These Solutions are part of UP Board Solutions for Class 11 Political Science. Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Political Science Political theory Chapter 4 Social Justice (सामाजिक न्याय). Show पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर प्रश्न 1. समान लोगों के प्रति समान व्यवहार – आधुनिक समाज में बहुत-से लोगों को समान महत्त्व देने के बारे में आम सहमति है, लेकिन यह निर्णय करना सरल नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसका प्राप्य कैसे दिया जाए। इस विषय में अनेक सिद्धान्त प्रस्तुत किए गए हैं। उनमें से एक है समकक्षों के साथ समान बरताव का सिद्धान्त। यह माना जाता है कि मनुष्य होने के कारण सभी व्यक्तियों में कुछ समान चारित्रिक विशेषताएँ होती हैं। इसीलिए वे समान अधिकार और समान बरताव के अधिकारी हैं। आज अधिकांश उदारवादी जनतन्त्रों में कुछ महत्त्वपूर्ण अधिकार प्रदान किए गए हैं। इनमें जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति के अधिकार जैसे नागरिक अधिकार शामिल हैं। इसमें समाज के अन्य सदस्यों के साथ समान अवसरों के उपभोग करने का सामाजिक अधिकार और मताधिकार जैसे राजनीतिक अधिकार भी शामिल हैं। ये अधिकार व्यक्तियों को राज-प्रक्रियाओं में भागीदार बनाते हैं। समान अधिकारों के अतिरिक्त समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धान्त के लिए आवश्यक है कि लोगों के साथ वर्ग, जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर भेदभव न किए जाए। उन्हें उनके काम और कार्य-कलापों के आधार पर जाँचा जाना चाहिए। इस आधार पर नहीं कि वे किस समुदाय के सदस्य हैं। इसीलिए अगर भिन्न जातियों के दो व्यक्ति एक ही काम करते हैं, चाहे वह पत्थर तोड़ने का काम हो या होटल में कॉफी सर्व करने का; उन्हें समान पारिश्रमिक मिलना चाहिए। प्रश्न 2. 2. समानुपातिक न्याय – समान व्यवहार न्याय का एकमात्र सिद्धान्त नहीं है। ऐसी परिस्थितियाँ हो सकती हैं जिनमें हम यह अनुभव करें कि प्रत्येक के साथ समान व्यवहार करना अन्याय होगा। उदाहरण के लिए; किसी विद्यालय में अगर यह निर्णय लिया जाए, कि परीक्षा में सम्मिलित होने वाले सभी लोगों को समान अंक दिए जाएँगे क्योंकि सभी एक ही स्कूल के विद्यार्थी हैं और सभी ने एक ही परीक्षा दी है, यह स्थिति कष्टपूर्ण हो सकती है, तब अधिक उचित यह रहेगा। कि छात्रों को उंनकी उत्तर-पुस्तिकाओं की गुणवत्ता और सम्भव हो तो इसके लिए उनके द्वारा किए गए प्रयास के अनुसार अंक प्रदान किए जाएँ। यह न्याय का समानुपातिक सिद्धान्त है। 3. मुख्य आवश्यकताओं का विशेष ध्यान – न्याय का तीसरा सिद्धान्त है-पारिश्रमिक या कर्तव्यों का वितरण करते समय लोगों की मुख्य आवश्यकताओं का ध्यान रखने का सिद्धान्त। इसे सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने का एक तरीका माना जा सकता है। समाज के सदस्यों के रूप में लोगों की बुनियादी अवस्था और अधिकारों की दृष्टि से न्याय के लिए यह आवश्यक हो सकता है कि लोगों के साथ समान बरताव किया जाए, लेकिन लोगों के बीच भेदभाव न करना और उनके परिश्रम के अनुपात में उन्हें पारिश्रमिक देना भी यह सुनिश्चित करने के लिए शायद पर्याप्त न हो कि समाज में अपने जीवन के अन्य सन्दर्भो में भी लोग समानता का उपभोग करें या कि समाज समग्ररूप से न्यायपूर्ण हो जाए। लोगों की विशेष आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखने का सिद्धान्त समान व्यवहार के सिद्धान्त को अनिवार्यतया खण्डित नहीं, बल्कि उसका विस्तार ही करता है। प्रश्न 3. प्रश्न 4. रॉल्स ने इसे ‘अज्ञानता के आवरण’ में सोचना कहा है। रॉल्स आशा करते हैं कि समाज में अपने सम्भावित स्थान और सामर्थ्य के बारे में पूर्ण अज्ञानता की दशा में प्रत्येक व्यक्ति, आमतौर पर जैसे सब करते हैं, अपने स्वयं के हितों को दृष्टिगत रखकर निर्णय करेगा। चूँकि कोई नहीं जानता कि वह कौन होगा और उसके लिए क्या लाभप्रद होगा, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति सबसे बुरी स्थिति को दृष्टिगत रखकर समाज की कल्पना करेगा। स्वयं के लिए सोच-विचार कर सकने वाले व्यक्ति के सामने यह स्पष्ट रहेगा कि जो जन्म से सुविधासम्पन्न हैं, वे कुछ विशेष अवसरों का उपभोग करेंगे। लेकिन दुर्भाग्य से यदि उनका जन्म समाज के वंचित वर्ग में हो जहाँ वैसा कोई अवसर न मिले, तब क्या होगा? इसलिए, अपने स्वार्थ में काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए यही उचित होगा कि वह संगठन के ऐसे नियमों के विषय में सोचे जो कमजोर वर्ग के लिए यथोचित अवसर सुनिश्चित कर सके। इस प्रयास से यह होगा कि शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधन सभी लोगों को प्राप्त हों-चाहे वे उच्च वर्ग के हों या निम्न वर्ग के। निश्चित रूप से अपनी पहचान को विस्मृत करना और अज्ञानता के आवरण’ में खड़ा होने की कल्पना करना किसी के लिए सहज नहीं है। लेकिन तब, अधिकांश लोगों के लिए यह भी उतना ही कठिन है। कि वे आत्मत्यागी बनें और अजनबी लोगों के साथ अपने सौभाग्य को बाँटें। यही कारण है कि हम आदतस्वरूप आत्मत्याग को वीरता से जोड़ते हैं। इन मानवीय दुर्बलताओं और सीमाओं को दृष्टिगत रखते हुए हमारे लिए ऐसे ढाँचे के बारे में सोचना अच्छा रहेगा जिसमें असाधारण कार्यवाहियों की आवश्यकता न रहे। ‘अज्ञानता के आवरण’ वाली स्थिति की विशेषता यह है कि उसमें लोगों से सामान्य रूप से विवेकशील मनुष्य बने रहने की उम्मीद बँधती है। उनसे अपने लिए सोचने और अपने हित में जो अच्छा हो, उसे चुनने की अपेक्षा रहती है। अज्ञानता का कल्पित आवरण ओढ़न उचित कानूनों और नीतियों की प्रणाली तक पहुँचने का पहला कदम है। इससे यह प्रकट होगा कि विवेकशील मनुष्य न केवल सबसे बुरे सन्दर्भ को दृष्टिगत रखकर चीजों को देखेंगे, बल्कि वे यह भी सुनिश्चित करने का प्रयास करेंगे कि उनके द्वारा निर्मित नीतियाँ समग्र समाज के लिए लाभप्रद हों। दोनों चीजों को साथ-साथ चलना है। चूंकि कोई नहीं जानता कि वे वे आगामी समाज में कौन-सी जगह लेंगे, इसलिए हर कोई ऐसे नियम चाहेगी जो, अगर वे सबसे बुरी स्थिति में जीने वालों के बीच पैदा हों, तब भी उनकी रक्षा कर सके। लेकिन उचित तो यही होगा कि वे यह भी सुनिश्चित करने का प्रयास करें, कि उनके द्वारा चुनी गई नीतियाँ बेहतर स्थिति वालों को कमजोर न बना दे, क्योंकि यह सम्भावना भी हो सकती है कि वे स्वयं भविष्य के उस समाज में सुविधासम्पन्न स्थिति में जन्म लें। इसलिए यह सभी के हित में होगा कि निर्धारित नियमों और नीतियों से सम्पूर्ण समाज को लाभ होना चाहिए, किसी एक विशिष्ट वर्ग का नहीं। यहाँ निष्पक्षता विवेकसम्मत कार्यवाही का परिणाम है, न कि परोपकार अथवा उदारता का। इसलिए रॉल्स तर्क प्रस्तुत करते हैं कि नैतिकता नहीं बल्कि विवेकशील चिन्तन हमें समाज में लाभ और भार के वितरण के मामले में निष्पक्ष होकर विचार करने की ओर प्रेरित करती है। इस उदारहण में हमारे पास पहले से बना-बनाया कोई लक्ष्य या नैतिकता के प्रतिमान नहीं होते हैं। हमारे लिए सबसे अच्छा क्या है, यह निर्धारित करने के लिए हम स्वतन्त्र होते हैं। यही विश्वास रॉल्स के सिद्धान्त को निष्पक्ष और न्याय के प्रश्न को हल करने को महत्त्वपूर्ण और सबल रास्ता तैयार कर देता है। प्रश्न 5. प्रश्न 6. परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर बहुविकल्पीय प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. अतिलघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न
1. प्रश्न 2.
प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2.
उत्तर :
दीर्घ लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. भारतीय संविधान विकलांगों को उनके काम, शिक्षा तथा सार्वजनिक सहायता के अधिकार दिलावने हेतु राज्यों को निर्देश देता है जिससे कि वे प्रभावी व्यवस्था लागू करें। भारत के विकलांगों के हितों से सम्बन्धित मुख्यतया निम्नलिखित तीन कानून पारित किए गए हैं –
भारतीय पुनर्वास परिषद् अधिनियम, 1992 के द्वारा पुनर्वास परिषद् को वैधानिक दर्जा प्रदान किया गया है। यह विकलांगता के क्षेत्र में काम करने वाले विभिन्न श्रेणियों के कर्मचारियों के लिए चल रहे कार्यक्रमों तथा संस्थाओं को नियन्त्रित करता है। प्रश्न 2.
प्रश्न 3. अनुच्छेद 38 – राज्य एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की प्राप्ति और संरक्षण द्वारा, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं का मार्गदर्शन करता है, जनसामान्य की भलाई को बढ़ावा देने का प्रयास करेगा। अनुच्छेद 39 – विशेषतौर पर राज्य अपनी नीति को इन चीजों की उपलब्धि के लिए निर्देशित करेगा (क) कि नागरिक, पुरुष और स्त्रियाँ, जीवन यापन के उचित साधनों पर समान अधिकार रखते हों। अनुच्छेद 43 – श्रमिकों के लिए जीवनोपयोगी वेतन प्राप्त कराने का राज्य प्रयत्न करे। अनुच्छेद 46 – राज्य समाज के कमजोर वर्गों के शैक्षणिक और आर्थिक हितों की विशेष रूप से वृद्धि करे और उनका सामाजिक अन्याय तथा सभी प्रकार के शोषण से संरक्षण करे। अनुच्छेद 47 – राज्य अपने नागरिकों के पौष्टिक स्तर और जीवन स्तर को ऊपर उठाने और सामाजिक स्वास्थ्य को उन्नत करने को अपने प्राथमिक कर्तव्यों में समझे।। दीर्घ उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. आज हम ‘सामाजिक न्याय के बारे में बहुत कुछ सुनते हैं। मैं नहीं समझता कि वे जो इस कथन को बड़ी वाचालता से प्रयोग करते हैं, इसके क्या अर्थ लेते हैं, कुछ इसकी व्याख्या ‘अवसर की समानता के रूप में करते हैं। जो एक भ्रमिक कथन है, क्योंकि अवसर सभी लोगों के बीच समान नहीं हो सकता क्योंकि इसे ग्रहण करने की क्षमताएँ असमान हैं, मुझे भय है, कुछ इसका अर्थ यह लेते हैं कि यह उचित है मैं कहूँगा–विशाल हृदय कि प्राकृतिक मानवी असमानता की सूक्ष्मता को कम किए जाने के लिए हर प्रयास किया जाए और आत्मोन्नति के व्यावहारिक अवसरों में कोई बाधा नहीं डालनी चाहिए, वरन् उन्हें मदद पहुँचानी चाहिए। सर एलन का यह कथन इस बात को प्रकट करता है कि सामाजिक न्याय की धारणा अस्पष्ट सी है। फिर भी इसमें कुछ तथ्य हैं। सामाजिक न्याय की अवधारणा में एक उचित और सुन्दर सामाजिक व्यवस्था जो सबके लिए उचित और सुन्दर है, सम्मिलित है। सामाजिक न्याय का तात्पर्य उन लोगों को ऊपर उठाना है जो किन्हीं कारणों से कमजोर और कम अधिकारसम्पन्न हैं और जो जीवन की दौड़ में पीछे छूट गए हैं। अतः सामाजिक न्याय समाज के अधिक कमजोर और पिछड़े वर्गों को विशेष सुरक्षा प्रदान करता है। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के० सुब्बाराव के अनुसार-‘सामाजिक न्याय’ शब्द के सीमित और व्यापक दोनों अर्थ हैं। अपने सीमित अर्थ में इसका अभिप्राय है मनुष्य के व्यक्तिगत सम्बन्धों में व्याप्त अन्याय को सुधार। अपने विस्तृत अर्थ में यह मनुष्यों के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन के असन्तुलन को दूर करता है। सामाजिक न्याय को दूसरे या बाद वाले अर्थ में समझा जाना चाहिए, क्योंकि तीनों ही क्रियाएँ आपस में सम्बद्ध हैं। सामाजिक न्याय अच्छे समाज के निर्माण में सहायक होता है। प्रश्न 2. प्रश्न 3. मुक्त बाजार बनाम राज्य का हस्तक्षेप मुक्त बाजार के समर्थकों का मानना है कि जहाँ तक सम्भव हो, लोगों को सम्पत्ति अर्जित करने के लिए तथा मूल्य, मजदूरी और लाभ के मामले में दूसरों के साथ अनुबन्ध और समझौतों में शामिल होने के लिए स्वतन्त्रत रहना चाहिए। उन्हें लाभ की अधिकतम मात्रा प्राप्त करने के लिए एक-दूसरे के साथ प्रतिद्वन्द्विता करने की छूट होनी चाहिए। यह मुक्त बाजार का सरल चित्रण है। मुक्त बाजार के समर्थक मानते हैं कि अगर बाजारों को राज्य के हस्तक्षेप से मुक्त कर दिया जाए, तो बाजारी कारोबार का योग कुल मिलाकर समाज में लाभ और कर्तव्यों का न्यायपूर्ण वितरण सुनिश्चित कर देगा। इससे योग्य और प्रतिभासम्पन्न लोगों को अधिक प्रतिफल प्राप्त होगा जबकि अक्षम लोगों को कम प्राप्त होगा। उनकी मान्यता है कि बाजारी वितरण का जो भी परिणाम हो, वह न्यायसंगत होगा। हालाँकि, मुक्त बाजार के सभी समर्थक आज पूर्णतया अप्रतिबन्धित बाजार का समर्थन नहीं करेंगे। कई लोग अब कुछ प्रतिबन्ध स्वीकार करने के लिए तैयार होंगे। उदाहरण के रूप में, सभी लोगों के लिए न्यूनतम बुनियादी जीवन-मानक सुनिश्चित करने के लिए राज्य हस्तक्षेप करे, ताकि वे समान शर्तों पर प्रतिस्पर्धा करने में समर्थ हो सकें। लेकिन वे तर्क कर सकते हैं कि यहाँ भी स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा तथा ” ऐसी अन्य सेवाओं के विकास के लिए बाजार को अनुमति देना ही लोगों के लिए इन बुनियादी सेवाओं की आपूर्ति का सबसे उत्तम उपाय हो सकता है। दूसरों शब्दों में, ऐसी सेवाएँ उपलब्ध कराने के लिए निजी एजेंसियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जबकि राज्य की नीतियाँ इन सेवाओं को खरीदने के लिए लोगों को सशक्त बनाने का प्रयास करें। राज्य के लिए यह भी आवश्यक हो सकता है कि वह उन वृद्धों और रोगियों को विशेष सहायता प्रदान करे, जो प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते। लेकिन इसके आगे राज्य की भूमिका नियम-कानून का ढाँचा बनाए रखने तक ही सीमित रहनी चाहिए, जिससे व्यक्तियों के बीच जबरदस्ती और अन्य बाधाओं से मुक्त प्रतिद्वन्द्विता सुनिश्चित हो। उनका मानना है कि मुक्त बाजार उचित और न्यायपूर्ण समाज का आधार होता है। कहा जाता है कि बाजार किसी व्यक्ति की जाति या धर्म की परवाह नहीं करता। वह यह भी नहीं देखता कि आप पुरुष हैं या स्त्री। वह इन सबसे निरपेक्ष रहता है और उसका सम्बन्ध आपकी प्रतिभा और कौशल से है। अगर आपके पास योग्यता है। तो शेष सब बातें बेमानी हैं। बाजारी वितरण के पक्ष में एक तर्क यह रखा जाता है कि यह हमें अधिक विकल्प प्रदान करता है। इसमें शक नहीं कि बाजार प्रणाली उपभोक्ता के तौर पर हमें अधिक विकल्प देती है। हम जैसा चाहें वैसा चावल पसन्द कर सकते हैं और रुचि के अनुसार विद्यालय जा सकते हैं, बशर्ते उनकी कीमत चुकाने के लिए हमारे पास साधन हों। लेकिन, बुनियादी वस्तुओं और सेवाओं के मामले में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अच्छी गुणवत्ता की वस्तुएँ और सेवाएँ लोगों के खरीदने लायक कीमत पर उपलब्ध हों। यदि निजी एजेंसियाँ इसे अपने लिए लाभदायक नहीं पाती हैं, तो वे उसे विशिष्ट बाजार में प्रवेश नहीं करेंगी अथवा सस्ती और घटिया सेवाएँ उपलब्ध कराएँगी। यही वजह है कि सुदूर ग्रामीण इलाकों में बहुत कम निजी विद्यालय हैं और कुछ खुले भी हैं; तो वे निम्नस्तरीय हैं। स्वास्थ्य सेवा और आवास के मामले में भी सच यही है। इन परिस्थितियों में सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ता है। मुक्त बाजार और निजी उद्यम के पक्ष में अक्सर सुनने में आने वाला दूसरा तर्क यह है कि वे जो सेवाएँ उपलब्ध कराते हैं, उनकी गुणवत्ता सरकारी संस्थानों द्वारा प्रदत्त सेवाओं से प्रायः अच्छी होती हैं। लेकिन इन सेवाओं की कीमत उन्हें गरीब लोगों की पहुँच से बाहर कर सकती है। निजी व्यवसाय वहीं जाना चाहता है, जहाँ उसे सर्वाधिक लाभ मिले और इसीलिए मुक्त बाजार ताकतवर, धनी और प्रभावशाली लोगों के हित में काम करने के लिए प्रवृत्त होता है। इसका परिणाम अपेक्षाकृत कमजोर और सुविधाहीन लोगों के लिए अवसरों का विस्तार करने की अपेक्षा अवसरों से वंचित करना हो सकता है। तर्क तो वाद-विवाद दोनों पक्षों के लिए प्रस्तुत किए जा सकते हैं, लेकिन मुक्त बाजार साधारणतया पूर्व से ही सुविधासम्पन्न लोगों के हक में काम करने का रुझान दिखाते हैं। इसी कारण अनेक लोग तर्क करते हैं कि सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए राज्य को यह सुनिश्चित करने की पहल करनी चाहिए कि समाज के सदस्यों को बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध हों। We hope the UP Board Solutions for Class 11 Political Science Political theory Chapter 4 Social Justice (सामाजिक न्याय) help you. If you have any query regarding UP Board Solutions for Class 11 Political Science Political theory Chapter 4 Social Justice (सामाजिक न्याय), drop a comment below and we will get back to you at the earliest. सामाजिक न्याय के लिए क्या व्यवस्था नहीं होनी चाहिए?समाज के दूर्लभ वर्गो को ऊंचा उठाए बिना, हरिजनों पर अत्याचार को रोके बिना, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गो का विकास किए बिना सामाजिक न्याय की स्थापना नहीं हो सकती ।
सामाजिक न्याय प्राप्त करने हेतु क्या क्या व्यवस्था होनी चाहिए?जिले में नवजीवन योजना अन्तर्गत अवैद्य शराब के निर्माण, भण्डारण, विक्रय में लिप्त समुदाय / परिवारों के सामाजिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक रूप से विकास तथा पुर्नवास यथा आजीविका के वैकल्पिक अवसर / संसाधन उपलब्ध कराना, अशिक्षा को दूर करना एवं उन्हे मूल भूत सुविधाऐं प्रदान कराने हेतु योजना में सम्मिलित जातियाँ यथा कंजर, सांसी, ...
सामाजिक न्याय के लिए क्या आवश्यक है?अनुसूचित जाति के लिए कार्यरत स्वैच्छिक एवं अन्य संगठनों को सरकारी सहायता प्राप्त अनुदान योजना के बारे में जानकारी प्राप्त करें सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय द्वारा शुरू की गई इस योजना का उद्देश्य अनुसूचित जातियों की शैक्षिक एवं सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार लाना है।
सामाजिक न्याय के तीन सिद्धांत कौन से है?ये अधिकार व्यक्तियों को राज प्रक्रियाओं में भागीदार बनाते हैं। समान अधिकारों के अलावा समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धांत के लिए ज़रूरी है, कि लोगों के साथ वर्ग, जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर भेदभाव न किया जाए। उन्हें उनके काम और कार्यकलापों के आधार पर जाँचा जाना चाहिए, इस आधार पर नहीं कि वे किस समुदाय के सदस्य हैं।
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