शैक्षिक जगत से जुड़ा हर संवेदनशील व्यक्ति परिचित है कि किसी भी बच्चे की पाठशाला का पहला दिन कोरा नहीं होता। वह न तो कोरी स्लेट-सा स्कूल आता है। वह कच्चा घड़ा-सा भी नहीं होता और न ही मिट्टी का लौंदा होता है। बच्चा स्वयं में अपना वजूद रखता है। ठीक वैसे ही जैसे हवा का,पानी का, सूरज का, आपका और हमारा वजूद है। Show स्कूल के पहले दिन से पूर्व ही औसतन हर बच्चा लगभग चार से पांच हजार शब्दों से परिचित होता है। इन शब्दों की अपने अनुभव से जानी गई समझ और परिभाषा भी उसके पास होती है। वह अपने हम उम्र के कुछ परिचित-अपरिचित सहपाठियों और अपनी आयु से चार-आठ गुना आयु के शिक्षक की बात को आसानी से समझ भी लेता है। इतना सब होने के बावजूद हम उसे पहले ही दिन से लिखना-पढ़ना सिखाने लग जाते हैं। इससे अधिक हैरानी इस बात की है कि कमोबेश अधिकतर शिक्षक यह मान कर चलते हैं कि बच्चे कुछ नहीं जानते। कोरे हैं। अमूमन अधिकतर शिक्षक यह तर्क देते हैं कि बच्चा छोटा है। अपनी कक्षा की किताब ही पढ़ ले, वही बहुत है। बाल साहित्य और पाठ्य पुस्तक के महत्व और भिन्नता से पहले हम यह भी चर्चा कर लें कि जिस बच्चे को हम छोटा समझ रहे हैं, वह अपनी आयु के स्तर से औसतन कितना आकलन स्वयं कर लेता है।
हमें हर रोज उसे एक कहानी सुनानी चाहिए। कहानी में उसकी कल्पना बढ़ती है। वह कहानी सुनते-सुनते नये शब्दों से परिचित होगा। भाषा के निकट जाएगा। मौखिक कहानी सुनाने के बाद आप यह कह सकते है कि यह कहानी आपने किताब से पढ़ कर उसे सुनाई है। किताबों के प्रति बच्चे की रुचि स्वतः ही बढ़ेगी। पाठ्य पुस्तकों में बाल साहित्यबुनियादी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों की पाठ्य पुस्तकों में साहित्य नहीं होता। यह कहना ठीक नहीं होगा। लेकिन यह सही है कि बाल साहित्य की मात्रा न्यून है। भाषा की जिन पुस्तकों में साहित्य है भी वह आयु वर्ग के स्तर से व्यवस्थित नहीं है। आज भी गढ़े हुए खजाने, राजा-रानी और परियों-राक्षस की कहानियां भी प्रचलन में हैं। जबकि आज का बालक इक्कीसवीं सदी का है। उसके खेल, उसकी दुनिया में बहुत सारी नई चीज़ें शामिल हो गई हैं। कल्पना का समावेश बाल साहित्य में बेहद जरूरी है। लेकिन कल्पना बाल मन में अनगढ़ छाप न छोड़े। इसका ध्यान रखा जाना जरूरी है। बाल साहित्य के नाम पर सीख और जबरन ठूंसे गए और आदर्शवाद के पाठ अधिक पिरोये गये मिलते हैं। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 के आलोक में मुझे भी पाठ्य पुस्तक निर्माण में कार्य करने का मौका मिला। बुनियादी स्कूलों के बच्चों की आयु को देखते हुए बहुत कम पाठ्य पुस्तकें हैं, जिनमें बाल मनोविज्ञान और बाल अभिरुचियों का ध्यान रखा गया है। इसके कई कारण है। उन कारणों पर चर्चा अलग से की जा सकती है। यहाँ इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि भाषा सीखने-सिखाने के मामले में प्राथमिक कक्षाओं में बाल साहित्य की दशा बेहद कमजोर है। हमारे शिक्षक भी कोर्स पूरा कराने की फिक्र में दिखाई पढ़ते हैं। भाषा का शिक्षक प्राय बाल पत्रिकाओं के नाम तक नहीं जानता। जो जानते हैं, उनका कहना है कि हां बचपन में पढ़ी थी। आज बाल साहित्य की दिशा क्या है? क्या-क्या लिखा जा रहा है। इन सवालों के उत्तर अधिकतर शिक्षकों के पास नहीं है। बच्चे और बाल साहित्यअक्सर कहा जाता है कि बच्चे का साहित्य से क्या लेना-देना? सही बात तो यही है साहित्य की पहली सीढ़ी बाल जीवन ही है। लोरियाँ क्या हैं? माँ का आँचल साहित्य में झांकने वाला सबसे पहला झरोखा है। स्कूल जाने से पहले ही बच्चे कहानी-किस्सा सुनने और गढ़ने में माहिर होते हैं। काश! कितना अच्छा होता कि बच्चे की पहली पुस्तक उसके घर और उसके बाल जीवन से जुड़ी होती। आयु के आधार पर उसकी पाठ्य पुस्तकें बनी होती। कक्षा के स्तर पर बनी पाठ्य पुस्तकें नई चिंतनदृष्टि से दूर क्यों है? यह विचारणीय प्रश्न है। बच्चा तो स्कूल में पहले ही दिन अजब-गजब के संसार में पहुंच कर हैरान हो जाता है। बाल साहित्य में आयु के अनुरूप रचना सामग्री होती है। बहरहाल उपरोक्त पांच साल तक बच्चों की खासियतों को ध्यान में रखते हुए हम बाल साहित्य पर विमर्श करते हैं।
कैसा हो बाल साहित्यप्राथमिक कक्षाओं के लिए विशेष बाल साहित्य की आवश्यकता है। यह आवश्यकता उसकी पाट्य पुस्तकें पूरी नहीं करतीं। किसी भी राज्य की पुस्तकें तेजी से बदल रही बच्चों की दुनिया के अनुरूप तैयार नहीं की जाती। वर्तमान समय के जीवन-मूल्य, संदर्भ, आदर्श, तोर-तरीके,विषमताएं पाठ्य पुस्तकों का हिस्सा नहीं हो पाती। यह सब बाल साहित्य के जरिए ही बच्चों के सामने आ सकता है। पाठ्य पुस्तकें आज भी पुरातन सोच और दिशा का त्याग नहीं कर पाई है। जबकि बच्चों की दुनिया का हर पहलू बहुत तेजी से बदल चुका है। यह सब बाल साहित्य के माध्यम से रेखांकित हो सकता है। बहुत ही कम पाठ्य पुस्तकें हैं, जो बाल मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए तैयार की जाती हैं। चित्रों के पात्र और बिंब भी अत्याधुनिकता से पाठ्यपुस्तकों में नहीं होते। यह काम बाल साहित्य के पत्र-पत्रिकाएं बखूबी कर सकती हैं। बच्चों की आयु को ध्यान में रखते हुए हमें बाल साहित्य का चुनाव करना होगा। जैसा कि पहले भी कहा गया है कि शुरूआती कक्षाओं के बच्चों के लिए कविताएं और छोटी-छोटी कहानियां ही शामिल की जानी चाहिए। वह भी अधिकतर मौखिक वाचन के रूप में ही। इसमें शिक्षक को बेहद सक्रिय होना होगा। उसे पढ़कर सुनाना होगा। बच्चे सिर्फ श्रोता के रूप में हिस्सेदारी निभाएंगे। धीरे-धीरे उनका लगाव बाल साहित्य को छूने,उलटने-पलटने से शुरू होकर पढ़ने की ओर भी उन्मुख होगा। शिक्षक के धैर्य की असली परीक्षा यही है कि वह कैसे बाल साहित्य की ओर बच्चों को लाये। यह हुआ तो बच्चे पाठ्य पुस्तकों से भी प्रेम करना सीख जाएंगे। फिर भी कहानी-कविता का चुनाव करते समय हम कुछ बातों का ध्यान अवश्य रखें। कुछ प्रमुख बातें निम्न हो सकती हैं।
यह कहना गलत नहीं होगा कि मानव एक सामाजिक प्राणी है। उसे सामाजिक संबंध,सुख-दुख,हंसी-खुशी और हर्ष-विषाद प्रभावित करते हैं। बच्चे भी भविष्य में संवेदनशील प्राणी बन सकें, इसमें स्वस्थ साहित्य महती भूमिका निभाता है। इसकी उपेक्षा देश के लिए ही नहीं विश्व के लिए घातक होती है। बाल साहित्य का क्या महत्व है?बाल साहित्य ही है जो पाठ्य पुस्तकों से इतर बच्चों को खेल-खेल में बहुत सारी अवधारणाओं के प्रति समझ बढ़ाने में सहायक होता है। बाल साहित्य ही वह सहायक सामग्री है जिसकी सहायता से बच्चे की मौखिक भाषा-शैली संवर सकती है। बच्चों में संवाद अदायगी का विस्तार हो सकता है।
बाल साहित्य क्या समझते हैं?बाल साहित्य के अन्तर्गत वह समस्त साहित्य आता है जिसे बच्चों के मानसिक स्तर को ध्यान में रखकर लिखा गया हो। बाल साहित्य में रोचक कहानियाँ एवं कविताएँ प्रमुख हैं। हिन्दी में बाल साहित्य का एक बङा स्रोत पंचतंत्र की कथाएँ हैं। बाल गीत कविताओं में महाराणा प्रताप का घोड़ा, झाँसी की रानी बच्चों को प्रेरित करतीं आईं हैं।
बाल साहित्य कितने प्रकार का होता है?बाल साहित्य । हिंदी का बाल साहित्य लोरी, पालना गीतों, प्रभाती, दोहा, गजल, पहेली, कविता, कहानी, उपन्यास, संस्मरण, जीवनी, नाटक आदि अनेक रूपों और विधाओं से संपन्न है।
बाल साहित्य के जनक कौन हैं?श्री जयप्रकाश भारती को हिन्दी में बालसाहित्य का युग प्रवर्तक माना जाता है।
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