(30 सितम्बर, दुष्यन्त कुमार की जयंती पर विशेष) (दुष्यन्त कुमार. चित्र साभार अनुभूति-हिन्दी.ऑर्ग) -अरुण मित्तल अद्भुत दुष्यन्त कुमार हिन्... Show (30 सितम्बर, दुष्यन्त कुमार की जयंती पर विशेष) (दुष्यन्त कुमार. चित्र साभार अनुभूति-हिन्दी.ऑर्ग) -अरुण मित्तल अद्भुतदुष्यन्त कुमार हिन्दी कवियों में एक ऐसा नाम है जिसे हिन्दी ग़ज़ल का प्रवर्तक माना जाता है। दुष्यन्त कुमार के विषय में अगर कहा जाए कि उन्होने हिन्दी रचनाकारों के लिए हिन्दी में ग़ज़ल का एक रास्ता खोला तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वैसे हिन्दी ग़ज़ल की एक सामान्य परिभाषा देना कठिन कार्य है। क्योंकि यदि छंद के दृष्टिकोण से देखें तो हिन्दी ग़ज़ल में हिन्दी छंद का प्रयोग एवं हिन्दी छंद शास्त्र के नियमों का पालन होना चाहिए, अर्थात् मात्राओं की गणना ध्वनि के आधार पर नहीं अपितु प्रयोग किए गए शब्द के वास्तविक वजन के आधार पर होनी चाहिए। और यदि भाषा एवं शब्द चयन कि दृष्टि से देखें तो हिन्दी शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिए। दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लों का गहन अध्ययन किया जाए तो उन्होने उपर्युक्त दोनों नियमों का पूर्ण रूप से पालन नहीं किया। उन्होंने अपनी ग़ज़लें उर्दू बहरों में लिखी और हिन्दी शब्दों के साथ उर्दू शब्दों का भी जमकर प्रयोग किया। परंतु इस सब के बाद दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लों का महत्व कम नहीं हो जाता। एक आम आदमी की जुबान बनकर दुष्यन्त ने जिस पीड़ा को कलमबद्ध किया वह कोई आसान काम नहीं था। भाषा के बारे में वो कितने ईमानदार थे यह तो उनकी साए में धूप पर लिखी भूमिका से ही पता चलता है। उन्होने स्पष्ट किया मैं उस भाषा में लिखता हूं जिसे मैं बोलता हूं, जब हिन्दी और उर्दू अपने अपने सिहांसन से उतरकर आम आदमी के पास आती हैं तो इनमें फर्क करना मुश्किल हो जाता है। दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लें पढ़कर ऐसा लगता है कि वो हिन्दी से कहीं ज्यादा हिन्दुस्तान की ग़ज़लें है। जिनमें उस समय के आम आदमी की पीड़ा, संघर्ष, एवं परिस्थितियों से जूझते रहने का चित्रण किया है। अपने अशआर में बारूद भरकर दुष्यन्त कुमार ने शायरी के एक ऐसे स्वरूप को दिखाया जिससे हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल का एक नया रूप प्रकट हुआ। जिसे कहीं लचर छंद विधान के आधार पर अस्वीकार किया गया तो कहीं उसकी बेबाकी को सलाम ठोंका गया। लेकिन दुष्यन्त कहीं किसी भी आलोचना की परवाह नहीं की उनका सारा संघर्ष उनकी शायरी में प्रतिबिंबित हुआ है वो एक जगह लिखते हैं कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए कहीं पे शाम सिराहने लगा के बैठ गए
वह बेबसी एवं अभाव को भी आशावादी स्वर देते हैं न होगा कमीज तो पावों से पेट ढक लेंगे ये लोग कितने मुनासिब हैं सफर के लिए
उनकी पीड़ा में हर किसी की पीड़ा झलकती है। झूठ फरेब, धोखाधड़ी, भौतिकवाद को उन्होने अपनी ग़ज़लों में अनेक जगह प्रतीकात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है। जिसके कुछ सटीक उदाहरण हैं ये शेर जरा सा तौर तरीकों में हेर फेर करो, तुम्हारे हाथ में कॉलर हो आस्तीन नहीं
परंतु दुष्यन्त कुमार का मुख्य स्वर दहशत से भरे समाज का चित्रांकन करना रहा उन्हें आजादी की वो आबो हवा रास नहीं आई. बहुत गुस्से में उन्होंने लिखा यहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं, खुदा जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा इस शहर में अब कोई बारात हो या वारदात, अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियां
दुष्यन्त देश की तत्कालीन परिस्थितियों से बहुत नाराज थे। और यह बात उन्होने प्रखर स्वर में कही आप आएं बडे शौक से आएं यहां ये मुल्क देखने लायक तो है हसीन नहीं कल नुमाइश में मिला वो चीथडे पहने हुए मैने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है
दुष्यन्त कुमार ने ऐसी ही स्थितियों का आईना बनने की हमेशा कोशिश भी की और अपने अक्खड़पन को मूर्त रूप भी दिया। उनकी नाराजगी इन शेरों में स्पष्ट जाहिर होती है हालाते जिस्म सूरते जां और भी खराब चारों तरफ खराब यहां और भी खराब खंडहर बचे हुए हैं इमारत नहीं रही अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही
एक शायर के रूप में दुष्यन्त अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटे समाज को जागृति प्रदान करने के लिए भी उनकी लेखनी सदैव ज्वलन शील रही। उन्होने भले ही निराशा एवं क्रोध का अधिकाधिक चित्रण किया लेकिन अंतत: उनका स्वर आशावादी ही रहा। यह उनकी हुंकार थी हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
दरख्तों के साए में भी धूप झेलते हुए दुष्यन्त कुमार ने हर तरह का कटु सत्य जनमानस में प्रवाहित किया। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ऐसा अद्भुत शायर न तो कभी हुआ और भविष्य में शायद ही कभी हो। हिन्दी कविताओं में कबीर के बाद इतना अक्खड़पन केवल दुष्यन्त कुमार की ही रचनाओं में उभरकर सामने आया। दुष्यन्त का अंदाजे बयां सबसे जुदा था। वास्तव में यह हिन्दी पाठकों का सौभाग्य है कि उन्हें दुष्यन्त को पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। उनकी समस्त साहित्यिक सोच एवं संघर्ष शायद इसी शेर से प्रकट होता है। हिन्दी ग़ज़लों का इतिहास बहुत पुराना है। जिस तरह आज की उर्दू ग़ज़लों का विकास एक बहर वाली कविता, जिसे अरबी में बैत एवं फ़ारसी में शेर कहते हैं के साथ शुरू हुआ था, ठीक उसी तरह हिन्दी ग़ज़लों का विकास भी दोहेनुमा कविता से शुरू हुआ था। हिन्दी ग़ज़ल के इतिहास में दृष्टि डालें तो पता चलता है कि हिन्दी में ग़ज़ल लिखने की परंपरा बहुत पुरानी है। कविता में अंत्यानुप्रास/तुकांत परंपरा की शुरुआत सन 690 ईस्वीं के आसपास सिद्ध सरहपा ने की थी। जिसे आधुनिक कविता का प्रारम्भिक रूप माना जा सकता है। सिद्ध सरहपा द्वारा रचित दोहे शेर/बैत के समान ही थे। उदाहरण के तौर पर – जेहि वन पवन न सचरई, रवि ससि नाह प्रवेस। तेहि वट चित्त विश्राम करूँ, सरहे करिय उवेस।। कबीर (1398-1518) की निम्नलिखित ग़ज़ल पर सबसे पहले डॉ.गोविंद त्रिगुनायत का ध्यान गया। जिसके आधार पर कबीर को पहला हिन्दी ग़ज़लकार माना गया। हमन हैं इश्क मस्ताना हमन को होशियारी क्या, रहें आज़ाद यों जग में हमन दुनियाँ से यारी क्या, कबीरा इश्क का मारा दुई को दूर कर दिल से, जो चलना राह नाजुक है हमन सिर बोझ भारी क्या। हालांकि बाद के कवियों ने भी कबीर की तरह छंदबद्ध कविताओं को समृद्ध किया है। रहीम (1556-1627 ईस्वीं ) का दोहा- रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार। रहिमन फिर फिर पोइए, टूटे मुक्ताहार।। एकै साधे सब सधे ,सब साधे सब जाय। रहिमन मूलहिं सीचिबों, फूलें फलै अघाय।। बिहारी(1603-1664) ने भी अच्छे दोहे लिखे- सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर। देखन में छोटे लगैं ,घाव करें गंभीर।। जिस तरह हिन्दी दोहों से हिन्दी गज़लों का विकास हुआ ठीक उसी तरह बैत या शेर से उर्दू ग़ज़लों का विकास हुआ है। आरंभिक उर्दू ग़ज़लों के उद्गम की तुलना तुकांत हिन्दी कविताओं (दोहो) से की जा सकती है। बहुत से समीक्षक भारतेन्दु हरिश्चंद्र (1850-1885 ईस्वीं ) को पहली हिन्दी ग़ज़ल लिखने वाला कवि मानते हैं। बानगी के तौर पर उनकी ग़ज़ल का एक शेर – रुखे रौशन पे उनके गेसू-ए-शबगूं लटकते हैं, क़यामत है मुसाफ़िर रास्ता दिन में भटकते हैं। निराला (1896-1961) की ग़ज़लें हिन्दी ग़ज़लों के बहुत करीब दिखाई देती हैं जैसे – जमाने की रफ़्तार में कैसा तूफाँ, मरे जा रहे हैं जिये जा रहे हैं। खुला भेद विजयी कहाए हुए जो, लहू दूसरों का पिये जा रहे हैं। बहुत से कवियों ने बेहतरीन हिन्दी ग़ज़लें (हिंदकी) लिखीं हैं एवं आज भी लिख रहे हैं। जिनकी रचना धर्मिता से हिन्दी ग़ज़ल संसार समृद्ध हुआ है और निरंतर हो रहा है लेकिन हिन्दी काव्य संसार में ‘साये में धूप’ के माध्यम से इसे स्थापित करने का श्रेय स्वर्गीय दुष्यंत कुमार को दिया जाता है। उनकी हिन्दी ग़ज़लों को जो लोकप्रियता हासिल हुई उससे साहित्य जगत में हिन्दी ग़ज़लों की सशक्त उपस्थिति दर्ज़ हुई। इसका परिणाम यह भी हुआ कि उर्दू लिखने वालों ने इसका जमकर विरोध किया। उर्दू व्याकरण शास्त्र का हवाला देते हुये दुष्यंत की हिन्दी ग़ज़लों को ख़ारिज़ कर दिया गया। हिन्दी ग़ज़लों के विरुद्ध तब से चला ये अभियान आज भी ज़ारी है। इसका मुख्य कारण है हिन्दी ग़ज़ल लिखने के लिए छंद विधान का न होना। हिन्दी ग़ज़लों की व्याख्या समय-समय पर हिन्दी ग़ज़लकारों द्वारा इसे अलग-अलग नाम देकर की जाती रही है- गीतिका, मुक्तिका, अनुगीत, तेवरी, नई ग़ज़ल, नव ग़ज़ल, नागरी ग़ज़ल, द्विपदिका, हज़ल, नविता (नई कविता का एक रूप) आदि। दुष्यंत ने स्वयं इसे नई कविता की एक विधा माना था। कुछ लोगों ने इसके गीत एवं नवगीत के करीब होने की बात कही थी। हिन्दी एवं विभिन्न भाषाओ में लिखी जा रहीं ग़ज़लों का अवलोकन करने के पश्चात मैंने हिन्दी ग़ज़ल लेखन के लिए नये छंद की रचना करके उसे हिंदकी नाम दिया है और एक साधारण मानक स्वरूप तैयार किया है। इसके अन्वेषण का मुख्य उद्देश्य हिन्दी एवं आम बोलचाल की भाषा में लिखी जा रही ग़ज़लनुमा रचनाओं को हिंदकी छंद के रूप में मान्यता दिलाना, बढ़ावा देना एवं हिंदुस्तान में उर्दू ग़ज़लों से अलग नई पहचान दिलाना है। छंदों की उत्पत्ति वेदों से हुई है, अरबी, फ़ारसी एवं उर्दू भाषाएँ बहुत बाद की भाषाएँ हैं। हिंदकी छंद आयातित छंदों जैसे रुबाई, ग़ज़ल, मुक्त छंद, नवगीत, प्रयोगवदी कविता एवं हाइकु से भिन्न, पूरी तरह हिंदुस्तानी अर्थात भारतीय छंद है। हिंदकी छंद – हिंदकी (हिन्दी ग़ज़ल) मात्रिक छंद की वह विधा है जिसमें चार से अधिक पद होते हैं। प्रथम युग्म सानुप्रास होता(तुकांत)है एवं शेष युग्म के दूसरे पद (चरण या पंक्ति) का तुक पहले युग्म के दोनों पदों के तुक से मिलता है। युग्मों की न्यूनतम संख्या तीन एवं अधिकतम संख्या सुविधानुसार कितनी भी बढ़ाई जा सकती है। कवि यदि चाहे तो अंतिम पद में अपने नाम का प्रयोग कर सकता है लेकिन ऐसा ज़रूरी नहीं है। हिंदकी मात्रिक छंद को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। सम मात्रिक छंद एवं विषम मात्रिक छंद। सममात्रिक हिंदकी छंद (युक्तिका)– इसकी संरचना निश्चित मात्रा भार पर आधारित होती है इसमे सभी पद 8 से 40 मात्राओं में निबद्ध हो सकते हैं। समान्यतः 12 से 36 मात्रिक हिंदकी छंद प्रभावशाली लिखने में आसान होते हैं। ये छंद स्वभाव में नयी कविता, गीत एवं नवगीत के करीब होते हैं। इसमे तुकांत के पश्चात पदांत हो भी सकता है और नहीं भी। उदाहरण – गाँव छोड़ा नहीं करते शहर के डर से नांव छोड़ा नहीं करते लहर के डर से जड़ों को सींचते रहना फलों की ख़ातिर छाँव छोड़ा नहीं करते कहर के डर से हौसला रखने से ही मिलती है मंज़िल पाँव मोड़ा नहीं करते सफ़र के डर से विकास के लिये उद्योग भी ज़रूरी हैं ठाँव छोड़ा नहीं करते बसर के डर से वक़्त लगता है हर रूप को सँवरने में चाव छोड़ा नहीं करते नज़र के डर से फैसला छोड़ दिया जाता है किस्मत पर दाँव छोड़ा नहीं करते दहर के डर से उपरोक्त पदों में शहर, लहर, कहर– तुकांत एवं डर से– पदांत हैं। विषम मात्रिक हिंदकी छंद(मुक्तिका)– इसकी संरचना निश्चित मात्रा भार पर आधारित नहीं होती। इसमे सभी पदों की मात्राएं विषम होती है (आंशिक अंतर होता है)। विषम मात्रिक छंदों मे शब्दों का संतुलन बनाए रखने के लिए जरूरी है कि मात्रा का अंतर दो या तीन से अधिक न हो। ये छंद स्वभाव में नई कविता के करीब होते हैं लेकिन अंतर केवल इतना होता है कि इन्हें सम मात्रिक हिंदकी छंद की तरह आसानी से गाया जा सकता है। इसमे भी तुकांत के पश्चात पदांत हो भी सकता है और नहीं भी। उदाहरण- हाल मौसम का बरसात बता देती है रिश्तों की आयु मुलाक़ात बता देती है मिलने जुलने का सलीक़ा भी ज़रूरी है ज़बाँ पलभर में औक़ात बता देती है सफ़र में मायने रखती नहीं रफ़्तार कभी चाह मंज़िल की शुरुआत बता देती है कभी सेहत से दक्षता न आँका करिए कौन जीतेगा ये बिसात बता देती है बोला करते नहीं तन के कीमती जेवर चमक चेहरे की सौगात बता देती है लक्ष्य को छूने का गर ज़ुनून मन में हो रास्ता जाने का हयात बता देती है चलने और बैठने से मिज़ाज दिखता है बंदगी आदमी की ज़ात बता देती है उक्तिका – यदि विषम मात्रा भार का अंतर तीन से अधिक हो, युग्मों के तुक भी न मिलते हों तो इसे उक्तिका की श्रेणी मे रखा जाएगा। उदाहरण- हश्र होता है शहीदों का बुरा उस देश में जहाँ रहते हैं भगोड़े संतरी के भेष में जो सहीं है वो हमें निर्भीक लिखना चाहिये क्या हुआ है ये सभी को साफ़ दिखना चाहिये राजनीति के सहारे आप भी तर जाओगे पर शहीदों का कभी चुक्ता न ऋण कर पाओगे हम जुटा न पाये हैं दो फूल वीरों के लिये हो गए हैं जो वतन के उन फ़कीरों के लिये हर जगह इस मुल्क में आतंक है अलगाव है लग रहा है ये मिली आज़ादी का बदलाव है मात्रा गणना – हिंदकी छंद की मात्रा गणना हिन्दी छंद शास्त्र के अनुसार होनी चाहिए। अंत्यानुप्रास या तुक – हिंदकी छंद में हिन्दी में प्रचलित विभिन्न प्रकार के तुकों को अलग-अलग या एक रचना में संयुक्त रूप से प्रयोग किया जा सकता है। शर्त ये है कि कम से कम आखिरी के दो अक्षर का तुक जरूर मिलना चाहिए। जैसे- मुलाक़ात, बरसात, औक़ात, शुरुआत, बिसात, सौगात, हयात, बात, घात, रात, साथ, कायनात/हिला, खिला, मिला, काफिला, सिलसिला/दूर, नूर, हूर दस्तूर आदि। अंत्यानुप्रास या तुक को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। उत्तम तुक (राम, नाम, काम, धाम, दाम आदि), मध्यम तुक- (कहार, बहार, कतार, अहार, डकार आदि) एवं निकृष्ट तुक (मांगिए, फेंकिए, ढूंढिए, पूछिए, चीख़िए आदि)। हिंदकी छंद की विशेषता – भाषा सरल, सहज एवं सुबोध। प्रतीक, बिम्ब एवं मुहावरों का सटीक प्रयोग। अभिव्यक्ति की कलात्मकता, विषय वस्तु की मौलिक गरिमा, मानव जीवन से जुड़ी समस्याओं की अधिकता, मार्मिकता का जीवन के संस्कारों एवं संस्कृति से गहरा एवं गंभीर सरोकार होना चाहिए। आम बोलचाल की भाषा में प्रयुक्त होने वाली किसी भी भाषा का प्रयोग किया जा सकता है। हिंदकी के प्रत्येक युग्म के भाव एक भी हो सकते हैं और अलग अलग भी। छंद में निहित गति, लय एवं प्रवाह के कारण यह गीत की तरह गेय अर्थात गाने योग्य है। इस छंद में लिखी रचना को शीर्षक दिया जा सकता है। हिंदकी का अभिप्राय है- हिन्द की, हिन्दी की, हिंदुस्तानी या आम बोलचाल की भाषा। विभिन्न भाषाओं में लिखी जा रहीं ग़ज़लों को पहचान देने के लिए हिंदकी छंद का प्रयोग जरूरी है अन्यथा अलग-अलग नाम जैसे गीतिका, मुक्तिका, अनुगीत, तेवरी, नई ग़ज़ल, नव ग़ज़ल, नागरी ग़ज़ल, द्विपदिका, हज़ल, नविता (नई कविता का एक रूप)आदि देने के बावजूद हिन्दी ग़ज़लें (हिंदकी) उर्दू छंदशास्त्र के आधार पर ख़ारिज होती रहेंगी। मुझे किसी धर्म ,जाति ,भाषा या विधा से कोई गुरेज़ नहीं है। सभी का बराबर सम्मान करता हूँ। किसी को छोटा या बड़ा दिखाना मेरा मक़सद नहीं है। मैं यह भी अच्छी तरह जानता हूँ कि आज किसी भी नयी विधा/छंद को स्थापित करना सहज काम नहीं है। एक उम्र भी कम पड़ जाती है। हिंदकी छंद भारतीय परिवेश में इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हिन्दी या आम बोलचाल की भाषा अनेक भाषाओं का मिश्रण होती है और यही इसकी ख़ूबसूरती एवं आकर्षण का कारण भी है। उदाहरण स्वरूप एक पैरा देखें जिसमें देश विदेश की भाषाओं का सुंदर समन्वय दिखाई देता है। “एक जुलाई को सुबह जब मैं अपने मित्र के मकान में हवन करने बैठा उस वक्त तेज़ बारिश हो रही थी किसी ने बावर्ची को टेलीफोन से सूचित किया कि स्काउट के कुछ शरारती बच्चे कमीज़ उतारकर रिक्शे के ऊपर बिना कारतूस की बंदूक लेकर मटरगश्ती कर रहे हैं, बाल्टी से टमाटर निकालकर रास्ते में फेंक रहे हैं और लोग चाय-तंबाकू का आनंद लेते हुये गुमटी से ये नज़ारा देख रहे हैं।“ ● मित्र – रूसी ● जुलाई – रोमन शब्द ● सुबह, मकान – अरबी ● हवन – संस्कृत ● बारिश- फ़ारसी ● बावर्ची, बंदूक – तर्किश ● टेलीफोन – यूनानी ● स्काउट – डच ● रास्ता, बच्चे –पर्जियन ● कमीज़ – पुर्तगाली ● रिक्शा – जापानी ● कारतूस – फ्रांसीसी ● मटरगश्ती –पश्तो ● बाल्टी –पुर्चुकी ● टमाटर – मैक्सिकन ● चाय – चीनी ● तंबाकू-ब्राज़ील ● आनंद,गुमटी -हिन्दी ● नज़ारा, शरारती एवं वक़्त – उर्दू इस छोटे से पैरा में 19 विभिन्न भाषाओं के शब्द समाहित हैं। जिस प्रकार विभिन्न नदियों के मिलने से गंगा के ऊपर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ठीक उसी प्रकार विभिन्न भाषाओं के हिन्दी में मिलने से उसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता बल्कि उसकी ख़ूबसूरती में बढ़ोतरी होती है। हिन्दी केवल एक भाषा नहीं है, भारतीय संस्कृति की संवाहिका भी है जो देश विदेश में रह रहे करोड़ों भारतीयों को आपस में जोड़ती है। यही वजह है कि भारतीय संसद ने सन 2003 में भारतीय भाषाओं के विकास एवं उन्हें बराबर का सम्मान दिलाने के उद्देश्य से आठवीं अनुसूची की योजना जारी की थी जिसमें अभी तक 22 भाषायेँ एवं 11 लिपियाँ सूचीबद्ध हो चुकी हैं। 38 भाषाएँ अनुसूची में शामिल होने की कतार में हैं। इस छंद को बनाने का मुख्य उद्देश्य आम बोलचाल या प्रचलित भाषा में लिखी जा रहीं हिंदकी अर्थात हिन्दी गज़लों को एक नया नाम देना है ना कि भाषा और विधा के बीच विवाद पैदा करना। हिन्दी एवं उर्दू भाषा का अपना गौरवशाली इतिहास एवं छंद विधान है। कुछ साथियों द्वारा केवल हिन्दी को अपनाने की बातें करना भी हिन्दी के मार्ग में अवरोध पैदा करने का काम कर रहा है। ऐसे लोगों के कारण ही आज आज़ादी के 73 वर्षों बाद भी 37 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में से केवल 17 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों के विधान मंडल में हिन्दी को अपनाया गया है। शेष 20 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों के विधान मंडल में वहाँ की राजभाषा भले लागू हो लेकिन हिन्दी को नहीं अपनाया गया है इनसे पत्राचार करना है तो अंग्रेजी में ही करना होगा की नीति अपनाई गयी है। आज जरूरत है कि हम एक दूसरे की भाषा, संस्कृति एवं साहित्य का बराबर सम्मान करें, आलोचना न करें। हिंदकी छंद का निर्माण तुकांत कविताओं की विकास यात्रा को ध्यान में रखकर किया गया है किसी भाषा विशेष के छंद शास्त्र का विरोध करने के उद्देश्य से कतई नहीं। दुख होता है जब मैं कुछ मित्रों को यह कहते हुए देखता हूँ कि जो लोग उर्दू ग़ज़ल को साध नहीं पाये वे ही लोग हिन्दी ग़ज़लों की पैरवी कर रहे हैं। वर्तमान में लिखी जा रहीं बेहतरीन हिन्दी गज़लों को देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उर्दू छंद शास्त्र के आधार पर ग़ज़ल लिखना कठिन भले हो लेकिन असंभव नहीं है। मैं भारतीय लोकतंत्र का हिमायती हूँ, सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखता हूँ। मैंने हिंदकी अर्थात हिन्द की, हिन्दी की या हिंदुस्तान की आम बोलचाल की भाषा में लिखी जा रही सभी प्रकार की गज़लों को हिंदकी कहा है चाहे वो तुकांत कविता के विकास का वर्तमान स्वरूप हो या अरबी, फारसी एवं उर्दू गज़लों के विकास का वर्तमान स्वरूप। अरबी, फारसी और उर्दू ग़ज़लें हार्दिक भावनाओं एवं प्रेम की कामनाओं की सुंदर अभिव्यक्ति होती हैं लेकिन आज सामाजिक जीवन की विसंगतियों पर भी खूब लिखी जा रहीं हैं। ये हिंदुस्तान की ज़मीन की देन है। यदि मैं गज़लों के इस बदले हुये स्वरूप को भी हिंदकी अर्थात हिन्द की,हिन्दी की या हिंदुस्तानी (आम बोलचाल की भाषा) का नाम दूँ तो किसी को बुरा नहीं मानना चाहिए। मुझे दिनांक 17.9.2016 को राष्ट्रीय कवि संगम द्वारा छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आयोजित राष्ट्र कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जयंती समारोह एवं प्रांतीय अधिवेशन में नयी पीढ़ी को छंद विधान एवं ग़ज़ल की बारीकियों से परिचित कराने का अभियान संचालित करने के लिये विधानसभा अध्यक्ष छत्तीसगढ़ शासन के हाथों राष्ट्र कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ सम्मान प्राप्त हो चुका है। हिंदी गजल का प्रवर्तक कवि कौन है?वे दुष्यंत कुमार ही हैं, जिन्होंने हिन्दी गजल की रचना कर इसे विशेष पहचान दिलाई। दुष्यंत कुमार का जन्म 1 सितम्बर, 1933 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के गांव राजपुर नवादा में हुआ था। उनका पूरा नाम दुष्यंत कुमार त्यागी था। उन्होंने इलाहबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की थी।
गजल का जनक कौन है?भारत में गजलों का जनक अमीर खुसरो को माना जाता है।
दुष्यंत कुमार की गजल का नाम क्या है?दुष्यंत कुमार की 10 ग़ज़लें - बेचैनी, खुलापन, बेलौस मस्ती से भरी हुईं
गजल की पहली पंक्ति को क्या कहते हैं?मतला : ग़ज़ल की पहली दोनों पंक्तियाँ जो काफ़िया युक्त हों मतला कहलाती हैं , मतले को छोड़कर अन्य शे'रों की पहली पंक्ति स्वतंत्र होती है दूसरी पंक्ति में काफ़िया होता है।
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