नवधा भक्ति के कितने प्रकार हैं - navadha bhakti ke kitane prakaar hain

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भारतीय धर्मग्रंथों में भक्ति के 9 प्रकार बताए गए हैं। भक्ति के इन 9 प्रकारों को ही नवधा भक्ति कहते हैं। यहां जानिए, कौन-से हैं भक्ति के ये 9 प्रकार और क्या है हमारे जीवन में इनका महत्व? साथ ही जानें, कैसे करते हैं ये हमारे जीवन को प्रभावित….

श्लोक रूप में नवधा भक्ति का वर्णन…

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

हिंदी में इस तरह समझें नवधा भक्ति के प्रकार

1. श्रवण (परीक्षित), 2. कीर्तन (शुकदेव), 3. स्मरण (प्रह्लाद), 4. पादसेवन (लक्ष्मी), 5. अर्चन (पृथुराजा), 6. वंदन (अक्रूर), 7. दास्य (हनुमान), 8. सख्य (अर्जुन), 9.आत्मनिवेदन (बलि राजा)

श्रवण: ईश्वर के चरित, उनकी लीला कथा, शक्ति, स्रोत इत्यादि को श्रद्धा सहित प्रतिदिन सुनना और प्रभु में लीन रहना श्रवण भक्ति कहलाता है।

नवधा भक्ति के कितने प्रकार हैं - navadha bhakti ke kitane prakaar hain

कीर्तन: भगवान की महिमा का भजन करना, उत्साह के साथ उनके पराक्रम को काव्य रूप में याद करना और उन्हें वंदन करना ही भक्ति का कीर्तन स्वरूप है।

स्मरण: शुद्ध मन से भगवान का प्रतिदिन स्मरण करना, उनकी कृपा के लिए उन्हें धन्यवाद करते रहना और मन ही मन उनके नाम का जप करते रहना स्मरण भक्ति कहलाता है।

पाद सेवन: स्वयं को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर देना। जीवन की नैया और अच्छे-बुरे कर्मों के साथ उनकी शरण में जाना ही पाद सेवन कहलाता है।

अर्चन: मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर की पूजा करना अर्चन कहलाता है।

वंदन: भगवान की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा करके प्रतिदिन विधि-विधान से पूजन के बाद उन्हें प्रणाम करना वंदन कहलाता है। इसमें भगवान के साथ माता-पिता, आचार्य, ब्राह्मण, गुरुजन का आदर-सत्कार करना और उनकी सेवा करना भी है।

दास्य: ईश्वर को स्वामी मानकर और स्वयं को उनका दास समझकर परम श्रद्धा के साथ प्रतिदिन भगवान की सेवा एक सेवक की तरह करना दास्य भक्ति कहलाता है।

सख्य: ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पित कर देना और सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना ही सख्य भक्ति है।

आत्मनिवेदन: अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पित कर देना और अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता न रखना ही भक्ति की आत्मनिवदेन अवस्था है। यही भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।

अर्थात :- हे अर्जुन! आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी- ये चार प्रकार के भक्त मेरा भजन किया करते हैं। इनमें से सबसे निम्न श्रेणी का भक्त अर्थार्थी है। उससे श्रेष्ठ आर्त, आर्त से श्रेष्ठ जिज्ञासु, और जिज्ञासु से भी श्रेष्ठ ज्ञानी है।

1.आर्त :- आर्त भक्त वह है जो शारीरिक कष्ट आ जाने पर या धन-वैभव नष्ट होने पर, अपना दु:ख दूर करने के लिए भगवान को पुकारता है।

2.जिज्ञासु :- जिज्ञासु भक्त अपने शरीर के पोषण के लिए नहीं वरन् संसार को अनित्य जानकर भगवान का तत्व जानने और उन्हें पाने के लिए भजन करता है।

3.अर्थार्थी :- अर्थार्थी भक्त वह है जो भोग, ऐश्वर्य और सुख प्राप्त करने के लिए भगवान का भजन करता है। उसके लिए भोगपदार्थ व धन मुख्य होता है और भगवान का भजन गौण।

4. ज्ञानी :- आर्त, अर्थार्थी और जिज्ञासु तो सकाम भक्त हैं परंतु ज्ञानी भक्त सदैव निष्काम होता है। ज्ञानी भक्त भगवान को छोड़कर और कुछ नहीं चाहता है। इसलिए भगवान ने ज्ञानी को अपनी आत्मा कहा है। ज्ञानी भक्त के योगक्षेम का वहन भगवान स्वयं करते हैं।

इनमें से कौन-सा भक्त है संसार में सर्वश्रेष्ठ?

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।

प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।।17।।

अर्थात : इनमें से जो परमज्ञानी है और शुद्ध भक्ति में लगा रहता है वह सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि मैं उसे अत्यंत प्रिय हूं और वह मुझे प्रिय है। इन चार वर्गों में से जो भक्त ज्ञानी है और साथ ही भक्ति में लगा रहता है, वह सर्वश्रेष्ठ है।

व्यक्ति अपने जीवन में कई प्रकार की भक्ति करता है। उनमें से, ईश्वर भक्ति के अंतर्गत नवधा भक्ति आती है। ‘नवधा’ का अर्थ है ‘नौ प्रकार से या नौ भेद’। अतः ‘नवधा भक्ति’ यानी ‘नौ प्रकार से भक्ति’। इस भक्ति का विधिवत पालन करने से भक्त भगवान को प्राप्त कर सकता है। जिन भक्तों ने भगवान को प्राप्त नहीं किया है और जिन्होंने प्राप्त किया है, वे दोनों नवधा भक्ति करते हैं। वैष्णव भक्तों ने इस भक्ति का बहुत प्रचार-प्रसार किया है।

नवधा भक्ति दो युगों में दो लोगों द्वारा कही गई है। सतयुग में, प्रह्लाद ने पिता हिरण्यकशिपु से कहा था। फिर त्रेतायुग में, श्री राम ने माँ शबरी से कहा था। ‘नवधा’ का अर्थ है ‘नौ प्रकार से या नौ भेद’। अतः ‘नवधा भक्ति’ यानी ‘नौ प्रकार से भक्ति’। श्री राम की ‘नौ प्रकार से भक्ति’ प्रह्लाद जी द्वारा कही गयी ‘नौ प्रकार से भक्ति’ से थोड़ा-सा भिन्न है। नवधा भक्ति रामायण (श्रीरामचरितमानस) के अरण्यकाण्ड में है। जब माता शबरी कहा कि मैं नीच, अधम, मंदबुद्धि हूँ, तो मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ? तब श्री राम ने उनसे कहा कि मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूँ। फिर श्री राम नवधा भक्ति कुछ इस तरह कहते हैं। तुलसीदास जी लिखते हैं -

नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥
- श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड

अर्थात् :- मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम।

गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥
- श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड

अर्थात् :- तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें।

गुरु के चरण कमलों की सेवा करना यह तीसरी ‘चरण सेवा’ भक्ति है। चौथी भक्ति गुण समूहों का गान यानी कीर्तन भक्ति है।

मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥
- श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड

अर्थात् :- मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना।

सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥
- श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड

अर्थात् :- सातवीं भक्ति है जगत्‌ भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना।

नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥
- श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड

अर्थात् :- नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-

सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥
- श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड

अर्थात् :- हे भामिनि! मुझे वही अत्यंत प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है।

नवधा भक्ति के कितने प्रकार होते हैं?

श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुन) और आत्मनिवेदन (बलि राजा) - इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं

भक्ति के कितने मार्ग?

भक्ति के भी दो मार्ग हैं, उसमें सशक्त मार्ग है- भोला-भाला, सीधा बन जाना। केवट इसी मार्ग का प्रतीक है। भगवान मर्यादा का पालन करते हैं, केवट भोला-भाला बनकर ही श्रीराम की कृपा प्राप्त करता है।

रामजी ने शबरी को भक्ति के कितने प्रकार बताए *?

उन्होंने शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश किया। कहा- मेरी भक्ति नौ प्रकार की है -1. संतों की संगति अर्थात सत्संग, 2. श्रीराम कथा में प्रेम, 3.

नवधा भक्ति किसकी रचना है?

श्रीराम कि नवधा भक्ति प्रहलाद द्वारा कही गयी नवधा भक्ति से थोड़ा भिन्न है। आइये जानते हैं कैसे श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।