भारत Varsounnati कैसे हो सकती है? - bhaarat varsounnati kaise ho sakatee hai?

हिन्दी-साहित्य जगत में भारतेन्दु जी का आविर्भाव एक ऐतिहासिक घटना थी । ये ऐसे युग में भारतीय साहित्य गगन के इन्द बनकर उदित हुए, जब प्रायः सभी क्षेत्रों में युगान्तकारी परिवर्तन हो रहे थे । हिन्दी-गद्य के तो ये जन्मदाता समझे जाते हैं । भारतेन्दु जी के पूर्व विभिन्न गद्य-रचनाकार गद्य के विभिन्न रूपों को अपनाए हुए थे । उस समय हिन्दी-गद्य की भाषा के दो प्रमुख रूप थे- एक में संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दों की अधिकता थी तथा दूसरे में उर्दू-फारसी के कठिन शब्दों का प्रयोग किया जाता था । भाषा का कोई राष्ट्रीय स्वरूप नहीं था । भारतेन्दु जी का ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ । उस समय गद्य-साहित्य विकसित अवस्था में था; अत: भारतेन्दु जी ने बांग्ला के नाटक ‘विद्या सुन्दर’ का हिन्दी में अनुवाद किया और उसमें सामान्य बोलचाल के शब्दों का प्रयोग करके भाषा के नवीन रूप का बीजारोपण किया । सन् 1868 ई० में इन्होंने ‘कवि-वचन-सुधा’ और सन् 1873 ई० में ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ का सम्पादन आरम्भ किया । हिन्दी-गद्य का परिष्कृत रूप सर्वप्रथम इसी पत्रिका में दृष्टिगोचर हुआ । तत्कालीन साहित्यकारों ने इनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर सन् 1880 ई० में इन्हें ‘भारतेन्दु’ उपाधि से विभूषित किया ।

कृतियाँ- भारतेन्दु जी की प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैंनाटक- भारतेन्दु जी ने मौलिक तथा अनूदित दोनों प्रकार के नाटकों की रचना की है, जो इस प्रकार हैं
(क) मौलिक- सत्य हरिश्चन्द्र, नीलदेवी, श्रीचन्द्रावली, भारत-दुर्दशा, अंधेरनगरी, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, विषय विषमौषधम्, सती-प्रताप, प्रेमजोगिनी ।
(ख) अनूदित- मुद्राराक्षस, रत्नावली, भारत-जननी, विद्या सुन्दर, पाखण्ड-विडम्बनम्, दुर्लभबन्धु, कर्पूरमंजरी, धनंजय विजय ।
उपन्यास- पूर्ण प्रकाश और चन्द्रप्रभा ।
पत्र-पत्रिकाएँ (सम्पादन)- हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका, हरिश्चन्द्र मैगजीन (हरिश्चन्द्र मैगजीन का नाम आठ अंकों के बाद हरिश्चन्द्र-चन्द्रिका हो गया था । ), कवि-वचन-सुधा ।
इतिहासवपुरातत्त्व सम्बन्धी- रामायण का समय, महाराष्ट्र देश का इतिहास, कश्मीर का राजवंश, अग्रवालों की उत्पत्ति, चरितावली । निबन्ध संग्रह-सुलोचना, परिहास-वंचक, मदालसा, लीलावती, दिल्ली दरबार दर्पण ।
काव्य कृतियाँ- वैजयन्ती, प्रेम-सरोवर, दान-लीला, कृष्ण-चरित्र, प्रेम-मालिका, प्रेम-तरंग, प्रेमाश्रु-वर्षण, सतसई शृंगार, प्रेम-प्रलय, प्रेम-फुलवारी, भारत-वीणा, प्रेम-माधुरी ।
यात्रा-वृत्तान्त-सरयू पार की यात्रा, लखनऊ की यात्रा ।
जीवनियाँ- सूरदास, जयदेव, महात्मा मुहम्मद ।

2. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की भाषा-शैली का वर्णन कीजिए ।
उत्तर– भाषा-शैली- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने हिन्दी भाषा को स्थायित्व प्रदान किया । इसे जनसामान्य की भाषा बनाने के लिए इन्होंने इसमें प्रचलित तद्भव एवं लोकभाषा के शब्दों का यथासम्भव प्रयोग किया और उर्दू-फारसी के प्रचलित शब्दों को भी इसमें स्थान दिया । लोकोक्तियों एवं मुहावरों का प्रयोग करके इन्होंने भाषा के प्रति जनसामान्य में आकर्षण उत्पन्न कर दिया । इन्होंने मुख्य रूप से यह ध्यान रखा कि यह भाषा सबकी समझ में आए और इस भाषा में प्रत्येक प्रकार के विचारों को सुस्पष्ट एवं प्रभावी ढंग से व्यक्त किया जा सके । इस प्रकार भारतेन्दु जी के प्रयासों से हिन्दी भाषा सरल, सुबोध एवं लोकप्रिय होती चली गई । भारतेन्दु जी की गद्य शैली व्यवस्थित और सजीव है । अपने वर्णप्रधान निबन्धों एवं इतिहास ग्रन्थों में भारतेन्दु जी ने वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है । ‘दिल्ली दरबार दर्पण’ की शैली वर्णनात्मक है । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अपने यात्रा संस्मरणों में विवरणात्मक शैली का प्रयोग किया है । यह शैली कवित्वपूर्ण आभा से मण्डित है । सरयू पार की यात्रा, लखनऊ की यात्रा आदि इसी शैली के उदाहरण हैं । वैष्णवता और भारतवर्ष, भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ? आदि निबन्धों में भारतेन्दु जी की विचारात्मक शैली का परिचय मिलता है । भारतेन्दु जी द्वारा रचित जीवनी साहित्य व कई नाटकों में भावात्मक शैली का भी प्रयोग किया गया है । भारत-दुर्दशा, सूरदास की जीवनी, जयदेव की जीवनी आदि भावात्मक शैली में लिखी गई रचनाएँ हैं । कहीं-कहीं इनके निबन्धों, नाटकों आदि में हास्य-व्यंगयात्मक शैली के भी दर्शन होते हैं । अँधेरनगरी’ तथा ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ जैसी इनकी हास्य-व्यंग्यात्मक शैली की रचनाएँ हैं ।

 व्याख्या सम्बन्धी प्रश्न


1— निम्नलिखित गद्यावतरणों की ससन्दर्भ व्याख्या कीजिए
(क) आज बड़े…………. …………….. समय खौवें ।

सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘गद्य गरिमा’ के ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र’ द्वारा लिखित ‘भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ? ‘ नामक पाठ से उद्धृत है ।
प्रसंग- इस गद्यांश में लेखक ने भारतीयों की उन्नति में प्रमुख बाधा, आलस्य की ओर संकेत करते हुए यह प्रेरणा दी है कि मूल रूप से समर्थ भारतीय यदि नेतृत्व के गुण तथा परिश्रम को अपना लें तो वे विश्व के किसी भी देश से पिछड़े नहीं रहेंगे ।
व्याख्या- इस गद्यांश में लेखक ने बलिया के ददरी मेले में अपार जनसमूह को उत्साह के साथ देखकर उनको होने वाले हर्ष तथा भारतवासियों की स्थिति के बारे में विचार व्यक्त किए हैं । भारतेन्दु जी कहते हैं कि यह भारत का महान् दुर्भाग्य है कि यहाँ के निवासी (भारतीय) अत्यन्त आलसी हैं । इस आलसी स्वभाव के कारण ही हम उन्नति नहीं कर पा रहे हैं । यही हमारे पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण है । वास्तव में भारतीयों को रेलगाड़ी के डिब्बों की संज्ञा दी जा सकती है । जिस प्रकार रेलगाड़ी में अच्छे-से-अच्छे और मूल्यवान डिब्बे लगे रहने पर भी वे इंजन के अभाव में एक ही स्थान पर खड़े रहते हैं, उनमें गति उत्पन्न नहीं होती; उसी प्रकार भारतवासी विद्वान् भी हैं और शक्तिशाली भी, परन्तु उन्हें सही नेतृत्व नहीं मिलता है । यदि उन्हें सही नेतृत्व मिल जाए तो वे बड़े-से-बड़ा कार्य कर सकते हैं ।
भारतीयों को इस बात की आवश्यकता है कि कोई उन्हें उनके बल और पौरुष का स्मरण कराए और उनसे कहे कि कर्त्तव्य-मार्ग पर आगे बढ़ों, मौन साधे क्यों खड़े हुए हो ? इसके बाद उन्हें अपने बल और शक्ति का स्मरण उसी प्रकार हो आएगा, जिस प्रकार जाम्बवान् द्वारा याद दिलाए जाने पर हनुमान जी को अपने बल और शक्ति का स्मरण हो आया था । समस्या तो सही नेतृत्व की है । इसलिए भारतीयों को ऐसे नेता की आवश्यकता है, जो उनके बल और पौरुष का स्मरण कराकर उन्हें कर्तव्य-मार्ग की ओर अग्रसर करें । आज भारत में राजा, नवाब, रईस तथा अफसर लोग अपने कर्तव्यों का निर्वाह भली प्रकार से नहीं कर रहे हैं । राजा-महाराजा को तो पूजा-पाठ, भोजन तथा भोगविलास से समय ही नहीं मिलता जो वे अपने कर्तव्यों का पालन करें । सरकारी अफसरों को तो अनेकों सरकारी कार्य होते हैं, वे अपना समय थियेटरों आदि में व्यतीत करते हैं, तथा जो समय बचता है, उसमें वे सोचते है कि हम गन्दे लोगों के साथ अपना अनमोल स्वयं क्यों नष्ट करें ।

UP Board Class 11 Samanya hindi chapter 1 भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ? पाठ का सम्पूर्ण हल


साहित्यिक सौन्दर्य-
(1) लेखक ने -‘श्रीरामचरितमानस’ की पंक्ति का ‘का चुप साधि रहा बलवाना’ का बड़ा ही सटीक प्रयोग किया है ।
(2) भारतवासियों की उपमा रेलगाड़ी के डिब्बों से देकर उनकी स्थिति की बड़ी सुन्दर अभिव्यक्ति की गई है ।
(3) इन पंक्तियों में सरल एवं सुबोध भाषा का प्रयोग कर देश-प्रेम की भावना से परिपूर्ण अभिव्यक्ति की गई है ।
(4) भाषाअन्य भाषाओं के शब्दों से युक्त, सरल, प्रवाहपूर्ण एवं मुहावरेदार ।
(5) शैली- उद्धरण ।
(6) गुण- प्रसाद ।
(7) शब्द- शक्ति, अभिधा ।


(ख) हम नहीं ……………….. …………………………………………..घुड़दौड़ हो रही है ।
सन्दर्भ- पूर्ववत् । प्रसंग- भारतेन्दु जी ने लिखा है कि भारतवासी आलसी हो गए हैं । इस कारण भारत प्रगति की दौड़ में पिछड़ता जा रहा है । भारतवासियों ने अपने सुखमय और स्वर्णिम अतीत को भुला दिया है ।
व्याख्या- भारतेन्दु जी कहते हैं कि मैं तो इस बात पर आश्चर्यचकित हूँ कि भारतवासियों को अपनी वर्तमान दुर्दशा पर लज्जा क्यों नहीं आती । प्राचीनकाल में जब भारतीयों के पास विकास के पर्याप्त साधन नहीं थे, उन्होंने अपने ज्ञान और बुद्धि के बल पर अपने जीवन को सुखमय और उन्नत बनाने का प्रयास किया था । साधनहीनता की स्थिति में भी उन्होंने नक्षत्र-विज्ञान की खोज की तथा समय की गति के विभिन्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया । आज विदेशों में मूल्यवान दूरवीक्षण यन्त्र बनाए गए हैं और उनके सहयोग से नक्षत्र-समूहों की गति परखी जा रही है, किन्तु भारतीयों द्वारा बनाए गए प्राचीन सिद्धान्तों में आज भी कोई परिवर्तन नहीं आया है । इसका कारण यह है कि हमारे पूर्वजों के जीवन में अकर्मण्यता नहीं थी । आज जबकि हम अंग्रेजी विद्या पढ़ रहे हैं, ज्ञान-विज्ञान पर आधारित अनेक प्रकार की पुस्तकों की रचना की जा चुकी है तथा विविध प्रकार के उपयोगी यन्त्र भी निर्मित किए गए है; ऐसी स्थिति में हम अनुपयोगी गाड़ी के समान तुच्छ हो गए हैं और हर क्षेत्र में विदेशियों पर आश्रित हैं । जबकि यह समय अग्रसर होने का है । आज के वैज्ञानिक युग में जब उन्नति की दिशा में बढ़ना आसान है । ऐसा लगता है कि जैसे उन्नति की दौड़ हो रही है ।


साहित्यिक सौन्दर्य- (1) प्रस्तुत पंक्तियाँ अतीत के गौरव का भावात्मक चित्र प्रस्तुत करते हुए राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना को जाग्रत करती हैं ।
(2) लेखक ने भारतीयों के आत्मगौरव को जाग्रत करने के लिए प्रभावशाली व्यंग्य का प्रयोग किया है ।
(3) भारतीयों को कूड़ा फेंकनेवाली गाड़ी की उपमा देते हुए उनके राष्ट्रीय गौरव को जगाने का प्रयास किया गया है ।
(4) भाषासरल एवं प्रवाहपूर्ण ।
(5) शैली- भावात्मक एवं लाक्षणिक ।
(6) गुण- प्रसाद ।
(7) शब्द- शक्ति लक्षण ।


(ग) अमेरिकन-अंगरेज……………. ………………..कहना चाहिए ।
सन्दर्भ- पूर्ववत् । प्रसंग- प्रस्तुत अवतरण में भारतेन्दु जी ने भारतवासियों को सुझाव दिया है कि जब छोटे-छोटे देश भी अपने विकास में संलग्न हैं तब भारतवर्ष को भी अपनी उन्नति का पूरा प्रयास करना चाहिए ।

व्याख्या- भारतेन्दु जी का कहना है कि इस वैज्ञानिक युग में; जबकि उन्नति की दिशा में बढ़ना बहुत आसान है; अमेरिका, इंग्लैण्ड, फ्रांस आदि प्रत्येक देश के नागरिक अपनी-अपनी उन्नति के लिए प्रयासरत हैं । सभी का यह प्रयास है कि उन्नति के शिखर पर पहले वहीं पहुँच जाए । यहाँ तक कि जापानी भी, जो कि अधिक शक्तिशाली नहीं होते, वे भी अपनी उन्नति के लिए प्रयत्नशील हैं । ऐसी स्थिति में भी हमारे भारतवासी अपने ही स्थान पर खड़े-खड़े केवल पैरों से मिट्टी ही खोद रहे हैं । वे इन लघुकाय जापानियों को प्रगति-पथ पर बढ़ते देखकर भी लज्जित नहीं होते । भारतवासियों को यह समझना चाहिए कि ऐसे क्षणों में यदि वे एक बार पिछड़ जाएंगे तो फिर आगे नहीं बढ़ सकते । लेखक का मत है कि आधुनिक वैज्ञानिक युग में उन्नति के साधन इतनी सरलता से उपलब्ध हैं, जैसे वे अनायास प्राप्त वर्षा का जल हों । ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो लूट का माल बिखरा पड़ा हो और हमने आँखों पर पट्टी बाँध रखी हो अथवा वर्षा हो रही हो और हमने सिर पर छाता लगा रखा हो । तात्पर्य यह है कि भारतवर्ष के लोग आलस्य अथवा अज्ञानवश उन्नति के सुलभ साधनों का न तो उपयोग ही कर पा रहे हैं और न ही उन्हें उपलब्ध करा पा रहे हैं ।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) प्रस्तुत अवतरण में भारतेन्दु जी ने कलात्मक ढंग से भारतवासियों को उनके पिछड़ेपन के लिए फटकार लगायी है ।
(2) भाषा- सरल और सुबोध । मुहावरों के प्रयोग से भाषा में प्रवाह उत्पन्न हुआ है ।
(3) शैलीप्रतीकात्मक और व्यंग्यात्मक ।

(घ) बहुत लोग…. …………………………व्यर्थ न जाए ।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।
प्रसंग- प्रस्तुत गद्यावतरण में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने विदेशियों की तुलना में भारतवासियों के निठल्ले बैठे रहने की आदत को स्पष्ट किया है ।
व्याख्या- लेखक कहता है कि यदि भारतवासियों से कार्य करने के लिए कहा जाए तो वे कहते हैं कि हमको पेट के धन्धे के मारे छुट्टी नहीं रहती है, हम उन्नति क्या करें । तुम्हारा पेट भरा है, तुमको दूर की सूझती है । लेकिन भारतवासियों को यह जानना चाहिए कि विश्व के किसी भी देश में सभी के पेट भरे हुए नहीं होते । पेट उन्हीं के भरे होते हैं, जो कर्म करते हैं । विदेशी लोग अपने खेतों को पैदावार के लिए जोतते और बोते समय भी यह सोचते रहते हैं कि वे ऐसा क्या नया करें, जिससे इसी खेत में पिछली फसल की तुलना में दुगुनी फसल उत्पन्न हो । इसी सन्दर्भ में लेखक विदेशी कोचवानों का भी उद्धरण देते हुए कहता है कि विदेशों में गाड़ी के कोचवान भी खाली समय में अखबार पढ़ते हैं अर्थात् अपने समय का सार्थक उपयोग करते हैं, जबकि भारतवासी अपने खाली समय को आलस्य, अकर्मण्यता और बेवजह की बकवास में बिता देते हैं । विदेशी लोग अपने खाली समय में भी ऐसी बात करते हैं जो उनके देश से सम्बन्धित होती है । वे अपने क्षणमात्र समय को भी व्यर्थ नहीं गँवाना चाहते ।

साहित्यिक सौन्दर्य- (1) लेखक ने भारतीयों में आलस्य के आधिक्य को उनकी उन्नति के मार्ग में बाधक माना है ।
(2) भाषा- सरल, स्वाभाविक एवं व्यावहारिक खड़ी बोली ।
(3) शैली- तुलनात्मक एवं उद्धरणात्मक ।


(ड़) जो लोग अपने ……………………….खोदकर फेक दो ।
सन्दर्भ- पूर्ववत् ।
प्रसंग- प्रस्तुत गद्यावतरण में लेखक ने देश-प्रेम की भावना से ओत प्रोत भारतीयों को देश के विकास में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए बलिदान और त्याग की प्रेरणा दी है ।
व्याख्या- लेखक के अनुसार मनुष्य जिस देश या समाज में जन्म लेता है, यदि उसकी उन्नति में समुचित सहयोग नहीं देता तो उसका जन्म व्यर्थ है । देश-प्रेम की भावना ही मनुष्य को बलिदान और त्याग की प्रेरणा देती है । मनुष्य जिस भूमि पर जन्म लेता है और अपना विकास करता है, उसके प्रति प्रेम की भावना का उसके जीवन में सर्वोच्च स्थान होता है । जिन मनुष्यों में राष्ट्र के प्रति विशेष अनुराग होता है, उन्हें अपना सब कुछ बलिदान करते हुए राष्ट्र के विकास में आने वाली बाधाओं को जड़ से उखाड़ने का प्रयत्न करना चाहिए । अपनी कमियों को दूर करते हुए राष्ट्रविरोधी षड्यन्त्रकारियों को परास्त कर दें । जो बातें देश की उन्नति में अवरोध बने उन्हें समूल नष्ट करते हुए देश को विकास के मार्ग पर अग्रसर करें ।


साहित्यिक सौन्दर्य- (1) प्रस्तुत गद्यावतरण में लेखक ने भारत की उन्नति के लिए देशवासियों को बलिदान और त्याग की प्रेरणा दी है ।
(2) देश के विकास में आने वाली बाधाओं को जड़ से उखाड़ने का सुझाव दिया है ।
(3) भाषा- सरल एवं प्रवाहपूर्ण ।
(4) शैली- भावात्मक ।


(च) सब उन्नतियों…….. …………. म्युनिसिपालिटी हैं ।
सन्दर्भ- पूर्ववत् । प्रसंग- प्रस्तुत गद्यावतरण में लेखक ने सभी प्रकार की उन्नतियों के मूल में धर्म है तथा मानव जीवन में त्योहारों के महत्व को इस तथ्य द्वारा प्रकट किया है ।
व्याख्या- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी कहते हैं कि यदि हमें अपने देश में किसी भी प्रकार की उन्नति करनी है तो हमारे सभी कार्य धर्म के अनुसार होने आवश्यक है । इसलिए हमें सबसे पहले धर्म की उन्नति करनी चाहिए । भारतेन्दु जी ने अंग्रेजों की नीति का उदाहरण देकर स्पष्ट किया है कि अंग्रेजों की धर्मनीति और राजनीति परस्पर मिली है । इस कारण वे लगातार उन्नति करते जा रहे हैं । हमारे यहाँ धर्म की आड़ में विविध प्रकार की नीति, समाज-गठन आदि भरे हुए हैं । ये उन्नति का मार्ग प्रशस्त नहीं करते । इसलिए धर्म की उन्नति से सभी प्रकार की उन्नति संभव है । लेखक ने त्योहारों को म्युनिसिपालिटी बताया है जिनके द्वारा घर, शरीर तथा वातावरण शुद्ध हो जाते हैं । उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया है कि होली की अग्नि से वसंत की बिगड़ी हवा स्वच्छ हो जाती है, दीवाली के बहाने घर की सफाई हो जाती है तथा एकादशी का व्रत करने से शरीर शुद्ध हो जाता है । भारतेन्दु जी कहते हैं कि हमारे देश में प्रचलित त्योहार, व्रत, नियम, आदि समाज-धर्म है । परन्तु बदलती हुई परिस्थितियाँ और समय के अनुसार इनमें भी परिवर्तन की आवश्यकता है । हमारे पूर्वजों ने जो नियम बनाए थे, उनका आशय न समझ उन्हीं की उत्तराधिकारी पीढ़ी ने अपनी सुविधा और स्वार्थपूर्ति के लिए मनमाने नियम और धर्म बना लिए हैं । ऐसे सभी नियमों और धर्मों के पुनर्निरीक्षण की आवश्यकता है, जिससे सच्चाई की पहचान की जा सके । ऋषि-मुनियों ने नियमों और धर्मों को क्यों बनाया है इसकी हमें वैज्ञानिक खोज करनी चाहिए और उनमें से जो बातें हमारे समाज और देश के लिए उपयोगी हो उन्हें ग्रहण कर लेना चाहिए । जिनको छोड़ने की आवश्यकता है उन्हें छोड़ देना चाहिए । सभी जातियों के लोग ऊँच-नीच छोड़कर भाईचारे से रहे । भारतेन्दु जी कहते हैं कि हम अपने उपभोग की सामान्य वस्तु भी स्वयं निर्मित करने का प्रयास नहीं करते । हमें अमेरिका में बनी धोती पहनते हैं, अंगा इंग्लैंड का तथा कंघी फ्रांस की प्रयोग करते हैं । छोटी-छोटी वस्तुओं के लिए आत्मनिर्भर होने के लिए हमें अपने आत्मविश्वास को बढ़ाना होगा । भारतेन्दु जी भारतीयों में स्वदेशी की भावना को बल देते हुए कहते हैं कि एक बार इज्जत का ख्याल न रखने वाले एक महाशय एक महफिल में किसी के कपड़े पहनकर चले गए तथा उनके कपड़ों को पहचान लिया । इस पर भारतेन्दु जी ने दुःख जताते हुए कहा है कि आज भारतीय इतने अकर्मण्य और परालंबी हो गए हैं कि हम दैनिक उपयोग की वस्तु का भी निर्माण नहीं कर सकते । अपने देश को स्वावलंबी राष्ट्र बनाने के लिए स्वदेशी वस्तुओं और अपनी भाषा का प्रयोग करना होगा । विदेशी भाषा और वस्तुओं पर अपनी निर्भरता को समाप्त करना होगा । तभी भारतवर्ष की उन्नति संभव है ।

भारत की वर्षोन्नति कैसे हो सकती है?

हाय, अफसोस, तुम ऐसे हो गये कि अपने निज की काम की वस्तु भी नहीं बना‌ सकते। भाइयों, अब तो नींद से चौंको, अपने देश की सब प्रकार से उन्नति करो। जिसमें तुम्हारी भलाई हो वैसी ही किताब पढ़ो, वैसे ही खेल खेलो, वैसी ही बातचीत करो। परदेशी वस्तु और परदेशी भाषा का भरोसा मत रखो।

भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है के लेखक का नाम लिखो?

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (1850-1885) ने नवम्बर 1884 में यहां एक व्याख्यान दिया था जिसे बलिया व्याख्यान´या बलिया वाला भाषण के नाम से जाना जाता है. यही व्याख्यान भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है शीर्षक से `हरिश्चंद्र चंद्रिका´ में दिसम्बर 1884 में प्रकाशित हुआ.

भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है किस विधा की रचना है?

भारतवर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है ? भारतेंदु का प्रसिद्ध भाषण है। इसमें एक ओर ब्रिटिश शासन की मनमानी पर व्यंग्य है, तो दूसरी ओर अंग्रेज़ों के परिश्रमी स्वभाव के प्रति आदर भी है। भारतेंदु ने आलसीपन, समय के अपव्यय आदि कमियों को दूर करने की बात करते हुए भारतीय समाज की रूढ़ियों और गलत जीवन शैली पर भी प्रहार किया है।

भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है निबंध के अनुसार भारत की उन्नति में बाधित प्रमुख कारण है?

धर्म में, घर के काम में, बाहर के काम में, रोजगार में, शिष्टाचार में, चाल चलन में, शरीर में,बल में, समाज में, युवा में, वृद्ध में, स्त्री में, पुरुष में, अमीर में, गरीब में, भारतवर्ष की सब आस्था, सब जाति,सब देश में उन्नति करो। सब ऐसी बातों को छोड़ो जो तुम्हारे इस पथ के कंटक हों।