भगवान के भक्त कैसे होते हैं? - bhagavaan ke bhakt kaise hote hain?

क्या आप जानते हैं कि भगवान का अनुभव करने का अर्थ है स्वयं का अनुभव करना, क्योंकि भगवान वही हैं जो हम वास्तव में हैं? हमारे शरीर के भीतर रहनेवाले शुद्ध आत्मा ही हमारा वास्तविक स्वरूप है। और जब हम इस शुद्ध आत्मा का अनुभव करते हैं, तो इसका मतलब यह है कि हमने भगवान का अनुभव किया है।

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हम शुद्ध आत्मा का अनुभव कैसे करते हैं?

हम कहते हैं कि आत्मा हमारे शरीर में है। और हमारा लक्ष्य है की हमें उसका अनुभव करना है।

लेकिन हम आत्मा को न तो देख सकते हैं और न ही महसूस कर सकते हैं। हमारी आत्मा पूर्ण अंधकार में है। तो हम इसे कैसे ढूंढें?

कौन हमारा मार्गदर्शन कर सकता है और हमें हमारी ध्येय तक पहुंचा सकता है?

आत्मा क्या है, आत्मा के गुण क्या हैं, आत्मा का अनुभव करना कितना महत्वपूर्ण है और यह अनुभव हमें किस ओर ले जाता है, इसकी एक सैद्धांतिक समझ प्राप्त करने के लिए हम निश्चित रूप से पुस्तकों, शास्त्रों और आध्यात्मिक साहित्य की मदद ले सकते हैं। हम उन ज्ञानी पुरुषों के जीवन-अनुभवों के बारे में भी पढ़ सकते हैं, जो इस मार्ग पर चले हैं और जिन्होंने वास्तव में आत्मा का अनुभव किया है, क्योंकि यह हमें बड़ी मात्रा में यह प्रेरणा देता है कि कैसे हम अपने लक्ष्य को पाने के लिए अपने आपको प्रेरित करते रहें।

लेकिन क्या यह माध्यम हमें आत्मा का वास्तविक अनुभव करवा सकते हैं? 

नहीं, क्योंकि एक प्रज्वलित हुई मोमबत्ती की छवि अंधकार को दूर नहीं कर सकती है, केवल एक प्रज्वलित हुई मोमबत्ती ही अंधकार को दूर कर सकती है।

इसी प्रकार से, केवल एक ज्ञानी पुरुष ही हमारे आत्मा को जाग्रत कर सकते है।

मान लीजिए हम एक बच्चे को एक नोटबुक, एक पेंसिल और एक पाठ्यपुस्तक देते हैं। अब, क्या वह अपने आप वर्णमाला सीख पाएगा? नहीं। उसे किसी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता है जो उसे यह एहसास दिला सके कि यह “क” है और यह “ख” है। जिस तरह से एक छोटे बच्चे को वर्णमाला सिखाने के लिए एक शिक्षक की आवश्यकता होती है, उसी तरह से हमें आत्म साक्षात्कार प्राप्त करने के लिए एक आत्मज्ञानी की आवश्यकता होती है। ज्ञानी पुरुष, ऐसा व्यक्ति होता है जो स्वयं ज्ञानी पुरुष है और दूसरों को भी आत्मा जाग्रत करवा सकते है। ऐसे साक्षात व्यक्ति की कृपा से हम भी अपनी आत्मा का अनुभव कर सकते हैं।

आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने का यह सबसे आसान रास्ता है; भगवान का अनुभव करने और भगवान की उपस्थिति को महसूस करने का सबसे आसान रास्ता है।

वास्तविक आत्मा केवल एक ज्ञानी - प्रत्यक्ष ज्ञानी से ही प्राप्ति हो सकती है!

हमेशा से, हमने हमेशा यही माना है कि “मैं शरीर हूं, मैं ही नाम हूं” हालांकि, जब प्रत्यक्ष ज्ञानी हमें आत्मा का ज्ञान देते हैं, तब हमें महसूस होता है कि "मैं शुद्ध आत्मा हूं" हम महसूस करते हैं कि शुद्ध आत्मा ही वास्तविक आत्मा है; और यह शरीर, नाम, हर चीज जिसे हम अपना मानते हैं, वास्तव में वह अनात्मा है।

और जिस तरह सुनार के पास शुद्ध सोने और अन्य धातुओं को पहचानने और उसे अलग करने की तकनीकी विशेषज्ञता है, उसी तरह ज्ञानी के पास भी हमारी शुद्ध आत्मा को शरीर (अनात्मा) से अलग करने की दिव्य आध्यात्मिक विशेषज्ञता है।

मोक्षमार्ग के लिए बिना क्रम का मार्ग, लिफ्ट मार्ग यानि अक्रम विज्ञान:

  1. ज्ञानी इस पृथक्करण को केवल एक घंटे में करते हैं, और हमें यह एहसास कराते हैं कि 'मैं शुद्ध आत्मा हूं' (आत्म-साक्षात्कार)। आत्मा की एस जाग्रति के साथ ही हम भगवान का अनुभव करने लगते हैं।
  2. आत्म-साक्षात्कार के बाद, हमारे मन, बुद्धि, अहंकार और हमारे कर्म बने रहते हैं, लेकिन अब वह सभी ज्ञानी के पास समर्पित रहते हैं ।
  3. ज्ञानी हमें ५ प्रमुख सिद्धांत देते हैं, जिनका पालन करने पर, हम भगवान के पूर्ण अनुभव की ओर प्रगति करवाते हैं।

जब हम ज्ञानी की शरण में आते हैं तो चीजें बदल जाती हैं।

पूर्ण समर्पण (आधीनता); और ज्ञानी के प्रति परम विनय की आवश्यकता है। पूर्ण समर्पण का अर्थ यह है कि हम ज्ञानी के कहे अनुसार चलते हैं, अपनी बुद्धि को आड़े नहीं आने देते। ऐसी पूर्ण विनम्रता जिसमें विशेष स्तर की ईमानदारी और नैतिकता है और ज्ञानी के साथ अभेदता है, ज्ञानी के साथ किसी भी प्रकार की भिन्नता महसूस नहीं होती वहा परम विनय है।

प्रत्यक्ष ज्ञानी के आश्रय और मार्गदर्शन से, हमारे आत्मा की जाग्रति बढ़ती है और हम मोक्ष के मार्ग में आगे बढ़ते हैं।

  1. क्रोध, मान, माया और कपट जैसे आंतरिक कमज़ोरियां धीरे-धीरे कम होने लगती हैं।
  2. अहंकार और बुद्धि धीरे-धीरे कम होते हैं।
  3. मन, देह और वाणी धीरे-धीरे सहज होते जाते हैं।
  4. दिन प्रतिदिन, आत्मा के बारे में हमारा अनुभव बढ़ता रहता है।

और अंत में एक स्थिति खुद की आती है जहाँ:

  1. अहंकार और भीतर की बुद्धि पूरी तरह से नष्ट हो जाते हैं;
  2. बाहर से मन, वाणी और शरीर स्वाभाविक रूप से प्रकट होने वाले कर्मों के अनुसार कार्य करते हैं, और
  3. हमारा जागृत आत्मा सभी बंधनों से मुक्त होकर अपने स्वाभाविक परमानंद के स्वरूप में आ जाता है।

जब ऐसा होता है तो कहा जाता है कि हमने पूरी तरह से भगवान का अनुभव किया है।

जब हम आत्मा का अनुभव करते हैं, तो हम अपने अनुभव से जानते हैं कि हम स्वयं ही भगवान हैं।

तो, आईए प्रत्यक्ष ज्ञानी पुरुष के पास, ज्ञानी पुरुष की पास से और उनकी प्रत्यक्ष कृपा से अपने आत्मा को और भीतर बिराजमान भगवान को पहचाने!

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मन, संसार की बातें और भगवान् का चिंतन

मन की इच्छाओं के अनुरूप फल मिलता है

मन जिसकी लालसा करता है, उसे पाता है।

जगतमें दो बातें है –
एक सांसारिक वस्तुएं अर्थात मोह-माया, भोग पदार्थ
और दूसरे भगवान।

मन सांसारिक चीजों का चिंतन करता है, तो भोग मिलता है और
भगवान का चिंतन करता है, तो भगवान मिलते हैं।

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मन, सांसारिक चीजों का या भगवान का, चिंतन क्यों करता है?

मन संसार की बातों का या कभी कभी ईश्वर का चिंतन क्यों करता है?

इसका उत्तर यह है कि,
आनंद के लिए, शाश्वत सुख के लिए।

बीच-बीच में जब मन को यह लगने लगता है कि,
सांसारिक बातों से मिलने वाला सुख या आनंद अखंड नहीं है,
बल्कि उसके परिणाम में क्लेश, भय, चिंता और दु:ख मिलता है,
तब उसमें अर्थात मनमे, भगवान की इच्छा जाग उठती है।

मन जिसके लिए उत्सुक होता है, उसे पाता है।

इस प्रकार मन भगवान के लिए उत्सुक होकर,
भगवान में लीन हो जाता है।

और आत्मा तो परमात्मा स्वरुप है,
इसलिए कह सकते हैं कि,
मन आत्मा में लीन हो जाता है।

इस मार्ग के साधक का जब मन व्याकुल होता है,
या उसे कोई इच्छा होती है,
तब उसके लिए वह अपने भगवान की शरण लेता है।

और परमात्मा तो कल्पतरु है।
उन का आश्रय लेकर, मनुष्य जो इच्छा करता है, वह पाता है।

इसलिए, इस प्रकार भक्तियोग वाला
अस्त-व्यस्त होकर काम करता हुआ भी,
आखिर भगवान को प्राप्त करता है।

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योग अर्थात मन को ईश्वर से जोड़ना

चित्तको भगवानमें जोड़नेका नाम योग है।

यहां जो कुछ है, सब परमात्मा से उत्पन्न हुआ है।

परमात्मा सर्वत्र, अव्यक्त रूप में व्यापक,
सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, अविनाशी,
दयालु और भक्त वत्सल है।

उनको भज कर, मैं उन्हें प्राप्त करूंगा।

वह मेरे सर्वस्व है, मुझे वे तारेंगे –
इस भावना से मन को, भगवान में जोड़ने का नाम योग है।


मन का गड़बड़ घोटाला

जगत के अनेकों संस्कार, मन को भुलावे में डालते हैं,
उनसे कभी मन में, भोग की इच्छा जागृत होती है,
और फिर कभी, भोग के प्रति इच्छा का अभाव होकर, भगवान की इच्छा जाग उठती है।

इस प्रकार, मन का गड़बड़ घोटाला चला ही करता है।

मन का यह भ्रम चिरकाल से है,
इसलिए, यह सहज ही दूर नहीं होता।

मन एक बार सोचता है कि,
भोग की इच्छा नहीं करना चाहिए,
मोह माया में नहीं फंसना चाहिए,

भोग का चिंतन भी नहीं करना चाहिए,
केवल भगवान की ही चाह करना चाहिए।

इस प्रयत्न में, उसकी अनेक परीक्षाएं होती है।
उसके सामने, अनेकों भोग आकर खड़े हो जाते हैं।
उसी की इंद्रियां, उनको भोगने के लिए, उसे ललचाती है।

इस अवस्था में, यदि उसकी बुद्धि, परिपक्व नहीं हुई होती है,
तो वह मन, भगवान की भक्ति को छोड़कर, भोग में फंस जाता है,
और, एक बार भोग में पड़ा हुआ मन, सहज ही नहीं निकलता।

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हठपूर्वक मन को रोके, या भगवान् की शरण जाएं?

हठपूर्वक सांसारिक चीजों से हटाया हुआ मन,
उन चीजों के लिए प्रबल आकर्षण होने पर
तुरंत ही उसमें फंस जाता है।

इसलिए, मोह माया के बंधनों से छूटने के लिए,
भोग का त्याग करने के लिए,
भगवान की शरण लेनी चाहिए।

भगवान की प्राप्ति करने के लिए और
भोग की इच्छा का त्याग करने के लिए,
जो भगवान की शरण लेते हैं,
उनकी रक्षा भगवान स्वयं करते हैं।

इसी कारण, भगवान का भक्त,
भोग का सहज ही त्याग करके
आसानी से भगवान को पा लेता है।

क्योंकि ऐसे भक्तों का चित्त,
मोह माया का त्याग करने के लिए,
अपने बल का भरोसा नहीं करता है।

बल्कि उन भगवान का बल ही,
उसका आधार होता है,
जिसका बल अपार है।

और जो भगवान की शरण न लेने वाले साधक,
अपने ही अल्प बल का भरोसा करते हैं,
उनकी चेष्टा निष्फल हो जाने की, अधिक संभावना होती है।

इसलिए, भक्ति की कामना करने वालों को चाहिए कि,
भगवान जो सर्वत्र, व्यापक, सर्वशक्तिमान,
सर्वज्ञ, सबके आधार और दयालु और भक्त वत्सल है,

उनकी शरण लेकर, उनकी प्रार्थना करके,
उन्हीं के दया के द्वारा मुक्ति पाने के लिए यत्न करें।

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भगवद गीता की सहायता से मन को ईश्वर में कैसे लगाएं ?

गीता किसी संप्रदाय का ग्रंथ नहीं है।
जगत के मनुष्य मात्र के ऊपर लागू होने वाला ग्रंथ है।
इसमें कही हुई बातें स्वाभाविक है।

शरीर में रहकर क्रिया करने वाले मन का निदान ठीक-ठीक समझाकर,
गीता ने यह बतलाया है कि,
मन को स्थाई शांति कैसे प्राप्त हो सकती है।

गीता को सदा श्लोक और अर्थ के साथ पढ़ना चाहिए,

उसका नियमित पाठ करना चाहिए और उनपर विचार करना चाहिए।

पाठ करने से मुख्य श्लोक कंठस्थ हो जाएंगे, अर्थात याद हो जाएंगे।

और जब, मन कभी शांत बैठा होगा, चित्त फुर्सत में होगा,
तब मन में उन श्लोकों का अर्थ स्फुरित होगा।

उसमें कहे हुए साधनके प्रति श्रद्धा होगी और
उस साधनके लिए प्रयत्न करने में उत्साह होगा।

गीता में बतलाए हुए साधनों के करने से ही,
कर्मो को निष्काम भाव से किया जा सकता है और
मन को शांति मिल सकती है।

साधन के बिना कुछ नहीं मिलता।

दूसरे अध्याय में बतलाये हुए स्थितप्रज्ञ के लक्षण,
तीसरे अध्याय में बताया हुआ, काम क्रोध के नाश करने का आग्रह,
बारहवें अध्याय में बतलाये हुए, भक्तों के लक्षण,
तरहवें अध्याय में बतलाए हुए, ज्ञान के लक्षण,
चौदहवें अध्याय में बताए हुए, गुनातीत के लक्षण,
सोलहवे अध्याय में बतलाए हुए, दैवी-सम्पदा के लक्षण
तथा इनके अतिरिक्त सारी गीता में, यत्र तत्र कहे गए साधनों को, यदि साधक करें, तो जरूर शांति प्राप्त होती है।

छठे अध्याय में बतलाया हुआ, मन के निरोध का उपाय भी, आग्रह पूर्वक करने योग्य है।

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सत्संग और भक्तियोग – List

भगवान की सच्ची भक्ति क्या है?

संसार में सर्वत्र वही ईश्वर रमा है और उसकी भक्ति जैसे पूजाघर, मन्दिर और धार्मिक आयोजनों के माध्यम से की जा सकती है, वैसे ही अपने हर कर्म के माध्यम से भी। इस प्रकार सच्ची भक्ति की अवस्था वह है, जहाँ हमारा हर काम भगवान की पूजा बन जाता है। स्वे स्वे कर्मणि अभिरत: संसिध्दिं लभते नर:।

भगवान के सामने रोने से क्या होता है?

जो व्यक्ति भगवान के सामने रोता है, उसका भाग्य बदल जाता है उस पर भगवान की कृपा होने लगती है उस व्यक्ति के साथ चाहे कुछ अच्छा ना भी हो तो भी उसका भगवान पर पूर्ण भरोसा होता है कि भगवान ही उसकी सहायता करेंगे।

सच्ची भक्ति कैसे की जाती है?

भगवान को चंदन, पुष्प अर्पण करना मात्र इतने में कोई भक्ति पूर्ण नहीं होती, यह तो भक्ति की एक प्रक्रिया मात्र है। भक्ति तो तब ही होती है जब सब में भक्तिभाव जागता है। ईश्वर सब में है। मैं जो कुछ भी करता हूं उस सबको ईश्वर देखते हैं, जो ऐसा अनुभव करता है उसको कभी पाप नहीं लगता।

भगवान के भक्त कितने प्रकार के होते हैं?

आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी- ये चार प्रकार के भक्त मेरा भजन किया करते हैं। इनमें से सबसे निम्न श्रेणी का भक्त अर्थार्थी है। उससे श्रेष्ठ आर्त, आर्त से श्रेष्ठ जिज्ञासु, और जिज्ञासु से भी श्रेष्ठ ज्ञानी है।