गाँव और शहर दोनों स्थानों पर चलने वाले मोहन के जीवन संघर्ष में क्या फर्क आया? - gaanv aur shahar donon sthaanon par chalane vaale mohan ke jeevan sangharsh mein kya phark aaya?

गाँव और शहर, दोनों जगहों पर चलने वाले मोहन के जीवन-संघर्ष में क्या फर्क है? चर्चा करें और लिखें।


गाँव में मोहन का जीवन-संघर्ष केवल अच्छी शिक्षा पाने के लिए था। गाँव के स्कूल में वह एक प्रतिभावान् छात्र समझा जाता था। स्कूल और गाँव में उसका सम्मान था। सभी उसके उज्ज्वल भविष्य की कामना करते थे।

शहर आकर वह पढ़ाई में निरंतर पिछड़ता चला गया। इसके दो कारण थे-

1 उसे किसी अच्छे स्कूल में भर्ती नहीं कराया गया था।

2. उसे घरेलू कामों में उलझाकर एक घरेलू नौकर बना दिया गया था। अब उसे काम पाने वेन लिए संघर्ष करना पड़ रहा था।

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बिरादरी का यही सहारा होता है।

क. किसने किससे कहा?

ख. किस प्रसंग में कहा?

ग. किस आशय से कहा?

घ. क्या कहानी में यह आशय स्पष्ट हुआ है?


(क) यह मोहन के पिता वंशीधर ने युवक रमेश से कहा।

(ख) यह उस प्रसंग में कहा गया जब रमेश ने मोहन को अपने साथ लखनऊ ले जाकर पढ़ाई कराने के लिए स्वयं को प्रस्तुत किया।

(ग) यह कथन रमेश के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए कहा गया।

(घ) नहीं, कहानी में यह आशय स्पष्ट नहीं हुआ है। रमेश ने मोहन को सहारा देने के स्थान पर एक घरेलू नौकर बना दिया।

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घनराम मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी क्यों नहीं समझता था?


धनराम मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी इसलिए नहीं समझता था क्योंकि वह जानता था कि मोहन एक बुद्धिमान लड़का है। वह मास्टर जी के कहने पर ही उसको सजा देता था। धनराम मोहन के प्रति स्नेह और आदर का भाव रखता था। शायद इसका एक कारण यह था कि बचपन से ही उसके मन में जातिगत हीनता की भावना बिठा दी गई थी। धनराम ने कभी मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं समझा, बल्कि इसे वह मोहन का अधिकार समझता रहा था। उसके लिए मोहन के बारे में किसी और तरह से सोचने की गुंजाइश ही न थी।

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मास्टर त्रिलोकसिंह के किस कथन को लेखक ने ज़बान के चाबुक कहा है और क्यों?


जब मास्टर त्रिलोकसिंह ने धनराम को तेरह का पहाड़ा याद करके सुनाने के लिए कहा और धनराम को यह पहाड़ा याद नहीं हो पाया तब वह मास्टरजी की सजा का हकदार हो गया। इस बार मास्टरजी ने सजा देने के लिए बेंत का उपयोग नहीं किया, बल्कि फटकारते हुए जबान की चाबुक लगा दी। उनका कथन था- ‘तेरे दिमाग में तो लोहा भरा है रे! विद्या का ताप कहाँ लगेगा इसमें।’ वे यह जताना चाहते थे कि पढ़ना-लिखना धनराम के वश की बात नहीं है। वह तो लोहे का काम ही कर सकता है।

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मोहन के लखनऊ आने के बाद के समय को लेखक ने उसके जीवन का एक नया अध्याय क्यों कहा है?


मोहन के लखनऊ आने के बाद के समय को लेखक ने उसके जीवन का एक नया अध्याय इसलिए कहा है, क्योंकि इसके बाद उसका जीवन’ एक बँधी-बँधाई लीक पर चलने लगा। उसकी कुशाग्र बुद्धि जैसे कुंठित हो गई।  उसे एक साधारण से स्कूल में भर्ती करा दिया गया था। उसे सारे दिन मेहनत के काम करने पड़ते थे। जिस बालक के उज्ज्वल भविष्य की कल्पना की जा रही थी, वही घरेलू कामकाज में उलझकर रह गया। उसे अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए कारखानों और फैक्ट्ररियों के चक्कर लगाने पड़े। उसे कोई काम नहीं मिल

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कहानी के उस प्रसंग का उल्लेख करें, जिसमें किताबों की विद्या और घन चलाने की विद्या का जिक्र आया है।


जब घनराम को तेरह का पहाड़ा याद नहीं हुआ तो मास्टर त्रिलोकसिंह ने अपने थैले से 5 -6 दरातियाँ निकालकर धार लगाने के लिए उसे पकड़ा दीं। उनका सोचना था कि किताबों की विद्या का ताप लगाने की सामर्थ्य धनराम के पिता में नहीं है।

जब धनराम हाथ-पैर चलाने लायक हुआ तभी उसके पिता ने उसे घन चलाने की विद्या सिखानी शुरू कर दी। धीरे- धीरे धनराम धौंकनी हंसने, सान लगाने के काम से आगे बढ्कर घन चलाने की विद्या में कुशल होता चला गया।

इसी प्रसंग में किताबों की विद्या और घन चलाने की विद्या का जिक्र आया है ।

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गांव और शहर दोनों जगह पर चलने वाले मोहन के जीवन संघर्ष में क्या अंतर है?

Solution : गाँव और शहर, दोनों जगहों पर चलने वाले मोहन के जीवन संघर्ष में ज्यादा कुछ फ़र्क <br> नहीं है। गाँव में उसे गरीबी, साधनहीनता और प्राकृतिक बाधाओं के साथ संघर्ष करना <br> पड़ा। शहर में उसे दिन-भर नौकरों की तरह काम करना, मामूली से स्कूल में भी ठीक से <br> पढ़ाई का मौका न मिलना आदि संघर्षों से गुजरना पड़ा।

धन राम क्या काम करता था?

जब धनराम हाथ-पैर चलाने लायक हुआ तभी उसके पिता ने उसे घन चलाने की विद्या सिखानी शुरू कर दी। धीरे- धीरे धनराम धौंकनी हंसने, सान लगाने के काम से आगे बढ्कर घन चलाने की विद्या में कुशल होता चला गया। इसी प्रसंग में किताबों की विद्या और घन चलाने की विद्या का जिक्र आया है ।