Show राधेश्याम सुन्दरकाण्डअशोक वाटिकापवन तनय में आ गया — पवन समान प्रवाह| जामवंत के वचन ने — बढ़ा दिया उत्साह || ऋक्षराज से उसी क्षण, बोल उठे कपिराज| बल प्रभु से पाया, मिली बुद्धी आपसे आज|| मैं जब तक लौट नहीं आऊ, तब तलक यहीं ठहरे रहना| श्रीराम नाम का कीर्तन कर, आशीष मुझको देते रहना|| उठ रही उमंग ह्रदय से है, उत्साह बढ़ रहा है तन में| निश्चय ही कार्य सिद्ध होगा, यह कहता है कोई मन में|| इतने ही में मछली देखी, श्यामा बोली दायें कर को लो| यह शकुन देख अन्जिलीलाल, गरजे फिर उछले उपर को|| हर्दयस्थल वाले राघव का, मन ही मन सादर ध्यान किया| बादल की नाई गर्जन कर, लंकापुर को प्रस्थान किया|| सागर में उठा ज्वार भाटा, शैलों से प्रकटी ज्वाला है| कच्छप बराह भोचक्के थे, क्या है? क्या होनेवाला है|| जिस पर्वत पर पड़ जाय पाँव, वह तले धसकता जाता था| मारुत समान मारुतनंदन, यों आगे बढ़ता जाता था|| महाबली तब बली हैं, जबहो बुद्धी निधान| सोच रहे थे देवता, — ऐसे है हनुमान|| लंका जाने से प्रथम हो जाय यह ज्ञात| इसी परीक्षा के लिए, भेजी सुरसा मात|| राह रोक बजरंग की, बोली वह ललकार| आज मिला है भाग्य से, पूरा मुझे आहार|| पवनतनय कहने लगे, राह छोड़ दे मात| धीरज धरकर ह्रदय से सुनले मेरी बात|| आवश्यक सेवा सम्मुख है, उसको ही प्रथम करूँगा मैं| अवकाश मिलेगा जब उससे, तब तेरी भूख हरूंगा मैं|| सुरसा बोली बकवास छोड़, मनचीता अभी करुँगी मैं| मुझको यह परम आवश्यक है, निज मुख में तुझे धरुँगी मैं|| हनुमत ने फिर भी समझाया, पर सहमत नहीं हुई सुरसा| तब तो वह विक्रम बजरंगी. हो गया तनिक क्रोधातुर सा|| कह दिया यही इच्छा है तो, जो करना है झटपट करले| एसी ही है हट हे माता, तो मुख ही में मुझको धरले || पवनतनय के वचन सुन सुरसा हुई विशाल| योजन भर को मुख किया, गरज उठी तत्काल|| अबला के अभिमान पर, हँसे तनिक हनुमंत| दो योजन का कर दिया, अपना बदन तुरंत|| अबतो हो गयी होड़ सी कुछ, वह चार हुई, यह आठ हुए| वह पन्द्रह तो यह तीस हुए, वह तीस हुई, यह साठ हुए|| सौ योजन का मुख कर डाला, जब उस सर्पो की जननी ने| उस समय बुद्धी से काम किया, श्री महावीर बजरंगी ने|| छोटा सा रूप बना अपना, उसकी जिव्हा पर जा पहुंचे| क्षण भर उस जगह बैठकर, फिर बाहर तुरंत ही आ पहुंचे|| बोले- ले मुख में हो आया, तेरा ही कहा किया माता| तू यही मांगती थी मुझसे, तो मैंने यही दिया माता|| अब सुरसा ‘सुरसा” बनी, बोली कर मृदुहास| मेरा गुस्सा वह बना, रवि था जिसका ग्रास|| उधर शुभाशीर्वाद दे, उसने किया पयान| इधर सुमिर नरसिंह को, चले सिंह हनुमान|| इन्द्रादिक मंगल मना मना, नभ से प्रसून बरसाते थे| श्री पवनदेव श्री वायुदेव, सुत का पथ सुगम बनाते थे|| अतुलित बलधाम स्वर्णगिरी सम, दानवदल विपिन दहन थे यह| ज्ञानी गुणनिधि रघुवीर दूत, कपिवर मारुतिनंदन थे यह|| सच्चे शंकर अवतारी थे, सच्चे श्रीराम दुलारे थे| फिर भला इन्हें किसका डर था, यह जगदम्बा के प्यारे थे|| सिहिंका राक्षसी सागर में, माया का खेल दिखाती थी| परछाई पानी पर निहार, उड़ता पक्षी खा जाती थी|| छल यहही किया पवनसुत से, तो वधको यह लाचार हुए| पग प्रहार से संहार उसे, निर्द्वंद सिन्धु के पार हुए|| गिरी चढ़ देखा दूर से, लंका नगर विशाल| जहाँ राक्षसों के सहित, रहता था दशभाल|| कंचन का दुर्ग समुद्र मध्य, सुन्दर चौहट्ट हाट का था| सब राजपाठ, सब घाटबाट, सब ठाठविराट ठाठ का था|| वह स्वर्णदीप, वह स्वर्णदेश, सचमुच कुबेर की नगरी थी|, जिसमें वसुधा भर की संपत, उस यक्षराज ने रखी थी|| सौतेले भाई रावण ने, उस पर अधिकार जमाया था| यक्षों के लिए भगाया था, असुरों को वहाँ बसाया था|| वह शैव विभीषण विष्णु भक्त, घननाद शक्ति कहलाता था| पांडित्य कला कौसल बल में, कुल ऊचां समझा जाता था|| विज्ञान वादिता इतनी थी, बन गयी रूप नास्तिकता का| भोजन विलास मादकता ही, था लक्ष्य प्रजा का राजा का|| इतना था प्रबल निशाचर दल, भूतल जिससे थर्राता था| प्रत्येक देश को दबा दबा, अपना दबदबा बढ़ाता था|| सूक्ष्म रूप धर रात में, पहुचें श्री हनुमान| मिली लंकनी रक्षिसी, काली निशा समान|| सब बाल व्याल थे खुले हुए, सिंदूरी तिलक भाल पर था| दो दांत चमकते थे बाहर, हांथों में खड्ग भयंकर था|| बजरंगी की आहट पाकर, सम्मुख आई किटकिटा उठी| मैं तुझको खा ही जाऊँगी, यह कह खांडा खडकडा उठी|| बजरंगी कहने लगे, चल हट हो जा मौन| राम दूत से विश्व में, भिड सकता है कौन|| मैं महावीर कहलाता हूँ, हनुमत है विदित नाम मेरा| तुझसी चुडैलियाँ हनता हूँ, यह भी है एक काम मेरा|| नभ वाली सात्विक सुरसा को, आया हूँ जीत बुद्धिबल से| जल की तामसी सिहिंका को कर दिया नष्ट क्रोधानल से|| थल पर राजसी लंकनी को, अब मुष्टिक मार गिराऊंगा| जीतूँगा जब त्रिगुणी माया, तब भक्ति मातु को पाऊंगा|| यह कह हल्के हाथ से, मुष्टिक मारा एक| गिरी घूम वह भूमि पर, जागा पूर्व विवेक|| बोली ब्रह्मा ने रावण को, जब लंकाधीश बनाया था| लंकनीरूप मुझ लंका को, तब यह भविष्य बतलाया था|| मुष्टिक प्रहार कर महावीर, जिसदिन तुझ पर जय पाएंगे| बस तभी समझ लेना निश्चय, निश्चर सब मारे जायेंगे|| जो वाणीसे सत, पगसे तम, करसे रज पर जय पाता है| ऐसा ही बाल ब्रहमचारी, निर्गुण को निश्चय पाता है|| हनुमान तुम्हारे दर्शन कर, मैं बडभागिनी महान हुयी| इन चरणों की रज से लंका, सचमुच कैलाश समान हुई|| हे महावीर, हे महाधीर, रघुवर का तुझपर हाथ रहे| जा बेखटके अब लंका में, जय और सफलता साथ रहे|| सीतापति रघुनाथ का, बार बार ले नाम| उधर हटीं वह लंकिनी, इधर बढ़े बलधाम|| प्रत्येक भवन में रावण के, ढूंढा श्री सीता माता को| शयनालय से बंदीगृह तक, खोजा श्री सीता माता को|| चप्पा चप्पा, कोना कोना, छाना राक्षस की नगरी का| पर पता न लगा कहीं पर भी, रघुकुल महिला वैदेही का|| होकर हताश, होकर निराश, किस तरह बनेगा काम कहाँ| अंतर आत्मा ने उसी समय, श्रीराम कहा जय राम कहा|| अकस्मात देखा तभी, एक मनोहर धाम| द्वारे जिसके लिखा था, रामराम श्रीराम|| झाँका तो देखा आंगन में, तुलसी बिरवे थे लगे हुए| दीवारों, खम्बों, आलों पर, सधर्म वाक्य थे लिखे हुए|| बजरंगी ने सोचा, कोई हरिभक्त यहाँ पर रहता है| पर इस राक्षस नगरी में, कैसे व्यतीत दिन करता है|| यदि कोई सज्जन आस्तिक है, तो इससे मिलना बुरा नहीं| फिर बिना एक भेदी के भी, हो सकता अपना भला नहीं|| रात शेष थी पहर भर, होनहार था काज| राम राम कहते हुए, जगे विभीषण राज|| वह घरवाला वह गृहस्वामी, दूषण नगरी का भूषण था| रावण का छोटा भाई था, उसका शुभ नाम विभीषण था|| यह घटना पिछली तब की है, दशकंधर जब तप करता था| उस समय विभीषण भाई भी, जगदीश्वर का जप करता था|| मैं मरू न यक्ष राक्षसों से, वरदान लिया यह रावण ने| हरिभक्ति प्राप्त हो जाय मुझे, माँगा यह वचन विभीषण ने|| तबसे ही भक्त विभीषण में, दिन पर दिन भक्ति बढ़ रही थी| उस भक्ति भाव के साथ साथ, सेवा की शक्ति बढ़ रही थी|| हनुमत ने जब धर विप्र रूप, बाहर से जय श्रीराम किया| सानन्द विभीषण उठ आये, ब्राह्मण को देख प्रणाम किया|| कहा धन्य हूँ आज मैं, पा ऐसा मेहमान| क्या आज्ञा है दास को, बतलाये श्रीमान|| हे विप्र आपको देख देख, यह ह्रदय आप ही खिचता है| है निश्चय आप भक्त कोई, यह मुझे दिखाई पड़ता है|| बड़भागी करने आये हैं, क्या मुझसे मूढ़ निशाचर को| हे महाराज, श्री चरणों से, करिये पवित्र मेरे घर को|| जो कुछ भी राम प्रसादी है, फल, कंदमूल, स्वीकार करें| अपने इस दास विभीषण पर, अपना इतना उपकार करें|| नाम विभीषण और फिर, यह प्यारा व्यवहार| धीरे धीरे इस तरह, बोले पवन कुमार|| अचरज है कागों के दल में, यह हंस रूप दर्शन कैसा| कांटो से भरे करीलों में, मलयागिरि का चन्दन कैसा|| असुरों में कैसे भक्तराज, तुम जीवन यापन करते हो| रावण की सेवा में रहकर, श्री रामोपासन करते हो|| वे बोले — जैसे जिव्हा है, बत्तीस नुकीले दांतों में| रहता है दास विभीषण भी, बस उसी प्रकार राक्षसों में|| कपि बोले मुहँ की बत्तीसी, जब टूटफूट गिर जाएगी| पर जिव्हा जीवन भर रहकर, श्रीराम नाम गुण गाएगी|| भक्त विभीषण धन्य तुम, धन्य तुम्हारा प्रेम| धन्य तुम्हारी धारणा, धन्य तुम्हारा नेम|| जो सज्जन हैं, सत्संगी है, वे कहीं छिपाए छिपते हैं| एक ही पंथ के दो पंथी, इस प्रकार देखो मिलते हैं|| तुम भाई हुए आज मेरे, अब तुमसे मुझे कपट क्या है| सब गुप्त रहस्य सुनाता हूँ, जो अभी छुपाकर रखा है|| यों तो छल और कपट जग में, पातक ही समझा जाता है| पर भक्त वैष्णवों के सम्मुख, वह महापाप कहलाता है|| ब्राहमण शरीर का धोका है, मैं हनुमान हूँ, बानर हूँ| सीता सुधि लेने आया हूँ, श्री रामचन्द्र का अनुचर हूँ|| रामदास मेरे यहाँ, जागृति है या स्वप्न| भक्त विभीषण हुए कुछ, इसी ध्यान में मग्न|| कह उठा ह्रदय, खुल गया भाग्य, आये श्रीराम दुलारे हैं| ब्राह्मण से भी यह बड़े मुझे, मेरे प्यारे के प्यारे हैं|| फिर कहा प्रकट, हैं धन्य आप, जो राघवेन्द्र के अनुचर हैं| प्रत्येक घड़ी प्रत्येक प्रहर, प्रभु की सेवा में तत्पर हैं|| क्या मुझ अनाथ निश्चर के भी, रघुनाथ बनेगें नाथ कभी| क्या मुझसे अधम दास को भी, रक्खेगे राघव साथ कभी|| सीता की सुधि पीछे लेना, पहले मेरी सुधि लो भाई| जिन चरणों में रह रहे आप, मुझको भी पहुचा दो भाई|| देख विभीषन की दशा, पुलके पवनकुमार| यमुना से गंगा मिली, बढ़ा सनेह अपार|| बोले- भगवान दयानिधि हैं, अपने को नित अपनाते हैं| जो जन उनकी शरणागत हो, छाती से उसे लगाते हैं|| यह रीति सदा से है उनकी, करते हैं प्रीत सेवकों से| जो उनका ही हो जाता है, निर्भय रहता है कष्टों से|| उनसे मिलने की राह यही, विश्वासी हो जाओ भईया| अपना सब उनके अर्पण कर, उनके ही हो जाओ भईया|| मंत्रो से जैसे सप्तसिंधु, आ जाते एक कलश में हैं| त्योंही भावना विमल होतो, भगवान भक्त के वश में हैं|| है सत्य जहाँ भगवान वहीं, है प्रेम जहाँ भगवान वहीं| हो जाता दयापात्र जब जन, मिलते हैं दयानिधान वहीं|| मुझको ही देखो बानर हूँ, उपचार, ध्यान जानता नहीं| चरणों की सेवा के सिवाय, दूसरा ज्ञान जानता ही नहीं|| फिरभी वह मुझे देखते हैं, तो ह्रदय कमल खिल जाता है| सम्पूर्ण कृपा दे दी मुझको, ऐसा अनुभव में आता है|| तुम भी तज साथ राक्षसों का , आ जाओ भालू कपिगणों में| आचरणों को पाला अबतक — तो अब पहुचों आ चरणों में|| इतना बतला दूँ जीवात्मा, — जब पास ब्रह्म के जाता है| तो उसके पीछे पीछे सब, माया का वैभव आता है|| हो सकता है वह दिन आये, जब भाग्य इस तरह चमका हो| सिर पर हों राम विभीषण के, चरणों पर सारी लंका हो|| इसलिए जाति भ्रातादिक के, सम्बन्धो में अब रत मत हो| मेरे मत से हे भक्तराज, रघुनायक के शरणागत हो|| मैंने तो यह समझा है, इसमें ही सब आ जाता है| मालिक का जो हो जाता है, मालिक को वह पा जाता है|| भक्त विभीषन हो गये, छण भर को गंभीर| गदगद उनकी गिरा थी, नयनों में था नीर|| बोले प्रत्यक्ष आज देखी, महिमा मैंने सत्संगत की| सतसंगत छण भर में धोती, श्यामलता जीवन रंगत की|| जग के सब लाभ पराजित हैं, सत्संगत वाले लाभों से| स्वर्गादि तुच्छ हैं, तुलने पर, सत्संगत सुख के बाटों से|| तुम नहीं मिले हे रामदास, जग गये भाग्य सोते के हैं| इस समय जन्म जन्मान्तर के, सब पुन्य इकट्ठे प्रकटे हैं|| अच्छा अब जिस कारण आये, उस सेवा में जाओ भाई| हैं मात अशोक वाटिका में, सुधि उनकी ले आओ भाई|| यों तो कुछ गुप्त सेविकाएँ, इस सेवक ने भी रखी हैं| रहकर अशोकवन में भी वे, मेरी निगाह में रहती हैं|| लंकानगरी में भी सीता, मिथिलापुर ही की सीता हैं| श्रीराम चन्द्र चन्द्रानन की, ज्योतिर्मय स्वच्छ चंद्रिका हैं|| वे माता हैं, तुम भ्राता हो, दोनों का तुच्छ दास हूँ मैं| निर्भय विचरो लंकापुर में, छाया की तरह पास हूँ मैं|| पग पग जय ने दिया, उनको हर्ष महान| तभी चले अंजिनीतनय, कह जय कृपानिधान|| उत्साह वही आदर्श वही, चिंतन वह ही सीता का था| अनुराग वही, अभिलाष वही, वह ही स्वरूप छोटा सा था|| पहुँचे अशोकवन में जब यह, तो द्रश्य विचित्र उपस्थित था| कहने को तो वह अशोक था, पर सर्वत्र शोक आच्छादित था|| सुनसान विपिन की कुटिया में, कुछ रजनीचरी उपस्थित थी| बाहर पत्थर पर प्रतिमा सी, वैदेही ध्यानावस्थित थी|| पृथ्वी की ओर देखती थी, टकटकी लगाये बैठी थी| मटियाली बड़ी बड़ी अलके, मुखड़े के उपर बिखरी थी|| सब अंग विरह की झुलसन से, हो रहे सूखकर कांटा हैं| थी एसी क्षीणकाये मानों, हड्डी चमड़ी का ढांचा है|| आँखों में राम रम रहे थे, विश्वास ह्रदय में गहरा था| यद्यपि सब ओर अशोकों के, राक्षसियों का भी पहरा था|| इतने संकट होने पर भी, सतबल पर अपने जीवित थी| था चारों ओर धुआं फिर भी, वे अग्निशिखा सी दीपित थी|| थी नहीं वियोगिनी, योगिनी थी, गोदी में माँ वसुंधरा की| आकाशदेव की छाया थी, रक्षा थी पवनदेवता की|| रामदूत ने दूर से समझी सारी बात| कुंडल फेकें जिन्होंने, हैं यह वह ही मात|| रघुवर में लीन प्राण इनके, रधुवर इनके प्राणों में हैं| इसलिए कष्ट सहकर भी यह, अबतक जीवित असुरों में हैं|| नारी की सुन्दरता पति है, पति सेवा से यह वंचित हैं| इस कारण सुन्दर होकर भी, शोकातुर धूलि धूसरित हैं|| संसार राम सीता तक को, जब इतने संकट देता है| तब साधारण जीवों की तो, इस जग में गिनती ही क्या है|| चरणों में अभी लोट जाऊ, जी तो मेरा यह कहता है| घबरा जाए न मात कहीं, यह संशय रह रह उठता है|| अच्छा मन ही मन है प्रणाम, शुभदिन यह सम्मुख आया है| बड़भागी है यह रामदूत, माँ का दर्शन तो पाया है|| पत्ते खड़के उसी क्षण, गगन हुआ कुछ लाल| दिखलाई दी दूर से, जलती हुई मशाल|| समझ लिया आ रहा है, इसी ओर दसभाल| मंदोदरी आदिक कई, सुंदरियां हैं साथ|| सोचा थोड़ी सी रात रही, यह अवसर तो पूजा का है| रावण इस समय आ रहा है, क्या है रहस्य, कारण क्या है|| राक्षस भी है माता भी हैं, छुपकर देखूं क्या होता है| सब भेद जानकर ही प्रकटू, इस अवसर यह ही अच्छा है|| यधपि माँ की दशा से, व्याकुल थे हनुमंत| फिर भी वृक्ष अशोक में, छुपे रहे बुद्धिमंत|| दशकंधर आया इधर, बोल उठा कर जोर| कृपा द्रष्टि से देख ले, सीते मेरी ओर|| यह सुनते ही सिया के लगी ह्रदय में चोट| बोली नीची द्रष्टि से कर तिनके की ओट|| कांक्षा थी कृपा द्रष्टि की तो, वह शिवधनुवा तोड़ा होता| बल था तो उसी स्वयंवर में, मुझसे नाता जोड़ा होता| छलबल अबभी दिखलाता है, समझा ही नहीं सत्यता को| तू योध्दा नहीं चोट्टा है, हरकर लाया है अबला को|| वह बोला छलबल नहीं, नहीं और कुछ ध्यान| दशकन्धर तो चाहता, दया द्रष्टि का दान|| पर तुममें अबतक पर्दा है, आखें नीची ही रखती हो| तिनके की ओर देखती हो, बातें दशमुख से करती हो|| तिनका क्यों लक्ष्य तुम्हारा है, क्यों उसे बीच में लाती हो| क्या तिनका मुझे समझ रखा, जो तिनका मुझे दिखाती हो|| तिनकेवाली ने कहा, सुन तिनका की बात| पृथ्वी मेरी मात है, तिनका मेरा भ्रात|| जिन चरणों की दासी हूँ मैं, तिनका है तिनका दास सदा| यह मन है जिनके पास सदा, तिनका भी तिनके पास सदा|| हे तिनके से भी गिरे जीव, तिनका ही मेरा पर्दा है| घूंघट का पर्दा, पर्दा क्या , पर्दा तो आँखों का ही है|| पहुचां दे पास उन्हीं प्रभु के, सीता से नाता है जिनका| अन्यथा एक दिन असुर तुझे, धिक्कारे का तिनका तिनका|| सम्पूर्ण रात जुगुनू चमके, उनसे कब नलिनी खिलती है| होता है प्रातःकाल जभी, तब स्वयं कमलनी खिलती है|| यह आखें अगर कमलिनी हैं, तो इनके प्रिय रघुवर हैं| तू जुगुनू से भी घटकर है, वे सूरज से भी बढ़कर हैं|| लंकापति खद्घोत सम, रवि सम अवध कुमार| रावण यह सुन जल उठा, कहा खींच तलवार|| अबतक कर जोड़ नम्रता से, मैंने तुझको समझाया है| पर तूने जब जब आया मैं, अपमानित कर ठुकराया है|| अब अंतिम बार कह रहा हूँ, यदि नहीं मुझे अपनाएगी| तो यह तलवार एक क्षण में, उस पार तुझे पहुचायेगी|| रावण की ललकार से डरी नहीं जगदम्ब| महाबली नारायणी, बोल उठी अविलम्ब|| हे कायर पामर रजनीचर, क्यों पशुबल पर इतराता है| पिंजरे में फंसी सिंहनी को, नंगी तलवार दिखाता है|| तलवार मुझे मेरे सत को, सत है यह काट नहीं सकती| मेरा पवित्र पावन लोहू, यह पतिता चाट नहीं सकती|| सतवंती का सत तो सदैव, सत की कृपाण पर रहता है| व्रत पतिव्रता क्षत्राणी का, सब समय प्राण पर रहता है|| मत समझ अकेली है सीता, उसका मालिक है साथ सदा| इस रोम रोम में, रग रग में, रम रहा राम रघुनाथ सदा|| पर नारी को हरकर लाना, क्या बलवानों की बातें हैं| तलवार उठाना अबला पर, क्या मर्दानों की बातें हैं|| लंकेश नहीं कायर है तू, लंका में मुझे छुपाया है| जा लजा डूबजा जलनिधि में, क्यों खड्ग दिखाने आया है|| वह हाथ नहीं जल जाते क्यों, जिनमें यह खड्ग उठाई है| वह खड्ग नहीं जल जाती क्यों, जो इन हाथों में आई है|| नभ के नक्षत्र न अंधे हैं, बहरे न पवन के झोंके हैं| त्रण-त्रण अशोक उपवन के, अब बदला लेने को उठे हैं|| अगणित आँखों से यह अधर्म, वह व्यापक देव निरखता है| इन पेड़ो में, इन पत्तों में, बैठा कोई सब सुनता है|| यह सुनते ही हो गया, दशमुख फिर विकराल| खड्ग तान संहार को, दौड़ पड़ा तत्काल|| बोला देखूं तो सही, करता कौन सहाय| घट-घट व्यापक है कहाँ, अभी प्रकट हो जाय|| जभी तोल तलवार को, धाया राक्षसनाथ| सर्वेश्वर कह सिया ने, झुका दिया निज माथ|| घट-घट व्यापक ने दिया, परिचय वहीं तुरंत| मुख से मंदोदरी के, बोला वह भगवंत|| ठहरो क्या कर रहे हो, अनुचित है यह नाथ| इतना कह पकड़ा तुरंत, पीछे से वह हाथ|| रानी ने जब समझाया, तो- आया विचार कुछ राजा को| जाते जाते निश्चरियों से, बोला कि सताओ सीता को|| देता हूँ समय तीस दिन का, तब तक न उचित उत्तर होगा| तो करनी का फल पाएगी, यह खड्ग और वह सर होगा|| मन ही मन कहा कपि ने, माँ का न मलिन अंचल होगा| उससे पहले मेरा मुष्टिक, तेरा वह वक्षस्थल होगा|| तरुवर अशोक के बोल उठे, हम उससे प्रथम उजड़ते हैं| लंका के महल लगे कहने, उससे पहले हम जलते हैं|| त्रिजटा नामक निश्चरी, थी चतुरा अत्यंत| चला गया दसशीश तो, वह कह उठी तुरंत|| निश्चारियों सुनो ध्यानपूर्वक, जो कुछ भी है सपना मेरा| मानना पड़ेगा अब तुमको, आदेश और कहना मेरा|| मैंने सपने में देखा है, दशकंधर का संहार हुआ| लंका पर भक्त विभीषन का, राजा जैसा अधिकार हुआ|| बंदिनी आज हैं रामप्रिया, कल सम्राज्ञी कहलायेगीं| हम कष्ट इन्हें देगीं तो, बदले गंभीर चुकायेगीं|| इस कारण मैं यह कहती हूँ, लग जाओ इनकी सेवा में| सज्जनता सदा लाभ देतीं, होती है हानि दुष्टता में|| असुरा त्रिजटा के मुख से भी, जब प्रकट विश्व आधार हुआ| रजनीचरियां सेविका बनी, कपिवर को हर्ष अपार हुआ|| चली गयी सब राक्षसी, निज निज गृह की ओर| तब त्रिजटा से जानकी, बोली यों कर जोर|| तू मेरी मात धर्म की है, मन की मैं तुझको कहती हूँ| पतिविरह विपत सहते सहते, जीतेजी पूर्ण मर चुकी हूँ|| अब इस शरीर के ढाचें को, कर डालू भस्म यही अच्छा| दो पक्ष नहीं, दो घड़ियों में, तज दूँ यह प्राण यही अच्छा|| लकड़ियाँ बीन मैं लाती हूँ, तू भी कुछ मुझे सहारा दे| मैं चीता बनाये लेती हूँ, जा आग कहीं से तू ला दे|| त्रिजटा ने देखा जभी, इतना दारुण ताप| समझाया रघुनाथ का, उनको प्रबल प्रताप|| मिथिलेश नंदिनी धीर धरो, क्यों इतनी व्याकुल हो कल से| उस सूर्य वंश के सूर्य राम, अब उदय हुए उदयाचल से|| थोड़े दिन और रह गये हैं, धीरज ही धरो हे वैदेही| जिस व्रत को अबतक पाला है, आगे भी पालो वैदेही|| थक गयी कष्ट पर कष्ट सहे, सम्पूर्ण शरीर सुखाया है| फिर भी है धन्य तुम्हें देवी, तुमने पतिधर्म निभाया है|| माता के विमल चरित्रों की, पाई जब साक्षी त्रिजटा से| पत्तों में छुपे दूत का तन, पुलका उठा तब श्रद्धा से|| सीखो हे दुनिंया की बहनों, पतिधर्म पतिव्रत सीता से| पतिवियोग में जीवन रखना, रहना इस भांति तपस्या से| पति से हित राजमहल तजकर, वनवन के संकट सहना यों| बेपता छूटकर फिर पति से, राक्षस के मुहँ में रहना यों|| आखिर अब चिता बनाई है, पतिव्रत पर आंच न आने दी| बलिहारी भारत की देवी, भारत की लाज न जाने दी|| अभी रात है इस समय कहाँ मिलेगी ज्वाल| यह कह त्रिजटा भी गयी, उस अवसर को टाल|| सन्नाटा सब ओर था, पत्ते तक थे शांत| सम्मुख आधी चिता थी, नीरव निठुर नितांत|| नयन चीता की ओर थे, मन रघुवर की ओर| ह्रदय सिन्धु से विरह की, उठने लगी हिलोर|| पक्षी तन पिंजरे में रह न सका चुपचाप| रो रोकर श्रीजानकी, करने लगी प्रलाप|| ठहर गयी फिर एक क्षण, फिर कुछ उठी हूक| प्राणनाथ कह फिर उठा, आत्म पखेरू कूक|| हाय मेरे प्राण जीवन, अब जिया जाता नहीं| विरह श्रीचरणों का, दासी से सहा जाता नहीं|| भाग्य रूठा इस कदर है, मौत भी आती नहीं| ज्वाल तो तन में लगी है, पर जला जाता नहीं|| है चिता तो सामने, पर आग मिलती ही नहीं| उडूगणों तुमसे भी क्या, नीचे गिरा जाता नहीं|| हे मेरे दुःख सुख के साथी, हे मेरे रक्षक अशोक| लाल पल्लव अग्नि सा, मुझको दिया जाता नहीं|| कर अशोक अभी मुझे, गर तेरा नाम अशोक है| एक ही पत्ता गिरा दे, कुछ घटा जाता नहीं|| थे अशोक के वृक्ष पर, छुपे अंजिली लाल| देख जानकी की दशा, आया एक ख्याल|| वृक्षों तक से अग्नि का, जब कर रहीं सवाल| हो न जाय इनमें कहीं, पैदा सत की ज्वाल|| इस ख्याल से विकल जब हुए अंजिली लाल| दी अशोक के पेड़ से, तुरंत अंगूठी डाल|| गिरते ही चमकी मुदरी यों, मानो चमकीला तारा है| सीताजी बढ़ी उठाने को, समझी अशोक अंगारा है|| मुद्रिका परम सुन्दर थी वह, हीरा था जिसमें जड़ा हुआ| श्रीरामचन्द्र रघुनायक का, था नाम बीच में खुदा हुआ|| पहचाना जभी अंगूठी को, आनन्दित सिया अपार हुई| फिर कुछ विचार आये ऐसे, बिजलियाँ ह्रदय के पार हुई|| मुदरी विवाह वाली ही है, इसलिए लगाई आखों से| केवट को देने को दी थी, मैंने ही अपने हाथों से|| पर यहाँ किसतरह आई यह, क्या घटना है क्या लीला है| माया ऐसा न बना सकती, दे सकता असुर न धोका है|| तब प्राणेश्वर के प्राणों की, क्या इसमें छुपी सूचना है| पर रघुनायक तो हैं अजेय, इस शंका में क्या रखा है|| बंध गये ख्याल जभी ऐसे, दिल पर फिर दुश्वारी आई| इतने में उस अशोक पर से, आवाज एक प्यारी आई|| — — गाना — - जय हो श्री राम-राम, श्री राम-राम, श्री राम-राम| अवधनाथ सीतानाथ, जन के नाथ, जग के नाथ|| माँ मन की घबराहट छोड़ो, लो राघवेन्द्र का नाम| बानर सेना के साथ यहाँ, आते है अब श्री राम| क्रसिकंधा में कपिपति द्वारा, सब ठीक हो गया काम| मैं रामदूत सुधि लेने आया, हो स्वीकार प्रणाम|| जय हो श्री राम-राम, श्री राम-राम, श्री राम-राम| ******* श्रवणों द्वारा जब किया, नामामृत का पान| तब बोली तुम दूत हो, तो क्यों अंतर्ध्यान|| वे जैसे ओझल रहते हैं, व्यापक होकर भी आँखों से| त्योंही तुम छिपते फिरते हो, पायक होकर भी आँखों से|| प्राकृत भाषा भी बोल रहे, चरणामृत भी बरसाते हो| फिर हे अशोक के गुप्त दूत, क्यों नहीं प्रकट हो जाते हो|| आज्ञा पाकर मातु की, प्रकटे पवनकुमार| झिझकी सीता देखकर, रूप बानराकार|| तब कहा इन्होने- हे माता, मैं शपथ पूर्वक कहता हूँ| करुणानिधान ने भेजा है, सेवा में उनकी रहता हूँ|| कहते हैं हनुमान मुझको, सुधि लेने मैं ही आया हूँ| विश्वास आपको हो जाये, इसलिए अंगूठी लाया हूँ|| हनुमान के वचन सुन, मिटा सभी संदेह| दूत जान रघुनाथ का, हुआ ह्रदय को नेह|| बोली- मृततुल्य अवस्था को, यह मिलन अमृत की धारा है| अथवा हनुमान डूबते को, दिखलाई पड़ा किनारा है|| अच्छा पहले यह बतलाओ, वे अनुज सहित अच्छे तो हैं| खरदूषण त्रिशरा संहारक, मेरी चर्चा करते तो हैं|| यह सुनकर हनुमंत ने, कह जय सीताकांत| सुना दिया सब आदि से, अब तक का वृतान्त|| फिर कहा- नहीं सुधि रखते तो, सुधि लेने को क्यों भेजा है| माँ वहां और कुछ बात नहीं, दिन रात आपकी चर्चा है|| जितने दुःख आप सह रहीं हैं, उससे दूने वे सहते हैं| ज्यों धान रहे बेपानी के, इस भांति दयानिधि रहते हैं|| लंका पर रघुकुल का डंका, हे माँ अब बजने वाला है| वह नौका डूब नहीं सकती, जिसका राघव रखवाला है|| फिर राम भजन कर रही आप, यह भी तो फल दिखलायेगा| इस बल ही से बानर मंडल, निश्चरदल पर जय पायेगा|| दिनकर जिस समय उदय होता, फिर नहीं तिमिर रह पाता है| हिमगिरी जब हिलने लगता है, तो भूतल तक थर्राता है|| रजनीचर जो कर रहे यहाँ, वीभत्स विकट बेढंगे से| बाणों की अग्निशिखाओं में, झुलसेगे स्वयं पतंगे से|| माँ आज्ञा नहीं नाथ की है, अन्यथा दास दिखला जाता| लंका को क्षण में चौपट कर, मैं तुमको अभी लिवा जाता|| बजरंगी के वचन सुन, हुआ ह्रदय को चैन| कुछ छण के उपरांत फिर, बोली सीता बैन|| राक्षस हैं कंज्ज्लगिरी समान, काले काले मतवाले से| तुम मुझे दिखाई देते हो, छोटे से, भोले भाले से|| क्योंकर उनपर जय पाओगे, संदेह मुझे यह भारी है| उद्योग उस समय निष्फल है, जब साधन की लाचारी है|| देखा जब बजरंग ने, माँ हो रही अधीर| योगशक्ति से काम ले, विस्तृत किया शरीर|| गर्जना गगन में गूंज उठी, योजन भर के बलवीर हुए| संग्राम भयंकर, विकटानन, भूधराकार, रणवीर हुए|| फहरा उठ्ठी बल की पताक, भहरा उठ्ठी शंका सारी| हररा उठ्ठी राक्षस सेना, थर्रा उठ्ठी लंका सारी|| सीताजी को हो गया, पूरा जब विश्वास| तो फिर छोटे बन गये, सीतपति के दास|| कर जोड़ कहा — मन की श्रद्धा, अब होटों पर आ पहुचीं है| जिस जन के आगे प्रभु न छुपे, माता कैसे छुप सकती है|| हे वरदायनी, हे जगजननी, यह सबकुछ आप कर रहीं हैं| हाथी का नाश कराने को, चींटी में शक्ति भर रहीं हैं|| पृथ्वी का भार ह्टायेगे — प्रभु की जब हुई प्रतिज्ञा यह| तब अपना हरण करा माँ ने, कर डाली पूर्ण समस्या यह|| हम लोग निमित्तमात्र ही हैं, लीला के लिए खिलौने हैं| आकाश चन्द्र के छूने को, बढ़ते ही जाते बौनें हैं|| इसलिए सिद्ध यह होता है, अपनी न तनिक चतुराई है| यह प्रभु के सब प्रभुताई है, या माँ हो रही सहाई है|| निश्चर पर द्रष्टि नहीं डाली, इस कारण कहाँ शक्ति उसमें| वह जीतेजी है मरा हुआ, है कहाँ विवेक बुद्धी उसमें|| हे शक्ति स्वरूपा जगदम्बा, हम भिक्षुक उसी द्रष्टि के हैं| जब हमपर कृपा द्रष्टि है तो, भिड सकते महाकाल से हैं|| डाला यह कहते हुए, उन चरणों में माथ| तुरंत उठाया लाल को, माँ ने हाथों हाथ|| फिर कृपा द्रष्टि से अवलोका, बोली- देती हूँ शक्ति तुझे| दी बुद्धी तुझे दी युक्ति तुझे, दी मुक्ति तुझे दी भक्ति तुझे|| माता का आशीर्वाद यही, हो जाओ अमर अजर बेटा| रधुनाथ तुम्हारे साथ रहें, तुम रहो सदा अनुचर बेटा|| श्री रामचरित के प्रष्ठों पर तेरा भी नाम महान हुआ| श्रीराम चरित के साथ साथ, तू भी प्रसिद्ध हनुमान हुआ|| यदि कहीं राम मंदिर होगा, तो रामदुलारा भी होगा| सीता लक्ष्मण के साथ साथ, यह हनुमत प्यारा भी होगा|| ****** सुन्दरकाण्ड लंका-दहन सीताजी से जब मिला, हार्दिक आशीर्वाद| हनुमत ने समझा उसे, जीवन लाभ प्रसाद|| श्रीजी के वाक्य नहीं थे वे, अनमोल रत्न थे चुने हुए| मन-मानस में ले कपि उनको, साहस धन से सौगुने हुए|| फिर ऐसे भाव निमग्न हुए, अपना अस्तित्व भुला उठ्ठे| पा प्रबल शक्ति झूमने लगे, पा विमल भक्ति पुलका उठ्ठे|| कितने ही क्षण मौन रह, फिर बोले सह्लाद| जन्म सफल मेरा हुआ, पाकर आशीर्वाद|| हे माता अब है विनय एक, यद्यपि कुछ ह्रदय हिचकता है| फिर भी मुख खोल कहे माँ से, बालक का चित्त मचलता है|| आया हूँ सिन्धु लांघ कर मैं, इस कारण भूख सताती है| यह पेड़ फलों से लदे देख, इच्छा ही बढती जाती है|| रखवाली पर जो माली हैं, उनका किंचित भय नहीं मुझे| जब कृपा द्रष्टि माँ की है तो, सकुचाहट संशय नहीं मुझे|| देख बुद्धी बल धाम सुत, बोली माँ तत्काल| रघुराई को ह्रदय धर, जाओ मेरे लाल|| शीश नवाकर मात को, पद रज लेकर माथ| अवधनाथ का ध्यान धर, चले मुदित कपिनाथ|| जिस डाली पर डाली निगाह, वह डाली डाली फिर न रही| फल फूल तोड़ सब फेंक दिए, लाली हरियाली फिर न रही|| हर्षित हो हो किलकार मार, तरु तरु पर धाने लगे बली| मीठे मीठे फल छांट छांट, जी भर भर खाने लगे बली|| फल खाकर तरु उखाड़ते थे, सागर में उसे बहाते थे| मालीगण सम्मुख आते तो, शाखाएं मार भागते थे|| रखवाले बजरंग की, बार बार खा मार| पहुंच दशासन सभा में, करने लगे पुकार|| स्वामी आया है कीश एक, वाटिका उजाड़ रहा है वह| फल खाने की कुछ बात नहीं, पर पेड़ उखाड़ रहा है वह|| बानर है नहीं, प्रलय है वह, या यमपुर का हलकारा है| विस्मारा है सारा अशोक, राक्षसगण को बस मारा है|| उन सबकी यह टेर सुन, कांप उठा दशभाल| जाओ भगा दो कीश को, भेजे भट तत्काल|| खलदल आता देखकर, उछल पड़े हनुमान| वृक्ष हिलाकर वेग से, गरजे मेघ समान|| सुनते ही शब्द असुर कापें, फूट गये युगल पट कर्णों के| बजरंग ने रंग वह दिखलाये, भदरंग हुए मुहँ राक्षसों के|| कुछ मींज दिए, कुछ खूंद दिए, कुछ पेड़ गिराकर दबादिए| कुछ पकड़ सिन्धु में फेंक दिए, कुछ बाँध पूंछ में घुमा दिए|| बजरंगी ने, रण रंगी ने, छण में रिपु यमपुर पहुंचाए| कुछ बचे खुचे, अधमरे असुर, फिर राजसभा में चिल्लाये|| रावण अति क्रोधित हुआ, सुन दूसरी पुकार| उसी समय सेना सहित, भेजा अक्षकुमार|| इधर बली बजरंग ने, उड़ती देखी धूर| समझ लिया आ रहा है, अबके कोई शूर|| इस बार किया ऐसा गर्जन, कांपा पत्ता पत्ता बन का| मारा उखाड़कर वृक्ष एक, मुहँ फेर दिया खलनंदन का|| झट तरु से कूद पकड़ गर्दन, झटका दे घोष किया जय का| छाती पर एक लात मारी, फट गया कलेजा अक्षय का|| बजरंग सिंह की मूर्ति देख, बकरी सा वह मिमिया उट्ठा| क्षय हुआ एक छण में अक्षय, फिर महाकाल मंडरा उठा|| तब धाएँ खलदल पर कपिवर, ज्वालामुख आग बबूले से| रिपु लगे बिलौने क्रम क्रम से, पानी के निबल बबूले से|| चुटकी में चुटपुट शत्रु हुए, वह महाप्रलय दिखलाई दी| कुछ बचे-खुचे फिर भाग चले, जाकर इस भांति दुहाई दी| आई शीश पे लड़ाई, दुहाई है दुहाई| राजबाड़ी बागबाड़ी, बानरे ने लूट खाई|| झाड़के उजाड़ के, बिगाड़ के उखाड़ के| सारी अशोकवाटिका को कर दिया है ढेर| अक्षय कुमार मारा है, अंधेर है अंधेर|| राजदंड हो प्रचंड, अन्यथा नहीं है भलाई| रावण ने यह टेर सुनी, जब तीसरी बार| अक्षयसुत की मर्त्यु सुन, बोला तनिक विचार|| इन्द्रजीत अब जाओ तुम, बानर है बलवंत| वध मत करना बांधकर, लाना यहाँ तुरंत|| देखूं तो मैं कौन है, ऐसा बल भंडार| जिसने मेरे अक्षको, रणमें दिया संहार|| मेघनाथ पहुंचा जभी, हँसे पवन के लाल| ताड़ लिया इस बार है, योध्दा एक विशाल|| फिर गर्ज गर्ज तरुवर उखाड़, सीधा प्रहार भरपूर किया| रथवान सहित घोड़े मारे, रथ को भी चकनाचूर किया|| सारा दल अंगरक्षकों का, संहार दिया बजरंगी ने| फिर इन्द्रजीत के निकट पहुंच, जयनाद किया बजरंगी ने|| हल्का सा मुष्टिक कर प्रहार, किलकार उठे तरु पर जाकर| उस इन्द्रजीत से योद्धा को, मूर्छा आई मुक्का खाकर|| मूर्छा से जग मायावी ने, दिखलाया मायाबल सारा| बजरंगबली से वश न चला, मिल गया धूलि में छल सारा|| उछल रहे थे वृक्ष पर, पवनपुत्र साह्लाद| नीचे से कहने लगा, झुंझलाकर घननाद|| डाली डाली उछलकर, दिखलाता है चाल| बंदी करता हूँ अभी, अपने लिए संभाल|| मैं मेघनाथ कहलाता हूँ, बैरी को सदा हराया है| जीता है मैंने स्वर्गलोक, पद इन्द्रजीत का पाया है|| पर तू भयभीत न हो मन में, बल नहीं तुझे दिखलाउंगा| श्रीमान पिताजी के सम्मुख, केवल तुझे ले जाऊँगा|| हनुमत बोले युद्ध कर, बातों का क्या काज| इन्द्र्जालिये खेल ले, इंद्रजाल सब आज|| यदि तुझको कुछ बन पड़े नहीं, तो अभी पिता को बुलवाले| क्यों खड़ा हुआ मुहँ तकता है, अपने सब कर्तब दिखलाले|| तेरा मेरा रण ही क्या है, मैं तुझको खेल खिलाता हूँ| तू मेघनाथ कहलाता है, मैं रामदास कहलाता हूँ| तू इन्द्रजीत छलवाला है, मैं कामजीत बलवाला हूँ| तू दीपक है, मैं हूँ मशाल, रविकुल रवि का उजियाला हूँ|| बिगड़ उठा यह बात सुन, लंकाधीश कुमार| ब्रह्म अस्त्र लेकर कहा, अच्छा रोक प्रहार|| मुझको तो तुझे बांधना है, अतएव बाँध ले जाऊँगा| सौ दो सौ नहीं सहस्त्रों ही कर्तब अपने दिखलाउंगा|| तू निश्चय ही है महावीर, तेरा वीरत्व मानता हूँ| ले फेंक रहा हूँ ब्रह्मफ़ांस, इसमें अब तुझे बांधता हूँ|| कहा अन्जली लाल ने, पूर्ण हुआ संग्राम| बंधन है यह धर्मका, बल का अब क्या काम|| यह ब्रह्म-अस्त्र, यह ब्रह्म-फ़ांस, यह ब्रह्मबाण ब्रह्मा का है| मैं इसे काट सकता हूँ पर, सम्मान ध्यान ब्रह्मा का है|| जिन रामचंद्र जगदीश्वर को, सुर नर मुनि निशदिन रटते हैं| जिनका लेते ही नाम तुरंत, सारे भव बंधन कटते हैं|| उनके जन को यह बंधन क्या, पर प्रश्न धर्म का है इसमें| अतएव नाथ के कार्य हेतु, यह अनुचर बंधता है इसमें|| इतना कहकर बंध गये स्वयं, वृक्षों के डाले छोड़ दिए| बंधते बंधते भी कपिवर ने, बीसों के मस्तक तोड़ दिए|| लंकेश्वर की सभा में, पहुचें जभी कपीश| क्रोधित होकर उसीक्षण, बोल उठा दशशीश|| तू कौन कहाँ से आया है, कुछ अपनी बात बता बनरे| उद्धान उजाड़ा क्यों मेरा, क्या कारण था बतला बनरे|| लंका के राजा का तूने, क्या नाम कान से सुना नहीं| तू इतना ढीठ निरंकुश है, मेरे प्रताप से डरा नहीं|| मारा है अक्षकुवंर मेरा, तो तेरा क्यों न संहार करूं| तू ही न्यायी बनकर कहदे , तुझसे कैसा व्यवहार करूं|| ब्रह्मफ़ांस से मुक्त हो, बोले कपि सविवेक| उत्तर कैसे एक दूँ, जब हैं प्रश्न अनेक|| दशमुख की प्रश्न-पुस्तिका के, पन्ने क्रम-क्रम से लेता हूँ| पहला जो पूछा सर्व प्रथम, उसका ही उत्तर देता हूँ| सच्चिदानंद सर्वदानंद, बल बुद्धि ज्ञान सागर हैं जो| रघुवंश शिरोमणि राघेवेंद्र, रघुकुल नायक रघुवर हैं जो|| जो उत्त्पत्ति स्थिति प्रलय रूप, पालक पोषक संहारक हैं| इच्छा पर जिनकी विधि-हरिहर, संसार कार्य परिचालक हैं|| जो दशरथ अजर बिहारी हैं, कहलाते रघुकुल भूषण हैं| रीझी थी जिनपर सूपर्णखा, हारे जिनसे खरदूषण हैं|| फिर और ध्यान देलो जिनकी, सीता को हरकर लाये हो| मैं उन्हीं राम का सेवक हूँ, तुम जिनसे वैर बढाये हो|| अब सुनये लंका आया था, माता का पता लगाने को| इतने में भूख लगी एसी, हो गया विविश फल खाने को|| सुधि न तुमने ली पाहुने की, निश्चरकुल में आभाव है यह| फल खाकर पेड़ तोड़ता है, बानर का तो स्वभाव है यह|| भगवान जीम लेते हैं जब, तब भक्त प्रसादी पाते हैं| इस कारण भोजन से पहले, निज प्रभु को भोग लगाते हैं|| मैंने भी श्रीरामापर्ण कर, उन वृक्षों के फल खाए हैं| तुम उस प्रसाद के पात्र न थे, इस कारण तोड़ गिराए हैं|| अक्षय वध का उत्तर यह है, सबको अपना तन प्यारा है| उसने जब मुझको मारा तो, मैंने भी उसको मारा है|| अब मेरी कुछ प्रार्थना, सुनिए देकर ध्यान| बिना कहे बनती नहीं, कहना पड़ा निदान|| सीता माँ को लंका में रख, तुम भारी भूल कर रहे हो| जीवन में अपयश अर्जन कर, बिन आई मर्त्यु मर रहे हो|| सब पीछे से पछताते हैं, जो हैं मदान्ध प्रभुता वाले| सन्निकट आ रहा प्रलयकाल, सोते हैं क्यों लंका वाले|| है यही उचित शत्रुता छोड़, लौटाओ सीता माता को| श्री कोशलेन्द्र की छाया में, फैलाओ राज प्रतिष्ठा को|| रावण बोला व्यर्थ का, यह वितान मत तान| चोर और बलजोर हो, करता नीति बखान|| है धाक धरनी से गगन तलक, रचना समस्त मुझही में है| आज्ञाकारी हैं सूर्य चन्द्र, सब उदय-अस्त मुझ ही मैं है|| मेरी त्योरी के चढ़ते ही, त्रैलोक्य नाचने लगते हैं| ग्रह, काल, सुरेश, कुबेर, वरुण मेरे घर पानी भरते हैं|| आती है बड़ी हंसी मुझको, यह ऊंटपटांग बात सुनकर| उस अधम तपस्वी बच्चे को, किस भांति बखाना चुन चुनकर|| ना समझे किस घमंड में हैं, स्वामी को अपने समझा ले| उस बानर वाले तपसी से, क्या डर जाए लंका वाले|| हुए अन्जलीलाल के, लाल तुरंत ही नैन| भाव दबाकर क्रोध का, बोले ऐसे बैन|| तूने जो अधम कहा इससे, कब उनकी महिमा घटती है| कितनी ही फेकों धूल किन्तु, सूरज तक नहीं पहुचती है|| आ गया मर्त्यु का दिन समीप, उसने ही तुझे घुमाया है| कहना सुनना है व्यर्थ सभी, तू तो सचमुच बौराया है|| मेरा मेरा जो बकता है, यह कुछ भी काम न आएगा| तब मुट्ठी बांधे आया था, अब हाथ पसारे जायेगा|| श्री रामचंद्र का दास बना तो, देव वधूटी निखरेगी| अन्यथा मरेगा जब मदान्ध, मक्खियां लाश पर भिनकेगी|| दशकंधर को विष लगा, यह हितकर उपदेश| क्रोधा युक्त होकर दिया, इस प्रकार आदेश|| हे राजसभा के सचिववरों, बानर सचमुच उन्मादी है| सीधा सादा सा लगता है, वास्तव में बड़ा विवादी है|| निश्चय ही बल पर फूला है, उन दोनों तपसी बच्चों के| सिर इसका अभी काट डालो, सामने मेरी इन आँखों के|| खडगों को खींच उठे खलगण, चाहा कपि का संहार करें| भालों की नोकों पर रख लें, फिर बाणों की बौछार करें|| देवयोग से आ गये, तुरंत विभीषनराय| बोल उठे- हो रहा है, यह कैसा अन्याय|| हे भाई, कुछ सोचो समझो, सर्वत्र क्षमा है दूतों को| ऐसा न करो जग धिक्कारे, लंकापति की करतूतों को|| फिर राजसभा है यह राजन, अन्याय न यहाँ कीजियेगा| देना ही है यदि दंड इसे, तो अवसर देख दिजियेगा|| अब तो सब कहने लगें यही यही है न्याय| बोल उठा रावण, करो तो फिर अन्य उपाय|| बेपूछे पूछ घुमा कपि ने, उद्धान उजाड़ा सारा है| अतएव निपूछां करो इसे, अब यह आदेश हमारा है|| घी और तेल से वस्त्र भिगो, बंधवाओ पूछ में बानर की| फिर कर प्रचंड प्रज्वलित अग्नि, लगवाओ पूंछ में बानर की|| जब जली पूंछ से जायेगा, तो स्वामी को भड़कायेगा| लड़ने के लिए तपसियों को, अति शीघ्र यहाँ ले आयेगा|| आज्ञा सुन लंकेश की, हंसे बली हनुमान| यही पूंछ तुझ दुष्ट का, हर लेगी अभिमान|| शारदा माँ तो कर चुकी काम, अब मैं कुछ कर दिखलाऊगा| तिगनी का नाच नचा इनको, सब इनकी अकड़ भुलाउंगा|| राजाज्ञा-वश आज्ञाकारी, आज्ञा का पालन करते थे| घर घर से आ अनेक कपड़े, उस एक पूंछ पर बंधते थे|| लंका में अद्भुत कौतुक था, बूढ़े बच्चे सब हँसते थे| जब पवनपुत्र अन्जलीलाल, अपनी यह लीला करते थे|| वे वस्त्र लगाते जाते थे, यह पूंछ बढ़ाते जाते थे| पुरभर के कपड़े लगा दिए, पर छोर न उसका पाते थे|| घी तेल काम आया इतना, बाकी न बचा छौकन तक को| कपड़े का ऐसा काल हुआ, बच न रहा जरा कफन तक को|| बच्चे बूढ़े तरुण सब, बोल विविध विध बोल| खिलवाड़ करने लगे, बजा बजा कर ढोल|| अंधों को सूझी नहीं, सुख में दुःख की लाग| नगर घुमा कपि पूंछ में, तुरंत लगा दी आग|| बूढ़े बूढ़े जो कहते हैं, आती वह बात यहाँ पर है| खांसी सब रोगों की जड़ है, तो हंसी लड़ाई का घर है|| श्री रामचंद्र की महिमा को, लंका के पामर क्या जाने| बजरंगबली की लीला को, मतवाले निश्चर क्या जाने|| रजनी के जाते ही जैसे, हो उदित अरुण मार्तण्ड उठे| त्यों आग पूंछ में लगते ही, हनुमत हो परम प्रचंड उठे|| अट्ठाहस कर दुर्ग पर पहुंचे पवनकुमार| पृथ्वी से आकाश तक, व्यापा शब्द अपार|| लंका में बिजली सी चमकी, घन सा घनननन घोर हुआ| आकार बढ़ा जब आंधी सा , तो हा हा चारों ओर हुआ|| कांपे कच्छप, दहले पन्नग, खिसके दिकपती वह कांति हुई| मही गगन हिले गिरी-धरिणी धसें, अतिप्रबल प्रलयसी भ्रान्ति हुई|| चल पड़ी हवाएं उन्नचास, तरु टूट टूट कर गिरते थे| आकाश धरातल एक हुआ, अन्जिलीलाल यों बढते थे|| बढ़े हुए आकार में, रहे कुछ समय वीर| दीर्घ किया फिर पूंछको, लघु कर लिया शरीर|| चढ़कर उन कनक कंगूरों पर, कलशों को ढाने लगे बली| फिर इस ठौर पर बैठ गये, लांगुर घुमाने लगे बली|| हरि के द्रीही निश्चरगण की, करनी का स्वाद चखाते थे| प्रयेक दिशा में घूम घूम, जलतों को और जलाते थे|| सायं सायं बढने लगा, ज्वाला का विस्तार| धायँ धायँ जलने लगा, असुरों का घर द्वार|| कोठों में धक धक आग लगी, नरनारी व्याकुल फिरते थे| चेती प्रचंड चंडी एसी, गृह खंड खंड हो गिरते थे|| जब उपर को लपते उट्ठी, चलता रथ रुका दिवाकर का| सारा त्रिकुट गिरी भबक उट्ठा, जल लगा खौलने सागर का|| पति को पत्नी, बेटे को माँ, अग्रज को अनुज बुलाते थे| लंका नगरी के नर नारी, सब हाहाकार मचाते थे|| हाहाकार निहार कर गर्ज उट्ठा दशभाल| होंठ काटकर दांत से, मीजें दोनों हाथ|| बलवानों को बलहीन समझ, भ्रकुटि कराल कर ली अपनी| फिर आँख उठाई गगन ओर, पुतली विशाल कर ली अपनी|| क्रोंधान्दित नेत्र दशानन के, जैसे ही उपर उठते हैं| उद्ड्गण यम इंद्र कुबेर वरुण, रवि शशि के छक्के छुटते हैं|| वह बिजली थी उन आँखों में, अम्बर पर घिर आये बादल| कडकड सा भीषण शब्द हुआ, जल अधाधुंध लाये बादल|| संकेत मात्र से काम हुआ, आयोजन हो तो ऐसा हो| यदि शासन हो तो ऐसा हो, अनुशासन हो तो ऐसा हो| दुर्दिन में होता नहीं, कोई सिद्ध उपाय| देता है प्रतिकूल फल, सीधा भी व्यवसाय|| ईश्वर की माया अद्भुत है, होनी का खेल निराला है| भगवान राम ही रूठे तब, कौन बचाने वाला है|| जिस समय अग्नि में जल पहुंचा, तो फल विपरीत लगा फलने| घी का सा काम किया जल ने, वह आग लगी दूनी जलने|| मानो आकाशी झरने से, पावक की धार झर रही थी| या उधर अशोकवाटिका में, तर्प्तात्मा काम कर रही थी|| बालों को खोले हुए सिया, कहती थी लज्जा जाय नहीं| ज्वाला मैया मेरे सुत पर, देखना आंच कुछ आये नहीं|| यह देख प्रकति का चमत्कार, अन्जलीलाल हर्षा उट्ठे| हनुमत को जब हँसते देखा, रावण राजा खिसिया उट्ठे|| बोले क्या जाता रहा, मेरा शासनकाल| बंदीगृह से काल को, लाओ अभी निकाल|| ओ काल कहाँ तू बैठा है, कुछ कार्य नहीं कर सकता है| लंका में आग लग रही है, तू खड़ा खड़ा मुहँ तकता है|| है विपत्काल अतिकाल न कर, आ शीघ्र झपटकर बाहर को| मैं आज्ञा तुझको देता हूँ, भक्षण कर ले इस बानर को|| जिस भांति मदारी के भय से, कपि नाना कर्तब करते हैं| त्यों ही प्रताप से रावण के, यम और काल भी डरते हैं|| अति कुपित देख दशकंधर को, कम्पित सा हो वह काल गया| फिर प्रलयकाल की भांति झपट, बजरंगी पर तत्काल गया|| कहकर जय रघुराज की, बोले अन्जलीलाल| तुझको ही संसार में, कहते हैं क्या काल|| तू लोकजीत, तू भुवनजीत, जगजीत बखाना जाता है| पर यह शरीर है रामदास, जो कालजीत कहलाता है|| मैं महाकाल हूँ अरे काल, तुझ कराल को विकराल हूँ मैं| जिसके अधीन है शक्ति तेरी, उस महाशक्ति का लाल हूँ मैं|| यह कह झट से झपटे पकड़ा, उस क्रूर काल को क्षणभर में| ज्यों बालकाल में ले छलांग, था धरा दिवाकर को कर में|| त्रिभुवन में हाहाकार हुआ, हिल गया इंद्रपुर ब्रह्मासन| कैलाश शिखर पर डोल गया, कैलाशनाथ का योगासन|| इन्द्रादि सब देवता, हो अत्यन्त उदास| करने आये प्रार्थना, महावीर के पास|| बजरंगबली हो जाओ शांत, सुरगण सब विनय कररहे हैं| प्राकृतिक खेल मिट जायेगा, इस कारण देव डर रहे हैं|| लंका को फूंको क्षार करो, कंचन के कोठे तोड़ो तुम| पर वीर हमारे आग्रह से, इस समय काल को छोडो तुम|| छोड़ दिया हनुमान ने, अपने कर से काल| देख दशानन और फिर, गरजे आँख निकाल|| इतने में लंका को देखा तो, वह अत्यन्त चमकती थी| ज्वाला ज्यों बढती जाती थी, त्यों कंचनज्योति दमकती थी|| आँखों में खटका स्वर्ण तेज, सोचा परिणाम लपट का है| जा पहुचें तभी सुरंगो में, देखा कोई मुर्दा लटका है|| नीचे सिर, उपर पग उसके, सांकल से जकड़ी बाहें थी| फिर देखा मुर्दा जिन्दा है, धीमी धीमी कुछ आहें थी|| कर मुक्त उसे बजरंगी ने, भय तजो और हो शांत कहा| तब सावधान होकर उसने, अपना सारा वृतांत कहा|| धन्य आपको आपने, जीवन किया प्रदान| नाम शनैश्चर दास का, सुनिए दयानिधान|| मैं अपना फल बतलाने को, दशमुख के सम्मुख आया था| आ गयी साढ़ेसाती तुझ पर, यह मैंने उसे बताया था|| सुनते ही वह तो भभक उठा, आँखों को मुझपर लाल किया| पहले तू भोग साढ़ेसाती, यह कह बंदी तत्काल किया|| अब तुमने जो उपकार किया, उसका है प्रत्युपकार नहीं| कुछ सेवा लो आभारी से, तो अधिक रहेगा भार नहीं|| यह सुनकर बोले महावीर, यदि सचमुच तुम्हीं शनिश्चर हो| तो आओ थोड़ा काम करो, जिसका प्रभाव लंका पर हो|| इस चमक दमक की नगरी पर, कुछ अपनी द्रष्टी फिराओ तुम| सचमुच है दशा तुम्हारी तो, कंचन को लौह बनाओ तुम|| द्रष्टि शनिश्चर की पड़ी, छाया तिमिर अपार| लंका काली पड़ गयी, गरजे पवनकुमार|| यों उलट पलट पुर दहन किया, मद चूर कर दिया रावण का| सम्पूर्ण नगर को फूक दिया, घर छोड़ा एक विभीषन का|| सोने की भस्म बनाकर यों, कुछ कुछ अलसाने लगे बली| कूदे तत्काल समुद्र मध्य, निज पूंछ बुझाने लगे बली|| पूंछ बुझा श्रम दूर कर, ले छोटा आकार| पहुंचे माता के निकट, फिर श्रीवायुकुमार|| बोले अब चित्त उचटता है, अतएव विदा करियेगा माँ| फिर एक हाथ कृपाका इस सर पर, चलती बिरिया धरिएगा माँ|| प्रभु ने जैसे मुदरी दी थी, दे चिन्ह मात भी निज कर से| सन्देश कहें जो कहना हो, कह दूंगा सब श्री रघुवर से|| इन वचनों से मात को, हुआ पूर्ण आल्हाद| दिया पुत्र हनुमान को, आशीर्वाद प्रसाद|| बोली- लो मेरी चूड़ामणि, उनके चरणों में रख देना| करजोर ओरसे मेरी फिर, इस भांति निवेदन कर देना|| कर्तव्य समझकर वे अपना, मेरा संकट सम्वरण करें| जो बाण जयंती पर छोड़ा, वह कहाँ गया, फिर ग्रहण करें|| यदि एक मास के भीतर ही, प्रभु आकर नहीं छुडायेंगे| तो कह देना, जतला देना, फिर मुझे न जीती पायेगें|| बलवीर उधर तुम जाते हो, क्या पता इधर क्या होना है| सांत्वना मिली थी कुछ तुमसे, फिर वही रातदिन रोना है|| पर क्या करिये परवशता है, इस कारण धीर धर रही हूँ| छाती पर पत्थर सा रखकर, मैं तुमको विदा कर रही हूँ|| ढाढस देकर शान्त कर, समझाकर बहुबार| विदा हुए आशीष ले, श्री अन्जली कुमार|| चलते चलते ऐसे गरजे, फट गये कलेजे असुरों के| वह प्रलय मेघ सा शब्द हुआ, गिर गये गर्भ निश्चरियों के|| सुन अट्टाहस का विकट शब्द, पृथ्वी पहाड़ तक डोल उठे| पहचान घोष बजरंगी का, इस पार कीशगण बोल उठे|| हनुमत का आगमन है, गगन कॉप रहा है| कपिराज की है गर्जना, बन कॉप रहा है|| बजरंगी आ रहे हैं जयी होकर, राधेश्याम| यह वह हैं, जिनके नाम से रन कॉप रहा हैं|| हलचल यह अवलोककर, बानरदल था दंग| जय राधव कहते- इधर, आते थे बजरंग|| इस पार जभी आये कपिवर, कपिगण में हर्ष अपार हुआ| सम्मान हुआ, सत्कार हुआ, उपचार हुआ, जयकार हुआ|| सब उन्हें घेर कर बैठ गये, उनकी लांगूर चूमते थे| सुन सुनकर लंका दहन कथा, हो होकर मग्न झूमते थे|| खा मधुबन के मधुर फल, करते हर्षोल्लास| जय राघव कहते हुए, आये सब प्रभु पास|| एक एक के ह्रदय लग, मिले मैथलीकान्त| जामवंत ने कर दिया, वर्णन सब वृतांत|| बोले हे नाथ विजय पाई, इन चरणों ही के बल से| फल आया है उस बिरवे में, सींचा था जिसे कृपाजल से|| सौ योजन का सागर लांघा, बैरी के घर भी नाम किया| जीवन प्रदान कर हम सबको, हनुमत ने पूरा काम किया|| जामवंत की बात सुन, पुलके करुणाकार| वीर अन्जलीलाल से, भेंटे भुजा पसार|| हे महाबली हे महावीर, बल पर तेरे गर्वित हूँ मैं| इस कृति के बदले में क्या दूँ, कुछ वस्तु नहीं लज्जित हूँ मैं|| हो सकता नहीं उऋण तुमसे, इस अवसर यही कहूँगा मैं| जबतक पृथ्वी आकाश रहे, बस तेरा ऋणी रहूँगा मैं|| अब यह बतलाओ वैदेही, किस भांति वहाँ पर रहती है| कैसे निज जीवन रक्षा कर, अन्याय असुर का सहती है|| यह सुनकर हनुमान ने, कहा जोड़कर हाथ| सीता माता की कथा, करुण कथा है नाथ|| सिंहनी कठघरे में जैसे, या रसना जैसे दांतों में| वैसे ही हैं वे सतवंती, उन रजनीचर मतमातों में|| या जिस प्रकार हो फणी में मणि, अथवा हो कमल पत्रजल में| ऐसे ही रहती मात वहाँ, जिस भांति चन्द्रिका बादल में|| चलने के समय कहा मुझसे, सब मेरी व्यथा सुना देना| छोड़ा जो बाण जयंती पर, उसकी भी याद दिला देना|| अपराध हुआ है क्या मुझसे, जो मुझे बिसारे बैठे हैं| वे प्रनतपाल कहलाकर क्यों, अपना प्रण हारे बैठे हैं|| दिनरात काल के मुख में हूँ, पर प्राण न हाय निकलते हैं| दर्शन के प्यासे नैना यह, जीवन को रोके रहते हैं|| सुधि नहीं महीने भर में ली, रघुराई ने आकर मेरी| तो तन तज आत्मा लौटेगी, उन चरणों में जाकर मेरी|| चुडामणि चलते समय दिया, स्वामी यह चिन्ह लीजिएगा| दुखभरी कथा वैदेही की, कब तलक कहाँ तक सुनियेगा|| यह सुनते ही अधिक फिर, विकल हुए रघुवीर| क्लेश हुआ अति चित्त को, बहा दृगों से नीर|| बोले हा ! ऐसी पतिव्रता, ऐसे संकट के मुख में है| जिसका मुझसा पति जीवित है, वह पत्नी इतनी दुःख में है|| हो कुश काथरी सेज उसकी, महलों का जीवन जिसका है| करनी का लिखा नहीं मिटता, होनी में चारा किसका है|| हनुमत बोले नाथ के, हैं अति उच्च विचार| पर सेवक की भी विनय, सुने दया भंडार|| दुःख उसको होता है जग में, जो इन चरणों की शरण न हो| है उसी ठौर दुःख या संकट, जिस ओर प्रभु स्मरण न हो|| माता को दुःख संकट कैसा, निशदिन वे नाम सुमरती हैं| मन मंदिर में रघुराई हैं, साक्षात् उन्हीं का करती हैं|| है विरहज्वाल का कष्ट जहाँ, अंतरछवि की नमी भी है| इस जग का है व्यवहार यही, सर्दी भी है, गर्मी भी है|| दूसरी बात कितनी सी है, रणभेरी बजने दें स्वामी| लंका पर धावा करने को, कपिसेना बढ़ने दें स्वामी|| उठकर राघव ने कहा, धन्य वीर हनुमान| तेरी गति-मति योग्यता, हो किस भांति बखान|| तुझसा उपकारी और नहीं, सुर नर मुनि सकल चराचर में| बलवीर हुआ तू अमृत नीर, विरही जीवन के तरुवर में|| अब और विशेष कहें हम क्या, तू अबसे प्राण हमारा है| श्री भरत शत्रुहन लक्ष्मण से, सीता से बढकर प्यारा है|| यह कहते कहते पुलकित प्रभु, नयनों का नीर रोकते थे| टकटकी बांधकर बार-बार, हनुमत की ओर देखते थे|| देख अवस्था नाथ की, हनुमत हुए अधीर| हूक मार चरणों गिरे, कहकर जय रघुवीर|| थी दोनों ओर प्रेम गंगा, कपिदल भी जिसमें नहाता था| स्वामी सेवक का मिलन देख, त्रिभुवन मंडल पुलकाता था|| प्रभु लगे उठाने हनुमत को, वे हिले नहीं उठाना कैसा| चरणों में जब गढ़ गया चित्त, टलना कैसा हटना कैसा|| शपथ दिला तब भक्त को, खींच लिया निज ओर| आसन दे अपने निकट, बोले अवध किशोर|| बजरंगी प्यारे, गुण पे तुम्हारे बलिहार मैं| सुन कपि तोहि उऋण मै नहीं, नाम किया उपकार में, क्या दूंगा उपहार मैं|| मांग मांग कपि वर अनुकूला, तनमन सर्वस वार मैं| कर लूँगा स्वीकार मैं|| इस प्रकार बोले वचन जब प्रभु करुणाऐन| उन्हीं स्वरों में कहे तब, हनुमत ने कुछ बैन|| महाराज हमारे, चरण तुम्हारे का हूँ दास मैं| यह सब तब प्रताप रघुराई, पदरज के प्रति श्वास में, रखता हूँ विश्वास मैं|| नाथ भक्ति तब, शिव मन भाविनी, मांग रहा सोल्लास मैं, अनुचर हो रहूँ पास में| एवमस्तु प्रभु ने कहा, जन इच्छा अनुकूल| बजी गगन में दुन्दुभी, लगे बरसने फूल|| मित्र मण्डली में जभी, पहुचें पवनकुमार| लिपट-लिपट कर कीशगण, भेंटे बारम्बार|| नल बोला सच बात तो यह है हे हनुमान| दिया सभी साथियों को, तुमने जीवनदान|| यदि लौट यहाँ आते हम सब, सीता माँ की सुधि लिए बिना| तो प्राण दंड देते सुकंठ, होते न शांत यह किये बिना|| कारण वे प्रथम कह चुके थे, असफल होकर यदि आओगे| तो पहले से कह रखता हूँ, सब दण्ड म्रत्यु का पाओगे|| इसी द्रष्टि से फिर यही, कहता हूँ हनुमान| दिया सभी साथियों को, तुमने जीवनदान|| कहा नील ने- हमीं पर, किया नहीं उपकार| हैं सुकन्ठ भी मानते, इनका यह आभार|| कपिपति को रघुपति से यदि यह अवसर पर नहीं मिला देते| तो बालिराज कबका उनको, सीधा यमलोक पठा देते|| इस कारण मैं यह कहता हूँ, यह दुखी जनों के त्राता हैं| कपियों के जीवनदाता हैं, कपिपति के जीवनदाता हैं|| जामवंत बोले- तनिक, इसपर भी दो ध्यान| उस अशोकवाटिका में, बढे और हनुमान|| यदि ठीक समय पर तरुवर से मुद्रिका गिराते नहीं वहाँ| तो उन वैदेही माता को, जीवित तक पाते नहीं वहाँ|| अतएव सिद्ध ये हो जाता है, संकटमोचन यह अद्भुत हैं| कपि क्या, कपिपति क्या, सीता के जीवनदाता मारुतसुत हैं|| अंगद बोले किया है, प्रभु तक का कल्याण| यह कहना तो धरष्टता, दिए उन्हें भी प्राण|| पर इतना तो कह देंगे हम, उनका भी कार्य सभांला है| सीता की सुधि लाकर उनके, जीवन में जीवन डाला है|| निश्चय ही इनमें निजबल है, फिर रामकृपा का भी बल है| कर्तव्य परायण है मारुति, करनी करने का कौशल है|| प्रातः काल सुग्रीव से, बोले रघुकुल नाथ| रण अब तो अनिवार्य है, निश्चरगण के साथ|| हम आर्यदेश के वासी हैं, निज प्रण पूरा करना होगा| सीतोउध्दार के साथ साथ, सब भूमि भार हरना होगा|| हे बलवीरों, हे रणवीरों, पग आगे ही धरना होगा| सत्यता न्याय मर्यादा पर, काटना होगा, मरना होगा|| रामाज्ञा सुन चतुर्दिश, गरज उट्ठे बलवंत| एकत्रित सुग्रीव ने, कपिदल किया अनन्त|| है बात न यहाँ करोड़ो की, गिनती अरबों खरबों की हैं| लहराबलि सी टिद्धिदल सी, सेना भालु बानरों की है|| थे अति प्रचंड दुरदंड सुभट, जीवट वाले जीदार सभी| गंभीर सभी, रणधीर सभी, बलवीर भूधरा कार सभी|| किलकार मारकर कीशकटक, सागर के तट पर जाता था| आकाश धूल धूसरित हुआ, दिनकर द्रष्टि में आता था|| मुखरित हो उठा मेदिनी-तल, खलदल में खलबल हलचल है| जयकार विश्व में गूंज गया, हर्षाय मान सुर मंडल है|| घर में आ जाय एक बानर, तो घर वाले घबराते हैं| लंका में कैसे बीतेगी, जब इतने चढ़ कर जाते हैं|| — — — - कपिदल जा ठहरा सागर पर, सागर सम जिसका विस्तार| सगुन हुए सीतामाता को, असगुन लंका के राजा को| शंका थी राक्षस सेना को, सुन-सुन कर हुंकार|| कपिदल जा ठहरा सागर पर, सागर सम जिसका विस्तार| शाखा मृग थे शाखाओं पर, धारणातल पर धरनाधर| राधेश्याम न स्वामी ऐसे, देख कहीं उदार|| कपिदल जा ठहरा सागर पर, सागर सम जिसका विस्तार| ******************* सुन्दरकाण्ड विभीषण की शरणागति सागर तट कपिदल सहित, ठहरे सीताकांत| अब जो बीता उधर, सुनिए वह वृतांत|| जिस दिन से लंका नगर, जला गये बजरंज| हुए राक्षस दलों के, रंग पूर्ण बदरंग|| महारानी मन्दोदरी, हो अत्यन्त उदास| रो उट्ठी एकांत में, पति चरणों के पास|| हे प्राणनाथ, हे प्रजानाथ, हे भू मंडल के भूप प्रभो| मेरी आँखों में घूम रहा, अब घोर प्रलय का रूप प्रभो|| हनुमत से जिनके पायक हैं, वे कैसे मारे जायेंगें| तुम लड़के जिन्हें समझते हो, वे लड़के तुम्हें हरायेगे|| कुसमय में संधि उचित ही है, यह कथन प्रवीन नृपों का है| औरों को ले खुद भी डूबे, यह मार्ग महा मूर्खों का है|| वह कार्य सदा ही अच्छा है, जो मेल और मिल्लत में हो| आगे तो वह ही होता है, लिक्खा जो किस्मत में हो|| लंका यह अपनी बनी रहे, क्या काम हमें फिर झगड़ो से| बस यही जीत है, यही विजय, करियेगा सुलह तपसियों से|| सुनकर रानी के वचन, बोला तड़प सुरारि| रहने दे उपदेश यह, ओ कम हिम्मत नारी|| वह शूर नहीं वह कायर है, जो रण में डटकर हट जाए| वह मर्द नहीं नामर्दे हैं, जो कहकर बात पलट जाये|| गंगाजल उल्टी तरफ बहे, या पश्चिम से सूरज निकले| हो सकता नहीं कभी भी यह, लंका का नाथ राय बदले|| जिसके माझी नौसिखिये हैं, वह बेड़ा औघट घाट सदा| जिसने सलाह ली ओछों से, उसका घर बारहबाट सदा|| उस बानर वाली तपसी से, क्या मेरी प्रभुताई कम है| दूँगा न कदापि जानकी को, जबतक मेरे दम में दम है|| उधर उसी दिन जुड़ गया, एक बड़ा दरबार| राजमंत्रियों में किया उसने प्रकट विचार|| लंका के वीरों रणधीरों, बोलो क्या राय तुम्हारी है| बैरी सागर के पार खड़ा, करता अपनी तैयारी है|| हे सहायकों, सेनापतियों, संगठित भली विधि हो जाओ| जिस तरह शत्रुदल हो परास्त, बस उसी मार्ग को अपनाओ|| दरबारी कहने लगे, कौन बड़ी यह बात, मृगराजों के सामने, मृग की कहाँ बिसात|| दो बालक हैं छोटे छोटे, कुछ भलुए हैं, कुछ बनरे हैं| हम लंका वालो के आगे, सब भुनगे हैं, सब मच्छरे हैं|| अपने जो चने चबेने हैं, उनका सोचें उपाय ही क्या| राजाधिराज आनन्द करें, इस रण में भला राय ही क्या|| कहा विभीषण ने तभी, हाय अनर्थ अकाज| इस मुहँ देखी बात ने, गिरा दिया है राज|| निश्चय यह विष की बूंदें हैं, जो मीठी मीठी बतियाँ हैं| यह जी-हाँ जी-हाँ की रायें, कागज की तीर कमनियां हैं|| कहते हैं ठकुर सुहाती जो, ठाकुर का दिल खुश करने को| भगवान उन्हें करदे समाप्त, वह सब जीते हैं मरने को|| पुरुषों में जो पुरुषोत्तम हैं, बालक उनको ठहराया है| रणधीर वीर बानर दल को, भुनगा मच्छर बतलाया है|| इस मति पर पत्थर पड़ जाए, इस मुहँ पर बिजली टूट पड़े| वह राज सुरक्षित हो कैसे, जिसके सचिवों में फूट पड़े|| भाई धीरज धर सुनों, अब मेरी कुछ बात| ऐसे चिकने मत बनों, ज्यों कदली के पात|| तुम पंडित हो तुम शासक हो, तुम राजाओं के राजा हो| शोभायमान है तुम्हें वही, जो नीति धर्म मर्यादा हो|| अपने ही हांथो पैरों में, जब आप कुल्हाड़ी मारी है| तो अब लकड़ी के खगड़ों से, रण की किसलिए तैयारी है|| खुद ही सीता को हर लाये, खुद ही यह बैर बढ़ाया है| खुद ही भारत को छेड़ा है, वह सोता सिंह जगाया है|| तुम उनसे नहीं काल से ही, इस समय जूझते हो भाई| पहले तो कूदे ज्वाला में, अब राय पूछते हो भाई|| जो कुछ कर चुके, कर चुके, अब सोच समझकर बात करो| जो चली गई, वह चली गई, जो रही उसी की बात करो|| जड़ से ही रार मिटादो यह, अपर्ण कर उनकी सीता को| रघुकुल पति से मित्रता बढ़ा, बलवान बनाओ लंका को|| शक्ति स्वरूप हैं जानकी, जगदम्बा जगमात| उन्हें त्रास दे अंत में, कुशल नहीं है भ्रात|| भाई की यह राय सुन, बिगड़ उट्ठा दशशीश| अरुण वर्ण लोचन हुए, फड़क उठी भुज बीस|| बोला बस मौन विभीषण हो, अनुचित है दंड सहोदर को| इस समय और होता कोई, तो अभी काट देता सर को|| दुश्मन के आगे सर झुकाये, यह रावण का दस्तूर नहीं| मर जाना है मंजूर मगर, सीता देना मंजूर नहीं|| घरवाला होकर ही घर को, अपमानित करा रहा है तू| आबरू छवि सिंहासन की, मिट्टी में मिला रहा है तू|| हे कुलद्रोही, कायर कुबुद्धि, ओझल हो मेरी बातों से| उनको ही नीति सुना अपनी, जा मिलजा तपसी बच्चों से|| क्या काम इस जगह है उसका, जिसने बैरी से प्यार किया| यह कहकर भ्रात विभीषन पर, रावण ने चरण प्रहार किया|| पकड़ विभीषन ने चरण, कहा- लो नमस्कार| देश निकाला भी मुझे, है सहर्ष स्वीकार|| भाई जब तक भाई, भाई भरपूर निभाई सेवा है| अब लात लगाई भाई ने, यह भी भाई की इच्छा है|| विष और अमृत दोनों पदार्थ, यध्यपि समुद्र से निकले हैं| पर उसमें तत्व मरण के हैं, इसमें जीवन देने के हैं|| होनी जब सर पर आती है, तो ओंधी ही मति होती है| तुम भटका करो कंकड़ो में, मैंने तो पाया मोती है|| अपराध क्षमा करना उनके, जो होकर आज कठोर चला| लंका हो तुम्हें मुबारक, मैं राम चरण की ओर चला|| चले विभीषन इस तरह, तजकर घर परिवार| मन में विविध प्रकार के, करते हुए विचार|| मुनिमन मधुकर कंज जो, निर्मल ललित ललाम| निखरूंगा अब प्रेम से, वही चरण छविधाम|| जिन चरणों का शिवसनकादिक, सुर नर मुनि ध्यान लगाते हैं| जिन चरणों की लीला महिमा, नारद शारद नित गाते हैं|| जिन चरणों से कलिमय-नाशक, निकली गंगा की धारा है| गौतम की नारी अहिल्या को, जिन चरणों ने निस्तारा है|| जिन चरणों को अन्जलीलाल, आदर से देखा करते हैं| जिन चरणों की पादुका भरत, श्रद्धा से पूजा करते हैं|| अब वह शुभ घड़ी आ रही है, निखरूंगा उन चरणों को मैं| सौभाग्य सूर्य हो रहा उदय, चूमूंगा उन चरणों को मैं|| ऐ दिल घबराहट न ला, हसरत हो बेदार| बेअदबी कुछ हो नहीं, शौक बस खबरदार|| इतने में यह ख्याल आया, संभव है शरण न दें राघव| दुश्मन का भाई समझ मुझे, नजरों को फेर न लें राघव|| फिर सोचा यह कुछ बात नहीं, क्या काम यहाँ इन झगड़ो का| राघव से मुझे प्रयोजन क्या, मैं तो सेवक हूँ चरणों का|| उन चरणों की है आस मुझे, उन चरणों को मैं पकडूंगा| राघव पर द्रष्टि उठेगी फिर, पहले चरणों को देखूंगा|| यदि चरण निभायेगें न मुझे तो, प्रभु से विनय करूँगा मैं| प्रभु ने यदि त्याग दिया तो फिर, चरणों की ओट गहूँगा मैं|| दोनों ही यदि जायेंगे तो भी, क्या मैं फिर जाऊँगा| चरणों की ही सौगंध मुझे, चरणों पर भस्म रमाऊंगा|| जोगी बनकर माला लेकर, बन-बन में अलख जगाऊंगा| चरणों से ध्यान लगाकर ही, रघुनायक के गुण गाऊंगा|| अपनी तामस देह पर, फिर कुछ आई ग्लानि| फिर सोचा उनके निकट, जाने में क्या हानि|| मनुआ धीरज धार, प्रभु चरणों में चलिए| तजकर विविध विचार, प्रभु चरणों में चलिए| पुत्र, कलत्र, बहन और भ्राता, जिनपर तू रहता मदमाता, दो दिन का है उनका नाता, सब मतलब के यार| प्रभु…… राधेश्याम यही है जीवन, यही जीव का अंतिम साधन| हो आनन्द कंद के दर्शन, मिले शांति भंडार|| प्रभु……… अस्तु अनेक प्रकार से, करते हुए विचार| भक्त विभीषन शिघ्र ही, आये सागर पार|| द्रष्टि बानरों की पड़ी, जब इनपर तत्काल| गये पास सुग्रीव के, और कहा यह हाल|| सुग्रीव रामजी से बोले, कुछ नया स्वांग है गढ़ा हुआ| वैरी का भ्राता आता है, गंभीर भेद है छुपा हुआ|| रजनीचर सब मायावी हैं, सीधा न समझिएगा इनको| उत्तर का मार्ग बताते हैं, जब जाते हैं ये दक्षिण को|| मेरा विचार तो ऐसा है, सब स्वाद चखा दूँ इसको मैं| बंधवाकर अभी बानरों से, बंदी करवादूँ इसको मैं|| भाई को बंदी समझ यहाँ, घबराकर आएगा रावण| सीता माँ को दे जायेगा, इसको ले जाएगा रावण|| जामवंत कहने लगे, धीरज धरिये तात| अपने को शोभित नहीं, ऐसी ओछी बात|| जो धर्मवान हैं, योद्धा हैं, रण में कृतव्य चुकाते हैं| बैरी से कहकर जतलाकर, यमपुर उसको पहुंचाते हैं|| आ रहा भेद लेने को यदि, तो भी हमको कुछ फ़िक्र नहीं| कुछ यहाँ भेद की नीति नहीं, कुछ यहाँ कपट का जिक्र नहीं|| धोके से लड़ने आया हो, तो भी बात न चिंता की है| श्री लक्ष्मणजी का एक बाण, उसके संहार को काफी है|| फिर क्यों छेड़े बानर उसको, संभव है मिलने आया हो| हो सकता है वह साथ साथ, सन्देश संधि का लाया हो|| अथवा रावण का क्षमापत्र, वह पास हमारे लाता हो| या रावण से कुछ बिगड़ गई, शरणार्थी होकर आता हो|| शरणार्थी की बात सुन, बोल उठे रघुनाथ| सादर शिष्टाचार से, लाऊ लिवाकर साथ|| जो निर्बल है, जो निश्छल है, वह ही जन मुझको पाता है| चालाक, प्रपंची, धूर्त, छली, कब मेरे सम्मुख आता है|| यदि सभीत शरणागत होगा, दामन में उसे ढकूंगा मैं| फिर महापातकी भी हो तो, उसको न कदापि तजूँगा मैं|| मैं उसका सच्चा साथी हूँ, जो सब प्रकार से आरत हो| मैं उसका सच्चा साथी हूँ, जो जन मेरा शरणागत हो|| यदि शरण आ रहा है मेरी, तो अपनाकर रक्खूँगा मैं| अपने समीप बिठ्लाऊंगा, लक्ष्मण जैसा समझूंगा मैं|| शरणागत पर प्रीति लख, पुलकि उठे हनुमंत| स्वामी स्वभाव विलोककर, बोले वचन तुरंत|| जय शरणागत वत्सल रमेश, जय आरत हरण नमामि हरे| जय भानुवंश, अब तंसहंस, जय अशरण शरण नमामि हरे|| हे नाथ आजतक याद मुझे, परिचित मैं खूब विभीषण से| वह प्रेमी है, अनुरागी है, आया दर्शन के कारण से|| निश्चय शरणागत है प्रभु की, कुछ सेवा काज चाहता है| फिर इस आशा से भी आया है, लंका का राज चाहता है|| हम सभी उसे ले आते हैं, वह साथ हमारे आएगा| अपना तो महालाभ ही है, घर का भेदी मिल जायेगा|| पवनतनय के वचन सुन, मुस्काये भगवान| जय कृपालु- कहकर चले, अंगादी हनुमान|| घर में वन में रिपुगण में भी, भय नहीं कहीं कुलभूषण को| स्वागत सम्मान पूर्वक सब, ले आए भक्त विभीषन को|| पहले तो लखा दूर ही से, चारों ही ओर कीशगण को| तिरछी चितवन से ताड़ लिया, वीरासन बैठे लक्ष्मण को|| फिर नीची नजरों से देखा, कौशल किशोर के चरणों को| एड़ी, तलवों को, पंजो की उंगलियों, नखों और रेखाओं को| फिर आँख उठाकर कुछ उपर, देखा उस कदली जंघा को| फिर वक्षस्थल, आजानुबाहु, फिर जटाजूट फिर ग्रीवा को|| फिर एक द्रष्टि गहरी डाली, भरपूर जमाया आँखों को| प्रति अंग अंग, प्रति रोम रोम, देखा अगणित ब्रह्मांडो को|| फिर कुछ आगे बढ़कर देखा, राजीवनयन के चितवन को| टकटकी बांधकर फिर देखा, श्री रामचंद्र चन्द्रानन को|| फिर समीप जाकर हूक मार, गदगद पुलकायमान तन से| कर जोड़ सामने खड़ा हुआ, बोला श्री रघुकुल नंदन से|| -स्तुति- नमाम्यच्युतं सच्चिदानंदमाघं-विपद्ध्यनजं व्यक्तम व्यक्त रूपम्| सुरावीश-नीलाम्रनीलांग-कान्ति, रमाकांत मिनप्रादिसेव्य्म वरेण्यम्|| अजं शाश्क्तं शाब्तरूपं विशुद्ध, महाचापहस्तं विभुं राघवेंद्र्म| नराकारदेहं लसदपद्मनेत्रम, सुरानीक दुखौघनाशैक हेतुम्|| खरारि निरीहं जटाजूटशोभम्, सदा सर्वगं सर्वलोकैकनाथं| प्रसन्ना खिलानन्ददोहं भजेहं- गुणांणढयं विदेह त्म्जानन्दरूपम्|| अहं मूढ़ बुद्धिस्त्व्दीयं स्वरूपं- न जानमि योगीशध्यान भिगम्य्म| इदानी प्रभो! रक्ष माँ संवत्सत्वं- समयातद स नुदासं सविकयाम|| विनतीं कर प्रभु चरण में, दाल दिया निज माथ| शरणागत की लाज अब, रखलें श्री रघुनाथ|| अचरज में बानर भालु हुए, जब देखी दशा विभीषन की| पुलका उट्ठे श्रीरामचंद्र, हुबकी भर आई लक्ष्मण की|| गद्गद थे हनुमत जामवंत, कपिपति को कुछ लज्जा आई| अपने हांथों पर उठा उसे, लिपटे सहर्ष श्री रघुराई|| यथायोग्य भेटें सभी, भालु कीश समुदाय| फिर आसन दे पास में, बोले श्रीरघुराय|| कहिये लंकेश कुशल से हैं, घर में भी सब प्रसन्नता है| बतलाएं मुझे मैं प्रस्तुत हूँ, क्या इच्छा है क्या आज्ञा है|| तुम ज्ञानवान सज्जन होकर, लंका में कैसे रहते हो| किस भांति धर्म की रक्षा कर, अत्याचारों को सहते हो|| कहता हूँ सखा भाव से मैं, सब हाल कहो अपने मन का| मेरा स्वभाव ही ऐसा है, सच्चा साथी हूँ सज्जन का|| जो सच्चा है, समदर्शी है, वह मुझे प्राण से प्यारा है| वह ही मुझसे मिल सकता है, जिसने अपनापन मारा है|| मधुर वचन सुन राम के, हुआ पूर्ण आनन्द| भक्त विभीषन ने कहा, सुनिए रघुकुल चंद|| वह दास सदा बड़भागी है, जो प्रभुपद का अनुगामी हो| वह जन निष्कंटक निर्भय है, जिसका रघुकुल सा स्वामी हो|| मद मोह काम या क्रोध लोभ, उस समय ह्रदय से हटते हैं| जब रघुराई ले धनुषबाण, भक्तों के चित्त में बसते हैं|| माया में फसां हुआ प्राणी, तब तक पाता विश्राम नहीं| जबतक निष्काम शुद्ध मन से, मुख से कहता श्रीराम नहीं|| जो बात कान से सुनता था, वह आज आँख से देखी है| होती है वहीं प्रताप वृद्धि, मर्यादा जहाँ धर्म की है|| निश्चरकुल में पैदा होकर, अबतलक बहुत भरमाया हूँ| रघुनायक मेरी बाहँ गहो, मैं शरण आपकी आया हूँ|| नरपुन्गव, नरकेसरी, नरनायक, नरनाह| आज विभीषन दीन है, प्रभु के हाथ निवाह|| धन धाम छुटा, परिवार छुटा, इसकी कुछ मुझे न चिंता है| कुछ ध्यान बीच में और हुआ, उसके भी अब न लालसा है|| अब तो जन यही चाहता है, जन गणनायक के पास रहे| इन चरणों में हे पड़ा रहे, इन चरणों ही का दास रहे|| * गाना * जब सुनी विभीषन की यह आरत वाणी- कह एवमस्तु उठ बैठे शारंगपानी| समझी जब सच्ची प्रीति प्रतीति सुजान की| देखी जब सुस्थिर दशा भक्त के मन की|| बोले है यद्यपि तुम्हें न इच्छा धन की| चाहिए भेंट फिर भी तो प्रेम मिलन की|| यह कहकर मंगवाया समुद्र का पानी, कह एवमस्तु उठ बैठे शारंगपानी||(1) बहुमूल्य वस्तु समझी जो दशकन्धर ने| जिस हेतु चढ़ाये शीश काट निश्चर ने|| वह ही लंका जो उसको दी शंकर ने| दीसकुच विभीषन को छण में रघुवरने|| होते ही टीका जय बोले सेनी, कह एवमस्तु उठ बैठे शारंगपानी||(2) रण के पहले ही यह सुअवसर आया| रिपु के भ्राता ने जीवन धन्य बनाया|| सुरमंडल ने भी पुष्पों को बरसाया| ऋषियों महऋषियों ने आनन्द मनाया|| अति दीन विभीषन, धन्य राम से दानी, कह एवमस्तु उठ बैठे शारंगपानी||(3) जो प्रेम भाव से प्रभु को अपनाएगा| वह निश्चय निसन्देह उन्हें पायेगा|| शरणागत जगपति का जब हो जायेगा| जग का वैभव पीछे पीछे आएगा|| यह लीला राधेश्याम जानते ज्ञानी, कह एवमस्तु उठ बैठे शारंगपानी||(4) ******* अब आगे जैसा हुआ, सुनिये वह धर घ्यान| कपिपति से, लंकेश से, बोले कृपानिधान|| हे कृष्किन्धापति, लंकापति, बतलाओ अब क्या करना है| उस निश्चरपति दशकंधर से, किस भाँती लड़ाई लड़ना है|| इस सौ योजन के सागर को, किस तरह पार कर सकते हैं| क्या किसी प्रकार, किस विधि से, हम पुल तैयार कर सकते हैं|| प्रथम विभीषन ने कहा, सुनिए करुणागर| सदा धर्म की जय रहे, होगा बेड़ा पार|| बानर सेना जब अगिनित है, तो चिंता ही क्या पुल की है| उद्योगी वीरों की जग में, कठिनाई नहीं कहीं भी है|| संकोच यही है सागर यह, अत्यन्त पूज्य हो रघुकुल का| इसलिए विनीत भाव से ही, मांगिये मार्ग इससे पुल का|| लषनलाल क्रोधित हुए, सुनकर एसी राय| शीश नवा बोले तुरंत, वे छोटे रघुराय|| जो कार्य शिघ्र ही करना है, होगा न विनय की बातों से| घी नहीं निकलता भाईजी, सीधी या खड़ी उंगलियों से|| चढ़ जाय धनुष पर बाण अभी, तो इसका गर्व हरण होगा| फिर सागर हो या कि महासागर, आरत हो चरण शरण होगा|| शान्त शान्त हो अनुजवर, बोले श्री रघुवीर| ऐसा ही होगा मगर, धरे रहो कुछ धीर|| इतना कहकर सिन्धुतट, बैठे विनय निमित्त| सुनिए अब पिछली कथा, सावधान कर चित्त|| लंका से चल रामदल में, जिस समय विभीषन आये थे| पीछे से भेद जानने को, — रावण ने दूत पठाए थे|| बानराकार में शुक सारण, इस जगह घूमते फिरते थे| श्रीराम विभीषन मिलन देख, सानन्द झूमते फिरते थे|| व्यवहार यहाँ का देख देख, यह दोनों भी जब भक्त हुए| घर की तन की सुधि भूल गये, उन्मत्त हुए, अनुरक्त हुए|| हो गये प्रकट खुल गया कपट, कपियों ने झट पहचान लिया| झटके दे दे, महि पर पटका, जब गुप्त दूत अनुमान लिया|| नाक कान काटो अभी, बोले कपि दो तीन| राम लषन की दे उठे, तभी दुहाई दीन|| श्री लषनलाल के कान पड़ा, वह करुणा क्रंदन दूतों का| बुलवाकर अपने पास वहीं, खुलवाया बंधन दूतों का|| पहले तो समाचार पूछा, फिर दोनों का स्वत्रंता दी| फिर थोड़ा सा कुछ सोच समझ, रावण के नाम पत्रिका दी|| ले जाओ हमारी चिट्ठी यह, दशकंधर को दिखला देना| फिर कुछ सन्देश जुबानी भी, अभिमानी को समझा देना|| नास्तिकता, चोरी-कलह, नशा और पर नारी| कहना यह वस्तुए, हैं वंश विनाशन हारि|| आँखों के रहते अँधा है, जो बीज जहर का बोता है| चोरी से हरकर परनारी, अब रण के सम्मुख होता है|| इस उल्टी मत के कारण ही, लंका की सत्यानाशी है| यह बारम्बार जता देना, जानकी जान की प्यासी है|| चिट्ठी लेकर दूत वे, चले शिघ्र अत्यन्त| रावण के दरबार में, प्रस्तुत हुए तुरंत|| शुक-सारण आगये क्या, बोल उठा दशभाल| किस प्रबंध में हैं वहाँ, कौशल्या के लाल|| पहले तो सब वृतांत कहो, उस बुद्धि-विहीन विभीषन का| जो देश जाति का द्रोही है, बागी भाई है रावण का|| फिर उन लडकों की बात कहो, जो निज प्राणों पर खेले हैं| फिर जिसने लंकादहन किया, उस जैसे कितने बनरे हैं|| सारण बोला- है वहाँ, हर्ष व्याप्त सर्वत्र| लाये हैं हम साथ में, लक्ष्मण जी का पत्र|| पहले तो दिया रामजी ने, लंका का राज्य विभीषन को| फिर हम दोनों को जब समझा, तो आया क्रोध कीशगण को| लक्ष्मणजी को आ गयी दया, हमने जिस समय दुहाई दी| मुख से भी सन्देश कहा, चिट्ठी भी लिखी, विदाई दी|| हे नाथ राम तो अद्भुत हैं, क्या कहें ह्रदय खो गया वहीं| जिन जिन अंगों पर द्रष्टि गयी, मन लुभा लुभाकर रहा वहीं|| चरणों की छवि देखे बनती, वर्णन में तनिक न आती है| कमलों पर दौड़ द्रष्टि भ्रमरी, बस बार बार ही जाती है|| श्री रघुकुल भूषण मुस्कराकर, लंका की ओर हेरते थे| शोभायमान था, धनुषबाण, हाँथों पर उसे फेरते थे|| नख शिख सुन्दरता भरे, हैं कौशल के लाल| शोभित जिनकी देह पर, धूल और तरु छाल|| श्री महाराज अब तक तो थे, रघुराई की चर्चा में हम| अब उनके दल बल का वर्णन, करते हैं भरी सभा में हम|| जिस ओर देखिये द्रष्टि उठा, अगनित ही भालू बानर हैं| दलबद्ध सभी, रणमत्त सभी, विकराल कराल भयंकर हैं|| सुग्रीव नील नल जाम्बुवंत, हनुमान भयंद द्विविद अंगद| धूम्राक्ष केसरी गय गवाक्ष, द्धिभाल शरभ शरभंग पूरद|| अगणित कपि गर्जन तर्जन, कर दहलाते व्योम धरा को हैं| कर देंगे क्षण में खंड खंड, यों देख रहे लंका को हैं|| नाथ कहां तक हम कहें, उनकी कथा अपार| देख देख इस पार को, कहते थे किलकार|| कर देंगे छिन्न भिन्न खलदल, भेजेंगे यमपुर रावण को| वह छत्र मुकुट, वह सिंहासन, दे देंगे भक्त विभीषन को|| श्रीराम न आज्ञा देते हैं, अन्यथा अभी दिखलादें हम| सेना समेत दशकंधर को, दल डालें धूल मिला दे हम|| आसुरी सभा को उलट पलट, चोरी का स्वाद चखा दे हम| सारी नगरी को चौपट कर, सागर के मध्य बहा दें हम|| जगदम्बा, जगजैया, जगजननी, सीता माँ को ले आयें हम| एकासन राजे राम सिया, पूजा कर पुष्प चढ़ाये हम|| इस भांति हरण कर भूमि भार, सुर नर मुनि को करदें निर्भय| तब गूंज उठे त्रिभुवन में ध्वनि, श्रीराजा रामचंद्र की जय|| सुनकर दूतों की कथा,लषन पत्रिका बांच| हंसकर रावण ने कहा, लिया शत्रुहन जांच|| बानर भालू की चिंता क्या, वह तो असुरों का भोजन है| रावण से लड़ने आते हैं, लडकों का यही लडकपन है|| देखो तो छोटे तपसी को, कैसी बकवादें करता है| मृगशावक- शशि को छूने को, चौकड़ी छलांगे भरता है|| हाथ बाँध शुक ने कहा,सुनिये निश्चरराज| रूठ रहा है आपसे, राज और यह ताज|| कुछ होनहार है लंका में, यह हमें दिखाई पड़ती है| जो भली बात भी नाथ तुम्हें, विष जैसी कड़वी लगती है|| संशय की रही बात ही क्या, जब स्वयं देख हम आये हैं| निश्चय ही अपनी ताकत से, वे ड्योढ़े और सवाये हैं|| सीता को दे कीजिये संधि, जग में यदि जीवित रहना है| अन्यथा हमें यह दीख रहा, उनसे लड़ना खुद मरना है|| हम जिसे तपसिया कहते हैं, वह योगेश्वर हैं, भूतल हैं| तोड़ेंगे हमें खिलौना सा, जब खेलेंगे युद्ध स्थल में|| रक्तवर्ण रावण हुआ, नेत्र हो गये लाल| लात मार दरबार से, दोनों दिये निकाल|| यह भी आये रघुवीर शरण, सब बीती बतलाई अपनी| रघुराई की अनुकम्पा से, दोनों ने गति पाई अपनी|| शुक सारण ऋषि थे शाप विवश, लंका में रहे अज्ञ होकर| अब शाप मिटा आश्रम पहुंचे, करूणानिधि के कृतज्ञ होकर|| विनय न सागर ने सुनीं, बीत गये दिन तीन| तब उठे प्रभु ऊबकर, रह न सके आसीन|| बोले भय बिन होती न प्रीत, इस कारण बाण चलाना है| फिर बाण कौनसा अग्निबाण, पानी में आग लगाना है|| यह कहकर बाण चढ़ाया जब, धन्वा का जब टंकार हुआ| जलचर दल सारा अकुलाया, सागर में हाहाकार हुआ|| जल के भीतर जब आग उठी, लहरों के उपर जब झाग उठे| फूटी वह ज्वालामुखी वहाँ, पानी के सोते जाग उठे|| ऊपर से प्रभु की क्रोधानल, नीचे से भड़की बडवानल| दो अनलों में जब आया खल, तब फैली सागर में खलबल|| अब तो कंचनथाल में, मणिगण भरे अनूप| आया शरण कृपालु के, धर मानव का रूप|| चरणों में प्रथम नजर डाली, फिर हीरे मोती नजर किये| फिर हाथ जोड़कर खड़ा रहा, लज्जावस नीची नजर किये|| फिर बोला क्षमा क्षमा राघव, तुम कृपासिन्धु हो दानी हो| जल ने जलने की ठहरा दी, आबरू न पानी पानी हो|| सिन्धु वचन सुन हंस पड़े, श्री रघुराज उदार| कहा बताओ कपि कटक, किस प्रकार हो पार|| शीश नवा उसने कहा, सुनिए करुणागार| जो आज्ञा हो आपकी, वही मुझे स्वीकार|| प्रभु के प्रताप से क्षण में, शोषण हो सकता है मेरा| पर इतना ध्यान रहे भगवन, गौरव भी मिटता है मेरा|| क्यों नहीं कार्य वह किया जाय, जिसकी युग युग तक याद रहे| हो जाय विजय भी राघव की, सागर की भी मर्याद रहे|| नल नील बड़े वरदानी हैं, वे जल पर सेतु बनायेंगे| अपने हाथों से रक्खेगें, तो पत्थर भी तैरायेंगे|| फिर मदद करेगा सागर भी, मन में यह छुपी भावना है| पुल बंधे विजय हो लंका पर, मेरी भी यही कामना है|| यह अग्नि बाण उनपर छोड़ो, जो खल हैं मेरे उत्तर में| आरम्भ सेतु का कार्य करो, अत्यन्त शिघ्र शुभ अवसर में|| तीर छोड़ प्रभु ने तभी, हरी सिन्धु की पीर| सागर गद्गद हो गया, हर्षाये रघुवीर|| सुग्रीव बोल उट्ठे तुरंत, यह ही अवसर मुहूर्त का है| नल, नील, सेतु आरम्भ करो, शुभ कार्य शिघ्र ही अच्छा है|| यह सुनते ही कपिसेना में, आनन्द पूर्ण जयकार हुआ| पाषाण शिघ्र ही लाने को, बानर मंडल तैयार हुआ|| चिकने, चौड़े, उजले, सुडौल, जो ढले कुदरती सांचो में| कपिगण चुन-चुन कर ऐसे पत्थर, लाते थे बातों बातों में|| ले ले कर नाम रामजी का, नल नील उठाते थे पत्थर| वह चमत्कार था हांथों में, जल पर तर जाते थे पत्थर|| मिस्त्रियो और मजदूरों में, उत्साह कार्य का दूना था| प्राचीन कला का भारत की, वह पुल बेजोड़ नमूना था|| सेतु बाँधने में सभी, करते थे उद्धयोग| रघुराई ने भी दिया, लीलावश सहयोग|| एकांत जगह में आगे बढ़, जल के ऊपर रक्खा पत्थर| रघुवर के कर से छुटते ही, सागर में डूब गया पत्थर|| हनुमत कुछ निकट उपस्थित थे, हंस पड़े देखकर घटना यह| मन ही मन सोच रहे थे प्रभु, पाषाण क्यों नहीं तैरा यह|| आगे आकर भक्त ने, कह ही दिया तुरंत| क्यों डूबा पाषाण यह, बतलादूँ भगवंत|| यह महिमा नाथ नाम की है, जल पर पत्थर तैराते हैं| उस राम नाम से राम स्वयं, क्यों अपनी होड़ लगाते हैं|| फिर भी कुछ मन की कहता हूँ, अपराध क्षमा सरकार करें| दो पुष्प चरण में रखता हूँ, यदि रघुराई स्वीकार करें|| जो कर कमलों में बना रहा, निश्चय ही वह बना रहा भगवन| इन हाँथों से जो छूट गया, सचमुच वह डूब गया भगवन|| ठीक समय पर हो गया, सुन्दर सेतु तैयार| मुस्कराकर कहने लगे, तब श्री करुणागार|| जो कार्य नहीं हो सकता है, सम्राटों से भी बरसों में| हे साधुवाद वीरों तुमको, वह कर दिखलाया दिवसों में|| अच्छा अब मेरी इच्छा है, संस्थापन हो शिवशंकर का| लंका पर चढ़ने से पहले, आराधन हो शिवशंकर का|| रण के देवता त्रिलोचन हैं, पहले हम उन्हें मनाएंगे| मर्त्युन्ज्य का आवाह्न कर, राक्षसगण पर जय पायेंगे|| असुरों के रखवाले हैं तो,- अपने भी रक्षक हैं शंकर| है न्याय जहाँ पर सर्व प्रथम, उस जगह सहायक हैं शंकर|| मैं उनका हूँ, वह मेरे हैं, हम दोनों क्षीर सर्करा हैं| आराध्य देव या इष्टदेव, — मेरे तो भोले बाबा हैं|| इतना सुनते ही हुआ, फिर दल में जयकार| अपने हांथों राम ने, की शिव मूर्ति तैयार|| संस्थापन, आवाह्न, अर्चन, विधि सहित हुआ विश्वेशर का| सागर तट बना राम द्वार, इस भांति धाम सिद्धेश्वर का|| प्रभु बोले, शंकर में, मुझमें, है लेशमात्र भी भेद नहीं| जो जन अद्वैत उपासक है, होता है उनको खेद नहीं|| जैसे सब नदियों का पानी, सागर ही में तो जाता है| त्योंही सब देवों का पूजन, परमात्मा ही में जाता है|| इतने में कहा पवनसुत ने, अब द्वैत समाप्त हुआ| इसलिए आज से आगे को, शिव-राम एक ही नाम हुआ|| यह सुनकर फिर जयकार हुआ, ध्वनी गूंज उट्ठी श्री हरिहर की| तुम भी अब राधेश्याम कहो, जय राम और रामेश्वर की|| -स्तुति- रसने बोल, जिव्हे बोल, ॐ नमों रामाय, ॐ नमों शिवाय| मंत्रों में यह मन्त्र अमोल, ॐ नमों रामाय, ॐ नमों शिवाय|| बल्कन इधर, उधर बाघम्बर, यह हैं धनुधर, वह त्रिशूलधर| जटा जूट दोनों के सर पर, दोनों धूल धूसरित हरिहर|| नयन तुला पर तोल, मनुआ, द्रष्टि तुला पर तोल| रसने बोल, जिव्हे बोल, ॐ नमों रामाय, ॐ नमों शिवाय| कुंद-इंदु सम हैं गिरजावर, नीलाम्बुज समान सीतावर| दोनों कहलाते हैं ईश्वर, राधेश्याम राम रामेश्वर|| अन्तर के पट खोल, मनुआ भीतर के पट खोल| रसने बोल, जिव्हे बोल, ॐ नमों रामाय, ॐ नमों शिवाय| मंत्रों में यह मन्त्र अमोल, ॐ नमों रामाय, ॐ नमों शिवाय|| ******** श्री रामायणजी की आरतीआरती श्री रामायण जी की। कीरति कलित ललित सिया-पी की॥ गावत ब्राह्मादिक मुनि नारद। बालमीक विज्ञान विशारद। शुक सनकादि शेष अरु शारद। बरनि पवनसुत कीरति नीकी॥ आरती श्री रामायण जी की। कीरति कलित ललित सिया-पी की॥ गावत वेद पुरान अष्टदस। छओं शास्त्र सब ग्रन्थन को रस। मुनि-मन धन सन्तन को सरबस। सार अंश सम्मत सबही की॥ आरती श्री रामायण जी की। कीरति कलित ललित सिया-पी की॥ गावत सन्तत शम्भू भवानी। अरु घट सम्भव मुनि विज्ञानी। व्यास आदि कविबर्ज बखानी। काग भुषुण्डि गरुड़ के ही की॥ आरती श्री रामायण जी की। कीरति कलित ललित सिया-पी की॥ कलिमल हरनि विषय रस फीकी। सुभग सिंगार मुक्ति जुबती की। दलन रोग भव मूरि अमी की। तात मात सब विधि तुलसी की॥ आरती श्री रामायण जी की। कीरति कलित ललित सिया-पी की॥ ********** मेघनाद ने हनुमान को कैसे बांधा?रावण ने अपने पुत्र अक्षय को बजरंगबली को बंदी बनाने के लिए भेजा, लेकिन हनुमान ने उसका वध कर दिया। फिर मेघनाद हनुमानजी को पकड़ने आया। उसने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। वरदान के कारण राम भक्त को कुछ नहीं हो सकता था, लेकिन ब्रह्मा का अस्त्र होने के कारण हनुमानजी खुद उसके बंधनों में बंध गए।
मेघनाद यज्ञ करने कहाँ गया?करौं अजय मख अस मन धरा॥1॥ भावार्थ:- मेघनाद की मूर्च्छा छूटी, (तब) पिता को देखकर उसे बड़ी शर्म लगी। मैं अजय (अजेय होने को) यज्ञ करूँ, ऐसा मन में निश्चय करके वह तुरंत श्रेष्ठ पर्वत की गुफा में चला गया॥1॥
हनुमान ने अशोक वाटिका में क्या किया?अशोक वाटिका में पहुंच कर जैसे ही हनुमान जी ने सीता माता को देखा तो उन्हें मन ही मन प्रणाम किया. उन्होंने देखा कि माता सीता पेड़ के तने से सट कर बैठी हुई हैं और इसी तरह रात्रि के चारों प्रहर बीत जाते हैं. माता सीता का शरीर दुबला हो गया और सिर पर एक लट है और वे हृदय में लगातार श्री राम के गुणों का जाप कर रही हैं.
मेघनाद कौन था और उसकी क्या विशेषताएँ थीं?मेघनाद' अथवा इन्द्रजीत रावण के पुत्र का नाम है। अपने पिता की तरह यह भी स्वर्ग विजयी था। इंद्र को परास्त करने के कारण ही ब्रह्मा जी ने इसका नाम इन्द्रजीत रखा था। इसका नाम रामायण में इसलिए लिया जाता है क्योंकि इसने राम- रावण युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
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