पति को वह कैसे छोड़ सकती है जिसके प्रेम में वह अस्तित्वविहीन हो गई है। कृष्ण के द्वारा प्रीत तोड़ देने पर भी वह उनसे प्रीत जोड़ने को मजबूर है। वह श्रीकृष्ण के संग तरुवर और पक्षी, सरवर और मछली, गिरिवर और चारा, चंदा और चकोरा, मोती और धागा तथा सोना और सुहागा के समान रहना चाहती है। वस्तुतः मीरा का किसी भी परिस्थिति में प्रीत नहीं तोड़ने की जादुई पाश में बंध चुकी है। Show प्रश्न 4. मीरा ने कृष्ण की तुलना में स्वयं को क्रमशः पंखिया (पारवी, पक्षी), मछिया (मछली), चारा (घास), चकोरा (चकोर, चक्रवाक पक्षी), धागा और सोहागा के रूप में प्रस्तुत किया है। प्रश्न 5. प्रश्न 6. मीरा ने आँसुओं के जल से जो प्रेम-बेल बोई थी, अब वह फैल गई है और उसमें आनन्द-फल लग गए हैं। वह सौन्दर्य और प्रेम के जादुई पाश में पूर्णतः बंध चुकी है। वह हर . पल अब श्रीकृष्ण को येन-केन प्रकारेण रिझाना चाहती है। वह कहती है रेणु दिन वा के संग खेलूँ मीरा के पदों की कड़ियाँ समर्पण भाव से ओत-प्रोत है। इस समर्पण में प्रेमोन्माद के रूप में वह प्रकट होती है। उनका उन्माद और तल्लीनता, आत्मसमर्पण की स्थिति में पहुँच गया है ‘मीरा के प्रभु गिरधर नागर मीरा की भक्ति में उद्दामता है, पर अंधता नहीं। उनकी भक्ति के पद आंतरिक गूढ़ भावों के स्पष्ट चित्र हैं। मीरा के पदों में श्रृंगार रस के संयोग और वियोग दोनों पक्ष पाए जाते हैं, पर उनमें विप्रलंभ शृंगार की प्रधानता है। उन्होंने ‘शांत रस’ के पद भी रचे हैं। मीरा की भक्ति के सरस-सागर की कोई थाह नहीं है, जहाँ जब चाहो, गोते लगाओ। इसमें रहस्य साधना भी समाई हुई है। संतों के सहज योग को मीरा ने अपनी भक्ति का सहयोगी बना लिया था। प्रश्न 7. प्रश्न 8. मीरा कृष्ण को ‘पिया’ संबोधन देती है। पिया अर्थात् पति। भारतीय समाज में पति-पत्नी ‘के सम्बन्ध को अत्यन्त आदरणीय, सम्मानित स्थान प्राप्त है। विशेषकर हिन्दू समाज में जहाँ हर विषम परिस्थिति में यह दाम्पत्य बंधन अटूट बना रहता है। पति-पत्नी एक-दूसरे के व्यक्तित्व के परिपूरक होते हैं। एक-दूसरे पर आश्रित होते हैं। मीरा का कृष्ण के प्रति प्रेम निवेदन एक पत्नी के प्रणय निवेदन की तरह ही है। अन्तर सिर्फ इतना भर है कि कृष्ण यहाँ अलौकिक, परमपुरुष ब्रह्म स्वरूप हैं। जैसे एक पतिव्रता हर परिस्थिति में, सुख-दुख में पति के प्रति एकनिष्ठ बनी रहती हैं संतुष्ट होती हैं। मीरा भी कृष्ण के प्रति ऐसी ही भावना व्यक्त करती हैं। अत: यह – कहना ठीक ही है कि मीरा की भक्ति लौकिक प्रेम का विकसित रूप है। मीराबाई के पद भाषा की बात। प्रश्न 1.
प्रश्न 2.
प्रश्न 3. प्रश्न 4.
प्रश्न 5.
अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर मीराबाई के पद लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. मीराबाई के पद अति लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. मीराबाई के पद वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर I. सही उत्तर का सांकेतिक चिह्न (क, ख, ग या घ) लिखें। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. II. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें। प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. मीराबाई पद कवि परिचय (1504-1563) हिन्दी साहित्य की भक्ति रस शाखा में सबसे महत्त्वपूर्ण के रूप में प्रेम दीवानी “दरद दिवाणी” मीराबाई का नाम आदर के साथ लिया जाता है। इनके जीवन-वृत्त में अनेक किम्वदतियाँ समाहित हैं, जिससे इनकी जीवनी अलौकिक घटनाओं से युक्त हो जाती है। कुछ घटनाएँ सत्य भी है जिनका वर्णन मीरा की कई रचनाओं में हुआ है। अनेक रचनाओं का उल्लेख होते हुए भी मीराबाई की पदावली ही सबसे प्रमाणिक मानी गयी है। तत्कालीन वातावरण की दृष्टि से संतों की ये शिष्या दिखती हैं किन्तु धार्मिक दृष्टि से सगुण भक्ति के समीप पड़ती है। यही कारण है कि मीरा के भाव संतों के भाव जैसे ही अनुभूतिमय है और उनकी शैली में अधिक कोमल, तरल और प्रांजलं है। मीरा का आलंबन अलौकिक है और भक्तिभाव की दृष्टि से मीरा का प्रेम व्यापार रहस्यवाद के अन्तर्गत आता है। मीरा के आराध्य सगुण कृष्ण हैं जबकि रहस्यवाद निर्गुण ब्रह्म और जीव के मधुर रागात्मक सम्बन्ध पर आधारित है। यही कारण है कि मीरा न तो पूर्णतः संतों की श्रेणी में आती है और न भक्तों की श्रेणी में। मीरा की भक्ति माधुर्य भाव की है। सगुण ईश्वर के साथ भक्त कवि अपना भावपूर्ण व्यापार चलाते हैं। मीरा अपने आराध्य देव को प्रेमी ही नहीं पति भी मानती हैं– “मेरो तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई कृष्ण के बिना मीरा का जीवन कठिन हो गया है- “पिया बिन रहयो न जाई।” फागुन आया हुआ है और कृष्ण पास नहीं हैं- मीरा के समक्ष को लेकर कोई औपचारिक बंधन नहीं है। उनका स्पष्ट कथन है- मीरा के काव्य में रूपासक्तिजन्य माधुर्य भाव का वर्णन हुआ है जो कृष्ण के सौन्दर्याकर्षण पर आधारित है- चित चढ़ी मोरे माधुरी मूरत, उरबीच आन पड़ी।” मीरा तो कृष्ण के हाथों पहले ही दर्शन में बिक गयी और उनके साथ हो गयी- “मैं ठाढ़ी गृह आपणो री, मोहन निकसे आई मीरा की माधुर्य भक्ति में प्रगाढ़ता के साथ अनुभूति की गंभीरता भी है- कला पक्ष की दृष्टि से भी मीराबाई का काव्य अत्यन्त समृद्ध है। इनके काव्य में संयोग और वियोग श्रृंगार के साथ शांत रस का सुन्दर परिपाक हुआ है। संयोग शृंगार का वर्णन देखें वियोग शृंगार का एक उदाहरण शांत रस का वर्णन देखें- मीरा ने काव्य में प्रकृति चित्रण अपने प्रकृत रूप में उपस्थित है- मीरा की भाषा में गुजरती, राजस्थानी और ब्रजभाष में तीनों की त्रिधारा दीखती है। वस्तुतः इन तीनों भाषा-क्षेत्रों से इनका सम्बन्ध रहा है। मीरा की शैली पद है जिसके साथ ‘सरसी’, विष्णुपद, दोहा, सवैया, शोभन, तांटक और .. कुण्डल छन्दों का भी प्रयोग किया है। मीरा के काव्य में सादृश्यमूलक अलंकार जैसे उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अत्युक्ति, उदाहरण, . विभावना, समासोक्ति अर्थान्तर न्यास, श्लेष, वीप्सा और अनुप्रास की प्रधानता है। कहा जा सकता है कि मीरा के काव्य का भाव और कला दोनों पक्ष समृद्ध हैं। किन्तु सबके बावजूद मीरा में कवि कर्म प्रधान नहीं है। कृष्ण के लिए उनकी दिवानगी ही प्रधान और प्रसिद्ध है। मीराबाई के पद कविता का भावार्थ मीराबाई के प्रथम पद वैसे हमारा सम्बन्ध अस्तित्व-सा अन्योन्याश्रित हैं। प्रभु मेरे यदि तुम तरुवर हो तो मैं उस पर निवास करने वाली पक्षी हूँ, चिड़िया हूँ। तुम्ही इस “पाखी” के सहायक हो। यदि तुम सरोवर हो तो उसमें जीवन धारण करने वाली मैं मछली हूँ। जल ही जिसका जीवन है। यदि तुम पर्वत राज हो तो मैं उसकी गोद में वाली हरियाली हूँ। यदि तुम चन्द्रमा हो तो मैं तुमको एक टक निहारने वाला चकोर हूँ। यदि तुम मोती हो तो मैं क्षुद्र धागा हूँ जिसमें गूंथ कर माला तैयार होती है। यदि तुम स्वर्ण, कंचन हो तो मैं सोहागा (एक रासायनिक पदार्थ) हूँ। यदि तुम ब्रज के स्वामी ठाकुर हो तो मैं तेरी सेविका हूँ, चरणों की दासी हूँ। मीरा रचित इस पद में केवल यही नहीं कथित है कि जीव हर रूप और स्थिति में ईश्वर पर निर्भर है बल्कि यह भी व्यजित तथ्य है कि जीव से ही ईश्वर को सार्थक्य प्राप्त होता है। जिस पेड़ पर पक्षी निवास नहीं करते वह मनहूस माना जाता है। वह सरोवर ही क्या जहाँ जीवन का अस्तित्व ही नहीं हो। मोती कीमती और चमकदार होकर भी किसी की ग्रीवा तक पहुंचने के लिए तुच्छ धागे पर ही निर्भर है। सोने को अपनी स्वाभाविक आभा पाने के लिए सोहागा की संगती चाहिए ही। वह स्वामी क्या जिसके सेवक अनुचर नहीं हो। मीरा प्रकारान्तर से यह तथ्य कृष्ण को समझा देना चाहती है कि तुम चाहकर भी सम्बन्ध-विच्छेद कर सकते। जीव और ब्रह्म का सम्बन्ध, भक्त और भगवान का सम्बन्ध शाश्वत होता है, काल निरपेक्ष होता है। प्रस्तुत पद में मीरा ने कृष्ण के लिए पिया, प्रभु, ठाकुर जैसी सम्बोधन संज्ञाओं का और अपने लिए ठाकुर की दासी का प्रयोग कर रागात्मक सम्बन्ध को एक महनीयता प्रदान की है। . रूपक, उदाहरण जैसे अलंकार से सज्जित यह पद, अद्वितीय मारक क्षमता से भी युक्त है। मीराबाई के द्वतीय पद कृष्ण की कर्षण शक्ति से प्रभावित मध्यकालीन भक्तिधारा की मधुराभक्ति की साधिका राधिका के समतुल्य दीवानी मीरा रचित इस पद में उनका हृदयोद्गार व्यक्त है। मीरा श्रीकृष्ण के सौन्दर्य और प्रेम के जादुई पाश में इस तरह बंधी हुई है कि उनके निजत्व का निरसन हो चुका है। उनका कहना है कि मेरा गन्तव्य कृष्ण हैं। मैं उसी के घर जाऊंगी। वे ही मेरे सच्चे प्रियतम हैं। जिसके रूप से देखकर लुब्ध हो चुकी हूँ। मैं कृष्ण के साथ अभिसार करने हेतु सन्नद्ध हूँ। जैसे ही रात हागी मैं कृष्ण के पास जाऊँगी और रात पर रास में सहभागी बन सुबह होने के साथ ही इस पर घर को वापस आ जाऊंगी। कृष्ण भी मुझ पर रीझ जाएँ, मोहित हो जाएँ, इसके लिए सत-दिन उनके रंग संग तरह-तरह के खेलती रहूँगी। अब यह सब इच्छा पर होगा कि मुझे खाने-पीने और पहनने के लिए क्या देते हैं। मेरी ऐसी जातर्तिक कोई इच्छा शेष नहीं है। मेरा और कृष्ण का प्रेम बहुत पुराना और गहरा है। उनके बिना अब एक पल का जीना भी असंभव है। वे अपने आश्रय में जहाँ स्थान देंगे वही मेरा निवास होगा और यदि वे मुझे दूसरे के हाथों बेचना भी चाहें तो मुझे कोई मलाल नहीं होगा। क्योंकि मेरा “मैं’ अब बाकी बचा ही नहीं है। मीरा कहती है कि मेरे स्वामी तो गिरधर नगर है। जिन पर मैं बार-बार बलि जाती हूँ कृष्ण पर अपने को न्योछावर करती हूँ।” प्रस्तुत पद में सम्पर्ण के भावना की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति हुई है। जैसे कबीर ने सवयं को राम का कुत्ता घोषित किया। शांत रस की इस रचना में अनुप्रास की छटा देखते बनती है। एकनिष्ठ प्रेम और आत्मोत्सर्ग की यह सर्वोत्तम प्रस्तुति है। मीराबाई के पद कठिन शब्दों का अर्थ गिरधर-गोवर्धन गिरि को धारण करने वाले, कृष्ण। तोसों-तुमसे। तरुवर-श्रेष्ठ वृक्ष। पॅखिया-पक्षी। सरवर-तालाब। मछिया-मछली। गिरिवर-पर्वतराज। सोहागा-सोना का शुद्ध करने के लिए प्रयुक्त क्षार। ठाकुर-स्वामी। म्हारो-मेरा। साँचो-सच्चा। रैण-रातः। दिना-दिन। रिझाऊँ-प्रसन्न करूँ। तितही-वहीं। नागर-विदग्ध, चतुर, रसिक। बलि जाऊ-छिवर हो जाऊँ। वा-उसको। ताही-उसको। सोई-वही। मीराबाई के पद काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या 1. जो तुम तोड़ो, पिया……………कौन संग जोड़ें। 2. तुम भये तरुवर………..हम भये सोहागा। अभिप्राय यह है कि उक्त अनेक उदाहरणों के सहारे मीरा ने कृष्ण के साथ अपनी उस भक्ति का परिचय दिया है जो निर्भरा भक्ति कहलाती है। इसमें भक्त भगवान को अपना आधार मानता है जिसके बिना उसका अस्तित्व ही नहीं होता। मीरा की प्रेम रूपी वाले में कौन सा फल आया था?वे उन्हें अपना पति मानती हैं। 2. कृष्ण-प्रेम के विषय में मीरा बताती है कि उसने अपने आँसुओं से कृष्ण प्रेम रूपी बेल को सींचा अब वह बेल बड़ी हो गई है और उसमें आनंद-फल लगने लगे हैं।
कृष्ण प्रेम के कारण मीरा क्या करने लगी?शादी के बाद मीरा ससुराल के कामकाज पूरे करने बाद रोजाना कृष्ण के मंदिर जाया करती थीं. वहां जाकर वह श्री कृष्ण की मूर्ति की पूजा करती, उनके लिए मधुर आवाज में भजन गाती और नृत्य भी करती थीं. मीरा का कृष्ण के लिए प्रेम उनकी ससुराल वालों को बिल्कुल पसंद नहीं था.
मीराबाई के कृष्ण प्रेम का उनके परिवार में किस प्रकार विरोध हुआ और उन्होंने उसका सामना कैसे किया?उत्तर:- मीरा की कृष्ण भक्ति के कारण उसके पति परेशान रहते थे। उन्हें अपनी कुल की मर्यादा खतरे में मालूम पड़ती थी। अत: उन्होंने मीरा को मारने के लिए जहर का प्याला भेजा और मीरा ने भी उसे हँसते-हँसते पी लिया परंतु कृष्ण भक्ति के कारण जहर भी मीरा का कुछ न बिगाड़ पाया।
मीराबाई को कौन सा रत्न प्राप्त हो गया है?साइखोम मीराबाई चानू (जन्म : 8 अगस्त 1994) एक भारतीय भारोत्तोलन खिलाड़ी हैं।
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साइखोम मीराबाई चानू. |