These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 10 Social Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 4 भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का स्थान (अनुभाग – चार) Show विस्तृत उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1.
प्रश्न 2. कृषि निविष्टियाँ (इन्पुट्स) कृषि भारत का प्रधान व्यवसाय है। अत: भारतीय कृषकों को कृषि उत्पादन को सम्पन्न क़रने में जिन वस्तुओं तथा सेवाओं की आवश्यकता पड़ती है, उन्हें कृषि निविष्टियाँ (Inputs) कहा जाता है। प्रमुख कृषि निविष्टियों का विवरण इस प्रकार है – 1. तकनीकी जानकारी – कृषि-कार्य की यह महत्त्वपूर्ण निविष्टि है। कृषि करने की सही तकनीकी की जानकारी शिक्षा के अनौपचारिक तरीकों से ही प्राप्त की जा सकती है। तकनीकी जानकारी के अन्तर्गत बीजों के प्रकार, उर्वरक, फसल-प्रबन्ध, भण्डारण, फसल बीमा, विपणन आदि की जानकारी आती है। खेती की आधुनिक विधियों का प्रयोग करने के लिए किसान को इन सभी की पर्याप्त जानकारी होनी आवश्यक है। 2. स्वयं का श्रम – किसान का निजी एवं उसके परिवार के सदस्यों का (UPBoardSolutions.com) श्रम भी कृषि की महत्त्वपूर्ण निविष्टि है। कभी-कभी इनकी संख्या कार्य की आवश्यकता से भी अधिक हो जाती है। 3. भाड़े का श्रम – मजदूरी पर रखे गये श्रम को भाड़े का श्रम कहते हैं। कृषि-कार्य में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। ऐसे श्रमिकों का भारत में कोई संगठित बाजार नहीं है। फलत: भाड़े के श्रमिकों को उनके श्रम के लिए मजदूरी कम दी जाती है तथा अधिकांशतः मुद्रा के रूप में नहीं दी जाती। 4. पशुधन – बैल, गाय, भैंस आदि पशुधन हैं। पशुधन खेती के लिए बहुत ही मूल्यवान समझा जाता है। ये भी कृषि की एक महत्त्वपूर्ण निविष्टि हैं। जिस कृषक-परिवार के पास जितना अधिक पशुधन होता है, वह उतना ही अधिक सम्पन्न परिवार माना जाता है। 5. कृषि-उपकरण – कृषि-उपकरण में खेती में प्रयुक्त उपस्कर तथा मशीनें आती हैं। इस श्रेणी में लकड़ी एवं लोहे के हल जैसे परम्परागत उपकरण तथा बैलगाड़ी; जैसे-यातायात उपकरण, आधुनिक उपकरण तथा मशीनें; जैसे—नलकूप, ट्रैक्टर, यातायात के लिए तेज गति से चलने वाले ट्रक तथा तीन पहियों वाले वाहन सम्मिलित किये जाते हैं। ये भी कृषि-क्षेत्र की एक महत्त्वपूर्ण निविष्टि हैं। 6. सिंचाई – इसमें परम्परागत एवं आधुनिक दोनों प्रकार के साधन सम्मिलित हैं। यद्यपि सिंचाई के साधनों का प्रयोग सभी प्रकार की खेती के तरीकों तथा फसलों के लिए महत्त्वपूर्ण है, परन्तु विशिष्ट फसलों के उगाने में इनका बहुत अधिक महत्त्व है। खेती के परम्परागत तरीकों की अपेक्षा आधुनिक तरीके सिंचाई पर अधिक निर्भर करते हैं। 7. बीज – बीज कृषि के लिए एक महत्त्वपूर्ण निविष्टि है। कृषि में उत्पादन बीज की किस्मों पर निर्भर करता है। बीजों की कई किस्में होती हैं। कुछ बीज अधिक उपज देने वाले होते हैं। बीजों का चुनाव उनकी कीमतों तथा अन्य निविष्टियों (जल, उर्वरक आदि) पर निर्भर करता है। 8. उर्वरक एवं कीटनाशी दवाइयाँ – आधुनिक दृष्टि से ये दो महत्त्वपूर्ण निविष्टियाँ हैं। उर्वरक भूमि का उपजाऊपन बढ़ा देता है और कीटनाशी दवाइयाँ फसलों को कीड़े आदि लगने से बचाती हैं। जब इन्हें सिंचाई तथा उत्तम बीज जैसी अन्य निविष्टियों के साथ उचित मात्रा में प्रयोग किया जाता है तो ये भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाकर उत्पादन में तीव्र गति से वृद्धि करते हैं। 9. भण्डारण –भण्डारण की सुविधा से अनाज को कीड़ों तथा मौसम से नष्ट होने से बचाया जा सकता है। यह भी कृषि-क्षेत्र की एक महत्त्वपूर्ण निविष्टि है। इसकी उचित सुविधाओं के अभाव में भारत में उत्पन्न अनाज का एक बड़ा भाग प्रति वर्ष नष्ट (UPBoardSolutions.com) हो जाता है। 10. विपणन –कृषि के उत्पादन के लिए सामयिक वसूली एवं विपणन की सुविधाओं की उचित व्यवस्था करना आवश्यक है। अतः विपणन-सुविधा भी एक महत्त्वपूर्ण निविष्टि है। 11. बीमा और साख – फसलों का बीमा करवाने से फसलों की चोरी, नुकसान अथवा अन्य हानियों से पर्याप्त सीमा तक बचा जा सकता है। अत: कृषि के लिए बीमा और साख भी आवश्यक निविष्टियाँ हैं। इससे कृषि उत्पादन की अनिश्चितता पर नियन्त्रण पाया जा सकता है। 12. वित्त – कृषि में भी उत्पादक को अन्य उत्पादक क्रियाओं की तरह अपने उत्पादन के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। उत्पादन के बाद भी उसे प्रतीक्षा करनी पड़ती है जब तक कि वह बिक नहीं जाता। प्रतीक्षा की इस अवधि के दौरान उसे वित्त (साख) की आवश्यकता पड़ती है। प्रायः वित्त के लिए उसे सहकारी समितियों, साहूकारों, व्यावसायिक बैंकों व ग्रामीण बैंकों से ऋण लेना पड़ता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि कृषि निविष्टियों के अन्तर्गत तकनीकी जानकारी तथा कृषि उपकरण सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि इनके अभाव में कृषि उत्पादन सम्भव नहीं है। प्रश्न 3. 1. भूस्वामी एवं व्यावसायिक साहुकार – हमारी अर्थव्यवस्था की एक समस्या यह है कि हमारे अधिकांश कृषक आर्थिक दृष्टि से इतने कमजोर हैं कि संगठित बैंक प्रणाली द्वारा सामान्य व्यावसायिक स्तर पर इन्हें ‘साख के योग्य नहीं माना जाता। किसानों का यह वर्ग बैंकिंग प्रणाली आसानी से सुलभ न हो पाने पर, भूस्वामियों और व्यावसायिक साहूकारों से अत्यन्त अनुचित शर्तों पर ऋण लेता है। सन् 1950 के दशक तक (UPBoardSolutions.com) किसानों को अपने कुल ऋण का 70% गाँव के परम्परागत साहूकारों से मिलता था, परन्तु अब यह स्थिति बदल गयी है। किसान अब सहकारी समितियों और दूसरे विकल्पों का लाभ उठा रहे हैं। 2. व्यावसायिक बैंक – हमारे व्यावसायिक बैंकों का परम्परागत ढाँचा तो मूर्त जमानत के बदले तथा उन लोगों को ऋण देने के लिए बना है जिन्हें उनकी आय और सम्पत्ति के आधार पर ‘साख के योग्य माना जाता है। इसीलिए, बैंकिंग कभी भी ग्रामीण क्षेत्र में प्रवेश नहीं कर पायी। लेकिन अब स्थिति बदल गयी है। सन् 1950 के दशक तक ऋण-प्रवाह में इनका हिस्सा 1% भी नहीं था। लेकिन यह हिस्सा अब लगभग 52% हो गया है। 3. सहकारी बैंक – सहकारी बैंकों की रचना मूलत: किसानों एवं अन्य सहकारिता की भावना पर आधारित संस्थाओं की वित्त समस्याओं के लिए की गयी थी। सन् 1950 के दशक तक इनका ऋण-प्रवाह में हिस्सा 7% से भी कम था। इन बैंकों की स्थापना ग्रामीण क्षेत्रों में सघन रूप से की गयी 4. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक – सन् 1975 ई० में भारत सरकार द्वारा यह तय किया गया कि क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की एक कड़ी का निर्माण किया जाए। इनको विशेष रूप से पिछड़े एवं उन क्षेत्रों में स्थापित किया जाए जहाँ सहकारी एवं व्यावसायिक बैंक पर्याप्त रूप से नहीं पहुँच पाये हैं। इन बैंकों का झुकाव विशेष रूप से गरीब वर्ग के लोगों की साख की आवश्यकताओं को पूरा करने की ओर था। यह प्रयास भी सफल रहा और कृषि वित्त जुटाने में सहायक हुआ। 5. सहकारी समितियाँ – देश के कई भागों में किसानों की पंजीकृत समितियों ने गति पकड़ी है। ये समितियाँ अपने सदस्यों को साख-सुविधा प्रदान करती हैं। अब इनकी संख्या कई गुना बढ़ गयी है। और इन्होंने साहूकारों का स्थान भी ले लिया है। (UPBoardSolutions.com) इनकी स्थिति में इतना सुधार हुआ है कि अब सहकारी एजेन्सियों, सहकारी भूमि विकास बैंकों एवं व्यावसायिक बैंकों से मिलने वाली कुल संस्थागत साख का हिस्सा किसानों को दी जाने वाली कुल अल्पकालीन और मध्यकालीन साख में लगभग एक-तिहाई हो गया है। प्रश्न 4. 1. भाड़े का श्रम – कृषि का कार्य मौसमी होता है। किसान को खेत जोतने, बीज बोने, गुड़ाई- सिंचाई करने, फसल काटने आदि सभी कार्य समय-बद्धता के साथ करने पड़ते हैं। प्रायः ये सभी कार्य वह स्वयं नहीं कर पाता और इसके लिए भाड़े के श्रमिकों से काम लेता है। श्रमिकों को भाड़ा या मजदूरी देने में उसे वित्त-सुविधा का योगदान प्राप्त होता है। 2. कृषि-उपकरण – अब कृषि एक व्यवसाय बन गयी है। किसान अब पशुओं पर अपनी निर्भरता कम कर रहा है और कृषि-उपकरण पशु-शक्ति का स्थान ले रहे हैं। इनमें टिलर, हैरो, ट्रैक्टर, थ्रेसर आदि प्रमुख हैं। इनको खरीदने में भी किसान को वित्त का योगदान प्राप्त होता है। 3. सिंचाई – सिंचाई के उपयुक्त साधन आज के किसान की आवश्यकता बन गये हैं। वर्षा पर निर्भर खेती मात्र एक जूआ साबित हुई है। अब किसान की प्राथमिकता सिंचाई की एक विश्वसनीय व्यवस्था करने में है। इसके लिए वह ट्यूबवेल या उससे पानी खींचने के लिए जेनरेटर को प्राथमिकता देता है। यह प्रबन्ध विशेषकर उन किसानों के लिए आवश्यक है जो सघन तथा द्विफसली खेती करते हैं या जिनके क्षेत्र में सिंचाई की पर्याप्त सुविधा नहीं होती। सिंचाई के प्रभावी एवं विश्वसनीय साधनों को जुटाने के लिए भी वित्त का योगदान वांछित होता है। 4. उर्वरक एवं कीटनाशी – सघन तथा द्विफसली खेती के लिए भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाये रखना। अति आवश्यक है। किसान को अपनी आवश्यकतानुसार उर्वरक व कीटनाशक दवाइयों को क्रय करना होता है। ये वस्तुएँ महँगी होती हैं और (UPBoardSolutions.com) इनके बिना किसान का काम भी नहीं चल सकता। प्राय: ये दोनों वस्तुएँ किसान को सहकारी समितियों द्वारा वित्त (साख) के रूप में उपलब्ध करायी जाती हैं। 5. भण्डारण – किसान के उत्पाद सदैव तुरन्त ही नहीं बिक पाते। कीड़ों एवं मौसम से बचाव कर सकने वाले भण्डारण के तरीकों का लाभ उसे बाध्ये होकर उठाना पड़ता है। यहाँ उसे भण्डार-गृह का किराया देना होता है तथा वित्ते का योगदान लेना पड़ता है। प्रश्न 5. भारतीय कृषि के पिछड़ेपन के कारण भारत एक कृषिप्रधान देश है। देश की लगभग 58% जनसंख्या अपनी जीविका के लिए आज भी कृषि पर आश्रित है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान होने के बावजूद यह पिछड़ी हुई अवस्था में है। अन्य देशों की तुलना में भारत में प्रति हेक्टेयर कृषि-उत्पादन बहुत कम है। इसके लिए मुख्यतया निम्नलिखित कारण उत्तरदायी हैं – 1. कृषि जोतों का छोटा होना – भारत में कृषि जोतों का आकार बहुत छोटा है। लगभग 57% जोतों का आकार एक हेक्टेयर से भी कम है। इसके अतिरिक्त कृषि जोत विभाजित अवस्था में अर्थात् एक-दूसरे से दूर-दूर हैं। छोटी जोतों पर वैज्ञानिक ढंग (UPBoardSolutions.com) से खेती करना सम्भव नहीं होता तथा न ही सिंचाई की समुचित व्यवस्था हो पाती है। 2. कृषि का वर्षा पर निर्भर होना – आज भी भारतीय कृषि को लगभग 50% भाग वर्षा पर निर्भर करता है। वर्षा की अनिश्चितता एवं अनियमितता के कारण भारतीय कृषि ‘मानसून का जूआ’ कहलाती है। देश के कुछ क्षेत्रों में अतिवृष्टि तथा बाढ़ों के कारण फसलें बह जाती हैं तथा कुछ भागों में अनावृष्टि से सूख जाती हैं। 3. भूमि पर जनसंख्या का अत्यधिक भार – जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण भूमि पर जनसंख्या का भार निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। परिणामतः प्रति व्यक्ति उपलब्ध भूमि का क्षेत्रफल घटता गया है। साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में अदृश्य बेरोजगारी तथा अल्प रोजगार की समस्याएँ बढ़ी हैं और किसानों की गरीबी तथा ऋणग्रस्तता में वृद्धि हुई है। 4. सिंचाई सुविधाओं का अभाव – भारत में सिंचित क्षेत्र केवल 40% है। असिंचित क्षेत्रों में किसान अपनी भूमि में एक ही फसल उगा पाते हैं, जिस कारण भारतीय कृषि की उत्पादकता बहुत कम है। 5. प्राचीन कृषि-यन्त्र – पाश्चात्य देशों में आज कृषि के आधुनिक यन्त्रों का प्रयोग किया जा रहा है, जबकि भारत के अनेक क्षेत्रों में आज भी हल, पटेला, दराँती, कस्सी आदि अत्यधिक प्राचीन यन्त्रों द्वारा कृषि की जाती है। इनसे गहरी जुताई नहीं हो पाती; फलतः उत्पादन कम होता है। 6. दोषपूर्ण भूमि-व्यवस्था – भारत में अनेक वर्षों तक देश की लगभग 40% भूमि जमींदार, जागीरदार, इनामदार आदिं मध्यस्थों के पास रही। किसान इन मध्यस्थों के काश्तकार होते थे। स्वतन्त्रता- प्राप्ति के बाद इन मध्यस्थों के उन्मूलन के बाद भी छोटे किसानों की दशा में विशेष सुधार नहीं हो पाया है। आज भी ऐसे असंख्य किसान हैं जो दूसरों की भूमि पर खेती करते हैं। 7. कृषकों की अशिक्षा तथा निर्धनता – निर्धनता के कारण देश के कृषक आधुनिक यन्त्र, उत्तम बीज, खाद आदि खरीदने तथा उनका प्रयोग करने में असमर्थ हैं। शिक्षा के अभाव के कारणं वे आधुनिक कृषि–विधियों का प्रयोग नहीं कर पाते। वे रूढ़िवादिता से ग्रस्त हैं, भाग्य में विश्वास करते हैं तथा मुकदमेबाजी में ही अपना अत्यधिक धन बर्बाद कर देते हैं। 8. उत्तम बीज व खाद का अभाव – भारत में अधिक उपज देने वाले उन्नत बीजों की कमी है। कृषि-भूमि के केवल 25% भाग पर ही उत्तम बीजों का प्रयोग किया जा रहा है, जबकि 75% भूमि पर किसान आज भी परम्परागत बीज बोता है। इसके अतिरिक्त, गोबर का केवल 40% भाग खाद के रूप में प्रयोग किया जाता है। पश्चिमी देशों में प्रति हेक्टेयर 300 किग्रा से अधिक रासायनिक खाद प्रयोग की जाती है, जबकि भारत में मात्र 65 किग्रा। 9. वित्तीय सुविधाओं का अभाव – किसानों को उचित ब्याज पर ऋण प्रदान करने वाली संस्थाओं की देश में आज भी कमी है। इस कारण किसानों को ऊँची ब्याज दरों पर महाजनों से ऋण लेने पड़ते हैं, जिससे उनकी ऋणग्रस्तता बढ़ती जाती है। अत्यधिक ऋणग्रस्त होने के कारण किसान अपना समय, शक्ति तथा धन कृषि की उन्नति में नहीं लगा पाते। 10. अन्य कारण – भूमि कटाव, जलाधिक्य, नाइट्रोजन की कमी, फसल (UPBoardSolutions.com) सम्बन्धी विभिन्न बीमारियाँ, अच्छे पशुओं का अभाव, दोषपूर्ण बिक्री व्यवस्था आदि के कारण भी भारतीय कृषि की उत्पादकता कम है। कृषि-क्षेत्र में सुधार के उपाय भारतीय कृषि विश्व के अन्य देशों की तुलना में अत्यधिक पिछड़ी अवस्था में है। प्रति हेक्टेयर भूमि से कम उपज प्राप्त होती है; अतः कृषि उत्पादकता में वृद्धि हेतु निम्नलिखित प्रयास किये जाने चाहिए – 1. कृषि पर जनसंख्या का दबाव कम होना चाहिए – जोतों के उपविभाजन को रोकने तथा कृषि उत्पादन में वृद्धि हेतु यह आवश्यक है कि कृषि पर जनसंख्या का दबाव कम किया जाए। यह तभी सम्भव है जब जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण किया जाए तथा ग्रामीण क्षेत्रों में लघु व कुटीर उद्योग स्थापित किये जाएँ। 2. कृषि की नयी तकनीकी का प्रचार व प्रसार – आज इस बात की आवश्यकता है कि भारतीय कृषकों को नये व आधुनिक कृषि-यन्त्रों से अवगत कराया जाए तथा उन्नत प्रजातियों के बीज उपलब्ध कराये जाएँ, तभी भारतीय कृषि के पिछड़ेपन को दूर करके उत्पादन-क्षमता में वृद्धि की जा सकती है। 3. सिंचाई सुविधाओं का उचित विकास एवं बाढ़-नियन्त्रण – भारतीय कृषि की मानसून पर निर्भरता को समाप्त करने के लिए सिंचाई-सुविधाओं का व्यापक विस्तार किया जाना चाहिए तथा बाढ़-नियन्त्रण के उपाय अपनाये जाने चाहिए, जिससे भू-क्षरण को रोका जा सके तथा फसलों की सुरक्षा की जा सके। 4. साख-सुविधाओं का विस्तार – कृषि-क्षेत्र में नवीन तकनीकों को प्रोत्साहन देने, विपणन व्यवस्था में सुधार करने तथा उन्नत बीजों एवं उर्वरकों का प्रयोग करने के लिए उचित शर्तों पर पर्याप्त साख-सुविधाओं की आपूर्ति की जानी चाहिए। इसके लिए ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग सुविधाओं का विस्तार किया जाना चाहिए। 5. भू-सुधार कार्यक्रमों का प्रभावी क्रियान्वयन – कृषि उत्पादकता में वृद्धि के लिए यह आवश्यक है। कि भू-धारण व्यवस्था में सुधार किया जाए, कृषकों को भू-स्वामी बनाया जाए तथा अलाभकारी जोतों को समाप्त किया जाए। 6. विपणन व्यवस्था में सुधार – विपणन व्यवस्था में सुधार किया जाना चाहिए, जिससे किसानों को अपनी उपज का उचित मूल्य प्राप्त होता रहे और किसान अधिक परिश्रम से कार्य करने के लिए प्रोत्साहित होते रहें। 7. कृषि आगतों की उचित व्यवस्था – खाद एवं उर्वरक, कीटनाशक औषधियाँ एवं सुधरे बीजों को उचित मूल्य पर पर्याप्त मात्रा में वितरित किये जाने की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए। कृषि अनुसन्धान संस्थाओं द्वारा उन्नत और उत्कृष्ट बीजों के प्रयोग के लिए अनुसन्धान किये जाने चाहिए। 8. परस्पर समन्वय एवं सहयोग – कृषि से सम्बन्धित विभिन्न संस्थाओं एवं सरकार के मध्य, कृषि से सम्बन्धित अधिकारियों एवं कृषकों के मध्य तथा. बड़े एवं छोटे कृषकों के मध्य परस्पर समन्वय एवं सहयोग की भावना रहनी चाहिए। 9. कृषि का यन्त्रीकरण – कृषि उत्पादकता में वृद्धि के लिए कृषि का यन्त्रीकरण (UPBoardSolutions.com) अब आवश्यक हो गया है, अतः कृषि-कार्य में अधिकाधिक ट्रैक्टरों, पम्पों, आधुनिक हलों, श्रेसिंग मशीनों आदि का व्यापक प्रयोग किया जाना चाहिए। 10. अन्य सुझाव – उपर्युक्त के अतिरिक्त कुछ अन्य सुझाव निम्नलिखित हैं –
प्रश्न 6. हरित क्रान्ति हरित क्रान्ति का सम्बन्ध खेती की हरियाली और कृषि उत्पादकता को बढ़ाने से है। भारत की चौथी पंचवर्षीय योजना में देश को खाद्यान्नों के लिए आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य स्वीकार करते हुए हरित क्रान्ति का शुभारम्भ किया गया। हरित क्रान्ति का सम्बन्ध ऐसी रणनीति से है, जिसमें कृषि की परम्परागत तकनीक के स्थान पर आधुनिक तकनीक का प्रयोग करते हुए कृषि उत्पादन में वृद्धि के प्रयास किये गये। आधुनिक कृषिगत उपकरणों, (UPBoardSolutions.com) उन्नत बीजों, रासायनिक खादों, सिंचाई सुविधाओं का तेजी से प्रयोग बढ़ाते हुए कृषि क्षेत्र में उत्पादकता की दृष्टि से क्रान्ति लाने के प्रयास किये गये। उत्पादन तकनीक में सुधार करते हुए हल के स्थान पर ट्रैक्टर, गोबर खाद के स्थान पर रासायनिक खाद, परम्परागत घरेलू बीजों के स्थान पर उन्नत उर्वरता वाले बीज और मानसून पर सिंचाई की निर्भरता के स्थान पर ट्यूबवेल, पम्प आदि से सिंचाई करने के प्रयास हरित क्रान्ति के दौर से आरम्भ किये गये। हरित क्रान्ति के लाभ भारतीय कृषि पर हरित क्रान्ति के सफल प्रभावों में निम्नलिखित बिन्दु महत्त्वपूर्ण हैं –
हरित क्रान्ति के दोष (हानियाँ) भारतीय कृषि पर हरित क्रान्ति के कुछ दोष भी हैं, जो निम्नवत् हैं – 1. कुछ फसलों तक सीमित – हरित क्रान्ति का प्रमुख दोष यह है कि यह गेहूँ, चावल, मक्का, ज्वार, बाजरा आदि फसलों तक ही सीमित है। सभी फसलों को इसका लाभ नहीं मिल सका। व्यावसायिक फसलें इससे अछूती रही हैं। 2. कुछ राज्यों तक सीमित – हरित क्रान्ति कार्यक्रम केवल उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु राज्यों तक ही सीमित रहा, जिससे राष्ट्र का सन्तुलित विकास नहीं हो पाया। अन्य प्रदेश इससे वंचित रह गये, जिससे प्रादेशिक विषमताएँ बढ़ गयीं। 3. बड़े कृषकों को लाभ – हरित क्रान्ति से केवल बड़े कृषकों को ही लाभ (UPBoardSolutions.com) हुआ है, क्योंकि छोटे किसान साधनहीन होने के कारण इस कार्यक्रम का लाभ नहीं उठा सके हैं। 4. लक्ष्य से कम उत्पादन – हरित क्रान्ति का एक दोष यह है कि इसके आधार पर आशानुरूप उत्पादन की दिशा में सफलता प्राप्त नहीं हो सकी। अत: लोगों का विश्वास इस कार्यक्रम से हट गया। 5. पर्यावरण विघटन – हरित क्रान्ति के अनेक पर्यावरणीय दुष्परिणाम हुए हैं। अत्यधिक सिंचाई के कारण भूमिगत जल-स्तर नीचा हो गया है तथा मृदा अपरदन और भूमि उत्पादकता का ह्रास हुआ है। एक ही फसल लगातार बोने तथा उर्वरकों के अत्यधिक प्रयोग से भूमि के प्राकृतिक तत्त्व विनष्ट हो जाते हैं। इनक दीर्घकालीन दुष्परिणाम होते हैं। हरित क्रान्ति की सफलता सम्बन्धी सुझाव हरित क्रान्ति को सफल बनाने के उपाय/सुझाव निम्नलिखित हैं –
प्रश्न 7. भूमि-सुधार ‘भूमि-सुधार’ से अभिप्राय उन संस्थागत परिवर्तनों से है जिनसे भूमि का वितरण खेती करने वाले किसानों के पक्ष में होता है जिनसे जोतों के आकार में वृद्धि होने से खेत आर्थिक दृष्टि से लाभदायक बन जाते हैं। दूसरे शब्दों में, भूमिसुधार में वे सभी कार्य सम्मिलित किये जाते हैं जिनका सम्बन्ध भूमि-स्वामित्व एवं भूमि जोत दोनों में होने वाले सुधारों से है; जैसे—मध्यस्थों को उन्मूलन, जोतों की सुरक्षा, चकबन्दी, जोतों की उच्चतम सीमा का निर्धारण, सहकारी (UPBoardSolutions.com) खेती आदि। (क) भारत में भूमि-सुधार के लिए किये गये प्रयास 1. जमींदारी उन्मूलन – देश की लगभग 40% कृषि योग्य भूमि पर मध्यस्थ या जमींदार कब्जा किये हुए थे। ये मध्यस्थ कृषि-कार्य कृषि-श्रमिकों द्वारा करवाते थे। सन् 1952 तक लगभग सभी राज्यों में जमींदारी प्रथा का उन्मूलन कर दिया गया था, जिसके फलस्वरूप 2 करोड़ काश्तकारों को भू-स्वामित्व के अधिकार प्राप्त हो गये। 2. लगान का नियमन – विभिन्न कानूनों के माध्यम से देश में लगान की राशि निश्चित कर दी गयी है, जिससे किसानों को आर्थिक भार घट गया है। पहले काश्तकारों को कुल उपज का लगभग आधा भाग भू-स्वामी को लगान के रूप में देना पड़ता था, किन्तु अब देश के किसी भी राज्य में लगान की दर उपज के 2.5% से अधिक नहीं है। 3. भूमि की बेदखली पर रोक – विभिन्न राज्यों में अधिनियम पारित करके भू-स्वामियों द्वारा पट्टेदारों को मनमाने ढंग से बेदखल करने के अधिकार को समाप्त कर दिया गया है। 4. जोतों की अधिकतम सीमा का निर्धारण (हदबन्दी) – विभिन्न राज्यों में वहाँ की परिस्थितियों के अनुसार जोतों की अधिकतम सीमा का निर्धारण किया जा चुका है। अधिकतम सीमा से अधिक भूमि का सरकार अधिग्रहण कर लेती है और ऐसी भूमि को भूमिहीन किसानों में बाँट दिया जाता है। अब तक देश में 30 लाख हेक्टेयर भूमि अतिरिक्त घोषित की जा चुकी है, जिसमें से अधिकांश भूमि भूमिहीन किसानों में बाँटी जा चुकी है। 5. चकबन्दी – चकबन्दी का अर्थ है-एक ही परिवार के बिखरे हुए खेतों को एक स्थान पर संगठित करना। अब तक देश में लगभग 592 हेक्टेयर भूमि की चकबन्दी की जा चुकी है। 6. सहकारी खेती – इस व्यवस्था के अन्तर्गत एक गाँव के किसान अपनी भूमि को एकत्रित करके उसे बड़े-बड़े फार्मों में बाँट लेते हैं। भूमि पर किसानों का व्यक्तिगत स्वामित्व बना रहता है, किन्तु कृषि-कार्य के प्रबन्ध के लिए किसान सहकारी समिति गठित कर लेते हैं, (UPBoardSolutions.com) समस्त कृषि-कार्यों को मिलकर करते हैं तथा लाभ को भूमि के मूल्य के आधार पर सदस्यों में बाँट दिया जाता है। 7. भूदान आन्दोलन – भूदान का अर्थ है-स्वेच्छा से भूमि दान में देना। भूमि-सुधार के इस ऐच्छिक आन्दोलन के प्रवर्तक आचार्य विनोबा भावे थे जो भूमि के असमान वितरण को समाप्त करना चाहते थे। इस आन्दोलन के फलस्वरूप 45 लाख एकड़ भूमि तथा 39,672 गाँव दान में मिल चुके हैं। 12 लाख एकड़ भूमि का भूमिहीन किसानों में वितरण भी किया जा चुका है। (ख) उत्पादन में वृद्धि के लिए किये गये प्रयास भारत सरकार द्वारा किये गये प्रयासों की अपनी महत्ता है, जो निम्नवत् है – 1. सिंचाई और जल संसाधन – भारत सरकार सिंचाई क्षमता को निरन्तर बढ़ाने का प्रयास कर रही है। मार्च 2010 तक 9.82 लाख हेक्टेयर सिंचाई क्षमता सृजित की गयी है। सरकार को प्रयास है कि सृजित क्षमता और उसके उपभोग के बीच के अन्तर को पूरा किया जाए। 2. बीज – कृषि में प्रति एकड़ उच्च उत्पादकता के लिए अच्छी किस्म के बीजों का प्रयोग महत्त्वपूर्ण है। राष्ट्रीय बीज नीति, किसानों को बीज की श्रेष्ठ किस्में और पौधारोपण सामग्री पर्याप्त मात्रा में प्रदान करती है। 3. उर्वरक – उर्वरक (एन०पी०के०) की खपत में निरन्तर वृद्धि हो रही है। वर्ष 2009-10 में इसकीखपत 264.86 लाख टन तक पहुँच गयी। उर्वरकों पर सरकार अनुदान भी दे रही है, जिससे किसान लोग अधिक-से-अधिक इसका प्रयोग करें। 4. कृषि यान्त्रिकीकरण – कृषि में अब पशु-शक्ति का योगदान घटता जा रहा है। सन् 1971 में 45.30% से घटकर चालू वर्ष 2001-02 के दौरान यह 9.89% ही रह गया। सिंचाई और फसल काटने तथा ग्राहकों के प्रचालनों में भी पर्याप्त यान्त्रिकीकरण की ओर प्रगति की गयी है। 5. कृषि ऋण का प्रवाह – कृषि और सम्बद्ध कार्यकलापों के लिए संस्थागत ऋण का प्रवाह वर्ष 2001-02 में हैं ₹ 66.771 करोड़ के स्तर तक पहुँच गया। किसान क्रेडिट कार्ड योजना वर्ष 1998 में प्रारम्भ की गयी। इस योजना ने बड़ी लोकप्रियता प्राप्त की और 27 वाणिज्यिक बैंकों, 373 जिला केन्द्रीय सहकारी बैंकों, राज्य सहकारी बैंकों और 196 ग्रामीण बैंकों द्वारा इसको प्रारम्भ किया गया है। 30 नवम्बर, 2001 ई० की स्थिति के अनुसार 20.4 मिलियन किसान क्रेडिट कार्ड, जिनमें ₹ 43,392 करोड़ की ऋण मंजूरियाँ सम्मिलित हैं, जारी किये गये थे। देश में 31 मार्च, 2011 तक बैंक द्वारा (UPBoardSolutions.com) ₹ 1038 करोड़ किसान क्रेडिट कार्ड जारी किए जा चुके हैं। किसान क्रेडिट कार्ड धारकों के लिए दुर्घटना से होने वाली मृत्यु अथवा स्थायी अपंगता के लिए ₹ 50,000 तथा ₹ 2,50,000 के व्यक्तिगत बीमा कवच को भी अन्तिम रूप दे दिया गया है। 6. कृषि बीमा – किसानों के हित और कृषि को एक व्यवसाय का रूप प्रदान करने की दिशा में राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना’ एक सराहनीय कदम है। यह योजना कृषि-मन्त्रालय की ओर से साधारण बीमा निगम द्वारा लागू की जा रही है। इस योजना का उद्देश्य सूखे, बाढ़, ओलावृष्टि, चक्रवात, आग, कीट, बीमारियों जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण फसल को हुई क्षति से किसानों का संरक्षण करना है। 7. कृषि-शिक्षण एवं अनुसन्धान – देश में कृषि–शिक्षण के लिए 21 विश्वविद्यालय खोले गये हैं। इसके अतिरिक्त रेडियो तथा दूरदर्शन पर भी प्रतिदिन कृषि-उत्पादन बढ़ाने के उपाय बताये जाते हैं। कृषि सम्बन्धी शोध तथा अनुसन्धानों पर बल दिया जा रहा है। 8. कृषि उपज की बिक्री में सुधार – कृषक को उसकी उपज का उचित मूल्य दिलवाने के लिए कई प्रयत्न किये गये हैं –
9. भण्डारण एवं वितरण की व्यवस्था – अन्न के भण्डारण के लिए गोदाम बनाये गये हैं तथा उनका समुचित वितरण किया जाता है। प्रश्न 8. (ख) चकबन्दी – चकबन्दी का अर्थ है एक ही परिवार के बिखरे हुए खेतों को एक स्थान पर संगठित करना। अब तक देश में लगभग 592 हेक्टेयर भूमि की चकबन्दी की जा चुकी है चकबन्दी के दो रूप हैं-ऐच्छिक चकबन्दी एवं अनिवार्य चकबन्दी। ऐच्छिक चकबन्दी की प्रक्रिया में किसानों पर बिखरे हुए खेतों की चकबन्दी कराने के लिए कोई दबाव न डालकर किसान की इच्छा पर छोड़ दिया जाता है, जब कि अनिवार्य चकबन्दी की प्रक्रिया में किसानों की इच्छा को ध्यान में नहीं रखा जाता, वरन् किसानों को अनिवार्य रूप से चकबन्दी करानी पड़ती है। भारत में चकबन्दी का कार्य प्रगति पर है। पंजाब और हरियाणा में चकबन्दी का कार्य पूरा किया जा चुका है। उत्तर प्रदेश में भी 90% कार्य पूरा हो चुका है। चकबन्दी के मार्ग में आने वाली कठिनाइयाँ निम्नलिखित हैं –
चकबन्दी में अनेक कठिनाइयाँ निहित होते हुए भी यह किसानों को अनेक दृष्टि से लाभ पहुँचाती है –
(ग) हदबन्दी – एक किसान को उतनी ही भूमि का स्वामी होना चाहिए जितनी भूमि को वह स्वयं जोत सकता हो। इससे अधिक भूमि पर वह मध्यस्थ का ही कार्य करेगा, अतः भू-जोतों की अधिकतम सीमा (हदबन्दी) लागू की जानी चाहिए। इस अतिरिक्त भूमि को भूमि जोतनेवाले अन्य कृषि श्रमिकों में वितरित कर देना चाहिए। भारत के राज्यों में भूमि की हदबन्दी के कानूनों को लागू करने के परिणामस्वरूप लगभग 30 लाख हेक्टेयर भूमि को अतिरिक्त घोषित कर दिया गया है। भूमि जोतों की हदबन्दी करने के चार उद्देश्य है।
प्रश्न 9. (ख) भावी सम्भावनाएँ – कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि भारतीय कृषि की भावी सम्भावनाएँ पर्याप्त उज्ज्वल हैं, क्योंकि भारतीय कृषि में सुधार आरम्भ हो चुके हैं और कई दिशाओं में उनके विस्तार की सम्भावनाएँ हैं। ये दिशाएँ निम्नलिखित हैं –
प्रश्न 10. कृषि श्रमिक कृषि श्रमिक से अभिप्राय ऐसे व्यक्तियों से है, जो अपनी आजीविका के लिए कृषि पर आश्रित हैं। दूसरे शब्दों में, जिनकी आय का अधिकांश भाग कृषि में मजदूरी करने से ही प्राप्त होता है। भारत एक कृषिप्रधान देश है। जहाँ 70% लोग कृषि से सम्बद्ध कार्यों में लगे हुए हैं, परन्तु सभी को कृषक नहीं कहा जा सकता। कुछ व्यक्ति भूमिहीन हैं और वे दूसरों की भूमि पर काम करते हैं। ये अपनी स्वयं की शारीरिक शक्ति, हल-बैल तथा अन्य उपकरणों से दूसरों (UPBoardSolutions.com) की भूमि जोतते हैं और उत्पन्न फसल में से एक निश्चित हिस्सा प्राप्त करते हैं। वे कहीं-कहीं बँधुआ मजदूरों के रूप में भी कार्य करते हैं। ऐसे व्यक्ति कृषि श्रमिक की श्रेणी में आते हैं। कृषि जाँच समिति के अनुसार, “कृषि श्रमिक वह व्यक्ति है, जो वर्ष-पर्यन्त अपने कार्य के समस्त दिनों में आधे से अधिक दिन किराये के श्रमिक के रूप में कृषि-कार्यों में लगा रहता है। भारतीय कृषि श्रमिकों की समस्याएँ भारतीय कृषि श्रमिकों के सम्मुख प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित हैं – 1. मौसमी रोजगार एवं बेरोजगारी – अधिकांश कृषि श्रमिकों को वर्षभर कार्य नहीं मिल पाता है। 7.46 करोड़ कृषि श्रमिकों को वर्ष में 197 दिन अर्थात् साढ़े छ: महीने काम मिल पाता है। 40 दिन वह अपना कार्य करता है तथा शेष 128 दिन अर्थात् लगभग 4 महीने वह बेकार रहता है। बाल श्रमिकों को। वर्ष में केवल 204 दिन व स्त्री श्रमिकों को 141 दिन रोजगार मिलता है। शेष समय में ये लोग बेरोजगार रहते हैं। 2. ऋणग्रस्तता – भारतीय कृषि श्रमिकों को कम मजदूरी मिलती है। वह वर्ष में कई महीने बेरोजगार रहते हैं। इस कारण उनकी निर्धनता बढ़ जाती है। अपने सामाजिक कार्यो; अर्थात् विवाह, जन्म, मरण आदि के खर्चे की पूर्ति वे महाजनों से ऋण लेकर करते हैं। परिणामस्वरूप ऋणग्रस्तता अधिक होती जाती है और वे महाजन के चंगुल से कभी भी नहीं छूट पाते। 3. निम्न मजदूरी तथा निम्न जीवन-स्तर – भारत में कृषि श्रमिकों की मजदूरी इनकी आयु, लिंग आदि से निर्धारित होती है। साधारणत: स्त्रियों, बच्चों व बूढ़ों को कम मजदूरी दी जाती है। औसत दैनिक मजदूरी की दर इतनी कम होती है कि उस कम आय से कृषि श्रमिकों की आवश्यक आवश्यकताओं की भी पूर्ति नहीं हो पाती। इस कारण उनका जीवन-स्तर अत्यधिक निम्नकोटि का हो जाता है। 4. बेगार की समस्या – ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ बड़े भू-स्वामी कृषि श्रमिकों को ऋण देते हैं। जब तक श्रमिक उस ऋण को वापस नहीं लौटाते तब तक वे श्रमिकों को कम मजदूरी देकर काम लेते हैं तथा कभी-कभी बिना मजदूरी दिये बेगार के रूप में भी काम कराते हैं। 5. आवास की समस्या – कृषि श्रमिकों की आवासीय स्थिति दयनीय होती है। इनके मकान प्रायः मिट्टी के कच्चे या झोंपड़ियाँ होती हैं, जिनमें सर्दी, गर्मी व वर्षा ऋतु में सुरक्षा का अभाव होता है। प्रायः समस्त परिवार एवं पशु रात के समय एक ही मकान में रहते हैं, जिससे वातावरण भी दूषित रहता है। 6. सहायक धन्धों की कमी – भारतीय कृषि श्रमिक वर्ष में लगभग 4 माह (UPBoardSolutions.com) बेकार रहते हैं। इस बेकार समय में उन्हें कोई और कार्य नहीं मिल पाता, क्योंकि पूँजी के अभाव में वे सहायक कुटीर-धन्धों की भी स्थापना नहीं कर पाते। 7. मशीनीकरण के द्वारा उत्पन्न समस्या – आज कृषि के क्षेत्र में अनेक नवीन उपकरणों एवं मशीनों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है। परिणामस्वरूप कृषि श्रमिकों के सामने और भी अधिक बेकारी की ” समस्या उत्पन्न होती जा रही है। कृषि श्रमिकों की समस्याओं के समाधान हेतु सुझाव भारतीय कृषि श्रमिकों की दशा में सुधार करने के लिए निम्नलिखित सुझाव भी दिये जा सकते हैं – 1. जनसंख्या पर नियन्त्रण – कृषि श्रमिकों की दशा में सुधार करने के लिए आवश्यक है कि जनसंख्या-वृद्धि पर नियन्त्रण किया जाए। इसके लिए परिवार नियोजन कार्यक्रम के प्रति श्रमिकों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। 2. न्यूनतम मजदूरी कानून का प्रभावशाली क्रियान्वयन – कृषि श्रमिकों हेतु जो मजदूरी अधिनियम सरकार द्वारा बनाया हुआ है, उस नियम का क्रियान्वयन कड़ाई से किया जाना चाहिए। 3. काम करने की परिस्थितियों में सुधार – मौसम की दृष्टि से श्रमिक को किसी भी प्रकार की सुविधा नहीं होती, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है। अत: कृषि श्रमिकों की कार्य करने की परिस्थितियों में परिवर्तन किया जाना चाहिए। 4. शिक्षा का प्रसार – अधिकांश कृषि श्रमिक अशिक्षित हैं। उन्हें अपने अधिकार एवं कर्तव्यों के विषय में उचित जानकारी नहीं है। इसके लिए कृषि श्रमिकों को शिक्षित करना अनिवार्य है। 5. कृषि श्रमिकों का दृढ़ संगठन – औद्योगिक श्रमिकों की भाँति कृषि श्रमिकों को भी अपने अधिकारों की रक्षा एवं विकास के लिए दृढ़ श्रमिक संगठन बनाने चाहिए। 6. वैकल्पिक रोजगार की व्यवस्था – कृषि श्रमिकों की समस्याओं के समाधान हेतु आवश्यक है कि ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि व्यवसाय के अतिरिक्त कुटीर उद्योग, लघु उद्योग एवं अन्य ग्रामीण व्यवसायों का अधिक-से-अधिक विकास किया जाए। 7. भूमिहीन श्रमिकों के लिए भूमि की व्यवस्था – भूमिहीन श्रमिकों की दशा में सुधार करने एवं उन्हें शोषण से मुक्त कराने के लिए यह आवश्यक है कि उनके लिए भूमि की व्यवस्था की जाए। 8. आवास की व्यवस्था – कृषि श्रमिकों को मकान के लिए नि:शुल्क भूमि (UPBoardSolutions.com) तथा बनाने के लिए आर्थिक सहायता भी उपलब्ध करायी जानी चाहिए। 9. कृषि श्रमिकों के लिए वित्त की व्यवस्था – कृषि श्रमिकों को ऋण से मुक्ति दिलाने के लिए पुराने ऋण पूर्णतः समाप्त किये जाएँ तथा भविष्य में श्रमिकों की आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखकर एक दीर्घकालीन वित्त-व्यवस्था की जाए, जो श्रमिकों के संकट के समय उन्हें सहायता प्रदान कर सके। समस्या के निवारण हेतु सरकार द्वारा किये गये प्रयास कृषि श्रमिकों की समस्या के निवारण हेतु सरकार ने निम्नलिखित कदम उठाये हैं – 1. बँधुआ मजदूरी प्रथा का अन्त – ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीन मजदूरों की एक बड़ी संख्या ऐसी है जो बँधुआ मजदूरों के रूप में काम करती थी। जुलाई, 1975 ई० में प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 20 सूत्री कार्यक्रम के अन्तर्गत यह घोषित किया कि अगर कहीं बँधुआ मजदूर हैं तो उन्हें मुक्त कर दिया जाए। केन्द्रीय श्रम मन्त्रालय ने एक अध्यादेश जारी करके बँधुआ मजदूरी प्रथा को समाप्त कर दिया। 2. न्यूनतम मजदूरी अधिनियम – सन् 1948 ई० में भारत सरकार ने कृषि श्रमिकों पर न्यूनतम मजदूरी कानून लागू किया था। इस कानून में सन् 1951, 54, 59, 60 तथा 75 में संशोधन किये गये। इस कानून द्वारा मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी की दर निर्धारित कर दी गयी है। 3. भूमिहीन श्रमिकों के लिए भूमि की व्यवस्था – सरकार ने जोतों की सीमा का निर्धारण करके अतिरिक्त भूमि को भूमिहीन कृषि श्रमिकों में बाँटने की व्यवस्था की तथा भूदान (भूदान आन्दोलन का प्रारम्भ 1952 ई० में किया गया), ग्रामदान आन्दोलनों आदि से प्राप्त भूमि को भूमिहीन कृषि श्रमिकों में बाँटा गया। लगभग सभी राज्य सरकारों ने इस प्रकार से प्राप्त भूमि के हस्तान्तरण व प्रबन्ध के लिए आवश्यक कानून बनाये हैं। 4. भूमिहीन कृषि श्रमिकों के लिए आवास-व्यवस्था – भूमिहीन कृषि श्रमिकों को मकान बनाने के लिए नि:शुल्क भूमि की व्यवस्था कराने की योजना को 1971 ई० से आरम्भ किया गया है। निर्धन परिवारों को आवास-सुविधा उपलब्ध करने के लिए निर्बल वर्ग आवास योजना तथा इन्दिरा आवास योजनाएँ चल रही हैं। 5. ग्रामीण कार्य योजना – कृषि श्रमिकों की बेरोजगारी दूर करने के लिए केन्द्रीय सरकार द्वारा ग्रामीण कार्य योजना आरम्भ की गयी। इसके अन्तर्गत लघु और मध्यम सिंचाई साधनों का विकास, भूमि संरक्षण आदि कार्य सम्मिलित हैं। 6. कृषि श्रमिक सहकारिता संगठन – कृषि श्रमिक सहकारी समितियाँ, लघु एवं सीमान्त कृषकों, ग्रामीण दस्तकारों तथा श्रमिकों को सुविधाएँ देने के उद्देश्य से स्थापित की गयी हैं। ऐसी समितियाँ नहरों एवं तालाबों की खुदाई, सड़कों के निर्माण आदि कार्यों का ठेका लेती हैं, जिससे श्रमिकों को रोजगार के अवसर मिलते हैं। अब तक लगभग ऐसी 213 समितियों की स्थापना हो चुकी है। 7. कुटीर एवं लघु उद्योगों का विकास – कृषि पर बढ़ती हुई जनसंख्या के भार को कम करने के लिए सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर एवं लघु उद्योगों के विकास को महत्त्व दिया है। 8. सीमान्त कृषक और कृषि श्रमिक योजना – सीमान्त कृषकों तथा कृषि श्रमिकों की सहायता के लिए सरकार ने देश के 87 जिलों में पायलट प्रोजेक्ट्स चलाये हैं। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रत्येक जिले में 20 हजार सीमान्त कृषकों तथा कृषि श्रमिकों को वित्तीय सहायता दी गयी है। 9. ऋण-मुक्ति कानून – कृषि श्रमिकों को ऋण से मुक्ति दिलाने के लिए उत्तर प्रदेश तथा कई अन्य राज्यों ने अध्यादेश के माध्यम से कानून बनाया है। सन् 1975 में लघु कृषकों, भूमिहीन कृषकों व कारीगरों को महाजनों के ऋणों से मुक्ति की (UPBoardSolutions.com) घोषणा की गयी है। लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का योगदान भारत एक कृषि-प्रधान देश है। यहाँ की अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहाँ 70% लोग कृषि और कृषि से सम्बद्ध कार्यों में लगे हुए हैं। कृषि ही देश की अधिकांश जनसंख्या को आजीविका प्रदान करती है। राष्ट्रीय उत्पाद में कृषि का एक बड़ा अंश है। हमारे देश के अधिकतर उद्योग-धन्धे कृषि पर आधारित हैं। इस प्रकार भारतीय अर्थव्यवस्था का ताना-बाना कृषि पर ही बुना हुआ है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि के महत्त्व व योगदान को निम्नवत् स्पष्ट किया गया है – 1. राष्ट्रीय आय का प्रमुख आधार – भारत के 58% से अधिक लोग कृषि और कृषि से सम्बद्ध कार्यों में लगे हुए हैं। स्पष्ट है कि कृषि राष्ट्रीय आय का प्रमुख आधार है। वर्ष 2000-01 में, जब कृषि-क्षेत्र में वृद्धि-0.2% थी तो सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर भी घट कर 4% रह गयी थी। इसी आधार पर कहा जा सकता है कि कृषि-क्षेत्र राष्ट्रीय आय का मुख्य स्रोत और आधार है। राष्ट्रीय आय को लगभग 28% भाग कृषि-आय से प्राप्त होता है। 2. विदेशी व्यापार में महत्त्व व विदेशी मुद्रा की प्राप्ति – कृषि निर्यात देश के कुल वार्षिक निर्यात का 13 से 18% भाग है। वर्ष 2011-12 में यह 27.68% था। इस वर्ष देश से १ 3.804 करोड़ से अधिक मूल्य के कृषि उत्पादों का निर्यात किया गया, जिनमें 23% (UPBoardSolutions.com) हिस्सा समुद्री उत्पादों का था। अनाज (अधिकांश चावल), खली, चाय, कॉफी, काजू एवं मसाले अन्य महत्त्वपूर्ण उत्पाद हैं, जिनमें से प्रत्येक का देश के कुल कृषि निर्यातों में लगभग 5 से 15% हिस्सा है। मांस एवं मांस उत्पाद, फलों एवं सब्जियों के निर्यात में भी वृद्धि हुई है। 3. उद्योगों का आधार – भारत के प्रमुख उद्योग-धन्धे कच्चे माल के लिए कृषि पर ही आधारित हैं। सूती वस्त्र, जूट, चीनी, वनस्पति तेल, हथकरघा, खाद एवं पेय पदार्थ आदि धन्धे कृषि पर आधारित हैं। इसके अतिरिक्त कृषि में प्रयोग होने वाले यन्त्र; जैसे-ट्रैक्टर, टिलर, उर्वरक आदि बनाने वाले उद्योगों की तो कृषि ही जननी है। कीटनाशक दवाइयाँ बनाने का उद्योग भी कृषिजनित ही है। 4. राजस्व की प्राप्ति – कृषि से राज्य सरकारों को लगान के रूप में राजस्व की प्राप्ति होती है। इसके अतिरिक्त विभिन्न मण्डी समितियों को भी कृषि से आये प्राप्त होती है। कहीं पर स्थानीय निकाय भी कृषि उत्पादों के आवागमन पर चुंगी कर की वसूली करते हैं। 5. रोजगार के अवसर – देश की लगभग 58% से अधिक जनसंख्या कृषि कार्य में लगी हुई है, जिसको कृषि से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार प्राप्त होता है। अन्यथा भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश में इतने अधिक रोजगार के अवसर सम्भव नहीं हो पाते। 6. पूँजी संचय में योगदान – कृषि देश के आर्थिक विकास के लिए पूँजी जुटाने में सहायक होती है, क्योकि कृषि द्वारा उत्पादन तथा आय में वृद्धि होती है। 7. खाद्य पदार्थों की प्राप्ति – भारतीय जनसंख्या को भोज्य पदार्थ कृषि से ही प्राप्त होते हैं। पहले भारत खाद्य-पदार्थों का आयात करता था, जिसका हमारी आर्थिक व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता था। परन्तु आज जनसंख्या बढ़ जाने पर भी कृषि में हरित क्रान्ति के कारण भारत खाद्य पदार्थों में आत्मनिर्भर हो गया है। 8. आजीविका का आधार – भारत की लगभग तीन-चौथाई आबादी गाँवों में रहती है, जिसकी आजीविका का प्रमुख स्रोत कृषि है। देश की लगभग दो-तिहाई जनसंख्या कृषि-कार्य से आजीविका प्राप्त करती है। भू-स्वामियों तथा कृषकों के अतिरिक्त भूमिहीन कृषक, कृषि मजदूरी द्वारा आजीविका प्राप्त करते हैं। 9. बाजार के विस्तार में सहायक – कृषि उत्पादन में वृद्धि होने से वस्तुओं की माँग बढ़ती है, जिससे बाजार का विस्तार होता है। 10. परिवहन का विकास – कृषि उत्पादों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने में रेल एवं सड़क परिवहन का उल्लेखनीय योगदान है। इस प्रकार कृषि परिवहन सेवाओं का भी विकास करती है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था (UPBoardSolutions.com) में कृषि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसी के माध्यम से ही उसे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई है। प्रश्न
2.
प्रश्न 3. प्रश्न 4. अपखण्डन – भूमि के अपखण्डन का अर्थ है-कृषि की उस समस्त भूमि (UPBoardSolutions.com) से जो एक स्थान पर न होकर अनेक स्थानों पर छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखरी हुई होती है और उन सभी में से प्रत्येक हिस्सेदार को अपना हिस्सा प्राप्त करना होता है। भारत में भूमि के अपखण्डन के निम्नलिखित कारण पाये जाते हैं –
प्रश्न 5. प्रश्न 6. उन्नत किस्म के बीजों में भारतीय भूमि तथा दशाओं के अनुसार सुधार करके विभिन्न फसलों की कृषि उत्पादकता में वृद्धि की जा सकती है। उदाहरण के लिए-रूस के कृषि वैज्ञानिक ने उन्नत बीजों की एक नयी विधि का आविष्कार किया है जिसके द्वारा आलू व टमाटर दोनों एक ही पौधे से तैयार किये जाएँगे। इस नयी विधि से पौधे की जड़ में आलू और ऊपर टहनियों में टमाटर पैदा होगा। इस नयी किस्म के पौधे का नाम आलू और टमाटर के नामों का मिला-जुला नाम पोमेटो (Pomato) रखा गया है। केन्द्रीय आलू अनुसन्धान संस्थान, शिमला ने आलू के बहुत छोटे आकार के बीज का (UPBoardSolutions.com) आविष्कार किया है, जिसे ‘सूक्ष्म कन्द’ कहा जाता है। वर्तमान में आलू की औसत उपज 15 टन प्रति हेक्टेयर है किन्तु इस नये बीज ‘सूक्ष्म कन्द’ से आलू की औसत उपज 25 टन प्रति हेक्टेयर प्राप्त हुई है जो कि अमेरिका व जर्मनी की औसत उपज के बराबर है। उन्नत बीजों व उर्वरकों के अधिक प्रयोग की स्थिति में खेती को अधिक पानी की आवश्यकता होती है। अतः सिंचाई के साधनों में वृद्धि तथा सुधार करके कृषि उत्पादकता में वृद्धि की जा सकती है। अतिलघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1.
प्रश्न 2.
प्रश्न
3.
प्रश्न 4. प्रश्न 5.
प्रश्न 6.
प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10.
प्रश्न 11.
प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15.
प्रश्न 16.
प्रश्न 17.
प्रश्न 18. बहुविकल्पीय प्रश्न 1. भारत से निर्यात होने वाले प्रमुख कृषि पदार्थ हैं – (क) गेहूँ, चावल; चाय, कहवा 2. भारतीय कृषि में निम्न उत्पादकता का कारण है – (क) पिछड़ी तकनीकी 3. हरित क्रान्ति सम्बन्धित है – [2013] (क) कृषि के व्यापारीकरण से 4. हरित क्रान्ति का आधार है – (क) उन्नत बीज, सिंचाई, उर्वरक, कीटनाशक 5. भारतीय कृषि के पिछड़ेपन का/के कारण है / हैं – (क) कृषकों की निर्धनता 6. भारत में कृषि भूमि का प्रतिशत क्या है? [2012] (क)
19.27% 7. भू-दान आन्दोलन कब प्रारम्भ किया गया? (क) 1951 ई० में 8. अन्त्योदय कार्यक्रम क्रियान्वित करने में अग्रणी राज्य है – (क) उत्तर प्रदेश 9. भारत में भूमि-सुधार के अन्तर्गत सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम है – (क) चकबन्दी 10. भारत में हरित क्रान्ति का सूत्रपात बीसवीं शताब्दी के किस दशक में हुआ? (क) पाँचवें 11. निम्नलिखित में से कौन कृषि निविष्टि है? [2016] (क) बीज 12. ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका का मुख्य स्रोत क्या है? [2010, 18] (क) नौकरी 13. निम्नलिखित में से कौन कृषि निविष्टि नहीं है? [2013] (क) बीज 14. कौन कृषि आगत नहीं है? [2014] (क) बीज उत्तरमाला Hope given UP Board Solutions for Class 10 Social Science Chapter 4 are helpful to complete your homework. If you have any doubts, please comment below. UP Board Solutions try to provide online tutoring for you. बिहार में कृषि श्रमिकों को संगठित करने में मुख्य कठिनाई क्या है?बिहार में कृषि श्रमिकों को संगठित करने में मुख्य कठिनाई क्या है। उत्तर - बिहार से कृषि-श्रमिकों के पलायन का मुख्य कारण यहाँ की कृषि का पिछड़ापन इसकी मौसमी प्रकृति तथा राज्य में वृहत उद्योगों का सर्वथा अभाव है।
कृषि श्रमिकों की मुख्य समस्याएं क्या हैं?निम्न मजदूरी:- भारत में कृषि श्रमिकों की मजदूरी की दर अत्यधिक नीची हैं जो उनकी लिंग आदि से निर्धारित होती है। जैसे स्त्रियों बच्चों व बूढ़ों को कम मजदूरी दी जाती है। उससे उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती। और इस कारण उनका जीवन स्तर तथा स्वास्थ्य निम्न कोटि का हो जाता है।
बिहार में कृषि मजदूरों की समस्या क्या है?बिहार कृषि की निम्न उत्पादकता, बढ़ती उत्पादन लागत, वाजिब मूल्य नहीं मिलने, एमएसपी पर सरकारी खरीद नहीं होने, आधारभूत संरचना के संकट, मुख्य वाणिज्यिक फसल गन्ना के वाजिब मूल्य तथा मूल्य के भुगतान, नदी जल प्रबन्धन, मजदूरों के पलायन, पूँजी की कमी इत्यादि समस्याओं से गुजर रहा है।
बिहार में कृषि श्रमिकों की समस्याओं के निदान के क्या उपाय हैं?काम के घंटों को निश्चित किया जाना चाहिए । मजदूरों के लिए मकान एवं कृषि कल्याण केन्द्रों की स्थापना करनी चाहिए। कृषक मजदूरों की एक बहुत बड़ी समस्या यह है कि वे अशिक्षित है अतः उन्हें शिक्षित करना आवश्यक है। इन सब बातों पर ध्यान देकर इनकी समस्याओं का निदान संभव है।
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