लोक प्रशासन (अंग्रेज़ी: Public administration) मोटे तौर पर शासकीय नीति (government policy) के विभिन्न पहलुओं का विकास, उन पर अमल एवं उनका अध्ययन है। प्रशासन का वह भाग जो सामान्य जनता के लाभ के लिये होता है, लोकप्रशासन कहलाता है। लोकप्रशासन का संबंध सामान्य नीतियों अथवा सार्वजनिक नीतियों से होता है।[1] एक अनुशासन के रूप में इसका अर्थ वह जनसेवा है जिसे 'सरकार' कहे जाने वाले व्यक्तियों का एक संगठन करता है। इसका प्रमुख उद्देश्य और अस्तित्व का आधार 'सेवा' है। इस प्रकार की सेवा उठाने के लिए सरकार को जन का वित्तीय बोझ करों और महसूलों के रूप में राजस्व वसूल कर संसाधन जुटाने पड़ते हैं। जिनकी कुछ आय है उनसे कुछ लेकर सेवाओं के माध्यम से उसका समतापूर्ण वितरण करना इसका उद्देश्य है। किसी भी देश में लोक प्रशासन के उद्देश्य वहां की संस्थाओं, प्रक्रियाओं, कार्मिक-राजनीतिक व्यवस्था की संरचनाओं तथा उस देश के संविधान में व्यक्त शासन के सिद्धातों पर निर्भर होते हैं। प्रतिनिधित्व, उत्तरदायित्व, औचित्य और समता की दृष्टि से शासन का स्वरूप महत्त्व रखता है, लेकिन सरकार एक अच्छे प्रशासन के माध्यम से इन्हें साकार करने का प्रयास करती है। प्रशासन[संपादित करें]मानव एक सामाजिक प्राणी है। वह सदैव समाज में रहता है। प्रत्येक समाज को बनाये रखने के लिए कोई न कोई राजनीतिक व्यवस्था अवश्य होती है इसलिये यह माना जा सकता है कि उसके लिये समाज तथा राजनीतिक व्यवस्था अनादि काल से अनिवार्य रही है। अरस्तू ने कहा है कि “यदि कोई मनुष्य ऐसा है, जो समाज में न रह सकता हो, या जिसे समाज की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह अपने आप में पूर्ण है, तो वह अवश्य ही एक जंगली जानवर या देवता होगा।” प्रत्येक समाज में व्यवस्था बनाये रखने के लिये कोई न कोई निकाय या संस्था होती है, चाहे उसे नगर-राज्य कहें अथवा राष्ट्र-राज्य। राज्य, सरकार और प्रशासन के माध्यम से कार्य करता है। राज्य के उद्देश्य और नीतियाँ कितनी भी प्रभावशाली, आकर्षक और उपयोगी क्यों नहों, उनसे उस समय तक कोई लाभ नहीं हो सकता, जब तक कि उनको प्रशासन के द्वारा कार्य रूप में परिणीत नहीं किया जाये। इसलिये प्रशासन के संगठन, व्यवहार और प्रक्रियाओं का अध्ययन करना आवश्यक हो जाता है। चार्ल्सबियर्ड ने कहा है कि “कोई भी विषय इतना अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि प्रशासन है। राज्य एवं सरकार का, यहाँ तक कि, स्वयं सभ्यता का भविष्य, सभ्य समाज के कार्यों का निष्पादन करने में सक्षम प्रशासन के विज्ञान, दर्शन और कला के विकास करने की हमारी योग्यता पर निर्भर है।” डॉनहम ने विश्वासपूर्वक बताया कि “यदि हमारी सभ्यता असफल होगी तो यह मुख्यतः प्रशासन की असफलता के कारण होगा। यदि किसी सैनिक अधिकारी की गलती से अणुबम छूट जाये तो तृतीय विश्व युद्ध शुरू हो जायेगा और कुछ ही क्षणों में विकसित सभ्यताओं के नष्ट होनेकी सम्भावनाएँ उत्पन्न हो जायेंगी।” ज्यों-ज्यों राज्य के स्वरूप और गतिविधियों का विस्तार होता गया है, त्यों-त्यों प्रशासन का महत्त्व बढ़ता गया है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि हम प्रशासन की गोद में पैदा होते हैं, पलते है, बड़े होते हैं, मित्रता करते, एवं टकराते हैं और मर जाते हैं। आज की बढ़ती हुई जटिलताओं का सामना करने में, व्यक्ति एवं समुदाय, अपनी सीमित क्षमताओं और साधनों के कारण, स्वयं को असमर्थपाते हैं। चाहे अकाल, बाढ़, युद्धया मलेरिया की रोकथाम करनेकी समस्या हो अथवा अज्ञान, शोषण, असमानता या भ्रष्टाचार को मिटानेका प्रश्न हो, प्रशासन की सहायता के बिना अधिक कुछ नहीं किया जा सकता। स्थिति यह है कि प्रशासन के अभाव में हमारा अपना जीवन, मृत्यु के समान भयावह और टूटे तारे के समान असहाय लगता है। हम उसे अपने वर्तमान का ही सहारा नहीं समझते, वरन् एक नई सभ्यता, संस्कृति, व्यवस्था और विश्व के निर्माण का आधार मानतेहैं। हमें अपना भविष्य प्रशासन के हाथों में सौंप देने में अधिक संकोच नहीं होता। प्रशासन की आवश्यकता सभी निजी और सार्वजनिक संगठनों को होती है। डिमॉक एवं कोइंग ने कहा है कि “वही (प्रशासन) यह निर्धारण करता है कि हम किस तरह का सामान्य जीवन बितायेंगे और हम अपनी कार्यकुशलताओं के साथ कितनी स्वाधीनताओं का उपभोग करने में समर्थ होंगे।” प्रशासन स्वप्न और उनकी पूर्ति के बीच की दुनिया है। उसे हमारी व्यवस्था, स्वास्थ्य और जीवनशक्ति की कुन्जी माना जा सकता है। जहाँ स्मिथबर्ग, साइमन एवं थॉमसन उसे “सहयोगपूर्ण समूहव्यवहार” का पर्याय मानते हैं, वहाँ मोर्स्टीन मार्क्स के लिये वह “प्रत्येक का कार्य” है। वस्तुतः प्रशासन सभी नियोजित कार्यों में विद्यमान होता है, चाहे वे निजी हों अथवा सार्वजनिक। उसे प्रत्येक जनसमुदाय की सामान्य इच्छाओं की पूर्ति में निरत व्यवस्था माना जा सकता है। प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था को प्रशासन की आवश्यकता होती है, चाहे वह लोकतंत्रात्मक हो अथवा समाजवादी या तानाशाही। एक दृष्टि से, प्रशासन की आवश्यकता लोकतंत्र से भी अधिक समाजवादी व्यवस्थाओं को रहती है। समाजवादी व्यवस्थाओं के सभी कार्यप्रशासकों द्वारा ही सम्पन्न किये जाते हैं। लोकतंत्रात्मक व्यवस्थाओं में व्यक्ति निजी तौर पर तथा सूचना समुदाय भी सार्वजनिक जीवन में अपना योगदान देते हैं। यद्यपि यह कहा जा सकता है कि प्रशासन का कार्य समाजवाद की अपेक्षा लोकतंत्र में अधिक कठिन होता है। समाजवाद में प्रशासन पूरी तरह से एक राजनीतिक दल द्वारा नियन्त्रित और निर्देशित समान लक्ष्यों को पूरा करने के लिये समूहों द्वारा सहयोगपूर्ण ढंग से की गयी क्रियाएँ ही प्रशासन है। गुलिक ने सुपरिभाषित उद्देश्यों की पूर्ति को उपलब्ध कराने को प्रशासन कहा है। स्मिथबर्ग, साइमन आदि ने समान लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये सहयोग करने वाले समूहों की गतिविधि को प्रशासन माना है। फिफनर व प्रैस्थस के मतानुसार, प्रशासन “वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये मानवीय तथा भौतिक साधनों का संगठन एवं संचालन है।” एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका ने उसे “कार्यो के प्रबन्ध अथवा उनको पूरा करनेकी क्रिया” बताया है। नीग्रो के अनुसार, “प्रशासन लक्ष्य की प्राप्ति के लिये मनुष्य तथा सामग्री का उपयोग एवं संगठन है।” व्हाइट के विचारों में, वह “किसी विशिष्ट उद्देश्य अथवा लक्ष्य की प्राप्ति के लिये बहुत से व्यक्तियों का निर्देशन, नियन्त्रण तथा समन्वयन की कला है।” उपर्युक्तपरिभाषाओं की दृष्टि से, प्रशासन के सामान्य लक्षण अग्रलिखित रूप से बताये जा सकते हैं -
इन सभी लक्षणों को टीड की परिभाषा में देखा जा सकता है कि “प्रशासन वांछित परिणाम की प्राप्ति के लिये मानव प्रयासों के एकीकरण की समावेशी प्रक्रिया है।” इन सभी परिभाषाओं में प्रशासन की बड़ी व्यापक व्याख्याएँ की गयी हैं। जब हम केवल सार्वजनिक नीतियों अथवा लोकनीतियों के क्रियान्वयन से संबंधित प्रशासन की बात करते हैं तो इसे “सार्वजनिक प्रशासन” या ‘लोकप्रशासन’ कहा गया है। यहीं लोकप्रशासन सामान्य “प्रशासन” से पृथक् एवं विशिष्ट हो जाता है। लोकप्रशासन के सिद्धान्त एवं कार्यप्रणालियाँ अन्य क्षेत्रों में उपलब्ध प्रशासनों को अधिकाधिक मात्रा में प्रभावित करती जा रही हैं। इतिहास[संपादित करें]लोक प्रशासन का अर्थ एवं परिभाषाएँ[संपादित करें]व्हाइट के शब्दों में, लोक प्रशासन में “वे गतिविधियाँ आती हैं जिनका प्रयोजन सार्वजनिक नीति को पूरा करना अथवा क्रियान्वित करना होता है।” वुडरो विल्सन के अनुसार, “लोकप्रशासन विधि अथवा कानून को विस्तृत एवं क्रमबद्ध रूप में क्रियान्वित करने का काम है। कानून को क्रियान्वित करने की प्रत्येक क्रिया प्रशासकीय क्रिया है।” डिमॉक ने बताया है कि “प्रशासन का संबंध सरकार के “क्या” और “कैसे” से है। “क्या” से अभिप्राय विषय में निहित ज्ञान से है, अर्थात् वह विशिष्ट ज्ञान, जो किसी भी प्रशासकीय क्षेत्र में प्रशासक को अपना कार्य करनेकी क्षमता प्रदान करता हो। “कैसे” से अभिप्राय प्रबन्ध करनेकी उस कला एवं सिद्धान्तों से है, जिसके अनुसार, सामूहिक योजनाओं को सफलता की ओर ले जाया जाता है।” हार्वे वाकर ने कहा कि “कानून को क्रियात्मक रूप प्रदान करने के लिये सरकार जो कार्य करती है, वही प्रशासन है।” विलोबी के मतानुसार, “प्रशासन का कार्यवास्तव में सरकार के व्यवस्थापिका अंग द्वारा घोषित और न्यायपालिका द्वारा निर्मित कानून को प्रशासित करने से सम्बद्ध है।” पर्सीमेक्वीन ने बताया कि “लोकप्रशासन सरकार के कार्यों से संबंधित होता है, चाहे वे केन्द्र द्वारा सम्पादित हों अथवा स्थानीय निकाय द्वारा।" व्यापक गतिविधि (Generic activity) के रूप में वाल्डो ने इसे “बोद्धिकता की उच्च मात्रा युक्त सहयोगपूर्ण मानवीय-क्रिया” कहा है। सिद्धान्त एवं विश्लेषण की दृष्टि से लोकप्रशासन एवं निजी प्रशासन, सामान्य प्रशासन के ही दो विशिष्ट रूप हैं किन्तु इन दोनों रूपों में मौलिक समानताएँ पायी जाती हैं। वर्तमान समय में, इनके मध्य चली आ रही असमानताएँ क्रमशः कम होती जा रही हैं। इसी प्रकार, प्रबन्धन भी प्रशासन से भिन्न न होकर उसी का संचालन एवं निर्देशात्मक भाग है। लोक प्रशासन के सिद्धांत और मूल तत्त्व[संपादित करें]लोक प्रशासन का विषय बहुत व्यापक और विविधतापूर्ण है। इसका सिद्धांत अंतः अनुशासनात्मक (इन्टर-डिसिप्लिनरी) है क्योंकि यह अपने दायरे में अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान, प्रबंधशास्त्र और समाजशास्त्र जैसे अनेक सामाजिक विज्ञानों को समेटता है। लोक प्रशासन या सुशासन के केन्द्रीय तत्त्व पूरी दुनिया में समान ही हैं - दक्षता, मितव्ययिता और समता उसके मूलाधार हैं। शासन के स्वरूपों, आर्थिक विकास के स्तर, राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों, अतीत के प्रभावों तथा भविष्य संबंधी लक्ष्यों या स्वप्नों के आधार पर विभिन्न देशों की व्यवस्थाओं में अंतर अपरिहार्य हैं। लोकतंत्र में लोक प्रशासन का उद्देश्य ऐसे उचित साधनों द्वारा, जो पारदर्शी तथा सुस्पष्ट हों, अधिकतम जनता का अधिकतम कल्याण है। लोक प्रशासन: एक व्यावहारिक शास्त्र[संपादित करें]अमेरिकी विद्वान वुडरो विल्सन के अनुसार, एक संविधान बनाने की अपेक्षा उसे चलाना अधिक कठिन है। चूंकि संविधान के क्रियान्वयन में प्रशासन की भूमिका होती है इसलिए प्रशासन को एक व्यावहारिक अनुशासन माना जाता है, जिसके गंभीर अध्ययन की आवश्यकता है। विल्सन का मुख्य संदेश था कि, लोक प्रशासन को राजनीति से पृथक किया जाना चाहिए। हालांकि राजनीति प्रशासन के कार्य निर्धारित कर सकती है, फिर भी प्रशानिक अनुशासन को अपने कार्य से विचलित नहीं किया जाना चाहिए।[2] लोक प्रशासन चाहे कला हो या विज्ञान हो, यह एक व्यावहारिक शास्त्र है, जो सर्वव्यापी बन चुके राजनीति और राजकीय कार्यकलापों से गहराई से जुड़ा हुआ है। व्यवहार में भी लोक प्रशासन एक सर्व-समावेशी (आल-इनक्लूसिव) शास्त्र बन चुका है, क्योंकि यह जन्म से लेकर मृत्यु तक (पेंशन, क्षतिपूर्ति, अनुग्रह राशि आदि के रूप में) व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करता है। वास्तव में यह व्यक्ति को उसके जन्म के पहले से भी प्रभावित कर सकता है, जैसे भ्रूण परीक्षण पर प्रतिबंध या महिलाओं और बच्चों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं के प्रावधान जैसी नीतियों के द्वारा। प्रशासन और लोक-प्रशासन में अन्तर[संपादित करें]'लोक प्रशासन' के अर्थ को भली-भांति समझने के लिए ‘प्रशासन’ और ‘लोक प्रशासन’ में विभेद समझना आवश्यक हैः
लोक प्रशासन की प्रकृति और कार्यक्षेत्र[संपादित करें]लोकप्रशासन की प्रकृति को लेकर विद्वानों में तीव्र मतभेद है कि लोक प्रशासन को विज्ञान की श्रेणी में रखा जाये अथवा कला की श्रेणी में। इसी मतभेद के आधार पर विद्वानों को चार श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है: (1) लोक प्रशासन को विज्ञान मानने वाले विचारक। (2) लोक प्रशासन को विज्ञान न मानने वाले विचारक। (3) लोक प्रशासन को कला मानने वाले विचारक। (4) लोक प्रशासन को कला व विज्ञान दोनों की श्रेणी में रखने वाले विचारक। लोक प्रशासन में मूल्य[संपादित करें]वर्तमान समय में लोक प्रशासन की भूमिका अत्यधिक व्यापक एवं जटिल हो गई है। नीति निर्माण की प्रक्रिया और विभिन्न समस्याओं को सुलझाने में प्रशासक स्थाई रूप से भाग लेने लगे हैं। अतः यह आवश्यक है कि सभी प्रशासक निर्णय प्रक्रिया से बेहतर ढंग से परिचित हों। साथ ही उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि समस्या समाधान में मूल्यों एवं तथ्यों की भूमिका क्या हो सकती है। लोक सेवाएं वैध सत्ता पर आधारित हैं जिन्हें कार्यों के संपादन हेतु समुचित अधिकार, आवश्यक सुरक्षा तथा पर्याप्त सुविधा प्रदान की गई है। अतः इन सेवाओं में कार्यरत लोकसेवकों के उत्तरदायित्व भी सुनिश्चित होने चाहिए।[3] लोक सेवकों को उनके कार्यों एवं व्यावसायिक संहिता सम्बन्धी दिशानिर्देशन लोकसेवा मूल्यों के संतुलित ढांचे द्वारा दिया जाना चाहिए। लोकतान्त्रिक मूल्य -
प्रशासनिक नीतिशास्त्र[संपादित करें]सामान्यतः नीतिशास्त्र का तात्पर्य उन नैतिक मूल्यों से है जो लोगों के व्यवहार को निर्देशित एवं संस्कृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जब इन नैतिक मूल्यों की प्रशासन के सन्दर्भ में परिचर्चा की जाती है तो यह "प्रशासनिक नीतिशास्त्र" कहलाता है। आधुनिक लोकसेवाएं एक पेशे का रूप धारण कर चुकी हैं, अतः प्रशासनिक नीतिशास्त्र की मांग उठने लगी है। जर्मनी वह प्रथम देश है जहाँ लोक सेवाओं का पेशेवर रूप विकसित हुआ और लोकसेवकों के लिए पेशेवर आचार संहिता विकसित हुई। वहीं अमेरिकन लोक प्रशासन में नैतिकता के प्रारम्भ को वहां प्रचलित "लूट पद्धति" (Spoil System ) के सन्दर्भ में जोड़ा जा सकता है, जब इस पद्धति से तंग आकर एक अमेरिकन युवक ने वर्ष 1881 में तत्कालीन अमेरिकन राष्ट्रपति गारफील्ड की हत्या कर दी थी। विभिन्न देशों में लोककर्मियों का प्रतिशत[संपादित करें]
सन्दर्भ[संपादित करें]
इन्हें भी देखें[संपादित करें]
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
पठनीय सामग्री[संपादित करें]
लोक प्रशासन का मूल तत्व क्या है?लोक प्रशासन (अंग्रेज़ी: Public administration) मोटे तौर पर शासकीय नीति (government policy) के विभिन्न पहलुओं का विकास, उन पर अमल एवं उनका अध्ययन है। प्रशासन का वह भाग जो सामान्य जनता के लाभ के लिये होता है, लोकप्रशासन कहलाता है। लोकप्रशासन का संबंध सामान्य नीतियों अथवा सार्वजनिक नीतियों से होता है।
लोक प्रशासन कितने प्रकार के होते हैं?एकीकृत दृष्टिकोण के अनुसार लोक प्रशासन सरकार की तीनों शाखाओं-कार्यपालिका, विधानपालिका तथा न्यायपालिका से सम्बन्धित है। परन्तु प्रबन्धकीय दृष्टिकोण के अनुसार लोक प्रशासन का संबंध केवल कार्यपालिका कार्यों से है। इन दोनों विचारों में से किसी की भी पूर्णतः उपेक्षा नहीं की जा सकती।
लूथर गुलिक के अनुसार लोक प्रशासन के कितने तत्व हैं?लूथर गुलिक ने स्थान को भी विभागीय संगठन का एक आधार माना है। विभागों की स्थापना में स्थान का महत्व बहुत होता है। संगठन में नियंत्रण का क्षेत्र, आदेश की एकता, समन्वय तथा संचार आदि स्थान से प्रभावित होते है। कार्यों के शीघ्र सम्पादन के लिए विदेश विभाग के विभिन्न प्रभाग 'स्थान' पर ही आधारित होते हैं।
भारतीय लोक प्रशासन के पिता कौन है?एक विषय के रूप में लोक-प्रशासन का जन्म 1887 में हुआ। अमेरिका के प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी में राजनीतिशास्त्र के तत्कालीन प्राध्यापक वुडरो विल्सन को इस शास्त्र का जनक माना जाता है।
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