शिव शंभू की दो लड़कियों की कहानी के माध्यम से लेख क्या कहना चाहता है? - shiv shambhoo kee do ladakiyon kee kahaanee ke maadhyam se lekh kya kahana chaahata hai?

प्रस्तुति

मृदुला सिन्हा आधुनिक युग की लेखिका हैं। उन्होंने अपनी समस्त कहानियों में आधुनिकता, सामाजिक विसंगतियों, आधुनिक बोध, मानवीय मूल्यों का विघटन, जीवन दर्शन, मशीनी युग, कुंठा आदि का सजीव चित्रण किया है। साहित्य एक ऐसा दर्पण है, जिसमे मानव जीवन का ही वर्णन नहीं, अपितु आस–पास के परिवेश का भी चित्रण होता है। साहित्यकार सामजिक प्राणी होता है। वह अपने युग के विचारों को एकत्र करके साहित्य के रूप में व्यक्त करता है। इनकी प्रथम कहानी ‘साक्षात्कार’ थी। जिसमे इन्होंने भारतीय गाँवों की बदहाली, बेबसी और गरीबी का चित्र दिखाया है।

मृदुला सिन्हा जी की ‘ढाई बीघा जमीन’ (कहानी संग्रह) 2013 में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी संग्रह में उन्नीस कहानियाँ हैं। भारतीय चिंतन परंपरा से ओतप्रोत मृदुला सिन्हा जी की सभी कहानियाँ मानव जीवन को सुमार्ग दिखाती हैं। उनके सभी कहानियों में कहीं न कहीं जीवन मूल्य के साथ भारतीयता का पक्ष अवश्य जुड़ा हुआ होता है। उनकी कहानियों में आद्योपांत जीवन के बोध के साथ सामाजिक, राजनितिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों का बोध होता है।

प्रथम अध्याय ‘यथार्थ और सामाजिक यथार्थ : सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य’ इस अध्याय में अर्थ परिभाषा स्वरुप के विषय पर प्रकाश डाला गया है तथा आदर्शवाद और ‘यथार्थ, कल्पना और ‘यथार्थ, यथार्थ के विविध आयाम और सामाजिक यथार्थ पर प्रकाश डाला गया है।

द्वितीय अध्याय “मृदुला सिन्हा के कहानी संग्रह ‘ढाई बीघा जमीन’ : एक सर्वेक्षण” के अंतर्गत सामाजिक, आर्थिक, राजनितिक, धार्मिक और मनोवैज्ञानिक कहानियों की विस्तृत जानकारी दिया गया है। 

तृतीय अध्याय ‘विवेच्य कहानियों में राजनितिक यथार्थ’ से संबंधित भ्रष्टाचार और रिश्वत खोरी, राजनैतिक घटनाचक्र, जनता और सत्ता का संबंध तथा अन्य संबंधों का वर्णन किया गया है।

चतुर्थ अध्याय ‘विवेच्य कहानी संग्रह में सामाजिक यथार्थ’ के अंतर्गत कहानियों में आए पारिवारिक संबंध, स्त्री-पुरुष संबंधों, संतान की समस्या, संबंधों का टूटना, नारी जीवन का यथार्थ और सामाजिक मूल्यों के यथार्थ का वर्णन किया गया है।   

पंचम अध्याय ‘विवेच्य कहानियों में आर्थिक एवं धार्मिक यथार्थ’ के अंतर्गत आर्थिक विपन्नता, मध्य, निम्न और निम्न मध्य वर्ग, आर्थिक जीवन का यथार्थ, जीविकोपार्जन के साधन, धार्मिक जीवन का यथार्थ आदि वर्गीय व्यवस्था का वर्णन किया गया है।

षष्ठम अध्याय ‘विवेच्य कहानियों का भाषा वैशिष्ट्य’ शब्द सम्पदा, तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी, मुहावरें, कहावतें, लोकोक्तियाँ, उक्तियाँ, विविध शैलियाँ, वर्णनात्मक, विवेचनात्मक, आत्मकथात्मक, संवादात्मक तथा पूर्वदीप्ती शैलियों का वर्णन किया गया है। 

उपसंहार के अंतर्गत संपूर्ण लघु शोध प्रबंध की उपलब्धियों को संग्रह के रूप में प्रस्तुत करते हुए, मृदुला सिन्हा जी की कहानी संग्रह ‘ढाई बीघा जमीन’ में उनके योगदान को रेखांकित किया गया है।

आभार

उच्च शिक्षा और शोध संस्थान दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, हैदराबाद आचार्य एवं अध्यक्ष डॉ. पी. राधिका के प्रति अपना आभार व्यक्त करते हुए मैं गौरवान्वित हूँ।

     प्रस्तुत लघु शोध प्रबंध, संस्थान की प्रवक्ता डॉ. बलविंदर कौर जी के शोध-निर्देशन में संपन्न हुआ। उनकी प्रेरणा, स्नेहपूर्ण व्यवहार एवं प्रोत्साहन के फलस्वरूप मेरे विचार व्यवहार के धरातल पर पहुँच पाए। शोध अवधी के दौरान उन्होंने जो दिशा-निर्देश दिया वे मेरे लिए अमूल्य निधि है। अतः मैं उनके प्रति सदैव आभारी रहूँगी।

     संस्थान के रीडर डॉ विजय हिन्दू राव पाटिल तथा प्रवक्ता डॉ जी. नीरजा एवं डॉ. गोरखनाथ तिवारी जी के प्रति भी आभार व्यक्त करती हूँ, जिनके अमूल्य सुझावों द्वारा प्रत्यक्ष रूप में मुझे महती सहायता प्राप्त हुई।

     संस्थान के ग्रंथपाल संतोष कांबले ने शोध अवधि के दौरान कभी पुस्तकों की कमी नहीं होने दी। अतः मैं उनके प्रति आभारी हूँ। मैं जिन रचनाकारों की समृद्धशाली रचनात्मकता से अपने उद्देश्यों में सफल हुई, उन सभी के प्रति जीवनपर्यंत ऋणी रहूँगी।

          इस अवसर पर मैं अपने जन्मदाता माता-पिता के प्रति हार्दिक आभार प्रकट करते हुए नतमस्तक हूँ। मैं अपने पति के सहयोग, प्रेरणा और मार्गदर्शन का सदैव आभरी हूँ जिन्होंने उम्र के इस पड़ाव में मेरी प्रत्येक जिद्द को निरंतर बर्दास्त किया और कदम-कदम पर मेरा साथ दिया। आपके समर्थन के बगैर यह कार्य बिल्कुल असम्भव था।

दिनांक

स्थान : हैदराबाद                                इन्दु कुमारी   

शिव शंभू की दो लड़कियों की कहानी के माध्यम से लेख क्या कहना चाहता है? - shiv shambhoo kee do ladakiyon kee kahaanee ke maadhyam se lekh kya kahana chaahata hai?
जन्म –  27 नवम्बर 1942 ग्राम-छपरा, जिला-मुजफ्फरपुर, बिहार         
निधन – 18 नवम्बर 2020

अनुक्रमणिका

प्रस्तुति                                            पृ०सं०

प्रथम अध्याय : यथार्थ और सामाजिक यथार्थ : सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य       01-15

  1. यथार्थ : अर्थ, परिभाषा और स्वरूप
    1. आदर्शवाद और  यथार्थ
    1. कल्पना और यथार्थ
    1. यथार्थ के विविध आयाम
    1. सामाजिक यथार्थ

द्वितीय अध्याय: मृदुला सिन्हा के कहानी संग्रह ‘ढाई बीघा जमीन’:

               एक सर्वेक्षण                                    16-71

  • राजनीतिक कहानियाँ
    • सामाजिक समस्या मूलक कहानियाँ
    • आर्थिक समस्या मूलक कहानियाँ
    • धार्मिक कहानियाँ
    • मनोवैज्ञानिक कहानियाँ

तृतीय अध्याय : विवेच्य कहानियों में राजनीतिक यथार्थ               72-82

  • भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी 
    • राजनैतिक घटनाचक्र
    • जनता और सत्ता का सम्बन्ध
    • अन्य

चतुर्थ अध्याय : विवेच्य कहानियों में सामाजिक यथार्थ               83-100

  • पारिवारिक जीवन का यथार्थ
    • स्त्री पुरुष सम्बन्धों में यथार्थ
    • सन्तान की समस्या
    • सम्बन्धों का टूटना
    • नारी जीवन का यथार्थ
    • सामाजिक जीवन मूल्यों का यथार्थ

पंचम अध्याय : विवेच्य कहानियों में आर्थिक एवं धार्मिक यथार्थ      101-111

  • आर्थिक विपन्नता
    • मध्य, निम्न और निम्न मध्यवर्ग 
    • आर्थिक जीवन का यथार्थ
    • जीविकोपार्जन के साधन
    • धार्मिक जीवन का यथार्थ

षष्टम अध्याय : विवेच्य कहानियों का भाषा वैशिष्ट्य               112-137

  • शब्द सम्पदा
    • तत्सम शब्द
    • तद्भव शब्द
    • देशज शब्द
    • विदेशज शब्द
    • मुहावरे
    • कहावतें, लोकोक्तियाँ तथा उक्तियाँ
    • विविध शैलियाँ
    • वर्णनात्मक शैली
    • विवेचनात्मक शैली
    • आत्मकथात्मक शैली
    • संवादात्मक शैली
    • पूर्वदीप्ति शैली

उपसंहार                                                 

परिशिष्ट – I                                              

मृदुला सिन्हा का संक्षिप्त परिचय                            

परिशिष्ट – II                                              

    ग्रन्थ सूची

          आधार ग्रन्थ

          सहायक ग्रन्थ

          कोश

          पत्रिका

प्रथम अध्याय

यथार्थ और सामाजिक यथार्थ : सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य

  1. यथार्थ : अर्थ, परिभाषा और स्वरूप
    1. आदर्शवाद और यथार्थ
    1. कल्पना और यथार्थ
    1. यथार्थ के विविध आयाम
    1. सामाजिक यथार्थ

प्रथम अध्याय

यथार्थ और सामाजिक यथार्थ : सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य

  1. यथार्थ : अर्थ, परिभाषा और स्वरुप

समाज का मूर्त रूप ही साहित्य है और उसका दर्शन यथार्थ है। समाज की बहुरंगी आयाम को समेट कर एक माला में पिरोने के लिए साहित्य की आवश्यकता होती है। उस माला की डोरी ही याथार्थ है। यही कारण है कि साहित्य के निर्माण में समाज का अधिक महत्वपूर्ण स्थान होता है। समाज में घटित होने वाली प्रत्येक घटना साहित्य के माध्यम से ही साकार रूप धारण करती है। समाज में होने वाले प्रत्येक घटनाओं के ‘सत्य’ और ‘असत्य’ रूप को रचनाकार अपनी रचनाओं के द्वारा समाज के सामने रखने का प्रयास करता है। इसलिए साहित्य को समाज का दर्पण भी कहा जाता है।

     ‘सहितस्य भावः साहित्यम’ के अनुसार ‘सहित’ के भाव को साहित्य कहा जाता है। साहित्य में संपूर्ण विद्या, समस्त कला, सम्पूर्ण ज्ञान एवं सम्पूर्ण शास्त्रों का समावेश होता है क्योंकि साहित्य सभी को एक साथ लेकर चलता है। यहाँ साहित्य शब्द विचारणीय है। साहित्य में सम्पूर्ण विधा, समस्त कला सम्पूर्ण ज्ञान एवं सम्पूर्ण शास्त्रों का समावेश होता है क्योंकि साहित्य सभी को अपने साथ लेकर चलता है। इसके अतिरिक्त ‘स-हित’ का अर्थ है, हित सहित अर्थात साहित्य हित को लेकर चलता है और मानव को प्रेम की अपेक्षा श्रेय की ओर अग्रसर करने में अधिक सहायक होता है।”1

“साहित्य नव निर्माण तथा पुनर्गठन दोनों करता है। नियामक और निर्णायक दोनों भूमिकाओं में यह जीता है। इसमें मनोभावों का प्रधान होने से इसका वास्ताविक स्वरुप वैश्विक हो जाता है। यह सही है, साहित्य आदेशात्मक या

  1. डॉ. सीताराम मिश्रा, समाज पर साहित्य का प्रभाव

http://www.isrj.in प्र० स० -2016, पृ०सं०-1

दण्डात्मक भूमिका तो नहीं निर्वाहित करता है, परन्तु इसकी प्रभावात्मक क्षमता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सर्वाधिक प्रबल होती है। मानव मन को यह इस तरह प्रभावित करता है कि वह तत्काल उसके अनुरुप जीवन ढालने को कटिबद्ध हो जाता है। साहित्य की प्रकृति वास्तव में उस समी वृक्ष की भांति होती है, जो

बाहर तो शीतल होती है परन्तु भीतर आग्नेय क्रांति का बड़वानल छिपाये रहती है। इसकी प्रेरणा क्षणिक या सीमित नहीं होकर सार्वभौम और सार्वकालिक होती है।”1

 (क) यथार्थ का अर्थ : यथार्थ का अर्थ होता है ‘सत्य’। यथार्थ दो शब्दों के मिलने से बना है। ‘यथा’ + ‘अर्थ’ यथा का अर्थ होता है ‘जिसका’। इसलिए जिसका जो अर्थ है, जो स्थिति है, जो रूप है और वह जिस दशा में है वही यथार्थ है। तथ्यों का ज्ञान इन्द्रिय जन्य अनुभव है। यह अनुभव और अनुभूति ही यथार्थ है। ‘यथार्थ’ के लिए कोश ग्रंथों में अनेक अर्थ दिए गए हैं। सबका भाव एक ही है। यथार्थ समसामयिक होता है। वह समय के अनुसार बदलता रहता है। यह बदलाव युग और समय पर आधारित होता है। समाज से तात्पर्य जनसमूह से है। जनसमूह से ही जीवन का यथार्थ जुड़ा हुआ होता है। यथार्थ को देखने के लिए जीवन में गहरा अनुभव होना आवश्यक है। यथार्थ का अर्थ है, जीवन को उसकी सम्पूर्णता में वैसे ही देखना जैसा कि वह है। जीवन में जो भी सुंदर या असुंदर है, ग्रहण या त्याग करने योग्य है, वह यथार्थ का अंग है।

नालंदा विशाल सागर में यथार्थ का अर्थ – ‘ठीक है’, ‘उचित’, ‘जैसा है वैसा’ और ‘सत्य’ से लिया गया है।2 यथार्थ एक ऐसी सच्चाई है, जिसे किसी भी युग का साहित्यकार चाहते हुए भी अनदेखा नहीं कर सकता है।

शमशेर बहादुर सिंह ने अमूर्त कला के बारे में अपना विचार देते हुए यथार्थ की व्याख्या की है, जिसे इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है- “सबसे बड़ा यथार्थ वह है, जो हमारे अन्दर है, जिसे शब्दों में नहीं रखा जा सकता है। वह तो शब्दों में आकर कभी-कभी बदल जाता है, गलत हो जाता है और कभी-कभी तो वह अपना

  1. डॉ० कैलास त्रिपाठी, साहित्य और रष्ट्रबोध, पृ०सं०-76
  2. नालन्दा विशाल शब्द सागर, पृ०सं०-1135

मतलब ही खो देता है”। शमशेर बहादुर की परिभाषा से यह बात साफ हो जाती है कि- “यथार्थ आत्माभिव्यक्ति होती है। शब्दों के माध्यम से वास्तविकता का पता ठिक से नहीं चल पाता है”।1

(ख) यथार्थ की परिभाषा : विभिन्न विद्वानों ने यथार्थ को अपने-अपने ढ़ंग से परिभाषित किया है-

डॉ. कालेश्वर के अनुसार- “यथार्थ कोई स्थिर तत्व नहीं है, वह निरंतर गतिमान है और उसके हजार पहलू हैं। जो आदमी को बदलते रहते हैं। विचार, परिवेश, भौतिक आधार और संबंधों का  निरंतर संक्रमण होते रहने की तरल स्थिति ही यथार्थ की स्थिति है”।2

बाबु गुलाब राय के अनुसार – यथार्थ वह है, जो नित्य प्रति हमारे सामने घटता है। उसमें पाप-पुण्य, सुख-दुःख, का मिश्रण रहता है। यह सामान्य भाव भूमि के समतल पर रहकर वर्तमान की वास्तविकता से सीमाबद्ध रहता है। स्वर्ग के स्वर्णिम सपने उसके लिए परी देश की वस्तुएँ हैं, जो उनकी पहुँच से बाहर की है। वह संसार कलुष कालिमा रूपी भव्य आवरण नहीं डालना चाहता है। वह स्वर्ग को भी मिट्टी के कणों से मिश्रित देखना चाहता है”।3

‘बृहद हिन्दी कोश’ के अनुसार- यथार्थ का अर्थ “सत्य, प्राकृत अथवा उचित से लिया गया है”।4

‘विश्व हिन्दी शब्द कोश’ के अनुसार – यथार्थ का अर्थ “सच, वास्तविक और वास्तविकता से है”।5

  1. शोध दिशा – डॉ पूनम शर्मा, सम्पादक डॉ गिरिराज शंकर अग्रवाल, डॉ मीना अग्रवाल, पृ०सं०-89
  2. डॉ कालेश्वर, नई कहानी की भूमिका पृ०सं०-98
  3. डॉ द्वारका प्रसाद मित्तल, हिन्दी साहित्य, पृ०सं०-234
  4. सं कलिका प्रसाद, राज बल्लभ सहाय, मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव, वृहद हिन्दी कोश, पृ०सं०-1114
  5. राकेश नाथ, विश्व हिन्दी शब्द कोश, पृ०सं०-265

फादर कामिल बुल्के के ‘अंग्रेजी-हिंदी’ शब्द-कोश के अनुसार- “यथार्थ: वास्तविकता, असलियत, यथार्थता, सच्चाई, यथार्थवादिता, यथार्थसत्ता, यथार्थतत्व है”। 

डॉ. बैजनाथ सिंहल के शब्दों में- “यथार्थ एक ऐसा भौतिक या व्यावहारिक अनुभव है, जो कल्पना, अनुमान अथवा सिद्धांत से अलग है”। आगे उन्होंने यथार्थ के स्वरुप को और भी स्पष्ट करते हुए लिखा है- “साहित्य में चित्रित वे सभी तथ्य जिसके साथ साहित्यकार की अपनी अनुभूति जुड़ी हो वे यथार्थ कहलाते हैं”।1

प्रसिद्ध भारतीय विद्वान डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त के शब्दों में- जो वस्तु जैसे हो, उसे उसी अर्थ में ग्रहण करना। दर्शन, मनोविज्ञान, सौन्दर्यशास्त्र, कला एवं साहित्य के क्षेत्र में वह विशेष दृष्टिकोण जो सूक्ष्म की अपेक्षा स्थूल को, काल्पनिक की अपेक्षा वास्तविक को, भविष्य की अपेक्षा वर्तमान को, सुन्दर के स्थान पर कुरूप को, आदर्श के स्थान पर यथार्थ को ग्रहण करता है वही यथार्थवादी दृष्टिकोण कहलाता है।2

पाश्चात्य विचारक हावर्ड फास्ट के अनुसार- “यथार्थ रूचि की जगह रूढ़ि, कविता की जगह कुकविता, रचनात्मकता के पूर्ण विकास की जगह कोई लीक नहीं है। यथार्थवाद प्यार, गर्मजोशी, संवेदनशीलता का दुश्मन नहीं इन गुणों का अनुचर है”।3

जय शंकर प्रसाद के अनुसार- “यथार्थ विशेषताओं में प्रधान है लघुता की ओर साहित्यिक दृष्टिपात है। उसमे स्वभावतः दुःख की प्रधानता और वेदना की अनुभूति आवश्यक है। लघुता से मेरा तात्पर्य है, साहित्य के माने हुए सिद्धांत के अनुसार महता के काल्पनिक चित्रण से अतिरिक्त व्यक्तिगत जीवन के दुःख और अभावों का वास्तविक उल्लेख”।4

  1. डा. बैजनाथ सिंहल, शोध : स्वरूप एवं मानक कार्य विधि, पृ०सं०-90
  2. डॉ गणपति चन्द्र गुप्त, साहित्यिक निबन्ध, पृ०सं०-538
  3. साहित्य और यथार्थ – हावर्ड फास्ट, अनु० विजय सुषमा, पृ०सं०-30
  4. जय शंकर प्रसाद, काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध, पृ०सं०-75

डॉ. अजब सिंह के अनुसार- “यथार्थ वस्तु-स्थिति के अनुरूप होता है, जैसी वस्तु है वैसे स्थिति का वर्णन करना, यही यथार्थ है”।1 यथार्थ का संबंध वास्तविकता से है जो वास्तव में समाज में विद्ध्यमान है। यथार्थ केवल प्राणी मात्र का चित्रण नहीं होकर सम्पूर्ण समाज का चित्रण होता है।

(ग) यथार्थ का स्वरुप : यथार्थ का क्षेत्र बहुत ही व्यापक होता है। इसमें सिर्फ प्राणी मात्र का ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण समाज का चित्रण होता है।

डॉ० रामदरश मिश्र के अनुसार– “यथार्थ एक व्यापक और संश्लिष्ट वस्तु है, जिसमे मानव समाज के सामूहिक और व्यक्तिगत, बाहरी और भीतरी परिस्थितिगत और मानसिक अंधकार में और प्रकाश में सभी प्रकार के सत्य, एक दूसरे से मिले जुले होते हैं”।2 यथार्थ का स्वरुप बहुत ही जटिल और परिवर्तनशील होता है। उसे देखने के लिए जीवन में गहरा अध्ययन और अनुभव अपेक्षित होता है। मनुष्य और उसका पूरा समाज यथार्थ के भीतर ही समाया हुआ है। चाहे वह राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक या व्यैक्तिक क्षेत्र ही क्यों न हो? जीवन का हर पहलु जो मनुष्य और समाज से जुड़ा हुआ है वह यथार्थ के अंतर्गत आता है।  

विभन्न मान्यतओं पर विचार करने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि यथार्थ वह अवधारणा है, जिसके अंतर्गत किसी वस्तु, स्थिति, घटना एवं मान्यता को उसके दृश्य रूप के अनुसार ‘जैसे को तैसा’ प्रकट कर दिया जाता है। विभिन्न स्थितियों के मध्य केवल यथास्थिति को ही महत्ता प्रदान की जाती है। जीवन में जो सत्य हम अनुभव करते हैं वास्तव में वही यथार्थ है। यथार्थवादी कलाकार एक प्रकार से मानव और जीवन का अनासक्त और निष्पक्ष फोटोग्राफर होता है। वह कृति को व्यक्तिगत विचारों के प्रचार-प्रसार का साधन नहीं मानता है। उसका प्रयत्न हमेशा ही उन घटनाओं और पात्रों का प्रस्तुतीकरण होता है, जो वास्तविक जगत की प्रतिछाया हो। वह असंभव तथा अद्भूत को प्रकृति विरुद्ध मानकर, उसके

1. डॉ० अजब सिंह, यथार्थवाद पुनर्मूल्यांकन, पृ०सं०-80

2. डॉ० रामदरश मिश्र – सत्यकाम, आलोचनात्मक यथार्थवाद और प्रेमचंद, पृ०सं०-48

चित्र को अनुचित समझकर अपने साहित्य से बहिष्कृत करता है। अतः समग्रता के सार रूप में यह कहा जा सकता है कि सृष्टी प्रत्यक्ष ज्ञान, वस्तु स्थिति, एवं वास्तविकता ही यथार्थ है।

  1. आदर्शवाद और यथार्थ :

आदर्शवाद एक विचारधारा है। आदर्शवाद अंग्रेजी शब्द के आइडियलिज्म का भाषा रुपान्तर है। ‘आइडियलिज्म’ शब्द की व्युत्पति ‘आइडिया’ (Idea) से हुई है, इसप्रकार आदर्शवाद का दूसरा नाम विचारवाद भी हो सकता है। आदर्शवाद एक प्रकार का दार्शनिक अथवा साहित्यिक दृष्टिकोण है। मूलतः आदर्शवाद नैतिक दृष्टिकोण तथा दार्शनिक दृष्टिकोण के लिए प्रयुक्त हुआ है। परन्तु अर्थ विस्तार के कारण सामाजिक तथा राजनीतिक आदर्शवाद की भी चर्चा होने लगी है। पाश्चात्य काव्य शास्त्र में सुकरात का शिष्य प्लेटो को आदर्शवाद का प्रारभिक उन्नायक माना जाता है। प्लेटो ने साहित्य के साथ नैतिकता एवं सदाचार के प्रश्नों को सम्बद्ध किया और काव्य को ‘अनुकरण का अनुकरण’ तथा असत्य पर आधारित सिद्ध करके उसे महत्वहीन घोषित कर दिया। किन्तु विचार अथवा प्रत्यय को ही अत्यन्तिक सत्य घोषित करके प्लेटो ने आदर्शवाद के व्यवस्थित चिंतन का प्रारम्भ किया। सदाचार तथा नैतिकता के साथ साहित्य का अविच्छिन्न सम्बन्ध बतलाकर उसने साहित्य की आदर्शवादी चिंतनधारा का उन्नयन किया। यद्यपि अरस्तु ने प्लेटो का खण्डन करते हुए कहा कि साहित्य, नैतिकता और दर्शन के क्षेत्र से सर्वथा अलग है, किन्तु उसे आदर्शवाद का विरोधी अथवा शुद्ध यथार्थवादी मानना भ्रम है। अनुकरण सिद्धांत का उन्नायक आचार्य आदर्शवाद की परिधि से बहुत दूर नहीं जा सकता है।

जहाँ तक भारतीय साहित्य दर्शन की बात की जाए तो आदर्शवाद इसकी प्रमुख उपलब्धि है। संस्कृत साहित्य में भी यह आदर्शवाद प्रवृति निरंतर विधमान रही है। हिंदी साहित्य का अधिकांश एवं सर्वोतम अंश पूर्णतः आदर्शवादी है। भक्तिकाल में तो आदर्शवादी तत्व अपनी पराकाष्ठ पर था। भक्तिकाल के कवि तुलसी, सूर, कबीर आदि पूर्णतः आदर्शवादी थे। छायावाद तथा सांस्कृतिक कविता भी आदर्शोन्मुख है। उपन्यास के क्षेत्र में ‘उपन्यास सम्राट’ ‘मुन्सी प्रेमचंद’ ने भी आदर्शवाद को महत्व दिया है। यही नहीं आलोचना के क्षेत्र में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी तथा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी भी आदर्शवादी आलोचक ही कहे जायेंगे।

विभिन्न विद्वानों के अनुसार आदर्शवाद की परिभाषाएँ-

प्रेमचंद के अनुसार – “आदर्शवाद  हमें ऐसे चरित्रों से परिचित कराता है जिनके हृदय पवित्र होते हैं, जो स्वार्थ और वासना से रहित होते हैं, जो साधु प्रवृति के होते हैं। यद्यपि ऐसे चरित्र व्यवहार कुशल नहीं होते हैं, उनकी सरलता उन्हें सांसारिक विषयों में धोखा देती है, लेकिन काँइयापन से ऊबे हुए प्राणियों तथा ऐसे सरल और ऐसे व्यावहारिक ज्ञान विहीन चरित्रों के दर्शन से एक विशेष आनंद मिलता है”।1

डॉ० भागीरथ मिश्र के अनुसार : वह धारना जिससे प्रेरित होकर साहित्यकार ऐसे चरित्र अथवा ऐसी परिस्थितियों का चित्रण करता है, जो मानव समाज के लिए अनुकरणीय है, वही साहित्य में आदर्शवाद कहलाती है”।2 

हिन्दी साहित्य के पूर्वमध्यकाल तथा छायावाद युग में आदर्श की विशेष प्रमुखता थी। “आदर्शवाद किसी भी तथ्य या परिस्थिति का मूल्यांकन करने का तरीका है। दृश्यमान जगत में एक अदृश्य चेतना कार्य करती है, उसके अनुरूप हरेक परिस्थिति के विषय में सोचना और निर्णय लेना सहज हो जाता है”। पौराणिक एवं ऐतिहासिक नायकों और नायिकाओं की कहानी आदर्शों की श्रेष्ठता दिखाने के लिए ही रचित थी। मध्ययुग और आधुनिक युग की अधिकांश रचनाओं में यथार्थवाद की प्रवृति दर्शनीय है। हिंदी के सुविख्यात कवि कबीरदास की रचनाएँ यथार्थवाद पर आधारित थीं। उन्होंने तत्कालीन समाज की कुप्रथाओं, अन्धविश्वासों, अनाचारों आदि का यथार्थ चित्रण किया है। वे अपनी रचनाओं द्वारा सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध क्रांति की प्रेरणा देते रहे। आधुनिक काल तक

  1. सुभाषिनी शर्मा, उपन्यासकार, प्रेमचंद, पृ०सं०-69
  2. डॉ० भागीरथ मिश्र, काव्यशास्त्र का इतिहास, पृ०सं०-420

आते-आते पाश्चात्य संस्कृति एवं चिंतन से प्रेरणा पाकर साहित्य क्षेत्र में यथार्थवाद की प्रवृति व्यापक होने लगी।

आदर्शवाद के दो रूप हैं : नैतिक आदर्शवाद और दार्शनिक आदर्शवाद।

नैतिक आदर्शवाद व्यक्ति और समाज को किसी आदर्श के पथ पर ले जाने की प्रवृति का परिणाम नैतिक आदर्शवाद में दर्शनीय है। ‘वाल्मीकि रामायण’ तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ आदि रचनाएँ आदर्शवाद की रचनाओं के अंतर्गत आती हैं।

दार्शनिक आदर्शवाद, दर्शन का विषय है। ईश्वर की सत्ता और चराचरों में अभिव्यक्त उनकी चेतना की व्याख्या दार्शनिक आदर्शवाद में निहित है। छायावादी कविता में पाठक कल्पना से अद्भूत आदर्शीकरण को प्राप्त करता है। सुमित्रानंदन पन्त, जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ और महादेवी वर्मा ने आदर्शवाद को कल्पनानुप्राणित रूप में अपनाया था, इनकी कविताओं में जीवन का दृष्टिकोण आदर्शवादी है। समाज और व्यक्ति की भलाई और प्रगति के लिए आदर्शवाद ही उपयोगी होता है।    

  1. कल्पना और यथार्थ :

कल्पना जीवन को महत्व देने का श्रेष्ठ माध्यम है। रस, माधुर्य, स्नेह और लालित्य ये सभी कल्पना से जुड़े होते हैं। जीवन वर्तमान है, स्मृति अनुभव है और कल्पना व्यक्ति की योजना शक्ति है। व्यावहारिक भाषा में इसे स्वप्न देखना भी कहा जा सकता है।

     जब हमारे सामने कोई उद्दीपन उपस्थित नहीं होता है, तब हम जो कुछ भी विचार अपने मन में उसके प्रति करते हैं, उसे ही हम कल्पना कहते हैं। कल्पना में ही हम पुराने अनुभवों के नींव पर, विचारों के कई नई इमारतें खड़ी कर लेते हैं। कल्पना पूर्व प्रत्यक्षीकृत अनुभवों पर आधारित वह प्रक्रिया है जो रचनात्मक होती है, परन्तु आवश्यक नहीं है कि वह सृजनात्मक भी हो। जब बालक पुनः संस्मरण और कल्पना करना सीख लेता है, तब उसका सामाजिक सम्पर्क अधिक बढ़ने लगता है। इस योग्यता के प्राप्त होते ही बालक उन वस्तुओं के सम्बन्ध में भी विचार करने लग जाता है जो उसके सामने नहीं होती है। कल्पना के द्वारा मानव के मन में अनेक क्रियात्मक कौशल का विकाश होता रहता है।

परिभाषा- रायबर्ण के अनुसार : “कल्पना वह शक्ति है जिसके द्वारा हम अपनी प्रतिभाओं का नये रूप में प्रयोग करते हैं। वह हमें किसी नई वस्तु के निर्माण करने में सहायता प्रदान करती है जो पहले कभी नहीं थी”।1

साहित्य के संदर्भ में यदि विचार किया जाए तो साहित्य में कल्पना के समावेश के पश्चात् भी उसमें वास्तविकता होती है। साहित्यकार केवल कल्पना के बल पर समाज का यथावत चित्रण नहीं करता है, साथ में उसे यथार्थ का स्पर्श भी

करना पड़ता है। इसलिए वह समाज के कटु सत्यों को कल्पना से सजाकर साहित्य में उनका यथार्थ चित्रण करता है। यथार्थ चित्रण एक जटिल कार्य है किसी भी वस्तु का ज्यों का त्यों रूप में चित्र उतारकर रख देना तो सिर्फ कैमरे के द्वारा ही संभव है, परन्तु साहित्यकार अपनी लेखनी के माध्यम से यथार्थ का चित्रण करने का प्रयत्न करता है।

     यथार्थ में कल्पना के मिश्रण को आवश्यक मानते हुए डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त कहते हैं, “कोई भी कलाकार कितना भी यथार्थ वादी क्यों न हो बिना कल्पना के पंखो पर स्वर हुए वह भाव-जगत का भ्रमण नहीं कर सकता है, यथार्थवादी साहित्य में कल्पना का समावेश एक सीमा तक किया जाना चाहिए”। रांगेय राघव भी यथार्थ में कल्पना का समावेश जरुरी मानते हुए लिखते हैं, “साहित्य का सत्य कल्पना को बिल्कुल नहीं छोड़ता है, वह यथार्थ के आधार पर जितना ही दृढ़ होता है, उतना ही गहराइयों तक पहुँचता है”। परन्तु इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि साहित्य में कल्पना का समावेश एक सीमा तक ही होना चाहिए। जब यथार्थ को कल्पना के आवरण से ढक दिया जाता है तब यथार्थ

का रूप भी परिवर्तित हो जाता है और यथार्थ सच्चाई की भूमि पर विचरण करता है। अतः यथार्थ के अंदर युग और समाज का दस्तावेज विधमान होता है। यथार्थ में जहाँ सत्य को चित्रित किया जाता है, वहाँ उसमे कुछ हद तक कल्पना का समावेश भी होना आवश्यक है। कल्पना और सत्य के सुन्दर मेल के द्वारा यथार्थ अधिक प्रभावोत्पादक होगा। अतः समाज के प्रत्येक क्षेत्र में सही या गलत का चित्रण ही यथार्थ  कहलाता है।

1.4. यथार्थ के विविध आयाम :

हिंदी साहित्य के विविध आयाम है- यथार्थ समस्त कला और साहित्य का मूल आधार है, इसके बिना साहित्य की कल्पना करना असंभव है। साहित्य मानव जीवन का दर्पण है या हम यह कह सकते हैं कि साहित्य ही मानव-जीवन का यथार्थ है। यही जीवन का यथार्थ विविध विधाओं के माध्यम से साहित्य में अभिव्यक्त होता है।

(क) सामाजिक आयाम :  साहित्य सदैव सत्य का पक्षपाती रहा है। साहित्य में सत्य को यथार्थ के रूप में स्वीकार किया जाता है। साहित्य तथा यथार्थ दोनों में ही ‘‘कल्पना का सत्य रूप विद्यमान रहता है। परन्तु यह कल्पना कोरी कपोल कल्पना न होकर यथार्थ को सुन्दर से सुन्दरतम् ढंग से प्रस्तुत करने के लिए ताने-बाने के रूप में प्रयुक्त होती है’’। लेखक अपनी रचना में अपने आस-पास के वातावरण को या उस समाज को चित्रित करता है। जिसमें वह अपना जीवन व्यतीत करता है। सामाजिक यथार्थ समाज के वास्तविक अवस्था का यथार्थ चित्रण है। परन्तु साहित्य के अन्दर किसी भी वस्तु का हु-बहु चित्र उतारकर रख देना इतना आसान नहीं होता है, क्योंकि साहित्यिक चित्र कैमरे द्वारा लिया गया चित्र नहीं होता है। वह तो साहित्यकार की कूची के द्वारा लिया गया ऐसा चित्र होता है, जिसके अंतर्गत साहित्यकार के कल्पना और अनुभव का मिश्रण होता है। वस्तुतः सामाजिक यथार्थ, समाज के प्रत्येक आधारभूत इकाई से जुड़ा हुआ है अतः हम कह सकते है कि व्यक्ति, परिवार वर्ग एवं समाज के प्रत्येक पहलू का चित्रण, जिसमे वास्तविकता निहित हो वह सामाजिक यथार्थ कहलाता है। सामाजिक यथार्थ केवल जैसा समाज है, वैसा ही उसका वर्णन मात्र नहीं करता है, बल्कि उसको इस रूप में प्रस्तुत करता है, जिससे पाठक युग के सत्य एवं समाज में होने वाले कार्य-व्यापार के औचित्य तथा अनौचित्य को सरलता से परख सके और उन मर्यादाओं का अनुसरण कर सके जिन पर चलकर एक आदर्श समाज की स्थापना कर सके।

(ख) आर्थिक आयाम : आज के इस भौतिक युग में अर्थ मानव जीवन का मेरुदंड बन गया है। शास्त्रों में भी जीवन को सार्थक बनाने वाले चार पुरुषार्थ में से अर्थ को एक पुरुषार्थ माना गया है। इस युग में हर व्यक्ति आरामदेह और एश्वर्यपूर्ण जीवन जीना चाहता है। ऐसा जीवन जीने के लिए आर्थिक रूप से मजबूत होना अति आवश्यक है। विभिन्न विद्वानों ने इस विषय पर अपना स्पष्ट विचार व्यक्त किया है।

रविन्द्रनाथ मुखर्जीपैसे की परिभाषा देते हुए लिखते हैं- अर्थ: शब्द धन, सम्पति या मुद्रा का पर्यावाची नहीं है, वह तो भौतिक सुखों की सभी आवश्यकताओं का द्योतक है”।1

एम. एन. सेठ के अनुसार- “अर्थ शब्द से केवल भौतिक पदार्थो को ही नहीं लिया जा सकता है, अपितु इसमें ऐसी सेवाएँ भी सम्मिलित हैं जो मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं”।2 अधिक से अधिक धन प्राप्ति करने की होड़ ने समाज में अनेक विसंगतियों को जन्म दिया है। आर्थिक विसंगतियों के कारण ही समाज एवं परिवार का विकेंद्रीकरण हो रहा है। इसके परिणाम स्वरुप विघटन की समस्या उत्पन्न हो रही है। परिवार का हर व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत पूँजी को बढ़ावा देने में है और अन्य पारिवारिक जिम्मेदारियों से वह अलग होता जा रहा है। जिसके फलस्वरूप संयुक्त परिवार टूटता जा रहा है। नई आर्थिक नीति ने जहाँ

बहुत सारे दुष्प्रभाव छोड़े हैं वहीं दूसरी ओर भारतीय अर्थ व्यवस्था को प्रगति प्रदान की है। यांत्रिकता के विकास तथा औधोगिकरण से अनेक विसंगतियों का जन्म हुआ है।

  1. रविन्द्रनाथ मुखर्जी, भारतीय समाज एवं संस्कृति, पृ०सं०-118
  2. एम. एन. सेठ, अर्थ शास्त्र के सिधान्त, पृ०सं०-04

     आधुनिक अर्थव्यवस्था से निम्न वर्ग सबसे अधिक प्रभावित हुआ। बंगलों, कोठियों, महलों में रहने वाले धनी वर्ग छल-कपट, चोर बाजारी एवं रिश्वतखोरी जैसे अनेक अनैतिक कार्य करता है। इस कारण सामान्य व्यक्ति की जीवन पद्धति निरंतर कठोर होती जा रही है। दिन रात जी तोड़कर मेहनत करने के बाद भी वह अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ है। उसके सामने आर्थिक संकट सुरसा के मुँह की तरह बढ़ता ही जा रहा है। वर्तमान आर्थिक व्यवस्था से अमीर व्यक्ति अमीर और गरीब व्यक्ति और भी गरीब होता जा रहा है। इन्हीं आर्थिक विसंगतियों का जब साहित्य में वर्णन किया जाता है तब वह आर्थिक यथार्थ कहलाता हैं। 

(ग) सांस्कृतिक आयाम :  भारतीय संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीन एवं समृद्ध संस्कृति है। अन्य कई देशो की संस्कृतियाँ समय की धारा के साथ नष्ट होती रही है। किन्तु भारत की संस्कृति आदि काल से ही अपने परम्परागत अस्तित्व के साथ अजर-अमर बनी हुई है। संस्कृति शब्द ‘सम्’ उपसर्ग के साथ संस्कृत के ‘कृ’ धातु से बना है, जिसका मूल अर्थ होता है परिष्कृत करना। आज की हिन्दी में यह अंग्रेजी शब्द ‘कल्चर’ का पर्याय माना जाता है। इसके अधार पर संस्कृति शंब्द का अर्थ होगा। सुधारने वाला, सुधार करने वाला या परिष्कार करने वाला। वस्तुतः संस्कार शब्द उन पुण्य, पवित्र, उद्धात विचारों एवं कार्यों का सूचक है, जो जीवन को सद्गति प्रदान कर श्रेष्ठ बनाता है। धीरेन्द्र वर्मा संस्कृति को सामाजिक पटुता का पर्याय मानते हैं”।1

गणपति चन्द्र गुप्ता के अनुसार- “सभ्यता की तरह संस्कृति को भी सुनिश्चित अर्थ नहीं मिल पाया है, फिर भी सभ्यता एवं संस्कृति की सीमा का क्षेत्र निश्चित कर दिया गया है”। सभ्यता का संबंध मनुष्य के व्यवहार से है और संस्कृति का अर्थ मनुष्य की मानसिकता से है”।2 प्रायः सभ्यता एवं संस्कृति को एक मान लिया जाता है। संस्कृति आतंरिक और मानसिक होती है, जबकि सभ्यता बाह्य एवं भौतिक तत्वों से संबंध रखती है। संस्कृति आत्मिक उत्थान का

  1. धीरेन्द्र वर्मा, हिन्दी साहित्य कोश, पृ०सं०-868
  2. गणपति चन्द्र गुप्ता, हिन्दी भाषा एवं साहित्य कोश, पृ०सं०-730

द्योतक है जिसमे धर्म सहायक होता है, लेकिन सभ्यता शारीरिक मनोविकारों की प्रदर्शिका है। अपने व्यापक अर्थ में संस्कृति से अभिप्राय समाज की जीवन पद्धति से है, जिसमे कला, शिल्प, जीवन मूल्य, संस्कार, धर्म, नीति, प्रथाएँ बहुत कुछ समाहित है।

     इस प्रकार संस्कृति एक प्रकार की सामाजिक विरासत है। समाज द्वारा मानव को प्रद्दत एक अनुपम उपहार है। जिससे व्यक्ति अपने जैविकीय तथा सामाजिक दोनों प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। संस्कृति ही मानव को अन्य प्राणियों से अलग करती है और मानव को सृष्टि का सबसे सर्वश्रेष्ठ प्राणी सिद्ध करती है।

(घ) राजनीतिक आयाम : समाज को चलाने के लिए राजनीतिक यथार्थ कि अहम् भूमिका होती है। राजनीति आज वैयक्तिक जीवन का अंग बन गया है। समाज एवं व्यक्ति से संबंधित होने के कारण यह साहित्य को भी प्रभावित करता है। अतः स्वाभाविक है कि साहित्यिक रचनाओं में राजनीति समाहित हो जाती है। साहित्यकार स्वभाव से ही भावुक प्राणी होता है, इसलिए वह राजनीति से आँखें नहीं मूंद सकता है। इसी कारण राजनीति साहित्य में विभिन्न रूपों में प्रतिबिम्बित होता है।

     प्राचीन और आधुनिक राजनीति में बहुत बदलावा आ गया है। प्राचीन राजनीति का अर्थ है राज करने की नीति अथवा पद्धति। आज के समय में आधुनिक राजनीति की परिभाषा एवं अर्थ बदल चुका है। आधुनिक युग में भ्रष्टाचार, धोखाघड़ी, चापलूसी, मारकाट, अन्याय, व्यक्ति का नैतिक एवं चारित्रिक पतन आधुनिक राजनीति के पर्याय बन चूके है। पूरी राजनीतिक व्यवस्था भ्रष्टाचार में लिप्त है। आधुनिक राजनीति को जुआ मानते हुए राधाकृष्णन ने लिखा है, “स्वातंत्र्योतर राजनीति समूह मनोविज्ञान का जुआ बन कर रह गया है।”1 राजनीति के बिना राष्ट्र का संगठित रहना संदिग्ध है। अतः राजनीति समाज तथा राष्ट्र दोनों के लिए महत्वपूर्ण होती है।

  1. राधाकृष्णन सत्य की ओर, पृ०सं०-22

परशुराम शुक्ल ‘विरही’ के अनुसार- “भारत में राजनीतिक चेतना सांस्कृतिक चेतना की अनुगामिनी होकर आई है”।1 राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद, विवेकानंद आदि जो हिन्दू नव उत्थान के नेता हुए उनके विचारों के प्रभाव स्वरुप समाज में अपने धर्म और संस्कृति के प्रति आस्था उत्पन्न हुई। राजनीति के कारण ही एक दूसरे के प्रति अविश्वास की भावना प्रबल हो गई है। राजनेता अपने निजी स्वार्थ के लिए जनता के हितों को ताक पर  रख देते हैं, जिसके  फलस्वरूप  जनता इन

नेताओं को संदेह की दृष्टी से देखती है। साहित्याकार राजनितिक बुराइयों को अपने साहित्य के माध्यम से समाज के समक्ष प्रकट करते हैं। राजनीतिक गतिविधियों का यथार्थ चित्रण ही राजनितिक यथार्थ कहलाता है। व्यक्ति और समाज की स्थिति अधिकतर राजनेता के अनुरूप निर्धारित होती है। राजनीति को सामाजिक संदर्भो की अपेक्षा युगीन परिस्थितियों के पक्ष में समझने से ही समाज की सही अभिव्यक्ति हो सकती है।

(ङ) मनोवैज्ञानिक आयाम : साहित्य मानव मनोभावों और मनोवेगों की समष्टि अभिव्यक्ति है सुख और दुःख शाश्वत मनोभाव हैं रीति, हास, विस्मय, उत्साह, भय, क्रोध, शोक आदि मनोवेग हैं। इनमे से कुछ सुखांत और कुछ दुखांत हैं। मानव में भाव विचार और कल्पनाएँ उद्वेलक उत्पन्न करती हैं, इसलिए साहित्य में भाव सर्वोपरि है। आधुनिक मनोविज्ञान इन्हीं भावों और मनोभावों का विवेचन प्रस्तुत करता है और इनकी वैज्ञानिक व्याख्या करता है। वस्तुतः साहित्य और मनोविज्ञान मानव-जीवन के दो विवेचन है। इसलिए साहित्य मनोविज्ञान से प्रभावित होता है और मोविज्ञान साहित्य से। वैदिक साहित्य में अन्तर्निहित कथोपकथनों से लेकर स्वतंत्रता से पूर्व तक के नाटकों में किसी न किसी रूप में मनोवैज्ञानिक उत्पतियाँ अवश्य विद्यमान है। प्रसाद कालीन समस्या नाटकों में मनोविज्ञान का प्रत्यक्ष प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। लक्ष्मीनारायण मिश्र के नाटक इस दृष्टि से आधुनिक मनोवैज्ञानिक चेतना के उत्कृष्ट उदहारण हैं।

युग के प्रभाव और मनुष्य के बौद्धिक विकास की उपलब्धियों के कारण आगे आने वाले साहित्य पर मनोविज्ञान का प्रभाव क्रमशः बढ़ता ही गया है।

  1. परशुराम शुक्ल ‘विरही’, आधुनिक हिन्दी काव्य और यथार्थवाद, पृ०सं०-118

जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संघर्षरत पिसते हुए मानव की मानसिक ग्रंथियों को सुलझाने का महान प्रयत्न मनोवैज्ञानिक फ्रायड ने किया। फ्रायड के मनोविश्लेषण वाद ने साहित्य के क्षेत्र मे भी युगांतकारी प्रभाव डाला। मनोविज्ञान में मिलने के कारण ही आज का साहित्यकार मनोवैज्ञानिक आपत्तियों की ओर आकर्षित हुआ। इसके फलस्वरूप स्वातंत्र्योतर हिन्दी साहित्य में भी मनोवैज्ञानिक चेतना का महत्व बढ़ता गया।    

  1. सामाजिक यथार्थ :  

सामाजिक यथार्थ से तात्पर्य “समाज से सम्बंधित किसी भी घटनाक्रम को ज्यों का त्यों चित्रण करना ही सामाजिक यथार्थ कहलाता है”। साहित्य से ही हमें तत्कालीन समाज की परिस्थितियों तथा जन-सामान्य के जीवन का परिचय मिलता है। सामाजिक यथार्थ से ही साहित्य में अभिरुचि उत्पन्न होती है। जिसमे सामाजिक जीवन के यथार्थ की तस्वीरों को देख सकते हैं। सामाजिक यथार्थ दार्शनिक दृष्टि से प्रत्यक्ष जगत से बिलकुल अलग है। सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, और ऐतिहासिक परिस्थितियों का संपूर्ण रूप ही समाजिक यथार्थ है। ये शक्तियाँ ही एक साथ मिलकर उस सामाजिक वातावरण का निर्माण करती हैं, जिनसे संस्कारों का निर्माण होता है। सामाजिक यथार्थवादी लेखक साहित्य को सोद्देश्य मानते हैं। साहित्य की सोद्देश्यता का अर्थ है- किसी विशेष अभिप्राय तथा किसी विशेष दृष्टी से साहित्य की रचना करना। यथार्थवादी रचनाकार सामाजिक यथार्थ का चित्रण इस प्रकार करता है कि वह समाज में फैली विभिन्न प्रकार के भ्रष्टाचार, कुरूप सड़ी-गली और विसंगति ग्रस्त शक्तियों का पर्दाफाश हो जाता है। जिससे नई सामाजिक शक्तियों को संघर्ष, जुझारूपन और आस्था को बल मिलने लगता है। सामाजिक यथार्थ परक कहानियों में कथाकारों ने मनुष्य के सामाजिक परिवेश में वास्तविक रूप के चित्रण को ही विशेष महत्व दिया है। सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों के बदलने से समाज के भीतरी संबंध भी बदलने लगते हैं। जब भीतरी संबंध बदलने लगते हैं तब समाज की सभ्यता, संस्कृति, कला, साहित्य आदि में परिवर्तन होना निश्चित हो जाता है। सामाजिक यथार्थवादी कहानिकारों ने इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर समाज के यथार्थ को चित्रित किया है। अतः साहित्यकार को चाहिए कि सामाजिक यथार्थवाद का प्रयोग इस तरह से करे कि वह जनता के हाथों का अस्त्र बन सके।

द्वितीय अध्याय

मृदुला सिन्हा के कहानी संग्रह ‘ढाई बीघा जमीन’: एक सर्वेक्षण

  • राजनीतिक कहानियाँ
    • सामाजिक समस्या मूलक कहानियाँ
    • आर्थिक समस्या मूलक कहानियाँ

2.4 धार्मिक कहानियाँ

2.5 मनोवैज्ञानिक कहानियाँ

द्वितीय अध्याय

मृदुला सिन्हा के कहानी संग्रह ‘ढाई बीघा जमीन’: एक सर्वेक्षण

“हिन्दी कथा साहित्य में नारी एक महत्वपूर्ण पात्र है। जिसे विभिन्न कालों, रूपों एवं आयामों में प्रस्तुत किया गया है। प्रत्येक समय और काल की बदलती परिस्थितियों में उसके व्यक्तित्व के विकास के साथ-साथ चरित्र एवं स्वभाव में भी अंतर आता रहता है। साहित्य के अंतर्गत कथा साहित्य के जन्म लेने के साथ ही नारी के बदलते आयामों का उल्लेख मिलता है”।

श्रीमति मृदुला सिन्हा वर्तमान युग, परिवेश में लोकप्रिय लेखिका के रूप में उभरी हैं। उनकी रचनाओं में मानवीय मूल्यों से युक्त मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति हुई है। उन्होंने अपनी कृतियों में पौराणिक पात्रों को प्रतीकात्मकता के माध्यम से विश्लेषण किया है। उनकी कहानियाँ भारतीय संस्कृति और समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं। उन्होंने वर्तमान समाज की अनेक समस्याओं पर आधारित कहानियां लिखा है। इन्होंने संयुक्त परिवारों में पारिवारिक संबंधों को जोड़ती हुई कहानियों को लिखा है। वे बिहार की भूमि से जुड़े हुए संयुक्त परिवारों के आपसी संबंधों को अपनी कहानियों में चित्रित करती हैं।

लेखिका ने अपनी कहानियों में मानवीय संवेदनाओं का चित्रण गहराई से किया है। सामाजिक मूल्यों को ध्यान में रखकर वे कहानियों के पत्रों को प्रस्तुत करती हैं। उन्होंने अपने विवेच्य कहानियों के माध्यम से समाज को जागरूक और सचेत करने का प्रयास किया है। कहानीकार अपने वर्तमान में जीता है, भूत से लेता है, और भविष्य को देता है।

प्रस्तुत अध्याय में मृदुला सिन्हा की कहानी संग्रह ‘ढाई बीघा जमीन’ का एक सर्वेक्षण किया गया है। इसके अंतर्गत, उनकी विवेच्य कहानियों का वर्गीकरण करते हुए उनको सामाजिक, आर्थिक, राजनितिक आदि आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है। अतः यहाँ विवेच्य कहानियों का संक्षिप्त सारांश कहानी की मूल संवेदना को समझने के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है।

2.1. राजनीतिक कहानियाँ

  • अनावरण
    • डायरी के पन्नों पर
    • पुनर्नवा
    • चार चिड़िया चार रंग
    • अंतिम संकेत

2.1.1 अनावरण (कहानी)

सास बहू की इस कहानी में जहाँ एक ओर बहू के द्वारा सास की महानता का अनावरण किया जाता है, वहीं दूसरी ओर बहू को उसकी मंजिल तक पहुँचाने में सास की भूमिका का भी अनावरण होता है। प्रभाती देवी शादी करके जब अपने ससुराल आई थी, तब वे सिर्फ बी.ए पास थी। उनकी सास पढ़ी-लिखी नहीं थी लेकिन वे चाहती थी कि प्रभाती वकालत पढ़कर वकील बने। घर में उनके पति और ससुर इसके लिए राजी नहीं थे। लेकिन सत्यवती देवी अड़ गई। प्रभाती ने यह कहानी लेखिका को सुनाया कि उनकी सास ने उन्हें अपने बल पर पढ़ाया था।

एक दिन मैं अपनी बेटी के लिए गुड़िया खरीद कर लाई। थोड़ी देर में देखी  कि गुड़िया गायब है। मैंने माँ से पूछा, माजी आपने गुड़िया देखा है क्या? उन्होंने मेरी बेटी को दिखाकर कहा हाँ, यह रही तुम्हारी गुड़िया। मैं बोली, माँ यह गुड़िया नहीं खेलने वाली गुड़िया जो मैं एश्वर्या के खेलने के लिए लाई थी। उन्होंने कहा, मेरी पोती गुड़िया से नहीं खेलेगी। तुम ऐसा खिलौना लाना जिससे वह खेलकर डॉक्टर बन सके। मुझे अपनी पोती को डॉक्टर बनाना है। मैं एक दिन एश्वर्या के लिए डॉक्टर वाला खिलौना लेकर आ गई। मेरी सास उन खिलौनों को देखकर बड़ी खुश हुई। पांच वर्ष होने तक दोनों दादी पोती उसी डॉक्टर के खिलौने वाला उपकरण से खेलते रहे। वे हमेशा खुद मरीज बनती थीं और एश्वर्या को डॉक्टर बनाकर उससे अपना चेकअप करवाती थी। मेरी सास के मृत्यु के पांच वर्ष हो गए हैं। इस वर्ष मेरी बेटी मेडिकल की एंट्रेंस परीक्षा पास कर गई है।

लेखिका ने प्रभाती से पूछा, क्या वे तुमसे घर का काम करवाती थी? प्रभाती ने कहा, नहीं उन्होंने तो मुझे कभी चौका में जाने नहीं दिया। उन्होंने साफ-साफ कह दिया मैं बी.ए पास बहु खाना बनवाने के लिए नहीं लाई हूँ। तुम्हें ऑफिसर या वकील बनना है। उनके मन में वकील का काम सबसे बड़ा और अच्छा लगता था। उन्होंने मुझे एम.ए. करवा दिया और बोली तुम वकालत पढ़ो।

     मैं वकालत पास करके कटक आ गई। वे मेरी दोनों बेटियों की देख-रेख के लिए मेरे साथ ही रहती थीं। एक दिन उन्होंने एक बड़ी बात कही, “प्रभाती मेरा जीवन तो खाना बनाने-खिलाने में बीता। मेरे परिश्रम और मनोयोग से बनाए भोजन की हाँडी पंद्रह मिनट में खाली हो जाती है। पर पढ़े-लिखे लोग जो कुछ भी कागज पर लिख देते हैं, वह मिटता नहीं है। तुम्हारा लिखा हुआ तुम्हारे नाती-पोता, नातिन-नतिनी सभी पढ़ेंगे। हमारा काम अच्छा है, पर तुम्हारा काम हमसे भी अच्छा है।

प्रभाती के पास कमला का केस आया था। उन्होंने प्रभाती को कहा था। प्रभाती तुम दूध का दूध और पानी का पानी करना। जिस दिन मैं कमला के केस के तारीख पर कोर्ट जा रही थी, उस दिन उन्होंने मुझे बाहर आकर कोर्ट के लिए विदा भी किया और कहा, प्रभाती तुम कमला से फीस मत लेना। उस दिन बहस करते समय माँ जी के शब्द मेरे कानों में गूँज रहा था। मैं कमला का पक्ष ठिक से नहीं सुनी थी और मैं कमला का केस हार गई लेकिन हाँ, दीदी इस मामले में मैं केस हार कर भी जीत गई थी। बाद में मुझे बहुत लोगों ने बधाई देते हुए कहा था, “क्योंकि कमला का पति शोषित और प्रताड़ित था। हार के बाद भी बधाइयाँ स्वीकारते हुए मुझे अजीब लग रहा था।

     जब मेरी दूसरी बेटी का जन्म हुआ तब मेरे पति का मन था कि मैं बेटा के लिए एक और चांस लूँ। पर माँ अड़ गई। उन्होंने मेरा ऑपरेशन करवा दिया। वहाँ पर अन्य चार लोगों का भी ऑपरेशन का मन बनवाकर, माँ जी नेता बन गई थी। मेरा राजनीति में आना उन्हें अच्छा नहीं लगा। मैं बोली, माँ जी मैं दोनों काम करुँगी। कुछ समय बाद जब वे बीमार रहने लगीं। एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा, प्रभाती तुम भी लालबत्ती वाली गाड़ी पर बैठोगी? मैंने कहा, हाँ माजी। फिर उन्होंने कहा, ध्यान रखना गाँव के गरीब महिलाओं का मुकदमा लड़ना नहीं छोड़ना। प्रभाती ने लेखिका की ओर देखते हुए कहा, “मेरी सास बहुत बड़ी और महान महिला थी दीदी। यह कहकर उनकी आँखें भर गई थी”। लेखिका ने कहा, कल सायंकाल जिस प्रतिमा का अनावरण हुआ वह तो प्रस्तर थी। अभी चार घंटे में तुमने जिस प्रतिमा का अनावरण किया वह स्वर्गीय सत्यवती देवी की विशाल प्रतिमा तुम्हारे अन्दर हमेशा समाई रहेगी। यही जीवंत प्रतिमा है। उनका अनावरण तो तुम और तुम्हारी बेटियाँ हमेशा करती रहेँगी।

      एश्वर्या कहती है, दादी मेरी आदर्श हैं। तब तक बाहर से कौआ के बोलने की आवाज सुनाई पड़ने लगी। यह भोर होने का संकेत था। भोर होने की अनिभूति होते ही अचानक मेरी हथेलियाँ पसर गई और मेरे मुख से उच्चरित हुआ।

          “कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती;

          करमूले तू गोविन्द, प्रभाते करदर्शनम्:”

2.1.2 डायरी के पन्नों पर

यह कहानी पति-पत्नी के बीच, रिश्तों में आये कड़वाहट, खटास और शंकाओं का समाधान प्रस्तुत करता है। सुवर्णा और सौहार्द के दांपत्य झगड़ों के अनेकों कथा सुनते-गुनते कई वर्ष बीत गए थे। जज साहब भी इस मामले से थक चूके थे। “न्यायधीश मदनमोहन जी वैवाहिक झगड़ों के निपटारे में देरी होने के सख्त खिलाफ थे। यदि दोनों के बीच कुछ विवाद हो गया हो तो तुरंत निबटारा हो जाना चाहिए। बीस तीस वर्ष के बाद फैसला होने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है”। जज साहब के लाख कोशिश करने के बाद भी सुवर्णा और सौहार्द के मामले में देरी हो रही थी। यह विपरीत लिंग की मित्रता थी। सुवर्णा की मित्रता मेधा से और सौहार्द्र की मित्रता शिवालिक से थी। सौहार्द्र का समय शिवालिक के साथ और सुवर्णा मेधा की भी यही स्थिति थी। मेधा की माँ ने उसको हिदायत भी दिया, “मेधा अब तुम सुवर्णा का साथ छोड़ो उसका विवाह हो गया है। उसे सौहार्द के साथ रहने दो”। सुवर्णा को भी कहा था, “बेटी तुम सौहार्द के साथ अधिक समय बिताओ।

     सौहार्द को मनाने में मेधा को और सुवर्णा को मनाने में शिवालिक का अधिक समय लगने लगा। मेधा का बार-बार सौहार्द से मिलना सुवर्णा के लिए ‘अमरबेल पैदा’ कर दिया था। उसी प्रकार सौहार्द के साथ शिवालिक का अधिक मिलना-जुलना शक से इर्ष्या और विश्वास से नफरत तक पहुँच गया था। मेधा और शिवालिक का आपस में इतना अधिक मिलना-जुलना होने लगा जैसे मानो उन्हें ‘लूट में चरखा नफा में मिल’ गया हो। दरअसल शिवालिक और मेधा दोनों मिलकर सौहार्द और सुवर्णा के बीच के दरार को भरने का उपाय बनाते हैं। इसी बीच मेधा और शिवालिक दोनों को एक दूसरे का विचार पसंद आ जाता है। दोनों एक दूसरे से आकर्षित होकर भी अपने भाव को छिपाए रखते हैं। उन दोनों का अभी पूरा ध्यान अपने मित्र के दांपत्य जीवन में सुख-शांति लाना था। उन दोनों में यह संबंध भी अपने मित्रों के मनमुटाव के कारण ही बना था। उन दोनों ने अपने-अपने मित्रों के लिए त्याग करने का मन बनाया है। देखते ही देखते मामला कोर्ट तक पहुँच गया था।

     सुवर्णा ने सौहार्द से अलग रहने के लिए अर्जी दी थी। वह अस्वीकृत हो गई थी। जज साहब ने साफ शब्दों में कहा, “तलाक की अर्जी देने और तलाक की मंजूरी मिलने तक दोनों को यथास्थिति में ही रहना होगा। इसके बाद सौहार्द ने भी छह महिने की लम्बी छुट्टी का अर्जी दिया था। जज साहब ने उसके व्यवस्थापक को पत्र लिखकर आवेदन को अस्वीकृत करवा दिया। अब दोनों एक छत के नीचे रहने के लिए बाध्य थे। सौहार्द हमेशा रसोईघर गन्दा कर देता था। जिसके कारण सुवर्णा को साफ करते-करते हमेशा दफ्तर के लिए लेट हो जाती थी। दफ्तर के सभी महिला सुवर्णा को घूर-घूरकर देखती और कहती यह देर से क्यों आती है। दूसरी ने कहा, “देर से सोती होगी, तीसरी ने कहा, क्यों पति के साथ तो रहती नहीं है, तो सोने में देर क्यों? इस तरह की बातें सुनकर उसे आश्चर्य भी हुआ और दुःख भी क्योंकि हर जगह उसके प्रति सहानुभूति रखने वालों की संख्या कम थी। सुवर्णा की माँ ने कहा, “बेटी तुम सौहार्द को समझने की कोशिश करो। एक हाथ से ताली नहीं बजता है”। सुवर्णा के ससुर ने कहा, “बेटी स्त्री तो धरती होती है”। सुवर्णा सोच रही थी पति-पत्नी एक दूसरे के पूरक होते है, फिर सभी लोग मुझसे ही झुकने और बर्दाश्त करने की अपेक्षा क्यों कर रहे हैं। सुवर्णा की प्रतिक्रिया होती थी, “मानो चूल्हे पर उबलते दूध के पहले उफान में ही किसी ने अम्ल डाल दिया हो”। पिछली सुनवाई के दिन तो जज साहब का मन भी डोल गया था। कुछ लोग बचाव नहीं करते तो कोर्ट में ही दोनों के बीच हाथापाई की नौबत आ जाती। उसी समय कोर्ट की करवाई स्थगित कर जज साहब घर लौट गए।

पहली बार जज साहब की पत्नी सुबह सैर के लिए अकेली चली गई। उन्होंने चाय मंगवाई उसी समय उन्हें उनकी पत्नी की डायरी हाथ लग गई। पत्नी के द्वारा रोज रात में डायरी लिखना जज साहब को पसंद नहीं था। परन्तु पति-पत्नी के बीच कुछ व्यक्तिगत रहने देने के समर्थक थे। उन्होंने जब डायरी के पन्नों को पलटना शुरू किया तो प्रत्येक पन्ने पर उन्हें अपना ही नाम मिला। वे यह देखकर बहत खुश हुए। उन्हें ऐसा लगा, जैसे बाथ टब में नहाते हुए एक प्राचीन दार्शनिक आर्कमिडीज की तरह उन्हें भी उसी स्थान पर ज्ञान मिल गया हो। नाश्ते में ही प्रसन्न होते हुए पत्नी से कहा, “प्रतिभा आज तुम्हारे कारण एक जटिल मामला को सुलझाने का सूत्र मिला है। मुझे लगता है कि अब सुवर्णा और सौहार्द के बीच समझौता ही नहीं स्नेह का भी संचार हो जाएगा”।

      जज साहब तो अपना ‘यूरेका’ लेकर कोर्ट चले गए। जज साहब ने कहा, उनसे पूछिए वे दोनों डायरी लिखते है। तो उन्हें पिछले पाँच वर्षो की डायरियाँ लाने के लिए कहिए। दोनों की डायरियाँ मँगवाई गई। जिस प्रकार चावल के चार दानों को देखकर यह पता चल जाता है कि पूरी हाँडी का चावल पक गया है उसी प्रकार जज साहब को भी उनकी डायरियाँ पढ़ने से बार-बार यूरेका के भाव तैरने लगते थे। दो दिनों के बाद वकील के माध्यम से सौहार्द और सुवर्णा को बुलाकर डायरियाँ दे दी गई। डायरियाँ लेते हुए सुवर्णा बोली, “आपने सौहार्द की डायरी मुझे दे दी है। वकील साहब बोले आपकी डायरी सौहार्द को दी गई है। जज साहब की आज्ञा से। लिखने के लिए नहीं पढ़ने के लिए”। दुखी मन से सुवर्णा सौहार्द की डायरी लेकर घर चली गई। सुबह उठकर दोनों अवश्य टकराए थे। इस भाव से कि दोनों रात भर साथ ही थे। डायरी के पन्नों में मेधा और सौहार्द के वार्तालाप का विषय सुवर्णा ही थी। यह सब पढ़कर उसका सिर चकराने लगा। सौहार्द की भी यही स्थिति थी। सुवर्णा के डायरी में वह एक दिन के लिए भी अनुपस्थित नही था। उसके मित्र शिवालिक ने तो हद कर दी थी। यदि तुम दोनों का मिलन नहीं होगा तो मैं भी आजीवन कुँवारा ही रहूँगा। सौहार्द तुम्हें बहुत चाहता है। इस कथन को सौहार्द डायरी में कई बार पढ़ा। सुबह चाय सौहार्द ने बनाई थी। दो कप, आज बहुत दिनों के बाद सुवर्णा को बनी बनाई चाय मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। सुवर्णा और सौहार्द के बीच दूरी का कारण एक का शाकाहारी और दूसरे का मांसाहारी होना था।

     आज सुवर्णा और सौहार्द के कोर्ट का दिन था। समय से दोनों कोर्ट पहुँच गए। जज साहब ने पुछा, “आप दोनों को कुछ कहना है। सुवर्ण ने कहा जज साहब हमने आपको बहुत परेशान किया। मैंने सौहार्द की डायरियाँ पढ़ ली है। अब मैं अपने दांपत्य जीवन में कोई दरार नहीं चाहती हूँ। यदि सौहार्द को एतराज नहीं हो तो हम साथ रहेंगे। सौहार्द का सर स्वीकृति में हिला था। जज साहब खुश हो गए। मानो उन्हें पच्चीस वर्ष के पेशे में आज पहली बार निर्णय से सुख मिला हो। जज साहब ने कहा, “आप दोनों हमेशा डायरी लिखते रहिए और कभी-कभी दोनों एक दूसरे की डायरी पढ़ते रहिए। चुप-चोरी से ही सही”। वर्षो के बाद दोनों एक साथ हँस पड़े।

2.1.3 पुनर्नवा (कहानी)

अभय सिंह के अवकाश प्राप्ति की खबर सुनकर सुभद्रा के मन में कई प्रश्न उठने लगे। मन बैक गियर में चला गया। वही अभय सिंह मेरा देवर जिसे मैं लंगोट में देखी थी। क्या अभय सिंह इतने बड़े हो गए हैं? सुभद्रा की जब शादी हुई थी तब अभय सिंह दस वर्ष के थे। एक बार तो वे पोखर में नहाकर नंगे ही घर आ गए थे। अभी अभय सिंह को अपनी भाभी से घनिष्टता नहीं हुई थी। सुभद्रा अपने बड़े देवर मदन और ननद सुनीता से घिरी रहती थी। मेरा मन सास की आज्ञा पालन करने के उहापोह में ही था कि अभय चिल्लाया, “गे बुढ़िया मर गेले की….”। यह सुनकर सुभद्रा सहम गई। थोड़ी ही देर में एक महिला रोती हुई अपने बेटे को लेकर पहूंची, उलाहना देते हुए बोली, देखिए मालकिन अभय बाबू मेरे बेटे को मार दिए है। कान से खुन बह रहा था। सुभद्रा और उसकी सास दोनों   भंगरिया के घास का रस खून के जगह पर लगा दिए। दूध में हल्दी डालकर उसे पीने के लिए दिया। अभय सिंह की माँ बोली, “चुप रहो सब ठीक हो जाएगा। वह मुसहरनी महिला बोली, मेरे बेटे की गलती नहीं थी। अभय बाबू की धोती पीपल के पेड़ पर रखी थी। वे नंगे नहा रहे थे। मेरा बेटा जब पेड़ पर चढ़ा तब उनकी धोती पानी में गिरकर भींग गया। अभय बाबू चिल्लाने लगे अब मैं घर कैसे जाऊँगा? मेरी नई भौजी आई है, यही कहकर मारने लगे।

अब सुभद्रा का भी पहला बच्चा छह महीना का हो गया था। अभय सिंह को उससे बहुत लगाव था। अभय सिंह शहर में अपने भाई के पास रहने आ गये थे। शहर के कालेजियट स्कूल में नाम लिखवाया गया था। अट्ठारह वर्ष के उम्र में ही उन्हें सेना में भर्ती होने का भूत सवार हो गया। बिना किसी को बताए वे सेना में भर्ती हो गए। बड़े भईया ने कहा, “इतनी कम उम्र में सेना में जाकर रगड़ा जाएगा”। पिता ने कहा, जाने दो वहाँ जाकर आदमी बन जाएगा

     सुभद्रा अपने पति के साथ अभय सिंह को छोड़ने स्टेशन गई। सुभद्रा के आँखों से आँसू बरस रहे थे। एक वर्ष के बाद अभय सिंह घर आए। अट्ठारह वर्षों तक जो परिवार ने नहीं सिखाया वह बारह महीने में ही फौज की रगड़ाई ने सिखा दिया था। अभय सिंह जब दूसरी बार लौटे तब उनके लिए विवाह के रिश्ते आने लगे थे। माँ-बाबूजी ने अभय का व्याह तय कर दिया। मिथिलेश उनकी पत्नी बनकर घर में आ गई।

      कुछ महीनों के बाद अभय सिंह को एक पुत्री हुई। माँ ने एक दिन बड़े बेटे से पूछा, क्या अभय की फौज की नौकरी छूट नहीं सकती है? “बड़े बेटे ने कहा, माँ मान लो नौकरी छोड़ देगा तो घर में आकर क्या करेगा?

फौज की नौकरी छोड़ने के बाद एक अस्पताल के ऑपरेशन थियेटर में अभय सिंह की नौकरी लग गई थी। वे गरीब तथा असहाय मरीजों का मदद करते थे।

     विजय अभय के बचपन का दोस्त था। आठवीं कक्षा पास करने के बाद अभय सेना में चला गया और विजय कलकाता की एक फैक्टरी में। स्कूल के दिनों दोनों में जानी दुश्मनी थी। उसी बीच विजय की पत्नी की तबियत अचानक ख़राब हो गई। छह महीना का बच्चा उसके पेट में ही मर गया था। विजय अपनी पत्नी को लेकर शहर के अस्पताल में जाने लगा। तब गाँव वालों ने कहा, “अस्पताल में अपने गाँव का अभय सिंह है। उससे मिल लो सब ठीक हो जाएगा। अभय का नाम सुनते ही विजय अन्दर से काँप गया। क्योंकि बचपन में विजय ने जमकर उसकी पिटाई की थी। उसका वह बदला लेने का सोच ही रहा था कि दोनों के पिता ने उन्हें दो शहरों में भेज दिया था। अस्पताल में जाते ही विजय की पत्नी को ऑपरेशन थियेटर में ले जाया गया। एक घंटे तक ऑपरेशन चलता रहा। विजय बाहर बैठकर ईश्वर से प्रार्थना करता रहा कि अभय सिंह अन्दर नहीं हो। ऑपरेशन होने के बाद डॉक्टर के बाहर आने पर विजय ने डॉक्टर का रास्ता रोका। डॉक्टर ने कहा, यह अभय सिंह है। इन्होंने तुम्हारी पत्नी को बचा लिया। तुम इनका धन्यवाद करो। मैं चिकित्सक हूँ यह भगवान है। विजय अभय सिंह के पास ही खड़ा था। अभय सिंह बोले, “विजय भाई बच गई भाभी! आज भाभी को बचाकर मैं धन्य हो गया। विजय के आँखों से आँसू निकलने लगा। उसने सोंचा क्या अभय सिंह का यह नया जन्म है। इतना परिवर्तन की लोहा रुई बन गया।

     मिथिलेश दूसरी बार गर्भवती हुई थी। उसकी सास अभय सिंह को बोली, इसे डिलीवरी के लिए अस्पताल में ले जाओ। अभय सिंह बोले, नहीं माँ गाँव में ही डिलीवरी होगा। “लेकिन सुभद्रा ने अपनी देवरानी को शहर बुला लिया और कहा, डिलीवरी अस्पताल में होगा। सुभद्रा ने नर्स से पूछा क्या हुआ? नर्स ने कहा, बेटी हुई है। यह अभय सिंह की दूसरी बेटी थी। मिथिलेश ने सुभद्रा से कहा, शायद बेटी की खबर सुनकर आपके देवर नहीं आये हैं। असल में उसी दिन मुजफ्फरपुर और नारायण स्टेशन के बीच ट्रेन दुर्घटना हो गई थी। उस समय दुर्घटना में घायल लोगों का जान बचाना अधिक आवश्यक था। थानेदार ने कहा, भाभी यह आपका देवर सिर्फ आप दोनों का भक्त है। “वह कहता है मैंने जो कुछ भी सीखा है सब अपने भैया-भाभी से सीखा है”। अभय सिंह के बेटी की छठी धूमधाम से मनाई गई। उस दिन भी अभय सिंह गायब थे। मिथिलेश ने कहा, दीदी ये अभी तक नहीं आए।

सुभद्रा ने कहा, मिथिलेश तुम बहुत भाग्यशाली हो, “अपने लिए तो सभी जीते हैं, जो दूसरों के लिए जिए वही इंसान है”। बेटी को बड़ी होते कहाँ देर लगता है। बेटी पुष्पम ब्याह योग्य हो गई थी। लड़का ढूँढना था। अस्पताल में काम करने वाले सभी लोगों के पास बंगला, गाड़ी आदि था। लेकिन अभय सिंह के पास सुखी तनख्वाह थी।

     एक दिन अभय सिंह को परेशान देखकर सुभद्रा पूछी, आपके सभी संगी-साथी की अच्छी कमाई है। आपकी क्यों नहीं? उसी दिन पहली बार अभय सिंह ने अपनी भाभी के आँखों में आँखें डालकर कहा, “भाभी ये लोग जो करते हैं मैं वह नहीं कर सकता हूँ। मैं सेना के मेडिकल कोर में रहा हूँ। वहाँ जो घायल सैनिक आते हैं, हम उन घायल सैनिकों को पहले सैल्यूट करते हैं, क्योंकि वह देश के लिए घायल हुआ है। उसकी मृत्यु के बाद भी हम सैल्यूट करते हैं, क्योंकि वह देश के लिए मृत्यु को प्राप्त हुआ है। आप ही बताइए, इन दुर्घटना ग्रस्त लोगों की क्या गलती है। इन बेकसूर घायलों को क्यों लूटना? भाभी, आप मेरी माँ जैसी नहीं मेरी माँ हैं। जीवन में शायद पहली बार अभय सिंह अपनी भाभी सुभद्रा के आँखों में आँखें डालकर बात किया था। यह सब सुनकर सुभद्रा की आँखें पीड़ा से बंद हो गई। अभय सिंह के तीनों बेटियों की ब्याह हो गई। वे अपने-अपने घर में सुखी है।

      दूसरी बार अभय सिंह के अवकाश प्राप्ति की खबर सुनकर सुभद्रा के मन में दूसरा प्रश्न उठा। अब क्या करेंगे अभय सिंह? अभय सिंह बोले, अब गाँव में ही रहूँगा। जिंदगी भर तो हम दोनों पति-पत्नी अलग–अलग रहे। अब एक साथ गाँव में रहेंगे। यह सुनकर सुभद्रा खुश हो गई। अभय सिंह ने भाभी से पूछा, भाभी क्या आप गाँव चलेंगी। यह सुनकर सुभद्रा तुरंत गाँव जाने के लिए तैयार हो गई। गाँव पहुँचते ही अभय सिंह सुभद्रा को छत पर ले जाकर सारा गाँव, बाँध, पोखर, खेत-खलिहान, शौचालय, गैस चूल्हा आदि सब कुछ दिखाया। ऐसा लगा मानों चालीस वर्ष के पुरानें घर को अभय सिंह ने जीर्णोद्धार कर दिया है। मिथिलेश लिपे-पुते चूल्हे पर चाय बनाकर ले आई। पत्नी चालीस वर्ष पुरानी हैं। पर सुभद्रा को उसके हाव-भाव से ऐसा लग रहा था, मानो दोनों कल के ब्याहे दूल्हा-दुल्हन हों।

     आज सुभद्रा जल्दी जग गई थी। उसने सब कुछ इधर-उधर घूम-घूमकर देखा। अधिकांश लोग स्वर्ग सिधार गए थे। उसे लग रहा था कि मानो उसकी तीनों सास उसे घेर कर खड़ी हो और दरवाजे पर ससुर जी। अभय सिंह अपने भाभी को बारी (बागीचे) में ले गए। सुभद्रा अरबी के पत्ते काटने लगी। तभी अभय सिंह बोले, “देखिए भाभी गजपुरैना (पुनर्नवा) का साग बाबूजी लगाये थे। यह उनके बबासीर की दवा थी। बाबूजी इसका संस्कृत नाम पुनर्नवा कहते थे। सुभद्रा बुदबुदाई, “मेरी नजरों के सामने पुनर्नवा ही है। जीवन तो उसमे भी है”।

2.1.4 चार चिड़िया चार रंग (कहानी)

“चार चिड़िया चार रंग, चारों बदरंग।

पिंजरे में रख दिया, चारो एक रंग”।।

घनश्याम के चाचा अपने चारों भतीजों को चार चिड़िया कहकर हमेशा चिढ़ाते रहते थे। घनश्याम अपने चाचा से कहता था, हम तो आदमी हैं। हमारे पास पंख नहीं है और ना ही हम उड़ सकते हैं। चाचा को भी भतीजों को चिढ़ाना अच्छा लगता था। असल में रोज रात में खाना खाने से पहले घनश्याम को नींद आने लगती थी। दादी खाना बनाती हुई चिल्लाने लगती। राघव बच्चों को किस्सा सुनकर जगाए रखना। राघवेन्द्र अपने भतीजों को किस्सा सुनकर जागए रखता था। घनश्याम को किस्से से अधिक बुझौवल बुझाना अच्छा लगता था। राघवेन्द्र बोला आज मैं तुम सबको एक नया बुझौअल पूछता हूँ, तुम सब बुझो। “एक चिड़िया झट उसकी टांग दूनू पट उसकी चमड़ी उधेड़, उसका मास मजेदार”। इस बुझौअल को सुनते ही तीनों बच्चे एक साथ बोल पड़े ‘गन्ना’।

     समय बिना ‘रस्सा और ईंधन’ के ही तेजी से खिसकता गया। अब चारों बच्चे बड़े हो गए। राघवेन्द्र नौकरी करने लगा। उसका विवाह हो गया और दो बच्चे भी हो गए। धीरे-धीरे इन चारों भाइयों के लक्षण और कर्म का पता लगने लगा था। घनश्याम पढ़ने-लिखने में तेज और मेहनती था। इसलिए राघवेन्द्र ने उसे अपने पास दिल्ली बुला लिया। घनश्याम आई.ए.एस. की परीक्षा में उतीर्ण हो गया था। राघवेन्द्र ने कहा, “आज हमारे परिवार का कद बहुत ऊँचा उठ गया है। तुम तीनों भी ऐसे ही मेहनत करके बड़ा आदमी बन जाओ। दूसरे वाले ने भी कई प्रतियोगिताओं में अपना किस्मत आजमाया। अंत में उसे एक प्राइवेट कम्पनी में नौकरी मिली। तीसरे नम्बर वाले भतीजे को पढ़ाई-लिखाई में मन ही नहीं लगता था। वह बारहवीं के बाद पढ़ने के लिए राजी नहीं था। राघवेन्द्र ने उसे अपने दफ्तर में ही चपरासी के पद पर आसीन करवा दिया। उस दिन जब राघवेन्द्र घर लौट कर आया तब वह बहुत दुखी था। पत्नी ने पूछा, दफ्तर का झंझट दफ्तर में ही छोड़कर आया कीजिए। घर घर होता है, और दफ्तर दफ्तर होता है। राघवेन्द्र ने कहा, नहीं ममता मैं दफ्तर का झंझट उठाकर नहीं लाया हूँ, बल्कि घर को दफ्तर में बैठाकर आया हूँ। इसलिए परेशान हूँ। पत्नी ने कहा, क्या मतलब है तुम्हारा? मतलब यह है कि मैंने शिवा को अपने दफ्तर में चपरासी का नौकरी लगवा दिया है। मैं अपने ही भाई से चाय, पानी फाइलें आदि कैसे मँगवाता रहूँगा? ममता बोली, उसे श्रीवास्तव जी के साथ रखवा दो या तबादला करवा दो। मुजफ्फरपुर में भी तो तुम्हारा दफ्तर है। उसे वही तबादला करवा दो। भईया-भाभी का देख-रेख और नौकरी दोनों करेगा।

     एक दिन बड़े भईया ने राघवेन्द्र को पत्र लिखा- “राघवेन्द्र तुम्हारे सहयोग से तीनों बच्चे रोटी कमा रहे हैं। परन्तु बुढ़ापे में दुःख देने के लिए मनु ही काफी है। वह तो आजकल शहर के छुटभैया नेताओं के संगति में उठता-बैठता है। आए दिन धरना प्रदर्शन में जेल जाता है। तुम उसे अपने पास बुला लो। एम.ए में फर्स्ट क्लास फर्स्ट आया हुआ लड़का गुमराह हो गया है। अब राघवेन्द्र के भी दोनों बच्चें बड़े हो गए थे। पढ़ने-लिखने में दोनों अच्छे थे। वह स्वयं नहीं चाहता था कि मनु को अपने घर में रखे। राघवेंद्र के भैया ने पत्र का इंतजार भी नहीं किया और मनु को लेकर सीधे दिल्ली पहूँच गए।

     मनु को देखकर मानो घर में मातम छा गया हो। ममता खाना परोसते हुए पूछ बैठी, “भाई साहब आखिर मनु ने ऐसा क्या कर दिया है? कि आप लोग मातम मना रहे हैं। दिल्ली आकर भी मनु के पाँव रुके नहीं। एक दिन वह किसी पार्टी के लिए धरना करते हुए अपने साथियों के साथ गिफ्तार हो गया। “बिल्ली के भाग से छीका टूटा” मनु के गतिविधियों को देखकर राघवेन्द्र उसे घर से निकालने ही वाले थे कि मनु जेल चला गया। राघवेन्द्र सरकारी नौकरी करते थे। मनु विरोधी पार्टी में सक्रिय नेता था। मनु के जेल जाने की खबर ने पिताजी की जान ले ली। मनु को उसके पिताजी के मृत्यु की खबर नहीं दी गई थी। मनु जेल के अन्दर ही आन्दोलनकारी कैदियों का नेता बन गया। बाहर के सत्याग्रह की डोर भी उसी के हाथ में थी।

मनु को जेल गए दस महीने हो गए थे। घनश्याम अपने एक मित्र के जरिये मनु का जेल में पता लगवाया, लेकिन उसका कोई पता नहीं चला। घर वाले सोचने लगे, क्या पता उसने अपना नाम गलत लिखवाया हो? स्थितियाँ बदल गई। आपतकाल का आतंक हट गया। चुनाव की घोषणा, चुनाव प्रचार प्रारम्भ होने से पहले ही स्थति स्पष्ट हो गई। अब जनता के ‘पाले में गेंद’ थी। मनु का कोई भी खबर नहीं मिल रहा था। वे सोच रहे थे, कहीं मनु आपातकालीन हबशियों का शिकार तो नहीं हो गया? जेल से छूटे लोगों की सूचि में ममता मनु का नाम ढूँढती रही। मनु का नाम कहीं नहीं था।

     उसी समय एक चपरासी आकर बोला, “मैडम जी कोई नेताजी आपसे मिलना चाहते हैं। दरवाजा खोलते ही सामने मनु को देख ममता को पहचानते देर नहीं लगी। मनु भाभी का पाँव छूकर आशिर्वाद माँगते हुए कहा, “भाभी आप मुझे आशिर्वाद दीजिये, मैं चुनाव लड़ने जा रहा हूँ। मनु ने भाभी से पूछा, माँ-बाबूजी यहाँ हैं क्या?” ममता ने मनु से कहा, “माँ-बाबूजी यहाँ नहीं हैं। मनु बोला, कोई बात नहीं भाभी, नीचे भीड़ में भुनेश्वर तिवारी जिन्दाबाद का नारा लग रहा था। ममता ने तुरंत दूरभाष से अपने पति को बताया कि, “अपना मनु आया था। अभी-अभी वह मुझसे आशिर्वाद लेकर गया। मनु अब एम.पी. बनेगा। देखिए! मेरा मनु कितना बड़ा बन गया है। काश! आज पिताजी होते! तो बहुत खुश होते। उन्हें मनु के लिए जितना अधिक चिंता थी, वह सब प्रसन्नता में बदल जाता। ममता तुरंत अपने पति को उलाहना देते हुए बोली, “हूँह! तुम लोगों ने तो मनु को आवारा ही समझा था”।

2.1.5 अंतिम संकेत (कहानी)

मालती अस्पताल में अपनी बेटी के मृत शरीर को छाती से लगाकर रो रही थी। इन लोगों ने मेरी बेटी को मार दिया। मालती के करुणा भरी रुदन से लोगों का मन द्रवित हो रहा था। पिछले पच्चीस वर्षों में यहाँ अनेकों मौतें हो चूकी थी। इस अस्पताल के ईंटों की नमी भी समाप्त हो गई थी। ठिक दो वर्ष पहले अनमोल और निहारिका प्रणय सूत्र में बंधे थे।

     एक दिन उसकी होने वाली सास ने अनमोल की माँ से पूछा, बहनजी क्या बात है? आपका बेटा विवाह के मामला में इतना उदास क्यों है? कोई दूसरी लड़की को तो नहीं पसंद करता है। अनमोल की माँ ने कहा, “नहीं ऐसी बात नहीं है। विवाह के अवसर पर ससुराल से मिलने वाले उपहार को भी उसने स्वीकार नहीं किया। यह सब देखकर मालती ने अपने पति से कहा, “अब भी सोच लो मुझे तो ‘दाल में कुछ काला’ लग रहा है। दीनदयाल जी तो अपने पत्नी के अन्दर पनप रहे शक के अस्तित्व को मिटाने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने पत्नी से कहा, तुम शुभ-शुभ बोलो यह लड़का हमारे बिटिया का भाग्य है। इस जमाने में इतना होनहार लड़का, सम्पन्न, प्रतिष्ठित घर-परिवार, दहेज की कोई मांग नहीं। कहाँ मिलेगा? सुनने वालों को तो विश्वास ही नहीं होता है। दीनदयाल जी के लाख समझाने के बावजूद भी मालती का मन आशंकित ही रहा। सुहागरात बिताकर निहारिका अभी उठी भी नहीं थी, कि उसकी माँ का फोन आ गया। फोन अनमोल ने उठाया, हैलो, मालती ने पूछा, निहारिका कैसी है? अनमोल बिना कुछ जबाब दिए नींद में पड़ी निहारिका के कान पर रिसीवर रख दिया। माँ की आवाज पहचानकर निहारिका बोली, हाँ माँ मैं ठिक हूँ, बाद में बात करुँगी।  

निहारिका के शादी के बीस दिन बीत चूके थे। निहारिका अनमोल का हनीमून बीत गया था। अनमोल ने कहा’ आज से मैं ऑफिस चला। अब तुम दिन भर अपनी माता जी से बातें करते रहो। सास ने निहारिका से कहा, तुम थोड़े दिनों के बाद काम पर जाने लगोगी तब बातचीत नहीं हो पाएगी। दो-दो बहुओं के होते हुए मुझे अकेले ही दोपहर का समय काटना पड़ेगा।

     निहारिका के मायके से बुलावा आ गया। किसी भी सदस्य को विदा करने का मन नहीं था। लेकिन रस्म को निभाना पड़ता है। निहारिका के माता-पिता का अभी अपनी बेटी से बात करके मन भी नहीं भरा था। अनमोल निहारिका को लेने पहुँच गया। निहारिका की माँ दामाद को मना कर देती, लेकिन निहारिका ने ही कह दिया, मम्मी अभी मुझे जाने दो। माँ जी बीमार है। मैं फिर जल्दी ही आपसे मिलने आऊँगी। बेटी ससुराल जाने से मना करती तो मालती दामाद से शिकायत भी करती। मालती की चार-चार ननदें थी। चारों ससुराल में सुखी थी। लेकिन मायका आने के लिए वे सब बेहाल रहती थी। और आते ही ससुराल वालों की पिटारा खोल देती थी। मालती को सुनने में रस मिलता था। पर बेटी तो कुछ बोलती ही नही थी। इसलिए मालती अधिक परेशान रहती थी।

     निहारिका को दुबारा ससुराल गए दस दिन ही हुए थे। वे दीनानाथ जी को कहने लगी। आप जाकर निहारिका को ले आइए। दीनानाथ जी ने मालती से कहा, “तुम उसकी चिंता करना छोड़ दो। मैं कहता हूँ निहारिका अपने ससुराल में खुश है। तुम उसे वहाँ जमने दो। दूध में जामन डालकर बार-बार हिलाया नहीं जाता है, ऐसे में दही नहीं जमता है। बेटी को भी बार-बार हिलाते रहोगी तो जमेगी कैसे”?

एक दिन माँ ने साफ शब्दों में पूछा, निहारिका तुम मुझसे कुछ छिपा रही हो क्या? निहारिका ने कहा, “माँ खाना लगाने जा रही हूँ। बाद में बात करुँगी”। निहारिका के विवाह के अब दो वर्ष बीत चूके थे। एक दिन निहारिका ने अपनी माँ से दूरभाष पर कहा, “माँ मुझे आपसे ढेर सारी बातें करनी है। अनमोल दो सप्ताह के लिए बाहर जाने वाले हैं। मैं आपके पास आऊँगी कल आऊँगी।

     वह कल तो आया, पर निहारिका नहीं आई। जली हुई अवस्था में उसके अस्पताल पहुँचने की खबर आई। यह खबर सुनते ही मालती रोती-चिल्लाती अस्पताल पहुंची। दो वर्ष पहले उसके मन में उपजा हुआ ‘डर का घड़ा फूट’ गया। कार्तिक अमावस्या के उस काली रात में सम्पूर्ण शहर जगमगा रहा था और निहारिका मृत्यु से लड़ रही थी। सिर्फ माँ को ही पहचानने की शक्ति थी। मालती ने पूछा, “तुम्हारी ऐसी हालत किसने बनाई? मैं किसी को भी नहीं छोडूंगी। माँ के बार-बार धमकी देने पर निहारिका ने दिवार से चिपके हुए खड़ा अनमोल की ओर ऊँगली उठाई। उसकी आँखें नाच रही थी। लेकिन निहारिका के आँखों के भाव को मालती पढ़ नहीं सकी। ‘हाथ कंगन को आरसी क्या? निहारिका के अंतिम संकेत को डाइंग की डिक्लरेशन मान लिया गया। अनमोल के भी दोनों हाथ और पेट जल गया था। अनमोल को हिरासत में भेज दिया गया। पुलिस ऑफिसर ने मालती से पूछा, “क्या दहेज की मांग ससुराल वालों के तरफ से की जाती थी। मालती ने कहा, दो वर्षो से मेरी बेटी को इनलोगों ने जकड़कर रखा था। माँगते तो हम अपना सर्वस्व बेचकर दे देते”। अब तो दीनानाथ जी ने भी मालती के बातों को विश्वास कर लिया। अनमोल ने अपनी बचाव के लिए कोई भी करवाई नहीं किया। पुलिस के द्वारा निहारिका का सारा समान किताब कॉपी भी मालती के घर पहुँचा दिया गया।

     एक दिन मालती निहारिका के सामान को उलट-पुलट रही थी। उसमे उसे निहारिका की दो डायरी मिली। मालती डायरी के पन्नों को उलटने-पुलटने लगी। मालती ज्यों-ज्यों पन्ने पलटती गई, उसका शक गहराता गया। कहीं किसी और की तो डायरी नहीं है। निहारिका तो बहुत नादान थी। ससुराल की दहलीज पर पहुँच कर इतनी परिपक्व कैसे हो गई? छोटी सी बच्ची के नन्हे से व्यक्तित्व ने पराए घर जाकर इतना विस्तार कैसे ले लिया? माँ तो बेटी ब्याह कर छोटी हो गई। बेटी के आगे मेरा व्यक्तित्व बौना पड़ गया। डायरी का अंतिम पन्ना पढ़ते हुए मालती रुक गई। रात्रि के सात घंटे बिताकर, मालती ने जो जीवन चरित्र पढ़ा था। वह उसकी कोख से जन्मी, लाड़ से पली, बड़ी हुई बेटी का तो नही था। अंतिम पन्ने पर उसने लिखा था- “अपने नये जीवन में पहली बार मैं अनमोल से अलग होने जा रही हूँ। अनमोल दो सप्ताह के लिए बाहर जा रहे हैं। ये पन्द्रह दिन कैसे काटेंगे? यह सोचकर घबरा जाती हूँ। पहले चाय बना लेती हूँ, फिर उन्हें जगाऊँगी। वीजा के लिए दिनभर भागा दौड़ी से थक चूके थे। आज का यह बाकी पन्ना उन्हें एयरपोर्ट छोड़कर आने के बाद भरुंगी। बेटी के इस डायरी के पन्ना को पढ़ते ही, वह दफ्तर खुलने का राह ताकने लगी। माँ आप अपने दामाद को बचा लेना। निश्चय ही निहारिका अंतिम समय में यही कह रही होगी। इनका दोष नहीं है माँ! इन्हें संभालना ये मेरे बिना नहीं रह सकेंगे। बेटी के दुःख से मालती तीन महिना बाद डायरी को पढ़ पाई थी। मालती भागकर पुलिस थाने गई। उसने निहारिका की डायरी पुलिस को दिखाई। चार-पाँच दिनों के भाग-दौड़ के बाद मालती अनमोल और उसके परिवार के सभी सदस्यों को छुडा लाई। मालती ने अपने दामाद और पुरे परिवार से क्षमा मांगी। अनमोल तटस्थ भाव से बोला, अच्छा हुआ मैं अस्पताल से घर लौट कर नहीं आया दूसरा ससुराल (जेल) चला गया। मालती बोली ऐसा नहीं कहो बेटा, मेरा घर भी अब तुम्हारा घर ही है। निहारिका ने मुझे इशारों से कहा था तुम मेरे दामाद नहीं बेटे हो। उसकी आत्मा के शांति के लिए तुम यह बदला हुआ रिश्ता स्वीकार कर लो।

     अनमोल की माँ ने कहा, “बहनजी आपने मुझे लक्ष्मी दी थी। यह हम दोनों के भाग्य का दोष है। आपकी बेटी ने हम दोनों परिवार को जोड़ा था। हम दोनों परिवार की दिवाली तो आज है। उसी समय दीनानाथ जी अपनी पत्नी को ढूंढते हुए वहाँ पहुँचे। वहाँ की दृश्य देखकर बातें स्पष्ट हो गई थी। क्योंकि अब अंतिम संकेत का अर्थ बदल गया था।

  • सामाजिक समस्या मूलक कहानियाँ ढाई बीघा जमीनअक्षराऔलाद के निकाह परहार गया सत्यवानचिठ्ठी की छुअन

2.2.1 ‘ढाई बीघा जमीन’ (कहानी)

‘ढाई बीघा जमीन’ कहानी परंपरागत बनाम आधुनिकता की कहानी है। भारतीय समाज में यह परंपरा व्याप्त थी। लड़की की शादी के लिए लड़के के पैतृक सम्पति देखा जाता था। आज आधुनिक युग में लड़के के पैतृक सम्पति की जगह उसकी नौकरी और आमदनी को प्रमुखता दिया जाता है। इस कहानी में सुभद्रा के पिता रामबाबू (मास्टर साहब) अपनी बेटी सुभद्रा के लिए लड़का देखने जाते है। उनके दो साथियों के साथ परम मित्र चूड़ामणि भी जाते हैं। वे लड़का देखने के लिए रामचरण के घर जाते हैं। रामचरण को तीन बेटे हैं और उनके पास जमीन सिर्फ साढ़े सात बीघा ही है। ऐसे में सुभद्रा के पिता सोचते हैं कि बेटा तीन और जमीन केवल साढ़े सात बीघा ही है। मन ही मन उन्होंने सोचा तीनों बेटों को जमीन का कितना हिस्सा मिलेगा शायद ढाई बीघा एक के हिस्से में आएगा।

रामबाबू को लड़का पसंद था। लड़का देखने में सुन्दर और रेलवे में किरानी (कलर्क) था। रामबाबू को सिर्फ इसी बात का डर था कि चूड़ामणि इस संबंध का प्रचार पूरे समाज में न कर दें। ऐसे में रामबाबू ने चूड़ामणि को समझाया कि जमीन की औकात तब देखी जाती है “जब जीविका का माध्यम सिर्फ जमीन हो”। लड़का तो नौकरी करता है। जमीन चाहे ढाई बीघा हो या सौ बीघा। चूड़ामणि ने मास्टर साहब से कहा,“मास्टर साहब बूरे दिन में जमीन ही रखवाला होता है”। मास्टर साहब को एक ही बात की चिंता थी कि चूड़ामणि गाँव में यह बात फैला देगा कि लड़के के हिस्से में सिर्फ ढाई बीघा ही जमीन पड़ेगा।

शादी व्याह होने के बाद रामबाबू ने अपने रिश्तेदारों से पूछा लड़का पसंद आया? सबने कहा सकल सूरत अच्छी है। पर हिस्से में सिर्फ ढाई बीघा ही जमीन है। आखिर में चूड़ामणि जी ने अपना काम कर ही दिया। विवाह के बाद बेटी दामाद बाहर रहते थे। रामबाबू कभी-कभी अपनी बेटी दामाद के यहाँ चले जाते थे। सुभद्रा ने अपने पिता को कभी भी ढाई बिघा जमीन की उलाहना नहीं दी।

सुभद्रा के शादी हुए लगभग बीस वर्ष हो चूके थे। पिता के मन में आशंका था कि जब बेटी को इस बात का पता चलेगा कि उसके पिता ने उसकी शादी ढाई बिघा जमीन वाले लड़के के साथ किए हैं। तब वे अपनी बेटी को क्या जबाब देंगे।

एक दिन सुभद्रा की पड़ोस की एक सास ने कहा, “किशोर नौकरी क्या करने लगा है, तुम लोगों को तो अपनी खानदानी जमीन की चिंता ही नहीं है। इन दोनों भाइयों ने तो बैशाख में एक बीघा जमीन भी बेच दिया है और तुम्हारे हिस्से का रुपया भी नहीं दिया है। इस बात को सुनकर सुभद्रा के मन में अपने पति के जमीन का लालच और भी फूट पड़ा”। पड़ोसन सास ने गरम लोहे पर हथौड़ा मार दिया। दूसरे चोट से उसने एक और घाव कर दिया कि किशोर के हिस्से में सिर्फ ढाई बीघा ही जमीन पड़ेगी

सुभद्रा ने किशोर से कहा, तुम सीतामढ़ी स्टेशन पर अपनी तबादला करवा लो। गाँव पास हो जायेगा। खेती भी करवा लिया करेंगे। सुभद्रा को तो अपने पिता से लड़ने का भूत सवार था। अचानक पिता के बीमार होने की खबर सुनकर सुभद्रा को गाँव जाना पड़ा। सुभद्रा को अपने पिता से शिकायत करने का भी मन था। पिता भी ढाई बीघा जमीन वाली बात सुभद्रा को बताना चाहते थे। वे सुभद्रा को एकांत में बुलाकर बोले, “सुभी मेरे मन पर एक बोझ है, जिसे मैं अब तक नहीं बता सका हूँ। मैंने बहुत सोचा मुझे ऐसे लड़के से तुम्हारा विवाह नहीं करना चाहिए था, जिसके हिस्से में केवल ढाई बीघा….? इस बात को कहते ही उन्हें खासी का दौड़ा चढ़ गया। स्थिति को समझकर सुभद्रा पिता को एहसाह दिलाने लगी कि वह गाँव की अन्य बेटियों की अपेक्षा अधिक सुखी है। बेटी की मुँह से यह बात सुनकर पिता का मन हल्का हो गया। उन्होंने ऐसी आँखें मुंदी की खोली ही नहीं।

अचानक सुभद्रा के पति किशोर की मृत्यु हो जाती है। सौभग्य की बात यह थी कि बड़े बेटे को रेलवे में ही नौकरी मिल गई थी। साल भर बाद उसने अपने बड़े बेटे का विवाह कर दिया। छोटा बेटा कंप्यूटर इंजीनियर था। दोनों बेटे संपन्न थे। मनीष ने भी मकान, गाड़ी आदि ले लिया था। अब सिर्फ घरवाली की कमी थी। एक दिन सुभद्रा बोली, “तुम अपनी कंपनी में बंधुआ मजदूर हो क्या? ऑफिस का ऐसा समय देखकर, कौन लड़की तुमसे शादी करेगी? छह महीना बाद विवाह होनी थी। परन्तु भाग्य में तो कुछ और ही लिखा था। अचानक विश्व में आर्थिक मंदी छा गई थी। मंदी का पहला प्रहार मनीष के पैकेज पर ही पड़ा। मनीष अत्यधिक चिंतित रहने लगा। उसकी चिंता को देखकर माँ सुभद्रा ने तुरंत विवाह का निश्चय किया। जब विपत्ति आती है, तो चारों तरफ से व्यक्ति को ग्रसित कर देती है। मनीष के साथ भी ऐसा ही हुआ। उसकी नौकरी चली गई। जिस लड़की से विवाह होना था वहाँ से रिश्ता तोड़ देने की खबर आ गई। ऐसी स्थिति में बहुत कुछ सोच-समझकर सुभद्रा ने कहा? चलो बेटा गाँव लौट जाते हैं। वहाँ तुम्हारे पापा के हिस्से का ‘ढाई बीघा जमीन’ पुस्तैनी है। उसपर तुम्हारा हक है। उसे ‘ढाई बीघा जमीन’ में ही मनीष को अपना भविष्य दिखाई देता है। मनीष अपनी माँ से लिपटकर बोला, माँ हम अभी गाँव चलते हैं। मनीष के इस स्थिति को देखकर माँ सुभद्रा गाँव के लिए तैयार हो गई और मन ही मन बुदबुदाई, “कभी सुना था जेवर संपति का श्रृंगार और विप्पति का आहार होता है। पर तुम्हारे लिए तो पुश्तैनी जमीन ही विप्पति का आहार बन रही है। यह सिर्फ ‘ढाई बीघा जमीन’ है तो क्या हुआ आज यही तिनका हमारा सहारा है। मनीष ने माँ की गोद में अपना सर छुपा लिया। जिसके आँचल में मंदी का हल्का झोंका भी कभी नहीं पहुँचता। वह हमेशा सावन भादों की नदियों के सामान भरी रहती है।

2.2.2 अक्षरा (कहानी)

“मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है” लेकिन आजकल शहरों में अपार्टमेंट और फ्लैटों में रहने के कारण इस बात का एहसास नहीं होता है। अपार्टमेंट में हँसना, रोना ज्यादातर व्यक्तिगत और घर के अन्दर ही सीमित रहता है।

लेखिका अपने मित्रों के साथ वे वैष्णव माता गई थी। लौटने के बाद उनके शरीर में काफी दर्द होता है। वे अपने साथ में रहने वाले मास्टर जी से किसी मालिश करने वाली को बुला लाने के लिए कहती हैं। मास्टर फ़्लैट के सामने वाली झोपड़पट्टी के चौराहे पर खड़े होकर इधर-उधर देखते हैं। एक महिला झोपड़पट्टी के तरफ से आती हुई मास्टर जी से पूछती है। आप किसे ढूंढ रहे हैं बाबू? मास्टर जी ने कहा, “पास के फ़्लैट में एक मैडम जी आई हैं। उन्हें मालिश करवानी है”। उस महिला ने कहा चलिए मैं मालिश कर दूँगी। मास्टर जी उसे लेकर आ गए। मालिश करने वाली से लेखिका ने पूछा तुम्हारा नाम क्या है? उसने कहा सुखिया। मालिस करते हुए उसने अपना घूँघट ऊपर सरकाया। लेखिका उसका चेहरा देखकर प्रफुल्लित हो गई थी। सुखिया ने बातों-बातों में बताया कि उसका पांच वर्ष का एक पप्पू है।

दूसरे दिन सुखिया ठीक समय पर मालिश करने आ गई। मैंने पूछा तुम्हारा पप्पू कहाँ है? वह रोते हुए बोली उसकी महतारी ले गई है। लेखिका ने पूछा, “तुम उसकी महतारी नहीं हो, उसने (सुखिया) कहा नहीं दीदी ईश्वर ने मुझे सभी अंग दिए हैं। बस कोख को पत्थर बना दिया है। मेरी सास भी मुझे बाँझ कहकर बुलाती है। तभी मेरा पति मुझे अपने साथ दिल्ली लेकर आ गया। बाद में सास भी आ गई। यहाँ भी मुझे गाली उलाहना देने लगी। वहीं पास ही मेरी भतीजी रहती है। उसका दूसरा बेटा छह महीना का था। उसने मेरी सास के सामने ही अपना बच्चा मेरी गोद में डालकर कहा, लो बुआ अपना पप्पू मैं गाँव जा रही हूँ। दूसरे ही दिन मेरी भतीजी आई और बोली बुआ मेरी ननद आने वाली है। उसे मालूम था कि मुझे दूसरा बच्चा होने वाला है। इस तरह उसके घर कोई आए तो पप्पू उसका और मेरे घर कोई आए तो पप्पू मेरा। लेखिका ने कहा, तुम उसे गोद ले लो। सुखिया बोली, दीदी कागज पर लिखवाने से वो मेरा बच्चा कैसे हो जायेगा? अब पप्पू स्कूल जाने लगा था। सुखिया रोज बदल-बदलकर पप्पू के लिए टिफिन बनाती थी। जब कभी लेखिका अपने पोतियों की बातें करती तब सुखिया भी अपने पप्पू की चर्चा शुरू कर देती थी। एक दिन सुखिया रो-रोकर बोलने लगी दीदी अब हमारा शरीर कमजोर हो रहा है। शरीर गिरेगा तो कौन देखेगा? लेखिका ने कहा क्यों पप्पू की पत्नी देखेगी। सुखिया कुछ सोचकर बोली, “दीदी अब तो आप लोगों के बच्चे भी घर में नहीं रहते हैं। तो मेरा पप्पू पढ़-लिखकर झुग्गी में कहाँ रहेगा। लेखिका ने कहा, तुम इतना क्यों सोचती हो? दीदी आपके चार बच्चे हैं कोई न कोई तो देखेगा ही, लेकिन मेरा तो एक ही पप्पू है। और वह भी मेरा जाया नहीं है।

अगले दिन सुखिया जब लेखिका के घर आई तब उसका हाथ पेरू पर था। लेखिका अख़बार पढ़ रही थी। सुखिया ने पूछा, यह खबर अख़बार में तो नहीं छपा है दीदी? लेखिका ने पूछा, कौन सा खबर? “सुखिया ने कहा, दीदी मैं माँ बनने—? उन्होंने कहा तुम इस उम्र में माँ बनने वाली हो? सुखिया बोली दीदी मेरा उम्र अधिक नहीं है। पूरी झुग्गी में यह बात फैल गई है, कि सुखिया माँ बनने वाली है।

दूसरे दिन ही महीना हो गया। सुखिया डॉक्टर को दिखाने गई। डॉक्टर ने कहा तुम्हारा महीना बंद होने वाला है। तुम गभर्वती नहीं हो। यह सुनकर सुखिया सचमुच दुखिया हो गई। सुखिया ने कहा, दीदी मेरा पप्पू सच में अब बड़ा हो गया है। उसने बोला, मम्मी जा कोठी में काम करने। आपको मेरे लिए किताब-कॉपी खरीदना है। लेखिका ने कहा, “ठीक ही तो कहा है।

दिन बीतते जा रहे थे। पप्पू कभी देवकी के पास तो कभी यशोदा के पास रहता था। उसे दोनों माँ प्यार करती थी। पप्पू भी दोनों माँ से बहुत प्यार करता था। पप्पू बारहवीं पास कर गया। सुखिया पप्पू के पास होने की खुशी में लड्डू लेकर आई थी। लेखिका बालकनी में खडी होकर सोच रही थी। शंभू दौड़कर आया और नीचे से ही कहा, मालकिन मुझे नौकरी मिल गई है। मैं द्वारका जा रहा हूँ, वहीं रहूँगा। लेखिका ने कहा, पहले सुखिया का हाल बता। वह कैसी है?

वह बिना किसी लाग लपेट के बोला, “वह तो मर गई। इतनी बड़ी घटना की सूचना देते हुए उसकी जिह्वा भी नहीं लड़खड़ाई थी। इस खबर को सुनते ही लेखिका की आँखें बंद हो गई। सुखिया का सम्पूर्ण व्यक्तित्व लेखिका के आँखों के सामने घूम रहा था।

लेखिका की अनुभवी आशंकाएँ जागृत हुई। इसमें पप्पू का कोई दोष नही है। सुखिया का मातृत्व भाव ‘अक्षरा’ था। अपने भीतर वह दूसरी जान का सर्जन नहीं कर सकी थी। इस कारण उसने स्वयं मृत्यु को स्वीकार कर लिया। “जन्म मृत्यु का फेर ही तो जीवन है”।

  1. औलाद के निकाह पर (कहानी)

यह ‘दांपत्य जीवन’ के प्रेम की कहानी है। ‘साइदा’ का निकाह हुए तीन दशक बीत चुके थे। उसके दो बेटियों के भी निकाह हो चुके हैं। साइदा नाती-नातिन वाली थी। अब उसकी तीसरी बेटी सकीना के निकाह की बातें चल रही है। साइदा का पति पेशे से धोबी था। उसका (साइदा) समय भी अपने ग्राहकों के कपड़े धोने, सुखाने और लोहा करने में बीतता है। एक महिने में उसकी बेटी सकीना का निकाह होने वाला है। निकाह के बाद सकीना भी अपने ससुराल चली जाएगी।

लेखिका साइदा से पूछती है, सकीना चली जाएगी तब सारा काम तुम्हें ही करना पड़ेगा। साइदा ने कहा, दीदी ऊ एगो कहावत है न कि- “बेटी की माई रानी बुढ़ापा में भरे पानी”। लेखिका ने कहा, लेकिन तुम तो अभी जवान हो। लेखिका ने कहा, सकीना का पति उसें कलकता ले जाएगा। नहीं दीदी कभी-कभी घुमाने-फिराने ले जाएगा। उसका गाँव में एक ही धोबी का घर है। साइदा बोली दीदी- “धोबिन की बेटी को न नैहर सुख है न ससुराल”। उन्होंने कहा, लेकिन तुम तो गाँव में नहीं रहती हो। तुम्हारा पति तुम्हें शहर लेकर आ गया। साइदा ने कहा, “मेरी सास अपने बेटे से खफा रहती थी। वे कहती थी, मेरा बेटा निर्लज है। घरवाली तो देखने लायक नहीं है। लेखिका नासमझ बनकर पूछती है क्यों?। तुम देखने लायक क्यों नहीं हो? मेरा शरीर करिया लुआठ हाँडी के पेंदी जैसा है इसलिए। क्यों तुम्हारी शादी देखकर नहीं हुई थी? ये मुझे देखे थे। मैं नदी में कपड़ा धो रही थी। ई मेरे पास आकर बोले, मेरा पैंट धो दो। मैं आँख नीचे करके ही बोली मैं तुम्हारा पैंट नहीं धोउंगी। तुम मेरा समय बर्बाद नहीं करो मेरी अम्मी आती होगी। कपड़े नहीं धुलेंगी तो वह अपना भी सर धुनेगी और मेरी भी धुलाई (पिटाई) करेगी। मेरी बात सुनकर वे चले गए। बाद में मुझे पता चला कि वे निकाह करने के लिए मुझे देखने आए थे। मेरा इनके साथ निकाह हो गया। लेखिका ने साइदा से पूछा, निकाह के समय तुम्हारी उम्र क्या थी? साइदा ने कहा, पता नहीं दीदी। लेकिन मैं निकाह के बाद अपनी माँ के घर ही रह गई। ये कुछ समय के बाद कमाकर गाँव आए। अपनी माँ को बोले कि मैं ससुराल जाऊंगा। इनकी माँ ने कहा! अरे निर्लज बिना गौना के बीबी से मिलने जायेगा तो गाँव-जवार में लोग क्या कहेंगे। ये अपने ममानी के घर एक हांड़ी में रसगुल्ला लेकर आ गए और उसके बेटे को रसगुल्ला के साथ मेरे घर संदेशा भेजवा दिए। मेरी अम्मा तो यह खबर सुनकर आग बबूला हो गई। उसे मालूम नहीं है कि बिना गौना के बीबी से नहीं मिला जाता है। जाकर कह देना गौना कराकर अपनी घर वाली को ले जाये। मेरी अम्मी कि बातों को सुनकर खाला का बेटा लौट गया। लेखिका ने पूछा तुम्हें बुरा नहीं लगा। साइदा मुँह बिचकाकर बोली, “ऊँह दीदी कैसा मियाँ और कैसी बीबी! मैं फिर कपड़ा धोने चली गई। अभी कुछ ही कपड़ा धोई थी कि एक आदमी सामने खड़ा होकर कहने लगा। मेरी शर्ट धो दोगी क्या? उसकी यह शब्द सुनते ही मुझे एक वर्ष पहले कि बात याद आ गई। मैंने कुछ कहा नहीं, वह फिर बोला अब तो धोना ही पड़ेगा। तुम मेरी बीबी हो, उसने मेरी कलाई पकड़ ली। मैं निकाह के समय उसे देखी नहीं थी। मुझे डर लगा शायद कोई बदमाश हो लेकिन पैंट धोने वाली बात से अस्वस्थ थी। मैंने उनसे कहा तुम चले जाओ अम्मी आ रही होगी। दीदी उसने मुझे दस रुपया दिया। मुझे आज तक किसी ने भी दस रुपया नहीं दिया था। उसी दस रुपया ने उनसे मेरी प्रेम कि डोर जोड़ दी। मुझे उससे मिलना अच्छा लगा। अब दस रूपया का नोट और रसगुल्ला भेजने वाला दोनों मुझे अपना लगने लगा। लेखिका भी अपनी साँस रोके साइदा के प्रेम रस में डूब रही थी। उसके बाद क्या हुआ? साइदा ने कहा, उनसे मुझे मिलने का मन करने लगा। एक वर्ष बाद मेरा गौना हुआ। मेरी सास ताना देती और कहती, जैसी माँ वैसी बेटी।

उन्होंने (लेखिक) कहा, तुम सास कि बात क्यों बर्दास्त करती थी। सेठ जी (साइदा के पति) का निवेदन था। अम्मा चाहे कुछ भी कहे तुम जबाब मत देना। मैं तुम्हे बहुत पसंद करता हूँ। मैं तुम्हें पटना लेकर चलूँगा। लेखिका ने कहा, बस तुम्हारा पति तुम्हें बहला दिया और तुम बहल गई। वह बोली, सच कहती हूँ, वे मुझे बहुत मानते हैं। दीदी, “ऊँ एगो कहावत है न, जिसका मियाँ दुलारे उसे कौन फटकारे,”। लेखिका ने पूछा कि लगातार तुम्हें चार बेटियाँ होने पर तुम्हारा पति नाराज हुआ होगा। लेखिका का मन उसके मियाँ का खोट निकलवाने का था। साइदा कान पकड़कर बोली, तौबा-तौबा दीदी झूठ बोलूँ तो मुझे पाप लगेगा। मेरी चौथी बेटी के जन्म पर तो वे बोले अल्लाह ताला कि देन है। शिवजी के मंदिर वाले पंडित जी कहते हैं कि बेटी लक्ष्मी होती है। वह बोली दीदी ‘लक्ष्मी’ तो चार आ गई लेकिन ‘लक्षमा’ नहीं आया। साइदा को लेखिका ने कहा, तुम तो अपनी (पति) सेठ जी की दुलारी बीबी हो। साइदा बोली सेठ जी मुझे उदास नहीं देख सकते है। दीदी ऊँ (पति) कहते है न कि सकीना चली जाएगी तो खाना मैं बना दूँगा। चिंता मत करना-“ मिया बीबी के जीवन में औलाद तो बरखा कि बाढ़ कि तरह हैं, आती है चली जाती है और मियाँ बीबी पर ही रुक जाती है”। मेरे लिए तो वे खुदा के बंदे है। साइदा कि बात सुनकर लेखिका के आँखों में आँसू छलक गए। साइदा पूछी आप क्यों रो रही है दीदी? ईश्वर करे तुम्हारे जैसा ही सकीना का भी मियाँ हो! साइदा ने कहा हाँ मामी जी, मैं तो तीज व्रत करती हूँ कि सातों जन्म मुझे यही शौहर मिले। तुम तो सिंदूर भी लगाती हो और बुर्का भी नहीं पहनती। जमाना बदल गया है क्या हिन्दू क्या मुसलमान। सिंदूर तो मांग की शोभा और सुहाग दोनों है। “दोनों हस पड़े” “किस्सा खतम पैसा हजम” लेखिका के लिए तो किस्सा अभी प्रारम्भ हुआ था। बात सकीना की निकाह की थी। किन्तु साइदा के वैवाहिक जीवन के पड़ाव इतने मनभावन थे कि तब से वही अटकी हूँ।

2.2.4 हार गया सत्यवान (कहानी)

श्रीराम और किशोरी के जीवन में पहला ही फल लगा था। दुर्भाग्य से पैदा होते ही संतान की मृत्यु हो गई। कई वर्षो बाद किशोरी फिर गर्भवती हुई। ईश्वर के कृपा से आधी रात में मास्टर जी के घर एक शिशु का जन्म हुआ। लक्ष्मी ने तुरंत ही नातिन होने की खबर मास्टर जी को सुना दिया। उस समय मास्टर जी अपने बरामदे में ही चहलकदमी कर रहे थे। उसी समय उनकी छोटी बेटी भी मास्टर जी से आकर बोली, दीदी को बउआ हुई है। मास्टर जी ने कहा, तू अभी तक जगी है। उसने कहा, हाँ मुझे मौसी बनना था।

     बउआ जनक की बेटी सीता से कम नहीं थी। वह भी सीता कि तरह, “पलंग पीठ तजि गोद हिंडोरे, सिय न दीन्ह पगु अवनी कठोरे” उसे गोद में लेने के लिए घर के सभी व्यक्तियों के बीच छीना-झपटी होती थी। नाना जी तो दूसरे के ही गोद में देखकर आनंदित रहते थे। रोज मामा उसे साईकिल पर बैठकर बगीचा घुमाने ले जाते थे। एक दिन बगीचा में मामा को एक आम मिला। वे अपनी पत्नी को बोले इसे धोकर लाइए, टुन्नी को खिलाऊंगा। यह बात सुनकर तुरंत उसकी मौसी एक प्रचलित गीत का पैरोडी बनाकर गाने लगी- “चंदा मामा दूर के, अपना मामा पास के, आम लाए बीन के, आप खाए काट के टुन्नी को दे गार के”।

कुछ महीनों के बाद टुन्नी अपने माँ के साथ पिता के घर चली गई। नाना का पूर्ण साम्राज्य सुना हो गया। किशोरी के दो और भी संतान हुए। मुन्नी और उसका भाई। टुन्नी अब विवाह योग्य हो गई थी। वह सर्वगुण संपन्न थी। उसके पिता श्रीराम सिंह लड़के वालों के सामने अपनी बेटी के गुणों का बखान करते नहीं थकते थे। राम सिंह ने तो नवीन को दिल से पसंद कर लिया था। नवीन भी राम सिंह का मन भाप लिया था। बेटी के विवाह के पश्चात राम सिंह बीमार पड़ गए। उनकी बीमारी में नवीन और टुन्नी ने बहुत सेवा की। राम सिंह स्वर्ग सिधार गए। कुशल गृहणी टुन्नी ने घर गृहस्ती का सारा दायित्व अपने ऊपर ले लिया और अपनी छोटी बहन मुन्नी का विवाह अपने देवर के साथ करवा दिया। टुन्नी और नवीन को अपना बच्चा नहीं हुआ। कुछ समय के बाद मुन्नी को एक लड़का हुआ। मुन्नी के बच्चे ने टुन्नी को भी माँ बना दिया था।

          नवीन अब रिटायर हो गए थे। लेखिका उनसे मिलने गई टुन्नी ने कहा, “मौसी इनका तू अपने साथ ले जा बड़ा हरान कर लथुन” टुन्नी कि बात सुनकर लेखिका ने कहा, “तुम ठिक कह रही हो अवकाश प्राप्त पति को संभालना बड़ा ही कठिन होता है”। उसी दिन उन्हें अचानक खबर मिली कि टुन्नी को गर्भाशय का कैंसर हो गया है। टुन्नी को इलाज के लिए वेलोर ले जाया गया। नवीन ने पैसा तो पानी की तरह बहा दिया था। उसे आशा थी कि वह अपनी पत्नी को बचा लेगा। जब सत्यवान की जान चली गई थी तब सावित्री ने यमराज को शास्त्रार्थ में परास्त कर अपने सत्यवान की जान वापस लेकर आ गई थी। लेकिन इस सत्यवान और सावित्री की जोड़ी में सत्यवान यमराज को परास्त करने के लिए अपना तन, मन और धन तीनों लुटा रहा था। टुन्नी ने कहा, “आप मुझ पर इतना पैसा क्यों बर्बाद कर रहे हैं?” नवीन ने कहा, “अपने स्वार्थ के लिए, तुम्हें बचाना जरुरी है”।

चिकित्सक ने नवीन से कहा था। पाँच लाख रुपया खर्च करने से ये दो तीन वर्ष जिन्दा रह सकती है। नवीन तपाक से बोले, मैं दस लाख खर्च करूँगा। आप इन्हें पाँच वर्ष बचाए रखिये”। डॉक्टर के इस बात को सुनकर नवीन की आशा की डोर फिर बंध गई थी। उसी दिन लेखिका ने भी दूरभाष पर टुन्नी का हालचाल पूछा था। अपनी सभी व्यस्तताओं को दर किनार कर लेखिका टुन्नी से मिलने आ गई। उस दिन दर्द थोड़ा कम था। टुन्नी ने कहा, मौसी मैं आपके साथ नानी के यहाँ घूमने चलूंगी। उसकी बात सुनकर घर के लोग आश्चर्य चकित हो रहे थे। कल तो आँखें नहीं खोल रही थी। लेखिका ने अपने घरवालों को बता दिया था कि आज वह टुन्नी को बाजार घुमाने ले जा रही है। यह कहकर झट से लेखिका एक पैरोडी बनाकर गाने लगी, “ले चल बाजार, बाजार रे जिया ना लागे मौसी”। ‘पैरोडी’ को सुनकर घर के सभी लोग हंसने लगे। किस्से तो बहुत थे, हँसी-मजाक के, शिकवे-शिकायत के, एक दूसरे पर निर्भरता के। इन खुशी के पलों में ही अचानक टुन्नी के मौत की खबर आ गई। लेखिका खबर सुनते ही सन्न हो गई। फोन की घंटी बजते ही लेखिका ने बहुत हिम्मत करके फोन उठाया। जैसे ही हेलो कहा नवीन रोते हुए बोला मौसी जी मैं टुअर हो गया। वह बहुत ही निष्ठुर निकली हमें छोड़कर चली गई।

यह सब देखकर मुझे बचपन वाली टुन्नी याद आने लगी। किस्सा खत्म होते ही कहने लगती थी। “किस्सा खतम पैसा हजम”। और कह न मौसी, रानी जब मर गेल फेर राजा के कि भेल? यह कहकर वह मेरे मुँह में ऊँगली डाल देती थी। तब मैं उसे कहती, “किस्सा खतम पैसा हजम”। आखिर जीवन के इस लड़ाई में सत्यवान हार गया और यमराज जीत गया।

2.2.5 चिट्टी कि छुअन (कहानी)

इस कहानी में वर्तमान संचार प्रणाली के बीच चिठ्ठी जैसे परंपरागत संचार प्रणाली के महत्व को उजागर किया गया है। दरअसल कौशल्या के बीमारी का सूत्र किसी भी चिकित्सक के पकड़ में नहीं आने के कारण उनकी हालत बिगड़ती जा रही थी। कौशल्या अस्सी पार कर चूँकि थी। “पकी आम थी, कभी भी टपक जाती”। वह हमेशा कहती थी। इस उम्र में चलते-फिरते वह स्वर्ग सिधार जाए, बस खटिया नहीं पकड़ना पड़े। कौशल्या के साथ कि सिर्फ कौशल्या अकेले बच गई थी। पिछले वर्ष उसके भईया भी छोड़कर चले गए। कौशल्या को अपने बड़े भाई से मिलने जाने का बड़ा मन था। कौशल्या के चार भाई थे। कौशल्या राम लखन की पिठौती बहन थी। चौथा भाई देर से पैदा हुआ और पहले ही छोड़कर चला गया।

     एक दिन कौशल्या को अपनी बेटी सीमा की बहुत याद आ रही थी। उसने अपने पोते राहुल से कहा, मुझे एक कागज का टुकड़ा दो मैं उसे दो आखर लिखकर भेज दूँ कि वह अपना मुँह आकर दिखा जाए। कौशल्या राहुल के कमरे में ही बोल बोलकर चिठ्ठी लिख रही थी। राहुल परेशान होकर बोला। दादी मैं सोने जा रहा हूँ। कौशल्या चिठ्ठी लिखते समय कभी रोने लगती तो कभी हँसने लगती थी। दादी कि इस स्थिति को देखकर राहुल बोला, दादी पहले आप रो लो बाद में लिख लेना। दादी राहुल को जगाकर बोली, उठो बेटा पढ़ लो गद्बेर हो जाएगा। राहुल उठकर घबराते हुए बोला, आपने पत्र लिखने में मेरा सत्यानाश कर दिया। मेरा कल मैथ का पेपर है। 

परीक्षा समाप्त होते ही राहुल ने चिठ्ठी को भेज दिया। अचानक सीमा बुआ के आने से घर के लोग अचंभित हो गए। सीमा कि बेटी रोमा की शादी हो गई थी। सीमा नानी बन गई थी। कौशल्या सीमा से हमेशा पूछती थी। रोमा तुम्हें पत्र तो लिखती होगी? तुम वही पत्र मुझे भेज देना। मैं वही पढ़ कर संतोष कर लूँगी। कौशल्या कहती थी बेटी ससुराल जाकर पत्र नहीं भेजे विचित्र बात है। कौशल्या की बात सुनकर सीमा और उसकी भाभियाँ हँसने लगी। माँ को कैसे समझाएँ कि जमाना बदल रहा है। अब कोई पत्र नहीं लिखता है। सभी एक दूसरे से टेलीफोन पर बात कर लेते हैं और ई-मेल पर विस्तार से जानकारी प्राप्त कर लेते हैं।

     कौशल्या अपनी बीती जिंदगी के चादर पर सगे-संबंधियों द्वारा लिखी हुई चिठ्ठियाँ पसार कर देखती और कहती, अच्छा किया मेरी दादी ने मुझे चिठ्ठी पढ़ने लायक पढ़ा-लिखा दिया। वरना मैं अपने ससुराल में बीती जिंदगी की कहानियाँ दादी और माँ को कैसे बताती? कौशल्या ने भी श्रवेन्द्र के जन्म के बाद अपना मायका भुला दिया था। चिठ्ठी लिखने का समय ही नही मिलता था। तुम्हारे (सीमा) जन्म के बाद माँ की बहुत याद आती थी। तुम्हें ससुराल भेजने के बाद फिर चिठ्ठी लिखने का मन करने लगा। एक चिठ्ठी में तुमने बहुत काट-पिटाई की थी। मैं समझ गई और तुम्हारे पास पिताजी को भेज दी थी। तुम्हारी एक चिठ्ठी पढ़कर तो मुझे बहुत हँसी आई थी। उसमे कई रंग के स्याही थे। एक जगह तो तुम्हारा अक्षर पसरा हुआ था। मैंने तुम्हारी भाभी मीरा को दिखा कर कहा, देखो मीरा, चिठ्ठी लिखते समय रोहन मीरा के गोद में होगा। यहाँ चिठ्ठी पर पानी नहीं रोहन का सुसु गिरा होगा। यह देखकर मीरा के साथ तुम्हारे पिताजी भी हँस पड़े थे। दूसरे दिन ही तुम्हारी सहायता के लिए हमने दिवाकर को भेज दिया था। सीमा ने कहा, माँ आप इतनी दूर रहकर भी मेरी परेशानी को कैसे समझ जाती थी? कौशल्या बोली, तुम्हारी चिठ्ठी का रंग-रूप कह देता था।

          कौशल्या का शरीर अति क्षीण हो गया था। इस स्थिति में भी उनकी इच्छा होती थी कि नातिन रोमा उन्हें चिठ्ठी लिखती रहे। वह अक्सर इस बात को समझ नहीं पाती थी कि इस लोहे के बॉक्स में चिठ्ठी आती तो है पर निकलती क्यों नहीं है? कौशल्या सीमा से पूछा करती थी। रोमा वहाँ अकेले कैसे रहती होगी? दो महीने के बच्चे को लेकर। सीमा ने कहा, माँ आप यह सब सोचना छोड़ दीजिये। माँ बोली, मैं चिठ्ठी को छूकर रोमा को महसूस करती। चिठ्ठी अपने साथ लिखने वाले का गंध लेकर आती है और उसकी छूअन भी। सीमा माँ को समझाना चाहती थी कि युग बदल गया है। अब लोगों के पास चिठ्ठी लिखने का समय नही है। पर मेरी बातें सबसे कहती थी, सीमा “मेरी बेटी ही है तो क्या? है कठकरेज”। चाहे जो हो, लेकिन कौशल्या रह-रहकर रोमा की चिठ्ठी का इंतजार करती थी। सास को दिलासा दिलाने के लिए मीरा के मन में एक विचार आया। क्यों न हम सीमा की पुरानी चिठ्ठियों को लेकर, नातिन रोमा का चिठ्ठी बताकर उन्हें कुछ समय के लिए संतुष्ट कर दें। सीमा की पुरानी चिठ्ठी लेकर घर के लोग कौशल्या के कमरे में दाखिल हुए। सीमा ने कहा, माँ आपको जिसका इंतजार था, वह आ गई। कौशल्या तुरंत भावुक होकर बोली, कहाँ कब आई रोमा, यह सुनते ही कौशल्या उठने लगी। सीमा ने कहा, रोमा नहीं माँ उसकी चिठ्ठी आई है। कौशल्या बोली, लाओ मेरे हाथ में दो। कौशल्या उस चिठ्ठी को कलेजे से लगाकर सहलाने लगी। चिठ्ठी का पोल खुलने के डर से मीरा ने धीरे से सास के हाथ से चिठ्ठी लेकर एक साँस में पढ़ डाली। कौशल्या बोली, “जैसी लिखने वाली, उससे बढ़कर बाचने वाली। चिठ्ठी ऐसे पढ़ रही है जैसे पंडित जी कोई मंत्र पढ़ रहे हो। कौशल्या ने कहा, लाओ चिठ्ठी मेरे हाथ में दो। तभी घर का कॉल बेल बजा। सभी लोग चौक गए। मीरा ने जैसे ही दरवाजा खोला, वैसे ही बोली, रोमा जी, उसके मुँह पर हाथ रख दिया। रोमा बोली, मुझे तो नानी को सरप्राइज देना था। नानी को मेरी चिठ्ठी का इंतजार था इसलिए मैं ही आ गई। दौड़कर रोमा अपनी नानी से चिपक गई और बोली नानी—-? मैं आ गई।

     कौशल्या रोमा को सहलाने लगी। थोड़ी देर में रोमा का बेटा सरल भी उनके गोद में आ गया। कौशल्या के मुँह से रुक-रुककर स्वर निकल रहे थे। रोमा तुम्हारी चिठ्ठी मिली लेकिन मुझे संतोष नही हुआ। तुमने अपने बेटे सरल के बारे में कुछ भी नहीं लिखा था क्यों? रोमा चिठ्ठी के विषय में इशारो से पूछने लगी तभी सभी लोगो ने इशारो से रोमा को चुप रहने के लिए कहा। जब चिठ्ठी की पोल खुली तब रोमा हँसने लगी। “दुनिया के खबरों से बेखबर कौशल्या ने दूसरी सुबह किसी की भी खबर लेने के लिए अपनी आँखें नहीं खोली। चिठ्ठी चाहे असली हो या नकली, नानी के लिए तो वह चिठ्ठी रोमा की ही थी। स्वयं रोमा के शरीर के छुअन के आगे कागज के टुकड़ों कि क्या विसात”।

  • आर्थिक समस्या मूलक कहानियाँबेटी का कमराकटोरीरद्दी की वापसीसाझा वाडरोब
  • बेटी का कमरा

राधामोहन जी कि पत्नी अनुराधा ने भोर में एक नवजात शिशु को जन्म दिया। घर का समस्त वातावरण यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी इस समाचार को सुनकर चहचाहाने लगे थे। राधामोहन जी के खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। रोज चिड़ियों को मुट्ठी भर दाना डालने वाले राधामोहन जी आज खुशी के मारे अनाज की पूरी हांड़ी ही उड़ेल दिया। बहन राजमती बच्चे को नहलाने-धुलाने के बाद भैया को सूचना देने गई की लक्ष्मी आई है। राधामोहन जी जानते हुए भी अनजान बने हुए थे। उन्होंने अपनी बहन से कहा, अरे! मेरी प्यारी बहना उसे तो धरती पर अवतरण हुए बहुत देर हो गया। उस समय भोर के चार बजकर पैंतालीस मिनट हो रहे थे। मुझे अनुमान था कि लक्ष्मी ही आई है। राजमती ने कहा, बेटी हुई तो क्या हुआ? काजल सेकाई झूमका ही लूँगी। छठी के दिन राजमती ने भतीजी के एक आँख में काजल लगाया और दूसरे आँख में काजल नहीं लगाने के लिए उसने अपना हाथ छुपा लिया। छठी का गीत शुरू हो गया।

“आँगन में रुनझुन नाच गई ननदी

कंगना जो देती वह भी नहीं लेती

झूमका लेने को मचल उठी ननदी”।

उसी समय राधामोहन जी राजमती को बुलाकर बोले, ये लो बहना तुम्हारा झुमका। लक्ष्मी के बढ़ने के साथ ही पिता की सरकारी नौकरी हो गई। लक्ष्मी के पीठ पर से राधामोहन जी को दो बेटे हुए। इन सबके खुशियों का कारण भी राधामोहन जी अपनी बेटी लक्ष्मी को ही मानते थे।

     देखते-देखते लक्ष्मी ब्याहने योग्य हो गई। पिता अपनी बेटी के लिए विष्णु जी की तरह वर चाहते थे। उनके कई रिश्तेदारों ने रिश्ते बताए, किन्तु राधामोहन जी तो लक्ष्मी के किए डॉक्टर, इंजिनियर या आई.ए.एस खोज रहे थे। उनकी पत्नी अनुराधा ने कहा, आप चिंता मत कीजिये लक्ष्मी के भाग्य में जो होगा वह मिल जाएगा। लक्ष्मी के भाग्य में आई.ए.एस. लड़का लिखा था। राधामोहन जी बहुत खुश थे। उन्होंने शादी के लेन-देन में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी। बेटी को विदा करते समय राधामोहन जी ने अपने समधी से कहा, हम तो आपके लायक नहीं है लेकिन लक्ष्मी रूपी बेटी दे रहा हूँ। भगवान करे आपके घर में भी लक्ष्मी पसरती रहे। लक्ष्मी को समय नहीं मिलता था क्योंकि उसके भी दो बच्चे हो गए थे। कभी-कभी राधामोहन जी पत्नी के साथ लक्ष्मी के यहाँ चार, छह दिन के लिए चले जाते थे।

     राधामोहन जी की सरकारी नौकरी थी। सौभाग्य से नौकरी में रहते हुए ही उनके दोनों बच्चे पढ़-लिख कर पैरों पर खड़े हो गए थे। एक बेटा अहमदाबाद और दूसरा भोपाल में था। इसी दौरान राधामोहन जी के सेवानिवृत्त होने का समय आ गया था। सेवानिवृत होने से पूर्व वे अपना घर बनाना आवश्यक समझ रहे थे। उन्होंने पटना में एक प्लौट ले रखा था। सरकारी मकान में रहकर ही अपना मकान बन जाए तो अच्छा रहेगा। घर बनाने की जिम्मेदारी राधामोहन जी और उनकी पत्नी कि ही थी। उस प्लौट पर दो बेडरूम से अधिक नहीं बन रहे थे। राधामोहन जी के बहुत कहने पर आर्किटेक ने तीन कमरा निकाल दिया। अचानक उनके ध्यान में आया कि यहाँ तो तीन कमरे ही हो रहें हैं। दो बेटों के लिए एक मेरे लिए और लक्ष्मी का कमरा कहाँ होगा? ऐसे में सहधर्मिणी ने कहा, “अब लक्ष्मी को कमरे की क्या जरुरत है। उसे फुर्सत कहाँ हैं कि यहाँ आकर रहेगी। राधामोहन जी ने कहा, लक्ष्मी यहाँ आए चाहे नहीं आए। उसका कमरा तो अवश्य होनी चाहिए।

     राधामोहन जी मिस्त्री को बोले, इन दोनों कमरा के ऊपर एक और कमरा बना दो बीस फीट लम्बा दस फीट चौड़ा। मिस्त्री अफजल बोला नीचे का काम पूरा हो जाने दीजिए फिर ऊपर का करूँगा। राधामोहन जी ने कहा, सारा जमा पूँजी इसी में खत्म हो जाएगा तो ऊपर का कैसे होगा? हमारे दादा जी कहते थे, “मकान और मुकदमा कहता है, ‘हमें हाथ लगाकर तो देखो’। इसी बीच राधामोहन जी के बेटे का विवाह भी तय हो गया था। दूसरे दिन उन्होंने अफजल को बुलाकर पूछा, “कितने दिनों में उपर नीचे का फ़्लैट तैयार हो जाएगा। मिस्त्री ने कहा, “आपके अनुसार करूँगा तो दो वर्ष लग जाएगा”। राधामोहन जी ने कहा, मजदूर बढ़ाकर काम शुरू कर दो। उन्होंने बड़े ही मन से सभी साजसज्जा के साथ अपनी बेटी के लिए ऊपर का कमरा बनवाया। अफजल मिस्त्री भी पहली बार ऐसा कमरा बना रहा था। शादी की सभी तैयारियाँ हो चुकी थी। तीन महीनें में फ़्लैट बनकर तैयार हो गया। गृहप्रवेश में लक्ष्मी को बुलाया गया था। संयोग से बेटी और दामाद दोनों आ गए। घर देखकर दोनों बहुत खुश हुए। राधामोहन जी ने कहा,” तुम दोनों पहले ऊपर जाकर देखो, ऊपर का भव्य कमरा और उसकी सजावट देखकर दोनों पति-पत्नी दंग रह गए”। लक्ष्मी ने कहा, “बाबूजी आपने आर्किटेक्ट और इंटीरियर डेकोरेटर दिल्ली से बुलवाया था क्या?” पिता ने कहा,  दोनों की भूमिका मैंने ही निभाई है। बेटी यह कमरा तुम्हारा है। लक्ष्मी ने कहा, “मेरा कमरा क्यों? तुम मेरी पहली संतान हो, तुम्हारे लिए कमरा क्यों नहीं? इस मकान में राधामोहन जी ने अपनी सारी जमा पूँजी खपा दी थी। इसके बावजूद भी तीनों कमरे आधे-अधूरे थे।

     भाई के विवाह के तीन दिन पहले लक्ष्मी अपने बाबूजी के घर आ गई थी। राधामोहन जी ने विलाश को कहा, दीदी का सारा सामान ऊपर वाले कमरे में रख आओ। लक्ष्मी ने कहा नहीं विलास मेरा सामान नीचे ही रहेगा। उस कमरे में लाली और बहू रहेंगे। राधामोहन जी ने कहा, नहीं वह तुम्हारा कमरा है। लक्ष्मी ने कहा, पापा यह मेरा कमरा है इसलिए निर्णय मुझे लेने दीजिये। राधामोहन जी चुप रहे आखिर लक्ष्मी उनकी ही बेटी है। लक्ष्मी के निर्णय से सबसे अधिक खुशी अनुराधा को हुई थी। बेटी के निर्णय कि समझ ने एक बार फिर से राधामोहन जी को गुमान से ओत-प्रोत कर दिया।  

  • कटोरी (कहानी)

रांची जाते समय सीमा लेखिका से दूबारा कहती है। इस बार आप मेरे घर अवश्य आइएगा। लेखिका समय निकालकर सीमा के घर गई। आधुनिक साज-सज्जा से सुशोभित बैठक में जैसे ही लेखिका बैठने लगी। वैसे ही उनकी नजर एक शो पीस पर पड़ी। उन्होंने नजदीक जाकर देखा की देशों के क्रिस्टल, काँच, पीतल, चाँदी आदि की मूर्तियों के बीच एक कौआ शो पीस में बंद था। कौए की चोंच सोने की थी। उसके चोंच में एक एल्मुनियम की कटोरी थी। ऐसा लग रहा था, जैसे कौआ कटोरी लेकर उड़ जाएगा। कौआ मिट्टी का और उसका चोंच सुनहरे रंग का था। उसकी चोंच में अटकी हुई कटोरी कई जगहों से चिपटी थी। इस अनोखी दृश्य को देखकर लेखिका कुछ सोच ही रही थी कि सीमा चाय लेकर आ गई। सीमा बोली, “आइए दीदी चाय पीते है। मैं जानती थी। आप भी इस दृश्य को देखकर मुझसे अवश्य कुछ पूछेंगी”। लेखिका ने कहा, “हाँ कौवे की सुनहरी चोंच में घिसी-पीटी कटोरी का क्या संबंध हो सकता है। सीमा ने कहा, आपको मैं कौआ की सुनहरी चोंच और कटोरी दोनों के संबंध बताती हूँ। सीमा कहती है, “दीदी यह कटोरी मुझे भाइयों के बीच बँटवारे में मिली है”।

     बात उस समय की है जब मेरी ईया (माँ) जीवित थी। ईया अपने जीवन की कई कहानियाँ मुझे सुनाया करती थी। बात तब कि है जब मैं माँ के गोद में थी। मेरी आजी (दादी) की तीन बहुएँ और आजी की जेठानी की तीन बहुएँ थी। सभी बहुओं को तेल, साबुन, कपड़ा आदि बराबर बाँट कर दिया जाता था। इस काम को आजी करती थी। एक बार आजी मेला से एक दर्जन पत्थर का मलिया खरीद कर लाई। उन्होंने अपनी सातों बहुओं को एक-एक मालिया दिया और कहा, रोज इसी मालिया में तुम सब को तेल दूंगी। बच्चों को लगाना, अपने बालों में और रात्रि में अपने पति के पैर मालिश करना। आजी रोज बहुओं को सितुहा से तेल नापकर दे देती थी। आजी के इस व्यावहारिक बुद्धि से तेल का खपत भी कम हो गया और कम ज्यादा मिलने का शिकायत भी खतम हो गया।

     एक दिन मेरी ईया (माँ) तेल लेने नहीं पहूंची। ईया कि पथलौटी टूट गई थी। आजी बोली, तोड़ दिया पथलौटी अब तुम किसमे तेल लेगी? मायका संदेशा भेजवा दो तुम्हारा बाप पथलौटी भेजवा देगा। ईया उस दिन बहुत रोई। थोड़ी देर बाद ईया आँगन में खटिया पर गेहूं सुखाने के लिए वही बैठ गई। तभी पश्चिम दिशा से एक कौवा उड़ता हुआ आया और ईया के गोद में एक कटोरी गिराकर कॉव-कॉव करता हुआ पश्चिम दिशा की ओर ही लौट गया। ईया उस कटोरी को हाथ में लेकर निहारने लगी। ईया तेल लगाकर पथलौटी छप्पर पर रख दी थी। कौआ पथलौटी को चोंच मार रहा था। ईया ने हाँ-हाँ किया पथलौटी गिर कर टूट गई। मैं (ईया) वह कटोरी देखकर बहुत खुश हो गई। मुझे तेल की कटोरी क्या मिली मानो उस वक्त दुनिया की सबसे अनमोल वस्तु मिल गई हो। उसी समय मेरी सास मेरे हाथ में उस कटोरी को देखकर बोली, “यह तेल की कटोरी कहा से लाई? मैं बोली, भाई देकर गया है। आजी बोली, क्या? मैं बोली, हाँ माजी कौवा भैया पश्चिम दिशा से आया और कटोरी गिराकर चला गया। यह सुनकर मेरी सास हँसने लगी और ऊँची आवाज में सबको बुलाकर कहने लगी। देखो सब तुम्हारी गोतनी को कौआ भैया कटोरी दे गया है।   

ईया आश्चर्य चकित हो रही थी कि आखिर कौआ कटोरी मेरी ही गोद में क्यों गिराया? दूसरे दिन मैंने उसी जगह पर रोटी का टुकड़ा रख दिया, जहाँ पथलौटी रखी थी। एक कौआ आया रोटी का टुकड़ा ले गया। थोड़ी देर बाद दूसरा आया और दूसरा रोटी का टुकड़ा ले गया। मैं सोचने लगी जिस कौए ने कटोरी गिराई, उसे कैसे पहचानूंगी? सीमा बोली, मेरे होश आने के बाद भी मैं देखी थी। बाबूजी उसी कटोरी में तेल लेकर लगाते थे।

     एक बार गलती से वह कटोरी आंगन में छुट गया। एक कौआ आया और कटोरी को चोंच में उठा लिया। बाबूजी हाँ-हाँ कर भगा दिए। ईया बोली, उहे कौआ होगा पंद्रह वर्ष बाद अपनी कटोरी लेने आया होगा। यह सुनकर बाबूजी और आजी दोनों हंसने लगे। ईया रोज कौए की प्रतीक्षा करती थी। जिस दिन वह नहीं आता उस दिन पूरा घर सिर पर उठा लेती थी। मेरे बड़े बेटे के जन्म के समय ईया उसी कटोरी के तेल से मालिश करती थी। ईया को अपनी सास की उतराधिकारणी बनने की पड़ी थी। ईआ की तबियत अधिक ख़राब सुनकर हम सपरिवार राँची से आरा पहुँच गए। माँ का अंतिम समय था। भाभी उसी कटोरी में घी लेकर माँ का मालिश कर रही थी।

ईआ नहीं रही। दो वर्ष बाद भाइयों के बीच बटवारा हुआ। सभी कुछ बाँटने के बाद बर्तनों की बारी आई संयोग से मैं भी वही थी। बर्तनों की तीन कूड़ियाँ लगाई गई। अंतिम बर्तन बटलोही था। अब उसे कैसे बाँटे। कूड़ियाँ पूरा करने के लिए दो बर्तन और चाहिए था। उसी बटलोही के पेट में छिपकर कटोरी बैठी थी। बाँटने वाला व्यक्ति कटोरी को निकालकर फेंक दिया। फेंकी हुई कटोरी हिलती-डुलती औंधे मुँह शांत हो गई। मैं उसे सीधा कर दी। शायद कौआ उठाकर ले जाए। मैं कटोरी उठाकर बोली। रुको मैं भी बर्तनों में अपना हिस्सा लूँगी। मेरी बात सुनकर सभी भाई-भाभियाँ एक दूसरे को देखने लगे। मैंने चौथे हिस्से पर यह कटोरी रख दी और बोली, ईया के सभी बर्तनों में से मेरे हिस्से में यह कटोरी आएगी”। मैं कटोरी अपने पर्श में रख ली। मेरे पर्श का वजन बहुत बढ़ गया था। उसमे आजी, ईया और कौआ मामा तीनों समा गए थे। सीमा का गला रुंध गया था। कथा सुनकर मेरा भी मन भारी हो गया था। सीमा ने कहा, “दीदी आप यह कहानी लिख दीजिएगा। मेरी ईया भी अमर हो जाएगी”।

लेखिका ने कहा, कहानी तो तुमने लिख दी। कौए की कटोरी का जीवनवृत्त! मैंने (लेखिका) कहा, सीमा “शो केश का दरवाजा खोलो और एक बार मुझे भी कौए और कटोरी को छू लेने दो”। कटोरी को छुते हुए उन्हें ऐसा लगा जैसे सीमा की माँ जानकी देवी, उनकी सास, उनके पति और बच्चे सभी आँगन में उड़ते हुए कौए को छू रही थी। उन सबके स्पर्श से सारा शरीर पुलकित हो गया।

  • रद्दी की वापसी ( कहानी)

पश्चमी संस्कृति में वस्तुओं को ‘यूज एंड थ्रो’ अथार्त वस्तुओं को इस्तेमाल करने के बाद फेंक दिया जाता है। वहीं भारतीय सस्कृति में वस्तुओं का उपयोग करने के बाद भी उसे सम्भाल कर रख दिया जाता है। इस कहानी में लेखिका ने बिहार में आने वाली हर वर्ष बाढ़ से लोगों के घर के समान की क्या स्थिति हो जाती है उसका उन्होंने बहुत ही सुन्दर ढंग से वर्णन किया है।

उस वर्ष बाढ़ बहुत अधिक थी। हर आयु के लोगों का यही कहना था कि हमने अपनी उम्र में ऐसी बाढ़ नहीं देखी है। रामलला के बाबूजी जगदेव सिंह ने भी यही बात कहा। ननकू भी पीछे नहीं था। पैंतीस वर्ष के बाप ने ऐसी बाढ़ नहीं देखी तो बारह वर्ष का बेटा कैसे देख सकता है? बाढ़ नापने का पैमाना था रामसखी के दरवाजे की सीढ़ीयाँ। उनके अनुसार जिस वर्ष यह सीढ़ी बना था, उसी वर्ष सातों सीढ़ीयाँ बाढ़ में डूब गई थी। हर वर्ष मिट्टी भरवाई जाती थी। हर वर्ष उतनी ही मिट्टी फिर बाढ़ के पानी में बह जाती थी। गौरी कहती थी, “मैंने अपने माइके में कभी बाढ़ नहीं देखी थी। मुझे बाढ़ देखने का बड़ा मन करता है। गौरी अपने पिता से बाढ़ का वर्णन सुनी थी। किन्तु देखी नहीं थी। विवाह के तीसरे वर्ष से बाढ़ के पानी ने उसने दरवाजे की सीढ़ीयों का पाँव पखारना शुरू किया। हर वर्ष एक-एक सीढ़ी आगे बढ़ती गई। उस वर्ष तो खेतों में धान की जवानी को रौंदती हुई बाढ़ सारा इलाका जलमग्न करती हुई जगदेव सिंह की चार सीढ़ीयां डूबा गई। गाँव वाले बेहाल हो गए थे। जगदेव सिंह का आँगन रिलीफ कैम्प में तबदील हो गया था। गौरी को अपना आँगन भरा-भरा और कई चूल्हों पर भोजन बनते देखकर सुखद लग रहा था। गौरी ने अपनी सास से कहा, “माँ जी अपना घर आँगन कितना भरा-भरा लग रहा है। काश! सब दिन ऐसा ही रहता”। उसकी सास ने अपनी बहू की सिधाई पर लम्बी साँस लेते हुए एक कहावत बोली, “चिड़िया के जान जाए, लड़िकन के खिलौना”। भगवान ना करे मेरा आँगन इन दुखियों से भरा रहे”।  

गौरी का भाई दिल्ली में नौकरी करता है। उसने गौरी को होली में दिल्ली बुलाया है। गौरी ने अपने भाई से कहा, वह बाढ़ आने के पहले गाँव लौट आएगी। उस साल तो बाढ़ अपना विकराल रूप दिखा दिया। बाढ़ का पानी गौरी के सभी घर में पसर गई थी। एक सप्ताह तक हम सब को छत पर ही रहना पड़ा था। गौरी की अब बाढ़ देखने की लालसा समाप्त हो चुकी थी। अब उसे बाढ़ में जीवन जीने की यथार्थ का पता चल चूका था। बाढ़ के जाने के बाद की स्थिति और दृश्य और भी भयानक थी। घर का सभी सामान भींग चुका था। पानी निकलने के बाद गौरी अपनी सास से पूछकर सभी पुराना सामान बाहर निकल दी और सास जी से बोली, “माँ जी सावजी को बुलाकर बेचने वाला सभी सामान बेच देंगे”। गौरी की बात सुनकर रामसखी ने कहा, जो मन में आता है करो। कोठियों में रखा हुआ अनाज ख़राब हो गए थे। पलटू का काम बढ़ गया था। ऐसी स्थिति को देखकर ससुर जी भी गौरी का मदद कर रहे थे।

एक दिन वे अपनी गुमसुम बैठी हुई पत्नी पर बिफर कर बोले, “तुम्हारी मति मारी गई है क्या? इस गाँव में बाढ़ पहली बार थोड़ी आई है। तुम भी उठो और बहू का हाथ बटाओं”। आज सुबह-सुबह गौरी ने पलटू को बुलाकर कहा, पलटू इन पुराने बर्तनों और समानों को बाहर दरवाजे के सामने रख दो। धूप लग जाएगा तब इसे झाड़-पोंछकर महेश सुनार को बुला लाना, इन्हें रद्दी में बेच देंगे। पलटू रद्दी में बेंचने का मतलब नहीं समझा। असल में गौरी ने अपनी भाभी को दिल्ली में रद्दी निकालकर बेंचते हुए देखा था। गौरी जब दिल्ली गई थी। उस समय गौरी की भाभी की भाभी अमेरिका से आई हुई थी। कहते हैं कि अमेरिका में लोग अपने रद्दी को घर से बाहर निकालकर रख देते हैं। जिस किसी को भी जो जरुरत कि वस्तु हो, वह उठाकर ले जाता है। यह बात गौरी की भाभी की भाभी ने कहा था।  दिल्ली से लौटकर गौरी ने ये सभी बातें अपनी सास को बताई थी। गौरी की सास ने एक कहावत को बदलकर कहा, “केकरो फाटल केकरो आटल”।

दूसरे दिन गौरी ने अपनी सास से कहा, माँ जी हमने सभी पुराने और टूटे-फूटे रद्दी सामान बाहर रखवा दिए हैं। आज सावजी को बुलाकर बेंच दूँगी। रामसखी बिना कुछ कहे उठकर दरवाजे के पास गई। कुछ समय बाद गौरी को अपने सास का ख्याल आया। उसने बाहर जाके देखा तो रामसखी रद्दी की ढेर के पास बैठी थी। गौरी बोली, माँ जी आप जो छांटना है इसमें से छांट लीजिये। रामसखी उसमे से एक डंडी टूटी हुई कजरौटा हाथ में लेकर कहने लगी? गौरी जानती हो यह कजरौटा हमारे घर कब और कौन लाया? गौरी ने कहा, नहीं माँ जी गौरी की सास बोली यह कजरौटा तुम्हारे ससुर के जन्मदिन पर उनकी बुआ लेकर आई थी। काजर सेकाई में उन्हें दस कट्ठा जमीन लिख दिए थे। अपने खानदान के तीन पुस्तों की कहानी सुनती-गुनती गौरी भी उसी कजरौटे में बंद हो गई। गौरी अन्य बरतनों को देखने लगी तभी उसके हाथ से एक टुटा फुटा झाँझ लेकर रामसखी कहने लगी, “देखो गौरी यह झाँझ मेरे ही हाथ से गिर कर टूट गई थी”। यह झाँझ अब तक घर में है। पर मेरा बेटा नहीं रहा। जानती हो गौरी? होली का दिन था। मैं पुआ पका रही थी। इसी झाँझ से मेरे बेटे का हाथ जल गया और गुस्से में मैं भी गरम झाँझ से उसके पीठ पर मार दी। हाथ तो उसका जला ही था पीठ भी जल गया। उसी घाव से पीड़ित उसकी जान चली गई। चार दशक बाद अपने बेटे के लिए रामसखी पुक्का फाड़कर रोने लगी। सास बहू के वार्तालाप के दृश्य को देखकर सावजी ने गौरी से कहा, रहने दो बहूरानी मैं कल सबेरे आ जाउँगा। गौरी सास से बोली, उठिए माँ जी चलिए हाथ मुँह धो लीजिए। रामसखी बोली, “गौरी थोड़ी देर मेरे पास बैठो, रामसखी के हाथ में एक लोटा था। उस लोटे के तीन पीढियों की यात्रा रामसखी गौरी को सुना रही थी। तभी गौरी का बेटा स्कूल से आ गया। गौरी बोली, “आज फिर जल्दी छुट्टी हो गई क्या?” ननकू बोला, माँ पाँच बज गए हैं।

गौरी अपनी सास को अन्दर ले गई। उसने अपनी सास को खिलाया-पिलाया। थोड़ी देर बाद रामसखी फिर रद्दी से एक सामान उठाकर लाई। गौरी देखो, यह चकला-बेलन। मेरी दादी गौना में दी थी। मेरी सास इस चकला-बेलन को देखकर मोहित हो गई थी। धीरे-धीरे रामसखी को सबकुछ याद आने लगा था। एक साल घर में आग लग गई थी। उसमे सभी सामान जल गया लेकिन यह चकला-बेलन झुलस कर भी बच गया। सावजी प्रतिदिन गौरी के घर रद्दी खरीदने आते और दोनों सास बहू की कथा सुनते-कहते देखकर चले जाते। इधर बरतनों की कथा कहकर रामसखी स्वस्थ्य होती जा रही थी। उसकी सब पूरानी यादें धीरे-धीरे जीवंत हो गई। जगदेव सिंह भी खुश हो रहे थे। गौरी को भी अपनी सास की स्मृति का लौटना सुखद लगा। उस दिन जब सावजी तराजू बाट और बोरी लेकर पहुंचे तब गौरी सभी बरतनों को राख और नींबू लगाकर चमका रही थी। सावजी बोले, “बहू रानी इन बरतनों को साफ करने की जरुरत नहीं है। कौन सा इसे दुकान में सजा कर रखना है। गौरी ने बड़ी दृढ़ता से कहा, “सावजी अब ये बरतन नहीं बिकेंगे। इन बरतनों में ना जाने कितने पीढ़ियों की कहानियाँ समाई है”। अनमोल हैं ये रद्दियाँ। सावजी भुनभुनाते हुए कहने लगे, “अब तो बहू भी बिना बाढ़ के ही डूब गई है। सावजी बोले, चलता हूँ कहीं दूसरे दरवाजे भी कोई सास अपनी बहू को बिपदा-सीपदा की कथा सुना रही होगी”। यह कहकर सावजी चले गए।

  • साझा वॉडरोब (कहानी)

आज रणवीर बहुत दिनों के बाद अपने पुराने फ्लैट में आए थे। पिछले दस वर्षो से वह अपने माँ-बाप से अलग फ्लैट में रहते थे। घर गृहस्ती के कामों में दिन-रात व्यस्त होने के बाद भी उन्हें अपने दो कमरे के फ्लैट का हमेशा याद आता रहता है। वहाँ उनके अपने निजी बेडरूम है जहाँ सजने-सवरने में उन्हें किसी भी तरह का तंगी महसूस नहीं होता है। रहन-सहन की कद-काठी तो बढ़ गई है लेकिन जब उन्हें अपनी अम्मा के हाथों से धुली हुई कमीज का स्मरण होता है। तब मानों शरीर पर वह विराजमान कमीज गुदगुदा और सहला रही हो। रणवीर के पिताजी बहुत ही दौड़-धूप करने के बाद डी.डी.ए.का एक फ्लैट अपने नाम पर लिया था। जिसमे दो छोटे-छोटे बेडरूम और एक ड्राइंग रूम था। पत्नी और रणवीर बाबू के लिए कमरा निश्चित था। रणवीर की दो बहनेँ थी हीरा और नैना। रणवीर अपने दोनों बहनों को बहुत प्यार करते थे। दोनों बहनेँ भी अपने बड़े भाई के वर्चस्व को स्वीकार करती थी। भाई-बहन में झगड़ा तो होता ही था। झगड़े का जड़ था वह वाडरॉब। असल में डी.डी.ए.वाले फ्लैट में दस फीट गुणा दस फीट के कमरे में एक ही वाडरॉब था। तीनों भाई-बहन का एक ही कमरा था। कभी-कभार गाँव से दादा-दादी भी आ जाते थे।

रणवीर बाबू बड़े हो गए थे। इसलिए बड़े ड्राइंग रूम में ही उनके सोने के लिए एक खाट डाल दिया जाता था। रणवीर को यह भ्रम होता था कि माँ बाबू जी बेटियों को अधिक प्यार करते हैं। तीनों भाई-बहन को लड़ते हुए देखकर दादी कहती थी, “रणवीर ई दूनू ससुराल चल जतऊ त तू अकेले राज भोगिहें फ्लैट में”। तीनों भाई बहन में झगड़ा होने के कारण माँ ने वाडरॉब के खानों को बाट दिया था। रणवीर बाबू एक ही खाने में अपने सभी कपड़ों को रखते थे। सुबह-सुबह स्कूल और कॉलेज जाने के पहले कपड़ा निकालने का समय भी तीनों का निश्चित था। वहा तीनों एक साथ खड़े नहीं हो पाते थे। सर्दी का मौसम आते ही वाडरॉब की समस्या और भी बढ़ जाती थी। माँ ने रणवीर के लिए एक ऊनी सूट बनवाया था लेकिन उस ऊनी सूट के नसीब में हमेशा टंगना ही लिखा था।    

भैया के बड़े होते ही, बहनों का फ्रॉक पहनना छूट गया था। अब वे सलवार, कुरता और कमीज पहनती थी। दिन बीतते गए हीरा का विवाह निश्चित हो गया। दादी ने रणवीर को याद दिलाया कि अब हीरा वाला खाना में तुम्हीं अपना कपड़ा रखना और फैल कर रहना। दो वर्ष के बाद नैना की भी शादी हो गई। उसके बाद आलमारी पर रणवीर बाबू का अखंड राज हो गया था। लेकिन बहनों के बिना घर सुना-सुना लगता था। रणवीर बाबू भी अधिक दिनों तक नहीं रह सके। उनका भी विवाह हो गया और वे एक बार फिर वाडरॉब से बेदखल हो गए। अब पत्नी की रंगीन साड़ियों से वाडरॉब भर गया था।

रणवीर बाबू का कोई भाई नहीं था। एक ही कोख के दो भाई बाँस के कोपल के समान अलग-अलग ही निकलते हैं। रणवीर इकलौते थे इसलिए गाँव की जमीन और फ्लैट बेचने का कोई सवाल ही नहीं था। फिर भी चूल्हे दो हो गए थे। अब वे मम्मी पापा से अलग बड़े फ्लैट में रहने लगे थे। बड़ा सा ड्राइंग रूम, बड़े अकार और आधुनिक साज-सज्जा वाला किचन, पत्नी और बच्चों के किए अलग-अलग बेडरूम सब आधुनिक उपकरणों से सजे-धजे थे। रणवीर पूजा-पाठ, तीज-त्योहार या मेहमानों के आने पर अम्मा से मिलने जाते रहते थे। अब दादी-नानी नहीं रही। पापा हर दूसरे तीसरे दिन रणबीर के बच्चों से मिलने जाते रहते थे। इतना सब होने के बावजूद भी रणवीर को डी.डी.ए. के फ्लैट में आना सुखद लगता था। उसका साँझा कमरा अंकवार में भर लेता था। पूजा का प्रसाद लेकर सब चले गए। अम्मा पापा ड्राइंग रूम में बैठकर बहू के साथ बातें कर रही थी। तभी शर्मा जी को ध्यान आया कि रणवीर कहा गया? पत्नी को अवश्य अंदाजा था। नए घर में उसका पति मात्र उसका पति होता है। पर उस छोटे से फ्लैट में उसका पति, नाती, पोता, बेटा और बहनों के भैया भी हैं। बचपन और किशोरावस्था की स्मृतियों में पखारा जाना उन्हें सुखद लगता है। विवाह के उपरांत रणवीर ने वाडरॉब की कहानियाँ अपनी पत्नी को सुनाई थी। दरअसल उसी वाडरॉब से सबकी कहानियाँ जुड़ी हुई थी। दोनों ननदों, दादी, नानी, सास मानो सभी उसमे अंटके-पड़े हुए हो। पता नहीं क्या सोचकर बहु ने अपनी सास से कहा, ‘अम्मा जी इस छोटे कमरे के वाडरॉब की लकड़ी बहुत अच्छी है। सच आपने बहुत अच्छा वुडवर्क करवाया है। मैं सोच रही थी कि छोटे कमरे वाले वाडरॉब को खोल कर बड़े फ्लैट के बच्चों वाले कमरे में लगवा दूँ। आपका क्या विचार है? ससुर जी ने तुरंत कह दिया “हाँ-हाँ करवा लो” कुछ देर के बाद श्रीमति शर्मा बोली, बहू केवल वाडरॉब में तुम्हारे पति का प्राण नहीं बसता है। वाडरॉब के साथ और भी बहुत कुछ हैं यहाँ। इन लकडियों का क्या? ये तो जड़ हैं। पर स्मृतियाँ तो जीवंत होती हैं। तभी तो वह यहाँ आकर उन्हीं में खो जाता है। बहु कमरा में झांककर देखी और धीरे से बोली माँ जी, ‘ये तो यहीं सो गए हैं’। रणवीर की नींद कच्ची थी खुल गई। चलो मेरे बम्बई से आवश्यक फोन आने वाला है। तुमने जगाया क्यों नहीं? दरअसल मैं सपने में कारपेंटर से बच्चों के कमरे में लगवाने के लिए अपना वाला वाडरॉब निकलवा रहा था। सचमुच ऐसी लकड़ी अब नहीं मिलेगी। पत्नी ने कहा, अब वाडरॉब पुराने फ्लैट में ही वहीं रहेगा। मैं नहीं चाहती उसे सांझा बनाकर अपने बच्चों के बीच झगड़े का घर बनाना। रणवीर बाबू पत्नी के हाँ में हाँ मिलाकर बोले, “तुम ठिक कहती हो! वे दो पल रूककर दार्शनिक अंदाज में बोले। पर बचपन में भाई बहन के बीच हुए झगड़ों की स्मृतियाँ बड़ी उम्र में अन्नदायक बन जाती है। साँझा वाडरॉब का साँझापन अब अधिक गहराया लगता है। उसे वहीँ रहने दो। यदा-कदा मैं तनाव मुक्ति के लिए वहाँ जाया करूँगा”। 

  • धार्मिक कहानियाँबुनियाद हस्तक्षेप रामायण काकी

2.4.1 बुनियाद (कहानी)

उजागर सिन्हा जी से पत्नी और बच्चों को उम्मीद थी, कि उनके पति ने जरुर कहीं न कहीं अपनी पुत्री अलका के लिए वर पसंद कर लिया है। उजागर सिन्हा इस बात को अपने पत्नी से कहने के लिए प्रयत्नशील हो रहे थे। दरअसल पत्नी जादू नहीं जानती थी पर कभी-कभी पति के मन की बात को जरुर पढ़ लेती थी। तब वे अचानक चौंक जाते और कहते। अरे! भग्यवान तुम जादू-मंतर जानती हो क्या? तुम कैसे समझ जाती हो कि मैं यही सोच रहा था। यह कहकर दोनों हँसने लगते। उजागर सिन्हा के तीनों बच्चे एक ही साथ सयाने हो रहे थे। बारहवीं के बाद वे अलका को दिल्ली भेजकर पढ़ाने के लिए सोच रहे थे। वे कहती, भला दिल्ली शहर में अकेली लड़की कैसे रहेगी? उजागर सिन्हा ने कहा, दिल्ली में तो एक करोड़ की आबादी है। वहाँ तो लोग सड़को, बाजारों और बसों में धक्का खाते-खाते चलते हैं। पत्नी ने कहा, यह तो और भी बुरी बात है। क्या जवान बेटी को धक्का खाने के लिए दिल्ली भेजना है। पहले आप बेटी का ब्याह कर दीजिए फिर दिल्ली भेजिए। अलका चाहती थी की वह दिल्ली में रहकर पढ़ाई करे। उसका जवाहरलाल विश्वविद्यालय में मन चाहा विषय में दाखिला मिल गया और छात्रावास में रहने के लिए जगह भी। अलका के माता-पिता दोनों उसे छोड़ने गए।

छह महीनों के बाद दोनों माता-पिता अलका को देखने दिल्ली गए। हॉस्टल में पहुँचे तब अलका नहीं थी। उसकी रूममेट मणिमाला थी। मणिमाला ने कहा, “आइए आप लोग बैठिए अलका आती ही होगी”। अलका वहाँ नहीं थी लेकिन उसकी घुटने तक लटकती दोनों चोटियाँ वहीँ दीवार पर टंगी थी। उन टंगी चोटियों को देखते ही सावित्री की चीख निकल गई। पत्नी की चीख सुनकर उसके पिता की भी नजर उन चोटियों पड़ पड़ी। दिल्ली के रंग में रंगने के लिए अलका को सबसे पहले अपने चोटियों की बलि देनी पड़ी। जिन चोटियों को देखकर सारा भागलपुर अचंभित होता था। थोड़ी देर बाद अलका जब हॉस्टल लौटी तब अपनी माता-पिता को देखकर आश्चर्यचकित हो गई और बोली, आप लोग बिना सूचना के अचानक आ गए। यह कहकर वह अपनी माँ से लिपट गई। सावित्री ने जैसे ही अलका के बालों पर अपने हाथ फेरे उसके आँखों से आँसू टपक पड़े। अलका माँ के भाव को समझ चुकी थी। पिता ने बेटी का मन रखने के लिए लड़का ढूँढने में तीन वर्ष बीता दिए। एक दिन उजागर सिन्हा के एक मित्र ने कहा, “अब झट से लड़का देखकर पट से बेटी का विवाह कर दो वरना, लड़की हाथ से निकल जाएगी। उन्होंने कहा, “मैंने लड़का देख लिया है। वह भी दिल्ली में ही नौकरी करता है। बाद में उजागर सिन्हा जी ने अपनी पत्नी को मनोज के परिवार के विषय में सब बताया।

होली में छुट्टी आई अपने बेटी के सामने पिता ने बिना लाग-लपेट के शादी की बात रख दी। उन्होंने लड़की दिखाने की तिथि भी घोषित कर दिया। अलका चुप रही न कोई शिकवा न शिकायत, न स्वीकृति, न प्रस्ताव की अस्वीकृति। उसने तो वक्त की डोर में अपने मन को बांध दिया था। पिता ने बेटी के मौन को उसकी स्वीकृति मान ली। पिता बेटी को सुना-सुनकर संबंधी होनेवाले परिवार के गुणों का हमेशा बखान करते रहते थे। लड़का का छोटा भाई बड़ा गुणी है। उसने घर के सभी दीवारों पर मधुबनी पेंटिंग से सीता-राम राधेश्याम की जोड़ी, आदि को देखकर मैं उन दीवारों को निहारता ही रह गया।

     अलका अपने पिता के द्वारा लड़के के घर के दीवारों का वर्णन सुनकर उसे लगा कि एक बार जाकर देख आएँ। लेकिन बहुत सारे रस्म और रीतिरिवाजों की सीढियाँ पार करनी थी। पहली रीति लड़की दिखाने की थी। जो अलका को बिलकुल पसंद नहीं थी। पिता का आग्रह था। जिसे मानना पड़ा। अलका मेहमानों के सामने उपस्थित हुई। गुलाबी साड़ी में लिपटी एक कृशकाय महिला पर उसकी प्रथम दृष्टि पड़ी। उसने झुककर उनके दोनों पाँव छुए। उस बिहसती स्त्री के कंठ से आशीष निकले “सदा सुहागन रहना” आगंतुक स्त्री ने अलका को एक बनारसी साड़ी ओढ़ाकर भर-भर हाथ लाख की लहठियाँ पहना दी। अलका उन लहठियों के गुनगुनाहट में खो गई थी। उसी वक्त एक मीठा स्वर गूँज उठा, “कखन हरब दुःख मोर हे भोला नाथ-? विधापति के भजन की यह पंक्तियाँ अलका को बहुत अच्छा लगा। अलका की नजरे गायक के चहरे पर अटक गई। उसके स्वर गले से नहीं हृदय से निकल रहे थे। गाने वाला का परिचय तो अलका के पिता ने करवाया ही नहीं था। अलका का अंदाजा था की लड़का का छोटा भाई हितेश होगा जिसे पेंटिंग का काफी शौक है।

      गीत समाप्त होने के बाद भी वह उसी की ओर टकटकी लगाकर देखती रही। गायक का रंग साँवला, बड़ी-बड़ी आँखें और मूँछे भी थी। अलका को पुरुष पर मूँछे अच्छी नहीं लगती थी। एक बार उसने अपनी रूममेट मणिमाला से कहा था। उजागर सिन्हा जी ने कहा, “मनोज जी मैंने पहली मुलाकात में ही आपके गाने सुने थे। आपके स्वर पर ही मैं मोहित हो गया था। अलका ने तुरंत अपनी नजरे सरका ली और मन ही मन सोचने लगी। अरे! ये तो देवर नहीं होने वाले पति हैं।

     विवाह उत्सव समाप्त हो गया। अलका विदा होकर अपने ससुराल चली गई। पति मिला, देवर दिखा, सास भी अपने बहु पर न्योछावर हो रही थी। लेकिन अलका तो घूँघट के भीतर से भीति चित्र वाली दीवारें ढूँढ रही थी। वही भीति चित्र वाली दीवारें जो उसकी विवाह के लिए मन बनाने की बुनियाद थी। अलका खुली नजरों से दीवारों को देखने और सहलाने लगी लेकिन वहाँ तो कोई भी चित्र नहीं था। शादी के तीसरे दिन हितेश अपनी भाभी से मिलने आया। उसने कहा, भाभी हमारा यह छोटा सा घर आपको कैसा लगा? आप तो दिल्ली वाली हैं। हमारा मुंगेर शहर गाँव जैसा लगेगा। अलका ने तुरंत कहा, मात्र तीन वर्षों में मैं दिल्ली वाली कैसे हो गई? मुझे तो अपने क्षेत्र के छोटी-छोटी मिट्टी की दीवारों वाली घर बहुत अच्छे लगते हैं। साफ-सुथरा घरों के दीवारों पर चित्रकारियाँ ऐसे घरों में रहने का आनंद ही कुछ और होता है। मुझे तो आपकी मधुबनी पेंटिंग देखने की लालसा हो रही है। हितेश ने कहा, “भाभी आपने तो हमारी सुखते घाव को कुरेद दिया। भाभी आप दोनों के विवाह निश्चित होने के बाद माँ ने कहा, आने वाली बहू दिल्ली वाली है। इस पुश्तैनी मिट्टी के दीवारों वाली घर में कैसे रहेगी? उसके लिए नया घर बनना चाहिए। इसीलिए तो विवाह के लिए आठ महीना का समय माँगा गया था। अभी सिर्फ इसी कमरा में प्लास्टर और पेंट हुए है। दूसरे कमरे तैयार भी नहीं हुए है। अलका ने कहा, ठिक है पर वह पुश्तैनी भितिचित्र वाला दीवार और घर कहाँ है मुझे वह दिखाइए। हितेश जैसे ही भाभी कहा, वैसे ही उसे हिचकी आने लगी। अलका तुरंत हितेश के कंधे पर हाथ रखकर सहलाने लगी। हितेश के लिए भाभी का यह प्रथम स्नेह था। उसने कहा, भाभी उसके लिए आपको दूर जाने की जरुरत नहीं है। वह तो आपके पाँव के नीचे ही है। अलका ने कहा, “आप बुझौना मत बुझाइए भितिचित्र वाला घर कहाँ है”।

     हितेश ने कहा, भाभी जब भीति ही नहीं रही तो चित्र की क्या बिसात। हितेश ने दार्शनिक मनोभाव से बोला, आप चिंता ना करे, मैं इन दीवारों पर पेंटिंग कर दूंगा। उसने लम्बी साँस खींचकर मन ही मन कहा ‘चलो इस घर के बुनियाद में ही सही, भितिचित्र तो है। इस घर से संबंध के लिए मेरा मन बनाने का बुनियाद भी’। अलका को याद था कि उसके पापा ने भी नया घर बनाया था। नींव में कई नदियों के जल और पवित्र स्थानों की मिट्टी डाली और पूजा अर्चना की गई थी।

2.4.2 हस्तक्षेप (कहानी)

फोन पर नानी की आवाज सुनते ही नीलाभ के पाँव तले से सातवें फ्लोर का करोड़टकिया फ्लैट नीचे खिसक गया। नानी ने हुलस कर पूछा, नीलाभ तूने फ्लैट खरीद लिया है। मैं कल ही ट्रेन पकड़कर आ रही हूँ। तुम मुझे स्टेशन पर लेने आ जाना। मैं वहाँ अकेले ही रह लूँगी। तब-तक दूरभाष की लाइन कट गई। नीलाभ बूथ से बातें कर रहा था उसने कहा नानी मेरा मोबाइल चोरी हो गया है। तब नानी ने कहा था, दूसरा खरीद लो पैसा मैं दे दूँगी। वैसे नये जमाने के फैसन से नानी कोई परहेज नहीं करती है। वे कहती है, “तुम्हारे नये जमाने का यह मोबाइल मुझे बड़ा सुकून देता है”। नीलाभ नानी से पूछा, आपके जमाने का कौन सा ऐसा फैसन था? जो बूढी नानी को पसंद नहीं था। नानी ने कहा, वही औरत मर्द बाहर निकलकर एक दूसरे का हाथ पकड़कर या कमर में हाथ डालकर चलना। एक बार उन्होंने वैसे ही किसी को देख लिया था, फिर क्या शुरू हो गई। वे बोली कमरे का दरवाजा बंद करके तुम्हें जो मन में आये करो। कौन रोकता है? इसलिए तो माँ-बाप ने सबकुछ करने का सर्टिफिकेट दे दिया है। विवाह के पूर्व लड़का-लड़की का मिलन-जुलना तो उन्हें बिलकुल ही पसंद नहीं था। नानी के इन सभी बातों से नीलाभ चिंतित था कि नानी को कहाँ ठहराएँ? ये सभी बातें  सोचकर नीलाभ अपने फ्लैट में चहल कदमी कर रहा था। उसी समय मल्लिका ने दरवाजा खोला। नीलाभ को फ्लैट में देखकर मल्लिका बोली, तुम्हारी तबियत तो ठीक है? मल्लिका चाय बनाकर बालकनी में ले गई और बोली, देखो नीलाभ यहाँ बैठना कितना सुन्दर लग रहा है। लेकिन हमारे पास पड़ोसियों से भी बात करने का टाइम नहीं है। आए दिन हमारे क्लब में पार्टिया होती रहती है। मल्लिका ने नीलाभ से पूछा, क्या बात है? तुम चिंतित लग रहे हो? नीलाभ बोला बात नहीं बतंगड़ होने वाला है। कल नानी आने वाली है। मल्लिका ने कहा, तुम तो कहते हो कि, नानी किसी को टोका-टोकी नहीं करती है। वह व्यवहार सिर्फ दूसरों के लिए है। मुझे तो उन्होंने अपने बेटा की तरह पाला-पोशा है। मेरे जीवन में हस्तक्षेप करना उनका अधिकार है। नीलाभ की बात सुनकर मल्लिका बोली, नानी का हस्तक्षेप भी सुखद ही होगा”। दूसरे दिन नीलाभ नानी को स्टेशन लाने जा रहा था। उसने मल्लिका को कहा, हो सके तो तुम दो चार दिन के लिए, कहीं ठहरने का व्यवस्था कर लेना। ऑफिस जाकर मल्लिका काम में व्यवस्थता में नानी के आने कि बात भूल गई। शाम को वह दफ्तर का काम छोड़कर घर चली आई। लिफ्ट में चढ़ने तक उसे कुछ भी याद नहीं था। मल्लिका ने देखा नीलाभ के घर दरवाजा खुला है, तभी उसे अचानक ध्यान आया। अरे! यहाँ तो नीलाभ की नानी आई होगी। अभी वह कुछ सोच भी नहीं पाई थी कि दरवाजे पर खड़ी एक बुजुर्ग महिला ने पूछा, किससे मिलना है बेटी? आओ अन्दर बैठो! मुझे मालूम है, तुम गलती से यहाँ आ गई हो। किसी और का फ्लैट ढूँढ रही हो क्या? मैं सुबह से यहाँ अकेली हूँ। बैठो मैं चाय बनाती हूँ। अचानक मल्लिका के मुँह से निकल गया, चायपत्ती तो नहीं है! उसकी आवाज सुनकर नानी को लगा जैसे, मल्लिका के मुँह से महुआ के पके फूल टपक पड़े हो। नानी ने कहा, तुम्हें कैसे पता कि यहाँ चायपत्ती नहीं है? मल्लिका ने कहा, लड़कों वाले फ्लैट में ऐसा ही होता है। नानी ने कहा, हाँ बेटी ‘बिन घरनी घर भूत का डेरा’ ही तो होता है। मल्लिका ने कहा, हाँ आंटी जी! क्यों मैं तुम्हें आंटी जी दिखती हूँ? तुम मुझे नानी कहो, मल्लिका ने नानी से कहा, अगर नौकरी करने वाली हुई तो? तो क्या “औरत तो औरत होती है। मल्लिका ने कहा, आंटी मैं नीचे दुकान से चायपति लेकर आऊँ? अब कौशल्या देवी के मन में कुछ प्रश्न उठने लगे। इतनी बात तो समझ में आ गई है कि यह लडकी जानबूझकर दरवाजे पर खड़ी थी। तबतक मल्लिका चायपति, चीनी और दूध लेकर आ गई। उसने कहा, नानी आप बैठिए, मैं चाय बनाकर लाती हूँ। मल्लिका दो प्याला चाय बनाकर ले आई। चाय पीने के बाद मल्लिका जाने की तैयारी में थी। कौशल्या देवी ने कहा, “बेटी अब तुम्हें भी शादी कर लेना चाहिए। मल्लिका ने कहा, नानी पर लड़का तो ढंग का मिले। तभी नीलाभ दफ्तर से आ गया। नानी के साथ मल्लिका को देखकर नीलाभ शान्त था। नानी ने पूछा, “चाय बना दू बेटा? तुम्हारे घर में तो कुछ भी नहीं है। ये मल्लिका आई तब खरीद कर लाई और चाय बनाकर पिलाई। मल्लिका बोली, मैं चाय बनाती हूँ, यह कहकर वह चाय बनाने चली गई। नानी बोली, बेटा तुम हाथ मुँह धो कर चाय पी लो। मैं भी हाथ मुँह धोकर माला जाप कर लूँ। थोड़ी देर बाद मल्लिका को अपना सामान उठाते देखकर नानी बोली, “तुम रात में अकेली कहाँ चली? तुम शहर की लड़कियाँ आफत को निमंत्रण देती हो। आज रात में यहीं रुको कल चली जाना। नानी की बात सुनते ही मल्लिका खुश हो गई। आखिर रात में मल्लिका जाती कहा? नीलाभ ने परिस्थिति की नाजुकता को समझ लिया था। वह सोच रहा था कि पिछली रात मल्लिका का जरुर कोई सामान छुट गया होगा। नीलाभ अपने कमरे में गया। उसने देखा कि उसके सभी सामान बिछावन पर ही बिखरे पड़े हैं। मल्लिका और नीलाभ दोनों नीचे से दाल, चावल, सब्जी आदि खरीद लाए। नानी के लिए खाना मल्लिका ने ही बनाया। गरम-गरम दाल-चावल खाते हुए नानी ने कहा, “मैं वहाँ प्रतिदिन अपने दरवाजें पर बैठे-बैठे एक दृश्य देखा करती थी। मजदूर स्त्री-पुरुष दिन भर मजदूरी करने के बाद अपने घर लौटते हुए चावल, आटा, मसाला लकड़ी, तेल आदि खरीदकर ले जाते हुए दिखते हैं। उसी तरह तुम लोग भी मजदूर ही हो। बात करते-करते सोने का समय हो गया। नानी ने कहा, मल्लिका तुम मेरे साथ दीवान पर सो जाओ”। मल्लिका जींस पैंट में ही लेट गई। नानी बोली, बाथरूम में एक नाइटी है जा कर ले आओ मेरी ननद की लड़की सुमेधा का होगा। यही रहती है, कभी आई होगी।

     मल्लिका के पाँव तले जमीन खीसक गए। रात्रि में मल्लिका के शरीर की हरकतों और उसके मुख से निकले स्वरों ने शक को विश्वास में बदल दिया। नानी के आँखों में नींद नहीं आई। सुबह नीलाभ को जगाते हुए नानी बोली, “आज तुम दोनों को ऑफिस नहीं जाना है। छुट्टी ले लो। नीलाभ नानी के लिए चाय बनाकर लाया था। नानी ने पूछा, अब बताओ नीलाभ कि मल्लिका यहाँ कितने दिनों से रह रही है”? नीलाभ बोला, नहीं नानी मल्लिका यहाँ नही—“। नीलाभ तुम्हें बचपन से झूठ बोलने की आदत नहीं है।   मैं कान पकड़ता हूँ, अब ऐसा नहीं करूँगा। मैं विवाह कर लूँगा। चाहे लड़की कैसी भी हो। नीलाभ अपना दोनों कान पकड़कर सर झुका लिया। मल्लिका की हँसी छुट गई। नानी ने कहा, आज बसंत पंचमी है तुम दोनों मेरे साथ मंदिर चलो।

     नानी मंदिर में पार्वती जी को सिंदूर चढ़ा कर बाहर आ गई। दोनों को आमने-सामने शिवजी और पर्वत जी के मंदिर की तरफ खड़ा करके नीलाभ से बोली, यह लो इस डिबिया से सिंदूर निकालकर मल्लिका को तीन बार मांग भर दो। नानी जैसा कहा नीलाभ ने वैसा ही किया।

नानी के होठ हिले- “मचिया बैठल कौशल्या रानी मन ही आनंद भेल। कब होयत राम के विवाह, सेंदूर बेसाहब हे।” दोनों ने नानी के पाँव छुए। नानी के आँखों से आँसू छलक आए। नीलाभ नानी को बोला, नानी आप रो क्यों रो रही है? आप कहें तो मैं मल्लिका को छोड़ दूँगा। नहीं रे! “यह तो शिव-पार्वती की तरह जन्म-जन्म का बंधन है। फ्लैट में पहुँचकर नानी ने कहा, नीलाभ तुम मुझे स्टेशन छोड़ दो। इस खुशी को मैं अपने गाँव वालों के साथ बँटना चाहती हूँ। कागजी कारवाई से विवाह संपन्न नहीं होता है। समाज की स्वीकृति भी आवश्यक होती है। मेरी तो पूरी हो गई अब सभी गांववालों की आस पूरी करुँगी।

2.4.3 रामायणी काकी (कहानी)

रामायणी काकी घर से निकलकर गाँव, शहर, और विदेश तक जाकर राम कथा सुनाती है। लेकिन उनका दिल गाँव में ही रहता था।

एक दिन सुशांत अपने दादा जी के साथ गाँव के छोटे मंदिर के सामने खड़ा था। उसे गाँव के मंदिर पर अंग्रेजी में नाम देखकर अचंभा लगा। उसने दादा जी से पूछा, “दादा जी इस मंदिर पर अंग्रेजी में नाम क्यों लिखा है? और यह ‘रामाज आंट’ कौन थी? “ये तुम्हारी बड़ी दादी थीं। राम कथा कहती थी। इसलिए राम सीता और हनुमान जी के मंदिर के बगल में एक छोटा सा मंदिर उनका भी है। वही चबूतरे पर दोनों दादा पोता बैठ गए गाँव के कई लोग भी आकर बैठ गए। उनमें से एक व्यक्ति बिना कुछ पूछे ही बोलने लगा, “कमाल की थी रामायणी काकी। उन्हें खुद भी नहीं पता था कि वे कब और कैसे रामायणी काकी कहलाने लगी? असल में उनके ससुर रामचरित मानस की चौपाइयों का पाठ करते थे। बहु मैना मन ही मन उन चौपाइयों को दुहराती रहती थी।

     गाँव वालों ने भगवती मंदिर के पास ही रामायण वाचन के लिए चबूतरा बनवा दिया था। वही पर चैत्र रामनवमी के समय रामायण पाठ करने के लिए पंडित प्रभुदयाल जी को पहली बार बुलवाया गया था। कथा एक दिन ही होनी थी, पर सात दिनों तक चलती रही। पंडित प्रभुदयाल जी गांववालों को मानस की चौपाई सुनाते-सुनाते कभी हँसाते, कभी रुलाते और कभी-कभी उन्हें आत्मविभोर कर देते थे। हर महीने सात दिनों के लिए कथा वाचन होता था। रामकथा के अंत में सभी चढ़ावा का आधा भाग प्रभुदयाल जी के घर पहुँचा देते थे और आधा गांववालों के बीच प्रसाद के रूप में बाँट देते थे।

     कुछ समय बाद रामायण रसिकों की संख्या बढ़ने लगी। महिलाएँ और युवतियाँ भी रामकथा सुनने के लिए आने लगी थी। एक दिन अचानक प्रभुदयाल जी को भी संसार छोड़ने का आदेश आ गया। उन्होंने व्यासपीठ पर बैठे-बैठे ही आदेश का पालन कर दिया। ससुर जी के स्वर्गवास होते ही, मैना को लगा वह उसी क्षण अनाथ हो गई। माँ-बाप और सास तो दस वर्ष पहले ही जा चूके थे। पति को साथ छोड़े बीस वर्ष बीत गए थे। मैंने रानी को अब प्रभुदयाल जी का सहारा था, वह भी छुट गया।

मैना रानी के बंद आँखों से अविरल धाराएँ बह रही थी। ध्यानमग्न होकर रामचरितमानस की पंक्तियाँ गाती मैना के सामने से प्रभुदयाल जी का पार्थिव शरीर भी उठाना गाँववालों को  कठिन हो रहा था। स्वर अधिक मधुर और करुणा से सिंचित। गाँववालो ने तय कर लिया था कि व्यासपीठ पर मैना रानी को बैठाएंगे। व्यासपीठ से लक्ष्मण और सीता के बीच के वार्तालाप सुनाती मैना का गला रूँध गया। उसी समय उन्हें हरि और मोहन याद आ जाते थे।

     लन्दन और दिल्ली में बसे दोनों देवर बिना सूचना के ही एक दिन घर पहूँच गए। उनका मन उल्लास से भरा हुआ था। रास्ते में व्यासपीठ मिला। दोनों भाईयों ने सिर झुकाकर व्यासपीठ को प्रणाम कर अपने पिता के प्रति श्रध्दांजलि अर्पित किया। घर पहुँचकर दोनों भाई मुख्य द्वार से ही आवाज देने लगे, भाभी, भाभी” अन्दर से कोई आवाज नहीं आई। पड़ोसी बाहर आकर पूछे, कौन?” मैं हरि हूँ। दिल्ली से आया हूँ। हमारी भाभी कहाँ हैं?” बुजुर्ग ने कहा, “तुम्हारी भाभी अब सिर्फ तुम दोनों की नहीं रहीं वे गाँववालों की रामायणी काकी हैं। वे अभी-अभी व्यासपीठ के लिए निकली हैं।

हरि और मोहन दोनों व्यासपीठ चले गए। वे दोनों भी भीड़ के अंतिम छोड़ पर बैठ गए। राम-सीता का वनवास से लौटना, तीनों माताओं से मिलना, कैकेई का पश्चाताप, सभी प्रसंगों का वर्णन करते हुए रामायणी काकी विह्वल हो गई थी। इधर श्रोताओं के बीच में बैठी दो महिलाएँ मैना रानी की कथा कह रही थी कि “यह बाल विधवा हो गई इनका पति जिन्दा रहता तो राम ही रहता। इनके दो देवर थे। पता नहीं दोनों कहा चले गए। मैना ने उस दिन राम कथा का वहीं पटाक्षेप कर दिया। दोनों भाई पहले ही घर पहुँच गए। ताकि दरवाजे पर खड़े होकर अपनी भाभी का स्वागत कर सके। दोनों देवरों को देख उन्हें गले लगाते हुए रामायणी काकी की आँखे ऐसे बरसी, मानो भादों के काले बादल धरती पर आ गए हों! दोनों देवर जिद्द करने लगे भाभी आपको यहाँ अकेले नहीं रहना है। हमारे साथ चलिए। मैं यहाँ अकेली नहीं हूँ। मेरे साथ सारा गाँव है।

     मैना गाँव वालों से छुट्टी लेकर एक माह के लिए दिल्ली चली गई। वहाँ भी भाभी चौपाइयाँ दुहराती रहती थी। पड़ोसियों ने सुनकर वहाँ भी रामकथा का आयोजन करवा दिया। कुछ दिनों के बाद लंदन से प्रतिदिन फोन आने लगा। भाभी आप यहाँ आकर देखिए। मैना अपने देवर हरि के पास लंदन चली गई। वह भी राम कथा का रस लेने वाले मिल गए। अंग्रेजी जानने वाले भी राम कथा सुनने आते थे। रामायणी काकी से एक दिन किसी ने पूछा, “सम बडी टोल्ड मी यू आर ‘रामाज आंटी’। आर यू?” काकी अंग्रेजी नहीं समझती थी। वह हरि को ढूंढने लगी। हरि भाभी के पास आया और प्रश्न कर्ता के प्रश्न का उत्तर दिया, व्हाट डू यू वांट?” “इज शी रामाज आंटी? सम बडी टोल्ड मी, दैट शी इज रामाज आंटी?” हरि जोड़ से हँसा। हरि बोला, भाभी ये लोग आपको राम की आंटी बोल रहें है। मैना रानी बोली तुम सबलोग मुझे काकी ही कहो”। देखते-देखते चौदह महीने बीत गए। हरि ने कहा, भाभी “क्या फर्क है गाँव और लंदन में?” भाभी बोली, वह सब तो ठिक है।

     एक दिन भाभी सीता के लंका में रहने का वर्णन सुना रही थी। कथा समाप्ति पर मिसेस वैदेही बोली, “मेरी दादी ने मेरा नाम वैदेही रखा था। मुझे अपना नाम बहुत पुराना लगता था। चालीस वर्षों से मैं लंदन में हूँ। मेरे नजर में सीता की छवि एक बेचारी महिला की थी। आज मुझे आपना नाम प्यारा लगने लगा है। वह प्रसन्नचित होकर बोली, “नाऊ आई लाइक माई नेम वैदेही”। भाभी की जिद्द पर हरि को झुकना पड़ा। हरि उन्हें गाँव लेकर आ गए। अपनी रामायणी काकी को देखने सारा गाँव उमड़ पड़ा।

दूसरी शाम व्यासपीठ को सजाया-धजाया गया। रामकथा प्रारम्भ होने की खबर सारे गाँव में फैल गई। उस शाम की व्यासपीठ में राम और सीता के अयोध्या लौटने का प्रसंग ही सुनाया जा रहा था। कथा प्रवाह में कथा वाचिका रामायणी काकी स्वयं अपनी ही कथा सुनाई। “राम सभी जगहों पर हैं। राम भक्त सर्वत्र है। इसीलिए क्या अपना गाँव, क्या देश की राजधानी दिल्ली और क्या लंदन! मुझे तो सब जगह राम भक्त मिले। पहनावा और खान-पान भिन्न-भिन्न है, हृदय एक ही है”।

श्रोताओं ने भी दोनों हाथ जोड़कर सर झुका लिए। उम्मीद थी कि थोड़ी देर में पुनः व्यासपीठ से कोई रसयुक्त छंद का प्रवाह होगा। विलंब होने पर श्रोताओं ने सर उठाए। इंतजार में सभा स्थल निःशब्द था। कालू जोर-जोर से भौंकने लगा। हरि दौड़कर आए। भाभी का सिर उठाया। निष्प्राण सर उनके हाथ से छूटकर उनकी गोद में गिरा। सभा मंडप से आवाज आई, ‘रामायणी काकी की जय’, ‘रामायणी काकी की जय’।

व्यासपीठ के पास ही एक मंदिर का निर्माण हुआ। मंदिर का पूरा खर्चा उस अंग्रेज भक्त ‘मि.स्टीफन’ ने ही दिया था, जो रामायणी काकी को ‘रामाज आंट’ कहकर ही पुकारता था। उसकी शर्त थी कि मंदिर पर ‘रामाज आंट’ लिखा जाए।

सुशांत मेरे बड़े भाई हरि और भाभी के लक्ष्मण देवर का ही बेटा है। पहली बार भारत आया है। इसलिए अपना गाँव देखने आ गया। सुशांत झटके से उठा, मंदिर के अन्दर गया। बड़ी देर तक उसका सर ‘रामाज आंट’ की गोद में था। “दादाजी मुझे इंडिया आना अच्छा लगा, गाँव आकर बहुत सुखद लगा। मैं फिर आऊंगा। अपने बच्चे और पत्नी को लेकर। रियली! वी आर प्राउड ऑफ रामाज आंट”।

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    • औरत और चूहा
    • केकड़ा का जीवन

2.5.1 औरत और चूहा

मालती चूहों से घृणा करती थी। धीरे-धीरे उसकी यह घृणा डर में बदल गई᷃। उसे जितना डर चूहों से लगता था, उतना शायद शेर से भी नहीं। उसके पिता हमेशा उसे समझाते थे कि चूहे का मनुष्य के साथ सहजीवन का सम्बन्ध है। उसका छोटा भाई राकेश उसके इस कमजोरी का नाजायज फायदा उठाता था। एक बार मालती एकाग्रचित्त होकर पढ़ रही थी। उसी समय राकेश एक मरे हुए चूहे की पूंछ पकड़कर ले आया। अचानक इस तरह चूहे को समीप देखकर मालती जोर से चिल्ला कर बेहोश हो गई।

मालती की माँ सरस्वती अपने बेटी की इस तरह से चूहों से डरने के कारण मिट्टी के घर में चारों तरफ ढूंढ-ढूंढ कर सभी छिद्र बन्द किया करती थी। उसका बस चले तो वो गाँव में भी एक चूहा न आने दे। लेकिन जहाँ मनुष्य रहेगा वहाँ आस–पास में चूहे-बिल्ली का होना स्वाभाविक है।

मालती को चूहों से डरने के कारण डांट-फटकार भी लगाती थी। अब उसे  हाई स्कूल पास कर कॉलेज में पढ़ने जाना था। उसी छुट्टियों के समय पिता उसको गाँव लेकर गये थे। मालती को धान का खेत देखने का बहुत मन था। पिता मालती को खेत दिखाने ले गए। खेतों में कटे हुए धान का भारी बोझा लेकर स्त्री पुरुष कतारों में लचक-लचक कर चल रहे थे। यह सुंदर दृश्य देखकर मालती को वह गीत याद आ गया जिनपर नाचकर वह अपने स्कूल में पुरस्कार लेकर आई थी –

धनमा के लागल कटनिया, भर लो कोठारी, देहरियो भरल बा

भरल बाटे बाबा बखारी, अबकी अघइले किसनमा हो राम । 

तभी राकेश जगह-जगह पर मिट्टी की लगी ढेर दिखाकर मालती को बताने लगा कि ये चूहों की मांद है। चूहों की बात आते ही मालती अपने भाई से चिपक गई। पिता ने राकेश और मालती दोनों को डांट लगाई। पिता का मन था बेटी डॉक्टरनी बने। घर आकर बेटी ने पिता से कहा, ये चूहे जंगल में क्यों नहीं रहते हैं। इसपर पिता ने चूहों की कारनामों के कई कथाएँ सुनाई। यहाँ तक कि यूरोप के हेमलिन शहर की प्रसिद्ध कथा ‘पाइड पाइपर ऑफ हेमलीन’ की प्रसिद्ध कथा भी सुनाई। पिता ने बहुत समझाया कि चूहे मनुष्य के जिन्दगी में बहुत महत्वपूर्ण हैं। यहाँ तक कि विज्ञान के 90 प्रतिशत प्रयोग चूहों पर ही होते हैं। मालती इन सब बातों को बिल्कुल सुनना नहीं चाहती थी। इसी बीच मालती का विवाह निश्चित हुआ। राकेश अपनी दीदी को चिढ़ाता था। मैं जीजाजी से कह दूँगा कि दीदी चूहों से डरती है।

मालती का विवाह हो गया। सुहागरात को मच्छर से बचने के लिए दोनों मच्छरदानी बांध रहे थे। मालती को एक चूहा मच्छरदानी के डंडों पर चलता दिखाई दिया। मालती डर के मारे जोर से चिल्लाई। उसकी आवाज सुनकर सभी मेहमान इकठ्ठा हो गए। उसके पति को लगा कि वह मानसिक रूप से अस्वस्थ है। बाद में राकेश बहन के ससुराल वालो को बताया की दीदी चूहों से बहुत डरती है। मनोज ने कहा कि ‘कैसी-कैसी वीरांगनाएं हैं, भारत की नारियाँ’।

दिन बीतते गए। मालती माँ बनी लेकिन चूहों से जान नहीं बची। उसके दोनों बच्चे पढ़-लिखकर अमेरिका चले जाने के बाद अब घर खाली-खाली हो गया। चूहे भी मानो अमेरिका चले गये हों। मनोज भी अपने जीवनसाथी का साथ छोड़ कर स्वर्ग सिधार गये। नई दिल्ली की इस कोठी में अकेली रह गई मालती। जब समाचार पत्र में कोई खबर आती कि ‘अकेले वृद्ध दम्पत्ति की हत्या हो गई’ या ‘अकेली वृद्धा को नौकर ने दिन दहाड़े गला घोटकर मर दिया’। तब समाचार के आगे चूहों का डर गायब हो जाता था।

मालती चूहों की जगह अब नौकर-नौकरानियों से भी डरने लगी थी। डर से मालती ने नौकरानी को भी बिना गलती के निकाल दिया। मालती के बदले हुए इस व्यवहार से नौकरानी ने कुछ नहीं कहा। वह चुप-चाप अपने घर चली गई। दरवाजा अंदर से बंद करके मालती इधर उधर घूमती रही। इस तरह अकेलेपन में बालकनी में बैठने से थोड़ा सकून मिलता था। उसने अपनी बाहें सहलाई। उसे अपना ही स्पर्स अच्छा लगा। जैसे उसका अपना स्पर्स नहीं बल्कि नीचे चल रहे लोगों का स्पर्स हो। मालती अपने अतीत को याद कर रही थी। अब तो मम्मी पापा भी नहीं रहे, जो बेटी की इतनी चिंता करते थे और राकेश को डांट पडती थी। दोनों बेटे बड़े होकर अमेरिका चले गये। आज वे उस घर में होते तो यही घर पोते-पोतियों से भरा रहता।

तबतक उसके पाँव के नीचे कुछ हलचल हुई। किसी मुलायम सी चीज का स्पर्स हुआ। मालती ने सांसे रोक ली। फिर उसे लगा कि यह कोई भ्रम तो नहीं था! लेकिन ये कोई भ्रम नहीं था। एक मोटा चूहा उसकी पाँव को छूकर दूसरी ओर भाग गया था। वार्डरोब खुला हुआ था जिसमें उसके कीमती कपड़े और जूते पड़े हुए थे लेकिन मालती को उसकी कोई परवाह नहीं थी। वह हिली तक नहीं बल्कि उसने सांसें रोक रखी थी। उसे लगा की हिलने डुलने से चूहा दुबारा नहीं आएगा। वह चूहे के पुनः आने की प्रतीक्षा कर रही थी। चूहे के ताजा स्पर्स की स्मृति उसे गुदगुदा रही थी। मनुष्य के स्पर्श का भूखा मन चूहे के क्षणिक स्पर्श मात्र से संतुष्ट होकर सुखद अनुभूति का एहसास दे रहा था। बहुत देर तक प्रतीक्षा करने के बाद भी चूहा नहीं आया। तब मालती ने अपने आप को दिलाशा दिया कि शायद चूहा समझ गया होगा कि उसकी पूरी जाति से मेरी पुरानी दुश्मनी है। इसीलिए नहीं आया होगा। मालती को अपनों के स्पर्श सुख के आभाव में कुछ दिन और ज़िन्दा रहने के लिए उसदिन के चूहे का जैविक स्पर्स सुख भी पर्याप्त था।  

2.5.2 केकड़ा का जीवन

सीता बहुत सुंदर थी। वह त्रेता युग की सीता तो नहीं थी और ना ही कोई राजकुमारी ही थी। देखने वाले कहते थे विधाता ने इसको फुर्सत में बनाया होगा। कहीं कोई कमी नहीं छोड़ी थी विधना ने। सीता का विवाह अवधेश से ठीक हो गया था। अवधेश बिहार के पूर्वी चंपारण जिला के मेहसी नामक गाँव का रहनेवाला है। कहते हैं, जर, जमीन और जोरू जोर की होती है। अवधेश के पास इसमें से कुछ भी नहीं था। सीता जितनी ही सुंदर थी अवधेश उतना ही काला-कलूटा।

सीता के मन में अपने होने वाले जीवनसाथी के लिए बहुत सारी कल्पनाएँ थी। पिता रामलगन संतुष्ट थे कि उसकी बेटी के लिए लड़का मिल गया था। गाँठ में पैसे थे नहीं। रूप लेकर कोई चाटेगा नहीं। बात ही बात में रामलगन के मुँह से निकल गया था “घी के लड्डू टेढ़ो भले”।

ब्याह कर ससुराल जाते समय सीता बहुत खुश थी। मानो संसार की सारी खुशियाँ विधाता ने उसके आँचल में डाल दिए हों लेकिन धीरे-धीरे हकीकत की धरातल पर सारे सपने टूटने लगे। पति निकम्मा था। उसने अवधेश को बहुत समझाया कि “कुछ तो काम करो। काम तो काम है, बड़ा क्या और छोटा क्या! बड़ी बात तो कमाई है। कमाई के बिना तो लुगाई भी नहीं बसती”।

अवधेश के कान पर जूँ नहीं रेंगी। परेशान होकर सीता मायके आ गई और स्वयं काम खोजने लगी। इसी बीच दिल्ली से आई मीना दीदी का सहारा पाकर वह दिल्ली चली आई। उनके घर का काम-धाम और अकेली बेटी सौम्या की देख-भाल का काम मिला। कुछ ही दिनों में उसका सुन्दर बदन निखर आया। एक ही महीने में सफेद रंग गुलाबी होकर गहरा गया। शरीर में खून भर जाने से पीले होंठ लाल हो गये थे। सीता को देखकर एक दिन मीना बुदबुदाई “इसके सौन्दर्य की रक्षा करना मेरे बूते की बात नहीं”।

एक दिन एक काला-कलूटा मरद मीना के फ़्लैट का कॉलबेल बजाया। सीता ने दरवाजा खोला और मुस्कुराकर आगंतुक का स्वागत किया। सीता को देखकर आगंतुक की आँखे चौंधिया गईं – ‘गिरा नयन अनयन बिनु बानी’ की स्थिति हो गई। पीछे से मीना की आवाज आई, ये कौन है? तब सीता ने बताया कि ये मेरे घर वाले हैं। मीना को आश्चर्य हुआ कि ये यहाँ कैसे पहुँचा? उसके मन में आगंतुक के प्रति तिरस्कार भाव था।

सौम्या ने बताया कि जब उसकी माँ मीना घर पर नहीं रहती थी तब सीता मौसी शायद इनसे ही फोन पर बातें किया करती थी और पत्र लिखकर इनको अपने पास बुलाया है। सीता ने कहा, उसका पति तो वैसे भी कोई काम नहीं करता है। लेकिन वह स्वयं अन्य घरों में काम करके इसका भी पेट पालेगी। गृहस्थ जीवन की सच्चाई है कि शादी-शुदा जिन्दगी में बच्चे भी हों। इसीलिए उसने अपने पति को बुलवाया है। सीता की इस समझदारी से मीना को दुःख हुआ उसे लगा कि सीता ने उसे ठग दिया है। दरअसल अपने राजनितिक जीवन में व्यस्त रहने के कारण सीता के आने के बाद वह सौम्या से निश्चिंत हो गई थी। मीना को लगता था कि उनका पति से सम्बन्ध विच्छेद हो ही जायेगा। किन्तु सीता अपने पति के साथ जाने के लिए मीना दीदी के बड़े फ्लैट को मानो अयोध्या के राजभवन जैसी सुख सुविधा को त्याग दिया। आखिर सीता जो थी। वह सर्वेण्ट क्वार्टर्स के पीछे बनी झोंपड़ी में चली गई और चार घरों में चौका-बर्तन करने लगी।

मीना धीरे-धीरे सीता को भूल गई थी । एक दिन अचानक दिल्ली के खान मार्केट में जाते हुए एक क्षीण काया स्त्री ने मीना का रास्ता रोका, “दीदी प्रणाम!” सीता उसके स्थिति को देखकर पहचान न सकी। सीता ने कहा “मैं हूँ दीदी, सीता। “ये मेरे दो बच्चे हैं।” मीना का क्रोध अब भी ठंढा नहीं हुआ था। उसने कहा हटो मुझे देर हो रही है। सीता उसके पीछे-पीछे चलती हुई बोली, मैं फिर पेट से हूँ दीदी। अब मै चौका बर्तन का काम नहीं कर सकती। किसी दफ्तर में कोई काम दिलवा दीजिए।

उसके दो बच्चे लव-कुश के साथ तीसरे को पेट में देखकर मीना का मन क्रोध से भर गया था। वह बिना कुछ बोले गाड़ी स्टार्ट करते हुए बुदबुदा रही थी। औरतें ऐसे ही होतीं हैं। दासी बनकर रहती हैं। इन्हें मर्द चाहिए। मरद के बगैर नहीं रह सकतीं क्योंकि बच्चा चाहिए। पालो तीन-तीन बच्चे। “मेरे घर की सभी सुख-सुविधाओं को लात मारकर चली गई थी। कैसा धप-धप चेहरा खिल गया था। अब चूसे हुए बीजू आम की तरह हो गई है। केकड़ा है केकड़ा, इसके बच्चे ही इसको खा जायेंगे।”

सीता ने अभी हार नहीं माना था। उसने अवधेश को पटरी पर लाने का भरपूर प्रयास किया। शरीर अब निर्बल हो गया था। फिर भी कई घरों में चौका बरतन करके परिवार चला रही थी। सिर के बाल सफेद हो गये थे। गाल अब सुख गये थे। फिर भी टूटी नहीं थी सीता। अब उसे तीन-तीन बच्चों को पढ़ाना था। पति तो निकम्मा था ही।

उस दिन टूट गई सीता। आठवीं कक्षा का छात्र बड़ा बेटा लव पैसे मांग रहा था। उसी लहजे में जिस तरह से उसका बाप माँगता था। सीता के पास पैसे नहीं थे। बेटे ने पैसे के लिए माँ पर हाथ उठा दिया। सीता की साधना भंग हो गई। बहुत रोई-चिल्लाई। बाहर खटिया पर बैठा अवधेश बीडी फूंक रहा था। मानो कह रहा हो – भूगतो तुम ही! तुम्हें ही बच्चा चाहिए था।

सीता अब टूट गई थी। एक बार फिर वह मीना के घर भागी इस आशा में कि अब शायद वही एकमात्र सहारा है। उसने सोच लिया था। अब बच्चों को पति के पास छोड़ देगी और मीना के पास रहेगी। उसने कॉलबेल दबाया। सौम्या ने ही दरवाजा खोला था। पूछा, “कौन?” पहचाना नही बिटिया? मैं तुम्हारी सीता मौसी!

पहचानने की कोशिश करते हुए सौम्या बोली, “हाँ, हाँ! पर आप ऐसी कैसे हो गईं?”

तबतक मीना आ गई थी। उसने सीता को पहचान लिया था। बोली, “हटो, भागो। यहाँ क्यों आई हो? जाओ अपने मरद के पास।”

सीता दोनों हाथ जोड़ कर बहुत गिड़गिड़ाई, “दीदी मुझे माफ़ कर दो। मुझसे गलती हो गई। जिस बच्चे के लिए निकम्मे पति को दिल्ली बुलवाई अब वही बच्चा मुझपर हाथ उठाने लगा है। मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? मुझे नहीं चाहिए बच्चा, नहीं चाहिए पति! मुझे बचा लो दीदी! मैं आपके पाँव पड़ती हूँ।”

मीना ने कहा कि दो दिन बाद फिर तुम्हें उनकी याद आएगी। तुम केकड़ा हो केकड़ा। मीना ने जोर से दरवाजा बन्द कर दिया। सीता के पैरों तले की जमीन सी खिसक गई। केकड़ा जमीन से ही निकलता है। उसे माँ की बात स्मरण हो आई। माँ कहती थी, “केकड़ा का बियान केकड़ा ही खाए”।

सीता भारी कदमों से घर लौट रही थी जहाँ उसके ही बियान थे अर्थात उसके ही बच्चे। जो उसे ही खाएँगे। खाने दो। यही नियति है। उसकी कानों में एक ही आवाज गूँज रही थी ‘तुम केकड़ा हो।’

घर जाकर सदा की तरह खाट पर गिर पड़ी थी सीता। दूर बैठा अवधेश सब देख रहा था। उसे विश्वास था कि वह फिर उठेगी। रोएगी-धोएगी और फिर खाना बनाएगी। पर सीता नहीं उठी। केकड़ा तो बरसात में जमीन से निकलता है लेकिन ग्रीष्म ऋतू में ही चली गई सीता। इससे पहले कि उसके बच्चे उसको खाएँ वह स्वयं चली गई।

तृतीय अध्याय

विवेच्य कहानियों में राजनीतिक यथार्थ

  • भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी 
    • राजनैतिक घटनाचक्र

3.3 जनता और सत्ता का सम्बन्ध

3.4 अन्य

तृतीय अध्याय

विवेच्य कहानियों में राजनीतिक यथार्थ

विवेच्य कहानियों में राजनीतिक यथार्थ :

आधुनिक युग में राजनीति, आर्थिक आधार पर प्रतिष्ठित होती है। इसलिए जीवन की रोजी-रोटी से लेकर कल-कारखाने, दुकान यहाँ तक की कार्यालय को भी राजनीति का ही मुखापेक्षी होना पड़ता है। राज्य के इस बढ़ते हुए कार्यक्षेत्र के कारण समाज में राज्य की नीतियों एवं उनकी कार्यान्विति का महत्वपूर्ण योगदान होता है। यही तथ्य समाज, सामाजिक व्यवस्था एवं मूल्यों के संदर्भ में क्रियान्वित होता है।

     स्वतंत्रता से पहले समूचे भारतीय समाज में राष्ट्रीयता, राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ति को ही सबसे अधिक महत्व दिया जाता था। स्वतंत्रता काल एवं संविधान निर्माण के समय तक राष्ट्रीयता की भावना अपने चरम बिंदु पर थी। किन्तु कालांतर में धीरे-धीरे इस भावना की निष्ठा में कमी आने लगी और समाज में विद्यमान जातीय, सांप्रदायिक, सांस्कृतिक तथा भाषाई विभिन्नताएँ उभरने लगी। भारत के एक राष्ट्रीय इकाई के रूप में गठित होने के बावजूद भी देश का राष्ट्रीय-बोध अराष्ट्रीय अथवा राष्ट्रद्रोही तत्वों के द्वारा खंडित होता रहा है। राजनीतिक भावना को कहीं व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति की ओर मोड़ दिया गया तो कहीं उसे दलीय स्वार्थ के रूप में बदल दिया गया है। कहीं-कहीं गुटबंदी के रूप में। स्वतंत्रता के बाद की राजनीति को आधार भूमि के रूप में ग्रहण करके बहुत सारे उपन्यास, कथा व कहानियाँ लिखी गई हैं। मृदुला सिन्हा जी की भी कई कहानियाँ सामाजिक परिप्रेक्ष्य में राजनीति के दंश को सूक्ष्मता से बयां करती हैं। लेखिका ने अपने कई कहानियों में राजनीति विचारधारा के मूल्य को स्पष्ट किया है। मृदुला सिन्हा जी ने अपने कहानियों में निम्न और निम्न मध्यम वर्ग को ही केंद्र में रखकर राजनीतिक सरोकारों को उद्घाटित किया है।   

3.1 भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी

आधुनिक युग में भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी ताकतवर हो गई है कि अब साँस लेने के लिए भी भ्रष्टाचार का ही सहारा लेना पड़ता है। आज जीवन के हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार का ही बोलबाला है- डॉ. भैरू लाल गर्ग ने लिखा है- “हमेशा बड़ा आदमी छोटा आदमी का शोषण करता है और वह छोटा आदमी अपने से छोटे आदमी का शोषण करता है, इस तरह से इस शोषण की प्रक्रिया का कहीं भी अंत नहीं है। व्यक्ति जब बार-बार उन्हीं स्थितियों से गुजरता है, तो सारी नैतिकता और आदर्श धरा-का-धरा रह जाता है और व्यावहारिक धरातल पर उतरकर स्वहित की स्थिति को सर्वोपरि समझकर सब कुछ करने के लिए वह अपने आप को तैयार कर लेता है।”1

आज समाज में भ्रष्टाचार इस कदर फैला हुआ है जैसे पानी में काई लग गया हो। वर्तमान में सबसे अधिक भ्रष्टाचार राजनीति में देखने को मिलता है। ये लोग पैसे के बल पर अनेको दुष्कर्म करते रहते हैं। वर्तमान समय में अर्थ ही भ्रष्टाचार का मुख्य जड़ है। अर्थ के कारण ही दिन पर दिन चरित्रहीनता में वृद्धि हुई है और यौन संबंध भी दिन-प्रतिदिन विकृत होते जा रहे हैं। नारी जाती पर होने वाला अत्याचार भी इसी परिधि में आता है। जिस नारी को घर का देवी माना जाता है, उस पर होने वाले अत्याचार भ्रष्टता का द्योतक है। यह स्थिति भी किसी-न-किसी विकृति को लेकर ही उत्पन्न हुई होगी। गार्डन चार्ल्स रोडर ने लिखा है, “निम्न अथवा मध्यवर्गीय नारियों कि आधार भूत समस्याओं में से एक समस्या यह है कि वह अपने परिवार के भीतर ही जीवन की संपूर्ण सार्थकता को पाना चाहती है, यदि उसके पति और बच्चे उसे यह संतोष नहीं दे कि उसके पास कोई ऐसी भीतरी क्षमता नहीं है जिससे वह स्वयं अपने निजी सुख की रचना कर सके। ऐसा परिवार पत्नियों के संकट को और भी दयनीय बना देता है”।2 इससे यह स्पष्ट होता है कि इस प्रकार के परिस्थितियों के परस्पर उत्तरदायी कभी पत्नी और कभी दोनों ही होते हैं।

  1. आज की हिन्दी कहानी : डॉक्टर भैरन लाल गर्ग, पृष्ठ – 73
  2. हिन्दी कहानी : अलगाव का दर्शन ले. गार्डन चार्ल्स रोडर मल, पृष्ठ–107

वर्तमान समय में युवा वर्ग सबसे अधिक पथ-भ्रष्ट हुआ है। इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण है कि आज के युवा वर्ग ने पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण किया है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि भारतीय सांस्कृति का ह्रास होने लगा है और नैतिक जीवन मूल्यों का दिन प्रतिदिन पतन होता गया। अतः यह कहा जाए कि समाज के प्रत्येक क्षेत्र में भ्रष्टाचार का बोलबाला है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आज समाज में भ्रष्टाचार ने अपनी पकड़ इतनी मजबूत बना ली है कि उसे समाज से उखाड़ फेंकना बहुत ही जटिल कार्य हो गया है। मृदुला सिन्हा जी ने पुनर्नवा कहानी में होने वाली उस भ्रष्टाचार का पर्दाफास किया है। यह वह स्थान है जहाँ पर रोगी, पीड़ित और दु:खी व्यक्ति ही जाते हैं, किन्तु इस स्थान पर भी अस्पताल के कर्मचारी उनलोगों को नहीं छोड़ते हैं। उनके दर्द को समझने वाला एक ही फौजी अभय सिंह है। जो लोगों का निःस्वार्थ सेवा करता है।

‘पुनर्नवा’ कहानी में अभय सिंह को फौज से रिटायर होने के बाद शहर के एक अस्पताल में ही ऑपरेशन थियेटर में नौकरी मिल जाती है। वे फौज में भी मेडिकल कोर में कार्यरत थे। ऑपरेशन थियेटर में कई लोग रिश्वत लेकर बहुत खुश थे लेकिन कुछ लोग (अभय सिंह) निःस्वार्थ सेवा करके खुश रहते है। अभय सिंह के तीसरी बिटिया की जिस दिन छठी मनाई जा रही थी, उस दिन भी अभय सिंह गायब थे। मिथिलेश का ध्यान उधर ही था। बोली, “नहीं आए ना! नहीं आएँगे। मैं जानती हूँ।”

सुभद्रा ने कहा, “तुम बहुत सौभाग्यशाली हो, मिथिलेश। अपने लिए तो सभी जीते हैं दो पल दूसरों के लिए जिए, वही इन्सान कहलाता है।”1

बेटियों को बड़ी होते कहाँ देर लगती है। बड़ी बेटी पुष्पम ब्याह योग्य हो गई। लड़का ढूँढना था। पर गाँठ में पैसे नहीं थे। सुभद्रा को तभी याद आता है। उसके कानों में किसी ने कहा था, “अस्पताल में अभय सिंह के साथ काम करने वालों ने कोठियाँ बनवा ली है। बच्चों को डोनेसन देकर डॉक्टर-इंजिनियर बनवा रहे हैं। अभय तो बस ऐसा ही रह गया। मेहनत में कमी नहीं है, पर कमाई के नाम

  1. ढ़ाई बीघा जमीन, पुनर्नवा, पृ०स०–117

पर वही सुखी तनख्वाह।”

यह बात तो मिथिलेश ने भी कई बार उठाई थी, “रमेश भी तो आप ही के साथ काम करता है  फिर उसके पास इतना रुपया कहाँ से आता है?

उसकी पत्नी का शरीर तो सोने से लदा हुआ है। बड़ी कोठी बनवा ली। आपको क्या होता है?”1

अभय सिंह के पास इसका कोई उतर नहीं था। अभय सिंह को परेशान देखकर सुभद्रा ने पूछा, “आखिर आपके संगी साथी अच्छी कमाई करते हैं, आप क्यों नहीं?” अभय सिंह ने भाभी के आँखों में आँखें डालकर कहा, “भाभी मैं इनलोगों का रास्ता नहीं अपना पाता हूँ। क्या करूँ! बहुत कोशिश की। पर मैं उनके जैसा नहीं बन पाया। जब कभी कोई दुर्घटनाग्रस्त स्त्री-पुरुष अस्पताल में आते हैं। उन्हें जब ऑपरेशन थियेटर में ले जाते हैं। उस समय वे बेहोश होते हैं। तब हमारे हॉस्पिटल के साथी उनके घड़ी, चैन रुपया पैसे आदि निकाल लेते हैं। ऊपर से उनके घर वालों से भी पैसा ऐंठते हैं। गर्भवती स्त्री को ऑपरेशन टेबल पर लिटाकर घरवालों से अनाप-सनाप बोलकर पैसा ऐंठना यह सब मुझसे नहीं होता।

“मैं सेना के मेडिकल कोर में था। वहाँ जो सैनिक घायल होकर आता था, उसकी सेवा सुश्रुषा प्रारंभ करने से पहले हम उस घायल शरीर को सैल्यूट करते थे; क्योंकि वे देश के लिए घायल होते थे। उनकी मृत्यु के बाद भी हम सैल्यूट करते थे। इन दुर्घटना ग्रस्त लोगों की क्या गलती। ये भी तो परिवर को जीवन दान देने की खातिर किसी नेक काम के लिए घर से बाहर निकलते हैं। किसी की लापरवाही से दुर्घटना हो जाती है। इसमें इनका क्या कसूर? इन बेकसूर घायलों को क्यों लूटना?”2 थोड़ी देर के लिए समय ठहर गया था। अभय सिंह ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, भाभी आप मेरी माँ जैसी नहीं हैं, आप मेरी माँ हैं। जन्म देने वाली तो नहीं रही, आप कहें तो मैं भी वैसे ही करूँ, जैसे मेरे साथी करते हैं। जीवन में शायद पहली बार अभय सिंह ने अपनी भाभी सुभद्रा से आँखों में अपनी आँखें गड़ा कर बात किया था। सुभद्रा की आँखें बंद हो गई थी। दरअसल समाज में फैले भ्रष्टाचार के दलदल और कीचड़ से निकल कर धुले वस्त्र में कोई सामने खड़ा हुआ था। उसकी आभा अपने अन्दर तक पचाने में समय तो लगना ही था।

  1. ढ़ाई बीघा जमीन, पुनर्नवा, पृ०स०–117
  2. ढ़ाई बीघा जमीन, पुनर्नवा, पृ०स०–118

3.2 राजनैतिक घटनाचक्र :

राजनीति मानव के द्वारा बनाया गया सामाजिक व्यवस्था का एक अभिन्न अंग है। आज समय के साथ-साथ सत्ता और शासन-प्रणाली संबंधी सामाजिक मान्यताओं में भी बदलाव होता जा रहा है। भारतीय जनता एक ओर उसके आविर्भाव से जनतांत्रिक शासन प्रणाली का समर्थक है तो दूसरी ओर उसकी तानाशाही प्रभु सत्ता का विरोधी भी है। हम सभी इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ है कि जब तक सामाजिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होगी तब तक राजनीतिक स्वतंत्रता का भी कोई महत्व नहीं है। गांधी जी के नेतृत्व में अनेक देश-भक्त नेताओं ने देश के लिए अपने प्राणों का बलिदान किया। ब्रिटिश सत्ता का विरोध और स्वराज प्राप्ति की माँग इसी राष्ट्रीय भावना का परिणाम है। आज भारत की राजनीति दिशाहीन हो गई है। सबके मन में यह बात थी कि अंग्रेज भारत छोड़कर चले जायेंगें तो सब कुछ ठीक हो जाएगा। यह विचार जनता के मन में था लेकिन भारतीय राजनीति में कुछ भी ऐसा परिवर्तन नहीं आया।

इसलिए ‘चार चिड़ियाँ, चार रंग’ कहानी में मनु को राजनीति में आने से घर का कोई भी व्यक्ति खुश नहीं था। परिवार के लोग इसलिए मनु से अपना रिश्ता भी नहीं रखना चाहते थे।

‘चार चिड़ियाँ, चार रंग’ कहानी में घनश्याम चार भाई हैं। घनश्याम के चाचा राघवेन्द्र अपने चारों भतीजों से बहुत प्रेम करते हैं। सबसे बड़ा घनश्याम उसके बाद दो-दो साल के अंतर पर ही हरि, शिवा और मनु। समय बीतते देर नहीं लगता है। समय बिना रस्सा, ईंधन के तेजी से खिसकता गया। वे भी चारों बड़े हो गए। राघवेंद्र नौकरी करने लगा। उसका विवाह हो गया और दो बच्चे हो गये। अब तक चारों भाई के लक्षण और कर्म का पता लगने लगा था। घनश्याम पढ़ने-लिखने में तेज था। वह आई० ए० एस० बन गया। दूसरा हरि प्राइवेट कम्पनी में था। तीसरा शिवा था जिसे पढ़ने-लिखने का मन ही नहीं था। उसने बारहवीं पास करके पढ़ाई छोड़ दिया। किसी तरह राघवेंद्र ने उसे अपने दफ्तर में ही चपरासी के पद पर आसीन करवा दिया। मनु घर के सभी से पढ़ने में तेज था। राघवेंद्र को विश्वास था कि वह पहली बार में ही आई० ए० एस० निकाल लेगा। उसका मन पढ़ाई-लिखाई में नहीं बल्कि शहर के छुट भैया नेताओं की संगति में उठने-बैठने में गुजरने लगा था। आए दिन धरना प्रदर्शन में जेल जाता था। माँ से जबरदस्ती पैसा माँगता था। उसके इस स्वभाव से माँ-पिताजी दुखी थे। उन्होंने राघवेन्द्र को कहा कि इसे भी अपने पास बुला लो। एम० ए० में फर्स्ट क्लास फर्स्ट आने के बाद भी मनु गुमराह हो गया है। आये दिन धरना प्रदर्शन में जेल चला जाता है। यह सब सुनकर राघवेन्द्र को अच्छा नहीं लगा। उसने  इस बात को अपनी पत्नी से भी नहीं कहा। वह मनु को बुलाकर अपने घर में रखना भी नहीं चाहता था क्योंकि राघवेन्द्र के दोनों बच्चे पढ़ने लिखने में अच्छे थे। अभी भैया के पत्र का जबाब भी नहीं दे पाया था कि दूसरे ही दिन बड़े भैया मनु को लेकर दिल्ली पहुँच गए। मनु को देखते ही मानो घर में मातम छा गया। दोनों भाइयों की स्थिति को देखकर ममता खाना परोसते हुए पूछ बैठी, “भाई साहब आखिर मनु ने ऐसा किया क्या है कि आप लोग मातम मना रहे हैं? राजनीतिक पार्टी का काम ही तो करने लगा है। इसमें क्या बुराई है? यही लोग तो नेता कहलाते हैं; मंत्री, प्रधानमंत्री बनते हैं।” नेता का नाम सुनते ही दोनों भाई के मुँह बिचक गए, मानो ममता ने उनके खानदान को कोई गाली दे दी हो। शिवा का चपरासी बनना उन्हें कबुल था। पर उनके घर का कोई होनहार लड़का किसी राजनीतिक पार्टी का कार्यकर्ता बन जाए, उन्हें यह मंजूर नहीं था। अनपढ़-गंवार होता तो बात भी बनती। मनु तो चारो भाइयों में सबसे होशियार था। घनश्याम का छोटा भाई मनु राजनीति में आना चाहता है। लेकिन घर के किसी भी व्यक्ति को राजनीति में उसका आना अच्छा नहीं लगता है। इस तरह बदलते समय में राजनीति के प्रति समाज में क्या सोच है? इस कहानी में दिखता है। कोई भी प्रतिष्ठित व्यक्ति अपने परिवार के नई पीढ़ी को राजनीति में आने देना पसन्द नहीं करता है। लेखिका ने ‘चार चिड़ियाँ, चार रंग’कहानी में इस बात का सार्थक चित्रण किया है।

  • जनता और सत्ता का सम्बन्ध :

भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश में जनता ही सत्ता के प्रतिनिधियों का चुनाव करके भेजती है। परन्तु सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इसी लोकतांत्रिक समाज में व्यक्ति अधिक से अधिक भ्रष्ट होते जा रहे हैं। सत्ता का जनता से केवल संबंध वोट बटोरने तक ही सीमित है। भारत के आजादी के बाद से सामान्य व्यक्ति के सपनों को इसी राजनैतिक सत्ता ने तोड़ा है। मोहभंग की स्थिति में व्यक्ति और भी कमजोर अविश्वसनीय, अनागरिक आदि बनता जा रहा है। आजादी के बाद से जनता और सत्ता के संबंध को कई कहानीकारों ने अपने कथा-सौन्दर्य के माध्यम से प्रतिबिम्बित किया है। मृदुला सिन्हा जी ने अपने कहानियों में जनता और सत्ता के संबंध को सुदृढ़ बनाने के लिए देशकाल, वातावरण और व्यक्ति सापेक्षता के संदर्भ में मूल्यों को देखा और परखा है। इन्होंने मानवता के उच्च गुणों के प्रति गौरव भाव को जगाने का प्रयास किया है। मानव परित्राण के लिए नैतिकता का आग्रह तथा सन्मार्ग का संदेश इनके साहित्य में आद्योपांत विद्यमान है। राजनीति देश को सही दिशा की ओर ले जाने और विकास के पथ पर अग्रसर करने के लिए जरूरी कार्य व्यापार है। मृदुला सिन्हा लेखिका के साथ-साथ एक राजनेत्री भी हैं। इस नाते उनके यहाँ राजनीति मूल्य का बोध भी गहरा है। वे राजनीति को एक अनुशासन के रूप में देखती हैं। संवेदनशील मन की स्वामिनी जब जनता के इस मंच पर जनता की सेवा के लिए जुट जाए तो विकास का पथ उर्ध्व गति से आरूढ़ होता है। उनके कथा साहित्य में राजनीतिक मूल्य बोध की एक गहरी छाप आद्योपांत विद्यमान है। जिसे उनकी चयनित कहानियों से समझा जा सकता है। मृदुला सिन्हा जी का एक लघु कथा संग्रह- ‘देखन में छोटे लगै’ जिसमे 78 लघुकथाएँ संकलित हैं। इसमें एक लघु कथा है- ‘मंत्री और आदमी’ इस कथा में राजनेताओं के संवेदनशील व्यवहार को चित्रित किया गया है। कहानी मंत्री और उसके ड्राइवर के बीच बने संबंधों को लेकर है। ड्राइवर शिवमूरत जब अपने मंत्री जी को स्टेशन पर छोड़ने गया तब उसकी सिसकियाँ तेज हो जाती है। उसके एक साथी ने जब कारण पूछा तो उसने कहा- यार तुम समझने की कोशिश कर। यह मंत्री जब कभी स्टेशन या एयरपोर्ट जाता है तब सबसे पहले मेरे बच्चों का हालचाल पूछता है, बाद में अपने घर और बच्चों का। सर्दी आने से पहले ही मेरे बच्चों के गरम कपड़े के लिए पुछ-ताछ करता है और खरीदकर भिजवा देता है। गर्मी का मौसम आते ही कमरे में कूलर लगा कि नहीं, यह सब पूछने लगता है। मेरे घर के चौका-चूल्हें तक की बातें पूछता रहता है। मेरी बिमारी में तो मेरे कमरे में आकर बैठ गया। यार ऐसा मंत्री तो मैंने नहीं देखा है। यह पहला मंत्री है। राजनीति में ऐसे व्यवहार के बहुत ही कम लोग मिलते हैं। मृदुला सिन्हा जी राजनीति में रहते हुए राजनितिक परिवेश की सच्चाई से अवगत हैं। राजनीति के वास्तविकता से भी उनका परिचय रहा ही है। भले ही सीधा न रहा हो। देखती तो रही ही होंगी। उस देखे हुए राजनीतिक परिवेश की कुछ-कुछ सच्चाई उनके कहानी साहित्य में दृष्टिगोचर हो जाती है।1

3.4 अन्य :

मृदुला सिन्हा जी ने अपने कहानियों में अन्य कई संस्याओं का भी चित्रण बड़ा ही यथार्थ रूप में किया है। उनकी निम्नलिखित कहानियों में अन्य संदर्भो को दिया गया है- ‘औलाद के निकाह पर’ कहानी में दाम्पत्य जीवन के प्रेम की कहानी है। इस कहानी में लेखिका ने संतति सुख के बीच चलते-उतरते, उतराव-चढ़ाव, परिवार की सुख समृधि में ही पति-प्रेम की कथा को पिरोया है। इस कहानी में हिन्दू-मुस्लिम समाज का समन्वय है। आपस में धर्म की स्वीकार्यता है। आपस में धर्म की स्वीकार्यता है। शौहर के लिए तीज व्रत रखने की परम्परा का निर्वाह भी हुआ है।

साइदा लेखिका से कहती है, हाँ मामी जी तभी तो मैं तीज व्रत भी करती हूँ। शिव-पार्वती का व्रत हुआ तो क्या? है तो सुहाग का व्रत। सात जन्म तक वही शौहर मिले, इसके लिए ही तो है व्रत।” लेखिका ने कहा, “तुम तो सिंदूर भी नहीं

  1. देखन में छोटे लगै (कहानी संग्रह) पृ० स०-14

लगाती हो। तुम्हारे में तो सिंदूर नहीं होता। सुहागिनें सिंदूर भी नहीं लगातीं, बुरका

पहनती हैं। तुम तो वह भी नहीं पहनती हो?” “मामीजी अब तो जमाना बदला है तो सब बदल गया है। क्या हिन्दू, क्या मुस्लिम! साथ-साथ ही तो सब रहते हैं। इसलिए एक दूसरे को देखकर सभी सीखते हैं।”1

बात तो सकीना के निकाह की होनी थी। साइदा के वैवाहिक जीवन के पड़ाव इतने मनभावन थे कि तब से वही अटकी हूँ, जब से उन पडावों पर साइदा में विलमाया। हर दम्पति को अपने औलाद की शादी पर अपना निकाह स्मरण हो आता ही है। साइदा जैसा दाम्पत्य हो तो दुआएँ रिसती हैं।2

बेटी का कमरा’ कहानी में माइके के प्रति बेटी के प्रेम समर्पण को चित्रित किया गया है, तो वही दूसरी ओर बेटी के प्रति माइके वालों (माँ-बाप) के समर्पण को भी दर्शाया गया है। राधामोहन की पहली संतान उनकी बेटी ‘लक्ष्मी’ है। उसके बाद उनके दो बेटे भी हुए। राधामोहन जी का अवकाश प्राप्ति का समय आ गया था। उन्होंने पटना में एक जमीन का प्लौट ले रखा था। अवकाश प्राप्ति से पूर्व घर बनना आवश्यक था।

सरकारी फ्लैट में रहकर ही मकान बन जाए तो अच्छा था। गाँव की थोड़ी-बहुत जमींन भी बिकी। दोनों बेटे नौकरी में हैं पर उनकी आय में बचत कहाँ होती है! और वे अभी घर बनाने की मनः स्थिति में भी नहीं थे। इसलिए घर बनाने की सारी जिम्मेदारी राधामोहन जी और उनकी धर्म पत्नी की ही थी। तीन महीने में फ्लैट बनकर तैयार हुआ। गृह-प्रवेश में लक्ष्मी को बुलाना आवश्यक था।

संयोग से उसके पति को भी पटना में किसी दफ्तर के निरीक्षण का सरकारी दायित्व मिला था। एक दिन के लिए राहुल भी आ गए। बाहर से ही घर देखकर दोनों खुश हुए। राधामोहन जी ने कहा, “बेटी, तुम दोनों पहले ऊपर चलो। निचे के कमरे को बाद में देखना”।

  1. ढ़ाई बीघा जमींन औलाद के निकाह पर पृ० सं०-36
  2. ढ़ाई बीघा जमींन औलाद के निकाह पर पृ० सं०-37

ऊपर का भव्य कमरा, बाथरूम की सजावट देखकर दोनों दंग रह गए। क्या सुन्दर और आधुनिक उपकरण लगाए थे। एक-एक चीज के चयन में बेटी के आराम और शौक का विशेष ध्यान रखा था। लक्ष्मी इतना सोच भी नहीं सकती थी। उसने इतना ही कहा, “बाबूजी आपने आर्किटेक्ट और इंटीरियर डेकोरेटर बहुत योग्य रखे। दिल्ली से से मँगवाए क्या?”1

“नहीं बेटी, ऐसा कोई नहीं था! दोनों की भूमिका मैंने ही निभाई है”। “अच्छा! “यह कमरा तुम्हारा है, बेटी।”

“मेरा! मेरा कमरा क्यों?” लक्ष्मी सुखाश्चर्य में डूब गई। “हाँ-हाँ, इनका कमरा क्यों?” राहुल भी पूछ बैठे। “तुम्हारा कमरा क्यों नहीं? पहली संतान तो तुम ही हो, फिर तुम्हारा कमरा क्यों नहीं? तुम्हारे रूचि और आवश्यकता के लिए कुछ विशेष प्रावधान किया है। यह तुम्हारा कमरा है। तुम दोनों साल में एक बार एक दिन के लिए ही आए तो क्या ढंग का कमरा तो चाहिए।

मृदुला सिन्हा जी बहुआयामी प्रतिभा की धनी है। इन्होंने अपने आप को केवल अध्ययन अध्यापन तक ही सीमित नहीं रखा; बल्कि उन्होंने अपने व्यक्तित्व को प्रभावी विस्तार देते हुए मिडिया में भी भागीदारी निभाई। इन्होंने बच्चों की सर्जनात्मक प्रतिभा को निखारने के लिए लोक जीवन पर भी कलम चलाई और ‘पुराण के बच्चे’ तथा बिहार की लोककथाएँ लिखी।

बाल भारती में इन्होंने दो वर्षों तक ‘दादी माँ की पोती’ (धारावाहिक) बच्चों के लिए लिखा। मृदुला सिन्हा जी ने रेडियो, दूरदर्शन तथा निजी क्षेत्र के टेलीविजन चैनलों द्वारा राजनीतिक मुद्दों, महिलाओं और बच्चों पर आयोजित विचार-विमर्श में नियमित रूप से भागीदारी करती रही। उन्होंने टेलीविजन कार्यक्रमों के लिए

  1. बेटी का कमरा,पृष्ठ संख्या-45

बहुआयामी लेख भी लिखे हैं। इनके द्वारा लिखे गए लेख-निबंध, विचारपूर्ण साक्षात्कार विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं। सन् 2015 में डी०डी० न्यूज पर इनका ‘तेजस्विनी’ नाम से इंटरव्यू भी प्रसारित हुआ था।

निष्कर्ष :

मृदुला सिन्हा ने कथा साहित्य में मानव जीवन की समस्याओं को प्रखरता के साथ उजागर किया है। भारतीय संस्कृति की महता को भी इन्होंने अपने साहित्य में स्थान दिया है। वे अपनी कहानी के माध्यम से लोक चेतना का शंख फूँकती हैं। वे निरंतर भारतीय लोक जीवन के नजदीक रहकर अपनी लेखनी चलाती हैं। भारतीय चिंतन के बूते से वे अपने पात्रों में भी सजीवता का संचार करती हैं। उनकी कहानियाँ जैसे मन को छू जाती हैं, वैसे ही इनके पात्र और संवाद अपनी विचार धर्मिता से एक मौलिक संसार रच जाते हैं। वे अपने परिवेश से जिस कहानी की कथा का ढाँचा गढ़ती हैं वैसा ही परिवेश उन्हें और भी मजबूती प्रदान करता है।

भारतीय चिंतन परंपरा से ओतप्रोत मृदुला सिन्हा जी की कहानियाँ मानव जीवन को उसके जीवन की राह दिखाती हैं। उनके लगभग सभी कहानियों में कहीं न कहीं जीवन मूल्यों के साथ भारतीयता का पक्ष अवश्य जुड़ा हुआ होता है। मुझे उनकी कहानियों को पढ़ने के समय ऐसा महसूस होता है, जैसे उनकी हर कहानी की मैं भी एक पात्र हूँ। यही उनकी रचना की अनोखी विशेषता है। शहर और गाँव का आँचल मृदुला जी के लेखनी को छाँव देता है। वे यहीं से अपने कथा साहित्य में स्वत:जीवन की सार्थकता को सिद्ध करता है।

चतुर्थ अध्याय

विवेच्य कहानी संग्रह में सामाजिक यथार्थ

  • पारिवारिक जीवन का यथार्थ
    • स्त्री पुरुष सम्बन्धों में यथार्थ
    • सन्तान की समस्या
    • सम्बन्धों का टूटना
    • नारी जीवन का यथार्थ
    • सामाजिक जीवन मूल्यों का यथार्थ

चतुर्थ अध्याय

विवेच्य कहानी संग्रह में सामाजिक यथार्थ

विवेच्य कहानी संग्रह में सामाजिक यथार्थ :

    समाज की संकल्पना का मूल आधार संवेदना, सौहार्द व संस्कार है। यही तथ्य समाज में सामाजिक व व्यक्तित्व विकास की आधारशिला है। समय और परिस्थितियों के अनुसार व्यक्ति में परिवर्तन होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, किन्तु संस्कारों से निर्मित व्यक्ति द्वारा विकसित उच्च आदर्श समय के परे रहकर समाज के प्रेरणादायी बन जाते हैं। हमारे परिवेश में प्रचलित अनेक लिखित और मौखिक कथाकारों के अनेकों आदर्श हैं। सामाजिक जीवन में प्रचलित कहानियों ने समाज निर्माण में विशेष योगदान दिया है। सामाजिक संरचना में सामूहिक जीवन पद्धति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ले जाने वाली कहानियाँ आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी सदियों पहले थी। जनमानस में संस्कारों और संवेदनाओं के प्रवाह का माध्यम कहानियाँ ही हैं। सामाजिक यथार्थ का अर्थ होता है समाज की वास्तविक अवस्था का यथार्थ चित्रण। परन्तु साहित्य के अन्दर किसी भी वस्तु का हू-बहू चित्र उतारकर रख देना कठिन होता है, क्योंकि साहित्यिक चित्र कैमरे द्वारा लिया गया चित्र नहीं होता है। वह तो साहित्यकार की कूची द्वारा चित्रित किया गया ऐसा चित्र होता है जिसमे साहित्यकार की कल्पना और अनुभव के रंग भरे होते हैं।

4.1 पारिवारिक जीवन का यथार्थ :

    परिवार सामजिक जीवन की पाठशाला है। सामाजिक जीवन में पारिवारिक जीवन का यथार्थ प्रमुख है। मनुष्य का यथार्थ जीवंतरूप परिवार द्वारा ही संपन्न हुआ है। परिवार सामाजिक जीवन की पहली कड़ी है। दाम्पत्य संबंध के गठन में परिवार का दायित्व महत्वपूर्ण होता है। श्री शम्भुरत्न त्रिपाठी के शब्दों में- “परिवार सामाजिक गुणों की निधि है इसमें  सेवा, त्याग, प्रेम, सहयोग, सहनशीलता, आदि सब महत्वपूर्ण गुण है।”1

  1. डॉ० सीताराम जायसवाल- पृष्ठ सं०-15

(क) मृदुला सिन्हा के विवेच्य कहानी “अनावरण” मेंसास बहू को एक दूसरे के प्रति समर्पण को चित्रित किया गया है। इस कहानी में सास और बहू दोनों एक दूसरे के प्रति समर्पित हैं। एक तरफ बहू के द्वारा उसकी महानता का अनावरण किया गया है तो वही दूसरी ओर सास अपनी बहू को उसके मंजिल तक पहुँचाने का भरपूर कोशिश करती है, और वह कामयाब हो जाती है। वे बहु से कहती है-

    एक दिन उन्होंने (सास) कहा, “प्रभाती! मेरा जीवन खाना बनाने में बीता है। पचास वर्षों से मैं सुबह-शाम खाना बनाती रही। परिवार और कभी-कभी मेहमान भी खाते रहे। कभी स्वादिष्ट, कभी बेस्वाद भोजन बना। आज तुम्हें नहीं दिखा या चखा सकती कि कब, कैसा खाना बनाया! मेरे परिश्रम और मनोयोग से बनाए भोजन की हाँड़ी पंद्रह मिनट में खाली हो जाती थी। पर पढ़े-लिखे लोग जो कागज पर लिख देते हैं, वह कभी भी नहीं मिटता। तुम्हारा लिखा हुआ तुम्हारे नाती-नातिन भी पढ़ेंगे। हमारा काम अच्छा है, पर तुम्हारा काम हमसे अच्छा।1      

       उपर्युक्त पंक्तियों में पारिवारिक समरसता के लिए चार गुणों का वर्णन किया गया है। परिवार में सहनशीलता, स्नेहशीलता, श्रमशीलता और पारस्परिक विश्वास आवश्यक होता है। इन गुणों को सहेजकर रखने के कारण ही कहानी ‘अनावरण’ की नायिका सत्यवती देवी अपने परिवार का संचालन करती हुई सफल होती है।  

    (ख)  वहीं कहानी ‘औलाद के निकाह पर’ में पति पत्नी के प्रेम और विश्वास का वर्णन है- साइदा कहती है, “मेरे लिए तो वे खुदा ही हैं। मेरी सास मेरा रंग-रूप देखकर इनकी दूसरी शादी करवाना चाहती थी। मेरी तीन बेटियों के जन्म के बाद भी इनकी दूसरी शादी के लिए सास ने एक लड़की देख ली। ये नहीं माने। बोले, ‘औरत हो या मरद। निकाह तो एक बार ही होता है।’ उस लड़की से मेरी सास ने अपने भाई की शादी करवा दी। तब से अपने मामा के घर जाना ही छोड़ दिया इन्होंने। अब ऐसे इंसान के आगे मैं आँसू कैसे बहाऊँ? पर सकीना के लिए आँसू तो अभी से बहने लगे हैं।”2उपर्युक्त कहानी में पारिवारिक मूल्यों को दर्शाया गया हैं। जिस प्रकार पति अपनी पत्नी का आदर करता है, उसी प्रकर पत्नी भी अपने पति पर समर्पित है।

  1. औलाद के निकाह पर, पृष्ठ सं०-20
  2. औलाद के निकाह पर, पृष्ठ सं०-35 

    (ग) ‘कटोरी’ कहानी में बेटी को अपने मायका के प्रति निःस्वार्थ समर्पण और प्रेम का वर्णन है। परिवार के लोग अपनी विवाहिता बेटी से लगाव रखे या ना रखे परन्तु बेटी को अपने मायका से कभी भी स्नेह कम नहीं होता है- ईआ नहीं रही। “दो वर्ष बाद ही भाइयों में बँटवारा हुआ। जमीन-जायदाद के बाद बरतनों के बाँटने की बारी आई थी। संयोग से मैं वहीं थी। भाभियों के नौकर अपने हिस्से के बर्तन उठाकर बड़े बोरे में कसने आ गए थे।

    “पड़ोसी भी बँटवारे का तमाशा देखने आ गए। शाम ढल रही थी। कौआ के आने की कोई आस नहीं बची थी। मैनें कटोरी उठाकर कहा, “रुको, मैं भी बर्तनों में अपना हिस्सा लूँगी।” मेरे भाई-भाभियाँ एक दूसरे की आँखों में मेरे कथन का अर्थ ढूंढने लगे। मैंने चौथे कोने पर कटोरी रख दी। एक कूड़ी बढ़ा दी। कहा, “ईआ के बर्तनों में मेरे हिस्से में यह कटोरी आएगी।” और उनके द्वारा बर्तन उठाना प्रारंभ करने से पूर्व मैंने कटोरी उठाकर अपने पर्श में रख ली। बड़ी बोरियों की जरुरत नहीं पड़ी। पर मेरे पर्श का वजन बहुत बढ़ गया था। उसमे आजी ईआ और कौआ मामा भी समाए थे।”1

    उपर्युक्त कहानी के पंक्तियों में बेटी के नेक सोच, स्नेह और समर्पण को चित्रित किया गया है। जिस कटोरी को परिवार के बहु-बेटे ने बेकार समझकर फेंका दिया। उसी कटोरी को घर कि बेटी सीमा ने अपनी आजी, ईआ और कौआ मामा का निशानी अपनें साथ घर लेकर आ गई।

    (घ) ‘चिठ्ठी की छुअन’ कहानी में कौशल्या अपनी बीती हुई जिंदगी को याद करने के लिए अपने सभी पुरानी चिठ्ठीयों को निकालकर पढ़ती है। उसकी चिठ्ठीयों में परिवार के लोगों की बहुत सारी यादें जुड़ी थी, जिसे वह याद करती हुई कुछ घटनाओं को अपने बहुओं से तो कुछ अपने पोते को बताती है। वे कहती है- “सीमा, अच्छा किया मेरी दादी ने। उसने मुझे चिठ्ठी लिखने-पढ़ने लायक पढ़ा-लिखा दिया। वरना मैं अपनी ससुराल में बीती जिन्दगी की कहानियाँ दादी और माँ को कैसे सुनाती?”2

  1. कटोरी, पृष्ठ सं-103, 104
  2. चिठ्ठी की छुअन, पृष्ठ सं-60

    उपर्युक्त उदाहरण में कौशल्या अपनी दादी को याद करके बहुत खुश होती है। कौशल्या मन ही मन सोचती है कि यदि वह पढ़ी-लिखी नहीं होती तो कितना मुश्किल होता। इस कहानी में लडकियों के शिक्षा को महत्व दिया गया है।

    (ङ) सुभद्रा के मन में भी अपने गाँव के जमीन के लिए लालच बढ़ जाता है। गाँव के सास ने भी उसे जानकारी दे दी। इस बात से वह चिंतित थी।

    सुभद्रा के मन में भी पति के सिर पर के जमीन की लालच का अंकुर फूटा। उसकी पड़ोसन सास ने गरम लोहे पर हथौड़ा मारा, “मैं तो कहती हूँ, बटवारा कर लो। अपने हिस्से की जमीन बटैया लगा दो या उन्हीं भाइयों को जोतने कोड़ने के लिए दे दो। कम से कम जमीन बेचेंगे तो नहीं। न जाने कब काम आ जाए! नौकरी तो ताड़ पेड़ की छाया है। जमीन, जमीन होती है, दुर्दिन में माँ बन जाती है। और अपने हिस्से को क्यों छोड़ना।”1

    उपर्युक्त कहानी से यह साबित होता है कि नौकरी सच में ताड़ पेड़ कि छाया है। जमीन माँ है जो दुःख के समय में हमारी सहारा बनती है।

4.2 स्त्री-पुरुष संबंधों में यथार्थ :

    स्त्री-पुरुष का संबंध पारिवारिक ढाँचे की रीढ़ की हड्डी है। पारिवारिक जीवन का प्रमुख स्तम्भ दाम्पत्य जीवन है। विवाह के उपरांत पति-पत्नी नई आकांक्षाओं को सजाकर अपना दाम्पत्य जीवन आरम्भ करते हैं। यह वह सम्बन्ध है, जहाँ से अन्य संबंध उत्पन्न होते हैं। दांपत्य संबंध मुख्य रूप से पति-पत्नी की प्रकृति, आपसी समझ-बूझ तथा कुछ सीमा तक पारिवारिक परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। जब तक पति-पत्नी में आपसी प्रेम, स्नेह और विश्वास की नींव मजबूत रहती है, तब-तक दाम्पत्य सम्बन्ध मधुर बने रहते है।

  1. चिठ्ठी की छुअन, पृष्ठ सं०-68

    (क) मृदुला सिन्हा की ‘अनावरण’ कहानी में स्त्री-पुरुष के संबंधों का यथार्थ चित्रण है। ‘अनावरण’ कहानी में प्रभाती कि सास अपने गाँव के सभी लोगों से परिचित थी। किस परिवार में लोगों के पारिवारिक संबंधकैसे है?

    सत्यवती देवी को मालूम था। कमला के उसके पति से संबंध अच्छे नहीं है। इस बात को प्रभाती की सास अच्छी तरह जानती थी। वे अपनी बहु से कहती हैं, “प्रभाती, आज जो कमला आई थी न, वह अपने पति के बारे में झूठ बोल रही थी। ऐसा भी कहीं हुआ है! मुझे लगता है कि कमला में ही कोई दोष है। ताली दोनों हाथों से बजती है। मेरा मन कहता है कि उसका पति निर्दोष है।”1 

    उपर्युक्त उदाहरण से यह साबित हो जाता है कि कमला और उसके पति का संबंध अच्छे नहीं थे। यह बात सत्यवती देवी जानती थी। अतः स्त्री-पुरुष के संबंध में विश्वास का होना अति आवश्यक है।

    (ख) ‘कहानी औलाद के निकाह पर’ में स्त्री-पुरुष के संबंध इतने गहरे होते हैं कि लेखिकाके कई बार प्रश्न करने के बाद साइदा कहती है,

    दीदी “जिसका मियाँ दुलारे, उसे कौन फटकारे!”

    “तब की बात और थी। लगातार चार बेटियों के जन्म होने पर तो जरुर नाराज होता होगा। तुम्हें भला-बुरा भी कहता होगा।” मैंने कहा। मेरा खोजी मन उसके मियाँ के अन्दर खोट निकालने में लगा था।

    साइदा दोनों कान पकड़कर कहने लगी- “तौबा-तौबा! झूठ बोलूँगी तो पाप लगेगा। मेरे शौहर किसी और मिट्टी के बने हैं। उनकी बात ही जुदा है। वे दूसरे मर्दों की तरह नहीं हैं। मेरी चौथी बेटी के जन्म पर भी वे बोले- अल्लाह ताला की देन है। इसका अपमान मत करना। रोना-धोना भी नहीं। शिवजी के मंदिर वाले पंडित जी कहते हैं- बेटी लक्ष्मी होती है।”2

  1. अनावरण, पृष्ठ सं०-21
  2. औलाद के निकाह पर, पृष्ठ सं०-34

     उपर्युक्त उदाहरण से यह साबित होता है कि साइदा के पति उसे बहुत प्यार करते हैं। दोनों को एक दुसरे पर पूर्ण विश्वास है। सइदा के वैवाहिक जीवन के पड़ाव इतने मनभावन थे, कि लेखिक उसे सुनकर वही अटक जाती है। वह साइदा से कहती है हर स्त्री-पुरुष का संबंध तुम्हारे जैसा ही सुखमय हो।    

    (ग)  ‘डायरी के पन्नों पर’ कहानी से यह पता चलता है कि सुवर्णा और सौहार्द के दांपत्य झगड़ों के अनेक मोड़ों पर के कथा-कहानी को सुनते-सुनते कई वर्ष बीत चुके थे। न्यायाधीश मदनमोहन उन दोनों के झगड़ों को जल्दी से जल्दी निबटारा करवाना चाहते थे।

    उनका मानना था, “दाम्पत्य के प्रारंभिक काल में ही झगड़े होते हैं। दांपत्य के जमने का भी यही काल होता है। यदि दोनों के बीच कोई विवाद हो गया तो शीघ्र निपटारा होना चाहिए। पच्चीस तीस वर्षों के बाद फैसले होने पर तो कोई अर्थ ही नहीं रह जाता।”1

    उपर्युक्त उदाहरण से यह पता चलता है कि दोनों के बीच झगड़े का कारण किसी अन्य स्त्री-पुरुष का इनके बीच आना था।उनकी लाख कोशिशों के बाद भी सुवर्णा और सौहार्द के मामले में न्याय सुनाने में देरी हो रही थी। असल में इन दोनों का झगड़ा दूसरों से अलग था। चाहे जो भी हो स्त्री-पुरुष दोनों को एक दूसरे पर विश्वास करने से ही जीवन सुखी और खुशमय रहता है।

    (घ) ‘हार गया सत्यवान कहानी’ में यह दिखाया गया है की टुन्नी और नवीन को बच्चे नहीं थे। टुन्नी अपने पति नवीन को बच्चे की तरह देख-रेख करती थी। उसके हर नखरे उठाती। टुन्नी अपने पति के हर काम को बहुत ही प्रेम और शौक से करती थी। इसी बात को लेकर एक दिन टुन्नी हँसते हुए अपनी मौसी (लेखिका) से यह शिकायत करती है।

    “मौसी, ई त बड़ा नखरा कर लथुन।”

    1. डायरी के पन्नों पर, पृष्ठ सं०-73

“बेटी नखरा भी कोइ तब करे, जब कोई उठानेवाला हो। तुमने नवीन को पंगु बना दिया। वह तुम पर पूर्णरूपेण आश्रित हो गया। अब तुम्हारे बिना जीने की सोच भी नहीं सकता।” दोनों विहँस उठे थे। मुझे भी उन दोनों का वह संबंध सुखद लगता था।1

     उपर्युक्त कहानी में लेखिका ने टुन्नी की बात सुनकर कहाँ, हमें मालून है। स्त्री पुरुष का संबंध विश्वास और भारोसा का होता है। तुम दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हो। तभी तो टुन्नी अपने पति के नखरे को बोझ नहीं समझती है। खुश होकर हंसकर उठाती है।

4.3 संतान की समस्या :

    संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं होगा, जो संतान का सुख नहीं चाहता हो। चाहे गरीब हो या अमीर सभी के लिए संतान का सुख सुखदाई होता है। संतान चाहे खुबसूरत हो या बदसूरत। चाहे संतान माता-पिता का सहारा बने या नहीं बने लेकिन उन्हें संतान चाहिए।

    (क) ‘अक्षरा’ कहानी में सुखिया माँ नहीं बन पाती है। उस दिन सुखिया बहुत खुश थी। लेखिका अखबार पढ़ रही थी। सुखिया ने पूछा, “कहीं ये खबर अखबार में तो नहीं छपी है, दीदी।” लेखिका बोली, कौन सी खबर?” उसने कहा, मेरा महीना चढ़ गया है। मैं भी माँ बनने वाली हूँ।” उस दिन सुखिया बहुत खुश थी।

    “सुखिया का सिर अपनी झुग्गी कि छत से ऊँचा हो गया। वह माँ बनाने वाली जो थी मम्मी कहलाना और बात थी, प्रसूता बनना और बात! उसने मुझे आगाह कर दिया था, “दो महीने बाद काम छोड़ दूँगी। कही फिर कुछ गड़बड़ न हो जाए!”2

  1.  हार गया सत्यवान कहानी,पृष्ठ सं०-85 
  2.  अक्षरा, पृष्ठ सं०-14

    उपर्युक्त कहानी में सुखिया उस दिन सचमुच दुखिया हो गई थी। डॉक्टर ने कहा, तुम गर्भ से नहीं थी तुम्हारा मासिक धर्म रुक गया था। अब बंद होने का समय आ गया।” गर्भ रहने के गर्व के ढहने का दुःख, मासिक धर्म बंद होने का दुःख से वह और भी दुखी हो गई थी।

    (ख) सुखिया अपनेपप्पू से बहुत प्रेम करती थी। वह माँ नहीं बन सकी थी। जिसके फलस्वरूप उसका मात्रित्व भाव अक्षरा था। पप्पू सुखिया का अपना बच्चा नहीं था। एक दिन पप्पू लेखिका से बोला कि मुझे नौकरी मिल गई है। इसलिए मैं द्वारिका में ही रहूँगा।” लेखिका ने कहा, चुप कर सुखिया कैसी है?

    “वह तो मर गई। वह बिना किसी लाग-लपेट के बोला

    “मेरी अनुभवी आशंकाएँ जाग्रत हुई। पुलिस उस चिठ्ठी के सहारे पप्पू को ही सुखिया की आत्महत्या का कारण बताएगी। पर मैं जानती हूँ, इसमें पप्पू का कोई दोष नहीं है। सुखिया के भीतर मातृ-भाव अक्षरा था, माँ बनने की क्षमता समाप्त होने के उपरांत भी जिसका क्षरण नहीं हो सका। अपने भीतर से दूसरी जान का सर्जन नहीं कर सकी। स्वयं मृत्यु को कुबूल कर लिया। जन्म मृत्यु का फेर ही तो है जीवन। मैं उसके अन्दर अक्षरा मातृत्व-भाव को मौन श्रद्धांजलि दे गई।1

    उपर्युक्त कहानी में सुखिया के माँ बनने की क्षमता समाप्त हो चूकी थी। वह अपने भीतर दूसरे जान का सृजन नहीं कर सकी थी। इस कारण उसने स्वयं मृत्यु को कबूल कर लिया। गैर को कितना भी अपना बनाओ वह गैर ही रहता है। एक कहावत कही जाती है- ‘साग से ना जुड़ाई त साग के पानी से जुड़ाई’ 

    (ग) माँ अपने संतान के दुःख को कभी बर्दाश्त नहीं कर सकती है। उन दिनों मनीष अपनी नौकरी को लेकर अधिक चिंतित था। मनीष को चिंतित देखकर माँ सुभद्रा बहुत सोच-समझकर बोली, चलो गाँव लौटते है। वहाँ अपना पुश्तैनी ‘ढाई बीघा जमीन’ है। मनीष माँ से लिपटकर बोला चलो माँ अभी गाँव चलते हैं।

  1. अक्षरा, पृष्ठ सं०-16

    “सुभद्रा बुदबुदाई थी, “कभी सुना था- जेवर संपति का श्रृंगार और विपति का आहार होता है। पर तुम्हारे लिए तो पुश्तैनी जमीन ही विपति का आहार बन रही है। ढाई बीघा ही है तो क्या, तिनके का सहारा।”1

       उपर्युक्त कहानी में सुभद्रा अपने बेटे कीहालत देखकर कहती है आज यह पुश्तैनी जमीन ही तुम्हारे विपति कि आधार है। ढाई बीघा है तो क्या हुआ, तिनके का सहारा है। अतः संतान के संस्याओं का सामना माता-पिता को करना होता है।  

    (घ) सीता बच्चे के लिए (माँ बनने) मीना के घर के सभी सुख को छोड़कर पति के साथ रहने चली गई थी। मीना माँ बन गई। उसे पता नहीं था कि एक दिन उसे उसी दरवाजे पर जाना होगा जिसे वह छोड़कर गई थी।

    गाड़ी स्टार्ट करती वह बुदबुदा रही थी, “औरतें ऐसे ही मार खाती हैं। दासी बनकर रहती हैं। इन्हें मर्द चाहिए। मर्द के बिना नहीं रह सकतीं, क्योंकि बच्चा चाहिए। अब सड़ो उसी के साथ; पालो तीन-तीन बच्चे। मेरे घर के सारे सुख को लात मार गई। कैसा धप-धप चेहरा बन गया था। अब चूसे हुए बीजू आम के सामान हो गई। केकड़ा है, केकड़ा। इसके बच्चे ही इसे खा जाएँगे।”2

    उपर्युक्त कहानी में सीता अपने बच्चों को पालने के लिए अपना देह घसीटती रही, लेकिन हार नहीं मानी वह टूटी नहीं। वह बच्चों को खिलाने-पिलाने और पढ़ाने के लिए अंतिम समय तक मेहनत करती रही। लेकिन वही बच्चे जब जवान हो गये तो सीता को मारने के लिए हाथ उठा दिया। तब सीता को लगा कि क्या इसी बच्चे के लिए वो अपने व्यक्तिगत जीवन के सभी सुखों का बलिदान कर दी थी।

    (ङ) इस कहानी मेंलक्ष्मी राधामोहन मोहन जी की पहली संतान थी। राधामोहन जी लक्ष्मी से बहुत प्यार करते थे। उनके मन में यह एहसास होता था कि लक्ष्मी के आने के बाद हमारे घर में सभी प्रकार की खुशियाँ आने लगी लक्ष्मी बहुत भाग्यशाली है।  

  1. मृदुला सिन्हा, ढाई बीघा जमीन, पृष्ठ सं०-72

   2. मृदुला सिन्हा, केकड़ा का जीवन, पृष्ठ सं०-109

    राधामोहन जी के बहुत कहने पर आर्किटेक ने तीन रूम निकाल दिए। पर कमरे का आकार-प्रकार छोटा ही था। दस फिट/दस फिट का कमरा! जैसे-जैसे मकान की दीवारें नींव के ऊपर उठने लगीं, राधामोहन जी के अरमान आकार लेने लगे। उन्हें ध्यान आया कि ये तीन कमरें तो हमारे दोनों बेटे और हमारे लिए होंगे।  लक्ष्मी का कमरा?1

    उपर्युक्त कहानी में पिता ने यह फैसला किया कि दोनों बेटों के लिए कमरा बनेगा तो लक्ष्मी के लिए भी। उनका मानना था लक्ष्मी यहाँ आये या नहीं आए। लेकिन उसका कमरा तो अवश्य होना चाहिए। संतान तो संतान होता है चाहे बेटी हो या बेटा। लेखिका ने इस कहानी में बेटा और बेटी के महत्व को दर्शाया है।       

4.4 संबंधों का टूटना :

    साधारण शब्दों में कहें तो संबंध शब्द का अर्थ होता है एक दूसरे के साथ ‘जुड़ना’ जैसे- माता-पिता, भाई-बहन, दादा-दादी, रिश्तेदार, पड़ोसी आदि। किन्तु पति-पत्नी का संबंध सबसे महत्वपूर्ण होता है, और सभी संबंध इसके इर्द-गिर्द ही बनते हैं, जिन्हें रक्त संबंध कहते हैं। स्त्री-पुरुष के बीच का संबंध आम तौर पर एक विशेष तरह के चयनात्मक प्रक्रिया का परिणाम होता है, जिसमे नई पुरानी परम्पराएँ, सांस्कृतिक आदतें, जिज्ञासा, अकेलापन, दैहिक कामना, प्रतिस्पर्धा, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक संतोष आदि की अपनी-अपनी भूमिका है। मानवीय संबंधों का क्षेत्र विशाल है। जन्म के साथ मानव के संबंध किसी के साथ टूटते हैं, तो किसी के साथ जुड़ते भी हैं।

    यह सब सिर्फ सतही स्तर पर ही होता है। पर स्वयं में संबंध का ढांचा हमेशा बना रहता है जैसे- मिलना, अलग होना, फिर मिलना ये सभी घटनाएँ संबंधों के इस विराट दायरे के भीतर ही होती है। इस बात को ग़ालिब ने समझकर अपने माशूका से एक शेर में कहा था। “वह उससे किसी भी कीमत पर रिश्ता न तोड़े, और अगर कुछ नहीं है तो अदावत ही सही’ अदावत का रिश्ता भी एक रिश्ता है।”

  1. मृदुला सिन्हा, बेटी का कमरा, पृष्ठ सं०-42

    (क)डायरी के पन्नों पर कहानी में लेखिका ने संबंधो के टूटने का वर्णन किया है। सुवर्णा और सौहार्द के रिश्तों में दरार पड़ने का कारण गलतफहमी था।

    ‘डायरी के पन्नों पर’ कहानी में सुवर्णा के रिश्ते में दरार पड़ने का कारण गलतफहमी ही था। इस कहानी में सुवर्णा की माँ ने भी कहा था, “बेटी, सौहार्द को समझने की कोशिश करो। कहीं-न-कहीं तुम दोनों से ही गलती हुई है। एक हाथ से ताली नहीं बजती।” सब उसे ही झूकने की सीख देते। सुवर्णा के ससुर ने यहाँ तक कहा, “स्त्री तो धरती होती है, सब सहन करती है। सौहार्द की गलतियों को क्षमा कर दो। आखिर तुम दोनों को ही परिवार चलाना है।”1

    उपर्युक्त कहानी में परिवार के सभी लोग दोनों को बहुत समझाते हैं।लेकिन दोनों में से कोई भी समझने के लिए तैयार नहीं है। अंत में उन्हें अपनी गलती का एहसास होता है और यह संबंध टूटने से बच जाता है। 

    (ख)इस कहानी में लेखिका ने बेटी के शादी के बाद, माँ के मन में बेटी के ससुराल के प्रति उठने वाली परिस्थितियों का वर्णन किया है। माँ के मन में होता है कि वह अपने बेटी के साथ ससुराल में होने वाले हर बात को जाने, लेकिन दीनानाथ जी बार-बार अपनी पत्नी को मना करते हैं। दीनानाथ जी कहते हैं निहारिका वहाँ सुखी है।

    बेटी के जाने के दस दिन बाद ही दीनानाथ जी से कहने लगी, आप एक बार जाकर निहारिका को ले आइए। अब उसकी सास भी ठीक हो गई होंगी। मुझे तो शक है कि वे बीमार ही नहीं पड़ीं थीं।

    ‘अब बस भी करो। मैं कहता हूँ। तुम उसके बारे में सोचना छोड़ दो, निहारिका ससुराल में बहुत सुखी है। उसे वहाँ जमने दो। दूध में जामन देकर बार-बार हिलाया नहीं करते। ऐसे में दही नहीं जमती। बेटी को भी ससुराल भेज कर बार-बार हिलाया करोगी तो जमेगी कैसे?2

1. मृदुला सिन्हा, डायरी के पन्नों पर, पृष्ठ सं०-76,77

2. मृदुला सिन्हा, अंतिम संकेत, पृष्ठ सं०-124, 125

    उपर्युक्त कहानी में माँ के मन का शक तो बेटी से मिलकर उससे बात करके ही दूर हो सकता था। दीनानाथ जी अपनी पत्नी से कहते है तुम उसे वहाँ जमने दो बार-बार उसके साथ टोका-टोकी करोगी तो वह वहाँ पर नहीं टिकेगी। इससे संबंध टूटने का डर रहता है। निहारिका कि माँ चुप रहती है किन्तु मन अशांत रहता है।

    (ग)चार चिड़िया चार रंग’ में भाई-भाई के बीच प्रेम के संबंध पर प्रकाश डाला गया है। बड़े भाई के सहयोग से तीनों भाई अपने पैरों पर खड़े हो जाते है। किन्तु छोटा भाई मनु के स्वभाव से बड़ेभैया दुखी होकर राघवेन्द्र को अपने पास बुलाने के लिए कहते है।

    भैया ने राघवेन्द्र को पत्र लिखा था- “तुम्हारे सहयोग से तीनों बच्चे अपनी बुद्धि, विवेक और परिश्रम के कारण ठिकाने लग गए। (माँ कहती थी कि एक कोख से ही कई प्रकार के बच्चे निकलते हैं।) तीनो अपनी रोटी कमा रहे हैं। शिवा हमारी भी देख भाल करता है। परंतु बुढ़ापे में दुःख देने के लिए मनु ही काफी है। वह इन दिनों शहर के छूटभैया नेताओं की संगती में उठता-बैठता है। आए दिन धरना-प्रदर्शन में जेल जाता है। माँ से जबरदस्ती पैसा माँगता है। तुम ही कुछ सोचो। उसे भी थोड़े दिनों के लिए अपने पास बुला लो। एम०ए० में फर्स्ट क्लास फर्स्ट आया लड़का गुमराह हो गया है। उसे बचा लो।”1

    उपर्युक्त कहानी में मनु पढने में बहुत ठीक है। बड़े भैया के मुँह से मनु की बात सुनकर राघवेन्द्र नहीं चाहते हैं कि मनु उनके साथ रहे। अब राघवेन्द्र के बच्चे भी बड़े हो गए थे। यह सोचकर राघवेन्द्र भैया को कुछ भी नहीं बोलेते हैं। इससे संबंध टूटने का भय हो रहा था।

    (घ)‘अंतिम संकेत’कहानी मेंनिहारिका कि मृत्यु हो जाती है। माँ का शक सच्चाई में बदला जाता है। मालती को तो पहले से ही निहारिका के ससुराल वालों पर शक था कि उनकी बेटी वहाँ खुश नहीं है। वह अपनी बेटी के लिए हमेशा चिंतित और परेशान रहती है।

1. मृदुला सिन्हा, चार चिड़िया चार रंग, पृष्ठ सं०-132

पुलिस ऑफिसर ने अवश्य मालती से पूछा था, “बहनजी, दहेज की माँग भी की जाती थी?”

    “यही तो रोना है। दो वर्ष मेरी बेटी को ऐसे जकड़ कर रखा, भर मन बात तक नहीं करने दी। कुछ माँगा भी नहीं। मांगता तो अपना सर्वस्व बेच कर दे देती।”1

    उपर्युक्त कहानी में पुलिस मालती देवी से पूछता है कि कही दहेज का चक्कर वैगेरह तो नहीं था। उन्होंने कहा वे दहेज़ मांगते तो मैं उन्हें दे देती। शक से संबंध बिगाड़ता है।

    निहारिका अपने ससुराल में सचमुच बहुत खुश थी। उसका पति उसे बहुत चाहता था। एक दुर्घटना के कारण उसकी मृत्यु हो गई। शक के कारण निहारिका के ससुराल पर सारा इल्जाम डाल दिया। अनमोल और उसका परिवार जेल चला गया। इस घटना में किसी की गलती नही थी। होनी थी सो हो गई। कई महीनों बाद निहारिका की डायरी उसकी माँ ने पढ़ा तब उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ। सबकुछ जानने के बाद बिगड़े हुए संबंध फिर दुबारा ठीक हो जाते हैं।

    (ङ)‘पुनर्नवा’ कहानी में पारिवारिक संबंध को दर्शाया गया है। सुभद्रा कई वर्षों के बाद अपने देवर के साथ गाँव जाती है। उसे वहाँ अपने बिताए हुए दिनों की याद आती है। अब सब कुछ बदल गया था। अपने देवर अभय सिंह को खुश देखकर सुभद्रा भी बहुत खुश थी।  

    सुभद्रा एक चाकू मँगवाकर शहर ले जाने के लिए अरबी के पत्ते काटने लगी। अभय सिंह ने कहा, “यह देखिए, गजपुरैना (पुनर्नवा) का साग। बाबूजी लगाए थे। उनके बवासीर की दावा थी। उसकी जड़ जमीन में रह गई होगी। अपने आप उग आया है। हमने नहीं लगाया। देखिए न भाभी, कितना लहलहा रहा है गजपुरैना! बाबूजी इसका संस्कृत नाम पुनर्नवा भी कहते थे।”2

  1. मृदुला सिन्हा, अंतिम संकेत, पृष्ठ सं०-126
  2. मृदुला सिन्हा, पुनर्नवा, पृष्ठ सं०-120

    उपर्युक्त कहानी में पारिवारिक जीवन के गहरे संबंधों को दिखाया गया है। यह संबंध किसी एक व्यक्ति से नहीं बनता है। सभी के सहयोग से ही पारिवारिक संबंध अच्छे होते हैं।

4.5 नारी जीवन का यथार्थ :

    नारी जीवन की आधारशिला है। उसके बिना हर रचना अधूरी है। नर और नारी दोनों मिलकर ही  सृष्टि की रचना करते हैं। भारतीय संस्कृति में नारियों को गरिमामय स्थान प्राप्त है। नारी के अभाव में मानव जीवन अधूरा और नीरस हो जाता है। जिसप्रकार तार के बिना वीणा और धूरी या पहिया के बिना रथ बेकार होता है। ठीक उसी तरह नारी के बिना पुरुष और घर बेकार होता है। साहित्य के अनेक विधाओं में नारियों का अनेक रूप मिलता है।

    (क)‘अनावरण’ कहानी में नारी जीवन के सहयोग को दर्शाया गया है। इस कहानी में एक तरफ बहु के द्वारा सास के प्रतिमा का अनावरण किया जाता है। वहीं दूसरी ओर बहू को उसकी मंजिल तक पहुँचाने का भी अनावरण होता है।

    मैंने कहा, “प्रभाती सायंकाल जिस प्रतिमा का अनावरण हुआ, वह तो प्रस्तर थी। अभी रात्रि के चार घंटे लगातार जो अनावरण तुमने किया है, वह स्व० सत्यवती

देवी की विशाल प्रतिमा तुम्हारे अन्दर समाई है, समाई रहेगी। यह जीवंत प्रतिमा है। अनावृत नहीं है तो क्या! उसका अनावरण तो तब तक होता रहेगा, जब तक तुम हो। तुम्हारी बेटियाँ भी अनावरण करती रहेंगी, उनकी संताने भी। ऐसे ही अनावरण से तो पीढ़ियाँ सँवरती हैं। व्यक्ति सात पीढ़ियाँ आगे भी जिंदा रहता है।”1

  1. मृदुला सिन्हा, अनावरण, पृष्ठ सं०-23

उपर्युक्त कहानी में प्रभाती देवी पढ़ी लिखी तो नहीं थी किन्तु उनकी सोंच बहुत ऊँची थी। जिसके फलस्वरूप उन्होंने अपनी बहू के जीवन को खुशहाल बनाने के लिए साथ दिया। कहते हैं कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है। इस कहानी से यह भी ज्ञात होता है कि औरत ही औरत को ऊँचा भी उठा सकती है। जिस तरह से प्रभाती देवी के नहीं चाहते हुए भी उनकी सास ने उनको मंजिल तक पहुंचा ही दिया।

    (ख) ‘रामायणी काकी’ कहानी में मैना रानी अपने व्यस्त समय में जब रामायण के चौपाइयों को दुहराती रहती है। तब उनका बुदबुदाना उनकी सास को अच्छा नहीं लगता है। 

    अपने घर के काम-काज में व्यस्त उनकी बहु मैना रानी मन-ही-मन उन चौपाइयों को दुहराती। अधिकांश चौपाइयाँ उसे कंठाग्र हो गईं। पूजाघर में बैठकर पाठ करने का समय उसे नहीं मिलता था। पर घर-आँगन बुहारती, बर्तन-बासन मांजती, कपडे धोती, भोजन बनाती-परोसती, वह ‘रामचरितमानस’ की पंक्तियाँ ही दुहराती रहती। इस तरह उसकी प्रौढ़ता के साथ कदम-कदम मिलाकर वे पंक्तियाँ भी उसकी जुबान पर प्रौढ़ होती जा रही थीं। उसकी सास टोकती, “क्या मंत्र पढ़ रही हो? कोई डायनपन सीख रही हो क्या? न जाने किसने इसका नाम मैना रानी रख दिया। यह तो मनहूस रानी है! मनहूस!” मैना कहती, “नहीं माँजी, बाबूजी ‘रामचरितमानस’ का पाठ करते हैं न। वही…..”1

    उपर्युक्त कहानी में मैना की सास चुप कराती है “चुप कर। ई मुँह, मसूर की दाल! मेरे बेटे को खा गई। तू क्या करेगी रामायण-पाठ? चल जल्दी रसोई पका। आज फिर बच्चों को स्कूल जाने की देर न हो जाए।”

    (ग) इन पंक्तियों में लेखिका से प्रभाती कहती है, ससुराल में तो सबको खाना बनाना होता है। भोजन पकाना जीवन का मुख्य कार्य है। प्रभाती खाना बनाना जानती थी।

  1. मृदुला सिन्हा, रामायणी काकी, पृष्ठ सं०-144, 145

प्रभाती ने कहा, “ससुराल जाने से पूर्व मुझे मालुम था कि वहाँ खाना बनाना पड़ेगा। माँ ने भी विवाह निश्चित होने के बाद खाना पकाना सिखाया था। थोडा-बहुत सीख पाई थी। माँ ने कहा था- “अब आगे सास सिखाएगी। इसीलिए तो वह भी माँ ही होती है!”1

    उपर्युक्त पंक्तियों में प्रभाती जैसा भाग्य सभी के नहीं होते है। उसकी सास अपनी बहू से खाना बनाने के लिए नहीं बल्कि वकील बनने के लिये कहती थी। यहाँ जीवन का महत्वपूर्ण वर्णन है।

4.6 सामाजिक जीवन मूल्यों का यथार्थ :

    मनुष्य स्वभाव से ही सामाजिक प्राणी है। समाज में ही जन्म लेता है और विकसित होता है। समाज ही उसे, उसके विशेष रुप की पहचान कराता है। समाज में रहकर ही प्रत्येक मानव अपने आत्म विस्तार, आत्म संरक्षण और आत्मोपलब्धि का प्रयास करता है।

    (क)कहानी की इन पंक्तियों में सामाजिक जीवन के मूल्यों का वर्णन है। सुशांत गाँव के मंदिर पर लिखे ‘रामाज आंट’ के विषय में जनना चाहता है।

    सुशांत अपने दादा जी के साथ छोटे मंदिर के सामने खड़ा था। उसने मंदिर के मुख्य द्वार पर अंग्रेजी में लिखा देखा, ‘रामाज आंट’। उसे बड़ा अचंभा हुआ। बोला, “दादा जी गाँव के मंदिर पर अंग्रेजी में क्यों लिखा है? और ये रामाज आंट कौन थीं?”2

    उपर्युक्त कहानी में ‘रामायणी काकी’ के लिए एक अंग्रेज मंदिर बनवाया था। उसकी कहानी सुशांत के दादा जी उसे सुनाते है। जिसे सुनकर सुशांत को अपनी दादी पर गर्व महसूस होता है।

  1. मृदुला सिन्हा, अनावरण,पृष्ठ सं०-19
  2. मृदुला सिन्हा, रामायणी काकी, पृष्ठ सं०-144

(ख)‘रद्दी की वापसी’कहानी में गाँव में आने वाली बाढ़ का वर्णन किया गया है। गौरी ने कभी भी बाढ़ नहीं देखा था। वह अपनी सास से बाढ़ कि चर्चा करती हुई कहती है।

    गौरी ने अपनी सास से कहा, “माँजी, अपना घर-आँगन कितना भरा-भरा लग रहा है। काश सब दिन ऐसा ही रहता!”

    उसकी सास ने बहू की सिधाई पर लंबी साँस खींचते हुए एक कहावत कही, “चिड़िया के जान जाए, लड़िकन के खिलौना।” ये सब बेचारे बाढ़ के मारे हैं। खेत में इनकी फसल बह गई। घर में सँजोकर रखा अन्न भी डूब गया। ये इतने दुखी हैं और तुम्हें आनंद आ रहा है! भगवान न करे, मेरा आँगन इन दुखियों से फिर कभी भरे।”1

    उपर्युक्त पंक्तियों में गौरी बाढ़ के विषय में बातें करके खुश होती है, लेकिन उसकी सास कहती है कि भगवान न करे कभी यह दिन देखना पड़े। गौरी की सास बाढ़ देख चूकी थी। उसे पता था कि बाढ़ आने पर अनेक परेशानियों से जूझना पड़ता है।  

    (ग) ‘साझा वॉडरोब’ कहानी में रणवीर को अपने दादा-दादी और माता-पिता पर शक होता है कि वे अपनी बेटियों को उससे अधिक प्यार कतरे है।

    अक्सर रणवीर बाबू को उन चारों बड़ों द्वारा बेटियों को अधिक प्यार करने का भ्रम होता था। पर उस भ्रम की आयु क्षीण बहुत होती थी। तीनों भाई-बहनों को लड़ते-झगड़ते देख-सुनकर दादी कहतीं, “रणवीर, दुनु चल जतऊ ससुराल, तू अकेले भोगिहे फ्लैट के राज।”2

    उपर्युक्त पंक्तियों में पारिवारिक संबंध को बनाए रखने के लिए दादी रणवीर को समझाती है। बाद में रणवीर भी समझ जाते है।  

  1. मृदुला सिन्हा, रद्दी की वापसी, पृष्ठ सं०-137
  2. मृदुला सिन्हा, साझा वॉडरोब, पृष्ठ सं०-155

(घ)‘बेटी का कमरा’कहानी में लक्ष्मी को विदा करते समय राधामोहन जी अपने समधी से कहते है कि आपके लायक तो हम नहीं है।

    समधी विदा करते समय हाथ जोड़कर खड़े राधामोहन जी के भरे गले से शब्द रिस रहे थे, “समधी जी, हम तो आपके लायक नहीं हैं। जो कुछ फुल-अक्षत दिया, उसे स्वीकार करें। लक्ष्मीस्वरुपा बेटी अवश्य दी है। आपके घर में लक्ष्मी पसरती रहे, यही कामना है।”1

    उपर्युक्त पंक्तियों में सामाजिक संबंधों का ध्यान रखते हुए अपने समधी के सामने हाथ जोड़कर याचना करते हैं जिससे संबंध हमेशा बना रहे।     

    (ङ)‘बुनियाद’ कहानी में अलका के विवाह के विषय में उसके पिता लड़के के घर वाले का गुणों का बखान करते हुए कहते हैं।

    उन्होंने कहा, “लड़के का छोटा भाई भी बड़ा गुणी है। उसने घर को ऐसे सजा रखा है, मानो किसी कुशल गृहणी ने सजाया हो। दीवारें देखते ही बनती हैं। साड़ी

दीवारों पर मधुबनी पेंटिंग है। सीता-राम, राधे-कृष्ण की जोड़ी, तोता-मैना, हाथी-घोड़े, कदली-वन, बॉस के झुरमुट और कहीं आम के मंजर तो कहीं फल लगे वृक्ष। पूछिए

मत। मैं तो उन दीवारों को ही निहारता रह गया। मुझे अलका की याद आई। काश, उसे भी साथ ले जाता! यह तो खाना-पीना भूलकर उन्हें ही निहारती, सहलाती अनेक सवाल करती। दो चार दिनों में ही स्वयं पेंटिंग सिख जाती।”2

    उपर्युक्त पंक्तियों में अलका सब सुनकर भी कुछ नहीं सुनती है किन्तु जैसे ही मधुबनी पेंटिंग के बारे में सुनती है वह खुश हो गई। शादी-ब्याह एक सामजिक बंधन है जिसे हर व्यक्ति को निभाना आवश्यक होता है।

  1. मृदुला सिन्हा, बेटी का कमरा, पृष्ठ सं०-40 
  2. मृदुला सिन्हा, बुनियाद, पृष्ठ सं०-51

पंचम अध्याय

विवेच्य कहानियों में आर्थिक एवं धार्मिक यथार्थ

  • आर्थिक विपन्नता
    • मध्य, निम्न और निम्न मध्यवर्ग 
    • आर्थिक जीवन का यथार्थ
    • जीविकोपार्जन के साधन

5.5  धार्मिक जीवन का यथार्थ

पंचम अध्याय

विवेच्य कहानियों में आर्थिक एवं धार्मिक यथार्थ

विवेच्य कहानियों में आर्थिक एवं धार्मिक यथार्थ

मानव जीवन जगत की तमाम भीतरी और बाहरी व्यवस्थाओं का आधार-शक्ति अर्थ है। प्रत्येक युग की सामाजिक, राजनितिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियाँ अर्थ से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती हैं। आर्थिक नीतियों और सिद्धांतों पर ही समाज का विकास अवलंबित होता है। समाज में होने वाले संघर्षो के केंद्र में प्रायः अर्थगत वैषम्य भी होता है। आर्थिक असंतुलन विभिन्न विषमताओं को जन्म देती है। अर्थ की विषमताओं ने समाज का कितना ह्रास किया है? यह अनुमान लगाना बहुत ही कठिन है। आर्थिक आधार पर वर्ग-वैषम्य अप्रत्याशित गति से बढ़ता ही जा रहा है। इससे समाज में एक बहुत बड़ी दरार हो गई है। वह दरार दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है।

     आर्थिक स्थिति के कुचक्र का हमारे वर्तमान समाज पर सीधा प्रभाव पड़ा है। इस प्रभाव ने ही भय, यारी-दोस्ती, रिश्तेदारी और समाज के अन्य व्यक्तियों के साथ एक दरार का काम किया है। हर पैसे वाला व्यक्ति अपने से कमजोर व्यक्ति को उसी प्रकार तंग करता है, जैसे हर बड़ी मछली छोटी मछली को सम्पूर्ण ही निगलने के लिए तत्पर रहती है। आर्थिक स्थिति ने समाज को दो भागो में विभाजित कर दिया है। आर्थिक असमानता के परिणामस्वरूप ही व्यक्ति के जीवन के हर क्षेत्र में असमानता उजागर होने लगी है। मृदुला सिन्हा जी ने अपनी कहानियों में आर्थिक एवं धार्मिक यथार्थ की बात किया है। धर्म मानव को सच्चा और सीधी राह दिखाता है। अपने-अपने धर्म के अनुसार ही मनुष्य अपने जीवन का निर्वाह करता है। मृदुला सिन्हा जी धर्म को आचरण से जोड़ती है। उनकी कहानियाँ धर्म को भी धारण करती हैं। हिन्दू परम्परा के अनुसार धर्म में कई रीती-रिवाजों और मान्यताओं का समावेश हुआ है। गरुदत के शब्दों में- “करने योग्य कर्म को धर्म कहते हैं। करने योग्य कर्म दो प्रकार के होते हैं। स्थाई अथार्त ‘शाश्वत धर्म’ और अस्थाई अथार्त ‘परिवर्तनशील धर्म’। शाश्वत धर्म को सनातन धर्म कहते हैं।”1 उनकी कहानियों में निम्न मध्यवर्गीय परिवार की आर्थिक एवं धार्मिक व्यवस्था का चित्रण है।

5.1. आर्थिक विपन्नता :

‘अर्थ’ देश का मेरु दंड है। मानव जीवन और जगत की तमाम बाहरी और भीतरी व्यवस्थाओं का आधार शक्ति, अर्थ ही है। हर युग की सामाजिक, राजनितिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियाँ अर्थ से ही प्रभावित होती है। आर्थिक नीतियों और सिद्धांतों पर ही समाज का विकाश होता है। आर्थिक विपन्नता विभिन्न विषमताओं को जन्म देती है। समाज में रहने वाले संघर्षों के केन्द्र में प्रायः अर्थगत वैषम्य ही होता है। अर्थ की अधिकता जहाँ एक तरफ व्यक्ति को विलासी और तामसी बना देता है, वहीं दूसरी ओर अर्थ के अभाव में व्यक्ति कुंठित और पंगु भी बन जाता है। अर्थ का अभाव क्रियाशीलता को समाप्त कर देता है। व्यक्ति निष्क्रिय और भाग्यवादी बन कर रह जाता है और अपने भाग्य को कोसने लगता है। जब व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती है, तब वह अनैतिकता की ओर बढ़ने लगता है। यहाँ तक कि मानवीय संबंधो में विखराव और सामाजिक समस्याओं में भी अर्थ की विषमता ही रही है। चाहे व्यक्तिगत जीवन हो, सामाजिक जीवन हो या राष्ट्रीय जीवन इन सभी का ढाँचा अर्थव्यवस्था पर ही आधारित होता है।

मृदुला सिन्हा की कहानी ‘साझा वॉडरोब’ में आर्थिक विपन्नता को दर्शाया गया है। रणवीर बाबू के पिताजी ने अपने अरमान को मूर्तरूप देने के लिए दौड़-धूप के बाद डी०डी०ए० का फ्लैट अपने नाम आवंटित करवाया था। दो छोटे-छोटे बेडरूम और एक ड्राइंग रूम। उस छोटे परिवार के लिए बहुत बड़ा अवसर था वह क्षण! दिल्ली में फ्लैट का मिलना। सरकारी नौकरी में इस शहर से उस शहर तबादले पर घूमते रणवीर बाबू के पिता को अपना गाँव छूट जाने का एहसास नहीं होता था।

  1. गरुदत – धर्म और समाज पृष्ठ सं० – 63

उस छोटे से घर में पत्नी के लिए कमरा निश्चित था। पंद्रह वर्षीय बच्चे रणवीर बाबू के लिए भी। पर उनकी दो बहने भी थी- हीरा और नैना। इस फ्लैट में दस गुणा दस फिट के कमरे में वॉडरोब तो एक ही बनाया था। तीनों भाई-बहनों का वह कमरा था। कभी-कभार दादी-नानी के आने पर भी वहीं सोना होता था। तीनों भाई-बहनों के लिए दादी, नानी, मम्मी, पापा साझे थे ही, वॉडरोब कैसे व्यक्तिगत होता? वह भी साझा था। उसमे तीनों के कपड़े साथ में रखे जाते थे, जिससे अक्सर भाई-बहनों में झगड़े हो जाते थे। तीनों को लड़ते-झगड़ते देख-सुनकर दादी कहतीं, “रणवीर, दूनू चल जतऊ ससुराल, तू अकेले भोगिहे फ्लैट में राज।’ इस तरह निम्न मध्य परिवार में आर्थिक विपन्नता के कारण कई प्रकार के समस्याओं का सामना करना पड़ता है। आज भी निम्न मध्य वर्ग के परिवार में कई-कई लोग एक साथ एक ही कमरे में रहते हैं। 

5.2 मध्य वर्ग, निम्न वर्ग और मध्य निम्न वर्ग :

मध्य वर्ग– हिन्दी कहानियों में मध्य वर्ग का संबंध एक कड़ी के रूप में माना गया है। कुलीनता और रुढ़िवादी मर्यादाएँ ही विषम समस्याओं के रूप में उसे नोंचती है। इस वर्ग का उदय परिस्थितियों का उपहार है। हमेशा से ऐसा कहा जाता रहा है कि यह समस्या ना तो उच्च वर्ग के सामने है और ना ही निम्न वर्ग के सामने। उच्चवर्ग के पास इतना पैसा है कि वह हर चीज पैसा से खरीद सकता है, दूसरी ओर निम्न वर्ग है- जहाँ सभी लोग कामकाजी हैं। यहाँ कोई भी किसी पर निर्भर नहीं रहता है। परन्तु मध्यवर्ग की स्थिति सबसे अधिक खोखली होती है। जिसे वह कुलीनता और मर्यादा के साथ भरने की कोशिश करता है। डॉ० छाबड़ा और डॉ गौतम ने लिखा है कि- “भारत का आधुनिक युग मध्य वर्ग द्वारा निर्मित हुआ है। वह मध्य वर्ग जो शिक्षित है, जो प्राचीन प्रथाओं और मान्यताओं से जूझ रहा है। जिसमें कुछ करने की ललक है।”1

इस प्रकार यह सत्य है कि यह वर्ग समाज में प्रचलित प्राचीन प्रथाओं के दौड़ से गुजरते हुए आधुनिक युग को निर्मित करने में प्रयासरत है।

  1. कहानीकार भगवती प्रसाद वाजपेयी संवेदना और शिल्प: डॉ० गोविन्द लाल छाबडा,

डॉ० लक्ष्मण दत्त गौतम पृष्ठ सं०-48

डॉ० सुशीला मित्तल ने मध्य वर्ग का विवेचन करते हुए लिखा है कि मध्यम वर्ग प्रधानतः बुद्धिवादी और बुद्धिजीवी था। अतः राष्ट्रीय और सामाजिक चेतना के स्त्रोत के साथ ही वह रीढ़ के हड्डी के समान सभी क्षोत्रों में केन्द्रित हो गया।”1

डॉ० मीरा सीकरी ने लिखा है कि- “उच्च वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग कि स्थिति जहाँ संतोषजनक थी, वहाँ निम्न माध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग की स्थिति शोचनीय है। ये वर्ग (मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग) भारत के हर स्थान पर आर्थिक विपन्नता के विरत दानव के पंजो में जकड़े जा रहे हैं।”2

     डॉ० सुरेश धींगडा ने लिखा है कि- “इस वर्ग में जीवन की असंगतियाँ और कुंठाएँ अधिक हैं। आधुनिक युग में जितना द्वन्द्व इस वर्ग में मिलता है। वह अन्य किसी वर्ग में नहीं….।”3

मध्य वर्ग के लोगों की एक विशेषता यह रही है कि वे अपनी समस्या के समाधान के लिए हर समय उधेड़-बुन में लगे रहते हैं। यह वर्ग हमेशा से ही संधर्षशील रहा है। मृदुला सिन्हा की कहानी ‘हार गया सत्यवान’ में कई वर्षो के बाद मास्टर जी के घर में नातिन का जन्म हुआ था। घर के सभी लोग बहुत खुश थे। प्यार से सभी उसे बऊआ कहते थे।

सबकी दुलारी बऊआ राजा जनक की बेटी सीता से कम नहीं थी। कुछ दिन बाद बऊआ (टुन्नी) अपनी माँ के साथ पिता के घर चली गई। नाना का सभी साम्राज्य सुना हो गया। वैसे टुन्नी का दोनों जगह आना-जाना लगा रहता था। अब टुन्नी सायानी और विवाह योग्य हो गई थी। टुन्नी सर्वगुण संपन्न थी। श्री रामसिंह अपनी टुन्नी के गुणों का बखान लड़के वालों के सामने करते थकते नहीं थे। लेकिन लड़के वालों को लड़की के गुणों के साथ-साथ धन भी चाहिए था।

1. आधुनिक हिंदी कहानी में नारी कि भूमिकाएं: डॉ० सुशीला मीतल: पृष्ठ सं०-33 

2. नयी कहानी : मीरा सीकरी, पृष्ठ सं०-27

3. हिंदी कहानी : डॉ दशक, सुरेश धींगडा, पृष्ठ सं०-61

टुन्नी का विवाह रामसिंह ने नवीन से कर दिया। कुशल गृहणी टुन्नी ने घर का दायित्व अपने ऊपर ले लिया। टुन्नी नवीन को बच्चे नहीं हुए। उसने अपनी छोटी बहन मुन्नी का विवाह अपने छोटे देवर के साथ रचा दिया। कुछ समय के बाद मुन्नी को एक लड़का हुआ। अब टुन्नी भी मम्मी बन गई थी। देवकी और यशोदा के इस साझा बच्चे ने कइयों में उम्मीद जगा दिया था। नवीन भी कालेज से अब रिटायर हो गए। एक दिन अचानक नवीन को पता चला की टुन्नी को गर्भाशय का कैंसर हो गया है। इस खबर को सुनते ही घर के सभी लोग बहुत उदास और चिंतित हो गए। नवीन टुन्नी के इलाज में पानी की तरह पैसा बहा दिए, लेकिन टुन्नी ठीक नहीं हुई। एक दिन टुन्नी की मौत हो जाती है। मौत की खबर सुनते ही लेखिका सन्न रह जाती है और कहती हैं- “बड़ी निष्ठुर निकली टुन्नी हमें छोड़कर चली गई। आखिर ‘सत्यवान हार गया’ सत्यवान की जगह सावित्री होती तो शायद यमराज को परास्त कर देती।1

निम्न वर्ग और निम्न मध्यवर्ग :

निम्न वर्ग से हमारा अभिप्राय उस वर्ग के लोगों से है, जिनकी प्रति व्यक्ति आय बहुत ही कम होती है। यह सत्य है कि आर्थिक विपन्नता किसी न किसी धरातल पर शोषक और शोषित वर्ग अवश्य खड़ा कर देती है। इसके अतिरिक्त भारतीय समाज में जाति व्यवस्था के आधार पर भी निम्न वर्ग में हरिजन, शूद्रों आदि को सम्मिलित किया गया है। इस वर्ग को समाज के अन्य वर्गो द्वारा कभी भी किसी प्रकार से कोई मदद या सहायता नहीं मिलती है। हमेशा से यह देखा गया है कि निम्न वर्ग की स्त्रियों को सबसे अधिक यातना सहनी पड़ती है।

मृदुला सिन्हा जी की कहानी ‘केकड़ा का जीवन’ में इसी बात को दर्शाया गया है। इस कहानी में सीता का विवाह अवधेश से हो जाता है, जो अयोध्या का राजा नहीं है, क्योंकि आज की अयोध्या नगरी में ना कोई सत्ता है और ना ही कोई राजा। त्रेता युग के अवधेश राजा बने थे। इस अवधेश के पास गाँव में एक बीघा जमींन है। कहते हैं न, जर, जमींन और जोरू जोर की होती है।

  1. कहानी ‘हार गया सत्यवान’ मृदुला सिन्हा पृष्ठ सं०-82 से 84

इस अवधेश का जोर कही नहीं था न जर, न जमींन और न जोरू पर ही। सीता ने अवधेश को बहुत समझाया, “कुछ तो काम करो। दूसरे के खेत में कुदाल चलाने पर भी लाज की क्या बात है। काम तो काम है, छोटा क्या बड़ा क्या? बड़ी बात तो कमाई है, कमाई के बिना तो लुगाई भी नहीं बसती।”1

अवधेश के कान पर जूँ नहीं रेंगा। सीता परेशान होकर अपने मायके चली गई। वहीं उस डूबते को तिनके का सहारा मीना दीदी मिली। वह उसके साथ दिल्ली चली गई। सीता उनके घर में सभी काम-धाम करते हुए, मीना की इकलौती बेटी सौम्या की देख-भाल करती थी। अब सीता सच में सीता लगने लगी थी। शरीर में खून भर जाने से पतले पीले पड़े होंठ भी लाल हो गए थे। नयन तो कजरारे थे ही। सीता को देखकर एक दिन मीना बुदबुदाई, “इसे अपने घर में सँभालना बड़ा कठिन है। इसके सौंदर्य की रक्षा करना मेरे बूते की बात नहीं है।” सीता ने स्वयं अपना चेहरा आदमकद शीशे में देखा था। अन्दर गुदगुदी हुई थी। और फिर उसने गाँव से अपने पति को बुला लिया। एक दिन गाँव से आया एक काला कलूटा मरद जैसे ही दरवाजा खोला, “कौन?”

सीता ने आगंतुक का मुस्कुराकर स्वागत किया। आगंतुक कि आँखें चौंधिया गई- ‘गिरा नयन नयन बिनु बाणी’ की स्थिति हो गई। पीछे से मीना आ गई थी। उसने पूछा, “कौन?” सीता बोली “दीदी, ये मेरे घर वाले हैं।” मीना चौंक गई थी। ये यहाँ कैसे आया।” उसके स्वर में आगंतुक के लिए तिरस्कार भाव था। तभी सौम्या ने बताया, “मम्मी सीता मौसी ने पत्र लिखा था। जब तुम घर में नहीं रहती हो तो शायद मौसी इन्हीं से फोन पर बातें कर अपने पास बुलाती थी।”

सीता ने भी कह दिया, “दीदी जी, यह अब तक नहीं कमाया-धमाया तो क्या हुआ, मैं तो कमाने लगी न। दो घर कमाकर इसका भी पेट पाल दूँगी। पर बच्चे के लिए अपनी कोख अकेले नहीं भर सकती न! इसीलिए, और कोई बात नहीं। सीता का तात्पर्य मीना को समझने में देर नहीं लगी।

  1. मृदुला सिन्हा : ‘ढाई बीघा जमीन’ – ‘केकड़ा का जीवन’, पृष्ठ सं०-106

सीता की निजी जरूरतों को समझते हुए मीना ने महसूस किया, मानो वह ठगी गई हो। सीता मीना का घर छोड़कर अपने पति के साथ रहने लगी। सीता कमाती और उसका पति उसकी कमाई खाता। अब सीता के तीन बच्चें हो गए थे। ‘एक दिन सीता का बड़ा बेटा उसी लहजे में पैसा मांग रहा था, जिस लहजे में उसका बाप मांगता था। पैसे नहीं थे। सीता कहाँ से देती?

बेटे ने पैसे के लिए हाथ बढ़ाने के बजाए माँ पर हाथ उठा दिया सीता की साधना भंग हो गई। वह बहुत रोई-चिल्लाई।

बाहर खटिया पर बैठा अवधेश बीड़ी फूंक रहा था, मानो कह रहा हो- भुगतो, तुम ही! तुम्हें ही बच्चा चाहिए था। तुमने ही पैदा किया है, मैं क्या करूँ? सीता भागी-भागी मीणा के पास गई। डूबती हुई सीता के लिए शायद मीना एक बार और तिनका का सहारा बन जाए। मीना ने सीता को देखते ही पहचान लिया। बोली, “हटो, भागो। यहाँ क्यों आई हो? जाओ अपने मरद के पास।”

सीता ने मीना से माफ़ी माँगते हुए कहा, दीदी मुझे माफ़ कर दो। मुझे बचा लो दीदी! “मुझे सब पता है। दो दिन बाद ही उसकी याद सताएगी तुम्हें। जाओ, अब मरो उन्हीं के साथ तुम केकड़ा हो, केकड़ा।” यह कहकर सीता जोड़ से दरवाजा बंद कर ली। सीता वही लौट गई घर पहुँच कर सीता खाट पर गिर गई और वह उठी नहीं।

लेखिका इस कहानी में यह कहना चाहती है कि नारी की शक्ति महान है। वह हार नहीं मानती है। जब तक उसके शरीर में प्राण रहता है। सीता ने तो पति का सुख जाना ही नहीं। 

5.3 आर्थिक जीवन का यथार्थ :

आज के भौतिकवादी युग में अर्थ अथार्त रुपया-पैसा मानव जीवन का मेरुदंड है। मनुष्य के जीवन की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति धन के द्वारा ही होती है। जिसे झुठलाया नहीं जा सकता है। हमारे शास्त्रों में भी जीवन को सार्थक बनाने वाले चार पुरुषार्थो में से ‘अर्थ’ को एक पुरुषार्थ माना गया है। आज हर व्यक्ति अपने जीवन को आराम से या कहे कि ऐश्वर्यपूर्ण जीना चाहता है। आर्थिक पूर्णता से मजबूत होने से ही ऐसा जीवन जीना संम्भव होगा।

रवीन्द्रनाथ मुखर्जी पैसे की परिभाषा देते हुए लिखते हैं – “अर्थ शब्द धन, सम्पति या मुद्रा का पर्यायवाची नहीं है, वह तो भौतिक सुखों की सभी आवश्यकताओं का द्योतक है।”

एम० एन० सेठ के शब्दों में- “अर्थ शब्द से केवल भौतिक पदार्थो को ही नहीं लिया जा सकता है। अपितु इसमें ऐसी सेवाएँ भी सम्मिलित हैं, जो मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं।”

अधिक धन की प्राप्ति के होड़ ने समाज में अनेक विसंगतियों को जन्म दिया है। आर्थिक विसंगतियों के कारण समाज एवं परिवार का विकेंद्रीकरण हो रहा है। इसके परिणाम स्वरुप विघटन की समस्या उत्पन्न हो गई है। परिवार का हर व्यक्ति अपनी पूँजी को बढ़ाने की कोशिश में लगा हुआ है तथा अन्य पारिवारिक जिम्मेदारियों से वह मुँह फेर रहा है। जिसके कारण संयुक्त परिवार टूटता जा रहा है। नई आर्थिक नीति ने जहाँ बहुत से दुष्प्रभाव छोड़े हैं, वहीं दूसरी ओर भारतीय अर्थ व्यवस्था को प्रगति प्रदान की है। यांत्रिकता के विकास तथा औधोगिकरण से अनेक विसंगतियों का जन्म हुआ। पैतृक व्यवस्था के प्रति घृणास्पद रवैया, आलसी प्रवृति, शहरों के प्रति मोह तथा अन्य विसंगतियों ने आर्थिक असंतुलन को बढ़ावा दिया है। सामजिक विश्वास, सहयोग भावना, स्नेह जैसे नैतिक मूल्य बिखर गए हैं। धन के प्रभाव से अनेक समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं।

     आधुनिक अर्थ व्यवस्था से निम्न वर्ग सबसे अधिक प्रभावित हुआ है। आलीशान बंगलों, महलों, कारों आदि सुख सुविधाओं को कायम रखने के लिए धनी-वर्ग छलकपट, चोरबाजारी और रिश्वतखोरी जैसे अनैतिक कार्य करता है। इसी कारण सामान्य व्यक्ति का जीवन निरंतर कठोर होता जा रहा है। दिन-रात जी तोड़कर मेहनत करने के बाद भी वह अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाता है। उसके सामने आर्थिक संकट सुरसा की मुँह की तरह बढ़ती ही जा रही है। वर्तमान व्यवस्था से अमीर और अमीर तथा गरीब और भी गरीब होता जा रहा है। आर्थिक असंतुलन के कारण ही समाज में अनेक विसंगतियाँ उत्पन्न हो रही है। इन्ही आर्थिक विसंगतियों का जब साहित्य में वर्णन किया जाता है तब वह आर्थिक यथार्त कहलाता है। मृदुला सिंह की ‘अंतिम संकेत’ कहानी में अभी निहारिका के विवाह के दो वर्ष ही हुए थे कि जलने से उसकी मौत हो जाती है। मालती अपनी मृत बेटी के शरीर को छाती से लगाकर रही थी पुलिस ऑफिसर ने मालती से पुचा पूछा था, “बहनजी, दहेज़ की मांग की जाती थी”? मालती बोली, “यही तो रोना है। दो वर्ष मेरी बेटी को ऐसे जकड़कर रखा कि मनभर बात तक नहीं करने देता था। कुछ माँगा भी नहीं। माँगता तो अपना सर्वस्व बेचकर दे देती।” इस कहानी में मालती अपने बेटी के ससुराल वालों को शक के  

5.4 जीविकोपार्जन के साधन :

जीविकोपार्जन वह साधन या व्यावासाय है, जो जीवन निर्वाह के उद्देश्य से किया जाता है। आर्थिक लाभ या धन अर्जित करने का मुख्य उद्देश्य जीवन निर्वाह करना होता है, धन संचय करना नहीं। वर्तमान समय में मनुष्य के समक्ष जीविका की समस्या प्रमुख समस्या बन गई है। यथार्थवादी सिद्धांत एवं उपयोगी प्रवृतियों को ध्यान में रखते हुए शिक्षा का उद्देश्य जीविकोपार्जन अथवा व्यावसायिक होना चाहिए। जिससे व्यक्ति किसी उचित व्यवसाय को भली-भाँती कर सके। मनुष्य की आर्थिक उन्नति पर ही उसके अन्य प्रकार की उन्नति भी निर्भर करता है। अतः जीविकोपार्जन का उद्देश्य शिक्षा में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।  पहले के समय में लोगों के पास खेती के जमीन अधिक होते थे और उनकी आवश्यकताएँ भी सीमित थी, किन्तु आज बढती हुई जनसँख्या के फलस्वरूप खेती के लिए धरती भी कम हो गई है और लोग गाँव में रहकर खेती भी नहीं करना चाहते हैं। दूसरे का काम करना पसन्द है लेकिन अपने घर में कम नहीं करना चाहते हैं।

मृदुला सिन्हा के ‘हस्तक्षेप’ कहानी से यह ज्ञात होता है कि व्यक्ति चाहे पढ़ा लिखा हो या अनपढ़ जीविकोपार्जन के लिए काम तो करना ही होगा। इस कहानी में पढ़े लिखे लोगों के काम करने के हालत को दर्शाया गया है। उनकी भी हालत बंधुआ मजदूरों से कम नहीं है।

नीलाभ एक कंपनी में काम करता है। वह करोड़टकियाँ है। फिर भी उसके पास समय नहीं है। एक दिन उसकी नानी दूरभाष से फोन कर कहती है। मैं तुम्हारे पास कल ही ट्रेन पकड़कर आ रही हूँ। तुम मुझे स्टेशन पर मिलना।

नीलाभ की चुप्पी को उन्होंने सहलाया था, “आ जाना बेटा मुझे अपने फ्लैट में रख देना तुम ड्यूटी पर जाया करना, मैं अकेले ही रह लूँगी। यहाँ कौन सी दुकेली हूँ। लाली ने मुझे सब बता दिया है सुबह सात बजे ड्यूटी पर जाते हो रात्रि के नौ-दस बजे लौटते हो। कैसी दुनिया हो गई है! इतना तो बंधुआ मजदूर से भी हम काम नहीं लेते थे। सरकार ने इतना बवाल उठाया। बँधुआ मजदुर के बंधन छुड़ावाए। आज पढ़े-लिखे लड़के भी बँधुआ मजदूर ही तो हैं। जीतनी ज्यादा पढ़ाई, उतनी जान घिसाई। साँस लेने की फुर्सत नहीं।1

5.5 धार्मिक जीवन का यथार्थ :

धर्म वह है जिसे धारण किया जाता है, व्यवहार में शामिल किया जाता है। व्यक्ति के जीवन कि पवित्रता के विवेचन-विश्लेषण का विषय स्वयं व्यक्ति न होकर धर्म ही है। धर्म के स्पष्टीकरण के लिए विभिन्न विद्वानों ने अनेक परिभाषाएँ दी हैं।

अज्ञेय धर्म को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि, “धर्म आचरण की संहिता है, जिसके माध्यम से व्यक्ति समाज के सदस्य के रूप में नियमित होता हुआ क्रमशः विकसित होता है और अंत चरम उद्देश्य की प्राप्ति होती है।”2 भारतीय जीवन के परिवेश में धर्म की मान्यता में ईश्वर, पूजा-पाठ, उपासना, कर्म-काण्ड, तीज-त्योहार, दान-दक्षिणा आदि शामिल है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि धर्म के माध्यम से व्यक्ति समाज में अपना विकास करता है और एक निश्चित उद्देश्य को प्राप्त करता है।

  1. मृदुला सिन्हा : ‘ढाई बीघा जमीन’ – ‘हस्तक्षेप’, पृष्ठ सं०-89
  2. अज्ञेय, हिंदी साहित्य आधुनिक परिदृश्य, पृष्ठ सं०-10    

गुरुदत्त’ के शब्दों में, “करने योग्य को धर्म कहते हैं स्थाई अथवा शास्वत धर्म और अस्थाई अथार्त परिवर्तनशील धर्म। शाश्वत धर्म को सनातन धर्म कहते हैं।”1 धर्म की परिभाषा इतने व्यापक अर्थ में हुई है कि किसी सर्वमान्य परिभाषा पर सहमत होना कठिन है। हम कह सकते हैं कि धर्म किसी वस्तु या मानव की वह कृति है जो उसमें सदा रहे, उससे कभी अलग नहीं हो, स्वभाव या आचरण जो नित्य नियम जैसे आँख का धर्म देखना है।

मृदला सिन्हा की कहानी ‘रामायणी काकी’ में मैना रानी बाल विधवा थी। वैसे तो उनके ससुर ‘रामचरितमानस’ की चौपाइयों का पाठ करते थे। अपने घर के काम में व्यस्त उनकी बहू मैना रानी मन-ही-मन उन चौपाइयों को दुहराती। अधिकाँश चौपाइयाँ उन्हें कंठाग्र हो गई थी।

वह काम भी करती रहती और ‘रामचरितमानस’ की पंक्तियाँ दुहराती भी रहती थी। इस तरह उसकी प्रौढ़ता के साथ कदम-से-कदम मिलाकर वे पंक्तियाँ भी उनकी जुबान पर प्रौढ़ होती जा रही थीं। वे जहाँ कही भी जाती थी रामायण का पाठ जरुर करती थी। धीरे-धीरे उनका लोग उन्हें ‘रामायणी काकी’ कहने लगे। इस तरह धर्म के प्रति उनका झुकाव बढ़ता ही गया।

इसतरह की आर्थिक विपन्नता के परिणाम जीवन के हर क्षेत्र में मूल्यहीनता का चित्रण सातवें दशक के कहानियों में मिलता है। आर्थिक परिस्थियों ने किसानों और मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के विचारों को झकझोर कर रख दिया है। आठवें दशक में जिंदगी और रचना के प्रति जिम्मेदारी महसूस करने वाले रचनाकारों ने मध्यवर्ग, निम्न मध्यवर्ग और निम्न वर्ग की सभी विसंगतियों और संघर्षो के बीच अपने को मौजूद पाया। अपने संघर्षों के अनुभव को लेकर कई रचनाकार नए कथ्य और शिल्प के साथ कहानी के क्षेत्र में आगे आये। उन में मृदुला सिन्हा जी का भी अपना विशिष्ठ स्थान है। इनकी कहानियों का कथ्य गाँव, किसान, पारिवारिक संबंधों को बांधकर रखना तथा राजनीति जीवन आदि है। मृदुला सिन्हा जी की कहानियाँ लोक संस्कारों और लोकसाहित्य में स्त्री की शक्ति-सामर्थ्य से परिपूर्ण है।         

  1. गुरुदत्त, धर्म और समाज पृष्ठ सं०-63

षष्टम अध्याय

विवेच्य कहानियों का भाषा वैशिष्ट्य

  • शब्द सम्पदा
    • तत्सम शब्द
    • तद्भव शब्द
    • देशज शब्द
    • विदेशज शब्द
    • मुहावरे
    • कहावतें, लोकोक्तियाँ तथा उक्तियाँ
    • विविध शैलियाँ
    • वर्णनात्मक शैली
    • विवेचनात्मक शैली
    • आत्मकथात्मक शैली
    • संवादात्मक शैली
    • पूर्वदीप्ति शैली

षष्टम अध्याय

विवेच्य कहानियों का भाषा वैशिष्ट्य

6.1 शब्द सम्पदा :

     ‘हिन्दी की शब्द सम्पदा’ साहित्यिक दृष्टि से हिन्दी की विचित्र अर्थ छटाओं को अभिव्यक्त करने की क्षमता है। भाषा में जिन शब्दों का प्रयोग करते हैं, वे किस प्रकार बनते हैं, यह एक रोचक प्रश्न है। व्याकरण में प्राचीन विद्वानों ने भाषा के स्वभाव की गहराई से खोज की है और अपने सतत परिश्रम तथा अपनी अद्वितीय प्रतिभा से कुछ ऐसे उपकरण ढूंढ निकाले हैं जिसकी सहायता से अनेक शब्दों की रचना हो चुकी है और आगे भी होती रहेगी। आधुनिक भारतीय भाषाओँ को संस्कृत भाषा की विशेष देन है जिससे भारतीय भाषाओं का भंडार निरंतर समृद्ध होता रहा है। रचनाकार की अपनी विशेषता होती है कि इस विशाल शब्द सम्पदा का अपनी रचनाओं में किस प्रकार प्रयोग करता है।

  • तत्सम शब्द :

स्वर, कालखण्ड, स्त्री         :    पृष्ठ संख्या 09

संकोच, प्रफुल्लता,           :    पृष्ठ संख्या 10

आयु, पूर्व, गूँज             :    पृष्ठ संख्या 11

अश्रुधार, बूँद, शीघ्रता         :    पृष्ठ संख्या 12

सर्वस्व, गर्भ, धर्म, दुःख       :    पृष्ठ संख्या 14

द्वारिका, आश्चर्य            :    पृष्ठ संख्या 15

मूर्ति, द्वार, धवल, वर्जित     :    पृष्ठ संख्या 17

श्रद्धा, कर्म, रात्रि, दन्त        :    पृष्ठ संख्या 18

शोषित, जन्म               :    पृष्ठ संख्या 22

स्वादिष्ट                   :    पृष्ठ संख्या 31

जिह्वा                    :    पृष्ठ संख्या 33

वक्त                     :    पृष्ठ संख्या 34

तन्द्रा, पार्वती               :    पृष्ठ संख्या 36

गर्भस्थ, तिथि, शुक्लपक्ष      :    पृष्ठ संख्या 38

अर्चना, योग्य, अक्षत         :    पृष्ठ संख्या 40

मनःस्थिति, नींव            :    पृष्ठ संख्या 42

प्रतिद्वंदिता, ऊँगली, प्रारम्भ   :    पृष्ठ संख्या 44

हृदय, राशि                 :    पृष्ठ संख्या 45

भूमिका, लक्ष्मी, पुस्तक       :    पृष्ठ संख्या 46

पुत्री, भाप, सघनतम         :    पृष्ठ संख्या 48

स्वनामधन्य, आह्लादित      :    पृष्ठ संख्या 49

दुःख, दीक्षा                 :    पृष्ठ संख्या 51

स्तंभ, वृक्ष, कृशकाय         :    पृष्ठ संख्या 52

दृष्टि, चतुष्कोण, निःसरित     :    पृष्ठ संख्या 53

स्वर, पुरुष                 :    पृष्ठ संख्या 54

प्रस्ताव, स्मृति              :    पृष्ठ संख्या 57

पत्र, प्रथम                 :    पृष्ठ संख्या 58

ईश्वर, प्रणाम, साँस          :    पृष्ठ संख्या 63

भोजन, आत्मसात, क्षण       :    पृष्ठ संख्या 64

वस्त्र, स्वयं                 :    पृष्ठ संख्या 65

गणना, निर्णय, अंकुर, स्वर    :    पृष्ठ संख्या 66

जीविका, स्वयं              :    पृष्ठ संख्या 67

मात्र, शय्या, पूर्ण            :    पृष्ठ संख्या 69

संजीवनी, छाया             :    पृष्ठ संख्या 70

आहार, श्रृंगार               :    पृष्ठ संख्या 72

दाम्पत्य, पृथ्वी, मित्र         :    पृष्ठ संख्या 73

छिद्र, इर्ष्या, प्रारम्भ          :    पृष्ठ संख्या 74

सुवर्ण,  सूत्र, वृद्धि           :    पृष्ठ संख्या 75

यथास्थिति, पत्र, प्रवेश        :    पृष्ठ संख्या 76

आख्यान, वृक्ष,              :    पृष्ठ संख्या 82

स्वर्ग, शीघ्र, प्रारम्भ          :    पृष्ठ संख्या 84

पूर्णरुपेन, सृष्टि,             :    पृष्ठ संख्या 85

जर्जर, द्वन्द, रूग्ण, दृढ़      :    पृष्ठ संख्या 87

ब्याह, बुजुर्ग                :    पृष्ठ संख्या 90

उपस्थित, चिंतित            :    पृष्ठ संख्या 91

स्मरण, प्रवेश               :    पृष्ठ संख्या 92

दृश्य, तीक्ष्णता              :    पृष्ठ संख्या 94

बसंत, पंचमी               :    पृष्ठ संख्या 97

पुनरावृत, उत्कंठा            :    पृष्ठ संख्या 99

बुद्धि, रात्रि, श्रोता, मात्र        :    पृष्ठ संख्या 100

रूँध, प्रसंग                 :    पृष्ठ संख्या 101

कर्तव्य, प्रतिमा, आलोचना     :    पृष्ठ संख्या 105

तात्पर्य, आश्रय              :    पृष्ठ संख्या 107

ग्रीष्म                     :    पृष्ठ संख्या 110

अवकाश, अभय             :    पृष्ठ संख्या 111

कक्षा, प्रार्थना, ईश्वर         :    पृष्ठ संख्या 114

मृत, प्राय:                 :    पृष्ठ संख्या 115

ध्यान, मुखर               :    पृष्ठ संख्या 117

जीर्णोधार                  :    पृष्ठ संख्या 119

प्रणय, रूदन, खंड            :    पृष्ठ संख्या 122

शत, पूर्व, शुभ              :    पृष्ठ संख्या 123

भाव, दुःख                 :    पृष्ठ संख्या 124

प्रसंग, विरुद्ध, संकेत          :    पृष्ठ संख्या 126

आत्मा, शांति               :    पृष्ठ संख्या 128

रात्रि, कर्म                 :    पृष्ठ संख्या 130

उतीर्ण, गूँज                :    पृष्ठ संख्या 131

पाँव, पक्ष, नेतृत्व            :    पृष्ठ संख्या 133

अन्त, स्थिति,              :    पृष्ठ संख्या 134

आशीर्वाद, अभ्यस्त           :    पृष्ठ संख्या 135

आयु, पुत्र, पूर्व              :    पृष्ठ संख्या 136

दुःख, प्रारम्भ                    :    पृष्ठ संख्या 137

हश्र, पंक्तियाँ               :    पृष्ठ संख्या 139

श्राद्ध, ध्यान, एकाग्र          :    पृष्ठ संख्या 140

स्मृति, यात्रा                :    पृष्ठ संख्या 142

स्वयं, कंठाग्र               :    पृष्ठ संख्या 144

मंत्र, सस्वर                :    पृष्ठ संख्या 145

पार्थिव, कंठ                :    पृष्ठ संख्या 146

प्राण, किंचित, रूँध           :    पृष्ठ संख्या 147

स्थान, अंतिम              :    पृष्ठ संख्या 148

सर्वत्र, छंद, निष्प्राण          :    पृष्ठ संख्या 152

गृहस्त, व्यस्त              :    पृष्ठ संख्या 154

स्वरूप, स्थिति              :    पृष्ठ संख्या 156

प्रातः, उपरान्त              :    पृष्ठ संख्या 158

मुक्ति, समृधि              :    पृष्ठ संख्या 159   

  • तद्भव शब्द

दूध, कोख                 :    पृष्ठ संख्या 11

कार्यकलाप, मंजिल           :    पृष्ठ संख्या 13

आँख                     :    पृष्ठ संख्या 14

आयु                      :    पृष्ठ संख्या 20

शोषित                         :    पृष्ठ संख्या 22

होंठ, मर्द, चेहरा             :    पृष्ठ संख्या 30

गाँव, मुँह                  :    पृष्ठ संख्या 32

हाँडी, साँस                 :    पृष्ठ संख्या 33

दूध, पीड़ा, मन्दिर           :    पृष्ठ संख्या 34

कोख                     :    पृष्ठ संख्या 38

हिसाब                    :    पृष्ठ संख्या 43

पति, संतान, जादू:           :    पृष्ठ संख्या 48

चोटियाँ, आँचल             :    पृष्ठ संख्या 49

पल्लू, पंक्ति                :    पृष्ठ संख्या 53

घूँघट, चित्रकारी             :    पृष्ठ संख्या 54

संतुष्टि, पंखुड़ियाँ            :    पृष्ठ संख्या 57

अचम्भित                  :    पृष्ठ संख्या 59

हाथ, कलम                :    पृष्ठ संख्या 61

शव, छाती                 :    पृष्ठ संख्या 65

शिक्षक, परिवार             :    पृष्ठ संख्या 66

बाराती, विवाह, गाय         :    पृष्ठ संख्या 67

समाचार, शिकायत,          :    पृष्ठ संख्या 69

आश्चर्य, चिठ्ठी              :    पृष्ठ संख्या 71

निपटारा                   :    पृष्ठ संख्या 73

तालमेल, बंधन              :    पृष्ठ संख्या 75

उफान                     :    पृष्ठ संख्या 77

कमोवेश                   :    पृष्ठ संख्या 79

कुँवारा                    :    पृष्ठ संख्या 80

पहाड़, औरत               :    पृष्ठ संख्या 90

अँधियारा                  :    पृष्ठ संख्या 91

कंक्रीट, प्रगट               :    पृष्ठ संख्या 93

गुथियाँ, शान्त              :    पृष्ठ संख्या 94

थप्पड़, तंग                :    पृष्ठ संख्या 113

रूई                       :    पृष्ठ संख्या 115

बेकसूर                    :    पृष्ठ संख्या 118

बीमारी, सुखी               :    पृष्ठ संख्या 124

अमावश्या                  :    पृष्ठ संख्या 125

कंगन                     :    पृष्ठ संख्या 126

डॉट, नींद                  :    पृष्ठ संख्या 129

किस्मत                   :    पृष्ठ संख्या 131

धरना                     :    पृष्ठ संख्या 132

उम्र, पैमाना                :    पृष्ठ संख्या 136

साँप, बिच्छू                :    पृष्ठ संख्या 137

ग्रामीण, अचंभित            :    पृष्ठ संख्या 144

जिन्दा                    :    पृष्ठ संख्या 148

वनवास                   :    पृष्ठ संख्या 149

पिंजड़ा                     :    पृष्ठ संख्या 151

रिश्ते                     :    पृष्ठ संख्या 155

त्यौहार                    :    पृष्ठ संख्या 157

हप्ता                     :    पृष्ठ संख्या 158

  • देशज शब्द

झल्लाहट, परिवार           :    पृष्ठ संख्या 09

मालिश, धुनाई              :    पृष्ठ संख्या 10

किलकारियां, सुबकती         :    पृष्ठ संख्या 11

महिला, हथेली, कोख         :    पृष्ठ संख्या 14

सफेद, मंच, विराजमान       :    पृष्ठ संख्या 17

भाषण, दर्शन, पालकी        :    पृष्ठ संख्या 18

कलम, प्रशिक्षण, कलछी      :    पृष्ठ संख्या 20

ससुर, अन्न, वकील          :    पृष्ठ संख्या 21

उठती, दुबकना, मूँदना        :    पृष्ठ संख्या 24

चिल्लाना, धत्त, चूहेदानी      :    पृष्ठ संख्या 25

इकट्ठा                     :    पृष्ठ संख्या 26

मालकिन                  :    पृष्ठ संख्या 26

गुँथकर                    :    पृष्ठ संख्या 27

ससुराल, त्यौहार             :    पृष्ठ संख्या 29

गुलाबीपन, लुआठ           :    पृष्ठ संख्या 30

आँचल, कपड़ा              :    पृष्ठ संख्या 31

रसगुल्ला, बेलगाम, गौना      :    पृष्ठ संख्या 32

खटिया, इन्सान             :    पृष्ठ संख्या 35

पूजाघर, हांडी, तस्वीर        :    पृष्ठ संख्या 38

दामाद, फलदान, बाराती       :    पृष्ठ संख्या 40

दुरागमन, नाती, नातिन       :    पृष्ठ संख्या 41

गहना, साड़ी, गुलाबी         :    पृष्ठ संख्या 44

पराई, मालकिन             :    पृष्ठ संख्या 45

युगलबंदी, चिलचिलाहट       :    पृष्ठ संख्या 48

गरदन, चोटियाँ             :    पृष्ठ संख्या 50

सुखाश्चर्य, ओढ़कर           :    पृष्ठ संख्या 53

घूँघट, ससुराल              :    पृष्ठ संख्या 54

बुझौवल, परदादा            :    पृष्ठ संख्या 55

पतझड़, हँसुआ, खुरपी        :    पृष्ठ संख्या 57

थप्पड़, बचपन              :    पृष्ठ संख्या 58

समाचार, लोककथा           :    पृष्ठ संख्या 60

गृहस्ती, पीठ               :    पृष्ठ संख्या 61

छुअन, सुलाकर             :    पृष्ठ संख्या 62

सहलाना                   :    पृष्ठ संख्या 64

बाराती, विवाह, गाय         :    पृष्ठ संख्या 67

कांटा, पेड़                  :    पृष्ठ संख्या 68

समाचार, शिकायत           :    पृष्ठ संख्या 69

चिठ्ठी                      :    पृष्ठ संख्या 71

निपटारा, हिदायत, घुसपैठ     :    पृष्ठ संख्या 73

विश्वास, आसमान, छानबीन   :    पृष्ठ संख्या 75

तलाक, अर्जी, मंजूरी         :    पृष्ठ संख्या 76

मिलाप, शाकाहारी, प्याला     :    पृष्ठ संख्या 80

एहसास                   :    पृष्ठ संख्या 82

बगीचा, गठिया              :    पृष्ठ संख्या 83

यमराज                   :    पृष्ठ संख्या 84

ढांढ़स, परास्त              :    पृष्ठ संख्या 86

घूँघट, दरवाजा              :    पृष्ठ संख्या 90

खानदान, परिवेश            :    पृष्ठ संख्या 94

कमबख्त, झाड़ू              :    पृष्ठ संख्या 95

बिछावन, आटा              :    पृष्ठ संख्या 96

डिबिया, मन्दिर             :    पृष्ठ संख्या 97

जोरू, मुँहपोछ्नी, श्रृंगारदानी    :    पृष्ठ संख्या 105

गुंजाइश, मुखड़ा, आवाँ        :    पृष्ठ संख्या 106

झोंपड़ी, बिछोह, गुस्सा        :    पृष्ठ संख्या 108

खटिया, मरद               :    पृष्ठ संख्या 109

खाट                      :    पृष्ठ संख्या 110

जेठानी, पथलौटी, मलिया      :    पृष्ठ संख्या 100

गेंहूँ, चिड़िया, मालिश         :    पृष्ठ संख्या 101

दीवार, आँगन, गठिया        :    पृष्ठ संख्या 102

जायदाद, बरतन, आँगन       :    पृष्ठ संख्या 103

कुटाई, थप्पड़, मुक्का,        :    पृष्ठ संख्या 112

खेत, बबूल, सेवक, रगड़ा      :    पृष्ठ संख्या 113

उड़ेलना, सधाना हिलोर       :    पृष्ठ संख्या 114

विश्वास, रिसना, जच्चा       :    पृष्ठ संख्या 115

बखान, बिफरना, बिटिया      :    पृष्ठ संख्या 116

ब्याह, कोठी, कमाई, गृहस्थी   :    पृष्ठ संख्या 117

लापरवाही, चुप्पी, गड़ाई       :    पृष्ठ संख्या 118

गजपुरैना, बवासीर, बखारी     :    पृष्ठ संख्या 119

कसाई, बहनजी             :    पृष्ठ संख्या 122

कपड़ा, सुहागरात            :    पृष्ठ संख्या 123

दोपहर, परेशान             :    पृष्ठ संख्या 124

बिछावन, गरदन, पन्ना       :    पृष्ठ संख्या 127

दामाद, समधीन, रिश्ता       :    पृष्ठ संख्या 128

रजाई, पीठ, किस्सा          :    पृष्ठ संख्या 129

चमड़ी, गणना, चिड़िया       :    पृष्ठ संख्या 130

सैकड़ों, कैदी                :    पृष्ठ संख्या 133

आवारा, परचा              :    पृष्ठ संख्या 135

दरवाजा, सीढ़ी, सुभाव        :    पृष्ठ संख्या 136

ओसारा, बिधना, पखारना      :    पृष्ठ संख्या 137

चौकठ, कोठी, टोकरी         :    पृष्ठ संख्या 138

बाँस, रजाई, बरतन               :    पृष्ठ संख्या 139

बेलन, चकला, नथनी         :    पृष्ठ संख्या 141

पूड़ी, दसकठवा              :    पृष्ठ संख्या 142

चश्मा, धोती, चबूतरा         :    पृष्ठ संख्या 144

डायन                     :    पृष्ठ संख्या 145

बेसब्री                     :    पृष्ठ संख्या 146

पगदंडी, विराजमान          :    पृष्ठ संख्या 148

अमरुद, कालू, हुलसाती       :    पृष्ठ संख्या 151

कद, काठी, इकलौता         :    पृष्ठ संख्या 154

आलमारी, खाट              :    पृष्ठ संख्या 155

सलवार, खाना              :    पृष्ठ संख्या 156

साड़ी, नोकझोक             :    पृष्ठ संख्या 157

सहलाना, साँझ              :    पृष्ठ संख्या 159

  • विदेशी शब्द

बालकनी, फ्लैट, अपार्टमेंट     :    पृष्ठ संख्या 09

ड्यूटी, टिफिन, इजहार        :    पृष्ठ संख्या 12

अख़बार                   :    पृष्ठ संख्या 13

डॉक्टरनी                  :    पृष्ठ संख्या 15

गेस्टहाउस, बिस्तर           :    पृष्ठ संख्या 18

डॉक्टर, एंट्रेंस, मेडिकल       :    पृष्ठ संख्या 19

ऑफिसर, वकालत, कुरसी      :    पृष्ठ संख्या 20

मुकदमा, तनख्वाह           :    पृष्ठ संख्या 21

अस्पताल, ऑपरेशन          :    पृष्ठ संख्या 22

किचेन, कार्टिलेज            :    पृष्ठ संख्या 24

कुतरना, दर्जन, एहसास       :    पृष्ठ संख्या 25

ड्राइंगरूम, बेडरूम, चिटकनी    :    पृष्ठ संख्या 27

निकाह, डिज़ाइन, तासीर      :    पृष्ठ संख्या 29

कबूल, निकाह              :    पृष्ठ संख्या 31

नामुराद, जिद्द               :    पृष्ठ संख्या 32

पैंट, सर्वेंट, क्वार्टर           :    पृष्ठ संख्या 34

ऑपरेशन, नशबंदी           :    पृष्ठ संख्या 35

ब्लाउज, पेटीकोट, शॉल       :    पृष्ठ संख्या 39

इंजीनियर, डॉक्टर, मास्टर     :    पृष्ठ संख्या 40

टायरगाड़ी                  :    पृष्ठ संख्या 41

आर्किटेक्ट, मुकदमा, बेडरूम    :    पृष्ठ संख्या 42

प्लास्टर, फिनिशिंग          :    पृष्ठ संख्या 43

बाथरूम, पेंटिंग, टाइल्स       :    पृष्ठ संख्या 44

डेकोरेटर, ट्यूब लाईट         :    पृष्ठ संख्या 45

बैंक, फर्श, टेबल             :    पृष्ठ संख्या 46

रूममेट                    :    पृष्ठ संख्या 49

मुश्तैनी, प्रोविडेंटफण्ड         :    पृष्ठ संख्या 54

प्लास्टर, डायलॉग           :    पृष्ठ संख्या 55

इंजीनियरिंग                :    पृष्ठ संख्या 58

टेलीफोन, कम्प्यूटर          :    पृष्ठ संख्या 60

बॉक्स                     :    पृष्ठ संख्या 61

मोबाईल                   :    पृष्ठ संख्या 62

कॉलबेल, सरप्राईज           :    पृष्ठ संख्या 64

मास्टर                    :    पृष्ठ संख्या 66

टीचर                     :    पृष्ठ संख्या 67

स्टेशन, कंप्यूटर             :    पृष्ठ संख्या 69

पुश्तैनी, लुसफुसाता          :    पृष्ठ संख्या 70

बर्खास्त, करोरटकिया         :    पृष्ठ संख्या 71

फ़्लैट, दफ्तर               :    पृष्ठ संख्या 74

ड्राइंगरूम                  :    पृष्ठ संख्या 76

यूरेका, नाश्ता               :    पृष्ठ संख्या 78

वकील, बल्ब               :    पृष्ठ संख्या 79

डायरी                     :    पृष्ठ संख्या 81

साईकिल, मास्टर, करंट       :    पृष्ठ संख्या 83

ऑक्सिजन, कैंसर, रिटायर     :    पृष्ठ संख्या 85

कीमोथेरेपी, डॉक्टर           :    पृष्ठ संख्या 86

करोड़टकिया, हॉस्टल, बूट      :    पृष्ठ संख्या 89

सर्टिफिकेट, फैसन           :    पृष्ठ संख्या 90

स्टेशन, बतंगड              :    पृष्ठ संख्या 91

सैंडविच, ऑफिस            :    पृष्ठ संख्या 92

अटैची, किचेन              :    पृष्ठ संख्या 93

बॉलकनी, प्याला            :    पृष्ठ संख्या 94

अपार्टमेंट                  :    पृष्ठ संख्या 97

बैकगियर, पैंट              :    पृष्ठ संख्या 111

कालेजियट, स्टेशन           :    पृष्ठ संख्या 113

डिलेवरी, ऑपरेशन           :    पृष्ठ संख्या 115

मरीज, थानेदार, थिएटर       :    पृष्ठ संख्या 116

केरोसिन, पोस्टमार्टम         :    पृष्ठ संख्या 122

ऑफिस, हनीमून            :    पृष्ठ संख्या 124

अस्पताल                  :    पृष्ठ संख्या 125

पुलिस, डायरी               :    पृष्ठ संख्या 126

दफ्तर, ख्वाब               :    पृष्ठ संख्या 131

मशविरा, परोसना            :    पृष्ठ संख्या 132

कॉलोनी, सख्ती             :    पृष्ठ संख्या 135

हेलिकॉप्टर, रिलिफकैंप        :    पृष्ठ संख्या 137

इलेक्ट्रोनिक, फर्निचर         :    पृष्ठ संख्या 139

कारीगर, मजदूर             :    पृष्ठ संख्या 145

दरिया                     :    पृष्ठ संख्या 146

टैक्सी                     :    पृष्ठ संख्या 147

फोन, वीजा                :    पृष्ठ संख्या 149

ग्रेट, प्राउड                 :    पृष्ठ संख्या 153

ड्राईक्लीनिंग, अंडरविअर       :    पृष्ठ संख्या 154

आलमारी, बनियान, फ्लैट     :    पृष्ठ संख्या 155

किचेन, हैंगर               :    पृष्ठ संख्या 156

हप्ता, वुडवर्क               :    पृष्ठ संख्या 158

फोन, कारपेंटर              :    पृष्ठ संख्या 159

6.6. मुहाबरे

सुभद्रा के मन में भी पति के सर पर के जमीन की लालच का अंकुर फूटा। उसकी पड़ोसन सास ने गरम लोहे पर हथौड़ा मारा, “मैं तो कहती हूँ, बंटवारा करवा लो”।

(गरम लोहे पर हथौड़ा मारना : पृष्ठ संख्या-68)

तब तक सुभद्रा के सर से खेती करवाने के नये शौक का भूत भी उतर गया था। पर विवाह के बीस वर्ष बाद एक और भूत सवार हुआ था– पिता से लड़ाई करने का भूत!

(सिर पर भूत सवार होना : पृष्ठ संख्या-69)

सुभद्रा बुदबुदाई थी, “कभी सुना था – जेवर संपत्ति का श्रृंगार और बिपत्ति का आहार होता है।  पर तुम्हारे लिए तो पुश्तैनी जमीन ही बिपत्ति का आहार बन रही है। ढाई बीघा ही है तो क्या, तिनके का सहारा।” (तिनके का सहारा : पृष्ठ संख्या-72) 

सुखिया ………….अपना काम समाप्त कर मेरे पास आई। बोली, “दीदी, बुढ़ापे की लाठी होते हैं बच्चे। पर अब तो आप लोगों के घर में भी बच्चे माँ-बाप के साथ नहीं रहते। (बुढ़ापे की लाठी : पृष्ठ संख्या-13)

फिर आज क्या हो गया? क्यों रो रही है? फिर कोख पर पत्थर मार रही है। सिर फोड़ रही है। क्यों? क्या हुआ? –मेरे आश्चर्य के बोल थे।

(कोख पर पत्थर मारना : पृष्ठ संख्या-15)

हम माँ बेटी कपड़े धोने जा रहे थीं। उसने मेरे घर आकर उनके आने की खबर सुनाई। मेरी अम्मा ‘आग बबूला हो गई’। खिसियाई हुई बोली, हमारे जमाई को इतना भी ख्याल नहीं है कि गौना के पहले बीबी से नहीं मिला जाता। (आग बबूला होना : पृष्ठ संख्या-32)

एक दिन वे गुमसुम बैठी पत्नी पर बिफर पड़े, “मति सुन्न हो गई क्या? बाढ़ कोई पहली बार आई है? वह तो आती ही रहती है। उसका जीवन ही आना-जाना है। जो उसका काम है, वह कर गई! अब तो हमारा काम है, हम क्यों छोड़ दें? उठो, बहू के काम में हाथ बताओ”।  (मति सुन्न हो जाना : पृष्ठ संख्या-138)

दिन बीतते गए। हिरा का विवाह निश्चित होने पर दादी ने फिर यद् दिलाया था, “अब हीरा वाला खाना तुम्हीं रखना, ‘फैलकर रहना’। (फैलकर रहना:पृष्ठ संख्या-156)

“माँ जी, मुझे अभी कोर्ट जाना है। मैं कमला की वकील हूँ। आप उसके पति का वकालत कर रही हैं। आपकी बात सुनूँ तो कोर्ट में गड़बड़ हो जाएगा।” वे स्वर दबाकर कहतीं, “पर दूध का दूध, और पानी का पानी तो करना चाहिए न!”

(दूध का दूध, और पानी का पानी करना : पृष्ठ संख्या-21)

दांपत्य के जमने का भी यही काल है। यदि दोनों के बीच कोई विवाद हो गया तो ‘शीघ्र निपटारा होना’ चाहिए”। (निपटारा होना : पृष्ठ संख्या-73)

उसके बड़े भैया ने पिता कहा, “इतनी कम उम्र में सेना में। रगडा जाएगा।” “नहीं! जाने दो! वहाँ जाकर ‘मंज जाएगा’ आदमी बनेगा। यहाँ रहकर शैतान बन जाएगा।

(मंज जाना : पृष्ठ संख्या-113) 

 “विजय भाई, बच गई भाभी। बड़ी मेहनत करनी पड़ी। मेहनत तो करता ही रहता हूँ। काम का सुख भी मिलता है। पर आज भाभी को बचाकर मैं धन्य हुआ। मुझे सुख और संतोष दोनों मिला। ईश्वर ने साथ दिया है।” विजय की आँखें बरसनी थीं। बरस गईं। (आँखें बरसना : पृष्ठ संख्या-115)

थोड़ी देर में ही अपने सहकर्मी थानेदार के साथ हँसते हुए उपस्थित हुए अभय सिंह। उनको देखते ही ‘बिफर पड़ी’ सुभद्रा, “क्या बात है? बेटी हुई तो क्या, जान तो है। (बिफर पड़ना: पृष्ठ संख्या-116)

दरअसल प्रेम-बीज को भी परिपक्व वृक्ष बनने में कितने पतझड़-बसंत से पार होना पड़ता है। उस रात्रि उस वृक्ष के साए में ही रही सुभद्रा। शीतल तन, सुखद मन हो गया। दूसरों को सुखी देख सीखी हो जाता है मन। ‘हींग लगे न फिटकिरी, रंग चोखा’। (हींग लगे न फिटकिरी, रंग चोखा : पृष्ठ संख्या-120)

“नहीं, चायपति तो है नहीं।” मल्लिका के ‘मुँह से मानो महुआ के पके फूल टपक पड़े’। (मुँह से महुआ का फूल टपकना : पृष्ठ संख्या-92)

कौशल्या देवी ने उसके अनुभव को समर्थन दिया, “हाँ बेटी! “बिन घरनी घर भूत का डेरा” ही होता है। (बिन घरनी घर भूत का डेरा : पृष्ठ संख्या-93)

मैना कहती, “नहीं माँजी, बाबूजी ‘रामचरित मानस’ का पाठ करते हैं न। वही……” “चुप कर। ‘ई मुँह, मसूर की दाल’! (ई मुँह, मसूर की दाल : पृष्ठ संख्या-145)

रामायणी काकी सबको ‘ढांढस बाँधती’ टेक्सी में सवार हो गई।

(ढांढस बाँधाना: पृष्ठ संख्या-149)

“दाँतों तले होंठ दबाकर अपनी हँसी रोकता वह बोला, कुछ नहीं रामाज आंटी”! और फिर हँसने लगा। (दाँतों तले होंठ दबाना: पृष्ठ संख्या-150)

चूहे के भाग जाने पर भी डरी-सहमी मालती को देख कहते, “धत्त तेरे की,चूहे से डर गई! अरे, वह तो स्वयं अपनी जान बचाकर भागा कहीं किसी कोने में दुबक गया होगा।”  (धत्त तेरे की : पृष्ठ संख्या-24)

बातों-बातों में रामलगन के मुँह से बात निकल गई थी,“घी के लड्डू टेढ़ो भले”।

(घी के लड्डू टेढ़ो भले : पृष्ठ संख्या-106)

काम तो काम है, छोटा क्या और बड़ा क्या! बड़ी बात तो कमाई है। कमाई के बिना तो लुगाई भी नहीं बस्ती।” अवधेश के ‘कान पर जूँ रेंगी’।

(कान पर जूँ रेंगना :पृष्ठ संख्या-106)

6.7. कहावतें, लोकोक्तियाँ तथा उक्तियाँ

कहावतें :

सुभद्रा बुदबुदाई थी, “कभी सुना था – जेवर संपत्ति का श्रृंगार और बिपत्ति का आहार होता है।  पर तुम्हारे लिए तो पुश्तैनी जमीन ही बिपत्ति का आहार बन रही है। (बिपत्ति का आहार होना : पृष्ठ संख्या-72)

उस दिन सुखिया सचमुच दुखिया हो गई थी। गर्भ रहने के गर्व के ढहने का दुःख, मासिक धर्म बंद होने का दुःख, दुःख ही दुःख। सुखिया अपनी झुग्गी से बाहर ही नहीं आई। कोख अपना धर्म निभाए तो क्या, पेट अपना धर्म निभाता ही है।

(कोख अपना धर्म निभाए तो क्या, पेट अपना धर्म निभाता ही है:पृष्ठ संख्या-14)

सुखिया के भीतर मातृ–भाव अक्षरा था, माँ बनने की क्षमता समाप्त होने के उपरांत भी जिसका क्षरण नहीं हो सका। अपने भीतर से दूसरी जान का सर्जन नहीं कर सकी। स्वयं मृत्यु को कुबूल कर लिया। जन्म और मृत्यु का फेर ही तो है जीवन। मैं उसके अंदर अक्षरा मातृत्व–भाव को मौन श्रद्धांजलि दे गई।

(जन्म और मृत्यु का फेर ही जीवन है : पृष्ठ संख्या-16)

एक महीने उपरांत ही होनेवाले निकाह के बाद सकीना ससुराल चली जाएगी। मैंने पूछा, “फिर तो खाना-पीना तुम्हें ही बनाना पड़ेगा?”

“अब क्या करूँ? उ क्या कहते हैं कि, बेटी की माई रानी, बुढ़ापा में भरे पानी”। (बेटी की माई रानी बुढ़ापा में भरे पानी : पृष्ठ संख्या-29)

मैंने पूछा,“सकीना का पति उसे कलकता ले जाएगा?”

“नहीं! कभी-कभी घुमाने-फिराने कलकता ले जाएगा। वह गाँव में ही गाँववालों के कपड़े धोएगी। बड़ा गाँव है, खाते-पीते लोग हैं। एक ही धोबी का घर है। बहुत कपड़े धोने पड़ेंगे। धोबिन की बेटी को न नैहर सुख, न ससुराल सुख”।

(धोबिन की बेटी को न नैहर सुख है न ससुराल : पृष्ठ संख्या-29)

वे इतना दुलार करने लगे कि मैं पीहर ही भूल गई। गाँव ले जाते भी तो अपने साथ। फिर साथ ही वापस ले आते। फिर तो अम्मी भी कुछ नहीं करती। जिसका मियाँ दुलारे, उसे कौन फटकारे!”

(जिसका मियाँ दुलारे उसे कौन फटकारे : पृष्ठ संख्या-34)

मेरी चौथी बेटी के जन्म पर वे बोले – अल्लाह ताला की देन है। इसका अपमान मत करना। रोना-धोना भी नहीं। शिवजी के मंदिर वाले पंडित जी कहते हैं – बेटी लक्ष्मी होती है।” (बेटी लक्ष्मी होती है : पृष्ठ संख्या-34)

“…………सच बात तो यह है कि उनको हर वक्त मेरा साथ चाहिए।”

वह स्वर दबाकर बोली, “एक बात कहूँ! ई मरद लोग ज्यादा कमजोर होते हैं।  (ई मरद लोग ज्यादा ही कमजोर होते हैं :पृष्ठ संख्या-36)

साइदा के वैवाहिक जीवन के पड़ाव इतने मन भावन थे कि तब से वहीँ अटकी हूँ, जब से उन पड़ावों पर साइदा ने विलमाया। हर दम्पति को अपनी औलाद की शादी पर अपना निकाह स्मरण हो आता ही है। साइदा जैसा दांपत्य हो तो दुआएँ रिसती हैं – मेरे जैसा ही तेरा भी  हो!”

(मेरे जैसा तेरा भी सुहाग हो : पृष्ठ संख्या-37) 

राजा जनक की बेटी सीता से कहाँ कम थी। वह भी सीता की तरह ‘पलंगपीठ तजि गोद हिंडोरे, सिय न दीन्ह पग अबनी कठोरे’ की स्थिति में ही थी।

(पलंगपीठ तजि गोद हिंडोरे, सिय न दीन्ह पग अबनी कठोरे : पृष्ठ संख्या-83)

मामा आम उठाकर ले आए। पत्नी से बोले, “इसे धोकर लाइए। टुन्नी को खिलाऊँगा।” और मौसी ने उन दिनों प्रचलित गीत “चंदा मामा दूर केॱॱॱ’ पर झटपट पैरोडी बना ली, अपन मामा पास के, आम लाए बिन के। “आप खाए काट के, टुन्नी को दे गार के”।

(आप खाए काट के, टुन्नी को दे गार के : पृष्ठ संख्या-84)

एक दिन उसने मुझसे हँसते हुए शिकायत की थी, “मौसी, ई त बड़ा नखरा कर लथुन”। (मौसी, ई त बड़ा नखरा कर लथुन : पृष्ठ संख्या-85)

मैं उनके घर मिलने गई थी। टुन्नी ने कहा था, “मौसी, इनका अपने साथ ले जा। बड़ा हरान कर लथुन।” (बड़ा हरान कर लथुन : पृष्ठ संख्या-85) 

कल तो आँखें भी नहीं खोलती थी, आज घूमने जाएगी! मोबाइल पर नं. घुमाकर मैंने किरण, मंजू, संगीता को दिल्ली, मोतिहारी और दिल्ली खबर कर दिया, “टुन्नी को बाजार घूमाने ले जा रही हूँ।” झट पैरोडी बनाकर मैं गाने लगी, “ले चल बाजार, बाजार, रे जिया ना लागे मौसी”। सुनकर विहँस उठे।

(ले चल बाजार, बाजार रे जिया ना लागे मौसी : पृष्ठ संख्या-87)

दूरभाष उठा ही लिया मैंने। बड़ी हिम्मत की। ‘हेलो’ सुनते ही नवीन बिफर पड़ा, “मौसी जी ! शब्द चुक गए। क्या कहूँ? मैं तो यतीम हो गया। टूअर”।

(मैं तो यतीम हो गया। टूअर : पृष्ठ संख्या-88) 

बचपन में किस्सा सुनकर टुन्नी जिद्द करती थी, “औल! मौसी औलो कह। रानी मर गेल, फेर राजा के की भेल?” मुँह में ऊँगली डालती थी। मैं कहती थी, किस्सा ख़तम पैसा हजम।” (किस्सा खतम पैसा हजम : पृष्ठ संख्या-88) 

हमारे दादा कहते थे, ‘मकान और दूकान कहता है- हमें हाथ लगाकर तो देखो!’ (मकान और मुकदमा कहता है– हमें हाथ लगा कर तो देखो: पृष्ठ संख्या-42)

मिट्टी हर साल भराई जाती, हर साल उतनी ही बह भी जाती। बाढ़ के पानी का यही सुभाव है- कुछ दे जाना, कुछ ले जाना।

(बाढ़ के पानी का यही सुभाव है– कुछ दे जाना, कुछ ले जाना: पृष्ठ संख्या-136)

उसकी सास ने बहू के सिधाई पर लम्बी साँस खींचते हुए एक कहावत कही, “चिड़िया की जान जाए, लड़िकन के खिलौना। ये सब बिचारे बाढ़ के मारे हैं। खेत में इनकी फसल बह गई। घर में सँजोकर रखा अन्न भी डूब गया। ये इतना दुखी हैं और तुम्हें आनंद आ रहा है!”

(चिड़िया के जान जाए, लड़िकन के खिलौना : पृष्ठ संख्या-137)

दिल्ली से लौटकर गौरी ने अपनी सास को सब बातें सुनाई। उसकी सास अपनी समझदारी एक प्रचलित कहावत में व्यक्त कर गई, केकरो फाटल, केकरो आँटल।”

(केकरो फाटल, केकरो आँटल : पृष्ठ संख्या-139) 

त्रेता युग के अवधेश चक्रवर्ती राजा बने थे, अवधेश अपने गाँव की एक बीघा जमीन का मालिक है भी और नहीं भी। क्योंकि कहते हैं न, जर, जमीन और जोरू जोर की होती है। (जर, जमीन और जोरू जोर की होती है : पृष्ठ संख्या-105)

सीता जैसी तो दोनों बहनें भी नहीं थीं। इसलिए तो कहते हैं कि कुम्हार का आवाँ और औरत की कोख एक ही प्रकार के हैं। सुंदर – असुंदर बरतन और बच्चे एक स्थान से निकलते हैं। आवाँ से निर्जीव और कोख से सजीव। इतना ही अंतर है।

(कुम्हार का आवाँ और औरत की कोख एक ही प्रकार के हैं : पृष्ठ संख्या-106)

काम तो काम है, छोटा क्या और बड़ा क्या। बड़ी बात तो कमाई है। कमाई के बिना तो लुगाई भी नहीं बसती।”

(कमाई के बिना तो लुगाई भी नहीं बसती : पृष्ठ संख्या-106)

दरवाजा खोलकर खड़ी सीता ने मुसकराकर आगंतुक का स्वागत किया। आगंतुक की आँखे चौंधिया गईं – ‘गिरा नयन अनयन बीनू बानी’ की स्थिति हो गई।

(गिरा नयन अनयन बीनू बानी : पृष्ठ संख्या-107)

मेरे घर के सरे सुख को लात मार गई। कैसा धप-धप चेहरा बन गया था। अब चूसे हुए बीजू आम के समान हो गई। केकड़ा है, केकड़ा। इसके बच्चे ही इसे खा जाएँगे।

(चूसे हुए बीजू आम के समान हो जाना : पृष्ठ संख्या-109)

माँ कहती थी, ‘केकड़ा का बियान केकड़ा ही खाए।’

(केकड़ा का बियान केकड़ा ही खाए : पृष्ठ संख्या-110)

दोहा :

भोर होने की अनुभूति के साथ अचानक मेरी हथेलियाँ पसर आई। मेरे मुख से उच्चरित हुआ- कराग्रे वसते लक्ष्मी:, करमध्ये सरस्वती:,

  करमूले तु गोविन्दं प्रभाते करदर्शनम् ।  (पृष्ठ संख्या-23)

बिझौअल :

               चार चिड़ियाँ चार रंग चारो बदरंग ।

               पिंजरे में रख दिया चारों एक रंग ।। (पृष्ठ संख्या-129)

“राघवेन्द्र बच्चों की रजाइयाँ खींचकर कहता, “अच्छा भई, चिड़ियों द्वारा बुझौअल नहीं। चलो, दूसरा पूछता हूँ। सुनो – एक चिड़िया झट, उसकी टांग दूनू पट ।

उसकी चमड़ी उधेड़, उसका मांस मजेदार ।। (पृष्ठ संख्या-130)

गीत :

मालती की स्मृति में गीत की कड़ियाँ तैरने लगीं, जिनपर वह अपने स्कूल में नाचकर पुरस्कार ले आई थी –

     धनमा के लागल कटनिया, भर लो कोठारी, देहरियो भरल बा

भरल बाटे बाबा बखारी, अबकी अघइले किसनमा हो राम ।

(पृष्ठ संख्या-25)

छ्ठी-पूजन वाले दिन रामजती को एक अरगंडी की साड़ी, ब्लाउज, पेटीकोट और एक शाल मिला था। उसने नन्हीं की एक आँख में काजल लगाकर हाथ छुपा लिये। दूसरी आँख में काजल नहीं डाल रही थी। छठी-पूजन के लिए आई महिलाओं के कंठ से फूटे

“अँगना में रूनुझुनु नाच गई ननदी

                कँगना जो देती वह भी नहीं लेती

                झूमका लेने को मचल उठी ननदी।” (पृष्ठ संख्या-39)

शांति को भंग करता एक मीठा पुरुष स्वर गूँजा, “कखन हरब दुःख मोर हे भोला नाथ ……….” (कखन हरब दुःख मोर हे भोला नाथ :पृष्ठ संख्या-53)

उसने वैसे ही किया, जैसा नानी ने चाहा था। नानी के होंठ हिले। गीत की पंक्तियाँ रिसीं –

“मचिया बैठल कौशल्या रानी, मन ही आनंद भेल

          कब होयत राम के विवाह, सेंदूर हम बेसाहव हे ।” (पृष्ठ संख्या-97)

उक्तियाँ

पड़ोसन सास ने गरम ‘लोहे पर हथौड़ा मारा’ (पृष्ठ सं०-68)

दूसरे तीर से उसने एक और घाव कर दिया (पृष्ठ सं०-68)

कभी सुना था-जेवर संपति का श्रृंगार और विपत्ति का आहार होता है।

 (पृष्ठ सं०-72)

सावन-भादों की नदियाँ सामान भरी रहती हैं- छलकती भी हैं, सूखती नहीं।

(पृष्ठ सं०-72)

उ क्या कहते हैं कि, बेटी के माई रानी, बुढ़ापा में भरे पानी (पृष्ठ सं०-29)

साइदा ने अपने दोनों हाथ पसारकर कहा, “करिया कलूटा है मेरा शरीर, चूल्हे पर चढ़ते-चढ़ते काला हुए हाँड़ी के पेंदी जैसा।” (पृष्ठ सं०-30)

साइदा दोनों कान पकड़कर कहने लगी-“तौबा-तौबा! झूठ बोलूँगी तो पाप लगेगा।”

(पृष्ठ सं०-34)

अब क्या! पके आम हैं, कभी भी टपक जाएँ।” (पृष्ठ सं०-57)

“मेरी ही बेटी है तो क्या, है कठकरेज। (पृष्ठ सं०-62)  

चिठ्ठी ऐसे बाँच दी, मानो पंडितजी ने कोई मंत्र पढ़े हों। (पृष्ठ सं०-64)

हमारे दादा जी कहते थे, ‘मकान और मुकद्दमा कहता है- हमें हाथ लगाकर तो देखों!’ (पृष्ठ सं०-42)

फेंकी हुई कटोरी बहुत देर तक गुड़कती, फिर डोलती ओंधे मुँह स्थिर हो गई।

(पृष्ठ सं०-103)

सावजी भुनभुनाते हुए कहने लगे, “अब तो बहु भी बिना बाढ़ ही डूब गई।

(पृष्ठ सं०-143)

मेघना और शिवालिक का आपस में इतना अधिक मिलना-जुलना हुआ, मानो उन्हें लूट में चरखा नफा मिला हो। (पृष्ठ सं०-75)

सुवर्णा के ससुर ने यहाँ तक कहा, “स्त्री तो धरती होती है, सब सहन करती है।

(पृष्ठ सं०-77)

सुवर्णा की ऐसी ही प्रतिक्रिया होतीं, मानो चूल्हे पर उबालने के लिए चढ़ाए दूध के प्रथम उफान में ही किसी ने अम्ल डाल दिया हो। (पृष्ठ सं०-77)

मन सास की आज्ञा के उहापोह में था कि अभय सिंह चिल्लाया, गे बुढ़िया! मर गेले की…..!” (पृष्ठ सं० 111)

परिवर्तन तो होता है। पर लोहा भी कभी रुई बन सकता है? आश्चर्य!”

(पृष्ठ सं०-115)

समय बिना रस्सा, बिना ईंधन के तेजी से खिसकता गया। (पृष्ठ सं०-130)

गहरे-से-गहरे दर्द का भी रंग फीका पड़ता ही है। सूरज कि गर्मी, चाँद कि शीतलता और रात्रि को गिरी शबनम कि बूँदों में इतनी शक्ति है कि दर्द का रंग बदरंग कर दे। (पृष्ठ सं०-126) 

अलका कि उत्कंठाएँ छलक गईं। हितेश ने कहा, “भाभी, आपने मेरी सूखते घाव को कुरेद दिया। (पृष्ठ सं०-54)   

6.8 विविध शैलियाँ :

     भाषा के व्यवहार में अभिव्यक्ति के प्रसंग और उद्देश्य के भेद में जो अंतर दिखाई देता है उसे शैली की संज्ञा दी जाती है। साहित्यकार जब साहित्य के माध्यम से अपने अंतर्मन की अनुभूतियों को दूसरों के पास संप्रेषित करता है, तब उसमें जो क्रिया होती है, उस माध्यम को शैली कहना यथार्थपूर्ण प्रतीत होता है। शैली के मूल में मनुष्य की सौंदर्य प्रियता की प्रवृति काम करती है। साहित्य सृजनकर्ता अपने स्वयं के तथा संसार के अनुभवों को अपने व्यक्तिगत कुशलता के सहारे जीवांश बनाकर उत्कृष्ट तथा प्रभावी माध्यम से प्रस्तुत करता है। साहित्य सृजन की प्रक्रिया में यह क्रिया अलौकिक महत्व रखती है। प्रस्तुतीकरण की यह विशिष्ट पद्धति साहित्य के क्षेत्र में शैली के नाम से जानी जाती है। शैली साहित्यकार के अंतःकरण की अनुभूतियों के अभिव्यक्ति करने की एक विशिष्ट प्रक्रिया है। इसप्रकार भाषा तथा साहित्य को जोड़नेवाली संकल्पना को शैली कहा जा सकता है। गद्य की दृष्टि से शैली को  प्रकार से वर्गीकृत किया गया है।

6.9 वर्णनात्मक शैली 

उदहारण- ‘रद्दी की वापसी’ उस साल भी बाढ़ बढ़त पर ही थी। हर आयु के लोग कहते सुने जा रहे थे, “हमने अपनी उम्र में ऐसी बाढ़ नहीं देखी।”

रामलला के स्वर में स्वर मिलाकर उसके बाबूजी जगदेव सिंह ने भी अपना आश्चर्य व्यक्त किया। ननकू क्यों पीछे रहता! जब पैंतीस वर्षीय उसके बाप ने ऐसी बाढ़ नहीं देखी, फिर बारह वर्षीय पुत्र की क्या औकात! उसकी आयु में ऐसी बाढ़ नहीं ही आई थी। बाढ़ की बढ़त-घटत मापने के हेतु सरकारी महकमे के अपने पैमाने होंगे। पर रामसखी का पैमाना है उसके दरवाजे की सीढियाँ। (पृष्ठ सं०-136) यहाँ बाढ़ के पानी के अधिक और कम आने की बात को समझाने के लिए इधर-उधर की बातों को जोड़कर कहा जा रहा है।

उदाहरण- ‘ढाई बीघा जमीन’जमीन, जहाँ खेती होती है, वह तो साढ़े सात बीघा ही थी। एक-एक कोला की मेंड़ पर खड़े होकर देख आये थे राम बाबू। और हिसाब के शिक्षक को यह हिसाब लगाते देर नहीं लगी थी कि रामचरण सिंह तीनों पुत्रों के बिच बँटवारे में ढाई-ढाई बीघा जमीन ही आएगी। मन ही मन हो रही उनकी गणना को उनके साथ चल रहे चूड़ामणि सिंह ने भी सुन लिया था। बोले, “मास्टर साहब, आप अपनी बेटी को क्यों गढ्ढे में धकेल रहे हैं? लड़के के सर पर मात्र ढाई बीघा जमीन पड़ेगी। क्या खाएगा-खिलाएगा? कैसे परिवार पालेगा?” (पृष्ठ सं०-66)

मृदुला सिन्हा जी के कहानियों में इस शैली का ज्यादातर उपयोग किया गया है। इन उदाहरणों को पढ़कर पाठक खुश हो जाते है।

6.10 विवेचनात्मक शैली

उदहारण- ‘रामायणी काकी’ सुशांत अपने दादा जी के साथ छोटे मंदिर के सामने खड़ा था। उसने मंदिर के मुख्य द्वार पर लिखा देखा, ‘रामाज आंट’। उसे अचंभा हुआ। बोला, “दादाजी, गाँव के मंदिर पर अंग्रेजी में क्यों लिखा है? और ये रामाज आंट कौन थी?”

     मोहन बाबू ने अपने आँखों से चश्मा हटाया। कंधे पर रखे तौलिया से आँखें पोछी। बोले, “सुशांत ये तुम्हारी बड़ी दादी थीं। रामायण कथा कहती थीं। इसलिए राम-सीता हनुमान जी के मंदिर के बगल में यह छोटा सा मंदिर उनका भी है। इसके भीतर उन्हीं की मूरत है। लोग उनकी भी पूजा करते हैं।”

     “वाह हमारी दादी इतनी बड़ी थीं!” सुशांत अचंभित और गौरवान्वित हुआ।

(पृष्ठ सं०-144)

उदहारण- ‘बुनियाद’ बेटी को दिल्ली भेजकर पढ़ाने के अपने निर्णय पर उजागर सिन्हा भी विचार करने लगे। अलका के सोच में परिवर्तन तो आया ही था। विवाह उसका है, इसलिए उसकी इच्छा का विचार हो, इतना भर तो सीखा ही था उसने। पर उजागर सिन्हा कहाँ माननेवाले थे! उन्होंने तो ‘लड़की दिखाई की तिथि भी घोषित कर दी।

     अलका चुप थी। न शिकवे- न शिकायत, न स्वीकृति, न प्रस्ताव की अस्वीकृति। वक्त की डोर में अपने मन को बाँध दिया। खींचनेवाला कोई और था। उसके साथ खींचती गई। पिता ने बेटी के मौन को उसकी स्वीकृति मान ली। वे बेटी को सुना-सुनाकर संबंधी होनेवाले उस परिवार के गुणों के बखान करते रहते।

(पृष्ठ सं०-51) 

6.11 आत्मकथात्मक शैली

उदहारण- ‘औरत और चूहा’ वह अतीत में खों गई। मम्मी-पापा भी नहीं रहे। उनके रहते डरने का भी मजा था। बेटी से ज्यादा चिंतित वे हो जाते थे। बेटी के डर से भयभीत। राकेश को भी डांट-मार पड़ती थी। मालती को स्मरण हो आया- वह बचपन में सोचा करती थी, मैं कब बड़ी होऊँगी? कब मेरा डर समाप्त होगा? पर आज जितनी बड़ी हुई है, उससे और बड़ी होने की तमन्ना ही नहीं रही। दोनों बेटे होते तो पोते-पोतियों से भरा होता घर। (पृष्ठ सं०-28)

उदहारण ‘पुनर्नवा’-सुबह जल्दी जाग गई थी सुभद्रा। घर के बाहर निकलकर इधर-उधर कुछ देखती रही। उसकी स्वयं की कुछ पुरानी स्मृतियाँ जुड़ी थीं उस जमीन और उन जनों से। बहुत कुछ बदल गया। अधिकांश लोग स्वर्ग सिधार गए। फिर भी बहुत कुछ बचा है। स्मृतियों में जीवित हैं वे लोग। मानो उसे घेर कर खड़ी हों तीनों सासें। दरवाजे पर ससुर जी।(पृष्ठ सं०-120)

6.12 संवादात्मक शैली

उदहारण ‘अक्षरा’-एक दिन सुखिया रोती-रोती कहने लगी, “दीदी! अब तो बुढ़ापे की चिंता है। जीवन भर शरीर तोड़ कर कमाया, मजदूरी भी की। दस-दस ईंट उठाकर चौथी मंजिल पर चढ़ जाती थी। अब तो घर का भी काम नहीं होता। शरीर गिरेगा तो कौन देखेगा?”

     “क्यों पप्पू तो है न! उसकी पत्नी देखेगी, और कौन?”

सुखिया चुप रही। पता नहीं क्या गुण-धुन रही होगी। मैंने भी नहीं छेड़ा। अपना काम समाप्त कर मेरे पास आई। बोली, “दीदी, बुढ़ापे की लाठी होते हैं बच्चे। पर अब तो आप लोगों के घर में भी बच्चे माँ-बाप के साथ नहीं रहते। आपका कमाया धन-जायदाद भी नहीं चाहिए उन्हें। मेरा पप्पू भी पढ़ रहा है। दशवीं पास कर गया है। पढ़-लिखकर तो मेरी झुग्गी में नहीं रहेगा। और मैं झुग्गी नहीं छोडूंगी, फिर मेरी सेवा कैसे करेगा?”

          तुम इतना क्यों सोचती हो? जो होगा देखा जाएगा। मुझे देखो, मैं कहाँ चिंता करती हूँ!” (पृष्ठ सं०-13)

उदाहरण ‘औलाद के निकाह पर’-एक महीने उपरांत ही होने वाले निकाह के बाद सकीना ससुराल चली जाएगी। मैंने पूछा, “ फिर तो खाना-पीना तुम्हें ही बनाना पड़ेगा?”

     “अब क्या करूँ? उ कहते हैं कि, बेटी की माई रानी, बुढ़ापा में भरे पानी।”

“पर तुम तो अभी बूढ़ी नहीं हुई हो। शहरों में तुम्हारे उम्र की कई महिलाएँ कुँआरी ही मिलती हैं।”  

सकीना यह सुनकर शरमा जाती है।

मैंने पूछा, “सकीना का पति उसे कलकत्ता ले जाएगा?”

“नहीं! कभी-कभी घुमाने-फिराने कलकत्ता ले जाएगा। वह गाँव में ही गाँव वालों के कपड़े धोएगी। बड़ा गाँव है, खाते-पीते लोग हैं। एक ही धोबी का घर है। बहुत कपड़े धोने पडेंगे। धोबिन की बेटी को न नैहर सुख, न ससुराल सुख।”

“पर तुम तो गाँव में नहीं रहीं। तुम्हारा पति शहर ले आया।” मानो मैंने उसकी मियाँ की प्रशंसा कर दी हो। (पृष्ठ सं०-29)

  • पूर्वदीप्ती शैली

उदहारण ‘कटोरी’-राँची जाने पर सीमा का पुनरावृत आग्रह था, “इस बार घर अवश्य चलिए।”

अति व्यस्तता में से भी मैंने समय निकाल लिया था। आधुनिक साज-सज्जा से सुशोभित बैठक रूम में हम बैठे ही थे कि सामने रखे शो-केस के एक शो-पीस पर मेरा ध्यान अटक गया। दूसरे के घर में उपस्थिति की औपचारिकता भंग करती मैं उसके शो-केस के नजदीक पहुँच गई। जर्मनी, जापान और कई देशों के क्रिस्टल, काँच, पीतल, चाँदी की मूर्तियों के बीच एक कौआ शीशे में बंद था। कौए की चोंच सोने की थी और उस चोंच में एक एल्युमिनियम की कटोरी अटकी पड़ी थी। दृश्य ऐसा, मानो कौआ कटोरी को लिए अभी उड़ जाएगा! कुछ पल वहाँ खड़ी रही। कौआ भागा नहीं। मेरे द्वारा शीशे के दरवाजे को खोलने के प्रयास पर भी नहीं। कौआ तो मिट्टी का था। उसकी चोंच सुनहरी थी। सुन्दर आकृति थी। पर उसकी चोंच में अटकी कटोरी कई जगहों से चिपकी पड़ी थी। उसपर एल्युमिनियम पेंट किया गया था। परन्तु वह जातिगत रंग उसकी जर्जरता को ढकने में नाकाम रहा था।

     दृश्य और कारण में संबंध स्थापित करने की मानसिक कसरत में उलझी रही। तभी सीमा चाय के साथ आ गई। बोली, “आइए दीदी। चाय पीजिए, मैं जानती थी कि आप भी इसे देखकर अवश्य पूछेंगी।”

     “हाँ! कौए और उसकी सुनहरी चोंच के साथ इस घिसीं-पिटी कटोरी का संबंध नहीं बनता, इसीलिए……”

     “बनता है, दीदी। मेरे लिए और कोई चारा नहीं था।”

     “मतलब?”

     “आप कुछ लीजिये तो, सब कुछ बताती हूँ।” और उसके द्वारा कार्यकारक के संबंध बताते-सुनने की उत्कंठा में मैंने चाय का प्याला उठा लिया।

 (पृष्ठ सं०-99,100)

उपसंहार

उपसंहार

मृदुला सिन्हा आधुनिक युग की लेखिका हैं। उन्होंने कथा साहित्य की प्रत्येक विधा उपन्यास, कहानी, निबंध, लोक साहित्य और आत्मकथा आदि में अपना लेखन कार्य किया है। उन्होंने जीवन में जो भोगा उसका यथास्थिति चित्रण साहित्य में किया है। आप भारतीय अस्मिता और सांस्कृतिक सम्पन्नता की लेखिका हैं। इनकी यह विपुल साहित्य, हिन्दी साहित्य जगत की अक्षय और अमूल्य निधि है। प्रतिभा की धनी मृदुला सिन्हा ने भिन्न-भिन्न विषयों पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति दी है। इन्होंने अपना लेखन कार्य आठवें दशक से आरम्भ किया था जो आज भी निरंतर जारी है।

रचना का सामाजिक प्रभाव मंथर गति से होता है। इसलिए इसका प्रभाव बहुत जल्दी परिलक्षित नहीं होता है। साहित्य में धीरे-धीरे समाज की चेतना तथा समाज के संस्कार को बदलने का सामर्थ्य होता है, भले ही उसमे सालों-साल लग जाए। इसलिए साहित्यकार को मनुष्य की प्रगति के लिए बाधक रुढियों को तोड़ने का प्रयास करना चाहिए।

साहित्य में कथा एक सशक्त विधा है। मृदुला सिन्हा ने कथा साहित्य में मानव जीवन की अनेक समस्याओं को बड़ी ही प्रखरता और सहजता के साथ उजागर किया है। उनका यह कहानी संग्रह ‘ढ़ाई बीघा जमीन’ उन्नीस कहानियों का संग्रह है। यह कहानी संग्रह परम्परागत बनाम आधुनिकता की कहानियों का सम्मिश्रण है। इस पुस्तक की पहली कहानी ‘अक्षरा’ है। इस कहानी में लेखिका ने नारी में मातृव के अक्षरा भाव को उजागर किया है। जब स्त्री का कोख नहीं भरता है, तब उसके मन के अन्दर से उठने वाली पीड़ा, निराशा, कसक, टीस और लोक संसार के तानों को सुनती हुई ‘सुखिया’ अपना जीवन जीने की कोशिश करती हुई जीती है। दुःख इतना हद तक बढ़ जाता है कि सुखिया इस पीड़ा को सहते-सहते अपने कोख पर ही पत्थर मार देती है। इसके बाद ‘अनावरण’ कहानी में एक ओर बहु के द्वारा सास की महानता का अनावरण किया जाता है, वहीं दूसरी ओर सास बहु को भी उसकी मंजिल तक पहुँचाने का अनावरण करती है। ‘औरत और चूहा’ कहानी एक मनोवैज्ञानिक सत्य का उद्घाटन करती है। जिसमे अकेला रहने पर मानव को जीव-जंतु के जुड़ाव और स्पर्श से सुखद अनुभूति होती है। जो मालती अपने बालपन से लेकर प्रौढ़ावस्था तक चूहा जैसे सामान्य जीव से डर और नफ़रत करती रही, वही मालती जिन्दगी की चौथी अवस्था में आकर सभी भौतिक सुखों के होते हुए भी पारिवारिक सुखों के आभाव में अचानक रात को चूहे का स्पर्स पाकर सुख और सकुन का अनुभव करती है। बदलते समय के साथ पति स्वर्ग सिधार गये। बच्चे विदेश चले गये और अकेलेपन की असुरक्षा की भवनाओं ने इतना अकेला कर दिया कि दिल्ली की ग्रेटर कैलाश जैसे सम्पन्न रिहायसी कॉलोनी की कोठी में मालती विल्कुल अकेली रह गई। अपने ही हाथों से अपनी बाँहें सहलाकर ‘सुखद स्पर्श’ का अनुभव करती है। स्थिति ऐसी हो जाती है कि, ‘मानव-स्पर्श का भूखा शरीर चूहे के क्षणिक व नन्हे स्पर्श से भी संतुष्ट हो जाता’ है … और घटना बस ही सही लेकिन ‘मालती के जिन्दा रहने के लिए महीनों बाद उतना ही जैविक स्पर्श मिलना काफी था।’ उसी तरह ‘औलाद के निकाह’ पर कहानी दाम्पत्य जीवन के प्रेम की कहानी है। संतति सुख के बीच चलते-उतरते, उतार-चढ़ाव, परिवार के सुख समृधि में पति के प्रेम की कथा को पिरोया गया है। इस कहानी में हिन्दू मुस्लिम दोनों समाज का समन्वय है। इस कहानी में आपस में धर्म की स्वीकार्यता है। सकिला अपने शौहर के लिए तीज व्रत रखने की परंपरा का निर्वाह करती है। ‘बेटी का कमरा’ कहानी में मायके के प्रति बेटी के समर्पण को चित्रित करता है। दूसरी तरफ माँ-बाप अपनी बेटी के प्रति मायके के समर्पण को व्यक्त करते हैं। ‘बुनियाद’ कहानी बेटी अलका के लिए गाँव से बाहर जाने, आधुनिकता को स्वीकारने और पारम्परिक कलाओं के प्रति अभिरुचि को अमली जामा पहनाती है। ‘चिट्ठी की छुअन’ कहानी में वर्तमान संचार प्रणाली के बीच चिठ्ठी जैसी परम्परागत संचार माध्यम के प्रति संवेदना जाग्रत होती है। ‘ढ़ाई बीघा जमीन’ कहानी में परम्परागत के साथ-साथ आधुनिकता को दिखाया गया है। शादी-ब्याह के मामले में आज भी परम्परागत को जरुर ध्यान में रखा जाता है। ‘डायरी के पन्नों पर’ पति-पत्नी के रिश्तों के बीच कड़वाहट, खटास और शंकाओं का समाधान प्रस्तुत करता है। ‘रद्दी की वापसी’ में पश्चिमी संस्कृति की तरह वस्तुओं को ‘यूज एण्ड थ्रो’ के स्थान पर ‘अनमोल है रद्दियाँ’ कहना सिखाती है। ‘रामायणी काकी’ इस कहानी में मातृभूमि के प्रेम की दास्तां है। इस कहानी संग्रह में अन्य कहानियाँ भी भारतीय लोक जीवन के संस्कारों की संवाहिका हैं। भारतीय चिंतन परम्परा से ओतप्रोत मृदुला सिन्हा जी की कहानियाँ मानव जीवन को राह दिखाती हैं। उनकी लगभग सभी कहानियों में कहीं न कहीं जीवन मूल्य के साथ भारतीयता का पक्ष अवश्य जुड़ा हुआ होता है। उनके कहानी साहित्य में आद्योपांत जीवन का बोध के साथ-साथ सामाजिक, राजनितिक, धार्मिक, आर्थिक और सांस्कृतिक मूल्य बोध के गहरे पाठ मिलते हैं।

    शोध कार्य की अपनी एक गति होती है और एक सीमा भी उसके परिधि में प्रस्तुत शोध कार्य को प्रस्तुत करने की कोशिश भर की गई है। पूरे कहानी में से केवल चुनिन्दा कहानियों को ही शोध के केंद्र में रखा गया है। मृदुला सिन्हा अपनी कहानियों के माध्यम से लोक चेतना का शंख फूँकती हैं। लोक जागरण की पैरवी करती हैं और उसके पक्ष में अपना बिगुल बजाती हैं। शहर और गाँव का आँचल मृदुला सिन्हा जी के लेखन को छांव देता है। उनकी कहानी साहित्य अपनी सहजता और मूल्य बोध से पाठक को सहज ही अपनी ओर मोड़ लेता है।

    इस कहानी संग्रह में सामाजिक यथार्थ के अतिरिक्त शोध की निम्नलिखित संभावनाएँ हो सकती हैं।

1. विवेच्य कहानी संग्रह में लोकजीवन का यथार्थ

2. विवेच्य कहानी संग्रह में समाजशास्त्रीय अध्ययन

3. विवेच्य कहानी संग्रह में ग्राम्य जीवन का स्वरूप

4. विवेच्य कहानी संग्रह में व्यक्ति के निर्माण में परिवार की भूमिका

5. विवेच्य कहानी संग्रह में नारी पात्र 

परिशिष्ट – I

मृदुला सिन्हा का संक्षिप्त परिचय

जन्म : 27  नवम्बर  1942,

स्थान : मुजफ्फरपुर (बिहार)  के  अंतर्गत  छपरा  गाँव  में

माता–पिता : श्रीमती अनुपमा देवी, पिता- डॉ सुभाष चंद्र सिंह अध्यापक 

शिक्षा : प्रारंभिक शिक्षा बालिका विधापीठ लखीसराय (बिहार), स्नातक महंत दर्शन

दास महिला महाविद्यालय मुजफ्फरपुर, (बिहार), इसी महाविद्यालय से मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर (1964)

सेवा : जनसंघ पार्टी के जिला अध्यक्ष (1964), गोवा के राज्यपाल

संपादन : पाँचवाँ स्तंभ

सम्मान :

1. साहित्य भूषण सम्मान, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान

2. विश्व हिन्दी समिति, न्यूयार्क (1999)

3. राष्ट्रीय शिखर सम्मान

4. पं० दिन दयाल उपाध्याय सम्मान, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान (2001)

5. कल्पतरु सम्मान, दिल्ली (1989)

6. ओजस्विनी शिखर सम्मान, भोपाल मध्य प्रदेश

7. साहित्य श्री सम्मान, दिल्ली

कृतियाँ : विभिन्न विधाओं में 65 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित (1998 से अबतक)

  1. उपन्यास : ज्यों मेंहदी के रंग, अहिल्या ऊवाच, घरवास, नई देवयानी, सीता पुनि बोली, अतिशय, विजयनी, परितप्त लंकेश्वरी आदि
  • जीवनी : राजपथ से लोकपथ (राजमाता सिंधिया की जीवनी)
  • कहानी संग्रह : साक्षात्कार, एक दिए की दीवाली, स्पर्श की तासीर आदि
  • लेख संग्रह : आईने के सामने, पुराण के बच्चे, बिहार की लोक कथाएँ आदि

राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर स्तम्भ लेखन

  • बाल कथा : पुराण के बच्चे, बिटिया है विशेष, नया खेल

6. लोक साहित्य : बिहार की लोक कथाएं

परिशिष्ट – II

ग्रन्थ सूची

आधार ग्रन्थ

क्र.सं. लेखक पुस्तक का नाम वर्ष प्रकाशन
1. मृदुला सिन्हा ढाई बीघा जमीन 1913 गंगा प्रकाशन, नई दिल्ली

सहायक ग्रन्थ

क्र.सं. लेखक पुस्तक का नाम वर्ष प्रकाशन
1. डॉ. सीताराम मिश्रा समाज पर साहित्य का प्रभाव 2016 लक्ष्मी बुक पब्लिकेशन
2. डॉ द्वारका प्रसाद मित्तल हिन्दी साहित्य 1970 साहित्य निकेतन, कानपुर
3. डा. बैजनाथ सिंहल शोध:स्वरूप एवं मानक कार्य विधि 2015 अनु प्रकाशन
4. डॉ गणपति चन्द्र गुप्त साहित्यिक निबन्ध 2000 लोकभारती प्रकाशन
5. सं० धनन्जय समकालीन कहानी: दशा और दृष्टि 1970 स्मृति प्रकाशन, इलाहाबाद
6. जय शंकर प्रसाद काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध 2015 भारती भंडार, इलाहाबाद
7. डॉ० अजब सिंह यथार्थवाद पुनर्मूल्यांकन 1998 विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
8. डॉ० भागीरथ मिश्र काव्यशास्त्र का इतिहास 2005 विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
9. परशुराम शुक्ल ‘विरही’ आधुनिक हिन्दी काव्य और यथार्थवाद 1966 ग्रंथम प्रकाशन, कानपुर

कोश : नालन्दा विशाल शब्द सागर

हिन्दी साहित्य कोश

मुकुन्दीलाल श्रीवास्तव, वृहद हिन्दी कोश

राकेश नाथ, विश्व हिन्दी शब्द कोश

पत्रिका : अजब सिह – अभिनव भारती 96-99 अ०मु०वि० अलीगढ़

     रामश्री सिह दिनकर संस्कृति – हेमंत सं 90 शिक्षा और युवक सेवा मंत्रालय