जर्मनी में धर्म सुधार आंदोलन का नेता कौन था? - jarmanee mein dharm sudhaar aandolan ka neta kaun tha?

जर्मनी में धर्म सुधार आंदोलन का नेता कौन था? - jarmanee mein dharm sudhaar aandolan ka neta kaun tha?

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जर्मनी में धर्म सुधार आंदोलन का नेता कौन था? - jarmanee mein dharm sudhaar aandolan ka neta kaun tha?

मार्टिन लूथर और 1517 में उनके द्वारा घोषित पंचानबे सिद्धान्त

जर्मनी में धर्म सुधार आंदोलन का नेता कौन था? - jarmanee mein dharm sudhaar aandolan ka neta kaun tha?

वर्म्स सम्मलेन में मार्टिन लूथर अपने सिद्धान्तों से पीछे हटने की आदेश को नकारते हुए

यूरोपीय धर्मसुधार अथवा रिफॉरमेशन, 16वीं शताब्दी के प्रारंभ में समस्त पश्चिमी यूरोप धार्मिक दृष्टि से एक था - सभी ईसाई थे; सभी रोमन काथलिक कलीसिया (चर्च) के सदस्य थे; उसकी परंपरगत शिक्षा मानते थे और धार्मिक मामलों में उसके अध्यक्ष अर्थात् रोम के पोप का शासन स्वीकार करते थे। यह 16वीं शताब्दी के उस महान आंदोलन को कहते हैं जिसके फलस्वरूप पाश्चात्य ईसाइयों की यह एकता छिन्न-भिन्न हुई और प्रोटेस्टैंट धर्म का उदय हुआ। ईसाई कलीसिया के इतिहस में समय-समय पर सुधारवादी आंदोलन होते रहे किंतु वे कलीसिया के धार्मिक सिद्धातों अथवा उसके शासकों को चुनौती न देकर उनके निर्देश के अनुसार ही नैतिक बुराइयों का उन्मूलन तथा धार्मिक शिक्षा का प्रचार अपना उद्देश्य मानते थे। 16वीं शताब्दी में जो सुधार का आंदोलन प्रवर्तित हुआ वह शीघ्र ही कलीसिया की परंपरागत शिक्षा और उसके शासकों के अधिकार, दोनों का विरोध करने लगा।

धर्मसुधार आंदोलन के परिणामस्वरूप यूरोप में कैथोलिक सम्प्रदाय के साथ-साथ लूथर सम्प्रदाय, कैल्विन सम्प्रदाय, एंग्लिकन सम्प्रदाय, लिंकन सम्प्रदाय और प्रेसबिटेरियन संप्रदाय प्रचलित हो गये।

इतिहास[संपादित करें]

तत्कालीन परिस्थितियाँ[संपादित करें]

धर्मसुधार का यह नवीन स्वरूप समझने के लिए यूरोप की तत्कालीन परिस्थिति पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है।

ईसा द्वारा प्रवर्तित कैथोलिक कलीसिया के प्रति ईसाइयों में जो श्रद्धा का भाव शताब्दियों से चला आ रहा था वह कई कारणों से कम हो गया था। 14वीं शताब्दी में एक फ्रांसीसी पोप का चुनाव हुआ था, जो जीवन भर फ्रांस में ही रहे। इसके फलस्वरूप बाद में 40 वर्ष तक दो पोप विद्यमान थे, एक फ्रांस में और एक रोम में, जिससे समस्त काथलिक संसार दो भागों में विभक्त रहा। आठवीं शताब्दी में फ्रैंक जाति के कैथोलिक राजा ने इटली पर आक्रमण करने वाली लोंवार्ड सेना को हराकर इटली का मध्य भाग पोप के अधिकार में दे दिया और इस प्रकार रोमन कैथोलिक कलीसिया के परमाधिकारी धर्मगुरु के अतिरिक्त एक साधारण शासक भी बन गए। इस कारण जर्मनी और फ्रांस के राजा सहज ही कलीसिया के मामलों में और विशेषकर पोप के चुनाव में हस्तक्षेप करने का प्रयास करते रहे। 14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यह चुनाव इटली के अभिजात वर्ग की प्रतियोगिता का मैदान बन गया था जिससे व्यक्ति की योग्यता पर कम, उसके वंश पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा। इसका नतीजा यह हुआ कि उस समय नितांत अयोग्य पोपों का चुनाव हुआ और रोम के दरबार में नैतिकता तथा धर्म की उपेक्षा होने लगी। अत: रोम के कलीसिया के प्रति श्रद्धा का घट जाना नितांत स्वाभाविक था। असंतोष का एक और कारण यह था कि समस्त कलीसिया की संस्थाओं पर उनकी संपत्ति के अनुसार कर लगाया जाता था और रोम के प्रतिनिधि सर्वदा घूमकर यह रुपया वसूल करते थे।

कैथोलिक कलीसिया के केंद्रीय संगठन की इस दुर्दशा के अतिरिक्त विभिन्न धर्मप्रांतों की परिस्थिति भी संतोषजनक नहीं थी। इस समय समस्त पश्चिमी यूरोप लगभग सात सौ धर्मप्रांतों में विभक्त था। उनके शासक बिशप कहलाते थे। ये बिशप सामंत थे जो राजा द्वारा प्राय: अभिजात वर्ग में से चुने जाते थे, दरबार के सदस्य थे और जर्मनी में बहुधा अपने क्षेत्र के राजनीतिक शासक भी थे। अत: बहुत से बिशप राजनीति में अधिक, धर्म में कम रुचि लेते थे और अपने धर्मप्रदेश का धार्मिक प्रशासन विश्वविद्यालय के उच्च अधिकार प्राप्त पुरोहितों के हाथ में छोड़ देते थे। गाँवों में बसनेवाले अधिकांश साधारण पुरोहित अर्धशिक्षित थे। प्रवचन देने में असमर्थ थे और प्राय: गरीब भी थे। साधारण पुरोहितों की यह दयनीय दशा 16वीं शताब्दी के यूरोपीय काथलिक कलीसिया की सब से बड़ी कमजोरी थी। भ्रमण करनेवाले फ्रांसिस्को आदि धर्मसंधियों के अतिरिक्त जनसाधारण को (जो दो तिहाई निरक्षर था) धार्मिक शिक्षा देनेवाला कोई नहीं था। इससे सर्वत्र अंधविश्वास फैल गया और कर्मकांड को अनावश्यक एवं असंतुलित महत्व दिय जाने लगा।

13वीं शताब्दी में कैथोलिक धर्मविज्ञान (थिओलोजी) ने अरस्तू की ईसाई व्याख्या तथा स्कोलैस्टिक फिलोसोफी के सहारे धर्मसिद्धान्तों का युक्तियुक्त प्रतिपादन किया था किंतु 15वीं शताब्दी में धर्म की मूलभूत समस्याओं पर से ध्यान और चिंतन हट गया था। विश्वविद्यालयों में धर्मपंडित गौण प्रश्नों के विषय में अपने मतभेदों को अधिक महत्व देने लगे थे जिससे काथलिक धर्मविज्ञान इतन निष्प्राण हो गया था कि कुछ साधकों की यह धारणा दृढ़ हो गई थी कि धर्मविज्ञान साधना में बाधक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कलीसिया के सभी क्षेत्रों में सुधार की अपेक्षा थी और धर्मसुधार का आंदोलन अनिवार्य हो गया था। 14वीं शताब्दी में अँग़रेज विक्लिफ और बाद में बोहीमिया के न हुस जॉ (क्तद्वद्म) सिखलाने लगे थे कि कलीसिया का संगठन, उसके संस्कार आदि यह सब मनुष्यों का आविष्कार है; ईसाइयों के लिए बाइबल ही पर्याप्त है। उस समय भी उन विचारों को अधिक सफलता नहीं मिली किंतु उनका लूथर पर प्रभाव स्पष्ट ही है। स्पेन में टोलीडो के आर्बबिशप सिमेनेस (1495-1517 ई.) ने कलीसिया (चर्च) के अनुशासन के अंदर धर्मसुधार आंदोलन प्रवर्तित किया जिससे वहाँ का वातावरण पूर्ण रूप में बदल गया किंतु पश्चिमी यूरोप में कलीसिया की परिस्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हो पाया था।

जब लूथर ने रोम के विरुद्ध आवाज उठाई उनको एक और कारण से अपूर्व सफलता मिली। यूरोप में उस समय सर्वत्र प्राचीन यूनानी तथ लैटिन साहित्य की लोकप्रियता के साथ साथ एक नवीन सांस्कृतिक आंदोलन प्रारंभ हुआ जिसे रिनेसाँ अथवा नवजागरण कहा गया है। इसके फलस्वरूप लोगों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का भाव उत्पन्न हुआ। मुद्रण के आविष्कार के कारण इसी समय से बाइबिल की मुद्रित प्रतियाँ अधिक सरलतापूर्वक सुलभ होने लगी थीं, जिससे लोगों को अपनी ओर से धर्म के विषय में सोचने और बाइबिल को अपनी निजी व्याख्या करने की प्रवृत्ति को भी प्रोत्साहन मिलने लगा था।

यूरोपीय धर्मसुधार का ऐतिहासिक विकास[संपादित करें]

यूरोपीय धर्मसुधार का ऐतिहासिक विकास इस प्रकार है : इसका आरंभ 1517 ई. में लूथर के विद्रोह से हुआ था। उन्होंने किन परिस्थितियों में अपना आंदोलन प्रवर्तित किया था और कलीसिया के किन परंपरागत सिद्धांतो का विरोध करके किस प्रकार एक नया धर्म चलाया था, इसका वर्णन विश्वकोश में अन्यत्र किया गया है (दे. लूथर)। उस समय समस्त जर्मनी लगभग चार सौ स्वतंत्ररूप राज्यों में विभक्त था। उनके अधिकांश शासकों ने काथलिक सम्राट् चार्ल्स के विरोध में लूथर को सरंक्षण प्रदान किया और अपनी प्रजा को लुथर के कलीसिया में मिला दिया। शीघ्र ही स्कैंडिनेविया के समस्त ईसाई भी लूथरन धर्म में सम्मिलित हुए। स्विटजरलैंड में धर्मसुधार के दो नेता सर्वप्रधान थे - जूरिक में जिं्वगली (झ्ध्र्त्दढ़थ्त्, 1424-1436 ई.) और जनीवा में कैलविन (1509-1564 ई.), दोनों के अनुयायी बाद में एक ही केलविनिस्ट कलीसिया में सम्मिलित हो गए। यह संप्रदाय हालैंड, स्कॉटलैंड तथा फ्रांस के कुछ भागों में भी फैल गया। स्कॉटलैंड में इसका नाम प्रेसबिटरीय धर्म रखा गया है (दे. प्रेसबिटरीय धर्म) फ्रांस में पहले लूथर का प्रभाव पड़ा किंतु बाद में वहाँ के अधिकांश प्रोटेस्टैट धर्मावलंबी, जो यूगनी कहलाते हैं, कैलविन के अनुयायी बन गए। उनका संगठन एक राजनीतिक दल के रूप में से बहुत समय तक सक्रिय रहा (दे. यूगनो)। इंग्लैंड के राजा ने प्रारंभ ही से लूथर का विरोध किया था। उन्होंने एक ग्रंथ भी लिखा था जिसमें उन्होंने धर्म के मामलों में पोप के ईश्वरदत्त अधिकार का प्रतिपादन किया। यद्यपि हेनरी जीवन भर अपने राज्य में प्रोटेस्टैंट सिद्धान्तों का प्रचार रोकने का प्रयास करते रहे, फिर भी उन्होंने व्यक्तिगत कारणों से 1531 ई. में इंग्लैंड का कलीसिया रोम से अलग कर दिया, इस प्रकार ऐंग्लिकन समुदाय प्रारंभ हुआ था। हेनरी के उत्तराधिकारियों के समय में उस कलीसिया पर प्रोटेस्टैंट विचारधारा का गहरा प्रभाव पड़ा जिससे आजकल वह प्रोटेस्टैंट धर्म की तीन प्रमुख शाखाओं (लूथरन, कैलविनिस्ट और ऐंग्लिकन) में से एक माना जाता है किंतु वास्तव में ऐंग्लिकन समुदाय की उत्पत्ति, विकास और प्रचार का अपना अलग इतिहास है (ऐंग्लिकन समुदाय देखिए)। इन तीन संप्रदायों के अतिरिक्त धर्मसुधार आंदोलन के फलस्वरूप प्रोटेस्टैंट धर्म के और बहुत से उपसंप्रदायों का उद्भव हुआ जिनका यहाँ पर उल्लेख करना अनावश्यक है। अपेक्षाकृत अधिक महत्व रखनेवाले संप्रदायों का किंचित् विवरण कोश में अन्यत्र दिया गया है (प्रोटेस्टैंट धर्म देखिए)।

प्रभाव एवं परिणाम[संपादित करें]

जर्मनी में धर्म सुधार आंदोलन का नेता कौन था? - jarmanee mein dharm sudhaar aandolan ka neta kaun tha?

तीस वर्षीय युद्ध के प्रारम्भ में मध्य यूरोप में धार्मिक तुष्टिकरण का मानचित्र (1618).

इस सिंहावलोकन से स्पष्ट हो जाता है कि लूथर द्वारा प्रवर्तित सुधार आंदोलन ने विभिन्न रूप धारण कर समस्त यूरोप को हिला दिया। प्रांरभ में कलीसिया का सुधार इस आंदोलन का उद्देश्य था किंतु वह शीघ्र ही कलीसिया की परंपरागत शिक्षा तथा कलीसिया की संगठनात्मक एकता पर प्रहार करने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि यूरोप के ईसाईसंसार की एकता शताब्दियों के लिए छिन्न-भिन्न हो गई। शासन की दृष्टि से पूर्ण रूप से स्वतंत्र संप्रदायों का उद्भव हुआ, जो एक ही ईसा और बाइबिल को मानते हुए भी अनेक मूलभूत धर्म सिद्धांतों के विषय में भिन्न भिन्न मतों का प्रतिपादन करते हैं।

राजनीतिक दृष्टि से धर्मसुधार का परिणाम बहुत ही व्यापक रहा। यूरोप की उत्तरमध्यकालीन परिस्थिति ऐसी थी कि शासकों ने भी अनिवार्य रूप से इस धार्मिक आंदोलन में सक्रिय भाग लिया है। वे अपनी प्रजा को अपने ही धर्म में सम्मिलित करने अथवा बनाए रखने के उद्देश्य से युद्ध करने के लिए तैयार हो गए। इस प्रकार यूरोप के इतिहास में धर्म के नाम पर अनेक युद्धों की कलीसियाा है, जैसे, जर्मनी में 30 वर्षीय युद्ध (थरटी ईअर्स वॉर) फ्रांस में युगनो युद्ध और हॉलैंड में राजा चार्ल्स पंचम के विरुद्ध सफल स्वतंत्रता संग्राम।

ऊपर इसका उल्लेख हो चुका है कि कैथोलिक कलीसिया में समय समय पर सुधार आंदोलनों का प्रवर्त्तन होता रहा है किंतु 16वीं शताब्दी के विद्रोहात्मक धर्मसुधार से काथलिक कलीसिया को विशेष रूप से प्रेरणा मिली। इस शताब्दी में पोप के रूप में प्रतिभाशाली व्यक्तियों का चुनाव हुआ जिन्होंने कलीसिया के शासन में फिर अध्यात्म को प्राथमिकता दिला दी है जिससे समस्त काथलिक संसार में पोप का पद पुन: पूर्णरूपेण सम्मानित हो सका। बिशपों की सामंतशाही को समाप्त कर दिया गया और चारों और साधुस्वभाव व्यक्तियों की नियुक्ति से जनता के सामने बिशप का प्राचीन आदर्श उभरने लगा, जो अपनी प्रजा का धर्मगुरु एवं आध्यात्मिक चरवाहा (नेता) है। ट्रेंट नामक नगर में कलीसिया की 19वीं विश्वसभा का आयोजन हुआ जिसमें कलीसिया के नए संगठन के अतिरिक्त विशेष रूप में साधारण पुरोहितों के शिक्षण का प्रबंध किया गया। अत: कलीसिया की सभी श्रेणियों में सुधार हुआ और जनसाधारण में धार्मिक शिक्षा का उचित प्रचार हो सका। इस कार्य में धर्मसंधियों ने दूसरे पुरोहितों का हाथ बँटाया है। 16वीं शताब्दी में जेसुइट आदि कई धर्मसंघों की स्थापना हुई तथा प्राचीन (विशेषकर फ्रांसिस्की तथा कार्मेलाइट) धर्मसंघों में सुधार लाया गया जिससे वे सबके सब समय की आवश्यकताओं के अनुसार धर्म की सेवा कर सकें। इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म सुधार का संभवत: सबसे गहरा एवं हितकरी प्रभाव पुराने काथिलक कलीसिया पर ही पड़ा।

धर्मसुधार की सफलता के कारण[संपादित करें]

यूरोपीय धर्मसुधार का व्यापक प्रसार एवं गहरा प्रभाव देखकर अनायास ही मन में यह प्रश्न उठता है कि इस अपूर्व सफलता का क्या रहस्य है। इस सफलता के अनेक कारणों की कल्पना की गई है :

15वीं शताब्दी के आरंभ में काथलिक कलीसिया की दयनीय दशा और इसके कर्णधारों की निष्क्रियता, कलीसिया की संपति हड़पने को उत्सुक राजनेताओं की सहायता, नवजागरण के कारण व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आंदोलन, मुद्रण के आविष्कार से प्रचार की नई सुविधाएँ। यह सब आलोच्य आंदोलन के लिए सहायक सिद्ध हुआ किंतु इसकी सफलता का रहस्य अन्यत्र ढूँढना चाहिए।

धर्मसुधार के प्रवर्तक सात्विक और धार्मिक भाव से प्रेरित थे और वे अपने प्रतिभाशाली सहयोगियों में भी धार्मिक नवजागरण की उत्कट अभिलाषा उत्पन्न करने में समर्थ हुए। इनके विचार में उस नवजागरण का एकमात्र उपाय यह प्रतीत होता था कि मनुष्य अपने पुण्य कर्मों पर भरोसा न रखकर ईसा के प्रति आत्मसमर्पण करे और बाइबिल में सुरक्षित ईसा के सुसमाचार पर विश्वास करे। उन्होंने बाइबिल को अपने आंदोलन का आधार बना लिया, बाइबिल में जो शक्ति निहित है उसी के द्वारा उन्हें सफलता मिली है।

आजकल ईसाई संसार में 16वीं शताब्दी की घटनाओं पर तटस्थ दृष्टि से विचार किया जा रहा है। काथिलक यूरोपीय धर्मसुधार की रचनात्मक उपलब्धियों को स्वीकार करते हैं और प्रोटेटैंस्ट समझने लगे हैं कि कलीसिया की तत्कालीन बुराइयों का विरोध करना कितना ही आवश्यक क्यों न था, उसकी एकता छिन्न भिन्न करने से ईसाई धर्म को बहुत हानि हुई है। द्वितीय महायुद्ध के बाद ईसाई एकता के आंदोलन को अत्यधिक महत्व दिया जाने लगा है और धर्मसुधार के दुष्परिणाम को दूर करने की अभिलाषा बढ़ती जा रही है।

धर्मसुधार आन्दोलन के प्रणेता[संपादित करें]

मार्टिन लूथर के पूर्व धर्मसुधारकों ने चौदहवीं सदी से ही कलीसिया और पोपशाही की अनैतिकता, भ्रष्टता, विलासिता और शोषण के विरूद्ध अपनी आवाज बुलंद की और उन्होंने धर्म सुधार की पृष्ठ भूमि तैयार की। ये अधोलिखित हैं।

जान वाइक्लिफ (1320 ई.-1384 ई.)[संपादित करें]

यह इंग्लैण्ड में आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर था। उसने कैथोलिक धर्म और कलीसिया की अनेक गलत परम्पराओं और गतिविधियों की ओर जनसाधारण का ध्यान आकृष्ट किया। उसने बाइबल का अंग्रेजी में अनुवाद किया जिससे कि साधारण जनता ईसाई धर्म के वास्तविक सिद्धांतों को समझ सके एवं पादरियों द्वारा गुमराह होने से बच सके। प्रत्येक ईसाई को बाइबल के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए। इसलिए पादरियों के मार्गदशर्न की आवश्यकता नहीं है। उसके मतानुसार कलीसिया में व्याप्त भ्रष्टाचार का कारण उसकी अतुल सम्पित्त है, इसलिए उसने राजा को सुझाव दिया कि राज्य इस अतुल सम्पित्त को ले ले और गिरजाघरों को पवित्र स्थल बनावे।

जानहस[संपादित करें]

यह जर्मनी में बोहेमिया का निवासी था और प्राग विश्वविद्यालय में प्रोफेसर था। उसने यह मत प्रतिपादित किया कि एक साधारण ईसाई बाइबल के सिद्धांतों का अनुकरण कर मुक्ति प्राप्त कर सकता है। इसके लिए गिरजाघर और पादरी की आवश्यकता नहीं है। कलीसिया की आलोचना करने पर उसे नास्तिक कहा गया और नास्तिकता के आरोप में उसे 1415 ई. में जीवित जला दिया।

सेवोनारोला (1452 ई.-1498 ई.)[संपादित करें]

यह इटली में फ्लोरेंस नगर का विद्वान पादरी था। उसने पोप की अनैतिकता, भ्रष्टता और विलासिता तथा कलीसिया में व्याप्त दोषों की कटु आलोचना की। इस पर पोप और उसकी परिषद ने उसे दंडित कर जीवित जला दिया।

इरासमस (1466 ई.-1536 ई.)[संपादित करें]

जर्मनी में धर्म सुधार आंदोलन का नेता कौन था? - jarmanee mein dharm sudhaar aandolan ka neta kaun tha?

यह हालैण्ड निवासी था। उसने लैटिन साहित्य तथा ईसाई धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया। इस अध्ययन से उसमें मानवतावादी पवित्र भावनाएँ जागृत हुई। 1484 ई. में वह ईसाई मठ में धार्मिक जीवन व्यतीत करने चला गया। 1492 ई. तक उसने यहाँ एक पादरी के पद पर कार्य किया। यहाँ उसने कलीसिया व मठों में व्याप्त भ्रष्टाचार और विलास को स्वयं देखा। 1499 ई. में वह इंग्लैण्ड चला गया। वहाँ वह टामस, मूर, जान कालेट, टामस लिनेकर जैसे इंग्लैण्ड के विद्वानों के संपर्क में आया और उसने अनेक पुस्तकें और लेख लिखे। उसकी रचनाओं में 'कलेक्टिनिया एडगियोरम' जिसका अनुवाद अनेक भाषाओं में हुआ, “कोलोक्वीज“ , “हैण्डबुक ऑॅफ ए क्रिश्चयन गोल्जर“ और 1511 ई. में लिखी 'द प्रेज ऑफ फाली' प्रमुख है। अंतिम ग्रंथ में उसने व्यंग्य और परिहास की शैली में धर्माधिकारियों की पोल खोली और कलीसिया में व्याप्त दोषों और अनैतिकता पर प्रहार किये। उसने 1515 ई में उसने बाइबल का लेटिन भाषा में अनुवाद किया।

मार्टिन लूथर (1483 ई.-1546 ई.)[संपादित करें]

जर्मनी में सेक्सनी क्षेत्र के गाँव आइबेन में लूथर का जन्म 10 नवम्बर 1483 को एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। उसने इरफर्ट विवि में धर्म शास्त्र और मानववादी शास्त्र का अध्ययन किया। 1508 ई. मेंं वह बिटेेनवर्ग के विश्वविद्यालय में धर्म और दशर्नशास्त्र का प्रोफेसर नियुक्त हुआ। पर वह पादरी और प्रोफेसर बन गया। उसने ईसाई धर्म और संतों के सिद्धांतों का गहन अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मोक्ष प्राप्ति के लिए मनुष्य में ईश्वर के प्रति श्रद्धा एवं ईश्वर की क्षमाशलता में विश्वास नितांत आवश्यक है। उसने तत्कालीन कैथोलिक धर्म में प्रचलित सप्त संस्कारों के सिद्धांत का खंडन किया।

उसने एक नया इसाई सम्प्रदाय चलाया जो 'प्रोटेस्टैंट' कहलाया।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • प्रोटेस्टैंट
  • धर्मसुधार-विरोधी आंदोलन (काउण्टर-रिफॉर्मेशन)
  • इंग्लैण्ड में धर्मसुधार

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • Internet Archive of Related Texts and Documents
  • 16th Century Reformation Reading Room: Extensive online resources, Tyndale Seminary
  • Reformation Ink

जर्मनी में धर्म सुधार आंदोलन के प्रणेता कौन है?

जर्मनी में धर्मसुधार और लूथरवाद (Reformation and Lutheranism in Germany) जर्मनी में धर्मसुधार आंदोलन का प्रणेता मार्टिन लूथर (1483 ई. -1546 ई.) था।

धर्म सुधार आंदोलन का प्रमुख नेता कौन था?

Answer: राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण का जनक माना जाता है। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनके द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज, जो आधुनिक पाश्चात्य विचारों पर आधारित था, हिन्दू धर्म का पहला सुधार आंदोलन था

धर्म सुधार आंदोलन की शुरुआत सर्वप्रथम कहाँ हुई?

इसका आरंभ 1517 में लूथर के विद्रोह से हुआ था। मार्टिन लूथर जर्मन भिक्षु, धर्मशास्त्री, विश्वविद्यालय में प्राध्यापक, पादरी एवं चर्च-सुधारक थे जिनके विचारों के द्वारा प्रोटेस्टिज्म सुधारान्दोलन आरम्भ हुआ जिसने पश्चिमी यूरोप के विकास की दिशा बदल दी।

मार्टिन लूथर का धार्मिक आंदोलन क्या था?

मार्टिन लूथर (Martin Luther) (१४८३ - १५४६) इसाई धर्म में प्रोटेस्टवाद नामक सुधारात्मक आन्दोलन चलाने के लिये विख्यात हैं। वे जर्मन भिक्षु, धर्मशास्त्री, विश्वविद्यालय में प्राध्यापक, पादरी एवं चर्च-सुधारक थे जिनके विचारों के द्वारा प्रोटेस्टिज्म सुधारान्दोलन आरम्भ हुआ जिसने पश्चिमी यूरोप के विकास की दिशा बदल दी।