प्रकरण 1.(सामान्य परिचय)
नामदेव के विषय में–
प्रकरण–2(निर्गुण धारा)
यहीं तक नहीं, वेदांतियों के कनक-कुंडल-न्याय आदि का व्यवहार भी इनके वचनों में मिलता है। गहना एक कनक तें गहना, इन महँ भाव न दूजा।
मुझको तू क्या ढूंढे बंदे मैं तो तेरे पास में। *** *** *** **** साईं के संग सासुर आई। संग न सुती,स्वाद न जाना, गा जीवन सपने की नाई।
-ये खंडेलवाल बनिए थे और चैत्र शुक्ल 9, संवत् 1653 में द्यौसानामक स्थान (जयपुर राज्य) में उत्पन्न हुए थे।
अक्षय अनन्य यह दतिया रियासत के अंतर्गत सेनुहरा के कायस्थ थे और कुछ दिनों तक दतिया के राजा पृथ्वीचंद के दीवान थे। ●प्रसिद्ध छत्रसाल इनके शिष्य हुए। ●इन्होंने योग और वेदांत पर कई ग्रंथ- राजयोग, विज्ञानयोग, ध्यानयोग, सिद्धांतबोध, विवेकदीपिका, ब्रह्मज्ञान, अनन्य प्रकाश आदि लिखे और दुर्गा सप्तशती का भी हिंदी पद्यों में अनुवाद । ●शिक्षितों का समावेश कम होने से इनकी बानी अधिकतर सांप्रदायिक के ही काम की है, उनमें मानव जीवन की भावनाओं की वह विस्तृत व्यंजना नहीं है जो साधारण जनसमाज को आकर्षित कर सकें। दादूदयाल की शिष्य परंपरा में जगजीवनदास या जगजीवन साहब हुए जो संवत 1818 के लगभग वर्तमान थे। इन्होंने अपना एक सतनामी संप्रदाय चलाया।इनके शिष्य दूलमदास थे। _◆_ निर्गुण पंथ के संतों के संदर्भ में यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि उनमें कोई दार्शनिक व्यवस्था दिखाने का प्रयत्न व्यर्थ है। निर्गुण पंथ में जो थोड़ा-बहुत ज्ञानपक्ष है वह वेदांत से लिया हुआ है,जो प्रेमतत्व है, वह सूफियों का है, न कि वैष्णव का। ‘अहिंसा’ और ‘प्रपत्ति’ के अतिरिक्त व वैष्णवत्व का और कोई अंश उसमें नहीं है। ●बौद्धधर्म के अष्टांग मार्ग हैं-सम्यक स्मति और सम्यक् समाधि । ‘सम्यक् स्मृति’ वह दशा है जिसमें क्षण-क्षण पर मिटनेवाला ज्ञान स्थिर हो जाता है और उसकी श्रृंखला बँध जाती है। ‘समाधि’ में साधक सब संवेदनों से परे हो जाता है। अतः ‘सुरति’, ‘निरति’ शब्द योगियों की बानियों से आये हैं वैष्णवों से उनका कोई संबंध नहीं। प्रकरण -3(निर्गुणधारा)निर्गुणोपासक भक्तों की दूसरी शाखा उन सूफी कवियों की है जिन्होंने प्रेमगाथाओं के रूप में उस प्रेमतत्व का वर्णन किया है जो ईश्वर को मानने वाला है तथा जिसका आभास लौकिक प्रेम के रूप में मिलता है। कुतबन मंझन मृगावती के समान मधुमालती में भी 5 चौपाइयों के उपरांत 1 दोहे का क्रम रखा गया है।पर मृगावती की अपेक्षा इसकी कल्पना भी विशद है और वर्णन भी अधिक विस्तृत और
ह्रदयग्राही है। देखत ही पहिचनेउ तोही, एही रूप जेहिं छदरयो मोही।। पद्मावत’ की हस्तलिखित प्रतियां प्राय: फारसी अक्षरों में ही मिलती हैं।
कासिमशाह
प्रकरण.4 (सगुणधारा)रामभक्ति शाखा●रामानुज जी के शिष्य परंपरा देश में बराबर फैलती गयी और जनता भक्ति मार्ग की ओर अधिक आकर्षित होती रही। रामानुज जी के श्री संप्रदाय में विष्णु या नारायण की उपासना है। ◆तुलसीदास ●रामचरितमानस’ के अयोध्याकांड में वह स्थल देखिए जहाँ प्रयाग से चित्रकूट जाते हुए राम जमुना पार करते हैं और भरद्वाज के द्वारा साथ लगाये हुए शिष्यों को विदा करते हैं। राम सीता तट पर के लोगों से बातचीत कर ही रहे हैं कि- “तेहि अवसर एक तापस आवा। तेजपुंज लघु बयस सुहावा ।। कवि अलषित गति बेष बिरागी। मन क्रम बचन राम अनुरागी।।” “सजल नयन तन पुलक निज इष्ट देउ पहिचानि। परेउ दंड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि।।” यह तापस एकाएक आता है। कब जाता है, कौन है, इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं है। बात यह है कि इस ढंग से कवि ने अपने को ही तापस रूप में राम के पास पहुँचाया है और ठीक उसी प्रदेश में जहाँ के वे निवासी थे, अर्थात् राजापुर के पास। सूरदास ने भी भक्तों की इस पद्धति का अवलंबन किया है। यह तो निर्विवाद है कि बल्लभाचार्य जी से दीक्षा लेने के उपरांत सूरदास जी गोवर्द्धन पर श्रीनाथ जी के मंदिर में कीर्तन किया करते थे। अपने सूरसागर के दशम् स्कंध के आरंभ में सूरदास ने श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए अपने ढाढी के रूप में नंद के द्वार पर पहुँचाया है। “नंद जू! मेरे मन आनंद भयो, हौं गोवर्द्धन तें आयो। तुम्हरे पुत्र भयो मैं सुनि के अति आतुर उठि धायो।।” “जब तुम मदनमोहन करि टेरौ, यह सुनि के घर जाऊँ हों तो तेरे घर को ढाढ़ी, सूरदास मेरो नाऊँ।।”
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●हिंदी कविता के प्रेमी मात्र जानते हैं कि उनका ब्रज और अवधी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था। ब्रजभाषा का जो माधुर्य हम सूरसागर में पाते हैं वही माधुर्य और भी संस्कृत रूप में हम गीतावली और कृष्णगीतावली में पाते हैं। ठेठ अवधी की जो मिठास हमें जायसी की पद्मावत में मिलती है वही जानकीमंगल, पार्वतीमंगल, बरवैरामायण और रामललानछह में हम पाते हैं। यह सूचित करने की आवश्यकता नहीं कि न तो सूर का अवधी पर अधिकार था और न जायसी का ब्रजभाषा पर। ●प्रचलित रचना शैलियों पर उनका इसी प्रकार का पूर्ण अधिकार हम पाते हैं। (क) वीरगाथाकाल की छप्पय पद्धति पर इनकी रचना थोड़ी है पर इनकी निपुणता पूर्ण रूप से प्रदर्शित करती है; जैसे- “कतहुँ विटप भूधर उपारि परसेन बरक्खत। कतहुँ बाजि सो बाजि मर्दि गजराज करक्खत।।” (ख) विद्यापति और सूरदास की गीत पद्धति पर इन्होंने बहुत विस्तृत और बड़ी सुंदर रचना की है। सूरदास जी की रचना में संस्कृत की ‘कोमलकांत पदावली’ और अनुप्रासों की वह विचित्र योजना नहीं है जो गोस्वामी जी की रचना में है। दोनों भक्त शिरोमणियों की रचना में यह भेद ध्यान देने योग्य है और इस पर ध्यान अवश्य जाता है। गोस्वामी जी की रचना अधिक संस्कृतगर्भित है। पर इसका यह अभिप्राय नहीं है कि इनके पदों में शुद्ध देशभाषा का माधुर्य नहीं है। इन्होंने दोनों प्रकार की मधुरता का बहुत ही अनूठा मिश्रण किया है। विनयपत्रिका के प्रारंभिक स्तोत्रों में जो संस्कृत पदविन्यास है उसमें गीतगोविंद के पदविन्यास से कहीं कर्कश देखने योग्य है। हृदय के त्रिविध भावों की व्यंजना गीतावली के मधुर पदों में देखने में आता है। कौशल्या के सामने भरत अपनी आत्मग्लानि की व्यंजना किन शब्दों में करते हैं, देखिए- “जौ हौं मातुमते महँ ह्वैहौं। तौ जननी जग में या मुख की कहाँ कालिमा ध्वहौं? क्यौं हौं आजु होत सुचि सपथनि, कौन मानिहै साँची?” ●इसी प्रकार चित्रकूट में राम के सम्मुख जाते हुए भरत की दशा का सुंदर चित्रण है- बिलोके दूरि तें दोउ वीर।मन अगहुँइ तन पुलक सिथिल भयो, नयन नलिन भरे नीर। ‘गीतावली’ की रचना गोस्वामी जी ने सूरदास जी के अनुकरण पर की है। बाललीला के कई एक पद ज्यों के त्यों सूरसागर में भी मिलते हैं, केवल ‘राम’ ‘श्याम’ का अंतर है। लंकाकांड तक तो कथा की अनेकरूपता के अनुसार मार्मिक स्थलों का जो चुनाव हुआ है वह तुलसी के सर्वथा अनुरूप है। पर उत्तरकांड में जाकर सूर पद्धति के अतिशय अनुकरण के कारण उनका गंभीर व्यक्तित्व तिरोहित-सा हो गया है। जिस रूप में राम को उन्होंने सर्वत्र लिया है, उनका भी ध्यान उन्हें नहीं रह गया। ‘सूरदास’ में जिस प्रकार गोपियों के साथ श्रीकृष्ण हिंडोला झूलते हैं, होली खेलते हैं, वही करते राम भी दिखाये गये हैं। इतना अवश्य है कि सीता की सखियों और पुरनारियों का राम की ओर पूज्यभाव ही प्रकट होता है। राम की नखशिख शोभा का अलंकृत वर्णन भी सूर की शैली पर बहुत-से पदों में लगातार चला गया है। सरयूतट के इस आनंदोत्सव को आगे चलकर रसिक लोग क्या रूप देंगे इसका ख्याल गोस्वामी जी को न रहा। (ग) गंग आदि भाटों की कवित्त, सवैया पद्धति पर भी इसी प्रकार सारा रामचरित गोस्वामी जी कह गये हैं जिसमें नाना रसों का सन्निवेश अत्यंत विशद रूप में और अत्यंत पुष्ट और स्वच्छ भाषा में मिलता है। नाना रसमयी रामकथा तुलसीदास जी ने अनेक प्रकार की रचनाओं में कही है। कवितावली में रसानुकूल शब्दयोजना बड़ी सुंदर है। जो तुलसीदास जी ऐसी कोमल भाषा का व्यवहार करते हैं “राम को रूप निहारत जानकि, कंकन के नग की परछाहीं याते सबै सुधि भूलि गई, कर टेकि रही, पल डारति नहीं।।” “गोरो गरूर गुमान भरो, यह, कौसिक, छोटो सो ढोटो है काको?” “जल को गये लक्खन, हैं लरिका, परिखौ, पिय छाँह घरीक स्वै ठाढ़े। “ ●वे वीर और भयानक के प्रसंग में ऐसी शब्दावली का व्यवहार करते हैं। “प्रबल प्रचंड बरिखंड बाहुदंड बीर, धाए जातुधान, हनुमान लियो घेरिकै। महाबल पुंज कुंजरारि क्यों गरजि भट, जहाँ तहाँ पटके लंगूर फेरि फेरिकै।” ●कैधों ब्योम वीथिका भरे हैं भूरि धूमकेतु, बीररस बीर तरवारि सी उघारी है।। (घ) नीति के उपदेश की भक्ति पद्धति पर बहुत-से दोहे रामचरितमानस और दोहावली में मिलेंगे जिनमें बड़ी मार्मिकता से और कहीं-कहीं बड़े रचनाकौशल से व्यवहार की बातें कही गयी हैं और भक्तिप्रेम की मर्यादा दिखाई गयी है- रीझि आपनी बूझि पर, खीझ विचार विहीन । ते उपदेस न मानहीं, मोह महोदधि मीन। (ङ) जिस प्रकार चौपाई, दोहे के क्रम से जायसी ने अपना पद्मावत नाम का प्रबंधकाव्य लिखा उसी क्रम पर गोस्वामी जी ने अपनी परम प्रसिद्ध काव्य रामचरितमानस, जो लोगों के हृदय का हार बनता चला आता है, रचा। भाषा वही अवधी है, केवल पदविन्यास का भेद है। गोस्वामी जी शास्त्रपारंगत विद्वान् थे अतः उनकी शब्दयोजना साहित्यिक और संस्कृतगर्भित है। जायसी में केवल ठेठ अवधी का माधुर्य है, पर गोस्वामी जी की रचना में संस्कृत की कोमल पदावली का भी बहुत ही मनोहर मिश्रण है। नीचे दी हुई कुछ चौपाइयों में दोनों की भाषा का भेद स्पष्ट देखा जा सकता है- जब हुँत कहिगा पंखि संदेसी। सुनिउँ कि आवा है परदेसी।। -जायसी अमिय मूरिमय चूरन चारू। सुमन सकल भवरुज परिवारू ।। – तुलसी
“सूधे मन,सूधे सचन,सूधे सब करतूति। ●वे भक्ति मार्ग को ऐसा नहीं मानते जिसे “लखै कोई बिरलै” । वे उसे ऐसा सीधा-सादा स्वभाविक मार्ग बताते हैं जो सबके सामने दिखाई पड़ता है। वह संसार में सबके लिए ऐसा ही सुलभ है जैसे अन्न और जल- निगम अगम, साहब सुगम, राम साँचिली चाह।। अंबु असन अवलोकियत, सुलभ सबहि जग माँह ।। अभिप्राय यह कि जिस हृदय से भक्ति की जाती है वह सबके पास है। हृदय की जिस पद्धति से भक्ति की जाती है वह भी वही है जिससे माता-पिता की भक्ति, पुत्र कलत्र का प्रेम किया जाता है। इसी से गोस्वामी जी कहते हैं कि- यहि जग महँ जहँ लगि या तन की प्रीति प्रतीति सगाई। अत: रमते जोगियों की रहस्यभरी बानियाँ सुनते- सुनते जनता के हृदय में भक्ति की सच्ची भावना दब गई थी, उठने ही नहीं पाती थी। लोक की इसी दशा को लक्ष्य करके गोस्वामी जी को कहना पड़ा था– ” गोरख जगायो जोग, भक्ति भगायों लोग।” ●गोस्वामी जी की भक्तिपद्धति की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सर्वांगपूर्णता।जीवन के किसी एक पक्ष को सर्वथा छोड़कर वह नहीं चलती है, सभी पक्षों के साथ उसका सामंजस्य है। “नाम रूप दुइ ईस उपाधि। अकथ अनादि सुसामुझि साधी।। ●दोहावाली में भक्ति की सुगमता बड़े ही मार्मिक ढंग से गोस्वामी जी ने इस दोहे के द्वारा सूचित की है- तोहि लागहिं राम प्रिय, की तुम रामप्रिय होहि । दुई महँ रुचै जो सुगम होइ, कीबे तुलसी तोहि ।। ●इसी प्रकार रामचरितमानस उत्तरकांड में उन्होंने ज्ञान की अपेक्षा भक्ति को कहीं अधिक सुसाध्य और आशुफलदायिनी कहा है।
“सियाराममय सब जग जानी।करौ प्रणाम जोरि जुग पानी।” ● जगत को केवल राममय न कहकर उन्होंने ‘सियाराममय’ कहा है।सीता प्रकृतिस्वरूपा है और राम ब्रह्म है,प्रकृति अचित पक्ष है और ब्रह्म चित पक्ष। ●गीतावली तो प्रबंध काव्य न थी। उसमें तो सूर के अनुकरण पर वस्तु-व्यापार-वर्णन का बहुत विस्तार है। उसके भीतर छोटे-छोटे नूतन प्रसंगों की उद्भावना का पूरा अवकाश था, फिर भी कल्पित घटनात्मक प्रसंग नहीं पाये जाते। इससे यही प्रतीत होता है कि उनकी प्रतिभा अधिकतर उपलब्ध प्रसंगों को लेकर चलने वाली थी, नये-नये प्रसंगों की उद्भावना करने वाली नहीं। ●’रामचरितमानस’ में तुलसी केवल कवि रूप में ही नहीं, उपदेशक के रूप में भी सामने आते हैं।
●गोस्वामी जी के एक मित्र पं. गंगाराम ज्योतिषी काशी में प्रह्लाद घाट पर रहते थे। रामाज्ञाप्रश्न उन्हीं के अनुरोध से बना माना जाता है। हनुमानबाहुक से तो प्रत्यक्ष है कि वह बाहुओं.. में असह्य पीड़ा उठने के समय रचा गया था। विनयपत्रिका के बनने का कारण यह कहा जाता है कि जब गोस्वामी जी ने काशी में रामभक्ति की गहरी धूम मचाई तब एक दिन कलिकाल तुलसीदास.. जी को प्रत्यक्ष आकर धमकाने लगा और उन्होंने राम के दरबार में रखने के लिए वह पत्रिका या अर्जी लिखी। ●गोस्वामी जी की काव्यरचना अत्यंत प्रौढ़ और सुव्यवस्थित है, एक भी शब्द फालतू नहीं ( खेद है कि भाषा की यह सफाई पीछे होने वाले बहुत कम कवियों में रह गयी। सब रसों की सम्यक् व्यंजना उन्होंने की है, पर मर्यादा का उल्लंघन कहीं नहीं किया है। प्रेम और शृंगार का ऐसा वर्णन जो बिना किसी लज्जा और संकोच के सबके सामने पढ़ा जा सके, गोस्वामी जी का ही है। ◆स्वामी अग्रदास
” कुंडल ललित कपोल जुगल अस परम सुदेसा। ◆नाभादास जी ◆प्राणचंद चौहान ◆हृदयराम प्रकरण-5(सगुण धारा)
●श्रीबल्लभाचार्य जी-पहले कहा जा चुका है कि विक्रम की पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में वैष्णव धर्म का जो आंदोलन देश के एक छोर से दूसरे छोर तक रहा उसके श्रीबल्लभाचार्य जी प्रधान प्रवर्तकों में से थे। आचार्य जी का जन्म संवत् 1535, वैशाख कृष्ण 11 को और गोलोकवास संवत् 1587, आषाढ़ शुक्ल 3 को हुआ। ये वैदशास्त्र में पारंगत धुरंधर विद्वान् थे। ●बल्लभ रामानुज से लेकर बल्लभाचार्य तक जितने भक्त दार्शनिक या आचार्य हुए हैं, सबका लक्ष्य शंकराचार्य के मायावाद और विवर्त्तवाद से पीछा छुड़ाना था। ●शंकर ने केवल निरुपाधि निर्गुण ब्रह्म की ही पारमार्थिक सत्ता स्वीकार की थी। ने ब्रह्म में सब धर्म माने सारी सृष्टि को उन्होंने लीला के लिए ब्रह्म की आत्मकृति कहा। ●शंकर ने निर्गुण को ही ब्रह्म का पारमार्थिक या असली रूप कहा था और सगुण की व्यवहारिक या मायिक।बल्लभाचार्य ने बात उलटकर सगुण रूप को ही असली परमार्थिक रूप बताया और निर्गुण को उसका अंशतः
तिरोहित रूप कहा। ●पुष्टि जीव, जो भगवान् के अनुग्रह का ही भरोसा रखते हैं और ‘नित्यलीला’ में प्रवेश पाते हैं।
●वल्लभाचार्य के मुख्य ग्रंथ ये हैं:- ●इनमें से पूर्वमीमांसा भाष्य का बहुत थोड़ा-सा अंश मिलता अणुभाष्य’ आचार्य जी पूरी न कर सके थे। अतः अंत के डेढ़ अध्याय उनके पुत्र गोसाईं बिट्ठलनाथ ने लिखकर ग्रंथ पूरा किया। भागवत की सूक्षम टीका नहीं मिलती, सुबोधिनी का भी कुछ अंश ही मिलता है. प्रकरण ग्रंथों में ‘पुष्टिप्रवाहमर्यादा’ नाम की प्रसिद्ध पुस्तक मूलचंद तुलसीदास तेलीवाला ने संपादित करके प्रकाशित करायी है। ●। अंत में अपने उपास्य श्रीकृष्ण की जन्मभूमि में जाकर उन्होंने अपनी गद्दी स्थापित की और अपने शिष्य पूरनमल खत्री द्वारा गोवर्धन पर्वत पर श्रीनाथ जी का बड़ा भारी मंदिर निर्माण कराया तथा सेवा का बड़ा भारी मंडान बाँधा । बल्लभ संप्रदाय में जो उपासना पद्धति या सेवा पद्धति ग्रहण की गयी उसमे भोग, राग तथा विलास की प्रभूत सामग्री के प्रदर्शन की प्रधानता रही। ●उनके पुत्र गोसाई बिठ्ठलनाथ जी हैं। ●जनता पर चाहे जो प्रभाव पड़ा हो पर उक्त गद्दी के भक्त शिष्यों ने सुंदर-सुंदर पदों द्वारा जो मनोहर प्रेम संगीत धारा बहायी उसने मुरझाते हुए हिंदू जीवन को सरस और प्रफुल्लित
किया।इस संगीतधारा में दूसरे संप्रदायों के कृष्णभक्तों ने भी पूरा योग दिया। ●भागवत् धर्म का उदय यद्यपि महाभारत काल में ही हो चुका था और अवतारों की भावना देश में बहुत प्राचीन काल से चली आती थी।
●दक्षिण में अंदाल इसी प्रकार की एक प्रसिद्ध भक्तिन हो गयी हैं जिनका जन्म संवत् 773 में हुआ था। अंदाल के पद द्रविड़ भाषा में ‘तिरुप्पावइ’ नामक पुस्तक में मिलते हैं। अंदाल एक स्थल पर कहती है, (अब मैं पूर्ण यौवन को प्राप्त हूँ और स्वामी कृष्ण के अतिरिक्त और किसी को अपना पति नहीं बना सकती।’) ●मीराबाई और चैतन्य महाप्रभु दोनों पर सूफियों का प्रभाव पार प्रभाव पाया जाता है। ◆सूरदास ●गोवर्द्धन पर श्रीनाथ जी का मंदिर बन जाने के पीछे एक बार बल्लभाचार्य जी गऊघाट पर उतरे तब सूरदास उनके दर्शन को आये और उन्हें अपना बनाया एक पद गाकर सुनाया। आचार्य जी ने उन्हें अपना शिष्य किया और भागवत की कथाओं को गाने योग्य पदों में करने का आदेश दिया। ●श्रीनाथ जी के मंदिर निर्माण के थोड़ा ही पीछे सूरदास जी बल्लभ संप्रदाय में आए। ●तुलसी ने तो अपने कुछ प्रच्छन्न रूप में पहुँचाया है, पर सूर ने प्रकट रूप में।
●साहित्य लहरी’ के अंत में एक पद है जिसमें सूर अपनी वंशपरंपरा देते हैं।उस पद के अनुसार सूर पृथ्वीराज के कवि चंदबरदाई के वंशज ब्रह्मभट्ट थे।
●तुलसीदास जी के समान लोकसंग्रह का भाव इनमें न था। समाज किधर जा रहा है, इस बात की
परवाह ये नहीं रखते थे, यहाँ तक कि अपने भगवत्प्रेम की पुष्टि के लिए जिस शृंगारमयी लोकोत्तर छटा और आत्मोत्सर्ग की अभिव्यंजना से इन्होंने जनता को रसोन्मत्त किया, उसका लौकिक स्थूल दृष्टि रखनेवाले विषय वासनापूर्ण जीवों पर कैसा प्रभाव पड़ेगा, इसकी ओर इन्होंने ध्यान न दिया।
●ब्रजवासीदास ने रामचरितमानस के ढंग पर दोहों, चौपाइयों में प्रबंधकाव्य के रूप में कृष्णचरित का वर्णन किया, पर ग्रंथ बहुत साधारण कोटि का हुआ और उसका वैसा प्रसार न हो सका। ●पहले कहा गया है कि श्री बल्लभाचार्य जी की आज्ञा से सूरदास जी ने श्रीमद्भागवत् की कथा को पदों में गाया। इनके सूरसागर में व्यस्तव में भागवत के दशम स्कंध की कथा संक्षेपतः इतिवृत्त के रूप में थोड़े-से पदों कह दी गयी है सूरसागर में कृष्णजन्म से लेकर श्रीकृष्ण के मथुरा जाने तक की कथा अत्यंत विस्तार से फुटकल पदों में गायी गयी है।
” अनुखन माधव- माधव सुमिरइत सुंदरी भेलि मधाई।।” ● सूरसागर में जगह-जगह दृष्टिकूट वाले पद मिलते हैं ,यह भी विद्यापति का अनुकरण है। ” सारंग नयन,बयन पुनि सारंग, सारंग तसु समधाने। ● कबीर के प्रसंग में कहा जा चुका है कि उनकी साखी की भाषा तो साधुक्कड़ी है, पर पदों की भाषा काव्य में प्रचलित ब्रजभाषा है।यह एक पद कबीर और सूरदास दोनों की रचनाओं के भीतर ज्यों का त्यों मिलता है– ” है हरिभजन को परवान। ●राधाकृष्ण की प्रेमलीला के गीत सूर के पहले से चले आते थे, यह तो कहा ही जा चुका है। बैजू बावरा एक प्रसिद्ध गवैया हो गया है जिसकी ख्याति तानसेन के पहले देश में फैली हुई थी। ● जिस प्रकार रामचरित का गान करने वाले कवियों में गोस्वामी तुलसीदास जी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है उसी प्रकार कृष्णचरित गाने वाले भक्त कवियों में महात्मा सूरदास जी का। वास्तव में ये हिंदी काव्य गगन के सूर्य और चंद्र हैं।जो तन्मयता इन दोनों भक्त-शिरोमणि कवियों की वाणी में पायी जाती है वह अन्य कवियों में कहाँ? हिंदी काव्य इन्हीं के प्रभाव से अमर हुआ, इन्हीं की सरसता से उसका स्रोत सूखने न पाया।सूर की स्तुति में, एक संस्कृत श्लोक के भाव को लेकर यह दोहा कहा गया है- ” उत्तम पद कवि गंग के,कविता को बल वीर। ●इसी प्रकार यह दोहा भी बहुत प्रसिद्ध है- किधौं सूर को सर लग्यो, किधौं सूर को पीर। किधौं सूर को पद लग्यो, बेध्यो सकल सरीर।। ● यद्यपि तुलसी के समान
सूर का कार्यक्षेत्र इतना व्यापक नहीं कि जिनमें जीवन की भिन्न-भिन्न दिशाओं का समावेश हो पर जिस परिमित पुण्यभूमि में उनकी वाणी ने संचरण किया उसका कोई कोना अछूता न छूटा।
● वात्सल के समान ही श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का इतना प्रचार विस्तार और किसी कवि में नहीं । ” करि लयै न्यारी,हरि आपनि गैया।” ●सूर ने एक न्यारे प्रेमलोक की आनंद छटा अपने बंद नेत्रों से देखी है। ●उद्धव के बहुत बकने पर वे कहती है- ऊधौ! तुम अपनो जतन करौ।। हित की कहत कुहित की लागै, किन बेकाज ररौ? ●इस भ्रमरगीत का महत्त्व एक बात से और बढ़ गया है। भक्तशिरोमणि सूर ने इसमें सगुणोपासना का निरूपण बड़े ही मार्मिक ढंग से-हृदय की अनुभूति के आधार पर तर्क पद्धति पर नहीं किया। ●जब उद्धव बहुत-सा वाग्विस्तार करके निर्गुन ब्रह्म की उपासना का उपदेश बराबर देते चले जाते हैं तब गोपियाँ बीच में रोककर इस प्रकार पूछती हैं- निर्गुन कौन देस को बासी? और कहती हैं कि चारों ओर भासित इस सगुणसत्ता का निषेध करके क्यों व्यर्थ उसके अव्यक्त और अनिर्दिष्ट पक्ष को लेकर यों ही बक-बक करता है- सुनिहै कथा कौन निर्गुन की, रचि-पचि बात बनावत। सगुन सुमेरु प्रगट देखियत, तुम तृन की ओट दुरावत। उस निर्गुण और अव्यक्त का मानव हृदय के साथ भी कोई संबंध हो सकता है, यह तो बताओ- रेख न रूप, बरन जाके नहि ताको हमैं बतावत अपनी कहौं, दरस ऐसो को तुम कबहूँ हो पावत? ● अंत में यह कहकर बात समाप्त करती हैं कि तुम्हारे निर्गुण से तो हमें कृष्ण के अवगुणों में ही अधिक रस जान पड़ता है ऊनो कर्म कियो मातुल बधि, मदिरा मत्त प्रमाद।। सूर स्याम एते अवगुन में निर्गुन तें अति स्वाद ।। ◆नंददास ● नाभा जी के भक्तमाल में इन पर जो छप्पय है उसमें जीवन के संबंध में इतना ही है- “चंद्राहास अग्रज सुहृद परम प्रेम पथ में पगे। ●उसी वार्ता में यह भी लिखा है कि द्वारका जाते हुए नंददास जी सिंधुनद ग्राम में एक रूपवती खत्रानी पर आसक्त हो गये। ये उस स्त्री के घर के चारों ओर चक्कर लगाया करते थे। घरवाले हैरान होकर कुछ दिनों के लिए गोकुल चले गये। वहाँ भी वे जा पहुँचे। अंत में वहीं पर गोसाईं बिट्ठलनाथ जी के सदुपदेश से इनका मोह छूटा और ये अनन्य भक्त हो गये। इस कथा में ऐतिहासिक तथ्य केवल इतना ही है कि इन्होंने गोसाईं बिट्ठलनाथ जी से दीक्षा ली। ध्रुवदास जी ने भी अपनी ‘भक्तनामावली में इनकी भक्ति की प्रशंसा के अतिरिक्त और कुछ नहीं लिखा है।
●कृष्ण की रासलीला का अनुप्रासादियुक्त साहित्यिक भाषा में विस्तार के साथ वर्णन है। इनकी कुछ प्रमुख पुस्तकें है– भागवत दशम स्कंध,रुक्मणीमंगल,सिद्धांत पंचाध्याई, रूपमंजरी, अनेकार्थकनाममाला,दानलीला मानलीला, ,श्यामासगाई, भ्रमरगीत ,सुदामाचरित्र। रासपंचाध्यायी से- “ताही छिन उड्डराज उदित रस-रास-सहायक।। कुमकुम-मंडित-बदन प्रिया जनु नागरि नायक ।। “कहन श्याम संदेश एक मैं तुम पै आयो। “जौ उनके गुन होय, वेद क्यों नेति बखानै।। निरगुन सगुन आतमा रुचि ऊपर सुख सानै।।” “जो उनके गुन नाहिं और गुन भए कहाँ ते। बीज बिना तरु जमै मोहिं तुम कहो कहाँ ते।। ◆कृष्णदास ” तरनि तनया तट आवत है प्रात समय, कंचन मनि मरकत रस ओपी। ◆परमानंददास “कहा करै बैकुंठी
जाय? “राधे जू हारावलि टूटी। ◆ कुंभनदास “संतन को कहा सीकरी सों काम? ” तुम
नीके दुहे जानत गैया। ◆चतुर्भुजदास “जसोदा!कहा कहौं हौ बात? ◆छीतस्वामी “भोर भए नवकुंज सदन तें, आवत लाल गोवर्धनधारी, ◆ गोविंदस्वामी ●ये गोवर्धन पर्वत पर रहते थे और उसके पास ही इन्होंने कदंबों का एक अच्छा उपवन लगाया था जो अब तक ‘गोविंदस्वामी की कदंबखंडी’ कहलाता है। ” प्रातः समय उठी जसुमति जननी गिरधर सुत को उबटिन्हवावति।” ◆ हितहरिवंश ●हितहरिवंश जी के चार पुत्र और एक कन्या हुई। पुत्रों के नाम वनचंद्र, कृष्णचंद्र, गोपीनाथ और मोहनलाल थे। गोसाईं जी ने संवत् 1582 में श्री राधाबल्लभ जी की मूर्ति वृंदावन में स्थापित की और वहीं विरक्त भाव से रहने लगे (ये संस्कृत के अच्छे विद्वान् और भाषा काव्य के अच्छे मर्मज्ञ थे)170 श्लोकों का ‘राधासुधानिधि’ आप ही का रचा कहा जाता है। ब्रजभाषा की रचना आपकी यद्यपि बहुत विस्तृत नहीं है, तथापि है बड़ी सरस और हृदयग्राहिणी। आपके पदों का संग्रह ‘हित चौरासी’ के नाम से प्रसिद्ध है क्योंकि उसमें 84 पद हैं। प्रेमदास की लिखी इस ग्रंथ की एक बहुत बड़ी टीका (500 पृष्ठों की) ब्रजभाषा गद्य में है। ●सेवकजी, ध्रुवदास आदि इनके शिष्य बड़ी सुंदर रचना कर गये हैं। ●अपनी रचना की मधुरता के कारण हितहरिवंश जी श्रीकृष्ण की वंशी के अवतार कहे जाते
हैं। ●वृंदावन ने इनकी स्तुति और वंदना में ‘हित जी की सहस्रनामावली) और चतुर्भुजदास ने ‘हितजू को मंगल’ लिखा है “रहो कोउ काहू मनहि दिए। “बिपिन घन कुंज रति केलि भुज केलि रुचि, ◆गदाधर भट्ट ” भागवत सुधा बरखै बदन,काहू को नाहिन दुखद। ●महाप्रभु के जिन छह विद्वान् शिष्यों ने गौड़ीय संप्रदाय के पन्न संस्कृत गन्थों की रचना की थी उनमें जीव गोस्वामी भी थे। ये वृन्दावन में रहते थे।एक दिन दो साधुओं ने जीव गोस्वामी के सामने गदाधर भट्ट जी का यह पद सुनाया- “सखी हौ स्याम रंग रँगी। ●इस पद को सुन जीव गोस्वामी ने भट्ट जी के पास यह श्लोक लिख भेजा- अनाराध्य राधापदाम्भोजयुग्ममाश्रित्य वृन्दाटवीं तत्पदाङ्कम्अ। सम्भाष्य तद्भावगम्भीरचित्तान कुतःश्यामासिन्धोः रहस्यावगाहः।। ●यह श्लोक पढ़कर भट्ट जी मूर्छित हो गये फिर सुध आने पर सीधे वृंदावन में जाकर चैतन्य महाप्रभु के शिष्य हुए। संस्कृत के चूड़ांत पंडित होने के कारण शब्दों पर इनका बहुत विस्तृत अधिकार था। इनका पदविन्यास बहुत ही सुंदर है। गोस्वामी तूलसीदास जी के समान इन्होंने संस्कृत पदों के अतिरिक्त संस्कृतगर्भित भाषा कविता भी की है। नीचे कुछ उदाहरण दिये जाते हैं- जयति श्री राधिके, सकल सुख साधिके, ◆मीराबाई “स्वस्ति श्री तुलसी कुल भूषण दूषन हरन गोसाईं। ●इस पर गोस्वामी जी ने विनयपत्रिका का यह पद लिखकर भेजा- “जाके प्रिय न राम बैदेही। ● मीराबाई की उपासना ‘माधुर्य भाव’ की थी अर्थात वे अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रूप में करती थी। पहले यह कहा जा चुका है कि इस भाव की उपासना में रहस्य का समावेश अनिवार्य है। ” बसो मेरे नैनन में नंदलाल। मन रे परसि हरि के चरन। ◆स्वामी हरिदास ◆सूरदास मनमोहन ” मधु के मतवारे स्याम ।खोलौ प्यारे पलकै। ◆श्रीभट्ट “भीजत कब देखौं इन नैना। ◆व्यास जी ◆रसखान “मानुष हों तो वही रसखान बसौ सँग गोकुल गांव के ग्वारन।” “जेहि बिनु जाने कछुहि नहि जान्यो जात बिसेस। ◆ध्रुवदास “रूपजल उठत तरंग हैं कटाछन के, “प्रेम बात कछु कहि नहि जाई उलटि चाल तहाँ सब भाई।” प्रकरण-6(सगुणधारा)
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