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History of Indian Constitution 15 Questions 15 Marks 9 Mins Latest MP Police Constable Updates Last updated on Nov 15, 2022 MP Police Constable Final Result announced. The Madhya Pradesh Police had announced a total of 4000 vacancies for the post of Constable. The selection process for MP Police Constable includes Written Test, Physical Efficiency Test ,Physical Measurement Test, and Trade/Driving Test (for the post of Driver only). The salary of the finally appointed candidates will be in the range of INR 19,500 - INR 62,600.
बुन्देलखण्ड मध्य भारत का एक प्राचीन क्षेत्र है।इसका प्राचीन नाम जेजाकभुक्ति है।[कृपया उद्धरण जोड़ें] इसका विस्तार उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश में है। बुंदेली इस क्षेत्र की मुख्य बोली है। भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधताओं के बावजूद बुंदेलखंड में जो एकता और समरसता है, उसके कारण यह क्षेत्र अपने आप में सबसे अनूठा बन पड़ता है। बुंदेलखंड की अपनी अलग ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत है। बुंदेली माटी में जन्मी अनेक विभूतियों ने न केवल अपना बल्कि इस अंचल का नाम खूब रोशन किया और इतिहास में अमर हो गए। महान चन्देल शासक बिधाधर चन्देल, आल्हा-ऊदल, खेतसिंह खंगार, महाराजा छत्रसाल बुंदेला, राजा भोज, ईसुरी, कवि पद्माकर, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, डॉ॰ हरिसिंह गौर, दद्दा मैथिलीशरण गुप्त, मेजर ध्यान चन्द्र, गोस्वामी तुलसी दास, दद्दा माधव प्रसाद तिवारी महोबा आदि अनेक महान विभूतियाँ इसी क्षेत्र से संबद्ध रखती हैं। बुंदेलखंड में ही तारण पंथ का जन्म स्थान है। बुन्देलखण्ड में शहर पन्ना,खजुराहो, झांसी और सागर विश्वप्रसिद्ध हैं। भौगोलिक स्थिति[संपादित करें]बुन्देलखण्ड की स्थिति एवं विस्तार इतिहास, संस्कृति और भाषा के मद्देनजर बुंदेलखंड बहुत विस्तृत प्रदेश है। लेकिन इसकी भौगोलिक, सांस्कृतिक और भाषिक इकाइयों में अद्भुत समानता है। भूगोलवेत्ताओं का मत है कि बुंदेलखंड की सीमाएं स्पष्ट हैं और भौतिक तथा सांस्कृतिक रूप में निश्चित है कि यह भारत का एक ऐसा भौगोलिक क्षेत्र है, जिसमें न केवल संरचनात्मक एकता बल्कि भौम्याकार और सामाजिकता का आधार भी एक ही है। वास्तव में समस्त बुंदेलखंड में सच्ची सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक एकता है। प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता एस० एम० अली ने पुराणों के आधार पर विंध्यक्षेत्र के तीन जनपदों विदिशा, दशार्ण एवं करुष का सोन-केन से समीकरण किया है। इसी प्रकार त्रिपुरी लगभग ऊपरी नर्मदा की घाटी तथा जबलपुर, मंडला तथा नरसिंहपुर जिलों के कुछ भागों का प्रदेश माना है। इतिहासकार जयचंद्र विद्यालंकार ने ऐतिहासिक और भौगोलिक दृष्टियों को संतुलित करते हुए बुंदेलखंड को कुछ रेखाओं में समेटने का प्रयत्न किया है, विंध्यमेखला का तीसरा प्रखंड बुंदेलखंड है जिसमें बेतवा (वेत्रवती), धसान (दशार्ण) और केन (शुक्तिगती) के काँठे, नर्मदा की ऊपरली घाटी और पचमढ़ी से अमरकंटक तक ॠक्ष पर्वत का हिस्सा सम्मिलित है। उसकी पूर्वी सीमा टोंस (तमसा) नदी है। वर्तमान भौतिक शोधों के आधार पर बुंदेलखंड को एक भौतिक क्षेत्र घोषित किया गया है और उसकी सीमाएं इस प्रकार आधारित की गई हैं- वह क्षेत्र जो उत्तर में यमुना, दक्षिण में विंध्य पलेटो की श्रेणियों, उत्तर-पश्चिम में चंबल और दक्षिण-पूर्व में पन्ना-अजयगढ़ श्रेणियों से घिरा हुआ है, बुंदेलखंड के नाम से जाना जाता है। इसमें उत्तर प्रदेश के जालौन, झांसी, ललितपुर, चित्रकूट, हमीरपुर, बाँदा और महोबा तथा मध्य-प्रदेश के सागर, दमोह, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, दतिया के अलावा भिंड जिले की लहार और ग्वालियर जिले की मांडेर तहसीलें तथा रायसेन और विदिशा जिले का कुछ भाग भी शामिल है। हालांकि ये सीमा रेखाएं भू-संरचना की दृष्टि से उचित नहीं कही जा सकतीं। संक्षिप्त इतिहास[संपादित करें]डॉ नर्मदा प्रसाद गुप्त ने अपनी पुस्तक 'बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का इतिहास' में लिखा है कि अतीत में बुंदेलखंड शबर, कोल, किरात, पुलिंद और निषादों का प्रदेश था। आर्यों के मध्यदेश में आने पर जन-जातियों ने प्रतिरोध किया था। वैदिक काल से बुंदेलों के शासनकाल तक दो हज़ार वर्षों में इस प्रदेश पर अनेक जातियों और राजवंश ने शासन किया है और अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना से इन जातियों के मूल संस्कारों को प्रभावित किया है। विभिन्न शासकों में मौर्य, सुंग, शक, हुण, कुषाण, नाग, वाकाटक, गुप्त, कलचुरी, चन्देल, खंगार, बुन्देला, मराठा और अंग्रेज मुख्य हैं। ई० पू० ३२१ तक वैदिक काल से मौर्यकाल तक का इतिहास वस्तुत: बुंदेलखंड का पौराणिक-इतिहास माना जा सकता है। इसके समस्त आधार पौराणिक ग्रंथ है। बुंदेलखंड शब्द मध्यकाल से पहले इस नाम से प्रयोग में नहीं आया है।पहले इस प्रदेश को जुझौतिखंड के नाम से जाना जाता था इसके विविध नाम और उनके उपयोग आधुनिक युग में ही हुए हैं। बीसवीं शती के प्रारंभिक दशक में रायबहादुर महाराजसिंह ने बुंदेलखंड का इतिहास लिखा था। इसमे बुंदेलखंड के अंतर्गत आने वाली जागीरों और उनके शासकों के नामों की गणना मुख्य थी। दीवान प्रतिपाल सिंह ने तथा पन्ना दरबार के प्रसिद्ध कवि कृष्ण ने अपने स्त्रोतों से बुंदेलखंड के इतिहास लिखे परन्तु वे विद्वान भी सामाजिक सांस्कृतिक चेतनाओं के प्रति उदासीन रहे। डॉ गुप्त के अनुसार मध्य भारत का इतिहास ग्रंथ में पं० हरिहर निवास द्विवेदी ने बुंदेलखंड की राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक उपलब्धियों की चर्चा प्रकारांतर से की है। इस ग्रंथ में कुछ स्थानों पर बुंदेलखंड का इतिहास भी आया है। एक अच्छा प्रयास पं० गोरेलाल तिवारी ने किया और बुंदेलखंड का संक्षिप्त इतिहास लिखा जो अब तक के ग्रंथो से सबसे अलग था परंतु उन्होंने बुंदेलखंड का इतिहास समाजशास्रीय आधार पर न लिखकर केवल राजनैतिक घटनाओं के आधार पर लिखा है। बुदेलखंड के प्राचीन इतिहास के संबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण धारणा यह है कि यह चेदि जनपद का हिस्सा था। कुछ विद्वान चेदि जनपद को ही प्राचीन बुंदेलखंड मानते हैं। पौराणिक काल में बुंदेलखंड प्रसिद्ध शासकों के अधीन रहा है जिनमें चंद्रवंशी राजाओं के शृंखलाबद्ध शासनकाल का उल्लेख सबसे अधिक है। बौद्धकाल में शांपक नामक बौद्ध ने बागुढ़ा प्रदेश में भगवान बुद्ध के नाखून और बाल से एक स्तूप का निर्माण कराया था। मरहूत (वरदावती नगर) में इसके अवशेष विद्यमान हैं। बौद्धकालीन इतिहास के संबंध में बुंदेलखंड में प्राप्त उस समय के अवशेषों से स्पष्ट है कि बुंदेलखंड की स्थिति में इस अवधि में कोई लक्षणीय परिवर्तन नहीं हुआ था। चेदि की चर्चा न होना और वत्स, अवंति के शासकों का महत्व दर्शाया जाना इस बात का प्रमाण है कि चेदि इनमें से किसी एक के अधीन रहा होगा। पौराणिक युग का चेदि जनपद ही इस प्रकार प्राचीन बुंदेलखंड है। बुन्देलखंड : प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का केंद्र[संपादित करें]इतिहास साक्षी है कि भारत की आजादी के प्रथम संग्राम की ज्वाला मेरठ की छावनी में भड़की थी। किन्तु इन ऐतिहासिक तथ्यों के पीछे एक सचाई गुम है, वह यह कि आजादी की लड़ाई शुरू करने वाले मेरठ के संग्राम से भी 15 साल पहले बुन्देलखंड की धर्मनगरी चित्रकूट में एक क्रांति का सूत्रपात हुआ था। पवित्र मंदाकिनी के किनारे गोहत्या के खिलाफ एकजुट हुई हिंदू-मुस्लिम बिरादरी ने मऊ तहसील में अदालत लगाकर पांच फिरंगी अफसरों को फांसी पर लटका दिया। इसके बाद जब-जब अंग्रेजों या फिर उनके किसी पिछलग्गू ने बुंदेलों की शान में गुस्ताखी का प्रयास किया तो उसका सिर कलम कर दिया गया। इस क्रांति के नायक थे आजादी के प्रथम संग्राम की ज्वाला मेरठ के सीधे-साधे हरबोले। संघर्ष की दास्तां को आगे बढ़ाने में बुर्कानशीं महिलाओं की ‘घाघरा पलटन’ की भी अहम हिस्सेदारी थी। आजादी के संघर्ष की पहली मशाल सुलगाने वाले बुन्देलखंड के रणबांकुरे इतिहास के पन्नों में जगह नहीं पा सके, लेकिन उनकी शूरवीरता की तस्दीक फिरंगी अफसर खुद कर गये हैं। अंग्रेज अधिकारियों द्वारा लिखे बांदा गजट में एक ऐसी कहानी दफन है, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं। गजेटियर के पन्ने पलटने पर मालूम हुआ कि वर्ष 1857 में मेरठ की छावनी में फिरंगियों की फौज के सिपाही मंगल पाण्डेय के विद्रोह से भी 15 साल पहले चित्रकूट में क्रांति की चिंगारी भड़क चुकी थी। दरअसल अतीत के उस दौर में धर्मनगरी की पवित्र मंदाकिनी नदी के किनारे अंग्रेज अफसर गायों का वध करवाते थे। गौमांस को बिहार और बंगाल में भेजकर वहां से एवज में रसद और हथियार मंगाये जाते थे। आस्था की प्रतीक मंदाकिनी किनारे एक दूसरी आस्था यानी गोवंश की हत्या से स्थानीय जनता विचलित थी, लेकिन फिरंगियों के खौफ के कारण जुबान बंद थी। कुछ लोगों ने हिम्मत दिखाते हुए मराठा शासकों और मंदाकिनी पार के ‘नया गांव’ के चौबे राजाओं से फरियाद लगायी, लेकिन दोनों शासकों ने अंग्रेजों की मुखालफत करने से इंकार कर दिया। गुहार बेकार गयी, नतीजे में सीने के अंदर प्रतिशोध की ज्वाला धधकती रही। इसी दौरान गांव-गांव घूमने वाले हरबोलों ने गौकशी के खिलाफ लोगों को जागृत करते हुए एकजुट करना शुरू किया। फिर वर्ष 1842 के जून महीने की छठी तारीख को वह हुआ, जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। हजारों की संख्या में निहत्थे मजदूरों, नौजवानों और बुर्कानशीं महिलाओं ने मऊ तहसील को घेरकर फिरंगियों के सामने बगावत के नारे बुलंद किये। खास बात यह थी कि गौकशी के खिलाफ इस आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम बिरादरी की बराबर की भागीदारी थी। तहसील में गोरों के खिलाफ आवाज बुलंद हुई तो बुंदेलों की भुजाएं फड़कने लगीं। देखते-देखते अंग्रेज अफसर बंधक थे, इसके बाद पेड़ के नीचे ‘जनता की अदालत’ लगी और बाकायदा मुकदमा चलाकर पांच अंग्रेज अफसरों को फांसी पर लटका दिया गया। जनक्रांति की यह ज्वाला मऊ में दफन होने के बजाय राजापुर बाजार पहुंची और अंग्रेज अफसर खदेड़ दिये गये। वक्त की नजाकत देखते हुए मर्का और समगरा के जमींदार भी आंदोलन में कूद पड़े। दो दिन बाद 8 जून को बबेरू बाजार सुलगा तो वहां के थानेदार और तहसीलदार को जान बचाकर भागना पड़ा। जौहरपुर, पैलानी, बीसलपुर, सेमरी से अंग्रेजों को खदेड़ने के साथ ही तिंदवारी तहसील के दफ्तर में क्रांतिकारियों ने सरकारी रिकार्डो को जलाकर तीन हजार रुपये भी लूट लिये। आजादी की ज्वाला भड़कने पर गोरी हुकूमत ने अपने पिट्ठू शासकों को हुक्म जारी करते हुए क्रांतिकारियों को कुचलने के लिए कहा। इस फरमान पर पन्ना नरेश ने एक हजार सिपाही, एक तोप, चार हाथी और पचास बैल भेजे, छतरपुर की रानी व गौरिहार के राजा के साथ ही अजयगढ़ के राजा की फौज भी चित्रकूट के लिए कूच कर चुकी थी। दूसरी ओर बांदा छावनी में दुबके फिरंगी अफसरों ने बांदा नवाब से जान की गुहार लगाते हुए बीवी-बच्चों के साथ पहुंच गये। इधर विद्रोह को दबाने के लिए बांदा-चित्रकूट पहुंची भारतीय राजाओं की फौज के तमाम सिपाही भी आंदोलनकारियों के साथ कदमताल करने लगे। नतीजे में उत्साही क्रांतिकारियों ने 15 जून को बांदा छावनी के प्रभारी मि. काकरेल को पकड़ने के बाद गर्दन को धड़ से अलग कर दिया। इसके बाद आवाम के अंदर से अंग्रेजों का खौफ खत्म करने के लिए कटे सिर को लेकर बांदा की गलियों में घूमे। काकरेल की हत्या के दो दिन बाद राजापुर, मऊ, बांदा, दरसेंड़ा, तरौहां, बदौसा, बबेरू, पैलानी, सिमौनी, सिहुंडा के बुंदेलों ने युद्ध परिषद का गठन करते हुए बुंदेलखंड को आजाद घोषित कर दिया। विभिन्न शासक[संपादित करें]बुंदेलखंड के ज्ञात इतिहास के अनुसार यहां ३०० ई० पू० मौर्य शासनकाल के साक्ष्य उपलब्ध है। इसके पश्चात वाकाटक और गुप्त शासनकाल, शासनकाल, चंदेल शासनकाल,खंगार शासन काल, बुन्देला शासनकाल (जिनमें ओरछा के बुंदेला भी शामिल थे), मराठा शासनकाल और अंग्रेजों के शासनकाल का उल्लेख मिलता है। सामाजिक परिस्थितियां[संपादित करें]अध्ययन की सुविधा के लिए बुंदेली समाज और संस्कृति को निम्नलिखित युगों में बाँटा गया है।
वैभव[संपादित करें]बुंदेलखंड विन्ध्याचल की उपव्यकाओं का प्रदेश है। इस गिरी की अनेक ऊँची नीची शाखाऐं - प्रशाखाऐं हैं। इसके दक्षिण भाग में मेकल, पूर्व में कैमोर, उत्तर-पूर्व में केंजुआ, मध्य में सारंग और पन्ना तथा पश्चिम में भीमटोर और पीर जैसी गिरी शिखाऐं हैं। यह खंड लहरियाँ लेती हुई ताल-तलैयों, घहर-घहर कर बहने वाले नाले और चौड़े पाट के साथ उज्जवल रेत पर अथवा दुर्गम गिरि-मालाओं को चीर कर भैरव निनाद करते हुए बहने वाली नदियों का खंड है। सिंध (काली सिंध), बेतवा, धसान, केन तथा नर्मदा इस भाग की मुख्य नदियाँ हैं। इनमें प्रथम चार नदियों का प्रवाह उत्तर की ओर और नर्मदा का प्रवाह पूर्व में पश्चिम की ओर है। प्रथम चार नदियाँ यमुना में मिल जाती हैं। नर्मदा पश्चिम सागर (अरब सागर) से मिलती हैं। इस क्षेत्र में प्रकृति ने विस्तार लेकर अपना सौन्दर्य छिटकाया है। बुंदेलखंड लोहा, सोना, चाँदी, शीशा, हीरा, पन्ना आदि से समृद्ध है। इसके अलावा यहाँ चूना का पत्थर भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। विन्धय पर्वत पर पाई जाने वाली चट्टानों के नाम उसके आसपास के स्थान के नामों से प्रसिद्ध है जैसे - माण्डेर का चूना का पत्थर, गन्नौर गढ़ की चीपें, रीवा और पन्ना के चूने का पत्थर, विजयगढ़ की चीपें इत्यादि। जबलपुर के आसपास पाया जाने वाला गोरा पत्थर भी काफी प्रसिद्ध है। इस प्रांत की भूमि भोजन की फसलों के अतिरिक्त फल, तम्बाकू और पपीते की खेती के लिए अच्छी समझी जाती है। यहाँ के वनों में सरई, सागोन, महुआ, चार, हरी, बहेरा, आँवला, घटहर, खैर, धुबैन, महलौन, पाकर, बबूल, करौंदा, सेमर आदि के वृक्ष अधिक पाए जाते हैं। कला और संस्कृति[संपादित करें]वास्तु[संपादित करें]वास्तुकला:[संपादित करें]बुंदेलखंड के बीते वैभव की झलक हमें आज उक्त भूमि पर छिटकी हुई पाषाण काल से प्राप्त होती है। इस भूमि पर इस कला ने कितना आदर पाया और उसका कितना विकास हुआ, यह बात पुरातत्व-विशेषज्ञों से छिपी नहीं है। यो प्रागैतिहासिक काल कि आदिवासि जनजातियो द्वारा पूजी जाने वाली, मूर्तियो के अवशेष , बुंदेलखंड भूमि से ही प्राप्त होते हैं। कला की दृष्टि से इनका मूल्य अधिक नहीं है, किंतु मूर्तिकला के विभिन्न रूप का अच्छा स्रोत है। ये मूर्तियाँ बहुत मायने रखती हैं और अमूल्य हैं। लोकाचार व परम्पराएँ[संपादित करें]बुंदेली तीज-त्यौहार[संपादित करें]भारत एक बहुत बड़ा देश है। यहाँ हर प्रदेश की वेशभूषा तथा भाषा में बहुत बड़ा अन्तर दिखायी देता है। इतनी बड़ी भिन्नता होते हुए भी एक समानता है जो देश को एक सूत्र में पिरोये हुए है। वह है यहां की सांस्कृतिक-एकता तथा त्यौहार। स्वभाव से ही मनुष्य उत्सव-प्रिय है, महाकवि कालिदास ने ठीक ही कहा है - "उत्सव प्रियः मानवा:'। पर्व हमारे जीवन में उत्साह, उल्लास व उमंग की पूर्ति करते हैं। बुन्देलखण्ड के पर्वों की अपनी ऐतिहासिकता है। उनका पौराणिक व आध्यात्मिक महत्व है और ये हमारी संस्कृतिक विरासत के अंग हैं। कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण त्यौहारों का विवेचन हिन्दी मासों के अनुसार किया जा रहा है। बुन्देलखण्ड की संस्कृति अन्य राज्यों की अपेक्षा बहुत ही अलग है। कुछ त्योहार विशेषकर रक्षाबंधन। लोग कहते हैं हिन्दुओं का त्योहार है।पर यहां ऐसा नहीं है।यहां पर मुसलमान और हिन्दू दोनों रक्षाबंधन का त्योहार धूम धाम से मनाते हैं भले ही यह अनुपात कम और ज्यादा हो। इतिहास गवाह है रानी लक्ष्मीबाई बांदा नवाब अली बहादुर सानी को राखी बाँधते थे।और उन्होंने रक्षाबंधन धर्म को बखूबी निभाया भी।वह मृत्यु और अन्त्येष्टी तक रानी के साथ रहे। एक और त्योहार जो पूर्वजों की स्मृति में पन्द्रह दिवस प्रातः जल। का तर्पण करके श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।इसके साथ में छोटे छोटे बच्चे खासकर बालिकाएं यहां एक कांटों भरी झाड़ी में कुछ पुष्प लेकर नदी तालाब तक जाते हैं उसे यहां महाबुलिया कहा जाता है।कांटे नदी में ले जाकर निकाल देते हैं ।और प्रसाद भी बांटते हैं।यह क्रम पितृ पक्ष पर प्रारम्भ होता है और उसी के साथ समाप्त भी हो जाता है। साहित्य व रचनाकर्मी[संपादित करें]छत्रसाल के समय में जहां बुन्देलखण्ड को "इत जमुना उत नर्मदा, इत चम्बल उत टोंस" से जाना जाता है। वहां भौगोलिक दृष्टि जनजीवन, संस्कृति और भाषा के सन्दर्भ से बुन्देला क्षत्रियों के वैभवकाल से जोड़ा जाता है। बुन्देली इस भू-भाग की सबसे अधिक व्यवहार में आने वाली बोली है। विगत ७०० वर्षों से इसमें पर्याप्त साहित्य सृजन हुआ। बुन्देली काव्य के विभिन्न साधनाओं, जातियों और आदि का परिचय भी मिलता है। काव्रू का आधार इसीलिए बुन्देलखण्ड की नदियां, पर्वत और उसके वीरों को बनया गया है। विभिन्न प्रवृत्तियों और आन्दोलनों के आधार पर बुन्देलखण्ड काव्य के कुल सात युग माने जा सकते हैं, जिन्हें अध्ययन के सुविधा से निम्न नामों से अभिहित किया गया है। प्रस्तावित बुंदेलखंड राज्य[संपादित करें]बुंदेलखंड एकीकृत पार्टी द्वारा प्रस्तावित बुंदेलखंड राज्य में कुछ जिले उत्तर प्रदेश के तथा कुछ मध्य प्रदेश के हैं, वर्तमान में बुंदेलखंड क्षेत्र की स्तिथि बहुत ही गंभीर है। यह क्षेत्र पर्याप्त आर्थिक संसाधनों से परिपूर्ण है किन्तु फिर भी यह अत्यंत पिछड़ा है। इसका मुख्य कारण है, राजनीतिक उदासीनता। न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारें इस क्षेत्र के विकास के लिए गंभीर हैं। इसलिए इस क्षेत्र के लोग अलग बुंदेलखंड राज्य की मांग लम्बे समय से करते आ रहे हैं। प्रस्तावित बुंदेलखंड राज्य में उ.प्र. के महोबा, झाँसी, बांदा, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर और चित्रकूट जिले शामिल हैं, जबकि म.प्र. के छतरपुर, सागर, पन्ना, टीकमगढ़, दमोह, दतिया, भिंड, विदिशा,सतना आदि जिले शामिल हैं। बुंदेलखंड एकीकृत पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक संजय पाण्डेय का कहना है कि यदि बुंदेलखंड राज्य का गठन हुआ तो यह देश का सबसे विकसित प्रदेश होगा। प्रस्तावित बुंदेलखंड राज्य की आबादी चार करोड़ से भी अधिक होगी। जनसँख्या के हिसाब से यह देश का नौंवा सबसे बड़ा राज्य होगा। यूं तो बुंदेलखण्ड क्षेत्र दो राज्यों में विभाजित है-उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश, लेकिन भू-सांस्कृतिक दृष्टि से यह क्षेत्र एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। रीति रिवाजों, भाषा और विवाह संबंधों ने इस एकता को और भी पक्की नींव पर खड़ा कर दिया। दर्शनीय स्थल[संपादित करें]बुंदेलखंड की शान खजुराहो जिला छतरपुर में बुंदेला शासकों द्वारा निर्मित मंदिर विश्व प्रसिद्ध हैंं।ये हिंदू व जैन धर्म के लिये विशेष महत्व रखता है।कुंडलपुर जो जैन धर्म का महत्वपूर्ण स्थल है।मैहर में मां शारदा का मंदिर ५२ शक्ति पीठ में एक है। झांसी में किला जो लक्ष्मीबाई की वीरता की झलक दिखाता है। ओरछा प्रसिद्ध हिंदू तीर्थों में एक है। चित्रकूट का मंदिर बेहद सुंदर है। सोनागिर प्रसिद्ध जैन तीर्थ है। अन्य दर्शनीय स्थल-
> ऊंचाई- 40feet > नदी- बीना नदी > स्थान- राहतगढ़ (सागर)
इन्हें भी देखें[संपादित करें]
भालकुण्ड/राहतगढ़ जलप्रपात, राहतगढ़(सागर) बाहरी कड़ियां[संपादित करें]
बुंदेला वंश की राजधानी क्या थी?Detailed Solution. सही उत्तर बुंदेला है। बुंदेला वंश के राजा द्वारा ओरछा को बुंदेलखंड की राजधानी बनाया गया था।
बुंदेलखंड का पहला राजा कौन है?बुंदेलखंड में त्रिपुरी के कलचुरियों का महत्व है। यह वंश पुराणों में प्रसिद्ध हैहयवंशी कार्तवीर्य अर्जुन की परंपरा में माना जाता है। इसके संस्थापक महाराज कोक्कल ने (जबलपुर के पास) त्रिपुरी को अपनी राजधानी बनाया, इसलिए यह वंश त्रिपुरी के कलचुरियों के नाम से विख्यात है।
बुंदेलखंड का पुराना नाम क्या है?बुन्देलखण्ड मध्य भारत का एक प्राचीन क्षेत्र है। इसका प्राचीन नाम जेजाकभुक्ति है। इसका विस्तार उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश में है।
बुंदेलखंड का अंतिम शासक कौन था?4 मई, 1649 को जन्मे महाराजा छत्रसाल 56 वर्षों तक बुंदेलखंड पर शासन किया। उनका निधन 20 दिसंबर, 1731 को हुआ था। वो बुंदेला राजपूत थे।
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