाद सुनकर नायिका सखियों का साथ छोड़ 
कर खिलखिलाती हुईं घर के भीतर भाग गयी। भला इस प्रसन्नता का 
भी कुछ ठिकाना है ! 

कविवर पद्माकरजी ने भी इस प्रसंग में क्या ही भ्रच्छा कहा है-- 

नंदगाउँ ते आइगो नन्‍्दलला लखि लाढ़िली ताहि रिभक्राय रही | 

मुख घुँघठ घालि सके नहिं मायके मायके पीछे दुराय रही | 

उचके कुच कोरन की ' पदमाकर ? केसी कछू छबि छाय रही । 

ललचाय रही सकुचाय रही सिर नाय रही मुसिक्याय रही। 

नायिका मायके में थी, नायक भी वहीं पहुँच गया । मायके में भला 
बेटी पूँघट केसे काढ़े, अतः उसने अपना मुँह मा की पीठ के पीछे छिपा 
लिया ।...एक श्रोर पति के आने की प्रसन्नता थी, दूसरी ओर मायके का 
संकोच--दोनों भावों का मिश्रण बड़ा ही सुम्दर प्रतीत हुआ । 


( २११ ) 


इसी प्रसंग में कविवर प्रवीनराय का भी नीचे लिखा पथ्य पढ़ने 
लायक है-. 
सीतल समीर दढार मंजन के घनसार, 
श्रमल श्रेंगोडि भाले मन तें सुधारि हों। 
दे हों ना पलक एक लागन पलक पर, 
मिलि श्रभिराम श्राह्ली तपनि उतारि हों | 
कृत ' प्रवीनराय ” आपनी न ठोर पाय, 
सुन बाम नेन | या वचन प्रतिपारि हों । 
जब ही मिलंगे मोहि इन्द्रजीत प्रान प्यारे, 
दाहिनो नयन मूँदि तोही सों निद्दारि हों। 
नायिका की बाइ आँख फड़क-फढड़क कर उसे प्रिय-आगमन की 
सूचना दे रही हैं| इसीलिए वह कहती है, कि प्राशनाथ के आने पर में 
बाएं नेत्र से ही पहले उन्हें निहारूुंगी--उस समय सीधी श्राँख मूंद 
लेंगी। बाएँ नेत्र से इसलिए, कि उसने ही उनके श्राने की सब प्रथम 
सूचना दी। इससे उपद्दार के तौर पर उसे ही पहले प्रायनाथ के दशन 
का ग्रवसर दूँगी । 
यह प्रसिद्ध बात है कि स्त्रियों को बाई आँख या बारयाँ श्रज्च फड़कना 
शुभ होता है । 
इसी सम्बन्ध में कविवर तोष की भी उक्ति सुनिए, केसी सु न्दर है--- 
पंजनी गढाइ चोंच सोने तें मढ़ाइ दे हों, 
कर पर लाइ पर रुचि सा सुधरिहों। 
कहे कवि 'तोष! छिन अटक न लैहों कबों, 
कंचन कटोरे अटा खीर भरि घरिहों। 
ऐरे कारे काग तेरे सगुन संजोग गाज, 
मेरे पति आरा तो बचन तैंन टरिहों। 
करती करार तौन पहिले करोंगी सब, 
झपने पिया को फिरि पाछे अंक भरिदहां। 


( २५१२ ) 


मदाकवि विहारी का भी नीचे लिखा दोहा केसा उत्कृष्ट है-. 


बाम बाहु फरकत मिले जो हरि जीवन मरि । 
तौ तोही सों भेटि हों, राखि दाहिनी दूर॥ 


प्रौद्ता आगतपतिका 
देखिए, प्रौढ़ा आगतपतिका के उदाहरण में प्रहलाद कवि क्‍या 
कहते हैं-. न्‍ 
अआजु आली माथे ते सु बेदी गिरे बेर-बेर, 
मुख पर मोतिन की लरी लरकति है। 
घरत ही पग कौल चूरे की निकरि जाति, 
जब तब गाँठि जूरे हू की भरकति है। 
जानि न परत ' प्रहलाद ? परदेस पिउ, 
। उससि उरोजन सों आऑँगी दरकति है। 
* तनी तरकति कर चूरी करकति अंग-- 
सारी सरकति श्राँखि बाँर फरकति है। 
झरी सखी, श्राज बड़े श्रच्छे-अच्छे शक्रुन हो रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता 
हे कि भ्रव प्राणनाथ बहुत जल्द दशन देने वाले हैं। तू देखती नहीं कि 
माथे से बार-बार बिंदी गिरना, मुँह पर मोतियों की लड़ियों का लटक 
आना आदि सभी शुभ शकुन दिखायी दे रहे हें । 
नीचे लिखा देवजी का कवित्त भी प्रौढा श्रागतपतिका का केसा 
सुन्दर उदाहरण है, देखिये--. 
धाई खोरि-खोरि ते बधाई पिय श्रागम की, 
सुख कर कारिकोरि भाँवर भरति है। 
मोरि-मोरि बदन निहारति बिहारी भूमि--- 
भोरि-भोरि आ्रानंद घरी सी उघरति है | 
“देवः कर जोरि-जोरि बन्दत सुरन गुरु- 
लोगन के लोटि-लोटि पायन परति है। 


( २११३१ ) 


तोरि-तोरि मोतिन के हार पूरै चोकन-- 
निछावर को छोर-छोर भूखन घरति है । 

अरी सखी, प्रियतम के श्रागमन की सूचना पाते ही, उस नायिका के 
हथ का ठिकाना न रहा, मारे खुशी के वह अनेक बढहानों से बार-बार 
प्रियकम के पास चक्कर काटने लगी | कभी वह गदन मोड़न्मोड़ कर पति 
के मुख को निहारती, कभी लालन के सानन्द घर वापस आने के हृष में 
देवताओं की वन्दना करती और कभी बड़ी-बूढ़ियों के पैर पर लोटती । 
अरी बहन, वह तो ऐसी आनन्द विभोर होगई कि अपने हार तोड़-तोड़ 
कर मोतियों से चौक पूरने लगी तथा निछावर करने के लिए आभूषण 
उतार-उतार कर रखने लगी । 

परकीया आगतपतिका 


कविवर 'बैनी प्रबीनजीः ने परकीया आ्गतपतिका का उदाहरण 
इस प्रकार दिया है-- 


हक श्राली गई कह्टि कान में आय परी जहँ मेन मरोरि गई। 

हरि आए विदेश तें 'बैनी प्रबीन' सुने सुख सिन्धु हिलोरि गई । 

उठि ब्रैठि उतायल चाव भरी, तन में छुन॒ में छबि दोरि गई । 

जेहि जीवन की न रही हुती आस सेजीवन सी सु निचोरि गई। 

नायिका पति-वियेग से व्यथित होकर श्रपने जीवन से निराश हो 
चुको थी, इतने ही में एक सखो ने श्रचानक श्राकर प्रिय के परदेश से 
अ्राने की सुख-सूचना सुनाई । फिर क्या था, मुर्दा जिस्म में जान पड़ गयी । 
अथवा दुःखित द्वदय में हप॑ की हलोर उठने लगीं। जिस जीवन की झ्राशा 
ही न थी उसे संजीवनी-सुधा प्राप्त होगयी ! 

हसी प्रसंग में कविवर मदेशजी का भी उदाहरण देखिए-... 

सुनि बोल सुद्ावने तेरे अश्रटा यह टेक हिये में घरों पै घरों । 

मढ़ि कंचन चोंचि पंखीवन में मुकुताइल गँदि भररों पे भरों 

सुख पींजरे पालि पढ़ाइ घने गुन श्रौगुन कोटि हर्रों पै हरों। 

बिछुरे दरि मोहि 'महेश' मिलें तुद्दि कागते हंस करों पे करों। 


( रेश४ ) 


अट्टालिका पर सुबह ही सुबह कोझआ बोल रहा है। सबेरे कौए. का 
बोलना किसी प्रिय के आगमन की सूचना देता है। नायिका कहती है-- 
अरे काग, श्रगर मेरा बिलुड़ा प्रिय मुके मिल गया तो में तेरी चोंच 
सोने में मढ़ा दूँगी ओर पंखों में मोती गँघ दूँगी। निश्चय ही उस समय 
तू काग से हंस बन जायगा ! ज़रा उन्हें आने तो दे । 

उपयु क्त दश भेद मुग्धा, मध्या, प्रोढ्ा और परकीया में ही होते हैं । 
किसी किसी ने सामान्या में भी इन भेदों को माना हे, परन्तु सामान्‍्या में 
उक्त दश भेद मानना उचित नहीं जान पड़ता, इसीलिए हमने सामान्या 
के उदाहरण नहीं दिए । 


नायिकाशों के सात्विक अलड्भूगर 


अड्रज अकड़ार-वर्ण न 
भाष 

यौवनावस्था में नायिका के मुख अथवा शरीर के दूसरे अंगों में 
उत्पन्न होने वाले विविध विकारों के सात्विक भाव या सात्विक अलंकार 
कहते हैं | ये श्रलंकार तीन प्रकार के माने गए हैं--१ अंगज, २ श्रयत्नज 
और ३ स्वाभाविक | 

भाव, हाव श्रौर देला ये तीन अंगज अलंकार कहाते हैं । 

शोभा, कान्ति, दीप्ति, माधुय, प्रगल्मता, ओऔदाय और पेय, ये सात 
अ्रयत्नज अलंकार कहाते हैं, क्‍योंकि ये यत्न द्वारा प्राप्त नहीं किये जा 
सकते । 

लीला, विलास, विच्छित्ति, विव्वोक, किलकिद्चित, विश्रम, ललित, 
मोद्टायि', _इमित, विद्वत, मद, तपन, मौग्ध्य, विक्षेप, कुतृहल, हसित, 
चकित श्रौर केलि ये श्रठारह स्वभावसिद्ध होने से स्वाभाविक अलंकार 
कहाते हैं । परन्तु इन्हें यत्न पूवक भी प्राप्त किया जा सकता है । 

स्वाभाविक शग्लंकारों में से पहले के दश पुरुषों में भी हो सकते हैं, 
परन्तु इन सबके द्वारा चमत्कार र्त्रियों में ही उत्पन्न होता दे । 

नाट्यशाख्कार भरत मुनि ने केवल प्रथमोक्त दश अलंकार हो 
माने हैं। 

बाल्यावस्था के अ्रन्त और तारुण्य के प्रारम्भ-समय निर्विकार मन 
में जब पहले पहल काम-विकार उत्पन्न होता है, तब उसे 'भाव” कहते हैं । 

नाटयशासत्रकार ने वाणी, अंग, मुख, सत्व और अभिनय द्वारा 
अ्रन्तगंत मनोविकार प्रकट करने को “भाव” कहा है | 


( ११६ ) 


भाव के सम्बन्ध में मतिरामजी का उदाहरण देखिए --. 


गहि हाथ सों हाथ सद्देली के साथ में आवति ही बृषभानु लली । 
'मतिराम' सु वात ते आवत नीरे निवारति भौरन की श्रवली । 
लखि के मनमोहन सों सकुची, कह्मौ चाइति श्रापनि श्रोट लली | 
चित चोरि लियो,दग जोरि तिया, मुख मोरि कछू मुसक्याति चली | 


यहाँ वृषभानुलली के निविकार मन में पहले-पहल मनमोहन के 
प्रति प्रीति के अंकुर उत्पन्न हुए. हैं, जिससे वह सकुचा गई और मेंह मोड़ 
कर मुस्कराने लगी। मानो नन्दनन्दन ने श्राँखे मिलाकर राधिका का चित्त 
चुरा लिया । 


इस प्रसंग में संस्कृत का भी एक उदाइरण दिया जाता है, देखिए-- 
स॒ एवं सुरभिः काल; स एवं मलयानिलः । 
सेवेयमवला किन्तु मनोडन्यदिव हृश्यते ॥ 
वही वसनन्‍्त ऋतु है, वही मलयानिल और वही यह रमणी है, परन्तु 
खआझाज उसका मन कुछ और ही दिखाई देता हे । 


यहाँ भी तारुए्य उदय होने पर, वसन्‍्त ऋतु के कारण रमणी के 
मनो भाव कुछ ओर ही दिखाई देते हैं। 


हाव 
भ्कुटी तथा नेत्रादि के विलक्षण व्यापारों से संभोगादि की इच्छा 
प्रकाशित करने वाले भाव जब श्रल्प मात्रा में लक्षित होते हैं, तब उनकी 
“'हाव! संज्ञा होती है । अथवा यों कहिये कि रति-समय में नायिका की 
स्वाभाविक भावभंगि को हाव कहते हैं। हाव और भाव में यह श्रन्तर 
है कि भाव मन में रहते हैं, श्रोर ह्वाव श्रनिक्तेप आ्रादि चेष्टाश्रों द्वारा 
बाहर प्रदर्शित होने लगते हैं । 


हिन्दी में देला, लीला, विलास श्रादि श्रलड्लार हाव के श्रन्तगंत ही 
माने गए हैं, परन्तु साहित्यदर्षणकार ने उन्हें श्रलग रखा है। लक्षण 


( २१० ) 


दोनों ने एक से ही किये हैँ । संयेग शशज्जार में द्वी इनका उपयोग होता 
है, श्रन्य रसों में नहीं । 

रसतरंगिणीकार स्त्रियों की स्वाभाविक श्वज्धार-चेष्टा को हाव कहते 
हैँ । उन्होंने भी लीला, विलास श्रादि दश स्वाभाविक श्रलंकारों के हाव 
के अवान्तर भेद माना है। इनमें से लीला, विलास, विच्छित्ति, विश्वम 
और ललित इन पॉँचों को शारीरिक द्वाव; मोट्टायित, कुदमित, विव्वोक 
ओऔर विद्वत इन चारों को मानसिक हाव तथा किलकिज्चित को संकीर्ण 
हाव बतलाया है । 


नीचे लिखा संस्कृत का श्लोक हाव का केसा सुन्दर उदाहरण हे-... 


विवृए्वती शेल-सुतापि भावम्‌-- 

अज्ञे: स्फुरदूबाल कदम्ब कल्पैः । 
साचीकृता चारुतरेण  तस्थौ, 

मुखेन पयस्त  विलोचनेन ॥ 


इन्द्र के कहने से कामदेव ने हिमालय में भी अश्रपना मोहक माया- 
जाल फैलाया, जिससे पावती के देखकर महादेवजी का चित्त चलायमान 
हो उठा | उत समय विकासोन्मुख कदम्ब-कुसुम की भाँति (रोमाश्चयुक्त) 
कोमल अंगों द्वारा अपना मनोभाव व्यक्त करती हुई पावती, तिरदी 
चितवन युक्त वदनारविन्द से सुशोभित, कुछु तिरल्ली-सी खड़ी रहीं । 

यहाँ पावंती जी के शरीर का रोमाञ्चयुक्त होना तथा तिरछ्ठी चितवन 
से देखते हुए तिरछा खड़े रहना, उनके मनोगत भावों का परिचायक है । 


हेला 
जब भाव पूर्ण स्फुटता से परिलक्षित होता हे, तब उसकी ' हेला ! 
संशा होती हे । 
भरत मुनि के मत में श्रज्ञार रस से उत्पन्न हुआ हाव जब ललित 
ग्रभिनय युक्त होता है, तब उसे 'देला ' कहते हैं । 


( श्श्८ ) 


देला के उदाहरण में पद्माकरजी का सवैया देखिए-- 

फाग की भीर ञ्रभीरिनि में गहि गोबिन्दे ले गई भीतर गोरी। 

भाई करी मन की 'पदमाकर” ऊपर नाइ अबीर की भोरी। 

छीनि पितम्बर कम्मर तें सु त्रिदा दई मींडि कपोलन रोरी। 

मैन नचाइ कही मुसुकाइ लला फिरि आइओश्नों खेलन होरी। 

यहाँ गोपियों ने गोविन्द के साथ होली खेल कर खूब मनमानी की ! 
कपोलों से गुलाल मल दिया तथा उनका पीताम्बर छीन लिया, और अन्त 
में वे विदा देते हुए श्रॉले नचाकर मुस्कराती हुई बोलीं-अश्रच्छा लला, 
ज़रा फिर होली खेलने आना ! 

उपयक्त भाव, हाव और देला तीनों अ्रद्भधज अलंकार उत्तरोत्तर एक 
दूसरे से उत्पन्न होते हँ--श्रर्थात्‌ भाव से हाव और हाव से देला की 
उत्पत्ति मानी गई है। ५ 

अयत्नज अलंकार-वर्ण न 
शामा 

रूप, यौवन, लालित्य, सुखभोग आदि से सम्पन्न शरीर की सुन्दरता 
को 'शोभा? कहते हैं। शोभा-सम्पन्न शरीर विना श्राभूषणों के भी सुन्दर 
प्रतीत होता है । 

शोभा के उदाहरण में इहरिश्रोधघजी के नीचे लिखे दोहे केसे 
सुन्दर हैं- 

छुन छुन नवता लह्षत हे छुवि छुलकति श्रवदात | 


चन्द सरिस सुन्दर बदन मृदुल सलोनो गात ॥ 
>< >< >< 


तिल बनि जाति तिलोत्तमा काम कामिनी छाम । 
है ललाम ताको निलय ललना रूप ललाम ॥ 
उपयंक्त दोहों में तारश्य-जनित शोभा का कैसा अच्छा वर्णन किया 
गया है । इसी सम्बन्ध में, अब ज़रा किसी संस्कृत के कवि की कल्पना भी 
देखिए. 


( २१६ ) 


अग्रसम्भतं मण्डनमज्ज यष्टे-.- 
रनासवाख्यं करण मदस्य। 
कामस्य पुष्प-व्यतिरिक्तमस्त्र॑, 
बाल्यात्परं साए्थ वयः पपेदे ॥ 
जो अज्जलता का विना गढ़ा हुआ ( अक्ृत्रिम ) भूषण हैं, जो आसव 
( शराब ) न होकर भी मद उत्पन्न करने वाला है, जो पुष्प न होकर 
भी कामदेव का अख्र है, उसी बाल्यावस्था के पश्चात्‌ आने वाले यौवन 
को पावंतीजी ने प्राप्त किया । 


कान्ति 


काम-विलास द्वारा अत्यधिक बढ़ी हुई, श्रथवा जिसके द्वारा अत्यधिक 
कामोद्दीपन हो, ऐसी शोभा को 'कान्ति' कहते हैं । 
उदाहरण देखिये--. 
काम कलामय हो लसति हरति कल्पना क्रान्ति । 
विकसे अभिनव कुसुम सी काम्तिमयी की कान्ति ॥ 
>< )< >< 
बिलसे अबला श्रंग में काम कला की जोति। 
चामीकर से गात की चमक चौगुनी होति॥ 
तरुणी के अंग में, काम-कला की ज्योति विकसित होने के कारण 
सोने-से शरीर की काम्ति ही कुछ और हो गई है। स्वण॑-सुगन्ध संयोग 
इसे ही कहते हैं । 
काम्ति के सम्बन्ध में संस्कृत का भी एक उदाहरण देख लीजिए...- 
नेत्रे खज्ञषन गज्ज़ने सरसिन्र प्रत्यथ पाशिदयम । 
यच्तोजोी करि-कुम्म-विश्र मकरीमत्युश्नतिं. गच्छुत:। 
काम्ति: का झन-चम्पक-प्रतिनिधिवांणी सुधा स्पद्धिनी, 
स्मे रेस्दीवर-दाम सोदर वपुस्तस्या: कटाहझच्छुटा: |। 


( रै२० ) 


उस सुन्दरी की श्रोंखें खज्जन पक्की के परास्त करने वाली हैं। दोनों 
कोमल कर कमलों से प्रतियोगिता कर रहे हैं। स्तन करि-कुम्भ की भाँति 
अत्यन्त उन्नत हो रहे हैं, उसके देह की कान्ति सुबण ओर चम्पा के 
फूल की तरह हे, तथा मधुर वाणी सुधा-रस बरसाने वाली है । उसके 
कटाक्षों की छुटा विकसित कमल-पुष्पों की माला के समान सुशोभित है । 
दोप्ि 
अत्यधिक मात्रा में बढ़ी हुई कान्ति के ही 'दीपि? कहते हैं, यथा-- 
दीपावलि तन दुति निरखि दबकी सी दिखराति। 
विविध जोति उजरी फिरति जरी बीजुरी जाति ॥ 
>< >< >८ 
विलसत योवन में अद्दे वाको भाव श्रनूप। 
लोक विकासक काम को दुति दे विकसित रूप |। 
सुन्दरी की तन-दुति देखकर दीपावली छिपी जाती है, श्रोर बिजली 
जलने लगी दे । 
>< >< >< >< 


सुन्दरी की ्ुति को लोक-विकासक काम का विकसित रूप समझना 
चाहिये । 


दीप्ति के सम्बन्ध में कविराज विश्वनाथ का भी निम्नलिखित उदाहरण 
पढ़ने योग्य है-- 
तारण्यस्य विलास; समधिक लावण्य सम्पदो द्वास: । 
धरणितलस्याभरणं युवजन-मनसो वशीकरणम |। 


वाह ! चन्द्रकला तो मानो योवन का विलास तथा बढ़ी हुई लावण्य- 
सम्पत्ति का मधुर द्वास है । इतना ही क्‍यों, यदि उसे प्रथिवी का श्राभूषण 
और नवयुवकों के मन को श्राकृष्ट करने वाला वशीकरण मन्त्र कहा जाय 
तो अत्युक्ति न होगी। 


( २२१ ) 


माधुय 
प्रत्येक दशा में रमणीय द्वोना ही 'माघुय” कहता हे । 
माधुय के उदाइरण में आगे लिखे गए. दोदे कितने सुन्दर हैं. 
देखिए-. 
अधर पान की पीक तें श्रधिक ललाम लखात। 
मिसी मले नवला दसन नव नीलम बनि जात ॥ 
>८ ८ >< 
तिरछे चलि लहि बंकता करि चंचलता मान । 
अधिक मधुमयी बनति हैं ललना की अखियान ॥ 
मिससी मलने से नवला के दाँत “नव नीलम? की पंक्ति के समान दमक 
रहे हैं । 
>< >८ >< 
तिरछी चितवन से तो ललना की सहज श्आाकपंक आँखें और भी 
ग्रधिक मदमाती बन गई हैं | 
माधुय के उदाहरण में संस्कृत के किसी कवि का निम्नलिखित 
पद्म भी पढने योग्य हे--- 
सरसिजमनुविद्ध शैवलेनापि रकम्यं, 
मलिनमप हिमाशोलक्ष्म लक्ष्मी तनोति। 
इयमधिक मनोशा वल्कल्षेनापि तन्वी, 
किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम ॥ 
राजा बल्‍ल्कल-धारिणी तपस्विनी शकुन्तला को देख कर कहते हँ- 
अहा | सिवार से लिपटा हुआ भी कमल ( इसका शरीर ) केसा शअ्रच्छा 
मालूम देता हे। चन्द्रमा में काला चिन्ह भी उसकी शोभा बढ़ाता है। 
सच है, सब द्वी चीज़ों से मधुर आकृतियों की छुबि बढ़ने लंगती है । 
प्रगसभता 
रति-क्रिया में निभय होने का नाम “प्रगल्भता” है | इसमें रमणियाँ 


( र२२ ) 


आलिंगनादि के बदले में, स्वयं भी उन्हीं व्यापारों को करके प्रियतम को 
दास बना लेती हैं । 
उदाहरण देखिए-- 
साँकहिते रति की गति जेतिक कोक के आसन जे गिरा गावति । 
वारिज नेननि बारहिबार न चूमिवे के मिस मोर छुपावति। 
केलि कला के तरंगन सों हठि मोहनलाल कों ज्यों ललचावति । 
अंक में बीति गई रतियाँ हैं तऊ छुतियाँ हिय छोड़ि न भावति | 
>८ >< >< 
दोऊ श्रालिगन करहिं दोऊ करहिं कलोल। 
पिय को तिय तिय को पिया चूमत अधघर कपोल। 
उपयुक्त पक्तियों में निर्भय होकर रति करने का वर्णन हे । 


ओदाय 
प्रत्येक दशा में विनीत रहने को 'औऔदाय” कहते हैं, यथा-- 


मधुर बोलि सनमान करि सब को हित उर धारि। 
करति सदन को सुर-सदन सुर-ललना-सी नारि। 
सब की शुभ कामना करती हुईं, देव-तिया-सी ललना, मीठी बोली 
बोल कर अ्रपने घर को 'सुर-सदन? के समान बना देती है । 
श्रोदाय के सम्बन्ध में नीचे लिखा श्लोक भी कैसा सुन्दर है -- 
न ब्रूते परुषं गिरं वितनुते न श्र॒युगं भद्जरं, 
नोतंसं क्षिपति च्षितौ भ्वणत: सामे स्फुटेदप्यागसि । 
कान्‍्ता गम एहे गवाक्ष-विवर व्यापारिताक््या बहिः, 
सख्या वक्तुममिप्रयच्छति पर पयंभ्ुणी लोचने ॥। 
मेरा स्पष्ट अपराध होने पर भी, वह कामिनी कठोर शब्द नहीं कहती, 
न भोहें चढ़ाती है श्रौर न क्रोध के कारण आभूषणों को उतार-उतार कर 
फेकती है | हाँ, वह भरोखों में होकर सजल नेत्रों से अपनी सखी की ओर 
ताकने अवश्य लगती है | 


( २२३ ) 


पेये 


न ग्रात्मशलाघा से युक्त अचश्चल स्वाभाविक मनोवृत्ति का नाम 
4सैजा १ हे। 
धेय के सम्बन्ध में तोषप कवि का नीचे लिखा सवैया देखिए... 
कुल के डर सों, परलोक सों लोक सों हों न ढर्रों बु डरौ सुढरो । 
कवि 'तोष' कहे मनमोहन सों वह मो मन मूठ ठरो सु ढरो। 
मोहि देखि जरौ सो जरौ जग में श्रौ, मरौसों मरी श्रो लरौ सो लरौ | 
करि कोल करार टरों न कर्बों करि कौल करार टरो सो टरोौ। 


नायिका को न कुल-कानि का डर है ओर न लोक-लाज का | वह 
अपने 'कोल' पर बड़ी दृढता में डटी हुईं हे। इसी श्रचञचल मनोकृत्ति 
का नाम पेय है। 
श्रौर भी उदाहरण देखिए--- 
नव प्रसून नावक बनें पावक मलय समीर | 
परम घीर अनुरागिनी हे दे नाहिं श्रधीर ॥ 
भले ही नव विकसित प्रयून प्राणय-बातक बन जायें, और मन्द मलय- 
समीर प्रचणड पावक का रूप धारण करले; पर अनुरागिनी कदापि पैयं न 
छोड़ेगी । 
पिय मुख चन्द्र चकोरिका जोहे पंथ निद्दारि । 
सुधा बिन्दु होवे गरल बरसे इन्दु श्रेंगार ॥ 
सुधा चादे अपना स्वभाव छोड़ कर विषम विष-बिन्दु बन जाय, इसी 
तरह सुधाकर भी चाहे अँगारे बरसाने लगे--अपने कतंव्य से विचलित 
हो स्वभाव के प्रतिकूल काय करने लगे, परन्तु परम घीरा अ्नुरागिणी 
नायिका प्रियतम के आगमन की प्रतीक्षा में उसकी बाट जोहती रहेगी । 
इसी प्रसंग में संस्कृत का भी नीचे लिखा उदाहरण देखने लायक़ है-. 
ज्वलतु गगने रात्री रात्रावखण्ड-कलः शशी, 
इहतु मदनः किवा मृत्याः परेण विधास्यति ९ 


( २२४ ) 


मम तु दयितः श्लाध्यस्तातो जनन्यमलान्वया । 
कुलममलिनं न त्वेवायं जनो नच जीवितम || 


काम पीड़िता विरह्टिणी कद्दती हे,--चन्द्रमा रोज़ रात्रि को अंगारे 
बरसावे--चिन्ता नद्दीं, कामदेव जितना भी जला सके, जलाता रहे, वह 
आख़िर मार द्वीतो डालेगा, इससे श्रधिक तो कुछ नहीं कर सकता | 
इस अस्थिर शरीर और प्रा्ों के लिए में श्रपने पति के और पिता के 
पवित्र कुलों को कलंकित न करूँगी श्र्थात्‌ पतित्रत धर्म से विचलित न 
दोऊँगी | कितना उच्च आ्रादश है, धर्म में कितनी अटल दृढता है। शाख््रों 
में कहा भी दे-- 

न जातु कामानन भयानन लोभात्‌- 
धर्म त्यजेज्जीवितस्यापि द्ेतोः | 
घमी नित्यो जीवितं चाप्यनित्यं, 
देहोएनित्यो.. देतुरस्याप्यनित्यः ॥ 
स्वाभाविक अलझ्भार-वर्ण न 
लोला 

अत्यन्त श्रनुराग के कारण, श्रंग, वेश, अलंकार ओर प्रेम-भरे वचनों 
द्वारा नायकननायिका के परस्पर अनुकरणु करने को लीला” कहते हें। 
इसमें प्राय: नायक-नायिका दोनों श्रनुरागवश होकर एक साथ ही, एक 
दूसरे की वेश-भूषा धारण कर परस्पर प्रसन्न करने की चेष्टा करते हैं । 

लीला के उदाहरण में भुवनेशजी का निम्नलिखित सवेया देखिए--- 

रूप रच्यो हरि राधिका को उनहू इरि रूप रच्यो छबि छावत। 

गावत तान तरंग दुहूँ दुहूँ भाव बताय दुहूँन रिकावत। 

त्यों 'भुवनेश” दुहूँन के नेन दुहँन के आनन पे टक लावत | 

छाइ रही छुबि बेसई री सुनी जो हुती चन्द चकोर कहावत । 

भाव स्पष्ठ ही हे । इसी सम्बन्ध में देवजी का भी सवैया नीचे दिया 
जाता है, उसे भी पढ़ लीजिये | 


( २२२ ) 


कालि भट्ट बनसीबट के तट खेल बड़ी इक राधिका कीन्दो। 
साँक निकुझनि माँक बजायो.जु स्याम को बेनु चुराइ के लीन्दहो । 
दूरि तें दौरत 'देव” गए सुनि के धुनि रोस महा चित चीन्हों। 
संग की औरे उठी हँसि कै, तब देरि हरे दरिजू हंसि दीन्हो। 


है सखी, कल राधिका ने बड़ा तमाशा किया | उसने मोहन की बोॉसुरी 
चुरा ली, और वंशीवट जाकर वद्द उसे बड़ी बेतकल्लुफ़ी से बजाने लगी । 
वंशी की धुन सुनते ही कृष्ण भी कुंजों में दौड़ आए | उन्हें देख सब 
गोपियोँ हँस पड़ीं | यह कौतुक देख कन्हैयाजी भी मुस्कराने लगे ! 


चर 


लीला के उदाहरण में मतिरामजी का भी नीचे लिखा सवैया बड़ा 
सुन्दर हे-- 

प्यार पगी पगरी पियकी घर भीतर श्रापन शीश संवारी। 

एते में आँगन ते उठिके तहँ आय गये “मतिराम' बिद्दारी | 

देखि उतारन लागी प्रिया, प्रिय साइन सों बहुरयो न उतारी। 

नैेननि बाल लजाय रही मुसक्याइ लई उर लाइ पियारी। 


पति ने पत्नी को मर्दाना वेश बनाते देख लिया, इससे सारा मज़ा 
मिट्टी में मिल गया । पत्नी पगड़ी-वगड़ी उतार फेंकने को उद्यत होगई, 
परन्तु पति ने शपथ दिलाकर उसे ऐसा न करने दिया। इस पर पत्नी ने 
शर्म से आँखे नीची कर लीं | इस प्रकार प्राणप्रिया को लज्जित देखकर 
पतिदेव ने मुस्कराते हुए उसे हृदय से लगा लिया । 
इसी प्रसंग में संस्कृत का भी एक उदाहरण देखिए-- 
मुणाल व्याल वलया वेणी बन्ध कपर्दिनी। 
हरानुछारिणी पातु लीलया पावंती जगत्‌ ॥ 
कमल-नाल के नकली सप॑ को कंकण की जगह में धारण किए, और 
वेणी ( केश-पाश ) का जटा-जूट बनाकर शहूर का स्वाँग भरने बाली पाव॑ंती 
जगत्‌ की रद्धा करे । 


हिं० न०--१४ 


( २२६ ) 


विलास 
संयोग-समय में बैठने, उठने, चलने श्रादि की विशेषता तथा मुख- 
नेत्र आदि की कटाक्ष आदि चमत्कारपू्णं विलक्षण चेष्ठाओ्रों को विलास' 
कहते हैं| इसमें कुछ विचित्र चेष्टाश्रों से युक्त; स्वेद, रोमाञ्च श्रादि 
सात्विक विकारों से पूर्ण, पैय रहित, लोकोत्तर काम-कौशल प्रकट द्ोता 
रहता है । 
विलास के उदाहरण में कविवर बेनी प्रवीनजी लिखते हैं--. 
आछे उरोज लची सी परे कटि मत्त गयन्दनि की गति डोलनि। 
रूप अनूपम आनंद सों अलि पीतम मोल लिए बिन मोलनि | 
को बरने कवि 'बैनी प्रवीन' रही छुवि त्यों फवि गोल कपोलनि । 
पैनी चितौनि रसीले विलोचन, मंद हँसी मृदु माधुरी बोलनि। 
उपयक्त पद्म का भाव स्पष्ट है। इसी प्रसंग में पद्माकरजी का सवेया 
भी पढ़ लीजिए-.- 
आई हे खेलन फाग हहाँ बृषभान पुरा तें सखी संग लीन्हे। 
त्यों * पदमाकर ” गावती गीत रिक्रावती भाय बताय नवीने | 
कञ्चन को पिचकी कर में लिये केसरि के रँँग सों अंग भीने । 
छोटी सी छाती छुटी श्रलक अश्रति वेस की छोटी बड़ी परवीने । 
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देखिए. मतिरामजी विलास के उदाहरण में क्या कद्दते हैं- 
किंकिनि कलित कल नूपुर ललित रव, 
गौन तेरो देखि के सकति करि गौन को | 
सृदु मुसक्यानि मुखचन्द चाँदनी सों राखि, 
के उज्यारों घाम नाम राम हारा भौन को | 
सहज सुभावन सों मोहन के भावन सों, 
हरति हे कवि “मतिराम' मन रौन को । 


( २२७ ) 


रूप मद छुकी श्रति छुवि सों छुबीली देति, 
तिरकछ्ली चितोनि मैन बरछी सी कौन को । 
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विलास के उदाहरण में नीचे लिखा दोहा भी पढ़ने योग्य दे-- 
तेरी चलति चितोनि मृदु मधुर मन्द मुसक्यानि। 
छाय रही लखि लाल की रखियन मिस श्रेंखियानि ॥ 
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विच्छित्ति 

सौन्दय को बढ़ाने वाले थोड़े-से भी श्ंगार का नाम “विच्छित्ति! है । 
'एक प्रकार से विच्छित्ति को कला-पू्ण सुधरी हुई सादगी का रूप समभना 
चाहिए. | सच्चे सोन्दय के लिये विशेष बनावट-सजावट की आवश्यकता 
नहीं होती । किसी ने ठीक ही कहा हे--“ नहीं दरकार ज़ेबर की बिसे 
खूबी खुदा ने दी।” वास्तविक सोन्दय तो थोड़ा साफ़-सुथरा रहने, या 
नाममांत्र को कुछु अज्जार कर लेने से ही दमक उठता है। परन्तु जहाँ 
सोन्दय नहीं होता, वह कितना ही श्वंगार क्‍यों न कीजिए कुछ भी 
सुद्दावनापन नहीं दिखाई देता | 

पद्माकरजी ने विब्छित्ति का केसा सुन्दर उदाहरण दिया हे, 
देखिए --- 

मानों मयंकदि के परियंक निशंक लसे सुत बंक मही को। 

त्यों 'पदमाकर” जागि रहो जनु भाग हिये अनुराग जु पीको। 

भूषण भार सिंगारन सों सजी सोतिन को जु करे मुख फीको। 

जोति को जाल विसाल महा तिय भाल पै लाल गुलाल को टीको। 


यहाँ भाल के लाल टीके मात्र ने भूषणों के भार से लदी हुई सपक्ियों 
के मंह्द फीके कर दिये हैं । 

नीचे लिखा सवैया भी विच्छित्ति का कितना उत्कृष्ट उदाहरण हे, 
देखिए -- 


५ रर८ ) 


प्यारी की ढोड़ी को बिन्दु 'दिनेस” किधों बिसराम गोविन्द के जी को । 
चारु चुभ्यौ कनिका मनि नील को कैधों जमाव जम्यो रजनी को । 
कैधों श्रनंग सिंगार को रंग लिख्यो वर मन्त्र बसीकर पीकों। 
फूले सरोज में भौरी बसी किधों फूल ससी में लग्यो अरसी को | 
यहाँ ठोड़ी की काली बूँद ने वही काम कर दिखाया, जो ऊपर के 
सवैये में गुलाल के टीके ने किया हे। श्रर्थात्‌ इस ज़रासी काली बुँद ने 
ही नायिका की सुन्दरता में चार चाँद लगा दिए हैं । 


विच्छित्ति के सम्बन्ध में मतरामजी का भो उदाहरण देख लीजिए | 
उनकी नायिका को लाल टीके या काले तिल की ज़रूरत नहीं । उसने 
तो सफ़ेद साड़ी धारण करके ही श्याम पर अपना रंग जमा लिया 
है| यद्यपि यह बात निश्चित है, कि काले रंग पर कोई रंग नहीं चढ़ता, 
परन्तु मतिरामजी ने श्रपने कोशल से नायिका की श्वेत साड़ी का रंग 
श्याम ( कृष्ण ) पर चढ़ा दिया है । खूब ! 
वारने सकल एक रोरी दी की श्राड़ पर, 
हा-हा न पहरि आभरन और अ्रंग में । 
कवि 'मतिराम” जैसे तीछुन कटाच्छ तेरे, 
ऐसे कहा सर है अ्रनंग के निषंग में॥ 
सहज सरूप सुधराई रीको मनु मेरो, 
लुभि रहो रूप श्रदभुत की तरंग में। 
स्वेत सारी ही सों सब सों तो रुग्यौ स्याम रंग, 
स्वेत सारी ही में स्याम रंग लाल रंग में | 
>< >< >< 
अब विच्छित्ति के सम्बन्ध में संस्कृत के महाकवि माघ का उदाहरण 
भी देख लीजिए--- 
स्वच्छाम्भ:. रनपन विधौतमज्जमोष्ठ -- 
स्‍्ताम्बूल द्युति विशदों विलसिनीनाम्‌। 


( १२६ ) 


वासस्तु प्रतनुविविक्तमस्त्वितीयान्‌ --- 
ग्राकल्पो यदि कुसुमेषुणा न शून्य: ॥ 
विलासवती रमणियों के लिये श्रज्लार की ग्रावश्यकता नहीं। उनके 
लिये निमंल जल से स्नान करना, पान खाकर श्रोठढों को रचा लेना और 
स्वच्छु एवं सादे वस्नर पहन लेना ही पर्याप्र हे। वशतें कि यह थोड़ी-सी 
वेश-रचना कामोत्तेजक शक्ति से शून्य न हो ! 
विव्वोक 
अत्यन्त गव के कारण संयेाग-काल में, प्रिय या हृष्ट वस्तु के अ्नादर 
करने का नाम विव्वोक हैं | हस निरादर में प्रेम की ही प्रधानता रहती हे । 
इसमें मन में निराहत वस्तु या व्यक्ति के गुणों पर मृुग्ध रहते हुए, भी 
वाणी द्वारा केवल उसके दोष ही बताए जाते हैं। श्रत्यन्त श्रभिमत 
वस्तुओं के लिये भो स्वीकृति व्यज्ञक निषेध ही किया जाता है। अर्थात्‌ 
अभिलपषित वस्तु के सीधी तरह स्वीकार न कर निषेध पूवक ही स्वीकार 
किया जाता है । 
विव्वोक के उदाहरण में मतिशमजी का सवेया देखिए-- 
मानहूँ आये हे राज कहूँ चढ़ि तरैख्यों हे ऐसे पलास के खोढ़े । 
गुंज गरे सिर मोरपखा ' मतिराम ” हू गाय चरावत छोड़े। 
मोतिन को मेरे हार गहे श्ररू हाथनि सों रही चूनरि श्रोढ़े । 
ऐसे ही डोलत छैल भये तुम्हें लाज न ग्रावति कामरि ओढ़े । 
छैल तो बनते हो, परन्तु कम्मल ओढ़े फिरते द्वो, भले श्रादमी तुम्हँ 
शर्म नहीं ग्राती !! कैसी मीठी भत्सना है । 
विव्वोक के उदाहरण में तोषनिधिजी का भी कवित्त देखिए--- 
ए अश्रहीर वारे तोसों जोरि कर कोरि कोरि, 
विनय सुनावों बलि बाँसुरी बजावे जनि। 
बाँसुरी बजाबै तो बजाउ मो बलाय जाने, 
बड़ी बड़ी भाँखिन ते एक टक लावे जनि | 


( २३० ) 


लावे है तो लाव टक तोष? मो सों कद्दा काम, 

परिनाम दौरि दौरि मेरी पौरि आवै जनि। 
आवे है तो आव हम अरइवो कबूलो पर, 

मेरे गोरे गात में श्रसित गात छवावै जनि । 


अरे अ्रहीर वाले, तू बाँसुरी मत बजा | श्रच्छा, बाँसुरी बजाना नहीं 
छोड़ता तो मत छोड़, मगर मेरी ओर इन बड़े-बड़े दीदों से घूरता क्यों 
हे ! घूरता हे, तो घूराकर ! इससे मेरा कुछ नहीं बिगड़ता, परन्तु तैने मेरी 
देहरी की धूल क्‍यों ले रक्खी है | श्रगर मेरे दरवाज़े पर आना भी नहीं 
छोड़ता तो मत छोड़, मगर ख़बरदार ! श्रपना काला हाथ मेरी गोरी देह से 
मत लगाना । इस बात को तो में हरगिज़ बर्दाश्त नहीं कर सकती । 

यहाँ पर बॉसुरी मत बजाओओ, टकटकी बाँध कर मेरी श्रोर मत देखो, 
दौड़-दौड़ कर बार-बार मेरे घर मत आ्राओ और मेरे गोरे शरीर से श्रपनी 
काली देह मत छुत्राओ्रे, इन सभी निषेधों में विधि की व्यञ्ञना है। 
अर्थात्‌ इस नहीं-नहीं के रूप में गोपी कहती हे कि ये सब काम करो और 
बार-बार करो। 


श्रोर भी देखिये-- 


फूलन की माल मो सों कह्दत मुलाम ऐसी, 

फूलन की माल मेलि राखत न क्‍यों गर । 
मेरे हद रोज ही बतावत सरोज ऐसे, 

ले ले के सरोज रोज मन में न क्‍यों भर | 
होंतो री न जैद्दों श्राज बनमाली पास वोई, 

पिय आय पास पाय इतको न क्‍यों धर। 
मेरो मुख चन्द-सो बतावें ब्रजचन्द रोज, 

कहो ब्रजचन्द जू सों चन्द देखिवो करें। 


गोपिका कहती है--ब्रजचन्द्र से कह देना, वह मेरा मुख चन्द्रमा 
सा बताया करते हैं, यदि ऐसी बात है, तो वह चन्द्रमा को द्वी क्यों नहीं 


(६ २३१ ) 


देखते रहते । इधर-उधर से ताक-झाँक कर मेरे आनन पर क्यों दृष्टि डाला 
करते हैं । 

यहाँ भी नायिका मन में तो मनमोहन की ताक-काॉँक से प्रसन्न होती 
है, वह जो उसे फूल-माला के समान मृदु ओर उसके नेत्रों को कमल 
के समान सुन्दर बताते हैं, इससे उसके हृदय में गुदगुदी उत्पन्न होती है, 
परन्तु ऊपर से दिखाने के लिये वह रूखी-रूखी बातें सुनाती हैं । 

अब इस प्रसंग में रसखानजी की उक्ति भी सुन लीजिये- 

दानी भए नए माँगत दान हौ, जानि हैं कंस तौ बंधन जैहो। 

टूटे छुरा बछुरादिक गोधन जो धन है सो सब्रे धन देहौ। 

रोकत हो बन में “' रसखानि ? चलावत हाथ घनो दुख पै हो। 

जैहे जो भूषन काहू तिया को तो मोल छुला के लला न बिकेहो । 

है गोपाल, यह जो रास्ते म॑ रोककर तुम गोपियों से छेड़-छाड़ करते 
हो, इसका नतीजा अच्छा नहीं होगा। जानते हो, अ्रगर किसी गोपी का 
केई भूषण टूट गया या जाता रहा तो उसकी सारी ज़िम्मेदारी तुम्हीं पर 
होगी । उसका मूल्य कहाँ से दोगे ? तुम यदि स्वयं बिक कर भी मूल्य 
चुकाना चाहोगे तो तुम्दारी क्रीमत तो गोपी के एक छुलले के बराबर भी 


न होगी ! 
किलकिश्ित 
प्रिय-समागम से उत्पन्न हुईं प्रसन्नता के कारण कुछ मुस्कराने, भूठ 
मृठ रोने, हसने, भय, त्रास, क्रोध, श्रम श्रादि के आंशिक मिश्रण के 
किलकिल्चित कहते हैं। इसमें नायिका मधुर मुस्कराहट के साथ, प्रिय 
को भिड़की देती हे शोर सुख होने पर भी बनावटी रोना रोने लगती है । 
उदाहरण देखिये--- 
वह सॉँकरी कुज्ञ की खोरि अ्रचानक राधिका माघव भेंट भई । 
मुसक्यानि भली अँचरा की श्रली त्रिवली की वली पर दीठि गई | 
भहराह भमुकाइ रिसाइ “ममारख' बॉसुरियाँ हँसि छीनि लई। 
भुकुटी मठकाइ गुपाल के गाल में श्रागुरी ग्वालि गड़ाइ दई। 


( २३३२ ) 


प्रेम-पूर्ण क्रोध के कारण ग्वालिन का मुस्कराकर वंशी छीन लेना 
श्रौर गोपाल के गाल में उँगली गड़ा देना किलकिश्वित है। 


किलकिश्वित के उदाहरण में मतिरामजी का सवैया कितना सुन्दर है, 
देखिये -- 

लालन बाल के दढ्वे ही दिना में परी मन आइ सनेद्द की फॉाँसी | 

काम कलोलनि में * मतिराम ? लगी मनों बाँटन मोद की श्रासी । 

पीतम के उर बीज भयो दुलहदी के विलास मनोज की गॉँसी । 

स्वेद बढयो तन कम्प उरोजनि आँखिन आँसू कपोलनि हाँसी । 

लाल के प्रेमातिरेक के कारण ललना के कपोलों से तो मुस्कराहट 
झलक रही हे, परन्तु आँखों से ग्रोंप्‌ निकल रहे हैं। अ्र्थाव हृदय में तो 
वह प्रतन्न हे, परन्तु प्रकट में क्रोध सा दिखा रही है । 

निम्नलिखित दोहे भी किलकिज्चित के सुन्दर उदाहरण हें-- 

कहति | नटति रीकति खिकति मिलति खिलति लजि जात। 

भरे भौन में करत है नेनन ही सों बात ॥ 

>< >< >< 
चढत भौंद घरकत हिया हरषत मुख मुसिक्यात । 
मद छाकी तिय को जु पिय छुवि छुकि परतत गात। 
>< )८ 9८ 
इसी प्रसंग में संस्कृत का उदाहरण भी देख लीजिये--- 
पाणि रोधमविरोधित वाब्च्छु, 
भत्सनाक्ष मधुरस्मित-गर्भाः । 
कामिनःस्म कुझते करभोर--- 
हारि शुष्क रुदितश्व सुखेदपि ॥ 

सुन्दरी सुख-समय में भी पति को मधुर मुस्कराहट पूवक मिड़कती 

और सुखा-बनावटी रोना रोती है । 


( २रह३ ) 
विम्रप 


प्रिय-श्रागमन श्रादि के समय, प्रेम और प्रसन्नता के कारण, जल्दी- 
जल्दी घबराहट में क्रिया श्रोर श्रलझ्भार-घारण में विपयय कर डढालने--- 
ग्र्थात्‌ किसी अलझक्लार की जगह कोई अलछ्ूार, या किसी वस्त्र के स्थान 
में कोई वस्त्र धारण कर लेने एवं कुछ करने के बदले कुछ करने लगने 
का नाम “विश्रम' हे । इससे प्रिय के प्रति प्रेम-विह्लता के कारण उता- 
वलापन प्रकट होता है | 


विश्रम के उदाइरणु में मतरामजी कया कहते हैं, सुनिये-- 
सका सहेलिन के पीछे पीछे डोलति हे, 
मन्द मन्द गौन आाजु आप ही करतु है। 
सनमुख पिय मुख होत ' मतिराम * जब, 
पोन लागे घुँघ को पट उघरतु है। 
यमुना के तट बंसीबट के निकटनन्द-, 
लाल पे सकोचनि ते चाह्मो न परातु है। 
तन तो तिया को वर भाँवर भरतु मन--- 
साँवे बदन पर आभाँवें भरतु है। 
>< >< >< 
सॉमह्टि ते चली आवत जात जहाँ तहाँ लोगनि हूँ न डरौगी। 
पीतम सों रति ही यह रूप हैं धोये कहाँ अब अ्रड्डः भरोगी । 
जानति हौ ' मतिराम * तऊ चतुराई को बात न हीय धरोगी । 
किंकिनि के उर हार किये तुम कौन सों जाय बिहार करौगी | 
कोंघनी को हार की जगह धारण कर तुम किससे विहार करने जा 
रही हो ? क्‍या सचमुच तुम्दारी श्रकफ़ल मारी गई हे । 
देवजी का भी नीचे लिखा सवैया विश्रम का केसा सजीव उदाहरण 
है, देखिये-.. 


( २३४७ ) 


स्याम सों केलि करी सिगरी निसि सोवत प्रात उठी थद्दराय के । 
आपने चीर के धोखे बधू पहिरो पट पीत भट्ट भहराय के। 
बाँधि लई कटि सों बनमाल न किंकिनी बाल लई ठद्दराय के । 
राधिका की रस रंग की दीपति संग की देरि हँसी दृददराय के । 
केलि के पश्चात्‌ राधिकाजी ने श्रपने वस्र पहनने के बदले कृष्ण 
का पीताम्बर धारण कर लिया । उनकी वनमाला कमर में बाँध ली 
श्रोर श्रपनी कॉंधनी ( किंकिणी ) वहीं छोड़ दी । यह देख सखियाँ 
ठहाका मार कर हँस पड़ीं ! 
संस्कृत के रीति ग्रन्थकारों ने इस प्रसंग में नीचे लिखा उदाहरण 
दिया हैं । 
भ्रत्वाहप्यान्त॑ बहि कान्तमसमाप्तविभूषया । 
भालेषजञ्ञनं दृशोर्लाक्चषा कपोले तिलकः कृत: ॥ 
प्रिय का श्रागमन सुन शइज्ञार करती हुई नायिका ने व्यग्रता के 
कारण मस्तक में कुकुम-बिन्दु की जगह काजल लगा लिया और जो लाक्षा- 
राग श्रीष्ठों पर लगाना चाहिए था, वह श्राँखों में श्रॉंज लिया । इसी 
प्रकार मस्तक में लगाने का कुकुम-बिन्दु कपोलों पर लगा लिया। विश्रम 
का केसा सुन्दर चित्र खींचा हे | 


ललित 


संयेग समय में सरस श्ज्जार द्वारा सम्पूर्ण श्रज्ञों को सजाए रखना, 
तथा उन की (अंगों की ) क्रिया में सुकुमारता श्रोर चशञ्चलता पैदा कर 
देना 'ललित' कहाता है | इस भाव द्वारा बोलने, चलने, देखने, मुस्कराने 
ग्रादि में सुन्दरता उत्पन्न की जाती है। 
ललित के सम्बन्ध में पह्माकरजी का उदाहरण देखिये -- 
सजि ब्रजचन्द पै चली यों मुख चन्द जाको, 
चन्द चाँदनी को मुख मन्‍्द सो करत जात | 


( २३१५ ) 


कहे * पदमाकर ' त्यों सहज सुगन्ध ही के, 

पुंज बन कंजन में कंज से भरत जात । 
घरत जहाँ ही जहाँ पग है पियारी तहाँ, 

मंजल मजीठ ही के माठ से ढरत जात । 
बारन ते ह्वीरी सेत सारी की किनारिन ते 

हारन ते मुकता हजारन भरत जात। 


उपयुक्त कवित्त में अंगों की सजावट और सुकुमार सौन्दय का वर्णन 
हे। > >» >»< नायिका जहाँ-जहाँ चलती है. वहाँ-वहाँ पगों की लाली 
से ज़मीन लाल हो जाती है। उसके बालों से मानों हीरा ओर हारों से 
हज़ारों मोती भड़ते जाते हैं। यही ललित है । 

इसी श्राशय का नीचे लिखा मतिरामजी का सवेया भी पढ़ 
लीजिये-. 


मन्द गयन्द की चाल चले कटि किंकिनि नूपुर की धुनि बाजै। 
मोती के हारनि सों हियरा इरिजू के विलास हुलासनि साजे । 
सारी सुद्दी 'मतिराम” लसे मुख तंग किनारी की यों छुवि छाजे | 
पूरन चन्द पियूख मयूख मनों परिवेख की रेख विराजे। 


शड्गरजी का निम्नलिखित कवित्त भी ललित का कया ही ललित 
उदाहरण है । देखिये-- 
मंगल करन हारे मंगल चरन चार, 
मंगल से मान मही-गोद में घरत जात । 
पंकज की पॉाँखुरी-सी श्रोंगुरी श्रेगूठडन की, 
जाया पंचवानजी की भाँवरी भरत जात । 
'शंकर! निरख नख नग-से नखत स्तेनी, 
श्रम्बरसों छूटि-छूटि पायन परत जात । 
चाँदनी में चाँदनी के फूलन की चाँदनी पे, 
होले-होले हंसन की हाँसी-सी करत जात । 


( २३१६ ) 


चलते समय भूमि पर पड़ते हुए नायिका के श्ररुण वर्ण चारु चरण 
ऐसे जान पड़ते हैं, मानों वह महदीसुत-मंगल को ( मंगल ग्रह का लाल 
वर्ण होता हे, श्रोर वह प्रथिवी का पुत्र माना जाता है ) मही की गोद में 
रखती जा रही हे । वाह ! क्‍या अनूठी सूक है ! 
साहित्यदपण में ललित का उदाहरण इस प्रकार दिया गया है -- 
गुरुतर कल नुूपुरानुनादं, 
सुललित वतित वाम पाद पद्मा | 
इतरदनति लोलमादधना, 
पदमथ मनन्‍्मथ मन्थर जगाम ॥ 


नूपुर की मधुर ध्वनि करती, सुकुमारता से बाँए पैर को नचाती और 
दूसरे को भी धीरे से रखती हुईं वह हंसगामिनी कामिनी मन्द-मन्द गति 
से गई।. 


पाद्टायित 
प्रियतम के रूप, गुण, कम, स्वभावादि की चर्चा अ्रथवा प्रशंसा 
सुनने में अनुरागपू्वंक दत्तचित्त होने पर भी बनावटी श्रन्यमनस्कता 
प्रकट करने का नाम “मोद्भायित” है । 


रसतरंगिणीकार ने, कोई दूसरा न जान सके ऐसे ढंग से बार-बार 
प्रियदशन की स्पृह्य को 'मोद्दायित! कहा है | 

साहित्यदपंण में प्रियतम की कथा श्रादि सुनने में श्रनुराग से व्याप्त- 
चित्त होने पर भी कामिनी के कान खुजाने आदि की चेश द्वारा श्रसली 
भाव छिपाने को मोहट्टायित संज्ञा दी है । 

मोट्टायित के उदाहरण में पह्माकरजी का निम्नलिखित सबैया देखिये-- 

रूप दुहूँ को दुहन सुन्यो सु रहें तबते मनो संग सदा हीं। 

ध्यान में दोऊ दुहन लखे इरष श्रेंग अंग अनंग उछाहीं। 

मोहि रहे कब के यों दुहूँ ' पदमाकर ” और कछू सुधि नाहीं । 

मोहन को मन मोहिनी में बस्यो मोहिनी को मन मोहन माहीं | 


( २३७ ) 


दोनों परस्पर एक दूसरे के रूप-सोन्दय पर मुग्ध हैं। मोहन के द्ृदय 
में मोहिनी बस गई है और मोहिनी के हृदय में मोहन ने डेरा डाल 
दिया है | 
इसी का संस्कृत का उदाहरण भी देख लीजिये-- 
सुभग ! त्वत्कथारम्मे कणकरणड्ति लालसा। 
उज्जम्म वदनाम्भोजा भिनत्यज्ञानि साज्जना ॥| 
हे सुन्दर, तुम्हारी बात छिड़ने पर वह कामिनी कान खुजाने लगती 
है, श्र जम्हाई तथा अंगड़ाई लेती हुई श्रपनी उगलियाँ चटकाने लगती 
हे। ( यह उदाहरण साहित्यदपंणकार ने अपने लक्षणानुसार दिया हे ) 


कुट्टमित 
प्रियतम द्वारा केश, स्तन, श्रधर श्रादि का स्पश किये जाने पर द्वदय 
में प्रसन्न होते हुए भी ऊपर से बनावटी घबराहट या अनिब्छा के साथ 
द्वाथ, शिर, नेत्रादि अंगों के विशेष ढंग से चलाने अथवा सीत्कार 
करने को कुट्टमित कहते हैं। इस प्रकार का नकली रोष-प्रदश न प्रायः प्रेम 
या रति की वृद्धि के लिये किया जाता है । 


की कर कवि ने कुट्टमित के सम्बन्ध में केसा सुन्दर सवेया लिखा है, 
खये -- 


मोहि न देखो श्रकेलिय 'दासजू? घाट हू बाट हू लोग भरैसो। 

ब्रोलि उठोंगी बरे ते ले नाउं तो लागि हे आपुनो दाँव अनेसो । 

कान्ह कुबानि सम्हारे रहो निज, वैसी न हैं तुम जानत जेसो। 

आओझो इते करो लेन दही को, चलेबो कहूँ को कहूँ कर केसो । 

मोहन तुम मुझे जेसी समझते हो, में वेसी नहीं हूँ। तुम दही लेने 
आए हो, या कहीं का हाथ कहीं चलाने। ज़रा होश में रहो, नहां| तो 
में ज़ोर से नाम लेकर चिल्ला उदंगी । 

कविवर मतिरामजी का भी नीचे लिखा कवित्त पढ़ने लायक दे-- 

सोने की सी बेली श्रति सुन्दर नवेली बाल, 
ठाढ़ी ही श्रवेली श्रलबेली द्वार मश्टियाँ। 


( रेरे८ ) 


'मतिराम! आँखिन सुधा की बरसा सी भई 
गई जब दीठि वाके मुखचन्द पहियाँ। 
नेकु नेरे जाय करि बातन लगाय करि, 
कछु मन पाय हरि आय गदहीं बहियाँ। 
सैननि चरचि लई, गातनि थकित भई, 
नेननि में चाह करे बेननि में नहियाँ। 
मोहन ने बातों द्दी बातों में श्रलबेली बाला की बाह पकड़ लीं। ऐसा 
करने से वह गोपी मन में तो बड़ी खुश हुई, परन्तु मंद से कूँठमूठ नहीं- 
नहीं करती रही | 
निम्नलिखित दोहे भी कुट्टमित के बड़े सुन्दर उदाहरण हैं-- 
कर एंचत आवति इँची तिय आपुद्धि पिय श्रोर । 
भूठहि रूसि रहे छिनक, छुवत छुरा को छोर॥ 
5 2 >< >< 
पीतम को मनभावती मिलत प्रेम उतकश्ठ । 
बाँहीं छुटे न कण्ठ ते नाहीं छुटे न कण्ठ ॥ 
गले से बॉँह भी नहीं छुटती श्रोर कण्ठ से ' नाहीं-नाहीं ? निकलना 
भी बन्द नहीं होता | खूब ! 
नीचे संस्कृत का भी एक उदाहरण दिया जाता है-- 
पल्‍लवोपमिति साम्य सपक्ष दष्टवत्यधरविम्बम भीष्टे | 
पयकृजि सरुजेव तरुण्यास्तार लोलबलयेन करेण॥ 


कान्त द्वारा कान्‍ता का अ्रधर-पल्लव देँष्ट होने पर उसका कणित- 
कड्डुणादि युक्त पाणिपजल्नव मानो पोड़ा से फकनभना उठा। अभिप्राय 
यह कि अधरोष्ठ दंशन किये जाने पर तरुणी हाथ से प्रियतम को हटाने 
लगी | इस क्रिया में घारण किये हुए. कंकशण श्रादि श्राभूषण बज उठे । 
उसी के लिए कवि कल्पना करता है--क्योंकि श्रधरपल्लव ओर पाणि- 
पल्नव नाम साम्य होने के कारण दोनों एक पक्ष के हैं। जब श्रपने पक्तीय 


( २३६ ) 


अधरों पर कष्ट पड़ा, तो उस कष्ट को अनुभव कर द्वाथ ( कंक्रणादि का 
शब्द होने के रूप में ) रो उठे । 
विहत! 
लज्जा आदि के कारण कहने के समय भी बात के न कहने, अथवा 
अभिलाषा की अ्रसन्तुष्टि का नाम 'विह्ृत' है । 
द्विजदेवजी ने विद्वत का उदाहरण इस प्रकार दिया है-- 
बोलि द्वारे कोकिल बुलाय द्वारे केकी गन, 
सिखे द्वारा स्खीं सब जगुति नई-नई। 
“द्विजदेव” की सो लाज ब्रैरिन कुसंग इन-- 
ग्ंगन ही श्रापने अ्रनीति इतनी ठई । 
हाय ! इन कुंजन में पलटि पधारे स्याम, 
देखन न पाई वह मूरति सुधामई। 
आवन समे में दुख दायिनि भई री लाज, 
चलन समे में चल पलन दगा दई। 
यहाँ दुःखदायिनी लज्जा के कारण काजों में पधारे हुए श्याम के 
दर्शन कर सकने की अ्रभिलाषा का मन ही में रह जाना, विह्ृत है। 
इसी सम्बन्ध में पद्माकरजी का उदाहरण भी पढ़िये-- 
सुन्दरि कों मनि मन्दिर में लखि आप गुबिन्द बने बड़ भागे। 
ग्रानन श्रोप सुधाकर सी ' पदमाकर * जीवन जोति के जागे। 
आ्ोचक एऐचत श्रञ्चल के पुलके शअ्रंग अ्रंग हिये श्रनुरागे। 
मैन के राज में बोलि सकी न भट्ट ब्रजराज सों लाज के आगे। 
यहाँ भी नायिका मैन ( कामदेव ) का पूर्ण प्रभाव द्ोने पर भी 
'लाज? के कारण ब्रजराज से दो बाते भीन कर सकी । मन की मन में 
ही रद्द गई ! 
१-- सा हित्यदपंणकार ने इसे 'विकृत' नाम से लिखा है | 


( २४० ) 


नीचे लिखा दोहा भी विहवत का कैसा सुन्दर उदाहरण है--- 
शग्राज सखी मोहित भये मोहन मिले निकज | 
बन्ये न कछु मंद बोलिबो अड़यो लाज को (ज॥ 


इस दोहे में भी--दो बाते करने का श्रवसर मिलने पर भी, बीच में, 
लाज का अश्रडृंगा लग गया | कम्बज़्त शम भी केसी है, जो फह्दी कुछ 
कहने ही नहीं देती। मानों इसकी दुनिया में लब हिलाना भी संगीन 
जम हैं ! 
विद्वत सम्बन्धी संस्कृत का उदाहरण भी नीचे दिया जाता है--- 
दुरागतेन कुशलं प्रष्टा नोवाच सा मया किब्चित्‌। 
पर्यश्रणी तु नयने तस्याः कथयाम्बभूवतुः सवंम्‌॥ 
परदेश से लोटने पर नायक ने कुशल पूछी, तो नायिका ने कुछ न 
कहा | हाँ उसने आँसू अवश्य ढलका दिए जिनसे मन का सारा हाल 
मालूमे दो गया । 
यहाँ प्रिय के पूछुने पर भी संकोचवश, मुख से कुछ न कहना 
विद्वत हे । 
मद 
सौभाग्य, सौन्दय, योवन आदि के गव॑ से पैदा हुए मनोविकार के। 
'मद! कह्दते हैं। 
तोषनिधिजी ने मदका उदाहरण इस प्रकार दिया हे-- 
आनि क्यो कहुँ खोरि में लाल यों लाड़िली पोरि ते पौरि कढ़ी है । 
सीस खुले कटि में कसे श्रंचल कंचुकी श्राछे उरोज मी है। 
नेक टरे न दुरे सो अरै है, अह्दीरिनि के ढिग भीर बढ़ी है। 
गूँग न बैन सुने न कहे, उंगरे उह्ि मैन की जंग चढ़ी है। 
कामदेव की जुंग चढ़ने से नायिका का कैसा हाल हो गया है। न वह 
किसी की सुनती है श्रोर न अपनी कहती है। इधर-उधर हटती भी नहीं, 


( २४१ ) 


एक जगह अड्कर खड़ी है। उसे देखने के लिये दशकों की भीड़ लगी 
हुई है । 

यहाँ यौवन या सोभाग्य-जनित मद के कारण नायिका किसी को 
कुछ समझती ही नहीं, तभी तो वह किसी के पूछने-गछने की कुछ परवा 
नहीं करती | 


नीचे लिखे दोहे भी मद के बड़े सुन्दर उदाहरण हैं-- 
खलित बचन श्रधखुलित दग ललित स्वेदकन जोति। 
अरुन बदन छुत्ि मद छुकी खरी छुबीली होति ॥ 
>< >< >< 
कोन अदहे गुन श्रागरी रसिक जियत केहि जोहि। 
अरी नागरी ही सक्रति नागर नर कों मोहि।॥। 
>< >< >< 
वे किन में हैं बावरी है जिनमें रस नाहिं। 
मधु न ह्ोत तो मधुप क्यों जात माधवी पाहिं॥ 


तपन 
प्रियतम के वियोग में कामोद्वंग से उत्पन्न हुई चेशञश्रों का नाम 
“तपन! है । 
तपन के उदाहरण में हरिश्रीधजी के दोहे कितने सुन्दर हैं-- 
सीरे सीरे लेप सब बनत दीप के नेह। 
नव वियोग तप तापते तये भई तिय देह ॥। 
>< >< ८ 
कबहूँ रुकत कबटूँ बहत कबदहूँ होत अथाइ । 
सोच सकोचन में परयो लोचन वारि प्रवाह ॥ 
विरद-जनित व्याकुलता का केसा अच्छा वणन है, “ लोचन-वारि- 
प्रवाह ? का * सोच-सकोच ' के फेर में पड़कर कभी रुकना, कभी बहन, 
और कभी बाढ़ रूप में परिवर्तित होजाना, केसी सुन्दर कल्पना है । 
हिं० न०--१६ 


( २४२ ) 


तपन के उदाहरण में संस्कृत के एक कवि क्या कद्दते हैं, उसे भी सुन 
लीजिये -- हु 


श्वासान्मुश्चति भूतले विलुंढति, त्वन्मागंमालोकते | 
दीघ॑ रोदिति विज्ञिपत्यतइत: त्षञामां भुजाबल्लरीम ॥ 
किश्व प्राण समान ! कांक्षितवती स्वप्नेडपि ते सज्भमम । 
निद्रां वाब्छुति न प्रयच्छुति पुनर्देग्यो विधिस्तामपि। 


तुम्हारे वियोग में वह बाला लम्बे-लम्बे सॉस ले रही हे-एथ्वी पर 
पड़ी है । तुम्हारी प्रतीज्ञा में ऑँसू बहा-बहा कर हाथों को इधर-उधर 
पटकती रहती है। वह चाहती है, स्वप्त में ही तुम्हारा समागम दो जाय, 
परन्तु निदय विधाता नींद आने दे तब तो! तपन का कैसा सुन्दर 


उदाहण है । 
| मोग्ध्य 


प्रियतम के आगे जानी-सुनी वस्तुश्रों या बातों के सम्बन्ध में भी 
अनजान बनकर पूछना “मोग्ध्य” कहता है । इसे भोलापन कह सकते हैं। 
कहीं-कहीं भोलापन भी शोभा का अंग माना गया है। 
मोग्ध्य के उदाहरण में नीे लिखे दोहे देखिये--- 
ठोरी लाई सुनन की कहि गोरी मुसक्यात । 
थोरी-थोरी सकुच सों भोरी-भोरी बात ॥ 
८ >< ८ >८ 
तिय बतरावहु बोलिके मधुर अ्रमी से बैन । 
खिले कमल से हे किधों मुंदे कमल से नेन ॥ 


इसी प्रसंग में संस्कृत का उदाहरण भी देखिए-- 
के द्रुमास्‍्ते क्र वा ग्रामे सन्ति केन प्ररोपिताः, 
नाथ ! मत्कंकण-न्यस्तं येषां मुक्ताफलं फलम्‌ १ 


( २४३ ) 


है नाथ, मेरे कंकणों में जो मुक्ताफल जड़ा हुआ हें, वह किस पेड़ 
का फल है ? ये पेड़ कोन से गाँव में, किसने लगाए हें ? 


विक्षेप 


प्रियतम के समीप अधूरे भूषण धारण कर अकारण द्वी इधर-उधर 
देखना तथा चुपके से कोई रहस्य की बात कह डालना विक्तेप कह्दाता है । 
उदाहरण में दरिश्रोधजी के दोद्दे देखिये-- 
इत उत चिते कबों कछू धीरे कह्दि इंसि देति । 
पहिरि अधूरे आभरन मन पूरो करि लेति ॥ 
>< >< >< 
पहिरे द-द्दे चूरियाँ इत उत चितवति जाति । 
बतियाँ कहि कहि भेद को भेदभरी मुसुकाति ॥ 
संस्कृत कवियों ने विक्षेप का उदाहरण इस प्रकार दिया है-- 
धम्मिल्लमधमुक्तं कलयति तिलकं तथा शकलम । 
किड्चिद्ददति रहस्यं चकितं विष्वगवलोकते तन्बी ॥ 


वह रमणी अपना केश-पाश श्राधा ही सजाती है, श्रोर तिलक भी 


अधूरा ही लगाती है तथा कुछ रहस्यमयी बातें कद्दती हुईं चकित भाव 
से इधर-उधर देखती जाती है । 


ऊुतृहद् 


रमणीय वस्तु देखने के लिये चश्चबल और उत्सुक होना कुतृहल 
कहाता है। यद्द औत्सुक्यपूर्ण चञ्चलता नायक की प्रसन्नता का हेतु 
होती दहे। 
उदाहरण में हरिओ्रोधजी के दोहे देखिये-- 
जाकी कलित कथान को तू भाखति कथनीय। 
सो कित को है कोन है केसो हे कमनीय | 


५ रे४ं४ ) 


ऋरी सखी, तू जिसकी ऐसी प्रशंसा करतो रहती है, श्राज़िर वह कोन 
है, केसा हे ओर कहाँ रहता है ! 


अली जहाँ है बजि रही मुरली सब रस मूल । 
चलि चलि अ्रवलोकन कर सो कालिन्दी कूल ॥ 


अरी बहन, जमुना किनारे केसी मधुर वंशी बज रही है, चल वहाँ 
चलकर उसे देखे । यहाँ देखने की उत्सुकता ही क्र॒वूहल है । 

संस्कृत काव्य में कुतूहल का उदाहरण इस प्रकार दिया है -- 

प्रसाधिकाएलम्बितमग्रपाद मात्तिप्य काचिद्रव रागमेव । 

उत्सष्ट लीला गतिरागवाज्ञादलक्त काडनच्ां पद्वीं ततान ॥ 

कोई युवती महावर लगाने वाली के द्वाथ से ग्रपना गीला पर भटक 
कर भरोखों में से रघुकुमार अ्रज की बरात देखने के लिये दौड़ आई । 
जिसके-का रण सारा स्थान लाज्षा राग से रंग गया । 

बरात देखने के लिए उत्सुकता पूवषक भाग उठना ही कुवृ.इल 


हासित 


योवन-विकास से उत्पन्न हुए अकारण हास को हसित कहते हैं ! इससे 
मानसिक प्रसन्नता प्रकट द्वोती हे । 
हसित के उदाहरण में देवजी का नीचे लिखा कवित्त देखिये--- 
दुहूँ मुख चन्द ओर चितवें चकोर दोऊ, 
चितैचिते चौोगुनों चितोनों ललचात है। 
होंसनि हँसति बिन हाँसी बिहँसति मिले, 
गातनि सों गात बात बातनि मे बात है | 
प्यारे तन प्यारी पेखि पेखि प्यारी पियतन 
पियत न खाति नेक हू न अ्नखात हे। 
देखि न थकति देखि देखि न सकति “देव” 
देखिवे की घात देखि देखि न अ्घात दे । 


षे 


( २४५ ) 


यहाँ एक दूसरे के मुख-चन्द्र को देख कर प्रसन्न होना ओर श्रकारण 
दी बार-बार हँसना हसित है | 
इस सम्बन्ध में विद्वारीजी का भी नीचे लिखा दोहा केसा सुन्दर है -- 
नेकु हसोद्दी बानि तजि लख्यों परत मुख नीढि । 
चौका चमकनि चाँब में परति चौंध-सी दीठि ॥ 
५८ >< >< 
संस्कृत के किसी कवि का उदाहरण भी देखिए-- 
अकस्मादेव तन्वज्ञी जहास यदियं पुनः। 
नूनं प्रयूनवाणो एस्यां स्वाराज्यमधितिष्ठति ॥ 


रमणी के अचानक श्रोर श्रकारण हंस पड़ने से प्रतीत होता है कि निश्चय 
ही उसके मन-मन्दिर पर मनोज का श्राधिपत्य स्थापित हो गया है। 


चकित 
प्रियतम के आगे अकारण ही डरने या घबराने को चकित कहते हैं । 
भीझता भी स्त्रियों की शोभा मानी जाती है, क्योंकि इसमे द्ृदय को 


कोमलता का बोध द्वोता है | स्रियाँ तो प्रायः विना कारण ही डर जाती 
हैं, कारण उपस्थित दोने पर तो कहना ही क्या । 
संस्कृत काव्यग्रन्थों में चकित का उदाहरण इस प्रकार दिया है--- 
प्रस्यन्ती चल शफरी विघष्टितोई-- 
वामोरूरतिशयमाप विभ्रमस्य | 
न्ुभ्यन्ति प्रसभमहो ! विनापि हेतो- 
लीलाभिः किमु सति कारणे तरुण्यः ॥ 
स्नान करते समय जंघाशों म॑ चश्चल मछुली के टकरा जाने के कारण 


रमणी मारे ढर के तड़प गई ! यहाँ पर यह भीझता भी भोलेपन की 
सूचक है | 


( २४६ ) 
केलि 


कान्त के साथ विद्वार करते समय कामिनी की क्रीड़ाओं का नाम 
केलि है। 


केलि के उदाहरण में कविवर विहारी का नीचे लिखा दोद्ा देखिए--- 


नाक मोरि नाहीं कके नारि निहोरे लेय । 
छुवत श्रोठ पिय श्रॉंगुरिन बिरी बदन तिय देय) 


अ्ंगुलियों से ओठ छूकर नायिका नायक के मु ह में पान की गिलोरी 
देती हे । इस सम्बन्ध में नीचे लिखे दोहे भी देखने लायक हैं--.. 
सजि सजि सुमन समुद सों बनि बसन्त की बेलि। 
पुलकि पुलकि ललना करति निज लालन ते केलि ॥ 
| >< >< 
हँसि ओठनि बिच कर उचे किये निचोहे नेन। 
खरे ओर पिय के तिया लगी बिरी मुख देन ॥ 
इसी प्रसंग में नीचे लिखा श्लोक भी पढ़ने लायक है--- 
व्यपोहितुं लोचनतो मुखानिलै-- 
रपारयन्तं किल पुष्पजं रज: | 
पये।धरेणों रसि काचिदुन्मना:, 
प्रियं जघानोन्नतपीवरस्तनी ॥ 
नायक के नेत्रों पर लगे हुए. पुष्प-पराग को, पीन पयाघरा नायिका 
ने श्रपने उरोजों के धक्के मार-मार कर उसकी छाती पर गिराया | यानी 


जो काम फूँक मारने से हो सकता था, उसे कोतुकवश नायिका ने स्तनों 
के धबकों से किया । यद्दी केलि है । 


बोधक 


किसी-किसी ने बोधक नाम से एक ओर अ्र॒लझ्लार माना है, जिसका 
लक्षण इस प्रकार किया है--- 


( २४७ ) 


जिसमें नायक-नायिका अ्रभीष्ट श्रभिप्राय प्रकट करने के लिये परस्पर 
कुछ निश्चित संकेत करते हैं, उसे बोधक कहते हैं । 

उदाहरण देखिए-.- 

दोऊ अटान चढ़े * पदमाकर ? देख दुहूँ को दुवो छबि छाई | 

त्यों बत्रजबाल गुपाल तहाँ बनमाल तमालहि की दरसाई। 

चन्द्रमखी चतुराई करी तब ऐसी कछू अपने मन भाई। 

ग्रश्नल खंचि उरोजन ते नन्दलाल को मालती माल दिखाई। 

यहाँ नायक-नायिका ने परस्पर तमाल श्रोर मालती की मालाएँ दिखा 
कर अपना अभीष्ट प्रकट किया है। यही बोधक हुआ । 

बोधक पं क्रियाविदग्धा नायिका के समान ही संकेत आदि से दृष्ट- 
साधन किया जाता है। उदाहरण दोनों के एक ही हैं। क्रियाविदग्घा 
नायिका में बोधक अलंकार होना ग्रावश्यक हे । उसमें बोधक अलंकार 
होगा तभी वह क्रियावेदग्ध्य द्वारा अपना काय साधन कर सकेगी। क्रिया- 
विदग्धा ओर बोधक अलंकार में केवल इतना अन्तर है कि बोधक 
अलंकार द्वारा नायक-नायिका श्रपना भावी पुरोगम ( प्रोग्राम ) निश्चित 
करते है, श्रौर क्रियाविदग्घा का काय उसी समय सम्पन्न हो जाता हे | 


उद्दीपन विभाव 

जिनके द्वारा रस उद्यीप्र द्योता है, वे उद्दीपन विभाव कहते हैं। नायक- 
नायिका की चेष्टाएँ, सखा, सखी, दूती तथा रूप, भूषण, चन्द्र मा, चाँदनी, 
चन्दन, कोकिल-कूजन, भ्रमर-गंजन, ऋतु, पवन, वन, उपवन, पुष्प, 
पराग, राग, रागिनी, कविता श्रादि की गणना उद्दीपनविभावों में की 
गई है। इनमें से सा, सखी, दुती, वन, उपवन, पडऋतु, चन्द्र, पवन, 
चन्द्रिका, चन्दन, कुसुम और पराग ये बारह मुख्य माने गए: हैं । काव्यों 
में प्रायः इन्हीं बारह का वर्णन किया गया हैं । 

सखा, सखी, दूती श्रादि की गणना उद्दीपन विभावों में इसलिये की 
गई है कि ये नायक-नायिका्थोों को मिलाने तथा उनके हास-विलास और 
आमोद-प्रमोद में सहायक होते हैं । 

सखी और दूतोी में यह श्रन्तर हे कि सखी नायिका के समकक्ष होतो 
है और वह नायिका के लिए जो कुछ करती है, केवल सख्य-भाव से 
प्रेरित होकर, उसके द्वित के लिए करती है ; श्रोर दूती प्रायः अपने श्रथ- 
लाभ के लिए दूत-कम किया करती है। सखी स्वकीया नायिका की द्वोती 
है श्रोर दूती की आवश्यकता परकीया को पड़ती दे । 


अब आगे मुख्य-मुख्य उद्दीपन विभावों के लक्षण और उदाहरण 
दिये जाते हैं -- 


सखा 
जिसका शील और व्यसन नायक के समान हो और जो सुख-दुःखादि 
में उसका सच्चा सहायक रहे, ऐसा पुरुष सखा कह्दाता हे । 
दास कवि के नीचे लिखे सवेया में दूध और पानी का दृष्टान्त देकर 


( २४६ ) 


सखा या सख्य भाव का केसा सुन्दर विश्लेषण किया है| देखिये--- 
'दास” परस्पर प्रेम लख्यो, गुन छीर को नीर मिले सरसातु है। 
नीरे बेचावत श्रापने मोल जहाँ जहाँ जाइ के छीर बिकातु है । 
पावक जारन छीर लगे तब नीर जरावत आपुनों गातु हे। 
नीर बिना उफनाइ के छोर सु आगि में जातु, मिले ठहरातु हे। 


सखा के भेद 


सखा चार प्रकार के दह्वोते हैं। १-- पीठमद, २--विट, ३--चेट और 
४-- विदूषक । 


पीठपद 


जो सखा मानवती नायिकाश्रों को मना कर प्रसन्न करने में समर्थ हो, 
उसे पीठमद कहते हैं। साहित्यदपंणकार ने नायक के ( दानी कृती 
आदि ) सामान्य गुणों से कुछ न्‍्यून गुणों वाले, तथा नायक के सुदुर- 
वर्ती कार्या' में सहायक होने वाले सखा को वीठमद कहां है। पीठमद 
का उदाहरण देखिये-- 


लाल अपने पे श्रलि एती ना रिसेये बलि, 

कहा भये बाते हँसस्‍यो नेकु नंदनन्द हे। 
त्रैठि बोलियत हिलि-मिलि खेलियत कहा, 

'सुन्दरः यों कीजियत हिये दुख द्वन्द है। 
हा्टा देखि सहिं तोहि कोटि कोटि सह करों, 

ऐसे समे मान ! तेरी ऐसी मति मन्द है। 
कैसो नीको नायक सकल सुखदायक सो, 

कैसी नीकी चाँदनी श्रो केसो नीको चन्द है | 


भाव स्पष्ट ही है। पीठमद नायिका को मनाकर प्रसन्न करने का प्रयत् 
कर रहा टै। 


( २५० ) 


श्र भी उदाहरण देखिये--- 

घोर घटा उँमड़ी चहुँ श्रोर तें ऐसे में मान नकीजै अ्रजानी । 
तूतो बिलम्बति हे बिन काज बड़े-बड़े बुँदन श्रावत पानी। 
* सेख ? कहे उठि मोहन पे चलि को सब राति कद्देगो कह्दानी । 
देखुरी ये ललिता सुलता श्रब॒ तेऊक तमालन सों लपटानी। 


चारों ओर से उमड़-घुमड़ कर घन-घटाएँ घिरी शञ्रा रह्दी हैं | बावली ! 
ऐसी सुद्दावनी ऋतु में तू मान करने त्रेढठी हे ' श्ररी, आज-कल तो ये 
लताए भी उमेग-उमेंग कर तमाल-तरुओ्ों से लिपटती जा रही हें, ज़रा 
श्रोंख खोल कर तो देख ! 

विट 

जो सखा सब प्रकार की कलाओं म॑ कुशल हो, उसे विट कहते हैं। 
साहित्यद८णकार ने विट का लक्षण इस प्रकार किया है-- 

भोग-विलास में अ्रपनी सम्पूण सम्पत्ति .स्वाह्ा कर डालने वाला, 
नृत्यगीतादि कलाओं में कुछ दख़ल रखने वाला, वेश्याओं के साथ 
व्यवह्दार करने में कुशल, बातचीत करने में चतुर, मधुरभाषी धूत्त 
विट कह्दाता है | 


विट मोक़ा देख कर मानिनी नायिका के श्रागे ऐसी बात कहता है, 
जिसे सुन उसे मान त्यागते ही बनता है | जेसा कि नीचे लिखे पद्म से प्रकट 
होगा । इस छुन्द में रूढठी नायिका के आगे किसी अन्य सुन्दरी के रूप- 
यौवन का वणन खूब बढा-चढ़ा कर किय्रा गया है, जिससे उसे सुन कर 
नायिका यह सोचने लगे क्रि मेरे इठ को देख कर कहीं नायक इस सुन्दरी 
की ओर श्राकृष्ट दो गया, तो फिर वह मुझे पूछेगा भी नहीं । 


श्राज रूप-आगरी विज्ञोकी ब्रज-नागरी में, 
अंग-गश्ंग रूप की तरंग उमगति है। 
'कृष्ण' प्राण प्यारे बरनत न बनत केहूँ! 
जोबन की जोति जगा जोति सी जगति है। 


( २५१ ) 


को है ऐसी और तिय सुरपुर नागपुर, 
वाके आगे जाकी जोति हगनि पगति है। 
जाके लोने तन की ललित परछाहीं शागे, 
सरद जुन्हाई परछाहइ-सी लगति है। 
और देगिये, नीचे लिखे सवैया में विट रूढी नायिका को, वसन्‍्त के 
ग्रग्मन का ज्ञान करा कर, उसका मान भंग करना चाहता है-- 


पीत पटी लकुटी 'पदमाकर! मोर पा ले कहूँ गहि नाखी। 
यों लखि हाल गुपाल को ताछिन बाल सखा सु-कला श्रभिलाखी । 
के कल कोकिल केसो कुह कुह कोमल कोक की कारिका भाखी। 
रूसी हुती ब्रज बाल के सामुहँ लाय रसाल की मंजरी राखी । 


यहाँ कोयल की बोली बोल श्रोर रसाल-मंजरी दिखा कर विट ने 
नायिका को वसन्तागमन की सूचना दी है, जिससे वह इस सुहावनी ऋतु में 
मान करके उसे व्यथ न खाती रहे । 
चेट या चेटक 
अपनी चतुराई से नायक-नायिका को यथावसर मिला देने वाला 
सखा चेट या चेटक कद्दाता है। चेट की चतुराईपू् उक्ति सुनिये-- 
तुमने चुराई कहा बाँसुरी गोपालजू की, 
जो सुनि हमारो हियो आगि भयो जात हे । 
सदा के जो चोर हैं सो ताहदी को कहदत चोर, 
आजु लों न सुनो ऐसो शअश्रजस श्रघात है। 
कहें 'वचिरजीवी ! तात तो सों हों कहत प्यारी, 
सुनि के हमारी उठी ओसर नसात हे। 
चलि के न पूछौ इते जड़-सी खड़ी है। कहा, 
पूछे बिन बात केती साँची भई जात है । 
उक्त पद्च में चेट रूढठी नायिका पर चोरी का इलज़ाम लगा उसके 


( २४५२ ) 


स्वाभिमान को उत्तजित करता हैं, जिससे वह मान त्याग कर अपनी सफ़ाई 
देने के लिये नायक के पास चली जाय । 

चेट अ्रवलर को खूब समभता है, ओर वह समय पर कभी नहीं 
चुकता। देखिये, नीचे लिखे पद्म में नायक्र-नायिका को परस्पर बात-चीत करने 
का मोक़ा देने के लिए कितने ठीक समय पर, और कैसे बहाने से टल 


जाता है। है 
देव संयोग तें श्रानि जुरे दोऊ कुंज में कान्हर राधिका रानी । 


खेले न बोलि सके कहि 'सुन्दर' सोऊ त्यों ब्रेठि रहे चुप ठानी । 

मेरो सकोच कियो इन दोऊन चातुर चेटक यों जब जानी | 

या मिस आपु उहाँ ते उख्यो जमुना तट जात हाँ पीवन पानी । 

नीचे लिखे दोहे में चेटक नायिका के यूने धर में नायक के पहुँच 
जाने की सूचना केसी चतुराई से देता है । 

- उते ग्वालि तू कित चली ये उनये घन घोर । 
हों आयो लखि तुंब घरे पैठत कारो चोर॥ 

अरी ग्वालिन, तू कहाँ जा रही है, देख तो सामने से केसी काली- 
काली घटाएँ उठती आरा रही हैं । श्रोर उधर में श्रभी तेरे घर में काले चोर 
को घुसते देख आया हूँ । 

यहाँ चेट घठाओं की ओर संकेत कर के, नायिका को सुहावनी 
पावस ऋतु का स्मरण कराता है, ओर फिर घर म॑ काले चोर के घुसबरेठने 
की यूचना देता है। काले चोर का यहाँ कितना सुन्दर प्रयोग हुश्रा है । 
अर्थात्‌ चेटक उस चोर का नाम स्पष्ट नहीं बताना चाहता ओर व्यंग्य से 
प्रकट भी कर देता है कि वही काला ( कृष्ण ) चोर ( माखन चोर ) तेरे 
घर में बेठा हे। चोर शब्द का प्रयोग इसलिए, भी किया कि नायिका 
तुरन्त घर को लौट जाय। 

विदूषक 

अपनी विकृत क्रियाओं तथा विचित्र वेश-भूषा, भाषा, उेष्टा आ्रादि 

द्वारा नायक-नायिकात्रों को हँसाने तथा मनाने वाला व्यक्ति विवूषक 


( २४३ ) 


कहाता हे। वह अपने हास्य-विनोद द्वारा नायक-नायिकाओश्ों के विरह- 
जन्य दुःख भी कम करता रहता है। 

उदाहरण देखिये - 

आप ही कुज्ञ के भीतर पढठि सुधारि के सुन्दर सेज बिछाई | 

बाते बनाय अ्रनकन भाँति की माघी सों आनि के राधा मिलाई 

आली कहा कहाँ दोंसो की बात विदुपक जैसी करी हे ढिठाई | 

जाय रह्मयौ पिछुवार उते फिर बोलि उम्यो वृषभान की नाइ 

साहित्यदयणुकार ने उपयक्त पीठमदांदि को श्गार के सहायक 
कहा है । उन्होंने नायक के सहायकों के ओर भी कितने ही भेद किये हैं 
यथा अन्तः:पुर के सहायक-बोने, नष्सक, किरात, स्लेच्छ ( जंगली ), 
अहिर, शक्रार ( रखेली स्रो का भाई ) कुबड़े ग्रादि। दण्ड के 
सहायक--मित्र, राजकुमार, वन में घूमने वाले पासी आ्रादि ; धीर राजा 
लोग, सेनिक इत्यादि| धर्म के सहायक--ऋत्विक, पुरोहित, वेदवेत्ता 
तपस्वी आईद । 

सखी 

जिस सहचरी से नायिका कोई भद नहीं छिपाती, श्रर्थात्‌ जो उसके 
काम-कला सम्बन्धी सब मर्मो को जानती दे, उस सुख-दुःख में सच्ची 
हितकारिणी श्रोर सहायिका को सखी कहते हैं | यथा-- 

पूरब ते फिरि पश्चिम ओर कियो सुर आपगा धारन चाहे। 

वूलन तोपि के ज्यों मतिमन्द हुतासन दण्ड प्रद्दारन चाहे । 

“दास” जू देखि कलानिधि कालिमा छूरिन सों छिलि डारन चाहे | 

नीति सुनाय कै मो मन ते नैँदलाल को नेह निवारन चाहे । 


सखी का नीत्युपदेश सुनने के पश्चात्‌ किसी नायिका की उक्ति है। 
सखो ने नायिका को पर पुरुष से प्रेम न करने की शुभ सम्मति दी हे, 
उसके उत्तर में नायिका कहती हे--सखी का यह प्रयज्ञष, उतना ही 
हास्यास्पद है जितना कि किसी का गड्जा के प्रवाह को पश्चिम की श्रोर 


( २५४४ ) 


फेरने की चेष्टा करना अथवा शरीर से रूई लपेट कर दणइ-प्रहार द्वारा 
ऋाग बुकाने की कोशिश करना दत्यादि । 


सखी के भेद 


सखी चार प्रकार की होती हैं, १--हितकारिणी, २--व्यंग्य-विदग्धा, 
३-- श्रन्त गिणी और ४--बहिरंगिणी | 


हितकारिणी 
जो सखी निश्छुल भाव से नायिका की सेवा करती है, वह हितकारिणी 
कट्टाती हे । 
उदाहरण में नीचे लिखे दोहे देखिये--- 
छुनिक न छोड़ति सुन्दरी सखी हितू को संग । 
सखी बढावति रहति त्गों सुन्दरि हिये उमंग || 
>< >< < 
चित चाहत अलि अ्रंग तुव लद्दि दीपक परिमान | 
ले ले जनम पतंग को सदा बारिये प्रान॥ 
>< >< >< 
सुख सों सुख मानति सदा दुख देखे दुख मानि। 
अपन कीन्हे प्रान अ्रलि सुकुमारों के पानि॥ 
व्यंग्यविदग्धा 
जो सखी व्यंग्य-वचन कह कर काय-साधन करती है, उसे व्यंग्य- 
विदग्धा कहते हें। उदाहरण में कविवर गोविन्द का नीचे लिखा पनद्म 
पढ़िये | इसमें व्यंग्यविदग्धा सखी अपने व्यंग्य-वचनों द्वारा, नायक रूपी 
भौरे पर, उसके किसी एक नायिका ( चमेली ) पर द्वी मुग्ध रहने के 
कारण केसी फवतियाँ कसती है । 
फूल्यौ बन देखि के न काहू फूल प्रीति करें, 
देखत न ओर केहू तर अ्ररु बेलि कों। 


( २४४ ) 


सेवती सुद्दाई मार्ऊँ नेकहूँ न मन देत, 
सेवत सदा ही नाँहि जूथिका नवेली कों। 
गोविन्द” गँवार कहा जाने और फूल जाति, 
कबहूँ. न चाहत हैं, कंजबन केली कों। 
बार-बार गुंजि-गूंज चारों ओर फेर देत, 
भोरे मतवारे सब चाहत चमेली कों। 
इस सम्बन्ध में नीचे लिखा दोहा भी पढ़ने लायक़ दे, देखिये कितना 
मधुर व्यंग्य है -- 
गंंज लेन तू श्राज कत कुज गई यह काल। 
कंटक छुत नख चाहिके चखन चाहिके बाल॥ 
अन्तरंगिणी 
जो सखी नायिका के प्रत्येक आनन्‍्तरिक रहस्य को भली भाँति 
जानती और उसे भली भाँति लिपाए रखती है, उसे श्रन्तरंगिणी 
कहते हैं । 
चिरजीवी कवि ने अन्तरंगिणी सखी का उदाहरण इस प्रकार 
दिया है-- 
बान लग्यो है परोसिनी दीठिको ताते कहा भए कान्ह हैं रीते । 
यों जब पूछी प्रिया सखिसों, तब बोली सखी तिय तें भयभीते । 
है 'चिरजीवी' न बान बअिंध्यो श्रव कीजे कृपा उन पै निज द्वीते | 
बान को दूसरो शब्द युगाक्षर दीजिये लाले बिलोम के जीते | 
और भी देखिये-- 
मनमोहन ल्यावति नहीं सोहन ल्यावति धाय। 
कारे याहि डस्यो नहीं, कारे डस्यो बनाय॥ 
धहिरंगिणी 
जो सखी श्रपने समस्त कार्य स्पष्ट रूप से करती और नायिका की 
केवल बाहरी बातें जानती है, उसे बहिरंगिणी कहते हैं। यह सखी श्रपना 


( २४६ ) 


काम स्पष्ट बात कह कर करती है। उदाहरण में नीचे लिखे दोहे 
देखिये-- 
पिय देखत ही काम ते गरथो कंप तिय आय। 
सीत जानि अश्रलि श्रग्नि कों ल्याई बेगि जराय ॥ 
और भी 
सरद निसा में मानि है केसे सखी अनन्द। 
कन्‍त बिना लखि कामिनी होत कसाई चन्द॥ 


सखी के कारये 
सखी के मुख्य चार कार्य माने गए हैं, अर्थात्‌ १--मणइन 
२--शिक्षा, ३-- उपालंभ श्रौर ४--परिहास | 
मण्ड न 
नायिका को वच्नालड्वारों से सुसज्जित करना, पैरों में जावक, नेत्रों 
में अध्जन लगाना, केश सेमालना इत्यादि शंगार-सम्बन्धी काय मण्डन 
कहाते हैं। यथा--- 
मज्जन के दृग अ्ञ्जन दे मृग खब्जन की गति देखत हूली । 
बैनी प्रबीन' अ्रभूषन अ्रम्बर ओर ऊ श्रद्धन के अनुकूली। 
राधे को श्राजु विगार'थी सखी न तिलोक की कोऊ तिया सम तूली। 
सोने की बेलि सुगन्धनसमुह मनो मुकुतामनि फूलन फूली। 
इसी के उदाहरण में नीचे लिखे दोहे भी पढ़ने योग्य हैं--- 
सखी तिया की देह में सजे सिंगार अनेक । 
कजरारी शअखियान में भूल्यो काजर एक॥ 
>< > >< >< 
कहा करों जो श्रॉंगुरिन श्रनी घनी चुमि जाय । 
अ्रनियारे चख लखि सखी काजर देति डराय ॥ 


प्रायः कवियों ने मण्डन के श्रन्तगंत ही नख-शिख-वर्ण न माना है। 


( २५४७ ) 


शिक्षा 


नायिका को विलास सम्बन्धी बात बताने तथा नायक को रिकराने 
की विधि सिखाने का नाम शिक्षा है, उदाहरण देखिये-.. 


याहि मति जानो है सहज कहे 'रघुनाथ' 
अति ही कठिन रीति निपट कुढंग की। 
याहि करि काहू काहू भाँति सों न कल पायो, 
कलपायो तन मन मति बहु रंग की | 
ओ्रोर ह कहों सो नेकु कान देके सुनि लीजे, 
प्रगग कही है बात वेदन के अंग की। 
तब कहूँ प्रीत कीजे पहले ही सीखि लीजै, 
बिछुरनि मीन की ञ्रो मिलनि पतंग की। 


और देखिये निम्नलिखित सवैया भी कैसे सुन्दर हैं--. 


आगे तो कीन्हीं लगा-लगी लोयन केसे छिपे श्रजहू जो छिपावति | 
तू अनुराग को सोध कियो ब्रज की बनिता सब यों ठहरावति। 
कौन सकोच रो है “नेवाज” जो वू तरसे उनहूँ तरसावति। 
बावरी जो पै कलड्ड लग्यौ तो निसंक हे कादे न अंक लगावति। 
>< >< >< 
काँखति है का भरोखा लगी लग लागिबे को इृहँ भेल नहीं फिर | 
सयो 'पदमाकर” तीखे कटाछुन की सर को सर सेल नहीं फिर। 
नैेनन ही की घलाघल के घने घावन कों कछ्लु तेल नहीं फिर। 
प्रीति पयोनिधि में धंसिके हँसि के कढ़िवों दँसी-खेल नहीं फिर | 


इस सम्बन्ध में मह्कवि विहारी की भी उक्ति सुनिए-.- 


मोहि भरोसों रीकि है उछुकि काँकि इक वार। 


रूप रिकावन हार वह ये नेना रिरवार ॥ 
हि नसं०-२ै ७ 


( २४८ ) 


उपालम्भ 


सखी का नायक-नायिका को उनकी हितकामना से उलाहना देना 
उपालम्भ कहाता है। यथा--- 


पान की कहानी कहां पानी को न पान करे, 

ग्राहि कर उठत अधिक उर आधि ह । 
कवि 'मतिराम” भई बिकल बिहाल बाल, 

राधिके जिवाव रे अनंग अ्रवराधि के। 
या ही को कहायो ब्रजराज दिन चारि ही में, 

करी है उजारि ब्रज ऐसी रीति नाधि के। 
जैसे तेने मोहन बिलोक्यो वाकी श्रोर ते से, 
| बैरी हूँ सो बैरी न विलोके वैसे साथि के। 

श्रोर भी देखिये-- 

ब्रज बहि जाय न कहूँ यों आय आँखिन ते, 

उमड़ि श्रनौखी घटा बरसति मेह कोौ। 
कहे “ पदमाकर ”! चलावे खानपान की को, 

प्रानन परी है श्रानि दहसति देह की। 
चाहियेन ऐसी वृषभानु की किसोरी तोहि, 

श्राई दे दगा जो ठीक ठोकर सनेह की। 
गोकुल की कुल की न गैल की गुपालै सुधि, 

गोरस की रस की न गौश्रन की गेह की । 


उपालम्भ का नीचे लिखा पद्य भी पढ़ने लायक हे :-- 
दया करि चितै चित हित को चुराय लियो, 
फिरि हित चितए न यही सोच नित है। 
दिलदार जन पर बस में बसे जे तिन्‍हें, 
नेसुक न चाव निसि-वासर चकित है। 


( २४६ ) 


देखे ठक लागे अनदेखे पलकों न लगै, 
देखे झनदेखे नेना निमिख रहते है। 
सुखी हो जू कान्ह तुम्हें काहू की न चिन्ता वह, 
देखेहू दुलित अ्रनदेखेटू दुस्तित हे। 


परिहास 
नायिका के मनोविनोद या ग्रानंद के लिये, सूखी जो बात कहती 
अथवा चेष्टा करती है, उसे परिद्यास कहते हैं। यथा--- 


कल कंचन-सी वह अश्रंग कहाँ कहाँ रंग कदम्बिनि तें तनु कारो। 
कहाँ सेज कली विकली वह दाय कहाँ तुम साय रहो गहि डारो। 
नित दासजू ल्याव ही ल्याव कहो कदू श्रापनो वाको न बीच विचारों | 
वह कॉल सी कोरी किसोरी कहाँ श्रो कहाँ गिरिघारन पानि तिहारो। 
यहाँ सली नायक से नायिका की तुलना करती हुई कहतो हे, “कहाँ 
वह सुबर्ण वर्ण कुसुम-कली सदृश कोमलाड्रिनी जो पुष्प-शैया पर भी 
विकल रहत॑ है; श्रोर कहाँ तुम काले-कलूटे कठोर काय, जो पेड़ की डाल 
पर भी ख़र्राटे भरने लगते दा | श्रपना और उसका श्रन्तर भी विचारते 
हो, या यों द्वी उसे लाने को श्राग्रह करते हे | अरे, उसके पश्-प्रसून 
सहश मृदुल पाणि पल्‍लव झ्रोर अपने पहाड़ उठने वाले कठोर करों 
का जरा मिलान तो करो |” यहाँ सखी परिहास के लिये नायक-नायिका 
की इस प्रकार तुलना कर रही है। 
परिह्ास का एक उदाहरण ओर भी देखिये -- 
बृन्दावनचन्द अद्दो श्रानन्‍्द के कन्द तुम, 
माधव मुकुन्द दो आनन्द छुवि जोरी के । 
नन्‍्दजू के नंद बलदेव के सहोदर-- 
सखान में सरादे घनश्याम मति भोरी के । 
फागुन के ओसर फजीहत बजाय ढोल, 
कहत कहाये वृषभान की किसोरी के। 


( २६० ) 


गायन के रहुआ गुलाम ब्रज गोपिन के, 
हो-हो हरि भडुआ्रा हज़ार दार होरी के | 
यहाँ नन्‍नदलाल को होली का भडु शत्रा बताकर उनसे परिहास किया 
गया है । नीचे लिखा दोहा भी परिहास का सुन्दर उदाहरण है । 
लाय बिरी मुख लाल के खेंच लई जब बाल । 
लाल रहे सकुचाय तब हंसी सब दे ताल |। 


द्ती 


नायक-नायिका का संयेग कराने के लिये प्रयक्ष करने वाली, तथा 
सन्देश ले जाने ओर समयेपयेगी वचन-रचना में निपुण स्त्री का दूती 
कहते हैं। यद दूती कलाओं में कुशल, उत्साइ-सम्पन्न, आज्ञाकारिणी, 
दूसरों के दृदय की बात ताड़ने में चत॒र, श्रच्छी स्मरण शक्ति वाली, मधुर- 
भाषिणी, विनम्र श्रोर वाक्पठु द्ोनी चाहिये | 


कवि रघुनाथ ने दूती का उदाहरण इस प्रकार दिया है - 


सोंह करि कहदति हों एड्ो प्यारे रघुनाथ, 
आावति कराएं वादों उनही के घर सों। 
जैसे बने वैसे यरौस ञ्राज के त्रितीत कीजै, 
अब श्रकुलाइये न पागे प्रेम वर सों। 
जा पर गुलाल मूठि डारी सो मिलेगी काल्द, 
मारी पिचकारी बाल प्यारी तौन परसों। 
खेलत में होरी रावरे के करवर सों जो, 
भीजी ही श्रतर सों से ञ्राय है अ्रतरसों। 


दूती के भेद 


दूती तीन प्रकार की होती है, १०--उत्तमा, २--मध्यमा ओर 
३--श्रधमा । 


( २६१ ) 


उत्तमा दृती 
केवल अपनी जुक्ति सों रचना करति विचित्र | 
बरनत उत्तम दुतिका कविजन परम पवित्र ॥ 
जो दूती विना सिखाए-पढ़ाए, अपने श्राप मधुर भाषण द्वारा ततरता- 
पूबंक अपने भेजने वाले का कार्य सिद्ध करती हे, उसे उत्तमा दृती कहते 
हैं। उदादरण देखिये | 
सुन्दर सुदेस मध्य मूठी में समात जाको, 
प्रगग न गात बेस बदन संवारी है। 
कहे कवि दूलद! सु रमनी नेवाज श्रो, 
छुटाक भरी तोल मानो साँचे केसी ढारी है। 
पेटी है नरम श्रति लीजिये गोविन्द गदह्ि 
निपट नवेली पे समर सुर वारी है। 
रीके गुनमान गोसे गोसे सों मिलैगी मुल- 
तान की कमान के समान प्रान प्यारी है | 
उक्त पद में दूती ने नायक के समक्ष नायिका की प्रशंसा कैसे सुन्दर 
ढंग से की है | 
ठाकुर कवि का नीचे लिखा पद्म भी उत्तमा दूती का सुम्दर 
उदाहरण है-- 
हिल-मिल लीजिये प्रवीनन सों आठो जाम, 
कीजिये श्रराम जासों जिय को शअ्रराम है। 
लीजिये दरस जाको देखिवे की साध होय, 
कीजिये न जाँच संग नाम बदनाम हे। 
'ठाकुर' कहत ठीक मन में विचारि देखो, 
मान श्रो गुमान को रखैया एक राम है। 
रूप-सो रतन पाय जोबन-सो घन पाय, 
नाहक गँवाइवों गवारिन का काम है । 


६ रेद२ ) 


श्रौर भी देखिये-- 

पिय के हिय के हनन कों भयो पद्चसर बीर। 

बाल तुम्हें बस करन को रहे न तरकस तीर॥ 

मध्यथा दती 

सिखई बातन में मिले जो तिय करति बसीठ | 

है वह मध्यम दूतिका रहति बचाए दीठ ॥ 
नो दूती मेजने वाले के सिखाने-पढ़ाने में कुछ श्रपनी ओर से भी नमक- 

मिच मिलाकर उसका काये साधन करती है, उसे मध्यमा दूती कद्ते हैं । 

उदाहरण देखिये-- 
भूमि पै पाँव धरे कबहूँ नहिं सूरज देखि सके नहिं जा को। 
मानस की चरचा का चलाइये, चन्द सके न चिते पुनि वा को। 
झौचक भऊाँकि भरोखन में जसवन्त विलोकत ताकी प्रभा को । 
लाउँ कहो किह्दि भाँति कन्हाई दृवाल हवा लॉ न जानति जा को | 
कृविवर मतिरामजी ने मध्यमा दूती का उदाहरण इस प्रकार दिया 


है 

चरन धरे न भूमि बिहरे जहाँ की तहाँ, 

फूले हैं सु फूलनि बिछायो परियंक है। 
मारके डरनि सुकुमारि चारु श्रंगन में, 

करति न अंगराग कुंकुम के बंक हे। 
कवि 'मतिराम” देखि बातायन बीच आये, 

ग्रातप मलिन होत बदन मयंक है। 
कैसे वह बाल लाल बाइर विजन भञ्रावै, 

विजन बयारि लागे लचकति लंक है। 

झऔर भी-- 


बेगि आय सुधि लेहु यट्ट श्रली कश्नौँ घनश्याम । 
मैं देखयौ वह चातकी रटति तिहारो नाम ॥ 


( रेकरे ) 


अधमा दूती 
केवल सिखई बात को निस-दिन करति बखान। 
अधघम दूतिका कहत हैं ताको सुमत सुजान ॥ 
जो दूती जैसा उसे सिखाया जाय वैसा ही कह दे, उसमें अ्रपनी श्रोर 
से घटत-बढ़त कुछ न करे, उसे अधमा दूती कहते हैं | यह दूती समयो- 
चित बातें करने में सवंथा भ्रसमर्थ होती दे, साथ ही यह बात-चीत करने 
में कुछ कट्क्तियाँ भो कह जाती है। जैसे-- 
ऐहे न फेर गई जु निसा तन यौवन है घन को परछाहीं। 
यों 'पदमाकर' क्‍यों न मिले उठि, यों निबहेगो न नेह सर्दाहीं। 
कौन सयान जो कान्ह सुजान सों ठानि गुमान रही मन माँहीं। 
एक जु कब्ज कली न खिलै तो कहा कह-ुँ भोंर के ठोर है नाँहीं। 


एक दोहा औ्रौर देखिये, इसमें नायिका दूती से कह रही हे-- 


कैसी थां तेरी श्री परी बान यह गान । 
जैसी ये मां ते कढ़त तैसी करति बखान ॥ 
दूती के कम 
इन तीनों दूतियों के संघट्टन और विरह-निवेदन मुख्यतया ये दो कार्य 
हैं। कुछ श्राचाययों ने विनय, स्तुति, निन्‍्दा, प्रबोध, संघट्नन और विरह- 
निवेदन ये छुह्द कम माने हैं | विचार से देखा जाय तो विनय, स्तुति आदि 
पौँचों ही संघट्टन के साधन मात्र हैं। अधिकांश कवियों ने संघइन 
और विरह-निवेदन इन दो का ही वशन किया हे । प्रत्येक प्रकार की दूती 
के के में दूती के गुणानुसार अम्तर श्रा जाता दे | दूती के छुट्टों कर्मों 
के लक्षण ओर उदाहरण इस प्रकार हैं | 


विनय 
झपने कार्य -साधन के लिए, दुती नायक-नायिका से जो विनम्र विनती 
करती है, उसे विनय कहते हैं। जैसे -- 


( २६४ ) 


हा-हा बदन उधारि हग सफल करें सब केाय | 
रोज सरोजन के परे हँसी ससी की हाय ॥ 
हँसी सती की होय देख मुख तेरो प्यारी। 
विधना ऐसी रची आपने हद्वाथ सवारी ॥ 


कह पठान सुलतान मेटु उर अन्तर दाहा। 
करु कटाच्छु हृहि ओर मोर विनती सुन हाह्ा ॥ 


दूती हा हा खाती हुईं, नायिका के सौंदर्य का वर्णन कर उसे बढ़ावा 
देती हे--“ श्ररी, तू ज्ञरा पँघट तो खोल, तेरे मंह उघारते ही कमल-वन 
में रोने पड़ जायगे, चन्द्रमा मन्दप्रभ हे जायगा और दर्शाक तुके देखकर 
अपने नेत्र सफल कर लेंगे । 


स्तुति 


अपने कार्य-साधन के लिये दूती नायक अ्रथवा नायिका की जो प्रशंसा 
करती हे, उसे स्तुति कहते हैं 


उदाहरण देखिये-. 


अंग तेरो केसर-से करिहाँ केसरी केसे, 
केसन की सरि कैसे करि सके तो तमें। 
कहें कवि गड्” श्राले छुबि के छुबीले नेन, 
नीलेऊ नलिन ऐसे नाहीं देखे द्वोत में । 
श्रद्दे हे अहीरी तू धो इद्ौ कछू जानति हे 
काके भागि श्रौतरी हे तो सी तेरे गोत में | 
तरनी-तिलक नन्दलाल त्योँ तिन्क ताकि, 
तो पर हों वारों तिल-तिल के तिलोत्तमे | 


दूती नायिका की प्रशंसा करते-करते, तिलोत्तमा के भी उस पर वार 
कर फेंक देना चाहती है । अतिशयेक्ति की हृद कर दी। 


( २६५ ) 


श्रागे लिखे दोहे भी स्तुति के सुन्दर उदादरण हें-- 
दिपति देह छुबि देह की किहि विधि बरनी जाय। 
जिहिं लखि चपला गगनते छिंति पर फरकति आ्राय ॥ 
यहाँ नायिका की देह-दीसि देखकर बिजली भी मारे शर्म के ( आकाश 
से गिर ) ज़मीन में गड़ जाती है । 
> >< >< 
मुख ससि निरखि चकोर ग्र«० तन पानिप लखि मीन । 
पद पंकज देखत भैंवर होत नयन रस लीन ॥ 
यहाँ नायिका के मुख-चन्द्र के देख चकोर ; तन-पानिप के देख मीन 
ओर पद-पंजक को निहार कर भोरे मुग्घ हे जाते हैं । 


निन्दा 
स्वकाय-सिद्धि के लिए नायक या नायिका के श्रागे दूती जो उनकी 
जुराई करती है, उसे निनदा कहते हैं। जहाँ विनय या स्तुति द्वारा दूती 
के कार्य-सिद्धि की श्राशा नहीं होती, वहाँ वह निन्‍्दा द्वारा नायक-नायिका 
के स्वाभिमान के उत्तेजित कर सहज द्वी में अपना काम बना लेती है। 
उदाहरण देखिये-- 
खेलति फाग सुहाग भरी सुथरी सुर अ्रंगना ते सुकुमारि है । 
जैये चले अठिलेये उते इते कानद खड़ी वृषभानु-कुमारि है | 
'संभु? समूह गुलाब के सीसन ढारि के केसरि गार बिगारि है । 
पामरी पाँवड़े होति जहाँ-तदाँ के लला कामरी पै रँग डारि है । 


जाओ-जाश्रो |! चल दिये राधिकाजी के साथ होली खेलने | भला 
तुम्दारे इस काले कम्मल पर अपना केसरिया रंग डाल कर कोन उसे 
( रंग को ) ख़राब करेगी | 

और देखिये--- 

कंज से सम्पुट हैं ये खरे हिय में गड़ि जात ज्यों कुन्त के कोर हैं । 

मेरु हैं पै हरि हाथ न आबत चक्रवती पे बड़ेई कठोर हैं। 


२६६ ) 


भावती तेरे उरोजन के गुन 'दास! लखे सब औरई और हैं। 
संभु हैं पे उपजाव मनोज सुवित्त हैं पै परचित्त के चोर हैं। 


नीचे लिखा कवित्त भी निन्दा का सुन्दर उदाहरण हैं-.. 


सील भरी खरी करि आपने कहे में श्राँखे, 
घरी-घरी घर ही में घूँघट सँभारिले । 
गोकुल में बसि कुल-कानि न कहाय प्यारी, 
आनन छुयाय दृग नीचे के निद्दारिले। 
कहे कवि कासीराम” सीता इन्दुमती अ्ररु, 
सती पारवती के-से पातित्रत धारिलै। 
जो लों तेरी दीठि न परे री नन्‍्दलाल तौ लीं, 
गरबीली गूजरी गंवारी गाल मारिले। 
व प्रवोध 
नायक-नायिका के समझाने का नाम प्रबोध है। 
उदाहरण देखिये- 
कंचन की ककई कर ले हरे देर हँसोदे कही यह नाहइन। 
रात के सेावत के सपनों श्रपने सुन लीजिये मेरी गुसाइन । 
पै न चलाइये बात कहूँ सुनि पावै न के।ऊ कहूँ की चबाइन । 
नोखे वे ठाकुर नन्‍दकिसार श्रनौखी बनी तू नई ठक्राइन । 
संघट्टन 
दूती के जिस उद्योग द्वारा नायक-नायिका का संयाग होता है, उसे 
संघट्टन कहते हैं| जैसे-- 
नव कंजन बैठे पिया नंदलालजू जानत हैं सब कोक-कला | 
दिन में तहाँ दूती भोराय के ल्याई मह्दा छुवि धाम नई अबला। 
जब धाय गही 'हरिचन्द' पिया तब बोली अश्रजू तुम मोहि छुला । 
हमें लाज लगे बलि पाय परों दिन ही ह-हा ऐसी न कीजे लला | 


( २६७ ) 


और भी देखिये-- 


गोरी कों जु गुपाल कों हारी के मिस लाय | 
विजन साँकरी खोरि में दोऊ दिये मिलाय ॥ 
>< >< >< 
रमनी रमन मिलाप यों दूती रहति बराय | 
घन दामिनि कों जोरि के ज्यों समीर बहिजाय।। 


विरह-निवेद न 
दूती जिन शब्दों द्वारा नायक-नायिका की विरह-व्यथा एक दूसरे पर 
प्रकट करती दे, उसे विरह-निवेदन कहते हैं । 
नीचे लिखे दोहे विरदनिवेदन के केसे सुन्दर उदाहरण हैं। 
देखिए-- 
कहा कहाँ वाकी दसा जब खग बोलत राति | 
पीय सुनत ही जियति है, कहाँ सुनत मरिजाति ॥ 
८ > 
तें दीनों लीनों सुकर छुब॒त छुनकि गो नीर। 
लाल तिहारो अरगजा उर हे लग्यो अबीर ॥ 
९ >< >< 
जब तें आई तड़ित लाौं नीलाम्बर में कौंषि। 
तब ते दरि चकृत भए. लगी चखनि चकचोंचि |। 
८ >< >< 
विरह-निवेदन में विद्दारी का नीचे लिखा दोहा भी देखने लायक दै-- 
जो वाके तन की दसा देख्योे चाहत आप। 
तो बलि नेकु विलोकिये चलि श्रोचक चुपचाप ॥ 
यदि तुम विरहिणी की वास्तविक विकलता देखना चाहते हो, तो 
चुपचाप अचानक चल कर देखो; क्योंकि तुम्हारे श्राने की यदि उसे 


( शेदे८ ) 


पहले से सूचना मिल गईं तो प्रसन्नता के कारण उसकी दशा सुधर 
जायगी । जैसा कि किसी उदू शायर ने भी कद्दा है-- 


उनके देखे से जो श्राजाती है रोनक़ मुँह पर- 
वे समभते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है। 


वियोगिनी नायिका के दिनोंदिन कृश होने का वर्णन किसी संस्कृत 
कवि ने क्या द्वी उत्तमता से किया है। वह कहता है-- 
महिला सहसख्तभरिते तव हृदये सुभग सा अमान्‍न्ती | 
प्रतिदिनमनन्यकर्मा श्रद्ध तनुकमपि तनू करोति 


अर्थात्‌ सहसतों महिलाओं से भरे तुम्हारे द्वदय में स्थान न पा सकने 
के कारण वह नायिका सब काम छोड़ कर श्रपनी दुबली-पतली देह को 
श्र भी अधिक कृश बना रही है। जिससे वह इतनी नायिकाओं के होते 
हुए भी आ्रासानी से तुम्दारे हृदय में स्थान पा सके । 
ऊपर दिये उदाहरण साधारणतः सभी दूतियों के सममिये । आगे 
तीनों प्रकार की दूतियों के केवल संघट्टन ओर विरह-निवेदन के उदाहरण 
दिये जाते हैं । 
उत्तमा-संधट्टन 
अय आय बादर रहे हैं नम छाय छाय, 
ग्रधिक अंधेरी भई जेसे निसि कारो में । 
बोलि बोलि दादुर करत घन घोर सोर, 
तड़िता तरपि बुन्द परत कियारी में। 
कहे * कमलापति ? बखानत बने न मो तैं, 
जैसी जाय देखी श्रबे सोभा फुलवारी में । 


बारी बैस बारी कद्दी मानि ले इमारी श्राज, 
को न हरि यारी करे ऐसी हरियारी में। 


( २६६ ) 


उत्तमा-विरह-निवेदन 
एक दृती खीनी पर एते पे न एते मान, 

भई श्रति दूबरी बिरह ज्वाल जरती। 
पास धरो चन्दन सुवास ही तें बाठे ताप, 

हे। तो जो समीर तो उसासे न उसरती। 
चन्दन की रेख रद्दी आभा अ्रवशेष सुतो, 

देखते बनत पै न कहत बने रती। 


ल्यावती गोबिन्द अ्रबिन्द की कली में राखि, 
जो न मकरन्द बीच ड्रभिवे के डरती। 


मध्यमा-संघट्टन 
दौरि दूरि ते में श्राई कहिबे तिहारे पास, 
देखि मनमोहिनी के मोहन श्रनूप बेस। 
ताकी 'कमलापति” सुसील सुन्दराई बारी, 
समता न ॒पावै रचे रूप रति हू हमेस। 
सीरे नेन कीजे चलि बलि जमुना के तीर, 
भूषन सों भूषित विलोकि औरे नखतेस। 


फूली फूल बेली सी नबेली बाल भूलति हे, 
फूल के हिंडोरे श्राजु फूलन सों गूँथे केस । 
म्रध्यपा-विरह-निवेदन 


सेज परी है छुरी-सी भरे तन ताप सों जात छुवा न दई है। 
डोलति बोलति दे न कछू दहग खेलिवे की सुधि भूलि गई है। 
गोकुल जाति घुरी श्रेंसुवानिसों लीक लखीसी विलोक लई है। 
बाल की लाल दसा सुनिये वह बारि बिहीन की मीन भई है। 


( २७० ) 


अधमा-स॑घट्टन 
है उत नागर नन्दकुमार ओर तृही इते वृषभानलली है। 
जोरी बनी हे दुहूँ की श्रपूरय पूरत्र पुन्य की बेलि फली है। 
जोवत हैं कब के मग ठाढ़े श्रकेले जहाँ वह कुज्न थली है। 
बेगि न जाति लजाति कहा यह जाति जुन्हाई की राति चलो है। 


अधमा-पिरह-निवेदन 
दूरि ही तें देखति दसा में बा वियोगिनी की, 

आई दोरि भाजि हाँ इलाज मढ़ि आ्रावेगी। 
कहे 'पदमाकर! सुनो हो घनस्याम ताहि, 

चेतत कहूँ जो एक श्राइ कढ़ि आआवेगी। 
सर सरितान के न खूखत लगेगी बेर, 

एती कछू जुलमिनि ज्वाल कढ़ि आवेगी। 


ताकी विरह्ागि की हों में कद्दा बात मेरे-- 
गात ही छुए तें तुम्हें ताप चढ़ि आ॥ावेगी। 


स्वयं दूती 
जब नायिका श्रपनी कायसिद्ध के लिए स्वयं दूती का काय करती है, 
तब उसकी स्वयंदुती संशा होती हे । यथा-- 
सहर मँकरारत पहर एक लागि जेहे, 
छोर में नगर के सराय है उतारे की । 


कद्दत “कविन्द' मग माँ ही परैगी साँक, 
खबर उड़ानी है, बटोही द्वेक मारे की। 


घर के हमारे परदेस कों सिधारे यातें, 
दया के विचारें हम रीति राह बारे की। 


( २७१ ) 


उतरो नदी के तीर बर के तरेई तुम, 
चौंको जनि चौकी तहाँ पाहरू हमारे की। 
८ >< >< 
नीचे लिखा दोहा भी स्वयं दूती का सुन्दर उदाहरण दे । देखिए 
बसौ पयिक या पोरि में यहाँ न आवे और । 
यह मेरो यह सासु को यह ननदी को ठोर ॥ 
यहाँ स्वयं दूती नायिका पथिक से 'पौरि! में ( पौली में ) झदरने की 
प्राथना करती हुई उसे बातों ही बातों में अपने सेने का स्थान भी बता 
देती है | इसी भाव का एक संस्कृत का उदाहरण भी बड़ा सुन्दर है। नीचे 
उसे भी पढ़ लीजिये | 
श्वभ्र्रत्र निमज्जति श्रत्राईं दिवस एवं प्रलोकय । 
मा पथिक राज्यन्धक शय्यायां मम्र निमढक्ष्यसि ॥ 
ग्रर्थात्‌ इस जगद्द तो मेरी सास ( निमज्जति ) खूब गहरी नींद में 
सेती है, और यहाँ मैं सेती हूँ। दे ( राज्यन्धक ) रतोंची वाले पथिक 
दिन में ही ध्यान से देख लो। ऐसा न दो कि रात में कहीं मेरी खाट पर 
गिर पड़ो। 
स्वयंद्ती-संघट्ट न 
घटा घहरात तामें बीजुरी न ठद्दरात, 
सीतल समीर त्योंह्दी लाग्यो मेह भूरु है। 
पौरियै रतोंधी श्रावे सखी सब्र सोय रहीं, 
जागत न केऊ परदेस मेरो वरु है। 
ननद नियारी सास मायके सिधारी देखि-- 
भारी श्रेंषियारी तामें यूकत न करू हे। 
सावन की यूनी श्रधराति निसि जागि जागि, 
जागि रे बटाोही इहाँ चोरन के डस् है। 


( २७२ ) 


स्वयं दृती-विरह-निवेदन 
आपुस में हमके तुमको लखि जो मन श्रावत से कहती हैं। 
बातें चबाव-भरी सुनि कैरिस लागति पै चुप हे रहती हैं। 
ये घरहाँई लुगाई सबै निसि-द्योस “ नेवाज ” हमें दहती हैं। 
प्रान पियारे ! तिहारे लिये सिगरे ब्रज को हंसिवों सहती हैं। 


पड्ऋतु 

गर्मी, सर्दी तथा वर्षा की दृष्टि से, वष के छुह्द विभाग किये गए हैं, 
जिन्हें ऋतु कहते हैं | सूय की गति के अनुसार पूरा वर्ष बारद भागों में 
विभक्त किया गया हे, जिन्हें राशि कहते हैं। अ्र्थात्‌ मेष, वृषभ, मिथुन, 
कक, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धन, मकर, कुम्भ और मीन ये बारद 
राशियों हैं | क्रान्त वृत्त के मार्ग में जो नक्षत्र हें, उनके आआकारों की 
कल्पना करके ही उपयुक्त नाम रक्‍खे गए. हैं । क्रान्त वृत्त के मार्ग में 
जो महा विपुत्र बिन्दु है, उसी से राशियाँ शुरू द्ोती हैं। जब मीन और 
मेष राशि पर यूथ द्वाता है, (श्रर्थात्‌ मा्च-अ्रप्रेल मं) तब वसन्‍्त ऋतु होती 
हे। हमारे यहाँ वसनन्‍्तागमन की सूचना देने के लिए वसन्त पश्चमी का 
त्योह्दार मनाया जाता है | होली भी वसन्त ऋतु का त्योहार है। अरंगरेज़ी 
का एप्रिल शब्द भी एक्रोडाइट ( कामदेव ) से ही निकला है । जब वृषभ 
और मिथुन राशि पर सूय द्वाता हे, ( अर्थात्‌ मई-जून में ) तो उसे ग्रीष्म 
शतु कहते हैं | इस ऋतु में बड़ी गर्मी पड़ती है, लू चलती है, शरबंत बरफ़ 
ठंडाई आदि पीना अच्छा लगता हेै। जब सूय कक और सिंह राशि पर 
होता दे, (श्रर्थात्‌ जुलाई-श्रगस्त में ) तब उसे वर्षा ऋतु कहते हैं । 
इस कऋतु में खूब मेह बरसता हे । कन्या और तुला राशि पर सूय आने 
पर ( अश्रर्थात्‌ सितम्बर-श्रक्टूबर में ) शरद ऋतु हे।ती है। इस ऋतु भें 
चन्द्रमा बड़ा सुहावना ओर श्रानन्ददायक दिखाई देता है। वर्षा ऋतु 
के कारण वायु-मणडल निमल है| जाने से, आकाश बड़ा सुन्दर दा जाता 
है | वृश्चिक और घनराशि में स्॒य आने पर ( अ्रर्थात्‌ नवम्बर- 
दिसम्बर मास में ) हेमन्‍त ऋतु आती दे और उसके पीछे शिशिर ऋतु। 
इसमें सूय मकर ओर कुम्म राशि पर होता है । इस समय झंगरेज़ी महीने 
जनवरी श्रोर फ़रवरी होते हैं । 
हि० न०--श्८ 


५ २७४ ) 


संस्कृत-कवियों ने प्रायः शिशिर के पहली 'हूतु मानकर उसी से 
ऋतु-वर्णन आरम्भ किया है, परन्तु हिन्दी वालों ने वसनन्‍्त के पहली शऋतु 
माना है, श्रतः उनका ऋतुनवर्णन वसन्‍्त से ही आरम्भ द्वाता है। वसन्‍्त 
में होली का भी बड़ा महत्त्व है । प्राचीन समय में वसन्‍्त और दहेली किस 
प्रकार मनाये जाते थे, उसका कुछ परिचय निम्नलिखित पंक्तियों से प्राप्त 
हो सकेगा । ु" 

वसनन्‍्त ओर होली 

प्राचीन भारत में ऋतु सम्बन्धी उत्सव बड़े समारोहपूवंक मनाए, 
जाते थे | वसन्तोत्सव के मनाते समय तो दृषं का पारावार ही न रहता 
था| शरद ऋतु में कोमुदी उत्सव मनाया जाता था | संस्कृत-काब्य- 
साहित्य इस प्रकार के उत्सव सम्बन्धी वर्णनों से भरा पड़ा है। होलिकोत्सव 
वसन्तोत्सव का ही एक भेद है, जो विकृत रूप में ग्राज भी मनाया जाता 
है। फाल्गुन और चेत्र दोनों में मदनोत्सवों की धूम रद्दती थी। मदनोत्सव 
के मनाने का वर्णन सुप्रसिद्ध सम्राट श्री हृषदेव की रत्नावली में बड़े 
सुन्दर और सजीव ढंग से किया गया हे। विद्वदर पं० हजारीप्रसादजी 
द्विवेदी के “मधुकर” में प्रकाशित एक लेख में उसका उल्लेख इस प्रकार 
किया गया है--मदनेत्सव के दिन दोपहर के बाद सारा नगर पुरवासियों 
की करतल-धघ्वनि, मदन-संगीत ओर मृदंग के गम्भीर घोष से मुखरित हो 
उठता था। नगर के लोग मदमत्त हो जाते थे। राजा श्रपने ऊँचे 
प्रासाद की सब से ऊपर वाली चन्द्रशाला में ब्रैठकर नगरवासियों के 
ग्रामोद-प्रमोद के! देखा करते थे । नगर की कामिनियाँ मघु-पान करके ऐसी 
मतवाली हो जाती थीं, कि उनके सामने जो काई पुरुष पड़ जाता उस पर 
पिचकारी ( *|ंगक ) के जल की बौछार करने लगती थीं । बड़े-बड़े रास्तों 
के चौराहे मदल नामक बाजे के गम्भीर घोष और चचरी की ध्वनि से 
शब्दायमान हे उठते थे । ढेर का ढेर सुगन्धित श्रबीर दसों दिशाओं में 
इतना उड़ता रहता था, कि दिशाएँ रंगीन हो जाती थीं। जब नगर- 
वासियों का आमोद पूरे चढ़ाव पर त्रा जाता तो नगरी के सारे राजपथ 


( २७४ ) 


फेशरमिश्रित अभब्ीर से इस प्रकार भर उठते थे, माना उषा की छाया 
पड़ रही हो। लोगों के शरीर पर शोभायमान श्रलंकार और सिर पर पहने 
हुए अ्रशोक के लाल फूल इस लाल-पोले सौन्दर्य के और भी श्रधिक 
बढ़ा देते थे । ऐसा जान पढ़ता था, कि नगरी के सभी लोग सुनहरे रंग 
में इबो दिये गए. हैं। राजकीय प्रासाद तथा अन्य समृद्धिशाली भवनों 
के आँगनों में निरन्तर फ्रव्वारा छूटा करता था, जिससे श्रपनी-अ्रपनी 
पिचकारी में जल भरने की होड़-तली मची रहती थी। इस स्थान पर पौर 
युवतियों के बराबर आ्राते रहने से उनकी माँग के सिन्दूर और गाल के 
अबीर भरते रहते थे | सारा आँगन लाल कीचड़ से भर जाता था और 
फशं सिन्दूर-मय हो उठता था । 


उस दिन वेश्याओं के मुहल्ले में सबसे अधिक हुदंग दिखाई देता 
था | रसिक नागरिक पिचकारियों में सुगन्धघित जल भर कर वेश्याश्रों 
के कोमल शरीरों पर फेंका करते थे जिससे वे सीत्कार करके सिहर 
उठती थीं | वहाँ इतना श्रबीर उड़ता था कि सारा मुहलला अन्धकारमय 
हो जाता था । 


अन्त:पुर को रसिका परिचारिकाएँ हाथ में शअ्ाम्रमञ़्री लिए हुए 
द्विपदी खण्ड का गान करती नृत्य करने लगती थीं। इस दिन इनका 
ग्रामेद मयादा की सीमा पार कर जाता था। वे मधुपान से मत्त हो 
उठती थीं। नाचते-नाचते उनके केशपाश शिथिल हे जाते थे। कबरी 
(जूरा ) का बाँधने वाली मालती-माला खिसक कर न जाने कहाँ 
ग़यब हे। जाती थी। पैरों के नूपुर कूटकन-मठकन के वेग को न 
सम्हाल सकने के कारण दुगने ज़ोर से कनभनाने लगते थे। नगरी 
के भीतर और बाहर सव्ंत्र आमोद और उल्लास की प्रचश्ड आधी 
चलने लगती थी । 


वसन्तोत्सव प्राचीन भारत में किस प्रकार मनाया जाता था, उसका 
कुछ वर्णन उपयंक्त पंक्तियों में महाकवि भवभूति की शक्तिशालिन लेखनी 


( २७६ ) 


के आधार पर दिया गया है| इससे आजकल की होली से कुछ तुलना 
की जा सकती है| दसन्तोत्सव मनाते समय कामदेव के मन्दिर में जाकर 
उसकी पूजा की जाती थी | प्राचीन ग्रन्थों में वसन्‍्त के निम्नलिखित उत्सव 
मनाए जाने का उल्लेख हैं -- 


श्रष्टमीचन्द्र, शक्रार्चा या इन्द्र पूजन, वसन्त या सुवसन्तक, मदनेत्सव, 
वकुल श्र अशोक-वृक्षों के पास विहार और शाल्मलीविनेद | पण्िडत 
हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के उपयुक्त लेख में लिखा दे कि सुबसन्तक 
वसनन्‍्तावतार के दिन के कहते हैँ, श्र्थात्‌ जिस दिन प्रथम वार वसनन्‍्त 
प्रथिवी पर उतरता है। इस तरह ग्राजजल के हिसाब से यह दिन 
वसन्‍्त पञ्चमी के पड़ना चाहिये। इसी दिन मदन की पहली पूजा 
विश्ित हे । इसी दिन उस युग की विलासिनियाँ कण्ठ में कुबलय 
की माला ओर कानों में दुष्प्राप्प नव आम्रमंत्ररी धारण करके ग्राम 
के। जगमग कर देती थीं। पुराने गर्म कपड़ों को फेंककर लाक्षारस 
या कुंकुम के रंग से रंजित और सुगन्धित कालागुरु से सुवासित हलकी 
लाल साड़ियाँ पहनती थीं। कोई-कोई कुसुम्भी दुकूल धारण करती 
थीं ओर केाई-के।ई कानों में नवीन कर्णिकार का फूल, नील श्रलकों 
में लाल अशोक के फूल झ्रोर वक्षःस्थल पर उत्फुल्ल नव मल्लिका की 
माला धारण करती थीं। 


उन दिनों वसन्‍्त ऋतु की उद्यान-यात्रा और वनयात्राएँ काफ़ी मजेदार 
होती थीं | कामसूत्र में लिखा है कि निश्चित दिन के दे।पहर के पूष ही 
नागरिक-गण सजधघधज कर तैयार दे! जाते थे | घोड़ों पर चढ़कर वे किसी 
दूरस्थित उद्यान या वन की श्रोर- जो एक-दो दिन में ह्वी लौट आने योग्य 
दूरी पर होता था--जाया करते थे। कभी-कभी इनके साथ वेश्याएँ भी 
होती थीं, श्रोर कभी-कभी अ्रन्तःपुर की ग्रह-देवियाँ । 


इन उद्यान-यात्राश्रों या पिकनिक पार्टियों में हिन्दोल-लीला, समस्या- 
पूर्ति, आख्यायिका, बिन्दुमती, प्रदेलिका श्रादि खेल होते थे । 


( २७७ ) 


वसन्त-वर्णन 
देखिये, * मदन मद्दीप के बालक ” वसन्‍्त के केसे ठाढ हैं-..- 


डार ट्रम पालन बिछोना नव पल्‍लव के, 

सुमन मभँगूला साहं तन छुबि भारीदे | 
पवन भुलावे केकी कीर बतरावें 'देव' 

कोकिला हलावे हुलसावे करतारी दे। 
पूरित पराग सों उतारो करे राई-लोन, 

कंज कली नायिका-लतान सिर सारी दै। 
मदन महीप जू के बालक बसनन्‍्त ताहि, 

प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दे। 


और सुनिए, ऋतुराज के श्राग मन की सूचना पाकर प्रकृति में, उनके 
स्वागत के लिए, केसी चहल-पहल दिखाई दे रही है--- 
कूकि उठीं कोकिला सु गँजि उठी भौर भीर, 
डोलि उठे सोरभ समीर तरसावने | 
फूलि उठीं लतिका हैं लॉगन की लोनी लोनी, 
भूमि उठीं डालियाँ कदम्ब सरसावने । 
चहकि चकोर उठे करि करि सोर उठे, 
टेरि उठीं सारिका विनोद उपनावने । 
चटकि गुलाब उठे लठकि सरोज पूंज, 
खटकि मराल 'शऋतुराज सुनि आावने । 
अब ज़रा पद्माकरजी का भी वसन्त-वर्णुन सुन लीजिए-- 
कूलन में केलि में कछारन में कुझ्जनन में, 
क्यारिन में कलित कलीन किलकन्त है। 
कहे “ पदमाकर ” पराग में सु पौन हू में, 
पातन में पीकन पलासन पगन्‍्त है। 


६ रछ्८ ) 


द्वार में दिसान में दुनी में देस देसन में, 

देखो दीप-दीपन में दीपति दिगन्त है। 
बीथिन में ब्रज में नबेलिन में बेलिन में, 

बनन में बागन में बगरयौ बसन्‍्त है। 


केाई वियेगिनी गोपी जल-भुन कर वसनन्‍्त का ऐसा विचित्र वर्णन 
करती है कि उसने वसन्‍्त का नकशा ही बदल दिया है। देखिये-- 
पात बिन कीन्हे ऐसी भाँति गन बेलिन के, 
परत न चौीन्हे जैवे लरजत लुझ्न हैं। 
कहे 'पदमाकर' बिसासी या बसन्‍्त के सु, 
ऐसे उतपात गात गोपिन के भ्रज्ज हैं । 
ऊधो यह यूथो से रुँंदेसो कद्दि दीजी भले- 
हरि सों, हमारे हाँ न फूले बन कुल्ज हैं । 
किंसुक गुलाब कचनार झो अनारन की, 
डारन पे डोलत अंगारन के पुदञ्न हैं। 


ऊपर के पद्म में तो विरद्दिणी ने * किंसुक, कचनार और अनार ” की 
ढालियों पर “अंगारों के पुज्ञ! ही इलाए थे, परन्तु नीचे के सवैया में तो 
कवि ने सारे वन-बागों में ही आग लगा दी है| देखिए-- 

आयो बसन्‍त तमालन ते नव पल्‍लव की इमि जोति जगी है। 

फूलि पलास रहे जित ही तित पाटल राते ही रंग रँंगी है। 

मोर के अ्रम्बन सार भई तिहि ऊपर केाकिल श्रानि खगी है। 

भागन भाग बचो बिरही जनु बागन बागन श्राग लगी हैे। 

निम्नलिखित सवैया में प्माकरजी वसनन्‍्तागमन की ओर ध्यान दिला 
कर व्रज़चन्द से उस वन में जाने के लिए आग्रद्द करते हैं, जिसमें बेचारी 
अजबालाएँ बावली-सी बनी घूम रही हैं। सुनिये--- 

ए. ब्रजचन्द चलो किन वा ब्रज लूक बसन्‍्त की ऊकन लागी। 

त्यों पदमाकर” पेखों पलासन पावक-सी मनों फूकन लागी। 


५ २७६ ) 


वे ब्रजवारी विचारी बधू बन बावरी लॉ हिय हूकन लागी। 
कारी कुरूप कसाइने पै सु कूह कुद्द क्रेलिया कूकन लागी। 


आर देखिये, त्रिरद्दिणी बाला वसन्‍्त के भरोसे कितने थैयं के साथ 
वियेगव्यथा के बरदाश्त कर रही है । उसे दृढ़ विश्वास है कि वसन्त 
के आते ही कन्‍त घर आए विना न रहेंगे। देखिए-- 


फूलन दे शअ्रत्रै टेसू-कदम्बन अ्रम्बन बोरन छावनदे री। 
री मधुमत्त मधूवन पुंजन कुंनन सार मचावनदै री। 
क्‍यों सहि हे सुकुमार 'किसोर' अरी कल केाकिले गावनदे री | 
अ्वत ही बनि है घर कनन्‍्तहि वीर बसन्तहि ग्रावनदे री। 


पूण काव ने वसन्‍्त के श्राते ही सन्‍्तों के निष्काम और निर्विकार मन 
में भी काम उत्पन्न कर दिया है, देखिये-- 


बाटिका बिपिन लागी छावन छुब्रीली छुटा, 
छिति ते सिसिर के। कसालो भयो न्यारो है । 
कूजन किलोल के लगो है क्रुल पंछिन के, 
४ पूरन ! समीरन सुगन्ध के पसारो है। 
लागत बसन्‍्त नव सन्‍त मन जागो मेन, 
देन दुख लागो बिरद्दीन तरियारो है। 
सुमन निकुझन में कुंजन के पुञ्ञन में, 
गुञ्जत मिलिन्दन को बृन्‍द मतवारो है। 
जहाँ वियोगियों ने वसनन्‍्त के बुरा-भला कहा है, वहाँ संयेगियों ने 
उसे आ्राशीर्वाद भी खूब दिया है| सुनिये--- 


मिलि माधवी आदिक फूल के व्याज विनोद लवा बरसाये करे । 
रचि नाच लतागन तानि बितान सब विधि चित्त चुराया करै। 
द्विज देव जू देखि अनौखी प्रभा अ्रलि चारन कीरति गाये करे | 
चिरजीवो बसन्त सदा द्विजदेव प्रसुनन की भरि लायो करे। 


( र८० ) 


अब साधारण वसन्त-वर्णन का एक कवित्त श्रोर पढ़ लीजिए--- 
खेलन को होरी चले प्रथमहि स्यामा स्याम, 
बोरे नव आम फूल सरसों समन्‍्त हे। 
पञ्चमी बसन्‍्त रति कन्‍त के जनम दिन, 
फेली रितु कन्त जू की सुषमा अ्रनन्त है । 
“गिरघर दास” करे केकिला सरस सोर, 
चारों ओर भोरन की भीर दरसन्त दे। 
फाग में बसन्‍्त लाल पाग में बसनन्‍्त, 
बाल राग में बसन्‍्त बाग बाग में बसन्‍्त है । 
अब ज़रा होली के हुदंग की बानगी भी देख लीजिए--- 
घूमि देखो घरिक धमारन की धूम देखो, 
| भूमि देखो भूषित छ॒वावेै छुवि छुवि के । 
कहे 'पदमाकर!? उमंग रंग सींच देखो, 
केसरि की कींच जो रहौ है ग्वाल गविके। 
उड़त गुलाल देखे तानन की ताल देखे, 
नाचत गुपाल देखे लै हो कहा दबि के | 
भेलि देखो करिफ सकेलि देखो ऐसे। सुख, 
मेलि देखो मूँठ खेलि देखो फाग फवि के। 
इस प्रकार मचते हुए द्दोली के हुल्लड़ में एक मनचली गोपी कृष्ण से 
कहती हे-- 
खेलो मिलि हारी घोरी केसरि कमोरी फेंके -- 
भरि-भरि भोरी लाज जिय में बिचारी ना। 
ढारो बहु रंग संग चंग हू बजाबो गाबवो, 
सबहिं रिकावों सरसावों संक धारो ना। 
जोरि कर कट्टती निह्दोरो ' हरिचन्द ? प्यारे, 
मोरी बिनती हे एक ताहि तुम ठारों ना। 


( रेप! ) 


नेन हैं चकोर मुख-चन्द सों परैगी ओ्रोट, 
यातें इन श्राँखिन गुलाल लाल डारो ना। 
परन्तु वहाँ ऐसे विनय की कोन परवा करता है। आख़िर कृष्ण ने 
एक मूठ अबीर उसी समय गोपी के मूँह पर मार दी । फिर क्या था अबोर 
श्र श्रद्दी र- कृष्ण” दोनों एक साथ ही उसकी आँखों में घुस गए । बेचारी 
उन्हें निकालने के लिए. बड़ी छुटपटाई-- अनेक प्रयत्न किये । ज्यों त्यों कर 
अबीर ते आँखों से निकल गया, पर श्रह्दीर नहीं निकल पाया ! इससे बेचारी 
बड़ी परेशान हो गई, उसकी परेशानी उसी की ज़बानी सुन लीजिए-..- 
एके संग घाए नन्‍न्दलाल श्रौ गुलाल दोऊ, 
हगन गए जो भरि आनंद मढ़े नहीं। 
घोय-घोय हारी ' पदमाकर ” तिहारी सोंह, 
अ्रत्र तो उपाव काऊ चित्त पै चढ़े नहीं। 
केसी करों कहाँ जाउँ कार्सों कहों कौन सुने, 
केऊ ते निकासौ जासों दरद बढ़े नहीं। 
एरी मेरी बीर जेसे तैसे इन आँखिन सों, 
कढ़िगो अबीर पै अ्रह्दीर को कढ़े नहीं। 


अन्त में गोपी ने भी बदला लेने के विचार से अपनी सखियों के साथ 
लेकर नन्‍्दलाल पर हल्ला बोल दिया। देखिए-- 
डरो ना श्रह्दीरन सों अतर शअ्रबीरन सों, 
चार चार जनी चार श्रोरन ते धावो री। 
एक हाथ ओड़ो पिचकारी की अ्रपार मार, 
एक हाथ श्रोट चोट आ्रॉँखिन बचावो री। 
कवि 'सरदार! आये बड़ो खेलवारों ताहि, 
खेल के सवाद अंग-श्ंगन बतावो री। 
कौरति कुमारी कहें हेरिके कुमारी काऊ, 
हो री गुनवारी बनवारी बाँघि लावो री। 


( रे८णघर ) 


गोपी ने सखियों के आजा दे दी--चारों ओर से घेर कर नन्दलाल 
के बाँध लाओ, पर देखो, अ्रपनी आँखे बचाए, रखना, सावधान ! ढीक 
भी तो हे, बेचारी भुगते हुए भी तो थी। अ्रस्तु--- 


उधर नन्दलाल ने जो इस मण्डली को अ्रपनीा ओर आते देखा तो 
वे भी ग्वालों की टोली लेकर मैदान में डट गए. | फिर क्‍या था-- 


ले बलबीर अ्रबीर की मूठि दई अलबेली लली हग दूपर। 
त्यां बनमाली पै झ्राली चलावती लाल गुलाली की है रही भूपर । 
ले पिचकारी बिहारी तहाँ अधिकारी करी ब्रजवारी बधू पर। 
पीन पयेाघर ते उचटी से परी सब केसर लाल के ऊपर | 


जिस समय यह गोप-गोपिकाश्रों का हुल्लड़ मचा हुआ था, उस समय 
की शोभा का वर्णन किसी कवि ने क्‍या ही अच्छा किया है -. 

खेलत फाग गुलाल भरे इत ग्वालि, उते घनश्याम उमंग सों। 

कंचन की पिचकारिन धार खुली अलक मुकतावलि श्रंग सों। 

भीजि कपोलनि गो लगि अंचल कंचुकी चार उरोज उतंग सों । 

केसरि रंग सों अंग रँग्यो कि रही रंगि केसरि अंग के रंग सों। 

दशकों के भ्रम दो रहा हे कि गोपी का शरीर केसर-रंग से रंगा है 
या अंग के रंग से केसर का रग हतना गहरा हो गया है | 


इस तरह खुब अबीर-गुलाल और रंग की वर्षा हुईं, दोनों 
और से खूब कुमकुमे चलाए गए। श्रन्त में एक बार गोपियों का दाव 
लग गया । 

फाग के भीर अभीरन त्यों गद्दि गोबिन्दे ले गई मीतर गोरी | 

भाई करी मन की * पदमाकर ” ऊपर नाय अबीर की भोरी। 

छीन पितम्बर कम्मर ते सु विदा दई मींजि कपोलन रोरी। 

नैन नचाय कही मुसकाय लला फिर आइये खेलन होरी। 


इस प्रकार गोपी और ननन्‍्दलाल खूब मनभाई करके अपने-अपने घर 


( रे८३ ) 


सिधार गए.। घर पहुँचकर गोपी कपड़े बदलने में लगी। उस समय गोपी 
की सद्देली अपनी साथिन से कहती दे-- 


आई खेलि दोरी घरे नवल किसोरी कहूँ, 
बोरी गई रंग में सुगन्धन भकेरे है। 
कद्दे 'पदगाकर! इकन्त चाले चौकी चढ़ि, 
हारन के बारन तें फन्‍द बन्द छोरे हे। 
घोंधरे की घूमन सु उसुन दुबीचे दाबि, 
आँगी हू उतारि सुकुमारी मुख मोौरे हे। 
दन्तन अधर दाबि दूनर भई सी चापि, 
चौबर पचौबर के चूनरि निचोरे हे। 
८ )< >८ 
गोपी कपड़े बदल कर बैठी थी, इतने में उसके संग की और भी 
हुरिहारिन नहा-धोकर आ गई | और परस्पर द्वास-परिद्वास होने लगा। 
नन्दलाल को दुगति बनाने की चर्चा चली | एक कहने लगी--बहन, उस 
समय तुम्हारे सामने श्राकर वे ( नन्दलाल ) केसी भीगी बिल्ली बन गए 
थे | मालूम द्वाता हे, तुमने उन पर अपना जादू डाल दिया था। सखी, 
सच-सच बताना, तुम्हारी किस बात में ऐसा जादू था जो नन्दलाल इस 
तरह तुम्हारे वश में होगए | 
फाग में कि बाग में कि भाग में रही है भरि, 
राग में कि लाग में कि सोंद्दे खान जूठी में । 
चोरी में कि जोरी में कि रोरी में कि मोरी में कि, 
भूमि भकभोरी में कि कोरिन की ऊडी में । 
४्वाल? कवि नैन में कि बैन में कि सैन में कि, 
रंग लैन देन में कि आअ्ॉँगुरी श्रँगूढी में। 
मूठी में गुलाल में कि ख्याल में तिद्दारे प्यारी, 
का में भरी मोहिनी जो भयो लाल मूढठी में । 


( रे८४ ) 


अब उद्‌ के मशहूर कवि नज़ौर का भी दाली-वर्णंन देख लीलिए-- 
जब फागुन रंग भमकते हों, तव देख बहार होली की । 
और डफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की । 
परियों के रंग दमकते हों, तब देख बहारें होली की । 
खुम शीशे जाम भलकते हों तब देख बहारें होली की॥ 
>< >< >< 
कपड़ों पर रंग के छींटों से खुश रंग श्रजब गुलकारी हो, 
मंह लाल गुलाबी श्राँखें हों, और हाँथों में पिचकारी हो। 
उस रंग भरी पिचकारी को श्रंगिया पर तक कर मारी हो, 
सीनों से रंग ढलकते हों, तब देख बहारें होली की। 
ग्रीष्प ऋतु-नणन 
जो प्रकृति वसन्‍्त में शोभा और सरसता का स्तोत बनी हुई थी, उसे 
निदंय निदाघ ने कुलसाकर केसा बुरा बना दिया, ज़रा मुलाहिल़ा 
फ़रमाइए--- 
ग्रीषम में भीषम हो तपत सहसकर, 
वापी सर नारे नद नदी सूलि जात हें। 
भरपि करपि ककभोरि भूरे तप्त पोन, 
धूरि धार धूसरे दिगन्‍त ना दिखात हैं। 
भीपति सुकवि कहे श्राली बनमाली बिन, 
खाली जग मेहि केसे बासर बिहात हैं । 
तावा से श्रजिर पग लावा से तचत घर 
भये। गिरि आवा से पजावा से धंश्रात हे। 


अभी क्‍या हैं, अभी तो - 


प्रबल प्रचवएह चश्डकर की किरनि देखो, 
बैहर उदण्ड नव खण्ड घुमिलत हैं। 


( र८४ ) 


अ्रवनि कराही केसे तेल रतनाकर सो, 
'नेन कवि! ज्वाला की लहर भलकत हैं । 
ग्रीपम की ज्वाल जाल कठिन कराल यह. 
काल ज्वालामुखी हू की देह पिघलत है | 
लुका भये आसमान भूधर भभूका भयो, 
भभकि भभकि भूमि दावा उगिलत है। 
जब रत्नाकर भी कड़ाही के तेल की भाँति खौलने लगा, तब कृप- 
तड़ागादि का तो कहना ही क्‍्या। वह तो सूख साख कर सिकतामय हो 
गए. | देखिए -- 
जैये बिना जीरन से जलकी जिकिर जीभ, 
जर॒यो जात जगत जलाकन के जोर तें । 
कूप सर सरिता सुखाय सिकतामे भए, 
घाई धूरि धौरन घराघर के छोर तें। 
' बैनी कवि ? कद्दत अनातप चहत सब, 
अगिन से आतप प्रकास चहूँ ओर ते । 
तवा से तपत धरामण्डल श्रखएडल ओ. 
मारतर्डमण्डल दवा से हेात भोरवतें। 
इधर जलाशयों का तो यह बुरा हाल है, उधर प्यास के मारे दम 
निकला जाता है | बार-बार पानी पीने पर भी प्यास नहीं बुभती-- 
ग्रीपम की गजब धुकी है धूप धाम धाम, 
गरमी भुकी हे जाम जाम अति थापिनी । 
भीजे खस बीजन भलेहूँ न सुखात स्वेद, 
गाव न सुद्दात बात दावा सी डरापिनी । 
धवाल कवि" कह्दे कोरे कुम्मन ते रूपन तें, 
ले ले जलधार बार बार मुख थापिनी । 
जब पीये। तब पीये श्रब पीये। फेर अ्रत्र, 
पीवत हूँ पीवत बुक न प्यास पापिनी। 


( रे८६ ) 


ग्रीष्म की प्रचएंड गर्मी से जलाशय ही यूख्व गए. हों, से नहीं, कॉच 
आर पत्थर भी पिघल-पिघल कर बहने लगे हैं। देखिये, गिरधर कवि क्‍या 
कहते हैं-- 
तपत प्रचए्ड मारतण्ड महिमण्डल में, 
ग्रीपम की तीखन तपन आर पार हैं। 
“गिरघर” कहे काच कीच से बदन लाग्ये, 
भये नदन्‍-नदी-नीर अदहन धार हैं। 
भमपट चहूँइन तें लपट लपेटी लूह, 
सेस केसी फूक पौन कूकन की भार हैं। 
तावा सी श्रदारी तपी श्रावासी अवनि महा- 
दादा से महल ञ्रो पजावा से पहार हैं | 
परन्तु जिन सोभाग्यशालियों के यहाँ ग्रीष्म का घमणड घटाने के 
लिए. श्रावश्यक साधन-सामग्री मौजूद दे, उनकी तो बात ही निराली 
है--वे तो ऊष्माविरोधी उपचार कर कुछ शान्ति प्राप्त कर ही लेते हैं, 
देखिए-.- 
अवर अतर तर चन्द्रक चइल तन, 
चन्द्रमुखी चन्दन महल मेनसाला से । 
खासे खसखाने तहखाने तरताने तने, 
ऊजरे बिताये छुए लागत हं पाला से । 
दत्त कहे ग्रीपम गरम की भरम कोन, 
जिनके गुलाब आब होज भरे ताला से। 
भाला से करत कर ऋाँपन सी वारा बाँघे, 
घारा बाँचे छूटत फुद्दारा मेघमाला से। 
और भी देखिए, पद्माकरजी इस प्रसंग में क्या कहते ईं--- 


फहरें फुहारे नीर नहरें नदी सी बहेँ, 
छ॒हरं छुबिन छाम छीटिन की छाटी हैं। 


( रृघध७ ) 


कहे 'पदमाकर' त्यों जेठ की जलाकें तहाँ-- 
पावें क्‍यों प्रबेस बेस बेलिन को बाटी हैं । 
बार हूँ दरीन बीच बारहु तरफ तैसेा 
बरफ बिछाई तापै सीतल सुपाटी हैं। 
गजक अंगूर की अ्रंगूर से ऊँचो हे कुच 
आरसव अंगूर के अ्रंगूर ही की टाटी हैं । 
ग्वाल कवि को ग्रीष्म-विलास-सामग्री की सूची नीचे लिखे अनुसार है, 
उसे भी पढ़ लीजिये-- 
जेठ का न त्रास जाके पास ये विलास होंय, 
खस के मवास पै गुलाब उलुरश्यो करे । 
बिही के मुरब्बे डब्बे चाँदी के बरक भरे, 
बैठे पाग केबरे में बरफ परशथो करै। 
“ग्वाल कवि” चन्दन चहल में कपूर चूर, 
चन्दन अ्रतर तर बसन खरश्यो करे। 
कंज मुखी कंज नेनी कंज के बिछोनन पे, 
कञ्न की पंखी कर कञ्जन करश्यो करे | 
ग्रीष्म के सम्बन्ध में नीचे लिखा दोहा भी पढ़ने योग्य हे-- 
बैठि रही अति सघन बन पैठि सदन तन माँह। 
निरखि दुपहरी जेठ की छाद्दो चाहति छाँद्द ॥ 
आऔर देखिये, सुन्दरी के चेहरे से ठपकते हुए पसीने का केसा सुन्दर 
वर्णन किया गया है -- 
ग्रीपम में तपे भमीषम भानु गई बन कुंज सखीन के भूल सों। 
घामते कामलता मुरभझानी बयारि करें घनश्याम दुकूल सों। 
कम्पति औ, प्रगटे पर स्वेद उरोजन द्तजू ठोड़ी के मूल सों। 
दे श्ररबिन्द कलीन पै मानों भरे मकरन्द गुलाब के फूल सों। 


( रष्८ ) 


पावस-वर्णन 
ग्रीष्म की प्रचण्ड ऊष्मा का वणन पढते-पढ़ते आपका हृदय अवे या 
पजावे की भाँति दहक उठा होगा। अश्रवब आइये, पावस की नन्‍्हीं- 
नगहीं फुहारों ओर हृदयाह्वादकारिणी हरियाली से ज़रा उसे हराकर 
लीजिये । देखिये, अ्रत्र तो-- 
बीत गये ग्रीसम बितीत भये ताप-दाप, 
बार-बार सीतल समीर तरजेै लगे। 
पथिक पधारे निज गेद्द में सनेह भरे, 
हरे-.हरे पात वारे तरु लरजे लगे। 
दमकि दिमाक तें दुरति दुति दामिनि कौ, 
मुदित मयूर मन मोन बरजे लगे। 
घरी-घरी घेरि-घेरि घुमड़ि घमंड भरे, 
ह घाघ से घनेरे घम घोर गरजे लगे। 
और देखिये- 


कोकिल कदम्बन की डार पै कुहके कल, 
कुंजन में बोरन के पूंज दरसे लगे। 
बिसद बलाकन की पाँति भाँति-भाँति चारु, 
चाहि चित चातक पियासे तरसे लगे। 
मञ्जुल कलापिन की मएडली भली हैं बनी, 
सुखद सुसीतल समीर सरसे लगे। 
चारों ओर चपला चमाके चख चोरि-चोरि, 
मन्द-मन्द बारिद के वृन्द बरसे लगे। 
वर्षा की इस विलक्षण बहार के देख कर प्रकृति-परी आनन्द-मग्म हो 
गई है, ओर केकिल, मयूर आ्रादि हषविष से नाच उठे हैं, देखिये-- 


मेचक चिकुर मेघ मणिडित मयंक मुख, 
बिलसे बलाक द्वार हरि कुच कोर हैं। 


( रेधद६ ) 


भनकार नूपुर गरज़ि घहरात घन, 

बन की छुटान छुहदरत छिति द्वोर हैं। 
सौरभ सुरति स्वेदब्ुन्द वरसत बारि, 

बसुधा सुधान सोंचि मोदत अथोर हैं। 
प्रमदा परम परमा की पाय पावस कों 

कूकि उठे केोकिल क॒हुकि उठे मोर हैं । 


और देखिये, नीचे लिखे पद्व में पावल और प्रमदा की केसे सुन्दर ढंग 
से तुलना की गई हे । 


उत घनस्याम इत बास पट सेहे स्याम, 

वह अभिराम ये सुकाम सरसाकी है। 
कहे “नवनीत” रसनीति की तरंग हइते, 

उते मदमेघ इते चंचला चलाकी है। 
भुकि-भुकि भ्ूमैं-फूमें गरजण अरज भरे, 

घुरवा मचाकी इते लंक लचका की है | 
घुमड़ि घटान ही ते उमड़ि अनंग आये, 

दोऊ ओर दीसत बहार बरसा कौहे। 


इसी भाव का कविवर ताोषजी का भो पय पढ़ लीजिये-... 


जुगुनू उते हैं, इते जोति है जवाहिर की, 
भ्िल्‍ली भनकार उते इते पघुँघरू लरें। 
कहे कवि 'तोष' उते चाप इते बंक भोंह, 
उते बक पाँति इते मोतीमाल है गरें। 
धुनि सुनि उते सिखी नाचें सखी नाचें इते, 
पी करे पपीहा उते इते प्यारी सी करें। 
होड़ सी परी है मानों घन धनश्यामजू सों, 
दामिनी को कामिनी कों दोऊ अ्रंक में भरें । 
हि० न०--१६ 


( २६० ) 


जो वर्षा चराचर प्रकृति को जीवन-दान देती है, वही बर्षा विरहिसी 
नायिकाओं के प्राण हर लेती हे । देखिये, नीचे के पद्य में त्रजगोपियाँ वर्षा 
के सम्बन्ध में क्या कहती हैं -- 


बरसत मेह नेह सरसत अंग-अंग, 
भरसत देह जेसे जरत जवासौ है। 
कहे 'पदमाकर! कलिन्दी के कदम्बन पै, 
मधुपन कीन्हों आय महत मवासों है। 
ऊधौ यह।ऊघम जताय दीजो मोहन सों, 
ब्रज को सुबासो भयी अगिनि अवा सो हे। 
पातकी पपरीहा स्वाति बूँद को न प्यासा काहू 
विथित वियेगिनि के प्रानन का प्यासों है । 


ओर देखिये, यद्द दूसरी वियेगिनी तो वर्षा का सारा व्यापार ही बन्द 
कर देना चाहती है । 


शआ्राई ऋतु पावस न आए  प्रान प्यारे यातें, 
मेघन बरज आली गरजन लावें ना। 
दादुर हटकि बकि बकि के न फोरें कान, 
पिकन पटकि मोहि सबद सुनावें ना। 
बिरह बिथातें हाँ तो ब्याकुल भई हों 'देव? 
चपला चमकि चित चिनगी उड़ावें ना। 
चातक न गार्वें मोर सार ना मचारवें घन-- 
घुमड़ि न छावें जोलों लाल घर आआराव ना । 
ओर तमाशा देखिए, श्रगर ये सब मना करने पर भी नहीं मानेंगे, तो 
फिर नायिका इन्हें बल पूवंक रोकेगी । सुनिये- 


पीव पीव करत मिले जो माहि आज पीव, 
सोने चोंच चातक मढ़ाऊँ श्रति आदरन। 


( ५६१ ) 


कठिन कलापिन के कण्ठन कटाइ डारों व 

देत दुख दादर चिराय डारों दादरन। 
'मोतीराम' भिल्लीगन मन्दिर मुदाइ डारों, 

बधिक बुलाइ बंधों बक की बिरादरन। 
बिरहा की ज्वालन सों जिरह जराय डारों, 

स्वासन उड़ाऊँ बेरी बेदरद बादरन ॥ 


नीचे लिखे पद्य में कविवर मुबारक ने पावस का कितना सुन्दर वर्खुन 
किया है | देखिये -- 


बाजत नगारे घन ताल देत नदी नारे, 

मिंगुरन झाँक मेरी झ्ंगन बजाई हैे। 
कोकिल अलापचारी नीलग्रीव दृत्यकारी, 

पौन बीन धघारी चायी चातक लगाई हे। 
मनिमाल जुगुनू ' मुबारक ' तिमिर थार, 

चोमुख चिराग चार चपला जराई है। 
बालम विदेस नए. दुख को जनम भये, 

पावस हमारे लाया बिरह-बधाई है।॥ 


अब जरा पावस के अ्रन्धकार का वर्णन भी सुनिए-- 


'सेनापति! उनये नये जलद पावस के, 

चारि हूँ दिसान घुधरत भरे तोय के। 
सोभा सरसाने न बखाने जात केहू भाँति, 

आए हैं पहार मानो काजर के ढोय के। 
घन सों गगन छाया तिमिर सघन भयो, 

देखि ना परत गयो रवि नभ खोय के 
चार मास भरि घोर निसा को भरम करि 

मेरे जान याही ते रहत हरि साय के। 


( २६२ ) 


काजल के पहाड़ जैसे काले-काले बादलों ने ग्राकाश में घिर कर, 
सूय-मण्डल को ढाँप दिया, जिससे दिन में भी रत्रि का भ्रम होने लगा। 
सेनापति कहते हैं---सम्भवतः बरसात के घोर अन्धकार को रात समझ कर 
ही देवगण चार मास के लिए से जाते हैं। वर्षा कालीन अन्धकार के 
सम्बन्ध में कविवर बिहारी का यद्द दोहा भी पढ़ने लायक हे--- 
पावस निसि अंधियार में रह्यौ भेद नहिं आन । 
राति द्यौस जाने परत लखि चकई चकवान ॥| 
देखिये शह्लरजी ने पावस का वर्णन कितना स्वाभाविक और सुन्दर 
किया है | साथ ही पावस से हमें जो-जो शिक्षाएं मिलती हैं, उनका भी 
उल्लेख आ्राप करते गए हैं। 
भूषर से जब श्याम घवल धाराघर घधाये, 
धूम घूम चहुँ और घिरे गरजे भर लाये। 
वारिप्रवाह अश्रनेक चले अश्रचला पर दीखे, 
इस विधि कुल्या कूल बहाना हम सब सीखे | 
भावर भील तड़ाग नदी नद सागर सारे, 
हिलमिल एकाकार हुए पर हैं सब न्यारे, 
सब के बीच बिराज रद्दा पावस का जल हे, 


व्यापक इसकी भाँति विश्व में ब्रह्म श्रचल हे। 
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उलददे पादप पुंज पाय घुख रस चौमासा, 
केवल आ्राक अचेत पड़े जल गया जवासा, 
समझे जो प्रतिकूल सलिल मारूत पाता हे, 
रहता हे वह रुग्ण त्याग तन मर जाता है। 
अधिक अंधेरी रात कमक भीौंगुर भिंगारे 
तिलका' तान उड़ाय रहे निशि भलि * गुझ्नार, 


१--एक चिक्तोदार कौढ़ा | 
२--बढ़ा गुबरोला | 


( रश६३ ) 


यदि ये गाल फुलाय राग अविराम न गाते | 
तो बरुआ स्वर साथ वेशु बँसुरी न बजाते। 
पिस्सुक मच्छुर डाँस, कूतरी खटमल काटे, 
दिन में रहें शचेत रातभर खाल उपाट, 
यों अविवेक प्रधान महातम की बनि आई, 
काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह अट के दुखदाई । 
दीपक पै कर प्यार प्रताप पतरू दिखाते, 
त्याग त्याग तन प्राण प्रीति रस रीति सिखाते, 
जाना अविचल प्रेम निठुर से जो करते हें, 
वे उस प्रिय के रूप, अग्नि में जल मरते हैं। 


कवियर राय देवीप्रसाद 'पूण” का वर्षा-वर्णन भी पढ़ने लायक हे । 
सुखद सीतल सुचि सुगन्धघित पवन लागी बहन। 
सलिल बरसन लग्यो बसुधा लगी सुषमा लद्दन ।। 
लद्दलही लहरान लागीं सुमन-बेली मदुल । 
हरित कुसुमित लगे भरूमन बृच्छु मंजुल बिपुल ॥ 
इरित मनि के रंग लागी भूमि मन केा हरन। 
लसति इन्द्रबधून अश्रवली छुट मानिक बरन ॥ 
बिमल बगुलन पाँति मनहेूँ बिसाल मुकुतावली । 
चन्द्रहास समान चमकति चज्चला त्यों भली॥ 
नील नीरद सुभग सुरधनु ललित सोभा धाम | 
लसत मनु बनमाल घारे ललित श्री घनस्याम || 
कूप कुणड गंभीर सरवर नीर लाग्यो भरन। 
नदी नद उफनान लागे लगे भरना भरन ॥ 
रटन दादुर बिबिध लागे रुचन चातक बचन।| 
कूक छावत मुदित कानन लगे केकी नचन ॥ 
मेघ गजंत मनहु पावस भूप को दल सकल । 
विजय दुन्दुभि इनत जग में छीनि ग्रीसम अ्रमल ॥ 


( रह ) 


उदू के मशहूर शायर 'नज़ीर' ने बरसात का केसा अच्छा वर्णन 
किया है। 


बादल हवा के ऊपर हो मस्त छा रहे हैँ, 
भड़ियों की मध्तियों से धूमें मचा रहे हैं। 

पड़ते हैं पानी दरजा जल-थल बना रहे हैं, 
गुलज़ार भीगते हैं सब्ज़े नहा रहे हैं। 

सब्ज़ों की लहलहाहट कुछ अत्र की तियाही, 
ओर छा रही घटाएँ सुख और सफ़ेद काही । 

सब भीगते हैं घरघर ले माहताब माही, 
यह रंग कोन रंगे तेरे सिवा इलाही॥ 

कोई तो भूलने में भूले की ढोर छोड़े, 
या साथियों से अपने पाँवों से पाँव जोड़े | 

बादल छड़े हैं सर पर बरसे हैं थोड़े-थोड़े, 
बूँदों से भीगते हें लाल और गुलाबी जोड़े ॥ 

गिरकर किसी के कपड़े दलदल में हें मोश्रत्तर, 
फिसला कोई किसी का कीचड़ में मुह गया भर । 

एक-दो नहीं फिसलते कुछ बस में आन श्रक्सर, 

होते हैं सैकड़ों के सर नीचे पाँव ऊपर ॥ 


हिंदोला 


वर्षा-वर्यन के श्रन्तगंत कविषों ने हिंडोला ( भूला ) वर्णन भी किया 
है। उसके सम्बन्ध में भी कुछ पद्य पढ़ लीनिये-- 


सावन की तीजें पिया भीज बारिबुन्दन सों, 

अंग अंग श्रोढ़नी सुरंग रंग बोरे की। 
गावत मलार धुरवान की धुकार कहूँ, 

म्िलली अनकारें कनकरत भककोारे की। 


६ रेहं४ ) 


क्रत बिहार दोऊ श्रति ही उदार भरे, 
'बीर! कहे मंद सोभा पौन के भझककोरे की | 


भकमक भरी की त्यों चमक चार चपला को, 
घमक घंटा की तामें रमक हिंडोरे की ॥ 


कवि तोषजी हिंडोले का वर्शन ओर ही ढंग से करते हैं, देखिए --.- 
दोऊ मखमूल भूलि भूलें मखतूल भूला, 
लेत सुख मूल कहि “ तोष ” भरि बरसात | 
कुटि-कूटि अलके कपोलन पे छुद्दरात, 
फद्दरात अंचल उरोज द्वे उघरि जात | 
रो-रहो नाहीं-नाहीं श्रब ना कुलावो लाल, 


जे बबाकी सों मेरे ये बुगल जानु थहरात। 
ज्यों ही ज्यों मचत लचकत लचकीलो लंक, 
संकन मयंकमुखी गत्रंकन लपटि जात ॥ 


ऊपर के पद्म में तो कोटों के डर से मयंकमुखी का अंग थर-थर 
काँपने लगता हे और वह लाल की अंक में (लपट जाती हे, परन्तु नीचे 
के पद्च में देखिये ' भावती ”? केसी निर्भीकता से पेंग बढ़ा रही हे जिसे देख 
ज्रिय दाँतों तक्षे उंगली दबाने लगता हे -- 
रहसि रहसि हँसि हँसि के हिंडोरे चढी. 
लेति खरी पंगें छुब्र छाजे उकसन में। 
उड़त दुकूल उघरत भुजत्रमूल बढी, 
सुखमा श्रतूल केसफूल की खसन में। 
अति सुकुमारि देख भये अनिमेख स्यथाम 
रोकत बिसूर स्मसीकर लसन में। 
ज्यों ज्यों लवकीलो लंक लचकत भावती को, 
त्यॉनत्यों उत प्यारों गे श्रगुरी दसन में।॥ 


( २६६ ) 


अब कविवर पद्माकरजी का हिंडोला-वर्णन देख लीजिये--. 


तीर पर तरनितनूजा के तमाल तरे, 

तीज की तयारी ताकि आई तखियान में। 
कहे “ पदमाकर ” सु उमंगि उमंग उठे, 

मेंहदी सुरग की तरंग नखियान में ॥ 
प्रेम रंग बोरी गोरी नवल किसोरी तहाँ, 

भूलति हिडोरे यों सुहाई सखियान में। 
काम भूले उर में उरोजन में दाम भूले, 

स्याम भूक्े प्यारी की अन्यारी अ्खियान में ॥ 

श्रौर भी देखिये - 


मोॉरन को गूँजिवों बिहार बन कुंजन में, 
मंजुल मलारन को गावना लगत दे। 
कहे 'पदमाकर' गुमान हू में मान हू में, 
प्रान हू ते प्यारा मनभावनो लगत हे। 
मोरन का सार घन घोर चहूँ भोरन, 
हिंढोरन को इन्‍्द छुवि छावना लगत हे। 
नेह सरसावन में मेह बरसावन में, 
सावन में भूलिवों सुद्ावनों लगत है।। 
मूला के वर्णन में नीचे लिखा पद्य भी कितना सुन्दर है--. 
सावन तीज सुद्दावन को सजि सेहें दुकूल सबै सुख साथा। 
त्यों * पदमाकर ' देखे बने कद्दते न बने अनुराग अ्रगाधा । 
प्रेम के हेम हिंडोरन में सरसं बरस रस रंग अगाधा। 
राधिका के हिय मूलत साँवरो साँवरे के हिय भूलत राधा || 
हिंडोले का वर्णान प्रायः सभी कवियों ने श्टृंगार रस में किया है, जिसके 
उदाहरण भी ऊपर दिये गए हैं। अ्रव. एक पद्म कविवर 'शंकर' का 
पढ़ लीजिये, जिसमें हिंढोले का वर्णन बीमत्स रस में किया गया है | 


( २६७ ) 


लम्बे लम्बे फ्रोटन सों कूलत ही सौतिनि की, 

बिरवा की डारन में पटली श्रटक गई। 
लागत ही फकटका उखर गये आसन से, 

ताड़का सी डोरिन को पकरे लटक गई। 
* शंकर ” छिनार पट्ट पाथर पै छूट परी, 

फाठाो पेट फूटी नर पिलही पटक गई। 
छूटि गई नारी सीरी पर गई सारी आज-- 

मर गई दारी मेरे मम की खटक गई॥ 


सपल्नी ( सौत ) के भूले पर से गिर जाने के कारण नायिका कैसी 
प्रसन्न हो रहो हे। उसके दृर्ष का पारावार नहीं हे। वह अपने मन दी 
'खटक' जाती रहने से फूली श्रज्ञ नहीं समा रही । 


शझहूरजी का एक सवैया और देखिए, इसमें नायिका के शरीर पर ही 
उन्होंने पावस का प्रादुर्भाव का दिया है--- 
'शंकर' ये बिथुरी लट हैं कि भई सजनी, रजनी अ्ंधियारी । 
माल मनेहर मोतिन की उरभी उर पै कि बही सरिता री॥ 
दो कुच हैं, कि दुकूलन पै चकई चक भोग रहे दुख भारी। 
स्वेद चुचात कि पावस तोहि बनाय गये। घनश्याम बिहारी ॥ 
इस प्ररंग में कृष्ण कवि का भी एक सवैया देखिए-- 
आझम्नुद श्रानि दिसा विदिसा सगरे तमही को वितान सों तान्‍्येा । 
मेचक रंग बसे जगमें ग्रति मोद हिये निसिचारिन मान्‍्यों। 
पावस के घन के ऑँधियार में भेद कछू न परै पहिचान्यो। 
थयोस निसा को बिबेक सु तो चऋई चकवान के बोलत जान्येा ॥ 


चकई-चकवा बोलते हें, तभी जान पड़ता दे कि अब रात है या दिन, 
नहीं तो पावस के उस घेर घन घटा टठाप में रात-दिन का भेद ही नहीं 
दिखाई देता | 


( रृश्८ ) 
शरद-वर्ण न 


मनुष्य परिवतन-प्रिय प्राणी है | वह लगातार अधिक समय तक अच्छी 
से श्रब्छी चीज़ के भी देखना, सुनना या बतेना पसन्द नहीं करता | ग्रीष्म 
की उत्तत लूओं श्रोर भभलती भूभल जैसे धूल धककड़ से ऊब जाने के 
कारण उस समय वर्षा ऋतु कितनी सुहावनी लगती थी, परन्तु अब आप 
उसी वर्षा की लगातार रिमकिम श्रौर कीचड़, मच्छुढड़ आदि के कारण 
उकता गए होंगे। श्रच्छा श्रव शरद का सुहावना इश्य देखिये-. 

शरद का जैसा सवोंग पूर्ण वर्णन कविवर तुलसीदासजी ने श्रपने 
रामचरितमानस में किया है, वेसा श्रन्यत्र कम मिलेगा | पहले उसे ही 
देखिये--. 

वरधा विगत शरद ऋतु आई, लक्ष्मण देखहु परम सुहाई। 

फूले कास सकल महि छाई, जनु वर्षा ऋतु प्रगट बुढाई। 

उदित श्रगस्त पंथ जल सेोखा, जिमि लोभहिं सोखइ सन्‍्तोषा। 

सरिता सर निमल जल सेहा, सन्त द्दय जस गत मद मोदा। 

रस रस सूखि सरित सर पानो, ममता त्याग करहिं जिमि शानी। 

जानि शरद ऋतु खब़ान आए, पाय समय जिमि सुकृत सुद्दाए | 

पंक न रेनु साह अ्रस घरनी, नौति निपुन हृप की जस करनी | 

जल सकेच विकल भए भीना, विविध कुद्धम्बी जिमि धन हीना । 

विनु घन निमल सेह अ्रकासा, जिमि हरिजन परिहरि सब आसा । 

कहूँ कहूँ वृष्टि शारदी थोरी, केउ एक पाव भगति जिमि मोरी। 

> थ्र >< 
फूले कमल सोह सर कैसा, निगुन ब्रह्म सगुन भए जैसा। 
गंंजत मधुकर मुखर श्रनूपा, सुन्दर खग रब नाना रूपा। 
भर > >< 


( र६६ ) 


चातक रटत तूषी अति श्रोह्दी, जिमि सुख लदृइ न शंकर द्रवोही । 
शरदातप निशि शशि अपहरई, सन्‍त दरस जिमि पातक टरई। 
>< >< )< 
भूमि जोव संकुल रहे गए शरद ऋतु पाय। 
सदगुरु मिले नसाहिं जिमि संशय श्रम समुदाय || 
नीचे लिखे पद्म में भी शरद के स्वरूप का केसा चित्रण किया 
गया है-- 
ग्राई रितु सरद गगन विमलाई छाई, 
खंजन की राजी कुं कंजन बसे लगी। 
हरित हरित पथ पथिक सिधारे पथ, 
अ्रकथ “मुरारि' ओज जग बिलसे लगी। 
सुमन सरासन के घुमन सरासन त॑, 
छूटि के सुमन सर आलिएिं गसे लगी , 
तालन कमल फूले कमल बितूले भ्रलि, 
ग्रलि पर पीतिमा पराग की लसे लगी ॥ 


शरद के आते ही वर्षा के कारण जहाँ-तहाँ रुके हुए. पथिकों ने 
अपना रास्ता पकड़ा | महा कवि तुलसीदास के कथनानुसार ' श्रगस्त ! ने 
उदय द्वाकर 'पंथजल' सुखा दिया, जिससे चारों दिशाओं के मार्ग कीचड़ 
रहित हो हरियाली से हरे भरे लगने लगे | कविवर विहारी ने यही बात 
थोड़े शब्दों में इस प्रकार कही हे -- 
घन पेरो छुटिगो हरषि चली चहूँ दिसि राह । 
किये सुनेनो आय जग सरद सूर नरनाह | 
शरद रूपी परम प्रतापी राजा के शासन-सूत्र हात में लेते ही बादलों 
के दल्ल छिन्न-भिन्न हो गए, जगत्‌ में सत्र शान्ति विशाजने लगी और 
चारों दिशाश्रों के मार्ग खुल गए। लोग प्रसन्नतापूवंक व अपने-श्रपने 
ब्यापार में लग गए | 


५ ३०० ) 


शरद में सर-सरिताश्रों का नीर निमल हो जाता हे, आकाश के 
निरभ्र हो जाने से चन्द्रिका अपनी पूर्ण प्रभा से चमकने लगती है। वर्षा 
से धुल जाने के कारण वन उपवन सब सुहावने दिखाई देने लगते हें। 
सरोवरों में कमलवन फूलने और उन पर मधु-लोभी मधुकर गुंजारने 
लगते हैं । इन्हीं सब बातों में से एक-एक का लेकर अधिकांश कवियों ने 
शरद का वर्शान किया हे | देखिये नीचे के पद्यों में शारदी चंद्रिका का 
कितना सुन्दर वर्णन है- 
ग्रीपम के घाम हे न धाम घनस्याम यातें, 
छवे गई सुवान स्वेत हे गई जरद की। 
बीचन दरीचन के आभा है मरीचन की, 
कामने निकारी कोर तीखन करद की। 
फेल फैल गैलन नवीन विष फेल भरी 
| दोषत दुखिन दुति पारद वरद की। 
गरद करी हों दिन दरद भरी हों सखी, 
सरद परी हों लखि चॉाँदनी सरद की। 


और देखिये --- 


फूले ग्रास पास कॉस विमल विकास बास 

रही न निसानी कहूँ महि में गरद की। 
राजत कमल दल ऊपर मधुप मैन, 

छाप सी दिखाई छुवि बिरह फरद की | 
'श्रीपति! रसिक लाल श्राली बनमाली बिन, 

कछु ना जुगुति मेरे जोय के दरद की। 
हरद तमाम तन भये है जरद शअ्रब, 

करद सी लागति है चाँदनी सरद की। 


देखिये कविवर पद्माकरजी शरच्चन्द्रिका का वन कैसे सुन्दर ढंग से 
करते हैं-. 


( ३०१ ) 


तालन पै ताल पे _ तमालन पै मालन पै, 

वृन्दावन बीथिन बहार बंसीवट पै। 
कहे 'पदमाकर” अखणड रासमण्डली पे, 

मशणिडत उमणिड महा कालिन्दी के तट पै। 
छिति पर छान पर छाजत छुतान पर, 

ललित लतान पर लाड़िली के लट पै। 
आई भले छाई वह सरद जुन्हाई जिहि, 

पाई छुवि आजु ही कन्हाई के मुकट पै। 


कविवर 'पूण' जी ने शरत्कालीन निमेल नील नभ में छिटके हुए 
तारकबृन्द का कितना सुन्दर वशन किया है। देखिये--. 
सरद निसा में ब्योम लखि के मयंक बिन, 
* पूरन ? हिये में इमि कारन बिचारे हें। 
विरह जराइ ग्रवलान को दहत चन्द, 
ताते आज तापै बिघि केपे दया बारे हैं॥ 
निसिपति पातकी कों तम की चटान बीच, 
पटकि पछारि अंग निपट बिदारे हैं। 
ताते भये चूर चूर उछिटे अनन्त कन, 
छिटके सघन से गगन मध्य तारे हैं। 
चन्द्र-शून्य आकाश में, तारों के चमकते देख कवि कल्पना करता 
हैं... जान पड़ता हे विधि ने विरहिणी बालाओं पर अत्याचार करने 
के अ्रपराध में, निदय निशाकर के निमल नील नभ रूपी काले 
पत्थर की चट्टान पर पटक कर चूर-चुर कर डाला है । उसी के 
अपंझय कण जो नभोमणडल में इधर उधर उछुट गए हैं, वे ही मानो 
तारे हो गए हैं।” 


शरद्‌ में कवियों ने कृष्ण की रासलीला वन-विहार आदि पर भी 
बहुत कुछ लिखा है | रासलीला-वर्णन के भी कुछ पद्म देख लीजिये-- 


( रेण्र ) 


खनक चुरीन की त्यों उनक मृदंगन की, 
रुनुक भुनुक स्वर नूपुर के जाल को। 
कहे 'पदमाकर' त्यों बाँसुरी की धुनि मिलि, 
रहो बंधि सरस सनाको एक ताल को । 
देखत बनत पे न कहत बनत है री, 
बिविध थिलास त्यों हुलास यह ख्याल को |! 
चन्द छुवि रास चाँदनी को परिगास राधि- 
का को मन्द हास रास मण्डल गोपाल को । 
श्रोर देखिये रासममएडल को देखकर चन्द्रमा भी इतना मुग्ध दो गया 
है कि उसने चलना तक स्थगित कर दिया--- 


भूल्यो गति मति चन्द चलत न एक पेंड, 

प्यारे मुललीधर मधुर कल गान की। 
फूली कुसुमावलि बिविध नव कूजन में, 

सोरभ सुगन्‍्ध छाई जात ना बखान की | 
बाजत मृदंग ताल काॉँफ मु हचंग बीन, 

उठत संगीत जहाँ श्रति गति तान की। 
आज रस रास में अनूप रूप दोऊ नर्चें, 

नन्‍्दलाल लाड़िली किशोरी वृषभान की। 


हेमन्त-वणन 
हेमन्त ऋतु में शीत का प्रभाव बढ़ता जाता है, धूप और आग प्रिय 


लगने लगती हैं। दिन छोटे होते शोर रात बढ़ने लगती है। कवियों ने 
प्रायः इन्हीं बातों का वर्णन देमन्त में किया है । 


देखिये, कवि गिरघरदासजी द्देमनत के विषय में क्या लिखते हें-. 


सूर ऐसे सूर को गरूर रूरो दूर किया, 
पावक खिलोना कर दिये है सबन केा। 


( रै०्३े ) 


बातन की मार ही ते गात की भुलात सुधि, 
काँपत जगत जाकी भय आन मन के । 
'गिरघरदास” रात लागे काल रात की सी, 
नाहीं सी लगत भूमि राखत चरन के। 
ग्रायाो दे हिमन्‍त भूमि कन्‍त तेजवन्त दीह 
दनतन पिसावत दिगन्त के नरन को। 
हेमन्त ने सूय जैसे शूरवीर का भी गरूर चूरचुर कर डाला और 
अग्नि सब के लिए खिलोना-सा बना दिया हैं। हवा लगते दी शरीर शन्य- 
सा हो जाता हे । रात काल रात्र जैसी प्रतीत होती हे. भूमि पर पैर रक्‍्खो 
तो जान पढ़ता है, भूमि हे हंं। नहीं । दहेमन्त के ऐसे श्रत्याचार देख लोग 
दाँत कट-कटाकर रह जाते हैं, पर उसका कुछ प्रतीकार नहीं कर पाते | 
मनुष्यों की तो शक्ति ही क्या देमन्‍त के भय से परम प्रतापशाली मातंड भी 
धन (ज्जी ) की बगल में जा घुसा हे । देखिये 
बरसे तुसार बह्दे सीतल समीर नीर, 
कम्पमान उर क्‍यों हू घीर ना घरत दे। 
राति न सिराति सरसाति बिथा बिरह को, 
मदन अराति जोर जोबन करत हैे। 
'सेनापति” स्याम हों श्रधीन हों तिहारी सोंह 
मिले बिन मिले सीत पार न सरत हे । 
औ्रौर की कद्टा हे सविता हू सीत रितु जानि, 
सीत के सताये घन" पास ही रहत है। 


हेमन्त से त्राण पाने के लिए लोग प्रायः पाँच तकारों श्रर्थात्‌ तरणि 
तेज ( धूप ) तेल, तूल. ( रूई ) तरुणी श्रोर ताम्बूल का सहारा लेते 
हैं। देखिये कविवर पद्माकर ने इसी भाव के कैसे सुन्दर शब्दों में प्रकट 
किया हे । 


१--धन स्श्री ओर घन राशि | 


( रेण्ड ) 


अगर की धूप मूंग मद की सुगन्धबर -- 

बसन बिसाल लाल शअ्रंग दाँकियतु हे। 
कहे 'पदमाकर' सु पोन को न गोन जहाँ, 

ऐसे। भोन उमंगि उमंग छाकियतु है। 
भोग ओऔ, संयेग हित सुरति हिमन्त हीं में, 

एते और सुखद सुहाये वाकियतु हे। 
तान की तरंग तझनापन तरान तेज, 

तेल वूल तरुनी तमोल ताकियतु है। 


जिन लोगों को उपयुक्त 'पंच तकार' उपलब्ध नहीं, वे बेचारे श्राग 
जलाकर उसे ही अपनी छाती से लगाए रहते हैं। मला जब शीत से मीत 
होकर गर्मी भी घरों के कोनों में जा छिपे, अनल निबंल पड़ जाय और सब 
भी ठंडा दोने लगे, तब बेचारे निघन मनुष्यों फे लिए अम्नि की शरश्ष में 
आने के अ्रतिरिक्त अपनी रक्षा का और साधन ही क्‍या शेष रह जाता है। 


सीत के प्रबल 'सेनापति' केापि चढ़शयों दल, 
निर्बेल अनल गये सूर सियराय के । 
हिम के समीर तेई बरस बिसम तीर, 
छिपी दे गरम भौन कौनन में जाय के | 
धूम नेन बद्दै लोग होत हैं त्रचेत तऊ, 
हिय सों लगाइ रहें कु सुलगाइ के। 
मानों भीत जानि महा सीत ते पसारि पानि, 
छुतियाँ की छाॉँह राख्यों पावक छिपाय के | 
जान पड़ता है, शीत से भीत हो शरण में आए. पावक को, दरिद्र- 
नारायण ने अपनी छाती से चिपटा लिया है। खूब | सेनापतिजी की 
केसी अनेखी कल्पना हे | 
हेमन्त ऋतु में रातें बड़ी क्‍यों दा जाती हैं, इस पर एक संस्कृत 
कवि की उक्ति सुन लीजिए । 


( ३०४ ) 


अ्रयि दिनमणिरेषः क्लेशितः शीत-सह्ढे -- 
रथ निशिनिजभारया गाठमालिज्ञथ दोम्याम। 
स्वपिति पुनरुदेतुं सालसाद्भस्तु तस्मात , 
किमु न भवतु दीर्घा हैमिनी यामिनीयम्‌ ॥ 


शीत का सताया घूय रात्रि-समय अपनी पत्नी के गाद श्रालिज्ञन कर 
से जाता है, प्रातः उठने ( उदय होने ) का समय द्वोने पर भी जाड़े के 
मारे अलसाया हुआ रज़ाई में लिपटा पड़ा रहता है, उठना ही नहीं 
चाहता | यही कारण है कि हेमन्त की रातें लम्बी हो जाती हैं । 


शिशिर-वर्णन 


शिशिर ऋतु में शीत अपने पूण यौवन पर होता है, अतः उस समय 
उसका प्रभाव हेमन्त की अश्रपेज्ञा बहुत कुछ बढ़ा-चढ़ा दिखाई पढ़ता है। 
इस समय सूय भी चन्द्रमा का रूप धारण कर लेता है और दिन में भी 
रात की-सी कलक दिखाई देने लगती है | देखिये कविवर सेनापति शिशिर 
के सम्बन्ध में क्‍या कहते हैं -- 
सिसिर में ससि के। सरूप पावे सविता हू, 
घाम हू में चाँदनी की दुति दमकति हे । 
'सेनापति' सीतलता द्ोति दे सहस गुनी, 
दिन हू में रजनी की कझाँई भमकति है । 
चाहत चकेार सूर ओर हृग छेर करि, 
चकवा की छाती तचि धीर घसकति है । 
चन्द के भरम मोह होत हे कुमोदिनि कों, 
ससि संक पंकजिनी फूलि ना सकति है ॥ 


शिशिर में सूय भी चन्द्र जेसा प्रतीत होने से, चक्रवाक दिन को भी 
रात ही मानकर अ्रदर्निश वियुक्त ही रहे आते हैं। कुमोदिनी दिन में 
मुस्कराने लगती दे ओर पंकजिनी दिन में भी नहीं खिल पांती। शिशिर- 
हि स्‌०--+२ ० 


( ३०६ ) 


कालीन शीत के कारण जब प्रकृति में भी इतनां विपयंय हो जाता हे तो 
मनुष्यों की तो बात द्दी क्या । उनके लिये तो-- 
सीसा के महल बीच कहल हिमाँचल की, 
पहल दुलाई बक चहल कसाला में। 
चन्दन सी लागत कुरंगसार शअ्रंगन में, 
अनल अगीठी जिमि बारि होद साला में । 
लागत गलीचा ऊन सीतल सिवार वूल, 
दीपक नखत रघुनाथ रसथाला में। 
बाला उर बीच जात माला सी जुड़ात अरु --- 
पाला सम लागत दुसाला सीत काला में ॥ 
भला जिसमें कस्तूरी-लेप भो चन्दन जेसा शीतल जान पड़े, ऊनी गदे- 
गलीचे सिवार सदृश ढंडे प्रतीत हों, ओर दुशाला भी पाला जैसा लगे, 
ऐसो कड़ाके की ठंडी रात में किसका साहस है. जो रज़ाई में से निकल 
कर बाहर पेशाब करने भी जा सके | लेकिन आफ़त तो यह है कि जाड़ों में 
पेशाब की ह्ाजत भी बहुत लगती है श्रोर उसका त्याग करने के लिए 
खाट से उठना ही पड़ता है। देखिये गंग कवि शिशिर की रात में 
लघुशंका त्याग कर ग्राना कितनी वीरता का काम बताते हैं । 
केापि कासमीर तें चलयो है दल साजि वीर, 
घीरना धरत गलगाजिवे के भीम है। 
सुन्न होत साँके ते बजत दन्‍त आधी राति, 
तीसरे पहर में दददल दे श्रसीम है। 
कह कवि 'गंग' चोथे पहर सतावे आनि, 
निपट निगोरो मोहि जानि के यतीम है। 
बाढ़ी सीत संका कपे उर हे अ्तंका लघु-- 
संका के लगे ते द्वोत लंका की मुह्दीम है। 
वास्तव में शिशिर की रात्रि के चोथे पहर में गरमाई हुई रज़ाई के 


( ३०७ ) 


बाहर निकल लघुशड्डा कर श्राना लड्ढा-विजय करने से कम कठिन 
नहीं है । 
शिशिर में शीत का ऐसा ही श्रातंक छा जाता हे। जाड़े के भय से 
लोग घर से बाहर नहीं निकलते । मनुष्य ही क्‍यों पशु-पक्ती और वन- 
स्पतियों तक का शीत में केसा बुरा हाल हो जाता हे, यह नीचे लिखे पद्म 
में पढ़िये | 
नारी बिन होत नर नारी बिन होत नर, 
राति सियराति उरू लाए पयाधर में। 
'बैनी कवि! सीतल समीर के सनाका सुनि. 
सोवें सब साँक ही कपाठ दे सहर में | 
पंछी पच्छु जारे रहें फूल फल थोरे रहें, 
पाला केा प्रकास आस पास धराघर में । 
बसन लपेटे रहें तऊ जानु फेटे रहें, 
सीत के ससेटे लोग लेटे रहें घर में ॥ 
परन्तु जिन सोभाग्यशालियों के पास नीचे लिखे पद्य में वरणित 
मसाले मोजूद हों, उन्हें शिशिर के पाले का कसाला कुछ भी नहीं व्यापता | 
सुनिए-- 
गुलगुली गिलमें गलीचा हैं गुनी जन हैं, 
चाँदनी हैं चिक हैं चिरागन की माला हैं । 
कहे 'पदमाकर' त्यो गजक गिजा है सजी, 
सेज है सुराही हे सुरा हे ओर प्याला हैं। 
सिसिर के पाला के न ब्यापत कसाला तिन्हें, 
जिनके अधीन एते उदित मसाला हैं। 
तान तुक ताला हैं बिनेद के रसाला हैं सु-- 
बाला हैं, दुसाला हें, बिसाला चित्रसाला हैं ॥ 
इस प्रसज्ञ में माघ मास का एक साधारण किन्तु सुन्दर वर्णन 
श्रोर भी पढ़ लीजिये । 


५ ३२०८ ) 


आये अब माह प्यारो लागत है नाह रवि-- 

करत न दाह जेसे अवरेखियतु है। 
कलप सो राति से तो सेाए ना सिराति, 

जरा साइ सेइ जागे पे न प्रात पेखियतु है । 
जानि पै न जात बात कद्दत बिलात दिन, 

छिन सों न ताते तनकौ बिसेखियतु है। 
'सेनापति? मेरे जान दिन हू ते राति भई, 

दिन मेरे जान सपने में देखियतु है॥ 


पवन 


पवन द्वारा भी रस उद्दीमत होता है। अधिकांश कवियों ने शीतल, 
मन्द और सुगन्धित तीन प्रकार के पवन का वशन किया है। कुछ लोगों 
ने पवन के तप्त. तीव्र ओर दुर्गन्धित ये तीन भेद ओर भी माने हैं। श्रागे 
लछुहों प्रकार के पवन का संक्षिप्त रूप में वणुन किया जाता है । 


शीतल पवन 


बफ़, जल अ्रथवा अन्य किसी शीतल वस्तु या स्थान के संसर्ग में होकर 
बहने वाले वायु के शीतल पवन कहते हैं । 


उदाहरण देखिये-- 


तंग पयेद लसे गिरिश्ज्ञ मिल्यी चलि शीतलता सरसावत। 
त्यों तर जूहन पै बिर्माय धने सुख साजन कों लहराबत॥ 
मंजु दरी निकरी जलधार बसे पुनि सीकर संग लै धावत। 
ग्रीषम हू में कैपाबत गात सुवात दिमाश्वबल छवे जब आवत | 


शीतल पवन जब गर्मियों में भो शरीर में कँपकँपी पेदा कर देता है, 
तब शीत काल में वह क्या दशा कर देगा इसका अनुमान कीजिये | 
देखिये, नीचे लिखे पद्म में कविवर सेनापति शीतकालीन शीतल पवन के 
सम्बन्ध में क्या कह्दते हैं। 


( ३०६ ) 


बरसे तुधार बहे सीतल समीर नीर, 

कम्पमान उर क्‍यों हू धीर ना घरत है । 
राति ना सिराति सरसाति बिथा बिरह की. 

मदन अराति जोर जोबन करत है। 
'सेनापति स्याम हों अ्रधीन हों तिहारी सोंह, 

मिले बिन मिले सीत पार ना सरत है । 
और की कह्दा है सविता हू सीत ऋतु जानि, 

सीत के! सताये। घन पास ही परत है॥ 


मनन्‍्द पवन 


ठहर ठहर कर घीमी गति से चलने वाले वायु को मन्द पवन 
कहते हैं । 


रनित भज्ञ घंटावली, भरत दान मधु नीर | 
मन्‍्द मन्द आवत चल्यो कुजर कुंज समीर ।। 


यहाँ मन्द समीर का हाथी के रूप में वशन किया गया है। जिस 
प्रकार मच मतंगज मद टपकाता और घंटा घददराता मन्द गति से चलता 
है, उसी प्रकार कुझञ्न-समीर भ्रमरगुलज्नन रूपी घंटा-रव करता एवं मधुरस 
रूपी दान टपकता हुआ मन्थर गति से चला आ रहा हे । 


पवन मन्द गति से क्‍यों चलता है, इसका कारण नीचे लिखे पद्य में 
वर्णन किया गया है। देखिये--- 


गहव गुलाब मंज मोगरे सु बन फूले, 
बेले अलबेले खिले चम्पक चमन में। 
भनि ' भुवनेस ? बिकसाने पारिजात कुन्द, 
रस सरसाने प्रति सुन्दर सुमन में। 
एड्टो कान्ह | चारु मति वायु की बिलोकि गति, 
बार-बार कारन बिचारो कहा मन में। 


( ३१० ) 


बहित सुगन्ध भार मढ़ित मरन्दधार, 
याही देतु मन्द-मन्द डोले उपवन में ॥ 
है कृष्ण, तुम वायु की मन्द गति देखकर सोच में क्‍यों पड़ गए। 
उसका कारण तो स्पष्ट है | वह उपवन में खिले विविध पुष्पों के 
सुगन्ध-भार से भरा श्रोर मकरन्द से लदा हेने के कारण धीरे-धीरे 
चलता है । 


सुगन्धित पवन 


सुगन्धयुक्त पदार्थों से संपक कर आने वाला वायु सुगन्धित कह्ाता 
है। 

उदाहरण देखिये--- 

मोलसिरी मधुपान छुक्‍यपो, मकरन्द भरे अरविन्द नहाये। 

माधवी कृज सों खाय धका फिरि केतकी पाटल को उठि धाये। 

सोनजुद्दी मेंडराय रह्मो छिन संग लिये मधुपावलि धाया। 

चम्पहि चाहि गुलाबहि गाहि समीर चमेलिहि चूमत आया।। 

इतनी सुगन्धित वस्तुश्रों के संसग में होकर आने वाला पवन भला 
क्यों सुगन्धित न होगा । 


तप्त पवन 


बूय की कड़ी धूप, अ्रभि अथवा अन्य किसी गरम पदार्थ के स्पश 
करके आने वाला वायु तप्त कद्दाता हे | 
उदाहरण देखिये-- 
ग्रोबरीन दोबरीन तहखाने खसखाने, 
आपके बचाइबे को फर'यो में तरसि के । 
'रघुनाथ! की दुद्दाईं पैयत न कहूं कल, 
लागत ही बिहवल होत हों श्ररसि के । 
आजु के पवन की ब्यवस्था कहो कहा कहों, 
आवतु है तरनि करनि कों गरसि के । 


( ३११ ) 


मलय के साँपन के बिष कों करषि के की, 
दावा में करसि के की बाडव परसि के।। 


तप्त पवन से त्राण पाने के लिए तहख़ाने और गुफ़ाश्रों तक में छिपता 
फिरा परन्तु कहीं एक क्षण के लिए भी चेन न मिला | उफ़ ! आ्राज की 
गरम हवा का क्‍या बयान करूँ | ऐसा जान पड़ता है, मानो वह मलया- 
गिरि के सर्पो' का ज़हर इकट्ठा कर लाया हो, या दावानल से भुलस 
अथवा बड़वाग्नि को स्पश कर आया हो । 


देखिये, कवि भुवनेशजी तप्त पवन के सम्बन्ध में क्या कहते हं-- 


तपत तंदूरे से हैं तहखाने खसखाने 
धधकि धधकि धरा होति है अग्रनल भौन । 
पावक प्रगट 'भुवनेस' साखा चन्दन सों, 
दावा लगि लगि जात बन में बचावे कोन । 
ब्याकुल हों जात जल थल के त्यों जीव जन्तु, 
ज्वाला सों जुबान मुख बाहर करति गोन। 
तापित प्रचणएड ताप मारतश्ड मण्डल सों, 
ग्रीपम में भीषम हो डोले जब तप्त पौन॥ 


तीव्र पवन 
बड़े वेग से बदने वाले वायु को तीव्र पवन कहते हैं। 
उदाहरण देखिये--- 


तरू गिरि गिरि जात साखा चिरि चिरि जात, 

फूल फल पत्र रहि जात नाहिं तिन में। 
भनि भुवनेस चहूँ चंचला चमकि जात, 

दोरि दुरि जात दल बहल को छिन में। 
बककी जमाति मेंडराति चले जात हंस, 

घरि उर संक मानसर के पुलिन में। 


( शे१२ ) 


घधीर ना थिरात तन कांपि कांपि जात जब, 
चलत प्रचण्ड पोन भादों के दिनन में । 
दुगन्धित पवन 
दुगन्ध युक्त पदार्थों" से स्पश कर आने वाला वा_ दुगन्धित कहाता 
है, जेसे-- 
किंसुक अलग कचनारन बिलग करि, 
सेनित की लालिमा प्रसारित सघन में । 
लतिका फटकि अंत्रि तन्त्रिका लपटि रहीं 
सारिका निकारि घूम गिद्धन के गन में । 
ऋतुराज देत है दुह्दाई श्रवधेश ! दल--- 
तेरो अरिदल दलि-दलि डारो बन में। 
फूलम के देस मेद मज्जा को प्रवेस त्यों, 
सुगन्धन निवेस दुरगंधित पवन में ॥ 
ओर भी देखिये -- 
देखत हो सुचि चम्पक चार बिकासित हे दमके निज दापन। 
यों 'भुवनेस' सुगन्घसमूह, गुलाब प्रयसून पसारत आपन। 
कारन याको प्रसिद्ध बसन्‍्त सु छायाो कहा मति में सिसुतापन। 
डोले न क्यों दुरगन्घधित पौन जरै बिरही गन को तन तापन ॥ 


बन 
वन की परिभाषा इस प्रकार की गई हे-- 
कहूँ श्रगम कहुँ सुगम हे सुखद दुखद तर होइ। 
मध्यम दूरि न निकट श्रति जानि लेह्ु बन साइ | 
उदाइरण देखिये-- 
सीतल समीर मंद हरत मरंद बुन्द, 
परिमल लीन्दे श्रलि कल छुबि छुद्दरत । 


( रेश्३े ) 


काम वन नन्दन की उपमा न देत बने. 
देखि के बिभव जाको सुरतरु हृदरत | 
त्यागि भय भाव चहूं घूमत अनन्द भरे, 
बिपिन बिहारिन पै सुखसाज लहरत | 
कोकिल चकोर मोर करत चहूँधा सोर, 
केसरी किसेर बन चारों ओर बिहरत ॥ 
श्रव ज़रा कविवर सत्यनारायण कृत 'हिन्दी-उत्तररामचरित” में बन 
का वर्णन देख लीजिये- 
ये गिरि साई जहाँ मधुरी मद-मत्त मयूरन की धुनि छाई। 
या बन मं कमनीय मृगानि की लोल कलोलनि डोलनि भाई ॥ 
सेहै सरिसट घारि घनी जल बृच्छुन की जब नील निकाई । 
बंजुल मंजु लतानि की चारु चुभीली जहाँ सुषमा सरसाई॥ 
देखिये, कविवर श्रीघर पाठक ने भी बन-शोभा का कैसा सुन्दर वर्णन 
किया हे । 
चारु हिमांचल ग्रॉचल मं॑ इक साल बिसालन के बन हे । 
मृदू ममरशालि भरें जलस्तोत हैं पवत श्रोट है नि्जन है।॥ 
लपटे हैं लता द्रम गान म॑ लीन प्रवीन बिहंगन व गन है। 
भटक्यो तहाँ रावरों भूल्यी फिरे मद बावरों सो अ्रलि को मन है ॥ 
अब संस्कृत कवियों के वन-वणन का नमूना भी देख लीजिये | 
सरोन्वितं सान्द्र बनं गिरो गिरी. 
वने वने सन्ति रसाल पादपाः। 
तरो तरो के।किल काकली रवाः, 
रवे रवे हषकरी सु माधुरी ॥ 
पवत-पव त में सुन्दर सरोवरों से युक्त सुहावने वन हैं, और प्रत्येक 
वन में रसाल-पादपों की पंक्तियाँ सुशोभित हो रही हैं। उन रसाल तस्श्रों 
पर भी कलकण्ठी केकिला का कलरव सुनाई दे रहा है, जिसमें झानन्द- 
विभोर कर देने वाली मधुरिमा भरी हुई है। 


( ३१४ ) 


अब जरा वन में बोलते हुए पक्षियों के कलरव का आनन्द भी 
लूटिए । देखिये, उसमें कितनी दहृदय-हारिणी ओर विमुग्घ-कारिणी 
मधुरिमा भरी हुईं है । 
कीरन की भीर कामिनीन ते सहित सोहे, 
गूँजि रहे भोर गन मुनि मन हारने। 
कोकिला कलापें चित चोरत अलापै' परें, 
मन की कला पे थापें थिरता अपारने | 
भरने 'रघुराज? केकी कूके सुनि खूक चित, 
करत चकोर चारि ओर हैँ बिहारने । 
पिक की पुकारें त्यों पपीहा की पुकारें हिय- 
हारें बेसुमारें पेखि पेखि देवदारने ।। 
उपबवन 


जो ग्राम या नगर के समीप हो तथा जिसमें अधिकांश फलों श्रोर 
फूलों के वृक्ष हों, उसे उपवन कद्दते हैं। उपवन प्राय:कृतिम होते हैं | 
देखिये वनमाली ( कृष्ण ) ने उपवन के कितना सुन्दर बना लिया है 
कि वसन्त सम्पूर्ण वन-पव॑तों से सिमट कर उसी में लहराता हे । 
मल्ली द्रुम बलित ललित पारिजात पुंज, 
मंजु बन बेलिन चमेलिन महमहात | 
राजी भूमि हरित हरित तृन जालन सों, 
बिच त्रिच खात त्यों फुह्दारन सों छुहदरात । 
जित तित माधवी निकुञ्ज छाइ बीथिन में, 
फटिकसिलान साजी अ्रवनी लहदलद्दात | 
अग्राली बनमाली उपवन चतुराई देखि, 
त्यागि गिरि कानन बसन्त नित लहरात ॥ 
परन्तु देखिये, उपवन में वसन्‍्त-बहार आने पर विरहिणी नायिका केा 
उसका स्वरूप कुछ और ही प्रकार का दिखाई देता है-- 


( ३२१४ ) 


ग्राब छिरकाय दे गुलाब कुन्द केवड़ा के, 
चन्दन चमेली गुलदाबदी निवारी में | 
जूही सेानजूही माल चम्पक कदम्ब अम्ब, 
सेवती समेत बेला मालती पपयारी में | 
'रघुनाथ” बाग के! बिलोकिवो न भावे मोहि, 
कन्त बिन ग्यो है बसन्‍्त फुलवारी में । 
भागि चलों भीतरे अनार कचनारन तेँ, 
ग्रागि उठी बावरी गुलाला की कियारी में ॥ 
विना प्राण प्यारे के नायिका के वसन्त-श्रागमन अ्रच्छा नहीं लगता, 
अनार-कचनार श्रोर गुल्लाला के फब्ीले फूल उसे चिनगारी से मालूम 
देते हैं । श्र्थात्‌ वे श्रानन्द के बदले उसके दुःख का कारण बन रहे हैं । 
चन्द्र 
ग्वाल काव कृत चन्द्र-वर्णन देखिये--- 
चम चम चाँदनी को चमक चमकि रही, 
राखो है उतारि मानों चन्द्रमा चरख तें। 
अम्बर अवनि अ्रम्यु आलय बिटप गिरि, 
एक ही से पेखे पर बनें न परखते। 
धवाल” कवि कह्दे दसों दिसा हे गए सफ़ेद, 
खेद के रहो न भेद फूली हैं हरख ते । 
लीपी अ्रबरख तें कि टीपी पुंज पारदतें, 
कैधों दुति दीपी चारु चाँदी के बरख तें ॥ 
पूर्ण चन्द्र के प्रकाश मे दशों दिशाएँ ऐसी सफ़ेद द्वा गई हैं कि उनमें 
आ्राकाश, भूमि, जल, घर, वृक्ष, पहाड़ सब एक से दीख पढ़ते हैं, किसी में 
कुछ भी भेद नहीं जान पड़ता । 


भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने चन्द्रमा का कितना सुन्दर वर्णुन किया है, 
उसे भी पढ़ लीजिए-- 


( २१६ ) 


परत चन्द्र प्रतिब्रिम्ब कहूँ जलमधि चमकायो। 
लोल लद्दर लहि नचत कबहूँ सेई मन भायो । 
मनु हरि दरसन देत चन्द जल बसत सुहायोा। 
के तरंग कर मुक्रर लिये सामित छुबि छाया ॥ 
के रास रमन में हरि मुकुट आभा जल दिखरात है। 
के जलउर हरि मूरति बसी बा प्रतिबिम्ब दिखात है ॥ 


) 
यह तो हुआ्आा शान्त जल-राशि पर पड़ते हुए चन्द्र-विम्ब का वर्णन, 


श्रब ज़रा लोल लहरों में लद्दराते हुए, चन्द्र-विम्ब का बयान भी पढ़ 
लीजिए | कवि की क्या ही अ्रनूठी कल्यना और केसी अनोखी सूक है। 


कबहुँ हेत सत चन्द कबहूँ प्रगटत दुरि भाजत। 
पवन गवन बस ब्रिम्बरूप जल में बहु साजत। 
'मनु ससि भरि अनुराग जभुन जल लोटत डोले। 
के तरंग की डोर हिडोरन करत कलोले | 
के बाल गुड़ी नभ म॑ उड़ी सोहति इत उत घावती । 
के अ्रवगाहत डोलति के।ऊ ब्रज रमनी जल श्रावती ॥ 


औ्रोर देखिए, नीचे लिखे पद्म में, चन्द्र द्वारा विरद्दी जनों के सताए 
जाने पर उसे केसा उपालम्म दिया गया है । 


सॉमक ही ते श्रावतव हिलावत कटारी कर, 

पाय के कुसंगति कृसानु दुखदाई के। 
निपट निसंक हो तजी तें कुल कानि खानि- 

ओगुन के नेकऊ तुलैन बाप भाई का । 
एरे मति मन्द चन्द ! श्रावति न लाज तोहि, 

देत दुख बापुरे बियागी समुदाई के | 
हे के सघाधाम काम-बिष को बगारै मूठ, 

हो के द्विजताज काम करत कसाई केा ॥ 


५ रे१७ ) 


कविवर तुलसी दास ने श्रपने रामचरित मानस में चन्द्रोदय का केसा 
सुन्दर वर्णन किया है, उसका भी नमूना देख लीजिये-- 


पूरब दिसि गिरि गुहा निवासी, परम प्रताप तेज बल रासी । 
मत्त नाग तम कुम्म बिदारी, ससि केसरी गगन बन चारी ॥ 


कविवर केंशवदासजी ने चन्द्रमा का वणन निम्न लिखे प्रकार 
किया है । 


चन्द नहीं विष कन्द है “केशव” राहु यहां गुन॒ लीलि न लीन्ये । 
कुम्मन पावन जानि अपाबन धोखे पये पतच्चि जान न दौन्‍्या। 
या सों सुधाघर शेप विपाधर नाम धघरो विधि है बुधि हीन्‍्योा। 
सूर सों माई कहां कहिये जन पाप ले आप बराबर कोन्या॥ 


बिधाता भी कैसा बोहम है, जिसने इसका नाम सुधाधर रख दिया । 
अजी यह तो विपधर है. भयंकर विपधर। इसीलिए तो राहुने इसे 
खाते खाते छोड़ दिया । ' सूर ' ( सूय ) तो फिर सूर ( अन्धा ) है. दी 
उससे तो कहा ही क्‍या जाय | उसी ने इसे साथ रखकर श्रपनी बराबरी 
का दर्जा दे दिया हे | 


इस प्रसंग में गंग कवि का नीचे लिखा सवेया भी पढ़ने लायक है | 


मेत सरीर हिये बिष स्थाम कला फन री मनि जानि जुन्हाई | 

जीभ मरीचि दसों दिस फैलति काटति जाहि वियागिन ताई। 

सीस तें पेंछु लों गात गरोपै डसे ब्रिन ताहि परै न रहाई। 

शेप + गोत के ऐपे ही होत हैं चन्द नहीं ये फनिन्द है माई ॥ 

ग्रजी, यह ऊपर से देखने का ही गोरा दे, हृदय में तो इसके महा 
भयंकर विप भरा है| वह इलाइल ही तो कलंक के रूप में चमकता हे । 
इसकी किरणों जो वियोगियों को जलाती हैं, उसका कारण यह भीतर 
भरा हुआ विष ही दे । श्ररे साहब, इसमें काई श्रचम्मे की बात नहीं; शेष 
के वंश के ऐसे ही हुश्ना करते हैं । 


( रेश्ट ) 


मनोवेगों के कारण रक्त-प्रवाह ओर श्वासोच्छवास-क्रिया में श्रन्तर 
पड़ने से स्वर-तन्तुश्रों में खिंचाव होने लगता है, जिससे स्वर:भंग दो 
जाता हे | उदाहरण देखिए--- 

जाति हुती निज गोकुल के हरि आये तहाँ लख के मग सूना । 

तासों कह्मौ 'पदमाकर' यों श्ररे साँवरे बावरे तें हमें छू ना। 

आजु धो केसी भई सजनी उत वा बिधि बोल कढ़शयोई कहूँ ना । 

आनि लगाये हिये सों हिये। भरि श्राये। गरो कहिआ्राये। कछू ना ॥ 


पद्माकरजी ने केसी अच्छी बात कही है। गोकुल जाती हुईं गोपिका 
का अ्रकेली देखकर कृष्णजी ने उसे अपने हृदय से लगा लिया। फिर 
क्या था, प्रेमातिरेक से गोपिका का गला भर आया और उसके मुह से 
एक शब्द भी न निकला | 


श्सी बात को देवजी ने भी बड़ी सुन्दरता से कहा हे-- 
परदेस ते पीतम श्राए री माय के श्राय के श्राली सुनाई जहीं । 
कवि 'देव' अचानक चोंकि परी सुनि के बतियाँ छुतियाँ उमहीं। 
तब लों पिय आँगन आय गए घन धाय हिये लपटाय रही। 
अंसुग्रा ठदरात गरो घदरात मझ करि आधिक बात कही ॥ 
परदेश से “पीतम' के आने की ख़बर सुनते ह्वी नायिका के हृदय में 
प्रेम-पारावार उमड़ पड़ा | वह दौड़ कर प्रियतम के द्वृदय से लिपट गई, 
परन्तु गला भर आने के कारण बड़ी कठिनाई से थेड़ी सी बात कह सकी | 
स्वर-भंग के उदाहर्णु में नीचे लिखा दोहा भी बड़ा सुन्दर है -- 
हों जानत जो नहिं तुम्हें बोलत श्रध. अ्रखरान । 
संग लगे कहूँ ओर के करि आए मदपान ॥ 
श्ररे तुम कहीं श्रोर के साथ जाकर मदपान कर श्राए मालूम होते हे, 
इसी से पूरी बात भी नहीं कह पाते, अ्रस्पष्टःसा कथन करके चुप दे 
जाते दा । 


( रे१€ ) 


कम्प या वेपथु 
काम. क्रोध, भय, दृषे व्याधि आदि से उत्पन्न अ्रकस्मात्‌ शरीर-कम्प 


का नाम वेपथु है। हृष-विधाद आ्रांद की श्रधिक उत्तेजना के कारण 
स्‍्नायविक शक्ति का प्रवाह रुक जाता है, जिससे मांस-पेशियाँ शिथिल होकर 
कम्प उत्पन्न कर देती हैं । 


मतिरामजी का नीचे लिखा कम्प सम्बन्धी सवैया देखिए-.- 

चन्द्रमुखी अरविन्द की मालनि गूँथति रूप अनूप बिगारेड | 
काम स्वरूप तहाँ 'मतिराम” ग्रनन्द सों ननन्‍्दकुमार सिधारेठ। 
देखत कम्प छुटथौ तिद्दि के तन यों चतुराई के बोल उचारेड । 
सीरे सरोज लगे सजनी कर कम्पत जात न हार संवारेठ ॥ 


चन्द्रमुखी बड़े मज़े में ब्रैडी-बेठी कमल-पुष्पों की माला बना रही थी, 


इतने ही में वहाँ नन्दकुमार के पहुँच जाने से, दर्षाधिक्य के कारण उसके 
शरीर में कम्प होने लगा। परन्तु वह भाव केा छिपा गई ओर कहने 
लगी--- कमल के फूल कितने ठंडे हैं, कि उनकी सर्दा से हाथ काँपने 
लगे, माला गँथना भी कठिन हो गया । 


इसी सम्बन्ध में रसखानजी का सवैया भी केसा सुन्दर है| देखिए--- 


पहले दधि लेगई गोकुल में चख चार भए. नटनागर पै। 
'रसखानि” करी उन चातुरता कहे दान दे दान खरेभञर पै। 
नख ते सिल्वर लॉ पट नीले लपेटे लली सब भाँति कंपे डरपै। 
मनु दामिनि सावन के घन में निकसे नहिं भोतर ही तरपे॥ 


नटनागर द्वारा दान माँगने का आग्रह करने पर जब नीलवसना 


ग्वालिनि मारे डर फे थरयराने लगी तब ऐसा प्रतीत देता था, माना 
सावन के बादलों में भीतर द्दी भीतर बिजली तड़प रही हे। । 


वैबण्य 
हष, विषाद, मोह, मय, लज्जा, आ्रश्चयं, क्रोध आदि कारणों से चेहरे 


( है३० ) 


का रंग बदलना या कान्ति-विपयप वेैवर्यं कद्टाता है। लज्जा, विषाद 
श्रादि मनेवेगों के कारण रुधिर-वाहिनी नाड़ियों के संकुचित, शिथिल, 
या स्नायुओश्रों के उत्तेजित हा! जाने से चेहरे पर रुधिर न्यूनाधिक मात्रा में 
पहुँचता है, जिससे उसका रंग फीका या श्रधिक लाल दिखाई देने लगता 
है; यही वेवर्य हे ! 
वैवण्य के उदाहरण में कवि कालिदास का निम्नलिखित कवित्त कितना 
उत्कृष्ट है-- 
चलिये गोविन्द चन्द चन्दबदनी के पास, 
'कालिदास”? आसरो घरी न पल आअ्राघे को । 
तुम्हें देखि पावे सुख पावे बहु भाँति ताहि, 
दीजै नेक निरखि नतीजा नेह नाघे के। 
देखत सखीन के सु-खीन करि डारी कान्ह, 
हे दीह दुख पाये बिरदानल के दाधे को। 
पीरो परो बदन सदन चलि देखे स्याम, 
मदन सुनार दरयो सुबरन राधे के ॥ 
विरहिणी राधिका विरहानल में विदग्घ दवा रही है, इस बात का 
भरोसा नहीं है कि वह घड़ी भर जीवित रदह्देगी या पल भर ' प्राण निकलने 
को ही हैं | दुःख के मारे उप्तका सारा शरीर पीला पड़ गया है। कामदेव 
रूपी स्वणंकार ने उसका सु-वर्णं रूपी सारा सुवण दर लिया हे। श्रब वह 
पहचानी तक नहीं जाती । गोविन्द ऐसी दशा में तुम उसके पास चलो, 
तुम्हें देखकर वह हरी हे! जायगी--हर्षित हो उठेगी। ' नेह नाथे ! का 
कुछु तो झ़्याल करो | 
इस विषय में पद्माकरजी का सवैया भी पढ़ लीजिये । 
सापने हू न लख्यो निम्ति में रति मौन ते गौन कहूँ निज पीके | 
त्यों 'पदमाकर' सौति संजोग न रोग भयेा अनभावतीा जी के | 
हारन सों हहरात हिया मुकता सियरात सुबेसर ही केा। 
भावते के उर लागी जऊ तऊ भावती के मुख हे गये फीका ॥ 


( डरे३१ ) 


ऊपर के पद्म में भावते के हृदय से लगी रहने पर भी भावती का मुख 
विवरण हो जाने का वर्णन है | 


वैवण्य के सम्बन्ध में मतिरामजी का निम्नलिखित कवित्त भी बड़े 
गजब का हे । 


छुल सों छुबीली कों सहेलिन लिबाइ कर, 

ऊपर अ्रटारी रूप रच्यो जाइ ख्याल के । 
कवि मतिराम भूषणन की भकनक सुनि, 

चाहि भौ चपल चित रसिक रसाल केा। 
श्राली चलीं सकल अलोक मिसु करि करि, 

ग्रावत निहारि कर मदन गुपाल को। 
लालन को इन्दु सो बदन अवलोकि अर- 

विन्द से। बदन कुम्हिलाय गये बाल को ॥ 


ननन्‍्द-नन्दन मदनगोपाल के अचानक सखी के पास अ्रटारी में पहुँच 
जाने के कारण बाला सहम गई, ग्रौर उसका अरविन्द-सा विकसित मुख 
लाल का मुख-चन्द्र देखकर कुम्दला गया। 


इस प्रसक्ष में नीचे लिखा दोहा भी बड़ा सुन्दर हे--- 
कहि न सकत कछ्लु लाज ते अकथ आपनी बात | 
ज्यों ज्यों निशि नियरात है त्यों त्यों तिय पियरात ॥ 


/्‌ 
रात ज्यों-ज्यों नज़दीक श्राती जाती है, त्यों-त्यों लज्जा और भय 
के कारण नायिका का शरौर पीला पड़ता जाता है । 


अश्र 


हषे, विषाद, भय, भक्ति, क्रोधादि से उत्पन्न नेनच्नजल को अश्न कहते 
हैं| ग्रश्रओं से हष विषादादि म्रानतिक भावों का पता लगता है। विशेष 
दशाओं में अँसुश्रों से सोन्दय की वृद्धि भी मानी गई है। एक विद्वान 


( श३२१ ) 


का कथन है कि सुन्दरी की मुस्कान की श्रपेज्षा उसके श्रॉसुश्रों में श्रधिक 
माधुय और श्राकषंण हे।ता है । 


कुछ मनेविकारों के कारण अश्र-कोष सम्बन्धी स्नायुश्नों को ऐसी 
उत्तेजना मिलती है, कि श्राँखों के पास वाली पेशियाँ सिकुड़ जाती हैं 
जिससे ञआ्ॉँसू निकल पड़ते हैं । 


अंसुश्रों के सम्बन्ध में पद्माकरजी का नीचे लिखा कवित्त कितना 
सुन्दर है । 
भेद बिन जाने एती बेदना बिसाहिबे को 
ग्राजु हों गई ही बाट बंसीवट बारे की | 
कहे 'पदमाकर' लट्ू हे लोट पोट भई, 
| चित्त में चुभी जो चोट चाह चय्वारे की। 
बावरी लौं बूकति ब्रिलोकति कहा तू बीर, 
जाने केऊ कहा पीर प्रेम घट बारे की। 
उमड़ि उमड़ि बहि बरसे सुश्राँखिन हे, 
घट में बसी जु घटा पीत पट बारे की॥ 


श्ररी, आज में वंशीवट क्‍या गई, एक श्राफ़त मोल ले भाई । वंशी 
वाले की वंशी की मीठी तान सुनकर लोटठ-पोठ हे गई । उत्ती चटोर की चाह 
चित्त में चुभ गई है । उसी पीत पट वाले की घटा मेरे घट में कुछ ऐसी 
'बस गई है कि वही उमड़-उमड़ कर श्राँखों के रास्ते बरसती रहती दे । 
अश्रश्नों का केसा सुन्दर तथा काव्य-मय वर्णन हे । 
अश्रु के उदाहरण में कविवर मतिराम की उक्ति भी सुन लीजिये | 
बैठे हुते लाल मनमोहन बिलोकि बाल, 
छिनक सकेाच राख्यों गुरुजन भीर को | 
कवि 'मतिराम? दीठि और की बचाइ देखे, 
देखत ही श्रोरै भई राखे श्रव॒घीर को | 


( रेरे३े ) 


तन को खबर भूली खान श्ररू पान सब, 
आँखिन में छाये। पूर आनंद के नीर के | 
उमेंगि हिये ते आये प्रेम के प्रवाह तातें, 
लाज गिरि परी जैसे तरुबर तीर केा॥ 
मनमेहन के देख कर बाला सारी सुध-बुध भूल गई। आनन्द 
के मारे उसकी आंखों मे श्रॉयू छुलछुला आए । द्वदय से प्रेम-पयस्विनी 
उमड़ पड़ी। जिस प्रकार नदी-नालों में बाढ़ श्राने से उनके किनारे 
के दरझ़त गिर जाते हैं, उसी प्रकार स्नेद-सरिता के प्रबल प्रवाह से 
लाज का पेड़ गिर गया, अर्थात्‌ बाला के झ्रॉसुश्रों ने उसके मनमोहन 
पर मुग्घ हेने के रहस्य का भण्डा फोड़ कर दिया । 
कविवर देवजी श्रासुओं का कैसा वर्णन करते हैं. सुनिये-- 
सखी के सकाच गुरु सोच मृगलेचनि-- 
रिंसानी पियसों जे उन नेक हँस छुझ्ो गात । 
“देव” ये सुभाय मुसकाय उठि गए यहि-- 
सिसकि सिसकि निसि खोई रोहइ पाये प्रात । 
के जाने री बीर बिन बिरही बिरदद बिथा, 
हाय हाय करि पछुताय न कछू सुदहात। 
बढ़े बढ़े नेनन सो आँसू भरि भरि दरि, 
गेरो गारो मुख अआजु औ्रोरो से बिलानो जात ॥ 
सखियों ओर बढ़े बूढ़ों के सामने गात छूने के कारण नायिका ने 
प्रिय के। भिड़क दिया, जिससे वह उठ गया। फिर क्या था, रात-भर 
वह श्रपनी करनी के लिए. सिसक-सिसक कर रोती और पछुताती रही। 
श्रॉखों से आँसू बहते रहे। उस समय ऐसा मालम होता था कि आँखों 
से श्रांसू नहीं निकल रहे, वरन्‌ उसका श्रोले जेसा शुश्र मुखमण्डल 
गलगल कर बह रहा है। 
अआँसश्रों के सम्बन्ध में निम्नलिखित उत्तम दोहे भी पढ़ने 
लायक हैं... 


( रशे३४ ) 


नभ बिमान उतरत भरत इकटक रहे निहारि। 
बिछुरन अनल बुकाइबे भरो बिलेचन बारि॥ 
५ >< >< >< 
जिनमें निसिदिन बसतु हो तुम घन सुन्दर नाह। 
क्योंन चले तिय हगनितें बहत बारि परबाह ॥ 
>् ८ >< >< 
रहिमन अँसुआ नयन ढरि जिय दुख प्रगट करेह । 
जाहि निकारो गेह ते कस न भेद कहि देई॥ 
८ भर >< >< 
बिन देखे दुख के चले देखे सुख के जायें। 
कद्दो लाल इन हगन के अ्रंवआ क्यों ठहरायें ॥ 
आॉसुओं के वर्णन में कविरत् सत्यनारायनजी की भी निम्न लिखित 
पंक्तियाँ पढ़ लीजिए, कैसी सन्दर और आकषक हैं- 
तुव नयन सन टपकत टपाटप यह लगी श्रेंसवन भड़ी । 
बिखड़ी खड़ी भुञ्र पै परी जनु टूटि मुतियन की लड़ी। 
रोकत यदपि बलसों बिरह की बेदना उर तठ भरे। 
जब अधघर नासापुट कंपहिं अनुमान सों जानी परै॥ 
बिहारी का दोहा देखिए-- 
पलनि प्रगटि बरुनीनि बढ़ि नहिं कपाल ठहरायें। 
श्रंसश्रा परि छुतियाँ छुनक छुनछनाय छुपि जायें। 
श्राँसश्रों के सम्बन्ध में नीचे लिखा सवैया भी पढ़ने लायक हे । 
गेपिन के श्रंसश्नान के नीर जे मारी बद्दे बिके भये नारे। 
नारे भये नदिया बढ़िके नदिया नद ते भये फाट करारे | 
बेगि चले ते चले उतके कवि “ताष” कढ्दे ब्रजराज दुलारे | 
वे नद चाहत सिन्धु भये पुनि सिन्धु ते हेहँ जलाइल सारे।॥ 


( ३१४ ) 


मद्दाकवि सौदा की उक्ति सुनिए--- 
समुन्दर कर दिया नाम उस का नाहक सब ने कद कह कर । 
हुए. थे जमा कुछु आँसू मेरी श्राँखों से बह बह कर ॥ 
महाकवि सूरदासजी ने आआँसुश्रों का कैसा सुन्दर वर्णन किया है, 
देखिए... श 
जब जब पनघट जाँऊ सखीरी बा जमुना के तीर । 
भरि भरि जमुना उमड़ि चलति है, इन नैननि के नीर | 
इन नेननि के नीर सखीरी, सेज भई घिरनाऊँ। 
चाहति हों ताही पे चढिके दरिजू के ढिंग जाउँ। 
आँसश्रों के समुद्र के सेज की (घिरनी” पर चढ़कर पार करते हुए 
'हरिजू! के पास जाना केसी श्रदूभुत सूम है | 
हिन्दी के सप्रसिद्ध कवि श्री नाथूराम मादहार ने श्रॉसश्रों का कैसा 
सन्दर वन किया है। आप के श्रप्रकाशित “श्रश्रमाल” काव्य से कुछ 
पद्म यहाँ दिए जाते हैं । 


श्रश्न किधों उमड़े घन-से घिरि आए बुकावन के बिरहागिनि। 
मीन किधों सत सीप के गाय रहीं हिय हार सनेद्द के तागन । 
कंज किर्धों मकरनद के बुन्द रहे सरसाय मलिन्द के भागन। 
के श्रैँखियाँन के लाल सखी खुल खेल रहे श्रँखियाँन के श्रौगन ॥ 


प्रिय के सुभ श्रागम में अंसुआा प्रगटे छविरासि निहारती हैं । 
कर प्यार श्रपार दुलारती हैं सिसनेह की जेति उजारती हैं। 
मुतिया इन्हें जानि श्रजान कहूँ चुगि जायें न हँस बिचारती हैं। 
यहि ते अखिया निज लालन के नहिं गोद ते नीचे उतारती हैं ॥ 
गंग सी तंग तरंग उठ सित ञ्रोज भरी सस जाति विभं॑जन । 
लालिमा लाचन लैानी लसे बिलसे हे सरस्वति सी मन-रंजन | 
सूर-सता सम दृश्य दिखाय दिये श्रैसश्रान ने घेय के अंजन | 
मानहु प्रेम-प्रयाग के तीरथ-संगम माँद्िं करे दहृग मंजन॥ 


( रेरे६दे ) 


उदू के किसी कवि ने आ्ऑँसुश्रों के सम्बन्ध में केसी श्रच्छी शेर 
लिखी हे-- 
तुक बिन ज़बस कि पानी जारी किये हैं रोकर, 
चश्मे से में अब अपने बेठा हूँ हाथ घाकर। 
कविवर प्रसादजी ने श्रॉंसुओं के सम्बन्ध में क्या ही श्रच्छा कहा दे । 
जे घनी भूत पीड़ा थी मस्तक में स्मृति-सी छाई, 
दुदिन में ऑधू बनकर वह आज बरसने आई । 
अब जरा हरिश्रोधजी का आँसू-वर्णन भी पढ़ लीजिए. । 
आँख का आँसू ढहलकता देखकर, जी तड़प करके हमारा रह गया, 
क्या गया मेतती किसी का है बिखर, कया हुआ पैदा रतन केाई नया। 
श्रोस की बूँद कमल से हैं कढ़ीं, या उगलती बूँद हैं दो मछलियाँ, 
या श्रनूठी गोलियाँ चाँदी मढ़ी, खेलती हैं खजनों को लड़कियों । 
या जिगर पर जे फफोला था पड़ा, फूट करके वह अ्रचानक बह गया, 
हाय! था श्ररमान जो इतना बड़ा, आज वह कुछ बूँद बन कर रह गया। 


प्रलय 
किसी काय में तल्लीन देकर सघ-बुध भूल जाना, श्रथवा सख-दुख 
या भय के कारण पूव दशा की स्मृति, चेष्टा तथा ज्ञान का नष्ट दे जाना 
प्रलय कहता है । 


सख, दुःख, भय आदि सम्बन्धिनी अ्रत्यधिक उत्तजना के कारण 
मस्तिष्क की स्वाभाविक क्रिया में अन्तर पड़ जाता है, जिससे वह ठीक- 
ढीक काम नहीं कर पाता, ओर मनुष्य के कुछ सध-बुध नहीं रहती 

स्तम्भ ओर प्रलय में इतना श्रन्तर है कि उसमें शारीरिक क्रियाएँ 
ध्तब्ध हाती हैं ओर इसमें मानसिक । 


प्रलय के सम्बन्ध में मतिरामजी का निम्नलिखित उदाहरण पढ़िए--- 
जा दिन त छवि सों मुसक्यात कहूँ निरखे नन्‍्दलाल बिलासी | 
ता दिन ते मनही मन में 'मतिराम' पिये मुसक्याति सुधा-सी 


( रे३७ ) 


नेकु निमेष न लागत नैन चकी चितबै तिय देव तिया सी। 

चन्द्रमवी न इले न चले निरवात निवास में दीपशिखा सी ॥ 

जिस दिन से मुस्कराते हुए नन्दलाल देखे हैं, उस दिन से उस 
गाप-वधू की दशा ही कुछ ओर हे। गई हे । मन ही मन वह उनकी रूप- 
सुधा का पान करती रहती है| पल के भी उसके पलक नहीं लगते । देव- 
तियाओं की भाँति वह इक टक टकटकी लगाकर देखती रहती है । वायु 
से सुरक्षित दीप-शिखा की तरह न वह हिलती हे न डुलती है । 

प्रलय के उदाहरण में देवजी का निम्नलिखित सवेया भी बड़ा 
सुन्दर है । 

गेरी गुमान भरी गजगामिनी कालि धों का वह कामिनी तेरे। 

अइ जु ती सुचि तें मुसिक्याइ के मोहि लई मनमोहन मेरे। 

हाथ न पायें इलेन चले अँग नीरज नेन फिरें नहिं फेरे। 

देव” सो ठार ही ढाड़ी बितोति लिखी मने। चित्र विचित्र चितेरे ॥ 

प्रलय के सम्बन्ध में नीचे लिखे, देहे भी पढ़ने लायक हैं-. 


केहरि कटि पट पीत घर सुषमा शील निधान। 
देखि भानु कुल भूषण बिसरा सखिन श्रपान॥ 
>< ् >< >< 
दे चख चाट अगेोट मग तजी जुबति बन माहिं। 
खरी बिकल कब्र की परी सुधि सरीर की नाहिं॥! 
ज्म्भा 
किसी किसी ने जम्भा श्रथांत्‌ वियोग, आलस्य मोह या भयवश बार- 
बार मुंद खोल कर दी श्वास-निःश्वास लेने-त्यागने को भी सात्विक भावों 
में माना है । 
विषादादि के कारण रुघिर-वाहिनी नाड़ियों के सिकुड़ने पर, निःश्वास 
की गति कुछ मन्द पड़ जाती है । उस समय प्राणप्रद वायु की अधिक 
हि० न०--२२ 


( झहैरे८ ) 


गावश्यकता पड़ती है | इसो के लिए मनुष्य गहरे श्वास के रूप में जम्हाई 
लेने लगता है | 
जम्हाई के उदाहरण में मतिरामजी का निम्नलिखित कवित्त कैसा 
श्रच्छा है | 
केलि करि सारी राति प्रात उठी अलसात, 
नींद भरे लोचन युगल बिलसत हैं। 
लाजनि ते अंगन दुरावति है बार बार, 
खेंचि कर बसन बिहारी बिहँसत है। 
कवि “ मतिराम ? आई आलस जम्हाई मुख, 
ऐसी मनभावती की छुबि सरसत है। 
श्रदन उद्येत माने सोभा के सरोबर में, 
सोभामान सोभा के सरोज बिकसत है॥ 


केलि के पश्चात्‌ नायिका का शरीर अ्रलसाया हुआ-सा हे। उसे 
जम्हाइयाँ श्रा रही हैं | उस समय बार-बार मुंह खोल कर जाद्ई लेने से 
ऐसा प्रतीत द्वाता है, माने। प्रात:काल सूर्योदय के समय सोन्दय के सरोवर 
में सुन्दर शोभा का कमल विकसित है। रहा है | 

इस प्रसंग में पदमाकरजी का नं|चे लिखा सवेया भी बड़ा सुन्दर है । 

आरतस सों रस सों 'पदमाकर” चॉंकि परे चख चुम्बन के किये। 

पीक भरी पलक भलके अलके भलके छबि छूटि छुग लिये। 

सो सुख भाखि सके अ्रब को रिसके कप्तिके मसके छतियों छिये। 

राति की जागी प्रभात उठी अंगिरात जम्हात लजात लगी हिये ॥ 


इस सवैया में भी रति-जनित आलस्य के कारण नायिका के अ्रंगड़ाइ्याँ 
ओर जम्हाइयों लेने का “वर्णन है । 


कायिक अनुभाव 
मनेोभावों के अनुसार श्राख, भोंद, हाथ आ्रादि शरीर के श्र॑ंगों द्वारा 


( रे१६ ) 


न्‍स जाने वाली कटाक्ष आदि चेशञ्रों को कायिक अनुभाव कहते हें। 
पक 

मन्द ही मन्द अनन्दति सुन्दरी जाति हुती अपने कहूँ नाते । 

आ्रागे सबे गुर नारि हुतीं हरएः हरि बात कही इक घाते। 

हाथ उठाइ छुइ छतियाँ मुसक्याइ के जीम गही दुहु दाँते। 

बैनन ही कह्यों हे जगदीस सु नेनन ही कह्मौँ जाहु हृहाँते॥ 

आनन्द में मग्न सुन्दरी धीरे-धीरे कहीं अपनी नातेदारी में जा रही 
थी | आगे आगे बढड़'-बूठी चल रही थीं, इसी समय एक ओर से मनमोहन 
ने धीरे से कुछ बात कही । कृषणु की बात सुन सुन्दरी ने हाथ ऊँचे करके 
अपनी छातो का स्पश किया और फिर वह दाँतों में जीभ दाबकर 
मुस्करा दी । इसके अनन्तर हे जगदीश कह कर ( दीध॑ निःश्वास छोड़ते 
हुए ) नेत्रों के संफेत मे ही कृष्ण से कह दिया कि यहाँ ठहरना ढीक नहीं, 
ग्रब चले जाइये ( सुन्दरी ने किस अ्रभिप्राय से क्‍या संकेत किया इसके 
स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है )। यहाँ सुन्दरी का श्रंगों के स्पर्श 
करना, दाँतों में जंभ दबाना, मुस्कराना, तथा सैनों से संकेत करना 
अ्रादि कायिक अ्नुभाव हैं | 


पानसिक अनुभाव 


श्रन्त:करण की भावना के श्रनुसार मन-मानस में, आमोद-प्रमोद, हष- 
बषादादि की जो तरंगें उठती हैं, उन्हें मानसिक श्रनुभाव कहते हैं । 
उदाहरण देखिए-- 
आवत कदम्ब कुसुमन के पराग पूरि, 
सीरी पौन लहलद्दी ललित लतान की। 
घोर घन घेरि घेरि पावस अश्रेघेरी पिक- 
केकिन की टेर गनि श्ररि द्वात प्रान की | 
ऐसे समे कुंज भोन आनंद उछाह बाढ़े, 
ठाढ़े ढिंग ललन मनारथ न भान की | 


( रे४० ) 


सॉहन संचाई बात करत रचाई देाऊ, 
छुब्रि सों बचाई छींटे श्रोट छुतनान की ॥ 
उपयुक्त कवित्त में पावल की अँघेरी रात में, जब घन उमड़-घुमड़ 
रदे हैं, लदलद्द! लालेत लताश्रों के छुती हुईं ठंडी हवा भरा रही हे, मोर 
पपीहा बोल रहे हैं, ऐम समय में नायक-नायिका दोनों बड़े श्रानन्‍न्द और 
उत्साह से प्रेमालाप कर रहे हैं। 
आहाय अनुभाव 
भाँति-भांति के वेश धारण के आहाय॑ अनुभाव कहते हैं | लीला, 
दाव और श्राह्य अनुभाव में इतना श्रन्तर है, कि पहले में नायक,-नायिका 
दोनों एक साथ 'रूप बदलते हैं ओर दूसरे अशथांत्‌ आहाये अनुभाव में 
कोई एक ्टी वेश बदलता हे । 
आदहाय अनुभाव के उदाहरण में श्रीधर कवि का पद्म देखए-- 
स्याम रंग धारि पुनि बाॉँसुरी सुधारि कर, 
पीत पट पारि बानी मधुर सुनावेगी। 
जरकसी पाग अनुराग भरि सीस बाँधि, 
कुए्डल किरीट हू की छुबि दरसावेगी | 
याही देत खरी अरी हेरति हों बाद बाकी 
कये बहुरूपि हू कों ' भ्रीघर ” भुलावेगी । 
सकल समाज पहचानेगो न केहू भाँति 
ग्रज वह बाल ब्रजराज बनि श्रावेगी ॥ 
उपयक्त कवित्त में किसी गोप-बाला द्वारा ब्रजराज का स्वॉग भरे 
जाने का वर्णन हे । वह गोपी साँवली सूरत बना, पीत पट, किरीट, कश्डल 
और पगड़ी पहन मधुर मुरली बजाती हुई भीकृष्ण का इतना अच्छु 
वेश धारण करके आवेगी, कि कोई उसे पहचान भी न सकेगा । सर्ख 
कहती हे, कि में उसी की प्रतीक्षा में यहाँ खड़ी हूँ । 





संचारो या व्यभिचारगी भाव 
परिभाषा 


संचारी शब्द सम उपसर्ग और चर धातु से बना हे। इसका अथ 
है--सब भावों का भले प्रकार रसत्व को और ले जाने वाला, अ्रथवा 
साथ साथ चलने वाला। अ्रथांत्‌ जे भाव स्थायी भावों में विद्यमान 
रह कर, या उनके साथ-साथ चल कर, उन्हें उपयोगी एवं पुष्ट 
बनाते-- रस रूप तक पहुँनाते, और जल-तरंगवत्‌ उन्हीं में उत्पन्न 
द्वाकर उन्हीं में वलीन हे जाने हैं. उन्हें संचारी भाव कहते हैं । संचारी 
भाव ध्वनि रूप से स्थायी भावों के सहायक और पोषक देते हुए भी, 
उनमें रस-सिद्धिकाल तक स्थिर नहीं रहते | वे तो चपला की तरह सब 
रमें में भस्थिरतायूवंक संचार किया करते हैं। इसीसे उन्हें व्यभिचारी 
भाव भी कहा गया है | श्रन्त:संचारी या मन.संचारी भी इनकी संशा है । 


साहित्यदपण-कार ने संचारी भाव की निम्न प्रकार परिभाषा को है-- 


विशेषादाभिमुख्येन चरणाद्ृश्यभिचारिण:ः । 
स्थायन्युन्मग्ननिमग्राख्रय स्लंशब॒तद्धिदा: || 
अ्र्थात्‌-स्थिग्ता से विद्यमान रत्यादि स्थायी भावों में उन्मग्न- 
निर्मग्न ( आविभूत तिरामत ) द्वाकर निवेदादि भाव श्रनुकूलता से व्याप्त 
हाते हैं। ग्रतएव विशेष रूप मे आभिमुख्य चरण के कारण हन्हें व्यभि- 
चारी कहते हैं । 
रसतरंगिशीकार के मत में संचारी भाव वह है, जो एक में से 
दूसरे रस में, दूसरे में से तीसरे और तीसरे में से चोथे रस में, इसी 
प्रकार अनेक रसों में संचरण रे, तथा अनेक रसों में स्थिर रहे और 
जिसकी अ्रनेक रसों में व्याप्त ह्वाती दे । 


( रे४र ) 


संचारी भाव तेतीस हैं, जिनके नाम नीचे दिये जाते हैं । 

१--निवेंद, २--ग्लानि, ३-- शंका, ४--असूया, ५--मद, ६--- 
भ्रम, ७--श्रालस्य, ८--दीनता (दैन्य), ६--चिन्ता, १०--मेह, ११-- 
स्मृति, १२-- घृति, १३--त्रीड़ा, १४ - चपलता , १५--हर्ष १६ - श्रावेग, 
१७--जड़ता, श्द--ग , १६--विषाद, २०--ओऔत्सुक्य २१ निद्रा, 
२२--अपस्मार, २३--स्वप्त, २४-विवेध २५--अ्रमषं, २६--श्रव- 
हित्था, २७--उग्रता, २८-मति, २६९--ब्याधि, ३०--उन्माद, ३१-- 
मरण, ३२--त्रास, ३३--वितक | 


दास कवि ने उपयुक्त तेतीस संचारी भावों का उदाहरण एक ही 
कवित्त में दिया हे, देखिये-. 


सुमिरि सकृचि न थिराति सकि त्रसति, 

तरति उग्र बान सगलानि दरखाति है। 
उनीदति अ्रलसाति सेवति सधीर चोकि, 

चाहि चित स्मित सगव॑ अनखाति है। 
<दास' पिय नेह छिन छिन भाव बदलति 

स्थामा सबिराग दीन मति के मखाति है | 
जल्पति जकाति कहरति कठिनाति माति. 

मोहति मरति बिललाति बिलखाति है॥ 


2५ 2५ 2५ 2५ 


नायक कवि ने संचारी भावों के रामचरित मानस के उदाहरण देकर 
बड़ी ही सुन्दर और सरल रीति से समभकाया हैं। संचारी भाव से क्या 
अभिप्राय है, यह बात इन उदाहरणों से अच्छी तरह अवगत हो जाती 
है, देखिए-..- 


( १ ) निर्वेद--अ्रब प्रभु कृपा करहु इहि भाँती। 
सब तजि भजन करों दिन राती॥ 


( रेडे३रे ) 


( ३ ) ग्लानि-- मन ही मन मनाय अ्रकलानी। 
( हे ) शंका--शिवहिं बिलोकि सशंकेउ मारू। 
( ४ ) असूया -- तब सिय देखि मूप अभिलाषे। 
कूर कपूत मूढ़ मन माघषे॥ 
( ५ ) मद--- रण मद मक्त निशाचर दर्पां। 
( ६ ) श्रम--थके नयन रघुपति छुब्रि देखी। 
( ७ ) आलस्य - अधिक सनेद्द देह भई भोरी 
( ८ ) दैन्य--पाहि नाथ कहि पाहि गुसाइई। 
( ६ ) चिन्ता--चितवति चकित चहूँ दि सीता । 
कह गए तप किशोर मन चीता ॥ 


( १० ) मोह--लीन्दि लाय उर जनक जानकी । 
( ११ ) स्मृ त--सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनोत । 
( १२ ) धृति---घरि बड़ि धीर राम उर आनी ; 
( १३ ) बीढड़ा “गुरुजन लाज समाज बड़ि देखि सीय सकचानि । 
( १४ ) आवेग---उठे राम सुनि प्रेम अधीरा। 

कहूँ पट कहु निषंग धनु तीरा ॥ 
( १५ ) चपलता -- प्रभुर्दि चित पुनि चितै महि राजत लोचन लोल ॥ 
( १६ ) जड़ता--मुनि मग माफ अचल हुए वेसा । 

पुलक शरीर पनस फल जेसा |। 
( १७ ) हष--दरषि राम भेंटेठड इनुमाना। 
( श्८ ) गव--रघुवंशिन कर सहज सुभाऊ | 

भूलि कुमारग देहिं न पाऊ। 

( १६ ) विधाद---स भय हृदय बिनवति जेह्िि तेहदी । 
( २० ) निद्रा--रघुवर जाइ शयन तब कीन्हा। 
( २१ ) अमष---जेहि सपनेहूँ पर नारि न हेरी। 
( २२ ) ओत्सक्य --जनु तहूँ बरसि कमल सित स्तेनी । 


५ रेड ) 


( २३ ) अपस्मार- चितवति चकित चहूँ दिसि सीता । 
६ २४ ) स्वप्न --जागी सीय स्वप्न श्रस देखा । 

( २५ ) विबोध--प्रात पुनीत काल प्रभु जागे। 

( २६ ) उग्रता--एक बार कालहु किन होई | 

( २७ ) मरण--राम राम क॒हि राम कहि बालि कीन्दद तनु त्याग । 
( २८ ) मति --प्रभु तन चितै प्रेम प्रन ठाना । 

(२६ व्याधि--अति परिताप सीय मन माँही । 

( ३० ) श्रवदित्थ --तनु सकेच मन परम उछाहू। 

( ३१ ) उन्माद --अहह तात दारुण हृठ ढानी । 

( ३२ ) त्रास--भये बिलम्ब मातु भय मानी । 

( ३३ ) वितक -से सब कारण जान बिधाता | 


संचारी भाव की परिभाषा करने तथा तेतीसों संचारियों के संत्तित्त 
उदाहरण देने, के अनन्तर अब हम प्रत्येक संचारी भाव पर प्रथक-प_्थक्‌ 
विस्तार पूबंक विचार करते हैं | 

निवेद्‌ 

श्रापत्ति. ईष्यां, इष्ट वस्तु की अप्राप्ति, वियाग दारिद्रश्थ आदि के कारण 
या तत्वज्ञान द्वारा क्षणक विषय भोगों और अनित्य सांतारिक सुखों से 
उपराम होकर मनुष्य अ्रपने आप को घिक्‍कारने लगता है तो उस अवस्था 
का नाम निवंद हे । वेराग्य से उत्पन्न होने पर निवद शान्त रस का स्थायी 
भाव द्वोता हे, परन्तु इष्ट-हानि आदि कारण-जनित निवेद करुण, श्शंगार, 
बीभत्स आदि में संचारी भाव बनकर संचरण करता दे । 

दीनता, चिन्ता, अश्रपात, विवर्णंता, आकुलता, दीघ॑ श्वासे।च्छूवास 
आदि इसके लक्षण हैं | 

महाकवि देव का निवंद सम्बन्धी उदाहरण आगे दिया जाता है | 

ऐसे जो हों जानते कि जैहे तू बिषरे के संग, 
एरे मन मेरे, हाथ पाय तेरे तारता। 


( ३४५ ) 


अआजु लो हां कत नरनाहन की नाहीं सुनि, 

नेह सों निहारि हारि बदन निदहारतो। 
चलन न देता 'देव” चञ्बल अचल करि, 

चाबुक चितावनिन मारि मुह मोरतोा। 
भारी प्रेम पाथर नगारो दे गरे सों बाँधि, 

राधावर बिरद के बारिधि में बोरता। 


महाकवि देव ने इस छुन्द में विधय-वासना में लिप्त अपने मन का 
तिरस्कार करते हुए उसे बुरी तरह घिक्कारा है| वे कहते हैं कि, मनीराम ! 
अगर यह मालूम हाता | उदिष्ट पथ के त्यागकर तुम सांसारिक विषय- 
भोगों की ओर दोड़ोगे तो में तुम्दारे द्वाथ-पाँद ताड़े विना न रहता। चेता- 
वनियों के चात्रुक मार-मार कर तुम्हारी सारी चज्चलता भगा देता, और 
तुम्हें एकाग्रता के खूँटे से बाँध कर ह्टी दम लेता | और नहीं ते तुम्दारे 
गले से भगवद्धक्ति का भारी भार बाँध कर तुम्हँ आनन्द कन्द श्री व्रजचन्द्र 
के प्रेम-पयानि|ध में डुबो देता | 


निवेद का केमा सुन्दर उदाहरण है। इससे बढ़कर विषय-विरक्ति और 
क्या है| सकती है। इसी सम्बन्ध में महाकवि सूरदास का निम्न लिखित पद 
भी पढ़ने योग्य हे । 


तजो मन हरि बिमुखन के संग | 

जाके संग कुबुधि उपजति है परत भजन में भंग। 
कहा हात पय पान कराये बिष नहिं तजत भुजंग। 
कागहि कहा कपूर चुगाये स्वान नरहवाये गंग। 
खर के कहा अरगजा लेपन मरकट भूषन अंग। 
गज के कहा नहवाये सरिता बहुरि घरे ख्य छुंग । 
पाहन पतित बान नहिं बेघत रीता करत निषंग 
'सूरदास” खल कारी कामरि चढ़त न दूजो रंग ॥ 


इस पद में सूरदासजी ने स्वानुभूति द्वारा उपदेश दिया हे,कि जो 


( १४६ ) 


लोग भगवान्‌ के भक्त नहीं हैं, उनका सम्पक भी आधोगति-गतं में गिराने 
वाला है। श्रतः भूल कर भी उनका संग न करना चाहिये। इसी भाव केा 
कविवर रसखान ने नीचे लिखे सबेये में बड़ी सुन्दरता पूवंक व्यक्त किया 
है, देखिए-. 


या लकुटी अर कामरिया पर राज तिहूँ पुर के तत्रि डारों। 
श्राउहु सिद्धि नवो निधि को सुख नन्‍्द को गाय चराय ब्रिसारों। 
मैनन सों *रसखानि? कब्रै ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारों। 
कौटिन हू कलघोत के घाम करील के कंजन ऊपर बारों॥ 


न ८ >< ५८ 
निम्नलिखित श्लोक पश्चात्ताप जन्य निवेंद का केता सुन्दर उदाहरण 
है... 
“ सृत्कुम्म बालुका रन्ध्र पिधान रचनाथिना | 
दक्षिणावत शंखोयं हन्त [ चूर्णी कृते मया ॥ 


अरे इस मिट्टी के घड़े के प दे में छेद हवा गया था, तो दवा जाता। 
उस के बन्द करने के लिये इधर-उधर से लाकर केई कंक्ड़ी लगाई जा 
सकती थी । परन्तु द्वाय ! मेरी मति उलटी हागई | मैंने तो अपना बहु- 
मूल्य दक्तिणावतं शंत्व फोड़ कर, उसकी कंकड़ी से इस तीन कोड़ी के घड़े 
की रक्षा की | इससे अधिक और मेरी मूखंता क्या हो सकती हे !! 

ग्लानि 

क्ुधा, पिपासा, वमन, विरेचन, व्याधि, तप, नियम, उपवास, मनस्ताप, 
झति मद्यपान, श्रति मैथुन, अ्रति परिश्रम, अधिक माग चलने आदि से 
शरीर और मन में जो निबेलता, विकलता या अ्रसहनशीलता उत्पन्न होती 
है, उसे ग्लानि ऋहते हैं । 

उत्साइह्दीनता, कृशता, कम्प, घुणा, उपेक्षा, धीरे-धीरे बोलना, धीरे- 
घीरे चलना आदि इसके लछण हें। 


( डरे४७ ) 


ग्लानि के उदाहरण में द्विजदेवजी का नीचे लिखा छुन्द बहुत 
प्रसिद्ध हे -- 
घदरि घहरि घन सघन चहूँधा धेरि. 
छहरि छुहरि बिस बूँद बरसावैना। 
“द्विजदेव' की सों श्रव चूक मति दाँव अरे, 
पातकी पपीहा तू पिया की धुनि गावे ना । 
फेरि ऐसो श्रोसर न ऐहे तेरे हाथ एरे, 
मटकि मटकि मोर सोर तू मचावें ना। 
हों तो बिन प्रान प्रान चाहति तज्योई श्रब, 
कत नभ चन्द तू ग्रकास चढ़ि घाबे ना | 
उपयुक्त छुन्द में वियेगिनी बाला की व्याकुलता-जन्य ग्लानि का 
वर्णन है । विरह-विधुरा नायिका सन्तापपूर्वक बड़ी घुणा से कद्द रही है-- 
बरसे, बादलो ज़ोर-ज़ोर से बरसे, खूब विष बँदें बरसाओ। पपीहा, तुमे 
चुनौती हे. जो एक क्षण के लिए भी पी पी पुकारना बन्द करे | मटक- 
मटक कर शोर मचाने वाले मोरो, तुम भी अ्रपनी मन मानी करलो, 
कदाचित्‌ फिर ऐसा अवसर न मिले | विरद्िणियों को तपाने वाले चन्द्र, 
तुम क्‍यों मह छिपाए पढ़े दवा, तुम भी भ्रपनी सारी कलाश्रों से आकाश में 
दोड़ लगाना शुरू कर दो | मुझ विरहिणी की क्या, है, प्राणनाथ के विना 
मेरे प्राण तो निकलने ही वाले हैं, श्रव गए तो क्या, तब गए ते क्या | 
इस विषय में महाकवि विहारी का निम्नलिखित दोहा भी बढ़े ग्रजब 
का हे-- 
सिथिल गात कॉपत हिये, बोलत बनत न ब्रैन | 
करी खरी ब्रिपरीत कहुँ कहत रंगीले नेन॥ 
अजी यह क्या माजरा है जो शरीर शिथिल दिखाई दे रहा है, हृदय 
में तीत्र गति से धड़कन दवा रही हे और मुह से बात तक नहीं बन श्राती । 
झोदो | मालूम दे! गया, इन रंगीली श्रर्थात्‌ राजि जागरण के कारण लाल 


( रेड८ ) 


ताल हुई आँखों ने साफ़-साफ़ बतला दिया कि हो न हो, तुम कहीं ज़रूर 
॥इबड़ी कर ग्राए हो ; नहीं ते तुम्हारी ऐसी हालत न हे रही होती। 
प्च-सच बताओ, क्या बात है । 
इस दोदे में जो खरी ब्रिपरीत * जन्य शिथिलता, कम्पन ओर 'बोलत 
बनत न बैन! का उल्लेख किया गया है वही ग्लानि संचारी हे । 
महाकवि देव का भी ग्लानि संचारी विषयक निम्नलिखित छुन्द पढ़ने 
लायक है 
रंग भरे रति मानत दम्पति बीति गई रतियाँ छुन ही छुन। 
पीतम प्रात उठे अलमात चितैे चित चाहत धाइ गल्यों धन। 
गोरी के गात सब्रै औऑगिरात जु बात कही न परी सु रही मन । 
भौंहें नचाय चलाय के लोचन चाहि रही ललचाय लला तन ॥ 
्रः ५८ ८ >< 
संम्कृत साहित्य में राम द्वारा परित्यक्ता सीता के दौबल्य की ओर संकेत 
करता हुआ नीचे लिखा श्लोक ग्लानि का केसा सुन्दर उदाहरण हे-- 
किशलयमिव मुग्धं बन्धना द्विप्रलूनम । 
हृदय कुसुम शोषी दारुणा दीघं शोक: । 
ग्लपयति परिपाणड ज्ञाममस्या: शरीरम, 
शरदिज इव धर्म: केतकी गरभपन्नम्‌॥ 
जिस प्रकार कोमल पल्‍लव टहनी से टूटकर कमज़ोर ओर पीला पड़ 
जाता है, उसी प्रकार राजवंश-वृत्ष से विच्युत और भगवान्‌ रामचन्द्र से 
परित्यक्त होकर सीताजी दुरबंल और पाण्डुवर्ण दो गई हैं । विकराल 
वियोग-वन्हि उनके कलित कलेवर की कोमल कलिका और द्वदय के 
सुन्दर प्रयसून के उसी प्रकार कुलसाए डालती हे; जिस प्रकार क्वार की 
कड़ी धूप केतकी के कोमल पत्तों के सुखा देती हे । 


यहाँ भी वियेगजन्य दुबंशता और पाणडुता वर्णित होने से ग्लानि 
संचारी हे । 


( रे४६. ) 


शंका 


स्वयं अपनी या अ्रन्य किसी की दुर्नीति एवं क्रूरता द्वारा होने वाली 
इष्ट-हनि के साच-विचार को शंका कहते हैं । 


साहित्यदपंणकार के मत में श्रन्य की क्रूरता तथा अपने दोषादि से 
अपने अनिष्ट की ऊहा का नाम शंका है | 


सामान्यतः इसी बात केा यों कह सकते हैं, कि जब किसी के मन में 
इष्ट-हानि की आशडह्ू से संकल्प-विकल्प उठते हैं, तो उस अवस्था का नाम 
शड्भा हे | अमुक दंगे में मेरे अमुक सम्बन्धी या मित्र को कुछ हानिन 
पहुँच जाय. अमुक नदी की बाढ़ के कारण मेरा अ्रम॒ुक उद्यान नष्ट न 
हो जाय, अ्मुक काय॑ से कहीं मरी लोक में निन्दा न हो, इत्यादि बातों 
के सेच-विचार को शंका कहते हैं । 
नाटथशास्त्रकार के मत से धमे, समाज या राज्य के नियमोल्लंघन 
करने पर उत्पन्न हुए. सन्देह का नाम शंका है । 
विवणता, स्व॒र-मंग, कम्प, इधर-उधर ताकना, मुंह सूखना, बातचीत 
करने में श्रटक जाना आदि शझ्ढा के लक्षण हैं । 
महाकाव पद्माकर के निम्नलिखित छुन्द में शझ्ढकां का बड़ा सुन्दर 
उदाहरण मिलता है | 
मोहि लखि सेवत बिथोरिगो सु बैनी बनी, 
तोरिगो हिये को हार छोरिगो सुगेया केा। 
कहे 'पदमाकर' त्यों घोरिगो घनेरों दुख, 
बोरिगो बिसासी श्राज लाज ही की नेया के । 
अहित अनेसे ऐसे। कौन उपहास यहे, 
सोचत खरी में परी जोवत जुन्हैया के। 
बूमेंगे चबैया तब के हों कद्दा दैया इत-- 
पारिगो के मेया मेरी सेज पे कन्हेया के ॥। 


( दरेश० ) 


अरी में तो सो रही थी, सेाते ही सेते में यह क्‍या हे! गया। ऐसा 
कोन सा ब्रिमासी” आया जो बात की बात में यह सब कौतुक कर गया। 
आह ! उसने ते मेरी लाज की नेया ही डुबो दी। हाय मगवान्‌, अरब 
कोई कुछ पूछेगा ते में क्या कहूँगी, केसे श्रपनी सफ़ाई दूँगी, बड़े अस- 
मज्जस में पड़ी हूँ । विकट समस्या उपस्थित है । बहुतेरा सेचती हूँ, 
परन्तु के'ई हल समम में नहीं आता । 


उपयक्त छुन्द में चबाव या लोकापवाद के भय से नायिका के मन 
में माँति-भाँति के संकल्प विकल्प और सन्देहों का उठना ही शंका 
संचारी है। 

देवजी ने भी इस विषय में बहुत सुन्दर सबेया लिखा है। वे 
कहते हैं -- 

या डर हों घर ही में रहों कवि दिव? दुरो नहिं दूतिनि के दुख | 

काहू की बात कही न सुनी मन माद्िं बिसारि दिये सिगरों सुख । 

भीर में भूले भए. सखी में जब ते जदुराई कौ ओर किये रुख | 

मोहि भट्ट तब तें निसि द्योस चितोत ही जात चबाइन के मुख ॥ 


अरी, उस दिन उस भीड़ में भूल से में श्रीकृष्ण की श्लोर देख क्‍या 
उठी, मैंने एक श्राफ़त सिर ले ली। क्या बताऊँ, इसी बात का सब स्रियाँ 
चारों ओर चबाव करने लगी हैं | कोई कुछ रागती हे और काई कुछ 
अलापती हे | यदुनाथ की श्नोर मेरी आँखें कया उठ गईं, माने कुल-कानि 
ही नष्ट हे गई । दूतियों की दशा ते तू जानती ही है । इन्हें तो बात का 
बतंगड़ और पर का कोआ बनाना खूब आता है। क्या करूँ, इनके डरके 
मारे घरसे बाहर नहीं निकलती । न किसी की सुनती हूँ, न अपनी कहती 
हूँ । किसी से मिलना-जुलना ही नहीं होता | सारा सुख नष्ट हो गया है । 

यहाँ भी दूतियों की दुर्नीति-जन्य लोक-निन्दा के भय से हृदय में तरह- 
तरह की भावोद्धावनाएँ द्वाना शंका संचारी है । 


इस विषय में संस्कृत का भी एक उदाहरण श्रागे दिया जाता है | 


( २४१ ) 


प्राणेशेन प्रहित नख्रेष्वंगकेषु क्षपान्ते, 
जातातड्डा रचयति चिर॑ चन्दनालेपनानि | 
धत्ते लाक्षामसकृदघरे दत्त दन्‍्तावधाते, 
क्ञामाज्लीय॑चकितमभितश्रत्षुषी विक्षिपन्ती ॥ 
रति की समाप्ति पर प्रातःकाल शैया से उठते ही, बेचारी नायिका 
अपने शरीर पर प्रियतम द्वारा किये नखक्षत और अधर- बिम्ब पर बने दन्त- 
क्षत देखकर तिलमिला उठती है। वह सोचती हैं कि कहीं इन विलास- 
चिन्हों से कामक्रीड़ा की सारी कलई न खुल जाय, अ्रतः चारों ओर 
चकित च्तुश्रों से देखती हुई, नख-द्षत के स्थान पर चन्दन पोतती और 
ओष्ठों पर अंकित दन्‍्तक्षतों पर लाजक्षाराग (आ्राधुनिक युग का 'लिपस्टिक?) 
लगाती है | 
असूया 
ईर्ष्या या ओद्धत्य के कारण किसी की गुणगरिमा एवं समृद्धि को 
सहन न कर, उसको निन्दा करना अ्रथवा उसे हानि पहुँचाने की चेष्टा 
करना असूया कह्ाता हे । 
दोष-कथन, अवशा, भ्कुटी भंग, तिरस्कार, क्रोध श्रादि इसके 
अनुभाव हें । 
प्माकरजी ने श्रसूया का लक्षण निम्न लिखे प्रकार किया है । 
सहि न सके सुख और को यहे अ्सूया जान । 
क्रोध, गव, दुख दुष्टता ये स्वभाव अनुमान ॥ 


महाकवि देव के मत में श्रसूया का लक्षण इस प्रकार हे-- 
क्रोध, कुबोध, बिरोध ते सह्दे न पर अधिकार | 
उपजै जहूँ जिय दुष्टता सु असूया श्रवधार ॥ 


पद्माकर तथा देव ने क्रोध, कुबोध, विरोध गव, दुष्टता आरादि से 
असूया की उत्पत्ति मानी है, परन्तु ईर्ष्या ग्रोर श्रोद्धत्य में इन सब बातों 
का समावेश हो जाता है, श्रतएव इनका अ्रलग गिनाने की आवश्यकता 


(६ ३४२ ) 


प्रतीत नहीं होती । ईष्यालु लोग अपनी ईष्यां के कारण न जाने क्या-क्या 
उपद्रव कर डालते हैं। उनमें बोध श्र प्रेम का ते लेश भी नहीं रहता । 
संसार का इतिहास साक्षी हे कि ईष्या-राक्षसी के कारण बड़े-बड़े भयड्भर 
अनथथ हे! गए। दूर जाने की ज़रूरत नहीं, आज भी घर-घर में ईर्ष्या का 
आपधिपत्य स्थापित हे | भाई-भाई ईष्यांलुता की अ्रप्मि में भस्मीथूत हो रहे 
हैं। सारी जन-समुदाय ईर्ष्या के कारण वेर-विरोध का केन्द्र बना हुआ 
हे। कहीं भी शान्ति दिखाई नहीं देती। देश की दुगति का मुख्य 
कारण ईर्ष्या ही है , जहाँ फेई किसी का उत्कष देख ही न सके, वहाँ 
का क्‍या कहना । 

देखिए, असूया के उदाहरण में नीचे लिखा सवैया कितना उत्कृष्ट है ॥ 


क्यों घनश्याम इती दुचिती नक मो तन दीठि करो सुखदाई। 
कंज गुलाबहु की अरुणाई ले लाल गुलालहुते सरसाई। 
नेनन पे श्रति घेर घना धनि है रंगरेजिनि की चतुराई। 
साँची कहो इन आँखिन की तुम दीनी कद्दा नन्दलाल रंगाई॥ 


सपत्नी के यहाँ रात्रि-जागरण के कारण नायक की लाल हुई श्राँखे 
देखकर नायिका पूछुती हे--क्‍्यों, इधर-उधर क्‍या ताकते हो, ज़रा मेरी ओर 
ते दखेा, नेक आँखें ता मिलाओ | आज तुम्हारी श्रोंखें तो इतनी 
लाल हो रही हैं कि उन्होंने कंज, गुलाब ओर गुलाल के भी मात कर 
दिया है | श्रजी वह कोन चतुर रंगरेजिन मिल गई, जिसने तुम्हारी श्रोंखों 
को इतना रंग दे दिया | ठीक-ठीक बताओ, आँखों की इस रंगाई के लिए 
तुम्हें क्‍या देना पढ़ा है । 

रति-सूचक चिन्हों को देखकर नायिका नायक के सपत्नी के यहाँ जाने 
की बात ताड़ गई। भला उसे नायक का सौत के यहाँ जाना केसे सह्य हो 
सकता था। श्रतएव उसने उसे मीठी चुटकी लेकर डाट बता ही तो दी, 
और जता दिया कि में तुम्हारी उनींदी लाल श्राँखें देखकर सारा रहस्य 
समभ गई हूँ । 


( डेषई ) 


यहाँ नायिका के नायक का सपत्नी के घर जाना सहन न होना ही 
असूया है । 
जेसे का तैसेो मिले तबहीं जुरत सनेह। 
ज्यों त्रिमंग तन श्याम के कुटिल कूबरी देह॥ 
>< >८ >< 
ऊधो जी सहि जात नहिं हम सों श्रति उपहास। 
जाकी हम दासी सत्रे से दासी का दास॥ 
उपयुक्त दोनों दोहे असूया के कैसे सुन्दर उदाहरण हैं। जब जैसे 
को तेसा मिल जाता है, तभी सच्चा प्रेम स्थापित होता है। जिस प्रकार 
भीकृष्ण चन्द्रजी त्रिभंगी श्रर्थात्‌ तीन जगह से भुके हुए हैं, उसी प्रकार 
उनकी प्रेयसी कुब्जा का शरीर भी टेढ़ामेढ़ा है। खूब जुगल जोड़ी 
बनी दे । 
दूसरे दोहे में भो गोपियाँ ऊधौ को उलाहना देती हुई कहती हैं-- 
उद्धवजी, हम सब जिन कृष्णचन्द्र को दासी हैं, वे ही कृष्ण प्रेमासक्ति 
के कारण कंस की दासी कुब्जा के दास बने हुए हैं | हमसे इस प्रकार का 
झपमान नहीं सहा जाता | 
उक्त दोहों में ईष्या के कारण कृष्ण और कुब्जा का प्रेम सहन न कर 
गोपियों ने बड़ी वाक्‍्चातुरी से कुब्जा की निन्दा की है। यही असूया 
संचारी हे । 
पद्माकरजी का भी अश्रसूया विषयक निम्नलिखित उदाहरण पढने 
लायक है--.. 
ग्रावत उसासी दुख लागे और हॉँसी सुन, 
दासी उर लाय कहो को नहीं दहा कियेा। 
कहे 'पदमाकर! हमारे जान ऊधौ उन, 
तात को न मात को न भ्रात को कहा कियो । 
कूबरी कंकालिनी कलंकिनी कुरूप तेसी. 


चेटकनि चेरी ताके चित्त को चहा किये। 
हि० न०--२३ 


( रै४४ ) 


राधिका की कहवत कद्दि दीजो मोहन सों, 
रसिक शिरोमणि कहाय धां कहा किये ॥ 
भर ८ ८ 


एक श्लोक में असूया का उदाहरण निम्न लिखे प्रकार दिया गया है । 
अथ तत्न पाणड-तनयेन 
सदसि विद्वितं मधुद्विषः । 
मानमसहत न चेदिपति 
पर वृद्धि मत्सरि मनोहि मानिनाम # 


पाण्डु-पुत्र युधिष्ठिर ने, परम प्रतापशाली आनन्द कन्द भगवान्‌ कृष्ण- 
चन्द्र के प्रचणड प्रताप की प्रशंसा करते हुए, उनका सब्व-प्रथम पूजन 
किया. ते यह बात दुर॒मिमानो शिश्ुपाल के सह्य न हुई | वह अ्रपनी 
ईरष्यालुतापूर्ण भनेबृत्ति के कारण भरी सभा में श्रीकृष्ण के प्रति श्रन्गल 
और अपमानजनक - बातें बकने लगा। उस समय उसने श्रपने दूषित 
व्यवहार से--'* कुटिल स्वभाव नीच करतूती, देखि न सकहिं पराइ 
बिभूती ”” इस लोकोक्ति को अक्वरशः सत्य सिद्ध कर दिया। वास्तव में 
दुरभिम;नी लोग अपनी श्रधमता श्रौर कुटिलता के कारण दुसरों की समृद्धि 
नहीं देख सकते । 


मद 

बेहोशी श्रोर हर्षाधिक्य सहित क्ोभयुक्त अ्रवस्था का नाम मद है। 
इसकी उत्पत्ति मादक द्रव्यों के सेवन से होती है | रूप, यौवन, प्रभुता या 
घन का गव भी आदमी को मदमत्त कर देता है। 

प्रलाप, ऊटपटाँग व्यवहार, हँसना, बड़बड़ाना, रोने लगना श्रादि 
इसके लक्षण हैं । / 

नाट्यशासत्रकार के मत में मद्य पान करने से मद की उत्पत्ति होती 
दहै। उन्होंने मद के तीन भेद माने हैं -- तरुण, मध्यम और अधम । उनकी 


( ३४४ ) 


सम्मति में मद के श्रनुभाव गाना, रोना, दँसना, कठोर शब्द बोलना, सोना 
स्यादि हैं। उत्तम प्रकृत का व्यक्ति मद-मत्त देकर सेता है, मध्यम 
प्रकृति का हँसता और गाता है, एवं श्रधम प्रकृति का कढोर वाणी बोलता 
तथा रोता हे । 

उत्तम प्रकृति व्यक्ति तरुण मद की अवस्था में मन्द-मन्द मुस्कराता 
है। यदि गाता है. ते ढीक ढंग से । उसका मन दर्षित होता हे। वह 
कभी-कभी बढ़ी अटठपटो बात कह जाता है। उसकी प्रकृति सुकुमार और 
चाल उतावली हे। जाती है । 

मध्यम प्रकृति व्यक्ति मध्य मद की दशा में लड़खड़ाता हुआ चलता 
है। उसके नेत्र रक्त देकर मिचने लगते हैं श्रोर हाथ शियिल दे। जाते हैं । 

श्रधम प्रकृति व्यक्ति श्रधम मद के कारण क़े करता है, उसे बार- 
बार हिचकियाँ श्र उबकाइयाँ श्राती हैं, उसकी स्मरण-शक्ति नष्ट हो 
जाती है, जीम पर काँटे से जम जाते हैं। वह बार-बार थूकता और मुंह 
में से कफ़ निकाल कर घुणित चेष्टा करता हे । 


मद के उदादरग भें नीचे लिखा दोहा कितना सुन्दर दे । 
छुकि रसाल सोरभ सने मधुर माधुरी गन्ध। 
ठौर-ठौर भोरत भपत भोर भोर मधु अन्ध ॥ 
उपयंक्त दोहे में, पुष्प-रस के मद से मतवाले हुए भौरों के कुण्ड का 
भकोरना-भपना श्रादि मद संचारी हे । 


औ्रौर भी देखिये--- 
घन मद योवन मद महा प्रभुता को मंद पाय। 
तापर मद को मद जिन्हें को तिन सके सिखाय ॥ 
जो लोग घन, यौवन और प्रभुता के मद में मस हो रहे हैं, वे यदि 
शराब के नशे में भी चूर दे जाये, तब तो गिलोय के नीम पर चढ़ जाने 
की उक्ति ही चरिता्थ हो जाती है। ऐसे मदमउठों को समभका-बुका कर 


( २४६ ) 


दुराचारों से बचाने की किसमें शक्ति हे ।मद--चाहे वह किसी प्रकार 
का क्‍यों न दा--बड़े-बढ़े अश्रत्याचारों का कारण हुआ है। इसके द्वारा 
जितने भयंकर अत्याचार हुए और हो रहे हैं, वे किससे छिपे हें। 
नरसंहारकारक महायुद्धों की जड़ में मद का पूर्ण प्रभाव हेता है। मदो- 
न्मत्तता में विवेक का नष्ट दो जाना स्वाभाविक ही हे। जब बुद्धि की 
विमलता ही नष्ट दा गई तब शेष ही क्या रहा ? 


पद्माकरजी की नीचे लिखी मद विषयक उक्ति पढ़ने लायक हैं, देखिए.-.- 


पूस निसा में सुबारुणी ले बनि बैठे दुहूँ मद के मतवाले | 
त्यौं * पदमाकर ' कूमें कुके घन धूमि रचें रस रंग रसाले | 
सीत को जीति श्रभीत भए; सु गनें न सखी कछ्लु साल दुसाले । 
छाकि छुका छुबि ही को पिये मद नेनन के किये प्रेम के प्याल्ते ॥ 


अब तक ते लेग मदिरा-पान के ही जानते ये, परन्तु पद्माकर ने नेत्रों 
के प्यालों द्वारा रूप-सुधा-पान करा दिया, जिसका नशा साधारण मद से 
बहुत बढ़-चढ़ कर होता हे । 

कविवर बैनी की भी इस विषय की नीचे लिखे उक्ति बड़ी सुन्दर है । 


तैसे लसे रंग इंगुर से श्रंग तेैसी दोऊ श्रखियाँ रतनारी। 
तैसे पके कुंदुरल सम श्रोढ उरोज दोऊ उमैँगे छुबि न्यारी । 
. तैसे ही चज्चल ' बैनी प्रबीन ? तू श्रञ्चल दे वृषभानु दुलारी। 
जोबन रुप की माती सदा मधुपान किये ते भई अ्रति प्यारी॥ 
बैनी कवि ने योवन ओर रूप की मदमाती नायिका को मद के प्याले 
पिलाकर और भी श्रधिक उन्मत्त कर दिया | एक और एक ग्यारह हो 
गए, मादकता में चार चाँद लग गए | 

( ्र् अर 

आगे लिखे श्लोक में मद संचारी का उदाहरण देते हुए मदमाती 
रमणियों की चहल-पहल का कैसा स्वाभाविक वर्णन किया गया है । 
देखिए--- 


( ३४७ ) 


प्रातिमं बत्रिसरकेण गतानां, वक्र वाक्य रचना रमणीय। | 
गूढ यूचित रहस्य सहातः, सुश्नुाँ प्रवद्दते परिद्ास: ॥ 
शराब के दोर पर दौर चलने लगे, शियिलता-जन्य जड़ता का नाश 
हुआ, तरुणियों के शरीर और मन पर शराब की शरारत दिखाई देने 
लगी, मद-मत्तता का साम्राज्य स्थारित हा गया। फिर क्‍या था, प्रसुस्त 
प्रतिभा में स्कुरणा पेदा हुई, नोंक-मोंक श्रोर छेड़-छाड़ से हँती का फब्वारा 
फूट निकला । इस प्रकार इशारे ही इशारों में न जाने कितने गूढ़ रहस्य 
खुल गए । 
श्रप 
अधिक या शीघ्रता पूवक कार्य करने, लम्बा रास्ता तय करने ए. 
व्यायाम अथवा रति-कर्म से जो थकावट श्राती, या सन्तोष सहित ग्रनिच्छा 
द्वाती है, उसे श्रम कहते हैं । 
साँस फूलना, नींद श्राना, पसीना निकलना, अ्रंगों में शिथिलता दाना 
झादि श्रम के अनुभाव हैं । 
महाकवि पईद्माकर ओर देव ने श्रम के लक्धण क्रमशः इस प्रकार 
किए, हैं- 
अति रति श्रति गति ते जहाँ सु अति खेद सरसाय | 
से सम तहाँ सुभाशये स्वेद उसास मनाय || 
>< ५ >< 
अति रत श्रति गति ते जहाँ उपजे अति तन खेद । 
से स्तम तामें जानिए निरसहता अश्ररू स्वेद ॥ 
उपयक्त दोनों मद्दाकवियों के लक्षणों श्रौर हमारे लक्षण में जो थोड़ा 
अन्तर हे, वद स्पष्ट हे । 
भम के उदादरण में निम्नलिखित सवेया पढ़िये--- 
पुरते निकसी रघुवीर बधू धरि घीर हिये मग में डग ढे। 
भलकी भरि भाल कनी जल की पट सू्खि गये अधराधर ये। 


( शेभट ) 


फिर बूकति है चलिबोब किते पिय परणंकुटी करिहो कित हे । 
तिय की लखि श्रातु रता पिय की श्रेंखियाँ अति चारु चलीं जल च्वे। 


सीताजी वन को जा रही हैं। अ्रभी पुर से निकल कर कुछ दी क़ृदम 
चली होंगी, कि उनके माथे पर पसीना भलकने लगा और शओऔ ओडठों पर कुछ 
खुश्की-सी आ गई । वह बड़े भोले भाव से रामचन्द्रजी से पूछने लगीं-- 
प्राणनाथ, श्रभी कितना ओर चलना है, कहाँ कुटी बनाइयेगा ! मार्ग-श्रम 
से थकी हुई जनकनन्दिनी की ऐसी बातें सुनकर रामचन्द्रजी की श्राँखों 
से जल-घारा बहने लगी । 
भ्रम के उदाहरण में द्विजदेवजी का नीचे लिखा छुन्द भी बहुत 
अ्रच्छा हे--. 
सीस फूल सरकि सुहावने ललाट लाग्योा, 
ह लम्बी लटे लटकि परी हैं कटि छाम पर । 
* द्विजदेव ' त्यों ही कछु हुलसि हिये तें देलि, 
फैलि गये। राग मुस्व पंकन ललाम पर | 
स्वेदसीकरनि सराबोर हो सुरंग चीर, 
लाल दुति दे रही सु दीरान के दाम पर। 
केलि रस साने दोऊ थक्तित बिकाने तऊ, 
हाँ की दाति कुमक सु ना की धूमधाम पर | 
ऊपर के छुन्द में रति-जन्य श्रम से हुई थकावट का कैसा स्वाभाविक 
वर्णन है। वेश-विन्यास का अ्रस्तव्यध्त दा जाना, लम्बी लठों का च्षीण 
कटि पर बढ़ेंगे तोर से इधर-उधर फहराते फिरना, पस्तीना से सारा शरीर 
सराबोर देकर उससे वस्त्र भीग जाना आदि वर्णन श्रम संचारी हे । 


महाकवि पद्माकर का भ्रम सम्बन्धी उदाहरण बड़े मार्के का है, उसे 
भी देखिए-- 


के रति रंग थकी थिर हे पर्यिंक पै प्यारी परी सुख पाय कै | 
त्यों 'पदमाकर” स्वेद के बुन्द रद्दे मुकुताइल से तन छाय के। 


( रे६६ ) 


बिन्दु रचे मेंहदी के लें कर तापर यों रह्ौ आ्रानन शआ्आाय कै । 
इन्दु मनों अरबिन्द पै राजत इन्द्रबधून के बृन्द बिछाय के ॥ 


उपयक्त सवैया में रति-रंग से थककर, पयड् पर पड़ी हुई नायिका 
का वर्णन हे | सारे शरीर पर पसीने की बँदे मोतियों की तरह मिलमिला 
रही हैं | नायिका ने मेंहदी की टिकुलियों से रचे हुए हाथ पर श्रपना मह 
रख लिया है | प्माकरजी कहते हैं, उस समय ऐसा मालूम होता है 
मानो मुखरूपी चन्द्रमा मेंहदी की बूदों रूप इन्द्र वधूटियों के वृन्द कर रूपी 
कमल पर बिछाकर विराजमान दै। रहा है। 'इन्दु मनों अरबिन्द पै राजत 
इन्द्रबधून के बृन्द बिछाय के ? कैसी अद्भुत सूक और कितनी विचित्र 
कल्पना हे । इसने सवैये में जान डाल दी हे । 
निम्नलिखित श्लोक में भ्रम का कैसा सुन्दर उदाहरण दिया गया है, 
मुलाहिजा कीजिए--- द 
सद्यः: पुरी परिसरे च शिरीषमृद्धी, 
गत्वा जवात्रिचतुराणि पदानि सीता । 
ग़न्तव्यमस्ति कियदित्यसकृदूब्र॒वाणा, 
रामाश्रण: कृतवती प्रथमावतार म्‌।॥ 
इसका डिन्दी पद्मात्मक अनुवाद ( घर ते निकसी रघुबीर बधू ) पीछे 
दिया जा चुका है । 


आलस्य 


झधिक जागने, अधिक काम करने, भूख, प्यास, खेद, व्याधि, 
निराशा, तृप्ति, श्रथवा समय हे।ते हुए भी अ्कमंश्यताजनित निरुत्साह के 
कारण शरीर में जो शिथिलता ञ्राती है, उसे आलस्य कहते हैं। गर्भावस्‍था 
अथवा वियागावस्था में भी आलस्य की अनुभूति देती है । 


सेते, पड़े या बैठे रहना, जभाई अ्रथवा श्रँगड़ाइयाँ लेना श्रादि इसके 
लक्षण हैं । 


६ रे६० ) 


प्माकरजी ने नीचे लिखे कवित्त में आलस्य का कैसा सुन्दर चित्र 
खींचा है, जो देखते ही बनता है--- 


गोकुल में गोपिन गोविन्द संग खेली फाग -- 

राति भर प्रात समे ऐसी छुवि छुलकें । 
देह भरी आलस कपोल रस रोरी भरे, 

नींद भरे नयन कछुक भर्पे भलकें। 
लाली भरे श्रधर बहाली भरे मुख बर, 

कवि 'पदमाकर! बिलोकैे कोन सलके। 
भाग भरे लाल ओ्रौ' सुहाग भरे सब अंग, 

पीक भरी पलकें श्रबीर भरी अलकें॥ 


गोकुल में गोविन्द ने गोपियों के साथ खूब देली खेली, बड़ी 'धमा- 
चौकड़ी' रही | होली के हुदंग से हुरिहारियाँ इतनी थक गईं कि सब पर 
आलत्य ने श्रद्डा जमा लिया | ऊँधघा नींदी का बोल बाला होने लगा । 
गोपियों की उन अँगड़ाइयों ओर आँखों की कपाभपी में भी श्रद्‌भुत छवि 
दिखाई देती थी | उनका श्रलसाया हुआ शरीर भी बढ़ा सुन्दर प्रतीत 
होता था । 

महाकवि देव की भी श्रालस्य विषयक निम्नलिखित उक्ति पढ़ने 
लायक हे । 


ऊधो श्राए ऊधो श्राए, हरि के सँदेसे लाए, 

सुनि गोपी-गोप घाए धीर न धरत हैं। 
बौरी सम दौरीं उठि भारी लॉं' भ्रमति मति, 

गनति न जानो गुरु लोगन दुरत हैं। 
हे गई बिकल बाल बालम बियोग भरी, 

जोग की सुनत बात गात ज्याँ जरत हैं। 


>> पाहपन»ब»तः्ना 2 वेलाटाा-अ्पाामड बम पनपपनन कस सनम. 3॥+ वा मा +सकान “मन 5९८४-५० कान र+ मा. 


१--- पौरी को ' पाठ भी मिखता है। 


( २६१ ) 


भारे भए भूषन सेभारे न परत अंग 
श्रांगे के! धरत पाँव पाछे को परत हैं॥ 


ऊधोजी के आते ही गोपियाँ उनसे हरि-श्रीकृष्णजी का सेदेसा सुनने 
के लिए बड़ी विकलतापूबंक दौड़ीं। उस समय वे इतनी पागल हेगई , 
कि उन्हें अपने बड़े-बूढों का भी ध्यान न रहा | परन्तु जब उन्हें उद्धवजी 
से 'जोग साधने' का संदेसा मिला, तो उसे सुनकर वे ऐसी उत्साहहीन 
हो गदट माने काला साँप सँघ गया दा । फिर तो भूषणों की कोन करे, 
उन्हें श्रपना शरीर संभालना भी मुश्किल दोगया। घर वापस झाने में 
भी कठिनाई प्रतीत दाने लगी | वे श्रागे चलना चाहती हैं, परन्तु पेर पीछे 
को पड़ते हैं | यहाँ पर खेद एवं निराशा-जन्य आलस्य संचारी ६ । 
आलस्‍स्य संचारी के उदाहरण में नीचे लिखे कुछ दोदे भी पढ़ने 
लायक हें | 
निशि जागी लागी हिये प्रीति उमंगत प्रात । 
उठि न सकत श्रालस बलित सहज सलोौने गात ॥ 
> >< >< 
पिय सों कथा बिदेस की सुनत जगी सब रात । 
अब कछु अधिक न कह्ठि सकों फिरि करिहों सखि बात ॥ 
>< »< 
नीठ नीठि उठि बैठि हू प्यो प्यारी परभात। 
दोऊ नींद भरे खरें गर॑ लागि गिरि बात ॥ 
)< >< >< 
संस्कृत के।नीचे लिखे पय में ग्रालस्य संचारी का केसा सुन्दर उदाहरण 
दिया गया है, देखिए-. 
न तथा भूषयत्यड्व न तथा भाषते सखीम । 
जम्मते मुहुरासीना बाला गर्भ-भरालसा ॥ 


( रे६२ ) 


गर्भिणी बाला गर्भ-भारजनित आलस्य के कारण इतनी शिथिल दे 
गई है, कि जहाँ बैठ जाती है, वहाँ से उठने को उसका जो ही नहीं 
चाहता | और तो ओर पहले की तरह न तो वह नयनाभिराम वज्ञाभूषणों 
द्वारा अपने अंग को अलंकृत करती है और न उसे सखियों में बैठकर 
हास-विलास करना ही सुद्दाता है । जहाँ जम गई वहीं बैठी-बैठी जेंभाइयाँ 
और अँगडाइयोँ लेती रहती है । 


दीनता ( देन्य ) 


संकटपूर्ण परिस्थिति अ्रथवा इृष्ट-हानि या अनिष्ट की प्राप्ति के कारण 
दुःख दाने या मन से ओ्ओजस्विता नष्ट दवा जाने को दीनता कहते हैं । 


चाटुकारिता, श्रात्मसम्मान हीनता, साहस की कमी, मलिनता आदि 
इसके लक्षण हें । 


मद्दाकवि देव ने दौनता संचारी का केसा अच्छा उदाहरण 
दिया है -- 


रैनि दिन नेन देऊ मास ऋतु पावस के, 
बरसत बड़े-बड़े बुँदन सों भरि ये। 
मैन सर जोर मोर पवन भककोरन सों, 
आई हे उमंग छिति छाती निरभरि ये। 
टूटी नेह नाव छुटो स्थाम सों सनेह गुनु, 
तातें कव देव कहें कैसे घीर धरि ये | 
बिरह नदी अपार बूड़ति हाँ मेंकधार, 
ऊधो अब एक बार फेरि पार करिये॥ 
अपार विरह-नदी के प्रबल प्रवाह में टूटी नेह-नाव को बूड़ने से बचाने 
के लिए, विरह-बिधुरा गोपियाँ ऊधौजी की भिन्नत- खुशामद कर रही हैं| 
“ऊधौजी जैसे बने वैसे एक बार हमारी नेह-नाव के खेकर पार कर 
दीजिये, बड़ा उपकार द्वागा |” 


( रेश३ ) 


इस विषय में पद्माकरजी की उक्ति भी बड़ी सुन्दर है। देखिए--- 
के गिनती सी इती बिनती दिन तीनक लॉ बहु बार सुनाई। 
यों पदगाकर! मोह मया करि ताहि दया न दुखीन की आई । 
मेरो हराहर हार भया अब ताहि उतारि उन्हें न दिखाई। 
ल्‍्याई न तू कबहूँ बनमाल गोपाल की वा पहरी पहिराई ॥ 


झरी सखी, तुक से बार-बार मेंने तविनती की है, कि मुके नई माला 
नहीं चाहिये, मुझे तो तू गोपाल की पहनी-पहनाई माला लादे | वही 
मेरे गले की शोभा बढ़ावेगी, उसी से में कृतार्थ दा जाऊँगी । मेरे कद्दां 
भाग्य जो गोपाल के गले में पढ़ी-पढ़ाई माला मुमे पहनने को मिले । 


दीनता के सम्बन्ध में नीचे लिखा पद्म भी बहुत ही सुन्दर है-- 

ढूब रही नेया मेकधार में खिवैया बिन, 

छाये घटाटोप घन संकट निबारोगे। 
भारी भारी भ्रमर बने हैं ऋुर काल कुण्ड, 

मारक बिदारक तरगन ते तारोगे। 
मका के फकारे ककफोर रहे बार बार, 

बैरी जल जन्तुन के बदन बिदारोगे | 
हाय में अनाथ हाथ कोन को गहूँ दे नाथ, 

तुम ही दे। साथ नाथ तुम ही उबारोगे ॥ 


अ्रात भक्त की कैसी करुण पुकार है | वह व्यथाओं से व्याकुल देकर 
विधा भगवान्‌ के दरबार में विनय करता है--' दीनबर्धों मुझे चारों 
ग्रेर से संकटों ने घेर लिया है, मुक्ति का कोई उपाय नहीं सूकता। 
गप अ्रनाथों के नाथ हैं, में अ्रापकी शरण में आरा पड़ा हूँ, मेरा उद्धार 
गैजिये ।!! 


कृविवर नरोत्तमदास ने भी दीनता का बड़ा सुन्दर चित्र थींचा है। 
' सुदामा की स्त्री के मुख से नि्धनता का वर्णन कराते हुए कहते हैं-. 


( रे६ं४ ) 


कोदों सववाँ जुरता भरि पेट न चाहति हाँ दधि दूध मिठौती। 
सीत ब्ितीतत जो सिसियात तो हो हृठती पै तुम्हें न हृढौती। 
जो जनती न द्िव्‌ हरि से तो में काहे को द्वारिके पैलि पढौती | 
या घर तें कबहू न गये पिय टूठो तयो अर फूदी कढौती ॥ 


पतिदेव, मुझे दही-दुध श्रोर मिठाई नहीं चाहिए, पर पेट भरने के लिए 
कुछु दाने तो दरकार होंगे ही; परन्तु इमारे घर में तो कुछ भी नहीं है । 
सारे भाँट-भठके रीते पड़े हैं । श्रगर विना चिथड़ों के सिरसराते हुए भी 
शीत व्यतीत हो जाता, तब भी में कुछ न कहती; परन्तु दुरन्त पूरा उदर- 
दरी भरने के लिए तो कुछु न कुछु चाहिए ही | इसीलिए तुम से द्वारका 
जाने के हठ कर रही हूँ । श्रच्छा हे, तुम्हारे सखा ( श्रीकृष्ण ) हमारा 
दुःख दुर कर दें | 
दीनता संचारी के सम्बन्ध में नीचे लिखे दोहे भी द्रष्टव्य हैं-- 
मुख मलीन तन छीन छुवि परी सेज पर दीन। 
लेत क्‍यों न सुधि साँवरे नेह्ी निपट नवीन॥ 
भर >८ >< 
जब ते 'पदुमन” प्रभु गए ब्रज तजि यदुकुल माहिं । 
सारी ब्रजनारी मलिन सारी पलट नाहिं॥ 
>< >< > 
एक और भी दोहा देखिए--- 
द अब न धघीर धारत बनत सुरत बिसारी कन्त। 
पिक पापी पीकन लगे बगरयौ बाग बसन्‍्त॥ 
उपयुक्त दोहे में पति द्वारा विस्मृत होने पर, नायिका का जो निराशा- 
अन्य दुःसह दुःख हुआ हे, वद्दी दीनता संचारी है | 
महाकवि 'शंकर' का दीनता विषयक आगे लिखा उदाहरण केसा 
अच्छा दे-.. 


( २१६४ ) 


कर कोप जरा मन मार चुकी बलहीन सरोग कलेवर है। 
परिवार घना. धन पास नहीं भुजभम्म दरिद्र-भरा घर है। 
सब ठौर न आदर मान मिले मिलता अपमान-अ्ना दर हे । 
मुझ दीन अकिज्चन की सुधि ले सुख दे प्रभु तू यदि शंकर है || 


२९ 2५ ह >< 


निम्नलिखित श्लोक में दीनता का चित्र कैसे करण शब्दों में खींचा 
गया है, देखिए-- 
वृद्धोउन्घ: पतिरेष मश्जक गतः स्थूणावशेषं गहं. 
कालो<भ्यण जलागम: कुशलिनी वत्सस्य वार्तांडपि ने । 
यत्ञात्‌ सझ्चित तैलविन्दुघटिका भग्नेति पर्याकुला, 
दृष्टा गर्भभरालसां निजवधूं श्वश्रू चिरं रोदिति ॥ 


नेत्रान्ध वृद्ध पति टूटी खाट पर पढ़ा हैं, छुप्पर का फूस उड़ गया है, 
केवल उसकी थुनकिया अ्रटकी हुई हे | बरसात सिर पर आ रही है. पुत्र 
परदेश में पड़ा हे, उसकी ऋुशल तक नहीं मिली | जिस हड़िया में थोड़ा- 
सा तेल जोड़-जंगोड़ कर रकखा था, वह भी फूट गई। न खाने का दाना 
है, न ठहरने को ठिकाना | द्वा ! श्राज मेह में भीगते हुए विना दीपक के 
अंधेरी रात कैसे कटेगी, फिर आसन्नप्रसवा पुत्रवधू के देखकर तो मेरे 
सनन्‍्ताप की सीमा ही नहीं रहती । उसके जापे का कोई प्रबन्ध ही नहीं। 
यह कद् कर दुखिया रोती ओर बिलखती है | 

उपयक्त श्लोक के भाव को कविवर सेठ कन्हैयालाल पोद्यार ने 
निम्नलिखित पद में बड़ी सुन्दरता से व्यक्त किया है--- 

कलु शेष रहो घर में न परथो पति खाट पे वृद्ध हे श्रन्ध भयेा। 

सुत को नहिं दाल मिल्यो तब सो जब सों वद ह्वाय बिदेस गये। 

ऋतु पावस बासन हू गये फूटि न तेल परोसिन पास लये। 

लखि आरत गर्भिणी पुत्र बधू दुख सो भरिसासु के आये हिये । 


(६ र६६ ) 


चिन्ता 

इष्ट' की श्रप्राप्ति ओर अनिष्ट की प्राप्ति के कारण उत्पन्न विचार को 
चिन्ता कहते हैं । 

शूत्यता उद्विम्मता, उन्निद्रता, सन्‍्ताप, कृशता, श्वास, वैवग्य, ताप 
आदि इसके लक्षण हें । 

देवजी का चिन्ता संचारी के सम्बन्ध में निम्नलिखित पद्य कितना 
सुन्दर हे | 

जानत नाहिं हरै हरि कोन के ऐसी घों कौन बध्‌ मन भावे। 

मोही सों रूढि के बैठ रद्दे किधों केऊ कहूँ कछू सेघ न पावै। 

बैसिय भाँति भट्ट कबहूँ अब क्‍यों हूँ मिले कहूँ कोऊ मिलावे। 

आ्रॉंसुन मोचति सेचति यों सिगरे दिन कामिनि काग उड़ावे॥ 


किसी सखी की उक्ति है, कि हरि मुझपे ही रूठ गए हें, या उन्हें अरब 
काई भी स्त्री नहीं भाती | श्रथवा उन्होंने किसी अन्य स्त्री से प्रेम कर 
लिया है । में तो यही चाहती हूँ कि वह किसी तरह मुझसे मिल जायें, 
इसी विचार से में श्राँखों मे श्रांसू बहती हुई सारे दिन काग उड़ाती रहती 
हूं। श्र्थात्‌ उनके शुभागमन का शकुन देखा करती हूँ । 
चिन्ता संचारी का दूसरा उदाहरण भी देखिए-- 
भोर ही भुखात हर हैं, कन्द मूल खात है हें, 
दुति कुम्हिलात हो हैं मुख जलजात को | 
प्यादे पग जात हे हैं मग मुरभात हे हैं, 
थकि जैेहें धाम लागे स्थाम कूस गात केा। 
परिढत 'प्रवीन! कहे, धम के धुरीन ऐसे, 
मन में न राख्यो पीन प्रन गख्यों तात के | 


१--हृष्ट पद से साधारणतः जीवन, जन, यशा, शरीर, पुत्र, कक्षत्रादि 
का अहय होता है। 


५ रे६७ ) 


मातु कद कोमल कुमार सुकुमार मोरे-- 
छोना हे हैं सोवत बिछौना करि पात का ॥ 
माता कौशल्या वनवासी राम के कष्टों का विचार करती हुईं कहती 
हैं, थकामोंदा, भूखा-प्यासा मेरा छौना वन में कहीं पत्तों के बिछोने पर 
पढ़ा होगा | यहाँ कोशल्याजी रामचन्द्रजी को इष्ट ( आवश्यक ) वस्तुएं 
न मिलने के कारण जो विचार कर रही हैं वही चिन्ता संचारी है । 
चिन्ता संचारी के उदाहरण में महाकवि पद्माकरजी का नीचे लिखा 
कवित्त कितना सुन्दर है, देखिए--- 
मभिलत भकोर रहे जोवन को जोर रहै, 
समद मरोर रहे सेार रहे तब सों। 
कहे 'पदमाकर! तकेयन के गेह रहे, 
नेहद रहे नेनन न मेह रहे दब सॉ। 
यबाजत सुबैन रहे, उनमद मेन रहे, 
चित में न चेन रहे चातकी के रब सों | 
गेह में न नाथ रहे द्वारे ब्रजनाथ रहे, 
को लॉ मन हाथ रहे साथ रहे सब सों ॥ 
इस उठती हुई जवानी में इतनी सुहवनी ऋतु और उस पर उन्मत्त 
बना देने वाली पपीह्दा की पिउ पिउ पुकार तथा वंशी की सुमधुर ध्वनि ही 
चित्त के चश्नल कर देने के लिए काफ़ी थे ; परन्तु अ्रब घर में प्राशनांथ 
की अनुपस्थिति और मनमोहन का प्रतक्षण द्वार के सामने का रहना ये 
तो और भी गजब दा रहे हैं । भगवान्‌ ही जाने ऐसी विषम अवस्था में 
कब तक मन के काबू में रख सकेगी । 
संस्कृत साहित्य में चिन्ता का उदाहरण इस प्रकार दिया गया है । 
कमलेन विकसितेन च, 
संयेजयन्ती विराधिनं शशिनम्‌ , 
करतल पयत्त मुखी, 
कि चिन्तयसि सुमुखि | भ्रन्तराहित दृदया ! 


( रेष८छ ) 


है सखि, कर कमल पर तैने अपना मुखचन्द्र रव कर महान्‌ श्राश्रय॑- 
ननक काये किया है। विकसित कमल से चन्द्रबिम्ब का संयेग कराकर 
सचमुच तैने श्रनहानी बात कर दिखाई | भला कभी कलाधर ओर उत्पुक्न 
कमल का भी साथ हुआ्ना हे | श्रम्मि में से भी वारि-घाराएं छूटी हैं ! अरी 


बताती क्यों नहीं, इस प्रकार हथेली पर मुंह रख कर तू मन ही मन क्‍या 
सेच रही है । 


मखचन्द्र का कर-कमल से संयेग कराना कैसी सुन्दर सूक हे | मालूम 
हता हे, इसी भाव को लेकर पद्माकरजी ने “ चन्द्र मनों अरबिन्द पे 


राजत इन्द्रबधून के बन्द बिछाय के ” लिखा है। इस कल्पना के लिए 
“'वियों की जितनी प्रशंता की जाय थोड़ी है । 


मोह 


,, दुःख, भ्रम, स्मृति, विस्मय, प्रिय-वियेग, शत्र के प्रतीकार में 
बता, भ्रत्यन्त चिन्ता, श्रत्यन्त आनन्द, देवोपघात आदि कारणों से 
पन्न हुई चित्त को विकलता, अआआन्ति या साधारण पंज्ञाहीनता के मोह 
हते हैं । 
मूर्ला, अश्ञान, भूमि-पतन, चक्कर आना, वस्तु या वस्तुष्थिति के 
ढीक-ठीक न पहचान सकना आदि इसके लक्षण हैं। 

रसतरंगि्णु कार ने “ मुह_वैचित्ये ”' धातु से मोह की व्युपपत्ति देने 

के कारण मोह का अथ कार्याकाय का अ्रविवेक किया है | 


मोह संचारी के उदाहरण में निम्नलिखित सवैया कैसा सुन्दर है । 
दूलद श्री रघुवीर बने दुलही सिय सुन्दर मन्दिर माहीँ। 
गावति गीत सब्र मिलि सुन्दरि बेद जुवा जुरि विप्र पढ़ाहीं। 
राम के रूप निहारति जानकी कंकन के नग की परछाहीं। 
याते सब सुधि भूलि गई कर टेकि रही पल टारति नाहीं ॥ 


( रे६६ ) 


सीताजी अपने कंकण के नग में राम की परछाइईं ( प्रतिबिम्ब ) देख 
कर आनन्दातिरेक के कारण सब सुध-बुध भूल गई | वह हाथ के जहाँ 
का तहाँ रक्‍खे हुए हैं । 

यहाँ पर आनन्द के कारण सुध-बुध भूल जाना ही मोह संचारी है। 

मोदद के उदाहरण में पद्माकरजी का निम्नलिखित पद्य बड़े मार्क 
का हे- 

दोउन के सुधि हे न कछु बुधि वाही बलाई में बूड़ी बद्दी हे | 

सयों 'पदमाकर' दीन मिलाय क्‍यों चंग चबाइन के उमही है। 

अग्राजुद्द की वा दिखा दिख में दसा दोउन की नहिं जात कही है । 

मोहन मोहि रह्यो कब के कब की वह मोहिनी मोहि रही है ।। 


उपयंक्त सवैया में कृष्ण राधिका पर और राधिका कृष्ण पर मोद्वित 
हैं | दोनो के अपने तन-बदन की भी सुधि नहीं हे। एक ही बार की 
देखा-देखी में दोनों की जो दशा हागई है, वह वर्णन नहीं की जा सकती । 
राधाकृष्ण का इस प्रकार परस्पर मोहित होना ही मोद संचारी हे । 

महाकवि देव की भी मोह संचारी विषयक निम्नलिखित उक्ति केसी 
सुन्दर हे- 

झौरो कहा कोऊ बाल बधू हे नया तन जोबन तोहि जनायो। 

तेरेई नैेन बड़े त्र- में जिन सों बस कीनो जसोमति जाये । 

डोलतु हे मनो मोल लियो कवि “'देव' न बोलत बोल बुलाया । 

मोहन को मन मानिक सौ गुन सों गुह्ि तें उर सों उरभायेा॥ 


अरी बाल बधू, तेरे विशाल नेन्रों में ऐसा जादू है, कि उसके कारख 
यशोदा-नन्दन कृष्ण तेरे हाथ बिक-सा गया हे। अब तो वह बुलाने से 
बोलता भी नहीं है। सचमच तैने सबको मोहने वाले मोइन का ' मन- 
मानिक ! गुनों की ढोरी में गुहकर श्रपने द्वृदय से उलभा लिया हे । 

>< >< >< 

अग्रागे लिखे श्लोक में मोह का उदाहरण कैसा सुन्दर दहै--- 
हि० सू०-- २४६ 


( ३७० ) 


तीवाामिषज्ञृ प्रभवेण वृत्ति, 
मोद्देन संस्तम्भयतेन्द्रियाणाम | 
अजशात भतृ व्यसना मुहृत्त, 
कृतेपकारेव रतिबंभूव | 
भगवान शरह्डूर द्वारा अपने पति कामदेव के भस्म हुआ देख, रति 
शोक से मूछिंत हे गई, आँख. कान, नाक आदि इन्द्रियों ने श्रपना 
व्यापार बन्द कर दिया। इस श्रचेतना--मूच्छा के कारण रति क्षण भर के 
लिए, पति-वियेग रूपी वज्पात के भूल गई। मानो उस घोर संकटापन्न 
अवस्था में मूच्छां ने थोड़ी देर के लिए श्राकर उसका दुःख बटा लिया 
जिसके लिए वह कृतज्ञता प्रकट करने लगी । 
दुःसह दुःख को भुलाने के लिए मूच्छी की सहायिका के रूप में कल्पना 
कैसी सुन्दर ओर अ्लोकिक हे। शोकाकुल रति मूर्ज्छा के कारण ही 
अपनी वियेंग-वेदना को भूल गई | 


स्मति 


सहश वस्तु या विषय के अवलोकन अथवा चिन्तन श्रादि से जो 
पूर्वानुभूत स्मरण हे। श्राता है, उसे स्मृति कहते हैं । सुख ओर दुःख दोनों 
की मधुर या अमधुर स्मृति का देना स्वाभाविक हे । 

माथा सिकाड़ना, भेहें चढ़ाना, सिर हिलाना आदि इसके लक्षण हैं । 

कविवर आलमजी ने ध्मृति के उदाहरण में नीचे लिखा सववया 
दिया है--- 

जा थल कोने बिहार अ्रनेकन ता थल काँकरी बैठि चुन्यों करें । 

जा रसना सों करी बहु बातन ता रसना सों चरित्र गुन्यो कर। 

थग्रालम' जोन से कुझञ्न में करी केलि तहाँ अब सीस धुन्यो कर । 

नैनन में जो सदा रहते तिनकी अब कान कहानी सुन्यो करें ॥ 


कविवर आलम ने स्मृति का कैसा अच्छा शब्दचित्र खींचा है। 
आपनन्दपूर्य विद्दार, प्रेम मय संलाप और कुज्लों तथा केलियों की याद कर 


५ ३७१ ) 


के सिर धुनना केसा स्वाभाविक है। किसी समय जिस प्यारे की भब्जु 
मूति श्राँखों के सामने छुम-छुम नृत्य करती रहती थी, आज उसकी 
कहानी मात्र सुनकर ही सन्‍्तोष करना पड़ता है। 

मद्दाकवि सूरदास को भी इस विषय की उक्ति बड़ी सुन्दर हे--वे 
कहते हें-- 

बिन गुपाल बैरिनि भई कुब्जे । 

तब जे लता लगति श्रत सोतल, अब भइ बिप्तम ज्वाल की _जे। 

वृथा बहति जमना खग बोलत, बृथा कमल फूलें श्रलि गुब्ज। 

पवन पानि घनसार सजीवनि दधिसुत किरन भानु भइ भुणज्ज। 

ए. ऊधो कांहये माधव सों ब्रि-ह्न करद कर मारत गुज्जें। 

'सूरदास? प्रभु को मग जोवत अँखियाँ अ्ररन भइ ज्यों गुर्ज्जे । 

गोपाल के बिना कुज्ञों की केसी दशा हे गई । जो लताएं, गोपाल की 
मोजूदगी में शान्त और शीतलता का केन्द्र बनी हुई थीं, श्रबः उनसे 
असह्य झ्रग की लप्ट निकल रही हैं । कृष्ण के विना अब न यमुना-जल 
में बह आकषंण है, ओर न पत्तियों के कलरव में आनन्द। और ते 
और सुधाकर ( दधिसुत ) की किरणें भी अब सूय रश्मियों की तरह भस्म 
कर डालने वाली बन गइ। श्रीकृष्णुनी की प्रतीक्षा करते-करते आँखें 
लाल है। गई हैं। वे आव तो सब बातें फिर ज्यों की त्यों हो जायें | 

अब इस विषय में मद्कवि केशव की उक्ति भी पढ़ लीजिए । 

'केतव! एक समे हरि राधिका आसन एक लसे रंग भीने। 

आ्रानन्द सों तिय आनन की दुति देखत दर्पन त्यों दग दीने । 

भाल के लाल में बाल बिलोकति ही भरि लालन लोचन लीने । 

सासन पीय सबासन सीय हुतासन में जनु श्रासन कीने ॥ 

एक दिन राधा-कृष्ण दोनों एक आसन पर बैठ कर दर्पण में मह 
देखने लगे | राधिकाजी के चूड़ामणि में जड़े लाल में उन्हीं का ( राधिका 
का ) प्रतिबिम्ब दिखाई दिया। उस समय उन्हें सीताजी को श्रप्मि-परीक्षा 


( रे७२ ) 


की याद आरा गई | लाल में श्रपनी परछाई देखकर राधिका के ऐसा प्रतीत 
होने लगा मानो सवस्त्रा सीता श्रपने पति के श्रादेश से अग्रमि-परीक्षा के 
समय श्रप्म में श्रासन जमाए बैठी हैं । 
कविरत्ष सत्यनारायणजी का निम्नलिखित पद्म भी स्मृति का बढ़ा 
सुन्दर उदाहरण हे -- 
वह दीखत ची कनी चोखी सिला कदली ट्रम सों चहूँ ओोरन छाई । 
सिय संग जहाँ तुम सेवत है बतरात बिनाद भरे सुख पाई। 
अरु ब्रैठि तिन्हें तन नूतन दे तुम प्यारी चरावत घासु सुहाई। 
अब लों मृग वे चहूँ घेरे रहें कहूँ श्रन्त न ब्रैठत ताहि बिह्ाई॥ 
८ < >< 
हस सम्बन्ध में 'शम्भु” नामक कवि का निम्नलिखित सवैया भी कैसा 
अच्छा है -- 
बालम के बिलुरे बढ़ी बाल के ब्याकुलता बिरहा दुख दान तें। 
चोपरि आनि रची नृपशंभु सहेलिनी साहबिनी सुख दान तें। 
तू जुग फूटे न मेरी भट्ट यह काहू कही सखियाँ सखियाँन तें। 
कञ्ज से पानि तें पासे गिरे अ्ंतुआ गिरे खज्न सी श्रखियान तें ॥ 
चोपड़ खेलते-खेलते किसी सखी के संकेत से विरहिणी को श्रपने 
पति का स्मरण हैे। आया । फिर क्या था, हाथ से पासे छूट पड़े, श्राँखों से 
आाँसुओं की कड़ी लग गई ओर सारा खेल ख़तम है| गया | 
स्मृति सच्चारी के उदाहरण में नीचे लिखे दोहे भी बड़े मार्क के हैं-.0ह 
सघन कंज छाया सुलदद सीतल मन्द समीर । 
मन हं। जात श्रजों बहे वा जम्ुना के तीर ॥ 
५ >< >< 
निकसत ही पट नील ते तेरे तन की जोति। 
चपला अद घनस्याम की हिये आनि सुधि दाति॥ 


( २७३ ) 


>< ८ >< 
जहाँ जहाँ ठाढ्यौ लख्यौँ स्याम सुभग सिरमौर। 
उन हू बिन छिन गहद्दि रहत इगनि श्रजों वह ठौर || 
५८ >< >< 
करी जु ही तुम वा दिना वाके संग बतरान | 
बहे सुमिरि फिरि फिरि तिया राखत अपने प्रान ॥ 
>< >< >< 
इस विषय में संध्कृत कवि की कल्पना का भी झ्रानन्‍नद लूटिए--- 
मयि सकपट किश्चित्‌ क्वयापि प्रणीत विलोचने, 
किमपि नयन प्राप्ते तियग्विजुम्मित तारकम। 
स्मितमुपगतामालीं दृष्टा. सलज्जमवाश्चितं, 
कुवबलय-हशः स्मेरं स्मेरं स्मरामि तदाननम्‌॥ 
मेरे आते ही प्रिया ने लज्जा से नीची आँखें करलीं, गदन भुकाली 
ओर स्वाभाविक संकेचवश उसने मेरी ओर कनखियों से भी न देखा। 
परन्तु ज्यों ही मेंने बहाने से ग्रपनी दृष्टि इधर-उधर फेरी त्यों ही वह चञ्चल 
चितवन से मेरी ओर निद्वारने लगी । उस जादू-भरे चितवन का देखकर 
पास बैठी हुई सखी मुस्कराई | सखी की मुस्कराहट देख, प्रिया ने लज्जा 
से फिर नीची गरदन कर ली। उस समय का उस नील-कमल-नयनी का 
मुस्कराता हुआ बदनारबिन्द मुझे बार-बार याद आ रहा हे । 


पति 
तत्व शान, साहस, सत्संग या इष्ट प्राप्ति के कारण इच्छाश्रों को पूर्ति 
हो जाना, अथवा बड़े से बड़ा संकट पड़ने पर भी बुद्धि का विचलित न 
होना धृति कहाता है। किसी किसी ने लोभ, मोह, भय आदि से उपपण 
मनोविकारों के नष्ट करने वाली चित्तवृत्ति के धृति कहा है । 
संतृति, मधुरमाषण, बुद्धि-विकास, पैयं, गाम्भीयं आदि इसके 
लक्षण हैं । 


( ३७४ ) 


नाट्यशारक्नकार ने विशान. शास्त्र, विभव, पवित्रता, आचार, गुरु- 
भक्ति, श्रथ-लाभ क्रीड़ा आदि विभावों से धृति की उत्पत्ति मानी है । 

धृति संचारी के उदाहरण, में ठाकुर कवि का नीचे लिखा सवैया दिया 
जाता है। 

जबतें दरसे मनमोहनजू तब ते आँखियाँ ये लगीं सो लगीं । 

कुल कानि गई सखि वाही घड़ी जब प्रेम के फन्द परी सो प्गी | 

कवि 'ठाकुर' नेन के नेजन की उर में श्रनि आनि खगीं से। खगीं। 

तुम गाँवरे नाँवरे कोऊ घरो, हम साँवरे रंग रंगीं सो रंगीं॥ 


मनमोहन के दर्शन से हम पर जादू का-सा प्रभाव पड़ा है। अरब तो 
हम हर समय उन्हीं के प्रेम-पाश में फँसी रदह्दती हैं । उन्हीं के नयनों के नेज़े 
की अ्रनी हसारे द्ृदयों में चुभी हुई है । केाई इमारे केसे ही नाम रक्‍्खे, 
कितनी ही निन्‍दा क्‍यों न करे, पर हम तो साँवरे-सलोने कन्हैयाजी के रंग 
में रंग गह सो रंग गई, अब क्‍या केई दुसरी बात हो सकती है । 

यहाँ साँवरे के रंग में रंगी रहने की अविचल बुद्धि ही धृति 
संचारी है । 


इसी सम्बन्ध में पद्माकरजी का सवैया भी सुनिए --. 

रे मन साहसी साहस राखु सु साहस तें सब जेर फिरंगे। 

ज्यों 'पदमाकर” या सुख में दुख त्यों दुख में सुख सेर फिरेंगे। 

वैसे ही बेश़ु बजावत स्थाम सुनाय हमारहु टेर फिरेंगे। 

एक दिना नहिं एक दिना कब हूँ फिर वे दिन फेर फिरेंगे ॥ 

उपयुक्त पद्य में भी बड़ी समझदारी और साइस के साथ विना किसी 
धबराहट या विचलित भावना के ञअ्रच्छे दिन फिर फिरने की आशा प्रकट 
की गई हे | 

धृति के उदाहरण में महाकवि देव का निम्नलिखित सवैया केसा 
सुग्दर है । 


(' २७४ ) 


रावरो रूप रह्मो भरि नेननि बैनन के रस सों श्रुति सानों। 
गात में देखत गात तुम्दारेई बात तुम्हारी ये बात बखानों। 
ऊधौ हहा हरि सों कहिये तुम हौ न यहाँ यह हों नहिं मानों । 
या तन ते बिछुरे तो कद्दा मनते श्रनते जु बसो तब जानों॥ 
देवजी का भाव स्पष्ट है। वे कहे हैं कि ऊधोजी श्री कृष्णजी 
से कह देना कि तुम यहाँ नहीं हो, यह बात हम नहीं मानते | शरीर से 
हमें छोडकर चले गए हो तो क्या है, हमारे मन-मन्दिर से कहीं चले 
जाओ तब जाने । 
युद्ध में ध्ृति का उदाहरण देखिये- 
चले चन्द्रबान घनबान ओर कुहुकबान, 
चलत कमाने आसमाने भूम छवे रहो। 
चली जम दाढ़े तरवार चलीं बाढ़ चलीं. 
ग्रीसम के तरनि तमासे आनि वे रहौ। 
ऐसे राव युद्ध के मुकन्द ने चलाए हाथ, 
झरिन के चले पाय भारत बिते रहो। 
हय चले हाथी चले संग छोड़ साथी चले, 
ऐसी चलाचली में श्रचल हाड़ा हे रह्मो॥ 


युद्ध में हय हाथी शोर साथी सब के पेर उखड़ गए., सब साथ छोड़- 
छोड़कर चल दिये, परन्तु ऐसी चलाचली की द्वालत में भी साहसी हाड़ा 
बराबर अ्रचल रूप से अड़ा रहा। ऐसी अवस्था £ यह गअ्चलता ही 
धृति संचारी है | 
ग्रब इस सम्बन्ध में संस्कृत का उदाहरण भी देख लीजिए- 
कृत्वा दीन निपीड़नां निजजने बद्ध्वा वचो विग्रहं, 
सैवालोब्य गरीयसीरपि चिरादामुष्मिकीर्यातना: । 
द्रव्यौधा: परि सश्चिता: खलु मया यस्या: कृते साम्प्रतं, 
नीवाराज्नलिनाउपि केवलमहो | सेय॑ कृतार्था तनुः ॥ 


( ३७६ ) 


संसार से विरक्त हुआ केई व्यक्ति अपने पिछले कर्मों की आलोचना 
करता हुआ कहता हे, जिस पापी पेट के लिए मेंने ग़रीबों का गला काटा, 
मित्र-मिलापियों से झगड़े टंटे किये, पाप की कमाई करने में कड़ी से 
कड़ी यम-यातना का भी भय नहीं किया, आज उसकी तृप्ति मुट्ठी-भर 


समा के चावलों से हो रही हे । 
व्रीढ़ा 


निकृष्ट आचार-व्यवह्वार स्तुति, प्रतिशा भंग, पराभव, गुरुजनों की 
सान-मर्यादा अ्रथवा कामादि से द्वदय में जो संकेच होता हे, उसे ब्रीड़ा 
कद्दते हैं । 


भेपना, सिर नीचा कर लेना, भूमि पर लकीरें काढना, कपड़े का 
कोना पकड़ -कर उसे एऐठना आदि इसके लक्षण हैं । 


गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने परम प्रसिद्ध ग्रन्थ रामचरित- 

मानस में व्रीड़ा का केसा सुन्दर उदाहरण दिया है। देखिये-- 
गुरु जन लाज समाज बड़ि देखि सीय सकुनचानि । 
लगी विलोकन सखिन तन रघुवीरहिं उर ग्रानि ॥ 

गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। 

प्रल्ट न लाज निशा अवलोकी ॥ 

>< >< 24 

कोट. मनोज लजावन  हारे। 

सुमुखि कद्दृहु के आहि तुम्दारे । 

सुनि सनेहमय  मंजुल वानी। 

सकुचि सीय मन महँ मुसकानी ॥ 

तिनदहिं विलोकि विलोकति घरनी। 

दुहं सकेाच सकुचति वर वरनी॥ 


( ३७७ ) 


सकुचि सप्रेम बाल मृग नयनी। 
बोली मधुर वचन पिकवयनी ॥ 
सहज सुभाय सहज तन गोरे। 
नाम लपन लघु देवर मोरे॥ 
बहुरि बदन विधु अंचल दोँकी। 
पिय तन चिते भोंह करि बाँकी ॥ 
खंजन  मंजु तिरीछे नेनन । 
निज पति कद्देउ तिन्हें सिय सैनन ॥ 
> >< >८ 
सीताजी ने लक्ष्मण॒ज़ी के सम्बन्ध में तो साफ़-साफ़ बता दिया कि 
ये मेरे छोटे देवर हैं। परन्तु जब रामचन्द्रजी के बताने का अवसर आया, 
तो उन्होंने लज्जावश आँचल से मुंह ढाँक लिया, और वह तिरछी चितवन 
करके उनकी ओर ताकने लगीं। इस प्रकार ञ्रँखों की इस मूक भाषा ने 
पूछने वालों को साफ़-साफ़ बता दिया, कि रामचन्द्रजी सीताजी के 
पतिदेव हैं । 
ब्रीड़ा के उदाहरण में एक सवेया और भी देखिये-.. 
मोहन श्रापुनो राधिका के बिपरीत के चित्र बिचित्र बनाइ कै । 
दीठि बचाय सलौनी की आरसी पै चिपकाय गयो बहराइ के। 
घूमि घरीक में आराइ कह्मो कहा बैठी कपोल में बिन्दु लगाइ के । 
दर्पन त्यों तिय चाह्यो नहीं मुसकाइ रद्दी मुख मोरि लजाइ के॥ 
अथ स्पष्ट ही है | 
ब्रीढ़ा विधवक कविवर मतिराम तथा महाकवि बिहारी के निम्नलिखित 
दोदे भी पठनीय हैं | 
ज्यों-ज्यों परसे ज्ञाल तन त्यों त्यों राखे गोय । 
नवल बधू हो ज्ञाज तें इन्द्रबधूटी होय॥ 
>< >< >< 


.  शैछ८ ) 


लाज लगाम न मानहीं नेना मो बस नाहिं। 
ए. मंद्द जोर तुरंग लों ऐंचत हू चलि जाहि॥ 
ह॒ ( बिहारी 
उपयुक्त दोनों दोद्दे श्रीड़ा संचारी के सजीव उदाहरण हैं। 
ब्रीड़ा के उदाहरण में संस्कृत का निम्नाड्लित श्लोक कितना सुन्दर है । 
कुच कलश युगान्तर्मामकीन नखाहू , 
सपुलक तनु मंदं॑ मन्दमालोकमाना | 
विनिद्वित बदन मां वीक्य बाला गवात्ति, 
चकित नत नताज्लजी सद्य सद्यो विवेश ॥ 


सखे, प्रिया के स्तनों पर जो मेरा नखन्नत बन गया था, उसे वह 
एकान्त स्थान में खड़ी बड़ी पुलकित होकर छिपे-छिपे देख रही थी । परन्तु 
ज्यों ही उसने भरोखे में होकर मुझे अपनी ओर काँकते देखा, त्यों ही 
श्राश्रयंचकित और लज्ित हो. मिमट कर भीतर घर में जा घुसी । 

ब्रीड़ा का कितना सुन्दर और स्वाभाविक उदाहरण है। यहाँ नायिका 
के एकान्त में नख-चिन्द्वित स्तनों के निहारते समय श्रचानक नायक का 
दृष्टि पड़ जाना विभाव, तथा उसका सिमट सिकुड़कर घर के भीतर घुस 
जाना अनुभाव एवं ब्रीड़ा संचारी भाव है । 


चपलनता 


ईर्ष्या, द्वेष, मत्सरता एवं अत्यन्त अनुराग के कारण उत्पन्न हुई 
अस्थिरता या अ्व्यवस्थापूवंक काय कग्ने को चपलता कहते हैं। किसी 
किसी ने शीघ्रतापूवंक एक के बाद एक क्रिया करने के चपलता कहा है। 


दूसतें को घमकाना, कठोर शब्द कह्दना उच्छुखल आचरण आदि 
इसके लक्षण हैं। 
पद्माकरजी का श्रागे लिखा सवैया चपलता का अशब्छा उदाहरण 


$ / 


( रे७६ ) 


कौतुक एक लख्यो हरि हाँ पदमाकर' यों तुम्हें जाहिर की में । 
कोऊ बड़े घर की ठकुराइनि ठाड़ी निघाति रहे छिन की में । 
माँकति है कक्‍हूँ कफरीन भरोखनि त्याँ सिर की सिर की में । 
ऊाँकति ही खिरकी में फिरे थिरकी थिरकी खिरकी खिरकी में ॥ 


अत्यन्त अ्रनुराग के कारण ठकुराइनि का भमरी-भरोखों में कॉकना 
और 'खिरकी खिरकी में थिरकी फिरना' चपलता संचारी है। 
चपलता संचारी के सम्बन्ध में बैनी कवि का नीचे लिखा कवित्त भी 
देखिये-. 
कहूँ दौरि पौरि कहूँ खोर में अ्रटा में कहूँ, 
बीजुरी छुटाकी अ्रदभुत गति काढी है। 
कहूँ लीन्दे दघि मधि गोकुल बिलोकियत, 
कहूँ मधुवन में फिरत मानों डाढ़ी है । 
सस्‍्थाम के ब्रिलोकिवे को ब्याकुल 'प्रवीन बैनी” 
थिर न रहति गेह यों सनेह बाढ़ी दे | 
अजमुना के तट बंसी बट के निकट कहूँ, 
भटपट लीन्हें घट पनघट ठाढ़ी है॥ 


उपयंक्त छुन्द में भी किसी व्रजाज्ञना की प्रेमातरेकजन्य श्रस्थिरता का 
णुंन है, अतएव वह चपलता संचारी हे । 
निम्न लिखित दोहे भी चपलता के बड़े सुन्दर उदाहरण हैं--- 
छिन बैठे छिन उठि चले छिन छिन ठाड़ी होय | 


घायल सी घूमति फिरै भरम न जाने केाय॥ 
उतते इत इतते उतहिं. छिनक न कहूँ ठहदराति। 


जकन परति चकरी भई फिरि श्रावति फिरि जाति ॥ 


८ 2 >< 
चकरी लॉ सकरी गलिनु छिन ग्रावति छिन जाति । 
परी प्रेम के फनन्‍्द में बधू बितावति राति॥ 


( रै८० ) 


>< >< >< 
इतते उत उतते इतहि चमकि जाति बे हाल। 
लखिवे के घन स्याम के भई दामिनी बाल॥ 


>< >< >< 
अन्त में एक श्लोक पढ़ कर, उसका आनन्द भी श्रनुभव कीजिए--- 
अन्यासु तावदुपमदंसहासु भज्ञ ! 
लोलं॑ विनोदय मन; सुमनेा लतासु । 
मुग्धामजातरजसं कलिकामकाले , 
व्यय कदर्थयसि कि नवमल्लिकायाः ? 


अरे भोरे, इन भोली भाली कोमल-काय, अल्पायु, पराग-शून्य कुचित 
'कलिकाओं को क्यों बदनाम करता हे । उन पुष्पलताश्रों में जाकर अपना 
'मनोरञ्षन क्र जो तेरी केलि-क्रीड़ा समझने और सह्दारने में समथ हों । 


(१ 
ह्ष 
इृष्ट की प्राप्ति अथवा उत्सवादि के कारण मन में जो प्रसन्नता होती 
हैं, उसे हष कहते हैं । 
आनन्दाश्रु, गद्गद्‌ स्वर, पुलकावलि, मुख श्रोर नेश्नों की प्रसन्नता, 
स्वेद, प्रिय भाषण उत्सव, ताली बजाना, भादि इसके लक्षण हें । 


रामचरित मानस से हष का निम्नलिखित उदाहरण दिया जाता है--. 
गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे प्रभु सुखकन्द । 
हृघवन्‍्त सब जहें तहूँ नगर नारिनरवृन्द ॥ 
सुनि सिसु रदन परम प्रिय बानी । 
सम्प्रम चलि आई सब रानी ॥ 
इषिंत जहँ तह धाई दासी। 
झानंद मगन सकल  पुरवासी ॥ 
दसरथ पुत्र जन्म सुनि काना। 
मानहु ब्रह्मानन्द समाना ॥ 


( दैप१ ) 


परम प्रेम मन पुलक सरीरा। 
चाहत उठन करत मति धीरा॥ 
जाकर नाम सुनत सुभ देई। 
मोरे ग्रह आवबा प्रभु साई ॥ 
परमानन्द पूर मन राजा। 
कहा बुलाइ बजावहु बाजा ॥ 


उपयक्त चौपाइयों में राम-जन्मोत्सत का वर्णान हे, अतः वह हृष 
संचारी हे । 
भक्त शिरोमणि मीराबाई हर्षातिरेक से आनन्द-विह्ल हे! गा उठती ई--- 
पाये जी मेंने नाम रतन घन पाये | 
बसतु अमोलक दी मेरे सतगुर किरपा करि अ्रपनाया। 
ननम जनम की पूँजी पाई जग में सभी खोवायोा। 
खरचे नहिं कोई चोर न लेवे दिन दिन बढ़त सवायेा। 
सत की नाव खेवरिया सतगुर भवसागर तर आयेा। 
'मीरा' के प्रभु गिरघर नागर इदरख हरख जस गाया ॥ 
मैंने तो राम रत्न धन पालिया, मेरे सतगुरु ने कृपाकर मुझे! अमूल्य 
बस्तु प्रदान कर दी। मुझे तो अब ऐसी पूँजी मिल गई, जिसे चोर भी नहीं 
खुरा सकता । में इससे कृताथ दवा गई, कृतकृत्य हे! गई | 


महाकवि देव की भी हष सम्बन्धी उक्त सुनिये-- 

बैठी ही सुन्दरी मन्दिर में पति के पथ पेखि पतित्रत पोखे। 
तो लगि 'आ्रायेरी' श्राय कष्मो दुरि द्वार ते देवर दौरे अश्रनोखे । 
आनन्द में गुरु की गुरताउ गनी गुन गौरि न काहु के ओखे। 
नूपुर पाँह उठे भनकाइ सुजाइ लगी धन धाम भरोखे॥ 


नायिका परदेश से अपने पति के आने का समाचार सुनकर आनन्द 
से उछुल पड़ती है । उस समय उसे बड़ेबूढ़ों का भी कुछ ख्याल नहीं 


( शे८णदर ) 


रहता । वह नायक को देखने के लिए बिछुश्रों के कनकाती हुई, भरोखों 


में काँकती फिरती है । 
>< >< >< 
निम्नलिखित देहे भी इष के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। 
मुगनयनी हग की फरक उर उछाहइ तन पफूल। 
बिन द्वी पिय आगम उमगि पलटन लगी दुकूल ॥ 


>< >< >< 
तुमद्दि बिलोकि बिलोकि ये हुलसि रहो यों गात | 


ग्रॉगी में न समात उर उरमें मुदन समात॥ 
>८ ु >< >< 
उदित उदयगिरि मंच पर रघुवर बाल पतंग। 


बिकसे सन्‍त सरोज उर हरषे लोचन भ्रज्ञ ॥ 
अब इस विषय में संस्कृत कवि की सूक देखिए, वह क्‍या कहता है-- 
 समीक्ष्य पृत्रस्य चिरात्‌ पिता मुखं, 
निधान कुम्मस्य यथैव दुर्गतः । 
मुदा शरीरे प्रब॒भूव नात्मनः, 
पयेधिरिन्दुदय मूछते यथा ॥ 
जिस प्रकार कोई कंगाल पुरखाओ्रों की गड़ी हुई धरोहर पाकर खुशी 
से फूल उठता है, उसी प्रकार राजा दिलीप को बुढ़ापे में पुत्र रत्न लाभ 
कर प्रसन्नता हुई | जिस तरह शान्त समुद्र चन्द्रोदय देखकर आपे में नहीं 
रहता, उसी तरह राजा दिलीप के दृष का पारावार न रहा । 


आधेग 
सहसा इृष्ट वा अ्निष्ट की प्राप्ति अथवा अ्रत्यन्त हष, विषाद, भय, 
स्नेह या उत्थान के कारण आतुर या व्याकुल होने के आवेग कहते हैं । 
शारीरिक शियिलता, व्याकुलता, विध्मय कम्प, स्तम्भ, शोक श्रादि 


इसके लक्षण हैं। इष्टजन्य आवेग में हषं ओर अ्रनिष्टजन्य में विषाद 
होता हे। 


( शरे८्३ ) 


नाट्यशास्त्रकार ने उत्पात, पवन, दृष्टि, अग्नि, द्वाथी के छूट भागने, 
प्रिय अप्रिय श्रवण ओर व्यतन आरद विभावों से उत्पन्न होने के कारण 
आवेग आठ प्रकार का माना है | साहित्यदपंणकार ने भी इसके कई 
भेद किये हैं। 
अ्रावेग के उदाहरण में पद्माकरजी का निनन्‍नलिखित कवित्त देखिये । 
आई संग आलिन के ननद पढाई नीठि, 
सोहति सुहाई सीस इंडुरी सु पठ की | 
कहें 'पदमाकर' गंभीर जमुना के तीर, 
लागी घट भरन नवेली नेह अटठकी। 
ताही समे मोहन सु बाँसुरी बज़ाई तातें, 
मधुर मलार गाई ओर बंसोबट कौ । 
तान लगे लटकी रही न सुधि घूँघठ की, 
घाट की न औघट की बाद की न घट की || 
यमुना पर पानी भरती हुई गोपिका का, मोइन की बाँसुरी की 
सुरीली तान या मधुर मलार को मोहक ध्वनि ने मुग्ध कर दिया । वह 
आनन्दातिरेक के कारण सब सुध-बुध भूल गई। उसे घाट, ओघट, 
बाट, घट, घूँघट किसी की कुछ ख़बर न रही। यहाँ श्रत्यन्त प्रसन्नता 
के कारण व्याकुल हो जाना ही आ्रावेग संचारी है । 
देव ने भी निम्नलखित सवैया में आवेग का चित्र बढ़े कोशल के 
साथ अकित किया है। देखिए-- 
देखन दोरी सत्रे त्रन बाल सु आए गुपाल सुने ब्रज भूपर । 
टूटत हार हिये न सम्हारतीं छूटत बार न किंकिणि नूपुर। 
भार उरोज नितम्बन को न सहे कटि ओलटिवो हग दुपर । 
'देव' सु दे पथ आई मनो चढ़ि धाई मनोरथ के रथ ऊपर ॥| 
आवेग के उदाहरण में पद्माकरजी का नीचे लिखा कतवित्त भी बड़ा 
सुन्दर दे । इसमें माता यशोदा गोवद्धंन-धचारण के समय अपने पुत्र 
भीकृष्ण की श्रनिष्ठ आशंका से व्याकुल होकर कहती हईं-... 


( रैप४ड ) 


सब ही के गोधन हैं सव ही के बाला बाल, 

सब ही को परी आई प्रानन की भीर है। 
सब ही पे बरसत गोराधार मेह यह, 

सब ही की छाती छेदि पारत समीर है। 
मेरो ही श्रनोखो यह बेटा है कि माँगि अन्यो, 

बोमिल पदार तरे केामल सरीर है। 
गिरि याके करतें घरीक किन लेइ काऊ, 

सब ही अहीर पैन काऊ द्वीर पीर हे॥ 


सब पर समान अ्रापत्ति आई हुई हे, सब मयन्रस्त और कष्ट पीड़ित 
हैं, सब ही के विपत्ति से बचने का उपाय करना चाहिये | परन्तु में तो 
देखती हूँ, मेरा केमल-काय बेटा द्वी पहाड़ के भारी भार से दब रहा हे, 
उसी पर सारा बोक डाल दिया गया है। किसी से इतना भी नहीं होता 
कि घड़ी-भर.के लिए. भी उसका बोझ इलका कर दे। ऐसी भी दृदय- 
हीनता क्या | 
निम्नलिखित दोहे भी श्रावेग के बड़े सुन्दर उदाहरण हैं -- 
सुनि तुश्न॒ दल अ्रि तियनि की ऐसी गति दरसात। 
भजति गिरति उठि फिरि भजति भजि भजि गिरिंगिरि जात ॥ 
>< > >< >< 
सुनि आहट पिय पगन की भभरि भजी यों नारि। 
कहुँ कंकन कहूँ किकिनी कहूँ सु नूपुर डारि॥ 
रामचरित मानस की निम्नलिखित पंक्तियाँ आ्ावेग के सम्बन्ध में बड़ी 
रुचि पूवक पढ़ी जायेंगी। 
चलत राम लखि अवध अनाथा। 
बिकल लोग लागे सब साथा ॥ 
रामहिं देखि एक अनुरागे। 
चितवत चक्के जात संग लागे॥ 


( रेप५ ) 


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कहदत सप्रम नाइ महि माथा। 


भरत प्रणाम करत रघुनाथा || 
उठे राम सुनि प्रेम अ्रधीरा। : 
कहूँ पट कहूँ निषंग धनु-तीरा ।। 
यहाँ प्रेम से अधीर होकर धनुषवाण आदि की सुध-बुध भूल जाना 
अआवेग सजञज्चारी है। और भी देखिये--- 
सुनत श्रवण वारिधि बन्धाना। 
दशमुख बोलि उठा शग्रकुलाना ॥ 
बाँधेउ जल निधि नीर निधि जलधि सिन्धु वारीश | 
सत्य तोयनिधि कंपती उदधि पयोधि नदीश।। 
उपयुक्त पंक्तियों में सेतु बन्ध का समाचार सुनकर रावण के हृदय में 
सहसता व्याकुलता उत्पन्न है| जाना आवेग सच्चारी हे । 
>< )८ ८ >< 
अब इस विषय में किसी संस्कृत कवि की भी विचार-बानगी देखिए--- 
अध्येमध्य मति वादिनं नृपं, 
सेाइनवेद्य भरताग्रजो यतः। 
क्षत्र काेप दहनाचिंषं ततः, 
सनन्‍्दघे दृशमुदग्रतारकाम ॥ 
परशुरामजी के आने पर राजा दशरथ ने उनके स्वागताथ शीघ्रता- 
पूर्वक अर लाने के कहा. परन्तु परशुराम ने उधर तनक भी ध्यानन 
देकर समीप बेठे श्री रामचन्द्रजी पर ज्षत्रिय-विध्वंतकारिणी केपाग्नि से 
प्रज्ज्वलित अपनी शञ्रत्यन्त उग्र दृष्टि डाली, जिसे देख राजा दशरथ के 
घोर व्याकुलता हुई | 
जड़ता 
इष्ट तथा अनिष्ट के दर्शन और श्रवण से सहसा उत्पन्न चेष्टा और 
शून्य चित्तबृत्ति को जड़ता कहते हैं । 
हि० न०-- २५ 


( रे८६ ) 


टकटकी लगा कर देखते रहना, चुप हो जाना, शिथिल हो जाना 
आदि इसके लक्षण हैं । 

रसतरंगिणीकार के मत में सब व्यवद्वारों में असमथंता बोध का 
नाम जड़ता हे । 


जड़ता के उदाहरण में पद्माकरजी का कवित्त पढिये--- 


आजु बरसाने की नबेली श्रलबेली बधू, 
मोहन बिलोकिवे के लाज कान ले रही । 

छुज्जा छुज्जा फॉकती भरोखनि भरोखनि हे, 
चित्रसारी निन्नसारी चन्द्र सम बच्वे रही। 

कहे पदमाकर' त्यों निकस्यौ गोविन्द ताहि, 
.. जहाँ तहाँ इक टठक ताकि घरी दे रही! 

छुजावारी छुकी सी फकरोखावारी उभकी सी, 
चित्र केसी लिखी चित्रसारी वारी हे रही | 


यहाँ गोविन्द के दशन से नबेली अ्र॒लबेली बधुओ्रों का शिथिल होकर 
चित्रलिखित-सा हो जाना, जड़ता संचारी है | 


कविवर द्विजदेवजी का निम्नलिखित पद्म भी जड़ता के उदाइरण 
में बिलकुल 'फ़िट' बैठता हे | देखिये-- 


परम परब पाय न्द्वाय जमुना के तीर, 

पूरि के प्रवाह श्रंग राग के श्रगर तें। 
“ट्विज देव' की सों द्विजराज श्रंजली के काज, 

जौ लों चद्दे पानिप उठाया कछञ्ज कर तेँ | 
तौ लों बन जाय मनमोहन मिलापी कहूँ, 

फूँऊ सी चलाई फूँक बॉधुरी अधर तें। 
स्‍्वासा कढ़ी नासा तें न बासा तें भुजाएँ कढ़ीं, 

ग्ज्जली न श्रम्जली तें आखरो न गरतें ॥ 


( हडेद७ ) 


उपयुक्त पद्म में बासुरी की आवाज़ के कारण अजाज्ञना का शिथिल 
हो जाना जड़ता सच्चारी है। 
गोस्वामी तुलसीदासजी ने जड़ता का केसा सुन्दर वर्णान किया हे, 
इसे भी पढ़ लीजिए-.- 
जाइ समीप राम छुबि देखी। 
रहि जनि कंवरि चित्र श्रवरेखी ॥ 
चतुर सखी लखि कहा बुझा 
पदिरावहु.. जयमाल सुहाई॥ 
सुनत जुगल कर माल उठाई। 
प्रेम विवस पहराइ न जाई॥ 
उपयक्त चोपाइयों में प्रेमातिरेक से शिथिल होकर माला का न पहना 
सकना जड़ता संचारी है । 


देव कवि ने भी निम्नलिखित खवेया में जड़ता का बड़ा सुन्दर चित्र 
अंकित किया है--- 

कालिन्दी तट काल्ह भट्ट कहूँ हे गई दोउन मेंटें भली सी । 

ठोर द्दी ठाढ़े चितीत इतोतन नेकऊ एक ठक्री ठहली सी। 

“देव” के देखती देवता सी वृषभान लली न हल न चली सी | 

नन्‍्द के छोद्दरा की छवि सों छिनु एक रही छवि छेल छुली सी ॥ 

उपयक्त सवैया में नन्‍्द के 'छोहरा” की छुवि की ओर वृषभानु लली 
का श्रविचलित भाव से ठकटकी लगाकर देखते रहना जढ़ता संचारी है। 


इस विषय के निम्नलिखित दोहे भी बहुत सुन्दर हँ-.- 
बाट चलत ननदी क्यो कहाँ गिरी तुब माल। 
हिये ओर तकि चकित हो थकित हो रही बाल ॥ 
कर >< >< >< 
इलें दुहूँ न चले दुहूँ दुहुन विसरिगे गेह। 
इक टक दुहुन दुहूँ लखें श्रटकि अ्रद पटे नेह ॥ 


( रेघ८ ) 


नीचे लिखे श्लोक का भी मुलाहिज़ा फरमाइये केसा श्रच्छा है--- 
केवक्ष तद्युव युगलमन्योउन्‍्य निइ्टित सजनल मन्थर दृष्टि, 
ग्रालेख्यापितमिव क्षण मात्र तत्र संस्थितं मुक्त सड़म | 
उस समय प्रेमियों की वह युगल जोड़ी एक दूसरे की श्रोर सजल 
नेन्नों से टकटकी लगा कर देखती रही | 


९ 
गब 


विद्या, रूप. घन बल, यौवन, ऐश्वयं आदि गुणों के सम्बन्ध में 
अपने श्रापको ओरों की अपेक्षा बढ़ा समकभने का नाम गव है | 


विश्रम सहित ओठ-अँगूठा दिखाना. अविनय, ईर्ष्या, अवज्ञा, अपने 
शौये की प्रशंसा, मिथ्या हँसना, कठोर वाणी बोलना, गुरुजनों की आज्ञा 
का उल्लंघन या तिरस्कार करना, दूसरों के तुच्छु समझना आदि इसके 
लक्षण हैं । 
ग॒संचारी के सम्बन्ध में महाकवि केशवदास का उदाहरण देखिये--- 
भौर ज्यौं भ्रमत भूत, बासुकी गनेस जूथ, 
मानो मकरन्द बुन्द माल गंगाजल की | 
उडत पराग पट नाल सी बिसाल बाहु, 
कहा कहाँ 'केसोदास” सोमा पल-पल की | 
आयुध सघन सर्वमगला समेत स्व, 
पबत उढाय गति कीन्ही है कमल की | 
जानत सकल लोक लोकपाल दिकपाल, 
जानत न बान बात मेरे बाहुबल की॥ 
उपयुक्त कवित्त में रावण का केलास-पवंत कमल की तरह उठा कर 
अपने बाहुबल की प्रशंसा करना गव संचारी हे। इस छुन्द में महाकवि 
केशव ने सुन्दर रूपक द्वारा केलास-पबंत को कमल बना दिया है। इस 
कैल्ास रूपी कमल में शंकर के गए भूत आदिक भौंरे के समान, और 


( शै८६ ) 


पुएय सलिला जान्इब्री का प्रवाह ही मकरन्द-घारा हे। नीचे रावण के 
विशाल बाहु ही मानो केलास-कमल की डंडी ( नाल ) है । 


शझ्भूरजी की भी गव॑ विषयक उक्ति बड़ी सुन्दर है, देखिए-- 


सास ने बुलाइ घर बाइर की आई' सु- 
लुगाइन की भीर मेरो घुँघट उघारे लगी। 
एक तिन में की तिन तोरि-तोरि डारे लगी, 
दूसरी सराई राई नौन की उतारे लगी। 
'शंकर” जिढानी बार-बार कछु बारे लगी, 
मोद मढी ननदी अटोक टोना टारै लगी। 
गली पर साँपिनि सी सोति फुसकारे लगी, 
हेरि मुख हाकर निसाकर निहारै लगी।। 
ननदी, जिठानी आदि ने तो मेरा मुँह देखकर प्रसन्नता प्रकट की 
और नज़र लग जाने के डर से उन्होंने टोना-टनमन के उपचार आरम्भ 
कर दिये, परन्तु सोत ठंडी साँस लेती हुईं, चन्द्रमा की ओर देखने लगी । 
अर्थात जैता चन्द्रमा था, वैसा ही नायिका का मुखमएडल था। यद्द बात 
सोत को इतनी बुरी लगी कि वह उस पर साँपिन की तरह फुसकारने 
लगी। यह रूपगत्रिता नाथिक्रा की उक्ति है। इसमें उसने व्यज्ञना से 
अपने सोन्दय को प्रशंसा को हे, अतएव यहाँ गय॑ संश्नारी है। 
रामचरित-मानस की निम्नलिखित पंक्तियाँ भी देखिए, गब के उदा- 
हरण में केसी फ़िट बेठती हैं । 
जनि जल्पसि जड़ जन्तु कपि शठ बिलोकु मम बाहु । 
लोकपाल बल विपुल शशि ग्रसन हेतु सब राहु ॥ 
>< ><  >< 
कुम्ममरन से बन्धु मम सुत प्रसिद्ध सक्रारि। 
मोर पराक्रम सुनेसि नहिं जितेड चराचर भारि ॥ 
>< >< >< 


( ३६० ) 


भुज बल भूमि भूत बिन कीन्ही। 
विपुल बार महिदेवन  दीन्ही ॥ 
सहसबाहु भ्रुजऊ. छेदन हारा। 
परसु बिलोकि महीप कुमारा || 
मातु पितहिं जनि सोच बस करसि महीपकिसोर । 
गर्भन के अभंक दलन परशु मोर अ्रति घोर॥ 
उपयुक्त पंक्तियों में रावण और परशुराम ने अपने-अपने बल-विक्रम 
की बड़ाई की है । 
नीचे देव कवि का उदाहरण देखिये---- 
देव सुरासुर सिद्ध बधून कों एतो न गब॑ जितो इष्डि ती को। 
आपने जोबन के गुन के अ्भिमान सब्रै जग जानत फीको। 
काम की ओर सकोरति नाक न लागत नाक को नायक नीको । 
गोरी गुमाननि ग्वारि गेवारि गिने नहिं रूप रती को रती को ॥ 
ग्वालबंधू भी खूब हे, अपने रूप योवन के आगे किसी को कुछ सम- 
भझती ही नहीं । उसे सारा संतार फीका दिखाई देता है। वह तो श्रपने 
सौन्दय के अ्रभिमान में स्वर्ग पति इन्द्र और कामदेव को भी घिक्कारने 
लगती दे | रति के रूप को तो वह अ्रपने आगे रत्ती भर भी नहीं समझती, 
उसकी बिलकुल प्रशंसा नदीीं करती | ऐसी गँवारिन ग्वालिन से कया कद्दा 
जाय | 
इसी आशय का पह्माकरजी का निम्नलिखित कवित्त भी देखने 
याग्य है... 
बानी के गुमान कल कोकिल कहानी कहा, 
बानी की सुबानी जाहि श्रावत भने नहीं। 
कहे  पदमाकर ' गोराई के गुमान कुच-- 
कुम्मन पै केसरि की कचुकी उने नहीं । 
रूप के गुमान तिल-उत्तमा न आने उर, 
आनन निकाई पाई चन्द्र कीरने नहीं। 


( डेै६5१ ) 


मृदुता गुमान मखतूल हू न मान कलु, 
गुनके गुमान गुन गौरि को गने नहीं ॥ 
् >< 
इस विषय में संस्कृत का यह श्लोक भी बड़ा उत्कृष्ट है, देखिए--- 
श्रुतायुधो यावद्ह तावदन्यैः किमायुणे; । 
यद्दवा न सिद्धमस््रेण मम तत्‌ केन साध्यताम ॥ 
कण क्रुद्ध होकर बड़े गय॑ भरे वचनों में कहता है--अरे अ्रश्वत्थामा, 
जब तक मेंने अपने हाथों में हथियार ले रक्‍खे हैं, तब तक और किसी 
को शस्त्र धारण करने की आवश्यकता नहीं है। यदि मेरे पराक्रम से ही 
इष्ट-तिद्धि न हुई, तो फिर किसकी ताकृत हे, जो कामयाबी करके दिखा दे । 


विषाद 


झभिलपित कार्य की सिद्धि में निर्पाय होकर, अ्रथवा इृष्ट हानिया 
श्रनिष्ट प्राप्ति के कारण जब मनुष्य पुरुषाथद्दीन हे पश्चात्ताप करता या 
दुखी होने लगता है, तब उस अवस्था की विषाद संज्ञा होती है। 
नि श्वास, मानसिक ताप, उत्साह-भंग, ध्यान मग्न बैठे रहना झ्रादि 
इसके लक्षण होते हैं 
विषाद के उदाहरण में पद्माकरजी का नीचे लिखा कवित्त कितना 
सुन्दर हे -- 
एके संग धाये नन्‍न्दलाल औ गुलाल दोऊ, 
हगनि गए जु भरि आनन्द मढ़े नहीं। 
धोय घोय हारी 'पदमाकर” तिद्दारी सॉँह, 
कब तो उपाव कोऊ नित्त पै चढे नहीं | 
कैसी करों कहाँ जाउ कार्सों कहाँ कौन सुने, 
कोऊ तो निकासो जासों दरद बढ़े नहीं । 
एरी मेरी बीर जैपे तैसे इन आआँखिन ते. 
कढ़िगो श्रबीर पै ग्रहीर को कढ़े नहीं ॥ 


( रे६२ ) 


नन्‍्दलाल ओर गुलाल दोनों ने एक साथ नायिका के नयनों में प्रवेश 
किया, गुलाल तो धोने-धाने से ज्यों त्यों कर निकल गया, परन्तु नन्दलाल 
उनमें श्रडिग आसन जमा गए | नन्‍न्दलाल को बहुतेरा निक्रालना चाहा, 
परन्तु वह कब निकलते हैं | नायिका निरपाय होकर बड़ी व्याकुलता से 
कहो हे, “' केसी करों कहाँ जाऊँ कासों कहों कोन सुने, कोऊ तो निकासो 
जासों दरद बढ़े नहीं ” परन्तु नयनों के रास्ते घुस कर हृदय में जा 
बिराजने वाले नन्दलाल कहीं निकलते हैं। यहाँ नायिका का निरुपाय 
होकर दुखी होना विषाद संचारी है । 


अब विषाद के उदाहरण में मतिरामजी का भी एक सख्वेया पढ़ 
लोजिए । 
ठाढ़े भए. कर जोरि के शआ॥रागे श्रधीन हों पायन सीस नवायोा । 
केती करी बनती 'मतिराम' पै में न किये इठि तें मन भाये। 
देखति ही सिगरी सजनी तुम मेरी ता मान महामद छायो। 
रूठि गये उढि प्रान पियारो कहा कहिये तुमहू न मनाये ॥ 
उपयंक्त सवैया में निरुषाय जन्य दुःख या पश्चात्ताप का बणन द्ोने के 
कारण वह विषाद संचारी हे | 
गोस्वामी तुलसीदास की भी इस सम्बन्ध भें केत्ो सुन्दर उक्ति है, ज़रा 
मुलाहिज़ा फ़रमाइए-- 
सती हृदय अनुमान किय सब जानेठ सवज्ञ। 
कीन कपट में शम्भु सन नारि सहज जड़ अश ॥ 
हृदय सोच समुझत निज करनी | 
चिन्ता अमत जाइ नहिं बरनी ॥। 
कृपा सन्धु शिव परम अगाधा। 
प्रकदक न कहदेउ मोर अ्रपराधा ॥ 
शंकर रुख अवलोकि भवानी। 
प्रभु मोहि तजेउ हृदय श्रकुलानी ॥ 


६ रेधं३ ) 


निज अ्रघ समुक्ति न कछु कहि जाई। 
तपे अवा इव उर अधिकाई ॥ 


सती ने सीता का रूप धारण कर श्रीरामचन्द्रजी को धोखा देना चाहा, 
परन्तु वे असली बात ताड़ गए इससे सती को बड़ी खिम्काहइट हुई । 
महादेव को भी सती का यह कपट व्यवद्दार अच्छा नहीं लगा ओर उन्होंने 
सीता का रूप बनाने के कारण उन्हें त्याग दिया | फिर क्‍या था, सती न 
इधर की रही न उधर की. केवल पश्चात्ताप-जनित दुःख शेष रह गया | 
यहाँ अपना अपराध जान कर सती का मौनपूवक भीतर ही भीतर श्रवें 
की भाँति तपते रहना विषाद संचारी है । 


कविवर बैनो प्रत्रीन ने विधाद का वणुन केसी सुन्दर व्यञ्जना में किया 
है, देखिए--- 

बहु द्योत (बदेस बिताय पिया. घर आवन की घरियाली भई। « 

बह देस कलेस बियाग कथा सब भाखी यथा बनमाली भई। 

हँसिके निसि “ब्रेनीप्रबीन' कह्टे जब केलि कला की उताली भई।|। 

तब या दिसि पूरब पूरब की लखि बेरनि सोति सी लाली भई ॥ 


विदेश से श्राए हुए प्रियतम ने सारी रात अपने यात्रा-वर्णन में ही 
बिता दी और जब केलि का समय आया तो उष:काल होने लगा-- 
पो फटने लगी | उस समय पूर्व दिशा की लाली नायिका को वेरिन से 
भी बढ़ कर प्रतीत हुई । 


विषाद संचारी के उदाहरण में प्मकरजी का यह दोहा केसा सुन्दर 
है, देखिए--- 


ग्रव न धीर धारत बनत सुरत बिसारी कन्त | 
पिक पापी कूकन लग्यो बगरथों बधिक बसन्त |। 


दशों दिशाओं में वसन्‍्त की वसुधा दिखाई देने लगी है। कोयल की 
कूक से आनन्द की मन्दाकिनी फूट निकली हे, परन्तु प्राणनाथ ने ज़रा 


( रेह४ड ) 


भी सुध नहीं ली, न जाने वे क्‍यों भूल गए.। वियोग-जनित इस दुःखद 
अवस्था में अब मुझ से पैये धारण नहीं होता | 
अब संत्कृत कवि-कल्पना की ऊँची उड़ान देखिए--- 
एपा कुटिल घनेन सुचिक्रर कलापेन तव निबद्धा वेणी । 
मम सखि [| दारयति दशत्यायस यष्टिरिव यमोरगीव द्वृदयम ॥ 
अरी सखी, तेने आज ग्रज़ब का श्ज्ञार किया है | तू ते अपने सघन 
एवं कंचित केश-कलाप की ऐसो कड़ी चोटी बाँध श्राई है, कि वह मेरे 
हृदय में लोह दण्ड की तरह लगती और काली नागिन के समान डसने को 
जीभ लपलपाती है। 
ओत्सुक्य 
दृष्ट प्राप्ति में विलम्ब सहन न करना उत्सुकता कहाती है । 
मानसिक सन्ताप, जल्दबाजी, पसीना, दौघ निःश्वास, नीचे मुंह करके 
विचार करना, चिन्ता, निद्रा, तन्द्रा, शरीर का भारीपन श्रांदि इश्के 
लक्षण होते हैं | 
देवजी के निम्नलिखित सवैया में उत्सुकता का उदाहरण देखिए--- 


कैधों हमारी द्वी बार बड़ो भयो, कै रवि को रथ ठौर यो है। 

भोर ते भानु की ओर चितोति घरी पल ते गनते ही गयो है । 

आवत छोर नहीं छिन को दिन को नहीं तीसरो जाम छयो दे । 

पाइये कैसे के साँक तुरन्त हि देखुरी द्यौस दुरन्‍्त भयो हे॥ 

राजि आगमन की उत्सुकता में उत्करिठता नायिका दिन की घड़ियाँ 
गिन रद्दी है। परन्तु दिन काटे नहों कटता. उसने द्रोपदी के चीर का रूप 
घारण कर लिया है । 

इस सम्बन्ध में प्राकरजी का भी निम्नलिखित उदाहरण देखने 
लायक हे--- 

ताकिये तिते तिते कुसुम्म से चुबोई परै, 
प्यारी परबीन पाउँँ घरति जिते जिते। 


( डेृ४ ) 


कहे “* पदमाकर ' सु पौन ते उताली बन -- 
माली पै चली यों बाल बासर ब्रिति बितै। 
बारही के भारन उतारि देति आरभरन, 
द्वीरन के हार देति द्विलि न हिते हितै। 
चाँदनी के चौसर चहूँधा चोक चाँदनी में 
चाँदनी सी आई चन्द चाँदनी चितै चित ॥ 
)८ >< भर 
उत्सुकता के उदाहरण में महाकवि हरिश्रोधजी की उक्ति भी बड़ी 
सुन्दर है । 
रस सरसाइ बरसाइ बर सुधा कब, 
मानस गगन में मयंक सम खिलि हौ। 
कब उर माहिं जमी मादकता मेल कार्हि, 
निज अनुकूलता सु छुरिका ते छिलि हौ | 
« हरिश्रौध ” कब बैनतेयता बनक लैके, 
मेरे पाप-पुंज पन्नगाधिप कों गिलि हौ। 
. पलक पलक पर लालमा सतावति हे, 
सोगुनी ललक भई लाल कब मिलि हो | 


इस पद्म में पल-पल पर लाल से मिलने की लालसा का सताना ओर 
ललक ( चाह ) का 'सोगुनी' हो जाना ही उत्सुकता संचारी है । 
इस प्रसंग में निम्नलिखित दोहे भी बड़े अ्रच्छे हैं -- 
रहति रैन-दिन श्रति दुखित चित नहिं पावत चेन | 
कब मुख कमल दिखाई हो, श्रमल कमल दल नेन ॥ 
>< >< ५८ 
कादे नाहि. कृपायतन करत कृपा की कोर। 
लाखन अश्रेंखियाँ हैं लगीं तब अ्रखियन की और ॥ 
>< >< )< 


( डरे६६ ) 


रामचरित मानस में, सीताजी के विरह-जन्य ओत्सुक्य के उदाहरण 
में नीचे लिखी पंक्तियाँ केसी रुचिर रचना हैं--- 
त्रिजटा सन बोली कर जोरी। 
मातु बिपति संगिनि त मोरी ॥ 
तजों देह करे बेगि उपाई। 
दुसह बिरह् अब नहिं सह्दि जाई॥ 


अरी त्रिजटा, भगवान्‌ के चरणारविन्द के दशनों का शीघ्र उपाय 
कर, नहीं तो यह शरीर छूटे विना न रहेगा ; क्योंकि अब उनको जुदाई 
बिल्कुल नहीं सही जाती । 
श्रोत्सयुक्+ विषयक निम्नलिखित संस्कृत का उदाहरण भी देखने 
याग्य है । 
निपतद्वाष्प संरोधं मुक्त चाश्वल्य तारकम । 
 कदा नयन नीलाब्जमालोकेय मृर्गाहशः || 
मेरे घर से चलते समय प्यारी के नील कमल जेसे सुन्दर लोचनों ने, 
अपशकुन के भय से अश्रपात रोकने के लिए अपनी लोल तारिकाश्रों 
को स्थिर कर लिया था, उन्हें श्रव में किस घड़ी घर पहुँच कर निह्ारूं । 


उक्त पद्म में नायिका के नील कमल जैसे नयन निदारने के लिए 

नायक की उत्कट उत्सुकता स्पष्ट हो रही है। 
निद्रा 

परिश्रम, ग्लानि, श्रान्ति, मादक द्रव्य सेवन, दुर्बलता, चिन्ता, श्रति 
आहार आदि के कारण चित्त की वाह्य विषयों से निवृत्ति की श्रवस्था का 
नाम निद्रा है । 

जम्दाई या श्रंगड़ाई लेना, श्राँखें मीचना, श्वासाब्छवास श्रादि इसके 
लक्षण हें । 

रसतरंगिणीकार के मत में जब मन अन्य सब इन्द्रियों से हटकर 
फेवल त्वगिन्द्रिय में रहता है, तब्र उस अवध्था की निद्रा संशा होती हे । 


( रे६७ ) 


नीचे रामचरित मानस से निद्रा का उदाहरण दया जाता है ;:-- 
विविध बसन उपधान तुराई। 
क्षीर फेन मृदु विशद सुद्ाई।। 
तहेँ सिय राम शयन निशि करहीं । 
निज छुब्रे रति मनोज मृदु हरहीं || 
तेह सिय राम साथरी सोये। 
श्रमित बसन बिन जॉय न जोये ॥ 
मात पिता परिजन पुरवासी | 
सखा सुशील दास ग्ररु दासी। 
जुगवह़िं जिनदिं प्राण की नाइई। 
महि सेवत सोह राम गुसाइ॥ 
उपयुक्त चौपाइयों में श्रीरामचन्द्रजी के अवध स्थित शयनागार और 
वस्त्रब्छा दनों का उल्लेख करते हुए. वन में विना किसी वद्त्र के 'साथरी! 
बिछ्छाकर भूमि पर सो रहने का वन है; यही निद्रा संचारी है । 


पद्माकरजी ने पलंग पर सोती हुई नायिका का केसे सुन्दर शब्दों में 
वणन किया है, देखिए--- 
चहचहीं चुभक चुभी हैं चोक चुम्बन की, 
लदलही लाॉँबी लें लपटी सुलंक पर। 
कहे 'पदमाकर” मत्ानि मरगजी मंजु, 
मसकी सु आँगी है उरोञन के अंक पर | 
सोई सरसार यों सुगन्धिनि समोई स्वेद--- 
सीतल सलोने लोने बदन मयंक पर। 
किन्नरी नरी हे के छुरी हे छुविदार परी, 
टूटि सी परी है के परी है परियंक पर ॥ 


रति-जनित श्रम से थककर सोई हुई, नायिका का कैसा विचित्र वर्णन 
है। प्माकरजी पूछते हैं कि पयक पर “'परी' हुई नायिका किन्नरी, नरी, 


( रेध८ ) 


छुरी है या आसमान से परी टूट परी है। आआज़िर कौन बला है, जो 
इतनी अच्छी मालूम देती है। 
कत्रिवर पोहारतजी ने निद्रा के उदाहरण में जो सवैया लिखा है, वह 
भी खूब दे। उसे भी पढ़ लीजिए-- 
आयो बिदेस ते प्रान पिया अ्भिलाष समात नहीं तिय गात में | 
बीति गई रतयाँ जगि के रस की बतियाँ न ब्िितीं बतरात में | 
आनन कझ्ञ पै गन्ध प्रलुब्ध लगे करिवे श्रलि गुंज प्रभात में | 
ताहू पै कल्लमुखी न जगी वद्द सीतल मन्द सुगन्धित बात में॥ 
>< >< >< 
अब संस्कृत काव्य का उदाहरण मुलाहिज़ा हो । 
साथकानथक पद ब्र्‌वती मन्यराक्षरम। 
निद्राद्द मीलिताक्षी सा लिखितेवास्ति मे हृदि ॥ 
कोई नायक अपने सखा से कहता है--निद्रा के वेग के कारण कभी 
वह बाला साथक बात कद्दती, कभी निरथंक; कभी श्राख मींचती, कभी 
खोलती । आ्राइ ! उस उनीदी ललना का वह रम्य रूप अब तक मेरे हृदय- 
पटल पर अंकित हो रहा हे | 
अपस्मार 
भय, दुःख, मोह, शोक श्रादि की श्रत्यधिकता के कारण उत्पन्न चित्त 
के विज्ञेप को अ्रपस्मार ( मृगी ) कहते हैं । 
भूमि-पतन, प्रस्वेद, मुख से फसूकर यानी भाग डालना, काँपना, 
आदि इसके लक्षण हैं । 
श्रपस्मार के उदाहरण में निम्नलिखित सवैया देखिये-- 
बोले बिलोकै न पीरी गई परि आई भले ही ये कुंज मझारन । 
ऐसी अ्नेभमी बिलोकनि रावरी होत अचेत लगी कछू बार न। 
फेन तजै मुखते पटके कर जौ न कियौ जू बिथा निरबारन 
याहि उठाइ सबै सखियाँ हम जाति चलीं जसुदा पहेँ डारन ॥ 


( डऔे६६ ) 


बेचारी सखी भली कजों में आई और अच्छे यशोदा-ननन्‍्दन मिले, 
जिनकी एक है नज़र से उसकी ऐसी दशा होगई | मुंह से क्ाग निकल 
रहे हैं श्रोर बुरी तरह हाथ-पाँव पटक रही दे। यशोदानन्दन, हम साफ़- 
साफ़ कहे देती हैं; या तो इसकी व्यथा दूर करो, नहीं तो हम श्रभी इसे 
इसी हालत में उठाकर तुम्हारी माँ के पात लिए. जाती हैं| यहाँ मोहा- 
तिरेक से सखी का अ्रचानक मूर्व्छित हो जाना अ्रपस्मार संचारी हे । 

इसी ग्राशय का पन्‍द्माकरजी का भी सवैया बड़ा सुन्दर है। 
देखिये-... 

जा छिन ते छिन सोंवरे रावरे लागे कटाब्छ कछू अ्नियारे। 

त्योँं 'पदमाकर' ता छिन ते तिय सों श्रैंग अग न जात संभारे। 

हे दिय हायल घायल सी घन घूमि गिरी परे प्रेम तिद्दारे। 

नैन गये फिर फैन बहे मुख चेन रहौ नहीं मैन के मारे॥ 


साँवरे-सलौने श्यामसुन्दर के कटाक्षों के मारे, नायिका घायल-सी 
दो चकरा कर भूमि पर गिर पड़ी | श्राँखे फिर गई और मुँह से काग 
गिरने लगे | भला मार की मार का कुछ ठिकाना हे । 
अपस्मार के उदाहरण में इरिश्रोषजी का निम्नलिखित छुन्द बड़ा 
सुन्दर है । 
विधि बामता है, के करालता कपाल की है, 
किधों पाय दव है प्रप॑च पूरि दहतो। 
किधों फल अदहे रुज विविध असंयम को, 
कै है यामें नियत रहस्य कोऊ रहतो। 
'इरिश्रौध' कछु भेद द्वो तो ना तो केसे जीव, 
कर पग पटकि दुसह दुःख सहतो। 
धूल में लुठत कैसे कमल मृदुल तन, 
फूल जैसे आनन ते फेन केसे बहतो॥ 
>< >< >< 


हा 


( ४०० ) 


इस प्रसंग में पद्माकरजी का निम्नलिखित दोहा भी पढने लायक है । 


लखि बिहाल एके कहत भईं कहूँ भय भीत । 
इके कहत मिरगी लगी, लगी न जानत प्रीत ॥ 


इसी विषय में किसी संध्कृत-कवि की कल्पना का भी रसास्वादन 
कीजिए-..- 
ग्राश्छिष्ट भूमि रसितारमुच्चे- 
लॉलिद्धुजाकार वृह्त्तरज्ञम । 
फेनायमानं पतमापगाना: 
मसावपस्मारिणमाशशड्ढ ॥ 
युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए, श्रीकृष्ण द्वारका 
से इन्द्रपस्य चले। उस समय उन्होंने पृथिवी से सं छूश्ट घोर शब्द करते 
हुए चश्चल' एवं उत्ताल तरंगों से युक्त फेनायित समुद्र को देखकर 
कहा--ओ हो [| ञ्राज ऐसा प्रतीत होता है, मानो विशाल वारिधि मृगी 
रोग से मूछित हो रहा है । 


स्वम्म या स॒प्ति 


निद्रावस्था में क्रिसी वस्तु का अ्रनुभव या ज्ञान होने को स्वप्न अथवा 
सुप्ति कहते हैं । 

कोप, आवेग, भय, ग्लानि, सुख, दुःख, श्वासोच्छुवास, प्रलय, आखें 
मींचना आ्रादि इसके लक्षण हैं । 

रसतरं गणीकार के मत में जिस अवस्था में मन त्वागिन्द्रिय को भी 
छोड़ कर 'पुरीतत! नामक नाड़ी में श्रवस्थान करता हे, उस श्रवस्भा की 
स्वप्न संज्ञा हे । 

स्वप्न के उदाहरण में नीचे लिखा सवैया केसा उत्कृष्ट हे-- 


पौढ़ी हुती पलिका पर में निसि शञानरुध्यान पिया मन लाए। 
लागि गह पलक पलसों पल लागत ही पल में पिय आए । 


( ४०१ ) 


ज्यों ही उठी उनके मिलिबे कहे जागि परी पिय पास न पाए। 
भीरन' और तो सोश के खोवत में सखि पीतम जागि गँवाए ॥ 


कवि की केसी श्रद्धत कल्पना है, कितनी विचित्र सूक है। और नायि- 
काएं. तो पति को सोकर खोती हैं, परन्तु ''मीरन'” कवि की नायिका ने 
जागकर भी प्रीतम को गँवा दिया । 


'सोवे सो खोबे, जागे सो पावे” ऐसा सवंत्र सना जाता है, परन्तु यहाँ 
उलटी ही बात देखने में आई । 


इसी आशय का द्विजराजजी का सवैया भी सुनिए-- 


सोवत आज सखी सपने द्विजरेव जू आनि मिले बनमाली। 
जो लों उठी मिलिवे कहें घाय सुद्दाय भुजान भुजान पे घाली। 
बोल उठे ये पपीगन तो लगि “ पीव कहाँ ? कह्दि कूर कुचाली | 
सम्पति सी सपने की भई मिलिबो ब्रजराज को आराजु को श्राली ॥ 


यहाँ कम्बख्त पपीहा ने * पीउ-पीउ ” का शोर मचाकर स्वप्न-निमग्ना 
नायिका को जगा दिया | फिर क्‍या था, श्राँखे खुल गई' ओर सपना “सपना! 
होकर रह गया | 'खुल गई श्रॉख मेरी होगया सपना-सपना ।' 
रामचरित-मानस में एक स्थान पर स्वप्न का इस प्रकार उल्लेख किया 
गया है | 
उहाँ राम रजनी शग्रवशेषा। 
जागे सीय सपन अस देखा ॥ 
संहित समाज भरत जनु आए | 
नाथ वियाग ताप तनु ताए ॥ 
सकल मलिन मन दीन दुखारी | 
देखीं सास आन अनुहारी |। 
सुनि सिय सपन भरे जल लोचन | 
भये सोच बस सोच विमोचन ॥ 
हिं० न०--२६ 


( ४०२ ) 


लखन सपन यद्द नीक न द्वोई । 
कठिन कुचाह सुनाइह्ि कोई ॥ 


2५ र् /५ 2५ 


कुन्दन कवि का भी स्वप्न-वरणुन पढ़ने योग्य है, देखिए--- 
सपनेहु सावन न दई निरदई दई, 
बिलपत रैेहां जैसे जल त्रिन भँँखियाँ। 
'कुन्दन! सँदेसी आये लाल मधुसूदन के, 
सब्रै मिलि दोरी लेन आँगन बिलखियाँ । 
बूके समाचार ना मुखागर सँँदेसा कु, 
कागद ले कोरो हाथ दीनी लेके सखियाँ । 
छेतियाँ से पतियाँ लगाइ बैठी बाँचिवे को, 
जौ लो खोलों खाम तोलों खुलि गई श्रलियाँ ॥। 


यहाँ नायिका ने लिफ़ाफ़ा खोलना चाहा और आँखें खुल गई । 
'पाती की पाती में रह गई ओर मन की मन में | सपने की सम्पत्ति ही 
जो ठद्दरी | 


>< 2५ 2५ 


स्वप्न के उदाहरण में किसी संस्कृत कवि की निम्नलिखित उकच्ति 
पढ़िए-- 
मामाकाशप्रणिह्वित भुज निदयाश्लेष देतो- 
लंब्धायास्ते कथमपि मया स्वप्न संदशनेन । 
पश्यन्तीनां न खलु बहुशो न स्थली देवतानां, 
मुक्ता स्थूलास्तर किसलयेष्वश्र लेशाः पतन्ति ॥ 
विरह-व्याकुल यक्ष अलकापुरी जाते हुए मेघ को सन्देश देता हे--- 
भाई मेघ, तुम उधर जा तो रहे ही हो, मेरी प्रिया से यह कद् देना कि 


( ४०६ ) 


तेरे बियाग में यक्ष को जागते-जागते रतें बीत जाती हैं। कभी-कभी कुछ 
नींद ञ्रा ज्ञाती है,तो स्वप्न में तूही तू दिखाई देती हैं। उस समय वह (यक्ष) 
यदि तेरा गाढ़ आलिज्ञन करने के लिए. बाहु-गाश पसारता है, तो वह 
शून्य श्राकाश में फेला रह जाता है। यक्ष की तत्कालीन दयनीय दशा 
देखकर बन के देवी-देवता फूट फूटकर रोने लगते हैं, ओर अपने नेत्रों से 
निकले हुए मोती-से श्राँधू तर पललवों पर गिराते हैं । 


विवोध 


निद्रा या अ्रविद्या दूर करने वाले कारणों से उत्पन्न चेतन्य को विबोघ 
कहते हें । 
जम्हाई, श्रंगढ़ाई, श्राँखे खोलना या मींडना, श्रंगों का अवलोकन, 
यथाथ ज्ञान श्रादि इसके लक्षण हैं । 
विबरोध संचारी के उदाहरण में महाकवि हरिश्रोधनी ने नीचे लिखे 
पद दिये हैं । 
भाग भाग कहि से बनेगो केसे भाग वारो, 
भभरि भभरि जो श्रमागते है भागतो। 
जो है लोक-सेवा की लगन नाहिं साँची लगी, 
केसे लाभ वारो हे है, लोगन की लागतो। 
“'हरिश्रौध!” नाना अनुराग को कहद्दा है फल, 
देस-राग में है जो न मन अ्रनुरागतो। 
कहा जागि किये कहा लाभ है जगाये भये, 
जागे हू जो जी में जाति-हित हे न जागतोा ॥ 


04 7८ /५ 


बीर जन वीरता वसुन्धरा बिबोधिनी है, 
साहसी ही साहस दिखाह होत आगे हैं । 


( ४०४ ) 


सबल के सामने सरोवर पयेनिधि हे, 
सावधान सामने धरनि धुरे धागे हैं। 

इरिश्रोध सारी सिद्धि तिनकी सहोदरा हैं. 
सिद्धि पाग में जो सच्ची साधना के पागे हैं । 

भाग जागे भूमें कोन भोग भोग पाये नहीं, 
जाग गये जग में न काके भाग जागे हैं॥ 


उपयुक्त छुन्दों में कवि ने जीवन-जाणति का उपदेश देते हुए मानव- 
समाज को क व्यनिष्ठा की ओर प्रेरित किया है। देश और जाति का 
जगाना ही सचा जागरण है| वह जागते हुए भी नहीं जागता, जिसके 
हृदय में जाति-हित नहीं जाग रहा । 


राम-चरित-मानस का भी विबोध सम्बन्धी उदाहरण देखिये --. 
उठे लखन निसि बिगत सुनि अख्ूणसिखा धुनि कान। 


गुरु ते पहले जगतपति जागे राम सुजान ॥ 


उक्त दोहे में प्रातः समय मुर्गे की 'कुकड़ के? सुनकर राम और लक्ष्मण 
का जागना स्पष्ट वर्णित हे । 


अब जरा प्माकरजी का भी एक उदाहरण देख लीजिए-. 

अधखुली कअञ्चुकी उरोज श्रध आधे खुले, 
अधखुले बैस नख रेखन की भलकें। 

कहें * पदमाकर ' नवीन श्रध नीवी खुली, 
अ्रधखुले छुदर छुराके छोर छुलकें | 

भोर जगि प्यारी अध ऊरघ इते की ओर, 
ऊाँखी भिखि भिरकि उधारि अधघ पलके | 

आँख अधखुली श्रधखुली खिरकी हैं खुली, 
अधखुले श्रानन पै अ्रधखुली श्रलके ॥ 


( ४०४ ) 


उक्त पय में पद्माकरतज्री ने प्रातःकाल जागते समय नायिका के 
अस्त-व्यस्त वच्भाभूषणों श्रोर जम्हाई-अंगढ़ाई ग्रादि लेने का कैसा सुन्दर 
और सजीव चित्र चित्रित किया है । 
विब्रेध के उदाहरण में नीचे लिखा श्लोऋ केसा सुन्दर दै--- 
चिर रति.रिखेदं-प्राप्त-निद्रा-सुखानां, 
चरममपि शयित्वा पूवमेव प्रबुद्धा: । 
अ्रपरिचलित-गात्रा: कुवंतेन प्रियाणा- 
मशिथिल भुज चक्रा श्लेष भेदं॑ तरुण्यः । 
रात को रति-खेद से थके पतिदेव पत्नी को बाहु-पाश में आबद्ध कर, 
निद्रा-देवी की गोद में चले गए., फिर पत्नी भी सो गई । प्रातःकाल पंहले 
पत्नी की आँख खुली, उसने उठना चाहा, परन्तु बाहु-पाश के हटाने से 
पति जाग जाते, श्रत: वह पति-परायणा नायिका पति की निद्रा भंग होने की 
आशंका से ज्यों की त्यों पड़ी रही । 


९ 
अमप 


निन्‍्दा, श्राक्षेप, अपमानादि के कारण उत्पन्न हुए चित्त के वित्चेप का 
नाम श्रमष हे | इसमें दूसरे के अहंकार को न सहकर उसे नष्ट करने की 
कामना प्रधान होती है। 
अंखों की लालिमा, शिर:कम्प, त्योरी चढ़ाना, स्वेद, तर्जन श्रादि 
इसके लक्षण हें । 
अ्रमप॒ के उदाहरण में पद्माकरजी का निम्नलिखित छुन्द बड़ा 
उत्कृष्ट हे । 
जैसों ते न मो सों कहूँ नेंकहूँ डरातु हुतो, 
ऐसो अ्रब हाँ हूँ तोसों नेंकहूँ न डरि हां। 
कहे * पदमाकर ” प्रचंड जो परैगो तो, 
उमणड करि तो सों भुजदश्ड ठोकि लरि हाँ ॥ 


( ४०३६ ) 


चलौ चलु चलो चलु विचलु न बीच ही तें, 
कीच बीच नीच तो कुटम्ब को कचरि हों। 
एरे दगादार मेरे पातक अपार तोहि, 
गंगा के कछार में पछारि छार करि हों॥ 
भक्त ने पाप को खुला चेलेज्न देदिया हे कि अ्रब तक जिस प्रकार 
तू मुझसे ज़रा भी नहीं डरता था, उसी प्रकार अब में भी तुकसे बिलकुल 
नहीं ढरूँगा | अगर तेने ज़रा भी चीं-चपड़ की, तो मारते-मारते तेरी सारी 
अकड़ भुला दी जायगी | बस चुपके से चले चलो, बहुत तीन पाँच मत 
करो । अ्रब तो तुमे गंगा के कछार में पछार कर ही दम लूँगा। ओरो हो, 
भ्रब तक तेने बड़ी दग़ा दी, तू बड़ा पातकी हे । 


रामचरित-मानस में सीता-घ्वयंवर के समय वीरवर लक्ष्मण की वीरो- 
छियाँ श्रमष के उदाहरण में पढ़ने लायक हें । 


माखे लखन कुटिल भई भूौहें। 
रदपुट फरकत नयन रिसोहें।। 
रघुबंसिन महँ जहं केउ द्वोई। 
तेई समाज अ्रस कहदृद्दि न कोई ॥ 
कद्दी जनक जस अनुचित बानी । 
विद्यमान रघुकुल मनि जानी ॥ 
सुनहु॒ भानुकुल पंकज भानू। 
कहऊ सुभाउ न कल्लु अभिमानू॥। 
जौ तुम्दार अनुसासन पार्वों । 
कन्दुक इव ब्रह्माएड उठावां ॥ 
काचे घट जिमि डारों फोरी। 
सकठे मेरु मूलक जिमि तोरी॥ 
तव॒ प्रताप महिमा भगवाना | 
का बापुरों पिनाक पुराना ॥ 
>< >< >< 


( ४०७ ) 


कमल नाल जिमि चाप चढ़ावों। 

जोजन सत प्रमान ले धावों॥ 
तौरों छुत्नरक दण्ड जिमि, तब प्रताप बल नाथ । 
जौ न करों प्रभु पद सपथ कर न धरों घनुभाथ।॥ 


उपयक्त चोपाइरयाँ ग्रमषं का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। लक्ष्मणजी कहते 
हैं, कि यह बेचारा पुराना धनुष तो क्या चीज़ दे; हे रामचन्द्रजी, यदि श्राप 
आशा दें तो ब्रच्माएड को गंद की तरह उठा सकता हूँ, सुमेरय पव॑त को 
मूली की तरह तोड़-मरोड़ कर फेक सकता हूँ | श्रगर ऐसा न कर दिखाऊ, 
तो आ्रापके चरणों की शपथ खाकर कहता हूँ, फिर कभी धनुष हाथ में 
न लेँगा। 

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इसी सम्बन्ध में यह श्लोक भी पढ लीजिए केसा सुन्दर है--- 

प्रायश्रित्त चरिष्यामि, पृज्यानाँ वो व्यतिक्रमात्‌ । 
नत्वेवे दृषयिष्यामि शझस्त्ग्रह महाब्रतम्‌ ॥ 

भगुनन्दन परशुरामजी की कोपामि प्रचणड द्वोने पर विश्वामित्नादि 
ऋषियों ने उन्हें शान्त रहने को कद्दा, इस पर परशुरामजी बोले--निस्सन्देह 
श्राप सहश पूज्यों की ग्राशा मेरे लिए शिरोधाय है, इसका उल्लंघन करना 
पाप हे; परन्तु में क्षत्रियों को निर्बीज करने के लिए, आरम्भ किये इस 
श्त्र ग्रहण रूप महाव्रत को त्याग नहीं सकता | निश्चय ही इससे गुरुजनों 
के आशोक्लंघन का पाप मुझे लगेगा, जिसका प्रायश्वित करने के लिए. में 
तैयार हूँ । 

अवधित्था 

भय, लज्जा, गौरव आदि के कारण हथ श्रादि मनोभावों को चतुराई 
से छिपाने का नाम अवहित्या है । 

अनभीष्ट काम की श्रोर प्रवृत्ति, बात सुनी-अश्रन-सुनी करना, दूसरी शोर 
देखना भ्रादि इसके लक्षण हैं । 


( ४०८८ ) 


पद्माकरजी ने अवदित्था का केसा सुन्दर उदाहरण दिया है, देखिये--- 

भोर जगी जमुना जल धार में धाय घंसो जल केलि की माती | 

त्यों 'पदमाकर!” पेंग चले उछले जब तुंग तरंग बिघाती। 

टूटे हरा छरा छूटे सबै सरबोर भई अ्रेगिया रंग राती। 

को कद्दतो यह मेरी दसा गह्ठतो न गुविन्द तो में बहि जाती ॥ 

नायिका ने गोविन्द के साथ जल-केलि करने की बात केसी चालाकी 
से छिपाई है | वह यह नहीं कहती कि यमुनाजी में कृष्ण के साथ क्रीड़ा 
की, बल्कि यह बताती है कि में तो न्द्याते-न्हाते यमुना-प्रवाह में वह चली 
थी। बह तो देवयेग से गोविन्द वहाँ आ निकले, जिन्होंने मुके बचा 
लिया-- 

अरब देवजी का उदाहरण भी देखिये-- 

देखन को बन कों निकसीं बनिता बहु बानि बनाय के बागे। 

“देव” कद्दे दुरि दोरि के मोहन श्राय गए उतते अ्रनुरागे । 

बाल की छाती छुई छुल सों घन कंजन में रसपुंजन लागे। 

पीछे निहारि निहारत नारिन द्वार हिये के संवारन लागे॥ 


लता-कुझ्नों में गोपियों के साथ तिद्वार करते हुए मोहन ने किसी बाला 
का अंग-स्पश किया | परन्तु ज्यों ही उन्हें यह शात हुआ कि पीछे से 
दूसरी गोपिकाएं देख रही हैं, तो चट से उसके वह गले का द्वार संवारने 
लगे | यहाँ कृष्ण के द्वार संवारने के बहाने अंग-स्पश करने की बात को 
छिपा देना अवहित्था संचारी दे । 
कविवर विह्वारो का नीचे लिखा दोहा भी अवहित्या संचारी का बड़ा 
उत्कृष्ट उदाहरण है, देखिये-- 
चढ़त घाट बिचल्यों सुपग भरी ग्राय इन अक्क | 
ताहि कहा तुम तकि रहीं यामें कौन कल ।। 
कहों घाट पर एकान्त पा मोहन किसी गोपिका का आलिंगन करने 
सगे | इसी बीच में कुछु और सखियाँ वहाँ श्रा पहुँचीं और मोहन की 


५ ४०६ ) 


उस चेश्ट को देख अ्राश्रयें से उसकी ओर ताकने लगीं। सखियों को 
सन्देहपूर्ण दृष्टि से मोहन की श्रोर ताकते देख गोपी ने कमी चतुराई से 
उनकी वकालत करके असलो घटना को छिपाया है। यही अ्रवहित्था 
संचारी है । 
इस विषय में नीचे लिखा दोहा भी बड़ा मार्के का है। 
कोऊ कछु अरब काहु पै मत लगाइयो दोस | 
होन लग्यो ब्रज गलिन में हुरिहारेन को घोस | 


अ्भिप्राय यह कि हुरिहारों के घोस में अब गोपिकाश्रों को किसी प्रकार 
का दोष देने की ज़रूरत नहीं है। द्दोली के हुदंग में भी कभी किसी को 
कलंक लगा है | 
इस विषय में पद्माकरजी का भी एक दोहा देखने येग्य हे--- 
निरखत ही हरि हरषि के रहे सु श्राँचू छाय। 
बूकत अलि केवल क्यो लाग्यो धूमद्दि घाय ॥ 
हरि को देखते ही नायिका की श्राँखों में हथ के श्राप भ्रा गए | सखौ 
के का रण पूछने पर उसने श्रसली बात छिपा कर आँखों में धुश्रों लगजाना 
आँसू ग्रा जाने का कारण बताया। यही श्रवद्टित्था है। 


रामचरितमानस से भी न॑ंचे लिखी पक्तियाँ अ्रवहित्था के उदाहरण में 
पेश की जाती हे-.. 


>< ९ >< 
तन सकोच मन परम उलछाहू। 
गूढ़ प्रेम लखि परे न काहू।॥ 
ऐसी पीर बिहँति उर गोई। 
चोर नारि जनु प्रगट न रोई॥ 
रचि रचि कोटिक कुटिल पन कीन्द्रेसति कपट प्रबोध । 
कहेसि कथा सत सौति कर जाते बढ़े विरोध ।। 
८ >< >< 


( ४१० ) 


अब अवहित्या के उदाहरण में संस्कृत कविता का चमत्कार 
देखिए-- क्‍ 
एवं वादिनि देवपें पाश्वें पितुरधोमुखी । 


लीलाकमलपत्राणि गणयामास पावंती ॥ 

सममाने-बुकाने से जब शिवजी पावती के साथ विवाह करने के लिए 
प्रस्तुत होगए, तो देवर्षि नारद ने हिमाँचल से कह्टा--'नगाधिराज, शिवजी 
आपकी कन्या पावंती से विवाह करने के लिए राज़ी द्वा गए हैं। अब 
आप इस मंगलोत्सव की तैयारी कीजिये। उस समय पिता के पास 
बैठी हुई, पावंती अपने विवाह का संवाद सुनकर ( इष्ट सिद्धि के 
हथ॑ को छिपाकर ) संकाचवश, सामने पड़े कमल-पुष्प की पंखड़ियाँ 
ग्रिनने लगीं । 


उम्मता 


अपने दोष सुनने, स्वाथ-हानि होने, अन्य द्वारा अ्रपकार किये जाने 
और शूरता एवं रोष के कारण उत्पन्न हुई निर्दंयता श्रथवा चण्डता को 
उम्मता कहते हैं | 


शिर घूमना, पसीना आना, कम्प, तजन, ताड़न आदि इसके लक्षण हैं । 


उग्मता के उदाहरण में कविवर दरिश्रोधजी का निम्नलिखित छुन्द 
पढ़ने योग्य दे-- 
भारत को जन भरि भरि भारतीयता में, 
जा दिन उभरि जाति भीरता भगाइ है। 
भूरि भाग बनि भूतिमान हे हैं भूतल में, 
सकल भुवन कॉँहि भवन बनाइ है। 
'हरिश्रोध! साहस दिखाइ है तो सारो लोक, 
सहमि सहमि सारी सूरता गवाह दै। 
डोलि जै हे श्रासन महेस कमलातन को, 
सासन बिलोकि पाकसासन संकाह है॥ 


( ४११ ) 


हरिश्रोधजी कहते हैं कि जिस दिन भारत निवासी भारतीयता के रंग में 
रंग कर जाति की कायरता दूर कर देंगे, उसी दिन सारा उद्धार हो जायगा | 
उस समय हमारा शासन देखकर सब लेग सहम जायेंगे, यहाँ तक कि 
स्व के राजा इन्द्र को भी भय होने लगेगा । केसा सुन्दर भाव है । 


उग्रता के उदाहरण में पद्माकरजी का दोहा देखिये-..- 


कद्दा कहों सखि काम को दिय निरदेषन आज | 
तन जारत पारत बिपति अश्रपति उजारत लाज || 


सखी, में इस निष्ठुर कामदेव की निदयता का वर्णुन कहाँ तक करूँ । 
बिरहानल द्वारा अबलाओं के शरीर जलाने, उन पर विपत्ति वज् गिराने 
एवं उनकी लाज की सुरम्य वाठटिका को उजाड़ने में इस निलंज्ज को 
जरा भी लज्जा नहीं श्राती । यहाँ कामदेव की दुर्नीति देखकर नायिका 
उसके प्रति कितनी उग्र हो उठी है, इसका आभास उसके कथन के ढंग 
से स्ष्ट मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय यदि अ्रतनु सतनु 
होकर नायिका के सामने त्रा जाय तो वह उसे कच्चा ही खा जायगी। 
इस प्रसंग में लगे हाथों पद्माकरजी का एक पद्य और भी पढ़ 
लीजिए | 
सिंधु के सपूत सुत, सिन्धु-तनया के बन्धु, 
मन्दिर अमन्द सुभ सुन्दर सुधाई के। 
कहें पदमाकर' गिरीस के बसे हो सीस, 
तारन के ईंस कुल कारन कन्हाई के। 
लाल ही के बिरद्द बिचारी ब्रजबाल ही पै, 
ज्वाल से जगावत जुआआल सी लुनाई के | 
एरे मतिमन्द चन्द श्रावति न तोहि लाज, 
हे के द्िनराज काम करत कसाई के॥ 
श्ररे चन्द्र, तुम तो सिन्धु के सुपात्र बेटे ओर लक्ष्मीजी के सहोदर भाई 
हो । लोग तुम्हें सौन्दय और सीघेपन का भण्डार बताते हैं। बहुत काल 


( ४१२ ) 


तक तुमने मदनानतक महादेवजी के शिर पर भी निवास किया है। कृष्ण- 
चन्द्र के तो तुम आदि पुरुष हो, उनका वंश तुमसे ही प्रारम्म हुआ हे । 
फिर भी तुम्हारा यह अन्घेर, ऐसा निदयता-पू्ण व्यवद्वार कि कृष्ण ही के 
प्रेम में आसक्त हुई बेचारी त्रजबालाश्रों को विरह-ज्वाला में जलाते हो ! 
भले मानस कुछ अपने कुल का तो ध्यान रक्‍खा होता, कामारि 
कैलासपति के सत्संग की कुछ तो लाज राखी होती। तुमने तो बारह 
बरस दिल्‍ली में रह कर भाड़ कोंकने की कहावत ही चरिताथ की । इतने 
दिन महादेवजी के साथ रहकर उनसे कुछ भी न सीखा। उलटदे उनके 
स्वभाव के प्रतिकूल श्राचरण किया | श्रधम ! द्विजराज द्ोकर भी निदय 
कसाइयों का-सा काम करते हुए तुके लजा भी नहीं आती | 


संस्कृत का उदाहरण भी देखिए--- 


प्रणय सखी सलील परिहास रसाधिगतै- 
ललित शिरीषपुष्प हननैरिव ताम्यति यत्‌ । 

वपुषि बधाय तन्र तव शझ्जमुपतक्तिपत:, 
पततु शिरस्यकाण्ड यमदणडहवेष भुजः ॥ 


अ्रधोर घंट नामक कापालिक द्वारा अपनी प्रेयती मालती का बध 
होता देख, माधव कहता हे--श्ररे ऋर कापालिक, जो मदुल मालती हूँती में 
भी अपनी किसी सखी के शिरीष प्रसून प्रहयरों से व्याकुल हो जाती है, 
उसको मारने के लिए तू शत्र चलाना चाहता हे | हत्यारे. निश्चय ही 
तेरे सिर पर काल मंडरा रहा हे, ठहर-ठहर, बज्र बन कर गिरता हुश्रा 
मेरा प्रचण्ड भुजदण्ड इसी समय तेरा ध्वंस किये देता है । 


पति 


प्रतिकूल परिस्थिति, भ्रान्ति या विवाद उपलत्यित होने पर भी नीति 


मांगे का अनुसरण करते हुए यथाथता का निशय कर लेने का नाम 
अति है । 


( ४१३ ) 


निर्णीत वस्तु का स्वयं आचरण या उपदेश, मुस्कराहट, पैय, सन्‍्तोष, 
स्वावलम्बन आदि इसके अनुभाव हैं | 
राम-चरित-मानस में मति का कैता सुन्दर उदाहरण मिलता है -- 


जातु बिलोकि श्रलोकिक शोभा । 
सहज पुनीत मोर मन ज्षोभा || 
सो सब कारण जान विघाता। 
फरकरहिं सुभग अंग सुनि भ्राता || 
रघुबसन कर सहज सुभाऊ। 
मन कुपन्थ पग घर न काऊ॥ 
मोदि ग्रतिसय प्रतीत जिय केरी । 
जेहि सपनेहु पर नारि न ददेरी॥ 
>< > >८ 


श्रीरामचन्द्रजी कहते हैं, कि सीताजी का अलौकिक रूप-सौन्दर्य 
देखकर स्वभाव से ही पवित्र मेरे मन में क्ञोम पैदा हो गया है। भगवान्‌ 
ही जाने ऐसा क्यों हुआ । मेंने तो कभी भूलकर भी कुपन्थ में पग नहीं 
दिया, और न सपने में भो पराई स्त्री को देखा हे | 


यहाँ सीता-दशन से उत्पन्न प्रतिकूल परिस्थिति में भी धम-मर्यादा का 
विचार रखना “मति” संचारी है । 


कविवर देव का निम्नलिखित सवैया भी मति का सुन्दर उदाहरण हे-- 

श्याम के संग सदा विलसी सिसुता में सिता में कछू नहिं जानों। 

भूलें गुपाल सों गव॑ कियो गुन जोवन रूप वृथा अ्ररिमानों। 

जौ न निगोड़ी तब समकभो कवि “देव? कहा अब जो पछितानो। 

धन्य जिये जग में जन ते जिनको मनमोहन तें मन मानो ॥ 

बाल्यकाल में तो श्याम के साथ खूब हास-विलास किया, परन्तु तरुण 
होने पर रूप-यौवन जनित गव के कारण में उनसे मान कर बैठी । उस समय 
कम्बज़त मन ने जरा भी समझ से काम नहीं लिया । अब पछुताने से 


(५ ४१४ ) 


क्या होता है। वास्तव में उन्हीं का जीवन धन्य है, जो द्वदय से मनमोहन 
कृष्ण में श्रनुरक्त रहते हैं । 

यहाँ गवे-जनित अपनी भूल के लिए. पछुताना और कृष्ण से प्रेम 
करना ही उचित है ऐसा निश्चय कर लेना ही मति संचारी हे । 

मति के सम्बन्ध में नीचे लिखा निवाज कवि का सवैया भी बड़ा 
सुन्दर हे । 

सुनती हो कद्दा भगि जाहु घरै बिंध जाउगी काम के बानन में । 

यह बंसी '“निवाज' भरी ब्रिस सों बिस सो भरि देति है प्रानन में । 

अ्रव ही सुधि मूलिहो मेरी भट्ट बिरमो जनि मीठी-सी तानन में । 

कुल कानि जो आपुनी राख्यो चहौ श्रंगुरी दे रहो दोऊ कानन में ॥ 


इस वंशी की मीठी तान को क्‍या सुन रद्दी हो, मालूम है कि नहीं, 
यह प्राणों में विष मर देती हे--विष | सारी सुध-बुध भुला देती है। 
अगर तुम अपनी कुलकानि रखना चाहती हो, तो यहाँ से भाग जाओ्रो, 
अथवा दोनों कानों में उगलियाँ दे लो, नहीं तो काम के बाणों का शिकार 
बन जाओ्रोगी। 
यहाँ विष बरसाने वाली बॉँसुरी के बजते रहने पर भी, उसकी मोहनी 
माया से बचने के लिए. उपाय बताना या उपदेश देना ही मति 
संचारी है । 
रामचरित-मानस की नीचे लिखी चोपाइयाँ भी मति के उदाहरण में 
ठीक उतरती है । मन्दोदरी अ्रपने पति रावण के बध पर विलाप करती 
हुई कहती हे-- 
>< >< >< 
राम बिमुख अ्रस हाल तुम्हारा । 
रहा न कुल कोउ रोवन द्वारा॥ 
अब तब सिर भुज जम्बुक खाद्दी । 
राम विमुख यह श्रनुचित नाहीं ॥ 


( ४१४ ) 


अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिन्धु को आन । 
मुनि दुलभ जो परम गति तुमहिं दीन भगवान ॥ 
राम के विरुद्ध होने के कारण ही तुम्दारा ऐसा हाल हुआ्रा, कि श्राज 
कुल में कोई रोने वाला भी शेष नहीं है।............फिर भी तुम 
बड़ भागी रहे, जो कृपासिन्धु भगदान्‌ राम के हाथों से तुम्हें वह परमगति 
प्रास हुई जो मुनियों को भी दुलभ है । 
यहाँ घोर संकट-काल में भी विवेक-बुद्धि का बना रहना वर्णित है, 
अत: यद्द मति संचारी हुझा | 
मति के सम्बन्ध में निम्नलिखित उत्कृष्ट कवित्त भी पढ़ने लायक है-- 


गोरो क्षीरसिन्धु गोरो देखिये सुधा को सिन्धु 
गोरो चन्द्रबंस गोरो जदु बंस ही को हे। 
गोरे बलदेव गोरे बसुदेव देवकी हू, 
गोरी-गोरी जसुमति गोरो नन्‍्द नीको है ॥ 
ब्रज सब गोप गोरे; गोपिका हू गोरी सबै, 
कान्ह भयो कारो यातें जानो चोरी जी को है । 
स्याम पूतरी के बीच स्थाम पूतरी में राखि, 
नन्द पूतरी को लाये रंग पूतरी को है ॥ 
वासुदेव, बलदेव, यशोदा, देवकी, गोपी-गोपिकाएँ सब गोरे ही गोरे, 
परन्तु कृष्ण केसे काले हो गए. ! श्रोह्ो | समझ में श्रागया, नन्‍द की काली 
पुतलियों के पोतरों में रहने के कारण कृष्ण का रंग काला होगया है । 


यहाँ कृष्ण काले क्‍यों हैं, यह विश्रम उपस्थित होने पर उनकी श्यामता 
के कारण का यथाथ निणंय कर लेना ही मति संचारी है । 
श्रन्त में संस्कृत, काव्य-साहित्य का निम्नलिखित उदाहरण पढ़ अ्रद्भधुत 
रसानन्द लूटिए--- 
ग्रसंशयं क्षत्रपरिग्रहक्षमा, 
एै 
यदायमस्यामभिलाषि मे मनः । 


( ४१६ ) 


सतां हि सन्देह परदेषु वस्तुषु, 
प्रमाणुमन्त:करणा-प्रवृत्तयः ॥ 

वन में तपध्त्र कन्या शऊुन्तला को देखकर राजा दुष्यन्त के मदद से 
अ्नायास ही निकल पड़ता हे कि निल्सन्देह यह कन्या ज्ञनत्रिय के साथ 
ब्याही जाने योग्य है । में क्षत्रिय हूं, मेरा मन आयेषजित उदात्त गुणों से 
भरा हुआ है | एक ज्ञत्रिय के शुद्ध अन्तःकरण की ऐसी सदमभिलाषा निश्चय 
ही इस बात की द्योतक है, कि यह कन्या किसी ज्षत्रिय वर द्वारा ही बरी 
जानी चाहिये। 

महाकवि देव ने मति संचारी के श्रन्तगत उपालम्भ, श्रतुनय, विनय 
एवं उपदेश का भी वर्णन किया है। फिर उपालम्भ के दो भेद किये हैँ- 
अर्थात्‌ एक कोपजनित उपालम्भ ओए दूसरा प्रणयजनित उपालम्भ | उन्होंने 
दोनों प्रकार के उपालम्मों तथा अनुनय-विनय श्रादि के जो उदाइरण दिये 
हैं, वे क्रशः नीचे लिखे जाते हैं । 

काप जॉनित उपालम्भ 

बोलत हो कत बैन बढ़े अरू नेन बड़े बड़रान अड़े हो। 

जानति हो छुल छेल बड़े जु बड़े खन के इह्दि गेल गड़े हो। 

'देव' कहै हरि रूप बड़े ब्रज भूप बड़े हम पे उमड़े हो। 

जाउ जी जाउ श्रनीठ बड़े अ्ररु इठ बड़े पर ढीठ बड़े हो॥ 

प्रशभय जनित उपालम्भ 

लाल भले हो कहा कहिये कहिये तो कहा कहूँ कोऊ कहैये ; 

काहू कहूँ न कद्दी न सुनी सु हमे कहिवे कहें काहि सुनैये । 

नैन परै न परै कर मेन न चेन परे जु पे बैन बरैये। 

'देव' कहूँ नित को मिलि खेलि इते द्वित के चित कों न चुरैये ॥ 


ध्रमुनय विनय 
वे बड़ भाग बड़े अनुराग इते अ्रति भाग सुहाग भरी हो। 
देखो बिचारि समौ सुख को तन जोवन जोतिन सों उजरी हो । 


( ४१७ ) 


बालम सों उठि बोलो बलाय लें यों कद्दि देव” सयानी खरी हो । 
हेरत बाट कपाट लगे हरि बाट खरे तुम खाट परी हो॥ 


उपदेण 


कोप सों बीच परे पिय सों उपजावत रंग में भंग सु भारी। 
क्रोध बिधान बिनोद निधान सु मान महा सुख में दुखकारी। 
ताते न मान समान अकारज जाको अ्रपानु बड़ो अधिकारी। 
'देव? कहें कहि हों हित की हरि जू सो हितू न कहूँ हितकारी। 


और भी श्रनेक कवियों ने उपालम्भ सम्बन्धी कविताएँ लिखी हैं। महद्दा- 

कवि यूरदासजी ने तो प्रेम और भक्ति के आवेगों में आनन्द कन्द श्रीकृष्ण- 
चन्द्र को खूब ही खरी-खोटी सुनाई है, बड़े-बड़े उलाहने दिये हैं । इन 
सब उपालम्भों में कवि-प्रतिभा-प्रसूत कल्पना की बड़ी सुन्दर छुटा दिखाई 
देती है।कविरत सत्यनारायण ने भ्रीकृष्ण को जो उपालम्भ दिया है, 
वह भी बड़ा ही उत्कृष्ट है। देखिये--- 

माधव आप सदा के कोरे। 

दीन दुखी जो तुमकों जाँचत सो दानिन के भोरे॥ 

किन्तु बात यह तुब सुभाव वे नेंक्रहु जानत नाहीं। 

सुनि सनि सयस रावरो तुव ढिंग आवन को ललचाहों | 

नाम धरे तुमकों जग मोहन मोह न तुमकों आवे। 

करुनानिधि तुव द्दरय न एकहु करुनाजुन्द समावे ॥ 

लेत एक को देत दुूसरेहिं दानी बनि जग माहीं। 

ऐसो हेर फेर नित नूतन लाग्यो रहत सदाहीं॥ 

भाँति भाँति के गोपिन के जो तुम प्रभु चीर चुराये। 

अति उदारता सों ले वे ही द्रौपदि को पकराये ॥ 

रतनाकर कों मथत सुधा को कलस श्रापु जो पायेा। 

मन्द मनन्‍्द मुतकात मनोहर सो देवन कों प्याया॥ 
हि० न०--२७ 


५ ऑरै८्स ) 


शत्त गयन्द कुबलया के जो खेल प्रान हरि लीन्हे। 
बड़ी दया दरसाहइ दयानिधि सो गजेन्द्र कों दीन्‍्दहे ॥ 
करि के निधन बालि रावन को राजपाट जो पाया। 
तहेँ सुग्रीव विभीषन कों करि ञअ्ति अहसान बिठाये ॥ 
पौरए्डरीक को स्वनास करि मालमता जो लीयोा। 
ताकों विप्र सुदामा के सिर करि सनेह मढ़ि दीयो॥ 
ऐसी तूमा पलटी के गुन नेति नेति ख॒ति गाव । 
सेस, महेस, सुरेस गनेसहु सहसा पार न पावबें॥ 
इत माया अगाध सागर तुम डोबहु भारत नेया। 
रचि महाभारत कहूं लरावत आपुस मैया भैया ॥ 
या कारन जग में प्रसद्ध अति निब्रदी रकम कहाओ। 
बढ़े बढ़े तुम मढठा बारे चों साँची खुलवाओ ॥ 


व्याधि 
बात, पित्त, कफ आ्रादि को विषमावस्था से उत्पन्न शारीरिक रोगों को 
व्याधि कहते हैं। किसी-किसी ने वियाग-जन्य मनस्ताप अर्थात्‌ आ्राधि 
को भी व्याधि माना है । 
कम्प, प्रथिवी पर लोटने की इच्छा, आकुलता, मुख सूखना, वैवर्यं, 
ताप, मूच्छा आदि इसके लक्षण हैं । 


व्याधि-विषयक पद्माकरजी का उदाहरण देखिये-- 


दूरि ही तें देखत बिथा में बा बिये।गिनी की, 

ग्राई भत्ते भाजि हाँ इलाज मढ़ि आवेगी ; 
कहे पदमाकर'! सुनो हो घनस्याम जाहि--- 

चेतत कहूँ जो एक आह कढ़ि आवेगी। 
सर सरितान कों न सूखत लगेगी देर, 

एती कल्लु जुलमिनि ज्वाल बढ़ि श्रावेगी । 


(६ ४१६ ) 


ताके तन ताप, की कहाँ मैं कहा बात, मेरे-. 
गात ही छुए ते तुम्हें ताप चढ़ि आवेगी || 
अ्रजी उस वियागिनी को में तो दूर से ही देख कर भाग आई हूँ । 
वह तो विकराल वियोग-बन्हि से बुरा तरह भुन रही है। सच समभना, 
अगर कहीं उसकी आह निकल गई, तो मारे ताप के सारे नदी-नालों का 
पानी सूख जायगा । नायिका के शरोर की उग्र ऊष्मा की तो बात ही क्या, 
उसको देखने मात्र से स्वयं मेरा शरीर इतना उत्तप्त होगया है कि उसे 
छूकर तुम्हें ज्वर चढ़ आवेगा । 
थ ट् ५ 
'शड्भूर” जी ने तो वियोगिनी की श्राह कढ़ने के कारण और भी अ्रधिक 
अनथ द्वाजाने की आशंका प्रकट की है, देखिये -.. 
'शंकर” नदी नद नदीसन के नीरन की, 
भाप बनि अम्बर ते ऊँची चढ़ि जायगी। 
दोनों ध्रुव छोरन लों पल में पिघल कर, 
घूम घूम घरनी घुरी सी बढ़ जायगी । 
भारंगे अ्रंगारे ये तरनि तारे तारापति 
जारेंगे खमण्डल में ग्राग मढि जायगी। 
काहू ब्रिधि ब्रधि की बनावट बचेगी नाहिं, 
जो पै वा बियोगिनी की राह कढ़ि जायगी ॥ 


शंकरजी को वियोगिनी पद्माकरजी को वियोगिनी की अश्रपेक्षा बहुत 
भयंकर है | अगर उसकी ' आह कढ़ गई! तब तो आकाश-पाताल, 
नदी, नाले, समुद्र कुछ भी नहीं बचेंगे | विधाता की सारी सृष्टि ही नष्ट हो 
जायगी, प्रलय का दुद श्य दिखाई देने लगेगा । 

अब इसी विषय का महाकवि देव का उदाहरण देखिये-- 

ता दिन ते अ्रति व्याकुल है तिय जा दिन तें पिय पंथ सिधारे | 

भूख न प्यास बिना ब्रजभूषन भामिनि भूषन भेस बिसारे। 


( ४२० ) 


पावत पीर नहीं कवि “ देव ? करोरिक मूरि सब्र करि द्वारे। 
नारी निहारि निहारि चले तजि बैद बिचारि बिचारि बिंचारे॥ 


देबजी की वियागिनी के मुख से विध्वंसकारिणी श्राइ कढ़ने का भय 
तो नहीं हे, परन्तु हाँ, वह स्वयं बहुत बोमार होगई है । न कुछ खाती हे, 
न पीती है, वेश-भूषा की तो बात ही क्‍या ! करोड़ों दवाएँ कर डाली 
पर कोई कारगर न हुई । हो कैसे, रोग समझ में आवे तब न ! बड़े-बड़े 
वैद्य श्राते हैं, किन्तु नाड़ी देखकर चलते बनते हैं। किसी की समझ में 
कुछु नहीं आता । 
व्याधि के उदाहरण में निम्नलिखित दोहे भी बहुत सुन्दर हें। 
कब की अजब अ्रजार में परी बाम तन छाम। 
..तित कोऊ मति लीजिये चन्द्रोदय को नाम ॥ 
>< ख्र >< ( पझ्माकर ) 
पलन प्रकट बरुनान बढ़ि नहि कपोल ढठहराय। 
ते अँसुश्रा छुतियोँं परे छन छुनाय छिपि जायें॥ 
9८ > >< 
यह बिनसत नग राखि के जगत बड़ी जस लेहु। 
जरी ग्रिसम जुर जाइये आप सुदसन देहु॥ 
भर हा >< ( बिहारी ) 
वियोगिनी केसे ग्रजीब रोग में फंसी है। उसका शरीर सूखकर काँटा 
होगया है | देखो, उधर जाते तो हो परन्तु चन्द्रोदय का ज़िक्र मत कर 
देना | क्योंकि उसे चन्द्रोदय से किसी श्रोषधि विशेष का बोध तो द्वोगा 


नहीं, बह तो उसे विरदिणी-विदाइक रजनीश का उदय होना द्वी सममेगी, 
जितसे उसका रोग और बढ जायगा । 


२९ +५ ४५ 


( ४२१ ) 


पलकों से निकल बरूनियों में बहते और कपोलों पर रपटते हुए आँसू 
वियोगिनी के वत्तुस्थल पर ञ्रा पड़े | परन्तु वहाँ के प्रचए्ड-ताप का क्‍या 
ठिकाना ! जिस प्रकार तपते हुए तबे पर पड़ कर पानी की बूँदे छुन्न-छुन्न 
कर शआ्रासमान की ओर उड़ जाती हैं, उसी प्रकार वियोगिनी की छाती फर 
पड़े आँसू छुनछुना कर छिप गए. ! 
>< ् 
इस वियोगिनी के प्राण बचा कर आप बड़ा यश लेंगे। यह बेचारी 
विषमज्वर में जल रही हे,सुदशनजी,आप इसे अपने सु-दशन दीजिये जिससे 
वह श्रच्छी हो जाय। अथवा सुदर्शन चूर् खिलाइये, जो विषमज्वर के 
लिए. बहुत उपयोगी होता दे । या कोई ऐसी ओर ( जरी ) जड़ी दीजिये, 
जिससे इसका ज्वर (जाय) जाता रहे । जो उचित समझे वह कीजिये | इम् 
तो इसे नीरोग देखना चाहते हैं | 
>< रे >< 
जब किसी विरहिणी के रोग का निदान नहीं हुश्रा. तत्र॒ विद्यरीजी को 
एक बात यूफी-- 
में लखि नारी ज्ञान करि राख्यो निरघारि यह । 
वहे जु रोग निदान बहे वेद औषधि वहे ॥| 
उन्होंने नारी शान (स्त्री विशान) देख कर निश्चयपूवंक बताया, 
कि घबराने की कोई बात नहीं है | मरज़ समझ में झा गया है । विरदिणी 
के रोग का जो निदान ( आदि कारण ) है, वहो इसके लिए वैद्य है ओर 
वही श्रमोष श्रोषधि ! अर्थात्‌ यह प्रियतम की वियोगाग्नि में जल रही हे, 
उसके संयोग से ही इसका सारा रोग दूर हो जायगा। 
उदू कवियों ने भी व्याषि के सम्बन्ध में बड़ी सुन्दर कल्पनाएँ को हैं। 
कुछ नमूने नीखे दिए जाते हैं, देखिए -- 
नातवानी ने बचाई जान मेरी हिज़ में। 


कोने कोने ढँढती फिरती कज़ा थी में न था ॥ 
--जफ़र 


( ४९२ ) 


वियोग-जन्य कृशता के कारण मौत से बचने का मोका ख़ूब मिल 
गया। कज़ा आई श्रोर चारों तरफ़ मुझे आखें फाड-फाइ कर ढूँढ़ती फिरी, 
परन्तु मेरी कृशता इतनी बढ़ गईं थी, कि में उसे दिखाई ही न दिया । 
आखिर भूख मार कर वह चली गई ओर मेरी जान बच गई | इसी भाव 
को नासिम्र साहब ने इस प्रकार प्रकट किया है-- 


इन्तहाए लाग़री के जब नज़र आया न में | 
हँस के वह कहने लगे विस्तर को राड़ा चाहिए ॥ 


लाग्री की इन्तहा हो जाने फे कारण जब में उन्हें विस्तर पर दिखाई 
न पड़ा, तब वह हँस कर कहने लगे--भाई, ज़रा विस्तर को झाड़ू कर तो 
देखो । 


संस्कृत वालों ने व्याधि का उदाहरण इस प्रकार दिया है। 


दृदये कृत शेवलानुषद्भा--- 

मुहुरज्ञानि इतस्तत: जिपन्ती । 
तदुदन्त परे मुखे सखीनाम्‌-- 

अति दीनामियमादधाति दृष्टिम॥ 


सिवार, घनसार आदि शीतलता प्रदान करने वाले पदार्था' को हृदय 
पर धारण किये हुए ओर विकलता के कारण अंगों को इधर-उधर पटकती 
हुई वह नायिका, नायक के सम्बन्ध की चर्चा करती हुईं सखियों के मुख 
की और कातरतापूवक दृष्टि डाल रद्दी है | विरह-व्याधि-पीड़िता नायिका का 
केसा स्वाभाविक वर्णन हे--व्याधि का कितना उत्कृष्ट उदाहरण हे । 


उनमाद 


काम, शोक, भय आदि की अधिकता. श्रभिधात, ओर वातादि दोषों 
के प्रकोप से चित्त में जो व्यामोह श्र विज्ञोम होता दे, उसे उन्माद 
कहते हैं । 


( ४२३ ) 


असमय ओर श्रकारण हँसना, रोना, गाना, बकना, धूल, इंट, पत्थर 
इकट्ठ करना या फेंकना आदि अ्रव्यवस्थित क्रियाएं. करना इसके लक्षण हैं । 
रसतरंगिणीकार ने विना विचारे आचरण करने को उन्माद संज्ञा 


दी है। रामचरितमानस से उन्माद का उत्कृष्ट उदाहरण नीचे दिया 
जाता है -- 
हा गुग खानि जानकी सीता। 
रूप शील ब्रत नेम पुनीता ॥ 
>< >< >< 
लक्ष्म्ण समभाये बहु भाँती। 
पूछत चले लता तर पोती ॥ 
है खग मृग दे मधुकर सेनी। 
तुम देखी सीता मृगनेनी ॥ 
खञ्जन शुक कपोत म्रग मीना | 
मधुपनिकर  कोकिला प्रवीना॥ 
कुन्द कली दे दाड़िम दामिनि। 
है हे कमल शरद शशि भामिनि॥ 
यहि विधि विलंपत खोजत स्वामी | 
मनो महा वग्हों ग्रति कामी ॥ 
सीता के वियोग से व्याकुल राम की ऐसी दशा हो गई हे कि वे जंगल 
के जीव-जन्तुश्रों, पशु-पक्षियों और तरु-बलली-लताओं से पागल की तरह 
पूछते फिरते हैं, कि बताओ्रो, तुमने कहीं मेरी मृगनयनी सीता तो नही 
देखी । वे उस निविड़ वन में जनकनन्दनी को खोजते हैं, ओर विलखते 
हैं | इससे बढ़ कर उन्‍्माद और क्या होगा | 
इस विषय में पद्माकरजी का भी निम्नलिखित उदाहरण देखिये -- 
श्रापु ही आपु पे रूसि रहे, कबहूँ पुनि आपुद्दी आपु मनावे। 
त्यों 'पदमाकरः ताकि तमालनि भेंटवे कों कबहूँ उरठि धावै । 


( ४रं४ ) 


जो इरि रावरो चित्र लखे तो कहूँ कपहूँ हँसि देरि बुलावे। 
व्याकुल बाल सुग्रालिन सों कह्मौँ चाहे कछू तो कछु कद्दि जावै ॥ 


उपयक्त सवैया में पद्माकरजी ने उन्माद का कैसा सुन्दर शब्द-चित्र 
खींचा है। नायिका खुद ही रूठ जाती है, ओर खुद ही अपने आपको 
मनाती है | कभी वृत्तों को आलिंगन करने के लिए दोड़ती हे। और यदि 
कहीं नायक का चित्र देख पाती हे. तो उसे हस-हंत कर बुलाने लगती हे । 
सखियों से कहना कुछ चाहतो हे और मुंह से निकल कुछ जाता है। मन 
की इस विकृतावस्था का भी कुछ ठिकाना है ! 

उन्माद संचरी के उदाहरण में नीचे लिखा देवजी का सवैया भी बड़ा 
सुन्दर हे । 

नाहिंन नन्‍्द को मन्दिर ये ब्रषभान को भौन कद्दा जकती हौ । 

हौद्दी अकेली तुद्दी कवि देवजू घँघट के किहिकों तकती हो। 

भेंटती मोहि भट्ट किहि कारन कोन सी धौं छवि सों छुकती हो 

काह भयो है, कहा कहो, केसी हो. कान्ह कहाँ दे, कद्दा बकती हो ॥ 


देवजी के इस सवेये में राधिका की अस्तव्यस्‍्त मानसिक दशा का 
बरून ही उन्माद सब्चारी है | 
नीचे लिखे कवित्त में किसी गोपी की उन्मादावस्था का कैसा सुन्दर 
बरून किया गया हे । 
जबते कबर कान्ह रावरी कला-निधान 
कान परी बाके कहूँ सुजस कहानी सी | 
तबद्दीते देखी देव” देवता सी हँतति सी 
खीभति-सी रीभति-सी रूसति रिसानी सी । 
छोई सी छुली सी छी न लीनी सी छुरी सी छीन, 
जकी सी टकी सी लगी थक्री थदरानी सी। 
बिंधी-सी बेंधी सी ब्रिस-बुढ़ी-सी बरिमो द्वत-सी, 
बैठी बाल बकति बिलोकति बिकानी-सी ॥ 


( ४२५ ) 


उन्माद का कितना स्वाभाविक वर्शन है | 


ओर देखिए निम्नलिखित दोहा भी उन्माद का कैसा उत्कृष्ट उदा- 
इरण है! 
अकरुन हिय पिय ! तोहि हों ना छोरों अ्रब॒पाई । 
यों बोलति गहि कर-कमल आलिनि को श्रकुलाई ॥ 


“निष्ठुर हृदय प्रियतम, मेंने बड़ी कठिनाई से तुम्हें पकड़ पाया है। 
अब में तुम्हें हरगिज्ञ नहीं छोड़ें गी ।” प्रिय-विरह विधुरा नायिका अ्रपनी 
सखी का कर-कमल पकड़ कर इस प्रकार बड़बड़ा रही है | उन्माद का इससे 
भी अभ्रधिक जीता जागता उदाहरण औ्ोर क्या हो सकता है। नयिका को 
यह भी होश नहीं कि वह किसका हाथ पकड़े क्‍या कष्ट रही है। 


संस्कृत साहित्य में उन्माद का उदाहरण इस प्रकार दिया है । 
भ्रातद्वगेफ ! भवता भ्रमता समस्तात्‌ , 
प्राणाघिका प्रियतमा मम वीक्षिता किम 
ब्रेपे किमोमिति सखे! कथयाशु तन्‍मे, 
कि कि व्यवस्यति १ करुतोइस्तिच की हृदशीयम ! 


भाई भोरे तुम चारों ओर मँडराते फिरते हो, भला तुमने कहीं मेरी 
प्राशप्रिया भी देखी हे । तुम गँज-गँल कर क्‍या 'हूँ-हूँ? कद्द रहे हो |! तब 
तो बड़ी खुशी की बात हे | बताश्रो न वह कहाँ है. केसे है. और क्‍या कर 
रही है | 
परण 
किसी बाहरी ग्राघात, विषपान अश्रथवा रोगादि के कारण शरीर से 
प्राय निकल जाने का नाम मरण है | 


शरीर का पतन, श्वासेच्छुवआास का बन्द हो जाना श्रादि इसके 
लक्षण हैं | 


( ४२३६ ) 


रस गंगाधघरकार ने वास्तविक मरण से पहले की त्रिप्रलम्भ (वियेग) 
श्रगार जनित मूच्छावस्था के ही मरण माना है। उनके मत में रस- 
द्वानि के भय से प्राण वियेग रूपो वास्तविक मरणु का काव्य-शात्र में 
वर्णन करना उचित नहीं है | इसी लिए अश्रधिकांश कवियों ने मरण के 
वरणुन में शूरों के वीर-गति प्राप्त करने या स्त्रियों के सती होने का दी 
उल्लेख किया है । 


प्रदीपकार भी शरीर से जीव के निकलने की पूर्वावस्था--मुच्छा के 
ही मरण मानते हैं । 

मरण के उदाहरण में देव जी का निम्नलिखित सवेया देखिये--- 

राधिके बाढ़ी बियाोग की बाघा, सु देव श्रढडाल श्रबोल डरी रही । 

लोगनि की वृषभान के भोन में भोरते भारी ये भीर भरी रही | 

वाके निदान के प्रान रदे कढि ओषधि भूरि करोरि करी रही। 

चेति मरू करि के चितयी जब चारि घरी लों मरी सी परी रही ॥ 


उपयुक्त सवैया में ब्रषभानुजा की वियेग-बाघा जनित मूर्ज्छा का 
वर्णन है | वह कुछ काल तक तो इस प्रकार अचेत पड़ी रही कि लोगों ने 
उसे मरी हुई समझ लिया । 
इस सम्बन्ध में महाकवि तुलध्षीदास की भी पंक्तियाँ पढ़ लीजिए- 
रनि हट दारुण चिता बनाई । 
जनु सुर लोक नसेनी लाई॥ 
करि प्रणाम सब जन परितोषी । 
धीरज धघरसि तासु मति पोषी ॥ 
शिर भुनत्र धरि बैठी करि आसन । 
भई जनु सिद्ध याग परकासन ॥ 


देत श्रनल ज्वाला बढ़ी, लपट गगन लगि जाय । 
लखी न काहू जात तिहि, सुरपुर पहुँची धाय ॥ 


( ४२७ ) 


उपयक्त पंक्तियों में, सुलोचना का श्रपने पति के साथ सती होना 


बणित हे । 


मरणु संचारी के उदाहरण में वेनीजी का नीचे लिखा सवबेया भी 
बड़ा सुन्दर है । 


धीर धुरीन धरा के पुरन्दर कोमलराय सौ दूसरों को कहि। 
राज समाज तज्यों तिन वूल अनतूल जो सत्य के मूल रहो गहि । 
मानत “बैनी' हे राम सौ पूत पठाय दयो बन कीरति को चहि | 
आप सिधाय गयो सुरधाम को एक घरी न वियोग सक्‍यो सहि। 


बैनी कवि ने उपयक्त सवैया में असली मृत्य का वर्णन किया है, जैसा 
कि प्रायः कवि लोग बहुत कम करते हैं । 


मरणु के सम्बन्ध में शंकरजी का भी एक उदाहरण देखिये--. 

ग्राह ' दई गति केसी भई निशि ग्राधी गई हनुमान न आायो । 
खातु रह्मो फल-फूल कहूँ सुधि भूलि गये कप मूरि न लायो। 
जानि परे अ्रनुमान सो आ्राजु बिरंचि नें बन्धु के संग छुड़ायौ । 
'शड्टूर' कष्ट न नष्ट भयो, बिधि ने दुख भाजन मेोहि बनायो। 


उपयुक्त सवैया में शक्तिवाण लगने के कारण लक्ष्मण के मूल्छित हो 
मृतवत्‌ हो जाने पर रामचन्द्रजों विलाप कर रहे हैं। उस समय उनकी 
झाँखे संजीवनी बूटी की ओर लगी हुई हैं। हनुमान श्आा्वे श्रोर बूटी लावें 
तो मुच्छा दूर दे। । 


ग्रब॒ मरण सम्बन्धी संस्कृत का उदाहरण भी देख लीजिए-. 
राम-मन्मथ-शरेण ताढ़िता, 
दुःसहेन हृदये निशाचरी। 
गन्धवद्रुधर चन्दनोक्षिता, 
जीवितेश-वसतिं जगाम सा॥ 


( डरे८ ) 


राम के तीत्र तीर द्वारा प्रताड़ित ताइका रूघधिर से स्नान करती हुई 
यमराज के घर सिधार गई । श्रथवा कमनीय कामवाण-विद्ध वह राक्षस 
गन्ध युक्त रक्त चन्दन से उपलिप्त होकर प्राणपति के पास पहुँच गई । 


त्रास 


बादल गरजने, बिजली कड़कने, तारा टूटने, भयंकर प्राणी या हिंस्त 
जन्तु के शब्द करने, बलवान्‌ का अ्रपराध करने, भय श्रथवा किसी श्रन्य 
अहित भावना से चित्त में जो अविचारित और श्रचानक व्यग्रता उत्पन्न 
होती है, उसे त्रात कहते हैं | भय पूर्वापर के विचार से उत्पन्न होता है 
ओर श्रास श्रचानक, यही दोनों में भेद हे । 

कम्प, व्याकुलता, भय, स्तम्भ, रोमाश्च, गदगद्‌ वाणी, नेन्रों का 
निर्निमेष हो जाना आदि इसके लक्षण हैं | 


रस तरंगिणीकार ने मन के विज्ञोभ के त्रास माना है। उसमें विचार 
से उत्पन्न हुए क्ञोम का 'भयः, ओर घोर शब्द सुनने या भयंकर प्राझी 


का दशन करने श्रादि से अकस्मात्‌ उत्पन्न हुए क्ञोभ को “त्रास” संज्ञा 
दी हे। 


श्वास के उदाहरण में देव कवि का निम्नलिखित सवैया पढ़िये-- 
श्री वृषभानु लली मिलिके जमुनाजल केलि के देलिनि आनी। 
रोमवली नवली कहि 'देव” सु सोने से गात अन्हात सुद्दानी। 
कान्ह श्रचानक बोलि उठे उर बाल के व्यालबधू लपटानी। 
घाय के घाय गही संतवाय दुहू कर भारत अंग श्रयानो ॥ 


उपयक्त सवैये में यमुना में नहाती हुई वृषभानु लली के सुन्दर शरीर 
पर रोम राजो देख कर श्रेकृष्णनी कौतुक वश कह उठे--“श्ररे तुम्हारे 
वक्ष स्थल पर तो नागिन लिपटी हुई है।' यह सुन राधिकाजी एक दम 
भयभीत द्वो दोनों हाथों से श्रपना शरीर भझाड़ने लगीं और दौड़ कर 
धाय से जा चिपटीं | 


( ४२९ ) 


इस प्रसंग में पद्माकरजी का सवेया भी पढ़ लीजिये--- 


ए ब्रजचन्द गोबिन्द गोपाल सुन्योी न क्यों एते कलाम किये में | 
स्यों 'पदमाकर” अनेद के नद हो नैँदनन्दन जानि लिये मैं। 
माखन चोरि के खोरिन हे चले भाजि कछू भय मानि जिये में । 
दूर हू दौरि दुरयौजु चद्दो तो दुरो किन मेरे अँघेरे हिये में ॥ 


है गोविन्द गोपाल में बार-बार कहती हूँ परन्तु तुम मेरी विनती सुनते 
ही नहीं | में जानती हूँ, कि तुम बढ़े विनोदी श्रौर मोजी हो, मक्खन चुरा 
कर मारे ढर के इधर उधर गलियों में भाग निकलते हो | अ्रगर तुम्हें 
छिपना ही हे तो दूर भागने को क्‍या ज़रूरत है। मेरे अ्रघेरे! द्वदय में 
ग्राकर छिप जाब्ो । ( जिस से तुम्हें कोई देख न सके और मेरे श्रशा- 
नानधकार-पूर्ण दृदय में प्रकाश हो जाय ;। 


त्रात के उदाहरण में ग्वाल कवि का नीचे लिखा सवेया भी बड़ा 
सुन्दर दे, देखिये-- 

चहुँश्ोर मरोर सो मेह परे घनघोर घटा घनी छाय गई सौ। 

अरराय परी बिजुरी कित हूँ दस हूँ (दर्स मानहु ज्वाल बई सी। 

कवि “ग्वाल! चमंक्र अचानक की लखिक ललना मुरभाह गई सी । 

थहराह गई हृहराइ गई पुलकाइ गई पल न्हाइ गई सी ॥ 


कहीं बड़े ज़ोर मे बिजली तड़क कर गिरने से दशों दिशाओं में श्राग 
सी लग गई | उस चमक को देखकर नायिका के भय का ठिकाना न रहा। 
वह एक दम मुरभा गई, कापने लगी, और व्याकुल हो गई | उसके शरीर 
पर रोमाश्च हो श्राए, यहाँ तक कि वह पसीने से तरबतर हो गई । 


न्नास के सम्बन्ध में हरिश्रोधनी का भी निम्नलिखित कवित्त पढ़ने 
लायक है-- 


बनि के अमर करि समर बचेहों मान, 
कसि कै कमरि काम करिहों अंगेजों में । 


( ४३० ) 


यम दण्ड केरी दण्डनीयता निबारि देहों, 

करि देहों खण्ड-खण्ड कालहू को नेजो में | 
'हर औध!' कैसे। त्रास त्रास मानि हों न कर्षों, 

रहन न दे हों पास भीति भरौ भेजो में। 
खरे हे हैं रोम रोमरोम तो उखारि दैहों, 

काँपि है तो रेजो रेजो करिहों करेजो में ॥ 


युद्ध में ग्रमर होकर में मान की रक्षा करूँगा । यमदश्ड ओर विकराल 
काल के भाले को भी तोड़ मरोड़ कर फेंक देगा | भय को तो भाल में से 
खुरच-खुरच कर निकाल दूँगा ; अगर रोमाश्व हुआ, तो रोमों की खैर 
नहीं, उनकी जड़ बुनियाद भी बाकी न रहेगी। कलेजा काँपा, तो उसके 
किरचे-किरचे कर डालँगा; ऐसी दशा में त्रास की तो बात ही क्‍या, वह 
बेचारा तो.पास भी न फटकने पावेगा । 


इस प्रसंग में साहित्यदपंण का उदाहरण भी देख लीजिए... 
परिस्फुरन्मीन विधट्वितो रबः 
सुराज़ना त्रास विलोल दृष्टयः । 
उपाययु; कम्पित पाण पल्‍लवा: 
सखी जनस्यापि विलोकनीयताम ॥ 


जलविद्वार करते समय जब मृगनयनी श्रप्सराश्रों की जघाओं से मछु- 
लियाँ अष्श्राकर टकराती हैं. तब वे ( अप्सराएँ ) भय के कारण पाणि- 
पल्‍लव कंपाती हुई बड़ी भली मालूम देती हैं। 


वितक 


मन में किसी विचारया सन्देह के उठने पर उसकी छानबीन 
में लग जाने का नाम वितक है । 


भकुटी भंग, शिर हिलाना, उँगली उठाना, श्रादि इसके लक्षण हैं । 


( ४३११ ) 


रस तरंगिणीकार विचार को ही वितक मानते हैं। नाटथशाखत्रकार 
ने चार प्रकार का वितक माना दे--श्रर्थात्‌ विचारात्मा संशयात्मा, 
ग्रनध्यवसायात्मा ञ्रौर विध्रतिपत्यात्मा | 


वितक के उदाहरण म॑ महाकवि केशव का निम्नलखित कवित्त 
देखिए ! 


जो हों कहों रहिये तो प्रभुता प्रगट होत. 
चलन कहों तो हित द्ानि नहीं सहने । 
भावे सो करहु तो उदास भाव प्राणनाथ, 
संग ले लचौ तो कैस लोक लाज बहने | 
कैसा 'केसोराय' की सों सुनहु छुबीले लाल, 
चले ही बनत जा पे नाहों राजि रहने | 
तुमदों तिखाओ सख सुनहु सुजान प्रिय, 
तुमहिं चलत मोहि जैती कछू कहने || 


श्री राम # वन जाते समय सीता जी के मनमें कैसे वितक उठ रहे 
हैं| न हाँ किय बनता है, न नाँ किये न ठहराने की हिम्मत होती है. न 
विदा देने को जी चाहता है| 'भावे सो करह तो स्पष्ट उदासीनता का 
सूचक हे ! ऐसी श्रवस्था में सीता जी स्वयं राम जी से ही पूछती हैँं-.बताइये 
प्राशनाथ, ग्रापके प्रस्थान करते समय मुझे क्‍या कहना चाहिये। 


इसी विपय में आलम कवि का उदाहरण भी देखिये - 


कैधों मोर सोर तजि गए री श्रनत भाज़ि 
केयों उत दादुर न बोलत हैं ए दई। 

केधं॥ पक चातक मह्दीप काहू मारि डारे. 
केधों बग पाँति उत श्रन्त गत हे गई। 

अआलम' कहे हो प्यारी श्रजहूँ न आए प्यारे, 
केघों उत रीति बिपरीतै विधि ने ठई। 


( ४डशेरे ) 


मदन महीप की दुद्ईं फिरिबे ते रही, 
जूक्रि गये मेघ के धों बीजुरी सती भई ॥ 
पावस आने पर प्रोषितपतिका नायिका की केसी सुन्दर उक्ति दै-- 
मालूम द्वोता दे कि जहाँ प्राणनाथ हैं, वहाँ से मोर ओ्रोर दादुर कहीं भाग 
गए हैं | पिक, चातक ओर बगुला किसी राजा ने मरवा डाले हैं । बादल 
भी परस्पर युद्ध करते हुए काम आरा गए प्रतीत होते हैँ,जो उनकी गड़गड़ाहट 
वहाँ नहीं सुनाई पड़ती | बादलों की चिंता में बिजली तो अ्रवश्य ही सती 
हो गई होगी । नहीं तो यह केसे हो सकता द्वै, कि वर्षा ऋतु आजाय और 
प्राशनाथ उसे देख मेरा स्मरण करके घर की श्रोर प्रस्थान न करे | 
वितक के उदाहरण में नीचे लिखा कवित्त कितना सुन्दर है, ध्यान 
दीजिये-- 
केघों रहो राहु ते मयंक प्रतिब्रिम्बित हुं, 
केधों रति राजी संग मनमथ सेजे में । 
केघों अलि मालती सुमन पे सुमन द्रेके, 
रीकि रहौ थकित सुगन्धनि शअमेजे में । 
दामिनी कदम्बन मिली हैं चञ्चलाई तजि, 
केधों रजनी को अश्रन्त दिनकर तजे में । 
सोई संग मोहन के महिनी रसीली केधों, 
छुबि अ्ररसीली फेंसी मरकत रेजे मं ॥ 


मोहन ओर मोहिनी ( राधिका ) को एक श्रासन पर सोए देख कवि 
के हृदय में केमे-केस॑ विचित्र वितक उठ रहे हैं--वह उस श्याम-गोर 
छुवि को एकत्र देख कभी उसे राहु के बिम्ब से चन्द्रमएढल को प्रति- 
बिम्बित हुआ समभता है, कभी सोचता है, कामदेव के साथ रति शयन 
कर रही हे। कभी मालती-सुमन पर भोंरा बैठा है--ऐसी कल्पना करता है 
और कभी विचारता है, हो न हो यह मेघमाला म॑ चञ्चला अचञ्चल 
होकर बैठ गई हे | कभी वह रात श्र दिन के एकन्न हो जाने की कल्पना 


( ४१३ ) 


करता है। निदान उसके मनमानस में तरह-तरह के तक-वितक॑ उठ रहे 
हैं, ओर नई नई कल्पनाएँ जन्म ले रही हैं। 
इसी प्रकार का नीचे लिखा शंकर जी का पद्य भी पढ़ने योग्य है, 
देखिये-.. 
कज्जल के कूट पर दीप-शिखा सोती है कि, 
श्याम घन-मण्डल में दामिनी की धारा है। 
यामिनी के अ्रड्ड में कलाघर की कोर है कि, 
राहु के कबन्ध पै कराल केतु तारा है। 
'शंकर' कसोटी पर कञ्चन की लीक है कि, 
तेज ने तिमिर के हिये में तीर मारा हे। 
काकी पाटियों के बीच मोहिनी की माँग है कि, 
दाल पर खाँड़ा कामदेव का दुधारा हे॥ 
इस छुन्द में भी माँग के सम्बन्ध में भाँति-भाँत की उत्प्रेक्षाएँ की हैं, 
तरह-तरह के वितक और विकल्प उठाए गये हें । 
निम्नलिखित दोहे भी वितक के सुन्दर उदाहरण हं-. 
बोलत हे इत काग अ्रद फरकत नयन बनाय । 
यहि ते यहि जान्यो परत पीतम मिलिहै शआ्राय ॥। 
>< >८ >< 
के सुषमा को सदन यह किर्धों मदन छुविधाम | 
किधों नंदन सखि नन्‍्द को अंग अंग अभिराम ॥ 


श्रन्त में इस विषय की संस्कृत के किन्हीं कवि मद्दोदय की सुन्दर 
उक्ति सुनकर उसका भी रसास्वादन कोजिए -- 
कि रुद्ध प्रियया | कयासिदथवा सख्या ममोद्वेजित:, 
किंवा कारण गौरवम्‌ किमपि यन्ञाद्यागतो वललभः | 
इत्यालोच्य मृगीहशा करतले विन्यस्य वक्‍त्राम्बुजम, 
दीघे निश्वसितं चिरंच रुदितं ज्षिप्ताश्व पुष्पसजः ॥ 
हि० न०--२८ 


( डेशेड ) 


संकेत स्थान पर प्रिय के न पहुँचने के कारण, नायिका के मन- 
मानस में तरह-तरह के वितक-तरंग उठने लगे | कहीं उन्हें उनकी किसी 
अन्य प्रियतमा ने तो नहीं रोक लिया ! मेरी सखी की किसी बात से तो वे 
अप्रसत्न नहीं दो गए ! सम्भव है, कोई विशेष कार्य लग गया हो | इसी 
सोच-विचार में वह सूगनयनी अपना मुखारविन्द, हथेली पर रख 
द्विलकियाँ बाँध कर बहुत देर तक रोती रह्दी और अन्त में उसने फूल- 
मालाएं तोड़-मरोड़ कर फंक दीं । 

छ्ल 


साहित्यदपंण तथा श्रन्य रीति-प्रन्थों में उपयक्त तेतीस संचारी भावों 
का वर्णन है| परन्तु महाकवि देव आदि ने छुल को भी संचारी भाव माना 
है। नाटथ शास्त्र में भी इसका उल्लेख किया गया है, श्रतएव हम छुल के 
सम्बन्ध में भी कुछ पंक्तियाँ सोदाइरण लिख देना श्रावश्यक समभते हैं। 

गुप्त रीति से क्रिया सम्पादन करना छुल कहाता है। इसकी उत्पत्ति 
श्रपमान, कुचेष्टा, प्रतीप श्रादि से होती है । 

वक्रोक्ति, एकटक देखते रहना, वास्तविक स्थिति को छिपाना आ्रादि 
इसके लक्षण हैं । 

देव जी ने छुल का निम्नलिखित उदाहरण दिया है। 

स्याम सयाने कद्दावत हैं कहो, आ्राजु को काहि सयान है दीन्हों। 

“देव! कहे दुरि ठेरि कुटीर में आपुनो बैर बधू उहि लीन्हों। 

चूमि गई मुख ओचकही पटु ले गई पै इन वाहि न चीन्हों । 

छेल भले छिन ही में छुले दिन ही में छुबीली मलो छुल कौन्हों | 


स्थायी भाव 


साहित्यदपंण में स्थायी भाव का लक्षण इस प्रकार किया गया है-- 
अविरुद्धा विरुद्धा था यं तिरोधातुमचमा:। 
श्रास्वादाढकुर कन्दोडसो भाव; स्थायीति सम्मतः | 


( ४३४ ) 


श्र्थात्‌ अविरुद्ध अथवा विरुद्ध भाव जिसे छिपा न सके, वह आआस्वाद 
का मुलभूत भाव स्थायी कहाता है । 


स्थायी भाव के लिये चार बातें श्रनिवाय बताई गई हैं, श्रथांव्‌ 
वासनात्मकता, सजातीय वा विजातीय भावों के योग से नष्ट न होना, अन्य 
भावों को श्रपने में लीन कर लेना और विभाव, श्रनुभाव तथा संचारी 
भाव के योग से परिपुष्ट दोकर, रस-रूप हो जाना। जो भाव उपयंक्त कसौ- 
टियों पर खरे उतर, वही स्थायी कहाते हैं | साहित्य-ग्रन्धों में रति, दास, 
शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा, विस्मय और निवेंद इन नो को स्थायी 
भाव माना है, क्‍योंकि इनमें उपयक्त चारों ही घम पाये जाते हैं । 


साहित्यदपंणकार ने वात्सल्य रस भी माना है, जिसका स्थायी भाव 
स्नेह है | कोई-कोई “मक्ति? आदि को भी रस मानते हैं | इनके श्रतिरिक्त 
रीति ग्रन्थों में श्रोर भी अनेक रसों का उल्लेख मिलता है । 


वास्तव में स्थायी भाव वासनारूप से हृदय में विद्यमान रहते हैं, और 
जब विभावादि द्वारा उनको उद्बुद्ध होने का अवसर मिलता है, तभी वे 
जाग्रत होकर, अनुभाव और संचारी माव की सहायता से रस-रूप में दिखाई 
देते हैं । कोई श्रविरुद्ध या विरुद्ध भाव स्थायीभाव को तिरोहित नहीं कर 
सकता | उदाहरणाथ मान लीजिए कि कोई विरह विधुर व्यक्ति श्रपनी स्त्री 
के बियोग में व्याकुल होकर उसे खोजने के लिये, इधर-उधर मारा-मारा 
फिरता है। स्मशान में भी जाता हे, वहाँ उसके द्वदय में जुगुप्सा या भय 
के भाव उत्पन्न होते हैं, परन्तु उस पर इन विजातीय भावों का कुछ भी 
असर नहीं होता, क्‍योंकि वह शीघ्रातिशीघ्र अपनी प्रिया से मिलने की चेष्टा 
में निमग्न है। उस समय उसके हृदय में जो रतिभाव उत्पन्न हो रहा हे, 
उसे कोई भी भाव नष्ट नहीं कर सकता । इसी प्रकार अन्य स्थायी भावों 
की भी कल्पना की जा सकती है। 

जब जो स्थायी भाव जाग्रत होता है, तब उसी की प्रधानता रहती हे। 
विरोधी भाव तो उस समय द्वदय में उठते ही नहीं। ओर अविरोधी भाव 


( ४२६ ) 


उदबुद्ध स्थायी भाव में लीन होकर, उलटे उसके पोषक तथा सहायक 
बन जाते हैं। 

वास्तव में वासना-रूप बीज, ग्आलम्बन रूप हृदयज-क्तेत्र में पड़कर, 
स्थायी भाव की शक़् में श्रढकुरित होता हे, ओर उद्दीपन भाव-रूप जल- 
वायु एवं गर्मी से बढ़ता है। पीछे यही अ्रढकुर श्रनुभाव-रूप वृक्ष दिखाई 
देता हे, ओर फिर उत्त पर संचारी भाव-रूप अ्रनेक फूल खिलते हैं, जिनसे 
मकरन्द-रूप रस पेदा होता है ! 


स्थायी भाव क्‍या है ? दो शब्दों में इस प्रश्न का उत्तर देना हो 
तो कह सकते हैं कि हृदय में जो रसानुकूल विकार उत्पन्न होता है, श्रौर 
रस में जिसकी सदा स्थिति रहती है, वह स्थायी भाव है। 


विभावादि का प्रभाव सब हृदयों पर समान नहीं पढ़ता यह बात विभावों 
की तीव्रता और मन्दता पर निर्भर है श्रर्थात्‌ यदि विभावादि मन्द होंगे तो 
प्रभाव भी मन्द डालेंगे ओर तीज्र होंगे तो तीत्र | विभावों के लिए श्रनुकूल 
प्रकृतियाँ प्राप्त न दोने पर भी उनका ठीक ठीक प्रभाव नहीं पड़ता । किसी 
युवती सुन्दरी को देखकर रसिक और उग्र प्रकृति वाले नवयुवक के हृदय 
पर जितना प्रभाव पड़ता है उतना गम्भीर और सरल स्वभाव वाले युवक 
पर नहीं, श्रोर बृद्ध पर तो कदाचित्‌ कुछु श्रसर होगा ही नहीं । इसी 
प्रकार जो लोग रात-दिन मरघट में रहते या घिनोने पेशे करते हैं, उन 
पर ग्लानि-उत्पादक वस्तुश्रों एवम्‌ व्यापारों का बहुत ही कम श्रसर होता हे। 
इससे सिद्ध द्वोता हे कि स्थायी भावों के जाग्रत होने के लिए शअ्रनुकूल 
प्रकृति की भी श्रावश्यकता है । 

जब स्थायी औ्रोर सश्चारी भावों का रस-परिपाक से सम्बन्ध नहीं रहता, 
और वे पए्थक्‌-प्रथक होते हैं, तो वे केत्ल 'भाव? कहाते हैं। स्थायी ओर 
सबख्चारी' विशेषण उनसे पूर्व नहीं लगाये जाते। जैसा कि ऊपर कहा गया हे, 
स्थायी भाव, विभावादि के कारण ही रसत्व को प्राप्त होते हैं, अगर 
आलम्बन भाव न हों तो उद्दीपन कुछ भी नहीं कर सकते | मानसिक त्तेत्र 


( ४३७ ) 


की दशा दही कुछ ऐसी है कि, उसमें उत्पन्न भाव, एक दुसरे के साथ 
अविच्छिन्न रूप से सम्बन्धित रदते हैं, जिससे भावों की एक श््‌ुला-सो 
बन जाती है | 

स्थायी भाव के सम्बन्ध में यह बात भी ध्यान देने योग्य हे, कि वे 
(ध्यायीभाव) कभी-कभी सश्जारी भी बन जाते हैं, यथा-शशज्ञार ओर वीर 
में हात, वीर में क्रोच और शान्‍्त रस में जुगुप्मा सज्चारी भाव होते हैं । 
इस प्रसंग में रस गंगाघरकार कद्दते हैं कि जब रति आदि स्थायी भाव, 
अधिक विभावादिकों से उतन्न होते हें तब वे स्थायी कहाते हैं, और 
थोड़े विभादिकों से प्रयूत होने पर उन्हों की संचारी या व्यभिचारोी संज्ञा 
हती हैं । उपयुक्त पंक्तियों से स्पष्ट हो गया कि जब-जब् रत्यादि संचारी 
भाव बनकर हृदय में उद्बुद्ध होते हें, तब वे रसत्व को प्राप्त नहीं होते | नाटक 
देखने या काव्य पढ़ने-सुनने से जिन व्यक्तियों के द्वदयों में जो भाव स्थायी 
रूप से जाग्रत होता है, वही विभावादिकों से पुष्ट होकर रस रूप में परिखत 
दो जाता है। एक ही दृश्य देख या काव्य सुन कर सभी दशकों या भोताओओं 
को समान आनन्द को अनुभूति नहीं होतो । क्योंकि उन पर उनका 
एक-सा प्र भाव नहीं पड़ता | जिन व्यक्तियों के दृदयों में श्रधिक विभावादिकों 
से रत्यादि उत्पन्न होते हैं, वहाँ तो वे स्थायी होने ऊ कारण रसत्व को 
प्राप्त हो जाते हैं, ओर असीम आनन्द के हेतु होते हैं; परन्तु जिन लोगों 
के हृदयों में अल्प विभावादि से रत्यादि स्थायी भावों की उत्पत्ति होती है, 
वहाँ वे संचारी बन जाते हैं जिससे रसोत्पत्ति नहीं हो पाती | ऐसी दशा में 
श्रानन्द की अनुभूति करना तो बिलकुल व्यथ ही है । 


स्थायी भाव $ भेद 
रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुग॒ुप्सा ( ग्लानि ), आश्चये 
( विध्मय ), ओर निवेंद ( शम ) स्थायी भाव के ये नो भेद हैं। वाध्सल्य 


को दसवाँ रस मानने वाले उसके लिए '्सनेह' को दसवाँ स्थायी भाव 
मानते हैं। 


५ डरे८ ) 


रति 


प्रिय वस्तु में मन की प्रेम पूर्ण संलमता का नाम रति है। कुछ 
आ्राचाये। ने प्रिया ओर प्रियतम के मिलने की इच्छा से उत्पन्न हुई गुप्त 
आझोर अपूर्व प्रीति को रति कहा है। रति, प्रेम, प्रीति, प्यार, श्रनुराग, 
स्नेह आदि पर्यायवाची हैं। कामवासना, स्रीत्व, पुरुषत्व, स्री-पुरुष का 
परस्पर प्रेमाकषंण, प्रजनन भाव आदि सब रति के ही अन्तगंत हैं। गुरु, 
शिष्य, देवता, पुत्र राजा आदि सम्बन्धी रति 'भाव” रूप में »% गार रस का 
स्थायी-भाव मानी गई है। ऋतु, पुष्प, चन्दन, अंगराग, आमरण, भोजन, 
वरदान आदि विभावों एवं श्रनुकूलता आदि भावों से रति की उत्पत्ति होती 
हे,और वह स्मिति, मधुर वचन, भ्रुक्षेप, कटाक्ष आदि श्रनुभावों द्वारा व्यक्त 
की जाती हे । इृष्ट वस्तु की प्राप्ति द्वारा उत्पन्न रति, सोम्य गुण युक्त होती 
है, इसी लिए. उसे मधुर वाणी ओर सुन्दर अंग-चेशश्रों द्वारा व्यक्त किया 
जाता है। 

रति का निरूपण विविध आचाये ने विविध प्रकार किया है। कुछ 
विद्वान्‌ कहते हैं कि मन के श्रनुकल श्रथों में सुख-प्रसूत शान का नाम 
रति है | कुछ कद्दते हैं कि स््री-पुरुध के काम-वासनामय द्वदय कौ 
परस्पर रमणेच्छा का नाम रति है। 'साहित्य दपंणकार! की सम्मति में, 
प्रिय वस्तु में मन का प्रेमपू्ण उन्मुख द्वोना ही रति है। कुछ लोगों की 
राय में प्रेम ओर जीवन एक ही वस्तु हैँ। महात्मा कवीर ने प्रेम का 
ढाई अक्षर पढ़ने वाला ही परिडत माना हे--श्रथोत्‌ कोई कितने 
ही बड़े बड़े पोथे क्‍यों न पढ़ ले, परन्तु यदि वह प्रेम की वास्तविकता 
नहीं समझता तो सब व्यथ है। 

प्रेम-बक्ति के कारण मानव-हृदय से, दुरभिमान, कठोरता, क्रूरता 
आदि दूर होकर उसमें नम्नता, कोमलता और दयालुता का समावेश द्वोता 
है, ज्री जाति के प्रति विनम्नता के भाव बढ़ते हैं। पुरुषों में ज्नी जाति के 
प्रति उदारता, सभ्यता और नम्रता के जो भाव दिखाई देते हैं, उनका 


( ड४ॉरे६१£ ) 


मूल कारण प्रेमइ्ति ही हे । एक पुरुष दूसरे पुरुष के साथ जब मैत्री द्वारा 
प्रेमबन्धन में बंघता है, तो यह प्रेम ज्ली विषयक प्रेम से भिन्न होता है। 
विवाह, सहवास, गर्भाधान, गर्मोत्पत्ति, पोषण, रक्षण, शिक्षण, णह-व्यवस्था, 
यूह-कतंव्य , दाम्पत्य धर्म इत्यादि कार्यो, एवम सम्बन्धों की जड़ में प्रेम 

है प्रजा को उत्पादन कर, उसकी परिपष्टि और अभिवृद्धि करना प्रेमवृत्ति 
का ही काय है। प्रजा की उत्पत्ति से पूव, इस बृत्ति के अस्तित्व और 
उसके उचित उपयोग की ग्रावश्यकता होती है । भावी सन्‍्तान की उत्पत्ति 
इस वृक्ति के उचित उपयोग पर ही अश्रवलम्बित है । 


मनुष्य ही नहीं प्राणिमात्र, यहाँ तक कि वनस्पतियों तक का रू्रीत्व 
और प्‌ रुपत्व की दृष्टि से वर्गीकरण किया गया है। इनमें भी नर-मादा, 
वृक्ष-वल्लरी श्रोर तरु-लताएँ द्वोते हैं। जब ज््री-पुरुष एक दूसरे को श्रपने 
स्नेह, हावभाव तथा वेश द्वारा आकषित करते हैं तो ये प्रेम-प्रद्शक 
क्रियाएं ही स्वाभाविक भाषा का रूप धारण कर लेती हैं श्रोर काम वासना 
इत्यादि द्वारा इस भाषा का प्रकटीकरण होता है। प्रेम के इस प्रबल पाश 
में पड़कचर ही मनुष्य ने सामाजिक संघटन, सुख-सम्बन्ध, सभा-समाज 
आपनन्द- उत्सव आदि की कल्पना की है। श्रात्म सन्‍्तोषका कारण भी प्रेम 
है| माता-पिता, पतन्र-पुत्री, पुर-परिवार आदि सब प्रेम-बन्धन से बचे हुए 
हैं। प्रेम सब जीवों का जीवन है ओर प्रेम ही परमात्मा हे | प्रेम का मुख्य 
काम पारस्परिक स्नेह, मान, प्रशंसा, सभ्यता, नम्नता श्रादि भावों की प्रेरणा 
करना है। स्त्रियों में मनोमोहकता, स्नेहाद्र ता, प्रेम-पिपासा, वशीकरणत्व 
आदि प्रेम के कारण ही हैं। पुरुषों में उदारता, वीरता, सहनशीलता, 
क्षमा, उन्नति को श्राकांज्षा, विशुद्धता, नम्नता, सत्यता, मिलनसारता, 
स्नेहस्निग्धता, मोहकता, आदि की प्रेरणा करने वाली प्रेमवृत्ति ही दे । 
दो शब्दों में कहें तो स्त्रियों में स्त्रीत्व ओर पुरुषों में पुरुषत्व की प्ररणा प्रेम 
द्वारा ही होती है । 


जिन स्त्रियों और पुरुषों में प्रेमश्क्ति पूर्ण रूप में विद्यमान रहती है, 


( ४४० ) 


उनका जीवन माधुग्र-पूर्य, रसीला और स्वाभाविक रीति से आकर्षक हो 
जाता हे | वे अपने सगे-सम्बन्धियों से तो प्रेम करते ही हैं, साथ ही मिन्नादि 


से भी उनका स्नेह बड़ा गाढ़ा द्ोता है। इनके श्राचार-व्यवह्ार और 
बतांव में भी प्रेम की एक अ्रर्धुत कलक दिखाई देती हैं। वात्सल्य 


ओर दयालुता की मात्रा बढ़ जाती हैं। कौटुम्बिक जीवन बड़ा आनन्द- 
पूण बन जाता है। ऐसे लोगों में जन्मभूमि के प्रति भो बहुत प्रेम होता है । 
वे अपने इष्ट पदार्थों की प्रयत्नतः रक्षा करते हैं। सम्बन्धियों तथा प्रेमियों 
को खिलाने-पिलाने में उन्हें बड़ा श्रानन्द आता है | अथ-हानि सह कर भी 
ऐसे लोग प्रेम की रक्षा करते हैं, परन्तु प्रेम में निराशा द्वोने से, उनकी 
व्याकुलता का ठिकाना नहीं रहता | जिन लोगों में प्रेमव्ृति साधारण मात्रा 
में होती हे, वे लालन-पालन में विशेष रुचि नहीं दरसाते और उनके 
स्वभाव में चिड़-चिड़ापन श्रा जाता है। ऐसे लोगों से प्रेम सम्बन्ध स्थापित 
करने में बड़ी सावधानी से काम लेना पड़ता है । जिन लोगों में प्रेमवृत्ति 
की न्यूनता हीती हे वे भिन्न वृत्ति के व्यक्तियों को पसन्द नहीं करते, उन्हें 
उनका विश्वास कम होता हे शोर साथ-साथ रहना भी नहीं भाता । ऐसे 
लोगों मे विवाह्यरभमिलाषा भी बहुत कम होती है। स्नेहशून्य स्थ्रियाँ पुरुषों 
से ओर पुरुष स्त्रियों से कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहते । उन्हें शरमाने 
आर चुप रहने की आदत पड़ जाती है। उनकी दृष्टि में सॉन्दय्य का कोई 
मूल्य द्दी नहीं होता । 


प्रेम त्यागमय हे, इसमें स्त्री-पुरुष एक दूसरे के लिए, अपना स्वस्व 
समपंण कर देते हैं। परस्पर हृदय के आदान-प्रदान से ह्वी प्रम की स्थिति 
होती हे । देश-प्रेम, धम-प्रेम, समाज्र-प्रेम, साहित्य-प्रेम, ्रादि से प्रेरित 
होकर, लोग केसे बड़े-बड़े काय कर गये हैं। कहते हैं कि दरिण ओ्रौर सप॑ 
तक प्रेम के वशीभूत हो जाते हैं। प्रेम की मात्रा कम हो जाने शअ्रर्थात्‌ 
वैराग्य के भाव जाग उठने से संसार विषवत्‌ लगने लगता है । 


प्रेमवृत्ति का अतियोग अथवा मिथ्या योग बड़ा दुखदाई होता है । 


( ४४१ ) 


विषयान्धता, व्यभिचार, दुराचार, आदि की उत्पत्ति इसौसे होती दे। 
इन्द्रि यलोलुपता ओर निबलता प्रेमवृत्ति के दुरुपयोग के ही दुष्परिणाम हैं। 
प्रेम-सम्बन्ध में निग्रह् की बड़ी ग्रावश्यकता हे । 


रति का उदाहरण देखिए-..- 


सजन लगी हे, कहूँ कबहूँ सिंगारन को, 

तजन लगी है, कहूँ ऐसे बैसवारी की। 
चखन लगी है, कछू चाह 'पदमाकर' त्यों, 

लखन लगी हे, मंजु मूरति मुरारी की। 
सुन्दर गोविन्द गुन गुनन लगी है कछु, 

सुनन लगी है, बात बाँकुरे बिहारी की। 
पगन लगी है, लगि लगन दिये सों नेकु, 

लगन लगी है कछु पी की प्रान प्यारी की || 


उपयक्त कवित्त में नायिका के हृदय में नायक के प्रति श्रनुराग उद्बुद्ध 
होने का वर्णन हे । यहाँ प्राण प्यारी के हृदय में प्रेम की लगन अंकुरित 
होना ही 'रत! है । 


रति के भेद 
रति के तीन भेद माने गये हैं। १--उत्तम रति, २--मध्यम रति, 
शग्रौर ३--श्रधम रति | 
उत्तम रति 
सदा एक रस रहने वाली स्वाथ शून्य प्रीति को उत्तम रति कहते हैं । 


इसमें सेब्यसेवक भाव की ही प्रधानता होती हे । 
उदाहरण देखिए--- 


अंग को पतंग दह दीप के समीप जाय, 
वारिज बैँघाय भंग दरद ने मानई। 


५ डंडरे ) 


सुनि के विपल्ची धुनि विशिख कुरंग सहे, 

सती पति संग दहे दुख को न आनई। 
मनि हीन छीन फनि वारि सों विहदीन मीन, 

होह के मलीन मति दीनता वितानई। 
चातक मयूर मन मेह के सनेह ऊधो, 

जाहि लगे नेह सोई देह भले जानई।॥ 


इसमें दीपक पर पतंग के अलने ओर कमल-पुष्प में भ्रमर के मद 
जाने आदि का उदाहरण देकर निःस्वांथ प्रीति का उल्लेख किया 
गया है । 

दूसरा उदाहरण-- 


राम के प्रेम को रूप मनो सिय सीय के प्रेम को रूप सुरराम है। 
राम की श्रानंद मूरति जानकी, जानकी आनंद मूरति राम है । 
राम के नैननि सीय बसे सिय के हग राम करे विसराम हे । 
रामहि है सत के सिय के जिय राम को जीय सिया अ्रमिराम है ॥ 


यहाँ जनक नन्दिनी सीताजी और मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की 
उत्तम प्रीति का वर्णन है | जानकी के राम सवंस्व हैं ओर राम की जानकी 
ही सब कुछ हैं। सीता राम के लिये प्रेम रूप हैं, ओर राम सीता के लिए । 
दोनों एक दूसरे के लिए विशुद्ध प्रेम रूप में विद्यमान हैं । 

>< >< >< 
पध्यम रति 

विना किसी कारण के अ्रनायास ही परस्पर प्रीति हो जाने को मध्यम 
रति कहते हैं | इसमें मेत्री भाव की प्रधानता होती है। 

इसके उदाहरण में पदमाकरजी का निम्नलिखित सवैया कैसा 
सुन्दर है-- 


( डरे ) 


सावनी तीज सुहावनी को सजि सूहे दुकूल सत्र सुख साधा | 

त्यों 'पदम।कर” देखे बने न बने कहते अनुराग अवाधा। 

प्रेम के देम हिंडोरन में सरसे बरसे रस रंग शअ्गाधा। 

राधिका के हिय भूलत साँवरो, साँवरे के हिय भूलति राधा ॥ 

यहाँ श्रावण में कूला मूलते-भूलते प्रेमातिरेक से राधिका के हृदय में 
कृष्ण जी भूलने लगे, ओर कृष्ण जी के हृदय में राधिका भोंटे लेने लगीं। 
दोनों के दिलों में प्रेम की नदी उमड़ने लगी | वे एक दूसरे के रूप-सोन्दय 
पर मुग्ध हो गये । 

>< >< >< 


अधम रति 
स्वाथ प्रधान प्रीति को श्रधम रति कहते हैं। इसमें स्वार्थ-भाव की 
प्रधानता होती हे । उदाहरण देखिए, कविवर नन्‍्दराम ओर मह।कवि देव 
क्या कहते हें-- 
पावा करें जब लॉ घन घाम ते आवा करें तब ला गनिये ते । 
केते गरीब भए परि फन्द में दीन हो सोचत हाल ।हिये ते । 
होत नहों श्रपनी कबहूँ तन हूँ, मन हूँ घन हूँ के दिये ते । 
त्यों 'नंदराम” रिक्रावा करे अ्रु गावा करै मुसकयानि किये ते ॥ 
>< >< >< 
आ्राजु मिले बहुतै दिन भावते ! भेंटत भेंट कछू मुख भाखौ । 
ये भुज भूषन मो भुज बाँधि भुजा भरि के अ्रधरा रस चाखो । 
दीजिये मोहिं उढाय जरी पट कीजिये जू जिय जो अमिलाखो । 
देव हमें तुम्हें श्रन्त पारत द्वार उतारि इते धरि राखो ॥ 
>< ५८ )८ 
इन सवैयों में स्वार्थ युक्त अ्धम प्रीति का वर्णन है | स्वाथ की समाप्ति 
के साथ हीयह प्रीति भी समाप्त हो जाती है। इस प्रीति में धन की ही 


( ४डंडंड ) 


प्रधानता होती हे | “जब तक पैसा गाँठ में तब लग ताको यार” वाली 
लोकोक्ति इस प्रीति के सम्बन्ध में अ्रक्तरशः चरिताथ होती हैं। 
स्वार्थ युक्त प्रीति के सम्बन्ध में नोंचे लिखी कुण्डलिया बहुत 
प्रसिद्ध हे-.- 

साई या संसार में मतलब को व्यवहार, 

जब लग पैसा गाँठ में तब लग ताकौ यार। 

तब लग ताको यार यार संगही संग डोले, 

पैसा रहा न पास यार मुख ते नहीं बोले । 

कह “गिरधर कविराय” जगत यह लेखा भाई, 

करत बेगरजी प्रीति यार विरला केाई साइ। 


वाध्तव में जो प्रीति स्वाथं के कारण होती है, उसमें वास्तविकता 
खोजना व्यथ है उसके टूटने में देर ह्वी क्या लगती दे । स्वार्थ न रहा तो 
प्रीति की भी समाप्ति हुईं । फिर क्‍या हे --“ यूयम्‌ यूयम्‌ वयम्‌ वयम्‌ ।”” 


रात स्रो-पुरुष सम्बन्धी प्रसंगों से ही सम्बन्ध नहीं रखती, वह प्रभु-भक्ति 
में भी होती हे--परन्तु वहाँ उसकी संज्ञा प्रीति, प्रेम ओर अनुराग भी हे। 
जाती हे। देखिये --- 
९ श्र श 
अ्रथ न धर्म न काम रुचि पद न चहों निर्वान। 
जन्म जन्म “ रति ? रामपद, यह बरदान न श्रान ॥ 


अर ८ ८ 
ओर देखिये--- 


पोथी पढि पढ़ि जग मुझ्ना, पंडित भया न कोय | 
ढाई अक्षर “प्रेम? का पढ़े सो पण्डित होय ॥ 


यहाँ प्रेम ह्दी रति रूप में वर्णित हे | रामचरितमानस में तुलतोदास 
जी। कहते हैं-... 


( ४४५ ) 


गुण स्वरूप बल द्रव्य को प्रीति करे सब कोय | 
तुलसी प्रीति सराहिये, जु इनते बाहर होय।॥ 


हास 


कोतुकार्थ की गईं वाणी स्वरूप आदि की विकृतावस्था देखकर उत्पन्न 
दोने वाले हषयुक्त मनोविकार के, अथवा विचित्र वाणी और विचित्र 
वेश के कारण मन में उत्पन्न प्रसन्नता को हास कहते हैं। 

दूसरों की क्रिया, चेष्ठा, वाणी श्रादि के अनुकरण तथा असम्बद्ध 
प्रलाप श्रादि विभावों से हास ( हसन क्रिया ) की उत्पत्ति होती हे श्रोर 
सध्मित हसित आदि अनुभावों द्वारा वह प्रकट किया जाता है । 

उदाहरण देखिए--.- 


आरसी देखि जसोमति जू सों कहे तुतरात यों बात करन्हँया। 
बैठे ते बैठे उठे तें उठे, अरू कूदे ते कूदे चले ते चलैया॥ 
बोले ते बोले हंसे ते हंसे मुख जैसे करों त्यों ही आपु करैया । 
दूसरो को तू दुलारो कियो यह्ट को हे जो मोहि खिजावत मेया ॥ 


आरतसी में श्रपनी सूरत ओर चेष्टाओं का प्रतिबिम्ब देखकर भोले भाले 
बाल कृष्ण यशोदा जी से पूछते हें--मैया, मेरी ही सूरत का ओर मेरी 
सी ही सब चेष्टाएँ करने वाला यह दूसरा बालक तैने कहाँ से बुला लिया 
है, जो मुझे खिक्का रहा हे। इसमें बाल स्वभाव-जनित स्वाभाविक हास 
वर्णित हे । 

श्रोर देखिये - 

कबहूँ नहिं. कान सुने हमने यह कोतुक मन्त्र विचार केहें। 

कहि केसे भये करि कोन दिये सिखये केाइ साधु अपार केहें | 

कवि ' ग्वाल ? कपोल तिहारे श्रली दुहूँ और में बाग बहार केहें । 

चमके ये चुनी-सी चुनी इतमें उतमें पके दाने श्रनार के हें।॥ 


( डंडे ) 


उपयक्त सवैया में सखी ने नायिका से मज़ाक किया है। उसके कपोलों 
की व्यंजना से हँसी उड़ाई है । 


हास का एक उदाहरण ओर देखिए-- 


अति उदार करतूतिदार सब अवधपुरी की वामा। 
खीर खाय पैदा सुत करतीं पतिकर कछु नहिं कामा ॥ 
सखी वचन सुनते रघुनन्दन बोले मृदु मुसकाते । 
आपन चलन छिपावहु प्यारी कहृहु आन की बातें ॥ 
कोउ नहिं ज्न्में मात-पिता बिन बँघी वेदकी नीती। 
तुम्दरे तो महिते सब उपले अस इहमरे नहिं रीती॥ 


यहाँ भी रामचन्द्रजी के साथ जनकपुर में सलियों का विनोद वर्णित 
हैं। एक सखी राम से पूछुती हे--आपके यहाँ तो खीर खाकर पुत्र पैदा 
किये जाते हैं, क्यों है कि नहीं ? राम कहते हैं--नहीं नहीं हमारे यहाँ 
तो वेद मर्यादानुसार ही सनन्‍्तान पेदा होती है, अर्थात्‌ विना माता-पिता 
के कोई भी जन्म नहीं ले सकता, परन्तु तुम श्रपनी कहो--जो पृरथ्बी के 
पेट से सब पैदा द्वाते हैं | छिपाती क्‍यों हो। हे न यही बात | ठीक ठीक 
बताओ । केसा मीठा मज़ाक ओर कितनी सुन्दर चुटकी है । 


हास के भेद 


हास के तीन भेद हैं---१--उत्तम, २--मध्यम और ३--श्रधम । 
इन तीनों में से प्रत्येक के दो-दो भेद और द्वोते हैं, श्र्थात्‌ उत्तम के स्मित 
ओर हसित, मध्यम के विहसित ओर उपहसित या अवहसित और अधम 
के अपहसित और अ्रतिहसित | इस प्रकार कुल मिलाकर हास छुट्ट प्रकार 
का माना गया हे। कुछ लोगों ने इन छुट्टों भेदों के स्वनिष्ठ ( श्रात्मस्थ ) 
आर परनिष्ठ ( परस्थ ) दो-दो भेद ओर करके, दास बारद्द प्रकार का 
माना हे । स्वनिष्ठ हस उसे कहते हैँ, जो विभाव के देखने मात्र से उत्पन्न 


( ४४७ ) 


हो जाता हे, श्रोर जो दूसरे के हँसते देखकर उत्पन्न होता है, एवं जिसका 
विभाव भी द्वास ही होता है, उसे परनिष्ठ कहते हैं । 


2५ +५ 2५ २५ 


स्मित 


जिसमें नेत्नों तथा कपोलों में थोड़ा विकास हो, परन्तु न तो दाँत 
दिखाई पढ़ें, ओर न शब्द द्वी सुनाई दे, ऐसे मनन्‍्द मुस्कराने के स्मित 
कहते हैं | 


उदाहरण देखिए, पदमाकरजी का सवैया केसा सुन्दर है-- 


चन्द्रकला चुनि चूनरी चारु दई पहिंराय सुनाय सु होरी। 
बेदी विशाखा रची 'पदमाकर! अ्रंजन श्रॉजि समाजि के रोरी। 
लागी जबै ललिता पहिरावन कान्ह को कब्चुकी केसर बोरी। 
हेरि हरे मुसुकाइ रही अ्रेंचरा मुख दे वृषभानु किशोरी ॥ 


चन्द्रकला ने कृष्ण के “ चूनरी ” उढ़ा दी; बिसाखा ने माथे पर 
बिन्दी लगाकर उनकी श्राँखों में श्रंजन श्रॉज दिया, परन्तु जब ललिता ने 
उन्हें कंचुकी पहनाने को हाथ बढ़ाया तो वह मुँह में श्रांचल देकर 
मुस्कराने लगी | यह मन्द मुस्कान ही स्मित है। 


बिहारी का यह दोहा भी बड़ा सुन्दर है-. 
सतर भोंह रूखे बचन करति कठिन मन नीठि | 
कद्दा करों हे जाति इरि देरि हँसोंहीं दीठि॥ 


में क्या करूँ तुम्हारी ऐसी चेष्टाएँ देखकर मेरी हँसोंही दीठि हो जाती 
है श्र्थात्‌ मद से नहीं मेरी श्राँश्यों से हंसी निकलने लगती है यह 
अ्भिप्राय । 
>< >< >< 


( डडंप ) 


हसित 

जिसमें आँखें श्रौर कपोल पूर्णतया प्रफल्ल हो जाये तथा कुछ कुछ 
दाँतों की कोर भी दिखाई देने लगे उसे इसित कहते हैं । 

केशवदासजी का उदाहरण देखिए --.- 

जाने को पान खवावत क्‍यों हू गई लगि श्रॉगुली ओठ नवीने । 

तें चितयो तबही तिहिं भाँति जु लाल के लोचन लीलि से लीने | 

बात कही हर ये हसि के सुनि में समुझी वे महा रस भीने। 

जानति द्वों पिय के जियके अ्रमिलाष सबै परिपूरण कौीने || 

यहाँ हरि का हँस कर बात कहना ही हसित है । हँसने में आँखों ओर 
कपोलों का पूणंतः विकसित होना और कुछ दाँत दौखना-दोनों ही क्रियाएँ: 
स्वाभाविक रूप से हो रही हैं। 

2८ >८ >< 
विहसित 

जिसमें नेन्नों व कपोलों के विकास और दाँत दीखने के साथ-साथ 
थोड़ा मनोहर शब्द भी सुन पड़े उसे विहसित कहते हैं। यथा-- 

काछे सितासित काछनी ' केशव ' पातुर ज्यों पुतरीन विचारों । 

कोटि कठाज्ष नचे गति भेद नचावत नायक नेह निद्दारो। 

बाजत है मृदुद्दास मृदंग सौ दीपति दीपन को उजियरो। 

देखत हो दरि देखि तुम्हें यह होतु हे श्रॉँखिन बीच अखारो॥ 

यहाँ मृदुद्दास रूपी मुदंग ? का बजना हँसी के साथ शब्द होने का 
द्योतक देश्नत; विह्सित है। 

सुनि केवट के बेन प्रेम लपेटे श्रटपटे । 
विहसे करुणा ऐन चिते जानकी लखन तन ॥ 
भ< ८  >< 


( ४४६ ) 


उपहृसित या अवहसित 


जिस हास्य में विहसित के सब लक्षणों के साथ-साथ नाक के नथने 
भी फूलने लगें, भोंह मटकने, नेत्र नाचने और कंधा तथा सिर हिलने 
लगे उसे उपह्सित या अवहसित कहते हैं। यथा-- 
प्रेम घने रस बेन सने गति नैनन की रस में न भई है। 
बाल वयक्रम दीपति देह त्रिविक्रम को गति लीलि लई है। 
भोंद चढ़ाय सखीन दुराय इते मुसुकाय उते चितई है। 
'केशव' पाइद्दों श्राज भले चितचोर जुकालि गुवारि गई है ॥ 
उपयुक्त सवैया में भोंहें मटका कर इधर मुसकाना और उधर देखना 
आदि क्रियाओ्रों का वर्णन होने से उपहसित है । 
लॉ गः पक 
ज्यों-ज्यों पट भटकति हँसति हृर्दात नचावति नेन। 
त्योंत्यों परम उदार हू फ्रगुवा देत बने न॥ 
इस दोहे में भी हंसी के साथ “ नेन नचाने ” का वर्णन है। 


अपहसित 


जिस हास्य में उपहसित के सब चिन्हों के साथ-साथ शआ्राँखों में ऑंधू 
भी ञ्रा जाये उसे अपइहसित कहते हैं। जेसे--- 
तैसी ये जगत ज्योति शीश शीशफूलन की, 
चिलकत तिलक तरुणि तेरे भाल को। 
तैसी ये दशन पाँति दमकति 'केशोदास', 
तैसो ये ललत लाल कणठ कण्ठमाल को । 
तैसी ये चमक चार चिबुक कपोलनि की, 
तैसो चमकत नाक मोती चल चाल को | 
हरे हरे हंसि नेक चतुर चपलनेनी, 
चित चकचोंघे मेरे मदनगुपाल को ।। 
द्वि० न०--२६ 


५ ४५४० ) 


नायिका के जोर-जोर से हंसने के कारण उसकी दंतावली दिखायी दे 
रही हैं, दांतों की ्रुति श्रर्थात्‌ दमक से मदनगोपाल को चकार्चोंध लगती 
है, इसीसे यशोदाजी कहती हें -श्ररी हंसने वाली जरा धीरे-धीरे हंस, जोर 
से हँसने में तेरे दमकते दाँत दीखते हैँ, जिनके कारण मेरे मदनगोपाल 
को चकाचोंध लगती है । 


अतिहसित 


जिस हास्य में पिछुले सब हासयों के लक्षणों के साथ-साथ खूब जोर 
से ठहाका मारा जाय ओर हाथ-पाँव इधर-उघर पटके जायें तथा ताली 
पीटी जाय उसे अतिदृसित कहते हैं। यथा--- 


गिरि गिरि उठि उठि रीकि रीकि लागे कणठ, 
बीच बीच न्यारे होत छुब्रि न्यारी न्यारी सो | 
' आपुस में अकुलाइ आधे-श्राधे आखरनि, 
गछी आछी बातें कह श्राद्षी एक ह्यारी सों । 
सुनत सुहाइ सब समुक्ति परै न कछु, 
'केशोराइ! की सों दुरे देखे में हुस्यारी सों | 
तरणि तनूजा तीर तरु पर चढ़ि ढाढ़े, 
तारी दे दे हँसत कुमार कान्ह प्यारी सों ॥ 
यहाँ ताली दे-दे कर हसना ही श्रतिहसित है । 
>< >< >< 


आचाय केशवदामस ने द्वास के केवल चार भेद किये हैं ; श्रर्थात्‌ -- 
मन्दहासत, कलहास, अतिहास और परिहास | इन भेदों के लक्षण भी हास 
के उपयक्त भेदों के लक्षणों से मिलते जुलते ही हैं । 


शोझ़ 
प्रिय वस्तु-वियोग, इष्ट-नाश ओर श्रनिष्ट की प्राप्ति के कारण मन 
में जो विकलता उत्पन्न दोती है, उसे शोक कहते हें । 


( ४४१ ) 


दहृष्ट जन-वियेोग, विभव-नाश, बन्धनादि-जन्य दुःखानुभव आदि 
विभावों द्वारा शोक की तलत्ति द्ोती है, और अश्रुपात, विज्ञाप, बैवर , 
स्वर-भंग अंग शेथिल्य, भूमिपतन, दीघनिःश्वात, रोदन आदि द्वारा वह 
व्यक्त किया जाता है । 

रोदन शोक के अतिरिक्त श्रन्य कारणों से भी होता है। श्राचार्यो ने 
उसके तीन भेद किये हैं श्र्थात--आनन्दज, श्रार्तिज और ईष्याकृत । 
आनन्दज में मारे खुशी के गाल फूल कर कृप्पा बन जाते हैं| शआाँखों से 
अँसू निकलने लगते हैं, ओर रोमांच भी हो आता है। श्रार्तिज में 
ग्राँसुओं की कड़ी लग जाती है, शारीरिक गति और चेष्टाओ्ं में शैथिल्य 
ञग्रा जाता है, ज़मीन पर गिर पड़ना, कराहना, विलाप करना आदि होते 
हैं| ईष्यां से उत्पन्न रोदन में ओठ ओर गालों का फड़कना, शिरः कम्पन, 
भेहिं चढ़ना, दीघ श्वामाच्छवास आदि क्रियाएँ होती हैं । 


मूर्ख स्नो-पुरपों और नीच स्वभाव वालों में दुःखजन्य शोक होता है, 
वे दुःख के कारण ढाइ मार-मार कर बुरी तरद् रोते हैं; परन्तु उत्तम 
और मध्यम प्रकृति वाले लोग शोक-जनित दुःख को घेयं और साइस के 
साथ रह लेते हें 

शोक के उदाहरण में पद्माकरजी का सवैया पढ़िये-- 

मोहिंन सोच इतो तन प्रान को जाये रहे के लहें लघुताई । 

एहु न सोच घने। 'पदमाकर' साहिबी जो पै सुकश्ठ ही पाई। 

सेच यहै इक बालि बचे पर देहिगा शअंगद फो युवराई। 

यों बच बालि-पधू के सुने कझनाकर कों कझुना कछु राई । 

यहाँ बालि-वधू का विलाप सुनकर श्रीरामचन्द्रजी के दृदय में करुणा 
उत्पन्न होना ही शोक है। 

>< >< >< 

दीन मलीन है श्रंग बिहंग परये छिति में छुत खिनन्‍न दुखारी। 

राघव दीनदयालु कृपालु कों देखि दुखी करना भई भारी। 


( ४५२ ) 


गीध को गोद में राखि दयानिधि नेन सरोजन में भरि बारी । 
बारहि बार सुधारेउ पंख जटायु की धूरि जटान सों भारी॥ 
यहाँ जटायु की करण दशा देखकर भगवान्‌ राम के हृदय में करुणा 
का समुद्र उमड़ना ही शोक है । 
इस प्रसंग में रामचरितमानस का उदाहरण देखिए-- 
धर >< 
सुनहु॒ प्राशपति भावति जीका। 
देहु एक बर भरतहिं टठीका॥ 
दूसर बर माँगों कर जोरे। 
नाथ | मनोरथ पुरवहु मोरे॥ 
तापस वेश विशेष उदासती। 
चोदद बरस राम बनबासी ॥ 
सुनि तिय वचन भूप उर शोकृ। 
शशि कर छुवत विकल जिमि कोकू ॥ 
यहाँ * राम-वनत्रास ” की बात सुन कर दशरथजी का दुखित द्वोना 
वर्णित है, यही शोक है । 
क्रोध 
शन्रुश्रों द्वारा किये गए अ्रपमानादि के कारण हृदय में चोट लगने 
से जो उद्देग या मनोविकार उत्पन्न होता दे, उसे क्रोध कहते हैं । 
वाद-विवाद, भगगड़े-झंभट, प्रतिकूलता आदि विभावषों से क्रोध 
उत्पन्न होता और नाक के नथुने फुलाने, श्राँखें चढाने, ओठ चबाने 
एवं गाल फड़काने आदि अ्रनुभावों द्वारा वह व्यक्त किया जाता है । 


रामचरित मानस का उदाहरण देखिए-..- 


रे जप बालक कालवश, बोलत तोहि न सेभार । 
घनुद्दी सम त्रिपुरारि धनु विदित सकल संसार ॥ 


५ ४५३ ) 


बोले चितय परशु की श्रोरा । 
रे शठ सुनेसि प्रभाव न मोरा ॥ 
भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही । 
विपुल वार महिदेवन्द दीन्ही ॥ 
सहसबाहु भुज छेदन हारा। 
परशु विलोकि महीप कुमारा ॥ 
८ ५८ >< 
जब तेह्ि कीन्द्द राम की निन्दा । 
क्रोघवन्त तब भयेउ कपिन्दा |] 
कटकटाइ कपिकंजर भारी । 
दोऊ भुजदंड तमकि मद्दि मारो॥ 
उपयु क्त पंक्तियों में शिवजी के घनुष टूटने पर परशुराम का कोप और 
राम की निन्दा सुनने के कारण मद्दाबीर हनुमान का रोष वर्णित है, यही 
क्रोध है--- 
श्र देखिए -- 
गौर शरीर भूति भलि श्राजा। 
भाल विशाल त्रिपंड विराजा ॥ 
सीस जटा शशिवदन सुहावा। 
रिस बस कछुक अरुन हे भावा।। 
८ ८ )< 
उत्साह 
दान, दया, शूरतादि के कारण उत्तरोत्तर बढ़ी हुई इच्छा शक्ति तथा 
कार्य करने में तत्परता, दृढ़ता श्रौर प्रसन्‍नता को उत्साह कहते हैं । 
खेदद्दीनता, सामथ्य, पैय, पराक्रम श्रादि विभाबों से उत्साह उत्पन्न 
होता है। इसका ञ्राश्रय स्थान उत्तम प्रकृति के पात्र हैं। पैये न त्यागना, 
काम में लगे रहना आदि श्रनुभावों से उत्साह की श्रभिव्यक्ति होती है। 


( ४४ ) 


रसतरंगिणीकार ने शोयं, दान श्रथवा दया द्वारा उत्पन्न परिमित 
मनोविकार को उत्साह कहा है। 


उत्साह तीन प्रकार का होता है। १- बल विद्या प्रताप आदि से पैदा 
हुआ । २--श्राद्रता श्रादि से पैदा हुआ और ३--दान सामर्थ्यादि- 
जनित । 
उत्साह के उदाहरण में ललित कवि का निम्नलिखित छुन्द कैसा 
अ्रच्छा हे-- 
अब तो न सही जात पीर रघुबीर धीर, 
तीर से लगे हैं बेन आयसु जो पाऊँ में। 
“ललित” मरोरि महि वारिधि में डारों बोरि, 
तोरि दिगदन्तिन के दन्तन दिखाऊँ में। 
राबरे प्रताप बल साँची कह्दों रघुबीर, 
मेरू ले उखारि छिति छोर लगि घारऊँ में । 
अटकि रहे हो कहा मुखते निकारिए तो. 
भटकि शरासन कों चटकि चढ़ाऊँ में ॥ 
यहाँ “महदी? को मरोड़ कर समुद्र में डुबो देने, सुमेर पर्वत को उखाड़ 
फेंकने ओर शरासन के। चटाक से चढ़ा देने का वर्णन ही उत्साह है । 
पद्माकरजी का उदाहरण भी पढ़ लीजिए -- 
इत कपि रीछु उत राछुसन ही की चमू 
डंका देत बंका गढ़ लंका ते कढ़े लगी। 
कहे 'पदमाकर' उमंड जगही के हित 
चित्त में कछूक चोप चाव की चढ़े लगी। 
बातरिन के बाहिए को कर में कमान कसि, 
घोई धूर धान श्रासमान में मढ़े लगी। 
देखते बनी हें दुह्ें दल की चढ़ा चढ़ी में, 
राम हग हूँ पै नेक लाली जो चढ़े लगी॥ 


( ४४५ ) 


यहाँ युद्ध की साज सब्जा देखकर वीरों के हृदयों में चाव की चमक 
पैदा होना वर्णित हे, यही उत्साह हे । 


भय 


भयानक रूप-दशन, भयकर शब्द श्रवण, अथवा अपराधादि के 
कारण किसी भयानक शक्ति द्वारा उत्पन्न चित्त को विकल कर देने वाला 
विकार भय कहलाता है। 


गुरुजनों अथवा राजा का अपराध, जन-शूत्य घर या स्थान, भाड़ी, 
पब॑त, दुदिन, श्रन्धकार. रात्रि में फिरने वाले उल्लू श्रादि पत्तियों अथवा 
हिंसत जन्तुओं के शब्द आदि विभावों द्वारा भय उत्पन्न होता है। ख्री और 
नीच प्रकृति पात्र इसके ग्राश्रय स्थान हैं। द्वाथ पैरों का कापना, हृदय का 
घड़कना, मुख का सूख ना, पसीना श्राना ( स्वेद ), शरीर का शिथिल हो 
जाना, एकाएक चीज़ पहना आदि अनुभावों द्वारा भय व्यक्त किया 
जाता है। 

रसतरंगिणीकार ने भय का लक्षण इस प्रकार किया है--- 


“ छेड़ने या ललकारने के कारण क्र॒द्ध हुए सिंहादि प्राणियों द्वारा 
उत्पन्न अपरिपू्ण मनोविकार भय कह्दाता है।” 


भय का उदाहरण देगखिए--- 


चिते चिते चारों श्रोर चोंकि चोंकि परे त्योंदी, 

जहाँ तहाँ जब॒ तब खटकत पात हैं। 
भाजन सो चाहत गवार ग्वालिनी के कछु, 

डरत डराने से उठाने रोम गात हैं। 
कहे ( पदमाकर ! सुदेखि दशा मोहन की, 

शेषपहु महेशहु सुरेशहु सिद्दात हैं। 
एक पायें भीत एक पाय मीत काँधे धरे. 

एक हाथ छींको एक हाथ दधि खात हैं || 


( ४४६ ) 


यहाँ इधर-उधर सशंक दृष्टि से देखने, पत्ते खटकने के कारण डर से 
रोमान्व खड़े दोने आदि का वर्णन ही भय है। 


इस सम्बन्ध में दास जी की उक्ति भी पढ़ने लायक है, देखिए-- 


थआाये सुनि कानह भूल्यो सकल हुस्यारपन, 

स्यारयन कंस को न कद्दत सिरातु दे। 
व्याल बर पून और चून नर छार खेत, 

भभरि भगाय भये भीत रहि जातु हे। 
दास' ऐसी डर डरी मति हेतु हाउ ताकी, 

भर भरी लागु मन थरथरी गातु है। 
खर हू के खरकत घकघकी धरकत, 

भोन कोन सिकुरतु सरकतु जातु है ॥ 


यहाँ-कृष्ण के डर के कारण कंस का भौदड़पन वर्णित है। हस समय 
कंस की ऐसी हालत हो रही हे कि तिनका के खड़कने से भी उसकी धिग्घी 
बंध जाती है | 


राम चरित मानस का उदाहरण देखिये, इसमें शूपंणखा की भयड्डरता 
का कैसा भयावह वर्णन है-- 
तब खिसियान राम पहूँ गई। 
रूप भयंकर प्रगटत भई॥ 
बिथुरे केश रदन विकराला। 
भ्कूटी कुटिल करण लगि गाला ॥। 
सीतदि सभय देखि रघुराई | 
कहा अ्रनुन सन सेन बुकाई।। 


जुगुप्सा ( ग्लानि ) 


किसी के दोषों का शान होने पर मन में उसके प्रति जो घृणा उत्पन्न 
दोती दे उसे जुगुप्सा या ग्लानि कहते हैं । 


( ४४७ ) 


हृदयोद्वजक श्रर्थात्‌ द्वदय को अप्रिय लगने वाले दृश्य देखने या ऐसे 
ही शब्द सुनने ञ्रादि विभावों द्वारा जुगुप्छा की उतपत्ति द्ोती हे । स्ली और 
श्रधम प्रकृति पात्र इसके झ्राश्रय स्थान हें | थूकने मुंह सिकोड़ने नाक 
मेँदने श्रॉख मीचने आदि अनुभावों द्वारा इसको व्यक्त किया जाता है। 
रस तरंगिणीकार के मत से अप्रिय वस्तु के देखने, छूने या स्मरण 
करने से उत्पन्न हुई अपरिपूर्ण मनोविकृति का नाम जुगुप्सा है । 
जुगुप्सा के उदाहरण में कविवर पद्माकर की उक्ति सुनिए--- 
आ्रावत गलानि जो बखान करों ज्यादा यह, 
मादा मल मूत ओर मज्जा की सलीती हे । 
कहे 'पदमाकर” जरा तो जागि भीजी तब, 
छीजी दिन रैनि जैसे रेनु ही की भीती है। 
सीतापति राम के सनेह् बस बीती जो पै, 
तो तो दिव्य देह यमयातना तें जीती है। 
रीती राम नाम तें रही जो बिना काम तो या, 
खारिज खराब हाल खाल की खलीती है॥ 
यहाँ पद्माकरजी संसार के क्षणिक भोग-विलासों को त्याज्य एवम्‌ 
घुशात्पद समझ रामभक्ति करने का उपदेश देते हं। वे कहते हेंकि 
रामभक्ति के बिना यह शरीर हाड़-मांत और मल-मूत्र के पुतले से 
भ्रधिक श्रोर कुछ नहीं हे । 
इस प्रसंग में नीचे लिखा सवेया भी बड़ा सुन्दर है--- 
पालि लिये दधि दूध मह्दी जिन ऊधम ही तिनहू सों तिनाने। 
साथी महा हय हाथी भुजंग बलछ्ला दृष मातुल मारि बिनाने | 
कूबरी दुयरी जाति न ऊबरी ड्ूबरी बात सु साँची किनाने। 
शान गद्दीरिन सों रुचि मानी शअ्रद्दीरन सों घनस्याम घिनाने ॥ 
कृष्ण जी गोपियों ( श्रह्दीरिनों ) से तो प्रेम रखते हैं, परन्तु अद्दीरों 
से घिनाते हैं | क्‍या खूब ! 


( अश८ ) 


झौर देखिए--- 
सूपनला को रूप लखि, खवत रुघधिर विकराल, 
तिय सुभाव सिय हठि कछुक, मुख फेरये तिहि काल । 
>< >< >< 
जुगुप्सा के उदाहरण में सेनापतिजी का नीचे लिखा कवित्त कितना 
उत्कृष्ट है --- 
महा मोह कंदनि में जगत निकंदिन में, 
दिन दुख दंदिन में जात है बिहाय के । 
सुख को न ल्लेस हे, कलेस सब भाँतिन को, 
४ सेनापति ? याही तें कहत श्रकुलाय के । 
आअवे मन ऐसी घरबार परिवार तजो, 
डारो लोक लाज के समाज बिसराय कै। 
हरिजन पुंजनि में बृन्दाबन कुँजनि में, 
रहो बेठि छॉह कहूँ वृच्छुन की जाय के ॥ 
यहाँ संसार के दुःखों से विदग्ध औ्रोर त्रस्त द्वोने के कारण किसी 
एकान्त स्थान में बेठकर भगवद्धक्ति करने की इच्छा प्रकट की गई है। 
यह संंसारिक व्यापारों से घुणा अथवा विरति होना ही जुगुप्सा है । 


विस्मय ( अश्चय ) 


किसी लोकोत्तर वस्तु के दशन, स्पशन, श्रवण श्रादि से उत्पन्न हुए 
चित्तविकार को बिस्मय ( श्राश्वय ) कहते हैं-- 

जो समझ में न श्रावे ऐसी वस्तु देखने, सुनने या स्मरण करने श्रादि 
विभावों से विध्ष्मय उत्पन्न होता हे। श्राँखें फाइने, मुंह फेलाने, स्तब्ध हो 
जाने आदि शअ्रनुभावों द्वारा विस्मय की श्रभिव्यक्ति होती है । 

रसतरंगिणीकार ने चमत्कार के दशंन, स्मरण श्रथवा श्रवण से 
उत्पन्न हुए. श्रपरिपूर्ण मनोविकार को विस्मय कहा है | 


( ४५४६ ) 


सेस महदेस दिनेस गनेस सुरेसहु जाहि निरन्तर गावें। 
जाहि अ्नादि अनन्त अ्रखंड अखेद श्रभेद सुवेद बतावें । 
नारद से सुक ब्यास रहे पचि हारे तऊ पुनि पार न पावें । 
ताहि अहीर की छोहरियाँ छुछिया भरि छाछ पे नाच नचारवें | 


जिन कृष्णजी की महिमा को शेष-महेश भी नहीं गा सकते हैं उनको 
ये अहीर की छोकरियाँ 'छुछियाभर! छाछु के लिए. नाच नचाती हैं, यह 
कितने ताज्जुब की बात है । 
दूसरा उदाहरण देखिए-- 
शत रचे हरिनान के सींग के चीन्ह किये तिहि में बहुधा को। 
काहू को काहू न ले तिह्िते रच्यों वर्ण बबा को ददा को धधा को । 
काहू के हाथ दियो है तता लिख्यो काहू के हाथ दिये। है जसा को ! 
'दत्त' तहाँ ही सिपाहिन में लख्यो बाल के हाथ में सींग ससा को || 


इसमें हिरनों के सींगों से इथियार बनाकर उन पर 'बबा” 'ददा” और 
“'घधा? के चिह्न अ्रड्धित करने का वर्णशुन है, यह एक प्रकार की नई 
सेना है। इसी सेना में एक “बाल” के हाथ में शशक श्शंग भी दिखाई 
दे रहा हे । है न विध्मय की बात ! 


आ्राश्षय का नीचे लिखा उदाहरण भी कैसा सुन्दर है-- 

देखत क्‍यों न श्रपूरव इन्दु में द्वे अरविन्द रहे गहि लाली। 
त्यों 'पदमाकर” कीरवधू इक मोती चुगै मनो है मतवाली। 
ऊपर ते तम छाय रहो रबि की दब ते न दबत्रे खुल ख्याली | 
यों सुनि बैन सखी के विचित्र भये बित चक्रित से बनमाली || 


उपयु क्त सवैया में एक रूपक द्वारा नायिका के मुखमंडल, नेत्र, 
नासिका ओर केशों का वणन किया गया है, जो विचित्र होने के कारण 
आश्चय जनक है। यहाँ पद्माकरजी ने इन्दु, अ्ररविन्द, कीरवधू भौर 
तम की क्रमशः मुखमंडल, नेत्र, नातिका ओर केशों से समता को है। 


( ४५१० ) 


फिर ऐसी कीरवधू जो मोती चुगती हे, ओर ऐसे श्ररविन्द जो इन्दु-द्युति 
में विकसित हैं, और ऐसा अ्रंघेरा जो रवि के प्रबलता की श्रागे भी ठह्दरा 
हुआ है ! 
निर्वेदर या शम 

विशेष ज्ञान दोने के कारण सांसारिक इच्छाश्रों के न रहने या उनमें 
निन्दा-बुद्धि पेदा होने श्रथवा परिश्रम विफल होने आदि की अवस्था में जो 
पश्चात्ताप पूवक वेराग्य उत्पन्न होता है, उसे निवंद ( शम ) कहते हैं । 

उदाहरण के लिए नीचे लिखा सबेया पढिए-- 

हे थिर मन्दिर में न रह्मो, गिरि कन्दर में न तप्यो तप जाई । 

राज रिकराये न के कविता रघुराज कथा न यथामति गाई। 

यों पछितात कछू “ पदमाकर ? कासों कहों निज मूरखताई। 

स्वार्थ हूँ न कियो परमारथ यों ही अकारथ वेस बिताई॥ 

न परमार्थ-साधन हुआ न स्वार्थ-सिद्धि हुई सारा जीवन यों ही व्यतीत 
होगया, इस मूखता के लिए पश्चात्ताप करना ही निर्वेद है । 


>< ८ ५८ 
सूरदासजी ने निम्नलिखित पद में निवेंद का कैता स्वाभाविक वर्णन 
किया है, देखिए-- 


अब में जानी, देह बुढ़ानी । 

शीश पाँव धर कह्यो न मानत तनकौ दशा 8धिरानी ॥ 
ग्रान कहतत आने कि झ्रावत नाक नेन बहे पानी। 
मिटि गई चमक दमक अंग श्रेंग की अधरन की मुसकानी ॥ 
नारी गारी बिन नहिं बोले पूत करत नहिं कानी । 
घर में आदर कादर को सों खीकत रेनि बिह्ानी ॥ 
नाहिं रही कछु सुधि तन मन की भई है बात पुरानी। 
' सूरदास” भगवन्त भजन विन केसे तरे ये प्रानी॥ 


( ४६१ ) 


बुढ़ापा आगया, गदन डगमगाने लगी, सुनने ओर देखने की 
शक्तियाँ मन्द पड़ गई, न स्त्री ठीक ढंग से बात करती है, न पुत्र श्रादर- 
भाव दिखाते हैं| सारी ञ्रायु यों ही बीत गई भगवद्धक्ति की ओर ज़रा 
भी ध्यान नहीं दिया, न जाने अब यह जीवन-नैया केसे पार लगेगी। 
शड्ड रजी का निर्वेद विषयक निम्नलिखित पद कसा सुन्दर है--. 
खेलत खेल घने दिन बीते । 
हँत-हँंस दाव अनेक लगाये एकह्ु बार न जीते। 
जुरि-मिल लूटि लै गए ज्वारी करि करि मन के चीते ॥ 
अब लों निपट नाश की मदिरा रहे मोह वश पीते। 
“ शझ्टर” सवस हारि चले हम हाथ पसारे रीते ॥ 
जीवन भर तो मोह-माया में फँसे नाश की मदिरा मुंह में उँडेलते 
रहे; काम-क्रोध, मोह, लोभ, मद श्रादि को मोक़ा मिल गया, उन्होंने दिन 
दहाड़े लूट मचानी शुरू को; बल-वैभव, चारित्र्य जो कुछ भी था सब 
नष्ट हो गया। पहले से कुछ चेत होता तो इस विनाश की क्‍यों नौबत 
आती । अन्त समय में क्या रक्‍्खा है, अब तो रौते ह्वाथों ही दुनिया से 
कूच करना पड़ेगा । 


रस 


स्‍ध्यायी भाव के साथ विभाव, अनुभाव ओर संचारी भाव के संयोग 
से रस की उतत्ति होती है। जिस प्रकार नाना भाँति के शाकों में तरह- 
तरह के मतालों के संयोग से रसोप्तत्ति होती है; जिस प्रकार शकर, 
श्रनार, सुगन्धित द्रव, गुलाब तथा नारंगी के संयोग से रस या शबत 
वगेरह की उत्पत्ति होती हे, उसी प्रकार नाना भाँति के भाव-विभावों के 
मेल से स्थायी भाव में रसत्व का प्रादुर्भाव होता है। रस का आस्वादन 
किया जाता है, इसीसे इसका नाम रस पड़ा। माधुयं श्रादि रसों की 
श्रृंगारादि रसों के आस्वादन से तुलना किस प्रकार की जा सकती है ? 
जिस प्रकार विविध मसालों के संयोग से बनाए भेजन का आध्वादन 
कर, मनुष्य रस का आनन्द प्राप्त करता है, उसी प्रकार भाव, विभावों 
से संयुक्त स्थायी भावों में श्वज्धारादि रसों के रसत्व का आस्वादन 
सहृदयजन करते हैं। जिस प्रकार स्वाद युक्त भाज्य पदार्थ का रसना 
द्वारा प्रीतिपूषक आस्वादन किया जाता है, उसी प्रकार मन द्वारा 
कांव्य-र्सों का आस्वादन किया जाता है। जिस प्रकार कोई रस भाव 
विना नहीं होता, उसी प्रकार कोई भाव रस विना नहीं होता | जैसे 
शाक और मसाले मिलकर दही स्वाद की उत्पत्ति करते हैं, उसी प्रकार 
भाव और रस एक दूसरे के सहायक हैं। जिस प्रकार बीज में से 
वृक्ष श्रोर वृक्ष से पुष्प तथा फल उत्पन्न होते हूँ, उती प्रकार रसों से भावों 
की उर्थपत्त होती है । 


साधारणतः नौ रस माने गये हैं, श्र्थात्‌ »ज्ञार, हास्य, करुण, रौद्र, 
वीर, भयानक, बीमत्स, अद्भुत और शान्त | साहित्यदर्पणकार ने दशर्वा 
वात्सल्य रस भी माना है, कुछ आआचारयों ने भक्ति रस का भी उल्लेख 
किया है | इनके अ्रतिरिक्त और भी कई रस माने गए हैं। परन्तु नाट्य- 


( ४६३ ) 


शास्त्रकार भरत मुनि ने आठ द्वी प्रकार के रस माने हैं। उनका मत है 
कि शज्जार, रौद्ग, वीर श्रौर बीभत्स ये चार मूल रस हैं। इन मूल रसों से 
हास्य, करुण, अद्भुत ओर भयानक ये चार रस श्रौर उत्पन्न होते हैं, यथा 
#ंगार के अनुकरण से द्वास्य रस, रोद् के कम से करुण, वीर के कम से 
अद्भुत श्रोर बीमत्स के दर्शन से भयानक रस उत्पन्न होते हैं। अस्तु, 
धूदड़ार श्स 

जब रति ( स्थायी ) भाव पूर्णतया पुष्ट और चमत्कृत द्योता हे, तब 
उसको “शंगार रस? कहते हैं । 

कामदेव के अंकुरित होने का नाम श्ज्ञ हे। “रंग की उत्पत्ति का 
कारण---अ्रधिकांश उत्तम प्रकृति से युक्त रस--श्वज्ञार रस कहाता है। 
साधारण लोग भी मनुष्य के शरीर में कामदेव के अंकुरित होने को 
सोंग निकलने के नाम से पुकारते हैं। जब कोई व्यक्ति कुमाराबस्था को 
पार कर यौवन में प्रवेश करने लगता है, तो प्राय: कहा जाता है--“अब 
उसके सोंग निकलने लगे हैँ ।! इस सींग निकलने से श्रभिप्राय उसके 
शरीर में योवन-चिन्द्दों श्रौर द्वदय में श्वज्ञारी भावों के उत्पन्न होने 
सेह्दीहे। 

श्ज्भार रस का स्थायी भाव 'रति, देवता विष्णु भगवान अथवा 
श्री कृष्ण, ओर वर्ण श्याम द्वोता है । 


नायक ओर नायिका इसके श्रालम्बन द्वोते हैं। साहित्यदपंणकार ने 
केवल दक्षिणादि नायकों ओर परखस्त्री एवं अनुराग शून्य वेश्याओं को छोड़ 
कर शेष नायिकाओं को *गार रस का आलम्बन माना है | 

सखा, सखी, वन, उपवन, बाग, तड़ाग, चन्द्र, चाँदनी, चन्दन, 
भअ्रमर-गुज्नन, कोकिल-कूजित, ऋतु-विकास आदि श्वज्ञार रस के उद्दीपन 
विभाव हैं । 


श्रुभंग, अ्रपांग वीक्षण, मदु मुसकान, हाव, भाव आदि श्टंगार रस 
के अनुभाव द्वोते हैं । 


५ ४दे४ ) 


उग्रता, मरण, श्रालस्य, ओर जुगुप्सा को छोड़ कर शेष निवेदादि 
सम्पूर्ण भाव इसमें संचारी या व्यभिचारी भाव होते हैं । 


श्ड़ार रस के भेद 


श्ृंगार रस के संयोग या संभाग श्रृंगार ओर वियोग या विप्रलम्भ 
श्वृड़्ार ये दो भेद माने गए हैं | 


संयेग या संभाग भ्रुड्भार-वर्णन 
एक दूसरे के प्रेम में पगे नायक-नायिका जहाँ परस्पर दशन, स्पर्शन, 
संलापादि करते हैं, वहाँ संयोग या संभेग »ंगार होता है। 
कविवर रसखान ने आ्रागे लिखे कवित्त में संयोग शज्ञार का केसा 
सुन्दर वर्शन किया है, देखिए -- 
'छुटथो गेइ काज लोक लाज मनमोहिनी को, 
भूल्याी मनमोहन को मुरली बजाइबो। 
देखो दिन द्वे में 'रसखान” बात फेलि जैहै, 
सजनी कहाँ लॉ चन्द हाथन दुराइबो ! 
कालि हू कलिन्दी तीर चितयो अचानक हो, 
दोठउन को दोऊ मुरि मृदु मुसिकाइबो | 
दोऊ परे पैयाँ दोऊ लेत हैं बलेयाँ, उन्हें-- 
भूलि गई गेयाँ इन्हें गागरि उठाइबो॥ 
परस्पर प्रेमानुरक्त मनमोहन और मनमोहिनी की केसी विचित्र 
अवस्था होगई हे । उन्होंने मुरली तक का बजाना छोड़ दिया ओर इन्होंने 
घर के काम काज तथा लोक-लाज को भी तिलाञ्जलि दे दी। सखी, 
मेंने तो कल्न भी कालिन्दी-कूल में दोनों को बारबार परस्पर श्रवलोकन कर 
मन्द-मन्द मुस्कराते तथा एक दूसरे की बलैयाँ लेते देखा है। दोनों प्रेम 
में ऐसे विभोर हो रहे थे कि न उन्हें गायों की सुध थी और न इन्हें गागर 
भरने का होश था। 


( ४६४ ) 


यहाँ रति स्थायी मनमोहन ओर मनमोहिनी दोनों का आलमग्बन 
विभाव हैं। मुस्कराना नायक-नायिका को चेध्टा और कालिन्दी का 
कलित कूल दोनों उनके भाव हैं । परस्पर पैयाँ पड़ना और बलैयाँ 
लेना ये दोनों अनुभव करते हैं। तन-मन की सुध बिसशा कर गाये 
चराना और गागर उठाना भूल जाना, मोद्द संचारी हैं। इसमें नायक 
और नायिका दोनों बलैयाँ लेने ओर पैयों पड़ने के रूप में परस्पर दर्शन, 
स्पशन, संलाप श्राद कर रहे हैं, इसलिए यहाँ संयेग श्रृंगार हुआ । 
ऐसे हैं| भाव को कविवर चिन्तामणि ने भी एक कवित्त मं व्यक्त 
किया हे, उसे भी देख लीजिए 
दोऊ जन दोऊ की अनूप रूप निरखत, 
पावत कहूँना छवि सागर को छोर हैं । 
'चिन्तामनि! केलि के कलानि के बिलासन सों, 
दोऊ जन दोउन के नचित्तनि के चार हैं | 
दोऊ जने मन्द मुसकनि सुधा बरसत, 
दोऊ जने छुके माद मद दुह्ढ ओर हैं । 
सीता जू के नेन रामचन्द्र के चकार भए, 
राम नेन सीता मुख चन्द्र के चकोर हैं ॥ 
उपयु क्त पद्म में भी, राम-सीता दोनो के द्वदयों में उद्बुद्ध पारस्परिक 
प्रंमानुरागरूप रति स्थायी है, जिसके आलम्बन राम-सीता दानों हं। दोनों 
की मुस्कराना श्रांद चेष्टाएँ रति के उद्दयौपन हैं। एक दूसरे के मुखचन्द्र 
को चकोर की भाँति निरखना आदि अनुभाव हैं । 


कविवर देवजीका नीचे लिखा सवेया भी पढ़ने लायक है । 


हो 


अआ्रापुस में रस में रहस बहसे बनि राधिका कुंजबिद्दारी | 

श्यामा सराहति श्याम की पागढ़िं श्याम सराहत श्यामा की सारी | 

एकह्ठि दपंन देखि कद्दे तिय नीऊे लगो पिय प्यो कहे प्यारी । 

* देव ' सुबालम बाल को बाद बिलाकि भई बॉल में बलिहारी ॥ 
हि० न० र२०-- ३० 


( ए४ईै६ ) 


कृष्ण राधिका परस्पर रस-रहस्य की बातें और एक दूसरे के वेश- 
भूषा की प्रशंता करते नहीं अघाते। कभी वे दोनों एक ही दर्पण में एक 
साथ देखते तथा श्रन्योन्य के रूप-लावण्य को सराहते हैं। यही संयेग 
श्रृंगार है | 

संयाग शंगार के चुम्बन, अलिज्ञषन आदि अनेक भेद हैं। इसमें 
षड़शतु, सूये, चन्द्र, वन, उपवन, प्रभात, सन्ध्या, रात्रिक्रीड़ा आदि 
सब का वर्णन होता हे। विना वियोग के संयेग श्टंगार की पुष्टि नहीं 
मानी गई । 


वियाोग या विपलम्भ-धं गार 


जब श्रनुराग के उत्कट होने पर भी प्रिय-सयेग का अ्रभाव रहता है, 
तब वह वियेाग या विप्रलम्भ शषंगार कहाता है| इसमें नायक-नायिका 
के परस्पर वियाग का वर्णन होता हे । देखिए कविवर देव अपने एक 
सवैया में विये।ग शंगार का वणुन किस प्रकार करते हैं -- 

या बतियाँ छुतियाँ लद्क दहकें त्रिरद्ागिनी की उर आऑँचे। 

वा बैंसुरी को परो रसुरी इन कानन मोहनी मन्त्र सी माँच। 

कौ लगि ध्यान धरें मुनि लॉ रहियो कहिये गुन वेद सौ बाँचें। 

सूकत नाहिं न आन कछू नि द्यौस बेई श्रेंखयान में नाचें ॥ 

कृष्ण के वियोग में किसी व्रजबाला की उक्ति हैं। वह कद्दती है--- 
मोहन की वंशी की मधुर ध्वनि कानों में मोहन मन्त्र-सा पड़ गई है, 
जिससे कान बार-बार उसे ही सुनने के लिए श्राकुल रहते हैं। भला मुनियों 
की भाँति यों कब तक उनका ध्यान करती रहूँ, उनके गुणानुवाद का वेद- 
मन्त्रों की तरह कब तक गान किया जाय । श्रब तो मुझे कृष्ण के सिवा 
और कुछ सूकता ही नहीं। दिन-रात उन्हीं की मोहिनी मूर्ति श्ाँखों में 
नाचती रहती हे । 


वियेग श्रृंगार के वर्णन में कविवर पद्माकर का नीचे लिखा सवेया 
भी देखने लायक है, उनकी वियेगिन किस साहस के साथ कहती हे-- 


६ ४६७ ) 


घीर समीर सुतीर ते तीछुन ईछुन केसेहु ना सहती में। 
त्यों पदमाकर! चाँदनी, चन्द, चिते चहुँ ओर न चॉकती जी में । 
छाय बिछाय पुरैन के पातन लेटती चन्दन की चबकी में। 
नीच कहा बिरहा करतो सल्ि होती कहूँ जु पे मीच मुठी में ॥ 
है सखि, यदि मृत्यु मेरे द्वाथ में होती, तो इस नीच विरह को तो मैं 
ब्रच्छी तरह देख लेती | यह जो शीतल, मन्द, सुगन्ध मलय-समीर मुमे 
तीर से भी तीखा लग रहा है, चाँदनी ओर चन्द्र जो मुझे श्रंगारे जेसे 
जान पड़ते हें, इन सब्र का तो इलाज सहज ही हो सकता था। बस चन्दन- 
पंक से पुते पुरैन के पत्ते त्रिछ्चाकर पड़ रहती, विरद-जनित विदाहक दाह 
दूर हो जाता | परन्तु खेद तो यद्द हे कि कम्बज़्त काल अपने द्वथ में 
नहीं दे । दि 
वियाग थद्भार के भेद 
वियोग श्ंगार के तीन भेद हैं---१--पूर्वानुग॒ग, २--मान ओर 
३--प्रवास | किली किसी ने इसका एक भेद करुण भी माना है, जो 
नायक-नायिका में से किसी एक के मर जाने पर दुसरे के दुखी होने से 
दोता हे । 
पूथरीजु राग 
प्रथम दशन द्वारा नायक-नायिका के परस्पर अनुरक्त होने पर भी 
किसी कारण मिलन न हो सकने से उनके हृदय में जो प्रेम पूर्ण अधीरता 
उत्पन्न होती है. उसे पूर्वी तुराग कहते हैं | 
कविवर पद्माकर ने पृवानुराग का उदाहरण इस प्रकार दिया है--- 
मधुर मधुर मुख मुरली बजाय धघुनि, 
धमक घमारन की धाम धाम के गयो। 
कहे 'पदमाकर' त्यों अगर शअ्रबोरन की, 
करि के घला घली छुला छुली चिते गयो। 
कोदे वह ग्वालिनी |! गुवालन के संग माहिं, 
छेल छुबत्रि वारो रस रंग में भिजे गया। 


( ४८ ) 


ब्वै गये। सनेह फिर छवै गये छुरा को छोर 
फगुआ न दे गयो हमारो मन ले गये ।॥ 


सखी, वह ग्वालों के साथ में साँवला सलोना लुबीला छैल कौन था, 
जो मधुरनमधुर मुरली बजाकर तथा धाम-धाम ( घर-घर ) धमार गान की 
धूम मचा गया ओर रसरंग बरसा गया। इतना ही क्यों वह तो अपनी 
तिरछी चितवन से मेरे हृदय में प्रेम का बीज भी बो गया है। इन सबसे 
भी बढ़कर बात यह हुई, कि उसे मेरे साथ होली खेलने के कारण जो 
मुझे फगुआ्ना देना चाहिये था, सो तो वह दे नहीं गया, उलटा मेरे मन 
को ले गया । 
यहाँ कृष्ण के प्रथम दशन से ब्रजब्ाला के द्ृदय में प्रेमांकुर 
उत्पन्न हो गया ओर उसके कारण अब वह मोहन के सम्बन्ध में जानना 
चाहती हे कि वह कोन था। यद्द उम्सुकता या अधीरता द्वी पूर्वानुराग 
है। श्र भी देखिये-- 
मोहि तजि मौदने मिल्यो है मन मेरो दोरि, 
नेन ह मिले हैं देखि देशि साँवरों सरीर। 
कहे 'पदमाकर' त्थों तान मय कान भए, 
हों तो रही जकी थकी भूली-पी भ्रमी-सी बीर । 
ये तो निरदई दई, इनकों दया न दई, 
ऐसी दसा भई मेरो केसे घर मन धीर। 
हो तो मन हू के मन. नेनन के नेन जो पे, 
कानन के कान तो ये जानते पराई पीर ॥ 


सखी, उस साँवरे को देखते ही आँखें उसी से जा मिलीं श्रोर मन भी 
दौड़ कर उसी के पास चला गया । ओर तो औ्रौर उसके मृदु भाषण 
और मुरली की मधुर तान सुन कान भी तो काबू से बाहर हो गए हैं। 
अब मेरी जो दशा हो रही है, उसे में ही जानती हूँ । ये तीनों के तीनों 
तो श्रब्वल दर्ज के निदय हैं, देव ने इन्हेँ प्रा भी तो दया नहीं दी | भला 


( ४६६ ) 


ये मेरे कष्ट को केते जान सकते हैँ। किसी ने ठीक ही कह्दा है--'जा के 
पाँव न फटी जिवाई, सो का जाने पीर पराई |! अ्रगर मन के मन होता, 
कानों के भी कान द्वोते श्रोर आँखें भी श्राँख रखती द्ोतीं तो इनके 
पपराई पीर! का श्रनुभव होता । 


यहाँ कृष्ण के दश्शन से हृदय में प्रेम-भाव उत्नन्न हो जाने पर 
गोपिका उनगे मिल ने सकने के कारण जो श्रघेर और दुखी हो रही हे, 
यही पूटानुराग हे | 


इस प्रसंग मे नीच लिखा पद्म भी कितना उत्कृष्ट हे--- 


चहत दुरायो तो सों कौ लगि दुराऊँ दैया, 

साँची हों कहों रोबीर सब सुख कान दे | 
साँवरों सो ढोठा एक ठाढ़ौ तीर जमुना के, 

मो तन निद्दार॒यौ नीर भरि अंखियान दे। 
वा दिन तें मेरी ही दसा कों कछु बूमे मति, 

चाहे जो जिवायों मोहि वाही रूप दान दे। 
हा हा करि पॉय परों रहलयौ नाहिं जाय घर, 

पनघट जान दे री पन घट जान दे॥ 


लोक-लाज भले ही जाती रहे, पर श्रव में उस : साँवरे ढोठा * के 
दशेन किये बिना नहीं रह सकती । बस श्रत्र तू मुझे पनघट पर जाने दे । 
मिलने के लिए अनुराग-जनित उत्सुकता अथवा प्रप-पूण ग्रधोरता का 
कैसा सुन्दर वर्णन है । 
दशन के भेद 
प्रत्यक्ष देखकर, चित्र देखकर, स्वप्न में देखकर अथवा तत्सम्बन्धी 
चर्चा सुनकर--चार प्रकार से दशन हेता है, श्रतः इन कारणों के 


अनुसार दशन के चार भेद माने गए है। श्रर्थात्‌ प्रत्यक्ष दर्शन, चित्र- 
दशा न, स्वप्न दर्शन ओर भ्रवण दशशन । 


( ४७७० ) 


प्रत्यक्ष दशन 


जहाँ किसी वस्तु या व्यक्ति को आँखों से देखकर उसके प्रति अ्रनुराग 

उत्पन्न होता हे, उसे प्रत्यक्ष दशन कह्दते हैं। उदाहरण देखिए--.- 

जादुगर साँवरो न जानी कस जादू कर'यो, 
'पपश्डत प्रवीन' हों बिकानी प्रान प्यारे पै | 

अआ्रँगन सों जात श्रटा नटकी बठा सी गेल-- 
छेल की छुटा सी छुबरि देखति हों द्वारे पे। 

घूँघट के श्रों० चोट लागी इन नेनन में, 
ऐसी लोट पोट भई पीत पट बारे पे। 

आई पनघट पे न घट की न घाट की हों, 
नोखोरी नवज्ञ नट ग्रटक्यो हमारे पे॥ 


द्वार पर होकर जाते हुए, छेल की छुटा क्‍या देखी, उसने तो मेरे 
ऊपर जादूसा कर दिया। में उसके हाथ बिक-सी गई, श्रौर दिन-भर 
नट की तरह श्रोंगन से श्रटा पर और श्रटा से श्ॉगन में चढ़ती-उतरती 
रहती हूँ कि शायद कहीं वह दिखाई पड़ जाय । सखी धुृघट की श्रोट रहने 
पर भी इन नेनों में उसकी तिरछी चितवन को ऐसी चोट लगं। है, कि 
में लोट पोट हों गई हूँ | में यहाँ पनघट पर इस आशा से थ्राई थी कि 
शायद कहीं दशन हो जायें, लेकिन अब न घर की रही न घाट की, 
( दशंनों की आशा से घाट पर ही बैठी रदना चाहती है, परन्तु बिलम्ब 
हो जाने के भय से, घर चले जाने को भी जी चाहता है, द्विविधा में 
पड़ गई है ) क्‍या बताऊँ, यह श्रनोखा नटनागर तो बुरी तरह मुभसे 
अटका है । 


देखिये पद्माकरजी दश्शन के सम्बन्ध में क्या लिखते हैं-- 


आई भली हों चली सखियान में, पाई गोविन्द के रूप की काँकी । 
त्यों 'पदमाकर' हारि दिया हिय काज कहाँ श्रदद लाज कहाँ की | 


( ४७१ ) 


है नखते सिख लो मृदु माधुरी बाँक़ी ये भेहें बिलोकनि बाँकी | 

अ्राजुकी या छुब्रि देखि भट्ट श्रव देखिबे कों न रहव्यो कछु बाकी ॥ 

यह अ्रच्छा दी हुआ जो आज में सखियों के साथ इधर चली आई, 
गोविन्द के दशन हो गए | बस मेंने तो श्रपना हृदय उन पर निछावर 
कर दिया दे। अश्रब मुझे गहद-काज की चिन्ता है, न लोक-लाज का 
भय। बदन, क्या बताऊं. नख से शिख तक केसी मनोहर मूर्ति हे, और 
चितवन भी केसी बाँकी है ? सच तो यह है कि ग्राज़ की उस मनमोहिनी 
छुबि की भाँकी करके मुमे श्रव और कुछ देखने के लिए बाक़ी नहीं 
रह गया | 

इसम॑ स्पष्ट ही दशन का वर्णन दे । 

चित्र दशन 

जहाँ किसी का मनोरम चित्र देखकर हृदय म॑ उसके प्रति श्रनुराग 
पैदा होता है, उसे चित्र-दशशन कद्दते हैं । यथा-- 

दखे चिनरे में ठाढ़े हैं कान्दर टेढ़े भये भेद नारि मुराये। 

केस बजावत हूँ मुरली तिरलले तकि भौंह सों भौंद जुराये। 

चोरी की टेब यहाँ लॉ परी यद्द देलिये बात कहाँ लों दुराये । 

मोहनी मूरति स'हनी सूरति चित्रह् में चित लेति चुराये॥ 

मोहन की चोरी को टेब यहाँ तक बढ़ गई है कि चित्र में बनी हुई 
उनकी मनोहर मूर्ति भी चत्त चुराए लेती है । 

कविवर नेनी प्रतर॑ण ने नीचे लिखे सवैया में चित्रदशन का केता 
विचित्र चित्र चित्रित किया है-- 

मूरति मोहिनी मोहनी की लिख धारी जहाँ सलियान की भीरें । 

त्रैनी प्रबीन' बिलोकति राधिका चित्र लिखी सी भई तेहि तीर । 

जोरी किसोरी क्रिसोर की रोफि सरादि रही हैं गुवालि गभोरें। 

चित्त चितेरी रद्दी चकि सी जकि एकते ह्वो गई हद्वे तसबारें॥ 

मन मोहन की मनोहर मूर्ति ( तसवीर ) देखकर राधिकाजी चित्र 


( ४७रे ) 


लिखी-सी रह गई | साथ की सखियाँ तो राधिका-मोइन की सुन्दर जोढ़ो 
पर रीक कर बार-बार उनकी सराहना कर रही हैं, परन्तु चितेरी राधिका 
को भी चित्र लिखी-सी खड़ी देखकर चक्तित हो रही है। वह सोचती द्दे--- 
मेंने तो एक तसवीर बनाई थो, परन्तु यहाँ एक से दो तसभबीर द्वो गई । 
खूब | बैनी जी ने अपने काञ्य-कोशल से एक की दों तसवारें कर दीं। 


स्वम-दशंय 
किसो को स्त्रप्न में देखकर उसके प्रति प्रम भाव उत्पन्न दोने को स्वप्न- 
दशन कहते हैं | 
कविवर द्विजदेव ने स्वप्न-दशन का नीचे लिखा उदाइरणु दिया है -- 
काहू काहू भाँति राति लगी तो पलक तहाँ, 
सपने में ग्रानि केलरीति उन ढानीरो। 
श्राप दुरे जाय मेरे नयन मुंदाय कु, 
होंहू बजमारी ढढित्र की अकुलानी री। 
एरी मेरी श्राली या निराली करता की गति, 
'द्विज देव! नेकक न परति पिछानी री। 
जी लो उठि आपनो पथिक पिय दढ्ू ढॉ तौलों, 
हाय इन आँखिन सों नं.द ही दिरानी रो।! 


विरद-तिधुरा नायिक्रा को जैत्े-्तेसे ज़रा नीद आई थी, कि स्वष्न में 
चट नायक आगया और उसने आँख मिचौनी शुरू कर दी , नायिका की 
औँखे मुदवाकर हज़रत कदीं जा छिपे | नायिका ज्योदी अखे खोल प्रिय 
के ढूँढने चली त्योंद्दी उसकी श्राँखें खुल गए । उस समय प्रियतम से तो 
बेचारी की भेंट हुई नहीं उलटी श्राई हुई नींद भी इराम हो गई । 


है । 


नीचे लिखा कवत्रित्त भी पढ़ने लायक है | 


सपने हू सोवबन न दई निरदई दई, 
तरपत रही जेसे जज बिन भकसियाँ। 


( ४७३ ) 


'कुन्दन' सँंदेसों आयो लाल मधुसूदन को 
सत्रे मिल दोरीं लेन संपत्त बिलखियाँ | 
बूके समाचार ना मुखागर सँदेसो कक्कु-- 
कागद ले कोरो द्वाथ दीन्यो लेके सखियाँ। 
छ॒ुतियाँ से पतियाँ लगाय बरेढठी बाँचिबे कों, 
जो लों खोलों खाम तौलों खुलि गई ग्रखियाँ ॥ 
यहाँ बेचारी वियागिनी को प्रियतम तो नहीं मिले, केवल उन का 
पत्र मिला | उसे भी वह पढने नहीं पाई | जेमे ही चाहा क्रि लिफ़ाफ़ा 
खोलकर पत्र पढ़े, तेंसे ही आँखें खुल गई । निर्दय देव ने बेचारो का 
स्वप्न -सुख भी नष्ट कर दिया । 


श्रवण-दशन 
जब किसी के द्वारा किसी के रू गुण श्राद की प्रशंसा सुन कर 
चित्त में उसके प्रत अनुराग उत्पन्न होता दे, तब उसे श्रवण दर्शन 
कहते हैं। यथा--- 
आनन पूरन चन्द लसे अरविन्द बिलास बिलोचन पेखे । 
अम्बर पीत हँपे चपला छुवि अम्बुद मेचक अ्रंग उरेखे। 
कामहुते श्रभिराम महा 'मतिराम? हिये निहचे करि लेखे । 
तें बसन्यौ निज बैनन सौं सखि, में निज्र नेनन सो मनो देखे || 


सखी, तेने तो कृष्ण के रूप का वर्शुन ब्रैनों' द्वारा ही किया है 
उसे सुन कर ही मुझे ऐसा अनुभव होने लगा है मानो मेने 'नैनों से 
उनके प्रत्यक्ष दर्शन कर लिये हों। दूसरा उदाहरण देखिये-- 

राधिका सों कहि आई जु तू सखि, साँवरे की मृदु मूग्ति जेसी | 

ता छिन तें 'पदमाकर” ताहि सुद्दात कछून जिसूरति वेसी। 

मानहु नीर भरी घन की घटा आँखिन में रही आनि उनेसी । 

ऐसी भई सुनि कान्ह कथा जु ब्िलोकद्विगी तब होइगी केसी ॥ 


जिस समय से राधिकाजी ने कृष्ण के मनोमोदक रूप-लावण्य की 


( ४७४ ) 


प्रशंशा सुनी है, उसी समय से उसकी आँखों से श्रविरल अ्रभ्रुधारा 
बहती रहती है, जब कहीं वह उनके प्रत्यज्ञ दशन कर लेगी, तब तो न 
जाने क्या होगा। 
सान्त्यिदपण के मतानुसार भद 
साहित्य दपंणकार ने पूर्वानुराग के निम्नलिखत तीन भद किये हैं। 
१--नीली राग, २--मज्लिष्ठा राग ओर ३--कुसुम्म राग | 
नीशी राग 
जो बादरी चमक-दमक तो अ्रधिक न दिखावे परन्तु हृदय से कभी 
दूर न हो, उसे नीली राग कहते हैं | 
कुसुम्ण राग 
जिसमें चमक-दमक भी कम दीख पढ़े आ्रोग जो शीघ्र दी दर हो जाय 
उसे कुसुम्म राग कहते हैं | 
परख्िष। राग 
जिसमें चमक-दमक भी खूब दीख पड़ें ग्रोर जो कभी नष्ट न हो, उसे 
मक्नषिष्ठा राग कद्दत हैं । 
मान 
प्रिय अपराध-जनित प्रेमयुक्त कोप को मान कहते हैं। इसमे श्रत्यन्त 
अल्य समय के लिए प्रेम-सम्बन्ध स्थगित कर दिया जाता है। यह मान 
दो प्रकार का होता है-- १--प्रणय मान# २--ईध्यां मान । 
प्रणय यान 
नायक-नायिका में भरपूर प्रेम होने पर भी प्रणय-भग के कारण 
जो कोप होता है, उसे प्रणय मान कद्दते हैँ | इसमे प्रेम की वृद्धि करना 
ही इृष्ट होता है, इस लिये कभी-कमी यह अ्रकारण भी पेदा कर लिया 
जाता है। जिस प्रकार दावतों में कुछ लोग मिठाई खात-खाते म॒ह बिंध 


>>->++-क०- जे अर. 8२3७५ >लनननाओ अबम>ब>->+ -+ 


# प्रमाधिक्य के कारण नायक-नायिका के परस्पर वशवर्ती होने 
का नाम प्रणय है | 


( ४७४ ) 


जाने पर पुनः मिठाई में रुचि उल्नन्न करने के लिए बीच में पिसे हुए. 
नमक-मिच की फंक्री लगा लेते हैं. 2/' कार संयोग-काल में प्रेम-भाव 
को उद्यो्त करने के लिए प्रणय #:. : आ्राश्रय लिया जाता है। जब 
लगातार के संयाग मे " श्रति परिचय : .। " के अनुसार परस्पर प्रेम- 
भाव में कुछ शिथिलता थ्रा जाती है, तत्र उसे दूर करने के लिए यह 
उपाय काम में लाया जाता है। देखये नीचे लिखे पद्च में नायिका की 
सखी उसे मान करने का उपदेश दे रही हे--- 
मान बिन पेये सनमान ना अयानी सर्खि, 
मान उर मेरो सीख श्रजह सयान को। 
नित ही के सेवत ज्याँ भावे ना मिठ।ई, पर--- 
भाव है मिठाई पे लुनाई सर साज की। 
रूठिवे की उठन रस्सिय के भिखाबै तऊ, 
छोड़े ना पियारो रीति जन्तु जल पान की | 
एते ही म॑ जाबक लगाए श्राए लाल तहाँ, 
देखत ही औरे गति भई अआ् खयान की ॥ 
सखी कहती है--बावली, विना मान के आदर नहीं मिलता, मीठा 
ही मीठा खाते रढने से, उससे अ्ररुनि हो जाती है, इसलिये बीच म॑ 
नमकीन ज़रूर खाना चाहिए। नायिका को सखी यह उपदेश दे ही रही 
थी, इतने ही म॑ नायक भाल मं जावक लगाए तर्टाँ आ पहुँचा। बस 
फिर क्‍या था नायिका को मान के लिए बहाना मिल गया और उसने 
तुगन्त ग्रांख बदल लीं । 
रष्या पान 
नायक को परस्त्री पर प्रेम करते देख, सुन या उसका अ्रनुमान 
करके ईष्यां से जो कोप किया जाता है, उसे ईर्ष्या मान कहते हैं। ईर्ष्या- 
मान प्रायः स्रियों म॑ ही होता है, पुरुषों में नहीं। पुरुषों कोतो ऐसे 
अवसर पर क्रोध श्राता है । 


५ ४७६ ) 


पर-स्त्री के साथ प्रेम-सम्बन्ध का अनुमान तीन प्रकार से किया जाता 
है। १--पर-स्री के प्रेम-सम्बन्ध में स्वप्न में नायक के कुछ बड़बड़ाने 
से | २--नायक के शरीर में रति-चिन्ह देखकर | अथवा ३-नायक के 
मु ह से अचानक पर-स्त्री का नाम निकल जाने से | 
ईर्ष्या मान के उदाहरण में नीचे लिखा सवैया दे खये--- 
ठाढ़े हुते कहूँ मोहन मोदहिनी शआआइ तिते ललिता दरसानी। 
हेरि तिरीडे तिया तन माधव, माधवै छहेरि तिया मुसकानों। 
यों 'नैंदराम जू' भामिनि के उर आइगो मान लगालगी जानी । 
रूठि रही इमि देखि के नेन कछू कहि बैन वहू सतरानी ॥| 
यहाँ मोहिनी मोइदन को ललिता से आंखें लड़ाते देग्वकर मान करती 
है, इसलिए 'इसे प्रत्यक्ष दर्शन प्रभव ईर्ष्या मान! कहेंगे । 
इे्यागान के भेद 
ईध्यां मान तीन प्रकार का होता है । १--लघुमान, २--मब्यम मान 
ओर ३--गुरुमान । 
लघु मान 
नायक को पर-त्नी पर दृष्टि-पात करते देख नायिका जो मान करतो है, 
उसे लघु मान कद्दत हैं | यह मान केवल मृदु भाषण अथवा हास्यादि से 
दूर हो जाता है । 
उदाहरण देखिए--- 
देखत श्रोर तिया ही छुवीले को मान छुबीली के नैनन छायो | 
प्रीतम यों चतुराई करी 'मतिराम' कछू परिह्यास बढ़ायो । 
राति रची जो बिचित्र विधीन सो ताको कवित्त बनाय सुनायो | 
भूलि गई रिस लाजनि ते मुसकाय तिया मुख नीचे को नायो || 
छुवीले छेल की अ्रँखें किसी 'श्रौर तिया? पर पह़ते देख छुवीली 
नायिका की भोंहें चढ़ गई । यह देख चतुर नायक ने नायिका से परिहास 


( ४७७ ) 


प्रारम्भ कर दिया और विनोद-जनक एक पद्म रच कर सुनाया, जिसे 
सुनते ही नायिका मान भूल गई और उसने मुह्करा कर मह नीचे कर 
लिया। 
इसी श्राशय का देवजी का सवैया भी पढ़ लीजिये-- 
बैठे हुते रेंग रावटी में जिनके अनुराग रेुंग्यौ ब्रज भृम्यो । 
किंकिनी काहू कहूँ ऋनकाई सु्ाँकन कान भरोखा हे भ्ूम्यो । 
'देव? पर त्रिये देखत देखिके भामिनि को मन मान सों घूम्यों । 
बातें बनाय मनाय के लाल हँसाय के बाह्न हरे मुख चूम्यो ॥ 
किसी स्त्री की किकिणी की भकनकार सुन, नायक को भरोखें में हो 
कर उसकी ओर र्ाँकते देख, ना/यका का मन मान से भर गया। परन्तु 
नायक ने तुरन्त ही मीठी मीठी बात बना नायिका को हँसा दिया जिससे 
उसका मान भंग दहोगया । 
ऊपर के दोनों उदाहरणों में प्रिय के पर-सत्री को ओ्रोर देखने मात्र से, 
नायिका ने मान क्रिया, जो प्रिय के मधुर भाषण तथा हँसी-मज़ाक द्वारा 
दूर हो गया, श्रतः यह लघु मान हुआ । 
कभी-कभी नायकनायिका का मान करना देखने के लिए जानब्बूभ 
कर ऐसी चेष्टाएं करता दे, जिनसे नायिका रुष्ट हो जाय। पीछे वह उसे 
मना कर प्रसन्न कर लेता है । कविवर पद्माकर ने अपने नीचे लिखे 
कृवित्त में यद्दी भाव अंकित किया है। देखिए--- 
वाह्दी के रंगी है रंग वाही के पागी है प्रेम, 
वाही के लगी दे संग आनंद श्रगाधा को। 
कहे 'पदमाकर' न चाहे तर्ज नेकु दृग-- 
तारनि ते न्यारों कियो एक पल श्राधा को । 
ताहू पै गोपाल कछू ऐसे झ्याल खेलत हें, 
मान मोरिवे की देखिवे की करि साधा को | 
काह पै चलाइ चख प्रथम खिभावें फेरि, 
बाँसुरी बजाइ के रिकाइ लेत राधा को॥ 


( धे७छ८ ) 


पहले तो किती अन्य स्त्री की ओर श्रँखे मय्का कर कृष्ण जी राधा 
को खिभाते (चिढ़ाते ) हैं, परन्तु पीछे बाँधुरी बजा कर उन्हें मना लेते 
हैं। प्रेम-पथ में यह नकली तड़क-भड़क प्राय; होती दी रहती है । 
मध्यम सोच 
नायक को पर-सत्री की प्रशसा करते श्रथवा प्रेम पृषक उसका नाम 
लेते देख कर नायिका जो कोप करती है, उसे मध्यम मान कहते हैं। यह 
मान विनय शअ्रथवा शपथ आदि से दूर ह्वो जाता हे । 
प्माकरजी ने मध्यममान का केसा सुन्दर उदाहरण दिया है, 
देखिए-- 
वैस ही की थोरी पे न भोरी है किसोरी यह, 
याकों चित चाहि राह और की मभेयो जनि। 
कहे 'पदमाकर! सुजान रूप खानि आगे, 
ग्रान बान आन की सु श्रानि के चलैयो जनि | 
जेसे तेसे करि सत सोहनि मनाइ लल्‍्याई 
तुम एक मेरी बात एती बिसरैयो जनि। 
आज की घरोतें ले सु भूलिहूँ भले हो स्याम, 
ललिता का लेके नाम बाँसुरी बजैयों जनि ॥ 
देखो मोहन, श्र।जतो में इन्हें सेकड़ों सोगन्द खाकर जैसे तैसे मना 
लाई हूँ, पर श्रागे के लिए. तुम मेरी यह बात गाँठ बाँध लो कि एक तो 
इनके ( नायिका राधिका के ) आगे किसी अन्य स्त्री के रूप-योवन की 
प्रशंसा करना तो क्या, चर्चा भी मत करना, ओर दूसरे कभी ललिता का 
नाम ले-लेकर वंशी मत बजाना। यदह्द न समभना तुम्दारी इन बातों को 
वह समभती नहीं है। अ्जी यह “बेस की थोरी' हैं पर 'भोरी? नहीं हे । 
यहाँ ललिता का प्रेमपृूवक्ष नाम लेने और उसके रूप-यौवन की 
प्रशंसा करने के कारण, राधिका ने मान किया जो ख़खी के सोगन्द खाने 
श्र विश्वास दिलाने पर दूर हो गया, अ्रतः यह मध्यम मान हुश्रा । 
इस प्रसंग में नीचे लिखा सवेया भी पढ़ने लायक दे-- 


( ४७६ ) 


अ्रानंद सों दोऊक श्रॉगन माँक बिराजें अ्रषाढ की साँफ सुददाई । 
प्यारी के पूछुत और तिया को श्रचानक नाम लियो रसिकाई | 

यो बने मह में हँसि कोउ तिया शर चाप सों भौंददे चढ़ाई । 
शग्राँखिन ते गिरे श्रॉधू के बँद सुदास गयो उड़ि हंस की नाई ॥ 


पति के मुख से अचानक अन्य स्री का नाम निकलते ही रंग में भंग 
हो गया--रस में विष मिल गया। विकसित कमल के समान नायिका का 
प्रसन्न मुख-चन्द्र राहु रूपी क्रोष से आ्राक्रान्त हो मलिन पड़ गया | नायिका 
की भोंदें कमान की तरह तन गई' जिन्हें देख नायक का द्वास्य-हंस भीत 
होकर उड़ गया । 


गुरु मान 
नायक के पर-स्नरी के साथ रमण करने का पूर्ण विश्वास हो जाने 
पर नापिका जो मान करतो है, उसे गुरु मान कद्दते हैँ। यह मान नम्नता 
प्रदशन अथवा भूषण प्रदान द्वारा दूर हवाता है। 
कवि रघुनाथन्नी ने गुर मान का केसा सुन्दर उदाहरण दिया है, 
देखिए-- 
दूसरे पलँग ब्रेठी रूसि के गुमान एंठी, 
महा रोस भरी प्यारी पी को दोस पाह के । 
माने न मनाया एड़ो कवि 'रघुनाथ” सखी, 
हारी सेंगवारी बातें बहुत बनाई के। 
इतने में गहि के चरन प्रान प्यारे क्छ्यों, 
आज या महावरी लगेगी भाल श्राइ के। 
मान को न रहद्यो ज्ञान एतिक सकानी, मुस- 
कानी अंक प्यारे के निसंक बैठी जाइ के।। 
जब किसी के भी समझाने-बुकाने से नायिका नहीं मनी, तो श्रन्त में 
नायक ने उसके पैर पकड़ लिये ओर कद्दा--आज यह महावर मेरे माथे 
पर लगैगी--्रर्थात्‌ में श्रपना सिर इन पैरों में रख दू गा। इतना सुनना 


( ४८० ) 


था कि नायिका सकपका गई और उसका मान छु-मन्तर हो गया। फिर 
तो वह मुस्कराती हुई नायक को गोद में जा बैठी । 


महाकवि देव का नीचे लिखा सवैया भी गुरु मान का उत्कृष्ट 
उदाहरण हे । 

सीति की माल गुपाल गरे लखि बाल किये मुखरो सु उज्यारो। 

भेहि भश्रमें फरके अधरा निकस्यौ रंग नैननि के मग न्यारो। 

त्यों कवि * देव ? निहोरि निहोरि दोऊ कर जोरि परचौ पग प्यारो। 

पीकों उठाइ के प्यारी क्या तुमसे कपटीन को काह पत्यारों ॥ 


सोति की माला प्रिय के गले में पड़ी देख कर नायिका का मुंह क्रोध 
से तमतमा उढा। भोंहे चढ़ गई, अधर फड़कने लगे ओर आँखें रक्त 
वर्ण होगद | बहुत कुछ निहोरे करने पर भी जब वह न मानी, तो 
अन्त में नायक द्वाथ जोड़ उसके पेरों में पड़ गया। यह देख नाथिका 
ने उंसे उठाते हुए कहा-तुम जैसे कपटी का क्‍या विश्वास किया जाय | 

मान भंग करने के उपाय 

साहित्यदपंणुकार ने मानवती नायिका का मान भंग करने के नीचे 
लिखे छुह उपाय बताए हँ--१--साम, २-भेद, ३-दान, ४--नति, 
४-- उपेक्षा ओर ६ --रसान्तर | 

मानिनी का मान भंग करने के लिए मीणी-मीठी बाते बनाना 'साम! 
कदाता है। यथा -- 


साप 


नेनन की पुतरी तुद्दी राधिके कोन सी श्रोर लखी हम बाला । 
तूही बसे निसि-बासर मो उर श्रन्तर-बाइर रूप रसाला। 
दीन्ही बनाय हमें चतुरानन भागते « बैनी प्रवीन ” बिसाला । 
गेह की सोभा सनेद्द की सीम संजीवनी जीव की कणठ की माला ॥ 
भाव स्पष्ट द्वी है । 


( ४८१ ) 


भेद 

नायिका की सखी या उसके प्रेमी को बहका-फुसला कर अपनी ओर 
मिला लेने अभ्रथवा उसका उच्चाटन कर देने को 'भेद' कहते हैं । 

भेद का उदाहरण देखिए- 

भानु सो मैन तपैगो भट्ट तब होइगो मान समूल पटापर | 

मालती फूलन को मधु पान के होंइगे मत्त मलिन्द भटा पर | 

भूलि द्दी जाइगो बैनीप्रवीन” कद्ठटा बतियाँ जे सदा की नटा पर। 

आपुद्दी जाय मिलोगी तब जब चन्द छुटा छिंटकेगी अ्रटा पर ॥ 

उपयु क्त सबैया में सखी नायक का पक्ष लेकर मानिनी नायिका को 
नायक से मिलने के लिए समझा रही है । 

दान 

रूढी नायिका को सन्‍्तुष्ट करने के लिए, किसी बहाने से उसे भूषणादि 
देने का नाम “दान! है। 

दान के उदाहरण में महाकवि केशवजी का सवेया पढ़िये -- 

मस्त गयन्दन साथ सदा इहि थावर जंगम जन्‍्तु बिदारबो। 

ता दिन ते कहि “केशव” बेघन ब्न्‍न्धन कै बहुधा बिधि मार्यों। 

सो अपराध सुधार न सोधि इह्टे इति साधन साधु विचार्यो। 

पावन पूंज तिद्दारे हिये यह चाहत हे अभ्रब हार बिहार्यों ॥ 


नति 


मानवती नायिका के मानापनोदाथे उसके पेरों पड़ना 'नति” कद्दाता हे । 
जहाँ साम, भेद और दान तीनों उपाय निष्फल हो जाते हैं, वहाँ नति 
रूपी अ्रमोध अ्रसत्र का प्रयोग किया जाता है । 

कविवर वेनी प्रवीण जी ने नति का उदाहरण इस प्रकार दिया है--.. 


आपनी सी करि हारी सखी सब कोकिला केतिका कूक मचाई | 

गुझ्त भौरन के रहे पूजन मनोजहु ओज कमान चढ़ाई। 

मान्यो न 'बैनीप्रबीन' भने यद्द प्रीति की रीति अलौकिक माई। 

आपनी प्रान पियारी पिया परि पायन प्यारे ने कशठ लगाई।॥ 
हि० न० २०--३१ 


५ डंपएर ) 


जब सखियाँ अपनी-सी कोशिश करके हार गह, कोकिलाओं के कल- 
कूजन और मधुकरों के मधुर गंगन का भी उस पर कुछ असर न हुआ, 
कामदेव के कुसुम-शायक्र भी उसका कुछ न कर सके, तब प्रियतम ने पैरों 
में पड़ के प्राण-प्यारी को प्रसन्न कर लिया । प्रीति की रीति भी केसी 
विचित्र है । 

उपेक्षा 

नायिका की ओर से उदासीन हेकर बैठ रहने के “उपेक्षा! कहते हैं। 
जब समकाने, फुललाने या अनुनय-विनय किसी भी युक्ति से काम नहीं 
चलता, उस अवस्था में उपेक्षा करने से ही काय-सिद्धि होती है। 


कवि 'मुबारक! के नोचे लिखे सवेया में नायक की ओर से केसी 
उपेनक्ना ध्वनित की गई हे | 

गूंजेंगे भार बिराग भरे बन बोलेंगे चातक झ्ौ पिक गाय कै । 

फूलेंगे टेसू कुसुम्म तहाँ लगि दौरेंगे काम कमान चढाय के। 

बायु बहेगी सुगन्ध 'मुबारक' लागि है नेन बिसेक सौ आय के। 

मेरे मनाए न मानी बबा की सों ऐहे बसन्त लैजैहै मनाय के || 


मेरे इतने मनाने पर भी श्रगर तू नहीं मानती, तो तेरी राज़ी । अब मुमे 
भी कुछु नहीं कहना | जब वसन्‍त आझआवेगा, तब अपने श्राप भागी भागी 
ग्राश्रोगी | 

रसान्तर 

नायिका के दृदय में अचानक ब्याकुलता, प्रसन्नता या भय उत्पन्न 
करके उसका मान#द्रा तोड़ने को 'रसान्तर' कहते हैं। कुछ लोगों ने रसान्तर 
को “प्रतंग विध्वंठ! नाम से लिखा हे। जब मान इतनी प्रवृद्ध श्रवस्था को 
पहुँच जाता दे कि उपेक्षा करने पर भी उसका अपनयन नहीं द्वोता, तब 
इस उपाय का अवलम्बन किया जाता है। 

निम्नलिखित देवजी का सवेया रसनान्तर का सुन्दर उदाहरण है--- 


श्री वृषभानु लली मिलि के जमुना जल केलिकों देलिन आआनी | 
रोमवली नवली कहि “देव” सु सोने से गात अन्हात सुद्दानी। 


( डंए३ ) 


कान्द अचानक बोलि उठे उर बाल के ब्याल-बधू लपटानी । 

धाय के घाय गद्दी संतबाय दुहूँ कर फारत अंग अयानी ॥। 

बहुत दिनों से रूढी नायिका को स्नान करते देख कृष्ण ने उसका 
मान भंग करने का अच्छा अवसर समझा, और रसान्तर उपाय से काम 
लिया | वे अचानक जविल्ला पड़े--“देखो-देखो वाला के शरीर पर साँपिन 
लिपटी हुई है।” यह सुन नायिका मारे डर के मान को बात भूल गई और 
दोड़कर कृष्ण से लिपट गई । 

नाट्य शास्त्रकार ने मानापनोदन के निम्नलिखित पाँच उपाय बताए 
हैं| यथा--साम, दान, भेद, उपेक्षा और दण्ड । इनमें से पूव॑-पूर्व कहे 
चार के लक्षण वह्दी हैं जो ऊपर दिये जा चुके हैं। पॉचव उपाय दणड 
का लक्षण नाटचथशास्र में हस प्रकार दिया है--- 

“४ बाँधने या मारने-पीटने का नाम दण्ड है |”? 

परन्तु प्रणय-प्रसंग में दरड की यह परिभाषा कुछु उपयुक्त नहीं जान 
पड़ती । शाञ््रों में नो के लिए, सबसे बढ़ा दण्ड “स्त्री दण्ड प्रथक शैया” 
बताया हैं, यही दण्ड यहाँ पर भी अत्यन्त उचित जान पड़ता है । 


मअवास 

किसी कारणवश नायक के परदेश चले जाने को प्रवास कहते हैं। 
लम्बे प्रवास के कारण नायक के वियोग में नायिका का उदास, मलिन 
ओर चिन्तित रहना स्वाभाविक हो है । प्रवास-जन्य वियाग मान-जनित 
वियोग से अधिक कठिन माना गया है| मान द्वारा उत्पन्न किया गया 
विद्लोह तो नायक-नायिका की इच्छा पर निभर होता है, वे जब चाहें 
उसका अन्त कर सकते हैं, पर प्रवात-प्रभत्र वियोग बाहरी देतुओं से 
उत्पन्न द्ोता है, अतः उसका अन्त करना नायक-नायिका के वश में नहीं 
द्वोता । 

कुछ लोगों ने प्रवास के तीन कारण माने हैं १--कार्य बश, २-- 
शाप वश और ३-- भय वश । । 

कार्य वश प्रवास--जब नायक आजीविका अश्रथवा किसी डान्‍्य का 
के लिए परदेश जाता है, तो उसे काय वश प्रवास कहते हैं । 


( ऐंप्४ड ) 


शाप वश प्रवास---जिसमें देवादि के शाप के कारण नायक को परदेश 
में जाना पढ़े वद शाप वश प्रवास कहाता है। इसके उदाहरण प्राचीन 
सम्रय में ही मिलते हैं, यथा--मेघदूत में कुवेर के शाप से यक्ष का विदेश- 
वास वर्शित है। वतंमान काल के जेल-यात्रियों की गणना शाप वश- 
प्रवासियों में की जा सकती है। पूव काल में शाप भी किसी अ्रपराध के 
दण्डस्वरूप ही दिया जाता था । 


भय वश प्रवास---जब कोई रोग-भय से. राज-भय से अ्रथवा ऐसे ही 
किसी अन्य भय से विदेश में जा बसता है, तबत्र उसे भयवश प्रवास 
कहते हैं। राज-भय से फ़रार हुए श्रथवा युद्ध-विज्ञव, प्लग-प्रकोष आदि के 
कारण देशान्तर को गए हुए व्यक्तियों की गणना भय वश प्रवात्तियों में ही 
की जायगी | सामान्य प्रवास का उदादरण नीचे दिया जाता है--- 
साँक द्दी समे ते दुरि बैठी परदानि दैके, 
संक मोहि एक या कलानिधि कसाई की। 
कनन्‍्त को कहानी सुनि स्तवन सुहानी रैनि, 
रंचक बिहानी या बसन्‍्त शअ्रन्त धाई की। 
कल के न आली नेकु पलके लगन पाई, 
टरि कित गई नींद नेनन थाों आई की। 
कुहू कहे कोकिल कुमति में उधारे नेन. 
जाल हे जु देखों ज्वाल ज्वलित जुन्हाई की॥ 
कनन्‍त के वियोग-काल में कामिनी को कलानिधि कसाई-जैसा जान 
पड़ता है, उसके भय से वह सायंकाल से ही चारों ओर के परदे डलवा 
भ्रीतर छिपकर बैठ जाती है | वह वसनन्‍्त ऋतु की सुदहावनी राते केवल कन्त 
की बातें ( कद्दानी) सुन-सुन कर जैसे तैसे काटती हे । कल (चैन) से तो उसके 
पल भर भी पलक नहीं लगते। योंह्दी श्रँखें बन्द किये पड़ी रहती हे। कोयल 
के कुहद-कुहू कर कूक उठने पर, नायिका को भ्रम हुश्ा कि कोई कह रहा 
है-अरी आँखें खोल, देख, जिस चन्द्रमा के भय से तू छिपी पड़ी हे वदद 
तो छुप्त हो गया, आज तो 'कुह! ( श्रमावस ) की अ्रघेरी रात है। यह 
सुन जैसे ही उसने श्राँखें खोल भरोखे में हो कर राँका, तैसे ही उसे ज्वाला 
के समान जलाने वाली 'जुरन.३! ( चाँदनी ) दीख पढ़ी | 


( ४८४ ) 


काय वश भ्रवास के भेद 
यह प्रवास तीन प्रकार का माना गया है। १--भूत प्रवास, २--भविष्य 
प्रवास ओर ३--वतंमान प्रवास । 
भूत प्रवास 
की जिस प्रवास का सम्बन्ध मूत काल से हो, उसे 'भत प्रवास' कहते दे। 
से 
रेनि दिन नेनन ते बहतो न नीर कहा- 
करतो अ्रनंग को उमंग शर चाँपतो। 
कद्दे 'पदमाकर' त्यों राग बाग बन केसो, 
तेसो तन ताय ताय तारापति तापतो | 
कौन्हों जो वियोग तो संयोग हू न देतो दई, 
देतो जो संयोग तो वियोग नहिं थापतो। 
हो तो जी न प्रथम संयोग सुख वेसो वह, 
ऐसो अब यों न तो वियोग दुख व्यापतो॥ 
भूत प्रवास के सम्बन्ध में नीचे लिखा सवैया भी पढ़ने लायक हे--- 
पर कारज देह को धारे फिरो परजन्य यथारथ हे दरसो। 
निधि नीर सुधा के समान करो, सब ही तिधि सजनता सरसो। 
'घन श्रानंद' जीवन दायक हो, कछू मेरियो पीर हिये परसो। 
कबहूँ वा व्रिसासी सुज्ञान के आँगन मो असुवान को ले बरसो ॥ 


भविष्य प्रवास 
जिस प्रवास का सम्बन्ध भविष्य काल से दो, उसे “भविष्य प्रबास! 
कहते हैं। देखिये पद्माकरजी ने भविष्य प्रवास के केसे सुन्दर उदादरण 
दिये हैं। 
सो दिन को मारग तहाँ की बेगि माँगी बिदा, 
प्यारा 'पदमाकर? प्रभात राति बीते पर। 
सो सुनि पियारी पिय गमन बराइवे' को, 
ग्रॉंसुन॒ अन्द्याय. बोली आसन सुतीते९ पर । 


१--टालने के लिये। २--शयन करने के आसन श्रर्थात्‌ शैया पर। 


५ डंपई ) 


बालम बिदेसे तुम जात हो तो जाउ पर, 
साँची कहि जाउ कब ऐहो भोन राते पर। 
पहर के भीतर के द्वे पहर भीतर ही, 
तीसरे पहर केघों साँक ही बितेते पर॥ 
उपयक्त पद्म में नायिका के भोलेपन का केसा सुन्दर चित्रण किया 
गया है। वह पूछती है, आप जायेंगे तो सह्दी, पर यह तो बता जाइये, 
इस रीते घर में लोट कर कब आओगे। पहर-दो-पहर में ही या साँक 
बीतने पर । ओर सुनिये-- 


झौसर झोर कहा समयो कहां काज बिवाद ये कौन सी पावन । 

त्यों “पदमाकर” घीर समीर उसीर भयो तपि के तन तावन । 

चेत की चाँदनी चार लखे चरचा चलिबे की लगे जु चलावन । 

कैसी भई तुम्हें गंग की गेल में गीत मदारन के लगे गावन॥ 

चेत की चार चाँदनी देखते हुए भी चलने की चरचा चलाना, गंगा 
की गेल में मदार के गीत गाने के समान ही है। भला इस सुहावनी 
वसनन्‍्त ऋदु में परदेश जाना चाहिये ? 


वर्तमान प्रवास 

लिस प्रवास का सम्बन्ध वर्तमान काल से हो, उसे “वतंमान प्रवास! 
कहते हैं । 

उदाहरण देखिये- 

धुरवानि की धावनि मानो श्रनज्ञ की तुंग धुजा फहरान लगी। 

'मतिराम' समीर लगे लतिका बिरही बनिता थद्दान लगी। 

मन में अलि हे छिति में श्रललछै चपला की छुटा छुद्दरान लगी। 

परदेस में पीउ संदेस न पायो पयोद घटा घहरान लगी॥ 

प्रियतम परदेश में हैं, उनका कुछ सन्देश नहीं मिला, ओर इधर ये 
मतवाले काले बादल उमड़-घुमड़ कर घहराने लगे। शीतल समीर बहने 
लगा, जिसके लगते ही शरीर थरयराने लगता है | 

प्रोषितपतिका नायिका और प्रवास दोनों के उदाहरण एक ही हैं। 
_ ग्रबासी की पत्नी को द्वी प्रोषितपतिका कहते हैं । 


( ४डं८०ए७ ) 


करुणात्मक वियोग थधृड़गर 

जहाँ नायक-नायिका में से किसी एक के मर जाने अ्रथवा अन्य किसी 
कारण से, जब दूसरे को उसके मिलने की आशा नहीं रहती, तब बियोग 
की उस चरमावस्था में करुणात्मक वियोग <ंज्ञार की उत्पत्ति द्योती है। 
जहाँ वियोग की इस चरमावरथा में किसी प्रकार रति भाव विद्यमान रहता है, 
वहीं करणात्मक वियोग शंगार माना गया है। जहाँ इस वियोगावस्था 
में रति भाव का एकान्त अभाव द्वोता हे, वहाँ फिर करुण शंगार न रह 
कर वह शुद्ध करुण रस बन जाता हैं । 

करुण विप्रलंभ श्रंगार का उदाहरण देव जी ने इस प्रकार दिया है-- 

कालिय काल महा विष ज्वाल जहाँ जल ज्वाल जरै रजनी दिन | 

ऊरघ के अ्रध के उबरें नहि जाकी बयारि बरैे तहं ज्योतिन। 

ता फनि की फन-फॉसिन में फैंदि जाय फँस्‍यो उकस्यो नश्रजों छिन। 

हा ब्रजनाथ सनाथ करो हम होती हैं नाथ अनाथ तुम्हें बिन ।। 

रघुवंश महा काव्य में इन्दुमती के मरने पर अज-कतृ क विलाप भी 
करुण वियोग श्रृज्ञार का उत्कृष्ट उदाहरण है | 

वियोग जनित दश दशाएं 

प्रियतम के वियोग-काल में वियोगिनी की जो दशाएं होती हैं वे दश 
प्रकार की हैं, इस लिए उन्हें 'दश दशाएँ' कहते हैं| वे दशाएँ ये हें-- 

१अभिलाषा, २--चिन्ता, ३--स्मरण, ४--गुणगान, ५- उद्देग, 
६- प्रलाप, ७--उन्माद, ८--व्याधि, ६--- जड़ता और १०--मरण । 

साहित्यद्पणकार ने प्रिय-वियोगजनित एकादश दशाएँ मानी हैं, 
जिनके नाम ये हैं--. 

१--श्रंगों में असोष्ठव, २---सन्ताप, ३--पाण्डुता, ४--दुर्बलता, 
४--अरुच, ६--श्रधीरता, ७- श्रस्थिरता, ८-- तन्मयता, ६--उन्माद, 
१०--मुच्छा ओर ११--मरण | 

हिन्दी कवियों ने ऊपर वाली दश दशाओं का ही वणन किया हे, 
अत: यहाँ भी उन्हीं के सम्बन्ध में विचार किया जाता है। उपयंक्त दश 
दशा्रों में से चिन्ता, स्मरण, उन्माद, व्याधि, जड़ता, मृच्छा ओर मरण 


( एंपथ ) 


का वर्शन संचारी भावों में हो चुका हे, पर प्रसंग वश यहाँ भी उनका 
उल्लेख किया है | 


अभिलाषा 
वियेगावस्था में नायक-नायिका के परस्पर मिलने की उत्कट इच्छा 
को 'अभिलाषा” कहते हैं। यह अवध्था पूर्वानुराग में विशेष रूप से पाई 
जाती है। नीचे लिखे पद्म में अभिलाषा का केसा सुन्दर वर्णन किया गया 
है, देखिए-.- 
माथे पै मुकुट देखि चन्द्रिका चठटक देखि, 
छुवि की लटक देखि रूप रस पीजिये। 
लोचन त्रिसाल देखि, गरे गंंजमाल देखि, 
अ्धर को लाल देख चित चोप कीजिये । 
कुण्डल डुलनि देखि श्रलके हलनि देखि, 
पलक चलनि देखि सरबस दीजिये। 
पीत पट छोर देखि मुरली की घोर देखि, 
साँवरे की ओर देखि देखिवोई कीजिये ॥ 
उपयंक्त पद्म में प्रतिक्षण साँवरे की ओर देखते ह्दी रहने की श्रमिलाषा 
व्यक्त की गई है। श्रागे इसी विषय का देवजी का भी एक सवैया दिया जाता 
है, उसे भी पढ़ लीजिए. 
चन्दन पंक गुलाब के नीर सरोज की सेज बिछाय मरो री । 
तूल भये। तन जात जरा यह बेरी दुकूल उतार घरो री । 
'देव जू? भूठे सबै उपचार यही में तुषार को सार भरा री। 
लाज के ऊपर गाज परे ब्रजराज मिले सेाई काज करो री ॥ 
नायिका कदती हे--“चन्दन पंक, गुलाब के नीर, सरोज की सेज' आदि 
अनेक उपाय कर द्वारी, पर वियाोग की विष-ज्वाल न बुझी और न बुकी। 
अरी ! ये उपाय तो सब भूठे हैं, इनसे कुछ नहीं होना जाना । अब तो लोक- 
लाज को भाड़ में जाने दो और ऐसा उपाय करो जिससे ब्रजराज मिले। 
इस पद्म में भी ब्रजराज से मिलने को अमभिलाषा का वर्णन है।' 
नीचे लिखे कवित्त में भी नायिका यही चाहती है कि.सब कुछ छोड़कर 
बस एक ननन्‍्द-नन्दन से लगन लगी रहे । देखिए -- 


( ४प६ ) 


सुन्दर सुजान पर मन्द मुसकान पर, 
बॉसुरी की तान पर ठौरन ठगी रहे। 
मूरति ब्रिसाल पर कश्बनन से भाल पर, 
हंसन सी चाल पर खोरन खगी रहे। 
भेहें धनु मैन पर लौने जुग नेन पर 
शुद्ध रस बेन पर बाहिद पगी रहे। 
चश्चबल स तन पर साँवरे बदन पर, 
नन्‍्द के नंदन पर लगन लगी रहे ॥ 
इस प्रसंग में महाकवि प्माकर का निम्नलिखित कवित्त भी पढने 
लायक ह-... 
ऐसी मति होति श्रब ऐसी करों श्राली, 
बनमाली के सिंगार वे सिंगारिवोई करिये । 
कहे 'पदमाकर' समाज तजि काज तजि, 
लाज को जहाज तजि डारिवोई करिये। 
घरी-घरी पल-पल  छिन-छिन  रैन-दिन, 
नैनन की आरती उतारिबोई . करिये। 
इन्दू ते अधिक अरविन्द ते अधिक ऐसे, 
आनन गोविन्द को निहारिवबोई करिये॥ 
चिन्ता 
अहद्ितकारी विचार या प्रिय पदार्थ के ध्यान को “निन्ता' कहते हें। 
चिन्ता में प्रिय मिलन की लालसा तथा वियेग-जनित दुःख दोनों की मात्रा 
अभिलाषा को अपेक्षा बढ़ी हुई हाती है । 
कविवर मतिराम ने चिन्ता का उदाहरण इस प्रकार दिया है--- 
जैये अ्रकेली महा बन बीच तहाँ 'मतिराम' श्रकेलोई आवै। 
श्रापने श्रानन चन्द की चाँदनी सों पहले तन ताप बुभावै । 
कूल कलिन्दी के कुञ्न मंजुल मीठे श्रमोल वे बोल सुनावे | 
ज्यों हँसि द्वेरि लिये हियरे हरित्यों हँसे कै हियरे हरि लावै | 
कलकल निनादिनी कलिन्दजा के कूलवर्ती कलित कुझ्चों में वह ( प्रिय ) 
श्रकेला ही झ्राया करता हे | बस वहीं चलना चाहिए। जैसे हँसकर वह 


५ ४६० ) 


हृदय दर ले गया है, वैसे ही हंस कर वहाँ द्वृदय से लगाबेगा | प्रिय के 
सम्बन्ध में उपयुक्त ध्यान ही चिन्ता है । 
कविवर दासजी का भी आगे लिखा सवैया चिन्ता का अच्छा उदाहरण 
हे। देखिए-... 
ए. ब्रिधि जो बिरहागि के बान सों मारत हो तो यहे बर माँगों। 
जो पसु होठ तऊ मरि केसेउ पाँवरी है प्रभु के पग लागों। 
'दास? परखेरन में करो मोर जु नन्‍्दकिसोार प्रभा अनुरागों | 
भूषन कीजिये तो बनमालहि जाते गोपालहि के दिये लागों॥ 
उपयु क्त पद्म में वियेगिनी का यह विचार करना कि “मर कर भी में 
किसी न किसी प्रकार मनमोहन के ही समीप रहूँ, उन्हीं के कामश्राऊँ ” 
चिन्ता दशा कहाती हे । 


इस विषय में रसखान का नीचे लिखा सवैया बहुत प्रसिद्ध हे-- 


मानुस हों तो वह्दी 'रसखानि' बसों मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन । 

जो पसु हों तो कहा बसु मेरा चरों नित नन्‍्द की पेनु-मर्कारन। 

पाइन हों तो वद्दो गिरि को जो करनथो कर छुत्र पुरन्दर कोरन | 

जो खग हों तो बसेरो करों मिलि कालिन्दी कूल कदम्ब की डारन ॥ 

वियेगिनी नायिका मरने के पश्चात्‌ श्रगले जन्म म॑ भी, प्रिय के पास ही 
जन्म लेने की इच्छा रखती दे । 


स्मरण ( स्मृति ) 

वियेग-काल में प्रिय की पिछुली बातों, चेष्टाशों श्रोर उसके समागम- 
सुखों को याद करने का नाम 'स्मरण' है। उदाहरण देखिए-- 

खोरि में खेलन आ्रावतीय न तो आलिनि के मत में परती क्‍यों । 

“देव” गोपालदिं देखती में न तो या बिरद्ानल में जरती क्‍यों । 

बापुरी मंजु रसाल की बालि सुभाल सी हम उर में शअरती क्‍यों 

ग्रीमल कूकि के क्केलिया कूर करेजन की किरचे करती क्‍यों ॥ 

वियेगिनी पिछुली बातों को याद करके पश्चात्ताप कर रही हे--यदि में 
सखियों के साथ गली में खेलने न आती ते। इस विपद्‌ में कादे को पड़ती । 
बहाँ न जाने से न तो गोपाल के दशशन द्वोते ओर न अब इस प्रकार वियाग 


( ४६१ ) 


की विषम वहि में जलना पढ़ता। यह तो अपने श्राप जो बाया उसका 
फल भाग रही हूँ | यदि ऐसा न होता ते क्या शआाम्रमंजरी भीषण भाक्ते के 
समान मेरे द्वदय में चुभती श्र केयल की कुहू-कुह द्वदय के ढुकड़े-ढकढ़े 
कर डालती | 
इस प्रसंग में नीचे लिखा सवैया भी कितना उत्कृष्ट है--- 
यों दुख दे ब्रजवासिन कों ब्रज को तजि के मथुरा सुख पेहें । 
बे रस केलि ब्रिलासन की बन कुझ्जनि की बतियाँ बिसरेंहें ॥ 
जोग सिखावन को हमकों बहुरयो तुमसे उढि धावन ऐशहैं। 
ऊधौ नहीं हम जानति दीं मनमोहन कूबरी हाथ बिकेहें ॥ 
हमें ऐसा नहीं मालूम था कि ब्रजचन्द्र बत्रजवासियों को इस प्रकार वियाग- 
वारिधि में डुबाकर मथुरा जा बैठेंगे | और इसका तो हम स्वप्न में भी ध्यान 
न करती थीं, कि मथुरा जाकर वे कुटिला कूबरी से नेह-नाता जोड़ लेंगे, तथा 
हमारे लिए. ऊधोजी द्वारा भोग-त्याग ओर याग-साधन का उपदेश करायेंगे। 
इस प्रकार पिछली बातों का याद करना ही स्मृति दशा कहलाती है । 
स्मृति के उदाहरण में नीचे लिखा दोहा भी पढने योग्य है-- 
सघन कंज छाया सुखद सीतल मन्द समीर । 
मन हे जात ञश्रजों वहे वा जमुना के तीर॥ 
गुण-कथन 
वियेग-काल में प्रिय के गुणों का वर्णन करना 'गुण-कथन' कहद्दाता हे । 
गुण-कथन से विरही व्यक्ति को बहुत कुछ सन्‍्तोष मिलता हे। 
गुण-कथन के उदाहरण में पद्माकरजी का नीचे लिखा सवेया कितना 
सुन्दर हे-. 
चोरन गोरिन में मिलिके इते आई ही हाल गुवालि कहाँ की | 
को न ब्रिलोकि रहो 'पदमाकर! बा तिय की श्रवलोकनि बोंकी | 
धीर श्रबीर की धूं घुरि में कछु फेर सी के मुख फेरिके काँकी। 
के गई काटि करेजनि के कतरे कतरे पतरे करिहाँ की || 
डउपयक्त पद्म में गोपियों के साथ आई हुईं किसी नई नवेली के रूप 
यौवन का वर्णुन किया गया है | इसी को गुण-कथन कद्दते हें । आगे मतिराम 
जी का उदाहरण भी देख लीजिये-- 


( ४६२ ) 


मोर पखा 'मतिराम” किरीट में कश्ठ बनी बनमाल सुद्ाई। 
मोहन की मुतिक्यानि मनोहर कुण्डल लोलनि में छुब्रि छाई । 
लोचन लोल बिसाल बिलोकनि को न बिलोकि भये बस माई । 
बा मुख की मधुराई कहा कहां मीठी लगे अखियाँन लुनाई ॥ 


मनमोहन की जो बात है से श्रनोखी ही है। मुसक्यान क्या, चितवन 
क्या, सभी में जादू भरा हुआ्रा है। मुख की मघुरिमा का तो कद्दना ही क्‍या 
है, उनकी तो आँखों की 'लुनाई” भी मीठी मालूम देती हे। मतिराम जी ने 
अपने कवि-कोशल से लुनाई ( नमकौनपन ) को भी मीठा बना दिया, खूब ! 


उद्दंग 
विरह-जनित व्याकुज्ञता के कारण जब कोई बात नहीं सुदाती, विरही की 
उस अवस्था का नाम “उद्वंग' हे | यथा-- 


घर ना सुहात ना सुहात बन बाहिर हू, 
बाग ना सुहात जे खुशाल खुशबोही सो । 
कहे 'प्माकर”ः घनेरे घन धाम त्योंही, 
चन्द ना सुददात चाँदनी हू जाग जोद्दी सों | 
सॉम ना सुहात ना सुदात दिन माँक कछु, 
व्यापी यह बात से बखानत हों तोही सों । 
राति न सुद्दात ना सुहात परभात आली, 
जब्र मन लागि जात काहू निरमोद्दी सों ।।| 


जब मन किसी निर्मोही से लग जाता है, तब न तो घर अ्रच्छा लगता हे, 
न वन ही सुहाता है। न रात भली लगती है, न दिन द्वी भाता है। न खाना 
रुचता है, न पीने को जी चाहता है। अ्रभिप्राय यह कि बाग-तड़ा ग, चनद्र- 
चाँदनी कहीं और किसी से भी जी नहीं बहलता। यहाँ जो वियोगिनी की 
ब्याकुलता का वर्णन किया गया है, यही उद्वेग हे । 

कविवर “आलम? ने भी नीचे लिखे कवित्त में उद्वंग का कैसा सुन्दर 
वर्णन किया है। देखिए--- 


पंकज पटीर देखे दुनी दुख पीर होति, 


सीर हू उसीरन तें पीर चीर द्वार को। 


( डेंटेडे ) 


अंबा सो अवास भये तवा से तपत तन, 
अति द्वी तपन लागे कार घनसार की। 
आलम” सुकवि छिन-छिन मुरकाति जाति, 
सलिन बिचारि तजी रीति उपचार की । 
मन ही मरूरे मरि रही मन मारि मारि, 
एक ही मुरारी बिन मारी मरै मार की॥ 
एक मुरारि के विना नायिका के लए सारा आलम ही बदल गया है । 
जिन पंकजों श्रोर पाटीरों को देखकर कुछ शान्ति मिलनी चाहिये, उन्हें देख 
दूना दुःख होता है। उशीर ओर घनसार शीतलता पहुँचाने के बदले जला 
रहे हैं | सखियों के उपचार का उल्ठा ही फल होता हे; इसलिये वे भी देरानः 
ब परेशान हैं। यहाँ भी वियाेग-जनित विकलता का वर्णन है। 


नीचे लिखा सवेया भी उद्वंग का कैसा उत्कृष्ट उदाहरण है, विरह- 
विधुरा नायिका की उद्दिग्नावस्था का केसा सुन्दर चित्र खींचा गया है. 
देखिए-..- 
बेस भये बिस भावे न भूषन, भूख न भोजन को कलु ईछी | 
मीच के साधन, सोंधे को साध न, दूध सुरा, दधि माखन छी छी | 
चन्दन स्यों चितयो नहिं ज्ञात चुभी चित माहिं चितौनि तिरीछी । 
फूल ज्यों खूल, तिला सम सेज, बिछोननि बीच बिछे मनु बीछी | 
विरहिणी को वस्ताज़्ंकार भार से जान पड़ते हैं। भोजन में बिलकुल 
रूचि नहीं रही । वह दूध से सुरा के समान बिदकती, और दही-मक्खन से 
उसे घृणा हो गई है । चन्दन-पंक लेपन की तो बात ही क्‍या, उसकी ओर 
तक तो उससे देखा नहीं जाता । फूल उसे शूल समान लगते हैं और शैया 
शिला जैसी जान पड़ती दे । बिस्तर से तो वह दूर भागती है, मानो उसके 
नीचे विषेले बिच्छु बिछे हों । 
प्रलाप 
वियेग से अत्यधिक व्यथित होकर प्रिय की अनुपस्थिति में भी उसे 
उपस्थित मानकर ऊट-पर्ाग बातें बकने या क्रिया करने को “प्रलाप” कहते 
हैं । प्रलाप के उदाहरण में प्माकर जी लिखते हँ-- 


( डइ४ं६४ ) 


आम को कहति आमिली हे आमिली को आम, 
आकही अनारन कों आकिबो करति है। 
कहे 'पदमाकर” तमालन कों ताल कहे, 
तालन तमाल कहि ताकिबो करति है। 
कान्हे कान्ह काहू कहि कदली कदम्बनि कों, 
भंटि परी रम्मन में छाकिबो करति है। 
साँवरे सों रावरे यों त्रि-ष्ट बिकानी बाल 
बन बन बावरी लों माँकिबो करति हे ॥ 
हे कृष्ण, तुम्हारे वियाग में व्यथित हुई वह बाला आम को इमली और 
इमली को आम बताने लगती है। इसी तरह आक को अनार और तमाल 
को ताल कहने लगती है । इतना ही नहीं, कभी-कभी तो वह कदम्ब या 
कदली वृक्ष को 'कानद्र-कान्ह! कह कर उससे लिपट जाती है। जब देखो, 
तब बावली-क़ी तरह तद पुंजों और लता-कुजों में ऋाँकती फिरती हे । 
यहाँ कदम्ब को कृष्ण समझ उससे लिपट जाना ही प्रलाप है | 
कविवर देवजी ने भी प्रलाप का केसा सुन्दर उदाहरण दिया है। 
देखिए--- 
ना यह नन्‍्द को मन्दिर है वृषभानु को भोन जहाँ जकती हो |! 
हों ही इदाँ तुमही कवि 'देवजू' कौन कों घूँघट के तकती हो। 
भेंटति मोहि भट्ट केहि कारन कौन की धो छुबि सों छुकती हो। 
ऐसी भई हो कहो केहि कारन कान्ह कहाँ है! कहा बकती दो? 
सखी यह ननन्‍्द का मन्दिर नहीं, यह तो वृषभानुजी करा भवन हे। यहाँ 
तुम भिककती क्‍यों हो ? मेरे ओर तुम्हारे सिवा यहाँ तीसरा कोई भी नहीं 
है, फिर यह घूँघट काढ़ के किसे ताकती हो।अ्ररे ! तुम तो मुझसे लिपटने 
लगीं | यह तुम्हारी हालत क्‍या है| क्‍या कहा ! कृष्ण ! अरी पगली ! कृष्ण 
यहाँ कहाँ हैं ? कहीं पागल तो नहीं होगई। 
यहाँ भी सखी को कृष्ण समझ उसे आलिंगन करना आदि क्रियाएं 
प्रलाप हैं । 
वसन्‍्त ऋतु में कन्‍त हीन कामिनी की कैसी विपरीत अ्रवस्था हो रही 
है, देखिये | वह कद्दती है-- 


( ४६५४ ) 


भूरि से कोने लये बन बाग ये कोने जु आमन की हरियाई 
कोइल काहे कराइति है बन कोने चहूँ दिसि धूरि उड़ाई। 
केती 'नरेश' बयारि बहै यद्द कोने धों कोन सी माहुर नाई। 
हाय न कोऊ तलास करै ये पलासन कोने दबारि लगाई॥ 
यह वन-उपवनों को किसने कर डाला १ आमों की हरियाली किसने हर 
ली यह कोयल क्यों कराहइती फिरती है! यह हवा भी ऐसी लगती हे, 
मानो इसमें किसी ने विषेली गैस मिला दी हो। अरे | वह उधर देखो, 
किसी ने पलाश-वन में आग लगा दी है ! लोग बड़े लापरवा हैं, कोई न 
तो उसे बुझाने का प्रयत्न करता है, ओर न आग लगाने वाले आततायी 
की तलाश ही की जा रही है। 
यहाँ प्रलाप का केसा सुन्दर चित्र अंकित किया गया है । 
उन्माद 
वियेग-जनित व्यथा के कारण बुद्धि विपयय हो जाने से विरही जब व्यथ 
रोने, हँसने या बकने लगता है, तो उस अवस्था का नाम उन्‍्माद' है। 
नीचे मतिशमजी का एक सवैया दिया जाता है, देखिए. उन्माद का 
कैसा सुन्दर उदाहरण हे--- 
जा छिन ते 'मतिराम? कछू मुसिक्यात कहूँ निरखयो नन्‍्दलालहिं। 
ता छिन ते छिनहदी छिन में बहु बाढ़ी बिया से त्रियाग की बालहिं। 
पॉछुति है किसले कर सों गहि बूकति स्याम सरीर गोपालहिं । 
भोरी भई है मयंक्रमुखी भरि भेंटति है भुज झंक तमालहिं॥ 
जिस क्षमय से उस बाला ने मुस्कराते हुए नन्‍्दलाल को देखा है, उस 
समय से उसकी बड़ी अ्रजोब हालत हो गई है | यदि कहीं किसी साँवले रंग 
वाले व्यक्ति को देखती है, तो उसे “गोपाल-गोपाल?' कह कर पुकारने लगती 
है। इतना ही नहीं, कभी-कभी तो वह तमाल-इक्ष को भुजाओं में मर 
आलिंगन भी करने लग जाती है। भला उसके इस भोलेपन का कुछ 
ठिकाना दे ? 
इस प्रसंग में कविवर देव का भी एक उदाहरण देख लीजिए--- 
अरि के बद आजु अ्रकेली गई खरिके दरि के गुन रूप लुही। 
उनहू अपनो पहिराय हरा मुसकाइ के गाइ के गाइ दुह्ी । 


( ४६६ ) 


कवि 'देव” कहाँ किन काउ कछू जबते उनके अनुराग छुद्दी । 
सबही सों यही कहे बाल बधू यह देखोरी माल गुपाल गुददी ॥ 
कृष्ण ने अपने गले की माला उतार कर गोपी को क्या पहना दी, मानो 
उस पर जादू डाल दिया । श्रव वद जिससे भी मिलती है, उसी से माला 
दिखा कर कहती हे--'यह माला गोग़ल की स्वयं अपने हाथों से बनाई हुई 
है।' प्रेमाघिक्य के कारण बुद्धि-विपयय हो जाने से वह यह भी नहीं सोचती 
कि में अपने प्रण॒य-प्रसंग का अपने आप ही ढिंढोरा पीटती फिरती हूँ। इसी 
का नाम उन्माद है। 
व्याधि 
वियाग-व्यथा से उत्पन्न अत्यन्त सन्‍्ताप के कारण शरीर के रोगी, पीछे 
या कृश हो जाने को व्याधि!” कहते हैं। 
उदाहरण देखिए-- 
* बिरदह संतापन तें तपनि देरानो चेत, 
ऊबि-ऊबि सांसें लेत नेन नौीर भरि भरि | 
करपूर धूरनि तें चन्दन के चूरन तें, 
तामरस मुरनि उपाय थाकी करि करि | 
घेरि रहीं घरकी नगर की उगरि आई, 
देखि देखि भाख सब्रे त्रादि जादि इरि हरि। 
अंग अंग सूके बैन मूके से बधू के उर, 
भभकि अभूके मैनजू के उठ बरि बरि॥ 
विरद्-सन्ताप-तप्त नायिका श्राँखों से श्रासू बहाती हुई लम्बी-लम्बी साँसे 
लेती है । उसकी विपन्नावस्था देख सब त्राहि-न्राहि कर रहे हैं । 
नीचे लिखा दोहा भी व्याधि का अच्छा उदादरण है--- 
कब की श्रजब श्रजार में परी बाम तन छाम | 
तित कोऊ मति लीजिये चन्द्रोदय को नाम ॥ 
इस वामा को तो अजीब रोग हुआ है | बस योंद्ी मूच्छित-सी पड़ी 
रहती है । कहते हैं, ऐसी द्वालत में चन्द्रोदय की मात्रा देने से, शरीर में 
चेतना और गर्मी आर जाती हे, परन्तु यदाँ तो चन्द्रोदय ( चन्द्र -- उदय ) 


( ४६७ ) 


का नाम लेने मात्र से व्याधि बढ़ जाने की सम्भावना है |इससे तो यही 
ठीक है, कि उसके पास कोई “चन्द्रोदय' की चर्चा ह्वी न चलावे। 
जड़ता 
वियेग-जनित दुःखातिरेक से शरीर के स्तब्ध हो जाने का नाम जड़ता 
है । इसमें व्यक्ति सब सुध-बुध मूल कर निश्चल श्रोर निश्चेष्ट हो जाता है । 
देखिए पद्माकर जी ने जड़ता के उदाहरण में कैसा सुन्दर कवित्त 
लिखा हे-- 
आजु बरसाने की नवेली अलबेली बधू, 
मोहन विलोकिबे को लाज-काज ले रही । 
छुज्जा-छुज्जा काँकति भरोखनि भरोखनि हे, 
चित्रसारी चित्रसारी चित्र सम ज्वे रही॥ 
कद्टे 'पदमाकर? त्यों निकस्यौ गोविन्द ताहि, 
जहाँ तहाँ इक टक ताकि घरी हे रही। 
छुज्जा वारी छुकी सी भरोखावारी उभकी सी 
चित्र केसी लिखी चित्रसारी वारी हो रही ॥ 
बरसाने की नवेली श्रलबेलियाँ, गोविन्द को देखकर, उन्हें देखती की 
देखती रह गई । जो छुज़्जे पर से देख रही थीं, वे वहीं की वहीं छुकी-सी 
रद्द गई' | भरोखे में होकर राँकने वाली, उफकती दी रहीं और जो 
चित्रसारी में बैठी देख रही थीं, वे चित्र लिखी-सी देखती रहीं । यहाँ 
गोपियों का अ्रंचल-निश्चल भाव से देखते रह जाना ही जड़ता हे । 
कविवर “ममारख' जी का नीचे लिखा सवेया भी जड़ता का केसा सजीव 
उदाहरण हे--- 
कॉल से पानि कपोल धरे, दग द्वार लों नौर भरे हिय हारे। 
चिन्न चरिश्न मई सी भई, गई लीन हल दीन टरे नहिं टारे। 
रावरी लागी 'ममारख” दीठि न जाति कद्दी हम जाति पुकारे। 
जागि है जीहे तो जीहे सबे, न तो पीहे इलाइल नन्‍्द के द्वारे॥ 
हे मोहन, जिस घड़ी से उसने तुम्हें श्लौर तुमने उसे देखा हे, उसी चल 
से वह कमल जैसे हाथों पर चन्द्रसदश मुख रकखे, दरवाजे की ओर डकठकी 
हि० न० २०--३२ 


( इधप्य ) 


लगाए अ्रांयू बद्द रही दे | न द्िती-डुलती है श्रोर न बोलती-चालती हे । 
निश्चय ही उसे तुम्हारी नज़्र लग गई है । बस हम तुम्हें बताए जाती हँ-... 
यदि वह जी-जाग गई, तब तो हम सब की जिन्दगी हे, नहीं तो हम इलाइल 
पान कर तुम्दारे दरवाजे पर प्राण त्याग दंगी। 


नीचे लिखा बिहारी जी का दोद्ा भी कितना सुन्दर है-- 
चकी जकी-सी हे रही बूके बोलति नीठि। 
कहूँ दीठि लागी लगे के काहू की दीठि॥ 
मालूम होता है या तो इसकी कहीं आँख लग गई हैं, या इसे किसी की 
नजर लगी है, इसलिए यह चेष्टाहीन -सी हो रही है--इसे बोले बोल नहीं 
आता | 


मरण 
शरीर से प्राणों के अलग हो जाने का नाम मरण हैं, परन्तु साहित्य में 
वियोगावस्था जनित नेराश्य की पराकाष्ठा को भी मरण कहते हैं । इसीलिए 
कवि गण मरण का स्पष्ट ब्णन न कर उसके स्थान में मूच्छा श्रथवा मृत 
व्यक्ति के सुयश वीरता श्रादि गुणों का वर्णन करते हैं | उदादरण देखिये--- 


इन दुखियान कों न सुख सपने हूँ मिल्‍यौ, 

ताते श्रति व्याकुल विकल अ्रकुलायंगीं ॥ 
प्यारे 'हरिचन्द' जू की बीती जानि औधि प्रान--- 

चाहत चल्‍यो पे ए तोसंग न समायँंगीं॥ 
देख्यो एक बार हू न नेन भरि तोहि या पै, 

जोन जोन देश जेहेँ तहाँ पछिता गीं। 
बिना प्रान प्यारे भये दरस तिद्दारे द्वाय, 

देखि लीजो अ्राँखें ये खुली द्दी रहि जायेगी ॥ 


भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी कद्दते हैं--इन दुखिया श्रॉँखों को स्वप्न में भी 
सुख नहीं मिला, इसलिये ये श्रन्‍्त समय तक अ्रकुलाती ही रहेंगी। श्तना 
ही नहीं तुम्हारे दशन विना हुए, देख लेना, ये अन्त काल में भी खुली दी 
रह खायेंग्री | 


( ४६६ ) 


कविवर देव का भी नीचे लिखा सवैया पढ़ने योग्य दै--- 

साँसन ही सों समीर गयो शत्र« आँसुन ही सब नीर गये ढारि। 
तेज गयो गुन ले अपनो अरू भूमि गई तनु को तनुता करि। 
'देव' जिये मिलबे ही की आसन आसहु पास अ्रवास रहो भरि । 
जा दिन ते मुख फेरि हरे हँसि हेरि हिये जु लिया हरि जू हरि ॥| 


जिस समय से मन्द मुस्कराहट के साथ, मुंह फेर-फेर देरि! कर हरिजू ने 
हृदय हर लिया हे, उस समय से उसके शरीर से पाँचों तत्व धीरे धीरे कूच 
करते जा रहे हैं। दीप निःश्वासों द्वारा वायु ओर आँसुओं के रूप में जब 
निकला जा रहा है। इसी प्रकार भूतत्व भी शरीर को शनेः शनेः क्वीण करके 
विदा होता जाता है। तेज भी श्रपना गुण समेट कर निकज्ञ चुका हे । अब 
उसके जीवित मिलने की आशा दुराशा मात्र ही है| 
मूच्छा 
वियोग व्यथा-जनित दुःख के कारण शरीर के संज्ञा शूत््य हो जाने 
को मूर्छा कहते हैं | कवि पदुमाकर जी ने मूच्छी का उदाहरण इस प्रकार 
दिया है-- 
ए हो नन्‍दलाल ऐसी व्याकुल परी है बाल, 
हाल ही चलो तो चलो जोरी जुरि जायगी । 
कहे 'पद्माकर' नहीं तो ये भबकोरे लगे, 
और लो अचाका बिन घोर घुरि जायगी ॥ 
सीरे उपचारन घनेरे घनसारन को, 
देखत ही देखो दामिनी लॉ दुरि जायगी। 
तो ही लगि चेन जो लो चेती हे न चन्द मुखी, 
चेतेगी कहूँ तो चाँरनी में चुरि जायगी ॥ 


हास्य रस 
“ ज़िन्दगी ज़िन्दादिली का नाम है ”! 
यदि किसी के कथन या लेख में शिष्ट हास्य का पृट रहता है, तो उससे 
एक अपूबव आनन्द उपलब्ध होता दे । जब तक द्वदय में, वास्तविक प्रसन्नता 
नहीं होती, तब तक सच्ची हंसी नहीं आरती वेज्ञानिकों का मत है, कि संसार 


( ५०० ) 


में मनुष्य के सिवा और कोई प्राणी नहीं हँसता । हास्य मनुष्य के मन की 
मुरकायी हुईं कली को एक दम विकसित कर देता हे। उस समय हृदय 
उदासीनता और शिथिलता के प्रभाव से निकलकर प्रसन्नता के रंग में रँग 
जाता है। नाठकादि में, विदूषकों की सृष्टि हँसाने के लिए ह्वी की गई है। 
जब किसी काम से लोगों की तबीयत ऊब जाती है, तो द्वास्य रस के छींटे ही 
. उसे तरोताज़ा करते हें । 

रात दिन के जीवन में देखिये, एक वह सेठ जी हैं, जो कलपते-कराहते, 
गरजते-गुराते, कींखते-फाँकते अपने फ़म का काम करते हैं और एक वह 
केदी हे जो आनन्द से गीत-गाता हुआ, अपने हिस्से का पन्द्रह-बीस सेर 
झाटा पीस कर रख देता हे। और फिर भी प्रसन्न दीख पड़ता है । इसका 
कारण द्वास्य-प्रियता द्वी है | द्वास्य वह मिसरी है, जो उपदेश की कड़वी कुनेन 
को भी इतना मीठा बना देती है कि छोटे-छोटे बच्चों से लेकर बड़े-बड़े बुडढे 
तक उसे बड़ी रुचि से चाट जाते हैं । 

अआयुवे द की दृष्टि से भी हास्य का बड़ा महत्व है। हँसने के कारण 
मस्तिष्क से लेकर हृदय तक की, सब नस-नाड़ियाँ हिल जाती हैं, और उथल- 
पुथल होने के कारण फुफ्रफ्सों को बल मिलता है। एक प्रसिद्ध डाक्टर 
का कथन है कि द्वास्य पाचन शक्ति ठीक करने की बहुत श्रच्छी दवा हे । हास्य 
रूपी परमोषध के सेवन से द्वाज़्मा ज़रूर दुरुस्त हो जाता हे।एक और 
डाक्टर लिखता है कि जिस दिन हमको हँसी न आई हो, वह दिन बड़ा 
मनहूस समझना चाहिये । हंँसोड़ व्यक्ति स्वयं ही द्वास्य रस का श्रानन्द 
नहीं उठाता, प्रत्युत दूसरों को प्रसन्नता का कारण भी बनता है। प्रसिद्ध 
विद्धान्‌ू 'सेन' का कथन है-.0॥ #परा0रावंध/8 शाए'क्रा026 ॥00 & 
7007 ३8 8  ए6प्शा णातयगाछश' ढणापी8 ॥88 92९९7 ॥2॥06प. 
अर्थात्‌ किसी स्थान में हँसोड़ या विनोदी व्यक्ति के श्रागमन से ऐसा 
प्रतीत होता है, मानो दुसरा दीपक प्रकाशित कर दिया गया दे । यद्दी विद्वान 
आगे चल कर फिर कटह्दता हे--24 2०04 [बरप7/ 8 8 हप्ान88 
३7 & ॥078०. अर्थात्‌ द्वादिक हँसना ऐसा है, मानो किसी मकान में सूथ 
उदय हुआ दो । एलावीलर विलकाक्स का कहना है--,8प720 8709 (॥० 
श07 वे ]8पष.8 ४४ ए07, ज़९९३०, धणपे ए0पर ए९९३ ४४०76, 


( ५०१ ) 


अर्थात्‌ इँसो तो देखोगे कि संसार तुम्हारे साथ हृंतता है ; और रोश्रो तो 
अकेले बैठकर रोते रहो । एक अनुभवी डाक्टर का कथन है कि दिन में 
तीन बार खिल-खि लाकर हँसने से चिकित्सक की आवश्यकता नहीं रहती | 
मिस्टर बी मेक्फ़ाउन का कथन हे । 


(/"प्रश 80708, ०0प्रौए४॥९४ 9]0[0776898. 


श्र्थात्‌ चिन्ताओ्ों का अ्रन्त कर देने से द्वी वास्तविक प्रसन्नता प्राप्त द्दोती 
है । श्रीयुत स्टीविंसन्‌ हास्य रस की विवेचना करते हुए लि खते हँ-. 


]6७४ |8 ॥0 वैपराए ज्6 80 घापथा प्रापे९4 २6 88 (॥6 वैपाँफ 
० ०धं॥ए ॥899ए.. छिए 506). ॥४99ए7 एछ९ 80 शाणाएा॥0फ8 
096९707॥08 प्णा ॥6 ए०१५. 

अर्थात्‌ प्रसन्न रहना हमारा कतंव्य है। यदि हम प्रसन्न रहेंगे, तो 
अज्ञात रूप से संसार की बहुत बड़ी भलाई करेंगे ।एक और विद्वान का 
कहना है, कि जिस व्यक्ति को हास्य गुण प्राप्त हे वह कारागार में भी सुखी 
रहता है | सेमुएल स्माइल्स का कहना है---(2॥6९#४/प्रॉत्तोटछ8 ए6४8 
९४४(८४ए ०९ 6 श॥॥४+ यानी प्रसन्न रहने से श्रात्मा को बल प्राप्त 
होता है | सुप्रसिद्ध लेखक एडीसन ने एक स्थान पर लिखा हे, कि सहृदयता 
ओर द्वास्य भाव से यदि हम किसी दोष पर हँसे ओर दोषी को भी हँसाएं तो 
बिना मनोमालिन्य के बड़ी श्रासानी से सुधार हो सकता है। 


प्रसिद्ध तत्ववेत्ता स्वामी रामतीय ने एक बार कहा था-- 

0७९० ॥0 ए0प्रा"' 70 65९०7, ए0०प्रा" 0प्रधंधप९ह8, ए०प्रा" ॥7"806, 
0९९प४४४०१,  ए०९॥गणा, ४06 थाय बाते 60]००% 07 ए०प्र० ॥6 ६0 
९९७ 0प्राशशेः ज़डएड 90९8९८९पो शातवे ॥899ए.. 6 .067०07- 
वशाई 07 8] 8प्राफ0प्रादेए, दंएटप्राहाह्वा088, बए९४ए९लांए९ ०00 एथा। 
धावे ॥088, ए0प्रा' गांश़्ाह्श वेषांए की 6 शऋ0गतते ांव फृणा 
70प्राए ड्ाग्प्रोवेढड 0ए7 0७०प 48 (0 ९९७ ए0प्राषशि य०एपिं, 


अर्थात्‌ प्रत्येक मनुष्य के जीवन का मुख्य लद्बय यह है कि वह सदैव 
शान्‍्त ओर प्रसन्न रहे | प्रतिकूल परिस्थिति में भी प्रसन्न रहने की आदत न 
छोड़नी चाहिये । 


( ५०२ ) 


कभी-कभी हास्य बड़ा काम कर जाता है। ऐसे अनेक अवसर आए 
जब हास्य ने क्रोधियों की उबलती हुई कोपाभि पर पानी डाल कर, उसे 
शान्त कर दिया और उस क्रोध के कारण द्दोने वाला घोर अ्रनथ न हो 
पाया। जैसा कि ऊपर कहा गया, दँसी मानसिक प्रसन्नता का उद्गार 
हे । जब वह अन्दर रोकने पर भी नहीं रुकती, तभी बाहर निकल 
पड़ती दे। हँसी आने पर न हँसने से तरह-तरह के रोग लग जाते हैं। 
धर्म की सीमा में प्रायः हास्य का वहिष्कार किया जाता है, परन्तु 
परमात्मा तो स्वयं आनन्द स्वरूप हे। सारा संसार आनन्द चाहता है, 
फिर धम ही से हास्यमय आनन्द का क्‍यों वहिष्कार किया गया। संसार 
में जितने मद्दान्‌ पुरुष हुए हैं, वे प्रायः सभी विनोद-प्रिय थे। जो व्यक्ति 
अपने हास्य के प्रभाव से लोगों को असीम आनन्द प्रदान करता हो, 
निराश दुखियों ओर थके-मादों के मुरकाए चेहरों को फूल की तरह 
खिलाने की क्षमता रखता हो, उत्तका उपकार कुछ कम न समभना 
चाहिए । ' 

अभिप्राय यह कि जीवन के लिए द्वास्य बहुत ही उपयोगी हे । उससे 
मन ओर शरीर दोनों को सुख पहुँचता है। फेफड़े बलिष्ठ होते हैं। 
तबीयत पर से चिन्ताओ्ं का बोकफा कम हो जाता है और मन में कुछ 
आमोद सा प्ररत)त होने लगता हे। जिन अ्रभागों के शरीर में हास्य के 
परमाणु ही नहीं उनकी दशा दयनीय है. वे सदेव मनहूस दिखाई देते हैं। 
त्यौहारों की सृष्टि हँसने-हंसाने के लिए ही हुई है। अस्तु; 

हास्य में शिष्टता पर पूरा ध्यान रखना चाहिए.। कट हास्य हास्य नहीं 
कहा जा सकता | हास्य तो वदह्दी बढ़िया है, जो हास्य का पात्र बनने वाले 
व्यक्ति को भी हँसा दे। मनोविज्ञान वेत्ताश्रों ने कपाल के सबसे पिछुले 
भाग में द्वास्य प्रवृत्ति का स्थान माना है। उनके मत में प्रत्येक वस्तु या 
व्यक्ति की ओर, अप्रतिवाधित हास्य करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति से इस 
स्थान का विकास होता है। स्पर्जियम नामक मस्तिष्क शास्त्री का कहना है 
कि हास्य रस के लेखकों के कपाल का उक्त स्थान स्पष्ट रूप से उभरा हुश्रा 
दिखाई देता हे। स्वाभाविक शक्ति के दुरुपयोग, अतियोग, दीन योग अ्रथवा 
मिथ्या योग से हास्य की पान्नता सिद्ध होती है। उदाहरणार्थ जब एक 


( ४०३ ) 


विवाहिता स्त्री, जिसके सनन्‍्तान भी हो गई हो, अपनी सनन्‍्तान के लालन- 
पालन का काय॑ त्याग कर, कुत्ता-बिल्ली या तोता-मैना आदि से स्नेह करे, 
झोर उसी में तनन्‍्मय रहे तो उसका यहद्द काये हास्यास्पद होगा। लोग उसे 
देख कर इंसेंगे | युद्ध, विवाह ओर विवाद समान गुण, कमं--स्वभाव वालों के 
साथ ही ठीक रहते हैं। परन्तु जब एक वृद्ध पुरुष किसी तरुणी से विवाह 
करना चाहता है, जो उसे ज़रा भी नहीं चाहती, तो बड़ी हँसी आती दे । 
क्योंकि वृद्ध को तरुणी का प्रेम प्राप्त क रने के लिए ऐसी-ऐसी ख़ातिर खुशामद 
करनी पड़ती है, कि जिन्हें देखकर लोगों को हँसी आए. बिना नहीं रह 
सकती । इसी प्रकार विचित्र वेश-भूषा, अद्भुत केश-रचना, अस्वाभाविक 
मनोभाव प्रदशन, अत्यन्त विनम्नता इत्यादि बातें हास्य की उत्पादिका हैं। 
विषमता, विपरीतता, कुरूपता, अतिशयता आदि से भी हास्य उत्पन्न होता है । 
तरह-तरह की चीज़ों में एक प्रकार की अ्रसम्बद्धता के कारण ही हास्य रस का 
प्रादुर्भाव माना गया है | संसार में इस प्रकार की विपरीतता या असम्बद्धता 
दिन रात दिखाई देती रहती है जिसके कारण हास्य रस का प्रादुभत होना 
स्वाभाविक ही है | सामान्य दशा के प्रतिकूल घटी घटना ही विपरीतता 
कहाती है । अरस्तु; दास्य रस ऐसी चीज़ है, जो बालक, बृद्ध थुवा, स्त्री-पुरुष 
सभी को पसन्द है । 

हास्य वही अच्छा होता है जिसके समभने में कठिनाई न हो। वह 
शिष्ट ओर संक्षिप्त दोना चहिए.। विस्तृत द्वास्य से मज़ा बिगड़ जाता है। 
हास्य में दुष्ट हेतु होना तो किसी प्रकार भी ठीक नहीं । जैसा कि ऊपर 
कहा गया, समाज-सुधार के लिए द्वास्य श्रमोध उपाय सिद्ध हुआ है। उचित 
स्थान पर हास्य का पुट अभीष्ट सिद्धि में सहायक होता है, परन्तु अनुचित 
स्थान पर उसका प्रयोग कलेश ओर कटुता का कारण बन जाता है । द्वाध्य 
वृत्ति के विकसित न होने से जीवन नीरस और शिथिल दो जाता है। मन 
आर शरीर की स्वस्थता के लिए. हास्य अत्यन्त आवश्यक है। बालकों में 
हास्य वृत्ति प्रचुर मात्रा में द्ोती है। उनमें उसका विकास पूरी तरह होने 
देना चाहिए। द्ाास्य में सोन्दय, तक, प्रेम आ्रादि का पुट आवश्यक है। 
कभी-कभी सौन्दर्य की कमी से हास्य इलका हो जाता है। तक शक्ति के 
अभाव से मूख्ंतापूर्ण बन जाता है ओर प्रेम की न्‍्यूनता से उसमें सरसता 


५०४ ) 


नहीं आने पाती। कभी-कभी ह्वास्य में शोयं की अ्रधिकता द्वोती है, जिससे 
उसमें कटाक्ष ओर दूसरों को चिढ़ाने के भाव आ जाते हैं। कटाक्ष युक्त 
हास्य में आनन्द तो आता है, परन्तु उसमें सुन्दरता या कोमलता के दशन 
नहीं हो पाते। हास्य के लिए देश, काल, पात्र आदि का देखना बहुत 
झावश्यक है। इन बातों को बिना सोचे-सममे हास्य कर बैठने से द्वानि 
द्ोती है । 

नाटक में जो काय चतुर, चालाक विदुषक करता है, वही इस जीवन में 
हास्य वृत्ति को करना पड़ता है। मनुष्य का मस्तिष्क नाटक भवन है। 
उसमें विविध मानसिक शक्तियाँ अ्रभिनेता के रूप में अपना-अपना 'पाट? 
अदा करती हें। उनमें से द्वास्य वृत्ति के विदूषक का खेल खेल कर सब 
का मनोरञ्न करना पड़ता है । जिस तरह बिना विदूषक के रंग-मश्च फीका 
रहता हे, उसी प्रकार हास्य वृत्ति के अभाव के कारण, जीवन-नाटक में, 
सरसता नहीं आने पाती। जैसा कि कहां गया हास्य वृत्ति मनुष्य में 
ही मानी गई है, परन्तु बहुधा देखा जाता है कि कभी न कभी कुत्तों और 
बि्लियों के मुंह पर भी अजांब तरह की मुस्कराहट आ जाती है । जब हम 
किसी कुत्ते को रोटी डालते हैं तो वह प्रसन्नता से पूछ दिलाता ओर म॒द्द की 
ऐसी चेष्टा बनाता है, जिससे उसका हंसना सा प्रतीत दह्वाता है | 

हँसी दो प्रकार की होता है, भोतिक ओर साहित्यिक | भोतिक हँसी, 
सम्बन्ध जनित हृषं के कारण आती है, परन्तु साहित्यिक हँसी का विकास 
हास्योत्पादक परिस्थिति पर नेभर है। मान लीजिये, किसी का पुत्र चिर 
कालीन प्रवास के बाद घर आया है। उस समय उसके माता-पिता अथवा 
अन्य सम्बन्धियों के मुख पर इष याहात कीजो रेखा है, वह भोतिक 
सम्बन्ध के कारण हे, हास्योत्यादक परिस्थिति को वजह से नहीं अतएव वह 
साहित्यिक हास्य नहीं हो सकता | साहित्यिक हास्य में तो सभी लोगों को 
प्रसन्नता होनी चाहिए। साहित्य सम्बन्धी हास्य को सुन कर सब सहृदयों का 
इस पड़ना स्वाभाविक है, चाहे उस हाप्योत्वादक परिस्थिति से किसी का 
सम्बन्ध है या नहीं । साहित्य ग्रन्थों में साहित्यिक हास्य का ही वर्णन किया 
जाता हे | साहित्यकारों ने हास्य के कई भेद किये हैं। उनमें स्मित, हसित, 
विद््सित, उपदसित, अपदृृसित ओर अ्रतिहसित मुख्य हैं । इनमें हास्य की मात्रा 


६ ४०४ ) 


क्रमशः बढ़ती जाती है। गुदगुदी होने से भी बड़ी हंसी आती है । परन्तु उसमें 
न भोतिक श्रानन्द है और- न साहित्यिक | कुछ ग्रन्थियों या स्नायुश्रों के स्पर्श 
मात्र से शरीर में एक प्रकार की सनसनी-सी द्वोती है, जिससे हँसी का 
फ़व्वारा फूट निकलता हे। परन्तु वास्तव में उस हँसी का हृदय से कुछ 
सम्बन्ध नहीं है। ऐसी हँसी भी होती है, जिसमें घुणा मिश्रित संवेदना का 
प॒ठ होता है। परन्तु वह भी भोतिक ही होती हे, साहित्यिक नहीं । 

हास्य के कुछ ओर भी भेद हैं, जो नीचे दिये जाते हैँ। १--दह्वाज्षिर 
जवाबी (७४।४), जैसे एक बार बड़ी कोंसिल में किसी शेखीखोर अँगरेज़ 
मेम्बर ने कहा--“हिन्दुस्तानी बड़े भूठे हैं ।'” इस पर महामति गोखले 
बोल उठे -“ओर अंगरेज़ भूठों के बादशाह हैं।” गोखले के उत्तर से वह 
अगरेज़ मद्राशय तो लज्जित हो गए. परन्तु और सब हँसने लगे। द्वाज़िर 
जवाबी इसी को कहते हैं। २--वक्रोक्ति , (0876) इसके दो भेद हैं -- 
काकु (27/0700, ओर श्लेष ("7॥) | काकु; जैसे--किसी ने अपने 
मित्र से कहा--“मेरी सरलता को तो आप जानते ही हैं।” उत्तर मिला--- 
“जी हाँ, आप तो पूरे महात्मा हैं |!” इससे पहला मित्र हंसने लगा। श्लेष; 
जैसे-- “राम ने कृष्ण से कह्द--“भाई आज कल में बेकार हूँ ।” कृष्ण ने 
उत्तर दिया--''तो एक कार क्‍यों नहीं ख़रीद लेते |” इस वेचित्र्य से राम 
हंस पड़ा। ३--ऊट पराँग बाते ()२७०॥६८7५९०)--जैसे--“दाढ़ी बढ़ाई 
योगी हो गेलन बकरा ।? ४--बेढं गी बातें, ([700727'प्र0प5) जैसे--चलती 
को गाड़ी कह बने माल को खोया ।” “बरसे कम्मल भीजे पानी,” आदि 
प--तकिया कलाम, (औ शागञशपशा जैसे--अ।ई समझ में, वह बरात 
बहुत बड़ी थी, आई समझ में, हाथी घोड़े ओर मोटरें भी थीं उसमें, आई 
सपम्तक में | वह बीमार पड़ा है कुछ नहीं खाता पीता, आई समझ में कराहता 
रहता है, आई समभ में ? इत्यादि | नाठकादि में तो इस प्रकार के तकिया 
कलामों से बहुत ही इसी आती हे। ६---नकृल (()77४0०४४ए९०) किसी 
आ्रादमी या जानवर की नकल करने से भी बहुत हंसी आती है । कुछ दिनों 
से परिहासरूप में कविताश्रों की भी नक़ल (!?0"०१9) होने लगी है । जेसे-... 

“एक घड़ी आधी घड़ी आधी हू में आधघ। 
तुलसी सेवन पाक को हरे हजारन व्याधि |!” 


( ४०३ ) 


दोहे के दूसरे चरण का मूल पाठ है--- 
“तुलसी संगति साधु की हरे कोटि अपराध? 


इसको उपयक्त प्रकार से बदल देने के कारण इसमें हास्य का समावेश 
हो गया। ७--विरोधाभास ([?४०४०१०5) जैसे--''अआ्रँख के अन्धे नाम 
नेनसुख”, “पानी में मीन प्यासी”, “कुमारी विधवा” पवित्र पापी” “शरीफ़ 
डाकू” इत्यादि प्रयोगों को सुन कर भी मन में एक गुदगुदी सी होती है। 
८--वचन विदग्धघता, वाक्छुल ओर उक्ति वेचित््य (४८८ वंपएटटीध्ाए 
87५ ४४0), जैसे तुम्हारा कोई मित्र तुमसे कहता हे--अआआज मुझे गाँव जाना 
था, पर सबेरे से दी पेट चल रहा है ।”” ऐसी स्थिति में तुम उसे यह उत्तर 
दोगे तो बड़ा लुत्फ़ आएगा कि “हरज क्या है, पेरों के बदले आपका पेट ही 
चल रहा है १” 


हास्य 

जदाँ पर हास श्थायी भाव की पुष्टि होती है, उसे हास्य रस कद्ते हैं। 

हास्य रस का स्थायी भाव--हास, देवता--प्रमथ अर्थात्‌ शिवगण ओर 
वर्णश्वेत है । 

अलम्बन--विकृत आकार प्रकार ओर विचित्र वेशभूषा एवं अ्रद्धू त 
वाणी, चेष्टा आदि के नाट्य से हास्य रस का आविर्भाव होता है। अर्थात्‌ 
विकृत आकृति, वाणी, वेश, तथा चेष्टा इसके आलम्बन हैँ। . 

उद्दीपन-- ऊट-पटाँग, वेश, ठेढ़ें-मेढ़े वचन, विचित्र श्रंग भंगी ओर 
ह साने वाले भाव हास्य रस के उद्दीपन हैं । 

अनुभाव--आँखों का मुकुलित श्रोर मुख का विकसित होना, मन्द-मन्द 
मुस्कराना या खलखिलाकर ह सना अआआ्रादि हास्य के अनुनाव हैं । 

संचारी भाव--स्वप्न, ग्लानि, अवहित्था, चपलता, शोक, इष, श्रालस्य 
झादि हास्य इसके संचारी भाव माने गए हैं । 


हास्य के भेद 
पान्न भेद से हास्य दो प्रकार का है--स्वनिष्ठ और परनिष्ठ | 
स्वनिष्ठ-- जिस हास्य में मनुष्य स्वयं ह से, उसे स्वनिष्ठ या आत्मस्थ 
हास्य कद्दते हैं। 


( १०७ ) 


परनिष्ठ-- जिसमें दूसरों को ६ साया जाय उसे परनिष्ठ या परस्थ द्वास्य 
कहते हैं । 


अन्य भेद 


प्रकार भेद से हास्य या इसन क्रिया के छुद्द भेद हँ--स्मित, इसित, 
विहसित, उपदसित या अवहसित, अपहसित और अतिहसित | 


उक्त छुट्टों भेदों के लक्षण ञ्लोर उदाहरण स्थायी भावों के वर्णन में 
दिये गए हैं | इस छुह प्रकार के हास्य में से स्मित और हसित उत्तम पात्र 
में, विहतित ओर श्रवहसित मध्यम पात्र में, तथा अपहसिित और अतिहसित 
अधम पात्र में होते हैं | 

रस तरंगिणीकार ने हास्य के स्मित आदि छुद्ट भेदों को स्वनिष्ठ और 


परनिष्ठ के विचार से दो-दो प्रकार का मानकर हास्य के कुल बारह भेद 
किये हैं। यथा -- 


(अ) उत्तम पात्र में (4) मध्यम पात्र मे. (स) अधप पात्र में 
१--स्वनिष्ठ स्मित ।॥ ५--स्वनिष्ठ विहसित । ६--स्वनिष्ठ अ्पहृसित । 
२-स्वनिष्ठ हसित। ६-स्वनष्ठ अवहर्सित त १०--स्वनिष्ट अतिहसित 
३--परनिष्ठ स्मित । ७- परनिष्ठ विहसित॥ ११--परनिष्ठ अपहसित | 
४--परनिष्ठ हतित | ८--परनिष्ट प्रबद्सित॥ १२--परनिष्ठ अतिहसित | 
हास्य रस के उदाहरण देखिए, महादेव बाबा की केसी हँसी उड़ाई 
गई है-.. 
लोचन ग्रसम भंग भसम चिता को लाइ, 
तीनों लोक नायक सों केसे के ठहदरतो। 
कहें 'पदमाकर!” विलोकि इमि ढंग जाके, 
वेद हू प्राण गान कैसे अश्रनुसर तो॥ 
बाँचे जटाजूट बैठे परबत कूद माहिं, 
महा कालकूट कहो केसे के ढहरतो। 
पीबै नित भंगे रहे प्रेतन के संगे ऐसे-- 
पूछ तो को नंगै जो ” गंगे सीस घर ते ॥ 


( ५ण्८ ) 


उक्त पद्य में विषम ( तीन ) नेतन्नों वाले, शरीर में चिताभस्म लपेटे, 
विकृत वेश-भूषा वाले मद्दादेव जी दास्य के आलम्बन हैं ।शिव जी के भंग 
पीने और प्रेतों के साथ रहने आदि का वशणुन हास्य के उद्दौपन हैं, क्योंकि 
इनसे शिव जी के विकृत वेश-भूषादि विषयक धारणा और भी दृढ़ होती है । 
ऐसे नंगा को कौन पूछता, वेद-प राणों में इनकी चर्चा कैसे होती, यदि इन्होंने 
गंगा को सिर पर धारण न किया होता इत्यादि अनुभाव हैं। क्योंकि इनसे 
हास्य का अनुभव द्वोता दै। चिता-भस्म लेपनादि से उत्पन्न ग्लानि तथा 
द्ष इसमें संचारी भाव हैं। इसी प्रकार आगे के उदाहरणों में भी विभावा- 
नुभावादि की ऊहा कर लेनी चाहिये | 
वेनी कवि ने किसी कंजूस-मक्खीचूस का कैसा ख़ाका खींचा हे, देखिए-- 
आध पाव तेल में तयारी भई रोसनी की, 
आध पाव रूई में पोषाक बनी वर की। 
आध पाव छोले के गिनोरे दिए भाइन कों, 
. माँगि माँगि लायो दे पराई चीज घर की ॥ 
आधी आधी जोरि “कवि बेनी' की बिदाई कीन्दी, 
व्याहि ञ्रायो जब ते न बोले बात थिर की । 
देखि देखि कागज तबीग्रत सुमादी भई, 
सादी कहा भई बरबादी भई घर की॥ 
कंजूस की शादी का वणुन हे, जिसने खाक तो ख़च्च नहीं किया, परन्तु 
डींग मार कर लोगों से कहता यद्द है, कि इस शादी के कारण में बर्बाद 
होगया ! क्‍या करूं ! 
किसी कवि ने अपनी कविता के बदले 'वाह-वाह' के सिवा एक कोड़ी 
भी न पाकर, कैसी चुभती फबती उड़ाई है, सुनिए--- 
जद के पचाइवे को हींग ओर सॉंठि जैसे, 
केरा के पचाइबे कों घिव निरधार है। 
गोरस पचाइवे कों सरसों प्रबल दण्ड, 
आम के पचाइबे को नीबू को अ्रचार है ॥ 
श्रीपति! कद्दत पर घन के पचाइबे कों-- 
कानन छुवाइ द्वााथ कद्दिबो नकार है। 


( ४०६ ) 


आज के जमाने बीच राजाराव जानें सब, 
रीकि के पचाहबे कों वाहवा डकार है॥ 


कवि कद्दता हे कि राजा-राव किसी कविता पर रीभते हैं, तो बस “वाह- 
वाह” कर देते हैँ। मानो इसके अतिरिक्त उनके पास और कुछ देने को हैं 
द्वी नहीं । 
किसी सूम के सम्बन्ध में प्रधान कवि की उक्ति पढ़ लीजिए--- 
आज जो कहें तो आठ मास में न लागे ठीक, 
काल्हि जो कहें तो मास सोरह चलावहीं | 
पॉच दिन कहें पाँच बरस बिताइ देहिं, 
पाख जो कहें तो ले पचास पहुँचावहीं ॥ 
भाषत 'प्रधान! जो वे ताहू पै न॒त्यागे द्वार, 
आप न लजात फिर वाहू को लजावहीं । 
ऐसे सत्यभाषी सरदार हैं दिवैया जहां, 
कादे को पवैया तहाँ जीवित लों पावहीं ॥ 


प्रधान जी ने भूठे सूम सरदारों का केसा अ्रच्छा ख़ाका खींचा है। इनके 
वादे ही पूरे नहीं होते । अब दें, तब दे, कल दें, परसों दे कद्दते-कहते कभी 
नद। ऐसे वादे ख़िलाफ़ों के सम्बन्ध में निम्नलिखित दोहा भी बड़ा 
मज़ेदार हे । 
पल पखवारो, मिनट महीना, चो घड़िया को साल। 
जाको लाला काल कहेंगे ताको कोन हवाल | 
ओर देखिए--किसी रईस के यहाँ से मिली हुई रजाई के सम्बन्ध में 
उसके पाने वाले राय जी क्या कहते हैं-- 
कारीगर कोऊ करामात के बनाइ लायो, 
लीनी दाम थोरे जानि नई सुघरई हे। 
रायजू को रायजू रजाई दीन्हीं राजी हे के, 
सहर में ठोर-और सुदरति भई हैे॥ 
“बेनी कवि! पाय के श्रबाय घरी द्वेक रहे, 
कहत बने न कछू ऐसी गति ढई है। 


( ५१० ) 


साँस लेत उड़िगी उपरत्ा भितरलाहू, 
दिन हे की बाती हेतु रुई रहि गई है। 
रायजी को श्रच्छी रजाई मिली, जो साँस लेते ही उड़ गई। न “उपरला? 
रहा न 'भितरला?, केवल दो दिन के लिए बत्ती बनाने लायक़ रई रह गई। 
बेनी कवि ने रज़ाई देने वाले रायसाहब की केसी मीठी चुगकियाँ ली हैं। 
(हिन्दी कवियों ने सूम दानियों ही के सम्बन्ध में ऐसी कविताएँ लिखों हों सो 
बात नहीं, उन्हें तो जहाँ भी मोका मिला है वहाँ किसी को बख्शा नहीं है । 
देखिए---अनाड़ी वैद्यों के सम्बन्ध में प्रधान जी ने निम्नलिखित सबेया केसा 
मज़ेदार लिखा हे--- 
पेट पिराय तो पीठि ठटोरत, पीठि पिराय तो पाँय निहार | 
दे पुरिया पहले बिस को पुनि पीछे मरे पर रोग विचारें। 
बीस रुपैया करे कर फीस न देत जवाब न त्यागत द्वार । 
. भाखं 'प्रधान' ये वेद कसाई हैं, देव न मारे तो आपही मारे ॥ 
इस सवैया में उन मूख वैद्यों की हँसी उड़ाई है, जो चिकित्सा के विषय 
में कुछु भी न जानकर व्यर्थ ही अ्रपने ढोंग का ढिंढोरा पीटा करते हैं। 
ऐसे लालची अ्रताइयों के द्वारा मरीज़ मरे त्रिना नहीं रहते। प्रधान जी ने 
उन्हें कसाई कद्दा हे, सो उचित ही है । 
दयाराम जी के हृदय में दया का दरिया उमड़ा तो उन्होंने बेनी कवि 
के घर कुछु श्राम भेजे । दानियों में अपनी गिनती कराने के लिए उन्होंने 
आमों का दान तो किया, पर उनकी जन्म सिद्ध सहचरी सूमता की छाप 
उन पर भी लग द्वी गईं | बेनी कवि भला कब चूकने वाले थे ! आरामों को 
देखते ही उन्होंने उनकी पहुँच लाने वाले के हाथों ही इस प्रकार 
लिख भेजा-- 
चींटी की चलावे को मसा के मुह आइ जाय, 
स्वास की पवन लागे कोसन भगत है। 
ऐनक लगाय मर मरु के निद्दारे जात, 
अनु अरमान की समानता खगत है॥ 
'बेनी कवि! कहे और कहाँ लो बखान करों, 
मेरे जाने ब्रह्म को विवारियों सुगत हे। 


( ४११ ) 


ऐसे आम दीने दयाराम मन मोद करि, 
जाके आगे सरसों सुमेद सी लगत दे॥ 


वाह | दयाराम के भेंट स्वरूप भेजे हुए आमों का केतता विचित्र वर्णन 
है। जिन आमों के श्रागे सरसों का दाना भी सुमेर् पवत-सा लगता हो, 
उनकी यूकछ्रमता का कुछु ठिकाना है। वे तो खुदबीन द्वारा भी मुशकिल से 
दिखाई देते हैं| मनुष्य प्रयज्ञ करे तो कदाचित ब्रह्म के दशन हो जाये, पर 
दयाराम के श्रामों का दिखाई देना असम्भव है| जो चीज श्वास की हवा से 
ही उड़ जाय उसकी सूदरमता का भी कुछ ठिकाना है । 


अब जरा पेड़ों का वशुन भी पढ़ लीजिए -- 


चींटी न चाटति मूँसेन सूघत बास ते माछ्छी न आआआवत नेरे। 
आनि धरे जबतें घर में तब ते रहे देजा परौसिन घेरे। 
माटी हू में कछू स्वाद मिले, इन्हें खाय सो दूँढत हर बहेरे। 
चोंकि पर्‌यौ पितुलोक में बाप सो आपु के देखि सराध के पेरे॥ 
पेढ़ों की प्रशंसा कहाँ तक की जाय | जिनके घर में रक्‍खे रहने मात्र 
से जब पड़ोसियों को हैज़ा पेरे रहता है, उनके खाने से तो न जाने क्या दो। 
इसीलिए तो उन्हे चींटी भी नहीं चाटती, चूहे यघते तक नहीं और मकखी 
तो मारे बास के उनके पास भी नहीं फठकती। यहाँ पेड़ों के पुराने पन का 
अत्युक्तिपूर्ण वणुन केसा द्ाास्योत्पादक है । 
नीचे लिखे पद्य में कृपण दाऊ की दानब्रोरता का केसा सुन्दर दिग्दशन 
कराया गया है--- 
पौरि के किवार देत घरै सबे गारि देत, 
साधुन कों दोस देत, प्रीति न चह्वत हैं। 
मंगन को ज्वाब देत, बात कहें रोइ देत, 
लेत देत भाँज देत, ऐसे निबदइत हैं॥ 
बागे हू के बन्द देत, वारन को गाँढि देव, 
पदनि की काँछु देत, देतई रहत हैं। 
एतेऊपे सबे कहें दाऊ कछू देत नाइिं, 
दाऊ जी तो आढो याम देतई रहत हैं ॥ 


( ४१२ ) 


कवि ने मकक्‍्खीचूस दाऊ की दातृत्वशक्ति का केसा ज़ाका खींचा 
है। उपयक्त सब चीज़ें देते रहने पर भी दान के नाम पर दाऊ जी जवाब 
भी नहीं देते। घर के किवाड़ देकर सो रहते हैं। हाँ, गाली देने में आप 
बड़े उदार हैं, यदि कोई दूसरा देता-लेता हो, तो उसकी भाँजी मार देने में 
भी आप बड़े कुशल हैं, और दूसरों को दोष देने में तो दाऊ की बराबरी कोई 
कर ही नहीं सकता | लोग भी क्‍या भ्रजीब है, ऐसे दानी को भी कहते हैं 
कि वह कुछ देते दी नहीं । 
पद्माकर जी ने नीचे लिखे पद्च में दूल्हा रूप घारी महादेव जी का केसा 
अच्छा वर्णन किया हे-- 
हं सि-हँ सि भ्ज देखि दूलह दिगम्बर को, 
पाहुनी जे आवे हिमाचल के उदाह में | 
कहे 'पद्माकर' सुकाहु सों कहे को कह्दा, 
जोई जहाँ देखे सो हसेई तहाँ राह में ॥ 
मगन भयेई हंसे नगन महेस ठाढ़े, 
ओऔर दंसे एऊ हँस-हँस के उमाह में । 
सीस पर गंगा इसे, भ्रुजनि भुजंगा हंसे, 
हाँस ही को दंगा भयो नंगा के विवाह में॥ 
इस छुन्द में दिगम्बर वेश धारी शिव जी के विवाह का द्वास्यमय वर्णन 
है। बेचारे को देख कर सब हँस रहे हैं। गंगा, 'भुजंगा” ये, वे, जिसे देखो 
वही हस रहा है । हँसी का हुल्लड़ मचा हुआ है। 
आजकल के कुछ प्रसिद्धलोलुप कवि कवि सम्मेलनों में ग्पनी कविता 
सुनाने के लिए. कितने उत्सुक रहते हैं, इसका ख़ाका यशदत्त जी ने अपने 
नीचे के सवैया में बड़ी सुन्दरता से खींचा है---- 
मूँढ खपाइ सुखाइ के खून बड़े सम सों रचें साँची पतीजिए। 
ताहू पै चाइक ना हम दाम के भूखे हैं नाम के एतो तो कीजिए ॥ 
दोय जो हिम्मत देवे की--दीजिए, दाद, न होय, यहू मत दीजिए | 
जोरि के हाथ निपोरि के दाँत करें बिनती कविता सुन लीजिए. ॥ 
ऐसे दी एक प्रशंसा के मूखे . कवि जी कौ अ्रात्मयोग्यता के सम्बन्ध में 
कवि यशदत्त जी ने नीचे लिखा पद्य लिखा है -... 


( ४१३ ) 


पिज्लल पढ़ा नहीं न छूए कभी छुन्द-ग्रन्थ, 
जानता न रीति, गुण, दोष का विचार में । 
नाम पै रसों के जानता हूँ बस छै ही रस, 
खट्टा, मीठा, क डुवा, कसैला, तीखा, खार में || 
जिनसे सजातीं अज्धनाएँ निज अश्ञ उन-- 
हार नूपुरादि ही को जानेँ अलंकार मैं । 
तो भी वाह-वाह लूटने को कवि मण्डल में, 
माँग लाया करता हूँ कविता उधार में ॥ 
ग्वाल कवि ने कूबड़ी दासी से प्रेम करने के कारण कृष्ण जी की केसी 
मीठी चुयकियाँ ली हैं, देखिए-.. 
ऊधो तेरे यार ऐसे हे हैं रिझवार जाय, 
जानती विचार तो पै सूघो हों न जायबो | 
करती विचार भाँति भाँति के सुभाय भाय, 
केती बड़ी बात हुती वाको अटकायबो ॥ 
“वाल कवि? पीठिन पै एक एक हाँड़ी बाँघि, 
नीके मन मोदन को करतीं रिकराइबो। 
या तो कहूँ कोई बहूरूपिया तलास कर, 
सीख लेतीं हम सब कृबर बनायबो। 
गोपिकाएँ कह्दती हैं, अरी सखियो, यदि शरीर के कुबड़ेपन से दी श्री 
कृष्ण प्रसन्न दोते हैं, तो हमें भी वेसा ही बनना चाहिए। किसी बहुरूपिये 
को बुला कर सब जनी कूबड़ बनाना सीख लो । या फिर अपनी-अपनी पीठ 
पर एक-एक हॉड़ी बाँध कर चलो | ऊधो जी, आपके यार भी सब कुछ छोड़ 
कूबड़ पर रीमे हें । अच्छे रिकवार हैं। 


जनकपुरी में स्नियाँ रामचन्द्र जी से कैसा है सी-मज़ाक करती हईं--. 
अति उदार करतूतिदार सब अवधपुरी की बामा। 
खीर खाय पैदा सुत करतीं पति कर कछु न कामा ॥ 
अयोध्या की ख्तरियाँ बड़ी विचित्र हैं, जिनके खीर खाने से द्वी पुत्र पेदा 
हो जाते हैं। ऐसा कहके उन्होंने रामचन्द्र जी की माता का मज़ाक उड़ाया, 
हि० नू७ २०--- » ह 


( १४ ) 


क्योंकि उन्होंने पुत्रेष्टि यश में यजश्शिष्ट खीर खाई थी। यहद्द सुनकर राम- 
चन्द्र जी भला कब चुप रहने वाक्ते थे, वे तुरुत ही बोल उठे-- 
कोउ न जनमे मात पिता बिन बँघी वेद की नीती। 
तुम्द्रे तो महि ते सब उपजे शअस हमरे नहिं रीती॥ . 
दमारे यहाँ तो वेद-मर्यादानुसार ही सनन्‍्तान उत्पन्न द्ोती है। तुम 
अपने यहाँ की कद्दो, जो तुम्दारे यहाँ ज़मीन फाड़ कर बच्चे पैदा हुए 
हैं। सीता जी पृथ्वी से उसन्न हुई थीं, उसी भोर यह संकेत है । 
द्वास्य रस के उदादरणों में नीचे लिखा सवैया भी पढ़ने लायक है--- 
खाय के पान विदोरत आठ हैं, बेठि सभा में बने अ्लबेला । 
घोती किनारी की सारी सी ओढ़त पेट बढ़ाइ कियो जस यैला ॥ 
“बंस गोपाल” बखानि कहे सुनो भूप कट्दाय बने फिरें छेला। 
सान कर बड़ी सादिबी की अर दान में देत न एक शअधेला ॥ 
इस सवबेया में किसी ऐसे ढोंगी का मज़ाक उड़ाया गया है, जो श्रपनी 
शान बनानी तो खूब जानता है, परन्तु देने के समय एक कोड़ी भी उसकी 
गाँठ से नहीं निकलती । 
ओर भी देखिए, नीचे लिखा सवैया व्यंग्यात्मक हास्य का कैसा बढ़िया 
नमूना हे-- 
बाल के आनन चन्द लग्यौ नख आली विलोकि श्रनूप प्रभासी । 
आजु न द्वेज है चन्दमुखी मति मन्द कहा कहे ए पुरबासी || 
वापुरो जोति सी जाने कहा अरी, हों कहों जो पढ़ि आई द्वों कासी | 
चन्द दुहूँ के दुहूँ इक ठौर हे, आजु हे द्वेज औ पूरन मासी | 
नायिका के मुख पर नख-क्षत देखकर सखी ने पद्य के तीसरे और चोये 
चरणा भें हास्य की केसी सुन्दर व्यज्ञना की है । 
नीचे लिखे पद्म में गंग कवि ने औरंगज़ेब द्वारा उपहार में दी गई 
इथिनी का कैसा मनोरकज्षक वर्णन किया है--- 
तिमिर लंग लई मोल चली बावर के इलके । 
रही हुमायूं साथ गई अकबर के दल के॥ 
जहाँगीर जस लियो पीठि को भार छुड़ायो। 
शाहजहँ करि न्याय ताहि को माॉड चढायो॥ 


( ५४१४ ) 


बल रहित भई पौरुष थकयों भगी फिरति वन स्थार डर | 
औरंगजेब करिनी सोई ले दीन्दीं कवि गंग घर ॥ 
यानी जो हथ्िनी तैमूरलंग, बाबर, दुमायूँ, श्रकबर, जदाँगीर, शाइजहाँ 
आदि के ज़माने में रही, बदी अब दान में दे दी गई । दथिनी के पुराने प्रन 
का ठिकाना हे | इस पद्म में हास्य के मिस यह दिखाया गया है, कि जब 
कोई चीज़ निरथंक हो जाती है, तब उसे दान के रूप में दूसरों को देकर 
बाह्वादी लूटने की इच्छा होती दे | मरी बढछिया बाम्दन के सिर, इसे ही 
कहते हैं । 
नीचे के पद्य में नकलची वाबुश्ों का वर्णोन किया गया हे, मुलाहिबा 
फरमाइए-- 
बूट पतलून कोट पाकट में वाच पड़ी, 
छुज्जेदार टोपी छुंड्डी छुतरी बगल में । 
बोलें श्रेंगरेजी खान-पान करें होटलों में, 
साहिबी मुसाहिबी को लाते हैं अ्रमल में ॥ 
बाईसिकलों पे चढ़े चूरट हैं उड़ाते फिरें, 
गोरे रंग द्वी की कमी पाओओगे नकल में । 
भट्ट” अ्रव ऐसे ही स्वदेशी बन जाओ सब, 
देख लो नमूने नई सम्यता के दल में ॥ 
भारतीय सम्यता को तिलाब्जलि देकर विदेशी फ्रेशन में रँग जाने वाले 
लोगों के सम्बन्ध में उपयुक्त छुन्द लिखा गया है। वस्तुतः ऐसे लोगों में 
स्वदेशीयता की शायद ही कोई भावना शेष रहती हो, और देखिये, भाषा के 
सम्बन्ध में भी भट्ट जी क्‍या कह्दते हें--. 
देवनागरी की राम र-र को प्रणाम कर, 
घूढ़ी बोलियों का मान माथे न मढ़ाबंगे। 
फ़ारस लों फ़ारसी की छार सी उड़ाय चुके, 
उरदू के दायरे का दौर न बढ़ावेंगे॥ 
बाप ने पढ़ी थी अब आपने पढ़ी हे वही, 
प्यारी राज भाषा बाल बच्चों को पढ़ाबंगे। 


( १६ ) 


ऐसे बढड़भागी 'भट्ट' भारत की भारती को, 
ऊल-ऊल उन्नति की चोटी पै चढ़ावयेंगे ॥ 
मातृभाषा त्याग कर विदेशी भाषा को ही सब कुछु मान कर उसी को 
उन्नति का एक मात्र साधन समभने वाले देशभक्तों के सम्बन्ध में उपयंक्त 
पंक्तियाँ लिखी गई हैं । इनमें व्यञ्जना द्वारा परभाषा प्रेमियों की फकिका 
उड़ाई गई है | सच है, ऐसे ही लोगों द्वारा भारती की उन्नति होगी । 
जैसा कि हास्य रस के प्रारम्भ में लिखा गया है, किसी के वेश, बोली 
या साषा का अनुकरण ही हास्य रस का उत्पादक है। द्वाल ही में पुराने 
कवियों की कविताश्रों के कुछ श्रनुकरणात्मक परिहास (पैरोडी) भी प्रकाशित 
हुए हैं| उनमें दास्य की काफ़ी सामग्री है । महाकवि सूरदास की रचनाओं 
के अनुकरण में निम्नलिखित परिहास-पद पढ़िए--- 
बिपति बुढ़िया पै आइ परी । 
.. कहाँ वह खाट कहाँ वे खटमल कथरी कहाँ डरी। 
माछुर मिन-भिन करत फिरत नित दुखतें रैन भरी || 
डगमग डील डुलावत डोलत जुरतें खूब जरी। 
बैद दकीम पास नहिं फटकत सखां-खौं करत मरी ॥ 
देखत-देखत चीज चुरैया ले गयो छीनि दरी। 
सटपटाति बौरी-सी बैठी अब का और धघरी॥ 
जुग-जुग भीर परी भगतन पे धीरज धारि शभ्ररी। 
सूरदास थिर मन सों श्रजहूँ भजि भगवान हरी ॥ 
ग़रीब बुढ़िया खाँसी से खों-खों करती हुई अपनी दरी चुराए जाने की 
शिकायत कर रही है | परन्तु सूरदास जी कहते हँ-अरी, सम्तों पै बड़ी-बड़ी 
भीड़ पड़ी हैं, तू ऐसे समय में भगवान्‌ को याद कर | वही तेरा उद्धार करेंगे । 
इसमें दरी चुराए. जाने की तुलना सनन्‍्तों पर पड़ी भीड़ के साथ किए जाने के 
कारण वह द्वास्योत्पादक हो गई है। किसी की शैली का श्रनुकरण तो हास्यप्रद 
ह्दे ही। 
महाकवि तुलसीदास जी की चोपाइयों का भी परिहास-पद्म सुनिये-- 
सब यानन ते श्रेष्ठ श्रति द्वुततति गामिनिकार | 
धनिक जनन के जिय बसी निस दिन करति विहार ॥ 


( ४१७ ) 


मब्जुल मूर्ति सदा सुख दैनी, समुझ्ि सिहावहिं स्वर्ग नसैनी । 
उछुरति, कूदति किलकति जाई, सब कह लागति परम सुदाई | 
पौं-पौं करति सुद्दावति कैसे, मुनि मल शंख बजावहिं जैसे । 
चारु चक्र धारिनि मन भावन, कलरव करति विमोद बढ़ावन | 
छाँह करन द्वित छुएउ विताना,विचरति फिरति बरन घरि नाना। 
पीवहि तेल उड़ावदि धूरो, पद चारिन कह दुरगति पूरी। 
विद्युतु-दीप करत उजियारी, जनु हरि-चन्द उगेउ तम टारी। 
तेहि चढ़ि जन निज गव॑ दिखावहिं,पद प्रभुता प्रमाद दरसावहिं। 
मग बिच कीच उलोचति कैसे, फागुन फाग रचहिं जन जैसे । 
बल विक्रम जब जात नसाई, सरकति नेक न उठति उठाई । 
बाहन कुल की परम गुरु सब कह सुलभ न सोय। 
रघुबर की जिन पे कृपा ते नर पावहिं तोय ॥ 
उपयक्त परिहास में तुलसीदास जी की चोपाइयों का अनुकरण करते 
हुए, मोटरकार की महिमा का वशन किया गया है। उसके पहिये कैसे 
सुन्दर होते हैं, वितान कितना भव्य बना द्वोता हे, “पॉं-पॉँ' करती केसी 
सुहावनी मालूम द्ोती हे । उसके युग लेम्पों को 'हरि-चन्द' सूर्य और चन्द्रमा 
से तुलना की गई हे | इस वर्णन के पढ़ने से खूब दंसी आती हे | 
झब भूषण जी का परिहास-पद्य पढ़िए--- 
तोड़ दिये तोमड़े तड़ाक तरबूजन के, 
फोड़े खरबूजन के खोपड़े धड़ाम से। 
कासी फल कददू बली बेंगन बनार डारे, 
जामुन पिचे न बचे आम कत्ले आम से ॥ 
गाजर गेंडारी कद-कदह काँकरी को काठ, 
मोरयो मेंह मूरी को मरोरे सब चाम से। 
भूषन भनत चीमटा के चचा चाकूराम, 
श्रद्च-शस्र॒ काँपत तिद्दारी धूम धाम से॥ 
भूषण की शैली में 'चीमठा के चचा चाकूराम” का कैसा हास्यमय 
सुन्दर वर्णन दे | फलों की दुनिया में इस कुर्ठित कृपाण ने ग्जबत्न ढा दिया 
है। भाहि-भाहि मचवादी है !! 


( धुश्ण: ) 


मदहाकवि रसखान का निम्नलिखित परिद्यास-पद्य भी देखने लायक दै-- 
या खुरपी अरू फावरिया पर घास भरी गठरी तजि डारों | 
पैर चलाइबे खेत नराशइ्बे को दुख भेंस चराइ बिसारों। 
रसखान क़बों इन द्वाथन सो पथ्वारी-दरोगा के पाये पखारों। 
खौंसि के छानि कौ फेस फटेरो मद्दाजन की मुड़िया पहँ मारो ॥ 
उपयक्त पद्म 'या लकुटी अ्ररु कामरिया? के ढंग पर लिखा गया हे। 
उसमें एक ग़रीब किसान की दशा का हास्यमय वशन दे । 
मद्दाकवि रत्नाकर जी की शैली के अ्रनुकरण में परिह्ठास-पद्य देखिये--- 
रैंक-रेंक रोयो कौंजरी कौ कुल दीपक यों, 
धारी गिरधारी निठुराई मारी मति हे। 
ले ले कर टोकरी पकारत बजार बीच 
पैन कोऊ बारी तरकारी बिकयति है। 
. तोरई करेला घीया भिर्डिन की कहाँ कहा, 
टण्डे औो टमाटर न कोऊ पूछियत हे। 
कहे रतनाकर उबारौ-तारौ मारो धाहै, 
आलुन के साग ते भई ये दुरगति है ॥ 
यहाँ रत्नाकर जी की शैली पर अन्य शब्दों कौ अ्रपेक्षा आ्रालू की उत्कृष्टता 
दिखाई गई है | आलू ने सारी सब्जियों की बेक़ृदरी करा दी। कंजड़ों को 
सख्त शिकायत दे कि कम्बख्त आलुओं के आगे और किसी शाक की 
बिक्री दी नहीं होती । 
स्वर्गीय कविरत्न सत्यनारायण का “भयौ क्यों श्रनचाहत को संग? 
बाला पद्य बहुत प्रसिद्ध है। उसी का अ्रनुकरण करते हुए उन्हीं की शेली 
पर रचा गया निम्नलिखित परिदहास-पद पढ़ियै-- 
भयौ क्‍यों अनचाहत को संग | 
खुफिया पुलिस परी दे पीछे करि डारे हम तंग॥ 
जंह जदें जात दिखात तहदाँ ही खात न्द्दात बतरात । 
चौंकि परति चंचल तुरंग सी फरकि जात जो पात॥ 
निरखत परखति रदहति सदाही अन्तर नेक न लावति | 
इमरी करनी-घरनी को लिखि ढेखो ठुरत पठावति ॥ 


( ४१६ ) 


उचरी देह-अंगौछा काछे जितजित प्रान बचाऊँ। 
तित-तित वा छुरछुन्दों की में छुट निरख तो जाऊँ ॥ 
दीनबन्धु मेरी करनी कौ केसहु -कुफल चखाओ। 
सत्य कहूँ पर इन खुपियन ते मेरी पिणड छुड़ाओ ॥ 
कविवर सत्यनारायश जी खुफ़िया पुलीस से तंग होकर उससे पिण्ड 
छुड़ाने के लिए परमात्मा से प्रार्थना करते हैं | इस पद में जहाँ उनकी शैली 
का अनुकरण दे, वहाँ उनके व्यक्तित्व की ओर भी संकेत किया गया है। 
वे गर्मियों में प्रायः कंपे पर अ्ंगोछा डाले नंगे द्वी घूमा करते थे | 
हिन्दी की दास्य सम्बन्धिनी कविताश्रों के नमूने ऊपर दिये गये हैं, 
अब उद्‌ के कुछ नमूने देखिये | महाकवि अकबर उदू के बड़े प्रसिद्ध 
कवि हो गए हैं। उन्होंने हास्य रस की बड़ी सुन्दर और उच्चकोटि की 
कविताएं लिखी हैं । 
परचा रक्‍खा जो उसने में ये समझा, 
पाकिट में ये बीस रुपे का नोट गया। 
घर पर खोला तो बस यही लिखा था, 
क्‍या शेर थे, वाह-वाह में लोट गया। 
यहाँ भी शेर की क्रद्ग॒दानी में वाइ-वाद के सिवा और कुछ न मिला। 
कोरी वाह-वाद कोई कोड़ी भी न दान करै, सूम खड़े कविता तरंगिणी के 
घाट पे ।?' 
ठोड़ लिय्रेचर को अपनी हिस्टरी को भूल जा, 
शेख मस्जिद से तश्राल्लुक़॒ तक कर इस्कूल जा। 
चार दिन की क्न्दगी है कोफ़्त से क्या फ़ायदा, 
खा डबल रोटी, किलकों कर, खुशी से फूल जा ॥ 
धर्म विहीन लोगों में 'खाश्रो-्पये मौज उड़ाओश्रो' की जो भावना भा 
जाती हे, उसी का वर्णन उपयुक्त पंक्तियों में किया गया है | 
मग्रवी ज़ोक हे और वज़ञ् की पाबन्दी भी, 
ऊँट पर चढ़के थियेटर को चले हैं इज़रत । 
एक श्रोर प्राचीन घमम-म्यांदा का ख़याल है, दूसरी ओर परिचमीय 
नाटक सिनेमाओं का शौक । फिर क्‍या था, ऊँँट पर चढ़ कर थियेटर 


( ४२० ) 


देखने चल दिये। घम भी बचा रहा और शोक भी पूरा होगया। केसी 
मीठी चुकटी दे । 
महाकवि अ्रकबर के, नीचे लिखे शेरों का भी घुलहिजा कौजिये--- 
सिधारे शत काबे को हम इंगलिस्तान देखेंगे । 
वह देखे धर खुदा का हम खुदा की शान देखेंगे ॥ 
हा र्ञः पु 
जब ग़म हुआ चढ़ा लीं दो बोतले इखट्टी, 
मुल्ला की दोड़ मस्निद अकबर की दोड़ भट्टी | 
न न न 
थी शबे तारीक़ चोर आए जो कुछ था ले गए । 
कर ही क्‍या सकता था बन्दा खाँत देने के सिवा। 
>< 





मवक्किल छुटे उनके पंजे से जब 
तो बस कौम-मरहूम के सर हुए । 
पपीह्ष पुकारा किये पी कहाँ 
मगर वह पिलीढर से लीडर हुए ॥ 
उपयंक्त पंक्तियों में श्रकबर साइब ने मीठी चुटकी लेते हुए केसी गहरी 
बात कही है | 
अकबर साहव मूँछ मंड़ाकर कर्ज़ज फ़रेशन इख़्तियार करने वालों के 
सम्बन्ध में कद्दते हैं. 
क्र दिया कज्ञनने ज्ञषन मर्दों की खूरत देखिये। 
आबरू चेहरे की सब फ़ेशन बनाकर पूँछ ली। 
सच ये है इंसान को यूरुप ने हलका कर दिया । 
इब्तदा डाढ़ी से की और इन्तहा में मुठ ली ॥ 
मर्दानगी का निशान मु्ों को मुड़ाकर ज़नाना चेहरा बना लेने पर 
केसी मजेदार चुटकी ली है। श्रच्छा फैशन अग्तियार किया, जिसने चेहरे 
की सब आबरू ही पोंठु ली। अकबर साहब की और भी हासख्यमयी उक्तियाँ 
सुनिये-.. 


( ४२१ ) 


क्यों सिविल सजन का आना रोकता है.हमनशीं । 
इसमें हे इक बात आऑनर की शफ्रा हो यान हो।। 
+- +- उ 
सींचो न कमानों को न तलवार निकालो। 
जब तोप भ्रुकाबिल है तो अख़बार निकालो ॥ 
महाकवि अकबर की हास्यमय यूक्तियाँ बड़े ग्रज़्ब को हैं। वे थोड़े से 
शब्दों में बहुत बड़ी बात कह जाते हैं। उनके हास्य में महफट्टपन नहीं हैं। 
वे जो कुछ कहते हैं व्यज्ञना द्वारा कहते हें । उनके कलाम को पढ़कर द्वदय 
में एक गुदगुदी-सी पैदा होकर चित्त प्रसन्न हो जाता है।वे व्यंग्यात्मक 
हास्य लिखने में बहुत कुछ झयाति लाभ कर चुके हैं। उनकी कितनी ही 
सूक्तियाँ तो लोकोक्तियों का रूप घारण कर चुकी ओर करती जा रही हैं | 
अब ज़रा कविवर मैथिलीशरण जी के शब्दों में गणेश जी और पड़ानन 
का मुकदमा भी सुन लीजिए-.- 
जयति कुमार श्रभियाग गिरा गौरी प्रति, 
सगण गिरीश जिसे सुन मुसकाते हैं। 
देखो श्रम्ब ये देरम्ब मानस के तीर पर, 
वुन्दिल शरीर एक ऊधघम मचाते हैं। 
गोद भरे मोदक धरे हैं सविनोद उन्हें, 
संड़ से उठा के मुझे देने को दिखाते हैं| 
देते नहीं कन्दुक-सा ऊपर उछालते हें, 
ऊपर ही मेल कर खेल कर खाते हैं ॥ 


गणेश जी गोद में लड़ड्ू भरे बैठे हैं | उनमें से एक लड॒ड अपनी सूँड़ 
से उठा पहले षड़ानन की श्रोर दिखा कर कहते हं--'लो'। ओर जब पड़ानन 
लेने को हाथ बढ़ाते हैं, तो तुरन्त उसे ऊपर उछाल कर ऊपर से ऊपर ही 
संड़ द्वारा लपक कर आप ही खा जाते हैं। बाल-विनोद का कितना स्वाभाविक 
और हास्यमय वर्णन हे । संस्कृत साहित्य में इस प्रकार के मंगलात्मक या 
झराशिषात्मक छछोक बहुत मिलते हैं। नीचे गुत जी के उक्त पथ से मिलता- 
जुलता एक संस्कृत का छोक दिया जाता है। देखिये-- 


( २५१ , 


है हेरम्ब ! किमम्ब | रोदिषि कथ्य!? कर्णो छुठत्यानि भूः । 
कि रे स्कन्द विचेष्टितम्‌ ! ममपुरा संख्या कृता चक्चुषाम्‌ । 
नैनतते हा चितं गजास्यचरितं ! नासा प्रमीताच मे। 
तावेब॑ सहसा विलोक्य इसितं व्यग्रा शिवा पातुवः॥ 


स्वामिकातिक और गणेश जी खेलते-खेलते आपस में भूगड़ पड़े। 
गणेश जी रोने लगे | उनका रोना सुन पावती जी ने पूछा--शअ्ररे गणेश, 
रोता क्‍यों दे ? उत्तर में गणेश जी ने बताया, कि अग्निभू ( कातिकेय ) 
मेरे कान खींचता है ' यह सुन पावंती ने स्कन्द को डाटते हुए कहा- 
(क्यों रे स्कन्‍्द ! यह क्या कुचेष्टा करता है १' इस पर स्कन्द कहने लगे--- 
“इसने भी तो पहले मेरी आँखें गिनी थीं।”' (स्कन्द के पाँच मुख ओर 
दश आँखें हैं )। गोरी ने जब जाना कि गणेश का भी दोष हे, तो वह उनसे 
बोलीं-- “गणेश, तेरी यह बात ठीक नहीं है।” इस पर गणेश तुरन्त बोल 
पड़े- नहीं माता जी, पहले तो इसने ही मेरी नाक (खँंड़ ) नापी थी।! 
बालकों के इस प्रकार पारस्परिक अभाव अभियेाग को सुन पावंती सहसा 
इंस पड़ीं। वही प्रसन्न बदना पावती आपकी रक्षा करें | 
भारतेन्दु इरिश्चन्द्र जी की भो हास्यात्मक रचनाश्रों में से चुरन के लटके 
नीचे दिये जाते हें 
चुरन अमलवेत का भारी, जिसको खाते कृष्ण मुरारी। 
मेरा पाचक हे पच लौना, उसको खाता श्याम सलोना। 
मेरा चूरन जो कोई खाय, उसको छोड़ कहीं नहीं जाय। 
चूरन नाठक वाले खाते, इसकी नकल बनाकर लाते। 
चूरन सभी महाजन खाते, जिसमें जमा इजम कर जाते। 
>< >< >< 
““भारतेन्दु हरिश्रन्द्र 
परिडत प्रताप नारायण मिश्र की 'हर गंगा? भी हास्य का सुन्दर नमूना 
है। देखिये-- 
झाठ मास बीते जिजमान, श्रथ तो करो दच्छिना दान। दर गंगा 
झाजु काल्हि जो रुपया देव, मानो कोटि जग्य करिलेव । दर गंगा 


( 'भर३ ) 


माँगत हमको लागे लाज, पर रुपया बिन चलै न काज | हर गंगा 
दँसी-खुसी से रुपया देउ, दूध-पूत सब हमसे लेठ। दर गंगा 
जो कहूँ देहो बहुत खिफ्राय, यह कौने मलमंसी आय |. हर गंगा 


“प्रताप नारायण मिभ्र 


पणरिडत ईश्वरीप्रसाद शर्मा का भी तुलसीदास के ढंग पर हास्यात्मक 
वर्षा वर्णन देखिये-. 
घन घमंड गरजत नभ घोरा | टका हीन कलपत मन मोरा। 
दामिनि दमकि रही ध्वन माही | जिम लीडर की मति थिर नादीं | 
वरषहद्व जलद भूमि नियराये। लीडर जिमि चन्दा-घन पाये। 
बूँद श्रघात सहें गिरि केसे | लीडर बचन प्रजा रुद्दे जैसे। 
छुद्र नदी भरि चलि उतराई। जस कपटी नेता-मन भाई। 
--पं० ईश्वरी प्रसाद शर्मा 
कविवर तुलसीदास ने अपने रामचरित मानस में अनेक स्थानों पर द्वास्य 
रस का पुट दिया है। उनमें से शिव जी के विवाह का प्रसंग नीचे उद्धृत 
किया जाता हे--- 
८ >< >८ 


कर त्रिशूल अरु डमरू विराजा, चले बसह चढ़ि बाजहिं बाजा । 
देखि शिवहिं सुरतिय मुसुकाहीं, वर लायक दुलहिनि जग नाहीं। 
>< >< >< 
बर अनुदारि बरात न भाई, हसी करैहहु पर पुर जाईं। 
विष्यु वचन सुनि सुर मुसका ने, निज निज सेन सहित विलगाने । 
>< >< ८ 
कोऊ मुख द्वीन विधुल मुख काहू, बिनु पद कर कोऊ बहु पद बाहू | 
विपुल नयन कोऊ नयन विद्दीना, दुष्ठ-पुष्ट कोर अ्रति तनु खीना । 
जस दूलद्द तस बनी बराता. कौतुक विविध द्वोंहि मग जाता। 
शिव समाज जब देखन लागे, बिडरि चत्ते वाइन सब भागे। 
घरि धीरज तहाँ रहे सयाने, बालक सब ले जीब पराने। 
2५ / ५ /५ 


( शषडट ) 


शिवदिं शम्भु गण करहिं सिंगारा, जया मुकुट भ्रद्टि मोर सम्हारा | 
कुण्डल कंकण पहिरे ब्याला, तन विभूति पट केइ्रि छाला। 
शशि ललाट सुन्दर शिर गंगा, नयन तीन उपबीत भुजंगा। 
गरल कंठ उर नर शिर माला, श्रशिव वेश शिव धाम कृपाला | 


फरुण रस 


“मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगः शाश्वती समा;” 
यत्तोश्चन मिथुनादेकमवधी: काममोहितम ।” 


महृषि वाल्मीकि अपनी कुटी से शिष्यों सहित नदी-स्नान के लिए जा 
रहे थये। माग में काम मोदित सारस के जोड़े में से एक को वधिक के बाण 
द्वारा विद्ध देखक र, उन्हें बड़ा दुःख हुआ । उस समय उनके मंह से सहता 
उपयक्त पंक्तियाँ निकल पड़ी, जिनका श्रथ यह है कि--“अरे निदंय निषाद 
(बधिक) तुके संसार में कभी शाश्वत्‌ प्रतिष्ठा (मुक्ति) प्राप्त न होगी 
क्योंकि तैने काम मोहित सारस के जोड़े में से एक का बंध कर डाला।” 
महर्षि का दृदय इस क्रर काण्ड के कारण करुणा से श्रोत प्रोत द्वो गया, 
झ्ौर उनका यही भाव आदि महाकाव्य वाल्मीकि रामायण का मूल 
कारण हुआ | यदि उस समय वाल्मीकि जी के हृदय में करुणा का 
स्लोत न उमड़ता तो आज भगवान्‌ रामचन्द्र का आदश चरित्र इस रूप 
में संखार के सामने न होता। श्रभिप्राय यद्द कि काव्य की सृष्टि कराने 
वाला करुण रस ही है। संस्कृत के अनेक काव्य इस रस से भरे हुए दें । 
कितने ही आचायों ने तो करुण रस को इतना मदृत्त्व दिया है, कि वे उसे 
ही सब रसों का उत्पादक समभते हैं । करुण रस का स्थायी भाव शोक हे | 
मद्दात्मा वाल्मीकि को क्रोश्च वध से शोक हुआ और उनके हृदय में एकदम 
करुणा का समुद्र उमड़ने लगा। शोक की मात्रा के अनुसार ही, करण रस 
के लघु करुण, अ्रति-करुण मदहाकरुण आदि भेद किये गए हैं। शोक 
आशा पर निर्भर है। कितने ही शोक ऐसे होते हैं, जिनमें श्राशा बहुत द्वी कम 
रद्द जाती हे, और कितने द्वी शोकों में श्राशा बलवती बनी रहती हे । 


करुणा का बड़ा मद्टत्व है। परोपकार, अनुकम्पा सहानुभूति श्रादि 
करुणा के दी कुट्ठम्बी हें। जिस व्यक्ति में करुणा पर्याप्त मात्रा में होती हे; 


( भ२४ ) 


उसमें सहृदयता होना स्वाभाविक है । सद्गदय का द्वदय दूसरे के दुःख को 
देखकर द्रबीभूत हो जाता है | संसार के सब लोग किसी न किसी रूप में एक 
दूसरे से सम्बद्ध हें , इस सम्बन्ध के कारण दुखी मनुष्य के दुःख को देखकर 
करुणा के भाव जाग्रत होते ही रहते हैं। मनुष्य ही क्यों, पशु पक्षियों को भी दुखी 
देखकर सहृदयों को बड़ा कष्ट होता है । अभ्रगर संसार में कदणा न होती तो 
सहानुभूति और परोपकार के चिन्ह भी दिखाई न देते | संसार का सतष्टा परमात्मा 
परम कारुणिक है, इसलिए उसने अपना यह गुण मनुष्य को भी प्रदान किया 
है, जिससे वद लोक-कल्याण के लिए उसका प्रयोग कर सके | अनाथालय, 
क्षेत्र अाश्रम, गोशाला, पाठशाला, प्रपा, धर्मशाला श्रादि करुणा के ही 
कारण दिखाई देते हैं। करुणा से प्रेरित होकर जब किसी कष्ट-पीड़ित की 
सेवा-सहायता की जाती है, तो उससे सेवक और सेव्य दोनों को ही बड़ा 
आनन्द पहुँचता है | श्रभिप्राय यह कि जिस प्रकार करुणा के कारण दुसरों 
को सुख होता है, उसी प्रकार श्रपने आत्मा को भी सन्‍्तोष मिलता है। 
दान-पुणय आदि परोपकार सम्बन्धी काय करने के पश्चात्‌ दृदय में अद्भुत 


आनन्द की श्रनुभूति होती है। 
करुणावृत्ति सब मनुष्यों में समान नहीं होती | किसी में कम और किसी 


में ज्यादा । जिन लोगों में करुणा का अंश नन्‍्यून ओर स्वाथ का अ्रधिक 
होता है, उनका द्वदय कठोर बनकर खुदग़र्ज़ी से भर जाता हे। परन्तु 
जिस द्वदय में स्वार्थ की प्रबलता नहीं होती; उसमें करुणा देवी परोपकार 
रूप में परिवर्तित हो जाती है। मस्तिष्क शारित्रियों के मतानुसार करुणा का 
स्थान मस्तिष्क के ऊपरी भाग की मध्य रेखा पर है। बाल्यावस्था से ही इसको 
विकसित करने का प्रयत्न होना चाहिये | कहते हैं कि जीवन के द्वितीय वर्ष 
से करुणा का स्थान बढ़ने लगता है। उस समय इस बात पर ध्यान देते 
रहना चाहिए. कि बालकों में स्वार्थ की मात्रा न बढ़ने पावे। परोपकार- 
गाथाश्रों के सुनने, दीन-दुखियों की दशा देखने आदि से करुणा वृत्ति का 
विकास द्वोता हे | करा का जनक शोक हे, चाहे यह शोक वियोग, चिर 
वियोग या मृत्यु से उत्पन्न हुआ दो, चाहे श्र हानि या इृष्ट हानि से। 

करुण दृश्यों को देखकर प्राय: लोग रो पड़ते हैं। ऐसी दशा में पूछा 
जा सकता है कि जब करुण में दुःख और रोदन है तो उसमें आनन्द कैसे 


( ४२५६ ) 


माना गया। श्सका उत्तर स्पष्ट हे। अगर इन दृश्यों में वास्तविक दुःख 
होता तो, उन्हें एक बार अवलोकन कर दूसरी बार देखना कोई पसन्द न 
करता, परन्तु ऐसा नहीं है । सत्यत्रती दरिश्चन्द्रादि कब नाठकों को लोग 
बार-बार देखते हैं | इसका कारण यही हे कि देखने वाले लोग हरिश्चन्द्र के 
कष्टों से तो दुखी द्ोते हैं परन्तु उसे कठिन परीक्षा में पड़कर उत्तीर्ण होता 
देख उनका दछदय श्रानन्द से भर जाता है। जिस आदश के लिए दरिश्चन्द्र 
ने इतने कष्ट सद्दे, उसकी ऊँची भावना दशंकों के दृदय कों दर्षित कर 
देती हे | यही बात रामायण तथा अ्रन्य करुण काव्यों के सम्बन्ध में कही 
जा सकती है। एक ओर राम को वन जाते देख लोग रोते हैँ, दूसरी ओर 
उनका ऊँचा आदश हृदय में आनन्द का भाव पैदा कर देता हे । जिस 
समय वीरवर लक्ष्मण शक्ति लगने से मूछित हो जाते हैं, उस समय सब 
दर्शक विलखने लगते हैं, साथ द्दी यद भी समभते हैं कि जिस पवित्र उद्देश्य 
की पूति के लिए, लचमण जी के प्राण-पखेरू शरीर-पिल्लर से प्रयाण करना 
चाहते हैं, वह महान्‌ हे, दिव्य हे, अलौकिक है । इसी आश्रय से सामाजिकों 
के हृदय में आनन्द की अनुभूति होती रहती है| इसके विपरीत कतंव्य- 
भ्रष्ट रावण को देखिए, उसके साथ किसी की भी सहानुभूति नहीं होती । 
राक्षय लोग कट-कट कर घराशायो होते हैं, परन्तु दर्शक खुशी से तालियाँ 
पीठते और हृष-ध्वनि करते हैं। अभिप्राय यह कि श्रादश की उच्चता और 
उद्देश्य की पवित्रता के कारण महान्‌ पुरुषों को श्रग्नि-परीक्षा में पड़ते देख 
दर्शकों को दुःख तो होता है, परन्तु साथ ही उनकी सत्य-प्रियता और न्याय- 
निष्ठा अन्य शुभ परिणाम की आशा से अलोकिक आनन्द की श्रनुभूति भी 
दोती रद्दती है | यद्दी लोकोत्तरानन्द बार-बार इस प्रकार के दृश्य देखने के 
लिए प्रेरित करता रहता है । 

नाटकों को जाने दीजिये, नित्य प्रति के जीवन में देख लीजिये--देश 
सेवक देश-सेवा के अ्रपराध में जेल जाते हैं, सगे-सम्बन्धियों और मिन्र- 
मिलापियों को, उनके वियोग का दुःख द्वोता है, परन्तु उद्देश्य की पविश्नता 
का विचार उस दुःख को शआआनन्द में बदल देता हे | यदि इस प्रकार जेल- 
यात्रा में आनन्द न होता, तो जेल जाना कौन पसन्द करता और सगे-सम्बन्धी 
सजल नेश्न और गद्गद्‌ स्वर से क्‍यों सहष विदाई देते | इस उदाहरण से 


( ५२७ ) 


भी स्पष्ट हे कि उद्देश्य की पूर्ति के लिए कष्ट सहने में कितना ही दुःख 
क्यों न हो, परन्तु परिणाम में आनन्द ही आनन्द है। जिन हुतात्माओं ने 
अपने उद्द श्य की पूर्ति के लिए, प्राणों की बाज़ी लगा दी, उनके परित्र 
चरिश्नों को हम बार-बार पढ़ते, श्रांसू बहाते और साथ दी आनन्दानुभव भी 
करते हैं । 

कुछ लोग अभ्रपात या गद्गदू कश्ठ हो जाने को करण रस का दी 
सूचक समभते हैं। परन्तु ऐसा तो दृष में भी द्ोता हे। बहुत दिनों बाद 
दो बिछुड़े मित्रों के मिलने पर भी दोनों की आँखों से श्रॉयू बहने लगते हैं। 
कणठ रुघ जाता हे और बात नहीं बन आ्राती | आनन्द कन्द ब्रजचन्द्र की कृष्ण 
चन्द्र से जब उनका चिरवियुक्त सखा सुदामा मिलता है, तो वे बड़े विकल 
होते हैं । प्रेमवश ही उनकी ऐसी दशा हो जाती है। बहुत से लोग इस 
अवस्था को भी करुण रस में परिगणित करते हैं, जो ठीक नहीं प्रतीत होती । 

शोकपूर्ण परिध्थिति पैदा होने पर, सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि 
मनुष्य के द्व॒दय में परमात्मा के प्रति अठल श्रद्धा के भाव उत्पन्न दोने लगते 
हैं। उस समय वास्तबिकता का शान द्दोकर, कतंव्य-बुद्धि का उदय होता 
है। ओर न जाने क्या क्‍या मंसूबे बाँचे जाते हैं । परन्तु पीछे वही ढाक के 
तीन पात | मद्दा कवि रहीम ने क्या ही श्रच्छा कहां हे-- 

दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करै न कोय। 
जो सुस्त में सुमिरन करे, दुःख काहे को होय ॥ 

इसी प्रस्ंग में उदू के मशहूर शायर फ़ानी साहब की उक्ति भी सुन 

लीजिये-- 
ग़म के ठद्दोंके कुछु हाँ बला से, 
आरके जगा तो जाते हैं। 
नींद के हम मदमाते हैं, 
जो जागते ही सो जाते हैं॥ 

वास्तव में करण रस मनुष्य की श्राँखें खोल देता है, उसे दुरभिमान- 
दुर्ग से निकल कर, सदूभावना और सद्दृदयता के सुरम्य सरोवर पर ला खड़ा 
करता है। उस समय उसे यद्दी भासने लगता है, कि संसार भनित्य है, 


( भरण ) 


परमात्मा की सब॑ शक्तिमत्ता दी सब प्रकार सहायक हो सकती है। छुल- 
प्रपभ्च और पर-पीड़न द्वारा स्वार्थतिद्वि करना पाप कम है, इत्यादि | परन्तु 
ज्योंद्री शोक का प्रभाव चित्त पर से हट और करुण-दृश्य बदला त्वों दी 
मनुष्य के द्वृदय में अदंकार का सप॑ फुकारने लगा। फिर क्‍या हे, वही 
राग-ढेष ओर वही छुल-कपट वही प्रतारणा और वही दम्म | सच तो यह 
है कि करुण रस मानव-द्वदय में एक दिव्य और भव्य भावना का उदय 
कर देता है । इसीलिए उसकी इतनी महत्ता मानी गई है। सुखान्त नाटकों 
की अ्रपेत्षा दःखान्त नाटक इसी लिए अधिक पसन्द किये जाते हैं। विप्रलम्भ 
या वियोग शरंगार पर तो करुण रस का अत्यधिक प्रभाव रहता हे। मदहाकवि 
सूरदास ने गोपियों की वियोग-दशा का जो करुणाजनक चित्र अंकित किया 
है, वह देखने ही योग्य है । 
करुण 

शोक की परिपुष्टता का नाम करण रस है । इष्ट के नाश या अनिष्ट 
की प्राप्ति से शोक की उत्पत्ति होती है । 

करुण का स्थायी भाव शोक, देवता यमराज या वरुण और वर्ण कपोत 
जैसा होता है । 

अआतलम्बन--प्रिय बन्धु, समाज या देश की अ्रपार हानि, सगे-सम्बन्धी का 
मरण श्रादि इसके आआलम्बन हें । 

उद्दीपन--दाह कम, प्राणियों की दुखित दशा, मृत प्रिय जनों की 
वस्तुओं का दशन, उनके गुण श्रवण आदि करुण रस के उद्दौपन हैं । 

अनुभाव--रोना, प्रथिवी पर गिरना, भाग्य को कोसना, मुख का 
विवरण दो जाना, गात्र शिथिल होना, उच्छुवास, नि:श्वास, प्रलाप आदि 
करुण रस के शअ्रनुभाव हैं । 

संचारी भाव--वैराग्य, ग्लानि, चिन्ता, निर्वेद, मोह, व्याधि, स्मृति 
स्वेद, विधाद, जड़ता, कम्प, अभ्र, आ्रालस्थ, मरण श्रादि इसके संचारी 
भाव दें । 

करुण रस के कुछ उदाहरण देखिए--- 

पुरतें निकसीं रघुबीर वधू घरि घीर दये मग में उग दढे। 

भलकी भरि भाल कनी जल की पट सूखि गए, मधुराधर वे। 


( भर ) 


फिरि बूकति हैं चलने। व कितो पिय पर्णंकुटी करिहों कित ह़ । 
तिय की लखि आतुरता पिय की अँखियाँ श्रति चारु चलीं जल बवै । 


श्री सीताजी वन-गमन के समय अयोध्या से कुछ कदम चलकर ही 
पूछने लगीं---अभी कितना और चलना दे ? यह सुनकर रामचन्द्र जी की 
आँखों से आँसुओं की धारा बह चली कि सीता जी अ्रभी से पूछ॒ती हैं कि 
अभी कितना चलना है? ओर सुनिए 

यहाँ पर सुकुमारी नानकी जी का मद्दारानी पद से च्युत हो पैदल वन 
को जाना प्रियजन की इष्ट द्वानि डेने से करुणा का आलम्बन विभाव हे | 
उनका भोलेपन से “अभी कितनी दूर और चलना है?” यह पूछना उद्दयीौपन 
विभाव है । जानकी जी का मुख सूख जाना, शरीर का शिथिल होना, साँस 
फूलना आदि अनुभाव तथा रामचन्द्र जी की श्राँखों से आँधू बद चलना 
आदि संचारी भाव हैं | इन्हीं सब से शोक स्थायी पुष्ट होकर करुण रस की 

सष्टि करता है। इसी प्रकार आगे के उदाहरणों में भी विभाव श्रनुभावादि 
की ऊद्दा कर ले । 
>< >< >< 

जा थल कीन्हें विहार अनेकन ता थल कॉकरी बैठि चुन्यो करें। 

जा रसना सों करी बहु बातन ता रसना सों चरित्र गुन्यो करें। 

अलम' ज्यों निसि कुञ्नन में करी केलि तहाँ अब सीस धुन्यो करें। 

नैनन में जु सदा रहते तिनकी अब कान कहानी सुन्यों करें। 

यहाँ श्रीकृष्ण के स्मरण में गोपियों का आँसू बहाना वणित है । 

श्रीरामचन्द्रजी लमक्ष्य के शक्ति लगने पर विलाप करते हुए कद्दते हं-- 

सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ, बन्धु सदा वुव मदुल सुभाऊ । 

मम हित लागि तजेउ पितु माता, सद्देड बिपिन बन आतप बाता। 

सो अनुराग कहाँ श्रब भाई, उठहु बिलोकि मोर विकलाई। 

जो जन तो बन बन्धु बिछोहू, पिता बचन नहिं मनतेठ शऔरोह । 

सुत बित नारि भवन परिवारा, द्दोहिं जाहिं जग बारहिं बारा। 

श्रस विचारि जिय जागद्दु ताता, मिलद्दि न जगत सद्दोदर अ्राता। 

यथा पंख बिन खग पति दीना, मण्यि बिनु फरि करिवर कर हीना । 

हि न० २०--३४ 


५ *२० ) 


अस मम जीवन बन्धु बिन तोहदी, जो जड़ देव जियाबै मोहीं । 
जैहों भवन कवन मुख लाई, नारि हेतु प्रियबन्धु गँवाई । 


संसार में सब कुछ मिल जाता है, परन्तु सहोदर भाई नहीं मिलता। 
यह कद्दते हुए, राम के शोक का पारावार नहीं है | जिस प्रकार बिना पंख 
के पक्ती, बिना मणि के फणीश और बिना सड़ के द्वाथी व्याकुल हो जाता 
है उसी तरद्द लक्मण के बिना राम भी विकल हो रहे हैं। 
मद्दाकबि दरिश्रोध जी ने भी निम्नलिखित प्यों में यशोदा जी की विक- 
लता का कैसा करुण चित्र खींचा हे -- द 
प्रिय पति वह मेरा प्राण प्यारा कहाँ है, 
दुख जलनिधि ड्रबी का सहारा कहाँ है । 
लखि मुख जिसका में आज लौं जी सकौहूँ, 
वह हृदय हमारा नेन तारा कहाँ दे॥ 
खिसका मुंह देखकर ही मैं श्राज तक जीवित रह सकी हूँ, श्राज वह मेरे 
नयन का तारा कहाँ चला गया। 


पल पल जिसके में पन्‍थ को देखती थी, 
निश दिन जिसके ही ध्यान में थी बिताती। 
उर पर जिसके है सोहती मुक्त माला, 
बह नव नलिनी से नेन वाला कहाँ है॥ 


कृष्ण की याद में यशोदा जी कैसा करुणु विलाप कर रही हैं। सुनने 
वालों का भी हृदय विदीण हुआ जाता है। 
शंकर जी ने विद्वद्दर गणपति शर्मा के देहावसान पर नीचे लिखा करुण 
रस पूर्ण केसा अच्छा छुन्द लिखा हे-- 
आपदा की श्राग ने उबाले शोक-सागर में, 
हायरे अनभ्र वज्र पात का प्रमाण है। 
छेद रहा सेकड़ों वियोगियों की छातियों को, 
एक ही वियोगजन्य वेदना का बाण हे।। 
काल विकराल ने कुचाल को कृपाण गही, 
क्यों न प्रेम कातर कटेंगे कहाँ त्राण है। 


( ४३१ ) 


शंकर! मिलावेगा मिलेंगे परलोक दी में, 
प्राण हारी प्यारे गणपति का प्रयाण है ॥ 
कवि ने अपनी शोक पूर्ण अनुभूति को कैसे करुण शब्दों में व्यक्त किया 
है। एक-एक शब्द से करुणा छुलकी पड़ती है | कवि के हृदय में जो शोक 
की ज्वाला जल रही हे, वद्दी शब्दों के रूप में बाहर फूट पड़ी है । 'वियाग 
जन्य वेदना” के एक दी बाण से 'सैकड़ों वियेगियों' की छातियों का छिंदना 
केसी अ्रनूठी ओर अ्रकछुती सूक है । 
कविवर शझर जी ने लक्ष्मण के शक्ति लगने पर राम के मह से 
कदलवाया है... द 
आदि में ओधघ वियेग भये, बन येग दिये, सुख भोग नसाये। 
सोक भये परलोक गये पितु सीय कों लंकपती इरि लाये। 
आज महा रण रंक में घायल श्रंग उछंग में बन्धु दिखाये। 
'शंकर' कष्ट न नष्ट भयेा विधि ने दुख भाजन मोहि बनायो॥ 
न न हरि 
जानि के मोहि अनाथ हरो दुख ज्यों शिशु कष्ट इरें पितु मैया । 
हाय सुखेन लगावहु पार बुड़ावो न सोक-समुद्र में नेया। 
'शंकर” वेगि सहाय करो अरब कोऊ न राम को घीर धरैया। 
रोवत हों अवलोकि तुम्हें हग स्वोेलि के काद्दे न बोलत भेया ॥ 
अरे भाई, तुम तो मुझे जरा भी उदास देखकर विकल द्वो उठते थे, पर 
अब में बिलख-बिलख कर रो रहा हूँ, ओर तुम श्रँखँ भी नहीं खोलते। 
वैद्य राज सुधण शोक-सागर में ड्रबती हुई, मेरी नाब को श्रब तुम ही पार 
लगाओगे । इस समय राम साक्षात्‌ करुणा को मूर्ति बने हुए हें । 
दुर्भित्ष के समय क्लुधातों की करुण दशा देखकर कवि का द्वदय 
द्रवित हो जाता है । उसी भाव को वह निम्नलिखित पंक्तियों में व्यक्त 
करते हैं-... 
रौंद रोंद मारे महामारी वार-फ़ीवर ने, 
मण्डली दुकाल को दरिद्रता ने घेरी ६ । 
ओढ़े' गाँठि यूदड़े न रोटी भर पेढ मिले, 
चेन का ठिकाना कहाँ चिन्ता बहुतेरी हे ॥ 


( धर ) 


ढोर कटने से जो रहेंगे उन्हें पालने को, 
भूसा-घास करबो पुआल की न ढेरी है। 
शंकर' बचेंगे परिवार न श्रकिश्जनों के, 
भुक्खड़ों के अन्त ने बजाई जय भेरी है। 
हा भगवान्‌ |! अब ऐसी विषम परिस्थिति में बेचारे श्रकिश्जनों के प्राण 
केसे बचेंगे | ऊददाँ खाने को टुकड़े और श्ोढ़ने को चिथड़े तक नहीं, वद्दों 
जीवन की रहक्चा भगवान्‌ ही कर तो हो | 
कवि रत्न सत्यनारायण के निम्नलिखित पद्म करुण रस के केसे सुन्दर 
उदाहरण हें--.- 
पियरी परी ओप कपोलन की ठन में दुबराई बढ़ी अश्रति भारी । 
लटकाएँ लट बिखरी मुख पे उर सोचति मोचति लोचन बारी। 
अति दीखति श्राकुल सोग सनी करुणा रस की जनु मूरति प्यारी । 
सन धारी वियाग विथा-सी किधों बन आइ रही मिथिलेस दुलारी ॥ 
बन में जानकी जी--साक्षात्‌ करुणा की प्रतिमा-सी प्रतीत होती हैं। 
रंग पीला पड़ गया ओर शरीर दुबला दो गया है। बेचारी रात-दिन श्रोंखों 
से आँसू बद्दाती रहती हें । 


नव दारुन वा अपमान सो तू निहचे दृग नीरहिं ढारति द्वोइगी। 
सिसु हो न समे पे तिया बन में कहूँ बेदद पीर सों आरत होइगी । 
घिरि हाय अचानक सिंहन सो किम बेबस धीरज धारति दोशगी । 
करि के सुधि मेरी हिये में चह्ूँ तब तात ही तात पुकारति होइ्गी । 
रामचन्द्र जी वन में निर्वासित सीता जी की याद करके कह रहे हैं- 
- ओह ! गर्भिणी जानकी वन में अ्रकेली कैसे रहेगी। प्रसव समय बेचारी की 
कोन सद्दायता करेगा | सिंह।दि हिंसक जन्तुओं के बीच घिर जाने पर वढ़ 
क्या करती होगी १ इन सब प्रतिकूल परिस्थितियों में सिवा रोने-बिसूरने के वह 
अकेली श्रवला श्रोर कर ही क्‍या सकती है | 

राजा दशरथ के देहद्दावसान पर मद्दाकवि मेथिलीशरण जी के साकेत से 
करुण रस की निम्नलिखित पंक्तियाँ दी नाती हैं-... 

न हक न 


( ४भरे३ ) 


बस यही दीप निर्वाण हुआ, सुत-विरद्द वायु का वाण हुआ । 
धंधला पड़ गया चन्द्र ऊपर, कुछु दिखलाई न दिया भूपर । 
श्रति भीषण द्वाद्यकार हुआ, सूना-ला सब संसार हुश्रा। 
श्र्धाज्ञ रानियाँ शोक कृता, मूब्छिता हुई या अ्रद्धं-सृता ? 
हाथों से नेत्र बन्द करके, सहसा यह दृश्य देख इरके | 
'हा स्‍्वामी' कह ऊँचे स्वर से, दहके सुमनन्‍्त्र मानो दव से। 
अनुचर श्रनाथ--से रोते थे, जो थे अधीर सब होते थे। 


ये भूप सभी के हितकारी, सच्चे. परिवार-भार धारी | 
जे ता गा 
युग युग तक चलती रहे कठोर कहानी, 


रघुकुल में भी थी एक अ्रभागिन रानी । 
निज जन्म जन्म में सुने जीव यह मेरा, 
« घिक्‍्कार | उसे था महा स्वाथ ने घेरा।' 
“सो बार धन्य वह एक लाल की माई, 
जिस जननी ने है जना भरत-सा भाई ।”' 
>८ > >८ 
हा, लाल, उसे भी आराज गमाया मेंने, 
विकराल श्रयश ही यहाँ कमाया मेंने। 
निज सवरग उसी पर वार दिया था मेंने। 
हर तुम तक से श्रधिकार लिया था मेंने। 
पर वह्दी श्राज यह दीन हुआ रोता है, 
शंकित सबसे धृत दरिण-तुल्य द्ोता है। 
श्री खण्ड शआ्राज अ्रंगार-चणड है मेरा, 
तो इससे बढ़ कर कौन दंड है मेरा। 
हद न ता 
पटके मैंने पद-पाणि मोह के नद में, 
जन क्या-क्या करते नहीं स्वप्न में--मद में । 
हा दया ! हन्‍्त वह घृणा ! अ्रद्दद वद्द करुणा, 
वैतरणी-सी है, ञ्राज जान्हवी वब्णा। 


( ३४ ) 


कवि जगन्नाथदास रत्नाकर जी ने अ्रपने एक सवैया में करुण का वणन 
इस प्रकार किया है--- 
खीन्यो रोकि जमुना-प्रवाह बासुरी के नाद जाको जसबाद लोक लोकन बखा गे। 
कहे '“रत्नाकर! प्रले की घन धार रोकि लीन्यो व्रजराखि सहसाखि सखि मानेंगे । 
उम्रगत सिन्धु रोकि द्वारिका बसाई दिव्य जुगजुग जाकी कवि कीरति बखानेंगे | 
हमतो इमारी दसा दारुन बिलोकि नेकु रोकि लै हों करुना प्रवाह तब आनेंगे । 
वास्तव म॑ हमारी दारुण दशा ऐसी ही दयनीय है, कि उसे देख दया- 
निधि का करुणा-प्रवाह रुक द्वी नहीं सकता । 
तुलसीदास जी ने अ्रपने रामचरित-मानस में जयन्त की करुणा दशा का 
वर्शन इस प्रकार किया हे--- 
आतुर सभय गदह्देसि पग जाई, त्राएदि त्रादि दयालु रघुराई। 
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई, में मति मन्द जानि नहिं पाई। 
निज कृत कम जनित फल पायडँ, अ्रब प्रभु पाहि शरण तकि आयजऊेँ। 
सुनि कृपाल अति आरत बानी, एक नयन करि तजा भवानी । 
कीन्द्द मोह बस द्रोहद, यद्यपि तेदि कर वध उचित। 
प्रभु छाँड़ेठ करि छोह, को कृपालु रघुवीर सम || 
कविवर प्रताप नारायण मिश्र के शब्दों में भव ता१-ग्रस्त प्राणी की 
करुण-पुकार भी सन लीजिए-- 
शरणागत पाल क्ूपाल प्रभो इमको इक आस तुम्दारी हे । 
तुम्दरे सम दूसर भोर कोऊ नहिं दीनन को हितकारी है । 
स॒ुधि लेत सदा सब जीवन की श्रति ही करुणा बिसतारी हे । 
प्रतिपाल करे बिन द्दी बदले श्रस कौन पिता महतारी है । 
जब नाथ दया करि देखत द्वो छुटि जात विथा संसारी हैं । 
बिसराय तुम्हें सुख चाहत जो श्रस कोन नदान श्रनारी हे ।। 
कविवर श्री गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेद्दी” ने राजकुमार रोहित का देहद्दावसान 
हो जाने पर मद्दारानी शेव्या का करुण विलाप केसे कारुणिक शब्दों में 
ऋंकित किया है-- 
उदासी घोर निशि में छा रही थी, 
दवा भी काँपती था रही थी। 


( ४३५४ ) 


विकल थी जान्हवी की बारि धारा, 
पटक कर सिर गिराती थी कगारा | 
घटा घनघोर नभ पर घिर रद्दी थी, 
विलखती चशञ्चला भी फिर रही थी। 
न थीं वह बँद आँसू गिर रहे थे, 
कलेजे बादलों के चिर रहे थे। 
खड़ी शैब्या वहीं पर रो रही थी, 
फटी दो टदृक छाती द्वो रही थी । 
कलेजा हाय मुंह को आ रहा था, 
भरा था दद वह तड़पा रहा था। 
छुटा घर-बार, प्राणाधार छूटे, 
रे तुम एक कुल-आधार छूटे । 
तुम्हाया देख कर मुख जी रही थी, 
नहीं तो कौन था सुख जी रही थी । 
छुटा सब कुछ छुटे द्वा लाल तुम भी, 
लुटा सब कुछ लुटे द्वा लाल तुम भी । 
अरे वह दे कहाँ पर सप॑ बसता, 
मुझे भी क्‍यों नहीं हे नीच डसता । 
लगाये लाल को छाती चलूँ में, 
लिए. यद्द साथ ही थाती चलूँ में । 
जिसे में जान ही सा जानती थी, 
जिसे में देखकर सुख मानती थी । 
कहाँ. दे दाय अब वह प्राण मेरा, 
निराशा में विपत में बतब्राण मेरा । 
कहाँ हो. चल दिये तुम हाय छोना, 
खिलाऊँगी किसे मेरे खिलोना । 
यहाँ कवि का हृदय शैव्या के दारुण दुःख से द्रवीभूत होकर स्वयं भी रो 
पड़ा है। उक्त पद्य की एक-एक पंक्ति से करुणा का स्तोत प्रवाहित हो रहा है । 
उसके शब्द-शब्द में कवि-हृदय की श्रन्तबेंदना परिलक्षित द्वो रही है । 


( १६ ) 


गोकुल का दयनीय दशा देखकर कविवर प्रतापनारायण मिश्र ने केसे 
करुण शब्दों में उसका चित्र अंकित किया है देखिए-- 
जिनके लरिका खेती करिके पाले मनइन के परिवार, 
ऐसी गाइन की रच्छुया माँ जो कछु जतन करौ सो थ्वार। 
घास के बदले दूध पियावे' मरि के देयें हाइ भर चाम, 
घनि वह तन मन धन जो आवे ऐसी जगदम्बा के काम | 
को अस हिन्दू ते पेदा हे, जो श्रस हाल देखि इक साथ, 
रकत के श्राँसुन रोइ न उठि है, माथे पटकि दुद्दत्था द्वाथ | 
सब दुख सुख तो जैेसे-तैसे गाइन की नहीं सुने गुहार, 
जब सुधि आवे मोहि गेयन की नेनन बहे रकत की धार ॥ 
वास्तव में गायों की दुदंशा देख रोना श्राता है। जो घास के बदले में 
दूध नहीं-नहीं, अ्रमुत देती हे, जिसके हाड़-चाम तक हमारे काम आते हैं, 
ऐसी गाँयों को रक्षा के लिए. जो कुछ भी किया जाय वह थोड़ा हे । 
भारत की दुदेशा देखकर भारतेन्दु दरिश्रन्द्र तो सचमुच रो पढ़े हें, 
आपकी केसी करु णेत्पादक उक्ति हे, सुनिए -- 
रोबहु सब मिलि के आवहु भारत भाई, 
हा ! दा ! भारत दुदशा न देखी जाई। 
सब ते पहिले जेहि ईश्वर धन-बल दीन्हो, 
सबते पहिले जेद्दि सभ्य बिघाता कीन्हो। 
सबके पहले जो रूत-रंग रस भीनो, 
सब ते पहले विद्या फल जिन गहि लीनो। 
अब सबके पीछे सोई परत लखाई, 
हा | हा! भारत दुदंशा न देखी जाई॥ 
जहाँ भये शाक्य दरिचन्द रू नहुष ययाती, 
जहाँ. राम युधघिष्ठिर बासुदेव सर्याती। 
जहाँ भीम कर अजुन की छुटा दिखाती, 
तहों रही मूढता कलह अश्रविद्या राती। 
अब जहाँ देखहु तहाँ दुःख ही दुःख दिखाई, 
हा ! हवा! भारत दुदंशा न देखी जाई॥ 


( ५४३७ ) 


लोकमान्य तिलक के देहावसान पर देश की तत्कालीन करण दशा का 
चित्र शंकर जी ने इस प्रकार खींचा हे--. 


शोक-महासागर- में जीवन जहाज आज, 
भारत का ड्रबेगा रही न बात बस की। 
घारती है भार तीस कोटि मन्द भागियों का, 
मोद हीन मेदिनी तू नेक हून घस की | 
टूठट गया ' शह्ूर * अखंड उपदेश दंड, 
दिव्य देश भक्ति की पताका हाय खस की । 
तिलक वियाग विष बरस रहा है पर, 
बरसी न बदली स्वराज्य सुधा रस की॥ 
जहाँ स्वराज्य-सुधारस की वर्षा होनी चाहिए थी, वहाँ आज तिलक- 
वियाग-विष बरस रहद्दा है । शोक | मद्दाशोक !! 
महाकवि हरिश्रोध ने विधवाञों की दयनीय दशा का कैसे करुण शब्दों 
में वशन किया है, देखिए- 
केसे भला चागुनो न चित चेन चूर हो तो, 
क्यों न चन्द वदन विपुल द्वो ता पियरो । 
कैसे रोम-रोम में समाये दुख ऊन हो तो, 
कैसे हो तो कछुक दहत गात सियरो ॥ 
'हरिश्रोष' विधवा विलाप जो करत नाहिं, 
कैसे भला बावरो बनत तो न जियरोा । 
कैसे पिक कूक ते करेजी ना मसकि जात, 
हक ते न कैसे दृक-दृक हो तो जियरोा ॥ 


रोद्र रस 
रोद् रस का स्थायी भाव क्रोध हे । क्रोष एक प्रकार की संदारक शक्ति 
है। जिसमें क्रोध श्रधिक होता है, वद बात-बात पर, बिगड़ बैठता है | कभी 
कभी तो क्रोधी आपे से बादर हे।कर द्ाथा-पाई शोर धींगा-मुश्ती तक को 
तैयार हो जाता है। उस समय उसमें विवेक नहीं रहता, उसके मुंह से 
गर्वेक्तियाँ निकलना एक साधारण सी बात द्वो जाती है। क्रोध में श्रनिष्टकारी 


( ५४३८ ) 


प्रतियोगी से बदला लेने की भावना बराबर बनी रहती है | यद्यपि 
क्रोध वृत्ति प्रशंसनीय नहीं हे, तथापि उचित अवसर पर उचित मात्रा में 
क्रोध का आना आवश्यक है। सांसारिक लोगों से यदि क्रोध तत्त्व नष्ट दे। 
जाय तो आत्म-सम्मान या आत्मगोरव-रक्षा के कार्य में कमी आ जाय। 
सीता-स्वयंवर के समय वीरवर लक्ष्मण और पराक्रमी परशुराम का रौद्र 
रूप प्रसिद्ध है। जिस समय राजा जनक ने “वीर विहीन मही में जानी” कद 
कर राजाशों का अपमान किया, उस समय स्वाभिमान-सम्पन्न लक्ष्मण के 
क्रोधावेश के कारण शरोठ फड़कने लगे श्रोर उन्होंने '*कंदुक इव ब्रह्माण्ड 
उठाऊँ” आदि कह कर अपना रोष प्रकट किया | उस समय जनक की उक्ति 
सुनकर लक्ष्मण का चुप रहना केसे उपचित हो सकता था | 

क्रोध उत्पन्न होने के अनेक कारण हैं| बहुधा उसी समय क्रोध आता 
है, जब अभिलाषाओं की पूति नहीं दोती, अथवा आशा के विरुद्ध परिणाम 
दिखाई देता हे । अपमान या निन्दा करने वाले के विरुद्ध भी क्रोधामि भड़क 
उठती है। कुछ लोगों को अपने चिड़चिड़े स्वभाव के कारण क्रोध की 
आदत-सी पड़ जाती है । वे बात-बात पर बिगड़ बैठते और ऊट-पटाँग बकने 
लग जाते हैं। मानों उनके द्वदय में शान्ति के लिए कोई स्थान ही नहीं 
रहा | आए, दिन संसार में जो भयड्जभर रक्तपतात और नर-संहार दोते रहते हें, 
उनका मूल कारण क्रोध श्रर्थात्‌ विनाशक शक्ति ही है। हिंसक लोगों में 
हिंसा प्रेम-- प्रायघातक बृत्ति का उग्र रूप---इसी कारण देता है। शाप 
देना, सोगन्द खाना, घोर त्रत धारण करना, हिंसा परक प्रतिज्ञा, उग्रता, 
दंष, धिकार, वेर, पर-पीड़न आदि क्रोध वृत्ति के ही काय हैं।यह शक्ति 
वाणी और क्रिया दोनों के द्वारा प्रकाशित होती है।शाप या गाली देना 
इसका वाचनिक व्यापार है, हाथों या हथियारों से प्रहार करना कायिक | 
क्रोधी व्यक्ति ऐसे व्यंग्य वाण छोड़ता है, कि सुनने वाले का हृदय विदीय॑ 
है जाता है। क्रोध की मात्रा कम हैेती है. तो उसके कार्य भी उग्र नहीं 
द्वाते । मार्ग में आए हुए विन्नों को न सह्द सकने, विपत्ति, रोग या हानि के 
कारण विवेक नष्ट दे जाने, अभीष्ट सिद्धि न होने, विराधी आन्दोलन या 
अपवाद आदि कारणों से क्रोध की उत्पत्ति देती है | असत्य, अन्याय, दुष्टा- 
चार आदि न सह सकना, अबला, अनाथ या दीनों पर अ्रनाचार देते 


( 3४१६ ) 


देखना, दुःख दायक रूढ़ियों के कारण समाज का अद्वित दाना आदि भी' 
क्रोध के उत्पादक हैं | 


जैसा कि ऊपर कद्दा गया, उचित अवसर पर उचित माक्रा में क्रोध 
आवश्यक है। इसके प्रभाव से संसार के काय नहीं सघ सकते, परन्तु किसी 
कार्य की श्रति सवत्र वर्जित की गई है | क्रोध की अधिक उप्मता द्वोने पर, 
उसके निग्नह की श्रावश्यकता द्वेती हे । 


रोद्र 

नहाँ प्रबल एवं उद्दीत्त क्रोध की परिपुष्टि हाती है, वहाँ रौद्र रस हेता 
है। इसके श्राश्रय स्थान राक्षस, दानव तथा मनुष्य होते हैं। 

रौद्र रस का स्थायी भाव क्रोध, देवता रुद्र और वर्ण श्ररुण वा 
रक्त है । ु 

आलम्बन--शत्रु श्रथवा कपटी दुराचारी श्रादि व्यक्ति इसके 
आलम्बन हैं । । 

उद्दीपन--क्रोध, तिरस्कार और खोटे या कठोर वचन कहना, मारना 
आदि शत्रु को चेष्टाएं इस रस के उद्दौपन हैं । 

अनु भाव - श्रुभंग, श्रोंठ चबाना, ताल ठोंकना, डाटना, ललकारना, 
डींग मारना, शत्त्र घुमाना, उग्मता, आ्रावेग, स्वेद, रोमाश्च, मद, वेपथु श्रादि 
इसके अनुभाव हैं । 

संचारी -गव , चपलता, मोह, श्रामष, उम्रता, क्ररता, श्रावेग आदि 
इसके सश्चारी हैं । 

रौद्र रस में वाणी और शरीर की चेष्टाएँ रौद्र दा जाती हैं, अर्थात्‌ 
अ्ँख लाल दा जाती हैं, चेहरा क्रोध के कारण तमतमा उठता है और 
आठ फड़कने लगते हैं | बीर रत में ऐसा नहों हेतता, क्‍योंकि उसकी उत्पत्ति 
क्रोध से नहीं, प्रत्युत उत्साह के कारण होती है। 

कविवर पदूमाकर मे नीचे लिखे पद्य में इनुमान जी के रौद्र रूप का 
कितना अ्रच्छा वर्णन किया है-- 


वारि टारि डारों कुंभ कर्णंहि विदारि डारों, 
मारों मेघनादे आजु यों बल भनन्त हों। 


( ४४० ) 


कहे 'पदमाकर! त्रिकूट ही कों ढाय डारों, 
डरत करेई यातुधानन को भन्त हों॥ 
अच्छुदि निरच्छु कपि ऋच्छुद्दि उचारों इमि, 
तोश्न तिच्छु तुच्छुन कछूवे ना गनत हों। 
जारि डारों लंक॒दिं उजारि डारों उपवन, 
मारि डारों रावण कों तो में इनुमन्त हों॥ 
क्रोधावेश में हनुमान जी अ्क्ष, मेघनाद कुम्भकर्ण और रावण को ही 
मार डालने की भीषण प्रतिज्ञा नहीं कर रहे, प्रत्युत राक्षतों का समूल बिनाश 
कर लंका को जला खाक बना देने का भी प्रण कर रहे हैं | 


यहाँ पर, रावण, कुम्मकर्णादि शत्र वर्ग आलम्बन, इनुमान जी को बाँघ 
लेना, कटु वाक्य कददना श्रादि उनकी चेष्टाएँ उद्दीपग, ललकारना, अपने 
बल-विक्रम का बखान करना श्रनुभाव तथा गव, आमष, क्ररता श्रादि 
संचारी भाव हैं | इन सबके द्वारा क्रोध स्थायी की पुष्टि होने पर रौद्र रस 
की उत्पत्ति देती है | इसी प्रकार आगे के उदाहरणों में भी समझ लेना 
चाहिए | 
निम्नलिखित कवित्त में कविवर रत्ञाकर ने कुरुक्षेत्र के मेदान में भीष्म- 
प्रतिशा करते हुए भीष्म पितामद् की गर्वोक्तियों का केसा सुन्दर वन 
फिया है--- 
भीषम भयानक पुकारयोी रन भूमि आनि, 
छाई छिंति ज्षत्रिन की गीति उठि जायगी । 
कहे 'रत्नाकर! रुघिर सों रुँचेगी घरा, 
लोथनि पे लोथनि की भीति उठि जायगी । 
जीति उठि जायभो श्रजीत पाणडु पूतन की, 
भूष दुरजेघन की भीति उठि जायगी। 
के तो प्रीति रीति की सुनीति उठि जायगी के, 
आज इरि प्रन की प्रतीति उठि जायगी॥ 
आज या ते युद्ध में शस्र-ग्रदण न करने की कृष्ण की प्रतिशा ही भंग 
हो जायगी, या फिर अजेय पांडु-पुत्रों की विजय-सम्भावना द्दी जाती रहेगी। 


५ ४४१ ) 


देखना तो सही, यदि रण-भूमि में रधिर की कीच न कर दूँ । और लोथों 
पर लोथे न बिछा दूँ तो मेरा नाम भीष्म नहीं | रत्नाकर जी के उप क्त पद्य 
रोद्र रस मूर्तिमान हेकर प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है | 
नीचे रत्नाकर जी का ही उसी प्रसंग में से एक पद्य और दिया 
जाता है, देखिए. सान्तनु के सुभट सपूत आदित्य ब्रह्मचारी भीष्म जी क्‍या 
कहते हें-- 
पारथ विचारे पुरुषारथ करेगो कहा, 
स्वारथ समेत परमारथ नसेहों में। 
कहे 'रत्नाकर! प्रचार॒यो रन भीषम यों, 
आज दुरजे। धन को दुख दरि दै हों में । 
पंचन के देखत प्रपश्च करि दूरि सब्ै, 
पग्चन को सत्व पशञ्च तत्व में मिलेहों में । 
हरि प्रनहारी जस घारि के धरा हो सान्‍्त, 
सान्तनु को सुभट सपूत कहदवे मेँ॥ 
बेचारा पारथ मेरे आगे भला क्या 'पुरुषारथ”ः दिखावेगा । आज 
यदि मेँने पाँचें पांडवों को पश्च तत्व में मिलाकर दुर्योधन का दुख-दल न 
दिया, तो मुझे शान्तनु महाराज का पुत्र मत कहना। मैंने भी आज यदि 
'हरि-प्रण-हारी की उपाधि प्राप्त न की तो मेरा नाम भीष्म ही नहीं। रध्नाकर 
जी के इस कवित्त में भाव की ते बात ही क्या, शब्दों से भी रौद्र रस टपका 
पड़ता है | 
भीष्म जी के पश्चात्‌ अरब पवनावतार भीम का रोद्र रूप देखिए | चौर- 
दहरण कालीन द्रोपदी के अपमान का स्मरण कर इस समय वह साक्षात रुद्र 
मूर्ति बन गए हें-- 
क्रोध के कोरव नायक के सत बंधुन को रन में न सेंदारि हों ! 
सोनित पान के कारज लागि, कद्दा न दुसासन को हियौ फारि हों ! 
त्योँ अपने प्रन पालन कों न कहा दुरयेधन जंघ विदारि हाँ। 
सन्धि करे कछु गोंवनि लै तुव भाइ भले पै न ताहि विचारि हों ॥ 
यदि धमंराज जी पाँच गाँव लेकर कौरवों से सन्धि करें ते भल्ते दी 
कर ले। में उसकी लेश भी परवा नहीं करता। में ते जब तक अ्रपनी 


( ४२ ) 


'ग्रतिशानुसार स्वयं रुघिर-पान करने के लिए दुष्ट दुःशासन का दवंदय नहीं 
बिदार लूँगा श्रौर कृष्णा के केश खींच ने के बदले दुराचारी दुर्योधन की 
जाँघ न फाड़ लू गा, तब तक चेन से नहीं बैठ सकता | कृष्ण एक सन्धि नहीं 
'हज़ार सन्धि कर लें, परन्तु भीमसेन ते पापी कौरवों को संहार करेगा और 
अवश्य करेगा | 
नीचे लिखे पद्म में कविराज शंकर ने श्ज्जार का रौद्र रस में वर्णन 
पकिया है-.. 
ताकत ही तेज न रददेगो तेज घारिन में, 
मंगल मयंक्र मन्द मर्द पड़ जायेंगे । 
मीन बिन मोर मर जायेंगे तड़ागन में, 
ड्ब-ड्ब शंकर' सरोज खसड़ जायेंगे।। 
खायगो कराल काल-केहरी कुरंगन कों, 
सारे खज़्रीटन के पंख झड़ जायेँगे। 
तेरी श्रंखियान सों लड़ेंगे ग्रब और कोन, 
केवल श्रड़ीले इग मेरे श्रड् जायेंगे ॥ 
नायिका की श्राँखें विश्व विजय कर चुकी हैं, अब कोई भी उनके आगे 
मैदान में ठहर नद्ीं सकता। उनके ज़रा ताकते ही बड़े-बड़े तेजस्वियों का 
तैज नष्ट दे। जाता है| चन्द्र, भौम श्रोर शनि तीनों ग्रह भी उनके तेज के 
आगे मन्द पड़ जाते हैं | अ्भिप्राय यह है कि आँखें की सफ़दी, लाली और 
श्यामता& के श्रागे श्वेतवर्ण चन्द्र, लालबणणं मंगल ओर कृष्णवर्ण शनि 
तीनों द्वी निष्प्रभ हे। जाते हैं। कमल भी उनके मुकाबले में नहीं ठद्दरते और 
वे तालाब में ड्रब-ड्ूब कर सड़ जाते हैं। इसी प्रकार समृग खज्ञन आदि कोई 
भी इन अलबेली श्रांखों का मुकाबला नहीं कर सकता। केवल मेरे अ्ड़ीले 
इग ही उनका मुकाबला कर सकते हैं । 
पद्माकर जी ने भी निम्नलिखित पद्म में अपने पातकों के प्रति कैसा रुद्र 
रूप धारण किया है, देखिए-- 
जैसे तें न मोसों कहूँ नेक हु ढरातु हुता, 
ऐसे अ्रब हों हू तो सों नेक हू न डरि हाँ। 
# आँखों के झनेक जगह 'श्वेत-श्याम रतनार' कहा गया है । 


( ४४३ ) 


कहे 'पदमाकर” प्रचणड जो परंगो तो, 
उमरण्ड कर ते सों भुज दरड ठोकि लरि हाँ। 
चलो चलु चलौ चलु विचलु न बीच द्वीते, 
कीच बीच नीच ते कुटुम्ब के कचरि हों | 
एरे दगादार मेरे पातक शञ्रपार तोहिं, 
गंगा के कछार में पछारि छार करि हों॥ 
पदू्माकर जी अपने दगादार अपार पातकों को गंगा के कछार में पदछारे 
बिना नहीं रह सकते । वे कहते हैं कि अगर रास्ते में पिशाच पातक ने जरा 
भी 'तीन-पॉच' की तो वह बुरी तरह दबोच दिया जायगा । उसका कोई नाम 
लेवा भी शेष न रहेगा । 
औोर देखिए. राजा जनक की “वीर विद्दीन मही में जानी की अ्रनुचित 
वाणी सुनकर लक्ष्मण केसे रोष में भर गए हैं- 
अत अ्रनखेहे हें रिसोंहे सोहैँ भोहँ तान, 
लखन बखान कहो आरयसु जे पाऊ में । 
जन तो मुरारि तो मरोरि मोरि बारिघि में, 
डारों महिं तोरि दन्त दिग्गज दिखाऊ में ॥ 
रावरे प्रताप-बल साँची कहूँ राघव जू , 
मेरु कों उखारि छिंति छोर लगि धाऊं में | 
अटकि रहे हो कहा मुख ते निकारिये जु, 
भेठकि सरासन को चटकि चढ़ाऊँ में । 
महाराज आप ज़रा मुंद्द से 'हाँ' कद्द दीजिए, फिर देखिए में इस पशु- 
पति के सड़े-गले पुराने पिनाक को क्षणु-भर में चढा कर खण्ड-ख एड करता 
हूँ या नहीं । 
जानकी जी के हरे जाने पर भगवान्‌ रामचन्द्र ने केसा रुद्र रूप घारण 
किया दे | रसिक बिहारी जी के शब्दों में उसका दशेन कर लीजिए--- 
लोक तिहूँ जारों सातों सागर सुखाय डारों, 
गिरिन ढद्दाय डारों भूमि उलठाऊ में । 
रंच में विदारि डारों दसों दिग पालन कों, 
खगन समेत ससि सूरहिं गिराऊ में। 


( ४४४ ) 


नभते' पताल लैकै कितह्ूूँ कहूँ जे। नेक, 
'रसिक बिद्दारी' प्राण प्यारी सुधि पाऊँ में । 
जानकी न लाऊ तों पे क्षत्नी न कहाऊं, 
राम नाम पलटाऊँ घनुषबान न उठाऊँ में ॥ 
जानकी को प्राप्त करने के लिए अगर आवश्यकता पड़ी तो में सातों 
समुद्रों को सुखा कर पहाड़ों के ढद्दा दूँगा, और सूय-चन्द्रमा समेत समस्त 
नक्षत्र मएडल को भूमि पर पटक दूंगा | मुझे तनक पता लग जाना चाहिए, 
फिर में जेसे भी बनेगा, उन्हें ले आऊँगा | यदि ऐसा न करूँ तो मेरा नाम 


राम नहीं | 
ग्रब ज़रा कवि ललिराम जी का भी रोद्र रस सम्बन्धी पद्म देखिए--- 


लाल करि लोचन चढाए बंक भोंहें बैन--- 
बोलत लखन लाल देव दसरथ को। 
ललकारि डारि हाँ मरदि महि रावण को, 
मेघनाद मुण्ड भेजों आसमान पथ को ॥ 
सारथी समेत सेना सागर में बोरों छिन, 
पूरो करि “लछिराम” देवन अ्रथ को। 
चूर करि खे।परी दशन दश मुख पूरि, 
धूरि में मिलाय दैददों रावण के रथ को ॥ 
शत्र॒ रावण के प्रति लक्षमण के हृदय में जे। क्रोधचानल धघक रहा है, 
उपयक्त पद्म में उसी वीर रस का वर्णन किया गया हे। कैसी भीषण 
प्रतिशा है। रावण के मुंह मदन कर उसे धूल में मिला देने का काम कुछ 
साधारण नहीं । परन्तु मद्दावीर लक्ष्मण के लिए सब्र सम्मव है। 
श्रोर भी देखिए--- 
फोरि डारों फलक जमीन जोरि डारों बल, 
बारिधि में बेरिन के बृन्द बोरि डारों में । 
रारि डारों रन घन घोर डारों बच्नी बच्र, 
छोरि डारों बारिधि पम्रयाद टोरि डारों में ॥ 
अवध बिहारी रामचन्द्र को हुकुम पाऊँ, 
चन्द्र कों निचोरि मेर कों मरोरि डारों में । 


( ५४४ ) 


मोरि डारों मान मानी मूठ महिपालन को, 
नाक तोरि डारों श्रौ पिनाक तोरि डारों में |। 
उपयुक्त पद्य में कवि ने लक्ष्मणजी के क्रोध का कैसा उत्कृष्ट और 
जोरदार वर्शान किया है। श्रगर उन्हें रामचन्द्र जी ने हुक्म दिया तो वे 
सारे अ्रभिमानी राजाओं का मान मदन कर देंगे और उनके पिनाक तथा 
नाक दोनों को तोड़ डालेंगे। 


लोग स्त्रियों को अबला बताते हैं, परन्तु वह भी ज़रूरत पड़ने पर कभी- 
कभी सबला बन जाती हैं | ऐसी ही किसी प्रबला नायिका ने “बजमारे? बसन्त 
का अ्रन्त कर देने के लिए केसा रोद्र रूप धारण किया है, यह नीचे लिखे 
पद्म में पढ़िए--- 
मञ्जुल रसाल-मज्ज रीन कों विथोरि दे हों, 
रसना बिहीन के हों कोकिलन कारे को । 
कुसुम समूह की कुसुमता निबारि दे हों, 
मार दे हों गुज्जत मिलिन्द मतवारे को॥ 
ए हो 'इरिश्रोध” जो सतेहें दुख देहें मोह, 
बिरस बने हों तो सरोज रसवारे को। 
अन्तकलों सारे सुख तन्‍्त को निपात केहों, 
ग्रन्त करि दे हों या बसन्‍त बजमारे को ॥ 
अब वह नायिका रसाल की मज्जुल मज्लरियों ओर मतवारे मिलिन्दों को 
नष्ट किए बिना नहीं मानेगी। इतना ही नहीं, अब तो वह कोकिल और 
सरोजों को भी मिट्टी में मिलाकर ही दम लेगी | वसन्‍्त बजमारे का श्रन्त ही 
न कर दिया तो बात ही क्‍या ? 
कविवर तुलसीदास के रामचरित. मानस में प्रायः सभी रसों का वर्णन 
आया है, उनमें से रोद्र रस का एक स्थल नीचे उद्धृत किया जाता है-- 
_ रघुवंसिन में जहँ कोई द्वोई, तेद्दि समाज श्रस कहे न कोई । 
कही जनक जस अनुचित बानी, विद्यमान रघुकुल मणि जानी | 
सुनहु भानु-कुल-पंकज-भानू , कहो सुभाव न कछु अ्रभिमानू । 
जो राउर अनुसासन पाऊ , कन्दुक इव ब्रह्माणगड उठाऊ। 
हि० न० २०--३५४ 


( डर ) 


काँचे घट जिमि डारों फोरी, सकों मेरु मूज्नक शव तोरी | 
तब प्रताप महिमा भगवाना, का बापुरो पिनाक पुराना। 
नाथ जानि अस आयसु होऊ, कोतुक करों बिलोकिय सोऊ। 
कमल नाल जिमि चाप चढ़ाबों, जोजन सत प्रमान ले धावों। 
तोरों छुत्नक-दए्ड जिमि तव प्रताप बल नाथ, 
जौ न करों प्रभु पद सपथ पुनि न घरों धनु भाथ । 


ढक न 
बोले चितय धनुष की ओरा, रे शठ सुनेसि सुभाव न और 
बालक बोलि बधों नहिं तोही, केवल मुनि जड़ जानेसि मोहीं || 
बाल ब्रह्मचारी श्रति कोही, विश्व विदित क्षन्रीकुल द्रोही । 
भुज बल भूमि मूप बिन कीन्ही, बिपुल वार महद्दि देवन दीन्हीं। 
सहस बाहु भुज छेंदन हारा, परसु बिलोकि महीप कुमारा। 
मात-पितहिं जनि सोच बस करसि महीप किसोर | 
गर्भन के अभंक दलन परसु मोर अ्रति धोर॥ 
लक मैथिली शरण जी रौद्र रस का वर्णुन कैसे ज़ोरदार शब्दों में करते 
$ कह 
गई लग आग सी सौमित्रि भड़के, अ्धर फड़के प्रलय घन तुल्य तड़के । 
अरे मातृत्व तू अब भी जताती, ठउसक किसको भरत की हे बताती। 
भरत को मार डालें और तुमको, नरक में भी न रक्‍्खूँ ठोर तुकको । 
युधाजित आततायी को न छोड़ें , बहिन के साथ भाई को न छोड़ । 
बुलाले सब सहायक शीघ्र अपने, कि जिनके देखती हे व्यथ सपने । 
सभी सोमित्रि का बल आन देखें, कुचक्री चक्र का फल आआआाज देख । 
उपयक्त पंक्तियों में लक्ष्मण जी के क्रोध का वशणन हे, वे केकेयी को बड़े 
ज़ोर से डाट रहे हैं कि तेने यह क्या श्रनर्थ कर डाला । देखना है भरत को 
कैसे राज्य लेते हैं | है किसी की शक्ति जो मेरे मुकाबिले में आए । केकेयी 
तू मा बनती हे। भला मा का यह काम है, जो तैने किया। वू मुझे 
समभती क्‍या है, में चाहूँ तो प्रंथिवी को पलट दूँ और आसमान में 
अ्राग लगा द | 
महाकवि मैथिलीशरण जी की नीचे लिखी पंक्तियों भी कितनी ज्लोर- 
दार हैं... 


( ४४७ ) 


श्रीकृष्ण के सुन वचन अ्रजुन क्रोध से जलने लगे। 
सब शोक अपना भूल कर कर-तल युगल मलने लगे। 
संसार देखे अब हमारे शनत्र रण में मृत पढड़े। 
करते हुए यह घोषणा वे दोगये उठ कर खड़े ॥ 
उस काल मारे क्रोध के तनु काँपने उनका लगा। 
माना हवा के ज़ोर से सोता हुआ सागर जगा। 
मुख बाल रवि-सम लाल होकर ज्वाल-सा बोधित हुआ । 
प्रलयाथ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ॥ 
युग नेत्र उनके जो अभी थे, पूर्ण जल की धार से । 
अब रोष के मारे हुए वे दहकते अंगार से। 


अजुन के क्रोध का केसा सबल वर्णन उक्त पंक्तियों में किया गया है | 


महाकवि केशव की रामचन्द्रिका में परशुराम जो के रौद्र रूप का कितना 
सुन्दर वर्णन किया गया हे, देखिए--.- 
बोरों सब रघुबंस कुठार की धार में बारन बाजि सरत्यहिं । 
बान की बाय उड़ाय के लब्छुन लच्छु करों श्ररिद्दा समरत्यहिं । 
रामईिं बाम समेत पठे बन कोप के भार में भूजों भरत्यहिं । 
जो धनु हाथ धरें रघुनाथ तो आजु अश्रनाथ करों दशरत्यहिं | 


केशव जी के शब्दों से द्वी रौद्रस टपका पड़ता है, फिर भावों की तो बात 
ही क्‍या। अगर रामचन्द्र ने मेरे विरुद्ध धनुष बाण से हाथ भी लगाया तो 
खेर नहीं, राम तो राम मैं उसके बाप दशरथ को भी अनाथ कर दूँगा। 
देखे फिर रघुकुल में कोन शेष रद्दता है। 
नीचे लिखे सबेया में भी परशुराम जी के ही क्रोध का वर्णन दे--- 
गर्भ के अ्रमंक काटन को पढु घार कुठार कराल है जाको । 
सोई हों बूकत राज समे घन के दलिहों दलिहों बल्ु ताको । 
छोटे मुह उत्तर देत बड़ो लरिहें मरिह्ेें करिहें कछु साको । 
गोरो गरूर गुमान भरो कहु कौशिक छोटो सो ढोटो है काको। 


परशुराम जी के कथन में कितना गय॑ भरा हुआ दे--अरे कौशिक, 
जिसका कराल कुठार गर्भ तक के बालकों को काटने में कुशल है, बही में 


( भुडप ) 


तुमसे पूछता हूँ, कि यह छोटा-सा 'ढोदा” किसका है, जो मेरे आगे भी ऐसी 
गव-गुमान भरी बातें कर रद्दा हे | 


वोर रस 

वीर रस का स्थायी भाव उत्साह दे। पराक्रम, शरीर-बल, आत्मरक्षा, 
साहस, हिम्मत, बहादुरी, दृढ़ता पूंक कार्य करने की शक्ति, निर्भयता, युद्ध 
आदि करने की तत्परता श्राद कार्यों से वीर रस का ग्रहण किया जाता है । 
इस वृत्ति के अति याग अ्रथवा मिथ्या योग से भगड़े-टंटे, दंगे-फ्रिताद तथा 
युद्ध आ्ादि हो जाते हैं । इस बृत्ति के तीन विभाग किये गये हैं, साहस, 
युयुत्ता ओर संरक्षण | जीवन भी एक प्रकार का युद्ध है। इसमें बराबर 
संघ ( 5(7 722९ ) होता रहता हे, श्रर्थात्‌ शारीरिक, मानसिक और 
अराध्यात्मिक | इन तीनों संघर्षों में, किसी न किसी रूप से, सब ही प्राण घारियों 
को अपनी शक्ति-अनुसार भाग लेना पड़ता है | अवसर-विरुद्ध शान्ति या 
कायरता पूर्ण सदन-शीलता कदापि प्रशंसनीय नहीं कही जाती । डाक्टर थोमस 
ब्राउन कहते हैं- 


“हमारे भीतर एक ऐसी गुप्त शक्ति विद्यमान हे, जो सदेव हमारा संरक्षण 
करती रहती है।जब तक आवश्यकता न हो, तब तक यह शक्ति सुषुप्त 
अवस्था में रहती है, परन्तु ज्िस समय इसको ख़ास ज़रूरत पड़ती है, उस 
समय वह पूण रूप से जाग्रत हो जाती हे******---'? इसी सम्बन्ध में डाक्टर 
जाज कोम्ब कहते हें-- 


शौय शक्ति का उपयोग प्रतियेगिनी शक्ति का प्रतिकार करने के लिए 
होता है, यह शक्ति अपनी मन्द अवस्था में तामान्य विरोध दर्शाती है, परन्तु 
जब वह पूर्ण रूप से जाग्त होती है तो आक्रमण श्रादि का प्रारम्भ हो जाता 
है । साइस के कारण यह बृत्ति ओर भी प्रदीत्त श्रोर उत्तेजित हो जाती हे । 
जिनमें शौयं, शक्ति, विशेष मात्रा में होती हे, उनमें उसका उपयोग करने 
की क्षमता भी अभ्रति अधिक पाई जाती है। वे युद्ध या विग्रह के अतिरिक्त 
बीच की बात पसन्द ही नहीं करते । उत्साह या साइस का उचित उपयोग 
प्रत्येक दशा में सुंगत श्रोर लाभदायक होता है।आपति, दरिद्रता, रोग 
अ्रादि में आत्मिक शोय ही सद्दायता देता है। 


( ४४६४ ) 


जिस व्यक्ति में शौयं का वेग होता है, उसकी वाणी में ककशता, स्वभाव 
में कठोरता औ्रोर व्यवहार में उग्रता आ जाती है। किसी ने इस शक्ति को 
अ्रात्मरक्षा (8८|( 0९(९॥८०'१, किसी ने प्रतिकार शक्ति (।१९८६४४६(७॥१८८) ओर 
किसी ने युयुत्सा ((५00॥0)00ए2॥९४४) नाम से पुकारा हे । राबटकोकस नामक 
मस्तिष्क शास्त्री ने इस शक्ति को एतिस्पर्दा शक्ति (8 |)0०8ए९१९$५७) 
की संशा दी हे, मिध्टर ओ० एस० फ़ाउलर उपयक्त सब नामों को अस्प्रीकार 
करते हुए इसे बल ("८०) कद्दते हैं। हमारे साहित्य मं तो इस शक्ति 
का 'शोय” या 'बल” के नाम से ही उल्लेख किया गया हे, क्‍योंकि इसके 
समस्त कायों में किसी न किसी रूप में वीरता की प्रधानता द्वोती है । 

जिन व्यक्तियों में वीरता की प्रधानता होती है, वे सबंत्र अपनी बहादुरी 
का प्रदर्शन किया करते हैं। ऐसे लोग तोप के गोलों के सामने ओर आकाश 
से बरसती हुई आग के नीचे भी बड़ी घीरता से डटे रहते हैं। उनको श्रपनी 
उद्देश्य पूर्ति के मार्ग में मृत्थु का भी भय नहीं होता । वे बड़ी-बड़ी विपत्तियों 
को भी बड़े साहस के साथ सद्द लेते हैं। उनमें सदेव अ्रग्रगन्ता बनने की 
विचार-घारा काम करती रहती हे, महाराणा प्रताप ओर शेर शिवराज ऐसे 
ही व्यक्तियों में से थे। इस बवृत्ति के लोगों को कष्टममय जीवन और 
साहसिकता के विपज्जनक काय ही श्रधिक रुचते हैं | उनके द्वृदय में सदेब 
विजयी होने की सदभिलाषा विद्यमान रहती हे। साहसी और वीर व्यक्ति 
श्रकेला ही सेकड़ों के आगे अड़ जाता हे । अविवेक पूर्ण कार्य करने के 
कारण कभी कभी शोय-सम्पन्न व्यक्ति घिक्कार का भी पात्र बनता है। अ्रपनी 
शक्तियों का उचित उपयोग न करने के कारण वह ऐसे घृणित कार्या' में 
फँस जाता है, जिन्हें समाज आदर की दृष्टि से नहीं देखता । 

जिस व्यक्ति का शोय॑ स्वदेशानुराग की तीज्र वृत्ति से प्रेरित और प्रभावित 
होता है, वह उसी में सर्वात्मना संलम हो जाता है। धमं या दान में उत्साह 
होने से इसो ओर ढुल पड़ता हे, शारीरिक शक्ति सम्पन्न होने के कारण परा- 
क्रम सम्बन्धी कार्यों में जु- जाना ता उसके लिए एक साधारण सी बात हे | 
केसे ही कठिन से कठिन काय क्‍यों न हों, परन्तु वीर व्यक्ति के लिए सब 
सरल बन जाते हैं | आत्म-बल की अधिकता होने पर ऐसे व्यक्ति सत्य का 
पथ अदहदण कर, उसे श्रग्त तक निबाहते ओर अ्रसत्य का प्रतिकार करते हैं | 


( ४० ) 


वीर लोगों को सब से पूर्व श्रपने शरीर ओर मन की स्वस्थता का ध्यान रखना 
पड़ता है, जिससे उनकी शक्ति का सदुपयाग हे, दुरुपयोग न देने पावे। 
वीर व्यक्ति का उद्धत या उदृण्ड हो जाना उसकी विवेक शक्ति की न्यूनता 
का सूचक है | ऐसी दशा में वह नाना प्रकार के अनथ कर डालता हे। 

शौय का पूर्ण विकास दाने पर मनुष्य की वाणी में बड़ा बल आ जाता 
है। उसके कथन में श्राकषंण प्रतीत द्वाने लगता दे। गगन-वेधिनी गजना 
से श्रोताश्रों की अपनी ओर अआकृष्ट कर लेना उसके लिए. बहुत श्रासान 
होता है | वाणी में ही नहीं, लेखनी में भी शौय का प्रभाव दिखाई देता है । 
ओज पुृण भाषा लिखना निर्बलों या कायरों का काम नहीं है | साहस, दृढ़ता, 
अध्याचार आ्रादि के प्रतीकार से शोय की वृद्धि होती है । मय ते वीर व्यक्ति 
के पास फटकता ही नहीं | शौयं शक्ति के विकास के लिए,, सावंजनिक सभाओं 
तथा वाद विवादों में भाग लेना भी आवश्यक है । द्वीनत्व भावना 
(॥7०पं०0१४५ ८०ए७ए०९5) शआ्रादमी को किसी काम का नहीं छोड़ती । 
“यह काम मैं न कर सकूँगा।” “वह बड़ा है।? “में छोटा ओर तुच्छ हूँ” 
इत्यादि विचार शोय की उन्नति में बाघक हैं। श्राशावादी बनना प्रत्येक 
अवस्था में सुखकर ओर वीरत्व को बढ़ाने वाला द्वे।जों बात सत्य ओर 
न्याय युक्त हो, उसी का पक्ष लेना ओर दिल खेलकर उसका समथन 
करना चाहिए । सत्य का प्रतिपादन करने से आत्मा को बल मिलता शोर 
शोय की दृद्धि होती है । 

बालकों में उत्साह शीलता के विकास की बड़ी ग्रावश्यकता हे। बिना 
मनोंबल के शरीर बल कुछ भी अथ नहीं रखता | श्रतएव बाल्यकाल से ही 
उपयक्त दोनों शक्तियों के विकास पर ध्यान देना चाहिए। इसके लिए 
प्रोत्साहन महोषध दे। बिना उत्साह के कोई कुछ भी नहीं कर सकता | जिन 
लोगों में शारीरिक बल की तो प्रधानता द्वोती है, परन्तु मने।बल श्रति न्यून 
परिमाण में रहता है, वे बली होकर भी कायर बने रहते हैं | इसीलिए उत्साह 
को वीर का स्थायी भाव माना गया हे | 

बीर कितनी ही तरह के द्वोते हें--धमंवीर, दानवीर, युद्धवीर, रणवीर, 
बाग्वीर, कर्ंवीर इत्यादि | किसी काय के तन्मयता पूवंक सम्पन्न करने वाले 
सभी वीर कद्दे जा सकते हैं। भ्रगर कोई लेखक परिश्रम पूवक किसी अन्य को 


( ५४४१ ) 


समाप्त करता है तो वद्द भी वीर है, अगर कोई व्यक्ति देश-भक्ति से प्रेरित 
होकर कष्ट सहता है तो वह भी ( स्वदेश ) वीर हे । अगर कोई किसी को 
पानी में ड्रबने या रेल में कटने से बचाता है, तो वह भी वीर है | इसी 
प्रकार ओर भी कितनी ही तरह के वीर हो सकते हैं| जो वीर अपना अ्रनिष्ट 
करने वाले को भी क्षमादान दे सकता है या शान्ति स्थापित करने में अ्रग्रसर 
हो सकता हे, वह सबसे बड़ा वीर है| श्रमिप्राय यह कि उत्साह की अ्रधिकता 
से ही वीरता परिलक्षित होती है | यदि पतिप्राणा आदर्श देवियों में वीरता 
को भावना न हेतती तो वे शरीर-रक्षा के हेतु अपने प्राणों की आहुति देने 
आर पातित्रत धम के लिए भाँति-भाँति के संकट सहने को सहष सन्नद्ध न हो 
पातीं । प्रत्येक देश और समाज में वीरत्व भावना का आदर हुआ है, और 
होता रहेगा। हमारे रामायण-महाभारत इतिहात ग्रन्थ तरह-तरह के वीर- 
विलास से भरे पड़े हूँ । उनका प्रत्येक पात्र अपने वीरोचित कार्य-कलाप द्वारा 
किसी न किसी प्रकार की शिक्षा देता और ऊँचे से ऊँचा आदर्श उपस्थित 
करता है । 

साधारणतः युद्धादि में सेनिकों के कार्यों को ही वीर रस में परिगणित 
किया जाता है । काव्यों में भी मार काट में प्रदत्त होने वालों का ही वर्णन 
होता है। परन्तु उत्साह स्थायी भाव होने के कारण वीर रस में वे सब ही 
आ जाते हैं, जिनकी ओर ऊपर संकेत किया गया है। अ्रभिप्राय यह कि वीर 
रस युद्धों तक ही सीमित नहीं, प्रत्युत उसका बहुत व्यापक क्षेत्र है। 

पूण उत्साह की पुष्ठता को वीर रस कहते हैं। इसका आश्रय स्थान 
उत्तम पात्र द्वोता है । 

बीर रस का स्थायी भाव उत्साह, देवता महेन्द्र और वर्ण स्वणं के 
समान गौर हे । 

आलम्बन--शत्रु श्रथवा शत्रु के पराक्रम, ऐश्वय, शक्ति, प्रभाव आदि 
इसके आलम्बन हैं । 

उद्दीपन--शत्र की चेष्टा, उसकी ललकार, मारूबाजे, शखस््रार्रों का 
शब्द, रण, कोलाइल, कड़खा गान शआ्रादि इसके उद्दीपन हैं | 

अनुभाव--अंगस्फुरण, नेत्रों की अरुणि मा, युद्ध के सहायक उपादान, 
शर््रा(्नों की खोज, सेन्‍्य संग्रह श्रादि वीर रस के अनुभाव हैं । 


( ४४२ ) 


संचारी भाव--रोमाश्च, गवं, श्रयूया, उम्रता, थेयं, मति, स्मृति, तक 
आदि इसके संचारी भाव हैं । 
भेद 


वीर रस के चार भेद माने गए हें---१-युद्धतीर, २--दानवीर, 
३--दयावीर, और ४--धम वीर । 


युद्धवीर 
जिसमें बल, विद्या, प्रताप श्रादि जनित उत्साह की पुष्टि हो, उसे युद्धवीर 
कहते हें । 
शत्र का प्रताप, पौरुष, ऐश्वयं, उमंग आदि वीर रस के आलम्बन हैं । 
सेना का कोलाहल, युद्ध वाय ञ्रादि इसके उद्दीपन हे । 
अंग स्फुण, रोमान्च भादि इसके अनुभाव हैं | 
गवं, उग्रता आदि वीर रस के संचारी भाव कद्दे गए हैं | 


दानवीर 
जिसमें दान सामथ्य जनित उत्साह की पुष्टि होती है, उसे दानवीर 
कहते हैं । 
याचक, तीथ यात्रा, दान पात्र आदि इसके आलम्बन हैं | 
दान के देश, काल और पात्र का ज्ञान दानवीर के उद्यौपन हैं । 
त्याग, उदारता, स्वेध्व दान आदि इसके श्रनुभाव हैं | 
हष, लज्जा आदि दानवीर के संचारी भाव कह्दाते हैं | 


दयावीर 

चित्त की झ्ाद्रता जनित उत्साह की पुष्टि जिसमें हो उसे दयावीर 
कह्दते हें । 

दीन दुखी, याचक आदि इसके शा जम्बन हैं । 

दुःख वर्णन, हृदय द्रावक विनय, देन्‍्य आरादि दयावीर के उद्दीपन हैं । 

मधुर भाषण, सान्‍्त्वना प्रदान, दुख दूर करने की चेष्टा इसके अनुभाव 
माने गए हें। 

घृति, चञ्बलता, आदि दयावीर के सश्चारी भाव होते हें । 


( ४४३ ) 


धमंषीर 

जहाँ घम जनित उत्साह की पुष्टि हो, वहाँ घमंबीर रस हेता है। 

वेद शात्त्रों या पुराणों के वचनों और सिद्धान्तों में अटल श्रद्धा धमंवीर 
का आलम्बन है | 

वेद शातरों की शिक्षाश्रों का सुनना इसके उद्दीपन हैं। 

उपयक्त वेदादि की शिक्षात्रों के अनुसार श्राचरण और ब्यवद्वार इसके 
अनुभाव हैं । 

स्मृति प्रतिपादित धृति क्षमा श्रादि धममं के दश लक्षण इसके संचारी 
भाव हैं | 


नाट्य-शास्त्रकार भारत मुनि ने युद्धवीर, दानवीर और दयावीर वीर रस 
के ये तीन ही भेद माने हैं | 


कुछ लोगों का मत द्वे, कि वोर रस के कमंव्रीर श्रोर बचनवीर दो मेद 
और भी होने चाहिएँ । 


अब जरा गंग कबि का वीर रस वर्णन भी देख लीजिए -- 


भुकत कृपान मयदान ज्याँ उदोत भान, 
एकन ते एक मानो सुषमा जरद की। 
कहे कवि 'गंग” तेरे बल की बयारि लागे, 
फूटी गज-घटा घन-घटा ज्यों सरद की ॥ 
एते मान सोनित की नदियाँ उँमड्ि चली, 
रही न निसानी कहूँ मदद में गरद की । 
गोरी गह्यो गिरिपति गनपति गद्मौ गौरी, 
गौरी पति गद्मयो पूछ लपकि वरद की ॥ 
युद्ध भूमि की भयंकरता देख गणेश जी को इतना भय लगा कि वे दौड़ 
कर पावती जी के अश्चल में छिप गए | उधर पावंती भी डरी हुई थीं, वह 
भी दोड़कर महादेव जी से लिपट गई” | ऐसी घप्राहट पूर्ण श्रवस्था में मद्दा 
देव जी भी स्थिर न रद्द सके भोर उन्होंने लपक कर बैल की पूँछ पकड़ ली । 
इस पद्म में धीर, भयानक और द्वास्य तीनों रसों का संकर है । 


( एड ) 


शझ्भूर जी के नीचे लिखे पद्य में, रण-चण्डी की प्राथना कैसे वीरता पूर्ण 
भावों के साथ की गई हे , देखिए --- 
अरी चणएडी, चेत चेत सारी शक्तियों समेत, 
मद माते भूत प्रेत करें तेरे गुण गान। 
कर कोप किलकार श्राख तीसरी उघार, 
ताकते ह्दी तलवार भीर भागें भय मान ॥ 
गिरे बैरियों के कुण्ड फिर रुएड बिन मुण्ड, 
भरें शोणित से कुरड मर्चे घोर घमसान | 
मद पीक्ले गटागद्ट गत्ले काट कटाकट्ट, 
मर पापी पटापट्ट हसे रुद्र भगवान्‌ ।॥! 
पद्म स्वयं ही मू्तिमान वीर रस मालूम पड़ता है। रुद्र भगवान की 
प्रसन्नता के लिए, चंडी की केसे शब्दों में मिन्नत-खुशामद की गई है, उसे 
सकोप किलकारने के लिए किस प्रकार उभाड़ा गया दे। 


नीचे लिखे सवैया में राघव की चतुरंगिनी सेना का कैसा कवित्वपूर्ण 
वर्णन किया गया हे-- 


राघव की चतुरंग चमू चलि घूरि उठी जल हू थल छाई। 
मानों प्रताप हुतातन धूम सों 'केशवदास!' अकास अमाई। 
मैटि के पंच प्रमूत किधों विधि रेशुमयी नव रीति चलाई । 
दुक्ख निवेदन को भुविभार को भूम क्रिधों सुरलोक सिधाई ॥ 
चतुरंग चमू के चलने से इतनी धूल उड़ी हे कि उसके कारण जल, थल 
आकाश सब भर गए हैँ । उस समय धूल को देखकर ऐसा जान पड़ता है, 
मानो विधाता ने पञ्च तत्वों को मिटाकर सब की धूलि ही घूलि बना दी दो । 
अथवा पाप-भार से दबी हुई प्रथिवी, विष्णु भगवान्‌ से अपना दुःख निवेदन 
करने के लिए स्वग लोक को जा रही दो । 
महाकव भूषण ने मदहाराज छुत्रशाल की करवाल का केसे जोशीले शब्दों 
में बन किया हे, देखिए--.- 
निकसत म्यान ते मयूखे प्रले भानु कैसी, 
हारे तम तोम से गयन्दन के जाल को । 


( ४४ ) 


लगति लपटि कंठ बैरिन के नागिन सी, 
रुद्रहिं रिकावै दे दे मुएडनि के माल को ॥ 
लाल छितिपाल छतन्नसाल महद्दा बाहु बली, 
कहाँ लों बखान करों तेरी करवाल को | 
प्रति भट कटक कटीले केते कादि कार्ि, 
कालिका सी किलकि कलेऊ देति काल को ॥ 
उसके म्यान से निकलते ही प्रलय के सूथ की-सी किरण चारों शोर फैल 
जाती हैं ओर वह द्वाथ्रियों के कुएड को इस प्रकार विदीण कर डालती है, 
जैसे सूय-रश्मियों घने अन्धकार को छिलन्न-भिन्न कर देती हैं । 
नीचे लिखे कवित्त में महाराज छुत्रशाल की वीरता का केसा सुन्दर चित्र 
ग्रंकित किया गया है--- 
भुज भुजगेश की हे संगिनी भुजंगिनी सी, 
खेदि खेदि खाती दीह दाबन दलन के । 
बखतर पाखरन बीच धसि जाति मीन -- 
पैरि पार जाति परवाह न्‍यों जलन के॥ 
रैया राय चम्पत को छुत्रसाल महाराज, 
“भूषण? सकत को बखानि यों बलन के | 
पच्छी पर छीने ऐसे परे पर छीने वीर, 
तेरी बरल्ली ने बरछीने हैं खलन के ॥ 
छुत्रशाल की भुजंगिनी-सी भुजाली ने शत्र श्रों के दल को पंख-कटे 
पक्षियों की भाँति भूमि पर सुला दिया हे । छुत्रशाल कौ तलवार कया है, 
आफ़त है, जो शत्रुओं के अंगन्नाण-जिरह बख़तर कों काठती हुई ऐसे घंसी 
चली जाती है, जैसे मछली पानी में । 
भारतेन्दु दरिश्रन्द्र जी ने नीचे लिखी पंक्तियों में वीर रस का केसा अ्रच्छा 
वर्णन किया हे -- 
उठहु वीर तरवार खींच मारहु घन संगर | 
लौद लेखनी लिखहु आये बल श्र हृदय पर । 
मारू बाजे बजें कहूँ धोंसा घद्दराद्दीं, 
उड़द्दि पताका शत्र्‌ हृदय लखि-लखि थहराहीं । 


( ४४६ ) 


चारन बोलदिं आये सुजस बन्दी गुन गावें, 

छुट॒हिं तोप घनघोर सब्रै बन्दुक चलावें । 

चमकदिं श्रसि भाले दमकहिं उनकहिं तन बखतर, 
होंसहिं हय ऋनक्िं रथ गज चिकरदिं समर थर १ 
छुन महँ नासहिं आय नीच ब्रैरिन कहे करि क्षय, 
कद हु सबे भारत जय भारत जय भारत जय | 


चन्द्रहास की चमक, भालों की दमक ओर बन्दूकों तथा तोपों की धमक 
से शन्नुश्रों के होश उड़े जा रहे हैं। घोड़ों की दिनदहिनाइट, हाथियों की चिघ्धाड़ 
ओर धोंसों की धम्म-धम्म से वैरियों के दिल दहल गए हैं। आये वीरों ने 
अपनी वीरता की धाक जमादी है। 


मद्दाकवि तुलसीदास के नीचे लिखे पद्म में इनुमान जी की वीरता का 
केसा श्रच्छा वर्णन किया गया है-- 
हाथिन सों हाथी मारे घोड़े घोड़े सों संहारे, 
रथनि सों रथ विदरनि बलबान की। 
चश्बल चपेट चोट चरन चकोट चाहें, 
हहरानी फोजं भहरानी यातुधान की || 
बार बार सेवक सराहना करत राम, 
तुलसी' सराहें रीति साइब सुजान की | 
लाँबी लूम लसत लपेटि पठकत भट, 
हे देखो देखो लखन लरनि हनुमान की | 
अगर हाथियों से मुक़ाबला होता है, एक हाथी उठाकर दूसरे में मार देते 
हैं. इसी तरह घोड़ों में घोड़े और रथों में रथ मार कर उनका संहार करते 
हैं। कभी-कभी हाथों की चपेट और 'लूम” ( पूंछ ) की लपेट से भी काम 
लेते हैं। उनके सब आयुध स्वाभाविक हैं। कृत्रिम शखस्रा्र उनके पास एक 
भी नहीं है । 
औ्रोर देखिए--- 
प्रबल प्रचण्ड बली वेरम के खान खाना, 
तेरी घाक दीपन दिसान दह दहको। 


( ४५४७ ,; 
कद्टे कवि 'गंग” तहाँ भारी सर बीरन के, 
उमड़ि अखंड दल प्रले पौन लद्दकी ॥ 
मच्यों घमसान तहाँ तोप तीर बान चले, 
मंडि बलवान किरपान कोपि गइकी | 
तुएड काटि मुणड कारटि जोसन जिरह काटि, 
नीमा जामा जीन काटि जिमी आनि ठहको ॥ 
बली बेरम की तलवार शन्र्‌ के सिर पर ऐसी जमकर बेठी कि, सिर को 
काटती और बख्तर समेत रुणड को चीरती हुई जीन और जामा समेत घोड़े 
के भी दो टुकड़े करती हुई भूमि पर आ कर ही रुकी | 
नीचे लिखे सवैया में भी तलवार का ही वर्णन है--- 
भोर ते साँक लों यूर चले अर शूर चले है कबन्ध परे लॉ । 
ये सिरताज गनीमन को प्रण तो न टरै दुहुलोंक टरे लॉौं। 
ऐसी वही अरबी गरबी शिव शंकर हू यम लोक डरे लौं। 
सो सिर काटि गनीमन के तरवारि वही तरवा के तरे लौं ॥ 
यह तलवार भी शत्र के सिर में घँस, शरीर को बीच से चीरती हुई पैरों 
के तलके पर जाकर ठहरो है । 
और देखिए, महाकवि पद्माकर ने लड्ढा का स्व संद्वार करते हुए वानर 
दल का केसा वीरता पूर्ण वर्णन किया है--- 
सहें असर ओडें जे न छोढ़ सीस सह्लर की, 
लड्गभर लंगूर उच्च श्रोज के अतह्डा में । 
कहे 'पदमाकर' त्यों हुंकरत फु्ंकरत, 
फेलत फलात फाल बाँधत फलड्डढा में ॥ 
आगे रघुबीर के समीर के तने के संग, 
तारी दे तड़ाक तड़ा तड़के तमडूा में | 
सड्ढा दे दसानन को हड्ढा दे सुबद्भावीर, 
डड्डूडझ दे विज को कपि कूद पर॒यो लड्ढा में ॥ 
महावीर हनुमान विजय-दुन्दुभि बजाते हुए, निर्भयता पूर्वक लंका में 
कूद पड़े । अब लंका की कुशल नहीं, रावण की खेर नहीं । दशों दिशाश्रों 
में पवन पूत ने हुंकार ओर फ्‌कार मचा दी है। 


( भक्रषध ) 


दरिभोध जी ने वीर रस के उदाहरण में नीचे लिखा सुन्दर छुन्द 
'दिया है-- 
उठो उठो वीरो चीरो अरिन करेजन कों, 
पीरो मुख परे बनी बात हू बिगरि हे। 
छुटकि छुटकि छाती छुगुनी करेयन कों, 
कौन श्राज उछुरि उछुरि के कचरि है ॥ 
'हरिश्रोध” कहे वीरवृन्द ना श्रवेर करो, 
हाँकते तिहारी धीर हू ना धीर घरि है । 
पारावार धार में उड़ेगी छार आँच लगे; 
ठोकर की मारते पद्टार गिरि परि है॥ 


उत्साइ और वीरता का केसा मनोहर वर्णन है। वीरों की हुंकार से धीर 
का भी धीर भग जायगा, समुद्र में धूल उड़ने लगेगी ओर ठोकर की मार 
से पहाड़ चूर चूर हो जायेंगे । 
वीर रस के उदाइरण में कविवर रत्नाकर के नीचे लिखे छुन्द कितने 
उत्कृष्ट हैं-- 
घरम सपृत की रजाय चित्त चाही पाय, 
धाये धारि हुलसि हृथ्यार हरबर में | 
घायो 'रतनाकर! सुभद्रा को लड़ेते लाल, 
प्यारी उत्तरा हू की रक्‍यो न सरबर में || 
सारदूल सावक वितुण्ड भुणड में ज्यों त्यों ही, 
पैज्यो चक्र व्यूह की श्रनूह अरबर में । 
लाग्यो हाथ करन हुलास पर बेरिन रे, 
मुख मन्द हास चन्दह्यास तरवर में॥ 
>< >< >< 


बीर अ्रभिमन्यु की लपालप कृपान वक्र, 
सक्र अ्रसनी लो चक्रव्यूह माँद्दि खमकी। 

कहे 'रतनाकर” न ठालन पै खालन पे, 
मिलिम भपालन पै क्यों हूँ कहूँ ठमकी ! 


( ४५४६ ) 


आई कम्ध पै तो बाँटि बन्ध प्रतिबन्ध सबै, 
कोटि कटि सन्धि लॉ जनेवा ताकि तमकी । 
सीस पे परी ते कुण्ड काटि मुण्ड काटि फेरि, 
रुणड के दुखण्ड के घरा पै श्रानि धमकी ॥ 
वीर अभिमन्यु को कृपाण जहाँ पड़ती है, वहीं मेदान साफ़ कर देती है। 
महाराज जयसिंह की प्रशंसा में लिखा निम्नांकित पद्म भी दानवीर का 
सुन्दर उदाहरण दे-- 
बकसि बितुण्ड दये कुण्डन के क्ंड रिपु-- 
मुण्डन की मालिका दई ज्यों त्रिपुरारी कों। 
कहे 'पदमाकर' करोरन को कोष दये, 
घपोडश हू दीन्हें मह्दान अधिकारी कों | 
ग्राम दये, धाम दये, श्रमित आराम दये, 
अन्न जल दीने जगती के जीव धारी कों। 
दाता जयसिंद दोय बातें तो न दीनी कहूँ, 
शत्र न कों पीठि और दीठि पर नारी को ॥ 
ऐसी कोई भी वस्तु नहीं हे, जो मद्वाराज जयसिंह ने दान में न दी हों । 
हाँ, अगर उसने नहीं दी, तो केवल शत्रुओं को पीठ और पर स्त्रियों को 
“'दीठ? । 
ओर भी देखिए-- 
सम्पति सुमेर की कुबेर की जु पावे ताहि, 
तुरत लुटावत विलम्ब उर घारे ना। 
कहे 'पदमाकर” सो हेम हय हाथिन के, 
हलके हजारन के बितर बिचारै ना ॥ 
गंज गज बकस महीप रघुनाथ राव, 
पाहइ गज धोखे कहूं काहू देश डारे ना। 
याही डर गिरजा गजानन कों गोद रही, 
गिरि तें गरे तें निज गोद तें उतारे ना ॥ 
महाराज रघुनाथराब के जो कुछु हाथ पड़ जाता है, उसे दी थे दान कर 
देते हैं। हाथियों के तो उन्होंने कुण्ड के भुएड दान कर दिए । पाबती जी 


(५ ३४६० ) 


ने गणेश को इसीलिए अपनी गोद में छिपा रकखा हे, कि कहीं रघुनाथराव 
इन्हें पाकर हाथी के धोखे में किसी को दे न डालें | 
दानवीर के उदाहरण में नीचे लिखा कवित्त भी कितना उत्कृष्ट है -- 
गाज उत दुनदुभी अवाज इत द्वात सुर, 
चाप उत इते पचरंग परसतु हैं। 
पौन पुरवाई उत तरल तुरंग इत, 
मोर उत इते ये नकीब सरसतु हैं ॥ 
चपला चमक उत चन्द्र द्वास छवि हत, 
उते घन इते ये गयंद दरसतु है। 
उत अ्रवनी पै इन्द्र नीर बरसत इत, 
नउपति प्रताप हेम हीर बरसतु हैं॥ 


यहाँ जल की वर्षा करने वाले इन्द्र और दान रूप में सोना, हीरा, मोती 
आदि की वर्षा करने वाले महाराणा प्रताप दोनों की तुलना की गई हे। 
महा दानी छुत्रशाल की दान वीरता का वर्णन कवि ने कितने विलक्षण 
और सुन्दर ढंग से किया है, देखिए--- 
अच्छुत दरभ जुत तरल तरंगन सों, 
कोहै तू कहाँ सों श्राई रची व्योत सारी के । 
सरिता हों संकलप सलिल बढ़त आबवै, 
मद्दाराज छुत्नसाल दान ब्रतघारी के ॥ 
एतो क्‍यों गुमान कीन्दों मोहिन प्रनाम कीन्हों, 
लाल त्यों अनखि बोली बोल भेद भारी के । 
महादानि पानि तें उपज मेरी जानि गंगे, 
पायन तें भई हे तू बावन भिखारी के॥ 


महाराज छुश्रशाल ने इतना दान दिया कि उसके संकल्प के जल से 
सरिता बन गई। उसे देख गंगा जी ने पूछा- श्ररी तू कोन है, कहाँ से आई 
है ? और फिर कोई भी हो, तेने यह ढिठाई क्‍यों की कि मुझे प्रणाम भी नहीं 
किया १ इस पर उपयुक्त नदी बोली--अरी गंगे, में साधारण नदी नहीं हूँ जो 
बुके प्रणाम करू । मेरा जन्म महांदानी महाराज छुत्रशाल के द्ाथों से 


( ४६१ ) 


हुआ है, ओर तू भिखारी वामन का रूप घारण करने वाले विष्णु के पैरों से 
उत्पन्न हुई हे । 

मद्दाकवि केशव का दान वीरता के सम्बन्ध में कैसा अच्छा उदाइरण 
है, देखिए -.- 

'केशवदास' के भाल लिख्यौ विधि रंक को अंक बनाइ सँवारयौ | 

घोए धुओओ न छुड़ाए छुट्यो बहु तीरथ के जल जाइ पखारयौ | 

हे गये रंक ते राव तबै, जब बीर बली रूप नाथ निदारयौ। 

भूलि गये। जग की रचना चतुरानन बाइ रहो मुख चारयो॥ 

उपयक्त पद्य में भी केशवदास ने बोर-बली मद्दाराज की प्रशंसा की हे 
जिसके कृपा पूवक देखने मात्र से केशव रंक से राजा हो गए। जो दरिद्रता 
विधाता ने उनके भाल में लिखी थी, उसे यों पल भर में दूर होते देख ब्रह्मा 
जी भी आश्रय सागर में गोते लगाने लगे । 


केटभ सों नरकासुर सों पल में मधु सों मुरसे जिन मारयौ। 
लोक चतुदश रक्तक 'केशब” पूरन वेद पुरान विचारयौ। 
भ्री कमला कुच कंकुम मण्डित पणिइत देव श्रदेव निद्दारयौ । 
सो कर माँगन को बलि पै करतारहु ने करतार पसारयो ॥ 
यहाँ महाराज बलि की दानवीरता का वर्णन किया गया है। जिन हाथों 
ने मधु, केटभ, मुर प्रश्गति अनेक राक्षसों का संहार किया और जो चौदहों 


लोक को रक्षा करने में सम रहे, अपने वे ही हाथ करतार ने महाराज बलि 
के आ्रागे फेलाए | 


भूषण जी का नीचे लिखा कवित्त दानवीरता का कैसा अच्छा 
उदाहरण हे-- 
राजत अ्रखंड तेज छाजत सुजस बड़ो. 
गाजत गयन्द दिग्गजन हियसाल को। 
जाहि के प्रताप सों मलीन आफताब होत, 
ताप तजि दुज्जन करत बहु ख्याल को ॥ 
साजि-साजि गजतुरी पैदर कतार दीन्हें, 
“भूषन' भनत ऐसे दीन प्रतिपाल को। 
हि० न० २०--३६ 


( रे ) 


आर राव राजा एक मन में न ल्याऊँ श्रव, 
साहु को सराहों के सराहों छुत्रसाल को । 


भूषण जी छुत्रशाल और साहु जी के आगे किसी भी राव राजा को कुछ 
भी नहीं समझते । भला जिनके प्रताप-भानु के भागे सूय मलिन हो जाता और 
दुरात्मा वैरियों के हृदयों में चिन्ता-चिता जलने लगती है । 
कविवर नरोत्तम दास ने नीचे लिखे सबैया में दानवीरता का कैसा सुन्दर 
वर्शंन किया है-- 
हाथ गझ्ो प्रभु को कमला कहे नाथ कद्दा तुमने चित धारी | 
तण्डुल खाय मुठी दुए दीन किये। तुमने दुइ लोक बिहारी ! 
खाय मुठी तिसरी अब नाथ, कहा निज बास की आ्रास बिसारी। 
रंकहि आप समान किये तुम चाहत आञपहि होन भिखारी | 


कृष्णजी ने सुदामा के दो मुट्ठी चावल खाकर उनके बदले में दो लोक 
तो उन्हें दे डाले, जब वे तीसरी मुट्ठी और भरने लगे, तब लक्ष्मी जी ने 
उनका हाथ पकड़ कर कहा--नाथ, अब क्‍या तीसरा लोक भी सुदामा को दे 
डालना चाहते हो ! कहीं अपने रहने के लिए भी जगह रहने दोगे या नहीं | 
या अब सुदामा को अपना जैसा बनाकर आप सुदामा का स्थान लेना 
चाहते हो |! 
दानवीरता के उदाइरण में नीचे लिखा दोहा भी पढ़ने लायक है-- 
जो सम्पति शिव रावनहिं दीन्दह दये दश माथ। 
सो सम्पदा विभीषणि सकुचि दीन्द्द रघुनाथ ॥ 
जो सम्पत्ति (लंका का ऐश्वय ) शिव जी ने रावण को अपने दशों 
शिर भेंट करने पर दी थी, वद्दी सम्पदा रामचन्द्र जी ने विभीषण को बड़े 
संकोच के साथ दी । 
आगे धमवीर का भी एक उदाहरण दिया जाता दहै-- 
तृण के समान धन-धाम राज त्याग करि, 
पाल्यौ पितठु वचन जो जानत जनैया हे | 
कहे 'पदमाकर' विवेक ही को वानो बीच, 
साँचो सत्य वीर घीर धीरज धरेया है।। 


( ५४६३ ) 


सुमृति पुराण वेद आगम कह्ौ जो पन्थ, 
आचरत सोई शुद्ध करम करैया है। 
मोह मति मन्दर पुरन्दर मही को धनी, 
धरम धुरन्धर हमारो रघुरैया है॥ 
कवि पद्माकर कहते हैं, पितु-आशा-पालन के लिए जो इतने बड़े साम्राब्य 
को तिनके के समान त्याग कर वन चल दिए, उन रामचन्द्र से अधिक घर्म- 
वीर ओर कोन हो सकता है | 
कविवर मैथिलीशरण का नीचे लिखा पद्म भी घमंवीर का उत्पृष्ट 
उदाहरण हे-- 
सुन कर निज गुरु की प्रेम भरी यह वाणी । 
बोले उनसे प्रद्वाद जोड़ युग पाणी । 
गुरुदेव, पिता जब पूज्य कद्दे हैं ऐसे, 
तब परम पिता पूजाई न होंगे केसे । 
है आय किसी का श्र न हरि को जानो, 
अच्युत अनादि श्रखिक्तेश उन्हें तुम मानो । 
हरि भजन छोड़ में कर्रू स्वाथ की घातें, 
दा-हा खाता हूँ कहो न ऐसी बातें । 
उपयु क्त पद्म में भक्त प्रह्माद की धमं में केसी इृढ़ता दिखाई गई है। 
वह अपने अडिग विश्वास के श्रागे गुद की बातों को भी नहीं मानते | नहीं 
मानते इतना ही नहीं, उपयुक्त पंक्तियों द्वारा उनका खंडन भी करते हैं। 
भारतेन्दु दरिश्रन्द्र के निम्नलिखित दोहों में भी कैसी बीर घोषणा की 
गई हे-.. 


बेचि देद्द दारा सुश्नन द्ोय दास हू मंद। 
रखि हों निज वच सत्य करि भश्रभिमानी हरिचंद ॥ 
>< >< >< 
चन्द्र रै सूरज टरे टरे जगत व्यवद्दार | 
पै दृढ़ भीदरिचन्द को टरै न सत्य विचार ॥ 
चाहे संसार उलट-पलट हो जाय, पर सत्यवरत्ती इरिश्वन्द्र का सत्य विचार 
नहीं टल सकता | 


( ६४ ) 


और भी लीलिए-... 
सुनि 'कमलापति” बिनीत बैन भारी तासु, 
ग्रासु चलिबे की लखी गति यों दराज की | 
छोड़ि कमलासन पिछोड़ि गझरुड़ासन हूँ. 
केसे के बखानों दोर दौरे मुगराज की ॥ 
जाय सरसी में यों छुड़ाय गज ग्राह ही तें, 
ठाढ़े आय तीर इमि सोभा महाराज की । 
पीत पट लै-ले के अ्रेगौलुत शरीर, 
कर कञ्जन ते पॉछुत भुसुणढ गजराज की ॥ 
यहाँ कमलापति की दयावीरता का केसा सुन्दर वर्णुन किया गया है। 
अब दयावीर के उदाहरण भी देखिए--- 
पापी श्रजामिल पार कियो जेहि नाम लियो सुत ही को नरायन । 
त्यौं 'पदमाकर? लात लगे पर विप्रहु के पग चौगुने चायन ' 
* को अस दीन दयाल भये दशरत्थ के लाल से सूधे सुभायन । 
दौरे गयन्द उबारिबे को प्रभु बाहन छोड़ि उपाहने पायन ॥ 
भला भगवान रामचन्द्र के सिवा ऐसा दयालु कोन हे, जो गजराज तक 
का उद्धार करने के लिए नंगे पैगें पैदल दोड़कर पहुँचे। श्रजामिल जैसे यापी 
का जिन्होंने निस्तार कर दिया। अजी ओर तो ओर भगुजी के लात मारने पर 
भी ग्राप उलटे उनके पैर सइलाने लगे । भला इससे भी अधिक दयालुता 
क्या हो सकती है ? 


कविवर हरिकेश का नीचे लिखा पद्म वीर रस का केसा उत्कृष्ट उदा- 
हरण हे--- 
उह उद्दे डंकन के सबद निसहछु होत, 
बहबद्दी सन्नन की सेना जोर सर की। 
“हरिकेस” सुभट घटान की उमणिडि उत, 
चम्पति को नन्द कोष्या उमंग समर की । 
हाथिन की मणड मारू राग की उमण्ड यों त्यों 
लाली भलकति मुख छुत्रसाल वर की। 


( ४६४ ) 


फरकि फरकि उठ बाहें श्रस्् वाहिबे को, 
करकि करकि उठें करी बखतर की॥ 


यहाँ पर शत्र आलम्बन, उसकी सेना का जोर शोर के साथ आगे आना 
तथा मारू बाजों का बजना श्रादि उद्दीपन, बीरबर छुत्रसाल के मुख पर और 
नेत्रों में लालिमा का भलकना, एवं शस्तास्र उठाने के लिए भुजाओं का 
फड़क उठना श्रनुभाव ओर रोमाब्च, उम्रता आदि संचारी भाव हैं। इनसे 
पुष्ट हुआ उत्साह दी त्रीर रस का रूप धारण करता है। 


भयानक रस 


भयानक रस का स्थायी भाव भय है | भयकूर परिस्थिति के कारण लोग 
थर-थर कॉपने लगते हैं। मनुष्य ही नहीं, श्रन्य जीवों को भी भय लगता है। 
मेड़िया के श्रागे भेड़ या बकरी की कैसी बुरी दशा हो जाती है। भय में प्राय: 
जान जाने, कष्ट सहने या अन्य किसी प्रकार की द्वानि उठाने का ख़तरा द्वोता 
है, इसीलिये इसका प्रमाव मन पर सबसे अधिक पढ़ता है। भय से बचने 
के लिए, प्रयत्ष करना स्वाभाविक प्रवृत्ति है | कुछु भय तो वाघ्तविक है, और 
कुछ कल्पित तथा भ्रम-जनित | कल्पित भय की यथाथता ज्ञात होने पर 
उससे कोई नहीं डरता । जब यह शात हो जाता है कि मांग में सर्प नहीं है, 
बल्कि रस्सी ही सप के समान दिखायी देती दे, तो वह कल्पित सर्प भय का 
कारण नहीं रहता। इसी प्रकार भूत-प्रेतादि के सम्बन्ध में भी समझना चादहिए। 
अशान-अ्रवस्था में लोग भूत प्रतादि से डरते हैं, परन्तु जब वे अच्छी तरह 
समभ लेते हैं, कि भूतों का कोई अस्तित्व दी नहीं; वे कल्यित और भ्रम जनित 
हैं, तो उनका डर भी जाता रहता हे। 


अभिप्राय यह कि कोई वस्तु एक समय में भयक्षर सिद्ध होकर 
वास्तविकता ज्ञात होने पर दूसरे समय में वेसी नहीं रहती | जब विद्यार्थी 
परीक्षा देने जाता हे, या कोई गवाह गवाही देने के लिए. न्यायालय में प्रवेश 
करता है तो उसके द्वदय में भय का कुछ अ्रंंश होता हे, जिसके कारण दिल 
की घड़कन वढ़ जाती हे । ओर मुदद सूख जाता है, क्योंकि उस समय थूक 
की ग्रन्थियों से थूक आना बन्द दो जाता हे । सब बविद्याथियों और गवाहों के 


( ४६६ ) 


सम्बन्ध में यह बात नहीं कह्दी जा सकती | दश्ड, लोकापवाद, आन्दोलन श्रादि 
का भी बड़ा भय होता है। दण्ड के डर से आदमी श्रपराध करने से बचे 
रहते हैं, कितने ही काय अनुनय-विनय से नहीं द्यो पाते, परन्तु दण्ड, लोकाप- 
बाद या आन्दोलन के डर से तुरन्त हो जाते हैं। जो लोग कुकर्म के क्र,र 
परिणाम से डरते रइते हैं, उनसे पाप-कम नहीं बनते । राजा, समाज और 
परमात्मा की दण्ड-व्यवस्था से कदाचित्‌ ही कोई बचता हो । बहुत-से निर्मीक 
लोग समाज अथवा राजा के दण्ड-विधान से बचने का तो ज्यों त्यों प्रबन्ध 
कर लेते हैं, परन्तु न्यायकारी परमात्मा के कठोर शासन से अपने को नहीं 
बचा पाते | क्रोध की भाँति भय की भी उपयोगिता और अ्रनुपयोगिता है। 
जहाँ मिथ्या भ्रम से सम्बन्ध हे, वद्दाँ भय निरुपयागी एवम्‌ हानिकारक है, 
परन्तु जहाँ वास्तविक भय का प्रसंग है वहाँ असमर्थ होने के कारण उससे 
अपने को बचाना ही पड़ता हे। कुछ लोग स्वाथ-संकोचवश सत्य कहने या 
ठढीक-ठीक मनोभाव प्रकट करने से डरते रहते हैं, यह डर द्वी द्दीनत्व भावना का 
द्योतक दे | ऐसा करने से बड़ी हानि होती हे । डर प्रायः उसी समय लगता 
है, जब शारीरिक अथवा आत्मिक बल में कमी आ जाती हे और भय पूर्ण 
परिस्थिति मन पर पूरा काबू कर लेती हे | एक वे लोग हैं जो शेर की शक्ल 
देखकर मूच्छित दो जाते हैं, ओर एक वे हैँ जो बड़ी वीरता से उसका सामना 
करते तथा उसे मार कर दम लेते हैं । 

एक आदमी साहस पूवंक विपरैले साँप को अपनी चुटकी में दबाकर 
उसे बिल्कुल बेकाबू कर देता है ; परन्तु दूसरा उसे देखने मात्र से घबरा 
जाता है । ये सब बातें मन की शक्ति से सम्बन्ध रखती हैं। जिसमें 
जितना ही साहस और शोय होगा, उतना ही वह निर्भय ओर निडर 
सिद्ध होगा | जो मनुष्य असमर्थ होने के कारण प्राण-धातक परिस्थिति से 
डरता ओर परमात्मा या राज्य के कठोर दण्ह से भय खाकर पापों एवम्‌ 
अपराधों से बचता हे, वह भय की उपयेगिता सिद्ध करने में सहायता देता 
है। ईश्वर ओर राजा के दण्ड विधान से न डरने के कारगा ही आज बड़े 
से बड़े पापों और भयड्भर से भयड्डूर अपराधों की सृष्टि हो रही है। मतलब 
यद्द कि जहाँ भय हानिकारक हे वहों वह लाभदायक भी है। मृत्यु के समय 
कुकर्मों का बारबार स्मरण आ्राकर उनके दर्ड का भय मनुष्य को बुरी तरह 


( ५४३७ ) 


तंग करता रहता है । क्‍योंकि उस समय सारे जीवन के पापों का चित्र 
चित्त पर खिंच जाता हे ओर यही भाव भयंकर बनकर मरणासन्न को 
भयभीत करता है। उस समय परमान्मा की याद आझ्राकर उसी ओर लौ 
लग जाती है । 

भय के कारण रक्त ओर श्वास की गति में अन्तर पड़ने से शरीर में भी 
कई प्रकार के परिवर्तन हो जाते हैं। जिसके लक्षण मुंद्द पर अच्छी तरह 
दिखायी देने लगते हैँ। भय से मस्तिष्क में ऐसी शिथिलता या निस्तब्धता 
हो जाती है कि फिर भयभीत व्यक्ति को श्रागा-पीछा कुछ नहीं वूकता । वह 
उस ताबड़तोड़ दशा में अनेक ऊट-पटाँग काम कर डालता दै। कभी-कभी 
तो ऐसी भाग दौड़ ओर छीन-भपट के काम हो जाते हैं, जो शायद साधारण 
अवस्था में कदापि सम्भव न देते । एक बार एक व्यक्ति दूर से ही तेंदुए की 
शक्ल देखकर घबरा गया और भय के आवेग में ऊँचे वृत्त पर श्रनायास दी 
चढ़ गया । सामान्य अवस्था में शायद वह प्रयत्न करने पर भी उस पेड़ 
पर न चढ़ पाता | भय के समय थैय और साइस से काम लेने की बड़ी 
आवश्यकता है | 


भय के कारण आत्म-संरक्षण के भाव जाग्रत हो जाते हैं | पहले तो 
मनुष्य श्राशंकित अनिष्ट के भय से डरता है, परन्तु जब अनिष्ट हो जाता 
है, तब भय भय न रहकर शोक में परिणत हो, कबण रस का रूप धारण 
कर लेता है | जब कभी समान भय उत्न्न होता है. तो उसके द्वारा संघटन- 
काय में अच्छी सहायता मिलती है। भय पूण्ण परिस्थिति का सामना करने 
के लिए सब लोग भेद-भाव भूल कर मिल जाते हैं | यहाँ तक कि उस समय 
शत्रुओं में भी प्रतिकूल भावना नहीं रहती । 


इन्द्रिय विज्ञोम सहित भय की परिपुष्टि को भयानक रस कहते हैं 


भयानक रस का स्थायी भाव भय, देवता काल और वर्ण कृष्ण 
होता दे । 


भयानक दृश्य, भयद्भुर शब्द, निनन वन आदि स्थान, स्वजन वध अ्रथवा 
बन्धघन आद इसके आलम्बन हैं | 


भयोत्पयादक शब्द सुनना , भयह्ूकूर इश्य या प्राणियों को देखना, निजन 


( ४८ ) 


वन, श्मशान आंद म॑ जाना, गुरुजनों ग्रथवा राजा का श्रपराध करना, हिंसख 
जन्तुओं का काय कलाप श्रादि भयानक रस के उद्दयौपन हैं । 


हाथ पेरों का काँपना, गदगदू वाणी, प्रलय, मूर््छा, स्वेद, रोमाज्च, 
चेहरे का विवरण हो जाना, मुख सूखना, इधर उधर ताकना, छाती का घड़कना 
झादि इसके अ्नुभाव हैं | 

मोह, त्रास, ग्लानि, लज्जा, अपस्मार, सम्भ्रम, देन्य, शंका, मृत्यु श्रादि 
भयानक रस के संचारी भाव हैं । 


भयानक रस के पात्र कायर, नीच पुरुष और स्त्री श्रादि द्वोते हैं । 


अब भयानक रस के उदाहरण देखिए | सीता-स्वयंवर के समय भगवान्‌ 
रामचन्द्र जी द्वारा शिव जी का धनुष तोड़े जाने पर तीनों लोकों में कैसा भय 
छा गया, इसी का वणन नीचे लिखे कवित्त में किया गया हे-- 


कोल कच्छु देव फेत फेलत फनी के मुख, 

घेंसि गई धरा घराघर-उर धर के। 
हर के र्देन भानु भर के तुरंग कहूँ, 

भागि चले बाहन विरंचि-हरि-हरके ॥ 
भम्पित गगन भुकि कम्पित भुवन हल-- 

कम्पित डुवन गुन खेंचे रघुबर के | 
दन्ती दबे आसन सकाने पाक सासन, 

ने कोऊ थिर आसन सरासन के करके ॥| 


शिव जी के धनुष टूटने का घोर शब्द द्ोते ही तीनों लोकों में इलचल 
मच गई । धरा धसक गई, जिसके कारण शेषनाग के फनों से फेन बहने 
लगा । पब॑ंतों के उर विदीण हो गए | ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि खब देवों 
के बाइन भीत हो भागने लगे। दिग्गज चलायमान द्वो उठे और इन्द्र भी 
डर गए | यहाँ पर भयहझूर शब्द ही भय का आलम्बन है | धरा का धसकना 
पव॑तों का विदीणं होना आदि दृश्य उसके उद्दीपन हें। इसी प्रकार भय 
चस्र इन्द्रादि का सकपकाना, दिग्गजों का काँप उठना आदि अनुभाव और 
आस, दैन्य, शंका आदि संचारी भाव हैं। इन्हीं सब के संयोग से भय पुष्ट 


( ४६६ ) 


होकर भयानक रस रूप में परिवर्तित होता है । झ्ागे के उदाइरणों में भी इसी 
प्रकार कल्पना कर लेनी चाहिए | 
नीचे लिखे छुप्पय में भी सीता के स्वयंवर-समय धनुघ-मंग के कारण 
उपस्थित भय का वर्णन है- 
कहलि पोल अरु कमठ उठत दिगाज दस दलि मलि। 
घसकि धसकि महि मसकि जाति सह सफ़्फणि फरणि दलि॥ 
उथल पुथल जल थल ससंक लंका दल गल बल | 
नभ मण्डल इल इलत चलत श्रुव भध्रतल वितल तल | 
टंकोर घोर घन प्रलय धुनि सुनि सुमेझ्द गिरि गिरि गयो। 
रघुवंस वीर जब तमकि पग धमकि-धमकि धरि घनु लयो ॥ 
रघुवीर रामचन्द्र के घनुष हाथ में लेते ही, संतार में प्रलय का सा 
दुद्द श्य उपस्थित द्वोगया । प्रथिवी घसकने लगी और जल-थल में उथल-पुथल 
मच गई, सर्वत्र भय और त्नास का आतंक स्थापित होगया | 
कविवर तुलसीदास ने धनुष-भंग का वर्शंन हस प्रकार किया है--- 
भरि भुवन घोर कठोर रव रवि-वाजि तजि मारग चलते । 
चिक रहिं दिग्गज डोल महि श्रहि कोल कूरम कलमले | 
सुर अखसुर मुन कर कान दीन्हें सकल विकल विचारहीं। 
को दश्ड खण्डेउ राम तुलसी जयति वचन उचारहीं॥ 
धनुष-भंग की टंकार सुनते ही दिग्गज दहल गये और सिंघाड़ मारकर 
बुरी तरह कॉपने लगे। सुर-असुरों ने कानों में उँगलियाँ दे लीं, उन्हें वह 
शब्द ऐसा भयदड्डूर प्रतीत हुआ. कि उनके होश-हवास उड़ गए । 
पद्माकर जी का नीचे लिखा कवित्त भी भयानक रस का बड़ा अच्छा 


उदाहरण हे-- 
भलकत आवे कुणड भिलम भलान भक्योौ, 


तमकत श्रावे तेगवाही ओर सिला ही हैं । 
कह्दे 'प्माकर' त्यों दुन्दुभी धुकार सुनि, 
द श्रक बक बोलें यों गनीम ओ्रौ गुनादी हैं ॥ 
माधव को लाल कालहूते विकराल दल-- 

साजि धायो ए. दई दई थों कहा चाही हे | 


( ४७० ) 


कौन को कलेऊ धो करैया भये काल अ्ररु, 
कापे यों परैया भये गजब इलाही हे ॥ 
माधव के लाल का विकराल दल देख कर ओर उसके धोंसों की धम्म- 
धम्म सुन कर श्रपराधी शत्रु भौचक्के से रह गए और देव को याद कर अपनी 
कुशल मनाने लगे। 
मद्दाकवि भूषण के नीचे लिखे पद्य में भी भयानक रस का सुन्दर 
वर्णन हे-- 
चकित चकत्ता चौंकि चौंकि उठे बार बार, 
दिल्ली ददसत चितैे चाह करषति हे। 
बिलखि बदन बिलखात बिजैपूर पति 
फिरत किरंगिन की नारी फरकत हे ॥ 
थर थर काँपत कुतुबसाह गोलकुणडा, 
हृदरि हवस भूष भीर भरकतिददे। 
राजा शिवराज के नगारन की धाक सुनि, 
ह केते पाद साइन की छाती दरकति है॥ 
शेर शिवराज के नगाड़ों की धाक सुन, कुतुबशाह थर-थर काँपने लगे 
श्र शत्रु ञ्रों की छाती घड़कने लगी | 
औझरौर देखिए, यहाँ वियोगिनी को आह निकल जाने की श्राशंका मात्र से 
कितना भय छा गया है--- 
'शंकर? नदी नद नदीसन के नीरन की, 
भाष बन अम्बर ते ऊँची चढ़ जायगी। 
दोनों ध्रुव छोरन लो पल में पिघलकर, 
घूम घूम धरनी घुरी सी बढ़ जायगी | 
भझारंगे अ्गारे ये तनि तारे तारा पति, 
जारेंगे खमंडल में श्राग मढ जायगी। 
काहूँ विधि विधि की बनावट बचेगी नाहिं 
जो पै वा वियोगिनी की आ्राह कढ़ जायगी ॥ 
शंकर कविराज ने भय का कैसा अनूठा कारण खोज निकाला है। कहीं 
शन्न की सैन्य देख भय पैदा हुआ है, कहीं धनुष हटने का भयझ्भुर शब्द 


( ४७१ ) 


सुनकर और कहीं आग लगने श्रादि के कारण | परन्तु यहाँ वियोगिनी की 
आह निकलते ही भयद्भूर प्रलय-काश्ड उपस्थित द्वोने की आशंका से ही 
सब भीत हो रहे हैं । 


महांकवि इरिशौध का भी निम्नलिखित पद्म इस प्रसंग में पढ़ने 
लायक है-- 
शिव की समाधि भई भंग भीम नाद भयो, 
कंपे लोक पाल घीर श्रुव ना धरे रहे । 
सहमें सुरासर सशंकित दिगन्त भयो. 
सारे पारावार न॒प्रपञथ्च से परे रहे॥ 
'हरिऔध' प्रलय विभूति को विकास देखि, 
भुवन सु भूषर भयातुर श्ररे रहे। 
भीत भए. भूत भारी भीरुता धरा में धेंसी, 
सित भानु डरे भानु भभरे खरे रहे। 
यहाँ शंकर जी की समाधि भंग होने पर तीनों लोक में त्रास छा गया है, 
उसका वरणुन किया गया हे । 


र्नाकर जी के गंगावतरण से भयानक रस के कुछ पद्म नीचे दिए जाते 
हैं, देखिए -- 
उड़त फृहारन को तारन प्रभाव पेखि, 
जम हिय हारे मनों मारे करकनि के। 
चित्र से चकित चित्र गुप्त चपि चाहि रहे, 
बेचे जात मरडल अखरण्ड अरकनि के ॥ 
गंग छींट छुटकि परै न कहूँ. आ्रानि इते. 
दूत इमि तानत त्रितान तरकनि के | 
भागे जित तित तें अ्रभागे भीति पागे सत्रै, 
लागे दौरि दौरि देन द्वार नरकनि के ॥ 


यहाँ पर गंगा जी की पतित-पावनी फुद्दारों का पवित्र प्रभाव देख कर 
यमदूत और चित्रगुप्त आदि भय के मारे नरकों के फाटक बन्द कर 
रदे हें। 


( ४७२९ ) 


ओर देखिए-- 

थोधि बुधि विधि के कमण्ढहल उठायवत ही, 

घाक सुरधुनि की घसी यों घट घट में । 
कहे 'रतनाकर” सुरासर ससंक सब, 

विवस विलोकत लिखे से चित्रपट में ॥ 
लोक पाल दोरन दसो दिसि हृदरि लागे, 

हरि लागे हेरन सुपात वर वट में। 
खसन गिरीस लागे त्रसन नदीस लागे, 

इस लागे कसन फनीस कटि तट में ॥ 


अभी गंगा जी सुरघाम से नीचे आई भी नहीं हैं, केवल उन्हें मत्य लोक 
में उतारने को ब्रह्मा जी ने अपना कमएडल द्वी उठाया है कि तीनों लोकों में 
इलचल मच गई । उक्त पद्य में रत्नाकर जी ने भयानक रस का कैसा सुन्दर 
चितन्न अंकित किया हे | 


लंका में हनुमान जी द्वारा श्राग लगाए जाने पर वहाँ के निवासियों में 
कैसा न्रास छा गया हे । नीचे लिखे पत्मयों में उस श्रम काण्ड का वर्णन 
पढ़िए... 
जहाँ तहाँ बुबकी बिलोको बुबकारी देत, 
जरत निकेत घावो धावो लागी श्रागि रे। 
कहाँ तात मात श्रात भगिनी भामिनी भाभी, 
ढोटा छोटे छोदरा अ्रभागे भागि-भागि रे || 


हाथी छोरो घोरा छोरो मह्िष वृषभ छोरो. 

छेरी छोरो सोबै सो जगाबो जागि जागि रे । 
“तुलसी' बिलोकी अ्रकुलानी यातुधानी करें, 

बार बार क्यो पियकपि सों न लागिरे ॥ 


अरे भागो, सब छोड़कर भाग चले। । प्राण बच जाय, वही क्‍या थोड़े हें, 
सब सामान को आग लग जाने दो। हमने तो पहले द्वी कह्य था कि इस 
बन्दर को मत छेड़ो | 


( ४७३ ) 


और देखिए. -- 

लागि लागि आगि भागि भागि चले जहाँ तहाँ, 

घीय को न माय बाप पूत न सम्हारहीं | 
छुटे बार बसन उचारे धूम धुन्ध अन्ध, 

कहें बारे बूढ़े बारि बारि बार बार हीं ॥ 
हय हिहिनात भागे जात घहरात गज, 

भारी भीर ठेल पेल रोंदि खोदि ढडारहीं। 
नाम ले चिल्‍लात बिललात अकुलात शअ्रति, 

तात तात तोंसियत भौंसियत भारदीं ॥ 


तुलसीदास जी कद्दते हैं-- श्राग के लगते द्वी सब पर-बार छोड़ भाग 
चले | यहाँ तक बाल-बच्चों की भी सुध न रही । लोग जलते-भमुलथते, रोते- 
चिल्लाते अन्धा धुन्ध भागे चले जा रहे हैं । 


भगवन्त कवि ने भी लंका-ददन का वन बड़े भयानक शब्दों में किया 
हे, देखिए--- 
पौन पूत आगि को लगाय “भगवन्त” कवि, 
लगत न घाव काहू तुपक न तीर को । 
रातो भयेा श्रसमान ताताो भयेा भासमान, 
कारो पीरो नीर भये। नीरधि के तीर को ॥ 
लंका लागी जरन बरन रनवास लाग्या, 
व्याकुल हे असुर घरे न रन धीर को । 
सुरन को जाप द्दे के सीता को सराप है के, 
रावन को पाप के प्रताप रघुबीर को ॥ 


अरे यह शआ्राग नहीं हे, बल्कि देवताओं का श्रभिशाप, सीता की बददुआ, 
रावण का पाप ओ्रोर रामचन्द्र जी का प्रताप, सब एक साथ इकट्ठे होकर 
राक्षतों का संद्दार करने आ गए हैं । 

नीचे लिखे छुप्पय में श्मशान का कैसा भयंकर चित्र खींचा गया है--- 


रुरआ चहूँ दिसि ररत डरत सुनि के नर नारी। 
फट फटाय दोऊ पंख उल्लुकहु रटत पुकारी। 


( ४७४ ) 


अंधकार बस गिरत काक अर चील करत रव। 
गिद्ध गरड़ हड़गिल्ल भजत लखि निकट भयद रव | 
रोवत सियार गरजत नदी स्वान भोंकि डरपावह | 
संग दादुर भींगुर रदन धुनि मिलि स्वर तुमुल मचावहीं॥ 
वर्षा ऋतु की भयावनी रात में नदी-तट वर्ती श्मशान का बड़ा भयंकर 
इृश्य होता है, उसी का वर्णन ऊपर किया गया हे । 
अब मद्दाकवि रत्नाकर के श्मशान का बन पढ़ लीजिए--- 
हर हरात इक दिसि पीपर को पेड़ पुरातन, 
लटकत जामें घंट घने माटी के बासन। 
वर्षा ऋतु के काज और हू लगत भयानक, 
सरिता बहति सवेग करारे गिरत अ्रचानक। 
ररत कहूँ मण्ड्रक कहूँ मिल्‍ली भनकारे, 
काक मण्डली कहूँ अमंगल मन्त्र उचारें। 
भई आनि तब सॉक घटा आई घिरि कारी, 
सने-सने सब ओर लगी बाढ़न अधियारी। 
भए इकट्टे आमनि तहाँ डाकिनि पिसाचगन, 
कूदत करत कलोल किलकि दोरत तोरत तन। 
आकृति श्रति बिकराल घरे कुइला से कारे, 
वक्र बदन लघु लाल नयन जुत जीम निकारे। 
कैसा स्वाभाविक वर्यान है। पढ़ते समय आँखों के श्रागे भयानकता का 
चित्र सा खिंच जाता हे। 
भुवन घुंध रित धूलि धूलि घुघरित सु धूमहु, 
'पद्माकर! परतच्छु स्वच्छु लखि परति न भूमहु । 
भग्गत श्ररि परि परग लग्गत अ्रेंग अंगन, 
तह प्रताप प्‌्थिपाल ख्याल खेलत खुलि खग्गन। 
ते तबहिं तोप तुंगणि तड़पि तड़तड़ात तेगनि तड़कि । 
घुपि घड़-घड़-घड़-घड़ धघड़ा घड़-घड़-घड़ात्‌ तद्धा धड़कि ॥ 
पद्माकर जी ने युद्ध क्षेत्र का केसा स्वाभाविक वर्णन किया है। पद्म को 
पढ़ते समय ऐसा जान पड़ता है, मानो हमारे सामने ही तोपे' गरज रही हैं | 


( ४७४ ) 


प्माकर जी का नीचे लिखा दोहा भी देखने लायक है--. 
एक और अ्रजगरहि लखि एक श्रोर सृगराय | 
विकल बटोही बीच ही परयो मूच्छा खाय ॥ 
बेचारा बटोहदी अ्रजगर ओर सिंह के ब्रीच में पड़ जाने से मू्ज्छित होकर 
गिर पड़ा | 
ओर देखिए-- 
लखन सकोप वचन जब बोले, डगमगानि मद्दि दिगाज डोले। 
सकल लोक सब भूप डराने, सिय हिय दरघष जनक सकुचाने। 
यहाँ लक्ष्मण जी के क्रोध भरे ववन सुनकर ही संसार भयभीत हो 
गया है । 
हरिश्रोध जी ने भयानक रस का बड़ा सजीव चित्र खींचा है, देखिए, यह 
कविता उक्त रस का केसा अच्छा उदाहरण है--- 
घँस के घरातल में घँंसि जै है नाना जीव, 
ज्वाल माल जगे गेह धू धू धू धू जरिहें । 
परि परि पावक में विपुल पहार पंक्ति, 
प्रलय पटाका हे प्रचए्ड रव करि हैं॥ 
'हरिओऔध! बार बार मूं पै बज्रपात हेहै, 
काल पेट दद्त भुवन भूरि भरि हैं। 
काँ चे घट तुल्य सारे लोक फूटि-फूटि जैहें, 
टकराए कोटि-कोटि तारे टूटि परि हैं ॥ 
अगर यद्द सब कुछ होगया तो प्रलय में शेष द्वी क्या रह जायगा। फिर 
तो पहाड़ों की पंक्तियाँ तक प्रचण्ड पावक में पड़कर प्रलय-पटाखों की तरह 
चटाक-चटाक छूटने लगेगीं, वज्पातों का तो ठिकाना ह्वी न रहेगा। नक्षत्र भी 
आपस में टकराने लगेंगे । 
वीभत्स रस 


वीभत्स रस का स्थायी भाव जुगुप्सा या ग्लानि है। जिन वस्तुओं, प्रसंगों 
स्थानों, कार्यों और दृश्यों से घुणा के भाव पैदा होते हैं, वे ही वीभत्स रस 


( ४७९६ ) 


के उत्पादक हैं | मरघट में चिताओं की चड़चड़ाहट, माँस-मेद की दु्गन्धि, 
श्वान ग्रादि का माँत-भक्षण, गिद्ध, कौश्रों द्वारा अतड़ियाँ निकाला जाना, 
इत्यादि कार्य वीभत्स रस के द्योतक हैं | मल, मूत्र आदि देखकर तो सबको 
ही घुणा होती हे | कुछ लोग तो इतने गन्दे रहते हैं, कि उनके फूदड़पन 
के कारण द्वदय ग्लानि से भर जाता है । किसी को तो अश्लील और घिनौने 
शब्द निकालने की झआादत-सी पड़ जाती हे, इन सबसे द्वी ग्लानि या जुगुप्सा 
के भाव जाग्रत होने लगते हैं । कभी-कभी स्त्री, पुरुषों से ऐसे पाप-पूर्ण गन्दे 
काम बन जाते हैं, जिनके कारण उससे घोर घृणा होती है, और फिर उनसे 
मिलने को चित्त नहीं चाहता। ऐसा व्यापार भी वीभत्स रस का द्ोतक 
होता है | आप किसी के घर जाहये, यदि वहाँ चोज़ें अश्रस्त-व्यस्त दशा में 
पड़ी हैं, खाट-खटोले ऊट-पटाँग तरद्द से रक्‍्खे हैं, चौके में मक्खियाँ मिनमिना 
रही हैं, दाल में मिट्टी पड़ रही है, शाक उघरा रखा है, पानी के घड़ों पर 
कोए. चोचे' मार रहे हैं, आटे को बिल्ली नोचे लिये जाती हैं, छोटी 
छोटी चिड़ियाँ कभी इस चीज़ पर फुदककर बैठती हैं, तो कभी उस पर, 
उनके गंदे पंजों से सारे पदार्थ अपविन्न हो रहे हें इत्यादि, इस प्रकार की 
अवस्था को भी वीभत्स की संशा दी जाती है । उस समय यद्द ख़याल नहीं 
किया जाता कि भोजन-सामग्री को वीभत्स रस में क्‍यों सम्मिलित किया जाय । 
जैसा कि ऊपर कद्दा गया, जहाँ जहाँ ग्लानि और घृणा हें, वहाँ वहाँ ही 
वीभत्स रस हे। 
अभिप्राय यद्द कि माँस, मेद, रुधिर, मज्जा, श्रस्थि भ्रथवा ऐसी ही अ्रन्य 
घिनौनी वस्तुश्रों का वर्णन द्वी वीभमत्स नहीं हे, प्रत्युत जिन कर्मों, इश्यों, 
वर्णनों, प्रथाओं से घुणा होती है वे सब ही वीभत्स रस में गिने जाने योग्य 
हैं| जद्दाँ मलिन मनोदृत्ति, ऋरता आदि हों वहाँ भी वीभत्स रस दह्वोता हे । 
वीभत्स दृश्य स्वास्थ्य विधातक माने गए हैं, उनके कारण कभी कभी 
करुणा की उत्पत्ति तथा धुकर्मों की शोर प्रवृत्ति होती दे। वीभत्स रस 
विषय विरक्ति में सहायता देता हे ओर इसके कारण युद्ध की भयंकरता भी 
पुष्ट होती हे । 
कुछ लोग पूछ सकते हैं, भला घिनोनी बातों का वर्णन भी “रस” हो 
सकता है | इसका उत्तर यही दे कि श्रवश्य हो सकता हे। जुगुप्सा पूर्ण बातों 


( ४७७ ) 


काव्यमय वर्णन में पाठकों को खूब रुचि होती है। मान लीजिए, किसी कवि 
को किसी युद्ध का वर्णन करना है, उस युद्ध में शत्र्‌ दल की हार पर हार 
दो रही दे | सैनिकों के रुधिर से नदियाँ बह रदह्दी हें, लाश पर लाश पड़ी है, 
गिद्धों शोर कौओझों का व्यापार जारी हे | ऐसी अवस्था में यदि कवि इन सब 
बातों का शब्द-चित्र नहीं खींचता तो वह अपने कतंव्य-पालन में कमी करता 
है, इस वर्णन से पाठकों को शत्रु की दुर्दशा, तुब्छुता और पराजय का भले 
प्रकार परिचय मिलता है ओर उसकी करारी हार तथा सेनिकों की इस 
प्रकार दुगंति देखकर एक प्रकार की आनन्दमयी ग्लानि द्ोती हे, जो वीभत्स 
रस को सिद्ध करतो है । 


किसी फूहड़ स््रो, गन्दे महल्ले, या घर का काव्यमय वर्णन पाठक के लिए 
आनन्द का ही कारण बनता हे, देखिये नीचे लिखे छुन्द में एक फूहड़ का 
कैसा विचित्र बन किया गया है । 
माता द्वी को मास तोहि लागतु दे मीठो मुख 
पियत पिता को लोहू नेक न श्रधाति हे । 
भैयन के कंठन को काटत न कसकति, 
तेरो दिया केसो हे जु कहत सिद्दाति हे । 
जब जब होति भेंट मेरी भट्ट तब तब, 
ऐसी सौहें दिन उठि खाति न अ्रधाति दे । 
प्रेतनी पिशाचिनी निशाचरी की जाई हे तू, 
कैसोंराय की सां कहु तेरी कौन जाति है। 
इसके पढ़ने से जद्दाँ उस मैली-कुचेली गन्दी सत्री के प्रति घोर घृणा होती 
है, वर्दाँं उसकी दशा का हूबहू काव्यमय शब्द-चित्र अंकित हुआ, देखकर 
पाठक को आनन्द भी प्राप्त होता हे । यही वीभत्स रस की उपयोगिता है । 
जहाँ ग्लानि श्रोर घुणा की परिपुष्टि होती हे, उसे वीभत्स रस कहते हैं। 
वीभत्स रस का स्थायीभाव ग्लानिवा घुणा, देवता महाकाल और वर्ण 
नील दे । 
सड़ी-गली और दुगन्धित वस्तुएँ, मांस, रुघिर, पीव, चर्बी, विष्ठा, मृत्नादि 
वीभत्स रस के आलम्बन हैं । 
हिं० मं७ २०--ह ७ 


५ अ७८ ) 


सड़े-गले ओर कीड़े पड़े हुए. पदार्थों पर मक्खियाँ भिनभिनाते देखना, 
भिनोनी वस्तुश्रों की चर्चा सुनना, या कहना अश्रादि इसके उद्दीपन विभाव हैं। 

थूकना, मुद् फेर केना, नाक सिकोड़ना या बन्द करना, आँख मूँदना, 
कृम्प, रोमाश्च आदि वीभत्स रस के श्रनुभाव हैं । 

अपस्मार, मोह, श्रावेग, व्याधि, मरण आदि इस रस के संचारी भाव हैं । 


शंकर कविराज ने नीचे लिखे पद्य में फूहड़ का केसा वीभत्सता पूर्ण बन 
किया हे-- 


भौड़े मुख लार बहे भ्राँखिन में ढीड़ राधि-- 

कान में सिनक रेंट भीतिन पे ढार देति। 
खरे-खर खुरचि खुजाबै मटुका से पेट 

टेड़ी लॉ लटकते कुचन कों उधार देति ॥ 

लौटि-लोटि चीन धाँघरे की बार-बार फिरि 
है थीनि-बीनि डींगर नखन धरि मार देति। 

लूँगरा गंधात चढ़ी चीकट सी गात मुख-- 
धोबे ना अन्द्दात प्यारी फूहडड़ बहार देति॥ 


वाह ! फूदड़ क्या बहार दे रही हे !! उपयक्त पद्य में, भोड़े मुख से लार 
का बदना, आँखों से ढीड़ और कान से राध का चुचाना श्रादि घृणा के 
अलम्बन हैं | रं. सिनक कर भीतों पर डालना, 'डींगर' बीन-बीन कर 
मारना श्रादि उसके उद्दीपन। उक्त घिनोनी बातों को देख नाक सिकोड़ना, 
थूकना आदि स्वाभाविक हैं, वे दी घृणा के अ्रनुभाव हुए | इन सबके मिलने 
से ही यहाँ वीमत्स रस उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार अ्रन्य उदाहरणों में भी 
जानना चाहिए | 


कविवर रत्ाकर के निम्नलिखित श्मशान वर्यन में केसी वीभत्सता भरी 
हुई हे-- 
कहुँ लागति कोठ चिता कहूँ कोऊ जाति बुकाई। 
एक लगाई जाति एक की राख बहाई। 
विविध रंग की उठति ज्वाल दुरगंधनि मदहकति। 
कहूँ चरबी सों चट चटाति कहुँ दद दद दहकति । 


( ७६ ) 


कहुँ फँकन हित घर'यौ मृतक तुरतद्दि तहेँ आये। 
परयौ अंग भ्रध जरयो कहूँ कोऊ कर खाया । 
कहूँ श्वान इक अश्रस्थि खंड ले चाडि चिचोरत | 
कहूँ कारो महि काक ठढोर सों ठोकि टठोरत । 
कहूँ श्वगाल कोउ मृतक अंग पर ताक लगावत। 
कहुँ कोउ शव पर बैठि गिद्ध चट चोंच चलावत । 
जह तहँ मज्जा मांस रघिर लखि परत बगारे। 
जित तित छिटके हाड़ स्वेत कहूँ कहुँ रतनारे। 
भए इकट्ठा श्रानि तहाँ डाकिनि पिशाचगन। 
कूदत करत कलोल किलकि दौरत तोरत तन। 
आकृति अति विकराल धरे क्वैला से कारे। 
वक्र बदन लघुलाल नयन जुत जीम निकारे। 
कोउ कड़ाकड़ हाइ चावि नाचत दे ताली | 
कोऊ पीवत रुघधिर खोपरी की करि घप्याली। 
कोउ अॉँतड़ी की पहिरि माल इतराय दिखावत। 
कोउ चरबी लै चाप सहित निज अंगनि लावत। 
कोउ मुंडनि लै मान मोद कंदुक लॉ डारत। 
कोउ रंडनि पे बैठि करेजी फारि निकारत। 
और भी देखिए--- 
कोटि कुंड संडनि के रुंड में लगाय तुंड, 
मंड भुंड पान के के लोहू भूत चेटी हे । 
घोड़न चबाय चरबीन सों श्रथाय लेटी, 
भूख सब मरे मुरदान में समेथी है।। 
लाल अ्रंग कीन्द्दे सीस द्याथन में लीनहें, 
अस्थि भूषन नगीने आ्राँत जिन पे लपेटी है । 
हरध बढ़ाय अँगुरिन को नचाय पिये 
सोनित पियासी सी पिसाचिनि की बेटी हे ॥ 
ऊपर के पय में हाथियों का लू पीना, घोड़ों को चबाना, अँतड़ी लपेडी 
रड्ियाँ हाथों में घारण करना आदि काय घुणा के उत्पादक हें । 


( भू८० ) 


महाकवि भूषण ने वीभत्स रस में तलवार का वर्णन कितेनी सुन्दरता से 
किया है-- | 
रदत अलछुक पे मिटे न धक पीवन की, 
निपट जो नाँगी डर काहू के डरे नहीं | 
भोजन बनावे नित चे।खे खान खानन के, 
सोनित पचावे तऊ उदर भरे नहीं॥ 
उगिलत अ्रासी तऊ सुकल समर बीच, 
राजे राव बुद्ध-कर ब्िमुख परे नहीं। 
तेग या तिद्ारी मतवारी हे अ्रछक तोलों, 
जो लॉ गजराजन की गजक करे नहीं || 
तलवार का नंगी रह कर रुधिर पीना, चेाखे “खान खानाओं? को खाना, 
खोर गजराजों की गजक बनाना श्रादि सभी काय घृणा व्यक्ञक होने से 
वीभमत्स.. रस के उत्पादक हैं । 
ग्रौर देखिए. नीचे लिखे छुप्पय से केसा वीभत्स रस प्रवाहित हो 
रहा हे-- 
सिर पे बैठो काग श्राँखि दोउड खात निकारत । 
खंचत जीवहिं स्थार अ्रतिहि श्रानंद उर धारत | 
गिद्ध जोंच कहँ खोदि खोदि के माँस उपारत । 
श्वान श्राँगुरिन कार्टि-काटि के खान विचारत | 
बहु चील नोचि ले जात तुच मोद मक्यों सब को हियो ॥ 
मनु ब्रह्म भोज जिजमान कोउ आजु भिखारिन कहूँ दियो॥। 
आज किसी यजमान ने भुक्खड़ों को केसा श्रच्छा भोज दिया है। 
कविवर रामचरित उपाध्याय ने भी नीचे लिखी पंक्तियों में वीभत्स रस 
का कितना उत्कृष्ट बन किया है--- 
अतिथि हैं श्वान गीदड़ गिद्ध तेरे । 
सदा सब हैं मनोरथ सिद्ध तेरे। 
५८ >< >८ 
कहीं जल में बहे शव जा रहे हैं। 
उन्हीं पर काक कड़खे गा रहे हैं। 


( भष्ए१ ) 


कहीं शव सड़ रदे हैं पास तेरे। 
लगे पर क्‍यों हृदय में त्रास तेरे। 
कहीं पर हो रहा है घोर हाल्‍हा। 
कहाँ पर गूजता है शान्त स्वाहा। 
शवों पर बैठकर काक काँव-काँव के कड़खे गाते हैं| इधर-उधर पड़े शव 
सड़ रहे हैं जिन पर मक्खियाँ भिनक रही हैं । उक्त सभी सामग्री वीभत्स रस कौ 
उत्पादक हैं । 
शग्रव कविवर मैथिलीशरण जी का वीमत्स-वर्णन भी पढ़ लीजिए--. 
इस ओर देखो रक्त की यह कीच केसी मच रही, 
है पट रही खंडित हुए बहु झंड मंंडों से मद्दी। 
कर पद असंज्य कटे पड़े शस्त्रास्न फेले हैं तथा, 
रंग स्थली दी मृत्यु की एकत्र प्रकटी हो यथा। 
भुकते किसी को थे न नो तप मुकठ रत्नों से जड़े, 
वे श्रब श्गालों के पदों की ढोकरें खाते पड़े। 
पेशी समझ माणिक्य को वह बिहग देखो ले चला, 
पड़ भोग की ही भश्रान्ति में संतार जाता दे छुला | 
युद्ध भूमि का केसा घिनोना चित्र ऊपर की पंकछियों में अंकित किया 
गया हे । 
शंकर जी के नीचे लिखे दोद्दे भी वीभत्स के अ्रच्छे उदाहरण हँ-.. 
रहि घूँघट की श्रोट में कबहुँ न त्यागी लाज। 
सो दढ्वे नेना काढ़ि कै कागनु खाये श्राज॥ 
>< ८ >< 
अगणित जन जिनके चरण चूमते दे शिर नाय । 
तिनकी सूखी खोपड़ी खड़के ठोकर खाय ॥ 
उक्त दोहों को पढ़कर मनुष्य के हृदय में इस अ्रसार संसार के प्रति घृणा 
के भाव उत्पन्न होकर वीभत्स रस का संचार हेने लगता है । 
कविवर सनेद्दी जी की आगे लिखी पंक्तियों में भी वीभत्स का बड़ा अच्छा 
वर्णन दे--- 


( धर ) 


कहीं घक-घक चिताएँ जल रही थीं। 
घुआआँ मंह से उगल बेकल रहोौथों। 
कहीं शव अघ जला कोई पड़ा था। 
निठुरता काल की दिखला रहा था। 
)< >< ५ 
नीचे लिखे सवैया में क्रोध की मूर्ति नायिका का कैसा चित्र खींचा 
मया हे- 
होत ही प्रात जो घात करे नित पार परौसिन सों कल गाठी। 
हाथ नचावति मूँड़ खुजावति, पोरि खड़ी रिस कोटिक बाढ़ी । 
ऐसी बनौ नखते सिखलों 'ब्रजचंद' ज्यों क्रोध समुद्र ते काढ़ी । 
इंट लिए. बतराति भतार सों भामिनि मान में भूत सी ठाढी । 


उक्त पद्म में वणित “भूत सी भामिन? के क्रिया-कलाप से घ॒णा द्वोती हे, 
अतः यहाँ वीभत्स रस हुआ। और देखिए--- 
सासु के विलोके सिंदनी सी जमुहाई लेति, 
ससुर के देखे बाघिनी सी मंद बावती। 
ननद के देखे नागिनी सी फुफकारे ब्रैठी, 
देवर के देखे डाकिनी सी डरपावती ॥ 
भनत “प्रधान! मौछें जारती परीसिन की, 
स्वसम के देखे खाँव खाँव करि धावती । 
ककसा कसाइनि कुलच्छिनी कुबुद्धिनी ये, 
करम के फूटे घर ऐसी नारि आवती ॥ 
प्रधान कवि के उक्त कवित्त में भी किसी ककशा का वर्णन घृणा व्यक्ञक 
होने से वीभत्स का उत्पादक है। 
वीमत्स के उदाहरण में नीचे लिखी पं क्तियाँ भी पढ़ने लायक हैं-- 
कट कटदिं जम्बुक भूत प्रेत पिशाच खपण्पर साचहीं। 
वेताल वीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नाच हाँ । 
अन्त्रावली गदि उड़त गीघ पिसाच कर गहि धावहों। 
संग्राम पुर बासिन मनु बहु बाल गुड्डि उड़ावहाीँ।॥ 
न ्ः हा 


( एधंप्रे ) 


कादर-भयंकर रुधघिर-सरिता चली परम अपावनी | 
दोउ कूल दल रथ रेत चक्र श्रवत बढ़ति भयावनी | 
जल जन्तु गज पदचर तुरग रथ विविध बाहन को गने | 
शर शक्ति तोमर परशु चाप तरंग चम कमठ घने ॥ 
यहाँ युद्ध भूमि में होने वाले भूतप्रेतादि तथा काक, गीघ, श्वान, 
श्वंगाल आदि के क्रिया-कलाप घृणा उत्पन्न करते हैं, अ्रत: यह वीभत्स 
रस हुआ | 
नीचे लिखे पद्य में कविवर हरिश्रोध ने बालिकाओं और विधवाओं पर 
अत्याचार करने वाले नर-पिशाचें का कैसा घुणोत्पादक चित्र खींचा है-- 
साँप ते डरावने भयावने हैं भूतन ते, 
काक जैसे कुटिल अपार अ्ररुचिर हें। 
अपजस-भाजन कलंक के निकेतन हें, 
कामुकता-मन्दिर के निन्दित अ्जिर हैं ॥ 
'इरिश्रोध' मानव सरूप माँदि दानव हें, 
आँखि-कान अछुत ते आँधर बधिर हें । 
हाड़ जे चिचारत बिचारी बिधवान के हैं, 
भारी बालिकान के जे चूसतत रुधिर हैं ॥ 
वस्तुत: ऐसे लोग मानव के रूप में दानव ही हैं | 
रामचरित मानस में भी वीभत्स रस का अच्छा वर्णन किया गया है, 
नीचे उसी में से कुछ चेपाइयाँ उद्धृत की जाती हैं । 
मज्जद्दिं भूत पिशाच त्रिताला, प्रथम मद्दा कोंटिंग कराला । 
खींचहि गीध आत तट भए, जनु बसी खेलहिं चित दए। 
काक कंक ले भुजा उड़ादी, इकते छीनि एकले खाहीं। 
बहु भट बद्दे चढ़े खग जाहीं, जनु नावरि खेलहि सरि माहीं । 
सवहिं शैल जनु निकरर वारी, शोणित सर कादर भयकारी । 
उक्त चाणइयों में युद्ध क्षेत्र की वीभत्सता का वशन किया गया है। 
अब भूषण जी का वीभत्स वर्शन भी सुन लीजिए-- 
भूप शिवराज कोप करि रन मण्डल में, 
खरग गहददि कूदयौ चकता के दरबारे में । 


( धभरध४ड ) 


काटे भट विकट रू गजन के संड काटे 

पाटे उर भूमि काटे दुबन सितारे में ॥ 
'भूषन' भनत चेन उपजै सिवा के चित्त 

चैसठ नचाई सबे रेबा के किनारे में । 
तअ्रतन की ताँत बाजी खाल की मृदंग बाजी, 

खोपरी की ताल पसुपाल के अ्रखारे में । 


उपयु क्त पद्म में नाचना, गाना, बजाना आदि का वर्णन भी वीभत्स के 
साथ हुआ है | 

सत्यनारायण जी के नीचे लिखे पद्म में भूत-पिशाच कैसा पव मना रहे 
हैं । देखिए- 


अति ताप ते अस्थि पसीजन सों कहै मेद की बूँदन जो टपकावे । 
तिन धूम घुमारिन लोथिन कों ये पिशाच चितान सों खेंचि के खाबें | 
ढिलियाय खसयी कच माँस सब्रे जिहि सोंजुग सन्धि हू भिन्न लखावें। 
अस जंघ नली गत मज्जा मिली सद पी चरबी परबी-सी मनावें॥ 


पिशाच गण चिता में से श्रध जली लाशों को खींचकर खाकर और जाँघ 
की हड्डी में से पिगलकर बहती हुईं चरबी को पीकर भति प्रसन्न होते हैं । 


ओर देखिए, राम-रावण के युद्ध में रुधिर से स्नान करके भूत पति कैसे 
नाच रहें हें-- 
इतदहि प्रचंड रघुनन्दन उदंड भुज, 
उते दशकंठ बढ़ि आरयो डरू डारि के । 
'सेमनाथ! कहे रन मंडयो फर मंडल में 
नाचये रुद्र सोनित सौं अंगनि पखारि के | 
मेद गूद चरब्ी की कीच मची मेदिनी में, 
बीच-बीच डोले भूत भैरों मद धारि के । 
चायनि सों चंडिका चबाति चंड मुंडनि कों, 
दंतनि सों अंतनि निचोरै किलकारि के ॥ 


सोमनाथजी के उपयक्त पद्य में प्रथिवी पर मज्जा-मेद के बिखरने से कीच 
हो जाने ओर घंडिका के मंड चबाने का वर्णन वीभठ्स रसोत्पादक हैं | 


( धष्घ४ ) 


इस प्रसंग में कवि लछिराम का निम्नलिखित कवित्त भी पढ़ने योग्य है ) 
समर समीप रामचन्द्र ओर रावण के, 
बानन की बरसा घटा-सी घिरि जाति हैं । 
कोटिन सुभट परे परिदरि प्राण भूमि, 
तिन्हें हेरि गीघषन की सेना मंडराति हैं ॥ 
कवि 'लछिराम” कालिका की किलकार सुनि, 
जंग जोरि जोगिनी-जमाति दरषाति हैं। 
खोपरी के प्यालन में करति रधिर पान, 
श्रांतन की माला गर चरबी चबाति हैं।। 
राम रावण के युद्ध में प्राण त्यागकर पड़े हुए. करोड़ों योद्धाओं के शबों 
पर गिद्धों की सेना मंडरा रद्दी हे। जोगिनियों की जमात प्रसन्न होती हुई 
खोपड़ियों के प्यालों में भर-भर कर रुधिर पान कर रही है। पिशाचें की 
मंडली श्राँतों की माज्ञा गले में डाले चरब्री चाटती हुई घूम रही है। 
वीभत्स रस का कितना उत्कृष्ट वर्णन दे । 


अदभुत रस 


अद्भुत रस का स्थायी भाव श्राश्व य है । शछलोकिक घटना या वस्तु के 
देखने, सुनने, श्रथवा उसका अनुमान श्रादि करने से इस रस का बोध 
होता दे । जिस विचित्र और लोकोफ्तर दृश्य को देखकर मनुष्य की बुद्धि 
चकराती ओर उसका कारण जानने में श्रक्षम-सी हो जाती है, वही अ्रदूभुत 
रस है। घटना की लोकोत्त रता या विचिब्नता से एक प्रकार का श्रद्भुत श्रानन्द 
प्रात्त होता है| मनुष्य का मस्तिष्क उस विचित्नता का कारण जानने के 
लिए श्रातुर होता है, और यदि यह कारण भी विचित्र हुआ तब तो आश्चय 
और भी बढ़ जाता हे। परमात्मा को सृष्टि विचित्रताओं और आाश्चर्यों से 
पूर्ण हे । जिधर आँख उठा कर देखिये उधर ह्टी उस जगन्नियन्ता की विस्मय- 
कारिण कारीगरी दिखायी देती है | बड़े बढ़े वेज्ञानिकों के सिर पटकने पर 
भी उस महामद्दिम का गूढ रहस्य समझ में नहीं आया | भोतिक विकास 
की विभूतियाँ भी आश्रयंजनक हैं, परन्तु वे वेशानिक आ्राधार पर आविष्कृत 
होने के कारण, उतनी आ्राश्वयमयी नहीं, जितनी सृष्टि की स्वाभाविक 


( इऑष्द ) 


विचित्रताएँ | हवाई जहाज, रेडियो, टेलीफोन, टेलिग्राफ़ आअ्रादि सबव॑ साधारण 
के लिए भले ही आ्राश्वयंजनक हों परन्तु उनका कारण समभने वालों के 
लिए वह वैसी नहीं रहतीं | आश्र य॑ तो वहाँ है, जहाँ कारण और काय॑ दोनों 
लोकोत्तर हो--दोनों का अश्रनुमान करके बुद्धि चक्कर में पड़ जाती द्वो। 
अदभुत रस में हास्य रख की अपेक्षा श्रधिक विपरीतता होती है। जिसमें 
हास्य की मात्रा नहीं होती, उसे अद्भुत रत अपनी ओर आक्ृष्ट नहीं कर 
सकता। अद्भुत रस का सबसे बड़ा प्रभाव मनुष्य पर यद्द पड़ता हे, कि 
उसे संसार की विस्मयकारिणी विचित्रताश्रों को देखकर, उनके कारणों के 
जानने की इच्छा दोती हे। अन्वेषण शक्ति बढती श्रोर प्रकृति के गूढ़ 
रहस्यों को समझने की जिशासा जगती हे। विचित्रता पूर्ण विश्व को देखकर 
परमात्मा की सत्ता मद्दतत्ता में अटल विश्वास हो जाना तो स्वाभाविक है। 

विस्मय की परिपुष्टि को अद्भुत रस कद्दते हैं । 

अद्भुत रस का स्थायी भाव विस्मथ् अथवा आश्रय, देवता ब्रह्मा या 
गन्धयं और वर्ण पीत है । 

विचित्र वस्तु, अलोकिक चरित्र, व्यापार, वार्ता तथा दृश्य इसके 
अ्रालम्बन विभाव हैं | 


आश्रय में डाल देने वाले कार्यों या वस्तुश्नों का देखना, अलौकिक 
गुणों या बातों का सुनना, इच्छित वस्तु की अचानक प्राप्ति, अत्यन्त प्रतिष्ठा 
पाना, माया, इन्द्रजाल आदि अद्भुत रस के उद्दीपक हैं। 

नेत्र विकास, एक टक देखते रहना, रोमाश्व, अशभ्र, स्वेद, स्तम्भ, गद्गद्‌ 
स्वर, सम्श्रम श्रादि इसके अनुभाव हैं । 

वितक, आवेग, श्रान्ति, हृ्ष, कम्पन, उत्सुकता, चश्चलता, प्रलाप, 
स्तम्भ, श्रश्न, स्वेद, गद्गद्‌ कंठ, रोमाश्च आदि अदभुत रस के सारी 
भाव हैं 

देखिए शक्कर जी ने अपने नीचे लिखे कवित्त में कामदेव द्वारा समस्त 
संसार को जीत लेने का वणन कैसे अ्रदूभुत ढंग से किया दे-- 

ऐसो सूरमान को शिरोमणि प्रतापी पुत्र, 
पायो मन चश्बल नपुंसक कहाये ने। 


( भ८७ ) 


सेवा कर रस राज ऋतुराज साथी सदा, 
व्याही रति रमणी लछुबीली छुबि छाये ने । 
काम केलि बन्धन में बाँध नर-नारिन कों, 
बोरे प्रंम-सिन्धु में मनोज नाम पाये ने । 
'शड्भर! के कोप ने अनज्ञ करि डारयो तऊ, 
सारो जग जीति लिये द्दौनढ़ा के जाये ने ॥ 


यहाँ चञ्बल और नपुंसक मन के पुत्र होना, आलम्बन विभाव है। उस 
मनोभव काम के अश्रनज्ञ होने पर भी उसके द्वारा समस्त संसार का जीता 
जाना उद्दौपन विभाव दे | इस प्रकार की आश्चयंजनक और अनदोनी बातों 
को सुन या देखकर सम्भ्रम पूबक मनुष्य के नेन्नों का विकसित हो जाना 
अनुभाव और वितक उत्सुकता आदि सा्वारी भाव हैं । श्रतः यहाँ अदभुत 
रस हुआ | 
नीचे के सवैया में केसे विचित्र ढंग से “ पावक-पुंज में पंकज ” फुलाया 
गया है--- 
भूमति आई नवेली भट्ट जनु जोवन हाथी अ्रनंग ने हल्‍्यो। 
ठाढ़ी भई मन भावन के ढिंग 'शद्डूर' नेह उमंग सों ऊलयौ । 
लाल दुकूल के घुँघट में धन को मुख देखि धनी सुधि भूल्यो । 
बोौरे की भाँति पुकारि उख्यो अरे पावक-पुञ्ञ में पंकज फूल्यो॥ 
अग्नि में कभी कमल नहीं खिला करता, वह तो जल द्वी में विकसित 
दोने की चीज़ हे, परन्तु कवि ने अपनी नव नवोन्मेष शालिनी प्रतिभा द्वारा 
इस श्रसम्भव को सम्भव-सा कर दिखाया हे । 
लाल साड़ी के घूँघट में छिपे हुए नायिका के मुख मण्डल को देखकर 
नायक की सुधि लुधि त्रिसर गई ओर वह बावले की भाँति पुकार उठा-- 
'अरे ! अ्रग्नि की लपटों में कमल केसे खिल उठा । यहाँ लाल साड़ी के पुँघट 
को पावक-पुञ्न और मुख को पड्डुज से उपमा दी गई हे । 
शझ्कूर जी का अ्रदूभुत रस सम्बन्धी एक सवैया और भी देख लीजिए--- 
'शझ्भूर? तेल मलै रज को मग नीर में न्हाइ सुबेस बनावे। 
भूषण घार खपुष्पन के सब ओर दिगम्बर देह दुरावे | 


( भध८ ; 
नाम अ्रसिद्ध श्रसम्भव की धन देख अमोतिक रूप दिखावे। 
पुत्र अभावहिं गोद लिए बिन बारन माँग सँवारति आवे॥ 
यहाँ असिद्ध नामक असम्भव की 'घन” ( पक्षी ) का कैसा विचिन्न वर्णन 
किया गया दे | मृग-मरीचिका के जल में स्नान कर बालू का तेल लगाना, 
दिगम्बरों द्वारा शरीर ढक कर आकाश-पुष्पों के भूषण सजाना, अ्रभाव नामक 
पुत्र को गोद में खिलाना और बिना बालों के माँग सँवारना एक से एक 
अदभुत काय हैं । 
महाकवि हरिश्रोध ने श्रदुभुत रस के उदाहरण में नीचे लिखा पद्म 
दिया हे-- 
देहिन को सुंचित सनेहिन समान करि, 
पंख अति मंजुल पवन के हिलत हैं। 
चन्द के मनोरम करनि ते अ्रवनि काज, 
चाँदनी के सुन्दर बिछावने सिलत हैं ।। 
- “हरि ओध? कोन कहे काके अनुकूल भए, 
सीपन में मोती मन भावने मिलत हैं। 
कीच माँद्दि अमल कमल बिकसित द्दोत, 
धूलि माँहि सुमन सुद्दावने खिलत हैं ॥ 
कीचड़ जैसी गन्दी चीज़ से कमल समान सुन्दर वस्तु का उत्पन्न होना, 
तथा धूल में गुलाब जैसे फूल खिलना कम आश्चय को बातें नहीं हैं । 
कविवर पद्माकर के नीचे लिखे पद्म में अद्भुत रस का केसा सुन्दर 
चित्र खींचा गया हैं--- 
सात दिन सात राति करि उतपात महा, 
मारुत भकोरें तरु तोरें दीह दुख में । 
कहे 'पदमाकर! करीौ त्योँ धूम घारन हूँ 
एते पै न कान्ह काहू आयो रोष रुख में | 
छोर छिंगुनी के छ॒त्र ऐसो गिरि छाइ राख्यो, 
ताके तरे गाय गोप-गोपी खरे सुख में। 
देखि-देखि मेघन की सेन अ्रकुलानी रद्यो-- 
सिन्धु में न पानी अरू पानी इन्द्र मुख में।। 


(५ प्रदू€ ) 


इन्द्र ने कृपित होकर ब्रज पर प्रलय काल की-सी वर्षा की, श्रॉँधी चलाई. 
बड़े-बड़े वृक्ष जड़ से उखाड़ कर फेंक दिए | सात दिन सात रात अनवरत 
मूसलधार वर्षा होते रहने के कारण सिन्धु का पानी समाप्त होगया, और 
मेघों को आशा एवं प्रोत्साहन देते-देते इन्द्र का मुख सूख गया। इतना 
सब कुछ करके भी वह जज का कुछ भी न बिगाड़ सका, क्योंकि वहाँ तो 
कृष्ण ने गोवधन को उठा ब्रज के ऊपर छुतरी की भाँति तान रक्‍खा था । 
उसके कारण ब्रज पर एक बूँद भी नहीं गिर सकी, कहिए, हे न आश्चय 
की बात | 
कवि लछिराम का नीचे लिखा कवित्त अद्भुत रस का सुन्दर 
उदाहरण हे-- 
लंकनाथ हेरि जाके लरजि रहो है हिय, 
मन्दर उठायो जो दिगम्बर सुबेस को। 
राजा राजक॒वर सुभट पुर तीन हू के, 
बल करि थाक्यों जो थकावन सुरेस को | 
कवि “'ललछिराम! जोर-सोर श्रचरज छायो, 
कम्प सरसायो पल ही में देस-देस को | 
कर में तिनूका सम करिके कुमार राम, 
मन्द मुसिकाय तोरयो घनुष महेस को ॥| 


जिस रावण ने मन्दराचल को उठा लिया था, वह भी शिव जी के धनुष 
को न उठा सका । परन्तु रामचन्द्रजी ने उसे पल-भर में तिनके की तरह उठा 
कर तोड़ डाला | केसे आश्चय की बात हे । 

कवि केशव का भी अद्भुत रस सम्बन्धी एक सवैया पढ़ लीजिए-- 


ग्राप सितासित रूप चिते चित श्याम शरीर रंगे रंग राते। 
“केशव' कानन हीन सुने सुकहे रसकी रसना बिन बातें। 
मैन किधों कोऊ अन्तर्यामी री जानत नाहिं न बूकति ताते । 
दूर लॉ दौरत है बिन पायन दूर दुरी दरसे मति जाते॥ 


वह बिना कानों के सुनता और बिना वाणी के बोलता है। नेत्र न होते 
हुए भी धट-घट की बातें देखता और बिना पेरों दूर तक दौड़ लगाता है। 


( ४६० ) 


ये सब बातें आश्वय -सागर में डाल देने वाली होने से अद्भुत रस की 
उत्पादिका है । 
ओर भी देखिए--- 
गगन बगीचे बीच बेत के चरत फूल, 
मुग जल पीके लेत प्यास को बुभाई हे । 
कल्पना पुरी को ग्वाल गँगों और पंगु एक, 
डोले संग बोले बोल करन दटाई हे ।। 
हवा के घड़ा में दूध दुद्दि के श्रखंड जाको, 
भित्ति बारे चित्रन कों देत सब प्याई है। 
भावी पुर माँफ देखो प्रात सों लगाय सॉभ, 
भाँति-भाँति बछुड़े बियाति बाँफ गाई हे॥ 


राय देवीप्रसाद पर्ण जी के उपयु क्त कवित्त में गगन के बगीचे में बेत 
के फूल खाने वाली, मग तृष्णा का पानी पीने वाली बाँकक गाय का व्याना और 
गेंगे तथा लंजे ग्वाल का उसके साथ डोलना एवं दवा के घड़े में दूध दुहकर 
भीत पर बनी तसवीरों को पिलाना आदि सभी अश्रसम्भव बातों का वर्णन हे 
जिन्हें पढ़ सुनकर श्राश्वय हुए बिना नहीं रहता। 
उदाहरणाथ महा कवि केशव जी का एक कवित्त नीचे दिया जाता है-- 
माखन के चोर मधु चार दधि दूध चोर, 
देखत हों देखत ही हियौ दरि लेत हैं । 
पुरुष पुराण ओर प्रण पुरण इन्हें, 
पुरुष पुराण सो कहत किहि हेत हैं । 
'केसोदास” देखि-देखि सुरन की सुन्दरी वे, 
करतों विचार सभश्र सुमति समेत हैं। 
देखि गति गोपिका की भूलि जात निज्रगति, 
अगतिन कैसे धों परम गति देत हैं ॥ 
न जाने कृष्ण को वेद-पुराण और ऋषि मुनि पुराण पुरुष क्‍यों कद्दते 
हैं? अरे ये तो माखन चुराते, दद्दी दूध चुराते, यहाँ तक कि देखते दी देखते 
हम लोगों के द्वदय भी चुरा लेते हैं। जो गोपिकाशं की चाल पर मुग्घ होकर 


( ४६१ ) 


अ्रपनी मति भूल जाते हैं, वह भला श्रगतिकों को केसे परम गति प्रदान करते 
होंगे। श्राश्चय हे ! 


ओर भी मुलाहिजा कीजिए-- 
भरिबो है समुद्र को शम्बुक में च्षिति को छिंगुनी पर धारिबो है। 
बँंघियो हे मृणाल सों मत्त करी जुही फूल सों शैल बिदारिबो हे। 
गनित्रो है सितारन को कवि 'शह्नरः रैनु सों तेल निकारिबो है। 
कविता समुझाइबो मूढ़न को सविता गह्ि भूमि पे डारिबो है ॥ 
मु्खों को कविता समक्ा सकना उतना ही कठिन है, जितना समुद्र को 
सीपी में भर लेना, ए्थिवी को कनिष्ठिका उँगली पर रख लेना, बालू से तेल 
निकालना आश्वयंजनक काम कर सकना। आश्चयंजनक बातों का वर्णन 
होने से यद्दों भी श्रदूभुत रस हे । 
नीचे लिखे कवित्त में कैसी अद्भुत नायका का वर्णन किया गया है-- 
में में करती हे भेंढ भोंड़े मुख भाषण पे, 
चाटि-चाटि चौड़े को कलोल कर कूकरी । 
. लोमड़ी खिलाव खेल बानरी बिलोकती हैं, 
गाव गुण गीदड़ी सराहती हैं, शूकरी॥ 
भूतनी पलोट पाय, चाकरी चुड़ेल करें, 
डामा डोल डोलें डरे डाइनि डरूकरी। 
शंकर” के सारे गण पूर्जे याँ पुकारते हैं, 
इश ने हमारी ठकुरानी ठीक तू करी ॥ 
ऊपर के पद्म में सभी अनद्दोनी सी बातों का वर्णन द्ोने से यहाँ अ्रद्भुत 
रस हे। 


नीचे लिखा पद्म भी इस प्रसंग में पढ़ने लायक है-- 
आँखों का बिगाड़ा रोग अ्रन्धा किया चाहता है, 
घाटा घुसा जीवन सुधार की कमाई में | 
हाय सुख शझ्वूर न पाता एक पल को भी, 
भासे दयाभाव न दरद दुख दायी में ॥ 
गोलाकार कालिमा को श्वेतिमा दबोच बैठी, 
घोरा पन डेले ने धकेला अब्णाई में । 


( ६२ ) 


तुच्छु काले तिल में महातम समाया मानो, 
सेता गज मच्छुर के पेर की बिवाई में ॥ 


छोटे से काले तिल में इतना विघ्तृत और व्यापक अ्रन्धकार घुस बैठा 
है, मानो मच्छुर के पेर की बिवाई में द्ाथी सो रहा हो | श्रॉख के काले तिल 
में विकार आ जाने पर फिर सर्वत्र अंधकार के सिवा और कुछ नहीं दिखाई 
पड़ता । ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कि संसार व्यापी अ्रन्धकार-समूह उस छोटे 
से तिल में केन्द्रीभूत होगया हो | इसी के लिए कवि ने 'सोता गज मच्छुर 
के पैर की बिवाई में' से उपमा दी है | यहाँ यह असम्भव वर्णयान ही अद्भुत रस 
का व्यञ्ञक हे । 
शझ्डूर कविराज का नीचे लिखा कवित्त श्रदूभुत रस का क्‍या ही सुन्दर 
उदाहरण हे-- 
जाके श्रादि श्रन्त को न योगी जन जानत हैं, 
नेति नेति वेद ने अनेक वार गाई है। 
भूमि जल पावक समीर नभ काल दिशा, 
आदि में अ्रमाई पर पूरी न समाई हे॥ 
>< >< >< 
ऐसी बड़ी ब्रह्म की बड़ाई गुरु देव जू ने, 
शान द्वारा 'शझ्डर? के ध्यान में धसाई है॥ 
जिसके श्रादि अन्त को त्रिकालदर्शों योगी लोग भी नहीं जान पाते, 
जिसकी सत्ता-मदहत्ता पृथिवी, अप, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा श्रादि 
सब में ठउसाठस भरी हे, परन्तु पूरी इनमें भी नहीं समा सकी। उस ब्रह्म की 
ऐसी बड़ी बड़ाई को गुरुदेव ने दयाकर के ज्ञान के द्वारा शंकर के ध्यान में 
घुसा दिया कैसी आश्चय-जनक बात हे ! 


मद्दकवि तुलसीदास की विनय पत्रिका से अद्भुत रस का एक पद नीचे 
उदधृत किया जाता है। 


केशव, कहि न जाय का कहिये । 
देखत तुव रचना विचित्र श्रति समुझि; मनहिमन रहिये।। 


( ५४६९३ ) 


शून्य भित्ति पर चित्र रंग नहिं तनु बिन लिखा चितेरे। 
धघोये मेटे न मरे भीति दुख पाइय यहि तनु हेरे॥ 
रवि-करनीर बसे अति दास्न मकर रूप तेहि माहीं। 
बदन-द्ीन सो ग्रसे चराचर पान करन जे जाहीं॥ 
यहाँ निराकार भीत पर बिना रंगों के चित्र बनाना, सूर्य की किरणों में 
जल का होना ओर उसमें भी भयानक मकर का रहना आदि सभी 
विस्मयोत्पादक बाते हैं । 
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी का नीचे लिखा सवैया अद्भुत रस का केसा 
सुन्दर उदाहरण है-- 
ज्यों इन कोमल गोल कपोलन देखि गुलाब को फूल लजायोा । 
त्यों 'हरिचन्द जु? पंकज के दल सों सुकुमार सब शँग भाये । 
अमृत से युग ओंठ लसें नव पलल्‍लव सों कर क्यों दे सुद्ायो । 
पाहन सो मन होत सब्र अंग कोमल क्‍यों करतार बनायो॥ 
जब नायिका का हृदय पत्थर जैसा कठोर हे, तो विधाता ने उसके शअ्रन्य 
अज्भ गुलाब, कमल या नव पल्‍लव के समान सुकुमार व्यथ दी बनाए हैं। 
नीचे लिखा सवैया भी श्रदूभृत रस का अद्भुत उदाहरण हे--- 
सेस गनेस महेस दिनेस सुरेसहु जाहि निरन्तर ध्यावं। 
जाहि अ्रनादि अखण्ड अनन्त अछेद अ्भेद सुवेद बतावे। 
नारद से सुक व्यास रट पचि हारे तऊ पुनि पार न पावें। 
ताहि-अहीर की छोहरियाँ छुछिया भरि छाछि पै नाच नचावें। 
जिस परमत्रह्म को वेदों ने श्रवण्ड, अनन्त, अछेय और अ्रभेय्य बताया 
है; शेष, गणेश, महेश, दिनेश और सुरेश भी जिसका निरन्तर ध्यान करते 
हैं, नारदादि ऋषि मुनि तपस्या करते करते थक गए, पर उसका पार न 
पा सके, उसी को अद्दीरों की लड़कियाँ जरा सी छाछ के लिए नाच नचाती 
हैं। खूब ! 
रसखान जी के नीचे लिखे सवैया में भी श्रदूसृत रस का बड़ा सुन्दर 
वर्णन है--- 
ब्ह्म में ढूँढ्यौ पुरानन गानन वेद ऋचा सुनि चोगुने चायन । 
देख्यौ सुन्यो कबहूँ न कि तू” वह केसे सरूप ओ कैसे सुभायन । 
दि० न० २०--रे८८ । 


( भहड ) 


टेरत देरत हारि परुयौ 'रसखानि' बतायो न लोग छुगायन। 
देख्यौ दुर॒यो वह कुल्ञ कुटीर में बैद्यो पलोटत राधिका पायन । 


जो ब्रह्म, वेद-पुराणों में खोजने पर भी न मिला, जिसे खोजते-खो जते में 
परेशान हो गया, वद्दी आज अचानक मिल गया ! और मिला भी कहाँ ! 
वन-कुल्न में राधिका जी के पैर पलोटते हुए। 
अब केशव जी का भी श्रदूभुत रस वणन देखिए--- 
करशां से दुष्ट से पुष्ट हते भठ पाप से पुष्ट न शासन टारे। 
सोदर से न दुशासन से सब साथ समथ भुजा उस तारे। 
साथी हजारन के बल 'केशव' खेंचि थक्रे पट कोऊ न ढडारे। 
द्रौपदि को दुर्योधन पै तिल अंक तऊ उघरयो न उघारे ॥ 


करण जैसे बलवान जिसके योद्धा, दुष्ट दुःशासन सरीखे जिसके भाई और 
स्वयं जिसमें हज़ारों हाथियों का बल या, ऐसा दुर्योधन भी द्रोपदी का चीर 
खींचते-खींचते थक्र गया, पर उसका तिल भर भी अंग नगा न कर सका । 
है न श्रचरज की बात [ 


अद्भुत रस के उदाहरण में मैथिली बाबू का नीचे लिखा छुन्द देखिए-- 


उस एक ही अभिमन्यु से यों युद्ध जिस-जिस ने किया ! 
मारा गया अथवा समर से विमुख दाकर ही जिया। 
जिस भाँति विद्युद्दाम से होती सुशोमित घन घटा | 
सबंत्र छिटकाने लगा वह समर में शख्च्छुटा। 
तब कर द्रोणाचायं से साश्चय यों कहने लगा। 
आचाय | देखो तो नया यह सिंह सोते से जगा। 


यहाँ श्रकेले बालक अभिमन्यु का श्रनेक महारथी शत्र ञ्रों से एक साथ 
युद्ध करके उन्हें मार डालना या समर से पराड्मुख कर भगा देना, कितने 
आआ्राश्चय की बात है ! 
पद्माकर जी ने नीचे लिखे पद्य में अद्भुत रस का कैसा अच्छा वर्शन 
किया हे-- 
मुरली बजाई तान गाई मुसक्याय मन्द, 
लटकि लटकि भई उदृत्य में निरत है। 


( ६४ ) 


कहे 'पदमाकर” गोविन्द को उछाह अ्रह्ि-- 
विष को प्रवाह प्रति मुख है मिरत है | 
ऐसो फैल परत फुसकरत ही में मनों, 
तारन को बृन्द फूस्कारन गिरत है। 
कोप करि जौलों एक फन फुफुकावै काली, 
तोलों बन माली सौऊ फन पे फिरत है ॥ 
काली नाग जिस समय फुसकार मारता है, उस समय उसके फनों में से 
गिरते हुए विष-विन्दु ऐसे जान पड़ते हैं, मानों आकाश से तारे भर पड़े हों । 
परन्तु कृष्ण मुरली बजाते हुए. उसके फनों पर नाचते फिरते हैं। उन पर 
काली के विष का जरा भी अश्रसर नहीं होता । 
पद्माकर जी का नीचे लिखा दोहा भी पढ़ने लायक है--- 
घन बरसत कर पर घरयों, गिरि गिरिघर निःशंक । 
अजब गोप सुत चरित लखि सुरपति भयेा सशंक ॥ 
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रामचरित मानस से अद्भुत रस की कुछ चोपाहयाँ नीचे उद्धृत की 
जाती हैं- 
सती दीख कोतुक मग जाता, श्रागे राम सद्दित सिय श्राता । 
फिर चितवा पाछे सोई देखा, सहित बन्धु सिय सुंदर बेखा । 
जहूँ चितवहिं तह प्रभु श्रासीना, सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रवीना । 
देखे शिव विधि विष्णु श्रनेका, श्रमित प्रभाव एक ते एका | 
वंदत चरन करत पग सेवा, विविध वेष देखे सब देवा। 
सती विधात्री इन्दिरा देखी अमित अनूप। 
जिहि जिहि वेश भजादि सुर तिद्दि तिहि तनु अनुरूप ॥ 
८ >८ >८ 
बिन पग चले सुनै बिन काना, कर बिन कम करे विधि नाना। 
अानन रहित सकल रस भोगी, बिन वाणी वक्ता बड़ यागी | 
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( ५४६६ ) 


दिखराये। माताहिं जो अद्भुत रूप अ्रखंड | 
रोम रोम प्रति राजहदी कोटि-कोटि ब्रह्मंड ॥ 


उपयक्त पंक्तियों म॑ं भी सब विश्मयोत्पादक बातों का ही वर्णन दे । 


शान्त रख 


शान्त रस का स्थायो भाव निर्वेद है। यह रस मानव हृदय के अपार 
शान्ति प्रदान करने वाला है | सांसारिक विषय वासनाओं ओर भोग-विलासों 
से विरक्त होकर, जब मनुष्य परम प्रभुपरमात्मा की अ्रदूभुत सत्ता-मद्दत्ता 
में अटल विश्वास रख, उसी के गुण, कम स्वभाव का श्रनुगामो बन, उसी 
में लीन दान लगता है, तब इस रस का प्रादुर्माव होता है। शान्त रस से 
सम्बन्धित होने पर न किसी के माह माया सताती है, ओर न किसी प्रकार 
की तृष्णाएँ शेष रद्दती हैं | जीवन का उद्देश्य एकमात्र भगवद्भक्ति बन 
जाता है | शान्त रस के प्रादुर्नाव का कोई समय ।नश्चित नहीं किया जा 
सकता, जिस समय और जिस अवस्था में निवेद की प्रधानता द्वाकर उत्कट 
वैराग्य की दिव्य आआभा प्रस्फुटित होने लगत। हे वही शान्‍त रस का समय 
है। बुढ़ापे में शान्त रस की प्रधानता इसलिये मानी जाती है कि उस समय 
सारी शक्तियाँ क्षीण और मंद पड़ जाती हैं, मन भर जाता है, उत्साह की 
कमी हो जाता है, ऐसी दशा में विवश हेकर, ईश्वर-चिन्तन का श्रोर प्रवृत्ति 
द्वाती है; परन्तु यह बात सब वृद्धों के सम्बन्ध में नहीं कद्दी जा सकती | 
बहुत से लोगों के शरीर तो बूढ़े हे जाते ईं, परन्तु उनकी तृष्णा तथा 
विषयेच्छा उत्तरोत्तर बलवती बनती जाती है | कितनों ही के। श्रल्पायु म॑ ही 
निवेंद के कारण शान्त रस की सम्प्राप्ति होने लगती है। कभी-कभी विषय- 
विरक्ति के विशेष कारण भी पेदा हो जाते हूँ। अर्थात्‌ जीवन में काई ऐसी 
घटना हे। जाती है, जो तुरन्त ही मन के सांसारिक विषयों से मोड़ कर 
केवल परमात्मा की झ्लोर कर देती हे । 

वाध्तव में शान्त रस मनुष्य के मानवता के उच्च आ्रादर्श पर लेजा कर 
उसे परम पद प्राप्त कराने वाला दे | इस रस में न लोभ है, न मोह, न शोक 
हैनभय और न राग, न दवेष आदि मनोविकार ही शेष रह जाते हैं। 
सर्वशत्र एकत्व बुद्धि काम करती है ; प्रत्येक अ्रवस्था में और प्रत्येक स्थान पर 


( ४६७ ) 


स्व शक्ति सम्पन्न परमात्मा का ही पवित्र प्रादुर्भाव दिखायी देता ददैे। जिसे 
शान्‍्त रस का आनन्द प्राप्त हे, उसे संतार के च्णिक सुख-भोगों म॑ कुछ भी 
तत्व दिखायी नहीं देता | उसकी दृष्टि में परमात्मा ही सार वस्तु है, शरीर की 
भी सुधि उसे नहीं रद्दती | वह श्राज नष्ट दो या अभी अथवा पचास वर्ष बाद 
या उससे भी आगे | इस प्रकार की बातें उसके लिए गौण बन जाती हैं | हम 
लोग जिन भगवद्भक्त, वीतराग साधु-सन्‍्तों के चारु चरित्र पढ़ते हैं, वे सब 
शान्‍्त रस के ही श्रनन्य उपासक थे | शान्त रस की उपलब्धि सहज ही में 
नहीं दो जाती, जिसके शुभ संस्कारों का उदय होता है, श्रोर परमात्मा जिस 
पर असीम अनुग्रह करता है, वही बड़भागी शान्त रस का श्रधिकारी 
होता है | 

हमारे देश में परमात्मा की भक्ति का बहुत ऊंचा स्थान दिया गया है । 
'सब तज, दर भज' की लोकोक्ति श्राज भी सुनाई पड़ती है । इसमें तनक भी 
सन्देह नहीं कि आधि-व्याधियों से तपाये मन तथा शआ्रात्मा का अगर कहीं 
शान्ति मिलती है, तो वह निर्वेद जनित शान्त रस में ही | जे लेाग शान्ति 
प्रात्त करने के लिए विषय-भोगों की ओ्ोर दोड़ते हैं, अ्रत्यन्त निराश होते हैं। 
ओर उन्हें वहाँ पश्चाताप के श्रतिरिक्त श्रोर कुछ द्वाथ नहीं लगता | हिन्दू 
धर्मशाखखर श्राध्यात्मिक तत्व ज्ञान मे भरा पड़ा हे | उसके उत्कृष्ट सिद्धान्त 
आ्राज भी श्रशान्त आत्माश्रों के सच्ची शान्ति प्रदान करने में सर्वोपरि सिद्ध 
दवा रहे हैं | तत्व ज्ञान भें आइम्बर या कृत्रिमता के लिए तो कोई स्थान 
ही नहीं । जहाँ बनावट द्वोती है वहाँ से वास्तविकता केसों दूर भाग जाती 
है| यही कारण है कि 'तत्व ज्ञान' ओर 'विराग' के नाम पर अ्रगणित लोग 
इधर-उधर मारे-मारे फिरते हैं, परन्तु न उन्हें स्वयम्‌ शान्ति है और न वे 
दूसरों के जीवन के शान्त बना सकते हैं। कुछ लोगों ने विराग या तत्व ज्ञान 
का नाम 'कमंहीनता' अ्रथवा निकम्मापन समझ रखा है। परन्तु ऐसा नहीं हे, 
तत्वशानी के लिए. निज का कुछ नहीं रहता, उसका स्वायथ कुछ नहीं हे उसके 
भाई-बन्धु केाई नहीं हैं।सारा विश्व उत्तका परिवार और प्राणिमात्र उसके भाई 
बन्धु हैं। ऐसी दशा में वह जे। कुछ करता है, स्वंधा निष्काम होकर निर्भय 
बुद्धि से सबके ढितार्थ करता है। बह विश्व की विराटठता में श्रपनी शुद्ध सत्ता 
के। मिला कर कम से कम आ्रात्मिक दृष्टि से, अपने के बिलकुल भुला देता दे। 


( हर्ष ) 


ऐसे मदहामति बीतराग शानी के जे अ्रनिवंचनीय आ्रानन्द उपलब्ध दाता है, 
वही देव दुलंभ शान्त रस है। उसी की गुण-गरिमा से सारे शास्त्र भरे पड़े हैं। 
वही मानव जीवन का सच्चा उन्‍नायक और वही यथाथ शान्ति प्रदान करने 
बाला, अद्भुत भाण्डार हे। निर्वेद शान्त रस में स्थायी और अन्य रखों में 
संचारों बन कर रहता हे। इसका कारण यह है कि जब तत्व ज्ञान द्वारा 
निर्बेद जाग्रत होता हे, तब तो उसकी स्थायी संज्ञा होती हे और जब वह 
साधारण इष्ट हानि अ्रथवा शअ्रनिष्ट की प्राप्ति से उदय होता है तो 
ब्यभिचारी कहाता हे । 

शान्त रस में किसी प्रकार के मनोविकार नहीं रहते, चित्त शान्‍्त और 
स्थिर हो जाता हे। सांसारिक सुख-दुःख, राग-द्वंप, चिन्तादि का लेश भी 
शेष नहीं रहता | केवल अलौकिक शआ्आानन्द की अनुभूति होती हे। वैराग्य 
में संसार की अनित्यता, विषय वितृष्णा, पश्चात्ताप, विशुद्ध भावना आदि 
की प्रधानता हेतती दे। इसमें विषय भोग जन्य सुख तो नहीं रहता, परन्तु 
लेकेात्तरानन्द को अनुभूति होती रहती हे। कुछ लेागों ने शान्त रस का 
स्थायी भाव 'शम” माना है, जो काम क्रोध तथा संकल्प विकल्‍प रहित 
अन्तःकरण की स्वस्थावस्था से उत्पन्न दाता हे । 

काम क्रोधादि शमन पूवक निर्वेद की परिपुष्टता का नाम शान्‍्त रस है। 

शान्त रस का स्थायी भाव निर्वेद अथवा शम, देवता विषूषु या नारायण 
आर वर कुन्द पुष्प भ्रथवा चन्द्रमा के समान शुक्र दे । 

संसार की असारता और अनित्यता का शान अ्रथवा परमात्मा का 
स्वरूप बोध इसके आलम्बन हैं। 

सदगुरु प्राप्ति, सत्संग, पविन्न आ्राश्रम, पविन्न तीथ, रमणीय एकान्त वन, 
मृतक, श्मशान श्रादि शान्त रस के उद्दीपन हैं। 

रोमाश्न, आनन्दाश्रु, गदूगद कण्ठ इत्यादि शान्त रस के श्रनुभाव हैं। 

ध्रूति, मति, दृष, स्मरण, प्राणियों पर दया आदि इसके संचारी भाव हैं। 

महाकवि मैथिली शरण जी के साकेत से शानन्‍्त रस का उदाहरण दिया 
जाता हे--- 

बोले फिर मुनि यों चिता की ओर द्वाथ कर, 
देखो सब लोग, श्रह्म ! क्या ही ग्राधिपत्य है ! 


( “*है६ ) 


त्याग दिया आप अज-नन्दन ने एक साथ, 
पुत्र देतु प्राण, सत्य कारण अपत्य हे। 
पा लिया है, सत्य, शिव, सुन्दर-सा पूण लक्ष्य, 
इृष्ट हम सब को इसी का ओआानुगत्य है | 
सत्य है स्वयं द्वी शिव, राम सत्य-सुन्दर हे, 
सत्य काम सत्य और राम नाम सत्य हे। 
राम के वियोग में अजनन्दन (दशरथ) ने 'प्राण त्याग दिये । यह निर्वेद 
का आलम्बन हुआ | फिर शव को श्मशान में लेजा कर चिता चुनी गई ये 
श्मशान दशन ओर चिता चयन आदि उद्दीपन हुए। इस समस्त घटना 
को देख, जो रोना धोना हुअश्रा, श्राँसू बहाएं गए यही सब अनुभाव, ओर फिर 
“धरम नाम सत्य हे! ऐसी मति का उश्न्न द्वोना संचारी भाव हैं। इन सबसे 
निर्वेद पुष्ट होकर शान्त रस के रूप में परिणत हुआ्रा। श्रागे भी ऐसा 
ही जानना । 
शंकर जी के नीचे लिखे सवैया में निवेंद का केसा सुन्दर वर्णन किया 
गया हे, देखिए-.. 
रोबत मात पिता बनिता दुद्विता सुत मित्र कुलाइल छायो। 
लोगन बाँधि मसान में लाय चिता चुनि फोरि कपार जरायो ॥ 
फूकि पजारि गए सब गेह कुटम्ब को एकहु काम न आयो | 
'शझ्भुर' लायो न लैके चल्‍यो कछु श्रायो अकेलो अफेलो सिघायो ॥ 
जगत में प्राणी न कुछ लाया था, न यहाँ से कुछ लेकर जायगा, वद्द तो 
अकेला आता है श्रोर श्रकेला ही जाता है । 
कविराज शकझ्भर जी का नीचे लिखा कवित्त शान्त रस का सुन्दर 
उदादरण है-- 
'शद्डुर” अखणड एक अ्रदक्र की एकता में, 
स्वाभाविक साधन गअनेकता का साधा हे। 
तारतम्यता के साथ विश्व की बनावट में, 
पोल और ठोस का प्रयोग आ्राघा-आधा है | 
नाम रूप ज्ञान से क्रिया की कम कल्पना से, 
नित्य निरुपाधि चिदानन्द में न बाधा हे। 


५ ६०० ) 


सामाधिक धारणा में ऐसा ध्रुव ध्यान हैं तो, 
पुरुष मुकुन्द है प्रकृति प्यारी राधा हे ॥ 
उपयुक्त पद्य में नित्य, निद्पाधि, चिदानन्द पूर्ण पुरुष को मुकुन्द और 
प्रकृति को राधा बताया गया है। 
महाकवि तुलसीदास के नीचे लिखे पद्म से तो शान्त रस छुलका 
पढ़ता है-- 
मेरे जाति पाँति ना काह की जाति पाति चहीँ, 
मेरे कोऊ काम को न हों काहू के काम को | 
लोक-परलोीक रघुनाथ ही के हाथ सब, 
भारी है भरोसो तुलसी' को एक नाम को ॥ 
अति दही अ्रयाने उपखानों नहीं बूर्में लोग, 
साहब को गोत गोत होत है गुलाम को। 
- साधु के असाधु के भलो के पोच सोच कहा, 
का काह के द्वार परी जो हाँ सो ह्वों राम को ॥ 
उन्हें संसार से कितनी उपरामता हा गई है। वे श्रव न जाति से 
सम्बन्ध रखते हैँ न परिवार से नाता। उनका तो श्रब केवल राम से 
नाता है | 
ओर भी देखिए-. 
तुम करतार जग रच्छा के करन हार, 
पूरन मनोरथ हो सब चित चाहे के | 
यह जिय जानि 'सेनापति? हू सरन आये, 
हजिये सहाय ताप मेटो दुख दाहे के॥ 
जो यों कहो तेरे हैं रे करम अनैसे हम, 
गाहक हैं सुकृति भगति रस लाहे के | 
आपने करम करि उतरगे पार तो पे. 
हम करतार करतार तुम काहे के॥ 


जब अपने कर्मों द्वारा ही पार उतरेंगे, तब इम स्वयं ही 'करतारः हैं, 
तुम फिर ददाल-भात में मूसलचन्द' कोन द्ोते हो। हमने तो सुना था, तुम 


( ६०१ ) 


सबके मनोरथ पूरे करते हो, इसौलिए हम श्रापफ्री शरण आए थे । पर यहाँ 
तो बिलकुल पोल निकली । जब्र सुकृत्य करने पर ही भव से तर सकते हैं, तब 
फिर हम अपने आप तर जायँगे । तुम बीच में कोन ? सेनापति जी ने भगवान्‌ 
को केसा करारा उलाहना दिया है । 
महा कवि तुलसीदास जी के नीचे लिखे सवेये भी शान्त रस के उत्कृष्ट 
उदाहरण हैं-- 
पदकंजनि मंजु बनी पनहीं धनुद्दीगनर पंकज-पानि लिये। 
लरिका सैंग खेलत डोलत हैं, सरयूतद चेहट हाट हिये। 
तुलसी अ्रस बालक सों नहिं नेद्र कहा जप जोग समाधि किये। 
नर वे खर सूकर स्वान समान कहौ जग में फल कौन जिये ॥ 
जिसने ऐसे बालरूप भगवान्‌ से स्नेह नहीं किया, उसके अन्य जप, येग, 
समाधि आदि सब व्यथ हैं | 
जड़ पंच मिले जेहि देह करी करनी लघुता घरनीधर की। 
जनकी कहु क्‍यों करिदे न सम्हार जो सार करे सचराचर की । 
तुलसी! कहु राम समान को आन है सेवकी जासु रमा घर की | 
जग में गति तेहि जगत्पति की परवाहि है ताहि कहा नर की ॥ 

, जो कीरी से लेकर वुद्जर तक प्राणियों ही की नहीं अन्य स्थावर जंगम 
सभी की सुध रखता है, ऐसे जगत्पति की शरण में जाने वालों को फिर 
साधारण मनुष्यों की क्या परवा ! 

देखिए नीचे लिखे पद्म में शक्ति रूपिणी वृषभानु कुमारी का केसा गुण- 
गान किया गया है--- 
जाको नेति नेति कहि वेद न बखाने भेद, 
नारद न जाने नहीं काहू ठीक पारोहे। 
संभु सुर सुरपति सुक मुनि आदि दे के, 
करि जोग जग्य जप, तप, तन गारो है। 
हठ की अश्रधार वृषभान की कुमारि ऐसी, 
तीन लोक जाकी कृपा कोर को पसारो है । 
चार मुख वारो विधि कहे का विचारो दस- 
सत मुख वारो राधा गुन कह्ि ह्वारो है ॥ 


( ६०२ ) 


वेदों ने भी जिसका वर्णन करते-करते ञ्रन्त में नेति-नेति ही कह्दा, इन्द्रादि 
देवों और नारदादि ऋषि मुनियों ने जिसकी खोज में अनेक जप-तप, येाग- 
यज्ञ, करते-करते अपने शरीर घुला दिए,, उस प्रकृति स्वरूपा राधा का गुन- 
गान भला चार मुख वाला बेचारा ब्रह्मा क्या कर सकता है । 


कविवर देव जी का उदाहरण भी लीजिए--- 


कोऊ कह्दौ कुलटा कुलीन श्रकुलीन कद्दो, 
कोऊ कहो रंकिनी कलंकिनी कुनारी हों । 

केसे परलोक नरलोक बर लोकन में, 
लीन्हों में ग्रसोक लोक लोकन ते न्यारी हाँ । 

तन जादि मन जाहि देव गुरुजन जाहिं, 
जीव क्‍यों न जाहि टेक टरत न टारी हाँ । 

बृून्दावन वारी बनवारी के मुकुट पर 
पीत पटवारी वाही सूरत पे बारी हों।॥ 


भल्ते ही कोई कुलटा बतावे चाहे कलंकिनी, पर मेंने तो उस पीतपट 
वाले पर अ्रपना तन-मन वार दिया हे। मुझे अब लोक-परलोक से कोई 
वास्ता नहीं । 
और भी देखिए--- 
गंग के चरित्र लख भाखे जमराज इमि, 
एरे चित्र गुप्त मेरे हुकुम में कान दे। 
कहें 'पदमाकर” ये नरकन मूँदि कर, 
मूँदि दरवाजन को तजि यह ध्यान दे। 
देखि यद्द देव नदी कीन्हे सब देव याते, ह 
दूतन बुलाय के बिदा के वेगि पान दे । 
फारि डाद फरद न राखु रोजनामचा हू, 
खातो खत जान दै बही को बहि जान दे । 
गंगा जी ने सब पापियों को पवित्र कर दिया। श्रब तो सुकर्मी या 
कुकर्मी का कोई भेद ही नहीं रहा | ऐसी दशा में श्रब लेखा-जोला रखने 
की क्या ज़रूरत ! हटाओ इस बही खाते के खटराग को भोर विदा करो 


( ६दै०३ ) 


यमदूतों को | बन्द करो नरकों के दरवाज़े । श्रब तो सवत्र आनन्द ही 
आनन्द हे ॥ 
मदह्दा कवि देव का नीचे लिखा सवैया भी पढ़ने लायक है--- 
चाहे सुभेरु कों छार करे अरू छार को चाहे सुमेर बनावै। 
चाहे तो रंक ते राव करे चाहे राव कों द्वारहि द्वार फिरावै ॥ 
रीति यही करुनानिधि की कवि देव' कहे विनती मोहि भावे। 
चींटी के पाये में बाँघि गयन्दहिं चाहे समुद्र के पार लगावे ॥ 
प्रभु को सब सामथ्य है, वह क्षण में सुमेर को राई और राई को सुमेरु 
बना सकता दे | वद चादे तो गजराज को चींटी के पैर में बाँध कर समुद्र 
पार करा सकता है। 
महाकवि सूरदास तो शान्त रस के आ्राचाय ही ठदरे। आपका भी एक 
पद पढ़ लीजिए-- 
मेरो मन अश्रनत कहाँ सुख पावे । 
जैसे उड़ि जहाज को पंछी फिरि जहाज वै आवे | 
कमल नयन को छोड़ि मद्दातम श्रोर देव को धावे । 
परम गंग को छाड़ि पिया सो दुमंति कूप खनावे | 
जिन मधुकर श्रम्बुज् रस चाख्यो क्‍यों करील फल खावे। 
'सूरदास? प्रभु काम पेनु तजि छेरी कोन दुह्ावे ॥ 
इस पर तो टीका-टिप्पणी करने की कोई आवश्यकता ही नहीं। यह तो 
मूतिमान शान्त रस ही ठहरा । 
सूरदास जी का एक पद और भी देखिए-- 
तजो रे मन हरि विमुखन को संग | 
जिनके संग कुमति उपजति है, परत भजन में भंग ॥ 
कहा होत पय पान कराये विष नहिं तजत भुजंग। 
कागददि कहा कपूर चुगाए स्वान नहवाए गंग॥ 
खर को कहा श्ररगजा लेपन मरकटठ भूषण अंग। 
गज को कहद्दा न्ववाए सरिता धरे खेद्द पुनि छंग॥ 
पाहन पतित बान नहिं बेचत रीतो करत निषंग । 
'सूरदास” कारी कामरि पे चढ़त न दूजो रंग ॥ 


(६ ६०४ ) 


सूरदास की कमली तो काले कृष्ण के रंग में रंग कर काली दो गई। अब 
इस पर दूसरा रंग नहीं चढ़ सकता । 
कविवर रसखान ने शान्त रस का वर्णन इस प्रकार किया है-- 
मानुष हों तो वही रसखानि बसों व्रज गोकुल गाँव के ग्वारन । 
जो पसु हों तो कहा बसु मेरो चरों नित ननन्‍्द की घेनु मझारन | 
पाहइन हों तो वही गिरि को जो कियो हरि छत्र पुरन्दर धारन। 
जो खग हों तो बसेरी करों वहि कालिन्दी कूल कदंब की डारन | 
मुझे पशु, पक्षी, पहाड़, मनुष्य चादे जिस योनि में जन्म मिले, पर 
प्रत्येक दशा में में ब्रज में ही बसना चाहूँगा ! मुझे न स्वर्ग चाहिए न 
अपवग । मेरे लिए तो कालिन्दी-कूल और कदम्ब की डालें ही सब कुछ हैं । 
अब तुलसीदास जी का शान्त रस सम्बन्धी सबैया भी पढ़ लीजिए... 
पग नूपुर ओ पहुँची कर कंजन मंजु बनी मनि माल हिये। 
नव नील कलेवर पीत भँगा कलके पुलर्के तप गोद लिये। 
अरविंद सो आनन रूप मरंद अनंदित लोचन भा ग पिये। 
मन मो न बस्यो अस बालक जो तुलसी' जग भें फल कौन जिये॥ 
भगवान का ऊपर वर्णित बाल स्वरूप यदि हृदय में नहीं बसा, तो जगत 
में जन्म लेने का फल ही क्या प्राप्त किया । 
कृष्ण का विराट रूप देखकर अ्जुन को जो शान्ति प्राप्त हुई, उसका 
वर्णन मैथिली बाबू ने नीचे की पंक्तियों में किया हे-- 
गदुगदू छदय से पाथ तब बोले बचन श्रद्धा भरे, 
लीला तुम्हारी हे विलक्षण हे अखिल लोचन हरे ! 
इस आपदा से त्राण मेरा कौन करता तुम बिना ? 
प्रत्यक्ष दिखलाकर सभी दुख कोन हरता तुम बिना ! 
८ >< >< 
जो कुछ दिखाया आज तुमने वह न भूलेगा कभी, 
क्या दृष्टि में फिर ओर ऐसा दृश्य भूलेगा कभी ? 
कहते हुए यों पार्थ फिर हरि के पदों में गिर गए, 
प्रभु किये तब प्रकट उन पर प्रेम भाव नए नए । 
ला शा ः 


( ६०५४ ) 


महाकवि दहरिश्रोध जी ने शान्त रस का केसा सुन्दर उदाहरण दिया है--- 
मिलि जैहें धूर में धराधर धरातल हू, 
काल कर सागर सलिल को उलीचि है । 
बड़े-बड़े लोकपाल विपुल विभमव बारे, 
पल में बिलेहें ज्यों बिलाति वारि बीचि है। 
'हरित्रोध! बात कहा तुच्छु तन धारिन की, 
कबों मेदिनी हू मीच मै ते आँख मींचि है। 
सरस बसन्त हो बिरसे सरसैहें नाहिं, 
बरसि सुधा रस सुधाकर न सींचि है॥ 
आखिर एक दिन यद्द संसार धूल में मिल जायगा। बड़े-बड़े तंग घारियों 
का वैभव क्षण भर में, जल तरंगों के समान नष्ट हो जायगा । साधारण 
प्राशियों की तो बात दी क्‍या. किसी न किसी दिन, मोत के भय से इस 
महिमा मयी मेदिनी को भी आँख नीचनी पढ़ेगीं | फिर न बसन्त इसमें 
अपनी छुबीली छुटा दिखावेगा ओर न सुधाकर ही इस पर सुधा बरसावेगा । 
केशव जी का नीचे लिखा सवेया शान्‍्त रस का केसा सुन्दर 
उदाहरण हे--- 


हाथी न साथी न घोरे न चेरे नगाँव न ठाँव को नाव बिले दे | 
तात न मात न मित्र न पुत्र न वित्त न श्रंग के संग रहे है। 
'केसव' काम को राम बिसारत और निकाम ते काम न ऐ है। 
चेत रे चेत अरजों चित अन्तर अन्तक लोक श्रकेलोददी जैहै ॥ 
जो राम को बिसार कर ओर संसारी मंभाटों में फंसते हैं, वे बड़ी भारी 
भूल में हैं । वे इस बात को नहीं सोचते कि अ्रन्त में अकेले द्वी जाना है। 
ग्वाल कवि का भी एक उदाहरण देख लीजिए.-- 
जान पर॒यौ मो कों जग असत अखिल यह, 
प्रुव आदि काहू को न सबंदा रहन है । 
याते परिवार व्यवहार जीत-द्वारादिक, 
त्याग करि सब ही बिकसि रहो मन है। 
४धवाल कवि? कहे मोह काहू में रहो न मेरो, 
क्योंकि काहू के न संग गये। तन घन है। 


( ४६०६ ) 


कीन्हों में विचार एक ईश्वर ही सत्य नित्य, 
अलख श्रपार चार चिदानन्द घन है॥ 
आप कहते हँ-- मेंने तो खूब विचार कर देख लिया, इस अ्रसार संसार 
में एक प्रभु का भजन ही सार है, वद्दी साथ जायगा | ओर सब बखेड़ा तो 
यहीं पड़ा रह जायगा | 
शंकर जी सांसारिक भंमटों से त्रस्त द्वोकर, प्रभु शंकर से केसी करुण 
प्राथना करते हैँ. 
कर कोप जरा मन मार चुकी बल हीन सरोग कलेवर है । 
परिवार घना धन पास नहीं भरुज भग्न दरिद्र भरा घर हे। 
सब ठोर न आदर मान मिले मिलता अपमान अनादर हे । 
मुझ दीन श्रकिंचन की सुचि ले सुख दे प्रभु वू यदि 'शंकर' है। 


श्रातं की उक्ति है कि बुढ़ापे ने सारे अरमान कुचल डाले, शरीर रोगों 
का घर बन गया, पूरा परिवार हे, साथ द्वी दार्ण दरिद्रता की अश्रपार अनु- 
कम्पा।भी ॥ हे प्रभु, तू सब का कल्याण करने वाला है, इसलिए मुझ श्रकिंचन 
की भी तू ही सुध ले । 
कवि कुल गुरु तुलसीदास जी का नीचे लिखा सवैया शान्त रस का कैसा 
सुन्दर उदाहरण हे-- 
भूमत द्वार मतंग श्रनेक जंजीर जरे मद अम्बु चुचाते। 
तीखे तुरंग मनोगति चंचल पौन के गोौनहु तें बढ़ि जाते। 
भीतर चन्द्र मुखी श्रवलोकति बाहर भूप खड़े न समाते। 
ऐसे भए तो कद्दा 'तुलसी? जो पै जानकीनाथजू के रंग राते ॥ 
मत्त मतंग, तेज तुरंग, ऐश्वय, प्रताप सब ते हुए और प्रभु-चरणों में 
अनुराग न हुआ, तो अन्य सब चीज्नों का होना न होना बराबर हे। 
अब ज़रा प्माकर जी का भी एक पद्म पढ़ लीजिए -.. 
भोग में रोग वियेग सँयेग में येग ये काय कलेश कमायो। 
त्यौं 'पद्माकर” वेद पुराण पढ्यों पढ़ि के बहुवाद बढ़ायो। 


दौरयौ दुरासा को दास भयौ पै कहूँ बिसराम कौ घाम न पायौ। 
खायौ गँवायौ सु ऐसे दी जीवन द्वाय में राम कौ नाम न गायो। 


( ६०७ ) 


कोई अन्त समय में केसा पश्चाताप कर रहा है। हा! मैंने तो दुनिया 
में आकर केवल पेट भरने में ही जीवन गँवाया | एक क्षण के लिए, भी प्रभु 
का स्मरण नहीं किया । 

वात्सल्य रस 

अधिकतर आचार्यों ने वात्सल्य रस को स्वतन्त्र रस नहीं माना, उसकी 
गयाना शृंगार रस के अन्तगंत की है। उनका कहना है कि जब रति, भाव 
रूप रद्द कर देवता, गुरु आ्रादि से सम्बन्ध रखती हे तो उसकी 'भावः संज्ञा 
होती हे | इसी भाव के अन्तगत वात्सल्य भी आ नाता है। क्‍योंकि शिष्य 
और पुत्र, गुरु तथा देवता आदि से भिन्न नहीं हो सकते। अतएव वे भी 
इसी भाव में आ जाते हैं। सोमेश्वराचाय का कहना है कि स्नेह, भक्ति और 
वात्सल्य तीनों रति के ही भेद हैं। समान स्थिति के व्यक्तियों का पारस्परिक 
प्रेम 'रति” उत्तम में अनुत्तम की रति भक्ति, और अनुत्तम में उत्तम की रति 
वात्सल्य कहलाती है। उदाहरणाथ पति-पत्नी दोनों बराबरी के दर्जे के होते 
हैं, उनके प्रेम को रति कहेंगे। पिता-पुत्र या गुरु-शिष्य में पिता और 
गुरु उत्तम हैं ओर पुत्र तथा शिष्य अनुत्तम | श्रतएव अ्रनुत्तम में उचम की 
प्रीति का नाम वात्सल्य है, और श्रनुत्तम है श्रर्थात्‌ पुत्र ओर शिष्य के 
स्नेह को भक्ति कहेंगे। इसी पक्त के समथन में कुछु लोगों का यह भी कथन 
है कि 'सन्तान! श्यज्ञार का ही परिणाम है, श्रतएव उसे ःशज्ार रस में 
ही परिगणित करना चाहिये। स्वतन्त्र रस मानने की कोई आवश्यकता 
नहीं है । 

वात्सल्य को दसवाँ रस मानने वालों में साहित्य दपणकार और “इज्ञार 
प्रकाशकार मुख्य हैं। भारतेन्दु इरिश्चन्द्र भी इसी मत के समथक हें। 
महाकवि दरिश्रोध ने भी अपने 'रस कलस” में वात्सल्य को दसवाँ रस मानने 
की ज़बदस्त वकालत की है। वास्तव में बाल-लोला को देखकर माता-पिता 
को जो तनन्‍्मयता होती है, वह बड़ी ही आनन्ददायिनी हे। ऐसा कोन 
सहृदय है जो बालकों को दँसते, खेलते, मुस्कराते श्र तोतली बोली में बातें 
करते देख-सुन कर आनन्द-विभोर नहीं हो जाता। जिनको परमात्मा ने 
सन्तान-सुख प्रदान किया है, वे इस रस का आस्वादन भले प्रकार करते 
रहते हैं| कभी-कभी तो माता-पितादि वात्सल्य के कारण बालकों के साथ 


( द०८ ) 


बालक बनकर बड़ी तन्‍्मयता से खेलने लगते हैं। उस समय उन्हें कुछ 
भी सुध-बुध नहीं रहती | जिस समय पृत्र-जन्म का शुभ संवाद कानों में पड़ता 
है, उस समय हृदय में वात्तल्य रस का जो समुद्र उमड़ता है, उसे माता- 
पिता तथा अन्य अभिभावक अश्रच्छी तरह जानते हैं। फिर वात्सल्य रस से 
सब भाषाओं के साहित्य भरे पड़े हैं। ब्रज भाषा में तो कृष्ण जी की बाल- 
लीला का वर्शन कर महाकवि सूरदास ने कमाल ही कर दिया है। महाककि 
गोस्वामी तुलसीदास जी भी भला राम की बाल कथा सुनाने में कब पीछे 
रह सकते थे | उन्होंने भी वात्सल्य का बढ़ी उत्तमता से वर्णन किया है। 
जिस वात्सल्य की इतनी महत्ता हो, जिसे संस्कृत ओर हिन्दी के कवियों ने 
अपने काव्य का विषय बनाया हो, उसे उपेक्षा पूवंक नव रसों में न गिनना 
उचित नहीं जान पड़ता । 

किसी स्थायी भाव को रसत्व तक पहुँचाने के लिए अनुभाव, विभाव 
खझ्ोर संचारी भावों की भी ग्रावश्यकता होती है, सो वात्सल्य में वे सब 
विद्यमान हैं। नीचे महाकवि तुलसीदास का सबैया पढ़िये, आपके उसमें 
कितना चमत्कार दिखायी देगा-- 


वर दंत की पंगति कंदकली श्रधराधर पल्‍लव खोलन की। 

चपला चमके घन बीच जगे छुबि मोतिन माल अत्रमोलन की ॥ 

घुंघरारी ले लटकें मुख ऊपर कुंडल लोल कपोलन की | 

निवछावर प्रान करे तुलसी बलि जाउँ लला इन बोलन की ॥ 
इस सवैया में “वात्सल्य स्नेह विभाव, 'घुंघरारी ले! बोल श्रादि 
उद्दीपन, मधुर छुबि श्रवलोकन आदि श्रनुभाव ओर हृष संचारी भाव” हैं । 
अब कहट्टिए. उसके रसत्व में क्या सन्देह रह गया। स्थायी भाव को जिन 
सद्दायक या साधक कारणों की श्रावश्यकता द्दोती है वेसब मोजूद हैं। फिर 
वात्सल्य रस को रस मानकर उसके आस्वादन का आनन्द क्‍यों न उठाय जाय ! 
जैसा ऊपर कहद्दा गया, बालकों की बाल लीला देख-सुनकर जो श्रानन्द प्राप्त 
होता हे, वद अनिवेंचनीय है । उनको देखकर सारे गम ग़लत दो जाते हैं, 
उनकी हँसती हुई श्राकृति श्रौर बालजनोचित विलासिता मनहूस से मनहूस 
ओर क्रूर से क्रर व्यक्ति के हृदय को भी आनन्द से भर देती हे। ऐसी दशा 
में वात्सल्य को रस क्‍यों न माना जाय १ जो लोग वात्सल्य को <ंगार रस के 


( इ०्डे ) 


श्रन्तगंत समभते हैं वे उसके साथ न्याय नहीं करते, रति और वात्सल्य में 
बढ़ा मेद हे । रति से हृदय में जो भावना जाग्रत होती है, वह वात्सल्य से 
नहीं, और वाध्सक््य के कारण जिन भावों का उदय होता दै, वद् रति से नहीं 
हो सकता | अतएव दसवाँ वात्सल्य रस मानना ही चाहिए । श्रस्तु; 

वात्सल्य रस का स्थायी भाव स्नेह हे। सन्‍्तान पर प्रेम, पितृ स्नेह, 
लालन-पालन प्रद्ृत्ति आदि वात्सल्य वृत्ति के काय हैं। पशु-पक्तियों के पालने 
में भी यददी शक्ति काम करती है, यह वृत्ति पुरुषों को श्रपेज्ञा ञ्जियों में श्रघिक 
होती हे | क्योंकि सन्‍तान का पालन पोषण आदि कारय प्रकृति ने मुख्यतः 
उन्हीं को सौंपा है | इस दृत्ति के दुरुपयोग, मिथ्या योग अ्रथवा अतियोग से 
डानि होती हे। बालकों के जीवन बिगढ़ जाते हैं और उनका ठीक-ठीक सुधार 
या बिक्रास नहीं हो पाता। मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षियों में भी वात्सल्य वृत्ति की 
प्रभानता है। क्रूर से ऋर स्वभाव वाले पशु भी अपनी सनन्‍्तान के लालन-पालन 
में अत्यन्त विनम्न और प्रेम युक्त बन जाते हैं. उसका कारण यही वात्सल्य 
है। कुमारी कन्याएं या विवाहिता युवरतियाँ छोटे छोटे बालकों पर बड़ा स्नेह 
करती हैं | उन्हें बच्चों से बड़ी ममता होती हे | यदि वात्सल्य बृत्ति न होती 
तो असहाय शिशुओं का पालन-पोषण कोई न करता। मनुष्यों के सम्बन्ध 
में तो यद कहा जा सकता है कि वे इस आशा से सन्‍्तान का पोषण करते 
हैंकि उससे आगे चलकर उन्हें सुख मिलेगा, वह उनकी सेवा सहायता 
करेंगे । परन्तु पशु पक्षियों के सम्बन्ध में तो यह बात भी ठीक नहीं उतरती | 
वे तो बदले की भावना के बिना ही श्रपनी सन्‍्तान का लालन-पालन करते 
हैं। वास्तव में मनुष्य भी अपनी खनन्‍तान का पालन-पोषण वात्सल्य वृत्ति से 
प्रेरित होकर ही करता है। सन्‍्तान के द्वारा लाभ उठाने की बात तो अ्रत्यन्त 
गौण होती है | संसार में मनुष्य दी ऐसा प्राणी है जो अपनी सनन्‍्तान को 
शायद सबसे अधिक दिनों तक प्यार करता है। श्रन्य पशु-पत्ती तो सनन्‍्तान के 
समझ होने पर उसका मोह त्याग देते हैं, परन्तु मनुष्य का मोह श्राजन्म 
बना रहता हे। दूसरी बात यह भी दे कि मनुष्यों की सन्तान अन्य प्राणियों 
की श्रपेज्ञा देर में समर्थ ओर स्वावलम्बी बनती हे । श्रतएव उसे (सन्तान को) 
सिर काल तक वात्सह्ृय सख भोगने का अवसर मिलता है। प्रजा की उत्पत्ति 
ओर अभिवृद्धि प्रकृति की सर्वोपरि पुकार दे। इन दोनों कामों के बिना 
दवि० न० २०--३६ 


५ ६१० ) 


सृष्टि के खब व्यापार ही नष्ट हो जाते, ओर संसार, संतार न रहता। न 
भोग रहते और न भोक्ता । 

परमात्मा का भो कैसा विचित्र विधान है, जहाँ वह काम वृत्ति को 
परिपूर्ण कर पुत्रोत्पत्ति की प्रेरणा करता हे वहाँ सन्‍्तान के पालन-पोषण 
के लिये वात्सल्य की वृत्ति का भी उदय करता हे। जिसके द्वारा बच्चे 
परिवरिश पाकर सांसारिक कार्यों को चलाते हैं। वात्सल्य अपने सनन्‍तान तक 
ही सीमित नहीं रहता, बल्कि कुछ अंशों में दूसरों के बालकों तक भी उसका 
असर जाता है| शिशु पालन ('पएपल्डात2) का जितना अच्छा काय स्तियाँ 
कर सकती हैं, उतना अन्य प्रकार से सम्भव नदीं। सन्‍तान-पालन के लिए 
अत्यन्त बुद्धिमता, साइस और प्रेम की आ्रवश्यकता है। इन सब कार्यों में 
स्नेह द्वारा ही प्रवृत्ति द्ोती हे। यह स्नेह ही वात्सल्य का रूप धारण करके 
पालन-पोषण का काये कराता रद्दता है। मनुष्य, पशु-पक्ती, जीव-जन्तु आदि 
में से अ्रनेक ऐसे द्वोते हैं, जो सन्तान के संरक्षण में अपने प्राणों की भी 
बाज़ी लगा देते हैं। संसार में माता के स्नेद्द से बढ़कर किसी का स्नेद्द नहीं 
है। भ्रपने बालक को दुखो देखकर, माता के द्वदय में जो वेदना होती है, 
उसका श्रनुमान भी नहीं किया जा सकता। जब मनुष्य में वात्सल्य भाव 
अत्यधिक मात्रा में होता दे, तब उसका अंश दूसरों के बालकों को भी 
मिलता है | कुत्ते-बिल्ली दिन अआ्रादि को पालने में यही शक्ति प्रेरणा करती 
है| गहस्थ स्त्रियों में वात्सल्य की मात्रा अधिक पायी जाती है। जिन 
ज्तरियों के सन्‍्तान नहीं होती, वे कुचा-बिल्लियों को पालकर ही अपने प्रेम या 
वात्सल्य को विकसित करती रहती हैं। पोदे लगाना तथा उन्हें सींच कर 
बड़ा करना भी एक प्रकार की वात्सल्य वृत्ति ह्वी हे । 

खेद है कि पश्चिमीय देशों में कुछ ज्रियाँ श्रपनी सन्तान को दूसरों से 
पलवा कर स्वयम्‌ भोग विलास में रत रहती हैं। ऐसे पर-पोषित बालकों 
को वाघ्तविक वात्सल्य-सुख प्राप्त नहीं होता | हम तो समभते हैं ऐसे माता- 
पिता को सन्‍्तान पैदा करने का अधिकार ही नहीं । वात्सल्य तीन वर्गों में 
बॉँटा जा सकता है--एक वे लोग जिनमें श्रत्यधिक वात्सल्य होता हे, ओर 
जो अ्रपनी सनन्‍्तान के शअ्रतिरिक्त अन्यों के बालकों को भी स्नेद्द दृष्टि से देखते 
हैं, दूसरे वे लोग जो श्रपने बालकों तक ही अपना स्नेह सीमित रखते हैं और 


( £११ ) 


तीसरे वे लोग जिन्हें श्रपनी सन्‍्तान से भी बहुत कम प्रेम होता है। ऐसे 
लोग प्रायः बालकों के प्रति रूखा और कठोर बर्ताव करते रहते हैं । 


वात्सल्य वृत्ति के विकास के लिए इस बात की आवश्यकता दे कि 
बालकों के साथ स्नेह पूवक खेला जाय, उन्हें रत्नों से भी अधिक समभा 
जाय | उनकी निर्दोष वृत्ति पर ध्यान रक्खा नाय झोर उनके साथ बतेने 
में बड़ी मदुता, नम्नता ओर घीरता से काम लिया जाय | यह बात भी 
ध्यान में रखने की हे कि वात्कल्य को सीमा से आगे न बढ़ने देना चाहिए । 
बालकों के लिए. हर वक्त चिन्तित रहना, और उन्हें प्रेम वश कुछ न करने 
देना अ्रथवा उन्हें बिगड़ने से न रोकना आदि अनुचित काम हैं। वात्सल्य 
तीन प्रकार का माना गया है। १-श्रपत्य स्नेह--जिसमें पशु-पक्षियों तक के 
बच्चों पर प्रेम किया जाता है। २--वात्सल्य भाव--जिसमें अड़ोसी-पड़ोसी 
आदि के बच्चों पर भं प्रेम किया जाता है ओर तीसरा स्व-संतति प्रेम । 
वात्सल्य 
जहाँ स्नेह स्थायी भाव की पुष्टि होती है वहाँ वात्सल्य रस माना गया 
है | वात्सल्य रस का स्थायी भाव स्नेह, देवता ब्राह्मी आदि माताएँ और वर्ण 
कमल गर्भ के समान है । 
पुत्र, शिष्प, शिशु आदि वात्सल्य रस के आ्रालम्बन हैं । 
शिशु की चेष्टाएं, शिष्य या पुत्र की विद्या, शुरता, दया आदि इसके 
उद्दीपन हैं । 
अलिज्धन, अंग स्पश, सिर चूमना, सस्नेह निह्ारना, रोमा3्च, आनन्दाश्र 
अदि वात्सल्य रस के अनुभाव हैं । 
अ्रनिष्ट की आशंका, दृ्ष, गवं आदि इसके संचारी भाव हैं | 
मदहाकवि सूरदास का नोचे लिखा पद वात्सल्य रस का कितना सुन्दर 
उदाहरण है-- 
जसोदा हरि पालने भुलावे । 
हलरावे दुलराइ मल्हावै जोइ सोइ कछु गावे। 
मेरे लाल की श्राउ निदरिया कादे न आनि खुबावे | 
तू काहे न बेगि सों श्रावे तोकों कान्दर बुलाबे। 


( दैरै ) 


कबहूँ पलक इरि मूदि लेत हैं कबहूँ भ्रधर फरकावे। 
सोवत जानि मौन है रहि रहि कार करि सेन बताबै । 
इृहि श्रन्तर अकुलाय उठे हरि जसुमति मधुरे गावे। 
जो सुख 'सूर' अमर मुनि दुलभ सो नंद भामिनि पावै । 
यहाँ बाल कृष्ण वात्सल्य के आलम्बन, उनका कभी शअ्राँखं मूं द लेना, 
कभी भठ फड़काना आदि काय उद्दोपन, यशोदा जी का लोरियों गा-गा 
कर सुलाना अनुभाव और इपं संचारी भाव हे। इन सब के सहयोग से 
स्नेह पुष्ट होकर वात्सल्य रस के रूप में परिणत हुआ इसी प्रकार आगे 
भी समझ लींजए | 
सूरदास जी के नीचे लिखे पदों में भी वात्सल्य रस कूट कूट कर 
भरा हे-- 
मैया कबहिं बढ़ेगी चोटी । 
किती बार मो्हिं दूध पियत भई यह अजहूँ हे छोटी । 
तू जो कद्ठति बल की ब्रैनी ज्यों हे दे लाँबी मोटी | 
काठत गुह्त नहवाबत पोंछुत नागिन सी भुँइ लोटी। 
काचो दूध पियावति पचि पचि देति न माखन रोटी | 
'धूर स्याम' चिरजिव दोऊ भैया दरि इलघर की जोडी | 


और देखिए-- 
मेया मोहि दाऊ बहुत खिफायो । 
मोसों कइ्दत मोल को लीन्हों तू जसुमति कब जायो। 
कहा कददों यहि रिस के मारे खेलन हां नहिं जात, 
पुनि पुनि कह्त कोन है माता को है तुम्दरो तात। 
गोरे नन्‍्द जसोदा गोरी तुम कत स्यथाम सरोर, 
चुटकी दे-दे हँसत ग्वाल सब सिखे देत बलवीर। 
तू मोही कों मारन सीखी दाउंदि कबहुँ न खीमे, 
मोहन को मुख रिस समेत लखि जधुमति सुनि-सनि रीके । 
सुनहु॒ कान्हद बलभद्र चबाई जनमत ही का धूत, 
'सूर स्थाम” मोहि गोधन की सों हों माता तू पृत। 


( दैश३ ) 


नीचे लिखे पद्म में वात्सल्य का कितना सुन्दर चित्र खींचा गया है--- 
मैया में नाहीं दघि खाया । 
ख्याल परे ये सखा सब मिलि मेरे मुख लपटाये ॥ 
देखि तुही छींके पे भाजन ऊँचे घर लटकायोा, 
तुहदी निरखि नान्‍्हे कर अपने में कैसे करि पाये। 
मुख दधि पोंछि कहत नंद नंदन दोना पीठि दुराया, 
डारि साँट मुसुकाय तबहिं गहदि सुत के कंठ लगाये। 
बाल विनोद मेोद मन मोह्यो मगति प्रताप दिखायेा, 
'सूरदास? प्रभु जसुमात के सुख सिव विरंचि बोराये। ॥ 
यशोदा जी द्वाथ में छुड़ी लेकर जिस समय कृष्ण के डाटती हैं-.'ढीढ, 
तू बड़ा पाजी हे! गया हे। बता दही कैसे खाया ? उस समय कृष्ण जी 
मह पोंडु ओर दोना पीछे छिपा कर भोलेपन से कहते हैं-..''मैया मैं नाहीं 
दधि खाये |! साथ ही अपनी निर्देषिता की पुष्दि में प्रमाण भो देते जाते 
हैं| कृष्ण की बाल सुलभ मोठो और चतुराई-भरी बातें सुन यशोदा का 
क्रोध काफूर हो गया और उनके द्वदय में वात्सल्य रस का सरोवर 
उमड़ने लगा | 
कविवर रसखान का भी वात्सल्य सम्बन्धी एक पद्म पढ़ लीजिए 
घूरि भरे भ्रति शोभित श्याम जू कैसी बनी सिर सुन्दर चोटी। 
खेलत खात फिरें श्ंगना पग पेंजनी बाजति पीरी कछोटी ॥ 
वा छवि को 'रसखानि' विलोकनि वारत काम कला निज्ञ काटी । 
काग के भाग बड़े सजनी हरि द्वाथ सों ले गये माखन रोटी ॥ 
रसखान जी ने बाल कृष्ण का कैसा चित्र अंकित किया है, जिसे पढ़ते 
हो उनके प्रति पाठक का प्रेम-भाव उमड़ पड़ता है । 
महाकवबि तुलसीदास ने भी अपने इष्ट भगवान रामचन्द्र जी की 
बाल-लीलाओं का वर्णन इस प्रकार किया है--. 
कबहूँ ससि माँगत आरि करें कब॒हूँ प्रतिबिम्ब निद्दारि ढर | 
कबहूँ करताल बजाह के नाचत मातु सब्र मन मोंद भरें ॥ 
कबहूँ रिसियाय कहें इठि के पुनि लेत सुई जेहि लागि अरें | 
अवधेश के बालक चारि सदा 'तुलसी” मन-मन्दिर में विहर | 


( ६१४ ) 


ऊपर के पद्म में रामलला की बालोचित इेष्ठाओं का कैसा अ्रनोखा 
वर्णन हे । 
और भी देखिए-.. 
तन की दुति श्याम सरोझ॒ह लोचन कंज की मंजुलताई हरें। 
अति सुन्दर सोहत धूरि भरे छुबि भूरि अनंग की दूरि करें ॥ 
दम के दतियाँ दुति दामिनि ज्यों किलके कल बाल विनोद करें । 
श्रवपेश के बालक चारि सदा 'तुलसी? मन मन्दिर में विहर ॥ 
राम जी का धूलि-घधूसरित श्याम-शरीर कितना सुन्दर मालूम देता हे। 
जिस समय वह किलक कर अपने दो दूध के दाँत चमका देते हैं, उस 
समय ऐसा जान पड़ता है कि बिजली कौंध गई । 
तुलसी जी का नीचे लिखा सवैया भी वात्सल्य का सुन्दर उदाहरण है... 


बर दनन्‍त की पंगति कुन्द कली अश्रधराधर पल्षव खोलन की। 
चपला चमके घन बीच जगै छुबि मोतिन माल अ्रमोलन की ॥ 
घुंधपरी लटे लटके मुख ऊपर कुंडल लोल कपोलन की। 
निवछावरि प्रान करे 'तुलसी' बलि जाऊँ लला इन बोलन की ॥ 


तुलसीदास ने रामलला के घुंधराले बालों, ललित-लोल कुंडलों और 
मधुर तथा तोतले बोलों पर अपने प्राण तक न्योछावर कर दिये | 


नख-शिख 


पविन्नता, उत्तमता, स्वच्छुता, रमणीयता, विनय, कोमल, कल्पनाशक्ति, 
माधुय, कवित्व, पुष्प, गन्ध, वस्त्र, इत्र आदि सोन्दय के अ्रन्तगंत हैं। सौन्दय- 
वृत्ति का उपयाग सृष्टि में फैले हुए. सौन्दय का अनुभव करने तथा श्रपनी 
कल्पना द्वारा दूसरों को उसका अनुभव कराने के लिए द्ोता हे। युष्टि में 
जो कुछु है, सब सुन्दर है । किसी को कोई चीज़ अ्रच्छी लगती हे, किसी 
को कोई | सृष्टि रचना की उत्तमता, उसके पदार्थों का उपयोग, वसन्‍्त के 
सुवासित पुष्पों का परिमल, ग्रीष्म-गरिमा, सूथ. और चन्द्रमा का अस्तोदय, 
समुद्र का उतार-चढाव, अनन्त आकाश में अ्रसंखय नक्षत्र, उनकी रचना, 
क्रिया और गति, कलकल निनादिनी नदियाँ, रंग-बिरंगे पक्की, उनका माँति- 
भाँति का कलण्व, मृदु, कोमल, एवं तीत्र ध्वनि, बाग-बगीचा और वनस्पति, 


( ६१४ ) 


उनके रूप रंग और शोभा-सुगन्धि, नर-नारी, जीव-जन्तु इत्यादि सभी में 
किसी न किसी प्रकार का सौन्दय विद्यमान है। इन सब सौन्दर्यो में मनुष्य 
के मन अथवा आत्मा की सुन्दरता बिलकुल निराली द । उसके स्वभाव, 
बल, सामथ्य तथा आन्तरिक शक्तियों के सौन्दय की समता कोई नहीं 
कर सकता। मस्तिष्क- शास्त्रियों का कहना है, कि मनुष्य के मस्तिष्क में 
सौन्दय वृत्ति का विशेष स्थान निश्चित है | 

यदि मनुष्य में सौन्दय -बृत्ति न होती, तो संसार की सरसता का श्रनुभव 
कोन कर सकता था । इस वृत्ति ही द्वारा मनुष्य संसार का आनन्द उपभाग 
करने में समथ होता है| उसके शारीरिक, मानसिक और नैतिक जीवन में 
पू्णंता विकसित करने वाली यही शक्ति है, इसी से वह पवित्र और उच्च बनता 
है। पशुपन की श्रधमता इससे ही दूर होती हैँ । जिन स्त्री या पुरुषों में सोन्दय- 
शक्ति अधिक विकसित होती हे उनकी सुरुचि, उच्च भावना, कला-प्रियता और 
कोमल कल्पना शक्ति बढ़ जाती है। उनकी कविता और वक्ता में सुन्दरता 
और सरसता का प्रवेश हो जाता है | स्वभाव शान्त बन जाता है। वे जिस 
बस्तु को देखते हैं, उसके सौन्दय का वर्णान बड़ी ही सुन्दरता से करते हैं । 
प्राकृतक सोन्दय के तो वे बड़े ही भक्त ओर प्रशंसक बन जाते हैं । 

जिन लोगों में सौन्दय -वृत्ति साधारण रूप से होती है, उनकी बात- 
चीत और रीति-भाँति में स्वाभाविक सुन्दरता का अभाव होता हे, श्रोर 
जिनमें यह शक्ति द्ोती दी नहीं, उनका जीवन शुष्क, ककश, त्रुटि पूर्ण और 
सरुच होन बन जाता है। स््री ओर पस्ष दोनों को सुन्दर वेश-भूषा का 
शौक़ द्ोता दे | सुन्दर रूप-रंग और मनोरम प्राकृतिक इश्यों के देखने एवं 
उनका वन करने से सौन्दय -वृत्ति का विकास होता है। जितना ही कोई 
व्यक्ति सौन्दय प्रम में निमम्म होगा, उतनी ही उसकी सौन्दय -वृति बढ़ेगी। 
जो लोग ऋतुश्रों की मनोमोहक सुन्दरता पर मुग्ध रहते हैं, वे ही उसकी 
महिमा जान सकते हैं। सोन्दय -वृत्तिविकास के लिए, ससंस्कृत ओर पवित्र 
परुषों की संगत श्रोर मृदु भाषिणी सन्दरियों का सम्पक बहुत आवश्यक 
है | सोन्दय -वृत्ति का दुरुपयोग बड़े अनयथ का कारण बन जाता है। इससे 
दुगणों और दुर्वासनाओं का जन्म होता है। श्रसमय में प्रेम-प्रवृत आरोग्य 
और आयुष्य का नाश करने वाली होती है। इस वृति का दुरुपयोग बुद्धि 


( ६१६ ) 


ओर विचार शक्ति की कमी के कारण ही होता है । विषय-वासना और 
सौन्दय -प्रेम में श्राकाश-पाताल का अन्तर है । पहला मनुष्य को भघःपतन 
को और ले जाता और पिछला उसे मानवता के श्रादर्श की ओर अग्रसर 
करता है | बालकों में सोन्दय-वृत्ति के विकास के लिए पहले ही से सतक रहना 
चाहिए | उनके आचार-विचार, रहन-सहन, व्यवहार आदि में सौन्दर्य के 
प्रवेश होने की बड़ी आ्रावश्यकता है। उनमें ललित ऋलाओं और प्राकृतिक 
सौन्दय -निरीक्षण की ओर सुरुचि पैदा करनी जरूरी है। 

काव्य-शास्त्र में इसी सोन्दय -वृत्ति की भावना को लेकर कवियों ने सब 
ही प्रकार का सोन्दय -वर्णन किया है । पशु पद्दी, नदी-नाले, वन-उपबन, 
बृक्ध-वनस्पति, सूथ -चन्द्रादि नक्षत्र. जी पुरुष, ऋतु, काल, देश इत्यादि किसी 
का भी सोन्द्य इनके वन से नहीं बच पाया | बचे भी क्यों ? जहाँ सौन्दय' 
है, वहाँ उसकी श्रनुमूति भी है | ज्रियों के सौन्दर्य का वर्णन कवियों ने 
सर्मा्ठ ओर व्यष्टि दोनों रूप से किया है --यानी उनके सारे शरीर का वर्णन 
भी और अज्भ-प्रत्यज्ञ का प्रथकू-पृथकू भी | व्य्टि रूप से अज्ञ-सौन्दय के 
कऋमबद्ध वर्णन का नाम नख-शिशव रक्‍खा गया है। नख-शिख का अर्थ हे 
नख से लेकर शिख ( शिखा ) पयन्त । इसे ही उदू वाले 'सरापा' कहते हैं 
जिसका मतलब हुआ्रा सर से पेर तक | '>ख-शिख” या 'सरापा? में कवि 
लोग नायिकाओं के विविध श्रंगों का प्धक-पृथक्‌ वश न किया करते हैं , हिन्दी 
में नल-शिख लिखने का बहुत रिवाज रहा है। प्राचीन कवियों के नख-शिख 
बन से पोये के पोथे भरे पड़े हें | इन नख-शिखों में श्रंगों का वर्णन करते 
दुए कितने ही कवियों ने अपनी कल्पना शक्ति का कमाल कर दिखाया हे। 

'नख शिख' को उद्दीपन त्रिभावों में रकखा गया है | कुछु लोगों का कहना 
है कि जब नायिका का सम्पूर्ण शरीर आलम्बन है, तव 'नख-शिख' के रूप 
में उसके प्रथक-प्रथक्‌ अज्नों का वर्णन उद्दोपन विभावों में क्‍यों माना गया ? 
इसका समाधान यही हो सकता है कि नायिका को देखकर हृदय भें जो 
रतिभाव जाग्रत होता है, नायिका के सोन्दय पूर्ण श्रद्ध॒ विशेषों का चिन्तन 
झोर स्मरण उसको अधिकाधिक उद्दीप्त करने में सद्दायक होता हे। जिस 
नायिका के अज्ञ-प्रत्यड़् जितने अधिक सुन्दर होंगे, उसके प्रति रति-भाव 
भी उतना द्वी अधिक उद्दीौप्त दोगा | जहाँ अंग सौष्ठव की कभी या उसका 


( ६१७ ) 


बिलकुल शभ्रभाव होगा, वहाँ नायिका के होते हुए भी रति भाव उद्दीम्त न 
होगा | यही कारण है जो नख-शिखों की उद्दीपनों में गणना की गई है । 
कुछ आचार्यो' ने नख-शिख की उद्दयीपन विभावान्तगत सखी के कर्मो' 
में गणना की है| सखी अश्रपने मण्डन कम द्वारा नायिका के अद्ञ-प्रत्यजड्ों 
की जो सजावट करती है, उसी का वर्णन नख-शिख वर्णन है| जो हो, किसी 
भी विचार से रखिए, नख-शिख को उद्दयोपन विभावों में रखना होगा | 
पग-तलर वर्णन 
[ पग-तल का सोन्दय वर्णन करने में उनकी उपमा कामदेव की ध्वजा, 
चन्दन के पत्तों, कमल के वर्ण श्रादि से दी जाती हे।] 
देखिए, पग-तल के वर्णान में किसी कवि ने क्‍या ही सुन्दर पफ्य 
लिखा द-. । 
कोक नद हइन्दीवर पुण्डरीक कहे पाई--- 
छुबि बहु बरन बरन ही के भाय की। 
सददज सुगन्ध रये दिनकर बन्धु भये, 
कर कमलन लये राजा और राय की ॥ 
सुन्दर सुभाये सीस शंकर चढाए ऐसी--- 
पदवी को पाये रसराज चित चाय की | 
कोन्हें तप बहुत विचारे कमलन पर, 
समता न पाई तेरे तरवन पाय की॥ 


अर्थात्‌ कमलों ने विविध विध तप कर कोकनद, इन्दौीवर आदि अ्रनेक 
सुन्दर नाम भी पाए. सुगन्ध युक्त मनोहर शरीर भी प्राप्त किया, सूय से मैत्री 
भाव भी लाभ किया, ये राजा महाराजाओं के हाथों में--यहाँ तक कि 
देवताओं के शिरों पर भी सुशोभित हुए. परन्तु बेचारे नायिका के पैर के 
तलवों की समता फिर भी न प्राप्त कर सके । 

और भी देखिए, राधिका जी के पग-तलों के सम्बन्ध में कविवर रघुनाथ 
जी क्या कह्दते हैं। 

शोभा के निवास के प्रकास के निकेत मंजु-- 
कैधों यह उदधि श्रमोध बस भारी के । 


( धृश्८ ) 


कैधों रस द्वास के तड़ाग या सुधा के सिन्धु, 
सोति-मदहारी किधों यह सुकुमारी के॥ 
भने 'रघुनाथ! बसे हिये हमरे में सदा, 
सब सखदाता वृषभानु की दुलारी के। 
अरुण अमनन्‍्द चार विमल सोहाग भरे, ः 
कमल गुलाब रंग पग तल प्यारी के॥ 
सचमुच वृषभानु की दुलारी के पग-तल क्या हैं, सौन्दय के सदन या 
प्रकाश के निकेतन हैं, अथवा हात्त के सरोवर या सुधा के सिन्धु हैं । 
पग-वण न 
[पर्गों का सौन्दय -वर्णन करने में उनकी उपमा कमलों से दी जाती हे ।] 
पग्गों का वर्णन करते हुए कवियों ने कैसी कलित कश्पनाओं और 
उत्प्रेक्षाओं से काम लिया हे, देखिए--- 
कोऊ केतु नौर विवि पह्नव पटीर केधों 
विद्रुम की पीठि पर बारिज बरन हैं। 
जानु युग नाल फूले सन्दर सरोज दोऊ, 
अति ही सुदेस महा मन के दरन हैं ॥ 
उन्नत अँगूठा नखव-आभा आँगुरीन पर, 
चन्द्रकला आई किघों राहु के ढरन हैं। 
हों हूँ हेरि हारी, रीके रसिक बिहारी हँस--- 
गति अनुसारी की धथों प्यारी के चरन हैं ॥ 
अजी, ये नायिका के चरण नहीं हैं, दो सुन्दर सरोज फूले हैं। नायिका 
के युग जानु ही इन दोनों सरोजों के नाल हैं। त्रोर उन्नत श्रंगूठों में जो नखें 
की चमक दिखाई देती हे, वह वास्तव में चन्द्रमा की कला है, जो राहु के 
भय से नायिका के पेरों में आ छिपी हे। केसी ऊँची उड़ान है। 
विधि उपजाये पुनि कमला बसाये आनि, 
सूर सों मिलाये कर घाम सीत खायौ है । 
इरि गश्मौ हाथ तातें भ्रति ही सनाथ भयो, 
मान सर वासी सीस शंकर चढ़ायो है॥ 


( ६१६ ) 


काम को सहाय भयो, रस-गंध-रूप भयौ, 
तीनों लोक मॉम यश तेरी सनि पायो है। 

तदपि ये नागरी के चरण कमल चार, 
ताकी समता को नूर रंचक न आयो है ॥ 


कमल ने ब्रह्मा की नाभि से जन्म पाया, फिर वह लक्ष्मी जी का निवास- 
स्थान बना, घाम और शीत में एक टॉँग से खड़े रह कर तपस्या करता रहा, 
विष्णु भगवान्‌ के हाथों में बसा, शंकर जी के तिर पर चढ़ा, कामदेव का 
सहायक बना ओर सूर्य का भक्त रहा । यह सब करने से उसकी तीनों लोकों 
में तो प्रसिद्धि हो गयी, परन्तु नागरी के चरणों के समान वह फिर भी न हो 
सका | क्‍या खूब ! 


अरुणता एड़िन की रवि-छुत्रि छाजत है, 

चारु छुवि चन्द ग्राभा नखन करे रहें। 
मंगल महद्दावर गुराई बुध राजत हें, 

कनक बरन गुरू बानक धरे रहेँ॥ 
शुक्र सम ज्योति शनि-राहु-केतु गोदना हैं, 

“धतुरली? सकल सोभा सौरभ भरे रहैं। 
नवों ग्रह भाइन तें सेवक सुभाइन तें, 

राधा ठकुराइनि के पायन परे रहें ॥ 


उपयक्त पद्य में तो कवि ने नवों ग्रहों को राधिका जी के चरणों पर बार 
दिया है। कवि की कलपना द्वी तो ठहरी ' 
केधों मान सर द्वी के विमल कमल दोऊ, 
सोहें जपा जावक सुरंग अनुहारी के। 
कैघों सुर तरू के सुपनल्लव विमल राजे, 
के्घों ये विराजें भानु भ्रमतम द्वारी के॥ 
“(द्विज' कह्दे केधों रति-पति के मुकुट वारी, 
लाल मणि माणिक अ्रमित गुण भारी के। 
लोभित रहत मन-मोहन को जामें ऐसे, 
शोभित चरण दृषभानु की दुलारी के॥ 


( ६२० ) 


इस पद्म में भी द्विजदेव जी ने चरणों के सम्बन्ध में केसी-केसी उत्प्रेक्षाएँ 
'की हैं | कभी वह उन्हें मानसर के सरोज समभते हैं और कभी कल्पदृक्ष 
के पत्ते | एवं कभी उन्हें उनमें कामदेव के मुकूटों की श्रान्ति हो जाती है। 
पद-लालिमा 
.. [पैरों की लालिमा के वर्णन में कविजन कमल, गुलाब, वंधूक श्रादि के 
'पुष्पों, इन्द्र वधू, मूँगा, लाल, महावर, नूतन सूथ किरणों, पके कुँदरू, 
मजीठ, इशुरु श्रादि से उपमा देते हैं । ] 
देखिए, कवि श्रीधघर जी पद-लालिमा का वर्णन किस ढंग से करते हँ-.- 
कोहर केतीक इन्द्र बधू के वरण जीते, 
मंहदी के वनदन की भलकी सहल की। 
सहज ही रंगदार, जावक सुरंग भार, 
होत न संभार डंगे भरती कहल की ॥ 
'श्रीधर”! अरुण छुवि छुटा छुहराय रहो, 
छिति में बिछाइं मानों पाँखुरी कमल की। 
ज्यों ज्यों प्यारी मंद मंद पायन घरति श्रावे, 
पोंध सी भरति श्रावै त्यों त्यों मखमल को ॥ 
अर्थात्‌ नायिका के पदों की लालिमा ने महावर, इन्द्र वधू, महँदी 
आदि सब की अरुणिमा को जीत लिया हे और उनकी कोमलता ने कमल 
की पंखड़ियों को भी मात दे दिया हे । वह जहाँ-जद्ाँ पेर रखती है वहाँ- 
'बहाँ भूमि मखमल-सी हो जाती हे । 
अब उदैनाथ जी का पद-लालिमा वर्णन भी सुन लीजिए -- 
ग्रदण कमल असरुणोदय परम मित्र, 
तिनहूँ को लाली ते लजावति है अ्ंग तू । 
“उदैनाथ' इंगुर गुलाल गुड़्दर लाल, 
निदरत लाल ऐसे करत प्रसंग वृ॥ 
बाजत न नूपुर कदत चरनन छूवे-छवे, 
जा में सख पावे री सोई करि ढंग वू। 
पायन में मेंहदी लगाई राघे कौन काज, 
सद्ज ललाई के बिगारे जानि रंग तू ॥ 


( ६९११ ) 


नायिका के पैरों की लालिमा इतनी बढ़ी-चढ़ी दे कि उसके आगे अरुण 
कमल, इगुर, गुलाल, गुड़दर आ्रादि सब फीके पड़ गये हैं । 

कविवर शम्भु जी का नीचे लिखा सवैया भी पढ़ने लायक दै-- 

बिम्बा, प्रबाल, बँधूक, जपा, गुललाला गुलाब की आ्राभा लजाबति | 

शशम्भु जू! कञ्न खिले टटके किसले बटके भटके गिरा गावति || 

पाँव घरे अलि ओर जहाँ तिहिं ओर ते रंग की धार सी धावति। 

मानो मजीठ की माठ ढुरी एक ओर तें चाँदनी बोरति आवति ॥ 


शम्भु कवि ने तो लालिमा के वर्शन में कमाल ही कर दिया। नायिका 
अपने पग्गों की श्ररुणिमा से विम्बाफल, प्रवाल, वंधूक पुष्प, जपा आदि को 
लब्जित करती हे; इतना ही नद्दीं, बल्कि वद६ जहाँ जहाँ पेर रखती हे, वहाँ 
वहाँ ऐसा जान पड़ता है. जेसे लाल रंग की धारा बह चली हो। जिस 
समय वह बिछी हुई चाँदनी पर चलती है, उस समय तो यह मालूम देता 
है, मानो चाँदनी मजीठ के मठके में बोर दी गयी दे । 

एड्री वणन 

[ एड़ी की सुन्दरता-वर्णन में उसके लिए इंगुर या मूँगा के रंग, कमल, 
गुलाब, दुपद्दरिया के फूल, श्रनार या कोहदर के फल से उपमा दी जाती दे। ] 

देखिए, कवि काशोराम एड़ियों का वन किस खूबी के साथ करते ईं-... 


मन्दर है चित्त इन्द्रबधू के बरन होत, 
प्यारी के चरन नवनीत हू ते नर में । 
सहज ललाई जाति बरनी न 'काशीराम', 
चुई सी परति छवि बॉकी गति भर में ॥ 
एड्ी ठकुराइन की नाइन गहति अब, 
इंगुर सों दोरि आवे रंग दरबर में। 
दीन्हों हे कि दीवे दे निहारि सोचे बार बार, | 
बावरी सी हुं रही मदह्दावरी ले कर में ॥ 
ठाकुराइन के चरण कोमलता में तो नवनीता से भी श्रधिक नरम हैं, 
लालिमा में इन्द्र वधुओं को भी मात करते हैं | सच तो यह है कि उनकी 
स्वाभाविक ललाई उनमें से चुई-सौ पड़ती हे। नाइन जब कभी उनमें 


. ईर३२ ) 


महावर लगाने बैठती है, तो उनकी सहज अ्ररुणिमा देख हकौ-बकी-सी रह 
जाती है। वह उन्हें बार-बार देखती और सोचती है कि में इनमें महावर 
लगा चुकी हूँ, या श्रभी लगानी है । 
नीचे लिखे दोहे में भी एड़ियों का वशन बड़ी सुन्दरता से किया गया है । 
देखिए. -- 
जो इरि जग मोहित करे, सो हरि परे बेहाल । 
कोहरि सी एड़ीन ते को हरि लियो न बाल ॥ 
बाला ने कोहर सदश अरुण वर्ण एड़ियों से किसे अपने वश में नहीं 
कर लिया | श्रजी, औरों की तो बात ह्दी क्या चलाई, जो हरि संसार को 
मोहित करने वाले हैं, वे भी तो उन्हें देख कर विहल हो गये हैं। भावों 
के साथ-साथ दोहे की शब्द-योजना भी देखते ही बनती है | खूब ! 
पदांगु लि-वर्णन 
[पैरों की उँगलियों का वर्णन कवित्नन चम्पा कली, प्रिययम की जीवन 
मूरि आदि से उपमा देकर किया करते हैं। | 
देखिए उनके वर्णन में कविवर चिन्तामणि का नीचे लिखा कविक्त 
कितना सुन्दर हे-- 
इन्दिरा के मन्दिर में दशहूँ दिशा की किर्धों, 
इन्दिगः है जेतवार अरुण नगन की। 
कौल ढिंग कंचन की बिलछिया मराल बाल, 
तिनके धो लाल मुख पाँति है नखन कौ ॥! 
“चिन्तामणि! कीधघों मृदु चरण घरत दुति, 
पल्लव बिछोना की निशानी है मगन की। 
काम मन्त्र मोहिनी के जपिबे को विद्रुम की, 
गुरियाँ की बाम की अ्रंगुरियाँ पगन की ॥ 
नायिका की उँगलियाँ क्‍या हैं, नायक के वश करने के निमित्त काम मंत्र 
जपने की गुरियाँ हैं । खूब ! 
श्र देखिए -- 
अरुण कमल पग पाँखुरी की पाँति लखे, 
सरस सघन शोभा मन के हरण की। 


( ६२३ ; 


दीरघ न लघुताई, पातरी सुहावनी हें, 
देखे दुति होति जाति विद्रुम वरण की ॥ 
नख की निकाई नीकी श्रारसी सी सोहति है, 
जामें देखी जाति शोभा सोति के तरण की । 
“भरमी सुकवि!” कद्दि आवति न मेरी मति-- 
पॉगुरी भई है, लखि श्राँगुरी चरण की ॥ 
कविवर भरमी जी की बुद्धि तो नायिका के चरणों की “श्राँगुरी? देख कर 
बिलकुल पॉँगुरी ( पंगु-कुण्ठित या ठगी-सती ) हो गईं है। उससे तो उनके 
विषय में कुछ कहते ही नहीं बनता । 
पद-नख-वणन 
[ पद-नखों के सौन्दय की उपमा चन्द्रमा, पुष्प, तारे, सूय, मणि आदि 
से दी जाती हे ] 
देखिए, निम्नलिखित कवित्त में पद-नखों का वर्णन केसी सुन्दरता से 
किया गया हे-- 
चरण सरोवर के तट पाँति इंसन की, 
पदुमालया की देहरी में हीरे जरे हैं। 
पग पारवती के गणेश पूजे कुंद ही सों, 
मेलते सजीब के उठाय ठाढ़े करे हैं ॥ 
नख तारे गगन के चन्द के बसीठी श्राये, 
नेक निशि भूल्यो रबि बैर जिय धरे हैं । 
नूर को निकाई न बताई जाइ प्राणपति, 
ऐसे प्यारी-पाय सब सुखमा सों भरे हें ॥ 
ये नायिका के पद-नख नहीं हैं, वरन्‌ चरण रूपी मानसरोवर के तट 
पर हंसों की पाँति आ विराजी हे | अथवा आकाश के तारे चन्द्र के बसीढ 
बन कर उसके आस-पास आ बैठे हैं। क्‍या श्रदूभुत उड़ान हे ! 
अब कविवर मतिराम जी का पद-नख वणन भी सुन लीजिए | आप 


कहते हें- 
राधे के चरण युग अरुण-अश्ररुण रूप, 


लालिमा न बलि ऐसी लालन में द्वोती हैं । 


( इर॑४ड ) 


कोमल सुमन इते शोभा भरे शोभित हैं, 
दाहन मरत जपा भये मानो गोती हैं ॥ 
तामें सुधाघर से विविध भाँति राजत हें, 
कहें 'मतिराम' नख मिले बनि जोती हैं। 
यातें एक उपमा अधिक भासी मेरे जीय, 
पंकज दलन अग्रधरे मानो मोती हैं॥ 
अरे साहब, राधिका जी के पद-नखों के सम्बन्ध में कोई कुछ कहता हे 
और कोई कुछ । परन्तु मुके तो ऐसा जान पड़ता है कि ये चरण नहीं, अरुश 
कमल हैं, ओर आप जिन्हें नख बताते हैं, वे बड़े-बड़े मोती हैं, जो कमल 
को पंखुड़ियों के अग्रमाग में सजा कर रख दिये गये हैं। ठिकाना है, इस 
खुझ का ! 
गुल्फ-वर्णन 
[ गुल्फ़ों का वर्णन करने में उनकी उपमा रेशम की गाँढ के समान छवि, 
कामदेध की कपूर की कोठी, रति के डिब्बे, कंचन के ताले या रूप के मूल से 
दी जाती हैं। ] 
नीचे लिखे पद्म में गोरी की गोरी-गोरी ग़ुक्ककों का केसा सुन्दरतापूण 
वर्णन किया गया है, देखिए---- 
करेगी कहा तू द॒ग-अद्जन दे राघे पग, 
भज्षन के दरी बुद्धि नन्‍द के दुलारे की। 
लाल नख लाल श्राँगुरीन लख लीन भया, 
जाली लखि लाल वाके चरण किनारे की॥ 
तरवा सुरंग एड़ी इंगुर की रंगी रंग, 
छवि दे तरंग अंग कारे चटकारे की। 
गोरी तेरी गोरी गोरी गोल गुलफन पर, 
नजर निगोड़ी गड़ी जुलफन बारे की॥ 
और भी देखिए, नीचे के पद्म में कवि ने गुरुफों के सम्बन्ध में केसी-केसी 
उद्पेक्षाएं की हैं--. ह 
चरण कमल करि हाटक की शोभा देत, 
पूरी मनि मानो लट नागिनी उलफ की । 


( १२५ ) 


रम्भा तरू उलटि कपूर पूर राखिबे की, 
कोठी है जुगल कम काम के कुलफ की | 
साजत सुदेश गॉँठ गिरी है दिनेश केधों, 
रेशम-रसे की रूप-भूप के सलफ की। 
एड़िन सों झ्राड़ राजे पायन दुहूँ बिराजै, 
अति छबि छाजे लाल गोरी के गुलफ की ॥ 
पिंडरी-वर्णन 
[ पिंडुलियों का वर्शन करते समय उनकी करभ और दीप-शिखा से 
उपमा दी जाती है। ] हे 
कविवर चिन्तामणि जी ने पिंडुलियों का वर्णुन कैसे सुन्दर ढंग से किया 
है, देखिए-- 
सार घनसार को ले केसरे कनक चुूर, 
सानि सुधा सलिल संघारी है किसोरी की । 
चीकनी करभ ही सों करी है बिरंचि पुनि, 
ताते तैसी भई है युगति नहिं थोरी की ॥ 
रम्भा-छुवि छीनि लीन्‍न्दीं, रम्भा-छुवि छीन कीन्हीं, 
'चितामणि' तिलोत्तमा रति मति भोरी की । 
जे हरि के उर बसी जे हरि सों अति लसी, 
ऐसी गेारी-गेरी गोल पींडरी हैं गोरी की ॥ 
विधाता ने कपूर का सत्व और केसर तथा सोने का चूरा सुधा में सान 
कर उस मसाले से राधिका जी की पिंडलियाँ बनाई हैं। तभी ते वे ऐसी 
जान पड़तो' हैं, मानों उन्होंने कदली स्तम्म की शोभा चुरा ली है। यही 
कारण है कि उनके आगे रम्मा, तिलोत्तमा आदि श्रप्सराश्रों की ही नहीं 
बल्कि रति की भी छ॒वि क्ञीय जान पढ़ती हे, श्रोर इसीलिए वे हरि के द्भदय 
में बस गई हें । 
ओर भी सुनिये-- 
गेरी गोलारी सुढारी सी साँचे की देखत देहन कोमल काकी। 
रम्म कुसुम्म किधों हैं किंधों छुबि छीनत कंचन के कलिका की । 
हि० सू७ २००४६ ०७० 


( ६२६ ) 


काम गठ्यौ बढ़ई हे किधों रति के रति कीबे को या पलिका की | 
'ताष! विलोकि विलोचन में न बती बलि पींडुरिया मलिका की ॥ 


कविवर तोष जी ने पिंडलियों के सम्बन्ध में केसी अनोखी कल्पना की हे। 
श्राप कहते हँ--ये नायिका की पिंडलिया नहीं हैं बल्कि रति के रमण करने 
के वाह्ते सन्‍दरी के शरीर रूरी पलँग के पाए हैं, जो कामदेव ने बढ़ई बनकर 
स्वयं श्रपने हाथों से बनाए हैं । 
जंघा ( जानु ) वर्णन 
[ जंघाओं के वर्णन में हाथी की यूँड़, केले के इच्च, कामदेव के तरकस, 
सोने के खम्म श्रादि से उपमा दी जाती है । ] 
कविवर चिन्तामणि जानुश्रों का वणुन किस विलक्षण ढंग से करते हैं , 
देखिए-- 
5» तृथषभानु-नन्दिनी की जानु जैतवार याते, 
मेरे जान रम्भा-खम्म श्रति ही सकात है। 
(चिन्तामणि” कहे वाके कॉपत रहतद पत्र, 
याद्दी डर वाको अ्रति सीरो भये। गात है। 
कोमल वेरण कर कराहूँ सो हारत हूँ, 
कहा कहों या विचारि चित अकुलात है । 
ये ही यन्त्र करिबे कों मेरे जान बार-बार, 
करी कर करिन के निकट ही जात है॥ 


वृषभानु नन्दिनी की जंघाओ्ों को देखकर कदली स्तम्भ लब्जित और 
भीत द्दो गए, इसीलिए उनके पत्ते थरथर काँपते हैं, और शरीर ठंडा पड़ 
गया है । उघर द्ाथी की सू ड़ भी राधिका जी की जांघों के आगे शअ्रपने 
आपको कुरूप ओर ककश पाकर, विकल हो इधर-उधर छुट-पटाती रहती 
हे। श्रो हो! द्वाथी जो बार-बार दोड़-दोड़ कर कदली बन में जाते हैं, उसका 
भी रहस्य अरब समझ में आ गया । क्योंकि करी-कर (हाथी की सूड़ ) 
झोर कदली-स्तम्भ दोनों ही राधा जी की जंघाओं से पराजित हो चुके हैं, 
इसलिए परस्पर मन्त्रणा करने के लिए वे बार-बार शकट्टे होते हें । 


६ ६२७ ) 


और भी सनिए--- 

कोमल कमल-मुखी तेरे ये जुगल जानु, 

मेरे बलबीर जू के मनहिं इरत हं। 
सोरभ सभाय सुभ रम्भा सो सदन श्ररु, 

'केसव करभम हू की सोभा निदरत हैं॥ 
कोटि रतिराज सिरताज ब्रजराज की सों, 

देखि-देखि गजराज लाजन मरत हेैं। 
मोच-मोच मद रुचि सकल सकोच सोच, 

सुधि श्राए सुडन की कंडली करत हैं॥ 


नायिका की ज॑घाओ्ों को देख कर गजराज का सारा मद चूर-चूर द्दोगया, 
ओर मारे संकोच के बेचारे ने सिर नीचे कुका लिया | उसे जब अपने इस 
पराभव की याद अआंती है, तब वह सूँड़ की कुणडलो बनाने लगता है | 
निम्नलिखित पद्म में जंघाओं का वर्णन कितनी सुन्दरता से किया 
गया है-- 
कदली डुलाइ कर पक्कषच करत मने, 
हों तो वनवासी मोहि किजिये न सर है । 
कारो करकस जानि करी हू सकेलि कर, 
घुने सीख देत प्यारी जान पटठतर है॥ 
तब याकी सूरति करभ एक रघच्यो विधि, 
सोऊ रसराज उपमा के न सुघर है। 
एरी तेरी जानु रति समे पिय ही के कर, 
करभ निलज परयो सब ही के कर हे।॥ 


यदि नायिका के जानुञ्रों की उपमा कदली स्तम्भ से दं, तो वह पहले 
ही पक्षव-पाणि दिलाकर कहता है-- “भला में वनवासी उनकी समता कैसे कर 
सकता हूँ ।" द्वाथी की सू ड़ से समता करना चाहें, तो वह भी उसे काली 
और ककश जानकर सुँड़ समेट लेता तथा अपने शीश पर धूलि रख कर श्रपनी 
अकिशनता प्रकट करता हे। यदि करभ से तुलना करें तो यह भी अ्रति 
अनुचित हे । कहाँ जने-जने के हाथ में डोलने वाला निलेज्ज करम, और 


( हर्ट ) 


कहाँ प्रतिक्षण वज्ाच्छादित रहने वाले नायिका के सलज्ज जानु । “कददहु तो 
कहाँ चरण कहाँ माथा |?! 
नितम्ब वर्णन 
[ नितम्बों के वणन में उनकी चक्रवाक, द्वीप, नदी के कूल श्रादि से 
उपमा दिया करते हैं। ] 
कविवर केशव जी नितम्बों का वर्णन इस प्रकार करते हैं--. 
चहूँ श्रोर चित्तचार चाक चकय चक्रमणि, 
सुन्दर सुदशन दरशन दी ने हैं। 
दितिसुत सुखनि घटाश्बे को सुख रूप, 
सुरनि बढ़ाइबे को 'केशव' प्रवीने हैं। 
सब ही के मननि हरन करि हरि हू के, 
मन मथिबे को मनमथ द्वाथ लीने हैं | 
रुचि शुचि सकुचि सकेलि के तदणि तेरे, 
काहू नये चतुर नितम्ब चक्र कीने हैं ॥ 
अब ज़रा नितम्बों के सम्बन्ध में नूर कवि की कल्पना भी देख लीजिए-- 
पिय रति श्रमता के थाँभिबे की ठोर कीन्हीं, 
रूप के नगारे मेन उलट के राखे हैं । 
कीधों काम माल ताकी नाल सी सिखत सिखी, 
की धौं पीठि देवी ताके शुद्धि धर भाखे हैं ॥ 
की्धों चक्र चतुराई ताददी के हैं आगे धरे, 
कोविद के मारिबे को नूर” अ्रभिलाखे हैं। 
शोभा सब जग की सँवारि के धरी हे मानो, 
तरुनी के नीके ये नितम्ब॒ रचि राखे हैं। 


और देखिये, कविवर तोष जी नितम्तरों के बारे में क्या कइते हैँ-- 
की धों द्वार मार जू के दोऊ चाद चेतरा हैं, 
की धो चक्रवाक चितचोर सुर नीके हैं। 
चामीकर चक्र चीन्हें जात यादि चिन्तना ते, 
चित ये चपद्च नेन्नी जोन करनी के हैं॥ 


( ६२६ ) 


रति के सद्यायक हैं 'तोष' सुखदायक हें, 
राखिबे के लायक अगर बरुनी के हैं। 

संवरारि रागी जू के तँबूरा विराजत के, 
मैन द्वी के तंब के नितम्ब तरुनी के हैं।॥ 


उपयक्त कवित्तों के श्र स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं, उन्हें प्रवीश्ष 

पाठक स्वयं ही भले प्रकार विचार सकते हैं । 
कटि-वणन 

[ कवियों ने कटि की सुन्दरता उसके अधिक से अधिक क्षीण होने. में. 
मानी हे, ओर उसकी उपमा केहरि-कटि सिवार, मृणाल के तार, बाल, 
मंंदरी श्रादि से दी हे । ] 

कटि के वर्णन में कवियों की कल्पना-कुरंगी ने कैती-केसी कुलाचें भरी 
हैं, इसके कुछ नमूने नीचे देख लीजिए.-. 

सिंहनी के करिदाँ ते छीन कज्जनाल करयौ, 


कञ्जनाल हूँ ते नागबेलि हू न घटि हे। 
नाग वेल हूते छीन जान्ये गुनवन्त गुन, 
गुन हू ते छीन बर-बार करयो वि है ॥ 
बार हू ते छीन तार 'चंदन” विचार कर, 
तार मकरी को रच्यो सक्षय निपटि है। 
मकरी के तार हूते चारु सुकुमार शअ्रति, 
करी करतार यद्द तेरी छीन कटि है॥ 
उक्त पद्य में नायिका की कटि मकड़ी के जाले से भी बारीक बताई गई 
है। अब कविवर चिन्तामणि की उड़ान देखिए--- 
सुन्दरि को मध्य विधि बड़े द्वी यतन रच्यो, 
ताते श्रनुमभ एक आओऔरे रूप ठयो है। 
चारि को तो अंक पल में हजार करे रच्यौ, * 
तैसो कद्दे कोऊ सो तो मूढ़ गुण लयो है ॥ 
“चिन्तामणि? राधिका की कटि चिते सिंह-कटि, 
द्वारि गो निप्ठ सोच ताके मन भये है। 


-. ( ९१३० ) 


अब कहूँ सुनिये न लाज दी ते मेरे जान, 
तब ही ते म्रगराज मदह्दी छोड़ि गये है॥ 
राधिका जी की कटि का चार के अंक से उपमा देना तो महा मूखंता 
होगी, अजी उनकी कमर ने तो तिंह की कमर को भी मात दे दिया है। 
इसी लिए तो सिंद मारे लज्जा के जंगल में जा छिपा है और अपना- 
मंह दिखाना भी पसन्द नहीं करता | 


ग्रव ज़रा केशवदास जी की भी सूक देखिए। इन्होंने तो नायिका की 
कटि को कोरी कल्पना बता दिया हे, वास्तव में वह है नहीं। सुनिए--- 


भूत की मिठाई जैसी, साधु की भुठाई जैसी, 

स्थार की ढ़िठाई जेसी छीन छहों ऋतु हैं। 
धीरा केसो दास 'केसोदास” दासी कैसो सुख, 

सूर केसी संक अंक रंक केसो वितु है॥ 
» सूम केसो दान, महामूढ़ केसो ज्ञान, गौरी-- 

गोरा केसो मान मेरे जान समुदितु है। 
कोने दे सवारी वृषभानु की कुमारी यह, 

तेरी कटि निपट कयट कैसो हितु है॥ 


अर्थात्‌ कपर वर्णित चीज़ें जेसे कल्पना मात्र या नाम मात्र को होती हैं, 
वैसे दी राधिका जी की कटि भी है । वस्तुतः वहाँ है कुछु भी नहीं । 


कविवर शंकर जी ने कटि का कैसा सुन्दर वर्णन किया है, उसे भी 
पढ़ लीजिए-. 
पास के गये पै एक बूँद हू न हाथ लगै, 
दुर सों दिखात मृग तृष्णिका में पानी है । 
शंकर' प्रमाण-सिद्ध रंग को न संग पर, 
जान पड़े अ्रम्बर में नीलिमा समानी है ॥ 
भाव में अभाव है, अ्रभाव में घों भाव भर॒यो, 
कौन कहे ठीक बात काहू ने न जानी है। 
जैसे इन दोउन में दुविधा न दूर दहोत, 
तैसे तेरी कमर की अ्रकथ कद्दानी है। 


( दरे१ ) 


कमर की “अ्रकथ कहानी” के साथ, गम्भीर दाशनिक भाव को, इस 
खूबी के साथ नत्थी कर देना शझ्डूर जी का द्दी काम है। 
कविवर तोषनिधि जी का भी कटि-वर्णन पढ़िए, आपकी सूक भी 
निराली है-- 
कोऊ कहे वारसी सिवार-सी कहदत काऊ, 
केाऊ कल्न तार सी बतावत निशइ् हैं। 
मेरे जान सिरफ लुनाई की लपेट लागी, 
ताही की लद्कक श्रो लचक द्वोत बह्ढ है ॥ 


तोष निधि! जो वे बे अधार को बहम बाढ़े, 
तो पै परतच्छु को प्रमान कौन टड्ढ है। 
जैसे भूमि-अम्बर के मध्य में न खम्भ कोऊ, 
तैसे लोल लोचनी के श्रड्डः में न लड्छ है ॥ 
अरे साहब, लोग भी क्‍या वहम में पड़े हैं। कोई नायिका की-कमर को 
सिवारब्सी बताते हैं, ओर के ई बाल-सी बयान करते हैं। परन्तु मेरा ख्याल 
तो यद्द है कि वहाँ कुछ हे ही नद्ीं। याद श्राप यद्द शड्ढा करे कि जब 
नायिका के कमर नाम की काई चीज़ हे हो नहीं तो फिर उसका ऊपरी घड़ 
किसके आधार पर ठहरा हे, इसके समाधान के लिए, भूम श्रोर आकाश 
का प्रत्यक्ष सबूत मोजूद है। जैसे भूमि पर ग्राकाश बिना खम्मे के डटा है, 
वैसे ही नायिका का ऊपरी भाग भी पैरों पर टिका हुश्रा है। अस्त, अब 
इससे भी बढ़ कर एक और कल्पना देखिए--- 
कौन्होी कमलासन कला निधि वदन तेरो, 
सकुच्यी कमल सार बासर निसरि गो | 
भये है उताल रचिबे को तेद्दि काल बाल, 
बाहइस विडरि वाके साहस सिसरि गो ॥ 
टेढ़ी कीन्हीं भोहें, कच कीन्हें कुटि लो है फेरि, 
कलिका भए. ते वाके आ्रासन खसरि गो | 
गोप जनि जान्ये ख्याल जगत जनाये यह, 
यातें वाकों कटि के बनाइबो विसरिगो ४ 


( छैरे३ ) 


कविवर तोषनिधि का तो झुयाल ही था कि नायिका के श्रड्ढू में लड्डू 
नाम की केाई चीज़ नहीं हे। परन्तु उक्त कवित्त में तो दावे के साथ कहा 
गया है कि नायिका के शरीर में कमर हरगिज़ नहीं हे। विधाता उसका बनाना 
द्वी भूल गया हे। इसका सबूत लोजिए--जिस समय ब्रह्मा जी बाला के शरीर 
की रचना करने लगे और उन्होंने उसका मुख-चन्द्र बनाया, तो उसे देखते 
दी ब्रह्म जी का आसन ( कमल ) चलायमान हो गया--सिकुड़ने लगा । 
इससे ब्रह्मा जी के होश-हवास उड़ने लगे । ओर हाथ-पाॉव फूल गये । फिर 
भी बेचारे जल्दी-जददी दुधरे अ्रंगों की रचना करने लगे, तो उन्होंने घप्राहट 
में भोहें टेढ़ी बना दीं, बाल भी कुश्चित कर दिये और वे उसकी कमर 
बनाना तो भूल द्वी गये | ख़ब | क्‍या दी अनोखो कल्पना और केसी ऊँची 
उड़ान है। सचमुच कवि-प्रतिभा इसे ही कहते हैं । 
नाभि-र्ण न 
[ नाभि के कवियों ले रस का कुणड, रूप की बाँवी, छुबि सरिता का 
भंवर, 'इज्जार की गुफा, विधाता को दवात, कामदेव की मथानी आदि से 
उपमाएं दी हैं। ] 
देखिए, किसी ने नाभि का क्‍या ही अच्छा वर्णुत किया हे-- 
शिशुता के भाजिबे के गद्दरी गुफा हे केधों, 
रस की तरंगिनी में भोर मझधार केा। 
लच्छुन बतीस हू के शोभा को भंडार यह, 
सौतिन के गरब गये है एक बार का ॥ 
कीधों सुधा-कंड देख गहरे गई है मर्ति, 
उपमा न श्रावति न पावति विचार केा। 
रूप के। नगर काम भूप ने बसाये तामें, 
नाभि रस-कूप मन मोहे रिरवार का ॥ 
लीजिए,, नाभि का वर्णन करते-करते उसे सुधा का कुंड समझ कवि जी 
की बुद्धि भी उसमें गहरा गोता लगा गई, फिर भी उसे उतके अनुरूप केाई 
उपमा न मिली । 


- ज़रा चिन्तामणि जी का भी नामि-वर्णन सुन लीजिए। आप 
कहते हैं-. 


( करे ) 


अंधकार मध्य मुनि मैन की गुफा है कीधों, 
रूप ठग काज हेत बीच तम कृूप है। 
श्याम द्वी तमाल तरु के हे आल-बाल कैधों, 
व्याल केा विवर श्रति सुभग सरूप हैे।॥ 
“चिंतामणि? कैधों नीलमणि की सुपान बाँधि, 
भूमि ग्रदद रच्यों एक मनसिज भूप दै। 
अ्रति दी गैभीर रोम राजी के निकट कैधों, 
तरुणी के नाभि कूप लसत अनूप है ॥ 
चिंतामणि जी ने तो नाभि का तहज़ाना ही बना दिया ओर उसमें 
घुसने के लिए रोम-राजि रूप नील मणि की सीढ़ियाँ भी लगा दीं । ख़ुब ! 
न न न 
किसी उदू कवि ने नाभि के तिल का कैसा सुन्दर वर्णन किया है, 
देखिए --- 
ख़ाले सियाह नाफे मुदव्वर के पास है। 
जो हिन्दसा कि पांच था वह अब पचास है। 
कवि ने नायिका की गोल नाभि के पास तिल देखकर उसे पचास बना 
दिया | उदू में पचास (). इस प्रकार लिखा जाता है, श्रर्थात्‌ तिल के कारण 
नाभि की शोभा दस गुणी बढ़ गई । यद्द भाव ! 


उदर-वणन 
[ उदर की उपमा मानसरोवर, पीपल का पत्ता, कमल-दल आदि से दी 
जाती है। ] 
देखिए, नूर कवि ने उदर के वर्णन में मानसरोवर का कैसा संदर रूपक 
बाँधा है-- 
“नूर! रस छलके, सुनाभि भोर भलके नि- 
हारि लाल ललके लग्यो थों लोभ सर है। 
तिवली तरंग हे रूमावली सिवार संग, 
मकर अनंग कहें नागरि सुनर है॥ 


( दडेड ) 


मुख सुधा सर मध्य मीन दग देखि-देखि, 

भर के परस के सरस बाक धर है। 
हंस कुच कोल हार मोतिन के माल गरे, 

उदर तनोदरी का मानो मानसर है॥ 


उदर रूपी मानसर में शोभा रूपी जल भरा है। नाभि रूपी भंवर पड़ 
रहे हूँ | त्रिवली को तरंग और रोम राज का सिवार है। स्तन युग द्वदी कंवल 
या हंस हैं | नायिका के गले में जो मुक्ताह्दार पड़ा है, उसने मानसर में 
मोतियों की कमी पूरी कर दी है। 


ओर भी सुनिए-- 


केामल श्रमल दल कमल नवल केधों, 

कीन्हों हे विरंचि सब छुबि को सहेट हे । 
उदित प्रभाकर की दुति आन छाई केधों, 

चमकत चारु खोत लोचन लपेट है॥ 
संदर थली है भली मदन विराजिबे की, 

जाकी सम कीन्हें होत उपमा तरेट है। 
चीकनो परम मखमल ते नरम ऐसो, 

प्यारी जू को पेट लेत मन को लपेट है ॥ 


विधाता ने नायिका का उदर नहीं बनाया, वरन्‌ छवि रूपी नायिका के 
अभिसार के लिए संकेत स्थान बनाया है। क्योंकि कामदेव के बैठने की 
स्थली यही हे। 


उदर के वर्णन में कविवर लीलाघर जी का भी एक पद्य पढने लायकू है। 
देखिए-- 
ललित वलित लॉ परी जाके बीच के्धों, 
लहर बढ़ावति सरूप पारावार है। 
नाभी सर तट न्हान जान को विमल द्देम- 
सीढ़ी बँघवाई मैन भूषति उदार है॥ 
'लीलाघर! दरस-परस सुख कारी जामें, 
बरस-बरस छुवि छुलक प्रचार है। 


( ६३५ ) 


मुद रति बारो रच्यो उदर तिद्दारों ऐसो, 
कुदरति बारी कह्ियतु करतार है॥ 
सचमुच करतार बड़ा द्वी 'कुदरत' वाला है, जो ऐसी-ऐसी श्रनोखी; 
वस्तुएँ बनाता रहता है। यहाँ नाभि-सर में प्रवेश करने के लिए, पेट की 
सलवटों के सम्बन्ध में सीढ़ियाँ की कल्पना की गई हे । 
त्रिवली-वर्ण न 
[ त्रिवली का सौन्दय वर्णंन करते समय, सेंकरी गली, सीढ़ियाँ, नदी, 
रथ-चक्र की लीक आदि से उसकी उपमाएँ दी जाती हैं । ] 
लीजिए, जिवली के वर्णुन में कवि रघुनाथ जी का एक पद्म पढ़िए-- 
मन-हंस बसिवे को रूप की नदी में केधों, 
निकसी पुलिन पाँति काँति हेम लोने की | 
सेसव सों लरिबे कों योवन महीप के धौं, 
कीन्हीं मेंड़ मोरचे की साध जीत होने की | 
नेन बस करिबे कों कहे कवि रघुनाथ', 
त्रिवली तिया की कैधों तीनि रेख टोने की। 
कुच-भार धरिबे को देखि श्रति छीन कटि, 
केधों काम बाँधी है बनाइ दाम सोने की ॥ 
कवि रघुनाथ जी कहते हैं कि नायिका के शरीररूपी रूप की नदी में 
नायक के मनरूपी हंस के बैठने के लिए त्रिवली रूपी पुलिन है । अथवा 
यौवन-मदहीप ने शेशव से लड़ने के लिए, युद्ध ज्षेत्र में त्रिबली का मोचो 
बनाया है। या ऐसा जान पड़ता है कि नायिका के शरीर को कुद्ृष्टि से बचाने 
के लिए टोना की ये तीन रेखाएँ खींच दी हैं। श्रथवा नायिका की क्षीण 
कटि पीन स्तनों के भार से कुक न जाय, इसलिए, कामदेव ने तीन सोने की 
पेटियाँ बाँध दी हैं । 
ओर भी देखिए--.. 


कैधौं मैन भूपति के रथ के सुचक्र चले, 
तिन ही की लीके उर-भूपे जान _तौन है। 


(  कहेई: ). 


केधों मैन ठग की गली ये भली ठगिबे की, 
केधों रूप-नदी ह्वो त्रिधार कियो गौन है ॥। 
ऐसी छुवि देखी एरी मोहे मनमोहन जू , 
याते में हू जानी ये ही मोहिबे को भौन है। 
एक बली सबही को बस करि राखत है, 
त्रिवली जो करै बस अजरज कौन हैे॥ 
अरे साहब, बली ( बलवान्‌ ) तो एक द्वी बहुतों को वश में कर लेता है, 
जहाँ त्रिबली ( तीन बली ) एकत्र हों, व्दाँ जगत का वशीभूत द्वो जाना भी 
कुछ आ्राश्चय की बात नहीं है । फिर यहाँ नायिका की त्रिवली ने यदि मोहन 
का मन मोह् लिया, तो इसमें अचम्भे की कोन बात दे । 


राम-राजी वर्णन 
[ रोम-राजी की उपमा प्राय: अन्धकार, धुआँ और चींटियें की पाँति से 
दी जाती-है । ] 
नीचे लिखे पद्य में रोम-राजी का कैसा सरस वर्णुन किया गया है-- 
केधों यद्द पान पै बसीकर को मन्त्र लिख्यो, 
देखि छुवि मोहै कोन ? विद्या पंचसर की। 
द्ृदय-सरोवर  सिंगार रस जल केधों, 
उमड़ि चलयो है नाभि कुण्डिका गदर की। 
छोटे-छोटे श्राखरन अबला लिखाये यातें, 
आापनी सबलताई सूरता समर की। 
जिन्हें देखे नेनन की गति मति भाजी यह, 
तेरी रोमराजी केर्धथों बाजी-बाजीगर की ॥ 
यहाँ रोमराजी की उपमा पान पर लिखे वशीकरण मन्त्र, हृदय-सरोवर 
में भरे हुए श्ज्ञार-रस रूपी जल आदि से दी गई है, । 
और भी देखिए, कवि केशव इस प्रसंग में क्‍या कहते हैं। 
केघों काम बागबान बोई है सिंगार बेलि, 
सींचि के बढ़ाई नाभी-कूप मन मेहिये। 


( दरे७ ) 


कीधों हरि नेन खंजरीटन के खेलिबे की, 
भूमि 'केसीदास” नख पंक रेख रोहिये॥ 
की्घों चलदल पान पिय को कपठ ज्वर-- 
टूटिबे को मन्त्र लिखि ज्ञोचननि जाहिये | 
सुन्दर उदर सुभ सुन्दरी की रोमराजी, 
केधों चित्त चातुरी को चोटी चारु साहिये॥ 
नायिका के उदर पर रोमावली नहीं हे, यद्द तो कामदेव-माली ने शरज्ञार 
रस की बेलि बोई हुई है, जिसे वह नाभि-कृप के जल से सींचा करता है। 
अथवा कृष्ण जी के नयन-खंजरीटों के खेलने से ये उनके पदञ्ञों के निशान 
बन गए हैं | केशव जी भी क्‍या श्रनोखी उपमा ढूँढ़ कर लाए, हैँ । 
कुच वण्णन 
[ कवि जन कुच-सोन्दय वर्णन करते समय उनकी उपमा शिव, गिरि, 
घट, कमल, चक्रवाक, गुम्बज, फूलों के गुच्छा, द्ाथी के कुम्म, श्रीफल आदि 
से देते हैं । ] 
कुर्चों के वन में कविवर तोष जी का पद्य पढ़िए. 
कैसे कह्दों कोक वे तो शोक द्वी में रहें निसि, 
ये तो ससि मुखी सदा आनंद सों हेरे हैं। 
केसे कद्दों करि-कुम्भ वे तो कारे करकस, 
ये ते चीकने हैं चार हार द्वी सों घेरे हैं ॥ 
केसे कहों कौल वे तो पकरे विथुरि जात, 
ये तो गोरे गाढ़े आछे ठाढ़े आप नेरे हें। 
याहदी है प्रमान 'तोष' उपमान श्रान प्यारी, 
तस्नाई तर ताके फल कुच तेरे हैं ॥ 
भाव स्पष्ट है, व्याख्या करने की श्रावश्यकता नहीं । 
अब कवि आलम के कुच-वर्णशन का नमूना देखिए-- 
मौनी विबि गंगा तीर करत तपस्या केधों, 
काम के तुका से लागे उठन उठगोना के | 


( ए्रे८ ) 


यौवन नरेस के चौगान के निसान केर्धों, 
श्रीफल ते सरस खिलाने फूल दोना के । 
“आलम” सकवि कलधौत के कलस केंधों 
आनंद के कनद की मनोज रस होना के । 
स्वेत कंचुकी में कुच ढाँपे नंदनन्दन प्यारी, 
फरटिक के सम्पुट में द्वे सरोज सोना के ॥ 
ओऔर भी लीजिए--- 
केधों रति जंग के सुभट युवराज सो हैं, 
कंचुकी सुरंग केस उन्नत श्रमाने हैं। 
हग कमनेत के कटाक्ष सर छाड़िबे कों, 
मानो ये विरंचि रचे रुचिर निसाने है ॥ 
कैधों द्वे कलिन्दी कूल कोक सुश्र सहिं के घों 
उरज उतंग लखि कान्ह मन माने हैं। 
योवन महीप अंग श्रागम सुगम जानि, 
मदन फरास केधों तम्बू युग ताने हैं ॥ 
कविवर शझ्डर ने नायिका के कुचों को यौवन-मानसरोवर के हंस माना है, 
देखिए-- 
यौवन मानसरोवर में कुच हंस मनोहर खेलन आए । 
मोतिन के गलद्दार निहार अ्रद्दार विहद्दार मिले मन भाए। 
कंचुकी *ज पतान की श्रोठ दुरे लट नागिन के डर पाए. । 
देखि छिपे छिपके पकड़े घर “शंकर” बाल मराल के जाए । 
स्तनों के वणुन में निम्नलिखित कवित्त भी बड़ा श्रच्छा हे-- 
योवन कदेरे के धों काम छोहरा के काज 
कंचन के लट॒ुवा धरे धों भाय नीके हैं। 
रूप के केदार में सकेलि राखी रूप रासि, 
के धों ये मनोरथ के फले फल धीके हैं। 
' केधों रसराज चार छुबि गात मूरि लिये, 
मार उपचार को कुमार अ्रस नीके हैं। 


( दैडे६£ ) 


को कहें कहा विचारे, श्रीफल से वारे कीधों, 
छवि साँच ढारे प्यारे कुच कामिनी के हैं | 
इस प्रसंग में कविवर दास जी का नीचे लिखा सवैया भी पढ़ने 
लायक हैे-- 
कंज के सम्पुट है, पे खरे हिय में गड़ि जात ज्यों कुन्तकी कोर हैं। 
मेर् हैं पे इर हाथ न आवत चक्रवती पै बड़ेई कठोर हैं। 
भावती तेरे उरोजन में गुण दास' लखे सब ओरई ओर हैं । 
सम्भु हैं, पे उपजावे मनोज, सइृत हूँ पै पर चित्त के चोर हैं ॥ 
लोग स्तनों को जो कमल के सम्पुट से उपमा देते हैं, वबद बिलकुल भूठ 
हे, क्योंकि ये तो बाण को नोंक के समान हृदय में चुभ जाते हैं।********* 
कोई कुछ भी बतावै, पर दास कवि ने तो इनमें ओर ही ओर गुण देखे हैं। 
ये तो शंभु होते हुए भी काम को उद्दौप्त करते हैं, तथा सबृत्त ( गोलाकार ) 
सदाचारी होते हुए भी दूसरों का चित्त चुरा लेते हैं। 
देखिए, किसी कवि ने महादेव ओर स्तनों की तुलना केसे सुन्दर ढंग 
से की है -- 
वे घर अज्भ भुजंग के भूषण, एऊ भुज़ंग रहें दिय धारे। 
वे घर चंद संवारि के भाल पै एऊ नशथ्च्छुद-चंद सँवारे। 
संभु की श्रो' कुच की समता कवि कोविद भेद इतोई बिचारे । 
संभु सकोप हे जारयो मनोज उरोज मनोज जगावन हारे ॥ 
उधर शंकर जी भुजंग-भूषण धारण करते हैं, तो इधर नायिका के स्तन 
भी हृदय में विष धारे हैं |# महादेव जी अपने मस्तक पर चन्द्रमा सजाते 
हैं, तो ये मी नखच्छुद रूपो चन्द्रमा से सशोभित हैं। इन दोनों में अ्रन्तर 
# स्तनों में अमृत और विष दोनों ही रहते हें। ये बालकों के लिए 
सधा प्रदान करते हैं, श्रौर बृद्धों के वास्ते विष । जैसा कि शंकर जी ने 
कहा हे-- 
बाल युवा अर इृद्ध कों, सुधा, सुरा, विष देन । 
काढ़े कश्नन कलश युग, रूप सिन्धु मयि मैन ॥ 


( ६४० ) 


है, तो केवल इतना कि मद्दादेव जी ने क्रद्ध होकर मनोज को भस्म कर डाला 
था, और ये मनोज को उद्दीस करते हैं। 
कंचुकीयुत कुच-वर्णन 
कंचुकी से ढके कुचों के वर्णन में नीचे लिखा सवैया कवि-कल्पना का 
केसा उत्कृष्ट नमूना हे-- 
प्रात समे वृषभानु सुता चलि आवति द्वी जमुना जल नहाये। 
वबारि सों चीर लग्यो सब देह में दूनी दिपे छुबि ओप बढ़ाये ॥ 
दरियाई की कंचुकी में कुच की छुत्रि यों छुलके कवि देत बताये । 
बाज के त्रास मनों चकवा जलजात के पात में गात छिपाये | 
इस प्रसंग में नीचे लिखे दोहे भी पढ़ने लायक हैं- 
नील कंचुकी में लसत यों तिय कुच की छाह । 
मानो केसर रंग भरयो, मरकत सीसी माँढ ॥ 
>< >< >< 
बिधु बदनी, तव कुचन की पाय कनक सी जोति । 
रंगी सुरंगी कंचुकी नारंगी सी दोति॥ 
पौले ओर लाल रंग का मिल कर नारंगी रंग बन जाना लोक प्रसिद्ध 
ही है। दोदे में केसा स्वाभाविक वर्णन दहै। नारंगी शब्द का यहाँ 
रंग श्रोर श्राकृति दोनों दी दृष्टियों से कितना उपयुक्त प्रयाग हुश्रा है । 


करतक्न-वणन 
[ क्नी के करतल ( हथेली ) की सुन्दरता का वर्णन नए पत्तों ओर 
कमल की पँखुरियों से उपमा देकर किया जाता है। ] 
देखिए, कविवर काशीराम ने नायिका के करतल का वर्णन करने में 
कैसी श्रनूठटी कल्पना की है।.. 


ऊदी होति नीलमणि वरणि सके धों कौन, 

चुन्नी छुपि जाति नीठि-नीठि दीठि न परै। 
याही जानि जोदरी जवाहिर घरत दाॉँपि, 

पीरी द्ोत पैगूते भगोढें छुवि का घरै॥ 


( देडरे ) 


देत लेत बनत न घधटत हमारो माल, 
आपुनी अनोखे नाह सोरह गुनोौ करेै। 
बाला-हाथ मुकुता ले प्रकसे प्रवाल होत, 
'काशीराम' रजत रुपैया होत मोहरे॥ 
नायिका किसी जोदरी की दुकान पर मणि-माणिक की ख़रीदारी करने 
आई हे । वद जब नीलमणि अपने द्वाथों में लेती है, तो उसका रंग ऊदा 
हो जाता है, यानी दथेलियों की लाल कान्ति के पड़ने से नीलमणि ऊदी-ऊदी 
दिखाई देने लगती है। चुन्‍न्नी तो नायिका के हाथों में जाकर बिलकुल ही 
छिप जाती है, निद्ार.निदह्ार कर देखने पर भी दिखाई नहीं देती । चुन्नी ओर 
हथेली दोनों का एक रंग होने से द्वाथ मे उसका न दिखाई देना स्वाभाविक 
है | जौहरी ने जब ऐसी दशा देखी तो अपने रत्न ढक-ढक कर रख 
लिये ओर कहने लगा--जाइए, हमारा आपका सोदा न पटेगा। भला 
ठिकाना है, आपके हाथ में जाते द्दी हमारे माल का तो माल घट जाता है, 
ओर अआ्रपका माल सोलह गुने दाम का दे जाता हे। अर्थात्‌ आ्राप जब 
हमारे मेत। अपने हाथ में लेती हैँ, तब वे ते इथेली की लाल आभा पड़ने 
से मूंगा से जान पड़ते हैं। और अपना चाँदी का रुपया जब देने लगती हो, 
ते वह हाथ की लाल कान्ति पड़ने से सेने की मुहर-सा मालूम पड़ने लगता 
है | खूब, कवि ने केसे सुन्दर ओर विचित्र ढंग से इथेलियों की संदरता का 
वणन किया है| उसकी सूक कहाँ से कहाँ पहुँची हे। जहाँ न पहुँचे रवि 
तहाँ पहुँचे कवि | ऐसी ही जगह के लिए कहा गया है। 
ओर भी देखिए -- 
कंचन के पल्कव में छोटी-बड़ी लीक माने, 
लिखये। है उचाट मन्त्र विधि मे।ह सों भयेा। 
सुधा की सवन मणि माणिक लखत सो, 
आँगुरी किरन ज्यों प्रभाकर उदे भया॥ 
मेंहदी रचित नख केधों मेन-पंचबाण, 
खरसान धरे सेने पानी तिनकों दयोा। 
श्याँचर को ओट ते श्रचानक द्वी दीठि परया, 


तेरो दाथ देखे मन मेरो द्वाथ ते गयेा ॥ 
हि० न० २०--४ १ 


( ६४२ ) 


घूँघट का अंचल थामे हुए नायिका के हाथ के देख कर काव कहता है, 
कि हथेली में मेंहदी से जो चित्रकारी की हैं, वह ऐसी जान पड़ती हे, माने 
स्व पत्र पर वशीकरण मंत्र लिखा है। मणि-भूषणों से युक्त उँगलियों से 
ऐसी प्रभा प्रस्फुटित हो रद्दी है कि उसे देख प्रभाकर का सा श्रम हेाने लगता 
है। मेंहदी रचे हुए नखों से युक्त पाँचों उंगलियाँ कामदेव के पंचबाण-सी 
प्रतीत हेती हैं, जिनके अग्रमागों--फलों पर मानो जंग लगने के भय से सेने 
का पानी चढ़ा दिया है । सच तो यह है, कि नायिका के हाथ के देख कर 
मेरा मन द्वाथ से जाता रहा दहे। 
कविवर सेनापति ने करतल का वर्णन क्‍या ही अनेखे ढंग से किया है, 
ज़रा उसे भी पढ़ लीजिए. 
कोमल कमल कर-कमल विलासिने के, 
रति पचि कीन्हदी विधि सदर सुधारी है | 
राजत जराऊ आऑँगुरीन में अ्रगूठी पुनि 
द्वे-दे छुला दुति राखि पोरि यों सवारी है ॥ 
मेंद्दी के बँँद माँ विराजत हैं बीच लाल, 
'सेनापति? देखि पाये उपमा विचारी है। 
प्रात ही अनन्द ते अरुण अरविन्द मध्य, 
बैठी इन्द्र गोपिन की मानों पाँति बारी है॥ 
नायिका के कोमल कमल जैसे कर-पन्लवों में जड़ाऊ आभूषणों की शोमा 
जो थी, वह तो थी ही, परन्तु उनमें रचाई हुई मेंहदी की बूँदों ने तो बड़ी दी 
अलोकिक संंदरता उत्पन्न कर दी है। अ्रब॒ तो वे ऐसे जान पढ़ते हैं, जैसे 
प्रातः काल नव विकसित अरुण कमल पर आनन्द-मुग्घ इन्द्र वधुश्रों की 
'पॉँति! बैठी हो । 
इथेलियों के वणन में नीचे लिखा सवैया भी कितना उत्कृष्ट है-- 


देन लगी मेंइदी दुलद्दी कर बैठी तिया यक नागरि नेरी। 
होह लट्ट गई बाल विलोकि ललाई अलोकिक वा कर केरी॥ 
देश न दूरि करे न घरे न टरै ठकतें न इले चित चेरी। 
यों चुमि दीठि ले न उते इते बाहि रही लिए द्वाथ हथेरी ॥ 


( ।र४३े ) 


जब नागरी दुलहिन के द्वाथों में मेंहदी लगाने लगी, तो उसकी हथेली 
की श्रदूधृत लालिमा के देख वह उस पर लट्द हो गई | अब वह न ॒तो हाथों 
में मेंहदी लगाती दे, ओर नद्ााथों के छोड़ती हे | मुंह बाये भौचक्क्री-सी 
उन्हें देख रही है । 

इस प्रसंग में नीचे लिखा दोहा भी पढ़ने लायक है-- 


बढ़े कहावत आपु हो, गरुवे गोपीनाथ | 
तो बदि हों जो राखि हो, हाथनु लखि मन द्वाथ ॥ 
गोपीनाथ, अपने मह चाहे जितने मियाँ मिद्ठ्‌ बन लो, परन्तु मैं तो 


तभी समझूंगी, जब उस ललना के लाल-लाल द्वाथों को देखकर भी मन 
अपने हाथ से न जाने दंगे । 


+ हू 
अंगुरी-ण न 
[ उँगलियों को संदरता के वणुन में चम्पाकली, कल्पतरु की मंजरी 
कामदेव के बाण आदि से उपमा दी जाती है। ] 


कविवर बलभद्र जी ने अपने नीचे लिखे कवित्त में उँगलियों का केसा 
संदर चित्र खींचा है -- 


फूले मघु माधवी के पुहुप पुनरभव, 
मानों 'बलभद्र' पंच साखा देवतर की। 
केसरि कली-सी कलघोत की फली-सी कैधों, 
फूली भली भाँति कंजलता कामसर की ॥ 
केामल कमल अश्रग्र दस चक्र चिन्द राजें, 
ज॑ती दसों दिसतनि की सोभा सुर-नर की | 
तेरे कर बसत कनक तन घधारी तंत्र, 
केधों कर पल्लव किसेोरी तेरे कर की ॥ 
उँगलियों के वर्णन में नीचे लिखा दोहा भी लाजवाब है। केई नायिका 
चम्पा की कली अपने द्वाथ में लेकर सखी को दे रही है। उसकी उंगलियों 
और चम्पा कली में इतनी समानता है, कि सखी चम्पा कली के धोखे में 
उँगलियों को पकड़ लेती हे । देखिए--- 


( दै४४ड ) 


चम्पकली कर गहि कमरि हुती सखी कों देति। 
वह बीरी धोखे परी अँगुरी गहि गहि लेति ॥ 


कर-नख-वणन 
[ नख-सोंदयय के लिए तारा, रत्न, कसुम आदि से उपमा दी जाती है। ] 
कविवर कालिदास ने नायिका के नखों का वणुन इस प्रकार किया है--- 
देखे अनदेखे हरि तजत न अ्रंक् तेरो, 
विमल मयंक मुखी मोद्दे कोटि निख लों । 
“कालिदास” रीफि-रोफमि करत सराह प्यारो, 
क्यों न यह छुबि लागे ब्रैरिन कों विष लों ॥ 
लाल करबिन्द अरबिन्द इन्द्र बधू बारों 
विद्रम॒ ललाई नीचे करि राखी इख लों। 
तेरे करनख की बनक को विलोकि उठे, 
सोतिन के अनख की थग्रागि नख-शिख लों | 


नायिका के जिन सदर नखों पर कालिदास जी ने लाल, विद्रुम, कर 
विन्द, इन्द्रवधू, अरविन्द आदि सब वार दिए, भला वे सपत्नियों को विष 
से क्‍यों न लगेंगे। 
कर-नखों के वर्णन में नीचे लिखे दोहे भी बहुत उत्तम हैं-- 
यों मेंहदी रंग में ललत नखन भलक 'रसलीन? | 
मानों लाल चुनीन तर दीने डाँक नवीन ॥ 
रसलीन जी कहते हैँ कि मेंहदी के रंग से रंजित नखों में से ऐसी श्राभा 
फूट रही हे, जेसे लाल नग के नीचे नवीन 'डंक” रख देने से, वह चोगुना 
चमक उठता है। श्रोर देखिए-- 


सोहति कर-अंगुरीन पे कलक नखन की काँति। 
बैठी विद्ुम बेलि पे जनु उड़गन की पाँति॥ 


कराज़लियों के अ्रग्ममाग में शुभ्र नखों की ऐसी शोभा जान पड़ती है, 
मानो मूँगा की शाखाओं पर नक्षत्रों की अक्ली आ विराजी हो | कैसी अनूठी 
कल्पना हे ! 


( ६४४ ) 


पीठ-बर्णन 
[ पीठ की उपमा कदली पत्र, कामदेव की या सोने की पटी आदि से 
दी जाती दै । | 
नीचे लिखे पद्य में पीठ का कितना सुंदर वणन क्रिया गया है, 
देखिए-.- 
केधों यह केस भेष रस को नरेस वाके, 
देस की सुदेस भूमि सोभा रस भीनी है। 
केधों यह मदन की पाटी मंत्र पढ़िबे की, 
सूरति सुकवि बनी हागटक नवीनी हे॥ 
जीवन के मंदिर की भीति है सुढार केधों, 
राज रतिराज झचि सन रचि कीन्ही हे | 
एरी वीर तेरी यह पीढि नेक दीठि परी, 
देखत ही ईंठ सबही को पीढि दीनी है ॥ 


कामिनी की कमर केश-पाश रूपी रस-राज की क्रीड़ा-भूमि है, या काम- 
देव के पढ़ने की स्वण-निर्मित पट्टी |! अथवा जीवन-मंदिर को सुंदर दीवार 
है, जिसे कामदेव रूपी राज ने अपने हाथों से रच-पच कर बनाया हे। दे 
सखी, तेरी इस पीठ में ऐसा क्‍या जादू है, कि उसे तनक देख कर ही नायक 
ने सबको पीठ दे दी, अर्थात्‌ अन्य सब नायिकाओं की श्रोर से उसने मंह 
फेर लिया । है 
अब पीठ की प्रशंसा में भरमी कवि का भी एक कवित्त पढ़ लीज्िए--- 
आरसी विमल पर नारी को सवारी केधों, 
रूप के प्रवाह काम भूप चल्‍यो जात हे। 
केधों कलधोत की सी भूमि सुर मारग में, 
मान को सुभाव कैधों कदली के पात है ॥ 
केधों यह भोड़र के तबक तिलौहि धरे, 
“भरमी सुकवि! कोऊ उपमा न शआत हे। 
सरस सुघाट सुख-आनंद की बाट कॉोर्षों, 
प्यारी तेरी पीठि देखि दीठि न समात हे ॥ 


( इडई ) 


नायिका की पीठ को देख कर भरमी जी भी “'भरम” ( भ्रम ) में पड़ गए, 
हैं। वे उसे कभी सुंदर दपपंण समझने लगते हैं ओर कभी सुर-मार्ग को स्व 
निर्मित सड़क। कभी उन्हें उसमें भुड़-भुड़ के पत्रों का श्रम हो जाता है, 
और कभी कदली दल का आभास होने लगता है । पीठ पर लटकती हुई 
वेणी को देख कर भरमी जी को ऐसा प्रतीत होता है, मानो वह सौंदय का 
सुंदर प्रवाह है, जिसमें बेणी रूप काम-भूप तैर रहा है। 

ग्रीवा-वणन 

[ कंठ सोन्दय की उपमा शंख, कपोत-कण्ठ आदि से दी जाती है। ] 

कविवर केशवजी ने अपने नीचे लिखे कवित्त में कण्ठ का वर्णुन बड़ी 
सुन्दरता से किया हे । द 


सुर नर प्राकृत कवित्त रीति आरभटी, 
सात्विकी सुभारती की भारतीयां भोरी की। 
केघों 'केसौदास' कल गानता सुजानतानि-- 
संकता सों बचन विचित्रता किसोरी की | 
वीणा वेणु पिक सुर सोभा हू त्रिरेख रुचि, 
मन, वच, क्रमन कि पिय मन चेरी की | 
अम्बु साई की सों मोहे श्रम्बिका हू देखि देखि, 
अम्बुज नयन कम्बु ग्रीव गोल गोरी की ॥ 
शंख समान गोरी-गाोरी ग्रीवा गोरी की देखकर, गोरी भी उस 
पर मुग्ध हो गईं हैं। किशोरी के कल कण्ठ ने वीणा और कोयल के 
कलित स्वर चुराने के साथ द्वी प्रियतम का मन भी चुरा लिया है। यही क्‍यों, 
उसने भोरी भारती ( सरस्वती ) की गान कला ओर वचन विचित्रता का भी 
ग्रपहरण कर लिया है | कविता की सात्विकी आरभणी आदि रीतियाँ भी 
उसके कंठ में आ विराजी हैं । फिर भला श्रम्बिका उस पर मुग्ध क्‍योंन 
हो जाती । 
ओर भी देखिए-- 
सख को सदन देखि मदन मुदित दोत, 
हु बारिज बरन सुभ नाल सों बिसेखिये। 


( ६४७ ) 


चारों रीति नवों रस हाव-भाव की प्रतीति, 
छुबि सों लपेटि देम पिण्डी के उरेखिये। 
केधों मणि कंठ तीन लोक की तरुनि जीति, 
दुति ते ही भाँति-भाँति तीनों रेख लेखिये | 
कनक के कम्बु कमनीयता के अग्बु भेंटे, 
आ्रानंद की सींव के श्रमोल ग्रीव देखिये ॥ 
लगे हाथों कविवर कमलापति जी का भी कण्ठ वर्णन पढ़ लीजिए- 
लखि के वहि प्रान पियारी के कश्ठहिं कम्बु लई सृधि तालन की । 
तिहुँ लोक की सुन्दरता ले त्रिरेख दई विधि, जोति के जालन की। 
“कमलापति' कौन बखानि सके छुबि छीनत मानिक मालन की। 
इमि गोरे गरें लसे पीक मनों दुति लाल गुलूबन्द लालन की ॥ 
कामिनी के कमनीय कण्ठ को देखते ही, शंख ने लज्जित हो सीधा समुद्र 
का रास्ता लिया और वह वहाँ मुंह छिपाकर जा बैठा । ऐसा क्‍यों न होता, 
विधाता ने भी तो तीनों लोकों को शोभा समेय्कर, उससे किशोरी के कण्ठ 
में तीन रेखाएँ बना दी हैं, फिर भला उसके शआागे बेचारा शंख केसे ठद्दरता | 
गोरी की जो गोरवण ग्रीवा मणि-मालाओं की भी छुबि छीन लेती है, उसके 
सोन्दय का बखान भला कोन कर सकता है । 
चिबुक-बर्णन 
ठोढ़ी के बर्णन में कविवर बलभद्र जी ने कितना सुन्दर कवित्त लिखा 
है, देखि ए-- 
कनक वरन कोकनद के वरन और, 
भलकति झाँर तामें बसन रदन की। 
कीन्हीं चतुरानन चतुर ऐसी रचि-पचि, 
अलप-सी चेकी चारु आसन मदन की | 
अंगुल से बान उपमान की श्रवधि सब, 
स॒मिल सुपान मानो श्रीय के सदन की। 
सुन्दर सढार हे चिब्ुक नव नायिका की, 
केधों 'बलभद्र” पातसाहदी हे बदन की॥ 


( इै४८ ) 


कनक की-सी कान्ति और श्ररविन्द के से सुन्दर रंग वाली नायिका की 
इस ठोड़ी को चतुर चतुरानन ने अ्रपने हाथों से रच-पच के तैयार किया 
है। करना दी चाहिए. था, आख़िर तो वह मदन-महीपति के विराजने की 
मुलायम सी चाकी है । कोई-कोई इसे नायिका के मुख रूपी “श्रीय! 
( भीलच्मी ) के सदन ( लक्ष्मी का घर कमल है और यहाँ नायिका का मुख 
कमल जेसा है ) की सुन्दर सीढी बताते हैं | यह भी न सही, वह नायिका 
के शरीर रूपी साम्राज्य का सिंहासन तो है ही, इसमें तो कुछ सन्वेहद 


दी नहीं । है 
चन्दन कवि ठोढ़ी के विषय में क्‍या कहते हैं, उनकी भी सुन लीजिए-..- 


केधों है रसाल फललाल के सुघर सीप, 
भरी रसजाल विधि स्वकर सहेली की । 
कंचन की सारि के संवारि काहू कारीगर, 
खेलिबे कों सारिपासा कामरति केली की । 
. निरमल गोल सीसी सोहत है चन्दन सों, 
ह “चंदन! बिलोके मति फिरत न चेली की | 
मोंड़ी-मोंड़ा, तरुणी-तरु ण॒, वृद्ध मोहे सब, 
कमल की बोड़ी केधों ठोढ़ी दे नवेली की । 
नवेली नायिका की ठोढ़ी के लिए चन्दन कव ने क्रितनी उपमाएँ खेज- 
खेज कर इकट्टी को हैं । कभी उसे पका हुआ रसाल-फल बताया है ओर 
कभी सुन्दर सीप | कभी उसको रति और कामदेव के पासा खेलने की 'सारि! 
से उपमा दी है ओर कभी निमल गोल शीशी से उसको तुलना की है। वे 
कहते हैं कामिनी की इस कमल-कोरक जेसी ढोढ़ी ने बाल-बृद्ध और युवती- 
युवा सबको मुग्ध कर लिया हे । 
चिघुक का तिछ या गोदना 
[ चिबुक के तिल की उपमा, काजल, रस, छींट, राहु का दाँत, शनि, 
काम शर की फाँक आदि से दी जाती है । ] 
देखिए,, तिल के लिए लोग केसी-केती अ्रदूभुत उत्प्रेज्ञाएँ कर रहे हं-- 
काहु कही कि गुलाब कली पर भौंर को चेंदश्रा आनि अरयो हे। 
सोन ढबा में जवाहिरी मैन मनों नग नीलम चारु जरयो दे। 


( ६४६ ) 


प्यारी की ठोढ़ी बिराज रहद्यो तिल, देखि विचार यहै में करयो है। 
भोंद्दे बनावत मानो विरंचि की लेखनी ते मसि-बिन्दु भरयो है॥ 


कोई उसे गुलाब कली पर बैठा भोरे का बच्चा समझता है, कोई कहता 
हे--कामदेव जाहरी ने ठोड़ी रूपी सेने के डिब्बे में नील मणि रख छोड़ा 
है। किन्हीं का विचार है कि यह भोंरा-वोंरा कुछ नहीं है, यह तो नायिका 
की भोहें बनाते समय विधाता को कलम से स्याही की बूँद गिर पड़ी है । 
इस विषय में अब कविवर केशवदास की कल्पनाएँ भी सुन लीजिए-- 
सोभन सिंगार रस की-सी छींट सोहे फॉोक-- 
काम शर की-सी कहो जुगतिन जोरि-जोरि 
राहु के सो रदन रहद्यो हैं चुमि चंद र्माँहि, 
तभी को सोहाग कर्धघों डारो तन तोरि-तोरि । 
चतुर त्रिद्दारी जी को चित्त-सों चिंहुटि रघ्यो, 
चित येते 'केतोदास' लेत चित चेरि चारि । 
तनक चिब॒ुक तिल तरे पर मेरी सखी, 
बा।र डारों तरनी तिलोतमा-सी कोरि-कोरि ॥ 


नायिका को ठोड़ी पर तिल ऐसा प्रतीत होता है, मानो सुन्दर शअज्ञार 
रस का छींटा पढ़ गया हो, या कामदेव के बाण को नोंक चुभी रह गई हो। 
श्रथवा चन्द्रमा में राहु का दाँत गड़ गया हो या मनमोहन का मन ठोड़ी से 
आर! चिपका हो | यही कारण दे, जो यह देखने मात्र से दशकों के मन 
मोह लेता है । 

इस प्रसंग में कवि दिनेश जी का नीचे लिखा सवेया भी पढ़ने 
योग्य हे-- 

प्यारी की ठोड़ी को विन्दु 'दिनेस' किधों बिसराम गुविन्दके जी को | 

चारु चुभ्यो कणिका मणि नील को केधों जमाव जम्यैाँ रजनी को | 

केधो अनंग सिंगार को रंग लिख्यौ वर मन्त्र बसीकर पी को। 

फूले सरोज में भोरी बसी किधों, फूल ससी में लसे अरसी को ॥ 

राधिका जी की ठोड़ी पर तिल क्या है, मानों गोविन्द का मन विश्राम कर 
रहा है। श्रथवा नील मणि को कर्णका उसमें चुभी हुई हे, वा रात्रि का 


( ६४० ) 


जमाव जमा हुआ है | यह भी नहीं, तो कामदेव ने प्रिय के वश करने लिए 
श्ंगार रस के रंग से वशीकरण मन्त्र लिख दिया है। या फिर फूले हुए सरोज 
में भोरी श्रा बैठी है, श्रथवा चन्द्रमा पर किसी ने श्रलसी का फूल 
चढ़ा दिया है । 
त्रिबुक-तिल के सम्बन्ध में कविवर बिहारी की भी उक्ति पढ़िए-..- 
ललित स्थाम लीला ललन चढ़ी चिबरुक छुबि दून। 
मधु छाकक्‍यो मधुकर परयो मनो गुलाब प्रसून ॥ 
इसी आशय का विक्रम का दोहा भी देखिए-- 
अति दुति ठोड़ी बिन्दु की, ऐसी लखी कहूँ न । 
मधुकर सूनु छक्‍्ये परयो मनो गुलाब प्रसून ॥ 
अधर वर्णन 
| अधर की उपमा ब्ििम्बाफल, प्रवाल और नव पन्नव से दी जाती हे। ] 
निम्नलिखित पद्म में अधर का केसा सुन्दर वर्णन किया गया है-- 
कैधों विधु ऊपर वँधूक के कुसुम धरे, 
केधों बिम्ब पाके परे योवन जनाये हैं। 
विद्रुम वरण विवि खारक 'दिनेस? केधों, 
पक्ष प्रसून के कि सोभा सरसाये हैं॥ 
ग्रध अनुराग भाग ऊपर सोहदह्दाग रूप, 
राजत रुचिर केर्घों अमृत कनाये हैं। 
यौवन के रंग के प्रसंग लाल व्रिधि दोऊ, 
अधर मधुर सुधासार सों बनाये हैं॥ 


नायिका के सुन्दर अरुण वण शओष्ठ ऐसे प्रतीत होते हैं, जैसे चन्द्रमा के 
ऊपर किसी ने बंधूक पुष्प या पके बिम्बाफल रख दिए हों। 


आर देखिए--- 
जाकी मधुराई ले सुधाई सुरलोक छिपी, 
ऊख को छिप्यौ हे री पियूष अपरनि में | 
देखत ही विद्रुम भये हैं जड़ रूप अर, 
बिम्ब महि द्दीन भये जिनके डरनि में। 


( ६५४१ ) 


पान अंग पातरो भयो है तबही तें पेखि, 
एरी ब्रज नारी अब रहे को सरनि में। 
सुरति सुकवि तिन्हें सके को बरनि प्यारी, 
तेरे अधरन की न उपमा धरनि में॥ 
अरे साहेब, जिनकी माधुरी चुराकर सुधा सुरलोक में जा छिपी, विद्रुम 
जिन्हें देखते ही जड़ होगए, बिम्बाफल जिनसे लज्जित हो वृक्षों पर जा लटके, 
ऐसे नायिका के अधरों की उपमा भला प्रथिवी के किस पदाथ से दी जा 
सकती हे ! 
कविवर दहरिश्रौध जी का नीचे लिखा सवैया भी कितना सुन्दर है । 
बर विद्रुम में कहाँ लाली इती, कहाँ कोमलता जपा ऐसी गहे। 
कहाँ लाल में लाल प्रकात इतो, समता कहाँ बापुरो ब्रिम्ब लहै ॥ 
कहाँ ऊख मयूख में एती मिठास पियूप हू ना 'हरिश्रौध! कहे । 
जेती चारुता कोमलता उुक्रुमारता माघुरता श्रधरा में अहे॥ 
भला विद्रुम में इतनी लालिमा कहाँ जा नायिका के ओढों की समता 
कर सके | जपा कुसुम में रंग तो है, परन्तु इतनी कोमलता नहीं । लाल में 
भी अधरों के समान चमक नहीं, फर तिम्बाफल तो बेचारा किस गिनती में 
है। ओर हाँ, इनका जैता मिठास तो न ऊख में हे, न पियूष में | सच बात 
तो यह है, कि संसार में ऐसा एक भी पदाथ नहीं, जिसमें अ्रघरों की भाँति 
सुन्दरता, मृ दुता, सुकुमारता और मधुरता सब एक जगह मौजूद हो । 
अधर-माधुय के वणुन में बिहारी जी कद्दते हैं-- 
छिनक छुबीले लाल वह जो लगि नहद्ि बतराय। 
ऊख महूख पि[ख की तो लगि भूख न जाय ॥ 
विक्रम की उक्ति भी सुन लीजिये--- 
कद्दि मिश्री कह ऊख रस, नहीं पियूष समान । 
कलाकन्द कतरा अधिक वू श्रधरा रस पान ॥ 
शझ्डर जी के वर्शुन को भो पढ़ लीजिए, देखिए, उनकी कविता ओऔरोढों 
का सुरंगी रस पान कर केसी रसीली बन गयी है-- 
अम्बर में एक यहाँ दौज के सुधाकर दो, 
छोड़ें वसुधा पै सुधा मन्‍्द मुसकान की । 


( ६४५२ ) 


फूले कोकनद में कुधुदनी के फूल खिले, 
देखिए विचित्र दया भानु भगवान की। 
कोमल प्रवाल के से पन्लबों पे लाखा लाल, 
लाखे पर लालिमा विलास करे पान की । 
आज इन श्रोढों का सुरंगी रख पान कर, 
कविता रसीली भई शड्डूर सुजान को॥ 
नायिका को बातें जो इतनी प्रिय लगती हैं, उनका कारण भी ये सु धा- 
रस भरें अधर ही हैं। देखिए-- 
पियत रहत अधरान को रस श्रति मधुर श्रमोल। 
ताते मीठे कढ़त हैं बाल बदन तें बोल ॥ 
क्यों है न पते की बात ! 


दशन-वणन 
[ दाँतों के सोन्दय वर्णन में मोती, मणि, हीरा, कुन्दकली, अनार के 
दाने श्रादि से उपमा दी जाती है। ] 
नीचे दाँतों के सम्बन्ध में विभिन्न कवियों के कुछु पद्य उद्श्वत किये 
जाते हैं -.- 
कैचों द्विजराजी द्विजराज जू को सेवति है, 
केथों यह शारदा-स्वरूप दरसत है। 
केधों इन्दिरा के चार हार की अरुण मणि, 
चिन्तमणि इन्दिरा के घर में लसत है। 
कंधों विधु मएडल में दामिनी बिराजति है, 
ऐसी कछू सुपमा समूह निकसत है। 
विमल बदन बीच दन्तन की दुति कंधों, 
कमल के कोस बीच दारयो बिलसत है ॥ 


नायिका के दाँतों को देखकर ऐसा जान पड़ता है, मानों ह्विजों की पंक्ति 
चन्द्रमा में विराज रही है | अथवा लक्ष्मी जी के द्वार की मणियाँ उनके घर- 
कमल ( यहाँ नायिका का मुख कमल समान माना है ) में बिखरी पड़ी 


( ६५४४३ ) 


हों। या यों ससक्रिए कि चन्द्र-मण्डल में बिजली आ बिराजी है, अथवा 
कमल-कोश में दाड़िम के दाने फैले पड़े हैं । 
ग्रोर देखिए -.- 
केघों कली बेला की चमेली सी चमकि परे, 
कंधों कर कमल में दाड़िम दुगये हैं। 
कीर्धों मुकताइल महावर में राखे रँगि, 
कैधों मणि मुकुर में सीकर सुहाये हैं ॥ 
केघों सातों मएडल के मएडन मयंक मध्य, 
बीजुरी के बीज सुधा सींचि के उगाये हैं | 
'केसोदास' प्यारी के बदन में रदन छुबि, 
सोर हों कला को काटि बज्ञिस बनाये हैं॥ 
अरे साहब, कौन कहता है कि ये नाथिका के दाँत हैं। ये तो बेला या 
चमेली की कलियाँ हैं, या किसी तोते ने कमल-पुष्प में अनारदाने छिपा के 
रख छोड़े हैं | यह भी नहीं, तो ये मद्दावर में रंगे हुए मोती या मणि-मुकुर 
पर पड़े हुए ओस बिन्दु हैं। हमारा तो अनुमान यह भी है, कि ये चन्द्र 
मण्डल म॑ सुधा से सींचकर उगाए हुए त्रिजली के बीज हैं। या फिर विघाता 
ने चन्द्रमा की सोलदों कन्नाओओं के दो-दो टुकड़े करके नायिका के मुख में 
लगा दिए हैं | इस पर एक दूसरे कव कहते हैं - 
केधों मित्र मित्र में बसाई है किरनि तातें 
फूलाई रहत अनुमान यह पाये है। 
केधों ससि-मण्डल में भाई उड़ मण्डल की, 
केधों हास रस निज नगर बसायो है॥ 
दसन की पाँति कुन्द कलिन की भाँति आाछोी, 
सोहति है कान्ति गुन कोबिदन गायो है। 
मानहु बिरंचि तेरी बानी कों चतुररानी, 
दोलर के मोतिन को हार पहरायो है॥ 
नहीं जनाब, यह तो सूर्य ने अपने दोस्त कमल में अपनी किरण बसा 
दी हैं, और यही कारण हे, जो यह हर वक्त प्रफुन्ल रहता है। यह चन्द्रमा में 
तारों का प्रतिबिम्ब पड़ रहा हे, अथवा हास्थ रस ने श्रंपना अलग नगर बसा 


( ६५४ ) 


लिया है। यह भी हो सकता है कि विधाता ने नायिका को वाणी से प्रसन्न 
इोकर यद्द मोतियों की दुद्दरी माला उसे पहना दी हो । 
कवि कौ उपयक्त उत्प्रेज्ञाएँ सुन कविवर आलम जी से न रहा गया, वे 
भी चट से बोल ही उठे-- 
सुधा को समुद्र तामें दुरे हैं नत्षत्र कैधों, 
कुन्द की कली की पाँति बीन बीन घरी है। 
'अगअलम'! कहत ऐन दामिनि के बीज बये, 
बारिज के मध्य मानों मोतिन की लरी है ॥ 
स्वाति ही के बुन्द बिम्ब विद्रुम में बास लीनो, 
ताकी छुबि देखि मति मोहन की हरी है । 
तेरे इसे दसन की ऐसी छुबि राजति हे, 
हीरन की खानि मानो सस मांद्दि करीं है। 
नहीं साहब, आप भी क्‍या बदकी-बहकी बाते करते हैं| अ्जी, ये तो सुधा 
के समुद्र में आकर छिपे हुए नक्षत्र हैं। अथवा किसी ने कुन्द की कलियाँ 
चुन-चुनकर यहाँ रख दी हैं। यह भी हे सकता है कि किसी ने कमल-पुष्प में 
मोतियों की माला रख दी हो,या फिर स्वाति की बूँदे' सीपी के बदले 
विद्रुम में आ पड़ी हैं।जिस समय नायिका हँसती है, उस वक्त तो 
बिलकुल ऐसा जान पढ़ता है, जेसे चन्द्र मण्डल में कोई द्वीरों की खानि 
निकल आई हो । 
फूलि फुलवारी रद्दे, उपमा न जाति कही, 
कैसे के सराहों तामें जोति अधिकानी है । 
'अआलम? कहत हेरी मोतिन की पाँति धरी, 
हीरन की कांति छुबि देखि के लजानी है।॥ 
दाड़िम दरकि गए. इनके समन भए, 
रवि को किरनि केसी चमक बखानी है । 
तनक हँसनि में दसन ऐसे देखियत, 
दीपत नखत मानों दामिनि दुरानी है ॥ 
सच तो यद्द हे कि नवेली नायिका के दाँतों की उचित उपमा कहीं 
मिलती द्वी नहीं | द्वीरी ओर मोतियों की पाँति तो इन्हें देखकर स्वयं ही 


( ६४४ ) 


मारे लब्जा के हतप्रम हो जाती है। बेचारे दाड़िमों ने बहुत कुछ त्याग 
ओर तप किया, पर वे भो इनकी उपमा के योग्य न हो सके। नागरी के 
तनक हँसने में दाँत ऐसे जान पड़ते हैं, मानों चमकते हुए नक्षत्रों में बिजली 
घुस पड़ी हो । 

इस पर एक दूसरे कवि कहने लगे-..- 


कैधों मुकता इल हैं पहल के आवबदार, 
जावक रेंगाइ अरविन्द मुख भरे हैं। 
कैधों लाल विद्रुम अमोल मनि मानिक के, 
दाम न जवाहिरी डबा में खोलि धरे हैं ॥ 
दाड़िम के बीज केधों सुधा में सिराये, हंस, 
सदन सुधाकर के मंदिर में भरे हैं। 
प्यारी को बदन केधों, काम के सदन मांहि, 
मदन जरेया न जवाहिर से जरे हैं। 
इस पद्म में कवि ने पान खाए हुई नायिका के दाँतों का वर्णन किया 
है। वह कहता हे-या तो ये पदलदार मोती हैं, जो जावक के रंग से रंग 
कर कमल-कोश में भर दिए हैं, या ये विद्रुम और दूसरे वेशक्रीमत मणि- 
माणिक्य हैं, जिन्हें जोहरी ने जवाहिरी डिब्बे में रख छोड़ा दे | या किसी ने 
दाड़िम के दाने सुधा-सरोवर में डाल दिये हैं, अथवा सुधाकर के मंदिर में 
राज हंसों की पाँति घुस बैठी है। कभी-कभी यह भी श्रनुमान होता है, कि 
नायिका के शरीर रूपी कामदेव के मन्दिर में किसी जड़िया ने ये जवाहिरात 
जड़ दिए हैं । 
अब एक पद्म मिस्सी लगे हुए दाँतों के वर्णन में पढ़ लीजिए--- 
वारिज में विलसे अलि पाँति किधों श्रली अ्रच्छुर मंत्र बसी के। 
मैन महीप सिंगार पुरी, निज बाँह बसाई है मध्य ससी के॥ 
आनंद सो दरसी दसनावलि स्याम मिसी मिलि ऐसी लसी के । 
फूलन की फुलवारिन में मानो खेलत हैं लरिका हृबसी के॥ 
मिस्ती से रंगे हुए सुंदरी के दाँत ऐसे मालूम देते हें, जेसे कमल-पुष्प 
में मकरंद मत्त मधुप-माला बेठी हो। अथवा यह मदन महाीपति ने अपने 


( ९४६ ) 


रहने के लिए चंद्र-मंडल के बीच *इज्ञार पुरी बसाई है। यह भी हो सकता 
है कि सुंदर पुष्प वाठिका में कुछ दृबशियों के लड़के मिल कर खेल रहे हों । 


९ 
वाणी-वर्णन 
[ कविजन वाग्गी की उपमा वीणा यावंशी के स्वर, केकी, कोर, या 
कोकिल के कंठ, किन्नरों के गान, भ्रमरों के गुंजन आदि से देते हैं। | 
देखिए कविवर इनुमान जी ने कैता सुंदर वाणी का वर्णन किया है-- 
कोकिला की कीर की पपीहा पिक्र सारिका को, 
मोरन के कारिक़ा की छिद्धि पाठसाला है। 
सारद की नारद की वीणा वेणशु बॉँसुरी की, 
सुरन की रागन की रागिनी की माला है ॥ 
करखन मोहन बसी करन याही विपे, 
'हनूमान' मोहि गयो नंद जू को लाला है। 
दाखन की रानी मंजु माखन सुधा को सानी, 
जन बर दानी बानी तेरी ब्रज बाला है || 


राधिका जो की वाणी क्‍या है, कोयल, मोर, पपीहा, तोता, मैना आदि 
की पाठशाला है। श्रथवा नारद, शारदा आदि की वीणाश्रों ओर बॉसुरी 
आदि स्वरों तथा राग-रागिनियों की माला है। इतना ही नहीं, वह मिठास 
में भी दाखों को रानी है और मक्खन तथा सुधा में सनी हुई है। यही 
कारण है कि उसे सुनते ही मोहन मुग्घ हो गए हैं । 
श्रौर भी देखिए--- 
सुधा के समुद्र की लदर सी कढ़त रहे, 
याही को सुनाय लाल कीने तू अधीन है। 
बन उपबन बैठि आपको दुरावै यातें, 
मेरे जाने यहे कल कंठी कंढठ हीन है॥ 
'बलदेव' ऐसी ना रची है, ना रचेगो विधि, 
मोतिन की उपमा करन लागी छीन है। 
कमल के कोश बैढि गुंजर्त भौर कैधों, 
बानी माँफ बानी तू बजाई आनि बीन दे ॥ 


( देष७ ) 


कविवर बलदेव जी कहते हैं कि नायिका की कंठ स्वर-लददरी ऐसी जान 
पड़ती है, मानों सुधा के समुद्र की लद्दर श्रा रही हों। यहाँ श्राह्मर जनक 
होने के कारण सुधा-सागर की लहरों से वाणी की तुलना की है । वैसे भी 
जिस प्रकार समुद्र में लदर उठती हैं, उसी प्रकार वाणी ध्वनि भी लदरों के 
रूप में ही एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाती है। कोयल का कंठ स्वर 
तो नायिका के स्वर॒के आगे बहुत ही भोंड़ा जान पड़ता हे, इसी लिए तो 
कोयल मारे लज्जा के वन-पव॑तों में छिपती फिरती है । अ्रद्दा ! जिस समय 
वह कल कंठी बोलने लगती है, उस समय ऐसा जान पड़ता हे, मानों 
कमल-कोश में बैठे भ्रमर गुंजार रहे हैं, या उसकी वाणी में स्वयं वाणी 
( सरस्वती ) बैठी हुईं वीणा बजा रही दो । 
मुख-राग-वर्णन 
[ मुख-राग का वर्णन कमल की अरुणिमा, अ्ज्ञराग, अनुराग, रूप-भूप, 
रतिराज श्रादि से उपमा देकर किया जाता है। ] 
देखिए, नीचे लिखे पद्म में मुख-राग का कैसा सुन्दर वर्णुन है-- 
केधों कमला के गेह कमल की लाल माल, 
दिवाकर ताकी ताको भलकत रंग है। 
कैधों श्रनुराग फैलि रह्ौ बानी रानी जू को, 
जब काहू-काहू मति करत प्रसंग दे॥ 
केधों श्राली तेरे लाल ओठन की लाली छाई, 
मन भाई मेरे बनमाली जू के संग है। 
मोहत अ्नंग केघों सोभा को सुभग अंग, 
केधों मुख प्यारी तेरे पानन को रंग है ॥ 
नायिका के मुख-राग के सम्बन्ध में कवि कैसी-कैसी कलित कल्पनाएँ 
करता है | कभी वह उसे कमला ( लक्ष्मी ) के घर ( कमल ) में रक्‍्खी हुई 
लाल कमल की माला समभता है, और कभी महारानी वाणी जी का बिखरा 
हुआ अनुराग श्रनुमान करता हे | 


मुसकान-वर्णन 


[ नायिका के मुसकाने या हँसने की उपमा बिजली चमकने, चंद्र- 
हि० न० २०---४२ 


( ई४प ) 


ज्योत्सना, अमृत-प्रकाश, मोह-महिमा, मृग-तृष्णा, प्रेम ओर मोहनी आदि 
से दी जाती है | | 
पद्माकर जी ने मुखकान का वन इस प्रकार किया है-- 
गुल गुलकंद के सुमंद करी दाखन को, 
देखोरी दुचंद कला कंद की कमाई सी | 
कहे 'पदमाकर' त्यौं साहिबी सुधा की सब्र, 
ब्रज वसुधा में ते कद्ाँ थों परी पाई सी ॥ 
खारक खरी को मधु हू को माधुरी को सुभ, 
सरदा सिरी कों मिसरी कों लूट लाई सी। 
साँवरी सलौनी के सलोने अधरान में सु- 
मंद मुसकान भरी मंजुल मिठाई सी॥ 
गोपिका की मुसकान के माधुय ने फूल, गुलकंद, दाख, कलाकंद आदि 
सबकी मधुरता मंद कर दी है। श्रर्थात्‌ उसमें इन सबसे बढ़ कर मधुरिमा 
है। पेता नहीं, ग्वालिन की मुस्कराहट ने ब्रज बसुधा में सुधा की सरसता 
कहाँ से पा ली हे। जान पड़ता हे--शहद, सरदा, मिसरी आदि सब का 
मिठास लूट कर उसने अपने में भर लिया हे । 
और देखिये :--- 
सहज सहेलिन सों जुतिय विहँसि-विहसि बतराति। 
सरद चन्द की चाॉँदनी मन्द परति सी जाति॥ 
जिस समय नायिका रुद्देलियों के साथ मन्द-मन्द मुस्कराती हुई बातें 
करती हे, उस समय शारदी चन्द्रिका मन्द सौ पड़ने लगती है । 
कपोल-वर्ण न 
[ कपोलों के वर्णन में कामदेव के दर्पण, शरद चन्द्र, गुलाब के फूल 
की पोंखुड़ी, मक्खन के गोले, और महुए के ताजे फूल आदि से उपमा 
दी जाती है। ] 
कवि कालिदास ने कपोलों का वर्णन इस प्रकार किया है-- 


चपला के ऐसे चार चमके हे छुवि पुंज, 
छेदि निसरत भीने घूँघट निचोल हें। 


( ६४६ ) 


“कालिदास”? आस-पास तरल तरौनन की, 
जेति क्रिरनावली ललित अ्रति लोल हैं ॥ 
कान्‌द अवलोकत बदन प्रतित्रिम्ब निज, 
कनक सरूप मानो मुकुर अ्मोल हें। 
लेत मन मोल कहें दगन की तोल ऐसे, 
गोरे-गोरे गोल बने प्यारी के कपोल हैं॥ 
नायिका के गोल कपोलों की चादर चमक घूघट के भौने पट में होकर बाहर 
फूटी पड़ती हे | ब्रज-चन्द्र उन्हें मुकुर समझ कर उनमें अपना प्रतिबिम्ब 
निद्ारते हैं। वस्तुतः उनमें ऐसी हा चमक है | जो भी उन्हें देख लेता है, 
वही उनका क्रीत दास बन जाता है। 
इस प्रसंग में बलभद्र जी का भी एक पद्म पह लीजिए--- 
सुखमा भरत भरे प्रेम के साँचे दरे, 
सुधा लो सुधारि घरे मुक्ुर सुदेस हैं। 
आभा की निकाई हे केदार केधों काँतिन के, 
तीनों पुर रूप परिजन के नरेस हैं॥ 
रपटत लोचन चिलक देखि 'बलिभद्र! 
भलकत चाँंघो, क्रिलकनि को नतेस हैं। 
गोरे गंड मंडल श्रखंड जोतिवंत तेरे, 
छुवि के छुपाकर के दुति के दिनेस हैं ॥ 
इस पद्म में भी कपोलों की उपमा कान्ति के केदार ( खेत ), छुवि के 
छुपाकर ( चन्द्रमा ), द्युति के दिवाकर ( सूय ) आदि से दी गई है| उनकी 
चिकनाइट पर आ्राँखें रपट जातीं और चमक से वे चॉोंधिया जाती हैं । 
देखिए. कविवर चिंतामणि कपोलों के विषय में क्‍या कहते हं-- 
सोहत हैं (चिंतामणि”' नगन जटित दिव्य, 
कंचन की बेली केसे सुन्दर नबेली के। 
सकज्ष जगत माँदहि एक सुकृती हो तुम, 
नायक नवल ऐसी नायिका नबेली के॥ 
एक ठौर देखो छवि आपनी ओ, उनकी जू , 
प्रतबिंब आप रूप आनंद की केली के। 


( दै६० ) 


सुबरन आरसी से सीसे से श्रमोल कैसे, 
गोरे-गोरे गोज़ हैं कपोल अलबेली के | 


यहाँ भी कपोलों की तुलना सोने की आरसी, शीशा आदि से की 
गई हे। 

इस सम्बन्ध में कमलापति जी का नीचे लिखा संवैया भी पढ़ने 
लायक है-.. 


नहिं जानिये कोने बिरंच रचे समता कहाँ माखन गोलन की। 
किमि काम के दपन कीन्हें कहाँ सुखमा इनके संग तोलन कौ॥ 
'कमलापति' देखि छुके से रहे, सुधि नेक रही नहिं बोलन की । 
तब कैसे के भाखि सकें उपमा अनमोल ये गोल कपोलन की ॥ 


कमलापति जी मक्खन के गोले जेसे गोल कपोलों को देख कर ऐसे 
मुग्ध हो गए, कि उन्हें कुछ उपमा देने की सुध-बुध ही न रद्दी । 


कपोलों की गाढ़ का वणन 
[ गालों के गड़हों की उपमा कामदेव का तालाब, पानी के भँवर, द्वास्य- 
रस के कुंड या कए शरद से दी जाती हे। | 
देखिए, कविवर देव जी ने कपोलों की गाढ़ का कितना सुंदर वर्णन 
फिया हे-- 
घाँधरो घनेरों लाम्बी लटे लटे लॉक पर, 
काकरेजी सारी खुली अ्रध खुली टाड़ वह । 
गोरी गजगोनी दिन दुनी दुति होनी “देव”, 
लागति सलोनी गुरु लोगन के लाड़ वह ॥ 
चंचल चितौनि चित चुभी चित च्तोर वारी, 
मोर वारी बेसरि सुकेसरि की आड़ वह । 
हँसि-हँसि बोलन की गोरे-गोरे गोलन की, 
कोमल कपोलन की जी में गड़ी गाड़ वह ॥ 
नायिका का धूमदार घाँधरा, लंक पर लटकती हुई लम्बी लट, श्रधखुली 
“टाड!, गज की-सी गति, चंचल चितवन, मोर के लटकन से युक्त बेसर और 
केसर की शआ्राड़ ( विन्दी ) आदि तो नायक के हृदय में गढ़ ही जाती हैं, 


६६१ ) 


पर बात करते समय, मुस्कराते हुए. उसके गोरे, गोल और कोमल कपोलों में 
पड़ जाने वाली गाढ़ भी चित्त में चुभ जाती है, यद्द केती अ्रचंभे की 
बात हे। 
गाढ़ के वर्णन में नीचे लिखा सवैया कितना उत्कृष्ट है| 

नैन गड्ढें तो गढ्ढेँ उनमें छवि मैन के बानन की सरसाति है। 

जो कुच कोर कठोर गड़ी तो गड़ो वह तो कठिने दिन राति है ॥ 

वै अलबेले तुह्ँँ अ्लबेली जिन्हें मुख मोरि इते मुसकाति हैं । 

कोन श्रचम्मो कद्दो यह ताके कपोल की गाढ़ हिये गड़ि जात है ॥ 


यदि नायिका के नयन नायक के हृदय में गड़ जाते हैं, तो ठीक दी 
है, क्योंकि उनमें कामदेव के वाणों की छुवि छुलकती रहती है। यदि कुचों 
की कोर नायक के हृदय का भेदन कर, उसमें घुस जाय तो कोई श्राश्रये 
की बात नहीं, क्योंकि वे तो जन्म से ही कठोर हैं, और कठोर भी इतने कि स्वयं 
अपनी जन्म-मूमि को फोड़ कर उत्पन्न हुए हैं | परन्तु आश्चय तो इस बात 
का है, कि मुस्कराते समय उसके कपोलों में पड़ने वाली गाढ़ भी नायक के 
दृदय में गड़ जाती हे। ख़ूब, गाढ़ का भी द्वदय में गड़ जाना कैसी सुन्दर 
सजीव और शअ्रनोखी कल्पना है ! 
कपोल-तिल-वर्ण न 
[ कपोल के तिल की उपमा भ्रमर, नीलमणि, नीलकमल, चन्द्र में 
शनि का निवास, राहु के दाँत, विधाता को स्याही के बिन्दु आदि से दी 
जाती है। ] 
कपोल-तिल के वर्णन में पद्माकर जी का नीचे लिखा कवित्त बढ़ा 
सुन्दर हे-- 
कैधों रूप राशि में सिंगार रस अ्रंकुरित, 
कैधों तम कन सोहे तड़ित जुन्दाई में । 
कहे 'प्माकर' सु कैधों काम-कारौगर, 
नुकता दियो है हेम फरद सुद्दाई में ॥ 
के्धों श्ररविन्द में मलिन्द सुत सेोये आय, 
ऐसे। तिल साइत कपोल की लुनाई में । 


( ६३६२ ) 


केधों फेंस्यौ इन्दु में कलिन्दी जल-विन्दु अ्ररु, 
गरक गुविन्द कोधों गोरी की गुराई में ॥ 
नायिका के कपोल पर तिल क्‍या है, मानो सोन्दय के ढेर पर शृज्भार रस 
का अंकुआ उगा दे । या विद्युत के प्रकाश में कोई अंधकार का कण शेष 
रह गया हे |** “अथवा प्रफुक्न अरविन्द पर भौंरा सो रहा है, या चन्द्र- 
बिम्ब में कालिन्दी के जल की बूँद पड़ गई है । यदि यह कुछ भी नहीं, तो 
निश्चय ही गोरी की गुराई में गोविन्द गरक हो रहे हैं | 
इसी भाव का कविवर श्रीपति का भी एक पद्म पढ़ लीजिए -- 
फूले पारिजात में लखात हैं मधुप केधों, 
सुषमा सरोवर में रसराज्ञ पैठो है। 
रति के मुकुर पै घरी है नीलमणि केधों, 
कामिनी के बदन परम छुवि जेठो है । 
'श्रीपति? रसिक राज सुन्दर गुलाब बीच, 
सृग मद बिन्दु रूप परम परैठो है। 
कोमल कपोल पर तिल है अ्रमोल मानो, 
पूरण मयंक में असंक सनि बैठों है॥ 


यह फले हुए पद्म-प्रसून में मधुकर बैठा है, या सोंदय के सरोवर में श्वज्ञार 
रस स्नान कर रहा है। रति के दपंण पर नौलमणि रक्‍्खी हुईं हे या 
सुन्दर गुलाब के फूल पर कस्तूरी की बूँद पड़ गई है अथवा पूण चन्द्र-मएडल 
पर शनि ग्रह आ बैठा हे । कया बात है ? कुछ समर में नहीं आता । 

इस प्रसंग में नीचे लिखा सवैया भी बड़ा श्रच्छा है, देखिए-- 


रूप की रासि में के रसराज को अंकुर श्रानि कढ्यौ सुभ होना 

के ससि ने तम-ग्रास किये, तिहिं को रह्मो शेष दिखात से कोना । 

प्यारी के गोल कपोलन पै 'द्विजराज” रह्यौ तिल स्थाम सलौना। 

के मधुपान परयौ अलमस्त, किधों श्ररत्रिन्द मिलिन्द को छोना ॥ 

अरे साहब, यह तिल नहीं हे, बल्कि चन्द्रमा ने जो अन्धकार खाया है, 
उसी का यह एक कोना शेष रह गया हे । अथवा मथुपान करके मस्त 
हुआ भौरे का बच्चा विकसित श्ररविन्द पर निश्चिन्त होकर सो रह्दा है । 


( ६६१ ) 


(0 
.. श्रवण-वणन. 
[ श्रवणों का वणन करने में उनकी उपमा राग के रवन पात्र, शोभा के 


पवित्र भवन, मन-महीप के मन्त्री या मित्र ओर लाज के नेन्न आदि से दी 
जाती हे | ] 


देखिए, श्रवण वर्णन में केशव जी क्या कहते हैं-.- 
रागिन के आगर विराग के विभाग कर, 
मन्त्र के भंडार गृढ़ रूढ़ के रवन हैं। 
ज्ञान के विवर कंधों तन के तनक तन, 
कनक कचोारी हरि-रस श्रचवन हैं। 
ख॒तिन के कूप किधों मन के सुमित्र रूप, 
किर्घो केसोदास' रूप भूप के भवन हैं । 
लाज के नयन किर्धों, नयन सचिव किर्धो, 
नयन कटाक्ष सर लक्ष्य के खबन हें ।॥। 
केशवदास जी के उपयुक्त छन्द में श्रवणों के प्रायः सभी उपमानों का 
उल्लेख आ गया है। ओर देखिए -- 
क्धों हें अ्रतिथि प्रिय वचन के रसराज, 
केधों मित्र लेचन के विमल विसेखिये । 
सेने केधों दोने रति काम श्रंग कीबे काज, 
सुधाधर आस-पास धरे सोई देखिये ॥ 
पूरण मृदित सिव पूजन करत चन्द, 
कनक अरघ ताके दु/हँ ओर पेखिये । 
तीक्षन कटाक्ष सर गति अबरोध के्धों, 
सुन्दरी के सुन्दर सवन युग पेखिये॥ 
पूण्‌ चन्द्रमा शिव जी का पूजन कर रहा है, इसलिए, उसने दो सोने के 
अध पात्र अपनी दोनों ओर रख छोड़े हैं | कानों के सम्बन्ध में यह केसी 
अनूठी कल्पना हे । 
इस प्रसंग मं नीचे लिखा सवैया भी पढ़ने लायक है-- 
केषें सुधाकर जू दुहूँ ओर सुधारि धरे सु सुधा के द्वि दौन हैं। 
कंधों निसान ये लेचन बान के भोहें कमान के काम के त्रौन हैं। 


( ६६४ ) 


कोन हे जो नहिं मोहद देखि कियें सबंश है तो नहिं मौन हैं। 

भोन हैं शान के कान के दो न हैं स्तोन हैं तीय के जीय के रौन हैं ॥ 

कान क्या हें, मुख मण्डल रूपी सुधाकर के दोनों ओर सुधा रस भरे 
दो दोने रक्‍्खे हैं । या भोंह-कमानों से निकले हुए. कठाक्ष-बाणों के निशान 
हैं, भ्रथवा काम के वाणों के लिए वूणाीर हैं। 


नसिका-वर्ण न 


[ नासिका की उपमा तिल फूल, तोते की चोंच, तरकस आदि से दी 
जाती हे । ] 


नासिका के वर्णन में कविवर केशव जी का एक छुन्द नीचे दिया 
जाता हे-- 


“केशव” सुगन्ध स्वास सिद्धन की गुफा केधों, 
परम प्रसिद्ध सुभ सोभन सुवासिका। 
केघों ममनमथ मन मीन की कुबैनी कैधों, 
कुन्दन की सींव लेल लेचन विलासिका । 
मुकता मणिन की है मुकुत पुरी सी कैधों, 
कैधों सुर सेवत है कासी की प्रकासिका । 
तिभुवन रूप ताको तंग तोय निधिता के, 
तोय की तरंग के तरुनि तेरी नासिका ॥ 
यहाँ केशव जी ने नासिका को सुगन्धित श्वास रूपी सिद्धों की गुफा, 
मनमथ के मन रूपी मीन के लिए कुबेनी, श्रॉँखों के मध्य स्वर्ण निर्मित 
सीमा ओर रूप-सागर की तुंग तरंग बताया है | कवियों की उड़ान द्वी जो 
ठदरी | 
आगे नासा-बर्णन सम्बन्धी एक पथ्य और उद्धृत किया जाता है-- 
सोभा को सकेलि ऊँची बेलि बलिभद्र, 
राखो समलोचन कुरंगन को रोसु हे। 
दीपति को दौपक के मुख दीप को सुमेरु, 
मृदु मुख सारस को सिफकन्द जोसु है। 


(६ ६६४ ) 


कलप तरोवर की कलिका सुगंध फूली, 

उपमा अ्रनूपनि को विविध निसोसु है । 
तिल को सुमन है कि नासिका तझुनि तेरी, 

सुरनि की सरण कि सोरभ को कोसु है ॥ 


कविवर बलभद्र कद्दते हैं, तरुणी यह तेरी नाक है या शोभा का पहाड़ -- 
अथवा मुख रूपी द्वीप का सुमेर हे; या कल्पतर की कलिका । गमुमे तो 
ऐसा जान पड़ता है कि यह्ट तिलका फूल है। 


& ९ ०५ 
अब कविवर शंकर जी का नासिका वन पढ़ लींजए--- 


आँख से न आँख लड़ जाय इसी कारण से, 

भिन्नता की भीति करतार ने लगाई है। 
नाक में निवास करने को कुटी 'शंकर” कौ-- 

छवि ने क्षपाकर की छाती पे छ॒वाई है। 
कोन मान लेगा कीर तुण्ड की कठोरता में, 

कोमलता किंशुक प्रसून की समाई हें। 
सेकड़ों नकीले कवि खोज-खेज द्वारे पर, 

तेरी नासिका की कहूँ उपमा न पाई है ॥ 


नाक क्‍या है, इस पर शंकर जी ने कैसी-केसी अनूठी कल्पनाएँ की हैं। 
युवावस्था में अक्सर लोगों की आँखे लड़ाकू हो जाती हैं। वह जहाँ अवसर 
पाती हैं, लड़ जाती हैं | इसलिए विधाता ने यह विचार कर कि तरुणी की 
लड़ाकू आँखें कहीं आपस में द्दी न लड़ जायें, इसलिए बीच में नासिका रूपी 
भिन्नता की भीत लगा दी है | अथवा सुन्दरता ने स्वर्ग में निवास करने के 
लिए चन्द्र-मएडल के ऊपर अ्रपनी कुटिया छुवा ली है| कुछ कवि लोग 
नायिका की नाक को तोते की चोंच से उपमा देते हैं।भला इस बात को 
कोन समझदार मान लेगा। आ्राप ही बताइए, तेोते के कठोर तुणड में 
तिल-सुमन सरीखी नासिका की कोमलता आा सकती हे ! कभी नहीं । भई, 
सच तो यह है, कि सेकड़ों नकीले कवि खोज खोज कर हार गये, पर इस 
नासिका की यथाथ उपमा किसी को भी नहीं मिली | खूब ! भावों के साथ- 
साथ कवि की शब्द योजना भी देखने लायक है। 


( ६६६ ) 


कविवर गोकुल जी ने भी नासिका के सम्बन्ध में खूब ही लिखा है। 
देखिए --- 
तिलोन समान ठुले तिल के प्रसून-पुञ्न, 
सोभा सरसत विधि बाँधी हैं सुलाँक की । 
किंसुक अगस्त कलिहू में न सुगंध रती, 
श्वास में सुवास खुले कोठढरी मृर्गांक की । 
'गोकुल विलोकि लागे कीर-भीर हू इकीर, 
छुहरत छवि ऐसी मुक्ुत बुज्ञाक की। 
नाक नर नाग लोक नाकहू निहारे अरु, 
निखरी निकाई नीको नागरी की नाक की ॥ 


अ्रजी, तिल-प्रसून तो उस नागरी की नाक की तुलना तिल भर भी न कर 
सके | फिर किंशुक ओर अगस्त के फलों की तो बात ह्वी क्या चलाई, क्योंकि 
उनमें सुगन्ध का लेश भी नहीं, ओर यहाँ नासिका के श्वास में इतनी गन्ध है, 
कि येद्द जान पड़ता है, माने मृग मदकी कोठरी खोल दी हो । रदे कीर, सो 
वे तो नायिका की नाक के आगे बिलकुल हक़ीर जान पड़ते हैं। उनकी चोंच 
में तो न सुगन्ध है और न कोमलता | सच तो यद्द है, कि तीनों लोक में 
खोजने पर भी इस नाक की सी सुन्दरता नहीं मिल सकती | 


नासिका-वेघ-वर्णन 
सुनि चित चाहे जाके कंकन की कनकार, 
करत है सोई बात होत जो विदेह की। 
शेष भनि आजु है सु काल्द नाही कान्द्र जैसी, 
निकसी है राघे की निकाई कछु नेह की । 
फल की सी आआभा सब सोभा लै सकेलि धरी, 
फ्‌लि ऐदो लाल सुधि भूलि जैद्ो गेह की । 
कोटि पचे कवि तऊ बरनी बने न फबि, 
बेसरि उतारे छुवि बेसरि के बेह की॥ 
दुनिया भर के कवि चाद्दे कितना ही सर क्‍यों न खपाएँ, परन्तु संसार में 
उन्हें नासिका के छिंद्र की उपमा नहीं मिल सकती । 


र ७. .) 


नासा-वध की प्रशंसा में नीचे लिखा दोद्ा भी केसा सुन्दर दै-- 
बेघत अनियारे नयन बेघत कर न निषेध | 
बरबस बेधत मोहिया, तो नासा को वेध ॥ 
नामिका-भूषण-वर्ण न 
नीचे लिखे कवित्त में नथ का कितना सुन्दर वर्णन किया गया है--- 
केघों पिय नेह मई कीरति हँसनि लेके. 
भूले हेम भूले भूले ध्यान समरथ के | 
केधों मति मन खग फन्दा ताममें मित्रवस, 
बैैठि कवि, कुज सोम थाने मनमथ के ॥ 
ऐसी भाँति देखिये री मोहे मन मोहन जू , 
कदाँ लों बखान करों सूरति अकथ के | 
भूले ज्ञान गथ के सुलोक लाज पथ के सुका-- 
के नेन न थके निद्दारे तेरी नथ के।। 


नायिका ने नाक में जो बेसर पहनी हुई है, वह मानों नायक के मन 
रूपी पक्ती को फँसाने के लिए कामदेव का फन्दा दे। और नथ में जो दो 
सफ़ेद श्रोर एक लाल, तीन मोती पड़े हैं, वे शुक्र, मंगल और सोम ये 
तीन ग्रह हैं. जो मदन के मित्र होने के नाते-मित्र के काय के लिए, यहाँ 
पहरेदार बन के बैठे हैं, जैसे ही कोई आकर इस फंदे में फँसता है, वैसे ही 
ये पहरेदार उसे और हृढ़ता पूवक जकड़ देते हैं । यही कारण है कि जो 
कोई नायिका की नथ को एक बार देख लेता है, वह उस पर मुग्ध हे जाता 
है | अजी और की तो क्या चले, मनमोहन तक इस फन्दे में फेस गए। 
खूब, केसी अद्भुत कल्पना हे। कवि की हस अनोखी सूक पर किस सहृदय 
का हुदय लोट-पोट नहीं हो जायगा, और किस के मुह से वाह नहीं 
निकल पड़ेगी | 
निम्नलिखित दोहा भी केसा भाव पूर्ण दे- 
बेसरि मोती घन्य तुहि, को बूके कुल जाति। 
पियत रह्दत तिय अधर को रस निधरक दिन राति॥ 





& शुक्र तथा सोम का रंग स्वेत और मंगल का लाल माना गया है । 


( ६६८ ) क्‍ 


है नथ के मोती, इस संसार में तेरा जीवन सफल है, जो तू रात-दिन 
निश्चिन्त भाव से नायिका के अधरामृत का पान करता रहता हे। सत्य हे, 
तप के प्रभाव से सब दोष मिट जाते हैं। फिर कोई जाति-पाँति नहीं पूछता | 
यद्यपि तेरा जन्म अ्रधम कॉाँच-कुल में हुश्रा है, तो भी क्‍योंकि चूँकि तू 
अग्नि में तप और पर-कारज के लिए तेंने अपना शरीर विंधवाया, उसी 
तपस्या का फल अ्रब भोग रहा है। श्रव कोई तेरी जाति का विचार भी 
नहीं करता । 
लाचन-वर्ण न 
[ श्राँखों की सुन्दरता वर्णन करने के लिए कबिजन कमल, खंजन, भौर, 
चकोर, मीन या मग नेत्रों से उपमा देते हैं । ] 
देखिए नीचे लिखे कवित्त में नेत्रों का केसा सुंदर वशन किया गया है -- 
कंज दुति भंजन हैं, खंजन के गंजन हें, 
रज्नन करत जन मंजन सवारे हैं। 
सोभा के सदन कोटि मोहत मदन मीन, 
मद के कदन मृग दूरि करि डारे हैं ॥ 
लाज-गुन-गेद नेह-मेह बरसे अछेद्द, 
देह न सँवारे जात जबते निहारे हैं । 
कारे कजरारे अनियारे कपकारे सित, 
बारे रतनारे प्यारी लोचन तिहारे हैं ॥ 


नायिका की आखों ने खंजन. मीन और मृगों का तो मान-मदन कर 
दिया है। लाज के तो मानों ये घर हैं। इनसे निरन्तर नेह का मेह् बरसा 
करता है। जब से ये कारे-कजरारे, सितवारे ओर रतनारे नयन निद्दारे हैं, 
तब से देह की भी सुध बिसर गई है । 
ओर भी देखिए--- 
हिय हरि लेत हैं निकाई के निकेत हँसि-- 
देत हैं सहेत निरखत करि सेन हेैं। 
सेना हरिनी के हूते इग अ्रति नीके राजें, 
दरत दरद यों करत चित चेन हें॥ 


( ६६६ ) 


चाहत न अंजन सरिक मन रंजन हैं, 
खंजन सरस रस राग रीति ऐन हें। 
दीरघ ढरारे अ्रनियारे नेकु रतनारे, 
कंज से निहारे कजरारे थारे नेन हैं॥ 
सखी, तुम्हारी आँखों में कुछ ऐसा जादू है, कि जिसकी भी श्रोर तुम 
ज़रा देख लेती हो, उसी का हृदय तुम्हारे अधीन हो जाता है। लोग हरिणी 
के नेत्रों की तारीफ़ के पुल बाँधा करते हैं; पर तुम्हारे दीरघ, ठरारे, अनियारे 
ओर रतनारे नयनों के श्रागे मुझे तो वे त्रिलकुल तुच्छ जँचते हैं। 
अब ज़रा मुबारक जी की भी सुन लोजिए, नेन्नों के सम्बन्ध में वे क्या 
कहते हैं-.. 
पानिप के पनिप सुघरताई के सदन, 
सोभा के समुद्र सावधान मन मोज के । 
लाजन के वोहित पुरोह्वित प्रमोदन के, 
नेह के नकीब, चक्रवर्ती चित चोज के || 
दया के दिवान पतिब्रत के प्रधान युग -- 
नैन ये 'मुबारक' विधान नव रोज के। 
मग के महाराज, मीनन के सिरताज, 
साहिब सरोज के मुसाहिब मनोज के ॥ 
मुबारक जी ने तो अपने इस पद्म में नेत्रों को सदन, समुद्र, वोहित, 
पुरोहित, दीबान, नकीब, महाराज, मुसाहिब और न जाने क्या-क्या बना 
दिया है | 
इस प्रसंग में एक पद्य और भी पढ़ लीजिए. | देखिए कवि ने नेन्नों का 
कैसा सजीव चित्र खींचा हे-- 
बंधु विधु कोर में चकोर कैसो जोरा बैख्यो, 
कैधों एक साथ मृग बाल दे बढ़ाए हैं। 
केधों मीनकेत के युगल मीन जंग जुरे, 
कैधों खंजरीट राखि पींजरा पढ़ाए हैं।॥ 
मिलत जिश्ाइवे कों विछुरत मारिबे कों, 
कैधों ये पियूष विष बोरि के कढ़ाये हैं। 


( ६७० ) 


केधों विधि पूरन मयंक मुख पूजा करि, 
अलिन सद्दित मानी नलिन चढ़ाये हैं। 
नायिका के नयन ऐसे जान पड़ते हैं, जेसे चंद्रमा में चकोर का जोड़ा 
बैठा हो, अथवा मीनकेतन की ध्वजा के दो मीन एकत्र हो गए हों | विधाता 
ने मिलते समय जीवन-दान देने और बिछुड़ते समय प्राण हर लेने के लिए 
इनमें श्रम्त और विष दोनों भर दिए हैं| कभी ऐसा ज्ञात होता है, मानो 
नहा जी ने चंद्रमा की पूजा करके उस पर भौंरों सहित दो कमल-पुष्प 
चढ़ाए हें। 
इस प्रसंग में नीचे लिखे दोहे भी पढ़ने योग्य हैं--. 


गइ लगत बेचत मनहिं रस निधि कर बिन दाम | 
नयनन में नयनाहिं ये याते नयना नाम॥ 


>< 2५ ५ 


संगति दोष लगे सब्र कहै जु साँचे बैन। 
कुटिल बंक श्रू संग ते भए कुटिल गति नैन॥ 


महाकवि बिहारी ने आँखों के सम्बन्ध में केसा सुन्दर दोहा लिखा है--. 


लाज लगाम न मानही नेना मो बस नाहिं। 
ये मुंह जोर तुरंग लों ऐचत हू चलि जाहिं॥ 


आँखों के सम्बन्ध में नीचे लिखा दोहा तो प्रसिद्ध ही हे, इसकी समता 
शायद ह्वी किसी साहित्य का कोई पद्म कर सके-..- 


अमी हइलाहल मदभरे, श्वेत, स्थाम रतनार। 
जियत-मरत भरुकि-फुकि परत, जिहि चितवत इक बार ॥ 


आँखों में तीन रंग हैं, सफ़ेद, काला ओर लाल | सफ़ेद अमृत है, काला 
विष ओर लाल शराब | अर्थात्‌ आँखों में ये तीनों चीज़ें भरी हुई हैं | इन 
आँखों की किसी पर ज़रा भी चितवन पड़ जाती है तो वहीं जीने, मरने और 
भुक-भुक पड़ने का दृश्य दिखाई देने लगता हे । श्रमृत का काम जिलाना, 
विष का काम मारना, ओर शराब का काम मस्त कर देना है। दोदे कौ 
दो लकीरों में केसा सुन्दर और विस्तृत भाव भरा गया है । धन्य है | 


५ ६७१ ) 


कविवर शंकर ने भी श्राँखों के वर्णन में केसा सुन्दर कवित्त लिखा है-.- 


ताकत ही तेज न रहेगो तेजधारिन में, 
मंगल मयंक मंद पीले पड़ जायेंगे। 
मीन बिन मारे मर जायेंगे तड़ागन में, 
डब-डब शंकर! सरोज सइड् जायेंगे ॥ 
खायगो कराल-काल केद्दरी कुरंगन को, 
सारे खंजरीटन के पंख भ़ जायेंगे ; 
तेरी अँंखियान सों लड़ेंगे ग्रब और कोन, 
केवल श्रड़ीले ह॒ग मेरे श्रड़ जाय॑गे। 
इन अलबेली आँखों के मुकाबले में संसार की कोई उपमा नहीं ठहर 
सकती | इनके तेज के आगे बड़े से बड़े तेजस्वी निस्तेज हो जायेंगे। नायिका 
के जरा तिरली चितवन से ताकते ही बड़े-बड़े की घोती ढीली हो जाती है। 
मंगल, मयंक ( चन्द्र ), ओर मन्द ( शनि ) ये तीनों ग्रह भी इन आँखों के 
आगे निष्प्रभ हो जायँंगे । ( यहाँ श्रांखों की लालिमा, सफ़ेदी ओर स्यादी से 
उक्त तीनों ग्रहों की तुलना की गई हे, क्‍योंकि इनके रंग क्रम से लाल सफ़ेद 
और काले होते हैँ )। कमल इनके आगे लज्जित होकर तालाबों में जा ड्बते 
हैं ओर मृग खंजन आदि इनसे परास्त होकर जंगलों में जा छिपते हैं। 
नेत्र वन में कविवर सेनापति भी किसी से पीछे नहीं रहे। वे भी 
लिखते हैं-- 
अंजन सुरंग जीते खंजन कुरंग मीन, 
नेक न कमल उपमा को नियरात है। 
नीके अनियारे श्रति चंचल दरारे प्यारे, 
ज्यों-ज्यों में निद्ारे त्यौं-त्यों खरे ललचात है ॥ 
'सेनापति? सुधा सी कठाच्छुनि बरसि ज्यावें, 
जिनकों निरखि हिये हरखि सिरात है। 
कान लौ बिसाल काम भूप के रसाल बाल, 
तेरे ह॒ग देखे मेरो मनन अघात है॥ 
तेरे लोचनों ने खंजन, कुरंग ओर मीनं॑ सबको जीत लिया है। जिस 


(५ ६७२ ) 


समय ये कटठाक्षों द्वारा अमृत वर्षा-सी करते हैं, उस समय द्वृदय आनन्द 
और उल्लास से भर जाता है । इन्हें देखते-देखते तबियत भरती द्वी नहीं । 
अब ज़रा रात्रि जागने के कारण लाल लोचनों का वर्णन भी पढ़ 
लीजिए-- 
राति के उनीदे अलसाते मदमाते राते, 
राज कजरारे हग तेरे ये सुद्ात हैं। 
तीखी-तीखी कोरन श्रकोरि लेत कोटि निय, 
केते भये घायल औ?” केते तलफात हैं॥ 
ज्यों-ज्यौं लेसलिल चख 'सेख” धोवे बार-बार, 
त्यों-व्याँ बल बुन्दन के बारे भुकि जात हैं । 
केबर के भाले केधों नाहर-नहर वाले, 
लोहू के पियासे कद्दाँ पानी ते अ्रघात हैं । 
शेख कवि कहते हें--.अरी, तेरे ये उनीदे, अलसाए, मदमाते, लाल 
लोचन अपनी तीखी कोरों से करोड़ों के द्वदय बेध देते हैं। तू जो बार-बार 
इन्हें धोने के मिस पानी पिलाती हे, तेरा यह प्रयास व्यथ है। भला ख़ून के 
प्यासे भी कभी पानी से अधाते हैं ? 
उनींदी श्रांखों का वशुन कविवर आलम ने भी बड़े सुन्दर ढंग से 
किया दे। 
प्रेम रगमगे जगमगे जागे यामिनी के, 
जोवन की जोति जगि जोर उमगत हैं। 
मदन के माते मतवारे ऐसे घूमत हें, 
भकूमत हैं करुकि-कुकि भेंपि उधरत हैं ॥ 
कहे कवि आलम? निकाई इन नेनन की, 
पाँखुरी पदुम पे भेंवर थिरकत हैं। 
चाहत हैं उड़िवे को देखत मयंक मुख, 
जानत ईद रेनि ताते याही में रहत हैं ॥ 
रात की उनींदी, अलसायी और मदमाती-'राती” श्राँखों की सुन्दरता 
ऐसी जान पड़ती है, जैसे पद्म की पंखड़ियों पर भोंरा यिरकता फिरता हो । 
यह भोंरा उड़ क्यों नहीं जाता, इन्हीं में क्‍यों घूमता रहता है, इसके लिए 


( 3७३ ) 


ग्रालम कहते हँ--भोंरा उड़ना तो चाहता है, परन्तु ज्यों ही उसे मुख-चन्द्र 
दृष्टि पढ़ता है, त्यों ही वह रात्रि के भ्रम से वहाँ का वहीं, बैठ जाता दे । 
रात में उड़कर कहाँ जाय ? 
ओर भी देखिए-- 
दीरघ ढरारे आछे डोरे रतनारे लागे, 
कारे तहाँ तारे अ्रति भारे ये सुरंग हैं | 
कहे कवि गंग? जनु दूध ही सों धोये पुनि, 
को ये विकसित सित असित दुरंग हैं॥ 
पारद सरिस चीर थिर में थिरकि जात, 
तिरछे चलत मानो कूदत कुरंग हैं। 
खेंचे न रहत अनुराग हू के बाग वर, 
प्यारी जू के नैन किधों मैन के तुरंग हैं ॥ 
गंग कवि ने तो नायिका के नेत्र चंचल घोड़े ही बना दिए, जो अनुराग 
की बाग में बँघे रहने पर भी इधर-उधर दौड़ ही जाते हैं। 
नेत्रों के सम्बन्ध में नवी जी का नीचे लिखा कवित्त भी पढ़ लीजिए. 
मृग केसे मीन केसे खंजन प्रवीन केसे, 
अंजन सहित सित असित जलद से। 
चर से चकोर से कि चोखे खॉड़ कोर से कि, 
मदन मरोर से कि माते राते मद से ॥ 
“ननवी' कवि ऐना से कि ओर नेन बैना से कि, 
सियरे सलौना से कि आछे मृग मद से । 
पय से पयोधि से कि और सोंधे सोंध से कि, 
भारे कारे भोंर से कि प्यारे कोकनद से ॥ 
. अक्त पद्म में तो नेन्रों को, मृग, मीन, खंजन, जलद, खाँड़े की कोर, 
चकोर, भोर औऔऔर न जाने क्या-क्या बना दिया है । 
शुद्भार व्णंन करते समय कवियों ने जितना नेत्रों पर लिखा है उतना 
शायद और किसी विषय पर नहीं लिखा | निम्नलखित पद्म भी कितना 
सुन्दर हे--- 
द्वि० न० २०---४ है 


( ६७४ ) 


कूमत भुकत भरे मद के अदुन नेन, 

मानो मैन वून हैं कढ़त जाते सर हें। 
हाव किल किश्वित सरूप धरे नाथ कैथधों, 

मोहन वसीकर उचाद के अ्रमर हें॥ 
केघों मीन पैरत सद्दाव के सरोबर में, 

मनिक जथ्ति भूमि खंजन सुंढर हैं। 
कैधों अनुराग कों लपेटि के घिंगार बैज्यो, 

केघों कौल पोाँखुरी में डोलत मँवर हैं॥ 


नायिका के नेत्र मानों मदन के तरकस हैं, जिनसे कटाक्ष बाण निकलते 
हँ-या रूप-सरोत्र में दो मछुलियाँ तेरती फिरती हैं अथवा मणि जटित 
भूमि पर खंजन खेलते फिरते हैं। यह भी हो सकता है कि अश्रनुराग को श्रोढ़ 
कर श्रृंगार रस बैठा हो या कमल में भोंरा घूमता हो । 
और देखिए, कवि ऊधौराम ने आँखों में नाव का केतसा सुन्दर रूपक 
बाँधों हे-- 
यौवन प्रवाहता में छवि की तरंग उठे, 
भोंद की मरोरन सों भोर मतवारे हैं | 
बालम की मूरति मलाह माँक बैठि रही, 
छुटे लाल डाोरे तई गुन रतनारे हैं ॥ 
पूतरि इलन सोई पतवारि “ऊधौराम?, 
लाज बादवान पाल बरुनी सबारे हैं । 
रूप के सरोवर में पैरि-पैरि डोलत हैं, 
अखियोँ न द्वोइ ये तो काम के निवारे हैं॥ 


उपयुक्त रूपक में जल तरंगे. भँवर, मल्लाइ, गुन, पाल, पतवार आदि 
सभी आँखों में दिखा दिए हैं। नाव से सम्बन्धित कोई चीज़ छुटने नहीं पाई । 
इसी प्रकार नीचे लिखे ग्वाल कवि के कवित्त में घोड़े का रूपक बाँपा 
गया हे--- 
सोहत सजीले सित असित सुरंग अडज्ज, 
जीन सुचि अंजन अनूप रुचि देरे हैं। 


( ६७३६ ) 


सील भरे लसत अश्रसील गुन साज दे के, 
लाज की लगाम काम कारीगर फेरे है ॥ 
घ्घट फरस तामें फिरत कबीले फूले, 
लोक कवि 'ग्वाल' श्रवलोकि मये चेरे हैं। 
मोर वारे मन के त्यों पन के मरोर बारे, 
तोर बारे तरझनी तुरंग हग नेरे हें ॥ 
फेड़ों के लिए. आवश्यक कोई चीज़ ऐसी नहीं है, जो ग्याल कवि के इस 
६पक में न हो | ज़ीन, लगाम, साज़. चाबुक, सवार, घोड़े का थान, आदि 
हभी मौजूद दें । 


नीचे लिखे पद्म में भी घोड़े की ही कल्यना है, पर इसका अपना ढंग 
निराला हे | देखिए-- 


पलकें ग्रमोल तारमें बसनी छुवा लमत, 
लाज वारी कोर पग॒ परम मुढंग हैं। 
'श्रीपतिः सुकवि लोने पैकरे बने हैं कोने, 
रचि पचि ब्रिधना सँवारे सब अंग हें ॥ 
जापै चढि रूप के सुभट प्रेमराज काज, 
बिरह गनीमन मां जीति लेत जंगहें। 
दिन रैनि पिय मन बीथिका में नाचत हैं, 
प्यारी तेरे नेन कणों मैन के तुरंग हैं ॥ 
ऊपर के पय में तो केवल घोड़ा द्दी दिखाया गया हे, परन्तु श्रीपति जी 
ने अपने घोड़े पर विरह रूपी शत्रु से प्रेमनगर की रक्षा करने के लिए रूप 
महाराज के सुभट भी सवार करा दिए हैँ । 
निम्नलिखित सवैया भी अपने ढंग का निराला ही है -- 
व्राख फ्यारी सिंगार संचघारे लिये कर आरसी रूप निद्दारै | 
चन्द्र से आनन की दुति देखत पूर रहडे उर आनंद भारे ॥ 
ऋंजन ले नख सों रमनी हग आँजन यों उपमान विचारै ॥ 
वीरि के चोंच चकोरन को मानों चोंफ्ते चंद चुरावत चारे 


कृषि ने अंजन आँजती हुई नायिका को देख केसी अदुभुत कहपना को 


( ६७६ ) 


है। रमणी अखों म॑ काजल नददीं लगा रद्दी बल्कि चन्द्रमा चकोर के चेंढुआ 
की चोंच चीर कर उसे चारा चुगा रहा है। ख़्ब ! सूक की बलिद्ारी | 


भृकुटी-बणन 
[ टेढ़ीलता, कामदेव के धनुष, भौंरे के पंख श्रोर काम-खड़ के म्यान 
से भौंहों की तुलना की जाती है। ] 


देखिए कविवर केशव जी ने भ्कुटियों का कैसा सुन्दर वर्णन किया है-- 


केघों लगी पंकज के अंक पंक लीक केधों, 

'केसव' मयंक अंक अंकित सुभाय को । 
मन्त्र हे सुहाग को कि मन्त्र अनुराग को कि, 

मन्त्रन को बीज श्रध ऊरघ अभाय को । 
आसन सिंगार को कि काम को सरासन हे, 

सासन लिख्यो है प्रेम प्रन प्रभाय को | 
रोख रुख वेष विष पियुष्र बिसिख मैन, 

भामिनी की भोंहें केघों भौन हाय भाय को | 


महाकवि केशव जी नायिका की भोंठहों को देख कर कहते हैं-या तो यह 
पंकज के शरीर में पंक का निशान लग गया है या चन्द्रमा के अझ्डः में 
शशाइ अंकित है, अथवा »ज्ञार रस का आसन हैया कामदेव का 
शरासन हे । 

इस सम्बन्ध में नीचे लिखा सवैया भी पढ़ने लायक है--- 

भोरी किशोरी की गोरी-सी देह सुदामिनि की दुति देति विदारे । 

नारि नवे सब नारिन की जब नारि के रूप अनूप निहारें॥ 

मैंह दुहून को भाव सखी, सुरकी डर ते न टरें पल टारें। 

भीजे मनों मुख अम्बुज के रस भौंर सुववावत पंख पसारें॥ 

नायिका की भौंहें ऐसे जान पड़ती हैं, मानों मुख-सरोज के रस में भीगा 
हुआ भेांरा अपने पंख फेलाए, उन्हें सुखा रहा है । 


' शब्बर जी ने भ्कुटियों का कितना सुन्दर वर्शन किया है, मुलाहिल़ा 
फ़माइए-- 


( ६७७ ) 


उन्नत उरोज यदि युगल उमेश हैं तो, 
काम ने भी देखे दो कमान ताक तानी है। 
शझ्डर कि भारती के भावने भवन पर, 
मोह महाराज की पताका फहरानी है। 
किम्बा लट नागिनी को साँवली सपेलियों ने, 
आधे बिधु त्रिम्बर पै विलास विधि ठानी है । 
काटती हैँ कामियों को काटती रहेंगी कहो, 
भ्कुटी कटारियों का केसा बड़ा पानी है। 
वास्तव में भ्रक्ुटी कटारियों का बड़ा कड़ा पानी हे, इसने न जाने कितनों 
के कलेजे नहीं काट डाले । 
भाल-वर्ण न 
[ मस्तक की सुन्दरता के लिए सोने की पट्टी, शोमा की सभा, चौथाई 
चन्द्रमा आदि से उपमा दी गई है। ] 
भाल वर्णन सम्बन्धी कुल ण्य नीचे दिए जाते हैं--- 
रूप की नदी में पार पाइबे को पारो है कि, 
काम का अखारो है कि रति का भंडार हे । 
लाज को महल प्यारे मंडल की आ्ँखिन के, 
बैठिबे को पड़ो हे कि प्रेमरस सार है। 
राहु जानि बारन के भारन डराने याते, 
चन्द्रमा को मानो अध खंड अवतार हे । 
योवन को द्वार के निकाई के निकार भोरी-- 
गोरी के लिलार कैधों सोमा के सिंगार है ॥ 


उक्त कवित्त में भाल की उपमा रूप-नदी में तैरने की डोंगी, कामदेव के 
अखाड़ा, रति के भंडार, लाज के मंडल केश पाश रूपी राहु के भय से भीत 
अध .उदित चन्द्र आदि से दी गई हैं । 
देघिए केशव जी भाल के सम्बन्ध में क्या कहते ईं- 
“'केसबव? असोक केैधों सुन्दर सिंगार लेक, 
कनक-केदार केधों आ्रानेंद के कन्द के | 


( ९७८ ) 


सौभा को सुभाव केच्नों प्रभा को प्रभाव देखि, 
धोदे हरि राव सखी नन्दन सुननद को। 
चमकत च!रु रुचि गंगा के पुलिन कैधों, 
चकचेंघे चित्त मति मन्द हू अमन्‍्द के । 
सेज हे सुद्दाग की के भाग की सभा सुभाग, 
भामिनी के भाल केधों भाग चारु चन्द को॥ 
केशव जी ने भी आनन्द-कन्द के सनहरी खेत, गंगा के किनारा, सुद्दाम 
की सेज, भाग्य का सभा, चन्द्रमा के टुकक्‍ड़े आदि से मस्तक की उपमभाएँ 
दीहें। 
छाब भाल की बेदी क॑ सम्बन्ध में देखिए कवि क्‍या कहते हँ-- 
सेहत अंग सुभाय के भूषन भेर के भार लसे ल्ट छूटी । 
खाचन लेल अमेल विलेकत, तीय तिहेूँ पुरकी छबि लूटी ॥ 
.. माथ लट्टू भये लालन जू लख, भामिनि भाल की बन्दन बूटी । 
चेप से| चारु सुधा-रस ले।भ, पिंची बिधु में जनु इन्द्र बधूटी ॥ 
जिस बंदी को देख लाल उस पर लट्टू हे! गए हैं, वह ऐसी सुन्दर जान 
फइती हे, मानों सुधा-रस के लाभ से चन्द्रमा में इन्द्रबधू श्रा चिपटी हो । 
यहाँ मस्तक को चन्द्र ओर देंदी को इन्द्रबधू से क्रितनी उपयुक्त उपमा 
दी गई है । 
नीचे लिखे सवैया में भी ऐसा ही भाव व्यक्त किया गया है--- 
भैननि सेननि दावन भावन डोलनि बोलनि भाँति सुदाती | 
राखे हैं जो बसके मन लाल मनोहर रूप प्रवीन सदाती। 
भाल £ संदुर बिन्दु लखें उपमा न दिये ललके अ्रविकाती । 
मानो रही लपटाय बनाय के इन्द्र बधू लगि इन्द्र की छाती ॥ 
यहाँ भी कवि ने इन्द्र बधू के इन्द्र की छाती से चिपटाया है। 
मुव-मण्टल-बर्णन 
मुख मण्डल की पूर्ण चन्द्रमा, कमल, दपंण आदि से उपम्त दी 
ऋाती दे | ] 
यहाँ मुख-मणएडल के वर्णन में दास कवि का एक पथ उद्धृत किया 
खाता दै-.. 


( ६७९ ) 


दधि के समुद्र न्हाया, पाई न॑ सफाई तऊ, 
ताये श्राँच रुद्र जी के सेखर कृसानु की। 
सुधाधर भये सुधा अधरन देत द्विज, 
राज हू अकस द्विजराजी के प्रभान की। 
घटि-घटि पूरि-पूरि फिरत दिगन्त श्रजों, 
उपमान बिनु भया खानि अश्रपमान की | 
दास' कलानिधि केंतां कला के दिखावे पे न- 
नेकु छवि पावे राधे बदन विधान की ॥ 
चन्द्रमा ने राधिका जी के मुख की समता प्राप्त करने के लिए कितने 
प्रयक्ल किए--बेचारा दधि के समुद्र में वर्षो गोते लगाता रहा, मद्दादेव जी के 
मध्तक पर बैठ, उनके तीसरे नेत्र की श्रम्म में वर्षों तपा, और भी दिग्दिगन्त 
में न जाने क्या-क्या साधना करता फिरा। अनेक बार तपस्या करते-करते 
बेचारे ने अपने शरीर को घुज्ञा दिया, फिर भी राधा के मुख की समता न कर 
सका । लेग जे। इस सुधाधघर कद्दते हें, वह भी इसलिए कि इसे राधिका 
जी के अधरो ने सुधा प्रदान की हे, ओर इसमें जे चमक है, वह भी राधिका 
जी की द्विजराजं! (दन्तपक्त, की दी हुई है । तभी तो इसका नाम द्विजराज 
पड़ गया है । सिवा कलड्टूः के, इसके पास श्रपना ते कुछ भी नहों है । 
इस प्रसंग में कॉाव चिन्तामणि की कल्पना भी सुन लीजिए-- 
सुन्दर बदन राधे शोभा के सदन तेरो. 
बदन बनाये। चारि बदन बनाय के। 
ताकी रुचि लेन के उदित भयो रैनपति, 
राख्यौ मति गूढ़ निज कर बगराय के ॥ 
कह कवि “चिन्तामणि' तादि निश चोर जानि, 
द नहीं है सजाय पाक शासन रिसाय के | 
याते निशि फिरे अ्रमरातती के झास-पास, 
मुख में कलंक मिसु कारिख लगाय के॥ 


जब चन्द्रमा अन्य अनेक उपाय करके राधिका जी के मुख की सी कान्ति 
न पा सका, तो उसने वृभषानु लली के मुख में से ही उसे चुराने की कोशिश 


( ६८२७० ) 


की । लेकिन हक्षरत को इन्द्र ने ऐन मौके पर जा पकड़ा । उसी अ्रपराध 
में इनके माथे पर काला टीका लगाकर आपको यह सजा की गई कि दिन- 
रात अमरपुरी के चारों श्रोर गश्त लगाया करो। तभी से बेचारा सदा 
आकाश में घूमा करता हे । 
अब राम कवि का नीचे लिखा पद्म भी पढ़ लीजिए, देखिए आप क्‍या 
कहते हैं... 
वह जो प्रकाशमान लागत विभावरी में, 
या तो आठो यामहू विमल जोति धारिये। 
वाके अंक राजत कलंक रंक राव सदा, 
याके हिय मॉक बसे मोहन मुरारि ये ॥ 
वाको बपु क्षीण दिन प्रति अ्रवलेकियत, 
याके श्रंग पूरणु प्रभा सों प्रेम पारिये। 
कहे कवि राम” छुबि धाम प्राण प्यारे ए जू- 
राधे-मुखचंद पे शरद चंद बारिये। 
श्रजी भला राधिका जी के मुख की समता चन्द्रमा केसे कर सकता हे । 
चन्द्रमा केवल रात में ही चमकता हे, दिन में तो उसका मुख बुरी तरह 
मलीन हो जाता है, पर राधा का बदन आठों पहर अपनी प्रभा छिटकाता 
रहता है | इसी तरद्द उसमें कलंक लगा हुआ है, और इसमें मोहन मुरारी 
की झाँर दिखाई देती है। वह रोज-रोज घटता बढ़ता है, पर यह सदा एक 
रस पूण रहता है । श्रजी आप समता की बात कहते हैं? में कहता हूँ राधा 
के बदन पर ऐसे करोड़ों शरद चन्द्रवार कर फक देने चाहिए । 
ओर भी देखिए-- 


सोरहे कला कलित जानत जगत बे तो, 

सुख रूप इनमें बत्तीस कला छाई है। 
पूनो ही में पूरण प्रकाश को निवास द्वेत. 

ये तो सदा पूरण प्रकाश अधिकाई हे। 
सुधा के स्वत कन उहाँ ते इदाँ बचन--- 

सुधा की सी धार सदा अति सुखदाई हे। 


५ इरैपफ१श ) 


आनंद के कन्द सुनु ए. री नंद नन्द प्यारी, 
चन्द ते अधिक मुख चनद छुवि पाई हे ॥ 
चन्द्रमा में केवल सोलद कला हैं, परन्तु राधिका जी के मुख में बत्तीस 
कला (दांत) मौजूद हैं । वह केवल पुनों के दिन पूरी तरह प्रकाशित होता है, 
पर यह सदा ही अपनी श्राभा से ब्रज को आलेकित करता रहता है। चन्द्र 
में से सुधा की केवल कुछ बूँद टपकती हैं, पर इसमें से सदा द्वी वचन-सुधा- 
भारा प्रवाहित देती रहती है। भला इसकी बराबरी केसी | कहाँ राजा भोज 
ओर कहाँ गेंगुआ तेली । 
और देखिए--- 
मुख देखन कों पुर बधू जुरि आई नंद-ननन्‍्द । 
सब की अ्रखियाँ हो गई घँघट देखत बन्द ॥ 
मुख की चकाचेंध से सब की आँखें चंधिया गई । कितना श्रत्युक्ति पूर्ण 
वर्णन है । 
उदू कवि नासिख की भी उक्ति सुन लीजिए--- 
घर से बाहर मेरे रश्के माह को आने न दो। 
चाँदनी पै शुभा द्ोगा सायर दीवार का॥ 
उस चन्द्र बदनी को घर से मत निकलने दो, उसके प्रकाश के शआ्रागे 
चाँदनी दीवार की साया सी मालूम देगी । 
नीचे लिखी शेर भी बहुत खूब -- 
शमारू कहना उसे सोदा है तारीकीए अक्ल | 
शमा का अ्कक्‍स उसके आरिज़ पर कलफ़ है माहका।। 
महाकवि बिहारी क्‍या कहते हैं, सुनए-- 
पत्रा ही तिथि पाइए वा धर के चहूँ पास । 
नित प्रति पून्‍्ये ई रहे, श्रानन श्रोप उजास ॥ 
वद्दाँ तो नायिका के मुखचन्द्र की चाँदनी के कारण सदैव पूर्णमासी ही 
रहती है, ठोक-ठोक तिथि जानने के लिए पन्ना के पन्‍ने पलटने पड़ते हैं । पत्रा 
न है| तो तिथि ही न मालूम है| सके। 
मख के वशणन में बेनी कवि का आगे लिखा सवेया भी पढ़ने 
लायक है-... 


( इैंपर ) 


मानव बनाए, देव-दानव बनाए, यक्ष किन्नर बनाए पशु-पक्ञी नाग कारे हैं । 
द्विद बनाए, लघु-दीरघ बनाए, केते सागर उजागर बनाए नदी नारे हैं ॥ 
रचना सकल ले।क-लेकन बनाय ऐसी जुगति में “ैनी' परबीनन के प्यारे हैं । 
राधे को बनाय मुख धोए हाथ जाम्यौ रंग,ताको भये चन्द्र कर मारे भए तारे हैं। 


अरे साहब, जिस चन्द्र की सराइना करते करते आ्राप नहीं अधघाते, वह 
तो नायिका के मुख का धोवन है । 


नाथ कवि का नीचे लिखा कवित्त भी पढ़ने लायक है । 


तेरो मुख रचि के निकाई को निकत राघे, 

चारु मुख चन्द न रच्यो है और तेरो सो | 
छुविन को घेरो सो सुहाग को ऊजेरो सब, 

सोतिन की छाँखिन भें पारत अँधेरों सो॥ 


कान्द की सों कवि 'नाथ' केतो पचि रह्यो जाकी, 
उपमा नर्वानी मन हेरि हारो मेरो से । 
ताकी सम ताहिरी बताऊं कहि का कों जाहि, 
चाकर सो चन्द अरविन्द लागे चेरो सो ॥ 
जो चन्द्रमा राधा जी के मुख के आगे चाकर-सा प्रतीत होता है. और 
जो कमल उसके सामने चेरा सा जान पड़ता है, उन्हीं से भला मुख मण्डल की 
उपमा केसे दू । 
अब लगे हाथों ज़रा केशव जी को करामात भी देख लीजिए-..- 
ग्रहनि में कीन्द्रों गेह सुरनि दे देख्यो देह, 
शिव सों किये। दे नेह जाग्यों युग चारये है । 
तपिन में तप्यो तप जापिन में जप्ये जप, 
'केसोदास! बपु मास-मास प्रति गारया हे ॥ 
उड्डगण इश, द्विज इंश श्रोषधीश भयो, 
यदपि जनत ईश सुधा सों सुधारयो हे । 
सुनि नंद नन्द-प्यारी तेरे मुखचन्द सम, 
चन्द पै न भयौ छुन्द कोटि करि हारयौ दे ॥ 


( ६८३ ) 


बेचारे चन्द्रमा ने भसक कोशिश की परन्तु वह वृषभानु नन्दिनी के 
मुख-मंडल के समान न हो सका और न हो सका | 
फेश वणन 
[ नायिका के केशों का सोन्दर्य-वर्णन साँप के कुमार, मोर के पंख 
भर भीर, यमुना का पानी, श्रमावस को रात का श्रन्धकार, सिवार, नील- 
नलिनी के तार और काले बादल आ्रादि से उपमा देकर किया जाता है। ] 
देखिए, निम्नलिखित कवित्त में केश-पाश के सम्बन्ध में केसी-केसी 
ऋल्पनाएँ की गईं हैं-.. 
घेरा मुखचन्द्र के विधुन्तुद-मयूर जाल 
के७ा सखी सुन्दर सिखंडि के निकुर हैं । 
करों सुर तरू वलि घेरे घन धुरवा के 
छुवि छुटा बीच अन्धकार के अ्रंकुर हैं ॥ 
केधों निधि कोमल कुहू + तंत अवतार 
थों मज्तूल तार बंकुर विथुर हैं। 
केधों बर इन्दीवर केसर बलित कैधों, 
ललित लली के ञ्रत मेचक चिकुर हैं ॥ 
नायिका के शिर पर बाल हैं, या मुख रूपी चन्द्रमा को राहु की किरयों 
ने घेर रक्‍्खा है | यह सुन्दर का उश कलाप दे, या सुर वल्लरी के ऊपर 
काली घटाएं छा रह! हैं | नहीं नहीं, यह तो नील कमल हे, जिसको वेणी 
रूप नाल पीछे लटकी हुई है, तथा ऊपर चूड़ा मणि ( शिरोभूषण ) रूफ 
कलर स्पष्ट दिखाई दे रही है ! 
झोर लीजिए, देखिए कवि चिन्तामणि ने केती ऊँची उड़ान भरी है-- 


एरी वृषभानु की कुमार सु कुमारी दखि. 

मोहन छुबीले स्थाम तेरी छुबि रत हैं । 
कहे कवि 'चिन्तामणि” सुन्दर रसिक लाल, 

तेरे तन कान्ति बणुन में निरत हैं। 
एरी तेरे बारन हरी है शोभा भौरन की, 

जानति स॒ काद्दे को ये कोलन घिरत हें । 


( दृष्घ४ड ) 


मिलि सब फरियाद करिबे को टेरत सो, 
मानो कमलासन कों हेरत फिरत हें॥ 
अरी सुन्दरी, क्या तुम जानती हो, ये भोंरे कमलों पर क्‍यों मंडराते फिरते 
हैं। सुनो, हम बताएं, देखे। तुम्हारे बालों ने जो इन बेचारों की शोभा छीन 
ली है, से ये उसकी फ़रियाद ब्रह्मा जी से करना चाहते हैं। क्योंकि इन्हें 
बताया गया हे कि ब्रह्मा जो कमल में रहते हैं, इसलिये प्रत्येक कमल पर 
घूम-घूम कर कमलासन को खेजते फिरते हैं। कद्दिए दे न कमाल की 
कल्पना | 
कवि मुबारक जी क्‍या कहते हैं, उनकी भी सुन लीजिए -- 
लाँबे लद्कार सुकुमारे सटकारे कारे, 
मृग मद धारे मखतूल केसे तार हैं। 
तम को निवास केधों तामस प्रकास केधों, 
सर में सिंगार के ये सुथरे सेवार हें ॥ 
मार सिर मोर के “मुबारक” ये भाँ९ केधों, 
चातुरी के चोर मन मेचक के सार हैं। 
ससि के समीप केधों राहु की रसन सी है, 
नागिन के बार के सुहागिनि के बार हैं ॥ 
सम में नहीं आता कि कस्तूरी में रंगे रेशम के लच्छे हैं, या अंधकार 
एकत्र हो गया है। शज्ञार रस के सरोवर में सिवार फेला है अथवा कामदेव 
का मुकुट या भोंरा की भीड़ है। हो न द्वो, ये चन्द्रमा की ओर लपलपाती 
राहु की जीभ हैं । इन्हें सुन्दरी के बाल कहें या नागिन के बार । 
और भी देखिए--- के 
लाँब सुललित लहकारे सटकारे कारे, 
कंचन के खम्भ फेले पतन्नग कुमार हैं। 
मधुकर भार मखतवूल केसे तार कंधों, 
मरकत मनि छुंबिदार तम धार हैं। 
राजै मणि कंठ रसराज के कुमार के्ों, 
सुधमा सरोवर के सथरे सिवार हैं। 


( दएिए४ ) 


अ्ंजन के सार पिय मन के दरउ हार, 
केषों या छ॒ब्ीली के छुबीले छूटे बार हैं ॥ 
यहाँ भी छुबीली के छिठके हुए. बालों को, सोने के खम्भे पर लटकते 
हुए संपोलों, श्रन्धकार की घाराश्रों, रूप सरोवर के सिवार, काजल के सार 
आदि से उपमा दी गई है ! | 
केश-वर्णन में यह दोहा भी बड़ा सुन्दर है -. 


सहज सु चिक्कन स्थाम दचि सुचि सुगन्ध सुकुमार | 
गनत न मन-पथ श्रपथ लखि विथुरे सुथरे गार॥ 
इन बालों को देख कर मन मतंग ऐसा मतवाला हो जाता है, कि फिर बद 
राह-कुरादह कुछ भी नहीं विचारता | 
अलक ( लट ) वर्णन 
देखिए, अलक के सम्बन्ध में कवि हनुमान क्‍या लिखते हें- 
आजु लखी ललना लवंग लतिका सी लीनी, 
झंगन ते जाके आाभा उमगे अपार है। 
खरी ही सरोवर पे लैकर सखीन संग, 
कौन्हों “हनुमान! तहाँ तरक विचार है॥ 
मोतिन की माल चारु कुच पे लखात तापे, 
परी मुख ऊपर ते लट सुकुमार है। 
मानों संभु सीस पै निहारि गंग जू को मिले, 
चली चन्द्र बिम्ब ते कलिन्दजा की धार है॥ 
नायिका के हृदय पर पड़ी मोतियों की माला ओर मुख पर से लटकती 
हुईं लट, दोनों को देखने से ऐसा जान पड़ता है, मानों शंकर जी के सिर 
पर से बहती हुई गंग धार से मिलने के लिए चन्द्रमंडल में से यमुना की घारा 
बह कर आई है । 
आगे लिखा पद्म भी कितना उत्कृष्ट है-- 
सेने से। शरीर तापे आआसमानी रंग चौर, 
औरे ओप कौनी रवि रतन तरोौना दे । 


( दिपई / 


सेमनाथ कहें इन्दिरा सी जगमगे बाल, 
गाढ़े कुच ठाढ़े मानो ईश युग मौना दे । 
कारी घघुवारी मन्द प्रन भकोर लागे 
फरदर शगलक ये कपोलन के कोना द्व। 
से छुबि अमन्द माने पान सुधा बुन्द करि, 
इन्द्र पर खेलत फनिन्दन के छोना दे ॥ 
इस पद्म में भी मुंह पर लहराती हुई काली लटों को, चन्द्रमा पर खेलद 
हुए सप के बच्चों से उपमा दी हे । 
नीचे लिखा कवित्त भी पढ़ने लायक हे-- 
सरस सु गन्ध घालि सीस तें अन्द्दाय बाल 


रोरी बिन्दु भाल की विशाल छुबि जाई है । 
धारी सेत सारी से किनारी जर तारी कोर 

रसिक बिहारी प्यारी मख पे समोई है।। 
भींजी लग लॉबी ग्राय चिपटी उरोजन पे 


हेरि यह उपमा अनूत उर गोई हे । 
सीत-भीत आतफ में मानों गिरि ऊपर यों, 


ढोर-ढठोर पन्नगी पत्तार पूँछ सोई हे ॥ 
स्नान करने के बाद स्तनों पर लटकी हुईं लट ऐसी जान पड़ती है, जैसे 
जाड़े के मारे सापिनें, हिमालय पर धूप में आ सेई हों । 
अब जरा नीलकंठ जी का लट वर्णन भी पढ़ लीजिए-- 
तैसी चख चाहन चलन उतसाहन सॉ--- 
तैसे विधि वाहन विराजत ब्िजैठों है | 
तैसे। भ्रकुटी को ठाठट तेसाई ललाट दिपै, 
तेसेई बिलेकिबे को पी को प्रान ब्रैढो है | 
कहे कवि “नीलकंठ” तेसी तझूनाई तामें, 
जोबन दपति से फिरत एंढों एंठों हे। 
छूटी लट भाल पर सेहे गोरे गाल पर, 
माने रूप माल पर ब्याल एऐडि बेढो है ॥ 


( द८७ ) 


गाल पर लटकी लट ऐ,ी शोभित दे! रद्दी है, मानों रूप की घरोहर पर 
सप॑ कुंडला मारे बैठा हो । 
पञनेश जी ने लटों का वर्णन इस प्रकार किया है, सुनिए - 
कवि 'पजनेश” मनमथ के श्रवण पर, 
संबुल कुलत भाल वृषभान ननन्‍्दनी। 
सुन्न दे सुधारयों विधि बुध विधु अंक बंक, 
दस गुनी दीपति प्रकासे जग बन्दिनी 
स्वेद कन मध्य दीठि रक्षक दिढौना जापै, 
छुटी लट डुलत कला जनु कलिन्दिनी । 
मुख अरविन्द ते समेटि मकरन्द बुन्द, 
मानो निज नन्‍्दने चुनावति मलिन्दिनी ॥ 
उपयक्त पद्म में नायिका के कपोलस्थ तिल के आस-पास लटकती हुई 


लट की उपमा, मख रूपी अरविन्द में से मकरन्द इकट्ठा कर अपने बच्चे को 
खिलाती हुई भोंरी से दी है । 


लटों के वशुन में गंग कवि का नीचे लिखा सवेया केसा सुन्दर है--- 


श्री नन्दलाल गुपाल के कारण कीन्हों सिंगार जु राधे बनाई | 
कंकुम शआ्राड़ सुकंचन देह दिपै मकुताहल की भलकाई ॥ 
सीस तें एक छुटी लग सुन्दर आनि के यों कुच में लपठाई । 
गंग कह्दे मानों चन्द के बीच हो संभु को पूजन नागिनी आई॥ 
चन्द्रमा के बीच होकर नागिन महादेव जी की पूजा करने श्राई हे । क्‍या 
खूब ! 
अलक तो मख की शोभा बढ़ाने के लिए बड़ी ज़रूरी हैं। उनके कारण 
ही मुख की आभा इतनी सुन्दर दिखाई देती है । देखिए-- 


मखद्दि अलक को छूुटिबो अवसि करे दुतिमान । 
बिन बिभावरी के नहीं जगमगात सित भान || 


चन्द्रमा रात्रि के कारण ही अधिक चमकता है | बिना रात के उसकी 
सूरत पर भी बारह बजने लगते हैं । 


( दृष्घ ) 


पाटी-बर्ण न 
निम्नलिखित कवित्त में पाटियों का वर्णन केसी सुन्दर रीति से किया 
गया है-- 
कीधों राहु डरते धरी हे चन्द्र ढाल बिब्रि, 
कीर्घो राहु गह्दि रह्मो चन्द्रमा को आ्राय के । 
कीधों तम भूमि श्राछ्छी, कीधों प्रेम की कसोटी, 
कीधों विधि पढ़िबे की पाटी करी चाय के ॥ 
कीर्धघों रस आदि की बनाई दोऊ क्यारी भली, 
की्घों घन घटा रही चन्द्रमा पै छाय के । 
सुन्दर सुहावनी हे चित्त ललचावनी है, 
बाट पारी पाटी पारि बैठी है बनाय के ॥ 
या तो राहु के भय से चन्द्र ने अपने ऊपर ढाल रख ली हे, या राहु 
ने चन्द्रमा को ग्रस लिया दे। या फिर यह प्रेम की कभोटी दे या कामदेव के 
पढने की पट्टी | अथवा शंगार रस की दो क्यारियाँ हैं, या चन्द्रमा के ऊपर 
छाई हुईं घन घटा । 
देखिए,, कविवर दिनेश जी पादियों के सम्बन्ध में क्या कहते हैं-- 
कैधों बैनी पन्‍नगी के फन दुहूँ ओर कैचों, 
हग म्ग रोकिबे की रूप-मूष घाटी है। 
मुख-विधु ताने हैं वितान युग मेरे जान, 
कमलन ऊपर सिवारन की टाटी है॥ 
कैधों करतल रसराज राखे माथे दोऊ, 
दिपति 'दिनेश' तातें ललित लिलाटी है। 
एरी आगे मोहन मयूर से निरखि नाचें, 
सघन के घन पटली की परिषाटी है॥ 
नायिका के माथे पर यह पाटियाँ नहीं हैं, बल्कि वेणी रूपी सपिणी के फन 
हैँ या नेत्र रूपी दरिणों को घेरने के लिए रूप-भूप ने दो घाटियाँ बनवा रखी 
हैं। मेरे जाने तो मुख रूपी चन्द्रमा के ऊपर श्याम रंग के दो शामियाने 
ताने हें या फिर कमल के ऊपर सिवार की टट्टी आ पड़ी है; श्रथवा रसराज 


( ईप्६£ ) 


ने अपने दोनों हाथ नायिका के माथे पर रख दिये हैं। ये श्याम घन- 
घटाएं भी हो सकती हैं, क्‍योंकि इन्हें देख कर मोहन का मन-मयूर नाच 
उठता है । 
पारियों की प्रशंसा में नीचे लिखा दोह्दा भी पढ़ने लायक हें--- 
पाटी दुति युत भाल पै, राजि रही यहि साज। 
असित छुत्र तमराज मनु धघरयो शीश द्विजराज ॥ 
बाला के माल पर चमकदार पा।ठ»याँ ऐसी सुहावनी जान पढ़ती हैं, 
मानो तमराज ने चन्द्रमा के ऊपर काली छुतरी लगा रक्‍खी हो | 


माँग-वर्णन 
माँग के वर्शन में नूर कवि का नीचे लिखा कवित्त कितना सुम्दर दै--. 


तामसी तमो गुण को जानि के सतो गुण घों, 
रूपे की सलाका तासु ऊपर चलाई हे। 
कैधों जग जीति काम साँग सन्दली पै धरी, 
केधों सुधा धार राहु सदन में आई दे ॥ 
कैधों कोऊ ऋषि ताकी मनसा है मेरे जान, 
हि होम भूमि मध्य मानो श्रानि उरकाई हे । 
“नूर! कहे निपट अ्रधीन होत लाल मेरो, 
प्यारी सिर तीखी माँग मोहनी बनाई है ॥ 


नायिका की काली पार्टियों के बीच में मांग ऐसी जान पड़ती हे, मानो 
सतोगुण ने तमोगुण पर चाँदी की साँग से प्रहार किया है, या कामदेव ने 
जगत्‌ को जीत कर अपनी तलवार शान पर रक्‍्खी हे। श्रथवा राहु के घर में 
अमृत की धारा बह रही हे। 
नीचे लिखे कथित्त में भी माँग का कैसा सुन्दर वण न है, देखिए -- 
दुतिया के चन्द केघों तम के परयो हे पाले-- 
केधों बैनी नाग जीम सुधा कों निकारी है। 
कै्ों रति काम दोऊ भूगरि के आपुस में, 
सुख-भूमि बाँटि हेम-सीमा बीच ढारी हे ॥ 
हि० नं० २०-४४ 


( ६६० ) 


कैषों प्रेम तोलिने को डाडी सी बनाई बिधि, 
कैधों चन्द्र कोपि राहुसीस चाट भारी है । 
केघों सुधा घार चली नागिनी के आनन तें, 
कैधों मांग नागरी की सखिन सुधारी है॥ 
माँग को देखकर कवि कभी तो उसे अंधकार के बीच फंसा हुआश्रा द्वितीया 
का चन्द्रमा समझता हे, ओर कभी वेणी रूपी नागिन की जीम जिसे उसने 
अमृत पान करने के लिए भुख-मण्डल रूपी चन्द्रमा की ओर फेलाया है । 
कभी वह यह भी ख़याल करता है कि रति और कामदेव ने अपनी सुख्व- 
भूमि आपस में बाँट कर बीच में, सोने की सीमा डाल दी दे | कभी वह उसे 
प्रेम-तराजू की डंडी समझता है, और कभी नागिन के मुख से बहती हुई सुधा 
की धारा का अनुमान करता दहे।. 
इस प्रसंग में पूखी कवि का नीचे लिखा सवैया भी पढ़ने लायक दै-- 
» मझजन के विय बैठी प्रवास में पास खवाधिनी हैं सब ठाढ़ी। 
सारी सुगन्ध सचिक्कन के सुभ बैनी बनाय गुद्दी अति गाढ़ी ॥ 
पाठिन बीच तिंदुर की रेख 'पुखी' लखि यों उपमा अति बाढ़ी। 
चनन्‍द के लीलन को भुकि राहु मनों रसना मुख बाहर काढ़ी ॥ 
नायिका की पाटियों के बीच माँग ऐसी प्रतीत होती है, मानो चन्द्रमा को 
लीलने के लिए राहु ने कुककर अ्रपनी लाल-लाल जीम बाहर निकाली हे । 
महाकवि शझ्भर ने तो माँग के वर्णन में कमाल ही कर दिया है, देखिए 
नीचे लिखा छुन्द कितना अपूर्व है-- 
कख्जल के कूट पर दीप-शिखा सेती हे कि 
श्याम धन मण्डल में 'दामिनी? की धारा है। 
यामिनी के अंक में कलाधर की कोर है कि 
राहु के कबन्ध पे कराल केतु तारा दे । 
शझ्ूकर कसौटी पर कब्चन की लीक है कि, 
तेज ने तिमिर के हिये में तीर मारा है। 
काली पाटियें के बीच मोहिनी की माँग है कि 
ढाल पर खाँड़ा कामदेव का दुधारा हे ॥ 


( द६१ ) 


वेणी-वर्ण न 
[ यमुना की घार, साँप या भोरों की पाँति, राजि की तलवार आदि से 
वेशी की उपमा दी जाती है। ] 
महाकवि केशवदास ने वेणी का वर्णन इस प्रकार किया है-- 
चन्दन चढ़ाय चारु ककुम लगाय पाछे, 
कैधों निसनाथ निसि नेह् सों दुराई है । 
कैधों बैनी बन्दन छिरकि छीर सॉँपिनि सी, 
अलि अ्रवली समीप सुधा-सोध आई है ! 
'केसीदास! दास रस मिलि अनुराग रस, 
सरस सिंगार रस धार घरा घधाई हे। 
मेलि मालती को माल लाल डोरी गोरी गुहि, 
बैनी पिक बैनी की त्रिबेनी-ली बनाई हे ॥ 
यद्द जो लाल डोरे से गूँथ और मालती की माला मे सजाकर सखी ने 
नायिका की बेनी त्रिबेशी-सी बना दी हे, वह ऐसी प्रतीत होती हे, मानों 
निशानाथ ने निशा को कुंकुम ओर पुष्पों से पूज कर प्रेम पूर्वक अपने पीछे 
छिपा लिया है । अ्रथवा काली नागिन बैनी-बन्दन रूपी दृध छिड़ककर अ्रमृत 
कौ खोज में श्रमरावलि के समीप श्राई हे । 
और भी देखिए-- 
पीढडि तन ताकत ही दीठि डसि लेति फेरि 
फेलि के विरह-विष रोम-रोम छाबतो। 
छिनक में ऐसे हाल केतेन के होते तब, 
एते कोऊ गरुड़ कहाँ ते दूँढि लावतो। 
इंश्वर दुद्दाई जो पे होती वाके ऐसी व्याली, 
काली को नथैया कानन्‍ह कादे को कह्ावतो | 
मुरि मुसिकान मन्त्र जानती न राघे तो या, 
बैनी के डसन ब्रज बसन न पावतो || 
सप्च है, येदि विधाता ने नायिका को मुसकान रूपी विष-मन्त्र न दिया 
ऐेता, तो उसकी बैणी रूपी नागिन का डसा एक भी व्यक्ति जज में न बचने 


( ६६२ ) 


पाता । वह तो प्रभु ने बड़ी दया की, जो व्याधि के साथ ही उसका उपचार 
भो बना दिया । 
नीचे लिखे कवित्त में वेणी की केसी उपमाएँ दी गई हें, देखिए--- 
लॉबी लद्दकारी अति कारो सुकुमारी, सखि--- 
यान नें सुधारी मत्त मधुप की सेनी है। 
डारत कलंकहिं कलानिधि निचोरि केधों, 
कैघों मन धीरज विदारिबे की छैनी हे ॥ 
नागरि सनाल मुख कजञ्ज तें लगी हैं केघों, 
केधों कारी नागिनी निपट सुख देनी दे । 
कीनो तम पान के तमी पतित के पाछे परी, 
के्धों अंधकार धार केधों यह बैनी है॥ 


नायिका की वेणी ऐसी है, जेसे मत्त मधुकरों की पंक्ति या काली नागिन 
हो ।. कभी उसे देख ऐसा जान पड़ता है, मानों चन्द्रमा ने अपने अन्दर से 
कलंक निचोड़ दिया हे, या अ्रन्धकार की धारा चन्द्रमा के पीछे पड़ी है । 
वेणी-वर्णन प्रसंग में नीचे लिखा सवैया भी क्‍या ही उत्कृष्ट है-- 
के मधुपावलि मंजु लसे, अरविन्द लगी मकरन्द न सोहे। 
के रजनी मणि कणठ रिसाय के पाछे को गौन किये भरसेहे। 
बैनी किघों, ये कलंक चुबे, किधौ रूप मसाल को धूमक सोहे। 
कंचन खंभ के कंध चढ़ी थक्ति चन्द गदे मुख साँपिनि सोहे ॥ 
उक्त सवैया में भी बेणी को, सरोम के पीछे लगी मधुपावली, रूप-मसाल 
के धुश्राँ, मुख में चन्द्रमा को लिए कंचन के खम्मे पर चढ़ी साँपिन आदि 
से उपमा दी गई हे । 
नीचे के सवबैया में ब्रह्म कवि ने केसे सुन्दर ढंग से नायिका को कमान 
आर वेणी को उसकी डोरी बना दिया हे-- 
सेज ते ठाढ़ी भई उठि बाल लई उलटी श्रेंगराई जम्हाई | 
रोम की राजी विराजी विसाल मिटी त्रिबली श्र पीठ खलाई। 
वेनी परी पग ऊपर पाछे ते' 'त्रह्म' यहे उपमा उर आई। 
लोक त्रिलोक के जीतिबे कारण सोने की काम कमान चढ़ाई॥ 


( ई६३ ) 


प्रातःकाल शैया से उठकर अऑँगड़ाई लेती हुई नायिका पीछे को कुक कर 
बिलकुल कमान बन गई और उसकी बेणी लटक कर पैरों से मिल उस कमान 
की डोरी सी दिखाई देने लगो। 
अंगवास-वर्णन 
देखिए सेवक कवि ने अंगवास का वर्णन कितनी अच्छी तरह किया है-- 
मौलसिरी रास ते न मालती हुलासतें, 
गुलाब वरदास ते न मान खस खास ते | 
वेला के विलास  जुही के परगास ते, 
निवारि हू की आस तें न सेवती उजास ते । 
चम्पक विकासतें न केवरे निकासते न, 
'सेवक' प्रकास तें मले फेऊ जु बास तें। 
लाड़िली के हास तेदुरु अंग की सुवासतें सु-- 
हे रहो सवासित भ्रवास आ्रास पास “ ॥ 
घर और उसके श्रास-पास का स्थान लाड़िली के मधुर हास और उसके 
अंगवास से जितना सोरमित हो रहा हे, उतना मौलसिरी, गुलाब, ख़स, बेला, 
जुद्दी, सेवती, निवाड़ी, चम्पा, केवड़ा ग्रादि किसी से भी नहीं हो सकता था ! 
नीचे लिखे कवित्त में भी अ्रंगवास का अ्रच्छा वर्शन किया गया है--- 
यमुना के आगमन मारग में मारुतन, 
भोरन के भीरन पटे से लखि पाये हैं। 
सन्‍्तन सुकवि सुख खानि पदुमिनि तेरी, 
रूप की तरंगिनि श्रनंग दरसाये हें ॥ 
बाहर कढ़न कहें तोसों ते श्रयान कोन, 
लहे बदनामी घेर घर-घहद छाये हैं। 
पटकी लपट लपटति ता दिना ते भाजु, 
मानो उन गलिन गुलाब छिरकाये हैं।। 
नायिका जिस माग से होकर निकल जाती है, उसमें ऐसा जान पड़ता है, 
नो गुलाब जल से छिड़काव किया हे । उस दिन वह यमुना-सस्‍्नान को गई 


( इ६४ ) 


थी, तो भौरों की भीड़ से वह मार्ग भर गया था | ओद ! कितनी मस्त सुगन्ध 
उसके शरीर से निकलती है। 
अंग-दी प्रि-व्ण न 
देखिए, देह दीसि का वर्णन कवियों ने कितने अनूठे ढंग से किया हे-- 
फटिक शिलान सों सुधारो सुधा मन्दिर उ-- 
दधि दधि की-सी अधिकाई उमेंगे अमन्द। 
बाहर ते भीतर लॉ भीति ना दिखाई देति, 
दूध केसे फैन फेल्यो आँगन फरस बंद । 
तारा सी सुता में ठाढ़ी आनि भिलि मिलि होति, 
मोतिन की जोति मिली मल्लिका को मकरन्द । 
आरसी से श्रम्बर में अरभा सी उज्याही लगे, 
हे प्यारी राधिका को प्रतिबिंध सो लगत चन्द ॥ 
जिस मन्दिर में राधिका जी निवास करती हैं. वह उनकी देह-दीप्ति के 
ध्रभाव से स्फटिक शिलाश्रं से निमित-सा प्रतीत होता हे | उसमें बाहर-भीतर 
से कहीं भी भीति दिखाई नहीं देती ; सवत्र दूध या दधि का समुद्र सा उमड़ा 
दिखाई देता दे। रात्रि-समय आकाश की आओऔओर देखे तो यह जान पड़ता 
है, मानों आकाश बड़ा सा दर्पण हे, जिसमें चन्द्रमा राधा जी का प्रति- 
भिम्ब हे । 
कविवर द्विजदेव जी का भी वर्णुन पढ़ लीजिए-..- 


कातिक के द्योस कहूँ आई न्हाश्बे को वह, 
गोपिन के संग जऊ नेसुक लुकी रही। 

“द्विजदेव” इरिद्वार ही तें घाट घाट लगि, 

खासी चन्द्रि का सी तऊ फेलि बिधु की रही | 
घेरी बार पार लो तमा से हित ताही समें, 

भारी भीर लोगन की ऐसि ये भुकी रही । 
अली उत आजु वृषभानुजा विलेकिबे कों, 

भानु तन या हू घरी द्वेक लों रुकी रही ॥ 


कार्तिक के महीने में एक दिन राधिका जी यम्रुना नहाने सखियों के 


( ६९५ ) 


बीच में छुक-छिप कर गद्दे, तो भी उनकी देह-दौसि के कारण मार्ग और 
यमुना-तट पर सवंत्र चाँदनी-सी फैल गई | उस समय राधिका के चारों ओर 
दशकों की भीड़ लग गई । कहते हैं दो घड़ी तक तो यमुना की धारा भी 
उन्हें देखने को रुकी रही | 
और भी देखिए-.- 
जैसी यह ललित लब्देती मिथिलेश जू की, 
तैसे अ्रवधेश को दुलारो रस भीना है ॥ 
याहि देखि लाज रति हो'त है बिकल मति, 
वाहि तो बिलेकि पञ्च वान हू अधीना है। 
जन से मुरारि यों विदेह-पुर नारि करें, 
यह तो संयोग विधि कर लिखि दीना है। 
सम्भु धमु टूटे या न टूटे कहों साँची सिया, 
सोने की श्रंगूटी राम साँवरो नगीना है ॥ 
इस पद्म में जानकी जी को उनकी देह दीप्ति के कारण सोने की मु दरी 
से उपमा दी गई हे । 


देइद-दीप्त के बणुन में नीचे लिखे सवेये भी पढ़ने लायक हें--- 
राधे की अंग गोराई सी और गोराई विरंचि बनावन लीनी । 


के सत बुद्धि विबेक सो एक अश्रनेक विचारन में हृग दीनी। 
बानिक तेसी बनी न बनावत “केसव? प्रत्युत हे गई हीनी। 
ले तब केसरि केतकि कंचन चम्पक के दल दामिनि कीनी ॥ 


विधाता ने राधिका जी के गोर वर्ण के समान वर्ण बनाने के विचार से 
मसाले एकत्र किए पर वैसा रंग बन ही न सका, उससे फीका ही रह गया। 
तब ब्रह्मा जी ने उस मसाले से सोना, केसर, चम्पा, केतकी आ्रादि चीज़ें 
बना दीं । 

गति मन्द यों जाकी मजा की लखं हँसी द्ोत गयंद के चाल की हे । 

मुख डेरि के चन्द लजोई रहै, रचि को कहै कंज कमाल की है ॥ 

“हनुमान! नखावलि पै तिय के अवली परे फीकी प्रवाल की दै। 

दबि दामिनी जाति प्रभा निरख, कितनी छुबि मंजु मसाल की हे ॥ 


( ६६६ ) 


कवि हनुमान कहते हैं, कि नायिका को देह-दोमति को देख बिजली भी 
इत प्रभ हो जाती है। 


इस सम्बन्ध में यह दोहा भो कितना सुन्दर है, देखिए -- 
देह-दीमसि छुवि गेह की किहिं विधि बरनी जाय। 
जा लखि चपला गगन तें, छिति पटकत सिर आय ॥ 
नायिका की उस देह-दीसि का वर्णन भला केसे किया जा सकता है, जिसे 
देखकर लज्जित हुईं चपला अपना सिर ज़मीन पर श्रा पटकती है । 


गति-वर्णन 
[ कवि जन सुन्दरी की चाल की उपमा राजहंस, कलहंस, गजगति आदि 
से देते हैं । ] 
नीचे लिखे कवित्त नायिका की चाल का कितना सुन्दर बन किया 
गया है, देखिए--- 
तेरी चाल देखि-देखि दिग्गज अश्रचल भये 
भव के मतंग ते तो खेह सिर नाये हैं। 
ऐरावत इन्द्रपति सबै चाल समता को, 
तऊ नाँहि एको कला पाई श्रजो धाये हैं । 
हँस विधि-पद ध्यायो, ताते एक पद पायो, 
क्षीर-नीर विवरण जस जग गाये हें। 
सुनु री छुबीली प्यारी तेरी चाल लेल ताको, 
केती-केती कलाकरी समता न पाये हैं ॥ 
हे सुन्दरी, तेरी चाल को देख, शम के मारे दिगाजों ने तो चलना दी 
बन्द कर दिया। ऐथावत बेचारे ने बहुतेीरी कोशिश की, पर तेरी सी चाल 
बह भी न पा सका | जो मत्यं लेक के साधारण हाथी थे, उन्होंने तो लब्जित 
होकर पहले ही अपने शिर पर धून डाल ली । हाँ, हंस ने मी तेरी सी गति 
पाने के लिए बहुत दिनों तक ब्रह्मा जी की सेवा की, पर वह भी इस दिशा 
में असफल ही रहा। उसे नीर-च्लोर विवेक की शक्ति तो प्राप्त दोगई, पर तेरी 
सी गति न मिली। 


( ६६७ ) 


नौचे गति-वर्णन विषयक दो पद्य और भी दिए जाते हैं-..- 
सुरंग चुनरिे चटकीली की चटक तैसी, 
भोंह की मटक ग्राव छुवबि के ठवन में । 
स्ंजन गरब॒ गार कंजन घघट शऔोट 
विहसों हे नैना मन रंजन रबन में॥ 
'चिन्तामनि” बार-बार बेसरि संवारि पग, 
धरे सुकुमारि थद्रातिली गबन में। 
मदन फे मदमाती, मोहन के नेह राती, 
प्यारी मुसुकाती अजु डोलति भवन में ॥ 
जे न लत 
सारी खेत सोहे नख नूपुर की श्राभा स्वेत, 
चन्द्रमुखी घारै एक चाँदनी-सी चंद की | 
कहे कवि आलम!” किसोंरी वेस गोरी बाल, 
जग की उच्यारी प्यारी प्यारी नँंद-नन्द की | 
उरज उतंग मानो उमंगि अ्नंग आयो, 
बैठी कसि आँगी पाछे गाढ़ी गाँठि बन्द की । 
सुधर नितम्ब जंघ रम्मा के से खम्भ चल, 
मंद मंद आये चाल मदके गयन्द की ॥ 
उपयक्त दोनों कविक्तों में नायिका का सोन्दय-वर्णशन के साथ-साथ सामान्य 
अप से उसकी चाल की चर्चा भी कर दी गई हे। 
शझूर कवि ने नायिका की चाल का कैसा सुन्दर वर्णंन किया हे---यह 
॥यिका 'होले-दोले” किस प्रकार हंसों की हँसी सी करती जाती है, जरा 
'खिए तो सही--- 
मंगल करन हारे कोमल चरण चारु, 
मंगल से मान मद्दी गोद में धरत जात। 
पंकज की पाँखुरी से श्रॉगुरी श्रगूठन की, 
जाया पश्च वाण जी की भाँवरी भरत जात । 
'शंकर” निरख नख नग से नगत श्रेणी, 
अम्बर सों छूट-छूट पायन परत जात | 


( इईशे ) 


चाँदनी में चॉदनी के फूलन की चाँदनी पै, 
दोले-दोले हंसन की द्वोंती-सी करत जात ॥ 
सवोद्भ-वर्णन 
[ नायिका के सर्वाज्ञ सौन्दर्य की उपमा चन्द्रकला, तारागण, सोने 
की छुड़ी, विद्यल्लता, दीप शिखा, माला, ओषधि वलल्‍्लरी आदि से दी 
जाती है । ] 
शक्कुर कवि ने नायिका के सर्वाज्ञ का वन सागर के रूपक में केसा 
सुन्दर किया है, देखिए -- 
सीस-पग तीर, नीर, गोरता, तरंग तग-- 
त्रिवली चिब्रुक, नामसि भँवर परत हैं। 
खाड़ी भुन-पाद-मध्य, मेर कुच, शटंग हिम, 
कब्चुकी को श्रोट ठीक दीखि न परत हैं। 
केस ब्याल, कच्छुप, कपोल, श्रुति सीप, जोंक, 
भकुटी कुटल, कष लोचन चरत हैं। 
'शंकर' रत्तिक सुख मागी बड़ भागी लोग, 
ऐसे रूप सागर में मज्जन करत हैं॥ 
नायिका का शरीर कया हे, सुन्दर रूप-सागर है, जिसके सिर ओर पैर 
दोनों तट है, गौरता रूपी जल है, जिसमें त्रिवली ओर चित्रुक की उँची-ऊँची 
तरंगें उठ रही हैं, नाभिक्रे भेवर पढ़ रहे हैं। भुजाओ्रों ओर पैरों के मध्य-भाग 
ही इस सागर की खाड़ी हैं। केश इस सागर में सप, कपोल कछुए, कान 
सीषे' और भोंहें जोक हें । इसी तरह लेल-लेचन मछुलियाँ हैं। वे जन बड़े 
बढ़ भागी हैं, जो ऐसे रूप-सागर में स्नान करते हैं। 


कवि केशव ने सर्वाज्ञ वर्णुन में नीचे लिखा कबित्त लिण् है -- 


चन्द्र कैसो भाग माल, भकुटी कमान कैसी, 
मैन कैसे पेने सर नेननि बिलासु है। 
नासिका सरोज गन्धवाह से सुगंध वाह, 
दारयौ से दसन “केसौ! बीजुरी सोह्ासु है। 


( द६६ह ) 


माई ऐसी ग्रीवा भुन पान सौ उदर शअ्ररु, 
पंकज से पाये गति हंस की सी जासु है। 
देखी हे गुपाल एक गोपिका में देवता सी, 
सेने सो सरीर सब सौघि कीसी बासु दै॥ 
उपयक्त पद्य में नायिका के समस्त अंगों का वर्णन उपमानों सहित 
किया गया है । इसी प्रकार नीचे लिखे कवित्त में भी अंगों के उपमान गिनाए 
गए हैं 
व्याली बैनी, घन पाटी, तेज माँग चन्द भाल, 
सीप स्तोन. धनु भौंहैं. बान नैन हेरे हैं । 
कीर नासा, दपंन कपोल, बिंबि श्रोठ-मोती -- 
दसन रसाल ठोढ़ी, कंत्रु कण्ठ तेरे हैं। 
बासु भुज, पल्ञी हाथ, बेल कुच, पान पेट, 
रम्भा दल. पीठि ई$ठि भ्रगी कटि भेरे हैं । 
तुम्बुर नितम्बर, केल खम्म जंघ कंज पग, 
एते सब पेर तेरे अ्रंगनि के चेरे हैं॥ 
सर्वाज्ध व्णन विषयक बेनी कवि का नीचे दिया गया कवित्त भी पढने 
लायक हे--- 
करि की चुराई चालि, हरि की चुराई लंक, 
ससि को चुराये मुख, नासा चोरी कौर की । 
पिक को चुरायो बैन, म्ृग के चुराये नेन, 
दसन अनार हँसी ब॑जुरी अ्रधीर को॥ 
कहै कवि बिनी' बेनी ब्याल सों चुराय लीन्हीं, 
रती-रती सोभा सब रति के सरीर की। 
अब तो कन्हेया जू को चित्त हू चुराय लीन्हों, 
छोरटी हे गोरटी या चोरटी शअ्रद्दीर की॥ 
अरे साहब, यह अ्रहीर की छोकरी तो पकक्री चोर है । इसके पास जितनी 
चौज़ें हैं, सब चुराई हुई चाल इतने हाथी की चुरा ली और कमर सिंह की। 
इसी प्रकार मुख चन्द्रमा का, नाक तोते की, वाणी कोयल कोी, श्राँखें मृग 
की, दाँत श्रनार से, हँसी बिजली से और बेणी सप॑ से चुराई हे । यह सब 


( ७०० ) 


तो किया से किया, पर अब तो इसने कृष्ण जी का मन भी चुरा लिया । 
ओहो, चोरी करने में इसे कमाल द्वासिल है । 


इस प्रसंग में लगे द्वाथों एक सवैया और भी पढ़ लीजिए-- 
बार बड़े तम तारन से, शशि सो मुख लोचन खंन्नन से । 
भ्कुटी घनु सी, रद कंद कली, सुकनाक लसे, कर कज्जन से । 
कुच श्रीफल से, कटि केहरि सी, पद पद्म महा श्रध गंजन से। 
सिखते नख लों बृषभानु सुता, अंग रंग भरे मन रंजन से ॥ 
इसमें भी सीधे ढंग से राधिका जी के अंगों की उपमा दी गई हैं। 


सुकुपारता-वर्ण न 
नायिका कितनी नाजु क हे, इसका वर्णन कवि बलभद्र जी ने इस भाँति 
किया हे-. 
पलिका ते पाये जो घरति-धाम घरणी में, 
छाले परें मण माँक पेंड़क गवन ते | 
लीजे जो तमोल तो तो ताप आवे 'बलिभद्र”, 
होत है श्रर्चि पान पीक अचवन ते। 
बारन के भार ओर तन हू के चीर-भार, 
याते नहिं होत बाल बाहर भवन ते । 
लागे जो समीर तौ तो पूरो परै सोतिन के, 
फूल ज्यों उड़ति प्यारी पंखा के पवन ते #॥ 
पलका से उतर कर यदि वह घर में ही दो-एक कदम चलती हे, ढो 
तुरन्त पैरों में छाले पड़ जाते हैं । अ्रगर अ्रपने हाथ से पान-बौरी भी उठ ले, 
तो फ़ोरन बुख़ार आ जाते हैं। पान की पीक लील लेने से उसे अजीण दो 
जाता है। वह अपने बालों ओर पहने हुए. कपड़ों का बोक भी बर्दाश्त नहीं 
कर सकती | पंखा की हवा लगने से ही फूल की तरह इधर-उघर उड़ने लग 
जातीं हे, उसे यदि कहीं तेज हवा लग जाय, तब तो सौतों की मन चीती 
डी द्दो जाय । 
श्र लीजिए, जगतूसिंह जी बलभद्र जी से भी चार कदम आगे बढ़ 
गए--- 


७०१ ) 


केसे के बलान करै कविता जगतसिंह, 

साँस लेत पिय के न पास ढहरात हे। 
मूढि की सी मारी गिरे दीठि के परे ते नंकु, 

सुषमा के भार ते न चलो जात गात है| 
उपमा धरत न धरत धीर धरणी पे, 

लचकि लचकि लंक लचबि लचकात है। 
हिय के मिलन वाले कोमल श्रमल अआआले, 

बानी के निकाले पग छाले परिनात है ॥ 


आपकी नायिका तो मुँह की साँस के साथ ही उड़ जाती है, इसीलिए 
आप उसके समीप बात नद्वीं करते | यदि उसके ऊपर निगाह भी पढ़ जाय 
तो ऐसे गिर जाती हे, जैसे किसी ने जोर से धक्का मार दिया हो। बलभद्र 
जी की नायिका तो वज्ों का भार उठाने में असमथ हे, परन्तु यह अपने 
रूप का बोका भी नहीं सह सकती | 
अब ज़रा मतिराम जी की नायिका को भी देख लीजिए-- 
चरण धरे न भूमि भरे सो जहाँ ही तहाँ, 
फूले-फूले फूलन बिछाई परियंक दे। 
भार के दरन सुकुमार चारू अ्रंगन में, 
ग्रंग ना लगावे राज केसरि को पंक है। 
कवि 'मतिराम' लखि बातायन बीच मुख, 
आतम मलीन द्वोत बदन मयंक है। 
कैसे सुकुभारि वह बाहर विजन आवे, 
विजन बयार लागे लचकत लंक हे ॥ 


मतिरामजी की नायिका भी सुकुमारी तो है, पर जगतसिंह जी की नायिका 
को नहीं पा सकी । 
जब सब दही अ्रपनी श्रपनी नायिकाश्रों की सुकुमारता का वर्णन कर रहे 
है, तो पञ्माकर जी ही क्यों चुप रहें । 
सुन्दर सुरंग नेन सोमित अनंग रंग, 
झंग अंग फेलत तरंग परिमल के। 


( ७०३१ ) 


बारन के भार सुकुमारि को लचत लंक, 
राजे परियंक पर भीतर महल के ॥ 
कहे 'पदमाकर' विलोकि जन रीफें जाहि, 
अम्बर अमल, के सकल जल थल के | 
कोमल कमल के गुलाबन के दल के सु, 
जात गड्डि पायन बिछोना मखमल के ॥ 
भला प््रशाकर किसी से पीछे रहने वाले थोड़े ही ये| श्राप जगतसिंद् से 
नाजी मार ही ले गए। आपकी नायिका के पैरों में तो कोमल कमल और 
गुलाब की पंखड़ियाँ तथा मखमल के बिछोना तक गड़ जाते हैं। कहिए, दो 
गई न सुकुमारता की पराकाष्ठा | 
और देखिए-- 
लागत समीर लंक्र लह्के समूल अ्रंग, 
फूल से दुकूलनि सुगंघ विथुरयी परै। 
चन्द सो बदन मंद हाँसी सुधा विन्दु अर --- 
बत्रिन्दन मुदित मकरंदन मुरयो परे। 
ललित लिलार श्रम भलक अलक भार, 
मग में घरत पग जावक घुस्यो परै। 
देवमणि नूपुर पदुम पद्म हू पर हें, 
भूपर सुश्रंगनि के रूप निचुरयों परै॥ 
ऊपर के पद्म में सुकुमारता के साथ ही सौन्दय का वर्णन भी कितने 
सुन्दर ढंग से किया गया है। नायिका के मार्ग में पैर रखने से पसीना आकर 
उसके साथ जो रोली जावक अआ्रादि का रंग मिलकर टपक रहा है, वह मानों 
सुन्दरी का रूप निचुड़ा पड़ता है । 
अब लगे हाथों कवि श्रीपति जी की नायिका का सौन्दर्य भी देख 
लीजिए---... 
रोहिणी रमण की मरीची सी सुखद सीरी, 
मोहिनी सरिस मद्दा मोहिनी के थल सी । 
“अ्रीपति! सुकवि बाला रवि के किरन ऐसी, 
बदन मुकुर सी श्रमल गंग जल सी । 


( ७०३ ) 


ग्वालि गरबीली जाके गात की गुराई आगे, 
चपला निकाई ऐसी लागंति सहल सी। 
माखन मद्दल सी पराग के चहल सी, 
गुलाब के पहल सी नरम मखमल सी॥ 
इसकी गुराई के आगे तो चपला की चमक भी फीकी जान पड़ती है, 
और सुकुमारता के आगे गुलाब-पुष्पष और मखमल की तो बात ही क्‍या 
चलाई । माखन का गोला भी कठोर जान पड़ता हे । 
मदहाकवि बिहारी ने नायिका की नज़ाकत का कैसा सुन्दर वर्णन किया 
है, देखिए -- 
भूषन भार सेभारि है क्‍यों यह तन सुकुमार। 
सूघे पाय न धर परत सोभा ही के भार ॥ 


जो नायिका शोभा का ही भार नहीं संभाल सकती, वह ज़ेबरों का बोक 
बसे बरदाश्त करेगी । 


इसी श्राशय के नीचे लिखे दो शेर भी खूब दें-- 
नाज़ कद्दता हे कि ज़वर से हो तज़्ईने जमाल। 
नाजु की कद्दती हैं, सुर्मा भी कहीं बार नहो। 
-- अकबर 
> >< >< 
यों नज़ाकत से गराँ सुरमा हे चश्मे यार का-- 
जिस तरद्द हो रात भारी मदुमे बीमार को। 


सोलह धूृंगार वणन 
सोलदइ् »ज्जार कोन-कोन से हैं, यही बात केशव जी के निम्नलिखित 
कवित्त में बताई गई है-- 
प्रथम सकल सुचि मज्जन श्रमल वास, 
जावक सुदेस केस पास को सुधारिबो। 
अंग राग भूषन विविध मुखवास राग, 
कब्जल कलित लोल लोचन निहारिबो । 


( ७०४ ) 


बोलनि ६ सनि चित चातुरी चलनि चारु, 
पल-पल प्रति पतिन्नत प्रति पारिबो। 
“केसोदास”ः सबिलास कद्दत प्रबीनराय, 
यहि विधि सोरह सिंगारन सिंगारिबो ॥ 
कविवर बलभद्र जी ने इसी बात को कुछ दूसरे ढंग से कहां हे, 
देखिए... 
करि दन्‍त घावन उबदि अंग उबटन, 
मज्जन के देह श्रेंगु्ान श्रंगु छाई हे। 
करि के तिलक माँग पाटी पारी 'बलभद्र! 
भली भाल बन्दन की बेंदुरी बनाई हे। 
अ्रंजन दे नेन देखि दपंण चिबुक चिन्ह, 
अधर तबोर की अधिक छुबि छाई हे। 
महँदी करन एड़ी माँजि के मद्दावर दे, 
सोरह सिंगारन की मूल चतुराई दे ॥ 


एजशं॥0०१ एफ 8424४ 27. विप्र4छ &६ (006 ४६008] 27088, 3]]80 8080. 


नायक के रूप में सबसे पहले किसका चयन हुआ था?

नायक के रूप में सबसे पहले किसका चयन हुआ था? Explanation: विट्ठल को उर्दू बोलने में मुश्किलें आती थीं। पहले उनका बतौर नायक चयन किया गया मगर इसी कमी के कारण उन्हें हटाकर उनकी जगह मेहबूब को नायक बना दिया गया।

जब सिनेमा ने बोलना सीखा पाठ में नायक के रूप में सबसे पहले किसका चयन हुआ था?

उस दौर में उनका मुकदमा मोहम्मद अली जिन्ना ने लड़ा जो तब के मशहूर वकील हुआ करते थे। विट्ठल मुकदमा जीते और भारत की पहली बोलती फ़िल्म के नायक बने।

पाठ जब सिनेमा ने बोलना सीखा में पहली बोलती फिल्म बनाने वाले निर्माता निर्देशक कौन थे?

जब सिनेमा ने बोलना सीखा पाठ सार 'आलम आरा' पहली सवाक फिल्म है। ये फिल्म 14 मार्च 1931 को बनी। इसके निर्देशक अर्देशिर एम ईरानी थे। इसके नायक बिट्ठल तथा नायिका जुबैदा थी।

जब सिनेमा ने बोलना सीखा पाठ के आधार पर पहली फिल्म कौन सी थी?

' देश की पहली सवाक् (बोलती) फिल्म 'आलम आरा' के पोस्टरों पर विज्ञापन की ये पंक्तियाँ लिखी हुई थीं। 14 मार्च 1931 की वह ऐतिहासिक तारीख भारतीय सिनेमा में बड़े बदलाव का दिन था । इसी दिन पहली बार भारत के सिनेमा ने बोलना सीखा था।