गोपियों का उद्धव से तर्क वितर्क करना पाठक के मन में कौन सा भाव जगाता है? - gopiyon ka uddhav se tark vitark karana paathak ke man mein kaun sa bhaav jagaata hai?

UP Board Class 10th Hindi Book full Solution / यूपी बोर्ड कक्षा 10 हिंदी संपूर्ण हल

गोपियों का उद्धव से तर्क वितर्क करना पाठक के मन में कौन सा भाव जगाता है? - gopiyon ka uddhav se tark vitark karana paathak ke man mein kaun sa bhaav jagaata hai?

आज की पोस्ट में हम आपको UP Board कक्षा 10 हिंदी का संपूर्ण हल बताएंगे इसलिए आपको इस पोस्ट को पूरा पढ़ना है तथा आखिरी तक पढ़ना है।

दुनिया के सभी भागों में स्त्री-पुरुष और बच्चे रेडियो से कान सटाए बैठे थे, जिनके पास टेलीविजन थे, वे उसके पर्दे पर आँखें गड़ाए थे। मानवता के सम्पूर्ण इतिहास की सर्वाधिक रोमांचक घटना के एक क्षण के वे भागीदार बन रहे थे-उत्सुकता और कुतूहल के कारण अपने अस्तित्व से बिल्कुल बेखबर हो गए थे।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

 (ग) रोमांचक घटना के भागीदार कौन बन रहे थे?

उत्तर

(क) सन्दर्भ –  प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पानी में चन्दा और चाँद पर आदमी' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'जयप्रकाश भारती हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक कहता है कि मानव का चन्द्रमा पर उतरना मनुष्य के अब तक के इतिहास की सबसे अधिक रोमांचक घटना थी। दुनिया के सभी स्थानों के स्त्री-पुरुष और बच्चे इस महत्त्वपूर्ण घटना के इस अद्भुत क्षण का हिस्सा बन रहे थे। यह सब सुनकर प्रत्येक व्यक्ति उत्सकुता और आश्चर्य से अपने आप से बेखबर हो गया था। अर्थात् वे अपनी सुध-बुध खो बैठे थे।

(ग) संसार के समस्त व्यक्ति अर्थात् वह प्रत्येक स्त्री-पुरुष और बालक जो रेडियो पर मानव के चाँद पर उतरने की खबर सुन रहे थे, इस रोमांचक घटना के भागीदार बन रहे थे।

मानव को चन्द्रमा पर उतारने का यह सर्वप्रथम प्रयास होते हुए भी असाधारण रूप से सफल रहा यद्यपि हर क्षण, हर पग पर खतरे थे। चन्द्रतल पर मानव के पाँव के निशान, उसके द्वारा वैज्ञानिक तथा तकनीकी क्षेत्र में की गई असाधारण प्रगति के प्रतीक हैं, जिस क्षण डगमग-डगमग करते मानव के पग उस धूलि-धूसरित अनछुई सतह पर पड़े तो मानो वह हजारों-लाखों वर्षों से पालित-पोषित सैकड़ों अन्धविश्वासों तथा कपोल-कल्पनाओं पर पद-प्रहार ही हुआ। कवियों की कल्पना के सलोने चाँद को वैज्ञानिकों ने बदसूरत और जीवनहीन करार दे दिया-भला अब चन्द्रमुखी कहलाना किसे रुचिकर लगेगा।

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प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए। 

(ग) चन्द्रतल पर मानव के पाँव के निशान किस बात के प्रतीक थे?

(घ) चन्द्रतल पर मानव के पग पड़ने से उसके अन्धविश्वासों तथा कल्पनाओं पर पद-प्रहार कैसे हुआ?

अथवा

 मानव के चन्द्रमा पर उतरने का क्या भाव प्रतिध्वनित हुआ?

उत्तर

(क) सन्दर्भ –  प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पानी में चन्दा और चाँद पर आदमी' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'जयप्रकाश भारती हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक कहता है कि जिस समय अमेरिकी चन्द्रयान चन्द्रमा की सतह पर पहुंचा और मानव ने अपने लड़खड़ाते हुए कदम सफलतापूर्वक चन्द्रमा की सतह पर रखे, उस समय ही चन्द्रमा के सम्बन्ध में प्राचीनकाल से आज तक चली आ रही कोरी कल्पनाएँ तथा अन्धविश्वास व निरर्थक अनुमान असत्य सिद्ध हो गए। मनुष्य द्वारा चन्द्रमा 

पर पहुँचने के कारण उसके विषय में यथार्थ सत्य के रूप में सबके सम्मुख आ गया। प्राचीन कवियों ने चन्द्रमा को सुन्दर कहते हुए नारियों के मुख की तुलना उससे की थी, परन्तु चन्द्रमा की सतह पर पहुंचकर वैज्ञानिकों ने कवियों की इन भ्रान्तियों व सन्देह को असत्य सिद्ध कर दिया। वैज्ञानिकों ने चन्द्रमा के विषय में बताया कि वह बहुत कुरूप, ऊबड़ खाबड़ और जीवन रहित है। आज यदि कोई व्यक्ति किसी सुन्दर मुख वाली स्त्री की तुलना चन्द्रमा से करेगा तो अब वह अपने को चन्द्रमुखी कहलाना कैसे पसन्द करेगी? अर्थात् चन्द्रमा तो कुरूप है और कोई सुन्दरी स्वयं की तुलना उस कुरूप चन्द्रमा से नहीं करवाना चाहेगी।

(ग) चन्द्रतल पर मनुष्य के जो पैरों के निशान पड़े हैं, वे मनुष्य की वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के अतिरिक्त उसके अदम्य साहस, अलौकिक इच्छा और अलौकिक वैज्ञानिक प्रगति के प्रतीक थे।

(घ) मनुष्य, चन्द्रमा के सौन्दर्य से आदिकाल से आकर्षित होता रहा है। उसने चन्द्रमा के विषय में अनेक कल्पनाएँ और अन्धविश्वास पाल रखे थे परन्तु चन्द्रतल पर मानव के कदम पड़ने के पश्चात् इन कल्पनाओं और अन्धविश्वासों पर प्रहार हुआ, क्योंकि उसने चाँद को ऊबड़-खाबड़ सतह वाला और जीवन के अयोग्य पाया। इस प्रकार उसके अन्धविश्वास और कल्पनाओं पर प्रहार हुआ।

हमारे देश में ही नहीं संसार की प्रत्येक जाति ने अपनी भाषा में चन्द्रमा के बारे में कहानियाँ गढ़ी हैं और कवियों ने कविताएँ रची हैं। किसी ने उसे रजनीपति माना तो किसी ने उसे रात्रि की देवी कहकर पुकारा। किसी विरहिणी ने उसे अपना दूत बनाया तो किसी ने उसके पीलेपन से क्षुब्ध होकर उसे बूढ़ा और बीमार ही समझ लिया। बालक श्रीराम चन्द्रमा को खिलौना समझकर उसके लिए मचलते हैं तो सूर के श्रीकृष्ण भी उसके लिए हठ करते हैं। बालक को शान्त करने के लिए एक ही उपाय था-चन्द्रमा की छवि को पानी में दिखा देना।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

 (ग) राम और कृष्ण चन्द्र के लिए क्यों हठ करते थे? उनके हठ को कैसे शान्त किया जाता था?

अथवा

 बालक को शान्त करने के लिए क्या उपाय था?

(घ) उपरोक्त गद्यांश का साहित्यिक सौन्दर्य स्पष्ट कीजिए।

उत्तर

(क) सन्दर्भ –  प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पानी में चन्दा और चाँद पर आदमी' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'जयप्रकाश भारती हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक कहता है कि किसी कवि ने चन्द्रमा को रात्रि के अधिपति की उपमा दी है, तो किसी ने इसका निशा देवी के रूप में वर्णन किया है। प्रेमी के वियोग में दुःखी प्रेमिका ने भी चन्द्रमा को में दूत बनाकर स्वयं के सन्देशों को प्रियतम तक पहुँचाने का असफल प्रयत्न किया है, तो कभी उसका पीलापन देखकर उसे बूढ़ा, बीमार और दुर्बल समझ लिया गया है। बाल्यकाल में श्रीराम और श्रीकृष्ण जैसे श्रेष्ठ पुरुष भी इस चन्द्रमा की ओर आकर्षित हुए तो उन्होंने इसे खिलौने के रूप में लेने की हठ कर ली। बालक की जिद के समक्ष बेबस माँ कौशल्या और यशोदा क्या करती? उनके सम्मुख बालक राम और कृष्ण के हठ को शान्त करने का एक ही उपाय था, चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब (परछाई) को पानी में दिखा दिया जाए। उस समय उन्हें इस बात का बोध नहीं था कि एक दिन वास्तव में चन्द्रमा के पास पहुंचना सम्भव हो सकेगा किन्तु आज मानव में इतनी प्रगति कर ली है कि इस असम्भव कार्य को सम्भव करके दिखा दिया है। मानव विकास की इस कहानी को महादेवी वर्मा ने इस प्रकार स्पष्ट किया है कि प्राचीन समय में चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को पानी में दिखाकर उसे पृथ्वी पर उतारा जाता था, किन्तु आधुनिक समय में स्वयं मानव चन्द्रमा पर उतर गया है अर्थात् कहने का तात्पर्य यह है कि पहले चन्द्रमा को प्राप्त करने की कल्पनाएँ की जाती थीं, किन्तु आज मनुष्य उस तक पहुँचने में सफल हो गया है।

(ग) कवि तुलसीदास के श्रीराम और सूरदास के श्रीकृष्ण चन्द्रमा को खिलौना समझकर उसे पाने की बार-बार ज़िद करते रहे हैं। उनकी ज़िद को पूरा करने के लिए थाली में पानी रखकर उसमें चाँद का प्रतिबिम्ब दिखाकर उन्हें शान्त किया जाता था।

(घ) साहित्यिक सौन्दर्य

भाषा सरल, सहज, बोधगम्य (प्रवाहमयी) साहित्यिक हिन्दी। गद्य शैली भावात्मक वाक्य-विन्यास सुगठित

शब्द चयन विषय-वस्तु के अनुरूप तथा भावाभिव्यक्ति में समर्थ । विचार-विश्लेषण चाँद के आकर्षण से आकर्षित होकर उसके विषय में कहानियाँ गढ़ लेने तथा लम्बी यात्रा के पश्चात् चाँद पर पहुंचने का सुन्दर वर्णन किया गया है।

मानव मन सदा से ही अज्ञात के रहस्यों को खोलने और जानने-समझने को उत्सुक रहा है। जहाँ तक वह नहीं पहुँच सकता था, वहाँ वह कल्पना के पंखों पर पहुँचा। उसकी अनगढ़ और अविश्वसनीय कथाएँ उसे सत्य के निकट पहुँचाने में प्रेरणाशक्ति का काम करती रहीं। अन्तरिक्ष युग का सूत्रपात 4 अक्टूबर, 1947 को हुआ था, जब सोवियत रूस ने अपना पहला स्पूतनिक छोड़ा। प्रथम अन्तरिक्ष यात्री बनने का गौरव यूरी गागरिन को प्राप्त हुआ। अन्तरिक्ष युग के आरम्भ के ठीक 11 वर्ष 9 मास 17 दिन पश्चात् चन्द्र तल पर मानव उतर गया।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए। 

(ग) अन्तरिक्ष युग का सूत्रपात कब हुआ?

अथवा अन्तरिक्ष युग का आरम्भ कब हुआ? प्रथम अन्तरिक्ष यात्री बनने का श्रेय किस व्यक्ति को है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ –  प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पानी में चन्दा और चाँद पर आदमी' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'जयप्रकाश भारती हैं।

 (ख) रेखांकित अंश की व्याख्या –  लेखक कहता है कि मानव अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण सदैव नई वस्तुओं व नए विषयों को जानने के लिए जिज्ञासु रहा है। इसी प्रवृत्ति के कारण वह सदैव अज्ञात रहस्यों को सुलझाने में सफलता प्राप्त करता रहा है। अपनी शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार वह अनजाने (अज्ञात) रहस्यों पर पड़े पर्दे को हटाने के लिए निरन्तर प्रयास करता रहा है और जो उसकी सामर्थ्य से बाहर है वहाँ वह कल्पना द्वारा उसे जानने की चेष्टा करता है।मानव ने अपनी कल्पना शक्ति के द्वारा अनेक काल्पनिक कहानियाँ गढ़ी हैं, यद्यपि यह कल्पित कथाएँ सत्य से परे निराधार मालूम पड़ती है, किन्तु इन्हीं कल्पनाओं के सहारे वह सत्य के निकट पहुँचने का प्रयास करता रहा है और अनजाने रहस्यों पर पड़े पर्दे को हटाने में सफलता प्राप्त कर रहा है। मानव की जिज्ञासु प्रवृत्ति ही उसे सदैव सत्य की खोज के लिए प्रेरित करती रहेगी। अन्तरिक्ष युग का सूत्रपात सोवियत रूस के द्वारा पहले स्पतनिक को छोड़े जाने की तिथि अक्टूबर, 1917 थी। अतः यूरी गागरिन को प्रथम अन्तरिक्ष यात्री बनने का गौरव प्राप्त हुआ। अन्तरिक्ष युग के प्रारम्भ में 11 वर्ष 9 महीने 17 दिन पश्चात् चन्द्रमा के तल पर मानव ने अपना पहला कदम रखा अर्थात् मानव चन्द्रतल पर उतर गया।

(ग) अन्तरिक्ष युग का सूत्रपात 4 अक्टूबर, 1947 को उस समय हुआ, जब रूस ने अपना पहला स्पूतनिक यान छोड़ा और यूरी गागरिन को प्रथम अन्तरिक्ष यात्री बनने का अवसर मिला।

अभी चन्द्रमा के लिए अनेक उड़ानें होंगी। दूसरे ग्रहों के लिए मानव रहित यान छोड़े जा रहे हैं। अन्तरिक्ष में परिक्रमा करने वाला स्टेशन स्थापित करने की दिशा में तेज़ी से प्रयत्न किए जा रहे हैं। ऐसा स्टेशन बन जाने पर ब्रह्माण्ड के रहस्यों की पर्तें खोजने में काफी सहायता मिलेगी। यह पृथ्वी मानव के लिए पालने के समान है। वह हमेशा-हमेशा के लिए इसकी परिधि में बँधा हुआ नहीं रह सकता। अज्ञात की खोज में वह कहाँ तक पहुँचेगा, कौन कह सकता है?

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) मानव किसकी परिधि में नहीं बँधा रह सकता और क्यों?

उत्तर

(क) सन्दर्भ –  प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पानी में चन्दा और चाँद पर आदमी' नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक 'जयप्रकाश भारती हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – मनुष्य जिज्ञासु प्रवृत्ति का प्राणी है। उसकी जिज्ञासा उसे नित नए तथ्य जानने के लिए प्रेरित करती है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर लेखक कहता है कि मनुष्य ने 21 जुलाई, 1969 को चन्द्रमा के तल पर अपने कदम रखकर भले ही उसके कुछ रहस्यों को समझ लिया हो, पर मनुष्य इतने से ही शान्त नहीं होगा। वह चन्द्रमा के विषय में और अधिक जानने के लिए बार-बार उड़ान भरेगा।

उसकी जिज्ञासा यहीं शान्त नहीं होगी। वह चन्द्रमा पर अपने कदम रखने से उत्साहित होकर अन्य ग्रहों का रहस्य जानने के लिए मानव रहित यान छोड़ने में जुटा है। वह चाहता है कि अन्तरिक्ष में निरन्तर घूमने वाला कोई स्टेशन स्थापित हो जाए। इस दिशा में वह तेजी से निरन्तर प्रयासरत है। ऐसा स्टेशन बन जाने पर ब्रह्माण्ड के अनेक अनसुलझे रहस्यों को जानने व समझने में काफी सहायता मिलेगी।

(ग) मानव पृथ्वी की परिधि में बंधकर नहीं रह सकता है। इसका कारण है—पृथ्वी से बाहर की दुनिया का रहस्य जानने की जिज्ञासा। वह पृथ्वी के अतिरिक्त अन्तरिक्ष और ब्रह्माण्ड के अज्ञात रहस्यों की खोज में निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। चन्द्रमा के विषय में कुछ रहस्यों को जानने के पश्चात् उसका मनोबल और भी बढ़ गया है।

चरन-कमल बंदौं हरि राइ जाकी कृपा पंगु

 गिरि लंघै, अंधे कौं सब कुछ दरसाइ।। बहिरौ सुनै, गूंग पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराइ सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बंदौ तिहिं पाइ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पद में सूरदास जी ने अपने आराध्य श्रीकृष्ण के चरणों की वन्दना करते हुए उनकी महिमा का अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया है।

व्याख्या – भक्त शिरोमणि सूरदास जी श्रीकृष्ण के चरण कमलों की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे प्रभु! मैं आपके चरणों की, जो कमल के समान कोमल हैं, वन्दना करता हूँ, इनकी महिमा अपरम्पार है, जिनकी कृपा से लंगड़ा व्यक्ति पर्वतों को लाँघ जाता है, अन्धे व्यक्ति को सब कुछ दिखाई देने लगता है, बहरे को सुनाई देने लगता है, गूँगा बोलने लगता है और गरीब व्यक्ति राजा बनकर अपने सिर पर छत्र धारण कर लेता है। सूरदास जी कहते हैं कि हे कृपालु और दयालु प्रभु! मैं आपके मैं चरणों की बार-बार वन्दना करता हूँ। आपकी कृपा से असम्भव से असम्भव कार्य भी। सम्भव हो जाते हैं। अतः ऐसे दयालु श्रीकृष्ण के चरणों की मैं बार-बार वन्दना करता हूँ।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने ईश्वर के चरणों की महिमा व्यक्त करते हुए उनके प्रति भक्ति भाव को व्यक्त किया है।

भाषा               साहित्यिक ब्रज

शैली                    मुक्तक             

गुण                     प्रसाद

रस                 भक्ति

शब्द-शक्ति।         लक्षणा

छन्द               गेयात्मक

अलंकार

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'बार-बार' में एक शब्द की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

 अनुप्रास अलंकार 'सूरदास स्वामी' में 'स' वर्ण की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

रूपक अलंकार 'चरण कमल' में कमलरूपी कोमल चरणों के बारे में बताया गया है। इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।

अबिगत-गति कछु कहत न आवै। ज्या गूँगे मीठे फल को रस अंतरगत ही भावै।। परम स्वाद सबही सु निरंतर अमित तोष उपजावै। मन-बानी की अगम-अगोचर, सो जानै जो पावै।। रूप-रेख-गुन-जाति-जुगति-बिनु निरालंब कित धावै। सब विधि अगम विचारहिं तातै सूर सगुन-पद गावै।।

सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पधांश में सूरदास ने कृष्ण के कमल-रूपी सगुण रूप के प्रति अपनी भक्ति का निरूपण किया है। इन्होंने निर्गुण भगवान की आराधना को अत्यन्त कठिन तथा सगुण ब्रह्म की उपासना को अत्यन्त सुगम और सरल बताया है।

व्याख्या सूरदास जी कहते हैं कि निर्गुण अथवा निराकार ब्रह्म की स्थिति का वर्णन नहीं किया जा सकता । वह अवर्णनीय है । निर्गुण ब्रह्म की उपासना के आनन्द का कोई नहीं कर सकता । जिस प्रकार गूंगा व्यक्ति मीठे फल का स्वाद अपने हृदय में ही अनुभव करता है, वह उसका शाब्दिक वर्णन नहीं कर सकता । उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म की भक्ति के आनन्द का  केवल अनुभव किया जा सकता है,उसे मौखिक रूप से (बोलकर ) प्रकट नहीं किया जा सकता। यद्यपि निर्गुण की प्राप्ति से निरन्तर अत्यधिक आनन्द होता है और उपाय को उससे असीम सन्तोग भी प्राप्त होता है। मा द्वारा उस ईश्वर तक पहुंचा नहीं जा सकता, जो इन्द्रियों से है, इसलिए उसे अगम एवं अगोचर कहा गया है। उसे जो प्राप्त कर लेता है, वही उसे जानना निर्गुण ईश्वरान कोई रूप हैन आकृति, न ही हमें उसके गुणों का ज्ञान जिससे हम उसे प्राप्त कर सके। बिना किसी आधार के न जाने उसे कैसे पाया है? ऐसी स्थिति में भक्त का मन बना किसी आधार के न जाने कहाँ कहाँ भटकता रहेगा, क्योंकि निर्गुण ब्रह्म तक पहुंचना असम्भव है। इसी कारण सर्भ प्रकार से विचार करके ही सूरदास जी ने सगुण श्रीकृष्ण की लीला के पद का अधिक उचित समझा है।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने निर्गुण ब्रह्म की उपासना की अपेक्षा सगुण ब्रह्म की उपासना को सरल बताया है।

भाषा      साहित्यिक ब्रज

छन्द।          गीतात्मक 

शब्द-शक्ति।     लक्षणा

गुण                 प्रसाद

रस।              भक्ति और शान्त

शैली।                 मुक्तक

अलंकार

 अनुप्रास अलंकार 

'अगम-अगोदर' और 'मन-बानी में क्रमश'अ' 'ग' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

दृष्टांत अलंकार ज्यों गूंगे नीठे फल में उदाहरण अर्थात फल के माध्यम से मानव हृदय के भाव को प्रकट किया गया है।इसलिए यहाँ दृष्टान्त अलंकार है। 

किलकत कान्हा धुतुरुवन आवत।मनिमय कनक नंद के आँगन, बिम्ब पकरिव धावत।। कमर्हु निरखि हरि आपु छाँह कौ, कर सौंपकरन चाहत ।किलकि हंसत राजत द्वि दतियाँ, पुनि-पुनि तिहि अवगाह कनक- भूमि पर कर-पग छाया, यह उपमा इक राजति करि करि प्रतिपद प्रतिमनि बसुधा, कमल बैठकी साजति।। बाल-दसा-मुख निरधि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलायति । अँचरा तर लै ढंकी , सूर के प्रभु को दूध पियावति ।।

सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने मणियुक्त आँगन में घुटनों के बल चलते हुए बालक श्रीकृष्ण की शोभा का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि सूरदास जी श्रीकृष्ण की बाल-मनोवृत्तियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि बालक कृष्ण किलकारी मारते हुए घुटनों के बल चल रहे हैं। नन्द द्वारा बनाए मणियों से युक्त आँगन में श्रीकृष्ण अपनी परछाई देख उसे पकड़ने के लिए दौड़ने लगते हैं। कभी तो अपनी परछाई देखकर हँसने लगते हैं और कभी उसे पकड़ना चाहते हैं, जब श्रीकृष्ण किलकारी मारते हुए हँसते हैं, तो उनके आगे के दो दाँत बार-बार दिखाई देने लगते हैं, जो अत्यन्त सुशोभित लग रहे हैं।

श्रीकृष्ण के हाथ-पैरों की छाया उस पृथ्वी रूपी सोने के फर्श पर ऐसी प्रतीत हो रही है, मानो प्रत्येक मणि में उनके बैठने के लिए पृथ्वी ने कमल का आसन सजा दिया हो अथवा प्रत्येक मणि पर उनके कमल जैसे हाथ-पैरों का प्रतिबिम्ब पड़ने से ऐसा लगता है कि पृथ्वी पर कमल के फूलों का आसन बिछ रहा हो।

श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को देखकर माता यशोदा जी बहुत आनन्दित होती है और बाबा नन्द को बार-बार वहाँ बुलाती है। उसके पश्चात् माता यशोदा सूरदास के प्रभु बालक श्रीकृष्ण को अपने आँचल से ढककर दूध पिलाने लगती है।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने श्रीकृष्ण की बाल-क्रीड़ाओं का अत्यन्त मनोहारी चित्रण किया है।

भाषा         ब्रज

शैली         मुक्तक

गुण      प्रसाद और माधुर्य

छंद          गीतात्मक

रस         वात्सल्य 

शब्द-शक्ति    लक्षणा

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'किलकत कान्ह' और 'प्रतिपद प्रतिमनि' में क्रमशः 'क', 'प' तथा 'त' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुपास अलंकार है। 

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'पुनि-पुनि' और 'करि-करि में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

 उपमा अलंकार 'कनक-भूमि' और 'कमल बैठकी' अर्थात् स्वर्ण रूपी फर्श और कमल जैसा आसन में उपमेय-उपमान की समानता प्रकट की गई है, इसलिए उपमा अलंकार है।

मैं अपनी सब गाइ चरैहौ।प्रात होत बल कै संग जैहाँ, तेरे कहै न रैहौ।। ग्वाल बाल गाइनि के भीतर, नैकहुँ डर नहिं लागत। आजु न सोवौ नंद-दुहाई, रैनि रहौंगौ जागत।। और ग्वाल सब गाइ चरैहैं, मैं घर बैठो रैहौ।सूर स्याम तुम सोइ रहौ अब, प्रात जान मैं देहौं।।

सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने श्रीकृष्ण के स्वाभाविक बालहठ का चित्रण किया है, जिसमें वे अपने ग्वाल सखाओं के साथ अपनी गायों को चराने के लिए वन में जाने की हठ कर रहे हैं।

व्याख्या – बालक कृष्ण अपनी माता यशोदा से हठ करते हुए कहते हैं कि है माता! मैं भी अपनी गायों को चराने वन जाऊँगा। प्रातःकाल होते ही मैं भैया बलराम के साथ बन में जाऊँगा और तुम्हारे कहने पर भी घर में न रुकूँगा, क्योंकि बन में ग्वाल सखाओं के साथ रहते हुए मुझे तनिक भी डर नहीं लगता। आज में नन्द बाबा की कसम खाकर कहता हूँ कि में रातभर नहीं सोऊंगा, जागता रहूँगा। हे माता! अब ऐसा नहीं होगा कि सब ग्वाल बाल गाय चराने जाएं और में घर में बैठा रहूँ। ये सुनकर माता यशोदा ने कृष्ण को विश्वास दिलाया हे पुत्र अब तुम सो जाओ, सुबह होने पर तुम्हें गायें चराने के लिए अवश्य भेज दूंगी।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने श्रीकृष्ण के बाल मनोविज्ञान का स्वाभाविक चित्रण किया है।

भाषा          ब्रज

शैली         मुक्तक  

 रस        वात्सल्य

गुण        माधुर्य

छन्द       गेह पद

अलंकार

अनुप्रास अलंकार रैनि रहेंगौ', 'ग्वाल बाल' और 'सूर स्याम' में क्रमश: 'र', 'ल' और 'स' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

मैया हौं न चरैहौं गाइ।सिगरे ग्वाल घिरावत मोसौं, मेरे पाई पिराइ जौं न पत्याहि पूछि बलदाउहिं, अपनी सौहं दिवाइ।यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ मैं पठवति अपने लरिका कौं, आवै मन बहराइ सूर स्याम मेरौ अति बालक, मारत ताहि रिंगाइ।।

सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में माता यशोदा ने श्रीकृष्ण द्वारा हठ किए जाने पर उन्हें वन भेज दिया, किन्तु वन में ग्वाल सखाओं ने उन्हें परेशान किया तथा प्रस्तुत पद में श्रीकृष्ण घर लौटकर माता यशोदा से उनकी शिकायत करते हैं।

 व्याख्या – श्रीकृष्ण माता यशोदा से कहते हैं कि हे माता! अब मैं गाय चराने नहीं जाऊँगा। सभी ग्वाले मुझसे ही अपनी गायों को घेरने के लिए कहते हैं, इधर से उधर दौड़ते-दौड़ते मेरे पैरों में दर्द होने लगता है। हे माता! यदि आपको मेरी बात पर विश्वास न हो तो अपनी सौगन्ध दिलाकर बलराम भैया से पूछ लो। यह सुनकर माता यशोदा क्रोधित होकर ग्वालों को गाली देने लगती हैं। सूरदास जी कहते हैं कि माता यशोदा कहती हैं कि मैं अपने पुत्र को वन में इसलिए भेजती हूँ कि उसका मन बहल जाए। मेरा कृष्ण अभी बहुत छोटा है, ये ग्वाले उसे इधर-उधर दौड़ाकर मार डालेंगे।

काव्य सौन्दर्य

कवि सूरदास ने श्रीकृष्ण व माता यशोदा का स्थितिवश व्यवहार का यथार्थपरक चित्रण किया है।

भाषा          ब्रज

गुण           माधुर्य 

शैली           मुक्तक

छन्द           गेय पद

रस।           वात्सल्य

शब्द-शक्ति       अभिधा

छन्द अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'मोसौं मेरे', 'पाइँ पिराई', 'ग्वालनि गारी' और 'सूर स्याम' में क्रमश: 'म', 'प' तथा 'इ', 'ग' और 'स' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

सखी री, मुरली लीजै चोरि। 'जिनि गुपाल कीन्हे अपनै बस, प्रीति सबनि की तोरि।। छिन इक घर-भीतर, निसि-बासर, धरत न कबहूँ छोरि । कबहूँ कर, कबहूँ अधरनि, कटि कबहूँ खोसत जोरि ।। ना जानौं कछु मेलि मोहिनी, राखे अँग-अँग भोरि। सूरदास प्रभु कौ मन सजनी, बँध्यौ राग की डोरि।।

सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पोश में श्रीकृष्ण का मुरलों के प्रति प्रेम तथा उससे ईर्ष्या करती गोपियों को मनोदशा का चित्रण किया गया है।

 व्याख्या – गोपियों एक-दूसरे से कहती है कि है सखी! कृष्ण की मुरली को हमे बुरा लेना चाहिए। इस पुरती ने श्रीकृष्ण को अपनी ओर आकर्षित कर अपने वश में कर लिया है। श्रीकृष्ण ने भी मुरली के वशीभूत होकर हम सभी गोपियों को भुला दिया है। वे घर के भीतर हो बाहर कभी एक पल के लिए भी मुरली को नहीं छोड़ते। कभी हाथ में रखते हैं तो कभी होठो पर और कभी कमर में खास लेते है। इस तरह से श्रीकृष्ण भी उसे कभी भी अपने से दूर नहीं होने देते। यह हमारी समझ में नहीं आ रहा कि मुरली ने कौन-सा मोहिनी मन्त्र श्रीकृष्ण पर चला दिया है, जिससे श्रीकृष्ण पूर्णरूपेण उसके वश में हो गए हैं। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों कह रही है कि हे सजनी इस वंशी ने श्रीकृष्ण का मन प्रेम की डोरी से बांधा हुआ है।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने श्रीकृष्ण की मुरली के प्रति ईर्ष्या भाव का स्वाभाविक चित्रण किया है।

भाषा            ब्रज 

गुण              माधुर्य

रस                 श्रृंगार

शैली              मुक्तक और गीतात्मक 

छंद                 गेव पद

शब्द-शक्ति          लक्षणा

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'कबहूँ कर कबहूँ' और 'मेलि मोहनी' में क्रमश: 'क' तथा 'ह' और 'म' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'अँग-अंग' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है। 

रूपक अलंकार 'राग की डोरी' अर्थात् प्रेम रूपी डोर का वर्णन किया गया है, जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।

ऊधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं। बृन्दाबन गोकुल बन उपबन, सघन कुंज की छाँही। प्रात समय मात जसुमति अरु नंद देखि सुख पावत। माखन रोटी दह्यौ सजायौ, अति हित साथ खवावत।। गोपी ग्वाल बाल संग खेलत, सब दिन हँसत सिरात।सूरदास धनि धनि बजबासी, जिनसौं हित जदु-जात ।

सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने श्रीकृष्ण की मनोदशा का चित्रण किया है। उद्धव ने मथुरा पहुँचकर श्रीकृष्ण को वहाँ की सारी स्थिति बताई, जिसे सुनकर श्रीकृष्ण भाव-विभोर हो गए।

व्याख्या श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे उद्धव! मैं ब्रज को भूल नहीं पाता हूँ। मैं सबको भुलाने का बहुत प्रयत्न करता हूँ, पर ऐसा करना मेरे लिए सम्भव नहीं हो पाता। वृन्दावन और गोकुल, वन, उपवन सभी मुझे बहुत याद आते हैं। वहाँ के कुंजों की घनी छाँव भी मुझसे भुलाए नहीं भूलती। प्रातः काल माता यशोदा और नन्द बाबा मुझे देखकर हर्षित होते तथा अत्यन्त सुख का अनुभव करते थे। माता यशोदा मक्खन, रोटी और दही मुझे बड़े प्रेम से खिलाती थी। गोपियाँ और ग्वाल-बालों के साथ अनेक प्रकार की क्रीड़ाएँ करते थे और सारा दिन हँसते-खेलते हुए व्यतीत होता था। ये सभी बाते मुझे बहुत याद आती हैं। 

सूरदास जी ब्रजवासियों की सराहना करते हुए कहते हैं कि वे ब्रजवासी धन्य हैं, क्योंकि श्रीकृष्ण स्वयं उनके हित की चिन्ता करते हैं और इनका प्रतिक्षण ध्यान करते हैं। उन्हें श्रीकृष्ण के अतिरिक्त ऐसा हितैषी और कौन मिल सकता है।

काव्य सौन्दर्य

श्रीकृष्ण साधारण मनुष्य की भाँति अपने प्रियजनों को याद कर द्रवित हो रहे हैं। यद्यपि उनका व्यक्तित्व अलौकिक है फिर भी ब्रज की स्मृतियाँ उन्हें व्याकुल कर देती हैं।

भाषा       ब्रज

गुण          माधुर्य

रस           श्रृंगार

छन्द          गेयात्मक

शब्द-शक्ति   अभिधा और व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'ब्रज बिसरत', 'गोपी ग्वाल' और 'अति हित' में क्रमश: 'ब', 'ग' और 'त' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'धनि-धनि' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

ऊधौ मन न भए दस बीस'एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग, को अवराधे ईस।। इंद्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस। आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस।। तुम तौ सखा स्याम सुन्दर के, सकल जोग के ईस सूर हमारैं नँद-नंदन बिनु, और नहीं जगदीस।।

सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश 'भ्रमरगीत' का एक अंश है। श्रीकृष्ण मथुरा चले जाते हैं और गोपियाँ उनको याद कर-कर के अत्यन्त व्याकुल हैं। श्रीकृष्ण उद्धव को गोपियों के पास भेजते हैं। वह ज्ञान और योग का सन्देश लेकर ब्रज में पहुंचते हैं, लेकिन वे उनके इस सन्देश को स्वीकार करने में स्वयं को असमर्थ बताती हैं, क्योंकि वे श्रीकृष्ण को छोड़कर किसी अन्य की आराधना नहीं कर सकती है।

व्याख्या – गोपियाँ, उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव! हमारे दस-बीस मन नहीं हैं। हमारे पास तो एक ही मन था, वह भी श्रीकृष्ण के साथ चला गया। अब हम किस मन से तुम्हारे द्वारा बताए गए निर्गुण ब्रह्म की आराधना करें? अर्थात् जब मन ही नहीं है तो किस प्रकार हम तुम्हारे द्वारा बताए गए धर्म का पालन करें। श्रीकृष्ण के बिना हमारी सारी इन्द्रियाँ शिथिल (कमजोर) हो गई है अर्थात् शक्तिहीन और निर्बल हो गई हैं। इस समय इनकी स्थिति ठीक वैसी ही हो गई है, जैसी बिना सिर के प्राणी की हो जाती है। श्रीकृष्ण के बिना हम निष्प्राण हो गई हैं। हमें हमेशा उनके आने की आशा बनी रहती है। इसी कारण हमारे शरीर में श्वास चल रही है। इसी आशा में हम करोड़ों वर्षों तक जीवित रह सकती हैं।

गोपियाँ कहती है कि हे उद्धव! आप तो श्रीकृष्ण के मित्र है और सभी प्रकार के योग विद्या के स्वामी हैं, सम्पूर्ण योग विद्या तथा मिलन के उपायों को जानने वाले हैं। आप ही श्रीकृष्ण से हमारा मिलन करा सकते हैं। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों ने स्पष्ट रूप से उद्धव को बता दिया कि नन्द जी के पुत्र श्रीकृष्ण के बिना उनका कोई और आराध्य नहीं है। उनके अतिरिक्त वे और किसी की आराधना नहीं कर सकती।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने श्रीकृष्ण के विरह में विचलित गोपियों की शारीरिक व मानसिक स्थिति का चित्रण किया है।

भाषा             ब्रज

रस             शृंगार (वियोग

शैली             मुक्तक

गुण।              माधुर्य

छन्द।              गेय पद

शब्द-शक्ति।       व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'दस बीस', 'स्याम सँग' और 'नंद-नंदन' में क्रमश 'स', 'स' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

उपमा अलंकार 'ज्यौं देही बिनु सीस' अर्थात् बिना सिर के प्राणी के रूप में मानवीय वेदना का वर्णन किया गया है। इसलिए उपमा अलंकार है।

श्लेष अलंकार 'ज्यौं देही बिनु सीस' में 'ज्यौं' वाचक शब्द का प्रयोग किया गया है, जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।

भाव साम्य

इसी प्रकार का भाव व्यक्त करते हुए तुलसीदास ने भी कहा है.

 "एक भरोसो, एक बल, एक आस बिस्वास

एक राम घनस्याम हित, चातक तुलसीदास "

ऊधौ जाहु तुमहिं हम जाने। स्याम तुमहिं ह्या को नहिं पठयौ, तुम हौ बीच भुलाने।। ब्रज नारिनि सौं जोग कहत हौ, बात कहत न लजाने। बड़े लोग न बिवेक तुम्हारे, ऐसे भए अयाने।। हमसौं कही लई हम सहि कै, जिय गुनि लेह सयाने। कहँ अबला कहँ दसा दिगंबर, मष्ट करौ पहिचाने।। साँच कहौं तुमको अपनी सौं, बूझतिं बात निदाने। सूर स्याम जब तुमहिं पठायौ, तब नैकहुँ मुसकाने।।

सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं- हे उद्धव! हम तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म को नहीं मानेंगी। उद्धव तथा गोपियों के बीच हुए तर्क-वितर्क का वर्णन किया गया है।

व्याख्या – गोपियाँ, उद्धव से कहती हैं कि तुम यहाँ से वापस चले जाओ। हम तुम्हें भली प्रकार से जानती हैं। हमें ऐसा प्रतीत हो रहा है कि तुम्हें यहाँ श्रीकृष्ण ने नहीं भेजा है। तुम स्वयं रास्ता भटककर यहाँ आ गए हो। तुम ब्रज की नारियों (गोपियाँ) से योग की बात कह रहे हो, तुम्हें लज्जा नहीं आती। तुम भले ही बुद्धिमान और ज्ञानी होंगे, परन्तु हमें ऐसा लगता है कि तुममें विवेक नहीं है, नहीं तो तुम ऐसी अज्ञानतापूर्ण बातें हमसे क्यों करते? तुम ये मन में विचार कर लो, जो हमसे कह दिया ब्रज में किसी अन्य से ऐसी बात न कहना। हमने तो सहन कर लिया, कोई दूसरी गोपी सहन नहीं करेगी। कहाँ योग की दिगम्बर (वस्त्रहीन) अवस्था और कहाँ हम अबला नारियाँ। अतः अब तुम चुप हो जाओ और जो भी कहना सोच-समझकर कहना। अब तुम सच-सच बताओ कि जब श्रीकृष्ण ने तुम्हें यहाँ भेजा था, वह क्या थोड़ा-सा मुस्कुराए थे। वे अवश्य मुस्कुराए होंगे। तभी तो उन्होंने तुम्हारे साथ उपहास करने लिए तुम्हें यहाँ भेजा है।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने निर्गुण ब्रह्म की श्रेष्ठता तथा गोपियों द्वारा उद्धव की उलाहना का हास्यस्पद चित्रण किया गया है।

भाषा          ब्रज

गुण            माधुर्य

छन्द        गेय पद

शैली       मुक्तक

रस       शृंगार का वियोग रूप

शब्द-शक्ति    व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'स्याम तुमहिं', 'बात कहत', 'बूझति बात' और 'नैकहुँ मुसकाने' में क्रमशः 'स', 'त', 'ब' और 'क' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

निरगुन कौन देस कौ बासी? मधुकर कहि समुझाइ सौह दै, बूझतिं साँच न हाँसी।। को है जनक, कौन है जननी, कौन नारि, को दासी? कैसो बरन, भेष है कैसो, किहिं रस मैं अभिलाषी? पावैगौ पुनि कियौ आपनौ, जो रे करैगौ गाँसी। सुनत मौन हवै रह्यौ बाबरौ, सूर सबै मति नासी।।

सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

 प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास ने गोपियों के माध्यम से निर्गुण ब्रह्म की उपासना का खण्डन तथा सगुण कृष्ण की भक्ति का मण्डन किया है।

व्याख्या – गोपियाँ भ्रमर की अन्योक्ति के माध्यम से उद्धव को सम्बोधित करते हुए कहती है कि हे उद्धव! ये निर्गुण ब्रह्म किस देश के निवासी है? हम तुम्हें सौगन्ध देकर पूछती है, कि तुम हमें सच-सच बताओ, हम कोई हंसी-मजाक नहीं कर रही हैं। तुम यह बताओ कौन उसका पिता है, कौन माता है, कौन स्त्री है और कौन उसकी दासी है? उसका रंग-रूप कैसा है, उसकी वेशभूषा कैसी है? तथा वह किस रस की इच्छा रखने वाला है?

गोपियाँ, उद्धव को चेतावनी देते हुए कहती है कि हमें सभी बातों का ठीक-ठीक उत्तर देना। गोपियाँ कहती है कि यदि तुम हमसे कपट करोगे तो उसका परिणाम तुम्हे अवश्य भुगतना पड़ेगा। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों के इस प्रकार व्यंग्यात्मक तर्कपूर्ण प्रश्नों को सुनकर उद्धव स्तब्ध हो गए। वह उनके प्रश्नों का कुछ उत्तर न दे सके। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो उनका सारा ज्ञान समाप्त हो गया हो। गोपियों ने अपने वाक्चातुर्य से ज्ञानी उद्धव को परास्त कर दिया अर्थात् उद्धव का सारा ज्ञान अनपढ़ गोपियों के सामने नष्ट हो गया।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने गोपियों द्वारा निर्गुण ब्रह्म का उपहास अत्यन्त व्यंग्यात्मक तथा तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया है।

भाषा         ब्रज

शैली        मुक्तक

 गुण       माधुर्य

छन्द       गेह पद

रस    वियोग शृंगार एवं हास्य

 शब्द-शक्ति        व्यंजना

अलंकार

 अनुप्रास अलंकार 'समुझाई सौह', 'कैसो किहिं', 'पावैगो पुनि' और 'सुनत मौन' में क्रमश: 'स', 'क', 'प' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

अन्योक्ति अलंकार मधुकर अर्थात् भ्रमर के रूप में उद्धव की तुलना की गई है, जिस कारण अन्योक्ति अलंकार है।

सँदेसौ देवकी सौं कहियौ ।हौं तो धाइ तिहारे सुत की, मया करत ही रहियौ ।। जदपि टेव तुम जानति उनकी, तऊ मोहिं कहि आवै।प्रात होत मेरे लाल लड़ैते, माखन रोटी भावै।। तेल उबटनौ अरु तातो जल, ताहि देखि भजि जाते। जोइ-जोइ माँगत सोइ सोइ देती, क्रम-क्रम करि कै न्हाते।। सूर पथिक सुन मोहिं रैनि-दिन बढ्यौ रहत उर सोच। मेरौ अलक लड़ैतो मोहन हैहै करत संकोच।।

सन्दर्भ–प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित 'सूरसागर' महाकाव्य से हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने श्रीकृष्ण की माता देवकी के पास मथुरा चले जाने के बाद माता यशोदा के स्नेह तथा उनकी पीड़ा का वर्णन किया है।

व्याख्या – यशोदा जी देवकी को एक पथिक के हाथ सन्देश भिजवाते हुए कहती हैं कि मैं तो तुम्हारे पुत्र की धाय माँ (माँ समान पालन-पोषण करने वाली सेविका) हूँ पर वह मुझे मैया कहता रहा है। इसलिए मेरा उसके प्रति वात्सल्य भाव स्वाभाविक है। यद्यपि आप तो उसकी सारी आदतें जानती होंगी, फिर भी मेरा मन आपसे कुछ कहने को उत्कंठित हो रहा है।

मेरे लाड़ले कृष्ण को सुबह होते ही माखन-रोटी खाने की आदत है। उबटन, तेल और गर्म पानी को देखते ही मेरे लाड़ले कृष्ण भाग जाते हैं। उन्हें यह सब पसन्द नहीं है। स्नान के समय वे जो माँगा करते थे, मैं उन्हें दिया करती थी। उन्हें धीरे-धीरे स्नान करने की आदत है। सूरदास जी कहते हैं कि माता यशोदा के हृदय में रात-दिन यही चिन्ता रहती है कि उनका लाड़ला कृष्ण मथुरा में कुछ माँगने में संकोच तो नहीं करता।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने पुत्र वियोगी माता यशोदा का श्री कृष्ण के प्रति अथाह प्रेम का स्वाभाविक रूप व्यक्त किया है।

भाषा          ब्रज

रस            वात्सल्य

शैली          मुक्तक

 गुण           माधुर्य

छन्द          गेय-पद

शब्द-शक्ति।   – व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'सँदेसौ देवकी', 'मोहिं कहि', 'लाल लड़ैतैं' और 'रैनि-दिन' में क्रमश: 'द', 'ह', 'ल' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'जोइ-जोइ', 'सोइ-सोइ' और 'क्रम-क्रम में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

 हिन्दी कक्षा-10 पद्यांशों की सन्दर्भ व प्रसंग सहित व्याख्या एवं उनका काव्य सौन्दर्य

उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग। बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंगा। नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी।। मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने ।। भए बिसोक कोक मुनि देवा। बारसहिं सुमन जनावहिं सेवा।। गुरु पद बंदि सहित अनुरागा। राम मुनिन्ह सन आयसु मागा। सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मंजु बर कुंजर गामी।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में तुलसीदास जी ने श्रीराम द्वारा धनुष-भंग से पहले गुरुओं और मुनियों से आज्ञा माँगने, सभा में उपस्थित राजाओं की मनःस्थिति, राम की विनयशीलता तथा उदारता का वर्णन किया है।

व्याख्या – तुलसीदास कहते हैं कि जब श्रीराम जी स्वयंवर सभा में की आज्ञा प्राप्त करके धनुष-भंग के लिए मंच से उठे, तो उनकी शोभा ऐसी प्रतीत हो गुरु विश्वामित्र रही थी, जैसे मंच-रूपी उदयाचल पर्वत पर श्रीराम रूपी बाल सूर्य का उदय हो गया हो, जिसे देखकर सन्तरूपी कमल पुष्प खिल उठे हों और उनके नेत्ररूपी भौंरे प्रसन्न हो गए हों अर्थात् जब श्रीराम मंच से खड़े हुए उस समय स्वयंवर सभा में उपस्थित सभी जन हर्षित हो उठे।कवि कहते हैं कि जब श्रीराम धनुष-भंग के लिए मंच से उठे तो स्वयंवर सभा में उपस्थित राजाओं की सीता को प्राप्त करने की मनोकामना नष्ट हो गई तथा उनके वचनरूपी तारों का समूह चमकना बन्द हो गया अर्थात् वे सभी मौन हो गए। वहाँ जो अभिमानी कुमुदरूपी राजा थे, वे सकुचाने लगे तथा श्रीराम रूपी सूर्य को देखकर मुरझा गए और कपटरूपी उल्लू की तरह छिप गए। जिस प्रकार रात होने पर चकवा-चकवी अपने बिछोह के कारण शोक में डूब जाते हैं, उसी प्रकार सभा में उपस्थित मुनि व देवता भी चकवारूपी शोक में डूबे हुए थे, परन्तु श्रीराम की तत्परता देख उनका दुःख समाप्त हो गया।

अब राम और सीता के संयोग की बाधा समाप्त हो गई। श्रीराम को देखकर सभा में उपस्थित समस्त जन फूलों की वर्षा कर रहे हैं। इसी बीच श्रीराम अपने गुरु विश्वामित्र के चरणों की प्रेमपूर्वक वन्दना कर अन्य सभी मुनियों से धनुष-भंग करने की अनुमति माँगते हैं। सम्पूर्ण जगत् के स्वामी श्रीराम अपने गुरु विश्वामित्र जी के चरणों की वन्दना कर तथा अन्य मुनियों की आज्ञा प्राप्त करके सुन्दर मतवाले हाथी की भाँति मस्त चाल से धनुष की ओर स्वाभाविक रूप से बढ़ रहे हैं।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने उस समय का मनोहरी चित्रण किया है, जब गुरु विश्वामित्र की आज्ञा से श्रीराम धनुष-भंग के लिए मंच से उठ खड़े होते हैं।

भाषा           अवधी

शैली           प्रबन्ध और विवेचनात्मक/चित्रात्मक

गुण            माधुर्य

रस             भक्ति / शृंगार

छन्द           दोहा

शब्द-शक्ति।           अभिधा और व्यंजना

अनुप्रास अलंकार 'उदित उदयगिरि', और 'संत सरोज सब', 'निसिनासी' मानी महिप, बरसहि सुमन, पद बँदि में क्रमश: 'उ', 'द' और 'स' 'न', 'म', 'स', 'द' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

रूपक अलंकार 'रघुबर बालपतंग' में मंच रूपी उदयांचल का वर्णन किया गया है, 'कपटी भूप उलूक लुकाने' कपटरूपी उल्लू के समान राजा का वर्णन किया गया है। जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।

सखि सब कौतुकु देखनिहारे। जेउ कहावत हितू हमारे।। कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं।। रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा।। सो धनु राजकुअर कर देहीं। बाल मराल कि मंदर लेहीं ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी की माता का राम के प्रति चिन्ता का वर्णन है। श्रीराम की कोमलता को देखकर उनका मन चिन्तित है। जब शक्तिशाली राजा इस धनुष को हिला तक नहीं सके, तब यह बालक इस धनुष को कैसे तोड़ पाएगा?

व्याख्या – सीता जी की माता अपनी सखियों से कहती हैं कि हे सखि! जो लोग हमारे हितैषी कहलाते हैं, वे सभी तमाशा देखने वाले हैं। क्या इनमें से कोई भी राम के गुरु विश्वामित्र को समझाने के लिए जाएगा कि ये (राम) अभी बालक हैं। इस धनुष को तोड़ने के लिए हठ (जिद) करना अच्छा नहीं अर्थात् इस धनुष को बड़े-बड़े योद्धा हिला तक नहीं पाए।

धनुष को तोड़ने के लिए विश्वामित्र का आज्ञा देना और राम का आज्ञा मानकर चल देना तमाशे जैसा नहीं है। यह मेरी पुत्री का स्वयंवर है खेल नहीं, फिर इन्हें कोई क्यों नहीं समझाता ? इस धनुष की कठोरता के कारण रावण और बाणासुर जैसे वीर योद्धाओं ने इसे छुआ तक नहीं। सभी राजाओं का धनुष तोड़ने का घमण्ड टूट चुका है अर्थात् सभी अपनी हार मान चुके हैं, तो धनुष को तोड़ने के लिए इस राजकुमार के हाथों में क्यों दे दिया है? कोई इन्हें समझाता क्यों नहीं कि क्या हंस का बच्चा कभी मन्दराचल पहाड़ उठा सकता है अर्थात् शिवजी के जिस धनुष को रावण और बाणासुर जैसे महान् शक्तिशाली योद्धा छू तक नहीं सकें, उसे तोड़ने के लिए विश्वामित्र का श्रीराम को आज्ञा देना अनुचित है। श्रीराम का भी उसे तोड़ने के लिए आगे बढ़ना बालहठ ही है।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने धनुष भंग से पहले सभा में उपस्थित सीता जी की माता के श्रीराम के प्रति व्याकुलता भाव को स्पष्ट किया है।

भाषा   –    अवधी

शैली   –    प्रबन्ध और विवेचनात्मक

गुण    –    प्रसाद

रस    –    वात्सल्य छन्द चौपाई 

अलंकार 

अनुप्रास अलंकार –'सखि सब', 'हितू हमारे', 'बुझाइ कहइ' और 'बाल मराल' में क्रमशः 'स', 'ह', 'इ' और 'ल' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है। 

दृष्टान्त अलंकार – 'रावन बान हुआ नहिं चापा' में रावण का उदाहरण दिया गया है, इसलिए यहाँ दृष्टान्त अलंकार है। 

रूपक अलंकार – 'बाल मराल कि मंदर लेहीं यहाँ धनुष की #तुलना पहाड़ से की गई है, जिस कारण रूपक अलंकार है।

बोली चतुर सखी मृदु बानी तेजवंत लघु गनिअ न रानी ।। कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा।। रबि मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा ।। दोहा- मंत्र परम लघु जासु बस, विधि हरि हर सुर सर्व महामत्त गजराज कहुँ, बस कर अंकुस खर्ब ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी की माता श्रीराम की कोमलता को देखकर विचलित हो उठती है, तब उनकी सखियाँ उनको शंका को दूर करती हैं कि तेजस्वी व्यक्ति चाहे छोटा ही क्यों न हो, उसे छोटा नहीं मानना चाहिए।

व्याख्या एक सखी सीता जी की माता की शंका का निवारण करते हुए मधुर वाणी में कहती है कि हे रानी। तेजवान व्यक्ति चाहे उम्र में छोटा ही क्यों न हो, उसे छोटा नहीं मानना पतिकहाँ घड़े से उत्पन्न होने वाले मुनि अगस्त्य और कहाँ विस्तृत और दोनों में यद्यपि कोई समानता नहीं है, पर मुनि ने अपने पराक्रम से उस अपार समुद्र को सोख लिया था। इस कारण उनका यश सारे संसार में विद्यमान है। इसी प्रकार सूर्य का घेरा छोटा-सा दिखाई देता है, किन्तु सूर्य के उदित होते ही तीनों लोकों का अन्धकार दूर हो जाता है, उसी प्रकार तुम श्रीराम को छोटा मत समझो।

दोहे का अर्थ 'ओ३म्' का मन्त्र अत्यन्त छोटा है, पर ब्रह्मा, विष्णु, शिव और समस्त देवगण उसके वश में हैं। इसी प्रकार महान् मदमस्त हाथी को वश में करने वाला अंकुश भी बहुत छोटा-सा होता है। अतः तुम भी श्रीराम को छोटा मत समझो। वह उम्र में छोटे क्यों न हो, तुम उनकी कोमलता पर मत जाओ, वे अवश्य ही धनुष

को तोड़ेंगे। 

काव्य सौन्दर्य

सीता जी की माता की सखी द्वारा दिए गए तर्क श्रीराम के महत्व को दर्शाते हैं।

भाषा.      अवधी

गुण           प्रसाद

रस          वीर छन्द चौपाई 

शैली.        प्रबन्ध और विवेचनात्मक

अलंकार

अनुप्रास अलंकार हरि हर, 'कहँ कुंभज कहँ' और 'तासु तिभुवन' हरि हर में क्रमश: 'प', 'स', 'क' और 'त' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

मंत्र परम लघु जासु बस, बिधि हरि हर सुर सर्ब महामत्त गजराज कहूँ, काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन बस अपने कीन्हे ।। देबि तजिय संसउ अस जानी। मिटा बिषाद् बढ़ी अति प्रीती ।।बस कर अंकुस खर्ब ।।भंजब धनुषु राम सुनु रानी ।। सखी बचन सुनि भै परतीती।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत दोहा-चौपाई में सीता जी की माता की सखी श्रीराम की तेजस्विता का वर्णन करते हुए अनेक तथ्यों द्वारा उनका संशय दूर करती है, तभी सीता जी, श्रीराम से विवाह करने के लिए सभी देवताओं से विनती करती है। इसी मोहकता का यहाँ वर्णन किया गया है।

व्याख्या तुलसीदास जी कहते हैं कि सीता जी की माता जब श्रीराम को छोटा समझकर उनके प्रति अपनी शंका प्रकट करती हैं, तब एक सखी सीता जी की माता से कहती है कि हे रानी! जिस प्रकार ओ३म का मन्त्र अत्यन्त छोटा होता है पर ब्रह्मा, विष्णु, शिव और समस्त देवगण उसके वश में हैं, उसी प्रकार महान् मदमस्त हाथी को वश में करने वाला अंकुश भी बहुत छोटा-सा होता है। अतः तुम श्रीराम को छोटा मत समझो वह उम्र में छोटे क्यों न हो, आप उनकी कोमलता पर मत जाओ, वे अवश्य ही धनुष तोड़ देंगे।

सीता जी की माता को उनकी सखी श्रीराम की वीरता का वर्णन करते हुए कहती हैं कि कामदेव ने फूलों का ही धनुष-बाण लेकर सारे संसार को अपने वश में कर रखा है। अतः हे देवी! आप अपने मन की शंका का परित्याग कर दीजिए। श्रीराम इस शिव-धनुष को अवश्य ही तोड़ देंगे। आप मेरी बात का विश्वास कीजिए। अपनी सखी के ऐसे वचन सुनकर रानी को श्रीराम की क्षमता पर विश्वास हो गया और उनका दुःख (उदासी) समाप्त हो गया तथा उनका विषाद श्रीराम के प्रति स्नेह के रूप में परिवर्तित हो गया।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने श्रीराम के पराक्रम तथा उनकी वीरता का बखान सीता जी की माता की सखी द्वारा व्यक्त किया गया है।

भाषा           अवधी

शैली         प्रबन्ध, उद्धरण और वर्णनात्मक

रस.            श्रृंगार

गुण             माधुर्य

छन्द           दोहा

शब्द-शक्ति        अभिधा और लक्षणा

अलंकार

अनुप्रास अलंकार मंत्र परम', 'बस विधि', 'हरि हर', 'सुर सर्व में क्रमश: 'म', 'ब', 'ह' और 'स' तथा 'काम कुसुम', 'संसउ अस 'सुनु रानी' और 'विषादु बढ़ी में क्रमशः 'क', 'स', तथा 'न' और 'ब' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

लखन लखेड रघुवंसमनि, ताकेउ हर कोदड्डु। पुलकि गात बोले बचन, चरन चापि ब्रह्मांडु || दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला धरहु धरनि धरि धीर न डोला। राम चहहिं संकर धनु तोरा, होहु सजग सुनि आयसु मोरा ।। चाप समीप रामु जब आए, नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए सब कर संसउ अरु अग्यानू, मंद महीपन्ह कर अभिमानू ।। भृगुपति केरि गरब गरुआई, सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई ।। सिय कर सोचु जनक पछितावा, रानिन्ह कर दारुन दुख दावा ।। संभुचाप बड़ बोहितु पाई, चढ़े जाइ सब संगु बनाई।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में लक्ष्मण द्वारा श्रीराम को देखकर प्रसन्न होना, लक्ष्मण द्वारा कच्छप, शेषनाग आदि को चेताना करना तथा राजाओं द्वारा शंका करना कि क्या श्रीराम धनुष तोड़ पाएंगे आदि का वर्णन किया गया है।

व्याख्या तुलसीदास जी कहते हैं कि जब लक्ष्मण जी ने देखा कि रघुकुलमणि श्रीराम, शिवजी के धनुष को खण्डित करने की दृष्टि से देख रहे हैं, तो उनका शरीर आनन्दित हो उठा। शिव-धनुष के खण्डन से ब्रह्माण्ड में उथल-पुथल न हो जाए, इसलिए लक्ष्मण जी ने अपने चरणों से ब्रह्माण्ड को दबा लिया।

लक्ष्मण जी कहते हैं कि हे दिग्गजों! हे कच्छप! हे शेषनाग! हे वाराह! आप सभी धैर्य धारण करें तथा पृथ्वी को संभालकर रखें, क्योंकि श्रीराम इस शिव धनुष को तोड़ने जा रहे हैं, इसलिए आप सब मेरी इस आज्ञा को सुनकर सतर्क हो जाइए। जब श्रीराम धनुष के पास गए, तब वहाँ उपस्थित नर-नारी अपने पुण्यों को मनाने लगे, क्योंकि सभी को श्रीराम के धनुष तोड़ने पर शंका तथा अज्ञान है कि श्रीराम इस धनुष को तोड़ पाएँगे या नहीं। सभा में उपस्थित नीच अहंकारी राजाओं को भी यही लग रहा

काव्य सौन्दर्य

सीता जी की माता की सखी द्वारा दिए गए तर्क श्रीराम के महत्व को दर्शाते हैं।

भाषा।        अवधी

गुण            प्रसाद

शैली      – प्रबन्ध और विवेचनात्मक

रस            वीर

 छन्द        चौपाई

अलंकार

अनुप्रास अलंकार हरि हर, 'कहँ कुंभज कहँ' और 'तासु तिभुवन' हरि हर में क्रमश: 'प', 'स', 'क' और 'त' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

है कि श्रीराम धनुष नहीं तोड़ पाएंगे, क्योंकि जब हम से यह धनुष नहीं टूटा तो राम से कैसे टूटेगा ? कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि परशुराम के गर्व की गुरुता, सभी देवता तथा श्रेष्ठ मुनियों का भय, सीता जी की चिन्ता, राजा जनक का पछतावा और उनकी

रानियों के दारुण दुःख का दावानल, ये सभी शिवजी के धनुषरूपी बड़े जहाज को पाकर उसमें सब एक साथ चढ़ गए है।

 गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी प्रगट न लाज निसा अवलोकी ।। लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसे परम कृपन कर सोना। सकुची व्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी।। तन मन बचन मोर पनु साचा रघुपति पद सरोज चितु राचा।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में सीता जी का श्रीराम के प्रति सात्विक प्रेम का सुन्दर चित्रण प्रस्तुत किया गया है।

व्याख्या – यहाँ कवि सीता जी की वाणी की असमर्थता को प्रकट करते हुए कहते हैं कि सीता जी के प्रेमभाव की वाणीरूपी भ्रमरी को उनके मुखरूपी कमल ने रोक रखा है अर्थात् वह कुछ बोल नहीं पा रही हैं। जब वह भ्रमरी लज्जारूपी रात देखती है, तो वह अत्यन्त मौन होकर कमल में बैठी रहती है और स्वयं को प्रकट नहीं करती, क्योंकि वह तो रात्रि के बीत जाने पर ही प्रातःकाल में प्रकट होकर गुनगुनाती है अर्थात् सीता जी लज्जा के कारण कुछ नहीं कह पाती और उनके मन की बात मन में ही रह जाती है।

उनका मन अत्यन्त भावुक है, जिसके कारण उनकी आँखों में आँसू छलछला आते हैं, परन्तु वह उन आँसुओं को बाहर नहीं निकलने देती।

सीता जी के आँसू आँखों के कोनों में ऐसे समाए हुए हैं जैसे महाकंजूस का सोना घर के कोनों में ही गड़ा रहता है। सीता जी अत्यन्त विचलित हो रही थीं, जब उन्हें अपनी इस व्याकुलता का बोध हुआ तो वह सकुचा गईं और अपने हृदय में धैर्य रखकर अपने मन में यह विश्वास लाई कि यदि मेरे तन, मन, वचन से श्रीराम का वरण सच्चा है, रघुनाथ जी के चरणकमलों में मेरा चित्त वास्तव में अनुरक्त है तो ईश्वर मुझे उनकी दासी अवश्य बनाएँगे।

 काव्य सौन्दर्य

कवि ने सीता जी के प्रेम तथा श्रीराम से विवाह करने की विचलित स्थिति को व्यक्त किया है।

भाषा              अवधी 

 गुण               माधुर्य

छन्द                 दोहा

शैली                प्रबन्ध और चित्रात्मक

रस।                 शृंगार 

शब्द-शक्ति।       अभिधा एवं लक्षणा

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'लोचन कोना', 'परम कृपन' और 'धीरे धीरजु' में क्रमश: 'न', 'प' और 'घ' तथा 'र' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

उपमा अलंकार 'जैसे परम कृपन कर सोना' यहाँ समता बताने वाले शब्द 'जैसे का प्रयोग किया गया है। इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।

 देखी बिपुल बिकल वैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही।। तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा ।। का बरषा सब कृषी सुखानें समय चुके पुनि का पछितानें ।। अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी।। गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा ।। दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ।। लेत चढ़ावत खैचत गाढ़े। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें ।। तेहि छन राम मध्य धनु तोरा भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।। छन्द – भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले। चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले ।। सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं। कोदंड खंडेठ राम तुलसी जयति बचन उचारहीं।। 

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में राजा जनक की राज्यसभा में सीता जी के स्वयंवर का दृश्य है। श्रीराम जी ने देखा कि धनुष-भंग का सही समय आ गया है, उन्होंने देखा कि सारा समाज व्याकुल हो रहा है। यदि समय रहते काम सम्पन्न न हो तो बाद में व्यर्थ ही पछताना पड़ता है। इसी का मनमोहक चित्रण कवि ने किया है।

व्याख्या – गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीराम चन्द्र जी ने सीता जी को अत्यन्त व्याकुल देखा, उन्होंने अनुभव किया कि उनका एक-एक क्षण एक-एक कल्प के समान बीत रहा था तभी श्रीराम जी को ऐसा प्रतीत हुआ कि अब बिना एक पल का भी विलम्ब किए मुझे धनुष-भंग कर देना चाहिए, क्योंकि यदि कोई प्यासा व्यक्ति पानी न मिलने पर शरीर त्याग दे, तो उसकी मृत्यु के पश्चात् अमृत के तालाब का भी कोई औचित्य नहीं। खेती के सूख जाने पर अगर वर्षा होती है, तो उसका क्या लाभ? समय बीत जाने पर फिर पछताने से क्या लाभ?

अतः किसी भी कार्य को सही अवसर पर ही करना चाहिए अन्यथा बाद में हाथ मलने से कोई लाभ नहीं होता। ऐसा हृदय में विचारकर श्रीराम जी ने सीता जी की ओर देखा और अपने प्रति उनका विशेष प्रेम देखकर प्रभु अत्यन्त प्रसन्न हुए। तब मन-ही-मन उन्होंने अपने गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से उस धनुष को अपने हाथ में उठा लिया।

ज्यों ही श्रीराम ने धनुष को अपने हाथ में उठाया, त्यों ही वह बिजली की भाँति चमका और आकाश में मण्डलाकार हो गया। श्रीराम ने यह सब कार्य इतनी फुर्ती और कुशलता से किया कि सभा में उपस्थित लोगों में से किसी ने भी उन्हें हाथ में धनुष लेते हुए, प्रत्यंचा चढ़ाते और जोर से खींचते हुए नहीं देखा अर्थात् किसी को पता ही नहीं चला कि कब उन्होंने धनुष हाथ में लिया, कब प्रत्यंचा चढ़ाई और कब खींच दिया। सारे कार्य एक क्षण में ही हो गए। किसी को कुछ पता ही नहीं चला। सभी ने श्रीराम को धनुष खींचते ही खड़े देखा। उसी क्षण उन्होंने धनुष को बीच में से तोड़ डाला। धनुष के टूटने की इतनी भयंकर ध्वनि हुई कि वह तीनों लोकों में व्याप्त हो गई।

छन्द का अर्थ – तीनों लोकों में उस भयंकर कर्कश ध्वनि की गूंज व्याप्त हो गई, जिससे घबराकर सूर्य के रथ के घोड़े मार्ग को छोड़कर चलने लगे। समस्त दिशाओं के हाथी चिंघाड़ने लगे, पृथ्वी काँपने लगी, शेषनाग, वाराह और कच्छप व्याकुल हो उठे। देवता, राक्षस और मुनि कानों पर हाथ रखकर व्याकुल होकर विचारने लगे। तुलसीदास जी कहते हैं कि जब सभी को यह विश्वास हो गया कि श्रीराम जी ने यह धनुष तोड़ डाला, तब सब श्रीराम चन्द्र जी की जय बोलने लगे।

काव्य सौन्दर्य कवि ने श्रीराम द्वारा धनुष भंग करने का सादृश्य चित्रण प्रस्तुत किया है।

भाषा             अवधी

गुण              माधुर्य

छन्द           दोहा

शैली।          प्रबन्ध और सूक्तिपरक

 रस             शृंगार और अद्भुत 

शब्द-शक्ति     अभिधा और लक्षणा

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'बिपुल विकल वैदेही', 'करइ का', 'जिस जानि' 'भरे भवन' 'रव रबि कोल कूरूम' बिकल बिचारहीं' और 'प्रभु पुलके' में क्रमशः 'ब', 'क', 'ज' 'भ', 'र', क, 'ब' प वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

दृष्टान्त अलंकार – तृषित बारि दिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा' और ' का बरषा सब कृषी सुखानें', यहाँ एक ही आशय को दो भिन्नार्थो में व्यक्त किया गया है। इसलिए यहाँ दृष्टान्त अलंकार है। 

अतिशयोक्ति अलंकार – इस पद्यांश में धनुष तोड़ने का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया है, इसलिए यहाँ अतिशयोक्ति अलंकार है।

पुर तें निकसी रघुबीर-बधू, धरि धीर दए मग में डग है। झलकी भरि भाल कनी जल की, पुट सूखि गए मधुराधर वै।। फिरि बूझति है—“चलनो अब केतिक, पर्णकुटी करिहौ कित है?" तिय की लखि आतुरता पिय की अँखियाँ अति चारु चलीं जल च्वै।। 

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में श्रीराम, सीता तथा लक्ष्मण वन में जा रहे हैं। सुकोमल शरीर वाली सीता जी चलते-चलते थक गई हैं, उनकी व्याकुलता का अत्यन्त

मार्मिक वर्णन यहाँ किया गया है।

व्याख्या कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीराम, लक्ष्मण तथा अपनी सुकोमल प्रिया (पत्नी) के साथ महल से निकले तो उन्होंने बहुत धैर्य से मार्ग में दो कदम रखे। सीता जी थोड़ी ही दूर चली थीं कि उनके माथे पर पसीने की बूँदें आ गई तथा सुकोमल होंठ बुरी तरह से सूख गए। तभी वे श्रीराम से पूछती हैं कि अभी हमें कितनी दूर और चलना है और हम अपनी पर्णकुटी (झोपड़ी) कहाँ बनाएँगे? पत्नी (सीता जी) की इस दशा व व्याकुलता को देखकर श्रीराम जी की आँखों से आँसुओं की धारा प्रवाहित होने लगी। राजमहल का सुख भोगने वाली अपनी पत्नी की ऐसी दशा देखकर वे द्रवीभूत हो गए।

काव्य सौन्दर्य

कवि तुलसीदास जी ने वन मार्ग पर जाते समय सीता जी की थकान भरी स्थिति को देख श्रीराम की व्याकुलता प्रस्तुत की है।

भाषा       ब्रज

गुण       प्रसाद और माधुर्य

शैली          चित्रात्मक और मुक्तक

शब्द-शक्ति।    लक्षणा एवं व्यंजना

छन्द।        सवैया

रस          शृंगार 

 अलंकार 

अनुप्रास अलंकार 'रघुबीर बधू', 'भरि भाल', 'पर्णकुटी करिहौ' और 'अँखियाँ अति' में क्रमश: 'ब', 'भ', 'क' और 'अ' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

 स्वाभावोक्ति अलंकार 'झलकी भरी भाल कनी जल की पुट सूखि गए मधुराधर वै' में यथावत स्वाभाविक स्थिति का वर्णन किया गया है, इसलिए यहाँ स्वाभावोक्ति अलंकार है।

जल को गए लक्खन हैं लरिका, परिखौ, पिय! छाँह घरीक है ठाढ़े। पोछि पसेउ बयारि करौं, अरु पायँ पखरिहौं भूभुरि डाढ़े।।” तुलसी रघुबीर प्रिया सम कै बैठि बिलंब लौ कंटक काढ़े। जानकी नाह को नेह लख्यौ, पुलको तनु बारि बिलोचन बाढ़े।। 

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में तुलसीदास जी ने सीता जी की व्याकुलता तथा सीता जी के प्रति राम के प्रेम का सजीव वर्णन किया है।

 व्याख्या – कवि तुलसीदास जी कहते हैं कि सीता जी चलते-चलते थक गई हैं और उन्हें प्यास लगने लगती है, तो लक्षमण उनके लिए जल लेने के लिए गए हुए है। तभी सीता जी, श्रीराम से कहती है कि जब तक लक्ष्मण नहीं आते, तब तक हम घड़ी भर (कुछ देर के लिए) कहीं छाँव में खड़े होकर उनकी प्रतीक्षा कर लेते हैं। सीता जी, श्रीराम से कहती हैं, मैं तब तक आपका पसीना पोछकर हवा कर देती हूँ तथा बालू से तपे हुए पैर धो देती हूँ। श्रीराम समझ गए कि सीता जी थक चुकी हैं और वह कुछ समय विश्राम करना चाहती हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि जब श्रीराम ने सीता जी को थका हुआ देखा तो उन्होंने बहुत देर तक बैठकर उनके पैरों में से काँटे निकाले। सीता जी ने अपने स्वामी के प्रेम को देखा तो उनका शरीर पुलकित हो उठा और आँखों में प्रेमरूपी आँसू छलक आए। 

काव्य सौन्दर्य

कवि ने वन मार्ग की कठिनाइयाँ तथा वनवासी जीवन की परिस्थितियाँ प्रकट

की हैं।

भाषा         ब्रज

रस          शृंगार

शैली       मुक्तक

छन्द       सवैया

गुण।     माधुर्य

शब्द-शक्ति      लक्षणा एवं व्यंजना

 अलंकार 

अनुप्रास अलंकार – "परिखो पिय', 'बैठि बिलंब', 'कंटक काढ़े और 'जानकी नाह' में क्रमश: 'प'. 'ब' 'क' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

 रानी मैं जानी अजानी महा, पबि पाहन हूँ ते कठोर हियो है। राजहु काज अकाज न जान्यो, कह्यो तिय को जिन कान कियो है।। ऐसी मनोहर मूरति ये, बिछुरे कैसे प्रीतम लोग जियो है? । आँखिन में, सखि! राखिबे जोग, इन्हें किमि कै बनवास दियो है? ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में गोस्वामी तुलसीदास जी ने ग्रामीण स्त्रियों के माध्यम से कैकेयी और राजा दशरथ की निष्ठुरता पर प्रतिक्रिया का वर्णन किया है।

व्याख्या – श्रीराम, सीता और लक्ष्मण वन में जा रहे हैं, उन्हें देखकर गाँव की स्त्रियाँ आपस में वार्तालाप कर रही है। एक स्त्री दूसरी से कहती है कि मुझे यह ज्ञात हो गया है कि रानी कैकेयी बड़ी अज्ञानी है। वह पत्थर से भी अधिक कठोर हृदय वाली नारी है, क्योंकि उन्हें इन तीनों को वनवास देते समय तनिक भी दया नहीं आई।

दूसरी ओर वे राजा दशरथ को भी बुद्धिहीन समझकर कहती हैं कि राजा दशरथ ने उचित-अनुचित का भी विचार नहीं किया, उन्होंने भी पत्नी का कहा माना और उन्हें वन भेज दिया। ये तीनों तो इतने सुन्दर और मनोहर हैं कि इनसे बिछुड़कर इनके प्रियजन कैसे जीवित रहेंगे? हे सखी! ये तीनो तो आँखों में योग्य हैं। इनको अपने से दूर नहीं किया जा सकता। इन्हें किस कारण वनवास दे दिया गया है? ये तो सदैव अपने सामने रखने योग्य हैं।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने ग्रामीण स्त्रियों के माध्यम से रानी कैकेयी की कठोरता तथा राजा दशरथ को राज-काज न जानने वाला बताया है।

भाषा         ब्रज

शैली       मुक्तक

रस         शृंगार और करुण

 गुण        माधुर्य

छन्द       सवैया

शब्द-शक्ति       अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार पवि पाहन', 'कान कियो', 'मनोहर मूरति' और 'सखि राखिने' में क्रमशः 'प', 'क', 'म' और 'ख' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

सीस जटा, उर बाहु बिसाल बिलोचन लाल, तिरीछी सी भी हैं। तून सरासन बान धरे, तुलसी बन-मारग में सुठि सोहैं। सादर बारहि बार सुभाय चितै तुम त्यों हमरो मन मोहैं। पूछति ग्राम बधू सिय सो 'कहाँ साँवरे से, सखि रावरे को हैं?' ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में श्रीराम, सीता और लक्ष्मण वन को जा रहे हैं। मार्ग में ग्रामीण स्त्रियाँ उत्सुकतावश सीता जी से प्रश्न पूछती है। वे श्रीराम जी के बारे में जानना चाहती हैं। वे उनसे परिहास भी करती हैं।

व्याख्या – गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि ग्रामीण स्त्रियाँ सीता जी से पूछती हैं कि जिनके सिर पर जटाएँ हैं, जिनकी भुजाएँ और हृदय विशाल हैं, लाल नेत्र हैं, तिरछी भौहे हैं, जिन्होंने तरकश, बाण और धनुष सँभाल रखे हैं, जो वन मार्ग में अत्यन्त सुशोभित हो रहे हैं, जो बार-बार आदर और रुचि या प्रेमपूर्ण चित्त के साथ तुम्हारी ओर देखते हैं, उनका यह सौन्दर्य हमारे मन को मोहित कर रहा है। ग्रामीण स्त्रियाँ सीता जी से प्रश्न पूछती हैं कि हे सखी! बताओ तो सही, ये साँवले से मनमोहक तुम्हारे कौन हैं?

काव्य सौन्दर्य

यहाँ ग्रामीण स्त्रियों की उत्सुकता का सहज चित्रण हुआ है।

भाषा    ब्रज

शैली।      मुक्तक

गुण।     माधुर्य 

शब्द-शक्ति      व्यंजना

रस       शृंगार

छन्द      सवैया

अलंकार

 अनुप्रास अलंकार 'बाहु बिसाल', 'बिलोचन लाल', 'सरासन बान','सादर बारहि' और 'सावरे से सखि में क्रमश: 'ब', 'ल', 'न', 'र' और 'स' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

सुनि सुन्दर बैन सुधारस-साने, सयानी हैं जानकी जानी भली। तिरछे करि नैन दे सैन तिन्है, समुझाइ कछू मुसकाइ चली ।। तुलसी तेहि औसर सोहैं सबै, अवलोकति लोचन-लाहु अली। अनुराग-तड़ाग में भानु उदै, बिगसी मनो मंजुल कंज-कली ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के काव्यखण्ड के 'धनुष-भंग' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड' से लिया गया है।

प्रसंग– प्रस्तुत पद्यांश में श्रीराम, लक्ष्मण और सीता वन में जा रहे हैं। ग्रामीण स्त्रियों ने सीता जी से उनके पति के विषय में जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया। इस पर सीता जी ने संकेतों के माध्यम से श्रीराम जी के विषय में सब बता दिया।

व्याख्या गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि ग्राम वधुओं ने सीता जी से राम के विषय में पूछा कि ये साँवले और सुन्दर रूप वाले तुम्हारे क्या लगते हैं? उनकी यह अमृत के समान मधुर वाणी सुनकर सीता जी समझ गईं कि ये स्त्रियाँ बहुत चतुर हैं, वे उनके

मनोभावों को समझ गईं। ये प्रभु (श्रीराम) के साथ मेरा सम्बन्ध जानना चाहती हैं। तब सीता जी ने उनके प्रश्न का उत्तर अपनी मुस्कुराहट तथा संकेत भरी दृष्टि से ही दे दिया। उन्होंने अपनी मर्यादा का पूर्ण रूप से पालन किया। उन्होंने संकेत के द्वारा ही यह समझा दिया कि ये मेरे पति हैं। अपने नेत्र तिरछे करके, इशारा करके, समझा कर मुस्कुराती हुई आगे बढ़ गईं अर्थात् उन्हें कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी।

तुलसीदास जी कहते हैं कि उस समय वे स्त्रियाँ श्रीराम की सुन्दरता को एकटक देखती हुई, अपने नेत्रों को आनन्द प्रदान करने लगीं अर्थात् उनके सौन्दर्य को देखकर जीवन को धन्य मानने लगीं। उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो प्रेम के सरोवर में रामरूपी सूर्य उदित हो गया हो और ग्राम वधुओं के नेत्ररूपी कमल की सुन्दर कलियाँ खिल गई हों अर्थात् उनके नेत्रों ने अपने जीवन को सफल बना लिया हो।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने सीता जी द्वारा ग्रामीण वधुओं को संकेतपूर्ण उत्तर देने से भारतीय नारी की मर्यादा को चित्रित किया है।

भाषा      ब्रज

शैली।     चित्रात्मक व मुक्तक

 गुण।   माधुर्य

छन्द       सवैया

रस       शृंगार

शब्द-शक्ति      व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'सुनि सुन्दर', 'जानकी जानी', 'तिरछे करि', 'तुलसी तेहि' और 'लोचन लाहु' में क्रमश: 'स', 'ज', 'न', 'र', 'त' और 'ल' वर्ण की पुनरावृत्ति से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

रूपक अलंकार 'सुधारस साने' में उपमेय और उपमान में कोई भेद नहीं है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।

उत्प्रेक्षा अलंकार 'मनो मंजुल कंज कली' में उपमेय में उपमान की सम्भावना को व्यक्त किया गया है। इसलिए यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है।

 धनुष-भंग, वन-पथ पर,गोस्वामी तुलसीदास 

ईर्ष्या का यही अनोखा वरदान है, जिस मनुष्य के हृदय में ईर्ष्या घर बना लेती है, वह उन चीजों से आनन्द नहीं उठाता, जो उसके पास मौजूद हैं, बल्कि उन वस्तुओं से दुःख उठाता है, जो दूसरों के पास हैं। वह अपनी तुलना दूसरों के साथ करता है और इस तुलना में अपने पक्ष के सभी अभाव उसके हृदय पर दंश मारते रहते हैं। दंश के इस दाह को भोगना कोई अच्छी बात नहीं है। मगर ईर्ष्यालु मनुष्य करे भी तो क्या? आदत से लाचार होकर उसे यह वेदना भोगनी पड़ती है।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।

(ग) (i) ईर्ष्या का अनोखा वरदान क्या है?

अथवा लेखक ने ईर्ष्या को अनोखा वरदान क्यों कहा है? 

अथवा ईर्ष्यालु व्यक्ति को ईर्ष्या से क्या कष्ट मिलता है?

(ii) ईर्ष्या की किन विशेषताओं का उल्लेख किया गया है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंशों की व्याख्या

लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' कहते हैं कि जो व्यक्ति ईर्ष्यालु प्रवृत्ति के होते हैं, उन्हें ईर्ष्या एक अद्भुत एवं अनोखा वरदान देती है। यह वरदान है बिना दुःख के दुःख भोगने का। जब व्यक्ति की के साथी ईर्ष्या बन जाती है या उसके हृदय में बस जाती है, तब वह व्यक्ति सदैव दुःख का अनुभव करता है। उसके दुःखी अनुभव करने के पीछे कोई कारण नहीं होता है। वह अकारण ही कष्ट भोगता है अर्थात् जिस व्यक्ति के मन और मस्तिष्क में अन्य व्यक्ति की प्रगति और उन्नति को देख ईर्ष्या भाव जाग्रत हो उठता है, वह जीवनभर सुख प्राप्त करने में असमर्थ हो जाता है। वह स्वयं के समीप विद्यमान असंख्य सुख-साधनों के भोग के पश्चात् भी आनन्दित महसूस नहीं कर पाता है, जिसके पीछे का कारण यह है कि वह दूसरों की वस्तुओं को देखकर ज्वलनशील प्रवृत्ति का बन जाता है।

लेखक ईर्ष्या और उसके स्वभाव के विषय में कहता है कि इस डंक से उत्पन्न कष्ट और पीड़ा को सहना उचित नहीं हैं। ईर्ष्या की आग में जलना बुरा होता है। ईर्ष्या करने वाला अपनी इस आदत को आसानी से छोड़ नहीं पाता है। दूसरे की वस्तुएँ देखकर ईर्ष्या करना उसकी आदत बन जाती है। ईर्ष्या से व्यक्ति को सुख तो मिलता नहीं, अपितु उसे पीड़ा ही सहनी पड़ती है, व्यक्ति अपनी ईर्ष्या करने की आदत से यह पीड़ा झेलने को विवश होता है तथा व्यक्ति अपने पास सब कुछ होते हुए भी कष्ट को सहने तथा वेदना (दुःख) को भोगने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकता।

(ग) (i) ईर्ष्या का अनोखा वरदान है-दुःख न होते हुए भी दुःख की पीड़ा भोगना। इसे अनोखा वरदान इसलिए कहा गया है, क्योंकि व्यक्ति के पास जो भी वस्तुएँ हैं, उनका आनन्द उठाने के बजाय वह उन वस्तुओं से दुःखी होता है, जो उसके पास नहीं हैं। वह दूसरों की वस्तुएँ देखकर ईर्ष्या करता है और दुःखी होता है।

 (ii) ईर्ष्या की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख प्रस्तुत गद्यांश में किया गया है

(अ) ईर्ष्या के कारण मनुष्य अपने पास मौजूद चीजों का आनन्द नहीं उठा पाता और दुःख उठाता है।

(ब) ईर्ष्यालु मनुष्य अपनी तुलना दूसरों के साथ करता है

एक उपवन को पाकर भगवान को धन्यवाद देते हुए उसका आनन्द नहीं लेता और बराबर इस चिन्ता में निमग्न रहना कि इससे भी बड़ा उपवन क्यों नहीं मिला, यह एक ऐसा दोष है, जिससे ईर्ष्यालु व्यक्ति का चरित्र भी भयंकर हो उठता है। अपने अभाव पर दिन-रात सोचते सोचते वह सृष्टि की प्रक्रिया को भूलकर विनाश में लग जाता है और अपनी उन्नति के लिए उद्यम करना छोड़कर वह दूसरों को हानि पहुँचाने को ही अपना श्रेष्ठ कर्त्तव्य समझने लगता है।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए। 

(ग) ईर्ष्यालु व्यक्ति का चरित्र कब भयंकर हो उठता है?

अथवा

 लेखक ने ईर्ष्यालु व्यक्ति के चरित्र के भयंकर हो उठने का क्या कारण बताया है?

(घ) ईर्ष्यालु व्यक्ति किस बात को अपना श्रेष्ठ कर्त्तव्य समझता है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंशों की व्याख्या

. लेखक ईर्ष्या से मुक्ति का साधन बताते हुए कहता है कि ईश्वर ने जो वस्तुएं छोटी या बड़ी, कम या ज्यादा, सुन्दर या कुरूप, चाहे जिस रूप में भी प्रदान की हैं, उनके लिए हमें ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए और उपलब्ध वस्तुओं से जीवन को आनन्दमय बनाना चाहिए, परन्तु इसके विपरीत यदि हम सारा समय इसी चिन्ता में व्यर्थ करेंगे कि अन्य व्यक्तियों के पास जो सुख-सुविधा के साधन मुझसे अधिक हैं, वे मेरे पास क्यों नहीं है ऐसा सोचते रहने पर ईर्ष्या बढ़ती जाती है और अन्दर-ही-अन्दर ज्वलनशीलता पैदा होती जाती है। इस कारण ईर्ष्यालु व्यक्ति का चरित्र भयंकर हो उठता है। लेखक आगे कहता है कि जय-पराजय, उत्थान-पतन, जीवन-मृत्यु ये सभी ईश्वर के अधीन हैं। हमें इसको प्राप्त करने के लिए दिन-रात चिन्तामग्न रहकर अपने जीवन को कष्टों से युक्त नहीं बनाना चाहिए।

• मनुष्य दूसरे सम्पन्न व्यक्तियों से अपनी तुलना करते रहने पर तथा अपने अभावों पर दिन-रात चिन्तित रहने के कारण सृष्टि की रचना-प्रक्रिया को भूलकर अपना सम्पूर्ण समय ईर्ष्या में व्यर्थ कर देता है। वह कार्य करना छोड़ देता है। वह इस सोच में लगा रहता है कि मैं अन्य सम्पन्न व्यक्ति को किस प्रकार हानि पहुँचा सकता हूँ। इसी कार्य को वह अपने जीवन का उच्चतम व उत्तम कर्त्तव्य समझने लगता है। लेखक कहता है कि ऐसी विचारधारा का जन्म उन व्यक्तियों में होता है, जो असन्तोषी स्वभाव के होते हैं, उनमें ईर्ष्या की भावना अधिक पाई जाती है।

(ग) ईर्ष्यालु व्यक्ति का चरित्र तब भयंकर हो उठता है, जब अपने सुख के साधनों को यह कमतर मान बैठता है और दूसरों के साधनों को बेहतर मान कर उन्हें भी अपना न होने की सोच में जलने लगता है। वह सोचने लगता है कि भगवान ने हमें और अधिक क्यों नहीं दिया।

(घ) ईर्ष्यालु व्यक्ति ईर्ष्या में जलते हुए अपनी सृजनात्मकता खो बैठता है। वह अपनी शक्तियों का प्रयोग अपनी उन्नति के लिए दूसरों को नीचा दिखाने के लिए अधिक करता है। वह विनाश के कृत्य करता है और उसे ही अपना श्रेष्ठ कर्त्तव्य समझने लगता है।

ईर्ष्या की बड़ी बेटी का नाम निन्दा है, जो व्यक्ति ईर्ष्यालु होता है, वही बुरे " किस्म का निन्दक भी होता है। दूसरों की निन्दा वह इसलिए करता है कि इस प्रकार दूसरे लोग जनता अथवा मित्रों की आँखों से गिर जाएँगे और जो स्थान रिक्त होगा, उस पर मैं अनायास ही बैठा दिया जाऊँगा।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए। 

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

 (ग) ईर्ष्यालु और निन्दक का क्या सम्बन्ध है?

(घ) ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों की निन्दा क्यों करता है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक कहता है कि ईर्ष्या की बड़ी बेटी का नाम निन्दा है अर्थात् जिस व्यक्ति में ईर्ष्या करने का भाव उत्पन्न हो जाता है, उस व्यक्ति में निन्दा करने की आदत अपने आप पड़ जाती है। ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों की बहुत निन्दा करता है। इस निन्दा में भी उसे एक आनन्दानुभूति होती है। वह जिस व्यक्ति की निन्दा करता है, उसके बारे में चाहता है कि सभी उसकी निन्दा करें। वह दूसरों की निन्दा करके समाज की दृष्टि में उस व्यक्ति को गिराना चाहता है, जिसकी वह निन्दा कर रहा है। वह सोचता है कि ऐसा करने से मित्रों और परिचितों की आँखों से वह गिर जाएगा और इस प्रकार उसके रिक्त हुए स्थान स्वयं को स्थापित कर लेगा अर्थात् दूसरों की दृष्टि में प्रशंसा का पात्र बन जाएगा। इस प्रकार वह अपनी उन्नति के चक्कर में दूसरों को गिराने का सतत प्रयास करता रहता है।

(ग) ईर्ष्यालु और निन्दक का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है, जो व्यक्ति किसी से जितनी अधिक ईर्ष्या करता है, वह उतनी ही अधिक उसकी निन्दा भी करता है अर्थात् वही निन्दक होता है, जो स्वभाव से ईर्ष्यालु होता है।

(घ) ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों की निन्दा इसलिए करता है, क्योंकि वह (ईर्ष्यालु) यह मानने की भूल कर बैठता है कि निन्दा करने से वह व्यक्ति अपने मित्रों और परिचितों की दृष्टि में गिर जाएगा, जिसकी वह निन्दा कर रहा है। इस प्रकार उस व्यक्ति के स्थान को वह स्वयं ले लेगा और वह सम्मानित बन जाएगा।

मगर ऐसा न आज तक हुआ है और न होगा। दूसरों को गिराने की कोशिश तो अपने को बढ़ाने की कोशिश नहीं कहीं जा सकती। एक बात और है कि संसार में कोई भी मनुष्य निन्दा से नहीं गिरता। उसके पतन का कारण सद्गुणों का ह्रास होता है। इसी प्रकार कोई भी मनुष्य दूसरों की निन्दा करने से अपनी उन्नति नहीं कर सकता। उन्नति तो उसकी तभी होगी, जब वह अपने चरित्र को निर्मल बनाए तथा अपने गुणों का विकास करे।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए। 

(ग) ऐसी कौन-सी बात है, जो न आज तक हुई है और न होगी?

(घ) मनुष्य के पतन का क्या कारण होता है? 

(ङ) मनुष्य की उन्नति कैसे हो सकती है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक कहता है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति हमेशा दूसरे व्यक्तियों की निन्दा करके उन्हें नीचा दिखाने का प्रयास करता है और स्वयं को उसके स्थान पर स्थापित करना चाहता है, परन्तु आज तक ऐसा न हुआ है और न भविष्य में ऐसा होगा। ऐसा न होने के पीछे के कारण को बताते हुए लेखक कहता है कि जो व्यक्ति संसार में ऊंचा उठना चाहता है, वह अपने सुकमों से ही ऊँचा उठ सकता है। दूसरों की निन्दा करके या दूसरों के प्रति ईर्ष्या भाव रखकर कभी कोई श्रेष्ठ व्यक्ति नहीं बन सकता। यदि किसी व्यक्ति का पतन भी होता है तो उसके पीछे निन्दा को दोष दिया जाना भी उचित नहीं है, जबकि उसके पतन के पीछे का कारण उस व्यक्ति के अच्छे गुणों का नष्ट हो जाना होता है, इसलिए लेखक कहता है किकिसी भी व्यक्ति की उन्नति के लिए आवश्यक बात यह है कि मनुष्य निन्दा करना छोड़कर अपने चरित्र को स्वच्छ एवं साफ बनाए तथा अपने अतिरिक्त गुणों का विकास करे। ऐसा करने में सफल होने वाले व्यक्ति की उन्नति सुनिश्चित होती है तथा उसकी उन्नति में न तो निन्दा, न ईर्ष्या और न ही किसी अन्य प्रकार के विकार बाधा उत्पन्न कर सकते हैं।

(ग) दूसरों को नीचा दिखाकर अपने को ऊँचा बनाने और समाज में सम्मानित स्थान पाने की बात न आज तक हुई है और न ही भविष्य में होगी। अपनी उन्नति के लिए सद्गुणों का विकास आवश्यक है।

(घ) मनुष्य के पतन का कारण उसके सद्गुणों का ह्रास होता है, क्योंकि दूसरों की निन्दा करके स्वयं की कभी भी उन्नति नहीं की जा सकती। 

(ङ) मनुष्य की उन्नति तभी हो सकती है जब मनुष्य निन्दा करना छोड़कर अपने चरित्र को स्वच्छ एवं साफ बनाए तथा अपने अतिरिक्त गुणों का विकास करे।

ईर्ष्या का काम जलाना है, मगर सबसे पहले वह उसी को जलाती है, जिसके हृदय में उसका जन्म होता है। आप भी ऐसे बहुत से लोगों को जानते होंगे, जो ईर्ष्या और द्वेष की साकार मूर्ति हैं और जो बराबर इस फिक्र में लगे रहते हैं कि कहाँ सुनने वाला मिले और अपने दिल का गुबार निकालने का मौका मिले। श्रोता मिलतेही उनका ग्रामोफोन बजने लगता है और वे बड़ी ही होशियारी के साथ एक-एक काण्ड इस ढंग से सुनाते हैं, मानो विश्व कल्याण को छोड़कर उनका और कोई ध्येयनहीं हो। अगर ज़रा उनके अपने इतिहास को देखिए और समझने की कोशिश कीजिए कि जब से उन्होंने इस सुकर्म का आरम्भ किया है, तब वे अपने क्षेत्र मेंआगे बढ़े हैं या पीछे हटे हैं। यह भी कि वे निन्दा करने में समय व शक्ति का अपव्यय नहीं करते तो आज इनका स्थान कहाँ होता।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए। (ग) उपरोक्त गद्यांश में ईर्ष्यालु व्यक्ति की मनोदशा कैसी बताई गई है?

(घ) ईर्ष्या का क्या कार्य है? वह सबसे पहले किसे जलाती है?

उत्तर

(क)सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या ईर्ष्यालु व्यक्ति के स्वभाव पर प्रकाश डालते हुए लेखक कहता है कि जिस व्यक्ति के मन में ईर्ष्या का भाव उत्पन्न होता है, सबसे पहले ईर्ष्या उसी को जलाती है। ईर्ष्या से उत्पन्न दुःख सबसे पहले उसी को भुगतना पड़ता है। यह ईर्ष्या का काम है। ऐसे लोग अपने दुःख को सुनाने के लिए दूसरों को खोजते रहते हैं। ईर्ष्यालु व्यक्ति हर जगह सरलता से मिल जाते हैं। वे ईर्ष्या की जीती-जागती मूर्ति होते हैं।

(ग) ईर्ष्यालु व्यक्ति इस मनोदशा में रहता है कि कब उसके दुःखो को सुनने वाला कोई मिले और वह अपना दुःख-पुराण बाँचना शुरू कर दे। सुनने वाला मिलते ही ईर्ष्यालु बड़ी होशियारी से दूसरों की निन्दा की एक-एक बात बढ़ा-चढ़ाकर इस प्रकार बताता है मानो संसार के कल्याण का सर्वश्रेष्ठ कार्य वही है। 

(घ) ईर्ष्या का कार्य है-जलाना। वह सबसे पहले उसी व्यक्ति को दुःख पहुँचाती और जलाती है, जिसके हृदय में उसका जन्म होता है।

चिन्ता को लोग चिता कहते हैं, जिसे किसी प्रचण्ड चिन्ता ने पकड़ लिया है, उस बेचारे की ज़िन्दगी ही खराब हो जाती है, किन्तु ईर्ष्या शायद चिन्ता से भी बदतर चीज़ है, क्योंकि वह मनुष्य के मौलिक गुणों को ही कुण्ठित बना डालती है। मृत्यु शायद फिर भी श्रेष्ठ है, बनिस्वत इसके कि हमें अपने गुणों को कुण्ठित बनाकर जीना पड़े। चिन्ता-दग्ध व्यक्ति समाज की दया का पात्र है, किन्तु ईर्ष्या से जला-भुना आदमी जहर की एक चलती-फिरती गठरी के समान है, जो हर जगह वायु को दूषित करती फिरती है।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।

(ग) चिन्ता को लोग चिता क्यों कहते हैं?

(घ) ईर्ष्या चिन्ता से भी हानिकारक चीज़ क्यों है?

 (ङ) ईर्ष्यालु और चिन्ताग्रस्त व्यक्ति में क्या अन्तर है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंशों की व्याख्या

लेखक चिन्ता की तुलना चिता से करते हुए कहता है कि चिन्ता व्यक्ति को उसी प्रकार जलाती है, जैसे चिता। चिता मृत शरीर को जलाती है, परन्तु चिन्ता जीवित व्यक्ति को धीरे-धीरे जलाती है, जिस व्यक्ति को चिन्ता ने जकड़ लिया, उसका जीवन कष्टदायक हो जाता है। व्यक्ति का जीवन दुःखमय बन जाता है, क्योंकि वह हर समय चिन्ता में घुलता रहता है।

लेखक कहता है कि मृत्यु को फिर भी श्रेष्ठ कहा जा सकता है। ईर्ष्या व्यक्ति के सद्गुणों का नाश कर देती है, जिस व्यक्ति के सद्गुण नष्ट हो गए हों उसके जीने से अच्छा है मर जाना। सद्गुणों के बिना मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं रह जाता है। व्यक्ति के पास सारे सुख-साधन हों और वह ईर्ष्या के कारण उनसे लाभान्वित न हो सके ऐसे व्यक्ति पर समाज दया नहीं करता है। हाँ चिन्ता से ग्रस्त व्यक्ति पर समाज ज़रूर दया करता है, क्योंकि वह समाज का अहित नहीं करता है। उसके विचार और कार्य से दूसरों का अहित नहीं होता है। इसके विपरीत ईर्ष्यालु व्यक्ति ज़हर की पोटली के समान होता है, जिसके विचारों और कार्यों से समाज का वातावरण दूषित होता जाता है।

(ग) चिन्ता को लोग चिता इसलिए कहते हैं, क्योंकि चिता व्यक्ति के मृत शरीर को जलाती है और चिन्ता भी व्यक्ति को जलाने का ही कार्य करती है। वह व्यक्ति के जीवित शरीर अर्थात् जीवन को तिल-तिल कर जलाती है। अतः चिन्ता, चिता से भयंकर है। चिन्ता किसी व्यक्ति को चिता से भी अधिक हानि पहुँचाती है।

(घ) ईर्ष्या चिन्ता से भी हानिकारक चीज़ है, क्योंकि ईर्ष्या व्यक्ति के सद्गुणों का नाश कर देती है। जिस व्यक्ति के सद्गुण नष्ट हो जाएँ उसे जीने का कोई लाभ नहीं है। सद्गुणों के बिना मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं रह जाता है। 

(ङ) चिन्ताग्रस्त व्यक्ति समाज में दया का पात्र होता है, क्योंकि वह समाज का अहित नहीं करता, परन्तु ईर्ष्यालु आदमी जहाँ भी जाता है, वहाँ के वातावरण को दूषित कर देता है।

ईर्ष्या मनुष्य का चारित्रिक दोष ही नहीं है, प्रत्युत इससे मनुष्य के आनन्द में भी बाधा पड़ती है, जब भी मनुष्य के हृदय में ईर्ष्या का उदय होता है, सामने का सुख उसे मद्धिम-सा दिखने लगता है। पक्षियों के गीत में जादू नहीं रह जाता और फूल तो ऐसे हो जाते हैं, मानो वह देखने के योग्य ही न हों। आप कहेंगे कि निन्दा के बाण से अपने प्रतिद्वन्द्रियों को बेधकर हँसने में एक आनन्द है और यह आनन्द ईर्ष्यालु व्यक्ति का सबसे बड़ा पुरस्कार है। मगर यह हँसी मनुष्य की नहीं राक्षस की होती है और यह आनन्द भी दैत्यों का होता है।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

 (ग) ईर्ष्यालु की मनोदशा कैसी होती है?

(घ) ईर्ष्यालु व्यक्ति का सबसे बड़ा पुरस्कार क्या है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – ईर्ष्या के स्वभाव पर प्रकाश डालते हुए लेखक रामधारी सिंह कहते हैं कि ईर्ष्या मनुष्य के चरित्र का दोष नहीं है। यह भाव व्यक्ति के आनन्दमय क्षणों में भी बाधा उत्पन्न करता है। जिस व्यक्ति के हृदय में ईर्ष्या का भाव जाग्रत हो जाता है, उसे अपना सुख भी दुःख-सा प्रतीत होने लगता है। वह सुखद स्थिति में होते हुए भी सुख से वंचित रहता है। सुख के साधनों से सम्पन्न होने के बाद भी उसे सुख की अनुभूति नहीं होती। पक्षियों के कलरव अथवा उनके मधुर स्वर में उसे कोई आकर्षण नहीं दिखता। उसे सुन्दर और खिले हुए फूलों से भी ईर्ष्या होने लगती है और उसमें कोई सुन्दरता का अनुभव नहीं होता अर्थात् प्राकृतिक सौन्दर्य भी उसे सुख व आनन्द प्रदान नहीं करता। लेखक आगे कहता है कि निन्दा करने वाला प्रायः अपने वचनों के बाणों से अपने प्रतिद्वन्द्वी को घायल करके आनन्द और सुख का अनुभव करता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति समझता है कि उसने निन्दा करके अपने प्रतिद्वन्द्वी को हीन दिखा दिया है और अपना स्थान दूसरों की दृष्टि में ऊँचा बना लिया है, इसीलिए वह खुश होता है और इसी खुशी को प्राप्त करना उसका सबसे बड़ा पुरस्कार होता है। वास्तव में, ईर्ष्यालु व्यक्ति की यह हँसी और यह क्रूर आनन्द उसमें छिपे हुए राक्षस की हँसी और आनन्द है अर्थात् यह उसके राक्षसी स्वभाव को प्रकट करता है।

(ग) ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों के सुख के साधनों का रोना रोता रहता है कि उसके ये साधन अपने क्यों न हुए। वह ईर्ष्या की आग में जलता रहता है और उसे अपने सामने के सुख में कोई आनन्द नहीं मिल पाता है। वह ऐसी मनोदशा में जीता है कि उसे पक्षियों के गीत और फूल भी आकर्षित नहीं कर पाते हैं।

 (घ) ईर्ष्यालु व्यक्तियों का सबसे बड़ा पुरस्कार है-अपनी ईर्ष्या और निन्दा के कुछ वाक्यों से किसी को दुःख पहुँचाकर हँसना और आनन्द उठानाअर्थात् दूसरों को दुःखी करके आनन्दित होना ईर्ष्यालु का सबसे बड़ा पुरस्कार है। 

ईर्ष्या का सम्बन्ध प्रतिद्वन्द्विता से होता है, क्योंकि भिखमंगा करोड़पति से ईर्ष्या नहीं करता। यह एक ऐसी बात है, जो ईर्ष्या के पक्ष में भी पड़ सकती है, क्योंकि प्रतिद्वन्द्विता से मनुष्य का विकास होता है, किन्तु अगर आप संसारव्यापी सुयश चाहते हैं, तो आप रसेल के मतानुसार शायद नेपोलियन से स्पर्द्धा करेंगे, मगर याद रखिए कि नेपोलियन भी सीजर से स्पर्द्धा करता था और सीजर सिकन्दर से तथा सिकन्दर हरक्युलिस से। 

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए। 

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) विश्वव्यापी प्रसिद्धि के इच्छुक लोगों को किस से स्पर्द्धा करनी चाहिए और उन्हें क्या याद रखना चाहिए?

(घ) प्रतिद्वन्द्विता से क्या लाभ है? 

(ङ) ईर्ष्या से प्रतिद्वन्द्विता का क्या सम्बन्ध है?

उत्तर

(क)सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक ने ईर्ष्या का सम्बन्ध प्रतिद्वन्द्विता से बताते हुए उसे मनोवैज्ञानिक सत्य के रूप में प्रस्तुत किया है। लेखक कहता है कि कोई धनी व्यक्ति किसी भिखारी या कंगाल व्यक्ति से ईष्यां नहीं करता है। ईर्ष्या का कारण है-प्रतिद्वन्द्विता और यह प्रतिद्वन्द्विता सदैव अपने बराबर वालों में ही उत्पन्न होती है अर्थात् किसी धनी व्यक्ति का प्रतिद्वन्द्वी कोई गरीब न होकर धनी व्यक्ति ही होगा। लेखक कहता है कि ईर्ष्या मनुष्य का चारित्रिक दोष है, क्योंकि वह व्यक्ति के आनन्दमय जीवन में बाधा उत्पन्न करती है, परन्तु यह एक दृष्टि से लाभप्रद भी हो सकती हैं, क्योंकि ईर्ष्या के अन्दर ही प्रतिद्वन्द्विता का भाव समाहित होता है। ईर्ष्या के कारण ही मनुष्य किसी अन्य व्यक्ति से स्पर्द्धा (प्रतियोगिता) करता है और अपने जीवन स्तर को विकासशील बनाता है।

रसेल के अनुसार, जो व्यक्ति संसार में अपने व्यक्तित्व की छाप छोड़ना चाहता है, वह शायद नेपोलियन से स्पर्द्धा करेगा, किन्तु नेपोलियन भी सीजर से स्पर्द्धा करता था और सीजर हरक्युलिस से। आशय यह है कि जो व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को प्रभावी, शक्तिशाली आदि समझता है, वह उनसे स्पर्द्धा करके अपना विकास करता है। इस प्रकार यह कहना अनुचित न होगा कि स्पर्द्धा या प्रतिद्वन्द्विता ईर्ष्या के ही रूप हैं तथा ये रूप निश्चित रूप से उपयोगी हैं। स्पर्द्धा या प्रतिद्वन्द्विताओं से जुड़ी हुई यही एक बात ईर्ष्या को उचित सिद्ध कर सकती है, क्योंकि स्पर्द्धा से ही कोई भी मनुष्य जाति उन्नति के पथ पर अग्रसर होकर अपने जीवन को विकासशील बना सकता है।

(ग) विश्वव्यापी प्रसिद्धि पाने के इच्छुक लोगों को यह ध्यान रखना चाहिए कि इसके लिए नेपोलियन जैसे विश्वविख्यात और महत्त्वाकांक्षी शासक से प्रतिस्पर्द्धा करनी होगी। उसे यह बात भी याद रखनी होगी कि नेपोलियन जूलियस सीजर से, सीजर सिकन्दर से और सिकन्दर हरक्युलिस से प्रतिस्पर्द्धा करता था। प्रतिस्पर्द्धा की भावना के कारण ये शासक इतने महान् तथा विश्वप्रसिद्ध बन सके।

(घ) प्रतिद्वन्द्विता से यह लाभ है कि मनुष्य के मन में विकास करने की इच्छा जाग उठती है और वह विकास की दिशा में सकारात्मक प्रयास करती है। 

(ङ) ईर्ष्या से प्रतिद्वन्द्विता का सम्बन्ध बताते हुए लेखक ने उसे मनोवैज्ञानिक सत्य के रूप में प्रस्तुत किया है। लेखक कहता है कि कोई धनी व्यक्ति किसी भिखारी या कंगाल व्यक्ति से ईर्ष्या नहीं करता है। ईर्ष्या का कारण है-प्रतिद्वन्द्रिता और यह प्रतिद्वन्द्रिता सदैव अपने बराबर वालों में ही उत्पन्न होती है।

ईर्ष्या का एक पक्ष सचमुच ही लाभदायक हो सकता है, जिसके अधीन हर आदमी, हर जाति और हर दल अपने को अपने प्रतिद्वन्द्वी का समकक्ष बनाना चाहता है, किन्तु यह तभी सम्भव है, जब कि ईर्ष्या से जो प्रेरणा आती हो, वह रचनात्मक हो। अक्सर तो ऐसा ही होता है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति यह महसूस करता है कि कोई चीज़ है जो उसके भीतर नहीं है, कोई वस्तु है, जो दूसरों के पास है,किन्तु वह यह नहीं समझ पाता कि इस वस्तु को प्राप्त कैसे करना चाहिए और गुस्से में आकर वह अपने किसी पड़ोसी मित्र या समकालीन व्यक्ति को अपने से श्रेष्ठ मानकर उससे जलने लगता है, जबकि वे लोग भी अपने आप से शायद वैसे ही असन्तुष्ट हों।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए। 

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) ईर्ष्यालु व्यक्ति लोगों से ईर्ष्या क्यों करता है? 

अथवा ईर्ष्यालु व्यक्ति क्या महसूस करता है

 (घ) ईर्ष्या का लाभदायक पक्ष क्या है?

उत्तर

(क)सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक का कहना है कि ईर्ष्या व्यक्ति को हर प्रकार से हानि पहुँचाती है। ईर्ष्या करने वाला मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता है, परन्तु इसका एक सकारात्मक पक्ष भी है। ईर्ष्या का यह सकारात्मक पक्ष व्यक्ति के लिए लाभदायक होता है। इसके अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक समाज व प्रत्येक जाति में स्वाभाविक इच्छा उत्पन्न होती है कि वह अपने प्रतिद्वन्द्वी के समान ही उन्नति करे और इसके लिए सकारात्मक प्रयास करे। ऐसा करना तभी सम्भव है, जब ईर्ष्या से उत्पन्न यह प्रेरणा विनाशात्मक न होकर रचनात्मक हो अर्थात् प्रतिद्वन्द्विता करते हुए। प्रगति करने के लिए रचनात्मक प्रयास करने की आवश्यकता होती है।

(ग) ईर्ष्यालु व्यक्ति लोगों से इसलिए ईर्ष्या करने लगता है, क्योंकि दूसरे के पास उन वस्तुओं को देखकर उसे दुःख होता है, जो उसके पास नहीं हैं। वह उन वस्तुओं को कैसे प्राप्त करें, वह यह समझ नहीं पाता और क्रोध में भरकर उस व्यक्ति से जलने लगता है, जिसके पास वे वस्तुएँ होती हैं। वह उन्हें अपने से श्रेष्ठ भी मानने लगता है। यही सोच धीरे-धीरे उसकी ईर्ष्या का कारण बन जाती है।

(घ) जो प्रत्येक व्यक्ति व समूह को अपने प्रतिद्वन्द्वी के समान बनने की प्रेरणा देता है। वही ईर्ष्या का लाभदायक पक्ष है।

तो ईर्ष्यालु लोगों से बचने का क्या उपाय है? नीत्से कहता है कि "बाज़ार की मक्खियों को छोड़कर एकान्त की ओर भागो, जो कुछ भी अमर तथा महान् है, उसकी रचना और निर्माण बाज़ार तथा सुयश से दूर रहकर किया जाता है, जो लोग नए मूल्यों का निर्माण करने वाले हैं, वे बाज़ारों में नहीं बसते, वे शोहरत के पास नहीं रहते।" जहाँ बाज़ार की मक्खियाँ नहीं भिनकतीं, वहाँ एकान्त है।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

(ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए। (ग) ईर्ष्यालु लोगों से बचने का क्या उपाय है?

(घ) नीत्से ने बाज़ार की मक्खियाँ किन्हें कहा है?

उत्तर

(क) सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या –  ईर्ष्यालु लोग सामाजिक वातावरण को दूषित करते हैं। ऐसे लोगों से बचने का उपाय बताता हुआ लेखक कहता है कि जो लोग समाज की प्रगति के नए-नए मूल्यों और सिद्धान्तों की रचना करते हैं, जो व्यक्ति अपना स्वयं का विकास चाहते हैं, उन्हें ऐसी बाजारू मक्खियों के समान भिनभिनाने वाले लोगों से दूर रहना चाहिए, क्योंकि इन बाजारू मक्खियों के साथ रहकर कोई भी सुकार्य पूर्ण नहीं किया जा सकता। कोई भी रचनात्मक एवं महान् कार्य बाज़ार या भीड़ से दूर रहकर ही किया जाता है। श्रेष्ठ कार्य करने के लिए प्रसिद्धि के लोभ को त्यागना पड़ता है। जो व्यक्ति समाज में नए मूल्यों का निर्माण करते हैं, वे बाज़ार जैसे स्पर्द्धा के स्थानों से सदैव दूर व भिन्न रहते हैं और महान् व निर्माणात्मक कार्य में अपना सहयोग देते हैं।

(ग) ईर्ष्यालु लोगों से बचने का उपाय यही है कि यश, वैभव, मान, प्रतिष्ठा आदि देखकर जलने वालों से दूर रहा जाए। यश प्राप्ति का लोभ त्यागकर मन में लोगों के कल्याण की कामना रखते हुए एकान्त में रहना चाहिए।

(घ) नीत्से ने बाज़ार की मक्खियाँ उन लोगों को कहा है, जो दूसरों की सुख-सुविधाओं, मान-सम्मान, प्रतिष्ठा, पद आदि से जलते हैं और ईर्ष्या करने लगते हैं।

ईर्ष्या से बचने का उपाय मानसिक अनुशासन है, जो व्यक्ति ईर्ष्यालु स्वभाव का है, उसे फालतू बातों के बारे में सोचने की आदत छोड़ देनी चाहिए। उसे यह भी पता लगाना चाहिए कि जिस अभाव के कारण वह ईर्ष्यालु बन गया है, उसकी पूर्ति का रचनात्मक तरीका क्या है? जिस दिन उसके भीतर यह जिज्ञासा आएगी, उसी दिन से वह ईर्ष्या करना कम कर देगा।

प्रश्न

(क) उपरोक्त गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए।

 (ख) गद्यांश के रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।

(ग) ईर्ष्या से बचने के लिए क्या उपाय करना चाहिए?

अथवा ईर्ष्या से बचने के क्या उपाय हैं? 

(घ) ईर्ष्यालु व्यक्ति कब से ईर्ष्या करना कम कर सकता है?

उत्तर

(क)सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'गद्य खण्ड' में संकलित पाठ 'ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से' से लिया गया है। इसके लेखक रामधारी सिंह 'दिनकर' हैं।

(ख) रेखांकित अंश की व्याख्या लेखक ईर्ष्या से बचने के उपाय को उजागर करते हुए कहता है कि हमें अपने मन पर नियन्त्रण करना चाहिए। मन पर नियन्त्रण करना ही मानसिक अनुशासन कहलाता है। ऐसा माना जाता है कि मन का स्वभाव चंचल होता है और इसको नियन्त्रित करके ही ईर्ष्या भाव से बचा जा सकता है। कहने का आशय यह है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति यदि अपने मन व मस्तिष्क को नियन्त्रित करेगा, तो वह फालतू और निरर्थक बातों पर विचार करने की बुरी आदत से छुटकारा पा सकेगा। जो वस्तु हमारे पास नहीं है, उसके विषय में सोचना व्यर्थ है, जिसके मन में ईर्ष्या-भाव जाग्रत हो गया है उसे यह जानना आवश्यक है कि किस साधन के अभाव के कारण उसके मन में ईर्ष्या भाव उत्पन्न हुआ है। इसके पश्चात् उसे उन अभावों को दूर करने का सकारात्मक प्रयत्न करना चाहिए। उस व्यक्ति को ऐसे उपायों की खोज करनी चाहिए, जिससे उन अभावों की पूर्ति रचनात्मक तरीके से हो सके। जिस दिन ईर्ष्यालु व्यक्ति को यह जानने की इच्छा जागेगी कि किस अभाव के कारण वह ईर्ष्यालु बन गया है और उस अभाव की पूर्ति का सकारात्मक व रचनात्मक उपाय क्या है? उसी दिन से वह ईर्ष्या करना कम कर देगा।

(ग) ईर्ष्या से बचने के लिए व्यक्ति को चाहिए कि वह स्वयं को मानसिक अनुशासन में बाँध ले। जिन वस्तुओं का उसे अभाव है, उनके बारे में व्यर्थ का सोच-विचार नहीं करना चाहिए तथा अभावों की पूर्ति के लिए सकारात्मक प्रयास करना चाहिए।

(घ) जिस दिन व्यक्ति की समझ में यह आ जाएगा कि किस वस्तु की कमी के कारण उसके मन में ईर्ष्या भाव उत्पन्न हुआ है तथा उस वस्तु को पाने का सकारात्मक उपाय क्या है, इसका ज्ञान होते ही ईर्ष्या करना बन्द कर देगा।

पाठ का नाम ईर्ष्या, तू न गई मेरे मन से लेखक रामधारी सिंह दिनकर

लेखक

रचनाएं, कृतियां

विधा

विट्ठलनाथ

शृंगार रस मण्डन

ब्रजभाषा गद्य

गोकुलनाथ

चौरासी वैष्णवन की वार्ता ,दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता

गद्य साहित्य

नाभादास

अष्टयाम

ब्रजभाषा गद्य

बैकुण्ठमणि शुक्ल

अगहन महात्म्य, वैशाख महात्म्य

ब्रजभाषा गद्य

लल्लूलाल

माधव विलास,

प्रेम सागर

ब्रजभाषा गद्य

कहानी

बनारसी दास

बनारसी विलास

ब्रजभाषा गद्य

वैष्णव दास

भक्त माल प्रसंग

ब्रजभाषा गद्य

गंग

चन्द्र-छन्द बरनन की महिमा

खड़ी बोली गद्य

रामप्रसाद निरंजनी

भाषा-योगवाशिष्ठ

खड़ी बोली गद्य

दौलतराम

पद्म पुराण

भाषानुवाद

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पंचांग दर्शन

भाषानुवाद

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रानी केतकी की कहानी

कहानी

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सुख सागर

खड़ी बोली गद्य

सदल मिश्र

नासिकेतोपाख्यान

आख्यान

जटमल

गोरा बादल की कथा

खड़ी बोली गद्य

देवकीनन्दन खत्री

चन्द्रकान्ता

उपन्यास

राजा शिवप्रसाद

'सितारेहिन्द'

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शकुन्तला

नाटक

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कहानी

लेखक

रचनाएं

विधा

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स्वामी दयानन्द

सरस्वती

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धार्मिक ग्रन्थ

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

अँधेर नगरी, सत्य हरिश्चन्द्र, भारत दुर्दशा, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति दिल्ली दरबार, दर्पण, मदालसा, सुलोचना

नाटक

निबन्ध-संग्रह

प्रतापनारायण मिश्र

हठी हम्मीर, संगीत 

शकुन्तला 

कलिकौतुक

हमारा कर्तव्य और युग धर्म

नाटक

पद्य-नाटक

 निबन्ध

श्यामसुन्दर दास

रहस्य रूपक, साहित्यालोचन,

हिन्दी भाषा और साहित्य का इतिहास

भाषा विज्ञान, भाषा रहस्य

वैज्ञानिक कोश, हिन्दी शब्द सागर

आलोचना

इतिहास

भाषा विज्ञान

कोश

प्रेमचन्द

गोदान,गबन, कर्मभूमि, रंगभूमि,सेवा सदन, प्रेमा श्रम, निर्मला

प्रेम की वेदी, संग्राम, 'कर्बला'

मानसरोवर (आठ भाग)

पूस की रात, प्रेमांजलि

कुछ विचार

उपन्यास

नाटक

कहानी संग्रह

कहानी

निबन्ध

वियोगी हरि

श्रद्धाकण, प्रार्थना, अन्तर्नाद

शुद्ध वाणी, उद्यान, भावना

गद्य-काव्य 

उपदेश

हरिभाऊ उपाध्याय

सर्वोदय की बुनियाद,स्वतन्त्रता की ओर

 पुण्य स्मरण

बापू के आश्रम में

निबन्ध

संस्मरण

गुलाबराय

नर से नारायण, ठलुआ क्लब

मेरे निबन्ध, मन की बातें मेरी असफलताएँ

हिन्दी काव्य विमर्श

सिद्धान्त और अध्ययन

नवरस, हिन्दी नाट्य विमर्श, आलोचक रामचन्द्र शुक्ल,

हिन्दी साहित्य का सुबोध इतिहास

निबन्ध

आत्म कथा

आलोचना

इतिहास

विनोबा भावे

भूदान यज्ञ, गंगा, गीता प्रवचन, जीवन 

और शिक्षण, गाँव सुखी हम सुखी, चिर-तारुण्य की साधना, विनोबा के विचार, आत्मज्ञान और विज्ञान 

राजघाट की सन्निधि में

उपदेश

संस्मरण

हजारीप्रसाद द्विवेदी

कुटज , कल्पलता, अशोक के फूल, विचार प्रवाह

पुनर्नवा, बाणभट्ट की आत्मकथा,चारुचन्द्र लेख, अनामदास का पोथा

हिन्दी साहित्य की भूमिका, हिन्दी साहित्य का आदिकाल

हिन्दी साहित्य, कबीर, सूरसाहित्य, नाथ, सिद्धों की बानियाँ

निबंध

उपन्यास

इतिहास

आलोचना

महादेवी वर्मा

विवेचनात्मक गद्य, श्रृंखला की कड़ियाँ

अतीत के चलचित्र,स्मृति की रेखाएँ, पथ के साथी 

मेरा परिवार

निबन्ध

संस्मरण और रेखाचित्र

गेहूँ और गुलाब

पतितों के देश में 

चिता के फूल

माटी की मूरते

अम्ब पाला

पैरों में पंख बांधकर

निबन्ध

उपन्यास

कहानी

रेखा चित्र

नाटक

यात्रावृत

श्रीराम शर्मा

सन् बयालीस के संस्मरण, सेवाग्राम की डायरी

जंगल के बीच, शिकार, बोलती प्रतिमा, प्राणों का सौदा

संस्मरण

शिकार साहित्य

काका कालेलकर

सर्वोदय, जीवन का काव्य यात्रा

 हिमालय प्रवास,

उस पार के पड़ोसी

बापू की झाँकियाँ

जीवन लीला

निबंध

यात्रावृत

संस्मरण

आत्मचरित

विनयमोहन शर्मा

दक्षिण भारत की एक झलक,साहित्यावलोकन दृष्टिकोण

साहित्य शोधन समीक्षा,भाषा साहित्य समीक्षा,

रेखाएँ और रंग हिन्दी गीत गोविन्द ,शोध-प्रविधि

निबंध

आलोचना

संस्मरण और रेखा चित्र

धर्मवीर भारती

गुनाहों का देवता,

सूरज का सातवाँ घोड़ा ,अन्धायुग ,नदी प्यासी थी

ठेले पर हिमालय ,कहनी-अनकहनी,

पश्यन्ती

चाँद और टूटे हुए लोग

नीली झील

मानव मूल्य और साहित्य

उपन्यास

नाटक

निबन्ध

कहानी-संग्रह

अकांकी

आलोचना

लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय

फोर्ट विलियम कॉलेज

हिन्दी साहित्य का इतिहास

आलोचना

इतिहास

वृंदावनलाल वर्मा

मृगनयनी

उपन्यास

लेखक 

रचनाएं, कृतियां

विधा

विष्णु प्रभाकर

आवारा मसीहा

जीवनी

मोहन राकेश

आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस

नाटक

सूर्यकान्त त्रिपाठी  'निराला'

 कुल्ली भाट 

नाटक

माखनलाल चतुर्वेदी

साहित्य देवता

कला का अनुवाद

निबन्ध संग्रह

कहानी संग्रह

अमृतराय

कलम का सिपाही

जीवनी

पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र'

अपनी खबर

आत्मकथा

हरिवंशराय बच्चन'

क्या भूलूँ क्या याद करूँ ?, नीड़ का निर्माण फिर 

आत्म कथा

डॉ. रामकुमार वर्मा

दीपदान, पृथ्वीराज की आँखें 

एकांकी

देवकीनन्दन खत्री

चन्द्रकान्ता सन्तति,भूतनाथ

उपन्यास

अज्ञेय

शेखर: एक जीवनी

उपन्यास

चन्द्रधर शर्मा

"गुलेरी'

उसने कहा था

कहानी

राहुल सांकृत्यायन

मेरी लद्दाख यात्रा,

मेरी तिब्बत यात्रा

यात्रा साहित्य

डॉ. नामवर सिंह

कविता के नए प्रतिमान

आलोचना

जैनेन्द्र कुमार

चिड़िया की बच्ची

त्यागपत्र

कहानी

उपन्यास

फणीश्वरनाथ 'रेणु'

मैला आँचल

उपन्यास

किशोरी लाल गोस्वामी

इंदुमति

कहानी

लेखक

रचनाएं ,कृतियां

विधा

रामचन्द्र शुक्ल

ग्यारह वर्ष का समय

रसमीमांसा

चिन्तामणि

भ्रमरगीत सार

त्रिवेणी

हिन्दी साहित्य का इतिहास

विचार वीथी

कहानी

आलोचना

निबंध

आलोचना

आलोचना

आलोचना

निबंध संग्रह

जयशंकर प्रसाद

आकाशदीप,

आँधी,पुरस्कार,

इन्द्रजाल

तितली,कंकाल

स्कन्दगुप्त,

अजातशत्रु,

चन्द्रगुप्त,

ध्रुवस्वामिनी,

राज्यश्री

एक घूँट

जनमेजय का नागयज्ञ

,कामायनी,

कानन कुसुम

कहानी

उपन्यास

नाटक

एकांकी

महाकाव्य

कविता

पदुमलाल

पुन्नालाल बख्शी

झलमला

कुछ बिखरे पन्ने,

पंचपात्र, क्या लिखूँ,पद्म वन,

तीर्थ सलिल,

प्रबन्ध पारिजात,

मकरन्द बिन्दु

कहानी

निबन्ध

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद

साहित्य संस्कृति का अध्ययन,

बापू जी के कदमों में

भारतीय शिक्षा ,शिक्षा और संस्कृति,

गाँधीजी की देन

मेरी यूरोप यात्रा

निबन्ध

विविध

यात्रावृत्त

रामधारी सिंह 'दिनकर'

उजली आग,

मिट्टी की ओर

वट पीपल,

अर्द्धनारीश्वर

रेती के फूल

,राष्ट्र भाषा और राष्ट्रीय एकता 

,दर्शन देश-विदेश

संस्कृति के चार अध्याय,

भारतीय संस्कृति की एकता शुद्ध

शुद्ध कविता की ओर,

साहित्य और कला

रसवन्ती

निबंध

यात्रावृत्त

संस्कृति ग्रन्थ

आलोचना

काव्य

भगवतशरण

उपाध्याय

विश्व को एशिया की देन,इतिहास साक्षी है,इतिहास साक्षी है,खून के छींटे

निबंध

Aacharya Ramchandra Shukla Ka Jivan parichay।। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जीवन परिचय

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जीवन परिचय, साहित्यिक परिचय, साहित्य में स्थान एवं भाषा शैली

जीवन परिचय 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जीवन परिचय: -

जीवन परिचय : एक दृष्टि में

नाम

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

जन्म

1884 ईस्वी में

जन्म स्थान

उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले का अगोना गांव

पिताजी का नाम

श्री चंद्रबली शुक्ल

शिक्षा

इंटरमीडिएट ,एम.ए

आजीविका

अध्यापन, लेखन, प्राध्यापक

मृत्यु

सन 1941 ईस्वी में

लेखन विधा

आलोचना, निबंध, नाटक, पत्रिका काव्य, इतिहास आदि।

भाषा

शुद्ध साहित्यिक, सरल एवं व्यावहारिक भाषा

शैली

वर्णनात्मक, विवेचनात्मक, व्याख्यात्मक, आलोचनात्मक, भावात्मक तथा हास्य व्यंग्यात्मक।

साहित्य में पहचान

निबंधकार, अनुवादक, आलोचक, संपादक

साहित्य में स्थान

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी को हिंदी साहित्य जगत में आलोचना का सम्राट कहा जाता है।

जीवन परिचय:- हिंदी भाषा के उच्च कोटि के साहित्यकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल की गणना प्रतिभा संपन्न निबंधकार, समालोचक, इतिहासकार, अनुवादक एवं महान शैलीकार के रूप में की जाती है। गुलाब राय के अनुसार, "उपन्यास साहित्य में जो स्थान मुंशी प्रेमचंद का है, वही स्थान निबंध साहित्य में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का है।"

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म 1884 ईसवी में बस्ती जिले के अगोना नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम चंद्रबली शुक्ल था। इंटरमीडिएट में आते ही इनकी पढ़ाई छूट गई। ये सरकारी नौकरी करने लगे, किंतु स्वाभिमान के कारण यह नौकरी छोड़कर मिर्जापुर के मिशन स्कूल में चित्रकला अध्यापक हो गए। हिंदी, अंग्रेजी, संस्कृत, बांग्ला, उर्दू, फारसी आदि भाषाओं का ज्ञान इन्होंने स्वाध्याय से प्राप्त किया। बाद में 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा' काशी से जुड़कर इन्होंने 'शब्द-सागर' के सहायक संपादक का कार्यभार संभाला। इन्होंने काशी विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष का पद भी सुशोभित किया।

शुक्ला जी ने लेखन का शुभारंभ कविता से किया था। नाटक लेखन की ओर भी इनकी रुचि रही, पर इनकी प्रखर बुद्धि इनको निबंध लेखन एवं आलोचना की ओर ले गई। निबंध लेखन और आलोचना के क्षेत्र में इनका सर्वोपरि स्थान आज तक बना हुआ है।

जीवन के अंतिम समय तक साहित्य साधना करने वाले शुक्ल जी का निधन सन 1941 में हुआ।

रचनाएं:- शुक्ला जी विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। इनकी रचनाएं निम्नांकित हैं-

निबंध:- चिंतामणि (दो भाग), विचार वीथी।

आलोचना:- रसमीमांसा, त्रिवेणी (सूर, तुलसी और जायसी पर आलोचनाएं)।

इतिहास:- हिंदी साहित्य का इतिहास।

संपादन:- तुलसी ग्रंथावली, जायसी ग्रंथावली, हिंदी शब्द सागर, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भ्रमरगीत सार, आनंद कादंबिनी।

काव्य रचनाएं:- 'अभिमन्यु वध' , '11 वर्ष का समय' ।

प्रमुख कृतियां - हिंदी साहित्य का इतिहास, हिंदी शब्द सागर, चिंतामणि व नागरी प्रचारिणी पत्रिका।

भाषा शैली:- शुक्ल जी का भाषा पर पूर्ण अधिकार था। इन्होंने एक ओर अपनी रचनाओं में शुद्ध साहित्यिक भाषा का प्रयोग किया तथा संस्कृत की तत्सम शब्दावली को प्रधानता दी। वहीं दूसरी ओर अपनी रचनाओं में उर्दू, फारसी और अंग्रेजी के शब्दों का भी प्रयोग किया। शुक्ल जी की शैली विवेचनात्मक और संयत है। इनकी शैली निगमन शैली भी कहलाती है। शुक्ल जी की सबसे प्रमुख विशेषता यह थी कि वे कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक बात कहने में सक्षम थे।

हिंदी साहित्य में स्थान:- हिंदी निबंध को नया आयाम प्रदान करने वाले शुक्ल जी हिंदी साहित्य के आलोचक, निबंधकार एवं युग प्रवर्तक साहित्यकार थे। इनके समकालीन हिंदी गद्य के काल को 'शुक्ल युग' के नाम से संबोधित किया जाता है। इनकी साहित्यिक सेवाओं के फलस्वरुप हिंदी को विश्व साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हो सका।

अन्य - जायसी ग्रंथावली, तुलसी ग्रंथावली, भ्रमरगीत सार, हिंदी शब्द सागर, काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका, आनंद कादंबरी।

इसके अतिरिक्त शुक्ल जी ने कहानी (11 वर्ष का समय ) काव्य कृति (अभिमन्यु वध) की रचना की तथा अन्य भाषाओं के कई ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद भी किया। मेगस्थनीज का भारतवर्षीय विवरण, आदर्श जीवन, कल्याण का आनंद, विश्व प्रबंध, बुद्ध चरित्र (काव्य) आदि प्रमुख है। 

शुक्ला जी की भाषा संस्कृतनिष्ठ, शुद्ध तथा परिमार्जित खड़ी बोली है। परिष्कृत साहित्यिक भाषा में संस्कृत के शब्दों का प्रयोग होने पर भी उसमें बोधगम्यता सर्वत्र  विद्यमान है। कहीं-कहीं आवश्यकतानुसार उर्दू ,फारसी और अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग भी देखने को मिलता है। शुक्ला जी ने मुहावरे और लोकोक्तियां का प्रयोग करके भाषा को अधिक व्यंजना पूर्ण, प्रभावपूर्ण एवं व्यवहारिक बनाने का भरकर प्रयास किया है।

शुक्ला जी की भाषा शैली गठी हुई है, उसमें व्यर्थ का एक भी शब्द नहीं आ पाता । कम से कम शब्दों में अधिक विचार व्यक्त कर देना इनकी विशेषता है। अवसर के अनुसार इन्होंने वर्णनात्मक, विवेचनात्मक,भावनात्मक तथा व्याख्यात्मक शैली का प्रयोग किया है। हास्य व्यंग प्रधान शैली के प्रयोग के लिए भी शुक्ल की प्रसिद्ध है।

प्रस्तुत मित्रता निबंध शुक्ल जी के प्रसिद्ध निबंध संग्रह चिंतामणि से संकलित है। इस निबंध में अच्छे मित्र के गुण की पहचान तथा मित्रता करने की इच्छा और आवश्यकता आदि का सुंदर विश्लेषणात्मक वर्णन किया गया है। इसके साथ ही कुशल के दुष्परिणामों का विशद विवेचन किया गया है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के जीवन से संबंधित महत्वपूर्ण प्रश्न और उनके उत्तर

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म कहां हुआ था?

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म सन 1884 ई मैं बस्ती जिले के आगोरा नामक गांव में हुआ था।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के माता का नाम क्या था?

आचार्य रामचंद्र शुक्ल की माता का नाम निवासी था।

जन्म - 4 अक्टूबर,1884 ई.

निधन - 2 फरवरी 1941 ई.

जन्म स्थान - बस्ती जिले के अगौना गांव में उत्तर प्रदेश

1.विधिवत शिक्षा इंटर तक हुई।

2.संस्कृत ,हिंदी ,अंग्रेजी का विषाद ज्ञान स्वाध्याय के बल पर प्राप्त किया।

3.पिता ने शुक्ल पर उर्दू और अंग्रेजी पढ़ने पर जोर दिया पर वह आंख बचाकर हिंदी पढ़ते थे।

4.शुक्ला जी गणित में कमजोर थे

5.शुक्ला जी ने मिर्जापुर के पंडित केदार नाथ पाठक और बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन के संपर्क में आकर अध्ययन अध्यवसाय पर बल दिया।

6.1910ई. से 1910 ई. के लगभग हिंदी शब्द सागर के संपादन में वैतनिक सहायक के रूप में काशी रहे।

7.शुक्ला जी कुछ समय हिंदू विश्वविद्यालय बनारस के हिंदी अध्यापक रहे।

8.शुक्ला जी ने महीने भर के लिए अलवर में भी नौकरी की।

9.विभागाध्यक्ष नियुक्ति हुई इसी पद पर रहते हुए 1941 ईस्वी में श्वास के दौरे में हृदय गति बंद होने से उनकी मृत्यु हुई।

शुक्ल जी द्वारा संपादित कृतियां

1.जायसी ग्रंथावली (1925 ईस्वी)

2.भ्रमरगीत सार (1926 ईस्वी)

3.गोस्वामी तुलसीदास

4.वीर सिंह देव चरित

5.भारतेंदु संग्रह

6.हिंदी शब्द सागर

मौलिक रचना - कविताएं

1.जायसी

2.तुलसी

3.सूरदास

4.रस मीमांसा (1949 ईस्वी)

5.भारत में वसंत

6.मनोहारी छटा

7.मधु स्रोत

अनुवाद कार्य

1.कल्पना का आनंद

2.राज्य प्रबंध शिक्षा

3.विश्व प्रपंच

4.आदर्श जीवन

5.मेगस्थनीज का भारत विषय का वर्णन

6.बुद्ध चरित्र

7.शशांक

8.हिंदी साहित्य का इतिहास 1929 (ईसवी)

9.फारस का प्राचीन इतिहास

निबंध संग्रह

1.काव्य में रहस्यवाद (1929 ईस्वी)

2.विचार वीथी 1930 (ईस्वी), 1912 ईस्वी से 1919 ईस्वी तक

3.रस मीमांसा (1949 ईस्वी)

4.चिंतामणि भाग 1 (1945 ईस्वी)

5.चिंतामणि भाग 2 (1945 ईस्वी)

6.चिंतामणि भाग 3 (नामवर सिंह द्वारा संपादित)

7.चिंतामणि भाग 4 (कुसुम चतुर्वेदी संपादित शुक्ल द्वारा लिखी गई विभिन्न पुस्तकों की भूमिका और गोष्ठियों में दिए गए उदाहरण।)

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी के निबंध

1.काव्य में प्राकृति दृश्य

2.रसात्मक बोध के विविध स्वरूप

3.काव्य में अभिव्यंजनावाद

4.कविता क्या है?

5.काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था

6.भारतेंदु हरिश्चंद्र

7.काव्य में रहस्यवाद

8.मानस की जन्मभूमि

9.साहित्य

10.उपन्यास

11.मित्रता

12.साधारणीकरण और व्यक्ति 

13.तुलसी का भक्ति मार्ग

करुणा निबंध का सारांश लिखिए।

सारांश यह है कि कवना के प्राप्ति के लिए पात्र में दुख के अतिरिक्त और किसी विशेषता की अपेक्षा नहीं। पर दूसरों के दुख के परिज्ञान से जो दुख होता है वह करुणा, दया आदि नामों से पुकारा जाता है और अपने कारण को दूर करने की उत्तेजना करता है। माना जाता है कि संपूर्ण विश्व में परोपकार की भावना का मूल तत्व करुणा ही है। बुधवा महावीर ने करुणा पर अत्यधिक बल दिया है। कहा से मिलता जुलता एक अन्य भाव दया है। दया वा कुंडा में निम्नलिखित अंतर है।

शुक्ला जी ने किस पत्रिका का संपादन किया ?

शुक्ला जी ने नागरी प्रचारिणी पत्रिका का संपादन किया।

उनकी विधिवत शिक्षा कहां तक हुई ?

अध्ययन के प्रति लगनशीलता शुक्ल जी में बाल्यकाल से ही थी। किंतु इसके लिए उन्हें अनुकूल वातावरण ना मिल सका। मिर्जापुर के लंदन मिशन स्कूल से स्थान 1901 में स्कूल फाइनल परीक्षा उत्तीर्ण की।

 डॉ. भगवतशरण उपाध्याय जी का जीवन परिचय एवं रचनाए

डॉ. भगवतशरण उपाध्याय जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय

              संक्षिप्त परिचय

नाम

डॉ. भगवतशरण उपाध्याय

जन्म

सन् 1910

जन्म स्थान

बलिया जिले के उजियारपुर

गाँव में

शिक्षा

एम. ए.

आजीविका

प्रोफेसर एवं साहित्य सृजन

मृत्यु

सन् 1982

लेखन-विधा

आलोचना, यात्रा - साहित्य, पुरातत्त्व, संस्मरण एवं रेखाचित्र

साहित्य में पहचान

महान् शैलीकार, समर्थ आलोचक एवं पुरातत्त्व ज्ञाता

भाषा

शुद्ध, प्राकृत और परिमार्जित

शैली

विवेचनात्मक, वर्णनात्मक, भावात्मक शैली

साहित्य में योगदान

उपाध्याय जी ने साहित्य,

संस्कृति के विषयों पर सौ से भी अधिक पुस्तकों की रचना की है। ये संस्कृत एवं पुरातत्त्व के परम ज्ञाता रहे हैं।

जीवन-परिचय

पुरातत्त्व कला के पण्डित, भारतीय संस्कृति और इतिहास के सुप्रसिद्ध विद्वान् एवं प्रचारक तथा लेखक डॉ. भगवतशरण उपाध्याय का जन्म सन् 1910 में बलिया जिले के उजियारपुर गाँव में हुआ था। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् उपाध्याय जी काशी आए और यहीं से प्राचीन इतिहास मेंएम.ए. किया। वे संस्कृत साहित्य और पुरातत्त्व के परम ज्ञाता थे। हिन्दी साहित्य की उन्नति में इनका विशेष योगदान था।

उपाध्याय जी ने पुरातत्त्व एवं प्राचीन भाषाओं के साथ-साथ आधुनिक यूरोपीय भाषाओं का भी अध्ययन किया। इन्होंने क्रमशः 'पुरातत्त्व विभाग', 'प्रयाग संग्रहालय', 'लखनऊ संग्रहालय' के अध्यक्ष पद पर, 'बिड़ला महाविद्यालय' में प्राध्यापक पद पर तथा विक्रम महाविद्यालय में प्रोफेसर एवं अध्यक्ष पद पर कार्य किया और यहीं से अवकाश ग्रहण किया।

उपाध्याय जी ने अनेक बार यूरोप, अमेरिका, चीन आदि देशों का भ्रमण किया तथा वहाँ पर भारतीय संस्कृति और साहित्य पर महत्त्वपूर्ण व्याख्यान दिए। इनके व्यक्तित्व की एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्राचीन भारतीय संस्कृति के अध्येता और व्याख्याकार होते हुए भी ये रूढ़िवादिता और परम्परावादिता से ऊपर रहे। अगस्त, 1982 में इनका देहावसान हो गया। हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाने की दिशा में उपाध्याय जी का योगदान स्तुत्य है।

इन्होंने साहित्य, कला, संस्कृति आदि विभिन्न विषयों पर सौ से अधिक पुस्तकों की रचना की। आलोचना, यात्रा साहित्य, पुरातत्त्व, संस्मरण एवं रेखाचित्र आदि विषयों पर उपाध्याय जी ने प्रचुर साहित्य का सृजन किया।

रचनाएँ – उपाध्याय जी ने सौ से अधिक कृतियों की रचना की। इनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं

आलोचनात्मक ग्रन्थ विश्व साहित्य की रूपरेखा, साहित्य और कला, इतिहास के पन्नों पर विश्व को एशिया की देन, मन्दिर और भवन आदि।

यात्रा साहित्य कलकत्ता से पीकिंग।

अन्य ग्रन्थ ठूंठा आम, सागर की लहरों पर, कुछ फीचर कुछ एकांकी, इतिहास साक्षी है, इण्डिया इन कालिदास आदि।

भाषा-शैली –  डॉ. उपाध्याय ने शुद्ध परिष्कृत और परिमार्जित भाषा का प्रयोग किया है। भाषा में प्रवाह और बोधगम्यता है, जिसमें सजीवता और चिन्तन की गहराई दर्शनीय है।

उपाध्याय जी की शैली तथ्यों के निरूपण से युक्त कल्पनामयी और सजीव है। इसके अतिरिक्त विवेचनात्मक, वर्णनात्मक और भावात्मक शैलियों का इन्होंने प्रयोग किया है।

हिन्दी साहित्य में स्थान

डॉ. भगवतशरण उपाध्याय की संस्कृत साहित्य एवं पुरातत्त्व के अध्ययन में विशेष रुचि रही है। भारतीय संस्कृति एवं साहित्य विषय पर इनके द्वारा विदेशों में दिए गए व्याख्यान हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है। पुरातत्त्व के क्षेत्र में इन्हें विश्वव्यापी ख्याति मिली। इन्हें कई देशों की सरकारों ने शोध के लिए आमन्त्रित किया। डॉ. उपाध्याय हिन्दी साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं।

 जयप्रकाश भारती जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय

Jay prakash Bharti ji ka jivan Parichay avm rachnaye

           संक्षिप्त परिचय

नाम

जयप्रकाश भारती

जन्म

2 जनवरी

जन्म-स्थान

1936 उत्तर प्रदेश के मेरठ नगर में

पिता का नाम

श्री रघुनाथ सहाय

शिक्षा

बी. एस. सी.

आजीविका

सम्पादक

मृत्यु

5 फरवरी, 2005

लेखन-विद्या

पत्रिका एवं पुस्तक तथा

बाल-साहित्य

भाषा

सरल एवं सहज

शैली

वर्णनात्मक, चित्रात्मक व भावात्मक शैली।

साहित्य में स्थान

विज्ञान विषयक साहित्य के प्रणेता एवं बाल-साहित्यकार

के रूप में प्रसिद्ध हैं।

जीवन-परिचय

लोकप्रिय बाल पत्रिका 'नन्दन' के सम्पादक एवं प्रसिद्ध लेखक जयप्रकाश भारती का जन्म 2 जनवरी, 1936 में उत्तर प्रदेश के प्रमुख नगर मेरठ में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री रघुनाथ सहाय था, जो मेरठ के प्रसिद्ध वकील और कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता थे। भारती जी ने अपनी बी. एस. सी. तक की शिक्षा मेरठ में ही पूरी की। छात्र जीवन में इन्होंने अपने पिता को अनेक सामाजिक गतिविधियों में संलिप्त देखा था, जिसका व्यापक प्रभाव इनके जीवन पर भी पड़ा। इससे इन्होंने समाजसेवी संस्थाओं में प्रमुखता से भाग लेना आरम्भ कर दिया। साक्षरता के प्रचार-प्रसार में इनका उल्लेखनीय योगदान रहा है, इन्होंने अनेक वर्षों तक मेरठ में निःशुल्क प्रौढ़ रात्रि पाठशाला का संचालन किया। इनका निधन 5 फरवरी, 2005 को हो गया। सम्पादन के क्षेत्र में इनकी विशेष रुचि रही। इन्होंने 'सम्पादन-कला विशारद' की उपाधि प्राप्त करके मेरठ से प्रकाशित 'दैनिक प्रभात' तथा दिल्ली से प्रकाशित 'नवभारत टाइम्स' में पत्रकारिता का व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त किया। ये अनेक वर्षों तक दिल्ली से प्रकाशित 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' के सह-सम्पादक भी रहे।

 रचनाएँ – भारती जी की अनेक पुस्तकें यूनेस्को और भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत की गई हैं

-हिमालय की पुकार, अनन्त प्रकाश, अथाह सागर, विज्ञान की विभूतियाँ, देश हमारा देश हमारा, चलो चाँद पर चलें, सरदार भगतसिंह, हमारे गौरव के प्रतीक, उनका बचपन यूँ बीता, ऐसे थे हमारे बापू, लोकमान्य तिलक, बर्फ की गुड़िया, अस्त्र-शस्त्र आदिम युग से अणु युग तक, भारत का संविधान, संयुक्त राष्ट्र संघ, दुनिया रंग-बिरंगी आदि। इसके अतिरिक्त इन्होंने ढेर सारा बाल-साहित्य भी सृजित किया है।

भाषा-शैली – अधिकांशतः बाल साहित्य का सृजन करने वाले जयप्रकाश भारती की रचनाओं की भाषा स्वाभाविक रूप से सरल है। विज्ञान सम्बन्धी रचनाओं में विज्ञान की पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग हुआ है, पर शेष स्थानों पर सरल साहित्यिक हिन्दी का प्रयोग हुआ है। जयप्रकाश भारती ने अपनी रचनाओं में वर्णनात्मक, चित्रात्मक व भावात्मक शैली का प्रयोग किया है।

हिन्दी साहित्य में स्थान

जयप्रकाश भारती जी मुख्यतः बाल साहित्य और वैज्ञानिक लेखों के क्षेत्र में प्रसिद्ध हुए हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने लेख, कहानियाँ, रिपोर्ताज आदि अन्य साहित्यिक विधाओं से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है। इन्होंने वैज्ञानिक विषयों को हिन्दी में प्रस्तुत करके तथा उसे सरल, रोचक, उपयोगी और चित्रात्मक बनाकर अन्य साहित्यकारों का मार्ग निर्देशन किया है।

ram naresh tripathi ji ka jeevan parichay avm rachnaye

रामनरेश त्रिपाठी निराला जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय तथा रचनाएं

                  संक्षिप्त परिचय

नाम

रामनरेश त्रिपाठी

जन्म

1889 ई.

जन्म स्थान

कोइरीपुर गाँव (उ.प्र.)

पिता का नाम

पं. रामदत्त त्रिपाठी

मृत्यु

वर्ष 1962

शिक्षा

कोइरीपुर गाँव (नवीं तक)

संस्कृत, बांग्ला, गुजराती,

हिन्दी भाषा का ज्ञान

कृतियाँ

पथिक, मिलन

(खण्डकाव्य), वीरांगना,

लक्ष्मी (उपन्यास), सुभद्रा, जयन्त (नाटक), स्वप्नों

के चित्र (कहानी संग्रह)

उपलब्धि

हिन्दी साहित्य सम्मेलन,

प्रयाग के प्रचार मन्त्री

साहित्य में योगदान

हिन्दी का प्रचार-प्रसार,

'हिन्दी मन्दिर' की स्थापना कर साहित्य में बहुमूल्य योगदान दिया।

जीवन-परिचय

राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत काव्य का सृजन करने वाले कवि रामनरेश त्रिपाठी का जन्म 1889 ई. में जिला जौनपुर के अन्तर्गत कोइरीपुर ग्राम के एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। इनके पिता पं. रामदत्त त्रिपाठी, ईश्वर में आस्था रखने वाले ब्राह्मण थे। केवल नवीं कक्षा तक पढ़ने के पश्चात् इनकी पढ़ाई छूट गई। बाद में इन्होंने स्वतन्त्र रूप से हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, बांग्ला तथा गुजराती का गहन अध्ययन किया तथा साहित्य सेवा को अपना लक्ष्य बनाया।

ये हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के प्रचार मन्त्री भी रहे। इन्होंने दक्षिणी राज्यों में हिन्दी के प्रचार हेतु सराहनीय कार्य किया। साहित्य की विविध विधाओं पर इनका पूर्ण अधिकार था। वर्ष 1962 में कविता के आदर्श और सूक्ष्म सौन्दर्य को चित्रित करने वाला यह कवि पंचतत्त्व में विलीन हो गया।

साहित्यिक परिचय

त्रिपाठी जी मननशील, विद्वान् और थे। हिन्दी के प्रचार-प्रसार और साहित्य-सेवा की भावना से प्रेरित होकर इन्होंने 'हिन्दी मन्दिर' की स्थापना की। अपनी कृतियों का प्रकाशन भी इन्होंने स्वयं ही किया। ये द्विवेदी युग के उन साहित्यकारों में से हैं, जिन्होंने द्विवेदी मण्डल के प्रभाव से पृथक रहकरअपनी मौलिक प्रतिभा से साहित्य के क्षेत्र में कई कार्य किए। इन्होंने भावप्रधान काव्य की रचना की। राष्ट्रीयता, देशप्रेम, सेवा, त्याग आदि भावना प्रधान विषयों पर इन्होंने उत्कृष्ट साहित्य की रचना की।

कृतियाँ (रचनाएँ)

त्रिपाठी जी ने हिन्दी साहित्य की अनन्य सेवा की। हिन्दी की विविध विधाओं पर इन्होंने अपनी लेखनी चलाई। इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं

1. खण्डकाव्य पथिक, मिलन और स्वप्न

2. उपन्यास वीरांगना और लक्ष्मी

3. नाटक सुभद्रा, जयन्त और प्रेमलोक

4. कहानी संग्रह स्वप्नों के चित्र

5. आलोचना तुलसीदास और उनकी कविता

6. सम्पादित रचनाएँ कविता कौमुदी और शिवाबावनी 7. संस्मरण तीस दिन मालवीय जी के साथ

8. बाल साहित्य आकाश की बातें, बालकथा कहानी, गुपचुप कहानी, फूलरानी और बुद्धिविनोद

9. जीवन चरित महात्मा बुद्ध तथा अशोक

10. टीका साहित्य 'श्रीरामचरितमानस' का टीका। इनके खण्डकाव्य में 'मिलन' दाम्पत्य प्रेम तथा 'पथिक' और 'स्वप्न' राष्ट्रीयता पर आधारित भावनाओं से ओत-प्रोत हैं। मानसी इनकी फुटकर रचनाओं का संग्रह है, जिसमें देशप्रेम, मानव की सेवा, प्रकृति वर्णन तथा बन्धुत्व की भावनाओं पर आधारित प्रेरणादायी कविताएँ संगृहीत हैं। 'कविता कौमुदी' में इनकी स्वरचित कविताओं का संग्रहण है तथा 'ग्राम्य गीत' में लोकगीतों का संग्रह है।

भाषा-शैली

त्रिपाठी जी की भाषा भावानुकूल, प्रवाहपूर्ण, सरल खड़ी बोली है। संस्कृत के तत्सम शब्दों एवं समासिक पदों की भाषा में अधिकता है। शैली सरल, स्पष्ट एवं प्रवाहमयी है। मुख्य रूप से इन्होंने वर्णनात्मक और उपदेशात्मक शैली का प्रयोग किया है। इनका प्रकृति-चित्रण वर्णनात्मक शैली पर आधारित है। छन्द का बन्धन इन्होंने स्वीकार नहीं किया है तथा प्राचीन और आधुनिक दोनों ही छन्दों में काव्य रचना की है। इन्होंने शृंगार, शान्त और करुण रस का प्रयोग किया है। अनुप्रास, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग दर्शनीय है।

हिन्दी साहित्य में स्थान

त्रिपाठी जी एक समर्थ कवि, सम्पादक एवं कुशल पत्रकार थे। राष्ट्रीय भावनाओं पर आधारित इनका काव्य अत्यन्त हृदयस्पर्शी है। इनके निबन्ध हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। इस प्रकार ये कवि, निबन्धकार, सम्पादक आदि के रूप में हिन्दी में सदैव जाने जाएँगे।

सुभद्रा कुमारी चौहान जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय

Subhadra Kumari Chauhan ji ka jivan Parichay avm rachnaye

           संक्षिप्त जीवन परिचय

नाम

सुभद्रा कुमारी चौहान

जन्म

वर्ष 1904

जन्म-स्थान

इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश)

पिता का नाम

रामनाथ सिंह

शिक्षा

क्रॉस्थवेट गर्ल्स कॉलेज

की छात्रा, देश सेवा में

लग जाने के कारण

शिक्षा अधूरी

निधन

वर्ष 1948

कृतियाँ

मुकुल, त्रिधारा, बिखरे

मोती इत्यादि।

उपलब्धियाँ

'मुकुल' काव्य संग्रह पर सेकसरिया पुरस्कार।

जीवन-परिचय

स्वतन्त्रता संग्राम की सक्रिय सेनानी, राष्ट्रीय चेतना की अमर गायिका एवं वीर रस की एकमात्र कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म वर्ष 1904 में इलाहाबाद के के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। इन्होंने प्रयाग के 'क्रॉस्थवेट गर्ल्स कॉलेज' में शिक्षा प्राप्त की। 15 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह खण्डवा के ठाकुर लक्ष्मणसिंह चौहान के साथ हुआ। विवाह के बाद गाँधी जी की प्रेरणा से ये पढ़ाई-लिखाई छोड़कर देश सेवा में सक्रिय हो गईं तथा राष्ट्रीय कार्यों में भाग लेने लगीं। इन्होंने कई बार जेल-यात्राएँ भी कीं। माखनलाल चतुर्वेदी की प्रेरणा से इनकी देशभक्ति का रंग और भी गहरा हो गया। वर्ष 1948 में एक मोटर दुर्घटना में इनकी असामयिक मृत्यु हो गई।

सुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाओं में देशभक्ति एवं राष्ट्रीयता का स्वर मुखरित हुआ है। इनके काव्य की ओजपूर्ण वाणी ने भारतीयों में नवचेतना का संचार कर दिया। इनकी अकेली कविता 'झाँसी की रानी' ही इन्हें अमर कर देने के लिए पर्याप्त है। इनकी कविता 'वीरों का कैसा हो वसन्त' भी राष्ट्रीय भावनाओं को जगाने वाली ओजपूर्ण कविता है। इन्होंने राष्ट्रीयता के अलावा वात्सल्य भाव से सम्बन्धित कविताओं की भी रचना की।

कृतियाँ (रचनाएँ)

सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपने साहित्यिक जीवन में भले ही कम रचनाएँ लिखीं, लेकिन उनकी रचनाएँ अद्वितीय हैं। देशभक्ति की भावना को काव्यात्मक रूप प्रदान करने वाली इस कवयित्री की रचनाएँ निम्नलिखित हैं

काव्य संग्रह मुकुल और त्रिधारा। कहानी संकलन सीधे-सादे चित्र, बिखरे मोती तथा उन्मादिनी।

'मुकुल' काव्य संग्रह पर इनको 'सेकसरिया' पुरस्कार प्रदान किया गया।

भाषा-शैली

सुभद्रा जी की शैली अत्यन्त सरल एवं सुबोध है। इनकी रचना-शैली में ओज, प्रसाद और माधुर्य भाव से युक्त गुणों का समन्वित रूप देखने को मिलता है। राष्ट्रीयता पर आधारित इनकी कविताओं में सजीव एवं ओजपूर्ण शैली का प्रयोग हुआ है।

हिन्दी साहित्य में स्थान

सुभद्रा जी हिन्दी साहित्य में अकेली ऐसी कवयित्री हैं, जिन्होंने राष्ट्रप्रेम को जगाने वाली कविताएँ लिखीं। इनकी कविताओं ने भारतीयों को स्वतन्त्रता संग्राम में स्वयं को झोंक देने के लिए प्रेरित किया। इन्होंने नारी की जिस निडर छवि को प्रस्तुत किया, वह नारी जगत् के लिए अमूल्य देन है। हिन्दी साहित्य में इनको गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है।

मैथिलीशरण गुप्त जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय तथा रचनाएं

मैथिलीशरण गुप्त जी का जीवन परिचय एवं रचनाएं

maithilesharan gupt ji ka jivan parichay aur rachnaye

             संक्षिप्त परिचय

नाम

मैथिलीशरण गुप्त

जन्म

1886 ई.

जन्म स्थान

चिरगाँव, झाँसी, उ.प्र.

पिता का नाम

सेठ रामचरण गुप्त

माता का नाम

काशीबाई

गुरु

महावीरप्रसाद द्विवेदी

मृत्यु

1964 ई.

मृत्यु स्थान

चिरगाँव झाँसी

कृतियाँ

भारत भारती, साकेत, यशोधरा, पंचवटी, द्वापर, जयद्रथ वध आदि।

साहित्य में योगदान

अपने काव्य से राष्ट्रीय भावों की गंगा बहाने का श्रेय गुप्त जी को है। द्विवेदी युग के यह अनमोल रत्न रहे हैं।

जीवन-परिचय

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जन्म झाँसी जिले के चिरगाँव नामक स्थान पर 1886 ई. में हुआ था। इनके पिताजी का नाम सेठ रामचरण गुप्त और माता का नाम काशीबाई था। इनके पिता को हिन्दी साहित्य से विशेष प्रेम था, गुप्त जी पर अपने पिता का पूर्ण प्रभाव पड़ा। इनकी प्राथमिक शिक्षा चिरगाँव तथा माध्यमिक शिक्षा मैकडोनल हाईस्कूल (झाँसी) से हुई। घर पर ही अंग्रेजी, बांग्ला, संस्कृत एवं हिन्दी का अध्ययन करने वाले गुप्त जी की प्रारम्भिक रचनाएँ कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले 'वैश्योपकारक' नामक पत्र में छपती थीं। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी जी के सम्पर्क में आने पर उनके आदेश, उपदेश एवं स्नेहमय परामर्श से इनके काव्य में पर्याप्त निखार आया। भारत सरकार ने इन्हें 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया। 12 दिसम्बर, 1964 को माँ भारती का यह सच्चा सपूत सदा के लिए पंचतत्त्व में विलीन हो गया।

साहित्यिक परिचय

गुप्त जी ने खड़ी बोली के स्वरूप के निर्धारण एवं विकास में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। गुप्त जी की प्रारम्भिक रचनाओं में इतिवृत्त कथन की अधिकता है, किन्तु बाद की रचनाओं में लाक्षणिक वैचित्र्य एवं सूक्ष्म मनोभावों की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। गुप्त जी ने अपनी रचनाओं में प्रबन्ध के अन्दर गीति-काव्य का समावेश कर उन्हें उत्कृष्टता प्रदान की है।

कृतियाँ (रचनाएँ)

गुप्त जी के लगभग 40 मौलिक काव्य ग्रन्थों में भारत-भारती (1912), रंग में भंग (1909), जयद्रथ वध, पंचवटी, झंकार, झंकार, साकेत, यशोधरा, द्वापर, जय भारत, विष्णु प्रिया आदि उल्लेखनीय हैं।

भारत-भारती ने हिन्दी भाषियों में जाति और देश के प्रति गर्व और गौरव की भावना जगाई। 'रामचरितमानस' के पश्चात् हिन्दी में राम काव्य का दूसरा प्रसिद्ध उदाहरण 'साकेत' है। 'यशोधरा' और 'साकेत' मैथिलीशरण गुप्त ने दो नारी प्रधान काव्यों की रचना की।

श्याम नारायण पाण्डेय जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय तथा रचनाएं

श्याम नारायण पाण्डेय जी का जीवन परिचय एवं रचनाएं

shyam narayan Pandey ji ka jivan Parichay avm rachnaye

                 संक्षिप्त परिचय

नाम

श्याम नारायण पाण्डेय

जन्म

1907 ई.

जन्म स्थान

डुमराँव गाँव, उत्तर प्रदेश

मृत्यु

1991 ई. डुमराँव

मृत्यु स्थान

डुमराँव

काव्य कृतियाँ

'हल्दीघाटी', 'जौहर','तुमुल', 'रूपान्तर','आरती', तथा 'जय हनुमान' आदि।

साहित्य में योगदान

वीर रस के सुविख्यात हिन्दी कवि।

जीवन-परिचय

श्याम नारायण पाण्डेय का जन्म श्रावण कृष्ण पंचमी को सन् 1907 में डुमराँव गाँव, आजमगढ़ उत्तर प्रदेश में हुआ था। आरम्भिक शिक्षा के बाद श्याम नारायण पाण्डेय संस्कृत अध्ययन के लिए काशी (बनारस) आए। काशी विद्यापीठ से वे साहित्याचार्य की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए। स्वभाव से सात्विक, हृदय से विनोदी और आत्मा से निर्भीक स्वभाव वाले पाण्डेय जी के स्वस्थ्य-पुष्ट व्यक्तित्व में शौर्य, सत्त्व और सरलता का अनूठा मिश्रण था। संस्कार द्विवेदीयुगीन, दृष्टिकोण उपयोगितावादी और भाव-विस्तार मर्यादावादी थे। लगभग दो दशकों से ऊपर वे हिन्दी कवि-सम्मेलनों के मंच पर अत्यन्त लोकप्रिय रहे। उन्होंने आधुनिक युग में वीर काव्य की परम्परा को खड़ी बोली के रूप में प्रतिष्ठित किया। पाण्डेय जी का देहान्त वर्ष 1991 में डुमराँव नामक ग्राम में हुआ था।

साहित्यिक परिचय

श्याम नारायण पाण्डेय आधुनिक काव्य धारा के प्रमुख वीर कवियों में से एक थे। वीर काव्य को इन्होंने अपनी कविताओं का मुख्य विषय बनाया। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को अपने काव्य का आधार बनाकर इन्होंने पाठकों पर गहरी छाप छोड़ी है।

कृतियाँ (रचनाएँ)

श्याम नारायण पाण्डेय ने चार उत्कृष्ट महाकाव्यों की रचना की थी, जिनमें से 'हल्दीघाटी (1937-39 ई.)' और 'जौहर (1939-44 ई.)' को अत्यधिक प्रसिद्धि मिली। 'हल्दीघाटी' में वीर राणा प्रताप के जीवन और 'जौहर' में चित्तौड़ की रानी पद्मिनी के आख्यान हैं। इनके अतिरिक्त पाण्डेय जी की रचनाएँ निम्नलिखित हैं। तुमुल (1948 ई.), रूपान्तर (1948), आरती (1945-46 ई.), 'जय हनुमान' (1956 ई.) ।

तुमुल 'त्रेता के दो वीर' नामक खण्ड काव्य का परिवर्धित संस्करण है, जबकि 'माधव', 'रिमझिम',' आँसू के कण' और 'गोरा वध' उनकी प्रारम्भिक लघु कृतियाँ हैं।

भाषा-शैली

श्याम नारायण पाण्डेय ने अपने काव्यों में खड़ी बोली का प्रयोग किया है। श्याम नारायण पाण्डेय वीर रस के सुविख्यात हिन्दी कवि थे। इनके काव्यों में वीर रस के साथ-साथ करुण रस का गम्भीर स्थान है। पाण्डेय जी ने काव्य में गीतात्मक शैली के साथ-साथ मुक्त छन्द का प्रयोग किया है। भाषा में सरलता और सहजता इस स्तर पर है कि उनके सम्पूर्ण काव्य के पाठन में चित्रात्मक शैली के गुण दिखाई पड़ते हैं।

हिन्दी साहित्य में स्थान

श्याम नारायण पाण्डेय जी हिन्दी साहित्य के महान् कवियों में से एक के हैं। इन्होंने इतिहास को आधार बनाकर महाकाव्यों की रचना की, जोकि हिन्दी साहित्य में सराहनीय प्रयास रहा। द्विवेदी युग के इस रचनाकार को वीरग्रन्थात्मक काव्य सृजन के लिए हिन्दी साहित्य में अद्वितीय स्थान दिया जाता है।

गोस्वामी तुलसीदास जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय तथा रचनाएं

गोस्वामी तुलसीदास जी का जीवन परिचय एवं रचनाएं

tulsedas ji ka jivan parichay aur rachnaye

               संक्षिप्त परिचय

नाम

गोस्वामी तुलसीदास

जन्म

1532 ई.

जन्म स्थान

राजापुर गाँव

पिता का नाम

आत्माराम दुबे

माता का नाम

हुलसी

पत्नी का नाम

रत्नावली

शिक्षा

सन्त बाबा नरहरि दास ने भक्ति की शिक्षा वेद-वेदांग, दर्शन, इतिहास, पुराण आदि की शिक्षा दी।

भक्ति

राम भक्ति

प्रसिद्ध महाकाव्य

'रामचरितमानस'

उपलब्धि

लोकमानस कवि

साहित्य में योगदान

हिन्दी साहित्य में कविता की सर्वतोन्मुखी उन्नति।

मृत्यु

1623 ई.

मृत्यु का स्थान

काशी

जीवन-परिचय

लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास भारत के ही नहीं, सम्पूर्ण मानवता तथा संसार के कवि हैं। उनके जन्म से सम्बन्धित प्रामाणिक सामग्री अभी तक प्राप्त नहीं हो सकी है। इनका जन्म 1532 ई. (भाद्रपद शुक्ल पक्ष एकादशी, विक्रम संवत् 1589) स्वीकार किया गया है। तुलसीदास जी के जन्म और जन्म स्थान के सम्बन्ध को लेकर सभी विद्वानों में पर्याप्त मतभेद हैं। इनके जन्म के सम्बन्ध में एक दोहा प्रचलित है

"पंद्रह सौ चौवन बिसै, कालिंदी के तीर। श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी धर्यो सरीर ।। "

'तुलसीदास' का जन्म बाँदा जिले के 'राजापुर' गाँव में माना जाता है। कुछ विद्वान् इनका जन्म स्थल एटा जिले के 'सोरो' नामक स्थान को मानते हैं। तुलसीदास जी सरयूपारीण ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे एवं माता का नाम हुलसी था। कहा जाता है कि अभुक्त मूल-नक्षत्र में जन्म होने के कारण इनके माता-पिता ने इन्हें बाल्यकाल में ही त्याग दिया था। इनका बचपन अनेक कष्टों के बीच व्यतीत हुआ।

इनका पालन-पोषण प्रसिद्ध सन्त नरहरिदास ने किया और इन्हें ज्ञान एवं भक्ति की शिक्षा प्रदान की। इनका विवाह पण्डित दीनबन्धु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुआ था। इन्हें अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम था और उनके सौन्दर्य रूप के प्रति वे अत्यन्त आसक्त थे। एक बार इनकी पत्नी बिना बताए मायके चली गईं तब ये भी अर्द्धरात्रि में आँधी-तूफान का सामना करते हुए उनके पीछे-पीछे ससुराल जा पहुँचे। इस पर इनकी पत्नी ने उनकी भर्त्सना करते हुए कहा

"लाज न आयी आपको दौरे आयेहु साथ।"

पत्नी की इस फटकार ने तुलसीदास जी को सांसारिक मोह-माया से विरक्त कर दिया और उनके हृदय में श्रीराम के प्रति भक्ति भाव जाग्रत हो उठा। तुलसीदास जी ने अनेक तीर्थों का भ्रमण किया और ये राम के अनन्य भक्त बन गए। इनकी भक्ति दास्य-भाव की थी। 1574 ई. में इन्होंने अपने सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य 'रामचरितमानस' की रचना की तथा मानव जीवन के सभी उच्चादर्शों का समावेश करके इन्होंने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बना दिया। 1623 ई. में काशी में इनका निधन हो गया।

साहित्यिक परिचय

तुलसीदास जी महान् लोकनायक और श्रीराम के महान् भक्त थे। इनके द्वारा रचित 'रामचरितमानस' सम्पूर्ण विश्व साहित्य के अद्भुत ग्रन्थों में से एक है। यह एक अद्वितीय ग्रन्थ है, जिसमें भाषा, उद्देश्य, कथावस्तु, संवाद एवं चरित्र-चित्रण का बड़ा ही मोहक चित्रण किया गया है। इस ग्रन्थ के माध्यम से इन्होंने जिन आदर्शों का भावपूर्ण चित्र अंकित किया है, वे युग-युग तक मानव समाज का पथ-प्रशस्त करते रहेंगे। इनके इस ग्रन्थ में श्रीराम के चरित्र का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। मानव जीवन के सभी उच्च आदर्शों का समावेश करके इन्होंने श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम बना दिया है। तुलसीदास जी ने सगुण-निर्गुण, ज्ञान-भक्ति, शैव-वैष्णव और विभिन्न मतों एवं सम्प्रदायों में समन्वय के उद्देश्य से अत्यन्त प्रभावपूर्ण भावों की अभिव्यक्ति की।

कृतियाँ (रचनाएँ)

महाकवि तुलसीदास जी ने बारह ग्रन्थों की रचना की। इनके द्वारा रचित महाकाव्य रामचरितमानस सम्पूर्ण विश्व के अद्भुत ग्रन्थों में से एक है। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित है

1. रामलला नहछू गोस्वामी तुलसीदास ने लोकगीत की सोहर' शैली में इस ग्रन्थ की रचना की थी। यह इनकी प्रारम्भिक रचना है।

2. वैराग्य-सन्दीपनी इसके तीन भाग हैं, पहले भाग में छः छन्दों में मंगलाचरण है तथा दूसरे भाग में 'सन्त-महिमा वर्णन' एवं तीसरे भाग में 'शान्ति-भाव वर्णन है।

3. रामाज्ञा प्रश्न यह ग्रन्थ सात सर्गों में विभाजित है, जिसमें शुभ-अशुभ शकुनी का वर्णन है। इसमें रामकथा का वर्णन किया गया है।

4. जानकी-मंगल इसमें कवि ने श्रीराम और जानकी के मंगलमय विवाह उत्सव का मधुर वर्णन किया है। 5. रामचरितमानस इस विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के सम्पूर्ण जीवन के चरित्र का वर्णन किया गया है।

6. पार्वती-मंगल यह मंगल काव्य है, इसमें पूर्वी अवधि में 'शिव-पार्वती के विवाह' का वर्णन किया गया है। गेय पद होने के कारण इसमें संगीतात्मकता का गुण भी विद्यमान है।

7. गीतावली इसमें 230 पद संकलित हैं, जिसमें श्रीराम के चरित्र का वर्णन किया गया है। कथानक के आधार पर ये पद सात काण्डों में विभाजित हैं।

8. विनयपत्रिका इसका विषय भगवान श्रीराम को कलियुग के विरुद्ध प्रार्थना-पत्र देना है। इसमें तुलसी भक्त और दार्शनिक कवि के रूप में प्रतीत होते हैं। इसमें तुलसीदास की भक्ति-भावना की पराकाष्ठा देखने को मिलती है।

9. गीतावली इसमें 61 पदों में कवि ने ब्रजभाषा में श्रीकृष्ण के मनोहारी रूप का वर्णन किया है।

10. बरवै-रामायण यह तुलसीदास की स्फुट रचना है, जिसमें श्रीराम कथा संक्षेप में वर्णित है। बरवै छन्दों में वर्णित इस लघु काव्य में अवधि भाषा का प्रयोग किया गया है।

11. दोहावली इस संग्रह ग्रन्थ में कवि की सूक्ति शैली के दर्शन होते हैं। इसमें दोहा शैली में नीति, भक्ति और राम महिमा का वर्णन है।

12. कवितावली इस कृति में कवित्त और सवैया शैली में रामकथा का वर्णन किया गया है। यह ब्रजभाषा में रचित श्रेष्ठ मुक्तक काव्य है।

भाषा-शैली

तुलसीदास जी ने अवधी तथा ब्रज दोनों भाषाओं में अपनी काव्यगत रचनाएँ लिखीं। रामचरितमानस अवधी भाषा में है, जबकि कवितावली, गीतावली, विनयपत्रिका आदि रचनाओं में ब्रजभाषा का प्रयोग किया गया है। रामचरितमानस में प्रबन्ध शैली, विनयपत्रिका में मुक्तक शैली और दोहावली में साखी शैली का प्रयोग किया गया है। भाव-पक्ष तथा कला-पक्ष दोनों ही दृष्टियों से तुलसीदास का काव्य अद्वितीय है। तुलसीदास जी ने अपने काव्य में तत्कालीन सभी काव्य-शैलियों का प्रयोग किया है। दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया, पद आदि काव्य शैलियों में कवि ने काव्य रचना की है। सभी अलंकारों का प्रयोग करके तुलसीदास जी ने अपनी रचनाओं को अत्यन्त प्रभावोत्पादक बना दिया है।

हिन्दी साहित्य में स्थान

गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं, इन्हें समाज का पथ-प्रदर्शक कवि कहा जाता है। इसके द्वारा हिन्दी कविता की सर्वतोमुखी उन्नति हुई। मानव प्रकृति के जितने रूपों का सजीव वर्णन तुलसीदास जी ने किया है, उतना अन्य किसी कवि ने नहीं किया। तुलसीदास जी को मानव-जीवन का सफल पारखी कहा जा सकता है। वास्तव में तुलसीदास जी हिन्दी के अमर कवि हैं, जो युगों-युगों तक हमारे बीच जीवित रहेंगे।

केदारनाथ सिंह जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय तथा रचनाएं    

केदारनाथ सिंह जी का जीवन परिचय एवं रचनाएं

kedarnath singh ji ka jivan parichay aur rachnaye

              संक्षिप्त परिचय

नाम

केदारनाथ सिंह

जन्म

वर्ष 1934

जन्म-स्थान

चकिया गाँव, बलिया जिला (उत्तर प्रदेश)

शिक्षा

हिन्दी एम.ए. (बनारस विश्वविद्यालय) पी.एच.डी

कृतियाँ

'अभी बिल्कुल अभी', 'जमीन पक रही है', 'यहाँ से देखो', 'अकाल में सारस', 'बाघ', 'टॉल्सटॉय और साइकिल'

उपलब्धियाँ

साहित्य अकादमी पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, कुमारन आशातन पुरस्कार, दिनकर पुरस्कार, जीवन भारती सम्मान, व्यास सम्मान, शलाका सम्मान, ज्ञानपीठ पुरस्कार। 

साहित्य में योगदान

केदारनाथ सिंह साहित्य में मानव-मूल्य, भ्रष्टाचार, विषमता और मूल्यहीनता जैसे विषयों का सृजन कर प्रगतिशील कवियों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं, जो सदैव ही बना रहेगा।

जीवन परिचय

समकालीन कविता के प्रमुख हस्ताक्षर श्री केदारनाथ सिंह का जन्म वर्ष 1934 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में चकिया नामक गाँव में हुआ था। उन्होंने बनारस विश्वविद्यालय से वर्ष 1956 में हिन्दी में एम. ए. और वर्ष 1964 में पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की। वे अनेक कॉलेजों में पढ़ाते हुए अन्त में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में हिन्दी के विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए। हिन्दी साहित्य की उत्कृष्ट सेवाओं के लिए उन्हें अनेक सम्मानों द्वारा सम्मानित किया गया। उनकी कविता में गाँव एवं शहर का द्वन्द्व स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। 'बाघ' नामक लम्बी कविता को नई कविता के क्षेत्र में मील का पत्थर माना जाता है।

श्री केदारनाथ सिंह को उनकी कविता 'अकाल में सारस' के लिए वर्ष 1989 का साहित्य अकादमी पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, दिनकर सम्मान, जीवन भारती सम्मान और व्यास सम्मान दिया गया है। हिन्दी साहित्य अकादमी के वर्ष 2009-10 के प्रतिष्ठित और सर्वोच्च शलाका सम्मान से उन्हें सम्मानित किया गया, पर यह सम्मान उन्होंने ठुकरा दिया। साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' वर्ष 2013 का प्रो. केदारनाथ को प्रदान किया गया। केदारनाथ सिंह की कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता है-अपनी संस्कृति, सभ्यता, भाषायी सिद्धपन, मानवता और अपनी ज़मीन से जुड़े रहना। इनसे उनका जुड़ाव शाश्वत और सकारात्मक है। उनकी कविताओं में सर्वत्र निराशा में भी आशा की किरण दिखाई देती है, पतझड़ में वसन्त की आहट सुनाई देती है। जन-जन में मानव मूल्यों के संचार का प्रयास भी हर पद में दिखाई देता है। उनकी यह विशेषता उन्हें अन्य कवियों से सबसे अलग, किन्तु उच्च स्तर पर खड़ा करती है। किन्तु उसकी प्रवाहमयता नदी के समान अविरल है। वे काव्य की भाषा का परिष्कार करते हुए दिखाई देते हैं। उनका झुकाव भाषा की मुक्ति की ओर है।

कृतियाँ (रचनाएँ)

केदारनाथ सिंह की प्रमुख कृतियाँ निम्नांकित हैं-अभी बिलकुल अभी, ज़मीन पक रही है, यहाँ से देखो, अकाल में सारस, उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ-बाघ, टॉल्सटॉय और साइकिल ।

भाषा-शैली

केदारनाथ सिंह की भाषा अत्यन्त सरल व स्पष्ट है। इनकी भाषा के सम्बन्ध में कहा गया है कि भाषा को लेकर यह निरन्तर निरीक्षण करते दिखाई देते हैं कि भाषा कहाँ है, कैसे बचेगी और कहाँ विफल है. और कहाँ विकसित किए जाने की आवश्यकता है। इनकी शैली मानव-मूल्यों के संचार के लिए सदैव प्रयासरत रही है, जिसमें मनुष्य की कभी न नष्ट होने वाली ऊर्जा तथा अदम्य जीजिविषा है। इन्होंने मुक्तक शैली का प्रयोग किया है।

हिन्दी साहित्य में स्थान

केदारनाथ सिंह समकालीन कविता के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे भाषा की मुक्ति चाहते हैं, पर उसमें गुणात्मक परिवर्तन भी करते रहते है। यह सुधार उनकी कविता तक ही सीमित नहीं रहता है। अपनी कृतियों के माध्यम से उन्होंने हिन्दी साहित्य को अत्यधिक समृद्ध किया है। हिन्दी साहित्य जगत् में उन्हें उच्च स्थान प्राप्त है।

पदुमलाल पुन्ना लाल बख्शी जी का जीवन परिचय

पदुमलाल पुन्ना लाल बख्शी जी का जीवन परिचय एवं साहित्यिक परिचय

जीवन-परिचय

द्विवेदी युग के सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का जन्म 1894 ई. में छत्तीसगढ़ राज्य के खैरागढ़ नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम श्री उमराव बख्शी और पितामह का नाम बाबा पुन्नालाल बख्शी था। इन दोनों का साहित्य से विशेष लगाव था। इनकी माता भी साहित्यानुरागिनी थीं। ऐसे ही परिवेश में इस लेखक का पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा हुई। अतः परिवार के साहित्यिक वातावरण का गहरा प्रभाव इनके मन पर भी पड़ा और ये विद्यार्थी जीवन से ही कविता लिखने लगे। बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् इन्होंने साहित्य-सेवा को अपना लक्ष्य बनाया। इन्होंने कहानी और कविता लेखन शुरू किया, जो 'हितकारिणी' और उत्तरोत्तर अन्य पत्रों में छपने लगा। द्विवेदीजी के सम्पर्क में आने पर इनकी रचनाएँ 'सरस्वती' पत्रिका में छपने लगीं। इनके लेखन कौशल से द्विवेदीजी इतने प्रभावित थे कि 'सरस्वती' पत्रिका का सम्पादन इनके हाथों में सौंपकर निश्चिन्त हो गए। कई वर्षों तक इस पत्रिका का सम्पादन करने के उपरान्त ये खैरागढ़ चले गए और शिक्षण कार्य करने लगे। सन् 1971 में 77 वर्ष की आयु में यह साहित्यकार इस दुनिया को छोड़कर चला गया।

रचनाएँ – बख्शीजी मननशील विद्वान् तथा बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। इन्होंने साहित्य, कला, नाटक, काव्य और आलोचना आदि से सम्बन्धित विषयों की रचनाएँ कीं। इनकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं

काव्य संग्रह –  शतदल और अश्रुदल।

कहानी संग्रह – अंजलि और झलमला।

आलोचना – विश्व साहित्य, हिन्दी साहित्य विमर्श, हिन्दी उपन्यास साहित्य, हिन्दी कहानी साहित्य आदि।

निबन्ध संग्रह – पंच-पात्र, प्रबन्ध-पारिजात, कुछ यात्री, कुछ बिखरे पन्ने और पद्मवन।

अनूदित रचनाएँ – प्रायश्चित, उन्मुक्ति का निबन्ध, तीर्थस्थल।

लघुकथा – 'झलमला' इनके द्वारा लिखी गई अत्यन्त प्रसिद्ध कहानी थी। बाल साहित्य से सम्बन्धित अनेक पुस्तकें भी इन्होंने लिखी थीं।

सम्पादन –  सरस्वती और छाया।

भाषा-शैली – बख्शी जी की भाषा का अपना एक आदर्श है। इनकी भाषा में जटिलता और रूखापन नहीं है। इनकी रचनाओं में यत्र-तत्र उर्दू के शब्द भी मिलते हैं, तो कहीं-कहीं अंग्रेजी के व्यावहारिक शब्दों का प्रयोग भी किया गया है। इन शब्दों के प्रयोग से भाषा की सरसता एवं प्रवाहमयता में वृद्धि हुई है। इनके निबन्धों में भावात्मक, व्याख्यात्मक और विचारात्मक शैलियों के दर्शन होते हैं।

हिन्दी साहित्य में स्थान

महावीरप्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आने से बख्शी जी की साहित्यिक प्रतिभा में निखार आया। इन्होंने कई प्रभावपूर्ण कृतियों की रचना की, जिससे इन्हें खूब प्रसिद्धि मिली। इनके निबन्ध उच्चकोटि के विचारात्मक, आलोचनात्मक एवं समीक्षात्मक श्रेणी के थे। इनकी कहानियाँ भावना प्रधान एवं मर्मस्पर्शी थीं। बख्शी जी एक कुशल सम्पादक एवं अनुवादक भी थे। इन्होंने अंग्रेज़ी एवं बांग्ला के कई नाटकों एवं कहानियों का अनुवाद कर हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाने में अपना योगदान दिया।

सुमित्रानंदन पन्त की पधाश रचना , चींटी और चन्द्रलोक में प्रथम बार रचनाओं की संदर्भ प्रसंग व्याख्या

              चींटी

चींटी को देखा ?

वह सरल, विरल, काली रेखा देखो ना, 

तम के तागे सी जो हिल-डुल,

चलती लघुपद पल-पल मिल-जुल

वह है पिपीलिका पाँति देखो ना किस भाँति 

काम करती वह सतत कन-कन कनके चुनती अविरत !

सन्दर्भ – प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रकृति के सुकुमार कवि 'सुमित्रानन्दन पन्त' द्वारा रचित 'युगवाणी' काव्य संग्रह में शामिल तथा हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में शामिल शीर्षक 'चींटी' से उद्धृत हैं।

प्रसंग – इन पंक्तियों में कवि ने चींटी जैसे तुच्छ प्राणी की निरन्तर गतिशीलता का निर्भय होकर विचरण करने, कभी हार न मानने जैसी प्रवृत्ति का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि क्या तुमने कभी चींटी को देखा है? वह अत्यन्त सरल और सीधी है। वह पतली और काली रेखा की भाँति, काले धागे की भाँति हिलती-डुलती हुई, अपने छोटे-छोटे पैरों से प्रत्येक क्षण चलती है। वे सब एक पंक्ति में आगे-पीछे अर्थात् मिलकर होती हुई चलती हैं तथा देखने में काले धागे की रेखा-सी दिखती हैं।

कवि चींटी की गतिशीलता और निरन्तर परिश्रम करते रहने की विशेषता का वर्णन करते हुए कहता है कि वह पंक्तिबद्ध होकर निरन्तर अपने मार्ग पर बढ़ती चली जाती है। देखो! वह किस प्रकार बिना रुके काम करती रहती है, एक-एक कण एकत्रित करती है और अपने घर तक ले जाती है अर्थात् वह कभी हार नहीं मानती तथा लगातार अपने श्रम से, अपने परिवार के लिए भोजन को एकत्र करने के काम में लगी रहती है। चींटी श्रम की साकार व सजीव मूर्ति है, यद्यपि वह अत्यन्त लघु प्राणी है।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने चींटी के माध्यम से निरन्तर गतिशील रहने की प्रेरणा दी है।

भाषा गुण             साहित्यिक खड़ी बोली 

शैली                    वर्णनात्मक

रस                      वीर

गुण         ओज

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'हिल-डुल', 'पिपीलिका पाँति' और 'कन-कन कनके' में क्रमश: 'ल', 'प', 'क' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

उपमा अलंकार 'तम के तागे सी' और 'काली रेखा' यहाँ उपमेय में उपमान की समानता को व्यक्त किया गया है, इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'पल-पल' और 'कन-कन' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

            चन्द्रलोक में प्रथम बार

 2.चन्द्रलोक में प्रथम बार, मानव ने किया पदार्पण,

छिन्न हुए लो, देश काल के,

दिग्-विजयी मनु-सुत,

निश्चय, यह महत् ऐतिहासिक क्षण,

भू-विरोध हो शांत। निकट आएँ सब देशों के जन। 

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के 'काव्यखण्ड' से 'चन्द्रलोक में प्रथम बार' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित 'ऋता' काव्य संग्रह से ली गई है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने मानव के चन्द्रमा पर पहुँचने की ऐतिहासिक घटना के महत्त्व को व्यक्त किया है। यहाँ कवि ने उन सम्भावनाओं का वर्णन किया है, जो मानव के चन्द्रमा पर पैर रखने से साकार होती प्रतीत होती हैं।

व्याख्या – कवि कहता है कि जब चन्द्रमा पर प्रथम बार मानव ने अपने कदम रखे तो ऐसा करके उसने देश-काल के उन सारे बन्धनों, जिन पर विजय पाना कठिन माना जाता था, उन्हें छिन्न-भिन्न कर दिया। मनुष्य को यह विश्वास हो गया कि इस ब्रह्माण्ड में कोई भी देश और ग्रह-नक्षत्र अब दूर नहीं है। आज निश्चय ही मानव ने दिग्विजय प्राप्त कर ली है अर्थात् उसने समस्त दिशाओं को जीत लिया है। यह एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक क्षण है कि अब सभी देशों के निवासी मानवों को परस्पर विरोध समाप्त कर एक-दूसरे के निकट आना चाहिए और प्रेम से रहना चाहिए। सम्पूर्ण विश्व ही एक देश में परिवर्तित हो जाए तथा सभी देशों के मनुष्य एक-दूसरे के निकट आएँ, यही कवि की मंगलकामना है।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने स्पष्ट किया है कि आधुनिक व ज्ञानिक समय ने सम्पूर्ण विश्व को एकता के सूत्र में बाँध दिया है।

भाषा           साहित्यिक खड़ी-बोली

गुण              ओज

शैली             प्रतीकात्मक

छन्द          तुकान्त मुक्त 

रस             वीर

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'बाधा बंधन' में 'ब' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

(3) अणु-युग बने धरा जीवन हित 

स्वर्ग-सृजन का साधन,मानवता ही विश्व सत्य

भू-राष्ट्र करें आत्मार्पण।

धरा चन्द्र की प्रीति परस्पर जगत प्रसिद्ध, पुरातन, हृदय-सिन्धु में उठता स्वर्गिक ज्वार देख चन्द्रानन!

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के 'काव्यखण्ड' से 'चन्द्रलोक में प्रथम बार' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि सुमित्रानन्दन पन्त द्वारा रचित 'ऋता' काव्य संग्रह से ली गई है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कविवर 'सुमित्रानन्दन पन्त' ने अणु-युग के प्रति लोककल्याण की भावना को प्रकट किया है। कवि चाहता है कि विज्ञान का विकास मानव के कल्याण के लिए हो।

व्याख्या – कवि कामना करता है कि अणु-युग का विकास मानव जाति के कल्याण के लिए हो अर्थात् विज्ञान का प्रयोग मानव के विकास के लिए हो, जिससे यह पृथ्वी स्वर्ग के समान सुखी और सम्पन्न हो जाए। आपसी बैर-विरोध समाप्त हो जाए, भाईचारे की भावना उत्पन्न हो जाए और सब मिल-जुलकर रहें। इस संसार में केवल मानवता ही सत्य है। अतः सभी राष्ट्रों को अपनी स्वार्थ भावना का त्याग कर देना चाहिए।

कवि कहता है कि पृथ्वी और चन्द्रमा का प्रेम संसार में प्रसिद्ध हैं और यह अत्यन्त प्राचीन प्रेम सम्बन्ध है। ऐसी मान्यता है कि चन्द्रमा पहले पृथ्वी का ही एक भाग था, जो बाद में उससे अलग हो गया। आज भी पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा को देखकर समुद्र के हृदय में ज्वार आता है, मानो यह पृथ्वी और चन्द्रमा के प्रेम का परिचायक हो। .

काव्य सौन्दर्य

कवि का मानना है कि विश्व की उन्नति तभी सम्भव होगी, जब हम आपसी भेदभाव भुलाकर परस्पर प्रेम से रहेंगे।

भाषा              साहित्यिक खड़ी-बोली

गुण                प्रसाद

शैली            प्रतीकात्मक एवं भावात्मक

रस।             शान्त

छन्द           तुकान्त-मुक्त

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'स्वर्ण सृजन' और 'प्रीति परस्पर' में क्रमशः 'स' तथा 'प' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

महादेवी वर्मा जी की गधांश रचना, हिमालय 'वर्षा सुन्दरी' के 'प्रति रचनाओं की संदर्भ,प्रसंग, व्याख्या, काव्य सौदंर्भ 

महादेवी वर्मा जी की गधांश रचनाओं की संदर्भ प्रसंग व्याख्या

            हिमालय 

टूटी है तेरी कब समाधि, झंझा लौटे शत हार- हार; बह चला दृगों से किन्तु नीर! सुनकर जलते कण की पुकार ! सुख से विरक्त दुःख में समान!

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड 'हिमालय से शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित 'सान्ध्य गीत' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवयित्री ने हिमालय की दृढ़ता का वर्णन किया है, साथ ही उसके प्रति अपनी भावात्मक अनुभूति का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवयित्री कहती है कि हे हिमालय! तुम तो एक तपस्वी की भाँति समाधि लगाकर बैठे हो। तुम्हारी यह समाधि कब टूटी है? आँधी के सैकड़ों झटके तुम्हें लगे, पर वे तुम्हारा कुछ न बिगाड़ सकें। तुम विचलित नहीं हुए। वे स्वयं ही हार मान कर चले गए।

एक ओर तो तुम्हारे अन्दर इतनी दृढ़ता एवं कठोरता है कि कोई भी बाधा तुम्हारे मार्ग की रुकावट नहीं बन सकती और दूसरी ओर तुम इतने सहृदय और भावुक हो कि धूप में जलते हुए कण की पुकार सुनकर तुम्हारे नेत्रों से आँसुओं की धारा फूट पड़ती है। तुम किसी का दुःख नहीं देख सकते। तुम एक योगी हो जो सुख से विरक्त रहते हो अर्थात् सुख की कामना नहीं करते। तो तुम भाव सुख और दुःख स्थित रहते हो और यही भावना तुम्हारी उच्चता की प्रतीक है। 

काव्य सौन्दर्य

यहाँ हिमालय का मानवीकरण किया गया है। उसे वाले योगी के समान बताया है। सुख और दुःख में समान रहने वाले योगी के समान बताया है।

भाषा         खड़ी-बोली हिन्दी

गुण           माधुर्य

शैली           गीति

छन्द           अतुकान्त मुक्त

रस           शान्त 

शब्द-शक्ति      लक्षणा

अलंकार

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'हार-हार' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है। 

मानवीकरण अलंकार इस पद्यांश में समाधि' शब्द में मानवरूपी प्रस्तुति की गई है। अतः यहाँ मानवीकरण अलंकार है।

2.मेरे जीवन का आज मूक, 

तेरी छाया से हो मिलाप,

तन तेरी साधकता छू ले,

मन ले करुणा की थाह नाप!

उर में पावस दृग में विहान!

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड 'हिमालय से शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित 'सान्ध्य गीत' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवयित्री हिमालय को देखकर उसके गुणों को अपने मन में सहेजने की कामना करती है।

व्याख्या – महादेवी जी कहती हैं कि मैं तो यह कामना करती हूँ कि मैं अपने जीवन के मौन को तुम्हारी छाया में मिला दूँ अर्थात् वह हिमालय के गुणों को अपने आचरण में उतारना चाहती हैं। वह कामना करती हुई कहती है कि मेरा शरीर भी तुम्हारी तरह कठोर साधना शक्ति से परिपूर्ण हो और मेरा मन इतनी करुणा से भर जाए, जितनी करुणा तुम्हारे हृदय में भरी हुई है। मेरे हृदय में भी वर्षा का निवास है तथा नेत्रों में प्रात:कालीन सौन्दर्य भरा हुआ है अर्थात् मेरे हृदय में करुणा के कारण सरसता बनी रहे। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार हिमालय सारे कष्टों को सहन करता है, वैसे ही मैं भी संकटों से विचलित न होऊँ।

काव्य सौन्दर्य

कवयित्री हिमालय के गुणों को अपनाना चाहती है। वह स्वयं को हिमालय के समान साधना और करूणा से भरना चाहती है।

भाषा           खड़ी बोली हिन्दी

शैली           भावात्मक गीति

गुण              माधुर्य

रस              शान्त

छन्द          अतुकान्त-मुक्त

शब्द-शक्ति      लक्षणा

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'तन तेरी' में 'त' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

मानवीकरण अलंकार इस पद्यांश में हिमालय का मानवीकरण किया गया है। अतः यहाँ मानवीकरण अलंकार है।

         वर्षा सुन्दरी के प्रति

3.रूपसि तेरा घन-केश-पाश! श्यामल श्यामल कोमल कोमल, लहराता सुरभित केश-पाश! नभ- गंगा की रजतधार में धो आई क्या इन्हें रात ? कम्पित हैं तेरे सजल अंग, सिहरा सा तन हे सद्यस्नात! भीगी अलकों के छोरों से चूती बूँदें कर विविध लास! रूपसि तेरा घन-केश-पाश!

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड के 'वर्षा सुन्दरी' के 'प्रति' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित 'नीरजा' से लिया  गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में वर्षा का सुन्दरी के रूप में वर्णन किया गया है। इसमें वर्षा का मानवीकरण किया गया है। व्याख्या महादेवी जी कहती हैं कि हे वर्षा रूपी सुन्दरी! तेरे घने केश रूपी जाल बादलों के समान श्यामल हैं अर्थात् अत्यन्त कोमल हैं। ये सुगन्ध से भरकर लहरा रहे हैं। वह सुन्दरी से प्रश्न करती हैं कि क्या तू इन केशों को आकाशगंगा की चाँदी के समान श्वेत धारा में धोकर आई है? तेरे अंग भीगे हुए हैं और ठण्ड से कॉप रहे हैं। तेरा शरीर ऐसे सिहर रहा है, जैसे कोई महिला अभी-अभी स्नान करके आई हो। तेरे भीगे हुए बालों की लटों से जल की बूँदें टपक रही हैं, जो नृत्य करती हुई-सी प्रतीत होती हैं। हे सुन्दरी! तेरा यह बादलरूपी बालों का समूह अत्यन्त सुन्दर लग रहा है।

काव्य सौन्दर्य

यहाँ वर्षा का सुन्दरी के रूप में चित्रण किया गया है।

भाषा                साहित्यिक खड़ी बोली

गुण                  माधुर्य

छन्द              अतुकान्त मुक्त

शैली              चित्रात्मक 

रस               श्रृंगार

अलंकार

 पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'श्यामल श्यामल' और 'कोमल कोमल' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है। 

रूपक अलंकार 'रूपसि तेरा घन-केश-पाश!' में बादलरूपी घने बालों के समूह का वर्णन किया गया है, जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।

 मानवीकरण अलंकार पूरे पद्यांश में वर्षा का सुन्दरी के रूप में चित्रण कर प्रकृति का मानवीकरण किया गया है, जिस कारण यहाँ मानवीकरण अलंकार है।

4.सौरभ भीना झीना गीला लिपटा मृदु अंजन-सा दुकूल; चल अंचल से झर झर झरते पथ में जुगनू के स्वर्ण फूल;दीपक से देता बार-बार तेरा उज्ज्वल चितवन-विलास! रूपसि तेरा घन-केश-पाश!

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड के 'वर्षा सुन्दरी' के 'प्रति' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित 'नीरजा' से लिया  गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में वर्षा का सुन्दरी के रूप में सजीव चित्रण किया गया है।

व्याख्या – कवयित्री वर्षा को सम्बोधित करती हुई कहती है कि हे वर्षारूपी सुन्दरी! तेरे शरीर पर सुगन्ध से भरा महीन, गीला, कोमल और श्याम वर्ण का रेशमी वस्त्र लिपटा हुआ है, जो आँखों के काजल के समान प्रतीत हो रहा है अर्थात् यह काले बादल इस तरह प्रतीत हो रहे हैं जैसे किसी सुन्दरी के सुगन्धित, कोमल और काले रंग के वस्त्र हो । तेरे चंचल आँचल से रास्ते में जुगनू रूपी स्वर्ण निर्मित फूल झर रहे हैं। बादलों में चमकती बिजली तुम्हारी उज्ज्वल दृष्टि है। जब तुम अपनी ऐसी सुन्दर दृष्टि किसी पर डालती हो तो उसके मन में प्रेम के दीपक जगमगाने लगते हैं। हे रूपवती वर्षा सुन्दरी! तेरे ये बादलरूपी घने केश अत्यधिक सुन्दर हैं। काव्य सौन्दर्य वर्षा का मानवीकरण किया गया है।

भाषा          साहित्यिक खड़ी बोली

रस           श्रृंगार

शैली         चित्रात्मक

छन्द        चित्रात्मक

गुण         माधुर्य

अलंकार

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'झर-झर' और 'बार-बार' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है। 

उपमा अलंकार 'मृदु अंजन-सा दुकूल में रेशमी वस्त्र को काजल सा बताया गया है अर्थात् उपमेय में उपमान की समानता है, जिस कारण यहाँ उपमा अलंकार है।

रूपक अलंकार 'जुगनू के स्वर्ण फूल' में तारों का वर्णन स्वर्ण रूपी फूल के समान किया गया है, जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।

5.उच्छ्वसित वक्ष पर चंचल है तेरी निश्वासें छू भू को केकी-रव की नूपुर-ध्वनि सुन रूपसि तेरा घन-केश-पाश!बक-पाँतों का अरविन्द-हार;

बन बन जाती मलयज बयार, जगती-जगती की मूक प्यास!

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड के 'वर्षा सुन्दरी' के 'प्रति' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित 'नीरजा' से लिया  गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में वर्षा का मानवीकरण कर उसका सुन्दरी के रूप में चित्रण किया गया है।

व्याख्या – कवयित्री कहती हैं कि हे वर्षा रूपी सुन्दरी! दीर्घ श्वास के कारण तेरा वक्षस्थल कम्पित हो रहा है, जिसके कारण बगुलों की पंक्ति रूपी कमल के फूलों की माला चंचल-सी प्रतीत हो रही है। जब तुम्हारे मुख से निकली बूँदरूपी साँसे पृथ्वी पर गिरती हैं, तो उनके पृथ्वी के स्पर्श से उठने वाली एक प्रकार की महक मलयगिरि की सुगन्धित वायु प्रतीत होती है तुम्हारे आने पर चारों ओर नृत्य करते हुए मोरों की मधुरध्वनि सुनाई पड़ने लगती है, जोकि तुम्हारे पैरों में बँधे हुए घुंघरुओं के समान मालूम पड़ती है। जिसको सुनकर लोगों के मन में मधुर प्रेम की प्यास जाग्रत होने लगती है।तात्पर्य यह है कि मोरों की मधुर आवाज से वातावरण में जो मधुरता छा जाती है, वह लोगों को आनन्द और उल्लास से जीने की प्रेरणा प्रदान करती है। हे वर्षा रूपी सुन्दरी! तेरा केश रूपी पाश काले-काले बादलों के समान है।

काव्य सौन्दर्य

यहाँ प्रकृति का मानवीकरण हुआ है।

भाषा       साहित्यिक खड़ी बोली 

शैली       चित्रात्मक

छन्द।      अतुकान्त मुक्त

 रस          श्रृंगार 

गुण        माधुर्य

अलंकार

 अनुप्रास अलंकार 'जगती-जगती' में 'ज', 'ग' और 'त' वर्ण की पुनरावृत्ति हो रही है, जिस कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

 यमक अलंकार यहाँ जगती-जगती में दो अर्थ जाग्रत होना, संसार का प्रयोग हो रहा है, जिस कारण यहाँ यमक अलंकार है। 

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'बन बन' और 'जगती जगती' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

6.इन स्निग्ध लटों से छा दे तन  झुक सस्मित शीतल चुम्बन से दुलरा दे ना, बहला दे ना दे रूपसि तेरा घन-केश-पाश!पुलकित अंकों में भर विशाल; अंकित कर इसका मृदुल भाल; यह तेरा शिशु जग है उदास!

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड के 'वर्षा सुन्दरी' के 'प्रति' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित 'नीरजा' से लिया  गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवयित्री ने वर्षा में मातृत्व की और संसार में उसके शिशु की कल्पना की है।

व्याख्या कवयित्री वर्षारूपी सुन्दरी से आग्रह करती है कि हे वर्षा सुन्दरी ! तुम अपने कोमल बालों की छाया में इस संसाररूपी अपने शिशु को समेट लो।उसे अपनी रोमांचित और विशाल गोद में रखकर, के साथ चूम लो। हे सुन्दरी ! उसके मस्तक को मुस्कुराहट तुम्हारे बादलरूपी बालों की छाया से, मधुर चुम्बन और दुलार से इस संसाररूपी शिशु का मन बहल जाएगा और उसकी उदासी भी दूर हो जाएगी। हे वर्षारूपी सुन्दरी! तुम्हारी बादलरूपी काली केश राशि बड़ी मोहक प्रतीत हो रही है।

काव्य सौन्दर्य

भाषा         साहित्यिक खड़ी बोली

शैली         चित्रात्मक और भावात्मक

गुण          माधुर्य

रस         शृंगार और वात्सल्य

छन्द        अतुकान्त-मुक्त

अलंकार

रूपक अलंकार 'शिशु जग' में उपमेय में उपमान का आरोप है,इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।

मानवीकरण अलंकार इस पद्यांश में वर्षा को माता एवं पृथ्वी को पुत्र के रूप में वर्णित किया गया है। अतः यहाँ मानवीकरण अलंकार है

 माखन लाल चतुर्वेदी की गद्यांश रचना 'पुष्प की अभिलाषा' और जवानी , का सन्दर्भ, प्रसंग, व्याख्या, काव्य सौन्दर्य

गद्यांश रचना 'पुष्प की अभिलाषा' और जवानी , की संदर्भ, प्रसंग, व्याख्या, काव्य सौन्दर्य

                पुष्प की अभिलाषा

चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ, चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ, चाह नहीं, सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊँ, चाह नहीं, देवों के सिर पर चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ, मुझे तोड़ लेना बनमाली, उस पथ में देना तुम फेंक। तृ-भूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'हिन्दी' के काव्यखण्ड 'पुष्प की अभिलाषा' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित 'युगचरण' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने पुष्प के माध्यम से मातृभूमि पर बलिदान होने की प्रेरणा दी है।

व्याख्या – कवि स्वयं को पुष्प मानकर अपनी अभिलाषा प्रकट करते हुए कहते हैं कि हे ईश्वर! मेरी यह अभिलाषा नहीं है कि मैं देवकन्या के आभूषणों में जड़कर उसके शृंगार की वस्तु बनूँ और न ही मेरी इच्छा पुष्पों की सुन्दर माला में गुँथकर प्रेमिका को रिझाने की है। वह कहता है कि हे ईश्वर! मेरी यह भी अभिलाषा नहीं है कि मैं सम्राटों के पार्थिव शरीर पर चढ़ाया जाऊँ और न ही मेरी इच्छा देवों के मस्तक पर सुशोभित होकर गर्व से इठलाने की है। वह कहता है कि मेरी तो केवल यही इच्छा है कि हे वनमाली! तुम मुझे उस पथ पर बिखेर देना, जिससे हमारी मातृ-भूमि के रक्षक, वीर सैनिक गुजरें। मैं उनके चरणों के स्पर्श से ही स्वयं को सौभाग्यशाली व गौरवान्वित अनुभव करूंगा, क्योंकि उनके चरणों का स्पर्श ही देश के बलिदानी वीरों के लिए सच्ची श्रद्धांजलि है।

काव्य सौन्दर्य

काव्यांश में पुष्प की अभिलाषा मुखरित हुई है। वह भी अपनी मातृभूमि के लिए बलिदान होने का भाव प्रकट कर रहा है।

भाषा           सरल खड़ी बोली 

शैली         प्रतीकात्मक, आत्मपरक तथा भावात्मक

गुण          ओज

छन्द        तुकान्त मुक्त

शब्द-शक्ति         अभिधा एवं लक्षणा

अलंकार 

अनुप्रास अलंकार 'चाह नहीं', 'प्रेमी-माला', 'लेना बनमाली' और 'जिस पथ जायें वीर' में क्रमशः 'ह', 'म', 'न' और 'व' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

                    जवानी

पहन ले नर-मुंड-माला,उठ स्वमुंड सुमेरु कर ले, भूमि-सा तू पहन बाना आज धानी, प्राण तेरे साथ हैं, उठ री जवानी!द्वार बलि का खोल चल,भूडोल कर दें,एक हिम-गिरि एक सिर, का मोल कर दें,मसल कर,अपने इरादों सी, उठा कर,दो हथेली हैं कि पृथ्वी गोल कर दें?रक्त है?या है नसों में क्षुद्र पानी! जाँच कर, तू सीस दे-देकर जवानी?

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'काव्यखण्ड' के 'जवानी' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित 'हिमकिरीटनी' से ली गई है।

प्रसंग माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रवादी कवि हैं। 'जवानी' कविता से वे देश के युवाओं को उद्बोधित और प्रेरित करते हुए उन्हें उत्साहित कर रहे हैं कि वे देश की वर्तमान परिस्थिति को बदल दें।

व्याख्या वह कहते हैं कि यदि समर्पण की स्थिति आ जाए तो तुम देश के लिए खुद को समर्पित भी कर दो, पीछे मत हटो; जैसे- पृथ्वी हरे धानों की हरियाली से जीवन्त हो उठती है, वैसे ही युवा भी उत्साह से भर कर अपने नियत कार्य को करें। जीवन का उद्गम उनका प्राण साथ में है। अत: उस प्राणशक्ति के साथ आलस्य का त्याग करके अपने कर्त्तव्यों का पालन युवा वर्ग करें तथा आगे बढ़े।

कवि युवाओं को सम्बोधित करते हुए कह रहे हैं कि हे युवा वर्ग! तुम अपनी मातृभूमि के लिए बलिदान का द्वार खोल दो। तुम चलो, आगे बढ़ो। तुम्हारे आगे बढ़ते उत्साहित कदमों में इतनी शक्ति हो कि उस पैर से पृथ्वी कम्पित हो उठे। हिमालय की रक्षा के लिए तुम सब अपने एक-एक सिर को समर्पित कर दो, अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दो। तुम्हारे इरादे (संकल्प) अत्यन्त मजबूत हो और तुम अपने इरादे रूपी हथेलियों को ऊंचे संकल्पों के समान उठाकर पृथ्वी को मसलकर गोल कर दो अर्थात् तुम अपने संकल्पों को दृढ़ करके कठिन से कठिन काम करने में सामर्थ्यवान बनो। हे वीरों! तुम अपनी युवावस्था की परख अपने शीश देकर कर सकते हो। इस बलिदानी परीक्षण से तुम्हें यह भी ज्ञात हो जाएगा कि तुम्हारी धमनियों में शक्तिशाली रक्त दौड़ रहा है अथवा उनमें केवल शक्तिहीन पानी ही भरा हुआ है।

काव्य सौन्दर्य

भाषा      शुद्ध परिमार्जित खड़ी बोली

गुण       ओज

छन्द       तुकान्त मुक्त

शैली         भावात्मक, उद्बोधन

रस                वीर

शब्द-शक्ति।        व्यंजना

अलंकार

'स्वमुण्ड सुमेरु', 'पहन बाना', 'बलि का खोल चल' आदि में अनुप्रास अलंकार तथा अपने इरादों सी उठा कर में रूपक अलंकार है।

वह कली के गर्भ से फल रूप में, अरमान आया।देख तो मीठा इरादा, किस तरह, सिर तान आया! डालियों ने भूमि रुख लटका दिए फल, देख आली! मस्तकों को दे रही संकेत कैसे, वृक्ष डाली।

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'काव्यखण्ड' के 'जवानी' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित 'हिमकिरीटनी' से ली गई है।

प्रसंग प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने अपनी वाणी में वृक्ष और उसके फलों के माध्यम से युवकों को देश के लिए बलिदान होने की प्रेरणा प्रदान की है।

 व्याख्या कवि युवाओं को प्रकृति के माध्यम से देशहित के लिए स्वयं को समर्पित करने का आग्रह करते हुए कहते हैं कि हे वीरों! तुम अपनी युवावस्था की परख अपने शीश देकर कर सकते हों। इस बलिदानी परीक्षा से तुम्हें यह भी ज्ञात हो जाएगा कि तुम्हारी धमनियों में शक्तिशाली रक्त दौड़ रहा है अथवा उनमें केवल शक्तिहीन पानी ही भरा हुआ है। फल से लदे हुए वृक्षों की ओर देखो, जो कि पृथ्वी की ओर अपना सिर झुकाए हुए हैं। जिस प्रकार कली के भीतर से झाँकते फल कली के संकल्पों (अरमानों) को बता रहे हैं, उसी प्रकार तुम्हारे हृदय से भी समर्पित हो जाने का संकल्प प्रकट हो जाना चाहिए। अर्थात् देश के युवाओं तुम्हें भी अपने भीतर देश की रक्षा के लिए दृढ़ संकल्प लेना होगा और दूसरों की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने के लिए तत्पर रहना होगा। वृक्षों की डालियों ने भी अपने मस्तक रूपी फलों को बलिदान के लिए दे दिया है, अब तुम भी उनके इस आत्म-बलिदान की परम्परा को अपने आचरण में आत्मसात् कर लो और युग की आवश्यकतानुसार स्वयं को उसकी प्रगतिरूपी माला में गूंथते हुए आगे बढ़ते रहो।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने युवा पीढ़ी को उनकी शक्ति व वीरता के गुणों को प्रकृति के उपादानों के माध्यम से जागृत किया है।

भाषा।        ओजपूर्ण खड़ी बोली

गुण            ओज

छन्द         तुकान्त मुक्त

शैली            उद्बोधन

रस                वीर

शब्द-शक्ति।       व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'दे-देकर', 'अरमान आया' में 'द' और 'अ' वर्ण की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

 रूपक अलंकार 'गर्भ से फल- रूप में अरमान आया' में अरमान रूपी फल का वर्णन किया गया, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।

 विश्व है असि का? नहीं संकल्प का है! हर प्रलय का कोण कायाकल्प का है; फूल गिरते, शूल शिर ऊँचा लिए है; रसों के अभिमान को नीरस किए हैं। खून हो जाए न तेरा देख, पानी, मरण का त्योहार, जीवन की जवानी।

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'काव्यखण्ड' के 'जवानी' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित 'हिमकिरीटनी' से ली गई है।

प्रसंग कवि युवाओं को क्रान्ति का दूत मानते हुए उन्हें मातृभूमि के लिए आत्मोत्सर्ग की प्रेरणा दे रहा है।

व्याख्या कवि युवाओं को क्रान्ति के लिए उत्साहित करते हुए उनसे पूछता है कि क्या यह संसार तलवार का है? क्या यह संसार तलवार और अन्य हिंसक हथियारों से ही जीता जा सकता है? कवि उनको स्वयं ही उत्तर देते हुए कह रहा है कि नहीं! ऐसी बात नहीं है। संसार दृढ़ संकल्प वाले व्यक्तियों का है। इसे दृढ़ संकल्प से जीता जा सकता है। संसार की प्रत्येक प्रलय का उद्देश्य संसार में क्रान्ति और बदलाव लाना होता है। इसी प्रकार युवा वर्ग यदि किसी बात के लिए संकल्प कर लेता है तो क्रान्ति आ सकती है और परिवर्तन प्रारम्भ हो सकता है। अतः युवाओं को अपने संकल्प से क्रान्ति के लिए आगे आना चाहिए।

व्यक्ति के अन्दर जब दृढ़ संकल्पों की कमी होती है, तो उसका पतन आरम्भ हो जाता है। हवा के हल्के से झोंके से कोमल होने के कारण पुष्प जमीन पर गिर जाते हैं और अपना सौन्दर्य खो बैठते हैं, परन्तु काँटे आँधी और तूफान में भी अपना सीना गर्व से ताने खड़े रहते हैं। हे नवयुवकों! दृढ़ संकल्प से उत्पन्न आत्मोत्सर्ग की भावना कभी विचलित नहीं होती है। काँटे फूलों की कोमलता और उनके सौन्दर्य के अभिमान को अपनी दृढ़ संकल्प शक्ति से नष्ट कर देते हैं। कवि युवाओं से कहता है कि हे युवा-वर्ग! तुम्हारी नसों के रक्त में जो उत्साह है, जो उष्णता है, वह जोश शीतल होकर नष्ट न हो जाए। जवानी उसी का नाम है, जो मृत्यु को त्योहार अर्थात् उल्लास का क्षण माने। मरण का त्योहार अर्थात् बलिदान का दिन ही जवानी का सबसे आनन्दमय दिन होता है।

काव्य सौन्दर्य

समाज में क्रान्ति लाने के लिए दृढ़ संकल्प अति आवश्यक है। युवाओं के संकल्प फूलों के नान कोमल नहीं, बल्कि काँटों के समान कठोर होने चाहिए।

भाषा             खड़ी बोली

शैली             उद्बोधनात्मक

गुण               ओज

रस                वीर

छन्द              तुकान्त मुक्त

शब्द-शक्ति       लक्षणा एवं व्यंजना

अलंकार

रूपक अलंकार 'मरण का त्योहार' में आत्म बलिदान को उत्साह का पर्व मानने के कारण यहाँ रूपक अलंकार है।

अनुप्रास अलंकार 'शूल शिर' और 'जीवन की जवानी' में 'श', 'ज' और 'व' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

रामनरेश त्रिपाठी निराला जी की गद्यांश रचना ' स्वदेश प्रेम , रचना के सभी गद्यांश की सन्दर्भ, प्रसंग, व्याख्या, काव्य सौन्दर्य 

स्वदेश प्रेम गद्यांश प्रसंग,सन्दर्भ, व्याख्या, काव्य सौन्दर्य 

अतुलनीय जिनके प्रताप का, साक्षी है प्रत्यक्ष दिवाकर घूम-घूम कर देख चुका है, जिनकी निर्मल कीर्ति निशाकर। देख चुके हैं जिनका वैभव, ये नभ के अनन्त तारागण अगणित बार सुन चुका है नम जिनका विजय घोष रण-गर्जन।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने उन पूर्वजों का यशोगान किया है, जिनके यश के साक्षी आज भी विद्यमान हैं। इसमें भारत के गौरवपूर्ण अतीत की झाँकी प्रस्तुत की है।

व्याख्या – कवि कहता है कि तुम अपने उन पूर्वजों को स्मरण करो, जिनके यश की तुलना कोई नहीं कर सकता और सूर्य जिनके बल और प्रताप का स्वयं साक्षी है। हमारे पूर्वज तो ऐसे थे, जिनकी निर्मल और स्वच्छ कीर्ति को चन्द्रमा भी पूरे विश्व में घूम-घूम कर देख चुका है। आकाश के अनन्त तारों का समूह भी जिनके ऐश्वर्य को बहुत पहले देख चुका है।

यह आकाश भी हमारे पूर्वजों के विजय घोषों और युद्ध की गर्जनाओं को अनेक बार सुन चुका है अर्थात् हमारे पूर्वजों के प्रताप, वैभव, यश, युद्ध कौशल, सब कुछ अद्भुत और अभूतपूर्व है। इसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती है।

काव्यगत सौन्दर्य

कवि ने अपने पूर्वजों का गुणगान किया है।

भाषा   संस्कृत शब्दों से युक्त साहित्यिक खड़ी बोली

शैली             भावात्मक

गुण            ओज

रस             वीर

छन्द           मात्रिक

शब्द-शक्ति    व्यंजना

अलंकार 

रूपक अलंकार 'दिवाकर', 'निशाकर' और 'तारागण' में उपमेय मेंउपमान का आरोप है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।

 अनुप्रास अलंकार 'अतुलनीय जिनके', 'कीर्ति निशाकर' और "जिनका विजय' में क्रमश: 'न', 'क' और 'ज' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'घूम-घूम' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

शोभित है सर्वोच्च मुकुट से, जिनके दिव्य देश का मस्तक गूँज रही हैं सकल दिशाएँ जिनके जय-गीतों से अब तक।। जिनकी महिमा का है अविरल, साक्षी सत्य-रूप हिम-गिरि-वर। उतरा करते थे विमान-दल, जिसके विस्तृत वक्षःस्थल पर

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 

प्रसंग – इन पंक्तियों में कवि ने हमारे देश के दिव्य स्वरूप, प्राचीन महिमा और अतीत के गौरव का वर्णन किया है।

व्याख्या कवि कहता है कि भारत एक महान् एवं प्राचीन दिव्य देश है, जिसके मस्तक पर हिमालय रूपी सर्वोच्च मुकुट सुशोभित है। हमारे पूर्वज इतने ज्ञानी, गुणी, वीर और परोपकारी थे कि उनके विजय के यशगान से आज भी सम्पूर्ण दिशाएँ गूंज रही हैं। वे हमारे ही पूर्वज थे, जिनकी महिमा के साक्षी हिमालय पर्वत और वन प्रान्त के पेड़-पौधे हैं। हिमालय और वन आज भी उनके सत्य रूप का बोध कराते हैं। यह हमारे देश की विस्तृत भारत भूमि ही है, जिसके वक्षस्थल पर अन्य देशों के विमान भी उतरा करते थे अर्थात् भारत की कीर्ति को सुनकर दूर-दूर से विदेशी यहाँ आया करते थे। इस प्रकार भारत की कीर्ति सम्पूर्ण विश्व में फैली थी।

काव्यगत सौन्दर्य

हिमालय पर्वत को भारत के मुकुट के रूप में चित्रित किया गया है।

भाषा             साहित्यिक खड़ी बोली

शैली          भावात्मक और वर्णनात्मक

गुण           ओज

छन्द           मात्रिक

रस            वीर

शब्द-शक्ति      व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'जिनके जय', 'साक्षी सत्य' और 'विस्तृत वक्षःस्थल' में क्रमश: 'ज', 'स' और 'व' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

 रूपक अलंकार 'सर्वोच्च मुकुट' और 'सत्य-रूप हिम-गिरि-वर' में उपमेय में उपमान का आरोप है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।

सागर निज छाती पर जिनके, अगणित अर्णव-पोत उठाकर। पहुँचाया करता था प्रमुदित, भूमण्डल के सकल तटों पर ।। नदियाँ जिसकी यश-धारा-सी, बहती हैं अब भी निशि-वासर । ढूँढ़ो, उनके चरण-चिह्न भी, पाओगे तुम इनके तट पर ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 

प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने अपने पूर्वजों की गरिमा तथा समर्पण भाव का चित्रण किया है।

व्याख्या कवि कहता है कि हमारे पूर्वजों (हमारे देश) का गौरवपूर्ण इतिहास है। समुद्र स्वयं उनकी सेवा में लीन रहता था। वह अपने वक्ष पर उनके अनगिनत

रहा जहाजों को उठाकर प्रसन्नता से पृथ्वी के समस्त तटों तक पहुँचाया करता था। हमारे देश में रात-दिन बहने वाली नदियों को देखकर ऐसा लगता है, मानो वे हमारे पूर्वजों का यशोगान गा रही हों। धन्य थे हमारे पूर्वज, जिन्होंने अपने समय में देश का गौरवान्वित रूप देखा। आज भी माना जाता है कि उनके चरण-चिह्न नदियों और समुद्रों के तट पर मिल जाएँगे अर्थात् पूर्वजों के समान व्यवहार करने से आज भी हमें उसी यश की प्राप्ति हो सकती है, जो उन्हें प्राप्त थी।

काव्यगत सौन्दर्य

भाषा        साहित्यिक खड़ी बोली

गुण         ओज

छन्द         मात्रिक

शैली       भावात्मक 

रस          वीर

शब्द-शक्ति।     व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'अगणित अर्णव' और 'चरण-चिह्न' में 'अ', 'ण' और 'च' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

 उपमा अलंकार 'यश-धारा-सी' में उपमेय में उपमान की समानता को व्यक्त किया गया है, इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।

 रूपक अलंकार इस पद्यांश में मनुष्य के यश की वृद्धि का परिचय नदी रूपी धारा से दिया गया है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।

विषुवत् रेखा का वासी जो, जीता है नित हाँफ-हाँफ कर। रखता है अनुराग अलौकिक, वह भी अपनी मातृ-भूमि पर ।।ध्रुव-वासी, जो हिम में तम में, जी लेता है कॉप-काँप कर वह भी अपनी मातृ-भूमि पर, कर देता है प्राण निछावर ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 

प्रसंग – कवि ने विषम परिस्थितियों में जी रहे लोगों के देश-प्रेम का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपने देश से प्रेम करने की सीख दी है।

व्याख्या कवि अपने देश से असीम प्रेम करने की प्रेरणा देते हुए कहता है कि विषुवत् रेखा का वह भू-भाग जहाँ असहनीय गर्मी पड़ती है और वहाँ के लोग गर्मी के कारण हाँफ-हॉफ कर जीवन बिताते हैं, किन्तु इतने कष्टों के होने पर भी वे अपनी मातृभूमि से अत्यधिक लगाव रखते हैं। उनका अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम अतुलनीय होता है। वे गर्मी की मार से परेशान होने पर भी अन्यत्र जाकर बसने की बात नहीं सोचते हैं। इसी प्रकार ध्रुवीय प्रदेशों में जहाँ साल के अधिकांश महीनों में बर्फ जमी रहती है तथा भीषण सर्दी के कारण काँपते हुए जीवन बिताना पड़ता है। सर्दी, कोहरे और धुन्ध के कारण दिन-रात का अन्तर करना कठिन हो जाता है। वहाँ के लोग भी असहाय शारीरिक कष्ट सहते हुए भी वहीं रहना पसन्द करते हैं। इसका सीधा-सा कारण अपनी मातृभूमि के प्रति अटूट प्रेम ही तो है। यहाँ के निवासी शत्रुओं से रक्षा करते हुए अपनी मातृभूमि के लिए जान की बाजी तक लगा देते हैं।

काव्यगत सौन्दर्य

कवि ने स्पष्ट किया है कि विषम जलवायु में कष्टपूर्ण जीवन जी रहे लोग भी

अपने देश के प्रति असीम लगाव रखते हैं।

भाषा           सरल खड़ी बोली

गुण          ओज

छन्द         मात्रिक

शैली        भावात्मक

रस        वीर

शब्द-शक्ति   व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार अनुराग अलौकिक', 'मातृ-भूमि वीर

और 'ध्रुव-वासी' में क्रमश: 'अ', 'म' और 'व' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार 'हॉफ हॉफ' और 'कॉप-काँप' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने से यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

तुम तो, हे प्रिय बन्धु स्वर्ग-सी, सुखद, सकल विभवों की आकर। धरा-शिरोमणि मातृ-भूमि में,धन्य हुए हो जीवन पाकर।। तुम जिसका जल अन्न ग्रहण कर,बड़े हुए लेकर जिसकी रज तन रहते कैसे तज दोगे,उसको, हे वीरों के वंशज

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने मातृभूमि को स्वर्ग से बढ़कर बताते हुए देशप्रेम की प्रेरणा प्रदान की है।

व्याख्या – कवि कहता है कि हे प्रिय बन्धु (भाई)! तुमने जहाँ जीवन पाया है, वह घरा स्वर्ग के समान सुख देने वाली, सम्पूर्ण सुखों की खान है। पृथ्वी का वह भाग जहाँ तुमने जन्म लिया है, वह सभी घरा-खण्डों से श्रेष्ठ है। तुम्हारी मातृभूमि धरा-शिरोमणि है। ऐसी धरती पर जन्म लेकर तुम धन्य हो। जिस देश के अन्न-जल को ग्रहण करके तथा जिस देश की धूल-मिट्टी में खेलकर तुम बड़े हुए हो। हे वीरों के वंशज उस देश को शरीर रहते हुए कैसे छोड़ दोगे? अपने देश से प्रेम करो तथा उसका त्याग मत करो, क्योंकि इस मातृभूमि की रक्षा करना तुम्हारा पुनीत कर्त्तव्य है।

काव्यगत सौन्दर्य

कवि ने मनुष्य को मातृभूमि के लिए त्याग व समर्पण की प्रेरणा दी है।

भाषा       खड़ी बोली

गुण         ओज

छन्द      मात्रिक

शैली      भावात्मक

रस        वीर

शब्द-शक्ति    व्यंजना

अलंकार

 अनुप्रास अलंकार 'सुखद सकल', 'धरा-शिरोमणि', 'मातृ-भूमि' और 'लेकर जिसकी' में क्रमशः 'स', 'र', 'म' और 'क' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

उपमा अलंकार 'स्वर्ग-सी' यहाँ धरती उपमेय और स्वर्ग उपमान में समानता दिखाई गई है। इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।

जब तक साथ एक भी दम हो, हो अवशिष्ट एक भी धड़कन । रखो आत्म-गौरव से ऊँची-पलकें, ऊँचा सिर, ऊँचा मन।। जब तक मन में हे शत्रुंजय दीन वचन मुख से न उचारो, मानो नहीं मृत्यु का भी भय ।।एक बूँद भी रक्त शेष हो,

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवि लोगों को स्वाभिमान के साथ जीवन जीने का सन्देश दे रहा है।

व्याख्या – कवि कहता है कि हे मातृभूमि से प्रेम रखने वाले भाई तुम अपनी अन्तिम साँस तक और बची हुई एक भी धड़कन के घड़कने तक अपने आत्म-गौरव की रक्षा करो। पलकों को किसी के भय से या दबाव से गिरने मत दो, अपना मस्तक किसी के सामने मत झुकाओ उसे सदैव ऊँचा रखो। अपने मन को भी ऊंचा रखो।हे शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले! जब तक तुम्हारे शरीर में रक्त की एक भी बूंद शेष है, तुम्हारे भीतर शक्ति शेष है, तब तक तुम अपने मुख से किसी के भीसामने दीनता प्रदर्शित मत करो।मृत्यु का भय सामने उपस्थित होने पर भी अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए डटे रहना, मृत्यु से भयभीत न होना। इस शरीर को तुम फिर से प्राप्त कर सकते हो। जीवन और मृत्यु तो चक्रवत इस संसार में चलते रहते हैं, लेकिन अपने स्वाभिमान की रक्षा सबसे पहले करो।

काव्यगत सौन्दर्य

भाषा           खड़ी बोली

गुण            ओज

शैली           भावात्मक

रस              वीर

छन्द           मात्रिक

शब्द-शक्ति    व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'दीन वचन' में 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

निर्भय स्वागत करो मृत्यु का, मृत्यु एक है विश्राम स्थल जीव जहाँ से फिर चलता है, धारण कर नव जीवन-संबल।। मृत्यु एक सरिता है, जिसमें, श्रम से कातर जीव नहाकर। फिर नूतन धारण करता है, काया-रूपी वस्त्र बहाकर।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में देश की रक्षा हेतु सर्वस्व समर्पित करने के लिए कहा गया है। देश की रक्षा करते हुए यदि मृत्यु का वरण करना पड़े तो वह भी श्रेयस्कर है।

व्याख्या – कवि कहता है, हे देशवासियों! मृत्यु का वरण सहर्ष करो। मृत्यु का स्वागत करो, क्योंकि मृत्यु एक विश्राम स्थल है। मृत्यु के बाद जीव पुनः नए शरीर को धारण करके फिर से अपनी जीवन-यात्रा को शुरू करता है। मृत्यु एक नदी के समान है, जिसमें नहाकर श्रम से कातर प्राणी पुराने शरीर रूपी वस्त्र का त्याग करके नए शरीर रूपी वस्त्र को धारण करता है।

कवि के कहने का तात्पर्य है कि कर्म करने के लिए जीव शरीर धारण करता है और संसार में जब वह थक जाता है, तो मृत्यु के बाद नए शरीर को नई शक्ति के साथ धारण करके पुनः अपनी जीवन-यात्रा को शुरू करता है। मृत्यु का वरण करके वह अपने पुराने काया रूपी वस्त्र को छोड़कर पुनः नए शरीर रूपी वस्त्र को धारण करता है। अतः मनुष्य को मृत्यु का स्वागत उल्लास और उत्साह से करना चाहिए।

काव्यगत सौन्दर्य

मृत्यु से भयभीत न होने की प्रेरणा देते हुए मृत्यु को जीवन का विश्राम स्थल बताया गया है। कवि की यह नितान्त मौलिक कल्पना है।

भाषा        खड़ी बोली

शैली        उद्बोधन

गुण          प्रसाद

रस          वीर

छन्द।        मात्रिक

शब्द-शक्ति।      व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'जीव जहाँ', 'धारण कर' और 'नव जीवन' में क्रमश: 'ज', 'र' और 'न' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है। 

रूपक अलंकार 'मृत्यु एक सरिता है' में मृत्यु को नदी रूपी बताकर दोनों के मध्य का भेद समाप्त हो गया है, इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है।

सच्चा प्रेम वही है जिसकी तृप्ति आत्म-बलि पर हो निर्भर। त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है, करो प्रेम पर प्राण निछावर || देश-प्रेम वह पुण्य-क्षेत्र है, अमल असीम त्याग से विलसित। आत्मा के विकास से जिसमें, मनुष्यता होती है विकसित।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड 'स्वदेश प्रेम' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि रामनरेश त्रिपाठी 'हिन्दी' द्वारा रचित 'स्वप्न' से लिया गया है। 

प्रसंग – कवि सच्चे देश-प्रेम के लिए त्याग और बलिदान जैसे गुणों को आवश्यक मानता है।

व्याख्या – कवि कहता है कि सच्चा प्रेम उसे ही कहा जा सकता है, जिसमें आत्मत्याग की भावना कूट-कूटकर भरी होती है अर्थात् आत्मत्याग के अभाव में प्रेम को सच्चा नहीं कहा जा सकता है। सच्चे प्रेम को पाने के लिए यदि आत्मबलिदान भी देना पड़े, तो हमें हिचकना नहीं चाहिए। त्याग के बिना प्रेम निर्जीव-सा होता है। देश-प्रेम ऐसा पवित्र क्षेत्र है, जो निर्मल, निष्कलंक और त्याग जैसे गुणों से खिल उठता है, जिसकी कोई सीमा नहीं होती है अर्थात् देश-प्रेम की सुन्दरता असीम और पवित्र त्याग से दिखाई देती है। देश-प्रेम वह पवित्र भावना होती है, जो मनुष्य की आत्मा और मनुष्यता के विकास के लिए आवश्यक होती है। अतः मनुष्य में मनुष्यता में का पूर्ण विकास हो, इसके लिए उसमें देश-प्रेम की भावना आवश्यक है।

काव्यगत सौन्दर्य

देश-प्रेम के लिए त्याग और बलिदान आवश्यक है, इसी भाव को कवि ने यहाँ प्रकट किया है।

भाषा       सरल खड़ी बोली 

शैली      तुकान्त मुक्त भावात्मकता

गुण।       ओज

छन्द        मात्रिक

रस          वीर

शब्द-शक्ति    व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'अमल असीम' में 'अ' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है

सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा रचित 'त्रिधारा' 'काव्यखण्ड' के 'झाँसी की रानी की समाधि पर' की सन्दर्भ, प्रसंग, व्याख्या, काव्य सौन्दर्य

1.इस समाधि में छिपी हुई है,एक राख की ढेरी।जल कर जिसने स्वतन्त्रता की, दिव्य आरती फेरी ।। यह समाधि, यह लघु समाधि है,झाँसी की रानी की।अंतिम लीलास्थली यही है,लक्ष्मी मरदानी की ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के 'काव्यखण्ड' के 'झाँसी की रानी की समाधि पर' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा

रचित 'त्रिधारा' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान और उनकी समाधि की गौरव-गाथा प्रस्तुत की है।

व्याख्या – कवयित्री लक्ष्मीबाई की समाधि की ओर संकेत करती हुई कहती हैं कि इस समाधि में उस वीरांगना की राख छिपी हुई है, जिसने स्वयं जलकर स्वतन्त्रता की देवी की अलौकिक आरती उतारी थी अर्थात् जिस प्रकार आरती उतारने के लिए दीप या कपूर आदि जलाया जाता है, उसी प्रकार लक्ष्मीबाई ने आरती के दीप के रूप में स्वयं को प्रस्तुत कर दिया था।

कवयित्री कहती हैं कि यह समाधि भले ही छोटी-सी है, पर यह लक्ष्मीबाई के साहस एवं वीरतापूर्ण बड़े-बड़े कारनामों की यादों को अपने अन्दर समेटे हुए है। यह झाँसी की रानी की अन्तिम लीला स्थली है। यहीं उन्होंने वीरता एवं साहस से युद्ध करते हुए अंग्रेज़ों के विरुद्ध अपना आखिरी युद्ध लड़ा था और उन्हें यहीं वीरगति

प्राप्त हुई थी। 

काव्य सौन्दर्य

काव्यांश में रानी लक्ष्मीबाई के वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए वीरगति पाने का वर्णन हुआ है।

भाषा         सरल, सुबोध खड़ी बोली

 गुण          प्रसाद एवं ओज

शैली          ओजपूर्ण आख्यानक गीति 

रस            वीर

छन्द            तुकान्त-मुक्त

शब्द-शक्ति        अभिधा

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'आरती फेरी' और 'लक्ष्मी मरदानी में 'र'और 'म' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

यहीं कहीं पर बिखर गई वह,भग्न विजयमाला-सी। उसके फूल यहाँ संचित हैं,है यह स्मृतिशाला-सी।।सहे वार पर वार अंत तक,लड़ी वीर बाला-सी।आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर,चमक उठी ज्वाला-सी।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के 'काव्यखण्ड' के 'झाँसी की रानी की समाधि पर' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा

रचित 'त्रिधारा' से लिया गया है।

प्रसंग – इन पंक्तियों में रानी लक्ष्मीबाई की वीरता एवं अत्यन्त साहस के साथ अंग्रेजों से किए गए युद्ध का वर्णन है, जिसमें उन्हें वीरगति प्राप्त हुई थी।

व्याख्या – कवयित्री रानी लक्ष्मीबाई को भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करती हुई कहती है कि इसी समाधि के आस-पास वह वीर महिला टूटी हुई विजयमाला के समान बिखर गई थी अर्थात् उनकी विजयरूपी माला टूट कर यहीं बिखर गई थी। वे इस विजयमाला को और आगे न ले जा सकी, क्योंकि वे अंग्रेजों से युद्ध करते-करते शहीद हो गई थीं। रानी की अस्थियाँ इसी समाधि में संचित हैं, जो आने वाली पीढ़ियों को उनकी वीरता के स्मृति चिह्न के रूप में याद दिलाएंगी तथा देश के लिए कुछ कर गुज़रने की प्रेरणा देंगी।

कवयित्री रानी द्वारा अंग्रेजों के साथ किए गए युद्ध का वर्णन करती हुई कहती हैं कि रानी लक्ष्मीबाई अपने जीवन के अन्त तक अंग्रेज़ सैनिक की तलवारों के वार पर वार सहती रही। जिस तरह यज्ञ में हवन सामग्री की आहुति पड़ते ही ज्वाला प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार रानी के इस बलिदान ने स्वतन्त्रता की वेदी पर आहुति का काम किया। लोगों में इससे स्वतन्त्रा पाने की लालसा भड़क उठी और वे क्रान्ति के लिए पूर्ण रूप से तैयार हो उठे। रानी के युद्धभूमि में इस प्रकार वीरगति पाने से उनका यश चारों ओर फैल गया।

काव्य सौन्दर्य

कवयित्री ने रानी द्वारा किए गए वीरता एवं साहसपूर्ण युद्ध का वर्णन किया है,जिसमें रानी शहीद हो गईं।

भाषा         सरल, सुबोध खड़ी बोली

गुण          ओज

छन्द          तुकान्त मुक्त

शैली         ओजपूर्ण आख्यानक गीति

रस             वीर

शब्द-शक्ति       अभिधा

अलंकार

रूपक अलंकार रानी की अस्थियों को फूल रूपी अस्थियाँ कहा गया है, जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।

बढ़ जाता है मान वीर का,रण में बलि होने से। मूल्यवती होती सोने की,भस्म यथा सोने से ।। रानी से भी अधिक हमें अब,यह समाधि है प्यारी।यहाँ निहित है स्वतन्त्रता की,आशा की चिनगारी ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के 'काव्यखण्ड' के 'झाँसी की रानी की समाधि पर' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा

रचित 'त्रिधारा' से लिया गया है।

प्रसंग – प्रस्तुत पंक्तियों में रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान का वर्णन करते हुए कवयित्री कहती हैं कि देश की आजादी की रक्षा हेतु अपना बलिदान देने से रानी का गौरव और भी बढ़ गया है।

व्याख्या – युद्धभूमि से पलायन कायरों की निशानी है तथा युद्ध करते हुए वीरगति पाना वीरों की निशानी है। कवयित्री इन पंक्तियों में कह रही हैं कि स्वतन्त्रता की रक्षा करते हुए वीरगति पाने से वीरों का मान बढ़ जाता है। रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गई, इसलिए उनका मान भी ऐसे बढ़ गया, जैसे सोने से भी अधिक मूल्यवान उसकी भस्म होती है।

रानी ने भी अपना बलिदान देकर हम भारतीयों में स्वतन्त्रता की ज्योति जलाई है,

इसलिए उनकी यह समाधि हमें बहुत प्रिय है। इस समाधि में स्वतन्त्रता रूपी आशा की चिंगारी छिपी हुई है, जो अग्नि के रूप में फैलकर हम भारतीयों को भविष्य में अन्य किसी की दासता से मुक्त होने के लिए प्रेरित करती रहेगी। यह समाधि हम भारतीयों के अन्दर की स्वतन्त्रता की ज्योति को कभी बुझने नहीं देगी तथा आजादी न मिलने तक हमें निरन्तर इसके लिए संघर्ष करने की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी।

काव्य सौन्दर्य

कवयित्री ने रानी की समाधि को अधिक प्रिय होने तथा देश के लिए बलिदान देने पर उनकी महत्ता बढ़ने का भाव व्यक्त किया है।

भाषा          सरल-सुबोध खड़ी बोली

शैली         ओजपूर्ण आख्यानक गीति

गुण           ओज एवं प्रसाद

छन्द         तुकान्त-मुक्त

रस            वीर

शब्द-शक्ति      अभिधा

अलंकार

रूपक अलंकार 'आशा की चिनगारी' में आशा रूपी चिनगारी की बात की गई, जिस कारण यहाँ रूपक अलंकार है।

 इससे भी सुन्दर समाधियाँ, हम जग में हैं पाते। उनकी गाथा पर निशीथ में, क्षुद्र जन्तु ही गाते ।।पर कवियों की अमर गिरा में,इसकी अमिट कहानी ।स्नेह और श्रद्धा से गाती है,वीरों की बानी ।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के 'काव्यखण्ड' के 'झाँसी की रानी की समाधि पर' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा

रचित 'त्रिधारा' से लिया गया है।

प्रसंग प्रस्तुत पंक्तियों में कवयित्री ने रानी की समाधि की अन्य समाधियों से तुलना करते हुए, उनकी समाधि को श्रेष्ठ बताया है।

व्याख्या – कवयित्री कहती हैं कि हमारे देश में रानी लक्ष्मीबाई की समाधि से सुन्दर अनेक समाधियाँ देखने को मिलती हैं, परन्तु उन समाधियों का महत्त्व इस समाधि की तरह नहीं है। उन समाधियों पर क्षुद्र जन्तु; जैसे— कीड़े-मकोड़े, छोटे-छोटे जीव-जन्तु; जैसे- झींगुर और छिपकलियाँ आदि ही रात में गाते हैं। तात्पर्य यह है कि वे समाधियाँ गौरव-गान करने के लायक नहीं हैं, वे उपेक्षित हैं, तभी तो उन पर छोटे जीव-जन्तु निवास करते हैं। रानी लक्ष्मीबाई की समाधि गौरव से परिपूर्ण एक ऐसी समाधि है, जिसकी अमिट कहानी कवियों की अमर वाणी से सदा-सदा गाई जाती रहेगी। इस देश के लोग स्नेह और श्रद्धा से वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की अमर-कथा का गुणगान करते हैं।

काव्य सौन्दर्य

रानी लक्ष्मीबाई की समाधि को अन्य समाधियों से श्रेष्ठ बताया गया है।

भाषा      सरल, साहित्यिक खड़ी बोली 

शैली     ओजपूर्ण आख्यानक गीति

गुण        ओज

रस        वीर

छन्द         तुकान्त-मुक्त

शब्द-शक्ति     व्यंजना

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'सुन्दर समाधियाँ' और 'अमर गिरा' में 'स' और 'र' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

मैथिलीशरण गुप्त जी की गद्यांश रचना''भारत माता का मन्दिर यह' के गद्यांश की सन्दर्भ, प्रसंग, व्याख्या, काव्य सौन्दर्य

भारत माता का मन्दिर यह समता का संवाद जहाँ सबका शिव कल्याण यहाँ है पावें सभी प्रसाद यहाँ । जाति-धर्म या सम्प्रदाय का, नहीं भेद-व्यवधान यहाँ, सबका स्वागत, सबका आदर सबका सम सम्मान यहाँ । राम, रहीम, बुद्ध, ईसा का, सुलभ एक सा ध्यान यहाँ, भिन्न-भिन्न भव संस्कृतियों के गुण गौरव का ज्ञान यहाँ ।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड के 'भारत माता का मन्दिर यह' शीर्षक से उद्धृत है। यह काव्यांश मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में मैथिलीशरण गुप्त जी ने भारत के गौरवशाली रूप का गुणगान करते हुए उसकी कल्याणकारी भावना का वर्णन किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि भारत ऐसा अद्वितीय देश है जिसकी कल्याणकारी भावना उसे विश्व के अन्य देशों से अलग करती है। कवि ने इस पद्यांश में भारत को ऐसे मन्दिर के रूप में स्थापित करके दिखाया है, जहाँ प्रत्येक मानव को अपने विचार प्रस्तुत करने का अधिकार समान रूप से है। भारत एक ऐसा देश है जहाँ सबका कल्याण होता है और सभी प्रसन्नता रूपी प्रसाद ग्रहण करते हैं।

इस देश में जाति-धर्म या किसी सम्प्रदाय की प्रगति को लेकर भेद-भाव रूपी बाधाएँ नहीं हैं। यहाँ हिन्दू, मुस्लिम, सिख तथा ईसाई सभी सम्प्रदायों का स्वागत हृदय से किया जाता है और बिना किसी भेद-भाव के समान रूप से सभी को सम्मान दिया जाता है। इस देश में जो स्थान राम का वही स्थान रहीम, बुद्ध और ईसा मसीह का है भी है। भारत में भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के बारे में सभी लोगों को बताया जाता है और उनके प्रति आदर और सम्मान का भाव रखने हेतु प्रेरित किया जाता है। 

काव्य सौन्दर्य

भाषा         खड़ी बोली 

गुण           प्रसाद

शैली          मुक्तक/गीतात्मक

छन्द             मुक्त

शब्द शक्ति       अभिधा

अलंकार

 'सबका स्वागत सबका आदर, सबका सम सम्मान यहाँ इस पंक्ति में 'स' वर्ण की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

 'भिन्न-भिन्न' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने के कारण पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है। 'गुण गौरव' में 'ग' वर्ण की आवृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

नहीं चाहिए बुद्धि बैर की भला प्रेम का उन्माद यहाँ सबका शिव कल्याण यहाँ है, पावें सभी प्रसाद यहाँ । सब तीर्थों का एक तीर्थ यह हृदय पवित्र बना लें हम आओ यहाँ अजातशत्रु बनें, सबको मित्र बना लें हम। रेखाएँ प्रस्तुत हैं, अपने मन के चित्र बना लें हम। सौ-सौ आदर्शों को लेकर एक चरित्र बना लें हम।

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के काव्यखण्ड के 'भारत माता का मन्दिर यह' शीर्षक से उद्धृत है। यह काव्यांश मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित है।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने भारत की गौरवशाली महिमा का वखान किया है।

व्याख्या कति कहता है कि हमारे देश में असीमित प्रेम और मानवता की भावना विद्यमान है, इसीलिए हमें किसी से बैर या दुश्मनी की आवश्यकता नहीं है। इसी प्रेम की आसीमितता के कारण यहाँ प्रत्येक व्यक्ति का कल्याण होता है और सभी प्रसन्न रहते हैं। कवि ने भारत देश को सभी तीर्थों का तीर्थ कहते हुए हमें अपना मन शुद्ध बनाए रखने के लिए प्रेरित किया है। कवि ने समस्त देशवासियों से अनुरोध करते हुए कहा है कि हमें शत्रुहीन बनना है और सभी से मित्रता करनी है। हमारे सम्मुख देश में स्थापित सौहार्द, समानता के गुण हैं, इन्हीं सद्गुणों को ग्रहण करते हुए हमें अपने भविष्य का निर्माण करना है। कवि आगे कहता है, भारत में गाँधी, भगत सिंह, सुभाषचन्द्र बोस, रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे अनेक महान् व्यक्तियों का जन्म हुआ है, जिनके आदर्शों पर चलकर समस्त भारतवासियों को अपना चरित्र निर्माण करना चाहिए।

काव्य सौन्दर्य

भाषा           खड़ी बोली

शैली           मुक्तक/गीतात्मक

गुण             प्रसाद

छन्द              मुक्त

 शब्द शक्ति     अभिधा

अलंकार

'सौ-सौ में एक शब्द की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

है।

बैठो माता के आँगन में नाता भाई-बहन का समझे उसकी प्रसव वेदना वही लाल है माई का एक साथ मिल बॉट ला अपना हर्ष विषाद यहाँ हैसबका शिव कल्याण यहाँ है, पावें सभी प्रसाद यहाँ ।मिला सेव्य का हमें पूजारी सकल काम उस न्यायी का मुक्ति लाभ कर्तव्य यहाँ है एक-एक अनुयायी का कोटि-कोटि कण्ठों से मिलकर

उठे एक जयनाद यहाँ पावें सभी प्रसाद यहाँ

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने गाँधीवादी विचारधारा प्रकट करते हुए भारत माता का गुणगान किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि भारत माता के विस्तृत आँगन रूपी क्षेत्र में सभी व्यक्तियों को बन्धुत्व की भावना एवं भाई-चारे की भावना स्थापित करनी चाहिए। कवि ने भारत माता के सच्चे सपूत की पहचान बताते हुए कहा है कि जब देश में भेद-भाव एवं साम्प्रदायिकता की स्थिति उत्पन्न होती है, तब भारत माता की असहनीय पीड़ा को समझने वाला व्यक्ति ही उसका सच्चा सपूत होता है। कवि आगे कहता है कि भारत माता के सभी बच्चों को अपने सुख-दुःख को बाँटना चाहिए, जिससे प्रेम और बन्धुत्व की भावना प्रकट होगी तथा सबका कल्याण सम्भव होगा।

कवि कहता है कि भारत माता को महात्मा गाँधी जैसे सपूतों की आवश्यकता है। महात्मा गाँधी जैसे अहिंसा के पुजारी ने अपने सेवाभाव से समस्त भारतीयों को स्वतन्त्रता एवं न्याय दिलाने का कर्त्तव्य पूर्ण किया था। गाँधी जी का अनुसरण करने वाले प्रत्येक व्यक्ति ने भारत माता की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष एवं बलिदान को ही अपना कर्त्तव्य माना है तथा उसी को मुक्ति-मार्ग के रूप में स्वीकारा है। कवि ने भारतीयों की एकता और अखण्डता के बारे में कहा है कि वे एक साथ भारत माता की जयकार लगाते हैं। इन्हीं सबके कारण कवि ने भारत में सबका कल्याण माना है। भारत में स

काव्य सौन्दर्य

भाषा         खड़ी बोली

शैली          मुक्तक/गीतात्मक

गुण             प्रसाद

छन्द            मुक्त

शब्द शक्ति     अभिधा 

अलंकार 

'कोटि-कोटि कण्ठों' में 'क' वर्ण की आवृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

'एक-एक अनुयायी' में 'एक' वर्ण की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है

केदारनाथ सिंह द्वारा राचित काव्य खण्ड‘नदी’पद्यांश का सन्दर्भ प्रसंग व्याख्या

अगर धीरे चलो वह तुम्हें छू लेगीदौड़ो तो छूट जायेगी नदी अगर ले लो साथ वह चलती चली जायेगी कहीं भी यहाँ तक कि कबाड़ी की दुकान तक भी

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के हिन्दी 'काव्यखण्ड' के 'नदी' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि केदारनाथ सिंह द्वारा रचित 'विविधा' से ली गई है। 

प्रसंग – इन पंक्तियों में कवि ने मानव जीवन में नदी की महत्ता की ओर संकेत किया है और कहा है कि नदी मनुष्य का साथ हर क्षण निभाती है।

व्याख्या – कवि नदी का महत्त्व बताते हुए कहता है कि नदी सिर्फ बहते जल का स्रोत मात्र नहीं है, वह हमारी जीवन धारा है। वह हमारी सभ्यता और संस्कृति का जीवन्त रूप है। नदी हमारी रग-रग में प्रवाहित हो रही है। यदि हम गम्भीरतापूर्वक नदी को अपनी सभ्यता-संस्कृति से जोड़कर विचार करते हैं उसके साथ संवाद स्थापित करते हैं, तो नदी हमारे अन्तर्मन को छूकर हमें प्रसन्न कर देती है।

इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति आधुनिकता को पाने की होड़ में अन्धाधुन्ध भागता जाता है और नदी अर्थात् अपनी सभ्यता और संस्कृति को अनदेखा कर देता है, तो यह नदी उससे दूर हो जाती है और वह व्यक्ति नदी से दूर होता जाता है अर्थात् आधुनिकता की अन्धी दौड़ में शामिल व्यक्ति अपनी सभ्यता-संस्कृति को भूलता जाता है और उससे अलग होता जाता है।

यदि प्रगति की ओर बढ़ता आदमी नदी (सभ्यता और संस्कृति) का थोड़ा-सा भी ध्यान रखता है, तो नदी उसका अनुसरण करती उसके पीछे-पीछे वहाँ तक चली जाती है, जहाँ तक व्यक्ति उसे ले जाना चाहता है। फिर तो व्यक्ति उसे संसार के किसी कोने में ले जाए, यहाँ तक कि कबाड़ी की दुकान पर भी जाने के लिए नदी तैयार रहती है। वह सच्चे साथी की तरह कभी भी हमारा साथ नहीं छोड़ती, क्योंकि वह हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। 

काव्य सौन्दर्य

कवि द्वारा अपनी सभ्यता-संस्कृति से जुड़े रहने की प्रेरणा दी गई है।

भाषा               सहज और सरल खड़ी बोली

शैली               वर्णनात्मक व प्रतीकात्मक

गुण                प्रसाद

रस                 शान्त

छन्द              अतुकान्त व मुक्त

शब्द-शक्ति       अभिधा तथा लक्षणा

अलंकार

अनुप्रास अलंकार 'ले लो', 'चलती चली', 'कि कबाड़ी की में क्रमश: 'ल', 'च' और 'क' वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

मानवीकरण अलंकार इस पद्यांश में 'नदी' को एक जीवन साथी के रूप में व्यक्त किया है, इसलिए यहाँ मानवीकरण अलंकार है।

छोड़ दो तो वहीं अँधेरे में करोड़ों तारों की आँख बचाकर वह चुपके से रच लेगी एक समूची दुनिया एवं छोटे-से घोंघे में सचाई यह है कि तुम कहीं भी रहो तुम्हें वर्ष के सबसे कठिन दिनों में भी प्यार करती है एक नदी

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के हिन्दी 'काव्यखण्ड' के 'नदी' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि केदारनाथ सिंह द्वारा रचित 'विविधा' से ली गई है।

प्रसंग – कवि के कहने के अनुसार मनुष्य भले ही सभ्यता और संस्कृति की उपेक्षा करे, किन्तु सभ्यता और संस्कृति उसका पीछा नहीं छोड़ती है।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि यदि मनुष्य अपनी सभ्यता और संस्कृति से दूरी बनाता है, थोड़े समय के लिए भी उससे दूर होता है या अलग हो जाता है, तो वह सारे समाज से अलग हो जाता है। यह सभ्यता और संस्कृति अजर-अमर है, जो किसी-न-किसी रूप में हमेशा जीवित रहती है। यदि इसका थोड़ा-सा भी अंश कहीं छूट जाता है, तो यह विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के लिए अपना विकास कर लेती है।

अपने अस्तित्वरूपी बीज बचाए रखने के लिए इसे घोंघे जितना कम स्थान चाहिए। उसी थोड़े से स्थान में पल बढ़ कर संस्कृति अपना विकास कर लेती है। नदी अर्थात् सभ्यता और संस्कृति जीवन के सबसे कठिन समय में भी हमारा साथ नहीं छोड़ती है।

जब कभी दानवी प्रवृत्तियाँ मानवता पर आक्रमण करती हैं, तब भी सभ्यता और संस्कृति अपने आपको बचाए रखती है और मनुष्य का साथ नहीं छोड़ती है। यह मनुष्य को बहुत प्यार करती है, तभी तो अपने से बाँधे रखकर उसे अपने से अलग नहीं होने देती।

काव्य सौन्दर्य

अपनी सभ्यता-संस्कृति को अनदेखी करने वाला व्यक्ति समाज से कटकर अलग-थलग पड़ जाता है।

भाषा             सहज और सरल खड़ी बोली

शैली              वर्णनात्मक व प्रतीकात्मक

गुण                 प्रसाद

रस                  शान्त

छन्द               अतुकान्त व मुक्त

शब्द-शक्ति        अभिधा तथा लक्षणा

अलंकार

उपमा अलंकार 'छोटे-से घोंघे में' वाचक शब्द 'से' होने से उपमा अलंकार है।

 अशोक वाजपेयी की काव्य खण्ड रचना, युवा जंगल और भाषा एक मात्र अनन्त है , रचना की सन्दर्भ, प्रसंग, व्याख्या काव्य सौंदर्भ     

               युवा जंगल

एक युवा जंगल मुझे, अपनी हरी उँगलियों से बुलाता है। मेरी शिराओं में हरा रक्त लगा है आँखों में हरी परछाँइयाँ फिसलती हैं कन्धों पर एक हरा आकाश ठहरा है होठ मेरे एक हरे गान में काँपते हैं— मैं नहीं हूँ और कुछ बस एक हरा पेड़ हूँ

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक के काव्य खण्ड के 'युवा जंगल' शीर्षक से उद्धृत है। यह कवि अशोक वाजपेयी द्वारा रचित 'विविधा' से ली गई है।

प्रसंग 'युवा जंगल' में कवि ने मानव को भी वृक्षों की तरह हमेशा दृढ़ रहने और सहनशक्ति प्राप्त करने की प्रेरणा दी है, उन्होंने हरे जंगल को लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत मानकर उनसे आशा, उत्साह और प्रेरणा ग्रहण करने को कहा है। कवि ने वन-संरक्षण की आवश्यकता पर भी बल दिया है।

व्याख्या कवि कहते हैं कि हरे-भरे युवा जंगल को देखकर ऐसा लगता है, मानो नए वृक्षों वाला युवा जंगल उत्साहित होकर आकाश को छूने को उत्सुक अपनी पतली-पतली टहनियों से उसे ( कवि को) बुला रहा हो। युवा जंगल के आमन्त्रण से कवि की सूखी नसों में स्थित निराशा की भावना दूर हो जाती है तथा उनमें उत्साह और आशा का संचार होने लगता है। इस आमन्त्रण से कवि की आँखों में सुखद और सुनहरे भविष्य के सपने तैरने लगते हैं, अब कवि के जीवन का उद्देश्य बदल गया है और वह अपने कन्धों पर उस उत्तरदायित्व को महसूस कर रहा है, जिससे उसकी जीवनरूपी निराशा समाप्त हो गई है।

निराशा के कारण सूखकर कड़े हो चुके होंठों से जो हरियाली रूपी हँसी गायब हो चुकी थी, वह वृक्ष के आमन्त्रण से आशा एवं उत्साह का रस पाकर सरस हो उठी है अर्थात् जीवन के नए गीत गाने के लिए उत्सुक है। कवि को ऐसा लगता है, मानो वह व्यक्ति न होकर एक हरा-भरा पेड़ बन गया हो, जिसमें उत्साह रूपी हरी पत्तियों की आशा भर गई हो। कवि स्वयं को उत्साह से परिपूर्ण हरे-भरे लहराते युवा पेड़ों की तरह महसूस कर रहा है।

काव्य सौन्दर्य

कवि ने जंगल को प्रेरणास्रोत के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसकी हरियाली देखकर व्यक्ति की निराशा दूर हो जाती है।

भाषा        साहित्यिक खड़ी बोली

शैली        प्रतीकात्मक तथा मुक्तक

गुण         प्रसाद

छन्द      अतुकान्त व छन्दमुक्त

रस        शान्त

शब्द-शक्ति        अभिधा व लक्षणा

अलंकार

मानवीकरण अलंकार जंगल को युवा के रूप में व्यक्त किया है, इसलिए यहाँ मानवीकरण अलंकार है।

          भाषा एक मात्र अनन्त है

फूल झरता है फूल शब्द नहीं! बच्चा गेंद उछालता है,किसी दालान में बैठा हुआ! न बच्चा रहेगा, न बूढ़ा, न गेंद, न फूल, न दालान रहेंगे फिर भी शब्द सदियों के पार लोकती है उसे एक बच्ची ! बूढ़ा गाता है एक पद्य,दुहराता है दूसरा बूढ़ा,भूगोल और इतिहास से परे भाषा एकमात्र अनन्त है!

सन्दर्भ – प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'काव्यखण्ड' के 'भाषा एक मात्र अनन्त है' शीर्षक से उद्धृत है यह कवि अशोक वाजपेयी द्वारा रचित 'तिनका-तिनका काव्य संग्रह से ली गई है।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश में कवि भाषा (शब्द) की शक्ति की सामर्थ्य और उसकी शाश्वत सत्ता का वर्णन कर रहा है। 

व्याख्या – कवि कहते हैं कि भाषा ही एकमात्र अनन्त है अर्थात् जिसका अन्त नहीं है। फूल वृक्ष से टूटकर पृथ्वी पर गिरता है, उसकी पंखुड़ियाँ टूटकर बिखर जाती हैं और अन्त में वह मिट्टी में ही विलीन हो जाता है। प्रकृति ने फूल को जन्म दिया है। और अन्ततः वह प्रकृति में ही विलीन हो जाता है। फूल की तरह शब्द विलीन नहीं होते। भाषा जो शब्दों से बनी है, वह कभी समाप्त नहीं होती। सदियों पश्चात् भी भाषा का अस्तित्व उसी प्रकार बना रहता है, जिस प्रकार एक बालक गेंद को उछालता है और दूसरा उसे पकड़कर पुनः उछाल देता है। आज किसी ने कोई बात कही, सैकड़ों वर्षों बाद परिवर्तित स्वरूप में कोई दूसरा व्यक्ति भी उसी बात को कह देता है।

अतः भाषा ही एकमात्र अनन्त है, जिसका कभी कोई अन्त नहीं है, परन्तु 'शब्द' शाश्वत है। वह इतिहास और भूगोल की सीमाओं से परे है, क्योंकि शब्द कभी इतिहास नहीं बनता है। वह सदैव वर्तमान रहता है। किसी देश तथा जाति की भौगोलिक सीमा उसे अपने बन्धन में बाँध नहीं पाती है। उसका प्रयोग या विस्तार अनन्त है, सार्वकालिक है।

उदाहरण के रूप में एक वृद्ध व्यक्ति यदि किसी कविता को या गीत को गुनगुनाता है, तो उसका वह गीत उसके मरने के बाद समाप्त नहीं हो जाता, बल्कि वह गीत बहुत बाद की पीढ़ी के वृद्ध व्यक्ति के द्वारा बरामदा में बैठकर उसी प्रकार गाया जाता है, जिस प्रकार उसे पहली बार वृद्ध व्यक्ति के द्वारा बरामदा में बैठकर गाया गया था। इस प्रकार वह गीत कभी इतिहास नहीं बनता, सदैव वर्तमान में ही रहता है, क्योंकि वृद्धों के द्वारा उसे दुहराया जाता है। अन्त में कवि कहते हैं कि इस संसार में सभी वस्तुएँ नश्वर हैं। एक दिन वह गेंद उछालने वाला बच्चा, वह गीत गाने वाला वृद्ध, गेंद, फूल और बरामदा कुछ भी नहीं रहेगा, परन्तु गीत के शब्द सदैव जीवन्त रहेंगे, क्योंकि शब्द अर्थात् भाषा कभी मरती नहीं। वह अजर, अमर और अनन्त है। संसार में केवल भाषा (शब्द) ही अमर है, बाकी सब नश्वर है।

काव्य सौन्दर्य

भाषा        साहित्यिक खड़ी बोली

गुण          प्रसाद

छन्द          अतुकान्त व छन्दमुक्त

 शैली       विवेचनात्मक तथा मुक्तक

रस              शान्त

शब्द-शक्ति      अभिधा व लक्षणा

अलंकार

मानवीकरण अलंकार अप्राकृतिक वस्तुओं द्वारा यहाँ प्रकृति का मानवीकरण किया गया है, जिस कारण यहाँ मानवीकरण अलंकार है।

श्याम नारायण पाण्डेय जी की काव्य खण्ड ‘पद’ के सभी पद्यांश की संदर्भ,प्रसंग,व्याख्या, काव्य सौंदर्भ

मेवाड़-केसरी देख रहा,केवल रण का न तमाशा था। वह दौड़-दौड़ करता था रण, वह मान रक्त का प्यासा था चढ़कर चेतक पर घूम-घूम करता सेना रखवाली था। ले महामृत्यु को साथ-साथ मानों प्रत्यक्ष कपाली था।

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड के 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। यह श्री श्याम नारायण पाण्डेय द्वारा रचित काव्य 'हल्दीघाटी' से लिया गया है।

प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने महाराणा प्रताप की वीरता का वर्णन करते हुए, हल्दीघाटी के युद्ध का सजीव चित्रण किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि मेवाड़-केसरी अर्थात् महराणा प्रताप हल्दीघाटी के युद्ध को मात्र देख ही नहीं रहे थे, बल्कि वह स्वयं युद्ध क्षेत्र में जाकर उत्साहपूर्वक युद्ध कर रहे थे। वह मुगलों से युद्ध अपने मान-सम्मान की रक्षा के लिए कर रहे थे। इसके लिए वे बलिदान तक देने को तत्पर थे। उन्होंने अपने घोड़े पर चढ़कर पूरा युद्ध किया और मुगलों की सेना को ध्वस्त करते हुए अपनी सेना की रखवाली भी की। उन्होंने मुगलों की सेना का सामना दृढ़तापूर्वक किया था और सदैव उन पर हावी रहे थे। वे मृत्यु की परवाह किए बिना ही इस प्रकार रणक्षेत्र में युद्ध कर रहे थे मानो महाराणा प्रताप ने शिवजी का रूप धारण कर लिया हो।

काव्य सौन्दर्य

भाषा        खड़ी बोली

रस           वीर

शैली          प्रबन्ध

गुण           ओज

शब्द –शक्ति      अभिधा

छन्द            मुक्त

अलंकार

 'दौड़-दौड़', घूम-घूम तथा 'साथ-साथ' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने के कारण पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है। 'मानो प्रत्यक्ष कपाली था' में 'मानो' बोधक शब्द है। अतः यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है।

चढ़ चेतक पर तलवार उठा,रखता था भूतल पानी को । राणा प्रताप सिर काट-काट,करता था सफल जवानी को ।। सेना नायक राणा के भी -रण देख-देखकर चाह भरे।मेवाड़ सिपाही लड़ते थे दूने-तिगुने उत्साह भरे।।

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड के 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। यह श्री श्याम नारायण पाण्डेय द्वारा रचित काव्य 'हल्दीघाटी' से लिया गया है।

प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने महाराणा प्रताप और उनके सेना नायक के वीरत्व का वर्णन किया है।

व्याख्या महाराणा प्रताप की सेना और मुगलों की सेना के मध्य भयानक युद्ध चल रहा था। जिस प्रकार भूमि के नीचे पानी में हलचल होने पर उफान उठता है और उस उफान में बहुत कुछ तहस-नहस हो जाता है। उसी प्रकार अपने मान-सम्मान की रक्षा हेतु महाराणा प्रताप के हृदय में उफान उठ गया था। उन्होंने अपने घोड़े पर बैठकर तलवार उठा ली और अपने विरोधियों का संहार करना आरम्भ कर दिया।

मेवाड़ के राजकुमार ने मुगलों की सेनाओं के सर धड़ से अलग करके अपनी जवानी की सार्थकता को सिद्ध किया था। महाराणा प्रताप के इस रौद्र रूप को देखकर मेवाड़ सेनानायक और सिपाहियों में उत्साह का संचार होने लगा था। पहले की अपेक्षा अब मेवाड़ की सेना ने भी युद्ध में अपना प्रयास बढ़ा दिया और विपक्षियों को ध्वस्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

काव्य सौन्दर्य

भाषा         खड़ी बोली

रस            वीर

शैली         प्रबन्ध

छन्द        मुक्त

गुण       ओज

शब्द-शक्ति     अभिधा

अलंकार

'चढ़ चेतक' में 'च' वर्ण की आवृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है। काट-काट में काट वर्ण की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है

क्षण मार दिया कर कोड़े से. रण किया उतर कर घोड़े से। राणा रण कौशल दिखा दिखा, चढ़ गया उतर कर घोड़े से क्षण भीषण हलचल मचा-मचा, राणा-कर की तलवार बढ़ी। था शोर रक्त पीने का यह रण चण्डी जीभ पसार बढ़ी।।

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड के 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। यह श्री श्याम नारायण पाण्डेय द्वारा रचित काव्य 'हल्दीघाटी' से लिया गया है।

प्रसंग कवि ने हल्दीघाटी के युद्ध का भीषण चित्रण करते हुए राणा प्रताप के रौद्र रूप का वर्णन किया है।

व्याख्या कवि कहता है कि मेवाड़ के राजा के साथ-साथ अब उनकी सेना भी दोगुने उत्साह से युद्ध कर रही थी और विरोधियों को परास्त कर रही थी। महाराणा प्रताप ने मुग़ल सैनिकों को क्षण भर में कोड़े (चाबुक) मारकर रणभूमि में गिरा दिया था। अब महाराणा प्रताप अपने घोड़े से उतरकर युद्ध कौशल दिखा दिखाकर मुगल सैनिकों को मार रहे थे। अब ऐसा क्षण देखने को मिल रहा था, जो वास्तव में अत्यन्त भीषण था। महाराणा प्रताप ने विरोधी सैनिकों पर अपनी तलवार से आक्रमण कर दिया और यह देखकर कुछ ही क्षणों में चारों ओर भीषण हाहाकार मच गया था। रणभूमि में मचे इस भीषण नरसंहार को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो रणचण्डी (दुर्गा) की खून की प्यास बुझाने के लिए, राणा अपने विरोधियों का संहार कर रहे हों।

काव्य सौन्दर्य

भाषा         खड़ी बोली

रस           वीर और बीभत्स

 छन्द            मुक्त

शैली               प्रबन्ध

गुण                 ओज

शब्द शक्ति        अभिधा

अलंकार

'राणा रण', में 'र' वर्ण की पुनरावृत्ति होने के कारण अनुप्रास अलंकार है। 'दिखा दिखा' और 'मचा-मचा' में एक शब्द की पुनरावृत्ति होने के कारण पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।

वह हाथी दल पर टूट पड़ा, मानो उस पर पवि छूट पड़ा। कट गई वेग से भू, ऐसा शोणित का नाला फूट पड़ा। जो साहस कर बढ़ता उसको, केवल कटाक्ष से टोक दिया। जो वीर बना नभ-बीच फेंक, बरछे पर उसको रोक दिया।

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड के 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। यह श्री श्याम नारायण पाण्डेय द्वारा रचित काव्य 'हल्दीघाटी' से लिया गया है।

प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने महाराणा प्रताप के शौर्य का बखान करते हुए विरोधी सेना की पराजित मनोवृत्ति का वर्णन किया है।

 व्याख्या कवि कहता है कि मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप ने मुगल सेना पर इस प्रकार प्रहार किया मानो उन पर वज्र गिर गया हो। महाराणा प्रताप के प्रहार से मुगल सेना के समस्त हाथी दल ध्वस्त हो गए थे। उनके प्रहार में इतनी शक्ति थी की उसकी प्रचण्डता से ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे धरती फट गई हो और उसमें से रक्त की धारा बह निकली हो। विरोधी दल के जो सैनिक अपने पराक्रम एवं साहस के बल पर कुछ आगे बढ़ते, उन्हें महाराणा अपने व्यंग्यों के बल से ही बीच रणभूमि में रोक देते थे। यह महाराणा के प्रति विरोधियों में भय की स्थिति को दर्शाता है। दूसरी ओर विपक्षी दल के जो सैनिक बहादुरी करते हुए आगे बढ़ रहे थे भाले के प्रहार ने बीच रणभूमि में ही रोक दिया। इन सब परिस्थितियों से स्पष्ट होता है कि मेवाड़ के राजा के सम्मुख मुगल सेना परास्त हो रही थी।

काव्य सौन्दर्य

भाषा             खड़ी बोली

शैली               प्रबन्ध

छन्द                मुक्त

गुण                 ओज

 शब्द शक्ति          अभिधा

रस                    वीर

अलंकार

 'मानो उस पर पवि छूट पड़ा' में 'मानो' बोधक शब्द है। अतः यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है।

क्षण उछल गया अरि घोड़े पर क्षण भर में गिरते रुण्डों से क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर मस्त गजों के शुण्डों से।बैरी दिल से लड़ते-लड़ते, क्षण खड़ा हो गया घोड़े परघोड़ों से विकल वितुण्डों से, पट नई भूमि नरमुण्डों से

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड के 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। यह श्री श्याम नारायण पाण्डेय द्वारा रचित काव्य 'हल्दीघाटी' से लिया गया है।

प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने महाराणा प्रताप के युद्ध-कौशल एवं वीरता का वर्णन किया है।

व्याख्या कवि महाराणा प्रताप की वीरता का वर्णन करते हुए कहता है कि रणक्षेत्र में युद्ध के दौरान महाराणा प्रताप के घोड़े (चेतक) पर मुगल सैनिक चढ़ गया था। उसने महाराणा प्रताप से युद्ध करते हुए अपनी जान गँवा दी। महाराणा प्रताप ने अपने युद्ध कौशल का परिचय देते हुए विपक्षी दल से युद्ध किया। युद्ध में कुछ समय पश्चात् ही राणा प्रताप ने मुगल सेना को परास्त कर दिया। उन्होंने विपक्षी दल के सर धड़ से अलग कर दिए। मुगलों के हाथी की सेना और मेवाड़ के घोड़ों की सेना के मध्य चल रहे युद्ध में विरोधी दल का संहार इस प्रकार किया कि सम्पूर्ण रणक्षेत्र मुगलों के हाथियों के सूँड और मुगल सेना के कटे हुए सिर से पट गया था।

काव्य सौन्दर्य

भाषा      खड़ी बोली

रस           वीर और बीभत्स 

छन्द          मुक्त

शैली          प्रबन्ध

शब्द-शक्ति      अभिधा

अलंकार

गुण ओज 'लड़ते-लड़ते' में एक शब्द की पुनरावृत्ति होने के कारण यहाँ पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है। 'विकल वितुण्डों' में 'व' वर्ण की आवृत्ति होने के कारण यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

ऐसा रण राणा करता था, पर उसको था सन्तोष नहीं। मैं कर लूँ रक्त स्नान कहाँ क्षण-क्षण आगे बढ़ता था वह, जिस पर तय विजय हमारी है,कहता था लड़ता मान कहाँ,पर कम होता था रोष नहीं।। वह मुगलों का अभिमान कहाँ?

सन्दर्भ प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड के 'पद' शीर्षक से उद्धृत है। यह श्री श्याम नारायण पाण्डेय द्वारा रचित काव्य 'हल्दीघाटी' से लिया गया है।

प्रसंग प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने महाराणा प्रताप के युद्ध-कौशल और देश-प्रेम की भावना को उजागर किया है।

व्याख्या कवि महाराणा प्रताप के युद्ध करने की कला का वर्णन करते हुए कहता है कि वे निडर होकर अपने विरोधियों से युद्ध करते थे, परन्तु उनको विरोधियों को परास्त करने भर से ही सन्तुष्टि नहीं मिलती थी। वह जितने अधिक शत्रुओं का नाश करते थे उतना ही रोष और क्रोध उनमें बढ़ता चला जाता था। जब तक कि विरोधी सेना के रक्त से वे स्नान नहीं कर लेते थे, तब तक वह मान-सम्मान के लिए रण-क्षेत्र में युद्ध करते रहते थे। महाराणा प्रताप के माध्यम से कवि कहता है कि जिस युद्ध में विजय मेवाड़ सेना और राजा महाराणा प्रताप की निश्चित है, उस पर मुगलों का झूठा अभिमान और घमण्ड करना सर्वथा व्यर्थ है।

काव्य सौन्दर्य

भाषा         खड़ी बोली

शैली           प्रबन्ध

गुण             ओज

छन्द            मुक्त

रस              वीर और रौद्र

शब्द-शक्ति        अभिधा

अलंकार

'रण राणा' में 'र' वर्ण की आवृत्ति होने के कारण अनुप्रास अलंकार है। 'क्षण-क्षण' में एक ही शब्द की पुनरावृत्ति होने के कारण पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड‘वाराणसी’गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद

गद्यांश 1

वाराणसी सुविख्याता प्राचीना नगरी। इयं विमलसलिलतरङ्गायाः गङ्गायाः कूले स्थिता। अस्याः घट्टानां वलयाकृतिः पङ्क्तिः धवलायां चन्द्रिकायां बहुराजते। अगणिताः पर्यटकाः सुदूरेभ्यः नित्यम् अत्र आयन्ति, अस्याः घट्टानाञ्च शोभां विलोक्य इमां बहुप्रशंसन्ति ।

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के संस्कृत खण्ड' में संकलित वाराणसी' नामक पाठ से लिया गया है। इस गद्यांश में वाराणसी नामक प्राचीन नगर के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है। 

अनुवाद – वाराणसी बहुत प्रसिद्ध पुरानी नगरी है। यह स्वच्छ व पावन जल की लहरों वाली गंगा के किनारे पर स्थित है। इसके घाटों की घुमावदार आकार वाली कतारें उज्ज्वल चन्द्रमा की सफेद चाँदनी में बहुत सुन्दर लगती हैं। यहाँ प्रतिदिन दूर-दूर से अनेक पर्यटक आते हैं और इसके घाटों का सौन्दर्य देखकर इसकी अत्यधिक प्रशंसा करते हैं।

गद्यांश 2

वाराणस्यां प्राचीनकालादेव गेहे गेहे विद्यायाः दिव्यं ज्योतिः द्योतते। अधुनाऽपि अत्र संस्कृतवाग्धारा सततं प्रवहति, जनानां ज्ञानञ्च वर्द्धयति । अत्र अनेके आचार्याः मूर्धन्याः विद्वांसः वैदिकवाङ्मयस्य अध्ययने अध्यापने च इदानीं निरताः। न केवलं भारतीयाः, अपितु वैदेशिकाः गीर्वाणवाण्याः अध्ययनाय अत्र आगच्छन्ति निःशुल्कं च विद्यां गृहणन्ति । अत्र हिन्दूविश्वविद्यालयः, संस्कृतविश्वविद्यालयः, काशीविद्यापीठम् इत्येते त्रयः विश्वविद्यालयाः सन्ति, येषु नवीनानां प्राचीनानाञ्च ज्ञानविज्ञानविषयाणाम् अध्ययनं प्रचलति ।

अथवा

अत्र अनेके आचार्याः मूर्धन्याः विद्वांसः वैदिकवाङ्मयस्य अध्ययने अध्यापने च इदानीं निरताः। न केवलं भारतीयाः, अपितु वैदेशिकाः गीर्वाणवाण्याः अध्ययनाय अत्र आगच्छन्ति निःशुल्कं च विद्यां गृहणन्ति । अत्र हिन्दूविश्वविद्यालयः, संस्कृतविश्वविद्यालयः, काशीविद्यापीठम् इत्येते त्रयः विश्वविद्यालयाः सन्ति येषु नवीनानां प्राचीनानञ्च ज्ञानविज्ञानविषयाणाम् अध्ययनं प्रचलति ।

अथवा

वाराणस्यां प्राचीनकालादेव गेहे-गेहे विद्यायाः दिव्यं ज्योतिः द्योतते । अधुनाऽपि अत्र संस्कृतवाग्धारा सततं प्रवहति, जनानां ज्ञानञ्च वर्द्धयति। अत्र अनेके आचार्याः मूर्धन्याः विद्वांसः वैदिकवाङ्मयस्य अध्ययने अध्यापने च इदानीं निरताः। न केवलं भारतीयाः, अपितु वैदेशिकाः गीर्वाणवाण्याः अध्ययनाय अत्र आगच्छन्ति निःशुल्कं च विद्यां गृहणन्ति ।

अथवा

अधुनाऽपि अत्र संस्कृतवाग्धारा सततं प्रवहति, जनानां ज्ञानञ्च वर्द्धयति। अत्र अनेके आचार्याः मूर्धन्याः विद्वांसः वैदिकवाङ्मयस्य अध्ययने अध्यापने च इदानीं निरताः। न केवलं भारतीयाः अपितु वैदेशिकाः गीर्वाणवाण्याः अध्ययनाय अत्र आगच्छन्ति निःशुल्कं च विद्यां गृहणन्ति। 

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के संस्कृत खण्ड' में संकलित वाराणसी' नामक पाठ से लिया गया है। इस गद्यांश में वाराणसी नामक प्राचीन नगर के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है। 

इस अंश में वाराणसी में स्थित ज्ञान के केन्द्र रूपी विभिन्न विश्वविद्यालयों का वर्णन किया गया है।

अनुवाद वाराणसी में प्राचीनकाल से ही घर-घर में विद्या की अलौकिक ज्योति प्रकाशित है। आज भी यहाँ संस्कृत वाणी की धारा लगातार (निरन्तर) प्रवाहित हो रही है और लोगों का ज्ञान बढ़ा रही है। इस समय भी यहाँ अनेक आचार्य, उच्चकोटि के विद्वान्, वैदिक साहित्य के अध्ययन अध्यापन में लगे हुए हैं।

केवल भारतीय ही नहीं, बल्कि विदेशी भी देववाणी संस्कृत के अध्ययन के लिए यहाँ आते हैं और निःशुल्क विद्या प्राप्त करते हैं। यहाँ हिन्दू विश्वविद्यालय, संस्कृत विश्वविद्यालय और काशी विद्यापीठ-ये तीन विश्वविद्यालय हैं, जिनमें ज्ञान-विज्ञान के नए-पुराने विषयों का अध्ययन चलता रहता है।

गद्यांश 3

एषा नगरी भारतीयसंस्कृतेः संस्कृतभाषायाश्च केन्द्रस्थलम् अस्ति। इत एव संस्कृतवाङ्मयस्य संस्कृतेश्च आलोकः सर्वत्र प्रसृतः। मुगलयुवराजः दाराशिकोहः अत्रागत्य भारतीय-दर्शन-शास्त्राणाम् अध्ययनम् अकरोत्। स तेषां ज्ञानेन तथा प्रभावितः अभवत्, यत् तेन उपनिषदाम् अनुवादः फारसीभाषायां कारितः। 

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के संस्कृत खण्ड' में संकलित वाराणसी' नामक पाठ से लिया गया है। इस गद्यांश में वाराणसी नामक प्राचीन नगर के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है।

इस अंश में वाराणसी के प्राचीन गौरव एवं महत्ता पर प्रकाश डाला गया है।

अनुवाद यह नगरी भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा का केन्द्रस्थल है। यहीं से संस्कृत साहित्य और संस्कृति का प्रकाश चारों ओर फैला है। मुगल युवराज दाराशिकोह ने यहीं आकर भारतीय दर्शनशास्त्रों का अध्ययन किया था। वह उनके ज्ञान से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उपनिषदों का अनुवाद फारसी भाषा में करवाया।

गद्यांश 4

इयं नगरी विविधधर्माणां सङ्गमस्थली। महात्मा बुद्धः, तीर्थङ्करः पार्श्वनाथः, शङ्कराचार्यः, कबीरः, गोस्वामी तुलसीदासः अन्ये च बहवः महात्मानः अत्रागत्य स्वीयान् विचारान् प्रासारयन्। न केवलं दर्शने, साहित्ये, धर्मे, अपितु कलाक्षेत्रेऽपि इयं नगरी विविधानां कलानां, शिल्पानाञ्च कृते लोके विश्रुता। अत्रत्याः कौशेयशाटिकाः देशे-देशे सर्वत्र स्पृह्यन्ते। अत्रत्याः प्रस्तरमूर्तयः प्रथिताः । इयं निजां प्राचीनपरम्पराम् इदानीमपि परिपालयति-तथैव गीयते कविभिः

मरणं मङ्गलं यत्र विभूतिश्च विभूषणम्। कौपीनं यत्र कौशेयं सा काशी केन मीयते ॥

                     अथवा

 मरणं मङ्गलं यत्र विभूतिश्च विभूषणम्। कौपीनं यत्र कौशेयं सा काशी केन मीयते।।

अथवा

इयं नगरी विविधधर्माणां सङ्गमस्थली। महात्मा बुद्धः, तीर्थङ्करः पार्श्वनाथः, शङ्कराचार्यः, कबीरः, गोस्वामी तुलसीदासः अन्ये च बहवः महात्मानः अत्रागत्य स्वीयान् विचारान् प्रासारयन्। न केवलं दर्शन, साहित्ये, धर्मे, अपितु कलाक्षेत्रेऽपि इयं नगरी विविधानां कलानां, शिल्पानाञ्च कृते लोके विश्रुता । अत्रत्याः कौशेयशाटिकाः देशे-देशे सर्वत्र स्पृह्यन्ते।

अथवा

महात्मा बुद्धः, तीर्थङ्करः पार्श्वनाथः शङ्कराचार्यः, कबीरः, गोस्वामी तुलसीदासः अन्ये च बहवः महात्मानः अत्रागत्य स्वीयान् विचारान् प्रासारयन्। न केवलं दर्शन, साहित्ये, धर्मे, अपितु कलाक्षेत्रेऽपि इयं नगरी विविधानां कलानां, शिल्पानाञ्च कृते लोके विश्रुता। 

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के संस्कृत खण्ड' में संकलित वाराणसी' नामक पाठ से लिया गया है। इस गद्यांश में वाराणसी नामक प्राचीन नगर के सौन्दर्य का वर्णन किया गया है।

इस अंश में वाराणसी की विशासिद्धि के कारणों पर प्रकाश डाला गया है। 

अनुवाद यह नगरी (अर्थात काशी) अनेक धर्मों की संगमस्थली (मिलन स्थल) है। महात्मा बुद्ध, तीर्थकर पार्श्वनाथ, शंकराचार्य, कबीर, गोस्वामी तुलसीदास तथा अन्य बहुत-से महात्माओं ने यहाँ आकर अपने विचारों का प्रसार किया, केवल दर्शन, साहित्य और धर्म में ही नहीं, अपितु कला के क्षेत्र में भी यह नगरी तरह तरह की कलाओं और शिल्पों के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है।

यहाँ की रेशमी साड़ियाँ देश-देश में हर जगह पसन्द की जाती हैं। यहाँ की पत्थर की मूर्तियाँ प्रसिद्ध हैं। यह अपनी प्राचीन परम्परा का इस समय भी पालन कर रही है। इसलिए कवियों के द्वारा गाया गया है

श्लोक "जहाँ मरना कल्याणकारी हैं, जहाँ भस्म ही आभूषण (गहना) है और जहाँ लंगोट ही रेशमी वस्त्र है, वह काशी किसके द्वारा मापी जा सकती है?" अर्थात् काशी अतुलनीय है। इसकी तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती है।

प्रश्न  उत्तर

प्रश्न 1. वाराणसी नगरी कस्याः नद्याः कूले स्थिता?

  अथवा 

वाराणसी नगरी कुत्र स्थिता अस्ति?

उत्तर वाराणसी गङ्गायाः नद्याः कूले स्थिता अस्ति।

प्रश्न 2. कस्याः शोभाम् अवलोक्य वैदेशिका पर्यटका: वाराणसी बहुप्रशंसन्ति ?

अथवा 

वैदेशिका पर्यटकाः कस्याः शोभाम् अवलोक्य वाराणसीं प्रशंसन्ति ?

उत्तर गङ्गायाः घट्टानां शोभाम् अवलोक्य वैदेशिका: पर्यटका: वाराणसी बहुप्रशंसन्ति।

प्रश्न 3. वाराणस्यां गेहे-गेहे किं द्योतते?

उत्तर वाराणस्यां गेहे-गेहे विद्याया: दिव्यां ज्योतिः द्योतते।

प्रश्न 4. सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालयः कस्यां नगर्यां विद्यते?

उत्तर सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय: वाराणस्यां नगर्यां विद्यते।

प्रश्न 5. वाराणस्यां कियंतः विश्वविद्यालयाः सन्ति ?

अथवा

 वाराणस्यां कति विश्वविद्यालयः सन्ति ?

 उत्तर वाराणस्यां त्रयः विश्वविद्यालयाः सन्ति।

प्रश्न 6. वाराणसी कस्याः भाषायाः केन्द्रम् अस्ति?

उत्तर  वाराणसी संस्कृत भाषायाः केन्द्रस्थलम् अस्ति। 

प्रश्न 7. दाराशिकोहेन उपनिषदाम् अनुवाद: कस्यां भाषायां कारितः ?

उत्तर दाराशिकोहेन उपनिषदाम् अनुवाद: फारसी भाषायां कारितः।

प्रश्न 8. वाराणसी नगरी केषां सङ्गमस्थली अस्ति?

 अथवा

 का नगरी विविधधर्माणां सङ्गमस्थली अस्ति? 

उत्तर वाराणसी नगरी विविधधर्माणां सङ्गमस्थली अस्ति।

प्रश्न 9. वाराणसी किमर्थं प्रसिद्धा?

उत्तर वाराणसी विद्या दर्शन- साहित्य धर्म-कला-शिल्पार्थं प्रसिद्धा अस्ति।

प्रश्न 10. वाराणसी नगरी केषां कृते लोके विश्रुता अस्ति?

उत्तर वाराणसी नगरी विद्याकलानां संस्कृतभाषायाः संस्कृतेश्च कृते लोके विश्रुता अस्ति।

प्रश्न 11. वाराणस्यां कानि वस्तूनि प्रसिद्धानि सन्ति ?

उत्तर वाराणस्यां कला-शिल्प, कौशेयशाटिका: प्रस्तरमूर्तय च प्रसिद्धानि सन्ति।

प्रश्न 12. कुत्र मरणं मंगलम् भवति?

उत्तर वाराणस्यां मरणं मंङ्गलम् भवति ।

कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड अध्याय 2 अन्योक्तिविलास : (अन्योक्तियों का सौन्दर्य) के सभी गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद

श्लोक 1

नितरां नीचोऽस्मीति त्वं खेदं कूप! कदापि मा कृथाः।

अत्यन्तसरसहृदयो यतः परेषां गुणग्रहीतासि ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'अन्योक्तिविलासः' नामक पाठ से लिया गया है।

प्रस्तुत श्लोक में अपने अवगुणों पर दुःखी न होने तथा दूसरे के गुणों को ग्रहण करने को श्रेष्ठ बताया गया है।

अनुवाद हे कुएँ! 'मैं अत्यधिक नीचा (गहरा) हूँ', तुम इस प्रकार कभी दुःखी मत होओ, क्योंकि तुम अत्यन्त सरस हृदय (जल से भरे हुए) हो और दूसरों के गुणों (रस्सियों) को ग्रहण करने वाले हो।

श्लोक 2

नीर-क्षीर- विवेके हंसालस्य त्वमेव तनुषे चेत् । विश्वस्मिन्नधुनान्यः कुलव्रतं पालयिष्यति कः।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'अन्योक्तिविलासः' नामक पाठ से लिया गया है।

प्रस्तुत श्लोक में अपने कुलधर्म व कर्त्तव्यपालन की शिक्षा दी गई है। 

अनुवाद हे हंस! यदि तुम ही नीर और क्षीर अर्थात् दूध और पानी का विवेक करने में आलस्य करोगे, तो इस संसार में कौन ऐसा (व्यक्ति) है, जो अपने कुलधर्म (दूध और पानी को अलग करना) व कर्तव्य का पालन करेगा ?

श्लोक 3

कोकिल! यापय दिवसान तावद् विरसान करीलविटपेषु। यावन्मिलदलिमालः कोऽपि रसालः समुल्लुसति ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'अन्योक्तिविलासः' नामक पाठ से लिया गया है।

प्रस्तुत श्लोक में बुरे दिनों में भी धैर्य रखने को प्रेरणा दी गई है। 

अनुवाद हे कोयल! जब तक भौरों से युक्त को अम का पेड़ लहराने नहीं लगता, तब तक तुम अपने नीरस (शुष्क) दिन को भी प्रकार से करील के पेड़ पर ही बिताओ। भाव यह है कि जब तक अच्छे दिन नहीं आते तब तक व्यक्ति को अपने बुरे दिनों को किसी न किसी प्रकार से व्यतीत कर चाहिए।

श्लोक 4

रे रे चातक! सावधानमनसा मित्र! क्षणं श्रूयताम्। अम्भोदा बहवो वसन्ति गगने सर्वेऽपि नेतादृशाः ।

केचिद् वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधां गर्जन्ति केचिद् वृथा। यं यं पश्यसि तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः ।

सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'अन्योक्तिविलासः' नामक पाठ से लिया गया है।

प्रस्तुत श्लोक में चातक के माध्यम से यह बताया गया है कि हमें किसी के सामने दीन वचन बोलकर याचना नहीं करनी चाहिए।

अनुवाद हे हे चातक! सावधान मन से क्षण भर सुनो। आसमान में बादल रहते हैं, पर सभी एक जैसे (दानी, उदार) नहीं होते हैं। कुछ तो बहुत से पृथ्वी को गीला कर देते हैं, पर कुछ तो व्यर्थ में गर्जना करते हैं। अतः तुम जिस-जिस को देखते हो अर्थात् किसी को भी देखकर उसके सामने दीन वचन मत कहो।

भाव यह है कि हर किसी के सामने याचना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि हर कोई दानी नहीं होता, जो हमें कुछ दे।

श्लोक 5

न वै ताडनात तापनाद वह्निमध्ये

न वै विक्रयात् क्लिश्यमानोऽहमस्मि ।

सुवर्णस्य मे मुख्यदुःखं तदेकं

यतो मां जना गुञ्जया तोलयन्ति ।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'अन्योक्तिविलासः' नामक पाठ से लिया गया है।

प्रस्तुत श्लोक में स्वर्ण के माध्यम से गुणवान और स्वाभिमानी व्यक्ति के मन की व्यथा को व्यक्त किया गया है।

अनुवाद में (स्वर्ण) न तो पीटे जाने से, न अग्नि में तपाए जाने से और न ही बेचे जाने से दुःखी होता हूँ। मेरे दुःख का सबसे बड़ा रण तो है कि लोग है कि मेरी तुलना किसी तुच्छ वस्तु से की जाती है अर्थात् गुणवान व स्वाभिमानी मुझे रत्ती (घुँघची) से तोलते हैं। सोने का अर्थात् मेरे दुःख का कारण तो एक ही है कि मेरी तुलना किसी तुच्छ वस्तु से की जाती है अर्थात गुणवान व स्वाभिमानी व्यक्ति को कष्टों को सहने में इतनी पीड़ा नहीं होती, जितनी मानसिक पीड़ा उसके स्वाभिमान को ठेस लगने से होती है।

श्लोक 6

रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभात।

भास्वानुदेष्यति हसिस्यति पङ्कजालिः ।। इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे। हा हन्त हन्त! नलिनी गज उज्जहारः।।

सन्दर्भ – प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'अन्योक्तिविलासः' नामक पाठ से लिया गया है।

प्रस्तुत श्लोक में कमलिनी में बन्द भौरे के माध्यम से जीवन की क्षणभंगुरता को बताया गया है।

अनुवाद खिले कमल के पराग का रसपान करता कोई भौंरा सूर्यास्त होने पर कमल में बन्द हो गया। वह रात भर यही सोचता रहा कि 'रात्रि बीत जाएगी, सुन्दर सवेरा होगा, सूर्य उदय होगा, कमल के झुण्ड खिल जाएँगे। दुःख का विषय है कि कमल की पंखुड़ियों में बन्द भौरे के इस प्रकार की बातें सोचते-सोचते किसी हाथी ने कमलिनी को उखाड़ लिया (और भौरा कमल के "पुष्प में बन्द रह गया)। भाव यह है कि व्यक्ति सोचता कुछ है, पर ईश्वर की इच्छा से कुछ और ही हो

जाता है।

            प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. कूप: किमर्थ दुःखम् अनुभवति? 

उत्तर अहम् नितरी नीच: अस्मि इति विचार्य कृपः दुःखम् अनुभवति।

प्रश्न 2. अत्यन्त सरस हृदयो यतः किं ग्रहीतासि?

 उत्तर अत्यन्त सरस हृदयो यतः परेषा गुणा ग्रहोतासि ।

प्रश्न 3. नीर-क्षीर-विषये हंसस्य का विशेषताः अस्ति

उत्तर यत् हंस: नीरें और पृथक पृथक करोति। इदमेव तस्य विशेषताः अस्ति। 

प्रश्न 4. कवि हंसं किं बोधयति? 

उत्तर कवि हंस बोधयति यत् त्या नीर क्षीर विवेके आलस्यं न कुर्यात्

प्रश्न 5. कवि कोकिल कि कथयति?

अथवा 

कतिः कोकिलं किं बोधयति ?

उत्तर कविः कोकिलं कथयति यत् यावत् रसालः न समुल्लसति तावत् त्वं करीलवृक्षेषु दिवसान् यापया

प्रश्न 6. कवि चातकं किम उपदिशति (शिक्षयति)?

उत्तर कवि चातकम् उपदिशति यत् यथा सर्वे अम्भोदा: जलं न यच्छन्ति तथैव सर्वे अनाः घनं न यच्छन्ति, अतः सर्वेषां गुरतः दीनं वचन मा ब्रूहि

प्रश्न 7. सुवर्णस्य मुख्यं दुःखं किम् अस्ति? 

अथवा 

स्वर्णस्य किं मुख्य दुःखम् अस्ति?

उत्तर सुवर्णस्य मुख्यं दुःखं अस्ति यत् जनाः नाम् गुज्जया सह तोलयन्ति। 

प्रश्न 8. कोशगतः भ्रमर किम अचिन्तयत् ?

 उत्तर कोशगत भ्रमरः अचिन्तयत् यत् रात्रिर्गमिष्यति, सुप्रभातं भविष्यति,भास्वानुदेस्यति पङ्कजालि: हसिष्यति। 

प्रश्न 9. यदा भ्रमरः चिन्तयति तदा गजः किम अकरोत?

अथवा

 गजः काम् उज्जहार?

उत्तर यदा भ्रमरः चिन्तयति तदा गज: नलिनीम् उज्जहार।

कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड 03 वीर : वीरेण पूज्यते (वीर के द्वारा वीर की पूजा की जाती है)

गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद

गद्यांश 1

(स्थानम् – अलक्षेन्द्रस्य सैन्यशिविरम्। अलक्षेन्द्रः आम्भीक: च आसीनौ वर्तते। वन्दिनं पुरुराजम् अग्रेकृत्वा एकतःप्रविशति यवन-सेनापतिः।) 

सेनापतिः – विजयतां सम्राट्।

पुरुराजः– एष भारतवीरोऽपि यवनराजम् अभिवादयते।

अलक्षेन्द्रः –(साक्षेपम्) अहो! बन्धनगतः अपि आत्मानं वीर इति मन्यसे पुरुराज: ?

पुरुराज: – यवनराज! सिंहस्तु सिंह एव, वने वा भवतु पञ्जरे वा

अलक्षेन्द्रः  – किन्तु पञ्जरस्थ: सिंहः न किमपि पराक्रमते।

पुरुराज: –  पराक्रमते, यदि अवसरं लभते। अपि च यवनराज!

बन्धनं मरणं वापि जयो वापि पराजयः उभयत्र समो वीरः वीरभावो हि वीरता।।

अथवा

सेनापतिः – विजयतां सम्राट्।

पुरुराजः – एष भारतवीरोऽपि यवनराजम् अभिवादयते।

अलक्षेन्द्रः – (साक्षेपम्) अहो! बन्धनगतः अपि आत्मानं वीर इति मन्यसे पुरुराज: ?

पुरुराज: – यवनराज! सिंहस्तु सिंह एव, वने वा भवतु पञ्जरे वा 

अलक्षेन्द्रः – किन्तु पञ्जरस्थ: सिंह: न किमपि पराक्रमते ।

पुरुराज: – पराक्रमते, यदि अवसरं लभते।

अथवा

बन्धनं मरणं वापि जयो वापि पराजयः। 

उभयत्र समो वीरः वीरभावो हि वीरता।।

सन्दर्भ प्रस्तुत नाट्य खण्ड हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'वीर: वीरेण पूज्यते' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में सिकन्दर और पुरु की वार्ता प्रस्तुत की गई है।

अनुवाद (स्थान-सिकन्दर का सैनिक शिविर, सिकन्दर और आम्भीक दोनों बैठे हैं। बन्दी पुरु को आगे करके एक यवन सैनिक प्रवेश करता है।)

सेनापति   –  सम्राट की जय हो।

पुरुराज – यह भारतवीर भी यवनराज का अभिवादन करता है। 

सिकन्दर – (आक्षेप सहित) अरे! पुरुराज! बन्धन में पड़े हुए भी अपने को वीर मानते हो?

पुरुराज – हे यवनराज! सिंह तो सिंह ही है, चाहे वह वन में हो या पिंजरे में।

सिकन्दर  –  किन्तु पिंजरे में पड़ा हुआ सिंह कुछ भी पराक्रम नहीं करता है।

पुरुराज –  पराक्रम करता है, यदि उसे अवसर मिलता है। और यवनराज!

श्लोक 

 "बन्धन हो अथवा मृत्यु, जय हो अथवा पराजय, वीर पुरुष दोनों ही स्थितियों में समान रहता है। वीरों के भाव को ही वीरता कहते हैं।

गद्यांश 2

आम्भिराजः – सम्राट्! वाचाल एष हन्तव्यः । 

सेनापतिः    आदिशतु सम्राट्। 

अलक्षेन्द्रः – अथ मम मैत्रीसन्धेः अस्वीकरणे तव किम् अभिमतम् आसीत् पुरुराजः !

पुरुराज: – स्वराजस्य रक्षा, राष्ट्रद्रोहाच्च मुक्तिः।

अलक्षेन्द्रः  – मैत्रीकरणेऽपि राष्ट्रद्रोहः ?

पुरुराज: –आम्। राष्ट्रद्रोहः। यवनराज! एकम् इदं भारतं राष्ट्र, बहूनि चात्र राज्यानि, बहवश्च शासकाः। त्वं मैत्रीसन्धिना तान् विभज्य भारतं जेतुम् इच्छसि। आम्भीकः चास्य प्रत्यक्षं प्रमाणम्।

अलक्षेन्द्रः –  भारतम् एकं राष्ट्रम् इति तव वचनं विरुद्धम्। इह तावत् राजानः जनाः च परस्परं द्रुह्यन्ति। 

पुरुराज: –   तत् सर्वम् अस्माकम् आन्तरिकः विषयः। बाह्यशक्तेः तत्र हस्तक्षेपः असह्यः यवनराज! पृथग्धर्माः, पृथग्भाषाभूषा अपि वयं सर्वे भारतीयाः। विशालम् अस्माकं राष्ट्रम्। तथाहि -उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः॥

अथवा

पुरुराज: – आम्। राष्ट्रद्रोहः। यवनराज! एकम् इदं भारतं राष्ट्र, बहूनि चात्र राज्यानि, बहवश्च शासकाः। त्वं मैत्रीसन्धिना तान् विभज्य भारतं जेतुम् इच्छसि। आम्भीकः चास्य प्रत्यक्षं प्रमाणम्।

अलक्षेन्द्रः- भारतम् एकं राष्ट्रम् इति तव वचनं विरुद्धम्। इह तावत् राजानः जनाः च परस्परं दुह्यन्ति।

अथवा

उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ॥

सन्दर्भ प्रस्तुत नाट्य खण्ड हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'वीर: वीरेण पूज्यते' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में सिकन्दर और पुरु की वार्ता प्रस्तुत की गई है।

अनुवाद 

आम्भिराज –सम्राट! यह वाचाल है, (इसकी) हत्या कर देनी चाहिए। सम्राट आज्ञा दें।

सेनापति –सम्राट आज्ञा दें।

सिकन्दर – हे पुरुराज! मेरी मैत्री सन्धि को अस्वीकार करने के पीछे तुम्हारी क्या इच्छा थी?

पुरुराज –अपने राज्य की इच्छा और राष्ट्रद्रोह से मुक्ति। 

सिकन्दर –  मित्रता करने में भी राजद्रोह ?

पुरुराज  –  हाँ राजद्रोह! यवनराज! यह भारत राष्ट्र एक है, जहाँ अनेक राज्य हैं और बहुत से शासक हैं। तुम मैत्री सन्धि के द्वारा उनमें बँटवारा करके भारत को जीतना चाहते हो और आम्भीक इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।

सिकन्दर  – भारत राष्ट्र एक है, तुम्हारा यह कथन गलत है। यहाँ राजा और प्रजा आपस में द्वेष करते हैं।

पुरुराज – यह सब हमारा (भारतीयों का) अन्दरूनी मामला है। हे यवनराज! उसमें बाहरी शक्ति का हस्तक्षेप सहन करने योग्य नहीं है। अलग धर्म, अलग भाषा, अलग पहनावा होने पर भी हम सब भारतीय हैं। हमारा राष्ट्र विशाल है, क्योंकि

श्लोक

 "जो समुद्र के उत्तर में और हिमालय के दक्षिण में स्थित है, वह भारत नाम का देश है, जहाँ की सन्तान भारतीय हैं।"

गद्यांश 3

अलक्षेन्द्रः – अथ मे भारतविजयः दुष्करः 

पुरुराजः – न केवलं दुष्करः असम्भवोऽपि ।

अलक्षेन्द्रः  – (सरोषम्) दुर्विनीत, किं न जानासि, इदानी विश्वविजयिनः अलक्षेन्द्रस्य अग्रे वर्तसे?

पुरुराजः – जानामि, किन्तु सत्यं तु सत्यम् एव यवनराज !भारतीयाः वयं गीतायाः सन्देशं न विस्मरामः

अलक्षेन्द्रः  –कस्तावत् गीतायाः सन्देश: ?

पुरुराज: –श्रूयताम्

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । निराशीनिर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ।।

अलक्षेन्द्रः –(किमपि विचिन्त्य) अलं तव गीतया पुरुराज! त्वम् अस्माकं बन्दी वर्तसे। ब्रूहि कथं त्वयि वर्तितव्यम्। 

पुरुराजः अलक्षेन्द्रः यथैकेन वीरेण वीरं प्रति।

अलक्षेन्द्रः –  (पुरो: वीरभावेन हर्षितः) साधु वीर! साधु! नूनं वीरः असि। धन्यः त्वं, धन्या ते मातृभूमिः । (सेनापतिम् उद्दिश्य) सेनापते!

सेनापति: – सम्राट्

अलक्षेन्द्रः वीरस्य पुरुराजस्य बन्धनानि मोचय। 

सेनापतिः  –  यत् सम्राट् आज्ञापयति।

अलक्षेन्द्रः –(एकेन हस्तेन पुरोः द्वितीयेन च आम्भीकस्य हस्तं गृहीत्वा) वीर पुरुराज! सखे आम्भीक! इतः परं वयं सर्वे समानमित्राणि, इदानी मैत्रीमहोत्सवं सम्पादयामः ।

(सर्वे निर्गच्छन्ति)

अथवा

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। निराशीनिर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ||

सन्दर्भ प्रस्तुत नाट्य खण्ड हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'वीर: वीरेण पूज्यते' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में सिकन्दर और पुरु की वार्ता प्रस्तुत की गई है।

अनुवाद

सिकन्दर – तो फिर मेरी भारत-विजय कठिन है। 

पुरुराज – न केवल कठिन, बल्कि असम्भव भी है।

सिकन्दर  –(गुस्से से) हे दुष्ट! क्या तुम नहीं जानते कि इस समय (तुम) विश्वविजेता सिकन्दर के सामने हो?

पुरुराज –जानता हूँ, किन्तु यवनराज! सत्य तो सत्य ही है। हम भारतीय गीता के सन्देश को नहीं भूले हैं। 

सिकन्दर – तो गीता का सन्देश क्या है?

पुरुराज –

सुनिए श्लोक (यदि तुम) मारे गए तो स्वर्ग को प्राप्त करोगे और यदि जीत गए तो पृथ्वी के सुख का भोग करोगे। (इसलिए) इच्छा, मोह और सन्ताप (दु:ख) से दूर रहकर युद्ध करो।

सिकन्दर –(कुछ सोचकर) पुरुराज! अपनी गीता को रहने दो। तुम हमारे कैदी हो। बताओ, तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जाए?

पुरुराज – जैसा एक वीर (दूसरे) वीर के साथ करता है। 

सिकन्दर –(पुरु के वीर-भाव से प्रसन्न होकर) ठीक है वीर! ठीक है। तुम निश्चय ही वीर हो। तुम धन्य हो, तुम्हारी मातृभूमि धन्य है। (सेनापति को लक्ष्य करके) सेनापति !

सेनापति – सम्राट!

सिकन्दर – वीर पुरुराज के बन्धन खोल दो।

सेनापति  – सम्राट की जो आज्ञा ।

सिकन्दर – (एक हाथ से पुरु का और दूसरे हाथ से आम्भीक का हाथ पकड़कर) वीर पुरुराज! मित्र आम्भीक! अब से हम सब समान मित्र हैं। अब हम मित्रता का उत्सव मनाते हैं।

(सब निकल जाते हैं।)

अथवा

श्लोक

 (यदि तुम) मारे गए तो स्वर्ग को प्राप्त करोगे और यदि जीत गए तो पृथ्वी के सुख का भोग करोगे। (इसलिए) इच्छा, मोह और संताप (दुःख) से दूर रहकर युद्ध करो।

           प्रश्न  – उत्तर

प्रश्न 1. वीरः केन पूज्यते?

उत्तर वीर: वीरेण पूज्यते । 

प्रश्न 2. पुरुराजः केन सह युद्धम् अकरोत् ?

उत्तर पुरुराज: अलक्षेन्द्रेण सह युद्धम् अकरोत्।

प्रश्न 3. अलक्षेन्द्रः कः आसीत् ?

उत्तर अलक्षेन्द्रः यवन देशस्य राजा आसीत्।

प्रश्न 4. पुरुराजः कः आसीत् ?

उत्तर पुरुराज: भारतस्य एकः वीरः नृपः आसीत् ।

प्रश्न 5. वीरभावोः किं कथ्यते?

उत्तर वीरभावो हि वीरता कथ्यते।

प्रश्न 6. भारतम् एकं राष्ट्रम् इति विरुद्धम् कस्य उक्तिः? 

उत्तर भारतम् एकं राष्ट्रम् इति विरुद्धम् इयम् अलक्षेन्द्रस्य उक्तिः

प्रश्न 7. भारतविजयः न केवलं दुष्करः असम्भवोऽपि, कस्य उक्तिः ?

 उत्तर भारतविजयः न केवलं दुष्कर: असम्भवोऽपि, इति पुरुराजस्य उक्तिः

प्रश्न 8. गीतायाः कः सन्देशा: ?

अथवा 

पुरुराजः गीतायाः कं सन्देशम् अकथयत् ?

उत्तर गीतायाः सन्देशः अस्ति यदि त्वं हतो तदा स्वर्गम् प्राप्यसि, जित्वा पृथ्वीम् भोक्ष्यसे । अतएव आशा-मोह-सन्तापरहित: भूत्वा युद्धं कुरु।

प्रश्न 9. किं जित्वा भोक्ष्यसे महीम् ? 

उत्तर युद्धं जित्वा भोक्ष्यसे महीम्

प्रश्न 10. अलक्षेन्द्रः पुरोः केन भावेन हर्षितः अभवत् ? 

उत्तर अलक्षेन्द्रः पुरोः वीरभावेन हर्षितः अभवत् ।

कक्षा 10 हिन्दी ‘संस्कृत खण्ड’04 प्रबुद्धो ग्रामीण : (बुद्धिमान ग्रामीण) के गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद

गद्यांश 1

एकदा बहवः जना धूमयानम् (रेलगाड़ी) आरुह्य नगरं प्रति गच्छन्ति स्म। तेषु केचित् ग्रामीणाः केचिच्च नागरिकाः आसन्। मौनं स्थितेषु तेषु एकः नागरिकः ग्रामीणान् अकथयत्, "ग्रामीणाः अद्यापि पूर्ववत् अशिक्षिताः अज्ञाश्च सन्ति। न तेषां विकासः अभवत् न च भवितुं शक्नोति।” तस्य तादृशं जल्पनं श्रुत्वा कोऽपि चतुरः ग्रामीणः अब्रवीत्-“भद्र नागरिक! भवान् एव किञ्चित् ब्रवीतु, यतो हि भवान् शिक्षितः बहुज्ञः च अस्ति।"

अथवा

तस्य तां वार्ता श्रुत्वा स चतुरः ग्रामीणः अकथयत्-“भोः वयम् अशिक्षिताः भवान् च शिक्षितः, वयम् अल्पज्ञाः भवान् च बहुज्ञः इत्येवं विज्ञाय अस्माभिः समयः कर्त्तव्यः वयं परस्परं प्रहेलिकां प्रक्ष्यामः। यदि भवान् उत्तरं दातुं समर्थः न भविष्यति तदा भवान् दशरूप्यकाणि दास्यति। यदि वयम् उत्तरं दातुं समर्थाः न भविष्यामः तदा दशरूप्यकाणाम् अर्धं पञ्चरूप्यकाणि दास्यामः।"

अथवा

इदम् आकर्ण्य स नागरिकः सदर्पो ग्रीवाम् उन्नमय्य अकथयत्, "कथयिष्यामि, परं पूर्व समयः विधातव्यः।" तस्य तां वार्ता श्रुत्वा स चतुरः ग्रामीणः अकथयत्- “भोः वयम् अशिक्षिताः भवान् च शिक्षितः, वयम् अल्पज्ञाः भवान् च बहुज्ञः, इत्येवं विज्ञाय अस्माभिः समयः कर्त्तव्यः वयं परस्परं प्रहेलिकां प्रक्ष्यामः। यदि भवान् उत्तरं दातुं समर्थः न भविष्यति तदा भवान् दशरूप्यकाणि दास्यति। यदि वयम् उत्तरं दातुं समर्थाः न भविष्यामः तदा दशरूप्यकाणाम् अर्ध पञ्चरूप्यकाणि दास्यामः।”

अथवा

भवान् एवं किञ्चित् ब्रवीतु, यतो हि भवान् शिक्षितः बहुज्ञः च अस्ति। इदम् आकर्ण्य स नागरिकः सदर्पो ग्रीवाम् उन्नमय्य अकथयत्-"कथयिष्यामि, परं पूर्व समयः विधातव्यः।” तस्य तां वार्ता श्रुत्वा स चतुरः ग्रामीणः अकथयत्- "भोः वयम् अशिक्षिताः भवान् च शिक्षितः, वयम् अल्पज्ञाः भवान् च बहुज्ञः इत्येवं विज्ञाय अस्माभिः समयः कर्त्तव्यः वयं परस्परं प्रहेलिकां प्रक्ष्यामः।

सन्दर्भ –प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'प्रबुद्धो ग्रामीणः' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में ग्रामीणों की चतुराई को हास्यपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया है। ग्रामीण और शहरी के बीच पहेली पूछने का वर्णन है।

अनुवाद – एक बार बहुत से मनुष्य रेलगाड़ी पर सवार होकर नगर की ओर जा रहे थे। उनमें कुछ ग्रामीण और कुछ शहरी व्यक्ति थे, उनके (ग्रामीणों) मौन रहने पर एक शहरी ने ग्रामीणों का उपहास करते हुए कहा, "ग्रामीण आज भी पहले की तरह अशिक्षित और मूर्ख हैं। न तो उनका (अब तक) विकास हुआ है और न हो सकता है।" उसकी इस तरह की बातें सुनकर कोई चतुर ग्रामीण बोला, "हे सभ्य शहरी! आप ही कुछ कहें, क्योंकि आप ही पढ़े-लिखे और जानकार हैं। यह सुनते ही शहरी ने घमण्ड के साथ गर्दन ऊँची उठाकर कहा-" कहूँगा, पर हमें पहले एक शर्त लगा लेनी चाहिए।" उसकी इस बात को सुनकर उस चतुर ग्रामीण ने कहा, "अरे हम अशिक्षित हैं और आप शिक्षित हैं, हम कम जानते हैं और आप बहुत जानते हैं, ऐसा जानकर शर्त लगानी चाहिए! हम

गद्यांश 2

“आम् स्वीकृतः समयः" इति कथिते तस्मिन् नागरिके स ग्रामीणः नागरिकम् अवदत्-"प्रथमं भवान् एव पृच्छतु।" नागरिकश्च तं ग्रामीणम् अकथयत्- "त्वमेव प्रथमं पृच्छ” इति। इदं श्रुत्वा स ग्रामीणः अवदत् "युक्तम्, अहमेव प्रथमं पृच्छामि अस्या उत्तरं ब्रवीतु भवान्।"

अपदो दूरगामी च साक्षरो न च पण्डितः।

अमुखः स्फुटवक्ता च यो जानाति स पण्डितः॥

अथवा

नागरिकः बहुकालं यावत् अचिन्तयत्, परं प्रहेलिकायाः उत्तरं दातुं समर्थः न अभवत् । अतः ग्रामीणम् अवदत्" अहम् अस्याः प्रहेलिकायाः उत्तरं न जानामि।" इदं श्रुत्वा ग्रामीणः अकथयत् यदि भवान् उत्तरं न जानाति, तर्हि ददातु दशरूप्यकाणि ।” अतः म्लानमुखेन नागरिकेण समयानुसारं दशरूप्यकाणि दत्तानि।

अथवा

अपदो दूरगामी च साक्षरो न च पण्डितः।

अमुखः स्फुटवक्ता च यो जानाति स पण्डितः ॥

सन्दर्भ –प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'प्रबुद्धो ग्रामीणः' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में ग्रामीणों की चतुराई को हास्यपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया है। ग्रामीण और शहरी के बीच पहेली पूछने का वर्णन है।

इस अंश में ग्रामीण द्वारा नागरिक से पहेली पूछने का वर्णन किया गया है। 

अनुवाद "हाँ! शर्त स्वीकार है", उस शहरी द्वारा ऐसा कहे जाने पर उस ग्रामीण ने शहरी (व्यक्ति) से कहा, "पहले आप पूछें।" और शहरी ने उस ग्रामीण से कहा, "पहले तुम ही पूछो, "यह सुनकर वह ग्रामीण बोला, "ठीक है, मैं ही पहले पूछता हूँ

श्लोक "बिना पैर वाला है, किन्तु दूर तक जाता है, साक्षर (अक्षर सहित) है, किन्तु पण्डित नहीं है। मुख नहीं है, किन्तु स्पष्ट बोलने वाला है, जो इसे जानता है, वह पण्डित ज्ञानी है। आप इसका उत्तर दें।"

शहरी (व्यक्ति) बहुत देर तक सोचता रहा, लेकिन पहेली का उत्तर देने में असमर्थ रहा। अतः उसने ग्रामीण से कहा, मैं इस पहेली का उत्तर नहीं जानता हूँ। यह सुनकर ग्रामीण ने कहा, यदि आप उत्तर नहीं जानते हैं, तो दस रुपये दें। अतः उदास मुख वाले शहरी (व्यक्ति) ने दस रुपये शर्त के अनुसार दे दिए।

गद्यांश 3

पुनः ग्रामीणोऽब्रवीत् - "इदानीं भवान् पृच्छतु प्रहेलिकाम्।" दण्डदानेन खिन्नः नागरिकः बहुकालं विचार्य न काञ्चित् प्रहेलिकाम् अस्मरत्, अतः अधिकं लज्जमानः अब्रवीत्-"स्वकीयायाः प्रहेलिकायाः त्वमेव उत्तरं ब्रूहि " तदा सः ग्रामीणः विहस्य स्वप्रहेलिकायाः सम्यक् उत्तरम् अवदत् "पत्रम्" इति। यतो हि इदं पदेन विनापि दूरं याति, अक्षरैः युक्तमपि न पण्डितः भवति। एतस्मिन्नेव काले तस्य ग्रामीणस्य ग्रामः आगतः। स विहसन् रेलयानात् अवतीर्य स्वग्रामं प्रति अचलता नागरिकः लज्जितः भूत्वा पूर्ववत् तूष्णीम् अतिष्ठत्। सर्वे यात्रिणः वाचालं तं नागरिकं दृष्ट्वा अहसन् । तदा स नागरिकः अन्वभवत् यत् ज्ञानं सर्वत्र सम्भवति। ग्रामीणाः अपि कदाचित् नागरिकेभ्यः प्रबुद्धतराः भवन्ति ।

अथवा

एतस्मिन्नेव काले तस्य ग्रामीणस्य ग्रामः आगतः। स विहसन् रेलयानात् अवतीर्य स्वग्रामं प्रति अचलत्। नागरिकः लज्जितः भूत्वा पूर्ववत् तूष्णीम् अतिष्ठत्। सर्वे यात्रिणः वाचालं तं नागरिकं दृष्ट्वा अहसन्। तदा स नागरिकः अन्वभवत् यत् ज्ञानं सर्वत्र सम्भवति। ग्रामीणाः अपि कदाचित् नागरिकेभ्यः प्रबुद्धतराः भवन्ति।

सन्दर्भ –प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'प्रबुद्धो ग्रामीणः' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में ग्रामीणों की चतुराई को हास्यपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया है। ग्रामीण और शहरी के बीच पहेली पूछने का वर्णन है।

इस अंश में नागरिक द्वारा अपनी भूल की अनुभूति होने एवं सीख मिलने का वर्णन है।

अनुवाद – फिर ग्रामीण बोला "अब आप पहेली पूछें। दण्ड चुकाने (देने) से दुःखी शहरी बहुत समय तक सोचने-विचारने के बाद भी कोई पहेली न याद कर सका। अत: बहुत अधिक लज्जा का अनुभव करता हुआ बोला, "अपनी पहेली का उत्तर तुम ही दो" तब उस ग्रामीण ने हँसकर अपनी पहेली का सही-सही उत्तर दिया 'पत्र | क्योंकि वह (पत्र) पैरों के बिना भी दूर-दूर तक जाता है और अक्षरों से युक्त होने पर भी पण्डित नहीं होता है। इसी समय उस ग्रामीण का गाँव आ गया। वह हँसकर रेलगाड़ी से उतरकर अपने गाँव की ओर चल पड़ा। शहरी (व्यक्ति) लज्जित होकर पहले की तरह बैठा रहा। सारे यात्री उस बहुत बोलने वाले शहरी (व्यक्ति) को देख कर हँस रहे थे। तब उस शहरी (व्यक्ति) ने अनुभव किया कि ज्ञान हर स्थान पर सम्भव है। कभी ग्रामीण भी शहरियों से अधिक बुद्धिमान होते (निकल आते हैं।

प्रश्न 2. ग्रामीणान् उपहसन् नागरिकः किम् अकथयत्?

उत्तर  – ग्रामीणान् उपहसन् नागरिक: अकथयत्- "ग्रामीणा: अद्यापि पूर्ववत् अशिक्षिताः अज्ञाश्च सन्ति। न तेषां विकासः अभवत् न च भवितुम् शक्नोति।"

प्रश्न 3. नागरिकः कथं किमर्थं लज्जितः अभवत् ?

उत्तर नागरिक: ग्रामीणस्य प्रहेलिकायाः उत्तरम् दातुं न अशक्नोत् अतः सःलज्जितः अभवत् ।

प्रश्न 4. ग्रामीणस्य प्रहेलिकायाः किम् उत्तरम् आसीत् ?

अथवा 

प्रहेलिकायाः किम् उत्तरम् आसीत् ? 

उत्तर ग्रामीणस्य प्रहेलिकाया: उत्तरं आसीत् 'पत्रम्' ।

प्रश्न 5. पदेन बिना किम् दूरं याति।

उत्तर पदेन बिना पत्रं दूरं याति।

प्रश्न 6. अमुखोऽपि कः स्फुटवक्ता भवति?

उत्तर अमुखोऽपि पत्रं स्फुटवक्ता भवति। 

प्रश्न 7. धूमयाने समयः केन जितः ?

उत्तर धूमयाने समय: ग्रामीणेन जितः।

प्रश्न 8. अन्ते नागरिकः किम् अनुभवम् अकरोत् ?

अथवा

 क: अन्वभवत् यत् ज्ञानं सर्वत्र सम्भवति?

उत्तर अन्ते नागरिक: अनुभवं अकरोत् यत् ज्ञानम् सर्वत्र सम्भवति ।

प्रश्न 9. ज्ञानं कुत्र सम्भवति? 

उत्तर ज्ञानं सर्वत्र सम्भवति।

प्रश्न 10. ग्रामीणं नागरिकम् अपृच्छत् ?

उत्तर ग्रामीणं नागरिकम् एकं प्रहेलिकाम् अपृच्छत् ।

कक्षा 10वी हिन्दी‘ संस्कृत खण्ड’अध्याय 05 देशभगक्त : चंद्रशेखर के गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद

 गद्यांश 1

( स्थानम् – वाराणसीन्यायालयः, न्यायाधीशस्य पीठे एकः दुर्धर्षः पारसीक: तिष्ठति, आरक्षकाः चन्द्रशेखरं तस्य सम्मुखम् आनयन्ति। अभियोगः प्रारभते।

चन्द्रशेखरः पुष्टाङ्गः गौरवर्णः षोडशवर्षीयः किशोर: ।)

आरक्षकः – श्रीमन्! अयम् अस्ति चन्द्रशेखरः। अयं राजद्रोही। गतदिने अनेनैव असहयोगिनां सभायां एकस्य आरक्षकस्य दुर्जयसिंहस्य मस्तके प्रस्तरखण्डेन प्रहारः कृतः तेन दुर्जयसिंहः आहतः।

न्यायाधीशः - (तं बालकं विस्मयेन विलोकयन्) रे बालक! तव किं नाम?

चन्द्रशेखर: - आजाद: (स्थिरीभूय) ।

न्यायाधीशः - तव पितुः किं नाम?

चन्द्रशेखर: – स्वतन्त्रः ।

न्यायाधीशः – त्वं कुत्र निवससि? तव गृहं कुत्रास्ति?

चन्द्रशेखरः  – कारागार एव मम गृहम् ।

न्यायाधीशः - (स्वगतम्) कीदृशः प्रमत्तः स्वतन्त्रतायै अयम् ? (प्रकाशम्) अतीव धृष्ट: उद्दण्डश्चायं नवयुवकः ।

अहम् इमं पञ्चदश कशाघातान् दण्डयामि।

चन्द्रशेखरः – नास्ति चिन्ता।

अथवा

न्यायाधीशः - (तं बालकं विस्मयेन विलोकयन) रे बालक! तव किं नाम ?

चन्द्रशेखरः  –आजाद: (स्थिरीभूय) ।

न्यायाधीशः – तव पितुः किं नाम?

चन्द्रशेखरः - स्वतन्त्रः।

न्यायाधीशः – त्वं कुत्र निवससि? तव गृहं कुत्रास्ति?

चन्द्रशेखरः कारागार एवं मम गृहम्।

न्यायाधीशः –(स्वगतम्) कीदृशः प्रमत्तः स्वतन्त्रतायै अयम् ?

(प्रकाशम्) अतीव धृष्टः उद्दण्डश्चार्य नवयुवकः 

अथवा

आरक्षकः – श्रीमन्! अयम् अस्ति चन्द्रशेखरः। अयं राजद्रोही। गतदिने अनेनैव असहयोगिनां सभायां एकस्य आरक्षकस्य दुर्जयसिंहस्य मस्तके प्रस्तरखण्डेन प्रहारः कृतः तेन दुर्जयसिंह आहतः ।

न्यायाधीशः – (तं बालकं विस्मयेन विलोकयन्) रे बालक! तव कि नाम?

चन्द्रशेखरः– आजाद: (स्थिरीभूय) ।

न्यायाधीशः – तव पितुः किं नाम ?

चन्द्रशेखरः – स्वतन्त्रः 

न्यायाधीशः – त्वं कुत्र निवससि ? तव गृहं कुत्रास्ति?

चन्द्रशेखरः – कारागार एव मम गृहम् ।

सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'देशभक्तः चन्द्रशेखरः' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में देशभक्त बालक चन्द्रशेखर की निर्भीकता का वर्णन है।

अनुवाद – (स्थान- वाराणसी न्यायालय न्यायाधीश के आसन पर एक उच्छृंखल पारसी बैठा है। सिपाही चन्द्रशेखर को उसके सामने लाते हैं। मुकदमा शुरू होता है। चन्द्रशेखर पुष्ट अंगोंवाला गोरे रंग का सोलह वर्षीय किशोर है।)

सिपाही – श्रीमान! यह चन्द्रशेखर है। यह राजद्रोही है। पिछले दिनों इसने ही असहयोगियों की सभा में एक सिपाही दुर्जनसिंह के माथे पर पत्थर के टुकड़े से प्रहार किया, जिससे दुर्जनसिंह घायल हो गया।

न्यायाधीश – (उस बालक को आश्चर्य से देखते हुए) रे बालक! तेरा क्या नाम है?

चन्द्रशेखर – आजाद (दृढ़ होकर)।

न्यायाधीश – तेरे पिता का क्या नाम है?

चंद्रशेखर – स्वतन्त्र

न्यायाधीश – तुम कहाँ रहते हो? तुम्हारा घर कहाँ है? 

चन्द्रशेखर –जेलखाना (कारागार) ही मेरा घर है। 

न्यायाधीश – (अपने आप से) यह स्वतन्त्रता के लिए कितना मतवाला है? (प्रकट रूप में) यह अत्यन्त ढीठ और उद्दण्ड नवयुवक है। मैं इसे पन्द्रह कोड़ों की सजा देता हूँ।

चन्द्रशेखर – चिन्ता नहीं है।

             गद्यांश 2

(ततः दृष्टिगोचरौ भवतः- कौपीनमात्रावशेषः, फलकेन दृढं बद्धः चन्द्रशेखरः, कशाहस्तेन चाण्डालेन, अनुगम्यमानः कारावासाधिकारी गण्डासिंहश्च)

गण्डासिंहः – (चाण्डालं प्रति) दुर्मुख! मम आदेशसमकालमेव कशाघातः कर्त्तव्यः । (चन्द्रशेखर प्रति) रे दुर्विनीत युवक ! लभस्व इदानीं स्वाविनयस्य फलम्। कुरु राजद्रोहम्। दुर्मुख! कशाघातः एकः (दुर्मुखः चन्द्रशेखरं कशया ताड़यति।) 

चन्द्रशेखर  –    जयतु भारतम्

गण्डासिंह: – दुर्मुख! द्वितीयः कशाघात:। (दुर्मुख: पुन: ताडयति।)ताडित: चन्द्रशेखर: पुन: पुन: "भारतं जयतु" इति वदति। (एवं स पञ्चदशकशाघातैः ताडितः ।)

यदा चन्द्रशेखर: कारागारात् मुक्त: बहिः आगच्छति, तदैव सर्वे जनाः तं परितः वेष्टयन्ति, बहवः बालकाः तस्य पादयोः पतन्ति, तं मालाभि अभिनन्दयन्ति च

चन्द्रशेखरः – किमिदं क्रियते भवद्भिः ? वयं सर्वे भारतमातुः अनन्यभक्ताः । तस्याः शत्रूणां कृते मदीया: रक्तबिन्दवः अग्निस्फुलिङ्गाः भविष्यन्ति

("जयतु भारतम्" इति उच्चैः कथयन्तः सर्वे गच्छन्ति।)

सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'देशभक्तः चन्द्रशेखरः' नामक पाठ से लिया गया है। इस अंश में देशभक्त बालक चन्द्रशेखर की निर्भीकता का वर्णन है।

अनुवाद (तब लँगोट मात्र धारण किए हुए, हथकड़ी से दृढ़तापूर्वक बँधे हुए चन्द्रशेखर तथा हाथ में कोड़ा थामे हुए चाण्डाल का अनुगमन करता हुआ जेल अधिकारी गण्डासिंह दिखाई पड़ता है।)

गण्डासिंह

(चाण्डाल से) हे दुर्मुख! मेरे आदेश देते ही कोड़े लगाना। (चन्द्रशेखर से) अरे उद्धण्ड युवक! अब तू अपनी उद्घण्डता का फल प्राप्त कर (और) राजद्रोह कर! हे दुर्मुख! एक कोड़े का प्रहार करो। (दुर्मुख चन्द्रशेखर को कोड़े लगाता है।)

चन्द्रशेखर – जय भारत।

गण्डासिंह –  हे दुर्मुख! दूसरा कोड़ा (लगा)। (दुर्मुख फिर कोड़ा लगाता है।) प्रताड़ित होने पर चन्द्रशेखर बार-बार कहता है। 'जय भारत'। (इस प्रकार वह पन्द्रह कोड़ों से पीटा जाता है।) जब चन्द्रशेखर बन्दीगृह (जेल) से छूटकर बाहर आता है, तब सारे लोग उसे चारों ओर से घेर लेते हैं। बहुत से बालक उसके पैरों पर गिरते हैं तथा मालाओं से उसका स्वागत करते हैं।

चन्द्रशेखर

आप लोग यह क्या कर रहे हैं? हम सब भारत माता के परम भक्त हैं। उसके दुश्मनों हेतु हमारी रक्त की ये बूंदे आग की चिंगारियाँ होगी। ('जय भारत' ऐसा ऊँची ध्वनि में कहते हुए सब चल पड़ते हैं।)

               प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. चन्द्रशेखरः कः आसीत् ?

उत्तर चन्द्रशेखर: एकः प्रसिद्धः क्रान्तिकारी देशभक्तः आसीत्।

प्रश्न 2. केन कारणेन चन्द्रशेखरः न्यायालये आनीत: ?

उत्तर चन्द्रशेखर: राजद्रोहस्य आरोपे न्यायालये आनीतः। 

प्रश्न 3. चन्द्रशेखर: स्वनाम किम् अकथयत् ?

उत्तर चन्द्रशेखर: स्वनाम आजादः इति अकथयत् ।

प्रश्न 4. चन्द्रशेखर: स्वपितुः नामः किम् अकथयत् ?

उत्तर चन्द्रशेखरः स्वपितुः नामः स्वतन्त्र इति अकथयत्।

प्रश्न 5. 'कारागार एवं मम गृहम्' इति कः अवदत् ? अथवा 

'कारागर एव मम गृहम् कस्य वचनम् अस्ति?

उत्तर 'कारागार एव मम गृहम्' इति चन्द्रशेखरः अवदत् । 

प्रश्न 6. चन्द्रशेखर: स्वगृहम् कुत्र किम् अवदत् ?

उत्तर चन्द्रशेखर: स्वगृहम् कारागारम् अवदत् । 

प्रश्न 7. न्यायाधीश: चन्द्रशेखरं किम् अदण्डयत् ?

अथवा

 न्यायाधीश: चन्द्रशेखरं कथम् अदण्डयत् ?

 उत्तर न्यायाधीश: चन्द्रशेखरं पञ्चदश कशाघातान् अदण्डयत्।

प्रश्न 8. दुर्मुखः कः आसीत् ? 

उत्तर दुर्मुख: चाण्डाल: आसीत्।

प्रश्न 9. कशयाताहितः चन्द्रशेखरः पुनःपुनः किम् अवदत् ?

 उत्तर कशयाताड़ितः चन्द्रशेखरः पुनः पुनः 'जयतु भारतम्' इति अवदत् । 

प्रश्न 10. चन्द्रशेखरस्य रक्तबिन्दवः अग्निस्फुलिङ्गाः केषां कृते भविष्यन्ति ?

उत्तर चन्द्रशेखरस्य रक्तबिन्दवः शत्रूणां कृते अग्निस्फुलिङ्गाः भविष्यन्ति

कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड 06 केन किं वर्धते? (किससे क्या बढ़ता है)गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद

गद्यांश

सुवचनेन मैत्री,                  इन्दुदर्शनेन समुद्रः,

शृङ्गारेण रागः,                 विनयेन गुणः,

दानेन कीर्तिः,                 उद्यमेन श्रीः,

सत्येन धर्मः,।                 पालनेन उद्यानम्

सदाचारेण विश्वासः,          अभ्यासेन विद्या

न्यायेन राज्यम्,।              औचित्येन महत्त्वम्,

औदार्येण प्रभुत्वम्,             क्षमया तपः

पूर्ववायुना जलदः,               लाभेन लोभः,

पुत्रदर्शनेन हर्षः,                  मित्रदर्शनेन आह्लादः

दुर्वचनेन कलहः,।                तृणैः वैश्वानरः

नीचसङ्गेन दुश्शीलता,            उपेक्षया रिपुः

कुटुम्बकलहेन दुःखम्,।         दुष्टहृदयेन दुर्गतिः,

अशौचेन दारिद्र्यम्,              अपथ्येन रोगः

असन्तोषेण तृष्णा,                व्यसनेन विषयः।

सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'केन किं वर्धते?' पाठ से लिया गया है। इसमें जीवनोपयोगी बातें बतायी गई हैं कि किन-किन गुणों से क्या-क्या बढ़ता है।

अनुवाद – सुन्दर वचनों से मित्रता, चन्द्रमा के दर्शन से समुद्र, शृंगार करने से प्रेम, विनम्रता से गुण, दान से यश, परिश्रम करने से लक्ष्मी (धन), सत्य का पालन करने से धर्म, पालन-पोषण (देख-भाल) करने से उद्यान, सदाचार से विश्वास, अभ्यास से विद्या, न्याय करने से राज्य, उचित व्यवहार से महत्त्व, उदारता से प्रभुत्व, क्षमा से तप, पूर्व से चलने वाली हवा (पुरवाई) से बादल, लाभ से लोभ, पुत्र को देखने से खुशी, मित्र को देखने से आनन्द, बुरे वचनों से कलह, तिनकों (घास-फूँस) से आग, नीच लोगों की संगति से दुष्टता, उपेक्षा से शत्रु, परिवार के झगड़े से दुःख, दुष्ट हृदय से दुर्गति, अपवित्रता से दरिद्रता, अपथ्य (परहेज न करने से) से रोग, असन्तोष से लालच और बुरी आदतों से विषय वासना बढ़ती है।

प्रश्न 1. मैत्री केन वर्धते?

अथवा

 सुवचनेन किं वर्धते?

 उत्तर मैत्री सुवचनेन वर्धते ।

प्रश्न 2. समुद्र केन वर्धते ।

अथवा 

इन्दुदर्शनेन कः वर्धते?

उत्तर इन्दुदर्शनेन समुद्रः वर्धते ।

प्रश्न 3. दानेन का वर्धते?

अथवा 

कीर्तिः केन वर्धते?

उत्तर दानेन कीर्तिः वर्धते।

प्रश्न 4. श्री केन वर्धते?

उत्तर श्री उद्यमेन वर्धते।

प्रश्न 5. सत्येन कः वर्धते? 

अथवा 

धर्म: केन वर्धते?

उत्तर सत्येन धर्म: वर्धते ।

प्रश्न 6. उद्यानम् केन वर्धते?

उत्तर उद्यानम् पालनेन वर्धते।

प्रश्न 7. विद्या केन वर्धते? अथवा अभ्यासेन किं वर्धते? 

उत्तर विद्या अभ्यासेन वर्धते।

प्रश्न 8. औदार्येण किं वर्धते?

उत्तर औदार्येण प्रभुत्वं वर्धते ।

प्रश्न 9. तपः केन वर्धते?

उत्तर तपः क्षमया वर्धते ।

प्रश्न 10. लोभः केन वर्धते?

उत्तर लोभ लाभेन वर्धते।

प्रश्न 11. पुत्रदर्शनेन कः वर्धते? उत्तर पुत्रदर्शनेन हर्षः वर्धते ।

प्रश्न 12. कलहः केन वर्धते?

उत्तर कलह: दुर्वचनेन वर्धते ।

प्रश्न 13. वैश्वानरः केन वर्धते? उत्तर वैश्वानरः तृणैः वर्धते ।

प्रश्न 14. नीचसङ्गेन का वर्धते?

उत्तर नीच सङ्गेन दुश्शीलता वर्धते ।

प्रश्न 15. रिपुः कया वर्धते?

उत्तर रिपुः उपेक्षया वर्धते ।

प्रश्न 16. रोग: केन वर्धते?

उत्तर रोग: अपथ्येन वर्धते।

प्रश्न 17. तृष्णा केन वर्धते?

उत्तर तृष्णा असन्तोषेण वर्धते।

कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड 07 आरुणि श्वेतकेतु संवाद (आरुणि श्वेतकेतु संवाद)गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद

गद्यांश 1

सह द्वादश वर्ष उपेत्य चतुर्विंशति वर्षः सर्वान् वेदानधीत्य महामना अनूचानमानी स्तब्ध एयाय। तं हपितोवाच श्वेतकेतो यन्नु सोम्येदं महामना अनूचानमानी स्तब्धोऽस्युत तमादेशमप्रायः ।

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित "छांदोग्य उपनिषद् पष्ठोध्याय से "आरुणि श्वेतकेतु संवाद" नामक पाठ से उद्धृत है।

अनुवाद कुमार श्वेतकेतु बारह वर्ष तक गुरु के समीप रहते हुए 24 वर्ष की आयु तक सभी वेदों का अध्ययन करके बड़े ही गर्वित भाव से अपने घर वापस आया। तब उसके पिता आरुणि ने कहा हे पुत्र श्वेतकेतु! तुम्हारे द्वारा जो कुछ भी अपने गुरु से सीखा गया है वह मुझे बतलाओ तब महान् मन वाले पुत्र श्वेतकेतु पिता के द्वारा यह पूछने पर स्तब्ध रह गया।

आरुणि ने श्वेतकेतु से पूछा बेटे क्या तुम्हारे गुरु जी ने वह रहस्य भी बताया है, जिससे सारा अज्ञात ज्ञात हो जाता है। श्वेतकेतु वह नहीं जानता था। इसलिए वह स्तब्ध रह गया। उसने नम्रता पूर्वक पिता से पूछा ऐसा वह कौन सा रहस्य है, जो मेरे आचार्य ने मुझे नहीं बताया तब आरुणि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को उस रहस्य के बारे में प्रवचन किया।

गद्यांश 2

श्वेतकेतुर्हारुणेय आस त् हँ पितोवाच श्वेतकेतो वस ब्रह्मचर्यम । न वै सौम्यास्मत्कुलीनोऽननूच्य बृहमबन्धुरिव भवतीति । येनाश्रुतं श्रुतम् भवत्यमत। मतमविज्ञानं विज्ञातंमिति। कथं नु भगवः से आदेशो भवतीति। न वै नूनं भगवन्तस्त एतदवेदिषुर्यद्धयेतद वेदिष्यन् कथं मे नावक्ष्यन्निति भगवान् स्त्वेव मे तद्ब्रवीत्विति तथा सोम्येति होवाच । 

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित "छांदोग्य उपनिषद् पष्ठोध्याय से "आरुणि श्वेतकेतु संवाद" नामक पाठ से उद्धृत है।

अनुवाद एक दिन आरुणि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु से कहा कि बेटा, किसी गुरु के आश्रम में जाकर तुम ब्रह्मचर्य की साधना करो। वहाँ नम्रता पूर्वक सभी वेदों का गहन अध्ययन करो। यही हमारे कुल की परम्परा रही है कि हमारे वंश में कोई भी केवल 'ब्रह्म बन्धु' (अर्थात् केवल ब्राह्मणों का सम्बन्धी अथवा स्वयं वेदों को न जानने वाला) नहीं रहा, अर्थात् तुम्हारे सभी पूर्वज ब्रह्म ज्ञानी हुए हैं। आरुणि ने पुत्र श्वेतकेतु से पूछा हे वत्स! क्या तुम्हारे गुरु जी ने से वह रहस्य तुम्हें समझाया है, जिससे सारा अज्ञात ज्ञात हो जाता है।

बिना सुना भी सुनाई देने लगता है। अमत भी मत बन जाता है। बिना विशेष ज्ञात हुआ भी विशिष्ट रूप से ज्ञात हो जाता है तथा कैसे वह भगवान् का आदेश होता है यह सब कुछ ज्ञान-विज्ञान, सत्- असत् आदि का रहस्य क्या तुम्हें मालूम है। श्वेतकेतु स्तब्ध रह गया, उसने पिता से निवेदन किया कि है पिता जी अज्ञात को ज्ञात करने वाले उस रहस्य को आप मेरे लिए आदेश अथवा उपदेश कीजिए। ऐसा श्वेतकेतु ने अपने पिता आरुणि से कहा।

गद्यांश 3 

यथा सोम्यैकेन नखनिकृन्तनेन सर्व कार्ष्णायसं विज्ञातं स्याद्वाचा रम्भण विकारो नामधेयं कृष्णायसमित्येव सत्यमेव सोम्य स आदेशो भवतीति।। यथा सोम्यैकेन लोहमणिना सर्व लोहमयं विज्ञातं, स्याद्वाचारम्भणं विकारो नामधेयं लोहमित्येव सत्यम् ॥ 

सन्दर्भ – प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित "छांदोग्य उपनिषद् पष्ठोध्याय से "आरुणि श्वेतकेतु संवाद" नामक पाठ से उद्धृत है।

अनुवाद – जब आरुणि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को वेदाध्ययन के बाद गर्वित / घमण्डी जाना तो उन्होंने पुत्र श्वेतकेतु का घमण्ड दूर करने के लिए उससे पूछा कि पुत्र क्या तुम्हें मालूम है कि वह कौन-सी शक्ति है जिसे प्राप्त करने से हम वह सब जान लेते हैं जिसे हमने न तो देखा है, न उसके बारे में कभी सुना है और न ही कभी सोचा है। यह सुन कर श्वेतकेतु स्तब्ध रह गया। वह बोला कि पिता जी यह सब तो मेरे गुरु जी ने मुझे नहीं सिखाया। मेरे गुरु जी से मुझे जो विद्या / ज्ञान मिला है। वह मुझे मालूम है। कृपया करके आप मुझे उस रहस्य के बारे में बताइए। पिता ने पूछा हे सौम्य!

जिस प्रकार जो लोहा नाखून काटने वाले औजार (नेल कटर) में है वहीं लोहा लोहे से बनी अन्य वस्तुओं में भी है विद्यमान है। यह कैसे मालूम पड़ता है। श्वेतकेतु ने निवदेन किंया कि हे पिता श्री आप मुझे वह सब बतलाएँ। पिता ने कहा कि लोहे से बनी सभी चीजों में एक तत्त्व सर्वमान्य होता है वह है लौह तत्त्व / यही ज्ञान हमें मिट्टी से बनी चीजों में मिट्टी तत्त्व तथा सोने से बनी चीजों में सर्वमान्य 'सोना' तत्त्व समझना चाहिए। यही आदेश है तथा यही उपदेश भी है।

प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. श्वेतकेतु: कस्य पुत्रः आसीत् ?

 उत्तर श्वेतकेतुः आरुणेः पुत्रः असीत् ।

प्रश्न 2. श्वेतकेतुः कति वर्षाणि उपेत्य विद्याध्ययनम् अकरोत् ?

उत्तर श्वेतकेतुः द्वादश वर्षाणि उपेत्य विद्याध्ययनम अकरोत् ।

 प्रश्न 3. कः वेदान् अधीत्य स्तब्ध एयाय?

उत्तर श्वेतकेतुः सर्वान् वेदान् अधीत्य स्तब्ध एयाय

प्रश्न 4. ब्रह्मबन्धुरिव कस्य कुले न अभवत् ?

 उत्तर ब्रह्मबन्धुरिव श्वेतकेतोः कुले न अभवत्।

प्रश्न 5. "आरुणिः श्वेतकेतुः संवादः" कस्मात्, ग्रन्थात् उद्धृतः अस्ति? 

उत्तर "आरुणि: श्वेतकेतु : संवादः" छान्दोग्योपनिषदस्य षष्ठोध्यायात् उद्धृतःअस्ति।

कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड (08) भारतीया संस्कृति : (भारतीय संस्कृति)गद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद

गद्यांश 1

मानवजीवनस्य संस्करणम् संस्कृतिः। अस्माकं पूर्वजाः मानवजीवनं संस्कर्तुं महान्तं प्रयत्नम् अकुर्वन्। ते अस्माकं जीवनस्य संस्करणाय यान् आचारान् विचारान् च अदर्शयन् तत् सर्वम् अस्माकं संस्कृतिः। "विश्वस्य स्रष्टा ईश्वरः एक एव" इति भारतीयसंस्कृतेः मूलम् । विभिन्नमतावलम्बिनः विविधैः नामभि एकम् एव ईश्वर भजन्ते ।

अथवा

मानवजीवनस्य संस्करणम् संस्कृतिः। अस्माकं पूर्वजाः मानव जीवन संस्कर्तुं महान्तं प्रयत्नम् अकुर्वन्। ते अस्माकं जीवनस्य संस्करणाय यान् आचारान् विचारान् च अदर्शयन् तत् सर्वम् अस्माकं संस्कृतिः ।

सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित भारतीया संस्कृतिः' पाठ से लिया गया है। इस अंश में भारतीय संस्कृति के महत्त्व को बताया गया है।

अनुवाद मानव जीवन को सजाना-सँवारना ही संस्कृति है। हमारे पूर्वजों ने मानव जीवन को सँवारने के लिए महान् प्रयत्न किए थे। उन्होंने हमारे जीवन को सजाने-सँवारने के लिए जिन आचरण और विचारों को प्रदर्शित किया था, वह सब (ही) हमारी संस्कृति है।

'संसार की रचना करने वाला ईश्वर एक ही है, यह भारतीय संस्कृतिका मूल है। विभिन्न मतों के अनुयायी अलग-अलग नामों से ईश्वर का भजन करते हैं।

गद्यांश 2

“विश्वस्य स्रष्टा ईश्वर एक एव" इति भारतीयसंस्कृतेः मूलम् । विभिन्नमतावलम्बिनः विविधैः नामभि एकम् एव ईश्वर: भजन्ते । अग्निः, इन्द्रः, कृष्णः, करीमः, रामः, रहीमः, जिनः, बुद्धः, ख्रिस्तः, अल्लाहः इत्यादीनि नामानि एकस्य एव परमात्मनः सन्ति। तम् एव ईश्वरं जनाः गुरुः इत्यपि मन्यन्ते। अतः सर्वेषां मतानां समभावः सम्मानश्च अस्माकं संस्कृतेः सन्देशः

सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित भारतीया संस्कृतिः' पाठ से लिया गया है। इस अंश में भारतीय संस्कृति के महत्त्व को बताया गया है।

इस अंश में सभी मतों के प्रति आदर-भाव रखने को भारतीय संस्कृति का अंग बताया गया है।

अनुवाद 'संसार की रचना करने वाला ईश्वर एक ही है, यह भारतीय संस्कृति का मूल है। विभिन्न मतों के अनुयायी अलग-अलग नामों से ईश्वर का भजन करते हैं। अग्नि, इन्द्र, कृष्ण, करीम, राम, रहीम, जिन, बुद्ध, ईसा, अल्लाह आदि एक ही ईश्वर के विभिन्न नाम हैं। उसी ईश्वर को लोग गुरु के रूप में भी मानते हैं। अतः सभी मतों के प्रति एक समान भाव (रखना) और सम्मान (करना) ही हमारी संस्कृति का सन्देश है।

गद्यांश 3

भारतीया संस्कृतिः तु सर्वेषां मतावलम्बिनां सङ्गमस्थली। काले काले विविधाः विचाराः भारतीयसंस्कृतौ समाहिताः। एषा संस्कृतिः सामासिकी संस्कृतिः यस्याः विकासे विविधानां जातीनां सम्प्रदायानां, विश्वासानाञ्च योगदानं दृश्यते। अतएव अस्माकं भारतीयानाम् एका संस्कृति एका च राष्ट्रीयता। सर्वेऽपि वयं एकस्याः संस्कृतेः समुपासकाः एकस्य राष्ट्रस्य च राष्ट्रीयाः। यथा भ्रातरः परस्परं मिलित्वा सहयोगेन सौहार्देन च परिवारस्य उन्नतिं कुर्वन्ति, तथैव अस्माभिः अपि सहयोगेन सौहार्देन च राष्ट्रस्य उन्नतिः कर्त्तव्या।

अथवा

भारतीया संस्कृतिः तु सर्वेषां मतावलम्बिनां सङ्गमस्थली। काले काले विविधाः विचाराः भारतीयसंस्कृती समाहिताः । एषा संस्कृतिः सामासिकी संस्कृतिः यस्याः विकासे विविधानां जातीनां, सम्प्रदायानां, विश्वासानाञ्च योगदानं दृश्यते। अतएव अस्माकं भारतीयानाम् एका संस्कृति एका च राष्ट्रीयताः। 

सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित भारतीया संस्कृतिः' पाठ से लिया गया है। इस अंश में भारतीय संस्कृति के महत्त्व को बताया गया है।

इस अंश में भारतीय संस्कृति को विभिन्न धर्मों की संगमस्थली कहा गया है।

अनुवाद भारतीय संस्कृति तो सभी मतों को मानने वालों की संगमप्रस्थली है। समय-समय पर भारतीय संस्कृति में अनेक विचार आ मिले। यह संस्कृति समन्वयात्मक संस्कृति है, जिसके विकास में विविध जातियों, सम्प्रदायों और विश्वासों का योगदान दिखाई देता है। अतः हम भारतीयों की एक संस्कृति और एक राष्ट्रीयता है। हम सभी एक संस्कृति की उपासना करने वाले हैं और एक राष्ट्र के नागरिक हैं।

जिस प्रकार भाई-भाई परस्पर मिलकर सहयोग और प्रेम से परिवार की उन्नति करते हैं, उसी प्रकार हमें भी सहयोग और प्रेम से राष्ट्र की उन्नति करनी चाहिए।

गद्यांश 4

अस्माकं संस्कृतिः सदा गतिशीला वर्तते । मानवजीवनं संस्कर्तुम् एषा यथासमयं नवां नवां विचारधरां स्वीकरोति, नवा शक्ति च प्राप्नोति। अत्र दुराग्रहः नास्ति, यत् युक्तियुक्तं कल्याणकारि च तदत्र सहर्ष गृहीतं भवति। एतस्याः गतिशीलतायाः रहस्य मानवजीवनस्य शाश्वतमूल्येषु निहितम् तद् यथा सत्यस्य प्रतिष्ठा, सर्वभूतेषु समभावः विचारेषु औदार्यम्, आचारे दृढ़ता चेति।

सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित भारतीया संस्कृतिः' पाठ से लिया गया है। इस अंश में भारतीय संस्कृति के महत्त्व को बताया गया है।

इस अंश में भारतीय संस्कृति की उदारता पर प्रकाश डाला गया है।

अनुवाद हमारी संस्कृति निरन्तर गतिशील है। मानव जीवन को संस्कारित करने के लिए यह समय-समय पर नई-नई विचारधाराएँ अपनाती रहती है और नई शक्ति प्राप्त करती है। यहाँ हठधर्मिता नहीं है, जो (कुछ) उचित और कल्याणकारी है, वह यहाँ खुशी-खुशी स्वीकार होता है।

इसकी गतिशीलता का रहस्य मानव जीवन के लिए सदा रहने वाले आदर्शों जैसे-सत्य की प्रतिष्ठा, सभी प्राणियों के लिए एक समान भाव, विचारों में उदारता और आचरण की दृढ़ता, में समाया हुआ है।

गद्यांश 5

एषां कर्मवीराणां संस्कृतिः। "कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः" इति अस्याः उद्घोषः। पूर्व कर्म, तदनन्तरं फलम्' इति अस्माकं संस्कृतेः नियमः। इदानी यदा वयं राष्ट्रस्य नवनिर्माण संलग्नाः स्मः निरन्तरं कर्मकरणम् अस्माकं मुख्यं कर्त्तव्यम् । निजस्य श्रमस्य फलं भोग्यं, अन्यस्य श्रमस्य शोषणं सर्वथा वर्जनीयम्। यदि वयं विपरीतमु आचरामः तदा न वय सत्य भारतीय संस्कृतेः उपासकाः । वयं तदैव यथार्थ भारतीयाः यदास्माकम् आचारे विचारेच अस्माकं संस्कृति लक्षिता भवेत्। अभिलाषामः वयं यत् विश्वस्य अभ्युदयाय भारतीयसंस्कृते एषः दिव्यः सन्देश लोके सर्वत्र प्रसरेत् -

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।

 सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत्।।

अथवा

इदानीं यदा वयं राष्ट्रस्य नवनिर्माण संलग्नाः स्मः निरन्तरं कर्मकरणम् अस्माकं मुख्य कर्त्तव्यम्। निजस्य श्रमस्य फलं भोग्यं, अन्यस्य श्रमस्य शोषणं सर्वधा वर्जनीयम्। यदि वयं विपरीतम् आचरामः तदा न वयं सत्यं भारतीय संस्कृतेः उपासकाः। वयं तदैव यथार्थ भारतीयाः यदास्माकम् आचारे विचारे च अस्माकं संस्कृतिः लक्षिता भवेत्।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग भवेत् 

सन्दर्भ प्रस्तुत संस्कृत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित भारतीया संस्कृतिः' पाठ से लिया गया है। इस अंश में भारतीय संस्कृति के महत्त्व को बताया गया है।

इस अंश में भारतीय संस्कृति के लिए सन्देश का उल्लेख किया गया है।

अनुवाद यह कर्मवीरों की संस्कृति है। इस लोक में कर्मरत रहते हुए (मनुष्य) सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करें यह इसका (भारतीय संस्कृति का) उद्घोष है। पहले कर्म, उसके बाद फल-यह हमारी संस्कृति का नियम है। इस समय जबकि हम सब राष्ट्र के नव-निर्माण में जुटे हैं, (तब) निरन्तर परिश्रम करना हमारा कर्तव्य है। अपने परिश्रम का फल भोगने योग्य है, दूसरे के परिश्रम का शोषण सब तरह से त्यागने योग्य है। यदि हम इसके विपरीत व्यवहार करते हैं, तो हम भारतीय संस्कृति के सच्चे उपासक नहीं हैं। हम सब तभी सच्चे भारतीय हैं, जब हमारे आचार और विचार में हमारी संस्कृति दिखाई दे। हम चाहते हैं कि विश्व के उत्थान के लिए भारतीय संस्कृति का यह दिव्य सन्देश संसार में सर्वत्र फैले

श्लोक सभी (मनुष्य) सुखी हों, सभी (मनुष्य) नीरोग हों या रोगों से दूर हों, सभी कल्याण देखें (पाएँ) और कोई भी दुःख का भागी न हो।

प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. भारतीय संस्कृतेः किं तात्पर्यम् अस्ति?

अथवा

 संस्कृति शब्दस्य किम् तात्पर्यम् अस्ति?

 उत्तर अस्माकं पूर्वजाः जीवनं संस्कर्तुं यान् आचारान विचारान् च अदर्शयन् तत् सर्वं भारतीय संस्कृतेः तात्पर्यम अस्ति।

प्रश्न 2. विश्वस्य स्रष्टा कः ?

उत्तर विश्वस्य स्रष्टा ईश्वरः।

प्रश्न 3. भारतीय संस्कृतेः मूलं किम् अस्ति?

अथवा 

किं भारतीय संस्कृतेः मूलम् ?

उत्तर विश्वस्य स्रष्टा ईश्वर: एक एव अस्ति इति भारतीय संस्कृते: मूलम् अस्ति। 

प्रश्न 4. भारतीय संस्कृते कः दिव्य: (प्रमुख) सन्देशः अस्ति?

अथवा

 अस्माकं भारतीय संस्कृतेः कः सन्देशः ?

अथवा

 भारतीय संस्कृतेः कः दिव्यः सन्देशः ?

उत्तर सर्वेषां मतानां समभावः सम्मानश्च भारतीय संस्कृतेः दिव्यः सन्देशः अस्ति।

प्रश्न 5. भारतीय संस्कृति कीदृशी वर्तते? 

अथवा 

अस्माकं संस्कृतिः कीदृशी वर्तते ?.

अथवा 

अस्माकं संस्कृतिः कीदृशी?

उत्तर भारतीय संस्कृतिः सदा गतिशीला वर्तते ।

प्रश्न 6. अस्माकं संस्कृतेः कः नियमः ?

उत्तर पूर्व कर्म, तदनन्तरं फलम् इति अस्माकं भारतीय संस्कृते 

प्रश्न 7. भारतीय संस्कृतिः कस्य अभ्युदयाय इति?

 नियमः अस्ति।

उत्तर विश्वस्य अभ्युदयाय भारतीय संस्कृतिः इति ।

प्रश्न 8. “मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत्" कस्या अस्ति एष दिव्यः सन्देशः ?

 उत्तर "मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत" एषः भारतीय संस्कृतेः दिव्य सन्देशः ।

कक्षा 10वी हिन्दी संस्कृत खण्ड 09 जीवन-सूत्राणि के पद्यांशों का सन्दर्भ सहित अनुवाद

पद्यांश 1 

किंस्विद् गुरुतरं भूमेः किंस्विदुच्चतरं च खात्? किंस्वित् शीघ्रतरं वातात् किंस्विद् बहुतरं तृणात्? माता गुरुतरा भूमेः खात् पितोच्चतरस्तथा। मनः शीघ्रतरं वातात् चिन्ता बहुतरी तृणात्।।

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'जीवन-सूत्राणि' पाठ से उद्धृत है। इस श्लोक में यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं।

अनुवाद (यक्ष पूछता है) भूमि से अधिक श्रेष्ठ क्या है? आकाश से ऊँचा क्या है? वायु से ज्यादा तेज चलने वाला क्या है? (और) तिनकों से भी अधिक (दुर्बल बनाने वाला) क्या है?

(युधिष्ठिर जवाब देते हैं)-माता भूमि से अधिक भारी है (और)। पिता आकाश से भी ऊँचा है। मन वायु से भी तेज चलने वाला है। चिन्ता तिनकों से अधिक (दुर्बल बनाने वाली) है।

पद्यांश 2

किंस्विद प्रवसतो मित्रं किंस्विन् मित्रं गृहे सतः । आतुरस्य च किं मित्रं किंस्विन् मित्रं मरिष्यतः ।

अथवा

सार्थः प्रवसतो मित्रं भार्या मित्रं गृहे सतः । 

आतुरस्य भिषङ् मित्रं दानं मित्रं मरिष्यतः।

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'जीवन-सूत्राणि' पाठ से उद्धृत है। इस श्लोक में यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं।

इस श्लोक में यक्ष-युधिष्ठिर के माध्यम से विदेश व घर पर रहने वाले तथा रोगी व मरने वाले के मित्र के बारे में पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए

अनुवाद (यक्ष पूछता है)-विदेश में रहने वाले व्यक्ति का मित्र कौन है ? गृहस्थ (घर में रहने वाले व्यक्ति का मित्र कौन है ? का मित्र कौन है और मरने वाले का मित्र कौन है ?

(युधिष्ठिर जवाब देते हैं)-साथ जा रहे लोगों का दल (कारवाँ) विदेश में रहने वालों का मित्र है (और) घर पर रहने वालों का मित्र उसकी पत्नी होती है। रोगी का मित्र वैद्य है और मरने वाले का मित्र दान है।

पद्यांश 3

किस्विदेकपदं धर्म्य किंस्विदेकपदं यशः ।

किस्विदेकपदं स्वर्ग्यं किंस्विदेकपदं सुखम्

अथवा

दाक्ष्यमेकपदं धर्म्य दानमेकपदं यशः । 

सत्यमेकपदं स्वर्ग्यं शीलमेकपदं सुखम् ।।

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'जीवन-सूत्राणि' पाठ से उद्धृत है। इस श्लोक में यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं।

इस श्लोक में यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से धर्म, यश, स्वर्ग व सुख के मुख्य स्थान के बारे में पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं।

अनुवाद (यक्ष पूछता है) धर्म का मुख्य स्थान क्या है? यश का मुख्य स्थान क्या है ? स्वर्ग का मुख्य स्थान क्या है? और सुख का मुख्य स्थान क्या है? (युधिष्ठिर जवाब देते हैं) - धर्म का मुख्य स्थान उदारता है, यश का मुख्य स्थान दान है, स्वर्ग का मुख्य स्थान सत्य है और सुख का मुख्य स्थान शील है।

पद्यांश 4

- धान्यानामुत्तमं किंस्विद् धनानां स्यात् किमुत्तमम् । लाभानामुत्तमं किं स्यात् सुखानां स्यात् किमुत्तमम् ।

अथवा

धान्यानामुत्तमं दायधनानामुत्तमं श्रुतम् ।

 लाभानां श्रेया आरोग्य सुखानां तुष्टिरुत्तमा

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'जीवन-सूत्राणि' पाठ से उद्धृत है। इस श्लोक में यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं।

इस श्लोक में अन्न, धन लाभ और सुख में उत्तम क्या है? ऐसा प्रश्न यक्ष युधिष्ठिर से पूछता है और युधिष्ठिर यश के प्रश्नों का उत्तर देते हैं।

अनुवाद (यक्ष पूछता है) अन्नों में उत्तम (अन्न) क्या है? धन में उत्तम (धन) क्या है? लाभों में उत्तम (लाभ) क्या है? सुखों में उत्तम (सुख) क्या है ?

(युधिष्ठिर जवाब देते हैं) अन्नों में उत्तम (अन्न) चतुरता है। धनों में

उत्तम (धन) शास्त्र है। लाभों में उत्तम (लाभ) आरोग्य है। सुखों में उत्तम (सुख) सन्तोष है।

पद्यांश 5

किं नु हित्वा प्रियो भवति किन्नु हित्वा न शोचति ।

किं नु हित्वार्थवान् भवति किन्नु हित्वा सुखी भवेत्

अथवा

मानं हित्वा प्रियो भवति क्रोधं हित्वा न शोचति ।

कामं हित्वार्थवान् भवति लोभं हित्वा सुखी भवेत्।।

सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक के 'संस्कृत खण्ड' में संकलित 'जीवन-सूत्राणि' पाठ से उद्धृत है। इस श्लोक में यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से पूछे गए प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं।

इस श्लोक में यक्ष ने युधिष्ठिर से त्याग के महत्त्व से सम्बन्धित प्रश्न पूछे हैं और युधिष्ठिर उसका जवाब देते हैं।

अनुवाद (यक्ष पूछता है)-क्या त्यागकर (मनुष्य) प्रिय हो जाता है? क्या त्यागकर (मनुष्य) शोक नहीं करता? क्या त्यागकर (मनुष्य) धनवान होता है? क्या त्यागकर (मनुष्य) सुखी बनता है? (युधिष्ठिर जवाब देते हैं) अभिमान त्यागकर (मनुष्य) (सब का) प्रिय हो जाता है। क्रोध त्यागकर (मनुष्य) शोक नहीं करता है। कामना (इच्छा) त्यागकर (मनुष्य) धनवान बनता है और लोभ छोड़कर (मनुष्य) सुखी बनता है।

                  प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1. किंस्विद् गुरुतरा भूमेः ? 

अथवा 

भूमेः गुरुतरं किम् अस्ति?

उत्तर माता गुरुतरं भूमेः ।

प्रश्न 2. पिता कस्मात् उच्चतरः भवति?

अथवा

 खात् (आकाशात्) उच्चतरं किम् अस्ति?

उत्तर पिता खात् उच्चतरः भवति ।

प्रश्न 3. वातात् शीघ्रतरं किम् भवति?

उत्तर वातात् शीघ्रतरं मनः भवति।

प्रश्न 4. धनानां उत्तमं धनं किम् अस्ति? 

उत्तर सर्वेषु उत्तमं धनं श्रुतम् अस्ति।

प्रश्न 5. अनृतं केन जयेत् ?

उत्तर सत्येन अनृतं जयेत् ।

प्रश्न 6. मनुष्य किं हित्वा सुखी भवेत? 

अथना 

मनुष्यः किं हित्वा सुखी भवति?

उत्तर मनुष्य लोभं हित्वा सुखी भवेत।

रस किसे कहते हैं? रस की परिभाषा, प्रकार एवं उदाहरण बिल्कुल सरल भाषा में

रस किसे कहते हैं? रस की परिभाषा, प्रकार एवं उदाहरण बिल्कुल सरल भाषा में

रस किसे कहते हैं?

रस हमारे अंदर के भाव Emotions को कहते हैं। रस यानी हमारे अंदर छुपे हुए ऐसे भाव होते हैं जिन्हें हम हर दिन अलग-अलग तरीके से व्यक्त करते रहते हैं।

इन्हीं रस के वजह से हर इंसान अपने अंदर के भाव को प्रगट करके दूसरों के सामने रखता है जिससे सामने वालों को पता चलता है असल में वह क्या कहना चाहता है या उसका उद्देश्य क्या है।रस को  किसी भाषा की जरूरत नहीं होती अपने चेहरे के भाव से यह प्रगट होते  रहते हैं।

रस के कितने अंग होते हैं

रस के चार अंग है और हर एक का अलग ही महत्व है।

1 विभाव 

2 अनुभाव

3 स्थाई भाव

4 संचारी भाव

रस कितने प्रकार के होते हैं

रस एक प्रकार के होते हैं इसलिए उन्हें नवरस  भी कहा जाता है। इन्हें अपनी जिंदगी के साथ साथ एक्टिंग और डांस में भी बहुत महत्व है नवरस मतलब जो एक इमोशंस है वह कौन से हैं, नौ रसों के नाम से बारे में हम अभी विस्तार से पड़ेंगे इन्हें नवरस के जरिए लोग अंदाजा लगाते हैं कि आपका Character कैसा है।

रस के प्रकार और स्थाई भाव

1.श्रृंगार रस का स्थाई भाव  -  रति

2 हास्य रस का स्थाई भाव - हास

3 करूणा रस का स्थाई भाव - शोक

4  रौद्र रस का स्थाई भाव - क्रोध

5 वीर रस का स्थाई भाव - उत्साह

6  वीभत्स रस का स्थाई भाव - जुगुप्सा

7 भयानक रस का स्थाई भाव - भय

8 अद्भुत रस रस का स्थाई भाव - विस्मय

9 शांत रस का स्थाई भाव - निर्वेद

10 वात्सल्य रस का स्थाई भाव - वत्सल्य

1 श्रृंगार रस श्रृंगार रस को रसराज और रसपति पिक आ जाता है। नायक और नायिका के मन में संस्कार रूप में स्थित प्रेम या प्रति जब रस की अवस्था को पहुंचकर आस्वादन के योग हो जाता है तो वह श्रृंगार रस कहलाता है।

सरल शब्दों में बताएं तो श्रृंगार रस की प्रेम समझना थोड़ा मुश्किल होता है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का प्यार जताने का तरीका अलग अलग होता है।

यदि आप अपने माता पिता को प्रेम जता रहे हैं तो आपका प्यार का तरीका अलग होगा और यदि आप अपने पति या पत्नी को प्यार जता रहे हैं तो उसका तरीका बिल्कुल अलग होगा श्रृंगार रस को समझने के लिए सबसे पहले आपको यह समझना होगा कि आप किस व्यक्ति के प्रति अपना प्यार जता रहे हैं। 

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।

 जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।।

2 हास्य रस  लोगों को हंसाना बहुत ही मुश्किल काम है एक्टिंग की दुनिया में खुद सामने वाले ऑडियंस को हासाना  वह भी आसान काम नहीं होता है एक एक्टर को ऑडियंस को हंसाने के लिए बहुत ही ज्यादा presence of Mind और Sense of हुनर होना जरूरी है

हास रस इसमें ऐसी सिचुएशन होते हैं जिसमें हंसी की बात ज्यादा होती है अगर कोई आपका दोस्त आपसे पूछता है कि कैसा है और आप भी हंसी मजाक में ही उसका जवाब देंगे एकदम मस्त हूं यार यह अलग तरीके की हंसी होती है।

''मैं यह तोही मैं लाखी भगति अपूरब बाल ।

 लाही प्रसाद माला जु भौ  तनु कदम्य की माल'।।

3.करुण रस  सहृदय हृदय में स्थित अशोक नामक स्थाई भाव का जब विभाव अनुभव और संचारी भाव के साथ सहयोग होता है उसे करुण रस कहते हैं।

सब बंघुन उनको सोच ताजी-ताजी गुरुकुल को नेह।

हां सुशील सूत! किमी कियो अंनत लोक में गेह।।

4.वीर रस सहृदय के हृदय में स्थित उत्साह नामक स्थाई भाव का जब विभव अनुभव और संचारी भाव के साथ सहयोग होता है उसे वीर रस कहते हैं।

सहृदय बलि का खोल, चल,भूडोल कर दे।

एक हिम गिरी एक्सर का मॉल करते।।

5.रौद्र रस  सहृदय के ह्रदय में स्थित क्रोध नामक स्थाई भाव का जब विभाव अनुभव और संचारी भाव से संयोग होता है उसे रौंद्र रस कहते हैं।

रे बालक ! कलवास बोलत रोही ना संभार।

 धनुहि सम त्रिपुरारी धनु, विदित सकल संसार।।

6.भयानक रस सहृदय के हृदय में स्थित बैनामा की स्थाई भाव का जब भी भाव अनुभव और संचारी भाव के साथ संयोग होता है उसे भयानक रस कहते हैं।

नभ ते झपटत बाज  लखि भूल्यो सकल प्रपंच।

 कंपित तन व्याकुल नयन, लावक के हिल्यो न रंच।।

7.अद्भुत रस सहृदय ह्रदय में स्थित आश्चर्य में स्थाई भाव का जब विभाव अनुभव और संचारी भाव के साथ सहयोग होता है उसे अद्रुत रस कहते हैं।

हनुमान की पूंछ में लगन ना पाई आग।

सिग्री लंका जर गई गए निशाचर भाग।।

8.वीभत्स रस  सह्रदय ह्रदय में स्थित निर्वेद नामक स्थाई भाव का जब विभाव अनुभव संचारी भाव के साथ सहयोग होता है तो उसे वीभत्स रस कहते हैं।

''विस्टा पूय रुधिर कच हाड़ा ।

बरषइ कबहुं उपल बहु हाडा''

9.शांत रस शांत रस में अध्यात्म और मौक्ष की भावना उत्पन्न होती है जिसमें परमात्मा की वास्तविक रूप को जानकर शांति मिलती है। वह है शांत रस  का स्थाई भाव निर्वेद यानी उदासीनता होता है।

मन रे तन कागद का पुतला।

 लोगै बूंद बिनसि जाए छिन में, गरब करें क्या इतना।।

10.वात्सल्य रस - जहां से छोटे बच्चे के प्रति प्रेम, स्नेह, दुलारा आदि का प्रमुखता से वर्णन किया जाता है वहां वात्सल्य रस होता है इसका स्थाई भाव वात्सल है। सूरदास ने वात्सल्य रस का सुंदर निरूपण किया है।

बाल दसा सुख निरखी जसोदा, पुनी पुनी नंद बुलवाति अंचरा - तर लैं ढाकी सूर , प्रभु कौ दूध पियावति

                     रस

काव्य को पढ़ने, सुनने या उस पर आधारित अभिनय देखने से मन में (अर्थात् सहृदय को) जो आनन्द प्राप्त होता है, उसे रस कहते हैं। रस को काव्य की आत्मा' भी कहा जाता है। भरतमुनि के अनुसार, "विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।""

रस के अवयव

रस के चार अवयव या अंग हैं-स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव तथा संचारी या व्यभिचारी भाव। इन चारों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। 

स्थायी भाव

स्थायी भाव का अर्थ है-प्रधान भाव। जो भाव मनुष्य के हृदय में सदैव स्थायी रूप से विद्यमान होते हैं, उन्हें स्थायी भाव कहते हैं। स्थायी भावों की संख्या 9 मानी गई है, किन्तु बाद में आचार्यों ने दो और भावों (वात्सल्य और भक्ति रस) को स्थायी भाव मान लिया। इस प्रकार स्थायी भावों की संख्या 11 हो गई है, जो निम्न प्रकार हैं

क्र.सं

स्थायी भाव

रस

अर्थ

1.

रति/प्रेम

श्रृंगार रस

स्त्री-पुरुष का प्रेम

2

शोक

करुण रस

प्रिय के वियोग या हानि के कारण शोक भाव

3

निर्वेद

शान्त रस

संसार के प्रति उदासीन भाव

4

क्रोध

रौद्र रस

किसी कार्य की असफलता के कारण उत्पन्न भाव

5

उत्साह

वीर रस

दया, दान, वीरता आदि के सम्बन्ध में प्रसन्नता का भाव

6

हास

हास्य रस

अंगों या वाणी के विकास से उत्पन्न

उल्लास, हँसी

7

भय

भयानक रस

भयानक जीव या वस्तु को देखकर मन में उत्पन्न डर

8

जुगुप्सा/घृणा/ग्लानि

वीभत्स रस

घिनौने पदार्थ से मन में ग्लानि उत्पन्न होना; दूसरों की की जाने वाली निन्दा

9

विस्मय / आश्चर्य

अद्भुत रस

आकर्षक वस्तु देखकर मन में उत्पन्न आश्चर्य का भाव

10

वत्सलता/स्नेह

वात्सल्य रस

माता-पिता का सन्तान के प्रति प्रेम भाव

11

देव विषयक,

रति / अनुराग

भक्ति रस

ईश्वर के प्रति मन में उत्पन्न प्रेम भाव

विभाव

विभाव से अभिप्राय उन वस्तुओं, परिस्थितियों एवं विषयों के वर्णन से है, जिनके प्रति मन में किसी प्रकार का भाव या संवेदना जाग्रत होती है अर्थात् भाव के जो कारण होते हैं, उन्हें 'विभाव' कहते हैं। विभाग दो प्रकार के होते हैं, जो निम्न हैं

(i) आलम्बन विभाव किसी व्यक्ति अथवा वस्तु के कारण किसी व्यक्ति के मन में जब कोई स्थायी भाव जाग्रत होता है, तो उस व्यक्ति या वस्तु को उस भाव का 'आलम्बन विभाव' कहते हैं।

उदाहरण यदि किसी व्यक्ति के मन में मगरमच्छ को देखकर भय का स्थायी भाव जाग्रत हो जाए, तो यहाँ मगरमच्छ उस व्यक्ति के मन में उत्पन्न भय' नामक स्थायी भाव का आलम्बन विभाव होगा।

(ii) उद्दीपन विभाव – आश्रय के मन में भाव को उद्दीप्त करने वाले विषय की बाहरी चेष्टाओं और बाह्य वातावरण को 'उद्दीपन विभाव' कहते हैं। उदाहरण दुष्यन्त शिकार खेलते हुए कण्व के आश्रम में पहुँच जाते हैं। वहाँ वे शकुन्तला को देखते हैं। शकुन्तला को देखकर दुष्यन्त के मन में आकर्षण या रति भाव उत्पन्न होता है। उस समय शकुन्तला की शारीरिक चेष्टाएँ दुष्यन्त के मन में रति भाव को और अधिक तीव्र करती हैं। इस प्रकार, शकुन्तला की शारीरिक चेष्टाओं को उद्दीपन विभाव कहा जाएगा।

अनुभाव

जहाँ विषय की बाहरी चेष्टाओं को उद्दीपन कहा जाता है, वहीं आश्रय के शारीरिक विकारों को 'अनुभाव' कहते हैं। अनु का अर्थ है-पीछे अर्थात् बाद में स्थायी भाव के उत्पन्न होने पर उसके पश्चात् जो भाव उत्पन्न होते हैं, उन्हें अनुभाव कहा जाता है। अनुभावों के चार भेद होते हैं

1. कायिक शरीर की बनावटी (कृत्रिम) चेष्टा को कायिक अनुभाव कहते हैं।

2. मानसिक हृदय की भावना के अनुकूल मन में आनन्द, सुख, दुःख या मस्तिष्क में तनाव आदि से उत्पन्न होने वाले भाव, मानसिक अनुभाव कहलाते हैं। 

3. आहार्य मन के भावों के अनुसार अलग-अलग प्रकार की बनावटी वेश-रचना करने को आहार्य अनुभाव कहते हैं।

 4. सात्विक जो अनुभाव मन में आए भाव के कारण स्वयं प्रकट हो जाते हैं, सात्विक भाव कहलाते हैं। ऐसे शारीरिक विकारों पर आश्रय का कोई वश नहीं चलता।

सामान्यतः आठ प्रकार के सात्विक अनुभाव माने गए हैं- (i) स्तम्भ (शरीर के अंगों का जड़ हो जाना), (ii) स्वेद (पसीने-पसीने हो जाना), (iii) रोमांच (रोंगटे खड़े हो जाना), (iv) स्वर भंग (आवाज़ न निकलना), हकलाना (v) कम्प (काँपना), (vi) विवर्णता (चेहरे के रंग उड़ जाना), (vii) अश्रु (आँसू), (viii) प्रलाप (सुध-बुध खो बैठना)

संचारी या व्यभिचारी भाव

स्थायी भाव के साथ आते-जाते रहने वाले अन्य भावों को अर्थात् मन के चंचल विकारों को 'संचारी या व्यभिचारी भाव' कहते हैं। यह भी आश्रय के मन में उत्पन्न होता है। एक ही संचारी भाव कई रसों के साथ हो सकता है। वह पानी के बुलबुले की तरह उठता और शान्त होता रहता है। उदाहरण के लिए; शकुन्तला के प्रति रति भाव के कारण उसे देखकर दुष्यन्त के

मन में मोह, हर्ष, आवेग आदि जो भाव उत्पन्न हुए, उन्हें संचारी भाव कहते हैं। 

संचारी भावों की संख्या तैंतीस (33) बताई गई है।  जो इस प्रकार हैं-(1) निर्वेद, (2) आवेग, (3) दैन्य, (4) श्रम, (5) मद, (6) जड़ता (7) उग्रता, (8) मोह. (9) विबोध, (10) स्वप्न, (11) अपस्मार (12) गर्व, (13) मरण, (14) अलसता, (15) अमर्ष, (16) निद्रा, (17) अवहित्था, (18) औसुक्य, (19) उन्माद, (20) शंका, (21) स्मृति, (22) मति, (23) व्याधि, (24) सन्त्रास, (25) लज्जा, (26) हर्ष, (27) असूया, (28) विषाद, (29) धृति, (30) चपलता, (31) ग्लानि, (32) चिन्ता (33) वितर्क ।

रस के भेद

रस के मुख्यतः ग्यारह भेद होते हैं-शृंगार, करुण, शान्त, रौद्र, वीर, हास्य भयानक, वीभत्स, अद्भुत, वात्सल्य, भक्ति आदि।

हास्य रस

किसी पदार्थ या व्यक्ति की आकृति, वेशभूषा, चेष्टा आदि को देखकर सहृदय में जो विनोद का भाव जाग्रत होता है, उसे हास कहा जाता है। यही हास जब विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों से पुष्ट हो जाता है, तो उसे 'हास्य रस' कहा जाता है।

उदाहरण

"गोपियाँ कृष्ण को बाला बना, वृष भावन के भवन चली मुसकाती वहाँ उनको निज सजनि बता,

रहीं उसके गुणों को बतलातीं। स्वागत में उठ राधा ने ज्यों, निज कंठ लगाया तो वे थीं ठठातीं

'होली है, होली है' कहके भी सब भेद बताकर खूब हँसाती।"

उपरोक्त उदाहरण में, कृष्ण का गोपी रूप धारण करना आलम्बन है तथा गोपियाँ आश्रय हैं। होली के त्योहार का वातावरण उद्दीपन विभाव है। गोपियों का हँसना, मुस्काना, कृष्ण की चेष्टाएँ अनुभाव हैं तथा लज्जा, हर्ष, चपलता आदि संचारी भाव हैं।

करुण रस

जब प्रिय व्यक्ति या मनचाही वस्तु के नष्ट होने या उसका कोई अनिष्ट होने पर हृदय शोक से भर जाए, तब 'करुण रस' जाग्रत होता है। इसमें विभाव, अनुभाव व संचारी भावों के मेल से शोक स्थायी भाव का जन्म होता है।

उदाहरण

"मेरे हृदय के हर्ष हा! अभिमन्यु अब तू है कहाँ?”

उपरोक्त उदाहरण में, द्रौपदी अभिमन्यु की मृत्यु के दुःख में डूबी हुई हैं। यहाँ द्रौपदी आश्रय है, अभिमन्यु का मृत शरीर आलम्बन है तथा शोकाकुल वातावरण उद्दीपन है। रोना, विलाप करना अनुभाव है। द्रौपदी का अभिमन्यु को याद करना, बीच-बीच में जड़ा (स्थिर) हो जाना इत्यादि संचारी भाव हैं। इस प्रकार यहाँ 'शोक' स्थायी भाव के कारण करुण रस की उत्पत्ति हुई है।

                   प्रश्न – उत्तर

प्रश्न 1. हास्य रस की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए।

अथवा

 हास्य रस की परिभाषा लिखिए तथा उसका एक उदाहरण दीजिए।

 अथवा

 हास्य रस का स्थायी भाव लिखिए तथा एक उदाहरण बताइए।

अथवा हास्य रस की परिभाषा लिखते हुए एक उदाहरण दीजिए। 

 उत्तर परिभाषा किसी पदार्थ या व्यक्ति की असाधारण आकृति, वेशभूषा, चेष्टा आदि को देखकर सहृदय में जो विनोद का भाव जाग्रत होता है, उसे हास कहा जाता है। यही हास जब विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों से पुष्ट हो जाता है, तो उसे 'हास्य रस' कहा जाता है। 

उदाहरण "नाना वाहन नाना वेषा। विंहसे सिव समाज निज देखा।

कोउ मुखहीन, बिपुल मुख काहू। बिन पद-कर कोउ बहु पदबाहू।।"

स्पष्टीकरण

1. स्थायी भाव।      हास

 2. विभाव

(i) आलम्बन विभाव शिव समाज

(ii) आश्रयालम्बन स्वयं शिव

(iii) उद्दीपन  विचित्र वेशभूषा 

3. अनुभाव शिवजी का हँसना

4. संचारी भाव रोमांच, हर्ष, चापल्य अत: यहाँ 'हास्य रस' की निष्पत्ति हुई है।

प्रश्न 2. करुण रस की परिभाषा/लक्षण उदाहरण सहित लिखिए।

अथना 

करुण रस की परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए। 

अथना 

करुण रस की परिभाषा लिखिए एवं उसका एक उदाहरण भी दीजिए।

अथना 

करुण रस को परिभाषित करते हुए उसका एक उदाहरण दीजिए।

अथवा 

करुण रस का स्थायी भाव लिखिए और एक उदाहरण भी दीजिए। 

अथना 

करुण रस का स्थायी भाव बताते हुए एक उदाहरण दीजिए।

 उत्तर परिभाषा प्रिय व्यक्ति या मनचाही वस्तु के नष्ट होने या उसका कोई अनिष्ट होने पर हृदय शोक से भर जाए, तब 'करुण रस' की निष्पत्ति होती है। इसमे विभाव, अनुभाव व संचारी भावों के संयोग से शीक स्थायी भाव का संचार होता है। 

उदाहरण

"अभी तो मुकुट बँधा था माथ, हुए कल ही हल्दी के हाथ खुले भी न थे लाज के बोल, खिले थे चुम्बन शून्य कपोल।।हाय रुक गया यहीं संसार,बना सिन्दूर अनल अंगार वातहत लतिका यह सुकुमार, पड़ी है छिन्नाधार!"

स्पष्टीकरण

1. स्थायी भाव शोक

 2. विभाव

(i) आलम्बन विभाव मृत पति

 (ii) आश्रयालम्बन नवविवाहित विधवा

(iii) उद्दीपन मुकुट का बँधना, हल्दी के हाथ होना, लाज के बोल न खुलना। 

3. अनुभाव वायु से आहत लता के समान नायिका का बेसहारा और बेसुध पड़े रहना।

 4. संचारी भाव दैन्य, स्मृति, जड़ता, विषाद आदि।

इस प्रकार यहाँ 'करुण रस' की अभिव्यक्ति हुई है। 

प्रश्न 3. निम्नलिखित में प्रयुक्त रस को पहचानकर लिखिए।

"बिन्ध्य के बासी उदासी तपोव्रतधारि महा बिनु नारि दुखारे। गौतमतीय तरी तुलसी, सो कथा सुनि भै मुनिबृन्द सुखारे ।।है हैं सिला सब चन्द्रमुखी, परसे पद-मंजुल-केज तिहारे।कीन्हीं भली रघुनायक जू करुना करि कानन को पगु धारे।।” 

उत्तर प्रस्तुत पद में हास्य रस है।

 स्पष्टीकरण

1. स्थायी भाव हास

2. विभाव

(i) आश्रयालम्बन पाठक

(ii) आलम्बन विन्ध्य के उदास वासी

(iii) उद्दीपन गौतम की स्त्री का उद्धार, स्तुति करना, अहिल्या की कथा सुनना, राम के आगमन पर प्रसन्न होना।

3. अनुभाव हँसना, मुनियों की कथा आदि सुनना। 

4. संचारी भाव हर्ष, स्मृति आदि।

अतः यहाँ 'हास्य रस' की निष्पत्ति हुई है।

प्रश्न 4. निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त रस का उल्लेख कीजिए ।

 अथवा 

निम्नलिखित पद्यांश में कौन-सा रस है? उसका नाम और स्थायी भाव लिखकर उस रस की परिभाषा लिखिए।

"हॉस-हॉस भाजै देखि दूलह दिगम्बर को, पाहुनी जे आवै हिमाचल के उछाह में।"

अथवा

 "सीस पर गंगा हँसै, भुजनि भुजंगा हँसै, हास ही को दंगा भयो, नंगा के विवाह में।।”

उत्तर प्रस्तुत पंक्तियों में 'हास्य रस' है तथा इसका स्थायी भाव 'हास' है।

 परिभाषा किसी पदार्थ या व्यक्ति की असाधारण आकृति, वेशभूषा, चेष्टा आदि को देखकर सहृदय के मन में जो विनोद का भाव जाग्रत होता है, उसे 'हास' कहा जाता है। यही हास जब विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों से पुष्ट हो जाता है, तो उसे 'हास्य रस' कहा जाता है।

प्रश्न 5. निम्नलिखित पद्यांश में कौन-सा रस है? उस रस का नाम तथा परिभाषा लिखिए।

“हा! वृद्धा के अतुल धन हा! वृद्धता के सहारे!

हा! प्राणों के परम प्रिय हा! एक मेरे दुलारे!”

उत्तर उपरोक्त पद्यांश में 'करुण रस' है। इसका स्थायी भाव 'शोक' है।

परिभाषा जब प्रिय या मनचाही वस्तु के नष्ट होने या उसका कोई अनिष्ट होने पर हृदय शोक से भर जाए, तब करुण रस की निष्पत्ति होती है। इसमें विभाव, अनुभाव व संचारी भावों के मेल से शोक स्थायी भाव का संचार होता है। 

प्रश्न 6. निम्नलिखित पंक्तियों में कौन-सा रस है? उसका स्थायी भाव लिखिए।

(i) जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फन करिबर कर हीना।। अस मम जिवन बन्धु बिन तोही। जौ जड़ दैव जियावै मोही।।

(ii) राम-राम कहि राम कहि, राम-राम कहि राम।

तन परिहरि रघुपति विरह, राउ गयउ सुरधाम ।।

(iii) चहुँ दिसि कान्ह-कान्ह कहि टेरत, अँसुवन बहत पनारे। 

(iv) हे खग-मृग हे मधुकर श्रेनी! तुम्ह देखी सीता मृगनैनी।।

(v) मम अनुज पड़ा है चेतनाहीन होके, तरल हृदयवाली जानकी भी नहीं है। अब बहु दुःख से अल्प बोला न जाता, क्षणभर रह जाता है न उद्विग्नता से।।

(vi) तात तात हा तात पुकारी परे भूमितल व्याकुल भारी ।। चलन न देखन पायउँ तोही। तात न रामहि सौंपेउ मोही।।

(vii) जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि तेही न बिलोकी भूली ।। पुनि-पुनि मुनि उकसहि अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसुकाहीं।।

उत्तर

(i) रस - करुण

स्थायी भाव – शोक

(ii) रस – करुण 

स्थायी भाव – शोक

(iii) रस  – करुण

 स्थायी भाव – शोक

(iv) रस   – करुण

स्थायी भाव – शोक

(v) रस  - करुण

स्थायी भाव – शोक

(vi) रस - करुण

स्थायी भाव – शोक

(vii) रस  –   हास्य

स्थायी भाव –हास

प्रश्न. निम्नलिखित में से किसी एक रस के स्थायी भाव के साथ उसकी परिभाषा उदाहरण सहित लिखिए- शृंगार, वीर, करुण, हास्य, शान्त।

              श्रृंगार रस 

अर्थ- सहृदय नायक-नायिका के चित्त में रति नामक स्थायी भाव का जब विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से संयोग होता है तो वह शृंगार रस का रूप धारण कर लेता है। इस रस के दो भेद होते हैं

संयोग और वियोग, जिन्हें क्रमशः सम्भोग और विप्रलम्भ भी कहते हैं।

संयोग शृंगार  –संयोग-काल में नायक और नायिका की पारस्परिक रति को संयोग शृंगार कहा जाता है। 

उदाहरण

कौन हो तुम वसन्त के दूत विरस पतझड़ में अति सुकुमार; घन तिमिर में चपला की रेख

तपन में शीतल मन्द बयार! - प्रसाद: कामायनी 

इस प्रकरण में रति स्थायी भाव है। आलम्बन विभाव है-श्रद्धा (विषय) और मनु (आश्रय)। उद्दीपन विभाव है-एकान्त प्रदेश, श्रद्धा की कमनीयता, कोकिल-कण्ठ और रम्य परिधान संचारी भाव है— आश्रय मनु के हर्ष, चपलता, आशा, उत्सुकता आदि भाव। इस प्रकार विभावादि से पुष्टि रति स्थायी भाव संयोग शृंगार रस की दशा को प्राप्त हुआ है।

वियोग शृंगार – जिस रचना में नायक एवं नायिका के मिलन का अभाव रहता है और विरह का वर्णन होता है, वहाँ वियोग शृंगार होता है।

 उदाहरण

मेरे प्यारे नव जलद से कंज से नेत्र वाले जाके आये न मधुवन से औ न भेजा सँदेशा। मैं रो-रो के प्रिय-विरह से बावली हो रही हूँ जा के मेरी सब दुख-कथा श्याम को तू सुना दे ।।

- हरिऔध: प्रियप्रवास 

इस छन्द में विरहिणी राधा की विरह-दशा का वर्णन किया गया है। रति स्थायी भाव है। राधा आश्रय और श्रीकृष्ण आलम्बन विभाव है। शीतल, मन्द पवन और एकान्त उद्दीपन विभाव है। स्मृति, रुदन, चपलता, आवेग, उन्माद आदि संचारियों से पुष्ट श्रीकृष्ण से मिलन के अभाव में यहाँ वियोग शृंगार रस का परिपाक हुआ है।

वीर रस

अर्थ- -उत्साह की अभिव्यक्ति जीवन के कई क्षेत्रों में होती है। शास्त्रकारों ने मुख्य रूप से ऐसे चार क्षेत्रों का उल्लेख किया है - युद्ध, धर्म, दया और दान। अतः इन चारों को लक्ष्य कर जब उत्साह का भाव जाग्रत और पुष्ट होता है तब वीर रस उत्पन्न होता है। उत्साह नामक स्थायी भाव; विभाव, अनुभाव और संचारी भावों से वीर रस की दशा को प्राप्त होता है। 

उदाहरण

साजि चतुरंग सैन अंग मैं उमंग धारि, सरजा सिवाजी जंग जीनत चलत हैं।भूषन भनत नाद बिहद नगारन के,

नदी नद मद गैबरन के रलत हैं।

स्पष्टीकरण प्रस्तुत पद में शिवाजी की चतुरंगिणी सेना के प्रयाण का चित्रण है। 'शिवाजी के हृदय का उत्साह' स्थायी भाव है। 'युद्ध को जीतने की इच्छा' आलम्बन है। 'नगाड़ों का बजना' उद्दीपन है। 'हाथियों के मद का बहना' अनुभाव है तथा 'उग्रता' संचारी भाव है।

करुण रस

अर्थ -बन्धु - विनाश, बन्धु - वियोग, द्रव्य-नाश और प्रेमी के सदैव के लिए बिछड़ जाने से करुण रस उत्पन्न होता है। शोक नामक स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से करुण रस दशा को प्राप्त होता है। 

उदाहरण

क्यों छलक रहा दुःख मेरा ऊषा की मृदु पलकों में, हाँ! उलझ रहा सुख मेरा सन्ध्या की घन अलकों में।

 – ‘आँसू' से

स्पष्टीकरण- प्रस्तुत पद में कवि के अपनी प्रेयसी के विरह में रुदन का वर्णन किया गया है। इसमें 'कवि के हृदय का शोक' स्थायी भाव है। यहाँ प्रियतमा आलम्बन है तथा प्रेमी (कवि) आश्रय है। कवि के हृदय के उद्गार अनुभाव हैं। के अन्धकाररूपी केशपाश तथा सन्ध्या उद्दीपन हैं। अश्रुरूपी प्रातःकालीन ओस की बूँदें संचारी भाव हैं। इस सबसे पुष्ट शोक नायक स्थायी भाव करुण रस की दशा को प्राप्त हुआ है।

वियोग शृंगार तथा करुण रस में अन्तर—वियोग शृंगार तथा करुण रस में मुख्य अन्तर प्रियजन के वियोग का है। वियोग शृंगार में बिछड़े हुए प्रियजन से पुन: मिलन की आशा बनी रहती है, परन्तु करुण रस में इस प्रकार के मिलन की कोई सम्भावना नहीं रहती।

हास्य रस

अर्थ-अपने अथवा पराये के परिधान (वेशभूषा), वचन अथवा क्रियाकला आदि से उत्पन्न हुआ हास नामक स्थायी भाव; विभाव, अनुभाव और संचार भावों के संयोग से हास्य रस का रूप ग्रहण करता है। 

उदाहरण

नाना वाहन नाना वेषा। विहसे सिव समाज निज देखा । कोउ मुखहीन, बिपुल मुख काहु। बिन पद-कर कोउ बहु पदबाहु।।

 - तुलसी : श्रीरामचरितमानस

स्पष्टीकरण शिव-विवाह के समय की ये पंक्तियाँ हास्यमय उक्ति हैं। इस उदाहरण में स्थायी भाव 'हास' का आलम्बन शिव-समाज है, आश्रय शिव स्वयं हैं, उद्दीपन विचित्र वेशभूषा है, अनुभाव शिवजी का हँसना है तथा रोमांच, हर्ष, चापल्य आदि संचारी भाव हैं। इनसे पुष्ट हुआ हास नामक स्थायी भाव हास्य रस की अवस्था को प्राप्त हुआ है।

शान्त रस

अर्थ-संसार की निस्सारता तथा इसकी वस्तुओं की नश्वरता का अनुभव करने से ही चित्त में वैराग्य उत्पन्न होता है। वैराग्य होने पर शान्त रस की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार निर्वेद नामक स्थायी भाव; विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से शान्त रस का रूप ग्रहण करता है।

 उदाहरण

अब लौं नसानी अब न नसैहौं । राम कृपा भव निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं । पायो नाम चारु चिंतामनि उरकर तें न खसैहौं । श्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचर्नाह कसैहौं ॥ परबस जानि हँस्यों इन इन्द्रिन निज बस है न हँसैहौं । मन मधुकर पन करि तुलसी रघुपति पद कमल बसैहौं ।

- तुलसी : विनय पत्रिका

स्पष्टीकरण–यहाँ 'निर्वेद' स्थायी भाव है। सांसारिक असारता और इन्द्रियों द्वारा उपहास उद्दीपन है। स्वतन्त्र होने तथा राम के चरणों में रति का कथन अनुभाव है। धृति, वितर्क, मति आदि संचारी भाव हैं। इन सबसे पुष्ट निर्वेद शान्त रस को प्राप्त हुआ है।

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लॉकडाउन पर निबंध हिन्दी में 

लॉकडाउन : समस्या और समाधान

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प्रमुख विचार- बिंदु : (1) प्रस्तावना,  (2)  लॉकडाउन के लाभ,  (3)  लॉकडाउन से हानि,   (4) उपसंहार।

प्रस्तावना 

लॉकडाउन यह मानव जाति के इतिहास में पहली बार है, जहां पूरे देश में धारा 144 के तहत सबको घर में रहने की सलाह दी गई है। यह इसलिए किया गया; क्योंकि एक ऐसे जानलेवा वायरस ने हमला बोल दिया कि पूरी दुनिया में लाखों लोगों की जान चली गई है और अब भी संक्रमण का खतरा बढ़ रहा है। कोरोना वायरस से बचने का सिर्फ एक ही उपाय है, सामाजिक दूरी। यह संक्रमण एक इंसान से दूसरे इंसान में तेजी से फैलता है। भारत सरकार ने हिदायत दी है कि हम पर्सनल और‌‌ प्रोफेशनल रिश्ते से हर संभव दूरी बनाए रखे, तभी हमें इस वायरस से मुक्ति मिल सकती है। भारत के सभी राज्यों में लोग घर पर रहकर सरकार के निर्देशों का पूरी तरह से पालन कर रहे हैं। लॉकडाउन (lockdown) से तात्पर्य है- तालाबंदी। लॉकडाउन के तहत सभी को अपने-अपने घरों में रहने की सलाह दी गई है जिसका सरकार की तरफ से सख्ती से पालन भी करवाया जा रहा है। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि कोरोना वायरस  नामक महामारी मनुष्य जाति के इतिहास में पहली बार आई है।

अब संपूर्ण देश इस वायरस (virus) से लड़ने के लिए अपने-अपने घरों में कैद हो गया है। इस महामारी के कारण से लाखों लोग अपनी जान गंवा चुके हैं तथा इससे बचने का सिर्फ एक ही मार्ग है और वह रास्ता है सोशल डिस्टेंसिग अर्थात कि सामाजिक दूरी। यह संक्रमण एक से दूसरे मनुष्य तक बहुत तीव्र गति से फैलता है, जिसके कारण भारत सरकार ने लॉकडाउन को ही इससे बचने के लिए जरूरी बताया है।

अर्थात हम कह सकते हैं कि लॉकडाउन एक आपातकालीन व्यवस्था है, जो किसी आपदा या महामारी के समय लागू की जाती है। जिस इलाके में लॉकडाउन लगाया गया है, उस इलाके या स्थान के लोगों को घरों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं होती है। उन्हें सिर्फ दवा और खाने-पीने जैसी जरूरी चीजों की खरीदारी के लिए ही बाहर आने की आज्ञा या इजाजत मिलती है। लॉकडाउन के समय कोई भी व्यक्ति अनावश्यक कार्य के लिए सड़कों पर नहीं निकल सकता।

लॉकडाउन के लाभ 

रोजमर्रा की जिंदगी में हम कार्यालय के कार्यों में इतना व्यस्त हो जाते हैं कि हमें अपने परिवार के साथ वक्त बिताने का मौका नहीं मिलता। पहले 21 दिनों के लॉक डाउन में हमें वे बेहतरीन‌ पल मिले जिनमें अपने प्रियजनों के साथ वक्त व्यतीत किया। जहां कुछ लोगों ने यूट्यूब से वीडियो देखकर भोजन बनाना सीखा। कुछ लोगों ने घर पर परिवार संग अंत्याक्षरी खेला;  कुछ ने मशहूर फिल्म या चलचित्र और वेब सेसिस देखा। कुछ लोगों को जिन्हें अपने बच्चों के साथ वक्त बिताने का अवसर नहीं मिलता था, लॉकडाउन के कारण यह सु अवसर प्राप्त हुआ। बच्चों के साथ वीडियो गेम्स कैरम जैसे खेलों का आनंद लिया। विद्यालय में छुट्टी होने के कारण घर बैठकर शिक्षकों ने ऑनलाइन क्लासेज का सहारा लिया ताकि विद्यार्थियों की शिक्षा में कोई रुकावट नहीं आए।

लॉकडाउन से पहले के समय की बात करें तो उस वक्त हम सभी अपने रोजमर्रा के कामों में इतना व्यस्त रहते थे कि अपनों के लिए, अपने परिवार के लिए व बच्चों के लिए कभी समय ही नहीं निकाल पाते थे और सभी की सिर्फ यही शिकायत रहती थी कि आज की दिनचर्या को देखते हुए समय किसके पास है? लेकिन लॉकडाउन से ये सारी शिकायतें खत्म हो गई हैं। इस दौरान अपने परिवार के साथ बिताने के लिए लोगों को बेहतरीन पल मिले हैं। कई प्यारी-प्यारी यादें इस दौरान लोग सहेज रहे हैं, अपने घर के बुजुर्गों के साथ समय बिता रहे हैं और रिश्तों में आई कड़वाहट को मिटा रहे हैं।

लोगों को लाकडाउन के कुछ दिनों में अपने दिल में दबे शौक को पूर्ण करने का मौका मिला। आम आदमी से लेकर बड़े-बड़े हस्तियों ने इसका लाभ उठाया। किसी ने कोई वाद्ययंत्र बजाना सीखा, किसी ने नृत्य सीखा और अभ्यास किया, जो दैनिक जीवन में असंभव है।

लॉकडाउन रहने के कारण कोरोना वायरस के मरीजों में गिरावट आई और संक्रमण फैलने का खतरा कम हुआ। हमारे दैनिक जीवन में चीजों वा आवश्यक सामान की कमी ना हो इसलिए किराने के सामान,  फल,  सब्जी और दवाइयां बाजार में उपलब्ध रहें। भारत में लॉकडाउन से बड़े- बड़े कारखानों और वाहनों का चलना निषेध हो गया, जिसके कारण प्रदूषण की कमी आई। कल- कारखानों का कचरा जो बाहर नदी आदि के जल में प्रवाहित कर दिया जाता था, उस पर रोक लग गई। अब वायु प्रदूषण में नियंत्रण आ चुका है, साथ ही जल और ध्वनि प्रदूषण में भी गिरावट आई है, जो प्रकृति के लिए लाभदायक है। परिंदें आकाश में स्वच्छंद रूप से सैर कर रहे हैं। वायु पहले के मुकाबले शुद्ध हो गई है। आकाश का रंग नीला है जिस के रंग को हम भूल गए थे। लॉकडाउन के कारण प्रदूषित वातावरण हर प्रकार से शुद्ध हो गया है।

यदि हम लॉकडाउन से होने वाले लाभ की बात करते हैं, तो लॉक डाउन का सर्वाधिक लाभ हमारे स्वास्थ्य विभाग‌ एवं सूचना प्रौद्योगिकी या इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में मिला है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि लॉकडाउन के दौरान हमारे देश की स्वास्थ्य सेवाएं बहुत अधिक बेहतर हुई हैं और बहुत से स्थानों पर और अस्पतालों में ऑक्सीजन आपूर्ति के लिए नए-नए ऑक्सीजन के प्लांट की स्थापना की गई है जिससे कि दोबारा से देश में ऑक्सीजन की कमी ना हो पाए।

सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में लॉकडाउन के दौरान विशेष रुप से बहुत उन्नति हुई है। जहां बड़ी-बड़ी सॉफ्टवेयर कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को लॉकडाउन के दौरान वर्क फ्रॉम होम से कार्य करने की सुविधा प्रदान की है। वर्क फ्रॉम होम का अर्थ है कि अपने घर में ही रह कर ऑफिस के कार्य को निपटाना। इससे जहां सॉफ्टवेयर कंपनियों एवं आईटी क्षेत्र से संबंधित अन्य कंपनियों के ऑफिस, किराया एवं अन्य खर्च में कमी आई है। वहीं वर्क फ्रॉम होम से कर्मचारियों को अपने घर में रहकर ऑफिस कार्य करने की सुविधा मिलती है जिससे वे अपने घर के लोगों के साथ हंसी खुशी से जीवन व्यतीत करते हैं। वर्क फ्रॉम होम से कर्मचारियों को रोज ऑफिस नहीं जाना पड़ता है जिससे उनका यात्रा का खर्च बचता है, एवं वाहन न चलाने से प्रदूषण में भी कमी आती है।

लॉकडाउन से हानि

बड़े-बड़े कार्यालय, कल-कारखानों को बंद करने के कारण मजदूरों पर आफत आ गई है। जो मजदूर दैनिक मजदूरी पर जीवन यापन करते थे, उनके घरों का चूल्हा तक जलना बंद हो गया। बस्ती में लोग भूखे सो रहे हैं। गरीब घरों पर लॉक डाउन का सबसे ज्यादा असर पड़ा है। उनके पास घर लौटने तक के पैसे नहीं है। देश में ऐसी परिस्थिति के कारण को समझते हुए देश की सरकार ने प्रधानमंत्री राहत कोष से जरूरतमंद लोगों की सहायता करने का निर्णय लिया। बहुत सारे लोगों ने भी आगे आकर मदद करना आरंभ कर दिया। लगभग सभी देशों के कारोबार को भारी क्षति हुई है।

लॉकडाउन की वजह से मजदूरों को बहुत नुकसान हुआ है, जो रोजमर्रा के काम से अपने घर का पेट पालते थे। आज उनके लिए एक वक्त की रोटी भी बहुत मुश्किल हो गई। कई मजदूर ऐसे हैं, जो भूखे पेट ही सो रहे हैं। अगर लॉकडाउन का सबसे ज्यादा नुकसान किसी को हुआ है तो वह है मजदूर, जो अपने परिवार का पेट पालने के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं।

लॉकडाउन की वजह से देश की अर्थव्यवस्था को गंभीर नुकसान हुआ है। कारखानों को बंद रखने के कारण भारी नुकसान वहन करना पड़ रहा है, वहीं व्यापार भी पूरी तरह से ठप पड़ा हुआ है। लोगों की नौकरियां चली गई हैं जिसकी वजह से बेरोजगारी की समस्या भी उत्पन्न हो गई है। लॉकडाउन की वजह से देश आर्थिक रूप से कमजोर पड़ रहा है।

दिन-रात सिर्फ कोरोना से संबधित खबरें लोगों को मानसिक रूप से परेशान कर रही हैं, जो उन्हें नकारात्मक कर रही हैं। संपूर्ण दिन घर पर रहने और शारीरिक व्यायाम न होने से लोग खुद को स्वस्थ भी महसूस नहीं कर पा रहे हैं। बच्चे भी पूरे दिन घर पर रहकर चिड़चिड़ापन महसूस करने लगे हैं, क्योंकि वे बाहर खेलने हेतु अपने मित्रों के साथ मिलने में असमर्थ हैं। कोरोना वायरस की खबरें लोगों को परेशान कर रही हैं, जिससे कई लोग डिप्रेशन या अवसाद ग्रस्त जैसी समस्या से भी जूझ रहे हैं।

बड़े - बड़े कारखानों को बंद करने के कारण से उनको भयानक हानि सहन करने पड़ रही है। बाकी व्यवसायियों को भी काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है। लॉकडाउन से भारत को अनुमानतः 100 अरब डालर तक घाटा होने की आशंका है। भारत सरकार ‌कोरोना वायरस से 14 अप्रैल तक देश में लॉकडाउन रखना चाहती थी किंतु अब 31 मई तक क्रमशः 4 चरणों में लाख डाउन की व्यवस्था की गई है। भारत में लॉकडाउन के कारण घर में रहते हुए लोगों को मानसिक समस्या हो सकती है। इससे छोटे बच्चों को काफी समस्या हुई है। वे बाहर खेलने कूदने में असमर्थ है। कई लोग डिप्रेशन का शिकार भी हो सकते हैं। इन सब से बचने के लिए एक उपाय यह है कि अपने आपको ज्यादा- से- ज्यादा कामकाजो में लगाए रखें, जिससे यह सब ख्याल हमारे मस्तिष्क में ना आए।

लॉकडाउन से लाभ तो बहुत कम है, किंतु इससे हानि बहुत अधिक होती है। यदि हम लॉकडाउन से होने वाली हानियों की बात करते हैं तो इससे देश के सभी वर्गों पर प्रभाव पड़ता है। सर्वाधिक हानि लॉकडाउन से बच्चों की पढ़ाई पर हुई है। लॉकडाउन के कारण पिछले 2 वर्षों से विद्यालय एवं कॉलेज बंद है जिससे कि बच्चे एवं युवाओं की पढ़ाई बाधित हुई है। लॉकडाउन के दौरान ग्रामीण क्षेत्र में ऑनलाइन पढ़ाई की व्यवस्था ना होने कारण वहां के बच्चे नहीं पढ़ पाते हैं। लॉकडाउन से देश की अर्थव्यवस्था भी बहुत बुरी तरह प्रभावित होती है। जिससे कि देश में आर्थिक मंदी आने का खतरा रहता है। इस प्रकार से हम कह सकते हैं कि लॉकडाउन से बहुत अधिक हानि होती है,  देश की अर्थव्यवस्था गिर जाती है,  रोजगार के साधन कम हो जाते हैं जिससे लोगों की नौकरियां जाने का खतरा बढ़ जाता है। यह तो हम सभी जानते हैं कि लॉकडाउन से कारोबार बुरी तरह से प्रभावित होता है, बाजार बंद हो जाते हैं बाजार में ग्राहक ना होने के कारण छोटे एवं मझोले व्यापारियों के सामने रोजी-रोटी का संकट आ जाता है।

उपसंहार

भारत में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना वायरस को नियंत्रण करने के लिए 14 अप्रैल तक पूरी तरह से लॉकडाउन की घोषणा की थी लेकिन संक्रमण को बढ़ते हुए देखकर चार चरणों में 31 मई तक बढ़ा दी है। इनके निर्देशों का पालन करना हमारा कर्तव्य है, ताकि शीघ्र अति शीघ्र इस जानलेवा महामारी से मुक्ति मिल सके। तभी हम और हमारी सरकार सामान्य जीवन व्यतीत कर पाएंगे। जिंदगी से बढ़कर कोई चीज नहीं होती, घर पर रहकर ही हम इस महामारी पर नियंत्रण कर सकते हैं।

कोरोना वायरस के प्रकोप को रोकने के लिए इस संक्रमण से मुक्ति के लिए भारत के प्रधानमंत्री ने लॉकडाउन की घोषणा की थी, क्योंकि सामाजिक दूरी ही कोरोना को रोकने के लिए एकमात्र उपाय है। यही कारण है कि लॉकडाउन को बढ़ाया जा रहा है। इसलिए हम सभी की यह नैतिक जिम्मेदारी है कि हम इस निर्णय का पूर्ण समर्थन करते हुए हम लॉकडाउन का पूरा पालन करें और इस वायरस को जड़ से मिटा दें।

       वन महोत्सव पर निबंध

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       वन महोत्सव पर निबंध

रूपरेखा—(1) प्रस्तावना, (2) वन महोत्सव का उद्देश्य, (3) वन महोत्सव की आवश्यकता, (4) वनों की कटाई के कारण, (5) वनों के लाभ, (6) वनों की कटाई के दुष्प्रभाव, (7) प्रदूषण का बढ़ना, (8) अकाल, (9) बाढ़, (10) वन्य जीव-जन्तुओं का विलुप्त होना, (11) ग्लोबल वार्मिंग, (12) वन क्षेत्र बचाने के उपाय अथवा उपसंहार।

प्रस्तावना- भारत में निरंतर वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण हमारे पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा था, और जितने पेड़ों की कटाई की जा रही थी उसमें से आधे भी नहीं लगाई जा रहे थे। जिसके कारण वनों को बचाने के लिए सरकार द्वारा जुलाई माह में वन महोत्सव का आयोजन किया गया इसको वन महोत्सव नाम इसलिए दिया गया ताकि ज्यादा-से-ज्यादा संख्या में लोग पेड़ लगाएँ और एक-दूसरे को पेड़ लगाने के लाभ बताएँ।

वन महोत्सव का उद्देश्य—वन महोत्सव का मुख्य उद्देश्य ही यह है कि सभी जगह पेड़-पौधे लगाए जाएँ और वनों के सिकुड़ते क्षेत्र को बचाया जाए। वन महोत्सव सप्ताह में हमारे पूरे देश में लाखों पेड़ लगाए जाते हैं लेकिन दुर्भाग्यवश इनमें से कुछ प्रतिशत ही पेड़ बच पाते हैं क्योंकि इनकी देखभाल नहीं की जाती है जिसके कारण यह या तो जीव-जन्तुओं द्वारा खा लिए जाते हैं या फिर जल नहीं मिलने के कारण नष्ट हो जाते हैं। हमारे देश में वनों को बचाने के लिए चिपको आन्दोलन और अप्पिको आन्दोलन बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इन आन्दोलनों के कारण ही वन क्षेत्रों की कटाई में थोड़ी कमी आई है।

वन महोत्सव की आवश्यकता-पेड़ों की कटाई के कारण पृथ्वी का वातावरण दूषित होने के साथ-साथ बदल रहा है जिसके फलस्वरूप आपने देखा होगा कि हिमालय तेजी से निकल रहा है पृथ्वी का तापमान फिर से बढ़ने लगा है असमय वर्षा होती है कहीं पर बाढ़ आ जाती है और कहीं पर आँधी तूफान आ रहे हैं जो कि प्रकृति की साफ चेतावनी है कि अगर हम अभी भी अचेत नहीं हुए तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी का विनाश हो जाएगा। वर्तमान में गर्मियों का समय बढ़ गया है और सर्दियों का समय बहुत कम नाममात्र का ही रह गया है। गर्मियों में तो राजस्थान में पारा 50 डिग्री तक पहुँच जाता है। इसका मतलब अगर इतनी तेज धूप में कोई व्यक्ति अगर आधे घंटे भी खड़ा हो जाए तो उसको हैजा जैसी बीमारी हो सकती है या फिर उसकी मृत्यु भी हो सकती है।

भारत में जितनी तेजी से औद्योगीकरण हुआ है उतनी ही तेजी से वनों की कटाई भी हुई है, लेकिन हम लोगों ने जितनी तेजी से वनों की कटाई की थी पुनः वृक्षारोपण नहीं किया। वन नीति 1988 के अनुसार धरती के कुल क्षेत्रफल के 33% हिस्से पर वन होने चाहिए तभी प्रकृति का संतुलन कायम रह सकेगा। लेकिन वर्ष 2001 की रिपोर्ट में चौकाने वाले नतीजे सामने आए जिसके अनुसार भारत में केवल 20% प्रतिशत ही वन बचे रह गए हैं। 2017 की वन-विभाग की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले वर्षों की तुलना में 2017 में वनों में 1% की वृद्धि हुई है। लेकिन यह वृद्धि दर काफी नहीं है क्योंकि जनसंख्या लगातार बढ़ रही है और साथ ही प्रदूषण भी बहुत तेजी से बढ़ रहा है इस प्रदूषण को अवशोषित करने के लिए हमारे वन अब भी काफी कम है। हमारे भारत देश में कुछ राज्यों में तो बहुत ज्यादा वन हैं। जैसे कि लक्षद्वीप, मिजोरम, अंडमान निकोबार द्वीप समूह लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा वनों से ढका हुआ है। लेकिन हमारे देश में कुछ ऐसे में राज्य भी हैं जो कि धीरे-धीरे रेगिस्तान बनते जा रहे हैं जैसे कि गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि ऐसे राज्य हैं। इन राज्यों में वन क्षेत्र को बढ़ाने की बहुत सख्त जरूरत है नहीं तो आने वाले दिनों में यहाँ पर भयंकर अकाल की स्थिति देखने को मिल सकती है।

वनों की कटाई के कारण-हमारे देश की बढ़ती हुई जनसंख्या वनों की कटाई का मुख्य कारण है क्योंकि जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ती जा रही है उस जनसंख्या को निवास स्थान और खाने-पीने की वस्तुओं की जरूरत भी बढ़ गई है इसलिए वनों की कटाई करके इस सबकी पूर्ति की जा रही है। आजकल आपने देखा होगा कि आपके घरों में ज्यादातर दरवाजे और खिड़कियाँ और अन्य घरेलू सामान लकड़ी से बनता है और जनसंख्या वृद्धि के साथ लकड़ी की माँग में वृद्धि हुई है। इस वृद्धि को पूरा करने के लिए वनों की कटाई की जा रही है। वनों से हमें कई प्रकार की जड़ी-बूटियाँ प्राप्त होती हैं। इन जड़ी-बूटियों को हासिल करने के लिए मानव द्वारा वनों को नष्ट किया जा रहा है। भारत में आजकल कई ऐसे अवैध उद्योग धंधे जिनमें लकड़ी का उपयोग ज्यादा मात्रा में किया जाता है, उसकी पूर्ति के लिए पेड़ों की कटाई की जाती है। वनों की कटाई का एक अन्य कारण यह भी है कि आजकल लकड़ी के कई अवैध धंधे भी चल रहे हैं वे लोग बिना सरकार की मंजूरी के वनों से पेड़ों की कटाई करते हैं और अधिक मूल्य में लोगों को बेच देते हैं। मानव अपनी भोग विलास की वस्तु की इच्छा को पूरा करने के लिए बेवजह पेड़ों की कटाई करता है।

वनों के लाभ-वनों के कारण हमारी पृथ्वी के वातावरण में समानता बनी रहती. है, मिट्टी का कटाव नहीं होता है, पेड़-पौधों से हमें ऑक्सीजन मिलती है जो कि प्रत्येक जीवित प्राणी के लिए बहुत आवश्यक है। पेड़-पौधे कार्बन डाइ-ऑक्साइड जैसी जहरीली गैसों को अवशोषित कर लेते हैं। वनों में हमें कीमती चंदन जैसी लकड़ियाँ प्राप्त होती हैं। बीमारियों को दूर भगाने के लिए आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियाँ मिलती हैं। पेड़-पौधों के कारण वर्षा अच्छी होती हैं जिससे हर तरफ हरियाली-ही-हरियाली रहती है। आपातकालीन आपदा, सूखे की स्थिति, आँधी, तूफान और बाढ़ कम आती है। वन अन्य जीव-जन्तुओं के रहने का घर है।

वनों की कटाई के कारण-हमारे देश की बढ़ती हुई जनसंख्या वनों की कटाई का मुख्य कारण है क्योंकि जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ती जा रही है उस जनसंख्या को निवास स्थान और खाने-पीने की वस्तुओं की जरूरत भी बढ़ गई है इसलिए वनों की कटाई करके इस सबकी पूर्ति की जा रही है। आजकल आपने देखा होगा कि आपके घरों में ज्यादातर दरवाजे और खिड़कियाँ और अन्य घरेलू सामान लकड़ी से बनता है और जनसंख्या वृद्धि के साथ लकड़ी की माँग में वृद्धि हुई है। इस वृद्धि को पूरा करने के लिए वनों की कटाई की जा रही है। वनों से हमें कई प्रकार की जड़ी-बूटियाँ प्राप्त होती हैं। इन जड़ी-बूटियों को हासिल करने के लिए मानव द्वारा वनों को नष्ट किया जा रहा है। भारत में आजकल कई ऐसे अवैध उद्योग धंधे जिनमें लकड़ी का उपयोग ज्यादा मात्रा में किया जाता है, उसकी पूर्ति के लिए पेड़ों की कटाई की जाती है। वनों की कटाई का एक अन्य कारण यह भी है कि आजकल लकड़ी के कई अवैध धंधे भी चल रहे हैं वे लोग बिना सरकार की मंजूरी के वनों से पेड़ों की कटाई करते हैं और अधिक मूल्य में लोगों को बेच देते हैं। मानव अपनी भोग विलास की वस्तु की इच्छा को पूरा करने के लिए बेवजह पेड़ों की कटाई करता है।

वनों के लाभ–वनों के कारण हमारी पृथ्वी के वातावरण में समानता बनी रहती है, मिट्टी का कटाव नहीं होता है, पेड़-पौधों से हमें ऑक्सीजन मिलती है जो कि प्रत्येक जीवित प्राणी के लिए बहुत आवश्यक है। पेड़-पौधे कार्बन डाइ-ऑक्साइड जैसी जहरीली गैसों को अवशोषित कर लेते हैं। वनों में हमें कीमतो चंदन जैसी लकड़ियाँ प्राप्त होती हैं। बीमारियों को दूर भगाने के लिए आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियाँ मिलती हैं। पेड़-पौधों के कारण वर्षा अच्छी होती हैं जिससे हर तरफ हरियाली-ही-हरियाली रहती है। आपातकालीन आपदा, सूखे की स्थिति, आँधी, तूफान और बाढ़ कम आती है। वन अन्य जीव-जन्तुओं के रहने का घर है।

वनों की कटाई के दुष्प्रभाव-वनों की कटाई के कारण केवल मानव जाति पर ही प्रभाव नहीं पड़ा है इसका प्रभाव सम्पूर्ण पृथ्वी पर पड़ा है, जिसके कारण आज ग्लोबल वॉर्मिंग की स्थिति पैदा हो गई आइए जानते हैं कि वनों की क कटाई के कारण क्या-क्या दुष्प्रभाव पड़ते हैं। वन क्षेत्र जैसे-जैसे सीमित होता न्य जा रहा है वैसे-वैसे पृथ्वी के तापमान में भी वृद्धि हो रही है। आपने देखा होगा कि सर्दियों की ऋतु का मौसम वर्ष में कुछ समय के लिए ही आता है और वह ज्यादातर समय गर्मियाँ ही रहती हैं। पिछले 10 सालों में पृथ्वी के तापमान में बढ़ोतरी हुई है और हर साल इसमें बढ़ोतरी ही हो रही है।

प्रदूषण का बढ़ना – पेड़-पौधे उद्योग-धंधों एवं अन्य पदार्थों से निकलने वाली जहरीली गैसों को अवशोषित कर लेते हैं। अगर इनकी कटाई कर दी जाएगी तो यह जहरीली गैसें वातावरण में ज्यों-की-त्यों ही रहेंगी, जिनके कारण अनेक भयंकर बीमारियाँ जन्म लेंगी और अगर इसी प्रकार वनों की कटाई चलती रही तो मानव को साँस लेने में भी दिक्कत होगी क्योंकि पेड़ों द्वारा ही ऑक्सीजन का निर्माण किया जाता है और कार्बन डाइऑक्साइड को सोख लिया जाता है।

अकाल – वनों की कटाई के कारण अकाल की स्थिति भी उत्पन्न हो रही है, क्योंकि पेड़ों से ही अधिक वर्षा होती है। अगर पृथ्वी पर पेड़ ही नहीं रहेंगे तो वर्षा भी नहीं होगी। जिसके कारण अकाल की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। भारत के कई ऐसे राज्य हैं जिनमें वन क्षेत्र कम पाए जाते हैं जैसे कि गुजरात और राजस्थान तो यहाँ पर अक्सर अकाल की स्थिति बनी रहती है। इन राज्यों में वन क्षेत्र कम होने के कारण जल की कमी भी पाई जाती है।

बाढ़ – पेड़ों की अंधाधुंध कटाई के कारण कई जगह अधिक वर्षा भी हो जाती है और वन क्षेत्र कम होने के कारण पानी का बहाव कम नहीं हो पाता है और जिससे बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

वन्य जीव-जन्तुओं का विलुप्त होना-बढ़ती हुई आबादी के कारण वन क्षेत्र सीमित हो गए हैं जिसके कारण वनों में रहने वाले वन्य जीवों को रहने के लिए बहुत कम जगह मिल रही है और साथ ही कई ऐसे पेड़ों की कटाई कर दी गई है। जो कि कई वन्य जीवों के जीने के लिए बहुत जरूरी थे। वनों की कटाई के कारण कई जीव-जन्तुओं की प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं और अगर ऐसे ही वनों की कटाई होती रही तो जल्द ही सभी वन्य जीवों की प्रजातियाँ लुप्त हो जाएँगी।

 ग्लोबल वॉर्मिंग - पृथ्वी पर जलवायु में हो रहे परिवर्तन ग्लोबल वॉर्मिंग के अंतर्गत ही आते हैं। वर्तमान में आपने समाचारपत्र-पत्रिकाओं में पढ़ा होगा कि गर्मियों के समय बर्फ गिर रही है, रेगिस्तान क्षेत्र में बाढ़ आ रही है, हिमालय पिघल रहा है और साथ ही पृथ्वी का तापमान भी बढ़ रहा है यह सभी कारण ग्लोबल वॉर्मिंग के अंतर्गत आते हैं।

वन क्षेत्र बचाने के उपाय अथवा उपसंहार-वन क्षेत्र को बचाने के लिए हमें लोगों में अधिक-से-अधिक से जागरूकता फैलानी होगी। जनसंख्यावृद्धि दर को कम करना होगा। हमें वन महोत्सव जैसे कार्यक्रमों को बढ़ावा देना होगा जिससे कि अधिक-से-अधिक मात्रा में पेड़ लगाए जा सकें। वनों को बचाने का काम सिर्फ सरकार का ही नहीं है यह काम हमारा भी है क्योंकि जब तक हम स्वयं पेड़ नहीं लगाएँगे तब तक वन क्षेत्र नहीं बढ़ सकते हैं। हमें अवैध वनों की कटाई करने वाले लोगों के लिए सख्त कानून का निर्माण करना होगा। सभी लोगों को पेड़-पौधों के लाभ बताने होंगे जिससे कि वह अधिक-से-अधिक पेड़ लगाएँ। हमें लकड़ियों से बनी वस्तुओं का उपयोग कम करना होगा।

गोपियाँ पाठक के मन में कैसे भाव जगा रही हैं?

रस कविता के वे तत्त्व होते हैं, जो पाठक के अंदर सोये हुए स्थायी भावों को जगा कर कथ्य को ग्रहण कराने में सहायता पहुँचाते हैं तथा पाठक को भी कवि की मनःस्थिति तक पहुँचाने का प्रयास करते हैं

गोपियों ने उद्धव को क्या संदेश देना चाहता है?

कृष्ण ने मथुरा जाने के वाद स्वयं न लौटकर उद्धव के जरिए गोपियों के पास संदेश भेजा था । उद्धव ने निर्गुण ब्रह्म एवं योग का उपदेश देकर गोपियों की विरह-वेदना को शांत करने का प्रयास किया। गोपियों ज्ञान मार्ग की बजाय प्रेम मार्ग को पसंद करती थीं। इस कारण उन्हें उद्धव का योग (शुष्क) संदेश पसंद नहीं आया।

गोपियों ने उद्धव को भाग्यशाली क्यों कहा है क्या वह वास्तव में भाग्यशाली हैं?

उत्तर: गोपियों द्वारा उद्धव को भाग्यवान कहने में निहित व्यंग्य यह है कि वे उद्धव को बड़भागी कहकर उन्हें अभाग्यशाली होने की ओर संकेत करती हैं। वे कहना चाहती हैं कि उद्धव तुम श्रीकृष्ण के निकट रहकर भी उनके प्रेम से वंचित हो और इतनी निकटता के बाद भी तुम्हारे मन में श्रीकृष्ण के प्रति अनुराग नहीं पैदा हो सका।

गोपियों ने उद्धव के योग को कड़वी ककड़ी क्यों कहा है?

Answer: प्रस्तुत पदों में योग-साधना के ज्ञान को निरर्थक बताया गया है। यह ज्ञान गोपियों के अनुसार अव्यवाहरिक और अनुपयुक्त है। उनके अनुसार यह ज्ञान उनके लिए कड़वी ककड़ी के समान है जिसे निगलना बड़ा ही मुश्किल है।