प्रश्न 69. मताधिकार किसे कहते हैं ? मताधिकार के सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए। Show उत्तर- नागरिकों का प्रतिनिधि चुनने का अधिकार मताधिकार कहलाता है। यह एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक अधिकार है। मताधिकार के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं— (1) जन जातीय सिद्धान्त-इसके अनुसार राज्य के प्रत्येक व्यक्ति को मताधिकार प्राप्त होना चाहिए क्योंकि यह कोई विशेष अधिकार या सुविधा नहीं है। वरन् यह प्रत्येक नागरिक के जीवन को प्रभावित करने वाला स्वाभाविक एवं सक्रिय हिस्सा है। (2) सामन्ती सिद्धान्त-इस सिद्धान्त के अनुसार केवल उन्हीं लोगों को मताधिकार प्राप्त रहता है, जिनके पास सम्पत्ति हो। यह विचार मध्य युग में विशेष रूप से प्रचलित था, जब मताधिकार को सम्मान का प्रतीक माना जाता था। आधुनिक युग में अनेक राष्ट्रों में मताधिकार के लिए सम्पत्ति की अनिवार्यता इसी विचार पर आधारित है। (3) प्राकृतिक सिद्धान्त-इस सिद्धान्त के अनुसार सरकार मनुष्य निर्मित संयन्त्र है। इसका आधार जनता की सहमति है। अतः शासन को चुनने का अधिकार जनता का प्राकृतिक अधिकार है। 17वीं और 18वीं शताब्दी में यह विचार विशेष लोकप्रिय हुआ। (4) वैधानिक सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार मताधिकार एक प्राकृतिक अधिकार नहीं वरन् राजनीतिक अधिकार है। यह निर्धारण करना राज्य का कार्य है कि किसे मताधिकार मिलना चाहिए। प्रत्येक सरकार अपनी परिस्थितियों और सामाजिक स्थिति के आधार पर इसका निर्धारण करती है। (5) नैतिक सिद्धान्त- इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास के लिए यह आवश्यक है कि उसे मताधिकार के माध्यम से यह निश्चित करने का अधिकार हो कि उसका शासन किसके हाथ हो। मताधिकार व्यक्ति में राजनीतिक संवेदनशीलता को जन्म देता है तथा उसे सरकारी नीतियों तथा कार्यक्रमों के प्रति जागरूक बनाता है। (6) सर्वव्यापी वयस्क मताधिकार का सिद्धान्त- यह सिद्धान्त लोकतान्त्रिक राज्यों में सर्वाधिक प्रचलित सिद्धान्त है। इसके अनुसार राज्य के प्रत्येक वयस्क नागरिक को बिना किसी भेदभाव के मत देने का अधिकार होता है। 17वीं तथा 18वीं शताब्दी में प्राकृतिक अधिकारों और जनसम्प्रभुता के वातावरण में सर्वव्यापक मताधिकार की माँग ने जोर पकड़ा। (7) बहुल मताधिकार का सिद्धान्त- आधुनिक लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में 'एक व्यक्ति एक मत' का सिद्धान्त सर्वस्वीकृत है, परन्तु विगत वर्षों में बहुल मताधिकार की व्यवस्था भी अनेक राज्यों में प्रचलित रही है। मताधिकार के इस सिद्धान्त की मूल अवधारणा में यह आग्रह है कि व्यक्तियों के मतों की संख्या कुछ आधारों पर कम या अधिक होनी चाहिए। (8) भारीकृत मताधिकार का सिद्धान्त-इसमें मतों को गिना नहीं जाता है वरन् उनको भार दिया जाता है। भार का अर्थ वहाँ महत्त्व से है अर्थात् सरकार के चयन में किसी भी प्रकार की विशिष्टता; जैसे-शिक्षा, धन या सम्पत्ति से विभूषित व्यक्ति के मत का भार एक आदमी से अधिक होना चाहिए। राज्य के नागरिकों को देश के संविधान द्वारा प्रदत्त सरकार चलाने के हेतु, अपने प्रतिनिधि निर्वाचित करने के अधिकार को मताधिकार कहते हैं। जनतांत्रिक प्रणाली में इसका बहुत महत्व होता है। लोकतंत्र की नींव मताधिकार पर ही रखी जाती है। इस प्रणाली पर आधारित समाज व शासन की स्थापना के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक वयस्क नागरिक को बिना किसी भेदभाव के मत का अधिकार प्रदान किया जाय। जिस देश में जितने ही अधिक नागरिकों को मताधिकार प्राप्त रहता है उस देश को उतना ही अधिक जनतांत्रिक समझा जाता है। इस प्रकार हमारा देश संसार के जनतांत्रिक देशों में सबसे बड़ा है क्योंकि हमारे यहाँ मताधिकार प्राप्त नागरिकों की संख्या विश्व में सबसे बड़ी है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 326 एक सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार को निर्वाचित सरकार के सभी स्तरों के चुनावों के आधार के रूप में परिभाषित करता है। सर्वजनीन मताधिकार से तात्पर्य है कि सभी नागरिक जो 18 वर्ष और उससे अधिक उम्र के हैं, उनकी जाति या शिक्षा, धर्म, रंग, प्रजाति और आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद वोट देने के लिए स्वतंत्र हैं। नवीन संविधान लागू होने के पूर्व भारत में 1935 के "गवर्नमेंट ऑव इंडिया ऐक्ट" के अनुसार केवल 13 प्रति शत जनता को मताधिकार प्राप्त था। मतदाता की अर्हता प्राप्त करने की बड़ी बड़ी शर्तें थीं। केवल अच्छी सामाजिक और आर्थिक स्थिति वाले नागरिकों को मताधिकार प्रदान किया जाता था। इसमें विशेषतया वे ही लोग थे जिनके कंधों पर विदेशी शासन टिका हुआ था। अन्य पश्चिमी देशों में, जनतांत्रिक प्रणाली अब पूर्ण विकसित हो चुकी है, एकाएक सभी वयस्क नागरिकों को मताधिकार नहीं प्रदान किया गया था। धीरे धीरे, सदियों में, उन्होंने अपने सभी वयस्क नागरिकों को मताधिकार दिया है। कहीं कहीं तो अब भी मताधिकार के मामले में रंग एवं जातिभेद बरता जाता है। परंतु भारतीय संविधान ने धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत मानते हुए और व्यक्ति की महत्ता को स्वीकारते हुए, अमीर गरीब के अंतर को, धर्म, जाति एवं संप्रदाय के अंतर को, तथा स्त्री पुरुष के अंतर को मिटाकर प्रत्येक वयस्क नागरिक को देश की सरकार बनाने के लिए अथवा अपना प्रतिनिधि निर्वाचित करने के लिए "मत" (वोट) देने का अमूल्य अधिकार प्रदान किया है। संविधान लागू होने के बाद पिछले वर्षों में भारतीय जनता ने अपने मताधिकार के पवित्र कर्त्तव्य का समुचित रूप से पालन करके प्रमाणित कर दिया है कि उसे जनतंत्र में पूर्ण आस्था है। इस दृष्टि से भी भारतीय जनतंत्र का विशेष महत्व है। इन्हें भी देखें[संपादित करें]
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
मताधिकार का क्या अर्थ है?राज्य के नागरिकों को देश के संविधान द्वारा प्रदत्त सरकार चलाने के हेतु, अपने प्रतिनिधि निर्वाचित करने के अधिकार को मताधिकार कहते हैं। जनतांत्रिक प्रणाली में इसका बहुत महत्व होता है। लोकतंत्र की नींव मताधिकार पर ही रखी जाती है।
मताधिकार की समानता से आप क्या समझते हैं?सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार देश के प्रत्येक वयस्क महिला तथा पुरुष को बिना किसी भेदभाव के मत देने का अधिकार सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार कहलाता है । इस प्रणाली में एक निर्धारित उम्र पार करने के उपरांत देश के सभी पात्र नागरिकों को वोट देने का अधिकार प्राप्त हो जाता है ।
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