राज्य सरकार ने महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और राजनीतिक स्थिति में सुधार लाने के लिए जो बहुआयामी प्रयास शुरू किये, उसके अच्छे नतीजे सामने आए हैं। हुनर व औजार योजना, सबला कार्यक्रम, ज्ञान ज्योति,बालिका साइकिल व पोशाक योजना और मुख्यमंत्री प्रोत्साहन योजना आदि से बच्चियाें व किशोरियों से लेकर महिलाओं तक का आत्मविश्वास बढ़ा है। इस विकासशील प्रदेश में महिला साक्षरता दर बढ़ी। प्रतियोगी परीक्षाओं में इनकी भागीदारी पहले से ज्यादा है। सेवा क्षेत्र के साथ-साथ स्वरोजगार के क्षेत्र में भी महिलाएं आगे आ रही हैं। शिक्षा विभाग ने सूबे के शताब्दी वर्ष पर जेंडर संवेदनशील कार्यक्रमों को विस्तार देने की योजना बनाई है। इसके तहत अब महिलाओं को दहेज, बाल विवाह, पीएनडीटी एक्ट तथा घरेलू हिंसा आदि से संबंधित कानून के प्रति जागरूक किया जाएगा। यदि ये कार्यक्रम अपेक्षा के अनुरूप सफल रहे तो महिला विरोधी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने में सामाज की भूमिका बढ़ेगी। इन प्रवृत्तियों के खिलाफ अभियान अकेले प्रशासन के बूते सफल नहीं हो सकता। जब तक लड़कियों में जागरूकता नहीं आएगी, उनमें आत्मनिर्भरता के लिए बेचैनी पैदा नहीं होगी, तब तक केवल कानून बनाने से कन्याओं का कल्याण नहीं हो सकेगा। अब तक के अनुभव यही बताते हैं। Show दहेज लेने-देने के खिलाफ कानून बनकर अपनी जगह पड़ा है, जबकि दहेज का द्विपक्षीय सौदा हर साल धड़ल्ले से हो रहा है। सैकड़ों शादियां इसी आधार पर होती हैं। सैद्धांतिक और कानूनी रूप से जिस प्रथा को अमान्य किया गया है, उसे व्यावहारिक जगत में जबर्दस्त समर्थन मिला हुआ है। यह एक विरोधाभासी सच है। नामचीन लोग भी ऐसी शादियों से परहेज नहीं करते। इसका विपरीत दबाव कन्या और उसके परिवार पर पड़ता है, लेकिन पीड़ित पक्ष से इसका तब-तक कोई विरोध नहीं होता, जब तक दहेज आधारित रिश्ते में हिंसात्मक मोड़ नहीं आता। पारंपरिक विवाह के लिए जिस तरह से लड़कियों का मानसिक अनुकूलन (कंडीशनिंग) किया जाता रहा है, उसमें वे इस प्रथा का प्रतिरोध नहीं कर पातीं। जेंडर संवेदनशील कार्यक्रम सफल रहे तो कन्या विरोधी प्रथाएं आसानी से थोपी नहीं जा सकेंगी। तब हो सकता है कि लड़कियां खुद ऐसे विवाह से इनकार कर दें, जो पैसे के बल पर थोपे जाते हैं। वे बाल विवाह में मंगलगीत गाने की जगह इसके खिलाफ आगे आ सकती हैं। घरेलू हिंसा के खिलाफ उन्हें क्या करना चाहिए, यदि यह जानकारी ठीक से हो जाए, तो राहत दिलाने में प्रशासन का काम आसान हो सकता है। वास्तविक सशक्तीकरण का रास्ता जागरूकता से होकर ही निकलेगा। [स्थानीय संपादकीय: बिहार] मोबाइल पर ताजा खबरें, फोटो, वीडियो व लाइव स्कोर देखने के लिए जाएं m.jagran.com पर Q.34: संवेदनशीलता क्या है? इसका क्या महत्त्व है? विद्यार्थियों में संवेदनशीलता कैसे उत्पन्न की जा सकती है? उत्तर : 'संवेदनशीलता' शब्द संवेदना से उत्पन्न हुआ है । मन में होने वाले बोध या अनुभति को संवेदना कहते हैं। किसी को दुःख या कष्ट को देखकर मन में होने वाला दःख सहानभति है । उर्दू में हमदर्दी शब्द का आशय भी दूसरों के दर्द या दुःख से अपनापन रखना है । इस प्रकार संवेदनशीलता के दो रूप हैं–(1) द्रवित होना या स्वयं में दया, अहिंसा, शुचिता, मानवता, न्याय, शिष्टाचार, सदाचार की भावना तथा (2) परानुभूति–दूसरों के दुःख से दुःखी होना परानुभूति (हमदर्दी) है । परानुभूति में सम्मिलित हैं–परोपकार, दान, सहायता, सहयोग, दूसरों के विचारों का आदर करना आदि। गौतम बुद्ध (बालक सिद्धार्थ) के मन में संसार के दुःख को देखकर पीड़ा उत्पन्न होने लगी। जरा रोग, बुढ़ापे तथा मृत्यु के दृश्यों ने बालक सिद्धार्थ के अंतःकरण को झकझोर दिया। यह परदुखकातरता संवेदनशील मन की प्रतिक्रिया थी। सम्राट अशोक का मन कलिंग विजय में मार–काट से संवेदित हो उठा और उसने बौद्ध धर्म अपनाया । जैन धर्म के अहिंसा के सिद्धान्त ने भगवान महावीर के उपदेशों से प्रभावित होकर पशुबलि प्रथा रोकी। जैन धर्म के अनुसार मन, वचन, कर्म से किसी को त्रास देना, दुःख पहुँचाना हिंसा है और इसका निषेधात्मक रूप अहिंसा है। हिन्दू धर्म में परोपकार व दान, इस्लाम में जकात (दोनों को दान), ईसाई धर्म में दयालुता, क्षमाशीलता, पुण्य, सिक्ख धर्म की कारसेवा (अपने हाथों से सेवा कार्य करना) संवेदनशीलता के ही धार्मिक रूप हैं। गाँधीजी का सर्वोदय जीवन दर्शन, अहिंसा, स्वामी विवेकानंद की मानव में आस्था, मानवतावाद की मानव सेवा, संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) के मानवाधिकार, भारतीय संविधान में भेदभाव का निषेध, अवसरों की समानता, स्वतंत्रता, यूनेस्को, की जन सद्भावना व सम्मान, एकता व सहयोग शोषण के प्रति घृणा इत्यादि सवेदनशीलता के रूप हैं। व्यक्तिगत संवेदनशीलता संवेदनशील व्यक्ति की विशेषता है। हम प्रतिदिन देखते हैं कि कुछ व्यक्ति अतिसंवेदनशील होते हैं। भावुक तथा जज्बाती व्यक्तियों में दया, करुणा, परदुखकातरता, मानवता या इंसानियत न्याय की भावना अधिक रहती है। एक बार गौतम बुद्ध (सिद्धार्थ) जंगल में प्राकृतिक शांति तथा सौंदर्य का आनंद ले रहे थे। उसी समय आकाश से एक पक्षी ठीक उनके सामने आकर गिरा । पक्षी को तीर लगा था। सिद्धार्थ ने पक्षी की सहायता की तथा उसको सहारा दिया । पक्षी पर हमला सिद्धार्थ के ममेरे भाई देवदत्त ने किया था । देवदत्त ने आकर अपने शिकार की माँग की। सिद्धार्थ ने इंकार कर दिया। देवदत्त का कहना था कि शिकार के नियमों के अनुसार जो पक्षी को मारता है वही उसका मालिक होता है । सिद्धान्त का कहना था कि यह आधार गलत है अपितु जो किसी घायल प्राणी की रक्षा करता है वही उसका स्वामी हो जाता है । हत्यारा कैसे किसी का स्वामी हो सकता है । इस प्रकार सिद्धार्थ दया, करुणा, सहानुभूति व प्रेम की व्यक्तिगत संवेदनशीलता से ओतप्रोत थे। सामाजिक संबंधों की संवेदनशीलता में परानुभूति के साथ दसरों की सहायता अपाहिज व विकलांगों की सहायता, बीमार व्यक्तियों की तीमारदारी, भिखारी या निर्धनों की आर्थिक सहायता, निर्धन छात्रों को छात्रवृत्ति, समाज सुधार के कार्य, वंचित वर्ग की सहायता, सामाजिक आर्थिक शोषण का विरोध, मानवतावादी कार्य, सांप्रदायिक सद्भावना यहाँ तक कि पशुओं पर अत्याचार का विरोध, वैमनस्य या शत्रुता का विरोध, मानवाधिकारों की रक्षा इत्यादि सामाजिक कार्य आते हैं। केवल संवेदनशील होना ही अपर्याप्त है सामाजिक संबंधों की संवेदनशीलता में वास्तविक सहायता के कार्य, मानव समुदाय की सेवा जैसे कार्य आते हैं। जीवन में संवेदनशीलता का अत्यधिक महत्त्व है। संवेग व भावनाएं व्यक्तिपरकता के गुण हैं। आत्मविश्वास के लिए–आंतरिक विकास के लिए संवेदनशील होना आवश्यक है। जितने भी महान व्यक्तित्व हुए हैं उनमें संवेदनशीलता पाई गई है। अपराधी तथा क्रिमिनल स्वभाव के व्यक्तियों का मन कठोर, निर्दयी, हिंसा–भावना, अन्याय, अमानवीयता से भरा होता है जबकि संवेदनशील व्यक्तियों का अंत:करण निर्मल सकारात्मक भावनाओं–दया, करुणा, न्याय, शचिता. मानवता से ओतप्रोत रहता है। सामाजिक जीवन में तो संवेदनशीलता और अधिक महत्त्व रखती है । जनकल्याण,समाजसेवा,सामाजिक विकास,मैत्री भावना वंचित वर्ग का विकास, अपाहित बीमारों की सेवा, मानव संवेदनशीलता से ही विकसित हो रही है। भारत के संविधान में नीति निर्देशक तत्त्व तथा मौलिक अधिकार जनकल्याण की भावना से जोडे गए हैं तथा सरकारी नातिया व कायक्रम इसा आधार पर बनाए जाते हैं। आजकल प्रशासनि बद्धि की अधिक चर्चा है। पहले सरकारी सोच यह थी कि संवेग व भावनाएं एकाग्रता भंग करती हैं तथा हितग्राहियों (लाभान्वितो) से पक्षपात करवाती हैं । परन्तु अब यह माना जाने लगा है कि प्रशासकीय अधिकारिया का बुाद्ध क साथ–साथ संवेदनशीलता भी अपनानी चाहिए। सीनियर ब्यूरोकेट डॉ. दलपिसिह (IAS) ने अपनी लोकप्रिय पुस्तक इमोशनल इंटेलिजेंस इन वर्क (2003) में लिखा है कि व्याक्त क जीवन में सफलता के लिए बद्धिलब्धि (IO.) की भूमिका मात्र 20 प्रतिशत होती है तथा दोष 80 प्रतिशत योगदान भावनात्मक बद्धि का होता है। समाज में अन्तर्वैयक्तिक संबंधों को सफल बनाने तथा सामाजिक जीवन में सफलता के लिए सामाजिक सवदनशीलता आवश्यक है। ‘परानुभूति' अर्थात दूसरे व्यक्ति क्या सोचते हैं इसका ज्ञान अन्तर्वैयक्तिक संबंधों के लिए आवश्यक है। शिक्षक व छात्रों के लिए संवेदनशीलता इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि ‘परानुभूति' नैतिकता, ईमानदारी सत्यनिष्ठा का विकास आत्म संवेग तथा मैत्री पूर्ण सर्वगों से होता है। स्वप्रेरणा की शक्ति, दूसरों के संवेगों की पहचान छात्रो में संवेदनशीलता से ही आती है। विकलांग छात्रों छात्राओं, वंचित वर्ग के छात्रों, मंदबुद्धि छात्रों के प्रति छात्रों को संवेदनशील होना चाहिए। छात्रों व शिक्षकों के आत्म मूल्यांकन (सेल्फ असेसमेंट) के लिए अपनी कमियों को जानने तथा अपनी क्षमताओं को पहचानने, शिक्षकों द्वारा छात्रों को भिप्रेरणा,प्रोत्साहन देने, पुनर्बलन देने, उनमें शीलगुणों व सदाचार का विकास करने का काम भी संवेदनशीलता करती है। छात्रों में संवेदनशीलता विकसित करने के उपाय छात्र जीवन व्यक्तित्व के निर्माण का समय है। घर से मिले संस्कारों के साथ शाला में अध्यापकों, मित्रवर्ग के द्वारा दिये संस्कार बालक के भावी जीवन में उसे अच्छा नागरिक बनाने में सहायता करते हैं। यदि विद्यार्थी जीवन में विद्यार्थियों में संवेदनशीलता विकसित करने के सायास उपाय किये जाएं तो बालकों को आत्म चिंतक, परोपकारी, दयालु, क्षमाशील, समानता के समर्थक, न्याय, शिष्टाचार, सद्गुणी तथा मानवतावादी बनाया जा सकता है। इस दृष्टि से निम्नलिखित प्रमुख उपाय अपनाए जा सकते हैं (1) पाठ्यक्रम तथा शिक्षण कार्य– पाठ्यक्रम निर्माता विशेषज्ञों को विभिन्न कक्षाओं के विभिन्न विषयों के निर्माण में यह ध्यान रखना चाहिए कि विषयगत ज्ञान के साथ भावात्मक संवेदना तथा मानवतावादी प्रसंग आवश्यकतानुसार रखे जायें। प्राथमिक तथा माध्यमिक स्तर की कक्षाओं में सामाजिक विज्ञान, इतिहास, राजनीति शास्त्र या नागरिक शास्त्र, साहित्य व भाषा, विज्ञान, मानविकी, कला, वाणिज्य समाजोपयोगी कार्य आदि में विषयवस्तु की आवश्यकतानुसार संवेदनशीलता जागृत करने वाले प्रसंग रखे जा सकते हैं। प्राथमिक स्तर पर भाषा के पाठ्यक्रम में जीवनी, लेख, कविता, कहानी, एकांकी आदि में प्रेरणास्पद मानव संवेदना जागृत करने वाले प्रसंग होने ही चाहिए क्योंकि यह प्राथमिक स्तर ही बालकों में सहजता से संवेदनशीलता जागृत कर सकता है। पाठ्यक्रम का शिक्षण करते समय शिक्षक का दायित्व हो कि वह संवेदनशीलता जागृत करने वाले प्रसंग और संक्षिप्त कथाएं छात्रों को विषय शिक्षण के दौरान सिखाए । पाठ्य सहगामी क्रियाओं तथा गतिविधियों के आयोजन में छात्रों में संवेदना जागृत करने के अधिक अवसर प्राप्त होते हैं। (2) पाठ्यसहगामी क्रियाएं– शाला वार्षिकोत्सव,शालेय वार्षिक पत्रिका,राष्ट्रीय दिवस तथा महापुरुषों के जन्म दिन व पुण्यतिथि का आयोजन,साहित्यिक प्रतियोगिताएं (निबंध लेखन,वाद विवाद, भाषण आदि) प्रदर्शनी आयोजन, पुस्तकालय तथा वाचनालय में प्रेरक पत्र–पत्रिकाएं, शैक्षणिक यात्राएं, स्काउट गाइड गतिविधियाँ, सेमीनार कर्मशालाओं के आयोजन, महिला दिवस, स्वास्थ्य दिवस, विश्व विकलांग दिवस, बाढ़ ग्रस्त, भूकंप पीड़ित की सहायता, जनकल्याण व समाज सेवा के कार्य, समाजोपयोगी उत्पादक कार्य (SUPW)–छात्रों से श्रमदान द्वारा बस्ती . सुधार, जनशिक्षा प्रसार, प्रौढ़ शिक्षा इत्यादि पाठ्यसहगामी क्रियाओं में शिक्षकों द्वारा छात्रों में संवेदनशीलता–दया, करुणा, देशप्रेम, समाजसेवा, निर्धन व वंचित की सहायता आदि सद्गुणों को जागृत करने का प्रयास करना चाहिए। (3) खेलकूद तथा क्रीड़ा प्रतियोगिताएं– स्वास्थ्य विकास,शारीरिक शक्ति के विकास, खेल भावना के विकास, मनोरंजन आदि दृष्टि से इनडोर (आंतरिक) तथा बाह्य (बाहरी) खेलों का आयोजन विद्यालय में तथा विद्यालयीन व अन्तर्विद्यालयी क्रीड़ा प्रतियोगिता का आयोजन करते समय भी खेलभावना से खेलना, सहयोग, साहस,टीम भावना जागृत करना छात्रों को संवेदनशील बनाता है। उत्तम निष्पादन करने वाले छात्रों को पुरस्कृत कर प्रोत्साहित भी किया जाना चाहिए। खिलाड़िया के अतिरिक्त अनुशासन बनाए रखने वाले तथा खेल की व्यवस्था बनाए रखने वाले छात्रों के मनोबल को बढ़ाने हेतु उन्हें भी पुरस्कृत किया जाना चाहिए। टीम को पुरस्कृत करना भी टीम भावना को विकसित करता है। खेल के दौरान लड़ाई झगड़ा न हो, रैगिंग न हो इसका ध्यान रखा जाना चाहिए। (4) शिक्षक का छात्रों के प्रति संवेदनशील व्यवहार– शिक्षक को अपने विद्यार्थियों के मध्य अपना स्थान एक मित्र दार्शनिक पथ प्रदर्शन तथा समाज सुधारक के रूप में बनाना चाहिए । उसका व्यवहार छात्रों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। वे दिन गए जब शिक्षक दंड देकर मारकर, बालकों के कान उमेठकर, दंड बैठक लगवाकर, मुर्गा बनाकर, घुटने टिकाकर, छड़ी से या बेंत से पीटकर बालकों को अनुशासित करने पढाने या सिखाने का प्रयास करते थे । मध्ययुग की यह प्रथा अब समाप्त की जानी चाहिए। शिक्षा का अधिकार अधिनियम में छात्रों को शारीरिक या मानसिक रूप से प्रताड़ित करने पर प्रतिबंध तथा दंड का भागी माना गया है । अधिनियम की धारा 17 में यह प्रावधान है कि बालक को शारीरिक दंड या मानसिक उत्पीड़न नहीं किया जाएगा। जो कोई इस उपबंध का उल्लंघन करेगा ऐसे व्यक्ति को लागू सेवा नियमों के अधीन अनुशासनिक कार्रवाई का दायी होगा। यहाँ छात्राध्यापकों/शिक्षकों के लिए यह जानना भी जरूरी है कि बालक का उपहास उड़ाना, उसका जातिगत अपमान करना, उसके माता–पिता का अपमान करना, जैसे कार्य भी मानसिक प्रताड़ना में आते हैं जो दंडनीय हैं। बालक के साथ, मारपीट में उसके अंगभंग आदि होने पर भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत जेल में निरुद्ध होने का भी प्रावधान है। अनुशासन बनाने हेतु छात्रों में स्वानुशासन की भावना विकसित की जानी चाहिए। शिक्षक का व्यवहार कड़े कुद्ध स्वभाव के कूर शिक्षक के स्थान पर छात्रों के प्रति नरम दिल वाले उनके हितैषी शिक्षक की छवि वाला होना चाहिए। शिक्षक छात्रों का हीरो या रोलमॉडल भी होता है अतः शिक्षक का स्वयं का आचरण ऐसा हो जो छात्रों में संवेदनशीलता जागृत करने में सहायक हो । शिक्षक को टीम लीडर के रूप में छात्रों में संवेदनशीलता उत्पन्न करने के नित्य नए उपाय सोचने चाहिए। प्रतिदिन शाला के सार्वजनिक श्यामपट पर 'आज का विचार या आज की सूक्ति के रूप में संवेदनशीलता जागृत करने वाले विचार बदल बदल कर लिखने चाहिए उदाहरण स्वरूप– (1) जैसे साध की पहचान इसकी साधुता से हो सकती है न निवेश से वैसे ही अहिंसा की पहचान आचरण से होगी न कि कहने से । (जैनेन्द्रकुमार) (2) यद्यपि जग रूदनु दुःख माना। सबसे कठिन जाति अपमाना । अर्थात् यों तो संसार में तरह–तरह के दुःख हैं परन्तु जाति का अपमान सबसे कठिन दु:ख है।– (तुलसीदास) (3) मनुष्य जब पशुतुल्य आचरण करता है, उसी समय वह पशओं से भी नीचे गिर जाता है (रवीन्द्र नाथ ठाकुर),(4) करुणा में शीतल अग्नि होती है जो कर से कर व्यक्ति का हृदय भी आई कर देती है। (सुदर्शन) (5) हमारा उद्देश्य संसार के प्रति भलाई करना है, अपने । गुणों का गान करना नहीं (विवेकानंद) (6) डूबने वाले के साथ सहानुभूति का अर्थ यह नहीं है कि उनके साथ डूब जाओ, बल्कि तैरकर उसे बचाने का प्रयत्न करो (आचार्य विनोबा भावे) (7) मनुष्य के साथ प्रेम करने का पाठ शास्त्रों में बताया है। घृणा करना तो पाप है । महात्मा गाँधी ने कहा है कि छुआछूत हिन्दू धर्म के लिए कलंक है, हिन्दू जाति इसे मिटाने में जब तक सफल नहीं होती, हिन्दू धर्म खतरे में है । (ठक्कर बापा) इत्यादि। (5) समाज सेवा काये– विद्याथियों में संवेदनशीलता का विकास करने के लिए उन्हें परोपकार श्रमदान का महत्त्व तथा समाज सेवा का महत्त्व बताकर सामहिक रूप से शाला की निकटवर्ती बस्तियों की सफाई,नाली निर्माण,प्रौढ़ शिक्षा, अपढ़ या पढना छोड चके कम पढे–लिखे बालकों की अनौपचारिक शिक्षा आदि समाज सेवा के कार्यों में लगाकर निर्धन वर्ग के प्रति संवेदनशील होने का अवसर प्रदान करना चाहिए। बालकों की अवलोकन व पर्वेक्षण करने की शक्ति का विकास करना चाहिए ताकि वे स्वयं संवेदनशीलता की अनुभूति करने में सफल हो । बाढ़ पीड़ितों, भूकंप पीड़ितों, युद्ध में मारे गए सैनिकों के परिवार के सदस्यों, विकलांगो, भिखारियों, बीमार व्यक्तियों, वृद्धाश्रम में रहने वाले वद्धों, अनाथालय में रहने वाले निराश्रित बालकों के रहने के स्थानों का दौरों के द्वारा तथा ऐसे लाचार लोगों को पुराने कपड़े, जूते, चप्पल, किताबे, पेन, खिलौने, पैसा घर से लाकर वितरित करवाया जाना चाहिए। ऐसे कार्य जन संवेदना के कार्य है तथा इनसे बालक के मन में संवेदनशीलता विकसित होती है। स्काउट गाइड में विद्याथियों को बालचर बनाकर उनसे यातायात व्यवस्था में सहयोग, अंधों की सहायता,विकलागा की मदद, लाइन में लगे लोगों को पानी पिलाना जैसे समाज सेवा के कार्यों में लगाया जाना भी बालकों में संवेदनशीलता विकसित करने का कारगर उपाय है। (6) विद्यालय परिसर को संवेदनशीलता का घर बनाना– विद्यार्थी अपने सहपाठिया के साथ भाषा, जाति, वर्ग, लिंग, धर्म आदि के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव न करें, विद्यालय परिसर में सीनियर छात्रों द्वारा कनिष्ठ छात्रों की रैगिंग न हो, शिक्षक (गुरु) के प्रति आदर भावना, सम्मान भावना हो, प्रार्थना व राष्ट्रगान, मृत आत्मा की शांति हेतु मौन धारण, आदि के समय छात्र संवेदनशील आचरण करे इसका सभी शिक्षकों को ध्यान रखना चाहिए । गुटबंदी तथा वैमनस्य तथा झगड़े छात्रों में न हो इसका भी ध्यान रखना चाहिए। भृत्य, चपरासी, सेविका, सफाई कर्मचारियों को भैया, बहनजी, अंकल जैसी आदरसूचक संबोधनों द्वारा बुलाया जाना चाहिए । शिक्षक दिवस, राष्ट्रीय दिवस, विभिन्न संप्रदायों, धर्मों के विशेष उत्सवों का आयोजन, नैतिक व चारित्रिक गुणों का विकास, विविध सांस्कृतिक तथा अन्तसँस्कृतिक वार्षिकोत्सव का आयोजन संवेदना जागृत करने वाली फिल्मों का प्रदर्शन आदि उपायों का भी अवलंब लिया जा सकता है। कर्मशाला विषय– व्यक्ति के स्वयं के तथा समाज के मूल्यों की पहचान तथा व्याख्या हेतु छात्राध्यापकों को कार्य (Task) सौंपा जाएगा कि वे व्यक्ति मूल्य तथा समाज मूल्य की सूचियाँ उनके अर्थ सहित बनाएं । एक नमूना प्रस्तुत है।
जेंडर संवेदीकरण से आप क्या समझते हैं?लिंग संवेदीकरण एक आंदोलन है जिसके माध्यम से रूढ़िवादी और पारंपरिक सोच वाले लोग, निर्णय लेने में महिलाओं और पुरुषों की समान भागीदारी को सुनिश्चित करने में सक्षम होना चाहिए; समान रूप से सुविधा प्रदान करने के लिए; संसाधनों पर समान रूप से पहुंच और नियंत्रण; विकास के समान लाभ प्राप्त करने के लिए; रोजगार में समान अवसर ...
जेंडर संवेदनशीलता में शिक्षा की क्या भूमिका है?विद्यालय में सहशिक्षा का भी प्रचलन अब देखा जा रहा है। सहशिक्षा द्वारा बालक बालिकाएं साथ में शिक्षा ही ग्रहण नहीं करते बल्कि एक दूसरे का सहयोग तथा समस्याओं से अवगत होकर विचारों का आदान प्रदान करते हैं तथा एक दूसरे को सम्मान तथा सुरक्षा प्रदान करते हैं।
जेंडर संवेदनशीलता को कैसे प्रोत्साहित कर सकते हैं?1.सर्वांगीण विकास का कार्य. समानता का व्यवहार--. 3.समान शिक्षा की व्यवस्था. 4.उदार दृष्टिकोण का विकास-. बालिकाओं के महत्त्व से अवगत कराना—. 6.साथ-साथ रहने, कार्य करने की प्रवृत्ति का विकास. पारिवारिक कार्यों में समान सहभागिता-. 9.सामाजिक वातावारण में बदलाव-. जेंडर शिक्षा से क्या समझते हैं?जेंडर अध्ययन एक अंतर्विद्यावर्ती क्षेत्र है जो जाति, स्थान और वर्ग विश्वास को नकारता है। यह ज्ञान के निर्माण का आधार और सामाजिक परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण बिन्दु है।
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