व्याख्या कीजिये कि विभिन्न अक्षांशों पर सूर्य की किरणों का नति कोण अलग अलग क्यों होता है? - vyaakhya keejiye ki vibhinn akshaanshon par soory kee kiranon ka nati kon alag alag kyon hota hai?

वायुमंडल की दशाएँ स्थैतिक नहीं

  • मौसम में बदलाव आते रहने से तथा ऋतु के बार-बार परिवर्तन से स्पष्ट होता है कि वायुमंडल में बहुत अधिक परिवर्तनशीलता है। इसकी वायु बड़े परिणाम में नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे की ओर चलती है। साथ ही पृथ्वीतल पर एक ओर से दूसरी ओर क्षैतिज रूप में भी यह गतिशील है। इस गति को उत्पन्न करने में बहुत अधिक ऊर्जा लगी होती है।
  • वायुमंडल कोई ऊर्जातंत्र (energy system) नहीं है। इसका संपर्क एक ओर पृथ्वी से और दूसरी ओर अतंरिक्ष से है। दोनों ओर से इसे ऊर्जा प्राप्त होती है। पृथ्वी द्वारा वायुमंडल को प्राप्त ऊर्जा की मात्र नगण्य है। पृथ्वी तो किसी और से प्राप्त ऊर्जा परावर्तित करती है। वायुमंडलीय ऊर्जा का स्रोत सूर्य का ताप (ऊष्मा) और प्रकाश है जो अंतरिक्ष से होकर आता है।
सौर विकिरण
  • शून्याकाश में स्थित असंख्य तारों में सूर्य पृथ्वी का निकटतम तारा है। इस पर अनवरत रूप से आणविक प्रतिक्रियाएँ होती रहती हैं, फलतः ऊर्जा उत्पन्न होती है। इससे वहाँ दहकती गैसों की लपटें उठती रहती हैं। सूर्य को दहकता हुआ गैसपिंड माना गया है जिसकी सतह पर 6,000°c तापमान मिलता है।
  • सूर्य विद्युत चुंबकीय तंरगों में अपनी ऊष्मा निस्सृत करता है जो लगभग 3 लाख किमी. प्रति सेकेंड की दर से चारों ओर फैलती है। सूर्य की सतह से चारों ओर विकरित होने वाली या फैलने वाली ऊष्मा को सौर विकिरण या सौर ऊर्जा कहते हैं।
  • हमारे पृथ्वीतल पर, जिसकी दूरी सूर्य से लगभग 15 करोड़ किमी. है, सौर विकिरण को पहुँचने में 8 मिनट से अधिक समय लगता है। हमारी पृथ्वी सौर विकिरण का अत्यंत सूक्ष्म अंश (दो अरबवाँ भाग) प्राप्त करती है, मगर पृथ्वी के लिए यह बहुत अधिक महत्व का होता है। सौर ऊष्मा के आगे बढ़ने (फैलने) में यद्यपि ऊर्जा का ह्रास नहीं होता, किंतु लंबी दूरी पार करने पर इसकी तीव्रता में कमी अवश्य आ जाती है।
  • सौर विकिरण अनेक किरणों में होता है। दूसरे शब्दों में, सौर विकिरण द्वारा निकली ऊष्मा लघु लोगों तंरगों में होती है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जो ग्रह सूर्य के निकट हैं, वे दूर-स्थित ग्रहों की अपेक्षा अधिक सौर विकिरण प्राप्त करते हैं।

सूर्यातप (Insolation)

  • पृथ्वी पर पहुँचने वाले सौर विकिरण (सौर ऊर्जा) को , जिसे पृथ्वीतल ग्रहण करता है, सूर्यातप (Insolation) या सूर्यताप कहते हैं। अर्थात् पृथ्वी तल द्वारा ग्रहण किया गया सौर विकिरण ही सूर्यातप (Insolation) है।
  • यह विकिरण लघु तंरगों के रूप में पहुँचता है। इससे स्थल भाग और जल भाग गर्म होते हैं। सौर विकिरण पृथ्वी के वायुमंडल को पार कर पृथ्वीतल पर पहुँचता है और वायुमंडल का फैलाव सैकडो हजारों किमी. मोटा है।
  • वायु का यह मोटा आवरण सूर्य की प्रचंड किरणों से उसकी प्रचंडता कम करके हमारी रक्षा करता है। वायुमंडल की ऊपरी परत पर जहाँ प्रति वर्ग सेंटीमीटर क्षेत्र में प्रति मिनट 2 कैलोरी गर्मी प्राप्त होती है, वहाँ पृथ्वीतल उसकी आधी गर्मी ही ग्रहण कर पाती है। यदि वायुमंडल आने वाले सौर विकिरण का अवशोषण न करता तो पृथ्वी पर तापमान 100°c से भी अधिक पाया जाता।
  • पृथ्वी की ओर आने वाले सौर विकिरण का कुछ अंश वायुमंडल में उपस्थित धूलकणों द्वारा परावर्तित हो जाता है, अर्थात लौट जाता है। बादलों की ऊपरी छोर तथा हिमाच्छादित क्षेत्रें द्वारा भी सौर विकिरण का कुछ अंश परावर्तित होता है। इस परावर्तित मात्र को पृथ्वी का एल्बिडो (albedo) कहते हैं। वायुमंडल में उपस्थित जलवाष्प सौर विकिरण का कुछ अंश अवशोषित करने में समर्थ होता है।
  • समस्त पृथ्वीतल पर एक-सा सूर्यातप (Insolation) नहीं मिलता। अलग-अलग क्षेत्र में सूर्यातप (Insolation) की मात्र अलग-अलग होती है। फिर, अलग-अलग समय विभिन्न ऋतुओं के कारण भी सूर्यातप में अंतर आता है। सौरकलंको (sunspots) के साथ भी सूर्यातप घटता-बढ़ता है।
सूर्यातप (Insolation) को प्रभावित करने वाले कारक
  • पृथ्वीतल पर सूर्यातप (Insolation) के वितरण को प्रभावित करने वाले मुख्य कारक हैं-

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सूर्य-किरणों का तिरछापन या सूर्य-किरणों का आपतन कोण
  • पृथ्वी की गोलाई के कारण इसके धरातल पर सूर्य की जो किरणें पड़ती हैं वे सर्वत्र लंबवत नहीं होतीं। विषुवतीय क्षेत्र की अपेक्षा ध्रुवीय क्षेत्रें में ये तिरछी होती हैं, जिससे (क) इन्हें अधिक क्षेत्र में फैलना पड़ता है और (ख) वहाँ तक जाने में वायुमंडल के अधिक भाग को पार करना पड़ता है।
  • फलस्वरूप, विषुवतीय क्षेत्र में ध्रुवीय क्षेत्रें की अपेक्षा चार गुना अधिक सूर्यातप मिलता है। वायुमंडलीय ऊष्मा का एकमात्र स्रोत सूर्यातप है।
  • सूर्यातप (Insolation) की मात्र को प्रभावित करने वाला दूसरा कारक किरणों का गति कोण है। यह किसी स्थान के अक्षांश पर निर्भर करता है। अक्षांश जितना उच्च होगा (अर्थात् ध्रुवों की ओर) किरणों का गति कोण उतनी ही कम होगा। अतएव सूर्य की किरणें तिरछी पड़ेगी।
  • सूर्य की किरणें का आपतन कोण विषुवत रेखा के पास अधिक (600 तक) और ध्रुवों की ओर कम हो जाता है। आपतन कोण बढ़ने पर सूर्य की किरणों का प्रभाव-क्षेत्र कम होता है। फलस्वरूप वहां प्रति इकाई क्षेत्र प्राप्त ऊष्मा अधिक होती है और धरातल का तापन भी इसी अनुपात में अधिक होता है।
  • फिर, जहां आपतन कोण अधिक होता है वहां सूर्य की किरणों द्वारा वायुमंडल में तय की गई दूरी भी कम होती है। जिससे सूर्यातप में होने वाले ह्रास की मात्र भी कम हो जाती है।
  • तिरछी किरणों की अपेक्षा सीधी किरणें कम स्थान पर पड़ती हैं किरणों के अधिक क्षेत्र पर पड़ने के कारण ऊर्जा वितरण बड़े क्षेत्र पर होता है तथा प्रति इकाई क्षेत्र को कम ऊर्जा मिलती है। इसके अतिरिक्त तिरछी किरणों को वायुमंडल की अधिक गहराई से गुजरना पड़ता है। अतः अधिक अवशोषण प्रकीर्णन एवं विसरण के द्वारा ऊर्जा का अधिक ह्मास होता है।
दिन की अवधि और लंबाई
  • जिस स्थान पर अधिक देर तक सूर्य चमकेगा वहाँ अधिक सूर्यताप मिलेगा। विषुवत रेखा पर दिन-रात की अवधि बराबर होती हैं, परंतु उससे उत्तर या दक्षिण बढ़ने पर दिन की लंबाई में अंतर आने लगता है।
  • अपने अक्ष पर झुकी पृथ्वी के परिक्रमण से ग्रीष्मकाल में दिन की लंबाई अधिक और शीतकाल में कम हो जाती है। अतः, शीतकाल की अपेक्षा ग्रीष्मकाल में सूर्यातप की प्राप्ति अधिक होती है।
  • उत्तरी गोलार्द्ध में ग्रीष्मकाल में ध्रुव के निकट छह महीने का दिन होता है, पर वहाँ सूर्य की किरणें तिरछी पड़ती हैं। अतः सूर्यातप की प्राप्ति कम होती है।
वायुमंडल का गंदलापन
  • वायुमंडल में जलवाष्प (खासकर घने बादल) और धूलकण सूर्यातप (Insolation) की प्राप्ति में अंतर लाते हैं। जलवाष्प सूर्यताप को सोखने का काम करता है और धूलकण रोकने (बल्कि रोककर परावर्तित करने) का।
  • यही वायुमंडल का गंदलापन है। कहते हैं कि वायुमंडल की ऊपरी सतह पर जो सौर विकिरण पहुँचता है, उसका केवल 45 प्रतिशत ही पृथ्वी की सतह पर पहुँच पाता है और शेष 55 प्रतिशत वायुमंडल के गंदलेपन के कारण नष्ट हो जाता है, 40 प्रतिशत परावर्तित हो जाता है और 15 प्रतिशत सोख लिया जाता है।

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धरातल की विशेषता
  • आर्द्रभूमि या वन प्रदेश में सूर्यातप की प्राप्ति कम होती है, क्योंकि काफी ताप वाष्प बनाने में लग जाता है। शुष्क मरूस्थलों में बादलों के अभाव में सूर्यातप अधिक ग्रहण किया जाता है।
जल और स्थल का प्रभाव
  • स्थलभाग जल की अपेक्षा शीघ्र गर्म और शीघ्र ठंडा होता है। इसके कई कारण हैं-
  1. जल का आपेक्षिक ताप अधिक होना अर्थात एक किलोग्राम बालू और एक किलोग्राम जल को अलग-अलग गर्म किया जाए तो बालू की अपेक्षा पांच गुना अधिक ताप जल के लिए चाहिए। इसी तरह ठंडा होने पर बालू की अपेक्षा जल से पांच गुना ताप निकलेगा।
  2. सूर्य की किरणों का स्थल की अपेक्षा जल में अधिक गहराई तक प्रवेश करना जिससे अपेक्षाकृत अधिक जलभाग पर सूर्य की किरणें फैल जाती हैं। इसका फल यह होता है कि जल का तापमान अधिक बढ़ नहीं पाता और न वह जल्द कम ही हो पाता है।
  3. जल गतिशील होता है, अतः उस पर पड़ने वाला सूर्याताप लहरों, धाराओं और ज्वारभाटों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचता रहता है। इसके विपरीत, स्थल सूर्याताप को जिस स्थान पर ग्रहण करता है, उसका प्रभाव उसी सीमित स्थान तक रख पाता है। अतः, उस सीमित क्षेत्र का तापमान जल्द बढ़ जाता है।
  4. सूर्यातप (Insolation) का कुछ अंश जलभाग पर वाष्प बनाने में लग जाता है। यह वाष्प वायु में मिल जाता है। शुष्क स्थलभाग को जो सूर्यातप मिलता है, वह उसका तापमान बढ़ाने में ही काम आता है।
  5. सूर्यातप (Insolation) का कुछ अंश जलभाग की सतह से परावर्तित होकर वायुमंडल में लौट जाता है, मगर स्थलभाग से परावर्तन अत्यल्प होता है। अतः स्थल द्वारा सूर्यातप अधिक ग्रहण किया जाता है।
  6. स्थलभाग की अपेक्षा जलभाग (महासागर) के ऊपर आकाश प्रायः मेघाच्छन्न रहता है। मेघाच्छन्न आकाश सूर्य की किरणों को रोककर जलतल पर कम ताप आने देता है और ठंडा होते समय जलतल से ताप की विकिरण-गति को भी धीमा कर देता है, क्योंकि मेघों की उपस्थिति ताप को वायुमंडल के ऊपरी भागों में जाने से रोकती है।
  7. जिन प्रक्रियाओं से ऊष्मा का ह्रास होता है उनमें परावर्तन (Reflection), प्रकीर्णन (Scattering), अवशोषण (Absorption) तथा विकिरण (Radiation) मुख्य हैं।
परावर्तन
  • पृथ्वी के धरातल एवं वायुमण्डल से बहुत-सी ऊष्मा परावर्तन (Reflection) के कारण कमजोर पड़ जाती है। परावर्तन को एलबिडो (Albedo) भी कहते हैं। एलबिडो को प्रतिशत में दर्शाया जाता है। बादलों का एलबिडो 40 से 90 प्रतिशत होता है।
अवशोषण
  • इस प्रक्रिया के द्वारा सौर प्रकाश, ऊष्मा में बदल जाता हैं। उदाहरण के लिये जब सूर्य का प्रकाश किसी दीवार पर पड़ता है तो दीवार गर्म हो जाती है, इसी प्रक्रिया से प्रकाश को ऊष्मा में बदल देती है।
प्रकीर्णन
  • वायुमण्डल में भरी गैस के कणों से टकरा कर फैल जाती है, जिस से कुछ ऊष्मा का ह्रास हो जाता है।
विकिरण
  • सूर्य से आने वाली प्रकाश की किरणें पृथ्वी पर पहुँच कर विकिरण के द्वारा वायुमण्डल की नीचे की परत को गर्म करते हैं। इस प्रक्रिया द्वारा धरातल से ऊपर की ओर जाते हुये तापमान का ह्रास होता जाता है।
भोर की लाली तथा संध्या लाली
  • सूर्य का प्रकाश भोर के समय विकिरण के कारण पूर्व की दिशा में आकाश लाल रंग का दिखाई देता है। यह भोर अथवा सुबह की लाली कहलाती है। इसी प्रकार शाम के समय पश्चिम की दिशा में आकाश का लाल रंग दिखाई देता है, जिसको संध्या लाली कहते है। विषुवत रेखा से ध्रुव की ओर जाते हुये संध्या लाली तथा भोर की लाली का समय बढ़ता जाता है।
  • विषुवत रेखा पर सूर्य की किरणें प्रायः लम्बवत पड़ती हैं। विषुवत रेखीय प्रदेश में संध्या लाली का समय 30 मिनट से लेकर 45 मिनट होता है, जबकि 40 डिग्री तथा 60 डिग्री पर संध्या लाली का समय क्रमशः एक तथा दो घंटे होता है।
  • ध्रुवीय क्षेत्रों में सात हफ्रते संध्या का धुंधला और सात हफ्रते भोर की लाली रहती है। इन क्षेत्रें में शीत ऋतु में ढाई महीने की रात तथा ग्रीष्म काल में ढाई महीने का दिन होता है।
  • जल और स्थल के गर्म होने में आपेक्षित अंतर पड़ने का ही यह परिणाम है कि एक ही अक्षांश पर ग्रीष्मकाल में सागर की अपेक्षा भूमि (स्थलभाग) पर तापमान अधिक मिलता है और शीतकाल में, इसके विपरीत, सागर की अपेक्षा भूमि (स्थलभाग) पर तापमान कम मिलता है।
  • जलभाग और स्थलभाग से जाने वाली समताप रेखाएँ इसी कारण सीधी और समानांतर न होकर टेढ़ी-मेटी हो जाती हैं। क्रमशः विषुवत रेखा से उत्तर और दक्षिण जलभाग पर समताप रेखाएँ ध्रुव की ओर मुड़ जाती हैं।
  • स्थलभाग पर विषुवत रेखा की ओर ग्रीष्म और शीतकाल में संसार के तापमान-वितरण पर जल और स्थल का जो प्रभाव पड़ा है उसे तापमान के क्षैतिज वितरण का वर्णन करते हुए बताया गया है।

सूर्यातप का क्षैतिज वितरण

  • सबसे अधिक सूर्यातप (Insolation) विषुवतीय क्षेत्र प्राप्त करता है और सबसे कम ध्रुवीय क्षेत्र। ऐसा वितरण इसलिए है कि विषुवतीय क्षेत्र में सूर्य की किरणों का आपतन कोण अधिकतम होता है और ध्रुवों की ओर यह कोण कम होता जाता है। यही नहीं, दिन की लंबाई भी विषुवतीय क्षेत्र से ध्रुवीय क्षेत्र की ओर कम होती जाती है। जहाँ विषुवत रेखा पर तापीय दिनों की संख्या 350 दिन है वहाँ ध्रुवों पर 150 दिन।
  • सूर्य की किरणें मार्च और सितंबर में पृथ्वी के बीचोबीच पड़ने के कारण सर्वत्र दिन-रात बराबर होते हैं। दोनों गोलार्द्धों में समान मात्र में सूर्यातप प्राप्त होता है। किंतु, जून और दिसंबर में सूर्य की किरणें क्रमशः कर्क रेखा और मकर रेखा पर लंबवत चमकती हैं जिससे दोनों गोलार्द्धों में सूर्यातप का असमान वितरण होता है।

तापमान का क्षैतिज वितरण

  • पृथ्वी का औसत तापमान लगभग 15oc हैं, परन्तु स्थानीय औसत तापमान में भारी भिन्नता पाई जाती है। मानचित्रें पर तापमान क्षैतिज वितरण सामान्यतः समताप रेखाओं के द्वारा दिखाया जाता है क्षैतिज तापमान के वितरण पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ता हैः

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अक्षांश
  • किसी स्थान की अक्षांशीय स्थित का सूर्याताप की प्राप्ति पर एक गहरा प्रभाव डालता है। विषुवत रेखीय प्रदेशों में ऊँचा तापमान रिकॉर्ड किया जाता है जबकि ध्रुवीय प्रदेशों में तापमान नीचे रहता हैं।
ऊँचाई
  • क्षोभमण्डल में ऊँचाई की ओर जाते हुये तापमान में 6-4oc प्रति किमी. की दर से कमी होती जाती है, इसीलिये किसी भी अक्षांश पर सागरीय स्तर (Sea-level) पर तापमान सब से अधिक रिकॉर्ड किया जाता है।
  • यही कारण है कि विषुवत रेखा के निकट स्थित लिब्रेविली (गैबोन) सागर स्तर से केवल 15 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। वहाँ का औसत तापमान 28oc रहता है, जबकि क्यूटो (इक्वेडोर), जो विषुवत रेखा के निकट 3000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है, का वार्षिक औसत तापमान 13 oc रहता है।
मेघ आवरण
  • तापक्रम के वितरण पर बादलों का प्रभाव भी भारी पड़ता है। एक अनुमान के अनुसार किसी भी समय आकाश का 50 प्रतिशत भाग हमेशा बादलों से ढका रहता है।
  • सामान्यतः यदि दिन के समय बादल हो तो तापमान कम रहता है परन्तु यदि रात के समय बादल हो तो रात का तापमान बढ़ जाता है। यही कारण है कि विषुवत रेखा पर जहाँ सूर्य की किरणें लम्बवत पड़ती है सबसे ऊँचे तापमान रिकॉर्ड नहीं होते, इसके विपरीत कर्क रेखा पर हर एक महाद्वीप के पश्चिमी भाग पर स्थित मरुस्थलों में जहाँ बादल कम रहते हैं।
  • विश्व के सबसे अधिक तापमान रिकॉर्ड किये जाते हैं। लीबिया में अल-अजीजिया तथा कैलिफोर्निया में डैथ-वैली (Death Valley) एवं राजस्थान में गंगानगर तथा जोधपुर में उच्च तापमान दर्ज किया जाता है।
सागर से दूरी
  • किसी स्थान का सागर के निकट या दूर होने का भी तापमान पर प्रभाव पड़ता है। जो स्थान सागर तट के निकट होते हैं, उनका वार्षिक तापान्तर कम रहता है।
  • इसके विपरीत जो स्थान तट से अधिक दूरी पर स्थित हैं उनका वार्षिक तापान्तर अधिक रहता है। उदाहरण के लिये कन्याकुमारी का वार्षिक तापान्तर केवल 3oc और दिल्ली का वार्षिक तापान्तर 15oc से अधिक रहता। इसका मुख्य कारण जल एवं थल का प्रभाव है। जल देर में गर्म होता है और देर ही में ठंडा जबकि थल जल्द गर्म होता है और जल्द ही ठंडा होता है।
पवन
  • तापमान के क्षैतिज वितरण पर पवन के वेग तथा दिशा का भी प्रभाव पड़ता है। सागर से आने वाली पवन तापमान को कम करने में सहायक होती है जबकि थल के ऊष्मा भागों से आने वाली पवन तापमान में वृद्धि करती है।
धरातल की प्रकृति तथा ढाल
  • तापमान के वितरण पर भू-आकृति तथा ढाल का भी प्रभाव पड़ता है। पर्वत का जो पक्ष सूर्य के सामने अधिक रहता है उस पर अधिक तापमान और जो विपरीत ढाल होता है उस पर तापमान कम रिकॉर्ड किया जाता है।
  • चट्टानों का रंग तथा उनकी भौतिक एवं रासायनिक विशेषताएं भी तापमान को प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिये काले रंग की बेसाल्ट चट्टानों में अधिक तापमान रिकॉर्ड किया जाता है जबकि सफेद रंग के संगमरमर क्षेत्र में तापमान तुलनात्मक रूप से कम रहता है।
महासागरीय जलधाराएं
  • महासागरों में बहते पानी को जलधारा कहते हैं। जलधाराएं गर्म पानी को ठंडे प्रदेशों की ओर तथा ठंडे जल को गर्म प्रदेशों की ओर ले जाती हैं। इस प्रकार जल के तापमान का प्रभाव निकटवर्ती प्रदेशों पर पड़ता है। खाड़ी की धारा (Gulf Stream) का गर्म पानी 60o उत्तर में स्थित नॉर्वे के बन्दरगाहों को शीतकाल में खुले रखने में सहायक रहता है।
  • जबकि लेब्रोडोर ठंडे पानी (Labrador Current) की जलधारा कनाडा के 50o उत्तर तक बन्दरगाहों को शीत काल में जमा देती है और जल परिवहन का कार्य और जहाजों का आना जाना बन्द हो जाता है।

पार्थिव या भौमिक विकिरण

  • पार्थिव विकिरण का अर्थ है पृथ्वी जो ऊष्मा प्राप्त करती है उसका (दीर्घ तंरगों द्वारा) पुनः विकिरित होकर वायुमंडल में फैल लौट जाना। वायुमंडल में लौट जाना इस अर्थ में कि सूर्य की ऊष्मा वायुमंडल से होकर ही पृथ्वीतल पर पहुँचाती है।
  • सूर्य की सतह पर तापमान 6,000°c है और पृथ्वी की सतह पर तापमान 10°c। सूर्य की ऊष्मा से पृथ्वी की सतह गर्म होती है। इस गर्मी को पृथ्वी छोड़ती या विसर्जित करती है, खासकर रात मे जब सूर्य की ऊष्मा से पृथ्वी तल तप्त नहीं होता।
  • पार्थिव यानी पृथ्वी से उत्पन्न भौमिक यानी पृथ्वी पर का, भूमि का, भूमि-संबंधी विकिरण यानी किसी स्थान से ताप का उत्सर्जित होकर चारों ओर फैलना वायुमंडल सौर विकिरण को तो आने देता है पर पार्थिव विकिरण को बाहर जाने नहीं देता, खासकर जब आकाश में घने बादल छाए रहते हैं।
  • मेघाच्छन्न न रहने पर भी वायुमंडल की तहें पार्थिव विकिरण को शून्याकाश में निकलने से रोकती है। फलस्वरूप, वायुमंडल में तापमान बना रहता है।
  • सौर विकिरण से और पार्थिव विकिरण से वायुमंडल जो गर्मी प्राप्त करता है, उसका कुछ अंश वह भी विकिरण करता है जिसे वायुमंडलीय विकिरण कहते हैं। यह स्पष्ट है कि वायुमंडल और पार्थिक विकिरण में घना संबंध है।

वायुमंडल का तापन या गर्म होना

  • वायुमंडल का जो भाग पृथ्वीतल से सटा हुआ है वह जितना अधिक गर्म है, उतना ऊपर का भाग या ऊपर की तहें नहीं। स्पष्ट है कि वायुमंडल में ऊपर से नीचे की ओर गर्मी नहीं आती, बल्कि नीचे से ऊपर की ओर ऊष्मा का संचार होता है।
  • सूर्य की ऊष्मा ऊपर से आती अवश्य है, पर वह गैसीय माध्यम हो (वायुमंडल का) तप्त नहीं कर सीधे पृथ्वीतल को गर्म करती है।
  • पृथ्वी की आंतरिक गर्मी से भी वायुमंडल गर्म नहीं हो पाता। वायु के गर्म होने का मुख्य साधन है पृथ्वी द्वारा विसर्जित सूर्यातप, अर्थात भौमिक विकिरण। भौमिक विकिरण दीर्घ तरंगों के रूप में होता है।
  • वायुमंडल में उपस्थित जलवाष्प तथा कार्बन डाइऑक्साइड जैसी दीर्घ तंरगों वाले विकिरण का अवशोषण कर वायु को गर्म बनाए रखती हैं। सूर्यातप के अतिरिक्त संपीडन (compression) द्वारा भी वायु को गर्मी की प्राप्त होती है।
  • सामान्य तौर पर ठोस पदार्थ संचलन (conduction) विधि से, तरल पदार्थ संवहन (convection) विधि से और वायव्य पदार्थ विकिरण (radition) विधि से गर्म हुआ करते हैं। वायु इन तीनों विधियों से गर्म होती है, यद्यपि इनमें प्रमुखता विकिरण विधि की होती है।
ताप-संवहन
  • सूर्यातप (Insolation) से तप्त पृथ्वी जब ताप का विसर्जन करती हुई वायु को गर्म करती है या अपने संपर्क में आई वायु को तप्त करती है तब उससे वायु का आयतन बढ़ जाता है और वह उठ जाती है। उस स्थान को भरने के लिए ऊपर की अपेक्षाकृत ठंडी वायु नीचे उतर आती है।
  • यह ठंडी वायु भी गर्म होकर ऊपर उठती हैं। धरातल पर इस क्रिया के उत्पन्न होने से, जिसे ‘संवहन’ कहते हैं, ऊपर और नीचे की वायु में संवहनीय धाराएँ (convectional currents) चलने लगती हैं और वायुमंडल नीचे से ऊपर की ओर गर्म होता जाता है।
  • संवहन द्वारा निचली तह की वायु गर्म होकर ऊपरी तहों तक जा पहुँचती है और वायुमंडल गर्म होने लगता है।
ताप-विकिरण
  • सूर्यातप से धरातल गर्म होकर जब ताप का विकिरण, अर्थात ऊष्मा का उत्सर्जन करता है तो विकिरण की लंबी तरंगों को वायुमंडल अवशोषित नहीं कर पाता। फलतः, ऊष्मा तंरगें सीधे ऊपर जाकर वहाँ की वायु को गर्म करती हैं।
  • बादलों की उपस्थिति में पृथ्वी द्वारा विसर्जित ताप अधिक ऊँचाई तक नहीं जा पाता। मरूस्थलों में, जहाँ निरभ्र (बादल-रहित) आकाश रहता है, ताप का विकिरण (radiation) अच्छी तरह होता है। विकिरण ही ऐसी विधि है जिससे पृथ्वी सूर्यातप से प्राप्त ऊष्मा पूरी तरह शून्य में प्रसारित कर सकती है।
वायुमंडल द्वारा सूर्यातप की प्रत्यक्ष प्राप्ति
  • वायुमंडल से होकर गुजरने वाले सूर्यातप का कुछ अंश प्रत्यक्ष रूप से वायुमंडल का गंदलापन सोख लेता है या परावर्तित कर देता है।
  • ध्रुवीय प्रदेशों में वायु को जो भी अल्प गर्मी मिलती है, उसका मुख्य साधन सूर्यातप की प्रत्यक्ष प्राप्ति (direct insolation) है। ओजोनमंडल में ओजोन गैस पर्याप्त ताप सोख लेती है, जिससे वहाँ की वायु में तापवृद्धि पाई जाती है।
वायु की ऊपरी परतों का दबाव
  • वायुमंडल में वायु की अनेक परतें मिलती हैं। ऊपर की परतें नीचे की परतों पर दबाव या भार डालती हैं। इससे निचली परत की वायु का गर्म होना एक साधारण भौतिक क्रिया है।
  • वायुमंडल के तापन में इस क्रिया की भी भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण है। ऊँचे पर्वतों की घाटियों में उतरने वाली वायु से घाटी का तापमान बढ़ते देखा गया है। यह दबाव के कारण ही होता है।

वायुमंडलीय ताप बजट/ऊष्मा-संतुलन

  • वायुमंडल को सौर ताप (solar heat) और सौर ऊर्जा की प्राप्ति सदा होती रहती है, फिर भी यह बहुत गर्म नहीं हो पाता। क्योंकि ऊष्मा की जितनी मात्र वायुमंडल को मिलती है, उतनी ही अंतरिक्ष को लौट जाती है। सामान्यतः दिन में गर्मी बढ़ती है और रात में घटती है।
  • वर्ष भर में पृथ्वी की सतह पर विकिरण का संतुलन (+) रहता है जबकि वायुमंडल में (-) रहा करती है। समस्त पृथ्वी और वायुमंडल प्रणाली में 30°N और 40°N अक्षांशों के बीच संतुलन (+) मिलता है अन्य स्थानों में (-) ।
  • पृथ्वी पर औसत तापमान एक समान इसलिए रहता है कि यहाँ सूर्यातप और पार्थिव विकिरण में संतुलन बना है। यह संतुलन ही पृथ्वी का ऊष्मा बजट कहलाता है।
  • वायुमंडल के ऊपरी स्तर पर जो ऊष्मा मिल रही है और उसे 100 इकाई मान ली जाए तो इसमें से 35 इकाइयाँ परावर्तित होकर अंतरिक्ष में लौट जाती हैं।
  • शेष 65 इकाइयाँ या तो वायुमंडल द्वारा या पृथ्वीतल द्वारा अवशोषित हो जाती हैं (क्रमशः 14 और 51 इकाइयाँ)। पृथ्वी द्वारा अवशोषित इकाइयाँ पुनः पार्थिव विकिरण द्वारा लौट जाती हैं जिनमें से 17 इकाइयाँ अंतरिक्ष में पहुँच जाती हैं और शेष 34 इकाइयाँ वायुमंडल द्वारा सोख ली जाती हैं।
  • दूसरी ओर, वायुमंडल कुल 48 इकाइयाँ सोखता है (14 सूर्यातप की और 34 पार्थिव विकिरण की)। वायुमंडलीय विकिरण द्वारा ये सभी इकाइयाँ अंतरिक्ष को लौट जाती है।
  • इस तरह, अंतरिक्ष में लौटने वाली कुल इकाइयाँ हुई 65 (17+48)। सूर्य से प्राप्त इकाइयाँ भी इतनी ही होती हैं (15+14)। पृथ्वी का ऊष्मा-संतुलन (या ऊष्मा बजट) यही है।
अक्षांशीय ऊष्मा-संतुलन
  • वायुमंडल में ऊष्मा-संतुलन होते हुए भी इसके प्रत्येक भाग में समान रूप से संतुलन नहीं पाया जाता। विषुवत रेखा पर, जहाँ सूर्य लंबवत चमकता है, सूर्यातप की प्राप्ति सर्वाधिक होती है। उच्च अक्षांशों पर, जहाँ सूर्य की किरणें तिरछी पड़ती हैं, सूर्यातप अपेक्षाकृत कम प्राप्त होता है।
  • ध्रुवीय क्षेत्रें में, जहाँ सूर्य की किरणें और अधिक तिरछी पड़ती हैं तथा जहाँ सदा बादल छाया रहता है, न्यूनतम सूर्यातप मिलता है। सूर्यातप के अंक्षाशीय वितरण मं भिन्नता मिलती है। निम्न अक्षांशों से उच्च अक्षांशों में सूर्यातप की मात्र घटती जाती है।
  • इसी तरह, पार्थिव विकिरण की मात्र भी निम्न अंक्षाशों की अपेक्षा उच्च अक्षांशों में भिन्न होती है। निम्न अक्षांशों में प्राप्त ऊष्मा की तुलना में विसर्जित ऊष्मा की मात्र कम होती है। जबकि उच्च अक्षांशों में प्राप्त ऊष्मा की तुलना में विकिरण या विसर्जित ऊष्मा की मात्र अधिक होती है।
  • इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि निम्न अक्षांशीय क्षेत्र को अत्यधिक गर्म रहना चाहिए और उच्च अक्षांशीय क्षेत्रें को अत्यधिक ठंडा। किंतु, वास्तविकता यह नहीं है।
  • निम्न अक्षांशीय क्षेत्र की अतिरिक्त ऊर्जा उच्च अक्षांशों की ओर स्थानांतरित होती रहती है। इस कार्य में पवन-व्यवस्थाएँ और महासागरीय जलधाराएँ लगी रहती हैं जिनकी उत्पत्ति ही ऊष्मा के असंतुलन से होती है।
  • ऊर्जा का यह स्थानांतरण ही पृथ्वी पर वायुमंडल के संचरण का मुख्य कारण है। ऊष्मा का अधिक स्थानांतरण 30° से 50° अक्षांशों के मध्य होता है, अतः इस अक्षांशीय क्षेत्र में (जिसे ‘मध्य अक्षांश’ कहा जाता है) अधिकतर तूफान उत्पन्न होते हैं। वायुमंडलीय ऊष्मा पृथ्वीतल पर तापमान प्रारूप को प्रभावित करती है।