भारतीय संविधान में प्रदत्त कौन सा मौलिक अधिकार भारतीय संविधान का हृदय कहा जाता है? - bhaarateey sanvidhaan mein pradatt kaun sa maulik adhikaar bhaarateey sanvidhaan ka hrday kaha jaata hai?

  • 17 Nov 2020
  • 7 min read

प्रिलिम्स के लिये

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 

मेन्स के लिये

सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार, रिट जारी करने का अधिकार क्षेत्र 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केरल के एक पत्रकार से संबंधित मामले की सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे ने कहा कि हम अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिकाओं को हतोत्साहित करने का प्रयास कर रहे हैं।

प्रमुख बिंदु

  • मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबडे ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय में अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिकाओं की भरमार है और लोग अपने मौलिक अधिकारों के हनन की स्थिति में संबंधित उच्च न्यायालय के पास जाने की बजाय सीधे सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर कर रहे है, जबकि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालयों को भी ऐसे मामलों में रिट जारी करने का अधिकार प्रदान किया गया है।
  • अनुच्छेद 32 (संवैधानिक उपचारों का अधिकार): यह एक मौलिक अधिकार है, जो भारत के प्रत्येक नागरिक को संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त अन्य मौलिक अधिकारों को लागू कराने के लिये सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दायर करने का अधिकार देता है।
    • हम कह सकते हैं कि संवैधानिक उपचारों का अधिकार स्वयं में कोई अधिकार न होकर अन्य मौलिक अधिकारों का रक्षोपाय है। इसके अंतर्गत कोई भी व्यक्ति मौलिक अधिकारों के हनन की स्थिति में न्यायालय की शरण ले सकता है। इसलिये डॉ. अंबेडकर ने अनुच्छेद 32 को संविधान का सबसे महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद बताते हुए कहा था कि इसके बिना संविधान अर्थहीन है, यह संविधान की आत्मा और हृदय है।
    • सर्वोच्च न्यायालय के पास किसी भी मौलिक अधिकार के प्रवर्तन के लिये निदेश, आदेश या रिट जारी करने का अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) रिट, परमादेश (Mandamus) रिट, प्रतिषेध (Prohibition) रिट, उत्प्रेषण (Certiorari) रिट और अधिकार पृच्छा (Qua Warranto) रिट जारी की जा सकती है।
    • संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक, राष्ट्रपति राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिये किसी भी न्यायालय के समक्ष याचिका दायर करने के अधिकार को निलंबित कर सकता है। इसके अलावा अन्य किसी भी स्थिति में इस अधिकार को निलंबित नहीं किया जा सकता है।
    • मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय का मूल क्षेत्राधिकार तो है किंतु यह न्यायालय का विशेषाधिकार नहीं है। 
    • यह सर्वोच्च न्यायालय का मूल क्षेत्राधिकार इस अर्थ में है कि इसके तहत एक पीड़ित नागरिक सीधे सर्वोच्च न्यायालय में जा सकता है। हालाँकि यह सर्वोच्च न्यायालय का विशेषाधिकार नहीं है, क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालयों को भी मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिये रिट जारी करने का अधिकार दिया गया है।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई निर्णयों में कहा है कि जहाँ अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय के माध्यम से राहत प्रदान की जा सकती है, वहाँ पीड़ित पक्ष को सर्वप्रथम उच्च न्यायालय के समक्ष ही जाना चाहिये।
    • वर्ष 1997 में चंद्र कुमार बनाम भारत संघ वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा था कि रिट जारी करने को लेकर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय दोनों के अधिकार क्षेत्र संविधान के मूल ढाँचे का एक हिस्सा हैं।
  • इस व्यवस्था के विरुद्ध तर्क
    • अतीत में ऐसा कई बार देखा गया है जब सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के मामलों को अपने पास स्थानांतरित कर दिया था।
    • इसका सबसे ताज़ा उदाहरण हाल ही में तब देखने को मिला जब सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय राजधानी के सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट हेतु भूमि उपयोग से जुड़े एक मामले को दिल्ली उच्च न्यायालय से स्वयं को स्थानांतरित कर दिया, जबकि याचिकाकर्ताओं ने इस तरह के हस्तांतरण की मांग नहीं की थी।
    • जब मामलों का इस तरह स्थानांतरण किया जाता है तो याचिकाकर्त्ता अपील का अपना एक माध्यम खो देते हैं जो मामले को स्थानांतरण न किये जाने की स्थिति में उपलब्ध होता।

संविधान का अनुच्छेद 226

  • अनुच्छेद 226 उच्च न्यायालयों को नागरिकों के मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन अथवा ‘किसी अन्य उद्देश्य’ के लिये सभी प्रकार की रिट जारी करने का अधिकार प्रदान करता है।
    • यहाँ ‘किसी अन्य उद्देश्य’ का अर्थ किसी सामान्य कानूनी अधिकार के प्रवर्तन से है। इस प्रकार रिट को लेकर उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र सर्वोच्च न्यायालय की तुलना में काफी व्यापक है।
    • जहाँ एक ओर सर्वोच्च न्यायालय केवल मौलिक अधिकारों के हनन की स्थिति में ही रिट जारी कर सकता है, वहीं उच्च न्यायालय को किसी अन्य उद्देश्य के लिये भी रिट जारी करने का अधिकार है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

संवैधानिक उपचारों का अधिकार एवं महत्त्व

  • 11 Jul 2020
  • 5 min read

संवैधानिक उपचारों का अधिकार स्वयं में कोई अधिकार न होकर अन्य मौलिक अधिकारों का रक्षोपाय है। इसके अंतर्गत व्यक्ति मौलिक अधिकारों के हनन की अवस्था में न्यायालय की शरण ले सकता है। इसलिये डॉ० अंबेडकर ने अनुच्छेद 32 को संविधान का सबसे महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद बताया- “एक अनुच्छेद जिसके बिना संविधान अर्थहीन है, यह संविधान की आत्मा और हृदय हैं।”

  • अनुच्छेद 32 का उद्देश्य मूल अधिकारों के संरक्षण हेतु गारंटी, प्रभावी, सुलभ और संक्षेप उपचारों की व्यवस्था है। इसके अंतर्गत केवल मूल अधिकारों की गारंटी दी गई है अन्य अधिकारों की नहीं, जैसे- गैर मूल संवैधानिक अधिकार, असंवैधानिक लौकिक अधिकार आदि।
  • भारतीय संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय को अधिकारों की रक्षा करने के लिये लेख, निर्देश तथा आदेश जारी करने का अधिकार है।
  • सर्वोच्च न्यायालय (अनुच्छेद 32 के तहत) एवं उच्च न्यायालय (अनुच्छेद 226 के तहत) रिट जारी कर सकते हैं।
  • अनुच्छेद 32 (2) में रिटों की चर्चा की गई है जिससे संवैधानिक उपचारों के अधिकार की महत्ता प्रतिपादित होती हैं
  • बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) रिट-
    • इसके अंतर्गत गिरफ्तारी का आदेश जारी करने वाले अधिकारी को आदेश देता है कि वह बंदी को न्यायाधीश के सामने उपस्थिति दर्ज करें और उसके कैद करने की वजह बताए। न्यायाधीश अगर उन कारणों से असंतुष्ट होता है तो बंदी को छोड़ने का हुक्म जारी कर सकता है।
  • परमादेश (Mandamus) रिट-
    • इसके द्वारा न्यायालय अधिकारी को आदेश देती है कि वह उस कार्य को करें जो उसके क्षेत्र अधिकार के अंतर्गत है।
  • प्रतिषेध (Prohibition) रिट-
    • किसी भी न्यायिक या अर्द्ध-न्यायिक संस्था के विरुद्ध जारी हो सकता है, इसके माध्यम से न्यायालय के न्यायिक अर्द्ध-न्यायिक संस्था को अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर निकलकर कार्य करने से रोकती है।
    • प्रतिषेध रिट का मुख्य उद्देश्य किसी अधीनस्थ न्यायालय को अपनी अधिकारिता का अतिक्रमण करने से रोकना है तथा विधायिका, कार्यपालिका या किसी निजी व्यक्ति या निजी संस्था के खिलाफ इसका प्रयोग नहीं होता।
  • उत्प्रेषण (Certiorari) रिट-
    • यह रिट किसी वरिष्ठ न्यायालय द्वारा किसी अधीनस्थ न्यायालय या न्यायिक निकाय जो अपनी अधिकारिता का उल्लंघन कर रहा है, को रोकने के उद्देश्य से जारी की जाती है।
    • प्रतिषेध व उत्प्रेषण में एक अंतर है। प्रतिषेध रिट उस समय जारी की जाती है जब कोई कार्यवाही चल रही हो। इसका मूल उद्देश्य कार्रवाई को रोकना होता है, जबकि उत्प्रेषण रिट कार्रवाई समाप्त होने के बाद निर्णय समाप्ति के उद्देश्य से की जाती है।
  • अधिकार पृच्छा (Qua Warranto) रिट-
    • यह इस कड़ी में अंतिम रिट है जिसका अर्थ ‘आप क्या प्राधिकार है?’ होता है यह अवैधानिक रूप से किसी सार्वजनिक पद पर आसीन व्यक्ति के विरुद्ध जारी किया जाता है।
    • साधारण अवस्था में संवैधानिक उपचारों को निलंबित नहीं किया जाएगा। संसद इनको लागू करने के लिये उचित अधिनियम बनाएगा। आपातकालीन स्थिति में अध्यादेश अथवा अधिनियम के द्वारा भारत या उसके किसी प्रदेश में आवश्यकतानुसार कुछ या सभी मौलिक अधिकारों को निलंबित किया जा सकता है।
  • ये रिटे, अंग्रेजी कानून से लिये गए हैं जहाँ इन्हें ‘विशेषाधिकार रिट’ कहा जाता था। इन्हें राजा द्वारा जारी किया जाता था जिन्हें अब भी ‘न्याय का झरना’ कहा जाता है।

उपरोक्त बिंदुओं से संवैधानिक उपचारों के अधिकार एवं उसकी महत्ता को देखा जा सकता है। संवैधानिक उपचारों का अनुच्छेद नागरिकों के लिहाज से भारतीय संविधान का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।

कौन से अधिकार को संविधान का हृदय आत्मा कहा जाता है?

दूसरे शब्दों में, मौलिक अधिकारों को संरक्षित करने का अधिकार अपने आप में एक मौलिक अधिकार है। यह मौलिक अधिकारों को वास्तविक बनाता है। इसीलिए डॉअंबेडकर ने अनुच्छेद 32 को संविधान का सबसे महत्वपूर्ण अनुच्छेद कहा इस अनुच्छेद के बिना यह संविधान एक अशक्त संविधान होगा । यह संविधान की आत्मा है और इसका दिल है।

निम्नलिखित में से कौन भारतीय संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकार नहीं है?

संपत्ति का अधिकार भारतीय संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकार नहीं है। 1978 में 44 वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम के तहत मौलिक अधिकारों से संपत्ति का अधिकार हटा दिया गया था और इसे एक सामान्य कानूनी अधिकार के रूप में नए अनुच्छेद 300 A में रखा गया था।

निम्नलिखित में से कौन संविधान का हृदय और आत्मा माना जाता है?

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 को डॉ. बी. आर. अम्बेडकर द्वारा भारतीय संविधान के 'हृदय और आत्मा' के रूप में वर्णित किया गया है।

संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों का संरक्षक कौन है?

उपरोक्त से, यह स्पष्ट है कि भारत में सर्वोच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों का संरक्षक है।