दक्षिण एशिया की राजनीतिक व्यवस्था क्या है? - dakshin eshiya kee raajaneetik vyavastha kya hai?

क्या पाकिस्तान दक्षिण एशिया का दागी देश है? यह सवाल तब पूछा जा रहा है जब यह मुल्क अपनी आज़ादी का 75वां साल मना रहा है, और अब तक के इसके सफर को लेकर इसके अंदर चल रहे आत्ममंथन की खबरें मीडिया और सोशल मीडिया में भी उभर रही हैं. इस बीच, शाहबाज़ शरीफ की सरकार ने पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान पर आतंकवाद के मामले में आरोप लगाया है, और इमरान अपनी गिरफ्तारी का इंतजार कर रहे हैं.

ध्रुवीकृत राजनीतिक व्यवस्था पाकिस्तान के लिए कोई नयी बात नहीं है. भारत और बांग्लादेश के अंदर भी काफी तीखी राजनीतिक होड़ चलती रही है, केवल नेपाल ही इस मामले में थोड़े बेहतर हाल में है. पाकिस्तान ने अपने यहां फौजी तानाशाही को अहम भूमिका सौंपने का जो फैसला किया वह अपरिहार्य नहीं था; इससे अलग हुए इसके जुड़वां, भारत ने जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में लोकतंत्र को आगे बढ़ाया, और यहां आज आंतरिक जकड़न चाहे जितनी हो, वह निर्णायक रूप से उसके पक्ष में है.

अर्थव्यवस्था की खस्ता हालत ने शायद पाकिस्तान में निराशा का माहौल बना दिया है. पिछले सप्ताह के अंत में, पाकिस्तान के दो जानकार वकीलों ने ‘बिजनेस रेकॉर्डर’ में लिखा है कि भारत तो ‘अपने राष्ट्रहित के लिहाज से’ फैसले करता है, चाहे वह रूस से तेल खरीदने का हो या ‘क्वाड’ में अमेरिका के साथ सहयोग करने का, लेकिन ‘विदेशी कर्ज और मदद की जंजीरों से जकड़ा हुआ है… कर्ज भुगतान में चूकने वाली उसकी अर्थव्यवस्था को केवल वित्तीय मसला नहीं माना जा सकता लेकिन वह ऐसी है कि हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता को ही दांव पर लगाती है’.

‘बिजनेस रेकॉर्डर’ की लेख सचमुच में सारगर्भित है. यह बताता है कि पाकिस्तान अपनी अर्थव्यवस्था में कुछ जान डालने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश (आइएमएफ) के फैसले का इंतजार कर रहा है कि वह 2019 में किए गए करार के तहत 6 अरब डॉलर के अतिरिक्त फंड की सुविधा फिर शुरू करे. लेकिन आइएमएफ से इस बारे में बातचीत पाकिस्तान के संरक्षक चीन को नाराज कर सकती है. चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरीडोर (सीपीईसी) जीवनरेखा बनने की जगह तब फांसी का फंदा बन जा सकता है जब पाकिस्तान चीन के बिजली उत्पादकों द्वारा पाकिस्तान में सीपीईसी के रास्ते में स्थापित बिजलीघरों के लिए उन्हें भुगतान करने में चूकेगा. वह पहले से ही चीन के 340 अरब पीकेआर का कर्जदार है.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि कर्ज से राहत की आइएमएफ की जो शर्ते हैं उनके मुताबिक उसे फौज के लिए बजट में कटौती करनी पड़ेगी. अब यह देश सबसे बड़ा सवाल यह पूछ रहा है कि क्या प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ यह कर पाएंगे? क्या सरकार को रिमोट कंट्रोल से चलाने वाला फौजी तंत्र (जिसे ‘डीप स्टेट’ कहा जा सकता है) किसी निर्वाचित प्रधानमंत्री को, जो गद्दी हासिल करने के लिए उसका एहसानमंद है, उसकी जमीन खिसकाने की छूट देगा?

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पड़ोसियों पर नज़र

यह तो निश्चित ही है कि पाकिस्तानी फौजी तंत्र यह मानता है कि अंतिम फैसला करने वाला तो वही है, वही है राष्ट्रीय ईमानदारी और नैतिकता का रखवाला, खासकर उसकी सुरक्षा और विदेश नीति का. अमेरिका, चीन, और रूस सरीखी बड़ी ताकतों के साथ सफाई और नफासत से रिश्ते निभाने के अलावा पाकिस्तानी फौजी तंत्र अपने दोनों पड़ोसियों भारत और अफगानिस्तान पर खास ध्यान रखता है. भारत में उसकी दिशा क्या है यह हम लोग अनुभव से जानते हैं—कश्मीर, मुंबई में आइसी-814 के अपहरण से लेकर काठमांडो और कांधार तक छद्मयुद्ध और लड़ाकों का प्रबंध करना— और यह सब इस उम्मीद के साथ कि वह भारत की आबादी के छठे हिस्से और उसके आकार के चौथाई हिस्से के बराबर के मुल्क को कगार पर रख सके।

बांग्लादेश पाकिस्तान के इस फौजी तंत्र का पहला शिकार बना. 1971 के युद्ध से पहले पाकिस्तानी फौज ने वहां कई जनसंहार किए, बौद्धिक कुलीनों की हत्याएं कारवाई. हालत यह है कि 50 साल बाद भी बांग्लादेश उसके साथ सामान्य संबंध बनाने की पाकिस्तानी पहल को लेकर शंकित है. ढाका में उसका बस उच्चायुक्त है, इसके सिवा कुछ नहीं. बांग्लादेश मांग करता रहा है कि 1971 की वारदात के लिए वह उससे माफी मांगे लेकिन यह अब तक नहीं हुआ है.

कोई सोच सकता है कि अपने दूसरे पड़ोसी अफगानिस्तान के साथ तो उसके रिश्ते गर्मजोशी भरे होंगे. दशकों तक पाकिस्तान के क्वेटा, मीरमशाह, कराची जैसे शहरों में तालिबान को पनाह देने के बाद पाकिस्तानी फौजी तंत्र ने एक साल पहले तालिबान को वहां सत्ता हासिल करने में मदद की, जैसा कि उसने 1996 में भी किया था. तालिबन के कार्यवाहक उप-प्रधानमंत्री अब्दुल ग़नी बारादर जैसे जिन तालिबानी नेताओं ने पाकिस्तानी प्रतिभा के जादू का प्रतिरोध किया उन्हें वर्षों तक जेल में डालकर यातनाएं दी गईं.

याद रहे कि पिछले साल 15 अगस्त को तालिबान ने काबुल में कदम रखा और इसके कुछ ही दिनों बाद पाकिस्तानी आइएसआइ के पूर्व प्रमुख फ़ैज़ हमीद काबुल पहुंच गए और अपने बंदों को उन अहम जगहों पर बैठाने लगे जहां से वे सरकार को नियंत्रित कर सकें.

इसके अलावा, इस्लाम तो इन दोनों देशों को जोड़ता ही है. इसलिए, अफगान लोग जब भारत में मुसलमानों की ‘लिंचिंग’ होते देखते हैं या बलात्कारियों को जेल से रिहा करके उनका अभिनंदन किया जान देखते हैं तो उन्हें भारत की लोकतांत्रिक साख को लेकर बड़ा झटका लगता है. पिछले साल से भारत ने अपने यहां पढ़ाई कर रहे और भारतीय शिक्षण संस्थाओं को अच्छी-ख़ासी रकम दे रहे 13,000 अफगान छात्रों को वीसा न देने का जो फैसला किया उससे बुरा दूसरा फैसला शायद ही कुछ हो सकता है.

पाकिस्तान के आगे समर्पण नहीं

एक साल बाद, तस्वीर और ज्यादा उलझी हुई नज़र आ रही है. पाकिस्तान आज काबुल में सबसे अहम ताकत बना हुआ है लेकिन इस्लामिक अमीरात के साथ उसके रिश्ते उतने अच्छी नहीं हैं जितने की उम्मीद की जाती है. बल्कि कांधार में, जहां शीर्ष नेता रहते हैं, और काबुल में ऊंचे हलक़ों के साथ यह रिश्ता असंतोष और आक्रोश से भरा है.
यानी साफ छवि यह बनती है कि इस्लामिक अमीरात ने पाकिस्तान को अपना सब कुछ समर्पित नहीं कर दिया है.

इसलिए, उत्तरी वज़ीरिस्तान में पाकिस्तानी फौजी काफिले पर बमबारी के जवाब में पाकिस्तानी वायुसेना ने जब अप्रैल में अफगानिस्तान के खोस्त और कुनार सूबों पर बमबारी की तो तालिबान ने विरोध जताया. यहां तक कि तालिबान के रक्षा मंत्री और तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर के बेटे मुल्ला याक़ूब ने पाकिस्तान को चेतावनी दे डाली कि वह आगे जरा संभल कर रहे.

अफगानिस्तान के मामलों के जानकारों का कहना है कि तालिबान सबसे पहले तो अफगान हैं और अपने मुल्क तथा समुदाय के प्रति उनकी वफादारी सभी दूसरी पहचान से ऊपर है. और यह कि उदार भारत के प्रति लगाव अफगानिस्तान के ‘बड़े खेल’ में पाकिस्तान की दखलंदाजी के अनुपात में बढ़ेगा या घटेगा.

अफगान मामलों के जानकार और काबुल यूनिवर्सिटी के जाने-माने प्रोफेसर फ़ैज़ ज़ालंद ने हाल में काबुल में मुझसे कहा कि तालिबान पाकिस्तानी फौजी तंत्र के प्रति अपनी वफादारी की खातिर अपने मुल्क को कभी कमजोर नहीं करेंगे. उन्होंने कहा कि पाकिस्तान छद्म युद्धों और भाड़े के लड़ाकों के जरिए तोडफोड की जो नीति चलाता है उसने इस पूरे क्षेत्र को प्रभावित किया है. इसलिए, पाकिस्तानी विमान जब हिंदू कुश के ऊपर मंडराते हैं तब यह सवाल सिर उठा लेता है कि क्या वह दक्षिण एशिया का एक दागी देश है? अगर ऐसा है, तो बाकी दक्षिण एशिया उसे अपनी चाल-ढाल सुधारने में किस तरह मदद करे?

दक्षिण एशियाई देशों की राजनीतिक प्रणाली क्या?

दक्षिण एशिया में सिर्फ एक तरह की राजनीतिक प्रणाली चलती है। नेपाल अतीत में एक हिन्दू-राज्य था फिर आधुनिक काल में कई सालों तक यहाँ संवैधानिक राजतंत्र रहा। संवैधानिक राजतंत्र के दौर में नेपाल की राजनीतिक पार्टियाँ और आम जनता ज्यादा खुले और उत्तरदायी शासन की आवाज उठाते रहे।

दक्षिण एशिया से क्या अभिप्राय हैं?

संदर्भ दक्षिण एशिया एशिया का दक्षिणी क्षेत्र है, जिसे भौगोलिक और जातीय-सांस्कृतिक दोनों संदर्भों में परिभाषित किया गया है। इस क्षेत्र में अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, भारत, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका शामिल हैं।

दक्षिण एशिया में भारत की क्या स्थिति है?

भारत दक्षिण एशिया में क्षेत्रीय नेतृत्‍व के लिए अलग-अलग कई तरह की द्विपक्षीय और बहुपक्षीय रणनीति का इस्‍तेमाल कर रहा है। वहीं चीन बहुपक्षीय की बजाय द्विपक्षीय यानी दो देशों के बीच के रिश्‍तों पर ज़्यादा ज़ोर दे रहा है। दोनों देशों ने इस पूरे इलाके पर ध्‍यान देने के पारंपरिक तरीके का दायरा बढ़ाया है।

दक्षिण एशिया क्षेत्र की प्रमुख विशेषताएं क्या है?

दक्षिणी एशिया क्षेत्र की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं... दक्षिण एशिया क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ पर सद्भाव भी है और शत्रुता भी है। आशा भी है और निराशा भी है। पारस्परिक शंकायें भी हैं और विश्वास भी है। भारत पाकिस्तान के बीच तनाव इस क्षेत्र का एक प्रमुख मुद्दा है।