* संजीवनी बूटी की तरह लाभदायी है गेहूं के जवारे गेहूं के जवारे उनमें से ही प्रकृति की एक अनमोल देन है। प्रकृति ने हमें अनेक अनमोल नियामतें दी हैं। गेहूं के जवारों में अनेक अनमोल
पोषक तत्व व
रोग निवारक गुण पाए जाते हैं, जिससे इसे आहार नहीं वरन् अमृत का दर्जा भी दिया जा सकता है। जवारों में सबसे प्रमुख तत्व
क्लोरोफिल पाया जाता है। प्रसिद्ध आहार शास्त्री डॉ. बशर के अनुसार क्लोरोफिल (गेहूं के जवारों में पाया जाने वाला प्रमुख तत्व) को केंद्रित सूर्य शक्ति कहा है। किन बीमारियों में हैं लाभदायी : गेहूं के जवारे रक्त व
रक्त संचार संबंधी रोगों, रक्त की कमी, उच्च रक्तचाप, सर्दी, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, स्थायी सर्दी, साइनस, पाचन संबंधी रोग, पेट में छाले, कैंसर, आंतों की सूजन, दांत संबंधी समस्याओं, दांत का हिलना, मसूड़ों से खून आना, चर्म रोग, एक्जिमा, किडनी संबंधी रोग, सेक्स संबंधी रोग, शीघ्रपतन, कान के रोग, थायराइड ग्रंथि के रोग व अनेक ऐसे रोग जिनसे रोगी निराश हो गया, उनके लिए गेहूं के जवारे अनमोल औषधि हैं। इसलिए कोई भी रोग हो तो वर्तमान में चल रही चिकित्सा पद्धति के साथ-साथ इसका प्रयोग कर आशातीत लाभ
प्राप्त किया जा सकता है। हिमोग्लोबिन रक्त में पाया जाने वाला एक प्रमुख घटक है। हिमोग्लोबिन में हेमिन नामक तत्व पाया जाता है। रासायनिक रूप से हिमोग्लोबिन व हेमिन में काफी समानता है। हिमोग्लोबिन व हेमिन में कार्बन, ऑक्सीजन, हाइड्रोजन व नाइट्रोजन के अणुओं की संख्या व उनकी आपस में संरचना भी करीब-करीब एक जैसी होती है। गेहूं के जवारों में रोग निरोधक व रोग निवारक शक्ति पाई जाती है। कई आहार शास्त्री इसे रक्त बनाने वाला प्राकृतिक परमाणु कहते हैं। गेहूं के जवारों की प्रकृति क्षारीय होती है, इसीलिए ये पाचन संस्थान व रक्त द्वारा आसानी से अधिशोषित हो जाते हैं। यदि कोई रोगी व्यक्ति वर्तमान में चल रही चिकित्सा के साथ-साथ गेहूं के जवारों का प्रयोग करता है तो उसे रोग से मुक्ति में मदद मिलती
है और वह बरसों पुराने रोग से मुक्ति पा जाता है। यहां एक रोग से ही मुक्ति नहीं मिलती है वरन अनेक रोगों से भी मुक्ति मिलती है, साथ ही यदि कोई स्वस्थ व्यक्ति इसका सेवन करता है तो उसकी जीवनशक्ति में अपार वृद्धि होती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि गेहूं के जवारे से रोगी तो स्वस्थ होता ही है किंतु सामान्य स्वास्थ्य वाला व्यक्ति भी अपार शक्ति पाता है। इसका नियमित सेवन करने से शरीर में थकान तो आती ही नहीं है। यदि किसी असाध्य रोग से पीड़ित व्यक्ति को गेहूं के जवारों का प्रयोग कराना है तो उसकी वर्तमान में चल रही चिकित्सा को बिना बंद किए भी गेहूं के जवारों का सेवन कराया जा सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कोई चिकित्सा पद्धति गेहूं के जवारों के प्रयोग में आड़े नहीं आती है, क्योंकि गेहूं के जवारे औषधि ही नहीं वरन श्रेष्ठ आहार भी है। यदि किसी रोग से रोगी निराश है तो वह इसका सेवन कर श्रेष्ठ स्वास्थ्य पा सकता है। - डॉ. जगदीश जोशी गेहूं के प्रमुख रोग : पहचान एवं निदान – गेहूं : इस देश की प्रमुख फसलों में से एक है भारत के कुल खाद्यान्न उत्पादन का लगभग 32 प्रतिशत भाग गेहूं का है। गेहूं के कुल उत्पादन का लगभग 90 प्रतिशत से अधिक भाग देश के पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड के मैदानी भाग राजस्थान व मध्य प्रदेश से प्राप्त होता है इसका अनुमानित क्षेत्रफल 220.19 मिलियन हेक्टेयर है। गेहूं की प्रति हेक्टेयर हो गयी है। बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ ही गेहूं की पैदावार को बढ़ाने की भी आवश्यकता है। इस फसल को सबसे अधिक प्रभावित करने वाले मुख्य रोग भूरा, पीला, काला रतुआ, छब्वा, चूर्णिल आसिता करनाल बंट, फ्यूजेरियम हेड ब्लाइट इत्यादि है। गेहूं का रतुआ एक फफूंदी के द्वारा होने वाला रोग है। यह रोगजनक कवक जीन्स पक्सीनिया वर्ग में आता है। रतुआ भारत के विभिन्न भागों में रस्ट, किटट, रोली, त्रांव इत्यादि नामों से जाना जाता है। भूरा रतुआ : यह गेहूं की पत्ती रतुआ के नाम से भी जाना जाता है। यह मुख्यत: पत्तियों पर विकसित होता है। जहां पर यह छोटे-छोटे भूरे रंग की फुंसी के समान गोल, बिखरे हुए पश्च्यूल का निर्माण करता है। यह रतुआ 22 डिग्री से. तापमान के आस-पास अधिक पनपता है। तथा इसके फैलाव के लिए उपयुक्त तापमान 20-25 डिग्री से. होता है। रोग के लक्षण साधरणतया पौधे की पत्तियों पर ही दिखायी देते हैं। भूरा रतुआ की पत्तियों के ऊपर वृत्ताकार नारंगी से भूरे रंग की प्यूसफोटिका बनती है जो आरम्भ में पौधे की झिल्लीमय बाह्य त्वचा से ढकी रहती है और बाद में फट जाती है। इस तरह से फफूंद के नारंगी से भूरे रंग के यूरिडो बीजाणु हवा में बिखर जाते हैं। हर 10-15 दिन की अवधि में यूरियो बीजाणु एक बार सहिष्णु पौधे को संक्रमित करते हैं। तदोपरांत कुछ ही दिनों में भूरा रतुआ उग्र रूप लेता है। इस रोग के कारण गेहूं की फसल पकने से पहले ही सूखने लग जाती है। पौधे में सही तरीके से प्रकाश संश्लेषण न होने से पौधे सामान्य और स्वस्थ होने के बजाय सिकुड़े हुए और छोटे होते हैं। गेहूं के दाने से बारीक एवं संकुचित या कभी-कभी बिल्कुल ही नहीं बनते हैं। काला रतुआ : पक्सीनिया ग्रेमिनिस ट्रिटिसाई द्वारा होने वाला रतुआ अधिकतर गर्म क्षेत्रों में पाया जाता है। इसमें गेहूं की पत्ती के अलावा तने पर भी रतुआ रोग के लक्षण दिखाई देते हैं। इसलिए इस ेतना रतुआ भी कहते हैं। इस रोग के फैलाव के लिए उपयुक्त तापमान 28-35 डिग्री से. है। यह मुख्यत: दक्षिणी भारत तथा मध्य भारत में पाया जाता है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस रोग को उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू एवं कश्मीर से अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों में भी देखा गया है। पीला रतुआ: पीला रतुआ मुख्यत: उत्तरी भारत में गेहूं की फसल को संक्रमित करके भारी नुकसान पहुंचाता है। उत्तरी भारत में गेहूं की बुआई 1-15 नवम्बर के मध्य में होती है। फसल की अवधि का तापमान 10-20 डिग्री से. रहता है जो इस रतुए के पनपने के लिए अनुकूल है। यह प्राय: उत्तरी भारत तथा दक्षिणी भारत की नीलगिरी पर्वत श्रृंखलाओं में उगाई जाने वाली गेहूं की फसल में देखा जाता है। यूरेडिया प्यूसफाटिकायें पत्तियों की शिराओं के मध्य रेखीय पंक्ति में विकसित होती है। यह फ्यूसफोटिकायें पत्तियों को ढक लेती हैं जिसके कारण पत्तियों का रंग पीला दिखने लगता है। इस अवस्था में पौधों में उचित प्रकाश संश्लेषण बाधित होने लगता है और पौधे अपना भोजन सामान्य रूप से नहंीं बना पाते हैं। जिसके कारण दाने हल्के तथा सिकुड़े आकार के ही रह जाते हैं। कई बार खेत में पानी का अधिक समय तक ठहरना तथा नाईट्रोजन की कमी या कीट क ेप्रकोप के कारण भी पत्तियां पीली पड़ जाती हैं, हालांकि पत्ती पर पीले रंग का चूर्ण और पीले रंग की प्यूसफोटिकायें नहीं होती है। पीले रतुआ को हाथ से छूने पर इससे हाथ पीला हो जाता है। करनाल बंट : फफंूद से होने वाला यह एक बीज जनित रोग है सामान्यत: खड़ी फसल से रोग ग्रस्त पौधों को पहचानना संभव नहीं है। यह रोग दाना बनने के बाद ही दिखाई देता है। रोग ग्रस्त दाने आंशिक या पूर्णरूप से काले चूर्ण में परिवर्तित हो जाते हैं। एक पौधे की सभी बालियां तथा एक बाली के सभी दाने रोगग्रस्त नहीं होते हैं। एक बाली में कुछ दाने ही रोगग्रस्त होते हैं। रोगग्रस्त दानों से सड़ी मछली सी गंध आती है। कंडुआ रोग : इस रोग में बालियों में दाने के स्थान पर फफूंद का काला धूल भर जाता है और कुछ समय बाद पूरी बालियां समाप्त हो जाती है। फफूंद के बीजाणु हवा में झडऩे से स्वस्थ बाली भी संक्रमित हो जाती है। यह अन्त बीज जनित रोग है। पत्र अंगमारी (झुलसा रोग): प्रारम्भ में रोग के लक्षण, नीचे की पंत्तियों पर गोलाकार या अंडाकार छोटे-छोटे पीले भूरे रंग के धब्बे के रूप में देखे जा सकते हैं। अनुकूल मौसम में धब्बे अन्य धब्बों से मिलकर पत्तियों को झुलसा देते हैं। प्रभावित फसल आग से झूलसी हुई नजर आती है। दाने सिकुड़े एवं कम वजन के होते हैं। सेहूं रोग : यह रोग सूत्रकृमि द्वारा होता है। इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियां मुड कर सिकुड़ जाती है। अधिकांश पौधे बोने रह जाते हैं तथा उनमें स्वस्थ पौधे की अपेक्षा अधिक शाखायें निकलती हैं। रोगग्रस्त बालियां छोटी एवं पोली हुए होती है और इसमें काले रंग की गांठें बन जाती है। जिसमें गेहूं के दाने के बदले काले ईलायची के दाने के ेसमान बीज बनते हैं। गेहूं में फ्यूजेरियम हैड ब्लाईट रोग वर्ष 1889 में स्मिथ हवर ने पहली बार इंग्लैण्ड में रिपोर्ट किया गया था उस समय इसे फ्यूजेरियम पुलरम के कारण माना जाता था। फ्यूजेरियम की 17 प्रजातियों की पहचान फ्यूजेरियम है ब्लाईट रोग कारकों के रूप में की जा चुकी है। फ्यूजेरियम प्रजातियां माईकोटॉक्सिन का उत्पादन करती है। एफएचबी गेहूं उत्पादन के लिए गंभीर बाधा है क्योंकि रोग के कारण विभिन्न देशों में उपज में उल्लेखनीय कमी आयी है। प्रबंधन : रतुआ रोग का निदान अथवा प्रबंधन आसान नहीं है क्योंकि इसमें समय के साथ नए प्रभेद उत्पन्न होते रहते हंै और रतुआ के बीजाणु हवा के द्वारा हजारों किलोमीटर तक पंहुच सकते हैं। उचित समय पर रतुआ प्रबंधन करके इससे बचा जा सकता है। पादप प्रजनन के माध्यम से उच्च उपज देने वाली रतुआ प्रतिरोधी किस्मों का विकास एवं किसानों द्वारा उनको अपनाना निश्चित रूप में गेहूं को रतुआ रोगों से बचाने का सबसे सस्ता एवं उपयुक्त उपाय है।
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