अनुवाद का स्वरूप एवं भेद स्पष्ट कीजिए - anuvaad ka svaroop evan bhed spasht keejie

धनंजय विलास झालटे
एम। ए., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग

अनुवाद शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के 'वद्' धातु से हुई है। 'अनुवाद' का शाब्दिक अर्थ है 'पुन:कथन' अर्थात किसी कही गई बात को फिर से कहना। यह भी कहा जा सकता है कि एक भाषा में व्यक्त विचारों को दूसरी भाषा में ज्यों को त्यों प्रकट करना ही अनुवाद है। अनुवाद एक साहित्यिक विधा है, पर वह मौलिक साहित्य रचना की कोटि में नहीं आ सकती। एल.एन.शर्मा ’सौमित्र’ उसे सेकण्ड हॅण्ड साहित्य मानते है। इसी कारण अनुवाद को मूल लेखन पर आधारित 'भाषांतर' कह सकते है।
अनुवाद में मूलत: किसी एक भाषा में व्यक्त विचारों को दूसरी भाषा में व्यक्त करना बड़ा ही कठिन कार्य है, क्योंकि प्रत्येक भाषा का अपना स्वरूप होता है, उसकी अपनी निजी-ध्वनि, शब्द, रूप, वाक्य तथा अर्थमूलक विशेषताएँ होती हैं। कभी-कभी स्रोत भाषा का कथ्य लक्ष्य भाषा में अपेक्षाकृत विस्तृत, कहीं संकुचित और कहीं भिन्नरूपी हो जाता है।
अनुवाद में दो भाषाओं का होना जरूरी है। इन दोनों भाषाओं को अनुवाद विज्ञान में स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा की संज्ञा दी गई है। जिस भाषा की सामग्री अनूदित होती है वह स्रोत भाषा कहलाती है और जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है वह लक्ष्य भाषा कहलाती है।
़कैटफर्ड(J.C.Catford) ने अनुवाद की परिभाषा इस प्रकार दी है:
''The replacement of textual material from one language by equivalent textual material in another language” अर्थात् अनुवाद एक भाषा(स्रोत भाषा) के पाठ्‍यपरक उपादानों का दूसरी भाषा (लक्ष्य भाषा) के पाठ्‍यपरक उपादानों के रुप में समतुल्यता के सिद्धांत के आधार पर प्रतिस्थापन है।
अनुवाद मानव की मूलभूत एकता, व्यक्तिचेतना एवं विश्वचेतना के अद्वैत का प्रत्यक्ष प्रमाण है। विश्व संस्कृति के निर्माण कि प्रक्रिया में विचारों के आदान-प्रदान का योगदान रहा है और यह अनुवाद के माध्यम से ही संभव हो सका है।
बीसवीं शताब्दी में अनुवाद को जो महत्त्व प्राप्त हुआ वह उससे पहले नहीं मिला था। इसी कारण इस सदी को ’अनुवाद युग' कहा गया है। इसका मुख्य कारण यह है कि बीसवीं शताब्दी में ही भिन्न भाषाभाषी समुदायों में संपर्क की स्थिति प्रमुख रुप से उभर कर आयी। इसका मूल कारण आर्थिक और राजनीतिक है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न राष्ट्रों के बीच राजनीतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक और औद्‍योगिक तथा साहित्यिक और सांस्कृतिक स्तर पर बढ़ते हुए आदान-प्रदान के कारण अनुवाद कार्य की अनिवार्यता और महत्ता को नई दिशा प्राप्त हुई है। इस कारण अनुवाद एक व्यापक तथा एक सीमा तक अनिवार्य और तर्कसंगत स्थिति है।
सामाजिक संदर्भ में अनुवाद व्यापार अनौपचारिक परिस्थितियों में होता है। इसका संदर्भ द्विभाषिकता की स्थिति से है। इसका सामान्य अर्थ है कि हम एक समय में दो भाषाओं का वैकल्पिक रुप से प्रयोग करते है। यानी हम एक भाषा(मातृभाषा) में सोचते है परंतु उसे दूसरी भाषा में अभिव्यक्त करते है। इस स्थिति में अनुवाद प्रक्रिया का होना अनिवार्य है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अनौपचारिक रुप में अनुवादक होता है। इस दृष्टि से अनुवाद व्यापार अनौपचारिक स्थिती में होता है। इसके दो भेद है : साधन रूप में अनुवाद और साध्य रूप में अनुवाद। साधन रूप में अनुवाद का प्रयोग भाषा शिक्षण की एक विधि के रूप में किया जाता है। साध्य रूप में अनुवाद अनेक क्षेत्रों में दिखाई देता है। अपने व्यापकतम क्षण में अनुवाद भाषा की शाक्ति में समवर्धन करता है, भाषा तथा विचार के बीच समबन्ध को स्पष्ट करता है, ज्ञान का प्रसार करता है, संस्कृति का संवाहक है।
अनुवाद यांत्रिक प्रक्रिया नही अपितु मैलिकता से स्पर्श करता हुआ कृतित्व है। उसके एक छोर पर मूल लेखक होता है तो दूसरी छोर पर अनुवादक। इन दोनों के बीच है अनुवाद की प्रक्रिया। एक कुशल अनुवादक अपने आप को मूल लेखक के चितंन की भूमि पर प्रतिष्ठित कर अपनी सूझबूझ एवं प्रतिभा के बल पर स्रोत सामग्री को अपने कला और कौशल्य से प्रस्तुत करता है जिससे उसका कृतित्व 'अनुवाद' मैलिक रचना के स्तर तक पहुँच सके।
यह निर्विवाद सत्य हे कि अनुवाद मूल लेखन से कहीं अधिक कठिन कार्य है। मूल लेखन जहाँ अपने विचारों की अभिव्यक्ति में स्वतंत्र होता हे वहीं अनुवाद एक भाषा के विचारों को दूसरी भाषा में उतारने में अनेक तरह से बंधा होता है। उन दोनों भाषाओं की सूक्ष्मतम जानकारी के अतिरिक्त विषय के तह तक पहुंचने की क्षमता जथा अभिव्यकित की पूर्ण कुशलता अच्छे अनुवादक के लिए अपेक्षित है।

अनुवाद का अर्थ- अनुवाद शब्द की व्युत्पत्ति ‘अनु’ उपसर्ग के साथ ‘वाद’ शब्द के साथ संयुक्त होने से होती है। ‘अनु’ जिन अर्थों में अन्य शब्दों के साथ सम्बन्धित होकर अपने स्वरूप परिवेश में परिवर्तन प्राप्त कर लेता है, कभी वह ‘पश्चात या पीछे का ज्ञान कराता है, जैसे अनुचर, ‘सदृश’ का ज्ञान ‘अनुरूप’ में कराता है, इसी प्रकार वह ‘प्रत्येक’, ‘बारम्बार’ आदि का द्योतक भी है। ‘अनुवाद’ में वह ‘सदृश अर्थसंपृक्त’ से प्रयोजन प्रकट करता है। सदृशं अर्थ संपृक्तता ही उसका स्वरूप है। जब से दो भाषा बोलियों वाले लोग पारस्परिक सम्पर्क में आने लगे, इसकी उत्पत्ति तभी से हुई। इसका प्रचलन संस्कृत में आरम्भ हुआ था। विभिन्न भाषा-भाषी इस शब्द के समानार्थक इन शब्दों का भी प्रयोग करते हैं- असमिया, बंगला, गुजराती, कन्नड़, उड़िया, सिन्धी भाषाओं में ‘अनुवाद शब्द के रूपान्तर नहीं पाये जाते, जबकि कश्मीरी भाषा में इसे ‘तर्जमा’, मराठी में ‘भाषान्तर’, मलयालम में ‘विवर्तन’ तमिल में ‘योषिपेययुं’, तेलगू में ‘अनुवाद’ तथा उर्दू में ‘तर्जमा’ कहते हैं। उर्दू के प्रभाव से मलयालम में इसे मलयालम, बेंगला तथा सिंधी में क्रमशः ‘तर्जुया’, ‘तर्जया’, तथा ‘तर्जया’ भी कहा जाता है। साधारणतया सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद शब्द का प्रचलन है।

परिभाषा – विभिन्न विद्वानों द्वारा अनुवाद को परिभाषित किया गया है। इनमें से कुछ की परिभाषाऐं निम्न हैं-

जी. सी. कैटफोर्ड के अनुसार, ‘किसी एक भाषा (स्रोत भाषा) की पाठ्य-सामग्री को किसी दूसरी भाषा (लक्ष्य भाषा) में उसी रूप में रूपान्तरित करना अनुवाद है।’

पाश्चात्य विद्वान् निदा (NIDA) ने अनुवाद में अर्थ और शैली को महत्व देते हुए उसे इन शब्दों में परिभाषित किया है— स्रोत भाषा में अभिव्यक्त विचारों को लक्ष्य भाषा में अर्थ और शैली के स्तर पर यथासम्भव सहज और समान स्तर पर अभिव्यक्ति देने का नाम अनुवाद है।’

फारस्टन द्वारा अनुवाद की दी गई परिभाषा इस प्रकार है- ‘एक भाषा में अभिव्यक्त पाठ के भाव की रक्षा करते हुए-जो सदैव सम्भव नहीं होता दूसरी भाषा में उसे उतारने का नाम अनुवाद है।’

इन परिभाषाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि “किसी एक भाषा में अभिव्यक्त विचारों को यथासम्भव तद्वत् अथवा निकटतम रूप में दूसरी भाषा में सहज भाव से प्रस्तुत करने की चेष्टा अनुवाद है।”

अनुवाद के प्रकार

अनुवाद के बहुत से प्रकार या भेद हैं, परन्तु इनके विशेष आधार हैं-

(1) सीमा, (2) भाषिक स्तर, (3) श्रेणी या पदक्रम |

(1) सीमा के आधार पर- इस आधार पर अनुवाद के दो भेद किए जा हैं—(क) पूर्ण अनुवाद (Full translation), (ख) आंशिक अनुवाद (Partial translation) ।

(क) पूर्ण अनुवाद- पुर्ण अनुवाद में सम्पूर्ण अनुद्य सामग्री का अनुवाद किया जाता है। स्रोत-भाषा के पाठ को उसके पूर्णरूप में भाषान्तरित किया जाता है।

(ख) आंशिक अनुवाद- आंशिक अनुवाद में स्त्रोत-भाषा की पाठ-सामग्री के कुछ अंशों को त्याग भी दिया जाता है। इस प्रकार के अनुवाद में विलास के तारतम्य को बनाये रखना अभीष्ट होता है। परन्तु ऐसा करने में स्थानिक विशेषता वाले पाठों को छोड़ना उचित नहीं होता। साहित्यिक अनुवाद में प्रायः ऐसा किया जाता है।

(2) भाषिक स्तर के आधार पर – इस आधार पर अनुवाद के दो भेद किए जा सकते हैं – (i) समग्रता में अनुवाद (Total translation), (ii) निर्बद्ध अनुवाद (Restricted translation) |

(i) समग्रता में अनुवाद – इस प्रकार के अनुवाद में स्रोत-भाषा पाठ का हर स्तर पर अनुवाद किया जाता है। स्त्रोत-भाषा के व्याकरण और शब्दावली को भी लक्ष्य-भाषा के व्याकरण और शब्दावली के समकक्षों द्वारा सम्पूर्णता देनी होती है।

(ii) निर्बद्ध अनुवाद- इस प्रकार के अनुवाद में स्त्रोत-भाषा के पाठ को उसके समानार्थक स्तर पर प्रतिस्थापित किया जाता है। इसमें स्वर-विज्ञान या लिपि-विज्ञान या व्याकरण या शब्द-विज्ञान का आधार अपेक्षित है। लिप्यन्तरण एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें स्वर-विज्ञानपरक अनुवाद तथा स्रोत और लक्ष्य भाषा में स्वर-विज्ञान और लिपि-विज्ञान का परस्पर सम्बन्ध रहता है। लिप्यन्तरण में स्रोत-भाषा की लिपि-विज्ञानपरक इकाइयों को तदनुरूप स्वर-विज्ञानपरक इकाइयों में प्रतिस्थापित करना पड़ता है फिर इन स्रोत-भाषा की स्वर-विज्ञानपरक इकाइयों को उनके समकक्ष लक्ष्य-भाषा की स्वर-विज्ञानपरक इकाइयों में अन्तरित करना होता है। अन्त में यह लक्ष्य भाषा को स्वर-विज्ञानपरक इकाइयाँ तदनुरूप लिपि-विज्ञानपरक इकाइयों में डाल दी जाती हैं।

( 3 ) श्रेणी या पद- क्रम के आधार पर इस प्रकार के अनुवाद का स्वरूप व्याकरणिक या स्वर- वैज्ञानिक पद-क्रम के क्रमागत आधार पर स्थापित किए गए अनुवाद समानार्थकों में निर्वाह किया जाता है। इसे क्रमबद्ध अनुवाद भी कहते हैं। मुक्त अनुवाद ( Free translation), शब्दानुवाद (Literal translation), शब्दशः अनुवाद (Word for word translation) भी आंशिक रूप से इसी श्रेणी के अनुवाद हैं।

मुक्तानुवाद – प्रायः इस प्रकार का अनुवाद शब्द-स्तर पर क्रमबद्ध रूप में होता है।

शब्दानुवाद – इस प्रकार का अनुवाद मुक्तानुवाद और शब्दशः अनुवाद के बीच की श्रेणी का होता है, जो शब्दशः अनुवाद से आरम्भ होता है। इसमें लक्ष्य-भाषा के अनुरूप, स्रोत-भाषा के व्याकरण-अनुरूप परिमार्जित कर लिए जाते हैं अर्थात् अतिरिक्त शब्द जोड़ दिए जाते हैं और संरचना को अनुवादक किसी भी क्रम में बदल भी सकता है।

भाषा- वैज्ञानिक आधार के अतिरिक्त अन्य आधारों पर भी अनुवाद के भेद या प्रकार कर सकते हैं। इनमें से प्रमुख आधार इस प्रकार हैं—(1) वाङ्मय, (2) गद्य-पद्य (3) विधा, (4) विषय, (5) अनुवाद-प्रकृति ।

(1) वाङ्मय के आधार पर – इस आधार पर अनुवाद के दो भेद हैं—

(क) ज्ञान का साहित्य – अनुवाद के इस क्षेत्र में भौतिक-शास्त्र, वनस्पति-शास्त्र, जीव-विज्ञान, रसायन शास्त्र आदि जैसी सभी ज्ञान की धाराएँ आती है। वैज्ञानिक अनुवाद कार्य विश्व भर में इसी प्रकार तेजी से हो रहा है।

(ख) शक्ति का साहित्य-अनुवाद के इस क्षेत्र में भावाश्रित साहित्य आता है। इसमें ललित कलाओं की स्थिति प्रमुख हैं। कविता-कहानी-नाटक का अनुवाद ललित साहित्य के अनुवाद का एक प्रमुख अंग है।

( 2 ) गद्य-पद्य के आधार पर- इस आधार पर अनुवाद के भेद इस प्रकार हैं-

( क ) पद्यानुवाद – इसमें मूल पद्य का अनुवाद पद्य में ही करने की चेष्टा की जाती है। जैसे कालिदास के ‘मेघदूत’ के अनेक अनुवाद हुए हैं। शेक्सपियर के ‘हेमलेट’ या ‘मैकबैथ’ के अनुवाद भी इसी प्रकार हैं, परन्तु यह भी प्रचलन है कि पद्य का अनुवाद गद्य में किया जाए। जैसें कवि नागार्जुन द्वारा कालिदास के ‘मेघदूत’ का गद्यानुवाद। पछँ से पद्य के अनुवाद को ही पद्यानुवाद कहते हैं। शब्द-लय तथा अर्थ-लय के अनुकरण पर इस प्रकार का अनुवाद होता है।

(ख) गद्यानुवाद- गद्य का अनुवाद प्रायः गद्य में ही किया जाता है। प्रेमचन्द के प्रख्यात उपन्यास ‘गोदान’ के अंग्रेजी आदि में कई गद्यानुवाद हुए हैं। गद्य से गद्य में अनुवाद करने का कोई रूढ़ नियम भी नहीं है। ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि गय का गद्य में अनुवाद हुआ है। गोल्डस्मिथ के ‘The Traveller’ का श्रीधर पाठक ने ‘श्रान्तपथिक’ नाम से पद्य में अच्छा अनुवाद किया है।

(ग) छन्दबद्ध अनुवाद — यह अनुवाद मूल पाठ के छुन्द में ही किया जाता है। जैसे अंग्रेजी के Sonnet का अनुवाद करते समय उसके 11 वर्णों अथवा 14 पंचपूदियों में उसकी स्वतः पूर्ण विषय-विचार श्रृंखला को ढालने का प्रयास किया जाए। अंग्रेजी के अधिकांश ‘सॉर्निंट’ Petrach की भांति दो चतुष्पदियों और दो त्रिपदियों या सेंसर और शेक्सपियर की भांति तीन चतुष्पदियों और एक युग्मक में रचित हैं।

(घ) छन्दमुक्त अनुवाद- इसमें अनुवादक स्रोत-भाषा के पाठ के छन्द-बन्धन से युक्त होता है। अतः वह लक्ष्य भाषा में प्रचलित किसी भी छन्द को अपना लेता है। जैसे कालिदास का ‘मेघदूत’ संस्कृत के मन्दाक्रान्ता छन्द में है, किन्तु डॉ. भगवतशरण उपाध्याय ने इसका अनुवाद मुक्तक छन्द में किया है। कवि पोव के प्रसिद्ध काव्य ‘Essay on Criticism’ का अनुवाद कविवर पं. जगन्नाथदास रत्नाकर ने हिन्दी के रोला छन्द में ‘समालोचनादर्श’ नाम से किया है।

(3) विधा के आधार पर विधा के आधार पर अनुवाद के भेद इस प्रकार हैं-

(क) काव्यानुवाद – यों तो प्रायः काव्य का अनुवाद काव्य में ही किया जाता है। हिन्दी में संस्कृत काव्यों को काव्य में अनूदित करने की एक समृद्ध परम्परा रही है। भारतेन्दु युग में लाला सीताराम ने कालिदास के ‘रघुवंश’ का अनुवाद दोहा-चौपाइयों में किया। श्रीधर पाठक ने कालिदास के ‘ऋतुसंहार’ का अनुवाद ब्रजभाषा के सवैया छन्द में किया। यह लगातार कहा जाता रहा है कि काव्यानुवाद हो ही नहीं सकता, किन्तु ऐसा लगता है कि अनुवादकों ने इस कथन की कभी परवाह नहीं की। प्राचीन परम्परा से इस बात के पर्याप्त प्रमाण दिए जा सकते हैं कि काव्यानुवाद बड़ी लगन से किए जाते रहे हैं। यह काव्यानुवाद निबद्ध तथा अनिबद्ध काव्य के दोनों रूपों का हुआ है। यूनानी कवि होमर के विकसनशील ‘महाकाव्य ‘इलियट’ के विश्वभर में अनेक काव्यानुवाद हुए हैं।

(ख) नाट्यानुवाद – विश्व भर में नाट्यानुवाद की एक समृद्ध परम्परा दृष्टिगत होती है। हिन्दी में गोपीनाथ एम. ए. ने सन् 1950 में शेक्सपियर के तीन नाटकों के हिन्दी में अनुवाद किए। उन्होंने ‘Romeo and Juliet’ का ‘प्रेमलीला’ नाम से ‘As You Like It’ तथा ‘Merchant of Venice’ का नये नामों से अनुवाद किया। मथुरा प्रसाद चौधरी ने ‘मैकबेथ’ का ‘साहसेन्द्र साहस’ नाम से अनुवाद किया। कवि बच्चन तथा अमृतराय ने ‘हेमलेट’ तथा ‘मैकबेथ’ का अनुवाद किया। कवि रघुवीर सहाय ने ‘मैकबेथ’ का पुनः ‘बरनम वन’ नाम से अनुवाद किया है।

स्वयं भारतेन्दु ने संस्कृत के ‘मुद्राराक्षस’ का तथा राजा लक्ष्मणसिंह ने ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम’ का हिन्दी में अनुवाद किया। फिलहाल ही हबीब तनवीर ने ‘मृच्छ कटिकम्’ का ‘मिट्टी की गाड़ी’ के रूप में अनुवाद किया है। इसके अतिरिक्त नाट्य रूपान्तर (कहानी-उपन्यासादि के) इस दौर में अत्यधिक लोकप्रिय हुए हैं, जैसे विष्णु प्रभाकर द्वारा ‘गोदान’ का ‘होरी’ नाम से नाट्य रूपान्तर।

नाटक का सम्बन्ध रंगमंच से होने के कारण इस तरह के अनुवादों में अनेक प्रकार की व्यावहारिक कठिनाइयां सामने आती हैं। इसलिये इन्हें ‘अनुवाद श्रेणी’ में रखना, अनुवाद के क्षेत्र को बढ़ाना मात्र लगता है। नाट्य रूपान्तरकार का रंगमंच से जुड़ा होना अत्यन्त आवश्यक होता है। रंगमंच के व्यावहारिक ज्ञान के बिना नाट्यानुवाद सफलता से किया ही नहीं जा सकता। अतः इसे अनुवाद विधा से मुक्त रूपान्तर विधा ही कहना अधिक उपयुक्त होगा।

(ग) कथानुवाद-कथा- साहित्य के अन्तर्गत उपन्यास-कहाँनी आदि को स्थान दिया जाता है। कहानियों तथा उपन्यासों का अनुवाद् काव्यानुवाद की तुलना में काफी सरल होता है। साथ ही ये अनुवाद ज्यादा प्रचलित एवं लोकप्रिय भी हैं। टॉलस्टाय उपन्यास ‘War and Peace’ के अनेक भाषाओं में हुए अनुवाद काफी लोकप्रिय हुए हैं। अज्ञेय ने जैनेन्द्र के प्रख्यात उपन्यास ‘त्यागपत्र’ का अंग्रेजी में ‘The Resignation’ नाम से सफल अनुवाद किया है। हिन्दी में भारतीय भाषाओं के हजारों उपन्यास सफलता से अनूदित हुए हैं।  संस्कृत की कहानियों – ‘पंचतन्त्र’ या ‘कथा-सरित्सागर’ के विदेशी भाषाओं में सैकड़ों अनुवाद हुए

(घ) अन्य साहित्यिक विधाओं के अनुवाद- निबन्ध, आत्मकथा, रेखाचित्र, संस्मरण आदि के अनुवाद बहुत समय से प्रचलित हैं। स्वयं आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने बेकन के निबन्धों का अनुवाद ‘बेकन विचाश्चालवली’ के नाम से हिन्दी में किया। गांधीजी की ‘आत्मकथा’ के अनेक भारतीय भाषाओं में अच्छे अनुवाद किए गए हैं।

( 4 ) विषय के आधार पर विषय के आधार पर अनुवाद के अनेक भेद हैं-

(क) ललित साहित्य का अनुवाद ।

(ख) धार्मिक पौराणिक साहित्य का अनुवाद ।

(ग) साहित्यिक साहित्य का अनुवाद ।

(घ) गणित का अनुवाद।

(च) प्रशासनिक साहित्य का अनुवाद।

(छ) अभिलेखों, गजेटियरों आदि का अनुवाद ।

(ज) पत्रकारिता से सम्बन्धित विषयों का अनुवाद।

(झ) समाजशास्त्रीय विषयों का अनुवाद ।

(ट) काव्यशास्त्र तथा भाषा-वैज्ञानिक विषयों से सम्बन्धित अनुवाद |

(5) अनुवाद – प्रकृति के आधार पर – अनुवाद-प्रकृति के आधार पर भी अनेक भेद-प्रभेद किए जा सकते है-

( क) शब्दानुवाद् – प्रायः शब्दानुवाद और शब्दशः अनुवाद को एक मानने की भूल हो जाती है। स्थूल रूप से कहा जा सकता है कि शब्दानुवाद मैं स्रोत-भाषा के प्रत्येक शब्द पर अनुवादक को ध्यान रखना पड़ता है, लेकिन शब्दशः अनुवाद में शब्द के स्तर पर क्रमबद्ध अनुवाद की ओर ध्यान दिया जाता है। शब्दानुवाद का तात्पर्य यह भी नहीं है कि स्रोत-भाषा की वाक्य-व्यंजना के ढंग से लक्ष्य-भाषा की वाक्य-व्यंजना की जाए। तात्पर्य यह है कि मूलपाठ में कही गई प्रत्येक बात को लक्ष्य-भाषा में ढंग से अन्तरित किया जाए। गणित, विधि जैसे विषयों में ऐसा अनुवाद आवश्यक होता है, क्योंकि वहाँ ‘कुछ भी छूट जाने’ या ‘कुछ जोड़ दिये जाने से’ भयंकर भूलें हो जाती हैं। शब्दानुवाद करते समय अनुवाद क्रिया में उसकी स्वाभाविक आत्मा की जो भाषा, प्रवाह के रूप में विद्यमान रहती है, तिरस्कार नहीं करना चाहिए। इस प्रकार की गलतियाँ अनुवाद को हास्यास्पद बना देती हैं। स्रोत-भाषा की सूक्ष्मातिसूक्ष्म अर्थ-ध्वनियों और भाव की विशिष्ट भंगिमाओं को पकड़ने में अनुवादक जब असमर्थ होता है तो उससे यह गलती हो जाती है और स्रोत-भाषा का मूलार्थ अपनी अनुगूंज में लक्ष्य-भाषा में गड़बुड़ा जाता है। ऐसी स्थिति में व्यंजना प्रधान सामग्री का अनुवाद करना प्रायः कठिन होता है। शब्दानुवाद करते समय अनुवादक लक्ष्यार्थ और व्यग्यार्थ के स्तरों को नहीं पकड़ पाता। ऐसा अनुवाद अर्थविहीन हो जाता है। जैसे He prefers dying to living का अनुवाद ‘वह जिन्दगी के बजाय मौत पसन्द करता है बड़ा ही अटपटा और बेढंगा लगता है, इसके बजाय इसका अनुवाद यदि यह कहा जाए कि ‘वह जीने के बजाय मरना बेहतर समझता है अधिक उचित प्रतीत होता है।

(ख) भावानुवाद – भावानुवाद में अनुवादक भाव, विचार और अर्थ पर अधिक ध्यान देता है और वह पूरी शक्ति से उसी को लक्ष्य भाषा में अन्तरित करने का प्रयास करता है। भाषा के पद और वाक्यों पर अधिक ध्यान न देने के कारण यह अर्थ-विज्ञान के अधिक निकट होता है। स्रोत-भाषा की पाठ-सामग्री के सम्पूर्ण अर्थ को लाने का प्रयास करता है इसलिए इनमें स्त्रोत-भाषा की आत्मा प्रायः सुरक्षित रहती है।

भावानुवाद कई प्रकार का होता है। कभी-कभी स्त्रोत-भाषा की पाठ-सामग्री का शब्दानुवाद अत्यन्त जटिल प्रक्रिया में फँसा होता है, ऐसी स्थिति में भावानुवाद करना उपयुक्त होता है। भावानुवाद में स्त्रोत-भाषा की शारीरिक योजना नहीं रहती अतः अनुवाद मुक्त दिखाई  देता है, परन्तु ऐसे अनुवाद में सृजनात्मकता आ जाती है। इस प्रकार भावानुवाद एक सृजनात्मक कार्य है, जो अनुवादक की मौलिकता से मौलिक रचना की तरह का रचनात्मक आनन्द प्राप्त कराता है।

विद्वान लोग भावानुवाद का यह दोष मानते हैं कि उसमें अनुवादक अपनी भाव-सम्पदा, विचार-सम्पदा तथा शैली से पाठक को आक्रान्त कर लेता है, परन्तु यह अत्यन्त असंगत तर्क है क्योंकि भावानुवाद दूसरी भाषा के महत्वपूर्ण विचारों और अभिव्यंजनाओं को अपनी भाषा में लाकर दोनों भाषाओं को सम्मान भी देता है तथा मूल लेखक की सृजनात्मकता को भी समृद्ध करता है। साहित्य के अनुवाद में यह सर्वाधिक उपयोगी पद्धति है।

(ग) छायानुवाद– ‘छाया’ संस्कृत का बहुत पुराना शब्द है और इसका प्रयोग नाटकों में यत्र-तत्र दृष्टिगत होता है। संस्कृत पाठ की छाया जब हिन्दी पाठ पर दृष्टिगत होती है तो उसे छायानुवाद कहा जाता है, जैसे अवन्ति वर्मा का यह श्लोक देखिए-

‘दुःसहतापभयादिव सम्प्रति मध्यस्थिते दिवसानके।

छायामिव वाछन्ती छायापि गता तरुलतानि।।’

इसका छायानुवाद बिहारी के दोहे में इस प्रकार मिलता है-

‘बैठि रही अतिसघन वन पैठि सदन तन माँह।

निरखि दुपहरी जेठ की छाहो चाहति छाँह ॥’

विदेशी कृतियों की प्रविधि और छाया को लेकर जो रचनाएं की जाती हैं उनमें भी एक प्रकार का छायानुवाद रहता है। जैसे अज्ञेयजी के ‘नदी के द्वीप’ पर डी. एच. लारेन्स के Lady Chattergis’s Lover की धुंधली छाया दृष्टिगत होती है। भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास ‘चित्रलेखा’ पर ‘ताइस’ की छाया या प्रेमचन्द के ‘रंगभूमि’ पर थैकरे के ‘Vanity Fair’ की छाया। कभी-कभार लेखक विशेष की कुछ पंक्तियों पर देशी-विदेशी लेखक की छाया दृष्टिगत होती है। पन्तजी की पंक्ति है— ‘सिखा दो ना हे मधुपकुमारि मुझे भी अपने ‘मीठे गान’ (Teach me half of the gladness that they brains must know) ।

(घ) रूपान्तरण – अनुवादक इसमें कृति का रूप बदल देता है। इसीलिए इसे रूपान्तरण (Adaptation) कहा जाता है। प्रायः इसमें विधा परिवर्तन होता है। उपन्यास या कहानी को नाटक में बदल दिया जाता है। सुविधा के अनुसार पात्र और काल-योजना में भी हेर-फेर हो सकता है। शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक ‘Othello’ का हिन्दी में उपन्यासपरक रूपान्तर शत्रुघ्नलाल शुक्ल ने किया। यह रूपान्तर एक ही भाषा में विधागत परिवर्तन के रूप में हो सकता है। शेक्सपियर के नाटकों को चार्ली लैम्ब ने Tales from Shakespeare’ में कहानियों के रूप में रूपान्तरित किया है।

(ङ) सारानुवाद – इस प्रकार के अनुवाद में स्त्रोत-भाषा की सामग्री का लक्ष्य भाषा में सारांश प्रस्तुत किया जाता है। लम्बे भाषणों, राजनीतिक वार्ताओं आदि में दुभाषिये इस प्रकार की अनुवाद-पद्धति का ही सहारा लेते हैं। इसमें आवश्यकता इस बात की है जो कि जो बातें स्त्रोत-भाषा में कही गई हैं उनका मुख्यार्थ उपेक्षित न हो ।

(च) भाषा या टीकापरक अनुवाद- अनुवाद की इस पद्धति में स्रोत-भाषा के मूल की व्याख्या के साथ अनुवाद किया जाता है। इसमें काव्य स्पष्टीकरण के लिए भाष्यकार अपनी ओर से उद्धरण, उदाहरण और प्रमाण जोड़ सकता है। भाष्यकार अपने व्यक्तित्व की महत्ता को अर्जित ज्ञान के माध्यम से उस पर स्थापित करता है। जैसे आचार्य विश्वेश्वर की ‘हिन्दी अभिनव भारती’, ‘हिन्दी ध्वन्यावलोकलोचन’ आदि की वैदुष्यपूर्ण व्याख्याएँ या संस्कृत की काव्यशास्त्रीय रचना ‘साहित्य-दर्पण’ पर डॉ. सत्यव्रत सिंह की व्याख्या गीता पर बाल गंगाधर तिलक का ‘गीता-भाष्य’। इसमें समालोचना तत्व का भी सम्मिश्रण हो जाता है। वेदों और उपनिषदों के अनेकानेक भाष्य इसी मनीषी परम्परा में होते रहे हैं। आज भी यह परम्परा समाप्त नहीं हुई है।

(छ) आशु अनुवाद – आशु अनुवाद का प्रचलन तो मनुष्य के इस विश्व में आविर्भाव के साथ हुआ है, क्योंकि यही विभिन्न भाषा बोलियों वाले मनुष्यों के बीच संक्रमण तथा संप्रेक्षण का प्रचलित रूप है। आज तो इसका महत्व और भी अधिक हो गया है क्योंकि वर्तमान युग में देश-विदेश के सामान्य लोगों का भी परस्पर मिलना-जुलना अधिक सहज हो चला है और ऐसे विभिन्न भाषी लोगों को एक-दूसरे से जोड़ने का काम दुभाषिए करते हैं। उन्हें दोनों की बातों का आशु अनुवाद करना पड़ता है। आशुं अनुवादक का भाषा-ज्ञान गहन एवं अत्यन्त प्रामाणिक होना चाहिए। तमाम महत्वपूर्ण भाषाओं वार्ताओं, अनुबन्धों आदि का अनुवाद उसे कोश या सन्दर्भ ग्रन्थों की सहायता के बिना आमने-सामने करना पड़ता है। इस दृष्टि से भाषा ही नहीं, दोनों देशों के इतिहास और संस्कृति तथा समाज से गहरे परिचय की अपेक्षा की जाती है। उसकी छोटी-सी भूल कभी बहुत भारी पड़ सकती है। इस प्रकार के अनुवाद का एक विशिष्ट सांस्कृतिक महत्व भी है। राजनीतिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक आदि सभी क्षेत्रों में युद्ध हो या शान्ति, आशु अनुवादक के बिना काम नहीं चलता।

कासाग्रॉदे नामक पश्चिमी विद्वान ने अनुवाद के निम्नवत् चार भेद माने हैं-

(i) भाषापुरक अनुवाद – स्त्रोत भाषा के मूल कथ्य का लक्ष्य भाषा में रूपान्तरण भाषापरक अनुवाद है।

(ii) तथ्यपरक अनुवाद — स्रोत-भाषा में व्यक्त तथ्यों की लक्ष्य-भाषा की प्रकृति के अनुरूप प्रस्तुति तथ्यपरक अनुवाद है। वैज्ञानिक और तकनीकी साहित्य का अनुवाद इसी भेद के अन्तर्गत है।

(iii) संस्कृतिपरक अनुवाद – स्रोत-भाषा में अभिव्यक्त धार्मिक, आध्यात्मिक और योगपरक तथ्यों-विचारों की लक्ष्य भाषा में प्रस्तुति संस्कृतिपरक अनुवाद है।

(iv) सौन्दर्यपरक अनुवाद – साहित्य संगीत तथा अन्योन्य ललित कलाओं का स्रोत-भाषा -भाषा से लक्ष्य-भाषा में अनुवाद सौन्दर्यपरक अनुवाद कहलाता है।

कुछ अन्य विद्वानों ने अनुवाद के कुछ अन्य भेद-प्रत्यक्ष तथा परोक्ष और लिखित तथा मौखिक आदि भी माने हैं।

डॉ. भोलानाथ तिवारी ने निम्नलिखित चार मुख्य आधारों पर अनुवाद के भेदों का उल्लेख किया है-

(1) साहित्य की शैलियों अथवा गद्यत्व-पद्यत्व के आधार पर- उसके दो भेद हैं—(क) गद्यानुवाद, (ख) पद्यानुवाद ।

(2) साहित्यिक विधाओं के आधार पर- पुनः उसके दो रूप भेद हैं—(क) काव्यानुवाद, (ख) नाट्यानुवाद ।

(3) विषय के आधार पर- उसके छः भेद हैं-

(क) ललित साहित्य का अनुवाद, (ख) धार्मिक-पौराणिक साहित्य का अनवाद, (ग) विधि साहित्य का अनुवाद, (घ) समाजशास्त्रीय साहित्य का अनुवाद, (ङ) प्रशासनिक साहित्य का अनुवाद, (च) वैज्ञानिक एवं तकनीकी साहित्य का अनुवाद ।

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अनुवाद का स्वरूप क्या है?

अनुवाद का व्यापक स्वरूप अनुवाद की साधारण परिभाषा के अंतर्गत पूर्व में कहा गया है कि अनुवाद में एक भाषा के निहित अर्थ को दूसरी भाषा में परिवर्तित किया जाता है और यही अनुवाद का सीमित स्वरूप है। सीमित स्वरूप (भाषांतरण संदर्भ) में अनुवाद को दो भाषाओं के मध्य होने वाला 'अर्थ' का अंतरण माना जाता है।

अनुवाद के भेद क्या है?

अनुवाद के प्रकारों का विभाजन दो तरह से किया जा सकता है। पहला अनुवाद की विषयवस्तु के आधार पर और दूसरा उसकी प्रक्रिया के आधार पर उदाहरण के लिए विषयवस्तु के आधार पर साहित्यानुवाद कार्यालयी अनुवाद, विधिक अनुवाद, आशुअनुवाद, वैज्ञानिक एवं तकनीकी अनुवाद, वाणिज्यिक अनुवाद आदि।

अनुवाद क्या है परिभाषा देते हुए अनुवाद के स्वरूप को स्पष्ट कीजिए?

भर्तृहरि के अनुसार अनुवाद का अर्थ दुहराना या पुनः कथन। इस प्रकार किसी भाषा में अभिव्यक्त विचारों को दूसरी भाषा में यथावत प्रस्तुत करना अनुवाद है। जिस भाषा से अनुवाद किया जाता है वह मूल भाषा या स्त्रोतभाषा है और जिस नई भाषा में अनुवाद करना है वह प्रस्तुत या लक्ष्य भाषा है।

अनुवाद की प्रकृति या स्वरूप क्या है?

कला वह है जिसमें सर्जक किसी रचना का इस प्रकार निर्माण करता है कि उसमें उसकी कल्पना, सहजता, स्वाभाविकता और भावनाओं की झलक मिलती है। इसी कारण कला को व्यक्तिनिष्ठ माना गया है।