मुद्रण माध्यम - Print Mediaमनुष्य अपनी आदिम अवस्था के वन्य स्वरूप को पार करके इतिहास और संस्कृति का निर्माण करता हुआ लाखों वर्षों की जीवनयात्रा सम्पन्न करते हुए अनेक चरणचिह्नों को छोड़ता आया है। गुफाओं में रहते हुए उसने अनेक चित्र उकेरे, सिन्धुघाटी की सभ्यता से खुदाई में प्राप्त सामग्रियाँ ढलाई और ठप्पे की तकनीक की ओर इंगित करती हैं। सहस्रों वर्ष पूर्व जब लेखनकला का विकास हुआ, तब से लेकर अब तक अनेक रूपों में लिपिबद्ध सामग्री मिलती है। यह सामग्री ईंटों पर पत्थरों पर शिलालेखों के रूप में, टंकण द्वारा, ताड़पत्र पर नुकीली लेखनी से गोदन द्वारा कपड़ों पर छापे द्वारा, भोजपत्र पर लेखनी द्वारा, ताम्रपत्र या अन्य धातुओं में टंकण द्वारा, मोमपाटी पर चमड़े में, मुद्राओं आदि में संग्रहीत होती रही। चीन निवासी सी लोन द्वारा 105 ई. में कपास और पटसन के रेशों से तैयार किये गए कागज के आविष्कार के साथ मुद्रण कला का विकास हुआ और तब से लेकर चौदहवीं शताब्दी तक पूरे विश्व में मुद्रण कला के विभिन्न तरीकों का विकास हुआ। 1440 से 1450ई. के दरमियान जर्मनी के जॉन गुटेनबर्ग ने तीन तरह की विधाओं का विकास किया - 1. पत्थर चमकाने की कला 2 दर्पण बनाने की कला तथा 3. मुद्रण की कला | Show "गुटेनबर्ग ने ऐसे त्रिआयामी तथा चल मुद्रक (Moveable Type) अक्षर बनाए, जिनका मुद्रण में बार-बार उपयोग करना सम्भव हो सका, जिन्हें मूल अथवा लिखित प्रति के अनुसार संयोजित करने के उपरान्त उस पर स्याही लगाकर गुटेनबर्ग द्वारा ही बनाई गई मुद्रण मशीन में कागज के साथ रखकर दबाब देने पर स्याही का स्थानान्तरण लिखावट के अनुसारकागज पर हो जाता था। गुटेनबर्ग की मुद्रणशाला में महत्वपूर्ण दस्तावेजों का प्रकाशन आरम्भ हुआ और धीरे धीरे सारे यूरोप में - इटली (1456), इंग्लैण्ड (1477), डेनमार्क (1482) पुर्तगाल (1495) और रूस ( 1553) मुद्रणकला का प्रसार होने लगा। भारत में पहला प्रेस 6 सितम्बर 1556 को गोआ में आया, दूसरा 1674-75 में ईस्टइंडिया कम्पनी, सूरत के प्रयास से गुजराती धनिक भीमजी पारिख ने तथा तीसरा प्रेस डेनिश मिशनरी बर्थाल्यों जीगेलबर्ग ने मद्रास में लगाया जेम्स ऑगस्टस हिकी के द्वारा 1780 में कलकत्ता से प्रकाशित बंगाल गजट से भारत में पत्रकारिता का आरम्भ होता है। स्वातंत्र्य संग्राम के दौरान शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए, औद्यौगीकरण तथा बाजारीकरण के विस्तार के साथ मुद्रण तकनीकों का क्रमशः विकास हुआ और लैटरप्रेस मुद्रणप्रणाली से लेकर कम्प्यूटर और उपग्रह तक की प्रकाशन प्रणाली आज विकसित हो गई है। अब समाचारपत्रादि को प्रकाशित करने के लिए एक ही स्थान पर समाचारपत्र तैयार होता है, फिर उसका निगेटिव उपग्रह के माध्यम से भिन्न भिन्न स्थानों पर भेज दिया जाता है, जहाँ इस निगेटिव को ऑफसेट मशीन द्वारा छाप दिया जाता है। इस प्रणाली में समय, साधन आदि की बहुत बचत होती है। मुद्रण कला शैक्षिक सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक, कलात्मक सभी क्षेत्रों के लिए उपयोगी सिद्ध हुआ। संचित ज्ञान को पीढ़ी-दर-पीढ़ी के लिए संरक्षित करने वाली यह कला जनसंचार के लिए विशेष उपयोगी है। मुद्रणकला के अन्तर्गत समाचारपत्र पत्रिकाएँ, जर्नल, पुस्तकें, पोस्टर, रैपर्स, कैलेन्डर, पोस्टकार्ड, बैनर्स, पोस्टल स्टाम्स, करेन्सी नोट, "स्टेशनरी पैड्स आदि आदि आ जाते हैं। समाचारपत्रजनसंचार के प्रमुख साधनों में से समाचार पत्रों का जन्म काफी पहले हुआ। कहा जाता है कि सन् 1640 में चीन से प्रकाशित 'पेकिंग गज़ट' संसार का पहला समाचार पत्र था । सामान्यतः हम पाते हैं कि जैसे जैसे शहरों का विकास हुआ, यूरोप में व्यापार का फैलाव हुआ, लोगों के मन में दुनिया भर के विषय में जानने की सहज जिज्ञासा जागरित होने लगी और समाचार पत्रों ने रूपाकार लेना आरम्भ किया। आंकड़े बताते हैं कि 1622 में लंदन में लगभग एक दर्जन मुद्रक थे, जिन्होंने नियमित रूप से पत्रों के आदान-प्रदान का सिलसिला शुरु किया और 1702 ई. में लंदन का पहला दैनिक समाचारपत्र Daily Courant अस्तित्व में आया। डाकव्यवस्था की नियमितता में सुधार आने के साथ समाचारपत्र के निर्माण और वितरण में अत्यधिक गतिशीलता आई और इस समय तक यूरोप और अमेरिका में समाचारपत्र जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया। सन् 1815 में 'द टाइम्स ऑफ लन्दन की 5000 प्रतियाँ निकलती थीं। तत्कालीन शासकीय व्यवस्था के तहत समाचार पत्रों पर कड़ी निगरानी रखी जाने लगी थी, इस कारण 18 वीं शताब्दी के उस दौर में 7 डॉलर के विक्रय मूल्य वाले इस समाचारपत्र पर में 4 डॉलर टैक्स था। 19वीं शताब्दी के मध्य तक समाचार पत्रों की स्थिति में परिवर्तन होने शुरू हो गए । समाचार टेलीग्राफ, टेलीफोन तथा रेलमार्ग से समाचारपत्रों की पहुँच सुदूर क्षेत्रों में होने लगी। विज्ञापन का समाचारपत्रों में प्रवेश हुआ- परिणामतः समाचारपत्रों की कीमतें घटीं और उनकी पैठ अधिकाधिक लोगों तक होने लगी। वर्तमान समय प्रेस के जनप्रसार का समय है। दूरदर्शन, कम्प्यूटर उपग्रह आदि तकनीकी अत्याधुनिक माध्यमों के विकास से प्रिंट मीडिया का महत्व कम हो जाएगा, चिन्तकों द्वारा ऐसी आशंका व्यक्त करने के बावजूद एक अनुमान के अनुसार बड़े देशों में आज श्रेष्ठ राष्ट्रीय समाचारपत्रों की चालीस लाख प्रतियाँ तक बिक जाती भारत में पहला समाचारपत्र 'बंगाल गज़ट ऑफ कलकत्ता जनरल एडवरटाइज़र जेम्स आगस्टन हिकी के प्रयत्न से 29 जनवरी, 1780 में प्रकाशित हुआ। मन और आत्मा की स्वतन्त्रता की वकालत करने वाले इस पत्र के द्वारा हेस्टिंग्स सरकार की त्रुटियों की ओर ध्यानाकर्षण कराने के कारण हिकी को जेल यातना मिली और उन्हें भारत से निष्कासित भी कर दिया गया। लेकिन जो चिंगारी हिकी ने छेड़ी, उसके द्वारा अनेक समाचारपत्र अंग्रेजी सरकार की दुर्नीतियों का विरोध करने के लिए उठ खड़े हुए और कलकत्ता, बम्बई, मद्रास से लगभग 15 पत्र बंगाली, अंग्रेजी आदि भाषाओं में प्रकाशित होने लगे। 30 मई, 1828 को जुगलकिशोर शुक्ल के सम्पादन में कलकत्ता से प्रकाशित 'उदन्त मार्तण्ड के प्रकाशन के साथ हिन्दी के समाचारपत्रों के प्रकाशन का सिलिसिला शुरु हुआ। यह बात सभी को ज्ञात है कि अपने अभ्युदय काज में हिन्दी पत्रकारिता एक मिशन के रूप में शुरु हुई और उसका लक्ष्य था तत्कालीन शासन की दुर्नीतियों का विरोध करना, जनजागृति लाना, सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन का यत्न करना, राजनीतिक चेतना जागरित करना, सांस्कृतिक, धार्मिक जागरण लाना और देश के कोने कोने में स्वतंत्रता, समता और बन्धुत्व का मंत्र फूँकना। तब से अब तक विश्व परिदृश्य में भी और भारतीय परिदृश्य में भी जिन ऊँचाइयों को छुआ है, वह वर्णनातीत है। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त भारत में भी पत्रकारिता प्रकाशन उद्योग के रूप में पनपनी शुरु हुई। उद्योग के रूप में इसका उत्पादन और वितरण बहुत तेजी के साथ बढ़ा और साथ में स्पर्धा भी बढ़ी और इन सबक अनुरूप प्रिंटिंग की तकनीक में भी गुणात्मक सुधार आए कम्प्यूटर द्वारा कम्पोज़िग आरम्भ होते ही प्रिंटिंग तकनीक में अभूतपूर्व परिवर्तन हो गया। प्रूफ पढ़ना, संशोधन की लम्बी-चौड़ी सावधानियाँ रखना, मोनो मशीनों से कम्पोजिंग करना, कंपोज किये गए मैटर को सम्भालने के लिए बहुत सारी जगह घेरना, स्याही से हाथ गंदे करना आदि अब अनावश्यक हो गया है। यह नई तकनीक समय, स्थान की बचत कराने में समर्थ है। इसे और नई उपग्रह प्रणाली से जोड़ने पर तो मुद्रणकला शीर्ष पर पहुँच गई हमारे देश में हजारों दैनिक, पाक्षिक, साप्ताहिक, मासिक, द्विमासिक, त्रिमासिक वार्षिक पत्र पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं। आंकड़ों पर दृष्टि डालें तो हम पाते हैं कि भारत सन् 1989 से समाचारपत्रों के प्रकाशन के आधार पर विश्व के दस बड़े समाचारपत्रों के प्रकाशकों के समकक्ष है। प्रेस का मुख्य काम है खबरें देना, महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ जन-जन तक पहुँचाना। लेकिन प्रेस का दायित्व इतने से ही समाप्त नहीं हो जाता। विभिन्न प्रकार के लेखन द्वारा विभिन्न प्रकार की जानकारियाँ एकत्र करके उनका विश्लेषण करते हुए उनके वैशिष्ट्य और महत्व के आधार पर प्रस्तुत करना प्रेस का ही दायित्व है। साक्षात्कार, विशेष लेख, फीचर रिपोर्टिंग, खेल एवं व्यापार जगत् से जुड़े विभिन्न कार्यकलापों की कवरेज, पुस्तकों, फिल्मों, मीडिया से सम्बद्ध रिव्यू आदि लेखन का कार्य प्रिंट मीडिया का है। हमारे देश की लोकतान्त्रिक प्रणाली में 'चौथे स्तम्भ' के रूप में प्रतिष्ठित प्रिंट मीडिया की भूमिका निस्सन्देह बहुत महत्वपूर्ण है। यद्यपि प्रिंट मीडिया का सम्बन्ध शिक्षित समाज से अधिक है, हमारे देश में शिक्षा का प्रसार सीमित है, अतः यहाँ समाचारपत्रादि का वितरण अन्यान्य देशों से कम है तथापि लिखित शब्दों के महत्व को कोई नकार नहीं सकता। इसका प्रमाण यह है कि रेडियो, टी.वी. आदि के माध्यम से जो समाचारादि अखबारों से पहले प्रसारित हो जाते हैं, उन्हें जनता विस्तार से पढ़ने के लिए अखबारों का सहारा लेती है। वैसे भी अखबार, पुस्तक आदि को स्पर्श करके पढ़ने में जिस सुख की अनुभूति होती है, वह रेडियो, टी.वी. आदि के द्वारा नहीं हो सकती। अन्य मुद्रण माध्यम अनेक भाषाओं से सम्पन्न भारतवर्ष में पुस्तकें, पाठ्यपुस्तकें, पेपरबैक पैम्फ्लेट, ब्रोशर, पोस्टर, आदि मुद्रणकला के अन्य रूप हैं। पुस्तकों का स्थान जनमाध्यम के रूप में महत्वपूर्ण है। पुस्तकों का इतिहास तो समाचारपत्रों के इतिहास से भी पुराना है। लिपि के विकास के साथ पुस्तक लेखन की परम्परा आरम्भ होती है। पुस्तकों की प्रतिलिपि तैयार करने वालों को भारत में 'लेखक' संज्ञा दी गई थी। ये लेखक मूल पुस्तक की 'मक्षिका स्थाने मक्षिका' नियम के आधार पर मूल पुस्तक की प्रतिलिपि पत्थर, ताड़पत्र, भोजपत्र, कपड़े, चमड़े, कागज आदि पर तैयार करते थे। मुद्रणकला के विकास ने पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन किये। पाठ्यपुस्तकें, धार्मिक पुस्तकें, बच्चों के लिए पुस्तकें – यानी समाज के प्रत्येक क्षेत्र से जुड़ी पुस्तकों का अब प्रकाशन होता है। भारतसरकार ने पुस्तक प्रकाशन के लिए विभिन्न संस्थाएँ खोल रखी हैं। 1967 में राष्ट्रीय पुस्तक विकास बोर्ड की स्थापना की गई और 1970 में इसे नया रूप दिया गया। इस बोर्ड का कार्य पुस्तकों के उद्योग के विकास के लिए बढ़ावा देना है। चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट बच्चों की तथा नेशनल बुक ट्रस्ट अन्य पुस्तकों का प्रकाशन करता है। एन.सी.ई.आर.टी. (राष्ट्रीय शिक्षा, अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद् ) स्कूलों की पाठ्यपुस्तकें प्रकाशित करता है। भारत की विभिन्न भाषाओं में साहित्य की पुस्तकें तैयार करने के लिए 1954 में स्थापित साहित्य अकादमी कार्यरत है। इनके अलावा अनेक निजी प्रकाशक पुस्तक प्रकाशन से सम्बद्ध हैं। पत्रिकाएँ, समाचारपत्र का विस्तृत रूप हैं। इन्हें लोकतंत्र के प्रहरी और सरकार और जनता के बीच पुल का काम करने वाली माना गया है। ये पत्रिकाएँ साप्ताहिक, मासिक, द्विमासिक, त्रिमासिक, अर्धवार्षिक वार्षिक कई प्रकार की हैं। विषय की दृष्टि से पत्रिकाएँ बेहद सम्पन्न हैं। साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक, खेलकूद सम्बन्धी समाचार पत्रिकाएँ, महिलाओं के लिए पत्रिकाएँ, बच्चों के लिए पत्रिकाएँ आदि विविध वर्ग हैं। भारत की प्रत्येक भाषा में पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं। इस समय अंग्रेजी की भी अनेक पत्र पत्रिकाएँ भारत में प्रकाशित होती हैं। केन्द्रीय राज्य सरकारें, विभिन्न भाषा विभाग तथा साहित्यिक संस्थाएँ भी पत्रिकाएँ प्रकाशित करती हैं। अन्य मुद्रण माध्यम हैं- हेंडबिल (बुकलेट, पैम्फलेट, फोल्डर आदि) । आप अक्सर देखते हैं कि अखबार खोलते ही एक रंगबिरंगा इश्तहार का पर्चा निकलता है जिसमें किसी व्यापारिक संस्थान, फर्म, दुकानदार, सरकारी प्रचार, खेल सूचना, प्रदर्शनियों की सूचना, कर्मचारी संगठनों से जुड़ी सूचनाएँ आदि होती हैं। ये हैंडबिल आम तौर पर लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए निर्मित होते हैं। अखबार में प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों की अपेक्षा पैम्फलेटों का महत्व अधिक है। बुकलेट एक छोटी पुस्तिका कही जा सकती है। सरकार अपनी नीतियों और सफलताओं के प्रसार के लिए, राजनैतिक दल चुनावादि के अवसर पर कम्पनियाँ अपने उत्पादन के प्रचार के लिए, पर्यटन विभाग पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए सरकारी या निजी संस्थान अपने सांस्कृतिक कार्यक्रमों के प्रचार के लिए बुकलेट छपवाते हैं। इनके अलावा पोस्टर के द्वारा भी जनसंचार होता है। पोस्टर का उद्देश्य तुरन्त समाचार देना होता है। बुलेटिन को हम छोटा समाचारपत्र भी कह सकते हैं। बुलेटिन दो-तीन पृष्ठों से अधिक नहीं होता। मुद्रण माध्यमों के इस रूप को देखते हुए स्पष्टतः कहा जा सकता है कि प्रिंट मीडिया का महत्व आज भी बहुत है और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के प्रभाव के कारण प्रिंट मीडिया का अस्तित्व खतरे में नहीं मुद्रण तकनीक क्या है?सामान्यत: मुद्रण का अर्थ छपाई से है, जो कागज, कपड़ा, प्लास्टिक, टाट इत्यादि पर हो सकता है। डाकघरों में लिफाफों, पोस्टकार्डों व रजिस्टर्ड चिट्ठियों पर लगने वाली मुहर को भी 'मुद्रण' कहते हैं।
मुद्रण की शुरुआत कहाँ से हुई?चीन में ही दुनिया का पहला मुद्रण स्थापित हुआ, जिसमें लकड़ी के टाइपों का प्रयोग किया गया था। टाइपों के ऊपर स्याही जैसे पदार्थ को पोतकर कागज के ऊपर दबाकर छपाई का काम किया जाता था। इस प्रकार, मुद्रण के आविष्कार और विकास का श्रेय चीन को जाता है।
मुद्रण तकनीक सबसे पहले कहाँ विकसित हुई?मुद्रण की सबसे पहली तकनीक चीन, जापान और कोरिया में विकसित हुई। यह छपाई हाथ से होती थी। तकरीबन 594 ई. से चीन में स्याही लगे काठ के ब्लॉक या तख़्ती पर काग़ज़ को रगड़कर किताबें छापी जाने लगी थीं।
मुद्रण कला का आविष्कार कहाँ हुआ?मुद्रण कला का प्रयोग पहली बार चीन में शुरू हुआ, जब 650 ई में भगवान बुद्ध की मूर्ति छापी गई। इतना ही नहीं, चीन की सहस्र् बुद्ध गुफाओं से हीरक सूत्र नामक मिली पुस्तक को ही संसार की पहली मुद्रित पुस्तक माना जाता है। सबसे पहली टाइप मशीन 1041 ई़ में चीन के केपी शैंग ने बनाई थी।
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