पलंग पर दुपट्टे से मुंह ढांके कौन सो रही थी? - palang par dupatte se munh dhaanke kaun so rahee thee?

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( ओखा-हरण, नलोपाछु्यान, 4 स्लो) 


लजिप बह 


[ नागरी लिपि में सूल गुजराती पाठ की हिन्दी गद्यानुवाद ] 


रच चिता 


प्रेमानून्द 


अनुवादक 
डॉ० गजानन नरसिह साढे 
डॉ० दोनेश हरिलाल मंद 


प्रकाशक 


मुब॒न वाणी टुर्ट 


प्रभाकर मिलयम्‌ ', ४०५/१२८, चौपटियाँ रोड, लखनऊ-२२६० ०३ 


22 







॥॥॥॥/९. 


0 
हि 


नी 


सका कत ९ 
%॥॥0 


/ प्रत्येक क्षेत्न, प्रत्येक संत की बानी । 
सम्पूर्ण विश्व में घर-घर है पहुँचानी ॥ 


प्रथम संस्करण--१९८ ३-८४ ० 


8 । 


पृष्ठसंख्या-१८२ २२-+कतत्छ +ड एन 20०४ 


मूल्य-- ३५०० रुपया 


मुद्रक 
बाली एस 
८“ प्रभाकर निलयम्‌ ', 9०५(१२८, त्ौपटियाँ रोड, लखनऊ-२२६००३ 


विश्वनागरी लिपि 








कहते समय हुमें..याद 7. रखना चाहिए कि 
वह सर्वाधिक वेज्ञानिकता, केबल भरह्ड्दी, मराणीएनेपाली:” लिखी जानेवाली 
न लिपि में नहीं, वरन 

समस्त भारतीय 
लिपियों में मोजूदहै। 
क, च, त, प आदि 
के रूपों में कोई 
वज्ञानिकता नहीं है। 
वेज्ञानिकता है लिपि 
काध्वन्यात्मक हो ना। 
नियमित स्वरों का 
पृथक्‌ होना। अधिक 
सेअधिक व्यंजनों का 
होता । सबको एक 
अ' के भाधार पर 
उच्चरित करना । 
[अ' अक्षर-स्वर, 
सकल अक्षरोंका उस 
भाँति मूल आधार | 
सकलविश्व का जिस 
प्रकार'भगवान आदि 
है जगदाधार | | एक 
अक्षर से केवल एक 
ध्वनि । एक ध्वनि 
के लिए केवल एक 
न बक्षर । स्माल 
: कंपिटल, इटेलिक्स 

के समाव अनेकरूपा नहीं; बस एकही रूप मे लिखना, बोलना, छापना 
ओर प्रत्येक अक्षर का समान वज्ञन पर एकाक्षरी नाम। उच्चारण-संस्थान 


यअ साआ 85 86औई 635 
छऊ %ऋऋ स्पेए शैएऐ ओओ 
खीऔओ आओ व्यःअः 

प्प्ख ध्च 
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5 















नेन्न बूझी 


है (१) 


के अनुसार अक्षरों का कवर्गं, चवर्ग आदि में वर्गकिरण। फिर प्रत्येक 
वर्ग के अक्षरों का क्रम से एक ही सस्थान में थोड़ा-थोड़ा ऊपर उठते हुए 
अनुनासिक तक पहुँचना, आदि-आदि ऐसे अनेक गुण हैं जो अभारतीय 
लिवियो में एकत्र, एकसाथ नही मिलते । किस्तु ये गुण समान रूप से 
सभी भारतीय लिपियों मे मौजूद है, अतः वे सब नागरी के समान ही 
विश्व की अन्य लिपियों की अपेक्षा 'सर्वाधिक वेज्ञानिक' हैं। सब ब्राहमी 
लिपि से उद्भूत है। ताडपत्न और भोजपत्न की लिखाई तथा देश-काल-पात् 
के अत्य प्रभावों के कारण विभिन्न भारतीय लिपियो के अक्षरों में यत्न-तत्र 
परिवतंन, हिन्दी वाली 'नागरी लिपि” को कोई श्रेष्ठता प्रदान नही करता । 
भारत की मौलिक सब लिपियाँ 'नागरी लिपि” के समान ही श्रेष्ठ है । 
सागरी लिपि को 'भी' अपनाना श्रेयस्कर क्‍यों ? 

“तनागरी लिपि” की केवल एक विज्ञेषता है कि वह कमोबेश सारे देश 
मै प्रविष्ट है, जबकि अन्य भारतीय लिपियाँ निजी क्षेत्रों तक सीमित है। 
वही यह भी सत्य है कि नागरी लिपि में प्रस्तुत और विशेष रूप से हिन्दी का 
साहित्य, अन्य लिपियो मे प्रस्तुत ज्ञानराशि को अपेक्षा कम और नवीनतर है। 
अतः समस्त भाषाओं की ज्ञानराशि को, सर्वाधिक फेली लिपि “नागरी” मे 
अधिक से अधिक लिप्यन्तरित करके, क्षेत्रीय स्तर से उठाकर सबको सारे 
राष्ट्र में, यहाँ तक कि विश्व में ले आना परम धर्म है। विश्व की सब 
भाषाओं में उपलब्ध ज्ञान (सत्साहित्य) है आत्मा, और 'त्ागरी लिपि 
होना चाहिए उसका पर्यटक शरीर । 
अन्य लिपियों को बनाये रखना भी कतेव्य है । ह 

वस्तुत: यह परम धर्म है कि समस्त सदाचार साहित्य को नागरी मे 
तत्परता और प्राचुय मे लिप्यन्तरित करना। किन्तु साथ ही यह भी 
परम धर्म है कि अन्य लिपियो को उत्तरोत्तर उन्नति के साथ बरकरार 
रखना। यह इसलिए कि सबका सब कभी लिप्यन्तरित नही हो सकता। 
अत: अन्य लिपियो के नष्ट होने और नागरी लिपि मात्र के ही रह जाने 
से अलिप्यन्तरित हमारी समस्त ज्ञानराशि उसी प्रकार लुप्त-सुप्त होकर रह 
जायगी जैसे पाली, प्राकृत और अपभ्रश का वाइम्मय रह गया। हमारे 
ही राष्ट्र का प्राचीन आप्तज्ञान विलुप्त हो जायगा | 
नागरो लिपि वालों पर उत्तरदायित्व विशेष ! ह 

इन दोनों परम धर्मों की पूति का सर्वाधिक , भार नागरी लिपि वालों 
पर है, इसलिए कि उनको “सम्पर्क लिपि! का श्रेष्ठ आसन प्रदत्त है। मैं 
कह सकता हूँ कि उन्होंने अपने करतंव्य का, जैसा चाहिए था, वैसा निर्वाह 
नहीं किया। परन्तु उसकी प्रतिक्रिया में अन्य लिपि वालों को भी “अपराध 
के जवाब में अपराध” नही करता चाहिए। “कोयला! बिहार का है 


जा 


(5) 


अथवा सिंहभूमि का है, इसलिए हम उसको के लेंगे, तो वह रे हमारे ही 
लिए घातक होगा। कोयले की क्षति नहीं होगी । अपनी लपियों को 
समुन्नत रखिए, कित्तु नागरी लिपि को भी अवश्य अपनाइए । 

उपर्यवतत परिवेश में नलागरी लिपि का पठच और समग्र श्रेष्ठ साहित्य 
का नागरी में लिप्यन्तरण तो आवश्यक है ही, किन्तु अन्य लिपियाँ भी अपनी 
लिपि में दूसरी भाषाओं के सत्साहित्य को लिप्यन्तरित तथा अनूदित कर 
सकती है। 'अधिकरस्य अधिक फलम्‌ ।” ज्ञान की सीमा नहीं निर्धारित 
है। “भुवन वाणी ट्रस्ट' ने भी अवधी के रामचरितमानस को ओड़िआ भाषा 
में गद्य एवं पद्य अनुवाब-सहित, ओडिआ लिपि में लिप्पन्तरित किया है । 
परन्तु सम्पक और एकीकरण की दृष्टि से 'नागरी लिपि' अनिवार्य है। 
नागरी लिपि को वेज्ञानिकता सायव सात्र की सम्पत्ति है। 

अब एक क़दम आगे बढ़िए। भारतीय लिपियों की सर्वाधिक 
वैज्ञानिकता युगो की मानव-शुखला के मस्तिष्क की उपज है। क्‍या 
मालूम इस अनादि से चल रहे जगत्‌ में कब, क्या, किसने उत्पन्न किया ? 
भारत संयोग से इस समय इस विज्ञान का कस्टोडियन्‌ है, ख्रष्टा नही । 
भारत भी न जाने कब, कहाँ तक और कितना था ? अतः हम भारतीयों 
को नागरी लिपि के स्वामित्व का गव॑ नही होना चाहिए। वह आज के 
मानव के पूर्वजों की देन है, सबकी सम्पत्ति है, सकल विश्व उसका समान गौरव 
से उपयोग कर सकता है। हमारा 'अहम्‌' उस लिपि की उपयोगिता को 
तष्ट कर देगा, जिसके हम सेँजोये रखनेवाले मात्र हैं। किन्तु विदेशों में बसने- 
वाले बन्धुओं को भी नागरी लिपि के गुणों को अपने ही पूर्वजों की उपज मान- 
कर परखना चाहिए। ये ग्रुण इस निबन्ध के प्रथम अनुवन्ध में अधिकांशत: 
वर्णित है। न प्रखने पर उनकी क्षति है, विश्व की क्षति है। क्षरब का 
पेट्रोल हम नही लेंगे, तो क्षति क्रिसकी होगी ? पेट्रोल की नही, अपनी ही । 

फिर याद दिला देता ज़रूरी है कि क, प आदि रूपों में वैज्ञानिकता 
नही है। वे काफ़, पे और के, पी, जैसे ही रूप रख सकते हैं, किन्तु लिपि 
में 'अनुबन्ध प्रथम" में ऊपर दिये हुए गुणों और क्रम को अवश्य ग्रहण करे । 
और यदि एक बनी-बनाई चीज़ को ग्रहण करके सावेभौम सम्पर्क में समानता 
और सरलता के समर्थक हों, तो 'नागरी लिपि” के क्रम को अपनी पैतृक 
सम्पत्ति मानकर, ग़र न समझकर, मौजूदा रूप में भी ग्रहण कर सकते है । 
वह भारत की बपोती नहीं है। आज के मावव के पूर्वजों की वह सृष्टि 
है। इससे विश्व के मानव को परस्पर समझने का मार्य प्रशस्त होगा । 
नागरी लिपि में अनुदलब्ध विशिष्ठ स्व॒र-ध्यञ्जनों का समावेश । 

हर शुभ काम में कजी निकालनेवाले एक दूर की कौड़ी यह भी लाते 
है कि “नागरी लिपि सर्वाधिक वैज्ञानिक होते हुए भी अपूर्ण है और अमेक स्वर- 
व्यजनों को अपने में नहीं रखती । उनको कहाँ तक और कैसे समाविष्ट 


(७) 


जाय ? ” यह मात्र तिल का ताड़ है। मौजूदा कर्तव्य को टालना हर रे 
आर अलृबत्ता सनम भाषाओं में कुछ व्यंजन ऐसे हैं जो नागरी में नहं 
है-- किन्तु अधिक नहीं।. भारतीय भाषा उर्दू की क़़ ख ग जञ फ़, ये पाँच 
ध्वनिर्यां तो बहुत समय से चागरी लिपि में प्रयुक्त हो रही हैं। दुःख 
है कि आजादी के बाद से राष्ट्रभाषा के पक्षधर ही उनको ग्रायब करने 
पर लगे है। इसी प्रकार मराठी छ है। इनके भतिरिक्‍त क्षरवी, 
इब्रानी आदि के कुछ व्यञ्जन है, किन्तु उनको नागरी की देंनिक लिपि में 
अनिवाय॑तः रखता आवश्यक नहीं। विशिष्ट भाषाई कार्यों में उन 
विशिष्ट भाषाई व्यजनों को चिह्न देकर दरसाया जा सकता हूं । 
तदर्थ अरबी लिपि का आदर्श सस्पुख । 

और यह कोई नयी बात नही । नितान्त अपरिवतंनशील कहे जाने 
वालों की लिपि 'क्षरबी' मे केवल २७-२८ अक्षर होते हैं। भाषा के मामले में 
वे भी अति उदार रहे। “क्षिल्म चीन (भर्थात्‌ दूर से दूर) से भी लाओ”-- 
यह पैग़म्बर का कथन हे। जब ईरान में, फारसी को नई ध्वनियों च, 
प, ग, आदि से सामना पड़ा तो उन्होंने उनको क्षरवी-पोशाक चे, पे, गाफ़ 
पहना दी। जब हिन्दोस्तान आये तो ट, ड, ड़ आदि से सामना पड़ने पर 
क्षरबी ही जामे में टे, डाल, ड़े आदि तैयार कर लिये। यहाँ तक कि 
सिन्धी में नागरी के सब महाप्राण ओर अनुनासिक, तथा सिन्धी के विशिष्ट 
अन्तःस्फुट अक्षरों को भी क्षरबी का लिवास पहना दिया गया। फिर 
त्ागरी वाले तो ओऔदाये का दावा करते है, उनको परेशात्ती क्या है? और 
नागरी में भी तो परिवतंन होते रहे है। ऋग्वेद के प्रथम मंत्र में प्रयुक्त 
छ को छोड़ चुके है, ओर ड़, ढ आदि को अवर्गीय दशा मे जोड़ चुके है । 
नागरी लिपि में कुछ ही व्यंजनों का अभाव है। उनमें से कुछ को स्थायी 
तोर पर और कुछ को अस्थायी प्रयोग के लिए गढ़ सकते हैं। “भुवन 
वाणी दुस्ट' से यह सेवा वड़ी सरलता, सफलता ओर सुन्दरता से की है । 
स्व॒र ओर प्रयत्न (लह॒जा) का अन्तर । 

अब रहे स्वर। जान लीजिए कि प्रमुख स्वर तीन ही है-- भ, इ, 
उ; उनसे दीघ॑, सयुकत (डिप्थांग) आदि बनते है। अतिदीध, प्लुत, लघु, 
अतिलघु आदि फिर अनेक है जो विश्व में अनेक रूपों में बोले जाते हैं। . 
भारतीय वेदिक एवं संस्कृत व्याकरण में अनेक है। वे स्वतंत्न स्वर नही है, 
प्रयत्त हैं, लहुजा हैं। वे सव त लिखे जा सकते हैं, न सब सर्वत्न बोले जा सकते 
है। डायाक्रिटिकल मावस कोशों मे छाप-छापकर चमत्कार भले ही दिखा 
दिया जाय, प्रयोग में तो, “एक ही रूप में”, अपने निजी शब्द निजी देशों 
में भी नही बोले जाते। स्वर क्या, व्यंजन तक। एक शब्द “पहले” को 
लोजिए। सब जगह घूम बाइए, देखिए उसका उच्चारण किन-किन प्रकार 
से होता है। एक बिहार प्रदेश को छोड़कर कही भी “पहले” का शुद्ध 


्ल 


है 8 00 


उच्चारण सुतने को नहीं मिलेगा। पंजाब, बंगाल, मद्रास के अंग्रेज़ी के 
उद्भट विद्वान अंग्रेज़ी में भाषण देते हैं-“उनके लहूजे (प्रयत्न) बिलक्ुल भिन्न 
होते हैं। फिर भी न उनका उपहास होता है, न अंग्रेज़ी भाषा का ह्वास । 
शास्त्र पर ध्यवहार फी वरीयता । 

शास्त्र और विज्ञान से हमको विरोध नहीं। लिपि की रचना, शोध, 
परिमाज॑न, देश-काल-पात्र के अनुसार करते रहिए, परन्तु व्यवहारिकता को 
अवरुद्ध मत कीजिए । खाद्यपदाथ्थ के तत्त्वों का गरुण-दोष, परिमाण, 
संतुलन, न्यूनाधिक्य, और खानेवाले की शक्ति के साथ उनका समन्वय, यह 
सब स्तुत्य है, कीजिए। किन्तु ऐसा नहीं कि उस समीक्षा के पूर्ण होने 
तक कोई भूखा रहकर मर ही जाय । थाली रखी है, उसे भोजन करने 
दीजिए । आज सबसे ज़रूरी है राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक का एक-दूसरे 
की ज्ञानमराशि को समझने के लिए एक सम्पर्क लिपि की व्यापकता । 

'भुवन वाणी ट्र॒स्ट' ने स्थायी और मुक़ामी तौर पर अनेक स्बर-ब्यंजनों 
की सृष्टि की है। दक्षिणी भाषाओं में प्रयुक्त एकार तथा ओकार की हृस्व, 
दीधं--दोनों मावाएँ हम प्रयोग में ला रहे हैं। पढ़ने दीजिए, बढ़ने दीजिए । 
समस्त भाषाओं के ज्ञान-भण्डार को निजी क्षेत्रों से उठाकर धरातल पर 
तागरी लिपि के माध्यम से पहुँचाइए। नागरी लिपि मानव के पूर्वंज की 
सृष्टि है, मानव मात्र की है । यहाँ से योरोप तक उसकी पहुँच है। 
यूरोपियों की लिपि-शेली नागरी थी । अक्षरों के रूप कुछ भी रहे हों । 
किन्‍्ही कारणों से सामीकुलों में भटककर अलफ़ा-बीटा के क्रम को थोड़े अन्तर 
के साथ अपना लिया। फिर पुराने संस्कारों से याद आया, तो स्वर-व्यंजन 
पृथक्‌ कर दिये। किन्तु उनके क्रम-स्थान जेसे के तैसे मिले-जुले रहे । सामीकुल 
की भाषाओं ने भी प्रमुख स्वर तीन ही माने हैं, ज़बर-ज़े र-पेश (अइ उ) । 
” और ) का उच्चारण क्षरबी, संस्कृत, अवधी और अपभअंश का एक ज॑सा 
है-- (अई, अऊ)। किन्तु खड़ी बोली व उर्दू के भे, और ओ, ऐनक, औरत 
जैसे । यह स्वरों की भिन्नता नहीं है, वरन्‌ लह॒जा (प्रयत्न) की भिन्नता है। 

पूर्ण वेज्ञानिक कोई वस्तु मनुष्य के पल्‍ले नहीं पड़ सकती । 
“पूर्ण विज्ञान” भगवान्‌ का नाम है। सा-रे-ग-म-प-ध-ती, ये सात स्वर; 


- उनमें मध्य, मनन्‍्द, तार; कुछ में तांत्र, कोमल--बस इतने में भारतीय संगीत 


बंधा है। उनमें भी कुछ अदा नहीं हो सकते, अनुभूति मात्र हैं। किन्तु 
क्‍या इतने ही स्वर हैं? संगीत के स्वरों का इनके ही बीच में अनंत विभाजन 
हो सकता है। जैसे अणू से परमाणु का, ओर उसमें भी आगे। किस्तु 
शासत् एक वस्तु है, व्यवहार दुसरी। व्यवहार में उपर्युक्त षडज से 
निषाद तक को पकड़ में लाकर संगीत क़ायम है, क्या उसको रोककर इनके 
सध्य के स्व॒रों को पहले तलाश कर लिया जाय ? तब तक संगीत को 
रोका जाय, क्योंकि वह पूर्ण नहीं है ? क्या कभी वह पूर्ण होगा ? पूर्ण 


(8) 


तो 'त्रह्म' ही है। “विस्टू इज द ग्रेटेस्ट बेनिमी ऑफ गुड (68: 8 
६४6 8688५६ शगध्यए रण तै०००.). इसलिए शग्रूल और शोब्दों की 
आड़ न ली जाय । नागरी लिपि पर्याप्त सक्षम हैं । 
घश्व-व्यापक्तता के संदर्भ में नागरी लिपि के स्व॒रों का रूप । 

लिखने के भेद-- यदि नागरी को हिन्दी क्षेत्र की ही लिपि बनाये रखना 
है तो इ, उ, ए, ऐ, लिखने के अपने पुरानेपन के मोह में मुग्ध रहिए । 
और यदि उसे राष्ट्रलिपि अथवा विश्व तक मे, यहाँ तक कि सामीकुल में 
भी आसानी से ग्राह्म बनाना चाहते हैं तो गुजराती लिपि की भाँति जि, बज, 
थे, जे लिखिए। किन्तु कोई मजबूर नहीं करता । विनोबा जी ने भी 
इसका आग्रह नही रखा। आकार और झूप का मोह व्यर्थ है । पुराने ब्राह्मी- 
शिलालेखों को देखिए । आपके मौजूदा रूप वहां जैसे के तेसे कहाँ हैं ? 
संस्कृत के तिरस्कार से भाषा-विधटदन । 

मेरा स्पष्ट मत है कि “सस्क्ृत” को राष्ट्रभापा होना चाहिए था। 
वह होने पर, यह भाषा-विवाद ही व उठता । शझवबको ही (हिन्दी-भाषी 
को भी) समान श्रम से संस्कृत सीखने से स्पर्धा-कटुता का जन्म ने होता, 
हमारा अपार ज्ञान-भण्डार सबको प्रत्यक्ष होता, और हिन्दी की पैठ में 
भी प्रगति ही होती। उर्दृ-हिन्दी की अपेक्षा, अन्य सभी भारतीय भाषाएं, 
सस्क्षत के अधिक समीप है। इसलिए कि प्राय: सभी भारतीय लिपियों में 
सस्कृत भाषा उसी प्रकार अवाध गति से लिखी जाती है जिस प्रकार नागरी 
लिपि मे । संस्कृत ही एक भाषा है जिसकी अनेक लिपियाँ अपनी हैं । 
किन्तु अब वह बात हाथ से बेहाथ है; अब “हिन्दी” ही राष्ट्रभापा सवको 
मान्य होना चाहिए। यह इसलिए कि अन्य भारतीय भाषाओं में हिन्दी 
ही एक भारतीय भापा है जो देश के हर स्थल में कमोवेश प्रविष्ट है । 
भाज क्‍या करना है ? 

सार यह कि हुज्जत कम, काम होना चाहिए। शास्त्र पर व्यवहार 
प्रवल हूं। समय वड़ा बलवान हूँ, वह आवश्यकत्तानुसार ढलाई कर 
देता हैं। हिन्दी-क्षेत्र मे ही घृम-घूमकर प्रतिमा-अनावरण, हिन्दी का 
महिमा-गान, अनुवादों की धूम, अमुक भाषा की हिन्दी को यह देन, 
अमुक भाषा में हिन्दी की यह छाप-- यह सब दिशाविहीनता, किलेबन्दी 
ओर अभियान स्यागकर नागरी लिपि में विश्व का साहित्य लाइए। दूटी- 
फूटी ही सही, हिन्दी बोलना भी-- (“ही” नही बल्कि “भी”) बोलने का 
अध्यास कीजिए । लिपि और भाषा की सार्थकत्ता होगी। मानवमात्र का 
कल्याण होगा । हमारी एकराष्ट्रीयता और विश्ववन्धुत्व चरिताथ्थे होगा । 


-सन्‍्दकुमार मपस्थी 
मुख्यस्यासी सभापति, भुवन्त वाणी दृस्ट, लखनऊ | 





गुजराती के मध्ययुगीन सुविख्यात कवि प्रेमानन्द ४की तीन रचनाएँ 
/ प्रेमानन्द-रसामृत, खण्ड १ ' में नागरी में लिप्यन्तरित 
करके भुवन वाणी ट्रस्ट, लखनऊ द्वारा 
प्रस्तुत की गयी है। साथ ही 
उनका हिन्दी गद्यानुवाद 
भी प्रकाशित हो रहा है । 


 प्रेमानन्द-रसामृत ” से हम संकलित कृतियों के 
रचयिता श्री प्रेमानन्द का आदरपूुर्वक अभिषेक करना 
चाहते है। जिस प्रकार गंगा-जल गंगा को ही समपित करते 
हैं, उसी प्रकार हम कवि प्रेमानन्द की इन क्ृतियों का 
यह देवनागरी रूपान्तर उन्हीं को समर्पित 


कर रहे है। 


हम उन क्ृतियों का यह हिन्दी गद्यानुवाद भी कवि प्रेमानन्द को ही 
समपित करते हैं और प्रसाद के रूप में उसे उन समस्त 
साहित्य-प्रेमियों की सेवा में प्रस्तुत कर 
रहे है, जो हिन्दी के माध्यम 
से अन्यान्य भाषाओं के काव्यामृत का पान 
करके अपने आपको धन्य समक्षते हैं । 


बस्बई विनीत 
१ जनवरी, १६८४ गजानन नर्रासह साठे 
दीनेश हरिलाल भट्ट 


ही 


घिषय-सूची 


प्रेघाननन्‍्द-रखासूत 


नागरी-एुणरातो वर्णमाला चार्ट पु: 259 
समर्पण है 
विषय-सूची २-६ 
अनुधादकीय की 
महाफवि प्रेमानन्द ओर उनकी कृतियाँ ११-१६ 
अनुवादक विद्वानों फा परिचय १७-१८ 
प्रकाश्नक्षीय प्रस्तावना १६-२४ 
( प्रथम कलश ) 
ओखा-हरण 
[ प्रृष्ठ २५ से १९८ ] 
कड़वक-संख्या विषय पृष्ठ 
१ वन्दनान्प्रकरण २५-२८ 
२ शिवजो द्वारा बाणासुर को वरदान देना (बाणासुर की उत्पत्ति, तपस्या 
और उसके द्वारा शिवजों को प्रसन्न कर लेना ) ३०-३४ 
३ शिवजी द्वार! बाणासुर फो वरदान देना ३४-३७ 
४ शिवजी द्वारा बाणासुर को मधिशाप देना ३७-४० 
४५ गणेशजी और भोखा को उत्पत्ति ४०-४४ 
६ नारदजी द्वारा शिवजी के मन से पावंती के प्रति क्रोध उत्पन्न करना ४५-७४ 
७ उमाजी द्वारा ओखा फो अभिशाप देना प्रू०-घरे 
८ वाणासुर का सनन्‍्तान-प्राप्ति के हेतु तपस्या के लिए गमन २२-५३ 
< वाणासुर को पुत्नी के रूप मे ओखा को प्राप्ति ५४-५६ 
१० बाणासुर द्वारा पुत्रो का विवाह न फरने का निश्चय फरना ५६-५८ 
११९  उमाजो हारा भोखा को वरदाम देना भ्रष-६२ 
१२ थोखा की व्यथा ६३-६४ 
१३ चित्नलेखा का उपदेश भोखा के प्रति ६४-६७ 
१४ भोखों की विरह-व्यथा पद 
१५ स्वप्न मे ओखा का पति से मिलन होना ६४-७२ 
१६ मोखा का परिताप 


७३-७५ 


विषय-सूची 


कड़ब॒क-संख्या विषय 


१७ 
पद 
१६ 
२० 
२१ 
२२ 
२३ 


२४ 


२५ 
२६ 
२७ 
श्८ 
रद 
३० 
३१ 
३२ 


डे३' 


३४ 
३५ 
३६ 
३७ 
दर्द 
र्ढे 
० 
श्प्‌ 
8२ 
४१३ 
४४ 
४५ 
४५ 
३७ 
श्चद 
४६ 
ड० 
५१ 


श्र 
श्र 


भोखा का विलाप 

भोजा फी चित्नलेखा से विनती 

खित्र देखकर ओखा हारा अभिरद्ध को पहचानना 
बित्नलेखा द्वारा अनिरद्ध का मपहरण 
ओोखा-अनिरद्धनभेट 

ओखा-अनिरुद्ध-मिलन 

बाणासुर द्वारा फोभाण्ड को ओोखा फे पास भेजना 


ओखा द्वारा फोभाण्ड को डॉटना मौर अनिरुद्ध द्वारा ओखा फो गोद 
में लेकर बठना 

कोपमाण्ड अनिरद्ध-संवाद 

ओदछा द्वारा भनिरद्ध को समझाने का यह्त 

मोखा की विनती अनसुनी करके अनिरुद्ध द्वारा युद्ध करना 

अनिरुद्ध द्वारा भोखा फो विनती अस्वीकार करना 

भोखा का अनुरोध अनिरुद्ध के प्रति 

युद्ष में बाणासुर है।र। अधिरद्ध को नागपाश में आबद्ध करना 
अनिरुद्ध को देखकर लोगो का प्रभावित होना 

तारद-भनिरुद्ध-भेंद 

भोखा फो बिनतोी बलराम-ऊृष्ण के प्रति 

श्रीकृष्ण फा शोणितपुर के पास आगमन 

फृष्ण ओर शिवजी का युद्ध-भुसि भे आगमन 

शिपजी फी सेता द्वारा युद्ध आरम्भ करना 

शिवजी और कृष्ण की सेनाओ फा युद्ध 

श्रीकृष्ण और शिवज्नी फा विकराल युद्ध 

ब्रह्माजी आदि द्वारा शिवजी ओर विष्णु-स्वरूप कृष्ण फी स्तुति करना 
ब्रह्मा द्वारा कृष्ण और शिवजी की स्तुत्ति करना 

बाणासुर द्वारा ओखा के विवाह के लिए सबको निमंत्नित करना 
बर अनियद्ध और वधू ओखा फो तेल-हुलदी लगाना 

मनिरुद्ध की चरयात्रा 

घर फा परछन फरना 

बाण द्वारा फन्या-दान 

भांवर तथा विवाह-विधि क्का पुर्ण होना 

/ क्लरतार ' फा सेवन ओर स्त्रियों द्वारा गीत गाना 

बारातियो का भोजन आदि 

सात्यक्ति द्वारा नेग सम्बन्धी साँग 

साता बाणमती द्वारा ओखा फो सिखावन देना 

चर-वधू के विषय में स्त्रियों हारा गीत गाना और चित्नलेखा, 
साता आदि द्वारा ओखा को सिखावत्त देना हे 
लग्न-गाँठ खोलना ड़ 
उपसंहार 


5 
हे 


१ 
पृष्ठ 


७६-७७ 
9७-८१ 
पवेन्८४ 
८५-६० 
दे -८६४ 
दै४-देपे 
55-१०२ 


१०३-१०४ 
१०४५-१०७ 
१०८५-१० ३ 
१०६-११४ 
११४५-११५६ 
११६-११४ 
११६-१२७ 
१२७-१२६ 
१२४६-१३१ 
१३१-१३६ 
१२३६-१३ द 
१३ ढ/“ं-१४३ 
१४४-१४८ 
4४८-१५५ 
१५०५-१५ दे 
१५६-१६४५ 
१६५-१६८ 
१4६5-१७१ 

१७१-१७३ 

१७३-१७४५ 
१७४५-१७७ 
१७७-१७८ 

१७६-१८० 

१८०-१८४२ 

१८३-१८४ 

१८४-१८६ 

१८०६-१८ 


; पिफर्द-पिद्धे४ 


१&४-१ दे ५ 
पदै६-पिद्देप 


मा विषय-सूची 
( द्वितीय कलश ) 


नलोपाख्यान 
[ पृष्ठ १९९ से ४३७ ] 
फड़बक-संख्या विषय पृष्ठ 
3 कथा-कथन-पत्दर्लभ : युधिष्ठिर-वृहृदश्व-संवाद २०१-२० ६ 
९ ऋषि बृहदश्व हारा मल का परिचय देना के २०७-२१० 
है चारद हारा नल से पसयन्तो के जन्म के बारे में कहना २१०-२१३ 
है चारद द्वारा दमयन्ती का रूप-वर्णन २१३-२१६ 
५ दसपन्तों का रूप-वर्णन पुनकर नल राजा का उसके प्रति आसक्त 
हो जाना २१६-२२० 
६ नल द्वारा बन में हँस फो देखना और उसे पकड़ना २२०-२२३ 
७ हँस फा बिलाप २२३-२२४ 
5 हंस द्वारा बल से प्रार्थना तरना और उनके हाथो से मुक्त हो जाना २२ ४-श२८ 
5 हंस और नल की घनिष्ट मित्रता; नल हारा हंस को दमयस्तों 
सम्बन्धी बात बताना २२५८-२३ १ 
१० हुंस का नल को _गरवस्त करना और दमयन्ती के पास जाना २३२-२३४ 
११ दमसयन्तों हारा हस को चतुराई से पक्षड़मा २३५-२३ ८ 
3२ हँस हारा नल राजा को प्रशंसा करना और दमयन्ती का उनके 
भति आसकत हो जाना २३४८-२४ १ 
है हस द्वारा दमयन्ती को आश्वस्त करना २४२-२४४ 
१४ हुप्त द्वारा अन्दनपुर और उद्यान का वर्णन करना २४४-२४८ 


११ हस द्वारा नल राजा से दमयन्ती महसम्बन्धी समाचार फहना २४४६-२४३ 
१६ दमयन्ती की विरह-दः्ध स्थिति को देखकर माता-पिता द्वारा 

उसके स्वयंवर का आयोजन करता २५४-२४७ 
ऐ७ हुंस का नल से दिया हो जाना और भारद द्वारा देवों को वसयन्ती- 

स्ययबर सम्बन्धी समाचार कहते हुए उफसाना 


२५७-२६२ 
पै८ इन्द्र भादि बेबों का नल राजा ले मिलना २६३-२६५ 
पे देवों के दूत के रूप में नल फा दमयस्तों के अन्तःपुर में आगमन २६६-२६४ 
९० नल ओर दमयन्तो का दृष्टि-मिलन २३४-२७१ 
२१ मन्त द्वारा देसयन्तो को देवों में से छिसी एक का वरण करने का 

उपदेश देपा २७१-२७६ 
र२ दबों के इत मल ओर दमयन्तो का संवाद २७६-२७६ 
९२ दमयत्ती के पहाँ से लौटकर भल का देवों हे मिलना २७६-२८३ 
९४ राजाओं का स्थयंबर-मण्डप के प्रति गन २८३-२८७ 
९५ विवाह-मण्डप में इमयन्तो का भायसत र२८७-२८४७८ 
२६ स्वयंबर-प्प्ता मे नलराज का आगमन २८६-२४२ 
3७ वधू वमपन्‍्ती का वर्णन और राजाओं की अधोरता 


रद ३- 
5 नल-वमपन्तो का विवाह और फलि का उनके प्रति ईप्या करना लक 


कंड बक-संख्या 


श्र 


३० 
३१ 
शेर 
श्र 


३४ 
३५ 


३६ 
३७ 
रे८ 
रेढे 
४० 


४१ 
४ध्२ 
४३ 
४४ 
४५ 
४६ 


४७ 
४८ 
४६ 
१० 
५१ 
५२ 


विषय-सूची 


विषय 

कलि ओर द्वापर द्वारा पुष्कर को उकसाकर नल से चूत खेलने 

के लिए ले जाना 

चत में नल की हार होना 

दमयन्‍्तो द्वारा बच्चों को ननिहाल भेजना 

नल द्वारा क्ुद्ध होकर दमयनन्‍्तो को छोड़ जाना 

कलि हारा नल को बुद्धि को भ्रष्ट कर देना और नल द्वारा दसयन्ती 
का परित्याग करना 

शोकाकुल नल की कर्कोटक नाग से भेंट 

ककोटक नाग हारा नल को काठना जोर कुरूप होकर नल का 
अयोध्या की राज-सभा में आभसन 

दमयन्ती का विलाप 

बिलाप करते-करते दसयन्ती द्वारा घन में प्रमण फरना 

व्याध द्वारा दसयन्‍्तो को अजगर से छुड़ाना 

दमयस्ती द्वारा व्याध को अभिशाप देना 

बन में विलाप फरते-करते दमयन्ती का नदी-तट पर व्यापारियों से 
मिलना 

दमयन्ती द्वारा ध्यापारियों से नल के विषय में पुछताछ करना 
व्यापारियों द्वारा दमयन्ती को पीटना 

दमयन्ती फो अपनी सौसी के यहाँ आश्रय प्राप्त होना 

इन्दुमती द्वारा दमयन्ती पर हार चुराने का दोषारोप लगाना 
कलि के प्रभाव से दमयच्ती का मुक्त हो जाना 

बालकों को लेकर सुदेव भौर दमयन्तो फ्ो सखियों का भोमक के 
पास भा जाना 

सुदेव द्वारा दमयन्ती का पता लगाना 

सुदेव हारा दमयन्तो का परिचय देना 

राजमाता आदि द्वारा पछतावा करना 

दमयच्ती का सुदेव के साथ पितृ-गृह के प्रति गसन 

सुदेव द्वारा वेश बदलकर नल की कुछ खोज-खबर पाना 

दमयन्तोी द्वारा सुदेव से बाहुक और ऋतुपर्ण को ले भाने को 
विनती करना 

राजा ऋतुपर्ण को रथ में बेठाकर बाहुक द्वारा एक दिन में 
कुल्दसपुर सें ले आना 

ऋतुपर्ण और बाहुक का कुन्दनपुर में आगमन 

ऋतुपर्ण और बाहुक का राज-सभा में भागमन 

राजा भीसक द्वारा ऋतुपर्ण से पुछताछ फरना 

दसयच्तो हारा बाहुक की परीक्षा फरवाना 

वमयन्ती द्वारा परीक्षा के लिए बाहुक को बुलचाना 

दमपन्‍्ती को उक्ति बाहुक-स्वरूप नल के प्रति 
बाहुक-दसयन्ती-संवाद : बाहुक द्वारा नल रूप में प्रकट हो जाना 
नल का भीसक आदि से मिलना 

अयोध्यापति ऋतुपर्ण का परिताप 


भर 


पुष्ठ 


३०३०३०५' 
३०६-२३०८ 
र०फ-रे०डे 
३१०-३१३ 


३१३-३१८ 
३१६-३२१ 


३२१-०३२५६ 
श२२६-३२२८ 
३२८-३३० 
३३१-३३३ 
२३३३-३३ े 


३३&-३४० 
३४१-३४४ 
३४४-३४६ 
३०४६-३४ ८ 
३४४-३५१ 
३५२-३ ५४ 


३५५-३५७ 
२३५७-३६० 
२३६१-३६२ 
२३६३-३६५ 
२३६६-३६८ 
रे६दे-३७४५ 


३७५-३७७ 


हरे७७-३८४ 
रे८४-३६६ 
३५ष७-रेटेफ 
३द्-ैंदन्ड०० 
४००-४०४ 
४०प्रन्४०८ 
४०६-४१३ 
४१४-४२१ 
४२१-४२३ 
४२४-४२७ 


६ विषय-सुची 


कडुवक-संख्या धविषय पृष्ठ 
६३ नलरान द्वारा ऋतुपर्ण फो सान्त्वना देना |. ४२घ-४३० 
६४ ऋतुपर्ण-पुलोचना-विधाहु। पुष्कर-तल-भेंड; चल फे राज्य का वर्णन 

भर कवि-कृत उपसंहार ४३०-४३७ 


( तृतीय कलश ) 


सुदामा-चरित्र 
[ पृष्ठ ४३८ से ४९५ ] 

१ कवि की प्रास्ताविक उवित। पात्र-परिचयात्मक प्रृष्ठभ्रू्ति ४३६-४४४ 

२ अपने घर की दुरचस्था का वर्णन करते हुए सुदामा फी स्त्री द्वारा 
उनसे श्रीकृष्ण के पास जामे का अनुरोध करना ४४४-४५० 
३. सुदामा हारा अपनी पत्नी की समझाने फा यत्न करता ४५०-४ ४५३ 

४ सुदामा द्वारा अपनी स्त्री को उपदेश देना; स्त्नी द्वारा अन्न का महत्त्व 
बताते हुए सुदासा से विनती करना ४५३-४५७ 
५ सुदामा का द्वारका के प्रति गन ४४७-४६० 
६ सुदामा का द्वारका में श्रीकृष्ण के राज-प्रासाद के द्वार तक पहुँचना ४६०-४६५ 
७ सुदामा-भोकुष्ण-मेंट 2६५-४७० 

८5 भगवान थोकृष्ण हारा अपने भक्त सुदामा का पुजन मोर सम्मान 
करना ४७००४७२ 
4. श्रीकृष्ण द्वारा सुदामा से उनके दुर्बल हो जाने का कारण पुछना ४७३-४७४ 
१०. श्रीकृष्ण-सुदाभा फा गुरु-ग॒हु मे घटित बातो के बारे से संवाद ४७४-४७ड 
११ श्रीकृष्ण द्वारा सुदामा फो वेश्नव-सस्पन्न बसा देना ४८०-४८४ 
१२ श्रीकृष्ण से विदा होफर सुदामा का अपने ग्राम की मोर लौटना. ४८५-ए पद 
१३ सुदासा का अपने ग्राम और गृह में पुनरागसन ४पह-४४३ 
१४ भार्यान का उपसंहार ४४8३-४८ ४ 


अनुवादर्कीय 


हमे पद्मश्री नन्‍्दकुमार अवस्थी ( मुख्य न्‍्यासी सभापति, भुवन 
वाणी ट्स्ट, लखनऊ-३) से परिचित होने का सोभाग्य आज से लगभग 
चौदह साल पहले प्राप्त हुआ। वे स्वयं उस ट्रस्ट के प्रतिष्ठाता है। 
१९६९ ई० में प्रतिष्ठित भुवन वाणी ट्रस्ट का छोटा-सा पौधा विकसित 
होते-होते आज एक प्रचण्ड, गगन-स्पर्शी वृक्ष के रूप को प्राप्त हो चुका है। 
भाषाई सेतुकरण के जिस उद्देश्य से प्रेरित होकर ट्रस्ट की स्थापना की 
गयी, उसकी पूर्ति हो गयी.है और अब उस सेतु के दृढ़ीकरण का कार्य 
चल रहा है। भारतीय भाषाओं के परस्पर आदान-प्रदान के क्षेत्र में 
अनुवाद तथा एक नितान्‍्त अभिनव प्रयोग के रूप में नागरी लिप्यन्तरण 
का जो अनोखा कार्य ट्रस्ट द्वारा किया जा रहा है, उसकी बराबरी अब 
तक कोई भी नही कर पाया है। द्ठुस्ट का इस क्षेत्ष में स्थान एकमेव- 
अद्वितीय है-- न ऐसा कोई अन्य संस्थान है, न ऐसा कोई अन्य वाह्मयीन 
यज्ञ सम्पन्न हो रहा है। इसका सस्पूर्ण श्रेय श्री नन्‍्दकुमारजी अवस्थी 
साहब को ही देना चाहिए। वे सिर पुस्तक-प्रकाशन ही नहीं कर रहे 
है, वे अनुवादको का निर्माण तथा संगठन भी कर रहे हैं। अब भुवन 
वाणी ट्रस्ट पारिवारिक ट्रस्ट नहीं रहा-- ट्रस्ट ही एक विशाल परिवार 
बन चुका है, जिसके सदस्य है-- ट्रस्ट के न्‍्यासी, विद्वत्‌-परिषद्‌ के सदस्य, 
अनुवादक-मण्डल के सदस्य, ट्रस्ट के हितेषी पाठक, मुद्रणालय के 
कर्मचारी" । इस राष्ट्र-व्यापी परिवार के सदस्यों की द्गस्ट सम्बन्धी 
आत्मीयता को विकसित करने का कार्य भगीरथ काये है। आज भी 
अपने अदम्य उत्साह से श्री अवस्थी साहब उसे उदारमना, निरीह परिवार- 
प्रमुख के रूप में कर रहे हैं और उसमें हाथ बेटा रहे है ट्ृस्ट के उपसचिव 
श्री विनयकुमारजी अवस्थी । उन्हीं दिनों, जब हमारा श्री अवस्थी' 
पिता-पुत्र से केवल पत्नाचार से ही परिचय हुआ, हम उनसे. प्रभावित हुए 
भोर उन्ही की प्रेरणा से ट्रस्ट के कार्य में सहयोगी हो गये । 


फल-स्वरूप, हमने ग्रुजराती के गिरधर-कृत रामायण के नागरी 
लिप्यन्तरण बोर हिन्दी गद्यानुवाद का श्रीगणेश किया। एक अनोखे 
कार्य को करते रहने के विचार से हमारे दिलो-दिमाग़ पर उन दिनों अजीब- 


(८5) 


सी धुन सवार रही और ज्यों-त्यों करके उस विशालाकार ग्रन्थ का अभिनव 
रूप में प्रकाशन ट्ूस्ट द्वारा १९७८ में हुआ। उसे देखकर हमारा उत्साह 
हिगुणित हुआ। एक स्वनाम-धन्य गुजराती साहित्यिक ने उसे देखकर 
कहा था-- देखिए, साठे और भट्ट दो भिन्न-भिन्न भाषी व्यक्ति एक तीसरी-- 
अर्थात हिन्दी भाषा में सराहनीय काम कर सके हैं। उनकी इस 
प्रशंशोक्ति का हम पर जादू का-सा असर हुभा। इधर श्री अवस्थी 
साहब गुजराती के काम को गिरधर रामायण तक ही सीमित नही रखना 
चाहते थे। उन्होंने गुजराती के मृध्ययुगीन आख्यानकार कवि प्रेमानन्द 
की महिमा सुनी थी। _ अतः उन्होने सुझाया कि प्रेमाननद के आख्यान 
काव्यों को ट्रस्ट की नीति के अनुसार (मूल पाठ नागरी लिपि में तथा 
हिन्दी गद्यानुवाद) “ प्रेमानन्द-रसामृत ” के रूप में प्रवाहित कर दिया 
जाए, जिससे उनका रसास्वादन समस्त भारत के हिन्दी जाननेवाले 
साहित्य-प्रेमी लोग कर पाएँ। इस “ आदेश ” को हमने सिर-आँखों पर 
किया और आगे बढ़े । हम प्रेमानन्द के समस्त आख्यानों को अनूदित रूप 
मे प्रस्तुत करने के सपने देखने लगे । 


काम का शुभारम्भ तो हो गया; किन्तु हमारे सामने व्यावसायिक, 
पारिवारिक समस्याओं का ताँता बंध गया । फल-स्वरूप गिरधर-रामायण 
के काम को हम जिस गति से पूर्ण कर सके, उसे अपनाना असम्भव हुआ । 
कई बार काम ठप्प हो गया। हमारे हाथ शिथिल-से पड़ गये, हमारी गति 
* अ-गति ” -सी हो गयी और बाशका हुई कि अब हमसे यह काम नही बन 
पाएगा । लेकिन ट्ृस्ट का लक्ष्य हमे रुकने नही दे रहा था। श्री 
अवस्थी साहब की सहानुभूतिमय सहनशीलता भौर खामोशी हमें बता 
रही थी कि स्वीकृत काये को अधूरा छोड़ना ट्रस्ट ने नही जाना है, ट्रस्ट ने 
कभी हार नही मानी है; उसका आदर्श है-- निर्वाह: प्रतिपन्न-वस्तुषु। 
“ जिसमें हाथ डाला है, उसे पूर्ण सम्पन्न करना है! । * ४ हम बार-बार 
काम मे जुट जाते रहे ओर उसका यह फल है कि ' प्रेमानन्द-रसाघृत ” के 
प्रथम खण्ड के प्रकाशन द्वारा आज ' तीन कलश ' सुधी पाठकों की सेवा 
मे प्रस्तुत किये जा रहे हैं। ये ' कलश ' हैं-- ओखा-हरण, नलोपाख्यान 
भौर सुदामा-चरित्र । 


विश्वास है, ' रसामृत ” ट्रस्ट की बलवती :अभिलाषा को जिलाये 
रखेगा। जो अमृत का पान कर चुका है, उसे मृत्यु का भय क्‍यों हो ? 


टूस्ट इस अभीष्ट कार्य को, कल न सही, परसों कहिए, हमसे न 
सही, किसी ओर से, बगेर सम्पन्न किये-कराये चैन की साँस नहीं लेगा। 
अतः सुधी पाठक हमे त्रुटियों के लिए क्षमा प्रदान करते हुए ' प्रेमानन्द- 
रसामृत ” के शेष कलशों को प्रस्तुत कराये जाने की प्रतीक्षा करे। 


( ५ ) 


यह अनुवाद 

अनुवाद-कर्ता प्रेमानन्द के आख्यानों के मूल पाठ के प्रति ईमानदार 
रहे है। अनुवाद करते समय उन्होंने यह ध्याव रखा है कि श्रेमानन्द के 
भाव को सही रूप में प्रस्तुत. किया जाए।, अतः उन्हें 'अपनी भोर से 
न कुछ जोड़ना था, न कुछ छोड़ना था। गुजराती बोर हिन्दी दोनों 
भाषाओं को सम्पक्‌ रूप से जाननेवाले इसकी परख कर सकेंगे; लेकिन 
उनमें से किसी एक भाषा का जानकार दूसरी भाषा में प्रस्तुत मुल वा 
अनूदित अंश के साथ उसके समानान्‍्तर अंश का मिलान करके देखता जाए, 
तो उसके उस ' अनजानी ” भाषा के ज्ञान में वृद्धि ही हो जाएगी। 
कवि की अपनी विशिष्ट शैली का ध्यान रखते हुए अनुवाद किया गया है, 
अतः अनुवाद की भाषा कहीं-कही अटपटी भी लग सकती है-- ऐसे 
स्थलों पर हमारे लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए, आशा है, पाठक हमारी 
विवशता को समझ लेगे। 


प्रेमानन्द के ओखा-हरण आदि आख्यान बहुत लोकप्रिय हैं-- मौखिक 
परम्परा द्वारा भी वे प्रसारित होते आये हैं। इसलिए प्रत्येक आख्यान 
में अनगिनत पाठभेदों की गरंजाइश है। मुद्रित रूपों में मुद्रण को भूलें 
भी कम नहीं हैं-- जान पड़ता है कि वे भी परम्परा-सिद्ध हो चुकी है । 
अतः हमने आवश्यकता के अनुसार एक से अधिक पाठों की शरण ली और 
/ यद्‌ रोचते तद्‌ ग्राह्यम्‌ _ --वाली नीति को अपना लिया है। कथा का 
वर्णन-कर्ता कथा-काब्य में भूतकालीन घटनाओं के लिए भी प्रायः वतंमान 
कालिक क्रिया-रूपों को प्रयुक्त करता है। इन आपख्यातों में भी यही बात 
पायी जाती है। फिर भी काव्य में प्रयुकत क्रियाओं के वततंमानकालिक रूपों 
के अनुवाद में अर्थ ओर काल के विचार से क्रियाओं के भूतकालिक रूपों 
का प्रयोग किया है। कवि प्रेमानन्द तथा इस पुस्तक में संकलित उनके 
तीनों भाख्यानों का परिचय इस विभाग में अन्यत्न दिया जा रहा है। 


आशा है, साहित्य-रस-प्रेमी पाठकगण “गिरधर-रामायण ' की भाँति 
/ प्रेमाननद-रसामृत ' का भी स्वागत करेंगे। 


आभार 


अनुवाद करते समय कुछ शब्दों तथा छन्दों के अर्थ को निर्धारित 
करने में हमें प्रा० श्रीमती कान्‍्ताबेन भट्दु ( प्राध्यापिका, गुजराती विभाग, 
महाराष्ट्र कालेज, बम्बई ) से बहुत सहायता प्राप्त हुई। हम उनके ऋण 
को हृदय से स्वीकार करते हैं। हमने निम्न-लिखित पुस्तकों से विभिन्न 


(% ) 


आख्यानों के पाठ स्वीकार किये हैं तथा संशोधन करने में सहायता ली है । 
हम उनके सम्पादकों के आभारी हैं :-- 


१ सस्तु साहित्य-वर्धक कार्यालय ( बम्बई-अहमदाबाद ): ओखा- 
हरण, नव्ठाख्यान ( नलोपाख्याव ), सुदामा-चरित्न । 


२ श्री अनन्तराय म० रावक : सम्पादक-- नक्काख्यान ( प्रकाशक-- 
गुर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय, अहमदाबाद ) । 


३ श्रीमती प्रणयबात्वा के० कोटीया और श्रीमती पन्ना मोदी : 
सम्पादक-- कुँवरबाईनू मामेरु अने सुदामा-चरित्न ( प्रकाशक-- 
जे० भरत एण्ड कं०, बम्बई ४) । 


प्रकाशक के प्रति क्ृतज्ञता-ज्ञापन कही-कही परम्परागत उपचार बन 
जाता है। परन्तु इस पुस्तक के सन्दर्भ मे इस आभार-प्रदर्शन को केबल 
उपचार समझ्षना सौ प्रतिशत गलत होगा। इस स्थिति में हम इतना 
ही कहना पर्याप्त समझते है-- हम अनुवादकार है; प्रकाशक तथा ट्रस्ट 
के अधिष्ठाता, सभापति पद्मश्री नन्‍्दकुमारजी अवस्थी " करानेवाले ” है। 
हम अपने आपको “कर्ता ” समझने की धृष्ठता करते हुए इस पुस्तक को 
€ प्रकाश ' दिखानेवाले के हृदय से कृतज्ञ है । 


इत्यलम्‌ । 
विनीत 
१४७२, सदाशिव पेठ, गजानन नर्रासह साठे 
पूचा ४११०३० 
परे, शान्ति-निकेतन, डॉ० आस्बेडकर मार्ग, दीनेश हरिलाल भट्ट 


साटुगा, बम्बई ४०००१४६ 
१ जनवरी, १६८४ 


महाकवि प्रेमानन्द 
और 
उनकी कृतियाँ पे 


मध्यकालीन गुजराती कवियों में महाकवि प्रेमानत्द का स्थान 
समस्त समीक्षकों द्वारा प्रथम श्रेणी में निर्धारित किया गया है। वे 
मध्ययुग के सर्वश्रेष्ठ, सर्वाधिक लोकप्रिय आख्यानात्मक काव्यों के रचयिता 
हैं। आज भी. उनकी ' रचनाएँ घर-घर में पढ़ी जाती हैं। इस दृष्टि 
से वे ' गुजरात के घर-घर के कवि ” माने जाते हैं। अर्थात उनकी 
रचनाएँ बिद्वानों से लेकर साधारण पढ़े-लिखे लोगों तथा बच्चों से लेकर 
बूढ़ों तक सबके द्वारा पढ़ी जाती है । ' 


प्रेमानन्द के काल के विषय में विद्वानों में थोड़ा-बहुत मतभेद है। 
श्री नगीनदास पारेख उनका समय ई० स० १६४९ से १७०४ मानते हैं, 
तो श्री के० का० शास्त्री ई० स० १६४४ से १७०४ बताते है। प्रेमानन्द 
ने स्वयं अपनी विविध रचनाओं के अन्त में उन-उन रचताओं का काल 
सूचित किया है। उदाहरणाथे, उनकी पहली कृति “ चन्द्रहासाख्यान' 
सं० १७२७ ( लगभग ई० १६७० ) में लिखी गयी और उनकी अन्तिम 
कृति “ दशम स्कन्ध ” स० १७६० से १७६४ तक में लिखी जा रही थी, 
जो उनका स्वर्गवास हो जाने के कारण अधूरी रही। इन समस्त बातों 
पर विचार करते हुए श्री जयन्त कोठारी ने कहा है कि प्रेमातन्द का काव्य- 
रचना-काल साधारणतया ई ० स० १६६० से १७०० तक और जीवन- 
काल ई० १६४० से १७०० तक निर्धारित किया जा सकता है. (गुजराती 
साहित्यनो इतिहास, ग्रन्थ २, प्रकाशक-- गुजराती साहित्य परिषद, 
अहमदाबाद ) । 


प्रेमानन्द के कथनानुसार यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका जन्म 
बोरक्षेत्र वटोदरा (बड़ोदा ) में हुआ। सम्भवतः वे उस नगर के “ वाडी ! 
नामक मुहल्ले में रहते थे। कुछ वर्षों के पश्चात वे सूरत में जाकर रह 
गये। बे कहते हैं, उच्हं “नक्काख्यान ' का श्रीगणेश. | ' 


(१३) 


तदनन्तर वे नन्दुरबार (जि० धुलिया, महाराष्ट्र ) गये। वहीं उन्होंने 
/ चकाख्यान ” पूर्ण किया। उन्होंने कुछ वर्ष बुरहानपुर न ( ज़ि० पूर्व 
निमाड़, मध्य प्रदेश ) में व्यतीत किये । उनके कथनानुसार उन्होंने यह स्थान- 
परिवर्तत उदर-भरणार्थ किया । “ सुदामा-चरित्न ” में उन्होंने लिखा है-- 
उदर निमित्ते परदेस कीधो, सेव्यू नदरबार। (अथवा पाठ-भेद के 
अनुसार -उदर निमित्ते सुरत सेव्यु ने गाम नंदरबार ।) 


प्रेमानन्‍न्द मेवाड़ा चौबीसा (“ चतुरवंशी '“चतुरविशी ब्राह्मण) थे । 
अनेक स्थलो पर उन्होने अपना उल्लेख “ भट प्रेमानन्द ,, “ विप्र प्रेमानन्द ' 


जैसे शब्दों मे किया है। ' भट ' शब्द ब्राह्मण वर्ण सूचित करता है । 


€ नछाख्यान ” में वे कहते है-- कृष्ण-सुत कवि भद प्रेमानन्द। 
अर्थात उनके पिता का नाम कृष्ण था। कहते है कि प्रेमानन्द के वचपन 
मे ही उनके पिता और माता दोनो मृत्यु को प्राप्त हुए। उनकी मौसी 
ते उनका लालन-पालन किया। यद्यपि उन्होने “ नक्वाख्यान ” में कहा 
है-- “ गुरु-प्रतापे पद-बन्ध कीधो ', फिर भी उनके द्वारा कही भी 
निःसन्दिग्ध रूप में यह नही कहा गया है कि उनके ग्रुद कौन थे और 
उन्होने उनसे कितनी और कहाँ शिक्षा पायी। इस सम्बन्ध में यह 
किवदन्ती प्रचलित है। कहते हैं कि प्रेमानन्द बचपन में जड़मति और 
मूढ़ थे। इस स्थिति में भी उन्होने एक विरकक्‍त सत्पुरुष की अनेक महीनों 
तक भक्तिभावपुवंक सेवा की । सो प्रसन्न होकर उस सत्पुएष ने एक 
शुभ घडी पर प्रेमानन्द से कहा कि वे अपनी माता को ले आएँ। परन्तु 
दुर्भाग्य से उनकी माता उस छुभ घड़ी के अन्दर वहाँ पहुँच नही पायी । 
इसके फल-स्वरूप प्रेमानन्द को संस्कृत के महाकवि होने का भाग्य नही 
प्राप्त हुमा। फिर भी उस सत्पुरुष की कृपा से वे गुजराती के श्रेष्ठ 
कवि सिद्ध हो सके । जान पड़ता है कि उन्होने उस सत्पुरुष से संस्कृत 
की कुछ शिक्षा पायी होगी। उनके इन गुरु का नाम “ रामचरण ! 
था। फिर भी जान पड़ता है कि इस #िवदन्ती का आधार कल्पना हो । 
दूसरी एक किवदन्ती के अनुसार प्रेमानन्द का तत्कालीन कथावाचकों से 
संघ हुआ; उससे वे कथा-वाचक का काम छोड़कर आख्यान काव्यों की 
रचना करने के लिए प्रेरित हुए। प्रेमानन्द के अनेक शिष्य कवि भी 


बताये जाते हैं। फिर भी इन समस्त बातों की प्रामाणिकता बहुत 
सन्दिःध है । 


मु इसमें कोई सन्देह नही है कि प्रेमानन्द संस्कृत के अच्छे जानकार 
। उन्होंने श्रीमद्भागवत पुराण, महाभारत और रामायण का अध्ययन 


(१३ ) 


किया था। उनकी अधिकांश रचनाएँ इन ग्रन्थों पर आधारित हैं। वे 
गायन और वाद्य-वादन कला में निपुण थे। उन्होंने अपने काव्यों के 
कड़वकों के लिए केदार, गौड़ी, आसावरी, मारू, वसन्‍्त, रामग्री आदि रागों 
और कतिपय लोक-गीतों की धुनों का प्रयोग किया है। कहते हैं कि 
वे “ माण ” (कटका) बजाते हुए अपने आख्यानों को प्रस्तुत करते थे । 


काव्य-गुण-गरिसा और रचनाओं की संख्या --दोनों दृष्टियों से प्रेमानन्‍्द 
मध्ययुगीन ग्रुजराती कवियों मे सर्वोपरि कृतिकार हैं। वेसे तो उन्तकी 
पचास से कुछ अधिक कृतियाँ उपलब्ध है। उन्होंने कुछ नाटक भी लिखे-- 
परन्तु विद्वान अनुसंधान-कर्ता इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि उनमें से अनेक 
कृतियाँ और नाटक परवर्ती रचनाकारों द्वारा लिखकर प्रेमानन्द के नाम 
पर प्रचलित कराये गये है। उनको छोड़कर, अब प्रेमाननन्‍्द की केवल 
पचीस कृतियाँ प्रामाणिक मानी जाती हैं। उनमें से निम्न-लिखित कृतियाँ 
प्रमुख है-- ओखा-हरण, सुदामा-चरित्न, रुक्मिणी-हरण, नकाख्यान, वामन- 
कथा, रणयज्ञ, बाठ॒लीला, दानलीला, भश्रमर-पचीसी, चन्द्रहासाख्यान, 
दशम स्कन्ध इत्यादि। कहना न होगा कि इनके मूलस्रोत श्रीमद्भागवत 
पुराण, महाभारत भौर रामायण हैं। हुंडो, कुंवरबाईनुं माभेरुं आदि 
नरसी मेहता के जीवन-वृत्तान्त पर आधारित है। इसका यह मतलब 
नही है कि प्रेमाननद रूपान्तर-कर्त्ता व अनुवादक कवि हैं। प्राचीन 
कथाओं पर आधारित काव्यों में कवि की मौलिकता का परिचय उन 
कथाओं के प्रस्तुतीकरण से मिलता है, न कि कथावस्तु से। इस दृष्टि 
से प्रेमानन्द ने अपनी मौलिकता तथा सर्जवशीलता का परिचय अपर्न 
रचनाओं मे सम्यक्‌-रूपेण दिया है । | 


प्रेमानन्द की भाषा प्रासादिक है। उन्होंने लोकरुचि का ध्यान 
रखते हुए अपनी कृतियों को बड़े नाटकीय ढंग से प्रस्तुत किया है। 
उनकी रचनाओं में वीर, श्ंगार, भवित जैसे रसो का उत्कट परिपोष हुआ 
है। उन्होने पुरानी कथाओं को तत्कालीन गुजराती लोक-जीवन के रंग 
में रंग दिया है। रीति-रिवाज, वस्त्राभूषण, खानपान की वस्तुएं, 
लोकाचार ओर कुलाचार आदि के चित्रण में कवि ने तत्कालीन गुजराती 
जन-जीवत का आधार लिया है। श्री अतन्तराय रावक्व ने कहा है-- 
प्रेमानन्द ने पुराण, महाभारत आदि से कथावस्तु ग्रहण की और उसके 
अस्थि-पजर में रक्त, मांस और प्राण गुजरात के भर दिये हैं। कविवर 
नानालाल ने कहा है-- प्रेमानन्द समस्त गुजराती कवियों में से 
(एकमात्र) पूर्णतः ' गुजराती ” कवि है। 


( १४ ) 


ये अनूदित रचनाएं 
१ ओखा-हरण 


£ ओखा-हरण ” का मूलाधार श्रीमद्भागवत पुराण के दशम स्कन्ध 
के बासठवे और तिरसठवे अध्याय मे वणित ऊषा-अनिरुद्ध के विवाह की 
कथा है। ऊषा दैत्यराज बलि के पुत्र बाणासुर की ( पोष्य ) पुत्ती 
मानी गयी है, और अनिरुद्ध है श्रीकृष्ण-रक्मिणी का पौत् तथा प्रद्यम्न 
शक्‍मवती का पुत्र । यह कथा कविजनों मे बहुत प्रिय रही है। इसके 
पूर्वाध॑ में श्रृंगार तथा उत्तरार्ध में वीररस के परिपोष की पर्याप्त 
गंजाइश है। अतः विभिन्न कविजनो ने अपने-अपने ढंग से अपनी-अपनी 
भाषा मे उसे काव्य-रूप में प्रस्तुत किया है। कवि प्रेमानन्द ने भी 
मूल सस्कृत कथा के मुख्य सूत्रो को लेकर अपनी ओर से इधर-उधर से 
जुटाकर अनेक छोटे-बड़े सूत्र जोड़ दिये और सबको अपने रण में रंगकर 
€ ओखा-हरण ” काव्य रूपी अनुपमेय पट का निर्माण किया। भागवत 
पुराण के इस अंश में कृष्ण-लीला का महिमा-गान है; उसमे कृष्ण पर 
ध्यान केन्द्रित है, जब कि “' ओखा-हरण ' सच्चे अर्थों मे ऊषा-अनिरुद्ध 
की कथा है। बाणासुर द्वारा शिवजी से वरदान और अभिशाप को 
प्राप्त करना, भोखा की उत्पत्ति, उमाजी द्वारा ओखा को अभिशाप देना 
और बाणासुर द्वारा ओखा को पुत्री-स्वरूप प्राप्त करना आदि घटनाओों 
का विशद वर्णन करते हुए कवि ने कथा की मुख्य घटना के लिए पृष्ठ- 
भूमि अंकित को है। इस काव्य में कवि श्वुगार और वीर रसो का 
चरम सीमा तक परिपोष करने में सफल हुआ। उसने युद्ध का अनूठे 
ढंग से वर्गन किया है। भअलवण ब्रत, गौरी-पुजन, हलदी लगाना, कंसार- 
सेवत, विवाह-विधि, बारात का आना और लोटना-- भादि के वर्णन में 
कवि के * समकालीन समाज के रीति-रिवाजों की स्पष्ट झलक दिखायी 
देती है--, इसलिए यह काव्य गुजराती समाज में काफी-लोकप्रिय हो गया 
है। अलोना ब्रत तथा गौरी-पुजन का माहात्म्य आज भी माना जाता 
है। इस काव्य को सामाजिक तथा सांस्कृतिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है, यह 
इससे स्पष्ट दिखायी देता है कि आज भी चेत्न मास में घर-घर ओखा-हरण 
का पठन किया जाता है। 


प्रेमानल्द ने ओखा, बाणासुर, अनिरुद्ध का चरित्र-चिंत्रण अनूठे ढंग 
से किया है। भोखा की विरह-व्यथा और भय-कातरता, बाणासुर का 
उग्रतम दम्भ मौर वीरता, अनिरुद्ध द्वारा आत्म-विश्वास और साहसपूर्वक 
संकटों का सामना करना आदि का अंकन देखते ही बनता है । 


जान पड़ता है कि प्रेमानन्द का मन ' ओखा-हरण ” में सच्चे अर्थों 


(१४ ). 


में रमा है। फल-स्वरूप, वह कृति पाठकों के हृदय में अविचल स्थान 
प्राप्त कर सकी है । ह 


२ नलोपाख्यान 


नलोपाख्यान ( नक्काख्यात ) प्रेमानन्द के आख्यान काव्यों में दूसरों 
लोकप्रिय रचना है। इस आख्यान का मूलस्रोत महाभारत के आरण्यक 
वा वनपर्व॑ का ' नलोपाझ्यान पर्व ” नामक ( उप- ) पववे ( अध्याय 
५२-७९ ) है। ओखा-हरण की कथावस्तु के गठन के विषय में जो 
कहा है, वह इस आख्यान के विषय मे भी कहा जा सकता है। प्रेमानन्द 
ने मुख्य कथावस्तु महाभारत से ली है,' फिर भी अपने काव्य में अपनी 
अनूठी सूझ्ष का परिचय दिया है। इस दृष्टि से नल और दमयनती के 
जन्म की कथा और उनके रूप का वर्णन, नल द्वारा दमयन्ती का 
परित्याग करने का कारण, दमयन्ती का दयनीय स्थिति में विलाप करना, , 
उसका अपनी मौसी के यहाँ आश्चिता बनकर रहना, ऋतुपर्ण को बाहुक 
द्वारा कुन्दनपुर के प्रति लाना, बाहुक-स्वरूप नल की दमयस्ती द्वारा परीक्षा 
करना आदि घटताओं की कुछ बातों के मूल-खोत नल-दमयन्ती पर 
लिखित अन्य आख्यान अवश्य है, फिर भी उनमें प्रेमानन्द ने अपने रंग 
उंडल दिये है। महाभारत के नलोपाख्यान के अनुसार नल अन्त में 
पुष्कर को यूत में पराजित करते है; प्रेमानन्द ने इस घटना को नहीं 
स्वीकार किया; परन्तु उन्होंते यही बताना उचित माना कि कलि द्वारा 
उकसाया हुआ पुष्कर कलि के नल द्वारा भगा दिये जाने पर, स्वयं 
उसके प्रभाव से मुक्त हो जाता है औौर नल की शरण में आ जाता है। 
अर्थात इसमें कोई शक नहीं कि प्रेमानन्द अपने पूकंवर्ती गुजराती 
कवियों से बहुत प्रभावित थे, वे भालण आदि के ऋणी है। 


इस काव्य में शुंगार, हास्य, करुण और अद्भूत रस की निष्पत्ति 
हुई है। नल ओर दमयत्ती के स्वभाव की विशेषताओं को स्पष्ट रूप 
से अंकित किया गया है। 


बृहदश्व ऋषि ने धर्मराज को नल-दमयस्ती की कथा मानव-जीवन 
का यह कद सत्य बताते हुए सुनायी थी कि जीवन में नियति बलीयसी 
होती है; उसकी कठोरता के शिकार बड़े-बड़े राजा-महाराजा, नल 
जैसे पुण्यश्लोक व्यक्ति भी होते है। उस कथा का यह सन्देश जन 
हा, तक पहुंचाने में प्रेमानन्द की यह रस-भीनी रचना समथ सिद्ध 
हुई है । 


( १६ ) 


३. सुदासा-चरित्र 


प्रेमाननद ने श्रोमद्भागवत पुराण-- दशम स्कन्ध के अस्प्ीवें मौर 
इक्यासीवें अध्याय से “ सुदामा-चरित्र ” के लिए कथावस्तु चुनी। कथा 
के मुख्य सूत्रों को अपरिवर्तित रखते हुए उन्होंने उसमें छोटे-बड़े परिवर्तन 
भी किये है, कुछ बातों का स्वरूप भी बदल दिया है। इन परिवतेनों 
से काव्य-सौन्दर्य की वृद्धि अवश्य हुई है। फिर भी कुछ आलोचको के 
अनुसार, सुदामा की प्रतिमा को कुछ हानि भी पहुंची है। यथालाभ- 
सन्तोष-प्रवृत्ति, अथाचक-ब्रत -दोनों अवश्य श्रेष्ठ है, परन्तु घर में पति तथा 
दस बच्चों के भरण-पोषण के भार को उठाते-उठाते थकान को प्राप्त हुई 
सत्नी को जब हम देखते है, तो घर में भूखे पेट पौढ़े रहनेवाले सुदामा 
पाठकों की सहानुभूति के विषय नहीं बने रहते। सुदामा की घर की 
दयनीय स्थिति का वर्णन, सुदामा-श्रीकृष्ण का ग्रुरुगृह में घटित घटनाओं 
के बारे में सम्भाषण, कृष्ण द्वारा उपहार माँगते समय तथा उनके द्वारा 
रिक्त हाथो से बिदा करने पर सुदामा को अनुभव होनेवाली व्याकुलता 
-इनसे काव्य-सोन्दय्य वृद्धि को प्राप्त हुआ है। कवि ने चरित्र-चित्रण 
करते समय सुदामा के स्वभाव के समस्त पहलुओं का ध्यान रखा है । 


प्रेमाननद का रचना-कौशल इस छोटी-सी कृति मे विकसित रूप में 
प्रकट हुआ है। यह कृति आज भी लोकप्रिय है। 


अलुवादक-परिचय 
प्रा० डॉ० गजानन नरसिह साठे 


एम्‌० ए (मराठी-अंग्रेजी-- बम्बई वि० वि० ), एम्‌० ए० (हिन्दी-- 
बनारस हिन्दू वि० वि०), पोएच्‌० डी (वम्बई वि० वि०), बी० टी०, 
तथा साहित्य-रत्न हैं। 'स्वयम्भु-कुत पउठम-चरिठ और तुलसीदास-कंत 
रामचरितमानस का; तुलनात्मक अध्ययन पर शोध-प्रबच्ध श्रस्तुत करके 
उन्होंने पीएच्‌० डी० को उपाधी 
प्राप्त की। ग्यारह साल पूना के 
माध्यमिक विद्यालयों मे अध्यापक के 
नाते .काम करने के पश्चात बम्बई 
के रा० आ० पोददार वाणिज्य 
महाविद्यालय में हिन्दी विभाग के 
व्याख्याता तथा अध्यक्ष के पद पर 
नियुक्ति हुई । साथ ही उस महा- 
विद्यालय के जूनिअर कॉलेज विभाग 
के वे छः वर्ष प्रधानाचार्य भी रहे और 
अप्रैल १९८२ में उन्होंने अवकाश 
ग्रहण किया । उससे पहले कुछ 
महीने वे उपर्यृक्त महाविद्यालय के 
उपप्रधानाचाय भी थे। उनका, नीचे 
डॉ० गजानस नर्रासह साठे लिखे अनुसार विशिष्ट कार्य हैः-- 


१ राष्ट्रभाषा प्रचार संस्थाओं तथा पाठशालाओं के लिए अनेक 
हिन्दी पोढ्य-पुस्तकों का लेखन-सम्पादन, २ बम्बई वि० वि० के हिन्दी 
विभाग द्वारा सचालित स्नातकोत्तर कक्षाओं में अध्यापन, ३ मराठी-हिन्दी 
मे अनेकानेक लेखों का लेखन, ४ हिन्दी शिक्षक सनद, डिप. एड की 
कक्षाओं में अध्यापन, ५ आकाशवाणी तथा दूरदशन द्वारा आयोजित 
कार्यक्रमों मे भाग लेना, ६ राष्ट्रभाषा प्रचार की विभिन्न प्रवृत्तियों में 
भाग लेना, ७ हिन्दी प्रचारकों-- अध्यापको के अनेक शिविरों में, ' अखिल 
भारतीय रामायण मेला ” में, अहिन्दी-भाषी हिन्दी लेखकों की ग्रोष्ठियों में 
सहभाग, मराठी-स्वय-शिक्षक, राष्ट्रभाषा का अध्यापन जैसी पुस्तकों का 
लेखन, मराठी रामविजय तथा हरिविजय का हिन्दी गद्यानुवाद; गुजराती 
गिरधर रामायण तथा प्रस्तुत पौराणिक आख्यानमाला “प्रेमानन्द रसामृत” 
का डॉ० दीनेश भाई भट्ट के सहयोग से हिन्दी गद्यानुवाद । इत्यादि । 





कं, 


डॉ० गजानन साढे भुवन वाणी ट्रस्ट की विद्वत्‌-परिपद्‌ के वरिष्ठ 
सदस्य एवं अहनिश कार्यरत आजीवन न्यासी हैं । 


प्रा० डॉ० दीनेश हरिलाल भट्ट 


मूलतः गुजरात के अमरेली जनपद के निवासी है। वे शिक्षा-दीक्षा 
के लिए वम्बई आये और अब वम्वई के निवासी हो गये हैं । उन्होंने 
वम्बई विश्वविद्यालय से ग्रुजराती में 
एम्‌०ए० किया और तदनन्‍्तर गुजराती 
भाषा भोर साहित्य का अध्यापन 
आरम्भ किया । अध्यापन काय॑ के 
साथ ही उन्होने अध्ययन जारी रखा 
और ' कवि मूलशकर मूकानीना नाटकों 
बने ग्रुजराती रगभूमना विकासमा 
फाछो ' विषय पर शोध प्रवन्ध लिखकर 
(गुजराती में) पीएच्‌ू० डी० की 
उपाधी प्राप्त की । डॉ० दीनेश भाई #. | बह ४ 
हिन्दी के ज्ञाता हैं और उन्होने राष्ट्र. ; ”..  ., ८: 
भाषा प्रचार समिति, वर्धा की  राष्ट्र- 
भाषा-रत्न ' परीक्षा उत्तीर्ण की है। 
हिन्दी के अलावा वे मराठी के भी 
जानकार है। 


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पिछले लगभग बीस साल वे डॉ० दीनेश हरिलाल भट्ट 

बम्बई के रामनारायण रुइया महाविद्यालय में ग्रुजराती पढ़ाते है और 
फिलहाल गुजराती विभाग के अध्यक्ष है। शुरू में उन्होने रा० आ० 
पोद्दार वाणिज्य महाविद्यालय, वम्बई १९ मे भी अध्यापन किया था। 
वम्बई 30% के गुजराती विभाग द्वारा संचालित स्नातकोत्तर 
कक्षाओं में भी वे अध्यापन करते है। डॉ० दीनेश भाई को नाटक- 
साहित्य तथा नाट्याभिनय में विशेष रुचिहै। वे स्वयं भच्छे अभिनेता 
हैं, 0222 उन्होंने अनेक नाटकों में अभिनय किया है। अभिनय के 
अति रिक्त उन्होंने पायानों पत्थर, मानवी बनीएं, माफ करजो भा नाटक 
हशैज आदि अनेक गुजराती एकांकियों तथा रेडियो-रूपको की रचना की 
है; रेडियो तथा टी० बी० कार्यक्रमों में भाग लिया है। भवन वाणी ट्रस्ट 
द्वारा प्रकाशित गुजराती गिरधर रामायण तथा प्रस्तुत पौराणिक 
आड्यानमाला “अ्रेमानन्‍द रसामृत” (न्ागरी लिप्यन्तरण तथा हिन्दी 
गद्यानुवाद ) के अनुवादको में से एक हैं। पे 


52 


प्रकाशकीय प्रस्तावना 


देवनागरी अक्षयवट 

भवन वाणी ट्रस्ट के 'देवनागरी अक्षयवट' की देशी-विदेशी प्रकाण्ड- 
शाखाओं मे, संस्कृत, क्षरबी, फारसी, उर्दू, हिन्दी, कश्मीरी, गुरमुखी, 
राजस्थानी, सिन्धी, गुजराती, मराठी, कोकणी, मलयाक्षम, तमिक्क, कन्नड, 
तेलुगु, ओड़िया, बँगला, असमिया, नेपाली, माग्रधो, मैथिली, अंग्रेजी, हिन्र्‌, 
ग्रीक, अरामी आदि के वाहुमय के अनेक अनुपम ग्रन्थ-प्रसुन और किसलय 
खिल चुके है, अथवा खिल रहे है । 


हमारे विद्वान-हय 

इस नागरी अक्षयवट की ग्रुजराती शाखा में 34४ यह प्रेमानन्द- 
रसामृत दूसरा पल्लव-रत्न है। इससे पूर्व, सन्‌ १९७८ ई० में, १४६० पृष्ठों 
का बृहदाकार “गिरधर रामायण” भुवन वाणी ट्रस्ट से प्रकाशित हुआा था। 
वे ही दो विद्वान, डाँ० गजानन नरासह साठे और डॉ० दीनेश भट्ठ, दोनों 
ग्रन्थों के सर्वाज्भा सफल अनुवादक एवं लिप्यन्तरणकार है। वाणी के साधक 
श्रमशील इन विह्वस्मृर्धन्य-उभय का विस्तुत परिचय एवं कार्य-कलाप, 
पृष्ठ १७-१८ पर प्रस्तुत है । ' 


डा० साठे-जैसे, कमंठ सहायक ट्रस्ट के लिए स्तम्भ-स्वरूप है । 
भाषाई सेतुबन्ध का कार्यभार अह॒निश जितना उन्होंने सम्हाल रखा हैं, वह 
भगवान की ओर से हमारे लिए वरदान है। उनको पाकर हम गौरव 
अनुभव करते है । 


विश्वबन्धुत्व और राष्ट्रीय एकीकरण के संदर्भ में लिपि और भाषा 


भूमण्डल पर देश-काल-पात्न के प्रभाव से सानव जाति, विभिन्न 
लिपियाँ और भाषाएँ अपनाती रही है। उन सभी भाषाओ में अनेक दिव्य 
वाणियाँ अवतरित है, जो विश्ववन्धुत्व भौर परमात्मपरायणता का पथ- 
प्रदर्शन करती है, किन्तु उन्न लिपियो और भाषाओं से अपरिचित होने के 
कारण हम इस तथ्य को नही देख पाते। अपनी निजी लिपि और अपनी 
भाषा में ही सारा ज्ञान और सारी यथार्थता समाविष्ट मानकर, दूसरे 


चाषा-भाषियों को उस ज्ञान से रहित समझते हुए हम भेद-विभेद के भ्रम- 
जाल में भ्रमित होते है | 


भूमण्डल की बात तो दूर, हमारे अपने देश 'भारत' में ही अनेक 
भाषाएँ और लिपियाँ प्रचलित है। एक ब्राह्मी लिपि के मूल से उत्पन्न 
होने के बावजूद उन सबसे परिचित न होने के कारण हम अपसे को परस्पर 


(३० ) 


विघटित समझने लगते है। किस्तु सारी लिपियाँ और भाषाएँ सीखता- 
समझना भी सम्भव नही है। सुतरां, यथासाध्य विश्व, और अनिवायंतः 
स्व॒राष्ट्र की सभी भाषाओ के दिव्य वाइग्मय को राष्ट्रभाषा हिन्दी और 
सम्पर्कलिपि नागरी में सानुवाद लिप्यन्तरित करके, क्षेत्रीय स्तर से बढ़ाकर 
उसको सारे राष्ट्र को सुलभ कराना, समस्त सदाचार-साहित्य-निधि को 
सारे देश की सम्पत्ति बनाना, यह संकल्प भगवान की प्रेरणा से सन्‌ १९४७ 
में मैंने अपनाया, और इसी उद्देश्य की पूति हेतु १९६९ ई० में 'भुवन 
बाणी ट्रस्ट' की स्थापना हुई । 


विश्वबन्धुत्व के सम्बन्ध में टूस्ट की अपेक्षाएँ . 

ट्रस्ट की यह मान्यता है कि धरातल का समस्त वाडम्मय मानवमात्र 
की सम्पत्ति है। विज्ञान का कोई अन्वेषण किसी भी भूभाग में हुआ हो, 
वह मानवमात्र की मिल्कियत हो जाता है। टेलीफोन, वायरलेस, वायुयान 
का उपयोग करते समय कोई यह विचार नही करता कि यह उपलब्धि 
किस देश की बदौलत है। लिपि, भाषा, ज्ञान सकल धरातल की सम्पत्ति 
है। लिपि और भाषा के पट को अनावृत कर सकल ज्ञान-भण्डार को 
सर्वसुलभ बनाना चाहिए। इससे, भले ही मानव की पार्थेक्य-भावना का 
मूलनाश न हो, परन्तु एकीकरण की ओर कतेंव्य करते रहना हमारे लिए 
श्रेयस्कर है। छोटे से भी छोटा सत्काय॑ कभी व्यर्थ नही जाता, नष्ट 
नही होता-- 


“पार्थ नवेह नामुत्र विनाशस्तस्थ विद्यते। 
नहि कल्याणक्ृत्कश्चित्‌ दुर्गति तात गच्छति ॥ 
न्गीता ६:४० 


नागरी लिपि पर उत्तरदायित्व 


अतः नागरी लिपि पर यह उत्तरदायित्व ठीक ही रहा कि राष्ट्र की सभी 
लिपियो के साहित्य को नागरी जामा पहनाकर उसको राष्ट्र भर में फैलाए । 
देश का सकल साहित्य देश के कोने-कोने मे सुपरिचित हो । नागरी लिपि 
का ही फलाव इतना विशाल है कि इस उत्तरदायित्व को वहन कर सके । 


गुजराती-नागरी में साम्य 


परन्तु सोभाग्य से यही सामथ्यं गुजराती लिपि को भी प्राप्त है। 
गुजराती लिपि प्रायः नागरी के समान है। वहुत थोड़े अक्षर ऐसे है, 
जो नागरी से कुछ भिन्नता रखते है। उनमे भी “क” आदि कुछ ऐसे 
है जिनको एक समकोण घृमा देने से वे नागरी वर्णो का रूप ले लेते हैं । 
नागरी लिपि के मस्तक से शिरोरेखा हटाइए, समझिए गुजराती लिपि की 


(२१ ) 


अनुपम छवि सम्मुख है। गुजरातो क्षेत्र को भी यह गौरव स्वत: उपलब्ध 
है कि वह अधिक से अधिक विभिन्न भाषाई साहित्य को हे अक्षरों का 
परिधान देकर राष्ट्रलिपि अथवा राष्ट्र की समस्त भाषाओं में जोड़लिपि 
का स्थान ग्रहण करे। जो यश नागरी लिपि को प्राप्त है वही यश 
गुजराती लिपि को भी प्राप्य है। एक-रूप हैं, दोतो का समान आसन है । 


सहषि दयानरद सरस्वती और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी 


सामाजिक, राजनतिक और धामिक, इन तीन के दुरुपयुक्त पाश 
में बँधा 'भारत' कराह रहा था, जब इन विश्ववन्दनीय दो युगपुरुषों का 
सौराष्ट्र की पावन भूमि मे उदय हुआ । बिगड़े हुए धामिक संस्कारों को 
मिटाकर, सामाजिक भेदभाव और सकीण्णता से सारा देश मुक्त हुआ। 
हजारों वर्षों से चली आ रही गुलामी से आज़ाद भारत में एकच्छत्त 
जनतंत्न की स्थापना हुई। लोकप्रख्यात इन महापुरुषों की बदौलत भात्म- 
स्वातंत्र्य की यह स्थिति समग्र देश को प्राप्त हुई, न केवल उनकी जन्मभूमि 
सोराष्ट्रको । इससे यह निष्कषं तो नहीं कि उनको अपनी जन्मभूमि 
प्रिय न थी। वे समझते थे कि यदि विश्व का कल्याण है तो अपने राष्ट्र 
भारत का कल्याण है। और जब राष्ट्र का कल्याण है, तब जन्मभूमि 
सौराष्ट्र अथवा सभी भारतीय अज्चलों का कल्याण है। “वसुधैव कुटुम्बकम्‌' 
भारत का यही नारा रहा और है । 

भाषा और लिपि के मामले में भी इन दोनों महात्माओं ने सही 
कदम उठाया । बहुभाषाई विशाल देश को एकसूृत्र-बद्ध रखने के लिए, 
सब भारतोय भाषाओं की उत्तरोत्तर समुन्नति के साथ, नागरी लिपि और 
हिन्दी भाषा को जोड़ के लिए चुना । 


नालन्दकालीन हमारा भाषा-उत्कषे 


पुरातन काल में भी भारतीय लिपि और तत्कालीन सर्वोत्किष्ट संस्कृत 
भाषा ने न केवल भारत, वरन्‌ “ग्रेट एशिया” के विशाल अन्य देशों को 
ज्ञान और सस्कृति प्रदान की । 


नालन्द विश्वविद्यालय में दूर-दूर से विद्वात और अनेक राज्यों के 
प्रतिनिधि आकर शिक्षा ग्रहण करते थे । वे वहाँ से भारतीय लिपि (आज 
की भारतीय लिपियों का पूर्व रूप) सीखते थे और अपने देशों में उसी 
लिपि के आधार पर लिपि की सर्जना करते तथा संस्कृत भाषा के अपरिमित 
ज्ञान-भण्डार को उसी लिपि में लिप्यन्तरित अथवा अनूदित करते थे। 
अन्य देश हमारी लिपि को ग्रहण कर गौरव अनुभव करते थे, जब कि विदेश 
तो दूर, अपने देश में ही आज अपूर्ण और भअवैज्ञानिक विदेशी लिपि का 
गुणगान किया जा रहा है। यह क्यो ? 


(२२ ) 


भाषाई सेतुकरण का सा 

शासन और जनता, दोनो की भाषाई नीति है कि सभी भारतीय 
लिपियाँ और भाषाएँ सदैव बरकरार रहे, क्योकि उनमे भारतीय ज्ञान का 
अपार कोष वर्तमान है। साथ ही वह अपार ज्ञान का भण्डार क्षेत्रीय 
भाषाञ्चल से उठकर समग्र राष्ट्र को लाभान्वित करे, इसलिए एक जोड़ 
लिपि आवश्यक है। और सभी भारतीय अचज्चलो में कमोबेश अपनी 
पैठ रखनेवाली नागरी लिपि ही इसके लिए उपयुक्त है। नागरी लिपि 
को यह कोई श्रेष्ठता प्रदान नहीं की जा रही है, वरन्‌ एक सेवा उसके 
सिपुर्द है। यह न भूलना चाहिए कि नागरी भी एक ही ब्राह्मी लिपि से 
उदभत अन्य सभी भारतीय भाषाओं की सम-समान एक परिवार की इकाई 
है। नागरी लिपि के माध्यम से अन्य सभी भाषाओं का वाहुमय भी पढ़ा 
जाय | 


हमारी लिपि का देश से बाहर विश्व में प्रसार 

भारतीय लिपि ताडपत्न और भोजपत्न मे पृथक्‌ लिखी जाने तथा 
देश-काल-पात्न के अनेक प्रभावों के फलस्वरूप मिलते-जुलते अनेक रूपों में 
प्रचलित है। यदि हम आज संगठित और केन्द्रित होते है तो विश्व भी 
हमारी लिपि को आदर के साथ ग्रहण करेगा । भारत की लिपि आज के 
मानव के पूर्वजों की सृष्टि है। मानवमात्न का उस पर समान अधिकार 
है। जब हम समृद्धि के उत्कर्प पर थे, तब हमारी लिपि और भाषा का 
विश्व में स्वागत हुआ, प्रसार हुआ। उसका नमूना पृष्ठ २३-२४ पर देखिए । 


तिब्बती लिपि 


तिव्वती लिपि के कुछ नमूने हम दे रहे है। सहस्रों वर्ष पूर्व 
हमारी लिपि की नुकीली रेखा वाली पद्धति भारत में मागधी, मैथिली, 
असमिया, बंगला, वर्मी (ब्राह्मो) में प्रचलित होने के साथ नेपाल, भूठान, 
तिब्बत और तत्काल के समृद्ध देश तिब्वव से चलकर मंचूरिया, 
मगोलिया, चीन, जापान तक पहुँची । यही नहीं, सामान्य अन्तर के साथ 
उन देशो में ग्रहीत भारतीय लिपि में संस्कृत के अगणित ग्रन्थ अनुवादित 
किये गये । पाठकों की जानकारी के लिए नीचे कुछ उदाहरण प्रस्तुत है:-- 


भोटिया (तिव्बती) लिपि के नमूने 


लगभग सातवी शताब्दी में चीन और तिब्बत से विद्वानों ने भारत 
आकर शिक्षा ग्रहण की । उस समय तक तिब्बत में कोई लिपि प्रचलित 
नथी। उन्होने भारतीय लिपि अपनाई और कालान्तर में उनके देश में 
उस भारतीय लिपि में सामान्य से अन्तर आते रहे । 


कै 


संस्कृत अनुवाद: 


में 


लिपि 


का 
धः 


भारत -की लिपि के आधार पर बनी तिब्बतीः 


नास्ति प्रज्ञासमं चश्चुनोस्ति मोहसम तमः। कु 
नास्ति शेगलमः शत्रुर्नास्ति ख्॒त्युसमं भय ॥ 
] सेव ईंट सु | 
॥ $25. (२७४. 5003. 8७॥ 
॥ नज्ञादुण्डः ॥ 


| 
चैश््यरपग१का गैंग करने | 
$68.7व>.0 87 .77 . प़रां2. पाल्ते .62 । 
प्रज्ञा- सर्म चक्षुः नास्ति 
औटश'ण'र८%ा - छुदाणा कर | 
77078.]08 तथा ,ग्रिध्या पापा) .]08 . 76वें । 
मोह- सम तमः नात्ति। 
व्प्ठ्पाणै समा गेम | 
एव .0॥78 .)99 .9. पे878.90. 77८वे । 
रोग-समः शत्रः नात्ति | 
ग्के 'गारए'टग्णा गहिमुशाणा केश || 
0०,०४६ .पैधा) गधा. ]88.]08 . 7760 ॥ 
मृत्यु- सम॑ भय॑ नास्ति॥ ॥05 


नागरी लिपि के स्वरों का तिब्बती लिप्यन्तरण में प्रयोग 


ण्प ०१ ३, छ्श्‌ 2 

त्ड्‌ 5 ० हट ह्प्‌ 
के ऐ. ओ ञ श्र श्र. | 
ते तू णे हें छे में एाः णह। 


२४ नागरी लिपि के व्यञ्जनों से लिये हुए तिव्बती व्यझ्जन 


कक ख़ ग चर ड। नव छ््ज का भन। 
ग | मा ६4 £ | श् ठ ट्ट है 9] 
ट ड ढ़ णा। त थ. द्‌ (2॥ न। 
सर दर मन 
हा हज 5 मर 2: | 
प्‌ फ व भ स्व य र्‌ ल च। 
ण्यं ख्यग हे 5] ण्णु ्ु श्र भ] 


नशा पृ सर ह्‌ च्त्त। 
गा 
॥ ४७ हब 9 एा। 


तिब्बती लिपि मे “अ', स्वर नही, व्यञ्जन के रूप मे प्रयुक्त होता 
है। “क्र” मे भी स्वर की मावाएँ लगती हैं। घ, झ, ढ, ध और भ का 
उच्चारण प्रयोग मे नही आता। किन्तु ससूकृत ग्रन्थों का लिप्यन्तरण 
करते समय ग, ज॑, ड, द और व के नीचे हु लगा कर इन व्यञ्जनो को गढ़ 
लिया है। (कलकत्ता यूनिवर्सिटी से प्रकाशित “ भोटप्रकाश. ” से साभार ।) 


आधार-प्रदर्शन 
सदाशय श्रीमानो भोौर उत्तरप्रदेश शासन (राष्ट्रीय एकीकरण 
विभाग) के प्रति हम आभारी है, जिनकी अनवरत सहायता से “भाषाई 
सेतुकरण' के अन्तगेंत अनेक ग्रन्थों का प्रकाशन ,चलता रहता है। वे 
विधिध भाषाई ग्रन्थ नागरी कलेवर में सारे भषाई अञ्चलों में जगमगा कर 
राष्ट्रीय एकीकरण की ज्योति को प्रदीप्त कर रहे है । 
सौभाग्य की बात है कि भारत सरकार के राजभाषा विभाग (गृह 
मंत्रालय) तथा शिक्षा एवं सस्क्ृति मंत्रालय ने राष्ट्रभाषा हिन्दी-सहितत सभी 
भाषाओं की समृद्धि और व्यापकता के लिए एक जोडलिपि “नागरी” के 
प्रसार पर उपयुक्त वल दिया । उनकी सहायता से कवि प्रेमानन्द प्रणीत 
ग्रन्थरत्त “प्रेमानन्द रसामृत” का यह प्रकाशन प्रस्तुत वर्ष मे सम्पूर्ण हुमा है । 
विश्ववाध्मय से निःसृुत अगणित भाषाई धारा। 
पहन नागरी-पट, सबने अब भुत्तल-म्रमण विचारा ॥! 


जमर भारती सलिला फी “गुजरातो” पावन घारा। 
पहन नागरी पठ, उसने अब भुतल-श्रमण बिचारा॥ 


नन्‍्दकुसार अवस्थी 
प्रतिष्ठाता, भुवन वाणी दृस्ट, लखनऊ--३ 


प्रेमानन्‍्द-रसामृतत 





कडवुं १.लुं--(वन्दना-प्रकरण ) 
राग रामग्री 
श्रीगुरुगो विदने चरणे लागूं जी, गणपति शारदा वाणी मागुं जी, 
अंतर्गंतमां इच्छा छे घणी जी, भावे भाखु कथा हरितणी जी । 
जे सांभछृतां सुख थाये जी, मननी ते चिंता जाये जी, 
चतुर्देश लोक जेहने माने जी, तेना गुण शुं लखीए पाने जी ?। १ ॥। 





कड़वक १--( वन्दना प्रकरण ) 


मैं (भगवान) श्रीगोविन्द-स्वरूप श्रीगुरु के पाँव लगता हूँ। मैं 
श्रीगणेशजी और शारदा (सरस्वती के पाँव लगते हुए उन) से (दान 
के रूप में) वाणी (वाक॒शक्ति) माँगता हूँ। मेरे अन्तःकरण मे बड़ी 
इच्छा है कि मै श्रीहरि की कथा (श्रद्धा-) भाव-पूर्वक कह दूँ, जिसे सुनने 
पर (श्रोताओं को) सुख (प्राप्त) हो 'जाता है और उनके मन की'चिन्ता 
(दूर हो) जाती है। जिनको चौदहों लोक' (सर्वोपरि) मानते है, 
उनके गुणों को (कागज के) पृष्ठ पर क्‍या लिख दें ? | १ 


१ चौदह लोक : (अधोलोक--) अतल, वितल, सुतल, महातल, तलातल, 
रसातल ओर पाताल, (मध्यलोक--) भूलोक अर्थात्‌ पृथ्वी; (ऊध्वेलोक-) 
भुव्लोक, स्व्लोक, महलोंक, जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक | 


२६ गुजराती (नागरी लिपि) 


ढाढ्ध 


पाने ते लख्या जाये नहि, श्रीगणेशना ग्रुणग्राम, 
सकछ कारज सिद्धि पामे, मुखेथी लेतां नाम। २ | 
गिरिजानन्दन गजनासिका, वक्ती दंत उज्ज्वक एक, 
आयुध फरसी कर ग्रही, जेणे हण्या असुर अनेक । ३ ॥ 
गुद्ध (सिद्ध) बुद्ध वे श्यामा छे, सुत लाभ ने वढ्ी लक्ष, 
सिंदूर अंगे शोभीतूं, मोदक अमृत भक्ष। ४ । 
नीलांबर पीतांवर पहेया, चढ़े सेवंत्नां सेव, 
मारा प्रभजीने प्रथम पूजीए, जय दुंदाक्को देव। ५ । 





श्रीगणेशजी के गुण-समुदाय (कागज के) प्रृष्ठो पर नहीं लिखे 
जा सकते । मुख से उनका नाम लेने से समस्त कार्य सिद्धि को प्राप्त 
हो जाते है। २ गिरिजा अर्थात्‌ पाती के पुत्त॒ गणेशजी की नाक हाथी 
की (सूँड) -सी है। इसके अतिरिक्त, उनका एक (मात्र) दाँत' 
उज्ज्वल है। उन्होने परक्षु (जेसे) आयुध को हाथ में भ्रहण किया है, 
जिससे उन्होने अनेक असुरो' का वध किया। ३ उनके (दोनो ओर) 
सिद्धि और बुद्धि (नामक) दो श्यामाएँ अर्थात सुन्दर स्त्रियाँ है, जिनसे 
उनके “लाभ ' तथा उसके अतिरिक्त “लक्ष्य / नामक (दो) पुत्र 
(उत्पन्न) हो गये ।। उन (गणेणजी) के अग में (विलेपित) सिन्दूर 
शोभायमान है । अमृत की भाँति मधुर मोदक उनका खाद्य है। ४ 
उन्होने नीलाम्बर (नील वस्त्न) तथा पीताम्बर (पीला वस्त्र) पहन लिये 
है। उनकी सेवा में श्रीवर्धनी ' जाति की सुपारियाँ समपित होती है । 
(इस प्रकार के) भेरे प्रभु (श्रीगणेशजी) का (सर्वे-) प्रथम पूजन करें। 
तोद-धारी देव (श्रीगणेशजी) की जय हो । ५ है गौरी-नन्दन, हे विश्व के 


१ एक दात--पौराणिक मान्यता के अनुसार श्रीगणेश का एक दाँत खण्डित 
है, उसके टूट जाने के विपय में अनेक कथाएँ बतायी जाती हैं। उन्होने अपने दन्त 
खण्ड को अपने भायुध के रूप मे ग्रहण किया है। एक दाँत के टूट जाने पर उनका 
एक ही दाँत शेप है। (कहना न होगा कि गणेशजी के ' गज-मुख ” होने के कारण 
हाथी की भाँति उनके मूलतः दो ही दाँत श्रे ) यहाँ पर उनके एकमात्न छ्षेप दाँत के 
उज्ज्वल वर्ण की ओर सकेत है । 

२ परणु, अकुश आदि आयुधो से श्रीगणेशजी ने अनेक असुरो का वध किया, जैसे-. 
सिन्दूरासुर, गजासुर, खड़ग, कमलासुर, इत्यादि । 

३ सिद्धि-बुद्धिलक्ष्य-लाभ--तात्निको के अनुसार, गणेशजी की सिद्धि और बुद्धि 
नामक दो शक्ति-स्वरूपा स्त्रियाँ मानी जाती है, यह भी कल्पना की गयी है कि 
गणशजी के सिद्धि से लक्ष्य ओर बुद्धि से लाभ दो पुत्र उत्पन्न हुए। 


प्रैमाननद-रसामृत (ओखाहरण) २७ 


गौरीनंदन विश्ववंदन, भीडभंजन देव, .., 
तेत्रीस क्रोडमां दीपतो, सुर-तर करे तारी सेव। ६ । 
सेवूं. ब्रह्मतनया सरस्वती, . रूप-मनोहर मात, . 
तूं ब्रह्मचारिणी भारती, तुं वैष्णवी विख्यात। ७.। 
शेत वस्त्र ने श्वेत वपु, श्वेत वाहन हंस, 
विश्वंभरी वरदायिनी, करे कोटि विध्ननो ध्वंस। ८.। 
करुणाकटाक्षी कमलनयतनी, कमतभू. कन्याय, , .' 
वेद कर्म (८ क्रम) जठा उपनिषद, धर्मेशास्त्र ने न्‍्याय। ९ । 
ब्रह्मविद्या. ने योगविद्या, पुराण अष्ठादश, “: 
गान तान रसाल ' ताल, ए सर्व तारे वश। १०। 





लिए वन्दनीय, हे सकटो का नाश करनेवाले देवता, आप तैतीस .करोड़ 
देवों मे (सर्वाधिक) दीप्तिमान है। सुर' और नर आपकी सेवा करते 
है। ६ (अब) हे ब्रह्मा की तनया सरस्वती, हे मनोहारी रूप-धारिणी 
माता, मै आपकी (स्तुति-स्वरूप) सेवा करता हँ। आप ब्रह्मचारिणी" 
हैं, भारती अर्थात्‌ वाणी की देवी है; आप विख्यात वेष्णवी (शक्ति- 
स्वरूप) है । ७ आपने श्वेत वस्त्र. धारण किया है और आपकी देह 
गौर (वर्ण की) है। आपका वाहन श्वेत हस है। आप विश्वम्भरी 
अर्थात्‌ विश्व क। भरण-पोषण करनेवाली है, वरदायिनी है। . आप कोटि 
(-कोटि) विघ्तो को नष्ट करती है। ८5 आप करुणा भरे कटाक्षवाली 
है, कमल-सदृश नेत्न-धारिणी है। आप कमलोद्भव अर्थात्‌ ब्रह्मा की 
कन्या है। वेद, क्रम और जठा*, उपनिषदे, धर्मशास्त्र और न्याय, ब्रह्म 
(-ज्ञान-प्राप्ति सम्बन्धी ) विद्या (त्रह्म-शान सम्बन्धी विद्या या शास्त्र) 
और योग-विद्या (योग-शास्त्र), अठारह पुराण, रसात्मक गायत, तान 

(अलाप ), ताल-- ये सब आपके वश है। ९-१० दोहा, गाथा और 


१ 'ब्रह्मचारिणी” संज्ञा से सरस्वती का भी बोध होता है । 


२ क्रम-जठा--बेदो के पठन के चार प्रकारों मे से एक प्रकार : क्रम * है; 
जिसके अनुसार सहिता के दो पदो की सन्धि करके उसका विशिष्ट क्रम बे पद्म किया 
जाता है । दूसरे एक प्रकार को “जठा” कहते है, जिसके अनुसार संहिता के 
उपयुक्त संघधि-कृत दो पदों से आगे का तीसरा पद जोडते हुए क्रमानुसार पूर्व और 
उत्तरपद पहले पृथक्‌-पृथक्‌ और फिर मिलाकर दो बार पढें जाते है । ह ' 

३ अठारह पुराण-ब्रह्म, पदुम, विष्णु, वायु (अथवा शिव), लिंग, गरुड, तारद 
भागवत, अग्नि, स्कन्द, भविष्य, ब्रह्म-वैवर्त, सार्केण्डेय, वासन, वराह, मत्स्य, कम 


और ब्रह्माण्ड । (ये महापुराण कहलाते है। इनके हे 
धर्मोत्तर आदि अठारह उपपुराण है )) कु ताज | अतिरिक्त, देवी, वेर्प; विष्णु- ; 


श्८ गुजराती (नागरी लिपि) 


दुहा गाथा ने कवित, कथा छंद भेद ने नाद, 
ए तरंग तारा सरस्वती, छे शब्दना संवाद। ११। 


चतुर्भज ने चातुरी, वर्णवुं तारा न्यास, 
वेशंपायन ने वाल्मीकि, तुंने माने वेदव्यास। १२। 


सं>त 202 मकर जा मिट की जि लि पीले श ली 3 जे कपल कि कक 
कवित्त (जैसे छन्द), कथा, छल्दों के भेद और नाद, शब्दों के सम्बाद 
(सुसंगति-पूर्ण रचना) --हे सरस्वती, ये (समस्त) आपकी तरंगे है। ११ 
आप चतुर्भुज (-धारिणी) है, चतुर है। मैं आपके न्यास का वर्णन 
करता हूँ। वैशम्पायन' और वाल्मीकि, वेद व्यास” आपको मानते 
है। १२ जेमिनी” और पुराणों के वर्णन-कर्ता सुत' पर आपकी कृपा हो 


१ वैशम्पायन--ये मह॒पि व्यास के चार वेद-प्रवर्तक शिष्यों में से एक थे, ये 
कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय सहिता के प्रणेता थे। उन्हें सम्पूर्ण यजुर्वेद का ज्ञान प्राप्त 
था। इन्होने ऋग्वेद के कई मत्नो की नयी व्याख्या भी प्रस्तुत की । विशम्प वश 
में उत्पन्न होने के कारण इन्हे 'वैशम्पायन” कहते हे । 


२ वाल्मीकि--एक मान्यता के अनुसार वाल्मीकि मूलत. एक दुराचारी दस्यु 
ब्राह्मण थे, जो मुनियो के सदुपदेश से तपस्या करके मह॒पि पद को प्राप्त हो गये। 
तपस्या मे लीन रहने पर उनके शरीर पर बलमीक अर्थात बमीठा तैयार हो गया। 
कुछ दिन बाद उन्ही उपदेशक मुनियों के कहने पर वे वलमीक से बाहर आ गये; तब 
से वे वाल्मीकि नाम से विख्यात हो गये। उन्होंने संस्कृत के सर्वप्रथम महाकाव्य 
रामायण की रचना की, अत: वे आदि कवि कहलाते है । 


३ वेदव्यास-ये मह॒पि पराशर के सत्यवती (अर्थात्‌ काली) नामक एक 
धीवर-कन्या से उत्पन्न पुत्र थे। इन्हे कृप्णद्वपायन भी कहते है । इन्होने महाभारत 
की रचना की । वेदो का विभिन्न सहिताओ में विभाजन तथा शिप्य-परम्परा द्वारा 
वेदो की रक्षा की सुव्यवस्था आदि इनके विशिष्ट कार्य है। इससे उन्हें वेदव्यास 
कहा जाता है । 


४ जेमिनी-ये वेदव्यास के शिष्य थे। ये कौत्स-कुलोत्पन्न थे। ये युधिष्ठिर 


के यज्ञ मे ऋत्विज के रूप मे उपस्थित थे। इन्होने जैमिनी-अश्वमेध, जैमिनी-सूत्र 
आदि की रचना की । 


# सृत--रोमहपंण सूत को समस्त्न पुराणों का आय्य कथन-कर्ता माना जाता है । 
वेदो का पुनर्गठन और पुराणों की रचना करके वेदव्यास ने अपने शिष्य सूत को समस्त 
पुराण सिखाये। उसके पर्चात्‌ सूत ने समस्त पुराणो की आय-सहिता तैयार की । 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण) प्र 


ज॑मिनी ने सूत पुराणिक, तेने क्ृपा तारी हवी, 
तें जट भट्ठाचायं कीधो, काछिदास कौीधो कवि । १३। 
करुणाल्ुु तूं ने दयात्ठु तूं, हुँ किकर तारो माय, 
रंक जाणी आप्य वाणी, ग्रंथ पूरण थाय। १४। 
सहकार-फछ वामणो इच्छे, अपंग तरवा सिंध, 
तेम दास तारो हुं इच्छे छं, बांधवा पदबंध । १५॥। 


वलण (तज्े बदलकर ) 
पदबंध बांधूं कथा केरो, आख्यान ओखाहरण रे; 
वदे विप्र प्रेमानंद मागूं, मा, करो ग्रंथ संपूर्ण रे। १६। 


गयी । आपने ही जठट' ( < जड़) नामक एक ब्राह्मण को (अपनी कपा से ) 
भट्टाचार्य (पण्डित और दर्शनशास्त्र का ज्ञाता) बना दिया; कालिदास ' 
को कवि बना दिया । १३ आप कपालु और दयालु है। हे मात्ता, मैं 
आपका किकर (दास) हूँ। (मुझे) रंक समझकर आप वाक॒शक्ति 
प्रदान कीजिए, जिससे यह ग्रन्थ पूण हो जाए। १४ कोई वामन अर्थात्‌ 
नाटा मनुष्य (अपने हाथ से ऊंचे). आम्र (वृक्ष से) फल (तोड़ना) 
चाहता हो, अथवा पग्मु (अपने हाथो-पाँवों के बल) तैरकर समुद्र पार 
करना चाहता हो, (तो उसकी जो स्थिति हो जाएगी, वही स्थिति मेरी 
भी हो रही है) । मै वैसे ही आपका दास हूँ और पद्य-रचना करने की 
इच्छा कर रहा हूँ। १५ 

मैं ओखा-हरण आख्यान की कथा को पद्चरचना में आवद्ध करने 
जा रहा हूँ। विप्र प्रेमानन्द कहते है-- है माता (सरस्वती), मै 
(आपसे वाकशक्ति का वरदान) माँग रहा हूँ, (कृपा करके) मेरे इस 

ग्रन्थ को पूर्ण कर दीजिए । १६ 


१ जट (जड़)-एक ब्राह्मण जो मन्दबुद्धि था। परन्तु सरस्वती की पा से 
वह दर्शन-शास्त्र का वेत्ता तथा आचाये हो गया | 

२ कालिदास--कहते है कि संस्कृत के विश्वविख्यात कवि तथा नाटककार कालिदास 
अपने पिता की मृत्यु के पश्चात्‌ बचपन में एक ग्वाले द्वारा लालित-पालित हो गये । 
अत: वे विद्यार्जज नही कर सके । उनका विवाह कपट से किसी सुन्दर राजकुमारी 
से कराया गया, जिसने उनकी विद्याहीनता की भर्सेना की और उन्हे ढेवी की उपासना 
करने के लिए भेज दिया। तदनन्तर कालीदेवी की कृपा से उनमे विद्वत्व और 
कवित्व विकसित हो गया और वे कवि-कुलगुरु उपाधि से विख्यात हो गये । उन्होने 


रघुवंश, कुमार-सम्भव, मेघदुत आदि काव्यो और अभिज्ञान-शाकुन्तल आदि नाटकों 
की रचना की । ह 


३० गुजराती (नागरी लिपि) 
कडवुं २ जूं-- (शिवजी द्वारा वाणासुर फो धरदान देना) 
राग रामग्री 
एणी पेरे बोल्या श्रीशुकदेवजी, वाणासुरनो उतताययों अहमेव जी, 
हरे आप्या सहस्न हाथ जी, चक्रे छेद्या ते वेकुंठनाथ जी । १ ॥। 
ढाढछ 


वैकुठनाथे. हाथ छेदीने, उतार्य. अभिमान, 
परीक्षित पूछे शुकदेवने, कहो ओखानुं आख्यात। २ । 





कड़वक २--( शिवजी द्वारा बाणासुर फो वरदान देना ) 


श्रीशुकदेव इस प्रकार बोले, ' श्रीशिवजी ने बाणासुर” को एक सहस्न 
हाथ प्रदान किये थे; श्रीवैकुण्ठनाथ भगवान विप्णू (के अवतार श्रीकृष्ण 
ने (सुदर्शन) चक्र से उन्हे छेद डाला और उसके अहंकार को छूड़ा 
दिया । १ श्रीवेकुण्ठनाथ ने उसके हाथों को छेदते हुए उसके अहंकार को 
छुडा दिया । (यह सुनकर) परीक्षित' ने शुकदेव” से (उसके विपय में ) 
पूछा (और विनती की ) -- ओखा अर्थात ऊपा का आख्यान कहिए । “ । २ 

१ वाणासुर-- (वाण) भक्त प्रहलाद के पोत्न अचुर-राज वैरोचन-बलि का पुद्न 
था। देत्यो के त्िपुरो मे से शोणितपुर नामक नगरी इसकी राजधानी थी। त्रिपुरों 
के निवासी दैत्य, देवो, ब्नाह्मणो को उत्पीडित करते थे; अन्त में शिवजी ने अपने 
बाण से इन्हे जलाना आरम्भ किया, तो शोणितपुराधिपति बाण, जो शिवभक्त था, 
शिवजी की शरण में आया। उन्होंने प्रसन्न होकर बाण तथा उसकी नगरी को 
बचा लिया । 


]॒ 


२ परीक्षित-परीक्षित कुरु-वंशीय सम्राट था। वह अर्जुन का पीतन्र और 
अभिमन्यु-उत्तरा का पुत्न था। एक वार जब यह मृगया के लिए वन में गया था, तव 
उसने शमीक नामक ऋषि के गले में साँप डाल दिया; तो उस ऋषि के पुत्र झांगी ने 
उसे शाप दिया --आज से सातवे दिन तक्षक नाग के दशा से तुम्हारी मृत्यु होगी। 
इस पर पइचात्ताप-दग्ध परीक्षित को शुकदेव ने भागवत-पुराण का श्रवण करा दिया; 
तो वह पूर्णज्ञानी हो गया । 


३ शुकदेव--शुक, व्यास ऋषि के पुत्र तथा शिष्य थे। व्यास ने उन्हे सम्पूर्ण 
वेदों और महाभारत की शिक्षा दी, ये महायोगी, योगणास्त्र के प्रणेता कहे जाते है । 
उन्होंने अपने लौकिक गुरु वृहस्पति स्ले अनेक शास्त्रों और विद्याओ को सीख लिया। 
वे आरम्भ से ही अत्यन्त विरक्त थे, उन्होंने समस्त भोग्य वस्तुओ का त्याग किया 
था। उन्होने अपने पिता से श्रद्धा-पूर्वक भागवत-पुराण का श्रवण किया; यही पुराण 
उन्होने राजा परीक्षित को सुनाया । 


रा 
+ 
& 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) ३१ 


व्यासनंदन.. वदे वाणी, वर्णबुं. पूर्णानंद; 
रसिक कथा भागवत तणी, ते मध्ये दशम स्कंध। ३ ॥ 
शुकदेव कहे परीक्षितने, सुण बासठमी अध्याय, 
आख्यान ओखाहरणनं, अनिरुद्धहरण कंथाय। ४ । 
परब्रह्यथी एक पद्म प्रगदयूं, तेथी प्रजाकर, 
प्रजापतिनों मरीचि, तेनो कश्यप नामे कुंवर। ५। 
>.््््जत्न््व्््जल कि जज जज जज जज ४४/४४/५५४५ 
तो व्यास-तन्दन ने यह बात कही । मै पूर्ण आनन्द अनुभव करते हुए 
उसका वर्णन करता हँ। (श्रीमत्‌) भागवत की कथा रसात्मक हैं; 
उसके अन्दर दशम स्कन्ध (में यह कथा वणित) है। ३ शुकदेव परीक्षित 
से बोले, ' उस (भागवत पुराण के दश मस्कनन्‍्ध) के बासठवे अध्याय को 
सुन लो। उसमें ओखा-हरण का आख्यान तथा अनिरुद्ध-हरण की 
कथा है। ४ - 


(एक समय) परब्रह्म (-स्वरूप भगवान नारायण की नाभि में) से 
एक कमल प्रकट हुआ । उसमे से प्रजा-कर अर्थात्‌ ब्रह्मा प्रकट हो गये । 
उन प्रजापति (ब्रह्मा) से मरीचि (उत्पन्न) हुए; उनके कश्यप नामक एक 
पुत्र (उत्पन्न) हो गये । ५ उनसे हिरण्यकशिपु' (नामक दैत्य) उत्पन्न 
हो गया, उससे (भक्तप्रवर) प्रहलाद” हुए ओर प्रहलाद से विरोचन 

हो गया। उस विरोचन के बलि” नामक बलवान पुत्र (उत्पन्न हो 


१ हिरण्यकशिपु--कश्यप और दिति का पुत्न हिरण्यकशिपु नामक सुविख्यात दैत्यराज 
देत्य-कुल का आदिपुरुष माना जाता है। अपने बच्धु हिरण्याक्ष का वध होने के 
पदचात्‌ उसने उसके वध का बदला भगवान विष्णु से लेने के हेतु, कठोर तपस्या 
करके ब्रह्मा से वरदान प्राप्त किया। उस वर के बल पर उसने सबका उत्पीड़न 
आरम्भ किया । उसने अपने विष्णुभक्त पुत्र को अनेक प्रकार से मार डालने का 
यत्न किया । अन्त में अपने भक्त की रक्षा के लिए भगवान विष्णु ने एक खम्भे मे से 
नरसिंह के रूप मे अवतरित होकर उसे गोद मे रखकर, सध्या समय अपने नाखूनों से 
उसका वध किया । 


२ प्रहलाद--देत्यराज हिरण्यकशिपु का प्रहलाद नामक पुत्र वचपन से भगवान 
विष्णु का परम भक्त था। पिता द्वारा बार-बार विरोध करते रहने पर भी वह 
अविचल रहा। अत. हिरण्यकशिपु ने उसे एक वार विष खिलाकर, दूसरी बार 
हाथी के पाँवो के नीचे डलवाकर, तीसरी बार पर्वत-शिखर से गिरवाकर, फिर आग 
में झोंकवाकर मार डालने का यत्न किया । फिर भी प्रह्लाद जीवित रहा। अन्त 
में भगवान विष्णु ने नरसिंहावतार ग्रहण करके हिरण्यकशिपु का वध कर उसे राज्य 
प्रदान किया । प्रहलाद दैत्यकुल का विख्यात राजा माना जाता है। 


३ वैरोचन वलि--यह सुविख्यातत विष्णुभक्त दैत्यराज-प्रहलाद का पौत्न तथा 
विरोचन का पुत्र था और सप्तचिरंजीवो में से एक है। गुरु शुक्राचार्य की प्रेरणा 


३२ गुजराती (नागरी लिपि) 


तेथी हिरण्यकशिपु, प्रहलादजी, तेथी विरोचन, 
विरोचननों बढ़ी बढ्ियो, तेनो बाणासुर राजन। ६ । 
ते शोणितपुरमां राज करतो, ऊपन्यो मन विचार, 
वर पामूं ईश्वर आराधुूं, वश वरतावुं संसार। ७। 


तेणे शुक्राचार्यने पूृछियूं, लागी गुरुने पाय, 
कहो ग्रुरुजी तप कर्यानों, शुद्ध मने उपाय। ८ । 
शुक्र वोल्या हेत करीने, सुण बाणासुर राजान, 
सर्व थकी उत्तम उपासन, कहुं परम तनिधान। ९ । 
गंगातटे जई तप करो, उपासोी भहादेव, 
भोको शंभू प्रसन्न थई, वर आपने ततखेच । १०। 


गया और है राजा, बाणासुर उस वक्षि का ए4 ४८757 है राजा, वाणासुर उस (वलि) का पुत्र था। ६ वह 
शोणितपुर में राज करता था । (एक समय) उसके मन मे यह विचार 
उत्पन्न हो गया --मै ईश्वर की आराधना करूँगा और उनसे वर प्राप्त 
कर लूंगा; (फिर उसके बल पर समस्त) ससार को अपने वश में कर 
लूंगा। ७ (तदनन्तर) उसने अ0 शुक्राचार्य' के पाँव लगते हुए उनसे 
पृछा (कहा) -- हे गुरुजी, मुझे शुद्ध अर्थात्‌ दोप-रहित तपस्या करने 
का उपाय (विधि, मार्ग) बताइए ' | ८ (इसपर) शुक्राचार्य प्रेम- 
पूर्वक वोले, “ हे राजा वाणासुर, सुन लो; में सबसे उत्तम परम निधान- 
स्वरूप उपासना (का विधान) बताता हूँ।९ गंगा-तट पर जाकर तुम 


से इसने स्वर्ग पर आक्रमण करके देवों को पराजित करते हुए इन्द्र की सम्पत्ति 
चुरायी। परन्तु वह समुद्र में गिर गयी । जब उसकी प्राप्ति के लिए समुद्र-मन्थन 
किया गया, तो उसमे दैत्यो को कोई लाभ नही हुआ। अतः इसने इन्द्र से फिर से 
शुद्ध शुरु किया। अन्त में वलि ने अब्वमेध यज्ञ आरम्भ किया। एक दिन दान के 
मे । हर भगवात्र विष्णु बदुरवप धारण करके उस स्थान पर अवतरित हो गये 
और उन्होने तीन पद भूमि दान मे माँग ली । वलि ने उसे स्वीकार किया तो उन्होने 
प्रथम पद मे पृथ्वी को और दूसरे मे स्वर्ग को व्याप्त कर लिया। बलि के कहने पर 
2 हद वामन ने अपना तीसरा पाँव उसके मस्तक पर रखा और उसे पाताल में घकेल 
दिया । . अकार भगवान विष्णु ने देवों की रक्षा की भौर वे स्वयं बलि के 
हारपाल के रूप में पाताल में ठहर गये । 

॥ शुक्राचार्य--भागंव कुलोत्पन्न कर चामक ऋषि दैत्यो के गुरु बे। वे भूमु 
ऋषि से उत्पन्न हिरण्यकशिपु की कन्या दिव्या के पुत्र थे | जब' बलि बट वामन को 
दान देने लगे तब शुक्राचार्य उदक #ी झारी की टोटी मे जा बैठे । तब बट ने दर्भ से 
टोटी को साफ किया, तो बुक्राचार्य की एक आँख फूट गयी। तबसे ये एकाक्ष बन 
गये। इन्हे सजीवनी विद्या अप थी, उससे वे देवासुर सम्राम मे भृत दैत्यों को 
पुनर्जीवित करते थे । 9 0 पवगुरु बृहस्पति के पुत्त कच ने चतुराई से इनसे सजीवनी 
विद्या प्राप्त की; तब से दैत्यो का बल क्षीण होने लगा । 


प्रेमांनन्द-रसामृंत (ओखाहरण ) ३३ 


शुक्रनां. वायक सांभछी, थयों बाण मन उल्लास, 
तप करवाने चालियो, मन थधरीने विश्वास। ११। 
कौभांड. नामें मोटो मंत्री, तेने सोंप्यूं पुर, 
कैलास: निकटे गंगातटे, जई तप करे असुर। १२। 
आसन वाल्वीने लागी ताछी, जपे भोकछो दृढ़ मन, 
शत” वरस एम वही! गयां, ऊधई वत्ठगी तन। १३। 
वृषा, शीत ने ग्रीष्म वेठे, ओढवा अवनि ने आधभ, 
श्रवण सुग्रीवे माछा घाल्या, मंस्तके ऊग्यो डाभ। १४। 
क्षुपता तृषा' त्यजीने बेठो, अघोर मांड्यूं तंप, ' 
माठा फेवे मन तणी, जपे जोगेश्वरनों जप। १५॥ 
इंद्रे मोकली अप्सरा, 'तप ध्यान करवा भंग, 
बाणासुर ' चुके ५ नहीं, परभवे नहीं अनंग। १६। 





तर: - 
तपंस्था करो, महादेव (शिवजी) की आराधना करो। (तब). भोले 
शम्भु (शिवजी) प्रसन्न होकर तुम्हें तत्क्षण वरदान देंगे '। १० शुक्राचार्य 
की यह बात सुनकर बाण को मन में उल्लास (अनुभव) हो,गया और 
मन में विश्वास धारण करते हुए वह तपस्या करने चल दिया। ११ 
कौभाण्ड नामक उसका बड़ा (श्रेष्ठ) मन्त्री था।' उस असुर (बाण) 
ने उसे अपना नगर सौप दिया और कैलास के निकट गगा-तठ पर जाकर 
वह तपस्या करने लगा। १२ आसन लगाकर और तनन्‍्मय होकर वह 
अविचल मन से भोला (-नाथ) शिवजी (के नाम) का जाप करने लगा ॥ 
इस प्रकार (जाप करते-करते ) सौ वर्ष व्यतीत हो गये । उसके शरीर में 
दीमक लग गयी । १३ वर्षा, शीत और ग्रीष्म (गरमी) को उसने सहन 
किया; (उसके लिए मानो) धरती..और आकाश ओढ़ने के लिए थे। 
कानों और सुन्दर ग्रीवा' (गरदन) पर उसने (मानो) घोंसले खोंस लिये । 
उसके मस्तक पर दर्भ उग गये । १४ वह भूख और प्यास (का विचार) 
छोड़कर बैठ गया था। उसने (इस प्रकार) बहुत विकट तपस्या 
आरम्भ की थी। वह मन (के मनकों) की माला फेरता था और 
योगेश्वर (शिवजी) का जांप करता था। १५ उसके तप और ध्यान 
को भग्त करने के लिए इन्द्र ने एक,अप्सरा को भेज दिया; (परन्तु) 
बाणासुर चुका नही (अर्थात्‌ उसका 'मन विचलित नहीं हुआ और तपस्या 
खण्डित नहीं हुई) । उसे अनंग अर्थात कामदेव पराजित नहीं कर 
सका । १६ (अन्त मे) अतिथि का रूप धारण करके शिवजी (अपने 

नन्‍्दी नामक) वृषभ (बेल) पर आरूढ़ होकर आ गये और उन्होने राजा 


३४ गुजराती (नागरदी लिपि) 


वषभे चढी शिव आविया, धरी भत्तीत केए रूप, 
बाणासुरते बोलावियो,  भावे करीने भूष। १७। 
नेत्र उघाडीने मीरखियूं, त्यारे दीठा शंकर जाण, 
धसी हसीने चरणे लाग्यो, स्तुति करी निरवाण। १८। 
माग्य साग्य रे महीपति, एम कहे छे उमियानाथ, 
बाणासुर कहे नाथजी, मने आपो सहज हाथ। १९. 


वलण (तर्ज बदलकर ) 


सहस्न॒ हाथ आपो हरजी, गणो गणपति समान रे, 
विपत पड़े तो आवजो, एम कही शिव हवा अंतरध्यान रे । २० । 


बाणासुर को प्रेम-पूर्वक बुला लिया। १७ समझिए कि (जब) उसने 
आँखे खोलकर देखा, तब उसने (अपने सामने) शिवजी को देखा। 
हँसकर (फिर) वह बड़े वेग से आगे बढ़ते हुए उनके पाँव लगा और उसने 
उनकी चरम सीमा तक स्तुति की। १८ (उससे प्रसन्न होते हुए) 
उमानाथ शिवजी इस प्रकार बोले, “ हे महीपति, माँग लो, माँग लो । 
तो वाणासुर बोला, “ हे नाथ (शिव) जी, मुझे एक सहख्र हाथ ही प्रदान 
कीजिए । १९ 
हे हर (शिवजी ), मुझे एक सहस्र हाथ प्रदान कीजिए और (अपने 
पुत्र) गणेश के समान मान लीजिए। ” यह सुनकर शिवजी ऐसा कहते 


हुए अन्तर्द्धान (अदृश्य) हो गये-- “ विपत्ति आ पड़े, तो (मेरे पास) आ 
जाना *। २० 


कडवुं ३ जूं-(शिवजी द्वारा वाणासुर को वरदान देना) 
राग-यमनन्कल्याण 
आव्या आव्या उमया सहित महादेव, दीठी दीठी असुर तणी घणी सेव, 
नयने नीरख्यो असुरनो देह, दीठो-सूका काष्ठवत्‌ तेह। १ । 


बीज डजीिी डिक 





कड़वक ३--(शिवजी हारा बाणासुर को वरदान देना) 


श्री शिवजी उमा-सहित आ गये-- (गंगा-तट पर) आ गये और 
उन्होने उस असुर द्वारा की जानेवाली बड़ी (तपस्या-स्वरूप) सेवा देखी, 
व्यान से देखी। उन्होने अपनी आँखों से उस असुर की देह देखी-- 
उन्होंने वह सूखी लकड़ी-सी हुई देखी । १ उसे शिवजी के साथ तन्मयता 


प्रेमातनद-रसामृत (ओखाहरण) १५ 


तेने.लागी शंभुजीशूं ताढी, बाणासुर बेठो आसन दृढ वाढ्ी, 
एवां एवां तपनो मांड्यो अभ्यास, माथा उपर फूटी नीकढयां घास। २। 
एना तपनो नहीं आव्यो पार, एम वर्ष गयां छें एक हजार, 
एवं तप जोईने बोल्या त्रिपुरारि, तमे सांभक्को पार्वती नारी। ३ । 
एने तपे त्ैलोक बाधु डोले, बाणासुर तो बोलाव्यो नव बोले, 
तमे-कहो तो एने वर आपूं, ने हुं सत्य वचन करी थापूं। ४ । 
वत्तां बोल्यां पार्वेती राणी, एवा दुष्टने नापो शुलपाणी, 
दूध पाईने उछेरो छो साप, तेथी तमे पामशों महा संताप। ५ । 


ला ५ी जा >> 


है। मल आर शशि; सितल शा सिक 2  पलीकी शमिक लत के हम स्लो लत अधीत आज 
प्राप्त हुई थी। (इस प्रकार) बाणासुर आसन लगाये हुए अविचल 
बैठा हुआ था। उसने तपस्या का इस प्रकार अभ्यास आरम्भ किया 
था। उसके माथे पर घास उग आयी थी। २ उसके तप का कोई 
अन्त नहीं आ रहा था। इस प्रकार एक सहख्र वर्ष बीत गये। उसके 
ऐसे तफ को देखते हुए त्विपुरारि' शिवजी बोले, “ हे स्त्री पावंती, तुम 
सुन लो। ३ इसके तप के कारण समस्त त्विलोक (स्वर्ग, मरृत्युलोक 
और पाताल) डोलने लगे है। इस बाणासुर को बुलाने पर भी 
--बोलने के लिए प्रेरित करने पर भी वह नहीं बोल रहा है। तुम कहो, 
तो इसे वर दे दूँ और मै अपने वचन को सत्य करके (अपने वचन की 
सत्यता की स्थापना कर) दिखा दूं। । ४ 


इस पर प्रत्युत्तर स्वरूप रानी पाव॑ती बोलीं, ' हे शुलपाणि, इस 

दुष्ट को (कोई वर) न देना। आप साँप को, दूध पिलाकर बड़ा कर 
रहे है। उससे आप महा सन्‍्ताप को प्राप्त हो जाएँगे। ५ पहले आपने 
भस्मांगद' को वरदान दिया था। वह वरदान को प्राप्त हुआ और 


३ त्विपुरारि--मय दालव ने तीन नगरों का निर्माण किया। इनमे से एक 
नगर सोने का था, जो स्वर्ग मे निभित था। दूसरा अन्तरिक्ष मे चाँदी का बनाया 
हुआ था और तीसरा पृथ्वी तल पर लोहे का विरचित था। मय ने ये नगर अपने 
पुत्रों को प्रदान किये। इन नगरों को तिपुर कहते है। मय-पुत्नो--तारकाक्ष, 
कमलाक्ष और विद्युन्मालि ने संसार को बहुत उत्पीड़ित किया, उससे तंग आकर देवों 
ने शिवजी से रक्षा करने की विनती की, तो उन्होंने एक ही बाण से उन तीनों नगरों 
को जला डाला और यथासमय उन तीनो दानवों को भी मार डाला । अतः शिवजी 
 तिपुर के अरि ” कहलाते है । ह 

२ भस्मागद--भस्मासुर या भस्मांगद नामक असुर शिवजी की विभूति से उत्पन्न 
हुआथा। यह शिवजी का, /“एा था और उसे उनसे यह वरदान प्राप्त हुआ 
कि वह जिसके सिर पर ७ प्काल दग्ध होकर भस्म हो जाएगा । हु 
वर से उन्‍्मत्त होकर है सत करने, जलाने लगा । अन्त मे कु 
विष्णु ने मोहिनी रूप में '. » अपने अनुकरण मे नृत्य करने 


३६ गुजराती (नागरी लिपि), » 


पहेलां तमे भस्मांगद वरदान दी धरूं, वरदान पाम्यो कारज एनुं सी ध्युं, 
वरदान रावणादिकने आप्यां, तेणे दुष्टे जानकीनाथ संताप्या । ६ । 
ते माटे झाझू शूं तमने कहिये? हां रे एवा दुष्टथी वेगढा रहिये, .., 
पछे तमने शी शिखामण दीजे, भोक्ठा शंभु रूडुं जाणो तैम 2 | ७ । 
जाओ नारी पानीए बुद्धि तमा री, वरदान आपतां न राखीए वारी, 

एबं कहीने बोल्या ते भोक्तो नाथ, दीधो बाणासुरने शिर हाथ । ८५ । 
ऊठ ऊठ पुत्र तूं वर माग्य, तूं तो समाधि त्यजीने जाग्य, 

वाणी शंभुनी सुणीने जाग्यो, तेणे शिवजी पासे वर मास्यो । ९ । 
स्वामी मने सहख्र हाथज आपो, मुजने पुत्र करीने थापो, 

एक एक हस्त एवो कीजे, हस्ती सहस्रगणुं बढ दीजे | १० ॥ 
अस्तु अस्तु कहीने शिवे वर आप्यो, तेने तो पुत्न करीने थाप्यो, 
वरदान लईने दानव घेर आव्यो, तेने बधा नग्नलोके रे वधाव्यो । ११ । 


वलण (तर्ज वदलकर ) 
वधाव्यो त्यां लोक सर्वे, आनंद घणो मन थाय रे, 
आवबी राज बेठो बाणासुर, तेने ऊलट अंग न माय रे। १२। 


उसका कार्य सिद्ध हो गया। आपने (फिर) रावण आदि को वरदान 

दिया; उस दुष्ट ने जानकीनाथ श्रीराम को सनन्‍्तप्त कर दिया। ६ 
इसलिए मैं आपसे अधिक क्या कहूँ ? हाँ, (इतना ही करे कि) इस दुष्ट 
से दूर रह जाएं। फिर हम आपको क्‍या सिखावन दे ? है भोला 
(-ताथ) शिवजी, जो अच्छा समझे, आप वह कर ले ।7। ७ “हे नारी, 
जाओ, तुम्हारी बुद्धि तलुओं तक ही है अर्थात्‌ सीमित है। अतः वरदान 
देने मे मुझे न रोक दो । ” ऐसा कहकर भोलानाथ ने बाणासुर के सिर 
पर हाथ रखा और वे (उससे) वोले। ८ , उठो, उठो, हे पुत्र । तुम 
(कोई) वर माँग लो। समाधि छोड़कर जाग उठो।! शिवशम्भ 
की वाणी को सुनकर वह जग गया और उसने उनसे वर माँग लिया । ९ 
' हे स्वामी, मुझे एक सहस्र हाथ ही प्रदान कीजिए और मुझे अपने पुत्र 
के रूप में प्रतिष्ठित कर लीजिए। मेरे एक-एक हाथ को ऐसा बना 
दीजिए-- उसे एक-एक सहस्र हाथियों का बल प्रदान कीजिए | !। १० 
यह सुनकर शिवजी ने “ (तथा) अस्तु, (तथा) अस्तु ” कहते हुए उसे 
वर श्रदान किया और उसे अपने पूत्र के रूप मे प्रतिष्ठित कर लिया। ११ 


दी। जब वह नृत्य करने लगा, तो मोहिनी ने एक तृत्य मुद्रा के बहाने अपने सिर 


पर हाथ रखा, यह देखकर भस्मासुर ने भी अपने मस्तक पर ह 
| हाथ 
जलकर भस्म हो गया । + के ' का जब 


प्रैमासन्द-रसाम्ृत (औखाहरण) ३७ 


तब सब लोगों ने हे पूवंक उसका स्वागत-सत्कार किया, ,तो 
उसको मन में बहुत आनन्द (अनुभव) हो गया । (इस प्रकार अपने नगर 
में) आते ही बाणासुर राज (-गद्दी) पर बैठ गया। उसके अंग्र-अंग में 
उमंग नही समा रही थी। १२ 


; कडव्‌ं ४ थूं-- (शिवजी द्वारा बाणासुर को अभिशाप देना) 
राग केदारो 


वर आपी वंक्॒या विषधारी रे, सहस्न भूज पाम्यो अहंकारी रे, .. 
खोंखारीने कहे पाम्यो हुं जय रे, हुं तो थयो छुं अक्षय रे। १:। 
अभिमाती बोले एम गवे वचन रे, पुर विषे आव्यो राजन रे, : 
सहुने आनंद वाध्यो मन रे शी 


ढा&छ 
पाय ,लागे प्रजा पुरती, आवबी मसत्ययों ,परधान;-; ; 


| 


सहस्न॒ भुज अंबुज .फूल्यां, तरुवरने समान। ३-। 





, कड़वक ४--( शिवजी द्वारा बाणासुर को अभिशाप देना) हा 
. (अपने कण्ठ में) विष धारण करनेवाले शिवजी" वर प्रदान करके 
लौट गये, तो (इधर) वह अहंकारी (बाणासुर) सहस्र भजों को प्राप्त 
हो चुका था। (तदनन्तर) वह (बड़प्पन दिखलाने के हेतु) खाँसते- 
खखारंते हुए (हँकारते हुए) बोला, “मै (अब) जय को प्राप्त: हुआ 
हूँ, मैं तो (अब) अक्षर अर्थात्‌ अमर हो गया हूँ। १ वह अभिमातरी' 
राजा इस प्रकार गवं-पूर्वक बातें कर रहा था। वह अपने: नगर में 
(लौट) आया, तो (उसे देखकर) सबके मने में आनन्द की वद्धि 
गयी । २ नगर की प्रजा उसके पाँव लगी; मनन्‍्त्री आकर,उससे ,मिल 
गये। (किसी बड़े) वृक्ष (की शाखाओ) के समान (उस राजा के) 





.._१_ विषकण्ठ शिवजी--जब देवो और दानवो ने अमृत-प्रा्ति के लिए समुद्र : 
मंन्थन किया, तो उसमे से हलाहल नामक ,अत्यन्त उग्र विष निकला । बह जा 
विदिशा मे, ऊपर-नीचे सर्वत्ञ उड़ने और फैलने लगा। उससे बचने के लिए प्रजा- 
सहित प्रजापति शिवजी की शरण मे गये। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर शिवजी ने 
बे को हथेली 3 मा खा्‌ पा तो उस विप के प्रभाव से उनका कण्ठ 
“पड़ गया । कहते है, ग्री ने उसे अपने कण्ठ : 
विषकण्ठ, नीलकण्ठ कहाते है। का हे 008 


हु ड्ै है * हैंड 


ड्प् गुजराती (नागरी लिपि) 


जाणे 'जगर्मा वडडाक् फूली, हस्त 'एम राजा तणा, 

पोहोंचे पोहोंची झगमगे, जेवी शेषनागती फणा॥ ४ | 
एक एक हस्ते सहस्न हस्तीबछ, वसुधातक्क वश कीधुं, 

नागवर्ग ने स्वर्ग जीती, एकचकवे राज कीधुं। ५ । 
चोसठ देश ने चारे दिशा, बाणे वर्तावी आण, 

पाय पृृथ्वीने ध्रुजावे, जुद्ध जुद्ध वदे मुख वाण। ६ । 
मंत्री साथे वढवुँ मांगे, वाथ भीडीने अंग, 

मातंग हारे हयने पछाडे, पाडे पवेतशग। ७ । 
भरावे बाथ ने हाथ झाटके, मुखे भाखे मेघस्वर, 

वढनार पाखे बाण शरीरे, प्रगदयो प्राक्रजज्वर | ८५ | 
गण गांधव ने अप्सरा साथे, कंलास गयो राजन, 

बाणासुरे  शंकरद्वारे, मांड्यूं. संगीत गान। ९। 
सहसख्र कमल-सदृश हस्त फूट निकले हुए थे। ३ जान पड़ता था कि उस 
स्थान पर बरगद की शाखा ही फूली हुई हो। उसकी कलाइयो में 
पहुँचियाँ जगमगा रही थी, जसे शेपनाग के फन ही हो। ४ उसके एक- 
एक हाथ में (एक-एक) सहख हाथियों का वल था। (उससे) उसने 
पृथ्वी-तल को (जीतकर अपने) अधीन कर लिया । (फिर) नाग-वर्ग 
(नाग जाति के लोगों को) तथा स्वर्ग को जीतकर वह एक-चक्र राज 
करने लगा।५ वाणासुर ने चौसठ देशों और चारो दिशाओं पर 
अधिकार फैला दिया। वह अपने पदो (के आघात) से प्रृथ्वी को 
क़रम्पायमान कर देता था और मुख से “युद्ध ', “युद्ध *, शब्द बोलता 
था।६ अंग से अंग भिड़ाकर वह मन्त्री को साथ मे लेकर नडना 
चाहता था। वह हाथी को मार डाल सकता था। घोड़े को 
पछाड सकता था ओर पर्वत-शिखर को ढहा सकता था' । ७ (कभी) 
वह अग से अंग भिड़ाता, तो (कभी) हाथ (पकड़कर फिर) झटकाता 
ओर मुख से मेघ का-सा स्वर निकालता था-- मेघ-गर्जन-से स्वर में 
बोलता था। (प्रति-) योद्धा के अभाव में वाणासुर के शरीर में 
प्रताप-ज्वर उत्पन्न हो गया।८ है राजा, (एक समय) वाणासुर 
गन्धरवों और अप्सराओ के समुदाय सहित कैलाश गया और उसने शिवजी 





_  ) श्रीमद्भागवत (दशम स्कन्ध, अध्याय ६२) के अनुसार वाणासुर की बाँहों 
का लडने के पा इतनी खुजलाहट हुई हा वह दिग्गजों की ओर लपका, तो वे डरके 

7रे भाग गये, उस समय मार्ग में उसने अपनी वॉहों की चोट से बहत- पहाडो को 
तोड़-फोड़ डाला था । हे 2208 23 


जे 
अल्डे: 
पु 





प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) इ्द 


थैथैकार. ,घमकार घूघरना, अबक्ापगर्मा ठमठमता, 

मंदिरमांथी - महादेव नीकलछ॒या, रामानी संगे रमता ।-१० । 
असुर ईश्वर ने, अप्सरा नाचे, ते: इन्द्रादिक जोय, 

चंग मृदंग ने वीणा रसना, शब्द एकठा होश । ११-। 
महादेवजी रसमग्तन हवा, रायने थया तुष्टमान, 
बाणासुरने: कहे उमियावर, माग्य साग्य बरदान। १२। 
राय कहे प्रभु प्रथम तमे,. आप्या सहत्न हस्त, 

ते भुजबक मार कोणे न भांग्यूं, में जीत्या लोक समस्त । १३॥। 
स्वामी बह आप्यूं तो जोद्ो आपो, ए मागवुं छे मारे, 
तमे वढो के ' वढ़नार आपो, जे मारा मदने उत्तारे। १४॥ 
व रीस- चढी अंतरे .ईश्वरने, तुं मागतां चुक्‍्यों मूर्ख, '' 
तारा भुजनो भार उतारशे, व्रिलोकपूजन पुरुष | १५-॥' 
पुत्री, तारीनो वडससरो ते, तारा' भूजने हणशे, . 
थडथी छेदीने कर ताराना कटके कटका करशे।'१६। 





के (निवास-स्थान के) द्वार' पर संगीत-शास्त्रानुसार गायन आओरम्भ 
किया । ९, थै-थै-कार संहित अबलाओं-(नारियों), के पाँवों में. बंधे 
घूंघरुओ की झनके-झनक गूँज रही थी। तो शिवजी, जो अपनी पत्नी- 
सहित लीला कर रहे थे,'अपने भवन में से बाहर आ गये । १० (उन्होने 
देखा कि) असुराधिपति (बाणासुर) और अप्सराएँ नृत्य (और गायन) 
कर रहे थे और उसे इन्द्र आदि (देव) देख रहे थे। चंग (डफ), 
मृदंग और वीणा तथा जिहवा अर्थात्‌ मुख की ध्वनियाँ एक (-ताल में), 
हो रही थी। ११ (यह देखते हुए) शिवजी उस (नृत्य-गान से 'प्राप्त 
आननन्‍्द-) रस में मगन हो गये और उस राजा के प्रति प्रसन्न हो गये । 
(फिर) उमापति शिवजी बाणासुर से बोले, “ माँगो, वरदान माँग लो !। १२ 
(तब) उस राजा ने कहा, “ है प्रभु, पहले आपने मुझे एक सहस्र हाथ 
प्रदान किये है। मेरे उस बाहु-बल को कोई भी भग्न नहीं कर पाया । 
मैने समस्त लोक जीत लिये है। १३ है स्वामी, आपने (मुझे) बल तों 
दिया है, (अब सुझे) कोई योद्धा दे दीजिए-- मुझे (आपसे) यही माँगना 
है। मुझसे आप लड़ लीजिए अथवा लडनेवाला (योद्धा) दीजिए, जो 
मेरे मद को उतार.सके। ”' । १४ तब (यह सुनकर) भगवान शिवजी को 
क्रोध आ गया (और वे बोले)-- रे मूर्ख, तू मॉगने में भूल कर- रहा है। 
तेरेबाहुओ के भार को त्रिभुवन-पूज्य पुरुष (अर्थात्‌ भगवान विष्णु): 
उतार देगे। १५ वे तेरी'पुत्री के ददिया-ससुर होकर तेरी भुजाओं: की 


४० गुजराती (नांगरी लिपि) 


तव॒बाणासुरने शुद्ध हवी, ए तो में माग्यों शाप, 
कडाक कडाक कटका थाशे त्यारे, केम खमाशे अदाप ? | १७१ 
भूपष कहे सांभक्तिये स्वाभी, तम वचन भ्रमाण, 
एटलूं ' मागूं आप कने, आगल्थी थाये जाण। १८। 
शिव कहे तारी धर्मघजा, आफणिए भांगी पडलशे, 
त्यारे तो तूं जाणजे, रिपु आबी गड़गडशे। १९। 


वलण (तर्ज बदलकर ) 
गाजशे शत्रु कही वढ्ाव्यो, नग्रममाँ आव्यो सोय रे, 
आसन  बेसी दहाडी बाणासुर, धजा सामुं जोय रे। २०। 


काट डालेगे। वे तेरे घड़ से तेरे हाथों को काटकर टुबड़े-टुकड़े कर 
देगे। '। १६ तब (यह सुनते ही) वाणासुर को होश आ गया-- (और 
उसकी समझ मे आ गया कि) यह तो मैने अभिशाप मॉँग लिया। 
जब, मेरे बाहु कड़ाके के साथ (कटकर) दुकड़ें-टुकड़े हो जाएँगे, तब 
उस दु.ख को मुझसे किस प्रकार सहन किया जाएगा । १७ (फिर भी 
असुरो के उस) राजा ने कहा, ' हे स्वामी, सुनिए, आपका वचन सत्य 
होगा। मैं आपसे इतना ही माँग रहा हूँ कि इसके आगे (मुझे) ज्ञान 
(प्राप्त्) हो जाए। “। १८६ (इस पर) शिवजी ने कहा, “तेरी धर्म- 
ध्वजा (जब) अपने-आप सहसा भग्न हो जाएगी, तब तू समझ लेना कि 
तेरा शत्रु आकर गरज उठेगा। १९ 

5 2 (तेरा) शत्रु गरज उठेगा ' कहते हुए (शिवजी ने) उस (बाणासुर) 
को बिदा किया, तो वह अपने नगर में (लोट) आया। (फिर) प्रतिदिन 
आसन पर बैठकर वह बाणासुर) अपने ध्वज की ओर देखता रहता । २० 


।. फडवुं ५ सुं--(गरणेशजी और ओखा को उत्पत्ति) 
, राग बिलावल 
वढ्ठी वढ्ी पूछयूं परीक्षित रायजी, शुकदेवजी कहोने कथाय जी, 
देवकन्या प्रगटी जेह जी, देत्यपुत्री तणो संदेह जी। १ । 


फड़वक ५--( गणेशजी और ओखा की उत्पत्ति ) 


' राजा परीक्षित ने पुनः पुनः कहा, ' हे शुकदेवजी, (आप ओखा की 
उत्पत्ति सम्बन्धी ) कथा कहिए। (वस्तुत:) जो देवकन्या के रूप में प्रकट 
हो गयी थी, उसके दैत्य-कन्या हो जाने में (मुझे) सन्देह (हो रहा) है । १ 


न 
्् 
के 


प्रेमाननद्र-ससामृत (ओखाहरण ) * ४१ 
ढाल 


देत्यपुत्री केम हवी, शुकदेवजी कहोने सत्य, 
विस्तारी वर्णवो, ओखा तणी उतपत्य । २ । 
शुकदेव' वक्कततुं बोलिया, तमे भली पूछी वात, 
ओखानी उत्पत्य क्यमः हवी, कहुँ तमने साक्षात्‌ । ३ । 
एक वारः गिरि कंलासथी, शिवजी ते मधुवन जाय, 
उमयाजी घेर एकलां, तेणे विचारय मनमांय | ४। 
शिवने दिवस थाशे घणां, नंदी. ने भूंगी संग, 
संतान मारे कांई नहिं, ते माटदे ल्‍योने सग। ५ । 
शिवजी कहे, करजो प्रगट; इच्छा थकी संतान, 
तप करवा जाउं छं, धरवाने हरिनू ध्यान। ६ । 
एम कहींने शंकर चाल्या, आव्या ते गंगातीर, 
दृढ़ आसन वाल्ठीनी बेठा, मना राखी धीर। ७ । 
दिवस केटला वही गया, ने चैत्र मास ते आबव्यो, 
परसेवो उमियाने अंगे, थयो ते तो नव भाव्यो। ८ । 


वह, दैत्य-कन्या कैसे हो गयी. ? हे शुकदेवजी (इस सम्बन्ध में जो) 

सत्य (है वह) कह दीजिए। ओखा की उत्पत्ति (सम्बन्धी कथा) 
विस्तार-पृवंक कहिए .। २ (इसपर) शुक्रदेव फिर बोले-- (हे राजा ) 
तुमने अच्छी- बात पूछी:। मै प्रत्यक्ष कह रहा हूँ कि ओखा की उत्पत्ति 
कंसे' हो गयी ? ३ एक समय शिवजी कलास पर्वत से मधुवन जा रहे 
थे (जाना चाहते-थे).।. (उससे) उमा, तो घर मे अकेली रह जानेवाली 
थीं। (तब), उन्होंने. मन मे यह”विच्वार किया । ४ शिवजी को (वहाँ) 
बहुत्त दित लग जाएँगे; उनके साथ श्यंगी ओर भूगी' है। मेरे (साथ) 
कोई. सन्तान (भी) नही है। (इससे वह बोली, ) ' मुझे अपने साथ ले 
चलिए । “।:५ (यह सुनकर) शिवजी बोले, “ अपनी इच्छा से तुम सन्‍्तान 
उत्पन्न कर'लो ७ मै तो तपस्या करने, श्रीहरि का ध्यान धारण करने 
जा रहा हूँ. ।६ ऐसा कहकर शिवजी चल दिये और गंगा-तट पर आ 
गये। मन में घैयें धारण करके वे अविचल आसन लगाकर बैठ गये | ७ 
कितने ही दिन बीत गये। चेत्र मास आ गया। उमा के शरीर में 

पसीना-आ' गया ।* यह उन्हें अच्छा नही लगा । ८. (जब) अपना शरीर 

_१.हंगी-भूगी--शंगी-भूंगी शिवजी के पाषंद थे। इनमे से शगी वेताल और 
कामधेनु का पुत्त था" वह शिवभक्त था, इसलिए:शिवजी ने उसे अपना पार्षद 
नियुक्त-किया | . यह! सृष्दि-की समस्त गो-सन्त॒तति का पिता माना जाता है। 


४२ '. गुजराती (नागरी लिपि) 


मार्जज करवा इच्छा कीधी, मलिन दीढुं अंग, 
सुगंधी तेल ककडावियां, जल उष्ण सृकयूं प्रसंग । ९ । 
पार्ववीए मन॒ विचार्यू, मंदिरमां नथी कोय, 
हुं पुत्र एक प्रगट करूं, जे द्वार आग जोय । १० । 
पछे दक्षिण अंगथी मेल उतारी, घड़यूं पुत्रनूं रूप, 
तेना हाथ, पग ने घृंटण, पहानी टुंकडुं अंगस्वरूप । ११। 
चतुर्भज ने फांद मोटी, मोटं ते मस्तक संग, 
कपोल ग्रीवा सुंदर शोभे, विचित्र दीसे अंग। १२। 
तेना वाम करमां कम आप्यूं, बीजे बेरखो जाण, 
त्रीजी हाथे जलकमंडल, दक्षिण फरशी पाण। १३॥ 
बाजुबंध_ने बेरखा, कुंडठ घाल्यां कर्ण, 
कटीए शोभे मेखला ने, घूघरा बांध्या चर्ण। १४। 
तेने सर्पनूं उपवीत आप्यूं, मोदिक आप्यो आहार, 
मूषकनूं, वाहत आप्युं, उर सेवंत्रानों हार।१५। 


मलिन दिखायी दिया, तो उन्होने स्तान करने की इच्छा (अनुभव) की 
(स्नान करना चाहा) । (फिर) उन्होने पानी उवाला और उस गर्म 
जल मे सुगन्धित तेल प्रसगानुकूल डाल दिया। ९ (उस समय) पार्वती 
ने मन मे सोचा, “घर मे तो कोई नहीं है। (अतः) मैं एक पुत्न को 
उत्पन्न कर दूं, जो द्वार पर (बैठकर ) सामने देखता रहे (देखरेख करे) । १० 
अनन्तर उन्होने अपने दाहिने अग से मैल उतारकर उससे एक पुत्र की 
मूर्ति का निर्माण किया । उसके हाथ, पॉव और घुटने, एड़ियाँ --ये अंग 
स्वरूप अर्थात्‌ आकार रूप आदि मे छोटे-छोटे थे । ११ उसके चार हाथ 
थे, उसकी तोंद वडी थी, साथ ही उसका मस्तक बड़ा था। उसके गाल 
और ग्रीवा (गरदन) सुन्दर, शोभायमान थे। उसका शरीर विचित्र 
दिखायी दे रहा था। १२ समझिए कि (उमा ने) उसके बाये हाथ में 
कमल (थमा) दिया, दूसरे हाथ मे रुद्राक्ष माला, तीसरे हाथ में जल का 
कमण्डल तथा दाये हाथ में परशु (पकड़ा) दिया । १३ उन्होने (बाहुओं 
मे) वाजूवन्द और रुद्राक्ष-मालाएँ तथा कानो मे कुण्डल पहना दिये। 
उसकी कटि में मेखला शोभायमान थी। (उन्होने) पाँवो मे घुघरू बाँध 
दिये। १४ उसे साँप का, अर्थात्‌ सर्प रूपी जनेऊ (पहना) दिया और 
आहार के लिए मोदक दिया ।, मूषक का, अर्थात्‌ मृषक (चूहे) के रूप 
में वाहन दिया और वक्ष:स्थल पर सुपारियों का हार पहना दिया। १५ 


प्रेमानन्द-रसामृत' (ओखाहरण ) ४३ 


तेनूं घृत सिंदूरे अंग चर्च्यू, काया कंचनती परिधाम, 
प्रतिहर करीने थापियों, गणपति धरियूं नाम। १६ | 
मुखबचन माताजी बोल्या, हुं मार्जत करूं आ वार, | 
कोई पुरुष आवे आंगणे तो, राखजे ऊभो द्वार। १७। 
एकलो बाकुक बारणे बीशे, विचार्य मन मात, 
एनी पासे जोड होय तो, बेठां करे बेउ वात । १८। 
वाम अंगथी मेल उतारी, घड़यूं कन्यास्वरूप, 
तेनी शोभा शी वर्णवं ? छुकदेव कहे सुण भूष। १९। 
तेनु वदत पूनम्चंद्र सरखुं, नेतन निर्मक्१ठ जाण, 
नासिका शुकचांच सरखी, दशन बीज प्रमाण। २०। 
सेना अधर अति ओपे राता, कपोल ग्रीवा जेह, 
भुजदंड छे गजसूंढ सरखा, कुच बिजोरां तेह।२१। 
तेनी जंघा जाणे कदली सरखी, उर उज्ज्बकहू अंग, 
तेना चरण जाणे पद्मनां, केसरी कटीनो लंक। २२। 





उन्होंने उसके शरीर को घी और सिंदूर से विलेपित किया। उसकी देह 
पर सोने का (-सा) अधोवस्त्न, अर्थात्‌ पीताम्बर (धारण कराया हुआ) 
था। (ऐसा रूप धारण करनेवाले) उस पुत्र को प्रतिहारी (ह्वारपाल, 
पहरेदार) के रूप मे (उमा ने) स्थापित कर दिया और उसे गणपति नाम 
धारण कराया। १६ तदननन्‍तर माताजी--उमा बोली, “इस समय मै 
स्‍्तान करती हे । (यदि) कोई पुरुष ऑगन मे आ जाए, तो उसे द्वार 
पर (बाहर खड़ा) रखना । १७ (फिर) माता ने मन में सोचा, द्वार पर 
यह अकेला बालक डर जाएगा; (यदि) इसके पास कोई साथी हो, तो 
ये दोनों बैठे-बैठे बाते करेगे। १८ (ऐसा सोचकर) बाये अंग से मैल 
उतार कर उन्होंने उससे कन्या स्वरूप (मूर्ति) का निर्माण किया। मै 
उस (कन्या) की सुन्दरता का. वर्णन कैसे करूँ ? शुकदेवजी बोले, “हे 
राजा, सुनो । १९ समझ लो, उस (कन्या) का बदन पूर्ण चन्द्रमा-सा 
था, नयन निर्मल थे, नाक तोते की चोच सरीखी थी, दाँत वीज-से 
अर्थात्‌ बहुत छोटे-छोटे थे। २० उसके लाल (-लाल) होंठ, गाल और 
ग्रीवा (गरदन) अति कान्तिमान थे, भुजदण्ड (बाहु) हाथी की सूंड जैसे 
थे, स्तन बिजौरो जैसे थे। २१ उसकी जॉघे कदली (>स्तम्भों) के 
समान थी, वक्षःस्थल तथा अंग उज्ज्वल था। उसके चरण मानों कमल 
के (बने हुए) थे, उसकी कटि की लॉग सिह-की-सी थी। २२ हाथों 


हा गुजराती; (नागरी लिपि) 

कर कंकण ने मुद्रिका, कंठे पुष्पनो हार, 

करणे झाल झबूके, पाये नूपुरनो झमकार। २३। 
'मस्तके गंथी राखडी, कंठे मुक्तानोी हार, 
अणवट पगे बीछवा, कटीमेखला शणगार | २४। 
तेने चणियो चोछी पहेरावियां, शिर घाटडी परिधाम, 
शकदेव कहे परीक्षितने, तेनूं ओखा धरियूं नाम। २५। 
तेने ढींगलां ने ढोलडी, कुंडली कोथढछी _जैह, 

पांच कोर्डा, दाबडी वेलण, रमवा आप्यां तेह।२६। 
कुमकुम चंदत  चांदलो, काजल सिंदूरं॑ संग, 

तेल तंबोल ने नाडाछडी, करी ते पूजा अंग। २७। 

वलण (तर्ज बदलकर ) 

करी पूजा अंग सोहिये, कुंवरी कन्या जेह रे, 
शुकदेव कहे परीक्षितने, एम ओोखा 'प्रगटी तेह रे। २८। 
मे चूडियाँ और अँगूठियाँ थी, गले मे फूलो का हार था, कानों में (कर्ण-) 
आशभ्ृूषण चमक रहे थे, पॉँवो मे (पहने हुए) नूपुर की झनक हो 'रही 
थी । २३ मस्तक पर (अनिष्ट-अशुभ के परिहार हेतु 'अभिमंत्रित रक्षा 
(डोरा, राखी) बँधी हुई थी, गले मे मोतियो का हार (पहना हुआं) 
था। पाँवो (के अँगूठे) मे अनवट और (अँगरुलियों में) बिछुए, कटि में 
भेखला जैसे श्ंगार से वह सजी हुई थी। २४ (माता ने) उसे घाघरा 
और चोली तथा मस्तक पर सुन्दर चुनरी पहना दी । शुकदेवजी परीक्षित 
से बोले >उसका नाम (माता ने) ओखा (ऊषा) रख लिया २५ उसे 
खेलने के लिए गुड्डा-गुड़िया और डफली, ककड़ तथा (उन्हे रखने के लिए 
छोटी) थैला, पॉच कौड़ियाँ, उन्हे (रखने के लिए) डिविया, बेलन दिये । २६ 
साथ ही कुकुम और चन्दन का टीका, काजल और 'सिन्दूर लगा लिया" 


तेल, ताम्बूल (पान-बीड़ा), (शुभ-सूचक रंगीन) धागा दिया और उसका 
पूजन ही कर लिया । २७ 


(इस प्रकार) जो (ओखा नामक) क्वॉरी कन्या थी, उसकी (उमा 
ने) पूजा की। उस (कन्या) के अंग शोभायमान थे। शुकदेवजी 
परीक्षित से वोले --इस प्रकार ओखा उत्पन्न हो गयी । २८ 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) ४५ 


कडवुं ६ ठढुं-- (नारदजी द्वारा शिवजी के मन में पार्वती के प्रति क्रोध उत्पन्न करना) 
राग रामग्री 


/व्ली व्ली पूछयूं परीक्षितरायजी, शुकदेवजी कहोने कथाय जी, 
उमया अंगथी ऊपनी जेह जी, देत्यपुत्ती तणो संदेह जी। १ । 


ढाढछ ' 


संदेह मारा मन तणों, ते टाछिये ऋषिराय; 
'ए अआ्रात भगिनी ढ्वारे मुकी, रच्यो क्रुण उपाय ?। २ । 
त्यारे 'पूंठे /शूृं थयुं, 'मुंने संभक्वावोने तेह, 
विस्तारीनि वर्णयो, शुकदेवजी, सर्वी तेह। ३ । 
शुकदेव वह्वतूं बोलिया, तुं सांभक राजकुमार, 
है मियाए ओखानी प्रत्ये, एम कह्यूं तेणी वार। ४ । 
हुँ मंदिरमां मार्जत करूं छुं, त्यां दोधी शिखामण, 
कोई पुरुष 'आवबे आंगणे 'तो, करजे मुजने जाण। ५ । 
एम कहीने गयां घरमां, उगायु उष्णोदक सार, 
बावनचंदन घोंछियां ते, कनकपात्न मोझार। ६ । 


कड॒वक ६--(नारदजी द्वारा शिवजी के मन में पावेती के प्रति क्रोध उत्पन्न करना) 

'राजा परीक्षित पुनः पुनः (शुकदेव से) कह रहे थे -- हे शुकदेवजी, 
वह कथा “'कहिए। 'जो (भोखा) उमाजी के अग से उत्पन्न हुई 
उसके देत्य-कन्या हो जाने में (मुझे) सन्देह है। (उसका निराकरण 
कीजिए) । १ 

है 'ऋषिराज, “मेरे मन के उस सन्देह को दूर कर दीजिए। 
(उमाजी ने) उन बन्धु-भगिनी को द्वार पर रखकर कौन-सा आयोजन किया 
(क्या किया) ? तब (उसके) पश्चात्‌ क्‍या हुआ ? मुझे वह सुनाइए। 
हैं शुकदेवजी, उस सबका विस्तार-पूर्वक वर्णन'कीजिए | '। २-३ फिर 
शुकदेव बोले, “ हे राजकुमार, तुम सुत लो। उमाजी ने ओखा से उस 
समय इस प्रकार कहा । ४ ' मै घर के अन्दर स्नान करती हूँ (करने जा 
रही हैँ)।”' उसे यह सिखावन दी-- “ यदि कोई पुरुष आँगन में आ 
जाए, तो मुझे उसकी जानकारी करा दो '। ५ ऐसा कहकर वे घर के 
अन्दर चली गयी और उन्होने अच्छा-सा उष्ण जल उबाल लिया। 
(फिर) सोने के पात्न में (पानी में) बावन चन्दन (चन्दन विशेष) 
दिया।६ [ ' बस. आभूषण उतारकर माता « 


४६ गुजराती (नागरी लिपि) 


वस्त्र आभूषण त्यजीने, नहाय छे उमया मात, 
मोकछे केशे नेत्न मीची, बेठां छे साक्षात । ७ | 


राग मारुनी देशी 

ऋषि नारदजी तेणी वार, हता ब्रह्मसभा मोजार, 
ऋषिए मन कर्यो विचार, हूं तो जाउं त्यां निरधार। ८ । 
शिव-उमियाने वढवाड, मांहोमांही करावुं राड, 

एवं विचार्य ऋषिराय, ज्या उमियाजी बेठों नहाय। ९ । 
आव्या अंतरिक्षथी ऋषिराय, त्यारे दीठी पार्वतीए छांय, 

जाणें पहेरुं ते वस्त्न सुवेखे, रखे उधाड़ं अंग रे देखे। १० । 
ते माठे शिरना केश, तेणे ढांक्यूं - ते अंग सुवेश,, 
जोई ऋषि नारद सिधाव्या, शिव पासे गंगातटे आव्या | ११॥० 
आचबी बोल्या शिवशूं वाणी,मारी वात सुणों .बझूलपाणी, 

तमे धरी बेठा शुं ध्यान ? घेर प्रगटयां छे बे संतान । १२ । 
एवं सांभव्तां तत्काछ, ऊठी अंगर्मां मोटी. ज्वाह्, 

एवं कहीने चाल्या छे मुन्य, महादेव हवा अति शुन्य | १३ । 








लगी। उन्होने वाल खोल दिये; और आँखें मूंदकर वे प्रत्यक्ष (स्तान 
करने के लिए) बैठ गयी । ७ हि 
उस समय ऋषि नारदजी ब्रह्माजी की सभा में (उपस्थित) थे । 
उन ऋषि ने मन में विचार किया-- “' मै निश्चय ही वहाँ जाऊँगा | ८ 
(और) शिवजी और उमाजी के बीच झगड़ा (उत्पन्न) करा दूंगा । ” 
ऋषिराज ऐसा विचार करके, जहाँ उमाजी बैठी हुई थी, (अर्थात्‌) नहा 
रही थी, वहाँ अन्तरिक्ष से आ गये । तब पार्वती ने उनकी परछाई देखीं। 
उन्होने समझा (सोचा) मैं अच्छी तरह से वस्त्र पहन लूँ; - कदाचित कोई 
मेरा खुला अर्थात्‌ अनावृत अंग देख ले । ९-१० इसलिए उन्होने मस्तक 
के वालों से अपने तन को (बैठे-बैठे) अच्छी रीति से ढाँक लिया । यह 
देखकर नारद ऋषि सिधार गये और गगा-तट पर शिवजी के पास आ 
गये । ११ वे आकर शिवजी से यह बात वोले, ' हे जश्लपाणि, मेरी बात, 
सुनिए। आप (यहाँ) ध्यान धारण करके क्या बैठे ” (उधर, आपके) 
घर दो सन्‍्ताने उत्पन्न हो गयी है। ”'। १२ ऐसा सुनते ही शिवजी के 
शरीर में तत्काल (क्रोध रूपी) अग्नि की ज्वाला उठ गयी (उत्पन्न हो 
गयी)। (उधर) इस प्रकार कहकर, (नारद) मुनि चले गये थे (और 
इधर) महादेव शिवजी अति (विवेक-) शून्य हो गये । १३ , जब शिवजी 


प्रेमाननद-रसामृत (ओखाहरण ) ७ 


शिव घरमां पेसे ज्यारे, पेले जोड़े वार्या त्यारे, 
अल्या चोरटो छे के भिखारी, नहावा बेठां छे मात अमारी | १४ । 
शिव घरमां पेसे ज्यारे, जोद्े अठकाव्या त्यारे, 
मांहोमांही थयो संग्राम, बेमां कोई न छांडे ठाम। १५। 
जटा सहीने नाख्या छे ईश, महादेवने चडी अति रीस, 
ढींका पाटु ने गडदों साथ, अन्योअन्य भीडी छे बाथ। १६। 
घाया भूत भैरव बैताछ, रणे कोप्यो उमियानो बाह्व, 
घणुं कोप्या श्रीतिपुरारी, गाज्या गणपति बहु रीस धारी। १७। 
बेउ .सरखा छे बल्ठवंत, घणुं कोप्या ते उमियाना कंथ, 
_कोप्या गणपति ते बहु अंग, सर्व सेनानो कीधो भंग । १८। 
नाठी सेना देखी बल्लधीश, कोप्या गणपत्ति कोप्या ईश, 
बेनूं रूप भयंकर भासे, देखी मुनिवर नावे पासे। १९। 


घर मे प्रवेश कर रहे थे, तब उस योद्धा (गणेश) ने उनको रोक लिया । 

वह बोला-- “अरे चोर है या भिखारी ! हमारी माता स्नान करने बैठी 
है '। १४ शिवजी जब घर मे पैठ रहे थे, तब उस योद्धा ने उन्हें रोक 
लिया। उत्त (दोनों) के बीचोबीच संग्राम (आरम्भ) हो गया। उन 
दोनों में से कोई भी अपना स्थान नहीं छोड़ रहा था। १५ (जब) 
भगवान महादेव को .उस योद्धा (गणेश) ने जटाएँ पकड़कर हटा दिया, 
तो उन्हें बहुत क्रोध आ गया। (एक-दूसरे पर) घंसे, लातें और मुक्‍्के 
जमाते हुए वे एक-दूसरे से भिड़कर लड़ रहे थे। १६ जब रणभूमि में 
भूत, भैरव और वेताल दौड़कर आ गये, तो उम्ाजी का वह पुत्र क्रुद्ध हो 
उठा। (उधर) तिपुरारि शिवजी बहुत कुपित हो उठे। (फिर) 
गणेशजी बहुत क्रोध से गरज उठे । १७ वे दोनों (एक-दूसरे के सम-) 
समान बलवान थे। (फिर) उमापति शिवजी बहुत क्रुद हो गये। 
(इधर) गणेशजी भी स्वयं बहुत क्रुद् हो गये और उन्होंने शिवजी की 
समस्त सेना को भग्त अर्थात तितर-बितर कर डाला । १८. बल के उस 
अधीश (ईश्वर) को देखकर सेना भाग गयी, तो गणेशजी क्रुद्ध हो गये । 
(उधर) ईश अर्थात शिवजी (भी) कुपित हो उठे । उन दोनों का रूप 
हे दिखायी दे रहा था। उन्हे देखकर मुनिवर उनके पास नहीं-आ 
रुंथीे।१६९६ | 


श्८ गुजराती (नागरी लिपि) 


ढाछ 


जटिल जोगी ने भस्मभोगी, दीसंतो अवधूत, 
आज्ञा बिना अधिकार न जावा, जो होय पृथ्वीनो भूषप-। २०.। 


वचन. एवं. सांभव्ठीने, कीपिया शिवराय, 
तिज्यूल मारी शिर छेदियूं, जई पड़युूं चंद्ररथ मांय।-२१॥। 
ओखा मनमां त्रास पामी, देखीने दारुण करें, 
मातानी पासे कहेवा न गई, नव लक्यों आगछ मम २२॥।: 
महादेव मंदिरमां गया, झबकक्‍यां ते उमिया मन, 
तेत उधाडीने नीरखिया, शिरकेशे ढांक्यूं तन-। २३४। 
वस्त्॒ पहेरीनि थयां बेठां, पूछियूं. शिवसय, ु 
बे बाक॒क तो बारणे मृक्‍यां, केम आव्या मंदिर मांय ? । २४ । 
शिव कहे शिर छेंदियूं, पेलो पुरुष हूतो जेह, 
सत्रीहत्या में नव करी, जीवती तो मूकी तेह। २५। 
एम कहेतां उमिया पड़यां पृथ्वी, ए शु कीधुं शिवराय'? 
अंग थकी उत्पन्न कर्या, बेउ बाछक॒क तमारां थाय।२६.। 
४ आप जटाधारी योगी और भस्म भोगी कोई अवधृत दिखायी दे रहे 
है। (परल्तु आप) यदि पृथ्वी के राजा (भी) हों, तो भी आपको बिना 
आज्ञा के (अन्दर) जाने का अधिकार नही है । (.। १० गणेशजी की 'ऐसी 
बात. सुनकर शिवराजजी कुपित हो उठे और उन्होने त्रिशुल मारकर' उनका 
सिर छेद' डाला। वह(सिर)जाकर चंद्ररथ नमाक पक्षेत पर गिर गया-। २१ 
इस दारुण कम को देखकर ओखा मन मे भय को प्राप्त हो गयी । वह 
माता के पास (इस सम्बन्ध मे कोई समाचार) कहने नहीं गयी । वह 
आगे के मर्म को नहीं समझ पायी। २२ (तदनन्तर ) शिवजी घर के अन्दर 
गये, तो'उमाजी मन मे चौक उठी। उन्होने आँखें खोलकर देखा और 
अपने तन को मस्तक के बालो से छिपा दिया । २३ (फिर) जब वस्त्र 
पहनकर वे बैठ गयी तो उन्होने शिवरायजी से पूछा, “ मैंने दो बालकों को 
द्वार पर रखा था, तो आप घर के अन्दर कैसे आ गये ?” | २४ (इसपर) 
शिवजी ने कहा, “ जो पुरुष था, मैने उसका मस्तक छेद डाला । मैने उस 
स्त्री की हत्या तो नहीं की --उसे मैने जीवित ही' छोड दिया । '। २५ 
उनके इस प्रकार कहते ही उमराजी भूमि पर लुढक गयी (और बोलीं)-- , 
/ हे शिवरायजी, आपने यह क्‍या किया ? मैने उन्हें अपने अंग से उत्पन्न 
किया था। वे दोनों वालक आपके ही थे। २६ अभी मै अपने प्राण 


कि 





प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण) ४ 


हमणां ते मारा प्राण कहाडं, कां जिवाडो एह, 
शिव कहे, शिर छेंदियूं, जई पड़यूं पर्वत तेह। २७। 
एक मूरतमांही मस्तक आणी, मेहलो ते एने अंग, 
नंदी भूंगीने ,मोकल्या, जई जोयां पर्वतशूंग। २८ । 
मस्तक तो लाध्यूं नहि, एक हस्ती दीठो वन, 
एकदंत ने महा उनमत्त, जई विदा, तन। २९। 
मस्तक लईने आविया, शिव उमिया केरी पास, 
महादेवे मस्तक चोडियूं, वरदान दीधूं हाथ। ३०। 


मारे हाथे दुःख ज पाम्यो, मुज पहेलो पूजाय, 
शुभ कामे स्मरण करे, तेनूं सिद्ध कारज थाय। ३१॥। 


वलण (तर्ज बदलकर ) 


वरदान एवं आपियूं, शिव तेणे ठाम रे, 
पहेली पूजा करी पोते, गजबदन धरियूं नाम रे।३२.। 
निकाल देती हूँ अथवा उन्हें जीवित करा दो ।! (यह सुनकर) शिवजी 
बोले, “ मैने उसका मस्तक छेद डाला --वह जाकर पर्वत पर गिर गया 
है। २७ एक है ते में उस मस्तक को लाकर उसके अंग मे जोड़ दो । * 
ऐसा कहकर उन्होने नन्‍्दी और भृगी को भेज दिया उन्होंने जाकर 
पर्वत शिखरों पर देखा । २८. (परन्तु) उन्हे (कही भी) वह मस्तक नही 
मिला । उन्होंने वतन में एक हाथी देखा । वह एक दाँत वाला,और महा 
उन्मत्त था। जाकर उन्होंने उसका शरीर विदीर्ण कर डाला। २९ 
(तदनन्तर) वे उस (हाथी) के मस्तक को लेकर वे शिवजी और उमाजी 
के पास आ गये; (तब) शिवजी ने वह मस्तक चिपका दिया और उसपर 
हाथ रखते हुए यह वरदान दिया-- “ तुम मेरे हाथों दुःख को प्राप्त नही 
होओगे और मुझसे पहले तुम पूजे जाओगे; जो शुभ कार्य करते समय 
तुम्हारा स्मरण करेगा, उसका कार्य सिद्ध (सफलता के साथ पूरा) हो 
जाएगा (| ३०-३१ 


शिवजी ने गणेशजी को उस स्थान पर ऐसा वरदान दिया और स्वयं 
पा प्रथम पूजन किया तथा उसका नाम गजवदन (गजानन ) रख 
या।।॥३२ 


५० गुजराती (नागरी लिपि) 


कडवुं उमुँ--( उम्ाजी द्वारा ओोखा फो अभिक्षाप देना ) 
राग माह 


_ उमरिया आव्यां ते मंदिर बहार, नव दीठी ते ओखा कुमार, , 


मीठानी कोठडी हुती ज्यांहे, कन्या नासीने पेठी त्यांहे । 
उमियाने क्रोध चड़यो अपार, ओखाने शाप दीधो तेणी वार, 
त्यार पूंठे ते शृं थाय, तेनी कहूँ हवे कथाय। १ । 


ढाक्व 

शाप पुत्रीनी हवो, ते सांभछो कहुँ राय, 
वरस एक लगण पुत्री, रहेजे लवणनी मांय। २ । 
वचन एवं. सांभलछीने, दुःख पामी मन, 
लवण मध्ये कोमकछ काया, केस जाशे वरस दन ?॥ ३ । 
गदगद कंठे ओखा बोली, दया करो मुज मात, 
अपराध किचित्‌ मात्र छे, तेमां आवडी शी घात ?। ४ । 
में शाप तमारों शीश चडाव्यो, अनुग्रह केम थाय ? 

माता कहे महिमा वाधशे, तारो मृत्युलोकनी मांय। ५ । 


की कक कम की न कम आय कक 


कड़वक ७--( उमाजी द्वारा ओखा को अभिशाप देना ) 


उमाजी (जब) घर के बाहर आ गयी, तो उन्होंने ओखाकुमारी को 
नहीं देखा। (वस्तुतः:) वह कन्या, भागकर वहाँ प्रविष्ट हो (-कर बैठ) 
गयी, जहाँ नमक की कोठी थी । (यह देखकर) उमाजी को अपार क्रोध 
आा गया और उन्होंने उस समय ओखा को अभिशाप दिया। तब उसके 
परचात्‌ क्या हो गया, उसकी कथा मैं अब कहता हूँ । १ 
.. है राजा, (उमाजी से) कन्या (ओखा) को जो शाप प्राप्त हो गया, 
मैं वह कहता हूँ, सुन लो, “री पुत्ती, एक वर्ष तक तू लवण (नमक) में रह 
जाना ।२ ऐसा वचन सुतकर वह मन में दुःख को प्राप्त हो गयी । 
यह कोमल काया (-धारिणी कन्या) लवण में एक वर्ष के (समस्त) दिन 
कसे (रह) जाएगी । ३ (तब) गदगद कण्ठ से (स्वर में) ओखा बोली, 
“हे माता, मुझपर दया करो । (मेरा) अपराध तो किचित मात्र है, उसमें 
(उसके लिए) इतना आघात (दण्ड) कैसा । ४ (फिर भी) मैंने तुम्हारे 
(दिये) अभिशाप को शिरोधार्य कर लिया (आदरपूर्वक स्वीकार किया, 
भव बताओ), अनुग्रह कंसे होगा (शाप से मुक्ति कैसे होगी) । ” (यह 
सुनकर) माता वोली, ' मृत्युलोक में तेरी महिमा वढ़ जाएगी !। ५ 


प्रैमाननन्‍्द-रसामृत (ओंखाहरण) भ्पे 


पछी पार्वतीजीए प्रेम आणी, कह्यो मास ज एक, 
वरस आधे उत्तम कहिये चेत्र मास . विशेक । ६ । 
ते मासे ते लवण केरो, करे संग्रह जेह, 
पार्ववीजी पुत्रनीनी कहे, ते दुःख पामे देह। ७ । 
चैत्र मासे ब्रत अलूणूं, करे जे स्व्रीजन, 
संसारनां सुख भोगवे, पामे पुत्र कलत़् ने धन। ८ । 
चैत्र केरा दिन तीसे, अन्न अलूणूं खाय, 
माता कहे सत्य जाणजो, ते स्वगंवासी थाय। ९ । 
माता कहे, महिमा कहूं, एवो चेत्र ,निर्मेठ्ठ जाण, 
एक मास अलूणूं न करे, तेनुं मिथ्या जीव्यूं जाण। १०। 
व्रत 'करीने दान करवुं, लवण केश जैेह, 
आख्यान सांभछ्के पातक जाये, निर्मक् थाये देह। ११। 
पांच दहाडा पाछला, ब्रत करे स्त्रीजन, 
करे भोजन लवण पाखे, एक उज्ज्वक्त अन्न । १२। 
हूँ शापमोचन तुणने कहुँ छुं, ओखाने कहे छे माय, 
श्री भगवानकुछमां वर थशे, ते ग्रहशे तारी बांय। १३.। 





अनन्तर पार्वती ने मन में प्रेम लाते हुए अर्थात्‌ अनुभव करते हुए कहा, 
“ वह (अवधि) एक मास ही हो । वर्ष के आरम्भ में. चैत्र मास को विशेष 
रूप से उत्तम कहते है ।६ पावंती पुत्री से बोली, “ उस मास में जो 
लवण का संग्रह करे, वह दुःख को प्राप्त हो जाएगा । ७ जो स्त्रियाँ चेत्र 
मास में अ-लवण (अलोना) ब्रत रखे, वे संसार के सुखों का भोग करेंगी, 
वे पुत्र, (पुत्न-) स्त्री अर्थात्‌ पुत्नवधू, और धन को प्राप्त होंगी ।८. (अतः) 
चेत्र के तीसो दित लवण-हीन अन्न खाएँ।”' माता ने कहा, “ इसे सत्य 
समझना कि वह (स्त्री) स्वर्ग की निवासी हो जाएगी (मृत्यु के पश्चात्‌ 
वह स्वगे में निवास को प्राप्त हो जाएगी) ।९ (फिर) माता ने 
(आगे) कहा, “ मै यह माहात्म्य कहती हूँ । चैत्न मास को ऐसा निर्मल 
(पवित्न) समझना । जो एक मास अलोना ब्रत न रखे,, उसका जीवित 
रहना सिथ्या (व्यर्थ) समझना | १० जो (ऐसा) ब्रत रखकर लवण 
दान दे, और (तेरा) आख्यान सुन ले, उसका पातक दूर हो जाएगा और 
उसकी देह निर्मल (पवित्र) हो जाएगी। ११ स्त्रियाँ पिछले पाँच,दिन 
व्रत रखें, बिना लवण के, (लवण-हीन) उज्ज्वल भोज्य वस्तु का सेवन 
करें । १२ माता (उमाजी) ने ओखा से कहा, ' मै तुझसे शाप-मोचन 
कहती हूं। श्री (कृष्ण) भगवान के कुल में तेरा वर (उत्पन्न) हो जाएगा 


५२ जराती (नागरी लिपि) . 


सर्वे दोष टठक्शे ते थकी, . सांभक्क ओखाबाई, 
संतोषी .एम ए सर्वे कही, आनंद पाम्यां सही । १४ । 
पछे. ओखा लवणमां पेठी, , शाप मटाडवा काज, 
शुकदेव कहे परीक्षितने, कहु बाणासुरतूं काज। १५। 


वलण (तर्ज बदलकर ) 
कथा कहुं ते सांभछो, धरीने एक ध्यान रे, 
ते पछी शुं नीपज्युूं, विस्तार राजन रे।१६। 


और वह तेरी बॉह पकड़ेगा, (तेरा पाणि-ग्रहण करेगा) | १३ .री 
ओखाबाई, सुन ले, उससे तेरे समस्त दोष टल जाएँगे '.। इस प्रकार यह 
सब कहते हुए उमाजी ने उसे सन्तुष्ट कर दिया और वे (स्वयं) सचमुच 
आनन्द को प्राप्त हो गयी। १४ अनन्तर ओखा शाप (को भोगकर) 
मिटाने के हेतु लवण (की कोठी) मे प्रविष्ट हो गयी । शुकदेव परीक्षित 
से बोले-- मैं (अब) बाणासुर का कार्य कहता हूँ । १५ 

मै जो कथा कहने जा रहा हूँ, उसे एकाग्र ध्यान धारण करके सुन 
लो। हे राजा, उसके पश्चात्‌ क्या घटित हो गया ? मै उसका विस्तार 
(-पूर्वेक वर्णन) करता हूँ । १६ 


।... फडवुं ८ मुं--( बाणासुर का सन्‍्तान-प्राप्ति के हेतु तपस्या के लिए गमन ) 

राग वेराडी 
एक समे चंडालणी, ऊभी राजद्वार, 
वासीहुं वाढी करी कीधूं झाकझमाक । एक समे० (टेक) 
राज ते सूता ऊठिया, अति प्रातःकाल, / 
मुख आडी संमारजनी राखी रे चंडाकू | एक समे० | २ । 


कड़वक ८-६ बाणासुर का सन्‍्तान-प्राप्ति के हेतु तपस्या के लिए गन ) 


एक समय एक चण्डीलनी (चण्डाल जाति की झाड़ू लगाने का काम 
करनेवाली दासी) राज-द्वार पर खड़ी थी। उसने कड़े-करकट को 
झाड्‌ ,लगाकर (उस स्थान को) स्वच्छ चमकदार (उज्ज्वल) कर 
दिया । एक समय० । १ राजा '(बाण) सोकर बड़े तडके उठ गया, तो 
उस चण्डालनी ने बीच में झाड़ू आड़ा धरकर (अपने) मुँह को छिपा 
लिया । एक समय० | २, यह देखकर बाणासुर ने समस्त (बात) 
विस्तार-पूर्वंक पूछी-- ' री नारी, तूने मुख के आड़े झाड़ू क्‍यों (धर) 


क्ध 


प्रेमानन्द-रसामृत (औखाहरण ) "५३ 


ते जोई बाणासुरे पृछियो, सघछ्ोो विस्तार, ' 
मुख आडी संमाजनी, केम राखी ते, नार ? | एक समे० । ३ । 
चंडालंणी कहे रायजी, सांभठो महाराज, " 


वहाणामां मुख केम दाखवूं, जाणी कीधी में लाज | एक समे० । ४ ै। 
राज कहे सत्य बोल तूं, नहितर देशुं रे दंड, पु 
शा साटे आडी धरी, संमार्जती रंड ? । एक समे० । ५ । 
वल्॒ती चंडालणी एम वदे, सांभक्ठों रे भूपाहछ, हि 
'साचुं बोल छूं हुं. हवे, रखे देता रे गाढ़ । एक समे० । ६ । 
प्रातसमे. जोवूं . नहीं, वांशियानूं. बदन, । 

तमारे कांई छोरू नथी, “सांभछोने राजन । एक समे० | ७.। 
ते माटे संभाजनी, आडी कीधी में राय; 

साचुं बोली छुं, जे घटे, तेवो करजो रे न्याय | एक समे० । ८ । 
राजाए सत्य मान्यूं सही, नव कीधो रे क्रोध, ु 
राज मृकी कलासे गयों, बाणासुर जोध | एक समे०। ९ ॥ 


तप करवा ,वेगे गयो, दृढ राखी विश्वास, 
ध्यान धर्य महादेवनूं, मुंने पुत्ननी आश | एक समे० । १७० 


रखा ' ? । एक समय० । ३ (इसपर) वह चण्डालनी बोली, : हे राजा, 
सुनिए। हे महाराज, मैं मुँह-अँधेरे (अपना ) मुँह (आपको ) कैसे दिखाऊँ ? 
“ऐसा समझकर (कि मुझे आपको मूँह नही दिखाना चाहिए) मैने (आपके 
सामने लाज अनुभव करते हुए मर्यादा-पालन के: हेतु झाड़ू पकड़कर) ओट 
(परदा ) की _.। एक समय०। ४ (इसपर) राजा बोला, “तू सच (-सच ) 
कह दे, नही तो तुझे दण्ड दूंगा। री रण्डी, तूने झाड़ू आड़े क्‍यों धर 
दिया ? '। एक समय ० | ५ फिर (प्रत्युत्तर में) उस चण्डालिनी ने ऐसा 
कहा-- ' है भूपाल, सुनिए । मै अब सच बोल रही हँ। कदाचित्‌ आप 
गालियाँ देगे । एक समय०। ६ प्रातःकाल बॉझ (सनन्‍्तानहीन व्यक्ति) 
का मुँह नहीं देखना चाहिए। हे राजा, सुनिए। आपके कोई सन्‍्तान 
नहीं है। एक समय०।७ इसलिए है राजा, मैने झाड़ू को जाड़े 
कर लिया। मैने सच कहा है। जो उचित हो, आप वैसा न्याय 
करना (। एक समय० । 5 (तब) राजा ने उसे निश्चय ही सत्य माना 
ओर उसपर क्रोध नहीं किया। (फिर) वह योद्धा बाणासुर राज्य 
छोड़कर कैलास पर गया । एक समय० । ९ (मन मे) दृढ़ विश्वास रखते 
हुए वह वेग-पूर्वक तपस्या करने चला गया और अपने 'लिए पुत्न-प्राप्ति की 
आशा से उसने महादेव शिवजी का ध्यान धारण किया । एक समय०। १० 


के 


ध्र्छृ गुजराती (नागरी लिपि) 


कढबुं & मुं-.. ( आयायुर को पुत्री रूप में ओखा फी प्राप्ति ) 
राग, मार 


तैणे समे राणी कहेवा रे लागी, जोई राजन रूप, 
बाणमती एम बोलियां, राय थयो वृद्ध स्वरूप | १। 
राय, ए बरने शूः लाविया, तमारी कोण आवशे संग ? 
विया ? हुँ हुलावत उछरंग। २ । 
नाणमती दुःख पासी कहे, बहु बढ तणं शुं काम ? 
संतान भारे कांई नथी, शिर वांशियानूं. नाम | रे । 
राये रिधस्तिध ताग कीधी, चलियो वन मांहे, 
कैलासग्रिरिए आवियो, ब्रेठा छे शिवजी ज्याहे । ७ | 
तातने चरणे , लागियो, तब पछयूं. शिवराय, 
संतान मारे कांई नथी, कांई पुत्र पत्नी थाय। ५ 
त्यारे पाव॑तीजी बोलियां, मारे उते एक गणेश, ,, 
ते तो आप्यो जाय नहीं, तिलोकनो देवेश | ६ । 
अपत्य को ओआपे - नहीं पोतान॑ संतान 


पैत्रीश कोटीए पूजा गन 5 गज गा का धैल्युलोकमां मात। ७; 
090 8 0 मय लए पक 
फैड़वक ४--( ताणापुर को पुत्नी रूप में ओखा की प्राप्ति ) 


उाजा (वाणासुर) के जप को देखकर उस प्रमय रानी उससे कहने 
लगी । (रानी) वाणमती इस प्रकार बोली | (उस समय वह) राजा 
वृद्ध याधा।१ *हे 0 आप यह क्या वर लाये है ? 


आपके साथ कौन ताएगा ? आप कोई सन्तान क्यों नहीं (माँग) लाये ? 
में उसे ते झुला देती । वे को प्राप्त होकर 
(फिर) बोली, * “हू बल का क्या काम (उपयोग) ? भ्ेरे कोई सन्तान 
चही है। अतः सिर पर बाँझ गाम लगा है '। ३ (पत्पश्चात्‌) राजा 
ने ऋद्धि-सिद्धि का कब वन में चला गया। वह कैलास-परवत 
वा गया, जहूँ मे लेठे थे (तक है तात (अर्थात्‌ पिता: प्‌ 
के पाँच 3गा, और शिवजी से वोला, * भेरे कोई बता नहीं है; जप 
उते-उत्ती हो जाए '। ५ तव पाव॑त्ीजी बोली, ४ मेरे एक पृत्त है गणेश | 
84008 का देवेश्वर है, _ह तो नही दिया. जा परकेता। ६ जो अपनी 
>पर्य की सन्तान है, वह पच्तान तो कोई (किसी को) नही दे सकता । 
मेरे इस अत का तेतीस करोड देव पूजन करते 


है 


रे | सृत्युल 
पन्‍्मान होता है। ७ देव ओर दैत्य में प्रीति नही हो सकती, देव और 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) ४५ 


देव दैत्यमां प्रीत न होय, पिता 'पुत्र॒ न थाय, 
वचन एवं सांभक्छी मन झांखो थया ए राय। ८ । 
पछे उमाए शिवने कहयूं, पुत्री लवणमां ले जेह, *' 
तेने त्रीश दहाडा थया पूरा, आपोने पुत्री 'तेह। ९'। 
त्यारे पुत्री कहेवा लागी, सांभकछों ' मुज मात, 
कैलासे हुं कक्‍्यारे आवबुं; सत्य कहोने वात। १०-। 
फागण वद तृतीयाने दिवस, तुं आवजे मुज पास, 
गोर करीश जे पुत्री मारी, तो 'पूरीश तारी आश।॥ ११। 
ते भय भाजन लईने चालयो, लवण मध्य कुमार, . 
माथे चडावी थया मारग, आव्यो नगर मोझार | १२। 
पछे भाजन भांगीने कन्या कहाडी, दीठुं ते सुंदर- रूप, 
* पंचामृते पखाढी करी, शणगार सजाव्या भूप। १३॥। 
भाट चारण गुणी गंधवेने, त्यां आपियां बहु दान, 
तरिया तोरण बांधियां, जाणे पुत्री पुत्र समान। १४ । 
गजे बेसाडी नगर मध्ये, फेरवी लाव्यो राय, 
वाजित्र वाजे अति घणां, वक्वी बंदी जश बहु गाय। १५॥। 





दैत्य एक-दूसरे के पिता-पुत्र नही हो सकते '। ऐसी बात सुनकर वह 
राजा मन में तेजोहीन अर्थात्‌ उत्साह-हीन हो गया । ८ अनन्तर उमाजी 
ने शिव से कहा, “ जो कन्या लवण (की कोठी) में (बेठी हुई) है, उसे तीस 
दिन (वहाँ बैठे) पूरे हो गये है। वही पुत्री इसे दे देना। ।९ तब 
वह कन्या कहने लगी, “ हे मेरी माता, सुनो, मैं कैलास पर कब आऊ ? 
सच्ची बात कहो '। १० इसपर पार्वती बोली, “ फाल्युन वच्य तृतीया के 
दिन तूं मेरे पास आ जाना । मेरी पुत्री, यदि तू गौरी-ब्रत सम्पन्न करेगी, 
तो मै तेरी अभिलाषा पूर्ण कर दूंगी, । ११५ वह भरा हुआ पात्र लेकर चल 
दिया। (उस पात्र के अन्दर) लवण में (ओखा-) कुमारी (बेठी हुई) 
थी। उस पात्र को सिर पर चढ़ाकर वह अपने मार्ग पर चल दिया और 
नगर में आ गया । १२ अनन्तर उस पात्र को फोड़कर (उसमें से) उसने 
कन्या को निकाल लिया और उस (के) सुन्दर रूप को देखा । उस राजा 
ते (अनन्तर) उसे पंचामृत से स्नान कराते हुए श्ूृंगार सजा दिया.। १३ 
(फिर) उसने वहाँ भाटों, चारणों, ग्रुणीजनों (कारीगरों), गन्धर्वों को बहुत 
दान दिये। उसने जरी के तारो से युक्त तोरण बनवा लिये और उस पुत्री 
को पुत्र के समान मान लिया | १४ राजा उसे हाथी पर बैठाकर नगर के 
अन्दर घुमा लाया। (उस समय) वाद्य अति घनघोर बज रहे थे। इसके 


प्र्द्द , गुजराती (तवागरी लिपि) 


शुकदेव कहे, परीक्षित सुणो, पहेली देवकन्या राय, 
संदेह मननो टाछिये, पछी देत्यपुत्री थाय।१६। 
नित्य. राजसभामां बाण बेसे, धरे बहु अभिमान, 
एवं जोईने ,बोलियो कोभांड जे परधान। १७। 
गये न कीजे रायजी, कांई मन विचारी जोय, 
पांच दहाडा पुरुषने कांई छाया फरती होय। १८। 


वलण (ते बदलकर ) | 
छाया फरती पुरुषने, सरखी सदा न होय रे, 
गव॑ कदी नव कीजीए, मानों राजा सोय रे।१९। 


अतिरिक्त बन्दीजन उसका यश बहुत गा रहे थे । १५ शुकदेवजी बोले, 
“हे परीक्षित, सुनो। हे राजा, वह (ओखा) पहले देव-कन्या थी ओर 
तत्पश्चात्‌ उस दैत्य (बाणासुर) की पुत्री हो गयी। (इसे सुनकर 
अपने) मन के सन्देह को दूर कर दो '। १६ बाणासुर नित्य राजसभा में 
बैठता था। उसने मन में बहुत अभिमान धारण किया। ऐसा देखकर 
कौभाण्ड नामक उसका जो मन्त्री था, वह बोला । १७ हे राजाजी, गर्व 
न कीजिए। मन में कुछ विचार करके तो देखिए। पुरुष के लिए पाँच 
दिन में , (पश्चात्‌ भाग्य-छूपी ) छाया कुछ बदल जाती है। (५. .,, 

(भाग्य-रूपी ) छाया पुरुष के लिए बदलती रहती है। वह सदा 
समान नही होती । (अतः) हे राजा, यह मान लीजिए (और) कभी भी 
गवे न धारण कीजिए | १९ 


(६ हे 
कडवुं १० मुं--( बाणासुर द्वारा पुत्री का विवाह न करने का निश्चय करना ) 
| राग रामेरी , 


बाणासुरर नृूपष ओचर्यो, देशूं ते कन्यादान, 
तेने पुण्ये,, पामशं -फछ, कोटी यज्ञ समान। १ । 





कड़वक १०--( बाणासुर द्वारा पुत्नी का विवाह न करने का निश्चय करना ), 
(असुरो का) राजा बाणासुर बोला, “हम अब कन्या-दान करेंगे। 
(अर्थात. कन्या ओखा का विवाह करेंगे) ।, उससे कोटि यज्ञों के फल. के 
समान फल को हम प्राप्त हो जाएँगे। ”'। १ (उस समय) आकाशं-वाणी 


प्रेमानन्‍द-रसामृत (ओखाहरण ) ५७ 


आकाशवाणी एम हती, सांभछ्जे राय निरधार, 
पुत्री इच्छावरे परणशे,  कारणरूप कुमार। २ | 
त्यारे राजा विस्मय पाम्यो, छे कांई कारण वात, 
आकाशवाणी एम हवी, कांई वरतशे उत्पात। ३ । 
शुक्राचायने तेडिया, प्रश्न प्छ्युं राय, 
आकाशवाणी सुणीने, सने चिता मन बहु थाय। ४ । 
जन्मपत्रिका करो एहनी, अशुभ ग्रह जे होय, 
तेने हुं कर पाधरा, कर मूछ घालयो सोय। ५ । 
श॒ुक्राचायं ज बोलिया ए बक तणूं नहि. काम, 
विचारीने जोने राजा, मनमां मोटी हाम। ६ । 
ते भविष्य टालयूं नव टक्े, सहु कहे जे आडे आंक, 
निमित्त को छूटे नहीं, त्यां ग्रह तणों शो वांक 7? । ७ । 
जन्मपत्रिकाि करी एहनी, सांभक्क राजकुमार, 
ए कन्या ज्यारे परणशे, त्यारे वरतशे हाहाकार। ८ । 








इस प्रकार हो गयी, “हे राजा, निश्चय (-पुवंक) यह सुन लो-- 
(तुम्हारी) यह पुत्री कारण-स्वरूप अर्थात समस्त रूपो के आदिमूल स्वरूप 
(से उत्पन्न किसी) श्रेष्ठ कुमार का अपनी इच्छा के अनुसार बरण 
करेगी । '.।२ तब (यह सुनते ही) राजा विस्मय को प्राप्त हो गया 
(और उसने समझा कि )-- अवश्य इस बात का कोई कारण (हो सकता ) 
है। आकाश-वाणी इस प्रकार हुई, तो कुछ उत्पात हो जाएगा। ३ 
(तदनन्तर) राजा ने (गुरु) शुक्राचार्य को बुला लिया और उससे प्रश्न 
किया (ओर कहा), “आकाश-वाणी को सुनकर मुझे मन में बहुत चिन्ता 
हो रही है [४ आप इस (कन्या) की जन्म-पत्रिका बना लीजिए; यदि 
(इसके लिए कोई) ग्रह अशुभ हो, ती उसे मै सीधा कर लूँगा। 
(फिर) उसने मूंछो पर हाथ रखा, अर्थात मूँछों पर ताव दिया । ५ तब 
शुक्राचायं ही ने कहा, "यह बल का काम नही है । हे राजा विचार 
करके देखना, (इसके लिए) मन में बडा साहस होना चाहिए। ६ 
सब जो कहते है, उसकी कोई एक चरम सीमा होती है; फिर भी भविष्य 
(होनी) टाले नही टलता। कोई भी हेतु (लक्ष्य) से छूटता (चूकता) नही 
(होनी से बच नहीं पाता)। यहाँ (उसमे) ग्रहों का क्‍या दोष । ७ 
हे राजा, मैने इस (कन्या) की जन्म-पत्रिका वना ली है --उसे सुन लो । 
जब यह कन्या परिणय (विवाह) करेगी, तब हाहाकार मच जाएगा | ' | ८ 
(यह सुनकर) राजा मन में विचार करते हुए शुक्राचार्य से इस प्रकार 





प्र् गुजराती (नागरी लिपि) 


मन विचारी राजा बोल्यो, शुक प्रत्ये एम, 
ए कन्या नव परणावूं, ए वाततन्तो मारे नेम। ९ । 


वलण (तर्ज बदलकर ) 


नियम मारे ए वातनों जे, परणाववानों हुं नहीं, 
विप्र प्रेमानंद कहे ओखाने, माहछ्ियि चडावीए सही | १०। 


साखी 


एम कहीने माह्ियि, राखी भओखाबाई रे, 
रखवाछों बहु मूकिया, सुणो परीक्षितराय रे। ११॥। 


बोला, “ मै इस कन्या का व्याह नही करूँगा । इस वात के वारे में मेरी 
यह प्रतिज्ञा है,। ९ 

इस वात के बारे मे मेरी यह प्रतिज्ञा हैं कि मै (अपनी कन्या का) 
विवाह नहीं करूँगा।' (कवि) विप्र प्रेमानन्द कहते है-- (तदनन्तर 
राजा बाण ने कहा-- कन्या) ओखा को निश्चय ही (ऊपर वाली ) कोठी 
मे चढ़ा दे । १० 

(शुकदेवजी बोले--) हैं राजा परीक्षित, सुन लो, ऐसा कहकर 
(बाणासुर ने) ओखाबाई को (ऊपर वाली) कोठी मे रख दिया और 
(वहाँ) अनेक पहरेदार (रक्षक नियुक्त कर) रख दिये। ११ 





कडबु ११ मु--( उमाजी द्वारा ओखा को वरदान देना ) 
राग ललित 
ऋषि कहे सुण राय अनुभवी, एक कथा मध्य बीजी नवी, 
बाणासुर वर पामीने वकयों, ते एकलो मृगियाए पछयो। १ । 
महावनमां गयो राय बाण, सारंगने कर्यो सावधान, 
मृगियाए गयो ए वनमां तात, ओखा चित्नलेहाए जाणी रे बात । २ । 


च्ल््लजिजि-ज लि िििवचच्च्चचच्चज जि जल जज +तहज बल >ल तरल 
लि लि चलन 


कड़वक ११--( उम्ताजी द्वारा ओखा को वरदान देना ) 
(शुकदेव) ऋषि बोले-- हे अनुभवी . (प्रत्यक्ष ज्ञानी) राजा, इस बीच एक 
दूसरी लयी कथा सुनो। (कन्या-स्वरूप) वरदान प्राप्त करके वाणासुर 
लौट आया और (कुछ दिन पश्चात) वह मृगया के लिए अकेला (चला) 
गया । १ राजा वाण किसी महान वन के अन्दर चला गया और उसने 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) शरद 


चित्रलेहाने कहे ओखाय, चालो सहियर पूजीये उमियाय, 
चंदनपात्र, कुसुमना रे हार, श्रीफकछ फोफक मुक्‍यां सार । ३ । 
नैवेय बिजोरां ने शर्करा सार, पूजाथाछ ग्रही नार, 
उपहार लईने चाल्यां सती, मनर्मा विरहनी थई चटपटी । ४ । 
गंगा नाहवा गयां उमया मात, ते ओखा चित्नलेहाए जाणी वात; 
संगाथे लीधी सहस्नज सखी, बांधी आयुध अबला अंगरखी । ५ । 
मदलने घेली बन्यों रे जती, थई छे उदय भाग्यनी रती, - 
जई पावंतीने लाग्यां पाय मस्तके कर मृक्यों उमियाय। ६ । 
लीध्ुं चरणामृत अंजली भरी, षोडशोपचारे मानी पूजा करी; 
कुसुमहार कंठे धरावती, अगर धूपे करी आरती। ७ । 
पूजा करी फरी लाग्यां पाय, वदे देवी, दीकरी, वर मांग, 
कन्या कहे, रूप कंदर्प क्रोड, एवा वरनी मागूं जोड। ८ । 


एक हिरन को सावधान कर दिया। मृगया के लिए पिताजी बत में 
गये है, यह बात ओखा और चित्रलेखा ने जान ली। २ (तब) चित्लेखा 
से ओखा बोली, “ चलो सखी, उमाजी का पूजन कर ले।' , फिर 
सुन्दर चन्दन-पात्र, पुष्पहार, श्रीफल (नारियल), सुपारी जैसी वस्तुएँ 
सजाकर रख दी । ३ नैवेद्य, बिजौरे और शक्कर से युक्त पूजा की सुन्दर 
थाली उस नारी ने (हाथ मे) ग्रहण की । सती ओखा (ऐसा) उपहार 
लेकर (गौरी-पुजन के लिए) चल दी। उसको हृदय मे (मातृ-) विरह 
के कारण व्याकुलता (अनुभव हो रही) थी। ४ आओखा ओर. चित्नलेखा 
ने यह बात जान ली कि माता उमाजी स्नान करने के लिए गरगा (-तट) 
गयी हुई है। (फिर) उसने साथ में सहर्रों सखियों को ही ले लिया । 
उन (समस्त) अबलाओ ने आयुध (हथियार) और बख्तर (कवच) बाँध 
लिये । ५ कामदेव (के प्रभाव) से वे दोनो उन्मत्त होकर जा रही थी । 
(मानो) भाग्य से वे रति-रूप में उत्पन्न हो गयी थी। जाकर वे 
(दोनों) पार्वतीजी के पाँव लगी, तो उन्होने-- उमाजी ने उनके मस्तक 
पर हाथ रखा।६ अजली भरकर उन्होंने चरण (-तीर्थ रूपी )-अमृत 
ले लिया और सोलह उपचारों-सहित' माता (उमराजी) का पूजन किया । 
उन्होने उनके गले में फूलों का हार पहना दिया और अगरू तथा घप से 
उनकी आरती उतारी।७ पूजा करके फिर से वे (दोनो) पाँव लगी, 
तो देवी (पार्वती) बोली, ' हे कन्या, वर मॉग ले।' तो कन्या बोली, 

१ (पूजा के) सोलह उपचार-- (देवता का) आवाहन, आसन, पाद्य, अर्ध्य॑, 


आचमन, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत (जनेऊ), गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य (भोग), 
नमस्कार, परिक्रमा और मंत्रपुष्प । 


६० गुजराती (नागरी लिपि) 


उमया कहे, माग्य बीजी वार, तोये तेणे माग्यो भरथार, 
त्रीजी वार कहयूं माग्य फरी, आपो सुंदर स्वामी ओचरी । ९ । 
देवी कहे वरदान हशे खरां, जा कन्या, परणजैे त्रण वरों, 
ओखा कहे कर्म दई हाथ, त्रण नाथ ते महा उत्पात | १० । 
में पज्यां तमने स्वारथ, एम परणं लोकमां हसारथ, 
देवी कहे टाह्लुं संदेह, त्रण वार परणीश तेनो तेह। ११। 
शुभ स्वामी इच्छे जो तरत, तो जई करजे अलूणुं वरत, 
कुंवरी कहे, कंथनुं शुं जाण, ब्रत कर्यानुं कुण एंधाण ? । १२ । 
देवी कहे, तेनी चिता कशी, वेशाख सुदि द्वादशी, 
भोगवशे स्वामी अंग तुज तणुं, मध्यरात्रे आवशे स्वपनू । १३ । 
तुजने ब्रेह घणो व्यापशे, चित्लेहा आणी आपकशे, 
गयां उमियाजी करुणा करी, ओखा पधार्या मंदिर भणी | १४। 


( (जो) रूप मे कोटि (-क्ोटि) कामदेवो-सा (हो), ऐसे वर की सगति 
मै मॉगना चाहती हूँ।।5 (यह सुनकर) उमाजी बोली, “ दूसरी 
बार मॉग ले। ”' तो उसने (वैसा ही) पति माँग लिया। (तदनन्तर 
उमाजी ने) तीसरी वार कहां, “फिर से माँग ले। ' तो वह॒ बोली, 
( (मुझे) सुन्दर स्वामी (पति) दे दो। '।९ (तब) उमादेवी बोली, 
( (मेरे दिये) वरदान सच्चे होगे। री कन्या, जा, तू तीन बार परिणय 
कर (लेगी)।' (यह सुनकर) ओखा बोली, ' कर्म (देव) ने रोक 
लिया (वाधा उत्पन्न कर दी)-- तीन पति (पाने का वर) तो महान 
उत्पात (की बात) है। १० मैने तो स्वार्थ (के विचार) से तुम्हारा 
पूजन किया । ऐसा विवाह तो लोक (जगत) में हँसी की बात होगी । * 
(इसपर ) देवी ने कहा, “ (तेरे) सन्देह को दूर कर देती हूँ। तू उसी- 
उसी (वर) से तीन वार विवाह कर लेगी। ११ यदि तू शुभ अर्थात 
कल्याणकारी स्वामी (पाने) की इच्छा करती है, तो (घर) जाकर 
अलोना ब्रत रख ले।' (इसपर) कुमारी (ओखा) बोली, “ पति की 
क्या पहचान है ? ब्रत रखने की क्‍या रीति है ? (पति को कंसे पहचाने ? 
ब्रत का आचरण केसे करे ?) '। १२ (तब) देवी (उम्राजी) ने कहा, 
उसकी कैसी चिन्ता ? वैशाख मास की शुक्ला द्वादशी के दिन मध्य 
रात एक स्वप्न (देखने) मे आएगा और (उसमे) तेरा स्वामी तेरी देह का 
उपभोग करेगा | १३ पहले तुझे बड़ा विरह व्याप्त करेगा, (फिर भी ) 
चित्रलेखा (तेरे पति को) लाकर (तुझसे मिला) देगी। ” (इस प्रकार 
आश्वस्त करके) उमाजी (ओखा पर) करुणा करते हुए चली गयी और 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण) ध्१ 


मृगिया रमीने आव्या तात, पुत्री वर पाम्यानी जाणी वात, 

चिता चित्तमां थई छे उदे, भयदावानल प्रगठयों हृदे । १५। 
विचार उपन्यो अंतर -घणो, वडससरो जे पुत्री तणो, 

ते सगाई कांईये नहीं गणे, निचे मारा भूजने हणे। १६।॥ 
पुत्री घडपण पाछे शुंय, मादे ओखाने मार हुंय, 
ज्यारे नाश पामे ओखा रे बाई, नहीं वेवाई ने नहीं रे जमाई। १७ । 
वेबाई होय तो छेंदे पाण, माठे ओखाने सार निर्वाण, 
भूपति क्रोधातुर ज थयो, नग्न खड्ग खेचीने गयो। १८। 
जेवे पुत्नीनी मारवा जाय, त्यां आव्या ऋषि नारद राय, 
नारद कहे, राय, खड़ग ज धरी, क्या चाल्या तमे क्रोध ज करी ? । १९ । 
राजा कहे छे मांडीने वात, जाउं छुं पुत्नीनो करवा घात, 

एनो वडससरो थाशे जेह, मारा भजने हणशे तेह | २० । 
ऋषि कहे सांभक्र भूपाछ, शुं करे पुत्री नानुं बाछ्ठ ? 
तुजने लागशे स्वीहत्याय, मादे करो . एक उपाय । २१। 


ओखा (भी अपने) घर गयी | १४ पिता (बाणासुर जब) मृगया करके 
लौट आया, तो उसने पुद्धी द्वारा वरदान को प्राप्त हो जाने की बात 
जान ली। (तब) उसके मन में चिन्ता उत्पन्न हो गयी; हृदय मे 
भय रूपी दावानल उत्पन्न हो गया। १५ उसके मन में यह विचार उभर 
आया- इस पुत्री का जो ददिया ससुर हो, वह इस सगाई को कुछ भी, 
अर्थात बिलकुल नहीं मानेगा और निश्चय ही मेरे बाहुओं को काट 
' डालेगा। १६ यह पुत्री (मेरे) बुढापे में (मेरा) क्या पालन करेगी ? 
इसलिए मैं ओखा को मार डालूगा। अरे, जब ओखाबाई नाश (मृत्यु) 
को प्राप्त हो जाएगी, तो न विवाह होगा, व दामाद होगा । १७ (यदि) 
विवाह होगा, तो वह (ददिया ससुर) मेरे हाथों को छेद डालेगा । इसलिए 
में निश्चय ही ओखा को मार डालूंगा। (ऐसा सोचते हुए) राजा 
(बाणासुर) क्रोधातुर हो गया और नंगा खड़्ग खीचकर चल दिया | १८ 
जैसे ही वह पुत्री को मारने के लिए जा रहा था, तो वहाँ ऋषिराज 
नारद आ गये। नारद बोले, “हे राजा, खड़ग धारण करके और क्रोध 
करके तुम कहाँ जा रहे हो । !।१९ (इसपर) राजा ने (समस्त) वात 
विस्तारपूर्वक कही-- ' मै पुत्री का वध करने जा रहा हूँ। इसका जो 
ददिया ससुर होगा, वह मेरे हाथों को छेद डालेगा । ” ।२० (यह 
सुनकर ) ऋषि वोले, ' है भूपाल, सुनो, पुत्री तो नन्‍्हीं बच्ची है, वह 
क्या करेगी। तुम्हें स्त्री-हत्या लग जाएगी। इसलिए एक उपाय 


६९ गुजराती (नागरी लिपि) 


आपण बाल्कने परणावीए कांय, राख्य कुंवारी, परणावीश माय, 

नही जमाई वेवाई कोय, पछे तारे शी चिता होय १। २२। 
गया नारद एवं कही, बाणे वालह॒की मारी नहीं, 

नवा घरनों मांडयो आरंभ, चणाव्यो आवास एकज स्तंभ | २३ । 
ढछाव्यूं सीसुं देत्य नरेश, न होय घरमां पवनप्रवेश, 

दस सहस्र मृक्‍्या रखवात्व, मेडी उपर चडाबी बाछ | २४। 
पासे मूकी बाक सनेह, विधात्नी नामे चित्नलिह्ा तेह, 
जोईए अन्न वस्त्र ने पाणी, बांधी दोरीए लीए छे ताणी | २५ ! 
रही सखी बे मनमां मोद, खाई पी करे हास्यविनोद, 
ऊपजे काम, दृढ मन राखती, घणुं दोहयला दहाडा नाखती । २६ । 


वलण (तर्ज बदलकर ) 


नाखती दिवस दोहाला, सांभकछ परीक्षित भूप रे, 
एम करतां ओखाने आव्यूं, वर वरवानंं रूप रे। २७। 


कर लो । ११ हम वालिका का विवाह क्‍यों करे ? उसे क्यॉँरी रख लो; 
उसका विवाह नही करेगे । दामाद-विवाह कुछ नहीं होगा । फिर तुम्हे 
क्या चिन्ता होगी ।१२९ ऐसा कहकर नारद चले गये । (उनकी बात को 
मानकर ) वाण ने अपनी कन्या को नहीं मार डाला। उसने नये घर का 
निर्माण आरम्भ किया और एक ही खम्भे पर ईटो का एक घर बनवा 
लिया । २३ दैत्यराज (बाण) ने (उसमें) सीसा ढलवा दिया; (जिससे) 
उस घर में वायु (तक ) का प्रवेश नही हो पाता था। उसने (वहाँ) दस 
सहस्न रखवाले (नियुक्त कर) रखे और (ऊपर के) खण्ड (मजिल) में उस 
कन्या को चढाकर रखा। २४ उसने स्नेह-पूर्वक चित्नलेखा नामक विधात्नी 
(व्यवस्थापिका ) को उस बाला के पास रख दिया। (जो) अन्न, वस्त्र और 
पानी चाहिए, उसे डोरी मे वाँधकर वह खीचकर (ऊपर) ले लियाईकरती 
थी।२५ वे दोनो सखियाँ वहाँ रहते हुए मन में आनन्द अनुभव करती 
थीं और खा-पीकर हँसी-ठठोली किया करती थी। उनके मन मे काम 
(“विकार) उत्पन्न हो गया, (फिर भी) वे मन को दृढ (अविचल) रख रही 
थी और बहुत कठिन (अर्थात दुःखपूर्ण ) दिन व्यतीत कर रही थी। २६ 


हे परीक्षित राजा, सुनो, वे (दोनो ) दुःखपूर्ण दिन बिताती थी। 
ऐसा करते-करते ओखा को (वर का वरण करने अर्थात) विवाह करने 
योग्य अवस्था प्राप्त हो गयी । २७ 


प्रेमाननद-रसामृत (ओखाहरण ) ६३ 


कडवुं १२ सुं--( ओखा की व्यथा ) 
राग गोडी 


वर वबरवाने जोग थई, प्रगद्यां ते स्व्रीनां चेन जी, 
ओखा कहे छे चित्नलेहाने, एक वात सांभह्लजे बेन रे; 
सैयर शुं रे कीजे मारी बेनी रे ? दहाडला केम लीजे ? । (ठेक)। १। 
जमपें भृंडूं मारुं जोबनियूं ने मदपुरण मुज काय जी, 
पिता तो प्रीछे नहि, मारो कुंवारो भव केम जाय रे ? । सैं० । २ । 
सहु को सासरे जाय ने आवे, सैयरो मुज समाणी जी, 
हुं अपराध विण घणुं रे पीडाणी, आंखे भर नित्य पाणी रे। सै० ! हे । 
ए रे दु:खे हुं दूबद्दी, मने अन्न उदक नव भावे जी, 
आ आवासरूपी शूढ्ठी रे सहेवी, निद्रा ते कई पेरे आवे रे ? । सै०। ४ । 


धन्यधन्य ते कामनी, जेणे कंथने कंठ ग्रही राख्यो जी, 
हुँअभागणीए परण्या पियुतो, अधरसुधा रस न चाख्यो रे। से० । ५ । 


कड़वक ११९--( ओखा की व्यथा ) 


ओखा वर का वरण करने, अर्थात विवाह करने योग्य हो गयी । 
उसमे स्त्री के चिहनन (लक्षण) प्रकट हो गये। (एक समय) ओखा 
चित्रलेखा से बोली, “ अरी बहन, एक बात सुन लो। अरी सखी, क्‍या 
करे ? मेरी बहन, दिन कैसे बिताएँ ? सखी०॥ १ मेरा यह यौवन 
(मेरे लिए) यम से (भी) बुरा (हो गया) है। मेरी यह काया 
(यौवन के ) मद से परिपूर्ण (हो गयी) है। (फिर भी) मेरे पिताजी 
यह नही जानते कि मेरा यह क्वॉरा जन्म (इस प्रकार बिना मेरा विवाह 
हुए) कैसे बीत जाएगा | सखी० । २ मुझ जैसी, अर्थात मेरी अवस्था 
वाली समस्त सखियाँ (अपनी-अपनी) ससुराल जाती है और (वहाँ से 
मैके) आती है। (परन्तु) मै तो बिना किसी अपराध के बहुत पीड़ित 
' (हो रही) हूँ और नित्यप्रति आँखो मे पानी भर रही हूँ | सखी ० । ३ 
अरी, मै दुःख से दुबली (-पतली) हो गयी हूँ। मुझे अन्न-जल (खाना- 
पीना) अच्छा नही लग रहा है। यह आवास रूपी सूली (मुझे) सहन 
करनी (पड रही) है; (उसमे) नींद तो किस प्रकार आ सकती 
है ? सखी० । ४ धन्य है, धन्य है वह कामिनी, जिसने अपने पति को गले 
लगाये रखा हो । अभागिन मैने प्रिय पति के अधर-सुधारस (अधराम्रृत) 
को नहीं चखा है। सखी० | ५ पति मर्यादा-पूर्वक मुझे आँखों से संकेत 


६४ गुजराती (तागरी लिपि) 


मरजादा सहित माटे माणस, करे आंखनो अणसारो जी, 
ते सुख तो में स्वप्ने न दीठुं, व्यथ गयो जन्मारो रे। से० । ६ । 
स्वामी केरो संग नहीं नारीने, एथी बीजूं शु नरतुं जी ! 
हवे आशा शी परण्या तणी ? मारुं जोबन जाये झरतुं रे ? । सं०। ७ । 
बीजी वात रुचे नहि, भरथारभोगर्मां मगन जी, 
इहां वर आवे तो तरत वरुं, नव पूछूं जोशीने लगन रे | सै० | ८५ । 
वचन रसिक कहेतां करुणाभेर, आवे लचकती चाले जी, 


प्रेमकटाक्षे पियुने बोलावे, ते हृदिया भीतर साले रे । स०। ९ । 
मरकलडे मुखे ने मधुरे वचने, मर्यादा मन आणी जी, 
शाक पाक में पियुने न पीरस्यां, आधो पालव ताणी रे । सै० । १० । 


एवां सुख में नयणे न दीठां, मारुं कर्म अति कठोर जी, 
जन्म मारो एके गयो, जेम वगडानूं ढोर रे।से०। ११। 
जक विता जेवुं मानसरोवर, चंद्र बिना निशा जेदी जी, 
एम कंथविनानी कासनी, हुं अभागणी तेवी रे। से०। १२५ 
कर रहे है-- ऐसा वह सुख मैने स्वप्न (तक) में नही देखा है (प्राप्त 
किया है)। (अत्त') मेरा जन्म व्यर्थ बीत गया है।सखी०।॥६ 
नारी को पति का सग॒[प्राप्त) न हो-- इससे (उसके लिए) क्या दूसरा 
अधिक बुरा हो सकता हैं ? अब विवाह होने की क्‍या आशा है ? मेरा 
योवन (इस दशा मे) झरता जा रहा है। सखी० । ७ (मै) पति के 
(साथ) उपभोग में (मन से) मग्न रहती हूँ; (अतः मुझे) कोई दूसरी 
बात अच्छी नही लगती। (यदि) यहाँ वह वर (दुल्हा) आ जाए, तो 
मै तत्काल उसका वरण कर लूंगी; ज्योतिषी से मूहरत (तक) नहीं 
पूछूँगी । सखी ० । ८ (जब मै ऐसी कल्पना करती हूँ कि किसी' स्त्री का) 
पति ( उससे) क्ृपापूर्वक मधुर रसीली बातें कर रहा है, तो (उसे सुनते ही) 
वह (नारी) लचकती-ठुमकती चाल से चलती हुई (उसके समीप) आ 
रही है, (या) वह प्रेम-भरे कटाक्ष (आँख के सकेत) से अपने प्रिय को 
(अपने समीप) बुला रही है -ये बाते (मेरे) हृदय के भीतर सालती 
रहती है। सखी०।९ मैने (कभी भी) मुस्कराहट से युक्त मुख से, 
अर्थात्‌ मुस्कराते हुए, मर्यादा का विचार मन मे लाते हुए (मर्यादा- 
पूर्वक) और घूंघदट ओढकर अपने पति के लिए साग और मभिष्टान्न त्ही 
परोसा है । सखी० । १० ऐसे सुख मैने अपनी आँखों से नही देखे-- 
मेरा कर्म (भाग्य) अति कठोर है। मेरा जन्म व्यर्थ बीत गया है, जैसे 
| वीरान भूमि मे (किसी) पशु (का जीवन व्यर्थ होता) हो । सखी ० । ११ 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) ६५, 


अरण्यमां जेम वेली फूली, त्यां नही भोगी भमर जी, 
तेम वपुवेली जोबन फूल्यूं, न मकयों भोगी वर रे । से० । १३ । 
जद्ठ विना जेम वेलडी, लवण विना जेम अन्न जी, 
भरथार विना जे भामनी, तेने दोह्मला नाखवा दंन रे । से० । १४। 
ए सुख हुं मिथ्या गणु छुं, हुं तो लेवाई मारे पापषे जी, 
आ बंधोगीरी करमे कीधी, शूदछीए चडावी बापे रे । सें० । १५। 
अकलह्ठ गति छे गोविदजीनी, शृं नीपजशे बहेनी जी ? 
गोविदजीनुं गमतुं रे थाशे, मनडुं मार रहे नही रे । से० | १६। 


वलण (त्तर्ज बदलकर ) 


मन मारु रहे नहीं, विरहवह्नि थयो उदे रे, 
एम वलवलती आओखने देखी, चित्रलेहा वाणी वदे रे। १७। 





जिस प्रकार बिना जल के मानसरोवर (अर्थहीन) होगा, बिना चन्द्र के 
रात जिस प्रकार (अर्थहीन) होती है, उसी प्रकार बिना पति के 
कामिनी (व्यर्थ) होती है -मै वैसी ही अभागिनी हूँ । सखी०। १२ 
जिस प्रकार अरण्य मे कोई लता फूली हुई हो, (परन्तु) उसके अर्थात 
उसके फूलों के मधुरस का भोग अश्रमरो ने नही किया हो (तो उसका 
फूलना निरर्थक होता है), उसी प्रकार मेरी इस देह रूपी लता मे यौवन 
(रूपी फूल) विकसित हो गया है, परन्तु उसका उपभोग करनेवाला 
वर (पति मुझे) नहीं मिला है। (अतः यह शरीर और यह यौवन 
व्यर्थ सिद्ध हो गया है) | सखी० । १३ जिस प्रकार बिना पानी के 
लता (सूख जाती) है, बिना लवण के अन्न (स्वादहीन होता) है, उसी 
प्रकार, जो नारी पति-विहीन होती है (उसका जीवन अर्थहीन होता है), 
उसे दुःख भरे दिन बिताना कठिन हो जाता है । सखी ० । १४ (यहाँ 
मिलनेवाला) यह सुख मै मिथ्या (झूठा, आभास 'मात्र) समझ रही हूँ। 
मै तो अपने (पू्ब॑जन्म मे कृत) पाप से लज्जित हो रही हूँ । अपने कर्म 
(देव) से मै यह दासता कर रही हँ-- पिताजी ने (मानो) मुझे सूली 
पर चढा दिया है । सखी ० । १५ (भगवान) गोविन्द की गति अगम्य हें । 
री बहन, इससे क्‍या उत्पन्न होनेवाला है? गोविन्दजी का मनभाया हो (ही) 
जाएगा। (फिर भी ) मेरा मन (शान्त) नही रह रहा है ।सखी०। १६ 

मेरा मन (शान्‍्त) नहीं रह रहा है। उसमे विरह रूपी आग 
उत्पन्न हो गयी है। ओखा को इस प्रकार विलाप करते देखकर चित्रलेखा 
ने यह बात कही । १७ 


घ६ गुजराती (नागरी लिपि) 


कडवुं १३ मुं--( चित्रलेखा का उपदेश ओखा के प्रति ) 
राग मैवाठानी देशी 


शिखामण दे छे चित्॒लेहा जो, तुं तो सांभक् बाढ्सनेहा जो, 

एम छोकरवादी नव कीजे जो, बाई बढ्ठिया बापथी बीजे जो। १ । 
एवं नीच समजवुं तोरुं जो, आपण मोटां माबापनां छोर जो, 

एम लांछन लागे कुछमां जो, प्रतिष्ठा जाये एक पत्रमां जो। २ । 
कीजे कह्यूं होय जे ताते जो, नव जईए बीजी वादे जो, 

हुं तो रही छू रक्षा सारुं जो, बेनी, तुं माणस नहिं वारु जो। ३ । 
में न थयं तार रक्षण जो, बाई तुजमा प्रगट्यूं अपलक्षण जो, 

तुंमां कामकटकदल प्रगट॒युं जो, हवे मारे रहेवूं नथी घटतु जो । ४ । 
जोने राय बाणासुर जाणें जो, अंत आपणा बैनो आणे जो, 

मंत्री दुःखदायक छे बरती जो, हुंतो भंडी कहिवाउ तुज मकछती जो । ५ । 
मारासम, जो तूं करे मन व्यग्न जे, एम स्वामी न पामीए शीघ्र जो, 

थाके डगलां न भरीए लांबां जो, उतावक्के न पाके आंबा जो | ६ । 


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फडवक १३--( चित्नलेखा का उपदेश ओखा के प्रति ) 


चित्नलेखा (ओखा को) सिखावन दे रही हूं (चित्रलेखा ने ओखा 
को उपदेश दिया)-- देख री वाल-सखी, तू सुन तो ले। देखना, ऐसी 
बचकानी वात नकर। री बाई, अपने वलशाली पिता से डर। १ 
तू (स्वयं) बडे माता-पिता की सन्‍्तान है। (अतः) इस प्रकार (अपने 
को) तेरा यह छोटा समझना (कैसा) ? देख, इससे कुल मे ऐसा कलंक 
लग जाएगा । देख, एक पल मे (कुल की) प्रतिष्ठा समिट जाएगी । २ 
देखना, पिताजी ने जो कहा हो, वह कर दे। दूसरे (भिन्न) मार्ग से 
नजा। ठीक से देख ले, मै तो तेरी रक्षा करने के लिए (नियुक्त कर 
दी गयी) हँ। री बहन, तू मनुष्य है, देख, (तेरे लिए) यह अच्छा 
नहीं है। ३ मुझसे तेरा रक्षण नही हुआ। वाई, देखना तुझमें अव- 
लक्षण (बुरा लक्षण) प्रगट हो गया हैं। देख, तुझमे कामदेव की सेना 
प्रकट दी गयी हैं। अब मेरे द्वारा ऐसा रह जाना शोभा नही देता (उचित 
नही हैं) । ४ देख लेना, यदि राजा बाणासुर यह जान ले, तो वे हम 
दोनो का अन्त (नाश) कर देंगे। यदि तू (इस प्रकार) बर्ताव करती 
है, तो (तेरी-मेरी यह) मित्रता दुखदायी (सिद्ध हो जाती) है। (अतः) 
तुझसे मिलनेवाली मैं तो बुरी कहाऊँगी। ५ मेरी शपथ है, यदि तू 
अपने मन को (इस प्रकार) व्यग्न कर देगी। ऐसे तो तू पति को शीत्र 


प्रेमाननद-रसामृत (ओखाहरण ) ९७ 


हुं प्रीछी कामनूं कारण जो, बेनी राख्य हैयामां धारण जो, 

पियुने मत्ठवूं कोने नथी गमतुं जो, सौने जोबन हींडे छे दमतुं जो। ७ । 
तुं मां ज्ञान अक्कल नथी अथ जो, कारागृहमां ते क्यांथी कंथ जो ! 

मारी ओखाबाई सलुणां जो, तमे ब्रत करोने अलूणां जो। ८ । 
आव्यो चैत्न मास एम करता जो, पछे ओखाजी ब्रत आचरतां जो, 
अलवण अन्न जमी दिन खूए जो, दीपक वढ्ठे ने भूमिए सूए जो । ९ । 
मात उमियाने आराधे जो, देह दमन करे मन बांधे जो, 

थयुं प्रण ब्रत एक मासे जो, को ना जाणे एकांत आवासे जो। १० । 


वलण (ते बदलकर ) 


आवासे एक खंड विशे, ब्रत कीधुं ओखाय रे, 
थयो स्वप्नसंजोग स्वामीनो, ते भट प्रेमानंद गाय रे। ११। 
) 


नही प्राप्त हो पाएगी । देख, पॉव थक जाएँगे, लम्बे डग न भर दें। 
उतावली (करने) से आम पकता नही है। ६ मैं (तेरी) ऐसी करतूत 
का कारण समझ चुकी हँँ। देख री बहन, हृदय मे धीरज धारण किये 
रख। प्रिय से मिलना किसे अच्छा नही लगता ? यौवन सबको दुःख 
देता हुआ घूमता रहता है। ७ देख, तुझमे कोई ज्ञान, अक्ल नही है, 
कोई अर्थ नही है। इस कारागृह मे (तुझे) पति कहाँ से प्राप्त होगा । 
देख, मेरी सलोनी ओखाबाई, तू अलोना ब्रत रख ले | ८ 


ऐसा करते-करते चैत्र मास आ गया। फिर ओखा ने ब्रत रख 
लिया । लवणहीन (अलोना) अन्न खाकर वह दिन बिताती थी। 
वह (हर दिन) दीपक जलाया करती थी और भूमि पर सोया करती 
थी।९ वह माता उमा की आराधना करती थी, देह-दमन करती थी-- 
अपने मन (के विकारों) से लड़ती थी। एक मास (के अन्त) मे ब्रत 
पूर्ण हो गया। (फिर भी) उस एकान्‍्त निवास-स्थान पर इसे कोई 
नही जान पाया । १० 


ओखा ने निवास-स्थान के एक खण्ड के अन्दर ब्नत का निर्वाह 
किया । (अनन्तर) उसका (अपने) स्वामी से (जिस प्रकार) मिलन 
हो गया, उसका गान (वर्णन) कवि भट्ट (विप्र) प्रेमानन्द (अब) करने 
जा रहे है । ११ 


द्ट्प गुजराती (नागरी लिपि) 


कडवब्‌ं १४ मुं--( ओखा की विरह-व्यथा ) 
राग केदारो 


नाथ विना हुं एकली, केम करीने रहेवाय ? 
कामज्वर प्रगटठ थयो, ज्वाल्ला केम सहेवाय ?। नाथ विना० (टेक )। १। 
मातापिता वेरी थयां, जेणे दुःखरमां नाखी, 


वांक बिना विपत घणी, आ शूक्छीए राखी | नाथ विना० । २ । 
मारो हरख रह्यो, हैडा विषे रंडापो वल्ग्यो, 
कंथविजोग छे दोह्यलो, प्राणजीवन अछगो । नाथ विना० । ३ । 


शणगार सजीने हु शृं करू ? देखाडुं कोने ? 
सेज बिछावी स्वामी विना, जाउं कोना मोंने ? । नाथ विना० । ४ । 
उज्जड वनमां हुं रहुं, नहीं कोने जोउं, 


तस्करती जेम मातने, कोठीमां रोबुं। नाथ विना० । ५ । 
मारी दिन दिन काया दूबढ्ी, सेयर शु करीए ? 
कंथविजोग छे दोह्यलो, फाटीने मरीए | नाथ विना० | ६ । 


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कड़वक १४--( ओखा की विरह-व्यथा ) 


मै बिना पति के अकेली हूँ। मुझसे (अब इस स्थिति मे) कैसे रहा 
जाए ? (मेरे शरीर और मन मे) काम-ज्वर उत्पन्न हो गया है, उसकी 
ज्वालाओ को कैसे सहा जाए ? बिना० । १ (मेरे) माता-पिता (मेरे)बरी 
हो गये है, जिन्होने (मुझे ऐसे ) दुख मे डाल दिया है। विना किसी अपराध 
के (उन्होने) मुझे इस सूली पर (धर) रखा है। विना०। २ मेरा हर्प 
(मुझसे ) दूर रह गया है। हृदय मे रेंडापा लगा हुआ है (अर्थात मन मे मानो 
मै वेधव्य अनुभव करने लगी हूँ) । पति-वियोग दुःसह है; मेरे प्राण-जीवन 
(मुझसे) दूर हो गये है। बिना०। ३ मै सिंगार सजकर क्‍या करूँ ? 
वह मैं किसे दिखाऊँ ? बिना स्वामी के (साथ मे रहे) मै सेज विछाकर 
किस मूँह रह जाऊँ (कौन मुँह लिये रह जाऊँ) ? बिना०। ४ मै मानो 
उजाड बन में रह रही हैं, (यहाँ) मै किसी को नही देख पा रही हूँ । 
चोर की माँ की भाँति कोठी मे (बेठकर) रो रही हूँ (जैसे चोर की माता 
पुत्र की चोरी के खूल जाने के भय से, उसे सकट में देखकर प्रकट रूप से 
रो भी नही सकती, उसे घर के अन्दर चोरी-छिपे आँसू बहाने पडते है, 
उसी प्रकार ओखा कामज्वर से उत्पन्न अपनी पीड़ा को किसी के सामने 
प्रकट करने मे असमर्थ हो गयी थी। यदि भेद खुल जाए, तो जगहँसाई 
हो सकती थी ।) विना० । ५ मेरी काया दिन-ब-दिन दुबवली (“पतली ) 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण) ध्द 


होय सुख घणुं पियर विषे, तोये ओछूं आवे, 
भाई भोजाई मेणां दीए, नठारी कहावे। नाथ विना० | ७ । 
कोने रे पियु में परभव्यो, पेला भवती रे मांहि, 
ते देव मुने दंड दीधो, आवी आ भव मांहे । नाथ विना० | ८ । 
रात वेरण थई माह्यरी, नही वहाणुं वाये, 
प्रेमानंद प्रभु जो मछे, तो सुखडु थाये। नाथ विना०। ९ । 


होती जा रही है। री सखी, (इस स्थिति मे) क्या करे ? पति का 
वियोग (मेरे लिए) असह्य हो रहा है। (इसमे तो दर्द से देह) फटकर 
मर जाएँ (तो अच्छा हो जाएगा) | बिना० । ६ पीहर मे सुख तो बहुत 
होता है; फिर भी (विरह की ऐसी स्थिति मे) उसमे कमी आती है अर्थात 
मन दुखी हो जाता है। भाई-भौजाई ताने देते है। (ऐसी कन्या को) 
बुरा कहा जाता है। बिना० । ७ मैने पहले (पूर्व) जन्म में किसके 
पति को पराजित किया था, (जिससे) इस जन्म में आने पर दैव ने मुझे 
(ऐसा) दण्ड दिया है। बिना० ।८५ मेरे लिए रात बैरन हो गयी है, 
सवेरा नही हो रहा है। प्रेमानन्द कहते है-- (ओखा ने कहा) (यदि 
इस स्थिति में मेरे) प्रभु अर्थात पति मिल जाएँ, तो (मुझे) सुख (प्राप्त) 
हो जाएगा । बिना ० । ९ 


कडव्‌ १४ मुं--( स्वप्न में ओखा का पति से मिलन हो जाना ) 
राग केदारो 
शुकदेवजी वाणी वदे, ओखा भरी छे प्रण मदे, 
वैशाख सुदि द्वादश हृती, स्वामी स्वामी करती सूती । १ । 
सुखे निद्रा करे छे बाछढू, तन तप्त ऊठे ब्रेहज्वाल्, 
ब्रेहनी ज्वाछानो ताप न समे, घणा दोह्यला दिवस निर्गमे | २ । 


कड़वक १५--( स्वप्न मे ओखा का पति से सिलन हो जानता ) 


शुकदेवजी ने (राजा परिक्षित से) यह बात कही-- ओखा (यौवन के ) 
मद से पूर्ण भर गयी थी । (उस दिन) वैशाख मास की शुक्ला द्वादशी थी । 
वह “स्वामी ,, “स्वामी ” करते-करते (शब्द रटते-रटते) सो गयी । १ 
वह बाला सुख से नींद ले रही थी, तो विरह (रूपी अग्नि) की ज्वाला 
से उसका तन तप्त हो उठा। विरह की ज्वाला के ताप का शमन नही 
हो रहा था। (इस स्थिति मे) बहुत दुःसह (दशा में) दिन बीत रहे 
थे।२ संयोग से सूर्य के अस्त के समय उसने अपने हाथों से अपने कुचों 


७० गुजराती (नागरी लिपि) 


समयसंजोग सूर्यते अस्ते, कुचमर्देत करे छे स्वहस्ते, 
अधर करडे चुंबन दे घेली, बेड चरण हृदे पर मेली। 
लडथडती आवबे हीडी, चित्रलेहाने पांडे भुज भीडी, 
सूतां सज्जाएं एकठां वक्कगी, सेयरने न करे अछगी। ४ । 
पर्यके प्रेमदा रमे, एम आक्रे निशा निम्ममे, 
कांई लखित वात छे भावी, जुग्म कामनीने निद्रा आवी। ५ ॥। 
ओखा ऊंघमां न जाणती हृती, सखीनी सेजे जईने सूती, 
तेने थावा न दे उपरांटी, अन्योअन्य भरावे आंटी। ६ | 
सूती स्वामी स्वामी करतां, थावा लाग्यां स्वप्नांतर त्यां, 
थई स्वप्ते ओखा आनंदी, वर मक्ठ॒यो छे ब्रेहनो फंदी। ७ । 
मंडप मनुष्ये भरायो खचखची, दीठी नौतम चोरी रची, 
एक स्वामी ते रूप रसाछो, तेनी साथे मठयों हथेवाढों | ८ । 
चार मंगक् फेरा फरियां, कंसारनां भोजन करियां, 
दासी गीत गाये छे वरणी, ओखा पियुजीशं ऊठी परणी | ९ । 


न्प्छ 





का मर्दत किया । उस पगली ने अपने होठो को दाँतों से काट दिया और 
चुम्बन किया (और) दोनो चरणों को हृदय से मिला लिया | ३ वह 
लड़खडाती चलती हुई आ गयी और उसने चित्नलेखा को वाँहो मे कसकर 
लिटा दिया। शब्या में वे (एक-दूसरी से) लिपटकर एकत्न सो गयी। 
(ओखा अपनी) सखी को (अपने से) अलग नहीं कर रही थी। ४ 
(इस प्रकार) वे (दोनो) प्रमदाएँ पलग पर रमण कर रही थी। इस 
प्रकार नटखटी मे वह्‌ रात वीत गयी । (ओखा के भाग्य मे) कोई होनी 
बात लिखित थी। उन दोनो कामिनियों को नीद आ गयी । ५ ओखा 
तो नीद मे यह नहीं समझ पा रही थी (कि वह क्‍या कर रही है) । वह 
सखी की शब्या पर जाकर सो गयी (लेट गयी) थी। वह उस (चित्नलेखा ) 
को करवट बदलने (तक) नही दे रही थी। (इस प्रकार) वे (दोनो) 
* एक-दूसरी के साथ गूँथी हुई रही (एक-दूसरी से कसकर लिपटी हुई 
रही) ।६ वह (पहले तो) “ स्वामी ', “स्वामी ” रठते हुए सो गयी 
थी, (अब) वहाँ (उस स्थिति मे) स्वप्नान्तरण होने लगा (वह दूसरा 
स्वप्त देखने लगी)। स्वप्न मे ओखा आनन्दित हो गयी (क्योकि) उसे 
(अब) विरह के फन्‍्दे मे बाँध रखनेवाला वर (पति) मिल गया था। ७ 
(उसने स्वप्न मे देखा--) मण्डप मनुष्यो से खचाखच भर दिया गया है। 
उसने नवीनतम (रूप से) चौरी रची हुई देखी। एक रसीले रूप वाले 
वर (उपस्थित) थे; उन्होने उसका पाणि-ग्रहण किया | ८ वे चार मंगल 


प्रैमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) ७१ 


लायक स्तंभ पोतानी मेडी, त्यां पियुजीने लाव्यां तेडी, 
पीछी पाघ ने वाघो लाल, शिर तोरो छे फूल गुलाल | १० । 
शोभे भूषण ते नवरंग, हाथे मींढछ शोभे अंग, 
बेठां शय्याएं श्यामा ने स्वामी, एवं स्वप्ल ते प्रेमदा पामी । ११ । 
व्याप्यो वामाने ब्रेहनों रोग, स्वप्ते पामी सुखसंभोग, 
नाथ बोलावे करी आदर, प्होंती शामा ते सादर। १२। 
रतिसंग्राम करे छे निःशंक, ग्रही अधरे देती डंख, 
ट्टयो हार वछूटी मेखला, रमे रतिसुख आसन कह्का। १३ । 
स्वप्ने नारीने मक्तियों नृूप,, कन्‍या खलित थई कंद्रप, 
भांगी नाख्यों ते भोगनों भेद, ऊपन्यो अम्मत परस्वेद | १४। 





भाँवर फिर गये और कसार जैसे मिष्टान्न से युक्त भोजन किया । दासियाँ 
(उस प्रसंग का) वर्णन करते हुए गीत गा रही थी। (इस प्रकार) 
ओखा का अपने प्रिय से परिणय हो गया । ९ उसके अपने घर की ऊपर 
वाली मजिल में एक खण्ड सुयोग्य था। वह अपने प्रियतम को वहाँ 
बुला ले आयी । उस (वर) के सिर पर पीली पाग थी, उसका पहनावा 
लाल था; मस्तक पर (पहनी हुई पगड़ी का) ग्रुलाल के-से लाल रंग के 
फूलों का तुर्रा था। १० उसके (धारण किये हुए) आभूषण शोभायमान 
थे; हाथ मे मैनफल (बंधा) था। इस प्रकार उसका (समस्त) अंग 
शोभायमान था । वह श्यामा (नारी) और उसका पति (दोनो) शख्या 
पर बैठ गये। ,वह प्रमदा इस प्रकार स्वप्न(-दर्शन) को प्राप्त हो 
गयी । ११ उस स्त्री को विरह का रोग व्याप्त कर चुका था। (अब) 
वह स्वप्त मे सम्भोग सुख को प्राप्त होने जा रही थी। उसके पति ने 
उसे आदर-पूर्वक बुला लिया तो वह स्त्री आदर के साथ (उनके पास ) 
पहुँच गयी । १९ (तदनन्तर) वह निःशक (निर्भय) होकर रति-संग्राम 
करने लगी। वह (होंठों से प्रियतम के) होंठ पकड़कर उसे काट देने 
लगी। उसके गले का हार टूट गया, मेखला छूटकर अलग हो गयी । वह 
रति-सुख के लिए (सम्भोग के) आसन लगाने की कला के साथ रमण करने 
लगी। १३ स्वप्त मे उस नारी से (पति के रूप में एक) राजा मिल 
गये। (इस प्रकार) उसके साथ सम्भोग करते-करते उस कन्या का वीर्य 
स्खलित हो गया । भोग के रहस्य को उसने प्रकट कर डाला । उस 
(की देह) मे स्वेद-जल (पसीना) आ गया। १४ वह जादूगरनी मीठी- 
मीठी बोली में अपने अन्दर (मन) की वात मुँह से उसके सामने ( प्रस्तुत ) 
करने लगी। स्वप्न में वह रात मे जागृत रह रही थी। यह उस कन्या को 
अच्छा लग रहा था । १५ मन ही मन वह तृप्त हो गयी थी । उन दोनों 


७२ गुजराती (नागरी लिपि) 


मधुरी बोले जंतरणी, एम मोढे वात अंतरती, 
स्वपनर्मा रजनी जागे, ते तो कन्‍्याने रूडुं लागे। १५। 
मतमाही ते मन गयुं पेसी, खावु खाधुं ते एकठां बेसी, 
बीठी अरधी करडी नाथे, आपी ओखाजीने हाथे। १६। 
खातां मुख मरड्यू बीडी बोटी, पियुने रीस चढी प्रीत खोटी, 
अनिरुद्ध विमासे मन, चित्त भांग्यूं विचार उत्पन्न | १७। 
कहे मुज कुल खोई लाज, रखे जाणे श्री महाराज, 
हु तो थई गयो कामी अध, परनारी साथे शो सबंध ? । १८। 
एम विचारे भरथार, विरहातुर वाणकुमार, 
पतिने जोई मोहज पामी, पछी विरहनी वेदना वामी | १९। 
बीडी पाननी अरधी करडी, खाधी मन विना मुख मरडी, 
भरथारने भ्रांत ज आवी, सेजथी नाथ गयो रिसावी | २० । 


वलण (तर्ज बदलकर ) 
रिसावी गयो रमण करता, स्वप्नांतरनी वात रे, 
ओचिती ऊठी ओखा जागी, साचे माड़्यों आंसुपात रे।२१। 


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ने इकट्ठा बेठकर खाना खाया। (तत्पश्चात) उसके पति ने पान का 
बीड़ा (अपने दाँतो से) आधा काट दिया और वह (आधा भाग) ओखा 
के हाथ मे दे दिया। १६ उस जूठे वीडे को खाते-खाते उसने मुँह टेढा 
किया, तो उसकी प्रीति को झूठी समझ बैठने से प्रियतम को क्रोध आ 
गया। (फिर) अनिरुद्ध मन मे पछताने लगा; उसका मन उचट गया 
और उसमे यह विचार उत्पन्न हो गया । १७ वह बोला, मैने अपने कुल 
की लाज गँवा दी। कदाचित इसे श्री महाराज (भगवान कृष्ण) जान 
जाएँगे। मैं तो कामी, अधा हो गया हूँ। पर-नारी के साथ यह कैसा 
सम्बन्ध ? । १८. पति इस प्रकार विचार कर रहा था, तो (इधर देत्यराज ) 
वाण की वह कन्या (ओखा) विरह (की आशका) से व्याकुल हो गयी । 
पति को देखकर वह मोह को प्राप्त हो गयी; (फिर) विरह की वेदना 
नष्ट हो गयी ।-१९ उसने पाव का बीडा आधा काट दिया था और मूँह 
मोड़ते हुए, बिना मन की इच्छा से खाया था। (इससे) पति को श्रान्ति 
अनुभव हो गयी । वह रूठकर शय्या से उठकर चला गया । २० 


रमण करते-करते वह्‌ रूठकर चला गया । यह तो स्वप्न के अन्दर 


की बात थी। (तत्पश्चात) ओखा अचानक जग गयी, तो उसने सचमुच 
आँसू बहाना शुरू किया । २१ 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) ७३ 
कडबुं १६ सुं--( ओखा का परिताप ) 

हि राग सामेरीनी साखी 
सामेरी सजन वछावियो, ताती वेब । मांहे, 
हुं न सरजी वादकी, पियुने पत्॒पक्क करती -छांय रे। १ । 
साहेली, सागर उलदयो, रतन  तणायां जाय, 
करमहीणो. भरे मूठडी, तेना शखले हाथ भराय रे। २ । 
सेजे सूतां स्वपनों भयो, पिया गृही मोरी बांहे, 
ओचितां झबकी गई, पियु न देखूं त्यांहे रे। ३ । 
सूठउं त्यारे पियु सांभरे, जाग्रु तो पियु जाय, 
रेन के स्वप्नांतरे, कक्‍्ये जिऊं मोरी माय। ४ | 
स्वप्नामें. पियु. आविया, ऊंधे लागो धाय, * 
बलिहारी ए स्वप्नाकी रे, मत स्वप्ना हो जाय रे। ५ । 


स्वप्नानो तोरा कहा किया, मत जगावे मोय, 
जो मोरा पिया ना मिले, तो में मरुंगी सोय रे। ६ । 





कड़वक १६--( ओखा का परिताप ) 


मैने गर्म बालू पर (अपने) साथी-सगी सजना को लौटा दिया। 
(हाय ! ) मैं बादल का निर्माण न कर सकी, जिससे उसपर प्रतिपल 
छाया कर पाती। १ री सखी, (मेरी स्थिति ठीक उसी मनुष्य के 
समान हो गयी है, जिसके सामने) सागर उमड रहा था, रत्न बहते जा 
रहे थे, (फिर भी) वह कर्महीन (अभागा जब) मुट्ठी भर लेने लगा, तो 
उसके हाथ शखो से भर दिये जाते थे । २ सेज पर सोते-सोते मैंने एक 
सपना देखा- मेरे प्रिय ने मेरी बॉहें पकड़ी है; (परन्तु) मैं अचानक चौक 
उठी और मै वहाँ प्रिय को न देख पायी । ३ जब सो जाती हूँ, तब प्रिय 
याद आ जाते है (सपने मे आ जाते है और) जब जग जाती हूँ, तो प्रियतम 
चले जाते है। अरी मैया, रात मे या सपने में मै कैसे जीवित रहूँ । ४ 
सपने मे प्रिय आ गये थे, नींद में मै उनके (पीछे-पीछे) दौड़ने लगी थी। 
उस सपने की वलिहारी है-- यह सपना (सपना ही) नही रह जाए (वह 
सत्य सुष्टि में उतर जाए तो अच्छा होगा)। ५ सपने ने तेरा कहा 
(चाहा हुआ पूरा) कर दिया है, (अब) मुझे न जगा दे। यदि मुझसे 
प्रियतम न मिले,४/ " निश्चय ही मर जाऊंगी। ६ 


७४ गुजराती (नागरी लिपि) 


राग सामेरी 


जागी जागी रे रामा रसभरी, तपासे सेजलडी फरीफरी रे ।रामा०(टेक)।७। 
ऊठीने सज्जा पर बेठी, विचार विष पेठी रे, 
चतुरा चक्षुने चोछीने जोती, पछे नेत्रे नीर भरी रोती रे।रासा०। ८ । 
भुज दईने ललाटे रे बेठी, विरहभरी छे बाल्छी रे, 
थरथर श्रूजे ने कांई न सूझे, रुवे छे आंसुडां ढाछ्ठी रे। रामा०। ६ । 
मुखे करड छे आंगढ्ीी, में वणसाड्यूं थोडाने काजे रे, 
में मुई मोहोडं मचकोड्युं, बीडी न खाधी ते दाझे रे। रामा०। १०। 
लडथडती चाले ने पालव झाले, भमर भोकढ्ी भाकठे रे, 
करे स्वामीने साद संभारी, नयणे ते आंसुडां ढाछे रे। रामा०। ११। 
धबधव गई नारी, तपासी बारी, दीठी ते भोगछ भीडी रे, 
जोई चारे खुणे, ने मस्तक धृणे, विलपे विजोगनी पीडी रे। रामा० । १२ 


(स्वप्न मे प्रियतम से मिलने के कारण) आनन्द से भरी पूरी वह 
(ओखा ) जाग उठी, जाग उठी, तो वह अपनी शब्या में वार-बार (अपने प्रिय 
को) ढूंढने लगी। वह सत्री०।७ (फिर ) उठकर वह शय्या पर बैठ गयी और 
सोच-विचार में पैठ गयी (मग्त हो गयी) । उस चतुर (नारी) ने अपनी 
आँखों को मलकर देखा। फिर आँखों मे आँसू भरकर वह रोने लगी। 
वह स्त्ली० ।5. वह सिर पर हाथ लगाये बैठ गयी। वह वाला विरह 
(के दुख) से व्याप्त हो गयी थी। वह थरथर कॉप रही थी। उसे कुछ 
सुझायी नहीं दे रहा था। वह आँसू वहाते हुए रो रही थी। वह 
स्‍त्री० ।९ वह अपने मुँह अर्थात दाँतो से अंगुलियों को काटने लगी। 
(वह सोचने लगी--) मैने तो छोटे-से काम के लिए (छोटी-सी बात के लिए 
सब कुछ) नष्ट कर डाला। मै मुई (मरी-निगोड़ी) ने मुँह मोड़ लिया 
(विगाड़ लिया)-- मैने वीडा नही खाया, वह्‌ (अब) दुख दे रहा है। वह 
सत्री० 8।१० वह भोली-भाली (नारी) लड़खड़ाती चाल से चलने लगी । 
उसने साडी का आँचल हाथ में पकड रखा और वह॒ देखने लगी । वह 
अपने स्वामी को याद करती हुई पुकारने लगी (प्रिय को बुलाने लगी) । 
वह आँखों से आँसू बहा रही थी । वह स्त्री० । ११ वह नारी धडधडाते हुए 
(आगे) गयी। उसने खिडकी (से) तलाश की, उसने देखा कि सिटकिनी 
बच्द की हुई है। (फिर) उसने चारो कोनों मे देखा तो वह सिर धुनने लगी 
ओर वियोग से पीडित (होकर) वह विलाप करने लगी । वह स्त्नी० । १२ 
वह सिटपिटाती रही । उसके मनोरथ' व्यर्थ (सिद्ध हो गये) थे। बह 
रह-रहकर रोते हुए-- शपथ दिलाने लगी । (वह बोली-]) तुम्हारे लिए 
हँसना है, मेरे लिए रोकर मरना है। मै (अब) किस काम से धीरज 

वारण कझहू। वह स्त्री०। १३ तुमते सम्भोग-सुख देकर अनस्तर दुःख 





प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण) ७ 


करे कालावाला, सनोरथ ठाला, ठणठणती दे छे सम रे, 
तसारे हसवूं, मारे रोई सरव्‌ं, धीरज राखूं काम क्यम॒ रे ? । रासा०। १३। 
आपी संभोगसुख, पछी देव दुःख, मारी निर्बछ कर्मेनी रेखा रे, 
अतीशे मा ताणो, दया सन आणो, तसने बापना सम, दो देखा रे। रामा० । १४। 
जुओ प्रीत तपासी, हुं छू दासी, दंड द्यो अपराध साएु रे, 
करो स्नेह, के वाला तजूं देह, अति घण ते नहि वार रे। रामा०। १५१ 
मोटे सीट सांडो ने खट पठ छांडो, न बोलो तो कंठ नाखूं वहाडी रे, 
बीडी सादे थयां मन खाटां, कहो तो मुखना तंबोछठ लउं॑ कहाडी रे। रामा० । १६। 
अरे नाथजो, न जईए हाडे, राड ते फोगट फांसु रे, 
अमो पर न आवे दया, देखी मारी आंखडोए आंसु रे। रासा०। १७। 
अनेक उपाय कीधा कन्याए, न बोल्यो नाथ, आशा भांगी रे, 
बदे विप्र प्रभानंद, थई गति मंद, पछे ओखा ते रोवा लागी रे। रामा० । १८१ 


दिया । मेरे कर्म (भाग्य) की रेखा दुबंल है। (अब) बहुत अधिक मत 
खीचो, मन मे दया लाओ (करो) । तुम्हें पिताजी की सौगन्ध है, (मुझे) 
दर्शन दे दो। वह स्त्री० । १४ मेरी प्रीति की परख करके देखो । मै 
तो (तुम्हारी) दासी हूँ । मेरे अपराध के लिए मुझे (कोई दूसरा) दण्ड 
दो। मुझसे स्तेह करो अथवा हे प्रिय, मै देह त्याग दूँगी । इसमे (अब) 
बहुत विलम्ब नही होगा । वह स्त्री० । १५ “नज़र से नजर मिला लो और 
यह खटपट (झंझट) छोड़ दो । (यदि) तुम न बोलोगे, तो मै अपना गला 
काट दूँगी। बीड़े के लिए (हमारे) मन खट्टे हो गये । (अब) कहो, तो 
तुम्हारे मुख में से ताम्बूल (बीड़ा) निकाल (कर खा) लूँ। वह स्त्री० । १६ 

* अहो नाथजी, हड्डियो तक न जाएँ (बहुत अधिक न बढाएँ)। यह झगड़ा 
तो फोकट का फन्‍्दा है। मेरी आँखों मे ऑसुओ को देखकर भी तुम्हे 
मुझ पर दया नही आ रही है। वह स्त्री० । १७ 


(इस प्रकार) उस कन्या ने अनेक उपाय किये, (फिर भी) उससे 
उसके स्वामी नही बोले। (अतः) उसकी आशा भग्न हो गयी । विप्र 
प्रेमानन्द कहते है-- उसकी गति मन्द हो गयी । अनन्तर ओखा रोने 
लगी । वह स्त्री० । १८ 


७६ गुजराती (नागरी लिपि) 


कडवुं १७ मुं--( ओखा का विलाप ) 
राग रसिक मलार 


मारो पियु परदेशी थई रह्यो, रिसायो भरथार, 
रत्न आव्यू तुं हाथमां, राखी न शकी आणी वार रे । मारो० । १ । 
हवे दोष देवों शो कमने, हास्यमां थयूं कल्पांत, 
में तो मरकलडे मुख फेरव्यू, मारा नाथने पडी छे भ्रांत रे। मारो ० । २ । 
हवे वहेला पधा रोने, नाथजी, मारु हृदय फाटी जाय रे, 
सुखसागर वही चालियो, जोबन तणायूं जाय रे | मारो०। ३ । 
व्याकुछ मन कन्या तणूं, केश छूटा छे चारे दिश, 
हाथ घसे, कल्पांत करे, हवे शु थाश्े जगदीश ? । मारो०। ४ । 
पेले भवे कर्म शां कर्या ? पापी पतिविजोगनी ज्वाल्ठ, 
हुंआ रही हेडा विषे, रंगमां डसियो रे व्याक्त | मारो० । ५ । 
चो दिशा भालक्ठे भामिनी, ओचितां दो दशेन, 
ऊठे बेसे अवनी पडें, जेम जल बिना तलपे मीन । मारो० । ६ । 





कड़वक १७--( ओणा का बिलाप ) 


मेरे प्रिय परदेसी वनकर (दूर) रह गये है, मेरे पति रूठ गये है । 
(मेरे) हाथ मे रत्त आ गया था; (फिर भी) मैं इस वार उसे (हाथ मे) 
रख नहीं पायी | मेरे० ।॥ १ अब कर्म को क्‍या दोप देना है ? हँसी 
(-ठठोली) मे बडा उत्पात हो गया। मैने तो हँसी-दिल्लगी में मुँह मोड़ 
लिया, (परन्तु) मेरे स्वामी को उससे भ्रम हो गया । मेरे० । २ है नाथ, 
अब शीघ्र पधारो, मेरा हृदय फटता जा रहा है। सुख-सागर उमड़ उठा 
है और यौवन बहता जा रहा है | मेरे०ण । ३ उस कन्या (ओखा) का 
मन व्याकुल हो गया था। चारों ओर उसके वाल बिखर गये थे। 
वह हाथ मल रही थी, बहुत विलाप कर रही थी। हैँ जगदीण, अब 
क्या होगा। मेरे० । ४ मैने पूर्व जन्म मे क्या-क्या कर्म किये थे, (जिससे ) 
पति-वियोग की यह पापी ज्वाला (मेरे लिए उत्पन्न हो गयी) हूँ । 
हंदय के भीतर (भोग की) हविस रही है। (परन्तु) रंग मे (मानों 
आननन्‍्द-प्रमोद के अवसर पर) सॉप डँस गया । मेरे० । ५ वह भामिनी 
चारों ओर देख रही थी। (हे नाथ) अचानक दर्शन दों। वह उठती 
थी, बैठती थी, भूमि पर गिर जाती थी, जैसे कोई मछली बिना जल के 
(जल के अभाव से) तड़प रही हो । मेरे० । ६ वह सुन्दरी इस प्रकार 


प्रैमानन्द-रसामृत (औखाहरण ) ७७ 


एम रुदन करे सुंदरी, जागी चित्नलेहा तत्काल, 
तेणे हृदिया साथे चांपीने, चुंबन दीधुं गा | मारो० । ७ । 
तात तारो जो जाणशे, आपण बेना आणशे अंत, 
साचु कहेने मारी बेनडी, तें शुं दीठुं स्वप्त ? | मारो० । ८ । 


वलण (तर्ज बदलकर ) 


ओखा कहे, सुण बेनडी, मुंने भाव न लगार रे, 
भट प्रेमानंद एम कहे, प्राण लावतां शी वार रे। ९। 





रुदन कर रही थी । (यह सुनकर) चित्रलेखा तत्काल जग़ गयी। उसने 
(ओखा को) हृदय से लगाकर उसके गाल का चुम्बन किया । मेरे० । ७ 
(वह बोली--) यदि तुम्हारे पिता यह जान जाएँ, तो हम दोनो का अन्त 
कर देंगे। मेरी बहना, सच-सच कहो ना, तुमने कौन-सा सपना 
देखा । मेरे० । ८ 

ओखा बोली-- सुनो बहन, मुझे कोई कासना बिलकुल नही है। 
भट्ट (विप्र) प्रेमानन्द कहते है-- (ओखा ने कहा--) प्राणो का अन्त कर 
लाने में (अब) क्‍या देर है ? । ९ 


कडवुं १८ मुं--( ओखा की चित्रलेखा से विनती ) 
राग वेराडी 


आशाभंग थई भामिनी, रूवे स्तुति करे स्वामीनी, 
चित्रलेहा भणी ते गई, ऊठ बहेनी, तूं शृं सूई रही ?। १ । 
छे चतुर कोंभाडकुमारी, पूछे वात सफक विस्तारी, 
चित्नलेहा कहे, सुण बाली, केम रूवे छे आंसुडां ढाछी ? । २ । 


कड़वक १८५--( ओखा की चित्रलेखा से विनती ) 


, उस भामिनी की आशा भगत हो गयी (वह भामिनी निराश हो 
गयी)। वह अपने स्वामी की स्तुति करने लगी। चित्नलेखा उसके 
पास गयी (और बोली--) . बहन, उठ जाओ, तुम क्‍या सोयी 
रही १ ।१ (मंत्री) कौभाण्डक की वह पुत्री (चित्रलेखा) चतुर थी । 
उसने समस्त वात ॒विस्तार-पूर्वक पूछी । चित्रलेखा बोली, ' सुनो बाला, 
आँसू बहाते हुए तुम क्‍यों रो रही हो । २ (यह) सखी (नीद में) भयभीत' 


७८ गुजराती (नागरी लिपि) 


जागी सैयर बेबाकछी, केम रुए छे कन्या व्याकुछी ? 
आवडी ओखा शाने कांपी ? शके ओथारे तुजने चांपी। ३ । 
मारी मीठी तु रहे छानी, तने रक्षा करे रे भवानी, 
कहे बेनी तने शुं हवूं ? स्वप्तमां दीठूं कांई नवुं ?। ४ । 
ओखा कहे छे कर्म देई हाथ, थोडा सार दृश्यों में नाथ, 
हसता रमतां चढी गयो क्रोध, फोगट फांसु थयो विरोध | ५ । 
कर दीवों ने घर निहाछिये, छे आटलामां पियु मात्व्ये, 
चित्नलेहा कहे, घेली थई, देवे अहीयां अवाये नहीं ? । ६ । 
आवी न शके प्राणी पंखना, ए तो स्वप्तानी एवी झंखना, 
पियु पियु करतां तूं सूती हती, माटे स्वप्नमां दीठो पत्ति। ७ । 
स्वप्ते निर्धधभ पामे धन, स्वप्ने वंझा प्रसवे तन, 
जागे, देखे तो ठालो उछंग, स्वप्न मृगजछ्ता रे तरंग । ८ । 
इंद्रजालनी जेवी वस्त, ग्रहिये ने ठालो हस्त, 
लक्ष्य न थाय दीठुं स्वप्ने, दर्पण रूप न आवबे कने। ९ । 





होकर जग गयी है । व्याकुल होकर यह कन्या क्यो रो रही है ? ओखा 
इतनी किसलिए कॉप रही है ? हो सकता है (कदाचित) तुम्हे किसी 
भयानक सपने ने दवा दिया हो। ३ मेरी मीठी, तुम चुप रह जाओ। 
भवानी तुम्हारी रक्षा कर रही है। अरी वहन, कहो तो तुम्हे क्या हो 
गया ? स्वप्न में तुमने कुछ नई वात देखी क्‍या ? (।४ (इसपर ) 
ओखा सिर को हाथ लगाते हुए बोली-- « मैने थोड़ी-सी बात के लिए 
नाथ को दुखा लिया। उन्हे हँसते-खेलते क्रोध आ गया। फोकट का 
फन्‍दा पड़ गया और (वैर-) विरोध (उत्पन्न) हो गया। ५ हाथ 
मे दीपक ले और घर खोज ले। मेरे प्रिय इतने में यही कही कोठी 
मे है।। (यह सुनकर) चित्रलेखा बोली, “ तुम पागल हो गयी हो। 
यहाँ किसी देव द्वारा (भी) आया नहीं जा सकता । ६ पंखो के प्राणी 
अर्थात पक्षी (तक यहाँ) नही आ सकते । यह तो (तेरी) स्वप्न की-सी 
भ्रान्ति है। “प्रिय , “प्रिय ” रटते-रटते तुम सो गयी थी, इसलिए 
तुमने सपने मे पति को देखा (होगा) ।७ सपने मे निर्धन मनुष्य धन 
को प्राप्त करता हो (तो भी जाग उठने पर वह अपने को दरिद्र ही 
पाता है), स्वप्न मे वाँझ पुत्र को जन्म देती है, (फिर भी) जाग उठती 
है और देखती है कि उसकी गोद व्यर्थ (रिक्त) है। स्वप्न में देखी वात 
धगजल की लहर जैसी होती है। ८ इच्द्रजाल (जादू) की कोई वस्तु ले 

र (फिर) हाथ तो रिक्त (ही रहता) है।, जो स्वप्न मे देखा है, वह 


प्रेमाननद-रसामृत (ओखाहरण ) ७ 


गांधवंनगर ने गगनकुसुम, भोग अस्थिर स्वप्नता तेम, 
निद्रावश मन क्‍्यांही भमे स्वप्तसुख नहि साचुं क्‍्यमे | १० । 
चित्लेहाए दीघी ठारण, सखी ओखाने आपे धारण, 
कुंवरीनूं मनावा मन, कीधो दीपक फेरव्यों भवत। ११॥। 
तपास्यूं मात्ठियूं चारे पास, पडी ओखा थईने निराश, 
वाधी विरह तणी वेदना, मुर्छागत थई अचेतनी | १२। 
चित्रलेहाए बेठी करी, ह॒दये चांपी बे भुज भरी, 
कामवश थकी मन लाजतुं, विरहतप्त छे तन दाझतुं । १३ । 
छांटी सखीए पायूं नीर, विरहे व्याकुछ स्वेद शरीर, 
चित्रलेहा कहे, सुण सखी, सावधान था तुं, लावूं पत्ति। १४। 
केम वीसर्ये उमानूं वचन ? स्वप्ने वरशो स्वामिन, 
ओखा कहे, मने स्मरणा थई, आणी आप प्रभूने अहीं। १५॥ 





प्राप्प नही होता । दर्पण में देखा हुआ रूप पास मे (प्रत्यक्ष हाथ में) 
नही आता। ९ जिस प्रकार गन्धवं-नगर और आकाश-कुसुम (भ्रम 
मात्र) होता है, उसी प्रकार स्वप्न के (देखे-किये) भोग अस्थिर होते है। 
निद्रावश होने पर मन कही भी भ्रमण करता है। (उसी प्रकार) स्वप्न ' 
मे प्राप्त सुख किसी भी प्रकार सच्चा नही होता । ”/। १० चित्रलेखा 
ते (इस प्रकार) सखी ओखा को शान्त कर दिया और उसे ढाढ़स 
वँधाया। फिर (राज-) कुमारी के मन को मनाने के लिए (अर्थात 
उसकी इच्छा को पूर्ण करते हुए) उसे आश्वस्त करने के लिए, उसने 
दीपक जलाया और. उस घर में घमा लिया (उसे लेकर वह॒घर मे देखने 
गयी) । ११ उसने कोठी मे चारो ओर खोज की; (परन्तु पति कही 
दिखायी न दिया, अत.) ओखा निराश होकर गिर गयी। (उसके मन मे) 
विरह की वेदना बढ गयी; (फिर) वह मूर्च्छा को प्राप्त होकर अचेत 
हो गयी । १९ (यह देखकर) चित्नलेखा ने उसे बैठा लिया और दोनो 
बाहों मे भरकर हृदय से लगा लिया । कामवश होने से उस (ओखा) का 
मन लज्जायमान हो गया था; विरह (की आग मे) तप्त होकर उसकी 
देह जल रही थी । १३ सखी (चित्नलेखा) ने उसपर जल छिड़का दिया 
और पिला दिया। वह विरह से व्याकुल हो गयी थी। उसके शरीर 
में पसीना आ गया। (फिर) चित्नलेखा ने कहा, “ सखी, सुन लो। 
सावधान हो जाओ | मै तुम्हारे पति को लाती हूँ । १४ तुम उमाजी के 
इस वचन को कैसे भूल गयी-- तुम स्वप्न मे स्वामी का वरण करोगी |? , 
(इसपर) ओखा ने कहा, “ मुझे स्मरण हो आया। तुम यहाँ मेरे प्रभु 


घ० गुजराती (नागरी लिपि) 


विधात्री कहे, शुं तेनूं नाम ! स्वप्ने स्वामीनूं कोण गास ? 
कोण जात, पिता ने मात ? 'लेई भावुं, कहें मांडी वात | १६। 
ओखा कहे कर्म देई भुज, वारेवारे शुं पूछे मूढ ? 
मन मत्ववा रहयूं टमटमी, तेनूं रूप अंतरे रहयूं रमी। १७। 
ओखा कहे, हुँ तो घेली थई, नामठाम पूछयुूं नहीं, 
नात जात ने मात पिताय, प्रीछी नहि जे प्रथम पुछाय | १८। 
रूपककछा मने मन गमी, ते स्वरूप रहयूं चित्त रमी, 
बाई ! ते नाथे मिथ्या मने दमी, सुखसूरज गयो आथमी । १९ । 
निशा नहि जाये निर्गमी, मछवा मनडुंं रहयूं टमटमी, 
विरहदुःख न रहेवाय खमी, लाव नाथने चरणे नमी | २० । 
सखी कहे कर्मे देई हाथ, तूं मांडी कहें बधी वात, 
तूं काई एके आशरो वद्य, तारा स्वामीने लावुं सद्य । २१। 
ओखा बोले छे आह्पंपाछ, आहां आवबे तो ओछखूं तत्काछ, 
घणूं रूप सबक छे सारु, तेणे चित्तडं चोयु” छे मारुं।२२। 





(पति) ला दो । !(। १५ (यह सुनकर) उससे विधात्री (चित्नलेखा) 
* बोली, “ उनका क्या नाम है ? स्वप्न मे आये हुए स्वामी का क्या ग्राम 
है (पता है) ? कौन जाति है ? उनके पिता और माता कौन है ? ठीक 
से विस्तार-पूर्वक वात कह दो, मै उन्हे ले आती हँ।/। १६ तो ओखा 
कर्म अर्थात सिर को हाथ लगाते हुए बोली, “ अरी मूर्ख, वार-वार क्या 
पूछ रही हो ? मेरा मन उनसे मिलने के लिए आतुर हो गया है। उनका 
रूप मेरे अन्त करण मे रमा रहा है। '। १७ ओखा ने (फिर) कहा, “ मै 
तो पागल हो गयी थी, मुझसे उनका नाम-धाम तो पूछा (ही) नही गया । 
ज्ञाति-जाति और माता-पिता (के बारे मे) जो पहले पूछा जाता है, 
नही पुछा । १८ उनकी रूपकला (कान्ति) मन में मुझे अच्छी लगी। 
उनका वह रूप मेरे मत मे रमता रह गया है। वाई, उन (मेरे) नाथ 
ते मुझे व्यर्थ ही दुख दिया, (जिससे मेरा) सुख रूपी सूरज अस्त को 
प्राप्त हो गया । १९ रात (वीतते) नहीं बीत रही है। उनसे मिलने 
के लिए मेरा मन उत्कण्ठित हो रहा है। विरह का दुःख (मुझसे) सहन 
नहीं किया जा रहा है। (इसलिए) उनके चरणों का नमन करके मेरे 
नाथ को ले आओ।'।२० (यह सुनकर) कर्म अर्थात सिर को हाथ 
लगाते हुए सखी (चित्रलेखा) वोली, “ तुम समस्त वात ठीक से विस्तार- 
पूवंक कह दो। तुम उनका कोई एक पता बता दो, तो तुम्हारे स्वामी को 
लाकर अभी दे देती हूँ। '। २११५ (इसपर) ओखा उसे आश्वस्त करते हुए 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) ८१ 
लाव सखि ! शीघ्र, तेहने नहि तो पाडुं मारा देहने, 
स्वामी बिना तो जीववबुं बुथा, मादे पिंड पाडुं सवधा । २३ । 


वलण (तज़ें बदलकर ) 


पिंड हुं पाइं सवंथा, आज न आवे स्वामी रे, 
चित्लेहा रूप चीतरे, कागल्॒मां बहु कामी रे। २४। 





बोली, 'वे यहाँ आ जाएँ, तो मै उन्हे तत्काल पहचानूगी। उनका रूप 
अत्यधिक सबल अर्थात प्रभावकारी, सुन्दर है। उसने मेरे चित्त को चुरा 
लिया है। २२ अरी सखी, उन्हे शीघ्र ले आओ, नही तो मै अपनी देह को 
तज दूंगी । बिना स्वामी के जीना व्यर्थ है, इससे मै इस पिण्ड का (देह 
का) सब प्रकार से त्याग करूँगी । २३ 

(यदि) आज (मेरे) स्वामी नही आ जाएँ, तो मै इस देह का 
सब प्रकार से त्याग करूँगी ।' (तत्पश्चात) चित्रलेखा ने कागज पर 
अतिशय काम्य अर्थात कामदेव के-से कमनीय रूप अकित किये । २४ 


कडवु १४६ मुं--( चित्र देखकर ओखा द्वारा अनिरुद्ध को पहचानना ) 
राग नटनी देशी 


कागछ रंग लीधो रे विधात्री, भात्यभात्यनां चीतरे स्वरूप, 
स्वर्गंना सुर, पाताछना पतन्मनग, लखिया ते भूमिना भूप ।का०। १ । 
वायु, वरुण ने पावक लखिया, जक्षराय ने जम, | 
ओखा कहे, तुं लघुने सृकीने, बृद्धने देखाडे छे कक्‍्यम ? ।का०। २ । 
गण, ईशने, अंबुईश लखिया, लखिया ते सेनाना धीश, 
जु्स तुरया सउ जोडाव्या, तोये धुणावे शीक्ष | का०। ३ । 


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कड़वक--१४ ( चित्र देखकर ओखा द्वारा अनिरुद्ध को पहचानना ) 


(ओखा की धात्री अर्थात) अभिभाविका (चित्नलेखा) ने कागज और 
रग लिया और भॉति-भाँति के रूप (चित्रित) किये । उसने स्वर्ग के देवों, 
पाताल के सर्पो और प्रुथ्वी के राजाओ के चित्र अकित किये। कागज० । १ 
उसने वायु, वरुण और अग्नि, यक्षराज (कुबेर) और यम को चित्षित किया । 
(उन चित्रों को देखकर) ओखा बोली, “ तुम छोटों अर्थात किशोरो-युवाओं 
को छोडकर बूढ़ो को क्यो दिखा रही हो ? ' । कागज० । २ तत्पश्चात उस 
(चित्रलेखा ) ने गणेशजी, देवेश (इन्द्र) और वरुण का अकन किया; (देवों 
के ) सेनापति स्कन्द को चित्तित किया । दोनों अश्विनीकुमारों को भी साथ 


दर गुजराती (तागरी लिपि) 


प्रभाकर, सुधाकर लखिया, गिरिजावर के गंभीर, 
ओखा कहे एमां कोई नहीं, मारा स्वामीजी केरुं दरीर।का०। ४। 
अप्ट वसु गण गांधवं लखिया, लखिया ते बारे मेह, 
सप्त जलनिधि, अष्ठ धातुकर, लखी ते तेहनी देह।का०। ५। 
वेद मुनि ने जुस्स वीणाधर, लखिया छे चित्रविचित्र, 
मारुतगण ने लखिया विद्याधर, सप्त ऋषिजी पविन्न। का०। ६ ॥ 


मे जोड लिया। तो भी उस (ओखा) ने सिर हिला दिया (और सूचित 
किया कि उनसे से कोई भी उसके अपने स्वामी नहीं है) | कागज० | ३ 
(चित्॒लेखा ने अनन्तर) प्रभाकर (सूर्य), सुधाकर (चन्द्र ), गम्भीर (स्वभाव 
के) गिरिजापति शिवजी का चित्राकन किया । (उन्हे देखकर) ओखा बोली, 
' इनमें से कोई भी मेरे स्वामी का शरीर-रूप (चित्र) नही है (। कागज ० | ४ 
(फिर चित्नलेखा ने) आठो' वसु (देवों का समुदाय), गन्धर्व गण अकित 
किये; (फिर) बारह मेघों (पर्जन्यो) को चित्नित किया। (इनके अतिरिक्त) 
उसने सात समुद्रों, आठ धातुकरों की देहो का चित्रण कर दिया। 
कागज० । ५ (तदनन्तर) उसने मुनि वेदव्यासजी और वीणाधारी नारद 
और तुम्बरु, मरुद्गण” और विद्याधर", पवित्र (-मना) सप्तपि*, चित्र- 

विचित्न रूप मे चित्नित किये | कागज० । ६ उसने सौ कौरव” और पाँच 

१ आठ वसु-पौराणिक माश्यता के अनुसार, प्रत्येक मन्वन्तर मे आठ-आठ वसु 
नामक विशिष्ट देव होते हैं। वर्तमान मन्वन्तर में ये वसु है, जो धर्मऋषि और 
दक्षकन्या वसु के पुत्न है-- धर, ध्रुव, सोम, आप, अनिल, अनल, प्रत्यूप और प्रभास, 
अथवा द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोप, वसु और विभावसु । 

२ सप्त समृद्र-क्षार, इक्षुरस, सुरा, घुत, क्षीर, दधि और शुद्धोदक । 

३ तुम्बरु-यह गन्धर्व कश्यप और प्राधा का पुत्त था। यह ब्रह्मा की सभा मे नारद 
के साथ भगवान का गुणगान किया करता था । यह रम्भा पर आसकत हो गया, तो कुवेर 
से अभिशप्त होकर यह विराध नामक राक्षस वन गया। रामायण के अनुसार, राम- 
लक्ष्मण के हाथो इसका वध हुआ, तो यह फिर अपने मुल रूप को प्राप्त हो गया । 

४ मरुद्गण--वैदिक मान्यता के अनुसार ये सुविख्यात देव रुद्र के पुत्न है। उनका 


मुख्य कार्य वर्षा करता है। महाभारत और पुराणों मे मझुत्‌ सख्या मे उनचास बताये 
गये हे, वे कश्यप और दिति के पुत्र है । 


५ विद्याधर--देवयोनियो मे से एक योनि (वश) विद्याधर कहाती है। विद्याधर 
सुन्दर होते है और आकाणगामिनी आदि अनेक विद्याओं के धारी माने जाते है । 
पुराणों मे चित्नरथ, चित्रकेतु आदि इनके राजा बताये गये है । 

_. ६ सप्तपि--सप्तपियों के नामो को लेकर अनेक परम्पराएँ उपलब्ध है। इनमे 
सय दा परम्पराए बहुत प्रचलित है-- १ कश्यप, अत्ति, भरद्वाज, विश्वामित्न, गौतम, 
जमदरित और वसिष्ठ । २ मरीचि, अत्ति, अगिरस, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, वसिष्ठ । 
न ७्सौ कारिव-धृतराप्ट्र और गान्धारी के एक सौ पूत्र थे। कुरुवश में उत्पन्न 
दन के कारण वे कौरव कहाते है। उनके नाम इस प्रकार है-- दुर्योधन, युयुत्सु, 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) पर 


नर 


शत कौरव ने पांच पांडव, देशदेशना राय, 

कन्याना कोई सनमां न आवबे, आकुल्व्याकुछ थाय । का०। ७। 
चित्रलेहा मन मांही विचारे, सें लखिया ते ठामोठास, 

विषयी पुरुष भासनीनों भोगी, श्रीकृष्ण तणूं ए काम । का०। 5 । 
चतुरभुज॒ पीतांबरधारी,  लखिया ते श्रीमहाराज, 

दीठा श्रीकृष्ण ने ओखा ऊठी, कीधी वडससरानी लाज। का०। ६ । 
अरे सहियर, ए भियाना रे कुछ्मां छे मारो भरथार, 
तव॒प्रद्यम्नते लखी देखाडइयो, लाज कीधी बीजी बार। का०।॥ १०। 
सम लीक अपनी की जले क नकप 8 म+ 227 5 पक नल कक 28880 सम 2 20 


पाण्डव” तथा देश-देश के राजा, चित्रों के रूप में प्रस्तुत किये। (फिर भी 
उनमे से) कोई भी उस कन्या के मन को नहीं भाया। (अतः) वह 
आकुल-व्याकुल हो गयी | कागज ० । ७ फिर चित्नलेखा ने सन मे विचार 
किया-- मैने तो स्थान-स्थान पर (के) लोगों के चित्र अकित किये, (परल्तु) 
उनमें से कोई भी ओखा के स्वामी नहीं है। अतः विषयी पुरुष (भोग- 
विलास के विषय में रुचि रखनेवाले पुरुष) तथा स्त्रियों के भोगी कृष्ण का 
ही (यहाँ) काम हो सकता है । कागज ० । 5५ (इसलिए ) उसने पीताम्बर- 
धारी चतुर्भूज महाराज श्रीकृष्ण का चित्राकन किया । ओखा ने श्रीकृष्ण 
(के चित्न) को (ज्यो ही) देखा, (त्यों ही) वह उठ गयी । उसने ददिया 
ससुर के सामने (मर्यादापालन के हेतु) घूंघट कर लिया । कागज ० | ९ 
(बह बोली--) ' अरी सखी, इन बन्धु.के कुल मे (उत्पन्न पुरुष ही) मेरे 


दृश्शासन, दुस्सह, दुश्शल, जलसन्ध, सम, सह, विन्द, अनुविन्द १०, दुर्धष, सुबाहु, 
दुष्प्रधषंण, दुर्मर्षण, दुर्मुख, दुष्कर्ण, कर्ण, विविशति, विकर्ण, शल २०, सत्त्व, सुलोचन, 
चित्र, उपचित्र, चित्राक्ष, चारुचित्रशरासन (चित्न-चाप), दुर्मद, दुविगाह, विवित्सु, 
विकटानन (विकट) ३०, ऊर्णनाभ, सुनाभ (पदुमनाभ), नन्‍्द, उपनन्द,' चित्रवाण 
(चित्रबाहु ), चित्वर्मा, सुवर्मा, दुविरोचन, अयोबाहु, महावाहु चित्नाग (चित्रागद) ४०, 
चित्रकुण्डल (सुकुण्डल), भीमवेग, भीमबल, बलाकी, वलवर्धन (विक्रम), उमद्रायुध, 
सुषेण, कुंडोदर, महोदर, चित्रायुध (दृढायुध) ५०, निषगी, पाशी, वृन्दारक, दुढवर्मा, 
दृढक्षत्र, सोमकीर्ति, अनूदर, दृढ्सन्ध, जरासन्ध्, सत्यसन्ध ६०, सदः:सुवाक्‌ (सहखवाक्‌), 
उम्रश्नवा, उमग्रसेन, सेनानी (सेनापति), दुप्पराजय, अपराजित, पण्डितक, विशालाक्ष, 
दुराधर (दुराधन), दृढ्हस्त ७०, सुहस्त, वातवेग, सुवर्चा, आदित्यकेतु, बह्नाशी, 
नागदत्त, अग्रयायी (अनुयायी), कवची, क्रथन, दण्डी 5५०, दण्डधार, धनुग्रह, उम्र, 
भीमरथ, वीरबाहु, अलोलुप, अभय, रोौद्रकर्मा, दृढ्रथाश्रय (दुढ़रघ), अनाधृष्य &०, 
कुण्डभेदी, विरावी, प्रमथ, प्रमाथी, दीघरोम (दीघलोचन), दीर्घबाहु, व्युढोरु, 
कनकध्वज (कनकागद), कुण्डाशी (क्रुष्डजण) और विरजा १००, --(महाभारत, 
आदियपव, अध्याय ११६) 


आदिपर्व के ६७वे अध्याय मे प्रस्तुत नामावली मे कुछ नाम भिन्न पाये जाते है। 


. १ पाँच पाण्डव--पाण्ड राजा के पुत्र पाण्डव कहाते है। वे है-- धर्म, भीम, 
अर्जुन, नकुल और सहदेव । ह 


८9 गुजराती (नागरी लिपि) 


कन्या कहे अवयब प्रभुना, आ पुरुष कोई वृद्ध, 
चित्रलेहाए लखी.. देखाडयो, . काग्रछमां. अनिरुद्ध । का०। ११॥ 
मुगट भम्र पर वदन सुधाकर, नेत्र वे अंबुज, 
घेली ओखा धाईने भेटी, कागछने भरी भुज। का०। १२। 
धन्य धन्य नाथजी, हाथ ग्रहीने, न मृकीए ते बोडी सारु, 
हृदय अबछानूंं होय काचुं, कुण गज छे. मारु। का०। १३। 
ना ना, बोलो मारा सम छे, लाजो छो ज्ञा माटे ? 
चित्रलेहा कहे न होय स्वामी, वद्ठग्यामां कागछ फाटे। का०। १४। 


वलण (तर्ज बदलकर) 


कगछ फादे कामनी,  चित्नलेहा बोली वाणी रे, 
ओखा कहे, तूं द्वारिकाथी, आप्य प्रभुने आणी रे।१५॥ 


हि 


बल >+>बल अल ओि नष्ञीऑीड आल 5 नली 





अल आल 3लजी अं डिल विज -न्‍५ल५ल3ढ9ढ ५ 4 9तडिड न मील औिलीिण लीक अेन्‍ी जल जटिल भेज 3 


पति है। ” तब चित्नलेखा ने प्रद्यम्त का चित्र अकित करके दिखाया, 
तो ओखा ने दूसरी बार (लज्जा अनुभव करते हुए) घूँघट किया। 
कागज० । १० (उसे देखकर) उस लड़की (ओखा) ने चित्नलेखा से 
कहा, “' (इस चित्र में अकित) अग तो (मेरे) प्रभु के है, (फिर भी ) यह कोई 
वृद्ध (प्रोढ) पुरुष (जान पडता) है। ' (तदनन्तर) चित्नलेखा ने कागज 
पर अनिरुद्ध को (चित्राकित करके) दिखा दिया । कागज ० । ११ उसमे 
मुकुट (एक ओर की) भौह पर (झुका हुआ अंकित) था; मुख चन्द्र-सा 
था; नेत्र (मानो) दो कमल (ही) थे। उन्मत्त-सी होकर ओखा ने धाय 
को गले लगाया और उस कागज़ को वाँहों मे भर लिया । कागज़० । १२ 
(वह बोली--) “ है नाथजी, धन्य है, धन्य है। (एक वार मेरी बाँह 
पकड़कर) बीडे के कारण (फिर से) उसे न छोड दे । अबला का हृदय 
कच्चा अर्थात कोमल होता है; (फिर) मेरी क्या शक्ति है ? । कागज०। १३ 
नहीं, नही, वोलिए तो, मेरी सौगन्ध है । आप किसलिए लजा रहे है ? ” 
(यह सुनकर) चित्रलेखा वोली, “अरी, ये (तुम्हारे) स्वामी नही है, 
(कागज है), सीने से लगाने से कागज फट जाएगा ” | कागज० | १४ 


चित्नलेखा ने यह वात कही, “ हे कामिनी, (ऐसा करने से) कागज 
फट जाएगा । तो ओखा बोली, “ तुम द्वारका से (मेरे) प्रभु को लाकर 
मुझे दे दो । । १५ 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) प्‌ 


कडवुं २० मुं--( चित्नलेखा द्वारा अनिरुद्ध का अपहरण ) 
राग मारु 


ओखा कहे छे, सुण साहेली, लाव नाथने वहेली वहेली, 
बाई तूं छे सुखनी दाता, लाव स्वामीने थाय सुखशाता। १ । 
ओखा, तने तो पड़या ए हेवा, सखी आण्याना उपाय केवा ? 
तने परण्या तणु मत थाय, नथी लाव्यानों एक उपाय । २ । 
दूर पथ छे द्वारामती, केम जवाय मारी वती ? 
त्यां तो जई न शके राय शक्र, रक्षा कारण फरे छे चक्र । ३ । 
जीवतां तो फरी न अवाय, निश्चे मस्तक छेंदन थाय, 
जावूं जोजन सहत्न अगियार, तारो केम आवे भरथार ! | ४ । 
नयणे नीरनी धारा वहें छें, कर जोडी कन्या कहे छे, 
बाई ! तारी गति छे मोटी, तने तो न करे कोई खोटी । ५ । 
सहियरने सहियर होय वाली, बाई ! ते मने हाथे झाली, 
आपणे बे बाह्ठसंघाती, तुं तो प्राणदाता छे विधादी। 


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कड़वक--२० ( चित्रलेखा द्वारा अनिरुद्ध का अपहरण ) 


ओखा बोली, “ री सहेली, सुनो । जल्दी से जल्दी (मेरे) पति को 
लेआओ। रीवाई, तुम (मुझे) सुख देनेवाली हो, (मेरे) पति को ले 
आओ, (जिससे मुझे) सुख और शान्ति (प्राप्त) हो जाएगी। । १ 
(इसपर ) चित्नलेखा बोली, “ अरी ओखा, तुम्हे तो इसका चस्का लग गया 
(जान पडता) है। (पर) री सखी, उन्हे लाने के क्या उपाय है ? तुम्हें 
(मन में उनसे) विवाह करने की इच्छा हो रही है, (वह स्वाभाविक है; 
फिर भी ) उन्हे लाने का एक (भी) उपाय नही (दिखायी दे रहा) है। २ 
द्वारावती का मार्ग बहुत दूर (का) है। वहाँ तक मुझसे कैसे जाया 
जाएगा। वहाँ तो (देवों के) राजा इन्द्र (तक) नही जा सकते। (वहाँ) 
सुदर्शन चक्र (नगरी की ) रक्षा के हेतु घूम रहा है। ३ (वहाँ जानेवाला ) 
जीवित अवस्था मे पुनः (लौट) नहीं आएगा । (उसका) मस्तक निश्चय 
ही कट जाएगा। ग्यारह सहर योजन जाना है, फिर तुम्हारा पति वहाँ 
से कैसे आ सकेगा (मेरे द्वारा इतनी दूर जाकर उसे कैसे लाया जाएगा) | '। ४ 
(यह सुनकर) कन्या ओखा की आँखों से (अश्व-) जल की धारा बहने 
लगी। (फिर) वह हाथ जोडकर बोली, “री बाई, तुम्हारी गति बड़ी है; 
तुम्हें तो कोई (भी रोककर) विलम्ब नही कर पाएगा । ५ सखी को सखी 
प्यारी होती है। तुमने मुझे हाथ से पकड़ लिया है (तुमने मेरा हाथ 


5 गुजराती (नागरी लिपि) 


मा बाप वेरी थयां मारां, मे तो चरण सेव्यां छे तारां, 
चित्रलेहा तूं दीनदयाढू, एम कहीने पग्रे लागी बाछ्‌ | ७ । 
चित्रलेहाएं धारणा दीधी, पछी काया पक्षिणीनी कीधी, 
बोली चित्॒लेहा सत्य वाणी, क्षण एकमां आपूं आणी। ८ । 
तेशं परणावुं रूडी रीत, तो तुं जाणने मारी प्रीत, 
ओखा कहे, रहेजे रुडे आचरणे, रखे अनिरुद्धने तू परणे। ९ । 
सखि ! सुंदर वरने जाणी, रखे थती तू पटराणी, 
एनो अत्तिशे छे हाथ रुूपाठो, रखे मेढ्वे तुं हाथेवाछो | १० । 
बाई ! जादबवर छे झूडो, रखे पहेरीने वेसती चूडो, 
बाई ! जईने आवजे तर्ते, रखे ते साथे मगक्त वर्ते। ११। 
सखि ! आवजे वहेली वहेली, वहाणं वाता पहेली पहेली, 
बाई | तारो छे विश्वास, रखे करती मने निराश । १२। 





पकड़ा है, मेरी सहायता की है); हम दोनो वचपन की सखियाँ है। तुम 
तो मेरे लिए ;प्राण-दात्नी विधात्नी (अभिभाविका, रक्षिका) हो । ६ भरे 
माता-पिता (मेरे) वेरी हो गये है। मैने तो तुम्हारे चरणों की सेवा की 
है (तुम्हारे चरणों का आश्रय प्राप्त कर लिया है) । री चित्नलेखा, तुम 
दीन-दयालु हो (मुझ जैसी दीन के प्रति दयालु हो) ।” ऐसा कहकर वह 
वाला (चित्नलेखा के) पाँव लगी । ७ (फिर) चित्नलेखा ने उसे आश्वासन 
दिया (ढाढस वँधाया) और पक्षिणी की देह धारण की । फिर चित्रलेखा 
बोली, “यह वात सत्य होगी- मैं एक क्षण में (तुम्हारे पति) लाकर 
(तुम्हे) दे दूंगी । ८. अच्छी रीति से उनसे तुम्हारा विवाह कराऊंगी, तो 
तुम मेरी प्रीति को समझ सकोगी । ” (तदनन्तर) ओखा ने कहा-- 
“ तुम अच्छा आचरण करके रह जाना; (नही तो हो सकता है) कदाचित 
तुम ही अनिरुद्ध से विवाह करोगी ९ सखी, वर को सुन्दर जानकर 
कदाचित तुम (ही उसकी) पटरानी वत जाओगी । उनका हाथ अतिशय 
सुन्दर है, (इसलिए) कदाचित तुम ही उन्तके साथ हाथ मिलाओगी 
(उनसे विवाह करोगी ) । १० वाई, यादव कुलोत्पन्न वह वर अच्छा है, 
(इसलिए) कदाचित, तुम ही (विवाह का) कंगन पहनकर बैठोगी। 
वाई, जाकर तत्काल लौट आना; (नही तो उससे पहले) कदाचित 
उनका मगल (विवाह) सम्पन्न हो जाएगा । ११ अरी सखी, शीत्र से 
शीघ्र, सुबह होने से पहले-पहले तुम आ जाना। बाई, (मुझे) तुम्हारे 
प्रति विश्वास है। (फिर भी डर है) कदाचित तुम मुझे निराश 
करोगी । १२ ऐसा करना कि इसे कोई जान न पाए। स्वामी को 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) ८७ 


कोई न जाणे एवूं करजे, वेगे स्वामीने लईने फरजे, 
जो जाणशे पिता बाण, तो तो आपूणा लेशे प्राण। १३। 
तूं तो करजे स्वामीनुं जतन, मुज रांकने हाथ रतन, 
पछे पंथे वह्वावी विधात्नी, पक्षिणी मन वेगे जाती। १४। 
द्वारिका पहोंची कामिनी, छेल्ली दोढ पहोर जामिनी, 
'जावा कीधू नगरमां मन, एवे आव्य सुदर्शन | १५ | 
जेवं मस्तक छेंदे बढमां, कन्या पेठी गोमतीना जल्वमां, 
एवं नारद ऋषि त्यां आवी, चक्रभय थकी कन्या मुकावी । १६ । 
कहे नारद, सुदर्शन, एने लई जवा देजे तन, 
ए तो काम छे कृष्णने गमतूं, माटे रखे तू एने दमतुं | १७ । 
पछे उदकनी अंजलि लीधी, मत्री विधात्री निर्भेय कीधी, 
तामसी विद्या ऋषिए आपी, पछे पीठ प्रमदानी थापी । १८ । 
हवे अल्प रही छे रात्री, जा ले अनिरुद्धने तू विधात्री, 
गयूं चक्र ते पश्चिम पासे, ऋषि नारद वक्तिया आकाशे । १९ । 





तप मलिक मत कल मल 3 
लेकर वेगपूर्वक धूमकर (लौटकर) आ जाना। यदि पिताजी, बाण) 
जान जाएँगे, तो वे हमारे प्राण ले लेगे। १३ तुम मेरे स्वामी, मुझ 
रक के हाथ के रत्न की रक्षा करता '। अनन्तर उसने (अपनी ) 
अभिभाविका को मार्ग मे बिदा कर दिया। तो वह पक्षिणी-स्वरूपा 
(चित्नलेखा) मन के-से वेग से चली गयी। १४ जब वह द्वारका पहुँची, तो 
रात पिछले डेढ पहर (शेष) थी। उसका मन्त नगर के अन्दर जाने को 
हुआ, इतने मे सुदर्शन चक्र (उसे रोकने के लिए) आ गया। १५ जैसे ही वह 
बलपूर्वक कन्या (चित्रलेखा ) का मस्तक काटने जा रहा था, तो वह गोतमी 
नदी के जल में पैठ गयी । इतने में नारद ऋषि ने वहाँ आकर उस कन्या 
को भय से मुक्त कर दिया। १६ नारदजी वोले, सुदर्शन, इसे तन लेकर, 
अर्थात सशरीर जाने दो । यह (इस प्रकार रोकना) तो क्रृष्ण को भाने- 
वाला कार्य है; इसलिए कदाचित तुम उसका दमन करनेवाले हो (पीड़ा 
पहुँचानेवाले हो) (। १७ (इस डर से) अनन्तर उन्होने पानी से अंजली 
भर ली और उस (जल) को अभिमत्रित करके (छिटकते हुए) उस कन्या 
को भय-मुक्त कर दिया। (तत्पश्चात) ऋषि (नारद) ने उस प्रमदा 
को तामसी विद्या प्रदान की और फिर उसकी पीठ थपथपायी। १८ 
(वे बोले--) “ अब रात थोडी (ही शेष) रह गयी है । री विधात्री, तुम 
अनिरुद्ध को ले जाओ ।' (तब तक) वह चक्र पश्चिम की ओर चला गया 
और नारद आकाश में लौट गये । १९ (इधर) चित्नलेखा उस नगर को 


पद गुजराती (नागरी लिपि) 


चाली चित्नलेहा जोती गाम, सामसामां शोभीतां छे धाम, 
सप्त भोमिता भवन ते भासे, जोतां भूख तरस ते नासे | २० । 
बहु कछ॒श धजा बिराजे, जोतां अमरापुरी तो लाजे, 
शोभे छुजां झरूखा ने माठू, मणिमय थंभ झाकझमाछ । २१ । 
वांकी बारी ने गोखे जाछी, नीला काच मृक्‍या छे ढाढछी, 
झकछके मंडप हेमनी थाछी, पटर्माहे जडी परवाढी | २२ । 
लींपी भीते सोनानी गार, चक्कके काम ते मीनाकार, 
भला चौटां शेरी ने पोछ, सामसामी हाटनी ओछ | २३ । 
घेरघेर ते वाटिका कुंज, करे भमर ते गुंजागुंज, 
मोटा मातंग घूमे ने डोले, गुणगान बंदीजन बोले। २४ । 
दीसे द्वारिका बेकुंठ सरखी, चित्नलेहाए नगरी नीरखी, 
दुर्ग कोसीसां रूडां बिराजे, चारे पासे रत्ताकर गाजे । २५॥ 
त्यां तो गोमतीनो संगम, उद्धरे स्थावर ने जंगम, 
शके आवास अडशे व्योम, जाणे वेकुंठ आण्यूं भोम | २६। 





लिजजजिल-ज ब ीडिजओल अजीज अब, अल >आडी ह हटा हे अअ॑ जल 33 


देखती हुई चली जा रही थी। वहाँ भवन आमने-सामने शोभायमान थे । 
वह नगर (मानो) सप्त लोको का भवन ही आभासित हो रहा था (जान 
पडता था) । उसे देखते ही भूख और प्यास नप्ट हो जाती थी । २० 
(उसने देखा--) उसमे बहुत कलश और ध्वज विराजमान है। उसे 
देखकर अमरावती (तक) लज्जित हो जाती है। उसमे अटारियाँ, झरोखे 
और मजिले शोभायमान है । रत्नमय स्तम्भ जगमगा रहे है । २१ वॉकी 
खिडकियो और गवाक्षों में जालियाँ लगी है। (वहाँ) नीले कॉच ढालकर 
डाल दिये है। मण्डप जगमगा रहे है, मानो सुवर्ण के बने थाल ही हो, 
उसमे लगे वस्त्नो मे मूँगा नामक रत्न जड़े हुए है। २२ दीवारे सोने के 
गारे से लीपी हुई है, उनमे मीनाकारी का काम चमक रहा है। अच्छे- 
अच्छे वाजार, गलियाँ और वीथियाँ है; आमने-सामने हाटों (बाजार की 
दूकानो) की पक्तियाँ है। २३ घर-घर वाटिकाएँ और कुज है, उनमे 
अ्रमर गुजत कर रहे है। वडे-बड़े हाथी घूम रहे है, झूम रहे है । 
वन्दीजन गुणगान कर रहे है। २४ द्वारका नगरी वैकुण्ठ जैसी दिखायी 
दे रही है। चित्रलेखा ने ऐसी उस नगरी का निरीक्षण किया। (वहाँ) 
दुर्ग (की चहारदीवारी) पर सुन्दर कग््रे (वुजें) विराजमान है, चारों ओर 
समुद्र गरज रहा है। २५ वहाँ तो गोमती (नदी और समुद्र )का सगम है, * 
(जहाँ) स्थावर और जग्रम (अचेतन और सचेतन ) उबर जाते है। कदाचित 
आवास-स्थान (भवन) आकाश को छू रहे हों। जान पडता है, बैकुण्ठ 





प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) पद 


घेरघेर हरिगुण गाय, चित्रलेहा ते जोती जाय, 
वासुदेवतां घर निहाली, गई ज्यां वसे श्रीवनमाती । २७ । 
सोछ सहस्र नारी विहारी, दीठा घेरघेर देव मुरारो, 
हरिनां साठ लाख छे तन, जोयां तेह तण्णां भवन । २८ । 
जोयू कामधाम धातकार, दीठो मेडीए कामकुमार, 
अनिरुद्ध सूतो छे हिंडोछे, त्यां दासीओ वायु ढोछे | २९ । 
शोभे दीपक चारे पास, बे चरण तढांसे दास, 
त्यां बावनांचंदन बेहेके, बहु हिडोछे फूमतां लहेके | ३० । 
कामकुंवर ते काम ज जेवो, ' चित्नलेहाने चोरी लेवो, 
लेवा कुंवरनुं कारण, समर्या निद्रानूं धारण। ३१। 
राते जे कोई जागतू हूतूं, ते तो जे जेम ते तेम सूतुं, 
धारण भारण भारी काया, व्याप्तमान थई जोगमाया। ३२। 
अनिरुद्ध तणी किकरी, ते तो सुती निद्राए भरी, 
चितलेहा घरमां गई, पण कुंवर तो जाग्यो नहीं। ३३ । 





लोक पृथ्वी पर (उत्तर) आ गया हो । २६ घर-घर (लोग) श्रीहरि 
(कृष्ण) के गुण गा रहे है। -चित्नलेखा (ऐसे दृश्यों को) देखती जा रही 
थी। वह वासुदेवों (वसुदेव के कुल में उत्पन्न व्यक्तियो) के घरों को 
देखते हुए (वहाँ) गयी, जहाँ श्रीवनमाली अर्थात कृष्ण निवास करते थे। २७ 
सोलह सहस्न नारियों के साथ विहार करनेवाले मुरारि देव क्ुष्ण को उसने 
घर-घर देखा । क्रुष्ण के साठ लाख पुत्र थे; (चित्रलेखा ने) उनके भवन 
(भी) देखे । २८ उसने (कृष्ण के पुत्र) कामदेव अर्थात प्रद्युम्न का 
जगमगाता हुआ भवन देखा; (तदनन्तर ) एक कोठी मे कामदेव के पुत्न अनिरुद्ध 
को देखा। अनिरुद्ध झूले पर सोये हुए थे। वहाँ दासियाँ (पखों से) 
हवा कर रही थी । २९ चारों ओर दीपक शोभायमान थे । सेवक दोनों 
चरण चाप रहे थे। वहाँ मलयगिरि चन्दन महक रहा था। उस झूले पर 
बहुत सी कलंगियाँ झूम रही थी। ३० वे काम-कुमार अनिरुद्ध, कामदेव जैसे 
ही थे। चित्नलेखा को उन्हें चुरा लेता था। कुमार अनिरुद्ध को ले जाने के 
हेतु उसने निद्रा लानेवाली औपधी का स्मरण किया । ३१ उससे रात को 
जो कोई जाग्रत था, वह जैसा का वैसा सो गया । उस औषधी के जादू 
के प्रभाव रूपी भार से उनकी कायाएँ भारी (सुस्त) हो गयी। मानो 
उनमे योगमाया ही व्याप्त हो गयी । ३२ अनिरुद्ध की (जो) दासी थी, 
वह निद्रा से व्याप्त होकर सो गयी। (फिर) चित्रलेखा घर के अन्दर 
गयी, परच्तु कुमार अनिरुद्ध तो नहीं जाग उठे । ३३ (तब) वहाँ 


दै० गुजराती (नागरी लिपि) 


त्यां विचार अंतरमां कीधो, कडां काढी हिंडोछो लीधो, 
वे बे डांडी करमां झाली, खेचरी गते चतुरा चाली। ३४। 
करे यत्न अंतरमां वहाल, एवी ऊडी जे आवे न आल, 
गोविंदे गोठवणी कीधी, जाणी जोईने जावा दीधी | ३५।॥ 
घेर ओखा जुबे छे वाट, नाव्या नाथ ने थाय उचाट, 
एव सांभली पांखज वागी, त्यारे ओखानी आरत भांगी। ३६ । 
लावी चित्नलेहा कहेवा लागी, आप वधामणी मुखमागी, 
आ नाथ तारो हिंडोछे, नरनारी मढो तमे टोछे | ३७ । 


साखी 


टोछे मठो तमे तारणी, आ तारो भरथार, 
पछे. ओखाए चित्रलेहाने, दीधी सोछ शणगार | ३८। 


जज अऑलडजी जी 


न्न्‍्ज्ज््न्न्न्न्ििन्कज्प्व््व्््ल्ल्च्च्च्चच्ल्चचल््च््चच्ख् चल लत 


(इस स्थिति मे) उसने मन मे (कुछ) विचार किया और कोढ़े निकालकर 
झूला (उठा) लिया । उसकी दो-दो डॉडियाँ (एक-एक) हाथ मे लेकर 
वह चतुरा (नारी) पक्षिणी की गति से चल दी। ३४ (उसके) मन में 
(ओखा के प्रति) प्रेम था। (इसलिए) वह ऐसा यत्न कर रही थी-- ऐसे 
उड़ रही थी कि जिससे (झूले को कोई) झपट्टठा न लग जाए। भगवान 
गोविन्द ने ऐसी व्यवस्था की कि उसे जानते-देखते (जान-बूझकर) जाने 
दिया । ३१ (इधर) घर में ओखा (चित्रलेखा की) प्रतीक्षा कर रही 
थी। स्वामी (अभी तक) नही आये । (अत) उसे चिन्ता (अनुभव ) होने 
लगी। इतने मे उसने सुना-- पाँख वज रही है (पॉख की ध्वनि हो रही 
है) । तव ओखा की कठिनाई (चिन्ता) नष्ट हो गयी । ३६ चित्नलेखा 
उसके पति को ले आयी और कहने लगी-- ' (मुझे) मूँहमाँगी बधाई (के 
उपलक्ष्य मे पुरस्कार) दे दो। झूले पर ये तुम्हारे स्वामी है। (अब तुम) 
पुरुष और स्त्री इकट्ठा (एक-दूसरे से) मिल लो । ३७ 

है तरुणी, तुम इकट्ठा (एक-दूसरे से) मिल जाओ। ये है तुम्हारे 
पति।” अनन्तर ओखा ने चित्रलेखा को सोलह (प्रकार के) सिगार” 
(पुरस्कार के रूप मे सजा) दिये। ३८ 


१ सोलह सिंगार--तैलाभ्यगस्तान, चीर (वस्त्र), कचुकी, कुंकुम, काजल, कुण्डल, 
हार, मोती, केश (-पाण), नृूपुर, चन्दन, करधनी, तोडें, ताम्बूल, चूडियाँ और करदर्पण 
(अंग्रेठे भे पहना जानेवाला एक प्रकार का आभूषण, जिसमे छोटा-सा दर्पण जडा हुआ 
होता) है। (कुछ अन्य सूचियाँ भी उपलब्ध है ।) 


प्रेमाननद-रसामृत (ओखाहरण ) 45१ 


कडव्‌ं २१ सुं--( ओखा-अनिरुद्ध-भेट ) 
राग मारुती देशी 


ओखा कहे छे चित्रलेहाने, ते आप्यूं प्राणनूं दान, 
सखी कहीने केम बोलावूं ? तूं छे देवी समान। १ । 
दीपक जागतो करीने कन्या, परण्यानी पासे आबवी, 
शं सूता निद्रावश स्वामी, हिंडोछो सोहावी। २ । 
कामकुंवरने आ शी निद्रा? सूवु सारू लागे, 
दूर पंथथी कंथ पधार्या, तोये सूता नव जागे। ३ । 
रजनी अल्प रही छे राणा, ऊधघ ते तमने आ शी ? 
जोने सखी, ए भिया दिसे छे,' कुंभभरणना उपासी | ४ । 
ऊंचे स्वरे जईने बोलावे, चरणनेपुर वजाडें, 
हस्या मिषे हीडोछो हलाबे, तोये नव आंख उघाडे। ५। 
वायु ढोछे ने चरण तकासे, मुख करे स्तवंन, 
एवं. समे अनिरुद्धने आव्यूं, निद्रावशर्मा स्वपंन। ६ । 
कोईक नारी मुजने लावी छे, हिंडोछो करीने हरण, 
एकांतवासमां राजकन्यानुं, कीधुं में पाणिग्रहण । 


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कड़वक--२१ ( ओखा-अनिरुद्ध-भेंठ ) 


ओखा ने चित्नलेखा से कहा, “ तुमने मुझे प्राणों का दान (प्राणदान) 

दिया । मै तुम्हे “सखी ” कहकर कंसे बुला लूँ (सम्बोधित करूँ) ? तुम 
तो देवी-समान हो ”।१ (तदननतर) दीपक को जागृत करके अर्थात 
जलाकर वह लड़की (ओखा अपने) वर के पास आ गयी । (उसने 
सोचा--) क्या स्वामी निद्रावश होकर, झूले को शोभायमान करते हुए सो 
गये है । २ कामदेव के पुत्र (अनिरुद्ध) की यहे कैसी निद्रा ? उन्हे सो 
जाना अच्छा लगता हो । (मेरे) पति मार्ग से दूर (यहाँ) पधारे है, तो 
भी वे सोते हुए नही जाग उठे । ३ है राजा, रात तो थोड़ी (शेष) रह 
गयी है। (फिर) तुम्हे यह कैसी नीद (आ गयी) है ? अरी सखी, देखो 
तो ये भाई कुम्भकर्ण के भक्त जान पड़ते है । ४ उसने उन्हे ऊँचे स्वर मे 
(जोर से) पुकारा, (फिर) चरणों मे बँघे नूपुर बजा लिये । हँसी-ठठोली 

के बहाने झूला हिला दिया; फिर भी उन्होंने आँखें नही खोली | ५ उसने 
(पे से) हवा की, उनके पाँवों को धीमे-धीमे दबा लिया; (फिर) उसने 

मुँह से उनकी स्तुति की। ऐसे समय पर अनिरुद्ध को निद्रावशता की दशा 
में स्वप्त देखने में आया । ६ (उसने स्वप्ल मे देखा--) कोई एक नारी 


5४ गुजराती (नागरी लिपि) 


एवं समे ऋषि नारद आव्या, ईश्वरी इच्छाय, 
गांधवंविवाह तत्क्षणः कीधो, परणाव्यां वरकन्याय | १९ । 


वलण (तर्ज वदलकर ) 


वरकन्या परणावियां, नारद हवा क्षतर्धान रे, 
नरतारी सुख भोगवे, इंद्र-इंद्रणा समान रे।२०। 
नरनारी आनंद घणो, वाध्यो प्रेम अपार रे, 
विधात्री तुजने नमूं, मुंने मेक॑व्यों भरथार रे।२१।॥ 


(टूर हो गया) । (फिर ओखा वोली--) “ उल्टा मूँह करके (मेरी ओर 
पीठ करके) क्‍या वोल रहे है ? (कुछ) पीछे मुडकर तो देखिए । (। १८ 
उस समय भगवान की इच्छा से ऋषि नारदजी वहाँ आ गये। उन्होने 
तत्क्षण (उनका) गान्धर्व विवाह करा दिया, उन वर और कन्या (वध) 
का परिणय करा दिया | १९ 

नारद ने वर और कन्या (वधू) का परिणय करा दिया और वे 
अन्तर्धान हो गये । (तदनन्तर ) वे पुरुष और स्त्री, इन्द्र-इन्द्राणी के समान 
सुख भोगने लगे । २० उन नर-नारी को बहुत आनन्द हो गया । उनमे 
अपार प्रेम की वृद्धि हो गयी। (फिर) ओखा बोली, “री धात्री 


(चित्नलेखा ), मैं तुम्हें नमस्कार करती हूँ; तुमने मुझे पति प्राप्त कर 
दिया । !। २१ 


कडवब्‌ं २२ मुं-( ओखा-अनिरुद्ध+मिलन ) 
राग चोपाई 


शुकजी बोल्या परम वचन, सांभक्क परीक्षित राजन, 
महठी बेठी वेड सैयारी, बोली वचन कौभांडकुमारी। १ । 
सुख भोगवे श्यामा ने स्वामी, चित्रलेहा कहे शिर नामी, 
अन्न बेनूं आपे छे राय, त्रीजूं माणस केम समाय ? । २ । 


न्जि्ज्जल््ल िलघ ्ल आ लड ४ >ी+ै ७33 +>+- ४ + 


कड़वक २२--( ओखा-अनिरुद्ध-मिलन ) 
शुकजी ने परम (उत्तम) वात (इस प्रकार) कही-- है राजा 
परीक्षित, सुनिए । वे दोनों सखियाँ मिलकर (एक स्थान पर) बैठ गयी, 
तो (उनमे से) कौभाण्ड की पुत्री (चित्रलेखा) वोली। १ (उसने मन-ही- 
मन सोचा-- यहाँ) यह स्त्री और उसके पति (मिलन-) सुख भोगते रहेगे । 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) 5५ 


तमे नरनारी क्रीडा कीजे, बाई मुजने तो जावा दीजे, 

रडती ओखा ते वह्तु भाखे, बाई ! केम जीवुं तुज पाखे । ३ । 
तमे तातने घेर न जवाय, जो जाओ तो वात चर्चाय, 

रही एकठा दहाडा निर्गममशुं, आपणे त्रणे वहेंची अन्न जमशू |. ४ । 
बाई रहीश कदी हुं भूखी, नहि तुजने थावा देउं दुःखी, 

तने आपीश मारो भाग, नथी हमणां जवानों लाग। ५ । 
दुःख थाशे तो दईशुं थावा, पण नहि देउ बेनडी जावा, 

चित्नलेहा कहे, सुण शाणी, रखे आंखे तूं भरती पाणी। ६ । 
प्रधानपुत्नी कहेवाउं छं मात्र, हुं छूं ब्रह्माणी मानवमात्र, 

तुज अर्थ लीधो अवतार, माटे मेल्ठव्यां स्त्री-भरथार। ७ । 
एम कहीने थई अदर्शन, चित्लेहा गई ब्रह्मसदन, 

ओखाए रोई आंखों भरी, कंथे आसत्ावासना करी। ८ । 
स्वामीए संबोधी नारी, सुखे विधातद्नी मेली विसारी, 

बेउने विसरी विजोगनी पीडा, नरनारी करे कामक्रीडा । ९ । 
(फिर) चित्रलेखा सिर झुकाकर बोली, “ राजा खाना तो दो का भेजते है, 
उसमें तीसरा मनुष्य कैसे समा जाए। २ (अतः) आप नर-नारी (यहाँ 
प्रणय-) क्रीड़ा करते रहिए। बाई, मुझे (अब) तो जाने दीजिए। 
(यह सुनकर) रोते-रोते ओखा प्रत्युत्तर मे वोली, “ बाई, मै विना तुम्हारे 
कंसे जीवित रह सकूंगी । ३ तुम्हे अपने पिताजी के घर नही जाना है । 
यदि जाओगी, तो इस बात की चर्चा होगी। (अत: यहा हम तीनो) 
इकट्ठा रहकर दिन बिताएँगे। हम तीनों खाना बॉटकर भोजन करेगे। ४ 
बाई, मै कभी भूखी रहूँगी; फिर भी तुम्हें दुखी नही होने दूँगी । मैं तुम्हें 
अपना भाग दूँगी। अभी (तुम्हारे) जाने के लिए उचित समय नही है। ५ 
(यदि कुछ) दुख होगा, हम उसे हो जाने देगे, अर्थात उसे सहन करेगे। 
परन्तु बहन, तुम्हे जाने नही दूँगी घ। (इसपर) चित्रलेखा ने कहा, “ सुनो, 
अरी सयानी (बहन ), तुम कदाचित आँखों मे पानी भर रही हो । ६ मै 
मन्त्री की पुत्री मात्र कहाती हूँ, (फिर भी) मै मानवी के रूप मे केवल 
ब्रह्माणी (माया) हूँ । तुम्हारे लिए मैने (मानव स्त्री का) अवतार ग्रहण 
किया है। मैंने (तुम) स्त्री और पति को (एक-दूसरे से) मिला दिया 
हैे। ।७ ऐसा कहकर चित्रलेखा ओझल हो गयी और (वहाँ से फिर) 
ब्रह्मा के घर चली गयी। (इससे ) ओखा ने रो-रोकर (आऑसुओं से) आँखे 
भर दी, तो पति ने उसे (ढाढ्स बाँधाते हुए) आश्वस्त किया। ८ 
(तदनन्तर) पति ने उस्न नारी को समझा दिया, तो उसने सुख के साथ 


रे गुजरातो (नागरी लिपि) 


आसनभेदे बंनो छे पूरां, नरनारी रतिजुद्े शूरां, 
बेनी छे चडती जोबनकाया, प्रीतिबंधने वांधी माया। १०॥ 
स्तेहअणंव ओखा नारी, झीले अनिरुद्ध नाथ विहारी, 
जे जे जोईए ते उपर आवे, भक्ष भोजन करे मन भावे | ११। 
पहोंच्यो ओखानों अभिलाष, पछे आव्यो वेशाख मास, 
जाछोए बारीए वायु वाये, त्यम त्यम हषे ते अधिक थाये । १२ । 
आव्या वर्षाकाछ॒ना दिन, गाजे वरसे ने थाय पर्जन्य, 
थाय आकाशे वीजछी पूरी, बोले कोकिला वाणी मधुरी । १३ । 
त्या तो मोर-बपैया बोले, महातपसीनां मनडां डोले, 
मछ्िया तक्के सागर गाजे, अंगे नव सप्त शणगार साजे । १४ | 
तैलमर्दन मंजन अंगे, चर्चे चंदन केसर संगे, 
नेत्रे अंजत आभरण सार, मुखे तांबूल केरो आहार | १५। 


अपनी अभिभाविका (धाय) को भुला दिया। (फिर) उन दोनों को 
(अभिभाविका चित्नलेखा के) वियोग की व्यथा भूल गयी और वे नर-मारी 
काम-क्रीड़ा करने लगे। ९ (सम्भोग के) आसनों के भेद (के ज्ञान) में 
वे दोनो पूर्ण (प्रवीण) थे। वे पुरुष और स्त्री रति-युद्ध में शूर थे। 
दोनो की काया यौवन से विकसित होती जा रही थी, तो माया अर्थात 
चित॒लेखा ने (उन्हे) प्रीति के बन्धन में आवद्ध कर दिया। १० नारी' 
ओखा तो (मानो) स्नेह का सागर थी। विहार करनेवाले पति अनिरुद्ध 
उसमे जल-क्रीडा करने लगे। उन्हे जो जो चाहिए था, वह ऊपर आता 
था। वे मन को (जो) भाता था, वैसा भोजन करते थे। ११५ (इस 
प्रकार) ओखा की अभिलाषा पूरी हो गयी । (यथाकाल) फिर वेशाख 
मास आ गया। (जैसे-जैसे) गवाक्ष और खिड़की में से हवा वहती, वैसे- 
वैसे (उन्हे) अधिकाधिक हर्ष होता । १२ (तदनन्तर) वर्षाकाल (ऋतु) 
के दिन आ गये। मेघ गरजते थे, और साथ मे वरसात होती थी । 
आकाश मे बिजली पूर्ण रूप से (बहुत) चमकती थी। कोयल मधुर 
वाणी में वोलती थी। १३ वहाँ (तब) मोर और पपीहा बोलते थे। 
(इसके प्रभाव से) महान तपस्वियो के मन डोल रहे थे (विचलित हो रहे 
थे), (तो ओखा और अनिरुद्ध के मन की क्या कहे ! ) । उस कोठी 
के तले सागर गरज रहा था। (एक दिन उसने) अंग मे सोलह श्गार 
सजा लिये। १४ उसने अग में तेल लगाकर मर्दन किया और स्नान 
किया। केसर के साथ चन्दन (मिलाकर) लगा लिया । आँखों में अंजन 
जगाकर सुन्दर आभूषण धारण किये और मुख से ताम्बूल का सेवन 
किया। १५ भाल पर बिन्दी वैसे चमक रही थी, जैसे शरदपौणिमा का चाँद 


्थ 
५ 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) ७ 


तपे निलवंट चांदलो तेवो, चंद्र शरदपुनमना जेबो, - 
शिर, राखडी शोभा घणी, चोटलो जाणे ,नागनी फणी | १६ ॥। 
शीशफूल . सेंथे - सिंदूर: तेणे मोहद्यो अनिरुद्ध - शर, -. 
काने, झाल अमूलक, जोई, कारमकुंवर रह्मयो छे- मोही | १७। 
नांके सोहे मोतीनी वाल्ली, तेने अनिरुद्ध रह्मो छे न्‍्याब्ी, ., 
तारी: तारी नासिकानो 'मोर, नो'य भूषण चित्तनो चोर । १८ । 
रक्‍त अधर हसे- मंदमंद, नहि. हास्य ए मोहनो फंद, - 
पंकजमां मेघबिदु पडतां, मोती मोरनां अधरे अडतां। १९। 
चपक्र नेत्र , झीणूं - अंजन, जाणे जाछे पड़यां खंजन, 
मोहद्यो मोहद्यो ते मुखने मोडे, मोह्यो मोह्यो भ्रकुटिने 'जोडे । २० । 
मोह्यो मोह्यो स्नेहने संधे, मोहो मोह्यों हार गल्वबंधे, 
मोहद्यो मोह्ो ते हस्तकमक्े, मोह्यो मोह्यो उर-गढ्ठस्थछे । २१ । 
मोहद्यो , मोह्यो अलकालटे, मोह्यों मोह्यो केसरी कटे, 
मोह्यो मोह्यो ते पेरण फाछी, मोद्यो मोह्यो ते क्षुद्रघंटाक्ी । २२ । 





(चमकता) है। सिर पर रक्षा की बहुत शोभा (दिखायी दे रही) थी 
और (ओखा की) चोटी नाग के फन (जंसी) थी। १६ माँग मे सिन्दुर 
और णीशफूल (शोभायमान) था। उससे वीर अनिरुद्ध मोहित हो गये । 
कानो मे पहने अनमोल झुमके देखकर अनिरुद्ध मोहित होकर (खोये-से ) रह 
गये । १७ नाक में मोतियों की नथनी शोभायमान थी; अनिरुद्ध उसे 
ध्यान से निहार रहे थे। (वे बोले--) “री नारी, तुम्हारी नाक मे पहना 
हुआ यह मोर (नामक आभूषण), आभुषण नही है, वह तो चित्त का चोर 
है। १८ . (तुम्हारे) लाल-लाल होंठ मन्द-मन्द हँस अर्थात मुस्करा रहे है। 
यह हास्य नही है, यह तो मोह का फन्‍्दा है। (नाक में पहने हुए) मोर 
के मोती (जब)-होंठो को 'छ जाते है, तो जान पडता है कि मेघ से जल- 
बिन्दु कमल मे गिर रहे हो । १९ (तुम्हारे) चंचल नेत्नो मे झीना-झीना 
अजन (लगाया हुआ) है; मानो खजन पक्षी जाले में (फेस) पड़े हों। ' 
अनिरुद्ध उस (ओखा ) के मुख के हावभाव से (मुख पर झलकनेवाली भाव- 
भंगिमा से) मोहित हो गये, मोहित हो गये । (उसकी ) भौहो के जोड से 
वे मोहित हो गये, मोहित हो गये। गले में पहने हुए हार से वे मोहित हो 
गये, मोहित हो गये । उसके हस्त-कमलों के प्रति वे मोहित हो गये, 
मोहित हो गये; उसके वक्ष:स्थल और कण्ठ से वे मोहित हो गये, मोहित हो 
गये । २०-२१ उसके वालो की लटो के प्रति वे मोहित .हो गये, मोहित हो 
गये, वे उसकी सिंह-(की-सी पतली ) कटि से मोहित हो गये, मोहित हो गये। 


रे 
3 


हू बच 
जक जे 
“आज, 


हद श्से 


क््से मोटित 


)सें मोहित हे श्ये 





तथा न 
मोहित हो गये २२ 
मोहित 
मोर्दित 


हो गगें। 





कनीजत 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) 5 


डी3 


घेछो कीधो छे म्रगयानेणी, नव जाणे दिवस के रेणी, 
अंगोअंग काम रह्यो रमी, चारे नेत्र झरी रह्यो अमी | २८ । 
सतोए मोहिनी .मदिरा पाई, आलिंगन दे धाई धाई, 
शुद्ध बुद्ध तो वीसरी गई, एम चोमासूं गयूं वही।२९। 


वलण (तज्ज बदलकर ) 
गयूं चोमासूं विषय रमतां, आव्यों आश्विनी मास रे, 
कन्या टछी नारी हवी, ओखा पामी विलास रे।३०। 


निज ४ि ४ )२)७घझऊ३? 9 जज न 


थे। उनके अंग-अग मे काम रमा रह गया था और उन (दोनों) के चारों 
नेत्रो से अमृत झरता था । २८. उस स्त्री ने उन्हें मोहिनी-स्वरूपा मदिरा 
पिला दी थी। उससे वे दौड़-दौड़कर उसका आलिगन किया करते थे। 
उन्हें सुध-बुध भूल गयी । इस प्रकार चौमासा बीत गया | २९ 

उनके विषय-भोग मे रममाण रहते, चौमासा बीत गया और आश्विन 
मास आ गया । (इतने दिनों) ओखा (भोग-) विलास को प्राप्त होती 
रही । उससे उसका कन्या-रूप दूर होकर वह (यौवन से परिपूर्ण) नारी 
(रूप मे विकसित) हो गयी । ३० 


कडवुं २३ सुं--( बाणासुर हारा कौभाण्ड को ओखा के पास भेजना ) 
राग देशाख 
वर्षाऋतु वही गई रे, रमतां रमतां रंगविलास, 
सुख पाम्यां घणं रे, तव आव्यों कोई आश्िन मास । १ । 
एक समे सही रे, शरदऋतु समे नर ने नार, 
माणेकठारी पूृणिमा रे, उत्तम दिवस आव्यो सार। २ । 





कड़वक २३--( बाणासुर द्वारा कौभाण्ड को ओखा के पास भेजना ) 


(ओखा और अनिरुद्ध द्वारा इस प्रकार रति-) रग-विलास (रति- 
क्रोड़ा) करते-करते वर्षाऋतु बीत गयी । (उससे) वे बहुत सुख को 
प्राप्त हो गये। तब कुछ (दिन) पश्चात आश्िविन मास आ गया। १ 
शरदऋतु के समय (दिनो में) एक बार वे नर-नारी ठीक ऐसे ही (विलास 
में लगे हुए) थे। शरदपौणिमा का सुहावना उत्तम दिन आ गया । २ 
वे नर और नारी चन्द्र-किरणो मे, अर्थात चॉदनी मे झूले पर बैठे हुए थे 


१०० गुजरातो (नागरी लिपि) 


चद्रकिरण चांदनी ,रे, बेठां हिंडोछ़े नर ने तार, 
हास्यचिनोदशंं रे करतां, जत्रीडा विविध प्रकार । 
रक्षक ,रायना रे, तेणे , वीठी राजकुमार, 
कन्यारूप कक्‍्यां गयु रे? ओखाजी दीसे छे हवे नार। ४ । 
चित्रलेहा छे नही रे, एकलडी दीसे छे एह, 

राती राती आंखडी रे, प्रफुल्लित दीसे एनी देह। ५ । 
हीडे उर' ढांकती 'रे, ' शके थया छे नखपात, 

अधर पर शामता रे, छे कोई. पुरुषदंतता घात। ६ 
सेवक संचर्या रे, कांई एक देखी मन विचार, , 
मंत्री कौंभांडने रे, जईने कह्या समाचार। ७ । 
प्रधान परवर्यो रे, ज्यां छे असुर केरो नाथ, , , 
रायजी, सांभछो रे, मंत्री कहे छे जोडी हाथ। ८ । 
लौकिक वारता रे, कईक, आपणने लांछन, 

रसना छेंदीए रे, हुं केम ,कहुँ कठण वचन ? । ९ । 
बाछ॒की तम तणी रे, ते तो थई छे नारीरूप, ' 
वारता सांभक्की रे, आसनथी डगियो छे भूप। १०। 
और हँसी-ठठोली के साथ विविध प्रकार से (प्रणय-) क्रीडा कर रहे थे । ३ 
(तब) राजा के (जो) रक्षक' (नियुक्त) थे, उन्होंने राजकुमारी (ओखा) 
को देखा । (वे सोचने लगे--) ओखाजी अब (पूर्ण रूप से विकसित ) 
नारी दिखायी दे रही है, उनका (वह) कन्या-रूप कहाँ गया ? । ४ 
चित्रलेखा (भी कही दिखायी) नही (दे रही) है। ये तो अकेली दीख 
रही है। इनकी आँखे लाल-लाल है, इनको देह प्रफुल्लित (अर्थात पूर्ण 
विकसित) दिखायी दे रही है। ५ वे अपने वक्ष:स्थल को ढॉकती हुई घूम 
रही है, कदाचित उस पर नखाघात (नखक्षत) हो गये है । उनके अधरों 
पर श्यामता (कालापन) है; (कदाचित) उनमे किसी पुरुष के दाँतों से 
घाव (क्षत) हो गये है। ६ (ऐसा) कुछ एक देखकर मन में विचार करते 
हुए वे सेवक चले गये और जाकर उन्होने मन्त्री कौभाण्ड से (समस्त) 
समाचार कह दिये । ७ (त्तत्काल) 'वह भन्त्री' (वहाँ) गया, जहाँ असुरों 
का स्वामी (बाण बैठा हुआ) था । हाथ जोड़कर मन्त्री बोला, ' हे राजा, 
सुनिए । ८ लोगो में (ऐसी) बात (फैली हुई) है। (उसमें) कुछ एक 
अपने लिए लाछन है। (यदि अनुचित हो तो) मेरी जिह्ना काट दे-- मै 
(यों ही) कठोर बात कैसे (क्यो) कहूँ । ९ आपकी (जो) कब्यका है, 
वह (अब) नारी-स्वरूपा (नारी-रूप मे पूर्ण विकसित) हो गयी है। * 


जी 


्टे। 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) | १०१ 


धजा ,भांगी पडी रे, ते तो आफूडी अकस्मात्‌, 
बाण कोप्यो घणु, रे, मत्री साची कहोने वात । ११। 
शिवे कह्यूं ते थयूं रे, तारी धजा थाशे पतन, 
त्यार त॑ जाणजे रे, कोई .शत्र थयो उत्पन्न | .१२। 
जाओ मंत्री तभे रे, जुओ पुत्रीनी शी 'छे पेर ? 
कोई जाणे नहीं रे, तेम तेडी लावोने घेर। १३ ॥ 
परधान परवर्यो रे, साथे डाह्या डाह्या जन, 
ओखाजीने माह्तिये रे, हेठा रही वदे रे ; वचन । '१४ । 
कौभांड ऊचर्यो रे, 'ओखाजी टद्योने दर्शन, 
चित्नलेहा क्‍यां गई रे? चालो, तेडे छे राजन । १५। 
थरथर प्रजती रे,' पडी -कांई' पेटडियामां फाह्, 
शंं थशे नाथजी. रे? आवबी। लागी महा जजाछ , १६। 
तमो रखे बोलता रे, कंथजी , देशो मा दर्शन, 
मुख ऊडी ,गयूं रे, थर्या सजक  बंन्यो लोचन। १७। 
बाला, बेबाकलछी रे, कपी कदली सरखा चर्णं, 
' कसण कस्या विना रे, कंचकी अवक्ां छे आशभ्रण। १८ । 


यह समाचार सुनकर राजा आसन (पर) से डगमगा उठा । १० (उसने 
देखा--) उसकी (जो) ध्वजा (है, वह) अपने आप अकस्मात भग्न होकर 
गिर गयी. है । “(इससे ) बाण बहुत क्रुद्ध हो उठा (और बोला--) “ हे 
मन्त्री, 'सच्ची बात बता दो । ११ शिवजी ने कहा था-- “ जब तुम्हारी 
ध्वजा टूट जाएगी, तब तुम समझ लेना कि (तुम्हारे लिए) कोई शत्न उत्पन्न 
हो गया है।' । १२ (इसलिए ) हे मन्त्री, तुम जाओ (और ) देख लो कि 
(हमारी ) कन्या (ओखा) का क्‍या (रग-) ढंग है। कोई जान न पाए 
उस प्रकार तुम उसे घर लिवा ले आओ | ”/। १३६ (यह सुनकर) मन 

चला गया । उसके साथ समझदार-समझदार (बुद्धिमान, चतुर) लोग थे । 
ओखा के स्तम्भ-भवन (कोठी) के नीचे (खड़े) रहकर वह यह बात 
बोला ।। १४ कौभाण्ड बोला, ' हे ओखाजी, दर्शन दो न। चिदलेखा 
कहाँ गयी ” चलो, राजा (तुम्हे) बुला रहे है। '। १५ (यह सुनकर) 
ओखा थरथर काँप उठी । वह बहुत घबड़ा गयी । (वह बीली--) 
* हे नाथजी, (अब) क्‍या होगा । वड़ा जजाल आ गया है। १६ आप 
कदाचित कहेगे, (फिर भी) हे कान्‍त, आप दशेन नहीं देंगे (आप दिखायी 
नही देंगे) । (यह कहते-कहते) उसका मुख फीका (निस्तेज) पड़ गया । 
उसकी दोनो आँखें सजल हो गयी । १७ वह बाला आकुल-व्याकुल 


१०२ गुजराती (नाग्री लिपि) 


बारीए बाकछ॒की रे, ऊभी रही छे त्यां भावी, 
कौभांडे कुंवरीने रे, अभय वचने बोलावी। १९। 
चित्नलेहा क्‍्यां गई रे? तुं एकली क्यम देखाय ! 
कन्यारूप क्‍यां गयूं रे ? केम तूं नारीबवेश जणाय १ । २०। 
शरीर संकोचती रे, कां बेबाकछी तुं वेनी ? 
घरमां कुण छे रे? शीघ्रे साचेसाचुं केनी।२१। 
गलस्थछे करेल दीसे रे, कोई पुरुषदंतना घात, 
शणगट ताणती रे, बोले आखी भागी वात । २२। 
दिल वार नथी रे, कीधुं चित्रलेहाए शयन, 
तेणे हुं व्याकुछी रे, दुःखणी भरुं छठ॑ लोचन | २३ । 
मंत्री ओचरे रे, बाई ! कां बोलो आतकल्पंपाछ ? 
हेठां ऊतरो रे, नहिं तो चढीने जोशूं माक्त | २४। 
वलण (तर्ज बदलकर ) 
माछ जोईशंं तम तणो, भागशे तमारों भार रे, 
एवं जाणी हेठां ऊतरो, राय कोप्यो छे अपार रे।२५। 


शक आल कक कम आन मल कल अनाज आज आम कण कप को लकी 


हो गयी । उसके चरण कदली जैसे कॉपने लगे। कंचुकी के डोरों के 
कसकर बाँधे न रहने से उसके आवरण (वेठव) उल्टे हो गये थे | १८ 
(इस दशा मे) वह वाला वहाँ आकर खिड़कों मे खडी रह गयी, तो 
कौभाण्ड ने उस कुमारी को अभय (दान देते हुए) वचन से सम्बोधित किया 
(कहा) । १९ “ चित्नलेखा कहाँ गयी ? तुम अकेली कैसे दिखायी दे रही 
हो ? री, तुम्हारा कन्या-रूप कहाँ गया ? तुम नारी-वेश अर्थात रूप कैसे 
दिखा रही हो ? ।२० अरी वहन, शरीर को सिकोड़ती हुई तुम सहमी 
क्यो (हो गयी) हो ? घर मे (और) कौन है ? शीघ्रता से सच-सच 
कह देना । २१ तुम्हारे गालो पर किसी पुरुष द्वारा किये हुए दाँतों के 
घाव (दल्तक्षत दिखायी दे रहे) है।' तो घूँघट ओढती हुई उसने टूटी- 
फूंटी बात (इस प्रकार) कह दी।२२९ ' मेरा मन ठीक नहीं है। 
चित्रलेखा सो गयी है। उससे मै व्याकुल हो गयी हूँ; मै दुखिया (ऑसुओं 
से) आँखे भर रही हुँ।”। २३ (यह सुनकर) मन्ती वोला, “जरी बाई, 
झूठमूठ क्यो वोल रही हो ? नीचे उत्तर जाओ, नहीं तो मै चढ़कर कोठी 
में देख लूँंगा | २४ । 

मैं तुम्हारी कोठी देख लूँगा, तो तुम्हारा (मन का भय रूपी) बोझ 


हर हो जाएगा । ऐसा समझकर नीचे उतर जाओ । राजा अपार करुद्ध 
हुए है। '। २५ 


प्रेमाननद-रसामृत (ओखाहरण ) १०३ 


कडवुं २४ मुं--( ओखा द्वारा कौभाण्ड को डॉटना और अनिरुद्ध द्वारा 
ओखा को गोद में लेकर जैठना ) 
राग रामकली 
कन्याए क्रोध जणावियों, हाकट्यो परधान, 
लंपट बोलतां लाजे नहीं, घडपणे गई सान | कनन्‍्याए० | १ ॥। 
पापी प्राण लेवा क्यांथी आवियो ? बोलतो क्षुद्र वचन, 


एवा सारू कीधी जोईशे, जीभलडी छेदन | कन्‍्याएु० | २ । 
हुं तो डाह्यो दानव तुंने जाणती, भारेखम कौभांड, 
एवं आक्ठ कोने न चढावीए, भांगी पडे रे ब्रह्मांड । कन्‍्याए० । हे । 
केवा देनी तूं मारी मातने, पछे तारी रे वात, 
हत्या आपुं हुं तुजने, करुं झंपापात । कनन्‍्याए० । ४ । 


कौभांड लाग्यो कंपवा, पुत्री परम पवित्र, 
पछे कालावाला मांडिया, न जाप्युं स्त्रीनूं चरित्र | कन्‍्य[ए० । ५ । 
बाई राजाए मुजने मोकल्यो, लोके पाड्यो विरोध, 
पूछया माटे शंं आवडो, रंक उपर क्रोध ? । कनन्‍्याए० । ६ । 
कड़वक २४--( ओखा द्वारा कौभाण्ड को डॉटना और अनिरुद्ध द्वारा 
ओखा को गोद में लेकर बेठना ) 


उस कन्या ने क्रोध जतला दिया और मन्त्री (कौभाण्ड) को (ज़ोर 
से यह कहते हुए) धमका दिया, “ अरे लम्पट, तुम ऐसा बोलते हुए लज्जित 
नही हो रहे हो । बुढापे मे (तुम्हारी) बुद्धि (मारी) गयी है | उस कन्या 
ने० । १ अरे पापी, (मेरे) प्राण लेने के लिए कहाँ से आ गये हो ? तुम 
क्षुद्र (नीच) वाते बोल रहे हो। इसलिए, तुम जीभ को काट डाले 
हुए देखोगे । उस कन्या ने० । २ कौभाण्ड, मै तो तुम्हे समझदार दानव, 
बडा गम्भीर (दानव) समझती थी । ऐसा दोषारोप किसी पर न चढ़ाएँ 
(लगाएँ)। इससे ब्रह्माण्ड भग्न होकर रह जाएगा। उस कन्या ने० । ३ 
फिर तुम मेरी माँ से अपनी बात कह देवा। मै अपनी हत्या (का दोष ) तुम्हे 
दे रही हँ-- मै (अभी) छलाॉँग लगा दूँगी (ऊपर से कद पड़ुगी) '। उस 
कन्या ने० ।४ (यह सुनकर ) कौभाण्ड काँपने लगा । (उसे लगा कि)यह 
कन्या तो परम पवित्न है। अनच्तर वह गिडगिड़ाने लगा। (उसने स्वीकार 
किया--) मै स्त्री के चरित्र को नहीं जान पाया। उस कन्या ने० । ५ - 
हे देवी, लोगो ने (इस बात का) विरोध किया, इसलिए राजा ने मुझे (यहाँ) 
भेज दिया। मेरे द्वारा पूछताछ करने पर (मुझ) रक पर इतना क्रोध क्‍्यी 


2 


१०४ गुजराती (नागरी लिपि) 


एवं कहेतां सेवक मोकल्यों, बाणासुरनी रे पास, 
राजाए मंत्रीने कहावियूं, चढी जुओने आवास | कन्‍्याए० | ७ | 
कौभांड क्रोध करी गाजियो, वजडाव्यां निशान, 


माहत्तियेथी बन्यो ऊतरो, बाणासुरती आण | कन्‍्याए० । ८ । 
दासते आपी आज्ञा, स्थंभ करोने छेदन, 

ओखाए आंसुडां ढाछियां, चंपाशे स्वामिन | कन्‍्याए०। ९ । 
होंकारों असुरनो सांभल्वी, ऊभो थयो अनिरुद्ध, । 
भेघती पेरे गाजियों, कांपी तगरी रे बद्ध | कन्‍्याए० । १० । 
मंत्री कहे, सुभट सांभकलो, को बोल्यो जोद्धों अहीं, 

आपणे नादे हाकी ऊठियो, मेघ शब्दथी सहीं । कनन्‍्याए० । ११ | 


ओखाए नाथ बाथ घालियो, शुं जाओ छो वही ? 

मरडी मरडी जाओ जुद्धने, देवडा जाउं कही | कनन्‍्याए० । १२। 
आ शो ऊजम वढवा तणो, सामु नथी कामधाम, 

दानवने मानव जीते नही, न होय ऋतुसंग्राम । कन्‍्याए० । १३ 
(कर रही हो) ”? (। उस कन्या ने० ।६ ऐसा कहते हुए उसने वाणासुर 
के पास सेवकों को भेज दिया । (उनकी वात सुनने पर) राजा (बाण) 
ने मन्‍्त्री को कहलवा दिया-- “ निवास-स्थान' पर चढकर देख लेना ” । उस 
कन्या ने० १७ (तब) कौभाण्ड क्रोध करके गरज उठा. , उसने नगाड़ें 
बजवा दिये। (वे बोले--) “कोठी पर से दोनो उतर जाओ, तुम्हे वाणासुर 
की आज्ञा है '। उस कन्या ने० ।८. (फिर) उसने सेवकों को आदेश 
दिया-- “ इस स्तम्भ (भवन) को छेद डालो [तोड़कर ढहा दो)। ' 
(यह देखकर) ओखा ने आँसू वहाना आरम्भ किया । (उसे लगा कि अब 
इससे मेरे) स्वामी दब जाएँगे। उस कन्या ने०। ९ उस असुर की चीत्कार 
सुनकर अनिरुद्ध खड़े हो गये और मेघ की भाँति गरज उठे, तो समस्त नगरी 
(आतक से ) कॉपने लगी । उस कन्या ने० । १० (अनन्तर) मन्त्री बोला, 
रे सुभटो, सुन लो। कोई योद्धा यहां बोल रहा है। (मानो) किसी 
सिंह ने मेघ की-सी अपनी ध्वनि में (अपने स्वर में) हुकार भर दी 
है (गर्जन किया है) । उस कन्या ने० । ११९ (फिर) ओखा ने अपने 
स्वामी को , हृदय से लगा लिया (और पूछा)-- ' क्या तुम बहते हुए 
(वहकते हुए) जा रहे हो (ऐसा विता सोचे-समझे क्या कर रहे हो) ? 
युद्ध के लिए अकड-अकड़कर क्या जा रहे हो ? हे देव, मै कही 
(अन्यत्न ), जाती हूँ । उस कन्या ने०.। १९ लडमे का यह क्‍या उद्योग है। 
सासने कामदेव का ' कोई भवन तो नही है। मानव तो दानव को जीत 


शल्य 


३ 
प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) १०५ 


नाथ कहे, सुणो सुंदरी, वात सघक्के रे थई, 
हवे चोरी शानी आपणे, बेसीए बारीए जई। कन्याए० । १४। 


वलण (तर्ज बदलकर) 


जई बेठां नरनारी बंनन्‍्यो, वात विपरीत कीधी रे, 
छजे भजे कामकुंवर ओखा उछंगे लीधी रे।१५। 


नही पाता। यह कोई रति-्युद्ध तो नहीं है । उस कन्या ने० । १३ 
(इसपर) उसके स्वामी ने कहा, “ री सुन्दरी, सुनो । सब में बात हो गयी 
है। (फिर) हमे अब किसकी चोरी है। हम जाकर (बिना किसी डर 
या संकोच के) खिड़की मे बैठ जाएँ ! । उस कन्या ने० । १४ 

(तदनन्तर) वे नर और नारी दोनो (खिड़की मे) बैठ गये। उन्होने 
यह विपरीत बात की । कामदेव के पुत्र अनिरुद्ध छज्जे मे जोभायमान हो 
रहे थे। उन्होंने ओखा को गोद मे बैठा लिया | १५ 


कडवुं २५ मुं--( फकौभाण्ड-अनिरुद्ध-संवाद ) 
राग रामग्री 
जोडी जोबा मढ्या जोद्ध टोछे जी, ओखा लीधी अनिरुद्धे खोले जी, 
कंठे बाहेडी ग्रही छे बाव्ठा जी, देखी कौभांडने प्रगटी ज्वाब्ठा जी। १ । 


हि शनद 
- + ““«ढाक् 


ज्वाछा प्रगटी ने भाल भश्रकुटी, सुभट तेड़्या जमला, 
मंत्री कहे, भाई सबठछ शोभे, जेम हरि उछंगे कमछा । २ । 


कडवक २५--( कौभाण्ड-अनिरुद्ध-संवाद ) 


उस जोड़े (दम्पती) को देखने के लिए योद्धा एकत्रित हो गये। 
(उस समय) अनिरुद्ध ने ओखा को (अपनी) गोद में बैठा लिया था। 
उन्होने उस वाला को गले मे हाथ डालकर (थाम) रखा था। यह देखकर 
कौभाण्ड (के मन) में (क्रोधार्नि की) ज्वाला उत्पन्न हो गयी । १ 

वह ज्वाला उसके भाल तथा भौहों में प्रकट (दिखायी दे रही) थी । 
(फिर) उसने कुल (समस्त) अच्छे-अच्छे योद्धाओ को बुला लिया । वह 
(मन ही मन) बोला, “अरे भाई, यह (ओखा) तो (वैसे ही) बड़ी 
शोभायमान है, जैसे श्रीहरि की गोद मे कमला (लक्ष्मी शोभायमान होती) 


कद 


१०६ | गुजराती (नागरी लिपि) 


लघुरप कोई लक्षणवंतोी, सुतानी संगे बेठो, 
प्रवेश नहीं ज्यां पवनकेरों, तो मत्ियामां केम पेठो ? । ३ । 
निःशक निर्भय थईने बेठां, निर्लज्ज नर ने नारी, 
क्रुचग्रहण, चुंबन करे, कांई लज्जा न आणे हमारी। ४ । 
ओखाए उत्पात मांडियो, धाई धाई दे सांई, 
प्रधान कहे, कोई पुरुष मोटो, कारण दीसे छे कांई। ५ । 
अंबुजवरणी आंखडी, ए श्रूकुटी मुगटे चांपी, 
रोमावकछी वांकी वी, वढ़वाने रह्यो छे टांपी। ६ । 
मा घे्यों सुभट सर्वे, बोलता अताड, 
अहो ! व्यभिचारी जन, ऊतर हेठो एम कहे कौभांड । ७ । 
अरे! अल्प आयुष्यना धणी, यमपुरीना मार्गस्थ, 
असुरेश सरखो रिपु मस्तक, केम बेठो थई स्वस्थ। ८ । 
बाणरायनी किकरी, तेनी अमरे न थाये आछक्, 
ते तूं राजकन्यानी संगे, चढी बेठो केम साहू ? | ९ । 


हो।२ (शुभ) लक्षणो से युक्त कोई (पुरुष) लघु रूप मे (लघु रूप, किशोर 
रूप धारण करके) इस कन्या के साथ बैठा हुआ (जान पड़ता) है। जहाँ 
पवन (तक) का प्रवेश नहीं हो पाता, वहाँ इस कोठी मे यह कैसे पैठ 
गया। ३ ये निलंज्ज पुरुष और नारी नि.शक और भय-रहित होकर 
बेठे है। यह उसके कुचों को पकड़कर उसका चुम्बन कर रहा है। 
यह हमारा कुछ लिहाज नहीं कर रहा है। '।४ (फिर) ओखा ने 
उत्पात आरम्भ किया । वह दौड-दौडकर (अनिरुद्ध का) आलिंगन करने 
लगी। (यह देखकर) मन्त्री ने कहा (सोचा)-- यह कोई वड़ा (प्रतापी ) 
पुरुष (जान पडता) है। इसका कुछ (ऐसा ही) कारण दिखायी दे रहा 
है। ५ उसके कमल के वर्ण वाले अर्थात लालिमा से युक्‍त नेत्न है, उसकी 
एक भौह मुकुट से दबी (हुई-सी जान पडती) है। उसकी रोमावली टेढी 
हुई है। फिर वह लडने के लिए उत्सुक हुआ (जान पड़ता) है। ६ 
(तदनन्तर ) जोर से बोलते-बोलते समस्त बड़े योद्धाओ ने उस भवन को 
घेर लिया। (उस समय) कौभाण्ड ने ऐसा कहा-- “ अहो व्यभिचारी जन, 
नीचे उतर जाओ। ७ अरे अल्प आयु के स्वामी, यम॒पुरी के पथिक, असुरेश 
(बाण) जैसे रियु तुम्हारे मस्तक पर (बैठे) है, तो तुम चुप होकर क्यो बैठे 
हो। ८ बाणराज की कोई दासी हो, तो उसको पाने का हठ किसी देव 
हारा भी नहीं किया जा सकता। तुम तो (उस) राजा की (साक्षात) 
कन्या के साथ कोठी में चढ़कर कैसे बैठ गये हो ? ।९_ सच कहो, जिससे 


रँ 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण) १०७ 


साचूं कहे जेम शीश रहे, कुण न्‍्यात कुछ ने नाम ! 
जथारथ होय ते बोलजे, केम सेव्यु ओखानुं धाम ? | १०। 
अनिरुद्ध वत्ठतू बोलियो, तमें सांभकों सुभट मात्र, 
हुं क्षत्रीनंदद इच्छाथी आव्यो, बाणासुरनो जामात्र | ११। 
मंत्री कहे अल्या बोल विचारी, ऊतरशे अभिमान, 
जामातब शानो बाकछ॒का ? कोणे आप्यूं कनन्‍्यादान | १२। 
अपराधी' प्राणी ऊतर हेठो, छे बाणासुरनी आण, 
आ देत्य तारा प्राण ज लेशे, मरण आव्यु तुज जाण। १३। 
जीववानो उपाय नहीं, पडी जे वारे चूक, 
होय केसरी तो हांकी ऊठे, पण दीसे छे जंबूक | १४। 
बोल बल्लना सांभ्)ही, बल बोल्यो कामबाह्, 
बारीनी भोगक करमां लीधी, इच्छा कीधी देवा फाछ | १५। 


वलण (तर्ज बदलकर ) ४ 
फाछ देउं ने अंत लेउं, होकारो जब कीधो रे, 
ओखाए अनिरुद्धे ऊंचकी घरमां लीधो रे। १६। 


तुम्हारा सिर (बचा) रहे-- तुम कौन जाति हो ? (तुम्हारा) कौन कुल है 
और कया नाम है ” जो यथार्थ हो, वह कहना, तुमने ओखा के घर का 
आश्रय क्यो (कैसे) कर लिया ? '। १० (इसपर) अनिरुद्ध प्रत्युत्तर मे 
बोले-- ' हे सुभट, तुम मात्र सुन लो । मै क्षत्रिय का पुत्र (है), बाणासुर 
का दामाद (बनकर यहाँ) अपनी इच्छा से आ गया हूं । ( । ११ (यह 
सुनकर) मन्त्री बोला, “ अरे विचार करके बोल, (नही तो) तेरा अभिमान 
उत्तर जाएगा । अरे बालक, तू किसका दामाद ? तुझे किसने कन्यादान 
दिया ? । १२ अरे अपराधी प्राणी, नीचे उतर जा, यह वाणासुर की 
आज्ञा है। ये दैत्य (-राज) तेरे प्राण ही लेगे। तू ही समझ ले, तेरी 
मौत (निकट) आ गयी है। १३६ यदि जीवित रहने का कोई (अन्य) उपाय 
नही रहता, जिस समय कोई त्रुटि हुई रहती है, तो कोई सिंह (के समान 
प्रतापी हो, तो) गरज उठता है। परन्तु तू तो जम्बुक (सियार) दिखायी 
देता है। '। १४ उस वलवान (कौश्ाण्ड) के ये वचन सुनकर कामदेव के 
पुत्र अनिरुद्ध जोर से बोलने लगे। उन्होंने खिड़की की अगरी (बेलन) 
हाथ में उठा ली और (नीचे लड़ने के लिए) कूद पड़ना चाहा । १४५ 
€ (अभी) कूद पड़ता हूँ और (शत्रु का) अन्त कर डालता हूँ ' 
-- (ऐसा कहते हुए) जब अनिरुद्ध ने हुँकारी भर दी, तो ओखा ने उन्हे उठाकर 
घर के अन्दर रख लिया । १६ 


१०८ गुजराती (नागरी लिपि) 


कडवुं २६ मुं--( ओखा द्वारा अनिरुद्ध को समझाने का यत्त ) 
राग सोरठी 


कामनीए त्यारे कटक ज दीठ, अने थई निराश, 
अरे देव, ते ए शूं कीधु ? मने हुती मोटी आश । 
बाला, केम वढशो रे? मारा नांघडीआ भरथार। वा'ला० (टैक )। १। 
बोलावी बोले नहीं, पडी थई आशाभंग, ह 
उठाडी बेठी करी, तेनुं वदन निहाछे कंथ | वाला० | २ । 
स्वामी, तूं केम साखीओ रे ? रांकने घेर रतन, 
घाडे कष्टे हुं पामी, मारो मदनमनोहर कंथ | वाला० | ३ ॥ 
तीव्र बाण ज्यारे छठशे रे, केम सहेशों को मठ शरीर? 
एवं श्रवण सांभछीने, हांकी ऊद्यो वीर ।वाला०। ४ । 
मारा पिताने रे जाण थयू छे, कटक मोकल्यूं प्रौढ, 
बाणासुर नथी जाणतो, एवो केम थयो छे ते मूढ ! । वाला० । ५ । 
अरे स्वामी तमे ठाले हाथे, आयुध नथी रे एक, 

चार लाख वीर पाठव्या, सामा थतां धरो विवेक । वाला० | ६ । 


फड़वक २६--( ओखा द्वारा अनिरुद्ध को समझाने का यत्न ) 


उस कामिनी (ओखा) ने तब सेना ही को देखा और वह निराश हो 
गयी । (वह बोली--) भरे देव, तूने यह क्या किया ? मुझे तो बड़ी 
आशा थी। हे प्यारे, मुझ निराधार के स्वामी, तुम (इस सेना से अकेले) 
केसे लड़ोगे ? । हे प्यारे०ग । १ (तदनस्तर) आशा भग्न होने से वह गिर 
गयी । वह बुलाने पर (भी) बोल नही रही थी। तब उसके पति ने 
उसे उठाकर बैठा लिया और वे उसके मुँह को निहारने लगे। है प्यारे० । २ 
(वह बोली--) * हे स्वामी, तुम कैसे सहन करोगे । तुम मुझ रंक के घर 
के रत्न हो। मैं अपने मदन-से मनोहारी कानन्‍्त को बहुत कष्ट से प्राप्त हो 
चुकी हूँ। है प्यारे० । ३ जब पैने बाण छूटेगे, तब अपने इस कोमल शरीर 
पर तुम उन्हें कैसे सहन करोगे ? ” कानो से ऐसा सुनते ही वे वीर (पुरुष 
अनिरुद्ध) हुंकार भर उठे (गरज उठे) । हे प्यारे० । ४ मेरे पिता को 
(हमारे सम्बन्ध मे) जानकारी हो गयी है, (इसलिए) उन्होने बड़ी सेना भेज 
दी। (अनिरुद्ध वोले--) “बाणासुर नहीं जानता। वह ऐसा मृढ कैसे 
हो गया है ? ! ॥ है प्यारे० / ५ (ओखा वीली--) ' हे स्वामी, तुम तो 
हक. हस्त से कंसे लड़ोगे ? (तुम्हारे पास) एक भी आयुध नहीं है। 
उन्होने चार लाख वीर (सैनिक) भेजे है। उनके सामने आते हुए विवेक 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) १०३ 


अबढ्ा तुंने शृं कहुं रे, तूं तो थई रे अजाण 
बार तणी भोगछ कहाडीने, लेउं सब्वेता प्राण । वाला०। ७ । 
ओखा, तुंने शृं कहुं रे, तूं तो घेली नार 
तारा बापे वीर मोकल्या, ते तो मारे लेखे चार | वाला० | ८५ । 
अजा तणां तांह जूथ मत्ियां, पंचानन मकठ्ठियो एक 
तेन॑ प्राक्रम केटछं, तमे कहोनी, विनता विशेक | वाला० | ९ । 
एम करता नहीं छटीए रे, कालावाला ते फोक 
जुओने वहाली, हुं जुद्ध कर जेम जुए गामता लोक | वाला० । १० । 
अनिरुद्ध मरडीने नीसर्या रे, ओखाए सहायो हाथ 
प्रीतम वढ़वा नहीं दउ, मारा मदनमनोहर नाथ । वाला० । ११। 


धारण कर लो '। है प्यारे०ण । ६ (यह सुनकर अनिरुद्ध बोले--) “अरी 
अबला, तुझे क्‍या बताऊँ ? तू तो अनजान हो गयी है। मै द्वार की अगरी 
निकालकर उससे सबके प्राण ले लूँगा | हे प्यारे०ग । ७ ओखा, तुझसे 
क्या कहूँ ” तू तो पगली नारी हैं। तेरे पिता ने (जो चार लाख) वीर 
भेजे है, वे तो मेरे लेखे चार (ही) है। हे प्यारे०न । ८ वहाँ (उस पक्ष में 
मानो) बकरियों का झुड इकदठा हो गया है (और इस ओर ) एक (मात्र) 
सिंह मिल गया है। अरी वनिता, तू ही कह दे न, उनका कितना खास 
पराक्रम (हो सकता) है। है प्यारे० । ९ ऐसा करने से हम नही छठते । 
त्तेरी यह गिडगिड़ाहट व्यर्थ है। प्यारी, देख तो, मै ऐसा युद्ध करूँगा जेसा 
कि इस नगर के लोग देखते रहे '। है प्यारे० । १० (ऐसा कहते हुए) . 
अनिरुद्ध ऐंठ्ते हुए चले गये (चले जाने लगे) तो ओखा ने उनका हाथ थाम 
लिया (और कहा-) ' हे प्रीतम, मेरे मदन-से मनोहारी नाथ (मदन के मन 
का भी हरण करनेवाले नाथ ), मैं तुम्हे लड़ने नही दूंगी '। है प्यारे० । ११ 


कडवूं २७ मुं-( ओखा की विनती अनसुनी करके अनिरुद्ध द्वारा युद्ध करना ) 
राग मारुनी देशी 
ओखा कहे कंथ, एम न कीजे, बढ्वियाशुं वढतां बीहीजे, 
ए घणा, तमो एक जाते, सेना मोकली मारा ताते। १ । 


कड़वक २७--( ओखा की विनती अनसुनी करके अनिरुद्ध द्वारा युद्ध करना ) 


ओखा बोली, ' हे कान्‍त, ऐसा न करना । बलवान से झगड़ा करते 
तुम (जरा) डरना। वे बहुत है और तुम स्वयं एक हो। मेरे पिता ने 


११० गुजराती (नागरी लिपि) ह 


देत्यने वाहन ने तमे पाछा, नाथजी, तमे ठालामाला, 
एने टोप, कवच ने बख्तर, तमारे अगे सोहे पीतांबर | २ । 
देत्यने सांग बाण बहु भाला, ए कठण, तमे सुंवाढ्ठा, 
ए तो मदोनन्‍्मत बहु बढक्विया, तमे सुकोम& पातछिया। ३ । 
स्वामी, पछे असुरने भेदे, पहेकां मस्तक मारु छेदो, 
तमने देखीदेखीने रे मोहुं, तमे जुद्ध करो ते केम जोउं ?। ४ । 
इच्छा अंतरनी गई फीटी, देत्ये माह्ियु लीधू रे वीटी, 
प्रभु प्राण कंपे छे मारा, मूवा देत्य करे छे होंकारा। ५ । 
घणं क्रोधी विरोधी छे बाण, हाके इद्रनूं जाये ओसान, 
जक्त भय पामे बाणनी हाके, बाणे पृथ्वी चढावी चाके । ६ । 
जेने नादे मेरु हाले, चक्रवर्ती साथे नही चाले, 
क्षत्री साथे रहे सर्वे बीहीतो, नाथजी, तमे कई पेरे जीतो 7 । ७ । 
मंत्री दात रह्मो छे करडी, शू जुओ छो मूछ रे मरडी ? 
माटे पहेलां ते मुजने मारो, पछें नाथजी, रणमां पधारो। ८ । 





सेना भेज दी है । १ दैत्यो के (पास) वाहन है और तुम पदाती हो । 
है नाथजी, तुम रीते (हाथ, शस्त्रहीन) हो। इनके पास टोप, कवच 
और बख्तर है (और) तुम्हारे शरीर पर (केवल) पीताम्बर शोभायमान 
है।२ दैत्यो के पास बहुत सॉग, बाण, भाले हैं। ये कठोर है, तो 
तुम सुकुमार हो। ये तो मदोन्‍्मत्त, बहुत बलवान है, तो तुम सुकोमल, 
दुबले-पतले (इकहरे बदन के) हो । ३ है स्वामी, पहले मेरा मस्तक 
काट दो, अनन्तर असुरो को मार दो। तुम्हे देख-देखकर में मोहित 
होती जाती हूँ, (फिर) तुम युद्ध करोगे, तो उसे मै कैसे देख सकूगी 
(कंसे सहन कर सकूगी) । ४ मेरे अन्त करण की इच्छा मिट गयी-- 
देत्यो ने इस कोठी को घेर लिया है। है प्रभु, मेरे प्राण कॉप रहे 
है। वे मुए देत्य हुँकारी लगा रहे है। ५ (मेरे पिता) वाण बहुत 
क्रोधी शत्रु है। उनके आतंक से इन्द्र का धैर्य छट जाता है। (उस) 
बाण की धाक से जगत भय को प्राप्त हो जाता है। बाण ने पृथ्वी को 
चाक पर चढा रखा है (प्रृथ्वी की दुर्गेत कर रखी है) । ६ हे नाथजी, 
जिसकी ध्वनि से मेरु हिलने लगता है, जिसके साथ चक्रवर्ती (राजा तक) 
चल नही सकते, जिसके साथ रहते समस्त क्षत्रिय डरे रहते है, उस बाण 
को तुम कैसे जीत पावोगे । ७ मन्‍्त्री दाँत (-होठ) चबा रहा है, तो तुम 
भूछ मरोड़ते हुए क्या देख रहे हो ? (इससे कुछ नहीं होगा ।) इसलिए 
उनसे पहले तो मुझे मार डालो । हे नाथजी, (उसके) पश्चात रणभूमि 


न 23 ंट जी जल जा 5 5 “अअजओओ अडडीऑलज 3 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) १११ 


शशी सूर्यवंशी नृूप जेह, तेनी थरथर शधूजे देह, 
प्रधान क्रोधी पावकनी ज्वाछ, तेथी विशेष बाण भूपाछ | ९ । 
एम कही भरती लोचन, देखी वारे छे स्वामिन, 
कंथ कहे, न करूं संग्राम, तो नासी जवानों कुण ठाम ?। १० । 
अंत्ये जीवतां छटशुं नहीं, कां न मरीए सामा थई ? 
नथी ऊगरवानों उपाय, माठे भय पामे शुं थाय ? । ११। 
नाठे लांछन लागे कुढ्मां, प्रतिष्ठा जाये एक पत्ठमां, 
मौअर बोले ने मणिधर डोले, न डोले तो सपने तोले। १२ । 
घन गाजे केसरी दे फाछ, न ऊछक्े तो जाणवो शियाह्ठ, 
क्षत्री नासे देखीने दछ, न होय पुरुष जाणवो व्यंडछ । १३ । 
हाकयो वाघ न मांडे कान, शादल नहीं जाणवो श्वान, 
घरमां गोझारो रहे पेसी, युद्धे चरणवहोणों रहे वेसी। १४ । 
एम कहीने ओखा अछगी कीधी, भड गाज्यो न भोगछ लीधी, 
असुरसेना पर कोपियो, छजे थकी ठेकीने पडियो। १५। 





बीज >ल तल 5 >> 3 





लत ५5 2 ल 33 जा 5 ते किीओीर 


से पधारो । ८५ जो चन्द्रवंशी (और) सूर्यवशी राजा है, उनकी देह (बाण 
का नाम सुनते ही) थरथर कॉपने लगती है। मन्त्री क्रोधी है, (मानो) 
वह अग्नि की ज्वाला है। उससे भी विशेष (अधिक ) है भूपाल बाण ।। ९ 
ऐसा कहते हुए ओखा ने आऑँसुओ से आँखे भर ली। यह देखकर स्वामी 
(अनिरुद्ध) ने उसे रोक लिया। फिर पति (अनिरुद्ध) बोले, “ (यदि) 
सग्राम न करूँ, तो भाग जाने के लिए कौन स्थान है ? । १० अच्त में 
जीवित तो छटंगा नही, तो (फिर) सामने होकर क्‍यों न मरे । (अब) 
बचने का कोई उपाय नहीं है। इसलिए भय को प्राप्त होने से क्या 
होगा । ११ भाग जाते है, तो कुल मे लांछन लगता है। एक पल में 
(कुल की तथा अपनी ) प्रतिष्ठा नष्ट हो जाएगी । मुरली (बीन) बोलती 
(बजती ) है और (जो सच्चा) मणिधारी नाग हो, वह डोलने लगता है; 
यदि कोई न डोले, तो वह (साधारण) सॉप के तुल्य (समान) होता 
है। १२ मैघ गरजता है, तो सिंह दहाड़ने लगता है। यदि उस समय 
वह आवेश को प्राप्त न हो जाए, तो उसे सियार समझना (पडता) है। 
यदि (शत्रु-) सेता को देखकर कोई क्षत्रिय भाग जाता हो, तो वह पुरुष 
नही है; उसे नपुसक समझना (पड़ता) है। १३ बाघ ने गर्जन किया हो 
और (यदि) कोई प्राणी कान खडे न करे, तो वह सिंह नही, उसे कुत्ता 
समझना है। कोई गो-हत्यारा पापी (ही ऐसे समय) घर मे पैठकर (चुप) 
बठता है, युद्ध (-भूमि) मे (मानो) चरणहीन होकर बैठता है। '। १४ ऐसा 


११२ गुजराती (नागरी लिपि) 


जेम ग्राह पेसे बहु जछमां, तेम अनिरुद्ध पेठो दढ्मां, 
जेम इंदु पेसे वादत्टमां, तेम अनिरुद्ध धायो बढ्मां। १६। 
देत्यने आव्यो मृत्युतों दहहाडो, गाज्यो अनिरुद्ध घन अखाडो, 
पडतामा बहु पडताछूया, भोगक्रप्रहारे धरणीए ढाछूया | १७। 
कौभांडे सेनाने प्रेरी, जादव जोद्ो लीधो घेरी, 
गजजूथमां लघु केसरी, बहु वींटी वल्॒या छे वेरी। १८५। 
चदनने बावहिये झींटी, असुरे अनिरुद्धने लीधो वींटी, 
दानव कहे मानव शूय, अमे सिंहमां मृगबाक्त तूथ।१९। 
मुगट मंत्रीने चरणे धरे, तो तो मृत्यु थकी ऊगरे, 
मत्रीवायक एवां साभव्ठी, धायो अनिरुद्ध बहु ऊकढी | २० । 
नाखे देत्य भारी मुदुगल, तेम अनिरुद्ध भुजभोगक्त, 
वीश सहस्र असुर त्यां तृदया, एकीवारे शर बहु छूट्यां । २१। 





कहते हुए उन योद्धा (अनिरुद्ध) ने ओखा को अलग (दूर) कर दिया; वे 
गरज उठे और उन्होने हाथ मे अगरी का डण्डा ले लिया। वे असुर-सेना 
पर क्रुद्ध हो उठे थे। (फिर वे) छज्जे पर से छलाँग लगाकर कूद 
पडे । १५ जिस प्रकार मगर बडे जल मे प्रविष्ट हो जाता है, उसी प्रकार 
वे (असुर-) सेना मे घुस गये । जिस प्रकार चन्द्र वादल मे पैठ जाता है, 
उसी प्रकार अनिरुद्ध (शत्रु-) सेना के अन्दर दौड गये। १६ दैत्यो के 
लिए (मानो) मृत्यु का (ही) दिन आ गया। अनिरुद्ध आषाढ मास के 
मेघ जेसे गरज उठे । उनके (ऊपर से नीचे कूद) पड़ते ही बहुत (वीर) 
पटक दिये गये (कुचल दिये गये) । (फिर) अगरी के डण्डे के प्रह्मर 
से धरती पर ढहा दिये (गये) । १७ (तदनन्तर) कौभाण्ड ने सेना को 
उकसा दिया, तो उसने यदु-कुलोत्पन्नच उन वीर (अनिरुद्ध) को घेर लिया । 
हाथियों के झुण्ड में (जैसे कोई) छोटा सिंह हो, (उसी प्रकार) बहुत-से 
शत्रु (सैनिकों) ने उन्हे घेर लिया । १८ जिस प्रकार चन्दन (वृक्ष) को 
वबूल वृक्ष घेर ले, उसी प्रकार असुरो ने अनिरुद्ध को घेर लिया। 
(तदनन्तर) दानव (कौभाण्ड) ने कहा-- ' तू मानव क्या है ? हम सिहो मे 
तू मृग-शावक है। १९ (यदि) तू (अपना) मुकुट (उतारकर मुझ ) मन्त्री 
के चरणों मे रख ले, तो (ही) तू मौत से बच्‌ जाएगा।” मन्त्री के ऐसे 
वचन सुनकर अनिरुद्ध ऋुद्ध होकर दोडे । २० दैत्यो ने भारी मुदूगल फेक 
दिये, तो अनिरुद्ध के हाथ मे अगरी थी। (उसके आघात से ) वहाँ बीस 
पहल असुर कट गये । एक ही वार बहुत-से बाण छूट रहे थे। २१ (इस 
भ्रकार) आयुधों की धारा (अनिरुद्ध पर) बरस रही थी। परिघ, पट्ट 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) ११३ 


आयुधधारा रही ले वरसी, पडे परीघ पट्टी ने फरसी, 
दानव धाया छे टोल्ठेटोछां, वरसे भिडीमाकछ ने गोछा | २२ | 
थाय दुंदुभिता गडगडाट, थाय खांडा तणा खडखडाट, 
हांक्या हस्ती दे हलकार, थाय खड़ग तणा चक्ककार। २३ । 
मंत्र अग्निना घुघवाठ, बोले बाण तणा सुसवाट, 
रथ चक्र गाजे गगडाट, होय हय तणा हणहणाट | २४ । 
छटे बाणो सणसणाट, थाय गगने धजा फडफडाट, 
देखी दोहेलो नाथनो घाठ, थाय ओखाने उचाट  २५। 
दानवनो वाछ॒यो दाट, . अनिरुद्ध मुकामे वाट, 
कोईने झीक्या झालीने केशे, कोईने उडाड्या पगनी ठेशे । २६ । 
कोईने हण्या भोगछने भडाके, कोनां मुख भाग्यां लपडाके, 
कोई अधसरता कोई पूरा, एम सेना करी चकचूरा। २७। 
से रण भयानक भासे, बल देखीने ओखा उल्लासे, 
में तो आवडं नहोतुं जाण्यूं, चित्रलेहाए रत्न ज आप्यूं। २८ । 





और परशु गिर रहे थे। दानव टोली-टोली मे दोड़ रहे थे। भिडिपाल 
और (आग-भरे) गोले बरस रहे थे । २२ दुन्दुभियों की गड़गड़ाहट हो 
रही थी, खॉडो की खनखनाहट हो रही थी। जोर से पुकारते हुए उन्होने 
हाथियों को हॉक लिया । खड़गो का चमकारा हो रहा था । २३ मन्त्र 
से अभिभूत अग्नि (अग्नि-अस्त्रों) की गर्जना (घहराहट) हो रही थी। 
बाणो को सॉय-सॉय हो रही थी। रथ के पहिये गडगड़ाहुट के साथ 
गरज रहे थे। घोड़ों की हिनहिनाहट. चल रही थी।२४ बाण 
सॉय-सॉँय के साथ छूट रहे थे; आकाश में ध्वजाओं की फहराहट हो 
रही थी। अपने स्वामी की स्थिति कठिन हुई देखकर ओखा को चिन्ता 
होने लगी । २५ अनिरुद्ध जिस-जिस स्थान के रास्ते (जा रहे) थे, उसपर 
उन्होंने दानवों का विनाश कर डाला। कुछ एक को उन्होंने बाल पकड़कर 
पटक डाला, तो कुछ एक को पाँव की ठोकर से उड़ा दिया । २६ किसी- 
किसी को अगरी (के डण्डे) से मार डाला, तो किसी-किसी के मुख को 
थप्पड़ से भग्न कर डाला। कोई नीचे गिर जाता, तो कोई पूरा गिर 
जाता (मर जाता)। इस प्रकार अनिरुद्ध ने समस्त सेना को चकनाचूर 
कर डाला । २७ वह रणभूमि भयानक दिखायी दे रही थी। (अनिरुद्ध 
के) वल को देखकर ओखा उल्लास को प्राप्त हो गयी। (उसने सोचा--) 
मैने तो इतना नहीं समझा था। (सचमुच) चित्रलेखा रत्न ही ले 
आयी । २८ उनके शरीर में रक्त और पसीना आ गया है। मेरे नाथजी 


११४ गुजराती (नागरी लिपि) 


शोणित स्वेद थयो छे डीले, नाथजी रण रुधिर झीले, 
भड गाज्यो ने पड़यूं भंगाण, नाठो कौभांड लईने प्राण । २९। 
हवूं बाणासुरने जाण, एक पुरुषे वाहछ॒यों घाण, 
असुरेशने चढियो कोप, सज्यां कवच आयुध ने टोप। ३०। 
सर्व सैन्य ते तत्पर कीधूं, चढ़यो राय ददामुं दीधुं, 
चढ़यो राये क्रोधे गडगडियो, जाण्यूं भोखाए रण तात चढियो। ३१ । 
सैन्यना लोक आग चाल्या, करमां बहु भाला झाल्या, 
वागी हाक ने चढियो बाण, ते तो थयूं ओोखाने जाण। ३२ । 


वलण (ते बदलकर ) 


जाण थयूं जे तात चढियो, कुण जीतशे सहख्र हाथ रे, 
आंसुडां भरती ने शोक धरती, ओखा साद करती नाथ रे। ३३ । 


रणभूमि में, रक्त मे जलकेलि कर रहे है। वे योद्धा गरज उठे और सेना 
में भग पड़ गयी (सेना बिखर गयी), तो (इधर) कौभाण्ड जी लेकर भाग 
गया । २९ बाणासुर को यह जानकारी (प्राप्त) हो गयी कि एक (मात्र) 
पुरुष ने सबको नष्ट कर डाला है, (तब) उस असुरेश को क्रोध आ गया । 
उसने कवच, आयुध और टोप धारण किये । ३० उस राजा ने समस्त 
सेना को तैयार किया, उसने आक्रमण किया और दुन्दुभि पर चोट कर दी। 
(जब ) राजा ने आक्रमण किया, तो क्रोध से उसने गर्जन किया । (उसे 
सुनकर) ओखा ने जान लिय। कि उसके अपने पिता रणभूमि की ओर चढ़ 
दोड़े है। ३१ सेना के लोग (सैनिक) आगे (-आगे) चल रहे थे। उन्होने 
हाथो में बहुत भाले पकड़ रखे थे (ग्रहण किये थे) । बाण ने आक्रमण 
किया और (उसके फलस्वरूप) आतंक छा गया --ओखा को इसकी 
जानकारी हो गयी । ३२ 


उसे यह जानकारी हो गयी । यदि पिताजी ने आक्रमण किया, तो 
उनके सहख्न हाथो को कौन जीत पाएगा ? (इस विचार से चिन्तित होकर) 
ओखा आँखों मे ऑसू भरती रही और शोक करती रही । वह (फिर 
अपने) नाथ को पुकारने लगी । ३३ 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) ११५ 


कडवुं २८ समुं--( अनिरुद्ध ह्वारा ओखा की विनती अस्वीकार करना ) 
राग मारु 


मारा स्वामीजी चतुरसुजाण, बाणदछ आव्युं रे जादवजी, 
.दीसे सैन्य ते चारे रे पास, हवे शृं थाशे रे जादवजी। १ । 
ए बलिया साथे बाथ, नाथ केम भीडो रे जादवजी, 
हुं कहुं छूं तमारी दासी, नासीने हींडो रे जादवजी। २ । 
ओ दक्क आव्यूं बढ॑वंत, दीसे रीसे राता रे जादवजी, 
एकलडा असुरने मुखे, रखे तमे जाता रे जादवजी। ३ । 
ओ गज आये बढ्वंत, दंत केम सहेशों रे जादवजी, 
असुर अर्णव धाया, तणाया जाशो रे जादवजी। ४ । 
एवं जाणीने ओसरीए, न करीए क्रोध रे जादवजी, 
एकलडाने आशरो शानो ? मानो प्रतिबोध रे जादवजी। ५ । 
धीरा थाओ, ने धाओ, बढो तो फांसूं रे जादवजी, 
मारी जमणी फरके छे आंख रे, वरसे आंसु रे जादवजी | ६ । 
मने दिवस लागे छे झांखो, नाखोने भोगकछ रे जादवजी, 
ते तो न .समजे समजाव्यूं, आव्यूं ए दछ रे जादवजी। 


८6 


कड़वक २८--( अनिरुद्ध द्वारा ओखा की विनती अस्वीकार करना ) 


मेरे चतुर सुजान स्वामीजी, हे यादवजी, बाण की सेना आ गयी। 
चारों ओर वह सेना दिखायी दे रही है। है यादवजी, अब क्‍या 
होगा ? । १ हे नाथ, हे यादवजी, उन बलवानों के साथ हाथ से केसे 
लड़ोगे ? हे यादवजी, मै तुम्हारी दासी (तुमसे) कह रही हँ-- (यहाँ से)- 
भागकर (अन्यत्न) घूमते रहो । २ हे यादवजी, वह बलवती सेना आ गयी 
है। उनके मुँह लाल-से दिखायी दे रहे है। हे यादवजी, कदाचित तुम 
अकेले उन असुरो के मुँह में (डाल दिये) जाओगे । ३ वे बलवान हाथी 
आ रहे है। उनके दाँत (दाँतों के आघात), हे यादवजी, तुम कैसे सहन 
करोगे ? हे यादवजी, असुर (-सेना) रूपी सागर (उमड़ते हुए) दौड़ रहा 
है, तुम उसमें बह जाओगे । ४ हे यादवजी, ऐसा जानकर पीछे हट जाएं, 
क्रोध न करें। हे यादवजी, तुम अकेले के लिए किसका आश्रय (आधार) 
है ्‌ हे यादवजी, (मेरा यह) परामर्श मान लो। ५ हे यादवजी, धीर 
(धैयंशाली) बनो ओर दौड़ो । यदि लड़ोगे (लड़ने जाओगे), तो मै तुम्हे 
फदे में । लेती हूँ। हे यादवजी, मेरी दाहिनी आँख फड़क रही है । 
(आँखों से) आँसू बरस रहे है। ६ हे यादवजी, मुझे (आज का) दिन 


११६ गुजराती (नागरी लिपि) 


तमे मुज देहडीना हंस, मूकोने जुद्ध रे जादवजी, 
पाछा वछ्ो जी लागूं पाय, मानो मारी बुद्ध रे जादवजी | ८ । 
घेली दीसे घरुणी, तरुणी मूकों तारी टेव रे राणीजी, 
अमो बाण थकी नहिं ओसरशु, शे करुं सेव रे राणीजी। ९ । 


अनिरुद्ध जो रणथी भाजे, लाजे श्री गोपाक रे राणीजी, 
नाठे अर्थ न एके सीझे, शी कीजे च्राल रे राणीजी । १० । 


वलण (तर्ज वदलकर ) 


चाल शी कीजे अंत आव्यो, उग़ारशे मोरार रे, 
धस्यो नाथ ने हाथ घसिया, रोवा लागी नार रे। ११। 


फीका-फीका लग रहा है, (इसलिए) यह अगरी (का डण्डा) फेक दो न । 
हे यादवजी, तुम तो समझाने पर भी नही समझ रहे हो-- यह सेना आ गयी 
है। ७ हे यादवजी, तुम मेरी देह के हस अर्थात प्राण हो । (अतः) युद्ध 
(का) विचार छोड़ दो न। हे यादवजी, पीछे मुड़ जाओ, मे (तुम्हारे) 
पाँव लगती हूँ। मेरी बुद्धि अर्थात मेरा परामर्श मान लो | ८५ (इसपर 
अनिरुद्ध ने कहा--) “यह घरनी तो पागल दिखायी दे रही है। री तरुणी, 
है रानी, तुम अपनी यह आदत छोड़ दो । मै बाण से पीछे नही हटूँगा । 
हैं रानी, उसकी सेवा (क्यों) करूँ ? । ९ हे रानी, यदि अनिरुद्ध युद्धभूमि 
से भाग जाए, तो श्रीगोपालकृष्ण लज्जित हो जाएँगे। हे रानी, (जीवन 
के चारो) अर्थ नष्ट हो जाएँगे, उनमे से एक भी सिद्ध नहीं होगा। 
(अतः) कैसी चाल स्वीकार करे ? । १० 

कैसी चाल स्वीकार करें ? (अब) अन्त (निकट) आ गया है, तो 
श्रीमुरारि (कृष्ण) उद्धार करेगे। (ऐसा कहते हुए ओखा के) पति 
(आगे) धँंस गये और (इधर) वह नारी हाथ मलती रही-- वह (फिर) 
रोने लगी । ११ 


कडवुं २८ मुं--( ओखा का अनुरोध अनिरुद्ध के प्रति ) 
राग मेवाडो 
ओखा करती ते कंथने साद, हो रे हठीला राणा, 
ए शा सार उन्माद ? हो रे हठीला राणा। १ । 








कड़वक २द८--( ओखा का अनुरोध अनिरुद्ध के प्रति ) 
ओखा अपने कान्‍्त को जोर से पुकारकर कह रही थी-- हे हठीले 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) ११७ 


तो लागूं तमारे पाय, हो रे हठीला राणा, 
आवी बेसो ते माहिया माह्य, हो रे हठीला राणा। २ । 
हुँ तो बाणने कं प्रणाम, हो रे हठीला राणा, 
छे . कालावालानुं काम, हो रे हठोला राणा। ३ । 
ए तो बल्िया साथे बाथ, हो रे हठीला राणा, 
ते तो जोईने भरिये नाथ, हो रे हठीला राणा। ४ । 
. ए तो तरवूं छे सागरनीर, हो रे हठीला राणा, 
बढ़े न पामीए पेलूं तीर, हो रे हठीला राणा। ५। 
अनेकमा एक कोण मात्र ? हो रे हठीला राणा, 
सामा मक॒या छे कुपात्र, हो रे हठीला राणा। ६-। 
मने थाय छे मानशुकन, हो रे हठीला राणा, 
मारुं जमणूंं फरके लोचन, हो रे हठीला राणा। ७ । 
मारो तूदयो मोतीनो हार, हो रे हठीला राणा, 
डाबे नेत्र वहे जल्धारं, हो रे हठीला राणा। 
दीसे नगरी ते उज्जड रान, हो रे हठीला राणा, 
दीसे गगने झांखो भाण, हो रे हठीला राणा । ९ । 
रूवे श्वान, वायस ने गाय, हो रे हठीला राणा, 
एवा माठा शुकन थाय, हो रे हठीला राणा | १० । 
राणा, है हठीले राणा, यह उन्माद किसके लिए है ? । १ हे हठीले राणा, 
मै तो तुम्हारे पाँव लगती हँ। हे हठीले राणा, आकर इस कोठी के अन्दर 
बैठ जाओ । २ हे हठीले राणा, मै बाण को प्रणाम करती हूँ (करूँगी) । 
हे हठीले राणा, यह गिड़गिड़ाने से होनेवाला काम है । ३ हे हठोले राणा, 
यह तो बलवान से टक्कर है। हे हठीले राणा, हे नाथ, इसे तो देखकर ही 
गले लगाएँ (स्वीकार करे)। ४ हे हठीले राणा; यह तो सागर के पानी में 
तैर (कर पार) जाना (जैसा ) है। हे हठीले राणा, (अपने )बल पर उस पार 
को प्राप्त नही हो पाएँगे। ५. है हठीले राणा, अनेको में एक मात्र से क्या हो 
सकता है ? है हठीले राणा, सामने (अनेक) कुपात्र (बुरे लोग) मिल 
गये है। ६ हे हठीले राणा, मुझे अपशकुन हो रहे है। है हठीले राणा, 
मेरी दाहिनी आँख फड़क रही है। ७ हे हठीले राणा, मेरा मोतियों का 
' हार टूट भया । हे हठीले राणा, (मेरी) बायी आँख से जल-धारा बह 
रही है। ८ है हठीले राणा, यह नगरी उजाड़-वीरान दिखायी दे रही है। 
हे हठीले राणा, आकाश मे सूर्य निस्तेज दिखायी दे रहा है। ९ हे हठीले 
, राणा, कुत्ता, कोआ और गाय रो रहे है। हे हठीले राणा, ऐसे अशुभ 


5 


११८ गुजराती (नागरी लिपि) 


तो ध्रूजती देखूं धरण, होरे हठीला राणा, 
ए तो सागर शोणित वरण, हो रे हठीला राणा। ११। 
आव्या अगणित अस्वार, हो रे हठीला राणा, 
अहीं थाय छे हाहाकार, हो रे हठीला राणा। १२। 
ओ दुंदुभिए वाढियो घाय, हो रे हठीला राणा, 
ए संन्‍्य तम पर धाय, हो रे हटीला राणा। १३। 
आ आब्यूं दक्ू-वादकल, हो रे हठीला राणा, 
ओ झत्के भालानां फछ, हो रे हठीला राणा। १४। 
पाखर बख्तर  पहेर्या ठदोप, हो रे हठीला राणा, 
देत्यय भराया आवे कोप, हो रे हठीला राणा । १५। 
ओ वाजे घृधरमाठ, हो रे हठीला राणा, 
अश्व देता आवि फाठ, हो रे हठीला राणा । १६। 
ए तो शूरवीर महाकाछ, हो रे हठीला राणा, 
पडे पेटडियामां फाछ, हो रे हठीला राणा | १७। 
नाथ जुओ विचारी मन, हो रे हठीला राणा, 
जुद्ध रहेवा दो राजन, हो रे हठीला राणा। १८। 
जो लोपो मारी वाण, हो रे हठीला राणा, 
तमने पितामहनी आण, हो रे हठीोला राणा। १९। 
शकुन हो रहे है । १० है हठीले राणा, मै तो धरती को काँपती हुई देख 
रही हूँ । है हठीले राणा, यह सागर रक्‍तवर्ण हो गया है। ११ है हठीले 
राणा, अनगिनत (घुड़-) सवार आ गये है। हे हठीले राणा, यहाँ हाह्यकार 
मच रहा है । १२ है हठीले राणा, दुन्दुभि पर चोट की जा रही है (दुन्दुभि 
वज रही है) । है हठीले राणा, यह सेना तो तुम्हारी ओर दौड़ रही 
है। १३ हे हठीले राणा, यह भारी सेना (रूपी आँधी) आ रही है। 
हे हठीले राणा, ये भालो के फाल चमक रहे है । १४ हे हठीले राणा, 
उन्होने पाखर (लोहे की झूल), बख्तर और टोप पहन लिये है। हे ह॒ठीले 
राणा, क्रुद्ध होकर दैत्य आ रहे है । १५ है हठीले राणा, वह घूँघरुओ की 
माला वज रही है। हे हठीले राणा, घोड़े छलाँग लगाते हुए आ रहे 
है। १६ हे हठीले राणा, ये तो शुरवीर महाकाल (जैसे) है। हे हठीले 
राणा, (भय से) कलेजा मुँह को आ रहा है। १७ हे नाथ, है हठीले राणा, 
मन में विचार करके देखो। हे हठीले राणा, हे राजन, युद्ध रहने दो 
(न होने दो) । १८ हे ह॒ठीले राणा, यदि मेरी बात का लोप करोगे (न 
मानोगे), तो हे हठीले राणा, तुम्हे तुम्हारे अपने पितामह की सौगन्ध है। १९ 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) ११६ 


आव्यो बाण ते प्रलयकाछ, हो रे हठीला राणा, 
मेघाडंबर छ़्त् विशाल, हो रे हठीला' राणा । २० । 





वलण (तर्ज बदलकर ) 
मेघाइंबर छत्न॒ बिराजे, ऊलटी नगरी बद्ध रे, 
अगणित अस्वार आविया, तेणे वींटी लीधो अनिरुद्ध रे। २१। 
हे हठीले राणा, बाण आ गया है-- (मानो) वह प्रलयकाल है। हे हठीले 
राणा, अम्बारी पर विशाल छत्न है। २० 


अम्बारी पर छत्न विराजमान है। समस्त नगरी उमड़ कर आ गयी । 
अनगिनत (घुड़-) सवार आ गये और उन्होंने अनिरुद्ध को घेर लिया । २१ 


कडव्॒‌ं ३० मुं--( युद्ध में बाणासुर द्वारा अनिरुद्ध को चागपाश में आबद्ध करना ) 

। राग सामेरी ] 
आवी सेना असुरनी, अनिरुद्ध लीधो घेरी, 
कामकुंवरने मध्ये आणी, वींटी लीधो चोफेरी। १ । 
अमर कहे शुं नीपजशे, इच्छा ते परमेश्वरी, 
रिपुणजना यूथमां, अनिरुद्ध लघु केसरी । २ । 
बाणरायने शृं करे ? भोगठछ लीधी फोकट, 
वेरी वायस कोटी मल्यों, त्यां केम जीवे पोपट ?॥। ३ । 
बाणासुरे सुभट वार्या, कोई न करशो घात, 
छे वीर थोडी वय तणो, हुं पूछे एने बात। ४ । 





कड़वक--३० ( युद्ध में बाणासुर द्वारा अनिरुद्ध को नागपाश में आबद्ध करना ) 


असुरो की सेता आ गयी । उसने अनिरुद्ध को घेर लिया। उसने 
कामदेव (प्रद्युम्त) के उव कुमार को (अपने) बीच मे (रख) लेते हुए 
चारो ओर से घेर लिया। १ (तब आकाश में इकट्ठा हुए) देव (यह 
देखकर) बोले, (इससे) क्या, उत्पन्न हो जाएगा ? यह तो भगवान की 
इच्छा (जान पड़ती) है। शत्रु रूपी हाथियों के झूड में अनिरुद्ध रूपी 
छोटा सिंह (सिह-शावक फेस गया) है। २ वह बाणराज का क्‍या कर 
सकता है (क्या बिगाड़ सकता है) ? उसने व्यर्थ ही (हाथ में) अगरी 
(पकड़) ली है। वौरियों के रूप मे करोड़ो कौए इकद्ठा हो गये हो, तो 
वहाँ (ऐसी स्थिति में उनके बीच) तोता कैसे जीवित रह सकता है ? '। ३ 


१२० गुजराती (नागरी लिपि) 


साहियेथी ओखा नीरखे, रुदन समृक्‍्युं छोडी, 

ओ जीवन पूंठे योद्धा ऊभा, रह्मा बेठ कर जोडी। ५ । 
बठ्बंत बहेके अति घणूं, सेना छे बिहामणी, 

ओ पवनवेगी पाखरा, हय आव्या ते हणहणी। ६। 
ए सुभटे भाथा भीडिया, हींडिया स्वामी भणी, 

ओ खड्ग खेडां झककतां, चढ्कतां भालांनी अणी। ७ । 
ओ गज आव्या सामटा, हय हीसंता हणहणी, 
टोप टोडर पहेर्या बख्तर, छे सेना बिहामणी। ८ । 
आ दक्क बढलनुं केम सहेशों, स्वामी कोमकछ ? 
प्राणणाथ पीडशे प्रगदयां, ते कमेना फछ। ९ | 
देवना दीधां. देत्यने, दया नहीं लवलेश, - 
लघुवयरमां छो कंथजी, नथी आव्या सूछे केश। १०। 
चार विवसनुं चांदरणू, सुखडुं गयुं ते वही, 
पापी पीडे छे प्रभुने, करमडा जाउं कक्‍्यहीं। ११। 





बाणासुर ने (अपने) बडे-बडे योद्धाओ को (यह कहते हुए) रोक लिया, 


« (इसपर तुममे से) कोई भी आघात न करे। यह वीर तो छोटी अवस्था 
वाला है। इससे मै (एक) बात पूछता हूँ । '।४ , कोठी पर से ओखा 
यह देख रही थी। उसने (अब) रोना बन्द किया था। (उसने मन ही 
मन कहा--) ओ मेरे जीवन, (तुम्हारे) पीछे (चारों ओर अपने स्वामी के 
सामने) दोनो हाथ जोड़े योद्धा खडे रह गये है। ५ वे बलवान (सैनिक) 
अत्यधिक बहक रहे है (आपे से बाहर होते जा रहे है) । वह सेना 
भयावह है। पवनवेगी पक्षियों जैसे ये घोडे हिनहिनाते हुए आ गये है । ६ 
उन योद्धाओ ने भाथे कसकर बाँध लिये है; वे (आप मेरे) स्वामी की 
ओर चले आ रहे है। (उनके) खड॒ग और ढाले चमक रहे है; भालो की 
अनियाँ (फल) चमक रही है। ७ हाथी इकट्ठा होकर आ गये है; घोड़े 
हिनहिनाते हुए उत्कण्ठित हो रहे है। योद्धाओ ने टोप, टोड़र और बख्तर 
धारण किये है। यह सेना डरावनी (दिखायी दे रही) है । ८५ है भेरे 
सुकुमार स्वामी, इस शक्तिशाली सेना को तुम कैसे सहन कर पाओगे ? 
हे मेरे प्राणनाथ, वे (सैनिक) तुम्हे पीड़ा पहुँचाएँगे। (हमारे पूर्वक्ृत) 
कर्मो के फल (ही मानो उस सेना के रूप मे) प्रकट हो गये है। ९ इन 
देत्यो को देव द्वारा दया का लवलेश (तक) नही दिया हुआ है। हे कान्त, 
तुम तो छोटी अवस्था के हो, तुम्हारे मूँछे (तक) नहीं निकल आयी 
हैं। १० चॉँदनो चार दिन की होती है। (हमारा मिलन का) वह 


डच्लीपज 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण) प्रपे 


कंथजी मारो एकलो, वींटी वक्॒या असुर, 
एवं. जाणीने सहाय करजो,  शामक्िया श्वसुर। १२ + 
कष्टनिवारण कृष्णणी, हुँ थई तमारी वधू, 
जो आशा अमारी भांगशो, लाजशे जदुकुल बध्ूं। १३॥ 
प्रजा प्रतिपालल करो छो, पनोता श्रीमुरारी, 
संभाल सर्वनी कीजीए; न मृकीए विसारी | १४ 
अमने आशा तम तणी छे, अमो तमारां छोर, 
लाज' लागे वृद्धे, कोई कहेशे काछूं गोरुं। १५। 
एवुं जाणी आवजो, छो दामोदरजी दक्ष, 
पक्षी पलाणो प्रभुजी, पुत्रनी करवा पक्ष । १६॥ 
भगवंत भजती भामती, भरथार रिपुदल मध्य, 
कोई कहे पिता बाणने, ए बाछक ने तुं वृद्ध । १७,। 
गदगद कंठे गोरडी, गतिभंग जाणे घेली, 
एवं इच्छुं छुं जे प्राण ज काढूं, मरुं ते संग्राम पहेली | १८। 
सुख समाप्त हो गया। वे पापी (अब) मेरे प्रभु को पीड़ा पहुँचा रहे है । 
रे दैव, मै (इस स्थिति में) कहाँ जा सकती हूँ ?7 ।११ मेरे कान्‍्तः 
(पति) अकेले हैं; उनकों असुर घेर चुके है। हे सॉवरिया श्वसुर 
(श्रीकृष्णजी), ऐसा जानकर सहायता करना। १२ हे कष्ट-निवारण 
करनेवाले क्ृष्णजी, मै तुम्हारे (कुल की) बहू हो गयी हूँ । (अतः) यदि 
हमारी आशा को भग्न कर दोगे, तो समस्त यदुकुल लज्जा को प्राप्त हो 
जाएगा। १३ है मंगल-कर्ता श्रीमुरारि, तुम प्रजा का पालन किया .करते 
हो। (अतः) सबकी देखभाल (रक्षा) करो। हमें भूला देकर न 
:छोड़ो । १४ हमें तुम्हारी (ही) आशा है। हम तुम्हारी सन्‍्तान हैं। 
जु (बुरे.हेतु का आरोप लगाते हुए) कोई हमें भला-बुरा कहेगा, तो (कुल 
के) वुद्धों अर्थात्‌ बड़े-बूढ़ों पर दोष आता है। १५ ऐसा समझकर 
(हमारी सहायता के लिए) आ जाना। हे दामोदरजी, तुम दक्ष हो । 
हे प्रभुजी, अपने पुत्र (के पुत्र) का पक्ष लेने के लिए (गरुड़) पक्षी पर 
विराजमान होते हुए धावा बोल दीजिए। १६ हे भगवान, यह भामिनी 
(स्त्री ) तुम्हारी भक्ति कर रही है। मेरे पति शत्रु-दल के बीच में (फंस 
गये) है। कोई मेरे' पिता बांण से कह दे-- यह (अनिरुद्ध) बालक है 
और तुम वृद्ध हो (अतः तुम्हारा यह व्यवहार उचित नही है) । १७ वह' 
गोरी (ओखा) गद्गद हो गयी (उसका गला रुँध गया) । किसी पागल 
की भाँति उसकी (विचार की) गति भग्न हो गयी-- अर्थात्‌ वह अधिक 





१२२ गुजराती (नागरी लिपि) 


मुख वक्र बिहामणां छे, मूछ मोटी . मोटी, 
एवा असुर आवी मछया, संख्या थई सप्त कोटि। १९। 
दव्ववादक सैन्य. ऊलदुयूं, मध्य आण्यो अनिरुद्ध, 
वीर वींद्यो वेरीए, जेम मक्षिकाए मध।॥२०। 
धनुष धरियां पांच सें, बाणे चढाव्यां बाण, 
राग मार गाय ग्रुणगीजन, गडगडियां निशान । २१। 
गगने आभ ज ढांकियो, शोभियो जेम इंदूु, 
उपमा ते उड॒गण तणी, ललाटे स्वेदर्नां बिंदु। २२। 
लघु कुंजरनी सूंढ सरखा, शोभीता वे .भुज, 
शरासन सरीखी श्रूकुटी ने, नेत्र बे अंबुज। २३। 
तृण मात्न क्ेवडतों तथी, बाणने ते महावाहु, 
असुर हाथे शोभियो, जेम चंद्रमा ने राहु। २४। 
जादवे जोयूं वक्त दुष्टे, रातां कीधां चक्ष, 
वपु शोभे भूज फूल्यूं, जेम अरुण्यनूं वृक्ष ।२५। 


2 5 3 





सोचने मे असमर्थ हो गयी । वह अवबला मन में यह चाह रही थी-- 
(इनके) उस संग्राम के पहले मै मर जाऊे। १८ उन (असुरों) के मुख 
टेढे-मेढ़े थे, डरावने थे। उनकी मूंछें वड़ी-बड़ी थी। ऐसे वे असुर आ 
(-आ) कर इकद्‌ठा हो गये। उनकी सख्या सात करोड हो गयी । १९ 
दल-बादल अर्थात्‌ बहुत वड़ी सेना उमड़ आयी। उसने अपने वीच 
में अनिरुद्ध को ला रखा (घेर रखा)। जैसे मधु (-बिन्दु) को मक्खियाँ 
घेर लेती है, वैसे ही शत्रु ने उस (अकेले) वीर को घेर लिया। २० 
बाण ने (अपने एक सहस्र हाथों मे) पॉच सौ धनुष ग्रहण किये और उन 
पर वाण चढा दिये। ग्रुणीजन अर्थात्‌ गायक कलाकार मारू राग अलाप 
रहे थे। नगाड़े वज रहे थे । २१ बादलो से आकाश ढक गया हो तो 

चन्द्र (जैसे) शोभायमान होता है; (वैसे शत्रु-दल से घिरे हुए अनिरुद्ध 
शोभायमान जान पडते थे) । उनके ललाट पर पसीने की बूंदें थीं; उनके 
लिए उडुगण अर्थात्‌ तारों के समूह की उपमा (योग्य) है। २२ उनके 
दोनो वाहु छोटे हाथी की सूँड़ के समान शोभायमान थे। उनकी भौहें ' 
धनुष जैसी थी, उनके दोनो नेत्र (मानो) कमल थे । २३ ऐसे. वे अनिरुद्ध 
महाबाहु वाणासुर को घास मात्न-- घास (के तिनके) के बराबर तक नही 
गिनते थे। वह असुर (बाण) और अनिरुद्ध वैसे ही शोभायमान थे, 
जैसे राहु और चन्द्रमा (शोभायमान दिखायी देते) हो । २४ यादव (वीर 
अनिरुद्ध) ने (उस असुर की ओर) टेढी दृष्टि से देखा-- उसने अपने नेत्रों 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण) १२३ 


आ समे, जो होत कुहाडो, अथवा भोगक्े धार, 
'असुरने . हछवे करत, उतारत भुजनों भार।२६। 
शूं वस्यूं बाणनूं दिल छे, तेमां वसे सर्पतो साथ, 
पंडमां पूवेज. रह्या, पिंड. लेवा काढे हाथ। २७। 
काष्टना के लाखना, शूं मीणना चोहोड्या कर, 
अथवा कोई पक्षी दीसे छे, विफराव्या छे पर ?।॥ २८। 
तव हास्य आव्यूं बाणने, बाछुक केवकछ बाढछ, 
कौभांड कहे अज्ञान नथी, राय तमने दे छे गाछ । २९। 
बलीसुत अंतर बढ्ियो, बोल्यो बाढछक बल्ववान, 
शं करुं जे लांछन लागे, नहीं तो देत कन्यादान॥ ३० । 
सुभट निकट राय सर्वे, बोलिया बहु गयें, .. 
निपट लंपट नथी वीतो, धाया हणवा स्वे।३१। 
कुछलजामणो कृुण छे, तस्कर नर॒ निर्लज्ज, 
अपराध करी केम ऊगरशे, सिहना सुखथी अज ?।॥ ३२। 





को (क्रोध से) लाल बना लिया था। उसके शरीर में (एक सहख्र) हाथ 
शोभा दे रहे थे-- मानो अरण्य का कोई वृक्ष फूल गया हो । २५ (यह 
देखकर अनिरुद्ध ने कहा--) इस समय यदि (मेरे पास) कुल्हाड़ा (परशु) 
होता, अथवा (मेरे पास की ) इस अगरी की धार (तीक्ष्ण) होती, तो मै 
इस असुर को हलका कर देता-- इसके बाहुओं के बोझ को उतार देता। २६ 
क्या बाण का शरीर कोई (बिल है और उसमे उसे सॉँपों का साथ रहता 
है ? (अथवा) उसके शरीर में उसके पूर्व॑ज रह रहे हों, और उन्होने पिड लेने 
के लिए हाथ (बाहर) निकाले हों । २७ क्या उसने काठ के अथवा लाख 
के या मोम के हाथ (बनाकर अपने शरीर मे) चिपका लिये है ? अथवा 
यह कोई पक्षी दिखायी दे रहा है, जिसने अपने परो को फंला दिया है। २८ 
तब बाण को हँसी आ गयी । (वह बोला--) यह बालक केवल बच्चा 
(अज्ञान) ही है। इसपर कौभाण्ड बोला-- यह जज्ञान नहीं है। 
हे राजा, यह तुम्हें गालियाँ दे रहा है। २९ (यह सुनकर दैत्यराज) 
बलि का पृत्र (बाणासुर) अन्तःकरण मे जल उठा और बोला-- यह बालक 
बलवान (जान पड़ता) है। क्या करूँ जो लांछन लग जाएगा-- नही तो 
मै उसे कन्या दान दे देता । ३२० (फिर) राजा (बाण) उस सुझट (बड़े 
योद्धा, अनिरुद्ध) के पास आ गया और बहुत घमण्ड से बोला, “ हे निपट 
लम्पट, तुझे मार डालने के हेतु सब दौड़े, (फिर भी) तू नही डर रहा 
है। ३१ अपने कुल को लज्जित कर देनेवाले चोर, निलज्ज नर, तू कौन 


प२४ गुजराती (नागरी लिपि) 


गम नहि. अमरने, तो केम आवबतां फाब्यूं ? 
अज्ञाने आवी चड़यो, के भूते मनडुं भमाव्यूं | ३३। 
शके स्वर्गयी नांखियो, कांई कारण सरखूं भासे, 
साचुं कहीश तो नहीं हणुं, वाकू, रहेजे विश्वासे। ३४ । 
कोण कुछ्मां अवतर्यो ? कोण मात तात ने गाम ? 
अनिरुद्ध कहे, विहीवा मढ॒यो, हवे न्यातकुछनू शूं काम ? । ३५ । 
पितु पितामह माहरा, ते प्रसिद्ध छे संसार, 
चोरी छत्रपतिनी करी, तूं चतुर होय तो विचार। ३६। 
जादवकुछ छे मुज तणुं, मुज नाम छे अनिरुद्ध, 
जो छेडशो तो समुद्र मांही, नाखीश नगरी बद्ध। ३७। 
बाण सामूं जोईने, कौभांड वल्ठतूं भाखे, 
चोरी करी कन्या वरे, कुण विना जादव भाखे ? । ३८। 
पौत जाणी क्ृष्णनो, बाणें ते घसिया कर, 
तीच वरे कन्या वरी, करमडा बेठूं घर। ३९ । 





है ? अपराध करके बकरा सिंह के मुख से कैसे बचेगा। ३२ (जहां) 
देवों का भी गमन नही हो पाता, (वहाँ) तुझे आते कैसे वना ? तू अज्ञान में 
आकर (ऊपर) चढ़ गया है, अथवा किसी भूत-पिशाच ने तेरे मन को भ्रम 
में डाल दिया ? । ३३ जान पड़ता है, किसी कारण से इन्द्र ने तुझे स्वर्ग 
में से फेक दिया है। रे बालक, विश्वास मे रहना (विश्वास कर) --सच्चा 
कहेगा, तो नही मार डालूंगा । ३४ तू किस कुल मे उत्पन्न हुआ ? तेरे 
माता, पिता और ग्राम कौन है ? ' (यह सुनकर) अनिरुद्ध बोले-- मैं 
विवाह के लिए (भोखा से) यहाँ मिल गया हूँ; अब जाति-कुल (पूछने 
और जानने) से क्या काम ” । ३५ मेरे (जो) पिता, पितामह (है, वे) 
ससार में विख्यात है। मैने छत्नपति (राजा) की (कन्या की) चोरी की 
है; तुम चतुर हो, तो विचार करो (और देख लो) | ३६ मेरा कुल 
यादवकुल है, मेरा नाम अनिरुद्ध है। यदि (मुझे) छेड़ोगे, तो मै यह 
समस्त नगरी समुद्र मे फेक दूंगा। ३२७ बाण को सामने (बाण की ओर ) 
देखकर कौभाण्ड ने उलटे (प्रत्युत्तर में) कहा-- “ चोरी करके कन्या का 
वरण (जिसने) किया है, वह यादव के सिवा (और) कौन हो सकता 
है? '। ३८ (तब अनिरुद्ध को) कृष्ण का पोता जानते ही बाण हाथ 
'सलने लगा । (उसने कहा--) नीच (कुल में उत्पन्न) वर ने (मेरी) कन्या 
का वरण किया है और हे देव, मै घर मे (चुप) बैठा हूँ । ३१९ (फिर) 
गुस्से से उसका अन्त.करण जल उठा। तो बाण ने धनुष ग्रहण किये । 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) “१२५ 


रीसे .ते अंतर परजक॒यों, धनुष धरियां बाण, 
'मंत्रीनी महाराज कहे छे, जोद्दो मोटो जाण। ४०। 
हांकीने अनिरुद्ध वकार्यो, थयो ते दारुण शोर, 
ओखा नेत्ने त्तीरी भरे जे, कंथने पहोंचे जोर।४१॥ 
असुर बल्िया प्राक्रमी, ऊछछता दे फाछ, 
दशे दिशाश्री वछट्या, कहे न जाय जीवतो बाह | ४२। 
परिघ पट्टी गुरआ गंदा, त्िशुल ने तोमर, 
मोगरी .मुसक्त सरस कांती, ढाकी लीधो कुंवर | ४३ । 
अंधकार माया आसुरी, वरसे शल्या शिखर, 
पडे हय हस्तीने चंमर, वहे मांस ने रुधिर | ४४। 
हय गज रथ लथबथ अटके, लटके छे वाहन, 
दुंदुभि गडगडे खेडां खडखडे, रणमां पड़या बहुजन । ४५ ॥ 
सांग सक्कके खड़ग चकके, झत्के भालानी अणी, 
रिपुलाखनी लाखमां, अनिरुद्ध जडियो छे मणी | ४६। 
फेरवी भोगढ बढ करी, रिपुदल दल्ठयूं जदुजोद्ध, 
ताड्या पछाड़या आडा पड़्या, करी कामकुंवरे क्रोध | ४७ ॥ 


(यह देखकर) कौभाण्ड ने राजा (बाण) से कहा-- ' इसे बड़ा 'योद्धा 
समझिए (छोटा नही) । “ । ४० (तदनन्तर) उसने (बाण ने) हाँक 
लगाते हुए अनिरुद्ध को उकसाते हुए क्रुद्ध कर दिया, तो दारुण शोर मच 
गया। (इधर) ओखा आँखों में अश्वुजल भरने लगी (आँखों से आँसू 
वहाने लगी), जो उसके पति को जोर (बल) पहुँचा रहा था। ४१ 
'बलवान' प्रतापी असुर उछलते हुए छलाँगे लगाने लगे। वे दसों दिशाओं 
से (आगे) निकल पड़े । वे कह रहे थे-- यह बच्चा:जीवित (छूट) न 
जाए। ४२ उन्होने उस कुमार को परिघो, पट्टों और मुद्गरों, गदाओं, 
त्िशूलों और तोमरों, म्रुगरियों, मुसलो और परशुओं से (मानो) ढॉक 
लिया । ४३ आसुरी माया से निर्मित अँधेरे मे शिलाओं और . (पर्वत-) 
शिखरो की वर्षा होने लगी। घोड़े, हाथी और चामर गिरने लगे और 
मांस तथा रक्त बहने लगा। ४४ घोड़े, हाथी, रथ (रक्त से) लथपथ 
होने से वाहन (बीच में ही) अटक रहे थे । दुन्दुभियाँ घहरा रही थी, 
ढाले खड़खड़ा रही थी। युद्धभूमि में बहुत लोग गिर गये । ४५ साँगें 
खटखटा रही थी, खड़ग चमक रहे थे और भालों की अनियाँ चमक रही 
थी। : लाखो शत्रु रूपी लाक्षा मे अनिरुद्ध मानो रत्न (की भाँति) जड़े 
हुए (जान 'प्रड़ते) थे । ४६ वे बलपूर्वक अगरी घुमा रहे थे। उन्होंने 


१२६ गुजराती (वागरी लिपि) - 


अंग रातां शीश फादयां, ज्वरा धरणीए पाड़या, 
पलवट वाली प्राक्रमी, बहु जोद्धाने चसाड़्या | ४८ । 
भूज विशे भोगक् धरी, देतो अनिरुद्ध मार, 
हय गज रथ पाछा सर्व नाठा, हवो तो हाहाकार। ४९ | 
प्रहार पू्रण रथ चरण, गज अश्व पाछा वल्या, 
शोणितपुर भणी चाल्या, तव्रीर धरणी उपर ढल्लया। ५० | 
रणमां ते रोंढठी मृकतो, अनिरुद्ध इंद्र समान, 
असुर सुरथी नासता, शादंलथी जेम श्वान। ५१। 
हैं ते हरख्यूं. नारनं,, सुणी नाथने होकार, 
अतिरुद्ध तारुणी देखतां, कीधूं सैन्य तारेतार । ५२ । 
दश सहस्र जोद्धा बाणना, सारी कीधा चकचूर, 
समुद्रमां संगस हवो, वह्यूं ते शोणित पूर। ५३" 
बंबाण पड़यूं रण विषे, करे असुर नासानास, 
भंगाण देखी बाण धघसियो, सज्यो ते नागपाश। ५४। 


ब>+ल लत विज अलिविज लीड न च्िव्िज््ि्िज््िच््च्च्िजजच्डच जज लत जज लत > तल +तत तरल +ञ 5 तीज 5 ता +न्‍ 


शत्रुदल को पीस डाला। उन काम-कुमार ने क्रोध करते हुए (क्रुद्ध होकर 
शत्रुपक्ष के वीरों को) पीट दिया, पछाड़ डाला, आड़े गिरा दिया | ४७ 
उन (वीरो) के अंग रक्त से लाल हो गये; उनके मस्तक फट गये । उन 
श्रों को (अनिरुद्ध ने) धरती पर गिरा डाला। (इसके अतिरिक्त) उन 
पराक्रमी (कुमार) ने बहुत योद्धाओ को भगा दिया । ४८. हाथों में अगरी 
पकड़कर अनिरुद्ध उससे (असुरो पर) आधात कर रहे थे। (उससे ) 
घोड़े, हाथी, रथ, पदाती --सब भाग गये, तो हाहाकार मच गया । ४९ 
(अगरी के) प्रहार से रथ पूर्णतः चूर-चूर हो रहे थे। हाथी, घोड़े पीछे 
लौटने लगे और शोणितपुर की ओर जाने लगे। वीर धरती पर ढहते 
जा रहे थे। ५० (सबको) चूर-चूर करके अनिरुद्ध इन्द्र के समान 
(शोभायमान दिखायी दे रहे) थे। जिस प्रकार कुत्ते सिंह से (डरकर) 
भाग जाते है, उस प्रकार असुर (अनिरुद्ध-स्वरूप) देव से भागते जा रहे 
थे। ५१ (यह देखकर) उस नारी (ओखा) का हृदय आनन्दित हो उठा । 
उसने अपने पति की हुँकारी सुनी। (इधर) अनिरुद्ध ने (भी) उस 
तरुणी के देखते रहते, (शत्रु-) सेना को 'तार-तार कर डाला (तितर-बितर 
कर डाला) । ५२ उन्होंने बाण के दस सहस्र योद्धाओं को मार-मारकर 
चकनाचूर कर डाला । रक्त का रेता बहने लगा। उसका समुद्र में संगम 
हो गया । ५३ रणभूमि में शोर मच गया। असुर (जी लेकर) भाग 
रहे थे। इस विनाश को देखकर बाण आगे घँस (घुस) गया । . उसने 





प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) १२७ 


भोगक छेंदी भूज, तणी, मृक्‍्या ते सहन ज॑ सर्प, 
कामकुंवरने बाधियो, पछे गाजियो छे नृप। ५५। 


वलण (तर्ज बदलकर) 


तगरपति गाजियो मेघनी पेरे, उतरावी ओखाय रे, 
वरकन्याने बंधन करी, पछें बाण मंदिर जाय रे। ५६। 





ज्ञागपाश सज्ज किया। ५४ उस राजा ने (अनिरुद्ध के) हाथों की अगरी 
को छेद डाला और सहस्रों सर्पो को छोड़ दिया, काम-कुमार को आबद्ध कर 
डाला और वहूं गरज उठा । ५५ 

(शोणितपुर) नगर का अधिपति (बाण) मेघ की भाँति गरज उठा 
और उसने ओखा को (स्तम्भ-भवन से) उतरवा लिया। (तदनन्तर) 
वर (अनिरुद्ध) और (अपनी) कन्या को आबद्ध करके वह फिर अपने 
प्रासाद (की ओर) चला गया । ५६ . ' 


कडवुं ३१ मुं-( अनिरुद्ध को देखकर लोगों का प्रभावित होना ) 
राग रामग्री 
बंन्योने बाणे बांधियां, नौतम नर ने नार, 
अनिरुद्ध राख्यो मुख आगढ्, ग्रुप्त राखी कुमार | बंन्योने० । १ । 
चोटामां चोर जणावियो, ढांक्यो व्यभिचार, 
छानी ओखा मंदिर मोकली, राख्यो कुलछ्नो रे भार। बंन्योने० । २ । 
छे शरदऋतु तडको घणो, तपे तावड शिर, 
केसर, रंगनी अचेंना, भींज्यूं सघल्ं शरीर ।॥ बंन्योने० । ३ । 


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कड़वक ३१-६ अनिरुद्ध को देखकर लोगो का प्रश्नावित होना ) 


१२८ गुजराती (वागरी लिपि) 


लक्षणवंतो हींडे लहेकतो, बहेकतो बहु वास, 


दैत्यनूं दक्त पूंठे पके, दोरी हींडे छे दास | बंन्योने० | ४ । 
पेच छुट्यो पाघडी तणो, आव्यों पाग प्रमाण, 
चोरे मोरज मारियों, करे लोक वखाण। बंन्योने० । ५ । 
ओखा जो पुनरपि परणशे, हशे भव्य भरथार, 
ते स्वामीशं सुख पामशो, लीधों एणे सार। बंन्योने० । ६--+- 
को कहे देवत एहमां, दीसे रूप रसाह्, 
कटाक्षमां कामनी पडे, जोवामां मोहजाछ । वंन्योनि० । ७- । 
भूलवणी श्रूकुटी विषे, भली भूले रे नार, 
कुंवारी कन्‍्याने कामण करे एवो कामकुमार | बंन्योनि० ।. ८ । 


चिह॒त कंठे काकण तणां, पड़यां भामनी भूजदंड, । 
ओखाए अमृत चाखियूं, कीधो अधरने खंड । बंन्योने० ।. ९ । 


(स्वेद-जल से) उनका समस्त शरीर भीग गया। उन दोनों को० । ३ 
सुलक्षणों से युक्त वे (अनिरुद्ध) झूमते हुए चल रहे थे। वे (मानो) 
उस सुगन्ध से मारे नशे के चूर हो गये थे । दैत्यों का दल उनके पीछे- 
पीछे चल रहा था। दास दौड़ते हुए जा रहे थे। उन दोनों को ०.। ४ 
उनकी पगड़ी का पेच खुल गया और वह पाँवों तक (लटकता हुआ) आ 
गया । (मानो) चोर अधिक प्रभावशाली हो गया। लोग (उस- 
चोर भर्थातं अनिरुद्ध की) प्रशंसा कर रहे थे। उन दोनों को० । ५ 
(वे कह रहे थे--) यदि ओखा फिर से भी परिणय करे, तो (उसके लिए) 
यह गौरवशाली पति (सिद्ध) होगा। वह इस पति से सुख को प्राप्त हो 
जाएगी। उसने इससे अच्छी वात ग्रहण की है। उन दोनों को० । ६ 
कोई-कोई कह रहा था-- इसमें देवत्व (अर्थात्‌ देव के लक्षण, दिव्यत्व) हैं। 
(इसलिए तो उसका) रूप (इतना) सुन्दर दिखाई दे रहा है। वह देखने 
में मोह का जाल है, जिस पर दृष्टिपात करते ही कामिनियाँ उसमें पड़ जाएँगी 
(मोहित होगी, मोह-जाल में उलझ जाएँगी) । उन दोनों को ० । ७ उसकी 
भोंहों में मोहिनी है, जिससे भली-भली नारियाँ (भी) भुलावे में आ-जा 
सकती है। वह क्वाँरी कनन्‍्याओं को सम्मोहित करके अपने वश में कर 
सकता है -ऐसा है यह कामदेव (प्रद्युम्न) का पुत्र । उन दोनों को० । ८ 

उसके कण्ठ में कंकण के चिह्न अंकित है --(जान पड़ता है कि ओखा 
जैसी किसी) कामिनी के वाहु उसमें'डाले हुए हों। ओखा ने (स्वयं ) 

उसके अधरामृत को चख लिया है और उसने उसके होंठों को काट लिया 
ह। उन दोनो को० । ९ उनके शरीर के अंगों को देखते हुए एक सखी 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) १२६ 


सखी प्रत्ये सखी कहे, देखी अंगअवेव, 
बांध्यो ए जुबे आपण भणी, एनी एवी शी ठेव ? । बंन्योने० । १० । 
आशा पहोंती मास चारमां, लीधो स्नेहनो स्वाद, 
सुखेथी भरम भाम्यो घणो, लाग्यो लोकापवाद | बंश्योने० । ११। 


वलण (तर्ज बदलकर ) 


लाग्यो लोक अपवाद रे, पाम्यो देवकन्याथ रे, 
बाणासुरे अनिरुद्धे राख्यों, कारागृहनी मांह्य रे। १२। 


दूसरी सखी से बोली-- बाँधे हुए होने पर भी वह हमारी ओर देख रहा है। 
इसकी यह ऐसी क्‍या ठेव है ? उन दोनों को० । १० (ओखा की) 
_ आशा चार मासों मे पूरी हो गयी है। उसने उनके स्नेह का स्वाद भी 
(जान) लिया है। अब निःसन्देह उसका भ्रम भग हो गया है और उसे 
लोकापवाद लग गया है । उन दोनों को० । ११ 
उसे लोकापवाद तो लग गया, फिर भी वह इस देव-कन्या को प्राप्त 
हो गया है। (तदनन्तर) बाणासुर ने ओखा और अनिरुद्ध को कारागृह 
मे रख दिया । १२ 


कडवुं ३२ मुं-( नारद-अनिरुद्ध-भेंठ ) 
“ राग आशावरी 
श्री शुकदेवजी एम कहे कथा, सांभछक परीक्षित राय, 
कामकुंवर ,ने कन्या राख्यां, कारागृहनी मांहा। १ । 
नाताविधनां बंधन बांध्यां, कहाडी न शके श्वास, 
एक एकना मुख देखी दयामणां, थाय अति उदास। २ । 
बीक बाणासुर तणी, राणी भरे छे चक्ष, 
पुत्री जमाईने भूख्यां जाणी, छानुं मोकले भक्ष। ३ । 
कड़वक ३२-( नारद-अनिरुद्ध-भेंद ) 
श्री शुकदेवजी इस प्रकार कथा कहते है-- हे राजा परीक्षित, सुनो । 
(बाणासुर ने) काम-कुमार (अनिरुद्ध) और (अपनी) कन्या (ओखा) 
को कारागृह मे रख लिया। १ उसने उन्हें नाना प्रकार के बन्धन बॉध 
दिये, (जिससे) वे (ठीक से) साँस (तक) नही ले पाते थे। वे 
(दोनो कांरागृह के अन्दर) एक-दूसरे के दयतीय मुख को देखते हुए अति 
उदास हो जाते थे । २ बाणासुर के भय से रानी आँखों को अश्रवजल से 
भरती थी। अपनी (पुत्री) तथा दामाद को भूखे जानकर वह खाना गुप्त 


१३० गुजराती (नागरी लिपि) 


बंधन देखी कंथनूं, ओखा भरे छे नयणे नीर, 
अनिरुद्ध आपबक्के करी, अबढछाने आपे धीर। ४ ॥। 
आदर तो असुर कुलने, त्ेवडं तृण मात्र, 
शोभा राखवा श्वसुरनी, बधाव्यूं छे में गात्। ५ । 
मरडीने ऊठूं तो शीघ्र छूटुं, दछुं दानव दई दुःख, 
शं करू जे श्वसुरपक्षमां राखबूं छे सुख। ६ । 
शा माटे चिता करो छो ? गोविंद छेदशे बंध, 
आकाश अवनी एक थाशे, एवूं करशे जुद्ध । ७ । 
अम्ययासत़्ती धूम चालशे, असुर थाशे अंध, 
सहाय करशे श्याम रामजी, बेउना छटठशे बंध। ८ । 
महारा सम जो सुंदरी, झ्षांखो करो पुखचंद, 
आ बंधनथी दुःख अधिक छे, तारां आंसुडांनां बूंद। ९। 
एम कीधी आसवासना, हरि आव्यानंं हारद, 
कोई ए न जाणे तेम कारागृहमां, आविया ऋषि नारद । १०। 





रीति से भेजती थी । ३ अपने पति के बन्धन को देखकर ओखा आँखो में 
अश्रुजल भर लिया करती थी; तो अनिरुद्ध स्वयं (अपनी शक्ति के अनुसार 
ऐसा कहते हुए) उस अबला को धीरज (सान्त्वना) दिया करते थे। ४ 
मैं असुर-कुल का आदर करता हूँ-- (फिर भी) उसे तृण मात्र (घास के 
तिनके के बराबर) गिनता (मानता) हूँ। (केवल) श्वसुर की शोभा 
(प्रतिष्ठा) रखने के लिए मैने अपने शरीर को आवद्ध करवा लिया है। ५ 
(यदि) मै ऐठकर उठ जाऊं, तो शीघ्र ही छूट जाऊँगा, दुख देते हुए दानवों 
को कुचल डालूंगा। क्योकि, क्‍या करूँ, (जो) श्वसुर के पक्ष मे मुझे सुख 
रखना है। ६ चिन्ता किसलिए कर रही हो ? गोविन्दजी (श्रीकृष्ण) 
बन्धन काट देगे । वे ऐसा युद्ध करेगे कि आकाश-प्रथ्वी एक हो जाएँगे । ७ 
अग्नि-अस्त्र का घुआँ (उठकर फंलता हुआ) चलेगा, तो असुर अन्धे हो 
जाएँगे। श्रीकृष्ण और वलरामजी सहायता करेंगे और (हम) दोनों के 
बन्धन खुल जाएँगे । ५ री सुन्दरी, अपने मुखचन्द्र को म्लान करोगी, तो 
मेरी शपथ है। इस बन्धन से भी तुम्हारी आँखो के अश्रु-बिन्दु अधिक 
दुखदायी है। ९ (अनिरुद्ध ने) श्रीकृष्ण के आ जाने के रहस्य के बल पर 
उसे इस प्रकार सान्त्वना दी (आश्वस्त किया)। (फिर) नारद ऋषि 
उस कारागृह के अन्दर उस प्रकार आ गये कि उसे कोई जान नही 
पाया । १० (उनको देखते ही) कामदेव के पुत्र अनिरुद्ध लज्जा को प्राप्त 
हो गये और उन्होंने आँखों को गिरा लिया (सिर झुका लिया) । उनका 


प्रेमानन्द-रसामृत (औखाहरण ) १३१ 


लज्जा पाम्यो कामकुंवर ने, नीची कोधी दुष्ट, 
शरीर धजे अति घणुं, बोली न शके स्पष्ट । ११। 
शें लाजछे तूं प्राक्रमी ” हसी बोल्य मुंज संगाथ, 
बाणनी बाछकों वर्यो, तारी प्रथ्वीमां थई ख्यात। १२। 
दिपाव्यो वंश वासुदेवनों, वधांये लांछन शूंय, 
काल्य माधव मोकलूं जई, द्वारकाथी हुंय। १३ । 
घोडे चडे ते पडे पृथ्वी, भणे ते नर भूले, 
ऊंडल्मां ते आभ लीधुं, अंतर शें नहीं फूले ? | १४। 





वलण (तर्ज बदलकर ) 
अंतर शें न फूले जुद्ध ? मुकावशे भगवान रे, 
अनिरुद्धनी आज्ञा लई ऋषि हवा अंतरध्यान रे। १५। 


शरीर अत्यधिक काँपने लगा । वे स्पष्ट रूप से बोल नही पा रहे थे । ११ 
(यह देखकर नारद बोले-- ) है प्रतापी, लज्जित क्यो हो रहे हो ? मुझसे 
हँसते हुए बाते करो। तुमने बाण की पुत्री का वरण किया है, इससे 
पृथ्वी (भर) में तुम्हारी ख्याति हो गयी है। १२ तुमने वासुदेव के वंश 
को उज्ज्वल बना दिया है। (अतः) बाँध दिये जाने मे क्या लांछन है ? 
मैं कल ही जाकर द्वारिका से माधव (श्रीकृष्ण) को भेज दूँगा। १३. जो 
घोड़े पर चढ़ता है, वह भूमि पर गिर सकता है; जो पढ़ता है, वह मनुष्य 
भूल भी कर सकता है। जिसने बाँहों मे आकाश भर लिया है, उसका 
मन उसमें किसलिए गवित (त्त) हो उठे । १४ 

/ युद्ध करने में (तुम्हारा) मन किसलिए गये से नहीं भर उठता 
है ? ' (यह कहकर नारद) ऋषि अनिरुद्ध से आज्ञा (बिदा) लेकर 
अन्तर्धान को प्राप्त हो गये । १५ 


कडवुं ३३ मुं--( ओखा की विनती बलरास-कृष्ण के प्रति ) 
राग बेहाग 
दया न आवी, ओखा रडे रे, देत्यपति दुरमत, मारी सजनी । 
बाकरी बांधी वीरवर साथे, वेर वधायूं सत्य | मारी सजनी। १ । 


फड़वक ३३--( ओखा की विन्तती बलराम-हृष्ण के प्रति ) 


ओखा रो दुर्रि रही थी (और रोते-रोते बोल रही थी)-- री मेरी 
सजनी, इस दुर्मति दैत्यपति (मेरे पिता बाणासुर) को दया नहीं आ रही 


१३२ गुजराती (नागरी लिपि) 


पातक्चिया पंकज, पियुजीने ताय्पाशना बंध, मारी सजनी। - 
बांधी लीधो बढ करीने, कोमछरूप मदन | मारी सजनी। २ । 
घाजो रे धरणीधर श्रीवर, आपदा पामे नाथ, मारी सजनी । 

पुत्र तमारा उपर प्रह्रज, करे छे दैत्यतो साथ । मारी सजनी। ३ । 
भारे दक कौभांडे महेलियूं, वकार्यो बढ़ी वीर, मारी सजनी । 

तोये रणथी नव ओसरियो, सागरनु जेम तीर । मारी सजनी । ४ । 
भेद करीने बांधी लीधो, शा नागपाशना बंध, मारी सजनी । 
गवास न माये, बहु अकछाये, अंग आकर्ष्या संध । मारी सजनी । ५ । 
ताप समाय नही स्वामीने, हु करु देहनी पात, मारी सजनी । 

वाद लागे लक्ष्मी वर तमने, तो थाशे महा उत्पात । मारी सजनी । ६ । 
कमकमुख श्रमथी सुकायुं, कन्या करे आक्रंद, मारी सजनी। 
अनिरुद्ध समरे शामक्तियाने, कमकावरगोविंद । मारी सननी | ७ । 





श्लिल्ल्ल्ज अखिलओंलओंंओंओऑ<३७ज>ीओ 3" ऑजअअऑलऑिजड- 


है। री मेरी सजनी, उन्होने पूर्वग्रह के कारण वैर-भाव रखते हुए 
(अनिरुद्ध जैसे) वीरवर के साथ सचमुच शत्रुता वढा दी है। १ री मेरी 
सजनी, कमल के समान सूक्ष्म (दुबले-पतले, कोमल) शरीरधारी मेरे 
प्रिय (पति) पर उन्होने नागपाश के बन्धन डाल दिये है। री मेरी 
सजनी, उन्होने मदन (जेसे) कोमल रूपधारी को वलपूर्वक बाँध लिया 
हैं। २ (ओखा बोली-- ) हे धरणीधर (शेप के अवतार वलरामजी ) ! 
हे श्रीवर (लक्ष्मीपति विष्णु के अवतार क्ृष्णजी) ! दौड़ो। मेरे नाथ 
विपदा को प्राप्त हो गये हैं। मेरी सजनी० । दैत्यो का समूह (दल) 
तुम्हारे पुत्र (के पुत्र) पर प्रहार ही करते रहे। मेरी सजनी०। ३ 
कोभाण्ड ने वडी भारी सेना भेज दी। उसने वलवान वीर (अनिरुद्ध) 
को (उकसाते हुए) युद्ध कर दिया । मेरी सजनी०। फिर भी समुद्र के 
पानी के समान (बढते-उछलते रहते हुए) वे रणभूमि से पीछे नही हट रहे 
थे। मेरी सजनी० । ४ भेदभाव से उन्होने कैसे नागपाश के बन्धन में बाँध 
डाला है। मेरी सजननी० । उनकी सॉस (तक) नहीं समा रही है (वे 
ठीक से सास तक नही लेपा रहे है)। वे बहुत व्याकुल हो रहे हैं। 
(समस्त) अग का तागपाश द्वारा) खीचे गये है (कसे गये है)। मेरी 
सजनी० । ५ मेरे स्वामी मे यह ताप नही समा रहा है (अर्थात स्वामी की 
शक्ति से वह अधिक हो गया है) । (अत. ) मै देह-त्याग करूँगी । मेरी 
सजनी० | हे लक्ष्मीवर | (यदि) तुमको अपवाद लग जाए, तो महान 
उत्पात हो जाएगा मेरी सजनी० ६ उस कन्या अर्थात्‌ ओखा का सुख- 
कमल इस श्रम से सूख गया, वह क्रन्दन कर रही थी । मेरी सजनी० । 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) १७१ 


) ] भा 
वलण (तर्ज बदलकर ) 
वरघोडो चडे अनिरुद्धनो, जादव तत्पर थाय रे, 
बाणासुरने  मांडवे, जादवराणी गीत गाय रे। १७। 


3-3 जज ल॑ जज सजा जज जज जऔजच+औज+ 5 
कप के आय आय लकी श लाश शिरकत 


अनिरुद्ध की बारात चल दी। (प्रस्थान करने के लिए) यादव 
तैयार हो गये ये । (इधर) बाणासुर के मण्डप मे यादव स्त्रियाँ गीत गा 
रही थी । १७ 


कडवुं ४२ मुं>- (वर अनिरुद्ध और बधू ओखा को तेल-हंल्‍दी लगाना ) 
राग देश 


आदितनी घरूणी, हां रे तमे निद्रामां पोहोडो, 
अनिरुद्धने तेल सीचारो के, रांदलने जागवों रे। १। 
ब्रह्माती घरूणी, हां रे तमे निद्रामां पोहोडो, 
अनिरुद्धोे तेल सींचारों के, सावित्नीनी जागवों रे। २। 
चंद्रमानी घरूणी, हां रे, तमे निद्रामां पोहोडो, 
जीयावरने तेल सींचारों के, रोहिणीने जागवों रे। ३।. 
श्रीकृणनी घरूणी, हां रे, तमे निद्रामां पोहोडो, 
अनिरुद्धे तेल सींचारों के, लक्ष्मीनी जागवो रे। ४ । 
प्रयम्ननी घरूणी, हां रे तमे निद्रामां पोहोडो, 
अनिरुद्धने तेल सींचारों के, रति वहुने जागवों रे। ५॥। 


कड़वक ४२--(वर अनिरुद्ध और वधू ओखा को तेल-हुलदी लगाना ) 
यादव स्त्रियों द्वारा गीत-गान 


हे सूये की घरनी (गृहिणी, पत्नी), हाँ, तुम तो नींद में पौढ़ी हुई हो । 
(अब उठ जाओ और ) अनिरुद्ध को तेल लगा दो | हाँ, अरी, रत्नादे (सूर्य 
की पत्नी) को जगा दो । १ हे ब्रह्माजी की घरनी (सावित्नी), हाँ, तुम 
तो नींद में पौढ़ी हुई हो। (अब उठ जाओ और) अनिरुद्ध को तेल लगा 
दो । हॉ, अरी, सावित्री को जगा दो।२ हे चन्द्रमा की घरनी 
(रोहिणी), हाँ तुम तो नींद मे पौढी हुई हो। (अब उठ जाओ और) 
अनिरुद्ध को तेल लगा दो । हाँ अरी, रोहिणी को जगा दो । ३ हे श्रीकृष्ण 
की घरनी (लक्ष्मीस्वरूपा रुक्मिणी), हाँ, तुम तो नींद में पौढी हुईं हो । 
(भब उठो और ) अनिरुद्ध को तेल लगा दो। हाँ अरी, लक्ष्मी (रुक्मिणी) 
को जगा दो । ४ हे प्रद्ुम्त की घरनी (रति), हाँ, तुम तो नींद में पौढ़ी' 


१७२ 'गुजराती (नागरी लिपि) 


महादेवनी घरूणी हां रे, 'तमे ' निद्रामां पोहोडो, 
ओखाने तेल सीचारो के, उमियाने जागवों रे। ६ । 
गणपतिनी घरूणी हा रे, तमे निद्रामां पोहोडो, 
ओखाने- तेल सीचारो के, सूधबूधने जागवों रे। ७। 
बाणासुरती घरूणी, हां रे तमे निद्रामां पोहोडो, 
ओखाने तेल सीचारो के, बाणमती जागवों रे। ८ । 
वलण (तर्ज बदलकर ) 
तेल चंपेल चडावो, सजनी सर्व मढीने आवो, 
निद्रामांथी जाग्रत थईने, गीत मधुरां गावों। ९ । 
राग धोकर 


पीठी चोछो पीठी चोकछो पटराणी रे, 
मग दछ्ो मग दछतों हो राणी रे। 
पग धुओ पग धुओ वरतनी भाभी रे, 
। ओखाजी तो रहेजो अखंड सोहागी रे। १० । 
चंदन चरच्यां छे अपार रे, 
भूषण पहेराव्यां छे सार रे। 
वर तो वरघोडे चडिया रे, 
अश्व - अनुपम ने हीरा जडिया रे।११। 


हुई हो। (अब उठ जाओ और) अनिरुद्ध को तेल लगा दो । हाँ, अरी, 
रति बहू को जगा दो । ५ है महादेव (शिवजी) की घरनी (पार्वती), 
हाँ, तुम तो नींद में पौढ़ी हुई हो । (अब उठ जाओ और) आओखा को तेल 
लगा दो । हो, अरी, उमा. (पावंती) को जगा दो । ६ हे गणेशजी की 
(सिद्धि और बुद्धि नामक) घरनियो, हाँ, तुम तो नींद मे पौढी हुई हो । 
(अब उठ जाओ और) ओखा को तेल लगा दो ।- हाँ, अरी, सिद्धि और 
बुद्धि को जगा दो । ७ हे वाणासुर की घरनी (बाणमती), हाँ, तुम तो 
नींद में पौढी हुई हो । (अब उठ जाओ और ) आओखा को तेल लगा दो । 
हाँ, भरी, वाणमती को जग्ां दो। ८ हें सजनी, चम्पा फुलेल से युक्त तेल 
लगा दो; सब मिलकर आ जाओ। नीद से जाग्रत होकर मधुर (स्वर 
में) गीत गाओ । ९ है हे 

है पटरानी, हल्दी लगा दो, हल्दी लगा दो। . है राती, मूंग 
पीस लो, मूँग पीस लो । हे दूल्हे की भाभी, पाँव धो लो, पाँव धो लो । 
अहो, ओखाजी अखण्ड सौभाग्यवती बन जाए। १० अपार चन्दन लगाया 


धार 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण) १७३ 


तेनां तेज तणो नहीं पार रे, 
त्यां तो नीरखे नरनार रे। 
तीरखी नीरखी दीए छे आशिष रे, । 
जीयावर जीवजोी क्रोड वरीश रे। १२। 


गया है । बढ़िया आभूषण पहनाये गये है। वर तो (दृल्हे के लिए 
सुसज्ज) घोड़े पर आछूढ़ हो गया है। वह घोड़ा अमुपम है; उस पर 
हीरे जड़े हुए हैं। ११ उन (हीरों) के तेज का कोई पार नही है। वहाँ 
उसे पुरुष और स्त्रियाँ ध्यान से देख रही है। वे निरख-निरखकर अशिष 
दे रही है-- वर कोटि (-कोटि) वर्ष जीवित रहे। १२ 


ई 


फडवुं ४३ सूं--( अनिरुद्ध की चरयात्रा ) 
राग धन्याश्री 


वही ते विवाह मांडयो ने, जीत्या जादवराय, 

रुकिमणी मन आनंद घणो घणो रे, त्या तो मानुनी मंग्ठ गाय । 
अनिरुद्धनीनी घोडली। १ । 

सजतन सहु टोछे मढ्या ने, सुरिनर मतठया छे अपार, 

पाननां आप्यां बीडलां, ते पर श्रीफक्त फोफछ सार । अनि०। २ । 

चुवा चंदन छांटर्णां रे, केसर कुमकुम सार, 

भाट बदीजन बहु मह॒या, ते तो बोले छे जयजयकार । अनि०। ३ । 


फड़वक ४३--( अनिरुद्ध की चरयात्रा ) 


यादवराज (श्रीकृष्ण युद्ध में) जीत गये; और अनन्तर (अनिरुद्ध- 
ओखा की) विवाह (-विधि) का आरम्भ हो गया। झक्मिणी को मन 
में बहुत बड़ा आनन्द हुआ। (वहाँ विवाह-स्थाव पर) वे मानिसी 
स्त्रियाँ मंगल गीत गाने लगी। अनिरुद्ध की घोड़ी) । १ समस्त स्वजन 
(सगे, रिश्तेदार) टोली-टोली में इकट्ठा हो गये । अनगिनत देव एकत्रित 
हो गये। पानों के बीड़े (लगाकर) दिये (गये)। उनपर बढ़िया 
नारियल ओर पूगीफल (सुपारी रखे हुए) थे। अनिरुद्ध की०।२ 
विशिष्ट प्रकार का चन्दन (घिसकर) छिड़का दिया गया था। उसमें 


१ घोडली, घोड़ी * विवाह की वह रस्म जिसमे वर घोड़ी पर चढकर वधू के घर 
जाता है। 





१७४ गुजराती (नागरी लिपि) 


वार्जित्न वागे अति घणां ने, मांही भेरीनों नाद, 
ढोल ददामां गडगडे रे, त्यां तो शहणाइए लीधो वाद । अनि० | ४ । 
अप्सरा नाचे इंद्रनी, मांही नारद तुंबद गाय, 
मधुरीशी वीणा वाजती, एनो आनंद ओच्छव थाय । अनि० । ५ । 
सांबेलां सर्वे शोभतां ने, असवार थया वरराय, 
थनगन तेजी नचावता रे, एवा सुरितर अति हरखाय । अनि०। ६ । 
शोणितपुर पाठटण भलूं रे, फूलडे सोहावी वाट, 
अनिरुद्ध वर घोडे चढ़्या रे, त्यां शेरीए सोहाव्यां हाट । अनि०। ७ । 
चंचछ चाले चालती ने, रंगे राते वान, 
मखियरडे मोती जड़यां रे, घोडीनुं पंचकल्याणी नाम । अनि० | ८५ । 
पलाण परवाढ्ां तणां ने, नंग पीरोजां सार, 
रतन जडिक् बे पेंगर्डा रे, तेनी झगमग ज्योत अपार । अनि०। ९ । 








बढ़िया केसर और कुकुम था। बहुत भाठ भौर वन्दीजन इकट्ठा हो गये 
थये। वे जय-जयकार कर रहे थे। अनिरुद्ध की० । ३ अत्यधिक वाद्य 
बज रहे थे। उनके (स्वर के) अन्दर भेरी का स्वर (भी मिला हुआ) 
था। ढोल और दमामे गड़गड़ा रहे थे। (उनकी गड़गड़ाहट के साथ) 
शहनाई में स्वर भर दिये जा रहे थे (शहनाई बजायी जा रही थी) । 
अनिरुद्ध की० ।४ इन्र की अप्सराएँ नाच रही थीं। उनके साथ में 
नारद ओर तुम्बरू गा रहे थे। मधुर रवर में वीणा बज रही थी। उन 
(लोगों) के लिए यह तो आननन्‍्दोत्सव हो रहा था। अनिरुद्ध की० । ५ 
समस्त शहवाले (अपने-अपने घोड़े पर) शोभायमान थे और वरराज 
(अनिरुद्ध अशव पर) आारूढ हो गये। वे (शहवाले) तेजस्वी घोड़ो को 
धनथनाहट के साथ नचा रहे थे। उस समय देव अति भआनन्दित हो गये 
थे। अनिरुद्ध की०।६ पाटनगर अर्थात राजधानी शोणितपुर भली 
अच्छी (शोभायमान) लग रही थी। मार्ग फूलों से सुशोभित किये गये 
थे। दूल्हा अनिरुद्ध घोड़े पर सवार हो गये थे। वहाँ गलियों मे बाज़ार 
शोभायमान (दिखायी दे रहे) थे। अनिरुद्ध की० ।७ वह (घोड़ी) 
चचल (चपल) चाल (गति) से चल रही थी। वह लाल रग में रँगी 
अर्थात लाल रग की थी। उसकी आँखों पर बैठनेवाली मक्खियों को 
हटाने के लिए बँधी हुईं पट्टी में मोती जड़े हुए थे। उस घोड़ी का नाम 

पंचकल्याणी था (वह घोड़ी पंचकल्याणी' थी)। अनिरुद्ध कौ०॥८ 
१ पत्रकल्याणी घोडी-- वह घोट्ठा, जिसका सिर (माथा) और चारों पर सकेद 


आप शेप शरीर लाल (या काला) हो, ' पंच्रकल्याण ” कहता है। इस प्रकार की 
घोड़ी । 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) १७५ 


घाट ते पहेयों शोभतो ने, रामणदीवों हाथ, | 
मोड बांध्यो राणी रुकिमणी रे, जेने श्रीकृष्ण सरखा नाथ । अनि० । १०। 
छत्न, चामर ने वावदा रे, दीवानो नहीं पार, 
पूंठे ते आवे जानरडी रे, ते तो मंगल गाती नार। अनि०। ११। 
वर वहेला थई तोरण चड़या रे, साकछो छांटे नीर, 
तेने मनवांच्छित आप्यूं रे, पछे बाजठे ऊभा वीर । अनि०। १२ । 
सासु आवी सज थई रे, पोहोंती मननी आश, 
ओखा अनिरुद्ध परणशे रे, गुण गाय प्रेमानंद दास । अनि०। १३ । 


उसका पलान प्रवाल (मूंगे) का था और उसमें बढ़िया फीरोजा रत्न (नील 
रत्न बैठाये हुए) थे। दोनों रकाबे रत्न-जटित थी। उनकी ज्योति 
(कान्ति) अपार जगमगा रही थी। अनिरुद्ध की० । ९ जिसके श्रीक्ृष्ण- 
जैसे पति हैं, उस रुक्मिणी ने (विवाह-जैसे मगल अवसर पर सिर पर 
पहना जानेवाला एक प्रकार का) मुकुट (मौर) पहना था। उसमें 
“ घाट ! (विशिष्ट प्रकार का रेशमी वस्त्न) पहन लिया था, जो शोभा दे 
रहा था। उसके हाथ में “ रामणदीप ' (विशिष्ट प्रकार का दीप) था। 
अनिरुद्ध की० । १० छछ्ों, चामरों और ध्वजों तथा दीपों (की संख्या) 
का कोई पार नही था। पीछे से बारात आ रही थी। तब नारियाँ 
मंगल गीत गा रही थी। अनिरुद्ध की० । ११ वर (अनिरुद्ध) शीघ्र ही 
तोरण पर चढ़ गया (तोरण के समीप आ गया), तो श्यालक (साले) ने 
उसपर पानी सीच लिया । (तब) उसे वर ने मनचाहा (उपहार) दिया । 
तत्पश्चात वीर अनिरुद्ध चौकी पर खड़ा हो गया । अनिरुद्ध की ० | ६२ 
सास सजकर आ गयी थी। उसके मन की अभिलाषा पूर्ण हो गयी । 
(अब) ओखा-अनिरुद्ध का परिणय सम्पन्न होगा । दास प्रेमानन्द उनका 
गुणगान कर रहा है। अनिरुद्ध की० । १३ 


कडवुं ४४ मुं--( वर फा परछन करना ) 
राय त्रिताली चोपाई 
अनिरुद्ध त्यां मंडपे आव्या, बाणासुरने मन घणुं भाव्या । 
मुखथी बोल्या अमृत वाणी, पूंखे पाती पटराणी। 
घुसक् मुसछ खाईने त्राक, पूखी ताण्यूु जीयावरनूं नाक। १ । 


४ ++त्तन्‍+्त>+त-_+- न -_-_न्‍>न्‍त्-+.....तत...ज 
कड़वतक--४४ ( यर का परछन करना ) 


वहाँ अनिरुद्ध (विवाह-) मण्डप मे आ गये । यह (बात) बाणासुर 


१७६ , गुजराती (नागरी लिपि) 


राग विभास 
धुसक्के मा पूंखीश उमया, धुसक्के वृषभनुं जोतरं रे, 
मुसत्ठले मा पूखीश उमया, मुसके अमृत खांडणु रे। २॥। 
रवाईए मा पूखीश उमया, रवाईए महीनुूं वलोणुं रे, 
तराके मा पूंखीश उमया, तराक ए विश्वनू ढांकणं रे। ३ । 
सरेये मा पूखीश उमया, सरेया वृषभनुं चारणुं रे, 
इंडीपिडीए मा पूंखीश उमया, इंडीपिंडीए उंदर बोखणूं रे। ४ । 


राग व्विताली चोपाई 
कोरी नाखी छे इंडीपडी, उमया हरखे हरखे हींडी, 
गछे घाट घालीने ताण्या, जीयावरने मायरामां आण्या । ५ । 
आडा अंतरपट घधराय, हस्ते हस्तमेलापक थाय, 
जोशी कहे छे सावधान, गर्गाचायने दे अति मान। ६ ॥ 
सहु मढछी त्यां मंगक्क गाय, एवा आनंद ओच्छव थाय, 
आवी बेठा मोटा राजन, वाणासुर ते दे घणूं मान । ७ । 





के मन को वहुत भायी। वह मुख से अम्ृत-जैसी मघुर वाणी बोल रहा 
था। (उसके) पीछे पटरानी वाणमती भोर पार्वती थी। उसने जुआ, 
मूसल, मथानी और तकुआ घुमाते हुए परछन किया और दूल्हे की नाक 
खीची। १ है उमा, जुए से परछन मत करो; जुए में तो बैल का जोता 
(जुए मे जोतने की रस्सी) होता है। है उमा, मूसल से परछन मत 
करो; मूसल से तो अमृत (-पात्न) खण्डित हो जाता है। २ है उमा, 
मथानी से परछन मत करो, मथानी से तो दही बिलोते है। है उमा, 
तकुए से परछन मत करो; तकुए से तो विश्व के लिए आच्छादन बनाते 
है। ३ है उमा, सरया (धान विशेष) से परछन मत करो; (क्योंकि) 
सरया तो बैल का चारा होता है। हे उमा, पिण्डी-इण्डी से परछन मत 
करो; (क्योंकि) वह तो चूहे की खुराक है।४ उमा ने रूखी-सूखी (न 
.पकायी हुई) पिण्डी-इण्डी रख दी और वह आनन्‍्द-उमग के साथ चल दी। 
उसने गले “ घाट” (वस्त्र) डालकर वर को खोच लिया और उसे वह 
विवाह-मण्डप में ले आयी । ५ (वर और वधू के बीच तदनन्तर) अन्तरपट 
आड़ा धरा गया; एक के हाथ का (दूसरे के) हाथ से मिलाप हो 
गया। पुरोहित ने सावधान ' कहा। वह आबचारयें गगें का अति 
आदर करता था। ६ सबने मिलकर मगल (विवाह) गीत गाये । इस 
प्रकार (वहाँ) आनन्दोत्सव (सम्पन्न) हो गया। (वहाँ) बड़े-बड़े राजा 
आकर बैठ गये, तो वाणासुर ने उनका आदर-सम्मान किया | ७ - 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) १७७ 


वलण (तर्ज बदलकर ) न 
कोड पोहोंता मन तणा, प्रेमे आप्यां पान रे, 
वरवहु आव्यां चोरीए, दे बाण कन्यादान रे। ८ । 


(बाण के) मन की कामनाएँ पूरी हो गयीं। उससे प्रेमपूर्वक 
. पान (बीड़े) दिये । (तदनन्तर) वर और वधू चोरी में आ गये । 
(फिर) बाण ने कन्यादान दिया । ८ 


कडवुं ४४५ मुं--( बाण द्वारा कन्यादान ) 
राग धन्याश्री 


सुर असुर तो आवबी मत्या, मनमां ते आनंद भर, 
बाणराय ने प्रद्यमत, करवा बेठा मधुपक। १ | 
हरि हर सभामां बेठा, सुर ते तेत्नीस क्रोड, 

अवर राणा ने रायजी, सरखा ते सरखी जोड। २ । 
वार्जित्र वागे अति घणां ने, बंदीजन कहे शुभ कृत्य, 

राग रंग थेकार थाय छे, करे अप्सरा नृत्य। ३ १ 
शुक्राचायं): कहे. बाणरायने, द्योने कन्यादान, 

आ दिवस नहीं आवे फरी, सांनिध्य श्री भगवान। ४ । 
बाणराय कहे, शीघ्र मंगावुं, जे जोईए ते आज, 
कन्यादान दउ॑ कोडथी, अनिरुद्धे श्री महाराज । 


गा 





कडवक--४५ ( बाण द्वारा कम्पादान ) 


सुर और असुर आकर इकट्ठा हो गये। उनके मन में आनन्द 
भरा हुआ था। (तत्पश्चात) बाणराज और प्रद्युम्त मधुपर्क (नामक 
धामिक विधि) सम्पन्न करने के लिए बैठ गये । १ श्रीहरि (श्रीकृष्ण ) 
और शिवजी सभा में बेठे हुए थे। (वहाँ) तेतीस करोड़ देव 
(उपस्थित हो गये) थे। अन्य राजा और धनीमानी लोग (वहाँ उपस्थित 
थे, जो) एक-दूसरे के समान अर्थात जोड़ के थे । २ अति (बहुत) वाद्य 
बज रहे थे। बन्दीजन (अपने आश्रयदाता राजा बाण के किये हुए) शुभ 
कार्यों को (वर्णन करते हुए) बताने लगे। (वहाँ) राग, रंग और 
थयकार-- विभिन्न रागो का गान तथा नृत्य हो रहा था-- अप्सराएँ नृत्य 
कर रही थीं। ३ गुरु आचाय॑ शुक्र बाणराज से बोले, '(अब) कन्यादान 
दे दो । यह दिन फिर से नहीं आएगा। अश्रीभगवान (अपने ) 
सन्निध (विराजमान) है ”'। ४ (इसपर) बाणराज बोला, “जो (-जो) 


१७८ गुजराती (नागरी लिपि) 


जक्पात्र, कुमकुम, दधि दूर्वा, श्रीफक्ष, फोफछ जेह, 
कनकपात्न कर ग्रहीने, राणीजी लाव्यां तेह। ६ । 
वेदमंत्र उच्चारथी, करे पूजा ततखेव, 
पृजापो विधविध चडावे, भणीने ऋषिदेव। ७ । 


कर अंजलि लईने, पछे बोलियो राय बाण, 
कन्यादात लियो अनिरुद्धनी, जोडुं छूं बे पाण। ८ । 


अनिरुद्ध कर आगक करें, मनमां अति उल्लास, 
ओखा अनिरुद्ध राजी थयां, कीधुं नेत्रमां हास्य। ९ । 


सुतानो संकल्प करीने, हरख्यो राय बाण, 
ते दाननी दक्षणा पछी, आपियां कोटीक दान । १०। 


गज अश्व ने भूमि, दासी कनकपात् अनेक, 
शुकदेव कहे परीक्षितने, कहेतां न आवबे छेक। ११। 


चाहिए, वह मै आज (ही) शीघ्र मेँगा लेता हूँ। मैं बड़े चाव के 
साथ श्रीअनिरुद्ध महाराज को कन्यादान दे देता हें '। ५ (तदनन्तर ) 
रानी (बाणमती) जलपात़, कुकुम, दही, दूर्वा, नारियल, सुपारी, जो भी 
(चाहिए) था, उससे भरा स्वर्ण का पात्र हाथ में लेकर ले आयी । ६ 
(ब्राह्मणों ने) वेदमत्नों का उच्चारण करते हुए (पठन करते हुए) 
तत्क्षण पूजन किया। ऋषियो और देवों ने मंत्र पढ़कर भाँति-भाँति 
की पूजा की सामग्री समर्पित करा दी।७ पश्चात, करांजलिवद्ध 
होकर राजा बाण बोला, ' हे अनिरुद्धनी, कनन्‍्यादान लीजिए। मैं दो 
हाथ जोदता हूँ '।5 तो अनिरुद्ध ने हाथ आगे बढ़ा दिया। (उन्हें) 
मन मे अति उल्लास (अनुभव हो रहा) था । ओखा और अनिरुद्ध 
(दोनो) प्रसन्न हो गये। वे आँखो ही आँखों मे हँस दिये (एक-दूसरे 
की ओर देखकर प्रसन्नतापू्वक मुस्करा दिये)। ९. (अपनी ) कन्या- 
सम्बन्धी संकल्प सूचित करनेवाला मत्र पढ़कर राजा बाण आनन्दित 
हुआ। (फिर) उस (कन्या-) दान के पश्चात दक्षिणा देकर उसने करोड़ों 
(अन्य) दान दिये। १० 


शुकदेव परीक्षित से बोले, “ उसने जो अनेक हाथी, घोड़े और भूमि, 
दासियाँ, स्वर्णपात्र (दान में) दे दिये, उनको कहते हुए कोई पार नहीं 
पाएगा (वह वर्णनातीत है) '। ११ 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) १७६ 


कडव्‌ ४६ सुं--( भाँवर तथा विवाह-विधि का पूर्ण होता ) 

हु राग त्िताल चोपाई ह 
मंगछफेरा त्यां रे फराय, मत्की मानुनी मगढछ गाय, 
हर्ष धरे बाण मनमांय, सांनिध्य श्री वेकुंठराय। १ । 
पहेले मंगछे त्यां सार, आप्या रथ सहित तोखार, 
बीजे धेतु आपी अपार, तज्ीजे कुंज केरी हार। २ । 
चोथे कूची सहित भंडार, आपी कीधो छे नमस्कार, ह 
बाणासुर बोल्यो मुख वाण, संपुट करी बे पाण। ३ । 
हुं तो सेवीश तमारा चर्ण, शुद्ध राखजो अंतरकर्ण, 
एम राये कन्यादान दीधु, विवाह कर्म संपूर्ण कीधुं। 
हरितो कोई न जाणे पार, बंन्यो कीधां स्त्री भरतार। ४ । 


वलण (तर्ज बदलकर ) 


कारज पूरण, मंगकछ वरत्यां, जोवा मकछयों ससार रे, 
चोरीमां दपती बंनन्‍्यो, आरोगे कंसार रे ४। 


हॉिीजचतघ चित ली *3ज ली 2 +>तअ3ल5 








न 





बल +ल 3 जल ली जी लिन 


फड़वफ--४६ ( भाँवर तथा विवाह-विधि छा पूर्ण होना ) , 


वहाँ (विवाह-मण्डप मे वर और वधू) मगल भाँतर फिरने लगे, तो 
मानिनी स्त्रियाँ मंगल गीत गाने लगी। बाण ने मन में हर्ष धारण किया 
(अनुभव किया) । (उनको) बैकुण्ठराय विष्णुस्वरूप कृष्ण का सान्निष्य 
(प्राप्त हुआ) था । १ पहले मंगल फेरे के होते हुए (बाण ने) घोड़ों- 
सहित बढ़िया रथ (उपहार के रूप में) प्रदान किये। दूसरे (फेरे) के 
साथ असंख्य गाये दी; तीसरे के साथ हाथियों की मानो पक्ति ही प्रदान 
की । २ चौथे फेरे के चलते समय, कुंजी-सहित (धन-) भण्डार देकर 
नमस्कार किया। (तत्पश्चात) बाणासुर दोनों हाथ जोडकर मुँह से 
यह बात बोला । ३ “ मैं आपके चरणों की सेवा करूँगा ।। आप अपने 
अन्त:करण को (हमारे प्रति) छुद्ध (प्रेम, आत्मीयता के भाव से भरा-पूरा) 
रखना। इस प्रकार राजा ने कनन्‍्यादान दिया और विवाह-विधि को : 
पूर्ण किया ।' श्रीहरि (की महिमा) का कोई पार नही जानता-- उन्होंने 
(ओखा ओर अनिरुद्ध) दोनों को स्त्री और पति बना दिया । ४ कार्य 
पूर्ण हुआ। मगल-विवाह हो गया। (समस्त) ससार (इस विवाह 
को) देखने के लिए इकट्ठा हुआ था। (तदनन्तर) वे.दोनों पति-पत्नी 


१८० गुजराती (नागरी लिपि) 


€ कंसार' (कसार-जैसा मिष्टान्न विशेष) ' का सेवन करने के लिए चौरी 
में चले गये । ५ 


कडवुं ४७ मुं-( “ कंसार/ का सेवन और स्त्रियों द्वारा गीत-गान ) 
राग विभास 

कंसार जमो जमो, रे जमाई, तारी रूडी दीसे छे कमाई, 
छोकरा,तुं तो काछो ने कल्ठियो, छो रा, तुं तो शींगोमांथी सक्तियो । १ । 
छोरा, तूं तो नख जेवडो नानो, केम आव्यो छेया छानो, 
मारी भोछी ओोखा बेन, तारां चोर तणां छे चेन। २ । 
मारी कन्या न जाणे कांई, तेने कपटे लीधुं ते सांई, 
छेया छत््नरपतिए झाल्यो, केवो कारागृहमां घाल्यो। ३ । 
तारा बापनो बाप तेडाब्यो, तेणे पगे लागीने छोडाव्यो, 
तारी कमढ्ा माता छे धाडी, तुंने नव देखाडे घीनती वहाडी । ४ । 





फडवक--४७ ( ' कंसार ' फ्ा सेवस और स्त्रियों द्वारा गौत-गान ) 


हे जमाई, तुम कसार खाओ, (कंसार) खाओ। तुम्हारी कमाई 
अच्छी दिखायी दे रही है। है छोकरे, तुम तो काले में से विकसित हुए 
हो। हे छोकरे, तुम तो किसी (कोमल) फली में से कठिन सलाई 
(छड़) जैसे विकसित हुए हो । १ है छोकरे, तुम तो नाखून के समान 
नन्हे हो। तुम चुपचाप कंसे आ गये हो ? मेरी (हमारी) ओखा बाई 
भोली है; (परन्तु) तुम्हारे तो चोर के (-से) लक्षण हैं। २ मेरी कन्या 
तो कुछ भी नही जानती है। (फिर भी) तुमने कपट से उसका आलिंगन 
किया । तुम्हे छत्तपति (बाण) ने (कंसे) पकड लिया ? (और) कंसे 
कारागृह मे डाल दिया ? ३ तुम अपने बाप को बुला लाये और उसमे 
पाँव लगकर (तुम्हें) छुडा लिया। तुम्हारी माता कमला (लक्ष्मीस्वरूप 
रुक्मिणी ) उतावली-लुटेरी है। तुम्हें तो उसने (कभी) घी की कटोरी 
_ दिखायी नहीं थी (और इस कंसार में घी ही घी भरा पड़ा है) | ४ 


१ ' कंसार “- गुजरात का लोकप्रिय मिष्टान्न विधेष है ' कंसार *, जो छुछ 
/ कसार ” जैसा होता है। जाम तौर पर मंगल प्रसंगों मे यह बनाया जाता है। यह 
अधपीसे गेहें के दानो को घी में भून-सेंककर बनाया जाता है। उसमे काफी शक्कर भी 
छोटी जाती है। विवाह के अवसर पर बनाये जानेवाले मिष्टान्नों मे इसका महत्वपूर्ण 
त है। दामाद को घी पिलाने के हेतु उसका उपयोग किया जाता है । 


प्रेमाननद-रसामृत (ओखाहरण ) १८१ 


तारो पिता जे छे काम, तुंने अचछ चित्त, नहीं ठाम, 
शाम-रामे शृं लडाव्या लाड ? जेणे खाधुं अन्न भरवाड। ५ । 
अमने दानवने मानव जोतां खामी, तीच वरे ऊंच कन्या पामी, 
तारो वंश तो कीयो काम, तेणे लजाव्यूं बाणासुरनुं नाम। ६ । 
क्‍्यांथी पेठो तूं खंखोछी ? तें तो छेतरी ओखा भोढी, 
तारां पुण्य तणों नहीं पार, राजपुत्री पाम्यो पींडार। ७ । 
रूडी वहु पाम्यो तूं राय, एक वार अम आग नाच, 
एम रामा करे बहु रीत, अन्योन्य गाय छे गीत। ८ । 
वलछती देवकन्या गाय वरणी, ते तो केशवन्ती जानरणी, 
तमे लांबी शूं लूली हलावो, रूपे भूंडण सरखी भावो। ९ । 
अमारो अनिरुद्ध तीखो मरी, ए तो स्वप्नामां गयो वरी, 
कन्याने मन ए वर भाव्यों, तेणे आदर दईने तेडाव्यो | १० । 


तुम्हारे पिता जबकि काम (-देव अर्थात प्रद्युम्त) हैं; इसलिए (उनके 
स्वभावतः चचल-चित्त होने के कारण) तुम्हारा चित्त एक स्थान पर 
स्थिर नही रह पाता। जिन्होने अहीरों (के यहाँ) का अन्न खाया है, 
तुम श्याम (कृष्ण) और बलराम को कैसे लाड़ लड़ाये है ? (अहीर होने 
. पर भी ) उन्होने तुम्हें कैसे लाड़-प्यार से घी खाने नहीं दिया। ५ ' हम 
दानवो को देखने पर (हमारी तुलना में) मानव दोषयुक्त अर्थात छोटे जान 
पड़ते है। (तुम जैसे) एक निम्न श्रेणी के वर ने ऊँची जाति की 
(हमारी) कन्या को प्राप्त किया है। तुम्हारे कुल ने यह ऐसा काम 
किया है-- उससे बाणासुर के नाम लज्जित कर दिया । ६ तुम (मार्ग) 
खोजकर-- तोड़-फोड़कर कहाँ से पैठ गये ? तुमने भोली ओखा को ठग 
लिया । (जबकि तुम जैसे ) एक पिंडारी ने राजपुत्री को प्राप्त किया है, 
तो तुम्हारे पुण्यों का कोई पार (सीमा, गिनती) नहीं (जान पड़ता) है। ७ 
है राजा, तुमने बहुत अच्छी वधू को प्राप्त किया है; (अतः) एक 
बार (इस खुशी में) हमारे सामने नाच लो। -इस प्रकार नारियाँ 
(लोक-) रीति का निर्वाह कर रही थी और एक (पक्षवाली) दूसरी 
(पक्षवाली) को लक्ष्य करके गीत गा रही थी । ८ 

फिर (वधूपक्ष की ओर से गाये गये उपर्युक्त गीत के) उत्तर में 
देवकन्याएँ गीत गाने लगीं। वे तो केशव अर्थात श्रीकृष्ण के पक्ष की 
बारातवाली थी। (वे बोली--) “ तुम अपनी लम्बी जीभ क्‍या हिला रही 
हो ? रूप में तो सूअरनियों-जैसी लग रही हो । ९ हमारा अनिरुद्ध तीखी 
काली मिर्च (जैसा उग्र स्वभाव वाला) है। उसका तो स्वप्न में (ओखा 
द्वारा) वरण किया गया था। (तुम्हारी) कन्या के मन को यह वर भा 


१८२ गुजराती (वागरी लिपि) 


वरवहु बन्यों एकरठां मत्तियां, बाणासुरनां ते हैडां दल्तियां, 
तेणे कीधो ए उपर कोप, भांग्यां कवच ने बल्ढी टोप | ११। 
शूं थयूं सिहसुतते सहाया, हरि हछ्ुधर केवा धाया, 
अमारा श्याम राम ज्यारे रूठा, त्यारे बेवाई कीधा ढूंठा। १२। 
रणमां रझक्वया राणाना अंग्रूठा, छोडी आपीने जीवता छट्या, 
मों मारीने कन्या लीधी, घर वसाववा वहुअर कीधी । १३ । 
एम गीत गाय छे वरणी, वरकन्या ते उठया परणी, 
ऋषि सहख्न अठयासी धीश, दे छे वधूवरने आशिप | १४। 
मागण उचित पाम्याँ दाल, सहुने संतोप भगवान, 
अति आनंद ओच्छव थाय, नारी गीत अनुपम गाय | १५। 


वलण (तर्ज बदलकर ) े 
घर वसाववा वहुअर कीधी, घेर जाशुं आनंद रे, 
परस्पर विनोदनी वीरता, कहे भट प्रेमानंद रे। १६। 


जीती तीज नी जी नील >बचऊ ले. अऑडी िल अंडा 


गया, तो वह सम्मान करते हुए उसे बुला ले आयी ।१० (जब) 
वर-वधू दोनो एक-दूसरे से मिल गये, तो वह (घटना) वाणासुर के हृदय 
पर (मानो) मूंग दलने लगी। उसने (फिर) उन (दोनो) पर क्रोध 
किया-- उसका कवच तथा उसके अतिरिक्त उसका ठटोप भग्न हो 
गया । ११ फिर इसमे क्‍या अनुचित हुआ कि सिंह के पुत्र के श्रीक्षष्ण 
और छत्नधर बलराम सहायक हो गये। वे किस प्रकार दोड़े ? जब 
हमारे श्याम और बलराम कऋ्रुद्ध हो उठे, तो उन्होंने समधी (वाण) को 
(उसके सहसख्न हाथो मे से केवल दो को छोड़कर ) ठंठ बना डाला। १२ 
युद्धभूमि मे राजा वाण के अँगूठे (कटकर तितर-वितर होते हुए 
जब) घूमने-दोड़ने लगे, तो अपनी छोकरी देकर वह जीवित छूठ गया। 
तब मुँह मारकर, अर्थात निर्भयता से उसका मूँह वन्द करके (हमने) कन्या 
लेली और घर वसाने के लिए उसे (अपनी) वहू बना लिया। १३ 

इस प्रकार उन्होने विवाह-गीत गाया। (तदनन्तर) परिणय पूरा 
होकर वर और वधू उठ गये । तो अठासी सहस्र श्रेष्ठ ऋषियों ने वर 
और वधू को आशीर्वाद दिया। १४ याचकों ने (वरपक्ष से) उचित 
दान प्राप्त किये। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने सबको तृप्त किया। 
(उस समय) बड़ा आननन्‍्दोत्सव हो गया। नारियों ने अनुपम (रूप से) 
गीत गये । १५ 

(यादवों ने) घर बसाने के हेतु (ओखा को) वधू बना लिया। वे 
(लोग अब) आनन्‍्दपूर्वक घर जाएँगे। भट्ट प्रेमानन्द कहते है-- वे एक- 
दूसरे से विनोद-भरी बातें कह-सुन रहे थे । १६ 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) १८३ 


कडवुं ४८ मुं--( बारातियों का भोजन आदि ) 
राग रामग्री 


सांभक्तो पेरीक्षित रायजी, कंसार पूरो थाक्ठ मांय जी, 
घृत खांड नाखी लावी जी, राणी मायरा मध्ये आवी जी । १ । 


ढाछ 
कंसार रीते ने परम प्रीते, आरोगे नर तार, 
स्वजन नीरखे ने मन हरखे, ऊलट अंग अपार। २ । 
जादव सघकढा जानया, मानिया जेम देव, 
तेलमदेने अंगमंजन, करे छे सेवक सेव । ३ । 
खान पान भक्ष भोजन, नाना विध पकवान, 
जानने घणुूं मान दीधूं, रीक्षब्या भगवान। ४ । 
घूघरा घमके, ढोल ढमके, थाय छे संगीत गान, 
अप्सरा ताचे ने राय राजे, जाचक पामे दान। ५। 
हाथा तोरण बारणे, केसर अंग. ढोकछ्ाय, 
भातभातनां सुगंधादिक, अंग लेपच थाय। ६ । 





फड़वक्क--४८ ( बारातियों का घोजन आदि ) 


(श्री शुकदेव बोले--) हे राजा परीक्षितजी, सुनो । कंसार थाली 
में पूरा (भरा हुआ) था। रानी उसमें घी, शक्कर डालकर उसे विवाह- 
मण्डप मे ले आयी थी । १ पुरुषों और स्त्रियों ने रीति के अनुसार और 
प्रेमपृर्वेंक कंसार खा लिया। (उस वक्‍त) स्वजनो ने उसे देखा और उनका 
मन आनन्दित हो उठा । उनके अग-अंग मे उमग थी । २ (बाणासुर ने) 
समस्त यादव बारातियों को देवों के समान मान लिया । उसके सेवकों ने 
तेल लगाकर उनका अंगमद्दंत किया और स्नान कराया । ३ (वहाँ) खान- 
पान, भक्ष्य (खाद्य), नाना विधि पकवानों का भोजन था। बाणासुर ने 
बारात का बहुत सम्मान किया और भगवान कृष्ण को प्रसन्न कर लिया | ४ 
घंधरू झनक रहे थे; ढोल गड़गड़ा रहे थे; संगीत-गान हो रहा था । 
अप्सराएँ नृत्य कर रही थी और राजा (बाण) आनन्दित हो गया था । 
याचकों ने दान प्राप्त कर लिये । ५ द्वारो पर उन्होंने विशिष्ट प्रकार के 
केले के स्तम्भ के तोरण बनाये । (लोगो के) अंग-अंग पर केसर (मिश्रित 
जल का) सींचन हो रहा था। भाँति-भाँति के सुगन्धित द्वव्यों से (लोगों 
का) मानो अग-लेपन हो रहा धा। ६ उस मण्डप की शोभा बड़ी 
मनोहारी थी। उसमें विविध रचना-शैलियों का काम (कारीगरी) 


१८४ गुजराती (नागरी लिपि) 


मंडप शोभा महा मनोहर, विधविध पेरनां काम, 
कहे कवि, त्यां शुं वखाणुं ? दीठे पहोंचे हाम। ७ । 
श्रीकृष्णशिव सभा मध्य बेठा, जादव छप्पन क्रोड, 
अनिरुद्ध ओखा विराजतां, जाणे मालती चंपक छोड । ८ । 
श्रीकृण जादव वदे वाणी, सांभछों बाणराय, 
पेरामणी प्रद्यम्तने करीने, जान करो विदाय। ९ । 
विदाय आपो राय अमने, थाय छे बहु दिन, 
बाणासुर कहे, वेगे करीने, आज्ञा देश स्वामीन | १० । 
चरणरेणू हुं तमारो, मारो शो अधिकार ? 
जे जोईए ते लखाबो, हुं आपी करूं नमस्कार। ११। 


८5ञ५स 32 त5 2333 ली टी»: 











किया गया था। कवि कहता है, मैं वहाँ की क्‍या सराहुना करूँ ? उस 
(शोभा) को जिसने देखा हो, उसे ही (उसके बारे मे कहने की) हिम्मत 
हो सकती है। ७ श्रीकृष्ण और शिवजी सभा (-गृह) के बीच में बैठे हुए 
थे। (वहाँ) छप्पत करोड़ यादव (उपस्थित) थे। अनिरुद्ध-ओखा 
विराजमान थे। मानो चम्पक का पौधा और मालती (लता) ही 
हों । ५. यादव (राज) श्रीकृष्ण यह बात बोले, “ हे वाणराज, सुनिए । 
प्रयुम्म का नेगाचार करके वारात को बिदा कर दीजिए । ९ है राजा, 
हमको विदा कर दीजिए। (घर से निकले हमें) बहुत दिन हो गये है । ' 
(इसपर) बाणासुर बोला, ' हे स्वामी, वेगपूर्वक (अर्थात झठ से) आाज्ञा 
देता हेँ। १० मैं तो आपका चरणरज (धूलकण) हूँ। मेरा क्‍या अधिकार 
है? जो चाहिए उसे (नेगचार सम्बन्ध मे) लिखवाइए | में (वह) 
देकर नमस्कार कछेंगा (बिदा कर दूंगा) । ११ 


फडवुं ४८ सूं--( सात्यकि द्वारा तेग सम्बन्धी साँग ) 
राग धन्या श्री 
सात्यकी कहे छे, लखो कागछमा, एक लाख मातंग, रायजी । 
राजसंगाथे पाणीपंथा, पंच लाख' तुरंग।| रायजी। १ । 


3-८ 5२५ल जज ी+ी 5. 








फड़वक--४ दे ( सात्यकि हारा तेग सस्वन्धी साँग ) 


सात्यकि कहते है-- ' हे राजाजी, कागज पर लिख दो, एक लाख 
हाथी (दे दो)। हे राजाजी, राजा के शाथ पाणीपन्धी पाँच लाख घोड़े 
दे दो। १ है राजाजी, रथ, पटकुल (रेशमी वस्त्न),, दुपट्रे, सुरक्षि 
(कामधेनु) दे दो। जो योग्य हो तो नक़द दे दो।” (इसपर बाण, 


प्रेमानस्द-रसामृत (भओखाहरण ) पृ 


रथ पटकुछ पामरी सुरभी, घटे जे रोकारोक, रायजी । 
मन इच्छ॒यूं अमे मागीने लीजे, न रहे मनमां शोक । रायजी । २ । 
छप्पन क्रोड जादवने काजे, आयुध सहित शणगार, रायजी । 
जादवजुब॒ती जे कोई घेर छे, तेने पटकूछ सार | रायजी | ३ । 
देवकी रुकिमणी रोहिणी रेवतीने, आपो सोछ शणगा र, रायजी | 
सुभद्राने चीर पांचवरणु, वल्ठी सोछे शणगार। रायजी। ४ । 
अनेक गाम ने देश ज आपो, तो हाथ धरे श्रीराम, रायजी । 
लक्ष गाम चार देश आपीने, करो प्रभुने प्रणाम । रायजी | ५ । 
रोक जोईए तो सोनुंरूपूं, बढ्ीभद्रने पूछो तेह, रायजी । 
प्रद्यमन वेवाई तमारो, मतगमती वस्तु जेह | रायजी | ६ । 
घणं अमे शृं लखाविये ? सगपण सांध्यां हाड, रायजी । 
जमाई जे मागे ते आपो, तेमां अमने शो पाड ? । रायजी । ७ । 
भूरसी दक्षिणा ब्राह्मणने आपो, तेनो अहीं शो आंक ? रायजी । 
जन जाचकने सौ कोई आपे, जे होय दरिद्री रांक । रायजी । ८ । 


बोला--) “हे राजाजी, मैं चाहता हूं, हमें (भी) माँग लीजिए; मन में कोई 
सोच न रह जाए ' ।२ (तब सात्यकि बोले-) ' है राजाजी, छप्पन 
करोड़ यादवों के लिए आयुधों-सहित (समस्त वीरपुरुषोचित) श्रृंगार 
(साजसज्जा) दो । हे राजाजी, जो कोई यादव युवतियाँ घर पर हैं, 
उनके लिए बढ़िया रेशमी वस्त्न हों । ३ हे राजाजी, देवकी, रुक्मिणी, 
रोहिणी, रेवती को सोलह शूंगार' दो। हे राजाजी, सुभद्रा को पंचरंगा 
वस्त् और उसके अतिरिक्त सोलह शूंगार दे दो । ४ है राजाजी, अनेक 
ग्राम और देश ही दे दो, तो ही श्रीबलराम हाथ से ग्रहण करेंगे। हें 
राजाजी, एक लाख ग्राम और चार देश देकर प्रभु कृष्ण को प्रणाम 
करो । ५ है राजाजी, सोने या चाँदी में नकद चाहिए तो वह बलभद्र 
से पूछ लो। प्रद्यम्त तुम्हारे समधी है, जो (उनकी) मनभायी वस्तु 
हो, वह (उन्हें) दे दो | ६ है राणा, हमसे बहुत क्‍या लिखवा रहे हो ? 
हे. राजाजी, यह सगापन (नाता, रिश्ता, वस्तुतः:) हडिडियों के जोड़ों जैसा 
होता है। है राजाजी, (तुम्हारा) दामाद जो माँग ले, वह उसे दे 
दो। उसमें हमारा कसा उपकार है? ७ हे राजाजी, ब्राह्मणों को 
निश्चित रकम की अर्थात बँधी हुई दक्षिणा दे दो। उसकी यहाँ क्‍या 
गिनती करे ? हे राजाजी, यदि कोई दरिद्र, रक हो, तो भी याचक जनों 
को सब कोई देते हैं '। ८ 


१ सोलह झुंगार : देखिए कड़वक, २० पृष्ठ ६० । 


१८६ गुजराती (नागरी लिपि) 


रीतभात सात्यकीए लखावी, ते सर्वे आपी बाणराय, रायजी । 

कर जोडीने ऊभो सन्मुख, श्रीकृष्णने तम्यो पाय । रायजी । ९ । 
वलण (तर्ज बदलकर ) 

पाय नम्यो परिब्रह्मने, आनंद अंग न माय रे, 

छप्पन क्रोडने पेरामणी करी, पूज्या त्िभुवत राय रे। १०। 

त्रिभुवनपति संतोषिया, आप्यां वस्त्न वाहन रे, 

पुत्र आपी पाये लाग्यो, कीधी स्तुत्तित्ततत रे।११। 


(इस प्रकार) सात्यकि ने रीति-रिवाज के अनुसार लिखवा दिया। 
है राजाजी ० । वाणराज ने वह सब दे दिया। (तत्पश्चात) वह हाथ 
जोड़कर सम्मुख खड़ा रहा और उसने श्रीकृष्ण के पाँवों का नमन 
किया । है राजाजी ० । ९ 


बाणराज ने परक्रह्म श्रीकृष्ण के चरणों का नमन क्रिया । उसके 
अंग में आनन्द नहीं समा रहा था। उस राजा ने छप्पन करोड़ 
यादवों को पहनने-ओढ़ने के वस्त्र देते हुए त्रिभुवन के राजा (श्रीकृष्ण) 
का पूजन किया । १० उसने उन त्रिभुवतपति को वस्त्र भौर वाहन 
प्रदान किये ओर उन्हे सन्तुष्ट कर दिया। अपनी कन्या (उनके पोत् 
को पत्नी-रूप में) प्रदान करके उसने उनकी स्तुति और स्तवन किया । ११ 


टीबी 


फडवुं ५० मुं--( माता बाणसती द्वारा ओखा को सिखावन देना ) 
राग धन्याश्री 
पुत्री पधारों रे, सौभाग्य सासरे, 
भाग्य तमारं रे तुलना कुण करे ? 
अमे अपराधी बहु, अवगुणभर्या, 
पुत्री तमने रे, अति दुखियां कर्या। १। 
राग वीभासनी 
दुःख पामी दीकरी ते, मरण लगी केम वीसरे ? 
मातापिता वेरी थयां तारां, मननी खटपट केम नीसरे ? । २ । 





फड़्वक--५० ( माता वाणमती द्वारा ओखा को सिखावन देना ) 


(माता बाणमती बोली--) री पुत्नी, (अब) तू सौभाग्यशाली ससुराल 
जा। भरी तेरे भाग्य की तुलना कौन (किससे) कर पाए ? हम तेरे बहुत 
338 हैं; हम अवगुणो से भरे-पूरे है। री पुत्री, हमने तुझे अति दुःखी 
'र दिया। १ रीवेटी, तू (हमारे कारण ) दुख को प्राप्त हो गयी। 


प्रैमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) १८७ 


बाई, बापे तुंने बंधनमां राखी, दुःख वेठ्यूं बहु दीकरी ? 
मोटुं घर कुछ पामी ते तो, तूं तारे भाग्ये करी। ३ । 
उम्र पुण्ये ओखाबाई तमो, पाम्यां अनिरद्ध साथने, 
ते सुख आगछ दुःख विसार्य|, जोखम बाणना हाथने। ४ । 
शिक्षा दं॑ तने दीकरी, मारी तारी लाज वधारजे, 
जो प्रीते पियु आज्ञा आपे, तो पियर भणी पधारजे। ५.। 
उग्रसेन हकछधर प्रद्युमत, वासुदेव त्रिभुवण धणी, 
श्वशुर पक्षमां सर्व कुटुंबती, सेवाभक्ति करजो घणी। ६ । 
रुकिमणी जांबुबती ने भद्रा, सत्यभामा सत्या सुंदरी, 
लक्ष्मणा, कालिदी व॒ुंदा, अष्टा पटराणी खरी।७ । 
रहे रंभावती देवकी, मायावती सती रेवती, 
रखे दीकरी आछ्स करती, तूं चरण तेना सेवती। ८५ । 
रूडीभूंडी वात सांभक्की होय, कोई आगछ नव चहेरीए, 
उधाडा, केश न मूकिये, घणुं झीणूं वस्त्र न पहेरीए। ९ । 





इसे मौत तक हम कैसे भूल सकेंगे ? (तेरे) माता-पिता (तेरे) वैरी हो गये 
थे। (इससे) उन्हें अनुभव होनेवाली मन की झंझट (से उत्पन्न) व्यथा 
का निवारण कैसे होगा ? २ री देवी, तेरे बाप ने तुझे बन्धन मे रख दिया 
था। उससे तुझे बड़े दुःख ने घेर रखा था। (परन्तु अब) तू अपने भाग्य 
से (बड़े) घर और कुल को प्राप्त हो गयी है।३ आओखादेवी, तू बड़े 
(उज्ज्वल) पुण्य से पति अनिरुद्ध को प्राप्त हो गयी है। उस सुख के 
आगे (कारण), दुःख को तथा बाण के हाथो की हानि को भूल गयी है । ४ 
री कन्या, मैं तुम्हे सीख दे रही हँ। तेरी और मेरी प्रतिष्ठा को 
-वृद्धितत कर देना। यदि तेरे प्रिय (पति) तुझे आाज्ञा दे, तो पीहर 
के प्रति आ जाना। ५ उम्रसेन, हलधर बलराम, भ्रद्युम्त, द्विभुवन के 
स्वामी वासुदेव कृष्ण की, श्वसुर पक्ष के समस्त परिवार की बड़ी सेवा 
तथा भक्ति करना। ६ रुक्मिणी, जाम्बुबती और सुभद्रा, सत्यभामा, 
सुन्दरी सत्या, लक्ष्मणा, कालिन्दी, वृन्दा -ये (श्रीकृष्ण की) निश्चय ही 
(आठ) पटरानियाँ है।७ इनके अतिरिक्त (शेष रही) रम्भावती, 
देवकी, मायावती, सती रेवती --इन सबके चरणो की सेवा तू बिना आलस्य 
किये कर । ५ तूने किसी से कोई भली-बुरी वात सुनी हो, तो किसी 
के सामने उसे अपने चेहरे पर भी प्रदर्शित न करना । बालो को खुले न 
ज्बना। बहुत झीता वस्त्र न पहनना। ९ घर के बताये हुए काम 
करना । (उस सस्वन्ध में) कुछ आगे-पीछे (टालमटोल) न करना। 


पृष८ गुजराती (नागरी लिपि) 


काम घरतां बताव्यां करिये, न करिये कांई अरुंपरं, 
पूछयां पूंठे सूक्ष सादे, बोलिये जईने खरूुँ। १०। 
पात्र पगे नव ठेलिये, क्षमा राखिये बहु उदबरे, 
आधूं ओढी चालिये, राखिये दृष्टि भूमि परे।११। 
संताप सासरे न कीजीए, पियरने न वखाणीए, 
लक्ष दुःख होय सासरे, पण स्वामीने न जणावीए। १२। 
दासी माणसनों संग न कीजे, तीचने मक्छे माठंं सही, 
सासु रीस करे घणी, पण सामो बोल करीए नहीं। १३। 
सासु नणंद ने जेठाणीनी, सेवाभक्ति करजो घणी, 
परघेर नित्य जईए नही, गये हलकाई थाय आपणी | १४। 
मोटे स्‍्वरे हसोए नहीं, कोई साथे ताछी नव दीजीए, 
ऊभां रही उघाडे माथे, पुत्री पाणी न पीजीए। 
भरथार पहेलूं जमिए नही, बाई उच्छिष्ट जमीए नाथनुं, 
तुंकारीए नही सेवक आदे, मत राखीए सर्व साथनुं | १६। 
मातापिता ने भ्रातभगिनी, पियर सुख न संभारीए, 
आवो बेसो जी जी कहीने, कुछनी लाज वधारीए। १७। 


न 


४ । 


पूछने पर पीछे जाकर धीमी आवाज़ में बोलना । १० बरतन को पाँव 

से मत ठेलना, दिल में बहुत शक्ति (सहनशीलता) रखना। (सिर 
पर) आधा घूंघट भोढ़कर चलना; दृष्टि भूमि पर रखना। ११ 
ससुराल पर क्रोध न करना; पीहर की प्रशंसा न करनता। ससुराल मे 
लाख दुःख हो, तो भी पति को न जतलाना । १२ दासी लोगो की संग्रति 
मे न रहता (उनका साथ न देना); निम्न श्रेणीवाले से मिले रहते पर 
सचमुच बुरा होता है। सास बहुत गुस्सा करे, तो भी उसके सामने कोई 
बात न करना । १३६ सास, ननद और जिठानी की बहुत सेवा-भक्ति 
करना; दूसरे के घर पर नित्य (आती-) जाती न रहना; जाने पर अपने 
को हलकापन प्राप्त होने से हमारी निन्‍दा होती है । १४ उच्च स्वर में न 
हँसना; किसी के साथ ताली न बजाना। री पुत्री, खुले माथे से खड़े 
रहकर (बिना घूंघट किये) पानी न पीना । १५ पति के पहले भोजन 
न करना; री देवी, पति का जूठा खा लेना। सेवक आदि को न दुत्कार 
देना; समस्त साथियो का मन रखना । १६ माता-पिता, जप 
पीहर के सुख को याद न करते रहना। “आओ ” 'बैठो ', “जी: 

जी कहते हुए अर्थात नम्रतापूर्वक बात करते हुए अपने कुल की प्रतिष्ठा 
की वृद्धि करता । १७ सबसे अच्छी लगनेवाली बात कहना; री देवी, 


प्रेमानन्द-रसामृत (औखाहरण ) १८६ 


सहुने गमतूं बोलीए, बाई अहंकार करीए नहीं, 
हसतूं वदत नित्य राखीए, सुखदुःख समान गणीए सही । १८। 
दिवसे न सुईए दीकरी, बहेन वचन पियुनूं पाछ्ीए, 
सासुजी ज्यारे साद करे, त्यारे जी जी करी उत्तर आलीए। १९ । 
एवशुर-जेठनगी लाज कीजे, न बोलीए ऊंचे खरे, 
एम घणी शिक्षा दई माता, पृत्रीनी विदाय करे।२०। 


वलण (तर्ज बदलकर ) 
विदाय करे पुत्नीनी, धन (सत्र दई अपार रे, 
मातापिता वढ्लाववा आव्यां, साथे कुटुंबपरिवार रे।२१। 








अहंकार न करना। सदा सुख को मुस्कराते रखना (सदा सुहास्यवदन-- 
 हँसमुख रहना) । सुझू-दुःख को निश्चय ही समान गिनना (मानना) । १८ 
री कन्या, दिन में न सोना; री बहिन, पति के वचन का पालन करना । 
सास जब आवाज़ दे (बुला ले), तब “जी ', “जी कहकर उत्तर देना | 
ससुर और जेठ के सामने घृंघट ओढ़कर रहना । १९ (उनके सामने) 
उच्च स्वर में न बोलना । इस प्रकार माता (बाणमती) ने अपनी कन्या 
(भोखा) को बहुत सिखावन दी और उसे बिदा किया | २० 
माता ने अपार धन और वस्त्र देकर अपनी कन्या को बिदा कर 
दिया। माता और पिता कुटुम्ब-परिवार-सहित उसे बिदा करने के लिए 
आ गये । २१ 


,कडवुं ५१ मूं--( वर-वधू के विषय सें सित्रियों हरा गीत गाना और 
चित्रलेखा, साता आदि द्वारा ओखा को सिखावन देसा ) 


राग धन्या श्री 


बाणासुर मी घेर जाय रे, सहु सुवासण गीत गाय रे, 

अनिरुद्ध पाम्यो शुभ कन्याय रे, त्या जादव हसता जाय रे । १ । 

कड़वक--५१ ( पर-वध्‌ के विषय में स्त्रियों द्वारा गीत गाना और 
चित्रलेखा, माता आदि द्वारा ओखा फो सिखावन देना ) 


फिर बाणासुर घर चल दिया। (उस समय) समस्त सौभाग्यवती 
स्त्रियाँ गीत गा रही थी। अनिरुद्ध ने शुभ (लक्षणों से युक्‍त) कन्या 
को (पत्नी के रूप में) प्राप्त किया था। तवु वहाँ यादव हँसते हुए 
जा रहे थे ।१ समस्त सखियाँ टोली में इकट्ठा हो गयी थीं। वे 





१६० गुजराती (नागरी लिपि) 


साहेली मत्छी सहु टोछे रे, अन्योन्य मल्ठीने बोले रे, 
पछे गीत गाय छें वरणी रे, ओखाने लई जाय छे परणी रे । २ । 


राग फटाणांनी चाल 


आव्यो आव्यो दुवारकानो चोर, एना वडपिताए चार्या ढोर, 
लाखेणी लाडी गयो रे। (टेक) 
एनूं शं करीए वखाण ? एणे जीत्यो ते राय बाण । लाखेणी। ३ । 
आव्यों आव्यो कामकुमार, जदुकुछनों ए श्रृंगार । लाखेणी। 
आव्यो आव्यो नंद तणी गोवाछ, एतो मामा कंसनो काछ । लाखेणी । ४। 
आव्यो आव्यो हछ॒ध र के रो वीर, गायो चारी ते जमना तीर। लाखेणी। 
आव्यो गोपीओने माखणचोर, ए तो नागर नंद किशोर । लाखेणी। ५ । 
एनी मधुरी छे बहु वाणी, एनो वडपिता महीनो दाणी । लाबेणी। 
एने मन आनद बहु थाय, सखी ओखाने लई जाय ।लाखेणी। ६ । 
एम सेयरों गाये गीत, मन आणोीने बहु प्रीत ।लाखेणी। 
तिहां आनंद सहुने थाय, भट प्रेमानंद जश गाय । लाखेणी। ७ । 


चल अ+जीफ3-ल्‍ी 3-3 जज 5 











एक-दूसरी से मिलकर बोल रही थीं। अनन्‍्तर वे विवाह सम्बन्धी गीत 
गाने लगीं-- “विवाह करके ओखा को लिये जा रहे है। २ द्वारका का 
चोर आ गया, आ गया। उसके दादा ने गोरू को चराया था। _ वह 
(चोर) सुलक्षणों से युक्त नवोढा को लेकर चला जा रहा है। उसका 
बखान क्‍या करे ? उसने बाणराज को जीत लिया। सुलक्षणा ०। ३ 
कामदेव (के अवतार प्रद्युम्त) का पुत्र आ गया, आ गया । वह यदुकुल 
का आभूषण है। सुलक्षणा ० । नन्‍्द का पुत्र गोपाल (कृष्ण) आ गया, 
आ गया। वह तो अपने मामा कंस का काल है। सुलक्षणा ०। ४ 
हलधर बलराम का भाई आगया, आ गया। उसने यमुना के तट पर 
गायें चरायी थी। सुलक्षणा ०। गोपियी के मक्खन को चुरानेवाला आ 
गया, आ गया। वह तो नागर नन्द-किणोर है। सुलक्षणा ०। ५ 
उसकी वाणी बहुत मधुर है। उसके दादा दही पर चुंगी वसूल 
करनेवाले थे। सुलक्षणा ०। उसके मन को बहुत आनन्द हो गया है। 
वह (हमारी) सखी ओखा को लेकर जा रहा है। सुलक्षणा ० ”। ६ 

इस प्रकार, मन में बहुत प्रीति रखते हुए सखियाँ गीत गा रही थी | 
सुलक्षणा ० । वहाँ सबको आनन्द हो गया। भट्ठ प्रेम'नन्द उसके यश का 
गान कर रहा है। सुलक्षणा ० ।७ चालनहार के साथ ओखाबाई चली 
जा रही है। उसने _(अव) सखियों का साथ छोड़ दिया है। उसने 
माता-पिता को, परिवार को छोड़ दिया है और यादवों का साथ 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) १४१ 


राग केदारो 


ओखा बाई चाल्यां चालणहार, साथ मृक्‍यो सहियर तणीो रे, 

मूक्यां मातापिता परिवार, साथ लीधो जादव तणों रे। ८ । 
ओखाबाईए भरियां नयणे नीर, मनमां आनंद अति घणो रे, 

चित्रलेहा आवी देवा धीर, मिलाप करी ओखा तणो रे । ९ । 
बंन्यों भेट्यां हैडां साथ, मनमां आनंद पाम्यां रे, 

भले पामी तूं अनिरुद्ध नाथ, दुःख ते सघंक्ां वाम्यां रे। १० । 
आपण रमता सहियर साथ, सुखमां ते बहु महालतां रे, 

हवे लीधो बाई जादव साथ, अमने मूकी थयां चालतां रे । ११। 
मोहोदूँ घर पामी सहियर तुं, राजी हुं मनमा थई रे, 

सुखर्मा तारे बाकी शृं? पीड़ा तुज मन तणी गई रे। १२। 
बेनी, डाह्मां थाजो आप, माया मनमां राखजो रे, 

बोल्यूं चाल्यूं करजो माफ, वहेलां ते दर्शन दाखजों रे। १३। 
त्यारे कहे छे ओखाबाई, चित्नलेहाने पाये पड़ी रे, 

' बेनी, तुज साची सगाई, सहु सहियरमां तूं वडी रे। १४। 
(स्वीकार) कर लिया है।८ आओखाबाई ने आँखो में अश्वुजल भर 
लिया है; (फिर भी दूसरी ओर उसे प्रियतम के साथ मन में जाने 
में) अति आनन्द हो रहा है। (उस समय) चित्रलेखा उसे ढाढ़स 
बंधाने आ गयी। उसने ओखा को गले लगाया। ९ वे दोनों एक- 
दूसरी के हृदय से लग गयी, तो वे मन में आनन्द को प्राप्त हो गयीं। 
(चित्नलेखा बोली--) ' अच्छा हुआ, तूने अनिरुद्ध को पत्ि-रूप में प्राप्त 
किया है । उससे समस्त दुःख का शमन हो गया । १० हम सखियाँ 
साथ में खेलती थीं। (उस समय) बहुत ठाठ-बाट से सुखपू्वंक रलला 
करती थीं। री देवी, अब तूने यादवो का साथ स्वीकार कर लिया है; 
हमें छोड़कर जा रही है। ११ री सखी, तू बड़े घर को प्राप्त हो गयी है । 
(इसलिए) मैं मन मे बहुत खुश हो गयी हँ। तेरे सुख मैं (अब) 
क्‍या बाक़ी (कमी) है? तेरें मन की पीड़ा (अब दूर) हो गयी 
है। १२ री बहिन, स्वयं समझदार बनी रहजा। (हमारे प्रति) 
मन में माया रखना। कहा-सुना माफ करना; शीघ्र ही (फिर से) 
दर्शन देना '। १३ तव ओखाबाई चित्रलेखा के पाँव लगकर बोली, “री 
बहिन, तेरा मेरे साथ (मित्रता का) सच्चा सम्बन्ध है; सब सखियों 
मे तू ही बड़ी है। १४ री बाई, तूने मेरा हाथ पकड़ लिया, तूने मेरी 
रक्षा की। तूने मेरे प्रति बड़ी दया करके मुझे पति अनिरुद्ध से मिला 


१६२ गुजराती (नागरी लिपि) 


बाई, तें झील्यो मारो हाथ, रक्षा कीधी मुज तणी रे, 
मेछवी आप्यो ते अनिरुद्ध नाथ, दया आणी ते घणी रे। १५। 
ज्यारे जपती पति मननी मांही, व्याकुछ बेनी हुं थी रे, 
सुबोध करती मुजने त्यांही, समज मुज्मां न हती रे। १६। 
अनेक गुण छे तारा, बेन, ते मुजने नहीं वीसरे रे, 
तुज विना मुजने नहीं चेन, हेते मुज हैड ठरे रे। १७। 
बाई, तुजने कहुं आपोआप, सहियर को दिन आवशूं रे, 
अपराध मारो माफ करजो, कुशछता अमो कहावशुं रे। १८। 
एम कही भरती नयणे नीर, चित्रलेहा छानी राखती रे, 
बेनी, भींजे तारां चीर, हैडां साये चांपती रे। १९। 
एटले भआछ्ी ओखानी मात; नयणे नीरधारा वहे रे, 
पुत्री, मारी सांभक्क वात, मुज शिखामण मन लहे रे। २०। 
तुजने कहेती गूंजनी वात, दूर पधारशो दीकरी रे, 
हवे मुजने कोण करशे शांत, कोने जोई ने रहुं ठरी रे ? । २१। 
बेनी मधुरी बोलती वाण, ते मुजने वहु सांभरे रे, 
वहाली, तूं तो मारा प्राण, विसारी नहीं वीसरे रे। २२। 


दिया । १५ जब मैं मन में पति (के नाम) को जपती-रठती थी, रो बहिन, 
मैं व्याकुल हो जाती थी, तब तू मुझे अच्छी सीख दिया करती थी। 
मुझमें (उस समय) कोई समझन-वूझ नहीं थी। १६ री बहिन, तेरे तो 
अनेक गुण है। वे मुझसे भूलाये नही जाएँगे। बिना तेरे मुझे चैन नहीं 
आता। तेरे प्रेम के कारण मेरा हृदय (मानो) जमता जा रहा है। १७ 
री बाई, मैं तुझे बता रही हूँ, री सखी, किसी दिन हम तेरे घर अपने-आप 
(स्वयं ही) आ जाएँगी । मेरा अपराध क्षमा कर। हम अपना कुशल-क्षेम 
कहलवा देंगी '। १८ “ऐसा कहते हुए वह आँखों में अश्वुजल भरती 
रही; तो चित्रलेखा उसे शान्त-चुथध करती रही । वह बोली, “ वहिन, 
तेरा वस्त्र (अआँसुओं से) भीग रहा है।' (ऐसा कहते हुए) उसने उसे 
हृदय से लगा लिया । १९ उतने में (वहां) ओखा की माँ आ गयी। 
उसकी आँखो से अश्वुजल की धारा बह रही थी । (वह बोली--) “ बेटी, 
मेरी बात सुन ले। मेरी सिखावन मन में रख ले। २० तुझे मैं मर्म- 
भरी बात कह रही हूँ । री कन्या, तू दूर जा रही है। अब मुझे कौन 
_ शान्‍्त करेगा ? मैं किसे देखकर स्थिर (-चित्त) रह जाऊँ। २१ सखी ', 
रे १ ज्येष्ठ पुत्री को ' सखी ” सदृश मानकर उसे माता भी “ वेनी ” अर्थात “सखी * 
व्द से सम्बोधित करती है । ह 


प्रेमाननद-रसामृत (ओखाहरण ) परे 


होनी रूडां ताराां भाग्य, दीपावग्यों जादव साथने रे, 

पुत्री रहेजो अखंड सौभाग्य, पाम्यां अनिरुद्ध नाथने रे। २३। 
एम दीधो त्यां आशीर्वाद, महियर वहेलां आवजो रे, 

सेवो पवित्र सासुना पाद, दुःख होय दोहयलां कहावजो रे। २४ । 
ओखाबाई, रहेजो द्वारिका्मांही, त्यां एमने संभारजों रे, 
गोमती नहाजो जईने त्यांही, त्रणे पक्षने तारजो रे। २५। 
एम कही दूर रही त्यां मात, नीरखे छे नयणां भरी रे, 

एटले आव्यो सहियर .साथ, मत्ठवा तैयारी करी रे। २६। 
सासरे जाओ छो तमे, बेन, गमशे नहीं अमने कई रे, 
तुज विता नहीं अमने चेन, सही, तुं समी को नहीं रे । २७ । 
बेनी, रमतां आपण साथ, सहियर टोछे सहु म्ठी रे, 
हवे पाम्यां अनिरुद्ध ताथ, पाछां पियर आवजो व्ी रे । २८ । 
बेती, तुं मा आंसु पाड, छानी रहे ने तूं जरी रे, 

एटले त्यां आव्यो कौभांड बेनी, वात कहुं खरी रे। २९। 


तू मीठी-मीठी बातें करती है । वह मुझे बहुत याद आता है। री लाडली, - 
तूतो मेरी प्राण है; तुझे भुलाने (का यत्त करने) पर भी नहीं भूल पा 
रही हैँ । ९२ सखी, तेरे भाग्य उत्तम हैं। तूने साथ ही यादव (कुल) 
की भी उज्ज्वल कर दिया है। री पुत्री, अखण्ड सोभाग्यवती रह । 
पति अनिरुद्ध को तूने प्राप्त कर लिया है ”।२३ उसने उसे ऐसा 
आशीर्वाद दिया। (फिर वह बोली-+) “शीघ्र ही मैके आ जाना । सासः 
के पवित्न चरणों की सैवा कर; दुःख हो, संकट हो, तो कहलवाना । २४ 
भोखाबाई, तू द्वारका में रहना; वहाँ हमे याद करना। वहाँ जाकर 
गोमती में नहा -लेना और तीनों पक्षों का उद्धार करता !।२५ ऐसा 
कहकर माता वहाँ दूर (खड़ी) हो-गयी । आँखों में आँसू भरकर वह उसे 
देखती रही । इतने में सखियों की टोली आ गयी। उन्होंने उससे 
मिलने की तैयारी की। २६९ (वे बोलीं--) “ बहिन, तुम ससुराल जा 
रही हो। हमें कुछ भी अच्छा.नहीं लग रहा है। बिता तुम्हारे हमें 
चेन नहीं आएगा। री सखी, अच्य सबसें कोई तुम-जैसी नही- 
है। २७ री बहिन, हम सब सखियाँ टोली में मिलकर साथ में खेलती थी। 
अब पति अनुरुद्ध को तुम प्राप्त हो गयी हो। फिर (कभी) पीछे पीहर . 
लोट आना । २८ बहिन, तुम आँसू च बहाना। तुम जरा चृप रह 

जाओ। ' इतने मे वहाँ कौभाण्ड आ गया (और बोला-) “ बहिन, 


१ तीन पक्ष : मातृकुल, पितृकुल और इवसुरकुल । 


१६४ गुजराती (नागरी लिपि) 


अदकी ओछी कही होय वात, ते मनममां नव राखजो रे, 
क्षमा करजो, माहारी मात, वहेलां मुखडं दाखजो रे। ३०। 
एम सर्वे मछी भेट्यां त्यांहे, मातपिता सहियर सहु रे, 
वात करे छे मांहे माहे, मतमां आनंद छे वहु रे।३१। 


वलण (तज़े बदलकर ) 


ओखाने संतोषियां, घष्यून न राखी कांय रे, 
जानवासे गोत्नज आगढ्ठ, दोरडो केम छोडाय रे? ३२। 

सच्ची बात कहता हूँ । २९ मैने कुछ अधिक-न्यून बात कही हो, तो 
उसे मन मे न रखना! मेरी बात को क्षमा करो। फिर शीघ्र हो 
(यहाँ आकर) अपना मुँह दिखाना (दर्शन देता) .। ३० इस प्रकार 
माता-पिता, समस्त सखियाँ --सब वहाँ (ओखा से) मिल गये। बीच- 
बीच में वे बाते कर रहे थे। उन (सब) के मन मे बहुत आनन्द अनुभव 
हो रहा था। ३१ े 

(सबने) ओखा को सन्तुष्ट किया-- उसमें कोई कोर-कसर नही 

रखी। (फिर अब) जनवासे मे कुलदेवता के सामने (लग्न-गाँठ का) 
डोरा कंसे खोला जाए ? ३२ 


फडवुं ५२ मुं--( लग्त-गांठ खोलसा ) 
राग धोछ मंगढछ 
ब्रह्माए वाढी गांठ, छबीली, दोरडो नव - छूटे, 
तारे, महादेव बाप तेडाव, हो लाडी, दोरडो नव छठे । १ । 
तारी पावेती मात तेडाव, छबीली, दोरडो नव छूटे, 
तारो गणपति भ्रात तेडाव, छबीली, दोरडो नव छठे । २ । 


33४८ ७+ 3 3ल 5 





कड़वक--५२ ( लग्न-गाँठ खोलता ) 

ब्रह्मा ने (लग्न-) गाँठ लगा दी है; अरी छबीली ! उसका डोर नही 
छूटेगा। अरी दुलहन, तू अपने पिता महादेव (शिवजी) को बुला ला। 
(तो भी) यह डोरा नहीं छूटेगा। १ अरी दुलहन, तू अपनी माता 
पावेती को बुलाकर ले आ। (फिर भी) डोरा न छूटेगा । अरी छबीली, 
तू अपने भाई गणेशजी को बुलाकर ले आ। (फिर भी) यह डोरा नही 
छूटेगा ।२ अरी दुलहन, तू अपने बाप बाणासुर को बुलाकर ले आ। 
(फिर भी) यह डोरा नहीं छूठेगा। अरी छबीली, तू अपनी माता 


प्रेमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) १६५ 


तारो बाणासुर बाप तेडाव, हो लाडी, दोरडो नव छूटे, 
तारी बाणमती मात तेडाव, दोरडो नव छूटे । ३ । 
तारो कौभांड काको तेडाव, छबीली, दोरडो नव छूटे, 
सगां सर्वेने वेगे कहाव, छबीली, दोरडो नव छूटे । ४ । 
हवे कन्‍्यावी जानरडी गाय, हो लाडी, दोरडो नव छूटे, 
त्यां तो आनंद ओच्छव थाय, छबीला, दोरडो नव छटे । ५ ॥ 
ब्रह्माए वाढ्ी गांठ, हो लाडा, दोरडो नव छूटे, 
तारो श्रीकृष्ण वडवों तेडाव, छबीला, दोरडो नव छुटे । ६ । 
तारो प्रद्यम्त बाप तेडाव, हो लाडा, दोरडो” नव छूटे, 
तारो हलधर काको तेडाव, हो लाडा, दोरडो नव छूटे | ७ । 
तारी रति मात तेडाव, हो लाडा, दोरडो नव छूटे, 
तारी गोवा मंड्ठीने कहाव, छबीला, दोरडों नव छूटे | ८५ । 


वलण (तर्ज बदलकर ) 


एम रीतभात त्यां करी, गोत्नजने लाग्यां पाय रे, 
गोर आशिष दे घणी, बाणासुरती कीधी रक्षाय रे। ९ । 


>> 


बाणमती को बुलाकर ले आ। (फिर भी) यह डोरा नही छूटेगा | ३ 
अरी दुलहन, तू अपने चाचा कौभाण्ड को बुलाकर ले आ। (फिर भी) 
यह डोरा नही छूटेगा । अरी छबीली, तू वेगपुरबंक अर्थात झट से अपने 
समस्त रिश्तेदारों को कहलवा दे। (फिर भी) यह डोरा नही छूटेगा । ४ 
अब कन्या (पक्ष) की बारातवाली स्त्रियाँ गाने लगी-- हे दूल्हे, यह 
डोरा नही छूटेगा । हे छबीले, वहाँ तो आनन्दोत्सव हो रहा है। यह डोरा 
नही छूटठेगा । ५ ब्रह्मा ने यह (लग्न-) गाँठ लगायी है। है दूल्हे, यह 
डोरा नहीं छूटेगा। अरे छबीले, तू अपने दादा श्रीकृष्ण को बुलाकर 
लेआ। (फिर भी) यह डोरा नही छूटेगा। ६ अरे दृल्हे, तू अपने 
पिता प्रद्युन्‍्त कों बुलाकर लेआ। (फिर भी) यह डोरा नही छूटेगा । 
अरे छबीले, तू अपने चाचा हलधर बलराम को बुलाकर ले आ। (फिर 
भी) यह डोरा नही छूटेगा | ७ अरे दूल्हे, तू अपनी माता रति को बुलाकर 
लेआ। (फिर भी) यह डोरा नही छूटेगा। अरे छबीले, तू अपनी 
(मित्र) मण्डली (के) गोपालों को कहलवा दे। (फिर भी) यह डोरा 
नहीं छूटेगा । ८ 
इस प्रकार लोकाचार, लोकरीति-रिवाज का उन्होंने निर्वाह किया और 
(वर-वधू) कुलदेवता के पॉव लग वेगये । (फिर) ग़ुरु (शुक्राचार्य ) ने 
बहुत आशीर्वाद दिये और बाणासुर की रक्षा (की शुभकामना व्यक्त) की । ९ 


१६६ गुजराती (चागरा लिप) 


कडवुं ५३ सुँ--( उपसंहार ) 
राग सिंधुडो 
पवित्र कीधूं असुरकुछ जे, वेवाई विश्वंभर थया, 
पुण्य मारा पूर्वजन्मनां, प्रभुजीए कीधी दया। १ । 
प्रहलाद अर्थें नृसिह हवा, ने हिरण्यकशिपु उद्धारियो, 
बलि कारण वामन हवा, मारा भुजनों भार उतारियो। २ । 
हिरण्याक्ष माठे वामन हवा, एम बाणे वाणी ओचरी, 
सबेपें मुने घणी कृपा जे, अनिरुद्धे ओखा वरी। ३ । 
अपराध मारो क्षमा करिये, हरि तम समो हुं वढ़यो, 
एवं कहीने राय बाणासुर, कृष्णने पाये पड़यो। ४ । 
बेठो कीधो कर ग्रही, श्रीकृष्णे वखाण्यो बहु, 
जदुकुछ दीपाव्यूं अमारु जे, तेम पुत्री थयां वहु। ५ । 
अन्योन्ये मान दीधूं, जादव सहु तत्पर थाय, 
सासरे वछावी ओखाने ते वारे, माता दे शिक्षाय । ६। 


अन्‍य, 





कड़ृवक--५३ ( उपसंहार' ) 


(बाणासुर बोला--) “ आप विश्वम्मर (भगवान कृष्ण मेरे) समधी 
हो गये है, जिससे आपने (मेरे इस) असुर-कुल को पवित्र बना दिया। 
मेरे पू्व॑जन्मों के (किये) पुण्य (वे कारण) है, (जिसके फलस्वरूप) प्रभ 
ने (मुझपर) दया की। १ प्रहलाद (की रक्षा) के हेतु (भगवान) 
नरसिंह (के रूप में अवतरित) हो गये और उन्होंने (उसके पिता असुरराज) 
हिरण्यकशिपु का उद्धार किया । (देत्यराज) बलि के निम्मित्त (भगवान ) 
वामनत (के रूप में अवतरित) हुए, (जबकि) आपने मेरे (लिए अवतरित 
होकर) हाथो को काटकर उनका भार उतार डाला। २ (दैत्यराज) 
हिरण्याक्ष के लिए (भगवान) वराह (रूप में अवतरित) हो गये।* 
“ईस प्रकार बाण ने बात कही। “ अनिरुद्ध ने ओखा का वरण 
किया, जिससे (आपने) भुझपर सबसे वड़ी कृपा की। ३ है हरि, मैं 
सा लड़ा; मेरे इस अपराध को क्षमा कीजिए । ” ऐसा कहते हुए 
(देत्यों के) राजा बाणासुर कृष्ण के पाँव लग गये। ४ तो श्रीकृष्ण ने 
उसका हाथ पकड़कर उसे बेठा लिया और उसकी बहुत प्रशंसा की । (वे 
बोले--) “तुम्हारी पुत्री हमारी ब्रहू हो गयी, जिससे हमारा यदुकुल 
उज्ज्वल शोभा को प्राप्त कराया है ”“ । ५ (त्दवन्‍्तर भगवान कृष्ण और 
वाणासुर) एक-दूसरे ने एक-दूसरे का सम्माव किया (और तत्पश्चात) 
समस्त यादव (द्वारकापुरी जाने के लिए) तैयार हो गये । उस समय 





प्रैमानन्द-रसामृत (ओखाहरण ) १६७ 


पुत्ती, पियरने दीपावजों, जो पास्यां मोटू सासएछं, 
जश  कमाजोी दीकरी, डहापण जश राखो खरुं। ७ । 
एम कहीने ओखा वढ्ाव्यां, भेट्यां पुत्री माय, 
जान वक्वावी वक्यो पाछो, आनदे बाणराय। ८ । 
कैलास गया गिरिजापति,. कृष्ण पधार्या द्वारामती, 
ओखा अनिरुद्ध घेर आव्यां, भेट्यां रुकूसिणी रेवती। ९ । 
उत्तम कथा भागवत तणी, सांभवूतां सुखकारी, 
'पाप ' सघढ्लां प्रलय थाये, परम पद पासे भारी। १०। 
व्याधि ने सप्त ज्वर समे, जो सांमके स्नेह करी, 
सुख संपत्ति परिवार वाघे, मनकामता पूरे हरि।११। 
श्री रामचंद्र प्रतापधी, पदबंध कथा हवी, 
कालावाला मानी लेजो, जथारथ कहे कवि। १२। 
वीरक्षेत्र वडोदरु,. गुजरात मध्ये. गाम, 
चर्तृवंशी ज्ञाति ब्राह्मण, कंष्णसुत प्रेमानंद नाम । १३। 





ओखा को ससुराल के प्रति जाने के लिए बिदा करते हुए उसकी माता ने 
उसे यह सिखावत दी । ६ “ री पुद्दी, जबकि तू बड़ी ससुराल को प्राप्त हो 
गयी है, तो अपने (आचरण से) प्रैके (के नाम) को उज्ज्वल बना देना । 
री कन्या, सत्कीति प्राप्त करना; समझदारी से यश को सच्चा सिद्ध कर 
दे ।७ पुत्री और माता (फिर) गले लग गयीं और माता ने ऐसा कहते 
हुए ओखा को बिदा किया। बाणराज ने बारात को बिदा किया और 
वह आनन्दपूर्वक पीछे लौटा । 5. (तदनन्तर) गिरिजापति शिवजी कैलास 
चले गये (और) भगवान कृष्ण द्वारावती पधारे। ओखा-अनिरुद्ध घर आ 
गये और रुक्मिणी तथा रेवती से मिल गये । ९ 


( कवि की उपसंहारात्मक उश्ति ) 


यह भागवत पुराण की कथा उत्तम है। सुनने में वह सुखकारी है। 
उससे समस्त पाप नष्ट हो जाते है और (श्रोता) बड़े परमपद को प्राप्त 
हो जाते है। १० यदि प्रेमपूर्वक सुनते है तो व्याधियाँ तथा सप्त ज्वरों 
का शमन हो जाता है। सुख-सम्पत्ति तथा परिवार की सवृद्धि हो जाती 
है ओर श्रीहरि (उनकी) मनोकामनाओ को पूर्ण करते है। ११ 
शीरामचन्द्र के प्रताप से यह कथा पद्चबद्ध रूप में प्रस्तुत हुई है। कवि 
प्रमाननद ने यथार्थ रूप से वह कही है-- उसकी इस विनती को मान 
लीजिए । १२ गुजरात मे वीरक्षेत्र बडोदरा नामक ग्राम है। उसमें 


१ृद्दैद गुजराती (नागरी लिपि) 


वलण (तु बदलकर ) 


नाम नारायण तणुं, भांगे भवजंजाछकू रे, 
भद्दयप्रेमानंद कहे कथा, भजों श्री गोपाक् रे। १४। 





रहनेवाले चतुर्वशी ब्राह्मण ज्ञाति के कृष्ण (नामक गृहस्थ) का मैं प्रेमानन्द 
नामक पुत्र हूँ । १३ 


भगवान नारायण का नाम सासारिक जजाल को भग्न कर डालता 
है। भट्ट प्रेमानन्द ने यह कथा कही है। (आप सब) श्रीगोपाल का 
भजन कीजिए | १४ 


७ प्रेमानन्‍्व-रसामृत ( ओोखाहरण ) समाप्त ॥ 


हु 


:_ ग्रेमानन्द-रसामृत 


( छदितोथ कलश ) 


नज्लोपारख्यान आर्य 


प्रेमानन्‍्द-रसामृत 





- कड़युं १ लुं--( कथा-कथन-सन्दर्भ : युधिष्ठिर-वृहृदश्व-संबाद ) 


॥ राग केदारो 
शंभुसुतनूं ध्यान ज धरुं, सरस्वतीने प्रणाम ज' करें, 
आदर, रुडो नैेषधताथ (-आख्यान) रे। १॥। 
ढाछ | 


नैेषधनाथनी कहुं कथा, प्ृण्यश्लोक जे राय,८ . 
वेशंपायन वाणी वदे, अणिक पर्व. महिमाय। २ । 


कल 





कड़थक--१ ( कथा-कथन सन्दर्भ : युधिष्ठिर-बुहृदरब-संबाव ) 


मैं शिवजी के पुत्न गणेश जी का ध्यान करता हूँ; सरस्वती (देवी) 

को प्रणाम करता हू। (अनन्तर) मैं निषध देश के स्वामी नल का 
सुन्दर आख्यान भारम्भ करता हैं । १ जो राजा पुण्यइलोक अर्थात विशुद्ध 
कोति से युक्त , (माने जाते) है, उन निषधराज नल की कथा मैं कहने जा . 
रहा हूं। वैशम्पायन' ने (महाभारत के अन्तगंत) आरण्यक अर्थात बन- 
पर्व में अपनी वाणी में (अपने 'शब्दों में इस कथा की) महिमा कही है। २ 


१ वेशम्पायन-- मह॒षि वैशम्पायन वेद-व्यास के चार बेद-प्रवर्तंक शिष्यो में से 
प्रमुख शिष्य थे तथा कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तिरीय संहिता के प्रवर्तेक थे। * विशम्प ? बंश 
में उत्पन्न होने के कारण वे “ वैशम्पायन ” कहाते थे। वे व्यास के महाभारत परम्परा 
के प्रत्तिभाशाली शिष्य. थे । उन्होने व्यास-विरचित मूल ग्रन्थ * जय ! का श्रवण किया 
था और कहते है, उन्होंने उसके आधार पर “ भारत ” की रचना की । वैशम्पायन 
राजा जनमेजय के पुरोहित थे। उन्होने तक्षशिला के सपंयज्ञ के अवसर पर जनसेजय 
को (महा-) भारत सुनाया था । के आ 


२०२ गुजरातो (तागरी लिपि) 


राज्य हारी गया पांडव, वस्या देतवन मोझार, 
एकलो अर्जुन गयो केलासे, आराध्या त्रिपुरार। ३ । 
पशुपताकास्त्न ,पशुपतिए आप्यूं, पछे गयो स्वर्गमांहे, 
कालकेतु पुलोमा मार्यो, पंच वर्ष रह्यो तंहे। ४ । 


(कोरवों के साथ यूत खेलते-खेलते) पाण्डव राज्य हार गये; (और 
तत्पश्चात शर्त' के अनुसार) वे द्वेतवनत के अन्दर बस गये। (वहाँ से 
आगे) अकेले अर्जुन कैलास पर्वत पर गये .और उन्होंने वहाँ ब्विपुरारि 
शिवजी" की आराधना की । ३ (उससे उनपर प्रसन्न होकर) पशुपति* 
शिवजी ने उन्हें पाशुपत नामक (एक भीषण शूल जैसा) अस्त्र प्रदान किया । 
अनन्तर वे (वहाँ से) स्वर्ग मे चले गये । (इन्द्र के हित के लिए) उन्होंने 

कालकेतु पुलोमा को मार डाला। वे (वहाँ, स्वर्ग में) पाँच वर्ष रहे । ४ 


१ यूत खेलने से पूर्व दुर्योधन के कहने के अनुसार शकुनि ने युधिष्ठिर से यह शर्त 
स्वीकार करायी-- दूत मे हारनेवाला मृगचर्म धारण करके बारह वर्षो तक वन मे 
रहे भर तेरह॒वाँ वर्ष जनसमुदाय मे रहने पर भी अज्ञात रूप से व्यत्तीत करे; ज्ञात,होने 
पर दुबारा बारह वर्ष वन मे रहे । 

२ त्िपुरारि-- मय नामक असुर सर्वेश्रेष्ठ शिल्पी के रूप में विख्यात था। वह 
मानो प्रति-ब्रह्म था। तारकासुर के पुत्र ताराक्ष, कमलाक्ष और विय्युन्माली उसके 
मित्र थे। देवों से उनकी रक्षा करने के हेतु उसने उनके लिए तीन नगरों का निर्माण 
किया, जिनमे से एक था लोहमय, दूसरा था रौोप्यमय, और तीसरा था स्वर्णमय । वे 
तीनो भसुर उनके अधिपति हो गये। ये तीनो पुर तथा उनके अधिपति असुर भी 
“ लिपुर ” कहे जाते थे। उन्होने उन्मत्ततापूर्वक अधर्माचरण करके देवों को बहुत 
सताया, फलस्वरूप देवासुर युद्ध आरम्भ हुआ । उसमे शिवजी ने उन तीनो पुरों को 
जला डाला। तत् वे तीनो असुर भी नष्ट हुए। तबसे शिवजी को त्िपुरारि, त्तिपुर- 
दहन आदि नामो से जाना जाता है। ४ 

३“पशुपति-- पाशुषत नामक एक शव सम्प्रदाय के दशेन के अनुसार “ जीव ' को 
पशु ” कहते है, अत जीवो के स्वामी शिवजी ' पशुपति ” माने जाते हैं । 

- ., ७ कालकेतु पुलोमा वस्तुत* महाभारत, वनपर्व अध्याय १७३. के अनुसार 
कालकेय भौर पौलोम है। देत्यवंशोत्पन्न कन्या पुलोमा तथा ,असुरवंशीय क्या 
कालका ने एक सहस्न वर्ष कठोर तपस्या करके ब्रह्मा को प्रसन्न कर लिया , और यह 
वरदान्न पाया कि उनके पुत्र देवों, नागो और राक्षसों के लिए अवध्य हों, उनका नगर 
तैेज.पृज तथा आकाश में विचरण करनेवाला हो, देवो-यक्षो-राक्षसों से उसका विध्वस 
न हो, वह शोक-रहित तथा धन भादि से सम्पन्न हो । ब्रह्मा के वरदान से निर्मित वह 
नगर हिरिण्यपुर कहाने लगा। वहाँ कालकेय कालकज और पौलोम निवास करने लगे। 
धर्जुन पाशुपतास्त्र प्राप्त करके देवलोक गये । वहाँ उन्होने इन्द्र से अस्त्न-विद्या भर्जित 
की। गुरुदक्षिणा के रूप मे अर्जुन ने इन्द्र के शत्रु निवातकवच दैत्यो का संहार करके 
लोटते समय हिरण्यपुर पर आक्रमण किया । उन्होने वहाँ पाशुपतास्त्न से उस नगर को 


नष्ठ करके कालकंज देत्यो और पौलोम का वध किया । इस बदूभुत कार्य से भर्जुन 
... इन्द्र के विश्वासपात्न बन गये । ५ 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) २०३ 


युधिष्ठिरराय अति दुःख पाम्या, ऊपन्यो अति उद्देग, 
पुनरपि पारथ नही आव्यो, भाईए कीधो तहां नवो नेग । ५ । 
एव. समे एक तापस आव्या, बृहदश्व एवं चाभ, 
पूजा कीधी पांडवे, आप्यो वसवानो ठाम। ६ । 
चातुरमास॒ ते तहां रह्या, कुंतीसुत करे सेवाय, 
रात रातना वाराफरती, पांडव चांपे पाय। ७ । 
एक वार युधिष्ठिर बेठा, तछासवाने चर्ण, 
ते समे अर्जन सांभरयो, भरायूं अंतस्कर्ण। ८ । 
धर्मरायने ऋषिजी पूछे, जले भीना पग महारा, 
शे दुःखे सतवादी राजा, नेत्रे भरे जकधारा ?। ९ । 





(बन्धु अर्जुन के वियोग के कारण) राजा युधिष्ठिर बहुत अधिक दु:ख को 
प्राप्त हो गये। (उनके मन में) अति चिन्तायुक्त आशका उत्पन्न हो 
गयी । (फिर भी) पार्थ नही लोटे । (उन्हें जान पड़ा कि)वच्धु ने वहाँ 
पर नया स्नेह-सम्बन्ध' बना लिया (हो)। ५ उस समय वहाँ एक तापस आ 
गये। उनका नाम बृहदश्व' था। पाण्डव युधिष्ठिर ने उनका पूजन किया 
ओर (उन्हें) रहने के लिए स्थान प्रदान किया । ६ वे (तापस) चातुर्मास 
में वहाँ रहे । युधिष्ठिर (उन दिनों) उनकी सेवा करते थे। पाण्डब 
रात रात की बारी-बारी से उनके पाँव दबाते थे । ७ एक बार युधिष्ठ्िर 
(बृहदश्व के) पाँव दबाने के लिए बेठ गये। उस समय उन्हे अर्जुन का 
स्मरण हुआ, तो उनका अन्तःकरण गदगद हो उठां। ८5 (तब) ऋषि 
बृहदश्व ने धर्मराज से पूछा (कहा), ' मेरे पॉँव जल से भीग रहे हैं। हे 
सत्यवादी राजा, आप किस दुःख से अपने नेत्नों को (अश्रु-) जल-धारा से 

भर रहे है ? “९ तो धर्म बोले, “हे स्वामी, सुनिए । अर्जुन (यहाँ से) 


१ निवातकबचों, कालकेयो और पौलोम का संहार करके अर्जुन जब इन्द्रलोक लौटे, 
तब इन्द्र ने उनका प्रमपूर्वक स्वागत किया । इससे पहले भी इन्द्र ने उन्हे सुयोग्य जान 
कर अस्त्न-शस्त्रविद्या तथा संग्रीत-वाद्यवादन आदि कलाएँ सिखायी थो। इछ़्द्र ने 
उन्हे अपने भाधे सिहासन पर तक बैठा लिया । उन्हे उर्वशी के प्रति आसकक्‍्त समझकर 
उसे उनकी सेवा के लिए भेज दिया। फिर भी अर्जुन ने उस काम-पीड़ित अप्सरा की 
सेवानों को, अस्वीकार किया । 


यहाँ पर इन्द्र से अर्जुन द्वारा स्थापित स्नेह-सम्बन्ध की ओर सकेत है । 


२ बृहृदश्व नामक ऋषि काम्यक वन में युधिष्ठिर से मिलने आये और उनके 
यहाँ ठहर गये । युधिष्ठिर के दुःख को जानकर छल्हे नल-दमयन्ती की कथा सुनायी । 
अन्त' मे बृहृदश्व ने युधिष्ठिर को अक्ष-हृदय और अश्वशिर नामक दो विद्याएँ प्रदान 
करके उनसे विदा ली । - 


२०४ गुजराती (नागरी लिपि) 


धर्म कहे सांभक्ीए स्वामी, ऊठी गयो अर्जुन, , 
अवलासवद्ठधा साले सव्यसाची, माटे करे छों रुदन। १०। 
भीमसेननी पासे जो हुं, मागुं दातणपाणी, 
बबडतो जाए रिसाई, लावे वक्ष महोदं ताणी। ११। 
प्रातः:सामग्री नकुल पासे, कदापि जो में मागी, 
एक पहोर तो वार लगाडे, एटली करे वरणागी। १२। 
सहदेवने जो काम देउठं, साधु मन न आणे रोष, -' 
पण मध्याहने घरमांथी नीसरे, जोतो जोतो जोष। १३। 
दक्षिण दिशाएं जोगणी जो, जाउं तो दुःख पामू, 

पूर्व दिशाएं परवर्श तो, चंद्रनूं घर छे सामूं। १४। 
एवी रीत तो द्रणे भाईनी, मुजथधी नव सहेवाय, 
द्रोपीने मोकलूं तो, हरण करी को जाय। १५। 


उठकर (दूर) चला गया है। सब्यसाची अर्जुन (का स्मरण) मुझे उलटा- 
पलटा दुःख दे रहा है। इसलिए मैं रूदन कर रहा हँ। १० (उसके स्मरण 
से मेरे अन्य बन्धु भी बहुत व्याकुल हो गये है। जान पड़ता है, उनका मन 
ठिकाने नही है। उप्तके फलस्वरूप) यदि मै भीमसेन से दातुन-पानी माँगता 
हैं, तो वह झुँहझलाकर बडबड़ाता हुआ चला जाता है और बड़ा वृक्ष खीचकर 
लाता है। ११ यदि मैं कभी नकुल से प्रातःकाल (के नित्यकर्मों के लिए) 
सामग्री माँगता हूँ, तो (उसे ला देने में) वह एक पहर लगा देता है- इतना 
बनाव-सिगार वह करता रहता है (बनाव-सिंगार करने में वह इतना समय 
मग्न रह जाता है) । १२ यदि मैं सहदेव को कोई काम (करने को बता) 
दूँ, तो वह भला मनुष्य मन में क्रोध तो नही करता; फिर भी वह ज्योतिष 
देखते-देखते (यथाशीघ्र चला नही जाता, परन्तु बहुत विलम्ब के पश्चात्‌) 
मध्याहन के समय घर में से मिकल जाता है। १३ (वह कदाचित्‌ 
ज्योतिष' के आधार पर यह मानता है कि) यदि मैं दक्षिण दिशा मे चला 
जाऊं, तो वहाँ कोई योगिनी है, (अतः) मैं दुःख को प्राप्त हो जाऊँगा । 
यदि पूर्व दिशा में जाऊं, तो (कुण्डली मे) सामने चन्द्र का घर है (सामने 
बाले घर में-- खामे मे चन्द्र ग्रह है, जो हानिकारी सिद्ध हो सकता है) । १४ 
इन तीन बन्धुभो (के आचार-विचार) की ऐसी रीति मुक्षसे सही नही 
जा रही है। यदि (कही) द्रौपदी को भेजना चाह, तो (आशका होती है 
कि) कोई अपहरण करके (उसे) ले जाएगा । १५ जो (मुझे) चाहिए, 


१ कहते है कि सहृदेव ज्योतिप-शास्त्न के वेत्ता थे । उनके द्वारा लिखित * शकुन- 
परीक्षा ! नामक ग्रन्थ बताया जाता है । 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोप!ख्यान) २०५ 


वणमागे वेढठाए आपे,, जे जोईए ते आणी, 
फकछजकछ मुख आगक लईं मेले, ते तो गांडीवपाणि। १३ 
तेहना गुण हुं नथी वीसरतो, रह्यो छौ हृदया राखी; 

सुख संतोष विना छों सूतो, मुनि हुं पारथ 'पाखी। १७१ 
निःश्वास .मृकी धर्म एम पूछें, कहोने बृहदश्व 'ऋखी, 

वन वसव॒ुं ने विजोग पडियो, हुं सरखो को दुःखी ?:। १८॥ 
राज्यासन धन भवन रिध, तेह अमो सर्व हारी,-, 
एहवूं कोने हवुं हशे स्वामी, पीडा पामे नारी। १९ 
वलछतां वाणी वदे बृहदश्वजी, शू आणे वैराग्य ? 

नक्ठ दुःख पाम्यो अरे पांडव, नथी तेहनो सोमों भाग । २० । 
रूप राज्य ने धन बछ ते, न मछे नक समात, , , 
अनेक कष्ट तेहना जेवूं, को न भोगवे . राजान। २१। 
भीमककुमारी नव्ठधनी नारी, रूप शुं कहुं मुख मांडी ? 

ते राणी जहां नहीं फक्पाणी, नके वनमां छांडी।२२॥ 


उसे बिना माँगे, समय पर (यदि) कोई लाकर देता था, मुख के सामने फल- 

जल लाकर (यदि कोई) इकद्ठा करके देता था, तो वह था (अकेला) 
गाण्डीव धनुष को हाथ में घारण करनेवाला अर्जुन (और वह तो अब यहाँ 
नही है) । १६ मैं उसके गुणों को .बही भुला पाता। मैं (उन्हें) हृदय 
में धारण करके (जीवित) रह रहा हँ। हे मुनि, पार्थ के बिना (पार्थ की 
अनुपस्थिति में) और बिना सुख-सन्तोष के सूना-सूना (हो गया) हूँ '। १७ 
उसांस छोड़कर (साँस लेकर फिर) धर्मराज ने ऐसा पूछा (कहा--) 
' हे ऋषि बृहदश्वजी, कह दीजिए न कि मुझ जैसा कौन वन में रहा और 
किसे ऐसा वियोग हो गया था ? मुझ जैसा उस (वियोग) से कौन दुःखी 
हो गया था ? १८ राज्यासन, धन, भुवन (घर), ऐश्वर्य (हमारा जो भी 
था)-- मैं वह सब हार गया हूँं। हे स्वामी, हमारी' स्त्री .पीड़ा को प्राप्त 
हो रही है। ऐसा किसके सम्बन्ध में हुआ होगा ' ? १९ फिर प्रत्युत्तर 
में बृहृदश्व जी बोले, “ (ऐसा) वेराग्य (मन में) क्‍या ला रहे है (अनुभंव 
कर रहे है) ” अहो पाण्डव, नल (जिस) दुःख को प्राप्त हो गया था, 
उसका सोवाँ भाग भी तुम्हारा (यह दुःख) नहीं है। २० नल के समान 
रूप, राज्य, धन, बल किसी अन्य को प्राप्त नहीं हुआ था। फिर भी 
है राजा, उसके समान, अमेक कष्टों को कोई भी नहीं भोग सका है। २१ 
भीसक राजा की कन्या» (दमयन्ती) नल की स्त्री थी। उसके रूप को 
अपने मुंह से बताना आरम्भ करके मैं (पूर्ण रूप से उसे) कंसे कह सकूंगा । 
नल ते उस रानी को, वन में परित्यकत किया, जहाँ फल-पानी (तक) नही 


२०६ गुजराती (नागरी लिपि) 


दासी रूप धघयु दमयंती, कूबडुं थयूं नह्गात्, ' 
तेहनां दुःख आग युधिष्ठिर, ताहरुं दुःख कोण मात्र ? । २३। 
कर जोडीने धर्म एम पूछे, कहो मुजने ऋषिराय, 
घणूं दुःख पाम्यो नकराजा, शा कारण कहेवाय ? । २४। 
कोण देशनों नरेश कहावे ? केम परण्यो दमयंती ? 
ते राणी नक्ठे केम छांडी ने, कहां मृकी भमयंती। २५। 
उतपत्य. कहो नकछ दमयंतीनी, अथ इति कथाय, 
दुखियानृ दुःख सांभछतां माहरी, भागे मननी व्यथाय | २६। 


चलण ( तर्ज बदलकर ) , 


व्यया भागे माहरा मननी, कहे युधिष्ठिर राजान रे, 
वदे विप्र प्रेमांद ते, नकतणूं आख्यान रे। २७। 





था। २२ दमयन्ती ने (आगे चलकर) दासी का रूप धारण किया। 
नल का शरीर कूबड़ा हो गया। हे युधिष्ठिर, उनके दु.ख के सामने 
(तुलना में) आपका दुःख किस मात्रा मे है ? “२३ (यह सुतकर) हाथ 
जोड़कर युधिष्ठिर ने इस प्रकार पुछा (कहा)- ' है ऋषिराज, मुझसे 
कहिए नल राजा (जिस) बड़े दुःख को प्राप्त हो गये, उसके क्या (-क्या) 
कारण कहे जा सकते हैं। २४ वे किस देश के राजा कहाते थे ? उन्होंने 
दमयन्ती से किस प्रकार विवाह किया ? नल ने उस रानी को किस प्रकार 
(क्यो) परित्यक्त किया और उसे (अकेली) भ्रमण करने के लिए कहाँ 
छोड़ दिया ? २५ नल-दमयन्ती का जन्म, उनकी अथ से इति तक कथा 
कहिए। किसी दूसरे दुःखी (व्यक्ति) का दुःख सुनते-सुनते मेरे मन की 
व्यथा नष्ट हो जाएगी “।२६ 

, राजा युधघिष्ठिर ने (बृहदश्व ऋषि से) कहा, “ मेरे मन की व्यथा 
भाग जाएगी (नष्ट हो जाएगी) '। (अब) विप्र प्रेमानन्द (कवि) नल 
का वह आखूयान कहने जा रहे है । २७ । 


प्रेमाननद-रसामृत (नलोपाख्यान) २०७ 


कडयूं २ जूं--( ऋषि बृहदश्व द्वारा नल का परित्षय देना ) 
राग गोड़ी 


बृहदश्वजी मुख वाणी वदे, राय युधिष्ठिर धरता हदे, 
नेषध नामे देश विशातू, राज्य करे वीरसेन भूपाछ । १ 
तेहने सुरसेत बांधव जन, ते बेउने एकेको तन, 

ते रूपे फटडा जेवा काम, न पुष्कर बंन्योनां नाम। २ । 
पछे नक्तने आपी राज्यासन, पिता काको बंनन्‍्यों गया वन, 
चलावे राज्य नक् महामत्ति, पुष्करमे कीधो सेनापति। ३ । 
जीत्या देश वधारी ख्यात, शल्मात्र पमाड्या शांत, 
भूपति सर्वे नैषधने भजे, नक्त पुष्करे कीधो दिग्विजे। ४'। 
प्रजा सुए उघाडे बार, न करें चोरी चोर चखार, " 
सत्ये यमपति कीधो साध, पुरमांहे कोने नहीं व्याध। ५ 


चल 
>> 2 ल्‍>ल3ल ललित 3लविल ि तिल लि लि लि जि लि िििििितिििि्जिजिजि जल जि जब्त लत जिजल जज जब ४ल बल > 5 


कड़थक--२ ( ऋषि बृहदश्वजी द्वारा नल का परिचय देना ) 


, बृहदश्वजी अपने मुँह से यह बात कहने लगे। युधिष्ठिर उसे हृदय 
भें धरते रहे, अर्थात युधिष्ठिर उसे ध्यान से: सुनते रहे । [वे बोले--) 
४ निषध्च नामक एक विशाल देश था। वीरसेन नामक राजा उसपर 
राज करता था । १ उसके श्रसेन नामक एक बन्धचु था। उन दोनों के 
एक-एक पुत्र था। वे (पुत्र) रूप में कामदेब जेसे सलोने थे । उन दोनों 
के नाम नल ओर पुष्कर थे।२ अनन्तर नल को राजगदुदी देकर 
उनके पिता (वीरसेत) और चाचा (शूरसेन) दोनो वन (-वास के लिए, 
वानप्रस्थाश्रम स्वीकार करके चले.) गये। (इधर) महामति नल राज्य 
चलाने लगे। उन्होंने पुष्कर को (अपना) सेनापति (नियुकत) कर 
दिया । ३ उन्होंने अनेक देश जीत लिये; (उससे) उन्होंने अपनी कीति 
बढ़ा दो । उन्होंने शत्रु मात्र को शान्ति को प्राप्त करा दिया- (शत्रुओं 
को चुप कर दिया) । समस्त राजा नल की (मानो) भक्ति करते थे। 
नल-पुष्कर ने, (इस प्रकार) दिग्विजय कौ। ४ प्रजा द्वार खुले रखकर 
सो जाती थी। चोर-उचक्के (उस देश में) चोरी नही करते थे (अर्थात 
उसमें कोई चोर-दग़ाबाज़ रहा ही नहीं था) । सत्य (-पालन) से उन्होंने 
यमसदेव को साध लिया (अर्थात अपने वश में करके उसे ऐसा साधु पुरुष 
बना लिया कि वह किसी को पीड़ा न पहुँचाता था) । नगर में किसोौ को 
कोई व्याधि नही रही थी । ५ कोठियाँ (भण्डार) सोने से भरे हुए थे । 
जेसा (जितना) धन था, वेसे ही (उतने) दानी थे। नल ने मूँह-माँगा 


२०८ गुजराती (नागरी लिपि) 


कनके भरिया छे कोठार, जेहवां धन तेवा दातार, 
जाचकनां दारिद्रद्य कापियां, नछे मुख माग्यां धत आपियां । ६ । 
भिक्षक कहे भलूं नत्ननुं राज, गयूं दुःख होलाणी दाझञ्ष 
कीति थई नक्ठती विस्तीर्ण, जेम सूरजनां प्रसरे कीर्ण | ७ ।, 
पुण्यशण्लोक धराव्यूं नाम, वेष्णव कीधूं बाधुं गाम, 
घेर घेर हरिकीतंन, एकादशी ब्रत करे हरिजन। 5८-। 
चारे वरण पाछे निजधम, ध्याये देव व्यापक परिब्रह्म, , - 
नें लीधो एटलो नेम, माग्यूं, दान आपे करी प्रेम । ९ । 
जो आवबे मस्तक मागनार, तो आपतां न लगाडे वार, 
उत्तर दक्षिण प्रव दश, वीरसेन सुतनों वाध्यो यश | १०।. 
त्यारे, पुष्करने थई अदेखाई, मुज थकी वाध्वो पितराई ह 
तकने न॑मे प्रजा समस्त, ए आग हुं पाम्यो अस्त । ११। 
एहवं जाणी मन आणी वेराग्य, गयो वन घर कीधें त्याग, 
तकनो वालछ॒यों ते नव वक्यों, दारुण वनमां पोते पकयों। १२। 


धन दिया, (इस प्रकार) उन्होने याचकों-भिखमंगों की दरिद्रता दूर की | ६ 
भिखारी कहते-- “नल का राज भला है। (हमारा दरिद्रता-जन्य) 

दुःख चला गया, आग वृक्ष गयी जिस प्रकार सूर्य की किरणें 
फंलती हैं, उसी प्रकार नल की कीति (चारों जोर) विस्तार को' 
प्राप्त हो गयी । ७ उन्हें * पृण्यश्लोक ” नाम (पद, उपाधि) धारंण 
कराया. गया (लोग उन्हे ' पुण्यश्लोक ' कहने लगे) । उन्होंने समस्त ग्राम 
को वेष्णव बना दिया। (उसमें) घर-घर , हरि-कीत॑ंन हुआ करता था; 

(हरि के) भकक्‍तजन एकादशी' ब्नत का आचरण किया करते थे। ८ 
(ब्राह्मण, क्षत्रिय, वेश्य और शूद्र--) चारों वर्ण अपने-अपने धर्म का पालन 
करते थें। सव सर्वेव्यापक देव-- परब्रह्म (विष्ण) का ध्यान करते थे । 
नल' ने इतना ही व्रत धारण किया कि यदि किसी ने दान माँग लिया, ' तो 
उसे वह प्रेमपूर्वक दे दें । ९. यदि कोई सिर माँगनेवाला आ जाता, तो भी 
वे “उस (माँगनेवाले) को वह देने में देर त लगाते। (इससे) उत्तर, 
दक्षिण, पूर्व (और पश्चिम) दिशा मे वीरसेन-सुत चल की कोरति बढ़ गयी 
(फंल गयो ) । १० तब पुष्कर को (उनसे) यह ईर्ष्या हो गयी कि मुझसे 
(यह मेरा) चचेरा भाई बढ़ गया है, अर्थात इतने बड़े वैभव और कीति को 
प्राप्त हो गया है ।. समस्त प्रजा नल का नमन करती है। उसके सामने 
तो मैं (मानों) भस्त को प्राप्त हो गया हैँ । ११ ऐसा मानकर मन में 
वेराग्य घारण करके वह वन्त मे गया; उसने घर का परित्याग किया । 

चल द्वारा लौठाने (का यत्न करने) पर भी वह नही लौटा ।' वह स्वयं 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान्) 'र्‌नद 


जईने सेव्यूं पर्वतश्चृंग, तके वहे छे. निर्मेक्क गंग, 
शल्यानूं कीधूं आसन, पांदडांनूं कीधुं छत्न॒ राजन । १३ । 
मानसी राज मांड्यूं वन तणूं, कोकिला गान करे छे घणुं, 
आ मृग ते अश्व माहरे कारणे, द्रुम प्रतिहार ऊभा बारणे | १४। 
भंड हस्ती पृथ्वी परजंग, ए राज केमे न पामे भंग, 
को लूंटी लेवा आवी नव चडे, उघाडे बार खातर नव पडे । १५। 
एणी पेरे मांडयूं राज्यासन, अणचालते वश कीधूं मन्त, दे 
ए कथा एटलेथी रही, नढ्ठराजा शूं करतो तहीं। १६ । 
ज्यारे पुष्कर ऊठी वनमां गयो, भाई विना भूप एकलो रहयो, 
निष्कंटक राज्य एकलो करे, धर्म आण राजानी फरे। १७ । 
मार्गां मोकले देशदेशना भूप, नक्ठ जोवडावे कन्यानुं रूप, 
शरीरकुछ मांहे कहाडे खोड, कहे न॒ मक्ठे को मारी जोड। १८। 


भीषण वन के अन्दर चला गया । १२ जाकर उसने एक पवेत-शिखर पर 
निवास किया । उस पव॑त के तले (तलहटी में ) निर्मेल गंगा (-सी एक नदी ) 
बहती थी। उसने (अपने, लिए) शिला का आसन बना लिया। उस 
राज-पुरुष ने व॒क्षों के पत्तों का अपने लिए छत्त कर लिया (पत्तों को छत्न 
माता) । १३ उसने मन से वन (रूपी राज्य) पर राज करना आरम्भ 
किया । (वहाँ उस वन-राज्य में) कोकिल बहुत गान किया करते। 
(वह मानता--) यह मृग तो मेरे लिए (मानो) घोड़ा है; वृक्ष द्वार पर 
(मानो) प्रतिहारी (बनकर) खड़े है। १४ सूअर (मानो) मेरे लिए 
हाथी है। भूमि पलंग है। यह राज्य किसी भी द्वारा (कभी) नाश को 
प्राप्त नही कराया जा पाएगा। कोई भी लूट लेने के लिए आकर 
(इसपर) भाक्रमण नही करेगा। द्वार खोले हुए है, तो (दीवार मे) सेंघ 
नही लगेगी। १५ इस प्रकार उसने (पुष्कर ने वन में) राज्य-शासन 
आरम्भ किया । बिना किसी यत्न के उसने अपने मन को वश में कर 
लिया । यह कथा इतनी रही। उधर नल राजा क्‍या कर रहे थे ? १६ 
जब से पुष्कर (घर से) उठकर (निकलकर ) वन के प्रति चले गये, तब से 
वे राजा (नल) बिना बन्धु के, अकेले रह गये। वे अकेले निष्कण्टक 
राज कर रहे थे। राजा (नल) के राजधर्म अर्थात राजधर्म के अनुसार 
चलाये जाने की आन (सर्वक्ो) फिर रही थी। १७ देश-देश-के राजा 
(अपनी-अपनी ) कन्या की (उनसे) मेंगती कराने के लिए (रिश्ता लेकर) 
दूत भेजते; अपनी-अपनी कन्या का रूप नल को दिखलाते। परन्तु नल 
(उस-उस कन्या के) शरीर मे, कुल मे (कोई-न-कोई) दोष निकालते 
(देखकर बता देते) ओर कहते, ' कोई भी मेरे जोड़ की (मेरे योग्य लड़की) 


२१० गुजराती (नागरी लिपि) 


बत्रीस होय लक्षण संपूर्ण, तेमनूं हु कह पाणिग्रहण, 
एम करतां वही गया देन, एवं आव्या नारद मुन। १९। 


वलण ( तज़े बदलकर ) 


नारद मुनि पधारिया, सुण युधिष्ठिर भृूपाक्त रे, 
पछे वेणापाणिए केम मेल्ठव्यूं, नक्तनुं वेविशाक् रे । २० । 
“ही मिल रही है । १८ जिसमे सम्पूर्ण वत्तीस लक्षण हों, में उसका 
पाणिग्रहण करूँगा '। ऐसा करते-करते (बहुत) दिन व्यतीत हो गये। 
(तब) उस समय (वहाँ) नारद मुनि भा गये । १९ 

है युधिष्ठिर भूपाल, सुनो। (वहाँ) नारद मुनि पधारे। भनन्तर, 
वीणापाणि (तारद सुनि) ने नल की सगाई किस प्रकार करा दी 
(सुनिए) । ” २० 


कडवुं ३ जूं--( भारद द्वारा नल फो दमयन्ती के कम्म के बारे से कहना ) 
राग रामग्रीनी देशी 


एणी पेर बोल्या बृहदश्व वाणी जी, नक्॒ने घेर आव्या वेणापाणिजी, 
चीरसेनसुते दीधूं मान जी, अध्यंपाये पूज्या भगवानजी | - १ । 


ढादठ 
पूज्या नारद आदर आणी, ह॒देमां अति प्रेम, 
'अन्योन्ये. पूछियो, समाचार कुशक् क्षेम। २ । 


राज्यासत सूनूं नत्तनुं देखी. नारद ऋषि एम पूछे, 
' पटराणी दीसतां नथी ए, कहोनी कारण शूं छे 7 । ३ । 


5७33-53 + ०८5५०. + 


फड़वक-- ३ ( भारद द्वारा नल को दमयन्ती के जन्म के बारे मे कहना ) 


बृहदश्वजी ने इस प्रकार यह बात कही-- वीणापाणि नारद मुनि नल 
के घर आ गये। तो वीरसेन-सुत नल ने भगवान नारद ,का सम्मान किया 
ओर अध्यं-पाद्य से उनका पूजन किया। १ नल ने हृदय मे आदर और 
अति प्रेम धारण करके नारद का पूजन किया। (तत्पश्चात्त)- एक-दूसरे 
ने कुशल-क्षेम सम्बन्धी समाचार पूछा । २ नल का राज्यासन सूना देखकर 
नारद ऋषि ने (उससे) इस प्रकार पूछा, “ पटरानी नही दिखायी दे रही 
: है? कहो इसका क्या कारण है। ३ बिना रानी के (राज्य-) आसन पर 


ब्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) २११ 


आसने बेसवूं राणी विता, तेहनो मोटो दोष, 
पछे प्रतिउत्तर विचारी नठछ, बोलिया धरी शोष। ४ । 
नछ कहे तमो प्रजापतिना, पुत्र वेणाधारी, 
जाणता हशो ब्रह्माजीए, माहरे निरमी छे को नारी ? । ५ । 
सप्त द्वीप नव खंड माहे, काई कन्या कोटाकोट | 
ऋषि हुं वर्रु एवी नव मढे, शके छे कन्याती खोट। ६ । 
रूप तहां कुछ नहीं, कुछ तहां नहीं चातुरी, चाल, 
को सकह लक्षण होय पूरण, तो हुं परणूं तत्काछ । ७ । 
नारद ऋषि तव ओचर्या, एम न कीजे शभ्ृूप, 
तारा सरखूं नव मकछे, को श्यामानुं स्वरूप । ८ । 
पण ते कन्या अलौकिक छे, वेद जेहने वरणे, 
ते इंद्रने इच्छे नहीं तो, तुंने कांहाथी परणे ?। ९ । 


हि. 





जज ला 








बैठना ! --इसमे बडा दोष है '। भनन्तर प्रत्युत्तर का विचार करके नल 
रूखाई (अर्थात खेद को) धारण करते हुए बोले । ४ नल ने कहा, “हे 
वीणाधारी, आप प्रजापति (ब्रह्माजी) के पुत्र है। जानते होगे कि भेरे 
लिए ब्रह्माजी ने किस नारी का निर्माण किया है। ५ सातों द्वीपो*, नवों 
खण्डों* में कई कोटि (-कोटि) कन्याएँ है। है ऋषि, (फिर भी) जिसका 
वरण मै कर सके, ऐसी कोई (लड़की मुझे) नहीं मिल रही है। मानों 
(मेरे योग्य) कन्या का अभाव हो ।६ (जहाँ) रूप है, वहाँ (उत्तम) 
कुल नहीं; (जहाँ उत्तम) कुल हो, वहाँ चातुर्य तथा (अच्छी) आचरण 
रीति (चाल-चलन) नही है। यदि कोई (कन्या) समस्त लक्षणों से पूर्ण 
हो, तो मैं तत्काल परिणय करूँगा '। ७ तब नारद ऋषि बोले, ' हे राजा 
ऐसा न करे। आपके रूप के अनुरूप किसी नारी का रूप नही मिलेगा। ८ 
फिर भी वेद जिसका वर्णन करते है, ऐसी वह एक अलोकिक कन्या है। 
वह इन्द्र (तक) की भी कामना नहीं करती, तो आपसे कहाँ से परिणय 
करेगी '। ९ नल बोले, “ है महामुत्रि, उस कन्या का क्‍या नाम है ? वह- 


१ सप्त द्वीप-- पौराणिक मान्यता के अनुसार सृष्टि सात द्वीपो बर्थात भू-भागों 


में विभक्‍त मानती गयी है। ये द्वीप है-- जम्बु छीप, प्लक्ष द्वीप, शाल्मलि द्वीप, कुश 
द्वीप, क्रोच द्वीप, शक दीप और पुष्कर द्वीप । ब 


२ नव खण्ड-- पौराणिक मान्यता के अनुसार प्रथ्वी निम्न-लिखित नौ खण्डों में, 
विभक्‍त है-- इलावृत, भद्गबाइव, हरिवर्ष, किपुरुष वर्ग, केतुमाल, रम्यक, भरतवर्ष, 
हिरण्मय और उत्तर कुदझ। (अन्य मान्‍्यता--) भरत खण्ड, पुष्कर खण्ड, हरि खण्ड, 
रम्प खण्ड, सुंचुण खण्ड, इलावुत खण्ड, कौरव खण्ड, किन्नर खण्ड और केतुमाल खण्ड 
इनके अतरिक्तकुछे अन्य नामावलियाँ ज्ञी उपलब्ध है । 


२१२ गुजराती (नागरी लिपि) 


तक कहे ओ महामुनि, ते कन्यानूं कोण नाम ? 
कवण रायनी दीकरी ने, कंवण तैहनूं ग्राम ? | १०। 
नारद कहे सकलछ देश मध्य, उत्तम विदर्भ देश, 
तांहां राज्यासन करे छे, भीसक नाम नरेश। ११। 
तेहने घेर एक तारुणी, वज्जावती नाम झूपनिधान, 
पुण्यदान अपार कीधां, पण पेटे नहीं संतान। १२। 
एवं समे एक दसन नामे, आवियो तापस, 
आतिथ्य कीधूं तेहनूं,, ने जमाड्यो खटरस। १३। 
घणा दिवसतनी गई क्षुधा, ने पामियो संतोष, 
त्िका८छ ज्ञानाे जाणियो,  राणीनो वंज्लादोष । १४। 
पूछीने त्यां खरू कीधुूं, निश्चे नहि संतान, 
करुणा आणी आपियूं, रायराणीने वरदान । १५। 
त्रण. पुत्र ने एक पुत्री, हशे झरूपनां धाम, 
एधाणी राखजे एटली, जे माहरे नासे नाम। १६। 
एहवूं. कहीने ऋषिजी, पामिया अंतरधान, 
केटले. दिवसे राणीने पछें, आवियां संतान | १७। 


किस राजा की कन्या है ? उसका कोन ग्राम है ' ? १० (इसपर ) नारद 

बोले, “ समस्त देशो में उत्तम, विदर्भ नामक एक देश है। वहाँ भीमक 
तामक राजा राज्य करते है । ११ उनके घर (उसकी पत्नी) एक तरुण 
सती है। उसका नाम वज्रावती है। वह रूप (सौन्दर्य )की निधान थी । 
उसने अपार पुण्यकर्स तथा दान किये, फिर भी उसके कोई सच्तान नहीं 
थी । १२ उस समय, दमन नामक एक ऋषि (वहाँ) भा गये। उन्होंने 
उनका आतिथ्य किया भौर उन्हे छहों" रसों से युक्त भोजन कराया । १३ 
उससे उन ऋषि की बहुत दिनों की भूख मिट गयी और वह सन्‍्तोष को प्राप्त 
हो गये । उन्होंने त्विकाल ज्ञान से रानी का वंध्यादोष जान लिया | १४ 
उन्होंने पूछकर वहां (उससे) यह सत्य जान लिया कि उसके निश्चय ही 
कोई सनन्‍्तान नही है। तो उन्होंने दया करके राजा-रानी को यह वरदान 
दिया । १५ “ रूप का मानो निवास-स्थान जेसे (तुम्हारे) तीन पुत्र और 
एक पुत्री होगी । जो मेरा नाम है, उसपर नाम रखकर मेरी इतनी पहचान 
(स्मृति) रखना '। १६ ऐसा कहकर ऋषि अतन्तर्धान को प्राप्त हो गये। 
__कितने ही दिन के पश्चात रानी के सन्‍्तान उत्पन्न हुई । १७ उनके ताम 


१ छ' रस-- आम्ल (खट्टा), खारा, कड़वा, कर्सला, मीठा, तीखा । 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) २१३ 


दमन, दंतु, दुर्दभम, दमयंती नाम ज धर्या, | 
हर्ष पाम्यो भुूपति, बारकक चारे ऊछ्या। १८। 
दमयंती जे दीकरी ते, मुखे वरणी न जाय, 

अंगतणी तो उपमा, नक्क कशीये न अपाय । १९। 


वलण ( तर्ज बदलकर ) 
उपमा न अपाय नक्ठ में, एम बोल्या वेणाधारी रे, 
नकछ कहे नारद प्रत्ये तेहनूं, रूप कहो विस्तारी रे। २०।" 


(दमन ऋषि के कहने के अनुसार) दमन, दन्‍्तु, दुर्दमन, दमयन्ती रखे। 
राजा हफष को प्राप्त हो गये। चारों बालक पलते रहे। १८ जो 
दमयन्ती नामक लड़की थी, उसका वर्णन मुख से नहीं किया जा सकेगा । 
है नल, उसके अंग की उपमा किसी से भी नही दी जा पाती। १९ 

है नल, मेरे द्वारा उपमा नही दी जा सकती । ” इस प्रकार वीणाधारी 
नारद बोले। (फिर भी) नल नारद के प्रति बोले “ उसके रूप को तो 
विस्तास्पू्बंक कहिए !' । २० 


कडयूं ४ थूं-( नारद द्वारा दमयन्ती का रूप-बर्णन ) 
राग आशावरी 
नारदनां वचन. सुणी, बोल्या नेषध धणी, 
भीमकतणी कुंचरी छे, कहेवी फ्टडी रे?।8१। 


ढाह् 
फू्टडी कहेवी दमयंती, कहो तेहनं विखाण, 
नारद कहे रे सांभछो, वीरसेनसुत सुजाण। २ । 
गुण,, चाल ने चातुरी, अदभुत सुंदर वेष, 
तेहने हुं केम वर्णवूं”/ वर्णी न शके झहोष। ३ । 





कड़वक-४ (नारद द्वारा दमयन्ती का रूप-वर्णन ) 


नारद के वचन सुनकर निषध के स्वामी नलराज बोले, “ भीमक 
की कन्या कसी सलोनी है ? १। दमयन्ती कसी सलोनी है ? उसका 
वर्णन करके कहिए .। तो नारद बोले, ' हे सुजान वीरसेन-सुत, सुनिए । २ 
(उसके) गुण, चाल (-चलन), चातुयं, भद्भुत सुन्दर वेश-- इन (सब) 


२१४ गुजराती (नागरी लिपि) 


बुद्धि प्रमाणे मानवीनूं, कझू छू वरणन, 
ज्यम... सागरमांथी चांच, जछनी भरे पक्षीजन। ४ । 
दमयंतीनोी. चोटलो, .. देखी अति सोहाग, 
अभिमान मूकी लज्जा आणी, पाताछ पेठो नाग। ५ । 
भीमकसुतानूं. बदन सुधाकर,  देखीने शोभाय, 
चंद्रमा तो क्षीणता पामी, भआभमा सताय। ६ । 
सृष्टि करतां ब्रह्माजीए,, भयु तेजनू पात्, 
ते तेजनुं प्रजापतिए घड़्यूं. दमयंतीनु गात्र । ७ । 
तेमांथी कांई शेष वाध्यूं, घडतां खेरो पडियो, 
ब्रह्माण एकठो करीने, तेनो चंद्रमा घडियो। ८५ । 
नक् कहे नारदने, ए वखाण भाव न पहोंतो, 
दमयंती हमणां अवतरी, चंद्र पहेलो नहोंतों? । 
नारद कहे ब्रह्माजीए,, सठ पहेली घडीने राखी, 
पण पृथ्वीमां अवतारी नहि, भरथार एवा पाखी। १०। 
विरंचिए वेदर्भी नांखी, उदय हवडे पामी, 
ते जो अहीया अवतरी, तो निम्यों हशे को स्वामी | ११। 


7 








का मैं कैसे वर्णत करू ? (सहखमुखधारी) शेप (भी) उसका वर्णन नही 
कर सकता । ३ (फिर भी ) मै मानवीय (अल्प) बुद्धि के अनुसार उसका 
वर्णन करता हूँ, जिस प्रकार पक्षी सागर के पानी को चोच-भर लेता है। ४ 
दमयन्ती की चोटी (कसी) ? उसकी अति शोभा देखकर (शेष) नाग 
अभिमान छोड़कर लज्जा अनुभव करके पाताल मे (रहने के हेतु) पेठ 
गया । ५ भीमक-सुता दमयन्तो के मुख-चन्द्रमा की शोभा देखकर चाँद तो 
क्षीणता को प्राप्त होकर आकाश से छिप गया। ६ सृष्टि का निर्माण 
करते समय ब्रह्माजी ने तेज से एक पात्र भर लिया। प्रजापति (ब्रह्मा) ने 
उस तेज से दमयन्ती का शरीर गढ़ लिया । ७ उसमे से कुछ शेष (अश) 

बचा था; (दमयन्ती की देह को गढ़ते समय) उसके कुछ कण नीचे गिर 
गये। उन्हे इकट्ठा करके ब्रह्माजी ने उनसे चन्द्रमा का निर्माण किया 
था।८ यह सुनकर नल नारद से बोले, "यह वर्णन (सत्य) भाव तक 
नही पहुँचता । दमयन्ती तो अभी अवतरित हुई। क्या चन्द्र पहले नहीं 
था? ९ तो नारद बोले, ' ब्रह्माजी ने उसे सबसे पहले गढ़कर रख 
दिया था। परन्तु ऐसे (सुयोग्य) पति के अभाव में उसे पृथ्वी पर नहीं 
अवत्तरित कर दिया (किया) । १० ब्रह्माजी ने उसे दूर रख दिया था। 

वह अभी उदय (प्राकद्य, जन्म) को प्राप्त हुई है। वह यदि यहाँ अवतरित ' 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) २१५ 


नक कहे आगक विस्तारो,, ए भेद में सांभक्तियों, . 


, चंद्र पहेली चतुरा, संदेह मननो टठछ्वलियों। १२। 


नारद कहे सांभक्तो राजा, मीन ने मधुकर, 

नेत  अ्रुकुटी देखोने, जकू कमक कीधां घर। १३। 
नासिका वेसर देखीने,  कछाधर ने कौर, . . 
तेणे अरण्य-पर्वत सेवियां, धारी शक्‍या नहि धीर। १४॥। 


"दमयंतीना अधर देखी, पेट वेध्यूं. प्रवाढी, 


ए कामिनीनो कंठ सांभछ्ी, कोकिला थई काछी। १५। 


' रसना वाणी सांभल्ी, सरस्वतीने आव्यो वेराग्य, 


कुंवारी पोते रही, संसार कीधघो त्याग। १६। 
दंत देखी दाडम फादयूं, कपोत संताडे मोनें, 
ते नाद करतो फरे वनमां, कहे दुःख कहुं हुं कोने ? । १७। 
दमयंतीना कुच देखी, हायू कुंजरं .' कुछ, 
ते हींडतां चालतां हाथी, माथे घाले धूछ। १८। 





है, तो (ब्रह्माजी ने उसके लिए) कोई पति भी' उत्पन्न कियां होगा !। ११ 
नल बोले, “ भागे विस्तार करके कहिए। यह रहस्य तो मैंने, सुना । 
चन्द्र से पहले यह चतुरा (निर्मित हुई) थी-- (इस सम्बन्ध में) -मेरे 
मन का सन्देह दूर हो गया '। १२ नारद बोले, ' हे राजा, सुनो, मौन 
(मछली) और मधुकर (श्वरमर) ने उसके नेतों और भौह को देखकर 
(लज्जित होकर भाग जाते हुए) पानी और कमल को (अपना-भपना) 
घर बना लिया। १३ (दमयन्ती की) नाक और उसमें पहना हुआ 
बेसर देखकर .मोर और तोते (लज्जित होकर) अरण्य और पव॑ंत में 
निवास करने लगे। वे धीरज धारण नही कर सके | १४ दमयन्ती 


“के ओठों को देखकर प्रवाल का पेट बिध गया। , उस कामिनी का 


:कण्ठ (-स्वर) सुनकर कोयल काली हो गयी । १५ उसकी जिहवा का 
-स्वर (वाणी) सुनकर सरस्वती को बेराग्य अनुभव, हो आया; (इसलिए) 
» वह स्वयं क्वाॉँरी रह गयी और उसने घरबार (का प्रपच) छोड़ 
' दिया ।१६ दाँत देखकर दाड़िम (अनार) फट पड़ा। कपोत (उसकी 


सुडोल ग्रीवा को देखकर मारे लज्जा के) मुँह को छिपाने लगा । _(तब:से) 
वह तो बोलते-चीखते वन मे घूमता-फिरता रहता है और कहता है-- * मैं 


, (अपना) दुःख किससे कहें ? ”। १७ दमयन्‍्ती के कुच देखकर हाथी कुल 


की (-गरिमा) को हार बेठा। उससे घूमते-फिरते हाथी मस्तक पर घूल 
डालता है। १८ (दमयन्ती के) हस्तरूपी कमल से कमल (पुष्प) हार 


५ 
४ 


२१६ गुजराती (नागरी लिपि) 


हस्तकमक्कथी कमछ  हायु, जढछठमां कीधूं घर, 
उदर देखी दमयंतीनुं, सुकायूं.. सरोवर । १९। 


वलण ( तज्ज बदलकर ) 
सरोवर सुकायूं सांभक्की, नक्वराय मनमां रंज्या, 


_ दमयंतीनी जंघा देखी, केछ. रही काक - वंझा । २०। 


चुका और उसने पानी में घर बना लिया। दमयन्ती के उदर को देखकर 
सरोवर सूख गया। १९ 

सरोवर सूख गया “-- यह सुनकर नलराज मन में खिन्न हो उठे । 
(फिर नारद बोले--) “ दमयनन्‍्ती को जाँच को देखकर केला काकबंझा' 
हो गयी '। २० 


| 
बन 


कहयुं ५ मूं--( दमथन्तो का रूप-पर्णन सुनकर नल राजा का उसके 
प्रति आसक्त हो जाता ) 


राग सामेरोी 


दमयंती छे दोष - रहिता, तेना ग्रुणनी गाउं गीता, 
नारदजी वायक एम बोले, नहि उपमा तारुणीनी तोले । 
दमयंती छे दोष-रहिता, तेना गुणनी गाउं गीता । (टेक) । १ । 
जोई भीमकसुतानी कटी, सिहनी जात वनमां घटी, 


, हँसने पण थई चटपटी, चाल्य गोरीनी आगछ मटी । दमयती, । रे । 


कड़वक-- ५ ( दमयन्ती का रूप-वर्णन सुनकर नल राणा का उसके 
प्रति जासकत हो भात्ता ) 


/ दमयन्ती (सोन्दय आदि सम्बन्धी) दोष से रहित है। उसके गुणों 
की गीता का गान (गुण-महिसा का यान) मैं कर रहा हूं ।' नारदजी 
इस प्रकार बात कह रहे थे--- “ उस तरुणी की उपमा देने योग्य तुलना में 
कोई नहीं है। दमयन्ती (इतनी) दोषरहित है। मैं उसके गुणों कौ 
गीता का गान (महिमा का वर्णन) कर रहा हे। १ भीमक-सुता दमयच्ती 


थ 


की कटि देखकर बन में सिंह का वश घट गया (मानो, सिंह लज्जित होकर 


१ वंध्या स्त्री के त्तीन भेद माने जाते है-- एक ही बार प्रसृत होकर फिर से गर्भ 
धारण नही करती वह “काक्वृध्या' कहाती है। जो ऋतुधर्म को ही प्राप्त नही होती 
हा वंध्या' कहते है और जो गर्भधारण करने मे असमर्थ हो, वह “वंध्या' मानी 

ती हे। 


प्रेमाननद-रसामृत (नलोपाख्यान) २१७ 


रामाअंगनी रोमोवलि, वनस्पति दवे मरे छे बढोी, 
तेनां वस्त्र रह्मां झलहकीं, देखी आभर्मा पेसे वीजल्ठी । दमयंती ०। ३ । 
पगपानीथी हार्यो अछतो, रहे अबढाने पागे लब्ठतो, 
नेपुरनो, ताद सांभकतो, रहे गंधवंनो साथ बढछतो | दमयंती ० ।- ४ .। 
वरणथी चंपक नव भजियो, माटे मधुकरे तेने तजियो, 
एवं रूप ब्रह्माए सजियुं, बीजूं कोई नथी नीपजियुं। दमयंती ० । ५ । 
हवे शणगार बखाणंं सोछ, मंजन चीर हार तंबोछ, ेल्‍ 
ऊठे सुगंधना कल्लोल, अंगे अरगजाना रोछ | दमयंती० | ६. । 
शीशफल - रत्त राखडी, शोभे भमरमां चूनी जडी, 
गोफणो रह्यो अंगशुं अडी, कटि मेखलाशुं पडे वढी । दमयंती ० । ७ । 





प्राण देने लगे हों)। (उसकी चाल को देखकर) हंस को भी घबराहट 
अनुभव हुईं; (इसलिए) स्त्री के आगे उसका चलना बन्द हो गया। 
दमयन्ती० । २ उस अंगना के अंगों की रोपावली को देखकर वनस्पतियाँ 
डाह के दावानल में जलते हुए मरने लगी। उसके वस्त्र जगमगाते हैं। 
उन्हें देखकर। बिजली (भागकर) आकाश में प्रविष्ट हो गयी। 
दमयन्ती ० । ३ पाँवों और, हाथों (की लालिमा) के सामने अलता हार 
गया । - तब से वह अबलाओं के पाँवों में झुक जाता है। नूपुरों की ध्वनि 
सुनते ही गन्धवों का (वाद्य-) समूह मारे ,ईर्ष्य के जलने लगा। 
दमयन्ती ० । ४ उसके वर्ण के कारण भ्रमर चम्पक की सेवा नही करता 
अर्थात चम्पक के समीप नहीं आता (कवि-संकेत के अनुसार भ्रमर चम्पक 
पुष्प के समीप नही आता)। उसने उसका त्याग कर दिया। इस 
प्रकार ब्रह्माजी ने (दमयन्ती के) रूप को सजा लिया । (उसके समान) 
दूसरा कोई भी उत्पन्न. नही हुआ । दमयन्ती० | ५ अब मैं (दमयन्ती के ) 
मंजन, वस्त्र, हार,, ताम्बूुल आदि सोलह श्वृंगारों' का वर्णन करता हूँ ।- 
(उसके ) अंग में अरगजा का लेपन किया हुआ रहता है। उससे सुगन्ध 
की (मानो) लहरें उभर रही है। दमयन्‍्ती० | ६ शीषेफूल, रत्नजढित 
राखडी शोभायमान है, भौहों मे चुन्नो जड़ी हुई है। गोफन भर्थात फन्नी 
(नामक आश्रूषण) देह को छती हुई अड़ रही है, कटि करधनी से मानो 
झगड़ रही है.।. दमयन्ती० | ७ चवरंग वाला गुलूबन्द नामक आभूषण 


१ सोलह हंगार-- स्त्रियो द्वारा निम्नाकित सोलह +श्रंगार सजना अपेक्षित है-- 
मज्जन (स्तान), चोर (वस्त्र), हार, तिलक, अंज़न, कुण्डल (कर्णभूषण), नासा- 
मोक्तिक, केशपाशरचना, कचुकी, नूपुर, सुगन्ध (अंगराग), कंकण, चरणराग 
(अलक्तक ), ताम्बूल और करदपंण (दर्पण से युक्त अँगूठी जैसा आभूषण) । 


२१८ ग्रुजराती (नागरी लिपि) 


गलछुबंध कंठे नवरंग, मुक्ताहार छे बे संग, 
शके गिरि करीने भंग, स्तन सध्ये वहे छे गंग । दसमयंती० । ८ । 


वाये ओढणी रही छे ऊडी, खकछ॒के कंकण ने कर चूडी, 
रपे रति तो सं भ्रमे बूडी, एवी कोई मल्ले नहि रूडी | दमयंती ० । ९ । 


वाजे नेपुर केरो झणको, अंगुठे अणबटनो ठणको, 
अंगुलीए वीछवानो रणको, बोले मधुर झांझरनो झणको । दम ० ।१०। 
जेणे दमयंती नव जोई, तेणे उंमर एके खोई, 
जाणे काया कनकनी लोई, एवी जगर्मा बीजी न कोई । दमयंती ० । १ १। 


जेम नदीमां भागीरथी, तेम श्यामामां श्रेष्ठ स्वेथी, 
न्रण लोकमां जोडी नथी, जाणे सागरथी काढी मथी । दमयंती ०।१२। 


इंद्रादिक परणवा फरे, महिला मनमां नव धरे 
अश्विनीकुमार आगक् पढे, ते न आवे आंख्य ज तत्ठे । दमयंती ० १३॥ 


गले मे (बँधा) है। दो म्ुक्‍्ताहार साथ मे है। जान पड़ता था कि कुच- 
गिरि को बीच में काटकर गंगा ही बह रही हो । दमयन्ती० | ८5 हूँवा 
से ओढ़नी उड़ती रहती है। हाथों मे कंकणप और चूड़ियाँ खनकती रहती 
हैं। . (उसको देखकर उसके) रूप के कारण रति सम्श्रम में डूब गयी है। 
इस प्रकार की सुन्दरी और कोई नहीं मिल सकेगी। दमयन्ती* | ९ 
नूपुर की झनकार झनझनाती रहती है। आँगूठों मे पहने हुए अनवटों का 
टनत्कार होता रहता है। अग्गुलियों मे पहने बिछए झरुनझुनाते रहते हैं । 
पेजनियो की झनकार मधुर ध्वनि उत्पन्न करती रहती है। दमयन्ती० | १० 
जिसने दमयन्ती को न देखा हो, उसने अपनी भायु व्यर्थ ही गँवा दी है। 
उसका शरीर मानो सोने का पिष्ड हो-- इस प्रकार की स्त्नी जगत में कोई 
दूसरी - नही है। दमयन्ती० । ११ . जिस प्रकार, नदियों में भागीरथी 
(सर्वेश्रेष्ठ) है, उसी प्रकार वह सब स्त्रियों मे श्रेष्ठ है। तीन लोको' में 
उसके जोड़ की कोई नही है। मानो सागर को मथकर उसे निकाल लिया 
हो। दमयन्ती० | १२ इन्द्र आदि विवाह करने के लिए घूम रहे हैं। 
फिर भी, वह महिला '(दमयन्ती) उन्हें मन में धारण नहीं करती है। 
अश्विनीकुमार उसके आगे-आगे चलते है फिर भी वे उसकी आँखो के तले 
तक नही आ रहे है। दमयन्ती०। १३ जब से यह पुतली अवतरित हुई, 
तब से नारी मात्र का अभिमान् छूट गया है। अपने उदय से. उसने जगत 


३ तीन लोक, त़िभुवन-- स्वशलोक, मृत्युलोक और पाताल । 





प्रेमाननद-रसामृत (नलोपाख्यान) र्प्दे 


ज्यारथी ए पृतत्लूं .  अवतयु, 
तारीमातवनुं मान उतरियु, . ! 
द्म्यू जगत स्वरूप उदे करियूं, ' 

माटे दमयंती नाम घरियूं । दमयंती० । १४। 


जोगी थई तज्यूं हशे सर्वस्व, तीर्थ नाह्यो हशे समस्त, 
गाल्यां हशे हिमाल्ठे अस्त, ते ग्रहशे दमयंतीनों हस्त | दमयंती ० ।१५॥ 
वखाण सांभलछीने सब, रुधिर अटवायुूं पत्ठपत, 
नारद प्रत्ये बोल्यो नल, स्वामी परणवानी कहो कछ। दमयंती ० ।१६॥। 
नारद कहे मारं॑ कहेण त लागे, हुं नव जाउं तारे मांगे, 
मने मोहनां बाण वागे, ब्रह्मचयं व्रत मारुं भागे। दमयंती ० । १७ । 
एवं कही पाम्या अंतरधाव, मोह पाम्यों नकछ राजान, 
लाग्यूं दमयंतीनूं ध्यान, कामज्वर थयो वहूनि समान। दमयंती ० ।१८। 
वेद मोटा मोटा आवबे, वगडानी औषधि लावे, 
ताप कोईए न शमावे, मंत्री कहे शंं थाशे हावे ? दमयंती० । १९ । 


वलण ( तजे बदलकर ) 


हवे शूं थाशे कहे मंत्री, विचारे छे मन रे, 
नीलां वस्त्र पहेरी अश्वे बेसी, तत्ठराय चाल्यो वन रे। दमयंती ० ।२०। 





के स्वरूप का दमन कर डाला। इसलिए, उसने “ दमयन्‍न्ती ” नाम धारण 
किया । दमयन्ती० | १४ जिसने जोगी बनकर सर्वेस्व का त्याग किया हो, 
जो समस्त तीर्थो में नहाया हो, जिसने हिमालय पर रहते हुए 'अस्थियाँ 
गलायी हों, अर्थात कठोर तपस्या की हो, वह दमयन्‍्ती का हाथ धाम सकता 
है'। दमयन्ती०। १५ (दमयन्ती का) यह बहुत (विस्तार-सहित ) वर्णन 
सुनकर (नल का) रक्‍त पल-पल घुटने लगा। (फिर) नल नारद से 
बोले, “ 'हे स्वामी, (दमयन्ती से) विवाह करने की कोई युक्ति कहिए । 
दमयन्ती० ”“। १६ नारद बोले, “ मुझे यह कहना आंवश्यक नहीं है कि मैं 
तुम्हारे मार्ग पर नहीं जाता। मुझे मोह के बाण लग जाएँ, तो मेरा 
ब्रह्मचयें ब्रत नष्ट होगा '। दमयन्ती ० । १७ ऐसा कहकर वे अन्तर्धान को प्राप्त 
हो गये । (इधर) राजा नल मोह को प्राप्त हो गये । उन्हें दमयन्ती का 
ध्यान लग गया। उनके लिए काम-ज्वर आग के समान हो गया। 
दमयन्ती ० । १८ बड़े-बड़े वेद्य आये, वच्य ओषधियाँ लाये; परन्तु (नल 
के) ताप का किसी के द्वारा भी शमन नही हो पाया ।' तो मत्री ने कहा 

“ अब क्‍या होगा ?' दमयन्ती ० । १९ 





२२० गुजराती (नागरी लिपि) 


मंत्री बोला, “अब क्‍या होगा ? ” वह मन में सोचने लगा। 
(इधर) नीले वस्त्न पहनकर नलराजा घोड़े पर सवार होकर वन के प्रति 
चले गये । दमयन्ती० । २० 


कडवे ६ ठठ-( नल द्वारा वन में हूंस को देखता भोर उसे पकड़ता ) 
राग वसंत 


अनंग अनक ते नत्ूने प्रगटयो, वन गयो वहूनि समावा, 

हये बेठो चितामां पेठो, लाग्यो आकुलव्याकुछ धावा।भनंग० (टेक) १ 
नीलां वस्त॒ ने नीलो वाघो, मृगयानो शणमगार, 
अघोर वनमां राये दीठूं, मानसरोवर सार | अनंग० | २ । 
सुभट साथे कोय मछे नहि, एकलो न पढे गम्य, , 
हय थकी हेठो ऊत्तरीने, वन जोवा लाग्यो रम्य । अनंग० । हे । 
वृक्ष चारु चारोढीनां, चंदत चपा अनेक, , 
नाना विधनां पुष्पने भारे, वल्ठी रह्मां छे वंक | अनंग० । ४ । 
मोगरो मरडाई रह्यो ने मगी, अरणी ने मरेठी, 
आंबली, आवक ने अगथिया, एखरा ने अरेठी । अनंग० । ५ । 


आओ 0५७०3७ज ५ >> मल कटा3 ७ जी 3५ मी पीर निजीयनी- 
! 





कड़वक-- ६ ( नल द्वारा बन से हंस को देखना और उसे पकड़ लेना ) 


नल भे कामानल उत्पन्न हुआ। तो वे उस आग का शमन करने के 
लिए वन में चले गये। वे घोड़े पर बैठे; वे चिन्ता मे प्रविष्ट हो गये 
(चिन्ता में ड्व गये) । वे आकुल-व्याकुल होने लगे । अनंग-अनल० । १ 
उन्होने नीले वस्त्न ओर नीला बाना पहन लिया; शिकार के लिए 
(आवश्यक) साज-श्ंगार कर लिया । राजा ने अति भयानक वन के अन्दर 
एक सुन्दर मानसरोबर (जैसा सरोवर) देखा। अनंग-मनल०।॥ २ 
साथ में कोई भी अन्य वीर पुरुष मिलकर नही आये थे । उन्हें (नल को ) 
अकेले घन नही आ रहा था। वे घोड़े से नीचे उतरकर उस रम्य-वन 
को देखदे लगे। अनंग-अनल०।॥३ (उस वन में) चिरोजी, चन्दन, 
चम्पा के अनेक वृक्ष थे। वे नाना प्रकार के फूलो के भार से झुककर वक़़ 
हो रहे थे। अनंग० | ४ मोगरा झुका हुआ रहा था । - और (वहां) 
मूंग, अरनि तथा मरेठी, इमली, आँवला और भगसत्य, इक्षुरक भौर अरीढे 
के पेड थे। अनंग०।५ कवली-स्तम्भ अति सुन्दर शोभायमान थे।. ईख 
शबकर जसा था। लौग की बेलो भोर सुन्दर नीबू के अतिरिक्त (अनेक 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) २२१ 


कदलीथंभ शोभे अति सुंदर, साकर सरखी छेलडी,, 
लवंग लता ने लींबूँ ललित वढ्ी, विराजे वृक्ष वेलडी । अनंग ० ६ । 
नाछियेरी तारंगी नौतम, नीचां नम्यां 'बहु नेत्र, 
फोफल्ती फालसी सुंदर दीसे, खजूर खारेकनां क्षेत्र । अनंग०। ७ । 
पीपछा, पीपढछी, वड ने गूंसर, दाडमडी ने पलाश, 
!अश्वथी ऊतरी नव्ठराजाए, वन नीरख्यूं चोपास । अनंग० । 5 । 
जक फल सबक देखी नक हरख्यों, उत्तम: आंबासाख, 
बाबची बिजोरी ने चिनीकबाला, झूले झूमखां द्राख | अनंग ०। ९ । 
सुंदर कुमुदिनी सरोवर मांहे, वायु प्रहारे नमंती, 

देखी अनक ते बमणो व्याप्यो, सांभक्की दमयंती | अनंग० । १० ॥। 
शीतक् वायु वहूनि _सरखों, लागे ' रायने तन, 

तग्र वक्ष छे कदत्ीनां, तेने देतो आलिंगन। अनग० । ११। 
रंभभग चुंबन करे केछने, थडथी मरडी पाडे, 
मुखथी शब्द करे जेम कोई, मोटो मेगक त्राडे | अनंग० । १२। 
एवं. समे बहु हंस त्यां दीठा, सुवर्णनां छे अंग, 

ते देखी दमयंती वीसरी, टक्ली गयो अनंग | अनंग० । १३। 
प्रकार के) वृक्ष और लत्ताएं विराजमान थे। अनंग० | ६ नवीनतम 
नारियल भोर नारंगी (संतरे) के पेड़ थे । . बेंत बहुत नीचे झुके हुए थे। 
'सुपारी, फालसा, खजूर, छुआारे के (वृक्षों से युक्त) क्षेत्र सुन्दर दिखायी' 
दे रहे थे। अनंग०। ७ पाकर और पीपल, बरगद गौर गूलर, अनार 
और पलाश के वृक्ष थे। नलराज घोड़े पर से उतरकर उस वन में चारों 
!ओर .निरखने लगे। अनंग० | 5८5 उत्तम (किस्म के) कलमी आम, 
बाबची, बिजोरा (नीवू) और चीनीकबाला तथा अबंग्र (के वृक्ष) झूमते- 
डोलते थे। (वहाँ) विपुल मात्रा मे जल और फल देखकर नल आनन्दित 
हो गये। अनंग० | ५ सरोवेर के अन्दर सुन्दर कुमुदिनी पुष्प वायु के 
(झोंके के) प्रहार से झुकते-झूमते थे। उन्हे देखने पर नल को कामानल 
दुगुना व्याप्त कर गया। उन्हें दमयन्ती याद आने लगी। अनंग- 
अनल० ।/१० :.राजा के शरीर को शीतल वायु आग्र जैसी लगने लगी 
- (जान पड़ने लगी )। वहाँ कदली (केले) के नग्न पेड़ ये। राजा नल 
उत्तका आलिगन करने लगे । अनंग-अनल० । ११ राजा तल उन केले 
'के/ वृक्षों का आलिगन-चुम्बने करने लगे। उन्हें उन्होंने तने में मोड़कर 
गिरा दिया। वे मुँह से ऐसी ध्वनि करने लगे, जिस प्रकार कोई बड़ा 
हाथी चिघाड़ता हो। अनंग-अनल० । १२ ऐसे समय उन्होंने वहाँ बहुत 


२२२ गुजराती (नागरी लिपि) 


नहोतूं दीठूं ते में दीठं, भाव्यो दीसे अनुक्रमी, 
आवी कनकनी जात पंखीनी, ब्रह्माए क्यारे निरमी ? अनंग०। १४। 
एक हाथ पड़े एमांथी, पाल पासे राख, 
रमाडुं जमाडूं एने, दुःख दहाडा खोई नाखूं | अनंग० । १५। 
शरप्रहार कर जो एने, तो ए थाय निधन, 
ग्रहण करवं जोईए जीवतूं, भूप विमासे मन। अनंगर० । १६। 
एवे सकक्क पंखीनोी राजा, दीठो पृथ्वीमांय, 
वक्षतणे थड निद्रा करीने, ऊभो छे एक पाय | अनंग० । १७ | 
तेने देखी नक् मनर्मा हरख्यो, भेद करी परवरियो, 
अंबर ओढी अंग सकोडी, श्वास रुधन करियो । अनंग ० | १८ । 
द्रमथड पूठे न भड आव्यों, बेसी आधो चाल्यो, 
लांबो करो लघुलाघवीमां, पंखीतो पग्र झाल्यो । अनंग० । १९। 


वलण ( तज्े बदलकर ) 
झाल्यो पंखी जागी उठयो, नत्वनने कीधा चंचना पहार रे, 
पछे पोतानी वाणीए करी, कखा लाग्यों पोकार रे। २० । 


हंस देखे। उनका अंग सुवर्ण का था। उन्हें देखकर उम्हें दमयन्ती 
विस्मृत हो गयी; काम (-ज्वर) दूर हो गया। अनंग-भनल०॥ १३ 
(नल सोचने लगे--) जो कभी देखा नहीं था, वही मैंने (आज) देखा। 
एक के पीछे एक क्रम से (हंस) आ रहे है। ब्रह्माजी ने स्वर्ण पक्षी की 
इस जाति का कब निर्माण किया ? गबनंग-अनल० | १४ इनमें से एक 
मेरे हाथ पड़ जाए, तो मैं उसका पालन करूँगा, उसे अपने पास रखूंगा । 
उसे खेलाऊँगा, खिलाऊँगा और अपने दुःख के दिन खो दूंगा (विता दूंगा) । 
अनंग-अनल ० । १५ यदि मैं इस पर बाण से आघात करूँ, तो वह मृत्यु 
को प्राप्त हो जाएगा। इसे तो जीवित ही पकड़ना चाहिए। “राजा 
(इस सम्बन्ध मे) सोच-विचार करने लगे। अभनंग-अनल० | १६ उस 
समय उन समस्त पक्षिओं का राजा पृथ्वी पर दिखायी दिया। वह एक 
वृक्ष के मूल के समीप सोते हुए एक पाँव पर खड़ा था। अनंग्र-अनल ० १७ 
उसे देखकर नल मन में आनन्दित हो गये और रहस्यपूर्वक अर्थात छिपकर 
(आगे) चले । वस्त्त खींच लेकर, अंग को सिकोड़ते हुए उन्होंने साँस को 
भो रोक लिया। अनग-भनल० । १८ पेड़ के तने के पीछे से वे वीर 
(नल) आगे आगये। वे बैठते-बैठते भागे चले जा रहे .थे। बड़ी 
लाघवना (कोशल) से उन्होंने हाथ लम्बायमान किया भौर उस पक्षी का 
पाँव पकड़ लिया। अनंग-अनल० । १९ 


प्रेमानन्‍द-रसामृत (नतलोपाख्यान ) २२३ 


उन्होंने (जब) उस पक्षी को पकड़ लिया, तो वह जग उठा ओर 
चोंच से नल (के हाथ) पर आघात करने लगा। फिर वह अपनी भाषा 
में चीखने-चिललाने लगा । २० 


कडवं ७ मुं-( हस का बिलाप ) 
राग मारु 

हंसे मांड्यो रे विलाप, पापी माणसां रे, 

शंं प्रकट्यूं मारु पाप ? पापी०। 

ओ काछा मसाथाना धणी, पापी०, 
जेने निर्देयता होय घणी। पापी०॥ १ ॥। 
ए तो जीवने मारे ततखेव, पापी०, 

हवे हुं मृओ अवश्यमेव, पापी० । 

टूंपी नाखशे माहरी पंखाय, पापी०, 

मुने शेकशे अग्नि महांय, पापी०। २ । 
कोण मुकावे करी पक्ष ? पापी०, 
माहरे मरवंं ने एने भक्ष, पापी०। 

आ मुख सरखूं रतन, पापी०, 

ते एछे थाशे निधन, पापी०। ३ | ह 


नली डील जलन 5 + ७ ५०:५७०+८४-०५०८०७० ७-७ 





कड़बयक-- ७ ( हंस का विलाप ) 


हँस ने विलाप करना आरम्भ किया । (वह बोला--) ' अहो पापी 
मनुष्यों ! मेरा कौन-सा पाप (इस दण्ड के रूप में) प्रकट हुआ ? पापी०। 
हे पापी मनुष्यो, जिनकी निर्दंयता इतनी बड़ी है, ऐसे हे काले मस्तकों के 
स्वामियो' (जिनके मस्तक पर काले बाल है, जो कलंक कौ कालिमा को. 
धारण किये हैं) ! हे पापी०। १ अहो पापियो ! ये तो प्राणियों को 
तत्क्षण मार डालते है। हे पापियों ! मैं तो अवश्यमेव मरा (ही) हूँ । 
हेपापियो ! यह तो मेरे पखों को उखाड़ डालेगा। अहो पाषियों ! यह 
मुझे आग में भून डालेगा । २ हे पापियो, मेरा पक्ष लेकर (मेरी सहायता 
करते हुए) मुझे कोन छुड़ाएगा ? हे पापियो, मेरे लिए तो (अब) मौत है. 
और इनके लिए भक्ष्य है। हे प्रापियो ! यह मुख रत्न: सदृश हैः। 
है पापियो ! (अब) इसका व्यथें ही निधन (नाश) हो जाएगा | ३. , 


२२४ गुजराती (नागरी लिपि) 


2 टछवक्की मरशे मारी. नार, पापी०; 

। ते जीवशे केहने आधार ? पापी०। 
ग्रद्यो नारीए दीठो नाथ, पापी०, | ' 
धायो सहस्न॒ सत्रीनोी साथ, पापी० | ४ | 
नाथ उपर भमे स्त्री-बुद, पापी०, 
घणूं करवा लाग्यां , आक्रंद, पापी० । 
हंसीए दीधो शाप, पापी ०, 
तारी स्त्री एम करजो विलाप, पापी० | ५ | 
हंस नारीने कहे वचन, हंसी सांभक्वो रे, 
तमे जाओ सव्वे भुवन, आंहीथी पाछां वछो रे । ६ । 

' -जे कांई लख्यूं हशे' ब्रह्माय, हंसी०; 
ते अक्षर नव धोवाय, आंहांथी० । 
केम छटीए कमेता बंध, हंसी०, 
आपणे आठलो' हशे संबंध, आंहांथी० | ७ । 
जो अणघटतुं कीधुं . अमे, हंसी०, 
मने वारी राख्यो नहि तमे, आंहांथी० । 
आपणे वसवू्‌ं वृक्ष ने व्योम, हंसी०, 
आज में निद्रा कीधी भोम, आंहांधी० | ८५ । 


है पापियों ! भेरी' सित्रयाँ (अब) तड़प (-तड़प) कर मर जाएँगी। 
हे पापियो ! वे किसके आधार से जिएंगी ? ” जब नारियों ने अपने 
स्वामी को पकड़े हुए देखा, तो सहस्न स्त्रियों का बृन्द (झुण्ड) दोड़ा | ४ 
उन स्त्रियों का वुन्द अपने पति के ऊपर मेंड़राने लगा । वे बहुत आक्रन्दत 
करने लगी । उन हंसियो ने (राजा नल को) यह अभिशाप ,दिया-- 
है पापी, तेरी सत्ती भी इसी प्रकार विलाप करे '। ५ (यह सुनक़र )- 
हंस ने नारियों से यह बात कही, ' री हसियो, सुनो । तुम सब घर जाओ।- 
यहाँ से पोछे लौट जाओ । ६ हसियो, ब्रह्मा ने जो कुछ (भाग्य में),,लिखा - 
होगा, वह अक्षर (अर्थात क्षय-रहित, अटल): है, वह धोया (मिटाया) नहीं 
जा सकता । (अतः) यहाँ से,तुम० । हंसियो, कर्म के बन्धन कंसे, छूटे ? 
अपना तो इतना हो सम्बन्ध (रहा), होगा। (अतः) यहाँ से तुम० । ७ 
हसियो, हमने (मैंने) यदि अनुचित किया (भूमि पर सो गया), तो, 
तुमने मुझे रोककर नही रखा। अतः यहाँ से तुम० । हसिय्नो, हमें,तो 
वृक्ष ओर आकाश में निवास करना, होता है, ( फिर भी) मैंने आज 
भूमि पर नोद ली। , (अतः) यहाँ से तुम०॥ ८५ हंसियो, जो (अपने: 


प्रेमाननद-रसामृत (तलोपाख्यान) २२५ 


जे थाये थानक भ्रष्ट, हंसी०, । 
ते पामे मारी पेर कष्ट, आंहांधी० । । 
सर्वनी दे3. छों शिखामण, हुंंसी०, 

तमो धरणी मा मृकशो चर्ण, आंहांथी०। ९ । 

एम कहेतो स्त्रीने भरथार, हंसी०, 

देखी नले कीधो विचार, आंहांथी० । 

पंखी सर्व पाम्यां छे रोष, हुंंसी०, 

ते दे मुजने दोष, आंहाथी० । 

तमो हंस घरो विश्वास, हंसी०, 

हुँ नव करवानो नाश, आंहांधी० | १० । 


वलण ( तर्ज बदलकर. ) 
नव करवानो नाश एवी, वाणी नछेो कही रे, 
वचन सुणी नक्करायनां, हंसने वाच्रा थई रे।११। 


उचित) स्थान से भ्रष्ट हो जाते है, वे मेरी तरह कष्ट को प्राप्त हो 
जाते हैं। (अतः) यहाँ से तुम० । हंसियो, मैं सबको सिखावन दे रहा 
हैं, तुम धरती पर चरण मत रखना। (भरतः) यहाँ से तुम० ”।९ इस 
प्रकार पति को स्त्रियों से कहते देखकर नल ने विचार किया (यह मात 
लिया )-- समस्त पक्षी क्रोध को प्राप्त हो गये हैं। वे मुझे दोष दे रहे हैं । 
(वे बोले--) ' है हंस, तुम विश्वास करो, मैं (तुम्हारा) नाश नही करने- 
वाला हूँ (। १० 
-/ मैं नाश नहीं करनेवाला हूँ ” --तल ने इस प्रकार बात कही। 
नलराज की ये बातें सुनकर हंस को यह वाणी स्फूरित हो गयी (हंस- 
बोलने लगा) । ११ 


कडब्‌ ८ सुं--( हुंस द्वारा बल से प्रार्थना करता भौर उनके हाथों से सुक्त हो जाना ) 
राग मार. 

मनुष्यनी पेरे पंखी बोल्यो, मुने मृकी जुओ एक वार, 

प्राणदान तूं आपीश तो, कई करीश उपकार। १ । 


ध 3 


कड़वक- ८ ( हंस द्वारा नल से प्राथंना करता और उनके हाथों से मुकत हो जाना ) 





मनुष्य की भाँति, अर्थात मनुष्य की वाणी में वह पक्षी बोला ! ,एंल- 


बार मुझे छोड : -ै:ो। (यदि) तुम मुझे प्राणदान दे 


शत 
ना डर 
गज 


२२६ गुजराती (नागरी लिपि) 


मूक मुजने सर्वथा, आ खुवे छे सहसख्न सुंदरी, 

एहने आसना - वासना करीने, हुं आवीश तुज कने फरी । २ । 
वचन सुणी वीर विस्मे पाम्यो, अल्या हवे नहि चूकुं, 

रूप ने वाणी बे गुण तुजमां, मरतां लगे नव मूकुं। ३ । 
हंस कहे विश्वास आणो, अमो ब्रह्मानां वाहन, 

आकाश अवनी एक थाये तो, जूदुं न बोलूं वचन । ४ । 
नक्त कहे हुं वीरसेन-सुत छौं, नेपध महारे नाम, 

देशपति ने क्षत्नरी केवछ, नव्ठराय महारुं नाम। ५ । 
हुंथी विष्च थाये नहीं, प्राणनी. पेरे पाढुं, 

अमो राजवंशीने रूडू लागे, तारुं बोलवुं रढियाल्ुं। ६ | 
खटपट टाछो. मरणनी, ने रखे आणो शोक, 

एम जाणी रहो स्ुज पासे, जावाती आशा फोक। ७ | 
पंखी कहे रे पुण्यश्लोक, मारी माता रोई रोई मरशे, 

एकनो एक छोौ तेहने, माता केहने जोई ठरशे ? । ८ । 
तुम्हारा कुछ उपकार कर दूंगा । १ मुझे बिल्कुल अर्थात पूर्णतः छोड़ दो । 
ये एक सहन सुन्दरियाँ (स्त्रियाँ) रो रही है। उनको (सान्त्वना देते 
हुए) आश्वस्त करके मै फिर से तुम्हारे पास भा जाऊंगा (। २ यह बात 
सुनकर वे वीर (पुरुष) विस्मय को प्राप्त हो गये । (वे बोले--) " भरे, 
मैं अब नही चूकूंगा (कोई भूल नहीं करूँगा) । रूप (सुन्दरता) और 
(मनुष्य की-सी ) वाणी-- ये दो गुण तुममें है। मैं मरने तक तुम्हे नहीं 
छोडंगा '।३ हंस बोला, “ विश्वास करो । हम ब्रह्मा के वाहन है । 
आकाश और धरती एक हो जाएँ, तो भी मैं झूठी बात नही बोलूंगा | ॥*४ 
(यह सुनकर) नल बोले, “मैं (राजा) वीरसेन का पुत्र हें; निषध 
देश मेरा ग्राम (निवास-स्थान) है। मै केवल देशपति अर्थात राजा 
और,्षत्रिय हूँ। मेरा नाम नलराज है। ५ मुझसे (तुम्हे) कोई विध्व 
(कष्ट) नही होगा; मै प्राणो की तरह (तुम्हारा) पालन करूँगा । हम 
राजवंशीय को तुम्हारा ऐसा मनोहारी बोलना अच्छा लग रहा है। ६ 
सौत की चिन्ता छोड दो और शोक न करो । ऐसा जानकर मेरे पास रहो 
(यहाँ से) चले जाने की आशा (करना) व्यर्थ है” । ७ (इस पर) पक्षी 
बोला, ' हे पृण्यय्लोक (राजा), मेरी माता रो-रोकर मर जाएगी। मैं 
उसका एक ही एक (इकलौता) पुत्त हैँ । मेरी माता किसे देखकर ठहरेगी 
(जीवित रहेगी) 2? ८ (मेरी) एक सहख्र स्त्रियाँ रो रही है। घर मे 
. तीन पटरानियाँ हैं। मेरे बन्धन (में पड़ने) को जानकर सब कोई तत्क्षण 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान ) २२७ 


एक सहख्न॒ रुए छे नारी, घेर त्रण छे पटराणी, 
महारुं बंधत जाणी सर्व को, शी तत्क्षण' तजशे प्राणी। ९ । 
बहाली स्त्रीए पुत्र, प्रसव्यो, में तेहनुं मुख तथी जोयूं, रे 
अरे नव्ठराजा हुं रंकनुं ते, सुतनुं सुख कां खोयूं | १०॥ 
आपण बंन्यो मित्र थया, तेहनों सूरज देवता साखी, | 
रौरव नरके हुं पडुूं जो, न पाल्ुं वाचा भाखी। ११। 
गुरुद्दोही स्वामीद्रोही, ए पातिक लागे ह मुजने, 

जो नारीने मछी आवी, शीश न , नमावूं तुजने । १२। 
त्रांडे त्राडं करी नरक बोल्यो, मृकुं छू निरधार, 
त॑ जाणे परमेश्वर जाणे, समतणो विचार | १३। 
प्रतिज्ञा माठे सूकुं छू, मबत्वाने तारी नार, 
'नहि आवे तो शृं कटक चढावुं, के तुंने कहाडुं न्‍्यात बहार | १४ । 
एहवूं कहीते पंखी मूक्‍यों, हस ऊड्यो आकाश, । 
झुदन मा करशों एम कहेतों, आव्यों प्रेमदा पास | १५। 
समाचार कह्यो श्यामाने, . समजावी सुंदरी,. 
वकावी नारीने पोते, आवब्यो नक कने - फरी,। १६। 





प्राणों को त्यज देंगी । ९ (मेरी) एक प्यारी स्त्री ने (अभी-अभी) पुत्र 

को जन्म दिया है। मैंने (अभी तक) उसका मुख (भी) नही देखा हैं । 
अहो नलराज, मुझ रक क्रे पृत्न॒ सम्बन्धी उस सुख को तुमने क्यों नष्ट 
किया । १० (अब) हम दोनों मित्र हो गये है; उसके लिए सूर्य-देवता 
साक्षी है। यदि मैं अपनी कही बात का पालन न करूँ, तो मैं रौरव नरक 
मे पड़ जाऊँगा । ११ यदि मै अपनी स्त्रियों से मिलकर न आकर, तुम्हारे 
सामने सिर न झुकाऊं, तो ग्रुरुद्रो ही, स्वामीद्रोही का (-सा) वह पातक मुझे 
लग जाए '। १५ तब चीख-चीखकर नल बोले, “मै (तुमको) निश्चय 
छोड़ देता हैँ। यह शपथ का विचार है-- तुम जानो, परमेश्वर जाने । १३ 
(तुम्हारी) प्रतिज्ञा के हेतु मैं तुम्हें तुम्हारी अपनी स्त्रियों से मिलाने के लिए 
छोड़ देता हूँ। (यदि) तुम (लौठकर) न आशओगे, तो कया मै तुम पर 
सेना को चढ़ा दूं अथवा तुम्हें जाति के बाहर तिकलवा दूँ 7” १४ ऐसा 
कहकर उन्होंने उस पक्षी को छोड़ दिया, तो वह हस आकाश में उड़ गया। 
 रुदन न करो ” ऐसा कहता हुआ, वह (अपनी) स्त्रियों के समीप आ 
गया । १५ उसने उन्त स्त्रियों से (समस्त) समाचार कह दिया । उन 
सुन्दरियों को समझाया-बुझाया । उन स्त्रियो को लौटा देकर वह स्वय फिर 
नल के प्रति आ गया। १६ किसी अन्ध को फिर से नेत्न प्राप्त हों, तो 


श्श्८ गुजराती (नागरी लिपि) 


जेम को अंध आनंद पासे, फरी आवबे लोचन, 
तेम रायनूं हंसने देखी, हरख्यूं अतिशे मन। १७। 
भूप कहे आ काह्॒नने विषे, पंखी बहु सतवंत्त, 
प्रतिज्ञा पाछ्ी पोतानी तुंने, वहाला हशे भगवंत । १८ । 
हंस कहे हो भुपति, साभिक्कत महारा मित्न, 
बोल्यूं वायक पाछीए नहिं, तो, काग ने अमो शो अंत । १९ । 


वलण ( ते बदलकर ) 
अंतर शो अमो काग - करता, मित्र जो अमारी पेर रे, 
हंस साथे अश्व बेसी, नक्कराय चाल्यो घेर रे।२०। 


वह जिस प्रकार आनन्द को प्राप्त हो जाए, उसी प्रकार हंस को (लौटे) 
देखकर राजा का मन अत्यधिक आनन्दित हुआ । १७ राजा बोले, ' इस 
काल में पक्षी (भी) बहुत सत्यवादी हैं। तुमने अपनी प्रतिज्ञा का पालन 
किया है। अतः तुम भगवान के प्रिय हो जाओगे '। १८५ तो हंस बोला, 
 अहो भ्रूपति, मेरे मित्र, सुनो। कही बात का निर्वाह न करे, तो कौओों 
और हममें क्या अन्तर होगा ? १९ 
कोए की तुलना में उस से हम में क्या अन्तर है ? हे मित्र, हमारा 
(व्यवहार-आचरण का) ढंग तो देखिए। ' (तत्पश्चातृ) हंस-सहित घोड़े 
पर बंठकर नलराज घर की ओर चले । २० 


कडमं ८ मुं-( हंस भोर नल की घनिष्ड सित्नता; नल द्वारा हंस को दमयन्तो 
सम्बन्धी दात बताना ) 


राग देशाख 


नत्राजा मंदिर आवियो, सुभट हंस साथे लावियो, 
सन्‍य सघक्ं सामूं जाय, हंसने देखी विस्मे थाय। १ ॥। 





कड़वक-< ( हंस और नल को घनिष्ट मित्रता; नल द्वारा हंस को दमयन्तो 
सम्बन्धी बात बताना ) 


चीर पुरुष (योद्धा) नलराज (वन से लौटकर) अपने प्रासाद भा 


गये; वे साथ में हंस को ले आये। (उन्तकी) समस्त सेना उनके 
सम्मुख गयी, तो हंस को देखकर उसे षविस्मय हो गया। १ “ यह वस्तु, 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान ) २२६ 


आ वस्त कहांथी पाम्या राजान, एणी पेरे पूछे परधान, 
तक कहे सरोवर मान, तहांथी मुने आप्यो भगवान | २ । 
ए महारे थयो छे वीर, एम कही, आव्यो मंदिर, . 


कनकनं कीधूं पिंजर, हंसने रहेवानूं घर। ३१॥ 
एकठा बेसी बच्चे जमे, यूतक्रीडा ते रसिया रमे, 
अन्योन्य काढी ले तंबोल, मुखे वाणी करता कल्‍लोल | ४ । 
हंसा विना न चाले घडी, प्रेमरेणे प्रीत जे जडी,: 
अशोकवाटिकामां एक वार, बनते बेठा ग्रुणभंडार। ५ । 
हंसे वात ब्रेहनी करी, त्यारे नत्वने दमयंती सांभरी, 
दीठो जाम्यो अकस्मात, नेत्र कीधं आंसुपात । ६-। 


हंस पूछे मारा वीर, ताहरे नयने कां वहे छे नीर ? 
नक कहे शू पूछे मुंने एटलूं, सू्ष नथी पडे तुंने ? । ७ । 
परण्या कुंवारा न जुओ अमो, घरमां भाभी दीठी हशे तमो ? 
हंस बोले ने कर घसे, में जाण्यूं भाभी पियर हशे। ८ । 


हे राजा, आपने कहाँ से प्राप्त की ? ” --इस प्रकार मंत्री ने पूछा। 
(इस पर) नल ने (प्रत्युत्तर में) कहा, “मान (मानस नामक एक) 
सरोवर है; भगवान ने मुझे इसको वहाँ से दिया ।२ यह मेरा (अब) 
बन्धु (-सा) हो गया है। ' >ऐसा' कहकर वे अपने प्रासाद (में) आ 
गये। हंस के लिए उन्होंने एक सोने का एक पिंजड़ा बना दिया। ३ 
(तब से) वे दोनों इकट्ठा बेठकर खाना खाते; वे (दोनों) रसिक दूत- 
क्रीडा करते। वे एक-दूसरे (के मुँह में) से ताम्बूल (वीड़ा) निकाल 
लेते; मुँह से (मुंह लगाकर) बाते करते हुए हर्ष -विभोर हो जाते। ४ 
बिना हंस के एक घड़ी तक उनकी न चलती --इसलिए कि उनकी प्रीति 
प्रेमस्वरूप झलाई से जुड़ी हुई थी। वे दोनों गुण-भण्डार (-से मित्र) 
एक बार अशोक-वाटिका में बेठे। ५ (उस समय) हंस ने विरह की 
बात (चर्चा) की; तब नल को द्मयेन्ती का स्मरण हो गया। देखा 
कि वह अप्रत्याशित घटना मन में जम गयी है। (फिर) वे आँखों से 
आँसू बहाने लगे। ६ (यह देखकर) हंस ने पूछा, “ मेरे भाई, तुम्हारे 
नयनों से (अश्रु-) जल क्यो बह रहा है ? ” तो नल बोले, “ तुम मुझसे 
क्या पूछ रहे हो ? तुमको इतना (तक) नही सुझायी पड़ता ? ७ हमें 
'तुम विवाहित अथवा क्वारे नहीं देख रहे हो ? घर मे तुमने भाभौ को देखा 
होगा । (यह सुनकर) हंस हाथ मलने लगा और बोला- '* मैंने समझा 
पौहर गयी होगी । ८ मैंने तुम्हें क्वाँरा पुरुष नहीं समझा । क्‍या पृथ्वी 


२५३० गुजराती (नागरी लिपि) 


तमो कुंवारा न जाण्या माटठ, शुं प्रथ्वीमां कन्यानों दाट, 
पोतानी पांखे लोहयूं जछ, खगे रोतो राख्यो नक्त्‌॥। ९ । 
मरकलड्ंं करी महीपति, मित्र साथे बोल्यो विनति, 
जे दहाडे में तमने ग्रह्मा, ते वोल शूं वीसरी गया ? । १० । 
तें कह्यूं नक् मुक एक वार, काई हुं करीश उपकार, 
भाई ते बोल्यूं कहीए पाछ॒शो, ए मोटुं दुःख क्यारे टाछ॒शो ? । ११ । 
बढछतो हंस कहे महाराज, हुं सरखंं कोई सोंपो काज, 
महा कठण जे कारज हझे, ते हुं सेवकथी सर्वे थशे । १२। 
नक्ठ कहे तमो करो सर्वथी, पण मारी जीभ ऊपडती नथी, 
कपरुं काम केम देवाय ? कदापि थाय के नव थाय ?।॥ १३॥। 
न थाय तो तमो पामो खेद, लाजे घेर नावो वायक वेद, 
हंस कहे अमथो नव वढ्ुं, हुं रिसावानूं नोहुं पृततुं | १४॥। 
चौद लोकमां गयानी गत्य, तहारुं कारज थाशे सत्य, 
नछ कहे हो पंखीजन, शरीर सुतानुं चंच रतन। १५। 


तल 


में कन्याओं का नाश हो गया है (जो तुम अब तक इस प्रकार क्वाँरे रह 
गये हो) ? ” (फिर) अपने पखों से (उनका अश्रु-) जल उस पक्षी ने 
पोंछ लिया और नल को रोने से दूर (कर) रखा (उनको चुप कर दिया) । ९ 
तो राजा मुस्करा उठे । वे अपने मित्र से विनती करते हुए बोले, “ जिस 
दिन मैंने तुम्हे पकड़ा था, क्‍या उस दिन की वह बात तुम भूल गये ? १० 
तुमने कहा था-- हे नल, मुझे एक वार छोड़ दो, में (तुम्हारा) कुछ 
उपकार करूँगा । भाई कहो, (अपने) उस कहे हुए का पालन करोगे ? 
यह मेरा दुःख कब टाल दोगे ? ' ११ प्रत्युत्तर मे हंस बोला, “ महाराज, 
मेरे योग्य कुछ काम (मुझे) सौप दो। जो काम भति कठिन होगा, वह 
(भी ) सब मुझ (जैसे) सेवक से (पूरा) हो जाएगा !। १२ नल बोले, 
' तुम सब (प्रकार) से करोगे, फिर भी मेरी जिहवा खुलती नही है (मैं 
नही बोल सकता) । कठिन काम (तुम्हे करने के लिए) केसे दिया जाए ? 
कदाचित (तुमसे) वह (पूरा) होगा, अथवा नही (भी) होगा । १३ (यदि) 
वह (पूरा) न हो जाए, तो तुम खेद को प्राप्त हो जाओगे। लज्जा से 
तुम घर लोट नहीं आभोगे-- यह वात समझना ”। हंस बोला, “* मैं व्यर्थ 
ही नही लोटंगा । मैं बात-बात पर रूठनेवाला पुतला तो नही हूँ । १४ 

चोदह लोको ' मे गये हुए की (जाने की सामथ्य रखनेवाले की) यह गति 


१ चौदह लोक (भुवन)-- भू:, भूवर्‌, स्वर, महर, जन,'तप, सत्य, अतल, 
बतल, सुतल, महातल, तलातल, रसातल और पाताल | 


प्रेमाननद-रसामृत (नलोपाख्यान) २३१ 


एहवी तमारी दीसे देह, कहांथी वर पाम्या भाई एह, 
हंस भणे सांभछ हो न, सरोवरमां छे सोनानां कमछ । १६। 


नित्य भोजन करवुं तेह, जेवूं जमबुंतेवी देह, - . 
पाठ पगतीए जड़्यां रतन, चंच घसुं अमों पंखीजत। १७। 
तेहनी वछगे छे रेखाय, माटे रत्तजडित चंचाय, 
हवे मा पुछशो आडी वात, काम शुं छें कहोनी भ्रात। १८। 
नक्क कहे एक विदर्भ देश, कुंदतपुर भीमक नरेश, 
तेहने दमयंती दीकरी, कारणरूपे ते अवतरी। १९। 


+ 


वलण ( तर्ज बदलकर ) 


कारणरूपे ते अवतरी, वणदीठे मोह थयो अमने, , 
ते नारीशूंं वेहवा मेलछ॒वो, एहवूं मागूं छों तम कने | २० । 


है। तुम्हारा कार्य सत्य (सिद्ध) हो जाएगा .। तो नल बोले, ' हे खगजन, 

तुम्हारा शरीर सोने का है और चोंच रत्न (की) है। १५ ऐसी तुम्हारी 
देह (अद्भुत) दिखायी देती है। हे भाई, तुमने यह वर कहाँ से प्राप्त 
किया ? * तो हंस बोला, “ हे नल, सुन लो। सरोवर में सोने के कमल 
हैं। १६ मैं नित्य उनका भोजन करता हूँ। जैसा खाता हूँ, वेसी (मेरी) 
देह (हो गयी) है।. (उस सरोवर के) कगार की सीढियों में रत्न जड़े 
हुए हैं। हम पक्षी लोग (अपनी-अपंनी) चोंच (उन पर) घिसते है। १७ 
उन (रत्नों) की रेखाएँ (मेरी चोंच पर) अंकित हो गयी हैं। इसलिए 
(मेरी) चोच रत्न-जटित (दिखायी देती) है। अब आड़ी-टेढी (इधर- 
उधर की) बातें मत 'पूछो। हे भाई, कहो न, क्‍या काम है ? ' १८ 
(तो इसपर) नल बोले, ' विदर्भ नामक एक देश है। उस देश की राजनगरी 
कुन्दतपुर में भीमक नामक राजा है। उत्तके दमयन्ती नामक एक कन्या 
है; वह (मेरे) कारण-स्वरूप (मेरे लिए) अवतरित है। १९,' 


वह (मेरे) कारण रूप से (मेरे लिए) अवतरित है। उसे बिना देखे 
ही हमें उसके प्रति मोह हो गया है। उस नारी से विहाह द्वारा मुझे मिला 
दो। --मैं तुमसे इतना माँग रहा हूँ '। २० 


२३२ गुजराती (नागरी लिपि) 


कडव्‌ं १० मुूं--( हंस का नल फो ताश्यस्त करना और दमयन्‍्ती के पास जाना ) 
. राग रामग्री 


हसी ने बोल्यो विहंंगम वाणी जी, 
श्राता शृूं माग्यू लज्जा आणी 'जी। १। 


ढाछ 
मागी मागीने शुं रे माग्यूं, एक दमयंती नारी, 
देवकन्याने आणी आपुं, तो कवण भीमकुमारी ।। २ । 
विद्याधी ने किन्नरी, गांध्रवी झपनिधान, 
ते नारीना रूप आगछ, दमयंती मूके मान। ३ । 
कोटी कन्या परणावूं, पदिमती गौरणात, 
तेहनी कांति आगढ दमयंती, ते -दीसे दासीमात्र । ४ । 
अतक वितकढ सुतक् तल्ातकछ, रसातक पाताल, 
त्यां पेसी नागकश्या आणी आपूं, कोण भीमकनी बात्व ? । ५ । 


फड़वक- १० ( हुंस का नल फो आएचस्त करता भौर वमयन्ती के पास जाता ) 


वह पक्षी (हस) हँसकर यह बात बोला, ' है भाई, लज्जा अनुभव 

करते हुए तुमने (माँगा तो) क्या माँगा ? १ माँगते-माँगते, अहो, तुमने 
क्या माँगा ? दमयन्ती नामक कोई एक नारी माँगी ? मैं तो देवकत्या 
लाकर (तुम्हें) दे सकूंगा, तो फिर भीमक (राजा) की कन्या (की) कौन 
(बात) है 7? २ विद्याधरियाँ, किन्नरियाँ और गन्धरवियाँ रूपनिधि होती 
है। उन नारियो के रूप के सामने दमयन्ती तो (अपने रूप सम्बन्धी) 
घमण्ड को छोड़ देगी। ३ मैं तो ऐसी कोटि (-कोटि) कन्याओं से 
(तुम्हारा) विवाह करा दे सकता हूँ। पद्मिनी जाति' की स्त्रियाँ गौर 
शरीरधारी होती है। उनकी कान्ति के सामने दमयन्‍्ती तो दासी मात्र 
(-सी) दिखायी देती होगी । ४ अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, 
पाताल में से-- वहाँ पैठकर मैं ताग-कन्याएँ ले आऊँगा । फिर भीमक की 
कन्या कौन (क्या) है ? ” ५ (इसपर) नल बोले, “हे पक्षिराज ! 


१ पद्मिनी-- कामशास्त्र फे अनुसार रूप, शील और स्वभाव की दृष्टि से निर्धारित 
स्त्रियों के चार वर्गों मे से प्रथम वर्ग की स्‍त्री । उसका शरीर चम्पा की भाँति गौर धर्णे- 
वाला होता है, कमल-दल को भाँति कोमल होता है और उसके अंग-प्रत्यग से कमल 
हर निकलती रहती है। वह भत्यन्त लज्जाशील, किन्तु बहुत मानिनी भी 

तो हे। 


के 


प्रेमानन्द-रसामृत, (नलोपाख्यान ) २३३ 


नह कहे हुं सकक्त श्यामा, पाम्यो पंखीराय, 
कोटी कारज तें कर्या, मेलछ॒व वेदर्भी शूं वेहवाय। ६ । 
एक मासनो वायदो, -हंसे कर्यो सुजाण, 
त्यारे नह कहे त्रीस दहाडा, त्रीस जुग प्रमाण। ७ । 
त्यारे दिवस आठनी अवध करी, कहेतो गयो गुणवात, 
पीठी करजो राजाजी, तत्पर करजोी जान। ८ । 
भूप कहे प्रयाण ते, हंस में न कहेवाय, 
हुँ तो तूं. विता एकलो, प्राण विना जेम काय। ९ । 
हवे एम जाणी विलंब मा करशो, रखे करता कोश स्नेह, 
जो अवधं' वटशे आव्यानी, तो पडशे माहरो देह। १०। 
विश्वास आप्यो वीरने, पछे परवर्यो खगेश, 
थोडे काछे आवियो, जहां विद देश। ११। 
भीमक रायना घरनी वाडी, त्यां दमयंतीनूं धाम, 
ते वाडी मध्ये आवी हंंसे, लीधूं नव्ठनूं नाम । १२। 
(माना कि) मैं (ऐसी) समस्त नारियों को प्राप्त हो चुका हँ-- (माना 
कि) तुमने (मेरे) कोटि (-कोटि) काये किये है। (फिर भी) मुझे 
वेदर्भी अर्थात दमयन्ती से विवाह में मिला दो '। ६ (तब) उस सुजान हंस 
तें इस काम को पूरा करने के लिए एक मास का वादा किया। तब नल बोले, 
“तीस दिन तो तीस युगों के प्रमाण (बराबर) हैं '।७ तब आठ दिन 
की अवधि निर्धारित करते हुए वह गुणवान पक्षी (यह कहकर) चला गया, 
“हलदी (तेयार) करके रखो। हे राजाजी, तुम बारात तैयार करके 
रखना '।८५ राजा बोले, ( हे हंस, मेरे द्वारा तुमसे प्रयाण करने को नहीं 
कहा जा रहा है। मैं तो बिना तुम्हारे अकेला हूँ, जेसे बिना प्राणों के 
शरीर हो।९ अब यह जानकर विलम्ब न. करोगे (न करना)। 
कदाचित, तुम किसी दूसरे से स्नेह करते रहते हो। (यदि) तुम्हारी आ 
जाने की अवधि बीत जाए (उसके अन्दर तुम न आओगे), तो मेरी यह देह 
छूट जाएगी (मैं मर जाऊंगा) _। १० (भनन्‍्तर) उसने उन वीर (बन्धु) 
को विश्वास दिला दिया और फिर वह खगराज (हंस) चला गया | - वह 
थोड़े ही समय में (वहाँ) आ गया, जहाँ विदर्भ देश है। ११ जहाँ भीमक 
राजा के (राज-) गृह की फुलवारी थी, वहाँ दमयन्ती का निवास-स्थान 
था। उस फूलवारी के मध्यभाग में आकर हंस ने “' नल ” नाम कहा 
( नल ” नाम का उच्चारण किया) | १२। वह पौणिमा की मध्यरात्रि 
थी। चन्द्रमा मस्तक पर (सध्याकाश में) आया हुआ था। (तब) 


२३४ गुजराती (नागरी लिपि) 


चंद्रमा मस्तके आव्यो, पूणिमा मध्य जामनी, 
सखी साथे द्यृत रमे छे, दमयंती जे भामनी। १३-। 
तेणे 'समे तांहां हंसे, वखाण्यो नक् राजान, 
शब्द सुंदर सांभछी, श्यामाएं धरियो कान। १४। 
हरिवदतीए हंस दीठो, बेठो चंपक छोड, . . 
आ शां सुनानूं सावजूं, थयुं झालवानूं कोड। १५। 
शोभतूं ने बोलतूं, करे नक्नी. विखाण, 
ए पंखी कर चडे नहीं, तो तजूं माहरो प्राण। १६। 
अबछा हैठी ऊतरी, झांझर काढ़्यां तत्काढ, 
हँसे दीठी कामनी, त्यारे बेठो नीची डाछ | १७। 


दोडे आडीअवछी अंगना, करे झालवानो उपाय, 
हाथमांथी हंस नहासे, चपक्क नव झलाय | १८। 


पंखी कहे रे प्रेमदा, अमो कमछना रहेनार, 
नकछ विना को न झाले, तूं कोण छे ग्रहेणार ? । १९। 


दमयस्ती नामक जो भामिनी (नारी वहाँ) थी, वह (अपनी) सखी के 
साथ दूत खेल रही थी। १३ (उस समय वहाँ) हंस ने नल राजा का 
(स्तुतियुक्त) बखान किया । उस सुन्दर शब्द (ध्वनि) को सुनते ही 
उस स्त्री ने (उस ओर) कान दिये (वह उसे ध्यान से सुनने लगी) । १४ 
उस चन्द्रमुखी ने हस को देखा। वह चम्पक के पौधे पर बेठा हुआ था । 
यह क्या (कसा) सोने का पक्षी है ! (उसे देखकर उसके मन में) उसको 
पकड़ने की इच्छा हुई। १५ “ यह शोभायमान है और बोलनेवाला भी 
है! यह नल का बखान कर रहा है -फिर यह पक्षी यदि (मेरे) हाथ 
नही आएगा, तो मैं अपने प्राण त्यज दूंगी '। १६ --(ऐसा सोचकर ) वह 
संत्री नीचे उतर गयी। उसने (पहनी हुई) झाँझर तत्काल उतार दी 
(ताकि कोई ध्वनि न हो) । हंस ने उस कामिनी को देखा, तो तब वह 
नीचली डाल पर (आकर) बैठ गया | १७ वह नारी इधर-उधर दोड़ती 
रही और उसे पकडने का उपाय (यत्न) करती रही । (फिर भी) वह 
हँस उसके हाथ से (दूर) भागया रहा। “वह चपल (पक्षी) पकड़ा नहीं 
जा रहा था । १८  (अनन्तर) वह पक्षी बोला, ' हे प्रमदा, हम तो कमल 
में (कमलों के बीच) रहनेवाले हैं। हमें तल के सिर्वा कोई भी नहीं 
हो सकता । तुम कौन हो, जो हमें पकड़मेवाली हो (पकड़ना चाहती 

8 १९ ; ६ 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) २१५ 


वलण ( तज़े बदलकर ) 
ग्रहेनार तूं कोण मूर्खी, तुंने कहांथी नव्छनी शुद्ध रे ? 
वचन सुणीने वामाएं, विचारी झालवातनी बुद्ध रे।२०। 


अरी मूर्खा ! तुम (हमें) कौन पकड़नेवाली हो ? तुम्हें चल का 
कहाँ से परिचय है ? ' उस स्त्री ने यह बात सुनकर उसे पकड़ने की 
बुद्धि (युक्ति) सोची (सोचकर तय की ) । २० 


कडयं ११ समुं-( दसयस्ती हारा हुंस को चतुराई से पकड़ना ) 
राग मारु 


चतुर भीमकनी कुमारी, तेणे अकलित वात विचारी, 
नथी हंस देतो मुने सहावा, -पण नव देउं एहने जावा। १ । 
पंखी धीरे कमकछने काजे, हाथ आप्या मने महाराजे, 
जोगवाई जगदीशे मेली, महारी कम जेवी हथेली। २... 
शरीर सघढ्ठुं कहीए संताडूं, पाणपंकज एहने देखाडु, 
पोतानां वस्त्र दासीने पहेरावी, बेठी चेहेबचामां आवी ।' ३ । 
मस्तक सृक्‍यं पलाशनूं पान, विकासी हथेली कमक समान, 
मध्य मुक्‍यूं जांबुनूं फछ, जाणे भ्रमर ले छे पीमछ। ४ ॥ 


कड़वक- ११ ( वमयस्ती द्वारा हंस को चतुराई से पकड़ना ) 


(राजा) भीमक की कन्या (दमयन्ती) चतुर थी। उसने ऐसी 
बात सोची कि जिसकी कोई (अन्य) कल्पना (तक) नही कर सके। 
(उसने यह तय किया--) यह हंस तो मुझे स्पर्श (भी) नही करने दे 
रहा है; फिर भी मैं उसे (यों ही) जाने नही दूंगी । १ यह (हस जैसा) 
पक्षी कमल के सम्बन्ध में, विश्वास करता है। मुझे तो भगवान ने हाथ 
दिये हैं। भगवान जगदीश ने यह व्यवस्था कर दी है-- मेरी हथेली 
कमल जेसी है। २ (अब--) मै अपने पूरे शरीर को कही छिपा देती हूँ और 
उसे अपने कर-कमल (ही) दिखा देती हूँ। (ऐसा विचार करके ) उसने 
अपने , वसत्न दासी को पहना दिये और वह स्वय उस शैवाल आदि से 
युक्त जलाशय में आकर बेठ गयी । ३ उसने अपने मस्तक पर पलाश 
का पत्ता रख लिया और अपनी हथेली को कमल सदृश, विकसित किया 
(फला लिया) । उसके बीच में उसने जामुन का फल रखा, मानों कोई 
श्रमर सुगन्ध का सेवत कर रहा हो । ४ वह स्त्री अपनी नाक मे से 


२३६ गुजराती (नागरी लिपि) 


पोते तासिकाए गणगणती, भामा भमरानी पेरे भणती, 
हंसे हरिवदनी जाणी, तन होय पंकज, प्रेमदानों पाणि। ५। 
बेसूं जई थई भज्ञान, परणाववों छे नक्ठ राजान, 
आनंद आणी अंबुज भणी चाल्यो, बेसतां,अबछाए झाल्यों । ६ । 
दमयंती कहे शे न नाठो, हल्या गाठुओ थईने गाठो,  - 
मुने दोडावी कीधी दुःखी, मृवा पहेलां हुंन ओछखी। ७ । 
तारा अवगुण नहीं संभारु, मुने बापता सम जो माह, 
हंस कहे शूं जाओ छो फूली, नथी बेठो हुं भ्रमे भूली। ८ । 
हुंमां प्राक्रम छे अति घणुं, चंचप्रहारे तारा हस्त हणुं, 
दमयंती कहे हंस भाई, तारे मारे थई मित्राई। ९। 
अन्योन्ये ते बोल ज दीधो, हाथेथी मृकीने खोले लीधो, 
तमो विखाण कीधूं सबक, ते भीआ कोण छे नक्तल ? | १०। 
तेनां कोण मात ने तात, मुने विखाणी कहो वात, 
हंस बोल्यो मुखे तव हसी, अबढा दीसे घेली कशी | ११। 


गुनगुताने लगी; वह मानो भ्रमर की तरह बोलने लगी (ध्वनि करने 

लगी)। हस ने उस चन्द्रानना को जान लिया (उसे कोई स्त्री ही 
समझा) --(यह जाना कि) यह कोई कमल नही है, किसी प्रमदा का हाथ 
है। ५ फिर भी ' अज्ञान बनकर मैं जाकर (वहाँ) बैठ जाता हूँ --मुझे 
नल राजा का (उससे) परिणय तो कराना है ”। --(ऐसा सोचकर) 
आनन्द अनुभव करते हुए (आनन्दपूर्षक) वह उस कमल के प्रति चला 
गया। उसके बैठ जाते ही उस स्त्री ने उसे पकडइ लिया । ६ दमयन्ती 
बोली, “ अब क्यों नही भाग गया ? भरे, तू ठग होकर भी. (मुझसे) ठगा 
गया है। तूने मुझे दोड़ा (-दौड़ा) कर दुःखी बना दिया। भरे मुए, मै 
तेरे द्वारा पहले नही पहचानी गयी । ७ (फिर भी) मैं तेरे अवगुणों का 
स्मरण नही करूँगी (अवगुणों पर ध्यात नही दूंगी)। मुझे अपने पिता 
की सोगन्ध है, यदि मैं तुझे मार डाल '। (यह सुनकर) हंस बोला, 
/ तुम (घमण्ड से) फूली क्‍यों जा रही हो। मैं भ्रम से भूलकर नही बेठा 
था।८५ मुझमे बहुत पराक्रम है। (यदि मैं चाह तो) अपनी चोंच के 
भाघात से तुम्हारे हाथों को काट दूँगा '।* तो दमयन्ती बोली, ' अरे भाई 
हंस, तेरी-मेरी (अब) मित्रता हो गयी (समझ ले) (। ९ (अनन्तर ) 
उन्होंने एक-दूसरे को अभिवचन ही दिया, तो (दमयन्ती ने) उसे हाथ में 
से छोडकर गोद में (बैठा) लिया। (फिर वह बोली--) “ तुमने 
(जिनका) बड़ा बखान किया (बड़ी प्रशंसा की), रे भाई, वे नल कौन 
हैं? १० उनके कौन माता और पिता है ? मुझे इस (सबं) का वं्णन 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) २१३७ 


तेना गुण ब्रह्मसभामां गवाय, चछ ते विष्णु आगछ वखणाय, 
ए भीआ मोटा चतुरसुजाण, जे हुं नक॒ती करुं रे विखाण ।.१२। 
नक्क दीठो नहीं ते रोझ, सांभलयों नहीं ते ब्रखडोज, 
जोयो नहीं तेनां लोचन कहेवां, मोरपीछ चांदलिया जैवां। १३। 
एटलामां मन विह्वल कीधूं, चित्त महिलानुं आकर्षी लीं, 

बेउ कर जोडीने नमयंती, हंस प्रत्ये कहे दमयंती। १४ । 
हुं पूछूं छौँं बीती बीती, नत्॒नी कथा कहो अथ इति, 

छे बाक्क वृद्ध जोबन धाम, शे अर्थ नक् धराव्यूं नाम ? । १५। 
तमे आवडो जीभे वरण्यो, छे कुंवारों के परण्यो ? 

एवां वचनने सांभव्ी, त्यारे हंस बोल्यो कलछुकछी। १६" 
नक छे कुंवारो, नथी कन्या, छे ब्रह्मानो मोटो 'अच्या,' 
'अमे कोटानकोट नारी नीरखी, न सके नछने परणवा सरखी। १७ । 
एक वार ब्रह्माए शुं करियूं, सकक तेज एक पात्नमां भरियूं, , 
ते तेजनो घडदोो नक्कराय, कांई एक रज वाधी पात्र्मांय । १८। 


करके बता दो ”। (यह सुनकर) तब मुख से हँसते हुए वह हंस बोला, 
' यह भबला तो कंसी पागल दिखायी दे रही है। ११ उनके ग्रुण ब्रह्मा 
जी की सभा में गाये जाते है; नल की प्रशंसा तो (भगवान) विष्णु के 
सामने की जाती है। वे भाई तो बड़े चतुर, सुजान है। मैं उनका 
वर्णन (कंसे) कर सकंगा । ११ जिसने नल को देखा नही, वह पुरुष 
नीलगाय जाति का नर है; जिसने उनको, अर्थात उनके विषय में सुना 
नही हो, वह तो बल है। जिसने उन्हें नही देखा हो, उसके नयन तो 
मोर-पंख पर के चेंदोवे जेसे कहे जाएं '। १३ इतने (कहने) में उस 
(हंस) ने उस नारी का मन विहवल बता दिया; उसके चित्त को आकर्षित 
कर लिया (मोहित किया) । तो दमयन्ती दोनों हाथों को जोड़कर 
नमस्कार करती हुई, हंस से बोली । १४ “ मै तो डरते-डरते पूछ (कह) 
रही हूँ कि नल की कथा अथ से इति तक (मुझे) बता दो। (क्या). वे 
बालक है, वृद्ध है (अथवा) यौवन के (साक्षात्‌ ) धाम (निवास-स्थान) हैं । 
उन्हें “ नल _ सास किस अथे से धारण कराया गया ? १५ तुमने अपनी 
जिद्दा से इतना तो वर्णन किया । (परन्तु यह नही कहा कि) वे क्वारे है 
अथवा विवाहित है /। तब इस प्रकार की बाते सुनकर हंस कलकल (ध्वनि) 
करते हुए बोला। १६ “नल क्वारे है। (उनके योग्य) कोई कन्या 
नही जनमी है- ब्रह्मा द्वारा किया हुआ यह बड़ा अन्याय है। मैने कोटि- 
कोटि नारियों को ध्यान से देखा है, परन्तु नल से विवाह कराने योग्य कोई 
(कन्या) नहीं मिल रही है। १७ एक बार. ब्रह्माजी ने क्‍या किया।? 


२३८ गुजराती (नागरी लिपि) 


तेनती एक थपोली हवी, आकाशे ऊपन्यो रवि, 
वहाणे सांजे नक् बाहेर नीसरे, तेजवत्‌ वनमां फरे। १९। 
सूरज झांखी कहाडे कोर, वहाणु सांज तेणे टहाडो पोहोर, 
अदृष्ट ज्यारे थाय राजान, निर्श्चित भानु तपे मध्याक्ष । २०। 


वलण ( ते वदलकर ) 


मध्याक्ष नक जाय मदिरमां, माटे सूरज तपे घणुं 
हंस कहे हो हरिवदनी, शूं विखाण करुं ते नकतणुं | २१। 





समस्त तेज एक पात्र में भर दिया। उस तेज से नल को गढ़ लिया। 
(उस तेज के) कुछ (रज:-) कण उस पात्र के अन्दर बचे रहे। १८ 
उसकी एक राशि बन गयी । उससे आकाश में सूर्य उत्पन्न हुआा। 
सवेरे और शाम को नल बाहर निकलते हैं और वे तेजस्वी (पुरुष) बन में 
घूमते रहते है। १९ तो सूरज घूँधली कोर निकालता है; उससे सवेरे 
गौर शाम के समय वह शीतल हो जाता है। (परन्तु) जब राजा (नल) 
अदृश्य हो जाते हैं (अर्थात प्रासाद के अन्दर रहते है), तब मध्याहन के 
समय चिन्ता-रहित होकर सूर्य तपता रहता है। (अर्थात्‌) राजा के प्रासाद 
के अन्दर रहने पर ही सूर्य तेजस्वी दिखायी देता है; उनके बाहर रहने पर 
सूर्य फीका पड़ जाता है) । २० 

मध्याहत के समय राजा अपने प्रासाद में (विश्राम के लिए) जाते 
हैं; (तब) इसलिए सूर्य बहुत तपता रहता है '। (फिर) हंस बोला, 
“ हे चनर्द्र-वबदना, मैं ऐसे नल का क्‍या वर्णन कर्ख ? २१ 


फडव्‌ं १२ सुं--( हंस द्वारा नल राजा फो प्रशंता करता और दमयन्तो का उनके 
प्रति भासकत हो जाना ) 


राग जेतश्री 
हंस भणे हो भाभितनी, ब्रह्मांड त्रण जोया सही, 
नत्तनी तुलना मेलूवुं पण, महीतत्मां तुलना को नहीं | तुलचा० । १। 








कड़वक-- १२ ( हंस द्वारा पल राजा को प्रशंसा फरता और दसयन्‍्ती का उनके प्रति 
आसकत हो जाता ) 

हँस बोला, “ हे भामिनी, मैंने सचमुच तीतों ब्रह्माण्डों को देखा-- तल 

'की तुलना करने के हेतु योग्य वस्तु प्राप्त करने के लिए खोजकर देखा; 

परन्तु प्ृथ्वी-तल पर उनकी कोई तुलना नही है (उनसे तुल्य वस्तु या 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान ) २३६ 


जुग्म रविसुत रूप, आग जाय नाखी वाट, 


गंभीरताएं वर्णवूं, पज अण॑वर्मां खाराद।तुलना०। २। 
शीतछताएं शशी हार्यो, मृके कछा पामे कष्ट, 
तेजथी आदित फरे नाठो, मेरु केरी पृष्ठ ।॥तुलना०। ३। 
ऐश्वर्य युद्ध इंद्र हार्यो, उपाय कीधा लाख, ह 
तक आगछ महिमा गयो माटे, महादेव चोछे राख । तुलना० । ४। 
नैषधरायता रूप आग, देवने थई चिताय, 
रखे आपणी स्व्रीओ वरे नह्ठने, सर्वे मांडी रक्षाय | तुलना ०। ५. 
लक्ष्मीनूं मन चंचकछ जाणी, विष्णु मन विमासे, 
प्रेमदाने लई पाणीमां पेठा, बेठा शेषने वांसे | तुलना०। ६। 


हिमसुताने हर लई नाठा, गया गुफामांय, । 
सहस्र आंखो इंद्रे करी, करवा नारीनी रक्षाय | तुलना० । ७। 
सिद्धि बुद्धिने धीरे नहीं, राखे गणपति अहोनिश पास, 

ऋषिपत्नीने ऋषि लई नाठा, जई रह्मया वनवास । तुलना० । ८ । 


व्यक्ति कही कोई नहीं है) । तुलना०। १ सूय॑ के जुड़वाँ पुत्तस्वरूप 
(दोनों) अश्विनीकुमार (नल के सामने निस्‍्तेज होने के डर से) अपना' 
मा छोड़कर किसी दूसरे मार्ग से जाते है। गम्भीरता मे सागर से तुलना 
करके उनका वर्णन करूँ, तो सागर में तो पानी खारा होता है। तुलना०। २ 
शीतलता में चन्द्र (उनके सामने) हार चुका है; वह तो कला (तेज, 
कान्ति) छोड़ता जाता है और कष्ट को प्राप्त हो जाता है। तेज के साथ 
सूर्य तो घूमता है; फिर भी नल के सामने हार मानकर वह मेरु पव॑त के 
पृष्ठभाग में भाग गया। तुलना०। ३ ऐश्वरयं सम्बन्धी तुलना रूपी 
युद्ध में इन्द्र हर गया । उसने लाख-लाख उपाय किये (पर कुछ नहीं हो 
सका) । नल के सामने महिमा नष्ट हो गयी, इसलिए महादेव शिवजी 
(शरीर में) राख मलने लगे। तुलना०।४ नैषधराज नल के रूप के 
सामने (के कारण) देवों को यह चिन्ता हुई कि कदाचित हमारी स्त्रियाँ 
(अब) नल का वरण करेंगी; इसलिए वे सब उनकी रखवाली करने लगे । 
तुलना० । ५ लक्ष्मी के मन को चचल जानकर भगवान विष्णु का मन 
बहुत सोच-विचार में पड़ गया; इसलिए वे अपनी स्त्री को लेकर पानी 
में प्रविष्द हुए और (वहाँ) शेष की पीठ पर बैठ गये । तुलना०। ६ 
शिवजी हिमालय की कन्या पार्वती को लेकर भाग गये और गुफा के 
अन्दर गये। अपनी स्त्री की रक्षा करने के लिए इन्द्र ने (अपने लिए) 
एक सहस्न आँखें निर्मित की। तुलना०।७ श्रीगणेशजी (अपनी 
स्त्रियों-) सिद्धि और बुद्धि कः विश्वास नहीं करते; (इसलिए) वे उन्हें 


२३० गुजराती (नागरी लिपि) ' 


पाताक्॒मां लई पद्मितीने, वसिया वरुण ते भूप, 
स्वाहाने साचववा वह्तनिए, धर्या अडतालीस रूप | तुलना० । ९। 
चंद्र ने सूरज नाठा फरे छे, रखे वरती नारी, 
नारदजी आगछथी चेत्या, माटे रह्मा ब्रह्मचारी | तुलना०। १० । 
हंस भणे हो भामिती, एम सउए श्यामा संताडी, पु 
नक्े रूप” गुण' जसथी, सर्व॑ सृष्टि कष्ट पमाडी ।तुलना०। ११९॥ 
पुरुषने अदेखाईनूं बढ्वूं, नारीने बहे काम, | 
अनल प्रगट्यों सवेने, माटे नक्क धराव्यूं नाम ॥तुलना०। १२। 
जपब्रत जेणीए कर्या हशे, सेव्यों हिमपर्वत, 
ते नारी नक्॒ने परणशे, जेणे काशी मुकाव्यूं करवत । तुलना ०।१३। 
ब्रह्माजीने सृष्टिमां, को न मणे जाचकरूप, 
न॑छने दाने द्वारिद्रय छेद्यां, भिक्षुक किधा भूप । तुलना० | १४॥। 
त्यारे नरम थई दमयंती बोली, निर्मकछ नक्ठ भूपाछ, 
जेम तेम करता भाई मारो, त्यां मेछाव वेविशाक्त | तुलना० | १५। 


दिन-रात अपने पास रखते है। ऋषि अपनी (-अपनी ) पत्नियों को लेकर 
भाग गये जौर जाकर वन में निवास करके रहने लगे । तुलना०|॥5 
पद्मिनी को लेकर वहण राजा पाताल में बस गये। अपसी स्त्री स्वाहा 
की रखवाली करने फे लिए अग्नि ने (और) अड्त्ालीस रूप धारण किये | 
तुलना० । ९ कदाचित नारी (नल का) वरण करेगी, (इस डर से) सूर्य 
ओर चन्द्र भाग गये और वे (नित्य) घूमते रहते हैं। नारदजी तो पहले से 
ही सचेत हो गये; इसलिए वे ब्रह्मचारी हो गये '॥ तुलना०१॥ १० 
हंस (फिर) बोला, “ हे भामिनी, इस प्रकार सबने (अपनी-अपनी) स्ट्ी 
को छिपाकर रखा। नल ने रूप, ग्रुण, यस से समस्त सृष्टि कष्ट को प्राप्त 
करायी । तुलना० | ११ पुरुषों को ईरष्या की आग जलाती रही, तो 
कामभाव नारियों को जलाने लगा है। (इस प्रकार नल से) सबके लिए 
अनल (आग) पेंदा हुआ; इसलिए उनको “नल ' नाम धारण कराया 
गया। तुलना०। १९ जिसने जप, ब्रत किये हों, हिमालय पवत में 
लिवास किया हो, जिसने काशी मे जांकर आरे से अपने आपको चीर ढाला 
हो (अर्थात्त चीर डालने की तैयारी की हो), वह नारी नल का वरण कर 
पाएगी । तुलना०। १३ ब्रह्मा की इस सुष्टि में याचक रूप में कोई भी 
नहीं, मिल रहा है। नल ने दात से (सबकी) दरिद्रता का उच्छेद कर 
डाला; ,भिक्षुकों को राजा (जैसा धनवात) बना दिया है [। तुलना०। (४ 
तब कुछ नम्र होकर (अर्थात घम्रण्ड छोड़कर नम्रता के साथ) दमयस्ती. 





प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) २४१ 


हंस कहे फोकट फ़ांफां जेम, वामणो इच्छे आंबाफकछ, 

तेम तुजने इच्छा थई, भरतार पामवा नक्ठ | तुलना ० । १६। 
हजार हंस हुं सरखा फरे छे, नेषधपतिना दूत 

खप करी प्रणाबीए, तो तुं सरखुं क॑ई भूत | तुलना०। १७। 
वचन सुणी विहंगमतां, अबछाए सूृक्‍यो अहंकार, ' 

भूंडा एम शृं मने निश्चंछा, आपणे मित्राचार | तुलना०। १८। 


स्तेह तो सत्कर्मनों, एम वदे वेद ने न्याय, 
एम जाणी परणाव मुजशुं, लागूं तारे पाय | तुलना०। १९। 


वलण (तज़ं बदलकर ) 


पाये लागूं ने नक्ठ मागूं हवे ,आवी तारे , शर्ण रे, 

नहींतर प्राण जाशे माहरा, ने पिंड पडशे धर्ण रे । तुलना ०। २० । 
बोली, ' (जान पड़ता है--) भूपाल नल निर्मल है। है मेरे भाई, जैसे- 
वैसे करके वहाँ (उनके साथ) सगाई करा दो ”। तुलना०। १५ 
(इसपर) हंस बोला, “ये यत्न व्यर्थ हैं, जैसे कोई वामन (नाटा मनुष्य) 
ऊंचे वृक्ष पर से) 'आम का फल प्राप्त करना चाहता हो (उसके हाथ फल 
तक नहीं पहुँच सकते; इसलिए. उसके द्वारा किये यत्न व्यर्थ सिद्ध हो जाते 
हैं), उसी प्रकार नल को पति के रूप में प्राप्त करने की (व्यर्थ ही) इच्छा 
हो गयी है। तुलना०। १६ मुझ जैसे हज़ार (-हजार) हंस नेषधपति नल 
के दूत, बनकर घूम रहे है। यत्न करके हम उनका विवाह करा देंगे-- 
तुम जैसे तो कई भूत है (क्या तुम जैसी भूतनी को उनसे व्याह दे ?)। १७ 
उस पक्षी की बात सुनकर उस स्त्री (दमयच्ती) ने -अहंकार का त्याग 
किया (ओर'ब़्ह बोली--) “भरे दुष्ट, तुम मेरी इस प्रकार क्या नि्भ॑र्त्सना 
कर रहे हो ? अपनी तो मित्रता है। तुलना०। १८ वेद और न्याय 
ऐसा-कहते है कि स्तेह सत्कर्म के लिए होता है। ऐसा जानकर उनका 
मुझसे विवाह करा दो । मैं तुम्हारे पाँव लगती हूँ । तुलनचा० । १९ 


मैं तुम्हारे पाँव.लगती हूँ जौर (अपने लिए पति के रूप में) नल की 
याचना करती हूं । ' भरे, मैं अब तुम्हारी शरण में आ गयी हूँ । नही तो 
मेरे प्राण जाएंगे और यह शरीर धरणी पर गिर पड़ेगा ' । तुलना० । २० 


श् 


२४२ शुजराती (तागरी लिपि) 


डबुं १३ मुं--( हंस हारा दसपन्तो को भाश्वस्त करना ) 
राग वेराडी 


हंस भणे हो भगिनी मारी, भीम॑क राजकुमारी, 


निश्चय तक तुजने परणावुं , मुने दया आधे छे तारी | हंस० । १। 
अमो मल्तांने प्राणज आपुं, पुरंं मतनी आश, 
तारो भोह लगाडुं नक्कने, नाखी ऊंचानीचा पाश । हंस० । २। 


एक जडीबुट्ी सुंघाडूं नह्वने, तत्क्षण थाञ्षे घहेलो, 
आफणीए आांहां आवीने रहेशे, वहेली सर्वती पहली | हंस० । ३। 
नतने तूं निरधार परणशे, ए महारो सकेत, 
रखे त्यारे पहिली कोने वरे, पछे हुं थाउं फजेत | हंस० | ४। 
आवशे नकठनां रूप लईने, देवता मोटा घाती, 


बण तपासे वरीश मा, रखे डाही थई वह॒वाती । हंस० । ५। 
नक्त अमरमां वहेरो शुं छें, भोछृखाव्यो ते वेश, 
देव रहेशे अंतरिक्ष ऊभा, नव मे निमेप | हंस० | ६। 











3 _लघनट९ 3 ली जटिल +ल्‍ी जी 


कड़वफ-- १३ ( हुंस द्वारा दमयन्ती को झाश्वस्त करता ) 


हँस बोला, ' है मेरी भगिनी, भीमक राजा कौ कन्या, मैं निश्चय ही 
तुमसे न॑तल का विवाह करा दूँगा। मुझे तुम पर दया भा रही है। हंस०। १ 
(अपने) भिन्न के लिए मैं प्राण ही दे संकता हूँ (और उसके) मन की 
आशा को पूर्ण करता हूँ। (कुछ) ऊँचे-तीचे पाश डालकर में नल (के 
मन) में तुम्हारे प्रति मोह (आसकब्िति) लगा दूंगा (उत्पन्न कर दूंगा) । 
हंस० । २ मैं नल को कोई एक जड़ी-बूटी सुंघाऊँगा, तो वे तत्क्षण पागल 
हो जाएँगे। (फिर) वे शीघ्रतां से सबके पहले, यहाँ स्वयं आकर रह 
जाएंगे। हंस० ।३ मेरा वही संकेत है कि तुम नल का निश्चय ही 
वरण करोगी । शायद उससे पहले तब किसी का बरण करोगी, तो फिर 
मैं दुर्दशा को प्राप्त ही जाऊँगा । हंस०।४ बड़े घात करनेवाले (कंपटी ) 
देवता नल का रूप धारण करके आएँगे। (फिर भी) बिना परीक्षा 
किये, किसी का वरण नहीं करोगी (मत करो)। शायद (अधिक) 
सयानी बनकर तुम वह जाओगी (धोखा खाकर बहक जाओगी) । 
हंस० ।५ नल भीर देवो में क्‍या अन्तर है? मैं उनके वेश की परख 
कराये देता हूँ । देव अन्तरिक्ष मे खड़े रहते हैं (उनके पाँव भूमि को स्पर्श 
नही 30 । उनकी पलकें मिलती अर्थात झपती नहीं। हंस०। ९ 
अपने घर में तुम स्वयंचर का आयोजन कराओ। इसके अतिरिक्त एक बात 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान ) २४३ 


स्वयंवर तूं. घर रचावे, वक्ली करे एक वानुं, 
तारो पिता नहोतरुं मोकले, तूं पत्र लखजे छानुं । हंस० । ७। 
हंसरायनां वचन सुणीने, वामा करे विदाय; 
जाओ कहुं तो मारी जीभ कापुं, गया विना काम न थाय । हंस० । ८५ । 


हो रे विहंगम हो रे विहंगम, मारो विरहतो वहनि समावो, 
वीरसेनसुतने विवाह अथें, वीरा पहेलां वहेलां लावो | हो० । ९ । 
तारा वहोणी मक॒नो विजोग छे, हुं ए बे दुःखे दुखाछी, 

अन्न न भावे, निद्रा न आवे, मेछाप तमारा टाछी । हो० । १०। 
विश्वास आपीने वात वहेवाती, रखे जातो वीसरी, 

स्वयंवरमां नकठ नहीं आवे तो, प्राण जाशे नीसरी | हो०। ११॥। 
जो तमो नाथ आणी नहि आपो, तो कोण आपकशे बल्तुं, 

मोटुं पुण्य छे मनुष्य राख्यानूं, अनंग अग्निथी बढतुं। हो० । १२ । 
मात, तात ने सगा भाई, हुं तेने लाजू कहेती, 

केम कहुं नत्ठवने परणावो मुंने, सर्वे कहे अलेती। हो०। १३। 


जज आज आज आम ला 


करो। तुम्हारे पिताजी (बसे तो) निमंत्रण भेज देगे। (फिर भी) 
तुम गुप्त रूप से उनके (नल के) ताम एक पत्न लिख देना '। हंंस० । ७ 
हंसराज की बात सुनकर उस स्त्रीने उसे बिदा किया। “वह 
बोली--) “ (यदि) तुम्हें ' जाओ ” कहूँ, तो (जान पडता, है--) मैं अपनी 
जिह॒वा को काट रही हूं। (परन्तु) बगैर तुम्हारे गये, काम नहीं होगा । 
हंस० । ८५ है विहग, है विहग, मेरी विरह॒ की आग का शमन कर दो । 
विवाह के लिए वीरसेन के पुत्र (नल) को, है भाई, शी घ्रता-पूर्वक (सबके ) 
पहले ले आओ। हो रे०.१९ (एक तो) तुम्हारे विहीन (मै रह जाऊँगी ) 
ओर दूसरे नल का विरह है --इस प्रकार मै इन दो दुःखो से दुखिया वन रही 
हैं। तुम दोनों के मिलाप के टल जाने पर मुझे अन्न अच्छा नही लगेगा; 
मुझे नीद नही आएगी । हो रे० । १० विश्वास देकर कदाचित, बिवाह 
की बात को तुम भूल जाओगे भौर यदि स्वयंवर मे नलन आ जाएँ, तो 
(मेरे) प्राण निकल जाएंगे। हो रे० । ११ यदि मेरे अपने नाथ 
(स्वामी) को नही लाकर दोगे, तो बाद में कौन ला देगा। काम की 
आग हे जलनेवाले मनुष्य के मन को रखने में (मनुष्य की कामना को पूर्ण 
करने में) बड़ा पुण्य होता है। हो रे० । १२ मेरे अपने माता, पिता 
भर सगे बन्घु है। पर मैं उनसे यह कहले में लज्जा को प्राप्त हो जाती 
हैं। मैं उनसे यह कंसे कहूँ कि मेरा नल से विवाह करा दो । सब इसे 
बचकानापन कहेंगे । हो रे०। १३ ग्रुहय बात तो मित्र से कहें। (क्या) 


हा 


२४४ गुजराती (नागरी लिपि) 


गुह्म वात ते मित्रने कहीए, वहालानी होंय चोरी, . 
वणरोगे आ वपुनी वेदना, तूं हंस जाणे मोरी | हो० ॥ १४। 
तारा आशा-सूत्रनो तंतु, प्राण रह्मो छे वढ्गी, ' 
वहेवा वात मिथ्या सांभव्ठतां, देह था प्राणथी अकछगी'। हो० । १५। 
विश्वासघातनुं पाप छे मोटुं, तमो डाह्याने शुं कहीए ? 
वृद्धनी वात करी जाओ छो, नथी कीधी नाहाने छेये। हो»। १६ । 
हंस कहे हो भामिनी, निश्चे रहे तूं. विश्वासे, 
एम कहीने खग तांहां थकी, ऊडी गयो आकाशे | हो० | १७। 
आवी मह्ह॒यों नकूराजाने, वात कही जे वीती, 
समाचार कह्मो जई हंसे, नत्ने अथी इति। हो०। १५। 
पंखी कहे पुण्यश्लोकजी, वीती वात शृं करुं ?7 # 
दिन दश-पांचमां आव्युं देखशो, परण्यानूं चनहोतरुं । हो० । १९ | 
वलण ( तर्ज बदलकर ) '' 

नहोतरु आवशे स्वयंवरनुं, हंसे वात नक्तने कही रे, 
वेविशाल् मह्ठयुं, दृतत्व फल्युं, तेमां काई संदेह नहीं रे। हो० । २० । 
प्यार करने मे चोरी होती है ? हे हंस, बिना रोग के मेरे इस शरीर की 
मेरी वेदना को तुम जानते हो। हो रे० । १४ मेरे प्राण तुम्हारे आशा 
रूपी तन्‍्तु को पकड़कर रह रहे है। री देह, विवाह की बात को मिथ्या 
(व्यर्थ) हुई सुनते पर, तू प्राणों से अलग हो जा। हो रे० । १४ 
विश्वासघात का पाप बड़ा होता है। . तुम (जैसे)) समझदार से क्या कहें । 
तुम वृद्ध (अर्थात प्रोढ, अनुभवी) की (-सी) बात करके जा रहे हो-- तुमने 
किसी छोटे बच्चे की (-सी) ' बात नहीं की है (जिससे कि उसका कोई 
विश्वास त करे) । हो रे० । १६ ' है; हम 

तो हंस बोला, “ हे भामिनी, तुम निश्चय ही विश्वास के साथ रह 


. जाओ !। ऐसा कहकर वह पक्षों वहाँ से आंकाश में उड़' गया। 


हो रे० । १७ वह आकर नल राजा से मिला औरं॑'जो घटित हुईं, सो बात 


. उसने उनसे कही । हंस ने जाकर नल से अथ से इत्ति तक समाचार कह 


दिया। हो रे० । १८ वह पक्षी बोला, * हे पुण्यश्लोक राजाजी, घटित 
बात क्या कहें ? तुम, 'दस-पाँच दिन में विवाह करने के: निमंत्रण आया 


. हुआ देख लोगे ”। हो रे० । १९ 


हंस ने नल से यह बात कही, “ स्वयंवर का निमंत्रण -आ जाएगा। 
(समझो कि--) सगाई हो गयी, दूतत्व फल को प्राप्त हुआ । उसमें कोई 
सन्देह नही है '। हो रे० । २० । ' 


प्रेमानन्द-रसामृत' (नलोपाख्यान ) २४५ 


कडव्‌ं १४ मुं--( हंस द्वारा कुंदनपुर और उद्यान का वर्णन करना ) 
राग मलारनी देशी 


बंन्यो मित्र मछीने बेठा, पूछे नक्त भूपाछ्जी, 
वीर विहंगम कहोने वारता, केम मेल््यो वेविशाहढ जी । *१ । 
गाम, ठाम ने रूप' भूप गुण, गोत्र ने आचार्य जी, ' 
सर्वांगि संपूर्ण श्यामा, मान्यु तार ' अंतःकरण जी।२। 
केस गयो, तेम दूत थयो, वात कहो मुंने' मांडी जी, ' 

ते कन्या केम बोली तुज साथे, लज्जा मननी छांडी जी। ३ । 
पंखी कहे सांभव्वीए स्वामी, कन्या वर्णत विवेक जी, '' 
शेष छेक न पामे स्तवतां, शृं कहुं जिहवा एक जी। ४ । 
कुंदनपुर ते कुंदन जेवूं, जोतां मोह उपजावे जी, ' 
वेकुंठ त्यां आप्युं प्रस्थाने, अमरापुरीनि लजाबवे जी। ५ । 
चारे वर्ण धर्म ने पाछे, जे. पोतानां कर्म जी, 
सुखनिवृत्त निरभे प्रजा ने, आण भीमकनी धर्म जी। ६ । 


सी जी जज आर आज आज कक या आओ आय ली कम कक कक 





फड़वक-- १४ ( हुंस द्वारा कुन्दनपुर और उद्यान फा वर्णन फरना ) 


वे दोनों मित्र मिलकर (एक स्थान पर) बैठ गये । तो भूपाल नल 
ने हंस से पूछा (कहा), “हे वन्धु पक्षी (हंस), समाचार कहो न कि किस 
प्रकार मेंगनी हुई॥ १ ग्राम, स्थान और रूप, राजा के गुण, गोत्, 
आचाये, उस रुत्नी के सर्वांग का सम्पूर्ण रूप-वर्णन करके कह दो । मैंने 
तुम्हारे अन्तःकरण की बात मान ली है। २ कैसे गये ? वैसे ही' दूत 
(कैसे) बन गये ? मुझे ठीक से वह बात कह दो। मन की लज्जा को 
छोड़कर वह॒ कन्या तुमसे किस प्रकार बोली ? ” ३ (इसपर) वह-पक्षी 
बोला, ' हे स्वामी, उस कन्या का वंर्णन विवेकपूर्वक सुनो। (एक सहख्र 
जिद्धाओं वाला) शेष तक उसकी स्तुति करने की क्षमता को प्राप्त' नही 
हो जाएगा, तो मैं एक जिहल्ना से क्‍या कहेँ। ४ वह कुन्दनपुर (नामक 
नगर) कुन्दन जैसा है। देखने पर, वह मोह उत्पन्न कर देता है। वहाँ 
(उसकी तुलना में) वेकुण्ठपुर को तो प्रस्थान करने (भागकर निकल जाने 
की स्थिति) तक ला दिया; उसने अमरापुरी को लज्जित कर दिया है । ५ 
चारों वर्ण (के लोग) अपने-अपने घ॒र्म का और जो अपने कततव्य हैं, उनका 
निर्वाह करते हैं। प्रजा सुख (-लोलुपता) से निवृत्त (अनासक्त) तथा 
निर्भय है। भीमक राजा के राजधर्म की (धर्मानुसारी राज्य-शासत की ) 
आन फिरती . ४. हाँ) आनन्दोत्सव होते रहते है. और श्रीहरि की 


ड़ 
के 
5 


रे 


२४६ गुजराती, (तागरी लिपि) 


आनंद ओच्छव ने हरिसेवा, घेर घेर वाजित्र वाजे जी, 
वासव विष्णु विरंचि इच्छे, वास सुखने काजे जी। ७ । 
विद्या मुकावी निशाचरनी, ते शीर्या दिवाचर काम जी, 
जुग्म कपाद विजोगपुरमां, जुदां रहे अष्ट जाम जी।८५। 
कर्मत्याग पारधीए कीधां, ग्रुणिकाए ग्रही लज्जा जी, 
उचाट एक अधर्मचि वर्ते, सकंप एक ध्वजा जी। ९। 
भुवत भव्य भूप भीमकनां, भुवत्त त्रण व्यतिरेक जी, 
घरती वाडी परम मनोहर, मध्ये आवास छे एक जी। १०। 
सप्त भोम ते व्योम समाने, फरती बारी जाछी जी, 
दश सहस्न नारी आयुधधारी, करे कन्या रखेवाक्लकी जी । ११। 
चंदन चंपक चारोढी ने, वट बाछो वेलडी जी, 
फणसी फोफछी ने श्रीफछी, आंबा साख सेलडी जी । १२।॥ 





सेवा खलती है। धर-घर वाद्य बजते रहते हैं। सुख (-प्राप्ति) के हेतु 
इन्द्र, विष्णु भौर ब्रह्मा (वहाँ) निवास करना चाहते है। ७ (उत्तके 
राजा ने) निशाचरो (चोरों-उचक्कों) की विद्या को छुड़वा दिया, तो वे 
निशाचर (चोर आदि लोग) दिवाचरों (दिन में खुले रूप में काम करनेवाले 
भले लोगों) का-सा काम सीख गये-- भर्थात चोरी आदि कुकर्म से मुक्त 
होने के लिए विवश बनाकर राजा भीमक ने उन्हें दिन (“दहाड़े) प्रकट 
रूप में घृमने-फिरने, काम करने योग्य कर दिया और अन्य लोगो जेसे कार्य 
करने योग्य बनाये रखा-- अर्थात अच्छे काम करते हुए वे प्रकट रूप में दिन 
में इधर-उधर विचरण कर सकते हैं। द्वार के दोनो किवाड (एक-दूसरे 
से) बिछुड़े हुए रहते हैं; वे आठों पहर एक-दूसरे से जुदा रहते है (वहां 
द्वार दिन-रात खुले रहते है। क्योंकि चोर आदि का अस्तित्व वहाँ नहीं 
है) ।८5 बहेलियों ने अपने (हिंसात्मक) कार्मों को छोड़ दिया है। 
गणिकाओं ने लज्जा धारण की है (वे अब वेश्या-व्यवसाय नही करती) । 
चिन्ता एक (केवल) अधर्मानचरणियों मे रहती है। सक्स्पत एक (केवल) 
ध्वज ही होता है (और कोई कम्पायमान नही है) । ९ भीमक राजा का 
चह भुवत त्रिभुवन से अधिक भव्य है। उनके घर का उद्यान परम 
मनोहारी है। उसके मध्य में एक हवेली है। १० उस (हवेली) के 
सातों खण्ड (मंजिलें) तो भाकाश के समान (विश्ञाल) हैं। उसके चारों 
श्रोर जालीदार खिड़कियाँ है। (वहाँ) आयुध धारण की हुई दस सहस 
तारियाँ उस कन्या (दमयन्ती) की रखवाली कर रही हैं। ११५ (उम्र 
उपचन में) चन्दन, चम्पक, चिरोंजी और बरगद (के पेड़) तथा खस की 
लताएँ है। पन्स (कठहल), सुपाड़ी, नारियल, आम, साखू और 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) २४७ 


बीली कोठी द्राख दाडमी, नारंगी ने नेत्र जी, 
अखोड, खजूर ने लवंगलता, बहु खारेकना क्षेत जी। १३। 
शीतछ जक्ाशय कसल केतकी, कुसुम पूरण कूंज जी, 
मलियागर मोगरा मालती, खटपद गुंजागूंज जी। १४। 
वेल वालो खलोखली, शीतक् वाय समीर जी, 

वयण पंखी रथण बोले, डोले राजा गीर जी।१५। 
साग सीसम ने सरगवा, सादडिया ताल तमाल जी, 
करेण काम बाबची बद्रिका जावंत्री जायफल जी। १६। 
वाड वाटिका वंक वेलामणी, केछ्-बंन बिजोरी जी, 
बेलडीए साहेलडी वक्कगी, हींडें गुणवंत गोरी जी। १७। 
ते वनमांहे हुं गयो ने, हवो ते हष॑ पूर्ण जी, 
वक्षजूथमां पेसी बेठो, गोपवीने चर्ण जी। १८। 
दासी सर्व थई निद्रावश, इंदु आव्यो माथे जी, 
दमयंतीए द्यृत आरंध्यूं, माधवी सखी साथे जी। १९। 
तेणे समे में तमो वर्णव्या, श्यामाएं धरिया श्रवण जी, 

ऊठी बाली अटाछीए आवबी, जोती नेत्ने तीक्षा जी। २०। 
घीगुवाँर के पेड़ है। १२ बेल, कथ, अगूर, अनार, नारंगी ओर बेत (के 
पेड़-पोधे) हैं। अखरोट, खजूर और लोग-लताएं है। छुआरे के (पेड़ों 
' के) बहुत क्षेत्र है। १३ (वहाँ) शीतल जलाशय हैं। उनमें कमल है। 
(वहाँ केवड़े के फूलों से भरे-पूरे कुंज है। मलयागरु, मोगरा, मालती के 
पेड़-लताएंँ है। (वहाँ) भ्रमर गृंजारव करते रहते है। १४ (वहाँ) 
खस की बेलों का गृह (लता-मण्डप) है; उसमे शीतल पवन बहता 
है। पक्षी रात को (भी) बोलते रहते हैं। (उनकी मधुर) गिरा 
(वाणी) सुनकर राजा आनन्द को प्राप्त होकर डोलते रहते हैं । १५ 
सागौन, सीसम और सहिजन, अर्जुन (ककुभ), ताल, तमाल, कनेर, 
काम (कांब), बाबची, बदरिका (बेर), जायती, जायफल, झाड़बन्दी, 
“ वाठिका, टेढ़ी-मेढ़ी लताएँ, केले के बन, बिजौरा के पेड़ हैं। (वहाँ) 
गुणवत्ती गोरियाँ (लड़कियाँ) एक-दूसरी से सटकर घूम रही थी। १६-१७ 
मैं उस वन में गया और (यह देखकर) मुझे परिवृर्ण हर्ष हुआ । मैं अपने 


पाँवों को छिपाये हुए, वक्ष-समूह में पंठकर बैठ गया । १८. (कुछ समय . 
के पश्चात दमयन्ती की) समस्त दासियाँ निद्राधीन, हुई। चन्द्रमा सिर * 


प्र आ गया था । (तब) दमयन्तो ने माधवी नामक अपनी सझ्दी के साथ 
यूत खेलना आरम्भ किया। १९ उस समय मैंने तुम्हारा वर्णन किया 


२४८ है गुजराती (नागरी लिपि) 
पासे दासी बंन्यो राखी, चत्तुरा ,चोदश भाछे जी, 
आ बनमां कोई जन आव्यों छे, बोली करे आ काछे जी । २१। 


वलण ( तजे बदलकर ) 


आ काके बोली कोण करे छे, जुए वनमां फरीफरी रे, 
हंस कहे हुं हवो विस्मय, शु वखाणुं ए सुंदरी रे ? ।२२। 





के न कली आओ बडी अवकरमक 


और उस स्त्नी (दमयन्ती) को वह श्रवण कराया। (उसे सुनते ही) वह 
बाला उठ गयी और जटारी पर आ गयी। वह पैनी आँखो (दृष्टि) से 
देखने लगी । २० उसने अपने पास दो दासियों को ले रखा था भौर 
वह चारों दिशाओ में देखने लगी। (उसे लगा-- ) इस वन में कोई 
मनुष्य आया हुआ है भौर वह इस समय बोल रहा है । २१ 
वह वन के अन्दर बार-बार देखने लगी कि इस समय कौन बोल 
रहा है। (फिर) हस (नलराज से) वबोला-- 'मैं विस्मित हुआ। उस 
सुन्दरी का मैं क्‍या वर्णन कर पाऊंगा “ । २२ 


कडवं १५ मुं--([ हंस द्वारा लल़ राजा से दमपन्ती-भेंट सम्धन्धी प्रमाचार कहता ) 
राग धनाशरी 
भूप में दीठो गर्वेघेलडी, सखी वे मध्य ऊभी अलबेलडी, 
कदल्दीस्थंभ जुगल साहेलडी, वच्चे वेदर्भी कनबकनी वेलडी | १ । 
! दा 
जाणे वेलडी हेमनी, अवेव फूल . फूली, 
चकित चित्त थयूं मारु, ने गयो दृतत्व ' भूली। २ । 


ब>-+ “>> >> आज जज लत जल व ची डा 





जज + 


कड़वफ्‌-- १५ ( हंस हारा नल राजा से दमयस्तो-पेंट सम्बन्धी समाचार कहना ) , 


' हैं राजा, (रूप के) अभिमान से उन्मत्त उस नारी को मैंने देखा.। 
वह अलबेली दो सखियों के बीच में खड़ी थी। वे दोनों सहेलियाँ 
(मानो) कदली-स्तम्भ थीं और उनके बीच बंदर्भी दमयन्ती स्वर्ण की लता 
(जैसी) थी १। मानो वह सोने की लता थी। वह (देह रूपी) लता 
अग्ों रूपी फूलों से फूलोी हुई थी। (उसे देखकर) मेरा चित्त आश्चये- 
चकित हुआ ओर मैं दूतत्व को भूल गया । २ आभाकाश में (एक) भौर 
भूमि पर (एक) आमने-सामने दो चन्द्र शोभायमान थे (एक था आकाशस्थ 


प्रेमाननद-रसामृत (नलोपाख्यात) , २४६ 


सामासामा रहा शोभे, व्योम भोम बे सोम, 
इंदुमां बिंदु विराजे, - जाणे उडगण भोम। ३ । 
ऊभे अमिनिधि किरण प्रगद॒यां, कछा थई प्रकाश, 
ज्योत-ज्योतथी स्थंभ प्रकट्यो, शृं एथी थंभ्यो आकाश ? । ४ । 
कामिनीनो. परिमतछ . बहेके, कछा शोभे लक्ष, 
शके घराधर वास लेवा, चड़यो चंदन वृक्ष । ५। 
कुरंग-मीननी चपकछता, शुं खंजन जाके पडियां ? 
नेनत्नअणि अग्रे श्रवण बींध्या, सोय थई नीमडियां। ६ । 
शके नेत्न खेत्र छे मोहनूं, डोडाढां अंबुज, 
अ्रव शरासन दृष्टि शर, हाव-भाव बे भुज। ७ । 
गछस्थठ नारंग फक्त शा, आदित्य इंदु अकोटी, 
रक्‍्तहेम अधर ,दंत हीरा, जिहदवा जाणे कसोटी। ८ । 


चन्द्रमा और दूसरा था दमयन्ती का मुख रूपी घन्द्रमा)। इधर (मुख-) 
न्द्र पर बिन्दु (बिन्दी नामक आभूषण) शोभायमान था। जान पड़ता 
था कि आकाश के तारागण भूमि पर (उतरे हुए) है। (उसके आशभूृषणों 
में स्थित रत्न तारे जान पड़ते थे।) ३ उन दोनों चन्द्रों से किरणें 
प्रकट हो रही थीं; उनकी (समस्त) कलाएँ प्रकाश से युक्त हो रही थी। 
एक-एक किरण रूपी ज्योति-ज्योति से (प्रकाश-) स्तम्भ प्रकट हो रहा 
था। (लगता था--) क्या उन्ही (स्तम्भों के बल) पर आकाश टिका 
हुआ है । ४ उस कामिनी (की देह) से सुगन्ध महक रही थी। उस 
(कामिनी) की लाख (-लाख) कलाएँ (अंग्र-प,्रत्यंग का अंश-भंश) 
शोभायमान थी । कदाचित शेषनाग सुगन्ध का सेवन करने के लिए 
(चोटी के रूप में उसके शरीर रूपी) चन्दन वृक्ष पर चढ़ गया हो | 
(मैंने देखा कि--) उसके नेत्नों में कुरण (मूग) और मीन (मछली) की 
चपलता है। अथवा (जान पड़ा कि) क्‍या जाल मे (दो) खंजन पक्षी 
पड़े हुए है / (जाल में फेंसे रहने के कारण वे अन्दर ही अन्दर चपलता 
से हिल-डल रहे हो ।। उसकी आँखें आकर्ण हैं। जान पड़ता था कि 
उन) आँखों की अनियों के अग्र से उसके कान बींघे हुए है। वे ही 
(आँखों की ,अनियाँ) कटारे बनी हुई है। ५-६ जान पड़ता था५ कि उसके 
नेत्र मोह के दो क्षेत्र (खेत) है। उसकी पलकें कमल (की पंखड़ियाँ) 
हैं। उसकी भोहे शरासन (धनुष) है, तो दृष्टि बाण है। उसके हाव- 
भाव दो भूज हैं। (अर्थात वह हावभाव छपी हाथो द्वारा भौह रूपी 
धनुष से दृष्टि रूपी शर चलाती है) । ७ उसके गाल नारंगी के फल है । 
उसके कर्णभूषण सूर्य-चन्द्र (जेसे) है। उसके होंठ लाल-लाल स्वर्ण (के 


२५० गुजराती (नागरी लिपि) 


कीर आनन पर श्रीखंड शोभे, कोयल बोले अणछती, 
तनलता पर पंखी बेठा, नव रहेवायूं मारी वती। ९। 
अधररस स्पशित स्वाति बिंदु, में जाण्यूं करूं ग्रास, 
उदर सर आभरण अंबुज, जईने पुरु वास। १०। 
ताभि नीरज पाकछ मेखला, रहे गमन साथ अमारो, 
रोमावलि द्रुम कुच टोडा, उरमंडछ शुं उवारो। ११। 
अंग तरंग यौवन, जोतां तृप्त न थईए, 
क्षुतवा तृषा पीडे नहीं, रूपसुधामां रहीए। १२। 
कचभूषण कदछीपत्र उपर, शब्द तेनो ऊठे, 
तां बोले पंचानन प्रह्ारथी, शृं लागो मेगल पूछे। १३। 


न बल > 





बने) है, तो दाँत हीरे (जैसे) हैं। जिह्ला मानो (लाल रंगवाली) 
कसोटी है (जिसके आधार से होंठ रूपी स्वर्ण तथा दाँत रूपी हीरे की परख 
की गयी हो) । ५ उसके मुख पर तोता और मोर विराजमान हैं (तोता 
नाक के रूप में और मोर उसमे पहनी हुई वेसर के रूप में; अर्थात, उसकी 
नाक तोते की चोच-सी जान पडती है और उसकी वबेसर मयूराक्षति है, 
अथवा उसमें मयूराकृति रत्न जटित है) । (उसका स्वर सुनकर जान 
पड़ता था कि कही) कोयल छिपकर (बैठी हुई) बोल रही है। (इस 
प्रकार) उसकी तनु रूपी लता पर ये तीन पक्षी (तोता, मोर भौर 
कोकिल) बेठे हुए है। (तब) मुझसे रहा नहीं गया । ९ उसके अधरों 
को स्वाति-विन्दु, अर्थात मोती (जो नाक में पहनी बेसर में था) छ 
रहा था। (यह देखकर) मैंने समझा (चाहा) कि मैं उसे (चुगकर) 
खा लूं। उसका उदर (मानो) कोई सरोवर है, उस पर धारण किया 
हुआ आभूषण कमल है; (तो मुझे लगा कि) जाकर मैं उस (सरोवर) 
में निवास कर लूं। १० उसकी नाभि (मानो) कमल है; (कि में 
बँधी) मेखला (उस सरोवर का) तट है। उसकी चाल मेरी चाल के 
साथ, अर्थात मेरी चाल जैसी है (दमयन्ती हंस-गामिनी थी)। उसकी 
रोमावलि (उदर रूपी सरोवर के तट पर स्थित) वृक्ष हैं, उसके कुच केंगरे 
हैं, तो (समस्त) उर-मण्डल (उस सरोवर का) घाट ज॑ंसा है। ११ 
उसके अग (-प्रत्यग) की (हलचल-स्वरूप) तरंगे उसका यौवन है। उन्हें 
देखते रहते कोई तृप्त नही हो सकता । उसे भूख और प्यास पीड़ा नहीं 
पहुंचा सकती । (इस दशा में) उसके रूप रूपी अमृत में (गोते लगाते) 
रह जाएँ। ११ उसकी पीठ रूपी कदली-पत्न पर उसके द्वारा बालो पर 
(गोफन नामक) आभूषण पहना हुआ है। उसकी ध्वनि उठ रही है । 
- जान पड़ता है कि) वहाँ उस आशूषण के प्रह्मर से उत्पन्न होनेवाले शब्द 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) २५१ 


केछ शाखाये जलज जुगम चढ़यां, गजथी पाम्या खेद, 
युग्म अंबुज तांहां मक्तियां, मर्यां मधुकर वेद | १४। 
स्कंध पदना ते कदठी सरखा, खट तोयज तोय पास, 
सुद्ध बुद्ध नव रही मारी, हुं बोली ऊठयो अभिलाखे। १५॥। 
वदी वाणी व्योमचरनी, पड़यो मूर्च्छा खाई, 
हाटकरूप देखी सखी साथे, मुजने ग्रहवा धाई। १६। 
मोहवारणी पी पड़यो, कनन्‍्याए ग्रह्यो आवी, 
भूज अबुज में पण भेद्या, तोये मन नव लावी। १७। 
नात, गाम ने नाम पूछयू, स्वामी तारों कोण ? 
रटण रसनाए करे बांधी, एवो वरणन पोण | १८। 
स्वामी नक ने वर्णन नह्वनंं, दूत नक्छनो छुंय, 
गिरि, तरुवर के धातु फछ के, कुसुम नक्त ते शुंय । १९! 


के रूप में कोई सिंह गरज रहा हो और वह मानो हाथी के पीछे पड़ा हो । 
(दौड़ रहा हो । दमयन्ती की कटि सिंह की-सी है और चाल हाथी की- 
सी है) । १३ दो कमल (दमयन्ती की देह मे, चाल में स्थित) हाथी से 
खेद को प्राप्त हुए (यह हाथी कुचल डालेगा, इस आशका से खिलन्न हुए) 
और पदों रूपी कदली को दो शाखाओं-- स्तम्भो पर चढ़ गये (वे 
कमल ही स्तन है) । वहाँ उन्हे दो और कमल (अर्थात नेत्न-कमल) 
मिल गये । (वहाँ) काले स्तनाग्र रूपी दो तथा नेत्नो की पुतलियो रूर्पी 
दो अमर निश्चय ही मिल गये। १४ उसके पैरों के स्कनन्‍्द कदली 
(-स्तम्भ) सदुश है। (इस प्रकार) बिना पानी के (पाती का अस्तित्व 
न होने पर भी, वहाँ दो कर-कमल, दो स्तन-कमल, दो नेत्न-कमल-- 
कुल) छः कमल मिल गये। (उन्हे देखकर) मुझे सुध-बुध नही रही । 
में (उत्कट) अभिलाषा के साथ (सहसा) बोल उठा । १५ मैं पक्षी की 
वाणी में बोलने लगा। (फिर भी) मूर्च्छा के आने से गिर पढ़ा। मुझे 
स्वर्ण-रूप देखकर अपनी सखियों को साथ में लेकर वह (दमयन्ती) पकड़ने 
के लिए दौड़ी । १६ मैं मोह रूपी वारुणी पीकर पड़ा हुआ था; (तब) उस 
कन्या ने आकर मुझे पकड़ लिया। परन्तु मैंने उसके कर-कमलों को (चोंच 
से) काट लिया, फिर भी उसने (उस ओर) मन नही लगा दिया (उसकी 
ओर कोई ध्यान नहीं दिया) | १७ (अनन्तर) उसने मेरी जाति, ग्राम 
ओर नाम पूछा। (और यह भी पूछा--) “तुम्हारे कौन स्वामी हैं. 
तुम इस प्रकार (मानो) उनका वर्णन करने की प्रतिज्ञा (वा प्रण) करके 
अपनी जिह्ना से उन (के नाम) की रट लगाये हुए हो '। १८ (इसपर 
मैं बोला--) ' मेरे स्वामी नल है और यह नल का वर्णन है। मैं नल का 


२५२ गुजराती (नागरी लिपि) 


प्राण नक के उदर नक, के जकछ नक्क गेहनो, 
रहे तुज मछयो कांति कमछे, ए वरण तेनी देहनो | २० । 
पर अभग्न वृश्चिक आंकडो, भेद्यूं निज भुृजतत्क, 
शके तारा नाथनी एवी, काया छे कोमछ ॥ २१। 
शब्द सुणी श्यामा तणों, हुं सही रह्यो ते काह, 
त्तम प्रतापे तारुणीनेी, में नाखी मोहजाछ । २२ । 
अम्ृतवट थाये जो ऊणों, अमर पान ज्यारे करे, 
वैदर्भीनी वाणी सुधा जाणी, लेई कुंभ पूरों भरे। २३। 
वनितावदत विधिए कीधूं, सार शशीनूं लीधु, 
नक्षत्रतनाथने लाॉछत भासे, कलंक लागट कीधुं। २४। 
ग्रहेश ने शवेरीपति ते, गोप्य ऊभा फरे, 
वदर्भीता वक॒त् आगछ अमर ते आरती करे। २५। 
कचसमूहनी राव करवा, विधि कने कह्ााधर गया, 
करे अरधचद्र काढ्यो ठेसी, ते अद्यापि अक अंगे रह्मा | २६। 





दूत हू '। (तो वह बोली--) “वह नल क्या पबेत है या तरुवर है, वा धातु 
अथवा फल है, वा फूल है? १९ नल क्या प्राण है वा नल क्या उदर है, 
अथवा वह घर का पानी का नल है ? कदाचित, तुम्हें कमल से यह कान्ति 
मिली है --यह उसकी देह का भी वर्ण हो। २० परल्तु तुम्हारा अग्न (चोंच) 
बिच्छू का डंक (सदृश) है। उससे तुमने मेरे कर-तल को काट डाला 
है। कदाचित, तुम्हारे स्वामी की काया ऐसी (ही) कोमल है '। २१ 
उस स्त्री के शब्द सुनकर मैं उस समय सहन करता रहा । आपके प्रताप 
से मैंने उस तरुणी पर मोह-जाल बिछा दिया । २२ जब देव अमृत-पान 
करते है, तो यदि अमृत-घट कुछ रिक्त हो जाए, तो वैदर्भी दमयन्ती की 
वाणी को अमृत मानकर उसे लेकर उस कुम्भ को (फिर से) पूरा भर लेते 
है। २३ विधाता ने चन्द्र का सार-तत्त्व लेकर उस स्त्नी के वदन की 
रचना की । इससे नक्षत्न-पति चन्द्रमा मे कलंक आभासित होता है --बह 
कलंक (उसमे) निरन्तर बना हुआ है। २४ ग्रहेश सूर्य और निशापति 
चन्द्र (मारे सकोच के) उससे छिपकर खड़े-खड़े घूमते रहते है। दमयन्ती 
के मुख के सामने देव तो आरती करते (उतारते) है। २५ मोर उसके 
कच समूह के बारे में शिकायत करने के लिए विधाता के पास गये । 
उन्होने हाथ से अरधंचन्द्र देते हुए उन्हें ठेलकर निकाल दिया, तब से अभी तक 
उनके अंग मे उसके चिह्न बने हुए हैं। २६ उस (दमयन्ती) की दिव्य देह 
को गढ़ने के लिए (विधाता ने) समस्त संसार का सार-तत्त्व ले लिया। 





प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) २५३ 


संसार सर्वनूं सार लीधूं, दिव्य देहडी थवा, 
घडी दमयंती ने भूज खंखेयां, तेना तो तारा हवा ।२७। 


जनज्न जाग ने धर्म ध्यान तीरथ, कीधां हशे समस्त, 
तेने पुण्ये पुण्यश्लोकजी, ग्रहशों दमयंतीनो हस्त । २८ । 


भाग्य भूप ए तमतणुं, जे वश वंदर्भी वढोी, 
वेविशाछ मह्ठयूं ने दूतत्व फछयूं, नव शके तेनूं मन चछी | २९ । 


काले आमंत्रण आवशे, तमे करो तत्पर जान, 
ए वात निश्चे जाणजो, तेना साक्षी श्रीभगवान | ३० । 


आनंद नक्ठ पास्थो घणों, पण स्वप्ना सरखूं भासे, 
विश्वास मन नथी आवतो, जे विवाह केई पेरे थाशे । ३१। 


वलण ( तज्े बदलकर ) 


थाशे संबंध भीमकसुतानो, ए आश्चय मोटूं सर्वथा, 
कहे प्रेमानंद कहूँ हवे, दमयंतीनी कथा। ३२। 
उससे दमयन्‍्ती का निर्माण किया और हाथ झटकते हुए झाड़ लिये-- उससे 
तारे निमित हुए । २७ है पुण्यश्लोक राजाजी, आपने यज्ञ-्याग और धर्म 
(-कर्म), ध्यान, तीर्थ-यात्रा सब किया है। उसके पुण्य के बल पर आप 
दमयन्ती का पाणिग्रहण कर लेंगे । २८ है राजा, यह आपका भाग्य है कि 
वेदर्भी (प्रवृत्त होकर) वश में हो गयी । (अब) सगाई हुई (समझना), 
और मेरा दूतत्व (दोत्य कम) सफल हुआ । (अब) उसका मन-विचलित 
नही हो सकेगा। २९ कल निमंत्रण आएगा। आप बारात तैयार 
कीजिए। यह बात निश्चित समझना।  श्रीभगवान इसके साक्षी 
हैं।। ३० (यह सुनकर) नल बहुत आनन्द को प्राप्त हो गये; फिर भी 
यह उन्हें स्वप्न-जेसा आभासित हो रहा था। मन में यह विश्वास नही हो 
रहा था कि किसी प्रकार (उनका दमयन्‍्ती से) विवाह हो जाएगा । ३१ 
भोमक-सुता दमयन्ती से विवाह-सम्बन्ध (स्थापित) हो जाएगा-- 
सब प्रकार से यह एक बड़ा आश्चर्य था। प्रेमानन्द कहते हैं-- मै अब 
दमयचन्ती की कहानी कहता हूँ । ३२ 





२५४ ग्रुजराती (नागरी लिपि) 


कडवुं १६ मुं--( दमयन्ती फी विरह-दग्ध स्थिति को देखकर माता-पिता द्वारा 
उसके स्वयंवर का आयोजन करना ) 


राग गोडी 


हंस वढछावीने वत्ठी वनिता, ज्यां पोतानुं धाम, 
दमवा लाग्यो दमयंतीने, नक्वनना विरहनो काम । १ । 
वखाण बाण श्यामाने वाग्यां, पखी गयो मोह मेली, 
रोमे रोमे वह्नि प्रगट्यों, लागी तालावेली। २ । 
घडीए घरथी बहार नीसरे, वेसे जईने अटाली, 
चंद्रकिरण अग्तिथी अदकां, मारशे मुजने बाढी। ३ । 
वणपरण्यांने व्याकुछ करवा, व्योम वस्यों छे पापी, 
शूं कहीए कमढापतिने, राहुनूं मस्तक नाख्यूं कापी। ४ । 


बल 








फड़वक-- १६ ( दमयच्तो की विरह-वग्ध स्थिति फो देखकर माता-पिता 
हारा उसके स्वयंचर फा आयोजन करना ) 


हंस को बिदा करके वह वनिता (दमयन्ती) वहाँ लौठ गयी, जहाँ 
उसका अपना घर था। नल के विरह के कारण काम-भाव दमयन्ती को 
पीड़ा पहुँचाने लगा। १ उस स्त्री पर (नल के हस-कृत) बखान रूपी 
वाण आधात कर गये थे । (इस प्रक्रार) वह पक्षी (उसपर) मोहिनी 
डालकर चला गया। (उस सरुत्नी के) रोम-रोम में (काम-भाव रूपी) 
आग प्रकट हो गयी। उसे (उनसे मिलने के लिए) आतुरता हो 
गयी । २ एक घड़ी में वह घर से वाहर निकल गयी और अटारी पर 
जाकर बैठ गयी। (उसे जान पड़ा--) आग से अधिक (ताप वाली ) 
चन्द्र की किरणें मुझे जलाकर मार डालेंगी। ३ मुझ अपरिणीता को 
व्याकुल करने के लिए यह पापी (चन्द्र) आकाश में रह रहा है। 
कमलापति भगवान विष्णु को (अब) क्या कहें, जिन्होंने राहु के मस्तक 
को काट डाला. । ४ सिंहिका के उस पुत्र के शरीर होता, तो मेरी चिता 


१ राहु का मस्तक काटा जाना-- राहु कश्यप से उत्पन्न सिंहिका का पुत्र था। 
वह दानव था| समुद्र-मन्थन द्वारा जब ध्षमृत उपलब्ध हुआ, तो देव अमृत का पान 
करने लगे । उस समय प्रच्छन्न रूप से दानव अमृत पान करने के लिए आ गये। 
उनमे राहु भी था। मूयं-चन्द्र ने उसे पहचाना और विष्णु को सकेत से सूचित किया, 
तो उन्होने तत्काल उसका सिर काट डाला। उसके कटे सिर से केतु का निर्माण 
हुआ। तदनन्तर राहु-केतु सूर्य-चन्द्र से द्ेप करने लगे । राहु-केतु के कारण सूर्य- 
चन्द्र को ग्रहण लगता है। यदि राहु मस्तक से युक्त होता, तो वह चन्द्र को निगल 
डालकर नष्ट कर देता । 


प्रेमाननद-रसामृत (नलोपाख्यान) २५५ 


सिंहिकासुतने शरीर होत तो, मुजने चिता थोडी, 
सुधाकरने गक्कत' पेटमां, बछी थात राखोडी। ५ । 
जल्ूपात्र विषे इंदुबिब दीठं, सखीने कीधी शान, 

लाव्य भोगछ रिपुने मारुं, प्रहारे पिष्ठ समान। '६ । 
एम करतां प्रातःकाक्क थयो, तारुणीने आव्यो ताव, 

अन्न न भावे, निद्रा न आवे, वाततणों नहि भाव। ७ । 
अग्निना तणखा सरखा लागे, टाढक चरचे जेह, '. 
वायु व्याधना बाण सरीखो, नीसरे सोंसरो देह। ८ । 
दुखतूं जाणी आवी राणी, जोयुं वस्त्र उधाडी, 

चुंबन करीने पूछे माता, शूं दुःख छे तने माडी। ९ । 
लाडकवाई क्‍यां थकी जीवे, छें| कर्म अमारां दोखी, ' 
अक्षत उतारो दृष्टि बेठी होय, कोईनी मेली चोखी। १० । 
परण्यानो ओरियो नव वीत्यो, जात सासरे समोती, 

रत्न दीकरी क्‍्यांथी जीवे, त्रण भाईनी बहेन पनोती | ११। 
थोड़ी हो जाती; (क्योंकि) वह चन्द्रमा को निगलकर खा जाता, तो वह 
(वहाँ) जलकर राख हो जाता (और मुझे सताने के लिए जीवित न रह 
जाता) । ५ उस (दमयन्ती) ने जल के पात्न मे चन्द्र के बिम्ब को (प्रति- 
बिम्बित) देखा, तो उसने अपनी सखी को आँख से संकेत किया (और 
कहा--), “ अगरी ले आओ, मैं शत्रु को आघात से आठे के समान बनाकर 
(पीसकर चूर-चूर करके) मार डालती हूँ '4६ इस प्रकार करते-करते' 
सबेरा हो गया । उम्र तरुणी को ज्वर आ गया। उसे न अन्न अच्छा 
लगता था, न नीद आती थी। वायु सम्बन्धी (भी) कोई इच्छा नहीं 
थी।७ जो ठण्डक- ठण्डी वस्तुएं लगाते, वे उसे आग की चिनगारियों 
जेसे लगती थी। हवा के झोंके व्याध के बाण जेसे (जान पड़ते और उसे 
जान पड़ता कि वे) देह में से आरपार निकलते जा रहे थे । ८ दर्द होते 
जानते ही रानी (उसके पास) आ गयी। उसने वस्त्रों को हटाकर 
देखा। माता ने उसका चुम्बन करके पूछा, “ अरी मैया, तुझे क्‍या दु:ख 
है? ९ यह लाइली (बेटी) कब तक जीवित रह जाए। (इसके लिए) 
हमारे कर्म (ही) दोषी है। (अरी,) किसी की बुरी-भली दीठ लंग गयी 
हो, तो (इसपर से) अक्षत उतार दो । १० विवाह करने का इसका 
मनोरथ पूरा नहीं हुआ-- इसकी बराबरी वालो (लड़कियाँ अपनी-अपनी) ' 
ससुराल जा रही है। यह रत्न-प्ती कन्या (इस स्थिति में) कब तक 
जीवित रह जाए। तीन भाइयों की यह (अकेली) बहिन सकुशल 





२१६ गुजराती (नागरी लिपि) 


आवडो ताव ते तारुणीने शो, देवने घेर वाक॒थों डाठ, 
कहे कुंवरी अंतरनी आपदा, अमने थाय. उचाट। १२। 
मुख मरडी दमयती बोली, घरडां माणस नठोर, 
परण्यां कुंवारां कांई न प्रीछे, फोकट करवो शोर। १३। 
हूँ समाणी जाय सासरे, तेना जोने भोग, 
तेती पेरे मारे थाशे, आफू्रों जाशे रोग। १४। 
वचन सुणीने समज्यां राणी, पृत्ती थई परणनारी, 
भामिनीए कहयूं भीमकने, पुत्री कां लगी रखशो कुंवारी ? । १५। 
वहाणूं वाय ने दुखवा आवे, जो जीवे आ वारकी, 
कहोने भाएगे काछथी ऊगरे, परणावी करो पारकी। १६। 
दीकरी माणस मोटी थई त्यारे, पियेर नव सोहाये, 
स्वयंवर करी परणावो, जहां एनी इच्छाये। १७। 
राये पुत्र तेडाव्या पोताना, कहयूं बहेनने परणावो, 
देशदेशना जे राजा, दूत मोकली तेडावो। १८। 





रहे। ११ इस तरुणी को इतना कंसा त्ताप है ? देव ने घर का नाश कर 
डाला। री कुँवरी, अपने मन की विपत्ति कह दे। हमें चिन्ता हो रही 
है '(।१२ तो मुंह टेढ़ा करके दमयन्ती बोली, ' बुढ़े लोग तो निलेज्न हो 
गये है; विवाहितों-अविवाहितों को वे कुछ भी नहीं समझते। ब्यर्थ 
शोर मचाना है। १३ मेरी बराबरी वाली ससुराल जा रही हैं। उनके 
(सुख-) भोगों को देखो । उनकी भाँति मेरा (भी) हो जाए, तो अपना 
रोग (भो) चला जाएगा '। १४ वह बात सुनकर रानी समझ गयी कि 
पुत्री विवाह करनेवाली, अर्थात विवाह करने योग्य हो गयी है। तो उस 
स्त्री ने भीमक से कहा (पूछा)-- ' अपनी पुत्री को कब तक कक्‍्वारी 
रखेंगे ? १५ यदि उस समय तक वह जीवित रहे (शीघ्र ही विवाह न 
करे), तो बहुत दिन बीत जाएँगे ओर दुःख (का समय) आ जाएगा। 
कहिए न, यह अपने भाग्य से (दुःखदायी) काल से बच जाएगी। इसका 
विवाह करा दीजिए। १६ यह कन्या अब बड़ी (सयानी) हो गयी है। 
तब इसका पीहर मे रहना शोभा नही दे रहा है। स्वयंवर का आयोजन 
करके, इसका जहाँ इसकी इच्छा हो, वहाँ (उसके साथ) विवाह करा 
दीजिए !। १७ यह सुनकर राजा अपने पुत्रों को बुलाकर ले आये और 
उनसे कहा, “ अपनी बहिन का बिवाह करा दो । देश-देश के जो राजा हों, 
उनके पास दूत भेजकर उन्हें बुला लाओ। १८५ अन्न, धान्‍्य, तृण (आदि) 
सामग्री इकट्ठा करो । मण्डपों का निर्माण करवा दो । विवाह के मंगल- 


प्रेमानस्द-रसामृत (नलोपाझ्यान) ९५७ 


अंन धघंव तृण सामग्री, मंडपने रचावो, 
धवल मंगछक गीत नफेरी, अपछरा नचावो। १९।॥ 
स्वयंवरती सामग्री मांडी, मोठा मत्यया राजन, 
नठने तेडवा भीमके मोकल्यों, सुदेव नामे प्रधान | २०। 


वलण (तर्ज बदलकर ) 
प्रधान नेषध मोकल्यो नारदे, कीधूं हतुूं विखाण रे, 
दमयंतीए पत्र पाठव्यों, वांची नके दीधां निशाण रे। २१। 


गीतों को गाने और मंगल नगाड़े (आदि बाजे) बजाने का प्रबन्ध कर दो | 
अप्सराओं को नचा लो (। १९ स्वयंवर की सामग्री सजाकर रख दी 
(गयी) । बड़े (-बड़े) राजा इकढठा हुए। भीमक ने नल को बुलाने 
के लिए सुदेव नामक (अपने) मंत्री को भेज दिया | २० 
भीमक ने निषध देश में अपने मंत्री को भेज दिया। नारदने 
(नल का) बखान (पहले ही) किया था। (इधर) दमयन्ती ने (भी 
लिखकर ) पत्र भेज दिया । उसे पढ़कर नल ने नगाड़े पर चोट कर दी 
(नगाड़े बजवा दिये) । २१ 


कडयूं १७ सुं--( हंस का नल से बिदा हो जाना ओर नारद हारा देवों को बसयश्ती- 
स्वयंवर सम्बन्धी समाचार कहते हुए उकसाना ) 
४ राग सारंग 
आवी सुदेवे आप्यो कागछ, हृदया चांपी वांचे नक्क, 
स्वस्ति श्री नेषधपुर गाम, पुण्यवंत पुण्यश्लोक नाम। १ । 
छे कालावालानी कंकोतरी, लखितंग दमयंती किकरी, 
आंहां आवी गया खगपत, कहे ते वारता मानजो सत। २ । 








कड़वफ--१७ ( हुंस का नल से विदा हो जाया ओर नारद हारा देवों को 
दमयन्तो-स्वयंबर सम्बन्धी समाचार कहते हुए उकसाना ) 


सुदेव ने आकर पत्र दिया, तो उसे हृदय से (दबाकर) लगाकर 
नल उसे पढ़ने लगे। “स्वस्ति ॥ श्री ॥ नैषधपुर ग्राम ॥ पृण्यवान 
पुण्यश्लोक नाम ॥ १ गिड़गिड़ाकर प्रार्थना करते हुए लिखित यह विवाह- 
पत्रिका है। लिखनेवाली है दासी दमयन्ती। यहाँ पक्षिराज (हंस) 
आकर (लौट) गया। वह जो समाचार कहेगा, उसे सच्चा समझिए। २ 


श्श्प ५ गुजराती (नागरी लिपि) 


में तमने समप्यु गात्न, आ स्वयंवर ते निमित्त मात्र, 
मीत-नीरनी करजो प्रीत, माहरा सरखूं करजो चित्त । ३ । 
वांच्यो कागछ ने हरख्यो नक्ठ, तत्पर कीधुं जाननुं दल, 
अति शीघ्रे साचरे राय, शुकने मत्ठी सवच्छी गाय। ४ । 
कोरंग-कोरंगनगी साथ, साहामां ऊतर्या दक्षिण हाथ, 
हंस भणे भलां शुकन, तूं दमयंती पामें राजन। ५ । 
विदर्भ जईने सिध कीजीए, मने आज्ञा हवे दीजीए, 
वछी को समे आवीश राजन, तुं छे मारो प्राणजीवत। ६ । 
भाई तुजने कहुं विनति, दूत ना रमशो नेषधपति, 
नव करणशो स्त्रीनो विश्वास, ए बे थकी थाय विनाश | ७ । 
चाल्यो खगपति विनति करी, नक्तराजाए भांखडी भरी, 
हंस कहे सांभक् राजन, एम करीए न काचूं मन। ८ । 
माता पिता सुत बांधव जेह, सर्वे वेर संबंधे मत्ठयूं तेह, 
तारे काजे में राजा एह, छखगपतिनो धार्यो देहे। ९ । 


मैंने आपको यह देह समर्पित की है। यह स्वयंवर तो मात्र निमित्त है 
(बहाना है) । मछली और पानी की-सी प्रीति कीजिए। अपने चित्त 
को मेरे योग्य (अनुकूल) बना दीजिए । ३ 


नल ने पत्न को पढ़ा भौर वे आनन्दित हो उढे। उन्होने बारात 
के लिए जन-समुदाय को सिद्ध किया । राजा नल (तर्क्षण) भति शीक्रता 
से चल पड़े। (मार्ग मे) शुभ शकुनस्वरूप स-वत्स गाय मिली। ४ 
हिरत और हिरनी साथ मे (जोड़े मे) सामने से दाहिनी ओर उतरकर चले 
गये। (यह देखकर) हंस बोला, “ये शुभ शकुन है। है राजन, आप 
दमयन्ती को प्राप्त करेंगे। ६५ विदर्भ देश में जाकर (इस बात को) 
प्रमाणित कर दीजिए । अब मुझे आज्ञा दीजिए। है राजा, मैं फिर से 
किसी समय आ जाऊँगा। आप तो मेरे प्राणो के (लिए) जीवन 
(स्वरूप) है। ६ हे बन्धु, मै आपसे विनती करता हूँ। हे नेषधपति, 
आप दूत न खेलना । स्त्री का विश्वास न करना। इन दोनों से विनाश 
हो जाता है ।७ वह खगपति (पक्षिराज हंस) ऐसी विनती करके चला 
जाने लगा, तो नल राजा ने आँखों को (भाँसुओं से) भर दिया। तो 
हंस बोला। 'है राजन, सुनिए। इस प्रकार मन को करचा (अर्थात्‌ धैय॑- 
हीन, कमज़ोर) न करे । ८५. माता, पिता, पुत्र, वन्धुजन जो भी होते है, सब 
वेर-सम्बन्ध से मिले है। हे राजा, आपके (कार्य के) लिए मैंने यह 
पेक्षिराज की देह को धारण किया है। ९ मैं पुर्ब॑ जन्म की कथा कहता 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) श्श्द 


हुं छूं ब्राह्मण ने तूं छे भीलराय, पूव॑जन्मत्ती कहुँ कथाय, 
मारा घरमां हुं दुखियो थयो, काशी करवत घमुकावा गयो | १० । 
एवो समो मनमां धरी, चाल्यो वनमां समर्या हरी, 
अघोर वनमां भूबों पड़यो, तारे स्थानक आवी चड़यो। ११। 


तेवा मांहे रजनी थई, द्वाइश कोशमां वस्ती नहि, 
तेवा वनमांहे रहेतो तूंथ, त्यां आवीने चडियो हुंय। १२। 
तारे स्थानके आवबी रहो, त्यां तूं पण चितातुर थयो, 
मारी आगतास्वागता करी, पण सूवानी चिता धरी। १३ । 
नहानी हती गुफा छेक, आव्यूं माणस माय न एक, 
तारी साधवी नारी सुजाण, मारुं आसन कयु निर्वाण । १४। 
तूं तो वीरा बहार रहियो, राक्षसे आवी तने मारियो, 
मांस चरण हस्त हेठे रह्यूं, नव जाणूं तेनूं शु थयुूं। १५। 
तारी स्त्रीए तज्यो प्राण, काष्ठ भक्ष करो निरवाण, 
मरतां एवं बोली सती, ए ज वर देजो कमव्ापति। १६। 


हँ-- (पूर्व जन्म का) मै ब्राह्मण हूँ और आप भीलराज हैं। अपने घर 

में मैं दुखी हुआ था। अतः काशी जाकर भारे से अपने को चीरकर 
देह-त्याग करने गया (जा रहा था) | १० ऐसा निश्चय मन में धारण 
करके, मैं बन में से जा रहा था। मै श्रीहरि का स्मरण कर रहा था। 
उस अति घोर वन मे मार्ग भूल गया (मागे-भ्रष्ट हो गया)। तो (घूमते- 
घूमते) अकस्मात आपके निवास-स्थान आ पहुँचा । ११ उतने में रात हो 
गयी । बारह कोस में कही वस्ती नही थी । उस समय आप वन में रहते 
थे। मैं आकर वहाँ यकायक पहुँच गया । १९ आपके निवास-स्थान में 
आकर मैं ठहर गया। तब भाप भी चिन्तातुर हो गये। आपने मेरी 
आवभगत तो की, फिर भी मेरे सोने के बारे में आप चिन्ता करने लगे । १३ 
वह गुफा बिलकुल छोटी थी। कोई (अन्य) मनुष्य आ गया, तो उसमें 
वह नहीं समा पाता था। (परन्तु) आपकी साध्वी नारी सुजान थी ॥ 
उसते मेरे लिए अवश्य आसन (शय्या) बिछा दिया । १४ तब भाई, 
आप तो (गुफा के) बाहर रह गये, तो एक राक्षस ने आकर आपको मार 
डाला। (आपके) मांस, चरण, हाथ नीचे पड़े रह गये । मैं नही जानता 
कि (तदनन्तर) उनका क्‍या हुआ । १५ तब अग्निकाष्ठ भ्रक्षण करके 
(भाग में जल जाकर) निर्वाण को प्राप्त होकर आपकी स्त्री ने प्राणों को 
त्यज डाला। मरते-मरते वह सती इस प्रकार बोली, “ हे ,कमलापति 
(भगवान विष्णु), मुझे (आगामी जन्म में) यही वर (पति) देवा ! । १६ 


२६० गुजराती (नागरी लिपि) 


एवं ज्यारे स्त्री वोली वचन, त्यारे में विचायु मन, 
शूं जीवूं हत्या लई करी, एने तूं मेढवजे हरि। १७। 
एवं कहीने हुं ते वार, पड़यो बढ्ठता अग्नि मोश्षार, 
ते माठे पंखी अवतार, लीधो नेषधर्मा आ वार। १८। 
एवो बोल खगपतिए कह्यो, शिर नामीने ऊभो रहो, 
आज्ञा आपो तो तत्पर थाउं, अमो अमारे स्थानक जाउं । १९। 
एवी विनंती हसे करी, नक्ठराये आंखडी भरी, 
ए शुं बोल्यो तूं मारा वीर, तारा विना धरं केम धीर ? । २० । 
आप्यूं तें मने प्राणनूं दान, तुूं छे मारो बंधु समान, 
हंस कहे ते खरुं कह्यूं वीर, पण सांभव्ठ परम सुधीर । २१ । 
तार ऋण छदयो हुं भ्रात, हवे रहेवानी करीश न वात, 
एम कहीने ऊड़्यो आकाश, त्यारे तक मृक्‍्यों निःश्वास। ३२। 
तक पहोंतो विदर्भ देश, तहां मछया मोटा नरेश, 
चोहोफेर सबीरनां धाम, वस्यां राजा तेटलां गाम । २३ । 


जब उस सरुत्नी ने ऐसी बात कही, तब मैंने मत मे यह विचार किया-- ' मैं 

हत्या को (सिर पर) लेकर जीवित क्यों रह जाऊं ? है हरि, आप उन्हें 
(फिर से अगले जन्म में) मिला देना '। १७ ऐसा कहकर मैं उस समय 
जलती हुई आग के अन्दर कूद पड़ा। उसके कारण इस समय मैंने निषध 
देश में पक्षी का अवतार (जन्म) ग्रहण किया '। १८५ उस खगपति हंस 
ते इस प्रकार बात कही और वह सिर नवाकर खडा रहा। (बह 
बोला--) “आप आज्ञा दीजिए, तो मै तैयार हो जाता हूं-- मैं अपने 
निवास-स्थान चला जाता हूँ !'। १९ हुंस ने ऐसी विनती की, तो नल 
राजा ने आँखों को (आँसुओं से) भर दिया। (वे बोले--) ' हे मेरे 
भाई, तुम यह क्‍या बोल रहे हो ? बिना तुम्हारे मैं धीरज कैसे धारण 
करूँ? २० तुमने मुझे प्राणों का दान दिया है; तुम मेरे बन्धचु के समान 
हो ”'। (इसपर) हंस बोला, “' हे भाई, आपने सच तो कहा है। फिर भी 
है परम सुधीर (राजा), सुनिए । २१ है भाई, आपके ऋण से मै छूट 
गया हूँ (मुक्त हो गया हैँ)। अब (भेरे) रहने की बात न करना । 

ऐसा कहते हुए वह आकाश में उड़ गया; तब नल ने साँस ली। २२ 
(तदनन्तर) नल विद देश में पहुँच गये। वहाँ बड़े (-बड़े) राजा 
इकट्ठा हुए थे। चारों तरफ़ तम्बुओं,फे बने निवास-स्थान थे । राजाओं 
के (सानो) उतने ग्राम ही बस गये थे । २३ जैसे सागर में कोई नौका 
हो, वैसे (राजाओ के निवास-स्थान रूपी सागर के बीच) भीमक राजा 


प्रेमावनद-रसामृत (नलोपाख्यान) २६१ 


सागरमां नाव होये जेम, भीमकनुं नग्न दीसे तेम, 
गजदक हयदक ने मानव, तेणे अंत थयूं मोंघु सरव। २४। 
रसकस साहामूं नव जोवाय, तृण जक ठांके तोछाय, 
रंक लोकनी चाले अरज ना, माग्यां मूल आपे गरजना । २५। 


भीमक ले सर्वबतो तपास, छे जोईए ते फेरवे दास, 
नगर भरायूं खचखची, राये मंडप-रचता रची। २६। 
हींडोछा बांध्या धारणे, कदल्ी स्तंभ रोप्या बारणे, 
चित्रामण चीतरियां भीत, नाना प्रकारती करी रीत ।*२७। 
मंडप लींप्यो कतकतनी गार, साहामा साहामी आसननी हार, 
जेहने जांहां बेठानो ठाम, तांहां राजानां लखियां नाम | २८ । 
ए कथा एटलेथी रही, एक नवीन वारता थई, 
नारदने कलहनी टेव, गया स्वर्ग जांहां बेठा देव।२९। 
पूज्या-अर्च्या प्रीत अपार, तव इंद्र पूछे समाचार, 
कहो ऋषि प्ृथ्वीनी पेर, को पुरुष न आवे अमारे घेर | ३० । 





का नगर दिखायी दे रहा था। हस्ति-दल, अश्व-दल और मानव (पदाति) 
दल (इकट्ठा हुए) थे। उससे समस्त अन्न महँगा (दुलेभ) हो गया 
था। २४ रस-कस वाली, अर्थात घी, तेल, अनाज आदि वस्तुएँ तो सामने 
दिखायी तक नही दे रही थी (इतनी वे दुर्लेंभ हो गयी थी) | 'तृण, जल 
तो काँटे पर तोला जा रहा था। रंक लोगों की कोई विनती नही 
चलती थी (नही मानी जाती थी); क्योंकि धनी-मानी लोग मुँह-माँगा 
दाम आवश्यक वस्तुओं के लिए देते थे। २५ (फिर भी) राजा भीमक 
उन सबको देखभाल करते थे। जो (लोगो को) चाहिए था, उसे वे 
दासों द्वारा पहुँचवा देते थे। नगर खचाखच भराये गये थे। राजा ने 
सण्डप का निर्माण कर दिया । २६ धरनों पर झूले बाँधे; द्वार पर केले 
के स्तम्भ खड़े कर दिये। दीवारों को नाना प्रकार की प्रणालियों की चित्र- 
कारी से चित्रित कर दिया । २७ मण्डप को सोने के गारे से लीपा-पोता । 
आमने-सामने आसनों की पंक्तियाँ लगा दीं। जिस-जिसका जहाँ बैठने 
का स्थान हो, वहाँ राजाओं के नाम लिख दिये। २८ यह कथा इतनी 
ही से रह जाए। (इधर) एक नई घटना घटी। नारद की तो कलह 
लगाने की टेव है। वे (तब) स्वर्ग में गये, जहाँ देव बेठे हुए थे। २९ 
इन्द्र ने अपार प्रीति से उनका पूजन-अर्चन किया; तब उन्होने समाचार 
पूछा। (इच्द्र बोले--) “ हे ऋषि, पृथ्वी पर का समाचार (हाल-चाल) 
बताइए। (आजकल ) कोई पुरुष हमारे घर नहीं आ रहा है ।.३० 


२६२ गुजराती (नाग्री लिपि) 


पृथ्वीमा पडती साधुनी काये, ते आवता स्वर्गमाहि, 
अमरावतीनो सूनो घाट, जमपुरनी वहे छे वाटठ। ३१। 
जमपुर भराई वस्युं, आंहां को नावे ते कारण कशूुं, 
कहे नारद सांभव्छीए सत्य, हवडा मनुष्य जाये अवगत्य | ३२ । 
दमयंती दमयंती करता मरे, ते सर्व जमपुरी सांचरे, 
त्यां स्वयंवर मंडायो आज, मल्या छे पृथ्वीना राज | ३३ । 
शूं अप्सरानां वोहों छो वता, दमयंतीनी दासी देवांगना, 
विदर्भ देश ने कुंदनपुर, जाओ जोवा शूं बेठा सुर। ३४। 
कही नारद थया अतरधान, छाना देव थया सावधान, 
संभारी रूप मनमां फूलता, चार देवने लागी ललुता। ३५। 
इंद्र अग्नि वरुण ने जम, ऊठो चालया जे ज्यम त्यम । 


वलण ( तर्ज बदलकर ) 
ज्यम त्यम चाल्या देवता, धरी जाजवां रूप रे, 
विदर्भ गया मनभंग थया, देखी नक्तनुं रूप रे।३६। 


पृथ्वी पर साधुओं की देह छूट जाती है, तब वे स्वगें मे आा जाते है। 
(परन्तु आजकल) अमरावती का घाट सूना पड़ गया है और यमपुरी का 
मार्ग बहता रहता है। ३१ यमपुर तो भरा-पूरा बसा हुआ है। यहाँ 
कोई नही भा रहा है, उसका कैसा (क्या) कारण है ? ” तो नारदजी बोले, 
/ सच्ची बात सुनिए। अब मनुष्य अवशगति को प्राप्त हो रहे हैं। ३२ 
वे ' दमयन्ती “, “दमयन्‍्ती ” कहते-कहते मर रहे हैं। वे सब यमपुरी में 
चले जाते है। वहाँ (कुन्दनपुर में) आज स्वयवर का आयोजन किया 
जा रहा है। (वहाँ) पृथ्वी के राजा इकढठा हुए है। ३३ तुम 
अप्सराओं के हावभाव में क्या वहते जा रहे हो ? देवांगनाएँ तो दमयन्ती 
की दासियाँ (जैसी जान पड़ती) हैं। विदर्भ देश और कुन्दनपुर को 
देखने के लिए जाओ। है देव, बेठे क्‍या हो ? ” ३४ यह कहकर नारद 
अन्तर्धान हो गये। देव चुप और सावधान हो गये। अपने रूप का 
स्मरण करते हुए चार देव मन में अभिमान से फूल उठे । उन्हें लोलुपता 
अनुभव होने लगी । इन्द्र, अग्ति, वरुण और यम उठकर ज॑ंसे-वैसे चल 
पड़े । ३५ 

वे देव विविध रूप धारण करके. जैसे-तैसे चल पड़े । वे विदर्भे 
देश मे गये, तो नल के रूप को देखकर वे मनोभंग को प्राप्त हो गये 
(उनके मनोरथ भग्त हो गये, वे निराश हो गये) । ३६ 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) २६३ 


कडवुं १८ मुं-- ( इंद्र आदि देवों का नल राजा से मिलना ) 
राग सारंग 


तने जोवा इंद्र रह्मा छे, एटले आव्या जम जी 
अग्नि वरुण पूंठेथी आव्या, पूछे मांहोमांहे क्‍यम जी। १ । 
अन्योन्ये चोरी करता, बोले जजवाँ काम जी 
चारे देव मांहोमांहे छेतरे, न ले परण्यानूं नाम जी। २ । 
अग्नि कहे शं अधर्म बोलवं, सर्व दमयंतीना लोभी जी 
मनना मनो रथो राखो मनमां, नछ आगछ काति न शोभी जी। ३ । 
पछे ताढछी देई हस्या मांहोमांहे, कपट कीधूं त्याग जी 
स्वयंवरमां चारे जई जोईए, कोहोन फछ्शे भाग्य जी। ४ । 
वरुण भणे वेद्रभी वर्यानी, मूको मननी आशा जी 
परणशे नक आपणा फजेता, छेंदाशे अधरशुं नासा जी। ५। 
अग्नि कहे हो वासव राजा, मूुको हैयानो हषषं जी, 
दमयंतीने तमो न पामो, जो तपो शत्त वर्ष जी। ६ । 
भीमकसुताने आलिंगन नहि दे, अभागियां आपणां गात्न जी 
वीरसेनसुतआगक् विष्णु न पामे, तो आपण कोण मात्न जी । ७ । 


कड़वक-- १८ ( इंद्र आदि देवों का नल राजा से मिलता ) 


इन्द्र नल को देखते ही रहे थे, उतने में (वहाँ) यम आ गये। 
अग्नि और वरुण पीछे से आ गये। वे (एक-दूसरे से) आपस में पूछने 
लगे-- ' कंसे है अन्य-अन्य देवों ने चोरी करते हुए (अर्थात सच्ची 
बात को छिपाते हुए) भिन्‍न-भिन्‍न काम कह दिये। वे चारों देव आपस 
में एक-दूसरे को ठग रहे थे। उन्होंने विवाह का नाम नहीं लिया। २ 
(परन्तु अन्त में) अग्नि ने कहा, “ अधर्म की बात, अर्थात झूठ क्या बोलना ? 
(हम) सब तो दमयन्ती के लोभी है। मन की कामनाएँ मन में रखो 
नल के सामने (हमारी) कान्ति शोभायमान नहीं है '। ३ अनन्तर वे 
आपस में ताली बजाकर हँसने लगे। उन्होंने कपट का त्याग किया। 
(वे फिर बोले--) “ चारो स्वयंवर (-मण्डप) में जाकर देखे कि किसका 
भाग्य फल को प्राप्त हो जाएगा | | ४ वरुण बोले, * वेदर्भी (दमयन्ती) 
का वरण करने की मन की आशा छोड़ दो । वह नल का वरण करेगी 
तो अपनी दुर्देशा हो जाएगी । हमारे होंठों-सहित नाक काट दी जाएगी !। ५ 
तो अग्नि बोले, * ' हे राजा इन्द्र, अपने हृदय का हर त्यज दो। यदि सौ 
वर्ष तपस्या करोगे, तो भी तुम दमयनन्‍्ती को नही प्राप्त कर पाओगे | ६ 


२६४ गुजराती (नागरी लिपि) 


* जदपि मनसा नकवी मुकी, आपणी ममता करे जी, 
गुणविहोणी जो होय दययंती, बला आपणी वरे जी । ८५ । 
लक्षणविहोणी दमयंती छें, रूप यौवन उन्मत्त जी, 
गोछ मृकीने खोछ॒ने खाये, नोहे चतुर पशुवत जी।९। 
बेउ प्रकारे एहने न वरवी, माटठे पाछा फरवुं जी, 
माणस वरे ने देव फरे एथी, आपे भलुूं मरबं जी। १० 
शक्र कहे नक्राजाने, जमराज लो जमलोक जी, 
आफणीए आपणे वरशे, थशे हंसन्‌ कीधूं फोक . जी । ११। 
वरुण भणे जे ए शी ललुता, वणखूटे मरे क्यम जी, 
एम चालतुं होय तो लउं दमयंतीने, एम कहेवा लाग्या जम जी। १२। 


अग्नि कहे रे भलो श्रम कीजे, कदापि थाय साचो जी, 
दमयंती भणी दूत थई जाय, चारे नतक॒ने जाचो जी। १३। 
पछे नक्त पासे आव्या स्वर्गंवासी, वेश विप्रनो धारी जी, 
त्रिपुंड ताण्यां पुस्तक करमा, ग्रही सुंदर झारी जी। १४। 


हमारे गात़ (शरीर) अभागे है; (क्योंकि) भीमक की कन्या का आलिंगन 
वे नही कर पाएँगे। वीरसेन-पुत्न नल के सामने (होते हुए) विष्णु (तक) 
उस (दमयन्‍्ती) को प्राप्त नही कर सकते, तो हम किस मात्रा मे (गिनती 
में) हैं। ७ यद्यपि यह दमयन्ती नल-सम्बन्धी अपनी ममता छोड़कर 
हमारे प्रति प्रेम करने लगे, यद्यपि दमयन्ती ग्रुण-बिहीन (सिद्ध) हो, तो 
भी हमारी बला उसका वरण करे। ८ दमयन्ती (देवों के) लक्षणों से 
रहित है। वह अपने रूप और यौवन के कारण उनन्‍्मत्त हुई है। (अतः) 
गुड़ को छोड़चर खली को खा जाएँ -ऐसे पशु की भाँति हम चतुर नहीं 
हैं। ९ दोनों प्रकार-से उसका वरण (अब) नही करना है। इसलिए 
पीछे लोटना है। वह मनुष्य का वरण करे। इसलिए देव लोटकर चले | 
(इसकी अपेक्षा ) अपने, आप मरना अच्छा है '। १० (इसपर) इन्द्र बोले, 
' हे यमराज, तुम नल राजा को यमलोक ले लो (ले जाओ) । उससे वह 
(दमयन्ती ) अपने आप हमारा वरण करेगी। (उससे) हंस का किया 
हुआ (परिश्रम) व्यर्थ सिद्ध हो जाएगा '। ११ वरुण बोले, “यदि 
(हम में) ऐसी लोलुपता हो, तो बिना उसकी पूर्ति किये कैसे मर जाएँ ?' 
यम इस प्रकार कहने लगे-- “ ऐसा चलता हो, तो मैं दमयन्ती को लेता 
हूं '4१२ (इसपर) अग्नि बोले-- ' अच्छा परिश्रम (यत्त) कर लो-- 
कदाचित सच्चा (सफल) हो जाए। हम चारों जने नल से यह प्रार्थना 
करें कि वे (हमारे) दूत बनकर दमयन्ती के प्रति चले जाएँ !। १३ 


प्रेमानन्‍्द-रसामृत (नलोपाख्यान) २६५ 


नक्के निर्मेझः ब्राह्मण दीठा, आप्यां आदरमान जी, 
आसन आपी पूजा कीधी, पछे पूछे राजान जी।१५। 
कामकाज अम सरखुं कहीए, हरि मोहोटा छे करनार जी 
विप्र कहे अमो आप्या छेए, तुंने जाणी गुण-भंडार जी । १६ । 
नक कहे जे मागो ते आपुं, मानजो अवश्यमेव जी, 
वचन लेई विप्र-वेश मृकीने, थया प्रत्यक्ष देव जी। १७। 
वज्त्रपाश  ज्वाछ्ा ग्रही, जमे ग्रह्यो जमदंड जी, 
झलहकछ मंदिर थई रह्ां, जाणे उदया मार्तड जी। १८। 
चकित राजा थई रह्यो, करतो दंड प्रणाम जी, 
तक विना को देखे नहीं रे, देव रूपनां धाम जी। १९। 


वलण ( ते बदलकर ) 


रूपधाम ते देवता, विनति नबत्ठरायने करे रे, 
तूं दृत थई जा कन्या कने जो, दमयंती अमने वरे रे । २० । 





अनन्तर वे स्वर्ग के निवासी देव ब्राह्मणों का वेश धारण करके नल के पास 
आ गये। उन्‍होंने त्विपुण्ड मंकित किया, हाथों मे पुस्तक भौर सुन्दर 
झारी ग्रहण की । १४ नल ने जब उन निर्मल (पवित्न) ब्राह्मणो को देखा, 
तो उन्हें आदर-सम्मान प्रंदान किया (उनका आदर-पूर्वक सम्मान किया) । 
उन्हें आसन प्रदान करके उनका पूजन किया। अनन्तर राजा (नल) ने 
उनसे पूछा (कहा)। १४ ' मेरे योग्य कोई कामकाज कहिए। श्रीहरि 
बड़े करनेवाले है '। तो विप्र बोले, “तुम्हें गुणों का भण्डार समझकर 
आ गये हैं '। १६ तो नल बोले, “जो आप माँग लेंगे, वह दे दूंगा। 
इसे अवश्य (सत्य) ही समझिए '। (इस प्रकार) अभिवचन लेकर वें 
ब्राह्मण-वेश त्यजकर प्रत्यक्ष देव-छप हो गये। १७ इन्द्र, वर्ण और 
अग्नि ने (क्रमशः) वज्ञ, पाश, ज्वाला ग्रहण की; यम ने यम-दण्ड ग्रहण 
किया। उस मन्दिर को जगमगा देते हुए वे वहाँ प्रस्तुत हो गये-- 
मानो सूर्य ही उदित हुए हों । १८ नल (यह देखकर) चकित हो गये । 
उन्होंने उनको दण्डवत्‌ प्रणाम किया। नल के अतिरिक्त कोई अन्य रूप 
के धाम उन देवों को नही देख सका । १९ 


वे देवता रूप के निवास-स्थान थे। नलराज से उन्होंने विनती 


की-- “ यदि आप (हमारे) दूत बनकर कन्या दसयन्ती के पास जाएँगे तो 
वह हमारा वरण करेगी (। २० 


२६६ गुजराती (तागरी लिपि) 


कडवुं १६ मुं--( देवों के दुत्त फे रूप में तल का दसयन्ती के अन्तःपुर में आगमन ) 
राग वेहागडो 


देव कहे हो राजा मित्र, पुण्यश्लोक परम पवित्र, 
कृपा करी कन्या कने जाओ, वेविशाह्िया अमारा थाओ। १॥। 
महिलाने मारो मोहनां वाण, चारे चतुरनां करजो वखाण, 
भाग्य होशे तेहने वरशे, जेहेना कर्मनूं पांदडं फरशे | २ । 
नक कहे रक्षक बल्लिया होय, मुने पेसवा नव दे कोय, 
देव कहे जाओ जोगीने वेखे, दमयंती विना को नव देखे। ३ । 
चारे करे नतने अणसारा, बे गुण अदका बोलजो मारा, 
एवं सांभल्ी चाल्यो नक्राय, त्यारे देवने विभासण थाय। ४ । 
रूपवंत नत्॒ने रे जोशे, कन्यानूं सधे मन मोहोशे, * 
बात कहे नहीं आपणी वरणी, वेविशाक्षियों बेसशे परणी। ५ । 
दृष्टेदृष्ट ज्यारे मछ॒शे, गुण आपणा नव सांभव्शे, 
नकने लेवडाव्यो जोगीनो वेष, शीखव्यूं तेम करजो विशेष। ६ । 


नि डिीजिीजल > +++ 





कड़वक- १६ ( देवों के दूत के रूप में नल फा दमयन्ती के अन्तःपुर सें आगमम ) 


देव बोले, “ हे मित्न राजा, आप परम पवित्न पुण्यश्लोक हैं। कृपा 
करके आप उस कन्या के प्रति जाइए और हमारे लिए (विवाह करानेवासे ) 
मध्यस्थ बन जाइए । १ उस महिला पर भोह के, वाण चला दीजिए 
और हम चारों चतुर (देवों) की प्रशसा करना। जिसके कर्म का पत्ता 
पलटेगा, अर्थात्‌ जिसके भाग्य जग जाएँगे, जिसके भाग्य (अनुकूल) होंगे, 
वह उसका वरण करेगी !'।२ (यह सुनकर ) नल बोले, “ (बहाँ तो) 
बलवान रखवाले होंगे; मुझे कोई (भी अन्दर) पैठने नहीं देगा ' । तो देव 
बोले, ' आप योगी के वेश मे जाइए। दमयन्ती के बिना, कोई आपको 
देख नही पाएगा '। ३ उन चारों ने नल को सूचनाएँ कर दी-- ' हमारे 
दो (-एक) विशिष्ट गुण कह देना '। ऐसा सुनकर नलराज चल पड़ें, 
तो तब देवो को यह चिन्ता उत्पन्न हुई । ४ (वे बोले--) ' भरे, वह (जब 
भाप) रूपवान नल को देखेगी, तो उस कन्या का मन पूर्ण रूप से आप 
मोहित कर लेंगे। (अतः) अपनी बात का वर्णन करके न कहिए। 
(ही तो) मध्यस्थ ही विवाह कर बैठेगा । ५ जब आप दृष्टि-दृष्टि से 
अर्थात्‌ आमने-सामने एक-दूसरे से मिलेंगे, तो आप अपने गुणों की ओर 
ध्यान नही देंगे '। (ऐसा कहते हुए) उन्होने नल को योगी का केश 
धारण करा दिया (और फिर कहा--) ' जैसे सिखाया है, वैसी ही विशेषतः 


भू 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) २६७ 


रूप पालटीने नक्त पतीओ, देवे अनुचर एक मोकलीओ, 
दूतने देखे नहीं नक्राय, आगछ पाछक बंन्यो जाय। ७ । 
पेठा घरमां पाधरा दोर, को नव देखे देहीना चोर, 

ज्यां दमयंतीनुं अंतःपुर, त्यां आव्यो नत्कराय शुर। ८ । 
दीठी देवकन्या जेवी दास, जे रमती राणीनी पास, - 
कोई नायका तो त्यां नाहाती, कोई कन्याना ग्रुण गाती । ९ । 
कोई श्यामछी ने कोई गोरी, कोई मुग्धा ने कोई छोरी, 

कोई काम करंती हेठले माले, कोई वस्त्र बांधे घडी वाले । १० । 
रहे आप आपणे साजे, हार गूंथती कन्या काजे, 

एम जोयो हेठले माछे, पछे बीजे चड्यो भूपातछ | ११। 
त्यां दासीनूं जूथ जोयूं, पछे चडद्यो ज्यां त्रीभोयुं, 

वसे छे दमयंती नारी, सहख्न दासी सेवा करनारी। १२। 
केटली गान करे स्वर झीणा, को नाचे वजाडे वीणा, 

वाते रीक्षवती चतुरसुजाण, केटली करती कन्यानुं विखाण । १३ । 


(बात) करना।” ६ (जब) रूप को बदलकर नल चल पड़े, तो देवों ने 

(उनके पीछे-पीछे एक अनुचर को भेज दिया । नलराज तो (देवों के ) उस 
दूत को नही देख रहे थे। वे दोनो (इस प्रकार एक-दूसरे के) आगे-पीछे 
जारहे थे । ७ वे दोनो सीधे घर मे प्रविष्ट हो गये । देह के चोरों अर्थात्‌ 
अदुश्य देह वाले उन (दोनों) को किसी ने नही देखा । जहाँ दमयन्ती 
का अन्तःपुर था, वहाँ ज्ञर नल राजा आ गये । ८५ उन्होंने देवकन्या जैसी 
दासी को देखा, जो रानी के पास (साथ) खेल रही थी । कुछ नायिकाएँ 
अर्थात नारियाँ तो वहाँ नहा रही थीं; कोई-कोई उस कन्या (दमयन्ती) 
के ग्रुणों का गान कर रही थी। ९ कोई श्यामवर्ण की थी, तो कोई 
गोरी थी; कोई मुग्धा थी, तो कोई किशोरी थी। कोई नीचे वाले खण्ड 
(मज़िल) में काम कर रही थी; कोई वस्त्र इकट्ठा कर रही थी, तो कोई 
उन्हें तह कर रही थी। कन्या (दमयन्ती) के लिए कोई (पुष्प-) हार 
बना रही थी। इस प्रकार, राजा नल ने नीचे के खण्ड में देखा। 
अनन्तर वे दूसरे खण्ड पर चढ गये । १०-११ वहाँ दासियो के वृन्द को देखा, 
तो फिर वे (वहाँ) चढ गये, जहाँ तीसरा खण्ड (मज़िल) था। वहाँ 
नारी दमयन्ती रहती थी; (वहाँ) उसकी सेवा करनेवाली (एक) सहख्र 
दासियाँ थी। १९ कितनी ही (अनेकानेक दासियाँ) कोमल स्वर में 
गायन कर रही थी; कोई-कोई नाच रही थी; कोई-कोई वीणा बजा रही 
थीं। कुछ चतुर-सुजान (दासियाँ दमयन्ती को) बातों से रिहा रही थी, 
तो कितनी ही उस कन्या की प्रशंसा कर रही थी । १३ वहाँ (अन्त:पुर के ) 


२६८ गुजराती (नागरी लिपि) 


एकांत त्यां छे ओरडी, हींडोढा गांध्या हीर दोरडी, 
हरिवदनी वेठी हींचे, दासी केशमां धूपेल सींचे । १४। 
किकर पासे माथुं गूथावे, कहे सेंथो रखे वांको आवे, 
भीत मांहे जडिया खाप, वण धरे दीसे छे आप। १५। 
आगल् दमयंती पाछक् दासी, साहामां प्रतिबिब रद्यां प्रकाशी, 
मुखकमछ कन्यानुं झकछके, सामो चंद्र वीजो जाणे चकछके | १६। 
शोभे नारी जोबनधाम, मुखे नल्ूराजानूं ताम, 
एवं भूपतिए रूप जोयुं, मोहबाणे मनडुं परोयु । १७। 
अंगरंगयी आडो आंक, मोह्या देव तणो शो बांक ? 
चारमां कोनूं भायग फछके ? रत्न आ कर कोने चढशे ? । १८। 
मुंने परणत मनतनी रचे, अंत्नाई थया देव आवी वचे, 
भलूं भावी पदार्थ थयों, नके विवेक मनमां ग्रह्यो । १९। 


उस दालान में एकान्त था; (वहाँ) रेशम की डीरियों से झूले बाँध हुए 

थे। वह चन्द्रवदना (दमयन्ती) एक झूले पर बैठकर पेंग ले रही थी। 
कोई एक दासी उसके वालों में सुगन्धि-युक्त मसाले वाला तेल सीच रही 
थी (लगाकर मल रही थी) । १४ वह दासी द्वारा बाल गूँथा रही थी। 
उसने कहा, “ शायद माँग टेढ़ी निकल रही है '। दीवार में दर्पण जड़ाये 
हुए थे। इसलिए विना (दर्पण सामने घरे) अपने आपको (कोई भी) 
देख सकता था । १५ दमयन्ती भागे थी, दासी पीछे थी । सामने (दर्पण 
में) उनके प्रतिबिम्ब प्रकट होकर (दिखायी दे) रहे थे। उस कन्या का 
मुख-कमल झलक रहा था। मानो सामने (दर्पण में प्रतिबिम्व के रूप में) 
दूसरा चन्द्र ही चमक रहा था । १६ (साक्षात्‌) यौवन घाम-स्वरूप वह 
नारी शोभायमान दिखायी दे रही थी। उसके मुख में नल्ल राजा का नाम 
था। (वह नल राजा के नाम का जाप कर रही थी) । इस प्रकार 
(नल) राजा ने उसके रूप को (उसके प्रतिविम्ब को) देखा, तो मोह रूपी 
बाण से उनका सन विध गया। १७ (उन्हें लगा--) यहाँ तो अग-रंग- 
(कांति) की चरम सीमा है। देव (इसके प्रति) मोहित हो गये, 
इसमें उनका क्या दोष है ? उन चारों में से किसका भाग्य फल को प्राप्त 
हो जाएगा ? यह रत्न किसके हाथ आ जाएगा । १८ इसने तो मन की 
रुचि से (चाह) से मेरा वरण किया है; (परन्तु) ये देव आकर बीच में 
विध्त हो गये है। जो हुआ, सो भावी के विचार से अच्छा ही हुआ। 
(ऐसा विचार करते हुए) नल ने मन मे विवेक धारण किया | १९ 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) २६६ 


वलण ( तर्ज बदलकर ) 


प्रद्यो विवेक शोकने तजी, ज्ञान ते हृदये धरे रे, 
सत्य. पोतानूं पाछवा, देवनूं मागूं करे रे।२०। 


नल ने शोक को त्यजकर विवेक धारण किया; हृदय मे ज्ञान धारण 
किया। अपने वचन का निर्वाह करने के लिए उन्होंने देवों की माँगी 
(कही हुई) बात की (करने के लिए वे तैयार हो गये) । २० 


कडवुं २० सूं--( चल और दमपस्ती का दृष्टि-सिलन ) 
राग सामेरी 


बैठी दमयंती शीश मुंथावा, स्वयंवरने सांतरी थावा, 
सामी भीतमां जडी छे खाप, वण धरे दीसे छे आप । १ । 


ढाछ 

आ दीसे वण धरे, प्रतिबिब जोती दुष्ठे, 
दासी ने दमयती बेठा, नक आवबी रहो छे पृष्ठे। २ । 
प्रतिबिब पड़यूं. दर्पणमां, प्रेमदाएं दीठो पूछ, 

गई खूणे नहासी तेडी दासी, शुं बेसी रही छे मूर्ख 7 । ३ । 
माधवी वल्ठतूं वदे बाई, शा माटे नहासी गयां ? 

में कोन दीठूं तमे देखो, आवडुं शूं विस्मय थयां ? । ४ । 





कष्ठयक-- २० ( नल बोर दमपन्‍्ती फा दुष्टि-सिलन ) 

स्वयंवर (-मण्डप में जाने) के लिए योग्य होने के हेतु दमयन्‍्ती सिर 
अर्थात बेनी गुंधवाने बैठी थी। सामने वाली दीवार मे दर्षण जड़ा हुआ 
था। (इसलिए) बिना (दर्पण सामने) धरे, वह अपने आपको दिखायी 
दे सकती थी । १ ह 

बिना (दर्पण) घरे, वह अपने आपको दिखायी दे रही थी । वह 
अपनी दृष्टि से प्रतिबिम्ब देखती थी । दासी और दमयन्ती (वहाँ) बैठी 
हुई थी, तो नल राजा पीछे आकर (खड़े) रह गये थे। २ उनका 
प्रतिबिस्ब दर्पण में पड़ा था। उस प्रमदा ने पुरुष (-प्रतिबिम्ब ) को 
देखा । तो वह दौड़ती हुई कोने में गयी भौर दासी को बुला लायी । 
(वह वोली--) ' री मूर्ख, क्या बेठी हुई है ? ” ३ तो (दासी) माधवी 


२७० गुजराती (नागरी लिपि) 


घेली तहारी मीठ मस्तकमां, में दर्पण राख्यूं दृष्टिमां, 
स्वरूप दीठुं दिव्य नक्नं, न मे बीजो सृष्टिमां। ५ । 
वेश छे वेरागीनो जाणें, नाटक कोएक लाव्यो, 
शके तो ए प्राणजीवन, नक्कराय निश्चय आव्यो। ६ । 
साहेली कहे प्रीछो तमो, कां दीठु छे जे झंखना, 
नक आवबी ते केम शके ज्यां, ना आवे प्राणी पंखना। ७ । 
कामनी कहे ते प्रीछीयूं,, तूं दासी माणसनो अवतार, 
न माने तो आव कौतक, देखाडूं बीजी वार। ८ । 
पुनरपि बेठां पूछे पंठे, दर्षणमां मीठ जोड, 
स्वरूप नक्तनुं देखाडयूं, जेनी कांति कंदप क्रोड। ९। 
दासी राणी थयां बेठां, झलकारें झबकी वीजढछोी, 
दमयंती कहे दासीने कां, महारी वात कहेवी मत्ठी | १०। 
पछे स्तुति माडी श्यामाएं, अंतरपट आडो धरी, 
दिव्यस्वरूप दो रे देखता, त्यारे नछे देह प्रकट करी। ११। 


ने प्रत्युत्तर में कहा, “ है देवी, आप किसलिए दौड़कर गयी ? मैंने तो किसी 
को नही देखा; आपने (कहाँ )देखा । इतनी क्यों विस्मित हो गयी है | ४ 
(दम्यन्ती बोली--) “ अरी पगली, तेरी नज़र मस्तक में है। मैंने दृष्टि 
में दपंग रखा है (आँखों के सामने दपंण रखा है) । मैने नल के दिव्य 
स्वरूप को देखा, ऐसा (स्वरूप) सृष्टि मे कोई दूसरा नही मिल सकता । ५ 
जान पड़ता है, उनका वेश वेरागी का है। वे कोई-एक नाटक (के पात्र 
अर्थात अभिनेता का-सा) वेश लाये हैं। कदाचित, निश्चय ही वे (मेरे) 
प्राण-जीवन नलराज आये है ”ध। ६ (यह सुनकर) वह सखी बोली, 
“ परख लीजिए; कुछ (सचमुच) देखा है कि आतुरता-पृवेक चिन्तन करते 
रहने से केवल आभास हुआ है। जहाँ पंख-धारी कोई प्राणी तक नहीं आ 
सकता, वहाँ नल तो किस प्रकार आ सकेंगे '। ७ वह कामिनी (दमयन्ती) 
बोली, ' तू (ही) परीक्षा कर। तू दासी-जन का अवतार है। नही 
मानती तो आ जा, मैं दूसरी बार वह कौतुक दिखा देती हूँ '।८५ 
(तत्पश्चात्‌) वे (दोनो) पीछे-पीछे दर्पण की ओर दृष्टि लगाये बेठ गयी । 
(दमयच्ती ने फिर दासी को) नल का वह रूप (प्रतिबिम्ब) दिखा दिया, 
जिसकी कांति कोठि-कोटि कामदेवों की-सी थी। ९ (फिर वहाँ) दासी 
और रानी (दमयन्ती) चकित होकर बैठ गयी, तो सामने चमकारे के 
साथ बिजली चमक गयी। (तब) दमयन्ती दासी से बोली, ' क्यों ? तू 
मेरी बात सच्ची पा गयी '। १० अनन्तर उस स्त्री ने अच्तरपठ (पर्दा) 
आड़े धरे उन (नल) की स्तुति करना आरम्भ किया ।' (वह बोली--) 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) २७१ 


आपी आसन करी पूजन, पछे पूछे किकरी, 
कहो देवपुरुष कांहांथी आव्या, वेश जोगीनो धरी । १२ । 
नक्क कहे तूं नीच माणस, केम वदुं हुं बेखरी ! 
दमयंती पूछे तो बोलूं, नहीं तर जाउं पाछो फरी। १३॥। 
दमयंती कहे देव जद्यपि, पण थई आव्या संन्‍्यासी, 
कपट झरूपने कन्या केम पूछें, माटे पूछे दासी। १४। 


वलण ( तज़े बदलकर ) 
दासी संन्‍्यासी जोग छे, केवछ नोहे अतीत रे, 
वचन सुणीने नकत मन्त हरख्यो, हरी लीधुं चित्त रे। १५॥ 


€ अपने दिव्य स्वरूप को तो दिखा देना '। तब नल ने अपने शरीर को 
प्रकट किया । ११ उनको आसन देकर उनका पूजन करने के पश्चात उस 
दासी ने पूछा। “ कहिए हे देवपुरुष, जोगी का वेश धारण करके आप 
कहाँ से आ गये है ? ' १२ तो नल बोले, “तू नीच श्रेणी की मनुष्य है । 
मैं तुझसे किस प्रकार बात कहूँ ? यदि दमयन्ती पूछे (कहे), तो बोलूंगा, 
नही तो मुड़कर पीछे लौट जाऊँगा । १३६ तब दमयन्ती बोली, 
/ यद्यपि ये देव है, फिर भी सनन्‍्यासी बनकर भाये हैं। ' आप कपट-रूप 
धारी से कोई कन्या बात कैसे पूछ (करे) ? इसलिए यह दासी पूछताछ कर 
रही है (बोल रही है) । १४ 
दासी (द्वारा बोलता) संन्‍्यासी के लिए योग्य है। परन्तु आप केवल 
जोगी-अतिथि नही हैं '। यह बात सुनकर नल का मन आनन्दित हो उठा। 
उनके चित्त का उसने हरण कर लिया । १५ 


फडवयूं २१ मुं-( नल द्वारा दसयन्ती को देवों में से किसी एक का 
वरण करने का उपंदेश देना ) 
राग मार 


मन मोह पाम्यो महीपति, धन्य देव, जे वरशे सती, 
भोगी भूपने भामिनी भोग्य, घटे देवने, अमो अयोग्य । १ । 





फड़वक --२१ ( नल द्वारा दमयन्तो को देवो में से किसो एक का वरण करने 
का उपदेश देना ) 
(दमयन्ती को देखकर) महीपति नल का मन मोह को प्राप्त हुआ। 
(उन्होंने माना कि) यदि देव इस सती का वरण कर सकेगे, तो वे धन्य होंगे । 


२७२ गुजराती (नागरी लिपि) 


नारी प्रत्ये नक्त एम कहे छे, जो तूं जोगीरूपने लहे छे, 
अमो न जाउं विषयानी वाठे, अहीयां आव्यो तूं साधवी-माटे । २ । 
हुँ तो दूत छ देवतातणो, पाछूं छूं आचार आपणो, . 
तार पूर्वजन्मनूं पुन्य, भाग्य मांहीं काँई तथी ब्यून। ३ । 
जे देवदूत घेर आव्यो, मोदवर्धन वारता लाव्यो, 
अछ्गूं करोने अंतरपट, करू वात आणीने ऊलठ। ४ । 
अमो रूप कोटान कोट धरु, तजी स्वारथ परमार्थ करूं, 
सांभठीने बोल रसातछा, पट तजीने चीसरी बाछा। ५ । 
परिस्वेद मुक्ता रह्मयां टपकी, बहार नीसरी वीजढी झबकी, 
हींडतां हाले ज्यम द्रुमवेली, नक्ठ निकट थई गर्वघेली। ६ । 
तारुणीनो प्रताप न मायो, झबकारे नकछ झंखवायो, - 
दीठी मदपुरण मातंगी, नक्त तकिये बेठो उठंगी। ७ । 


कोई (मानव) राजा भोक्‍ता और यह भामिती (उसके लिए) भोग्या हो 
(कंसे) ? यह तो देवों के लिए उचित है । मैं (इसके लिए) अयोग्य हूँ । १ 
अनन्तर नल ने उस नारी से इस प्रकार कहा, “ यदि तुम योगी-रूप को 
धारण करोगी, तो भी मै (भोग के) विषयो के मार्ग पर नहीं जाऊंगा। 
मैं यहाँ तुम्हें वश में करने के लिए आ गया हूँ। २ मैं देवों का दूत हूँ. 
मैं अपने आचार-धर्मे का निर्वाह करूँगा । तुम्हारे पूर्व-जन्म का यह पुण्य 
(का फल ) है कि तुम्हारे भाग्य में कुछ भी न्‍्यून नही है। ३ (और यह भी 
कि) देव-दूत घर मे आ गया है। वह आनन्द की वृद्धि करनेवाला 
समाचार लाया है। (अतः) तुम बीच के पर्दे को दूर कर दो न ? तो मै 
उत्साह को लाकर, अर्थात उत्साह-उमंग से बात कर सकूंगा। ४ मैं 
कोटि-कोटि रूप धारण कर सकता हूँ। मैं स्वार्थ छोड़कर परमार्थ सिद्ध 
कर रहा हूँ '। ये रसपूर्ण वचन सुनकर वह बाला (दमयन्ती) पट 
(पर्दा) छोड़कर बाहर (निकल) आयी । ५ (उसके सुख पर से) पसीने 
के मोती (जैसे बिन्दु) टपक रहे थे। वह (जब) बाहर निकल आयी, 
तो (मानों) बिजली चमक गयी । चलते समय वह वृक्ष मे लिपटी लता 
जेसी हिल रही थी। गयवं से उन्मत्त-सी वह नल के निकट भा गयी। ६ 
उस तरुणी (के रूप) का प्रताप (कही) नहीं समा रहा था। अपने 
चमकारे से उसने नल को निस्तेज कर डाला। नल ने (उसके रूप में) 
एक मद से भरी-पूरो हथिनी को देखा। नल तकिये से सटकर बेंठ 
गये। ७ उसकी झाँझर के घूंघरू झनक रहे थे। वह पाँव के अंगूठे से 
भूमि को कुरेदसे लगी। उसने अयना हाथ गाल में टिका दिया। नल 
ने इस प्रकार (से खड़ी) नारी को देखा । ८ ॒प्रेम से प्रेम में वे दोनों घुल- 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) २७३ 


घूधरी झांभरती झणझणती, पगने अंग्रुठे पृथ्वी खणती, 

कर दीधो ,छे गल्लस्थछे, एवी नारी दीठी नकछेों। ८५ । 
प्रेम प्रेमे थयां बे भेढां, मोहो महीपति देखी महिला, 
सत्यवादी सत्य ज राख्यूं, मतथी परणवुृं काढी नाख्यूं। ९ ॥ 
रखे इंद्र नारीने नीरखे, नक मत पाछुं आकरखे, 

बेठो आसने आसन वाढ्ठी, मांडी वात ते सत्य संभाछी । १० । 
परमारथे देवनी वती, गोष्ठी मांडी छे नैषधपत्ति, 
अहो' ललिता अंबुजलोचनी, सुखवर्धनी दुःखमोचनी। ११। 
बेसोी आसने लज्जा छांडी, पूछ वात कहो मुख मांडी, 
कन्या कहे कहो जे कहव्‌ं, मुंने घटे छे ऊभां रहेवं । १२। 
परपुरुष बेठां केम बेसूं ? जाणे नत्ठ तो कहेशे ए शुं ? 

वारु थयूं जे तमें मत्ठिया, शुं नेषघधनाथे मोकलिया ? ।१३। 
वढी | कहोने कहाव्यूं जेह, सांभ्॒वा इच्छूं छू तेह, 
: बहता बोल्या वीरसेनसुत, नहि हुं नछ॒नो, देवनों दृत। १४ । 
तक्क नक मुख शूं भाखे ? तजी सुधा विष कां चाखे ? 

तजी स्वजन शत्रने केम मो ए ? मुकी चंदन कां वढगे बावत्ठिये ?।१५। 


मिल गये। उस महिला को देखते ही नल मोहित हो गये। (फिर भी) 
उन सत्यवादी दे अपने प्रण का निर्वाह किया। उन्होंने मन से विवाह 
करने की बात को निकाल डाला । ९ (जान पड़ता था कि) शायद इन्द्र 
उस नारी को निरख रहे हों। नल का मन बाद में आकर्षित हुआ हो। 
तल उस आसन पर आसन जमाकर बंठे और उन्होंने अपने प्रण का स्मरण 
करके वह बात ठीक से कहना आरम्भ किया। १० निषधराज ने देवों के 
परमार्थ के लिए वह बात ठीक से कहना आरम्भ किया । वे बोले, “ अहो 
ललिता, हे कमल-लोचना, है सुख-व्धिनी, हे दुःख-मोचनी । ११ लज्जा- 
संकोच छोड़कर आसन पर बेंठ जाओ। मैं एक बात पृछत्ना हँ। अपने 
मूँह से ठीक से कह दो '। वह कन्या बोली, “ जो कहना है, वह कहिए। 
मुझे खड़ा रहना ही उचित लगता है। १२ पर-पुरुष के बेठे रहने पर 
मैं कँसे बैठ ? यदि नल जान लें, तो कहेंगे, यह क्या है। यह अच्छा हो 
गया कि आप मिल गये। क्‍या आपको निषधराज ने भेजा है। १३ फिर 
जो कहना हो, वह कह दीजिए न । मैं उसे सुनना चाहती हूँ '। तो इसके 
प्रत्युत्तर में वीरसेन-सुत नल बोले, “ मै नल का नहीं, देवों का दूत हूँ । १४ 
मुख से ' नल ', ' नल * क्‍यों बोल रही हो ? अमृत को छोड़कर विष क्‍यों 
चुख, रही हो ? अपने लोगों को छोडकर, शत्रु से कैसे मिले ? चन्दन 


२७४ गुजराती (नागरी लिपि) 


तजी रत्न कोडी को आणे ? तजी मदगढ महिष पलाणे ? 
तजी धेनु अजा को बांधे ? तजी शाह्ू कुशका कोण रांधे 7 । १६ । 
साटे हुं छों तारो वगियो, देव तेजपुंज नक्ठ आगियो, 
घेली नह मानव शा लेखे, अमरने तूं कां उबेखे ? । १७। 
वासव वह्ि ने वरुणराय, जम आदे वर्याती इच्छाय, 
भोकल्यो छो मह्ठीने चारे, तो हुं आव्यो छों मानवी-द्वारे । १८ । 
तूं. त्िभुवनपतिने भज, नक अल्प जीवने तज, 
माग अमरावतीनों वास, अमर इक्ष्‌ ने नक्ो घास। १९। 
सुर परणे तुंने नहिं मते, नक्ठ वरे दुःखनंं नहि निवर्त, 
सुर सगे भोगववा भोग, नक्ठ अल्प आयुष्य भर्यो रोग | २० । 
मनुष्यने व्याधि शत ने आठ, मरी मरी अवतारनो ठाठ, 
मनुष्यने। विजोग पीडे, आयुष्य उत्तावछुं हींडे । २१। 
मनुष्यनी घडीए शत घात, पीडे ज्वर शीत सन्निपात, , 
मानव भर्या होय मल्-मृत्र, घेली ,ते साथे घरसूत्र | २२। 
को छोड़कर बबूल से क्यो चिपक जाएँ। १५ रत्न को छोड़कर कोड़ी 
को कौन लाए ? हाथी को त्यजकर भेसे पर कौन आरूढ़ हो जाए ? गाय 
को छोड़कर बकरी को कौन बाँध ले ? शाली (एक किस्म के बढ़िया 
चावल) को छोड़कर भूसे को कौन पकाए ? १६ इसलिए, मैं तुम्हारा 
हितैषी (बनकर भा गया) हूँ। देव तेज:पृज (सूर्य जैसे) है। नल तो 
(उनकी तुलना मे ) जुगनू है। अरी पगली, नल तो मानव है । किसके 
लिए तुम उनकी उपेक्षा कर रही हो ? १७ इन्द्र, भग्ति और वरुणराज, 
यम भादि तुम्हारा वरण करना चाहते हैं। उन चारों द्वारा मैं भेजा गया 
हैँ। अत' मैं (तुम जेसी) मानव स्त्रींके द्वार पर आ गया हूँ। १८ 
तुम त्िभुवन-पति की सेवा करो। अल्पजीवी नल को छोड़ दो। तुम 
अमरावती का निवास माँग लो (उसकी कामना करो) । अमर (देव) ईश 
है, तो नल घास है। १९ (उचित यही है कि) देव तुमसे परिणय करे-- 
कोई मत्यं नही । (यदि) नल वरण करे, तो दुःख से कोई निवृत्ति नहीं 
होगी । देवों के साथ भोग का उपभोग करना । नल तो अल्पायुषी हैं, 
रोग से भरे-पूरे हैं।२० मनुष्य में एक सौ आठ व्याधियाँ होती हैं। 
वह मर-मरकर (पुनश्च), अवतार (जन्म) ग्रहण करनेवाला दिखावटी 
ढांचा होता है। मनुष्य को विरह पीड़ित करता है। उसकी आयु तेजी 
के साथ चलती है। २१ मनुष्य को सौ-सो घाव लगते है; उसे ज्वर, ठण्ड 
ओर सन्निपात पीड़ा पहुँचाते है। मानव (-शरीर) मल-मृत्र से भरा 





प्रेमाननद-रसामृत (नलोपाख्यान) २७५ 


गंगाजछकू तजी कृपनूं अणावे, तजी कीर को काम भणावे, 

देव सुखसमूहना दाता, नव ओसरे अमृत पाता। २३। 
इंद्र मंदिरि हिंडोछे हींच, तुंथी देवांगतावूद नीच, 

पी सुधा भोगनी वारुणी, था त्रेलोकपतिनी तारुणी। २४। 
थईश अमर सुधाने पीती, परण इंद्रने जग जीती, 
छासठ सहस्र रंभा आदे, थई तृप्त वासव संगस्वादे । २५। 
इंद्राणीनी ले तारी बीक, रखे दमयंती थाती अधिक, 
परणी इंद्र साचव आ तक, जोनी कल्पवृक्ष पारिजातक | २६। 
रथ ऐरावतनूं सुख ले रे, वरवा वासवने हा कहे रे, 

करी शणगार सवंगि, घटे रहेवूं इंद्र अधगरि। २७। 
वर वह्निने हो बाली, नहिं समो आवे वढ्ठी वढ्ी, 

सर्वे देवतानूं ए बदन, अग्निर्ष ते कोटि मंदन। २८ ।' 
वतल्ठही वरवा इच्छे छे जम, तेने ना कहेवाशे केम ? 

छे वरुणने इच्छा घणी, रढ लागी छे तमतणी | २९ । 
होता है। अरी पगली, उसके साथ घर-गृहस्थी का कैसा सम्बन्ध-सूत्र । २२ 
गंगाजल का त्याग करके कुएँ का पानी कौन मेँगाए ? तोते को छोड़कर 
कौए को कौन बुलाए ? देव (समस्त) सुखो के समूह के दाता होते हैं । 
उनके द्वारा अमृत पीते रहते हुए भी घटता नही । २३ इन्द्र के प्रासाद में 
झूले पर तुम पेग लगाओ । तुमसे देवांगनाओ का वृन्द (महत्त्व मे) छोटा 
है। अमृत तथा भोग रूपी वारुणी (सोमरस) को पी लो। (हे 
दमयन्ती ) तुम त्रेलोक्यपति की स्त्री बन जाओ । २४ अमृत को पीनेवाली 
तुम अमर बन जाओगी। जगत को जीतकर इन्द्र का वरण करो। 
इन्द्र की संगति के स्वाद से रम्भा आदि छियासठ सहस्न अप्सराएँ तृप्त हो 
गयी हैं। २५ इन्द्राणी को तुम्हारे बारे में यह भय लग रहा है कि तुम 
दमयन्ती उससे अधिक (रूपवती) ठहरायी जा सकती हो। इन्द्र से 
विवाह करके तुम कल्पवृक्ष, पारिजात को देखने का अवसर प्राप्त करो | २६ 
रथ और ऐराबत (पर आइरूढ होने) का सुख ग्रहण कर लो। इन्द्र से 
विवाह करने के लिए “हाँ "कह दो। समस्त अगों को सजाते हुए तुम 
इन्द्र के भाग में निवास करने योग्य हो। २७ (अथवा) हे वाला, तुम 
अग्निदिव का वरण करो। सुड़-मुड़कर, लौट-लौटकर कोई टुम्हारे सामने 
नही आएगा) वे समस्त देवों का मुख है। अग्निदेव का रूप तो कोटि 
(-कोटि) कामदेवों का-सा है। २८ इसके अतिरिक्त यदि तुम यम का 
वरण करने की कामना करती हो, तो उससे (किसी द्वारा) “ नही ' कैसे 


२७६ गुजराती (नागरी लिपि) 


मूको बाछू अवस्थानी टेव, फरी मागूं न मोकले देव, 
हंस मिथ्या करी गयो लव, रूपहीण छे चक्कर मानव । ३० । 


वलण ( तर्ज बदलकर ) 
नक्क मानव कदरूप काया, नक्क निश्रछयो नक्े रे, 
पोते पोतानूं आप निश्चंछयं, ते देवतानों दूत सांभक्ठे रे। ३१। 


कहला जाएगा । यदि वरुण (का वरण करने) की तुम्हारी बड़ी इच्छा 
हो, तो उन्हें तो तुम्हारी लगन लगी है । २९ तुम बाल्यावस्था की टेव 
छोड़ दे। (यदि ऐसा न करोगी, तो) देव ऐसी माँग को फिर से नहीं 
भेजेंगे। हस झूठी बकवास कर गया है। (वस्तुतः) नल तो रूप-हीन 
मनुष्य है। ३० 
नल तो कुरूप देह-धारी मनुष्य है। ” इस प्रकार नल ने नल की 
निर्भत्सना की । उन्होंने अपने स्वयं (के रूप) की निर्भत्सेना की। देवों 
के उस दूत ने उसे सुत लिया । ३१ 


कडवुं २२ मुं--( देवों के दूत नल और वदमयन्तो का संवाव ) 
राग रामग्री 
नत्ने निद्यो प्रेमदा दाधी जी, दूतत्व न सीध्यूं विष्टि न वाधी जी, 
बे दु:ख दाधी गुणवंत गोरीजी, वहूनि विजोगनो मृक्‍्यो संकोर जी।१। 


ढादढ 
निदा कीधी नक् तणी छे, विनोग वह्नि प्रथम, 
कोमकछ कदक्ठी कुृहाडाना, घाव सहे कहो क्‍्यम ? | २ । 





कड़वक-- २२ ( देवों के वूत्त नल और दमयन्ती का संबाद ) 


नल (-स्वरूप दूत) ने नल की निन्‍दा की और उस प्रमदा को जलाकर 
दाःघध कर दिया। उनका न दृतत्व सिद्ध (सफल ) हुआ, न मध्यस्थता वृद्धि को 
प्राप्तहुई। उस गुणवती गोरी (सुन्दरी को) दो (प्रकार के) दुःख 
जलाने लगे (एक तो विरह का दुःख और दूसरा प्रिय स्वामी नल की निन्‍्दा 
के श्रवण से उत्पन्न) । उससे वियोग की आग ने सीमा को छोड़ दिया । १ 

(देवों के दूत ने अब) नल की निन्‍दा की है। पहले से उनके 
वियोग की अग्ति (उसे जला रही ) थी (ही)। कहिए तो, कोमल 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान ) २७७ 


विरहिणी घणी विकक्त थईने, पडी पृथ्बीमांहे, . 
साहेली चांपे ह॒दे ने, मुखे वदे ताहे त्राहे। ३। 
आश्वासना करती किकरी, वी श्यामाने सान, .., 
दूत प्रत्ये कहे कन्या, शूं करू सुर राजान। ४ । 
अप्राप्ति अमने अमरतानी ने, अल्प मानव काय, 

जई कहो तमो देवने, जे ए कारज नव थाय। ५ | 
उत्कृष्ट अमर निक्षृष्ट नक में, तमथी जाण्यूं आज, 

पण नेषधपतिने पिंड सोंप्यो, अन्यतणूं नव काज। ६ । 
अकक अज ने अनंगन्‍अऔरि जो, वरवा आवे कत्रण, 
तोहे पण मूकुं नहि चित्त, चोहोंद्यूं नछ॒ने चर्ण | ७ । 
वीरसेन सुतनो दूत हंस, में दीधी तेने आश, 
ना कहूँ तो लाजे जनुनी, जनतमां होये हास। ८ । 
तमे. पधार्या दूत थईने, देवनूं करवा हेत, 
शके तो नक्ठ विष्टिए आव्या, सुरशं करी संकेत। ९ । 





कदली कुल्हाड़ी के घावों को किस प्रकार सहन कर पाएगी।२ वह 
विरहिणी बहुत विकल होकर भूमि पर गिर पड़ीो। उसकी सहेली ने 
उसे अपने हृदय से दृढ़ता के साथ लगा लिया और वह मुख से बोली, 
"त्राहि, त्राहि (बचा लो, वचा लो) ' ।३ दासी ने उस स्त्री को 
सान्‍त्वना देते हुए आश्वस्त किया और फिर उसे संकेत किया। तो वह 
कन्या (दमयन्ती) दूत से बोली, “ मैं देवों के राजा का वरण करके कया 
करू ? ४ हमें अमरता की प्राप्ति नही हो पाएगी और मानव देह तो 
छोटी (आयु वाली) होती है। आप जाकर देवों से कहिए कि यह कार्य 
सम्पन्त नही हो सकता। ५ मैने आज आप से जान लिया कि देव उत्कृष्ट हैं 
और नल निक्षष्ट है। परन्तु मैने अपनी देह निषधपरत्ति नल को समर्पित 
की है; (अतः) मुझे किसी अन्य से कोई काम नही है । ६ यदि श्रीविष्णु, 
ब्रह्मा और कामदेव के शत्रु शिवजी --तीनों मेरा वरण करने आ जाएं, 
तो भी मैं अपने मन को (अपने निश्चय से) नहीं हटा लूंगी। नल के 
चरणों में ही लिपटी रहूँगी। ७ वीरसेन-सुत नल का दूत हंस (यहाँ 
आया हुआ) था। मैने उसे आशा लगा दी है। यदि (अब) “ नही ' कहें, 
तो (मेरी) जननी लज्जा को प्राप्त हो जाएगी; लोगों में (हमारी) .हंसी 
हो जाएगी । ८ देवों का हित करने के लिए आप दूत बनकर बाये हैं । 
शायद देवों से संकेत निर्धारित करके नल मध्यस्थता के लिए आ गये 
हैं। ९ है जोगी, यथार्थ बात बोलिए-- आप (जोगी है अथवा) कोई 


च्त्क 


श्छ८ गुजराती (न्ाग़री लिपि) 


जथारथ बोलो रे जोगी, भोगी छो भूृपाछ, 
मनमां छों तेवा देखूं छों, हंसे नाखी मोहजाछू | १०। 
संन्‍्यासी कहे सुंदरी, कोण मात्र नेषध्पत्य ? 
देव विना नोहे मनुष्यने, अगोप आव्यानी गत्य | ११। 
बुद्धीण बाढा देखाय छें, मानव उपर मोह, 
स्वगू॑ सदन मुकीने कां, इच्छे नक् घर खोह। १२। 
तूं नहि वरे तो देव चारे, करशे बढात्कार, 
कल्पव॒क्ष तुंने ताणी लेशे, जो जाचशे सुर लगार। १३। 
दमयंती कहे देह पाडुं, जक्॒मां करुं जक्रशायी, 
वरुण वसे छे नीरमां तुंने, सद्य जाशे साही। १४। 
पावक प्रगटी काष्ठ सींची, मांहे करुं झंपापात, 
वहूनि वर॒वा बेसी, वार विवाहनी वात। १५॥ 
कंठ पाश कर के विष पीउं, जेम तेम पाडु काय, 
तो अवगते जमलोग पामे, सद्य वरे जमराय। १६। 





भोगी भूपाल है ? हंस ने (मुझ पर) मोह-जाल बिछा दिया है, अतः 
मेरे मत से आप जंसे हैं, मैं वंसे ही आपको देख रही हूँ '। १० 

संन्‍्यासी (जोगी) बोले, ' है सुन्दरी, निषधपति कौन हैं? देवों के 
अतिरिक्त किसी मनुष्य मे अगोचर रूप मे आ जाने की गति (शक्ति) नहीं 
है। ११ तुम बुद्धिहीन बाला मनुष्य के प्रति मोह दिखा रही हो। 
स्वगें-सदन को छोड़कर नल के खोह जैसे घर की क्यो इच्छा कर रही 
हो । १२ यदि तुम वरण नही करोगी, तो चारों देव (तुम्हारे साथ) 
बलात्कार करेंगे। यदि वे तनिक (भी) मांग ले (इच्छा करें), तो 
कल्पबृक्ष तुम्हें बीच ले जाएगा ”“। १३ (इसपर) दमयन्‍्ती बोली, * मैं 
पानी में देह-पात करूँगी, उसे जलशायी कर दूंगी '। (तो दूत ००8“ 
/ वरुण पानी में निवास करते है, वे तुम्हें तुरन्त पकड़ लेगे '। १४ 

अग्नि को प्रकट (प्रज्वलित) करते हुए उसमे लकड़ी डालकर कूदकर गिर 
जाऊंगी '। (तो नल बोले--) तब तो अग्नि के लिए तुमसे विवाह कर 
बैठने की दृष्टि से यह अच्छी बात है !। १५ (दमयन्ती बोली--) ' मैं 
कण्ठ सें पाश डालूंगी, अथवा विष पीऊँगी; जसे-वैसे में देह को गिरा दूँगी । 
(यह सुनकर दूत बोले--) ' तो तुम अधोगति से यमलोक को प्राप्त हो 
जाओगी। (तब वहाँ) यमराज तुरन्त तुम्हारा वरण कर लेगे !। १६ 
(देमयन्ती बोली--) “ मैं किसी गुफा में पैठकर अनशन ब्रत लेकर तपस्या 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाझ्यान) २७६ 


अनशन ब्रते तप करु, मरुं गुफामां पेसी, 
तूं पुन्ये तुूं स्वर्ग पामशे, इंद्र रह्मो छे बेसी। १७। 


वलण ( ते बदलकर ) 
बेसी रह्यो छे सुरपति, तूं मुए न छूटशे घेली रे, 
अंते अमर वरे खरा, मादे परण प्रेमदा पहेली रे। १८। 





करूँगी ओर मर जाऊँगी ”। (इसपर दूत बोले --) “ उस पुण्य से तुम 
स्व को प्राप्त हो जाओगी । (वहाँ) इन्द्र तो बेठे रहे हैं। १७ 

(वहाँ) सुरपति इन्द्र बेठे रहे है। है पगली, तुम मरने पर भी नहीं 
छुट पाओोगी । अन्त में देव ही तुम्हारा वरण करेंगे। इसलिए, है प्रमदा, 
पहले ही तुम उनसे परिणय कर लो (| १८ 


कडवुं २३ मुं--( दमयस्ती के यहाँ से लोटकर नल का देवों से सिलता ) 
राग देशाख 


दूत कहे सांभक सुंदरी, अमर न मुके परणे खरी, 
तव कन्या कहे जोगी जन, तमारु नत्मनां जेवूं रे वदत। १ । 
जेवूं हंसे रूप वर्णव्यूं, तेवुं तमारु दर्शन ह॒वूं, 
नें हुं नह देवनो दास, नारी कहे न आवबे विश्वास। २ । 
ब्रह्मा करे कोटि उपाय, न जेवो अन्य नहि निरमाय, 
जो सत्यवादी हो तो सत्य वदो, तातना सम जो मिथ्या वदो । ३ । 


तीज 


कड़वक-- २३ ( दसमयन्ती के यहां से लोटकर तल का देवों से मिलना ) 


दूत बोले, ' हे सुन्दरी, सुन लो। देवों को मत छोड़ो। सचमुच . 
उनका वरण करो “ई। तब कन्या (दमयच्ती) बोली, “ है योगीजन, आपका 
वदन नल का-साहै। १ हंस ने जेसे रूप का वर्णन किया था, आपमें 
वैसे ही रूप के दर्शन हुएहै '। (तो दूत वोले--) ' मैं नल नहीं हूं, 
देवों का दास है '। (तब) वह नारी बोली, “ विश्वास नहीं आभाता। २ 
ब्रह्मा ने कोटि (-कोटि) यत्व किये हों, तो भी वे नल जैसे (किसी अन्य ) 
को नहीं नि्ित कर सके हैं। यदि आप सत्यवादी हों, तो सत्य कहिए। 
यदि झूठ बोलेंगे, तो पिता की सोगन्ध है '। ३ यह सुनकर नल को हँसी 





२८० गुजराती (नाग़री तिपि) 


सांभक्कली नक्ठने आव्यूं हास्य, देखी दमयंती गई प्रभू पास, 
शीद नहासो अरापरा, प्रीकया स्वामी तभे खरा। ४ । 
तोये नक् सत्यथी नव चढछे, ते सर्व देवना दूत सांभके, 
धरसी दमयंती गई प्रभु पास, न अंतर्धातन हवो आकाश । ५ । 
ज्यारे मीठामीट ज टढ्ीी, त्यारे भीमकतनया धरणी ढछी, . ' 
मृछ स्वामीती लहे छे सदा, मढी जाता वाधी आपदा। ६ । 
दासी प्रतिबोधे छे सबतछ, बाई तमने वरशे नक्व, - 
वदे बृहदश्व हो धर्मराय, नक् पहेलो दूत शीघ्रे जाय । ७ । 
वदे सेवक इंद्रने नमी, शे अर्थ रह्मां छो टमटमी ? 
नकनूं कांई ए न लाग्यूं कहेण, न छूटे हंसे झायु प्रेमरेण | ८५ । 
कामिनी कुंदन नक् हीरो सार, जडनारो हंस सोब्रणकार, 
नंठे दृतत्व मन मृकी कयु, पण कन्याएं श्रवण नव धयु । ९ । 
जेम गति करे बढ्वियो मारुत, तेम वर्त्यों वीरसेननो सुत, 
नक्कने सत्ये मेघवृष्टि करे, नक्तने सत्ये धरा शेष धरे। १०। 


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आयी। यह देखकर दमयन्ती प्रभु (अपने स्वामी नल) के पास गयी 
(और बोली--) ' इधर-उधर क्‍यों भाग रहे है ? (इधर-उधर की बातें कहते 
हुए दालमटोल क्यों कर रहे हैं ?) हे स्वामी, मैंने आपको सचमुच पहचाना 
है'।४ तो भी नल अपनी प्रतिज्ञा से विचलित नही हुए। देवों का 
वह (दूसरा) दूत यह सब सुन रहा था। जब दमयन्ती तेजी से अपने 
प्रभु नल फे पास गयी, तो वे आकाश में अन्तर्धान हो गये। ५ जब दृष्टि से 
दृष्टि ही मिलना टल गया (आँख से आँख ही नही मिल पायी), तब 
भीसक-कन्या दमयन्ती धरती पर लुढ़क गयी। पहले तो उसे अपने 
स्वामी के प्रति सदा लगन लगी रही थी। फिर मिलकर जाने पर उसके 
लिए (मानो) विपत्ति (ही) बढ़ गयी । ६ तो दासी ने (यह कहकर) 
बहुत समझाया-बुझाया-- ' हे देवी, नल तुम्हारा वरण करेंगे । बृहंदश्व 
बोले, “ हे धर्मराज, नल से पहले (देवों का वह दूसरा) दूत शीक्रता से 
चला गया '।७ वह (दूत) इन्द्र को नमस्कार करके बोला, ' आातुर होकर 
किसलिए रह गये है ? नल का वह कहना कुछ भी प्रभाव नहीं कर स्का ! 
हंस ने (जो) प्रेम के रज:ःकण झाल दिये है, वे नही छूटे । ५. वह कामिनी 
कुन्दन है, तो नल सुन्दर हीरा। उन्हें (एक-दूसरे से) जड़ देनेवाला 
सुवर्णकार है हंस । नल ने दूतत्व (दूत का काम) तो मन खोलकर 
(मन लगाकर) किया; फिर भी उस कन्या ने उसे कानों पर नहीं धरा 
(कुछ सुनकर माना ही नही) । ९ जिस प्रकार बलशाली वायु स्थिति- 





प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाझ्यान) २८१ 


नकछ नोहे तो मेरु निश्चे डगे, धर्म रह्मो छे नक्कराय लगे, 
तमे न परणो तो कर्म नो वांक, बाकी नक्े वाक्यो आडो आंक। ११। 
एवे. समे राय आव्या तहीं, अथ इति वार्ता सहु कही, 
स्वामी मारु कह्यूं मत तव धरे, बीजो मोकलो जेनूं कह्मूं करे । १२ । 
मारे विषे लीनता तो ह॒वी, वीजी न ममे वार्ता नवी, 
त्यारे देवता करे विचार, फरी जातां हसे संसार। १३ । 
आपणो श्रम केम जाये वथा ? ते माटे वरवी सव्वथा, 
जो कन्याने गम्यो न भूप, तो आपण लीजे नक्नां रूप । १४ । 
देव कहे सुणो नेषधराय, अमों धरु तमारी काय, 
पंच नछ रहीए एक हार, भाग्य होय तेने वरशे नार। १५॥ 
व कहे रे कां नही स्वाम ? में आवबूं तमारे काम, 
मानव क्यांथी सुरनी संगत ? देव चारनी पामं पंगत। १६ । 
बोल बंध कीधो न देव, काले एम करव॑ अवश्यमेव 
ए कथा करी धर्म एटले, हवे कन्‍्यानी कोण थई वले ? । १७। 





गति कर देता है, उसी प्रकार वीरसेन के सुत नल ने आचरण किया। 
नल के सत्य से मेघ वृष्टि करता है; नल के सत्य से शेष पृथ्वी को (सिर 
पर) धारण करता है। १० नल न हों, तो मेरु निश्चय ही विचलित हो 
जाएगा; नलराज के आधार से धर्म रह गया हैं। आप (उस कन्या से) 
परिणय न कर सकें, 'तो यह कम का दोष है। और फिर जो शेष रहा 
उस दृष्टि से नल तो चरम सौमा तक गये है। ११ उस. समय (नल) 
राजा वहाँ आ गये । उन्होंने अथ से:इति तक समस्त, समाचार कह दिया। 
(वे बोले--) “ है स्वामी, वह मेरे' कहे पर मन नहीं धरती (ध्यान नहीं 
देती) । किसी दूसरे को भेज दीजिए, जिसकी कही (वात) वह कर 
दे। १२ मुझमें उसकी लीनता हुई है; (अतः) उसे कोई दूसरी बात 
अच्छी नही लग रही है।' तब देवो ने विचार किया-- “ लौट जाने पर 
संसार (हमें) हँसने लगेगा । १३ हमारा परिश्रम कैसे (क्यों) व्यर्थ हो 
जाएगा । इसलिए उसका सर्वथा वरण करना है। यदि कन्या को नल 
राजा अच्छे लगते है, तो हम नल के रूप धारण कर लें '। १४ (भननन्‍्तर) 
देवों ने कहा, है नेषधराज, सुनिए। हम आपके शरीर (-से शरीर) 
धारण करेंगे। एक पंक्ति में पाँच नल रह जाएँ। जिसका भाग्य हो 
उसका वरण वह नारी कर लेगी । ' १५ तो नल ने कहा, “ हे स्वामी 
क्यों. नहीं ? मुझे आपके काम आता है। मानव को देवों की संगति 
कहाँ से हो ? मैं चार देवों की पंक्ति (-लाभ) को प्राप्त करूँगा '। १६ 


श्८२ गुजराती (नागरी लिपि) 


गई दमयंती ज्यां छे मात, तव स्वयंवरनी कीधी वात, 
लाडवचन कश्यानां गमे, घरमां भीमक आव्या ते समे। १८। 
पुत्नीनी शिरे मृक्यों भुज, काले वरने वरजे तुं ज, 
झंखना तुंने छे जे तणी, ते आव्यों छे नेषधधणी। १९। 
पुत्नी मनमां प्रसन्न थई, पोताने अंतःपुर गई, 
राय भीमक सभामां आव्या, शत पडादारने तेडाव्या | २० । 
आगना दीधी वेदभंराय, जाओ वजाडो पडो सेनामांहे, 
आवजो सभ्मामां राजकुमार, काल कन्या आरोपशे हार।२१। 
प्राणी मात्र आवनों सज थई, जाओ पडो वजाडो एम कही, 
जेणे शिबिर ऊतर्या होय घणा, त्यां सेवक फरे भीमकतणा | २२ । 
ठाम ठाम पडा वातता, क्षत्री शणगारे साजता, 
मलस्तान करे ने अंग ऊलट, फरी फरी बांधे मुगठ । २३। 
रातमां शीखे चातुरी चाल, रखे वीसरी जाता काल 
आखी रात थया सांतरा, ढढ्ी ढछी पडे छे उजागरा। २४। 


(इस प्रकार) देवों ने नल राजा को वचन-वद्ध कर लिया-- कल ऐसा 
अवश्य ही करना है। यह कथा इतनी धर्मराल को बताथी गयी । अब कन्या 
की कौन (क्या) स्थिति हुई ? १७ दमयन्ती (वहाँ) गयी, जहाँ (उसकी ) 
माता थी। तब उसने स्वयंवर फे सम्बन्ध में वात की। कन्या के लाइ-भरे 
वचन उसे अच्छे लगे। उस समय घर में भीमक राजा आ गये। १८ 
उन्होंने पुत्री के सिर पर हाथ रखा (और कहा)-- ' कल तुम ही (अपनी 
इच्छा के अनुसार) किसी वरका वरण कर लो। तुम्हें जिसकी लगन 
लगी है, वे निषध्पति आ गये हैं '। १९ यह सुनकर वह कन्या मन में 
प्रसन्न हुई और अपने अन्तःपुर में चली गयी। (इधर) राजा भौमक 
सभा (-मण्डप) में आ गये । थे एक सौ डंका बजानेवालों को बुलाकर 
लाये। २० विदर्भराज भीमक ने उन्हे आज्ञा दी-- “ जाओ, सेना (शिविरों ) 
मे डंका बजा दो। (कहो-) हे राजकुमारो, सभा (-मण्डप) में आ जाइए। 
कल कन्या (दमयन्ती वर-) माला पहनाएगी । २१ प्राणी मात्र सजकर भा 
जाएँ । जाभो, ऐसा कहते हुए डका बजा दो ”। जिन शिबिरो में बहुत 
(लोग ) ठहरे थे, वहाँ भीमक के सेवक घूमते रहे । २२ स्थान-स्थान पर 
डके बज रहे थे। क्षत्रिय श्वगार सजते रहे । उन्होने स्‍्तात किया और 
उनके अंग-अंग मे उल्लास (भरा हुआ) था। वेबार-बार मुकुट (साफा) 
बाँधने (सेबारने) लगे | २३ रात में वे चातुर्य भरी चाले सीख रहे थे 
(चालों का अभ्यास करते रहे)-- (नही तो) शायद कल भुल जाएँ। 
पूरी रात भर वे मनसूबे रचते रहे । लेटे-लेटे उन्हें रतजगा हो गया । २४ 


ब्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) र्८३ 


वलण ( तज्ज बदलकर ) 


उजागरा आखी रातना, शणगार सजतां थयूं वहाणुं रे, 
स्वयंवरमां भूपषति मत्तिया, कवि कहे शुं वखाणुं रे ?।२५। 


पूरी रात भर उन्हें रतजगा हो गया। खांगार सजते-सजते सबेरा 
हो गया। तो राजा स्बयवर (-मण्डप) में इकट्ठा हो गये। कवि 
कहता है, ' मैं उनका वर्णन क्या करूं ? २५ 


च् 


कडयूं २४ मूं-(राजाओ का स्वयंवर-मण्डप के प्रति गन ) 
राग सोरठी 
वेशंपायन कहे राजन, सांभक्त स्वयंवरन्‌ं वर्णन, 
पडो वाज्यो सुण्यों से राते, ऊठया उजम थाते प्रभाते। १ । 
शीघ्रे जईए वर्यानी तके, तेडां मोकल्यां भाईओ भीमके, 
नोहे अति काछ कीधानुं काम, मांडवे नव मत्ठशे बेसवानां ठाम । २ । 
भीड भराई गाम भागल्थी, रंक जाये राय आगल्ठथी, 
मे शुकन सामा तेडे, शुकन वदे ने रथ खेडे। ३ । 
करे तिरस्कार सेवक पर रीस, पडे मुगट उधाडां शीश, 
जाये अस्वार बहु अलबेला, हय हींडे जाणे जल्नना रेला । ४ । 





कड़वक-- २४ ( राजाओं का स्वयंवर-मण्डप के प्रति गसत ) 


वेशम्पायन बोले, “हे राजा, स्वयंवर का वर्णन सुनिए। रात में 
(कुछ रात के रहते) नगाड़ा बजा। सबने उसे सुना; फिर प्रभात काल 
में प्रकाश फल जाते ही वे उठ गये। १ भीमक ने (दमयन्ती के) बच्धुओं 
से यह कहकरु सबको बुलाने के लिए भेज दिया-- “ वरण करने के समय 
के अन्दर शीघ्रतापृ्वकं जाइए। अति विलम्ब से किया काम नहीं 
बनता । मंडप में बेठने के लिए स्थान नहीं मिलेगा !'।२ नगर की 
सीमा से (लोगों कौ) भीड़ लग गयी । रंक लोग राजाओं के आगे से जा 
रहे थे। (मार्ग में) उनको सामने एक पक्षी मिला। वह पक्षी बोला । 
(उसे शुभ शकुन मानकर) उन्होंने रथ हाँक दिये । ३ वे सेवकों के प्रति 
कुद्ध होकर उनसे तिरस्कार करने लगे । उनके मुकुठ गिर पड़े, तो उनके 
मस्तक खुल गये (अनावृत हो गये) । बहुत अलबेले सवार जा रहे थे। 
घोड़े ऐसे चल रहे थे, मानो पानी के रेले हों। ४ (सवारों से) भरे हुए 


२८४ गुजराती (नागरी लिपि) 


भराये रथ मांहोमांहे अठके, त्रांडे हस्ती घोडा भडके, 

अस्वार पड़े छे नीसरी, ते मछे कहीए नव फरी। ५ । 
वाहन पडधानों चाल्यों छब, चरण रेणुए छायो नभ, 

थई रह्मं छे अधारु घोर, पडी रह्मयों छे शोहोराशोहीर। ६ ।॥” 
बोले दुंदुभिना बहु डंक, अकछामणनों वदयों अंक, 

सर्वने दमयंतीनु ध्यान, प्राणी मात्न वर, नहि को जान। ७ । 
स्वयंवर जोवा कारणे, प्रजा मत्ठी मंडप बारणें, 

द्वारे ऊभा छे ज्येष्टिकादार, तेडे जेने जेवो अधिकार। ८ । 
डाह्या थई मंडपमां पेसे, नाम वांचे ने आसने बेसे, 

एक मंत्री सेवक खबास, त्रण त्रण सेवक रायने पास। ९ । 
कोण रूप मंडपती रचना, वर्णवी शके शृं एक रसना ? 

कदली स्तंभ रोप्या द्वारे, मांडयां आसन हारोहारे। १०। 
यशगीत बंदीजन बोले, महा उन्मत्त मेगक डोले, 

नावाविध चित्र चीतरियां, जाणे देववृद ऊतरियां। ११॥। 
रथ बीच-बीच मे अटकते जाते थे; हाथी चिंघाडते हुए गरज रहे थे । 
घोड़े भड़क उठते थे। घुड़सवार फिसलकर गिर रहे थे। कहिए कि 
वे फिर से नही मिल रहे थे (गिरे हुए अश्वारोही फिर से अपने-अपने 
घोड़ों को प्राप्त नही कर सकते थे) । ५ वाहनों की पद-ध्वनि का घोष 
हो रहा था। उनके चरणों से उछली हुई धूल से आकाश आच्छादित 
हो गया। घना भँधेरा हो गया । कोलाहल हो रहा था । ६ दुन्दुभियों 
की बड़ी ध्वनि हो रही थी। (सबकी) व्याकुलता की कोई सीमा नहीं 
रही । सबको (केवल) दमयन्ती का ध्यान (लगा हुआ) था। प्रत्येक 
प्राणी मात्र वर (बना हुआ) था, कोई भी बाराती नही था। ७ स्वयंवर 
देखने के लिए प्रजा मण्डप के द्वार पर इकट॒ठा हो गयी। द्वार पर 
चोबदार खड़े थे। वे जिसका जैसा अधिकार (योग्यता) था, उसे बुला रहे 
थे।८ वे (लोग) समझदार होकर भण्डप में प्रवेश करने लगे । वे अपने- 
अपने नाम पढते थे और अपने-अपने (लिए निर्धारित) आसन पर बैठ जाते 
थे। प्रत्येक राजा के पास एक-एक मंत्री, एक-एक सेवक और एक-एक 
खवास (जाति-विशेष का राजसेवक) इस प्रकार तीन-तीन सेवक थे। ९ 
कौम अपनी एक जिहवा से उस मडप की सुन्दर रचना का वर्णत कर 
पाएगा ? द्वार-द्वार पर कदली-स्तम्भ लगाये हुए थे। आसन पंकवित- 
पंक्ति में लगाये हुए थे। १० बन्दीजन यशोगीत गा रहे थे। महा 
उन्‍्मत्त हाथी डोल रहेथे। नाना प्रकार के चित्र अंकित थे। जाव 





प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) र्८५्‌ 


ऊडे अबील गुलालनां छंटा, वाजे ढोल ने घूघरा घंटा, 
सभामांहे बेठा महामुनि, लागी वेदशास्तती धुनी। १२। 
जति जोगी बेठा पावन, रायना भाट भणे भावन, 
रायने छत्न॒ चामर ढछ्े, मुगटठे मणि झल्हकें | १३। 
अगर धूप त्यां उबेखे, वाजित नाद आवे अलेखे, 
नटुआ करे छे नर्त्त, फरे फूदडी कहाडे सते। १४। 
बोले घृथरी केरा रणका, गरववंधेली नावे गुणिका, 
पगपानीए शोभे धरा, वाजे कंकण ने घूघरा। १५। 
गीत गाये कोकिलस्वरा, अनंत वधारे अप्सरा, 
जाणे मंडप नगरी अमरा, नाचे नारी नरचित्तहरा। १६। 
भीमक भूपने दे छे मान, आवी रह्या सर्व राजान, 
गानारी गाये गीतगाथा, बांध्यां तोरण देवाय हाथा। १७। 
वस्त्न केसरमांहे झकझोकू, बेसे आसने आरोगे तबोल, 
वर थई बेठा प्राणीमात्न, समां कर्या छे वरवां गात्न | १८। 





पड़ता था कि देव-समुदाय ही उतरकर आ गये हों। ११ अबीर ओर 
गुलाल के छीटे (कण) उड़ रहे थे। ढोल, धृंघरू और घटे बज रहे थे। 
सभा में महान मुनि बेठे हुए थे। (उनके द्वारा) वेद-शास्त्रों (के मंत्रों) 
की ध्वन्ति हो रही थी । १२ (मंडप में) पवित्न (आचार-विचार वाले) 
यति और योगी बेंठे हुए थे। राजा के भाट प्रशस्ति (-मय उतक्तिर्याँ) 
बोल रहे थे। राजाओं पर छत्र धरे हुए थे भौर चामर ढल रहे थे। 
मुकुटों में रत्त चमक रहे थे । १३ वहाँ (सेवक) अगर और धूप डाल 
रहे थे। वाद्यों की ध्वषि असीम रूप में हो रही थी। नट नतेंन कर 
रहे थे। वे छलाँग लगाते हुए घूम रहे थे और (आपस मे) होड़ लगा रहे 
थे। १४ घुंघरुओं की झनकझनक हो रही थी। गव॑ में चूर गणिकाएँ 
नाच रही थी। उनके पाँवों की एड़ियों से घरती शोभाषमान थी। 
उनके कंकण और घुंघरू वज रहे थे। १५ कोयल के-से स्वर वाली 
अप्सराएँ गीत गा रही थी और अपार बधावा कर रही थी। मानो वह 
मंडप अमरावती नगरी (देवनगरी) थी। मनुष्यों के चित्त का हरण 
करनेवाली नारियाँ नाच रही थी। १६ भीमक राजाओ का सम्मान 
कर रहे थे। समस्त राजा आ गये। गवये (यशो-गीत-गाथा) गा रहे 
थे। तोरण (बन्दनवार) सिद्ध किये गये थे। कुंकुम की हस्त-मुद्राएँ 
अंकित की गयी थी। १७ केसर में भिगोये-रँगे वस्त्र" झलक रहे थे ॥, 
वे (राजा) आसन पर बेठे हुए थे और बीड़े खा रहे थे। प्राणी मात्र 


२८६ गुजराती (नागरी लिपि) 


शरीर क्षुद्र काष्ठनां खोड, तेने दमयंती परण्याना कोड, 
बाक यौवन ने वढ्ी वृद्धा, तेने दमयंती परण्यानी श्रद्धा । १९ । 
को तो मोठा घरना कुंवर, को कहे आद्य अमारुं घर, 
आशा अभिमाने भर्या नर, वांका मुगठ धर्या शिर पर। २०। 
घरडा थया नाना वर, व॒त्तां करावतां वाग्या छर, 
तन मन कन्याने अपंण, आगरछथी नहीं ठाछे द्षण। २१। 
केटलाक करे तिलकनी रेष, केटलाक करे मांहोमांहे द्वेष, 
केटलाक करे पूछापूछ, हुं कहेवो कही मरडे मूछ। २२। 
जेनां मुखमांहे नहीं दंत, तेने परणवानुं चंत, 
केवक वृद्ध डाचां गयां मी, ते बेठा टुंपावी पाछी। २३ । 


जोशीनी प्रणिप्त करी, देखाडे हाथ ने जन्मोतरी, 
जो दमयंती मुंने परणे, तो जोशी हुं लागूं चरणे। २४। 
जेतां बेसी गयां गलस्थकू, मुखमां राख्यां बब्बे फोफक, 


वर बनकर बैठे हुए थे। उन्होने अपने कुरूप ग्रान्नों को ठीकठाक कर 

लिया था। १८. जिनका शरीर (सूथी) लकड़ी का ढूँठ (वन गया) था, 
उन्हें भी दमयन्ती का वरण करने की हविस थी। बाल, युवक और 
उनके अतिरिक्त वृद्धों को भी दमयन्ती द्वारा वरण किये जाने की श्रद्धा थी 
(विश्वास था कि दमयन्ती उनका वरण करेगी) | १९ कोई तो बड़े घर 
के कुंवर थे। कोई कहता कि हमारा घर (कुल ) आद्य (सबसे पुराना) है । 
वे नर आशाओं-अभिलाषाओं से भरे हुए थे। उन्होंने सिर पर मुकुट 
टेढ़ें घाराण किये थे । २० अनेकानेक वर बूढ़े हो गये थे। क्षोर 
(हजामत) बनाते समय उन्हें छरा लग गया था। (फिर भी) उन्होंने 
उस कन्या पर अपना तन-मन अपित किया था । वे अपने सामने से दर्पण 
दूर नही कर रहे ये । २१ कितने ही (वर) रेखाकार तिलक लगाये 
हुए थे। कितने ही परस्पर हेष कर रहे थे। कितने ही पूछताछ कर 
रहे थे ओर हुंकार भरकर मूंछों को मरोड़ रहे थे । २२ जिनके मुख में 
दांत नहीं थे, उन्हे भी परिणय करने की चिन्ता (इच्छा) थी। जो 
पूर्ण रूप से वृद्ध थे, जिनके मुख पर झुरियाँ पड़ी हुई थीं, वे अपने-अपने 
पके (एवेत ) केश जड़-मुल से उखाड़कर बेठे हुए थे । २३ कुई ज्योतिषि को 
प्रणिषात (नमस्कार) करके अपना हाथ और जन्‍्म-पत्नी दिखा रहा था । 
(वह कह रहा था--) ' हे ज्योतिषि, यदि दमयन्ती मुझसे परिणय करे, तो मैं 
आपके पाँव लगूंगा '। २४ जिनके गाल बैठ गये थे, वे मुंह में दो-दो 
सुपारियाँ रखे हुए थे। इस प्रकार अपने गालों को फुलाये हुए वे पगले 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) २८७ 


एम ऊंचां करी गलोठां, घेला जुए काचमां कोठां, 
पूरण आशाए सर्व कोय, पण कन्या नक॒नी वाट जोय | २५। 


वलण ( तर्ज बदलकर ) 
वाट जुए छे नव्ठतणी, दासीने कहे छे सती रे, 
हुँ मंडपमां पछे आवुं, प्रथम आवबे नेषधपति रे।२६। 


काँच में अपता-अपना मुँह देख रहे थे। सब आशा से परिवृर्ण थे। 
परन्तु (उधर) दमयन्ती नल की बाद जोह रही थी । २५ 


वह सती नल की वाठ जोह रही थी। उसने दासी से कहा-- * मैं 
मण्डप में बाद में आ जाऊँगी; पहले नैषध-पति नल तो आ जाएं ! । २६ 


कड़वं २५ मूं- -( विवाह-मण्डप में दमयन्ती का आगसन ) 
राग रामग्री 


मंडप मांहे भूपति मक्ठिया जी, अभिमाने भर्या रूप बुद्धि बढ्िया जी, 
तेडो कन्‍्याने भीमक ओचरे जी, वेदर्भी शणगार अंगे धरे जी । १। 


ढाल 

शणगार सजती सुंदरी ते, शोभती श्रीकार, 

नक्त नथी आव्यो मंडपे, माटे लगाडे वार। २ । 
क्ृष्णागर मर्देत वास वर्धन, महिला करे मंजन, 

बहु नार आवबे वधावे, बरसे मुक्‍्ता परजन। ३ । 








कड़थक--२५ ( विवाह-मण्डप में दसयस्ती का आगमन ) 


मडप में राजा इकट्ठा हो गये। वे रूप और बुद्धि सम्बन्धी 
अभिमान से भरे-पूरे थे; वे बलवान थे। राजा भीमक बोले, “ कन्या को 
ले आओ '। (इधर अन्दर) विदर्भराज की कन्या दमयनन्‍्ती शरीर में 
सामश्ृंगार धारण कर रही थी । १ वह सुन्दरी शूंगार सज रही थी । 
वह लक्ष्मीस्वरूप (जेसी) शोभायमान (दिखायी दे रही) थी। राजा नल 
मण्डप मे (तब तक) नही आये हुए ये । इसलिए वह देर कर रही थी। २ 
उस महिला ने क्ृष्णागर (काले अगरु) का (शरीर में) मर्द करते हुए 
(अपनी देह को स्वाभाविक) सुगन्ध को बढ़ाने के लिए (सुगन्धित 
द्रव्य से) मार्जज किया। (वहाँ) अनेक स्त्रियाँ आ गयी भौर 


ए८८ गुजराती (नागरी लिपि) 


शुभ वचन वोले शकुन बदे, उदयो हर्ष अनंत, 
भेरी नाद थाये ने गीत गाये, बहु किकरी नाचंत। ४ । 
मान प्रण मानुनी, महीपत मोहवा काज, 
स्वयंवरना सुभट जीतवा, धरे श्यामा साज। ५ । 
प्रेंमपाश लीधो प्रेमदा, नाखवा मंड्पक्षेत्र, 
श्रकुटिधनुष आकर्षियूं ने, बाण बंन्यो नेत्र । ६ । 
तारुणीने तेडां मोकले, राय भीमक वारोवार, 
कुंवरी बाहेर नीसरो, करमां ग्रहीने हार। ७ । 
वारजित वाजे घोष गाजे; थाये कुसुमती वृष्ट, 
राजामात्न जुए वारणे, केम मल्रे दुृष्टे दृष्ट 7 । ८ । 
ओ कन्या आबवी ओ कन्या आबी, घोष एवो थाय, 
पंच शब्द वाजे गान थाये, वांका वत्ठछी जुए राय। ९ । 


वलण ( तर्ज बदलकर ) 
जुए राजा फरी फरी, केवूं हशे कन्यानूं रूप रे, 
एव. समे देव चार साथे, आवियो न भूप रे।१०। 


उन्होंने शुभ कामनाओं के साथ आशीर्वाद दिया। उन्होंने मोतियों को 
बौछार की। ३ उन्होंने शुभ वचन कहे; (शुभ) शकुन (सूचक) वातें 
कही । (वहाँ) अपार हष हो गया । भेरियों का गर्जन होने लगा और 
वे (स्त्रियाँ) गीत गाने लगी। बहुत दासियाँ नाच रही थी। ४ मान- 
सम्मान के भाव से भरी-पूरी वह मानिनी, वह सुन्दरी महीपतियों को 
मोहित करने के लिए, स्वयंवर में आभाये हुए योद्धाओ को जीतने के लिए 
श्रृंगार सज रही थी । ५ उस प्रमदा ने मंडप-क्षेत्र पर डालने के लिए प्रेम- 
पाश ग्रहण किया । उसने भौंह रूपी धनुप को खींच लिया। दोनों नेत्र 
(उसके) बाण (बने हुए) थे । ६ राजा भीमक बार-बार उस तरुणी को 
* (यह कहते हुए) बुलावे भेज रहे थे-- ' री कुंबरी, हाथ मे (वर-)माला 
लेकर बाहर निकल आओ ” । ७ वाद्य बजने लगे। वे घोषपूर्वक गरज 
रहे थे। पुष्पों की वर्षा हो रही थी। राजा मात्र (सब उपस्थित राजा) 
द्वार की ओर (इस अभिलापा से) देख रहे थे कि किस प्रकार उस (कत्या) से 
दृष्टि जुड़ जाए (साक्षात्कार हो जाए) | ५ (फिर) ऐसी घोषणा हो 
गयी, “ (देखिए, देखिए,) वह क्या आा रही है, वहु कन्या आ रही है। 
पंच वाद्यो' की ध्वनि हो रही है। गीत-गान हो रहा है। (तब बह 
_घोषणा सुनकर) वे राजा शझुक-क्षुककर देखने लगे । ९ 


१ पंचवाद्य- तंत्री, ताल, क्लाँझ, नगाड़ा और तुरही । 


प्रेमाननद-रसामृत (नलोपाख्यान) - श्पहै 


वे राजा बारबार देख रहे थे कि उस कन्या अर्थात दमयन्‍्ती का रूप 
कसा है। उस समय नल राजा चार देवों के साथ (वहाँ) भा गये.। १० 


कड॒वूं २६ मुं--( स्वयंवर-सप्ता में नलराल का आगसन ) 
राग मारु 


वागी स्वयंवरमां हाक, ते नक्त आव्यों रे, 
भांग्यां भूप सवेनां नाक, ओ नक्छ आब्यो रे। १ । 
जाणे उदयो नेषधभाण, ते नकछ आव्यो रे, 
अस्त थया सौ तारा समान, ओ नक् आव्यो रे। २ । 
तेज अनंगनूं अंग, ते नक आव्यो रे, 
जाणे कनक कायानो रंग, ओ नक्ठ आव्यो रे। ३ । 
झतकके झल्ह॒छ ज्योत्त, ते नक आबव्यो रे, 
मुगट पर चढ्के उद्योत, ओ नक्ठ आब्यो रे। ४ । 
ज्योत रविनी पेर कुंडछ लहेके, ते नछ आव्यो रे। 
अरयजा अंग्रे बहेके, ओ नक्ू आव्यों रे। ५ । 
शोभे - वदन पूनमनो चंद, ते नक्त आबव्यो रे, 
कमछतनयन प्रेमनो फंद, ओ नक आव्यों रे। ६ । 


6 >ध४ञ टी 3 जी + 


कड़वक-- २६ ( स्वयंवर-सभ्ा में नतराज का आगमन ) 


नल आ गये, तो स्वयंवर (-सभा) में (उनकी) धाक जम गयी। 
समस्त राजाओों की नाक कट गयी। नल आ गये। १ नल आ 
गये; तो जान पड़ा कि निषधराज नल (के) रूप (मे) सूर्य उदित 
हुआ। (फलस्वरूप) समस्त राजा तारों के समान अस्त को प्राप्त 
हो गये। नल आ गये।२ नल आ गये। उनके अंग में अनगिनत 
अनंगों (कामदेवों) का तेज (समाया हुआ) था। मानो उनकी देह 
का रंग सुवर्ण का-सा था। वल आ गये।३ नल आ गये। (जान 
पड़ता था कि) झलझलाहट के साथ कोई ज्योति ही झलक रही थी। 
उनके मुकुट पर (अपार) तेज झलक रहा था। नल आ गये । ४ नल 
आ गये। उनके कुण्डल सूर्य की ज्योति (कान्ति से युक्त) जैसे झलक 
रहे थे। उनके' शरीर से अरगजा महक रहा था। नल आ गये । ४ 
नल भा गये। उत्तका मुख पौणिमा के चन्द्र जेसा शोभायमान था। 
उनके कमल-से नयन (मानो) प्रेम का पाश (ही बिछा रहे) थे। नल आा 





२४० गुजराती (नागरी लिपि) 


जाणे नासा कीरनी चंच, ते नत् भाव्यो रे, 
कोये न देखे सरखा पंच, ओ नक्छ आव्यो रे । ७ । 
कंठे गज-मुक्तानो हार, ते नक्त आबव्यों रे, 
कर कुंजर-शुडाकार, ओ नक्क आव्यों रे। ८ । 
ह॒दे नाभिकमक्त शोभाक्त, ते नक्त आब्यों रे, 
कटीए जीत्यो कुंजरकाकछृू, ओ नक्व आव्यो रे। ९ । 
चालतो शार्दूलनी गत्य, ते नक्ठ आब्यो रे, 
निराश थया नरपत्य, ओ नक्त आव्यों रे। १०। 
ए तो दसयंतीनो प्राण, ते नक्ठ आव्यो रे, 
हवे ए परणे निर्वाण, ओ नक्त आव्यो र२े। ११। 
कनन्‍्याने थयूं तव जाण, ओ नक्छ आव्यो रे, 
जेनूं हंस कीधुं वखाण, ते नक आव्यों रे। १२॥ 
तेजे तो तपे जाणे भाण, ओ न भाब्यो रे, 
शीतछ ए सोम समान, ते नकछ आव्यो रे। १३। 


गते करीने जेवो वाय, ओ नक्छ आब्यो रे, 
महिमाए शंकर राय, ते नछ आव्यो रे। १४। 
मत स्थिरताए जेम मेर, ओ नक्त आगखब्यो रे 
जाणे धने बीजो कुबेर, ते नकछ आव्यों रे। १५। 


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गये । ६ नल भा गये। मानो उनकी नाक तोते की चोंच ही थी। उन 
पाँचों के समान कोई भी अन्य नही दिखायी दे रहा था। नल आ गये। ७ 
नल आ गये। उनके गले मे गजमुक्ताओं का हार था। उनके हाथ 
हाथी की सूंड के-से आकार वाले थे। नल आ गये। 5५ हृदय (वक्ष:- 
स्थल के पास) में उनका ताभि रूपी कमल शोभायमान था । उनकी कटि 
ने (आकार मे मानो) हाथी के शत्रु सिह को जीत लिया था। नल आ 
गये। ९ नल आा गये। वे सिंह की-सी गति से चल रहे थे। (उन्हें 
देखते हो दमयन्ती को पत्नीस्वरूप पाने में समस्त) राजा .निराश हो गये। 
नल आ गये । १० (उन्हें जान पडा--) नल आ गये (है, अब तो चूंकि) 
ये तो दमयन्ती के प्राण हैं, ये निश्चित रूप से उससे , परिणय कर सकेंगे। 
सल आ गये। ११५ नल भा गये। तब कन्या को यह जानकारी हो 
गयी कि हंस ने जिनका बखान, किया था, वे नल भा गये | १९ नल भा 
ग़ये। मानो तेज में सुर्ये ही तप रहा हो; (फिर भी) ये चन्द्र के समान 
शीतल (सौम्य) थे। नलआ गये । १३ नल आ गये। गति के विषय मे वे 
वायु जेसे थे। महिमा में वे राजा शिवजी (जैसे).थे।। नल भा गये । १४ 





(प्रेमानन्‍्द-रसामृत (नलोपाख्यान) / रह १ 


सत्यवादी शिबि समान, ओ नक् आव्यो रे, 
ऐश्वर्यें नहुष राजान, ते नक्ठ आव्यों रे। १६। 
ए तो जुद़े जाणे इन्द्र, ते नक्त .आव्यो रे, 
त्यागी जेबो हरिश्चंद्र, ओ नक्त भाव्यो रे। १७। 
विद्याएं गुरु शुक्र जेम, ओ नक् आव्यो रे 
दुःखहर्ता धन्वंतरि तेम, ओ नक्ठ आव्यो रे। १८। 


नल आा गये । स्थिरता में उनका मन मेरु जेसा था। वे मानो धन में दूसरे 
कुबेर थे । नलआ गये । १५ नल आ गये। वे शिबि' के समान सत्यवादी 
थे। ऐश्वरयं में वे नहुष* (जैसे) थे। नल भा गये । १६ नल आ गये। 
बेतो मानो युद्ध (करने) में इन्द्र (जैसे) थे। वे हरिश्चन्द्र' जैसे त्यागी हैं। 

नल आ गये । १७ नल आ गये। विद्या में वे (देव-) गुर (बृहस्पति) 


१ शिबि-- शिवि नामक राजा अति उदार और सत्यत्रती था। उसकी परीक्षा 
करने के लिए एक बार इन्द्र श्येत (बाज़) वनकर अग्नि रूपी कपोत का पीछा करते 
हुए आया । शिबि ने शरणागत कपोत की रक्षा की, तो इन्द्र रूपी ए्येन ने अपने भक्ष्य 
स्वरूप कपोत के वज़न के बराबर मास माँगा । तब शिवि अपने शरीर का मांस काठ- 
काटकर' तुलायंत् मे डालने लगा, तब भी वह श्येन के वज़न के बरावर नहीं हुआ । 
तो वह स्वयं तुलायंत्र मे बैठ गया। शिबि की उदारता, शरणागत-वत्सलता और 
सत्यवादिता देखकर इन्द्र और भग्नि उसपर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होने उसे अनेकानेक 
वर प्रदान किये। दूसरी एक कथा के अनुसार एक अतिथि ब्राह्मण की इच्छा पूर्ण 
करने के हेतु शिव अपने पुत्र को मार डालकर उसका मास उसे देने चला और उस 
अतिथि के आदेश के अनुसार स्वयं भी मास को खाने के लिए तैयार हो गया था । 


२ नहुष-- इक्ष्वाकु-कुलोत्पन्न राजा नहुष असाधारण रूप से वीर तथा वैभव- 
शाली था। उसने देवों की सहायता करते हुए « हुण्ड ' राक्षस का वध किया; 
च्यवत ऋषि को मछभों से मुकत किया । जब' एक ब्राह्मण की हत्या के पाप के कारण 
इन्द्र को इन्द्र-पद का त्याग करना पड़ा, तो देवो और ऋषियों ने अपना तपोबल नहुष 
को प्रदान किया । “ नहुष ” एकमात्र ऐसा नर है, जिसे इंद्र-पद पर विराजमान होने 
ओर समस्त वैभव का उपभोग करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। (परल्तु' आगे चलकर 
उसमें अहंकार और तमोगुण की वृद्धि हुई और समस्त सद्धर्मों का त्याग करके बह 
भोग-विलास में - मग्त रहने लगा। अन्त में उसने इन्द्राणी को कामलालसा से 
देखकर उसकी अभिलाषा की । इधर सप्तर्षियों द्वारा अपनी पालक उठवायी। तब 
एक ऋषि पर उसने लत्ता-प्रहार किया, तो उसने उसे ' सपं ' हो जाने का अभिशाप 
दिया। इस' प्रकार एक महान वेभव-सम्पन्न नरेन्द्र का अन्त मे अध पात हुआ) । 


३ हरिदचर्द्र-- इक्ष्वाकु-कुलोत्पन्न राजा हरिश्चन्द्र महान वीर तथा सत्यनिष्ठ परम 
प्रतापी पुरुष था। उसे राजसूय यज्ञ के बल पर इन्द्र-स्भा मे स्थान प्राप्त हुआ था । 
उसने यज्ञ कै अवसर पर पुरोहित विश्वामित्र को अपमानित किया, अत: उंससे बदला 
लेने के हेतु वि्वामित्न ने उसे अनेक प्रकार से पीडित किया। उसने स्वप्न मे एक& 


२४5२ गुजराती (नागरी लिपि) 


दमयंती घणुं हरखे, ओ नक्व आव्यो रे, 
रखे लागे मत फर्क, ओ नक्त आव्यो रे। १९। 
एक आसने वेठी नार, भो नक्त आब्यो रे, 
दासी ऊंचली चाले चार, ओ नक्त आव्यों रे [| २० । 
शोभे सुंदर अति सुकुमार, ओो नक्त आव्यो रे, 
नई पहोंता मंडपद्दवार, ओ नक्ठ आव्यो रे।२१। 


वलण ( तर्ज बदलकर ) 


बाहेर पधार्या प्रेमदा, चतुरां ऊंचले चार रे, 
नत्ठ बेठो सिहासन, चतुरा चितती तेणी वार रे। २२। 





ओर (दैत्य-गुरु) शुक्र जेसे थे। वे दु.ख हरण करनेबाले धन्बन्तरि'के 
समानथे। नल जा गये । १८५ नल भा गये। (यह जानकर) दमयन्ती 
बहुत आनन्दित हो गयी । कदाचित विलम्ब हो जाए --इस भय से उसका 
मन काँप उठा । नल आ गये। १९ नल आ गये। तो वह नारी एक 
(सुख-) आसन में (पालकी) में बेठी हुई थी। चार दासियाँ (उसकी 
उस पालकी को) उठाये हुए चल रही थीं। नत्र आ गये। २० नल 
आ गये। वह सुन्दर, अति सुकुमार नारी शोभायमान थी। वे (सब) 
मंडप के द्वार तक पहुँच गयी । नल था गये । २१ 


वे चार चतुर नारियाँ पालकी को उठाकर ले आयी और वह प्रमदा 
दमयन्ती उसमे से बाहर पधारी। (इधर) नल पिंहासन पर बँठ गये, 
तो वह चतुरा (दमयन्ती) उस समय चिन्तन (विचार) करने लगी । ३२ 


“ब्राह्मण को दान दिया, उसे जाग्रत होते ही पूर्ण किया । ब्रह्म-पुराण के अनुसार उसे 
विद्वामित्न की दक्षिणा चुकाने के लिए परिवार-सहित अपने आपको ब्वेचना पडा। 
इसमे वह स्वयं इमशानाधिकारी चण्डाल का क्रीत दास वतन गया। विश्वामित्र ने 
अपनी माया से उसके पुत्न को सपंदंश से मरवा डाला; तो वह अपनी पत्नी तारामति 
सहित अग्नि में प्रवेश करने के लिए उद्यत हुभा | _ अन्त में वसिष्ठ ऋषि और देवों ने 
उसे समस्त विपत्ति से वचा लिया, तो वह अपने विगत वैभव और राज्य को पुनश्च 
प्राप्त हुमा । के 

१ धन्वन्तरि-- समुद्र-मन्थन के अवसर पर निकले हुए चौदह रत्नो मे से एक है 
धन्वन्तरि, जो हाथ मे अमृत-कलश लेकर समुद्र से निकला । धन्वन्तरि को आयुवेद- 
शास्त्र का प्रणेता भौर भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। उससे अणिमादि 
अष्ट सिद्धियों का निर्माण हुआ कहा जाता है। उतके चिकित्सापक्षति और वैद्यक- 
शास्त्र पर लिखित अनेक ग्रन्थ बताये जाते है । कै 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) 'रहै ३े 


कडवुं २७ मु-( वधू दसपन्तो का रूप-वर्णय ओर राजाओं की भधौरता ) ,, 
राग सारंग ' 


मंडप मध्ये मानुनी, आसतव बेठी जाय, 
स्वयंवरमां सुभटने जीतवा, सुंदरी वर्णवु ते शोभाय । १ .। 


छंद-हरिगीतनी चाल' 


नूप भीमकततया, रूप बनया, रसीली रंग-पूरणा, 
तर अंगना देवांगता, सानिनी मनसद चरणा। २। 
दुःखमोचनी मृगलोचनी, छे. ललित लक्षणवंती ए 
निज मन उलासी, वेण वासिक, अलक लठ विलसंती ए। ३ । 
राखडी अमुल्य, शीश फूल, सेंथे सिंदूर शोभियां, 
शुभ झाछ झक्तकित, रत्न चकछकित, भूपतनां मन लोभियां । ४ । 
अधर सुधासिधु, वदन इंदु, भ्रुकुटि भमर बे गुंज छे, 
बे नेत्न भिर्मेंठ, दीसे छे कमछ, फूल फूल्यां कुंज छे। ५ । 


कड़वक-- २७ ( वधू दमयन्ती का रूप-वर्णन और राजाओं फो अधीरता ). 


मंडप में वह मानिनी सुन्दरी (दमयन्ती) स्वयंवर में सुभटों अर्थात 
बड़े-बड़े वीर पुरुषों को जीतने के लिए सुखासन में बेठकर (आ) गयी:.। 
उसकी सुन्दरता का मैं (अब) वर्णन करता हूँ । १ नृप भीमक, की तनया 
दमयन्ती विवाह के (अवसर के लिए) योग्य रूप से वनी-सजी हुईं थी । 
वह सलोनी-सजीली तथा (सुन्दर) कान्ति से भरी-पुरी थी। (अपने रूप 
के बल से) वह मानिती (उस समय) मानव जाति की स्त्रियों तथा 
देवांगनाओं के मन के (सौंदर्य सम्बन्धी) मद को चूर-चूर करनेवाली थी । २ 
वह दुःख से मृक्ति देनेवाली थी; भृग की-सी आँखों वाली थी तथा सुन्दर 
(शुभ) लक्षणों से युक्त थी। वह अपने मन मे उलल्‍लसित थी। , उनकी 
बेनी सुगन्धि-युकत थी। उसके बालो की लटें शोभायमान थी । ३ उसके 
सिर पर अनमोल राखी थी, फूल थे। वह माँग में सिन्दुर से शोभायमान 
थी। उसके कानों में जालीदार शुभ बालियाँ चमक रही थी; उनमें रत्न 
जगमगाते थे । उस (दमयन्ती के सौदर्य) ने राजाओं के मन को लुब्ध 
कर डाला था। ४ उसके होठ (मानो) भम्ृृत का समुद्र थे; मुख चन्द्रमा 
था ओर उसकी भौोहो में (मानो) दो भ्रमर उलझे हुए थे। दोनों नेत्र 
निर्मेल कमल जैसे दिखायी दे रहे थे। वह दमयन्ती (मानो) ' प्रफुल्लित 
फूलों का कुंजही थी।५ उसने आँखों में अंजन लगाया था। वे 


२६४ गुजराती (वागरी लिपि) 


आंजेल अंजन, चपल खंजन, मीन मृग बे हारियां, 
पड्या राय शूरा, धाए पूरा, कठाक्षे मारियां। ६ । 
जुए विविध पेरे, नयन घेरे, तिलक भाले कीधलां 
दीपक प्रकाशा, एम नासा, कौरनां मन लीधलां। ७ । 
शोभित दाडम, बीज रद ज्यम, चिबुक सधुकर बाछ रे, 
गल्लबंधु जुगता, हार मुकता, माणिकमय शोभाकछ रे। ८ । 
अबल्ाना अंबुज, ज्यम जुग्स भुज, बाजुबंध फूमतां झूले, 
थाय नाद रणझण, चूडी कंकण, छे मुद्वरिका बहु मूले। ९ । 
दश आंगछी, मगनी फढछी, नख जोत्य ज्यम पुखराज रे, 
फूलना मनोहर, हार उपर, आभूषण बहु साज रे। १०। 
पडी वेणि कटि पर, जाणे विषधर, आवी करे पयपान रे, 
गुच्छ कुसुम उदे, कुच ह॒दे,, कुंजर कुंभस्थक्ट मान रे। ११। 
अलकावलि ललिता, वहे सरिता, उदर पोयणपान रे, 
छे विचित्न॒लंकी, कटी वंकी, मेखला घृधरगान रे। १२। 





नयन (मानो) खजन थे । उन्होने (चपलता में) मछली और म्ृग दोनों 
को पराजित किया था। अपनी तिरछी चितवन से उस (दमयन्ती) ने 
शर राजाओं को मार डाला; वे (मानो) उसके आधात से प्रे-पूरे गिर 
गये । ६ वह विविध प्रकार से देखती थी। उसके नयन मद-भरे थे। 
उसने भाल पर तिलक लगाया था। दीपक की ज्योति के आकार जैसे 
आभासित होनेवाली उसकी नाक ने तोते के मन को हरा लिया था। ७ 
उसके दाँत अनार के बीजों (दानों) जेसे थे। उम्तक्री ठोड़ी पर' अ्रमर- 
बाल (का-सा चिहन गोदा हुआ) था। उसके गले में ग्रुलुबन्द सदृश 
(आकार वाला) मोतियों का मानिकों से युक्‍त हार शोभा दे रहा था। 5 
उस स्त्री के दोनों वाहुओ में धारण किये हुए वाजुबन्दो से कमल-से गुच्छे 
झूम रहे थे। उसकी चूड़ियों और कगनों की झनकार से रुनझुन ध्वनि 
उत्पन्न हो रही थी। उसकी भंगूठियाँ मूल्य मे बहुत अर्थात्‌ अति मुल्यवान 
थीं।९ उसकी दसों अँगुलियाँ मूंग की फलियाँ थो; नख ज्योति (कांति) 
में पुधराज (-से) थे। उसने फूलो का मनोहारी हार धारण किया था 
और उसमें बहुत सजीले आभूषण (जटित) थे। १० उसकी कटि पर 
उसकी बेनी पड़ी हुई थी। मानो वह कोई सर्प था, जो भाकर वहाँ 
अमृत का पान कर रहा हो । उसके हृदय-स्थल पर पुष्प-युच्छों-से कुच 
उदित (उभरे) थे। वे (मानो) हाथी के कुम्भ-स्थल ही थे। ११ 
उसकी अलकावलि सुहानी थी; मानो कोई सरिता ही हो । उसका उदर 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) २८५ 


बे जंघा, रंभातणा थंभा, हंसगत्य पग हौींडती, 
सुखपाछ मूकी, राय ढूंकी, जाय पगलां मांडती। १३। 
नेपुर झमके, अणवट ठमके, घृषरीनों घमकार छें,. 
घाघरे घृघर, अमूल्य अंबर, फूलेल छांट्यां अपार छे। १४। 
त्यां अगरबत्ती बले, चमर शिर ढल्छे, रसीली रामा राजती, 
गाय गीतक लोलक, चंग ढोछक, मृदंग वेणा वाजती। १५ । 
वधछ्ठो कीति अति घणी, बोले बंदणी, चाले ज्येष्टिकादार त्यां, 
पंच बाणे, फरी संधाणे, राजपुत्नने मार त्यां।१६। 
भरमाईने भूप, पडया मोहकप, प्रेमपाशे बांधिया, 
ठामथी डगिया, स्वार्थ रगिया, को सामी मीट न सांधिया | १७। 
को आडा ऊतरे, खूंखारा करे, भामिनी नव भाछे रे, . 
को आसने पडचया, लथडया, शके आवी लीधो काछे रे । १८ । 


मानो कुमुदिनी का पत्ता (जेसा कोमल) था। उसकी बाँकी कटि विचित्र 
अर्थात अदभुत घृमाव वाली थी। उसमें बंधी मेखला के घृंघरू (मानो) 
गान कर रहे थे । १२ उसको दोनों जंघाएँ (मानो) कदली के स्तम्भ थे.। 
वह हंस की-सी गति से युक्त पाँव से चलती थी। पालकी को छोड़कर 
(पालकी से उतरकर) वह डग भरती हुई राजा के पास गयी। १३ 
(उसके पाँवो मे) बँधे नूपुर रुनझुना रहे थे, अनवट ठनक रहा था, घृँघरुणीं, 
का खनक शब्द हो रहा था। उसके घाघरे में घुँघछ (टाँके हुए) थे। 
उसका वस्त्र अनमोल था; उप्तरतर अपार फुलेल (इत्र) छिड़काये हुए 
थे। १४ वहाँ गगरवत्तियाँ जल रही थी। उसके सिर पर चेवर हिलायी 
जा रही थी। वह छबीली स्त्री (इस प्रकार) शोभायमान थी। वहाँ 
नारियाँ आनन्द-प्रद गीत गा रही थी; चंग (डफलियाँ), ढोलक, म्ृृदंग, 
वीणा बज रहे थे। १५ इसके अतिरिक्त बन्दीजन अति बहुत कोरति 
का गान कर रहे थे। वहाँ चोबदार (इधर-उधर) चल रहे थे। 
कामदेव ने (मानो) सन्धान करके वहाँ राजकुमारों को भाहत कर 
डाला। १६ वे राजा भ्रमित होकर मोह रूपी कृप में गिर पड़े | प्रेम- 
पाश ने उन्हें आबद्ध कर लिया था। वे अपने-अपने स्थान से डगमगा 
उठे। वे अपने स्वार्थे अर्थात उद्देश्य पर हठ्पूवंक डटे हुए थे। वे 
सामने (दमयन्ती से) दृष्टि मिला नही था रहे थे। १७ उनमें से कोई- 
कोई आड़े-टेढ़े उतरे (बेठ गये)। वे खँखारने लगे। फिर भी वह 
स्‍त्री (दमयन्ती) उनकी ओर नही देख रही थी (उन राजाओं की ओर 
आँखें उठाकर देख तक नही रही थी) । कोई-कोई (राजा अपने-अपने) 
आसन पर लुढ़क गये; कुछ एक लडखड़ाते रहे। (जान पड़ा--) 


२४६ गुजराती (नागरी लिपि) 


बोली न शकिया, चित्र लखिया, को नमे वारेवारे रे, 

को समीप धसिया, मुगट खसिया, पूंठेथी सेवक धारे रे। १९ । 
को कत्तक कापे, लांच आपे, साहलीने साधे रे, 
जोईए ते लीजे, वखाण कीजे, विवाह मारो बाधे रे। २०। 
लांबी डोक करता, नथी नरता, कहे हार आरोप रे, 

फरी मुगट बांधे, प्रेम फंदे, पड्या नवग्नहे कोप रे।२१। 
रायनां गोरां गात्न, तृण मात्र, ते तारुणी मन लेखती, 
जोई मुख मरडे, आंख थरडे, सर्वते उवेखती। २२। 


वलण ( तजे बदलकर ) 


अनेकने उवेखती, आधी चाली नार रे, 
गई एक नह जाणी करी, दीठी पंच नक्नी हार रे। २३। 





४स४सी3न्‍ खत, 


कदाचित काल मे आकर उन्हें पफड़ लिया। १८ वे बोल नहीं पा रहे 
थे; वे चित्र-लिखित-सै रह गये। कोई-कोई (दमयन्ती को) वार-बार 
नमस्कार कर रहे थे; कोई-कोई उसके समीप घेंसते-लपकते गये, तो 
उनके मुकुठ गिर गये। तब पीछे से सेवकों ने (आगे बढ़कर) उन्हें 
(उठाकर) उनके सिर पर (फिर से) धारण करा दिया। १९ किसी ने 
अपने आधूषणों में से सोना काट लिया और वह घूस के रूप में देने लगा, 
वह (दमयन्ती की) सखियों को पटाने (का यत्न करने) लगा। (बह 
उससे बोला--) “जो चाहिए वह ले लो, मेरी (उसके पास) प्रशंसा कर 
लो। मेरा उससे विवाह करा दो '। २० कोई-कोई अपना सिर लम्बा 
कर (आगे की ओर बढ़ाते हुए) बोला, “ हम कुछ घटिया नहीं है; हमें बे 
पहना दो '। वे (राजा) फिर से मुकुट बाँधते-सवा रते रहे, प्रेम के फंदे में पड़े 
रहे। (उपेक्षित होने पर भी ) वे क्रोध को धारण नही कर रहे थे । २१ उन 
राजाओं के गोरे-गोरे अंगों को वह तरुणी अपने मन में घास (के तिमके 
जेसा) मानती थो। उनकी ओर देखकर उसने मुंह फेरा, भाँखें अप्रसश्नता- 
पूवंक टेढ़ी कीं और सबकी उपेक्षा की । २२ 


अनेकों की उपेक्षा करते हुए वह नारी आगे चली। वह एक 
(राजा) को नल समझकर आगे गयी, तो उसने पाँच नलों की पंक्ति देखी 
(पाँच नलों को एक पंवित में बैठे देखा) । २३ ह 





प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपास्यान) :. पह४७- 


कडवुं र॒८ मुं--( नल-दमयन्ती का विवाद और कलि का उनके प्रति ईएया करना ) 
राग सारंग 


मनइच्छा नैषधरायतणी कन्या, गई पंच नकछ भणी, 
जुए तो ऊभा छि न पंच, कन्या कहे आ खोटो संच। १ । 
हँसनूं कहयूं अवरथा गयुं, नक्ठ नाथनूं वरव्‌ं रहपयुं, 
। एक. नक्न सांभक्ठियों धरा, आ कपटी को आव्या खरा। २ । 
पांच नक्ठत चेष्टाने करे, लेवा माक्ठ कंठ आगछ धरे, 
त्यारे दमयंती थई गाभरी, दीठुं विपरीत ने पाछी फरी। ३ । 
आवबी जांहां पिता भीमक, अरे तात जुओ कौतक, 
हुँ एक नत्ठने आरोपूं हार, देखी पचने पड़यो विचार । ४ । 
भीमक कहे आश्चये ज होय, तुं विण पंच न देखे कोय, 
शके देवता तांहां निरधार, थई आव्या नक्कने आकार । ५। 


' कड़बफ-- २८ ( नल-दमयन्ती का वियाहु और कलि फा उनके प्रति ईष्या करना ) 


मन में निषधराज नल (का वरण करने) की कामना रखते हुए वह 
कन्या (दमयस्ती स्वयंवर-मण्डप में) पाँच नलों (भर्थात नल जैसे दिखायी 
देनेवाले व्यक्तियों) की ओर गयी। उसने देखा कि वहाँ पाँच नल खड़े 
(उपस्थित) है। वह कव्या (मन-ही-मत) बोली-- यह तो खोटे (माया 
रूपधारी) पुरुषों का समुदाय है। १ (उसे जान पड़ा कि) हंस द्वारा 
बतायी हुई अवस्था नष्ट हो गयी, (अब) नल नाथ का वरण करना धरा 
रहा। मैंने धरती पर एक ही नल (के बारे में) सुना है। (अतः) 
सचमुच ये कोई कपटी पुरुष (नल का रूप घारण करके) आ गये है। २ 
(दमयन्ती को देखकर) वे पाँचों नल हावभाव करने लगे। वरमाला 
पहनवा लेने के लिए उन्होंने अपने-अपने कण्ठ आगे बढाये । तव दमयन्ती 
भयभीत हुईै। उसने स्थिति को (आशा के) विपरीत देखा और वह 
पीछे लौटी । ३ वह वहाँ लोट आयी, जहाँ उसके पिता भीमक थे (गौर 
वोली--) “ है तात, कौतुक (तमाशा) तो देखिए-- मैं त्तो एक नल को 
माला पहनानेवाली हूँ; (परन्तु यहाँ) पाँच नलों को देखकर मैं सोच- 
विचार पड़ गयी (मैं दुविधा मे पड़ गयी) हूँ'।४ तो भीमक बोले, 
यह तो आश्चर्य की ही बात है। बिना तुम्हारे, कोई भी पाँच बलों को 
नहीं देख रहा है। जान पड़ता है, निश्चय ही वहाँ देव नल का रूप 
लेकर आ गये हैं। ५ देवों की परीक्षा ऐसे होती है-- उनके नेत्नों की 
पलके तही झपती; उनके वस्त्र रज:कण-विहोन होते हैं (और) वे अन्तरिक्ष 





२६८ गुजराती (नागरी लिपि) 


ए परीक्षा निमेष नहीं चक्ष, वीरज वस्त्र अभा अंतरिक्ष, 
वात सांभछ्ीी भीमकतणी, कन्या आवी पंच नक भणी। ६ । 
पिताए मारग देखाडबो, तारीए नकछ शोधी कहाडचो, 
दमयंती जेम वरवाने जाये, धसी इंद्र न आग थायो । ७ । 
एक एकले अछगा करे, लेवा हार कंठ आगछ धरे, 
नहीं आवे सच फरी, त्यारे दमयंती थई गाभरी। ८ । 
इंद्रे मनमां शाप्यो हुताशन, वांदराना जेबूं थयूं बदन, 


'अग्निए जाण्यू ए इंद्रनू काज, रीछ मुख थाजोी महाराज। ९ । 


वरुणे शाप मनमांहे दीधो, जमने मांजरमुखो कीधो, 
धर्में अंतर इच्छयूं एवं, वरुणनूं मुख थाजो श्वानना जेबूं । १० । 
रीछ, वानर, श्वान, मांजर, कन्या कहे वर रूडा चार, 
इंद्ररय वाणी एम भणे, आदवेर मांड्यो आपणे। ११। 
जम कहे कां हसावो लोक ? शाप कीधा मांहोमांह फोक, 
दमयंती विचारे वढ्ी, समान शोभे पंच नही । १२। 





में ही खेड़े रहते है (उन्तके चरण भूमि को नही छते)।” भीमक की 
बात सुनकर वह कन्या (फिर से) उन पाँच नलों की ओर आ गयी। ६ 
पिता (भीमक) ने उसे मार्ग दिखाया (उसका मार्गदर्शन किया)। 
(उसके आधार से) उस वारी ने नल को खोज निकाला। जंसे दमयन्ती 
(नल का) वरण करने चली, वैसे ही इन्द्र नल के आगे झट से बढ़कर 


'खड़े हो गये ।७ उन्होंने (देवों ने) एक-दूसरे को अलग (दूर) किया 


और वरमाला स्वीकार करने के लिए कण्ठ आगे बढ़ाया। सच्चे नल को 
बार-बार ढूंढ़कर भी उनके गले मे वरमाला पहनाने का अवसर दमयन्ती 


'को नही मिला । तव वह भयभीत हो उठी।5५ (इधर) इन्द्र ने मन- 


ही-मन अग्नि को अभिशाप दिया, तो (उसके फल-स्वरूप) उनका मुख 
वानर का-सा हो गया। (इधर) अग्नि ने जान लिया कि यह इन्द्र का 
ही काम है। तो उन्होने इच्ध को यह (कहकर) अभिशाप दिया-- ' हैं 
महाराज, आप ऋ्ष-मुख हो जाइए '। ९ वरुण ने मन-ही-मन (यम को ) 
अभिशाप दिया और यम को मार्जार-मुख (बिल्ली के-से मुख वाले) बना 
दिया; तो धर्म (यम) ने मन में ऐसी इच्छा की-- बरूण का मुझ कते के 

मुख जैसा हो जाए। १० रीछ, वानर, कुत्ता, बिल्ली के-से मुख-धारियों को 
देखकर वह कन्या बोली, “ ये-चार अच्छे वर है '। तो इन्द्रराज ने इस 
प्रकार बात कही-- हमने तो आपस में ही पक्का वैर आरम्भ किया '। ११ 
(इसपर) यम बोले, “ लोगों को (हम पर) क्यो हँसने दे ? ' फिर उन्होंने 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) रद 


कोने वरीए ? कोने उवेखीए ? वरमाह्ठा कोने आरोपीए ? 
जोवाने मद्धया राजकुमार, ते एक नक्ठ देखें निरधार। १३। 
बुद्धिमान नारी छे घणूं, मान सुकावे देवतातणुं, 
चारोने पूछे करी प्रणाम, तारां तातनां शां शां नाम ? । १४। 
लोभ विषे नहीं गण्यूं पाप, वीरसेव पांचेनों बाप, 


कन्या वह॒ती करने घसे, सखी सामुं जोई जोई हसे | १५॥। 
सखी कहे शुं घेलां थया ? शुं कपटरूपने वक्तगी रह्मां ? 
बीजा पुरुष छे रूपनां धाम, सांभछो देश देशरनां नाम । १६ । 
देश सकक्त नरेशनां नाम, दासी कहे वर्णवी ग्रुणग्राम, 


तोये कन्याने न गम्यो कोय, फरी फरी पांचे नछने जोय । १७ । 
: हुं हुं चढछु ' -पांचे ओचरे, पण कन्या कोने न जब रे, 
नारदजी अंतरिक्ष आविया, इंद्राणी आदे तेडी लाविया। १८॥। 
चारे देवती चारे नार, गगने दीठी भरतार, 


लज्जा पाम्या लोभी 'तणूं, ए कारज ते नारदतणुं | १९। 


आपसे में दिये हुए अभिशापों को निरर्थक कर दिया। दमयन्ती फिर से 
विनार करने लगी-- (यहाँ तो) पाँच नल एक-दूसरे के समान शोभायमान 
हैं। ११ किसका बरण करे ? किसकी उपेक्षा करे ? किसे वरमाला 
पहना दें ? जो राजकुमार देखने के लिए इकट्ठा हो गये थे, वे निश्चय 
ही एक ही नल देख रहे थे। १३ वह नारी (दमयन्ती) बहुत बुद्धिमान 
थी। उसने देवों के घमण्ड को छुडा दिया। उसने चारो को प्रणाम 
करके पूछा, “ आपके पिता के कक्‍्या''क्या नाम है ? ' १४ लोभ के कारण 
(देवों ने) पाप की परवाह नही की । अतः वीरसेन पाँचों नलो के पिता 
हो गये (पाँचों ने अपने-झपने पिता का नाम वीरसेन कहा) । ऐसा उत्तर 
सुतते ही फिर वह कन्या हाथ मलने लगी। उसकी सखी सामने देख- 
देखकर हेसने लगी। १५ फिर सखी बोली, “ क्या पागल हो गयीं ? 
क्या इन कपट-रूपधारियों से चिपकी अर्थात्‌ प्रभावित हो गयी है ? , दूसरे 
अन्य पुरुष रूप के धाम हैं। देश-देश (के राजाओं) के नाम सुनिए '। १६ 
अनन्‍्तर दासी ने समस्त देशों के राजाओं के नाम, उनके गुण-समुदाय का 
वर्णन करते हुए कह दिये । फिर भी (उनमें से) कोई भी उस कन्या 
को अच्छा नहीं लगा। वह वारवार उन पाँचों नलों को देख रही 
थी।१७ मैं तल हूँ-- मैं नल हूँ “” पाँचों ने कहा । परन्तु उस कन्या 
ने (उनमे से) किसी का वरण नही किया । (उस समय) नारद अन्तरिक्ष 
में आ गये। वे इन्द्राणी आदि को (अपने साथ) बुला लाये थे। १८ 


३०० गुजराती (वागरी लिपि) 


कन्याएं दीठी देवांगना, अमर जाणीने मांडी वंदना, 
अमो अल्प जीव करूप, तमो भारेखम छो भूप | २०। 
अमो जम जराथी त्रासीए, पूजनिक तमने उपासीए, 
तमो अमने भीमक राजान, हु तमने पुत्री समान। २१। 
एम कहीने भरियां चक्ष, लाज्या देव थया प्रत्यक्ष, 
इंद्र वरुण वक्ति जमराय, शोभे मंडपे जय जय थाय। २२। 
नतने थया तुष्टमान, देव कहे मागो वरदान, 
बब्बे वर आपे सुरराज, नकनूं सहजे सरियूं काज। २३। 
कमत्ठमाक आपी इंद्रराय, लक्ष वर्ष नहीं सुकाय, 
अश्वमंत्र आप्यो राजन, दिन एके हीडे शत जोजन | २४। 
कहे अग्ति नव दाझे तुय, ज्यां समरे त्यां प्रगटं हुंय, 
धर्म कहे भोगवे राजभोग, त्यां लगे पुर मध्ये नहीं रोग | २५। 





उन चार देवों की चार स्त्रियाँ (वहाँ आ गयी) थी। तो उन पतियों में 
अपनी-अपनी स्त्नी को आकाश से देखा । तो वे लग्जा को प्राप्त हो गये । 
वे बहुत लोभी थे। (उन्होंने जान लिया कि) यह काम तो नारद का 
था। १९ कन्या (दमयन्ती) ने उन देवांगनाओ को देखा । तो देवो को 
जानते-पहचानते हुए उसने उनकी स्तुति आरम्भ की। (वह बोली--) ' मै 
तो अल्प जीव (अल्पायु) वाली हूं, कुरूप हँ। आप प्रतिष्ठावान राजा 
है। २० मुझे यम तथा बुढापा कष्ट पहुंचाते है। आप पूजनीय है, 
आपकी उपासना करते है। आप मेरे लिए (मेरे पिता) भीमक राजा 
(जैसे) है, मै आपकी पुत्री के समान हूँ '। २१ ऐसा कहकर उसने 
(अश्वुजल से) आँखों को भर लिया, तो देव लज्जित हुए और अपने रूप 
में प्रकट हुए। उस मडप मे इन्द्र, वरुण, अग्नि और यमराज शोभावयमान 
हो गये, तो जय-जयकार हो गया। २९ देव नल से सन्तुष्ट हुए और 
बोले, ' वरदान माँग लो !। सुरराज इन्द्र ने (तथा अन्य देवो ने) नल 
को दो-दो वर प्रदान किये। (इस प्रकार) नल का कार्य आसानी से 
सिद्ध हो गया। २३ इच्द्रराज ने उन्हे कमल-पुष्पों की माला प्रदान की, जो 
लाख वर्षो तक नही सूखनेवाली थी। उन्होने नल राजा को अख्वमंत्र 
भी दिया। उसके बल से वे एक दिन में सौ योजन जाने में समर्थ हो 
गये । २४ अग्ति ने कहा, “अग्नि आपको नही जलाएगी और जहाँ 
आप मेरा स्मरण करेगे, मै वहाँ प्रकट हो जाऊँगा '। धर्म (यम) ने 
कहा, ' जब तक आप राज्य का उपभोग करते रहेंगे, तब तक नगर में 
कोई रोग नही (उत्पन्न) होगा । २५ जो आपकी कथा का पठन करेगा, 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ३०१ 


जे करशे तारी कथा वाचना, तेने नव होय जमजातना, . ४“ 
वरुण भणे सांभकछ नलराय, सूकुं वृक्ष तवपललव थाय। २६ ।' 
समयु जछ ऊपजे तत्काछ;। आठे वर पाम्यों भूपाछ , 

पछी दमयंतीने आप्यो वर, अमृत-खाविया थजों तुज कर | २७ । 


सर्वे स्तुति कीधी देवतणी, विमाने बेसी गया स्वर्ग भणी, 
दमयंती हरखी तत्काछ, नत्ने कठे आरोपी माक्त | २८-। 
साधु राजा सर्वे बेसी रह्मया, अदेखिया ऊठीने गया, 
वरकन्या परण्यां रीत करी, भीमके पहेरामणी भली करी । २९। 
लाडकोड पहोंतां कुबरीतणां, नतने वानां कीधां घण्णां, ह 
नह दमयंती बंन्यो जाय, वोढावी वढ॒यों भीमकराय। ३०। 
वाजते गाजते नक् वकह्॒यों, एवे कलियुग सामे मत्ठ॒यो, 
वरवा वेदर्भी नारदे मोकल्यो, आवे उत्तावक्त श्वासे हछुफल्यो। ३१ । 
बेठो महिष उपर कल्िकाछ, कंठे मनीषनां शीशनी माह्क, 
करमां कातुं लोह शणगार, शिर सगडी धीके अंगार । ३२। 


उसे यम-यातना नही होगी '। वरुण ने कहा, हे नलराजा, सुनिए। सूखा 
वृक्ष नवपल्‍लवों से युक्त हो जाएगा । २६ जल का स्मरण करने पर वह 
तत्काल प्रकट होगा '। इस प्रकार नलराज आठ बरों को प्राप्त हो गये । 
अनन्तर उन्होंने दमयन्ती को यह वर दिया-- तुम्हारे हाथ अम्नृतस्राबी हो 
जाएँगे (तुम्हारे हाथो से अमृत नि:ःसृत होता रहेगा) । २७ (अनन्तर) 
सबने देवों की स्तुति की, तो वे विमान में बेठकर स्वर्ग की ओर चले गये। 
दमयन्ती आनन्दित हुईेै। उसने तत्काल नल के गले में वरमाला पहना 
दो। २८ साधु प्रवृत्ति के समस्त राजा बेठे रहे, तो ईर्ष्यालु (राजा) 
उठकर चले गये । रीति के अनुसार वर और कन्या का परिणय कराकर 
भीमक ने भली भांति उपहार देते हुए बिदाई दी। २९ उन्होंने अपनी 
कुमारी (कन्या) के लाड़-प्यार को पूर्ण करने के लिए अनेक प्रकार के कार्ये 
किये। नल को बहुत प्रकार से मना लिया। अनन्तर नल और दमयन्ती 
दोनों चले गये । उन्हें विदा करके भीमकराज लौट आये। ३० ,वाद्यों 
के बजने-गरजने के साथ नल लोटे जा रहे थे, तो उस समय कलियुग 
(-पुरुष) सामने मिला । नारद ने उसे दमयन्ती का वरण करने के लिए 
भेजा, था।। वह अधीरता पूर्वक हौफता हुआ आ रहा था । ३१ कलिकाल 
भेसे पर बेठा हुआ था; उसके गले में मनुष्यों के मस्तकों की (समुण्डों की) 
माला (पहनी हुई) थी । हाथों में लोहे की छुरी (कांता) और लोहे के आभूषण 

: मस्तक पर भँगीठी थी; उसमें अंगार धधक रहे थे। ३२ (वह 


३०२ गुजराती (नागरी लिपि) 


जो वरुं दमयंती झरूपनिधान, जुए तो मी सामी जान, 
जाण्यो कन्याने तक वर्यो, कछि क्रोधे पाछो फर्यो। ३३। 
जो नक्ले परणवा दीधो नहीं, आजथी लागुं पूंठे थई, 
तक्कराजा आव्या पुर विखे, करे राज नारीशू सुखे। ३४। 
भोगवे भोग विविध पेर, स्वर्गंतणूं सुख पामे घेर, 
प्रभु-पत्नीने वाध्यो प्रेम, साचवे बहु सत्य ने नेम । ३५। 
चोहो वर्ण पाछे करुलछ्कर्म, चाले यज्ञादिकनां कमें, 
तेणे कछ्िनूं चाले नही, हींडे छिद्र जोतो अहीं तहीं। ३६ । 
नगर पूंठे फेरा बहु खाय, संत आग प्रवेश न थाय, 
सहस्न॒वर्ष वहीने गयां, दमयंतीने बे बाकृ॒क थर्यां। ३७। 
जुग्म बाक् साथे प्रसव्यां, पुत्र पुत्री रूपे अभिनवां, 
नह दमयंती हरखे घणुं, बाछ॒क वडे शोभे आंगणुं। ३८। 
एक दिवस नक्क श्रृपात्ठ, मंगाव्यूं जछ थयो संध्याकाछ, 
रही पाहानी कोरडी धोतां पाग, कढ्ी पाम्यों पेठानो लाग। ३९ । 


सोच रहा था--) मैं रूप-निधान दमयन्ती का वरण करूँगा; परन्तु उसने 
देखा तो सामने बारात मिल गयी । कलि ने जान लिया कि नल ने उस 
कम्या का वरण किया है, तो वह क्रोध से पीछे लौट पड़ा । ३३ (उसने 
सोचा--) यदि नल मुझे (दमयन्ती से) परिणय करने नही दें, तो आज 
से मैं उसके पीछे पड़ जाऊेगा । (तदनन्तर) नलराजा नगर में आ गये। 
वे अपनी स्त्री-सहित सुखपुवंक राज करने लगे। ३४ वे विविध प्रकार 
से भोग भोग रहे थे । वे घर में (ही) स्वर्ग के सुख को प्राप्त हो रहे थे । 
पति और पत्नी में प्रेम बढ़ता रहाथा। वे बहुत सत्य (व्रत) और 
नियमों का निर्वाह करते थे । ३५ (उसके राज्य में) चारों वर्ण अपने- 
अपने कुल-धर्म का पालन करते थे; यज्ञ आदि कमे (भली भाँति) चलते 
थे। इसलिए कलि की कोई चलती नहीं थी। अतः वह (पैठने के 
लिए) इधर-उधर छिद्र को ढूंढ़ते हुए भ्रमण करता था । ३६ वह नगर 
के पीछे बहुत चक्कर लगा रहा था; फिर भी सन्‍्तों (सज्जनों) के सामने 
उसका प्रवेश नहीं रहाथा। (इस प्रकार) एक सहख्र वर्ष बीत गये। 
दमयन्ती के दो बालक उत्पन्न हुए ।३७ उसने पुत्र-पुत्नी रूप में दो 
अभिनव यमल बालकों को जन्म दिया। नल-दमयन्ती बहुत हर्षित हुए । 
उन (दोनों) बालकों से आँगन शोभायमान हो रहा था। ३८५ एक दिन 
नल राजा ने पाती मेंगाया। शाम हो गयी थी । (उस समय) पाँव 
धोते समय उनकी एक एड़ी सूखी रह गयी । तो कलि को प्रवेश करने के 





प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ३०३ 


संध्यावंदन कीधूं राजान, प्रवेश कछीतो थयो ते स्थान, 
ज्यां शय्या सूतो भोपाहठ, सर्वाँगे व्याप्यो कक्िकाछ | ४० । 


ह वलण (तज़ें बदलकर ) 
कछ्िकाछ व्याप्यो रायने, भ्रष्ट थयो नैषधधणी रे, 
हवे वहराडं पित्नाईने, कही चाल्यो पुष्कर भणी रे।४१। 


लिए अवसर मिल गया। ३९ राजा ने (तत्पश्चात वेसे ही) सन्ध्या- 
वन्दन किया । कलि का प्रबेश उस स्थान पर हो गया । जब राजा नल 
शय्या पर सो गये, तब कलि उनके समस्त भंग में व्याप्त हो गया | ४० 

तिषध-पति नल राजा जब अ्रष्ट हुए, तो कलिकाल ने उन्हें व्याप्त 
किया । अभननन्‍्तर वह यह कहते हुए पुष्कर की ओर चला गया कि मैं अब 
पितृग्य सम्बन्धी फूट (दुराव, विरोध) उत्पन्त कर दूंगा । ४१ 


कडवुं २८ मुं--( कलि ओर द्वापर हारा वुष्कर फो उफसाक्र 
नल से चूत खेलने के जिए ले आना ) 


राग कहालेरो 


कल्जुग द्वापर मब्ठीने आव्या, पुष्कर केरे पास रे, 

हस्त घसे ने मस्तक धूणे, मुखे मृके निश्वास रे | कछिजुग० । १। 
वेश विप्रनो धर्यो अधर्मी, ने बंन्यो मस्तक डोले रे, ४ 
नेषधपति बेठो तप करवा, थई तरणांनी तोले रे | कछिजुग० । २ । 
एक कुह्ठमां उदय बंन्योना, तूं जोगी तक्ठ राणो रे, 

ते भोग भोगवे नाना विधना, तारे नहीं जछ-दाणो रे। ककह्िजुग ० | ३ । 


ढ3>ट ०-८5 ४७४ 5 





फड़वक--२८ ( फलि ओर द्वापर द्वारा पुष्कर फो उकसाकर 
नल से द्यूत खेलने के लिए ले भाना ) 


कलियुग और द्वापर (युग) मिलकर पुष्कर के पास आ गये। वे 
हाथ मल रहे थे और सिर आवेशपूर्वक हिला रहे थे। वे मूह से साँस 
ले रहे थे। कलियुग०।१ उन अधर्मियों (पापियों) ने ब्राह्मण 
का वेश धारण किया था। वे दोनों मस्तक हिला रहे थे। वे 
बोले,) ' हे निषधराज, तुम तिबके से तुल्य (अर्थात्‌ कृश) होते 
हुए तप करने बैठे हो । कलियुग० । २ तुम (और नल) 


३०४ ' गुजराती (नागरी लिपि) 


कह कहे छे जो जो भाईओ, करें वाल्यों आडो आंक रे, 

एक ज बोरडीता बे कांठा, एक पाधरो एक वांको रे ।कल्ठिजुग ० | ४। 
तारा पिताशुं अमारे मेत्री, ते माठे हित कीजे रे, 

एम कही कर ग्रही उठाडयो, आव आलिगन दीजे रे। कछिजुग ०। ५। 
भेटतामां पिंड पृष्करना मध्ये, कीधो कल्निए प्रवेश रे, 

तेडी चाल्यो नंषधपुर भणी, करवा नतशुं क्लेश रे | ककछ्िजुग ०। ६ 

वादे जातां-वारता परठी, नवव्ववुं नांखो जाशा रे, ., हर 

कह्ठि कहे तूं यूत रमजे, हुं थाउं बे पाशा रे | कछिजुग० | ७। 
प्रथम- पोण करजे वृषभनुं, ह्वापर' थाशे पोठी रे, 

सर्वेस्व हरावी लेजे नत्लनुं,ए वात गमती गोठी रे । कल्िजुग० । ८५। 
जद्यपि पुष्कर पवित्र हुतो, नहोती राजनी अभिलाषा रे, पु 

ऊपजी ईर्ष्या नछराय उपर, मल्या जुग बे अदेखा रे। कल्ठिजुग ० । ९। 
वृषभवाहन पासा करमां, आव्यो राजसभाय रे, 

बांधव जाणी दया सन आणी, नकठ ऊठी बेठो थाय रे ।-कछ्िजुग । १०। 





दोनों का एक (ही) कुल में जन्म हुआ। (परन्तु) तुम योगी बन गये 
हो और नल राजा बन बेठा है। वह नाना प्रकार के भोगो का उपभोग 
कर रहा है; (परन्तु) तुम्हारे लिए दाना-पानी (तक) नहीं (मिल) रहा 
है '। कलियुग० । ३ कलि बोला, ' देख लो, देख लो भाइयो, उसके कर्म 
चरम सीमा तक पहुँच गये है। एक ही बेर के दो काँटे हैं-- एक सीधा 
है, (जब कि दूसरा) एक टेढ़ा है। कलियुग०।४ तुम्हारे पिता से 
हमारी मित्रता थी। इसलिए तुम्हारा हिंत कर रहे है। .. ऐसा कहते 
हुए उसने उसका हाथ पकड़कर उठा लिया और कहा “ आओ, हमारा 
आलिंगन करो '। कलियुग०।५ गले लगते ही पुष्कर के' शरीर के 
अन्दर कलि ने प्रवेश किया। अनन्तर उसे बुलाकर (साथ में लेकर) 
वह॒ नल को क्लेश उत्पन्न करने के लिए नैषध्॒पुर के प्रति चला ग्रया। 
कलियुग० । ६ मार्ग में जाते हुए यह बात तय हुई कि विनती करने १र 
भी (पुष्कर नल से) नही मिले। ' कलि बोला, “तुम यूत खेलो । मैं दो 
पाँसे बन जाऊेगा। कलियुग० । ७ पहले बैल का प्रण करो। यह 
द्वापर टाँड़े का बैल बन जाएगा। तुम नल का सरबस हराकर ले लो। 
यह बात हमे अच्छी लगती है '।  कलियुग० । ५ यद्यपि पुष्कर पवित्र 
(आचरण तथा विचार वाला) था, उसे राज्य (पाने) की कोई अभिलाषा 
नही थी, फिर भी, उससे दो ईर्ष्यालु युग मले थे, इसलिए लसमें नल से ईर्ष्या 
उत्पन्न हो गयी। कलियुग०।९ पाँसे का वाहन वृषभ (बैल) हाथ में पाँसा 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ३०५ 


भले पधार्या पुष्कर भाई, जोगी वेशने छांडो रे, 
आ घर राज तमारं वीरा, राजनी रीति मांडो रे | कछ्ठिजुग ० ११। 
आसन आपी करे पूजन, पूछे कुशढी क्षेम रे, 
नत्ने कहे बीजी वाते न राचुूं, यृत रमवानो प्रेम रे । कव्ठिजुग ०।१२। 
तक कहे बांधव द्यृत न रमीए, ए अनर्थन्‌ं मूक रे, 
तूं जोगेश्वर कां उपजावे, उदर चोढीने शूक रे ? कछिजुग ०। १३। 
पुष्कर कहे मारो पांच मुद्रानो, पोठी जीतुं के हाएूं रे, 
एकी पासे बलछूद मारो, एकी पासे राज ताएं रे | कछिजुग ०। १४ । 
कल्ठिनि संगे पुण्यश्लोकने, पापतणी मति आवी रे, 
य्त रमवुं अप्रमाण छे पण, वात आग भावी रे | कछिजुग ०१५। 


पे ( तज़े बदलकर ) 
भावी पदारथ भूले, वेठवं छे बहु कष्ट रे, 
दूत रमवा बेठो राजा, कीधो कह्िए भ्रष्ट रे। १६। 


लिये हुए वह राज-सभा में आ गया। तो उसे अपना बन्धु जानकर मन में 
(उसके प्रति) दया लाकर (अनुभव करके) राजा नल उठकर बेठ गये । 
कलियुग० । १० (वे बोले-- ) ' हे पुष्कर भाई, तुम अच्छे पधारे। 
तुम (अब) जोगी-वेश को छोड़ दो । है भाई, यह घर, राज तुम्हारा है। 
राज्य सम्बन्धी नीति (के अनुसार काये) आरम्भ करो।”' कलियुग०। ११ 
(अनन्तर) उसे (बैठने के लिए) आसन देकर उन्होंने उसका पूजन किया; 
(और) कुशल-क्षेम पूछी। तो वह नल से बोला, “ मैं दूसरी किसी 
बांत में कोई रस नहीं लेता। मुझे दूत बेलने में प्रेम (रुचि) है ' । 
कलियुग० । १२ (यह सुनकर) नल बोले, “हे बन्धु, द्यृतन खेलें। 
(क्योकि) वह तो अनर्थ की जड़ है। तुम योगेश्वर हो; पेट में, मल- 
मलकर (बलात) शूल (दर्द) क्‍यों उत्पन्न कर रहे हो ? ' कलियुग० । १३ 
इसपर पुष्कर बोला, “ मेरा पाँसा पाँच मुद्राओं वाला है और मै बैल को 
(प्रण पर लगाकर) जीत लूँगा या हारूगा । एक पाँसे पर मेरा यह बैल 
(लगा) है और एक (दूसरे) पर तुम्हारा राज्य है ' । कलियुग० । १४ 
कलि की संगति (के प्रभाव) से उन पुण्यश्लोक नलराज में पाप की बुद्धि 
उत्पन्न हो आयी । थूत खेलना अप्रमाण अर्थात शास्त्र-प्रमाण के विरुद्ध 
है। फिर भी आगे बात होनी की थी। कलियुग० । १५ 
होनी तो बड़ा तत्त्व है। आगे राजा नल को बहुत कष्ट झेलने है 
(थे), (इसलिए) वे राजा दूत खेलने बेठ गये । कलि ने उनको (मति- ) 
अष्ट कर डाला था । १६ * 


३०६ गुजराती (नागरी लिपि) 


कटयं ३० मुं-( यूत में शल की हार होना ) 
राग मेवाडों 


नक्राजाए द्यूत आरंभ्यूं, सत्य थयूं सर्वे फोक जी, 
नग्न मध्ये वारता जाणी, तज़्ाहे त्राहे करे लोक जी। १ । 
दमयंतीए नक्कने कहाव्यूं, वछ॒द भणी मा जोशो जी, 
ए वृषभमां वेरी छे कारमो, राज रमतां खोशो जी। २ । 
डाह्मया लोक नगरना वारे, घणुं वारे परधान जी, 
कह्िजुगे बुद्धि भ्रष्ट ज कीधी, कटटयूं कोनूं न धरे कान जी । ३ । 
बेठा बांधव पोण परठीने, डोले पुष्कर राय जी, 
जे हारे ते राज मेली, तण वरस वन जाय जी। ४ । 
ज्षण वरस गुप्त ज रहेवं, वेप लन्‍य घरी जी, 
कदाचित प्रीछय पंडे तो, वन भोँव्वि फरी जी। ५ | 
महिमा मोटो कछ्िजुग केरो, नछ्ने गेमी ते वात जी, 
नछ कहे रे नाख पासा, त्यारे वरस्यो शोणित वरसाद जी | ६ | 
हाहाकार हवो पुर मध्ये, वायु सामटो बाय जी, 
ताख्या पासा पुष्कर जीत्यो, सर्वेस्व हार्यों राय जी। ७ । 





कड़वक--३० ( घूत में नल को हार होना ) 


नलराजा ने थूत खेलना आरम्भ किया। उनका समस्त सत्य 
(धर्म)व्यर्थ (सिद्ध) हो गया । नगर में यह समाचार (लोगों को) विदित 
हुआ। तो लोग त्राहि-त्राहि करने लगे। १ दमयन्ती ने नल को 
कहलवा दिया कि बैल की ओर न देखना । इस वृषभ के अन्दर बड़ी 
कुटिल प्रकृतिवाला शत्रु है। आप खेलते-खेलते राज्य खो बैठेंगे। २ 
नगर के समझदार-सयाने लोगों ने (राजा को) रोकने का यत्व किया; 
मंत्रियों ने बहुत रोका । (फिर भी) कलियुग ने (राजा की) बुद्धि को 
अ्रष्ट किया था। इसलिए उन्होने किसी के कहे पर कान नही दिया 
(किसी की बात को सुनकर नहीं माता) । ३ _ दोनों वच्धु प्रण निर्धारित 
करके बैठ गये । पुष्कर और राजा (मारे खुशी के) ढोल रहे थे। प्रण 
यह था-- ) जो हारेगा, वह राज्य छोड़कर ततीन वरस के लिए वन में 
जाएगा। ४ उसे तीन बरस कोई दूसरा वेश घारण करके गुप्त रूप से रहना 
है। यदि कदाचित पहचाना जाए, तो फिर से वन(-वास) भोग ले । ५४ 
कलियुग की महिमा बडी है। नल को वह बात अच्छी लगी। नल 
बोले, “ अरे, पाँसा फेंको '। तब रक्त की बौछार हुई । ६ नगर में 


प्रेमानन्द-रसामृत (नन्नोपाख्यान) ३०७ 


हार्यो नक ने पुष्कर जीत्यो, जई बेठो सिंहासन जी, 
आण पोतानी वर्तावी पुरमां, कहे नछ॒ने जाओ वन जी। ८ है 


वनकुछ पहेरी वन वसो, ने करो वनफछ आहार जी, 
एक वस्त्र राखो शरीरे, बाकी उतारों शणगार जी। ९ ।- 


सर्वे तजी एक वस्त्र राखी, ऊठ्यो नक्ठ भूपाछ जी, ., 
दमयंतीने कहावियूं तु, पियर जाजे आ काछ जी।१०॥ 


रुदत करती राणी आवी, बाकह्कक झाल्यां हाथ जी, 
शीश नामीने स्वामीने कहे, मुंने तेडो साथ जी। ११॥। 


सुखदुःखनी कहीए वारता, एकलां नव सोहाय जी, 
हुँ सेवाने आबूं सही रे, थाकों तो चांपुं पाय जी। १२। 


कंथ कहे हो कामिनी, तूं आवे मुजने जंजाछ जी, 
ए दुःख सधक्ा वेठीए पण, टब्ठवढ्ो मरे बच्चे बाछ जी । १३ । 


रोती कहे छे कामिनी रे, जेम छाया देहने वत्ठगी जी, 
तेम हुं तमारी तारुणी रे, केम रे थाउं अछगी जी। १४। 
हाहाकार मचा; साथ में (प्रचण्ड) वायु बहने लगी। पाँसे चलाये 
(गये), पुष्कर जीत गया और नल राजा सरबस हार बैठे । ७ नल 
हारे और पुष्कर जीता । तो जाकर वह सिंहासन पर बैठ गया । उसने 
नगर में अपनी आन फिरवा दी (डंका बजवाया) और नल से कहा, ' बन 
मैं जाओो। ८५ वल्कल पहनकर वन मे निवास करो। और वन्य फल 
खाया करो। शरीर पर एक वस्त्र धारण करो, शेष श्रृंगार उतार दो '। ९ 
सबका त्याग करके, (केवल) एक वस्त्र (शरोर पर) रखकर राजा नल 
उठ गये (चले जाने के लिए तैयार हो गये) । उन्होंने दमयनन्‍्ती से कहला 
दिया-- “ इस समय तुम पीहर चली जाओ ' । १० तो रानी दमयन्‍न्ती.रुदन 
करती हुई आ गयी । उसने बच्चों को हाथ से पकड़ लिया। सिर 
नवाकर वह अपने स्वामी से बोली, “ मुझे अपने साथ ले चलिए। १.१ 
झसे ) सुख-दुःख की बात कहें । अकेले (रहना) शोभा नही देता । 
मैं आपकी सेवा के लिए (साथ में) निश्चय ही मुच भा जाती हूँ। आप थक 
जाएँ, तो मैं आपके पॉव दबाऊंगी '। ११ तो पति (नल) बोले, “हे 
कामिनी, तुम आओगो, तो मेरे लिए झंझट खड़ी हो जाएगी। ये समस्त 
दुःख झेल ले, फिर भी ये दोनों बालक छटपटाते हुए मर जाएँगे '। १३ 
तो कामिनी रोते-रोते बोली, “ जिस प्रकार परछाईं देह से चिपकी हुई होती 
है, उसी प्रकार मैं आपकी स्त्री हूँ । मैं मापसे कैसे अलग हो जाऊँ ? १४ 





३०८ गुजराती (नागरी लिपि) 


वलण ( तज्े बदलकर ) 


जो अक्गी करशो नाथ जी, तो प्राण तजुं तत्काछ रे, 
नक कहे आवो वन विषे तो, पियेर वक्तावों बाढू रे। १५। 


है नाथ, यदि मुझे आप अलग कर देगे, तो मैं तत्काल प्राणों को त्यज 
दूंगी '। तो नल बोले, “ (मेरे साथ) वन में चली आओभो; (परन्तु) 
बच्चों को पीहर के प्रति विदा कर (भेज) दो '।१५ 


कडव २१ सुं--( दमयन्तो द्वारा बच्चो फो ननिहाल भेजना ) 
राग मेवाडो 


मोसाक्ष पधारों रे, मोसाल पधारो 

मोसाक पधारो बाडुआं रे, मारां लाडकवायां बे बाछू; 

नमायां थई वरतजो, सहेजो मामीनी गाकछढृ-मोसाछ०।१। 
हृदया चांपे रे, राणी हृदया चांपे, 

हृदया चापे पेटने रे, ए छेल्लुवहेलूं लाड; 

हवे महवां दोहलां रे, मतछीए तो प्रभूनों पाड-मोसाछृ०२। 
थयां मात-वोहोणां रे, थयां मात-वोहोणां 
मात-वोहोणां थययां दामर्णां रे, नहि को रुडो साथ, 

रुए राणी हृदयाफाटे रे, कोण माथे फेरवशे हाथ-मोसाछ०।३। 








कड़वक-- ३१ ( दसयन्तो द्वारा बच्चो को ननिहाल सेजना ) 


/ ननिहाल पधारो, (रे बच्चो) ननिहाल पघारो। है वेचारो, 
ननिहाल पधारो | मेरे लाडले दोनों बच्चो ! (ननिहाल पधारो) । मातृ- 
हीन बच्चे होकर (उस स्थिति के अनुरूप) आचरण करते रहो। मामी 
की गालियाँ सहन करो । ननिहाल० (ै। १ रानी दमयन्ती उन्हे हृदय से 
लगा रही थी, हृदय से लगा रही थी। अपने पेट से उत्पन्न उन बच्चों 
को वह हृदय से लगा रही थी । (उसे लग रहा था कि) यह तो अन्तिम- 
अन्तिम लाड्-प्यार है। अब (फिर से) मिल्नना कठिन है। मिलें तो 
भगवान का उपकार होगा । ननिहाल० | २ (वह बोली-- ) ' तुम अब 
मातृ-बिहीन हो गये हो, मातृविहीन हो गये हो। तुम (अब) मातृ-विहीन, 
पराधीत हो गये हो । कोई अच्छा साथ में (साथी) नही है ”। रानी 
कलेजा फाइकर रो रही थी। (उसे सान्त्वना देते हुए उसके) सिर पर 


प्रेमाननद-रसामृत (नलोपाख्यान) ३०६ 


मंदिरतता गुरुजी रे, मंदिरना गुरुजी; 
मंदिरना गुरुजी सुदेवजी रे, तमारे खोले सोंपूं बे तन; 
जई कहेजो मारी मातने रे, जीवनी पेरे करजो जतन-मोसाक्र ०।४। 
पुत्री जमाई रे, तमतणां पुत्री जमाई, 
पुत्री जमाई तमतणां, कहेजो वनमां पूर्यो वास; 
जई कहेजो मारा तातने रे, अम जोगीनो ले तपास-मोसाछ ०।५॥ 
चुंबन करती रे, मावडी चुंबन करती, 
चुंबन करती मावडी रे, फरी फरी मुख जोय, 
हैयेथकां ऊतरे रे, एम कही दमयंती रोय-मोसौछ ०।६। 
वलण ( तज्े बदलकर ) 
रोये राणी अति घणुं, वत्स सोंप्यां गुरुकरमांहे रे; 
ऋषि साथे बे बाछाकां, वोलव्यां नहूराये रे। ७ । 








कौन हाथ फेरेगा। ननिहाल०। ३ (दमयन्ती ने कहा-- ) “ हे मन्दिर 
के गुरुजी, है मन्दिर के ग्रुरुजी, हे मन्दिर के गुरुजी सुदेवजी, मैं तुम्हारी 
गोद में इन दो जनों को सौप रही हूँ। जाकर मेरी माता से कहिए कि 
प्राणों की भाँति इनकी रखवाली करना। ननिहाल०।४ कह दीजिए 
कि पुत्री और दामाद, (तुम्हारी) पुन्नी और दामाद, (तुम्हारी) पुत्री और 
दामाद ने वन में निवास किया है। जाकर मेरे पिता से कहिए कि हम 
जोगियों (वनवासियों) की खोज-खबर लीजिए। ननिहाल० '। ५ 
(दमयन्ती ) बच्चों को चूम रही थी, मैया (बच्चों को) चूम रही थी, मैया 
(बच्चों को) चूम रही थी; बार-बार उनके मुख को देख रही थी। “वे 
मेरे हृदय मे से नहीं उतर सकते ” -ऐसा कहते हुए दमयन्ती रोने लगी । 
ननिहाल० । ६ 


रानी दमयन्ती अत्यधिक रो रही थी। उसने अपने बछड़ो (बच्चों) 


को गुरुजी के हाथों में सौप दिया। मलराज ने (अनन्तर) ऋषि सुदेव के, 
साथ उन दो बालकों को बिदा किया । ७ 


३१० ग्रुजराती (नागरी लिपि) 


कडवुं ३२ मुं--( नल द्वारा छुद्ध होकर दमयन्ती को छोड़फर जाता) 
राग वेराडी 

बाछकां वोढाव्यां ऋषि सगाथे, दमयती करे आक्ंद, 
हाहाकार हवो पुर मध्ये, मत्यां सहियरनां वृद। १ । 
पडो वागो पुष्कर पापीनो, नकने को नव राखे, 
एक अंजलि जक् न पाम्या, जो भम्यां पुर आखे। २ । 
द्वारा अडकावे नब्ने देखी, जे पोतानां लोक, 
तरसी दमयंती पाणी न पामी, कंठे पड़ियो शोष | ३ । 
एक रात रह्मां नगरमां, चाल्यां वहाणुं वाते, 
पुण्यण्लोकनी पूठ ज लीधी, कछ्ि थयो संगाते। ४ । 
ज्यां वाव सरोवर कवा आवे, पाकां फछलनी वाडी, 
रिपु कछ्िजुग आगछ जईने, सर्व महेले उजाडी। ५ । 
फक्र जक ने पत्र न पाम्यां, राणी करे आंसुपात, 
वत्मां फरतां रुदन करतां, वही गया दिन सात। ६ । 


ब्ल्ज्ल्ज्ज्जंिचििजज्च्ञ्चज जल जज आल ध 





फड़वक- ३२ (नल द्वारा कुद्ध होकर दमयन्तो को छोड़कर जाना) 


नलराज ने उन दो बच्चों को ऋषि सुदेव के साथ बिदा किया, तो 
दमयन्ती आक्रनन्‍्दन करने लगी । ( उधर ) नगर में हाहाकार मच गया। 
(दमयन्ती की) सखियों का वृच्द इकट्ठा हुआ। १ पापी पुष्कर का 
नगाड़ा बजा (पुष्कर ने डौड़ी बजाते हुए यह आदेश दिया) कि नल को 
(अपने यहाँ) कोई भी न रख ले। (फल-स्वरूप) यद्यपि वे पूरे नगर मे . 
घमसे रहे, तो भी एक अंजलि भर पानी को वे प्राप्त नही हो सके। २ 
जो उनके अपने लोग (प्रजाजन) थे, वे नल को देखते ही द्वार बन्द करते 
थे। दमयस्ती (मारे प्यास के) त्रसने लगी। वह पानी को प्राप्त 
नही कर सकी । (फलत:) उसका कण्ठ-शोष हो गया (उसका गला सूख 
गया) । ३ वे एक रात नगर में ठहर गये और सबेरा होने पर चल पड़े । 
कलि तो पुण्यश्लोक नल के पीछे ही पड़ा रहा। वह (भी) उत्तके साथ 
हो गया । ४ जहाँ बावली, सरोवर, ,.कुआँ आ जाता, पके फलों का बगीचा 
आ जाता, तो वहाँ शत्रु कलियुग आगे जाकर समस्त मुहल्लों-बस्तियों को 
उजाड़ (नष्ट-अष्ट) कर डालता । ५ (अतः) वे (नल और दमयन्ती ) 
फल, जल ओर पत्ते को प्राप्त नही हो सके । रानी आँसू बहाती रही । 
(इस प्रकार) वन मे घूमते-घूमते, रुदन करते-करते सात दिन बीत गये । ६ 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ३११ 


अकेकुं पटठकूछ पहेयु, प्रेमदा कोमछ काया दाझे 
पाय. पंकजपत्र जेवा, तीब्र  कांठा भाजे। ७ । 
एक मानसरोवर आगछ आबव्यं, तेसां दीठं पाणी 
घणा दिवसनी तृष्णा समाववा, पीधुूं राय ने राणी। ८ । 
वारंवार पाणी पीए ने, बेसे वी हींडे, 
नर नारी वारिए तृप्त थयां, पण क्षधा पापणी पीडे। ९ । 
स्वामी कहे सांसतां थईए, श्यामा बेस थईने स्वस्थ 
जे सरोवरमां शोधी लावूं, जो जडे एक बे मच्छ। १०। 
थोडा जलमां पेठो नक्कराजा, ढीमरनुं आचरण, 
साधु रायने श्रम करतां, मच्छ जडियां त्रण। ११। 
आणीने अबढाने आप्यां, वामा कहे. थयूं वारु, , 
नव कहे आपण बे प्राणीने, शुं होशे एटला सारू। १२। 
भार्याना भज मध्ये सोंपी, भूष गयो बीजी वरां 
कछ्ठिजुग सर्प थईने बिहावे, मच्छ नासे अरांपरां। १३। 
नकछे श्रम कीधो घटी बे, मच्छ न चढियां हाथ 
पेलां त्रणे मच्छ वहेंचीने लीजे, विचायु मन साथ | १४। 


उन्होंने एक-एक वस्त्र पहना था। उस स्त्री की कोमल देह झुलसती रहती । 
कमल-पत्न जैसे उसके (कोमल) पाँवों में नुकीले काँटे चभकर टट जाते 
थे।७ भागे (जानेपर) एक मानसरोवर (जंसा सरोवर) आ गया। 
उसमें उन्होने पानी देखा। राजा ओर रानी ने बहुत दिनों की प्यास 
बुझाने के लिए पानी पिया । ८ वे बार-बार पानी पीते और बैठ जाते । 
फिर घूमने लगते । वे नर-नारी पानी से तृप्त हो गये (उनकी प्यास तो 
बुझ गयी); परन्तु पापिनी भूख उन्हें सता रही थी। ९ तो स्वामी (पत्ति 
नल ) बोले, ' हम घेर्ययुक्त हो जाएँ (धर्यें घारण करें) । अरी स्त्री, शान्त 
होकर बढ जाओ। मैं जाकर सरोवर मे खोज लेता हूँ कि उसमे एक-दो 
मछलियाँ मिल सकती है (या नही) [।१० नलराज थोड़े पानी में पैठ 
गये। उन्होंने मछए का काम किया। श्रम करने पर उन भले राजा को 
तीन मछलियाँ मिल गयीं । ११ लाकर उन्होंने (वे मछलियाँ) उस स्त्री 
को दे दी, तो वह स्त्री बोली, “अच्छा हो गया !'। (फिर) नल बोले 
हम दो मनुष्यों का इतने से भला क्‍या हो सकता है '। १२५ पत्नी के 
हाथों (मछलियाँ) सोपकर राजा नल दूसरी वार चले गये । तो कलि ने 
(पानी में) साँप वतकर डरा दिया, तो मछलियाँ इधर-उधर भाग जाने 
लगी। १३ नल ने दो घड़ियाँ परिश्रम किया, परन्तु उनके हाथ (और) 


00325 45 #- 


३१२ गुजराती (नागरी लिपि) 


ततछा आव्यों निराश थईने, त्रण मीनमां चित्त, 
एटलामां दमयंतीने, थई आबवख्यूं. विपरीत । १५। 
अमृतस्रविया कर अबढाना, सजीवन थयां मच्छ पत्ठमां, 
हाल्यां महिला मृकी दीधां, ऊडी पड्यां जई जक्मां। १६। 
घेली सरखी मीनने काजे, पाणीमां वेवलां वीणे, 
हवे स्वामीने शो उत्तर आपीश ? रुदन करे स्वर झीणे | १७। 
वीले मुख दीठी वेदर्भी, नाथ आवतो नीरखे, 
चौदश भाछे आंसु ढाछे, स्वातिबिदु शूं वरषे। १८। 
रोती पत्नी पतिए दीठी, धोल्ं मुख थयूं दीन, 
कहें रे पांपिणी शके मुज पाखे, भक्ष कर्या तें मीन । १९। 
हुं क्षुधातुर फरीने आव्यो, रझकयो पांणीमांहे, 
दोढ दोढ मच्छ भोजन कीजे, लाव पापिणी कांहे। २० । 
ह॒ंदे फाटते बोली राणी, आंसु पडे मोती दाणा, 
क्षुधातुर पापिणीए मच्छ भक्ष्यां, में न रहेवायूं राणा । २१। 





मछलियाँ नहीं आयी। (इसलिए) उन्होंने मत मे यह विचार किया 
कि पहले पायी हुई तीव मछलियो को हम बाँठ लें। १४ नल निराश 
होकर (लौट) आये। उनका चित्त उन तीन मछलियों मे (लगा हुआ) 
था। इतने में दमयन्ती के साथ एक विपरीत बात (घटित) हुई। १५ 
उस स्त्री के हाथ (इन्द्र के वर से) अमृत-स्नावी (बन गये) थे। (भबतः 
हाथ मे रखी हुई मृत) मछलियाँ पल में जीवित हो गयीं। वे हिलने 
लगी, तो उस महिला ने उन्हें छोड़ दिया; (फिर) वे उछलते हुए 
जाकर जल में गिर गयी । १६ वह पगली जैसी, मछलियों के लिए व्याकुल 
होकर पानी में छामते-बिनने लगी। (उसने सोचा--) अब मैं पति को 
क्या उत्तर दूँ? वह धीमे स्वर में रुदन करने लगी। १७ उसने पति 
को आते हुए देखा । उन्होने उसे लज्जित-मुख देखा। वह चारों ओर 
देख रही थी और आँसू वहा रही थी। मानो स्वाति नक्षत्र के जल-बिन्दु 
बरस रहे थे । १८ पति ने रोती हुई पत्नी को देखा । उसका गोरा मुख 
दीन हुआ था। वे बोले, “जान पड़ता है, जैसे बिना मेरे (मेरी 
अनुपस्थिति में) तुमने मछलियों को खा डाला है। १९ मैं भूख से व्याकुल 
होकर लौटकर भा गया हुँ-- पानी में व्यर्थ ही घूमता रहा। (सोचा 
था--) डेढ-डेढ मछली खा लेगे। जरी पापिनी, लाओ। मछलियाँ 
कहाँ हैं '। २० तो रासी हृदय के फटते रहते बोली। (उसकी आँखों 
से) भोतियों के दानों से अश्रुग्रिर रहे थे। ' हे राजा, क्षुधातुर होकर 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान ) शे 


नक कहे हंसे शिखामण दीधी, विदाय थयो आकाश, 
एक दूत न रमीए बीजुं, न कीजे नारीनो विश्वास। २२। 
बे वानां वार्या ते कीधां, हाथे दुःख लीधुं मागी, 
हुं भूख्यो ने ते मच्छ खाधां, शुं आग पेटमां लागी ? । २३ ।« 
दमयती हा हा करे, जाणे सम खाउं साने, 
सजीवन थयां ऊडी गयां, कहुँ तो राय नव माने । २४। 


वलण ( तजे बदलकर ) 
न माने राजा ए आश्चयं मोटूं, ऊठी चाल्यो नत्ठराय रे, 
अणतेडी राणी दमयंती, पतिनी पूँठे धाय रे।२५। 


मैं पापिनी ने मछलियाँ खा डाली। मुझसे रहा नही गया “। २१ तो 
नल बोले, ' हंस ने मुझे यह सीख दी और वह आकाश में बिदा हुआ- 
एक, द्यूत न खेलें और दूसरे, नारी पर विश्वास न करें । २२ उससे (जिन) 
दो बातों का निषेध किया था, वे मैंने की । मैंने अपने हाथों से दुःख माँग 
लिया । मैं भूखा रह गया हूँ और तुमने मछलियाँ खा डाली। क्या पेढ 
में आग लगी थी ' ? २३ दमयन्‍्ती हाय-हाय करती रही। उसने समझा 
कि मैं शपथ कर लूं (ओर कहूँ) कि मछलियाँ (फिर से) सजीव होकर 
उछल पड़ी, तो भी राजा नही मान जाएँगे । २४ 

राजा नहीं मान जाएंगे। यह (मछलियों का पुनर्जीबित होकर' 

उछल पड़ना) बड़ा आश्चये है। (तदनन्तर) नल राजा उठकर चले 
जाने लगे, तो रानी दमयन्ती (पति द्वारा न बुलाये जाने पर भी) पति के 
पीछे दौड़ी । २५ | 


कडवुं ३३ मुं--( कलि द्वारा नल की बुद्धि को श्रष्ठ कर बेना ओर 
नल द्वारा दमयन्ती का परित्यात करना) 
हे राग वेराडी 
आगक् नक्ठ पूंठे प्रेमदा, सतीने अंतर आपदा, 
नक तिरस्कार हींडतां करे, ह॒दे फाटे अबढा आंख भरे। १ । 





कड़नक- ३२३ ( कलि द्वारा नल को बुद्धि को भ्रष्ट कर देवा भर नल द्वारा 
के दलघन्तो का परित्याग करता ) 
आगे-आगे नल जा रहे थे, तो उनके पीछे-पीछे वह प्रमदा (दमयन्ती) 
चली जा रहो थी। उस सती को जन्तःकरण में दुःख अनुभव हो रहा था। 


(१४ गुजराती (नागरी लिपि) 


खाधां मच्छ हशे गत घणी, तो हींडे छे रे पापिणी, 
पी रे पाणी फरी'फरी, कां जे मच्छ खाघधां पेट भरी । २ । 
बे मारग आव्या आगढछे, विदाय कीधी नारी नढे, 
तूं. नहीं नारी, हुं नहीं कंथ, आ तारा पियरनों पंथ। ३ । 
मारो संग तुजने नहीं गमे, पियरमां पेट भरीने जमे, 
मुंने नाथजी करजो क्षमा, मारे नथी पियरनी तमा। ४ । 
फोकट करो मुज पर रीस, अजुग्त आछ चडावो शीश, 
देवतानूं मुंने वरदान, ते कां नव जाणो राजान ?। ५ । 
होती वात कामिनीए कही, कछ्िने जोगे नक्ठ माने नहीं, 
आगल्-पाछक्र बच्चे जाय, कछिए कीधी खगनी काय। ६ ॥ 
थोडी पांख ने मांस ज घणुं, लोभाणुं मन राजातपणुं, 
पंखीमां दीसे घणो भार, नरतारीनो प्ूरण आहार। ७ । 
कोण प्रकारे खगने हणंं ? उपर वस्त्र नाखूं मुजतणुं, 
उफ़राटी करी सुंदरी, तक चाल्यो देह नग्त करी। ८ । 





लजी लक अत +ल जीत + 


चलते हुए नल उससे तिरस्कार (व्यक्त) कर रहे थे। उस अबला का 
हृदय फटता जा रहा था। वह आाँखों को (अँसुओ से) भर रही थी। १ 
(नल ने कहा--) “तुमने मछलियाँ खायी होगी। अभतः तुम्हारी गति 
बहुत है फिर री पापिनी, तुम (यों) चल रही हो। बार-बार पानी 
इसलिए पियो कि पेट भरकर मछलियाँ खायी है '॥२ आगे (जाने पर) 
दो मार्ग आ गये, तो नल ने (अपनी) स्त्नी को बिदा किया (करना 
चाहा) । (वे बोले--) “तुम (मेरी) स्त्री नही हो-- न मैं (तुम्हारा) पति 
हूँ। यह तुम्हारे पीहर का मार्ग है। ३ मेरा साथ तुम्हे अच्छा नहीं 
लगता । तो पौहर में (रहकर) पेट भरकर भोजन करती रहो। ' (यह 
सुनकर दमयन्ती बोली--) “ हे नाथ, मुझे क्षमा करना । मुझे पीहर की 
कोई चिन्ता नहीं है। ४ आप मुझपर ब्यथे ही क्रोघ कर रहे है। मेरे 
सिर पर अनुचित दोषारोप लगा रहे है। हे राजा, मुझे देवो का बरदान 
(प्राप्त) है, क्या आप उसे नही जानते ? ” ५ उस कामिनी ने घदढित 
बात कही, फिर भी कलि के (प्रभाव के) योग से नल उसे (सत्य) नहीं 
मान रहे थे। फिर वे (एक-दूसरे के) आगे-पीछे चलने लगे, तो कलि 
ने एक पक्षी की देह धारण की ।६ उस पक्षो के पर कम थे और मांस 
ही बहुत (दिखायी दे रहा) था; तो राजा का मन लालच में पड़ 
गया। (उन्हें जान पड़ा--) इस पक्षी में बहुत भार (मांस का) दिखायी दे 
रहा है, व्यत: वह नर-नारी के लिए पूर्ण भाहार (सिद्ध हो सकता) है। ७. 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान ) 


लाज्यूं पंखी ने लाज्यूं वन, लाज्या सूरज मीच्यां लोचन, 
स्वादइंद्रिये पीडयो महाराज, थयो नग्त ने लोपी लाज । ९ । 
पीतांबर झाली भ्ृूपाठ, जेम माछी ग्रही नाखे जाल, 

खग निकट गयो जब राय, तेम तेम कलि आघेरों जाय । १०। 
धाई वस्त्रतो नाख्यो पास, कल्िजुग ले ऊड्यो आकाश, , 
एक वस्त्र पंखी गयो लई, नक बेठो कपाकछे कर दई। ११ । 
अरे दंव ते ए शुं कयु ? वस्त्र जतां कांई न ऊगयु, 

गयूं राजछत्न महिमा घणो, न रह्यो अंगे सूत्रतांतणो । १२ । 
विहंगम वस्त॒ गयो रे हरी, दमयंती मा जोशो फरी, 

पाछे पगे गई स्त्लीजन, आप्युं अधु वस्त्र स्वामी ढाको तत' । १३ । 
अक्केको, छेडो पहेयों ऊभे, तीरथ नाहे तेवा शोभे, 

अन्न विना अडवडियां खाय, सतने आधारे चाल्यां जाय । १४ । 


मैं इस पक्षी को किस प्रकार मार डालूँ ? मैं अपना वस्त्न उस पर डाल देता 
हैं । (ऐसा सोचकर ) नल ने सुन्दरी दमयन्ती को मूँह फेरकर खड़ा कर दिया 
और वे देह को नग्न करके (वस्त्न उतारकर) चले गये । 5५ (यह देखकर ) 
पक्षी लज्जित हुआ और वन भी लजा गया । सूर्य (भी) लक्जित- हुआ; 
(ओर) उसने (मानो) अपनी आँखे मूंद ली। स्वाद लेने की,-इन्द्रियःने 
अर्थात जिह्वा ने महाराज नल को पीड़ित कर दिया था; इसलिए वे नग्न 
हो गये । (इसमें).उन्तकी लज्जा भावत्ा का लोप हो गया । ९ जिस प्रकार 
मछआ (हाथों मे) जाल लेकर ढालता है, उसी प्रकार राजा ने (अपना) 
पीताम्बर हाथ में धर रखा । जब वे राजा उस पक्षी के निकट (-निकट) 
जाने लगे, तब. वसे-वेसे (पक्षी रूप-घारी) कलि आगे-आगे जाने लगा । , ६० 
उन्होंने दौड़कर वस्त्न का पाश डाल दिया, तो (पक्षी रूपी) कलियुग ,उसे 
लेकर आकाश में उड़ गया । एक (मात्र) वस्त्र लेकर पक्षी चला गया, 
(यह देखकर) राजा सिर में हाथ लगाये बेठ गये । ११ (वे बोले-) 
/ अरे देव, तूने यह क्‍या किया ? वस्त्र के जाने पर कुछ भी नहीं बचा। 
राजछत चला गया, बडी महिमा गयी । शरीर पर सूत का तनन्‍्तु (तक) 
नही रहा । १२ पक्षी वस्त्न हरण करके चला गया। हे दमयन्ती, तुम 
(इस ओर) मुड़कर न देखना।। ” (यह सुनकर) वह नारी (फिर) उलटे 
पाँव' गयी और उसने अपना आधा वस्त्र उन्हें दिया। (फिर वह बोली--) 
/ हे स्वामी, तन ढेक लीजिए ”'। १३ उन दोनों ने वस्त्न का एक-एक 
छोर पहन लिया । वे तीर्थ॑जल में नहाये-जेसे शोभायमान थे। अच्न-के 
बिता (अभाव के कारण) वे लड़खड़ा रहे थे। वे (केवल अपने) सत्य 
के आधार से चले जा, रहे थे। १४ (आगे जाने पर) एक महावन् की 


३१६ गुजराती (नागरी लिपि) 


महावननी आवबी जंखजाक, ते स्थानके थयो संध्याकाह्, 
बच्चे बेठां द्रुमने तब, चूंटी पत्च पाथर्या नछें।१५। 
दुःखनी वात करी नव नवी, दमयंती निद्रावश हवी 
क्षुधा अंगोभग रही हसी, मुख जाणे पूनमनो शशी। १६। 
नकछे सूती दीठी सुंदरी, निश्वास मृक्यों नयणां भरी, 
कोण दिवस आव्यों श्रीहरि, ए दु:खे प्राण न जाय नीसरी । १७ । 
वेदर्भी वसुधाएं पडी, दुःख नोतूं दीठु एक घडी, 
घणे दोहले वरी में एह, रूए राजा जोईने देह । १५। 
नखथी नीरखतां जोयूं मुख, त्यारे मनमां लागू दुःख, 
कलि वढी तेनूं चित्त फेरवे, राजा मनमां द्वेष मेढ॑वे । १९ । 
शी सगाई पर-तनयातणी ? दुष्ट दमयंती ए पापिणी, 
शी प्रीत छेह दीधो जेणीए, हुं विना मच्छ खाधां एणीए । २० । 
मलिन मन एनुूं निर्धार, को समे मारो करे आहार, 
न घटे एशुं रहेवूं मछली, रायने उपजावे बुद्धि ककि।२१। 


पा 





ही चलन ऑ3औअलल डी डबल कल आड3ली अटनडन अअडल अल 


झाड़-झंखार आयी । उस स्थान पर शाम हो गयी । वे दोनों एक पेड़ 
के तले बैठ गये । नल ने (फिर) पत्ते चुनकर उन्हें विछा दिया। १५ 
दमयन्ती दुःख सम्बन्धी नयी-तयी बाते करती हुई निद्राधीन हो गयी। 
भूख अंग-अग मे (व्याप्त) थी; (फिर भी) वह हुँसती मुस्कराती रही। 
उसका मुख मानो पूनो का चन्द्र था। १६ नल ने उस सुन्दरी को सोयी 
हुई देखा । उन्होंने (आँसुओं से) आँखे भरकर लम्बी साँस ली। (उन्होंने 
सोचा--) ' हे श्रीहरि, यह कौन (कसा) दिन आया ! इस दुःख से प्राण 
तो कही निकलकर नही जाएं । १७ बेदर्भी दमयन्ती भूमि पर पौड़ी है। 
उसने एक घड़ी भर तक दुःख नही देखा होगा । मैंने इसका बड़ी कठिताई 
से वरण किया है। ' उसकी देह को देखकर राजा नल रोने लगे। १८ 
उन्होंने उसको (पाँव के) नख से मुंह तक निरखते हुए देखा; तब उनके 
मन में दुःख अनुभव हुमा । तो कलि ने फिर उनके चिस को फेर लिया 
मर (फलस्वरूप) राजा ने मन में द्वेघ इकट्ठा किया | १९ (वे सोचते 
लगे--) “ दूसरे की कन्या से कैसा सगापन। यह दमयन्ती दुष्ट है, 
पापिनी है। जिसने (मेरे साथ) विश्वासघात किया, उसकी (मुझसे ) 
फंसी प्रीति ? इसने बिना मेरे (मेरी अनुपस्थिति मे) मछलियाँ खा 
डालीं । २० निश्चय ही इसका मन मलिन है। किसी समय इसने मेरे 
हिस्से का ३९०8 खा लिया । इसके साथ मे इकट्ठा (सिलकर) रहना 
डइचित नहीं है ”। कलि ने राजा में इस प्रकार बुद्धि उत्पन्न कर दी । २१ 





प्रेमाननद-रसामृत (नलोपाख्यान) ,३१७ 


ते समेनी हृदेनी दाझ्च, सृकुं वनमां एकली आज, 

बुद्धि भ्रष्ट सन राजातणू, कछिनो प्रेयों क्रोधे घणूं । २२ । 
मनमांहे आशंका गणे, एक वस्त्र पहेयु बे जणें, 

मध्ये चीर फाडुं बछ करी, थाय शब्द जागे सुंदरी। २३। 
होय छरी तो छेदुं पटकूछ, कह्वि थयो कां तुं अनर्थन्‌ मूछ ? 
नक्े लीधूं छरिका शस्त्र, वच्चेथी वहेयु अडधु वस्त्र । २४। 
कटका बे. पटकृकछना करी, मूकी नक्त चाल्यो सुंदरो, 

गयो डगला सात ज भरी, प्रीत श्यामानी सांभरी। २५। 
नठ  विमासण मना करें, एकली ए फाटीने मरे, 

वर्यो हुं देवता परहरी, वत्लही वनमां साथे नीसरी।२६। 
त्रेलोकमोहत ए मालिती, केस वेदना सहेशे राननी, 

न घटे मृकी जवबूं मने, नक्त आव्यो दमयंती कने। २७। 
दीठूं मुख अंतर परजछयो, संभारी मच्छने पाछो वल्॒यो, 

कृछ्ि ताणे वाट वनतणी, प्रेम ताणे दमयंती भणी। र८। 
“ उस समय से मेरे हृदय मे द्वेष है। (अतः) मैं आज इसे वन में अकेली 
छोड़ देता हूँ ।” राजा की बुद्धि और मन अष्ट हुआ। कलि ने बहुत 
क्रोध से उन्हें ऐसा प्रेरित किया । २२ मन में वे आशंका अनुभव करने 
लगे। “- हम दो जने एक वस्त्र को पहने हुए हैं। (अतः) मैं बल से 
वस्त्र को फाड़ दूं, तो आवाज होगी और यह सुन्दरी (स्त्री) जग 
उठेगी । २३ यदि छुरी हो, तो वस्त्र को काठ लेता हूं। ' हे कलि, तू 
अनर्थ की जड़ क्‍यों हुआ ? (अनन्तर) तल ने छुरिका-जैसा शस्त्र लिया 
ओर बीच में आधे वस्त को चीर डाला ।२४ उस वस्त्र के दो टुकड़े 
करके नल उस सुन्दरी (स्त्री) को छोड़कर चले । वे सात ही डग भरकर 
गये, तो उन्हें उस स्त्री की प्रीति का स्मरण हुआ। २५ नल मन में 
पछतावा करने लगे। (उन्हे लगा--) यह भकेली मारे दुःख के ट्टकर 
मंर जाएगी। देवो को छोड़कर उसके द्वारा मेरा वरण किया गया है। 
इसके अतिरिक्त, वह (मेरे साथ) वन मे निकल आयी है। २६ यह 
मानिनी,स्त्री तीनों लोकों (स्वगें, मृत्युलोक और पाताल) को मोह लेनेवाली 
है। वन (के कष्ट) की वेदना को कैसे सहन कर पाएगी । इसे छोड़कर 
जाना मेरे लिए उचित नही है। (ऐसा सोचते हुए) नल दमयन्ती के 
पास (लौट) आये | २७ उसके मुख को देखा, तो उनका अन्तःकरण 
जल उठा ।_ वे मछलियों का स्मरण करके पीछे लौटे। कलि उन्हें 
बन के मार्ग पर खीच रहा था, तो प्रेम दमयन्ती के प्रति।२८ वे 


३१८ गुजराती (नागरी लिपि) 


विचारवारि-निधिमा पडयो, आवागमन-हिंडोकछे चढ़चो, 
सात वार आव्यों फरी फरी, तजी न जाये साधु सुंदरी | २९ | 
व प्रबढ्ठध कछ्िनूं. थयूं, प्रेमबंधन लूटीने गयूं, 
सपे॑ कंचुकीने तजे जेम, में दमयंती तजबी तेम । ३० । 
वृक्ष पतने जेम परहरे, नरपि ते अंगी नव करे, 
जेवूं होय वमननं अन्न, तेवी मारे ए स्त्रीज॑न.। ३१। 
को वेक्ा मुंने मारे नेट, हुंपे वहाबुं एने पेट, 
एवूं. कहीने मूकी दोट, उंवाटे दोडच्ो सासोट, 
त्यां' लगे धायो भूपाछ, रह्यो ज्यां थयो प्रात:काछ । ३२। 


बलण ( तर्ज बदलकर ) 


काछढठ उदे अरुण तणो, त्यां लगे धायो धीश रे, 
जाग्यो ह॒दे थयू दुःख उदे, ज्यारे दीठो दिश रे। ३३। 


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विचार के समुद्र में गिर पड़े; (दमयन्ती के पास) आने और (उससे 
दूर) जाने के झूले मे चढ़े रहे (दुविधा में पडे रहे)। वे सात बार 
पुनःपुत: आ गये । उनके द्वारा वह भली सुन्दरी स्त्नी छोड़ी नहीजा 
रही थी।२९ (परन्तु फिर से) कलि का बल प्रबल हुआ, तो 
उनके प्रेम का बन्धन टूट गया। (उन्होंने सोचा--) ' जैसे सर्प केचुली 
को छोड़ देता है, वैसे मुझे दमयन्ती का त्याग करना है। ३० जिस 
प्रकार वृक्ष पत्ते को त्याग देता है गौर फिर से उसका अंगीकार नहीं 
करता, उसी प्रकार मुझे दमयन्ती को त्याग देते हुए उसे फिर से नहीं 
अपनाना है। जैसा वमन किया हुआ अन्न होता है, कसी मेरे लिए यह 
स्‍त्री जन है। ३१. (न जाने) किस समय यह मुझे मार डालेगी ? 
निश्चय ही इसका पेट मेरे द्वारा उठाकर ले लिया जा रहा है (मैं इसके 
बोझ को वहन कर रहा हूँ) '। ऐसा कहकर (सोचकर) वे दोडने लगे, 
भाड़े-ठेढ़े मार्ग से वे हॉफते हुए दौड़े । वे राजा तब तक दौड़ते रहे, जब 
प्रात:ःकाल हुआ और वे ठहर गये । ३२ 

अरुणोदय की बेला आ गयी, तब तक वे राजा दौड़ते रहे। जब 


उन्होंने दिशाओ को (प्रकाश से युक्त) देखा, तब मानों वे जाग उठे । तो 
उसके हृदय मे दुःख का उदय हुआ। ३३ 


प्रेमाननद-रसामृत (नलोपाख्यान) शे१६ै 


कडयूं २४ मूं-- ( शोकाझुल नल की कर्कोठिक नाग से भेंट ) 
राग रामग्री 


तक जछ नयणे भरे ने, करे विविध विलाप, 
व्याकुछ अंग पोतातणुं, अबनी पछाडे आप। १ । 
वेदर्भी वामा, रंक रामा, एकलडी वन मध्य, 
भय धरशे ने फाटी मरधे, जीव्यानी टली अवध्य । २ । 
नही मक्ठे फरी, कोकिलास्वरी, शो उपन्यो विखवाद ? 
मनगमयंती, बोल दमयंती, नछे माॉड्यो साद। ३ । 
विश्व-मोहिनी,. सृष्टि-दोहिनी, सुंदरी सुजाण, 
विरहिणी वललभ, दर्शन दुलंभ, बोल पियुना प्राण। ४ । 
नव फरतो, छदन करतो, जोतो आव्यानी वाट, 
कछ्िए चरण धरणनां भूस्यां, वत कीधुं निर्वाट। ५ । 
वडडाकछे भूपाक् वढ्ठग्योी, ते रूए हृदयाफाटे, 
मोहधारण, कर्मकारण, कहे भुज देई ललाटे। ६ । 


कड़वक्ष--२४ ( शोकाकुल नल फी कर्कोटक नाग से भेंट ) 


नल अपने नयनों में भश्वुजल भरते जा रहे थे मौर वे विविध (प्रकार 
से) विलाप करने लगे। उनका अपना अंग-अग व्याकुल'हो गया। 
उन्होंने अपने आपको भूमि पर लुढका दिया। १ (उन्हें जान पड़ा--) 
मेरी स्त्री वेदर्भी दमयन्ती, रंक (गरीब, असहाय ) स्त्री वन के अन्दर अकेली 
है। वह भय धारण करेगी और (हृदय) फटकर मर जाएगी। उसके 
जीवित रहने की अवधि (उसकी आयु) समाप्त हुई ॥२ वह कोयल के- 
से स्व॒र वाली फिर से नही मिलेगी। कसा विषेला झगड़ा पैदा हुआ ? 
“ हे मनभावनी दमयन्ती, बोलो '॥ नल ने उसे आवाज़ लगाना 
(पुकारना) आरम्भ किया । ३ ' है विश्वमोहिनी, हे सुष्टि-दोहिनी (सृष्टि 
की स्वाभाविक सुन्दरता का दोहन करनेवाली), हे सुन्दरी, हे सुजान, है 
प्रिय पति से बिछड़ी हुई, हे दर्शन-दुलेभ, है प्रियपति के प्राण, बोलो '। ४ वे 
(इस प्रकार पुकारते हुए, शोक करते हुए) वन में घूमने लगे। वें रुदन 
करते रहे। वे उस (के आने) की वाट जोहते रहे। (इधर) कलि ने 
(भूमि पर के) पाँवों के धरने के चिहनों (चरण-जिह्नों) को मिटा डाला 
ओर वन को मागं-रहित बना दिया।५ वे वटवृक्ष की शाखा से लिपट 
गये और हृदय को (मानो) फाड़ते हुए रोने लगे। वे ललाट पर हाथ 
टिकाये बोले-- (मेरे मन में) मोह को उत्पन्न करनेवाला कर्म (देव ही इस 


३३० गुजराती (नागरी लिपि) 


राय विलपे, घणुं कह्पे, संभारे सुख-स्नेह, 
कबुध भावी, मन भावी, अनन्‍्याये दीधो छेह। ७ । 
अजगर वाघ, वर नाग छे, दारण वननी हच, 
कराड कोतर, सिहना स्वर, श्यामा फाटी मरधे सद्य । ८५ । 
दोहले पामी, गजगामी, देव गया निर्मुख, 
स्वयंवर साथ, सांभल्ी वात, सर्व पामशे सुख। ९ । 
कोण नेत्र लूहे ? राय रूए, एवं शब्द सांभल्यों गाहो, . 
लाह प्रेमजछ, मुकाव राय न, बढ्ताने बाहेर काढो । १०। 
सांभक्ष वाणी, जाणी राणी, रोई रोई बेठो स्वर, 
हरखे भरायो, स्वरे धायो, वीरसेन कुंवर । ११। 
पाडे बराडा, बल्ले दवाडा, तरफडे मोटा व्याह्, 
कहे दयासिधु दीनबंधु, काढ नक्त भूपाक। १२। 
वहूनि वरदान, गयो सुजाण, नागे कीधो नमस्कार, 
आप प्राणदान, हो ग्रुणवान, कांई हुये करीश उपकार | १३। 





समस्त घटना का) कारण है। ६ राजा विलाप कर रहे थे, बहुत विलख- 
बिलखकर रो रहे थे। वे (दमयन्ती से प्राप्त) सुख और स्नेष्ट को स्मरण 
कर रहे थे। (उन्हें जान पडा--) “ मुझे कुबुद्धि प्राप्त हुई; मेरे मन को 
वही भच्छी लगी । इसलिए अन्यायपुर्वक मैने उसका विश्वासघात किया 
है। ७ इस दारुण वन की सीमा मे अजगर, बाघ, भेड़िये, नाग है। 
चट्टानें हैं; खोह-गड़ढे है; सिंह का दहाड़ना है। यह स्त्री अब हृदय के 
फट जाने पर मर जाएगी । ८. यह गजगामिनी संकट को प्राप्त हुई है । 
देव (स्वयंवर-मण्डप मे) विमुख होकर चले गये । मुझे स्वयवर में इसका 
साथ प्राप्त हुआ। (परन्तु) आज यह बात सुनकर वे सब सुख को प्राप्त 
हो जाएँगे। ९ उसकी आँखें कौत पोछेगा ? ” राजा (इस प्रकार विलाप 
करते हुए) रो रहे थे। उस समय उन्होंने एक गम्भीर शब्द (स्वर) 
सुना। ' हे राजा नल, प्रेम-जल, प्राप्त करा दो (मुझे) छुड़ा लो, जलते 
हुए को बाहर निकाल लो !'।] १० यह बात सुनकर राजा ने (उस 
बोलनेवाले को) रानी दमयन्ती समझा--, (माना कि) रोते-रोते उसकी 
आवाज़ बेठ गयी हो । वे वीरसेम-कुमार नल आनन्द से भर उठे, वे उस 
धाबद की दिशा में (अथवा उससे प्रेरित होकर) दोड़े । ११ (भागे) दावानल 
जलरहा था। एक बड़ा सप॑ चीख रहा था, तड़प रहा था। वह बोला, “ हे 
दया-सिधु, हे दीन-बन्घु, हे नल भूपाल, (मुझे बाहर) निकालो (। १२ 
उन्हें अग्नि (देव) का वरदान प्राप्त था। अतः वे सुजान राजा (निकट) 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्याल) ३२१ 


विषथी न बीधो नाग लीधो, जोजन देह प्रमाण, 
खांघधे चडावी, .मुक्यो बहार लावी, शाता पाम्यो प्राण । १४। 
पुण्यशलोक साचा, विप्र वाचा, मक्यों वेदर्भीकांत 
पूछे नक्त, दाधों सबक, मुंने कहे मांडी वृतांत्त । १५। 


वलण ( तर्ज बदलकर ) 


वृत्तांत कहे भाई कोण छे, पाम्यो बहु परताप रे, 
सर्प कहे राय सांभल्ठो, मुंन हवो ऋषिनो शाप रे। १६ । 





गये, तो उस उस नाग ने उन्हे नमस्कार किया । वह (फिर) बोला, ' मुझे 
प्राणान दीजिए। हे ग्रुणवान (राजा), मैं आपका कुछ उपकार 
करूंगा '। १३ राजा विष से नही डरे। उन्होंने उस नाग को उठा 
लिया । उसकी देह एक योजन (दीघे) थी। अपने कन्धे पर चढ़ाकर 
(राजा ने) उसे बाहर लाकर छोड़ दिया, तो उप्तके प्राण शान्ति को प्राप्त 
हुए । १४ (वह नाग बोला--) ' हे पुण्यश्लोक, उन विप्रों की बातें सच्ची 
है-- मुझे आप वेदर्भी-पति नल मिले _। नल ने पूछा (कहा)-- ' तुम 
बहुत जल गये हो, मुझे अपना बृत्तान्त (परिचय) ठीक से कह दो । १५ 

तुम अपना बृत्तान्त कह दो। भाई, तुम कौन हो ? तुम बहुत 
परिताप को. प्राप्त हुए हो '। (इसपर) उस सर्प ने कहा, “हे राजा, 
सुनिए। मुझे ऋषियो से अभिशाप प्राप्त हुआ था !'। १६ 


कडव्‌ं ३५ मुं--( कककोटक नाग द्वारा नल को काठना और कुरूप होकर 
नल का अयोध्या को शजसभा में आगमन ) 


राग देशाख 


बोल्यो नाग करी प्रणाम, राय मारु करकोटक नाम, 
हुं प्राचीन कर्मों पाम्यो संताप, सप्तऋषिए दीधो शाप । १ । 


कड़नक-- २५ ( ककोदिक ताग हारा तल को काटता ओर कुरूष होकर नल का 
समोध्या की राजसभा में भागमत ) 


वह नागर प्रणाम करके (नल से) बोला, ' है राजा, मेरा नाम 
ककोटक है। मैं अपने प्राचीनः (काल मे किये हुए) कम से क्लेश को 


१२२ गुजराती (नागरी लिपि) 


विमान जातूं हतूं स्वर्ग भणी, भज्ञानता जागी मुजतणी, 
फुत्कारी फणा नाखी ज्वाह्ल, दाधा सप्तऋषि चडयो काकू | २ । 
पतित तें नाखी विषनी लहर, बढ दवर्मा अवनी उपेर, 
बहु काछ लगे वसो वहिनमांय, भोगव दु:ख जीव नहि जाय। ३ । 
में जाण्यु शाप टछ्छे नहि खरो, मुंने शापनों अनुग्नह करो, 
वहित वेदना दोहली घणुं, कटयुं दर्शन थाशे नत्ठतणं । ४ । 
पुण्यगलोक बाहेर काढशे, ते तुंने शाता पमाडशे, 
ते दिवसनों वन दाझं छो अहीं, सात सहख्र वरस गया वही । ५ । 
ते तमो आज दुःख टाछियूं, पुण्यश्लोकपणुं पाह्ियूं, 
मारी देहने अति सुख थयूं, ऋषिवचननं फछ लहयूं । ६ । 
एवं कहीने सर्प जे धस्यो, करकोठक नक्तने कंठे डस्यो, 
लागी विषज्वाछ दाधो भूप, काछी काया थयूं कूबडुं रूप। ७ । 





प्राप्त हो गया हूं। मुझे सप्तर्ियों ने अभिशाप दिया है। १ उनका 
विमान स्वर्ग की ओर जा रहा था। (उस समय) मेरी भअज्ञानता जग 
गयी (अर्थात मैं अज्ञान के प्रभाव मे आकर विवेक को खो बंठा)। अपने 
फन से फुफक्रा रते हुए मैंने (विष की) ज्वाला उगल डाली, तो वे सात 
ऋषि उसमे जलने लगे । उन्हें क्रोध भा गया। २ (उन्होंने कहा-) “रे 
पतित, तूमे (हमारे प्रति) विष की लहर चला दी। (अतः) तू प्रृथ्वी 
पर दावार्नि मे जलता रह। तू दीर्घ काल तक आग में निवास कर भोर 
दुःख का भोग कर; (फिर भी) तेरे प्राण नही जाएँगे '। ३ मैं जानता 
था कि यह अभिशाप सच्चा होगा, टलेगा नही। (अतः मैं बोला--) ' मुझ 
पर शाप के सम्बन्ध में अनुग्रह कीजिए, अर्थात्‌ कृपापुर्वंक शाप-मोचन 
बताइए । आग मे जलते रहने से बडा दुःख होगा ”'। तो वे बोले, “ तुझे 
नल के दर्शन होगे । ४ वे पुण्यश्लोक राजा तुझे बाहर निकालेंगे। वे 
तुझे शान्ति को प्राप्त कराएँगे '। उस दिन से मैं इस वन में यहाँ जलता 
रहा हूँ। सात सहस्न॒ वर्ष बीत गये है । ५ उस दुःख को आज आपने 
नष्ट कर दिया और अपने पुण्यएनोकत्व का निर्षाह किया। मेरी देह को 
(अब) अति सुख हुआ है। (इस प्रकार) ऋषियों के वचन के अनुसार 
मैंने फल प्राप्त किया है ”'। ६ऐसा कहकर वह सर्प ककोटक भागे ही लपका 
और उसने नल के कण्ठ में काठ लिया । विष की ज्वाला लग गयी, तो 
राजा जल जाने लगे । उनकी काया काली हो गयी, उन्तका रूप कूबड़ा 


१ सप्तषि-- कश्यप, अति, भरद्वाज, विश्वामित्न, गौतम, जमदग्नि और वसिष्ठ । 
अथवा मरोचि, अत्ति, अगिरस, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ । 


प्रेमाननद-रसामृत (नलोपाख्यान ) ३२३ 


काजक्पे श्यामता विशेष, वांकुं मुख पंख पंचवर्णा केश, 
छते दांते डाचां गया मछी, नीसरी खंध कही बेवड वी । ८ । 
नह कहे धब्य कद्र॒कुमार, घणों रूडो कर्यो उपकार, 
तुंने में आप्यूं प्राणदान, तें हुं कीधो शाही समान। ९ । 
नाग कहे रे रखे दुःख धरो, जोतां ए उपकार छे खरो, 
गुप्त रहेवूं संवत्सर त्रण, को नव ओछखे एवुं वर्ण। १०। 
त्नण. वस्त्र आपूं छठ॑ भूप, परिधाने थाशे मसूत्ठगुं रूप, 
ते जोयां पहेरी परीक्षा करी, तत्क्षण कांति भूपनी फरी । ११। 
हरख्यो नक्ठ थयूं दिव्य काम, नागे बाहुक धरियुूं नाम, 
भूपाछ व्यात्ठ थया विदाय, गयो अयोध्या नेषधराय | १२। 
देखी माणस नहासे अरांपरां, धाये बाहुक पूंठे छोकरां, 
जे जे मारग महीपति पढे, त्यां माणस जोवाने मछे। १३ । 





री कप पद शी कीट पर 


हो गया । ७ उनके (ट्वारा प्राप्त) काजल जंसे काले वर्ण मे विशिष्ट 
(बहुत अधिक) कालापन था। उनका मुख पक्षाघात से टेढा बन गया; 
उनके केश पाँच रगो से युक्त हो गये । दाँतों के रहते हुए भी जबड़े (के 
दोनों भाग) मिल गये; (शरीर मे) कबड़ निकल भाया और वह झुककर 
मानो दोहरे हो गया । ५ (यह देखकर) नल ने कहा, “रे कद्रु-कुमार, 
तू धन्य है। तूने मेरा बहुत अच्छा उपकार किया। मैने तुझे प्राण-दान 
दिया। (परन्तु) तूने मुझे स्थाही के समान (काला) बना दिया !। ९ 
तो नाग बोला, “" कदाचित आप दुःख धारण करेगे (मान लेंगे), फिर भी 
देखने पर यह सचमुच उपकार है। आपको तीन वर्ष गुप्त रहना है१ 
इस वर्ण मे आपको कोई नहीं पहचान सकेगा । १० है राजा, मैं आपको 
तीन वस्त्र प्रदान करता हँ। उनको परिधान करने पर मूल रूप बन 
जाएगा (अर्थात आप अपने मूल रूप को प्राप्त हो जाएँगे) '। उन्हें 


पहनकर राजा ने परीक्षा की, तो तत्काल उनकी कान्ति बदल गयी । ११ 
राजा नल आतनन्दित हुए। (उन्होंने माना--) दिव्य (अद्भुत) काम हो 
गया। उस नागने उन्हें 'बाहुक ' नाम रख दिया। (तत्पश्चात) 
राजा नल और कर्कोटक नाग (एक-दूसरे से) बिदा हुए। (फिर) निषध- 
राज अयोध्या चले गये । १२ बाहुक को देखकर लोग खिसक जाने लगे । 
वे इधर-उधर दौड़ने लगे, फिर भी बच्चे उनके पीछे लग गये (उनका 
पीछा करने लगे) । राजा नल (बाहुक के रूप मे) जिस-जिस मार्ग से 
जाने लगे, वहाँ लोग उनको देखने के लिए इकट्ठा हो जाते थे। १३ 
उन्हें (देखकर) लोग हँसते थे। (उन्हें लगा--) रूप की तो हद हो 





३२४ गुजराती (नागरी लिपि) 


हसे लोक झूपे लीह वाढी, पूंठे छोकरां पाडे ताढी, 
राजसभामा राजा गयो, प्रतिहार साथ खसीने रह्यो। १४। 
हसी सभा हस्यो ऋतुपर्ण, विधिए आ क्‍्यां निम्यु वर्ण, 
हरे काजछ ने जांबूफक्र, जाणे रूपे बीजों नक् | १५। 
कहे कोण छो स्वरूपना धाम ? केम आववबूं पड़यूं शुं काम ? 
तक्क कहे मारु बाहुक नाम, आव्यो उदर भरवा काम । १६। 
अश्वमत्र जाणूं राजन, एक दिवसे खेडं सत जोजन, 
कहे ऋतुपर्ण मोटु कारण, आ रूपने विद्या असाधारण | १७। 
नह्ठ इंद्र विना को जाणे नही, मंत्रप्राप्ति तुने क्यांथी थई ? 
मंत्रपाठ करता नव्हराय, हुं नक्॒नो सेवक शीख्यों विद्याय | १८। 
को समे प्रकाशी भणता तेह, त्यांधी विद्या हुं पाम्यो एह, 
नैषधनाथ ते वनरमां गयो, ते दुःखे हुँ आवो थयो। 
आव्यो छठ॑ रहेवा तम कने, अन्न वस्त्न आपजो मने, 
नहीं करुं हुं नीचुं काम, नहीं धरावूं सेवक नाम । २०। 


९। 


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गयी। बच्चे पीछे से तालियाँ बजाते थे। (इस प्रकार आगे चलते- 
चलते) राजा नल राज-सभा में गये । प्रतिहारियों (द्वारपालों) का दल 
जिसककर (दूर) रह गया। १४ (उन्हें देखते ही) सभा हँसने लगी। 
(राजा) ऋतुपण्ण हँसने लगे-- विधाता ने यह वर्ण कहाँ निभित किया ! 
वर्ण में यह काजल और जामुन फल को पराजित कर देता है। मानो 
रूप में दुसरे नल हो । १५ राजा ऋतुपण्ण बोले, ' हे स्वरूप (सुन्दरता) 
के धाम, तुम कौन हो? कैसे आये ? क्‍या काम पड़ा है ? ' तो नल 
बोले, “मेरा नाम बाहुक है। पेट भरने के काम से (यहाँ) का 
हूँ । १६ हे राजा, मै अश्व-मंत्र जानता हूँ। एक दिन में मैं (घोड़े को) 
सो योजन चला सकता हैं '। (यह सुनकर) ऋतुपर्ण वोले, “ यह तो 
बड़ा कारण (काम) है। इस रूप को यह असाधारण विद्या (कैसे) प्राप्त 
हुई है। १७ नल और इन्द्र के अतिरिक्त उसे कोई नही जानता; तो 
तुम्हें उस मत्र की श्राप्ति कहाँ से हुई ? ' (तो नल ने कहा--) “ नल राजा 
मंत्र का पठन करते थे। मैं नल का सेवक था । (वहाँ) मैंने वह विद्या 
सीखी है। १८ किसी समय वे प्रकट रूप से वह (मंत्र) पढ रहे थे। वहाँ से 
(सुनकर) मैंने उस विद्या को प्राप्त किया । वे निषधपति तो वन मे चले 
गये। उस दुःख से मैं (यहाँ) आ गया हूँ। १९ मैं आपके पास रहने के 
लिए भा गया हूँ। मुझे आप अन्न और वस्त्र दीजिए। फिर भी मैं कोई निम्न 
प्रकार (स्तर) का काम नही करूँगा-- मैं “' सेवक ' नाम धारण नहीं 





प्रेमानन्‍्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ३२५ 


रायजी तमने नहीं नमूं, स्वयंमुंपाक करीने जयु, 
राजा कहे रहो जेम तेम, विद्यावान जवा देउं केम ? । २१। 


हयदासपतिनो अधिकार, सेवक मात्र करे नमस्कार, 
जद्यपि मान पामे घणुं, पण कहेवाये दासत्वपणूंं | २२। 


अश्वपति महाराजा थयो, हयशाढ्वामां वासो रहो, 
छे विजोगनी वेदना घणी, नित्ये सुए श्लोक एक भणी | २३ । 


श्लोक-स्वागतापृत्तम्‌ 


आतपे धृतिमता सह वध्वा यामिनी-विरहिणा विहंगेन । 
सेहिरे न किरणा हिमरश्मेद:खिते मनसि सर्वमसह्मम्‌ ॥। 


भावार्थे-- वसंततिलका छंद 
जे चक्रवाक दिवसे वहु साथे राखे 
ते संगरंग रमतां रविताप सांखे 
राते विजोग थकी चत्रप्रकाश खूंचे 
जो दुःख होय दिलमां कशुंये न झचे । २४। 


कराऊँगा (आप मुझे “ सेवक ” नही कहिए) । २० हे राजा, मैं आपको 
नमस्कार नही करूँगा । मैं (अपने लिए) रसोई बनाकर खा लूंगा। ” 
(यह सुनकर) राजा ने कहा-- “ जेसे-वैसे रह जाओ । मैं विद्यावान को 
कैसे जाने दूँ ? २१ तुम्हें घोड़ों के कामवाले सेवकों के स्वामी (हय-दास- 
पति, अश्वपति) का अधिकार (प्राप्त) होगा । सब सेवक तुम्हें नमस्कार 
करेंगे। यद्यपि तुम बहुत मान-सम्मान को प्राप्त होगे, तो भी वह (सब) 
दासत्व कहा जाएगा ।२२ (इस प्रकार) महाराज नल अश्बपति हो 
गये। वे अश्व-शाला में रहने लगे। उन्‍हें वियोग की बड़ी बेदना 
0 थी। वे नित्य (सोने के लिए) लेटते समय एक एललोक पढ़ा 
करते थे । २३ 


(श्लोक का भावार्थ )-- दिन में चक्रवाक पक्षी (नर तथा मादा) 
(एक-दूसरे के) बहुत साथ रहते है। वे (एक-दूसरे के) साथ में विहार 
करते हुए सूर्य के ताप को सहन करते है; (परन्तु) रात में (एक-दूसरे के ) 
वियोग के कारण चन्द्र-प्रकाश उन्हे चुभने-सालने लगता है। यदि मन में 
दुःख हो, तो कुछ भी अच्छा नही लगता । २४ 











३२६ गुजराती (नागरी लिपि) 


राग चालतो 


एवं कहीने करे शयन, विस्मय थाय पाडोशी जन, 
बाक्क विहामणो आवबी वस्यो, कदर जने विजोग ते कशो । २५। 
ते स्त्रीए सुकृत श्‌ कयु, जेणे आ स्वरूपने वयु, 
वार थयूं जे विपत पड़ी, आ भ्ृतथी छूटी बापडी। २६। 


वलण (तर्ज बदलकर ) 


बापडी छूटी लोक कहे, रह्यो रायने रीक्षवी रे, 
बृहदश्व कहे युधिष्ठिरने, दमयन्तीनी शी गत ह॒वी रे। २७। 


ऐसा कहकर (श्लोक पढ़कर) वे शयन करते। पड़ोस के लोग 
विस्मित हो गये थे। (उन्हे जान पड़ता--) यह भयानक बेटा आकर 
(यहाँ) रह रहा है। इस क्षुद्र (मनुष्य) को वियोग किसका है ? २५ 
उस स्त्री ने क्या सुकृत (पुण्यकर्म) किया था, जिसने इस स्वरूप का 
वरण किया ? अच्छा हुआ कि यह विपत्ति आ गयी, इस भूत से तो बेचारी 
मुक्त हो गयी । २६ 

लोग कहते-- ” वह बेचारी मुक्त हो गयी । (भर) यह (इधर) 
राजा को रिश्ञाता रह रहा है '। बुहदश्व ऋषि युधिष्ठिर से बोले, 
(अब सुनिए, उघर ) “ दमयन्ती की क्‍या स्थिति-गति हुई ” | २७ 


कडव्‌ं ३६ मुं--( दमयन्ती का बिलाप ) 
राग दोहरा 
स्वप्नूं आव्यूं नारने, मूकी जाय छे नाथ, 
जागी उठी अचानके, ग्रहेवा प्रभुनो हाथ। १ । 
वेदर्भी थई गाभरी, वल्ही जुए चोपास, 
अम अबढाना हुदे कारमां, बीहुं तमारे हास । २ । 


नव 





फड्यफ़-- २६ ( दमयन्तों का विलाप ) 
उस नारी (दमयन्ती) के देखने में एक स्वप्न आया-- (उसने देखा 
कि) स्वामी नल उसे छोड़कर चले जा रहे है। वह अपने पति का हाथ 
पकड़ने के लिए अचानक जग गयी । १ वैदर्भी (दमयन्ती) भयभीत हुई । 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ३२७ 


जोयूं वन फरी करी, सम देई कीधा साद, 
पछी रुए बहुविध करी, पामी अति विषाद। ३ । 


राग मारु 


अमो अबढ्श साणस बीजे, नव कीजे हास | हो नक्व राय, 

केम धीरज धरुं हुं नारी, तमारी दास ? हो नछ6० | ४। 
रात अंधारी तो माहरी, वले कोण थाशे ? हो नछ&० | 
तम चर्ण केरी आण, प्राण सुज जाशे | हो तछ० । ५। 
आंहां तो बोले सावज, नाग वाघ न वरु | हो नकछ ० 
बोलो बोलो वाहो छो क्यम ? सम हुं तो मरुं । हो नछु० । ६ । 
हां हां जी जाओ छो हाड, राढ थशे फांसु । हो नछ० 
अगोप रहद्यां न आवे दया, देखी आंखडीए आंसु । हो नकठ० । ७। 
तमारां पगलां नव पेखूं कंथ, पंथ केम लहु रे ? हो नक०।॥ , 
निशा अंधारी भयानक, स्थानक केम रहुं रे ? हो नकु० । ८ । 
नेषध देशनी राणी, ताणी अतीशे रोय रे। हो नकछ० 
प्रभुजी अंग अवेव मारा, तारा जोय रे? हो नछ०।॥९। 


फिर उसने चारों ओर देखा । (वह बोली--) ' अबलाओों के हृदय अद्भुत 
(रूप से कोमल) होते है। आपकी ऐसी हँसी-ठठोली से मैं डर रही हूँ '।* 
उसने वन में बार-बार देखा । शपथ दिलाते हुए उसने पुकारा। फिर वह 
बहुत प्रकार से रुदत करने लगी। वह अति विषाद को प्राप्त हो गयी । ३ 
(वह बोली--) “हम अबला जन डर जाते है। है नलराज, आप हेंसी- 
ठठोली न करें। मैं तुम्हारी दासी कंसे धीरज धारण करूँ? हे 
नलराज ० ।४ रात अँघेरी है। (अब) तो मेरी क्‍या दशा होगी ? 
हे नलराज ० । आपके चरणों की शपथ है। मेरे प्राण निकल जाएँगे। 
हेनलराज ० १५ यहाँ तो नाग, बाघ और भेड़िये जैसे शवापद 
(जानवर) बोल रहे है। है नलराज। बोलिए, बोलिए, (मुझसे) कैसे 
रहा जाए ? शपथ है, मैं तो मर जाऊँगी । हे नलराज ०। ६ हां, हाँ 
जी। हड्ड़ियो तक (बहुत गहरे) जा रहे हो; व्यर्थ ही क्लेश हो जाएगा। 
अदृश्य होने पर, मेरे आँसुओं को देखकर आपको दया नहीं आ रही है 


' (क्या)। है नलराज ०।७ हे कान्‍्त, आपके चरणों (के चिह्नों) को 
' नहीं देख रही हूँ, तो मै मार्ग कैसे ग्रहण करूँ? हे रा हा । रात 


अंधेरी ओर भयानक है। मैं (किसी) स्थान पर कैसे रह जाऊँ ? 
हे नलराज ० (।5८ निषध देश की रानी ऊंचे स्वर में (ज्ञोर से) अतिशय 


' रो रही है। “है नलराज ०। है प्रभूजी, मेरे अंगों-अवयवों को (आकाश 


शेश८ गुजराती (नागरी लिपि) 


घेली सरखी चाले, वहाले वछोडी रे।हो नछ०। 
मांडयूं वनडूं जोबुं रोबु मृक्‍यूं छोडी रे। हो चछ०।॥१०। 
वलवलती वेदर्भी वाटे, उचाटे भरी। हो न&छ० । 
कारण स्वामी शुंय, हुंय. परहरी। हो चछ०।११। 
वहाला नव दीजे छेय, नेह विचारो। हो नकछ्ठ०। 
कर्म वाढयो आडो आंक, वांक शो सारो। हो नक०।१२। 


वलण ( तज़े बदलकर ) 
शो अपराध मारो स्वामी, दारुण वनमा मूकी गया रे, 
अल्प श्रांते हुं तजी, अतर न ऊपजी दया रे।१३। 


के) तारे देख रहे है। हे नलराज ० “ड।९ बह पगली जैसी चल 
रही थी। वह प्रिय द्वारा दुत्कारी हुई थी। हे नलराज ०। वह वन 
को देखने लगी । (फिर) उसने रोना छोड़ दिया । हे नलराज ० | १० 
वेदर्भी दमयन्ती भधीरता से भरी हुई विलाप करने लगी। “है नलराज० । 
हे स्वामी, क्या कारण है, जिससे मै (आपके द्वारा) परित्यक्त हुई ? है 
नलराज ० | ११ है प्रियजी, विश्वास-घात न कीजिए, स्नेह का विचार 
कीजिए। हे नलराज ०। कर्म (देव) ने चरम सीमा कर दी है। 
मेरा क्या दोष है ? हे नलराज ०। १२ 

हे स्वामी, मेरा क्या अपराध है, जो आप मुझे वन-में छोड़कर चले 
गये है ? अल्प भ्रम (भूल) से मैं त्यक्त कर दी गयी हूँ । आपके अन्त:- 
करण में क्या दया नही उत्पन्न हो रही है ? ' १३ 


कडमनूं २७ सूं--( घिलाप करते-करते दमयन्तों द्वारा वन में प्रमशण करना ) 
राग रामग्री 
वेदर्भी वनमां वलवले, घोर अंधारी रात, 
भामिनी भय पामे घणुं, एकलडी रे जात | वेदर्भी० । १ । 
रसनाए नाम ज नक् तणूं, मुख जपतोी रे जाय, 
सुध नथी शरीरनी, भाजे कंटक पाय | वेदर्भी० । २ । 








कड़मक-- २७ (बिलाव करते-करते दलयन्तों हारा वत में प्लमण करता ) 
विदर्भ-राज॑-कन्या दमयन्ती वन में बिलाप करती (हुई जा रही) 
थी। भयानक अँधियारो रात थी। वह स्वी बहुत भय को प्राप्त हुई 
थी। (उसी स्थित्ति में ) वह अकेली जा रही थी। वैदर्भी ० । १ 


प्रेमाननद-रसामृत (नलोपाख्यान) 3२८ 
रोई रोई राती आंखडी, भरे आंसु तीर, 
नयणे धारा बब्बवे झरे, वहे अंग रुधिर | वेदर्भी० । ३ । 
हींडतां ते आखडे, पणग्मां वागे ठेश, 
चालतां ऊभी रहे, भराये कांटे केश | वेदर्भी० । ४ । 
अंगे उच्चरडा पडथया घणा, वहें शोणित धार, 
' हो नछ ! हो नक ! ' बोलती, बीजों नहि विचार। वेदर्भी० । ५ । 
ऊंडां कोतर ऊतरे, चढ़े गिरि कराड, 
अशुद्धे उधडके नहीं, पाडे वाघ बराड | वेदर्भी० । ६ । 
वांकी वाद टींबा ठेकरा, भयानक खोह, 
राफमांहे साप फूंफबे, घणुं घृषवे घोह | वेदर्भी० । ७ । 
शब्द पशुपंखीतणा, न पडे कोई प्रीछ, 
वरु वणियर बीहावे अरण्यमां, धाये वकछठगवा रींछ। वैदर्भी० । ८५ । 
शूकर, रोझ, चिकारडां, चीतरा दे फाह, 
फालु नाद होये घणा, बहु बोले शियाक्र | वेदर्भी०। ९ । 


उसकी जिह्वा पर नल ही का नाम था । मुख से उसी नाम का जाप 
करती हुई वह जा रही थी। उसे शरीर को कोई सुधि नही रही थी । 
उसके पाँवों को कॉँटे (मानों) भग्न कर रहे थे। वंदर्भी ०।२ रोतै- 
रोते उसकी आँखे लाल हो गयी। उनमें अश्ल-जल भर रहा था। 
उसकी (एक-एक) आँख से दो-दो (अश्रु-) धाराएं बह रही थी। शरीर 
से रक्त बह रहा था। वेंदर्भी ०।३ घूमते-घूमते वह ठोकर खा रही 
थी। पाँवों में ठेस लगती थी। (बीच-बीच मे) चलते-चलते वह (क्षण 
भर के लिए) खड़ी रहती, तो बाल काँटों से भर जाते थे । वेदर्भी ० ।४ 
उसके शरीर में बहुत खरोंचे लगी; रक्‍त की धाराएँ बहती थी। वह 
“ हे नल ,, “हे नल ” बोलती (पुकारती) जा रही थी। उसे कोई दूसरा 
विचार नही आ रहा था। वंदर्भी ०।५ वह गहरे गडढ़ों-नालों में 
उतरकर (पार) जाती थी; पव॑तों-चढ्टानों पर चढ़ती थी । बाघ गरजते- 
चीखते ये। तो भी उसके प्रति अचेत-सी होने के कारण वह (भय से) 

काँप नही रही थी। वंदर्भी ०।६ राह ठेढ़ी-मेढ़ी थी। उसमें टीले- 
पहाड़ियाँ थी, भयानक गरुफाएँ थी। बिलो में से साँप' फुफकार रहे थे । 

गोधे घृघुत्कार कर रहे थे। वेदर्भी ० । ७ , पशु-पक्षियों की आवाज़ हो' 
रही थी; (फिर भी) कोई दिखायो नही पड़ रहा था। भेड़िये जैसे वन्य 
प्राणी अरण्य में उसे डरा रहे थे। रीछ उप्ते लिपट जाने के लिए दोड़ 
रहे थे। वेदर्भी ० । ५ सुअर, नीलगायें, हिसन, चीते छ्लाँग लगा' 
रहे थे। लोपगड़ियों की बड़ी आवाज़ हो रही थी। सियार बहुत बोल 


३३० गुजराती (नागरी लिपि) 


आंबा, आऑबली, लीमडा, अरीठा अपार, 
शीमछ, समकी, सेगठा, न सूझे पंथ विचार | वेदर्भी० । १०। 
खेर, खाखर ने कांचकी, कंटाछा थुएर, 
बावक्विया बहु बोरडी, सरगवा समेर | वंदर्भी० । ११। 
आखडी पडती सुंदरी, चरणे वेला वींटाय, 
छटा केश कामिनी तणा, झांखरे ज्ञींटाय । वेदर्भी० । १२। 
वृक्ष अथडाये अंगशूं, मुके कांटामां पाय, 
सुद्ध नथी रे शरीरनी, भजती नलूराय | वेदर्भी० । १३। 
दिवस निशा प्रीछे नहीं, एवं घाडूं अरण्य, 
दमयंती भूली भमी, त्यां दिवस त्वण | वेदर्भी० । १४। 
अन्न उदक पामी नहीं, नहि बेसवुं शयत्त, 
न्नण. दिवस एम वही गया, भमयंतां वन | वेदर्भी० | १५। 


वलण ( तज़े वदलकर ) 


वन भयातक भामिती भमी, दिवस त्रण गया वही रे, 
वाद घाट ने गाम ठाम कांई, प्रेमदा पामी नहि रे। १६। 





रहे थे। वेदर्भी ०।९ आम, इमली, नीम, भरिष्ट, सेमल, शमी, 
सहिजन के असख्य पेड़ थे । (इसलिए) मार्ग सम्बन्धी विचार सुझायी 
नही पड़ रहा था (मार्ग दिखायी नही दे रहा था) । वैदर्भी ० | १० खैर, 
टेसु और काचकी, काँटेदार थूहर, वबूल, बेर, सहिजन, समेर बहुत (संख्या 
मे) थे। वेदर्भी ० । ११ वह सुन्दरी (नारी दमयन्ती) ठोकर खाकर 
गिर जाती थी। पाँवों को लताएँ लपेट लेती थी। उस कामिनी के 
बाल खुल गये। वे झाड़-झंखाड में उलझ रहे थे। वेदर्भी ०॥ १२ 
उसके शरीर से वक्ष घिसते-टकराते थे। वह काँटो मे पाँव रखती थी । 
उसे शरीर की कोई सुधि नही थी। वह तो नलराज को भजती (जा 
रही) थी । वेदर्भी ० । १३ वह अरण्य ऐसा गह॒न-घना था कि दिवस- 
रात समझ मे नही आ जाता था । उसमे भूल-भटककर दमयन्ती तीन दिन 
(इस प्रकार) भ्रमण कर रही थी। वैदर्भी ०। १४ उसे भन्न, पानी 
नही प्राप्त हुआ | , न बेठना हुआ, ने सोना । वन में भ्रमण करते-करतें 
इस प्रकार तीन दिन बीत गये। वैदर्भी ०। १५ 

वह वन भयानक था। वह भामिनी उसमें अ्रमण कर रही थी। 
(इस प्रकार) तीन दिन बीत गये। वह प्रमदा बाट-घाट और ग्राम-ठौर 
कुछ भी नही प्राप्त कर सकी । १६ हि ' 


प्रेमानन्द-रसामृत (चलोपाख्यान) ३३१ 


फडव्‌ं ३८ मूं-( व्याध हारा दमयन्ती को अनगर से छुड़ाना ) 
राग रामग्री 


भूली भमे छे भामिती, नेषधनाथनी नार रे 
हो नछ ! हो नक ! ' बोलती, भीमकराज-कुमार रे। भूली० । १। 
धोवायंं काजछ आंसुए करी, वेदनाए व्याकुह् रे 
अध॑ उधाडी देहडी, नाथे फाड्यूं छे पटकृछ रे | भूली० । २ । 
एव. दीठो एक चीतरो, धाई दमयंती ऊलट रे 
पूछे भाक नह भूपाछनी, छे तारा जेवी कट रे । भूली० । ३ । 
शादंल दीठो वाटमां, वंदर्भी पूछे धरी वहाल रे 
नैषधनरेश वाटे मह्॒या छे ” तारा जेवी चाल रे | भूली० | ४ । 
सावज थाये गाभरा, भय पामी नासी जाय रे 
रखे वनदेवी अमने झालती, पशुअरि कपाय रे | भूली० । ५ । 
छे ऊंचा द्रमने, तारी गगने गई डाछ रे 
तरुवर जो मारी वती, कहीं दीसे भूपाछ रे। भूली० | ६ । 


फड़वक्क-- रे८ ( व्याध द्वारा दसयन्ती को अजगर से छुड़ाना ) 


वह स्त्री, निषधराज की रुत्नी दमयन्ती (वन में मार्ग) भूलकर भ्रमण 

कर रही थी । वह भीमकराज-कुमारी (दमयन्ती) “ हे तल *, ' हे नल * 
बोलती-पुकारती जा रही थी। भूलकर ०।१ आँसुओं से (उसकी 
आँखों का) काजल धोया गया। वह वेदना से व्याकुल हो गयी थी। 
उसके पति ने उसका वस्त्र फाड लिया था। इसलिए (आधा वस्त्र पहन 
लेने के कारण) उसकी देह आधी अनावृत थी। भूलकर ०।२ उतने 
में (उस समय) दमयन्ती ने एक चीता देखा। तो वह उत्साह-उमग से 
दोड़ो और उसने उससे नल राजा की खोज-खबर पूछी । (वह बोली-- ) 
तुम्हारी जंसी ही उनकी कमर है भूलकर०। ३ रास्ते में 
दमयन्ती ने (अनन्तर) एक सिंह को देखा, तो उसके प्रति प्रेमभाव धारण 
करके (अर्थात प्रेमपूर्वक) उसने पूछा, “ क्या तुमसे रास्ते मे निषधराज 
मिले थे ? उनकी तुम्हारी-सी चाल है भूलकर ० ।४ (उसे 
देखकर) श्वापद भयभीत हो गये । वे भय को प्राप्त होकर भाग जाने 
लगे। (उन्हे लगा,) शायद (यह कोई) वनदेवी (हो, जो) हमें पकड़ 
लेगी। पशुओं के शत्रु सिह (भय से) कॉपते थे। भूलकर ० । ५ वह 
ऊंचे वृक्ष से पूछती, “ तुम्हारी डाल गगन में गयी है। हे तरुवर, मेरे लिए 
देख लो कि कही राजा (नल) दिखायी दे रहे है। भूलकर-०॥ ६ 


शे३२ गुजराती (नागरी लिपि) 


पर उपकारी सदा तमो, वत्ठी शीत तारी छांयथ रे, 
नेषधनाथ कक्‍्यहुं दीठडा, जोउं छौं वनमांय रे। भूली० । ७। 
तरू उत्तर आपे नहीं, तेम तेम राणी रोय रे, 
पुण्यश्लोक ज्यारे परहर्या, शत्रु थया सर्व कोय रे | भूली० | ५। 
अजगर पडयो छे वाटमां, विकासी मुख भाग रे, 
दमयंतीए जापण्यूं नहीं, तेना मुखममां मृक्‍यो पाग रे । भूली० । ९। 
चरण गढ्यो जानु लगे, विष चढी गयूं शरीर रे, 
पड़ी भोम साद नक्कने करे, प्रुखे पाडे रीर रे | भूली०। १०। 
अजगर आनंद पामियो, भलुं जड़यं भक्ष रे, 
वेदर्भी घणं वलवले, ऊंचां चढी गया चक्ष रे ।भूली०। ११। 
कंठे बंधाई कांचकी, मुखे पड़ियो शोष रे, 
मरण समे मूके नहीं, हंदे रसना पुण्यशलोक रे | भूली० । १२। 
रोती राणी सांभछी, पारधी आव्यो धाई रे, 
पग दीठो अजगरमुखमां, तेणे श्यामाने साही रे । भूली० । ११। 





तुम सदा परोपकारी (बने रहत्ते) हो। इसके अतिरिक्त, तुम्हारी छाँह 
शीतल है। क्या कही निषधराज नल दिखायी दिये ? मैं उन्हें वन में 
देख (खोज) रही हूँ (। भूलकर ०।७ वृक्ष उत्तर नहीं दे रहे थे; 
वैसे-वैसे रानी दमयन्ती रोती रही । (उसे जान पड़ा--) जब से पुण्यश्लोक 
(नल राजा ने) मेरा परित्याग कर दिया है, तब से सब कोई (मेरे) शत्रु 
हो गये है। भूलकर ०।८ अपने मुख-भाग (थूथने) को फैलाये हुए 
रास्ते में एक अजगर पड़ा हुआ था । (परन्तु) दमयन्ती ने (उसे ठीक से 
देखकर) नहीं जाना; (अतः) उसने उसके मूँह मे पाँव रखा। 
भूलकर ०।९ उस (अजगर) ने घुटने तक पाँव को निगल डाला। 
उसका विष (दमयन्ती के) शरीर के अन्दर चढ़ने-फैलने लगा । तो वह 
भूमि पर गिर पड़ी । (फिर) वह नल को पुकारने लगी। वह मुँह से 
चीखती-चिल्लाती रही। भूलकर ०। १० अजगर तो (इस विचार 
से) आनन्द को प्राप्त हो गया कि अच्छा भक्ष्य मिल गया। (इधर) 
वेदर्भी बहुत विलाप कर रही थी। उसकी भाँखे (उलटकर) ऊँची चढ़ 
गयी। भूलकर ०। ११ जले में हिचकी लग गयी। मुख में शोष 
अनुभव होने लगा । फिर भी वह मृत्यु के समय भी हृदय और जिहवा 
से पुष्यशलोक का नाम-स्मरण नहीं त्यज रही थी। भूलकर ०। १२ 
रानी है रोते सुनकर एक व्याध दौड़कर (वहाँ) आ गया । उसने अजगर 
के मूह में उस स्त्री के पाँव को (धेंसे) देखा, तो उसने उसे पकड़ लिया। 





प्रेमाननद-रसामृत (नलोपाख्यान) ३३३ 


पारधीए अजगर मारियो, कोहावाडाने धाय रे, 
जत्न करीने मुकावियो, नक्वपत्नीनो पाय रे। भूली०। १४। 
वैदर्भी विष चढ़यूं नहीं, छें वासवनूं वरदान रे, 
करतक वास सुधातणो, देह रही परम निधान रे । भूली० । १५। 


वलण ( तज़े बदलकर ) 


देह रही परम निधान, हल्छाहछ गयुं ऊतरी रे, 
कहे भट प्रेमानंद पछे, शूं दुःख पामी सुंदरी रे ? । १६। 

भूलकर ०। १३ उस व्याध ने उस अजगर को कुल्हाड़ी के आघात से मार 
डाला । उसने यत्न करके नल की पत्नी के पाँव को (उसके मुँह से) 
मुक्त कर लिया। भूलकर ० । १४ (अजगर का) विष बेदर्भी के 
शरीर मे (अधिक) नही चढ़ा, (क्योंकि) उसे इन्द्र का वरदान प्राप्त हुआजा था। 
उसके करतल पर अमृत का निवास था । अतः उसकी देह परम निधि 
(जैसी) थी। भूलकर ०।॥ १५ 

उसकी देह परम निधि थी; (अतः) हलाहल उतर गया। भद्दु 
42 अब कहने जा रहे है कि फिर वह सुन्दरी किस दुख को प्राप्त हो 
गयी । १६ 


फडव॒ुं ३८ मूं-( दसयन्ती हारा व्याध को अभिशाप देना ) 
राग मारु 


विषधर मार्यो व्याधे आवी, महिला मृत्यु थकी मुकावी, 
व्याधे अजगर लीधो हाथे, चाल्यो तेडी दमयंती साथे । १ 
पारधी हींडयो जगने जीती, वेदर्भी जाय ब्हीती ब्हीती, 





गयो एक तढावने तीर, प्रक्षालन कीधुं सपे शरीर। २ । 


कड़वक-- रेडे ( दमयन्तो द्वारा व्याध फो अभिशाप देना ) 


व्पाध ने आकर उस साँप को मार डाला ओर स्त्री (दमयन्ती) को 
मृत्यु से छुड्ा (बचा) लिया ।  (अनन्तर) उस व्याध ने अजगर को हाथ 
में लिया और “ “5 बुलाकर साथ में लेकर चला। हे 
व्याध उस बड़े , _ रर्थात उस बड़े काम में सफल रा 
रहा था । ॥ .. ९ (उसके पीछे-पीछे) 


हु] 


३३४ गुजराती (नागरी लिपि) 


देखतां दमयंती प्रत्यक्ष, ते अजगर कीधो भक्ष, 
मुखनं पासूं रहेवा दीधूं, बाकी शरीरनूं भोजन कीधूं । ३ । 
दमयंती विस्मथ हवी, आ तो वार्ता दीठी नवी, 
जीवांतक कहे हो नारी, तमो दीठी विद्या अमारी। ४ | 
मननी खटपट सघढ्ी छांडो, प्रेम कटाक्ष मुज पर माडो, 
हुं तो पारधीपति छों व्याधी, पटराणी करूं भले लाधी । ५ । 
कुण मात तात ? कुण स्वामी ? वन नीसर्या वेराग पामी, 
एकलां आव्यां आणी दिशे, कोण नाम बोलो वल्ठी रसे 7 । ६ । 
कोणे वचन कह्यूं कवरधुं ? कां अंबर अंगे अर, 
शं नक्त नक्त मुबे जपों ? छो डाह्यां घेलामां खपो। ७ । 
जद्यपि दुःख तमने पडियूं, पण भाग्य मारु ऊषडियूं, 
एम कहीने गयो स्पर्श करवा, त्यारे अवछा लागी ओसरवां। ८५ | 
धस्यो राहु चंद्रने चांपे, तेम दमयंती थरथर कांपे, 
मा भरीश ओरु डग, तुज पर तूटी पडशे खड्ग। ९ । 


जी ही जीजा ब5 5... #४ ८25 न ले ४. ॥3 “नल 3जती3ली जी +जी3जन्‍+लपजी जीन जल 





वह एक तालाव के तट पर गया। उसने उस सर्प के शरीर को घो 
लिया । २ फिर दमयन्ती के प्रत्यक्ष देखते-देखते उसने उस अजगर को 
खा डाला। मुख के पास वाले भाग को उसने रहने दिया भौर शेष शरीर 
को खा लिया । ३ (यह देखकर ) दमयन्ती विस्मित हुई। यह घटना 
तो उसने नयी (अपूर्व) देखी थी। फिर वह जीवान्तक [प्राणी को 
मार डालनेवाला वहहिंसक) वोला, " अरी नारी, तुमने हमारी विद्या को 
देखा । ४ अपने मन के समस्त जंजाल को छोड दो । मेरी ओर प्रेम से 
युक्त दृष्टि से देख लो । मैं व्याध व्याघो का राजा हूँ । मुझे तुम प्राप्त हुई 
हो। मै तुम्हे अपनी पटरानी बना देता हू । ५ तुम्हारे माता-पिता कौन 
हैं? स्वामी (पति) कौन है ? बेराग्य को प्राप्त होकर तुम क्यो बन में 
चली जा रही हो ? इस दिशा में अकेली (क्यो) आ गयी हो ? तुम्हारा 
क्या नाम है ? फिर आनन्द-रस से बोलो | ६ किसने तुमसे कदु बात 
कही है ? शरीर पर आधा वस्त्र (हो) क्यो है ? मेह से ' नल ', ' नल ' क्‍या 
जप रही हो ? तुम समझदार-सयात्ती हो, फिर भी पागलपन के साथ खप 
रही हो (कष्ट कर रही हो) । ७ यद्यपि तुम्हारे लिए (भाग्य में) दुख 
जाया है, फिर भी मेरा भाग्य जग गया है। ” ऐसा कहते हुए वह (व्याध) 
स्पर्श करने चला, तब वह स्त्री (दमयन्ती) पीछे हटने लगी | ८५ जैसे 
राहु चन्द्र को (पकड़कर) दबाने लगा हो, वैसे दमयन्ती थरथर काँपने 
लगी। (वह बोली-- ) ' भागे और पाँव मत बढ़ाओ । तुम पर खड़ग 





प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाश्यान) ३३४ 


हुं तो भीमकरायनी बाहढ्ली, अल्या हुं नहि चकलावाढी, 
हुं तो दमयंती, नकछ॒नी नारी, पारधी कहे भाग्यदशा मारी । १० । 
एवं कहीने पारधी धसियो, अबछाने क्रोध मन वसियो, 
मूर्ख कह्यूं मान रे मारुं, हो जमपुरता वटेमागु। ११। 
उपकार तारो हुं जाणूं, ते माटे हुं दया कांई आणुूं, '' 
बढ मा कर तूं मुज साथे, मू्खे मरण चढ़युं छे माथे । १२ । 
केम जावा दउं भोछी भाम, हुं विरहीतणों विश्वञाम, ' 
हुंमां शो अवगुणज देखो ? मने शा माटठे उवेखों। १३। 
मारे मंदिर स्त्री छे तरण, ते रहेशे तमारे चरण, 
आपण बे जीव जीवश्‌ूं जडियां, कोण सुकृतथी सांपडियां । १४५ 
थनार हशे ते देईश थावा, पण नहि दउं तमने जावा, 
सुखे पारधी वंशर्मां वरतो, हुं नक्थी नथी कई नरतो। १५१ 
लक्षणवंती मने लोभावो, पूरी वास सदन शोभावो, 
अन्न वस्त्र विना न दुभावो, ल्‍यो गृहस्थाश्रमनो लावो। १६ 


टूट कर गिर पड़ेगा । ९ मैं तो भीमक राजा की कन्या हूँ। भरे मैं कोई 
चौक वाली अर्थात वेश्या नही हूँ । मैं तो दमयन्ती-- नल (राजा) ,की 
स्‍त्री हैं । ' (इसपर) व्याध बोला, ' यह तो मेरे लिए भाग्य की स्थिति 
है" ।१० ऐसा कहते हुए वह व्याध आगे लपका, तो उस अबला के मन 
में क्रोध आ गया । वह बोली, “ अरे मूर्ख, मेरी कही मान लो । (नहीं 
तो) तुम यमपुरो के पथिक (बन गये) हो । ११ मै तुम्हारे द्वारा मेरा 
किया उपकार जानती हूँ। इसलिए तो मैं (तुम्हारे प्रति) कुछ दया 
कर रही है । मेरे साथ तुम बल (-प्रयोग) मत करो। रे सूखे, 
तुम्हारे सिर पर मौत चढ़ी है"। १२ तो व्याध बोला, “ तुम भोली 
सत्नी को मैं कंसे जाने दूं ? मै तुम विरहिणी के लिए विश्राम हूँ । मुझमें 
तुम कोन अवगुन ही देख रही हो ? मेरी किप्तलिए उपेक्षा कर रही 
हो ? १३ मेरे घर में तीन स्त्रियाँ है। वे तुम्हारे चरणों में रहेंगी । 
हम दो जीव एक-दूसरे से जुडकर जीवित रहेगे। तुम मेरे किस सुकृत 
(पुण्य) से मुझे सिल गयी हो ? १४ जो होनेवाला हो, उसे होने दंगा; 
पर मैं तुम्हें जाने नही दंगा । व्याध के कुल मे सुख के साथ रह जाओ । 
मैं ,नल से कुछ भी घटिया नही हूँ । १५ है सुलक्षाणों से युक्त, भेरे प्रति 
लुब्ध हो जाओ। मेरी इच्छा को पूर्ण करते हुए मेरे घर को शोभायमान 
कर दो ।. बिना अन्न-वस्त् के दुःखी मत होना; 'गृहस्थाश्रम का लाभ ले 
लो।१६ तुम भक्ष्य सम्बन्धी दुःख (चिन्ता) मन मे न धारण करोगी । 


३३५६ गुजराती (नागरी लिपि) 


भक्ष दुःख न धरशो चित्त, शत पशु वेधूं छूं नित्य, 
ऊंचूं जोई कहे धन्य विधाता, मने दमयंत्तीनों दाता। १७। 
मारी कर्मदशा छें चढती, वेदर्भी पाम्यो रडवडती, 
देव नहीं पाम्यां तप करतां, मने वार तन लागी वरतां। १५८। 
तृणनों मेरु ने मेसनूं तरण, तारी लीला अशरणशरण, 
भोगवी न शकयो नैषधस्थामी, नक्ठे खोई नारी में पामी । १९ । 
शं नक्व नक्त झंखना लागी, पहोर निशाए भयो त्यागी, 
शं लोभे लयो नत्ठवनूं नाम ? जेणे दुखियां कीधां आम । २० । 
बोल्यो आधार प्राणजीवन, धायो देवाने आलिगत, 
क्रोध सतीए संभाह्यूं सत्य, रोई समर्या कम्ापत्य | २१। 
विट्रंलजी चडजो वारे, हुं तो रही छूं तम आधारे, 
छो विपत समेता श्याम, मधुस्दन राखों माम | २२। 
आप्यूं पद ध्रुूवने अविचक, ग्राहथी मुकाव्यो मदगढ, 
राख्यो प्रदलाद वसिया थंभ, रक्षा करो धरोन विलंब । २३। 


मैं नित्य सी पशुओं को (हथियारों से) बींध डालता हूँ _। वह फिर ऊपर 
देखकर बोला, “ है विधाता, धन्य हो । तुम मेरे लिए दमयच्ती देनेवाले 
(सिद्ध हो गये) हो । १७ मेरी कर्म-दशा उत्कर्ष पर है। इसलिए मैं 
भ्रमण करती हुई बंदर्भी को प्राप्त हो गया हूँ। देव तो तप करने पर भी 
उसे नही प्राप्त सके । मुझे इसका वरण करने में देर नही लगी । १८ हे 
अशरणो (निराश्नयों) के लिए शरणस्वरूप (भगवान), यह तुम्हारी 
(अद्भुत) लीला है कि तृण को मेरु और मेरु को तृण प्राप्त हो जाता है 
(यह देवों के योग्य है, पर मुझ जैसे तुच्छ को प्राप्त हो गयी है)। निषध- 
राज इसका उपभोग नहीं कर सके । नल द्वारा खोथी हुई नारी को में 
प्राप्त कर गया हूं । १९ _' नल ' “नल '-क्या रट लगी है ? वे एक पहुर 
रात में तुम्हे छोड़कर चले गये हैं । जिसने तुम्हे यहाँ दुखिया कर दिया, 
उस नल का नाम किस लोभ से (अब भी) ले रही हो ” । २० वह बोला, 
* तुम मेरे लिए (जीवन के) आधार हो, प्राणजनीवन हो '। फिर वह 
उसका आलिंगन करने के लिए दौड़ा। तो उस सती ने अपने सत्य 
(पतिब्रत) का निर्वाह किया। उसने रोते-रोते कमलायति भगवान 
विष्णु का स्मरण किया । ११ (वह बोली-- ) ' हे विदृठलजी, इस समय 
प्र आ जाओ। मैं तो तुम्हारे आधार से (जीवित) रह रही हूँ । छुम 
विपत्ति के समय के विश्वाम हो। है मधुसूदन, अपनी टेक निभा लो । २२ 
तुमने ध्रुव को अविचल पद प्रदान किया; गज क्रो ग्राह से मुक्त कर दिया । 
तुमने स्तम्भ में निवास किया और प्रहलाद की रक्षा की। (अब) मेरी 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाझ्यान) ३३७ 


सत्य होय सदा निरंतर, असत्यथी होउं स्वतंतर, 

न मृक्‍या होय नक्ठ मतथी, कुदष्टे न जोयू होय अन्यथी | २४। 
आपत्काल्ठे रही होउं सत्ये, नह समरी रही होउं शुभ मत्ये, 

पंच महाभूत साक्षी भाण, न चूकी होउं चत्नुं ध्यान । २५। 
सत्य बढे दउं छों शाप, भस्म थजो व्यधिनूं आप, 

वचन नीसयु महिलाना मुखथी, अग्ति लाग्यो पगना लखथी । २६ । 
स्तवन कीधुं बेड कर जोडी, नमतामां थयो राखोडी, 
प्रेमदा पामी परिताप, उपकारीने दीधो शाप। २७। 
जद्यपि ब्रत न मार भांगुं, पण लौकिक लांछन लागूुं, 
लोकने पारधीनो संदेह, माटे पाडुंं हुं मारी देह। २८। 
प्राण त्यागे नथी हुं बीती, शूं करुं स्वामी पाखे जीती ? 
केशनो पांगरो गंथी ग्रंथे, लई भराव्यों फांसो कंठे । २९ । 
हो विष्णु, एटलूं मागती मरुं, नकछ॒ती दासी थईं अवतरूं, 

एवं कछ्जुगे धायु मत, करे कौतक हुं उत्पन्न | ३०। 
रक्षा करो; विलम्बन लगा दो । २३ यदि मेरा सत्यत्रत सदा निरन्तर 
(अखण्डित) रहा हो, यदि मैं असत्य से स्वतंत्र रह गयी होऊे, यदि मैंने' 
तल को मन से (कभी) न छोड़ा हो, किस्री अन्य के प्रति बुरी दृष्टि से न 
देखा हो, विपत्ति के समय भी यदि मैं सत्यव्रत मे (अविचल) रही होऊँ, 
शुभ मति से नल का स्मरण करती रही होऊ, तो मैं अपने उस सत्य (व्रत 
के आधार) से यह अभिशाप दे रही हूँ कि यह व्याध स्वयं (जलकर) 
भस्म हो जाए '। --ऐसा वचन उस महिला के मुख से निकला, तो पाँव 
के नख से (उस व्याध के शरीर में) आग लग गयी । २४-२६ अनन्तर 
उसने दोनों हाथ जोड़कर स्तुति की, तो उसके द्वारा नमन करते रहते वह 
(व्याध जलकर) राख हो गया। (यह देखते ही) वह प्रमदा परिताप 
को (इस विचार से) प्राप्त हुई कि ' मैंने उपकार-कर्ता को अभिशाप दे 
दिया । २७ इससे यद्यपि मेरा ब्रत भग्त नहीं हुआ, फिर भी लौकिक 
दृष्टि से लांछन लग गया। लोगों को व्याध (जाति) के प्रति सन्देह होने 
लगेगा, इसलिए मैं अपनी देह को त्यज दूंगी । २८ मैं प्राण-त्याग करने से 
नही डरती । (फिर भी) मैं स्वामी के बिना, जीवित रहकर क्या करूँ। ? 
(ऐसा सोचकर ) उसने गाँठ लगाते हुए अपने वालों की (बेनी-सी) रस्सी 
बनायी, और “उसे पकड़कर गले मे फॉसी लगायी । २९ (वह बोली--) 
“ है भगवान विष्णु, मैं इतना ही मॉगकर मर जाती हुँ-- मै नल की दासी 
होकर ही अवतार (पुनर्जन्म) ग्रहण करू।” इतने में (इस समय ) 


आज आओ 





श३८ गुजराती (नागरी लिपि) 


मरणथी उगारी लीधी, त्यां माया कलिए कीघी, 
दीठी तापस आश्रम वाडी , गई दमयंती फांसो कहाडी । ३१। 
तग्न दिगंबर छे महंत, थई पासे हरख्यूं चंत, 
बोले कह्िजुग नासा ग्रही, अप्रीत मच्छ माठ थई। ३२। 
शके भीमकसुता दमयंती, तजी नाथे हींडे भमयंती, 
अल्प अपराधनी अंते, कामिनी तजी छे कांते। ३३। 
भीमकसुता आनंदी अपार, जोगी जगदीशने अवतार, 
फरी फरीने पागे नमे, नक्तनूं प्रश्त करुं जी तमे। ३४। 
मुनि कहे नत्वने छे क्षेम, पण ऊतर्यों तुजथी प्रेम, 
नक नारी शोधे छे अन्य, तूं करजे जे ऊपजे मन। ३५। 
तव हरख्यो प्रेमदानों प्राण, मारा प्रभुने छे कल्याण, 
लक्ष तारी करो राजान, पण मारे नहछनू ध्याव। ३६। 
ठरी ठार ते जाणी नकठछ, नारीए लीधां जकछ फल्ठ, 


अल ५ल ५23 3ल५ल ५2333 ५न्‍ी ली +ज5ल ५८ ४ज+ज+ क्‍चअजट3ज5जन कल. 6 जआजभ 





कलियुग ने मन में यह (विचार) धारण किया-- ' मैं एक कौतुक उत्पन्न 
कर दूँगा '।३० उसे उसने मृत्यु से बचा लिया। वहाँ कलि ने माया 
की (मायाजन्य चमत्कार दिखाया)। (फलस्वरूप) दमयन्ती ने तपोवन 
में एक आश्रम देखा, तो फन्‍दा निकालकर वह (वहाँ) गयी । ३१ वहाँ 
(आश्रम में) एक नग्त-- दिगम्बर महन्त था। उसके पास में होने पर 
उसका चित्त आनन्दित हो गया। नाक पकड़कर कलियुग (स्वरूप 
वह॒त्तापस) बोला, “अप्रीति के (प्रेम के अभाव) से मछली मिट्टी (के 
बराबर) बन गयी । ३२ शायद यह भीमक-कन्या दमयच्ती पत्ति द्वारा 
परित्यक्त होकर भ्रमण कर रही है। अल्प अपराध के भ्रम से पति ने इस 
कामिनी का परित्याग किया है ' । ३३ (यह सुनकर) भीमक-सुता 
दमयन्ती अपार आनन्द को प्राप्त हुई। (उसे जान पड़ा कि) यह योगी 
जगदीश भगवान का अवतार है। वह बार-बार उसके चरणों में सिर 
नवाकर नमस्कार करने लगी । (वह बोली-- ) “ आप से मैं नल सम्बन्धी 
प्रश्न पूछ रही हूँ (नल के विषय में कोई समाचार जानना चाहती हुं) । ३४ 
तो मुनि बोले, ' नल सकुशल है; फिर भी उनका प्रेम तुमसे उतर गया है। 
नल अन्य नारी की खोज कर रहे हैं। (अत्तः:) मन मे जो बात उत्पन्न हो जाए, 
तुम वही कर लो !। ३५ तब उस प्रमदा के प्राण (इस विचार से) 
आनन्दित हुए कि भेरे प्रभु का कल्याण हो गया है (मेरे स्वामी सकुशल 
है) । ३६ है राजा, आप लाख (-लाख) नारियाँ अपना लीजिए। फिर 

भी मुझे तो आप नल ही ध्यान रहेगा। नल का ठौर-ठिकाना पक्‍का 





प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ३३४ 


पामी विराम कीधुं शयन, निद्रावश थई स्त्रीजन, 
स्वप्नांतचर दीठा नत्ठराय, जागी तो दुःख बमणुं थाय। ३७ । 


वलण ( तजे बदलकर ) 


नकनी स्त्री निद्रामां, स्वप्त विषे पृण्यश्लोक रे, 
चार गडीए जागी चतुरा तो, आश्रम वाडी फोक रे। ३५। 


जानकर उसने जल और फल ग्रहण किया । वह विश्वाम को प्राप्त हुई; 
अनन्तर वह सो गयी। वह स्त्री निद्रावश हो गयी। उसने स्वप्न 
में नल को देखा । फिर जब जग गयी, तो उसे दुगुना दुःख हुआ । ३७ 
नल की स्त्री निद्राधीन थी। उसने स्वप्न में पुण्यश्लोक नल को 
देखा। जब चार घड़ियों में वह चतुरा नारी जग गयी, तो (समझ मे 
आया कि) वह आश्रम और उपवन भिथ्या (मायाजन्य) था। ३८ 


कडवुं ४० सुं-( चन में घिलाप करते-करते दमयन्ती का 
नदी-तठ पर व्यापारियों से सिलना ) 
राग मलार 


भीमकसुता जागी करीने, चारे दिशाए जोय रे, 
नहि. तापस वन बिहामणूं, नक्तमी नारी रोय रे। १ । 
हुँ पापिणिने पगले करीने, मुनिए मृक्‍्यों ठाम रे, 
में कोण कृत्य रे आचर्या जे, विपत पड़े छे आम रे ?। २१। 
हींडे साद करती वनमां, त्िभुवत नायक नर रे, 
गगने रह्या हरखे घणुं, में उवेख्यां अमर रें। ३। 











कड़वक-- ४० ( बन सें विलाप करते-फरते दर्षयन्ती फा 
नदी-तट पर व्यापारियों से मिलना ) 


जाग्रत्‌ हो जाने पर भीमक-सुता दमयन्ती चारों दिशाओं में देखने 
लगी। वहां वह तापस नही था। वन भयावह था। तो नल की वह 
स्‍त्री रोने लगी । १ (वह बोली--) ' मुझ पापिनी के आते से मुनि ने 
इस स्थान को छोड़ दिया। मैंने ऐसे कोन कर्म किये हैं क्रि (जिसके 
फल-स्वरूप ) यहाँ (मुझपर) यह विपत्ति आ गयी है '।२ वह बन में 
पुकारती हुई घूमने लगी-- “ है त्रिभुवत॒वायक नर (-पति), (अब यह 
देखकर) देव आकाश मे बहुत आनन्द के साथ रह रहे है। मैंने उन देवों 


३४० गुजराती (नागरी लिपि) 


लक्षणवंत्ते लोक हसाव्या, स्वयंवरता शत्रु सर्व रे, 
आज रिपुने वही जाय छे, कौतुक करूं पर्व रे। ४ । 
एवुं जाणी मारा नाथ जी, दासीनी लेजो संभाक्ठ रे, 
हो विहंगम वेविशाकिया, मने सृकी नक्त भूपाछ रे। ५ । 
हो वज्रावती मावडी मारुं, ढांक उधाड़ं गात्र रे, 
हो भीमक मारा तात जी, शोधी मनावजो जामात्न रे। ६ । 
हो नंषध देशना राजीया, अणचित्यूं दो दर्शत रे, 
भूपरूपने जाउं भाभणे, हो, सलूणा स्वामिन रे। ७ । 
वेदर्भी नाथ विजोगणी, विरहे व्याकुछ शरीर रे, 
चतुराने वन चालतां, आव्यूं सरितातीर रे। ८ । 
आनंदी अबछा अति घणु, उत्तरता दीठा लोक रे, 
धाईने पूछे प्रेमदा भाई, दीठा कही पुण्यश्लोक रे। ९ । 
वलण ( तज्ें बदलकर ) 
पुष्यश्लोक छे ए साथमां, पूछे नक्वकती चारी रे, 
नदी उतरतां आश्चर्य पराम्या, परदेशी वेपारी रे।१०। 


शा चंचल जल जज बज ब-ल लत बल बल 3 बल ली >> 3 ल्‍ अल जला 


की उपेक्षा की थी। ३ स्वयवर के समस्त लोगों द्वारा लक्षणों से युक्त 
देवों की हँसी करायी। ये सब स्वयंवर के शत्रु (विरोधी) थे। 
। उन शत्रुओं के लिए मनोरंजन का पर्व (-काल) व्यतीत हो रहा 
| ४ 

ऐसा जानकर हे मेरे नाथ, अपनी (मुझ) दासी को सम्हाल लीजिए । 
है विवाह सम्बन्ध स्थापित कर देनेवाले मध्यस्थस्वरूप पक्षी, वल भूपाल ने 
मुझे त्यज दिया है। ५ है मेरी माता वज्ञञावती, मेरी अनावृत देह को 
आच्छादित कर लो | है मेरे पिता भीमकजी, अपने दामाद को खोजकर 
मना लो। ६ है निषध देश के राजा, मुझे अचानक दर्शन दीजिए। हैं 
सलोने स्वामी, मैं आपके भूप-रूप पर निछावर हो जाती हूँ । ७ अपने 
पति से विछुडी हुई उस (वियोगिनी) देदर्भी दमयन्ती का शरीर विरह से 
व्याकुल हो गया । उस चतुरा के वन में चलते-चलते, एक नदी का तट 
आ गया।८ (उसे देखकर) वह अबला अत्यधिक आनन्दित हुई। 
उसने लोगों को (नदी-तट पर) उतरते देखा । तो दौड़कर उस प्रमदा ने 
पूछा, ' हे भाइयो, आपने कही पुण्यश्लोक (नल राजा) को देखा है ?' ९ 

नल की उस स्त्री ने पुछा, ' क्या इस समुदाय में पुण्यश्लोक नल राजा 
है ?' तो वे परदेसी व्यापारी नदी के पार उतरते-उतरते (दमयनन्‍्ती को 
देखकर) आश्चयें को प्राप्त हो गये । १० 





प्रेमानसद-रसामृत (नलोपाझ्यान) ३४१ 


कडवूं ४१ सुं--( दसयस्ती द्वारा व्यापारियों से नल के विषय में पुछताछ करता) 
राग मार 


श्वास भरी पूछे सती, वेपारी रे, 
क्येहुं दीठा छे. नेषधपति, वेपारी रे। १ । 
प्रभु गया छे परहरी, वेपारी रे, 
छे तममां, वात कहो खरी, वेपारी रे। २ । 
कांई देखाडो नलनाथने, वेपारी रे, 
रूड हजो सघक्ठा साथने, वेपारी रे। ३ । 
साचुं बोलो जक तीर जो, वेपारी रे, 
तमे विपत समेना वीर छो, वेपारी रे। ४ । 
रूपे ब्रह्माए वाली हग्य रे, वेपारी रे, 
मारो स्वामी ओछखीए सद्य रे, वेपारी रे। ५ । 
छे अद्भुत गोझं गात्न रे, वेपारी रे, 
दीठे अडसठ वे जात रे, वेपारी रे। ६ । 
गोरुं मुख मूछ वांकडी, वेपारी रे, 
मोटी आंख चाल छे फांकडी, वेपारी रे। ७ । 


# ४८ ७व७त< 


कड़वक-- ४१ ( दसयस्ती द्वारा ब्यापारियों से पल के विषय में पुछताछ करना ) 


सती दमयन्ती ने (ठण्डी) साँस लेकर पूछा, “है व्यापारियो, 
आपने कही निषध-पति नल को देखा ? है व्यापारियो० । १ 
व्यापारियों, (मेरे) प्रभु मेरा परित्याग करके (चले) गये हैं। हे 
व्यापारियो, सच्ची बात कहिए-- क्‍या वे आप (लोगो) में है।२ हे 
व्यापारियों, कही (मुझे) मेरे नाथ नल को दिखा दीजिए | हे व्यापारियो, 
आप सबका उनके साथ भला होगा | ३ है व्यापारियो, देखिए, (नदी के) 
पानी के तट पर सच बोलिए। हे व्यापारियों, आप मेरे विपत्काल के 
बन्धु हैं। ४ हे व्यापारियो, उनके रूप मे ब्रह्मा ने (सुन्दरता की) हद 
कर दी है। (भतः) हे व्यापारियो, मेरे स्वामी को अभी पहचान ले | ५ 
हे व्यापारियो, उनका अद्भूत (रूप से) गोरा (गोरा) शरीर है। हे 
व्यापारियों, इनके दर्शन से अड़सठ तीर्थ॑-क्षेत्रो की यात्रा हुई दिखायी देती 
है (समझिए) । ६ हे व्यापारियो, उनका मुख गोरा है; मूंछ टेढ़ी (बाकी) 
है। है व्यापारियों, उनकी आँखे बढ़ी-वडी (विशाल) हैं, चाल बाँकी 
(अलबेली) है। ७ हे व्यापारियो, उनकी चाल नखरे से युक्त है। हे 


३५२ गुजराती (नागरी लिपि) 


चाल जेनी छे लटकती रे, 
कांति मणि जेवी चतछ॒कती, वेपारी रे। ८५ । 
कंठे मोतिनु लहेरियूं, वेपारी रे, 
अरधूं पटकुछ पहेरियूं, वेपारी रें। ९१ 
मुगटे माणेक चल्ठरकतां, वेपारी रे, 
करणे कुंडछ लक्ककतां, वेपारी रें।१०। 
अधर आाबानी कातढी, वेपारी रे, 
विशाछ ह॒दे कटि पातल्ली, वेपारी रे। ११। 
बोल साकरपे मीठडा, वेपारी रे, 
एवा नेषधनाथ दीठडा, वेपारी रे। १२। 
वणजारा एम ओवचरे, सुण श्यामा रे, 
निर्लज वनमां शूं फरे ? सुण श्यामा रे । १३ । 
को कहे त्यां वन बसी, सुण श्यामा रे, 
को कहे दीसे राक्षसी, सुण श्यामा रे । १४। 
को कहे हुं नेषधपति, हो घेली रे, 
आव आलिगन दीजे सती, हा घेली रे । १५॥ 
वांकी द्वष्टे जोये घणा, हो घेली रे, 
दुःख पाम्यामां नही मणा, हा घेली रे । १६ | 
व्यापारियो, उनकी कान्ति चमकती है । ८ हे व्यापारियों, उनके गले में 
मोतियों का हार है। है व्यापारियों, उन्होंने माधा वस्त्र पहना है। ९ 
हे व्यापारियों, उनके मुकुट मे मानिक (रत्न) चमकते है। है ब्यापारियो, 
उनके कानों मे कुण्डल झलकते है। १० हे व्यापारियों, उनके होंठ आम 
की फाँक (जैसे) हे। हे व्यापारियो, उनका हृदय (-स्थल) विशाल है, कटि 
पतली है।११ हे व्यापारियों, उनके बोल (वचन) शक्कर से अधिक 
मीठे हैं। हे व्यापारियों, (क्या) आपने ऐसे निषध-नाथ नल को (कही) 
देखा है ?' १२ 
(यह सुनकर) वे बनजारे इस प्रकार वोले, ' हे नारी, सुन लो। है 
नारी, सुन लो। तुम निलेज्ज इस वन मे क्‍यों घूम रही हो ?' १३ तो 
उनमें से कोई बोला, “ हे नारी, सुन लो। तुमने वहाँ वन में निवास किया 
है (क्या) ? 'तो कोई बोला, ' हे नारी, सुन लो । तुम तो राक्षसी दिखायी 
दे रहो हो '। १४ कोई बोला, “ अरी पगली, मैं निषध-पति हूँ । है पगली, 
है सती, आओ, (मेरा) आलिगन करो। १५ . री पगली, टेढ़ी दृष्टि ते 





जाई 


प्रेमानस्द-रसामृत (नलोपाझ्यान) ३४३ 


रोती नाव बेठी सुंदरी, सुण राय रे , 

लोक मांहे मछी उतरी, धर्मराथ रे। १७ । 

वेपारी त्यां वासो रह्या सुण राय रे, 

वे पहोर निशाना गया, धमेराय रे। १८। 

तयणे आंसुडां गढे, सुण राय रे, 

दमयंती बेठी झाड तके, धमेराय रे । १९ । 

गजजूथ जछ पीवा आव्यां, सुण राय रे, हि 
सिंह थई कलिए विहावियां, धर्मराय रे। २०। ह 
भडकी मेगल मंडल्ठही, सुण राय रे, 

वेपारी मार्या मगदछ्ठी, ध्मराय रे।२१। ' '' 
जे सतीने कुत्सित वाक्य बोलिया, सुण राय रे, 

ते पापी गजे रगदोछ्िया, धर्मराय रे। २२।, , 
अधिष्ठाता वेपारीतणो, सुण राय रे, 

तेड़्यो जीवतो साथ आपणो, धर्मेराय रे। २३ । 
भाईओ कुतृहल्ठ मोटुं हवूं, सुण राय रे, 

मुंने घटे छे वन बीजे जबुं, धर्मराय रे । २४ । 


बहुत देखते हैं। री पगली, (अतः) दुःख को प्राप्त हो जाने में कोई कमी 
नही है ( । १६ 
(बृहदश्व मे कहा) हे धर्मराज, सुनिए । वह सुन्दरी रोते-रोते नाव 
में बेठ गयी । हे धर्मराज, उन लोगों के साथ में मिलकर वह (उस पार) 
उतर गयी। १७ है राजा, सुनिए। वे व्यापारी वहाँ निवास करते हुए 
रह गये। है धर्मराज, रात के दो पहर बीत गये । १८५ है राजा, 
सुनिए। (दमयन्ती की) आँखों से आँसू बह रहे थे। हे धर्मराज, 
दमयन्ती पेड़ के तले बंठी हुई थी । १९ है राजा, सुनिए। हाथियों का 
एक यूथ (झुण्ड) पानी पीने के लिए (वहाँ) आ गया। तो, हे धर्मराज, 
कलि ने सिंह बनकर उन्हें डराया। २० है राजा, सुनिए, (फलतः) ..... 
हाथियों का वह झुण्ड भड़क उठा और है धर्मराज, उन्होंने उन व्यापारियों 
को रोदकर मार डाला । २१ हे राजा, सुनिए /॥ जो (व्यापारी) उस 
सती के प्रति कुत्सित वचन, बोले, .है धर्मराज, उन पापियों को हाथियों ने 
कुचल डाला। २२ हे राजा, सुनिए। व्यापारियों, के अधिष्ठाताः 
(शासक) ने, हे धर्मराज, अपने साथ जीवित रहे हुए. लोगों को बुलाकर- 
ले लिया | २३ हे राजा, सुनिए । हे भाइयो, यह बड़ा कौतुक हो गया॥५ 
हे धर्मंराज, उसने कहा-- दूसरे वन में जाना मुझे उचित जान पड़ता है। २४. 


३४४ गुजराती (नागरी लिपि) 


एवं. कछजुग पापी आवियो सुण राय रे, 
वेष ते जोशीनो लावियो, धर्मराय रे । २५ । 
तिथिपत्न वांचीने एम कहे, सुण राय रे, 
चेतो वेपारी को जीवतो न रहे, धर्मेराय रे।२६। 
वलण ( तर्ज बदलकर ) 
नहीं रहे को जीवता, उत्पात दारुण होय रे, 
ए कृत्या आवी कालनी, तेणीए खाधा सर्वे कोय रे। २७। 
है राजा, सुनिए। उतने में (उस्त समय) पापी कलियुग (वहाँ) आ 
गया। है धर्मराज, उसने ज्योत्तिषी का वेश घारण किया था । २५ है 
राजा सुनिए । तिथि-पत्र (पंचांग) पढ़कर उसने इस प्रकार कहा । हे 
धमंराज, (उसने कहा-- ) “इनमें से कोई भी व्यापारी जीवित नहीं 
रहेगा । २६ 
कोई नही जीवित रहेगा । दारुण उत्पात हो जाएगा। यह तो 


काल की कहृत्या (विनाशकारी शक्ति) आ गयी है। उसने सबको खा 
डाला है [। २७ 


कडवुं ४२ मुं--( व्यापारियों द्वारा दम्यन्ती को पीटना ) 
राग मेवाडो 


देखाडी दीधी हो, कलिए सुंदरी, 
धाया वेपारी हो, लाव्या बंधत करी । १ । 
सर्वे ठरावी हो, अबछ्ा शाकिणी, 
नकने समरे हो, मधुरभाषिणी। २ । 
बोल्यो अधिकारी हो, मारो सर्वे मढ्ी, 
पडचा तूटी हो, अबछाने नाखी दल्ठी । ३ । 





कड़वक-- ४२ [ व्यापारियों हारा दम्पन्‍्ती को पीटना ) 


कलि ने वह सुन्दरी (दमयन्ती) दिखा दी, तो व्यापारी दौड़े और 
वे उसे बाँधकर ले आये । १ सबने उस अबला को “ शाकिनी ' ठहराया, 
तो वहू मधुरभाषिणी (दमयन्ती) नल का स्मरण करने लगी ॥ २ 
व्यापारियों का अधिकारी बोला, “सब मिलकर इसे मारो।' तो वे 
(उसपर) दूट पड़े ॥ उन्होंने उस अबला को कुचल डाला । ३ पघूंसों 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ३४५ 


गडदा ने पाट हो, पहाणा ने लाकडी' 
एणी पेरे मारी हो, बाछा बे घीडी। ४ । 
रह्यूं बोलातं हो, कंठे कांटा पड़े 
बंधत तटये हो, नासती आखडे। ५ । 


हु वधुने देखी हो, पूर्वज लाजिया 
मुनि राखो हो, नेषध राजिया। ६ । 
त्ासे त्रासे हो, पाछुं फरी जुए, 
राजमार्ग हो, दमयंती रुए। ७ । 
अंगे ढीमां हो, रधिर धारा झ्नरे, 
बहु सह ऊठया हो, अवलोकन करे | ८ । 
उष्ण ज रेण हो, चरणे दाझे रे 
कलिपंंठे पडियो हो, देवा दःख काजे रे । ९ । 
नग्न एक आव्यं हो, अवछा ओहोलासी रे 
राज करे छे हो, भानुमती मासी रे। १०। 
पुरमां बेठी हो, आपत अवस्ता रे 
घेली जाणी को, लोक सहु हसता रे। ११। 
वाक॒क पूंठे हो, ताछी पाडे रे 
शे ढांके काया हो, रेणू उराडे रे। १२। 


और लातों, पत्थरों और लाठियों से वे उस बाला (स्त्नी) को दो घड़ी 
तक पीटते रहे । ४ (फलत:) उसका बोलना बन्द हुआ, गला (प्यास से ) 
सूख गया । उसका बन्धन् तो दूट गया, फिर भी वह भागते-भागते ठोकर 
खाकर गिरती जा रही थी । ५ (उसे जान पड़ा-- ) मुझ वधू को देखकर 
मेरे पूर्वज लज्जित हुए होंगे। (वह वोली-- ) है निषध-राज, मेरी रक्षा 
कीजिए ।६ इडरते-डरते वह पीछे मुड़कर देखती थी। राजमाग्ग में 
दमयन्ती रो रही थी । ७ उसके अंग-अग मे चकत्ते निकले थे, रक्त की 
घाराएँ बहती थी। बहुत साँंठे भी उभरीं थी। (इस स्थिति में) वह 
(इधर-उधर ) देख रही थी । ५ धूलिकण गर्म हो गये थे। उसके चरण 
जलने लगे थे। (इस प्रकार) उसे दु.ख देने के लिए कलि पीछे पड़ा 
था।९ (भागे जाने पर) एक नगर आ गया, तो वह अबला उललसित 
टी गयी । (वहाँ) उसकी मौसी भानुमती राज कर रही थी । १० वह 
उस नगर में (आकर) बेठ गयी । उसके लिए वह विपत्ति की अवस्था 
(स्थिति) थी। कोई-कोई उसे पगली समझ गये। सब लोग उसको 
हँसते थे। ११ तालियाँ बजाते हुए बच्चे उसके पीछे पड़ गये। वह 


३४६ गुजराती (नागरी लिपि) 


वैदर्भी वीली हो, शेरी चौटे फरे रे, 
नाखे कांकरा हो, कर आडो धरे रे। १३। 
छजे बैठी हो, मासी भानुमती रे, 
मोकली दासी हो, तेडाबवी सती रे । १४। 


वलण ( तर्ज बदलकर ) 
सती तेडावी राणीए, जई अबढा ऊभी रही रे, 
भाणेजे मासी ओक्रखी पण, मासीए भाणेज ओछखी नहीं रे । १५। 


2९०५: -ल क्‍ीनलीपिडनजीपीएन क्‍जमण है आज़ी न्‍ी-ी सील जी जी की नील जप न अनी जीन्‍नाओी न्‍ी सजी नर सफल नीयत 


अपने शरीर को कैसे ढाँक ले ? उस पर (लोग) धूल उछाल रहे थे । १२ 
वेदर्भी दमयन्ती लज्जित होकर गलियो में बोर चौराहों में घूम रही थी । 
लोग उसपर कंकड़ फेंकते, तो वह हाथ आड़े धरती थी। १३ उसकी 
मौसी भानुमती क्षरोखे में वंठी हुई थी। (उसे देखते ही) उसने भपनी दासी 
को भेजा और उस सती (दमयन्ती) को बुलवा लिया | १४ 

रानी ने उस सती को बुलवा लिया। वह जाकर (उसके सामने ) 
खड़ी हो गयी । भानजी ने तो मौसी को पहचाना, परन्तु मौसी ने भानजी 
को नहीं पहचाना । १५ 


फडवुं ४३ मुं--( दमयन्ती को अपनी मोसी फे यहां आश्रय प्राप्त होना ) 
राग गोडी 


दमयंती मंदिरमां पछे, आवास न भआण्या भांखडी तले, 
भानुमती जोई विस्मय हवी, कहे प्रेमदा कोणे परभवी ? । १ ॥। 
प्रभुता तारा तनमां रमे, भाग्यवान दीसे कां वन भमे ? 
छो रुद्राणी ब्रह्माणी के वैष्णवी, कोण कारण रूप धयु मानवी !। २ । 


अली जी ४ ७टपनी 3 लल लन्‍ली नील कलन नटी।. ल्‍ टीन अन्‍ीिल्‍ॉजल> नल >+ -> नििीीजाओ+ अमित जन ओणा, अजीज जाओ जी पल अिजिणडजल डी >> 62 ४ डा 


कड़पक--४३ ( दप्यन्ती फो अपनी भोसी के यहाँ आश्रय प्राप्त होना ) 


दमयन्ती उस घर के अन्दर गयी। उस निवास-स्थान (प्रासाद) 
को देखकर उसकी आँखें नही चौधियायीं। उसे देखकर भानुमती विस्मित 
ही ० । वह बोली, ' भरी प्रमदा, तुम्हें किसने दुःख दिया । १ तुम्हारे 
प्रीर में प्रभुता रम रही है। तुम भाग्यवाव दिखायी दे रही हो। फिर भी 
वन में क्‍यों घूम रही हो ? तुम रुद्राणी (भवानी, पार्वती) हो, ब्रह्माणी 
हो अथवा वैष्णबी (लक्ष्मी) हो ? किस कारण से तुमने मानवीय रूप 
धारण किया है? २ हे माता, तुम्हें लौकिक कष्ट घेरे हुए हैं। मुझे 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान ) ३४७ 


लौकिक कष्ट बेठो छो मात, कहो मन मूकी जथारथ वात, 
बाई हुं मानवी सर्वथा, कर्मजोगे भोगववी व्यथा। ३ । 
नरनारीए तीथ्थ॑जात्ना मांडी, अंतरियाक्त प्रभु गया छांडी,, 
तन जाणीए शुं दुःख मनसां धरी, निशाएं नाथ गया परहरी । ४ । 
कर्मकथा ए माता मारी, मासी कहे सांभक्त नारी, 
कहीं एक तुं दीठी छे खरी, जाणे भगिनीनी दीकरी। ५ । 
पण तेने नोहे अवस्था एवी, रूपे छे तूं दमयंती जेवी, 


सुखे रहे सदतमा सती, तुं मारे जेवी इंदुमती। ६ । 
सुबाहु मारो सुत जेह, बेच कहीने राखशे तेह, 
कहे दमयंती राखी माम, नहि करूं हुं नीचूं काम। ७ । 


दहाडी एक विप्रने आपुं अन्न, अने ह॒विष्यानत्ष करू भोजन, 
एवं सांभछी , हरख्यां राणी, राखी प्रेमदा ऊलट आणी । ८ । 
सत्ती नाम धरावी रही, दमयंती ओकछखाई नहीं, 
रात दिन करे नक्नूं ध्यान, विदेशी विप्रने आपे आमान। ९ । 


बल >त+ ढ ५७6 3५०3 3०323 3ल _ी5+ल अत 3लअ >> 9 5 





खले मन से यथार्थ (सच्ची) बात बता दो '। (यह सुनकर) दमयब्ती 
बोली, “हे देवी, मै पूर्णतः: (सचमुच) मानव-स्त्री हैँ। कर्मयोग मुझे 
व्यथा भोगवा रहा है। ३ हम पुरुष (पति) और पत्नी ने तीर्थ-यात्रा 
आरम्भ की। (परन्तु) बीच मे ही मेरे प्रभु (पति) छोड़कर चले 
गये। न जाने, मन में कौन दु.ख धारण करके मेरे पति मेरा परित्याग 
करके रात में ही चले गये । ४ है माता, मेरे कर्म (दुर्दंव) की यह कथा 
है । तो मौसी बोली, “ हे नारी, सुनो। सचमुच तुम्हें कही देखा 
है। जान पडता है, तुम मेरी भगिनी की कन्या हो । ५ परन्तु उसकी 
ऐसी स्थिति नहीं हो सकती। (फिर भी) रूप मे तुम (मेरी भानजी) 
दमयन्ती जैसी हो। हे सती, तुम इस घर में सुखपुर्वक रह जाओ। 
तुम मेरे लिए (मेरी कन्या) इन्दुमती जैसी हो। ६ सुबाहु नामक मेरा 
जो पुत्र है, वह तुम्हे बहिन की भाँति रख लेगा । ” तो दमयन्तो दृढ़ता 
धारण करके बोली, “ मैं कोई भी छोटा काम नही करूँगी । ७ प्रतिदिन 
एक ब्राह्मण को मैं भोजन दूंगी और (स्वयं) ह॒विष्यान्न भक्षण करूँगी ' | 
ऐसा सुनकर रानी आनन्दित हो गयी और उसमे उत्साह-उमंग के साथ उसे 
(अपने यहाँ) रख लिया । ५ वह 'सती ” नाम धारण करके रह गयी भौर 
“ दमयन्ती ” नाम से जानी-पहचानी नहीं जा रही थी। वह रात-दिन नल 
का ध्यान किया करती थी और एक परदेसी ब्राह्मण को कच्चा भोजन 
प्रदान किया करती थी।९ वह राह चलते साधु को बुलाया करती। 


३४८ गुजराती (नागरी लिपि) 


तेडावे टहेलियो वाट जतो, जाणे नक्ठ स्वामी थाय छतो, 
हविष्यान्न जमे ने अवनी सूए, देहदमन करी दिन खूए। १०। 
सांभक्के रे सुख त्यारे तन तपे, रातदिवस नक्वने जपे, 
एम घणा दिवस गया वही, कछिने मन चिता थई। ११। 
ततह॒थी मन चढ्ठे नही सती, तो केस वराय मारा वती, 
जो हेष आणे नकछ साथे, तो दमयती आवे हाथे। १२। 
कांई वत्ठी विपत पाडं, एने मासी साथे बढाडं, 
मासीनी कुंवरी इंदुमती, एक दिवसे नहाती हती। १३। 
दमयंती पासे ते समे, संग इंदुमतीने गमे, 
मोत्तीनो हार कंठेथी कहाडयों, भीतने टोडले वछगाड्यो । १४ । 
टोडलामां पेठो पापी कछ्ि, मुक्ताफछनी माक्ता गढ्ठी, 
इंदुमतीए मांडयो शणगार, जुए तो नव देखे हार। १५। 
अहरो पहरो ते खोलछयो घणं, विचायु ए कृत्य दासी तु, 
पूछयूं तेडीने एकांत, बाई तुज पर आवे छे शभ्रांत । १६। 


अल 5 +>ञ5ल 3 >> +>जअ+ + 4-3» 





उसे जान पड़ता कि (एक न एक दिन) उसके पत्ति नल प्रकट हो जाएँगे । 
वह॒ (प्रतिदिन) हविष्यान्न खा लेती थी और भूमि पर सो जाती थी। 
वह देह-दमन करते हुए दिन बिता रही थी । १० जब वह सुख की बात 
सुनती, तब उसकी देह ताप को प्राप्त हो जाती थी। वह नल का रात- 
दिन जाप किया करती थी । इस प्रकार वहुत दिन बीत गये, तो कलि 
को मन में यह चिन्ता अनुभव होने लगी । ११ -यह सती मन में नल से 
विचलित नही हो रही थी, तो फिर उसके द्वारा मेरा वरण कंसे हो सकेगा। 
(उसने सोचा-- ) यदि नल के प्रति उसके मन में द्वेष उत्पन्न होगा, तो 
दमयन्ती मेरे हाथ आएगी। १२ फिर कोई विपत्ति उत्पन्न कर दूंगा; 
इससे मौसी के साथ झगड़ा लगा दूँगा। मौसी की कन्या इन्दुमती एक 
दिन नहा रही थी । १३ उस समय दमयन्ती उसके पास थी। इन्दुमती 
को उसकी संगति अच्छी लगती थी । (तब इन्दुमती ने) मोतियों का 
हार गले से निकाल लिया और दीवार वाले खूंटे (टोड़े) पर लटका 
दिया । १४ उस खूंठे में पापी कलि पैठ गया ओर उसने मोतियों की 
माला को निगल डाला। इन्दुमती जब सिंगार सजने लगी, तो उसने 
देखा-- उसने हार नही देखा (पाया) । १५ उसने उसे इधर-उधर बहुत 
खोज लिया । उसने सोचा कि यह करनी इस दासी की है। (इसलिए) 
उसने उसे एकान्त मे बुलाकर पूछा (कहा- ), ' वाई, तुम पर सन्देह हो रहा 
है। १६ झट से ले आभो; तुमने माला कहाँ रखी है ?' (यह सुनते ही) 


प्रेमानन्द-रसाम्ृत ,(नलोपाख्यान ) ३४ 


लाव वहेली कक्‍्यां मृकी माका ? दसयंतीने लागी ज्वाला, 
बाई बेन, मा चडावो आकछृ ! पृथ्वी जाशे रसाताछ, 
जोई बोलवुं वदने वांक, स्वामी द्रोही पडे कुभीपाक | १७। 


वलण (तर्ज बदलकर ) 


क्रुंभीपाक पडे सर्वथा, साथ न बोले जेह रे, 
घेर राखी रंक जाणी, हशे कां आपो छेंह रे। १८। 


दमयन्ती (के मन) में आग जैसी लग गयी । (वह बोली-- ) “ हे देवी, है 
बहिन, (मुझपर) झूठा आरोप न लगाओ। पृथ्वी रसातल में जाएगी । 
देखकर ही मुँह से टेढ़ी बात बोलनी चाहिए। स्वामी से द्रोह करनेवाला 
कुम्भीपाक नरक में गिर जाता है । १७ 
जो सत्य नही बोलता, वह बिलकुल कुम्भीपाक नरक में गिर जाता 
है। मुझे रंक समझकर (तुम लोगों ने) अपने घर में रखा होगा। तो 
(हम तुम्हारे साथ) विश्वासघात क्‍यों करे '। १८ 


कडव्‌ं ४४ मुं-( इन्दुमती द्वारा दमयन्ती पर हार चुराने फा दोषारोप लगाना ) ' 
राग प्रजियो 


इन्दुमती कहे बाई सांभक्क, लोकने कां संभकावों 
कहे वेदर्भी वण चोरीए, शा मारे अकछावों ? । १॥। 
हाथमांहेथी हार लईने, ना कहे केस चाले ? 
तस्कर करीने तो बांधे, जो वस्तु हाथे झाले। २ । 
सिथ्या हु कहेती नथी, कोण माठ्ठा ले तुज पाखे ? 
एवी चोरटी हुं हुं तो, राजमाता केम राखे ? । ३ । 





अल >> तीज जा 


कड़वक- ४४ ( इन्दुसती हारा दसयस्तो पर हार चुराने फा दोषारोप लगाना ) 


इन्दुमती बोली, ' हे देवी, सुनो । लोगों को क्‍यों सुना (बता) रही 
हो। तो वेदर्भी दमयन्ती बोली, ' बिना चोरी के (चोरी न करने पर) 
किसलिए छेंडकर (मुझे) व्याकुल कर रही हो “(१ (इन्दुमती 
बोली-- ) “हाथ मे से हार लेकर “ना ” कह रही हो, यह कैसे चलेगा । ” 
(दमयन्ती बोली-- ) “ यदि वस्तु हाथ मे पकडी जाए, तो चोर की भाँति 
उसे बाँधते (पकड़ते) है ।२ (इन्दुमती बोली-- ) * मैं झूठ नही बोले 


३५० गुजराती (चागरी लिपि) 


माता मारीए मान दीधुं, सती सरखी जाणी, 
असाधवी मुंने केम ओछ्खी ? शां लेतां ग्रह्मों छे पाणि ? । ४ । 
अमे परीक्षा तारी करी, जो भरथारे परहरी, 
बाई हुं मेणां जोग थई, तमारा घरती पेटभरी। ५। 
चोरी करवी आंख भरवी, ए तो क्यांनो न्याय ? 
एवे राजमाता पधार्या, रोई बन्ने कन्याय। ६ । 
आप आपणुं दुःख कहे, माताने नयणे ढाछी आंसु, 
एक कहे मारो हार लीधो, एक कहे चोरी फांसु। ७ । 
चतुरशिरोमणि राजमाता,  अंतरमां विमासे, 
माका गई ते मोटुं अचरज, सतीने केम कहेवाशे 7 । ८ । 
तुं तो देवी जेवी दीसे, छे नारायणनी दास, 
आपो हार क्लेश निवते, जो कीधूं होय हास। ९ । 
सरखे सरखामां होय कौतुक, आपो हार मोती तणो, 
राजकुंवर रिसाक्त घणूं छे, जाणे थशे क्लेश घणों। १०। 


> जिला 


रही हूँ । तुम्हारे सिवा, माला कौन ले सकता है ? ” (दमयन्‍्ती बोली- ) 
/ (यदि) मैं ऐसी चोरनी होती, तो राजमाता मुझे क्‍यों रख लेती ? ३ 
(इन्दुमती वोली-- ) “मेरी माता ने तुम्हें सती जेसी जानकर आदर-सम्मान 
प्रदाव किया !। (दमयन्ती बोली--) “ तो मुझे असाध्वी कैसे जाना ? क्‍या 
हार लेते हुए मेरा हाथ पकड़ा है ? ”'४ (इन्दुमती बोली- ) “ हमने 
इससे तुम्हारी परीक्षा की कि तुम पति द्वारा परित्याग की हुई हो। 
(दमयन्ती बोली-- ) ' हे देवी, मैं तुम्हारे घर की पेट पालनेवाली दासी 
ठहरी-- मैं ताने देने योग्य हो गयी '। ५ (इन्दुमती बोली-- ) “चोरी 
करना और (तिस पर) आँखें भर लेना -यह तो कहाँ का न्याय है ? 
उस समय राजमाता (वहाँ) पधारी, तो वे दोनों कन्याएँ रोने लगी। ६ 
बाँखों से आँसु बहाते हुए वे माता से अपना-अपना दुःख कहने लगी। 
एक ने कहा-- “ (इसने) मेरा हार लिया है '। तो एक ने कहा, ' (यह) 
चोरी का फन्दा है ध। ७ राजमाता चतुर-शिरोमणि थी। वह मन में 
सोचने लगी। माला (खो) गयी, यह बड़ा आश्चर्य है। (फिर भी। 
सती को किस प्रकार (चोर) कहा जाए ।5 (वह बोली--) ' तुम तो देवी 
जेसी दिखायी दे रही हो। भगवान नारायण की दासी हो। यदि 
हँसी-ठठोली की हो, तो हार दे दो-- (उससे) क्लेश का निवारण हो 
जाएगा । ९ सम-समान में हँसी-ठठोली होती है। मोतियों का हार दे 
दो। यह राजकन्या बहुत क्रोध करनेवाली है। जान पड़ता है, इससे 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ३५१ 


माका होये आपणा घरनी, तो फरी शोध नव कीजे, 
छे श्वसुरपक्षनी सर्वे जाणे, तेने शो उत्तर दीजे 7 । ११। 
हृंदे फाटते कहे दमयंती, अपवाद दीधो एवो, 
हां हां बाईजी, हार तमारो, लीधो छे में देवो। १२। 
न घटे राजमाताजी तमने, दुःख देवुं घर राखी, 
अमो न होउं॑ चोरी करनारा, छोौ जशना अभिलाखी | १३। 
इंदुमती कहे आंपे छठशो, शो शोर करवो ठालो, 
माका मारी करमां मंको, जो जश होये वहालो। १४। 
सेवक सखीओ एम कहे छें, एणीए माक्ता लीधी, 
मारो बांधो ताणो पछाडो, अबढछा आकछी कीधी। १५। 


वलण ( तजें बदलकर ) 


कीधी ए निश्चे चोरटी, राजमाताएं जणावी रीस रे, 
दमयंती दुःख पामी घणूं, पछे समर्या जगदीश रे। १६। 
बड़ा क्लेश (उत्पन्न) हो जाएगा। १० माला (यदि) अपने घर की हो, तो 
फिर खोजन करें। (परन्तु) यह तो ससुराल पक्ष की है -यह सब 
जानते हैं। उन्हें क्या उत्तर दे '। ११ तो दमयन्‍्ती हृदय को फाडते हुए 
बोली, ' तो इतना (बड़ा) दोष (लगा) दिया है। हाँ, हाँ, देवीजी, मैने 
तुम्हारा हार लिया है-- मुझे वह देना है । १२ है राजमाताजी, ,मुझे 
अपने घर में रखकर दुःख देना आपके लिए उचित नहीं है। मैं चोरी 
करनेवाली नही हूँ-- मैं यश (कीरति) की अभिलाषिणी हूँ '। १३६ (यह 
सुनकर) इन्दुमती बोली, * (लौटा) दोगी,.तो छूट जाओगी। क्यों व्यर्थ 
हो शोर मचा रही हो ? यदि तुम्हे यश प्यारा हो, तो मेरी माला मेरे हाथ में 
रख दो । १४ सेवक और सखियाँ ऐसा कह रहे है कि इसी ने माला ली 
है। इसे. मारो, बाँध लो, घसीट लो, पटक दो “'। इस प्रकार उन्होंने 
उस अबला (दमयच्ती) को डराकर आकुल-ब्याकुल कर दिया । .१५ । 

राजमाता ने क्रोध दिखाया (और कहा-- ) ' निश्चय ही इस चोरनी ने 
चोरी की है '। (यह सुनकर) दमयन्ती बहुत दुःख को प्राप्त हुई। 
अनन्तर उसने जगदीश भगवान्त का स्मरण किया । १६ 


ढ3-न ४ िली जल 








4 


३५२ गुजराती (नागरी लिपि) 


कडवूं ४५४ सूं--( फलि के प्रभाव से वसयन्ती का मुक्त हो जाना ) 
राग मारु 


हो हरि सत्यतणा संघाती, हरि हुं कहींये नथी समाती, 
हरि मारे कोण जन्मना करतुं ? प्रभु चोरी थकी शुं नरतुं ? । १ । 
हरि हुं शा माटे दुःख पामुं ? प्रभु जुओ हुं रांकडी सामुं, 
हरि तमे ग्राहथी गज मुकाव्यो, तो हुं उपर शो रोष आव्यो ? । २ । 
हरि हुं नथी दुःखनी धीर, तमे छो विपत समेता वीर, 
हरि तमे मन अपराध न लावो, हरि तमे अनाथ बंघु कहावो । ३ । 
हरि हुं हरखे हणाई, हरि हुं चोरटीमां गणाई, 
हरि हुं केनी ने कोण तणी ? हरि जुओ हुं रांकडी भगी । ४ । 


जीबी अी>ली+3 355 + + + +- 


फड़वफ--४५ ( फलि के प्रभाव से दमयन्ती फा मुक्त हो जाना ) 


“हे हरि, आप सत्य के साथी है। है हरि, मैं कहीं भी नही समा 
पा रही हूँ (मुझे कही भी अनुकूल ठौर नहीं मिल रहा है) । है हरि, मेरे 
किस जन्म का किया हुआ यह कर्म है ? हे प्रभु, चोरी (के दोषारोप) से 
(अधिक) वुरा क्‍या है। १ हे हरि, मैं किसलिए दुःख को प्राप्त हो रही 
हूँ ? हे प्रभु, देखो, मै रंक (दीन आपके ) सामने हूँ । हे हरि, आपने हाथी 
को ग्राह (मगर) से छुड़ा लिया। फिर मुझ पर आपको कंसा क्रोध आा 
गया ? २ है हरि, मैं दुःख से धीरज धारण नही कर सकती हूँ। आप 
ही मेरे विपत्ति के समय के बन्धु है। हे हरि, आप मेरे अपराध को मन 
मे न लाइए (उसपर ध्यान न दीजिए)। है हरि, आप अनाथो के बच्धु 
कहाते है। ३ मैं हर से मारी गयी हूँ (इनसे मिलने से पहले हर्ष हो 


१ हाथी और ग्राह-- जय-विजय नामक कर्देम प्रजापति के देवहूती से उत्तन्न 
पुत्र थे। वे बड़े विष्णु-मक्त और यज्ञ-कर्म मे निपुण थे। एक समय मरुत राजा के 
यज्ञ को सम्पन्न करने के पश्चात दक्षिणा के बँटबारे के विषय में उनमे विवाद हुभा, तो 
जय ने विजय को क्रोध-पूर्वक * हाथी ” बन जाने का अभिशाप दिया, तब विजय ने जय 
को अभिशाप दिया-- तुम “ ग्राह (मगर) ” बनोगे। परल्तु वे दोनो पदचात्ताप-दग्ध होकर 
भगवान बिष्णु की शरण मे गये, तो उन्होने उन्हे यथासमय उपरोक्त शाप से मुक्त करने 
का अभिवचन दिया । अनन्तर विजय रूपी हाथी गण्डकी नदी के तट पर भौर जय रूपी 
ग्राह उस नदी में रहने लगे। कात्तिक मास में जब गज स्नान के लिए नदी में 
उतरा, तो ग्राह ने उसका पैर पकड़कर अन्दर खीचा। उस समय गज ने रक्षा के 
लिए भगवान विष्णु को पुकारा, तो उन्होने अपने भक्त की रक्षा के लिए आकर 
सुदर्शन चक्र से ग्राह को मार डाला और गज की रक्षा की । इस प्रकार वे दोनो एक- 


के ह अभिशाप से मुक्त हुए। इस प्रकार भगवान विष्णु शरणागत की रक्षा 
कर | 


प्रेमानन्द-रसामृत (बलोपाख्यान) ३४१ 


हरि हुं तारी सेवा चूकी, तो नक्के वनमां सूकी, 
हरि में विप्र न पृज्या हाथे, तेथी शूं तरछोडी नाथे ? । ५ । 
हरि में शिव न पृज्या जछे, तो शृं. रोती मृकी नछे ? 
हरि दोहले उदर भरव्‌ं, हरि मुजने घटे छे मरवुं । ६ । 
हरि हुं भरतारे छांडी, हवे दुःख कहुं कोने मांडी ? 
हरि में कोण पातक कीधां ? हरि में साधुने मेणां दीधां । ७ । 
हरि में राख्यूं होय सत्य, हरि वहाला होय नक् पत्य, 
मारा कोटिक छें अवगुण, पण तमो तो छो रेनिपुण। ८ । 
अपराध सर्वे विसारी, चडो बिद्युला वहारे मारी, 
जो नहीं आवो जगदीश, तो प्राण मारो हुं तजीश। ९ । 
एवं कहीने आंखे भयु जकू, अमो अबछा तणुं शुं बढ ? 
एवं मना धरियुं ध्यान, सतीनी वारे चडया भगवान | १०। 
अंतरजामीए बुध दीधी, सतीए भाँख रातडी कीधी | 
कहे मासीने करी क्रोध, फरी करो हारनी शोध | ११॥ 


गया था)-- अब मैं दुःख को प्राप्त हुई हें । हे हरि, (अब) चोरतियों में मेरी 
गिनती की गयी है। हे हरि, मैं कोन हूँ और किसकी हूँ ? हे हरि, मुझ 
रंक की ओर देखिए। ४ हे हरि, मैं आपकी सेवा (करने) से चूक गयी 
हैँ, (इसलिए) तो नल ने (मुझे) वन में त्यज दिया है। हे हरि, मैंने 
अपने हाथों ब्राह्मण का पूजन नही किया (हो), क्या उससे मेरे पति ने 
मेरा परित्याग किया है ? ५ है हरि, मैने पानी में (खड़ो होकर) 
शिवजी का पूजन नही किया, क्या तो (इसलिए) नल ने मुझ रोती हुई 
को त्यज दिया ? है हरि, कष्ट-पूवंक मुझे पेट भरना है। है हरि, मुझे 
मर जाना उचित है । ६ हे हरि, मैं पत्ति द्वारा छोड़ी गयी हूँ। अब मैं 
अपना हि ठीक से किससे कहूँ? हे हरि, मैने कौन पाप किये हैं ? हे 
हरि, मैंने साधुओं को ताने सुनाये हों। ७ है हरि, मैंने अपने सत्य का 
निर्वाह किया हो, तो है हरि, मेरे पति नल मेरे लिए प्रिय होगे। मेरे तो 
करोड़ो अवगुन है। फिर भी आप तो निपुण हैं (उन अवगुनों की ओर 
ध्यान न देनेवाले, समझदार हैं) । 5. मेरे समस्त अपराधों को भूलकर हे 
विदृबल, मेरी सहायता करने के लिए आ जाइए । हे जगदीश, यदि आप 


३५४ गुजराती (नागरी लिपि) 


साखी सूरज विष्णु ने वाय, जो में कीधो होय अध्याय, 
बाई हार तमारो जडजो, लेनसारो फाटी पडजो। १२। 
एवु कहेतामां कछिजुग नाठो, त्यारे तडाक टोडलो फाट्यो, 
मांहे थकी पड़यो नीसरी हार, सतीने तृढया विश्वाधार | १३ । 
अंतरिक्षथी अकस्मातू, वरस्यो हारतणों वरसाद, 
एक एक में अदकां मोती, राजमाता टगठग जोती | १४। 
पछे दमयंतीने पागे, राजसाता फरी फरी लागे, 
बाई, तूं छे मोटी साध, मारो क्षमा करो अपराध, 
इंदुमती थई ओशियाढी, मुखडं न देखाडे वाढ्ी । १५। 


वलण ( तज्े बदलकर ) 


वाढ्दली मुख देखाडे नहीं, सत सतीनुं रह्यूं रे, 
बृहदश्व॒ कहे युधिष्ठिरने, वेदभे देशर्मां शुं थयं रे। १६। 


अन्तर्यामी भगवात ने उस सत्ती को यह बुद्धि दी (यह बात सुझायी ) । 
(रो-रोकर) उसने आँखों को लाल कर दिया था। (भगवान्त द्वारा 
प्रेरित होकर) वह मौसी से कोध्त-पूवेंक बोली, “ हार की फिर से खोज 
करो । ११ यदि मैंने कोई अन्याय किया हो, तो उसके लिए सूरये, 
भगबान विष्णु और वायु साक्षी है। है देवी, तुम्हारा हार मिल जाए, 
(और) लेनेवाला टूटकर गिर जाए'। १२ ऐसा कहते ही कलियुग भाग 
गया, तब तड़तडाहट के साथ वह (दीवार वाली) खूंटी फट पड़ी। 
उसके अन्दर से निकलकर हार (नीचे) गिर पड़ा। विश्व के आधार 
(-भूत) भगवान सती पर प्रसन्न हो गये | १३ तो अन्‍्तरिक्ष मे से 
अकस्मात हारों की बौछार हो गयी । एक-एक हार में बहुत 'अधिक 
मोती थे। राजमाता (इस चमत्कार को) टक लगाये देखती रही । १४ 
अनन्तर वह राजमाता दमयन्ती के बार-बार पाँव लगी । (वह बोली-- ) 
' है देवी, तुम वडी साध्वी हो। मेरे अपराध को क्षमा करो । 
इन्दुमती लज्जित हुई-- वह अपना मुँह ढँककर नही दिखा रही थी । १५ 
अपने मूंह को ढेककर वह दिखा नहीं रही थी। (इस प्रकार) 
सती का सत्य (सुरक्षित) रह गया। बृहदश्ब ने युधिष्ठिर से कहा-- 
(तब तक उधर ) विदर्भ देश मे क्‍या हुआ ? (सुनिए) । १६ 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ३५५ 


फडवु्‌ं ४६ मुं--( बालकों को लेकर सुदेव और बमयच्ती की सखियों का 
पमोसक के पास भा जाना ) 


राग देशाख 


बृहदश्वजी कहे कथा रे, सुणो धर्म भृपाछ, 
सुदेव सांचयों रे, लेईने ते बच्चे बाकह। १ । 
माधवी केशवी रे, सखी दमयंतीनी जेह, 
शोभे साहेलडी रे, जेम प्राण विहोणी देह। २ । 
कुंदनपुर आविया रे, ऋषि, सखी ने सुत, 
देखीने दोहेलां रे, भीमके जाण्यूं थयूं भक्कुत। ३ । 
छोरुू छेह पामियां रे, राये ह॒ृदयाशूं लीधां, 
माबापे सृक्िियां रे, दीसे दामणां बीधां। ४ । 
सुदेव शोके भर्यो रे, दुःखे दाधी दासीनी जोडी, 
मीठे मीठ मी रे, मोटे स्वर रुदन सूृक्‍यां छोडी। ५ । 
जातां जामातने रे, जाण्यू जोगी थईने जावूुं, 
सजन  सांभयु रे, मांड्यूं. नकना ग्रुणनूं. गावुं। ६ । 





कड़वक-- ४६ ( बालको को लेकर सुदेद और दमयन्‍्ती की सखियों फा भीसक् के 
पास आ जाता ) 


बृहदश्वजी (नल-दमयन्ती की) कथा कह रहे थे। (वे बोले-- ) हे 
राजा धर्म, सुतिण। उत दो बच्चों को लेकर सुदेव चले । १ दमयन्ती की 
माघवी और केशवी नामक जो सखियाँ थी, वे दोतो बसे ही (कम) 
शोभायमान (अर्थात निस्तेज) थी, जैसे प्राण-विहीन देह हो। २ ऋषि 
(सुदेव), सखियाँ और 'वे पुत्र कुन्दमपुर आ गये। उनके दुःखो को 
देखकर भीमक को जान पड़ा कि कुछ पाप (अनुचित) बात हो गयी है। ३ 
ये बच्चे विश्वासघात को प्राप्त हो गये है; (यह सोचकर) राजा (भीमक) 
ने उत्हें हृदय से लगा लिया । (वे बोले-- ) “ भरे इन्हें माँ-बाप ने छोड़ 
दिया है। ये पराधीन तथा घबराये हुए दिखायी दे रहे है '। ४ सुदेव 
शोक से भरे-पूरे हो गये थे। दासियों की जोडी दुःख (कौ आग) में 
जल रही थी। उनकी दृष्टि से दृष्टि मिल गयी, तो वे उच्च स्वर मे 
रुदन करने लगी।५ जामाता के (इस प्रकार) चले जाने को उन्होंने 
उनका जोगी बनकर जाना ही समझा । फिर' उसे स्वजन (आप्त जन) 
का स्मरण हुआ, तो वह नल का ग्रुण-गान करने लगी । ६ वज्ञावती ने 


३५६ गुजराती (नागरी लिपि) 


पूछे वज्ावती रे, बोलों सुता साहेली, 
दीकरी क्यां गई रे, बे बाक॒कडांने मेली। ७ । 
ताथ नेषधतणो रे, गयो माया उतारी, 

सुदेवे वार्ता रे, भूपने करी विस्तारी। ८५ । 
विलपे विदर्भपति रे, निश्वासे सागर सूके, 
भीमकनी भामिनती रे, बालक हृदेथी नव मूके। ९ । 
कुटुम्ब. टोछे मकी रे, भूमि स्वयंवरनी नीरखे, 
दमयंतीए हां नक वर्यो, हींड्यानां पगलां परखे। १०। 
राणी कहे रायजी रे, फरी शोध पृज्यनी कीजे, 
जमाईजी नव जडे रे, तो आपण जोगवटो लीजे। ११। 
शोधी काढो सर्वथा रे, जो मारुं जीववबुं जाणो, 
दीकरी मल्तया विना रे, मुखे नव मूकुं जछ दाणों। १२। 
भीमके मोकल्या रे, सेवक सहख्न एक, 

खप करी खोछजो रे, कहाडजो क्षिति केरो छेक। १३। 
ऊडती वार्ता रे, भीमके सांभल्ी कान, 
दमयंती एकली रे, नके रोती मूकी रान। १४। 
ते कक मिलश कि मटका पीकर पे कह ललि कक कील अर आह के पक कक 
पूछा ” (कहा) 'हे कन्या की सहेलियो, बोलो, दोनों बच्चों को तुम्हे मिलाकर 
(देकर) कन्या (दमयन्ती) कहाँ गयी ? ७ निषघध देश के स्वामी माया 
(ममता) छोड़कर चले गये ”। तो सुदेव ने विस्तार-पूर्वक राजा 
(भीमक) से समाचार कहा। ८५ विदर्भ-पति भीमक विलाप करने लगे। 
उनकी (साँस-) उरसाँस से समुद्र (मानो) सूख जाने लगा। भीमक की 
स्त्री (बज्ावती) उत बालकों को हृदय से दूर नहीं कर रही थी। ९ 
परिवार के लोग टोली-टोली में मिलकर स्वयंवर की भूमि को देखने लगे। 
€ दमयन्‍्ती ने यहाँ नल का वरण किया ” --(यह कहकर) उसके (चलते 
समय के) चरणों (के अकित चिह॒नों) को परखने लगे। १० रानी 
बोली, “ है राजाजी, पूज्य (दामाद नल) की फिर से खोज कर लीजिए। 
यदि दामादजी नही मिले, तो हम संन्यास ले । ११ यदि मेरा जीवित 
रहना जानना (देखना) चाहते हो, तो उन्हें सब प्रकार से खोज निकालिए । 
बिना कन्या के मिले, सै मुँह मे जल-दाना नही डालूंगी '। १२ (अनन्तर) 
भीमक ने एक सहख्न सेवको को भेज दिया। (वे बोले- ) “ यत्लपूर्वक 
ढूँढ लो, धरती के छोर (अन्त) तक उन्हे खोजकर निकाल लो + १३ 
भौमक ने यह उड़ती खबर कानों से सुनी कि नल ने रोती हुई दमयन्ती 
को वन में अकेले छोड़ दिया । १४ बतजारों ने कहा, “ हमने उसे नदी के 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ३५७ 


वणजारे कहयूं रे, अमे दीठी सरिताने तीर, 
रूप घणं हतूं रे, जाण्यूं शक्तिनूं,. शरीर। १५। 
केश छटा हता रे, वस्त्र ते अड॒धं अंग जाण, 
वात खरी मछी रे, वदती हती नकछ नक् वाण। १६। 
माता विलपे घणूं रे, दुःखे दीधूं अंतःकण, 
मेकावो क्‍यां हशे रे, दीकरी खडी पामशे मर्णं। १७। 
व्जावती मातने रे, नीर आवबे नेण अषाड, 
पुत्नीनी शोधवा रे, सुदेवने चडाव्यो पाड। १८। 
वलण ( तर्ज बदलकर ) 
पाड चडाव्यो सुदेवने, कहे राणी ने राय रे, 
गुरुजी तम विना अथे न सरे, एम कही लाग्या पाय रे। १९। 





तीर पर देखा था। उसका रूप बहुत (अच्छा) था। हमने उसे शक्ति 
(देबी) का शरीर, अर्थात उसे शरीरधारी शक्तिदेवी समझा। १५ 
उसके केश शोभायमान थे; समझिए कि वस्त्र तो आधे शरीर पर था। 
बात सच्ची मिल गयी (निकली )-- वह वाणी अर्थात मूँह से “नल ', “नल 
बोल रहो थी। १६ माता (वज्रावती) बहुत विलाप कर रही थी। 
दुःख से अन्तः:करण जल रहा था। (वह बोली-- ) “ मुझसे (कन्या) 
मिला दो। वह कहाँ है ? मेरी कन्या व्यर्थ ही भ्रमण करते हुए थककर 
मृत्यु को प्राप्त हो जाएगी ' । १७ माता वज्ञावती के नयनों में आषाढ़ 
की वर्षा का-सा अश्वुजल आ रहा था। (वह बोली-- ) हमने पुत्नी को 
खोज निकालने के हेतु सुदेव के उपकार स्वीकार किये है (हम सुदेव के 
ऋणी है) । १८ 

रानी और राजा ने कहा, “हम सुदेव के ऋणी है। है गुरुजी, 
बिना आपके हमारा हेतु सिद्ध नही होगा '। ऐसा कहते हुए वे (दोनों ) 
उसके पाँव लगे । १९ 


फडवुं ४७ सूं--( सुदेव हारा दमयन्ती फा पता लगाना ) 
राग रामग्री 


ब्राह्मण चाल्यो अनुचर वेश जी, अटण करतो देशदेश जी, 





कढ्छा पाडी वरवूं गात्न जी, जीर्ण वस्त्र ग्रह्यूं तुंबीपात्न जी। १ । 


त> 





क्ड़वक-- ४७ ( सुदेव द्वारा दसमग्ती का पता लगाना ) 
ब्राह्मण (सुदेव) चला। उसका वेश अनुचर (सेवक) का-सा था। 


३४५८ गुजराती (तागरी लिपि) 


ढाछठ 


पात्त करमां रहित जोखम, ज्येष्टिका जी्ण वसन, 

दुःखी दरिद्री सरखो देखीएं, जद्यपि छे संपन। २ । 
नीरखे ओवारा नवाणना, ज्यां नीर भरती वार, 

जोयां जूथ जुबती तणां, पण ने जडी भीमकुमार। ३ । 
तीथंजात्ना जगन जाग्रण, ज्यां स्त्रीओनो संवाय, 

अजाण्या थई जुए ब्राह्मणमण शीश धृणीने जाय। ४ । 
पे अटण रसनाएं रटण, मुखे दमयंतीनुं नाम, 

एम करता सुदेव आव्यो, राजमाताने गाम। ५ । 
विप्र पुर्मा आवियो, वधामणी पाम्यो तर्त, 

सांभछयूं,. जे राजमाता, ऊजवे छे वतें। ६ । 
पूर्णाहत्ति वेढा हुती, जोवा मढयां बहु जन, 

दासी साथे दमयंती, करे पंथीनूं दर्शत। ७ । 
वह देश-देश में भ्रमण करने लगा । उसने अपने शरीर की कान्ति बदल 
दी; शरीर विरूप (बेडौल) कर दिया। उसने फटा-पुराना वस्त्र धारण 
किया और (हाथ में) तूंबीपाज़ लिया । १ वह हाथ में एक पात्र लिये 
हुए था, (जिसके खो वा नष्ट होने पर) हानि का कोई डर नहीं था । 
पास में एक लाठी थी! उसका (पहना हुआ) वस्त्र फठा-पुराना था। 
यद्यपि वह (धन-) सम्पन्न था, तथापि वह दुःखी, दरिद्र जैसा दिखायी दे 
रहा था। २ वह (चलते समय) जलाशय का किनारा ध्यान से देखता, 
जहाँ स्त्रियाँ पानी भरती थी। उसने (ऐसे स्थलो पर) युवतियों की 
टोलियाँ देखी, फिर भी उसे भीमक-कुमारी दमयन्ती नहीं मिली। ३ 
तीर्थयात्रा, यज्ञ-्याग, (ब्रत आदि के निमित्त किया जानेवाला) रतजगा 
(आदि के स्थानों पर) --जहाँ स्त्रियों का समुदाय होता है, अचजान बनकर 
वह॒ ब्राह्मण देखता था। परन्तु (दमयन्ती के न मिलने पर) वह सिर 
धुनकर (वहाँ से) चला जाता था । ४ पाँवो से भ्रमण, जिह्वा से भगवान 
के नाम की रट, मुंह में दमयन्ती का नाम लेना चल रहा था। इस प्रकार 
करते-करते सुदेव राजमाता (भानुमती) का ग्राम आ गया । ५ वह विग्र 
उस नगर से आ गया; तो उसे तत्काल शुभ समाचार प्राप्त हुआ। उसने 
सुना कि राजमाता ब्रत का समापन करने जा रही है। ६ पूर्णाहुति की 
वेला हो गयी थी। उसे देखने के लिए बहुत लोग (स्त्री-पुरुष) इकद्‌ठा 
हुए थे। (वहाँ) दासी के साथ दमयन्ती ने उस पथिक (ब्राह्मण) की 
दर्शन किया ।७ वह अपूर्व (पहले कभी न देखे हुए) मनुष्यों का दर्शन 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) श्श८ 


अपूर्व॑ मनुष्यनूं करे दर्शन, नीरखे नरनी काय, 
विचार एवो वेदर्भनी, आवी मछे. नकछराय। ८ । 
वेद अध्ययन करे वाडव, अभिषेक आशीर्वाद, 
किकरी बहु गीत गाये, होय भेरी नाद। ९ । 
दीक्षा लेई सुबाहु, बेठो तेजस्वी जन, 
हुतद्रव्य होमाये विविध पेरे, धूम्र गयो रे गगन। १० । 
दान आपे गाय सवच्छी, राय भर्यो अहमेव, 
जगन  केरा कुंडनी आग, आवी रह्यो सुदेव | ११। 
देह दु्बंछ रेणुए भर्यो, ज्येष्ठिकाए तुंबी भराव्यूं, ' 
सभा सर्वे खडखड हसी, आ रत्त क्यांथी आव्युं ? | १२। 
जग्नमंडप जोयो नहीं, नहीं जोयो दीक्षित नरेश, 
घेलो ज शो आव्यो धस्यो, सर्वने मारे ठेश। १३। 
लोक कहे हो घेलिया, टहेलिया अंतरना अंध, 
भिक्षुक भ्रष्ट विकल्त दृष्ट ? शो स्त्री साथे संबंध ? । १४। 
कर रही थी। वह पुरुषों के शरीर को ध्यान से देखती थी। वेदर्भी 
दमयन्ती का (इसमें) यह विचार (अनुमान) था कि नलराज (यहाँ पर) 
आकर मिलेंगे। ८ ब्राह्मण वेदों का अध्ययत (पठन) कर रहे थे। 
अभिषेक चल रहा था। आशीवेचन कहे जा रहे थे। अनेक दासियाँ 


गीत गा रही थी। भेरियों की ध्वनि हो रही थी।९ तेजस्वी पुरुष 


सुबाहु दीक्षा ग्रहण करके बैठा हुआ था। विविध प्रकार से होम-द्वग्यों का. 
हवन किया जा रहा था। घुआँ आकाश की ओर जा रहा था। १० 
राजा ने सवत्स घेनु दान में दी। वह अभिमान से भरा हुआ था। 
(उस समय ) सुदेव यज्ञ के कुण्ड के सामने आकर ठहर गया । ११ उसकी 
दुर्बल देह धूलि से भरी हुई थी। तूंबी को उसने अपनी लकुटिया से भर 
दिया था (तूंबी लकुटिया के अग्र से लटकायी थी)। उसे देखते ही सभा खिल- 
खिलाकर हँसने लगी। (सभाजनों को लगा-- ) यह रत्न कहाँ से 
आया । १२ इसने न यज्ञ-मण्डप को देखा, न दीक्षा ग्रहण किये हुए नरेश 


. को। यह कैसा पगला धेँंसकर आ गया है। उसने सबको ठोकर 


लगायी है (सबको ठुकराता हुआ वह अन्दर आ गया है) । १३ लोग 
बोले, ' अरे पगले, अरे (इधर-उधर) घृमनेवाले साधु ! तुम अन्दर 
के अन्धे हो। तुम क्या (पथ-) भ्रष्ट भिक्षु हो ? तुम्हारी दृष्टि (क्या) 
विकल (धुंधली) हो गयी है ? तुम्हारा इन स्त्रियों से क्या सम्बन्ध है | १४ 
उसने किसी को कही नही सुनी । उसको देह में कष्ट हो रहा था। उस 


. समय सुदेव और दमयस्तों की दृष्टि (से दृष्टि) मिल गयी । १५ नयनों 


३६० गुजराती (नागरी लिपि) 


कटयूं. कोने नव सॉभिढे, छे. कलेवरमां कष्ट, 
एव. सुदेव ने दमयंतीनी,  मछ्ली दुष्टे दृष्ट | १५। 
निमेप थाती रही नयणे, विचारमां पड़या बेह, 
मारे पियेरथी पधारियों, सुदेव साचोी एह। १६ | 
विप्र को विदर्भनी ए, नानपण सध्य नेह, 
मांहोमांहे. जोया करे, सर्वेने थयो. संदेह । १७। 
गुसए गोरी ओछखी, जदड़युं अवछानूं.. एंधाण, 
भामिनीना भाल उपर, विधिए नीम्यों भाण। १८। 
अगोप  राखती मासी मंदिर, केश 'केरी लट, 
खसी वेणी सूरज झलकक्‍यों, हृदे भरायूं ऊलट | १९ | 
समीप भाव्यां. सामसामां, नेत्नजछ जेम नेव, 
साथे वंन्यो वोलियां, हो दमयंती हो सुदेव | २० । 


बलण ( तर्ज बदलकर ) 
सुदेव-दमयंती मक्ूयां, धरणी ढक्कयां मूर्व्छा ह॒वी रे, 
सभा सर्व विस्मय थई, आ तो वार्ता दीसे नवी रे।२१। 


की पलकें (वैसी ही) ठहर गयी (वे अपलक देखते रहे) । वे दोनों 
सोच-विचार में (असमंजस में) पड़ गये। (इमयन्ती को लगा--) ' ये 
मेरे पीहर से पधारे हैं। ये सचमुच सुदेव है। १६ ये कोई विदर्भ के 
ब्राह्मण हैं। वचपन में इन्हें (मेरे प्रति) स्नेह था '। वे (दोनों) 
परस्पर. देखते रहे, तो सबको सन्देह हुआ | १७ गुरुजी को (जब) उस 
सत्नी का परिचय देनेवाला चिहन मिल गया, तो उन्होंने उस गोरी को 
(दमयब्ती को) पहचान लिया। उस भामिनी के भाल पर विधाता ने 
सूर्य (-सा चिह्न) बना लिया था। १८ ।ैंहें अपनी मौसी के घर में 
वालों की लटों से उस (चिह्न) को ( छिपाते हुए) भदृश्य बनाये रखती 
थी। (तब) बैनी नीचे की ओर आ गयी, तो वह सूर्य (-चिटटन) 
झरलकने लगा, तो (यह देखकर उस ब्राह्मण के) हृदय को उल्लास ने रा 
दिया । १९ वे दोनों (एक-दूसरे के) आमने-सामने आ गये । आँखों से 
ओशती में से गिरनेवाले पानी जैसा अश्ुजल बहने लगा। सात ही 
(तत्काल) वे दोनों बोले, ' हे दमयन्ती ! ', ' है सुदेव । २० 

, सुदेव और दमयन्ती (एक-दूसरे से) मिल गये। (तब ) दमयन्ती 
मूब्छित हो गयी और धरती पर गिर गयी। तो सभा विस्मय को श्राप्त 
हुई। (उन्हें लगा-- ) यह बात तो नयी दिखायी (अनोखी, अपूर्व) दे 
रही है । २१ 


प्रेमानन्द-रसामृत (चनलोपाख्यान ) ३६१ 


कडवुं ४८ मुं--( सुदेव हारा दसयस्ती का परिचय देना ) 
राग वेराडी 
मृच्छाथी महिला जागी, पूछयूं गोरने पागे लागी, 
शके छो घरना मुनि, हा दीकरी कां तुं सूची ? । १ । 
दुर्बेढ७' कोण कारणे ? दासी मासीने बारणे, 
ओछ्खी नहीं तुने माडी, में देहनी कछा पाडी। २ । 
शूं मासीए दुःख दीधुं? ना जी, वाछकछ कीधुं, 
नाथजीए तने कां मृकी ? हुं नेट कांई एक चूकी। ३ । 
नथी बाई तुूं चूकवावाढी, नहीं तजे अन्या टाढी, 
मातापिता जे तारां, रोतां हशे ते चोधारां। ४ । 
पियेरथी आव्यो सती, शुूं प्रगदया नेषधपति, 
हा नक्नी थई छे शोध, मुजने द्यो छो प्रतिबोध। ५ । 
हा निश्चय नक प्रगठ, छे वाणीमांहे कपट, 
छोरुने छेंह कां आप्यां ? छते बापे थयां नबापां। ६ । 
कडुवक-- ४८ ( सुवेब हारा दमयन्ती फा परिचय देना ) 

मूर्व्छा से वह स्त्री जग गयी (सचेत हुई), तो वह गुरु (सुदेव) के 
पाँव लगी ओर उसने पूछा, “ सम्भवतः (शायद) आप (हमारे) घर के 
मुनि हैं '। (तो सुदेव ने कहा--) “हाय कन्या, तुम अकेली क्‍यों हो ?। १ 
तुम किस कारण से दुबली हो गयी हो ? मौसी के द्वार पर तुम दासी 
(जैसी कैसे रह रही) हो ? अरी मैया, तुम्हें उसने नही पहचाना '। 
(दमयन्ती बोली--) ' मैंने अपनी देह का रूप बदल दिया है '।२ (सुदेव 
बोले--) “ क्याईमौसी ने तुम्हे दुःख दिया ? ” (दमयन्ती बोली--) “ नही 
तो। उसने तो वात्सल्य किया !। (सुदेव ने पूछा--) ' तुम्हें पति ने 
क्यों छोड़ दिया ? ” (दमयन्ती बोली-- ) “ निश्चय ही मैंने कुछ भूल 
की '। ३ (सुदेव ने कहा--+) “ हे देवी, तुम भूल करनेवाली नहीं हो “। 
(तो दमयन्ती बोली--) “बिना मेरे दोष के उन्होंने मुझे नही त्याग दिया '। 
(सुदेव बोले--) “तुम्हारे जो माता-पिता हैं, वे चार-बार अश्रु-प्रवाह 
बहाते हुए; रो रहे;होंगे । ४ हे सती, मैं तुम्हारे पीहर से भा गया हूं '। 
(दमयन्ती ने पुछा--) “ क्‍या नेषध-पत्ति (नल राजा) प्रकट हो गये है ? ' 
(सुदेव बोले--) 'हाँ, नल की खोज हुई है '। (तो दमयन्ती ने कहा--) 
तो मुझे प्रतिबोध करा दीजिए '। ५ (सुदेव बोले--) “ निश्चय ही नल 
प्रकट हुए है '। (दमयन्ती बोली--) “आपकी वाणी में कपठ है। 
उन्होंने बच्चों का विश्वासधात क्‍यों किया ? वे तो पिता के होते हुए 


श्६२ गुजराती (नागरो लिपि) 


राजमाताजी एम पूछे, ऋषि तारे ने एने शुूं छे? 
ए कोण कोण जाणे जी ? ए तो तमारी भाणेजी। ७ । 
केई भाणेजी ए मारी, दमयंती नतछनी नारी, - 
ए वात ते केम नीपजी, भरतारे एने कां तजी ? । ८ । 
दूत रमीने नेषध हार्या, ते माटे बन पधार्या, 
शंं जाणीए शा काजे ? त्याज करी महाराजे। ९ । 
तुं दमयंती दीकरी, हा थई रही किकरी, 
सुणी मासी धरणी ढछी, सभा थई व्याकुदछी | १० । 
सुदेव कहे छे नाट, एम शभ्ृूल्यां ते श्यामाट, 
जे पोतानुं पेट, तेने केम विसरीए नेट ? ।११। 
हुँ वरांसी रे बाप, एम मासी करे विलाप, 
त्यां थई रह्मयो हाहाकार, सुदेव कहे सोने घिवकार। १२ । 
वलण ( तर्ज बदलकर ) 
सुदेव कहे धिक्‍कार रे, ओल्खी नही सुंदरी सती रे, 
राजकुंवर लाज्यों घणूं, रुए अतिशे इंदुमती रे। १३। 


पितृहीन हो गये ।६ (तब) राजमाता (भानुमती) ने इध् प्रकार 
पूछा, ' है ऋषि, आपका और इसका क्या (सम्बन्ध) है ? अजी कौन 
जानता है कि यह कौन है ? ' [तो सुदेव ने कहा--) “ यह तो आपकी 
भानजी है।” ७ (राजमाता ने पूछा--) 'यह मेरी भानजी केसे ? 
(मेरी भानजी) दमयन्‍्ती तो नल, की पत्नी 'है। (इस स्थिति में) यह 
बात कैसे हुई ? पति ने इसका त्याग क्‍यों किया ? '८ (सुदेब ने 
कहा--) ' निषधराज यूत खेलते-खेलते हार गये । उस कारण से वे वन 
मे पधारे। फिर महाराज (नल) ने किस कारण इसका त्याग किया, 
क्या जाने । ९ है कन्या दमयन्ती, हाय, तुम दासी बनकर रह रही 
हो । यह सुनकर मौसी धरती पर लुढक़ पडी, तो सभा व्याकुल 
हुई । १० सुदेव बोले, ' निश्चय :ही तुम स्त्नी को वे इस प्रकार भूल 
गये है। परन्तु, जो अपने स्वय से उत्पन्न है, उन्हे निश्चय ही कंसे 'भूल 
जाएँ ? ' ११ “करे बाप, मैं पछता रही हँ”। इस प्रकार मौसी 
(भानुमती ) विलाप करने लगी। वहाँ (फिर) हाहाकार मच गया। 
सुदेव ने कहा-- ' सबको धिक्‍्कार है '। १२ 

सुदेव ने कहा, “' सबको घिक्‍्कार है, जो सती सुन्दरी को नहीं 
पहचाना ।” (यह देखकर) राजकस्या इंदुमती बहुत लज्जित हुई। 
वह बहुत रोने लगी । १३ 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ३६३ 


फडवुं ४६ मुं--( राजमाता आदि द्वारा पछतावा फरना ) 
राग गोडी 


काया कुसुमरूपे किकरीने, देखी दादो सुदेव, , 
अजाण्यो थईने ईहा रह्यां, थई दासी कीधी सेव। १ । 
अन्योन्ये वात पूछी, ने ह॒ृदये पाम्यां शोक, .,, 
राजमाता सुबाहुने,.. सुदेवे. दीधो दोष । २ । 
मासी मूर्च्छा पामियां रे, हवो हाहाकार, 
दमयती पर दासत्व भोगव्यूं, प्रीछयों नहि परिवार। ३ 
राजमाता लज्जा पाम्यां रे, आव्या दमयंती पास, 
दीकरीए दुःखे दहाडा निर्गम्या रे, वर्त्या थईने दास। ४ । 
अधमं आक्ृ चडावियू रे, ओछ आप्यूं अन्न, 
भोजन पेट भरी नव पामिया रे, वसतुं लेख्यूं वन। ५. 
छबीली तु मुजने छानूं कहेत, तो निश्चय न प्रगटत नेठ, 
पराधीन पिंड पोखियों रे, परवश भरियूं पेट। ६ । 
रत्नभरी मारी दीकरी, में गणी ठीकरी समान, 
वैदर्भी विपत्त वेठी घणी रे, खोयूं वपुनूं वान। ७ । 


>> लीला जज +त जी जल ली लव व चल लव आल जि जल 





जज चंचल? जी +ज-ज बल >> नल + 


कड़वक-४ ८६ ( राजसाता आदि द्वारा पछतावा करना ) 


दादा (-सदुृश) सुदेव ने (दमयन्ती-स्वरूप) दासी के फूल .जैसे 
शरीर को देखा। वे(बोले-- ) “तुम यहाँ अज्ञात (अनजानी) बनकर रह 
गयी और दासी वनकर तुमने (इन लोगों की) सेवा की '। १ (अनन्तर ) 
उन दोनों ने एक-दूसरे की (कुशल सम्बन्धी) बात पूछी और वे हृदय में 
शोक को प्राप्त हो गये । सुदेव ने राजमाता भौर सुबाहु को दोष दिया | २ 
तो मौसी मूर्च्छा को प्राप्त हुई । (वहाँ) हाह्ाकार मच गया । उन्होने 
दमयन्ती को दासता भूगवा ली। परिवार (में से कोई भी उसे) नही 
पहचान पाया । ३ राजमाता लज्जा को प्राप्त हुई। वह दमयन्ती के 
पास आ गयी । (वह बोली-- ) “ बरी कन्या, दिन दुःख मे बीत गये । 
तुम दासी बनकर रह गयी । ४ मैने अधर्म (अन्याय) से आरोप लगाया | 
तुम्हें घटिया (दर्जे का) अन्न दिया। तुम भर-पेट क्षन्त को नहीं प्राप्त 
हुईं। राजभवन में निवास करते रहने पर भी तुमने उसे वन (जैसा)' 
माना । ५ री छबीली, यदि तुम मुझसे गुप्त रूप से कहती, तो वह 
निश्चय ही प्रकट न हो पाता। तुमने पराधीन होकर पिण्ड (देह) का 
भरण-पोषण किया; परवणश रहकर पेट को पाला । ६ मेरी कन्या-रत्नों। 


१३६४ गुजराती (नागरी लिपि) 


दासपणे रही बापडी रे, तेणे दुःखे हुं बाली, 
दुबंछ दारिद्रय जणावियूं रे, पासे नही वालनी बाकी | ८ । 
सूवाने काजे साथरी रे, वस्त्न पहेरवाने जाड़ूं, 
शीतछ नीरे नाही दीकरी, ने नहिं नहेरी ने नाडं । ९ । 
दाधुं कलेवर मारु रे, चीरी कोयला कहाढुं, 
फलफली मारी दीकरी रे, अन्न जमी दीधुं टहादूं। १० । 
हंवे जीवीने शूं कह रे? विप खाईने पहोदढूं, 
थईं गोझारी बेन आगछ रे, शू्‌ देखाडीश महोढें | ११। 
इंदुमती मुख सताडती रे, हुं थई छेक छछोरी, 
हुं भूडी भवोभव वार्ता रे, चडावी हारनी चोरी। १२। 
लज्जा-सागरमां बूडी गयो रे, मसियाई जे सुवाहु, 
सुत-सूरजने आवबी ग्रस्यो रे, अपराधरूपी ओ राहु। १३! 
एम ओशियाकछ्ां सर्व थर्या रे, बोली दमयंती वाण, 
मासी तम घेर सुख पामी घणुं रे, साखी सारंगपाण। १४। 


से भरी-पूरी है, फिर भी मैंने उसे ठीकरी के समान माना । बेंदर्भी 
दमयन्ती को बड़ी विपत्तियों ने धेर रखा। उसने देह की कान्ति जो 
दी। ७ वह बापुरी दासता मे रही। उसे मैंने दुःख मे जला डाला। 
उसे मैंने दुर्बलता मोर दरिद्रता का ज्ञान कराया। उसके पास तीन रत्ती 
भर सोने की नथ भी नहीं है।८ उसे सोने के लिए साथरी थी भीर 
पहनने के लिए मोटा वस्त्र था। यह कन्या ठंडे जल में नहाती थी और 
इसको (लगाने के लिए) न तेल था, न (चोटी के लिए) फीता था। ९ 
मेरी देह (दुःख की भाग में) जल रही है। मैं काटकर कोयला निकाल 
रही हूँ। मेरी कन्या खिले हुए फूल जैसी है। (फिर भी ) उसने (हमारा) 
दिया हुआ वासी अन्न खाया । १० अब मैं जीवित रहकर क्या करें? विष 
खाकर पौढ़ जाऊँगी । मैं वहिन के सामने गो-हत्या करनेवाली (पापिनी) 
ठहरी । (भव) में क्‍या मुंह दिखा सकंगी '। ११ इन्दुमती मुँह छिपा 
रही थी। (वह बोली-- ) ' मैं विलकुल उथली (अविचारी) वन गयी । 
में दृष्ट हें, यह वात जन्म-जन्मान्तर मे चलेगी। मैंने उस पर हार की 
चोरी लगा दी '। १९ सुबाहु, जो मौसेरा भाई था, लज्जा-सागर में डूब 
गया। अपराध रूपी राहु ने आकर पुत्र (सुबाहु) रूपी सूरज को ग्रस 
लिया । १३ इस प्रकार सव लज्जित हो गये। तो दमयन्‍्ती ने यह बात 
कही, “ है मौसी, तुम्हारे घर में मैं समस्त सुखो को प्राप्त हो गयी। 
(इसके लिए भगवान) शाहूगंपाणि (विष्णु) साक्षी हैं। १४ दुःख के दिन 


प्रेमाननद-रसामृत (नलोपाख्यान) ३६५ 


दोहेला दहाडा ऊतर्या रे, रही मारी लाज, 
पुत्री सरखी हुं गणी रे, न दीघधुं नीचुं काज। १५। 
मासी भाणेज बंनन्‍्यो मत्ठयां रे, ओल्ख्यानां आलिंगन, 
शतसहसत्र स्वागत मांडी पछे रे, मान्यों घणुं मुनिजन। १६। 
वस्त्र वाहन आपियां रे, वीनवियो विप्रराय, 
घणुएक दमयंतीने आप्यूं रे, मासी लागी पाय। १७। 
सुबाहु॒ साथे मोकल्यो रे, वढाव्यां कुंदनपुर, 
सुख शोभाए जाए सुंदरी रे, पंथ घणों छे दूर। १८। 
भानुमती भेटी घणूं रे, दीकरी मारी साध, 
तूं छो छत्नरपतिनी अंगना रे, मारो क्षमा करो अपराध । १९। 
पगे लागी मारी आज्ञा रे, बेसी खेडी सुखपाल, 
बेन मासी जातां मागियु रे, वेदर्भी राखे वहाल। २०। 


वलण (तज़े बदलकर ) 
वहाल राखे वेदर्भी, क्षेमे मतठ्जो नेषधधणी रे, 
थोडे काछे पहोंती प्रेमदा, पियर गई वधासणी रे।२१। 


बीत गये, मेरी लाज (मर्यादा सुरक्षित) रह गयी। मैं पुत्नी जैसी मानी 
गयी। (किसी ने) मुझे छोटा काम (करने) नहीं दिया । १५ 
(तदनन्तर) मौसी और भानजी दोनों (प्रेमपुवक) मिल गयी (एक-दूसरी 
के गले लग गयी) । पहचान हो जाने पर एक-दूसरी का आलिगन हो 
गया। (मौसी ने) उसका सौ-सहसख्र (प्रकार से) स्वागत ठीक से किया । 
मुक्ति (सुदेव) का बहुत सम्मान किया । १६ उस विप्रराज को वस्त्र 
और वाहन; प्रदान किये । उससे चिरौरी-विनती की । मौसी ने दमयन्ती 
को बहुत कुछ दिया और वह उसके पाँव लगी | १७ सुवाहु को उसके, 
साथ में भेज दिया और कुन्दनपुर पहुँचा दिया। (बिदा करते समय वह 
बोली-- ) हे सुन्दरी, सुख-शोभा के साथ चली जाना। मार्ग बहुत 
लम्बा है .। १८ राजमाता बहुत (प्रेम से) मिली । वह बोली, “ मेरी 
कन्या भली-भच्छी है। तुम तो छत्नपति की स्त्री हो। मेरा अपराध 
क्षमा करो ” १९ वह उसके पाँव लगी और बोली, ' मेरी आज्ञा है '। 
अनन्तर वह (दमयन्ती ) सुखपाल (पालकी) में बैठी, तो उसने उसे उठवा 
कर चला दिया । तब बहिन और मौसी ने याचना की । २० 

' हे बेदर्भी, ( हमारे प्रति) स्नेह रखो। कुशल-पूवंक निषध-पति 
से मिलना |। अल्प काल मे वह प्रमंदा (दमयन्ती) अपने पीहर पहुँची । 
तो यह आनन्द का समाचार (वहाँ पहुँच) गया । २१ [ 


गुजराती (नागरी लिपि) 


कड॒बुं ५० मुं-( दमयन्ती का सुदेव के साथ पितृ-गृह फे प्रति गमन ) 


राग भेवाडो 


हरख-भर्या सुदेवे वाणी भणी, 

ओ आवी नगरी भीमकतणी, 
कहो तो लई जाउं वधामणी, 
पियरपुरी जुओ नक॒नी विजोगणी, 
ओ दीसे गढ़ केरा कांगरा, 
ओ हस्ती सांकक. लांगर्या, 
ओ पेलां घर वाडी झाडुआं, 
शं करता हशे मारां बाडुआं ? 


केम जीवी हशे बे साहेलडी ? 


मुंने देखने माता थाशे घेलडी, 
ओ जाय. स्क्रीनां जोडलां, 
ओ हणहणे वापजी केरां घोडलां, 


हो दमयंती, 
हो दमयंती । 
हो दमयंती, 
हो दमयंती । 
हो दमयती, 
हो दमयंती । 
हो मुनिजी, 
हो गुरुजी । 
हो मुनिजी, 
हो गुरुजी । 
हो मुनिजी, 
हो गुरुजी । 


दर 


ओ दीसे स्थव्ठ 


ह्याां हायु देवे 








स्वयंवरतणूं, हो मुनिजी, 


देवतापणूं, हो ग्रुरुजी । ७ । 


न्ध्ल्ननीी जि जिललञि लि लल+ ५ अं ज3॑ >> 


कड़वफ--५० ( दमयन्तों का सुदेव के साथ पितृ-गृह के प्रति गसन ) 


हष॑ से भरे-पूरे सुदेव ने यह वात कही, ' हे दमयन्ती, यह भीमक की 
नगरी आ गयी । हे दमयन्ती ० । १ हे दमयन्ती, ' कहो तो आनच्द का 
यह समाचार ले जाऊँ। हे दमयन्ती, नल से बिछडी (हुई दमयन्ती), 
अपने पीहर की नगरी देखो । २ है दमयन्ती, गढ के वे कगरे दिखायी दे 
रहे हैं। है दमयन्ती, (देखो) वें हाथी साँकल से वबाँधे हुए है ।। ३ 
(दमयन्ती बोली-- ) हे मुनिजी, वे है घर, बाग और (पेड-) पोधे। 
हे गुरुजी, मेरे बच्चे क्या कर रहे होगे। ४ हे मुनिजी, मेरी दो (-तों) 
सहेलियाँ किस प्रकार से जीवित रही होंगी ? है गुरुजी, मुझे देखकर मेरी 
माता पागल हो जाएगी । ५ हे सुनिजी, वे स्त्रियो की जोड़ियाँ (टोलियाँ) 
जा रही है। है गुरुजी, वे मेरे पिताजी के घोड़े हिनहिना रहे है। ६ हैं 
मुनिजी, वह स्वयंवर का स्थान दिखायी दे रहा है। हे ग्रुरुजी, यहाँ देव 


अपना देवत्व-हार गये | ७छ 


हे मुनिजी, मुझे वन की स्थिति नही भूल 


रहीहै। हे गुरुजी, मै यजमान का कुल कब देखूंगी ? ८ हे मुनिजी, 
प्रिय (पत्ति) के बिता, पीहर नियलने लगता है। हे गुरुजी, बिना नल के 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ३६७ 


मुंने न वीसरे अवस्था रातनी, हो मुनिजी,, 
क्यारे देखूं जात जजमाननी ? हो ग्रुरुजी। ८ । 
पियु. बिना पियरियू ग्रसे, हो मुनिजी 
नक्क विना उज्जड को थव बसे, हो गुरुजी ।' ९ । 
ज्वासभयों सुदेव पुरमां 'संचर्यो, सुण रायजी, 
वधामणी वधामणी एम ओचर्यो, सुण रायजी। १० । 
सभा से विस्मथ. हवी, सुण रायजी, 
जाणे प्रगट्यो नेषधरवि, सुण रायजी | .११ । 
हरखे भीमक पूछे फरी फरी, हो मुनिजी, ' 
ओ आवे राय तमारी दीकरी, कहे मुतिजी । १२। 
चाल्यो भीसक  कुंवरी भणी, क्‍्यां दमयंती ? 
वज्रावती जाती हरखे घणी, क्यां दमयंती ? । १३ । 
धायां भाई ने भोजाई लज्जा वीसरो, क्‍्यां दमयंती ? 
हरखे भर्या झांझर पडे वीसर्या, क्‍यां दमयंती ? ।१४। 
घेली सरखी साहेली मक्तवा धसी, क्‍्यां दमयंती ? 
' शीश उधाड़ां पालविया जाय खसी, कक्‍्यां दमयंती ? । १५।॥ 
(सब) उजाड़ है-- (वहाँ) कोई नहीं (सुखपुर्बंक) वस सकता !। ९ फूली 
हुई साँस के साथ सुदेव 'नमर में पैठ गये (और बोले-- ) “ हे राजाजी, 
सुनिए। है राजाजी, सुनिए।' वे बोले, “ बधावा' “'बधावा ' ।' १० 
समस्त सभा विस्मित हुई। वे बोले, “ हे राजाजी, सुनिए ”। उन्हें जान 
पड़ा, निषध देश के सूर्य (नल राजा) प्रकट 'हो गये हों । (वे बोले )-- 
' हें राजाजी, सुनिए '। ११ (यह सुनकर) भीमक राजा हषित हुए। 
वे बार-बार पूछने लगे (कहने लगे)-- ' हे मुनिजी ”। तो ' मुनि (सुदेव) 
बोले-- “ हे राजा, वह (देखिए) आपकी कम्या आ रही है: १२ तो 
भीमक अपनी कन्या की भोर चले । (वे बोले)-- “ दमयन्ती कहाँ है ? 
वरज्जावती स्वय भ्त्ति आनन्दित हुई॥ (वह बोली )-- “दमयन्ती कहाँ 


है ? १३ भाई और भाषियाँ लज्जा छोड़कर दोड़ी। (उन्होने 
पूछा-- ) 'दमयन्ती कहाँ है? ” वे हषे-भरी थी। उनके नूपुर 
भुला दिये गये । (वे बोली-- ) ' दमयन्ती कहाँ है ? ” १४ सहेलियाँ 


पगलियो जैसी मिलने के लिए तेजी से आगे बढ़ी। (उन्होंने पूछा-- ) 
 दमयन्ती कहाँ है ? ' उनका मस्तक अनावत रहा। उनका आँचल 


श्च्द गुजराती (नागरी लिपि) 


वायु-भर्या केश शोभे मोकछा, कक्‍यां दमयंती ? 
अंबर छठे. बूटे कटिमेखला, क्‍्यां दमयंती ? । १६। 
आवबी रे पियर प्रजा सोहामणी, हो दमयंती, 
दीठी रे दीकरी दुःखे दामणी, हो दमयंती। १७। 
भज भरी महियरियांने मछे, हो दमयंती, 
जुए मावडी भुज मूकी गे, हो दमयंती। १८। 
मारी मावडी आवडी शे दुबल्ही ” हो दमयंती, 
.शं पूछे मात प्रीत पियुनी टछी, हो दमयंती। १९। 
आंसु फेडी तेडी मंदिरमां गयां, सुण रायजी, 
दासी वेषनां वस्त्र मुकाबियां, सुण रायजी | २०। 


वलण ( तज़े बदलकर ) 


मुकाव्यो वेष मातताते, बाछुक मुक्यां खोले रे, 
बे वरसे बाछकां ते, माताने मछ्ियां टोछे रे।२१। 


है? उनका वस्त्र छूटता जा रहा था; करधनी टूट रही थी। (बे 
बोलीं-- ) “ दमयन्ती कहाँ है ? ' १६ 

अहो, दमयन्ती-- पीहर की प्रजा को सुहावनी लगनेवाली दमयन्ती 
आ गयी । अहो, दमयन्ती को दुःख से दयनीय हुई कन्या को (सबने) 
देखा । १७ अहो, वह दमयन्ती मायके वालों से बाँहों में भरकर मिली । 
अहो दमयन्ती को माता ने उसे (ज्यों ही) देखा, (त्यों ही) उसने उसके 
गले में बाहे डाली। १८ (वह बोली-- ) “ अरी दमयन्ती, मेरी मैया तू 
इतनी दुबली क्‍यों है. । माता ने पूछा, “री दमयन्ती, क्‍या तेरे प्रिय 
(पति) की प्रीति टल गयो (नष्ट हुई) ? ! १९ 

सुनिए हे राजा जी, आँसू पोंछकर माता (दमयन्ती को) बुला 
लेकर प्रासाद के अन्दर गयी। हे राजाजी, सुनिए, उसने दासी-वेश के 
वस्त्र उत्रवा लिये | २० 


माता ओर पिता ने उस (दमयन्ती) का (दासी का) वेश उतरवा 
लिया। उन्होंने उसके बच्चों को उसकी गोद में डाल दिया। वे दो 
बरस के बच्चे थे। वे अपनी माता से एक साथ मिल गये। २१ 








प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ३६४८ 


कडय ५१ मुं--( सुदेव द्वारा वेश बदलकर नल को कुछ खोज-खबर पाना ) 
राग आशावरी 


वेशंपायत वाणी बदे, सुण जनमेजय भृपाकछ्त रे, 
बृहुदश्व कहे युधिष्ठिरने, मल्लया बंन्यो बाक रे। १ । 
साथ भ्रात ने भोजाई मढछयां, मात ने वढ्ी तात रे, 
दमयंतीने ताथ-वियोगे, अतरमांहे अशांत रे। २। 
कुटुब .सर्वे पूछे प्रेमे, शी शी वार्ता वीती रे, 
घटे तेवो समाचार सतीए, कह्यो अथ इति रे। ३। 
फरी शोध नक्नी मंडावी, भीमके मोकल्या दास रे, 
प्रभु पाखे दसमयती, पाछवा लागी संन्यास रे।४। 
अलवण अन्न अशन करवुं, अवनी पर शयन्त रे, 
आशभूषण-रहित अंग अबछानंं काजछ विना नयन रे। ५ । 
नियम राखे नाना विधनो, उम्र आखडी पाछे रे, 
पतिब्रता तो पियुने भजे ते, अन्य पुरुष नव भाक्ठे रे। ६ । 


बट ता 





कड़नक--५१ ( सुदध द्वारा वेश बदलकर नल की कुछ खोज-खजबर पाना ) 


वेशम्पायनजी ने यह बात कही-- है राजा जनमेजयजी, सुनिए । 
बृहृदश्वजी युधिष्ठिर से बोले-- (दमयन्ती से) दोनो बच्चे मिले। १ 
साथ ही, उसके भाई और भाभियाँ मिली; इसके सिवा माता और पिता 
मिले। (फिर भी ) पति के वियोग के कारण दमयन्ती के अन्तःकरण में 
अशान्ति (व्याकुलता, बेचेनी) थी । २ समस्त परिवार (के लोगों) ने 
(उससे ) प्रेमपूर्वक पूछा-- क्या-क्या बातें (घटनाएँ) हो गयी ?' तो 
उस सती ने जो (जो) समाचार उचित था, वह अथ से इति तक कहा । ३ 
फिर भीमक ने नल की खोज ठीक रीति से आरम्भ करा दी। उन्होंने 
(उसके लिए अपने) दासों को भेज दिया। (इधर) दमयन्ती अपने 
स्वामी के बिना (स्वामी की अनुपस्थिति में) संन्यास-वृत्ति का पालन 
करने लगी. ४ उसके लिए अलोना भोजन करना और भूमि पर शयन 
करना (उचित लगता) था। उस अबला की देह आशभ्ृषणों से रहित थी 
ओर नयन काजल-रहित थे। ५, वह नाना प्रकार के नियमों का 
अनुसरण करने लगी। उसने उम्र ब्रत रख लिये। वह पतिकब्रता तो 
अपने प्रिय पति को भजती थी मौर किसी अन्य पुरुष की ओर देखती 
(तक ) नथी।६ वह वल का नाम लेतो, नल का ध्यान करती और 
सखियों से नल (ही) की बात करती । (उसके लिए) दिन और रात 


३७० गुजराती (नागरी लिपि) 


नाम नत्वनु ' ध्यान नव्ठनुं, सखी शुं नक्तनी वात -रे, 
दुःखे जाये दिवस ने रयणी, नयणें वरसे वरसाद रे। ७ । 
परदेशी पिच विप्रने, नित्य आपे आमान रे, , 
वैदर्भी जाणे वाडववेषे, आवी मे राजान रे।८ ॥ 
एव. आवी ऋतु वर्षानी, वंदर्भी विरह वधारण रे, 
गाजे मेह उधडके देह, सखी आपे हैयाधारण रे। ९ । 
विनता हीडे वाडीमांहे, दम लताने तक्े रे, 
सुगंध सघाते बिंदु शीतछ, गोरी उपर गछे रे। १०। 
कोकिला बपेया बोले, ते शब्द भेदे अंग रे, ,., 
विरहिणी ते वीजछी जाणे, भेदे हृदया संग रे। ११। 
वर्षाकाछ्ले विजोग पीडे, मानिनीने मन भालो रे, 
वेदर्भीने वर्षाकाछ वीत्यो, आव्यों शत्रु शियाढठ्वों रे। १२। 
आकाशे आगिया उडिया, अबु निर्मक् इंदु शरदे रे, 
पतिविजोग पीडे छे पापी, सती रहे छे सत्य बरदे रे। १३। 
दुःखे दिवस नाखे दमयती, एक वरस गयूं वही रे, 
ज्रनण. संवत्सरनी अवध बीती, नाथ आव्यों नहीं रे। १४॥। 





का या भी शी जननी भी 





दुःख में बीतते थे। नयनों से (अश्वुजल की) बरसात हो रही थी। ७ 
वह नित्य पाँच परदेसी ब्राह्मणों को कच्चा अन्न (सीधा) प्रदान करती 
थी। वेदर्भी दमयन्ती को. जान पड़ता था कि राजा नल-ब्राह्मण के वेश 
में आकर मिलेंगे । ८६ उस समय वर्षाऋतु आयी; तो वेदर्भी दमयन्ती 
का विरह (-जन्य दुःख) ब॒द्धि को प्राप्त हुआ। जब मेघ गरजने, लगते, 
तब उसका शरीर (हृदय) धड़कने लगता। (तब) सखियाँ उसे धीरज 
धारण कराती । ९ वह वनिता उद्यान में पेड़ों और लताभों के तले घुमने 
लगंती, तो उस गोरी पर सुगन्ध के साथ (अर्थात सुगन्धयुक्त) शौतल 
जल-बिन्दु टपकते रहते । १० (जब) कोयल और चातक बोलते, (तब) 
उनके शब्द (उस विरहिणी के ) अंग को भेदने लगते । उस विरहिणी को 
जान पड़ता कि बिजली उसके हृदय को साथ ही भेद रही है। ११ वर्षा- 
काल में उस मान्िनी के मन को विरह भाले की भाँति पीड़ित करता था 4' 
इस प्रकार, वेदर्भी दमयन्ती के लिए वर्षाकाल बीत गया और शत्रु (जैसा) 
शरदकाल आ|गया। १२ आकाश में जुगन्‌ उड़ गये (जुगनू अब नहीं 
रहे, अदृश्य हो गये); पानी निर्मेल हुआ। शरद ऋतु मे चन्द्र स्वच्छ 
(मेघाच्छादन-रहित)/था । पापी पति-वियोग उस सती को पीड़ित कर 
रहा था; (फिर भी) वह अपने सत्यक्नत का निर्वाह कर रही थी। १३ 


प्रेमानन्‍द-रसाम्ृत (नलोपाख्यान) ३७१ 


सुदेवनी तेडी स्तुति करी, आंसु नयणें ढाछी रे, 
निषधनाथने कोण मेक॒वे, हो भुरुजी. तम टाछी रे। १५। 
जन्मना तमे छो हेतसवी, कारज मनथी करवबूं रे, 
न घटे कह्मानी वाद जोबी, शोधवा नीसरवुं रे।१६। 
धीरज आपी नैषधनारने, वेश नाना विध धरतो रे, 
दमयंतीए शीखव्यो हींडे, टहेल सघछ्े करतो रे। १७। 
रथे बेठो फरे मुनिवर, सेवक सेवा करे रे, 
ज्यां गाम आवे त्या कछा पाडी, वेश टहेलियानो धरे रे। १८ ।॥ 
दोढ मास गयो अटण करता, आव्यो अयोध्यामांय रे, 
सभा मांहे टहेल नाखी, ज्यां बेठो ऋतुपर्ण राय रे।१९। 
अलक्य वस्तुनी प्राप्ति थई, परित्याज तेनो कीधो रे, 
धर्म धोरिधर घधिक तुजने, फरी तपास न लीधो रे॥ २०। 


दमयच्ती दुःख मे दिन बिता रही थी। (इस प्रकार करते-करते) एक 
वर्ष व्यतीत हुआ। फिर तीन वर्ष की अवधि बीत गयी। (फिर 
भी) उसके पति नही आये | १४ (तब) उसने सुदेव को बुला लाकर 
उनकी स्तुति की । वह आँखों से आँसू बहा रही थी। (वह बोली-- ) 
“ हे गुरुजी, आपको छोड़कर कौन नंषधपति नल से मिला देगा। १५ 
आप मेरे जन्म (भर) के शुभ-चिन्तक है। आपको मन से काम करना 
है। आपको कहने की प्रतीक्षा करना उचित नहीं है। उन्हें खोज 
निकालना है '। १६ (यह सुनकर) उन्होने नेषधराज की स्व्री दमयन्ती 
को धीरज बँधाया। वे नाना प्रकार के वेश धारण करनेवाले थे (कर 
सकते थे) । दमयन्ती ने उन्हें जैसे सिखा दिया था, उस प्रकार वे भ्रमण 
करने लगे (भ्रमण कर सकते थे) । सब प्रकार से ऊंचे स्वर मै गाना गाते 
हुए वे भिक्षा मॉँगने लगे (माँग सकते थे) | १७ वे मुनिवर रथ पर बंठे 
और भ्रमण करने लगे। सेवक उनकी सेवा करते थे । जहाँ कोई ग्राम आ 
जाता, वहाँ वे वेश बदल लेते और भिक्षा माँगनेवाले साधु का वेश धारण 
करते । १८. (इस प्रकार) भ्रमण करते-करते डेढ मास बीत गया। 
(तब) वे अयोध्या में जा गये । उन्होंने उसकी सभा (-गृह) में (जाकर) 
यह बार-बार दोहराते हुए गाना आरम्भ किया, जहाँ राजा ऋतुपणं बैे 
हुए थे । १९ (उन्होंने कहा-- ) “ अलभ्य वस्तु की (तुम्हें) प्राप्ति हुई 
थी; (फिर भी तुमने) उसका परित्याग कर दिया । है धर्मधुरन्धर, तुम्हें 
घिक्‍्कार है। तुमने फिर से उसकी खोज नहीं की । २० रंक (मनुष्य) 
द्वारा रत्त की रक्षा नही हो सकती । उसने स्वयं निर्धारण करके उसे सिद्ध 


२७२ गुजराती (नागरी लिपि) 


रंके रत्ननूं जत्न न थाये, जात नीवडी नेट रे, 
विलपे छे वस्तु वहोरतिया विना, कां भरे परघेर पेट रे ? । २१। 
कुछ लजाव्यूं करमी माणसे, कीति कीधी श्षांखी रे, 
ज्ञानी पुरुष विचारी जो जो, टहेल सुदेवे नाखी रे।२२। 
सभा सहु विस्मय थई कांई, टहेल छे मरमाछ्ी रे, 
गहेलियो टहेलियो करीने कहाढ्यो, कोई उत्तर ना'पे वाह्गी रे । २३। 
सुदेव गयो हयशाक्वा मध्ये, टहेल नाखी तेणे द्वार रे, 
महिलानां कहाव्यां वचन सुणीने, बाहुक नीसर्यों वहार रे । २४। 
कद्रप काया कामछ ओडढी, करमांहे खरेरो रे, 
प्रगग खारे खंखारीने बोल्यो, तीखो ने तरेरों रे।२५। 
कारमो सरखो कपोछ चडावे, दूंकडा कर नचावे रे, 
नासिकाए सडका ताणे ने, नयणां मचमचावे रे।२६। 
भारे वचन कह्यां ते ब्राह्मण, नीसर्यों महेणां देवा रे, 
वस्तु विपत तो वहोरतियों, करतो हशे परघेर सेवा रे । २७ । 





किया था। (अब) बिना ग्राहक के वह (अमूल्य) वस्तु विलाप कर रही 
है। (इस स्थिति में) तुम दूसरे के घर क्‍यों पेट पाल रहे हो। २१ 
धनी-मानी मनुष्य ने अपने कुल को लज्जित कर दिया और अपनी कीर्ति 
को निस्तेज (फीकी) बना दिया है। हे ज्ञानी पुरुष, विचार करके देख 
लो, देख लो |” सुदेव ने (इस प्रकार) दोहराते हुए गाना गाया। २२ 
(उसे सुनकर) समस्त सभा विस्मित हुई॥ (उसे जान पड़ा कि) यह देर 
रहस्य-भरी है। (लोगो ने) उस गानेवाले भिक्ष॒ साधु को पागल की 
भांति (पागल समक्षकर) निकाल दिया । किसी ने उन्हे मुड़कर उत्तर 
नहीं दिया । २३ (अनन्तर) सुदेव अश्वशाला के अन्दर गये भौर उन्होने 
उस स्थान पर टेर लगायी । उस स्त्री (दमयन्ती) द्वारा कही हुई बातों 
को सुनकर वाहुक बाहर निकल आया । २४ उसकी देह कुरूप थी । 
उसने कम्बल ओढ़ लिया था। उसके हाथ में खरहरा था। वह उग्र 
भोर कुद्ध (दिखायी दे रहा) था। उसने प्रकट रूप से खँखारते हुए 
कहा । २५ उसने घताढ्य व्यक्ति की भाँति गाल फुलाये। अपने 
छोटे-छोटे हाथों को वह नचाने-हिलाने लगा। नाक से (मल खींचते 
हुए) वह चभड़-चभड़ कर रहा था और आँखों को मिचमिचा रहा था। २६ 
(वह बोला-- ) ' है ब्राह्मण, तुमने अनमोल बातें कहौ है। तुम ताने देने 
(चभती बात कहने) के लिए (यहाँ) पैठ गये हो । वह वस्तु विपत्ति 
(जैसी) है। इसलिए ग्राहक पराये घर में सेवा कर रहा होगा । २७ 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ३७३ 


वहोयु ते कांई रत्न जाणीने, काच ,थई नीवड्यूं रे, 
तत्त्वरहित माटे त्यज्यूं छे, नथी छूटी पडियूं रे। र८। 
तेह मित्रने तजीए जेनूं, मक्ठवुं मत विना ठालूं रे, . 
ते स्त्रीने परहरीए जेनूं, पियु करतां पेट वहालूं रे।२९। 
वांक नही होये वहोरतियानो, रह्यो होशे निजधरमं रे, 

वस्तु विपत पामती हे ते, पोते पोताने कर्मे रे।३०। 
गृढ वचन कही घोडारमां, बाहुक जईने बेठो रे, 
सुदेव तो सांसामां पड़यो, प्राण विचारमां पेठो रे।३१। 
ए बोली तो नेषधनाथनी, हारद अनाहुत रे, 

नक्त भूप एने केस करी मानुं ? रूपे बीजो भूत रे। ३२। 
जठर भरण को रीसनुं जाछुं, फरी न जाय बोलाव्यो रे, 
पडोशीने पूछी काढ़्यं, त्रण वरस थयां आव्यों रे।३३। 
राजाए प्रीत करीने राख्यो, अश्वविद्या कोई जाणे रे, 
पवित्र नवेद्यने पाछें, विजोगनुं दुःख भाणे रे। ३४। 


उसने उसे कोई रत्न समझकर ग्रहण किया, (परन्तु) वह काँच सिद्ध हुई । 
वह तत्त्व-रहित है। इसलिए उसका त्याग किया है। (यों ही) वह 
छुटकर नही गयी है (वह ग्राहक उत्तरदायित्व से विमुख नही हुआ) । २८, 
उस मित्र का त्याग करे, जिसका मिलना बिना मन के, अर्थात (स्नेह से), 
रिक्त मन से होता है। उस स्त्री का त्याग करे, जिसके लिए पति ,से पेट 
प्रिय हो । २९ ग्राहक का कुछ टेढ़ा नही होता (नही बिगड़ जाता), यदि 
वह अपने धर्म पर ध्यान-पूर्वंक रहता हो । वह वस्तु अपने-अपने कर्म से- 
विपत्ति को प्राप्त होती होगी '। ३२० ऐसे गूढ वचन कहकर बाहुक 
घुड़साल में जाकर बेठ गया। (इधर) सुदेव तो उलझन में पड़ गये । 
उनके प्राण विचार मे पैठ गये। ३१ (उन्हे जान पड़ा-- ) यह उक्ति 
तो नेषधपत्ति नल की है-- यह मर्म तो (बिलकुल) अनाहुत (बिना 
बुलाये, अनपेक्षित) रूप से पाया है। (फिर भी) मैं इसे नल ,राजा*ः 
' कसे मानूं ? रूप में यह तो दूसरा भूत (ही) है। ३२, उदर-भरण तो 
(मानो) क्रोध का जाला है। इसे फिर से बुलाया नहीं।जा सकता। 
(अतः) उन्होंने पड़ोसी से पुछकर यह बात निकाल ली (यह जान लिया 
कि)- (यहाँ) उसे आये तीन वर्ष हो गये है । ३३ राजा ने उसे प्रीति- 
पूर्वक रखा है। वह कोई अश्व-विद्या जानता है। वह पवित्र भोजन के 
सेवन के नियम का पालन करता है और वियोग का दुःख लाता (अनुभव: 
करता) है। ३४ ऐसा सुनते ही सुदेव (वहाँ से) चल पड़े और विदर्भ / 


३७४ गुजराती (नागरी लिपि) 


एवं सांभछी सुदेव चाल्यो, आव्यो विदर्भ देश रे, 
वैदर्भी तव आनंद पामी, विप्र पूज्यों विशेष रे।३५। 
श्यामाएं समाचार पुछयो, कही स्वामीनी भाक्त रे, 
सुदेव कहे निसासो मूकी, जड्यो नहीं भूपाक रे।३६। 
देशविदेश गाम उपगाम, अवनी खोली बाधी रे, 
अटण करता अयोध्यामां, शोध कांई एक लाधी रे। ३७। 
सभा नव समजी ऋतुपर्णनी, रह्मां मस्तक डोली रे, 
बाठ-बिहामणो घोडार मांहेथी, बाहुक ऊठयो बोली रे। ३८। 
स्वरूप जोई हुं छल्॒यो छठ, स्वप्नामां बिहावे रे, 
ताठो आव्यो छठ फरी फरी जोतो, रखे पृठेथी आवे रे । ३९। 
भूत पिशाच के जमकिकर, प्रेत अथवा राहु रे, 
अयोध्यामां रोता राखवा, बाछ॒कने ते हाउ रे। ४० । 
तेणे टहेलनो उत्तर आप्यो, कांई स्वाद-ईद्विनो वांक रे, 
कहे वस्त खोटी थई नीवडी, शुं करे वहोरतियो रांक रे ? । ४१। 
पियुजनथी पेट वहालूं, तेनो संग ते माठो रे, 
बेउने दुःख सरखां होशे, कही घोडारमां नाठो रे।४२। 


जज लड लडिज>ीि लि जज अली जल ली अत अचल 








देश में आ गये । तब बैदर्भी दमयन्ती आनन्द को प्राप्त हुई। उसने 
उस विप्र का विशेष रूप से पूजन किया । ३४ उस स्त्री ने अपने पति का 
समाचार पूछा, * मेरे स्वामी का पता कहिए '। तो सुदेव ने लम्बी साँस 
लेकर कहा, “ भूपाल नहीं मिले। ३६ मैंने देश-विदेश, ग्राम-उपग्राम, 
समस्त पृथ्वी ढूंढी । भ्रमण करते-करते मैं अयोध्या मे गया; तो वहाँ कुछ 
एक खोज-ख़बर मिल गयी । ३७ ऋतुपण् की सभा (कुछ) समझ नहीं 
पायी; वे लोग सिर हिलाते रह गये । (फिर भी) बच्चों को भयानक 
लगनेवाला बाहुक (मानो ) घुड़साल में से बोल उठा । ३८५ उसके स्वरूप को 
देखकर मैंने धोखा खाया। (मानो)वह स्वप्न में डराता है । मैं(वहाँ से) 
बार-बार पीछे (मुड़कर) यह देखते हुए कि शायद वह पीछे से आ जाए, 
भागकर आ गया हूं । ३९ वह भूत, पिशाच या यमदूत है, प्रेत है वा राहु 
है। अयोध्या में बच्चों को रोने से रखनेवाला (चुप करनेवाला) वह 
कोई होवा (माना जाता) है। ४० उसने मेरी टेर का उत्तर दिया-- * स्वाद 
ग्रहण करने की (जिदवा जैसी) इन्द्रियों का यह कोई दोष है '। फिर वह 
बोला-- ' वह वस्तु खोटी सिद्ध हुई, तो रंक ग्राहक क्‍या करे | ४१६ उस 
(वस्तु) को प्रिय जन से पेट प्रिय है, उसका संग अनिष्ट है। इससे 
दोनों को समान दुःख हो जाएगा ' --ऐसा कहकर वह घुड़साल के अन्दर 


प्रेमाननद-रसामृत (नलोपाख्यान) ३७५ 


ए बोली तो वाहुकियानी, जुओ विचारी बाई रे, 
ममेंवचन सुणी महिलानूं, ह॒दे आव्यूं भराई रे। ४३॥। 
वलण ( तजे बदलकर ) 

भरायूं ह॒दे राणी तणुं, ने आंसु सृक्‍यां रेडी रे, 
बाहुक नोहे ए नंषधपत्ति, सुदेव लावो तेडी रे। ४४। 


भाग गया। ४२ हे देवी, विचार करके देखो। (क्या) यह बोली 
बाहुक की (अपनी) हो सकती है ? ” यह मर्मवचन सुनकर उस महिला 
का हृदय भर उठा (गद्गद हो उठा) । ४३ 
रानी (दमयस्ती) का हृदय भर गया (गदगद हो उठा) और वह 
आँसुओ की धारा बहाने लगी। वह बोली, ' हे सुदेव, यह बाहुक नहीं 
है-- यह तो नैषधपति है। उन्हें बुलाकर ले माइए ' | ४४ 


कडव्‌ ५२ मुं--( दसपन्‍्तो द्वारा सुदेघ से चाहुक और ऋतुपण को ले 
आने की विनती करना ) 


राग सोरठी मार 


आंसु भरीने कामिनी करे, वाणीनो विचार, गुरुजी०, , 

ए नोहे बाहुकना बोलडा, होये वीरसेनकुमार | ग्रुरजी०। १ । 
ए जीवनप्राणाधार, गुरुजी, जाओ मा लगाडो वार, गुरुजी ०, ; 

भ्रांत पडे छे रूपनी, ते प्रगट्यां मारां पाप | गरुरुजी०। २ । 
रूप खोयूं कहीं रायजी, ए-कोणे दीधो हशे शाप । ग्रुरुजी ०, 

मारा जाय तनना ताप गुरुजी, तम वडे थाय मेल्ठाप | गुरुजी ० । ३ ॥: 


मु 


कड़वक्ष--५२ ( दमयन्ती द्वारा सुदेव से बाहुक और ऋतुपर्थ को ले , 
जाने को विनती करना ) का 

वह कामिनी (दमयन्ती आँखों में) आँसू भरकर (बहाते हुए बाहुक 
के) उस वचन पर विचार करने लगी। (वह बोलौ-- )' हे गुरुणी, ये 
बाहुक के वचन नही हैं। वह (बाहुक वस्तुतः) वीरसेन-कुमार नलराज 
(ही) हैं। १ हे गुरुजी, बे मेरे प्राणो के आधार है। हे गुरुजी, जाइए; 
विलम्ब न लगाइए। उनके रूप के विथय मे भ्रम हो गया है; हे गुरुजी, 
(उस रूप में) मेरे पाप प्रकट हो गये है (मेरे किये पापों का वह फल 
है) । २ है गुरुजी, राजाजी ने कही अपने रूप को खो दिया है।.. यह 
अभिशाप किसने दिया होगा ? हे गुरुजी, मेरे शरीर के ताप नष्ट हो 


३७६ गुजराती (नागरी लिपि) 


अश्वरक्षकनो नोहे आशरो रे, जाणे अंतरनी वात, ग्रुदजी ०, 

बोले बोले ज मोरियो रे, नोहे घोडारियानी घाट | गुरुजी ० । ४ । 
हुंजाणु बोल्यानी जात गुरुजी, होय पुष्करजीनो अत, ग्रुरुजी ०, 
पुनरपि जाओ तेडवा रे, जीवन वसे छे जांहे । गुरुती० । ५ । 
परीक्षा ए पुृण्यश्लोकनी, एके दिवसे आधे आंहे, गुरुजी ०, 
जाओ अयोध्यामांहे गुरुजी, हवे वेसी रह्या ते कांहे। गुरुजी ० । ६. -। 
जई कहो ऋतुपर्ण रायने, तजी वेदर्भी नठ महाराज, गुरुजी ०, 
स्वेयंवर फरी मांडियो रे, छे लग्ननो दहाडो आज । गुरुजी०। ७ । 
ए वाते नथी लाज, जेम तेम करवुं काज, गुरुजी ०, 

कपटे लखी कंकोतरी रे, ऋतुपर्णने निमंत्रण | ग्रुरुजी०। ८ । 
सुदेव तेडी लावजो जोईए बाहुकियानां आचरण, गुरुजी ०, 

एनुं केवं छे अत:कर्ण, गुरुजी, एनां जोईए वपुने वर्ण । गुरुजी ० । ९ । 

वलण ( तर्ज बदलकर ) 


आचरण अश्वपालच तणां, ट्ां आवे भोछखाय रे, 
पत्र लई परपंचनों, सुदेव आव्यो अयोध्यामांय रे। १०। 


जाएँगे, यदि आपके द्वारा हमारा मिलन हो जाए।३ है गुरुजी, उनके 
लिए अश्वरक्षक के रूप मे आश्रय नहीं दिया (गया) हो। वे (राजा 
ऋतुपर्ण ) भन्दर को वात जानते है। है ग्रुरुणी, वह (वाहुक) मेरे शब्दों 
के अनुसार बोल रहा है। यह घोड़े की देखभाल करनेवाले का लक्षण 
नहीं है। ४ हे गुरुजी, में बातों का (वोलनेवाले का) स्वभाव बानती 
हूँ। हे गुरुजी, वे पुष्कर के बन्धु है। हे गुरुजी, आप फिर से उन्हें 
बुलाकर लाने के लिए (वहाँ) जाइए, जहाँ मेरे जीवन (-स्वरूप पति) 
निवास कर रहे है। ५ है गुरुजी, यह पुण्यश्लोक (नल) की परीक्षा है। 
वे एक दिन में यहाँ आएँगे । हे गुरुजी, आप भक्ययोध्या में जाइए। हैं 
गुरुजी, अब वे कही बेठे रहे होगे । ६ हे गरुदगी, जाकर ऋतुपर्ण से कहिए 
कि महाराज नल ने वेदर्भी दमयन्ती को त्याग दिया है। हे गुर्जी, उसने 
फिर से स्वयंवर आयोजित किया है। आज विवाह का दिन है । ७ 

गुरुजी, इस बात मे कोई लज्जा नहीं है, ज्यों-त्यों करके काम (सिद्ध) 
करना है। हे गुरुजी, मैंने कपटपुर्वक (निमंत्रण-- ) पत्निका लिखी है। 
यही ऋतुपर्ण के लिए निमत्नण है। ८5 है गुरुजी, है सुदेव, उसे बुलाकर 
ले आइए। बाहुक के आचरण (जाल-चलन) को देख ले। हें गुरुजी, 
(देखे), उनका अन्तःकरण कैसा है ? हे गुरुनी, उनके शरीर और वर्ण को 
देख ले। ९ उस अश्वपालंक का आचरण (चाल-चलन) यहाँ पहचानने 





प्रेमानलद-रसामृत (नलोपाख्यान) ३७७ 


में आएगा '। (अनन्तर) वह कपट से लिखा हुआ पत्र लेकर सुदेव 
अयोध्या में आ गये । १० 


कडयूं ५३ मुं-( राजा ऋतुपर्ण को रथ में बंठाकर बाहुक द्वारा 
एक दिल में फुन्दनपुर में ले आना ) 
राग सासेरी 


सुदेव सभामां आवियो, ज्यां बेठो छे ऋतुपण, 
करमांहे आपी कंकोतरी, उपर लख्यूं. निमंत्रण । १ । 
प्रीतव विशेषे पत्र लीधुं, कीधुं अवलोकन, 
स्वस्ति श्री अयोध्यापुरी, ऋतुपर्णराय पाचन। २ । 
विदर्भ देशथी लखितग भीमक, नक्के दमयंती परहरी, 

एने देवनूं वरदान छे माटे, स्वयंवर कीजे फरी। ३ । 
पृथ्वीता भूपति आवशे, तमो आवजो खप करी, , 
सूरजवंशीने वरवों निश्चे, कुवरीए इच्छा धरी। ४ । 
भूषति आनंदे भर्यो, सभामाहे एम भाखे, 
भाई ' वेदवाणी दमयती, कोने नहीं वरे मुज पाखे। ५ । 





फड़्वक-- ५३ ( राजा ऋतुपर्ण को रथ में बेठाकर बाहुक हारा एक दिन में 
कुन्चनपुर मे ले आना ) 


सुदेव (उस राज-) सभा मे आ गये, जहाँ ऋतुपर्णजी बेठे हुए थे । 
उन्होंने उनके हाथ में वह विवाह-पत्नचिका दी, जिसमे निमंत्रण लिखा हुआ 
था। १ उन्होने विशेष प्रीति के साथ पत्न लिया और उसका अवलोकन 
किया (उसे देखा)। (पत्र इस प्रकार था--) “॥ स्वस्ति॥ श्री 
अयोध्यापुरी के पावन राजा ऋतुपणंजी । २ विदर्भ देश से लिखनेवाले 
(राजा) भीमक । , नल ने दमयन्ती का परित्याग किया। उसे देवों का 
वरदान (प्राप्त) है। इसलिए, उसका फिर से स्वयंवर (आयोजित) 
कर रहे है। ३ पृथ्वी (भर) के राजा आ जाएँगे। आप भी यत्नपूर्वक 
भा जाना। कुमारी (कन्या) ने यह इच्छा धारण की है कि निश्चय 
ही सूर्य-वशोत्पन्न का वरण करना है'।४ (यह पढ़कर) भू-पतति 
(ऋतुपणं ) आनन्द से भर उठे । वे सभा मे इस प्रकार बोले, "हे भाइयो, 
यह वेदवाणी (जैसी सत्य बात) है कि दमयन्ती मेरे सिवा किसी का 
वरण नही करेगी '।५ उन्होंने ओंठ चबाये, हाथ मीजे और उस ब्राह्मण 


रेज८ गुजराती (नागरी लिपि) 


अधर ड्से कर घसे, विप्र उपर आंख कहाडे, 
नहोतरियो निर्माल्य दीसे, आव्यो लग्नने वहाडे। ६ । 
सुदेव कहे हुँ कयम करू ? वेगढूं तमारं गाम, 
शत ठाम थाता आववबूं, कंकोतरीनूं काम। ७ । 
धाई गया सर्वे भूष जे, प्रथम रूपना पढ्ठका, 
ऋतुपर्ण आसनथी ऊठे बेसे, थाय परणवाना सक्कका। ८ । 
आहा गई दमयंती हाथथी, कंकोतरी आवबी मोडी, 
एक निशानो आंतरो होत तो, जात जेम तेम दोडी। ९ । 
त्राहे त्राहे बोले मस्तक डोले, निसासा मसूके ऊंडा, 
वेदर्भी वरतां वेर वाल्॒यु, भरे ब्राह्मण भूडा। १०। 
सांढ. तो सांपडी नहीं, नहीं पवनवेगी घोडा, 
कंसार दमयंतीना करनो, नहीं जमे आ महोढां । ११। 
सभामां बेठो निराश थई, प्रधान बोल्यो वचन, 
पेलो बाहुकियों शे अर्थ आवशे ? बेठो वणसाडे अन्न | १२। 
की ओर आँखें तरेरकर देखा। (उन्हें जान पड़ा--) ' निमंत्रण देनेवाला यह 
व्यक्ति निर्माल्य (पुराना, दुर्बल, वृद्ध) दिखायी दे रहा है। (इसलिए) 
वह विवाह के दिन आ गया ”। ६ (इसपर) सुदेव ने कहा, “ मैं (भी) 
कसे करूँ ? आपका ग्राम दूर है। मुझे विवाह-पत्निका के काम के लिए 
सौ (-सौ) स्थान होते हुए आना था । ७ जो दमयन्ती के रूप के चटोरे 
अर्थात लोभी हैं, वे समस्त राजा दौड़ते हुए (वहाँ) गये ”। (यह सुनकर ) 
ऋतुपर्णणी आसन पर उठने-बंठने लगे। उनके (मन मे) विवाह करने 
की प्रवल इच्छा थी । ८ (उन्हें लगा-- ) ' हाय, दमयन्ती हाथ-से गयी। 
विवाह-पत्रिक़ा विलम्ब से आयी । यदि अन्तर एक रात का (एक रात में 
काटे जाने योग्य भी ) होता, तो जैसे-वेसे दौड़कर चला जाता । ९ ब्ाहि- 
त्राहि (बचा लो, बचा लो)' -वे बोले । - वे मस्तक हिला रहे थे, लम्बी 
साँस ले रहे थे। (वे बोले-- ) “अरे बीभत्स ब्राह्मण, वेदर्भी दमयच्ती 
का वरण करने में. तुमने बदला लिया ।.१० . साँड़नी तो नहीं मिल रही 
है, न कोई पवनवेगी घोड़ा मिल रहा है। दमयन्ती के हाथ का ' कंसार 
(नामक विशिष्ट मिष्टान्न, जो प्रायः विवाह के अवसर पर खिलाया जाता 
है) यह मुँह नही खा पाएगा ”। ११ वे (ऋतुपर्णजी) सभा मे निराश 
होकर बंठे, तो मंत्री बोला, “ वह बाहुक किस काम आएगा ? वह तो अन्न 
विगाड रहा है (व्यर्थ ही खाता हुआ बैठा है) '। १९ (यह सुनकर ) 
ऋतुपर्णनी आनन्द को प्राप्त हुए। उन्होंने (यह कहकर) एक सेवक 





प्रेमाननद-रसामृत (नलोपाख्यान) ३७६ 


ऋतुपर्ण आनंद. पास्थयो, मोकल्यो सेवक, 
लाव तेडी बाहुकियाने, जे जाणे गयानी तक। १३ । 
श्वास भरायो दास आव्यो, अश्वपालकनी पास, 
उठो भाई धूप तेडे छे, ग्रहों परोणोी राश। १४। 
बाहुक चाल्यो चाबुक झाल्यो, मुखे ते बडबडतो, 
आव्यो नीची नाडे नरखतो, नाके ते सरडकां भरतो। १५। 
सभा मध्ये सर्व हस्या, आ रत्न रथ-खेडण, 
ऋतुपर्ण बोल्यों मान दई, आव्यो दुःख-फेडण | १६। 
घणे दिवसे कारज पड़यू छें, राखो अमारी लाज, 
तमो परणावोी वेदर्भी, विदरभ जावूं आज | १७। 
समुद्र सेव्यो रत्त आपे, में सेब्यो एम जाणी, 
आज विदरभ लई जाओ, ग्रहुँ दमयतीनो पाणि। १८। 
बाहुक बठछतो. बोलियो, फुलावीने नासा, 
आ भिया परणशे दमयंतीने,, अरे पापिणी आशा । १९ ॥। 
हंसा कन्या केम करे, वायसशूं संकेत ? 
निलंजनी साथे अमे जबूं, तो पी थाउं फजेत | २०। 


/3००५०-००८००२०००*- 





को भेजा-- “ जो जाने का अवसर जानता है (समय का महत्त्व 
जानता है), उस बाहुक को बुलाकर ले आओ '॥ १३ लम्बी साँस लेते 
हुए वह सेवक बाहुक के पास आ गया (और बोला )-- ' भाई, उठ जाओ । 
राजा ने बुला लाने के लिए भेजा है। (हाथ मे) पैना और लगाम 
लो । १४ बाहुक-चला। उसने हाथ में चाबुक लिया। मुख से वह 
बडबड़ा रहा था। वह नीचे ग्रीवा किये (सिर श्लुकाये) हुए देख रहा था 
और नाक से चभड़-चभड़ ध्वनि कर रहा था । १५ (उसे देखकर) सभा 
में (बेठे हुए) सब (लोग) हेसने लगे । (क्या) यह रत्न रथ चलानेवाला 
है? (परन्तु) ऋतुपर्णनी सम्म्ान-पूर्वक बोले-- * आओ दु:ख-हर्ता | १६ 
बहुत दिनो मे काय॑ निकला है। हमारी लज्जा की रक्षा करो। तुम 
हमारा वेदर्भी से परिणय करा दो । आज मैं विदर्भ देश जाऊँगा। १७ 
समुद्र की सेवा करे, तो वह रत्न देता है। ऐसा जानकर मैंने तुम्हारी सेवा 
की। तुम आज मुझे विद में ले जाओ (वहाँ). मैं दमयन्ती का पाणिग्रहण 
करूँगा '। १८ तो बाहुक नाक फूलाते हुए प्रत्युत्तर मे बोला, ' यह भाई 
दमयन्ती से परिणय करेगा । हाथ रे पापिनी आशा | १९ हस की कन्या 
कौए से कैसे (मिलन का) संकेत करेगी । इस निरलंज्ज के साथ यें जाऊं, 
तो बाद में में दुर्देशा को प्राप्त हो जाऊंगा । २० राजाजी, अविवेकी न हों । 


३८० गुजराती (नागरी लिपि) 


छछोरा न थईए रायजी, परपत्नीशुं तलखां 

केम वरे वर जीवते तो, मिथ्या मारवां वलखां।२१। 
पुण्यश्लोकती प्रेमदा ने, भीमक राजकुमारी, 

तमो विषयीने लज्जा शात्री ? थाय फजेती मारी।॥ २२। 
राय कहें हयपति, मारी वती हयने हांको, 

मारे तो सर्वस्व गयू रे, तमो जेवा रे ना कोहो॥ २३। 
बाहुक वकछत्तो बोलियो, ज्यां होये स्वयंवर, 

अंतर नहीं सेवकस्वामीमा, आपण बंन्यी वर।२४। 
हास्थ करीने कहे राय, वर तमो परथम, 

भाग्य भडशे कन्या जडशे, त्यां जईए ज्यम त्यम | २५। 
दूबढछा घोडा चार जोड़या, रथ कर्योा सावधान, 

शीघ्रे त्यां शणगार सजवा, सांचर्योीं राजान। २६। 
राणी कहे ऋतुपर्णने, परहरी हुं पर प्रेम, 

क्षत्री थईने करो घरघणूं, न होये अते क्षेम । २७। 
पित्तिण तजी ते अणसती, कांई एक गोरी मृुध, 

बाहुक॒ वडे परणवी राय, थयूं ऊजलूं दूध । र२८। 
पर-स्त्री के प्रति (कसी) आसक्ति भरी यह छलाँग (लगा रहे हैं) । अपने 
चर के जीवित रहते वह कैसे वरण करे ? यह तो व्यर्थ ही प्रयत्त करना 
है। २१ वह तो पृण्यश्लोक (चल राजा) की सरत्नी और भीमक राजा 
की कन्या है। आप विषयी जन को फैंसी लज्जा ? इसमें मेरी (ही) 
दुर्दशा (फ़जीहत) हो जाएगी '। २२ राजा बोले-- ' हे अश्व-पत्ि, मेरे 
लिए घोड़ो को हाँक दो। भरे, मेरा तो सरवस चला गया। तुम 
जैसा कोई अन्य नहीं है” । २३ (इसपर) प्रत्युत्तर मे बाहुक बोला-- “ जहाँ 
स्वयंवर होगा, वहाँ सेवक और स्वामी मे कोई अन्तर नही होगा। हम 
दोनों वर है ध।२४ तो हंसते हुए राजा बोले, “तुम प्रथम वर हो । 
(हमारे) भाग्य (एक-दूसरे से) लड़ेगे, (देखे, किसे) कन्या मिल जाए। 
वहाँ जैसे-वेसे (पहुँच) जाएँ'। २९५ (भननन्‍्तर) बाहुक ने चार दुर्बल घोड़ों 
को जोत लिया । रथ को सज्ज किया । वहाँ राजा शूुंगार सजने के लिए 
चले गये । २६ तो रानी ऋतुपर्ण से बोली, “ मुझपर का प्रेम छोड़कर, आप 
क्षत्रिय होकर (पति द्वारा) परित्यक्ता स्त्री से सम्बन्ध स्थापित कर रहे 
हैं, तो अन्त मे कुशल न होगी। २७ उस दुराचारिणी को पति ने छोड़ 
दिया है। अथवा उस गोरी (स्त्री) में कई गुप्त दोष होगा । हें राजा, 
उसका बाहुक से विवाह करना (उचित) है, तब दूध उजला सिद्ध हो गया 


0 लो: 





प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ३८१ 


सूरजवंशतणी ए शोभा, तमथी झांखी होय, 

रीस चडी ऋतुपर्णने, पछी घणीआणीने धोय । २९ । 
अमो अभ्रमर कोटि कुसुम सेवुं, तु शुं चलावीश चाल 

वीजछी सरखी लावूं वेदर्भी, करू शोकनूं साल। ३०। 
एम कही सभामां आव्यो, दुदुनि रहां छे गाजी, 

रीस करी कटहयूं बाहुकने, कां जोड्या दुर्बंछ वाजी ? ।३१। 
करण लूला ने चरण रांटा, बगाई बहु गणगणे, 

अस्थि नीसर्या त्वचा गाढी, भयानक हणहणे । ३२। 
चारे नोहे चालवाना, आगढछ नीचा पाछक् ऊंचा, 

खूंधा ने खोडे भर्या, बे करडकणा बे बूचा। ३३। 
ऋतुपर्ण जोई शीश धृणावीने, बोल्यो वछ॒ती खीजी, 

ए जोडी शु कुरूप लाव्या, जोड घणी छे बीजी । ३४। 
पवन वेगे पाणीपंथा, शत जोजन हीडे ठेठ, 

एवा घोड़ा भूकीने, कां जोड़या देवनी वेठ।३५। 
(समझिए ) । २८ सूर्यवेश की यह शोभा आपके कारण धूमिल हो रही है । ' 
तो ऋतुपर्णजी को क्रोध आ गया। (अतः) अनन्तर उन्होंने स्वामिनी 
(रानी ) को पीटा । २९ (वे बोले-- ) * मैं भ्रमर की श्रेणी का हू । मैं 
फूलों का सेवन करूँगा । तू क्‍यों चाल चला रही है। मैं बिजली-सदुश 
(तेजस्वी ) वेदर्भी दमयन्ती को ले आऊँगा और मैं दूसरी स्त्री को लाकर 
(तुम्हारे लिए) कठिनाई उत्पन्न करूंगा '। ३० ऐसा कहकर वे सभा में 
जा गये। (तब) दुन्दुभियाँ बजती रही। उन्होंने क्रोधपूर्वक बाहुक से 
कहा, “ तुमने दुर्बेल घोड़ो को क्‍यों जोत लिया ? ३१ इनके कान लूले हैं 
और टांगे टेढ़ी है। ये घोड़ा-गाड़ी (रथ) तो बहुत ढिलाई से चलती है। 
(इन घोड़ों की) हड्डियाँ निकली हुई हैं, चमड़ी मोटी है।. ये तो भयानक 
रूप से हिनहिना रहे है।३१२ इन चारों (घोड़ो) द्वारा (हम) नही 
चलवाये (वहन किये) जा सकेंगे; (क्योकि) इनमे से आगे के दो निचले 
(कम ऊंचे, नाटे) है और पीछे वाले ऊंचे है। वे कूबड़े है और चर्म रोग 
से भरे है। दो कटहा (काटनेवाले) और बिता कान के है !। ३३ 
ऋतुपर्णजी उन्हे देखकर सिर पीटते हुए फिर से खीजकर बोले, ' इन कुरूप 
जोड़ियों को क्‍यों लाये ? दूसरी तो बहुत जोड़ियाँ हैं। ३४. वे पचन- 
गति से चलनेवाले पाणिपन्थी (पानी पर से चलनेवाले) घोड़े सीधे शत्त 
योजन जा सकते है। ऐसे घोड़ों को छोड़कर देव की बला जैसे इन घोड़ों 
को क्यों जोत लिया ? ” ३५ तो बाहुक बोला, ' कैसी हँसी-ठठोली कर 


३८२ गुजराती (नागरी लिपि) 


बाहुक कहे शी चेष्टा मांडी ? शुं ओछखो अश्वत्ती जात ? 
जो पुष्ठ हयने जोडशो तो, हुं न आबूं साथ।३६। 
ए अशएव राखवो ने रथ हांकवों, चडी बेठो भरपाछ, 
रास परोणो पछाडियो, बाहुकने चड़यो काछ । ३७। 
आटली वार लगे लज्जा राखी, बोल्यो नहीं मा मूच, 
तूं आगक॒शथरी रथे केम बेठो ? हुंपे तु शुं ऊंच ? । ३५। 
ऋतुपर्णं हैठी ऊतर्यो, विविध विनय करतो, 
जाय राय पासे बाहुक नासे, ते रथ पूंठे फरतो। ३९ । 
प्रणिपत्प॒ कीध ऋतुपर्ण, हयपति हुठ मूको, 
उपकारी जन अपराध मारो, बेठो ते हुं चूको। ४०। 
बाहुक कहे यद्यपि राश झालू, बेसीए बन्यो जोडे, 
तूंनें हरख परणा तणों त्यम, हुये भर्यों छौं कोडे | ४१ । 
सामसामा चक्र धरीने, बच्ने साथे चढ़या, 
एडी दीधी बाहुके त्यारे, अश्व ढंछीने पड़्या। ४२।. 
मुगट खसी गयो रायजीनो, मान शुकन हुआ, 
बाहुके अश्व उठाडिया, हाके ने कहे धणी मृूआ। ४३ |. 


मिकीकप न चल आधा आय जम पा य, > की पक की किलर जम 
हि 





रहे हैं ? क्या भाप घोड़ो की जाति को पहचानते है ? यदि आप ' पुष्ट 
घोड़ों को जोतना चाहेंगे, तो मेँ आपके साथ नही आऊँगा '।३६ तो' 
राजा यह कहकर ' इन घोडों की रख ली और रथ हाँक लो ' (रथ पर 
चढ़कर) बठ गये। उन्होंने रास और पैना जोर से झँझोड़ा, तो बाहुक 
पर काल (का-सा क्रोध) सवार हुआ। ३७ (वह बोला-- ) “ इतने 
समय तक मैने लज्जा भाव (सकोच) रख।। मैंने ना-हाँ कुछ नही कहा । 
भाप आगे से रथ पर क्यों बेठे ? मुझसे क्या आप ऊँचे (बड़े) है? ” ३८ 
(यह सुनकर) ऋतुपर्ण नीचे उत्तर गये। वे विविध प्रकार से चिरौरी 
करने लगे (उसे मनाने लगे) । राजा (जब) पास गये, तो बाहुक भाग 
गया-- वह रथ के पीछे गयां। ३९ तो ऋतुपर्णनी ने नमस्कार किया (और 
कहा-- ) “है हयपति, हठ छोड़ दो। हे उपकारी पुरुष, मेरा अपराध, 
है-- मैं (रथ पर) बैठा, मैंने यह भूल की ' । ४० इस पर बाहुक बोला, 
यद्यपि मैं 'रास (लगाम) पकड़ लूँ, तो भी हम दोनो जोड़ी में बैठेंगे। 
आपको विवाह करने का हष॑ हो रहा है, तो मैं उमंग से भर उठा हूँ '। ४१ 
तब सामने-साभने पहिया पकड़कर वे दोनों एक साथ रथ पर चढ गये।' 
तब बाहुक ने एड़ लगायी, तो घोड़े एक ओर झुककर गिर पड़े | ४२ 
इससे राजा का मुकुट खिसक पड़ा। यह तो अपशकुन हुआ। फिर 


प्रेमानन्‍्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ३८३ 


अन्न एवा अश्व निबंतछ, खांचे खीजी खीजी, 
राय कहे लोक सांभल्े, ए विना गाक द्यो बीजी। ४४। 
सुदेव ताणी बेसाडियो, राय कहाडे छे डोछढा, 
शेरीए छेरीए जान जोबवा, ऊभां लोकनां टोकढां | ४५। 
दुबंछ घोडा दरिद्र ब्राह्मण, जोग सारथिनो जोडो, 
वेदर्भीने वरवा चाल्या, भलो भज्यो वरघोडो। ४६ । 
हंके ने हींडे पाछां, पाछां धूसरी कहाडी नाखे 
ताणी दोडे घर भणी, ऊभा रहे वण राखे। ४७। 
पृष्ठ उपर पडे परोणा, करडवा पाछा फरे, 
पहोछे पगे रहे ऊभा, वारे वारे मह्तमृत्र करे। ४८ | 
राय कहे हो हयपति, नथी वात एको सरबवी, 
बाहुक कहे चिता घणी छें, मारे दमयंती वरवी। ४९। 
घणे दोहेले गाम मृकक्‍्य,, राये निसासा मसूृक्‍या, 
पुण्यश्लोके हेठा ऊतरीने, कान अश्वना फुँकया | ५०। 





कली बल कली जल । 


बाहुक ने घोडों को उठा लिया। वह उन्हे हाँकने लगा और बोला-- 
अरे तुम्हारे स्वामी मरे है । ४३ अपने अन्न जेसे ये घोड़े निरबेल है (इन्हें 
सत््व-हीन अन्न दिया जाता है, अत: उसके समान ही ये सत्त्वहीन (शक्तिहीन ) 
हैं। वह खीझ-खीझकर उन्हें (पेंना) चुभाने लगा। तो राजा बोले, 
/ लोग सुन रहे हैं। इसके सिवा कोई दूसरी गाली दो '। ४४ सुदेव को 
तनकर बेठाया गया, तो राजा आँखे फाड़कर देखने लगे । यह बारात देखने 
के लिए गली-गली में लोगों के झुण्ड (के झुण्ड) खडे रहे थे | ४५ घोड़े 
दुबले है; (साथ मे) दरिद्र ब्राह्मण है। वह उस सारथी के योग्य जोड़ 
का है। ये वेदर्भी दमयन्ती का वरण करने जा रहे है। अच्छे वरघोड़े को 
भज रहे है । ४६५ वह उन्हें हॉकता और वे पीछे मुड़कर चलने लगते। 
वे पीछे से धुरा को निकाल डालते। वे (रथ को) खीचकर घर की ओर 
दोड़ने लगते, तो (कभी) बिना रखे खड़े रह जाते थे । ४७ जब पीठ में 
पैना लग जाता, तब वे काटने के लिए पीछे की ओर घूम जाते। वे 
पिछली टाँगों पर खड़े रहते और बार-बार मल-मृत्र विसरजित करते थे । ४८ 
(यह देखकर ) राजा बोले, ' हे अश्वपति, इस प्रकार एक वात भी पूरी नही 
होनेवाली है '। तो बाहुक बोला, ' मुझे दमयन्ती का वरण करने की बड़ो 
चिन्ता है (। ४९ उन्होने बडी कठिनाई से ग्राम छोड़ दिया (ग्राम के 
बाहर आये), तो राजा ने लम्बी साँस ली। तो पुण्यश्लोक नल ने नीचे 
उतरकर घोड़े के कानों में (मंत्र) फूंक लिया । ५० राजा (नल) ने 


श८४ गुजराती (नागरी लिपि) 


अशवमंत्न भण्यो भूपतिए, इंद्रनूं धयु ध्यान, 
अश्व चारे उतपत्या, उच्चे:अवा. समान । ५१। 
अवनीए अडके नहीं, रथ अंतरिक्ष जाय, 
दोट  मृकी वेठो बाहुक, रखे पडता राय। ५२। 
मांहो मांहे वल्ठगीने बेठा, भूष ने ब्राह्मण, 
राय विसामे करे कन्या, वदरुआमा वशीकर्ण | ५३, 
कामणगारो. काछियो, एना गुण. रसाल्ठ, 
त्रॉण. कोडीनां टटुआं, एणे कर्या पंखाछ । ५४। 
हसी राजा बोलिया, थाबडी बाहुकनी खंध, 
तारे पुण्ये मारे थाशे, वेदर्भीशं संबंध | ५५। 
वाजीविद्या वासवनी, _तुज॒ कने परिपूर्ण, 
नानी वात नोहे भाई, रहे विद्यानूं स्मरण। ५६। 
ऐरावत ने उच्चे:अवा हार्यो गरुड़नो वेग, 

तारे हांकवे हमणां थईशुं, विदर्भ भेगाभेग | ५७। 


बम 3ल जलता ५3 ५3 





अश्वमंत्र पढ़ा, इन्द्र का ध्यान किया, तो चारों घोड़े (इन्द्र के) उच्चे:श्रवा 
(नामक घोड़े) के समान्त उछल पड़े । ५१ वे भूमि पर नही अटक रहे 
थे। वे अन्तरिक्ष में गये। बाहुक दौडना छोड़कर (घोड़ो को हाँकना 
छोड़कर) बैठ गया । शायद राजा गिर जाते। ५२ राजा और वह 
ब्राह्मण (सुदेव) मार्ग में बीच-बीच मे (एक-दूसरे से) सटकर बैठ जाते। 
राजा विश्राम करते रहे । (उन्हें जान पड़ा-- ) “ यह कन्या तो मेरा ही 
वरण करेगी । फिर भी इस कुरूप वर बाहुक में वशीकरण की विद्या 
है। ५३ वशीकरण करनेवाला यह (बाहुक) काला (-कलूठा) है। 
(फिर भी) इसमें सुन्दर गुण है। ये तो तीन कौडी (मोल) के टटदू है। 
(फिर भी) इसने इनको (मानो) पंखो से युक्त पक्षी बना दिया (उनमे 
पक्षियों की-सी गति उत्पन्न कर दी है) '।५४ बाहुक के कन्धे पर 
थपथपाते हुए राजा हँसकर बोले, तुम्हारे पुण्य (के बल) से मेरा वैदर्भी 
दमयन्ती से (विवाह) सम्बन्ध स्थापित हो जाएगा। ५५४ इन्द्र की अश्व- 
विद्या तुममें परिपूर्ण (रूप से पायी जाती) है। यह कोई छोटी बात 
नही है कि (इस स्थिति मे) विद्या का स्मरण रहा है। ५६. (इस घोड़ों 
ने) ऐरावत और उच्चै.श्रवा तथा गरुड़ के वेग को हरा दिया । तुम्हारे 
द्वारा (घोड़ों को) हॉकने से हम साथ-साथ अभी विदर्भ में उपस्थित हो 
जाएंगे ” । ५७ राजा अपने भाग्य का बखान कर रहे थे। वे आनन्द के 
मारे पागल की-सी बाते करने लगे। (वे बोले-- ) ' यदि दमयन्ती मेरा 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ३८४५ 


विखाणे पोतानां भाग्यने, भूष कहाडे घेलां, 
जो दमयंती मुजने वरे, तो बाहुक पूजुं पहेलां । ५८ | 
भीमकसुताशं हस्तमेदापक, जो थाशे हयपति, 
बाहुक कहे विलब शो छे, प्रबह्ठल तारी रति। ५९ | 
वाद ओसरे वात करतां, उडता चाले अश्व, 
राय विद्याने बखाणे, न जाणे मनन रहस्य । ६० । 
ताण्या न रहे वबेहेक्ता, दे दोट उपर दोटो, 
एक झांखरे वल॒गी रह्यो, रायनी पामरीनो जोटो | ६१। 
हां हां राख कहेतां हय दोड़या, रथ गयो जोजन, 
बाहुकू रथ राख्यो, कहे लई आवो राजन । ६२ । 
राय वतल्ठती बोलियो, श्रम मन विचारी, 
दमयंतीना नाम उपर, नाखी पामरी ओवारी। ६३। 
जा लाव बाहुक तुंने आपी, पामरी बेहु जोड, 
बाहुक कहे दमयंती उपर, तूं सरखा ओवारं क्रोड। ६४। 
राय मोटा दानेश्वरी बोल्या, बाहुक जाचक तुं था, 
परणवा जाउं दमयंती, लेउं पामरीना चंथा। ६५। 


वरण करे, तो हे बाहुक, मैं पहले तुम्हारा पूजन करूँगा | ५८ हे हयपति, 
यदि भीमक की कन्या से हस्त-मिलाप (पाणिग्रहण )हो जाए' '। (इस पर) 
बाहुक बोला, ' इसमें क्या विलम्ब है? आपका प्रेम प्रबल है! ।५९ बातें 
करते-करते रास्ता समाप्त (तय) होता जा रहा था। अश्ब उड़ते हुए चल 
रहे थे। राजा (वाहुक की) विद्या की सराहना कर रहे थे; परन्तु उसके 
मन के रहस्य को नहीं जानते थे । ६० वे दुबंल (घोड़े) खींचे नहीं जा 
रहेथे। वे दौड़ पर दौड लगा रहे थे। राजा के दुपट्टे का जोड़ा 
एक झाँखर से सटकर रह गया । ६११ “हाँ, हाँ, रोक लो (रुक जाओ) ' 
“कहने पर भी घोड़े दौड रहे थे। रथ एक योजन (भागे) गया। तो 
बाहुक ने रथ को रोक लिया और कहा, ' है राजा, ले आइए '। ६२ तो 
प्रत्युत्तर में उन्होंने मन्र में परिश्रम का विचार करके कहा। उन्होंने 
दमयन्ती के नाम पर दुपट्टा निछावर कर दिया। ६३ (वे बोले-- ) * हे 
बाहक, दपटटे का यह जोडा तम्हे दे दिया, जाओ, ले आओ !। तो 





३८६ गुजराती (नागरी लिपि) 


एवं कही रथ खेडियो ने, राय मन विमासे, 
रांक होय तो सद्य ललचे, मोटो केम वरांसे ? । ६६ । 
हयपति तममां विद्या मोटी, गुण बढ्वियो छेक, 
तारे प्रतापे मुज कने छे, अंक विद्या एक। ६७। 
गणित शास्त्नने हुं जाणूं छठ, कहो तो देखाडुं करी, 
एक बहेडानुं वृक्ष आव्यूं, बाहुक पड़यो उतरी। ६८। 
राय प्रत्ये कहे रे बाहुक, गर्व-वचन शां आवडां ? 
बहेडानी जमणी डाछे, केटलां छे पांदडां ?7 । ६९ | 
राये विचारीने कहयूं, सहस्न॒ त्रण ने शत्त त्नण, 
बाहुक जई वृक्ष  छेदी, डाछ पाडी घरण | ७०। 
गणी जोयां बाहुके, ऊतर्या तंतोतंत, 
उत्कृष्ट विद्या देखीने, हरख्यूं. नत्ननूं . चंत | ७१ | 
फरी आव्यों रथ पासे, कहयूं राय तमो धन्य, 
भूप कहे जो मन मक्छे तो, विद्या लीजे अन्योन्य | ७२ । 
मांहोमांहे मंत्र आप्यो, मने मन गयां मली, 
परीक्षा करवा विद्यानी, नछ्े डाछ छेदी वढ्ी | ७३। 





का 


दुपट्टो की चिन्ता क्‍यों वहत करें '। ६५ ऐसा कहते हुए उसने रथ को 
चला दिया । राजा मन में विचार करने लगे। यह दरिद्र होता, तो 
वह अभी दुपढ्टे के प्रति लालच अनुभव करता । परन्तु कोई बड़ा हो, तो 
इसके प्रति कैसे मोहित होगा । ६६. (राजा बोले-- ) ' हे हयपति, तुममें 
बड़ी विद्या है। (सदगुणो मे) तुम चरमं सीमा को प्राप्त हुए हो। तुम्हारे 
प्रताप से मुझे एक अंक-विद्या (उपलब्ध) है। ६७ मैं गणित-शास्त्र जानता 
हैँ। कहिए तो (प्रयोग) करके दिखा देता है । (तब) एक बहेड़े का वृक्ष 
आ गया। तो बाहुक उतर गया। ६८ बाहुक राजा से बोला, “ इतनी 
अभिमान की वाते कसी ? बहेड़े की दाहिनी डाल (शाखा) मे कितने पत्ते 
है '।६९ तो राजा ने विचार करके कहा, ' तीन सहस्न और तीनसौ '। 
बाहुक ने जाकर वृक्ष को काटकर शाखा को भूमि पर गिरा दिया। ७० 
(फिर) बाहुक ने ग्रिनकर देखा, तो वे (संख्या में) पूर्णत. ठीक निकले । 
यह उत्तम विद्या देखकर नल का चित्त आनन्दित हुआ। ७१ वह फिर 
रथ के पास आ गया और बोला, “राजा, आप धन्य हैं'। (इसपर ) 
राजा बोले, * यदि मन चाहता हो, तो अन्यान्य विद्याएँ लेलो ' । ७२ तो 
राजा ने अन्दर ही अन्दर उसे (अन्य) मंत्र प्रदान किये। (फलतः एक के) 
मन से दुसरे के मन को विद्याएँ मिल गयी । फिर विद्या की परीक्षार्थ नल 


प्रेमानन्द-रसामृत (नजोपाख्यान ) ई८७ 


कल्प्यां तेठलां पत्र उतार्या, गणितसख्या मद्ठी, 
बीजी विद्याने प्रतापे, देहमांथी नीसर्यों कछ्ि | ७४.। 
पाडानूं, चर्म पहेरियूं, ऊठ चरम्मंता उपरणां, 
टूंकडा चरण ने श्याम वरण, केश छे पंचवरणा | ७५। 
करमां काती आंख राती, मुख रुधिरना ओषराका, 
भरययों रीसे सगडी शीशे, ऊडे अग्निनी ज्वाछा। ७६ । 
नीसरी नाठो भये त्राठो, ऊठयो नक नरेश, 
लपडाक मारी सगडी पाडी, ग्रही कलिना केश | ७७ । 
वीजछी सरखू खड़्ग कहाड़्यूं, न जाय जीवतो पापी, 
राजश्रष्ट कीधो दुःख दीधूं, रह्यो देहमां व्यापी। ७८ । 
रगदोछयो रेणुमांहे रोछयो, केम पड़यो हतो पूंछे ? 
आंख तरडे दांत करडे, मारे खड़गनी मूठे | ७९। 
ऊठे अडवडे अवनी पडे, अकछाव्यो अलेखे, 
बाहुकना हस्त कलिनां अस्थ, ऋतुपर्ण नव देखे | 5० । 


ने फिर से एक शाखा काट दी । ७३ जितने की कल्पना की, उतने पत्ते 
उतार दिये । गणित में (गिनती में) उतनी संख्या मिल गयी । दूसरी 
विद्या के प्रताप से (बाहुक की) देह में से कलि निकलकर चला गया । ७४ 
उस (कलि) ने भेसे का चमडा पहना था। ऊंट के चमड़े के उपरने 
(दुपट्टे पहने) थे। उसके पॉव छोटे-छोटे थे और उसका वर्ण काला 
था; केश पाँच रगों के थे। ७५ हाथ में छरी थी; आँखे लाल थी। 
मुख पर रक्‍त के दाग थे। वह क्रोध से भरापू्रा था। उसके मस्तक पर 
अंगीठी थी और उसमे से आग को ज्वाला उभर रही थी। ७६ , वह 
निकलकर भाग गया और भय से चीख उठा। (तब) राजा नल उठ 
गये। उन्होने थप्पड़ लगाया और कलि के बाल पकड़कर अँगीठी को गिरा 
दिया । ७७ फिर बिजली जैसा खड़ग निकाल लिया। वे बोले, , ' यह 
पापी जीवित नही जा पाएगा । तूने मुझे राज्य-भ्रष्ट किया, दु ख दिया 
और तू मेरी देह को व्याप्त करके रह गया (। ७८५ उन्होने उसे धूल मे 
घसीटकर रगड दिया (और कहा)-- ' (मेरे) पीछे क्यो पड़ा था ? ! 
उन्होंने आँखे ठेढी की, दाँत कटकटाये और वे खड़ग की मुट्ठी से उसे 
पीटने लगे।७९ वह (कलि) उठता, लड़खड़ाता और (फिर) भूमि 
पर गिर जाता । वह अपार घबड़ाकर व्याकुल हो गया। (फिर भी ) 
बाहुक के हाथो और कलि की हड्डियो को ऋतुपर्ण नही देख सकते 
थे।८५० केलि रो रहा था, आँखों को (आँसुओ से) भर .रहा था । 


३८८ गुजराती (नागरी लिपि) 


रुदन करतो आंख भरतो, कलि पागे लागे, 
पुण्यश्लोकजी उगारीए, नव मारीए घणुं वागे।5१। 
अरे अधर्मनां मूछ्िया, तुंने जीवतों केम मूक्कु ? 
अमो घणूं ते रवडाव्या, नथी नेत्ननूं जकछ सुकयूं । ८5२ । 
अरे. पापी धर्मछेदन, विश्व वेदनाकारी, 
विजोगदाता छेंदनशाता, तें तजावी नारी।5३। 
अवगुण केहेवा करावी, सेवा पारके मंदिर, 
वदे दीन वाणी मरण जाणी, नेत्ने भरियां नीर।८४। 
महाराज वक्तती मारजो, गुण अवगुण वे जोई, 
नह कहे अवगुण-भाजन, तें सृष्टि सर्वे वगोई। 5५ । 
स्वामी बे ग्रृुण मोटा मुजमां, अवगुणता छिंदन, 
नह कहे ग्रुगण अवगुुण, तूं वेउनूं कर वर्णन । ८६ | 
स्वामी परथम अवग्रुण वरणवृं, मारुं जे आचरण 
ज्यां हुं गयो त्यां धर्म नहि, मे भ्रष्ट चारे वर्ण। 5७। 
दंभ लोभी ने ललुता, ब्राह्मणने करूं भ्रष्ट, 
अल्प आयुष्य ने अल्प विद्या, अल्प मेघनी वृष्ट। ८८ । 


लललीज ल्‍जट 5 +ट 3५ >ी5जञ ५७5 > 


वह (नल के) पॉव लगा। (वह बोला- ) ' हे पुण्यश्लोक राजाजी, 
बचा लीजिए। नमारिए। बहुत (घात्र) लग गया है । 5१ 
तो नल (बाहुक) बोले-- ' भरे ऋधम के मूल, तुझे जीवित क्‍यों छोड़ 
दूं? तूने मुझे बहुत भ्रमण करवाया। मेरी आँखो का पानी नहीं 
सूख गया है। 5९२ भरे पापी, अरे धर्म का उच्छेद करनेवाले, रे वेदना 
उत्पन्न करनेवाले, वियोग-दाता, रे शान्ति को नष्ट करनेवाले, तूने मेरे द्वारा 
स्‍त्री का त्याग करा दिया | 5३ तेरे कंसे-कैसे अवगुण हैं? तूने पराये 
घर में मुझसे सेवा करायी '। मृत्यु को (निकट) जानकर वह दीन 
वाणी से बोला। उसने नेत्नों मे अश्वुजल भर लिया । ८४ ' है महाराज, 
मेरे दो (-एक) गुण-अवगुणों को देखकर फिर (मुझे) मारिए '। तो नल 
बोले, “ रे गुण-अवगुण-भाजन, तूने समस्त सृष्टि की निन्‍्दा करायी । ८+ 
(कलि बोला--) * हे स्वामी, अवगुणों का उच्छेद करनेवाले दो ग्रुण मुझमें 
हैं । तो नल वोले, “तू ग्रुण-अवगुण दोनों का वर्णन कर '। ८६ 
(कलि बोला--) “ मेरा जो आचरण है, उसके अवगुर्णों का मैं पहले वर्णन 
करता हूँ । (जहाँ-) जहाँ मैं गया, वहाँ धर्म (के अनुकूल आचरण) 
नही रहा और चारों वर्ण (धर्म-नीति-) भ्रष्ट हुए। ८७ मैं दम्भी, लोभी 
ओर लोलुप ब्राह्मण को भ्रष्ट कर देता हैं। वहाँ (उसमें) अल्प आयु 





जी 3जी+जत+ 2 +ल 3 त+ल 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) इ्पद 


अनाचार ने अपराध बहु, अनंत आभड छेंट, 
सिद्ध होय संनन्‍्यासी शीढ्ियो, भ्रष्ट करूं हुं नेट । 5५९ | 
मर्यादा लाजने मुकावुं, उन्‍्मा्ग मंडावुं, 
जप, तप, तीरथ ने जाता, दान दया छडावुं। ९० । 
ध्वंस. करु हुं ध्यानमां, तापसने डोलावुं, 


अभक्षाभक्ष अस्पर्शास्पर्शण,' असत्य. वाक्य बोलावुं। ९१। 
स्वजनवेर ने परजमझशुं मैत्नी, नीच संगत्य, 
वेष्णवता फंडी विषय स्थापूं, एवी मारी मत्य ।९२। 


मातपिताने पुत्र  उबेखे, देखे श्यामामां सार, 
क्रीडा कामे आठे जामे, स्त्रीमां तदाकार | ९३ | 
घिखवाद करता जन्म जाय, गाय गौरीतना गुणग्राम, 
लंपट निलेज थई अति, जपे नारीनूं. नाम | ९४ । 
हेलामां ब्रह्मचर्य मृकावु, जति पडे मोहमां ज, 
पाखंडी लांठ सुखे जीवे, एवं भार राज । ९५। 


और अल्प विद्या होती है। (वहाँ) मेघ की वृष्टि थोड़ी होती है। ८८ 
(वहाँ) अनाचार और बहुत अपराध होता है; भपार छुआछत होती है । 
जो कोई सिद्ध, संनन्‍्यासी हो, शीलवान हो, उसे मैं निश्चय ही भ्रष्ट कर 
देता हँँ। ५९ लज्जा (शील) की मर्यादा छुडा देता हूँ, उससे उन्मार्ग 
आरम्भ कराता हँ। जप, तप, तीथ्थ-क्षेत्र की यात्रा, दान, दया छुड़वा 
देता हू । ९० मै ध्यान मे भंग कर देता हूँ और तापस को विचलित 
कर देता हूँ । उसके द्वारा अभक्ष्य-भक्षण, अस्पश्यं का स्पर्श कराता हें, 
असत्य वचन कहलवा लेता हूँ । ९१ (तेरे प्रभाव से) स्वजनों से वेर 
और पराये लोगों से मित्रता होती है; नीचे से संगति होती है। मैं वंष्णव 
वृत्ति को मिटाकर बिषय (-भोग) की स्थापना करता हूँ। मेरी इस 
प्रकार की मति है। ९२ पुत्र माता-पिता का अवमान करने लगता है; 
वह अपनी स्त्री में सार-तत्त्व देखने लगता है। वह आठों पहर उससे 
(रति )क्रीड़ा की कामना करता है। वह स्त्री के साथ तदाकर (एकात्म) 
हो जाता है। ९३ विषमय वाते (झगड़ा, कड़वी बातें) करने में उसका 
जन्म (व्यतीत हो) जाता है; वह स्त्री के गुण-समुदाय का गान करता है। 
वह अति लम्पट और निलेज्ज होकर नारी का नाम जपता रहता है। ९४ 
(रति-) कीड़ा द्वारा मैं यति के ब्रह्मचर्य को छड़ा देता हैँ । वह मोह में 
ही फंस जाता है। पाखण्डी और धूतें लोग सुख से जीवित रहते है। 
ऐसा मेरा राज है। ९५ वहाँ मैं (सबको) व्याप्त किये रहता हूँ; वहाँ 





३6० गुजराती (नागरी लिपि) 


हुं व्यापूं त्यां हरिहर नहिं, नहिं देव देवस्थक्, 
ज्ञान गोष्ठि, कथा नहीं, एवं मारु बछ | ९६। 
स्वामीद्रेही ने मित्रद्रोही, गरुरुद्रेही नर घण्ां, 
वचनद्रोही ने ब्रह्मद्रोही, ए सउ अवशभुण आपणा। ९७। 
प्रजा खोदटी राजा लोभी, निरंकुश लपट नार, 
व्यभिचारिणी, द्रोहकारिणी, भमती हींडे बहार। ९८। 
भरथार पहेली करे भोजन, सूए स्वामी पहेली, 
थाके नहीं ते बात करता, वढ़कणी मनमेली। ९९। 
क्रोधमुखी ने चोरटी, लोभणी ने लडती, 
साची वात मलछ्े नहीं ने, आठे पहोर वडबडती ।१००। 
थोडा-बोली साधुमुखी ते, सूता स्वामीने वेचे, 
पूछयो उत्तर आपे नहीं ने, बोले पेचे पेचे ।१०१। 
अभडावे रसोई, अन्न चाखे, जणाय परम पचित्न, 
कह्लि कहे छे मारे प्रतापे, एवां स्व्रीनां चरित्र ।१०२। 
पंडित दुखिया ने मूर्ख सुखिया, भोगी रोगे भरिया, 
असाधु सुखे अन्न पामे, साधु घडी नहि ठरिया ।१०३॥। 








न हरि और शिवजी हैं, न देव और देवालय । वहाँ ज्ञान, (धर्म-नीति-) 
गोष्ठी, (हरि-) कथा नही होती । ऐसा मेरा बल हैं। ९६ बहुत लोग 
स्वामी-द्रोही और मित्र-द्रोही, ग्रुरुद्रेही, वचन-द्रोही (दिया हुआ वचन न 
पालनेवाले) और ब्रह्म-द्ोही होते है। ये सब्र मेरे अपने अवगुण हैँ । ९७ 
प्रजा खोटी होती है भौर राजा लोभी होता है। नारियाँ निरकुश और 
लम्पट होती हैं; व्यभिचारिणी तथा (पति से) द्रोह करनेवाली होती हैं। 
वे बाहर भ्रमण करती रहती है। ९८ वे पति से पहले भोजन करती 
हैं; स्वामी (पति) से पहले सो जाती है। बातें करते-करते वे नही 
थकती | वे झगड़ालू तथा मन से मैली होती है। ९९ वे क्रोध-मुखी 
ओर चोरी करनेवाली होती है; लोभी तथा लड़ने-झगड़नेवाली होती 
है। उनसे सच्ची बात नही मिलती और आठो पहर वे बड़बड़ाती रहती 
हैं। १०० वे कम बोलनेवाली और साधुता लिये हुए मूँहवाली होती हैं, 
फिर भी वे सोये हुए स्वामी को बेच देती है। वात पूछने पर उत्तर नही 
देतीं मोर पेचीदी-टेढी बातें बोलती हैं। १०१ वे रसोई को छूती हैं, अन्न 
चख लेती है और उसे परम पविन्न जतलाती हैं!। कलि ने कहा ' मेरे 
प्रताप से स्त्रियों के ऐसे चरित्न है। १०२ पडित दुःखी और मूर्ख सुखी 
होते हैँ । भोगी रोग से भरे होते है। असाधु सुख से अन्न प्राप्त करते है, 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ३६१ 


दातार ज्यां त्यां धन नहि, दातार नहि त्यां धन, 
खानार ज्यां त्यां अन्न नहि, खानार नहीं त्यां अन्न ।१०४। 
रूप हो त्यां गुण नहीं ने, ग्रुण त्यां नहीं रूप, 
शा शा अवगुण वरणवु ? छे प्रताप मारो अनूप ।१०५। 
शिष्यती सेवा गुरु करे, साधु असाधुनुं आचरण, 
सतीती सेवा करे स्वामी, शूद्रने सेवे ब्राह्मण ।१०६। 
छल छक् भेद अधिकारी, अघटित करे अन्याय, 
अन्नविक्रय हयविक्रय, करे विक्रय गाय ।१०७। 
परपतिसंग ने परनिदा, ईर्ष्या अपलक्षण, 
उपवीत-अन्न, सीमंत-अन्न, .. क्रिया-अन्न भक्षण ।१०५। 
कन्याविक्रय भूमिविक्रय, करे अकरानूं. काम, 
शय्या ले ने गोदान ले, ने बोछे बापनुं नाम ।१०९। 


साधु (पुरुष) घड़ी भर नही (सुख से) ठहर सकते। १०३ जहाँ दाता होते 
हों, वहाँ धन नही होता । जहाँ दाता नही हों, वहाँ धन होता है (धनवान 
लोग कृपण होते है) । जहाँ खानेवाले होते हो, वहाँ अन्न नही होता । 

जहाँ खानेवाले नही होते, वहाँ अन्न होता है। १०४ जहाँ रूप हो, वहाँ 
गुण नही होते ओर जहाँ गुण होते है, वहाँ रूप नही होता । मै किन-किन 
अवगुणों का वर्णन करूँ ? मेरा प्रताप (इस प्रकार) अनुपम (बेजोड़) 
है। १०५ गुरु शिष्य की सेवा करते हैं; साधु पुरुष असाधओ का (-सा) 
आचरण करते है । पति रुत्नी की सेवा करते है। ब्राह्मण शुूद्रों की सेवा करते 
हैं। १०६ अंधिकारी बल और छल-प्रपंच से अनुचित (प्रकार से) अन्याय 
करते रहते हैं। (लोग) अन्न-विक्रय, अश्व-विक्रय और गायों का विक्रय 
करते हैं। १०७ पर-पति-संगति, परनिनन्‍्दा तथा ईर्ष्या करना +-ये 
(स्त्रियों मे) कुलक्षण (पाये जाते) है। (पुरुष) उपवीत बेचकर पाया 
जानेवाला अन्न, सीमन्त (प्रथम बार की गर्भवती ) स्त्री के हाथ का अन्न, 
मृतक-क्रिया के अवसर पर बनाया जानेवाला अन्न भक्षण करते है। १०८ 
(पुरुष) कन्या-विक्रय, भूमि-विक्रय तथा करने के लिए अयोग्य काम करते 
हैं। वे शय्या (-दान) लेते हैं, गो-दान लेते है और पिता का नाम डुबो 
देते हैं। १०९ लोग विश्वास-घाती बनकर (दूसरो को) लुटवाते हैं; 

आपस में वैर उत्पन्न करते है। पंचदेवो' का पूजन छोड़कर असुरो की 


१-- पंचदेव (पचायतन)-- विष्णु, शिव, सू्यं, गणेश और देवी । जो व्यक्ति 
इनमे से किसी एक का मुख्यतया उपासक होता है, वह उसकी प्रतिमा बीच मे स्थापित 
करके अन्य चारो की प्रतिमाएँ उसके चारो ओर प्रतिष्ठित करके पूजन करता है। 
इस प्रकार विष्णुपचायतन, शिवपचायतन आदि पंचदेव या देवपंचायतन माने जाते है। 


३६२ गुजराती (नागरी लिपि) 


वाट पडावे विश्वासघाती, मांहोमांहे वेर सांधे, 
पंचदेवनूं. पूजन वजीने, असुरने आराधे ।११०। 
बैरागी, विषयी ने जोगी ते भोगी, खोटा वणज वेपारी, 
विषयसेवत करे ने गर्भ धरे, नव वरसनी नारी ।१११। 
सुरभि दूध थोडुं करे ने, इंकाछ ने दुश्भक्ष, 

शोक रोग विजोग, घेरघेर, सदा भरे जढ चक्ष ।११२। 
को'नु रूडू नव देखी शकु, मारे को साथे नहिं स्नेह, 
कक्ति कहे नक्करायजी छें, अवगुण सारा एह।११३॥। 
विशेष केश आमत्ी झाल्यो, चडी रायने रीस, 

हवे न मूकुं अधर्मी, हूं छिंदुं तारु. शीश ।११४। 
अधर्मी अवनी विषे, आवडो तारो उन्माद, 
तारों वध जाणी मने, सौ देशे आशीर्वाद ।११५। 
भयने धरतो रुदन करतों, रायने कहे _कहि, 

पछे मुजने मारजो, बे ग्रुण मारा सांभव्ी ।११६। 
कृत त्ेता ह्ापरे, सर्व॑ वर्ष तापस तापे, 

तोये तेने हरिहर ब्रह्मा, दर्शतं कोय न आपे ।११७। 
दि कि कि शमी न पर मर डक अर कस 
आराधना करते हैं। ११० वैरागी विषयी होते हैं और जोगी भोगी होते है। 
वर्णिक्‌-व्यापारी खोटे होते है। नौ वर्ष की स्त्री विषय-सेवन करती है 
और गर्भ-धारण करती है। १११ गाय दूध कम देती है। काल ओर 
दुर्धिक्ष पड़ता है। घर-घर में शोक, रोग, वियोग होता है। लोग 
मित्य नेत्नों मे अश्च-जल भरते रहते है। ११२ मैं किसी का भला नहीं 
देख सकता । मुझे किसी से स्नेह नहीं होता '। कलि ने कहा, ' है 
नलराजजी, मेरे ये अवगुण है ” । ११३. (यह सुनकर) राजा (नल) को 
क्रोध आ गया । उन्होंने उसके विशेष रूप से केश उमेठकर उसे पकड़ा 
(और कहा--) ' रे अधर्मी, अब मैं तुझे नहीं छोड़गा, मैं तेरा सिर काट 
डालता हूँ । ११४ हे अधर्मी, पृथ्वी के प्रति तेरा इतना उत्मार ! तेरे वध 
(की बात) को जानकर सब मुझे आशीर्वाद देंगे । ११४ (तब) कलि 
से भय धारण किया । वह रुदन करता रहां। वहें (नल) राजा से 
बोला, ' मेरे दो गुणों को सुनते के पश्चात्‌ मुझे मार डालना । १६४६ कृत, 
त्रेता और द्वापर (युग) मे तापस सौ-सो वर्ष तपस्था करते थे, 2 भी, 
श्रीहरि (विष्णु), शिवजी और ब्रह्मा- कोई भी उन्हें दर्शन नह देते 
थे '। ११७ कलि बोला, * (परल्तु) मेरे] राज्य मे, यदि कोई विश्वार 
(श्रद्धा) पूबेंक ध्यान धारण करे, ता उसके इंष्टदेवता छः महीने में आकर 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) रे्रे 


कक्ति कहे मारा राज्यमांहे, ध्यान धरे विश्वासे, 

तो तेने इष्ट देवता ते, आबी मे खटमासे ।११८। 
ए गुण छे एक माहरो, हवे बीजो कहुं विस्तारी, 

शत वार दान करे त्रण युगे, एक वार पामे फरी ।११९॥ 
भावे कभावे मारा वारामां, जे हेते नरतार, 

पुष्य करे जो एक वारे, तो पामे शत वार ॥१२०। 
नक कहे जा नहि हणुं, उपजी मुजने माया, 

अनंत अवगुण ताहरा, ते बे गुणे ढंकाया ।१२१। 
मारा राज्यमां तूं नहि, जो होय जीव्यानूं काम, 
कक्ति कहे हुं क्‍्यां वसूं, वसवानों आपो ठाम॥।१२२। 
ज्यां जाउं त्यां नाम तमारुं, तो क्‍यां रहुं हुं हास ? 

नक कहे बेडाना द्रुममांहे, सदा तारो वास ।११३। 
ज्यां कथा होय महारी, अथवा हरिकीतंन, 

एवे स्थानक तुूं. नहि, तेवुूं लीधु वचन ।१२४। 
राय. बेठो रथ उपर, ऋतुपर्ण समज्यों नहि, 
हषपूर्ण-शुं हय हांक्या, जाणे प्रेमसरिता वही ॥१२५। 
हिल अर के कलम मिल कि तक का मम ले अप स 
उससे मिलेंगे । ११५८ यह मेरा एक गुण हे । भब मै दूसरा विस्तार करके 
कहता हूँ। उन तीन युगों में कोई सौबार दान करता था, तो. उसे 
पुनः: एक बार मिलता था । ११९ (परन्तु) मेरे समय श्रद्धा से, अश्रद्धा से 
जो स्त्री-पुरुष प्रेम-पूर्वंक यदि एक बार पुण्य करे, तो वे सौ बार (उसका 
फल) प्राप्त करते है ” । १२० _ (यदि सुनकर) नल ने कहा ' जा, मैं तुझे 
नही मार डालता। मुझे (तेरे प्रति) ममता उत्पन्न हुई है। तेरे 
अवगुण अनन्त है। फिर भी उन्हें (तेरे) इन दो गुणों ने छिपा दिया 
है। १२१ यदितुझे जीवित रहने की इच्छा हो, तो भी तू मेरे राज्य 
में नही रह पाएगा '। तो कलि बोला, “ मैं कहाँ रहें ! मुझे निवास 
करने के लिए ठौर दीजिए । १२२ जहां मैं जाता हूँ, वहाँ आपका नाम 
है। तो मैं आपका दास कहाँ रहूँ ? ” नल बोले, “ बहेड़े के पेड़ मे तेरा 
नित्य निवास हो । १९१३ जहाँ मेरी कथा (चलती) हो, अथवा श्रीहरि- 
कीतेन होता हो, उस स्थान पर तू नहीं रह पायेगा .। नल ने वैसा 
अभिवचन (कलि से) ले लिया। १२४ अनन्तर राजा (नल) रथ पर 
बैठ गये । ऋतुपर्ण (इसमें से कुछ भी) नही समझ सके। फिर नल-- 
बाहुक हषेपूर्ण होकर घोड़ों को हाँकने लगे। मानो प्रेमसरिता बहने 
लगी हो । १२५ 


३६४ गुजराती (नागरी लिपि) 


वलण ( तर्ज बदलकर ) 
वही चाल्यो प्रेमरस, रथ गाजतों गडगडाट रे, 
कहे भट प्रेमानंद नाथनी, वेदर्भी जुए वाट रे।१२६। 





प्रेम-रस बहता चला। रथ गडगड़ाहुट के साथ गरज रहा था। 
(कवि) भट्ट प्रेमानन्द कहते है-- वदर्भी दमयन्ती (उधर) अपने पति की 
बाट जोह रही थी । १२६ 


कडवुं ५४ मं--( ऋतुपर्ण मौर बाहुक का कुन्दनपुर से आगमन ) 
राग गोडी 


दमयंती कहे दासीने, सुण साधवी, 
छे विप्रनो वायदों आज, महिला माधवी | १ । 
ठेठ.. ऋतुपर्णं आवशे, सुण साधवी, 
जो होशे नक महाराज, महिला माधवी। २ । 
अवध पहोंती छे वनतणी, सुण साधबवी, 
थया ल्रण संवत्सर, महिला माधवी। ३ | 
एवंडा अविनय शा वस्या ? सुण साधवी, 
प्रभु फरी न तपास्यूं घर, महिला माधवी | ४ । 
न सांभर्या बाठक बाड़आं, सुण साधवी, 
कठण पुरुषनां मन, महिला माधवी। ५ । 


जा ऑडििडलडीडि->-+ल+ज+> जब +ज जज बल न्‍+ 3५ 





ज3न+लक+3ल+लजल 335 


कड़वक--५४ ( ऋतुपर्ण भौर वाहुक का ह्ुन्दनपुर में आगसन ) 


दमयन्ती दासी से बोली, “ अरी साध्वी, सुनो । भरी स्व्री माधवी, 
विध्र (सुदेव) ने आज (नलस्वरूप बाहुक को ले आने)का वादा किया 
है।१ अरी साध्वी, सुनो। अरी स्त्री माधवी, यदि (वाहुक) नल 
महाराज (ही) हों, तो (अयोध्यापति) ऋतुपर्णजी दूर से आ जाएंगे। २ 
अरी साध्वी, सुनो । अरी स्त्रो माधवी, वन (-वास) की अवधि पूर्ण हुई 
है। तीन वर्ष (पूरे) हो गये। ३ अरी साध्वी, सुनो। अरी स्त्री 
माधवी। मेरे उतने कौन-कौन अविनय (दोष) उनके मन मे बस गये ? (मेरे 
पति दोषों को कंसे नही भूल पाये ? ) प्रभु (पति) ने फिर घर में नही खोज 
लिया (खोज-खबर, पूछताछ नही की) । ४ भरी साध्वी, सुनों। भरी 
सत्ती माधवी, उन्होंने वेचारे बच्चों को नही याद किया । पुरुष का मन 


प्रेमानन्द-रसा|मृत (नलोपाख्यान) ३८५ 


हुं मोई जीवी जोई नहीं, सुण साधवी, 
वेदयू हशे केम वन, महिला माधवी। ६ । 
ओ वायस बोले बारणे, सुण साधवी, 
मन ऊपजे हरख तरग, महिला माधवी | ७ । 
आज फरके डाबी आंखडी, सुण साधवी, 
वी फरके डाबूं अंग, महिला माधवी। ८ । 
शं सननो मान्‍्यो आवशे ? सुण साधवी, 
थाशे शुकन केरां फछ, महिला माधवी। ९ । 
श्रवण. वधामणी सांभव्ल, सुण साधवी, 
को कहें पधार्या नकल, महिला माधवी ।॥ १०। 
वध थाशे वेरी वियोगनों, सुण साधवी, 
गयो जडशे संजोग, महिला माधवी। ११। 
वीरसेनसुत आवशे, सुण साधवी, 


त्यारे टछ॒ुशे सघढछों रोग, महिला माधवी। १२॥। 
को कहेशे आवी वधामणी, सुण साधवी, 
तथी आपवा सरखी वस्त, महिला माधवी। १३ । 


अर्पीश हार हृदयातणो, सुण साधवी, 
प्रणणीश जोडीने हस्त, महिला माधवी | १४। 


कठोर होता है। ५ अरी साध्वी, सुनो । भरी स्त्री माधवी | मैं मुई 
ने जीवित रहते हुए यह नही देखा कि उन्होने वन (के कष्टो) को कंसे 
सहन किया होगा । ६ अरी साध्वी, सुनो । भरी स्त्री माधवी, द्वार पर 
कौआ बोल रहा है। मन में हे की तरग उत्पन्न हो रही है। ७ भरी 
साध्वी, सुनो । अरी स्त्री माधवी, आज (मेरी) बायी आँख फड़क रही 
है; इसके अतिरिक्त, बायाँ अग फड़क रहा है। ८५ अरी साध्वी, सुनो । 
अरी स्त्री माधवी, क्या मन के माने (भाये)-- मनभावन आ जाएँगे ? (क्या 
यही ) शकुन का फल होगा । ९ अरी साध्वी, सुनो । अरी स्त्री माधवी, 
मैं कानों से बधावा सुन रही हँ। कोई कह रहा है कि नल पधारे। १० 
अरी साध्वी, सुनो। अरी स्त्री माधवी, वैरी (स्वरूप) वियोग का वध 
(विनाश) हो जाएगा। नष्ट हुआ संयोग (मिलन फिर से ) हो जाएगा। ११ 
अरी साध्वी, सुनो। बरी स्त्री माधवी, वीरसेन-सुत नलराज आ 
जाएँगे। तव समस्त रोग दूर हो जाएगा। ११५ अरी साध्वी, सुनो । 
अरी स्त्री माधवी, कोई कह रहा हो कि शुभ समाचार आया है, (फिर भी 
मेरे पास) देने योग्य वस्तु नहीं है। १३ अरी साध्वी, सुनो। अरी 


शेर गुजराती (नागरी लिपि) 


बारीए बेसी निहाछीए, सुण साधवी, 
एव ऊडती दीठी रज, महिला माधवी | १५। 
आ रथ आवे छे गरजतो, सुण साधवी, .., 
वह्ठी फरके गगने ध्वज, महिला माधवी | १६ । 
ओ पडघी पडे अश्वचरणनी, सुण साधवी, 
ए हांकणीमा छे विचार, महिला माधवी | १७ । 
ओ परोणो ऊंचो ऊछलछे, सुण साधवी, 
होय नक्त मुखनो टचकार, महिला माधवी । १८। 
रथ आव्यो गामने गोदरे, सुण साधवी, 
हा हा होय अयोध्याभूप, महिला माधवी | १९। 
दीसे सुदेव मेले लगडे, सुण साधवी, 
पण हांकणहार करूप, महिला माधवी । २० । 


वलण ( तज्ज बदलकर ) 


करूप खेडण रथ तणो, क्यम कहीए ए नह्ठराय रे ? 
अवस्था जोई ग़ामनी, ऋतुपणं दुखियों थाय रे।२१। 


लक जी + 





ट 





न्च्िज्िजचघ जि तल बल व नजर 


स्‍त्री माधवी, मैं हृदय का (हृदयस्वरूप) हार समर्पित करूँगी । हाथ जोड़कर 
प्रणाम करूँगी । १४ अरी साध्वी, सुनो । अरी महिला माधवी, खिड़की 
में बेठकर देख ले । उस समय (इतने मे) धूल उड़ती दिखायी दी (दिखायी 
दे रही है) । १५ अरी साध्वी, सुनो । भरी स्त्री माधवी, यह तो रथ 
गरजता हुआ आ रहा है। इसके सिवा, आकाश में ध्वज फहर रहा है। १६ 
अरी साध्वी, सुनो । अरी स्त्री माधवी, घोडों के पाँवों की ध्वनि (ठापों की 
आवाज) गूंज रही है। यह तो हाँकने का विचार (ढंग) है। १७ अरी 
साध्वी, सुनो । अरी स्त्री माधवी, यह तो पैना ऊपर उछल रहा है। नल 
के मूँह से (हाँकने की) टंकार (ध्वनि) हो रही है। १८. अरी साध्वी, 
सुनो । अरी स्त्री माधवी, रथ नगर की सिवान पर आ गया। अहो, 
अहो, अयोध्या के राजा (आ गये) है। १९ अरो साध्वी, सुनो। भरी 
सत्नी माधवी, सुदेव मैले वस्त्रों मे दिखायी दे रहे है। परन्तु (रथ) हाँकने 
वाले कुरूप है । २० 

रथ के चलानेवाले कुरूप है। उन्हे नलराज कंसे कहें ? . नगर 
की स्थिति देखकर ऋतुपर्णजी दु:खी हो गये है । २१ 


प्रेमानस्द-रसामृत (नलोपाखझ्यात ) श्दद७ 


कडवुं ५४ मुं-( ऋतुपर्ण और बाहुक का राजसभा में आगमन ) 
ह राग केदारो 

ऋतुपर्ण कहे छे विप्रने, ए शुं कारण सुदेव रे, 
अआ्रांत पडे छे मुजने, नथी स्वयवरनों अवेब रे। १। 
मुनि मुंने मिथ्या लावियो, कांई दीसे छे कपट रे, 
रिपुलोक हसाविया, फेरो पड़यो फोगट रे। २। 
विवाहकर्म नथी दीसतुूं, नथी रच्यो मांडव रे, 
दुंदुभि थे नथी बोलता ? नथी थतुं तांडब रे। ३ । 
सुदेव वत्धतो बोलियो, छे छान विवाहनूं कर्म रे, 
कंकोत्री कोने लखी छे, नहीं भांजवों भीमकने भर्म रे। ४ । 
क्षणं एक रहीने आवजो, पूंठेथी महाराज रे, 
आगल्॒थी ते सांचर्यों, वधामणी लेवा काज रे। ५। 
वेदर्भी जुए वाटडी, विप्र आव्यो घरमांय रे, 
हरखे भरी तब सुंदरी, मुनिने लागी पाय रे। 
रूडी कहेजो वधामणी, शुं पधारे प्राणनाथ रे? 
बाई रूडी पेरे नथी ओलछख्यो, शत जोजन कीधो साथ रे। ७ । 


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* 


फड़वक--५५ ( ऋतुपर्ण भौर बाहुफ का राजसभा मे आगसन ) 


ऋतुपणंजी ने विध्र सुदेव से पूछा, “ है सुदेव, इसका क्‍या कारण है ? 
मुझे भ्रम हो रहा है-- (यहाँ) स्वयवर का कोई उपकरण (व्यवस्था आदि) 
नही है। १ है मुनि, आप मुझे मिथ्या (झूठ से, व्यर्थ ही) ले आये हैं। 
(यहाँ) कुछ कपट दिखायी दे रहा है। (अपने) शत्रु लोगों को मैंने हंसवा 
दिया है (शत्रु लोग मुझे हंसेगे) । यह व्यर्थ का चक्‍कर पड़ गया। २ 
(यहाँ) विवाह-कार्य नही दिखायी दे रहा है। मण्डप (भी) छवाया नहीं 
गया है। दुन्दुभियाँ कैसे नही बज रही है ? ताण्डव (नृत्य भी) नही हो रहा 
है । ३ इसपर (प्रत्युत्तर मे) सुदेव बोले, “ विवाह-कार्य ग्रुप्त-हूप से 
(होनेबाला) है। (अतः) विवाह-पत्निका ( भी ) किसने लिखी है, इस विषय में 
भीमक के भ्रम को भंग नही करता है। ४ एक क्षण ठहरकर (आप) महाराज 
(मेरे) पीछे से आ जाइए '। बधावा लेने के लिए वे आगे से चले गये । ५ 
(उधर) वेदर्भी दमयत्ती बाठ जोह रही थी । विप्र सुदेव घर के अन्दर आ 
गये। तब हफ॑ से भरी-पूरी वह सुन्दरी भुनि सुदेव के पाँव लगी । ६ (वह 
बोली-) “समाचार अच्छा कहिए। क्या मेरे प्राणनाथ पधारे है ? ! (सुदेव 
बोले--) “ हें देवी, मैने सो योजन साथ किया है (साथ में रहा हैं); (फिर 


३८५ गुजराती (नागरी लिपि) 


छे रूप तेहनं बिहामणुं, जाणे बीजों नक रे, 
बाहुकने परीक्षाने तेडजों, एकांत तनाडी स्थक्नत रे। ८ । 
दमयंती हरखे घणूं, जो आव्या छे ऋतुपर्ण रे, 
नगरलोक हसे घणु, जोई सारथि केरो वर्ण रे। ९ । 
भीमकराय सामा गया, रथथी ऊतर्या राय रे, 
त्णे राजकुंवर आवी मह्या, ऊठी सर्वे सभाय रे। १०। 


वलण (तर्ज बदलकर ) 


सभा सर्वे बेठी थई, आसने वेठो भूप रे, 
भीमक आदे सर्वे को, जुए सारथिनंं रूप रे।११। 


भी) मैंने अच्छी तरह से उन्हें नहीं पहचाना है।७ उनका रूप 
भयानक है। (फिर भी) जान पड़ता है, वे दूसरे नल हों। एकान्त 
स्थान देखकर बाहुक को परीक्षा के लिए बुला लाओ '। ८५ दमयन्ती बहुत 
भआनन्दित हो गयी । देखो ऋतुपर्णनी आ गये है। सारथी का वर्ण देखकर 
नगर के लोग हँसने लगे । ९ भीमक राजा (अगुवानी के लिए) सामने 
(आगे) गये। रथ से राजा (ऋतुपर्णणी) उतर गये । तीनों राजपुत्र 
आकर मिले। समस्त सभा (ऋतुपर्ण के प्रति आदरभाव दिखाने के 
हेतु) उठ गयी (खड़ी हो गयी) । १० 
(अनन्तर) समस्त सभा बैठ गयी। राजा आसन पर बैठ गये । 
भीमक आदि सब किसी ने सारथी के रूप को देखा । ११ 


फडवुं ५६ मुं-( राजा भीमफ द्वारा ऋतुपर्ण से पुछताछ करना ) 
राग केदारो 
भूप भीमक स्तुति करे घणी रे, भले पश्मनार्या अयोध्याधणी रे, 
थाका अवेव दीसे देहना रे, एकलां शे नथी सेना रे। १ । 


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कड़वक--५६ ( राजा भीमक द्वारा ऋतुपर्ण से पुछताछ फरना ) 
राजा भीमक ने (ऋतुपर्ण की) बहुत स्तुति की। (फिर वे 
बोले--) ' हे अयोध्यापति, आप अच्छे पधारे । आपकी देह के (समस्त) 
बा थके हुए दिखायी दे रहे है। आप अकेले पघारे है। (साथ में) 
क्‍यों सेना नहीं है।१ घोड़े दुर्बलता में सीमान्त तक जा पहुँचे है। 


प्रैमाननद-रसामृत (नलोपाख्यान) ३६६ 


हय दुर्बके वक्षियों छेक रे, सारथि संसार वत्रेक रे, 

कांई अटपटुं सरखूं दीसे रे, एहवे बाहुक बोल्यो रीसे रे। २ । 
ऋतुपर्ण मृको रथ ताणी रे, ऊठो घोडाने करो चारपाणी रे, 

नाख्यो परोणो ने राश रे, जई बेठो ऋतुपर्ण पास रे। ३ । 
आवबे लागतो राय आधो खेसे रे, सभा मुखे वस्त्न देई हसे रे, 

तेम मचमचावे आंखडी रे, खोल्ठामां वस्त्ननी गांठडी रे। ४ । 
ऋतुपर्णने बाहुक पूछे रे, कां वेहवानो विलंब शुं छे रे ? 

राजा राखे साने वारी रे, तेम बाहुक बोले खंखारी रे। ५ । 
ऋतुपर्णने पूछे भीमक रे, आ शुं सखा करे छे जक रे? 

ए मित्र क्यांथी ऊपज्यो रे, जेथी काम हींडे छे लाज्यों रे। ६ । 
कहो कांहांथी आव्या राणा रे ? घणु थाका रेण भराणा रे, 

ऋतुपर्ण कहे आ भिया ग्रुणी रे, नथी एकु विद्या ऊणी रे । ७ । 
कोई विद्याए न जाय वाधी रे, ते माटे मैत्री बांधी रे, 

रथ हांकणी विद्या हाथे रे, में मृगया तेड्या साथे रे। ८५ । 
वन भमता थयो अतिकाढ रे, आंहां आवी चड़या भूपाक्ठ रे, 

भीमक कहे कीधी करुणा रे, आज सहेजे स्वामी पहरुणा रे। ९ । 
ऐसा सारथी संसार में एक ही रहता है। कुछ अटपटा जैसा दिखायी दे 
रहा है '। इतने में बाहुक क्रोधपूर्वकं बोला ।२ “ हे ऋतुपर्णनी, रथ 
को खीचकर खोल दीजिए। उठिए घोड़ो को दाना-पानी दे दीजिए '। 
फिर उसने पंना और लगाम छोड़ दी । वह ऋतुपर्ण के पास जाकर बैठ 
गया । ३ उसके पास में आने लगते ही राजा आधे खिसक गये। 
सभाजन मुंह पर वस्त्न रखते हुए हँसने लगे। वह वंसे ही आंखे मिचमिचा 
रहा था। उसकी गोद में कपड़ो का गटठर था।४ (अनन्तर) 
बाहुक ने ऋतुपर्णनी से पूछा, ' विवाह करने मे क्‍या कुछ विलम्ब है ?' तो 
राजा ने उसे संकेत करते हुए रोका । तब बाहुक खँखारते हुए बोला । ५ 
भीमक ने ऋतुपर्णजी से पूछा, “ आपके ये सखा क्या झकझक कर रहे हैं ? 
ये मित्र कहाँ से उत्पन्न हुए (मिल गये), जिनसे कामदेव लज्जित हुआ है 
और भ्रमण कर रहा है। ६ है राजा ! कहिए तो भाप कहाँ से आये ? 
वे बहुत थके हैं, धूलि से भर गये है ”'। तो ऋतुपर्णजी बोले, ' ये भाई 
तो गुणबाल है। इनमे एक (भी) विद्या कम नही है। ७ विद्या में 
(मुझसे) कोई बढ़कर न हो जाए, इसलिए मैने इनसे मित्रता की है। 
इनके हाथ मे रथ चलाने की विद्या है। इसलिए मै इन्हें मृगया के लिए 
साथ में बुला लाया हूें।5 वन में भ्रमण करते-करते बहुत समय हो 


४०० गुजराती (नागरी लिपि) 


भूप भीमके हलभल कीधी रे, रसोईनी आज्ञा लीधी रे, 
भूप बाहुक नो छे भेदी रे, आ भिया छे आत्मनिवेदी रे । १० । 
वलण ( तर्ज बदलकर ) 


आत्मनिवेदी छे सारथि, हस्यो भीमक श्रूपाह्त रे, 
अन्न वमन थाय दर्शने तो, आबडो शो सुगाछ रे? । ११। 








गया । इसलिए, है राजा, यहाँ भा गया ह!'। तो भीमक बोले, “ आपने 
यह कृपा की है। हे स्वामी, आज सहजतया भाप अतिथि हो गये है '। ९ 
अनन्तर राजा भीमक ने सम्मान का प्रबन्ध किया और रसोई बनाने की 
आज्ञा दी। राजा ऋतुपर्णनी वाहुक के रहस्य के जानकार थे। (वे 
बोले--) “ये भाई (बाहुक) तो स्वय-पाकी (अपने लिए स्वयं भोजन बनाने 
का व्रत रखनेवाले) हैं । १० 

सारथी (बाहुक) स्वयं-पाकी (अपने लिए स्वयं रसोई बनाते का 
व्रत रखनेवाले) है। भीमक हँसने लगे । इसके दर्शन से तो (खाया 
हुआ) अन्न वमन हो जाएगा --यह इतना घिनौना कैसे है । ११ 


फडवुं ५७ मूं--( दमयन्ती द्वारा वाहुफ की परोक्षा करवाना) 
राग नटती 


बाहुक मोकल्यो वाडीमाहे, रसोई स्थक्क एकांत, 
कहे वेदर्भी कीजे परीक्षा, परुण्यश्लोकनी पडे अात। १ । 
भीमकराये आज्ञा आपी, अश्वनी ल्‍यो तपास, 
ऋतुपर्ण ऊतर्या भव्य भुवने, करे सेवा दास। २ । 


न्> ++ञ 








ब+ » अल 33 > पल 








अल >ल> अलओए, हज अ >> >> जडीडल लीक कल जज + 


फड़वक-- ५७ ( दमयन्तो द्वारा वाहुक फी परीक्षा फरवाना ) 


(दमयन्ती ने) बाहुक को बगीचे मे भेज दिया। (वहाँ उसके 
लिए) रसोई बनाने की दृष्टि से एकान्त स्थान था। वैदर्भी दमयन्ती 
बोली, “ उसकी परीक्षा कीजिए। उसके पृण्यश्लोक चलराज होने का 
अम हो रहा है (।१ भीमकराज ने आज्ञा दी, “ घोड़ो की जाँच-पड़ताल 
(देखभाल) करो '। (इधर) ऋतुपर्णजी भव्य भवन में ठहर गये । 
सेत्रक उनकी सेवा कर रहे थे । २  दमयन्‍्ती ने भीमक को कहलवा 


प्रेमाननद-रसामृत (नलोपाख्यान) ४०१ 


दमयंतीए भीमकने कहाव्यूं, आज्ञा तमारी लीजे, 
बाहुकमां छे ग्रुण नक्करायना, अमे परीक्षा कीजे। ३ । 
एकांत वाडी दमयतीनी, कीधृं रसोईनूं स्थक्र, 
ठालो कुंभ आणीने मूक्‍्या, मृक्‍्यो काष्ठ नहीं अनछ । ४ । 
बीजां पात्र मूक्‍यां नानाविध, मसूक्‍यु नहीं मेक्षण, 
माधवी केशवी .मृकी सेवा ते, जाणे सर्व लक्षण। ५ । 
दमयंती बेठी झरूखे,  अंतरपट आडो. बांधी, 
तेडी लावो खरूपाछाने, जुओ केम जमे छे रांधी। 
दासी एक तेडवाने आवी, चालो कंदर्पष क्रोड, 
अमारी वाडीने शोभावो, चालो चंपक छोड। ७ । 
उठयो नक्ठ चाल्यो अंतःपुरमां, आनद अंतर आणी, 
सखी साहेली आश्चयें पामे, हशे ते सणगट ताणी। ८ । 
जुए हेरीने दमयंती, विस्मे थई  मनमांहे, 
आ स्वरूपनी न मछ्े जोडी, जोतां त्रण भुवनमांहे । ९ । 


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दिया-- “हम आपकी ,आज्ञा लेते है। इस बाहुक में तलराज के “गुण 
(पाये जा रहे) है। (अतः) हम परीक्षा करें '। ३ दमयनन्‍ती का एकांत 
स्थान वाला उद्यान था।, वह रसोई के लिए स्थान (निर्धारित) किया 
(गया) । (दासियों ने) रीता कुम्भ लाकर रख दिया । (चुल्हे में) 
उन्होंने लकड़ियाँ डाली (पर) आग नही डाली।४ नाना प्रकार के दूसरे 
पात्न उन्होने (वहाँ) रख दिये । (परन्तु) उन्होने उनमें कोई करछली 
नही रख दी। (अनच्तर) माधवी ओर केशवी ने सेवा करना छोड दिया। 
वे (नल के) समस्त लक्षण जानती थी। ५ दमयन्ती, आड़े -अन्तरपट 
लगाकर झरोखे में बेठ गयी। (वह बोली--) “ उस सुन्दर पुरुष को 
बुला लाओबो । देख,लो कि वह किस प्रकार रसोई बनाकर जीमता है '। ६ 
तो एक, दासी (बाहुक को) बुलाकर लिवा ले जाने के लिए आ गयी । 
(वह बोली--) ' हे कोटि-कोटि कामदेव (से सुन्दर), चलिए। हमारे 
उद्यान को शोभायमान बना दीजिए। (परन्तु) चम्पक छोड़कर चलिए '। 
(भ्रमर चम्पक के पास नही जाता । यहाँ दासी ने व्यग्य के साथ कहा कि 
बाहुक ,चम्पक को .छोड़कर जाए, चम्पक के पास न जाए --उसका वर्ण 
अमर जेसा काला था।) ७ तो नल मन मे आतनन्‍्द लाकर (अनुभव 
करते हुए) अन्तःपुर मे चले। वे सखी-सहेलियाँ आश्चर्य को प्राप्त हो 
गयी.। (उन्हें लगा कि) वह घूंघट ओढ़े हुई होगी । ५, वमयस्ती ने उन्हें 
ध्यान से देखा। वह मन में विस्मित हुई। (उसने माना--) तीनो भुवनों 


४०२ गुजराती (तागरी लिपि) 


शरीर दीसे दवनुं दीधुं, स्कंधे जाडो पगे पातढो, 
टूंकडआा कर ने नस नीसरी, मोटो पेटनो नो | १०। 
कांहां नक् ? कांहां बाहुक ? कांहां सूरज ? राहु मंडक्त ? 
वाकुं मुख ने मस्तक मोटूं, पाघडी ऊंडल-गुंडछ | ११। 
ए साथे शी गोठडी ? ऋतुपर्णने भावेट लागी भवनी, 
हींडतां पगने स्पर्श करीने, काछी थाय छे अवनी। १२। 
पण एहने विद्या हय हांक्याती, आश्चयें सरखूं दीसे, 
कतरातो आवबे नाक फुलावे, श्रुकुटी भरी छे रीसे। १३। 
दमयंती पासे हसती . हसती, भाभी आबवब्यां त्नण, 
बाई आ पूतल्ं क्यम पधराव्यूं, वारु रूप ने वर्ण। १४। 
कदाचित नक॒जी नीवडशे, ने रहेशे एहवंं अंग, 
कहो बाई तमो ए पुरुषनो, कई पेरे करशो संग ? । १५॥ 
शाप हशे कोई तापसनो, न जाशे कोई उपांगे, 
आ भिया आसन बेसशे, तमो केम रहेशो वामांगे ? । १६। 


की 





मे (खोजकर) देखने पर भी इस स्वरूप का जोड़ (कही) नह्ी मिल 
सकता । ९ शरीर दावानल में (झुलसने के हेतु) वना दिया हुआ (जान 
पडता) है। कन्धों में यह मोटा है; पाँवों में पतला है। इसके हाथ छोदे 
* हैं और नसें निकली हुई (फूली हुई) है। इसके पेट की माँते बड़ी है 
(वह बड़ी तोद वाला है) । १० कहाँ नल ? कहाँ बाहुक? कहाँ सूर्य और 
कहाँ राहु-मण्डल ? इसका मुँह टेढ़ा है और सिर बड़ा है। पगड़ी (भी) 
अस्त-व्यस्त गोले जेसी है। ११ इसके साथ कैसी मित्रता ? (जान पड़ता 
है--) ऋतुपर्ण को संसार की झंझट लग गयी है। इसके घूमते रहने पर 
पाँवों के स्पर्श से धरती काली हो रही है। १२ परन्तु इसे घोड़ों को 
चलाने की विद्या प्राप्त है -यह आश्चर्य-सा दिखायी दे रहा है। वह 
कतराता हुआ (टठेढा) आता है, नाक को फुलाये रहता है। भौहें क्रोध 
से भरी हुई-सी है। १३ (इतने मे) तीनो भाभियाँ हँसते-हंसते दमयन्ती 
के पास आ गयीं (और बोली-) ' है देवीजी, इस पुतले को कैसे पघरवा 
लिया ? इसका रूप और वर्ण सुहाना है। १४ कदाचित यह नलजी 
निक्रलेगे (प्रमाणित हो जाएँगे) और उनका ऐसा शरीर रह जाएगा। 
कहो तो देवीजी, तुम इस पुरुष का सग्र किस प्रकार करोगी | १५ इन्हें 
किसी तापस का शाप (प्राप्त हुआ) होगा । वह किसी उपांग (उपाय) से 
नही जाएगा । ये भाई (जब) आसन पर बैठेगे, (तब) उनके वामांग में 
कंसे रह पाओगी-। १६ हे देवीजी, जहां होंगे, वहाँ से तुम्हारे पत्ति कल 


प्रेमानन्द-रसाम्ृत (नलोपाख्यान ) ४०३ 


जांहां हशे तांहांथी काल आवशे, बाई तमारो स्वामी, 
एम वलखां शुं मारो छो ? कांई धीरज धरो गजगामी । १७। 
वेदर्भी कहे कौतुक मूको, बेसी करो परीक्षा, 
जाओ सेवा करो बाहुकनी, दासीने दीधी शिक्षा। १८५। 
केशवी माधवी बच्ने आवी, बाहुकजीनी पास, 
ह॒ंदे भरायूं नछराजानूं,, ओछेखी बच्चो दास। १९। 
सूकां वृक्षने स्पर्श कर्यो ते, ते थयूं नवपललब, 
दासी तव आनंद पामी, होय वेदर्भीनी वलल्‍लभ | २०। 
कहे सहियारी हो आचारी, मन न आणशो धोको, 
द्रम तत्ठे स्थक् पवित्न कीधं, अमो दीधों छे चोको। २१। 
नहावानूं तांहां वस्त्र पहेरे, पाघडी पछेंडी वरजे, 
जंघाए गुंछछां केशतर्णा ने, शरीर भयु छे खरजे। २२ | 
नीचुं ऊंचुं, भाे, शरीर खजवाछे, दासीए अवलोकन कीधो, 
रांदे पाये हीडे बडबडतो, ठालो कुंभ जई लीधो। २३ । 
वरुण मंत्र , भण्यो नह्ठराये, तत्क्षण कुंभ भरायो, 
वीस घडा रेड्या शिर उपर, ऊभो रहीने नहायो। २४। 


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आ जाएँगे। इस प्रकार झूठ-मूठ का (व्यथें) यत्न क्‍यों कर रही हो ? 
है गजगामिनी, कुछ धीरज तो धारण करो (। १७ (यह सुनकर) 
वेदर्भी दमयन्ती बोली, ' कौतुक (हँसी-ठठोली) छोड़ दो। बैठकर 
परीक्षा कर लो '। फिर उसने दासियो/को सीख दी (और कहा-) ' जाओ, 
बाहुक की सेवा करो !। १८ (तदननन्‍्तर) केशवी और माधवी दोनो 
बाहुक के पास आ गयी। तो नलराज का हृदय भर उठा। उन्होंने 
दोनों दासियों को पहचान लिया। १९ (दासियो ने देखा-- जब) नल 
ने सूखे वृक्ष को स्पर्श किया, तो वह नव-पल्लवों से युक्त हो गया। तब 
दासियाँ आनन्द को प्राप्त हुईं। (उन्हें विश्वास हुआ कि) ये वेदर्भी के 
वललभ (ही) है। २० फिर सखी बोली, “ अहो आचायेंजी, मन में कोई 
धोखे को बात न लाना (मानना)। वृक्ष के तले हमने स्थान को पवित्र 
बना दिया-- हमने चोका (बनाकर) दिया (। २१ वहाँ उसने नहाने के समय 
घारण किया जानेवाला वस्त्र पहन लिया ओर पगड़ी तथा दुपद्‌टा (गूदड़ी, 
चादर) उतार दी। उसकी जंघाओ पर केश के गुच्छे थे और शरीर 
खाज से भरा हुआ था।२२ सिर ऊँचा-तीचा था। वह शरीर को 
खुजलाता था। दासियों ने यह देखा। वह बड़बडाते हुए ठेढ़े-मेढ़े पाँवों 
से चलता था। उसने जाकर रीता कुम्भ ले लिया। २३. (अनन्तर) 


४०४ गुजराती (नागरी लिपि) « 


दासी "अति आनंद पामी, कौतुक दीठूं वल्तुं, 
चहला मध्ये काष्ठ मृक्‍यां, अग्ति विण थयुं वद्तु ।२५। 
उभरातूं अन्न करे हलावे, कडछीनु नहीं काम,  ' 
दासी गई. दमयंती पासे, बोली करी प्रणाम । २६। 
वाजी वृक्ष ने जछू अनछ, ए चार परीक्षा मढ्ठी, 
अन्न लावो अभडावी एहनु, वंदर्भी कहे जाओ वढ्ी। २७। 
रमती ' रमती नेहे नमती, नीरखती निज गात्न, 
एक बाहुक बाते वत्वगाड़यो, एक लई नाठी अन्नपात्र | २८ । 
अरे पापिणी, कही बाहुक ऊठयो, दासीए मूकी दोट, 
माधवी कहे फरी करो रसोई, हुं दई आपु अबोट | २९। 
फरी ,पाक निपजाव्यो नक्कराय, बेठो करवा भोजन, 
पछे दमयतीए जोयूं चाखी, अणाव्यूं जे अन्न | ३०। 
स्वाद ओब्ख्यो ए नक् निए्चे, पाक परम रसाह्ठ, 
किकरी फरीने मोकली त्यारे, साथे बच्चे बाछू | ३१। 


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नलराज ने वरुण मंत्र पढ़ा और तत्क्षण वह कुम्भ (पानी से) पूर्ण भर 
गया। उन्होने बीस घड़े (पानी) सिर पर उंडेल दिये । वे खड़े रहकर 
नहा रहेथे। २४ वे दासियाँ अति आनन्द को प्राप्त हुईं। उन्होने फिर 
से एक आशचय देखा ।' नल ने चूल्हे मे लकड़ियाँ डाल दीं, तो वे बिना 
आग (डाले) जलने लगी.। २५ उन्होने, उबलते अन्न को हाथ से हिला 
दिया। (वहां) करछुली का कोई काम नही था। (यह देखकर) 
दासी दमयन्ती के पास गयी और उसे प्रणाम करके बोली । २६ “ अश्व, 
वृक्ष और जल तथा भग्नि-- के सम्बन्ध में ये चार परीक्षाएँ मिल गयी 
'(हो गयी) [। फिर.वेदर्भी बोली, ' लौटकर जाओ ओर उसके अन्न की 
छूकर (उठाकर) ले आओ '। २७ (तदनन्तर) खेलते-खेलते, प्रेमपूर्वक 
नमस्कार करते हुए एक (सखी ) अपने गात्रों को निरखती रही ।, उसने बाहुक 
को वातों में उलझा दिया, तो दूसरी अन्न का पात्न लेकर भाग गयी | २८ 
/ अरी पापिनी ” कहकर बाहुक उठ गया, तो दासी ने दौड़ लगायी। 
तो माधवी बोली, “ फिर से रसोई बनाइए । मैं चौका लगा देती हूं '। २९ 
(अनन्तर) नलराजा ने फिर से रसोई बना ली और वे भोजन करने बेठे । 
फिर जो अन्न लाया गया था, दमयन्ती ने उसे चखकर देखा । ३० उसने 
उस (अन्न) का स्वाद पहचान लिया। वह अन्न रसृ-भरा था। तो 
उसे विश्वास हुआ कि निश्चय ही यह (वाहुक) नल (ही) है। तब उसने 
दासी को फ़िर से भेज दिया । उसके साथ दोनों बच्चे थे। ३१ 


प्रेमार्नन्द-रसामृत ,(नलोपाख्यान ) ४०५ 


वलण ( ते बदलकर ) 


साथे बच्चे बाकू ने, नक कने आवी किकरी, 
बाहुके दीठां बाडुआं तांहां रे, आंखडी जछे भरी रे। ३२। 


साथ मे दोनों बच्चे थे। वह दासी नल के पास आ गयी 
वहाँ बाहुक ने उन (दोनो) बच्चों को देखा, तो उसकी आँखें पानी से भर 
उठी । ३२ ४2... 


कडवुं ५८ मुं--( दमयन्तो द्वारा परीक्षा फे लिए बाहुक को बुलवाना ) 
राग रामग्री 

बाहुके दीठां बाडुआं, उलटयूं. अतःकर्ण, 

दामर्णां माहरां बाह्॒कोने, देखीने आवबे मर्ण | बाहुके० । १ । 
कछजुगे कल्पांत ज कीधु, बाक॒क वर्त्या मोसात, 

कोण कृत्य में आचर्या ? तजी अबढ्ा अंतरियात्ठ । बाहुके० । २ । 
संजोगसागर ऊलदटयो, नयणां श्रावण समान, 
आलिंगन देवा 'कारणे, सुतने कीधघी सान | बाहुके० । ३ | 
मत्ववाने तेड्यां मीठडा, कर लांबा कीधा धीश, कक 
छल्हयां बीहीन्यां बाछ॒को ते, त्यां पाडे चीसेचीस | बाहुके० । ४ । 


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कड़वक-- भप ( दमयस्तों द्वारा परीक्षा के लिए बाहुक को वुलवाना) 


' बाहुक ने (जब) बच्चों को देखा, तो उसका अन्तःकरण उमड़ 
उठा। (उसे जान पड़ा--) अपने पराधीन बच्चों को देखकर मौत आ 
रही है। बाहुक ने० । १ कलियुग ने (यह कसा) कल्पान्त (करनेवाला 
प्रलय) ही कर दिया है कि ये (मेरे) बच्चे ननिहाल में रह रहे है। 
मैंने कौन-से काम किये (जिनका यह परिणाम है) ? मैंने उस अबला 
(दमयन्ती ) को अन्तरिक्ष आर्थात निर्जेत (वन) में छोड़ दिया। बाहुक ने० । २ 
सिलन के कारण प्रेम रूपी सागर उमड़ उठा। उनकी आँखें श्रावण 
मास के समान हो गयी- अर्थात आँखो से श्रावण की वर्षा-धाराओं-सी 
अश्वुधाराएँ बहने लगी । उसने आलिगन करने के हेतु पुत्रो को (निकट 
आ.जाने का) सकेत कियां। बाहुक ने० । ३ उस राजा ने मिलने 
के लिए मधुर शब्दों में उनको बुला लिया, हाथ लम्बे किये (आगे बढ़ाये) 
तो वे चौक उठे और भयभीत हो गये । वे चीखने-चिल्लाने लगे। बाहुक 


४०६ गुजराती (नागरी लिपि) 


दासीए चांप्यां ह॒दे साथे, कीधो बाहुकनो तिरस्कार, 
रहेवा दे तार॑ रमाडव्‌ भाई, रुए छे राजकुमार | वाहुके० । ५। 
बाहुक कहे बाहठकने मुंने, सांई देवानों स्नेह, 
ना रे भाईडा भेटता थाए, काछी कुंवरनी देह | वाहुके० । ६ । 
छे छत्नपतिनां छोकरां, तुंने मछवानुं केम मन ? 
थे दुःखे थाय ले गढगढो ? रोतां फूटशे लोचन। बाहुके० । ७ । 
बाहुक वक्॒तों बोलियो मारे, एवाॉं वाहकनी जोड, 
आ देखीने ते सांभर्या, थयूं रमाडवानंं कोड | बाहुके० । ८ । 
दासीए कहयूं दमयतीने, बोल्यो बाहुक जे वात, 
बाई आश्चय दीठुं अतिधणुं, काकछो करे आसुपात । बाहुके० । ९ । 
दमयंतीए पूछयूं भीमकने, नत्ठनी पडे छे श्रांत, 
आज्ञा होय तो बाहुकने, पूछ तेडी एकात । बाहुके० ।१०। 
भीमक कहे सती सुता, तुने शूं देउं शिक्षा, 
सुखे बोलावो बाहुकियाने, करो नव्ठती परीक्षा | बाहुके० ।११। 


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ने० । ४ दासी ने उन्हे हृदय से दृढ़तापूर्वक लगा लिय। और बाहुक के 
प्रति तिरस्कार (प्रकट) किया। (वह बोली--) “ अरे भाई, अपना 
(बच्चों को) खेलवाना रहने दो। ये राजकुमार रो रहे है .। बाहुक 
ने० ।५ बाहुक बोला, ' इन वच्चों का आलिगन करने में मुझे स्नेह पा 
है '। (तो दासो बोली--) “ना भैया ! तुम्हारे गले लगने से इन कुमा 
की देह कालो हो जाएगी। वाहुक ने० । ६ ये छत्रपति के बच्चे है। 
उन्हें गले लगाने की तुम्हे कैसी कामना हो रही हैं ? तुम किस दुःख से 
गदुगद हो उठे हो ? रोते-रोते तुम्हारी भाँखे फूट जाएँगी '। वाहक ने० | ७ 
प्रत्युत्तर में बाहुक बोला, “मेरे (भी) ऐसे बालकों की जोड़ी है। 
इन्हें देखकर उनका स्मरण हो आया और इन्हें खेलाने की उत्कट इच्छा हुई । 
बाहुक ने० । ५ (तदनन्तर) बाहुक ने जो बात कही, वह दासी ने 
दमयन्ती से कही । (वह दासी बोली--) ' देवीजी, अति बड़ा आशचये देखा। 
बह काला आँसू वहा रहा था !। बाहुक ने० ।९ तो दमयन्ती ने 
भीमक से पूछा (कहा--) ' (बाहुक के) नल (होने) का भ्रम (अनुमान) 
हो रहा। आज्ञा हो तो बाहुक को एकान्त में बुला लाकर पूछ ह लेती 
हैं '। बाहुक ने० । १० भीमक बोले, “ अरी सती कन्या, मैं तुम्हें क्या 
सीख दूं ? वाहुक को सुख के साथ बुलाओ और नल की परीक्षा कर लो'। 
बाहुक ने ०। ११ वंदर्भी दमयन्ती अन्तःपुर मे, जहाँ उसकी अपनी 
मंजिल थी, (वहाँ) आ गयी। उसने दासी को आज्ञा दी-- ' बाहुक को 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ४०७ 


वेदर्भी आव्यां अंतःपुरमां, ज्यां पोतानी मेडी, 

आज्ञा आपी दासीने, लावो बाहुकने तेडी | बाहुके० ।१२। 
शीघ्र आबवी साहेलडी, अंतरमांही उल्लास, 

ऊठो बाहुकजी उतावक्वा, चालो दमयतीनी पास | बाहुके० ।१३। 
रायजी वह्ततों बोल्यो, हुं छूं दीन कंगाल, 

वरुवा साथे वेदर्भीने, वात कर्यानूं शुं वहाल ? बाहुके० ।१४। 
सोमवदनी सुंदरी, सारंगनयना सुजाण, 

वात करता ब्रह्मचयें भांगे, वागे मोहनां बाण । बाहुके० ।१५। 
परघरमांहे अमो नव पेसूं, स्त्रीनूं चचक्त मन, । 

अमो साधु पुरुषने सद्य पाडे, आवीने दे आलिगन । बाहुके० ।१६ 
दासीने तव हास्य आव्यूं, देवनां कौतुक जोय, 

विश्वमोहिनी दमयंती ते, आ भियाने क्यम नहि मोहाय? बाहुके ०५ १७। 
बोर न खाय को करतणां, विपरीत वपुनुं वान, 

एवा उपर वढी कर्म लड़यां, वढी रूपनूं अभिमान । बाहुके० ।१५। 
बलात्कारे तेड़्यो बाहुक, दासी थई बांहेधर, 

तीची नाडे नक्त चालियो, ज्यां गृहिणीनूं घर । बाहुके० ।१९। 


बुलाकर लाओ '। बाहुक ने० । १२ वह दासी शीघ्रता से आ गयी। 
उसके अन्त.करण में उल्लास था। (वह बोली--) “ है बाहुकजी, उठो (और) 
शीघ्रता से दमयन्ती के पाय चलो '। बाहुक ने० । १३ तो प्रत्युत्तर 
मे राजा (नल) बोले, मैं दीन, कगाल हूं। वेदर्भी को वर से वातें 
करने का क्यो प्रेम हो रहा है ? ' बाहुक ने० । १४ (वे बोले--) ' वह 
चन्द्रवदना सुन्दरी है, सारग-नतयना है, सुजान है। उससे बात करते पर 
(मेरा) ब्रह्मचयं भग हो जाएगा । (मुझे) मोह के बाण लग जाएंगे '।॥ 
बाहुक ने० । १५ (वे बोले--) मैं पराये घर में प्रवेश नही करूँगा । 
स्‍त्री का मन चचल होता है। वह हम साधु पुरुषो को तत्काल गिरा देती 
है; वह भाकर आलिंगन करती है “। बाहुक ने० । १६ (यह सुनकर) 
तब दासी को हँसी आयी। वह देव को लीला देख रही थी। (उसे 
लगा--) वह विश्वमोहिनी दमयन्ती इस भाई को कैसे मोहित नहीं कर 
रही है। बाहुक ने० । १७ इसके हाथ के बेर (तक) कोई नहीं खाएगा। 
इसके शरीर का वर्ण विपरीत है। इसके अतिरिक्त, कर्म लड़ 'रहे है 
(पूर्वेकृत कर्मों का यह फल है) । फिर इसे अपने रूप का अभिमान है। 
बाहुक ने० | श्द वाहुक (नल) को दासीौ बलपूर्वक हाथ पकड़कर ले गयी । 
नल सिर झुकाये हुए चले गये, जहाँ उस गृहिणी (दमयन्ती) का घर था । 


इ०्८ . गुजराती (नागरी लिपि) 


जातां कहे छे किकरीने, ब्रह्मचयेने छे घात, 

वेदर्भी विकारे भरी, मने वश करवानी वात | बाहुके० ।२०। 
माधवी कहे बोल विचारी, कोण भागे छे धर्म, | 
वैदर्भी तने क्यम नहि वरे ? करे अग्नि कर्म । बाहुके० ।२५॥। 
नथी आशरो फरी गयानो, कही भिडाव्यां कपाठ, 

दासीए देखाडी आंखडी, त्यारे चाल्यो पाधरी वाट | बाहुके० ।२२। 
बाहुकने बारणे बेसाइयो, ढाछी रूपानो बाजठ, 

दमयती ऊमरा पर बेठी, आड़ धरी अंतरपट | बाहुके० ।२३। 
बाहुक खंखारे आत्ठस मोडे, माड्यो विषयनां चिह्न, ह 

चित्त मह्ठ॒युं त्या चक कशो रे, जो नथी भिन्नाभिन्न । बाहुके० ।२४। 


#वेलण ( तज़े बदलकर ) 


जो नथी भिन्नाभिन्न तो, मध्ये अंतरपट कशूं 
नहि बोलो जो मन मूकी, तो अमो ऊठीने जशुं ।२५। 





बाहुक ने० । १९ जाते-जाते उसने उस दासी से कहा-- ' (मेरे) ब्रह्मचर्य 
का घात हो रहा है। वेदर्भी विकार से भरी हुई है। मुझे वश मे कर 
लेने. के लिए यह बात (चल रही) है ' | बाहुक ने० । २० (यह सुनकर) 
माधवी बोली, “ विचार करके बोलो । कौन (तुम्हारे) धर्म को भग कर 
रहा है ” वंदर्भी तुम्हारा वरण क्‍यों नहीं करेगी ? अग्नि अपना काम 
करेगा '। बाहुक ने० । २१५ लौटकर जाने का कोई आश्रय (मांग, 
उपाय) नही था। उससे (वदर्भी ने) कहकर किवाड़ वन्द करवा दिये। 
दासी ने आँखे दिखायी और तब वह सीधे मार्ग से चला। बाहुक 
ने० । १९ उसने बाहुक को द्वार पर बैठा लिया। उसने चाँदी की 
चौकी बिछा दी। दमयन्ती देहली पर बैठी। उसने (बीच मे) पर्दा आड़े 
धर लिया । बाहुक ने० । २३ बाहुक खँखार उठा। उसने अँगड़ाई 
ली। वह विषय-विकार के लक्षण दिखाने लगा। (उसे लगा-) 
यदि मन लग गया है, कोई 'भिन्नता (अन्तर) नही है, तो वहाँ चिक 
क्यो है ? बाहुक ने० | र४ 


यदि भिन्नता (अन्तर) नही है, तो बीच में अन्तर्पट ( पर्दा) क्यों 


है ? (वह बोला--) “ थदि मन खोलकर नही बोलोगी, तो मैं उठकर चला 
जाऊंगा '। बाहुक ने० । २४ 


प्रेमाननद-रसामृत (नलोपाख्यान) ४०६ 


कडवुं ५८ सुं--( वमयन्ती को उक्ति बाहुक-स्वरूप तल के प्रति ) 
राग काफी 


विनय सगाथे बोल्यां, वेदर्भी सुंदरी, 
शामाटे ऊठी जाओ छो ? तेडाव्या खप करी । १ । 
अमने रहेवुं घटे, बांधी अंतरपढटे, 
बोलूं केम प्रगटे, परपुरष निकटे । २। 
बेसोी जी बाजठे, बोलो जी ऊलठदे, 
न॒ पूुछुं कपटे, बोलबुं निमेक् घटे। ३ । 
पुरुष छेडायो हठे, चाले पोतानी चढे, 
हींडे नारीने नटे, लाजे नहीं राजवटे। ४ । 
जे नर जन मने काछा, मुखे विषनी ज्वाला, 
मृके विजोगनां भालां, केम सही शके बाला ? ५ । 
बाहुकजी छो आचारी, सुणो विनति मारी, 
को एम मृके विसारी ? दोहले पामी नारी। ६ । 








कड़बक--५८६ ( दसयन्तो की उक्ति बाहुक-स्वरूप नल के प्रति ) 


सुन्दरी बंदर्भी दमयन्ती विनम्रता के साथ बोली, “ उठकर 
किसलिए जा रहे है ? आपको यत्न-पूर्वक बुलाकर (यहाँ) लाये हैं। ६ 
अन्तर्पंट (पर्दा) लगाकर रहना (ही) मेरे लिए उचित (जान 
पड़ता) है। परपुरुष से मैं प्रकट रूप में निकट से केसे बोलूं।२ अहो, 
चौकी पर बेठिए। उत्साह-उमग से बोलिए। मैं कपट से नही पूछ 
(बोल) रही हूैँ। निर्मेलता से (मन को कपट आदि की मल से मुक्त 
रखते हुए) बोलना, उचित होता है। ३ पुरुष चिढ़ जाए, तो अपनी घुन 
में चलता रहता है। वह नारी को अस्वीकार करते हुए (परित्यक्त 
करते हुए) विचरण कर सकता है। (इसमे) राज-सभा की रीति 
(व्यवहार) में वह लज्जित नहीं होता ।४ जो पुरुष मन से काला, 
अर्थात कुटिल हो, उसके मुख में विष की ज्वाला होती है। वह (उस 
स्‍त्री पर) वियोग के भाले चलाता है। उससे वह स्त्री किस प्रकार 
सह सकती है।५ हे बाहुकजी, आप आचारवान (सदाचारी, धर्म के 
अनुसार आचरण करनेवाले) हैं। मेरी विनती सुनिए। कौन इस 
प्रकार विस्मुत करते हुए (स्त्री को) त्यज सकता है। वह नारी तो 
उससे कष्ट से प्राप्त हो गयी है। ६ (जब पुरुष) के हृदय में (आरम्भ 
में) नया-तया स्नेह उत्पन्न हो जाता है, तो वह प्रेम की बाते करता है। 


४१० गुजराती (नागरी लिपि) 


नवानवा नेह उदे, वहालनां वायक वदे, 
भर्या होये पण मदे, पुरुषनां कंठण हृदे । ७ । 
वढछगी हीडे कांडे, नवनवी प्रीत मॉांडे, 
जणाय दुःखने वहाडे, स्नेहीने निश्चे छांडे । ८५ । 
जाणीए मक्ठीए वहेलां, देखीने थईए घेलां, 
नारी न प्रीछे पहेलां, पुरुषां मन मेलां। ९ । 
वहालपणां क्यहींए गयां, मुखे कहेता आ भैया, 
वज्रपे कठण हैयां, तरछोड़यां नानां छेयां | १० । 
ब्रह्माए पुर्ष घडिया, नारीने जीवे जडिया, 
दुःखना दहाडा पडिया, वेरीडा थई नीवडिया । ११। 
प्रीतती जेनी व्यापी, तेने मारे अद्यापि, 
फक् बे रूडां आपे, वक्षने थडथी कापे। १२ । 
रखे मारी वेल सूके, प्रवासजकू वहेतुं मृके, 
ते जाणी चतुरा शूं चुके ? फरी आवी न ढूंके । १३ । 
जे स्थलनुं जछ पीजे, शल्या त्यां केम दीजे? 
जे पर दया धरीजे, तेनो जीवडो नव लीजे | १४। 





परन्तु पुरुष का हृदय मद से भरा होता है, वह कठोर होता है । ७ वह 
(पुरुष) उसकी कलाई से लिपटकर घृमता रहता हैं; नयी-नयी प्रीति (की 
बातें), आरम्भ करता है। (परन्तु जब) दुख के दिन दिखायी देने लगते 
है, तब वह निश्चय ही उसे छोड देता है। ८५ पहले तो (उसे ) लगता है कि 
(एक-दूसरे को) जान लें (समझ ले), शीघ्रतापूर्वक मिले, (एक-दूसरे 
को) देखकर उन्मत्त हो जाएँ। (परन्तु) नारी तो पहले देखती नही कि 
पुरुषों के मन मैले होते हैं। ९ वह प्रेम कहाँ गया ? मुख से वे भाई ऐसा 
कहते रहे । पुरुषो का हृदय वज्र से कठोर होता है। उन्होंने तो नन्‍हें 
बच्चों तक को दुत्कार दिया । १० ब्रह्मा ने ऐसे पुरुष का निर्माण किया । 
उसने नारी को उसके जीव से जकड़ दिया। दुःख के दिन आ गये, तो 
वह (पुरुष) वेरी सिद्ध हो गया। ११५ जिसके प्रेम ने उस (स्त्री) को 
व्याप्त किया था, वह उसे अब भी मार रहा है। जिसने दो सुन्दर 
फल प्रदान किये, उस वृक्ष को उसने तने से काट डाला है। १२ शायद 
मेरी बेल सूख जाएगी, इस आशंका से प्रवास रूपी बहता पानी डाल दिया। 
यह्‌ जानकर वह चतुरा स्त्री क्‍या चूकेगी ? उस (पुरुष) ने फिर से आकर 
झञाँका तक नही । १३ जिस स्थान का पानी पौते है, उसमे शिलाएं 
केसे डाले ? जिस पर दया करते है, उसके प्राण नही लेते हैं। १४ 





प्रेमानस्द-रसामृत (नलोपा[ख्यान ) श्प्प्‌ 


जैनो हाथ ग्रहीएुं, तेने मूृकी नव जईए, 
अमो अबछा छईए, वेदना कोने कहीए ? १५। 
जेने पामी मानव जने, देवता न आण्या मने, 
तेने न मुकीए बने, राखाए पोता कने। १६ । 
बेसीए एक पाठे, कामिनी साथे कनक घाटे, 
थोडा अन्याय माटे, न मुक्रीए उजेड वादे । १७ । 
अबछ्ाना कोण बढ्ठ ? कदछोपे कोमछ, 
नयणे भरे जछ, कडवां कर्मतां फके । १८ । 
बनरमां बाघ गाजे, पावलीए कांटा भांजे, 
बीजा लोकने दाझे, शठ स्वामी नव लाजे । १९। 
वनमां रामा रूवे, कोण आंसुडां लए ? 
फरी तपास न जुए, पोतानु कुछ वगुए। २०। 
आघी धरे अलेखे, वगडामां उवेखे, 
स्वामी न आवे तेखे, वेरीडा देव देखे । २१। 
न जाणे नार मोरी, छे छलत्नपतिनी छोरी, 
अजगर ग़छी गोरी, चतुरानी शी चोरी ? २२१ 








पा को 








जिसका हाथ थाम लेते है, उसे छोड़कर नही जाएँ। हम अबला' (जन ) 
है। (अत.) यह वेदना किससे कहें ? १५ जिस मानव जन को वह 
(स्त्री) प्राप्त हो गयी, जो (स्त्री) देवों (तक) को मन मे नहीं लायी, 
उसे वन में छोड़ नही दे (देना चाहिए था) । उसे अपने प्रास रखें (रखना 
चाहिए था) । १६ सोने के पीढ़े पर कामिनी के साथ बेठे- थीोड़े-से 
अन्याय (अपराध) के कारण उसे उजाड मार्ग में न त्यज दे। १७ 
अबला के लिए किसका बल ? वह तो कदली से (भी अधिक) कोमल 
होती है। वह (ऐसे समय) आँखो मे जल भर लेती है। कर्म के फल 
कड़वे 'होते है। १८ वन मे बाघ गरजते रहते है। उसके पाँवों मे काँटे 
चुभकर टूट जाते है। दूसरे लोगों के कारण (दुख में) वह जलती रहती 
है; (परन्तु) उसका वह शठ स्वामी (पति) लज्जित नही होता। १९ 
वन में (जब) वह स्त्री रोती रहती है, तब कौन उसके आँसू पोंछता है । 
किर से वह पुरुष उसकी खोज (तक) नही करता । वह अपने कुल की 
निन्‍्दा करता है। २० विना (उसके किसी दोष को) देखे; वह उसे 
निर्जेन वत में उपेक्षित करके दूर कर देता है। तदनन्तर भी वह पति 
खोजने के लिए नहीं जाता है --बैरी-स्वरूप देव यह देखते - है। २१ 
पति यह नही जाचता (ध्यान नहीं रखता) कि मेरी स्त्री (भी) किसी 


४१२ गुजराती (नागरी लिपि) 


नयणे आंसु रेडे, पारधी लागे केडे; 
तारुणीने तेडे, छबीलीने. छंछेडे । २३ । 
मह्ठ॒या लंपट लोको कामी, केम जीवे गजगामी ? 
कुछने लागी खामी, न बोले शठ स्वामी । २४ । 
नीचपणू नफंट, कुछ लजाव्यूं नेट, 
करी मासीनी वेठ, प्रेमदाएं भयु पेट । २५। 
कर्मनी लांबी दोरी, चढी शिर हारनी चोरी, 
न जागे नाथ अघोरी, भांगो सिर इंधण धोरी । २६ । 
न करे प्रेमदानी मीट, वल्ठी हवे आडी लीट, 
पुरुष हैयाना धीट, मन जेहवां वज्लकीट | २७ । 
कहेतां नहीं आवडे, दुःखे हैयां धडधडें, 
खोटूं आक् चडे, गगन लूटी पडे । २८ | 
पृथ्वी जाय पाताछे, सत्तीने जूठे आढ्े, 
आचार भणी न भाछे, जाणे कूडी गाछे | २९। 





छत्नपति राजा की कन्या है। उस गोरी को अजगर ने निगल डाला । 
इसमें उस चतुरा (नारी) की क्‍या चोरी (दोष) है। २२ वह नयनों 
से आँसू बहाती है, तो एक बहेलिया उसका पीछा करने लगता है। वह 
उस तरुणी को बुला लेता है, उस छबीली को छेड़ता है। २३ (तदनन्तर) 
वे लम्पट कामी लोग मिलि। (इस स्थिति मे) वह गजगामिनी जीवित 
(रहे तो) कैसे रहे। इससे कुल मे कलंक लग जाता है, इसलिए 
उसका वह शठ पति (कुछ भी) नही बोलता । २४ नीचपना, निलंज्जता 
ने कुल को निश्चय ही लज्जित किया। (अनन्तर) उस प्रमदा ने मौसी 
की बिना दाम लिये सेवा की और पेट पाला । २५ कर्म की डोरी लम्बी 
होती है। (फलस्वरूप) उसके सिर हार की चोरी चढ़ गयी । जो पति 
अघोरी होता है, उस पुरुष (स्वामी) के सिर पर यद्यपि डंडा भी तोड़ 
(पटक ) दो, तो भी वह जग नही जाता | २६ यह सुनते हुए वह उस 
प्रसदा की दृष्टि से दृष्टि नही मिला रहा था। इसके अतिरिक्त उनके 
बीच (पर्दा-स्वरूप) आड़ी रेखा भी खींची हुई थी । पुरुष तो हृदय के 
कठोर होते है, जिनके मन तो वज्ञ के गोले होते है। २७ फिर भी 
उसके द्वारा कहने में (कुछ भी) नही आ रहा था। दुःख से उसका हृदय 
घबड़क रहा था। उसके सिर पर झूठा आरोप चढ़ा था। (मानो) 
उसपर आकाश दूठ पड़ा था। २८ (उसे जान पड़ा--) इस सती पर 
लगे झूठे दोषारोप से पृथ्वी पाताल में चली जाए। वह उसके विचार 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ४१३ 


जे को विश्वास करे, पुरुषनो आधार धरे, 
ते घेली शीद ठरे ? रोई, रोई ने मरे। ३० । 
खप करीने वरी, दुःखना अन्ते करी, 
बाहुक कहो वात ए खरी, तेने काई पूछशे हरि। ३१ ॥ 
छे कमेनी वसमी गति, भूृंसी नव जाये रति, 

शत्रु थयो प्रजापति, ब्रह्माने दया नथी। ३२ । 
भलानो वेरी ब्रह्मा, कठण ते क्र्रकर्मा, 

लखे लेख कर्माधर्मा, क्लेशने घाले घरमां | ३३ । 
क्लेश घाले घर विषे, प्रजापति कठण घणुं, 
बाहुकजीने प्रश्न पूछे, जोयूं डहापण तमतणुं रे । ३४ । 


वलण ( तर्ज बदलकर ) 


पूछशे हरि ते पुरुषने रे, जेणे प्रभवी नार रे, 
बाहुक बलतुं बोलियो, सांभढ भीमककुमार रे । ३५ । 
(कथन) की ओर देख नहीं सकता था, जैसे कि वह कोई गन्दी गाली 
हो ।२९ जो कोई स्त्री पुरुष का विश्वास करे और उसका आधार 
स्वीकार करे, वह पगली क्‍यों ठहरती है ? वह तो रो-रोकर मर जाती 
है। ३० उसने यत्न करके उस (पुरुष) का वरण किया और अपने दुःख 
का अन्त कर लिया था। हे बाहुकजी, कहिए, कया यह बात सही है 
(न) ? तो क्‍या श्रीहरि उस (पुरुष) से कुछ पूछेगे। ३१ कम की 
गति विषम होती है। वह रत्ती भर भी मिटायी नहीं जा सकती। 
प्रजापति ब्रह्मा शत्र्‌ (सिद्ध) हो गये है। उन्हें कोई दया नहीं 
आाती । ३२ ब्रह्मा भले लोगों के वेरी हो गये है। वे कठोर और क्रर 
कर्म करनेवाले हैं। वे कर्म-धर्म का लेखा (हिसाब) लिखते हैं और 
घर के अन्दर क्लेश घुसेड़ देते है । ३३ 
प्रजापति घर के अन्दर क्लेश घुसेड़ देते है; वे बहुत कठोर हो गये 
है। (यह कहकर) उस दमयच्ती ने वाहुकजी से प्रश्न किया (कहा--) 
आपकी समझदारी देख ली (देखना चाहती हूँ) । ३४ शि 
पे जिस (भगवान) हरि ने नारी को उत्पन्न किया, क्या वे पुरुष से यह 
बी ! है हा (उत्तर में) बाहुक ने कहा, “ हे भीमक राजा की कन्या; 
। 


४१४ गुजराती (ताग़री लिपि) 


कडब्‌ं ६० मुं-- (बाहुक-दमयन्तो-संवाद; बाहुक हवारा नल रूप में प्रकट हो जाना ) 
राय छद भूजगीनी चाल 
दहे देह विजोगनी ब्रेहज्वाछा, 
मारे मर्मनां बाण, पूछे प्रश्न बाला; 
तारी बुद्ध बाहुक बतल्ववत्त दीस, 
कांई जाणवा भेद सम मंत्र हीसे। १ । 
दीसे शारदा वास तम जीभ अग्रे, 
भलूं कीधुं पधार्या भीमक नग्रे; 
विनययुक्त दीसो सर्व सिद्धिवान, 
भूत भविष्य जाणो तमो वतंमान। २ । 
एक शोभिता पुरुष ते मूर्ख मोटा, 
जेवा सीपमां मोतीना दाणा खोटा; 
एक रूपहीण पुरुष बहु गुण भरिया 
जेम साचा हीरा रजे जुक्त करिया। ३ । 
बाहुक बापना सम जो वृथा भाखं, 
तम उपर विभू ओवारी नाखं; 
इंद्रवाहणीनां फकछ्क करमा साये, 
पण भक्ष करता तेना प्राण जाये । ४ । 


कड्वक--६९० ( बाहुक-दमयतन्तो-संवाद; वाहुक द्वारा चल रूप में प्रकट हो नाना ), 

विरह की ज्वाला मे उस वाला दमयन्ती की देह जल रही थी। 

वह मामिक वचन के बाण मारने लगी और उसने (बाहुक से) यह प्रश्त 
पूछा-- ' हे बाहुकजी, आपकी बुद्धि तो बलवान (प्रौढ़, कुशाग्र) दिखायी दे 
रही है। अतः कुछ रहस्य जान लेने के लिए मेरा मन आतुर होता जा रहा 
है ।१ शारदा (विद्या मौर वाणी की अधिष्ठात्नी देवी सरस्वती) का 
आपकी जिह्वा की नोक पर निवास रहा दिखायी दे रहा है। आपने यह 
अच्छा किया कि जाप भीमक राजा के नगर मे पधारे है। आप विनय से 
युक्त तथा (समस्त) सिद्धियों से युक्त दिखायी दे रहे है। आप भृत, 
भविष्य और वर्तमान को जानते है। २ एक (केवल) शोभा (सुन्दरता) 
से युक्त पुरुष बड़े मूर्ख हो सकते है, जैसे सीप में मोती का दाना खोढा 
भी हो सकता है। (उधर) कोई-कोई रूपहीनत पुरुष बहुत (सद) 
गुणों से परिपूर्ण हो सकते है, जैसे सच्चा हीरा भी धूल से युक्त होता 
है।३ यदि मैं व्यर्थ (की बात) बोल, तो हे बाहुकजी, मुझे पिता की 


प्रेमानन्द-रसाथृत (चलोगारुयान) ४१५ 


एक रूपवंत नारी को नर नीरख्यो, 
तेजवंच शोभे कोटि कंदर्प सरखो; 
धरे छत्त स्वेत्न जेनी आण वरते, 
करे नवनवा भोग जन नित्य प्रत्ये। ५। 
एवा पुरुषने मोही कोई नार पहेली, 
त्पतेज सरखी जीवे गर्व-घेली; 
र अमर मुनिवर तणी आश तोडी, 
पंखीराजनां वचन पर प्रीत जोडी। ६ । 
तज्यां मात ने तात पियर पडोशी, 
नव जाण्यूं जे ताथजी छे सदोषी; 
सोप्यां तन, मन, प्राण निर्दोष जाणी, 
सुणी बाहुकजी, कहुं कर्मेकहाणी । ७ । 
जेम पारधी कपटना कण चणावी, 
पाडे पंखीने फदमां स्नेह जणावी; 
वेधे मृगने जेस घंटा वजाडी, 
तेम प्रेमदा प्रेमने पाश पाडी। ८ । 











सोगन्ध है-- आप पर मै (समस्त) वेभव निछावर कर देती हूँ । इस्द्र- 
वारुणिका का फल हाथ मे (ही) शोभा देता है; परन्तु उसका सेवन 
करने पर खानेवाले के प्राण निकल जाते है। ४ एक रूपवती नारी ने 
किसी पुरुष को देखा । वह तेजस्वी पुरुष कोटि-कोटि कामदेवों जैसा 
शोभायमान था। वह पुरुष, जिसकी आन सबंत्न फिर रही थी, 
(राज-) छत्त धारण किये हुए था। वह पुरुप नित्यप्रति नये-नये 
सुखोपभोग करता था । ५ कोई स्त्री ऐसे पुरुष के प्रति मोहित हो 
गयी । तप के तेज जैसी वह अभिमान से उन्मत्त होकर जीवित थी। 
नरों, अमरों (देवों), मुनिवरों की आशा छोडकर उसने पक्षिराज (हंस) 
के वचन के आधार पर उस (नर के प्रति) प्रीति जोड ली । ६ उसने 


४१६ गुजराती (नागरी लिपि) 


बहु रंगविलासनां सुख देखाडी, 

गया हाड अंते ते विपत्त पाडी; 

ज्यां कंद ने मूछ नहीं फछ पाणी, 

तेवे ठाम मृकी करी अनाथ राणी | ९। 
न कोये करे एवं कर्म कीधुं, 
अपराध पाखे घण दुःख दीधुं; 

शत खंड कीधी ते विजोग शस्त्रे, 

फरी वनमां तारुणी अर्थ वस्त्रे | १०। 
त्रण दिवस ज्रण रयणी वनमांहे भटकी, 
निर्दय नाथने वात शी मत्त अठटकी; 

ग्रही अजगरे सुंदरी शिथिल कीधी, 
मकछयो पारधी ईश्वरे राखी लीघी। ११। 


कही डाकिणी शाकिणी ने शीहारी, 
पाश पहाण पाटु बहु मार मारी; 
पराधीन थईने नीचुं कास करियूं, 
धरी दासी नाम दुर्भर भरियूं। १२। 


चडी चोरी माथे मोती माह केरी, 
करता प्रीत वहालां थयां स्व वेरी; 


जन न ले सब >म+ तक. 


सुख दिखलाकर अन्त मे वह हाथ से निकल गया। उसने (इस प्रकार 
उसे) विपत्ति में डाल दिया। उसने अपनी रानी (स्त्री) को अनाथ 
बनाते हुए उस प्रकार के स्थान पर छोड दिया, जहाँ कन्द और मूल, फल 
ओर पानी (तक) नहीं था !। ९ कोई ऐसा कर्म नहीं कर सकेगा, 
ऐसा (कर्म) उसने किया । बिना किसी अपराध के उसे बहुत दुःख 
दिया। उसे वियोग रूपी शस्त्र से सौ-सो खण्ड कर डाला। वह 
तस्णी आधे वस्त्र मे वन में विचरण करती रही | १० वह तीन दिन 
ओर तीन रात वन के अन्दर घूमती रही। उसके निर्देय स्वामी के मत 
में कौन-सी बात अटकी रही ? एक अजगर ने उस सुन्दरी को पकड़कर 
शिधिल कर डाला । (तब संयोग से) उससे एक बहेलिया मिला और 
ईश्वर ने उसकी रक्षा की । ११ (लोगो ने) उसे डाकिनी, शाकिनी और 
शीहारी (वेश्या) कहा और उस पर पाशों, पाषाणों, बातो से बहुत मार की। 
पराधीन होकर .उसने निम्त श्रेणी का काम किया और दासी नाम धारण 
करके पेट पाला । १९ उसके सिर पर मोती-माला की चोरी चढ़ गयी। 


प्रेमानस्द-रसामृत (नलोपाझ्यान) ४१७ 


त्रवण वर्ष नाख्यां श्वेत वस्त्र पहेरी, 
नहीं कंकु काजछ नहीं नाडूं नहेरी। १३। 
ह॒विष्यान्षन पराधीन अन्न पामी, 
तोये तेणीए न तज्यो निज स्वामी; 
तप नियम राखी निज देह बाह्यो, 
गृहस्थराजनी नारे संन्यास पाठ्यों | १४। 
कहो बाहुकराय, ए धर्म केवो, 
घटे नाथने एवो छेह देवो ? 
सर्व॑ पापमां श्रेष्ठ विश्वासघात, 
तेने पूछशे कहो कांई वेकुंठनाथ ? १५। 
बाहुक एह प्रश्ननो उत्तर दीजे, 
एवा कपटी पुरुषने शुंय कीजे; 
सुणी मर्म वाणी नक्नाथ रीश्यो, 
जोवा प्रीत विशेष महाराज खीज्यों | १६। 
सुणो प्रश्नना उत्तर भीमकबाढा, 
ते पुरुषने प्रभवी प्रेमज्वाल्ा; 
परी सुंदरी प्रेमदा साधु जाणी, 
मोह्यो नाथ तेने कीधी पटुटराणी | १७। 


प्रेम करने पर भी समस्त प्रिय जन बेरी हो गये। श्वेत वस्त्र धारण करके 
उसने तीन वर्ष व्यतीत किये; न कुंकुम-काजल लगाया, न बिन्दी तथा 
तेल लगाया । १३ पराधीन स्थिति मे (रहते हुए) उससे हविष्यान्न 
रूप अन्न पाया। तो भी उसमे अपने पति का त्याग नही किया (पत्ति 
का विस्मरण नही होने दिया)। तप, नियम (त्रत) रखते हुए. बह 
अपनी देह को जलाती रही । गृहस्थ और राजा की उस स्त्री ने संन्यास 
धर्म का पालन किया। १४ है बाहुक-राज, कहिए यह कसा धर्म है ? 
क्या इस प्रकार विश्वासघात करना उसके पति के लिए उचित है? 
विश्वासघात करना समस्त पापो मे श्रेष्ठ (बडा) है। कहिए, वेकुण्ठनाथ 
भगवान उससे कुछ पूछेंगे ? १५ है बाहकजी, इस प्रश्न का उत्तर 
दीजिए-- ऐसे कपटी पुरुष से क्या करें ?! ऐसी मर्म-भरी बात सुनकर 
नलनाथ रीक्ष गये। वे महाराज (नल अपने प्रति) ऐसी विशेष प्रीति 
देखकर खीझ उठे। १६ (वे बोले--) ' हे भीमक-बाला, सुनो । उस 
पुरुष में प्रेम की ज्वाला उत्पन्न हुई। उसने उस सुन्दर प्रमदा को 
साध्वी माना। उसका वह स्वामी उस पर मोहित हुआ और उसने उसे 


छरपृद गुजराती (नागरी लिपि) 


बीजी नारीना सामुं न स्वप्ने जोयूं, 
गुणहीण स्त्री साथ आयुधष्य खोयूं; 
सगां मित्ननी प्रीत ते नाथे फेडी, 
गयो पुरुष तीर्थें नारी साथ तेडी। १८। 
वने सात उपवास भमतां रे कीधा, 
मच्छ राखवा नारने त्रण दीघां; 
कीधो श्रम वीजां मच्छ नव लाधां, 
पेली पापिणी नारे ते मच्छ खाधां। १९ । 
कहो भीमक बाढछा थईं वात एवी, 
पूछे बाहुक प्रश्न ते नार केवी ? 
जोतां छे अपराध ए नोहे नानो, 
तेने मूकतां नाथनो वांक शानों ? २०। 
ग्रही अजगरे सुंदरी आंसु ढाढे, 
तेम कंठ डस्यो हशे सर्प काले; 
थयूं शाकिनी नाम अपवाद एवो, 
कह्यो हशे भरतारने भूत जेबो | २१॥ 








पटरानी बना लिया । १७ उसने स्वप्न मे भी दूसरी स्त्रियों के सम्मुख 
(स्त्रियों की ओर) नही देखा । (परन्तु उसे पता चला कि) उसने गुण- 
विहीन स्त्री के साथ अपनी आयु खोयी है। उस पति ने अपने सगे-मित्रों 
से प्रीति (-सम्बन्ध) को तोड़ डाला और वह पुरुष साथ में उस स्त्री को 
लेकर तीर्थक्षेवरकी ओर चला गया। १८ उसने वन में भ्रमण करते- 
करते सात (दिन) उपवास किया। (तदनन्तर) उसने तीन मछलियां 
अपने स्त्री के पास रखने के लिए दे दी। उसने परिश्रम किया, (फिर 
भी) वह अन्य मछलियाँ नही प्राप्त कर सका। (इधर) उस पापषिणी 
नारी ने वे मछलियाँ खा डाली । १९ है भीमक-वाला, कहो । _ (क्या)बात 
ऐसी हुई है '। फिर बाहुक ने यह प्रश्न पूछा-- “ वह स्त्री कैसी होगी ! 
देखने पर यह अपराध छोटा नही है। तो उसे परित्यक्त करने में उस 
पति का कंसा दोष '? २० (दमयन्ती बोली-- ) “ अजगर ने उस 
नारी को पकड़ लिया। वह आँसू बहाती थी '।  (बाहुक बोला- ) 
/ उसी प्रकार, काल जैसे सर्प ने उस पति के गले में काट लिया होगा । 
(दमयन्ती ने कहा-- ) “ उसका नाम शाकिनी हुआ; ऐसी उसकी निन्‍्दा 
हुई '। (बाहुक बोला-- ) “ (लोगों ने) उसके पत्ति को भूत जैसा कहां 
होगा '॥ २१ (दमयस्ती ने कहा-- ) “ जिस प्रकार उस स्त्री ने दूसरे 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ४१६ ' 


जेम स्त्रीए कीधी परघेर वेठ, 
तेम तेणे भयु हशे परघेर पेट; 
कोण कोना दुःखने कहीने रोशे ? 
बुद्धिमात प्राणी कर्म सामूं जोशे। २२। 
धोछो सात पहेरी स्त्रीए पिंड पीड़यो, 
काकछ कामब्ठं ओढीने कंथ हींड्यो; 
ए प्रश्न उत्तर कटह्मां में विचारी, 
वी पूछयूं होय तो पूछ नारी। २३। 
कही मर्मंनी वात निज नाथ जाण्यो, 
भाग्यो भेद मनमांहे उत्साह आणप्यो; 
एवी गुह्म वाणी बीजों कोण भाखे ? 
एवं कोण बोले न नाथ पाखे ? २४। 
थयू भेटवा मन मर्याद नाठी, 
अंतरपटनूं वस्त्र गयूं रे फाटी; 
गजगामिती भामिती प्रेम माती, 
आवी नाथ पासे ग्रुणग्राम गाती । २५। 


५. 





3 3न्‍3न्‍+ल तल जज+ज 3: 





रा का 


के घर में बेगारी की। ' *। (तो बाहुक बोला- ) “ उसने भी दूसरे 
के घर में अपना पेट भर लिया होगा। (इस स्थिति मे) कौन किसके 
दुःखो को देखकर रोएगा ? बुद्धिमान प्राणी तो सामने कर्म (के फल) को 
देखता है । । २२ (दमयन्ती बोली-- ) “ (इधर) श्वेत साड़ी पहनकर 
उसने अपने शरीर को पीड़ित किया ।  (बाहुक बोला-- ) “तो (उधर) 
उसका पति काला कम्बल पहनकर घूमता रहा। तुम्हारे प्रश्न के ये 
उत्तर मैने सोच-विचार कर कहे है। तो (फिर) इसके अतिरिक्त कुछ 
हो, तो है नारी, पूछ लो '7 २३ ऐसी मामिक बात कहने पर उसे 
दमयन्ती ने अपना पति ही समझा। (उसके प्रति अनुभव होनेवाला अब 
तक का) अन्तर (दुराव का भाव) भाग गया। वह मन में उत्साह लायी 
(अनुभव करने लगी)। (उसे लगा-- ) ऐसी गुह्य बात (नल के 
अतिरिक्त) और दूसरा कौन कह सकता है ? मेरे नाथ नल के सिवा ऐसा 
कौन बोल सकता है ? २४ उसे उनसे मिलने की इच्छा हुई, तो (स्त्नी-) 
मर्यादा का भाव भाग गया । उन दोनों के बीच वाले अन्तर रूपी पर्दे का 
वस्त्न फट गया । तो वह गजगामिनी भामिनी प्रेम से मदमाती होकर अपने 
पति के पास उन्के,गण-समुदाय का गान करती हुई आ गयी । २५ उनकी 
:६. .. करके हु तके पाँव लगी और अपने गौरव का भाव धारण 


का 


४२० गुजराती (नागरी लिपि) 


करी प्रदक्षिणा पछे पाय लागी, 
बोलो नेषधनाथ कह्मूं मान मांगी; 
अपराध प्राणी तणा कोटि होये, 
परिब्रह्य तो करुणा मीट जोये | २६। 
वनमांहे मूकी अपराध पाखी 
छे मच्छ आहारना विष्णु साखी; 
तम चरण विपे मन राख, 
तम पाखे हुं पेटमां धूछ नाखूं। २७। 
अमो अवछ्ठा नारीमां बुद्धि थोडी, 
करे विनति प्रेमदा पाण जोडी; 
तथी रूपनूं काम रे भूष मारा, 
थई किकरी अनुसरंं चरण तारा। २८ | 
सुणी विनति नारनी दीन वाणी, 
उठयो वाहुक अंतर प्रीत आणी; 
कारकोटुक नागनो मंत्र भाखी, 
जीर्ण कामछुं दूर दीधुं रे नाखी। २९। 
त्रण. नागनां वस्त्र परिधान कीधां, 
हरखी सुंदरी कारज सर्वे सीध्यां; 


न न है आज ंज+ डटडीिइ ंछइ््ििििजीििल> लक चली अली किजी॑ तीज 


करते हुए बोली, “ कहिए है निषध-नाथ, किसी प्राणी के कोटि-कोटि अपराध 
होने पर भी परब्रह्म (भगवान) उसकी ओर करुणा (दया) दृष्टि से ही 
देखते है । २६४ आपने मुझे विना किसी अपराध के वन में त्यज दिया। 
फिर भी मछलियो को खाने के सम्बन्ध में भगवान विष्णू साक्षी हैं। में 
आपके चरणों में ही मन रख लेती हुँं। विना आपके मैं पेट में धूल 
डालूंगी । २७ मुझ ज॑सी अबला नारी में बुद्धि अल्प होती है'। (ऐसा 
कहकर) उस प्रमदा ने हाथ जोड़कर विनती की-- ' हे राजा, मुझे रूप से 
कोई काम नही है। मैं तो दासी होकर आपके चरणो का अनुसरण 
करूंगी '। २८ उस स्त्री की दीन वाणी सुनकर वाहुक अन्तःकरण में 
प्रीति लाकर उठ गये। (फिर) उन्होने ककोटक नाग द्वारा दिया हुआ 
मत्र पढ़ा; और (ओोढ़े हुए) जीणं कम्बल को दूर फेंक दिया। २९ 
उन्होने उस नाग द्वारा प्रदत्त तीन वस्त्रों को धारण किया। यह देखकर 
वह सुन्दरी आनन्दित हुई। उसके समस्त कार्य सिद्ध हो गये। जब 
महाराज नल ने अपना मूल रूप ग्रहण किया, तो ससुर के घर के समस्त 
(दुःख रूपी) अन्धकार का तत्काल हरण हो गया। (अनन्तर) जिस 


प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ४२१ 


जब मूकछगूं रूप महाराज धरियं, 
शवशुरधामनूं तिमिर ने सद्य हरियुं, 
जेम तसर॒वर पूंठे वींटछाय वैेली, 
तेम कंथने वक्कगी रही हर्षषेली | ३० । 


वलण ( ते बदलकर ) 


हरषेघेली सुंदरी, भेटी भीडी बाथ रे, 
जयजयकार घरमां थयो, देखी नेषधनाथने रे । ३१ । 


प्रकार लता तस्वर के पीछे (चारों ओर) लिपटी रहती है, उसी प्रकार वह 
आनन्द से पागल-सी हुई नारी अपने पति से लिपटी रही । ३० 
वह आनन्द से पागल-सी हुई सुन्दरी आलिंगन करते हुए पति से 
मिल गयी। तो निषधराज को देखने पर घर मे जय-जयकार हो 
गया । ३१ 


कडवुं ६१ सूं--( नल फा भीसमक आदि से मिलना ) 
राग सारंग 


वरत्यो जयजयकार हो, नेषधनाथने नीरखी जी, 
फरी फरी लागे पाय हो, साहेली हृदया हरखी जी। १ । 
नक्दमयतीनी जोडी हो, जोईने दोडी दास जी, 
श्वास भरी साहेली हो, आवी भीमकतनी पास जी। २ । 
रायजी वधामणी दीजे हो, अदभुत हर्षनी वात जी, 
ऋतुपर्णनी सेवक हो, नीवडियो नक्तवाथ जी। ३ । 


ल्कि्ज््िि््ल््जिजजज लत +ल + २+ + +++ आञ्श््चकीणओओन अंजलि 


फड़वक--६१ ( नल का भौसक आदि से सिलना ) 


निषध के स्वामी नल को (लोगो द्वारा) देखते ही जय-जयकार हो 
गया। (दमयन्‍्ती की) सखियाँ हृदय मे आनन्दित होकर पुनःपुन: 
उनके पाँव लगती रही ।१ _ नल और दमयन्ती की जोड़ी को देखते ही 
दासियाँ दोड़ी। फूलती हुई साँस के साथ, अर्थात्‌ हाँफते-हॉफते वे सखियाँ 
भीमक के पास आ गयी।२ (वे बोली-- ) ' हे राजाजी, बधावा 
दीजिए। अदुभुत हे की बात है। ऋतुपर्ण राजा का सेवक नलराज 
निकला । ३ उन्होंने वाहुक का रूप त्यज दिया और अपने मुल स्वरूप 


४२१ गुजराती (नागरी लिपि) 


बाहुक रूप परहयु' हो, धयु मूछ्गूं स्वरूप जी, 
सुणी सैरंद्रिती वाणी हो, हरख्यों भीमक भूष जी। ४ । 
वाजे पंच शब्द निशान हो, ग्रुणीजन गाये वाई जी, 
पुण्यशलोकने मक॒वा हो, वर्ण अढारे धाई जी। ५। 
नाना भातनी भेट हो, प्रजा भूपने लावे जी, 
करे पूजा विविध प्रकारे हो, मुक्ताफछ कुसुम वधावे जी । ६ । 
तोरण हाथा देवाये हो, मानुनी मंगकछ गाये जी, 
दे मुनिवर आशिप हो, अभिवन्दन बहु थाये जी। ७ । 
वाजे ढोल निशान हो, मूुदंग भेर नफेरी जी, 
समग्र नग्ने आनंद वरत्यों हो, शणगार्या चोटा णेरी जी, | ८५ । 
मन उत्साह पूरण व्याप्यो हो, भीमके दीधां बहु दान जी, 
गया अंतःपुरमां राय हो, दीठूं रूप निधान जी। ९ । 
कांति तपे चंद्र भानु हो, विलसे शक्र समान जी, 
कंदप कोटि लावण्य हो, दीठो जमाई जाज्वल्यमान जी । १० । 


को धारण किया '।  दासियों की यह वात सुनकर राजा भीमक 
आनन्दित हो उठे । ४ पांच (प्रकार के) शब्दों वाले वाद्य' तथा निसान 
(धोसे )वजने लगे। ग्रुणीजन (गायक आदि कलाकार) बधाई के गीत गाने 
लगे। पुण्यए्लोक राजा नल से मिलने के लिए अठारहों वर्गों" के लोग 
दोड़े । ५ प्रजाजन नाना प्रकार के उपहार राजा के लिए ले आये। 
उन्होने विविध प्रकार से उनका पुजन किया और मोतियों तथा फूलो से 
(मोत्ती और फूल समपित करते हुए) उनका स्वागत किया । ६ _राजद्वार 
पर वन्दनवार बनाये तथा हस्त-मुद्राएँ मंकित की । मानिनियाँ (नारियाँ) 
मंगलगीत गाने लगी । श्रेष्ठ मुनियो मे भाशीर्वाद दिया । उनका बहुत 
अभिवादन (स्तुति) हो गया । ७ ढोल, नगाडे, मृदग, भेरियाँ, नफेरियाँ जैसे 
बाजे वज रहे थे। समस्त नगर में आनन्द छा गया। बाज़ार (चोक) 
और गलियाँ सजाये गये । ८. (राजा भीमक के) मन को पूर्ण रूप से 
उत्साह व्याप्त कर गया। उन्होंने बहुत दान दिये। अनच्तर राजा 
नल अल्तःपुर मे गये। (वहाँ) नारी-जनों ने उन रूप-निधि को 
देखा। ९ उनकी कान्ति चन्द्र-सूयं की-सी तप रही थी। वे इन्द्र-सदृश 
(जान पडलते) थे। उनका लावण्य कोटि-कोटि कामदेबों का (-्सा) था। 





१ पंच शब्द-- तत्नी, ताल, झाँझ, नगाडा और तुरुही नामक पाँच प्रकार के बाय । 
.. २ अठारह वर्ण अर्थात जातियाँ--ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, कुम्हार, अहीर, 
त्तेली, पाचाल (सुनार, वढ़ई, लुहार, ठठेरा और पत्थरतराश), बुनकर, रंगरेज, दर्जी, 
नाई, बहेलिया, मातग, गड़रिया, घोवी, माय और चमार । 


प्रेमाननद-रसामृत (नलोपाख्यान) ४२३ 


पड़यो भीमक पूज्यने पाये हो, हसी आलिंगन दीधरूं जी, 
आप्यूं आसन आदर मान हो, प्रीते पूजन कीधूं जी। ११। 
अर्ध आरती धूप हो, भूपतिने पूजे भूष जी, 
नखशिख लगे फरी नीरखे हो, जोई जोई रूप जी। १२। 
शएवसुर श्वशुरपत्ती हो, शालक साछाहेली जी, 
दमयंतीने घणंं पूजे हो, गाये दासी साहेली जी। १३। 
लक्ष्मीनारायण शिवउमिया हो, तेबुं दंपती दीसे जी, 
दीधं मान श्वशुरवर्ग हो, पूछयु नेषध ईशे जी। १४। 


वलण ( तज्ज बदलकर ) 


नेषध ईशे पूछियूं, कुशक्क क्षेमनी वात्र रे, 
समाचार परस्पर जाण्यो, हरख्यो सघढों साथ रे। १५। 


५> ० +-ल्‍ ५-० 





3 ०>>+०+ 3५ +>+> +जता ऑ्ओओओत 


ऐसे देदीप्यमान दामाद को (भीमक ने) देखा। १० राजा भीमक 
पूजनीय नल के पाँव लगे और भअनन्तर हँसते हुए उन्होंने उनका आलिंगन 
किया । ११ फिर राजा (भीमक) ने अध्य, आरती, धूप (जैसे उपचारों) 
से भूषपति नल का पूजन किया । वे फिर उनके नख से शिखा तक के रूप 
को बार-बार देखकर ध्यान से निरखते रहे। १२ ससुर, ससुर-पत्नी 
(सास), श्यालको (सालों)-सलहजों ने दमयन्‍्ती का बहुत पूजन किया। 
उस वक्‍त दासियाँ और सखियाँ (गीत) गा रही थी। १३६. जिस प्रकार 
लक्ष्मी-तारायण, उमा-शिवजी (दिखायी देते) हो, वैसे ही ये पति-पत्नी 
(शोभायमान ) दिखायी दे रहे थे। (अनन्तर) श्वशुर वर्ग ने (तथोचित) 
सम्मान किया और निषधेश नल से पूछा । १४ 


(भीमक आदि ने) निषधेश नल से कुृशल-क्षेम की बात पूछी । 
उन्होंने एक-दूसरे से समाचार जान लिया, तो सब साथ में (तत्काल) 
आनन्दित हो गये । १५ 


४२९ गुजराती (नागरी लिपि) 


फडवबुं ६२ मुं-- ( अयोध्यापति ऋतुपर्ण का परिताप ) 
राग सामेरी 


नत्रायनुं प्रगट सांभव्ती, संसार सुखियों थाय रे, 

प्रम लज्जा पामियों, दुःखी थयो ऋतुपर्ण राय । 
हावां हुं शुं करु रे ? १। 

में सेवक कही ने बोलावियो, नव जाण्यो नेषधराय रे, 

धिक्‌ पापी हुं आत्मा, हवे पाडु सारी काय रे। 
हावां हुं शुं कर रे ? २। 

जब मन कीधुं देह मृकवा, तव हवो हाहाकार रे, 

जाण थयुं अंतःपुरमां, नठठ भीमक आव्या बहार। 
हावां हुं शुं करू रे ? ३ । 

हां हां कहीने हाथ झाल्यो, मठछ्या न ऋतुपरण्णं रे, 

ओशियाछो अयोध्यापति, जई पड्यो नत्झने चरण । 
हावां हुं शुंकरु रे ? ४ । 

पुण्यश्लोक पावन सत्य साधु, जाय पातिक लेतां नाम रे, 

तेवा पुरुषने में कराव्यूं, अश्वनू नीचूं काम । 
हावां हुं शुं कर रे ? ५ । 


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फड़वक-- ६२ ( अयोध्यापति ऋतुपर्ण का परिताप ) 


नलराज के प्रकट होने का समाचार सुतकर (समस्त) संसार सुखी 
हो गया। (परन्‍्तु) राजा ऋतुपर्ण परम लज्जा को भराप्त हुए ओर दुःखी 
हो गये । (उन्होने सोचा-- कहा--) “अब मैं क्‍या कहूँ? १ मैंने 
सेवक के रूप मे उन्हें बुला लिया (कहला लिया); मैने निषधराज को नही 
पहचाना । मुझे घधिक्कार है-- मैं आत्मा से पापी (पापात्मा ) हूँ । मैं 
अपनी देह को गिरा दूंगा। मैं अब क्या करूँ ? ”२ जब उन्होंने देह 
को त्यज देने की इच्छा (व्यक्त) की, तब हाहाकार मचा। अन्त:पुर में 
इसकी जानकारी हुई, तो नल और भीमक बाहर आ गये। (ऋतुपर्ण 
सोच रहे थे--) “ अब मैं क्या करूँ ? ' ३ “हाँ ,, ' हाँ! कहकर उन्होने 
उनका हाथ पकड़ा । नल और ऋतुपर्ण गले लगकर मिले। अयोध्यापति 
ऋतुपर्ण लज्जित थे । वे जाकर नल के पाँव लग गये (और बोले--) 
“अब मैं क्या करें ? ” ४ ये (नलराज) पुण्यश्लोक है, पावन है, सत्यवादी 
साधु हैं। उनका नाम लेने से पाप नष्ट हो जाते हैं। ऐसे पुरुष द्वारा 





प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ४२५ 


जेनूं दर्शन देव इच्छे, सेवे सहु नरताथ रे, 
ते थई बेठा मम सारथि, ग्रही पराणो हाथ । 
हावां हुँ शुं करू रे ? ६ । 
शत सहसख्र जेणे. जग्न कीधा, मेरु तुल्य खरच्यां धंन रे, 
ते पेट भरी नव पामिया, हुं पापीने घेर अंत। 
हावां हुंशूं कर रे ? ७ । 


जेनां वस्त्रथी लाजे विद्युल्लता, हाटक सूके मान रे, 

ते महाराज मारे घेर वस्या, करी कांबढुं परिधान । 
हावां हु शूं करूं रे? ८ । 

में टुंकारे तिरस्कार कीधो, हस्या पुरता लोक रे, 

त्रण वरस दोहेले भोगव्यां, में न जाण्या पुण्यश्लोक । 
हावां हुंशूं कर रे ? ९ । 

आह्सुने घेर गगा आव्यां, उठी नही- नाह्यो मूखे रे,- 

ते गति मारे आज थई, में जाण्या नहीं महापुरुष । 
हावां हुं शुं करूं रे ? १० । 


मैंने अश्व सम्बन्धी निम्न स्तर का काम करवा लिया। अब मैं क्‍या 
करूँ ? ५ जिनके दर्शन (करने) की देव इच्छा करते है, ,समस्त 
नरपति जिनकी सेवा करते है, वे मेरे सारथी होकर . (रथ पर) बैठ गये 
भोर हाथ में उन्होंने पता धारण किया। अब मै क्‍या करूँ ? ६ 
जिन्होंने शत सहज्न (एक लाख) यज्ञ सम्पन्न किये, जिन्होंने (दान देने में) 
मेरु पर्वत (के आकार) के समान धन खच्चे किया, वे मुझ पापी के घर पेट 
भर अन्न को प्राप्त नही हुए। अब मैं क्या करू ? ७ जिनके बस्त्न के 
सामने बिजली लज्जित हो जाती है, सोता (अभि-) मान छोड़ देता है, 
वे महाराज नल कम्बल धारण करके मेरे घर में निवास कर रहे थे। अब 
मैं क्या करूँ ? ८ मैंने उन्हें तुकारते हुए (( तू ', ' तु ” कहते हुए) उनके 
प्रति तिरस्कार (प्रदर्शित) किया; नगर के लोग उन्हे हँसते थे। मैंने उन्हें 
तीन बरस दु:खों का भोग करा दिया । मैं उन पृण्यगलोक (राजा) को 
नहीं पहचान पाया। अब मैं क्‍या करू? ९ (यह तो ऐसा ही हुआ 
कि) किसी जालसी के घर ग्रगाजी, था गयी और उठकर वह मूर्ख उंन 


४२६ गुजराती (नागरी लिपि) 


श्रावणकीटने घेर जाये, जेम धराधर शेष रे, 
जेम नीच मनुष्यने घेर, जाये भिक्षाने महेश । 
हावां हुं शुं करुं रे ? ११। 
जेम चकलीने माके आवे, गरुड गृणभंडार रे, 
तेम मारे घेर आवी वस्या, वीरसेनकुमार । 
हावां हुं शुं कह रे ? १२। 
जेम कृपणने घेर कमा वरसियां, पेर न प्रीछे व्ययतर्णा रे, 
तेम मारे घेर नक वस्या जेम, भीलने घेर पारसमणि । 
हावां हुंशूं करुं रे? १३। 
जेम अंध पत्नीतणां आभूषण ते, वथा सहु शणगार रे, 
जेम तीव्र आयुध कायरने कर, मर्कट मुक्ताहार । 
हावां हुं शु करुं रे ? १४ | 
कछश अमृतनो भर्यो को, मरखने प्राप्ति थई रे, 
छे भूर भोगी वारुणीनो, सुधापान प्रीछे नहीं । 
हावां हुं शूं करु रे ? १५। 
प्रकार शिवजी भिक्षा के लिए किसी नीच मनुष्य के घर जाएँ (उसी प्रकार 
पृण्यश्लोक़ नलराज मेरे घर आये)। अब मैं क्‍या करूँ? ११ जिस 
प्रकार किसी चिड़िया के घोंसले में गुणों का भण्डार गरुड आ गया हो, 
उसी श्रकार मेरे घर वीरसेनकुमार नल आकर बस गये थे। अब मैं क्‍या 
करू ? १२ जिस प्रकार किसी कृपण के घर (धन की अधिष्ठात्नी देवी ) 
लक्ष्मी निवास कर रही हो और वह व्यय की पद्धति यों (खर्च के मार्गों को ) 
नहीं जानता-समझता हो, जिस प्रकार किसी (ऐसे) भील के घर पारस- 
मणि रह गया हो (जो उसकी महत्ता को नही जान सकता), उसी प्रकार 
मेरे घर में नल ने निवास किया (और मै अनाड़ी ने उन्हें नही पहचाना) । 
अब मैं क्या करू ? १३ जिस प्रकार अच्धे मनुष्य की स्त्री के आभूषण 
ओर उसके द्वारा किया हुआ समस्त ख्यगार (उसके लिए) व्यर्थ होता है, 
जिस प्रकार डरपोक व्यक्ति के हाथ में तीक्ष्ण आयुध (हथियार व्यथ) 
होता है, मकट के लिए मोतियों का हार (व्यर्थ) होता है, उसी प्रकार मुझ 
मूढ के घर में नल का निवास करता व्यर्थ सिद्ध हुआ। अब मैं क्‍या 
करूँ ? १४ (किसी ने) अमृत से कलश भर दिया और उसकी प्राप्ति 
किसी मूर्ख को हो गयी हो और वह मूर्ख वारुणी का सेबन करनेवाला हो, 
तो वह अमृत-पान (का महत्त्व) समझ नही पाता। (उसी प्रकार, मुझ 
जैसे मू्खें के घर में नल का निवास हो गया था ओर मैंते उन्हें नही 





नील क्‍ौत ५ तल 


प्रेमानन्द-रसामृत (नल्ोपाड्यान) ४२७ 


निश्वास मृके ने कंठ सुके, थई भूपने वेदनाय रे, 
अपराध विचारी पोतानो, ऋतुपर्ण दुखियो थाय । 
हावां हुं शुं कर रे ? १६। 
पुण्यश्लोकने पाये लागे, फरी फरी करे विनति रे, 
ए कृतकर्मनां कोण प्रायश्चित ? भर्या लोचन भूपति । 
हावां हुं शुंकरं रे ? १७। 
पावकर्मांहे परजल्|ं के, हकाहकछ भक्ष करु रे, 
जीववूं मारुं धिक्‌ छे, देह हुं निश्चे परहरुं। 
हांवां हु शूं कर रे ? १८। 


वलण ( ते बदलकर ) 


परहरुं देह माहरो, गोझारो जीवीने शुं कहूं रे ? 
ऋतुपर्णनूं परम दुःख देखी, समाधान नक्े कयु रे। १९। 


पहचाना) । अब मैं क्‍या करूँ ?” १५ (राजा ऋतुपर्ण) ने (इस प्रकार 
कहते हुए) साँस ली और उनका गला सूख गया। उन्हे वेदना अनुभव 
हो रही थी। ऋतुपर्ण अपने अपराध का विचार करते हुए दुःखी हो गये । 
(वे बोले--) “अब मैं क्या करूँ? ! १६ वे पृण्यश्लोक नल के पाँव 
लगे और बार-बार उनसे विनती करते रहे । (वे बोले--) 'मेरे किये इस 
कर्म का कौन प्रायश्चित्त है ? ' फिर राजा ने आँखों को (आँसुओ से) 
भर लिया । (उन्होने कहा--) “ भब मैं क्‍या करू ? १७ क्या मैं आग 
में जल जाऊं, अथवा क्या मैं हलाहल का सेवन करूँ ? मेरे जीवित रहने 
को धिक्‍्कार है। मैं निश्चय ही देह को त्यज दूंगा। अब मैं (इसके 
सिवा) क्‍या करूँ ? १८ 


मैं अपने देह को त्यज देता हूँ। मैं गो-हत्यारा जीवित रहकर 
क्या करूँ ? ' (यह सुनकर) नलराज ने ऋतुपरण्ण के परम दुःख को देखकर 
(जानकर ) उन्हें सान्त्वना दी। १९ 


४२८ गुजराती (नागरी लिपि) 


कडवुं ६३ भुं--( नलराज द्वारा ऋतुपर्ण क्रो सान्त्वना देना ) 
राग मारु 
ऋतुपर्णनी पीडा जाणी, नेषधनाथ बोल्या त्यां वाणी, 
न थईए कायर आसु आणी, एम कही लोह्या लोचन पाणी । १ । 
आपत्काछ कर्म शु कहीए ? जे जे दुःख पडे ते सहीए, 
कोने आशरे निश्चे जईए ? पंच रात्रि सेवक थई रहीए। २ । 
गुप्त रह्मयानूं कारज सीधुं, मारु दुःख तमे हरी लीधुं, 
जे जननीनुं पय में पीधु, तेणे एवड सुख नथी लीधुं। ३। 
दसं मास ते पेटमां राखे, अधिक थाय तो ओछु भाजे, 
त्रण वरस लगी कोण राखे ” भलाई तमारी थई जुग आखे | ४ । 
ज्यां लगे संपत्ति होय, त्यां लगे प्रीत करे सर्व कोय, 
फर्यो समो त्यारे सर्व वगोये, नमतां ते सामूं न जोय। ५ । 
जे लोभना लीधा माया मांडे, थाय परीक्षा दुःखने दहाडे, 
क्षत्री जणाये उघाडे खांडे, भूडा मित्र ते भीडे छांडे। ६ । 








कड़वक-- ६३ ( नलराज हारा ऋतुपर्ण को सानतवना देना ) 


ऋतुपर्ण की पीड़ा को जानते हुए निषधनाथ नल वहाँ (उस समय) 
यह बात बोले, “आप (आँखों मे) आँसू भरकर त्रस्त (कातर, व्यथा से 
व्याकुल) न हो जाइए !। ऐसा कहकर उन्होंने उनके आँसू पोछे। १ 
विपत्ति के समय के कर्म (के बारे मे) क्‍या कहे ? जो-जो दुःख आ जाए, 
उसे सहन करते रहे । निश्चित रूप से किसके आश्रम मे (रहने के लिए) 
जाएँ ? पाँच राते सेवक होकर रह जाएँ। २ मेरे गुप्त रहने का कार्य 
सध गया । आपने मेरे दुःख का परिहार कर लिया । मैंने जिस जननी 
का दूध पिया था, उससे भी मैने इतना सुख नही प्राप्त किया । ३ माता 
तो दस मास (बच्चे को) पेट मे रखती है। उसके अधिक रहने पर वह 
भी उसे बुरा कहती है। फिर “तीन बरस तक (अपने यहाँ) कौन रख 
सकता है। आपकी भलाई तो पूरे युग में (फेली) रहेगी ।४ जब तक 
सम्पत्ति हो, तब तक सब कोई प्रेम करते हैं। (परन्तु) समय फिर गयाहो, 
तो तब वे तत्काल सब निन्‍दा करने लगते है। जो नमस्कार करते थे, 
वे सामने देखते तक नही । ५ जो लोभ से लुब्ध होकर माया (प्रीति) 
करते हों, उनकी परख दु.ख के दिनो में होती है। नंगा शस्त्न देखने पर 
क्षत्रिय की।परख की जाती है। बुरे मित्र (हो, तो वे) संकट (के समय) में 
छोड़ देते है । ६ मैंने अपनी कर्म-कथा को जान लिया । मैंने चारों वर्णो 


प्रैमानन्‍द-रसामृत (नलोपाख्यात) ४२३ 


कर्मकथा में मारी जाणी, चोहो वर्णतां पोष्यां प्राणी, 
ज्यारे वन नीसर्या हुंने राणी, प्रजाएन पायूं पाणी । ७ । 
थयो पुष्कर बांधव वेरी, एककेकु अबर नीकह्व॒यां पहेरी, 
कीधां कौतक लोके शेरी शेरी, ते दुःखसागरनी आवे छे लहेरी । ८ । : 
'ने भाई प्रजाए कहाडी नाख्यो, स्वाद संसार सगाई चाख्यों, 
ऋतुपर्ण तमो शरण राख्यो, ते उपकार न जाये भाख्यो । ९ । 
शत कल्प करो को गंगास्तान, करे कोटी जगन दे दान, 
कुरुक्षेत्र करे जप ध्याव, नहि फछ शरणदान समान । १० । 
दुःख देखी कल्पे पुरना लोक, शुभ समे आंसु भरो ते फोक, 
एम कही भेट्या पुण्यश्लोक, टाछयो ऋतुपर्णनों शोक । ११॥ 
त्यारे ऋतुपर्ण कहे शीश नामी, अपकीति में बहु पामी, 
तमो सककछ नरपति स्वामी, स्वारधअंध थयो हुं कामी । १२ । 
भीमकतनया जनेता जेवी, पतिब्नता साधवी देवी, 
ते उपर कुदृष्टि एवी, एथी अन्याय वात बीजी केबी ? । १३ । 





के प्राणियों (लोगों) का भरण-पोषण किया था। परन्तु जब मै और 
राती वन के प्रति जाने को निकले, तो उस प्रजा ने (हमें) पानी (तक) नहीं 
पिलाया । ७ मेरा बच्धु पुष्कर वेरी हो गया । हम एक-एक वस्त्र पहने 
हुए निकल गये । गली-गली में लोगो ने हमारी हँसी उड़ायी । उस दुःख- 
सागर की (अब स्मृति-स्वरूप) लहरे आा रही है। ८५ हे भाई, मुझे, प्रजा 
ते (नगर से) निकाल दिया। संसार के उस सग्रेपन (आत्मीयता) का 
स्वाद हमने चखा है। है ऋतुपर्णजी, आपने मुझे अपने जाश्रय में रखा। 
उस उपकार को (शब्दों मे) कहा नहीं जा सकता। ९ यद्यपि कोई 
शत कल्प काल गंगा-स्तान करे, कोदि-कोटि यज्ञ सम्पन्न करे, दान दे, 
कुरक्षेत्र में (रहकर) जप और ध्यान करे, तो भी (उसे उनसे पृण्य प्राप्त 
होगा। फिर भी) शरण मे आये हुए को आश्रय-दान देने के पुण्य के 
फल के समान अन्य किसी पुण्य का फल नही है । १० दुःख को देखकर 
नगर के लोग ढु.खी-व्याकुल हो जाते है; परन्तु इस आनन्द के समय तुम यों 
ही आंसू बहाओगे, तो वह व्यर्थ है। इस प्रकार कहकर पुण्यश्लोक नल- 
,. राज ने ऋतुपर्ण को गले लगाया और उनके शोक को दूर किया। ११ 
तब सिर झुकाकर ऋतुपर्ण ने कहा, ' मैने बहुत अपकीति प्राप्त की । 
आप समस्त नरपतियों के स्वामी हैं। मैं तो स्वार्थ से अन्धा तथा विषया- 
संक्‍्त हो गया हूँ । १२ भीमक-तनया दमयन्ती तो जननी जैसी है। वह 
पतिब्नता, साध्वी, देवी है। फिर भी मैंने उसपर ऐसी बुरी दृष्टि डाली । 


४३० गुजराती (नागरी लिपि) 
वलण ( तर्ज बदलकर ) 


तेवी वारता अधर्म छे, शूं करूं हु देह धारी रे! 
वैदर्भी मुज माता जेवी, वखाती में बुद्ध करी रे। १४। 


टेक कक सके कक कल अक] 
इससे (अधिक) अन्याय (अधर्म) की अन्य कसी (कौन) वात हो सकती 
है। १३ 
वैसी बात (करना) अधथर्म है। (अतः) मैं देह की धारण करके 
(रहे) क्‍या करूँ ? व॑दर्भी दमयन्‍्ती तो मेरे लिए माता ज॑ंसी है। मेने 
(अधर्म से) उसका वरण करने का विचार किया था। १४ 


फडवुं ६४ सुं-- ( ऋतुपर्ण-सुलोचना-विवाह; पुष्कर-नल-मेट; नल के राज्य का 
वर्णन और फवि-कझृत उपसंहार ) 
राग घवल धन्याश्री 


लज्जाकूपमां भूषति पडियो, ऊंचुं न शके भाद्ठी जी, 
चतुर शिरोमणि नेषधनाथे, वेढा वात सांभक्की जी। १ । 
भीमकरायना पुत्ननी पुत्री, सुलोचना एवूं नाम जी, 
दमनकुंवर तणी ते कुबरी, शुभ लक्षण गुणधाम जी। २ । 
अनंग अंगना सरखी सुंदरी, दमयंती शूं बीजी जी ! 
ऋतुपर्णने ते परणावी, दमयंतीनी भत्रीजी जी। ३ । 


"3.८" 








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फड़वक-- ६४ ( ऋतुपण्ण-सुलोचना-विवाहू, पुष्कर-तल-भेंट; नल के राज्य का 
वर्णन और फवि-कृत उपसंहार ) 


राजा ऋतुपर्ण (मानो) लज्जा के कुएँ में मिर गये थे। वे ऊपर 
(सिर उठाकर) देख नही पा रहे थे। तो चतुर-शिरोमणि निषधनाथ 
नल ने उस विपत्ति के समय बात को सम्हाल लिया। (द्वार पर आये 
हुए वर का लोट जाना दोनों पक्षों के लिए लज्जा और अपमान का विषय 
है। इस समय ऋतुपर्ण तथा भीमक़ दोनों ऐसे ही संकट में उलझ पढ़े 
थे।) १ भोमक राजा के पुत्र के एक पुत्री थी। उसका नाम सुलोचना 
था। दमनकुमार की वह कन्या शुभ लक्षणों से युक्त तथा (सदू-) ग्रुणी 
की धाम थी । २ वह कामदेव को स्त्री रति जंसी सुन्दर थी, अथवा 
मानो दूसरी दमयन्ती ही थी। दमयन्ती की उस भानजी का परिणय 
ऋतुपण से कराया गया । ३ (भीमक ने) बहुत प्रेम से मिलयी दी और 


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प्रेमानष्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ४३१ 


पहेरामणी घणुूं प्रीते आपी, संतोष्यो ऋतुपर्ण जी, 
अयोध्यापति चाल्यो अयोध्या, नमी नछने चर्ण जी। ४ । 
प्रस्परे आलिगन दीधां, नकछे आपी' अश्व विद्याय जी, 
पंच रात्री रहा स्त्रीपुत्र साथे, पछे विदाय थया नत्कराय जी 
प्रजा सर्व॑ संगाथे लईने, भेटी नेषध् जाय जी, 
नानाविधनां वाजित्र वाजे, शोभा न वर्णी शकाय जी। ६ । 
चतुरंग सेन्‍न्य बहु भीमके आप्यूं, साथे थयो नरेश जी, 
नकछराजा घणा जोद्धा संगाथे, आव्या नैषध देश जी। ७ । 
ते समाचार पुष्करने पोहोंतोी, तेम ज ऊठ्यो राय जी, 
प्रजा संगाथे सामो मछवा, प्रीत पाये पछाय जी। ८ । 
हयदकछ पायदकछ, गजदकछ, रथदकछ, ककछ न पडे केकाण जी, 
प्रब्त दछ सकत्ठ पुरवासी, नीरखवा नक तरसे प्राण जी । ९ । 
वाहन कुंजर धजा अंबाडी, मेघाडंबर छत् जी, 
कनकककछश घंटा बहु धमके, शोभे सूरियांपत्र जी । १० । 
भेरी भेर मृदंग दुंदुभि, पटह ढोल बहु गाजे जी, 
वेणा वेणूं शरणाई शंख धूती, ताछ झांझ घणंं वाजे जी । ११। 


श 





ऋतुपर्ण को सन्तुष्ट कर दिया। (अनन्तर) अयोध्यापत्ति ऋतुपर्ण नल 
के चरणों को नमस्कार करके अयोध्या की ओर चले। ४ (जाते समय) 
उन दोनों ने एक-दूसरे का आलिंगन किया । (तब) नल ने उन्हें अश्व- 
विद्या प्रदान की। (इधर) नलराज भी स्त्री (दमयन्ती) और पुत्रों 
सहित वहाँ साथ में रहे और अनन्तर वे विदा हो गये । ५ समस्त प्रजा- 
जनों को साथ मे लेकर सबसे मिलकर निषधराज नल चल पड़े । (उस 
समय) नाना प्रकार के वाद्य बज रहे थे। उसकी शोभा का वर्णन नहीं 
किया जा सकता । ६ भीमक ने चतुरंग सेना साथ में भेज दी ॥ उनके 
साथ स्वयं राजा (चल दिये) थे। इस प्रकार नल राजा के साथ बहुत 
योद्धा थे। वे निषध देश आ गये। ७ (जब) वह समाचार पृष्कर तक पहुंच 
गया, तो वेसे ही वह राजा उठ गया। प्रजा के साथ वह सामने जाकर 
मिलने के लिए प्रेमपूर्वक पैदल ही चला गया। ८ अश्वदल, पदातिदल, 
गजदल, रथदल --चारो दलो के कोलाहल की कोई सीमा नही थी। 
समस्त पुर-वासियों के समुदायों के प्राण नल को देखने के लिए तरस 
रहे थे । ९ वाहनों के ऊपर ध्वज थे, अम्मारियाँ थी, मेघाम्बर छत्न थे, 
सुबण-कलश था। घण्टे बहुत गरज रहे थे । सर्वत्र सूर्यपत्र शोभायमान 
थे। १० भैरियाँ, भेर, मृदंग, दुन्दुभियाँ, नगाड़े, ठोल बहुत गड़गड़ा रहे 





४३२ गुजराती (नागरी लिपि) 


उदधि पर्वणी जाणे उलदयो, चंद्र पूर्ण नछ& माठ जी, 
श्रवण पड़यूं संभकाय नही, थई भारे भीड पुरवाट जी। १२। 
भीमकनंदन कहे नछ् प्रत्ये, सन्‍्यने आज्ञा दीजे जी, 
पुष्कर आव्यों क्रोध धरीने, सज्ज थाओ जुद्ध .कीजे जी । १३ | 
नकछ कहे त्रणं शालक प्रत्ये, मिथ्या विरोध विचार जी, 
पुष्करनूं मन थयुं निर्मछ, नाश पाम्यो कछि विकार जी। १४। 
साधु पुरुषने कुबुद्धि आवे, ते तो पूर्व कर्मंनो दोष जी, 
पुष्करे कीधूं कल्नु प्रेय, कहे विचारी पुण्यश्लोक जी | १५। 
ध्रुव चक्के रवि पश्चिम प्रगटे, पावक शीतछ थाये जी, 
विधि भूले निधि साते सूके, पुष्कर धनुष न साहे जी। १६। 
एम गोष्ठि करतो पुष्कर आव्यो, बंधन करी निज हाथ जी, 
दंडवत्‌ करतो डगलां भरतो, घणं लाजतो मन साथ जी | १७। 





थे। वीणाओं, मुरलियों, शहनाइयों, शंखों की ध्वनि हो रही थी। 
करताल और झाँझे बहुत (संख्या में) बज रहे थे । १५ मानो (मानव: 
समुदाय रूपी) समुद्र (पोणिमा की) पर्वणी पर उमंग से भर गया हो-- 
उसके लिए नलराजा रूपी पूर्ण चन्द्र (उदित हुआ) था। कानों पर पड़ी 
बात सुनने में नही आ रही थी। नगर के मार्गों में 'जन-समुदाय की 
बहुत भीड़ हो गयी । १२ (इधर) भीमक के पुत्र ने नल से कहा, ' सेना 
को आज्ञा दीजिए। पुष्कर क्रोध करके आ. रहे है। सज्ज (तैयार) 
जाइए और युद्ध कीजिए ” ( १३ (इसपर) नल ने अपने तीनो सालों से 
कहा, “ (यहाँ) विरोध (युद्ध) का विचार मिथ्या (व्यर्थ) है। प्रुष्कर 
का मन निर्मल (वर-विरोध से रहित) हो गया है। कंलि (द्वारा मन में 
उत्पन्न) विक्रार विनाश को प्राप्त हुआ है । १४ साधु पुरुष में (भी कभी- 
कभी ) कुवुद्धि (उत्पन्न) होती है-- वह तो पूर्वजन्म में किये कर्म का दोष 
है। पृष्कर ने वही किया, जो कंलि द्वारा प्रेरित था। “इस प्रकार 
पुण्यण्लोक नलराज ने विचार करके कहा । १५ (यद्यपि) श्रुव (अपने 
स्थान से) विचलित हो जाए, सूर्य पश्चिम मे निकले, अग्नि शीतल 
जाए, विधाता भूल करे, सातों समुद्र” सूख जाएँ, तो भी पुष्कर (हाथो में 
घनुष नहीं पकड़ लेगा । १६ ऐसी बाते करते समय पृष्कर अपने हाथों 
को आवद्ध करके (जोड़कर) आ गया। वह पग बढ़ा रहा था। उसने 
(भागे आकर) दण्डवत प्रणाम किया । वह साथ ही मन में बहुत लज्जित 
हो गया था । १७ तो वच्धु को देखकर नल उठे । उसका हाथ थामकर 


१ सप्त समुद्र-- क्षार (लवण), इक्षरस, घृत सुरा, क्षीर, दधि और-शुद्धोदक । : 





प्रेमानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) ४३३ 


नक्क ऊठयो बांधवने देखी, ग्रही; कर बेठो कीधो जी, 
मस्तक सूंघी प्रशंसा कीधी, भुज भरी हृदये लीधो जी। १८। 
एक आसने बेठा बंने. बांधव, शोभे काम वसंत जी, 
त्यारे प्रजाए घणी- पूजा कीधी आपी भेट अनंत जी। १९ | 
पुष्करे घणूं दीन ज 'भाख्यूं, थयां सजछ लोचन जी, 
हुं कृतघ्ती कठण गोझारो, में दंपती कहाड्यां वन जी। २० । 
वण अपराधे विपरीत कीधूं, दीधुं दारण दुःख जी, 
सात समुद्र न जाय श्यामता, धोतां मार्य मुख जी। २१। 
पुष्कर वीरने नछे समजाव्यो, कहीने आतम ज्ञान जी, 
एक गजे बेठा बेउ बांधव, ,आव्या पुर निधान जी। २२। 
धजा पताका “तोरण बांध्यां, चित्र साथिया शेरी जी, 
अगर धूप आरती थाये, वाजे भेरी नफेरी जी।२३। 
धवक्ठ,, मगढ्ठ कीतेन गाथा, हाथा कुंकुमरोछ जी, 
चौोटां चोक रस्ताने नाके, प्रजा ऊभी टोब्ठेटोछ जी। २४ । 





उन्होंने उसे बैठा लिया। (प्रेम से) उसके मस्तक को सूँघकर उसकी 
प्रशंशा की । फिर उसे बाहुओं में भरकर अपने हृदय से लगाया। १८ 
(अनन्तर) वे दोनों बन्धु एक आसन पर बेठ गये। वे कामदेव और 
वसन्‍्त जैसे शोभा दे रहे थे। तब प्रजा ने (नल का) बहुत पूजन किया 
और असख्य उपहार प्रदान किये। १९ पुष्कर ने बहुत दीन (दीनता- 
पूर्ण) बात कही । उसके नेत्न सजल हो गये। (वह बोला--) मैं 
कृतध्न हैँ, कठोर (निर्देय) गो-हत्यारा हूँ। मैंने आप दम्पती (पत्ति- 
पत्नी) को बाहर वन मे निकाल दिया | २० बिना आपके अपराध के, 
मैंने विपरीत (अनुचित) बात की; आपको दारुण दुःख दिया। सातों 
समुद्रों में मेरे मुख को धोने पर भी उसकी कालिमा नहीं (धुल) 
जाएगी '। २१ (यह सुनकर) नल ने आत्मज्ञान कहकर भाई पुष्कर 
को समझा दिया । फिर वे दोनों बन्धु एक (ही) हाथी पर बंठ गये और 
वे (परम) निधान जैसे नगर में आ गये । २२ ध्वज, पताकाएँ, वन्दनवा ें, 
मालाएँ, चित्र, स्वस्तिक चिह्न गली-गली मे लगाये गये । अगरु, धप 
जलाये जा रहे थे; आरतियाँ सजायी गयी । भेरियाँ और ढोल बज रहे 
थये।२३ शुभ मंगल गीत गाये जा रहे थे। (हरि-) कीत॑न तथा 
(यशो-) गाथाएँ प्रस्तुत हो रहे थे। कुंकुम तथा रोली की हस्त-प्रद्राएँ 
अंकित की गयी थी। बाजारो, चोकों, रास्तों के नुक्‍्कडों पर प्रजा जन 
टोली-टोली में खड़े थे। २४ पुरुष और स्त्रियाँ झरोखों में चढ़कर (झरोखों 


४३४ गुजराती (नागरी लिपि) 


कुसुम मुक्ताफछे वधावे, गोख चडी नरनारी जी, 
नेषधनगरीनी शोभा सुंदर, शूं अमरापुरी उतारी जी ? ।२५। 
अभिजित लग्न मुहतें साधी, नक् बेठो सिहासन जी, 
मत्ठवा सर्वे सगां आव्यां ते, वोढाब्यां राजन जी।२६। 
जुद्धपति पुष्करने कीधो, नक्े कीधा जग्न अनंत्त जी, 
धर्मराज कीधू नक्वराये, वरस सहस्र छत्नीश पर्यत जी | २७। 
नतना राज्यमा बंधत नामे, एक पुस्तकने बंधन जी, 
दड एक श्रीपतिने हाथे, धन्य वीरसेननंदन जी। २८। 
कंपारव धजाने वरते, पवत्न रहे आकाश जी, 
कुछकरम पार धी मृक्‍यां, जीवनों न करे नाश जी। २९। 
भय एक तस्करने वरते, कमाडने विजोग जी, 
हरख शोक समतोल लेखवे, त्याग विषयना भोग जी ।॥ ३०। 


के पास खड़े होकर) फूलों और मोतियों के बधाबे दे रहे थे। नैषधपुर की 
शोभा सुन्दर थी। (लगता था कि) कया अमरापुरी ही (उसके रूप में 
घरती पर) उतारी गयी है। २४५ अभिजित लग्न का शुभ मुहृतं साधकर 
नल सिंहासन पर बैठे । (अनन्तर) जो सग्रे-सम्बन्धी उनसे मिलने के लिए 
जाये हुए थे, उन्हें राजा ने विदा किया । २६ नल ने पुष्कर को युद्ध-पतति 
(सेनापति) नियुक्त किया। (अनन्तर) उन्होने अख्ंख्य यज्ञ सम्पन्न 
किये। नलराज ने छत्तीस सहस्न वर्ष तक घर्म (के अनुसार) राज्य 
किया । २७ 

नल के राज्य में ' वन्धन के नाम पर (केवल) पृस्तक का बनच्धन 
था। (किसी को बन्दी नहीं बनाया जाता था)। “ दण्ड ” (केवल) 
संन्यासियों के हाथो मे होते थे (राजा के लिए किसी को “ दण्ड देने की 
आवश्यकता ही नहीं होती थी; क्योकि उनके राज्य मे कोई व्यक्ति 
दण्डनीय अपराध ही नही करता था) । धन्य थे वीरसेन-नन्दन नलराज। २८ 
' कम्पत्त ”' की धवनि (फड़फड़ाहट) ध्वजों मे ही होती थी (कोई भी 
व्यक्ति भय से काँपता नही था) । 'पवन' आकाश में ही होता था (पवन 
आँधी के रूप में आकर धरती को हानि नही पहुँचाता था)। बहेलियों 
ने कुलधमे का त्याग किया; वे प्राणियों का संहार नही करते थे | २९ 
भय” एक मात्र चोरो को अनुभव होता था; द्वार के (दोनों) किवाड़ो में 
“ वियोग ' हुआ करता था (द्वार के किवाड़ बन्द नही किये जाते थे; वे एक- 
दूसरे से सदा अलग रहते थे। चोरों से भय न होने के कारण लोग द्वार 
खुले रखते थे। नर-नारियाँ, माता-पिता-बच्चे एक-दूसरे से विरह नहीं 
अनुभव करते थे) । सुख-भोग के विषयो का उपभोग वे त्याग (-भाव से) - 


प्रेमानन्‍द-रसामृत (नलोपाख्यान) ४३५ 


चतुरवर्ण० तो सर्वे श्री, ज्ञान खड्ग तीत्र धारे जी, 
देहगेह मध्ये खट तस्कर, पीडी न शके लगारे जी।३१॥। 
शौच, धर्म, दया तत्परी, आडे ते गुप्त दान जी, 
हरिभक्ति नथी तेनूं नाम दरिद्री, जेने भवित ते राजान जी । ३२ । 
तेह मुओ जेनी अपकीति पूंठे, अकाछ मृत्यु न थाय जी, 
माग्या मेह वरसे वसुधामां, दूध घणूं करे माय जी ॥ ३३। 
मातापिता, गरु, विप्र, विष्णुत्ती, सेवा करे सर्व कोई जी, 
परनिदा, परधन, परनतारी, कुदृष्टे नव जोय जी। ३४। 
एवं राज वल्लनाथे कीधूं, पृण्यश्लोक धराव्यू नाम जी, 
पछे पुत्रनें राज आपी गया, तप करवा गुणग्राम जी। ३५। 


अनशन ब्रत लई देह मृक्‍्यो, आव्यूं दिव्य विमान जी, 
वैकुंठ नक्कदमयंती पहोंतां, पाम्यां पद अविधान जी। ३६ । 


करते थे । ३० चारों वर्ण के समस्त लोग तीत्र धार वाले ज्ञान रूपी खड़ग 
से युक्त थे । देह रूपी गृह में उस समय छः: चोर (षड़्-विकार' रूपी 
चोर) पीड़ा नही पहुँचा सकते थे। ३१ शौच (मन आदि की शुद्धि, 
पवित्रता ), धर्म, दया (के व्यवहार) में लोग तत्पर थे। वे दान आड़ मे, 
अर्थात्‌ गुप्त रूप से देते थे। (अथवा यदिकोई बात आड़ में की जाती थी 
तो वह गुप्तातान था) । जिसमे हरिभक्ति नहीं थी, उसका नाम “ दरिद्र 
था; जिसमें भक्ति-भावना थी, वह तो राजा (जैसा) ही था। ३२ वही 
मरा (समझिए) जिसकी अपकीति पीछे रहती थी। किसी की अकाल 
मृत्यु नही होती थी। माँगा हुआ भर्थात इच्छा-आवश्यकता के अनुसार 
पृथ्वी पर मेघ बरसता था। गायें बहुत दूध देती थी । ३३ सब कोई 
अपने-अपने माता-पिता, गुरु और विप्रो तथा भगवान विष्णु की सेवा 
करते थे। कोई पर-निन्‍्दा नही करता था। कोई भी पर-घन तथा 
पर-तारी को बुरी दृष्टि से नही देखता था। ३४ नलराज ने इस प्रकार 
राज्य किया और (फलस्वरूप) ' पृण्यश्लोक ' नाम (उपाधी) धारण 
करवायी । ' (अनन्तर ) अपने पुत्र को राज्य प्रदान करके वे ग्रुण-प्राम 
(गुण-समसुदाय-स्थरूप) तप करने के लिए चले गये । ३५ (अन्त मे) 
अनशन (निराहार) ब्रत धारण करके उन्होने देह का त्याग किया, तो 
(उनके लिए) दिव्य विमान आ गया। नल बौर दमयन्ती (उसमें 


विराजमान होकर) वेकुंढलोक पहुँच गये और (वहाँ) अविचल पद को 
प्राप्त हो गये । ३६९ 


१ छ: चौर बर्थात छः विकार-- काम, क्रोध; मद, मत्सर, लोभ और मोह । 


५३६ . गुजराती (नागरी लिपि) ० 


बृहृदश्व कहे हो राय युधिष्ठिर, एवां «हवां न होय'' जी; « 
ए दुःख आगक तारा दुःखने, युंधिष्ठिर शुं रोय जी। ३७॥ 
काले अर्जून आवशे रायजी, करीने उत्तम काज जी, 
कथा सांभव्ठी पाये लाग्यो, मुतिवर महाराज ,जी,। ३८ | 
युधिष्ठिर कहे परिताप गयो मननो, सांभक्ठी साधुचरित्न-जी, 
अविचकछ वाणी ऋषि तमारी, सुणी हुं थयो पवित्न'जी। ३९। 
थोडे दिवसे अर्जुन आव्या, रीझया धर्मराजान जी, 
वेशंपायणत कहे जनमेजय, पूर्ण , थयूं आख्यान जी॥ ४० । 
करकोटक ने नक्त दमयंती, सुदेव, ऋतुपर्ण राय जी, 
ए पांचेनां नाम लेतां, कछजुग त्यांथी जाय जी।४१॥ 
पुत्र, पौत्, धन, धान्‍्य, समृद्धि, पामे वक्की नर नार जी, 
ब्रह्महत्यादिक पाप, टक्के ने, ऊतरे भवजक्त पार जी। ४२ । 


बृहदश्वजी बोले, ' हे राजा युधिष्ठिर, इस, प्रकार कही अन्यत्र ,नहीं 
हुआ है और न होगा । इस दुःख के भागे हे युधिष्ठिर, आप अपने दुःख 
के कारण क्यो रो रहे हैं? ३७ है राजाजी, छत्तम कार्य सम्पन्न करके 
कल अर्जुन गाएँगे । ' इस कथा को सुनकर महाराज युधिष्व्ठर मुनिवर 
बृहदश्व के पाँव लगे। ३८ (अनन्तर ) युधिष्ठिर ने कहा, “ भेरे मन का 
परिताप साधु (पुरुष) का यह चरित सुनकर (नष्ट हो) गया। है ऋषि, 
आपको वाणी अविचल (नित्य सत्य) है। उसे सुनकर मैं पवित्र हो 
हा हूँ /।३९ थोड़े ही दिनों मे अर्जुन (लौट) आये, तो धर्मेराजा प्रसन्न 
हो गये । ! ; 


वेशम्पायन ऋषि ने कहा, “ हे जनमेजय, यह आख्यान पूर्ण हुआ । ४० 
ककोटिक और नल-दमयन्ती, सुदेव और राजा ऋतुपर्ण --इन पाँचो के 
नाम लेने पर कलियुग (का प्रभाव) उस स्थान से (नष्ट हो) जाता है 
(कलि उसे मार्गभ्रष्ट करके पीड़ा नही पहुँचा सकता) | ४१ इसके 
अतिरिक्त वे स्त्नी-पुरष (जो इन लोगों का नाम-स्मरण करते है) पुत्त, पोत, 
धन-धान्य, समृद्धि को प्राप्त हो जाते है। उनका ब्रह्महत्या आदि का 
पाप ढल जाता है (नष्ट हो जाता है) और वे संसार रूपी जल (-सागर) 
के पार चले जाते हैं। ४२ ' 6 ' 


मन 


प्रेमाननद-रसामृत (बलोपाख्यान) ३३७ 


उपसंहार 
वीरक्षेत्र बडोदरा कहावे, गरवों देश गुजरात जी, 
कृष्णसुत कवि भट प्रेमानंद, वाडव चोवीसा न्‍यात जी | ४३ । 
गुरु प्रतापे पदबंध कीधों, कालावाला भाखी जी, 
आरण्यक पवेनी मूक कथामां, नेषध लीला दाखी जी। ४४॥। 
मुहत॑ कीधुं सुरतमांहे, थयूं पूर्ण नंदरबार जी, 
कथा ए नक्वदमयंती केरी, सारमांहे सार जी | ४५। 
संवत सत्तर बेताछो वर्षे, पोषे सुदि गुरुवार जी, 
द्वितीया चंद्रदर्शननी वेछढा, थई कथापूर्ण विस्तार जी | ४६। 
ते दिवसे परिपूर्ण कीछो, ग्रंथ पुनित पदबंध जी, 
श्रोता वक्‍ता सहुने थाशे, श्रीहरि केरो संबंध जी । ४७ । 


की अल चुत नर मल नी कप आज मद वर पक मी जनक शक 





उपसंहार 


वीरक्षेत्र वटोदरा (बड़ोदा) गुजरात का गौरवशाली देश (स्थान) 
कहा जाता है। उस (नगर) मे क्ृष्ण के पुत्न भट्ट प्रेमानलद (नामक) 
कवि हैं। उनकी ज्ञाति “'चौबीसा वाडव (ब्राह्मण)  है।४३ गुरु 
(को कृपा) के प्रताप (के आधार) से उन्होंने कच्ची-पकक्‍्की (अटपटी) 
वाणी में यह (' नलोपाख्यान ” नामक ) आख्यान पद्य-बद्ध किया। “ महा- 
भारत ' के “आरण्यक (वन) पर्व ' को मूल कथा में नेषध-राज नल की 
लीला कही है। ४४ कवि ने इस काव्य का मुह॒तें (शुभारम्भ, श्रीगणेश 
ग्रुजरात के ) सूरत नगर मे किया और यह (काव्य) नन्दुरबार (नामक 
महाराष्ट्र में स्थित नगर) में पूर्ण. हुआ। नल-दमयन्ती की यह कथा 
सुन्दर कथाओ में (संर्वाधिक) सुन्दर है। ४५ विक्रम संवत सत्रह सौ 
बयालीसतवें वर्ष के पोष मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया, गुरुवार को चन्द्र- 
दर्शन (चन्द्रोदय) के समय यह कथा पूर्ण विस्तार को प्राप्त हुई (मर्थात 
समाप्त हुई) । ४६ 

(कवि ने) उस दिन इस पावन पद्य-बद्ध ग्रन्थ को परिपूर्ण किया। 
इसके द्वारा श्रोता तथा वक्‍ता सबका श्रीहरि से सम्बन्ध (स्थापित) हो 
जाए। ४७ 

0 प्रेसानन्द-रसामृत (नलोपाख्यान) समाप्त ॥ 


प्रेमानन्‍्व-रसा मृत 


( तृतीय कलश ) 


सुदासा « चरित्र 


प्रेमानन्‍्द-रसामृत 


सुदाभा 


कडबुं १ लुं--( कवि की प्रास्ताधिक उकिति । पाल्न-परियमात्मक पृष्ठभूलि ) 
राग रामग्री 


श्री गुर्देव ने गणपति समझं अंबा ने सरस्वती, 
प्रबल मति. विमक्ठ वाणी पामीए रे। १ । 
रमा-रमण  हृदयमां राखूं, भगवदू-लीला भाखुं, 
भक्तिरस॒ चाखुं, जे चाख्यो शुक-स्वामीए रे। २। 





कड़यक--१ ( फवि को प्रास्ताचिक उक्ति। पात्न-परिचयात्मक भूसिका ) 


मैं श्रीगुर्देव और श्रीगणेश जी, देवी अम्बा जी भौर सरस्वती जी 

का स्मरण करता हूँ । (मैं उनसे प्रार्थता करता हूँ कि उनकी क्ृपा से) 
हमें अति प्रबल गति अर्थात तेजस्वी बुद्धि और निर्मेल वाणी (भावों को 

| सम्यक्‌ रूप से अभिव्यक्त करने की दृष्टि से कोई भी दोष न रखनेवाली 
| वाणी) की प्राप्ति हो जाए। १ मैं रमा-रमण भगवान विष्णु को हृदय 
' में (प्रतिष्ठित करके) रखता हूँ और (उनके द्वारा कृष्णावतार में की हुई, 
अर्थात) भगबान (कृष्ण) की एक लीला का वर्णन करने जा रहा हूं। 

| जिसे शुक स्वामी” (सुनि) ते चखा था, उस भक्ति-रस को मैं चख रहा 
6 हूँ (और श्रद्धावान श्रोताओं-- पाठकों को चखाने, उसका आस्वादन कराने 


डर 
९ छुक मुनि पूर्व-जन्म मे ' शुक (तोता) ' थे गौर उस रूप में उन्होने श्रवण 
, करके आत्मज्ञान प्राप्त किया था, जब शिवजी - पावेती को वह सुना रहे थे। भागे 
चलकर वही 'शुक' व्यास के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ; अतः वह पुत्र ' शुक ! 
कहलाया। वे व्यास-पुत्न शुक आत्मज्ञानी थे। बचपम मे ही उन्हे ज्ञान-सम्बन्धी 
घमण्ड हुआ, तो वे माया के प्रभाव से दूर रहने के हेतु बन से जाकर रह गये। 
परच्तु नारद द्वारा प्रतिवोधित हो जाने पर वे अपने पिता व्यास सुनि के पास जाये मौर 
उनसे उन्होने भागवत संहिता का भक्ति-पूर्वक अध्ययन किया । फल-स्वरूप शुकजी 





३० गुजराती (नागरी लिपि) 


ण्दा 


ढादछ 
शुक स्वामी कहे, सांभछ राजा, परीक्षित पृण्यपवित्न, 
दशम स्कंध अध्यांय एंशीमे, कहुँ सुदामाचरित्र | ३ । 
सांदीपनि ऋषि -सुर-गुरु सरखा, विद्यावंत अनंत, 
तेने मठ (भ्रणवाने, आव्या, हकछधद -ने भगवंत। ४ । 


ऑफिजत ली शिक अऑनत + अल नल हा * अत हऑडडन क' इक) 





|. ७ 


जा रहा हूँ)। २< शुक स्वामी (मुनि) ने कहा, हे पुण्यवान और पवित्र 
(आचार-विचार वाले) राजा परीक्षित', सुनिए। मे (कवि प्रेमानन्द 
उनके द्वारा कथित श्रीमद्भागवत पुराण के) दशम स्कन्ध के अस्सीर्वे 
सध्याय में से सुदामा-चरित्ष का वर्णन करता हें ।३ सान्दीपनि' 
नामक ऋषि देवगुरु बृहस्पति! जेसे गसीम विद्यावान थे। उनके मठ, 


निष्ठावान विष्णू-भकत हो गये । श्रंगी ऋषि द्वारा अभिशप्त राजा परीक्षित जब गगा- 
तट पर प्रायोपवेशन करने लगे, तो अन्य ऋषि जनों के साथ शुकजी भी वहाँ पहुँचे । 
उस समय राजा के प्रश्नों का उत्तर देते हुए उन्होने उन्हे 'भागवत पुराण का श्रवण 
कराया। यह पुराण बेद-रूप कल्पवृक्ष का फल है, जो शुक मुनि-स्वरुूप तोते के मुख 
का सम्बन्ध हो जाने से परमानन्द-मयी सुधा से परिपूर्ण हुआ माना जाता है । 

१ राजा परीक्षित मर्जुन के पोत्न तथा अभिमन्यु-उत्तरा के पुत्न थे । धर्मराज 
ने परीक्षित को राज्य प्रदान करके गपने बन्धुओो-सहित हिमालय की ओर गमन किया। 
एक समय परीक्षित मृगया के लिए वन में गये । उस समय उन्होंने तृपाते होकर 
शमीक नामक मुनि से पानी माँगा । परन्तु शमीक ध्यानस्थ थे, मतः उनका ध्यान 
राजा की ओर नही रहा । उससे क्रद्ध होकर परीक्षित ने एक मृत सर्प मुनि के गले में 
डालकर वहाँ से प्रस्थान किया । पिता को इस प्रकार अपमानित हुए जानकर शमीक 
ऋषि.के पुत्र श्गो ने परीक्षित को मभिशाप देते हुए प्रण किया कि उस दिन से सातवे 
दिन मैं अपने मित्न तक्षक नाग को भेजकर उसके द्वारा राजा को मरवा डालूँगा। यह 
सुनकर राजा को रलानि हुई। उन्होने अपने पुत्र जनमेजय को राज्य देकर गंगा- 
तट पर प्रायोपवेशन मारम्भ किया। वे भगवान कृष्ण का स्मरण केरने लगे। उस 
स्थान पर अनेक ऋषि आ गये । उनमे पोडश-वर्षीय बालयोगी शुक भी थे | मनुष्य 
के सित्य करतेग्यों, साधनाभो, मरणासन्न व्यक्ति के क्तेव्यो तथा परम सिद्धि के स्वरूप 
के विषय मे परीक्षित ने जिज्ञासा व्यक्त की, तब शुक मुनि ने उनकी जिज्ञासा का 
समाधान करते हुए उन्हे भागवत पुराण (स्कन्ध २ से १२ तक) सुनाया । उसे सुनने 
पर राजा पूर्णत. निर्भय भौर घिरकत हुए। अन्त में फल के अन्दर कृमि रूप मे 
बेठकर भाये हुए तक्षक ने उन्हे दश किया, तो वे मृत्यु को प्राप्त हो गये । 

, ८२ सान्दीपनि नामक काश्यप गोत्नोत्पन्न ऋषि अवन्तीपुरी (उज्जयिनी) के निवासी 
थे। 'उपनयन सस्कार के पश्चात बलराम और श्रीकृष्ण ने उनके आश्रम मे रहते हुए 
उनसे विद्यार्जज किया । सान्दीपनि बुद्धि, बल और ज्ञान मे देवगुरु वृहस्पति जैसे थे । 

३ बृहस्पति नामक देवषि देवो के गुर माने जाते है। वे विद्या, बल, बुद्धि के 
प्रतीक स्वरूप थे। उन्होंने देवासुर-संग्राम मे अपने पुत्र कच को त्य-गुरु शुक्राचार्य 


यहाँ भेजा, जिसने चतुराई से उनका शिष्यत्व स्वीकार करके सजीवनी विधा को उनसे 
प्राप्त किया | - 


प्रेमानन्द-रसामृत (सुदामा चरिक्त) ४११ 


तेनी निशाछे ऋषि सुदामो, वडो विद्यार्थी कहावे, 
पाटी लखी देखाडवा राम-कृष्ण, सुदामा पासे आवे। ५ । 
सुदामो, श्याम, संकर्षण, अन्त भिक्षा करी लावे, 
एकठा बेसी अशन करे, ते भूधरने सन भावे। ६ । 
साथे स्वर बांधीने भणता, थाय वेदनी धुन, 
एक साथरे शयन करता, हरि हछधर ने मुन। ७ । 





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अर्थात आश्रम में हलधर' बलराम और भगवान श्रीकृष्ण पढ़ने (विद्यार्जन 
करने) के लिए आ गये । ४ उनकी पाठशाला में सुदामा नामक ऋषि 
(पढ़ते) थे, जो ज्येष्ठ विद्यार्थी कहाते थे। बलराम और श्रीकृष्ण 
पटिया पर (कुछ) लिखकर उसे दिखाने के लिए सुदामा के पास आया 
करते थे । ५ सुदामा, श्याम (श्रीकृष्ण) और सकर्षण” (बलराम) 
भिक्षा (के रूप मे) माँगकर अन्न लाया करते और इकट्ठा बैठकर भोजन 
किया करते थे। भूधर' (श्रीकृष्ण) के मन को वह अच्छा लगता 
था। ६ वे (तीनों) एक साथ स्वर बाँधकर (स्वर मिलाकर, एक स्वर 
में) पठन करने लगते, तो वेद (-मत्रों) की (पवित्न) ध्वनि (उत्पन्न) हो 
(कर गूंजती रह) जाती थी। श्रीकृष्ण, बलराम और सुदामा सुनि एक 
ही साथरी (तृण-शय्या) पर शयन करते थे । ७ वे दोनों भाई (बलराम 

और श्रीकृष्ण) चौंसठ दिनो में चौदह विद्याओ” को सीख गये। 


१ हलघधर-- श्रीकृष्ण के ज्येष्ठ बन्धु बलराम ने तपस्या करके उसके फल-स्वरूप 
/ संवर्तंक ” नामक हल और “ सौनन्द ” नामक मूसल प्राप्त किया । बलराम के ये 
भायुध थे। वे हल के धारी थे, इसलिए 'हलधर ', ' हलायुध', ' हली * आदि नामों से 
जाने जाते थे। हलधर बलराम प्रततिदृद्वियो को हल से खीचकर मार डालते थे। 
वे पृथ्वी मे हल के फाल की तोक को गड़ाकर, उसे कम्पायमान करने में समर्थ थे । 

२ संकर्षण-- बलरास का एक नाम है। 'शेप ” को सकर्षण कहते है, अतः 
शेषावतार बलराम भी संक्षंण कहाने लगे । एक अन्य मान्यता के अनुसार, पाचरात्र 
मत भें भगवान के व्यूह मे उन्हें ' सकरंण ” नाम से समाविष्ट करते हुए उन्हें * जीव ! 
का प्रतीक माता गया है। 

हे भूधर-- भगवान विष्णु ले * कच्छप ' अवतार धारण करके समुद्र-मन्थन के 
समय '* भू अर्थात पृथ्वी को अपनी पीठ पर उठाये रखा था। इस दृष्टि से भगवान 
विष्णु * भूधर ' कहाते है। दूसरे अर्थ मे वे “ भू ' के भरण-पोषण, रक्षण आदि स्वरूप 
भार के धारी है। इस दृष्टि से भी वे भू-धर हूँ। यहाँ उनके अवतार श्रीकृष्ण को 
उसी नाम से अभिहित किया गया है | 

४ चोदह विद्याएँ-- ऋग्वेद, यजवेंद, अथर्ववेद और सामवेद (नामक चार वेद) , 
शिक्षा, छन्‍्दस्‌, व्याकरण, निरुक्‍त, ज्योतिष और कल्प (नामक छ वेदाग) , न्याय, मी मासा, 
तथा पुराणऔर धर्मेशास्त्न (नामक कुल चौदह विद्याएँ) । 


8४०२ गुजराती (नागरी लिपि) 


चौसठ दवहाडे चौद विद्या, शीख्या बंनो भाई, 
गुरुसुत गुरु-दक्षिणामां आपी, विदठल थया विदाय | ८ । 
कृष्ण सुदामों भेटी रोया, बोल्या विश्वाधार, 
मानुभाव मुजशं फरीने मत्जों, मागूं छूं एक वार । ९ । 
गदगद कंठे कहें सुदामो, “हुं मागूं देव मुरारि, 
सदा तमारां चरण विषे, रहेजोी मतसा मारी (। १०। 


(तदनन्तर) विटृठल-स्वरूप' श्रीकृष्ण ग्रुर-दक्षिणा के रूप में गुरु-पुत्र को* 
लौटा (लाते हुए) देकर बिंदा हो गये । 5 (उस समय) एक-दूसरे से 
मिलकर (एक-दूसरे के गले लगकर) श्रीकृष्ण और सुदामा रो पड़े। 
(फिर) विश्व के आधार-स्वरूप श्रीकृष्ण बोले, “ मैं एक बार माँग रहा हूँ 

(विनती कर रहा हूँ)-- है महानुभाव, मुझसे फिर से मिलना '।९ तो 


१ विट॒ठल-स्वरूप श्रीकृष्ण-- पदा्मपुराण के अनुसार इन्द्राणी ने भगवान विष्णु 
के कृष्णावतार काल में राधा का अवतार धारण किया था। एक समय राधा द्वारका 
में प्रकट होकर द्वारकाधीश श्रीकृष्ण की गोद मे विराजमान हुई। यह देखकर 
रुक्मिणी ने रूठकर गृह-त्याग किया । उसे खोजते हुए श्रीकृष्ण गोकुल मे गये । वहाँ 
से बालरूप धारण करके वे ग्वाल-बालो, गायों-बछड़ों सहित दक्षिण में दिण्डीर बन मे 
भाये। वहाँ उनकी रुक्मिणी से भेंट हुईं। पास ही में पिता को भगवत्स्वरूप मानकर 
भक्त पुण्डलिक उनकी सेवा में व्यस्त होकर रहते थे । जब श्रीकृष्ण उनके समीप 
पहुँचे, तो वे पिता की चरण-सेवा कर रहे थे। उन्होंने एक ईंट फेंककर श्रीक्षष्ण को 
उस पर तव तक खड़े रहने को कहा, जब तक वे स्वयं पिता की सेवा को पूर्ण करके 
उनके पास न भाएँ। श्रीकृष्ण पुण्डलिक पर प्रसन्न हुए और उन्होने उनको मुँह-माँगे 
वर प्रदान किये। उनके अनुसार, श्रीकृष्ण ने * विदुठल ” नाम धारण किया; वें भक्तों 
को दर्शन मात्न से मुक्ति प्रदान करने लगे, उन्होने “ पण्ढरपुर ” (जि० शोलापुर, 
महाराष्ट्र ) को अपना निवास-स्थान बनाया और वे रुक्मिणी-सहित वहाँ रहने लगे । 
पण्ढरपुर नगरी * दक्षिण द्वारका ” कहलाती है। श्रीकृष्ण द्वारका की समस्त सम्पत्ति 
को इस नगरी में ले भआये। ये विदृठल-स्वरूप श्रीकृष्ण महाराष्ट्र के “ वारकरी ' 
नामक विख्यात भक्तित-सम्प्रदाय के आराध्य देवता है । 

२ मृत गुरु-पुत्न को लोटा लाना--- विद्यार्जन को पूर्ण करने पर ग्रुरु से श्रीक्षष्ण 
ने प्रार्थन) की कि वे गुरु-दक्षिणा के रूप मे चाहे जो मांग लें, तो सान्दीपनि ने अपनी स्त्री 
से परामर्श करते हुए कहा-- “ हमारा दत्त नामक पुत्र प्रभास तीथं में डूब मरा है। 
उसे लोटा दो ”। (एक मान्यता के अनुसार, सान्दीपनि श्रीकृष्ण को जाने देना नही 
चाहते थे; इसलिए भृत को जीवित करके लोटाने की बात को भ्सम्भव मानते हुए 
उन्होने जान-वृक्षकर यह बात कही ।) तदनन्‍्तर श्रीकृष्ण ने समुद्र से उस पुत्र को लौटा 
देने का आदेश दिया, तो उसने कहा, ' मेरे अन्दर रहनेवाले पंजचन्य नामक क्ररकर्मा 
देत्य के पास वह होगा ”। तब श्रीकृष्ण ने समुद्र मे पैंठकर पचजन्य का वध किया, 
परन्तु गुर-पुक्त नही मिला । फिर वे यमराज से मिले और बोले, “ उस पुत्र के किये 
कर्मो का विचार न करते हुए उसे लौटा दें '। इसके अनुसार, यमराज से उस पुत्र 

को लेकर श्रीकृष्ण ने सान्दीपति ऋषि को ग्रुरु-दक्षिणा के रूप मे लौटा दिया । 





प्रेमानन्‍द-रसामृत (सुदामा चरित्त) ३४३ 


मथुरामांथी कृष्ण पधार्या, पुरी द्वारिकावासी, 
सुदामे गृहस्थाश्रम _ मांड्यो, मन एनूं सन्‍्यासी। ११। 
पतिब्रता पत्नी मसे पावन, पतिने प्रभू करी प्रीछे, 
स्वामी सेवानूं सुख वांछें, माया-सुख नव इच्छे। १२। 
दस बाकृ॒क थर्या सुदामाने, दुःख दारिद्रे भरियां, 
शीतलछाए अमी-छांटो नाख्यो, थोडे अन्ने ऊछरियां। १३। 
अजाचक ब्रत पाछे सुदामो, हरि विना हाथ न ओढे, 
आवबी मछ्े तो अशन करे, नहि तो भूख्या पोढे । १४। 


पड आज लत ५६ >उननकलल 3. के कपल कब्ह २-१ 





>५>त-ल 











वजन 


सुदामा गद्गद कण्ठ से बोले, “ हे मुरारि देव', मैं (विनम्रता-पूर्वके यह 
वरदान) माँग रहा हूँ कि मेरी मति नित्य आपके चरणों मे (लगी) 
रहे “।१० (अनन्तर) श्रीकृष्ण (मथुरा में जाकर रह गये; कई वर्षो के 
पश्चात्‌ वे) मथूरा में से द्वारकापुरी पधारे और वहाँ के निवासी हो गये । 
(इधर ) सुदामा ने, जिनका मन (वस्तुतः) सन्‍्यासी (का-सा समस्त 
भोग-विलासों के प्रति अनासक्त) था, गृहस्थाश्रम (का जीवन-क्रम) 
आरम्भ किया । ११५ उनकी पत्नी पत्तिन्रता थी; वह मन से पावन-पवित्न 
थी। वह पति को प्रभू (परमात्मा) जेसे देखती (मानती) थी। वह 
पति की सेवा के सुख की कामना करती थी और माया की (माया-स्वरूप 
सांसारिक सुख आदि की) कोई इच्छा नही करती थी । १२ सुदामा के 
दस बच्चे उत्पन्न हुए; वे दुःख-दरिद्रता से भरे-प्रे थे। शीतला (चेचक 
रोग की अधिष्ठात्ी) देवी ने (उन्हें पीड़ित तो किया; फिर भी)उन पर 
(मानो) अमृत की बूँद डाली; (उससे वे नही मरे; फिर भी ) वे थोड़े- 
से अन्न पर पल-पुसकर बड़े हो गये। १३ (इधर) सुदामा अयाचक ब्रत' 
रखा करते थे; (अतः) वे श्रीहरि के अतिरिक्त किसी अन्य के सामने 


१ मुरारि-- ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न तालजघ नामक दैत्य के पुत्न मुर ने समस्त 
देवों को पराजित किया। भगवान विष्णु भी उससे हार मानकर बदरिकाश्रम के 
निकट सिहावती नामक ग्रुफा मे योगमाया के आश्रम में रह गये। मुर के वहाँ आा 
जाने पर उन्होने योगमाया से एक देवी का निर्माण करके उससे उस दैत्य का बच्च 
कराया । अतः विष्णु “ मुरारि  कहाते है। एक दूसरी कथा के अनुसार, कश्यप 
ओर दनु के पुक्त मुर नामक दानव ने तपस्या से शिवजी को प्रसन्न करके उनसे यह वर 
प्राप्त किया-- तुम जिसके हृदय-स्थल पर हाथ रखोगे, वह तत्काल मर जाएगा । 
इवेत द्वीप से मुर का श्रीकृष्ण से युद्ध हुमा, तो श्रीकृष्ण ने चतुराई से मुर दानव को 
उसके अपने ही हृदय पर हाथ रखने को बाध्य किया; फलत:ः मुर की मृत्यु हुई। तब 
से भगवान विष्णु-स्वरूप कृष्ण को ' मुरारि ' कहते है । 

२ अयाचक ब्रत्त-- किसी मनुष्य से किसी भी बात की याचना या माँग न करने 
का ब्रत। (अजाचक ब्रत - अयाचक ब्रत) । 





४३४४ गुजराती (नागरी लिपि) 


वलण ( तर्ज बदलकर ) 


पोढे ऋषि संतोष आणी, न इच्छे सुख घरसृत्रनुं, 
ऋषि-पत्नी शिक्षा करी लावे, पूरु पाडे पति-पुत्ननुं । १५। 


हाथ नही बढ़ा सकते थे । आकर मिल जाता, तो भोजन किया करते थे; 
नही तो वे भूखों पौढा करते थे । १४ 
(मन में) संतोष लाकर (मानकर) ऋषि सुदामा पौढ़ा करते थे। 
वे घर-संसार सम्बन्धी सुख की इच्छा नहीं करते थे। (इस स्थिति में) 
उन ऋषि की पत्ती भिक्षा (माँगते हुए घुम-फिरकर उस) के रूप में अन्न 
लाया करती थी भौर अपने पति तथा पुत्रो की आवश्यकताओं को पूर्ण 
कर दिया करती थी । १५ 


कटवुं २ जु--( अपने घर फी दुरवस्था फा वर्णत करते हुए सुदामा की स्क्रो 
हारा उनसे श्रीकृष्ण फे पास जाने का अनुरोध करना ) 


राग वेराडी 
शुकजी कहे, सांभक्क नरपति, 
छे सुदामानी निर्मेक मत्ति। १ । 
माया-सुख. नव इच्छे.. रती, 


सदा मन छे जेनं जति। २ । 
मुनितों मर्म कोई नव लहे, 
सो मेलो घेलो दरिद्री कहे। ३ । 


जी 3ल3+ 33 बीज +ल+ल ५०333 ती तब ५3 बज बल जी री जननी सती जली ता चलता + ४3» ४८33 >ी3॑3ञा 33 >> 


फड़वक--२ ( अपने घर को दुरवस्था फा वर्णन फरते हुए सुदामा की स्त्री द्वारा उनसे 
श्रीकृष्ण फे पास जाने फा अनुरोध फरता ) 


शुकजी ने कहा, ' हे नरपति परीक्षित, सुनिए। सुदामा की मति 
निर्मल (पाप, छल-कपट आदि की मैल से रहित) थी । १ _ वे रत्ती भर 
तक माया-जन्य (सांसारिक) सुख की इच्छा नहीं करते थे। उनका 
मन नित्य वेसा ही अनासक्त बना रहा था, जैसे किसी यति (संन्यासी) 
का होता है।२ (परन्तु) कोई भी मुनि सुदामा के मर्म को (उनके 
ज्ञान-जन्य वंराग्य को, पवित्त अनासक्त वृत्ति को) नहीं जान लेता था। 
सब उन्हे मलिन, पागल और दरिद्र कहते ये । ३ (फिर) बिना माँगे, 


प्रेमानल्द-रसामृत (सुदामा चरित्र) ४४५ 


जाच्या. बिना कोई केम आपे ! 

घणे. दुःखे. काया कांपे । ४ । 
भिक्षानूं,.. काम कामिनी. करे, 

कोमां वस्त्र धृए ने पाणी भरे। ५ । 
जेमस तेम. करीने लावे अन्न, 

निज कुंटुंब पोषे सत्री-जत । ६ । 
घणा दिवस दुःख एणी पेरे सहयुं, 

पछे. पुरमां अन्न जडतूं. रह्यूं | ७ । 
बालठकने थया बे उपवास, 

तव स्त्री आवी सुदामा पास। 5 । 
“४ हुं वीनवुं जोडीने. हाथ , 

अबका कहे, “ सांभछीए नाथ । | ९ । 
भूख्यां बाक्॒क करे रुदन, 

सगरमां नथी मछ्तूं अब । १० । 
ते मक्े कंद, मूछ के कफ, 

बे दिवस थया लई रहे जछ। ११।॥ 
सुख-शय्या, भूषण, पटक, 


ते क्यांथी ? हरि नथी अनुकूछ / । १९। 


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कोई (किसी को) कैसे दे ! (सुदामा किसी से कुंछ नहीं मॉगते थे, अतः 
कोई भी उन्हें कुछ नहीं देता था। ) दरिद्रता-जन्य बहुते ढुँःवें से 
(शक्तिहीन, जजेर होने के कारण) उनकी देह काँपती रहती थी। ४ 
उनकी स्त्री भिक्षा (माँगकर लाने) का कीस किया करती थी । (इसके 
अतिरिक्त) वह किसी के वस्त्र धघोती और (किसी के यहाँ) पानी भरती 
थी। ५ जैसे-वंसे करके वह अन्न लाया करती थी । वह स्त्री (इस 
प्रकार) अपने परिवार का (भरण-) पोषण किया करती थी । ६ उसने 
बहुत दिन, इस प्रकार दुगख को सहन किया । अनन्‍्तर नगर में अन्न 
मिलने से रहा (अन्न मिलता बन्द हो गया )।७ बच्चों को दो अनशन 
हो गये, तब वह स्त्री सुदामा के पास आ गयी । ८ वह नेबला बोली, 
' हें नाथ, सुनिए। मै हाथ जोड़कर विनती करती हूँ । ९ भूखे बालक 
रुदन कर रहे है। नगर में अन्न (ही) नहीं मिल रहा है। १० करन्द, 
मूल वा फल नही मिल रहे है । दो दिन हो गये है, जब से वे 
पानी (पी) लेकर रह रहे है। ११ (फिर) सुख (“युक्त )-शय्या, आभूषण 


ज्ज्श्न्व्््जज जज चाह 


४४६ गुजराती (नागरी लिपि) 


भूखयां बाक्कक जुए मानूं मुख, 

स्‍त्री जई कहे स्वामीने दुःख । १३ । 
४ हुं कहेता लागीश  अकछखामणी, 

स्वामी, जुओ आपणा घर भणी | १४॥। 
धातु-पात्च नहि. कर साहवा, 

साजूं वस्त्न नथी सम खाबा। १५। 
जेम जकढ विण वाडी कझ्षाडुवा, 

तेम भन्न विण बाछ॒क बाडुवां। १६। 
आ नीचूं घर, भींतडीओ पडी, 

शएवान मांजर आबे छे चडी। १७। 
अतीत. फरीने. निर्मख जाय, 

गवानिक नहि. पामे गाय । १८। 
करो छो मंत्र भणीने सेव, 

तेवेय बिना पूजाये देव। १९। 
पुज्य पर्वणी को. नव जमे, 

जेवोी ऊगे तेबवबो आधथमे | २०। 


और वस्त्र तो कहाँ से आएँगे ? (जान पड़ता है कि) भगवान श्रीहरि 
हमारे प्रति अनुकूल (प्रसन्न) नही है '। १२ 

भूखे बच्चे माँ के मुख को देखते रहते थे। तो उस स्त्री ने जाकर 
अपने स्वामी से (घर का) दु:ख कहा। १३६ (वह बोली-- ) “ भेरे 
द्वारा कहने पर आपकी अध्रिय लगेगा । परन्तु है स्वामी, अपने घर की 
ओर देखिए। १४ हाथ में धरने के लिए (घर में) धातु का कोई पात्र 
तहीं है। शपथ करने के लिए भी अखण्ड वस्त्न नहीं है। १५ जिस 
प्रकार फूलवारी में बिना पानी के पौधे (सूख जाते) हों, उसी प्रकार 
आपुरे (बेचारें) बच्चे तिना अन्न के, (दीन-हीन) हो गये है । १६ यह 
निचला-छोटा घर है। उसकी भित्तियां ढह पड़ी हैं। इसमें कुत्ते, 
बिल्लियाँ पैठकर भा जाते है । १७ अतिथि (कुछ स्वागत आदि न होने 
की आशंका से) लौटकर, विमुख होकर जाते है। गाय गो-प्रास (तक) 
को प्राप्त नही हो रही है। १८ आप (केवल) मंत्र पढ़कर (देवों की) 
सेचा करते है, बिना नवेद्य के देवों का पूजन करते हैं।१९ पृष्य 
(पावन) परबंणी के दिन कोई भोजन नहीं कर पाता। वहू दिन जंसे 
निकलता है, वैसे ही अस्त को प्राप्त हो जाता है (ढल जाता है) । २० 
सव कोई संवत्सरी (वाधिक) श्राद्ध सम्पन्न करते है। (परन्तु) आप नहीं 


प्रेमानन्द-रसामृत (सुदामा चरित्त) छु४७ 


श्राद्ध समछरी सहु को करे, 

आपणा पित्नी निर्मेत्च फरे। २१। 
आ बाकृक. परणाववा. पडझशे, 

सतकुलनी कन्या केम जडशे। २२ । 
अन्न विना पुत्र मारे वागलां, 

तो क्यांथी आवबे टोपी आंगलां। २३। 
वाये टाढ बाककडां रुए, 

भस्म मांहि. पेसीनी सूए। २४। 
हुँ ते धीरज केई पेरे धर! 

तमारु दुःख .देखीने मरुं।२५। 
अखोटियूं पोतियूं लव मे, 

स्‍्तान करो छो शीतक जढछें। २६। 


वाध्या नख ते वाधी जटा, 
मांहे उडे राखोडी घटा। २७। 
द्भ तणी तूटी सादडी, 


ते उपर, नाथ, रहो छो पडी। २८ । 
बीजे त्रीजे कांई पामोी आहार, 
ते मुजने दहे छे अंगार। २९। 


कर सकते, इसलिए अपने पितर (बिना कुछ पाये) विमुख होकर चले 
जाते है।२१ इन बालकों का विवाह तो करना पड़ेगा, तब (उनके 
लिए) अच्छे कुल की कन्याएँ कैसे मिलेगी । २२ बिना अम्न के पृत्र तड़प 
रहे है। तो (फिर उनके लिए ) टोपियाँ और भँंगरखे कहाँ से आएंगे । २३ 
(जब) ठण्ड लगती है, तब बच्चे रोते है (और फिर उससे बचने के लिए) 
भस्म (के ढेर) में पैठकर सो जाते हैं। २४ मैं तो किस प्रकार घीरज 
धारण करूँ ? मैं आपके दुःख को देखकर मर रही हूं । २५ (पीताम्बर 
अथवा रेशम आदि का सुमंगल वस्त्र) पाक-साफ़ पवित्न वस्त्र (जो पूजन, 
भोजन करते समय पहना जाता है) मिल नही रहा है। आप स्तान 
(भी) ठण्डे पानी में करते हैं। २५ आपके नख बढ़े हैं और जटाएँ बढ़ी 
है, उनमें से (मानो) भस्म के बादल (-से) उड़ते रहे हैं। २७. दर्भ 
की (बनायी हुई) चटाई फट गयी है। (फिर भी) हे नाथ, आप उसी पर 
पड़े-लेटे रहते है। २८ (जब) आप दूसरे-तीसरे दिन आह्वार को प्राप्त 
हो जाते है (आपको प्रतिदिन तो भोजन नही मिल रहा है), तो (यह 
देखकर) मुझे अंगार जलाते रहते है।२९ मैं तो दरिद्रता के सागर 


ए४८ गुजराती (नागरी लिपि) 


हूं तो दारिद्र-समुद्रमां बूडी, 
6 हेवातणमां एकेकी चुडी । ३० । 

सौभाग्यनो नथी शणगार, 
नहि. काजछू, नहिं कीडियाहार | ३१। 

नहि ललाटे देवा कंकु, 
आ शरीर अन्न बिना सुकयं। ३२। 

हुं पूछ लागीने पग्रे, 
एवं दुःख सहीशुं क्‍यां लगे। ३३। 

तमे वहाडी कहो छो भरथार, 
छे माधव साथे मित्नाचार | ३४। 

जे रहे कल्पवृक्षनी तले, 
तेने शी वस्तु नव मछे । ३५। 

जे जीव जढह्ठमां क्रीडा करे, 
ते प्राणी केम तरसे मरे ? । ३६। 

जे प्रकट करी सेवे हुताश, 
तेने शीत केम आवबे पास । ३७ | 

अमृत-पान कीधूं जे नरे, 
ते जम-कैकरथी केम डरे। ३८। 

जेने सरस्वती जीभे वसी, 
तेने अध्ययननी चिन्ता कशी ? । ३९। 
में डूब गयी हैँं। (मेरे पास) सुहाग मे एक-एक चूड़ी (ही) है। ३० 
सुहाग का (मेरे पास) कोई साज-सिगार नही है-- न काजल है, न काँच 
के मनकों का हार है। ३१ मस्तक पर लगाने के लिए कुकुम नहीं है । 
बिना अन्न के यह शरीर सूख गया है।३२ मैं आपके पाँव लगकर 
पूछती हँ-- “ मैं ऐसा दुःख कब तक सहती रहूँ ? ३३ है पति (-राज), आप 
(मुझसे ) प्रति दिन कहा करते हैं कि मेरी माधव (श्रीकृष्ण) के साथ मित्रता 
है। ३४ तो (फिर) जो कल्पवृक्ष के तले रहता हो, उसे कसी (कौन) 
वस्तु नही मिल सकती ? ३५ जो जीव पानी में क्रीड़ा करता है, वह 
प्राणी (प्यास से) तरसते हुए कैसे मर सकता है? ३६ जो अग्नि को 
प्रकट, अर्थात प्रज्वलित करके उसे काम मे लाता है, उसके पास ठण्ड किस 
प्रकार आ पाएगी ? ३७ जिस नर ने अमृत का पान किया है, वह यम 
के दूत से कंसे (क्यों) डरे ? ३८. जिसकी जिह॒वा पर सरस्वती ने 
निवास किया है, उसे अध्ययन की कैसी चिन्ता ? ३९ जिसने सदगुरु के 


प्रेमानन्द-रसामृत (सुदामा चरित्न) ४४८ 


सदगुरुगां. जेणे सेव्यां चरण, 

तेने.. शान सायावरण ? । ४० । 
जेणे जाह्नवी सेवी सदा 

तेने जन्म-मरणनी शी आपदा ? । ४१। 
जेनूं सन हरि-चरणे वस्युं, 

ते प्राणी पातक कशुं ? । ४२। 
जेणे स्नेह. शामछ्िया साथ 

तेनें घर नव होय अनाथ । ४३ । 
छेल्ली विनति दासी तणी 

प्रभू॒ पधारो भूधर भणी | ४४। 


ते चौद लोकनो छे महाराज, 
ब्राह्ममने भीखतां शी लाज ? । ४५। 


वलण ( तज़े बदलकर ) 


लाज न कीजे, नाथजी, माधव मन-वांछित फछ आपके । 
दीन जाणी त्रठशे, पछे भवनी भावठ भांगशे”। ४६ । 


कक की मम आओ आय 


चरणो की सेवा की हो, उसके लिए माया का कौन आवरण है ? ४० 
जिसने सदा जाह्व॒वी' (गगाजी) के समीप निवास किया हो, उसके लिए 
म-मरण की आपदा कसी हो सकती है ? ४१५ जिसका मन श्रीहरि 
के चरणों में बस गया है, उस प्राणी के लिए कसा पाप ? ४२ (उसी 
प्रकार) जिसको श्याम श्रीकृष्ण से स्नेह हुआ है, उसका घर अनाथ 
(आश्रयहीन) नहीं हो सकता । ४३ (इसलिए मुझ) दासी की यह 
अन्तिम विनती है- है प्रभु, आप भूधर' श्रीकृष्ण के प्रति गमन 
कीजिए । ४४ वे चौदह लोकों' (भुवनो) के महाराजा है। (फिर) 
ब्राह्मण को उनसे भिक्षा माँगने में कसी लज्जा हो सकती है ? ४५ 


१ जाहनवी-- भगी रथ अपने पितरों का उद्धार करने के लिए स्वर्ग की गगा को 
पृथ्बी पर उतार लाये । गया के प्रवाह के मार्ग से राजा जहनु तपस्या-रत थे । उससे 
उनकी तपस्या से बाधा उत्प्न हुई, तो उन्होंने उसके समस्त जल को पी डाला। 
तदनप्तर भगौरथ ने जहनु को प्रसन्न कर लिया, तो उन्होने गया की धारा को अपने 
कान द्वारा मुक्त करके बहने दिया। इस दृष्टि से गगा नदी जहनु से उत्पन्न हुई, 
बतः ' जाह्नवी ' कहाती है। 

२ भूधर- देखिए टिप्पणी ३, कड़वक १, पृू० ४४१। 

३ चोदह लोक (भुवन)- भू , भुवरु, स्वर, महरू, जनः, तपः, सत्य, मतल, 
वितल, सुतल, महातल, तलातल, रसातल और पातल (पाताल) । 


४४० गुजराती (नागरों लिपि) 


है नाथजी, आप लज्जा न अनुभव करें। माधव (श्रीकृष्ण) 
आपको (आपका) मनोवांछित (मनचाहा), फल प्रदान करेंगे। वे 
आपको दीन समझकर आप पर प्रसन्न हो जाएँंगे। अनन्तर संसार-भ्रमण 
का (जन्म-मृत्यु के रूप में बार-बार संसार में आने और उससे जाने के 
चक्र मे फेंसकर भ्रमण करते रहने का) दुःख दूर हो जाएगा | ४६ 


फडवुं ३ जूं-- ( सुदामा द्वारा अपनो पत्नी फो समझाने फा यत्न करना ) 
राग गोडी 


जईने जाचो जादवराय, भावठ भांगशे रे, 
हुं तो कहुँ छूं लागी पाय, भावठ भांगशे रे। 
धन नहि जडे तो गोमती-मज्जन, 
दर्शन-फल नहि जाय, भावठ० 
सुदामोी कहे विप्रने, नथी मागतां प्रतिवाय, 
पण मित्र आगढ माम मूकी, जाचतां जीव जाय । 
मास न मूकीए रे । २। 

प्रेमदा कहे, प्रभजी, ए चौद भुवतनो राज, 
शिर उपर छे श्रीपति, त्यां मागतांशी लाज ? भावठ० | ३। 


अल 3िलिजीजीज अल चली नी 


१। 





आम 


फड़बक-- ३ ( सुदाना द्वारा सपनी पत्नी को समझाने का यत्न करना ) 


(सुदामा को स्त्नी बोली-- ) (द्वारका) जाकर यादवराज श्रीकृष्ण 
से (कुछ) माँग लीजिए, तो संसार का जजाल टुट (नष्ट हो)|जाएगा। मैं 
(आपके ) पाँव लगते हुए कह रही हूँ-- (श्रीकृष्ण से विनती करने पर) 
संसार-भ्रमण का दुःख (ससार का जंजाल भग्न होकर) दूर हो जाएगा। 
(मान लीजिए कि) धन न मिले, तो भी गोमती नदी मे स्ताव करने और 
(भगवान श्रीकृष्ण के) दर्शन का फल तो (कही) नहीं जाएगा 
(यह लाभ तो अवश्य होगा) । सांसारिक जंजाल ० । १ (यह सुनकर ) 
सुदामा ने कहा, ' विप्र को (दान आदि) भमाँगने में कोई प्रत्यवाय (दोष, 
पाप) नही है। फिर भी , अपनी (अयाचक ब्रत सम्बन्धी ) टेक का त्याग 
करके मित्र के सम्मुख (जाकर उनसे) माँगने मे (जान पड़ता है कि) 
प्राण निकलकर जा रहे है। (अतः अपनी ) टेक नही छोड़े '।२ स्त्री 
बोली, ' है प्रभुजी, यह चौदह भुवनों का राज्य है। उसके सिर पर 
(राजा के रूप में ) श्रीपति भगवान कृष्ण है। उनसे माँगते हुए कसी 


प्रेमानलद-रसामृत (सुदामा चरित्त) ४५१ 


शूं कहेवूं पडशे क्ृष्णने ? अंतरजामी अजाण ? 


घट घटमां व्यापी रह्यो, पूरण पुरुष पुराण। माम० । ४। 
उदर कारण नीच कने जई, कीजे विनति प्रणाम, 

ए स्थानक छे नमवातणुं, मामे वणसे काम | भावठ० | ५। 
जादव सघक्ाां देखतां केम, ओढुं जमणो हाथ ? 

हुं दुबंठमित्ननु रूप देखीने, लाजे लक्ष्मीताथ | माम० । ६ । 
प्रभू, पुरुष ते जे उद्यमी, जई करे पोतानुं काज, ' 

ब्राह्मणमनो कुलधम छे, तो भीखतां शी लाज ? भावठ | ७॥ 
अंतरजामो अजाण बथी रे, स्त्री तमने कहुं वारवार, 

दश सास गर्भवास प्राणीती, रक्षा करे मोरार | माम० | ८ | 


शो उद्यम करीए एवं जाणी, सतोष आणीए मंन, 
सुख लीलामां हरि वीसरे, भाव थाय आपणो भिन्न । माम० । ९। 


लाज ? सांसारिक जंजाल ० “। ३ (सुदामा बोले-- ) “श्रीकृष्ण से क्‍या 
कहना पड़ेगा ? क्‍या वे अन्तर्यामी (भगवान हमारी स्थिति से) अपरिचित 
हैं ? बे पूर्णपुराण पुरुष (श्रीकृष्ण) घट-घट में व्याप्त रहे है। (अतः 
अपनी) टेक न छोड़े '।४ (स्त्री बोली--) “ उदर (-भरण) के लिए 
(वेसे तो) नीच (छोटे तक) के पास जाकर विनती करे, उसको प्रणाम 
करें। (ओर फिर) यह स्थान तो नमस्कार करने के योग्य है। 
(आपकी ऐसी) टेक से तो काम्त बिगड़ जाता है। (श्रीकृष्ण से याचना 
करने से) सांसारिक जंजाल ० '।५ (सुदामा ने कहा-- ) “ भै समस्त 
यादवों के देखते रहते, (श्रीकृष्ण ज॑से मित्न के सामने) अपना दाहिना 
हाथ (दान माँगने के लिए) कैसे बढ़ाऊं ? लक्ष्मी-पति (विष्णु-स्वरूप 
कृष्ण) मुझ (जैसे) दुर्बंल-दरिद्र सित्न कों देखकर लज्जित हो जाएँगे। 
(अतः अपनी ) टेक को ० !। ६ (स्त्री बोली-- ) ' हे प्रभु, वह पुरुष, 
जो उद्यमी होता है, जाकर भपना काम करता है। ब्राह्मण का (दान- 
माँगना-लेना) यह कुल-धर्म है, तो भिक्षा माँगने मे क्‍या लाज ? (श्रीकृष्ण 
से मिलने पर) सांसारिक जंजाल ० ।७ (सुदामा बोले-- ), ' भरी 
स्त्री, मैं तुमसे यह बार-बार कह रहा हूँ कि अन्‍्तर्यामी भगवान (श्रीकृष्ण) 
अनजान नही है। मुरारि भगवान तो गर्भ-वास में दस मास तक प्राणी 
की रक्षा करते हैं। (अत: अपनी) ठेक को ० । ८ ऐसा जानूकैंर क्या 
उद्योग (काम) करे ? मन, में (इसी स्थिति में) सच्तोष करें। सुख- 
लीला (सुखोपभोग की स्थिति) में श्रीहरि विस्मृत हो जाते है। अपना 
भाव (विचार बदलकर) विपरीत हो जाता है। (अतः अपनी) टेक को 
त छोड़ें '8९ (यह सुनकर स्त्री वोली-- ) ' फिर मॉगने न जाएँ और 


४५२ ग्रुजराती (नागरी लिपि) 


जाचवा न जईए ने पडी रहीए, तो केम जीवे परिवार ? 

एक वार जाओ जाचवा, तमने नही कहुं बीजी वार । भावठ5० | १०। 
जोडवा पाणि, दीन वाणी, थाये वदन पीढछुं वर्ण, 

ए चिह्न सौ जाचक तणां, माग्यापे रूडुं मरण। माम० । ११। 
राजा थई विभीषण जाच्या, महावीर धीर जगदीश, 

प्रभु सामां पगलां भरे तो, टढ्के दारिद्रय ने रीस | भावठ० | १२। 
जगतना मननी वार्ता, जाणे अतरजामी राम, हि 
अहीं बेठा नवनिध आपशे, तही गयानू शूं काम ? मासम० । १३ । 
सुदामो कहे नारने, क्यम चाले मारा पाय, 

मित्र आगक माम मूकिये, धिक्‍क पडो मारी काय | माम० । १४। 
कहेवं नहि पडे कृष्णजीने, नथी अंतरजामी अजाण, 

घटघटमां व्यापी रह्यो छे, प्रण पुरुष पुराण । माम० | १५। 
(घर में यों ही) पड़े रहें, तो परिवार जीवित कंसे रहेगा ? (अतः) आप 
एक वार (ही) माँगने के लिए जाइए। आप से मैं दूसरी बार (जाने 
को) नही कहूँगी । (जाने पर) सांसारिक जंजाल ० '॥ १० (सुदामा 
ने कहा-- ) '(माँगने के लिए) हाथ जोडते (समय), वाणी दीन होती 
है, वदन पीले वर्ण का हो जाता है, फीका पड़ जाता है। समस्त याचकों के ये 
लक्षण है। माँगने से मौत अच्छी होती है। (भतः अपनी) टेक को न 
छोड़ें । ११ (स्त्री बोली-- ) “ राजा होकर भी विभीषण ने महावीर 
धीर (पुरुष) जगदीश (राम) से माँग लिया। प्रभु के सामने पाँव 
बढ़ा देते है, तो दरिद्रता और दुःख ठल जाता है। सांसारिक 
जंजाल ० “। १२ (सुदामा बोले-- ) “ राम अन्‍्तर्यामी है। वे जगत 
के मन की वार्ता (स्थिति-गति सम्बन्धी समाचार) जानते है। वे 
(चाहे तो हमारे) यहाँ बैठने पर (भी) नौ निधियाँ" दे सकते हैं। अतः 
वहाँ जाने का क्या काम (आवश्यकता) ? (अतः अपनी) टेक को न छोड़ें । १३ 
सुदामा ने अपनी स्त्री से कहा, ' मेरे पाँव कैसे चल पाएँगे ? सित्न के सामते 
अपनी टेक को त्यज दें, तो घिक्कार है। तब तो मेरी देह गिर जाए। (अतः 
अपनी ) टेक को न छोडे । १४ (हमें) श्रीकृष्ण से कहना न ही पड़ेगा। वे 
अन्तर्यामी (हैं), अनजान नहीं है। वे पूर्ण पुराण पुरुष घट-घट में व्याप्त हैं । 


१ नव निधियाँ-- महांपदुम ,पदुम, शंख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नील और 
खब। अथवा-- हय, गज, रथ, दुर्ग, भण्डार, अग्नि, रत्न, धान्य और प्रमदा । 


प्रेमानन्द-रसामृत (सुदामा चरित्न) ४५३ 


तमो ज्ञानी, त्यागी, वेरागी, छो पंडित गुणभंडार, 
हुं जुगते जीवूं केम करी ? नीच नारीनो अवतार। भावठ० । १६॥ 


वलण ( तर्ज बदलकर ) 


अवतार स्त्रीनो अधम कही, ऋषि-पत्नी आंसु भरे, 
दुःख पामी जाणी प्रेमदा, पछे सुदामोजी ऊचरे। १७। 


हि 5 आर फ अग कक व नकल इक कक शत लत कक 26 
(अत: अपनी) टेक को न छोड़े ' । १५ (स्त्री बोली-- ) ' आप ज्ञानी 
हैं, त्यागी, विरागी है। आप पण्डित है, गुण-भण्डार है। (फिर भी) 
मैं युव्ति-पवंक किस प्रकार (का आयोजन करके इस दरिद्गवता में) जीवित 
रह सकती हूँ ? मै तो नीच, स्त्री के जन्म को प्राप्त हुई हैँं। (भतः 
मुझे लगता है कि श्रीकृष्ण से मिलने पर) सांसारिक जजाल ० (। १६ 
स्‍त्री के जन्म को अधम कहकर ऋषि सुदामा की पत्नी ने आँखों में 
आँसू भर लिये। फिर अनन्तर यह जानकर कि (अपनी) स्त्री दुःख को 
प्राप्त हुई है, सुदामाजी बोले | १७ 


फडवुं ४ थु-- ( सुदामा द्वारा अपनी स्त्नी को उपदेश देना; स्त्री द्वारा अन्य का 
महत्त्व बताते हुए सुदामा से विनती करना ) 


राग रामग्री 
पछे. सुदामोजी बोलिया, सुण सुंदरी रे, 
हुंकहुते शीख मान, घेली कोणे करी रे!। १। 


जे निम्यु छे ते पामीए, सुण सुदरी रे, 
विधिए लखी वृद्धि हाण, घेली कोणे करी रे !। २। 


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कड़वक--४ ( सुदामा द्वारा अपनी स्त्री को उपदेश देना; स्त्नी द्वारा अन्न फा महत्त्य 
बताते हुए सुदामा से विनती क्षरना ) 


अनन्तर सुदामाजी बोले, “ अरी सुन्दरी, सुन लो । मै तुम्हें (जो) 
सिखावन दे रहा हूँ, उसे तुम (ठीक) मान लो (स्वीकार करो) । तुम्हें 
किसने पागल बना लिया है ? १ अरी सुन्दरी, सुन लो। जो निर्मित किया 
गया हो (जो भाग्य में लिखा हो), उसे हम प्राप्त हो जाएँ। विधाता ने 
वृद्धि (उत्कर्ष, लाभ) और हानि (भत्येक मनुष्य के भाग्य में) लिखी है। 
तुम्हें किसने पागल बना लिया है? २ है सुन्दरी, सुन लो। (मनुष्य 


४५४ ग्रुजराती (नागरी लिपि) 


सुक्ृत दुकृत वे सित्र छे, सुण सुंदरी रे, ., 
जाय प्राण आत्माने साथ, घेली कोणे करी रे ! ।३। 
दीधा विना केम पामीए ? सुण सुंदरी रे, 
नथी आप्युं जमणे हाथ, घेली कोणे करी रे ! ।४। 
जो खडधान खेडी वावीए, सुण सुंदरी रे, 
तो क्यांथी ज़मीए शा ? घेली कोणें करी रे![।५। 
जक वही गये शी शोचना, सुण सुंदरी रे, 
जो प्रथम न:बाधी पाछ ? घेली कोणे करी रे ! । ६। 
एकादशी-ब्रत कीधां वथी, सुण सुंदरी रे, 
न कीधां तीरथ उपवास, घेली कोणे करी रे। ७ । 
पितृतपंण. कीधीां नथी, सुण सुंदरी रे, 
नहीं वाश ने गोग्नास, घेली कोणे करी रे। ८ । 
ब्रह्म मोजन कीधां नथी, सुण सुंदरी रे, 
नहि कीधां होमहवन, घेली कोणे करी रे। ९ । 


के) सुक़ृत (सत्कर्म, उससे प्राप्त युण्य) और दुष्कृत (भसत्कर्म, उससे 
प्राप्त पाप) नामक दो मित्र होते है। प्राण तो आत्मा के साथ जाते 
हैं (वे पुण्य और पाप मनुष्य के प्राणों के साथ आत्मा से चिपककर आते 
हैं और जाते है) । (अतः: हमे जो मिल रहा है या नही मिल रहा है, 
वह हमारे अपने किये पुण्य और पापकर्म के अनुसार मिल रहा है; इसका 
ध्यान रखो; अधिक की आशा क्‍यों कर रही हो ? ) तुम्हें किसने पायल 
वना लिया है ? ३ भरी सुन्दरी, सुन लो। बिना दिये, किस प्रकार 
प्राप्त करे ? मैंने तो (कभी कुछ) दाहिने हाथ से (किसी को) नही दिया 
है। (तो पाऊंगा कहाँ से ? ) तुम्हें किसने पागल बना लिया है? ४ 
अरी सुन्दरी, सुन लो । (हम) यदि कोई कदन्न (हलका अनाज), खेत को 
जोतकर बोएँ, तो शालि नामक बढिया जाति का चावल कहाँ से खाएं ? 
तुम्हें किसने पागल बना लिया है ? ५ थरी सुन्दरी, सुन लों। यदि 
पहले मेड़ (बाँध) न बनायी हो, तो पानी के बह जाने पर कसा शोक ? 
तुम्हे किसने पागल बना लिया है ? ६ भरी सुन्दरी, सुन लो। मैंने 
एकादशी के ब्रत नही रखे, न तीर्थक्षेत्र की यात्रा की, न उपवास किये 
(इस स्थिति मे मुझे पुण्य का फल नही मिलेगा) । तुम्हें किसने पागल 
बना लिया है? ७ अरी सुन्दरी, सुन लो। मैंने पितृ-तर्पण नहीं 
किये। मैंने न (श्राद्ध आदि के अवसर पर दी जानेवाली) काकबलि दी, 
न (भोजन के समय) गोग्रास दिया। तुम्हे किसने पागल बता लिया 
है ? ८ भरी सुन्दरी, सुन लो । मैंने ब्राह्मणों को भोजन नही 'कराये; 


प्रेमानन्द-रसामृत (सुदामा चरित्त) ५४५ 


अतीत निर्मुख वाह्िया, सुण सुदरी रे, 

तो क्यांथी पामीए अन्न ? घेली कोणे करी रे। १०। 

हरिप्रीते प्रसाद लीधो नहि, सुण सुदरी रे, 

हुतशेष न कीधो आहार, घेली कोणे करी रे! ।११॥। 

उदर दुर्भर पापे भयु, सुण सुदरी रे, 

छुट्यां पशुनो अवतार, घेली कोणे करी रे !। १२। 

सतोष-अमृत चाखीए, सुण सुंदरी रे, 

हरिचरणे सोंपोी मत, घेली कोणे करी रे! ॥१३। 

भक्तिए नवनिध आपशे, सुण सुंदरी रे, 

धारो धीर तमे स्त्रीजन, घेली कोणे करी रे! ।॥ १४। 

जले आंख भरी अबढा कहे, ऋषिरायजी रे, 

मां जड थयूं छे मन, लागूं पाय जी रे।१५। 

ए ज्ञान मने गमतुं तथी, ऋषिरायजी रे, 

रूुए बाछ॒क, लावो अन्न, लागूं पाय जी रे। १६। 
न होम-हवत किये। तुम्हें किसने पागल बना लिया है? ९ भरी 
सुन्दरी, सुन लो । हमने (कुछ न देते हुए, स्वागत न करते हुए) अतिथियों 
को विमुख लौटा दिया, तो अन्न कहाँ से प्राप्त करे ? तुम्हें किसने पागल 
बना लिया है ? १० बरी युन्दरी, सुन लो। मैने श्रीहरि के प्रेम से 
(भक्ति-भाव से) प्रसाद नहीं ग्रहण किया। होम-हवन करके शेष 
ह॒विष्यात्ष का सेवन नहीं किया। तुम्हे किसने पागल बना लिया 
है? ११ अरी सुन्दरी, सुन लो। मैंने भरने के लिए इस कठिन पेट 
को पापो से भर लिया (पेट भरने के लिए मैने बहुत पाप किये) । 
पिछले जन्म में मेरे द्वारा कोई पुण्यकर्मं न करने पर भी (जिसके फल- 
स्वरूप मुझे पशु का जन्म लेना पड जाता), मैं पशु के जन्म से छूट गया 
हूँ, मै पशु-रूप से नहीं जनमा। (यह मेरे लिए कम नही है) | तुम्हे 
किसने पागल बना लिया है ? १२ भरी सुन्दरी, सुन लो। (हम) 
सन्‍्तोष रूपी अम्ृृत को चख लें। तुम अपने मन को श्रीहरि के चरणों 
पर सौप दो (लगा लो, समर्पित कर लो)। तुम्हें किसने पागल बना 
लिया है। १३ हे सुन्दरी, सुन लो। भगवान श्रोहरि (उससे प्रसन्न 
होते हुए) नो निधियाँ दे देगे। अतः हे स्त्री, तुम धीरज धारण करो। 
(तुम अधीर बनी हुई हो ।) तुम्हें किसने पागल बना लिया है? ! १४ 
(यह सुनकर) अश्लु-जल से आँखों को भरकर वह अबला बोली, “हे 
ऋषिरायजी, मेरा मन जड़ . बना है (आपके मन की भाँति ज्ञान से युक्त 
नहीं है)। मै आपके पाँव लगती हूँ । १५ है ऋषिरायजी, यह (आप 


४५६ गुजराती (नागरी लिपि) 


कोने अन्न विना चाले नहि, ऋषिरायजी रे, 

मोटा जोगेश्वर हरि-भक्त, लागूं पाय जी रे। १७। 

अन्चन विना भजन सूझे नहि, ऋषिरायजी रे, 

जीवे अन्ने आखूं जगत, लागूं पाय जी रे। १५। 

शिवे अन्‍्नपूर्णा घेर राखियां, ऋषिरायजी रे, 

रविए राख्यूं अक्षयपात्र, लागूं पाय जी रे। १९। 

ऋषि सेवे कामधेनुने, ऋषिरायजी रे, 

तो आपण ते कोण मात्र ? लागूं पाय जी रे। २०। 

देव सेवे कल्पवृक्षने, ऋषिरायजी रे, 

मनवांछित पामे आहार, लागुं पाय जी रे।२१। 

अन्न विना धरम सूझे नहि, ऋषिरायजी रे, 

ऊभो अन्ने आखो संसार, लागूं पाय जी रे।२२। 

उद्यम निष्फल जाशे नहि, ऋषिरायजी रे, 

जई जाचो हरि बलदेव, लागूं पाय जी रे। २३। 
द्वारा बताया हुआ )ज्ञान मुझे अच्छा नही लगता। बच्चे रो रहे है; 
उनके लिए (ज्ञानोपदेश न करते हुए) अन्न लाइए । मैं आपके पाँव लगती 
हैं। १६ है ऋषिरायजी, विता अन्न के, किसी की नहीं चलती; (फिर) 
वह कोई बड़ा योगेश्वर (महान योगी), श्रीहरि का भक्त क्‍यों न हो । 
मैं आपके पाँव लगती हूँ । १७ है ऋषिराजजी, बिना अन्न के, किसी को 
भक्ति सुझायी नहीं देती । समस्त जगत अन्न (के आधार) पर (ही) 
जीवित रहता है। मैं आपके पाँव लगती हूँ। १८ है ऋषिरायजी, 
शिवजी ने अन्न-पूर्णा (अन्न की आवश्यकता को पूर्ण करनेवाली, उमाजी ) को 
घर मे रखा। सूये ने अक्षय-पात्र रखा (जो कभी अन्न के क्षय को प्राप्त 
नही हो जाता है) । मैं आपके पाँव लगती हूँ। १९ है ऋषिरायजी, 
(वसिष्ठ ) ऋषि कामधेनु को काम मे लाते रहे। त्तो (उनकी तुलना में) 
केवल हम कौन हैं ” मैं आपके पाँव लगती हूँ । २० है ऋषिरायजी, देव 
कल्पवृक्ष को काम मे लाते है और उससे मनोवाछित (मनचाहे) आहार 
को प्राप्त हो जाते है। मैं आपके पाँव लगती हँ । २१ है ऋषिरायजी, 
बिना अन्न के किसी को धर्म (के अनुसार आचरण करना) नही सुझायी 
देता। अखिल ससार भन्न (के आधार) पर खड़ा है। मैं आपके पाँव 
लगती हूँ। २२ है ऋषिरायजी, उद्यम (करना) कभी फलहीन नही हो 
जाता। (इसलिए) जाकर श्रीहरि और बलदेव (बलराम) से (कुछ) 
माँग लीजिए। मैं आपके पाँव लगती हँ।१२९ है ऋषिरायजी, 


प्रेमानन्द-रसामृत (सुदामा चरित्त) ४५७ 


भाले लख्या अक्षर दारिद्रना, ऋषिरायजी रे; 
धोशे धरणीधर ततखेव, लागूं पाय जी रे। २४। 


वलण ( तज़े बदलकर ) 
ततखेव त्िकम छेदशे, दारिद्र केरां झाड रे, 
प्रभु पधारो द्वारका, हुं मानुं तमारों पाड रे।२५। 


2320 6 5 03205: 00220 हक कट फट शक 
(हमारे) मस्तक पर (विधाता द्वारा) के दरिद्रता के अक्षर लिखे है। 
घरणीधर (भगवान श्रीकृष्ण) तत्क्षण उन्हें धो डालेगे। मैं आपके पाँव 
लगती हूँ । २४ 

भगवान तिविक्रम' (वामनावतार धारण करनेवाले भगवान विष्णु- 
स्वरूप श्रीकृष्ण) दरिद्रता के पेड़ों को काठ डालेगे। इसलिए, है प्रभु, 
द्वारका जाइए; (तब) मैं आपका उपकार मानती हूँ (मानूंगी) । २५ 


कडवुं ५ सुं>- ( सुदाबा का द्वारका के प्रति गत ) 
राग रामग्री 


कहे शुक जोगी, सांभढो रायजी, 
फरी फरी प्रेमदा लागे पाय जी। 


आओ आओ 
सिम मी आज आल आल शा बी पल तमरिा किलर 


कडवक--५ ( सुदामा का द्वारका के प्रति गसन ) 


योगी शुकजी बोले, हे राजा (परीक्षितजी ), सुनिए । (सुदामा की) 
स्‍त्री बार-बार उनके पाँव लग रही थी। तो सुदामा ने स्वय सोचा (माना) 


१ तिविक्रम-- देवासुर-सम्राम मे देवों की हार होकर उन्हें भाग जाना पडा । 
कालान्तर मे असुर-राज बलि वेरोचन भूमि का वितरण करने के लिए तैयार हुआ । 
बलि याचक को मुँहमाँगा दान दिया करता था। उस समय भगवान विष्णु ने 
कश्यप-अदिति के पुत्र के रूप में वामनावतार धारण किया । “ वामन ! का अर्थ है 
छोटा, नाटा । इस वामन-- छोटे बदु ने वलि के पास जाकर दान में त्तीन पद भूमि 
की माँग की। गुरु शुक्त ने सच्चाई को जानकर बलि से कहा कि वह उस माँग को 
स्वीकार न करे। फिर भो बलि ने अपने ब्रत मे अविचल रहकर * तथास्तु ? कहा । 
तब वामन ने विराटू रूप धारण करके दो प्रो से पृथ्वी और स्वर्ग को व्याप्त कर 
लिया, तो तीसरा पद रखने के लिए बलि ने अपना मस्तक वामन के सामने झुकाया । 
तब वासन ने उस पर पाँव रखकर बलि को तत्क्षण पाताल मे खदेड़ डाला। तीन 
पदों में ही समस्त तिभुवन को व्याप्त करने के कारण वामत * त्िविक्षम ' कहाने लगे । 
इस शब्द से भगवान विष्णु तया उनके बवतार भी सूचित होते है । 


श्श्८ गुजराती (नागरी लिपि) 


विप्र.. सुदामों आप विचारे जी, 
निश्चे जाचवा जावूं पडशे मारे जी। १। 


ढाह्ठ 

जवुं पड़े मुजने सर्वथा, घणु रुए अबक्ा रांक, 

अन्न विना बाहकृ॒क टब्डवके, तो वामानों शो वांक 7 । २ । 

पत्नी प्रत्ये कहे सुदामो, “ तमो जीत्या, हार्यो हुंय, 

कहो भामिनी, भगवंतने जई भेट मेलूं शूंथ ? । ३ । 

काका कहीने निकट आवे, क्ृष्ण-सुत-समुदाय, 

ते खाव्‌ मांगे, मुने वज्त्र लागे, ते मूकु शं करमांय ? ”। ४ । 

सुणी हरख पामी प्रेमदा, गई पडोशणनी पास, 

“ बाई, आज काज करो माझुं, तो हुं मूले लीधी दास । ५ ।. 

द्वारामती मम पति पधारे, जाचवा जदुराय, 

अमो दुगणुं करीने वाछ॒शुं, कांई उछीनूं आपो माय ”। ६ । 

ते पाडोशणने दया आवी जे, दुर्बवढ़ आवी मागवा, 

सूपड भरीने ऋषिपत्नीने, तेणीए आप्या कांगवा। ७ । 
कि (अब) मुझे निश्चय ही माँगने के लिए जाना पड़ेगा । १ मुझे किसी 
भी प्रकार जाना पड़ेगा। यह दीन (-असहाय) अबला वहुत रो रही है। 
बिना अन्न के (भन्न के अभाव में) बच्चे तड़प रहे है, तो उस स्त्री का 
(इसमें) क्‍या दोष ? २ (अनन्तर) सुदामा ने पत्नी से कहा, “तुम 
जीत गयी, मैं हारा । भरी भामिनी, कहो तो मैं जाकर भगवान की क्‍या 
भेंट (उपहार) दूं? ३ (मुझे) “ काका ” (/ काका “) कहते हुए कृष्ण 
के पुत्नो का समुदाय (मेरे) निकट आ जाएगा, वे खाने के लिए (मिठाई, 
पकवान आदि वस्तु) माँग लेगे, तो मुझे वज्र (-सा) लगेगा। मैं उनके 
हाथ में क्‍या दूँ ? ”*४ यह सुनकर वह स्त्री हर्ष को प्राप्त हुई। 
(फ्रि) वह पड़ोसिन के पास गयी (और उससे उसने विनती की)-- 
 बाईबी, आज मेरा काम करोगी, तो मै तुम्हारी मोल ली हुईं दासी हुई 
(समझो) । ५ मेरे पति यदुराज श्रीकृष्ण के पास (कुछ) माँगने के लिए 
जा रहे है। मैं दुगुना करके लौटा दूंगी; अरी माँ, (मुझे) कुछ उधार 
दो '.।६ उस पड़ोसिन को उसपर (यह देखकर) दया आ गयी कि एक 
दुर्बल (दीन स्त्री) कुछ माँगने के' लिए आयी है। (अतः) उसने एक 
सूप भरकर उस ऋषि-पत्नी को कगरु (नामक हलकी जाति के धान के 
दाने) दिये। ७ (तत्पश्चात्‌ घर लौटकर) उस (ऋषि-पत्नी) ने उन्हे 
जोखली में ढालकर कूटते हुए उनमें से ब्रीज (दाने) निकाल दिये। 


प्रेमानन्द-रसामृत (सुदामा चरित्त) ४५६ 


ओखणा मांहे घणूं भोखणी, मांह्यथी काढ़यां बीज, 
तगतगता तादुल देखीने, ऋषिजी पास्या रीक्ष । ८ । 
मारगसा छोवाय नहिं, छे त्रिकमना तादुल, 
लई जवा जुगते करी, नहि बांधवा पटकूल। ९ । 
उपराउपरी बंधन कीधा,  चीथरा दश-वीस, 
रत्ननी पेरे जतन कीधुं, जेम छोडता चडे रीस | १० | 
ऋषि सुदामाने कहे बाढ॒क, करीने रोतां मुख, 
“पिताजी एव लावजो, जेणे जाय अमारी भूख”। ११। 
एवां दीन वायेक सांभवी, सुनिए सूक्‍यों निःश्वास, 
सुदामो कहे पुत्तनने “परिब्रह्म पूरशे आश ”। १२। 
ऋषि सुदामो सांचर्या, वोकछावी वल्वयी परिवार, 
त्यागी वेरागी विप्रने छे, भकक्‍तनो शणगार। १३। 
भाले तिलक ने माला कंठे, मुख राम भणतो जाय, 
मूछ-कुछनूं. जाकं वाध्यूं, कर्देस दीसे काय। १४। 
पवन जटामांथी भस्म ऊडे, जाणे धृमत्र कोटाकोट, 
थाये फटक फटक खासडां, ऊडे धूछता गोठेगोट | १५॥। 


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चमकते हुए चावल देखकर ऋषिजी प्रसन्नता को प्राप्त हुए । ५ (उन्होंने 
सोचा-- ) ये भगवान त्िविक्रम अर्थात श्रीकृष्ण के लिए दिये जानेवाले चावल 
हैं, (अतः) मार्ग मे उन्हें छकर अपवित्न नही करे । उन्हे युक्तिपूर्वक लेकर 
जाने के लिए, उन्हें बॉधने के लिए (उनके पास) वस्त्न नही था। ९ 
(फिर भी) दस-बीस चीथड़े थे, उनसे उन्होने ऊपर-ऊपर से उन्हें बाँध 
लिया । उन्होने रत्त की भाँति उनकी रक्षा की, जैसे उन्हे खोलनेवाले 
पर क्रोध आ जाता । १० रोनी मुख-मुद्रा बनाकर बच्चो ने ऋषि सुदामा 
से कहा, ' पिताजी, (आप कुछ) ऐसा लाइए, जिससे हमारी भूख (मिट) 
जाए '। ११ ऐसे दीच वचन सुनकर मुनि सुदामा ने ठण्डी साँस ली। 
(फिर) सुदामा (अपने) पुत्नो से बोले, “परबव्रह्म (-स्वरूप श्रीकृष्ण 
तुम्हारी) आशा को पूर्ण करेंगे  । १९ ऋषि सुदामा चले गये। उन्हें 
बिदा करके (समस्त) परिवार लोठ आया । उन त्यागी, विरागी ब्राह्मण 
का सिंगार (साग-सज्जा, वेश-भूषा) भक्‍त का (-सा) था। १३ उनके 
भाल पर तिलक (शोभायसान) था और गले मे माला (पहनी हुई) थी । 
मुख से वे ' राम ' बोलते (जपते) जा रहे थे। मूंछ दाढ़ी (के वालो) 
का (मानो) जाल बढ़ा हुआ था। शरीर कीचड़ (भरा-सा) दिखायी दे 
रहा था। १४ हवा से जटाओ मे से भस्म उड़ रहा था, मानो बहुत 





४६० गुजराती (नाग्री लिपि) 


उपान-रेणुए आभ छायो, शुं सेन्य मोदं जाय, 
पथिक मारग जे मछे, ते जोई विस्मय थाय। १६। 
तेलाभ्यंगः स्वप्ने नहीं, छे रूख ऋषिनुं गात्र, 
एक हस्ते ग्रही ज्येष्टिका, ने एक करे तुंबीपात्न । १७। 
कोपीन जीरण वस्त्ननूं, वन्तकूल छे परिधान, 
भायेग भानु उदय थयो, करशे कृष्णजी आप-समान । १८५। 


वलण ( तज़े बदलकर ) 
आप-समान करशे क्ृष्णजी, शुक कहे, सुण नरपति, 
थोडे समेमां ऋषिजी आव्या, पुरी द्वारामती। १९। 


धूआाँ (उच्च रहा) हो। जूते (फरटे-टूठे होने के कारण) फटक-फटक 
(शब्द) कर रहे थे और उनसे धूल की घटाएँ उड़ रही थी । १५ जूतों 
से उड़े हुए धूलि-कणों से आकाश आच्छन्न हो गया। (लगता था- ) 
क्या कोई बडी सेना जा रही है। जो पथिक मार्ग में मिलता, तो वह उन्हे 
देखकर विस्मय-चकित हो जाता था। १६ उन्होने तेल लगाकर अभ्यंग 
स्‍्तान तो सपने मे (तक) नहीं किया था। उन ऋषि का (प्रत्येक अंग) 
शरीर रूखान्सूखा हुआ था। उन्होंने एक हाथ में लकुटिया (पकड़) रखी 
थी और एक (दूसरे) हाथ में तूबी-पात्न था। १७ कौपीन (लगोटी) 
जीर्ण वस्त्र का (बना) था, और वल्कल परिधान किया हुआ था। 
उनके भाग्य (का) सूर्य उदित होने जा रहा था। श्रीकृष्णजी उन्हे अपने 
समान बना देगे। १८ 
शुक मुनि बोले, ' हे नरपत्ति परीक्षित, सुनिए। श्रीकृष्णजी उनको 
अपने समान बना देंगे ' । (इस प्रकार चलते-चलते) थोड़े ही समय मे 
ऋषि सुदामाजी द्वारावती पुरी (के समीप) आ गये । १९ 


फडवुं ६ टठु-- ( सुदामा का द्वारका में श्रीकृष्ण के राजप्रासाद के -द्वार तक पहुंचना ) 
राग सारंग 
शुकजी कहे, सांभक्क भथ्रूपति, सुदामे दीठी द्वारामती, 
कनक-कोट झलकारा करे, मणिक रत्त जड़यां कांगरे। १ । 
हर 4 आहत 00062 ८ शक आह के 06 री रह शव क कर 
कड़वक--६ ( सुदासा का द्वारका में श्रीकृष्ण के राजप्रासाद के द्वार तक पहुँचना ) 


शुकजी वोले, 'हे भ्रूषति (परीक्षित जी), सुनिए। सुदामा ने 
द्वारका नगरी को देखा । (उस नगरी के) सोने के प्राचीर जगमगा रहे 


प्रेमाननद-रसामृत (सुदामा चरित्त) २६१ 


बहु कोठार कोशीसां पमें,, जोवा सरखुं विश्वकर्मानूं कम, 
दुर्ग धजा घणी फरफरे, दुंदुभि ढोल घर्णा गडगडे । २ । 
सुदर्शत फरतुं सूसवे, गशीर नांद सागर घूषवे, 
कलोल गोमती-संगम थाय, चतुबेण्ण त्यां आवी नाह्य । ३ । 
परम गति प्राणी पामे घणा, नथी मुक्तिपुरीमां मणा, 
त्यां ऋषि सुदामे कीधूं स्तान, पछे पुरमां पेठा भगवाव। ४ । 
नगर-लोक बहु जोवा मक्ते, खीजवे बाह्क पूछे पढे, 
जादव स्त्री ताली दई हसे, “ धन्य गाम ज्यां आ नर बसे । ५ । 
कीधां हशे न्रत तप अपार, ते सत्नी पामी हशे आ भरथार 
को कहे ' इदु ” को कहे ' काम ', “ एने रूपे हार्या केशव-रास । ६ । 
' पतिब्रतानां मोहशे मन ', मर्मवचन बोले स्त्री जन, 
को कहे, “ हाउ आव्यो विकरात्ठ, देखाडो रोतां रहेशे बाछू ” | ७ । 
थे। उनके कँगुरों में मानिक रत्न जड़े हुए थे । १ उन पर बहुत बुर्ज 
थे; कपिशीर्ष परम सुन्दर थे । विश्वकर्मा का यह निर्माण-कार्य देखने योग्य 
था। दुर्ग पर बहुत ध्वज फहर रहे थे। भनेकानेक दुन्दुभियाँ-और ढोल 
गड़गड़ाहट के.साथ बज रहे थे । २ सुदर्शन चक्र (जो द्वारका की रक्षा 
के लिए उसके चारो ओर घूमता रहता था) साँय-साँय करता हुआ भ्रमण 
कर रहा था। समुद्र गम्भीर ध्वन्ति करते हुए गरणज रहा था। समुद्र 
की लहरो और गोमती नदी का (जहाँ) संगम होता है, वहाँ चतुर्वर्णों' 
के लोग आकर नहा रहे थे। ३ (वहाँ स्‍्तान करने से) बहुत लोग परम 
गति, अर्थात मोक्ष को प्राप्त हो जाते है। उस मुक्ति प्रदान करनेवाली 
नगरी मे कोई दोष या त्रुटि नहीं थी। सुदामा ऋषि ने वहाँ (संगम में) 
स्‍्तात किया ओर अनन्तर वे भगवान (-भाग्यवान पुरुष) उस नगरी मे 
प्रविष्ट हो गये । ४ नगर के बहुत लोग उनको देखने के लिए इकट्ठा 
हुए। बच्चे उन्हे खिझाने लगे। वे उनके पीछे (-पीछे) जा रहे थे। 
यादव स्त्रियाँ एक-दूसरी के हाथ पर ताली बजाते हुए हँसती थी। 
(उन्होंने कहा--) “वह ग्राम धन्य है, जहाँ यह पुरुष निवास कर रहा है। ५ 
वह स्त्री, जिसने अपार ब्रतों का निर्वाह और तप किया होगा, इस पत्ति को 
प्राप्त हुई होगी '। कोई उसे “' चन्द्र ' कहती थी, तो कोई “ कामदेव * 
कहती थी। किसी ने कहा-- ' इसके रूप के सामने केशव (श्रीकृष्ण) 
ओर बलराम हारे है।६ यह पतित्नता नारियों के मन को मोहित 
करेगा (। इस प्रकार वे स्त्रियाँ मामिक, अर्थात व्यंग्य भरी बातें कह रही 
थी। किसी ने कहा, ' यह कोई विकराल हौआ आया है। दिखा दो, 


१ चतुव॑र्ण-- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वेश्य और शूद्र । 


४६२ गुजराती (नाग्री लिपि) 


अनेक चेष्ठा पूंठे थाय, सांभछी ऋषिजी हसता जाय, 
पूंठे कांकरा बालक नांखे, ऋषि ' राम कृष्ण वाणी भाखे । ८ । 
पाडे ताछी, वजाडे गाल, आंतरी वे उछंकल बाल, 
को वृद्ध जादवे दीठा ऋषि, साधुनी चेष्टा ओछखी | ९ । 
तेणे बाछ॒क सौ मेल्यां हांकी, पूछयो समाचार ऊभा राखी, 
' क्ृपानाथ क्‍्यांथी आविया ? आ पुरने केम कीधी मया ?' । १० । 
प्रति-उत्तर बोल्या ऋषिजन, “ मुजने हरिदर्शननूं मन *, 
ते जादव कीधो उपकार, देखाडी दीधूं राजद्वार | ११। 
हरि-मंदिर आव्या ऋषिराय, रह्मा ऊभा, नव चाले पाय, 
छे द्वारगाल दिकृपाल समान, धाम ज्योत शुं द्वादश भाण । १२। 





कल 





तो बच्चे रोने से रह जाएँगे (रोते हुए बच्चे इसे देखकर मारे डर के चुप 
हो जाएंगे '। ७ (इस प्रकार) उनके पीछे बहुत हँसी-दिल्लगी हो रही 
थी। उसे सुनकर ऋषि सुदामाजी हँसते हुए (आगे) जा रहे थे। 
बच्चे पीछे से ककड़ फेंकते थे । (फिर भी) ऋषि सुदामा वाणी (मुख) 
से ' राम-क्ृष्ण ” नाम बोलते थे (' राम-कृष्ण ' का नाम-जाप करते जा 
रहे थे) । ५ उच्छु खल बच्चे तालियाँ वजा रहे थे; गाल फुलाकर (हाथ 
से) बजा रहे थे; उन्हे (सुदामा को) रोककर चारो ओर से घेर लेते थे । 
(उतने मे) किसी वृद्ध यादव ने ऋषि सुदामा को देखा, तो उसने (सुदामा 
में स्थित) साधु के लक्षण (देखकर) पहचान लिये (उन्हें कोई साधु पुरुष 
मान लिया) । ९ उसने समस्त बच्चों को भगा दिया और (सुदामा को) 
खड़ा करके (रोककर) समाचार पूछा-- * हे कृपानाथ (क्ृपालु स्वामी), 
आप कहाँ से आ गये हैं ? इस पुरी पर (अपने आगमन से) कंसे माया की 
(आत्मीयता प्रदर्शित की) ?!। १० तो ऋषि सुदामा ने प्रत्युत्तर दिया, 
' मुझे श्रोहरि के दर्शश की इच्छा है'। (यह सुनकर) उस यादव ने 
उनका उपकार किया- उन्हे राज (-प्रासाद का) द्वार दिखा दिया। ११ 
(इस प्रकार) वे ऋषिराज श्रीहरि के मन्दिर (भवन, प्रासाद तक) आ 
गये। वे वहाँ (देखते ही) खड़े रहे --उनके पाँव (आगे) चल नही पा रहे 
थे। (वहाँ) दिक्‍पालों' के समान द्वारपाल थे। उस भवन की ज्योति, 

अर्थात राजभवन का तेज बारह सूर्यो" का-सा था। १२ (वहाँ) दूकाने, 


_. ॥१'दिक्पाल-- पोराणिक मान्यता के अनुसार प्रत्येक दिशा का एक-एक रक्षक 
देवता है। आठ दिशाओ के आठ दिक्पाल ये है-- पू्वे- इन्द्र, आरनेय- भग्नि, दक्षिण- यम, 
नेऋत्य- नि्लंति, पष्चिम- वरुण, वायव्य- वायु, उत्तर- कुबेर, ईशान्य- ईश। इनके 


अतिरिक्त (नवम दिशा) ऊध्व- ब्रह्मा और (दशम दिशा) अधघस्‌- शेष । ;क्‍ 
२ बारह (द्वादश) सूर्य-- मित्र, रवि, सूर्य, भानु, खग, पूषन्‌, हिरण्यगर्भ, मरीचि, 


प्रमानन्‍द-रसामृत (सुदामा चरित्न) ४६३ 


शोभे हाट चौटां ने चोक, राजे छजां, जरूखा, गोख़, 
जाली, अटठाछी, मेडी, माठ, जडित कठेडा झाकझमाहठ । १३ । 
झक्॒के काम त्यां मीनाकारी, अमरापुरी नाखूं ओवारी, 
सभामांहे स्फटिकता स्तंभ, त्यां थई रहयो छे नाटारंभ। १४। 
मृदंग उपंग मधुरी ताछ, ग्रुणीजत गाये गीत रसाक्र, 
झमक झमक घुघरडी थाय, ते सुदामोजी जोता जाय | १५। 
सुवर्ण-कलश पताका विराजे, झंघड झघड दुंदुभि वाजे, 
वाजे शरणाई, भेर, नफेरी, आनंद ओच्छव शेरीए शेरी । १६। 
हरता फरता हींसे घोडा, बांध्यां हेम तणा अछोडा, 
ऊभा झूले मकना मदगढछ, लंगर पाये सोनानी सांकछ। १७ । 
हेम-कलश भरी लावे पाणी, ते दासी जाणे इन्द्राणी, 
छणप्पन कोट जादवनी सभा, नव राखे दानवनी प्रभा। १८। 


बाजार और चौक शोभायमान थे; छज्जे, झरोखे, गोखे शोभा दे रहे थे । 
जालियाँ, अटारियाँ, छतें गौर मंजिले, कट॒हरे (रत्नों से) जटित, भतएव 
जाज्वल्यमान (देदीप्यमान) थे। १३ वहाँ मीनाकारी का काम झलक 
रहा था। (देखकर लगता था--) उस पर अमरावती (इन्द्र की नगरी ) 
को निछावर कर दे । (राज-) सभा (-गृह) के अन्दर स्फटिक के खम्भे 
थे। वहाँ नृत्य और सगीत का कार्यक्रम चल रहा था। १४ मृदंग, 
उपंग तथा मधुर ध्वनि वाले (कांस्य-) ताल (झाँझें) बज रहे थे। 
गुणीजन, अर्थात गायक कलाकार रस-भरे गीत गा रहे थे। (घुंघरुओ 
को) झनक-झनक ध्वनि के साथ चक्राकार नृत्य चल रहा था। सुदामा जी 
इस (सब) को देखते (-देखते) आगे जा रहे थे। १५ (राज-प्रासाद 
पर) सुवर्ण-कलश और ध्वज विराजमान थे। गड़गडाहट के साथ दुन्दुभी 
बज रही थी। शहनाइयाँ, भेरियाँ, नफेरियाँ बज रही थी। गली-गली 
में आनन्दोत्सव हो रहा था। १६ अच्छ-चगे घोड़े हिनहिना रहे थे। 
सोने की सॉकल से उन्हें बाँधा हुआ था। मस्ती में मदमाते हाथी खड़े- 
खड़े झूम रहे थे। उनके पाँवों मे सोने की सॉकल डालकर उन्हें बाँधा 
था। १७ (जो) दासियों सुवर्ण-कलश भरकर पानी ला रही थी, वे मानों 
(सुन्दरता में ) इन्द्राणी (-सी) थीं। (वहाँ) छप्पन करोड़ यादवों की सभा 
थी। उनके साममे दानवों का तेज नही रहता थी [उस यादब-सभा के तेज के 
सामने (मय दावव द्वारा निर्मित) दानव-सभा का तेज फीका पड़ जाता 
था] । १८५ उत्तम योद्धा प्रतिहारियों के रूप में खड़े रहकर श्याम श्रीकृष्ण 


आदित्य, सविता, अर्क॑ और भास्कर । अथवा धाता, मित्न, अयंमा, शुक्र, वरुण,, अशु, 
ष्छ 


भग, विवस्वान्‌, पूषा, सविता, त्वष्टा और विष्णु । 


जे 


४६४ गुजराती (नागरी लिपि) 


उत्तम जोध ऊच्ा प्रतिहार, .साचवे शामह्तियानुं द्वार, 
त्यां सुदामोजी फेरा फरे, संकल्पविकल्प अति मनमां करे । १९। 
गहन दीसे भाई, कर्मनी गति, एक ग्रुरुता अमो विद्यारथी, 
ए थई बेठो पृथ्वीपति, मारा घरमां खावा नथी। २० | 
रमाडतो गोकुल मांकडां, गुरुने घेर लावतो लाकडां, 
ते आज बेठो सिंहासन चडी, मारे तुंबी ने लाकडी। २१। 
वलछ्ली ऋषिने आव्यूं ज्ञान, हुं अल्प जीव ए स्वयं भगवान, 
जो एक वार पामुं दशत, जाणुं हुं पाम्यो इंद्रासन | २२। 
छे विवेकी हरिना प्रतिहार, पूछें सुदामाने समाचार, 
कहो मा नुभाव, केम करुणा करी ? तव सुदामे वाणी ओचरी । २३ । 
छुं दु्बंठ ब्राह्मणतो अवतार, छे माधव साथे मित्नाचार, 
जई प्रभूने मारो कहो प्रणाम, आव्यो छे विप्र सुदामो नाम | २४ । 


वलण' (तजे बदलकर ) 


नाम सुदामो जइ कहो, गयो घरमां प्रतिहार रे, 
एक दासी साथे कहावियो, श्रीक्ृष्णने समाचार | २५। 


के!द्वार की रखवाली करते थे। वहाँ सुदामा जी चक्कर लगाते रहे- वे 
मन"में अति संकल्प-विकल्प कर रहे थे (वे बहुत दुविधा मे पड़े हुए चक्कर 
लगा रहे थे) | १९ (उन्हे लगा--) भाई, कर्म की गति गहन (गढ़) 
दिखायी देती है। हम एक ही गुरु के विद्यार्थी है। (फिर भी ) यह एक 
पृथ्वी-पति (राजा) होकर बैठा है और मेरे घर में खाने (तक) के लिए 
नही है। २० जो (पहले बचपन में) गोकुल मे बन्दरों को खेलाता था, 
जो (छात्नावस्या मे) गुरुजी के घर लकड़ियाँ (इन्धन) लाता था, वह आज 
सिंहासन पर चढकर बंठा है और मेरे लिए तूंबी-(पात्र) और लकुटिया 
है। २१ फिर ऋषि सुदाम। को यह ज्ञान हुआ कि. मैं छोटा'जीव (अज्ञान 
तथा मत्यं) हूँ और ये स्वयं भगवाव है। यदि मैं एक बार इनके दर्शन 
को प्राप्त हो जाऊँ, तो समझूंगा कि मैं इन्द्रासन को प्राप्त हो! गया। २२ 
श्रीहरि के प्रतिहारी विवेकवान थे।, उन्होंने सुदामा से समाचार पूछा-- 
/ हैं महानुभाव, कहिए (यहाँ आने की.) कंसे कृपा की ? तब सुदामा 
ने'यह बात कही । २३ मैं दुरबंल (दरिद्र) ब्राह्मण का अवतार हूं ।. मेरी 
मान्नव श्रीकृष्ण के साथ मित्रता है। जाकर प्रभु से मेरा प्रणाम 
कहो (और बताओ)-- 'सुदामा नामक ब्राह्मण भाया है। २४ 


जाकर (श्रीकृष्ण से) सुदामा नाम कहो '। (यह सुनकर) 


प्रेमातल्द-रसामृत (सुदामा चरित्त) ४६५ 


एक प्रतिहारी घर के अन्दर गया। उसने एक दासी के साथ (दासी द्वारा ) 
श्रीकृष्ण से यह समाचार कहलवा दिया। २५ 


फडवुं ७ मूं-- ( सुदामा-धीक्ृष्ण-भेंट ) 
राग मारु 


सूता सेजे श्रीअविनाश रे, आठ पटराणी छे पास रे, 

रुकिमणी तछांसे पाय रे, श्रीवृदा ढाछे वाय रे। १। 
धय्‌ दर्पण भद्रावती नारी रे, जांबुवतीए ग्रही जलझारी रे, 
यक्षकदंम सत्या सेवे रे, कालिदी ते अगर उसेवे रे। 
लक्ष्मणा तांबुल लावे रे, सत्यभामा बीडी खबडावे रे, 
हरि पोढ़या हींडोछाखाट रे, पासे पटराणी छे आठ रे। 
बीजी सोछ सहस्र शत्त श्यामा रे, को हसगति गजगामा रे, 
मृगनयनी कोई चकोरी रे, को शामलडी को गोरी रे। ४ । 


गज । 


नर 





कड़वक-- ७ ( सुदामा-भ्रीकृष्ण-भेट ) 


अविनाशी भगवान श्रीकृष्ण शय्या पर सोये (लेटे) हुए थे। उनकी 
आठ पटरानियाँ, उनके पास थी । (उनमें से) रुक्मिणी धीरे-धीरे उनके 
पाँव दबा रही थी; श्रीवृन्दा (मित्रवुन्दा पखे से) हवा कर रही थी। १ 
उनकी स्त्री भद्रावती (उनके सामने अपने हाथ मे) दपंण लिये हुए थी, 
तो जाम्बवती ने (हाथ में) पानी की झारी ले रखी थी। सत्यवती यक्ष- 
कर्देभ नामक अगराग (उबटन) लगा रही थी, तो कालिन्दी अगरु-चन्दन 
लगा रही थी (अथवा छिटक रही थी) । २ लक्ष्मणा ताम्बूल (बीड़ा) 
लायी थी, तो सत्यभामा (श्रीकृष्ण को) बीड़ा खिला रही थी। श्रीहरि 
खटिया वाले झूले पर पौढे हुए थे और उनके पास उनको आठ पटरानियाँ 
(उनकी सेवा कर रही) थी । ३ (उनके अतिरिक्त वहाँ पर उनको) 
सोलह सहख्न॒ एक सौ अन्य स्त्रियाँ थी। उनमें कोई (-कोई) हंस-गति 
(हँस की-सी चालवाली) थी, तो कोई (-कोई) गजगामिनी थी। कोई 
(-कोई) मृग-तयना थी, कोई (-कोई) चकोरी (जैसी अपने प्रिय के प्रेमामृत 
पर जीबित रहनेवाली) थी; कोई (-कोई) श्यामल वर्ण की, तो कोई 

१ श्रीकृष्ण की अष्ट पटरानियाँ (अष्ट नायिकाएँ)-- यहाँ नामों मे कुछ अन्तर 
दिखायी देता है। उसे इस प्रकार स्पष्ट किया जाता है-- रुक्मिणी, भद्वावती, 
जाम्बवती, कालिन्दी, सत्यभामा और लक्ष्मणा -ये छ. है। श्रीवृस्दा- मित्नवृन्दा है; 
सत्या है याज्ञजिती वा नाग्नजिती । 


४६६ ' गुजराती (नागरी लिपि) 


को मुग्धा बालकिशोरी रे, को छेलछबीली छोरी रे, 
खक्ककावे कंकण मोरी रे, चपलाक्षी ले चित चोरी रे। ५॥। 
कोई चतुरा संगीत नाचे रे, कोई रीक्षवे ने घणुं राचे रे, 
एक बीजीने वात वासे रे, सरखासरखी ऊशी पासे रे। ६ । 
हरि आगछ रही गुण गाती रे, वस्त्न विराजे नाना भाती रे, 
चंग मृदंग उपंग गाजे रे, श्रीमंडछ वीणा वाजे रे। ७ । 
गांधर्वी कला को करती रे, फटके अंबर घम्मर फरती रे, 
चतुरा नव चुके चाल रे, हींडे मर्में जेम मराल रे। ८ । 











(-कोई) गोरी थी।४ कोई (-कोई) मुग्धा, कोई (-कोई) बाल- 
किशोरी थी; कोई (-कोई) छेल-छबीली छोरी (मोह लेनेवाली, रूपवान 
लडकी) थी । कोई सामने खड़ी रहकर अपने कंगनों को खनका रही 
थी; तो कोई चपल-नयना चित्त को चुरा रही थी । ५ कोई चतुर नारी 
सगीत के साथ नृत्य कर रही थी, तो कोई उनको प्रसन्न कर रही थी 
(उनके मन को रिझ्ञा रही थी) और (स्वयं) बहुत प्रसन्न हो रही थी। 
कुछ एक-दूमरी से काना-फूसी कर रही थी और कुछ एक जोड़ी-जोड़ी में 
पास ही खड़ी थी। ६ कुछ श्रीहरि के सामने उनके ग्रुणों का गान कर 
रही थी। उनके (पहने हुए) नाना प्रकार के वस्त्र शोभायमान थे। 
चंग, भृदंग, उपंग गरज रहे थे; श्रीमण्डल नामक तन्‍्तुवाद्य, वीणा वज 
रहे थे। ७ कोई (-कोई) गान्धर्वी कला अर्थात नृत्य और गायन कला 
को प्रदर्शित कर रही थी (प्रस्तुत कर रही थी) । वे धमार ताल के साथ 
घूमती-फिरती हुई अपने वस्त्र से फड़फड़ ध्वनि उत्पन्न कर रही थीं। कोई 
चतुरा (नृत्य आदि में प्रवीण नारी) नृत्य आदि मे किसी चाल को नही 
चकती थी। वह मामिक रीति से भावों की अभिव्यंजना करती हुई हस 
जंसी चल रही थो । ५ वे (स्वां की) मेनका, उर्वशी जैसी अप्सराओं 

की बराबरी को थी । उनसे श्रीरणछोड' श्रीक्षष्ण प्रसन्न हो रहे थे । 


१ श्रीरणछोड़-- श्रीकृष्ण ने मथुराधिपति कस का वध किया। तदनन्तर 
अस्ति और प्राप्ति नामक उसकी स्त्रियों ने अपने पिता मगधपति जरासन्ध से यह 
समाचार कहा, तो जरासध ने मारे क्रोध के बदला लेने के हेतु मथुरा पर आक्रमण 
किया | श्रीक्षष्ण मौर बलराम से पराजित हो जाने पर जरासन्ध ने शिशुपाल-वक्रदन्त 
की सहायता से पुनश्च्र मथुरा पर आक्रमण किया । इस स्थिति मे बलराम ने जरासन्ध 
को सत्रह वार पराजित किया और आबंद्ध किया । फिर भी प्रत्येक समय उसे मुक्त 
कर दिया । अन्त में नारद ने जरासन्ध से कहा कि वह कालयवन की सहायता ले । 
फलस्वरूप, कालयबन, रुक्मी आदि को साथ में लेकर जब जरासन्ध मथुरा की भोर 
जाने लगा, तो - श्रीकृष्ण ने रात-ही-रात मे द्वारका नगरी का निर्माण करके समस्त 
मधुरावासियों को वहाँ भेज दिया भौर मथुरा को निर्जन अवस्था मे छोडकर वह दक्षिण 


प्रेमानन्द-रसामृत (सुदामा चरिद्न) ४६७ 


मेनका उवेशीनी जोड रे, तेथी रीक्ष्या श्रीरणछोड रे, 

एम थई रह्यो थेईथेईकार रे, रसमग्न छे विश्वाधार रे। ९ । 
एवं दासी आवी धाती रे, जोई नाथे पासे बोलावी रे, 

बोली साहेली शीश नामी रे, द्वारे द्विज आव्यो कोई स्वामी रे । १० । 
न होये नारदजी अवश्यमेव रे, न होये वसिष्ठ ने वामदेव रे, 

न होये दुर्वासा ने अगस्त्य रे, में तो जोगा ऋषि समस्त रे। ११। 
न होये विश्वामित्र ने अति रे, नथी लाव्यो कोनी पत्नी रे, 

दुखे दरिद्र सरखो भासे रे, एक तुंबीपात्न छे पासे रे। १२। 
पिगल जटा छे भस्मे भरियो रे, क्षुधा रूपिणी स्त्वीए ते वरियो रे, 
शेरीए ऊभा थाक्‍्या-पाक्‍या रे, तेने जोवा महछया छे लोक रे । १३ । 
तेणे कहाव्यु करी प्रणाम रे, “ माह विप्र सुदामों छे नाम रे, 

दासीने बोल सांभक्तियो रे, हे हें! करी ऊठयो शामह्वियो रे ।१४ । 
मारो बाल्स्नेही सुदामो रे, हु दुखियानो विसामो रे [ 

ऊठी धाया जादबराय रे, मोजां नव पहेर्या पाय रे। १५। 
इस प्रकार (उस प्रासाद में नृत्य आदि का) थय-थयकार हो रहा था और 
विश्व के आधार।स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण आनन्द रूपी रस में मश्न अर्थात 
डूबे हुए थे। ९ उस समय वह दासी दौड़ती हुई आ गयी । उसे देखकर 
श्रीनाथ (श्रीकृष्ण) ने उसे अपने पास बुला लिया । तो वह सखी सिर 
नवाकर बोली, ' हे स्वामी, द्वार पर कोई एक ब्राह्मण आ गये है। १० 
वे निश्चय ही नारदजी नही है, वे न वसिष्ठ है और न वामदेव है। 
वे नदुर्वासा है और न अगस्त्य है। मैंने तो उन सब ऋषियो को देखा 
है (मैं उन्हें पहचानती हूँ) । ११ वे विश्वामित्र नही है और न अत्रि है । 
वे (ब्राह्मण) किसी का पत्र भी नही लाये है। वे दरिद्र तथा दुःखी जंसे 
आभासित हो रहे है (लग रहे है) । उनके पास एक तंबी-पात्न है। १२ 
उनको जटाएँ पिंगल (भूरे रंग की) है; वे भस्म से भरे हुए (जान पड़ते) 
है। क्षवा (भूख) रूपी स्त्री ने (मानो) उनका वरण किया है। वे 
गली में बहुत थके-माँदे खड़े है। उन्हे देखने के लिए लोग इकटठा हुए 
है। १३ उन्होने प्रणाम करके कहलवा दिया है, ' मेरा नाम विप्र सुदामा 
है (मैं सुदामा नामक विप्र हैँ) '। दासी की यह बात सुनी, तो श्याम 
श्रीकृष्ण 'ऐ हाँ, हाँ ' करके (कहते हुए) उठ गये । १४ (वे बोले- ) 
__ वे भेरे वाल-मित्र सुदामा है। मुझ दुखिया के वे विश्वाम-स्थान (जैसे) 


की ओर स्वय भाग गया । इस प्रकार युद्धभूमि को छोडकर भाग जाने के कारण 
श्रीकृष्ण को ' रणछोड ” कहा जाने लगा । 











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श्ध्पु गुजराती (नागरी लिपि) 


पीतांबर भोम भराये रे, जई रुकिमणी ऊंच साहे रे, 
आनंदे फूली घणी काय रे, हृदियाभर श्वास न माय रे । १६। 
ढछ्ली पडे वी बेठा थाय रे, एक पलक जुग थई जाय रे, 
स्त्रीने कहेता गया भगवान रे, “ पूजा थाह् करो सावधान रे । १७ । 
आ हुं भोगवुं राज्यासन रे, ते तो ए ब्राह्मणनुं पून रे, 
जे नमशे एता चरण झाली रे, ते सहुपे मुजने वहाली रे / | १८। 
तव स्त्री सहु पाछी फरती रे, सामग्री पूजानी करती रे, 
कहे मांहोमाहे “बाई रे केवा, हशे कृष्णजीना भाई रे। १९। 
जेने शामत्वियाशंं स्नेह रे, हशे कदर्प कोटि देह रे 
लईं पूजाना उपहार रे, ऊभी रही छे सोकछ हजार रे । २० । 
बाई, लोचननूं सुख लीजे रे, आज दियेरन्‌ दर्शन कीजे रे *, 
शुकजी कहे सांभव्वजे राय रे, शामक्वियोजी मछ॒वा जाय रे । २१ । 


हैं । (ऐसा कहते हुए) यादवराज श्रीकृष्ण उठकर दोड़े। उन्होने 
पाँवो मे मोजे (तक) नही पहने । १५ (वे इतनी अधीरता-पूर्वेक दौड़े 
कि उन्हे अपने वस्त्न तक का ध्यान नही रहा ।) उनका पीताम्बर भूमि पर 
घसीटता जा रहा था, तो जाकर झरुक्मिणी ने उसे ऊपर से पकड़कर घर 
रखा। उनकी काया आनन्द से बहुत फूल उठी। हृदय-भर मे, उनकी 
सांस समा नही रही थी (वे हाफ रहे थे)। १६ वे (कभी) लुढ़क 
जाते, तो फिर से बेंठ जाते। उनके लिए एक (-एक) पल युग (के 
समान) होकर बीतता जा रहा था। भगवान श्रीकृष्ण अपनी स्त्रियों से 
यह कहकर चले गये-- “ पुजा का थाल सावधानी से सिद्ध (तेयार) कर 
लो '(।१७ यह मैं (जो) राज्यासन का उपभोग कर रहा हूँ, वह तो 
उस ब्राह्मण का पुण्य (-फल) है। उनके चरणों को पकड़कर जो उनका 
नमन करेगी, वह (अन्य) सबसे मुझे प्यारी होगी '। १८ तब समस्त 
स्त्रियाँ पीछे चली गयी (लौटी) और पूजा की सामग्री सजाने (तैयार 
करने) लगी। वे आपस में कह रही थी-- ' बाई जी, श्रीकृष्ण के ये 
बन्धु के होगे ! १९ जिनके प्रति श्याम श्रीकृष्ण को स्नेह है, उनकी 
देह (-कोटि) कामदेवों के समान होगी '। पूजा की साधन-सामग्री लेकर 
वे सोलह सहस्र नारियाँ (उनकी प्रतीक्षा करती हुई) खड़ी रह गयी । २० 
(किसी ने कहा-> ) “ बाईजी, आँखों का सुख लो (उनके दर्शन का सुख 
आँखों द्वारा प्राप्त करो)। आज देवर के दर्शन कर लो '। शुकजी 
(राजा परीक्षित से) बोले-- ' हे राजा, सुनिए। (इस प्रकार) श्याम 
श्रीकृष्ण (सुदामा से) मिलने के लिए चले गये । २१ छबीले (मोहक- 
सुन्दर) श्रीकृष्ण अधीरता-पुवेक चल रहे थे। उन दीन-दयालु (श्रीकृष्ण) 





प्रेमानन्द-रसामृत (सुदामा चरित्न) ४६४६ 


छबीलोजी छूटी चाले रे, मूकी दोट ते दीन-दयाछे रे, 
सुदामे दीठा श्रीक्ृष्णदेव रे, छूटूयां आंसु श्रावण-नेव रे । २२ । 
जुए कौतुक चारे वर्ण रे, क्‍्यां आ विप्र, क्यां भशरण-शरण रे, 
जुए देव विमाने चडिया रे, प्रभु ऋषिजीने पाये पडिया रे । २३ । 
हरि उठाड़या ग्रही हाथ रे, ऋषिजी लीघधा हैडा साथ रे, 
भुज- बंधन वांसा पूंठे रे, प्रेमे आलिगन नव छूटे रे। २४। 
पछे मुख अन्योअन्य जुए रे, हरिवां आंसु ऋषिजी लुहे रे, 
तुंबीपात्न उलाछीने लीधू रे, दासत्व दयात्े कीधु रे। २५। 
तमो पावन कीधु आ गाम रे, हवा पवित्न करो मुज धाम रे, 
तेडी आव्या विश्वाधार रे, मंदिरमांही हरखथी अपार रे । २६। 
जोई हास्य करे सहु नारी रे, आ तो छूडी मभित्नाचारी रे, 
घणुं वाका बोली सत्यभामा रे, आ शुं फूटडा मित्र सुदामा रे । २७। 
हरि अहींथी उठी शुं धाया रे ! भली नानपणनी माया रे , 
भली जोवा सरखी जोडी रे, हरिने सोंधो, एने राखोडी रे | । २८ । 
ने दौड़ लगायी (वे दौडते हुए चले जा रहे थे)। (जब) सुदामा ने 
श्रीकृष्णयेव को देखा, तो जेसे श्रावण मास मे (भारी वर्षा होने पर) 
ओलती से पानी गिरने लगता है, उस प्रकार उनकी आँखों से आँसू बहने 
लगे। २२ चारों वर्ण (वर्णो के लोग) इस कौतुक लीला को देख रहे थे । 
(उन्हें लगा-- ) कहाँ यह (दरिद्र, असहाय) विप्र और कहाँ ये अशरण- 
शरण (आश्रय-हीनों के आश्रय-स्थान भगवान श्रीकृष्ण) । देव विमानों 
में चढ़ बेठे भर यह देख रहे थे। प्रभु श्रीकृष्ण ऋषि सुदामा जी के पाँव 
लगे । २३ तो हाथ पकड़कर ऋषिजी ने श्रीहरि को उठा लिया और 


उन्हें हृदय से लगा लिया। उनके हाथ पीठ पीछे बँध गये । प्रेंम-पूर्वक 


किया हुआ आलिंगन (ऐसा दृढ था कि वह शीघ्र) छूट नही रहा था। २४ 
अनन्तर वे एक-दूसरे का मुख देखने लगे। (फिर) ऋषि सुदामाजी ने 
श्रीहरि के आँसू पोंछ लिये । (अनन्तर) दयालु श्रीकृष्ण ने (सुदामा का) 
तूंबी-पात्न बलपूर्वक खीच लिया और (इस प्रकार) उनका दासत्व किया 
(मानो वे उनके दास, सेवक बन गये) । २५ (वे बोले-- ) : तुमने 
अपने (आगमन से) इस ग्राम को पावन किया, अब मेरे भवन को पवित्र 
कर लो '। (इस प्रकार कहते हुए) विश्व के लिए आधार-स्वरूप 
श्रीकृष्ण उन्हें अपार आनन्द से अपने प्रासाद में बुलाकर ले आये। २६ 
समस्त स्त्रियाँ उन्हें देखकर हँसी-ठठोली मे बोलने लगी-- “ यह तो सुन्दर 
मित्रता है '। सत्यभामा बहुत व्यंग्य करती हुई बोली, ' यह कंसे सुन्दर 
सलोने मित्र है सुदामा । २७ श्रीहरि यहाँ से उठकर क्या दौड़े-- बचपन 


३७० गुजराती (नागरी लिपि) 


जो बाढछुक वहार नीसरशे रे, ते तो जोई काकाने छल्शे रे, 
तव बोल्यां रुकिमणी राणी रे, 'तमो बोलो छे णु जाणी रे ? ।२९। 


वलण (तज्ज बदलकर ) 


शं बोलो छो विस्मय थई, हरि-दासने ओछखो नही *, 
बेसाडी मित्नने सज्जा उपर, ढोछें वाय हरि ऊभा रही । ३० । 


कों माया भली है। यह जोडी भली देखने योग्य है। श्रीहरि के लिए 
सुगन्धित उबटन है, तो उनके लिए राख है। २८५ यदि बालक बाहर 
निकल आएँ, तो इस काका को देखकर मारे डर के भाग जाएंगे '। तब 
रानी रुकक्‍्मिणी बोली, “ तुम क्या जानकर (समझकर) बोल रही हो । २९ 

विस्मित होकर क्‍या बोल रही हो ? श्रीहरि के दास (भक्त) को 
तुमने नही (पहचाना '। (त्तदनन्तर) श्रीहरि अपने मित्र सुदामा को 
०4 शय्या पर विठाकर स्वय खड़े रहकर पा हिलाकर हवा करने 
लगे । ३० 


फडवुं ८ मूं. ( भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अपने भक्त सुदामा का पुजन 
ओर सम्मान करना ) 
राग.नट 


भक्ताधीन दीनने पूजे, दास पोतानों जाणी, (टेक) 
सुख-सज्जाए ऋषि वेसाडी, चमर करे चक्रपाणि । भक्ता० | १ । 
नेत्र-समस्या नाथे कीधी, आवबी आठ पटराणी, 

मन हसे सत्यभामा नारी, आघधो पालव ताणी | भकता० । २ । 


फड़वयक-- ८ ( भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अपने भग्त सुदामा का 
पुजन और सम्मान करना ) 





+ २ ५-5 +-.- 


भक्त के अधीन रहनेवाले भगवान श्रीकृष्ण ने सुदामा को अपना 
दास (भक्त) समझकर उन दीन (-दरिद्र व्यक्ति का, उनके दीन-दरिद्र 
होने पर भी उन) का पूजन किया । (टेक) । उन ऋषि सुदामा को अपनी 
सुख-शय्या पर बिठाकर चक्रपाणि भगवान श्रीकृष्ण उन पर चेंवर झुलाने 
लगे। १ नाथ (पति श्रीकृष्ण) ने आँखों से संकेत किया, तो उनकी 
आठो पटरानियाँ (वहाँ) आ गयी। (उनमें से एक) स्त्री सत्यभामा 
(मुंह पर) आगे आँचल खीचकर मन में (मन-ही-मन, मुँह छिपाकर) 


शक 


प्रेमानलद-रसामृत (सुदामा चरित्न) ४७१ 


कनकनी थाली हेठी मांडी, रुकिमणी नांखे पाणी, 
सुदामानां चरण पखाछे, हाथे सारंगपाणि। भकता०। ३ । 
नाभिकमलथी ब्रह्मा प्रगट्या, भा जग पत्ठमां कीधुं, 
जेणे मुखमांहे संसार देखाडया, मातानुं मने लीधूं | भक्ता० । ४ । 
विश्वामित्र सरखा तापसने, दोह्यले दर्शन दीधुं, 
तेणे सुदामावा पग पखाढी, प्रीते चरणोदक लीधू | भक्ता० । ५ । 
ओढवानी जे पीत-पिछोडी, लोहा ऋषिना पाय, 
षोडश प्रकारे पूजा कीधी, अगर धूप उपाय | भकक्‍ता० | ६ । 
कर जोडी प्रदक्षिणा कीधी, हरिने हरखे आंसु थाय, 
ऊभा रही वींजणो कर, साही विट्ठल ढाछे वाय | भक्‍ता० | ७ । 


हँसने लगी । भक्त के० । २ रुक्मिणी ने सोने की थाली नीचे रखी और 


वह पानी डालने लगी । (स्वयं) शाडर्ग-पाणि' (श्रीकृष्ण) ने सुदामा के 
पाँवों को अपने हाथो से धोया। भक्त के० । ३ जिनके नाभि-कमल से 
ब्रह्मा प्रकट" हुए, जिन्होंने इस जगत का पल (-भर) मे निर्माण किया, 
जिन्होंने माता यशोदा को अपने मुख के अन्दर संसार (विश्व, ब्रह्माण्ड) 
दिखाया और उस माता के मन को मोहित कर लिया था, भक्‍त के अधीन 
रहनेवाले उन भगवान श्रीकृष्ण ने सुदामा को अपना भक्त समझकर उनका 
पूजन किया । ४ जिन्होने विश्वामित्र जेसे तपस्वी को बडी कठिनाई पर 
(बड़ी कठोर दु सह तपस्या करने पर ही) दर्शन दिये, उन भगवान ने 
सुदामा के पाँव धोकर प्रेम से वह चरणोदक तीर्थ ग्रहण किया । भक्त 
के०।५ ओढने का जो पीताम्बर था, उससे उन्होने ऋषि सूदामा के 
पाँव पोछ लिये। अगर चन्दन, धूप आदि उपचारों (साधनों) से सोलह 
प्रकारो (उपचारों) से उनका पूजन किया । भक्त के० । ६ श्रीहरि ने 


हाथ जोड़कर उनकी परिक्रमा कीौ। (उस समय) उन (भश्रीहरि) के 


30८ 282: 2% «3 


«हर 





१ शाहगंपाणि-- भगवान विष्णु का शारुर्ग नामक धनुष था। शाड्गें नामक 


। घनुष है, जिनके हाथ मे, वे है “ शाह्ग्गपाणि ” भगवान विष्णु । जब जरासन्ध ने मथुरा 


पर आक्रमण करके उसे सेना द्वारा घेर लिया, तब यह धनुष श्रीकृष्ण को प्राप्त हुआ। 
लाक्षणिक अर्थ मे यह नाम राम, कृष्ण जेसे भगवान के अवतारों के लिए भी प्रयुक्त 
होता है। 

२ पौराणिक मान्यता के अनुसार शेपशायी भगवान नारायण अथवा विष्णु की 
नाभि मे से एक कमल उत्पन्न हुआ। उससे ब्रह्मा प्रकट हुए, जिन्‍्होने आगे चलकर 
सृष्टि का निर्माण किया । 

३ वालक्ृष्ण ने एक समय मिट॒टी खायी, तो माता यशोदा ने उसे डाँटा। जब 
उन्होने अपना निरपराधित्व सिद्ध करने के लिए मुँह खोला, तो उसमे यशोदा को समस्त 
ब्रह्माण्ड दिखायी दिया । इस छन्द मे श्रीकृष्ण की इस वाल-लीला की भोर सकेत है । 


४७२ ' गुजराती (भागरी लिपि) 


थाक्त भरीने भोजन लाव्यां, मेवा ने पकवान, 
शकरायुक्त ऋषिने, त्यां कराव्यां पयपान। भकक्‍ता० 
शुद्ध आचमन ऋषिए कीधां, आप्यां बीडीपान, 
वाध्यूं ते प्रसाद प्रमाणे, आरोग्या भगवान | भकता०। ९ । 
जे सुख आप्युं सुदामाने, हरिए ब्रह्माने नव आप्यूं, 

फरी फरी मुख जुए मुनिनुं, आनंदे मन व्याप्यूं। भकता० | १०। 
पण सुदामाने चंता मोटी, रखे देखे काया कांपे, ; 
पेली गांठडी तांदुल तणी, ते जंघा तक्े लई चांपे । भकता० । ११। 


८। 


वलण ( तज बदलकर ) 


चरण तछे चांपी रहे, गांठडी तांदुल तणी, 
प्रेमानंद-प्रभू परमेश्वरने, जाण्या तणी गत छे घणी। १२। 
नयनों मे आनन्द (की उत्कटता) से आँसू आा गये। (फिर) विटृठल' 
(श्रीकृष्ण) खड़े रहकर हाथ में पखा लेते हुए हवा करने लगे। भक्त 
के०]७ वे थाल भरकर भोजन (लिवा) लाये। उसमें मेवे ओर 
पकवान थे। (फिर) वहाँ उन्होने ऋषि सुदामा को शक्कर से युक्त 
दुग्ध का पान करा दिया। भक्त के० । 5५ (भोजन के पश्चात्‌) ऋषि 
ने शुद्ध आचमन कर लिया, तो उनको पान के बीड़े दिये। (फिर) जो 
शेष रहा, उसे प्रसाद-स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण ने खा लिया। भकक्‍त 
के० । ९ श्रीहरि ने (इस प्रकार) सुदामा को जो सुख प्रदान कर दिया, 
वह ब्रह्मा (तक) को नही दिया । वे बार-बार मुनि सुदामा के मुख को 
देखते रहे। आनन्द ने उनके मन को व्याप्त किया था। भक्‍त के० | १० 
परन्तु सुदामा को इसकी बड़ी चिन्ता अनुभव हो रही थी कि कदाचित 
वे देख लेंगे। (इस विचार से) उनकी देह काँपने लगी। (अतः) 
उन्होंने चावल की वह गठरी अपनी जाँघ के तले लेकर दबाये रखी। 
भकक्‍त के ० । ११ ॥॒ 

वे चावल की उस गठरी को पाँव (जाँघ) के तले दबाये रहे। 
(फिर भी) प्रेमानन्द के प्रभु श्रीकृष्ण की (सब बातों को) जान लेने 
की रीति अति गहन थी (प्रभु अन्तर्यामी है, अतः किसी वस्तु को छिपाये 
रखने पर भी वे उसे जान लेते ही है) । १२ 








नल जि जी जी क्‍ल जज» 








१ विदृठल (श्रीकृष्ण) -- देखिए टिप्पणी १, कड़वक १, पृष्ठ ४४२ । 


प्रेमानन्‍्द-रसामृत (सुदामा चरित्र) ४७२रे 


कड॒व ८ मुं-- ( श्रीकृष्ण हारा सुदामा से उनके दुर्बेल हो जाने का कारण पूछना ) 
राग मलार 


गोविंदे मांडी गोठडी, कहो सित्न अमारा, (टेक) 
अमो सांभछवा आतुर, छठ समाचार तमारा । गो० । १ । 
शे दुःखे तमो दूबकछा ? एवी चिता केही ? 
चित्त उदासी देखुं छं, मारा बाछ-सनेही | गो० । 
कोई सद्गुरु तमने मक॒यो, शूं तेणे कान ज फूंक्यो ? 

श वेरागी त्यागी थया, के ससार ज मूक्‍क्यो ? गो०। ३ । 
शरीर प्रजाल्यं जोगथी.? तेवी दीसे देही, 
दे दुःखे दूबढा थया, मारा बाकछ-सनेही ? गो० | ४ । 

- के शत्रु को माथे थयो, घणां दुःखनो दाता ? 

के उपराज्यूं चोरीए गयूं, तेणे नहि सुख शाता ? गो० । ५ । 

, ध्षातुपात्न मह॒यूं नहि, आव्या तुूंबडुं लेई ? 
वस्त्र नथी शुं, पहेरवा, मारा बाछ-्सनेही ? गो० | ६ । 


आओ यश 


ल्‍प् 


| 


कड़बक-- दे ( श्रीकृष्ण द्वारा सुदासा से उन्तके दु्बेल हो जाने का कारण पुछना ) 


गोविन्द (श्रीकृष्ण) ने सम्भाषण (बातचीत) आरम्भ किया। [वे 

, बोले-- ) 'हे मेरे मित्न, कह दो । (ठेक)। मैं तुम्हारा समाचार 
सुनने के लिए आतुर (उत्कण्ठित) हूँ '। गोविन्द ने०। १ “ किस दुःख 
से तुम दुर्बंल हो गये|हो ? ऐसी कोन चिन्ता है ? हे मेरे बचपन के स्नेही, 
मैं तुम्हारे चित्त को उदास (खिन्न) देख रहा हूँ '। गोविन्द ने० । २ 
क्या तुम्हें कोई सदगुरु मिला है ? उसने तुम्हारे कान ही (मे कोई मंत्र ) 
फूंक दिया है ? क्‍या तुम (ऐसे) विरागी (विरक्‍्त), (सुख-भोग के) त्यागी 
हो गये हो कि तुमने ससार को (सासारिक सुख-भोग-पुर्ण जीवन को) ही 
छोड़ दिया ? ' गोविन्द ने० । ३ * क्‍या तुमने अपने शरीर को योग से 
प्रज्वलित करके जला दिया ? तुम्हारी देह वैसी दिखायी दे रही है।। हे 
मेरे बचपन के स्नेही, तुम किस दुःख से दुबले हो गये हो ? ' गोविन्द 
ने०।४ “क्या बहुत दु.ख देनेवाला कोई शत्रु (तुम्हारे) सिर पर 
(चढा) है ? क्‍या तुम्हारा उपाजित (कमाया हुआ) चोरो में गया (चुरा 
लिया गया) ? उससे (क्या) तुम्हे सुख और शान्ति नहीं है ? ” गोविन्द 
ने०।५ * (क्या) तुम्हें धातु का (कोई) पात्न नहीं मिला, जिससे तुम 
तूंबी-पाज्न लेकर आ गये हो ? हे मेरे वचपन के स्नेही, कया (तुम्हारे पास ) 
पहनने के लिए वस्त्र नहीं है ? ” गोविन्द ने० । ६ ' किसी (पृव॑जन्म 


गुजराती (नागरी लिपि) 


| 
ठ 
ण्छ 


के सुख नथी संताननूं, कांई कमंने दोषे ? 
के भाभी अमारां वढकण्णा, तेशु तनने शोषे ? गो० । ७ । 
के शंं उदर भरातृूं नथी, तेणे सूकी देही ? 
एटलामां कियु दुःख छे, मारा बाछ-सनेही ? गो० | ८ । 
पछे सुदामोजी बोलिया, प्रभुने शीश नामी रे, 
तमने शी अजाणी वात छे, मारा अंतरजामी ! गो०। ९ । 
छे मोटं दुःख विजोगनु, नहीं कृष्णजी पासे, 
आज प्रभूजी मुजने म्ठया, देह पुष्ट ज थाशे । गो० | १० । 


के) कमें के दोष के कारण तुम्हे सन्‍्तान का सुख नही (प्राप्त हुआ) है ? 
क्या हमारी भाभी झगड़ालू है ? कया वे (तुम्हारे) शरीर का शोषण कर 
रही है (तुम्हें सताकर दुर्बल बना रही है ?) गोविन्द ने० । ७ ” अथवा 
क्या तुम्हारा पेट नही भरता है? उससे तुम्हारी देह सुख गयी है ? है भेरे 
बचपन के स्नेही ! इनमे से तुम्हें कौन-सा दुःख है ? ” गोविन्द ने० । ८ 
अनन्तर, सुदामाजी, प्रभु श्रीकृष्ण को सिर नवाकर (नमस्कार करते हुए) 
बोले, “ हे मेरे अन्तर्यामी (भगवान), तुमसे कसी (कोन) बात अविदित 
है? ' गोविन्द ने० । ९ 
(सुदामा बोले--) ' मेरे पास आप क्ृष्णजी नही (रहे)। अपके बियोग 
का बड़ा दुःख (रहा) है। आप प्रभुजी आज मुझसे मिले। (इससे 
मेरी) देह (अब फिर से) हृष्ट-पुष्ट ही हो जाएगी '। गोविन्द ने० | १० 


फडबुं १० मूं -- ( श्रोकृष्ण-सुदामा का गुरुनाह में घटित बातों के बारे मे संवाद ) 
राग रामग्री 


पछे. शामक्तियोजी बोलिया, तने सांभरे रे ! 
हा जी- नानपणानो नेह, मने केम वीसरे रे! । १ ॥। 
आपण बे महिना पासे रह्या, तने सांभरेरे ? 
हा जी, सांदीप ऋषि घेर, मने केम वीसरे रे। २। 


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फड़बक-- १० ( श्रोकृष्ण-सुधासा फा गुर-गृह में घढित बातों के बारे में संवाद ) है 


अनन्तर श्यामजी (श्रीकृष्ण) बोले, “ (क्या) तुम्हें वह याद आ 
रहा है ? ” (तो सुदामा बोले--) “जी हाँ। बचपन का (अपना वह) 
स्नेह मुझसे कैसे भुलाया जा सकता है? ' १ (श्रीकृष्ण--) ' हम दो मास 
(एक-दूसरे के) पास रहे (साथ में रहे) । (क्या) तुम्हें वह याद भा 


प्रेमानन्द रसामृत (सुदामा चरित्तन) , ४७५ 


आपण अज्नञ भिक्षा करी लावता, तने सांभरे रे? 


मी जमता त्र्ण शब्रात, मने केम वीसरे रे (। ३ । 
आपण सूता एक साथ रे, तने सांभरे रे? 
सुख दुःखनी करता वात, मने केम वीसरे रे [। ४ । 
पाछली रातना जागता, तने सांभरे रे ? 
हा जी, करतां वेदती धून, मने केम वीसरे रे !। ५ । 
गुरु आपणा ज्यारे गाम गया, तने सांभरे रे ? 
कोई एकने जाचवा मुन, मने केम वीसरे रे ?। ६ । 


त्यारा काम कह्यूं गोराणीए, तने साभरे रे ? 
लई आवो, कहयुं काष्ठ, मने केम वीसरे रे !(। ७। 
आंही आपण ऊकके घणूं, तने सांभरे रे ? 

हा जी, माथे तहां वरसाद, मने केस वीसरे रे? । ८ । 


रहा है ? ' (सुदामा-) “जी हाँ। हम (गुरु) सान्दीपनि ऋषि के घर 
(आश्रम) में रहे। वह मुझसे कैसे भुलाथा जा सकता है? '। २ 
(श्रीकृष्ण--) “हम (तीनों) भिक्षा माँगकर अन्न लाया करते थे। 
(क्या) तुम्हें वह याद आ रहा है ? ' (सुदामा--) “हम तीनो बन्धु मिलकर 
भोजन किया करते थे। वह मुझसे कंसे भुलाया जा सकता है ? '। ३ 
(श्रीकृष्ण--) “ हम (तीनों) एक साथरी पर सोया करते थे। (क्या) 
तुम्हे वह याद आ रहा है ? ” (सुदामा-) “ (तब) हम सुख-दुःख की बाते 
(भी) किया करते थे। वह मुझसे कंसे भुलाया जा सकता है !। ४ 
(श्रीकृष्ण--) “हम रात के ढलने लगने पर (तीसरे पहर रात) जाग 
उठते थे। (क्या) तुम्हें वह याद आ रहा है ? ' (सुदामा--) 'जी 
हाँ। हम वेदों की ध्वनि (वेदों का पठन) करते थे। वह मुझसे कंसे 
भुलाया जा सकता है ”? ”'।५ (श्रीकृष्ण--) ' हमारे गुरुजी जब ग्राम 
गये * (क्या) तुम्हें वह याद आ रहा है ? ' (सुदामा--) ' मुनि सान्दीपनि 
किसी एक से (कुछ) माँगने के लिए गये थे। वह मुझसे कंसे भुलाया 
जा सकता है ? '।६ (श्रीकृष्ण--) ' जब ग़ुर्वाणी (ग्रुरु-पत्नी) ने काम 
(करने को) कहा था “ (क्या) तुम्हें वह याद आ रहा है ?' (सुदामा--) 

/ उन्होंने कहा-- काष्ठ (लकड़ियाँ, इन्धन) ले आभो। वह मुझसे कंसे 
भुलाया जा सकता है ? ।७ (श्रीकृष्ण--) “ यहाँ (गुरु के आश्रम में ) तो 
हम तप रहे थे (यहाँ बहुत गर्म था, ऊमस थी) । ,(क्या) तुम्हें वह याद 
आ रहा है ? ' (सुदामा--)' जी हाँ। (और) वहाँ तो सिर पर बारिश 
हो रही थी। वह मुझसे कैसे भूलाया जा सकता है? '।८ 

(श्रीकृष्ण-) ' हमने (अपने-अपने) कन्धे पर कुल्हाड़ियाँ रखी । (क्या) 


जा 


बा 


ह७६ गुजराती (नागरी लिवि) 


खांधे कुहाडा.. धर्या, तने सांभरे रे ? 
घणूं दूर गया, रणछोड, मने केम वीसरे रे![। ९ । 
वाद वद्यो बेठड बांधवे, तने साभरे रे? 
हा जी फाड्यू मोटुूँ खोड, मने केम वीसरे रे [4१०। 
त्ुण. भारा बांध्या दोरडे, तने सांभरे रे? 
सामे आव्या बारे मेह, मने केम वीसरे रे !।११। 
शीतढ शरीर थाये घणुं, तने सांभरे रे ? 
टाढे. ध्रेजे आपणी देह, मने केम वीसरे रे। १२। 
नतदीए पूर आव्यां घणां, तने सांभरे रे ? 
घन वरस्योी मुसत्ध्धार, मने केम वीसरे रे! | १३। 
आकाश अंधारे आवयु, तने सांभरे रे? 


कक. 


थाय वीजछीवा चमकार, मने केम वीसरे रे [। १४। 





तुम्हे वह याद आ रहा है ? * (सुदामा--) ' है रणछोड़ जी (श्रीकृष्ण), 
हम (वंसे ही) बहुत दूर गये। वह मुझसे कैसे भूलाया जा सकता 
है ? '।९ (श्रीकृष्ण-)) “' (हम) दो बन्धुओ में होड़ लगी । (क्या) 
तुम्हे वह याद आ रहा है ?  (सुदामा--) “जीहां। (हमने) बड़े 
तने को काठ लिग्रा। वह मुझसे कैसे भुलाया जा सकता है ? '। १० 
(श्रीकृष्ण--) “हमने (फिर) तीन गदटुठर (तैयार करके) डोरी से बाँध 
लिये। (क्या) तुम्हें वह बाद आ रहा है? ' (सुदामा--) ' तो सामने 
(मानो) बारह मेघ' (इकट्ठा होकर बरसने के लिए) भा गये ।” वह 
मुझसे कैसे भुलाया जा सकता हैं? !'।११ (थश्रीक्षष्ण-) ' हमारा 
शरीर बहुत ठण्डा होता जा रहा था। (क्या) तुम्हे वह याद आ रहा 
है ? ' (सुदामा-) “ ठण्ड से अपनी (-अपनी ) देह काँप रही थी। वह 
मुझसे कैसे भुलाया जा सकता है? !(। १२ (श्रीकृष्ण--) “ नदियों में 
बडी बाढ आ गयी । (क्या) तुम्हे वह बाद आ रहा है ? ' (सुदामा-) 
 मेघ मूसलाधार वरस रहे थे। वह मुझसे कैसे भुलाबा जा सकता 
है ? '।.१३ (श्रीकृप्ण--) ' आकाश अन्धकार से व्याप्त हो गया। 
(क्या) तुम्हे वह याद आ रहा है ? ' (सुदामा--) “ बिजली के चमकारे 
हो रहे थे। वह मुझसे कंसे भूलाया जा सकता है ? '। १४ (श्रीकृष्ण-) 

१ बारह मेघ-- मत्स्य पुराण के अनुसार निम्नलिखित बारह मेघ ब्रह्माइ के 
कवच से निर्मित हुए-- द्रोण, काल, नील, पुष्कर, आवर्त, सबतं, आवतंक, तम, वायु, 
वारुण, वृष और नीलक । (कहते है, वर्षाऋतु के विभिन्न नक्षत्रों मे ये अलग-अलग 


रूप से वरसते है। यहाँ इतनी भारी वर्षों हो रही थी कि जान पड़ा--वे समस्त एक 
साथ बरसने लगे है।) 


प्रेमानन्द-रसामृत (सुदामा चरित्न) ४७७ 


सवा शेर शेकेला चणा, तने साॉंभरे रे.? 
गोराणीए बांध्या आप, मने केम वीसरें रे!।१५। 
अमो छाना तमो आरोगिया, तने सांभरे रे? 
तमो ,कह्यो दरिद्र महाराज, मने केम वीसरे रे। १६। 
पछी ग्रुरुणी शोधवा नीसर्या, तने सांभरे रे? , 
कहय॑ स्त्रीने, ते कीधो केर, मने केम वीसरे रे | । १७। 
आपण हृ॒दियाशूं चांपिया, तने सांभरे रे? 
गुरु तेडी लाव्या घेर, मसने केम वीसरे रे !। १८। 
गोराणी गाय दोहतां हतां, तने सांभरे रे? 
हती दोणी माग्यानी टेव, मने केम वीसरे रे ![ । १९। 
निशाके बेठां हाथ वधारियो, तने सांभरे रे? 
तने आणी . आपी ततखेव, मने केम वीसरे रे ! ।२०। 


ल््जिजिलििज 5 नकल तल जज कल क ली बजट ७जा 53 जल 3४3 3ची बन बल5 


(हमारे पास) सवा सेर सेंके (-भूने हुए) चने थे । (क्या) तुम्हें 
वह याद आ रहा है? ' (सुदामा--) “ भ्रुर्वाणी ने (पोटली में) स्वयं 
बाँधकर दिये थे। वह मुझसे कंसे भुलाया जा सकता है? ।१५ 
(श्रीकृष्ण--) “ तुमने हमसे छिपाकर उन्हे खा डाला। (क्या) तुम्हें 
वहु याद आ रहा है ? ' (सुदामा--) “ इससे तुमने मुझे दरिद्र महाराज 
कहा । वह मुझसे कंसे भुलाया जा सकता है ?'। १६ (श्रीकृष्ण--) 
“ अनन्तर ग्रुरुण (हमे ) खोजने के लिए निकले। (क्या) तुम्हें वह 
याद आ रहा है ? ' (युदामा--) ' उन्होंने (अपनी) स्त्री से कहा-- तुमने 
(इन बच्चों पर) अत्याचार किया। वह सुझसे कैसे भुलाया जा सकता 
हैं? ।१७ (श्रीकृष्ण--) “ (हमसे मिलने पर) उन्होने (हमें) 
दृढ़तापूर्वक हृदय से लगा लिया । (क्या) तुम्हें वह याद आ रहा है ? 
(सुदामा--) ' (तदनन्तर) ग्रुरुजी हमें (साथ में लेकर) घर लाये। 
वह मुझसे कसे भुलाया जा सकता है ? !। १८० (श्रीकृष्ण--) 
 गुर्वाणीजी (एक बार) गाय को दुह रही थी। (क्या) तुम्हे वह याद 
आ रहा है ? ' (सुदामा--) *' (उन्हें) दुग्ध-पात्न माँग लेने की टेव थी । 
वह मुझसे कंसे भुलाया जा सकता है? “।१९ (श्रीकृष्ण--) , 
€ पाठशाला मे बेठे (-बठ) मैंने हाथ बढाया । (क्या) तुम्हे वह याद आ 
रहा है ? ' (सुदामा--) “तुमने (उस प्रकार) लाकर (दुश्ध-पात् ) 
तत्क्षणः दिया। वह सुझसे कैसे भुलाया जा सकता है? !। २० 
(श्रीकृष्ण--) “ गुरु-पत्नी को तब ज्ञान (प्राप्त) हुआ। (क्या) तुम्हें 
वह याद आ रहा है ?' (सुदामा--) “वे तुमको जगत के आधार 
(“स्वरूप परमात्मा) समझने लगी। वह मुझसे कैसे भुलाया जा सकता 





४७८ गुजराती (नागरी लिपि) 


गुरुपत्तीने त्यारे ज्ञान थयुं, तने सांभरे रे? 
तमोने जाण्या जगदाधार, मने केम वीसरे रे !।२१। 
गुस दक्षिणामां मागियूं, तने सांभरे रे? 
हा जी, मृत्यु पाम्यो जे कुमार, मने केम वीसरे रे ?।२२। 
में सागरमां झंपलावियु, तने सांभरे रे? 
शोध्या सप्त पाताछ, मने केम वीसरे रे !4।२३। 
पंचनन सामो आवियो, तने सांभरे रे? 
हा जी देत्य तगो आण्यो काछ, मने केम वीसरे रे ! । २४। 
पछी जम-गृहे हुं गयो, तने सांभरे रे? 
त्यांहां आवी मत्या जमराय, मने केम वीसरे रे !।२५। 


ब-न्‍3ल लाल अीडिडिलबिला ही 4 “अल -> 3 3ल ७>3न्‍ 333 लक बा 5तन 3० 8-+ ०9»# ॥$3जड लध७ ली ७3 2५ज3ज3न्‍त सपल23टी3ज3ज५>0७९० 90 जली लटकी १जल तप ल्‍फला, 


है? '।२१ (श्रीकृष्ण--) “ गुरु-दक्षिणा (के रूप) में (गुरुजी ने क्या) 
माँगा ?-- (क्या) तुम्हे वह याद आ रहा है ? ' (सुदामा-) “जी हाँ । 
उन्होंने उस पुत्र को माँगा, जो मृत्यु को प्राप्त हुआ था'। वह मुझसे 
कंसे भूलाया जा सकता है ? !।२२ (श्रीकृष्ण--) ' मैं सागर मे कूद 
गया। (क्या) तुम्हे वह याद आ रहा है ? ' (सुदामा--) ' तुमने उसे 
सातों पातालो' में ढूंढ लिया। वह मुझसे कंसे भुलाया जा सकता 
है? '(। २३ (श्रीकृष्ण-) ' पांचजन्या नामक देत्य सामने आ गया। 
(क्या) तुम्हें वह याद आ रहा है ? ' (सुदामा--) 'जी हाँ। उस दैत्य 
का काल (बुला) ले आये (तुमने उस देत्य को मार डाला) । वह मुझसे 
कंसे भूलाया जा सकता है ? '। २४ (भश्रीकृष्ण->) ' अनन्तर मैं यम के 
घर गया। (क्या) तुम्हें वह याद आ रहा है ? ' (सुदामा-) वहाँ 





१ गुरु-पुतन्न को गुरु-दक्षिणा के रूप मे-- देखिए टिप्पणी २, कडवक १, प्रृष्ठ ४४२ । 

२ सप्त पाताल-- अतल, वितल, सुतल, रसातल, महातल, तलातल भौर 
पाताल। अथवा नहितल, महितल, सुतल, कर्मतल, वितल, शकातल और रसातल । 

३ पाचजन्य (पंचजन्य)-- भागवत पुराण (स्कन्ध १०, अध्याय ४५) के 
अनुसार “ पचजन ” नाम ही ठोक है। पंचजन संहूराद नामक दुँत्य का पुत्र था। 
वह शंख के रूप मे समुद्र मे रहता था। श्रीकृष्ण ने जन्म गुरु-पुत्र के बारे मे समुद्र से 
पूछताछ की, तो समुद्र ने कहा कि उसे पचजन नामक शंखरूपधारी असुर ने चुरा लिया 
होगा । यह सुनकर श्रीकृष्ण ने जल में पैठकर उस असुर को मार डाला, परन्तु गुरु- 
पुत्ञ उसके पेट मे नहीं मिला। उस असुर के शरीर-रूप, अस्थियो से बने शख को 
श्रीकृष्ण ने स्वीकार किया। उसे ही पांचजन्य शख कहते है। एक मान्यता के 
अनुसार पंचजन असुर के पेट मे गुरु-पुत्र के न मिलने पर श्रीकृष्ण को लगा कि मैने 
इसका व्यर्थ ही वध किया । उसे व्यक्त करने पर उन्होने उस दैत्य को उसका माँगा 
हुआ यह वर दिया-- मेरे कलेवर को आप हाथ मे नित्य घारण करें, जो मनुष्य मुझमे 
डाला हुआ जल आपपर न चढाए, उसका पूजन व्यर्थ सिद्ध हो। 


प्रेमाननद-रसामृत (सुदामा चरित्त ) ४७ 


पुत्र गोराणीनी आपियो, तने सांभरे रे? 
हा ज़ी, पछी थया विदाय,, मने केम वीसरे रे [।॥२६। 
आपण ते दहाडाना जूजवा, तने सांभरे रे? 
फरीने मकछ्िया आज, मने केम वीसरे २! ।२७। 
तमो पासे अमो विद्या शीखता, तने सांभरे रे? 
हुँने मोटो कीधो महाराज, मने केम वीसरे रे !। र८ । 


वलण ( तर्ज बदलकर ) 


महाराज, लाज निज दासनी, वधारो छो श्रीहरि, 
पछे दारिद्र खोवा दासनूं, सौम्य दृष्टि नाथे करी। २९ । 


यमराज आकर (तुमसे) मिल गये। वह मुझसे कंसे भूलाया जा सकता 
है? '।२५ (श्रीकृष्ण-) “ (यम से पुत्र को पुनः प्राप्त करके) वह पुत्र 
गुर्वाणीजी को प्रदान किया । (क्या) तुम्हें वह याद भा रहा है ? ! 
(सुदामा--) “ अनन्तर (इस प्रकार गुरु-दक्षिणा के रूप मे मृत पुत्न को 
पुनर्नीवित करके लौटा देकर) बिदा हो गये। वह मुझसे कैसे भूलाया 
जा सकता है ? '। २६ (श्रीकृष्ण--) “ उन दिनों से बिछुडे हुए हम''' 
(क्या) तुम्हे वह याद आ रहा है? ' (सुदामा--) * “फिर से आज 
मिले है। वह सुझसे कंसे भुलाया जा सकता है ”? '। २७ (श्रीकृष्ण--) 
/ हम तुम्हारे पास (तुमसे) विद्या सीख रहे थे। (क्या) तुम्हें वह याद 
आ रहा है? ' (सुदामा--) “-हे महाराज, तुमने मुझे महान बना दिया 
8 ऐसा बड़प्पन प्रदान किया) । वह मुझसे कंसे भूलाया जा सकता 
| |। र८ 

है महाराज, है श्रीहरि, तुम (इस प्रकार आज यह बताते हुए) मेरी 
लाज (प्रतिष्ठा) को बढ़ा रहे हो। ' (यह सुनकर) अपने दास (भक्त) 
की दरिद्रता को नष्ट करने के हेतु नाथ श्रीकृष्ण ने उनके प्रति सौम्य 
अर्थात क्ृपा-युकत दृष्टि की (कृपा-दृष्टि से देखा) । २९ 


४८० गुजराती (नागरी लिपि) 


फडव ११ मुं-- ( श्रीकृष्ण द्वारा सुदामा को वेशव-सम्पस्त बना वेना ) 
राग वसत 


सकल सुंदरी देखतां, गोठडी गोविंदे कीधी, 
दारिद्र खोबवा दासनं, गाठडी दृष्टिमां लीधी। १ । 
अढ्क्क ढल्ियो रे शामत्तियो, मुष्टि तांदुल माटठे, 
इंद्रनो वैभव आपशे, अल्प सुखडी साटे | अढछक० । २ । 
मन वांछित फल आज हुं पास्यो, जे मित्र मत्ठवाने आप्या, 

कांईचतुर भाभीए भेट मोकली, कहो सखा, शूं लाव्या ? अ० । ३ । 
चरण तक्छे शं चांपी राखो ? मोटु मन करी काढो, 

अमी जोग ए न होय तो दूर थकी देखाडो। अ०। ४। 
ए देवताने दुलंभ दीसे, कही जाचे जादवराय, 

जो पवित्र सुखडी प्रेमे आपो, तो भवनी भावठ जाय | अ०।॥ ४५। 
भगवाननी भारजा भ्रममां भूली, जुए नारी समस्त, 

दुलंभ वस्तु शी छे ऋषि पासे, जे हरि भोढे छे हस्त ! मअ०। ६ । 


लज जज ऑििजजलजॉे जज जलन 3» ली ली - ७०७४2 3०१७ * ५ न 


| 
फड़वक --११ ( श्रोकृष्ण हारा सुदासा को येभव-सम्पन्न बना देना ) 


(अपनी ) समस्त सुन्द्रियों, अर्थात स्त्रियों के देखते रहते, गोविन्द 
(श्रीकृष्ण) ने (सुदामा से इस प्रकार) बातचीत की। (और) अपने 
भक्‍त की दरिद्रता को नष्ट करने के हेतु उन्होंने (सुदामा द्वारा लायी हुई 
चावल की) गठरी की भोर दृष्टि लगा ली (गठरी की मोर देखा ।) । १ 
एक मुट्ठी-भर चावल के लिए श्याम श्रीकृष्ण बहुत झुक गये 
(उदारतापूर्वक देने के लिए प्रवृत्त हुए।) थोड़ी ' सुखड़ी ' (जसी 
सस्ती साधारण-सी मिठाई) के बदले में वे तो इन्द्र का वैभव 
प्रदान करेगे। बहुत०।२ (वे बोले-- ) “जब कि मेरे मित्र 
मुझसे मिलने आये है, तो में आज मनोवांछित (मनचाहे) फल को प्राप्त 
हो गया हूँ। मेरी चतुर भाभी ने (मेरे लिए) कोई भेट भेज दी (होगी) । 
है सखा, कहो, क्या लाये हो ? ” बहुत० । ३ “पाँव (की जाँघ) के तले क्या 
दबाकर रखा है ? मन को बड़ा (उदार) करके निकाल लो। यदि यह 
हमारे योग्य न हो, तो दूर से दिखा दो |” बहुत०। ४ यह देवताओं 
के लिए (भी) दुलेंभ दिखायी दे रहा है। ' ऐसा कहते हुए यादवराज 
श्रीकृष्ण ने माँग लिया। (उन्हें लगा--) “तुम यदि पवित्न 'सुखड़ी (भी) 
प्रेम से दे दोगे, तो (हमारा ओर तुम्हारा भी ) सांसारिक जंजाल (दूर हो ) जाएगा । 
बहुत० । ५ भगवान श्रीकृष्ण की स्त्रियाँ (उस वस्तु के विषय में) भ्रम 


प्रेमानन्द-रसामृत (सुदामा चरित्त) ४८१ 


आम हरि ज्यारे हाथ लगाडे, ऋषि खसेडे आम, 
भक्त हेतः पोते देखाडे, सौने सुंदर-श्याम | अ० | ७। 
अवलोकता ऊभी सौ नारी, कर धरी कनकनां पात्र, 
जदुपतिने जाचे सहु नारी, ' अमने आपजो तलमात्न _। अ० । ८ । 
सुदामो सांसार्मा पडियो, लज्जा मारी जाशे, 
भरम भांगशे तादुल देखी, कौतक मारु थाशे | अ०। ९। 
सत्रीने कह्मे हुं आव्यो लोभी, तुच्छ भेंट में आणी, 
लाज लाख टकानी खोई, घर घाल्यूं धणियाणी ।,अ० । १०। 
सुदाभानी शोचना ते, शामछ्िये सहु जाणी, 
हसतां हसतां पासे आबी, तांदुल लीधा ताणी । अ०। ११। 
हेठछ हेमनी थाली मेली, वस्तु लेवा जगदीश, 
छोडे छबीलो पार न आबवे, चींथरां दशवीश । अ०। १२। 
पेटराणी जोई विस्मय पामी, छे पारस मोंघुं रत्न, 
अमृत-फल के संजीवनमणि, आवडं कीधूं जत्न | अ०। १३ । 


में भूली हुई थी। वे समस्त नारियाँ देख रही थी। (उन्हे लगा--) 
ऋषि (सुदामा) के पास ऐसी कौन-सी दुलंभ वस्तु है कि श्रीहरि (उसके 
लिए) हाथ बढ़ा रहे है। बहुत० | ६ श्रीहरि जब इधर हाथ लगाते, 
तो ऋषि सुदामा (उस गठरी को) इधर खिसका लेते। सुन्दर श्याम 
श्रीकृष्ण इस प्रकार सब्रको अपना भक्त-प्रेम दिखा रहे थे। बहुत०। ७ 
हाथों में सोने के पात्न लेकर वे समस्त तारियाँ देखती हुई खडी रही थी । 
वे समस्त नारियाँ यदुपति श्रीकृष्ण से विनती करते हुए माँग रही थी-- 
“हमको.तिल-मात्र तो दीजिए !। बहुत० ।८ सुदामा दुविधा में पड़ 
गये-- (यदि दे दूं तो) मेरी प्रतिष्ठा चली जाएगी। चावल को देखकर 
उनका यह भ्रम (कि मैं कोई अनमोल वस्तु लाया हूँ) दूर हो जाएगा और 
उससे मेरी हँसी हो जाएगी । बहुत० | ९ (उन्हे लगा--) स्त्री के कहने 
पर में लोभी (यहाँ) आया हूँ और तुच्छ (वस्तु) भेट (के रूप मे) लाया हूँ । 
मैंने अपनी टके की लाज खो दी। घरवाली (स्त्री) ने घर डुबो दिया । 
बहुत० । १० श्याम श्रीकृष्ण ने सुदामा की वह समस्त दुःख-भरी दुविधा 
जान ली और हँसते-हँसते उनके पास आकर उन्होंने चावल खीचकर ले 
लिये। बहुत०। ११ जगदीश श्रीकृष्ण ने उस वस्तु को लेने के लिए 
नीचे सोने की थाली रख दी । (अनन्तर) वें छबीले (श्रीकृष्ण) गद्ठर 
खोलने लगे; फिर भी दस-बीस चीथड़े थे-- वे उनके पार नही आ रहे थे । 
बहुत० । १२ यह देखकर पटरानियाँ आशचये को प्राप्त हो रही थी । 
(उन्हें लगा-- इस गद॒ठर में) पारस (जैसा कोई) महँगा (क्रीमती) रत्न 


४५९ गुजराती (नागरी लिपि) 


वेराया कण ने पात्र भरायं, जोई रह्यो जुवती-साथ, 
तांदुलना कण हृदिया चांपी, बोल्या वेकुंठनाथ | अ०। १४। 
सुदामा, में आ अवनीमां, लीधा बहु अवतार, 
आ तांदुलनो स्वाद छे केवो ! नथी आरोग्या एक वार अ०। १५। 
है; अथवा भगमृत-फल (अमृत रस-भरा फल) अथवा संजीवनी मणि है। 
इधतलिए तो इतनी उसकी रक्षा की है। बहुत० । १३ श्रीकृष्ण ने 
(अन्त में) ने कण (चावल) बिखेर दिये (उस थाली मे गिरा दिये) और 
उस पात्र को भर दिया। वे उन युवतियो (स्त्रियों) सहित देखते ही रह 
गये। चावल के उन कणों (दानो) को हंदय से दृढ़ता-एर्वक लगाकर 
वेकुण्ठनाथ भगवान विष्णु (-स्वरूप श्रीकृष्ण) बोले। बहुत०। १४ 
/ हें सुदामा, मैंने पृथ्वी पर बहुत अवतार धारण किये। फिर भी इस 
चावल का स्वाद कंसा है ? मैंने (अपने अन्य अवतारों मे) एक भी बार 
(ऐसे चावल) नहीं खाये। बहुत० | १५ मैंने ध्रुव", भम्बरीष', 
प्रहलाद' जैसे बड़े-बड़े मित्रों, सेवको (भक्तों) को देखा । फिर भी झनमें 


१ श्रुव - धुब्र राजा उत्तानपाद का रानी सुनीति से उत्पन्न पुत्र था। वचपन में 
जब एक बार वह अपने पिता की गोद मे बैठा, तो उसे पिता ने अपनी दूसरी पत्नी सुरुचि 
का रुख देखकर अपनी गोद से उतार दिया। इससे ध्रुव को बड़ी ग्लानि अनुभव हुई, 
तो वह ऐसे पद की प्राप्ति के लिए यत्नशील हुमा, जो मब्िचल हो, जहाँ से उसे कोई 
उतार न पाए। बालक श्रुव ने नारद के उपदेश के अनुसार “# नमो भगबते 
वासुदेवाय * मंत्र का जप करते हुए कठोर तपस्या की । उससे प्रसन्न होकर भगवान 
विष्णु ने उसे राज्य आदि देना चाहा, परन्तु भ्रुव ने उस्ने स्वीकार नहीं किया। अन्त 
मे उसकी मविच॒ल भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान ने उसे अवित्रल पद प्रदाव किया। 
भाकाशस्थ उत्तर श्रुब इसी भक्‍त ध्ूव का प्रतीक है । 

२ अम्बरीष- अम्बरीष अयोध्या के सूर्य-वंशोत्पन्न विष्णु-भक्त राजा थे। एक 
बार कातिक की एकादशी के अवसर पर वे ब्रत के पारण मे लगे रहे, तो अचानक 
वहाँ दुर्वाता ऋषि आ गये । अपने को राजा द्वारा उपेक्षित समझकर दुर्वासा ने उनके 
पीछे कझृत्या को चला दिया। परन्तु भगवान विष्णु ने अन्त में उससे अपने भक्त 
अम्बरीष को सुदर्शन चक्र द्वारा रक्षा की । भक्ति के फलस्बरूप उन्हे मोक्ष की प्राप्ति 
हुई । 

३ प्रह्लाद-- विष्णु-भक्‍त प्रहलाद देत्यराज हिरण्यकशिपु तथा कयाधू का पुत्र 
था। वह वचपन से ही विष्णु की भक्षिति मे निमग्न रहता था। हिरण्यकशिपु को 
उसको यह भक्ति पसन्द नही थी। उसके द्वारा बार-बार समझाने पर भी प्रहलाद 
हरि-भक्ति से विमुख नहीं हुमा । तो पिता ने उसे भनेक प्रकार से मार डाज्ने का 
यत्न किया । उसने पहले प्रहलाद को विष पिलाया, दूसरी बार पर्बंत पर से फिंकबा 
दिया, तदनस्तर हाथी के पाँवों तले कुचलवाने का यत्न किया, फिर सर्प द्वारा डसवाया, 
फिर भी प्रहलाद पर इनमे से किसी का कोई प्रभाव नही हुआ । अन्त में भगवान 
विष्णु ने नरसिंह रूप मे एक खम्भे मे से प्रकट होकर हिरण्बकशिपु का वध किया और 
प्रहलाद को रक्षा की । 


प्रेमानन्द-रसामृत (सुदामा चरित्त) ४८३ 


मोटा मित्र सेवक में जोया, श्रुव अंबरीष प्रहलाद, 
आ तांदुलनो एके मित्रे, नथी देखाड्यो स्वाद | अ०। १६। 
तुच्छ भेट भारे करी, मानी विचायू भगवान, 
सात जन्म लगी सुदामे, नथी कीधुं एके दान। अ०। १७। 
जाचकरूप थया जगजीवन, प्रीत हृदयमां व्यापी, । 
मुष्टि भरीने तांदुल लीधा, दारिद्र नांख्यां कापी | अ० | १८। 
कर मरडीने गांठडी लीधी, साथेनां दुःख मोड्यां, 
जेम जेम चींथरां छोड़यां नाथे, तेम तेम भवना बधन तोड्यां । १९ । 
तांदुल जब मुख मांहे मुक्या, ऊडी छापरी आकाश, 
तेणे स्थानक सुदामाने थया, सप्त-भोमी आवास | अ०। २०। 
ऋषिपत्नी थई रुकिमणी सरखी, थया सांब सरखा पुत्र 
ए वेभवने कवि श्‌ बखाणे, जेवूं ऋष्णनू घरसूत्र ।|अ०।२१। 


से एक भी मित्र ने ऐसे चावलो का स्वाद नहीं दिखा दिया (चखा दिया) । 
बहुत० । १६ इस तुच्छ भेंट को बहुत भारी (मूल्यवान) समझकर 
भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा-- सुदामा ने (अपने पिछले) सात जन्मों तक 
एक में भी दान नहीं दिया । (फल-स्वरूप, वे इस जन्म मे दरिद्र बन गये 
हैं। ) बहुत०। १७ (फिर भी उनके इस जन्म में) जगज्जीवन भगवान 
श्रीकृष्ण (उनके सामने) याचक-स्वरूप बन गये । उनके हृदय में प्रीति 
व्याप्त हो गयी । उन्होंने मुटठी भरकर चावल लिये (और बदले मे) 
सुदामा की दरिद्रता को काट (कर नष्ट कर) डाला। बहुत० | १८ 
(इधर) हाथ मरोडकर उस गठरी को उन्होने लिया और उनके साथ 
वाले दुःख नष्ट किये। श्रीकृष्ण नाथ ने जैसे-जेसे उन चीथड़ो को खोल 
लिया, वेसे-वैसे (सुदामा के) संसार के बन्धनों को तोड डाला (काट 
डाला)। बहुत० । १९ जब उन्होंने मुख में चावल डाले, तब (सुदामा 
की) झोपड़ी (अपने स्थान से) आकाश में उड़ गयी और उसके स्थान पर 
सुदामा के लिए सात खण्डों (मज़िलो) वाला भावास-स्थान निमित हो 
गया। बहुत० | २० ऋषि सुदामा की पत्नी रुक्मिणी जैसी हो गयी; 
उश्नके पुत्र साम्ब' जैसे हो गये। उस वेभव का वर्णन कवि क्‍या (कंसे) 
कर सकता है ? वह तो जेसे कृष्ण का (ही) घर-बार था। बहुत० २१ 
जब वे दूसरी मुट्ठी मुख में डालने लगे, तब रुक्मिणी ने उन्तका हाथ वहाँ 
पकड़ा (ओर कहा-) हे स्वामी, “ इसमें कम कया है ? हे चतुर-सुजान, 


॥ साम्ज--- श्रीकृष्ण का जाम्बवती से उत्पन्न पुत्र, जो परम प्रतापी था। 


भागवत पुराण के अनुसार वह जाम्बवती का पुत्र है, परन्तु विष्णुपुराण मे उसे रक्मिणी' 
का पुत्न कहा है | 


४८४ गुजराती (नागरी लिपि) 


बीजी मूठी ज्यारे मुखमां मूके, त्यां ग्रह्मो रकिमणिए पाण, 

एमां शु ओछु छे स्वामी ! असने आपो चतुर सुजाण । अ० । २२ । 
अष्ट महासिद्धि ते नवे निधि, मोकली वणमागी, 

ते सुदामोजी नथी जाणता, जे भवनी भावठ भांगी । अ०। २३ । 
हाथी डोले ने दुंदुभि बोले, गुणीजत गाये साखी, 

जडित हीडोछो, हेमनी सांकछ, हींचे छे हरिणाखी | अ० | २४ | 
हीरा रत्वत कनकनी कोटी, हार्यो धने कुबेर, 

कोटी ध्वज लाखेणा दीपक, वाजे छप्पन उपर भेर । अ०॥ २५ । 

वलण ( तर्ज बदलकर ) 
वागे भेर अखूट भंडारनी, लूठया श्रीगमोपाक रे, 
एम रात वात्तमां वही गई ने, थयो प्रातःकाछ रे। २६। 


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हमें दे दीजिए '। बहुत० । २२ श्रीकृष्ण ने न माँगने पर भी (सुदामा 
को) अष्ट महासिद्धियाँ' और नौ निधियाँ दे दी। (पर) सुदामा जी इसे 
नही जानते थे कि उनका सासारिक जजाल नष्ट हुआ है। बहुत०। २३ 
(सुदामा के घर) हाथी झूमने लगे थे और दुन्दुभी वजने लगी थी। ग्रुणी 
जन (भाट, बन्दी) उनकी कीति का गान करने लगे। (वहाँ) रत्न- 
जटित झूला था; उसकी डोरियाँ सोने की थी और (उस पर बेठकर) 
हरिणाक्षी (उनकी मृग-तयना स्त्री) झूलने लगी । बहुत० | २४ उनकी 
कोठी हीरो, रत्नो और सोने की थी । उस धन-वेभव (की तुलना) में 
कुबेर हार गये। उस पर कोटि-कोटि ध्वज (फहर रहे) थे। लाख ठढके 
के, अर्थात बहुत मूल्यवान दीपक थे और छप्पन करोड़ से अधिक धन पास 
रखनेवाले धनवान के यहाँ जैसी भेरी बजती है, वेसी भेरी बजने लगी। 
बहुत० । २५ 
(वहाँ) अक्षय भण्डारवाले की-सी भेरी बजने लगी । (इस प्रकार) 

श्रीगोपाल कृष्ण (सुदामा पर) प्रसन्न ही गये। इस प्रकार बाते करते- 
करते रात बीत गयी और प्रातःकाल हो गया । २६ 

१ अष्ट महासिद्धियाँ-- अणिमा (शरीर को अणु जैसा सूक्म करना), महिमा 
(शरीर को प्रचण्ड आकार वाला बनाना), लघिमा (उसे बहुत हलका बनाना), प्राप्ति 
(समस्त प्राणियों की इन्द्रियो से उन-उन इन्द्रियों के अधिष्ठाता देवताओं के रूप मे 
सम्बन्ध स्थापित करने को क्षमता), प्राकाशय (इहलोक भोर परलोक मे भोग करने 
ओर सबको देखने की सामथ्यं), ईशिता (माया की ईश मे स्थित प्रेरणा), वशिता 
(अपने आपको वश मे रखते हुए अन्य किसी की ओर जासवत न होना), प्राकाश्य 
(इच्छित सुख इच्छित माढ़ा मे प्राप्त होना) । 


२ नव निध्िियाँ- देखिए टिप्पणी १, कडवक ३, पृ० ४५२ । 








कि लभ ल 


प्रेमाननद-रसामृत (सुदामा चरित्न) छ्प५्‌ 


कडवुं १२ मूं-- ( श्रीकृष्ण से बिदा होकर सुदामा का अपने ग्राम की ओर लोटना ) 
राग मेवाडो 


शुकजी कहे साभछ राजन, एक मृठडीए आप्या ए दान, 
वी विचारे कमकापति, सुदामा सरखं आप्यूं नथी। १ । 
एके को कण जे तादुलतणो, इद्रासनपे मोंघो घणो, 
दुर्बठ॑ दासनी भावनी भेठ, परम विधिए भरायु पेट । २ । 
हु ए सरखो थई वन वसु, वेकुठ एने आप, 
सोक सहस्न साथे रुकिमणी, सेवा करे सुदामा तणी। ३ । 
द्वारका आपवानी मनसा करी, बीजी मूठडी नाथे भरी, 
रुकिमणीए जई झाल्यो हाथ, “ अमे अपराध शो कीधो नाथ ? (। ४। 
सामूं जोई हस्यां दपति, सोछ सहस्र को प्रीछती नथी, 
सकल नारीने, करुणा करी, तांदुल वहेंची आप्या हरि। ५ । 
तेमां स्वाद मृक्‍यो सुधासार, स्ल्ली आगछ राख्यो मित्रतों भार, 
हास्य विनोदे वही गई शवंरी, प्राते सुदामे जाच्या हरि। ६ । 


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कडुवक--१२ ( श्रीकृष्ण से बिदा होकर सुदामा का अपने भ्राम की ओर लौदना ) 


शुकजी बोले, “ हे राजा (परीक्षित), सुनिए। (सुदामा ने) एक 
मुद्दी भरकर (ये चावल) दान दिये। फिर कमलापति भगवान विष्णु- 
स्वरूप श्रीकृष्ण ने सोचा-- सुदामा (के दान) जैसा किसी ने नहीं 
दिया । १ (उनके द्वारा दिये हुए) चावल का एक-एक कण इन्द्रासन 
(इन्द्रपद) से अधिक मुल्यवान है। यह तो दुबंल-दरिद्र भक्त की भक्ति- 
भाव-पू्वंक दी हुई भेट है। उससे परम (उच्च, उत्तम) प्रकार से 
(मेरा) पेट भर गया । २ मैं (अब) इसके समान होकर वन में निवास 
करता हूँ और इसे वेकुण्ठ प्रदान करता हूँ। सोलह सहस्र नारियों सहित 
रुक्मिणी (वहाँ) सुदामा की सेवा करेगी। ३ द्वारका प्रदान करने की 
इच्छा करते हुए पति श्रीकृष्ण ने (जब) दूसरी मुटुठी भर ली, तो रुक्मिणी 
ने जाकर उनका हाथ पकड़ा (और कहा )-- ' है नाथ, हमने कया अपराध 
किया है? '।४ सामने (एक-दूसरे की ओर) देखकर वे पति-पत्नी 
हंसने लगे। (फिर भी) सोलह सहस्र अन्य नारियों में से किसी ने वह 
नही देखा (इसके रहस्य को नही समझा) । तब श्रीहरि ने बीनकर 
करुणा करते हुए उन समस्त नारियों को चावल प्रदान किये । ५ उन्होने 
उनमें अमृत जैसा बढ़िया स्वाद डाल दिया और अपनी स्त्रियो के सामने 
अपने मित्र के सम्मान की रक्षा की। (तदनन्तर) हास्य-विनोद में रात 


४८६ गुजराती (नागरी लिपि) 


€ हवे विदाय आपो जगजीवन *, हरि कहे, ' पधारीए स्वामिन *, 

वबढ्ी कृपा करजों को समे, ठाले हाथे श्रीहरि नमे । ७ । 
हरि पोछ लगी वछाववा जाय, कोडी एक न म्ुकी करमांहाय, 
सत्यभामा कहे, “ जांबुबती, कृपण थया घणूं जादबपति। ८ । 
ब्राह्मण मित्न जे पोता तणो, दीसे दारिद्रे पीड़्यो घणो, 

तेने वाछ॒यों निर्मुख फरी ', रकिमणी कहे, 'शूं समजो, सुंदरी ! ॥ ९। 
बेलडीए वल्ग्या विश्वाधार, सुदामों जातां करे विचार, 

“ बेभव भागह् वल्ियो छेक, पण मने न आपी कोडी एक | १० । 
हशे स्त्रीनी चोरी मत धरी, कांई गुप्त आपके वाटे हरि *, 

पगे लागी नारीं सो गई, तोये पण कांई आप्यूं नहि। ११। 
कोस एक वढछ्ाववा गया, पछी सुदामोजी ऊभा रघ्मा, 

“ भूधरजी हवे पाछा वक्तो , तव भेटी वढ्िया श्यामकों । १२ । 


बीत गयी। (फिर) सबेरे सुदामा ने श्रीहरि से याचना की (विनती 
की) ।६ “है जगज्जीवन, अब मुझ्ने विदा कर दो * तो श्रीहरि बोले, 
“है स्वामी, जाइए ”। फिर किसी समय (यहाँ आने की) कृपा 
करना “। (अनन्तर) रिक्‍त हाथों से श्रीहरि ने उन्हे नमस्कार किया 
(कुछ नही देते हुए नमस्कार किया) | ७ श्रीहरि उन्हें बिदा करने के 
लिए (मुख्य) द्वार तक गये। उन्होंने उनके (सुदामा के) हाथ में एक 
कोड़ी तक नहीं रखो। (यह देखकर) सत्यभामा बोली, “भरी 
जाम्बवती, यादवपत्ति बहुत कृपण हो गये हैं। ८ जो उनके अपने ब्राह्मण 
मिन्न है, जो दरिद्रता से बहुत पीड़ित दिखायी दे रहे हैं, उन्हें फिर (बिना 
कुछ दिये) विमुख लौटा दिया '। (यह सुनकर) रुक्‍क्मिणी बोली, “ अरी 
सुन्दरी, तुम कया समझती हो ? '।९ विश्व के आधार-स्वरूप श्रीकृष्ण 
उन (सुदामा) के कन्धे से चिपके रहे (उनके कर्धे पर हाथ रखकर 
बिलकुल सटकर चल रहे थे)। चलते (-चलते) सुदामा यह विचार 
कर रहे थे-- * (यहां) वेंभव तो अन्तिम सीमा तक पहुँचा है (वैभव में तो 
ये उसकी सीमा तक पहुँचकर लोटे हैं, ये असीम रूप से वेभब-सम्पन्न 
है)। परन्तु इन्होंने मुझे एक कौड़ी तक नहीं दी । १० (सम्भव है,) 
उन्होंने मन में अपनी स्त्रियों से चुराने (छिपाने) की बात धारण की हो, 
श्रीहरि मार्ग में मुझे गुप्त रूप से कुछ देंगे '। (परस्तु) पाँव लगकर वे 
सब नारियाँ (लोट) गयीं, फिर भी उन्होने (श्रीकृष्ण ने) कुछ भी नहीं 
दिया । ११५ श्रीकृष्ण बिदा करने के लिए एक कोस तक गये; फिर 
सुदामाजी खड़े रहे (और बोले)-- ' हे भूधरजी, अब पीछे लोट जाइए | 
तब श्याम श्रीकृष्ण उनसे मिलकर (उन्हें गले लगाकर फिर) लौट 


प्रेमाननद-रसामृत (सुदामा चरित्न) ध्घछ 


“' बालमित्र फरी मकछ॒शो ' कही, पण करमां कांई सृक्‍यूं नहीं, 
ऋषिए तव मृकक्‍यो निःश्वास, चाल्यो ब्राह्मण थई निराश । १३। 
ऋषि पाम्यो अति पश्चाताप, जाय निंदतों पोतानूं आप, 
हुं मागवा आव्यो मित्रनी कने, ते समे मृत्यु शे न आव्यूं मने ? । १४ । 
सत्री-जीत नर ते शवने समान, रंडा उपजावे अपमान, 
एकांतरा जो पामीए अन्न, अथवा कंदमूल करीए प्राशन। १५ | 
जो भूखे मरे बाछु॒क नांघडां, ती खबडावीए सूकां पादडां, 
वा पवन भक्षी भरीए पेट, के कीजिए नीच पुरुषनी बेठ। १६। 
वा काष्ठ तृणनो विक्रय करीए, अथवा परघेर पाणी भरीए, 
वा ह्ठाहछ विष पी पोढीए, पण मित्र आगढ हाथ न ओढीए । १७। 
अजाचकत्नत में मृक्‍्यूं आज, खोई लाख टकानी लाज, 
दामोदरशं कीधी मया, मूत्गा मारा तांदुल गया [| । १८। 





गये । १९ कहा-- “हे बचपन के मित्र, फिर मिलोगे न ? (फिर 
मिलना ।) | फिर भी उन्होंने (सुदामा के) हाथ पर कुछ भी नही रखा। 
तब ऋषि सुदामा ने ठण्डी साँस ली। वे ब्राह्मण (अन्त में इस प्रकार) 
निराश होकर चले । १३ वे ऋषि अति पश्चात्ताप को प्राप्त हुए। वे 
अपने आपकी निन्‍दा करते हुए जाने लगे। “ मैं मित्र के पास याचना 
करने (जिस समय) आ गया, उस समय मुझे मौत क्‍यों नहीं भायी ? १४ 
स्त्री द्वारा जीता हुआ नर शव के समान होता है। रण्डा (की बात 
मानने की टेव तो पुरुष के लिए) अपमान (की स्थिति) का निर्माण करती 
है। (अतः) यदि एक दिन के बाद एक दिन (प्रति दूसरे दिन) अन्न को 
प्राप्त हो जाएँ, अथवा कन्द-मूल को खा लें। १५ यदि छोटे बच्चे भूख 
से मरते हों, तो उनको सूखे पत्ते खिलवा दें, अथवा पवन को खाकर पेट 
भर लें, अथवा नीच पुरुष की सेवा करे । १६ अथवा लकड़ी और घास 
बेचें, अथवा दूसरे के घर पानी भर दे। अथवा हलाहल विष को पीकर 
पोढ़ जाएँ; परन्तु मित्र के सामने हाथ न बढाएँ। १७ मैंने आज मपने 
अयातक बृत्ति के ब्रत को छोड़ दिया और लाख टके की अपनी लाज खो 
दी। दामोदर' (श्रीकृष्ण) से ममत्व किया और मूलधन-स्वरूप नावल 

भी (हाथ से) गया । १८ इस कृपण के पास बहुत धन है; इसलिए तो 
१ दामोदर--- दाम (पगहा, रस्सी) वेंधा है जिसके उदर मे वहु। श्रीकृष्ण को 


यशोदा ने पगहे से ऊखल से बाँधा था। उसपर से श्रीकृष्ण को यह अभिधान प्राप्त 
हुआ। 


श्प्८ गुजराती (नागरी लिपि) 


ए कृपणने धन होये धणूं, ते माठे गाम एनू सोनातपणुं, 
बांधी मुष्टितो शो मित्राचार ! मोटो निर्दंय नंदकुमार । १९ । 
एने आपतां शूं ओछ थात ? हु ब्राह्ममनी भावठ जात, | 
मने सामा आवी भेदया हरि, व्ठी पाग पखाछीने पूजा करी । २० । 
आसन भोजन पूजन भलुं, हुं रांकन कोण करे एटलुं, 
ए कपट धूत्तेनी सेवा, लटपट कीधी मारा तांदुल लेवा। २१ । 
-वढ्गी ऋषिने आव्युं ज्ञान, हुं अल्पजीव ए श्री भगवान | 
जेनं ले तेनो नहि राखे भार, हरिने निदुं मुजने धिक्कार, 
गोपीनां मही जो लीधां हरी, तो कमढ्ानुं सुख आप्युं हरि। २२। 
जो ऋषिपत्नीना लीधां अन्न, सायुज्य मुक्ति पाम्यां स्त्नीजन, 
जो चंदन कुब्जानूं लीधूं, तो स्वरूप कमबव्ठानूं कीधुं । २३ । 
जो भाजीपत्नो कीधो आहार, तो विदुर तार्यो भवसंसार, 
श्रीहरि सौनो करे प्रतिकार, पण मार कर्म कठोर अपार | २४। 


इसका ग्राम सोने का है। बाँधी हुई (बन्द) मुट्ठी (वाले) से कैसी 
मित्रता (जो देने के लिए हाथ की मुट्ठी तक नही खोलता, उससे कैसी 
मित्रता) ? ये नन्दकुमार श्रीकृष्ण बड़े है। १९ क्‍या इनके द्वारा देने पर 
उनके लिए कुछ कम हो जाता ? (परन्तु मुझे देने पर मुझ जंसे ) ब्राह्मण का 
सांसारिक जजाल चला जाता। (अगुवानी के लिए) सामने आकर 
श्रीहरि मुझसे मिले । इसके अतिरिक्त उन्होने (मेरे)पाँव धोकर मेरी पूजा 
की । २० आसन, भोजन, पूजन-- (यही) भला है। मुझ दरिद्र 
असहाय के लिए इतना कौन करता है। यह तो कपट करनेवाले धूर्ते 
द्वारा की हुई सेवा हैं। मेरे चावल लेने के लिए उन्होने ऐसी चालाकी 
की (।२१ फिर सुदामा ऋषि को यह ज्ञान हो आया, ' मै अल्प (छोटा ) 
जीव हूँ और वे श्रीभगवान है। जिसका वे लेते है, उसका भार 
(उधार) वे नही रखते। मैं श्रीहरि की निन्‍्दा कर रहा हँ-- मुझे 
घिक्‍कार है। यदि गोपियो के दही का अपहरण किया था, तो श्रीहरि ने 
उन्हें कमला आर्थात लक्ष्मी का-सा सुख प्रदान किया था । २२ यदि 
उन्होंने ऋषि-पत्नियों का दिया हुआ अन्न स्वीकार किया था, तो वे नारियाँ 
(उसके फल-स्वरूप) सायुज्य-मुक्ति को प्राप्त हो गयी। यदि उन्होंने 
कुब्जा से चन्दन लिया, तो उन्होने उसके स्वरूप को लक्ष्मी का (-सा) कर 
दिया । २३ यदि उन्होने शाक-सब्जी के पत्तों का आहार (प्राप्त) किया 
था, तो (उसके फलस्वरूप) उन्होने विदुर को भव-ससार से तार दिया 
(उनका उद्धार किया) । श्रीहरि सबका (इस प्रकार) प्रत्युयकार करते 
है। परन्तु मेरा कर्म तो अपार कठोर है '। २४ इस प्रकार सुदामा ने 


प्रेमानन्द-रसामृत (सुदामा चरित्न) ४८८ 


विवेकज्ञान सुदामे ग्रहयूं, धत नव आप्युं ते वारु थयुं, 
धने करी मद मुजने थात, त्यारे भक्ति हरिनी भूली जात । २५ । 
कृष्णे मुजने करुणा करी, जे दारिद्र दुःख नव लीधुं हरी, 
सुख पाम्ये व्यापे क्रोध ने काम, दुःख पाम्ये सांभरीए राम । २६। 


वलण ( तज़ बदलकर ) 


राम सांभरे वेराग्यथी, ऋषि ज्ञान-घोडे चड़यो, 
विचारतां निज गाम आव्युं, घर देखी भूलो पड्यो | २७। 


विवेक-युकत ज्ञान ग्रहण किया । उन्हें लगा--(श्रीहरि ने) मुझे धन वही दिया, 
वह अच्छा ही किया । धन से मुझे मद (घमण्ड) हो जाता । तब श्रीहरि 
की भक्ति मुझसे भुला दी जाती । २५ श्रीक्ृष्ण ने मुझ पर करुणः ही की, 
जो उन्होने मेरी दरिद्रता ओर दुख का हरण नही कर लिया । सुख को 
प्राप्त हो जाने पर क्रोध और काम व्याप्त कर लेते है; दु.ख को प्राप्त होने 
पर राम का स्मरण करते है । २६ 

वेराग्य के कारण राम का स्मरण होता है। (इस प्रकार) सुदामा 
ऋषि ज्ञान रूपी घोड़े पर चढ़ बैठे। बिचार करते-करते (जाते रहने 
पर) उनका ग्राम आ गया। तो अपने घर को देखकर वे भ्रम से पड़ 
गये । २७ 


फडवुं १३ मुं--( सुदासा का अपने ग्रास और गृह में पुनरागसन ) 
राग रामग्री 
ऋषिजी भाखे हरिगुणग्राम जी, गोठवण करता आव्युं गाम जी, 
दीठां मदिर कंचन-धाम जी, ऋषि विचारे शू भूल्यो ठाम जी ? । १। 


ढाढ 


ठाम भूल्यों पण ग्राम निश्चे, आ धाम को धनवंतनां, 
ए भवनमां वसता हमे, जेणे सेव्या चरण भगवतनां। २ । 


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। फड़वक-- १३ ( सुदासा का अपने ग्राम और गृह सें छुनरागसन ) 

८०» «सुदामा ऋषि ने कहा (सोचा)--' मेरे द्वारा श्रीहरि के (अनन्त) गुणो 
के समुदाय के विषय मे विचार करते-ऋरते, ग्राम आ गया '। उन्होंने 
(उसमें ) सुवर्ण-भवन देखे । तो ऋषि सुदामा विचार करने लगे कि क्‍या 
में स्थान भूल गया हुँ ? ।१ स्थान तो भूल गया हूँ । परच्तु यह निश्चय 


इ्है० गुजराती (नागरी लिपि) 


एवं विचारीने विप्र वक्कियो, नगरी अवलोकन करी, 
एंधाणी सहु जोतो जोतो, आव्यो मंदिर फरी। ३ । 
सुदामोजी सांसि पड़या, विचार कीधो वेगकछे रही, 
आ भवन भारे कोणे कीधां ? परण्णंकुटी मारी क्‍्यां गई ? । ४ । 
ए विश्वकर्माए रची रचना, मनुष्य पामर शूं करे ! 
पृण कुटुम्ब मार्रु क्‍्यां गयूं ? ऋषि वाम दक्षिण फेरा फेरे। ५ । 
कोकिल बोले, हस्ती डोले, हयशाढ्ठामां हय॑ हणहणे, 
दासी कनक-कलशे नीर लावे, ऊभा अनंत सेवक आंगणे | ६ । 
दुंदुंभि वाजे ने ढोल गाजे, मांडवे नाटारंभ थाय छे, 
मृदंग ढमके, घृघरी धमके, गीत ग्रुणीजन गाय छे। ७ । 
जोई सुदामो निश्वास मृके, को छत्नपतिनां घर थयां, 
आश्रम गयानुं दुःख नथी, पण बाह्ठक मारां क्‍यां गयां ? । ८५ । 
होमशाक्वा रुद्राक्षमाठा,  पवित्न कुशनी सादडी, 
विभूति मारी क्‍यां गई? विपत सामटी ए पडी। ९ । 


ही मेरा ग्राम है। पर ये किन्‍्ही धनवान मनुष्यों के घर है। इन भवनों में वे 
(मनुष्य) निवास कर रहे होगे, जिन्होंने भगवान के चरणों की सेवा की 
हो।२ ऐसा विचार करके वे विप्र सुदामा उस नगरी का अवलोकन 
करते हुए लौट पड़े। समस्त (परिचय--) चिहनों को देखते-देखते वे 
फिर उन भवनों के पास आ गये । ३ सुदामाजी संशय में पड़ गये। उन्होने 
दूर खड़े रहकर विचार किया। +>-ये सम्पन्न भवन (यहाँ) किसने निर्मित 
किये ? मेरी पर्णकुटी कहाँ गयी ? । ४ यह तो विश्वकर्मा (विधाता) 
द्वारा की हुई रचना (निर्माण, सुष्टि) है। पामर मनुष्य क्या कर सकता 
है ? पर मेरा परिवार कहाँ गया ? (ऐसा सोचते-सोचते) वे वायें-दायें 
चक्कर लगाने लगे। ५ (उन्होंने देखा कि वहाँ पर) कोकिल बोल रहे हैं; 
हाथी झूम रहे है; अश्वशाला के अन्दर घोड़े हिनहिना रहे है। दासियाँ स्वर्ण 
कलशो में पानी ला रही है। बाँगन में अनन्त सेवक खड़े है। ६ दुन्दुभी 
वज रही है भर ढोल गडगड़ा रहे है। मण्डप मे नृत्य और गान हो रहा है। 
मृदंग धमक रहा है; घूँघह खनक रहे हैं। गायक ग्रुणीजत (कलाकार) 
गीत गा रहे हैं। ७ यह देखकर सुदामा ने साँस ली। (उन्हें लगा--) 
किसी छत्नपति (राजा) के (यहाँ पर) घर हो गये है। (मुझे अपने) आश्रम 
के (नष्ट हो) जाने का दुःख नही है। परन्तु मेरे बच्चे कहाँ गये ? | ८ 
होम-शाला, रुद्राक्ष-माला, कुश की पवित्र साथरी, मेरी विभूति (भस्म), कहाँ 
गये ? (मुझपर ) ये (इतनी ) विपत्तियाँ एक साथ (क्यों) आ पड़ी । ९ देव की 


प्रेमाननद-रसामृत (सुदामा चरित्न) ४द्व१ 


देवनी गत गहन दीसे, पड़यो प्राण कर्माधीन, 
. कुदुंब-विजोगती विटंबणा, हु देवे दड़यों दीन । १०। 
तुटी सरखी झूपडी, ने लूंटी सरखी सुंदरी, 
छल्कयां सरखां छोकरां, ते न मह्यां मुजने फरी।११। 
संकल्प विकल्प कोटी करतों, आवागमन हींडोछे चढ़यो, 
बारीए बेठां पंथ जोतां, निज कंथ स्व्री-दष्टे पड़यों। १२। 
साहेली एक सहस्न साथे, सती जाय पतिने तेडवा, 
जल-आझ ारी ग्रही नारी जाये, जेम हस्तीनी कलश ढोछवा । १३ । 
हंसगामिनी हर्ष-प्रण, अभिलाष पूर्या मन त्तणा, 
झमके झांझर, ठमके घूषर, वाजे अणबंद बीछंवा | १४। 
सुदामे जाणी आवी राणी, इंद्राणी वा रुकिमणी, 
सावित्री के सरस्वती के, शक्ति दीसे शिव तणी ! । १५। 
सर्वे. साहेली वीढठी वल्ठी, पद्मिनी लागी पाय, 
पूजा करी पालव ग्रह्मयो, तव ऋषिजी नाठा जाय । १६। 





गति गहन दिखायी दे रही है। प्राण तो कर्म के अधीन हो गये है। 
कुटुम्ब के वियोग की यह (कैसी) विडम्बना ? देव ने मुझ दीन को 
दष्डित किया है । १० (मेरी वह) लग्रभग ढूढठी हुई झोपड़ी और लूटी हुई 
(-सी दीन-हीत मेरी ) वह सुन्दरी स्त्री, भयभीत-सदृश (मेरे) वच्चे-- वे 
मुझे फिर से नही मिल रहे है। ११ वे कोदि (-कोटि) स्ंकल्प-विकल्प 
करते रहे (क्या करे, क्‍या नही करे, इस सोच-विचार में पड़े रहे); 
घर के पास आने और फिर उससे दूर जाने के झूले पर चढ़ गये । 
(इतने मे) खिड़की में बेठकर राह देखती हुई स्त्री को अपने पति दिखायी 
दिये । १९ तो एक सहन सहेलियो के साथ वह सती (सुवत्ली) अपने पति 
को बुलाने के लिए चली । पानी की झारी लेकर वह स्त्री चली, मानो कोई 
हथिती (जल-भरे) कलश को उड़ेलने चली जा रही हो । १३ वह हस- 
गामिनी स्व्री हर्ष से परिपूर्ण थी। उसके सन्त की अभिलाषाएँ पूर्ण हो 
गयी थो। झाँझ्षर क्षमक रही थी। घूँघरू खनक रहे थे। भनवद 
और बिछुए बज रहे थे । १४ सुदामा ने समझा कि कोई रानी, इन्द्राणी 
वा रुक्मिणी आ रही है-- सावित्ी, सरस्वती अथवा यह शिवजी की शक्ति 
दिखायी दे रही है। १५ समस्त सहेलियों ने उन्हे घेर लिया, तो बह 
पद्मिती (जाति की स्त्री सुदामा के) पॉव लगी। उसने पूजा करके 
उनके वस्त्र का छोर (उन्हें अन्दर ले जाने के हेतु) पकड़ा, तो ऋषि 
सुदामाजी भाग जाने लगे । १६ उन्हें सुध-बुध वहीं सुझावी दे रही थी। 


४4२' गुजराती (नागरी लिपि) 


सूध न सूझे, वपु श्रूजे, छूटी जठा उधाडुं शीश, 
हस्त ग्रहवा जाये स्‍त्री, तव ऋषि पाडे चीस। १७। 
हुं तो सहेजे जोउं घर नवां, नथी मुजमां कपट विचार, 
हुं वृद्ध ने तमो जुबान नारी, छे कठण लोकाचार ! । १८। 
भोगासक्त हुं नथी आव्यो, मने परमेश्वरनी आण, 
जवा दो मने शोभा साथे, हजो तमने कल्याण | १९१ 
आ नगरमां को नरपति नथी, दोसे स्त्रीनूं राज, 
पापणीओ, ईश्वर पूछशे, मने कां आणो छो वाज | २०। 
ऋषिपत्नी कहे “स्वामी मारा, रखे देता मभने शाप, 
दुःख दारिद्र गयां ने घर गयां, श्रीकृष्ण चरण प्रताप '।२१। 
एवं कही कर ग्रही लई चाली, सांभक्ों परीक्षित भूप 
सुदामों पेठा पोछ मांहे, थयुं हरिवा सरखूं रूप। २२। 


वलण ( तजे बदलकर ) 


रूप बीजा कृष्ण जाणे, गई जरा जोबन आवियुं, 
बेलडीए वह्ठग्या दंपति, रति-काम जोड़ लजावियूं । २३ । 


उनका शरीर काँपने लगा। उनकी जठाएँ खूल गयी और सिर खुल 
गया। (भनन्‍तर) जब वह स्त्नी उतका हाथ पकड़ने के लिए (बढ़) गयी, 
तो ऋषि सुदामा चीख पडे। १७ (वे बोले--) ' मैं तो यों ही नये-नये 
घरों को देख रहा था। मेरे मन में कोई कपट (भरा) विचार नही था । 
में वृद्ध हें और तुम युवा नारी हो। लोक-व्यवहार कठोर होता है । १८ 
मुझे परमेश्वर की सोगन्ध है-- मैं भोगासक्त होकर (यहाँ) नहीं भाया 
हैं। मुझे शोभा (प्रतिष्ठा) के साथ जाने दी। तुम्हारा कल्याण हो 
जाए। १९ इस नगर मे कोई नृपति (पुरुष राजा) नही है (क्या) ? 
(यहाँ) रित्नयो का राज्य दिखायी दे रहा है। है पापिनियों, ईश्वर 
पूछेगा-- तुम मुझे क्‍यों पीड़ा पहुँचा रही हो '। २० (यह सुनकर ) ऋषि-पत्नी 
बोली-- ' मेरे स्वामी, कदाचित, आप मुझे अभिशाप दे रहे है। दुःख- 
दरिद्रता गयी और यहाँ (नये) घर बन गये । यह तो श्रीकृष्ण के चरणों 
का प्रताप है '।२१ ऐसा कहते हुए वह (सुदामा का) हाथ थामकर 
उन्हे लेकर चली। शुकजी ने कहा-- हे राजा परीक्षित, सुनिये। 
(तदनन्तर) सुदामा मुख्य द्वार के अन्दर प्रविष्ट हो गये, तो उनका रूप 
श्रीहरि का (-सा) हो गया । २२ 

रूप में वे 'मानों दूसरे कृष्ण हो गये। उनकी जरा (बुढ़ापा) 


प्रेमान्नद-रसामृत (सुदामा चरित्त) ४८२ 


सष्ट हुईं; और उन्तमें (नव) यौवन उत्पन्न हो आया। वे पति-पत्नी 
एक-दूसरे के साथ हो गये । उस जोड़ी ने रति और कामदेव को लज्जित 


कर दिया। २३ 


ब्न्-न्-न्ज्जीजीिशीिि४िि डी जी जल जज जज जज जज चीज च॑चजऔ जज जज ४5 


री 








कडवुं १४ सु-( आख्यान का उपसंहार ) 
राग धवाश्री 


निज मंदिर सुदामों गया, तत्क्षण रूपे हरि सरखा थया, 
दंपती राज-शोभाने भर्या, श्रीहरिए दुःख दोह॥्यलां हर्या । १ । 


ढा८& 
दोहलां हर्या ने सोहयलां कर्या, भाव माठे शभृधरे, 
एक मूठी तांदूले जे विभूति, ते लक्ष यज्ञे नव जडे। २ । 
वसन, वाहन, भवन, भोजन, भूषण, भव्य भंडार, 
चमर आसन, छत विराजे, इन्द्रनो अधिकार। ३ । 
मेडी अठाढी, छजां, जाछी, झतके मीवाकारी काम, 
स्फटिक-मणिए स्थंभ जडिया, कलास सरखुूं धाम । ४ । 
विश्वकर्मा भम्े भूल्यों, जोई भवननो भाव, 
माणेक मुक्ता रत्न हीरा, श्ववेर-जोत जडाव। ५। 


आज जा सी शा बल ली कम आज आओ आफ मय आज आज भी कम 








कड़ चक-- १४ (आख्यान का उपसहार ) 


सुदामा अपने घर गये, तो वे तत्क्षण रूप में भगवान श्रीहरि के समान 

हो गये । वे दम्पती अर्थात पति-पत्ती राजशोभा (राजा-रानी की-सी रूप 
सम्पन्नता) से भरे-पूरे हो गये । श्रीहरि ने उनके द:सह दुःखो का हरण 
किया । १ भू को धारण करनेवाले भगवान श्रीकृष्ण ने भक्ति-भाव के 
हेतु उनके दुःसह दुःखों को दूर कर दिया और जो सुख-सुविधाएँ उत्पन्न कर 
दी, वे लाख यज्ञ करने पर भी नही मिल सकती थी । २ इन्द्र का जैसा 
अधिकार है, अर्थात इन्द्र के लिए जो-जो योग्य है, वेसे वस्त्र, वाहन, भवन, 
भोजन (भोज्य-पदार्थ ), आभूषण, 'भव्य भण्डार (धन-कोश ), चमर, आसन 
और छत्त (सुदामा के यहाँ) विराजमान हो गये थे । ३ भवन के खण्डों 
. (मज़िलों ), अटारियो, छज्जो, जालियों मे मीनाकारी का काम झलक 
रहा थी उसके स्तम्भ स्फटिकों तथा रत्नों प्रे जटित थे। वह मानो 
केलास संदेश भवन था । ४ उस भवन की रचना को देखकर विश्वकर्मा 


४४ गुजराती (नागरी लिपि) 


गोछी गोछा घडा गागर, छे कनकनां सी पात्र, 
सुदामाना वेभव आग, कुबेर ते कोण मात्र ! | ६ । 
जाचकनां बहु जूथ आवबे, निर्मुख को नव जाय, 
जेने सुदामोजी दान आपे, लखपति ते थाय। ७ । 
ऋषि सुदामाना पुर विषे, न मछे दरिद्री कोय, 
कोटी धजा घेर घेर बांधी, अकाल मृत्यु नव होय। ८५ । 
जदपि वेभव  इंद्रनी, पण ऋषि रहे उदास, 
विषय राखे भोगनो, पण सदा पाछे संन्यास। ९ । 
वेदाध्ययत अग्निहोत्न होमे, राखे अंतर हरिनुं ध्यान, 
माता न मूके भक्ति न चूके, महा वेष्णव ऋषि भगवान | १० । 
जे सुदामाचरित्र सांभल्के, तेना दारिद्र दोहालां जाय, 
जन्मदुःख वामे, मुक्ति पामे, मछे माधवराय। ११। 





(विधाता) भ्रम में (मोहित होकर) भूल गये। मानिक, मोती, रत्न, 
हीरे, आदि जबाहरात की ज्योति (कान्ति) उसमें (मानो) जटित थी। ५ 
मटकियाँ, मटके, घड़े, गगरियाँ-- सव पात्र सोने के थे । (वैभव में) 
सुदामा के वैभव के सामने वह कुबेर तो कौन रहा ? (कुबेर कुछ नही 
था)। ६ (सुदामा के यहाँ) याचकों के वहुत समुदाय आ जाते, फिर 
भी उनमें से कोई विमुख होकर (दान न प्राप्त होकर) नहीं जाता था। 
सुदामाजी जिसे दान देते, वह लखपती हो जाता था। ७ सुदामा ऋषि के 
नगर में कोई भी दरिद्र नहीं मिलता था। घर-घर पर कोटि-कोटि 
ध्वजाएँ वाँधी हुई थी (फहरायी गयी थी) । किसी की अकाल मृत्यु वही 
होती थी। ५ यद्यपि इन्द्र का (-सा) वंभव प्राप्त हुआ था, फिर भी 
सुदामा ऋषि (उसके उपभोग के विषय मे) उदासीन (विरक्‍्त) रहते थे । 
वे (अपने यहाँ) भोग (-विलास) के विपय (साधन-सामग्री) तो रखते थे; 
परन्तु वे सदा सन्यास-वृत्ति का पालन (निर्वाह) करते थे । ९ वे वेदों 
का अध्ययन करते रहते थे; अग्निहोत्र-हवन करते थे, अन्त करण मे श्रीहरि 
का घ्यात रखते (करते) थे। वे (जाप की) माला (सुमिरनी) नहीं 
छोड़ते थे (उसे लेकर नित्य नाम-स्मरण करते थे)। भक्ित में चूकते 
नहीं थे। वे भाग्यवान महान वैष्णव ऋषि (सिद्ध) हो गये । १० 

जो सुदामा का यह चरित्न पढ़ता है, उसकी दरिद्रता तथा दुःसह दुःख 
नष्ट हो जाते है। उसके जन्म (-मृत्यु) का दुःख नष्ट हो जाता है। वह 
मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। उसे माधवराज, अर्थात भगवान श्रीकृष्ण 
मिलते हैं (उसपर भगवान श्रीकृष्ण क्री कृपा हो जाती है) । १६ 


प्रेमान्नद-रसामृत (सुदामा चरित्न) ४३६५ 


उपसंहार 


छे वीरक्षेत्र वडोदरु,  ग्रुजरात मध्ये.. गाम, 
चतुविशी न्‍यात ॒न्राह्मण, कवि प्रेमानंद नाम। १२। 
संवत सत्तर आडलत्नीस वरसे, श्रावण सुदि निदान, 
तिथि तृतीयाए भृगुवारे, पदबंधन कीधूं आख्यान । १३ । 
उदर निित्त परदेश कीधो, सेव्यूं. नंदरबार, 
नंदीपुरामां कथा कीध), यथा बुद्धि अनुसार। १४। 


वलण ( तर्ज बदलकर ) 


बुद्धिमाने कथा कीधी, करनारे लीला कर, 
भट्ट प्रेमानंद नामे शीश, श्रोताजन बोलो जे हरि। १५। 


जज कम आम दस के ये 2३300 5 पल 072+ “व ं की चलिओी 





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उपसंहार 


गुजरात में वीरक्षेत्र वडोदरा नामक ग्राम है। प्रेमानन्द नामक (इस 
 सुदामा-चरित्न ' का रचथिता ) कवि जाति से चौबीसा ब्राह्मण हैं। १२ 
उसने विक्रम संवत्‌ के सत्रह सौ अड़तीसवे वर्ष मे श्रावण मास की शुद्ध 
(शुक्ल) तृतीया शुक्रवार को यह आधख्यान पद्य-बद्ध किया । १३ उदर- 
भरण के निमित्त उसने परदेश में गमन क्रिया, (महाराष्ट्र में स्थित) 
नस्दुरबार नामक ग्राम में निवास किया। उसने अपनी बुद्धि के अनुसार 
नन्‍्दीपुरा में इस कथा की रचना की । १४ 

कर्ता (भगवान श्रीकृष्ण) ने (जो) लीला कौ, उसकी कथा 
की रचना (कवि ने) अपनी बुद्धि के अनुसार की हैं। कवि भट्ट 
प्रेमानन्द सिर नवाकर प्रणाम करता है (और कहता है)- है श्रोताजनी, 
' श्रीहरि की जय ' बोलो । १५ 


॥ प्रेसानन्द-रसासत (सुदासा चरित्र) समाप्त ॥। 


पलंग पर मुँह ढांके कौन सोया था?

उन पर से जो भेड़ें दौड़ी तो न जाने वह सपने मेंकिन महलों की सैर कर रही थीं, दुपट्टे में उलझी हुई 'मारो-मारो' चीखने लगीं।

हरिजन की माँ कैसे मुँह ढाँके सो रही थी?

हज्जन माँ एक पलंग पर दुपट्टे से मुँह ढाँके सो रही थीं । उन पर से जो भेड़ें दौड़ीं तो न जाने वह सपने में किन महलों की सैर कर रही थीं, दुपट्टे में उलझी हुई 'मारो - मारो' चीखने लगीं। इतने में भेड़ें सूप को भूलकर तरकारीवाली की टोकरी पर टूट पड़ीं। वह दालान में बैठी मटर की फलियाँ तोल-तोल कर रसोइए को दे रही थी